MAHAVIR

Mahaveer Vani 08

Eighth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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धम्म-सूत्र: तप-
धम्मो मंगलमुक्किट्‌ठं,
अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया मणो।।
धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। (कौन सा धर्म?) अहिंसा, संयम और तप। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
अहिंसा है आत्मा, संयम है प्राण, तप है शरीर। स्वभावतः अहिंसा के संबंध में भूलें हुई हैं, गलत व्याख्याएं हुई हैं। लेकिन वे भूलें और व्याख्याएं अपरिचय की भूलें हैं। संयम के संबंध में भी भूलें हुई हैं, गलत व्याख्याएं हुई हैं, लेकिन वे भूलें भी अपरिचय की ही भूलें हैं। और ज्यादा भूलें होनी कठिन हैं। जिससे हम अपरिचित हों, उसकी गलत व्याख्या करनी भी कठिन होती है। गलत व्याख्या के लिए भी परिचय जरूरी है। और हमारा सर्वाधिक परिचय तप से है, क्योंकि वह सबसे बाह्य रूप-रेखा है। वह शरीर है।
तप के संबंध में सर्वाधिक भूलें हुई हैं, और सर्वाधिक गलत व्याख्याएं हुई हैं। और उन गलत व्याख्याओं से जितना अहित हुआ है, उतना किसी और चीज से नहीं। एक फर्क है कि तप के संबंध में जो गलत व्याख्याएं हुई हैं, वे हमारे परिचय की भूलें हैं। तप से हम परिचित हैं और तप से हम परिचित आसानी से हो जाते हैं। असल में तप तक जाने के लिए हमें अपने को बदलना ही नहीं पड़ता। हम जैसे हैं, तप में हम वैसे ही प्रवेश कर जाते हैं। चूंकि तप द्वार है, और इसलिए हम जैसे हैं वैसे ही अगर तप में चले जाएं तो तप हमें नहीं बदल पाता, हम तप को बदल डालते हैं।
तो तप की पहले तो गलत व्याख्या जो निरंतर होती है, वह हमें समझ लेनी चाहिए, तो हम ठीक व्याख्या की तरफ कदम उठा सकते हैं। हम भोग से परिचित हैं--भोग यानी सुख की आकांक्षा से। सभी सुख की आकांक्षाएं दुख में ले जाती हैं। सभी सुख की आकांक्षाएं अंततः दुख में छोड़ जाती हैं--उदास, खिन्न, उजड़े हुए। इससे स्वभावतः एक भूल पैदा होती है। और वह यह कि यदि हम सुख की मांग करके दुख में पहुंच जाते हैं तो क्या दुख की मांग करके सुख में नहीं पहुंच सकते? यदि सुख की आकांक्षा करते हैं और दुख मिलता है, तो क्यों न हम दुख की आकांक्षा करें और सुख को पा लें! इसलिए तप की जो पहली भूल है वह भोगी चित्त से निकलती है। भोगी चित्त का अनुभव यही है कि सुख दुख में ले जाता है। विपरीत हम करें तो हम सुख में पहुंच सकते हैं। तो सभी अपने को सुख देने की कोशिश करते हैं, हम अपने को दुख देने की कोशिश करें। यदि सुख की कोशिश दुख लाती है तो दुख की कोशिश सुख ला सकेगी, ऐसा सीधा गणित मालूम पड़ता है। लेकिन जिंदगी इतनी सीधी नहीं है। और जिंदगी का गणित इतना साफ नहीं है। जिंदगी बहुत उलझाव है। उसके रास्ते इतने सीधे होते तो सभी कुछ हल हो जाता।
सुना है मैंने कि रूस के एक बड़े मनोवैज्ञानिक पावलफ के पास--जिसने ‘कंडीशंड रिफ्लेक्स’ के सिद्धांत को जन्म दिया, जिसने कहा कि अनुभव संयुक्त हो जाते हैं--एक बूढ़े आदमी को लाया गया जो कि शराब पीने की आदत से इतना परेशान हो गया है कि चिकित्सक कहते हैं कि उसके खून में शराब फैल गई है। उसका जीना मुश्किल है, अब बचना मुश्किल है अगर शराब बंद न कर दी जाए। लेकिन वह कोई तीस साल से शराब पी रहा है। इतना लंबा अभ्यास है। चिकित्सक डरते हैं कि अगर तोड़ा जाए तो भी मौत हो सकती है। तो पावलफ के पास लाया गया है। पावलफ ने अपने एक निष्णात शिष्य को सौंपा और कहा कि इस व्यक्ति को शराब पिलाओ और जब यह शराब की प्याली हाथ में ले, तभी इसे बिजली का शॉक दो। ऐसा निरंतर करने से शराब पीना और बिजली का धक्का और पीड़ा संयुक्त हो जाएगी। शराब पीड़ा-युक्त हो जाएगी, कंडीशंड हो जाएगी। पीड़ा को कोई भी नहीं चाहता है। पीड़ा को छोड़ना शराब को छोड़ना बन जाएगा। और एक बार यह भाव मन में बैठ जाए गहरे कि शराब पीड़ा देती है, दुख लाती है, तो शराब को छोड़ना कठिन नहीं होगा।
एक महीना प्रयोग जारी रखा गया। एक महीना पावलफ की प्रयोगशाला में वह आदमी रुका था। वह दिन भर शराब पीता था, जब भी वह शराब का प्याला हाथ में लेता, तभी उसकी कुर्सी उसको शाक देती। वह सामने बैठा हुआ मनोवैज्ञानिक बटन दबाता रहता। कभी उसका हाथ छलक जाता, कभी हाथ से प्याली गिर जाती।
महीने भर बाद पावलफ ने अपने युवक शिष्य को बुला कर पूछा: कुछ हुआ? युवक शिष्य ने कहा: हुआ बहुत कुछ। पावलफ खुश हुआ। उसने कहा: मैंने कहा ही था कि निश्र्चित ही कंडीशनिंग से सब-कुछ हो जाता है। पर उसके शिष्य ने कहा: ज्यादा खुश न हों, क्योंकि करीब-करीब उलटा हुआ।
पावलफ ने कहा: उलटा! क्या अर्थ है तुम्हारा?
युवक ने कहा: ऐसा हो गया है, वह इतना कंडीशंड हो गया है कि अब शराब पीता है तो पहले जो भी पास में सॉकेट होता है उसमें अंगुली डाल लेता है। कंडीशंड हो गया। लेकिन अब बिना शॉक के शराब नहीं पी सकता है। शराब तो नहीं छूटी, शॉक पकड़ गया। अब कृपा करके, शराब छूटे या न छूटे, शॉक छुड़वाइए। क्योंकि शराब जब मारेगी, मारेगी; यह शॉक का धंधा खतरनाक है, यह अभी भी मार सकता है। अब वह पी ही नहीं सकता है। इधर एक हाथ में प्याली लेता है, दूसरा हाथ साकेट में डालता है।
जिंदगी इतनी उलझी हुई है। जिंदगी इतनी आसान नहीं है। तो एक तो जिंदगी का गणित साफ नहीं है कि जैसा आप सोचते हैं वैसा हो जाएगा। दुख की आकांक्षा सुख नहीं ले आएगी। क्यों? क्योंकि अगर हम गहरे में देखें तो पहली तो बात यह है कि आपने सुख की आकांक्षा की, दुख पाया। अब आप सोचते हैं दुख की आकांक्षा करें तो सुख मिलेगा। लेकिन गहरे में देखें तो अभी भी आप सुख की ही आकांक्षा कर रहे हैं। दुख चाहें तो सुख मिलेगा इसलिए दुख चाह रहे हैं। आकांक्षा सुख की ही है। और सुख की कोई आकांक्षा सुख नहीं ला सकती। ऊपर से दिखाई पड़ता है कि आदमी अपने को दुख दे रहा है, लेकिन वह दुख इसीलिए दे रहा है कि सुख मिले। पहले सुख दे रहा था ताकि सुख मिले, दुख पाया। अब दुख दे रहा है ताकि सुख मिले, दुख ही पाएगा। क्योंकि आकांक्षा का सूत्र तो अब भी गहरे में वही है। ऊपर सब बदल गया, भीतर आदमी वही है।
सच बात यह है दुख चाहा ही नहीं जा सकता। यू कैन नॉट डिजायर इट। इंपासिबल है, असंभव है। अगर हम ऐसा कहें कि सुख ही चाह है और दुख की तो अचाह ही होती है, चाह नहीं होती। हां, अगर कभी कोई दुख चाहता है तो सुख के लिए ही, लेकिन वह चाह सुख की ही है। दुख चाहा ही नहीं जा सकता। यह असंभव है। तब हम ऐसा कह सकते हैं, जो भी चाहा जाता है वह सुख है, और जो नहीं चाहा जाता है, वह दुख है। इसलिए दुख के साथ चाह को नहीं जोड़ा जा सकता। और जो भी आदमी दुख के साथ चाह को जोड़ कर तप बनाता है, दुख + चाह = तप--ऐसी हमारी व्याख्या है--जो भी आदमी दुख के साथ चाह को जोड़ता है और तप बनाता है--वह तप को समझ ही नहीं पाएगा। दुख की तो चाह ही नहीं हो सकती। सुख ही पीछे दौड़ता है। आकांक्षा मात्र सुख की है। चाह मात्र सुख की है। हां, एक ही रास्ता है कि आपको दुख में भी सुख मालूम पड़ने लगे तो आप दुख को चाह सकते हैं। दुख में भी सुख मालूम पड़ सकता है। इसलिए दूसरी गलत व्याख्या समझ लें। दुख में भी सुख मालूम पड़ सकता है, एसोसिएशन से, कंडीशनिंग से। जो मैंने पावलफ की बात आपको कही, उसी ढंग से, आपको दुख में भी सुख का भ्रम हो सकता है।
यूरोप में ईसाई फकीरों का एक संप्रदाय था--कोड़ा मारने वाला स्वयं को, फ्लैगेलैंट। उस संप्रदाय की मान्यता थी कि जब भी कामवासना उठे तो अपने को कोड़े मारो। लेकिन बड़ी हैरानी का अनुभव हुआ। जो लोग जानते हैं, उन्हें पता है या जिन्होंने वह प्रयोग किया, उनको धीरे-धीरे अनुभव आया कि जब भी कामवासना उठे तो अपने को कोड़े मारो--तो आशा यह थी कि कोड़े खाकर कामवासना छूट जाए, लेकिन धीरे-धीरे कोड़े मारने वालों को पता चला कि कोड़े मारने में कामवासना का ही मजा आने लगा। और यहां तक हालत हो गई कि जिन लोगों ने कोड़े मारने का अभ्यास किया कामवासना के लिए, फिर वे संभोग में अपने को बिना कोड़े मारे नहीं जा सकते थे। पहले वे कोड़े मारेंगे, फिर संभोग में जा सकेंगे। जब तक कोड़े न पड़ें शरीर पर, तब तक कामवासना पूरे रसमग्न होकर उठेगी नहीं। ऐसा आदमी के मन का जाल है।
तो अब वह आदमी अपने को रोज सुबह कोड़े मार रहा है और पास-पड़ोस के लोग उसको नमस्कार करेंगे कि कितना महान त्यागी है। क्योंकि यह जो कोड़े मारने वाला संप्रदाय था, इसके लाखों लोग थे मध्ययुग में, पूरे यूरोप में। और साधु की पहचान ही यह थी कि वह कितने कोड़े मारता है। जो जितने कोड़े मारता था वह उतना बड़ा साधु था। तो सुबह खड़े होकर चौराहों पर साधु अपने को कोड़े मारते थे। लहूलुहान हो जाते थे। लोग चकित होते थे कि कितनी बड़ी तपश्र्चर्या है। क्योंकि जब उनके शरीर से लहू बहता था तो उनके चेहरे पर ऐसा मग्न भाव होता था जो कि केवल संभोगरत जोड़ों में देखा जाता है। लोग चरण छूते थे कि अदभुत है यह आदमी। लेकिन भीतर क्या घटित हो रहा है, वह उन्हें पता नहीं है। भीतर वह आदमी पूरी कामवासना में उतर गया है। अब उसे कोड़े मारने में रस आ रहा है। क्योंकि कोड़ा मारना कामवासना से संयुक्त हो गया। यह वही हुआ जो पावलफ के प्रयोग में हुआ।
और हम अपने दुख में सुख की कोई आभा संयुक्त कर सकते हैं। और अगर दुख में सुख की आभा संयुक्त हो जाए तो हम दुख को बड़े मजे से अपने आस-पास इकट्ठा कर ले सकते हैं। लेकिन, तप का यह अर्थ नहीं है। तप दुखवादी की दृष्टि नहीं है। यह दुखवाद गहरे में तो सुख ही है। तप के आस-पास यह जो जाल खड़ा है, अगर यह आपको दिखाई पड़ना शुरू हो जाए तो तपस्वियों की पर्त को तोड़ कर आप उनके भीतर देख पाएंगे कि उनका रस क्या है! और एक बार आपको दिखाई पड़ना शुरू हो जाए तो आप समझ पाएंगे कि जब भी कुछ चाहा जाता है तो सुख चाहा जाता है। अगर कोई दुख को चाह रहा है तो किसी न किसी कोने में उसके मन में सुख और दुख संयुक्त हो गए हैं। इसके अतिरिक्त दुख को कोई नहीं चाह सकता है। भूखे मरने में भी मजा आ सकता है, कांटे पर लेटने में भी मजा आ सकता है, धूप में खड़े होने में भी मजा आ सकता है--एक बार आपके भीतर की किसी वासना से कोई दुख संयुक्त हो जाए। और आदमी अपने को दुख इसलिए देता है कि वह किसी वासना से मुक्त होना चाहता है। जिस वासना से मुक्त होना चाहता है, दुख उसी से संयुक्त हो जाता है।
एक आदमी को अपने शरीर को सजाने में बड़ा सुख है। वह शरीर से मुक्त हो जाना चाहता है, शरीर की सजावट की इस कामना से मुक्त हो जाना चाहता है। वह नंगा खड़ा हो जाता है या अपने शरीर पर राख लपेट लेता है, या अपने शरीर को कुरूप कर लेता है। लेकिन उसे पता नहीं है कि राख लपेटना भी, यह नग्न हो जाना भी, यह शरीर को कुरूप कर लेना भी शरीर से ही संबंधित है। यह भी सजावट है। सजावट दिखाई नहीं पड़ती, यह भी सजावट है। आपको पता है, अगर आप कभी कुंभ गए हैं, तो एक बात देख कर बहुत चकित होंगे कि जो साधु राख लपेटे बैठे रहते हैं, वे भी एक छोटा आईना अपने डिब्बे में रखते हैं और सुबह स्नान करने के बाद जब वे राख लपेटते हैं, तो आईने में देखते जाते हैं। आदमी अदभुत है। राख ही लपेट रहे हैं तो आईने का क्या प्रयोजन रह गया! लेकिन राख लपेटना भी सजावट है, श्रृंगार है। शरीर को कुरूप करने वाला भी आईने में देखेगा कि हो गया ठीक से कि नहीं!
उलटा दिखाई पड़ता है, उलटा है नहीं। तपस्वी शरीर का दुश्मन नहीं हो जाता, जैसा कि भोगी शरीर का लोलुप मित्र है। तपस्वी भोगी के विपरीत नहीं हो जाता क्योंकि विपरीत से भी भोग संयुक्त हो जाता है। विपरीत से भी भोग संयुक्त हो जाता है। शरीर को सुंदर बनाने वाले के लिए ही आईने की जरूरत नहीं होती, शरीर को कुरूप बनाने वाले के लिए भी आईने की जरूरत पड़ जाती है। शरीर को सुंदर बनाने वाला ही दूसरों की दृष्टि पर निर्भर नहीं रहता है कि कोई मुझे देखे, शरीर को कुरूप बनाने वाला भी दूसरों की दृष्टि पर ही निर्भर रहता है कि कोई मुझे देखे। सुंदर वस्त्र पहन कर रास्ते पर निकलने वाला ही देखने वाले की प्रतीक्षा नहीं करता है, नग्न होकर निकलने वाला भी उतनी ही प्रतीक्षा करता है। विपरीत भी कहीं एक ही रोग की शाखाएं हो सकते हैं, यह समझ लेना जरूरी है। आसान है लेकिन यही--शरीर के भोग से शरीर के तप पर जाना आसान है। शरीर को सुख देने की आकांक्षा का शरीर को दुख देने की आकांक्षा में बदल जाना बड़ा सुगम और सरल है।
एक और बात ध्यान में ले लेनी जरूरी है। जिस माध्यम से हम सुख चाहते हैं, अगर वह माध्यम हमें सुख न दे पाए तो हम उसके दुश्मन हो जाते हैं। अगर आप कलम से लिख रहे हैं--सभी को अनुभव होगा जो लिखते-पढ़ते हैं--अगर कलम ठीक न चले तो आप कलम को गाली देकर जमीन पर पटक कर तोड़ भी सकते हैं। अब कलम को गाली देना एकदम नासमझी है। इससे ज्यादा नासमझी और क्या होगी! और कलम को तोड़ देने से कलम का कुछ भी नहीं टूटता, आपका ही कुछ टूटता है। कलम का कोई नुकसान नहीं होता, आपका ही नुकसान होता है। लेकिन जूतों को गाली देकर पटक देने वाले लोग हैं, दरवाजों को गाली देकर खोल देने वाले लोग हैं। ये ही लोग तपस्वी बन जाते हैं। शरीर सुख नहीं दे पाया, यह अनुभव शरीर को तोड़ने की दिशा में ले जाता है--तो शरीर को सताओ। लेकिन शरीर को सताने के पीछे वही फ्रस्ट्रेशन, वही विषाद काम कर रहा है कि शरीर से सुख चाहा था और नहीं मिला तो अब जिस माध्यम से सुख चाहा था उसको दुख देकर बताएंगे।
लेकिन आप बदले नहीं, अभी भी। अभी भी आपकी दृष्टि शरीर पर लगी है, चाहे सुख चाहा हो, और चाहे अब दुख देना चाहते हों, पर आपके चित्त की जो दिशा है वह अभी भी शरीर के ही आस-पास वर्तुल बना कर घूमती है। आपकी चेतना अभी भी शरीर केंद्रित है। अभी भी शरीर भूलता नहीं। अभी भी शरीर अपनी जगह खड़ा है और आप वही के वही हैं। आपके और शरीर के बीच का संबंध वही का वही है। ध्यान रखें, भोगी और तथाकथित तपस्वी के बीच शरीर के संबंध में कोई अंतर नहीं पड़ता। शरीर के साथ संबंध वही रहता है।
क्या आप सोच सकते हैं, अगर हम भोगी से कहें कि तुम्हारा शरीर छीन लिया जाए तो तुम्हें कठिनाई होगी? भोगी कहेगा: कठिनाई! मैं बरबाद हो जाऊंगा, क्योंकि शरीर ही तो मेरे भोग का माध्यम है। अगर हम तपस्वी से कहें कि तुम्हारा शरीर छीन लिया जाए, तुम्हें कोई कठिनाई होगी? वह भी कहेगा: मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा। क्योंकि मेरी तपश्र्चर्या का साधन तो शरीर ही है। कर तो मैं शरीर के साथ ही कुछ रहा हूं। अगर शरीर ही न रहा तो तप कैसे होगा? अगर शरीर न रहा तो भोग कैसे होगा? इसलिए मैं कहता हूं, दोनों की दृष्टि शरीर पर है और दोनों शरीर के माध्यम से जी रहे हैं। जो तप शरीर के माध्यम से जी रहा है वह भोग का ही विकृत रूप है। जो तप शरीर-केंद्रित है, वह भोग का ही दूसरा नाम है। वह विषाद को उपलब्ध हो गए भोग की प्रतिक्रिया है। वह विषाद को उपलब्ध हो गए भोग की शरीर के साथ बदला लेने की, रिवेंज लेने की आकांक्षा है।
इसे समझें तो फिर हम ठीक तप की दिशा में आंखें उठा सकेंगे। यह इन कारणों से तप जो है, आत्महिंसा बन गया है। अपने को जो जितना सता सकता है उतना बड़ा तपस्वी हो सकता है। लेकिन सताने से तप का कोई संबंध है? टार्चर, पीड़न, आत्म-पीड़न, उससे तप का कोई संबंध है? और ध्यान रखें, जो अपने को सता सकता है वह दूसरे को सताने से बच नहीं सकता। क्योंकि जो अपने को तक सता सकता है, वह किसी को भी सता सकता है। हां, उसके सताने के ढंग बदल जाएंगे। निश्चित ही भोगी का सताने का ढंग सीधा होता है। त्यागी के सताने का ढंग परोक्ष हो जाता है, इनडायरेक्ट हो जाता है। अगर भोगी को आपको सताना है तो आप पर सीधा हमला बोलता है। त्यागी को आपको सताना है तो बहुत पीछे से हमला बोलता है। लेकिन आपके खयाल में नहीं आता कि वह हमला बोल रहा है। अगर आप त्यागी के पास जाएं--तथाकथित त्यागी के पास, सो-काल्ड, जो आस्टेरिटी है, तपश्र्चर्या है--उसके पास आप जाएं; अगर आपने अच्छे कपड़े पहन रखे हैं और आपका त्यागी भभूत रमाए बैठा है तो आपके कपड़ों को ऐसे देखेगा जैसे दुश्मन देखता है। उसकी आंख में निंदा होगी, आप कीड़े-मकोड़े मालूम पड़ेंगे। ऐसे कपड़े पहने हो! उसकी आंखों में इशारा होगा नरक का, तीर बना होगा नरक की तरफ कि गए नरक। वह आपको कहेगा: अभी तक सम्हले नहीं! अभी तक इन कपड़ों से उलझे हो, नरक में भटकोगे।
मैंने सुना है कि एक पादरी एक चर्च में लोगों को समझा रहा था, डरा रहा था नरक के बाबत कि कैसी-कैसी मुसीबतें होंगी। और जब कयामत का दिन आएगा कि इतनी भयंकर सर्दी पड़ेगी पापियों के ऊपर कि दांत खड़खड़ाएंगे। मुल्ला नसरुद्दीन भी उस सभा में था, वह खड़ा हो गया। उसने कहा: लेकिन मेरे दांत टूट गए हैं!
उस फकीर ने कहा: घबड़ाओ मत, फॉल्स टीथ विल बी प्रोवाइडेड। नकली दांत दे दिए जाएंगे, लेकिन खड़खड़ाएंगे।
सभी तथाकथित तपस्वी आपको नरक भेजने की योजना में लगे हैं। उनका चित्त आपके लिए नरक के सारे इंतजाम कर रहा है। सच तो यह है कि नरक में कष्ट देने का जो इंतजाम है, वह तथाकथित झूठे तपस्वी की कल्पना है, फैंटेसी है। वह तथाकथित तपस्वी यह सोच ही नहीं सकता कि आपको भी सुख मिल सकता है! आप यहां काफी सुख ले रहे हैं। वह जानता है कि यह सुख है। वह यहां काफी दुख ले रहा है। कहीं तो बैलेंस करना पड़ेगा, कहीं संतुलन करना पड़ेगा। उसने यहां काफी दुख झेल लिया है। वह स्वर्ग में सुख झेलेगा। आप यहां सुख भोग रहे हैं। आप नरक में सड़ेंगे और दुख भोगेंगे।
और बड़े मजे की बात है कि उसके स्वर्ग के सुख आपके ही सुखों का मैग्नीफाइड रूप हैं। आप जो सुख यहां भोग रहे हैं, वही सुख और विस्तीर्ण होकर, बड़े होकर वह स्वर्ग में भोगेगा, और जो दुख वह यहां भोग रहा है... और यह मजे की बात है कि तपस्वी अपने आस-पास आग जला कर बैठते रहे हैं... आपको नरक में आग में सड़ाएंगे वे। जो तपस्वी अपने आस-पास आग जलाएगा उससे सावधान रहना, उसके नरक में आग आपके लिए तैयार रहेगी। भयंकर आग होगी जिससे आप बच न सकेंगे। कड़ाहों में डाले जाएंगे, चुड़ाए जाएंगे और मर भी न सकेंगे क्योंकि मर गए तो मजा ही खत्म हो जाएगा। अगर मारा और मर गए तो दुख कौन झेलेगा? इसलिए नरक में मरने का उपाय नहीं है। ध्यान रखना, नरक में तपस्वियों ने आत्महत्या की सुविधा नहीं दी है। आप मर नहीं सकते नरक में, आप कुछ भी करें। और कुछ भी करें, एक काम नरक में नहीं होता, कि आप मर नहीं सकते। क्योंकि अगर आप मर सकते हैं तो दुख के बाहर हो सकते हैं। इसलिए वह सुविधा नहीं दी है।
किसकी कल्पना से निकलता है यह सारा खयाल? यह कौन सोचता है, ये सारी बातें? सच में जो तपस्वी है वह तो सोच भी नहीं सकता, किसी के लिए दुख का कोई भी खयाल नहीं सोच सकता। वह सोच ही नहीं सकता दुख का कोई खयाल कि किसी को कोई दुख हो--कहीं भी, नरक में भी। लेकिन जो तथाकथित तपस्वी है वह बहुत रस लेता है। अगर आप शास्त्रों को पढ़ें--सारे दुनिया के धर्मों के शास्त्रों को, तो एक बहुत अदभुत घटना आपको दिखाई पड़ेगी। तपस्वियों ने जो-जो लिखा है--तथाकथित तपस्वियों ने--उसमें वे नरकों की जो-जो विवेचना और चित्रण करते हैं, वह बहुत परवर्टेड इमैजिनेशन मालूम पड़ती है, बहुत विकृत हो गई कल्पना मालूम पड़ती है। ऐसा वे सोच पाते हैं, ऐसा वे कल्पना कर पाते हैं--यह उनके बाबत बड़ी खबर लाती है।
दूसरी एक बात दिखाई पड़ेगी कि तपस्वी, आप जो-जो सुख भोगते हैं उनकी बड़ी निंदा करते हैं, पर निंदा में बड़ा रस लेते हैं। वह रस बहुत प्रकट है। यह बहुत मजे की बात है कि वात्स्यायन ने अपने काम-सूत्रों में स्त्री के अंगों का ऐसा सुंदर चित्रण नहीं किया है--इतना रसमुग्ध--जितना तपस्वियों ने स्त्री के अंगों की निंदा करने के लिए अपने शास्त्रों में किया है। वात्स्यायन के पास इतना रस हो भी नहीं सकता था। क्योंकि उतना रस पैदा करने के लिए विपरीत जाना जरूरी है। इसलिए मजे की बात है कि भोगियों के आस-पास कभी नग्न अप्सराएं आकर नहीं नाचतीं, वे सिर्फ तपस्वियों के आस-पास आकर नाचती हैं। तपस्वी सोचते हैं कि उनका तप भ्रष्ट करने के लिए वे आ रही हैं। लेकिन जिसको भी मनोविज्ञान का थोड़ा सा बोध है, वह जानता है--कहीं इस जगत में अप्सराओं का कोई इंतजाम नहीं है तपस्वियों को भ्रष्ट करने के लिए। अस्तित्व तपस्वियों को भ्रष्ट क्यों करना चाहेगा? कोई कारण नहीं है। अगर परमात्मा है, तो परमात्मा भी तपस्वियों को भ्रष्ट करने में क्यों रस लेगा? और ये अप्सराएं शाश्र्वत रूप से एक ही धंधा करेंगी, तपस्वियों को भ्रष्ट करने का? इनके लिए और कोई काम, इनके जीवन का अपना कोई रस नहीं है?
नहीं, मनस्विद कहते हैं कि तपस्वी इतना लड़ता है जिस रस से, वही रस प्रगाढ़ होकर प्रकट होना शुरू हो जाता है। और तपस्वी काम से लड़ रहा है तो आस-पास कामवासना रूप लेकर खड़ी हो जाती है, वह उसे घेर लेती है। वह जिससे लड़ रहा है उसी को प्रोजेक्ट, उसी का प्रक्षेपण कर लेता है। वे अप्सराएं किसी स्वर्ग से नहीं उतरतीं, वे तपस्वी के संघर्षरत मन से उतरती हैं। वे अप्सराएं उसके मन में जो छिपा है, उसे बाहर प्रकट करती हैं। वह जो चाहता है और जिससे बच रहा है, वे अप्सराएं उसका ही साकार रूप हैं। वह जो मांगता भी है, और जिससे लड़ता भी है, वह जिसे बुलाता भी है और जिसे हटाता भी है, वे अप्सराएं केवल उसके उसी विकृत चित्त की तृप्ति हैं। वे उसे भ्रष्ट करने कहीं और से नहीं आतीं, उसके ही दमित चित्त से पैदा होती हैं।
तप विकृत हो तो दमन होता है। और दमन आदमी को रुग्ण करता है, स्वस्थ नहीं। इसलिए मैं कहता हूं: महावीर के तप में दमन का कोई भी कारण नहीं है। और अगर महावीर ने कहीं ‘दमन’ जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया है, तो मैं आपको कह दूं, पच्चीस सौ साल पहले दमन का अर्थ बहुत दूसरा था। वह अब नहीं है। दम का अर्थ था शांत हो जाना। दम का अर्थ दबा देना नहीं था, महावीर के वक्त में। दम का अर्थ था शांत हो जाना। शांत कर देना भी नहीं, शांत हो जाना। भाषा रोज बदलती रहती है, शब्दों के अर्थ रोज बदलते रहते हैं। इसलिए अगर कहीं महावीर की वाणी में दमन शब्द मिल भी जाए तो आप ध्यान रखना, उसका अर्थ सप्रेशन नहीं है। उसका अर्थ दबाना नहीं है। उसका अर्थ शांत हो जाना है। जिस चीज से आपको दुख उपलब्ध हुआ है, उसके विपरीत चले जाने से दमन पैदा होता है। जिस चीज से आपको दुख उपलब्ध हुआ है, उसकी समझ में प्रतिष्ठित हो जाने से शांति उपलब्ध होती है। इस फर्क को ठीक से समझ लें।
कामवासना ने मुझे दुख दिया, तो मैं कामवासना के विपरीत चला जाऊं और लड़ने लगूं कामवासना से, तो दमन होगा। कामवासना ने मुझे दुख दिया, यह बात--मेरी समझ, मेरी प्रज्ञा में इस भांति प्रविष्ट हो जाए कि कामवासना तो शांत हो जाए और कामवासना के विपरीत मेरे मन में कुछ भी न उठे। क्योंकि जब तक विपरीत उठता है तब तक शांत नहीं हुआ। विपरीत उठता ही इसीलिए है।
एक मित्र की पत्नी मुझे कहती थी कि मेरा पति से कोई भी प्रेम नहीं रह गया, लेकिन कलह जारी है। मैंने कहा: अगर प्रेम बिलकुल न रह गया हो, तो कलह जारी नहीं रह सकती। कलह के लिए भी प्रेम चाहिए। थोड़ा-बहुत होगा। मैंने उससे कहा कि थोड़ा-बहुत जरूर होगा। और कलह अगर बहुत चल रही है तो बहुत ज्यादा होगा।
उसने कहा: आप कैसी उलटी बात करते हैं? मैं डायवोर्स के लिए सोचती हूं, कि तलाक दे दूं।
मैंने कहा: हम तलाक उसी को देने के लिए सोचते हैं, जिससे हमारा कुछ बंधन होता है। जिससे बंधन ही नहीं होता उसको तलाक भी क्या देंगे। बात ही खत्म हो जाती है, तलाक हो जाता है।
यह दो वर्ष पहले की बात है।
फिर अभी एक दिन मैंने उससे पूछा कि क्या खबर है? उसने कहा: आप शायद ठीक कहते थे। अब तो कलह भी नहीं होती। आप शायद ठीक कहते थे, उस वक्त मेरी समझ में नहीं आया। अब तो कलह भी नहीं होती।
‘तलाक के बाबत क्या खयाल है?’
उसने कहा: क्या लेना, क्या देना। बात ही शांत हो गई है। दोनों के बीच संबंध ही नहीं रह गया है। संबंध हो तो तोड़ा जा सकता है। संबंध ही न रह जाए तो क्या तोड़िएगा?
अगर आप किसी वासना से लड़ रहे हैं तो आपका उस वासना में रस अभी कायम है। जिंदगी ऐसी उलझी हुई है।
इसलिए फ्रायड ने तो जीवन भर के पचास साल के अनुभव के बाद कहा और शायद यह आदमी अकेला था पृथ्वी पर जो मनुष्यों के संबंध में इस भांति गहरा उतरा--इस आदमी ने कहा कि जहां तक प्रेम है वहां तक कलह जारी रहेगी। अगर कलह से मुक्त होना है तो प्रेम से मुक्त होना पड़ेगा। अगर पति पत्नी में प्रेम है, तो प्रेम का तो हमें पता नहीं चलता क्योंकि प्रेम उनका एकांत में प्रकट होता होगा। लेकिन कलह का हमें पता चलता है क्योंकि कलह तो प्रकट में भी प्रकट हो जाती है। अब कलह के लिए एकांत तो नहीं खोजा जा सकता। कलह ऐसी चीज भी नहीं है कि उसके लिए कोई एकांत का कष्ट उठाए। पर फ्रायड कहता है: अगर प्रकट में कलह जारी है तो हम मान सकते हैं, अप्रकट में प्रेम जारी होगा। दिन में जो पति-पत्नी लड़े हैं, रात वे प्रेम में पड़ेंगे। पूर्ति करनी पड़ती है, बैलेंस करना पड़ता है, संतुलन करना पड़ता है।
जिस दिन लड़ाई होती है उस दिन घर में कोई भेंट भी लाई जाती है। अगर पति लड़ कर बाजार गया है तो लौट कर कुछ पत्नी के लिए लेकर आएगा। अगर पति घर की तरफ फूल लिए आता हो तो यह मत समझ लेना कि पत्नी का जन्मदिन है। समझना कि आज सुबह उपद्रव ज्यादा हुआ है। यह बैलेंसिंग है, अब वह उसको संतुलन करेगा। इसलिए फ्रायड तो कहता है कि मैं कामवासना को एक कलह मानता हूं। इसलिए फ्रायड सेक्स और वार को जोड़ता है। वह कहता है, युद्ध और काम एक ही चीज के रूप हैं और जब तक मन में कामवासना है, तब तक युद्ध की वृत्ति समाप्त नहीं हो सकती। यह इनसाइट गहरी है, यह अंतर्दृष्टि गहरी है। और इस अंतर्दृष्टि को अगर हम समझें तो महावीर को समझना बहुत आसान हो जाएगा।
महावीर कहते हैं कि अगर जो बुरा है, तथाकथित बुरा मालूम पड़ता है; उससे छूटना है, जो तथाकथित भला है उससे भी छूट जाना पड़ेगा। अगर घृणा से मुक्त होना है तो राग से भी मुक्त हो जाना पड़ेगा। अगर शत्रु से बचना है तो मित्र से भी बच जाना पड़ेगा। अगर अंधेरे में जाने की आकांक्षा नहीं तो प्रकाश को भी नमस्कार कर लेना होगा। यह उलटा दिखाई पड़ता है, यह उलटा नहीं है। क्योंकि जिसके मन में प्रकाश में जाने की आकांक्षा है, वह बार-बार अंधेरे में गिरता रहेगा। जीवन द्वंद्व है, और जीवन के सब रूप अपने विपरीत से बंधे हुए हैं, अपने से उलटे से बंधे हुए हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति जिस चीज से लड़ेगा, विपरीत चलेगा, उससे ही बंधा रहेगा। उससे वह कभी नहीं छूट सकता। अगर आप धन से लड़ रहे हैं और धन के विपरीत जा रहे हैं, तो धन आपके चित्त को सदा घेरे रहेगा। अगर आप अहंकार से लड़ रहे हैं और अहंकार के विपरीत जा रहे हैं तो आपका अहंकार सूक्ष्म से सूक्ष्म होकर आपके भीतर सदा खड़ा रहेगा। लड़ना थोड़ा सम्हल कर। क्योंकि जिससे हम लड़ते हैं, उससे हम बंध जाते हैं।
तप इन्हीं भूलों में पड़ कर रुग्ण हो गया। और जिन्हें हम तपस्वी की भांति जानते हैं, उनमें से निन्यानबे प्रतिशत मानसिक चिकित्सा के लिए उम्मीदवार हैं। उनकी मानसिक चिकित्सा जरूरी है। और ध्यान रहे, कामवासना से छूटना आसान है, क्योंकि कामवासना प्रकृति है। कामवासना के विपरीत जो कामवासना के विरोध से बंध गया, उससे छूटना मुश्किल पड़ेगा। क्योंकि वह प्रकृति से और एक कदम दूर निकल जाना है।
इसे हम तीन शब्दों में समझ लें। एक को मैं कहता हूं प्रकृति, जिसे हमने कुछ नहीं किया, जो हमें मिली है--दि गिवेन। जो हमें मिली है, वह प्रकृति है। अगर हम कुछ गलत करें तो जो हम कर लेंगे, उसका नाम है विकृति। और अगर हम कुछ करें और ठीक करें तो जो होगा, उसका नाम है संस्कृति। प्रकृति पर हम खड़े होते हैं। जरा सी भूल और विकृति में चले जाते हैं। संस्कृति में जाना बड़ा कठिन है। क्योंकि संस्कृति में जाने के लिए विकृति से बचना पड़ेगा और प्रकृति के ऊपर उठना पड़ेगा। दो बातें--विकृति से बचना पड़ेगा और प्रकृति के ऊपर उठना पड़ेगा। अगर किसी ने सिर्फ प्रकृति से लड़ने की कोशिश की तो विकृति में गिर जाएगा। और विकृति संस्कृति से और एक कदम दूर है। प्रकृति उतनी दूर नहीं, प्रकृति मध्य में खड़ी है। विकृति, और आप हट गए। प्रकृति से भी दूर हट गए। इसलिए तो पशुओं में ऐसी विकृतियां नहीं दिखाई पड़तीं जैसी मनुष्यों में दिखाई पड़ती हैं। क्योंकि पशु प्रकृति से नहीं लड़ते हैं, इसलिए विकृति नहीं दिखाई पड़ती।
अब हम कल्पना भी नहीं कर सकते... अभी-अभी न्यूयॉर्क के एक चौराहे पर और वाशिंगटन में और-और जगहों पर होमोसेक्सुअल्स ने जुलूस निकाले हैं और उन्होंने कहा है कि यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। और इस वर्ष... पिछले वर्ष, कम से कम सौ होमोसेक्सुअल्स ने विवाह किए हैं। जो कि कल्पना के बाहर मालूम पड़ता है--एक पुरुष, एक पुरुष के साथ विवाह कर रहा है या एक स्त्री, एक स्त्री के साथ विवाह कर रही है--समलिंगी विवाह। सौ विवाह की घटनाएं दर्ज हुई हैं अमरीका में इस वर्ष। और इन लोगों ने कहा है कि हम घोषणा करते हैं कि हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है कि हम जिसको प्रेम करना चाहते हैं, करें, कोई सरकार हमें रोके क्यों? एक पुरुष पुरुष को प्रेम करना चाहता है, उससे विवाह करना चाहता है, उनके काम-संबंध का अधिकार मांगता है। कम से कम डेढ़ सौ क्लब पूरे अमरीका में हैं। और यूरोप में, स्वीडन में और स्विटजरलैंड में--सब जगह वे क्लब फैलते चले गए हैं। कम से कम दो सौ पत्रिकाएं आज जमीन पर निकलती हैं होमोसेक्सुअल्स की। पत्रिकाएं, जिनमें वे खबरें देते हैं और घोषणाएं देते हैं।
और आप हैरान होंगे कि अभी उन्होंने एक प्रदर्शन किया कैलिफोर्निया में, जैसा कि ब्यूटी काम्पिटिशन का होता है--महिलाओं को, सुंदर महिलाओं को हम नग्न खड़ा करते हैं। होमोसेक्सुअल्स ने पचास नग्न युवकों को खड़ा करके प्रदर्शन किया कि हम इनमें ही सौंदर्य देखते हैं, स्त्रियों में नहीं। कोई पशुओं की हम कभी सोच सकते हैं कि पशु और होमोसेक्सुअल, नहीं! हां, कभी-कभी ऐसा होता है, सर्कस के पशु होमोसेक्सुअल हो जाते हैं। या कभी-कभी अजायबघर के पशु होमोसेक्सुअल हो जाते हैं।
डेसमंड मोरिस ने एक किताब लिखी है: दि ह्यूमन जू। आदमियों का अजायबघर। और उसने लिखा है कि जो अजायबघर में पशुओं के साथ होता है वह आदमियों के साथ समाज में हो रहा है। यह अजायबघर है, यह कोई समाज नहीं है। यह जू है। क्योंकि कोई पशु पागल नहीं होता, जंगल में; अजायबघर में पागल हो जाता है। कोई पशु जंगल में आत्महत्या नहीं करता देखा गया, आज तक। लेकिन अजायबघर में कभी-कभी आत्महत्या कर लेता है। पशु विकृत नहीं होता क्योंकि प्रकृति में ठहरा रहता है। आदमी कोशिश करता है, आदमी दो कोशिश कर सकता है--या तो प्रकृति से लड़ने की कोशिश करे, तो आज नहीं कल विकृति में उतर जाएगा, और या फिर प्रकृति का अतिक्रमण करने की कोशिश करे, तो संस्कृति में प्रवेश करेगा।
अतिक्रमण तप है। विरोध नहीं, निरोध नहीं, संघर्ष नहीं--अतिक्रमण, ट्रांसेंडेंस। बुद्ध ने एक बहुत अच्छा शब्द प्रयोग किया है, वह शब्द है: ‘पारमिता।’ वे कहते हैं: लड़ो मत। इस किनारे से उस किनारे चले जाओ, पार चले जाओ--पारमिता। लड़ो मत इस किनारे से जहां तुम खड़े हो, लड़ो मत। क्योंकि लड़ोगे तो भी इसी किनारे पर खड़े रहोगे। जिससे लड़ना हो, उसके पास रहना पड़ेगा। जिससे लड़ना हो, उससे दूर जाना खतरनाक है। दुश्मन आमने-सामने संगीनें लेकर खड़े रहते हैं। हिंदुस्तान-पाकिस्तान की बाउंडरी पर देखें उनको--वे खड़े हैं। हिंदुस्तान-चीन की बाउंडरी पर देखें, वे संगीनें लिए खड़े हैं। दुश्मन से दूर जाना खतरनाक है। दुश्मन के सामने ही संगीन लेकर खड़े रहना पड़ता है। अगर इस तट से लड़ोगे--बुद्ध ने कहा है: अगर भोग के तट से लड़ोगे तो उस तट पर पहुंचोगे कैसे? लड़ो मत, उस तट पर पहुंच जाओ। यह तट छूट जाएगा, भूल जाएगा, विलीन हो जाएगा। तपश्र्चर्या अतिक्रमण है, ट्रांसेंडेंस है--द्वंद्व नहीं, संघर्ष नहीं।
तो, इस अतिक्रमण के रूप पर हम थोड़े गहरे जाएंगे तो बहुत सी बातें खयाल हो सकेंगी। एक तो पहले खयाल ले लें कि अतिक्रमण का क्या अर्थ होता है? आप एक घाटी में खड़े हैं, अंधेरा है बहुत। आप उस अंधेरे से लड़ते नहीं, आप सिर्फ पहाड़ के शिखर पर चढ़ना शुरू कर देते हैं। थोड़ी देर में आप पाते हैं कि आप सूर्य से मंडित शिखर के निकट पहुंचने लगे। वहां कोई अंधेरा नहीं है। घाटी में अंधेरा था, आप घाटी में खड़े ही न रहे, आपने सूर्य-मंडित शिखर की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया। आपने धूप से नहाए हुए शिखर की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया। आप प्रकाश में पहुंच गए, अतिक्रमण हुआ, संघर्ष जरा भी नहीं।
जहां आप हैं, वहां दो चीजें हैं। आप भी हैं और आपके आस-पास घिरा हुआ घाटी का अंधेरा भी है। दो हैं वहां, आप भी हैं, घाटी का अंधेरा भी है। अगर घाटी के अंधेरे से आप लड़ते हैं तो आपको घाटी में ही रहना पड़ेगा। अगर आप घाटी के अंधेरे से लड़ते नहीं--अपने भीतर जो आप हैं, उसे ऊपर उठाते हैं, ऊर्ध्वगमन पर चलते हैं तो घाटी के अंधेरे पर ध्यान देने की ही जरूरत नहीं है। जहां हम खड़े हैं, वहां चारों तरफ वृत्तियां हैं, भोग की--वे भी हैं, आप भी हैं। गलत त्यागी का ध्यान वृत्तियों पर होता है कि इस वृत्ति को मैं कैसे मिटाऊं। सही त्यागी का ध्यान स्वयं पर होता है कि इस वृत्ति के मैं ऊपर कैसे उठ जाऊं।
इस फर्क को ठीक से समझ लें, क्योंकि इन दोनों की यात्रा अलग होगी। दोनों का नियम अलग होगा, दोनों की साधना अलग होगी, दोनों की दिशा अलग होगी, दोनों का ध्यान अलग होगा। वृत्ति से जो लड़ रहा है उसका ध्यान वृत्ति पर होगा। स्वयं को जो ऊंचा उठा रहा है, उसका ध्यान स्वयं पर होगा। जो वृत्तियों से लड़ रहा है उसका ध्यान बहिर्मुखी होगा। जो स्वयं को ऊर्ध्वगमन की तरफ ले जा रहा है उसका ध्यान अंतर्मुखी होगा। और एक मजे की बात है कि ध्यान भोजन है। जिस चीज पर आप ध्यान देते हैं, उसको आप शक्ति देते हैं। जिस चीज को आप ध्यान देते हैं, उसको आप शक्ति देते हैं।
मैं पावलिटा की बात कर रहा था--चेक विचारक और वैज्ञानिक। छोटे-छोटे यंत्र हैं उसके पास। वह कहता है: पांच मिनट आंख गड़ा कर ध्यान से इस यंत्र को देखते रहो, और वह यंत्र आपकी शक्ति को संगृहीत कर लेता है। अमरीका में एक बहुत अदभुत आदमी था, जिसे दो साल की सजा अमरीका की सरकार ने दी। ऐसा लगता है कि आदमी की बुद्धि बढ़ती नहीं। वह दो हजार साल हों तो भी वही करता है, दो हजार साल बाद वही करता है। एक आदमी था, विलेहम रैक। इस सदी में जिन लोगों के पास अंतर्दृष्टि रही उनमें से एक आदमी है, उसको दो साल सजा भोगनी पड़ी और आखिर में अमरीकी सरकार ने उसको पागल करार देकर, कानूनन उसको पागलखाने भेज दिया। उस पर मुकदमा चला एक बहुत अजीब बात पर। जिस पर, अब उसके मर जाने के बाद वैज्ञानिक कह रहे हैं कि शायद वह ठीक था।
उसने एक अदभुत बॉक्स, एक पेटी बनाई थी, जिसको वह आर्गान बॉक्स कहता था। वह कहता था: इसके भीतर कोई व्यक्ति लेट जाए और कामवासना का विचार करता रहे, तो उसकी कामवासना की शक्ति इस डिब्बे में संगृहीत हो जाती है। लेकिन अब इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण क्या हो कि उसमें, संगृहीत हो जाती है। वह कहता था: प्रमाण एक ही है कि आप किसी को भी इसके भीतर लिटा दें, जिसको बिलकुल पता नहीं है। वह एक मिनट के बाद कामवासना का विचार करना शुरू कर देता। किसी को भी लिटा दें--वह कहता था: यही प्रमाण है। इसको तो वह हजारों लोगों का प्रमाण देता था। लेकिन इसको वैज्ञानिक कहते थे: हम इसको कोई प्रमाण नहीं मानते। वह आदमी भ्रम में हो सकता है, उस आदमी की आदत हो सकती है। इस डिब्बे के भीतर, वह कहता था: जो विचार आप करेंगे, जहां आपका ध्यान जाएगा, वहीं शक्ति संगृहीत हो जाती है। वह अनेक ऐसे लोगों को, जिनको मानसिक रूप से खयाल पैदा हो गया है कि वे क्लीव हैं, इंपोटेंट हैं, इन बॉक्सों में लिटा कर ठीक कर देता था। क्योंकि वह कहता था: इनमें आर्गान एनर्जी इकट्ठी है। यह जो पावलिटा है, वह आपकी कोई भी शक्ति को आपके ध्यान से इकट्ठा कर लेता है।
आपको खयाल में न होगा, जब आपकी तरफ लोग ध्यान देते हैं तो आप स्वस्थ अनुभव करते हैं, जब आपकी तरफ लोग ध्यान नहीं देते तो आप अस्वस्थ अनुभव करते हैं। इसलिए एक बड़ी अदभुत घटना घटती है कि जब आप चाहते हैं कि लोग ध्यान दें, आप बीमार पड़ जाते हैं। बच्चे तो इस ट्रिक को बहुत जल्दी समझ जाते हैं। आपकी सौ में से नब्बे बीमारियां ध्यान की आकांक्षाओं से पैदा होती हैं, क्योंकि बिना बीमार पड़े घर में आपको कोई ध्यान नहीं देता। पत्नी बीमार पड़ जाती है तो पति उसके सिर पर हाथ रख कर बैठता है। बीमार नहीं पड़ती तो उसकी तरफ देखता भी नहीं है। पत्नी इस रहस्य को जान-बूझ कर नहीं, अचेतन में समझ जाती है कि जब उसे ध्यान चाहिए तब उसे बीमार होना पड़ेगा। इसलिए कोई स्त्री उतनी बीमार नहीं होती जितनी दिखाई पड़ती है। या जितना वह दिखावा करती है। या जब उसका पति कमरे में होता है तो जितना वह कूल्हती, कराहती और आवाजें करती है, वह आवाजें उतनी नहीं हैं, जितना कि पति कमरे में नहीं होता तब वह करती है। तब नहीं भी करती है। इस पर थोड़ा ध्यान देने जैसा है। कारण क्या होगा? बच्चे बहुत जल्दी सीख जाते हैं कि जब वे बीमार होते हैं तो सारे घर की अटेंशन उनके ऊपर हो जाती है। एक दफा यह बात समझ में आ गई कि अटेंशन आकर्षित करने के लिए बीमार होना रसपूर्ण है, जिंदगी भर के लिए बीमारी आधार बना लेती है।
मनोवैज्ञानिक सलाह देते हैं, लेकिन बुद्धिमानी की सलाह बड़ी उलटी मालूम पड़ती है। वे कहते हैं: जब कोई बीमार हो तब जान-बूझ कर भी उस पर कम से कम ध्यान देना, अन्यथा उसे बीमार होने के लिए तुम कारण बनोगे। जब कोई बीमार हो तब तो ध्यान देना ही मत। सेवा कर देना, लेकिन ध्यान मत देना--बड़े तटस्थ भाव से। बीमारी को कोई रस देना खतरनाक है, तो जिंदगी में वह आदमी कम बीमार पड़ेगा, ज्यादा स्वस्थ रहेगा। उसके लिए ध्यान और बीमारी जुड़ेंगी नहीं।
लेकिन ध्यान से शक्ति मिलती है। इसीलिए तो इतना सारी दुनिया में ध्यान पाने की कोशिश चलती है। एक नेता को क्या रस आता होगा? जूते खाए, गालियां खाए, उपद्रव सहे--रस क्या आता होगा? लेकिन जब वह भीड़ में खड़ा होता है तो सब आंखें उसकी तरफ फिर जाती हैं। पावलिटा कहता है कि वह सबकी शक्ति से भोजन पाता है। कोई आश्र्चर्य नहीं कि नेहरू कुछ दिन और जिंदा रह जाते, अगर चीन का हमला न होता। अचानक भोजन कम हो गया। ध्यान बिखर गया। कोई राजनीतिक नेता पद पर रहते हुए मुश्किल से मरता है, इसलिए कोई राजनीतिक नेता पद नहीं छोड़ना चाहता, नहीं तो मरना और पद छोड़ना करीब आ जाते हैं। मुश्किल से मरता है कोई राजनीतिक नेता पद पर। मरना ही पड़े आखिर में, बात अलग है। अपनी पूरी कोशिश भी वह यह करता है कि जीते-जी पद न छूट जाए, क्योंकि पद छूटते ही उम्र कम हो जाती है। लोग रिटायर होकर जल्दी मर जाते हैं। अब जो आदमी पुलिस का ऑफिसर था, वह आदमी रिटायर हो गया; उसकी दस साल कम से कम, उम्र कम हो जाती है।
अभी इस पर तो बहुत काम चलता है। और बहुत देर न लगेगी कि लोग रिटायर होने से इनकार करने लगेंगे, जैसे ही उनको पता चल जाएगा कि गड़बड़ क्या हो रही है। रिटायर जब तक आदमी नहीं होता, तब तक स्वस्थ मालूम पड़ता है। रिटायर होते ही बीमार पड़ जाता है। जो ध्यान का भोजन उसे मिल रहा था--दफ्तर में जाता था, लोग खड़े हो जाते थे; सड़क पर निकलता था, लोग नमस्कार करते थे, बच्चे भी डरते थे क्योंकि बाप का कब्जा था पैसे पर--बैंक-बैलेंस बाप के नाम था, पत्नी भी भयभीत होती थी, फिर रिटायर हो गया, हाथ से सब धीरे-धीरे सूत्र छूट गए। अब वह बैठा रहता है कोने में। लोग ऐसे निकल जाते हैं जैसे वह है ही नहीं। तो वह खांसता-खंखारता है, आवाज देता है कि मैं भी यहां हूं। वह हर चीज में अड़ंगेबाजी करता है--बूढ़ों की आदत अड़ंगेबाजी की और किसी कारण से नहीं है--हर चीज में अड़ंगेबाजी करता है। कोई ऐसी बात नहीं जिसमें वह अड़ंगा न डाले। क्योंकि अड़ंगा डाल कर अब वह बता सकता है कि मैं हूं और थोड़ा ध्यान आकर्षित करता है। यह बहुत दीन अवस्था है, यह बहुत दयनीय अवस्था है। यह बहुत रुग्ण है, दुखद है--लेकिन है। वह घर में कोई ऐसी चीज न चलने देगा जिसमें वह सलाह न दे। हालांकि कोई उसकी सलाह नहीं मानता, यह वह जानता है। इसे वह दिन भर कहता है कि कोई मेरी नहीं मानता। लेकिन फिर दिन भर देता क्यों है। वह दिन भर कहता है: कोई मेरी सुनता नहीं।
गांधी जी कहते थे कि वे एक सौ पच्चीस वर्ष जीएंगे। और जी सकते थे। अगर भारत आजाद न होता, तो वे एक सौ पच्चीस वर्ष जी सकते थे। भारत का आजाद होना उनके मरने का हिस्सा बन गया। क्योंकि आजादी के बाद ही जो उनकी सुनते थे उन्होंने सुनना बंद कर दिया, क्योंकि वे खुद ही ताकतवर हो गए। वे खुद ही पदों पर पहुंच गए। तो गांधी ने कहा कि मैं खोटा सिक्का हो गया हूं, मेरी अब कोई सुनता नहीं। लेकिन गांधी को भी पता नहीं होगा कि गांधी जब भी यह कहते थे कि मेरी कोई सुनता नहीं, मैं एक खोटा सिक्का हो गया हूं, मैं बोलता रहता हूं, कोई मेरी फिकर नहीं करता--कोई मेरी सलाह नहीं मानता--हालांकि वे सलाह दिए जाते थे, मरने के पहले उन्होंने कहना शुरू कर दिया था कि अब मेरी एक सौ पच्चीस वर्ष जीने की कोई आकांक्षा नहीं है। परमात्मा मुझे जल्दी उठा ले। क्यों? क्योंकि खोटे सिक्के हो गए। क्योंकि कोई सुनता नहीं। क्योंकि कोई ध्यान नहीं देता। जो ध्यान देते थे वे भी इसलिए ध्यान देते थे कि बिना गांधी पर ध्यान दिए उन पर कोई ध्यान नहीं देता था। अब वे खुद ही ध्यान पाने के अधिकारी हो गए थे, सीधा लोग उनको ध्यान दे रहे थे। अब वे गांधी पर काहे के लिए ध्यान दें! कोने में पड़ गए थे। कोई नहीं कह सकता कि गोडसे की गोली को सामने देख कर उनके मन में धन्यवाद न उठा हो। कोई नहीं कह सकता है कि उन्होंने सोचा हो कि आ गया भगवान का संदेशवाहक, झंझट मिटी--विदा होते हैं।
ध्यान भोजन है, बहुत सटल फूड, बहुत सूक्ष्म भोजन है। अकेले ध्यान पर भी जी सकते हैं आप। इसलिए जब कभी कोई प्रेम में पड़ता है तो भूख कम हो जाती है। आपको पता है, अगर कोई आपको बहुत प्रेम करता है तो भूख एकदम कम हो जाती है। क्यों कम हो जाती है? जब कोई प्रेम करता है, प्रेम का मतलब ही क्या है कि कोई आप पर ध्यान देता है। और मतलब क्या है? और जब कोई आप पर ध्यान नहीं देता... आपको पता है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब कोई ध्यान नहीं देता तब लोग ज्यादा भोजन करने लगते हैं। जब कोई ध्यान देता है तो कम भोजन करते हैं। क्योंकि ध्यान भी कहीं गहरे में भोजन का काम करता है, बहुत सूक्ष्म तल पर काम करता है। जिस चीज को हम ध्यान देते हैं, उसको शक्ति देते हैं--यह मैं कह रहा हूं। और अब इसको कहने के वैज्ञानिक आधार हैं। अब इसको नापने के भी उपाय हैं।
मैंने पीछे आपसे निकोलिएव और कामिनिएव का नाम लिया। ये दोनों व्यक्ति टेलिपैथिक कम्युनिकेशन में इस समय पृथ्वी पर सबसे ज्यादा निष्णात लोग हैं। निकोलिएव विचार भेजता है, ब्रॉडकास्ट करता है और हजारों मील दूर कामिनिएव उस विचार को पकड़ता है। वैज्ञानिक यंत्र लगा कर बड़े चकित हो गए कि जब निकोलिएव विचार भेजता है, तो उसकी शक्ति क्षीण होती है। उसके चारों तरफ यंत्र बताते हैं कि उसकी शक्ति क्षीण हो रही है। और जब हजारों मील दूर कामिनिएव विचार को ग्रहण करता है, तब उसकी शक्ति, यंत्र बताते हैं कि बढ़ गई। आश्र्चर्यजनक! हजारों मील दूर। लेकिन जब निकोलिएव विचार भेजता है कामिनिएव को, तो उससे पूछा गया कि वह करता क्या है? वह कहता है: मैं आंख बंद करके ध्यान करता हूं कि कामिनिएव मेरे सामने उपस्थित है--वह दूर नहीं है, मेरे सामने उपस्थित है। मैं अपने सारे ध्यान को उस पर लगा देता हूं। सब भूल जाता हूं, सिर्फ कामिनिएव रह जाता है। और जब कामिनिएव रह जाता है और मुझे प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने लगता है कि यह सामने खड़ा है, तब मैं उससे बोलता हूं।
ध्यान वह अटेंशन दे रहा है। तो उसकी ऊर्जा हजारों मील दूर बैठे हुए व्यक्ति को उपलब्ध हो जाती है। जिस चीज पर हम ध्यान देते हैं वहां शक्ति संगृहीत होती है और जहां से हम ध्यान देते हैं वहां से शक्ति हटती है और विसर्जित होती है। जिस वृत्ति पर आप ध्यान देते हैं उस पर शक्ति संगृहीत हो जाती है। जब आप कामवासना का विचार करते हैं तो आपकी कामवासना का जो केंद्र है वह शक्ति को इकट्ठा करने लगता है। जिस चीज पर आप ध्यान देते हैं, वह वृत्ति का केंद्र आपके भीतर शक्ति को इकट्ठा कर लेता है। आप ही शक्ति देते हैं ध्यान देकर। फिर वह केंद्र शक्ति से भर जाता है तो वह शक्ति से मुक्त होना चाहता है, क्योंकि बोझिल हो जाता है। यह जाल है आदमी के भीतर।
लेकिन, कामवासना पर ध्यान दो तरह से दिया जा सकता है। एक, कि आप कामवासना में रस लें तो भी ध्यान दिया जा सकता है। तो प्रकृतिस्थ, नेचुरल कामवासना आपमें घनीभूत होगी, नैसर्गिक कामवासना आपमें शक्तिशाली हो जाएगी। एक विकृत ध्यान दिया जा सकता है। एक आदमी कामवासना पर ध्यान देता है कि मुझे कामवासना से लड़ना है, मुझे कामवासना को भीतर प्रविष्ट नहीं होने देना है--वह भी ध्यान दे रहा है। उसका भी काम का सेंटर, सेक्स सेंटर शक्ति को इकट्ठा कर लेता है। अब बड़ी मुश्किल होती है। क्योंकि जो नैसर्गिक कामवासना को ध्यान देता है, वह तो नैसर्गिक रूप से शक्ति उसकी विसर्जित हो जाएगी। लेकिन जो विसर्जित नहीं करना चाहता और ध्यान देता है, इसका क्या होगा? इसकी शक्ति विकृत रूप लेना शुरू करेगी, यह विसर्जित हो नहीं सकती। यह शरीर के दूसरे अंगों में प्रवेश करेगी और उनको विकृत करने लगेगी। यह चित्त के दूसरे स्नायुओं में प्रवेश करेगी और उनको विकृत करने लगेगी। यह आदमी भीतर से उलझता जाएगा और जाल में फंसता जाएगा--अपनी ही, अपनी ही दी गई शक्ति से। ऐसा हुआ कि हम एक वृक्ष को पानी दिए जाते हैं और प्रार्थना किए जाते हैं कि वृक्ष बड़ा न हो। यह वृक्ष बड़ा न हो, प्रार्थना किए जाते हैं और पानी दिए जाते हैं।
जिस वृत्ति को आप ध्यान देते हैं चाहे पक्ष में, चाहे विपक्ष में, आप उसको पानी और भोजन देते हैं। तप का मूल सूत्र यही है कि ध्यान कहीं और दो। जहां तुम शक्ति को इकट्ठा करना चाहते हो वहां मत दो। ध्यान ही उठाओ ऊपर। अगर कामवासना से मुक्त होना है तो कामवासना पर ध्यान ही मत दो--पक्ष में भी नहीं, विपक्ष में भी नहीं। लेकिन ध्यान आपको देना ही पड़ेगा, क्योंकि ध्यान आपकी शक्ति है, वह काम मांगती है।
तो तप का मूल सूत्र यह है कि ध्यान के लिए नये केंद्र निर्मित करो। नये केंद्र आदमी के भीतर हैं, और उन केंद्रों पर ध्यान को ले जाओ। जैसे ही ध्यान को नया केंद्र मिल जाता है, वह नये केंद्र में शक्ति को उ़ंडेलने लगता है, वैसे ही पुराने केंद्रों से मुक्त होने लगता है। पहाड़ पर चढ़ाई शुरू हो गई। कामवासना का केंद्र हमारा सबसे नीचा केंद्र है। वहां से हम प्रकृति से जुड़े हैं। सहस्रार हमारा सबसे ऊंचा केंद्र है। वहां से हम परमात्म-ऊर्जा से जुड़े हैं--दिव्यता से, भव्यता से, भगवत्ता से जुड़े हैं। जब भी आप ध्यान देते हैं, आपने खयाल किया कि आपके मस्तिष्क में विचार चलता है, कामवासना का, और आपका काम केंद्र तत्काल सक्रिय हो जाता है! यहां विचार चला--और विचार तो चलता है मस्तिष्क में और काम केंद्र बहुत दूर है--वह तत्काल सक्रिय हो जाता है।
ठीक यही उपाय है। तपस्वी अपने सहस्रार की तरफ अपने ध्यान को लौटा कर करता है। वह जैसे ही सहस्रार की तरफ ध्यान देता है वैसे ही सहस्रार सक्रिय होना शुरू हो जाता है। और जब शक्ति ऊपर की तरफ जाती है तो नीचे की तरफ नहीं जाती है। और जब शक्ति को मार्ग मिलने लगता है, शिखर पर चढ़ने का, तो घाटियां वह छोड़ने लगती है। और जब शक्ति का प्रकाश के जगत में प्रवेश होने लगता है तो अंधेरे के जगत से चुपचाप उठने लगती है। अंधेरे की निंदा भी नहीं होती उसके मन में, अंधेरे का विरोध भी नहीं होता उसके मन में, अंधेरे का खयाल भी नहीं होता उसके मन में, अंधेरे पर ध्यान ही नहीं होता। ध्यान का रूपांतरण है, तप।
अब इसको अगर इस तरह समझेंगे तो तप का मैं दूसरा अर्थ आपको कह सकूंगा। तप का ऐसे अर्थ होता है--अग्नि। तप का अर्थ होता है--अग्नि। तप का अर्थ होता है--भीतर की अग्नि। मनुष्य के भीतर जो जीवन की अग्नि है, उस अग्नि को ऊर्ध्वगमन की तरफ ले जाना तपस्वी का काम है। उसे नीचे की ओर ले जाना भोगी का काम है। भोगी का अर्थ है: जो अग्नि को नीचे की ओर प्रवाहित कर रहा है जीवन में--अधोगमन की ओर। तपस्वी का अर्थ है: जो ऊपर की ओर प्रवाहित कर रहा है उस अग्नि को, परमात्म की ओर, सिद्धावस्था की ओर।
यह अग्नि दोनों तरफ जा सकती है। और बड़े मजे की बात यह है कि ऊपर की तरफ आसानी से जाती है, नीचे की तरफ बड़ी कठिनाई से जाती है, क्योंकि अग्नि का स्वभाव ऊपर की तरफ जाना है। आपने खयाल किया, आप आग जलाते हैं, वह ऊपर की तरफ जाने लगती है! इसीलिए इसे तप नाम दिया, इसे अग्नि नाम दिया, इसे यज्ञ नाम दिया, ताकि यह खयाल में रहे कि अग्नि का स्वभाव तो ऊपर की तरफ जाना है। नीचे की तरफ तो बड़ी चेष्टा करके ले जानी पड़ती है।
पानी नीचे की तरफ बहता है। अगर ऊपर की तरफ ले जाना हो तो बड़ी चेष्टा करनी पड़ती है। और आप चेष्टा छोड़ दें, कि पानी फिर नीचे की तरफ बहने लगा। आपने पंपिंग का इंतजाम छोड़ दिया, पानी फिर नीचे बहने लगेगा। अगर ऊपर चढ़ाना है तो पंप करो, ताकत लगाओ, मेहनत करो। नीचे बहने के लिए पानी किसी की मेहनत नहीं मांगता, खुद बहता है। वह उसका स्वभाव है।
अग्नि को अगर नीचे की तरफ ले जाना है तो इंतजाम करना पड़ेगा। अपने से अग्नि ऊपर की तरफ उठती है--ऊर्ध्वगामी है। इसको तप कहने का कारण है क्योंकि भीतर की जो अग्नि है, जो जीवन-अग्नि है, वह स्वभाव से ऊर्ध्वगामी है। एक बार आपको उसके ऊर्ध्वगमन का अनुभव हो जाए, फिर आपको प्रयास नहीं करना पड़ता, उसको ऊपर ले जाने के लिए। वह जाती रहती है। एक बार सहस्रार की तरफ तपस्वी का ध्यान मुड़ जाए तो फिर उसे चेष्टा नहीं करनी पड़ती। फिर वह अग्नि अपने आप बहती रहती है। धीरे-धीरे वह भूल ही जाता है--क्या नीचे, क्या ऊपर। भूल ही जाता है, क्योंकि फिर तो अग्नि सहज ऊपर बहती रहती है। एक बार आग राह पकड़ ले तो ऊपर की तरफ जाना उसका स्वभाव है। नीचे की तरफ ले जाने के लिए बड़ा आयोजन करना पड़ता है। लेकिन हम नीचे की तरफ ले जाने के इतने लंबे अभ्यस्त हैं, जन्मों-जन्मों का हमारा अभ्यास है, नीचे की तरफ ले जाने का। इसलिए नीचे की तरफ ले जाना, जो कि वस्तुतः कठिन है, वह हमें सरल मालूम पड़ता है। ऊपर की तरफ ले जाना जो कि वस्तुतः सरल है, वह हमें कठिन मालूम पड़ता है।
कठिनाई हमारी आदत में है। आदतें बड़ी कठिन हो जाती हैं। और कभी-कभी स्वभाव, जो कि हमारी आदत नहीं है, जो कि वस्तु का धर्म है--उसके ऊपर हमारी आदत इतनी सख्त होकर बैठ जाती है कि स्वभाव को दबा देती है। हम सबके स्वभाव दबे हुए हैं आदतों से। जिसको महावीर कर्म का क्रम कहते हैं वह हमारी आदतों का क्रम है। हमने आदतें बना रखी हैं, वे हमें दबाए हुए हैं। वे आदतें लंबी हैं, पुरानी हैं, गहरी हैं। उनसे छूट जाना आज इसी वक्त संभव नहीं हो जाएगा। तो हम उनसे लड़ना शुरू करते हैं और उलटी आदत बनाते हैं। लेकिन आदत फिर भी आदत ही होती है।
गलत तपस्वी सिर्फ आदत बनाता है तप की। ठीक तपस्वी स्वभाव को खोजता है, आदत नहीं बनाता। हैबिट और नेचर का फर्क समझ लें। हम सब आदतें बनवाते हैं। हम बच्चे को कहते हैं: क्रोध न करो, क्रोध की आदत बुरी है। न क्रोध करने की आदत बनाओ। वह न क्रोध करने की आदत तो बना लेता है, लेकिन इससे क्रोध नष्ट नहीं होता, क्रोध भीतर चलने लगता है। कामवासना पकड़ती है तो हम कहते हैं: ब्रह्मचर्य की आदत बनाओ। वह आदत बन जाती है। लेकिन कामवासना भीतर सरकती रहती है, वह नीचे की तरफ बहती रहती है। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तपस्वी खोजता है--स्वभाव के सूत्र को, ताओ को, धर्म को। वह क्या है जो मेरा स्वभाव है, उसे खोजता है। सब आदतों को हटा कर वह अपने स्वभाव का दर्शन करता है। लेकिन आदतों को हटाने का एक ही उपाय है--ध्यान मत दो, आदत पर ध्यान मत दो।
एक मित्र चार-छह दिन पहले मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि आप कहते हैं कि मुंबई में रह कर, और ध्यान हो सकता है! यह सड़क का क्या करें, भोंपू का क्या करें? ट्रेन जा रही है, सीटी बज रही है, इसका क्या करें?
मैंने उनसे कहा: ध्यान मत दो।
उन्होंने कहा: कैसे ध्यान न दें! और खोपड़ी पर भोंपू बज रहा है, नीचे कोई हॉर्न बजाए चला जा रहा है, ध्यान कैसे न दें!
मैंने उनसे कहा: एक प्रयास करो। भोंपू कोई नीचे बजाए जा रहा है, उसे भोंपू बजाने दो। तुम ऐसे बैठे रहो, कोई प्रतिक्रिया मत करो कि भोंपू अच्छा है कि भोंपू बुरा है, कि बजाने वाला दुश्मन कि बजाने वाला मित्र, कि इसका सिर तोड़ देंगे अगर आगे बजाया। कुछ प्रतिक्रिया मत करो। तुम बैठे रहो, सुनते रहो। सिर्फ सुनो। थोड़ी देर में ही तुम पाओगे कि भोंपू बजता भी हो तो भी तुम्हारे लिए बजना बंद हो गया। एक्सेप्ट इट, स्वीकार करो।
जिस आदत को बदलना हो उसे स्वीकार कर लो। उससे लड़ो मत। स्वीकार कर लो, जिसे हम स्वीकार कर लेते हैं उस पर ध्यान देना बंद हो जाता है। क्या आपको पता है, किसी स्त्री के आप प्रेम में हों, उस पर ध्यान होता है। फिर विवाह करके उसको पत्नी बना लिया, फिर वह स्वीकृत हो गई, फिर ध्यान बंद हो जाता है। जिस चीज को हम स्वीकार कर लेते हैं... एक कार आपके पास नहीं है, वह सड़क पर निकलती है चमकती हुई, ध्यान खींचती है। फिर आपको मिल गई, फिर आप उसमें बैठ गए। फिर थोड़े दिन में आपको खयाल ही नहीं आता है कि वह कार भी है, चारों तरफ जो ध्यान को खींचती थी, वह स्वीकार हो गई।
जो चीज स्वीकृत हो जाती है उस पर ध्यान जाना बंद हो जाता है। स्वीकार कर लो, जो है उसे स्वीकार कर लो। अपने बुरे से बुरे हिस्से को भी स्वीकार कर लो। ध्यान देना बंद कर दो, ध्यान मत दो। उसको ऊर्जा मिलनी बंद हो जाएगी। वह धीरे-धीरे अपने आप क्षीण होकर सिकुड़ जाएगी, टूट जाएगी। और जो बचेगी ऊर्जा, उसका प्रवाह अपने आप भीतर की तरफ होना शुरू हो जाएगा।
गलत तपस्वी उन्हीं चीजों पर ध्यान देता है जिन पर भोगी देता है। सही तपस्वी--ठीक तप की प्रक्रिया ध्यान का रूपांतरण है। वह उन चीजों पर ध्यान देता है, जिन पर न भोगी ध्यान देता, न तथाकथित त्यागी ध्यान देता। वह ध्यान को ही बदल देता है। और ध्यान हमारा हमारे हाथ में है। हम वहीं देते हैं जहां हम देना चाहते हैं।
अभी यहां हम बैठे हैं, आप मुझे सुन रहे हैं। अभी यहां आग लग जाए मकान में, आप एकदम भूल जाएंगे कि सुन रहे थे, कि कोई बोल रहा था, सब भूल जाएंगे। आग पर ध्यान दौड़ जाएगा, बाहर निकल जाएंगे, भूल ही जाएंगे कि कुछ सुन रहे थे। सुनने का कोई सवाल ही न रह जाएगा। ध्यान प्रतिपल बदल सकता है, सिर्फ नये बिंदु उसको मिलने चाहिए। आग मिल गई, वह ज्यादा जरूरी है--जीवन को बचाने के लिए हो गई--तो तत्काल ध्यान वहां दौड़ जाएगा। आपके भीतर तप की प्रक्रिया में उन नये बिंदुओं और केंद्रों की तलाश करनी है जहां ध्यान दौड़ जाए और जहां नये केंद्र सशक्त होने लगें। इसलिए तपस्वी कमजोर नहीं होता, शक्तिशाली हो जाता है। गलत तपस्वी कमजोर हो जाता है। गलत तपस्वी कमजोर होकर सोचता है कि हम जीत लेंगे, और भ्रांति पैदा होती है जीतने की।
अगर एक आदमी को तीस दिन भोजन न दिया जाए, तो कामवासना क्षीण हो जाती है। इसलिए नहीं कि कामवासना चली गई, इसलिए कि कामवासना के योग्य रस नहीं बनता शरीर में। फिर भोजन दिया जाए तो तीस दिन में जो वासना गई थी वह तीन दिन में वापस लौट आती है। भोजन मिला, शरीर को रस मिला। फिर केंद्र सक्रिय हो गया, फिर ध्यान दौड़ने लगा। इसलिए फिर जिसने भूखा रह कर ही कामवासना पर तथाकथित विजय पाई वह बेचारा फिर भूखा ही जीवन भर रहने की कोशिश में लगा रहता है, क्योंकि वह डरता है--इधर भोजन लिया, इधर वासना उठी। मगर यह निपट पागलपन है। वासना के बाहर हुए नहीं, यह सिर्फ कमजोरी की वजह से वासना को शक्ति नहीं मिल रही है।
असल में आदमी जितनी शक्ति पैदा करता है, उसमें कुछ तो जरूरी होती है जो उसके रोज के काम में समाप्त हो जाती है। एक खास मात्रा की कैलोरी उसके रोज के काम में--उठने में, बैठने में, नहाने में, खाने में, पचाने में, दुकान में, आने में, जाने में व्यय हो जाती है। सोने में व्यय हो जाती है। उसके अतिरिक्त जो बचती है वह उस केंद्र को मिल जाती है जिस पर आपका ध्यान है। जो सुपरफ्लुअस, जो अतिरिक्त है। अगर समझ लें कि एक हजार कैलोरी, मान लें कि आपके रोजमर्रा के काम में खर्च होती है और आपके भोजन और आपकी व्यवस्था से आपको दो हजार कैलोरी शक्ति शरीर में पैदा होती है, तो आपका ध्यान जिस केंद्र पर होगा; एक हजार कैलोरी जो शेष बची है, उस केंद्र पर दौड़ जाएगी। उसको कोई रास्ता नहीं है, ध्यान ही रास्ता है, ध्यान ही ऐरो है जिससे वह जाएगी। उसको और कुछ पता नहीं, कहां जाना है। आपका ध्यान उसको खबर देता है कि यहां जाना है, वह वहां चली जाती है।
अब अगर आपको झूठे तप में उतरना है, तो आप भोजन इतना कर लें कि हजार कैलोरी से ज्यादा आपके भीतर पैदा न हो। फिर आपको ब्रह्मचर्य सधा हुआ मालूम पड़ेगा। क्योंकि आपके पास अतिरिक्त शक्ति बचती नहीं जो कि सेक्स के केंद्र को मिल जाए। हजार शक्ति पैदा होती है, हजार आप खर्च कर लेते हैं। इसलिए तपस्वी खाना कम कर देता है, पैदल चलने लगता है, श्रम ज्यादा करने लगता है और खाना कम करता चला जाता है। ये दोहरी प्रक्रियाएं करता है, ताकि शरीर में शक्ति कम हो और शक्ति व्यय ज्यादा हो। वह मिनिमम पर जीने लगता है। न होगी अतिरिक्त शक्ति, न वासना बनेगी।
मगर इससे वह वासना से मुक्त नहीं होता। वासना अपनी जगह खड़ी है। वासना का केंद्र प्रतीक्षा करेगा। अनंत जन्मों तक प्रतीक्षा करेगा, कहेगा कि जिस दिन शक्ति ज्यादा हो, मैं तैयार हूं। यह सिर्फ भय में जीना है। इस जीने से कहीं कुछ उपलब्ध नहीं होता। इससे प्रकृति तो चूक जाती है, संस्कृति नहीं मिलती। सिर्फ विकृति मिलती है और एक भयभीत चेतना रह जाती है पीछे।
नहीं, यह नहीं है मार्ग। ठीक पाजिटिव आस्टेरिटी का, ठीक विधायक तप का मार्ग है--शक्ति पैदा करो, ध्यान रूपांतरित करो। ध्यान नये केंद्रों पर ले जाओ, ताकि शक्ति वहां जाए। इसे हम धीरे-धीरे जब और गहरे उतरेंगे ध्यान के परिवर्तन के लिए, तो यह प्रक्रिया खयाल में आ सकेगी। लेकिन सबसे पहले तो यह खयाल में ले लेना चाहिए कि मेरी अतिरिक्त शक्ति किस केंद्र से व्यय हो रही है। उसके विपरीत जो केंद्र है, उस केंद्र पर ध्यान को लगाना पड़ेगा।
एक छोटी सी घटना, और आज की बात मैं पूरी करूं। धर्मगुरुओं का एक सम्मेलन हुआ है। बड़े धर्मगुरु उस देश के एक नगर में इकट्ठे हुए हैं। चार बड़े धर्म हैं उस देश में, चारों के चार बड़े धर्मगुरु एक निजी वार्ता में लीन हैं। सब सम्मेलन निपटने के करीब हो गया। वे बैठ कर बातें कर रहे हैं। ऊंची बातें हो चुकीं, नकली बातें हो चुकीं। अब वे बैठ कर असली गप-शप कर रहे हैं। पचहत्तर साल का बूढ़ा धर्मगुरु कहता है कि हो गई वे बातें, सुन गए लोग। लेकिन तुम्हारे सामने क्यों मैं छिपाऊं, और मैं आशा करता हूं, तुम भी न छिपाओगे। अच्छा होगा कि हम बताएं कि असली जिंदगी हमारी क्या है। मैं तो एक ही चीज से परेशान रहा हूं--वह धन है। और दिन-रात धन के विपरीत बोलता हूं। पर धन पर मेरी बड़ी पकड़ है। एक पैसा भी मेरा खो जाए तो रात भर मुझे नींद नहीं आती। या एक पैसा मिलने की आशा बंध जाए तो भी रात भर एक्साइटमेंट रहता है और नींद नहीं आती। धन ही मेरी कमजोरी है। बड़ी मुश्किल है। इसके पार मैं नहीं हो पा रहा। क्या, आपमें से कोई पार हो गया है तो बताएं।
दूसरे ने कहा: पार तो हम भी नहीं हुए, हमारी अपनी-अपनी मुसीबतें हैं।
एक ने कहा: मेरी मुसीबत तो यह अहंकार है। इसके लिए ही जीता हूं, इसी के लिए उठता हूं, इसी के लिए बैठता हूं। इसी के लिए अहंकार के खिलाफ भी बोलता हूं, पर है यही। इससे मैं बाहर नहीं हो पाता।
तीसरे ने कहा: मेरी कमजोरी तो यह कामवासना है। ये स्त्रियां मेरी कमजोरी हैं। दिन-रात समझाता हूं, प्रवचन करता हूं, ब्रह्मचर्य का व्याख्यान करता हूं चर्च में। लेकिन उस दिन बोलने में मजा ही नहीं आता, जिस दिन स्त्रियां नहीं आतीं। मुझे खुद ही मजा नहीं आता बोलने में। जिस दिन स्त्रियां आती हैं, उस दिन मेरा जोश देखने लायक रहता है। उस दिन जब मैं बोलता हूं तो बात ही और होती है। लेकिन अब मैं जानता हूं भलीभांति कि वह भी कामवासना ही है मेरी। उसके मैं बाहर नहीं हो पाता।
चौथा आदमी मुल्ला नसरुद्दीन था। वह उठ कर खड़ा हो गया, उसने कहा कि क्षमा करें, मैं जाता हूं।
उन्होंने कहा: लेकिन तुमने अपनी कमजोरी नहीं बताई।
उसने कहा: मेरी सिर्फ एक कमजोरी है, वह है निंदा। अब मैं नहीं रुक सकता एक भी क्षण। पूरा गांव मेरी राह देख रहा होगा। जो मैंने यहां सुना है, वह मुझे कहना होगा। क्षमा करें, मेरी एक ही कमजोरी है--अफवाह। और अब मेरा रुकना मुश्किल है।
उन तीनों ने उसे पकड़ने की कोशिश की कि तू ठहर भाई, तेरी यह कमजोरी थी, तो तूने पहले क्यों नहीं कहा, इतनी देर चुप क्यों रहा?
हर आदमी की कोई न कोई कमजोरी है। उस कमजोरी को ठीक से पहचान लें। उसी में आपकी ऊर्जा व्यय होती है।
मुल्ला ने कहा कि तब तक तो मैं बैठा रहा जब तक मैं पूरा न सुन पाया। लेकिन जब मैंने पूरा सुन लिया तो जग गई मेरी शक्ति। अब इस रात सोना मेरे वश में नहीं है, अब जब तक एक-एक तक खबर न पहुंचा दूं... शक्ति जग गई मेरी! वह जो कमजोरी है हमारी, वही हमारी शक्ति का निष्कासन है। वहीं से हमारी शक्ति व्यय होती। मुल्ला तब तक बिलकुल सुस्त बैठा था, जैसे कोई प्राण ही न हों। अचानक ज्योति आ गई, प्राण आ गए, चमक आ गई!
मुल्ला ने कहा कि गजब हो गया। कभी सोचा भी न था कि इस कांफ्रेंस में और ऐसा आनंद आने वाला है।
हमारी कमजोरी हमारी शक्ति के व्यय का बिंदु है। भोग हो या भोग के विपरीत त्याग हो, बिंदु वहीं बना रहता है। ध्यान वहीं केंद्रित रहता है, शक्ति वहीं से विसर्जित होती है, एवोपरेट होती है, वाष्पीभूत होती है। तप ध्यान के केंद्र बदलने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया पर कल मैं बात करूंगा। शायद लंबी इस पर बात करनी पड़े क्योंकि महावीर ने फिर तप के बारह हिस्से किए हैं, और एक-एक हिस्सा वैज्ञानिक प्रक्रिया है। तो कल वैज्ञानिक प्रक्रिया को हम समझ लें, फिर महावीर के एक-एक तप के हिस्से पर हम बात करेंगे।
अभी जाएंगे नहीं--हालांकि मन की कमजोरी कह रही होगी कि भागो। तो थोड़ा रुकेंगे। जो कीर्तन संन्यासी करते हैं, उतना धैर्य और।

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