MAHAVIR
Mahaveer Vani 03
Third Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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शरणागति-सूत्र
अरिहंते सरणं पवज्जामि।
सिद्धे सरणं पवज्जामि।
साहू सरणं पवज्जामि।
केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि।
अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूं। सिद्धों की शरण स्वीकार करता हूं। साधुओं की शरण स्वीकार करता हूं। केवली-प्ररूपित अर्थात आत्मज्ञ-कथित धर्म की शरण स्वीकार करता हूं।
कृष्ण ने गीता में कहा है: ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज।’ अर्जुन, तू सब धर्मों को छोड़ कर मुझ एक की शरण में आ!
कृष्ण जिस युग में बोल रहे थे, वह युग अत्यंत सरल, निर्दोष, श्रद्धा का युग था। किसी के मन में ऐसा नहीं हुआ कि कृष्ण कैसे अहंकार की बात कह रहे हैं कि तू सब छोड़ कर मेरी शरण में आ। अगर कोई घोषणा अहंकारग्रस्त मालूम हो सकती है तो इससे ज्यादा अहंकारग्रस्त घोषणा दूसरी मालूम नहीं होगी--अर्जुन को यह कहना कि छोड़ दे सब और आ मेरी शरण में। पर वह युग अत्यंत श्रद्धा का युग रहा होगा, जब कृष्ण बेझिझक, सरलता से ऐसी बात कह सके और अर्जुन ने सवाल भी न उठाया कि क्या कहते हैं आप? आपकी शरण में और मैं आऊं? अहंकार से भरे हुए मालूम पड़ते हैं।
लेकिन बुद्ध और महावीर तक आदमी की चित्त दशा में बहुत फर्क पड़े। इसलिए जहां हिंदू-चिंतन ‘मामेकं शरणं व्रज’ पर केंद्र मान कर खड़ा है वहां बुद्ध और महावीर को दृष्टि में आमूल परिवर्तन करना पड़ा। महावीर ने नहीं कहा कि तुम सब छोड़ कर मेरी शरण में आ जाओ, न बुद्ध ने कहा। दूसरे छोर से पकड़ना पड़ा सूत्र को। तो बुद्ध का सूत्र है, वह साधक की तरफ से है। महावीर का सूत्र है, वह भी साधक की तरफ से है; सिद्ध की तरफ से नहीं। अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूं, सिद्ध की शरण स्वीकार करता हूं, साधु की शरण स्वीकार करता हूं, केवली-प्ररूपित धर्म की शरण स्वीकार करता हूं--यह दूसरा छोर है शरणागति का। दो ही छोर हो सकते हैं। या तो सिद्ध कहे कि मेरी शरण में आ जाओ, या साधक कहे कि मैं आपकी शरण में आता हूं।
हिंदू और जैन-विचार में मौलिक भेद यही है। हिंदू विचार में सिद्ध कह रहा है: आ जाओ मेरी शरण; जैन-विचार में साधक कहता है: मैं आपकी शरण आता हूं। इससे बहुत बातों का पता चलता है। पहली तो यही बात पता चलती है कि कृष्ण जब बोल रहे थे तब बड़ी श्रद्धा का युग था और जब महावीर बोल रहे हैं तब बड़े तर्क का युग है। महावीर कहें--मेरी शरण आ जाओ, तत्काल लोगों को लगेगा, बड़े अहंकार की बात हो गई।
दूसरे छोर से शुरू करना पड़ेगा। पर बुद्ध और महावीर... बुद्ध कीपरंपरा में भी सूत्र है: ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि--बुद्ध की शरण जाता हूं, संघ की शरण जाता हूं, धर्म की शरण जाता हूं।’ लेकिन महावीर और बुद्ध के सूत्र में भी थोड़ा सा फर्क है, वह खयाल में ले लेना जरूरी है। ऊपर से देखने पर दोनों एक से मालूम पड़ते हैं--गच्छामि हो कि पवज्जामि हो, शरण जाता हूं या शरण स्वीकार करता हूं--एक से ही मालूम पड़ते हैं, पर उनमें भेद है। जब कोई कहता है: ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’--बुद्ध की शरण जाता हूं, तो यह शरण जाने की शुरुआत है, पहला कदम है। और जब कोई कहता है: ‘अरिहंत सरणं पवज्जामि’--तब यह शरण जाने की अंतिम स्थिति है। शरण स्वीकार करता हूं, अब इसके आगे और कोई गति नहीं है। जब कोई कहता है: शरण आता हूं, तो वह पहला कदम उठाता है और जब कोई कहता है: शरण स्वीकार करता हूं, तो वह अंतिम कदम उठाता है। जब कोई कहता है: शरण आता हूं, तो बीच से लौट भी सकता है। और शरण तक न पहुंचे, यह भी हो सकता है। यात्रा का प्रारंभ है, यात्रा पूरी न हो, यात्रा के बीच में व्यवधान आ जाए। यात्रा के मध्य में ही तर्क समझाए और लौटा दे। क्योंकि तर्क शरण जाने के नितांत विरोध में है। बुद्धि शरण जाने के नितांत विरोध में है। बुद्धि कहती है: तुम! और किसी की शरण! बुद्धि कहती है: सबको अपनी शरण में ले आओ। तुम और किसी की शरण में जाओगे! तो अहंकार को पीड़ा होती है।
महावीर का सूत्र है: अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूं। इससे लौटना नहीं हो सकता। यह पॉइंट ऑफ नो रिटर्न है। इसके पीछे लौटने का उपाय नहीं है। यह टोटल, यह समग्र छलांग है। शरण आता हूं, तो अभी काल का व्यवधान होगा, अभी समय लगेगा, शरण तक पहुंचते-पहुंचते। अभी बीच में समय व्यतीत होगा। और आज जो कहता है: शरण आता हूं, हो सकता है, न मालूम कितने जन्मों के बाद शरण में पहुंच सके। अपनी-अपनी गति पर निर्भर होगा और अपनी-अपनी मति पर निर्भर होगा। लेकिन ‘पवज्जामि’ के सूत्र की खूबी यह है कि वह सडन जंप है। उसमें बीच में फिर समय का व्यवधान नहीं है--‘स्वीकार करता हूं।’ और जिसने शरण स्वीकार की, उसने स्वयं को तत्काल अस्वीकार किया। ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। अगर आप अपने को स्वीकार करते हैं तो शरण को स्वीकार न कर सकेंगे। अगर आप शरण को स्वीकार करते हैं तो अपने को अस्वीकार कर सकेंगे--करना ही होगा। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
शरण की स्वीकृति अहंकार की हत्या है। धर्म का जो भी विकास है चेतना में, वह अहंकार के विसर्जन से शुरू होता है। चाहे सिद्ध कहे कि मेरी शरण आ जाओ--जब युग होते हैं श्रद्धा के तो सिद्ध कहता है मेरी शरण आ जाओ, और जब युग होते हैं अश्रद्धा के तो फिर साधक को ही कहना पड़ता है कि मैं आपकी शरण स्वीकार करता हूं। महावीर बिलकुल चुप हैं। वे यह भी नहीं कहते कि तुम जो मेरी शरण आए हो तो मैं तुम्हें अंगीकार करता हूं। वे यह भी नहीं कहते। क्योंकि खतरा तर्क के युग में यह है कि अगर महावीर इतना भी कहें, सिर भी हिला दें कि हां, स्वीकार करता हूं तो वह दूसरे का अहंकार फिर खड़ा हो जाता है, कि अच्छा...! यह तो अहंकार हो गया। महावीर चुप ही रह जाते हैं। यह एकतरफा है, साधक की तरफ से है।
निश्चित ही बड़ी कठिनाई होगी। इसलिए जितना आसान कृष्ण के युग में सत्य को उपलब्ध कर लेना है, उतना आसान महावीर के युग में नहीं रह जाता। और हमारे युग में तो अत्यधिक कठिनाई खड़ी हो जाती है। न सिद्ध कह सकता है: मेरी शरण आओ, न साधक कह सकता है कि मैं आपकी शरण आता हूं। महावीर चुप रह गए। आज अगर साधक किसी सिद्ध की शरण में जाए, और सिद्ध इनकार न करे कि नहीं-नहीं, किसी की शरण में जाने की जरूरत नहीं; तो साधक समझेगा: अच्छा, तो मौन सम्मति का लक्षण है, तो आप शरण में स्वीकार करते हैं।
तर्क अब और भी रोगग्रस्त हुआ। आज महावीर अगर चुप भी बैठ जाएं और आप जाकर कहें कि अरिहंत की शरण आता हूं--और महावीर चुप रहें, तो आप घर लौट कर सोचेंगे: यह आदमी चुप रह गया। इसका मतलब: रास्ता देखता था कि मैं शरण आऊं, प्रतीक्षा करता था। मौन तो सम्मति का लक्षण है। तो यह आदमी तो अहंकारी है तो अरिहंत कैसे होगा? नहीं, अब एक कदम और नीचे उतरना पड़ता है। और महावीर को कहना पड़ेगा कि नहीं, तुम किसी की शरण मत जाओ। महावीर जोर देकर इनकार करें कि नहीं, शरण आने की जरूरत नहीं, तो ही वह साधक समझेगा कि अहंकारी नहीं है। लेकिन उसे पता नहीं, इस अस्वीकार में साधक के सब द्वार बंद हो जाते हैं।
कृष्णमूर्ति की अपील इस युग में इसीलिए है। न वे कहते--सब धर्म छोड़ कर मेरी शरण आओ, न कोई साधक कहे उनसे कि मैं आता हूं तुम्हारी शरण। तो वे इनकार करते हैं। वे कहते हैं: मेरे पैर में मत गिर जाना, दूर रहो। और तब अहंकारी साधक बड़ा प्रसन्न होता है... पर उसकी अस्मिता घनी होती है। और उसे सहयोग नहीं पहुंचाया जा सकता। हमारा युग आध्यात्मिक दृष्टि से किसी को सहयोग पहुंचाना हो तो बड़ी कठिनाई का युग है। बुला कर सहयोग देना तो कठिन, जैसा कृष्ण देते हैं; आए हुए को सहयोग देना भी कठिन, जैसा कि महावीर देते हैं। और कुछ आश्र्चर्य न होगा कि और थोड़े दिनों बाद सिद्ध को कहना पड़े साधक से, आपकी शरण में आता हूं, स्वीकार करें! शायद तभी साधक मानें कि ठीक, यह आदमी ठीक है। यह आध्यात्मिक विकृति है। शरण का इतना मूल्य क्या है--इसे हम दो-तीन दिशाओं से समझने की कोशिश करें।
पहले तो शरीर से ही समझने की कोशिश करें। मैं कल आपको बुल्गेरियन डॉक्टर लोझानोव के इंस्टीट्यूट ऑफ सजेस्टोलॉजी की बात कर रहा था। यह जान कर आपको आश्चर्य अनुभव होगा कि लोझानोव ने शिक्षा पर ये जो अनूठे प्रयोग किए हैं, उससे जब पिछले एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में पूछा गया कि तुम्हें इस अदभुत क्रांतिकारी शिक्षा के आयाम का कैसे स्मरण आया, किस दिशा से तुम्हें संकेत मिला? तो लोझानोव ने कहा कि मैं योग के--भारतीय योग के शवासन का प्रयोग करता था, और उसी से मुझे यह दृष्टि मिली।
शवासन से! शवासन की खूबी क्या है? शवासन का अर्थ है: पूर्ण समर्पित शरीर की दशा, जब आपने शरीर को बिलकुल छोड़ दिया। पूरा रिलैक्स छोड़ दिया। जैसे ही आप शरीर को पूरा रिलैक्स छोड़ देते हैं--और शरीर को अगर पूरा रिलैक्स छोड़ना हो तो जमीन पर जो भारतीयों की पुरानी पद्धति है साष्टांग प्रणाम की, उस स्थिति में पड़ कर ही छोड़ा जा सकता है। वह शरणागति की स्थिति है शरीर के लिए। अगर आप भूमि पर सीधे पड़ जाएं, सब हाथ-पैर ढीले छोड़ कर सिर रख दें, सारे अंग भूमि को छूने लगें तो यह सिर्फ नमस्कार की एक विधि नहीं है, यह बहुत ही अदभुत वैज्ञानिक सत्यों से भरा हुआ प्रयोग है।
लोझानोव कहता है कि रात निद्रा में हमें जो विश्राम और शक्ति मिलती है, उसका मूल कारण हमारा पृथ्वी के साथ समतुल लेट जाना है। लोझानोव कहता है कि जब हम समतल पृथ्वी के साथ समानांतर लेट जाते हैं तो जगत की शक्तियां हममें सहज ही प्रवेश कर पाती हैं। जब हम खड़े होते हैं तो शरीर ही खड़ा नहीं होता, भीतर अहंकार भी उसके साथ खड़ा हो जाता है। जब हम लेट जाते हैं तो शरीर ही नहीं लेटता--उसके साथ अहंकार भी लेट जाता है। हमारे डिफेंस गिर जाते हैं, हमारे जो सुरक्षा के आयोजन हैं, जिनसे हम जगत को रेसिस्ट कर रहे हैं, वे गिर जाते हैं।
चेक युनिवर्सिटी प्राग के एक व्यक्ति के अनूठे प्रयोगों पर पिछले दस वर्षों से अनुसंधान करती है। वह व्यक्ति है, राबर्ट पावलिटा। थके हुए आदमियों को पुनर्शक्ति देने के उसने अनूठे प्रयोग किए हैं। आदमी थका है--आप बिलकुल थके टूटे पड़े हैं, वह आपको एक स्वस्थ गाय के नीचे लिटा देता है, जमीन पर। पांच मिनट आपसे कहता है: सब छोड़ कर पड़े रहें और भाव करें कि स्वस्थ गाय से आपके ऊपर शक्ति गिर रही है। पांच मिनट में यंत्र बताना शुरू कर देते हैं कि उस आदमी की थकान समाप्त हो गई। वह ताजा होकर गाय के नीचे से बाहर आ जाता है। पावलिटा से बार-बार पूछा गया कि अगर हम गाय के नीचे बैठें तो? पावलिटा ने कहा कि जो काम लेट कर क्षण भर में होगा वह बैठ कर घंटों में भी नहीं हो पाएगा। वृक्ष के नीचे लिटा देता है। पावलिटा कहता है: जैसे ही आप लेटते हैं, आपका जो रेसिस्टेंस है आपके चारों ओर, आपने अपने व्यक्तित्व की जो सुरक्षा की दीवालें खड़ी कर रखी हैं, वे गिर जाती हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य की बुद्धि विकसित हुई उसके खड़े होने से। यह सच है। सभी पशु पृथ्वी के समानांतर जीते हैं, आदमी भर वर्टिकल खड़ा हो गया। सभी पशु पृथ्वी की धुरी से समानांतर होते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी का पैर पर खड़ा हो जाना ही उसकी तथाकथित बुद्धि का विकास है। लेकिन साथ ही--यह बुद्धि तो जरूर विकसित हो गई, लेकिन साथ ही जीवन के अंतर्तम से, वह कॉस्मिक, जागतिक शक्तियों से उसके और गहरे सब संबंध शिथिल और क्षीण हो गए। उसे वापस लेट कर वे संबंध पुनर्स्थापित करने पड़ते हैं। इसलिए अगर मंदिरों में मूर्तियों के सामने, गिरजाघरों में, मस्जिदों में, लोग अगर झुक कर जमीन में लेटे जा रहे हैं तो उसका वैज्ञानिक अर्थ है। झुक कर लेटते ही डिफेंस टूट जाते हैं।
इसलिए फ्रायड ने जब पहली बार मनोचिकित्सा शुरू की तो उसने अनुभव किया कि अगर बीमार को बैठ कर बात की जाए तो बीमार अपने डिफेंस मेजर नहीं छोड़ता। इसलिए फ्रायड ने कोच विकसित की, मरीज को एक कोच पर लिटा दिया जाता है। वह डिफेंसलेस हो जाता है। फिर फ्रायड ने अनुभव किया कि अगर उसके सामने बैठा जाए तो लेट कर भी वह थोड़ा अकड़ा रहता है। तो एक परदा डाल कर फ्रायड परदे के पीछे बैठ गया। कोई मौजूद नहीं रहा, मरीज लेटा हुआ है। वह पांच-सात मिनट में अपना डिफेंस छोड़ देता है। वह ऐसी बातें बोलने लगता है जो बैठ कर वह कभी नहीं बोल सकता था। वह अपने ऐसे अपराध स्वीकार करने लगता है जो खड़े होकर उसने कभी भी स्वीकार न किए होते।
अभी अमरीका के कुछ मनोवैज्ञानिक फ्रायड के कोच के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं। वे यह आंदोलन चला रहे हैं कि यह आदमी को बहुत असहाय अवस्था में डालने की तरकीब है। उनका कहना ठीक है। आंदोलन गलत है। उनका कहना ठीक है। आदमी असहाय अवस्था में पड़ जाता है निश्र्चित ही लेट कर। असहाय इसलिए हो जाता है कि उसने अपने तरफ सुरक्षा का जो इंतजाम किया था वह गिर जाता है।
पर शरणागति को हमने बहुत मूल्य दिया है। और अगर परमात्मा की तरफ, अरिहंत की तरफ, सिद्ध की तरफ, भगवान की तरफ शरणागति हो तो वह तो सदा परदे के पीछे ही है एक अर्थ में। अगर महावीर मौजूद भी हों तो महावीर का शरीर परदा बन जाता है और महावीर की चेतना तो परदे के पीछे होती है। और कोई उनके समक्ष जब समर्पण कर देता है तो वह अपने को सब भांति छोड़ देता है, जैसे कोई नदी की धार में अपने को छोड़ दे और धार बहाने लगे--तैरे नहीं, बहाने लगे। शरणागति भाव है, फ्लोटिंग है, और जैसे ही कोई बहता है, वैसे ही चित्त के सब तनाव छूट जाते हैं।
एक फ्रेंच खोजी, इजिप्त के पिरामिडों में दस वर्षों तक खोज करता रहा है। उस आदमी का नाम है, बोविस। वह एक वैज्ञानिक और एक इंजीनियर है। वह यह देख कर बहुत हैरान हुआ कि कभी-कभी पिरामिड में कोई चूहा भूल से या बिल्ली घुस जाती है और फिर निकल नहीं पाती--भटक जाती और मर जाती है। पर पिरामिड के भीतर जब भी कोई चूहा या बिल्ली या कोई प्राणी मर जाता है तो सड़ता नहीं। सड़ता नहीं, उसमें से दुर्गंध नहीं आती। वह ममीफाइड हो जाता है--सूख जाता है, सड़ता नहीं।
यह हैरानी की घटना है और बहुत अदभुत है। पिरामिड के भीतर इसके होने का कोई कारण नहीं है। और ऐसे पिरामिड्स के भीतर जो कि समुद्र के किनारे हैं जहां कि ह्युमिडिटी काफी है, जहां कि कोई भी चीज सड़नी ही चाहिए, और जल्दी सड़ जानी चाहिए, उन पिरामिड्स के भीतर भी कोई मर जाए तो सड़ता नहीं। मांस ले जाकर रख दिया जाए तो सूख जाता है, दुर्गंध नहीं देता। मछली डाल दी जो तो सूख जाती है, सड़ती नहीं। तो बहुत चकित हो गया। इसका तो कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता था। बहुत खोज-बीन की। आखिर यह खयाल में आना शुरू हुआ कि शायद पिरामिड का जो शेप है, वही कुछ कर रहा है।
लेकिन शेप, आकार कुछ कर सकता है? सब खोज के बाद कोई उपाय नहीं था। दस साल की खोज के बाद बोविस को खयाल आया कि कहीं पिरामिड का जो शेप, जो आकृति है, वह तो कुछ नहीं करती? तो उसने एक छोटा पिरामिड मॉडल बनाया--छोटा सा, तीन-चार फीट का बेस लेकर, और उसमें एक मरी हुई बिल्ली रख दी। वह चकित हुआ, वह ममीफाइड हो गई, वह सड़ी नहीं। तब तो एक बहुत नये विज्ञान का जन्म हुआ, और वह नया विज्ञान कहता है--ज्यामिट्री की जो आकृतियां हैं उनका जीवन ऊर्जाओं से बहुत संबंध है। और अब बोविस की सलाह पर यह कोशिश की जा रही है कि सारी दुनिया के अस्पताल पिरामिड की शक्ल में बनाए जाएं। उनमें मरीज जल्दी स्वस्थ होगा।
आपने सर्कस के ़जोकर को, हंसोड़े को जो टोपी लगाए देखी है, वह फूल्स कैप कहलाती है। उसी की वजह से कागज--जितने कागज से वह टोपी बनती है, वह फूल्स कैप कहलाता है। लेकिन बोविस का कहना है कि कभी दुनिया के बुद्धिमान आदमी वैसी टोपी लगाते थे। वह वाइ़ज-कैप है, क्योंकि वह टोपी पिरामिड के आकार की है। और अभी बोविस ने प्रयोग किए हैं, फूल्स कैप के ऊपर। और उसका कहना है कि जिन लोगों को भी सिरदर्द होता है, वे पिरामिड के आकार की टोपी लगाएं, तत्क्षण उनका सिरदर्द दूर हो सकता है। जिनको भी मानसिक विकार हैं वे पिरामिड के आकार की टोपी लगाएं, उनके मानसिक विकार दूर हो सकते हैं। अनेक चिकित्सालयों में जहां मानसिक चिकित्सा की जाती है, बोविस की टोपी का प्रयोग किया जा रहा है, और प्रमाणित हो रहा है कि वह ठीक कहता है।
क्या टोपी के भीतर का आकार, आकृति इतना भेद ला दे सकती है! अगर बाह्य आकृतियां इतना भेद ला सकती हैं तो आंतरिक आकृतियों में कितना भेद पड़ सकेगा, वह मैं आपसे कहना चाहता हूं। शरणागति आंतरिक आकृति को बदलने की चेष्टा है, इनर ज्यामेट्री को। जब आप खड़े होते हैं तो आपके भीतर की चित्त-आकृति और होती है, और जब आप पृथ्वी पर शरण में लेट जाते हैं तो आपके भीतर की चित्त-आकृति और होती है। चित्त में भी ज्यामेट्रिकल फिगर्स होते हैं। चित्त की आकृतियों में दो विशेष आकृतियां हैं, आपके खड़े होने का खयाल जमीन से नब्बे का कोण बनाता है। और जब आप जमीन पर लेट जाते हैं तो आप जमीन से कोई कोण नहीं बनाते, पैरेलल, समानांतर हो जाते हैं। अगर कोई परिपूर्ण भाव से कह सके कि मैं अरिहंत की शरण आता हूं, सिद्ध की शरण आता हूं, धर्म की शरण आता हूं, तो यह भाव उसकी आंतरिक आकृति को बदल देता है। और आंतरिक आकृति बदलते ही, आपके जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाते हैं। आपके अंतर में आकृतियां हैं। आपकी चेतना भी रूप लेती है। और आप जिस तरह का भाव करते हैं, चेतना उसी तरह का रूप लेती है।
चार साल पहले, सारे पश्र्चिम के वैज्ञानिक एक घटना से जितना धक्का खाए, उतना शायद पिछले दो सौ वर्षों में किसी घटना से नहीं खाए। दिमित्री दोजोनोव नाम का एक चेक किसान जमीन से चार फीट ऊपर उठ जाता है। और दस मिनट तक जमीन से चार फीट ऊपर, ग्रेविटेशन के पार, गुरुत्वाकर्षण के पार दस मिनट तक रुका रह जाता है। सैकड़ों वैज्ञानिकों के समक्ष अनेकों बार यह प्रयोग दिमित्री कर चुका है। सब तरह की जांच-पड़ताल कर ली गई है। कोई धोखा नहीं है, कोई तरकीब नहीं है।
दिमित्री से पूछा जाता है कि तेरे इस उठने का राज क्या है, तो वह दो बातें कहता है। वह कहता है--एक राज तो मेरा समर्पण भाव, कि मैं परमात्मा को कहता हूं कि मैं तेरे हाथ में अपने को सौंपता हूं, तेरी शरण आता हूं। मैं अपनी ताकत से ऊपर नहीं उठता, उसकी ताकत से ऊपर उठता हूं। जब तक मैं रहता हूं, तब तक मैं ऊपर नहीं उठ पाता।
दो-तीन बार उसके प्रयोग असफल भी गए। पसीना-पसीना हो गया। सैकड़ों लोग देखने आए हैं दूर-दूर से, और वह ऊपर नहीं उठ पा रहा है। आखिर में उसने कहा कि क्षमा करें। तो लोगों ने कहा: क्यों ऊपर नहीं उठ पा रहे हो? उसने कहा: नहीं उठ पा रहा इसलिए कि मैं अपने को भूल ही नहीं पा रहा हूं। और जब तक मुझे मेरा खयाल जरा सा भी बना रहे तब तक ग्रेविटेशन काम करता है, तब तक जमीन मुझे नीचे खींचे रहती है। जब मैं अपने को भूल जाता हूं, मुझे याद ही नहीं रहता कि मैं हूं, ऐसा ही याद रह जाता है कि परमात्मा है--बस, तत्काल मैं ऊपर उठ जाता हूं।
शरणागति का अर्थ ही है समर्पण। क्या यह दिमित्री जो कह रहा है, क्या परमात्मा पर छोड़ देने पर जीवन के साधारण नियम भी अपना काम करना छोड़ देते हैं? जमीन अपनी कशिश छोड़ देती है? अगर जमीन अपनी कशिश छोड़ देती है तो क्या आश्र्चर्य होगा कि जो व्यक्ति अरिहंत की शरण जाए, सेक्स की कशिश उसके भीतर छूट जाए! जीवन का सामान्य नियम टूट जाए! शरीर की जो मांग है वह छूट जाए! क्या यह हो सकता है कि शरीर भोजन मांगना बंद कर दे? क्या यह हो सकता है कि शरीर बिना भोजन के, और वर्षों रह जाए? अगर जमीन कशिश छोड़ सकती है तो कोई भी तो कारण नहीं है। प्रकृति का अगर एक नियम भी टूट जाता है तो सब नियम टूट सकते हैं।
और दिमित्री दूसरी बात यह कहता है कि जब मैं ऊपर उठ जाता हूं तब एक बात भर असंभव है ऊपर उठ जाने के बाद--जब तक मैं नीचे न आ जाऊं, मेरी शरीर की जो आकृति होती है उसमें मैं जरा भी फर्क नहीं कर सकता। अगर मेरा हाथ घुटने पर रखा है, तो मैं उसे हिला नहीं सकता, उठा नहीं सकता। मेरा सिर जैसा है फिर उसको मैं आड़ा-तिरछा नहीं कर सकता। मेरा शरीर उस आकृति में बिलकुल बंध जाता है। और न केवल मेरा शरीर, बल्कि मेरे भीतर चेतना भी उसी आकृति में बंध जाती है।
आपको खयाल में नहीं होगा--क्योंकि हमारे पास खयाल जैसी चीज ही नहीं बची है। आपके विचार में भी नहीं आया होगा कि सिद्धासन, पिरामिड की आकृति पैदा करना है शरीर में। बुद्ध की, महावीर की सारी मूर्तियां जिस आसन में हैं, वह पिरामिडिकल हैं। जमीन पर बेस बड़ी हो जाती है दोनों पैर की और ऊपर सब छोटा होता जाता है, सिर पर शिखर हो जाता है। एक ट्राएंगल बन जाता है। उस अवस्था में, उस आसन को सिद्धासन कहा है। क्यों? क्योंकि उस आसन में सरलता से प्रकृति के नियम अपना काम छोड़ देते हैं और प्रकृति के ऊपर जो परमात्मा के गहन, सूक्ष्म नियम हैं, वे काम करना शुरू कर देते हैं। वह आकृति महत्वपूर्ण है। दिमित्री कहता है कि जमीन से उठ जाने के बाद फिर मैं आकृति नहीं बदल सकता, कोई उपाय नहीं है। मेरा कोई वश नहीं रह जाता। जमीन पर लौट कर ही आकृति बदल सकता हूं।
यह शरणागति की अपनी आकृति है, अहंकार की अपनी आकृति है। अहंकार को आप जमीन पर लेटा हुआ सोच सकते हैं? कंसीव भी नहीं कर सकते। अहंकार को सदा खड़ा हुआ ही सोच सकते हैं। बैठा हुआ अहंकार, सोया हुआ अहंकार कोई अर्थ नहीं रखता। अहंकार सदा खड़ा हुआ होता है। शरण के भाव को आप खड़ा हुआ सोच सकते हैं? शरण का भाव लेट जाने का भाव है। किसी विराटतर शक्ति के समक्ष अपने को छोड़ देने का भाव है। मैं नहीं, तू--वह भावना उसमें गहन है।
मैंने आपसे कहा कि प्रकृति के नियम काम करना छोड़ देते हैं, अगर हम परमात्मा के नियम में अपने को समाविष्ट करने में समर्थ हो जाएं। इस संबंध में कुछ बातें कहनी जरूरी हैं।
महावीर के संबंध में कहा जाता है, और पच्चीस सौ साल में महावीर के पीछे चलने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं समझा पाया कि उसका राज क्या है--महावीर ने बारह वर्षों में केवल तीन सौ पैंसठ दिन भोजन किया। इसका अर्थ हुआ कि ग्यारह वर्ष भोजन नहीं किया। कभी तीन महीने बाद एक दिन किया, कभी महीने बाद एक दिन किया। बारह वर्ष के लंबे समय में सब मिला कर तीन सौ पैंसठ दिन, एक वर्ष भोजन किया। अनुपात अगर लें तो बारह दिन में एक दिन भोजन किया और ग्यारह दिन भूखे रहे। लेकिन महावीर से ज्यादा स्वस्थ शरीर खोजना मुश्किल है, शक्तिशाली शरीर खोजना मुश्किल है। बुद्ध या क्राइस्ट या कृष्ण या राम, शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से महावीर के सामने कोई भी नहीं टिकते। हैरानी की बात है! बहुत हैरानी की बात है! और महावीर शरीर के साथ जैसे-जैसे नियम बाह्य काम कर रहे हैं, उसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। बारह साल तक यह आदमी तीन सौ पैंसठ दिन भोजन करता है। इसके शरीर को तो गिर जाना चाहिए कभी का। लेकिन क्या हुआ है कि शरीर गिरता नहीं!
तो मैंने अभी नाम लिया है--राबर्ट पावलिटा का। इसकी प्रयोगशाला में बहुत अनूठे प्रयोग किए जा रहे हैं। उनमें एक प्रयोग भोजन के बाहर सम्मोहन के द्वारा हो जाने का भी है। जो व्यक्ति इस प्रयोगशाला में काम कर रहा है उसने चकित कर दिया है। पावलिटा की प्रयोगशाला में कुछ लोगों को दस-दस साल के लिए सम्मोहित किया गया। वह दस साल तक सम्मोहन में रहेंगे--उठेंगे, बैठेंगे,
काम करेंगे, खाएंगे, पीएंगे, लेकिन उनका सम्मोहन नहीं तोड़ा जाएगा। वह गहरी सम्मोहन की अवस्था बनी रहेगी। और कुछ लोगों ने तो अपना पूरा जीवन सम्मोहन के लिए दिया है जो पूरे जीवन के लिए सम्मोहित किए गए हैं, उनका जीवन भर सम्मोहन नहीं तोड़ा जाएगा।
उनमें एक व्यक्ति है, बरफिलाव। उसको तीन सप्ताह के लिए पिछले वर्ष सम्मोहित किया गया और तीन सप्ताह पूरे समय उसे बेहोश, सम्मोहित रखा गया। और उसे तीन सप्ताह बार-बार सम्मोहन में झूठा भोजन दिया गया। जैसे उसे बेहोशी में कहा गया कि तुझे एक बगीचे में ले जाया जा रहा है। देख, कितने सुगंधित फूल और कितने फल लगे हैं, सुगंध आ रही है? उस व्यक्ति ने एक जोर से श्र्वास खींची और कहा: अदभुत सुगंध है! प्रतीत होता है, सेव पक गए। पावलिटा ने उन झूठे, काल्पनिक, फैंटेसी के बगीचे से फल तोड़े; उस आदमी को दिए और कहा कि लो, बहुत स्वादिष्ट हैं। उस आदमी ने शून्य में, शून्य से लिए गए, शून्य सेवों को खाया। कुछ था नहीं वहां। स्वाद लिया, आनंदित हुआ।
पंद्रह दिन तक उसे इसी तरह का भोजन दिया गया--पानी भी नहीं, भोजन भी नहीं--झूठा पानी कहें, झूठा भोजन कहें। दस डॉक्टर उसका अध्ययन करते थे। उन्होंने कहा है कि रोज उसका शरीर और भी स्वस्थ होता चला गया। उसको जो शारीरिक तकलीफें थीं वे पांच दिन के बाद विलीन हो गईं। उसका शरीर अपने मैक्सिमम स्वास्थ्य की हालत में आ गया, सातवें दिन के बाद। शरीर की सामान्य क्रियाएं बंद हो गईं। पेशाब या पाखाना, मलमूत्र विसर्जन सब विदा हो गया, क्योंकि उसके शरीर में कुछ जा ही नहीं रहा है। तीन सप्ताह के बाद जो सबसे बड़े चमत्कार की बात थी, वह यह कि वह परिपूर्ण स्वस्थ अपनी बेहोशी के बाहर आया। और बड़े आश्र्चर्य की बात--जो आप कल्पना भी नहीं कर सकते, वह यह कि उसका वजन बढ़ गया।
यह असंभव है। जो वैज्ञानिक वहां अध्ययन कर रहा था, डॉक्टर रेझिल, उसने वक्तव्य दिया है: दिस इ़ज साइंटिफिकली इंपासिबल। पर उसने कहा कि इंपासिबल हो या न हो, असंभव हो या न हो, लेकिन यह हुआ है, और मैं मौजूद था। और दस रात और दस दिन पूरे वक्त पहरा था कि उस आदमी को कुछ खिला न दिया जाए कोई तरकीब से; कोई इंजेक्शन न लगा दिया जाए; कोई दवा न डाल दी जाए। कुछ भी उसके शरीर में नहीं डाला गया। वजन बढ़ गया। तो रेझिल उस पर साल भर से काम कर रहा है और रेझिल का कहना है कि यह मानना पड़ेगा कि देयर इ़ज समथिंग लाइक ऐन अननोन एक्स-फोर्स। कोई एक शक्ति है अज्ञात एक्स नाम की, जो हमारी वैज्ञानिक रूप से जानी गई किन्हीं शक्तियों में समाविष्ट नहीं होती--वही काम कर रही है। उसे हम भारत में प्राण कहते रहे हैं।
इस प्रयोग के बाद महावीर को समझना आसान हो जाएगा। और इसलिए मैं कहता हूं कि जिन लोगों को भी उपवास करना हो वे तथाकथित जैन साधुओं से सुन-समझ कर उपवास करने के पागलपन में न पड़ें। उन्हें कुछ भी पता नहीं है। वे सिर्फ भूखा मरवा रहे हैं। अनशन को उपवास कह रहे हैं। उपवास की तो पूरी, और ही वैज्ञानिक प्रक्रिया है। और अगर उस भांति प्रयोग किया जाए तो वजन नहीं गिरेगा, वजन बढ़ भी सकता है।
पर महावीर का वह सूत्र खो गया। संभव है, रेझिल उस सूत्र को चेकोस्लोवाकिया में फिर से पुनः पैदा कर ले--कर लेगा। यहां भी हो सकता है--लेकिन हम अभागे लोग हैं। हम व्यर्थ की बातों में और विवादों में इतना समय नष्ट करते हैं और करवाते हैं कि सार्थक को करने के लिए समय और सुविधा भी नहीं बचती। और हम ऐसी मूढ़ताओं में लीन होते हैं, जिन्होंने विद्वत्ता का आवरण ओढ़ रखा है। और हम बंधी हुई अंधी गलियों में भटकते रहते हैं जहां रोशनी की कोई किरण भी नहीं है।
यह प्रकृति के नियम के बाहर जाने की महावीर की तरकीब क्या होगी? क्योंकि महावीर तो सम्मोहित या बेहोश नहीं थे। यह पावलिटा और रेझिल का जो प्रयोग है, यह तो एक बेहोश और सम्मोहित आदमी पर है। महावीर तो पूर्ण जाग्रत पुरुष थे, वह तो बेहोश नहीं थे। वह तो उन जाग्रत लोगों में से थे जो कि निद्रा में भी जाग्रत रहते, जो कि नींद में भी सोते नहीं। जिन्हें नींद में भी पूरा होश रहता है कि यह रही नींद। नींद भी जिनके आस-पास ही होती है--अराउंड दि कार्नर--कभी भीतर नहीं होती। वे उसे जांचते हैं, जानते हैं कि यह रही नींद और वे सदा बीच में जागे हुए होते हैं।
तो महावीर ने कैसे किया होगा? फिर महावीर का सूत्र क्या है? असल में सम्मोहन में और महावीर के सूत्र में एक आंतरिक संबंध है, वह खयाल में आ जाए। सम्मोहित व्यक्ति बेहोशी में विवश होकर समर्पित हो जाता है। उसका अहंकार खो जाता है और तो कुछ फर्क नहीं है। अपने आप जान कर वह नहीं खोता, इसलिए उसे बेहोश करना पड़ता है। बेहोशी में खो जाता है। महावीर जान कर उस अस्मिता को, उस अहंकार को खो देते हैं और समर्पित हो जाते हैं। अगर आप होशपूर्वक भी, जागे हुए भी समर्पित हो सकें, कह सकें--‘अरिहंत शरणं पवज्जामि,’ तो आप उसी रहस्य लोक में प्रवेश कर जाते हैं जहां रेझिल और पावलिटा प्रयोगकर्ता केवल बेहोशी में प्रवेश कर पाता है। होश में आने पर तो उस आदमी को भी भरोसा नहीं आया कि यह हो सकता है। उसने कहा: कुछ न कुछ गड़बड़ हुई होगी। मैं नहीं मान सकता। होश में आने के बाद तो वह एक दिन बिना भोजन के न रह सका। उसने कहा कि मैं मर जाऊंगा। अहंकार वापस आ गया। अहंकार अपने सुरक्षा आयोजन को लेकर फिर खड़ा हो गया। उस आदमी को समझा रहे हैं डॉक्टर कि नहीं मरेगा; क्योंकि इक्कीस दिन तो हम देख चुके कि तेरा स्वास्थ्य और बढ़ा है। पर उस आदमी ने कहा कि मुझे कुछ पता नहीं। मुझे भोजन दें। भय लौट आया।
ध्यान रहे, मनुष्य के चित्त में जब तक अहंकार है, तब तक भय होता है। भय और अहंकार एक ही ऊर्जा के नाम हैं। तो जितना भयभीत आदमी, उतना अहंकारी। जितना अहंकारी, उतना भयभीत। तो आप सोचते होंगे कि अहंकारी बहुत निर्भय होता है, तो आप गलती में हैं। अहंकारी अत्यंत भयातुर होता है। यद्यपि अपने भय को प्रकट न होने देने के लिए वह निर्भयता के कवच ओढ़े रहता है। तलवारें लिए रहता है हाथ में कि सम्हल कर रहना। महावीर कहते हैं: अभय तो वही होता है जो अहंकारी नहीं होता। क्योंकि फिर भय के लिए कोई कारण नहीं रहा। भयभीत होने वाला भी नहीं रहा। इसलिए महावीर कहते हैं कि जो निर्भय अपने को दिखा रहा है, वह तो भयभीत है ही। अभय... अभय का अर्थ? वही हो सकता है अभय, जो समर्पित, शरणागत; जिसने छोड़ा अपने को। अब कोई भय का कारण न रहा।
यह सूत्र शरणागति का है। इस सूत्र के साथ नमोकार पूरा होता है। नमस्कार से शुरू होकर शरणागति पर पूरा होता है। और इस अर्थ में नमोकार पूरे धर्म की यात्रा बन जाता है। उस छोटे से सूत्र में पहले से लेकर आखिरी कदम तक सब छोड़ दें, कहीं किसी शरण में छोड़ दें। यह बात प्रयोजनहीन है--कहां छोड़ दें। महत्वपूर्ण यही है कि छोड़ दें।
तो शरणागति का पहला तो संबंध है--आंतरिक ज्यामिति से कि वह आपके भीतर की चेतना की आकृति बदलती है। दूसरा संबंध है: आपको प्रकृति के साधारण नियमों के बाहर ले जाती है। किसी गहन अर्थ में आप दिव्य हो जाते हैं, शरण जाते ही। आप ट्रांसेंड कर जाते हैं, अतिक्रमण कर जाते हैं--साधारण तथाकथित नियमों का--जो हमें बांधे हुए हैं। और तीसरी बात: शरणागति आपके जीवन-द्वारों को परम ऊर्जा की तरफ खोल देती है जैसे कि कोई अपनी आंख को सूरज की तरफ उठा ले। सूरज की तरफ पीठ करने की भी हमें स्वतंत्रता है। सूरज की तरफ पीठ करके भी हम खड़े हो सकते हैं। सूरज की तरफ मुंह करके भी आंख बंद रख सकते हैं। सूरज का अनंत प्रकाश बरसता रहेगा और हम वंचित रह जाएंगे। लेकिन एक आदमी सूरज की तरफ घूम जाता है, जैसे कि सूरजमुखी का फूल घूम गया हो। आंख खोल लेता है, द्वार खुले छोड़ देता है। सूर्य का प्रकाश उसके रोएं-रोएं, रंध्र-रंध्र तक पहुंच जाता है। उसके हृदय के अंधकारपूर्ण कक्षों तक भी प्रकाश की खबर पहुंच जाती है। वह नया और ताजा, पुनरुज्जीवित हो जाता है। ठीक ऐसे ही विश्र्व-ऊर्जा के स्रोत हैं और उन विश्र्व-ऊर्जा के स्रोतों की तरफ स्वयं को खोलना हो तो शरण में जाने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।
इसलिए अहंकारी व्यक्ति दीन से दीन व्यक्ति है, जिसने अपने को समस्त स्रोतों से तोड़ लिया है। जो सिर्फ अपने पर ही भरोसा कर रहा है। वह ऐसा फूल है जिसने जड़ों से अपने संबंध त्याग दिए। और जिसने सूरज की तरफ मुंह फेरने से अकड़ दिखाई। वर्षा आती है तो अपनी पंखुड़ियां बंद कर लेता है। सड़ेगा, उसका जीवन सिर्फ सड़ने का एक क्रम होगा। उसका जीवन मरने की एक प्रक्रिया होगी। उसका जीवन परम जीवन का मार्ग नहीं बनेगा। लेकिन फूल पाता है रस--जड़ों से, सूर्यों से, चांद-तारों से। अगर फूल समर्पित है तो प्रफुल्लित हो जाता है। सब द्वारों से उसे रोशनी, प्रकाश, जीवन मिलता है।
शरणागति का तीसरा और गहनतम जो रूप है, वह प्रकाश, जीवन-ऊर्जा के जो परम स्रोत हैं, जो एनर्जी सोर्सेज हैं--उनकी तरफ अपने को खोलना है।
इस पावलिटा का मैंने नाम लिया, इसके नाम से एक यंत्र वैज्ञानिक जगत में प्रसिद्ध है। वह कहलाता है--पावलिटा जनरेटर। बड़े छोटे-छोटे उसने यंत्र बनाए हैं। बहुत संवेदनशील पदार्थों से बहुत छोटी-छोटी चीजें बनाई हैं, और अभूतपूर्व काम उन यंत्रों से पावलिटा करवा रहा है। वह उन यंत्रों पर कहता है कि आप सिर्फ अपनी आंख गड़ा कर खड़े हो जाएं, पांच क्षण के लिए--कुछ न करें, सिर्फ आंख गड़ा कर उन यंत्रों के सामने खड़े हो जाएं। वह यंत्र आपकी शक्ति को संगृहीत कर लेते हैं और तत्काल उस शक्ति का उपयोग किया जा सकता है। और जो काम आपका मन कर सकता था, बहुत दूर तक, वही काम अब वह यंत्र कर सकता है। पांच मिनट पहले उस यंत्र को आप हाथ में उठाते तो वह मुर्दा था। पांच मिनट बाद आप उसको हाथ में उठाएं तो आपके हाथ में उस शक्ति का अनुभव होगा। पांच मिनट पहले आप जिसे प्रेम करते हैं, अगर आपने वह यंत्र उसके हाथ में दिया होता तो वह कहता: ठीक है। वह व्यक्ति कहता या वह स्त्री कहती कि ठीक है। लेकिन पांच मिनट उसे आप गौर से देख लें और आपकी ध्यान-ऊर्जा उससे संयुक्त हो जाए तो आप उस यंत्र को अपने प्रेमी के हाथ में दे दें--वह फौरन पहचानेगा कि आपकी प्रतिध्वनि उस यंत्र से आ रही है। अगर क्रोध और घृणा से भरा हुआ व्यक्ति उस यंत्र को देख ले तो आप उसको हाथ से अलग करना चाहेंगे। अगर प्रेम और दया और सहानुभूति से भरा व्यक्ति देख ले तो आप उसे सम्हाल कर रखना चाहेंगे।
पावलिटा ने तो एक बहुत अदभुत घोषणा की है। उसने कहा: बहुत शीघ्र भीड़ को छांटने के लिए गोली और लाठी चलाने की जरूरत न होगी। हम ऐसे यंत्र बना सकेंगे जो पंद्रह मिनट में वहां खड़े कर दिए जाएं, लोग भाग जाएंगे। इतनी घृणा उनसे विकीर्णित की जा सकेगी। अभी उसके प्रयोग तो सफल हुए हैं। उसने प्रयोग बताए हैं लोगों को करके, और वे सफल हुए हैं। अब उसने नवीनतम जो यंत्र बनाया है वह ऐसा है कि आपको देखने की भी जरूरत नहीं है। आप सिर्फ एक विशेष सीमा के भीतर उसके पास से गुजर जाएं, वह आपको पकड़ लेगा।
मैंने कल कहा था कि स्टैलिन ने एक आदमी की हत्या करवा दी--कार्ल आटोविच झीलिंग की, उन्नीस सौ सैंतीस में। वह आदमी उन्नीस सौ सैंतीस में यही काम कर रहा था, जो पावलिटा अब कर पाया है। बीस साल, तीस साल व्यर्थ पिछड़ गई बात। झीलिंग अदभुत व्यक्ति था। वह अंडे को हाथ में रख कर बता सकता था कि इस अंडे से मुर्गी पैदा होगी या मुर्गा, और कभी गलती नहीं हुई। पर यह तो बड़ी बात नहीं, क्योंकि अंडे के भीतर आखिर जो प्राण हैं--स्त्री और पुरुष की विद्युत में फर्क है, उनके विद्युत कंपन में फर्क है, वही उनके बीच आकर्षण है। वह निगेटिव-पाजिटिव का फर्क है--तो अंडे के ऊपर अगर संवेदनशील व्यक्ति हाथ रखे तो ऊर्जा-कण निकलते रहते हैं, वह बता सकता है।
लेकिन झीलिंग--चित्र को ढंक दें आप--वह चित्र, ढंके हुए चित्र पर हाथ रख कर बता सकता था कि चित्र नीचे स्त्री का है कि पुरुष का। झीलिंग का कहना था कि जिसका चित्र लिया गया है, उसके विद्युत-कण उस चित्र में समाविष्ट हो जाते हैं, जितनी देर लिया जाता है। और इसलिए समाविष्ट हो जाते हैं कि जब किसी का चित्र लिया जाता है, तो वह कैमरा कांशस हो जाता है, उसका ध्यान कैमरे पर अटक जाता है और धारा प्रवाहित हो जाती है। वह जो पावलिटा कह रहा है कि एक तरफ देखने से आपकी ऊर्जा चली जाती है; आपके चित्र में भी आपकी ऊर्जा चली जाती है।
पर यह तो कुछ भी नहीं है। झीलिंग की सबसे अदभुत बात जो थी, वह यह है कि किसी आईने पर हाथ रख कर वह बता सकता था कि आखिरी जो व्यक्ति, इस आईने के सामने से निकला, वह स्त्री थी या पुरुष। क्योंकि आईने के सामने भी आप मिरर कांशस हो जाते हैं। जब आप आईने के सामने होते हैं तो जितने एकाग्र होते हैं, शायद और कहीं नहीं होते। आपके बाथरूम में लगा आईना आपके संबंध में किसी दिन इतनी बातें कह सकेगा कि आपको अपना आईना बचाना पड़ेगा कि कोई ले न जाए उठा कर। वे सब रहस्य खुल जाएंगे, जो आपने किसी को नहीं बताए। जो सिर्फ आपका बाथरूम और आपके बाथरूम का आईना जानता है। क्योंकि जितने ध्यानमग्न होकर आप आईने को देखते हैं, शायद किसी चीज को नहीं देखते। आपकी ऊर्जा प्रविष्ट हो रही है।
अगर आपसे ऊर्जा प्रविष्ट होती है ध्यानमग्न होने से, तो क्या इससे विपरीत नहीं हो सकता? वह विपरीत ही शरणागति का राज है। कि अगर आप ध्यानमग्न होते हैं, बहुत छोटे से ऊर्जा के केंद्र हैं आप। और अगर आपसे भी ऊर्जा प्रवाहित हो जाती है, तो क्या परम शक्ति के प्रति आप समर्पित होकर, उसकी ऊर्जा को अपने में समाविष्ट नहीं कर सकते? ऊर्जा के प्रवाह हमेशा दोनों तरफ होते हैं। जो ऊर्जा आपसे बह सकती है, वह आपकी तरफ भी बह सकती है। और अगर गंगाएं सागर की तरफ बहती हैं तो क्या सागर गंगा की तरफ नहीं बह सकता? यह शरणागति, सागर को गंगा की गंगोत्री की तरफ बहाने की प्रक्रिया है।
हम तो सब बह-बह कर सागर में गिर ही जाते हैं, लड़-लड़ कर बचाने की कोशिश में हैं। जीसस ने कहा है: ‘जो भी अपने को बचाएगा, वह मिट जाएगा। और धन्य हैं वे जो अपने को मिटा देते हैं, क्योंकि उनको मिटाने की फिर किसी की सामर्थ्य नहीं है।’ गंगा तो लड़ती होगी, झगड़ती होगी, सागर में गिरने के पहले, सभी झगड़ते और लड़ते हैं। भयभीत होती होगी--‘मिटी जाती हूं।’ मौत से हमारा डर यही तो है। मौत का मतलब, सागर के किनारे पहुंच गई गंगा। ‘मरे’, बचा रहे हैं। लड़ते-लड़ते गिर जाते हैं। तब गिरने का जो मजा था, उससे भी चूक जाते हैं और पीड़ा भी पाते हैं।
शरणागति कहती है: लड़ो ही मत। गिर ही जाओ, और तुम पाओगे कि जिसकी शरण में तुम गिर गए हो, उससे तुमने कुछ नहीं खोया, पाया। सागर आया गंगोत्री की तरफ--वह जो अमृत का स्रोत है, चारों तरफ, जीवन का रहस्य स्रोत। ये तो प्रतीक शब्द हैं--अरिहंत, सिद्ध, साधु। ये हमारे पास आकृतियां हैं, उस अनंत स्रोत की। ये हमारे निकट, जिन्हें हम पहचान सकें। परमात्मा निराकार में खड़ा है, उसे पहचानना बहुत मुश्किल होगा। जो पहचान सके, धन्यभागी है।
लेकिन आकार में भी परमात्मा की छवि बहुत बार दिखाई पड़ती है--कभी किसी महावीर में, कभी किसी बुद्ध में, कभी किसी क्राइस्ट में, कभी उस परमात्मा की, उस निराकार की छवि दिखाई पड़ती है। लेकिन हम उस निराकार को तब भी चूकते हैं, क्योंकि हम आकृति में कोई भूल निकाल लेते हैं। कहते हैं कि जीसस की नाक थोड़ी कम लंबी है। यह परमात्मा की नहीं हो सकती। कि महावीर को तो बीमारी पकड़ती है, यह परमात्मा कैसे हो सकते हैं? कि बुद्ध भी तो मर जाते हैं, ये परमात्मा कैसे हो सकते हैं? आपको खयाल नहीं कि यह आप आकृति की भूलें निकाल रहे हैं और आकृति के बीच जो मौजूद था, उससे चूके जा रहे हैं।
आप वैसे आदमी हैं, जो कि दीये की मिट्टी की भूलें निकाल रहे हैं, तेल की भूलें निकाल रहे हैं और वह जो ज्योति चमक रही है, उसे चूके जा रहे हैं। होगी दीये में भूल। नहीं बना होगा पूरा सुघड़। पर प्रयोजन क्या है? तेल भर लेता है, काफी सुघड़ है। वह जो ज्योति बीच में जल रही है, वह जो निराकार ज्योति है, स्रोत-रहित--उसे तो देखना कठिन है। उसे भी देखा जा सकता है। लेकिन अभी तो प्रारंभिक चरण में उसे अरिहंत में, उसे सिद्ध में, उसे साधु में, उसे जाने हुए लोगों के द्वारा कहे गए धर्म में देखने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन हम ऐसे लोग हैं कि अगर कृष्ण बोल रहे हों तो हम यह फिकर कम करेंगे कि उन्होंने क्या कहा। हम इसकी फिकर करेंगे कि कोई व्याकरण की भूल तो नहीं थी। हम ऐसे लोग हैं!
हम जिद किए बैठे हैं चूकने की कि हम चूकते ही चले जाएंगे। और जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, उनसे ज्यादा बुद्धिहीन खोजना मुश्किल है, क्योंकि वे चूकने में सर्वाधिक कुशल होते हैं। वे महावीर के पास जाते हैं तो वे कहते हैं कि सब लक्षण पूरे हुए कि नहीं? पहले लक्षण जो शास्त्र में लिखे हैं--वे पूरे होते हैं कि नहीं। वे दीयों की नाप-जोख कर रहे हैं, तेल का पता लगा रहे हैं। और तब तक ज्योति विदा हो जाएगी। और जब तक वे तय कर पाएंगे कि दीया बिलकुल ठीक है, तब तक ज्योति जा चुकी होगी। और तब दीये को वे हजारों साल तक पूजते रहेंगे। इसलिए मरे हुए दीयों का हम बड़ा आदर करते हैं। क्योंकि जब तक हम तय कर पाते हैं कि दीया ठीक है, या अपने को तय कर पाते हैं कि चलो ठीक है, तब तक ज्योति तो जा चुकी होती है।
इस जगत में, जिंदा तीर्थंकर का उपयोग नहीं होता, सिर्फ मुर्दा तीर्थंकर का उपयोग होता है। क्योंकि मुर्दा तीर्थंकर के साथ, भूल-चूक निकालने की सुविधा नहीं रह जाती। अगर महावीर के साथ आप रास्ते पर चलते हों, और देखें कि महावीर भी थक कर और वृक्ष के नीचे विश्राम करते हैं, शक पकड़ेगा कि अरे महावीर तो कहते थे अनंत ऊर्जा है, अनंत शक्ति है, अनंत वीर्य है। कहां गई अनंत ऊर्जा? यह तो थक गए। दस मील चले और पसीना निकल आया। साधारण आदमी हैं। दीया थक रहा है। महावीर जिस अनंत ऊर्जा की बात कर रहे हैं वह ज्योति की बात है। दीये तो सभी के थक जाएंगे और गिर जाएंगे।
लेकिन ये सारी बातें हम क्यों सोचते हैं? यह हम सोचते हैं, इसलिए कि शरण से बच सकें। इसके सोचने का लॉजिक है। इसके सोचने का तर्क है। इसके सोचने का रेशनेलाइजेशन है। यह हम सोचते इसलिए हैं ताकि हमें कोई कारण मिल सके और कारण के द्वारा, हम अपने को रोक सकें--शरण जाने से। बुद्धिमान वह है जो कारण खोजता है शरण जाने के लिए। और बुद्धिहीन वह है जो कारण खोजता है शरण से बचने के लिए। दोनों खोजे जा सकते हैं।
महावीर जिस गांव से गुजरते हैं, सारा गांव उनका भक्त नहीं हो जाता। उस गांव में भी उनके शत्रु होते ही हैं। जरूर वे भी अकारण नहीं होते होंगे। उनको भी कारण मिल जाता है। वे भी खोज लेते हैं कि महावीर तो कहते हैं कि जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है वह सर्वज्ञ हो जाता है। और अगर महावीर सर्वज्ञ हैं तो वे उस घर के सामने भिक्षा क्यों मांगते थे, जिसमें कोई है ही नहीं? इन्हें तो पता होना ही चाहिए न कि घर में कोई भी नहीं है! सर्वज्ञ हैं! ये खुद ही कहते हैं: जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है। और हमने इनको ऐसे घर के सामने भीख मांगते देखा, जिसमें पता चला कि घर खाली है। घर में कोई है ही नहीं। नहीं, ये सर्वज्ञ नहीं हैं। बात खत्म हो गई। शरण से रुकने का उपाय हो गया।
क्योंकि महावीर के लिए तो लोग कहते हैं, शास्त्र कहते हैं, तीर्थंकरों के लक्षण कहे गए हैं कि इतनी-इतनी दूरी तक, इतने-इतने फासले तक, जहां महावीर चलते हैं--वहां घृणा का भाव नहीं रह जाता, वहां शत्रुता का भाव नहीं रह जाता। लेकिन फिर महावीर के कान में ही कोई कीलें ठोक पाता है। तो ये तीर्थंकर नहीं हो सकते। क्योंकि जब शत्रुता का भाव ही नहीं रह जाता--जहां महावीर चलते हैं, उनके मिल्यू में, उनके वातावरण में, कोई शत्रुता का भाव नहीं बचता है--और फिर कोई इनके कान में कीलें ठोक देता है, इतने पास आकर! कान में कीलें तो बहुत दूर से तो नहीं ठोकी जा सकतीं। बहुत पास आना पड़ता है। इतने पास आकर भी शत्रुता का भाव बच रहता है! बात गड़बड़ है। संदिग्ध है मामला, ये तीर्थंकर नहीं हैं।
मगर महावीर तीर्थंकर हैं या नहीं, इससे आप क्या पा लेंगे? हां, एक कारण आप पा लेंगे कि एक अरिहंत उपलब्ध होता था तो उसकी शरण जाने से आप बच सकेंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे आपके शरण जाने से महावीर को कुछ मिलने वाला था, जो आपने रोक लिया। भूल रहे हैं, शरण जाने से आपको ही कुछ मिल सकता था, जो आप ही चूक गए। ये बहाने हैं, और आदमी की बुद्धिहीनता इतनी प्रगाढ़ है कि वह बहाने खोजने में बड़ा कुशल है। खोज लेता है बहाने।
बुद्ध के पास आकर लोग पूछते हैं--चमत्कार दिखाओ, अगर भगवान हो तो? क्योंकि कहा है कि भगवान तो मुर्दे को जिला सकता है। तो मुर्दे को जिला कर दिखाओ। जीसस को सूली दी जा रही थी, लोग खड़े होकर देख रहे थे कि सूली न लगे तो मानें कुछ। सूली लग जाए और जीसस न मरें, हाथ-पैर कट जाएं और जीसस जिंदा रहें तो मानें कुछ। फिर जीसस मर गए। लोग बड़े प्रसन्न लौटे। हम तो पहले ही कहते थे, लोगों ने कहा होगा आस-पास कि यह आदमी धोखाधड़ी दे रहा है। यह कोई ईश्र्वर का पुत्र नहीं है। नहीं तो ईश्र्वर का पुत्र ऐसे मरता? परीक्षा के लिए जीसस को सूली दी तो दो चोरों को भी दोनों तरफ लटकाया था। तीन आदमियों को इकट्ठी सूली दी थी। जैसे चोर मर गए, वैसे ही जीसस मर गए। तो फर्क क्या रहा? कोई चमत्कार होना था। यह मौका चूक गए।
जीसस ईश्र्वर-पुत्र हैं या नहीं, इसकी जांच-पड़ताल हमारे मन में क्यों चलती है? चलती है इसलिए कि अगर हों, तो ही हम शरण जाएं। न हों तो हम शरण न जाएं। लेकिन अगर आपको शरण नहीं जाना तो आप कारण खोज लेंगे। और अगर आपको शरण जाना है तो एक पत्थर की मूर्ति में आप कारण खोज सकते हैं कि शरण जाने योग्य है। और मजा यह है कि शरण जाएं तो पत्थर की मूर्ति भी आपके लिए उसी परम-स्रोत का द्वार खोल देगी। और शरण न जाएं तो खुद महावीर सामने खड़े रहें तो भी द्वार बंद रहेंगे। धार्मिक आदमी मैं उसे कहता हूं जो शरण जाने का कारण खोजता रहता है, कहीं भी। जहां भी उसे लगता है कि यहां शरण जाने जैसा है, शरण चला जाता है। जहां भी मौका मिलता है, अपने को छोड़ता और तोड़ता और मिटाता है। बचाता नहीं। एक दिन निश्र्चित ही उसकी गंगोत्री में सागर गिरना शुरू हो जाता है। और जिस दिन सागर गिरता है, उसी दिन उसे पता चलता है कि शरणागति का पूरा रहस्य क्या था। इसकी पूरी कीमिया, इसका पूरा चमत्कार क्या था।
एक बात आखिरी: अगर जीसस सूली पर चमत्कार दिखा दें और आप शरण जाएं तो ध्यान रखना, वह शरणागति नहीं है। ध्यान रखना, वह शरणागति नहीं है! अगर बुद्ध किसी मुर्दे को जिंदा कर दें और आप उनके चरण पकड़ लें तो समझना कि वह शरणागति नहीं है। क्योंकि उसमें कारण बुद्ध हैं, कारण आप नहीं हैं। वह सिर्फ चमत्कार को नमस्कार है। उसमें कोई शरणागति नहीं है। शरणागति तो तब है, जब कारण आप हैं, बुद्ध नहीं। इस फर्क को ठीक से समझ लें, नहीं तो यह सूत्र का राज चूक जाएगा। शरणागति तो तब होती है जब आप शरण गए हैं। और शरणागति उसी मात्रा में गहन होती है, जिस मात्रा में शरणागति जाने का कोई कारण नहीं होता।
जितना कारण होता है उतना तो बार्गेन हो जाता है, उतना तो सौदा हो जाता है। शरणागति नहीं रह जाती। अब बुद्ध मुर्दे को उठा रहे हैं तो नमस्कार तो करना ही पड़ेगा। इसमें आपकी खूबी नहीं है। इसमें तो कोई भी नमस्कार कर लेगा। इसमें अगर कोई खूबी है तो बुद्ध की है। आपका इसमें कुछ भी नहीं है। लेकिन अदभुत लोग थे, इस दुनिया में। एक वृक्ष को जाकर नमस्कार कर रहे हैं, एक पत्थर को। तब, तब खूबी आपकी होनी शुरू हो जाती है। अकारण--जितनी अकारण होगी शरण की भावना--उतनी गहरी होगी। जितनी सकारण होगी, उतनी उथली हो जाएगी। जब कारण बिलकुल साफ होते हैं तो बिलकुल तर्कयुक्त हो जाती है, उसमें कोई छलांग नहीं रह जाती। और जब बिलकुल कारण नहीं होता, तभी छलांग घटित होती है।
तर्तूलियन ने, एक ईसाई फकीर ने कहा है कि मैं परमात्मा को मानता हूं, क्योंकि उसके मानने का कोई भी कारण नहीं है, कोई प्रमाण नहीं है, कोई तर्क नहीं है। अगर तर्क होता, प्रमाण होता, कारण होता--तो जैसे आप कमरे में रखी कुर्सी को मानते हैं, उससे ज्यादा मूल्य परमात्मा का भी नहीं होता।
मार्क्स मजाक में कहा करता था कि ‘मैं तब तक परमात्मा को न मानूंगा, जब तक प्रयोगशाला में, टेस्ट-ट्यूब में उसे पकड़ कर सिद्ध करने का कोई प्रमाण न मिल जाए। जब हम प्रयोगशाला में उसकी जांच-परख कर लेंगे, थर्मामीटर लगा कर सब तरफ से नाप-तौल कर लेंगे, मेजरमेंट ले लेंगे, तराजू पर रख कर नाप लेंगे, एक्सरे से आप बाहर-भीतर सब उसको देख लेंगे, तब मैं मानूंगा।’ और वह कहता था: लेकिन ध्यान रखना, अगर हम परमात्मा के साथ यह सब कर सके, तो एक बात तय है कि वह परमात्मा नहीं रह जाएगा--एक साधारण वस्तु हो जाएगी। क्योंकि, जो हम वस्तुओं के साथ कर पाते हैं--वस्तुओं का तो पूरा प्रमाण है। यह दीवार पूरी तरह है।
लेकिन इससे क्या होता है? महावीर के सामने खड़े होकर शरीर तो पूरी तरह होता है। दिखाई पड़ रहा है, पूरे प्रमाण होते हैं। लेकिन वह जो भीतर जलती ज्योति है, वह उतनी पूरी तरह नहीं होती है। उसमें तो आपको छलांग लगानी पड़ती है--तर्क के बाहर, कारण के बाहर। और जिस मात्रा में वह आपको नहीं दिखाई पड़ती है और छलांग लगाने की आप सामर्थ्य जुटाते हैं, उसी मात्रा में आप शरण जाते हैं। नहीं तो सौदे में जाते हैं।
एक आदमी आपके बीच आकर खड़ा हो जाए, मुर्दों को जिला दे, बीमारों को ठीक कर दे, इशारों से घटनाएं घटने लगें तो आप सब उसके पैर पर गिर ही जाएंगे। लेकिन वह शरणागति नहीं है। लेकिन महावीर जैसा आदमी खड़ा हो जाता है, कोई चमत्कार नहीं है। कुछ भी ऐसा नहीं कि आप ध्यान दें। कुछ भी ऐसा नहीं जिससे आपको तत्काल लाभ दिखाई पड़े। कुछ भी ऐसा नहीं जो आपके सिर पर पत्थर की चोट पर, प्रमाण बन जाए। बहुत तरल अस्तित्व, बहुत अदृश्य अस्तित्व और आप शरण चले जाते हैं। तो आपके भीतर क्रांति घटित होती है। आप अहंकार से नीचे गिरते हैं। सब तर्क, सब प्रमाण, सब बुद्धिमत्ता की बातें अहंकार के इर्द-गिर्द हैं। अतर्क्य, विचार के बाहर छलांग--अकारण समर्पण के इर्द-गिर्द है।
बुद्ध के पास एक युवक आया था। चरणों में उनके गिर गया। बुद्ध ने उससे पूछा कि मेरे चरण में क्यों गिरते हो? उस युवक ने कहा: क्योंकि गिरने में बड़ा राज है। आपके चरण में नहीं गिरता, आपके चरण मात्र बहाना हैं। मैं गिरता हूं क्योंकि खड़े रह कर बहुत देख लिया, सिवाय पीड़ा के और दुख के कुछ भी न पाया।
तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा कि भिक्षुओ, देखो! अगर तुम मुझे मानते हो कि मैं भगवान हूं, तब मेरे चरण में गिरते हो, तब तुम्हें इतना लाभ न होगा, जितना लाभ यह युवक मुझे बिना भगवान माने उठाए लिए जा रहा है। यह कह रहा है कि मैं गिरता हूं, क्योंकि गिरने का बड़ा आनंद है। और अभी मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं है कि शून्य में गिर पाऊं, इसलिए आपको निमित्त बना लिया है। किसी दिन जब मेरी सामर्थ्य आ जाएगी कि जब मैं शून्य में गिर पाऊंगा--उन चरणों में, जो दिखाई भी नहीं पड़ते; उन चरणों में, जिन्हें छुआ भी नहीं जा सकता। लेकिन जो चरण चारों तरफ मौजूद हैं--जब मैं उस कॉस्मिक--उस विराट अस्तित्व के, निराकार को सीधा ही गिर पाऊंगा। पर जरा मुझे गिरने का आनंद ले लेने दो। अगर इन दिखाई पड़ते हुए चरणों में इतना आनंद है, उसका मुझे थोड़ा स्वाद आ जाने दो, तो फिर मैं उस विराट में भी गिर जाऊंगा।
इसलिए बुद्ध का जो सूत्र है: ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’--वह बुद्ध से शुरू होता है, व्यक्ति से। ‘संघं शरणं गच्छामि’--समूह पर बढ़ता। संघ का अर्थ है: उन सब साधुओं का, उन सब साधुओं के चरणों में। और फिर धर्म पर--‘धम्मं शरणं गच्छामि’, फिर वह समूह से भी हट जाता है। फिर वह सिर्फ स्वभाव में, फिर निराकार में खो जाता है। वही, अरिहंत के शरण गिरता हूं; स्वीकार करता हूं, अरिहंत की शरण। सिद्ध की शरण स्वीकार करता हूं, साधु की शरण स्वीकार करता हूं। और अंत में ‘केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि’--धर्म की, जाने हुए लोगों के द्वारा बताए गए ज्ञान की शरण स्वीकार करता हूं। सारी बात इतनी है कि अपने को अस्वीकार करता हूं। और जो अपने को अस्वीकार करता है वह स्वयं को पा लेता है और जो स्वयं को ही पकड़ कर बैठा रह जाता है वह सब तो खो देता है, अंत में स्वयं को भी नहीं पाता है। स्वयं को पाने की यह प्रक्रिया बड़ी पैराडाक्सिकल है, बड़ी विपरीत दिखाई पड़ेगी। स्वयं को पाना हो तो स्वयं को छोड़ना पड़ता है। और स्वयं को मिटाना हो तो स्वयं को खूब जोर से पकड़े रखना पड़ता है।
दो सूत्र अब तक विकसित हुए हैं जैसा मैंने कहा: एक, सिद्ध की तरफ से कि मेरी शरण आ जाओ। दो, साधक की तरफ से कि मैं तुम्हारी शरण आता हूं। तीसरा कोई सूत्र नहीं है। लेकिन हम तीसरे की तरफ बढ़ रहे हैं। वह तीसरे की तरफ बढ़ते हुए हमारे कदम जीवन में जो भी शुभ है, जीवन में जो भी सुंदर है, जीवन में जो भी सत्य है, उसे खोने की तरफ बढ़ रहे हैं।
समर्पण यानी श्रद्धा। समर्पण यानी शरणागति। समर्पण यानी अहंकार विसर्जन। नमोकार इस पर पूरा होता है।
कल से हम महावीर की वाणी में प्रवेश करेंगे। लेकिन वे ही प्रवेश कर पाएंगे जो अपने भीतर शरण की आकृति निर्मित कर पाएंगे। चौबीस घंटे के लिए एक प्रयोग करना। जब भी खयाल आए तो मन में कहना--‘अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि।’ इसे दोहराते रहना चौबीस घंटे। रात सोते समय इसे दोहरा कर सो जाना। रात नींद टूट जाए तो इसे दोहरा लेना। सुबह नींद खुले तो पहले इसे दोहरा लेना। कल यहां आते वक्त इसे दोहराते आना। अगर वह शरण की आकृति भीतर बन जाए तो महावीर की वाणी में हम किसी और ढंग से प्रवेश कर सकेंगे--जैसा पच्चीस सौ वर्ष में संभव नहीं हुआ है।
आज इतना ही।
अब हम यह शरण की आकृति और उसकी ध्वनि में थोड़ा प्रवेश करें। कोई जाए न, कोई जाए न, बैठ जाएं और सम्मिलित हों...!
अरिहंते सरणं पवज्जामि।
सिद्धे सरणं पवज्जामि।
साहू सरणं पवज्जामि।
केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि।
अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूं। सिद्धों की शरण स्वीकार करता हूं। साधुओं की शरण स्वीकार करता हूं। केवली-प्ररूपित अर्थात आत्मज्ञ-कथित धर्म की शरण स्वीकार करता हूं।
कृष्ण ने गीता में कहा है: ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज।’ अर्जुन, तू सब धर्मों को छोड़ कर मुझ एक की शरण में आ!
कृष्ण जिस युग में बोल रहे थे, वह युग अत्यंत सरल, निर्दोष, श्रद्धा का युग था। किसी के मन में ऐसा नहीं हुआ कि कृष्ण कैसे अहंकार की बात कह रहे हैं कि तू सब छोड़ कर मेरी शरण में आ। अगर कोई घोषणा अहंकारग्रस्त मालूम हो सकती है तो इससे ज्यादा अहंकारग्रस्त घोषणा दूसरी मालूम नहीं होगी--अर्जुन को यह कहना कि छोड़ दे सब और आ मेरी शरण में। पर वह युग अत्यंत श्रद्धा का युग रहा होगा, जब कृष्ण बेझिझक, सरलता से ऐसी बात कह सके और अर्जुन ने सवाल भी न उठाया कि क्या कहते हैं आप? आपकी शरण में और मैं आऊं? अहंकार से भरे हुए मालूम पड़ते हैं।
लेकिन बुद्ध और महावीर तक आदमी की चित्त दशा में बहुत फर्क पड़े। इसलिए जहां हिंदू-चिंतन ‘मामेकं शरणं व्रज’ पर केंद्र मान कर खड़ा है वहां बुद्ध और महावीर को दृष्टि में आमूल परिवर्तन करना पड़ा। महावीर ने नहीं कहा कि तुम सब छोड़ कर मेरी शरण में आ जाओ, न बुद्ध ने कहा। दूसरे छोर से पकड़ना पड़ा सूत्र को। तो बुद्ध का सूत्र है, वह साधक की तरफ से है। महावीर का सूत्र है, वह भी साधक की तरफ से है; सिद्ध की तरफ से नहीं। अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूं, सिद्ध की शरण स्वीकार करता हूं, साधु की शरण स्वीकार करता हूं, केवली-प्ररूपित धर्म की शरण स्वीकार करता हूं--यह दूसरा छोर है शरणागति का। दो ही छोर हो सकते हैं। या तो सिद्ध कहे कि मेरी शरण में आ जाओ, या साधक कहे कि मैं आपकी शरण में आता हूं।
हिंदू और जैन-विचार में मौलिक भेद यही है। हिंदू विचार में सिद्ध कह रहा है: आ जाओ मेरी शरण; जैन-विचार में साधक कहता है: मैं आपकी शरण आता हूं। इससे बहुत बातों का पता चलता है। पहली तो यही बात पता चलती है कि कृष्ण जब बोल रहे थे तब बड़ी श्रद्धा का युग था और जब महावीर बोल रहे हैं तब बड़े तर्क का युग है। महावीर कहें--मेरी शरण आ जाओ, तत्काल लोगों को लगेगा, बड़े अहंकार की बात हो गई।
दूसरे छोर से शुरू करना पड़ेगा। पर बुद्ध और महावीर... बुद्ध कीपरंपरा में भी सूत्र है: ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि--बुद्ध की शरण जाता हूं, संघ की शरण जाता हूं, धर्म की शरण जाता हूं।’ लेकिन महावीर और बुद्ध के सूत्र में भी थोड़ा सा फर्क है, वह खयाल में ले लेना जरूरी है। ऊपर से देखने पर दोनों एक से मालूम पड़ते हैं--गच्छामि हो कि पवज्जामि हो, शरण जाता हूं या शरण स्वीकार करता हूं--एक से ही मालूम पड़ते हैं, पर उनमें भेद है। जब कोई कहता है: ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’--बुद्ध की शरण जाता हूं, तो यह शरण जाने की शुरुआत है, पहला कदम है। और जब कोई कहता है: ‘अरिहंत सरणं पवज्जामि’--तब यह शरण जाने की अंतिम स्थिति है। शरण स्वीकार करता हूं, अब इसके आगे और कोई गति नहीं है। जब कोई कहता है: शरण आता हूं, तो वह पहला कदम उठाता है और जब कोई कहता है: शरण स्वीकार करता हूं, तो वह अंतिम कदम उठाता है। जब कोई कहता है: शरण आता हूं, तो बीच से लौट भी सकता है। और शरण तक न पहुंचे, यह भी हो सकता है। यात्रा का प्रारंभ है, यात्रा पूरी न हो, यात्रा के बीच में व्यवधान आ जाए। यात्रा के मध्य में ही तर्क समझाए और लौटा दे। क्योंकि तर्क शरण जाने के नितांत विरोध में है। बुद्धि शरण जाने के नितांत विरोध में है। बुद्धि कहती है: तुम! और किसी की शरण! बुद्धि कहती है: सबको अपनी शरण में ले आओ। तुम और किसी की शरण में जाओगे! तो अहंकार को पीड़ा होती है।
महावीर का सूत्र है: अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूं। इससे लौटना नहीं हो सकता। यह पॉइंट ऑफ नो रिटर्न है। इसके पीछे लौटने का उपाय नहीं है। यह टोटल, यह समग्र छलांग है। शरण आता हूं, तो अभी काल का व्यवधान होगा, अभी समय लगेगा, शरण तक पहुंचते-पहुंचते। अभी बीच में समय व्यतीत होगा। और आज जो कहता है: शरण आता हूं, हो सकता है, न मालूम कितने जन्मों के बाद शरण में पहुंच सके। अपनी-अपनी गति पर निर्भर होगा और अपनी-अपनी मति पर निर्भर होगा। लेकिन ‘पवज्जामि’ के सूत्र की खूबी यह है कि वह सडन जंप है। उसमें बीच में फिर समय का व्यवधान नहीं है--‘स्वीकार करता हूं।’ और जिसने शरण स्वीकार की, उसने स्वयं को तत्काल अस्वीकार किया। ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। अगर आप अपने को स्वीकार करते हैं तो शरण को स्वीकार न कर सकेंगे। अगर आप शरण को स्वीकार करते हैं तो अपने को अस्वीकार कर सकेंगे--करना ही होगा। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
शरण की स्वीकृति अहंकार की हत्या है। धर्म का जो भी विकास है चेतना में, वह अहंकार के विसर्जन से शुरू होता है। चाहे सिद्ध कहे कि मेरी शरण आ जाओ--जब युग होते हैं श्रद्धा के तो सिद्ध कहता है मेरी शरण आ जाओ, और जब युग होते हैं अश्रद्धा के तो फिर साधक को ही कहना पड़ता है कि मैं आपकी शरण स्वीकार करता हूं। महावीर बिलकुल चुप हैं। वे यह भी नहीं कहते कि तुम जो मेरी शरण आए हो तो मैं तुम्हें अंगीकार करता हूं। वे यह भी नहीं कहते। क्योंकि खतरा तर्क के युग में यह है कि अगर महावीर इतना भी कहें, सिर भी हिला दें कि हां, स्वीकार करता हूं तो वह दूसरे का अहंकार फिर खड़ा हो जाता है, कि अच्छा...! यह तो अहंकार हो गया। महावीर चुप ही रह जाते हैं। यह एकतरफा है, साधक की तरफ से है।
निश्चित ही बड़ी कठिनाई होगी। इसलिए जितना आसान कृष्ण के युग में सत्य को उपलब्ध कर लेना है, उतना आसान महावीर के युग में नहीं रह जाता। और हमारे युग में तो अत्यधिक कठिनाई खड़ी हो जाती है। न सिद्ध कह सकता है: मेरी शरण आओ, न साधक कह सकता है कि मैं आपकी शरण आता हूं। महावीर चुप रह गए। आज अगर साधक किसी सिद्ध की शरण में जाए, और सिद्ध इनकार न करे कि नहीं-नहीं, किसी की शरण में जाने की जरूरत नहीं; तो साधक समझेगा: अच्छा, तो मौन सम्मति का लक्षण है, तो आप शरण में स्वीकार करते हैं।
तर्क अब और भी रोगग्रस्त हुआ। आज महावीर अगर चुप भी बैठ जाएं और आप जाकर कहें कि अरिहंत की शरण आता हूं--और महावीर चुप रहें, तो आप घर लौट कर सोचेंगे: यह आदमी चुप रह गया। इसका मतलब: रास्ता देखता था कि मैं शरण आऊं, प्रतीक्षा करता था। मौन तो सम्मति का लक्षण है। तो यह आदमी तो अहंकारी है तो अरिहंत कैसे होगा? नहीं, अब एक कदम और नीचे उतरना पड़ता है। और महावीर को कहना पड़ेगा कि नहीं, तुम किसी की शरण मत जाओ। महावीर जोर देकर इनकार करें कि नहीं, शरण आने की जरूरत नहीं, तो ही वह साधक समझेगा कि अहंकारी नहीं है। लेकिन उसे पता नहीं, इस अस्वीकार में साधक के सब द्वार बंद हो जाते हैं।
कृष्णमूर्ति की अपील इस युग में इसीलिए है। न वे कहते--सब धर्म छोड़ कर मेरी शरण आओ, न कोई साधक कहे उनसे कि मैं आता हूं तुम्हारी शरण। तो वे इनकार करते हैं। वे कहते हैं: मेरे पैर में मत गिर जाना, दूर रहो। और तब अहंकारी साधक बड़ा प्रसन्न होता है... पर उसकी अस्मिता घनी होती है। और उसे सहयोग नहीं पहुंचाया जा सकता। हमारा युग आध्यात्मिक दृष्टि से किसी को सहयोग पहुंचाना हो तो बड़ी कठिनाई का युग है। बुला कर सहयोग देना तो कठिन, जैसा कृष्ण देते हैं; आए हुए को सहयोग देना भी कठिन, जैसा कि महावीर देते हैं। और कुछ आश्र्चर्य न होगा कि और थोड़े दिनों बाद सिद्ध को कहना पड़े साधक से, आपकी शरण में आता हूं, स्वीकार करें! शायद तभी साधक मानें कि ठीक, यह आदमी ठीक है। यह आध्यात्मिक विकृति है। शरण का इतना मूल्य क्या है--इसे हम दो-तीन दिशाओं से समझने की कोशिश करें।
पहले तो शरीर से ही समझने की कोशिश करें। मैं कल आपको बुल्गेरियन डॉक्टर लोझानोव के इंस्टीट्यूट ऑफ सजेस्टोलॉजी की बात कर रहा था। यह जान कर आपको आश्चर्य अनुभव होगा कि लोझानोव ने शिक्षा पर ये जो अनूठे प्रयोग किए हैं, उससे जब पिछले एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में पूछा गया कि तुम्हें इस अदभुत क्रांतिकारी शिक्षा के आयाम का कैसे स्मरण आया, किस दिशा से तुम्हें संकेत मिला? तो लोझानोव ने कहा कि मैं योग के--भारतीय योग के शवासन का प्रयोग करता था, और उसी से मुझे यह दृष्टि मिली।
शवासन से! शवासन की खूबी क्या है? शवासन का अर्थ है: पूर्ण समर्पित शरीर की दशा, जब आपने शरीर को बिलकुल छोड़ दिया। पूरा रिलैक्स छोड़ दिया। जैसे ही आप शरीर को पूरा रिलैक्स छोड़ देते हैं--और शरीर को अगर पूरा रिलैक्स छोड़ना हो तो जमीन पर जो भारतीयों की पुरानी पद्धति है साष्टांग प्रणाम की, उस स्थिति में पड़ कर ही छोड़ा जा सकता है। वह शरणागति की स्थिति है शरीर के लिए। अगर आप भूमि पर सीधे पड़ जाएं, सब हाथ-पैर ढीले छोड़ कर सिर रख दें, सारे अंग भूमि को छूने लगें तो यह सिर्फ नमस्कार की एक विधि नहीं है, यह बहुत ही अदभुत वैज्ञानिक सत्यों से भरा हुआ प्रयोग है।
लोझानोव कहता है कि रात निद्रा में हमें जो विश्राम और शक्ति मिलती है, उसका मूल कारण हमारा पृथ्वी के साथ समतुल लेट जाना है। लोझानोव कहता है कि जब हम समतल पृथ्वी के साथ समानांतर लेट जाते हैं तो जगत की शक्तियां हममें सहज ही प्रवेश कर पाती हैं। जब हम खड़े होते हैं तो शरीर ही खड़ा नहीं होता, भीतर अहंकार भी उसके साथ खड़ा हो जाता है। जब हम लेट जाते हैं तो शरीर ही नहीं लेटता--उसके साथ अहंकार भी लेट जाता है। हमारे डिफेंस गिर जाते हैं, हमारे जो सुरक्षा के आयोजन हैं, जिनसे हम जगत को रेसिस्ट कर रहे हैं, वे गिर जाते हैं।
चेक युनिवर्सिटी प्राग के एक व्यक्ति के अनूठे प्रयोगों पर पिछले दस वर्षों से अनुसंधान करती है। वह व्यक्ति है, राबर्ट पावलिटा। थके हुए आदमियों को पुनर्शक्ति देने के उसने अनूठे प्रयोग किए हैं। आदमी थका है--आप बिलकुल थके टूटे पड़े हैं, वह आपको एक स्वस्थ गाय के नीचे लिटा देता है, जमीन पर। पांच मिनट आपसे कहता है: सब छोड़ कर पड़े रहें और भाव करें कि स्वस्थ गाय से आपके ऊपर शक्ति गिर रही है। पांच मिनट में यंत्र बताना शुरू कर देते हैं कि उस आदमी की थकान समाप्त हो गई। वह ताजा होकर गाय के नीचे से बाहर आ जाता है। पावलिटा से बार-बार पूछा गया कि अगर हम गाय के नीचे बैठें तो? पावलिटा ने कहा कि जो काम लेट कर क्षण भर में होगा वह बैठ कर घंटों में भी नहीं हो पाएगा। वृक्ष के नीचे लिटा देता है। पावलिटा कहता है: जैसे ही आप लेटते हैं, आपका जो रेसिस्टेंस है आपके चारों ओर, आपने अपने व्यक्तित्व की जो सुरक्षा की दीवालें खड़ी कर रखी हैं, वे गिर जाती हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य की बुद्धि विकसित हुई उसके खड़े होने से। यह सच है। सभी पशु पृथ्वी के समानांतर जीते हैं, आदमी भर वर्टिकल खड़ा हो गया। सभी पशु पृथ्वी की धुरी से समानांतर होते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी का पैर पर खड़ा हो जाना ही उसकी तथाकथित बुद्धि का विकास है। लेकिन साथ ही--यह बुद्धि तो जरूर विकसित हो गई, लेकिन साथ ही जीवन के अंतर्तम से, वह कॉस्मिक, जागतिक शक्तियों से उसके और गहरे सब संबंध शिथिल और क्षीण हो गए। उसे वापस लेट कर वे संबंध पुनर्स्थापित करने पड़ते हैं। इसलिए अगर मंदिरों में मूर्तियों के सामने, गिरजाघरों में, मस्जिदों में, लोग अगर झुक कर जमीन में लेटे जा रहे हैं तो उसका वैज्ञानिक अर्थ है। झुक कर लेटते ही डिफेंस टूट जाते हैं।
इसलिए फ्रायड ने जब पहली बार मनोचिकित्सा शुरू की तो उसने अनुभव किया कि अगर बीमार को बैठ कर बात की जाए तो बीमार अपने डिफेंस मेजर नहीं छोड़ता। इसलिए फ्रायड ने कोच विकसित की, मरीज को एक कोच पर लिटा दिया जाता है। वह डिफेंसलेस हो जाता है। फिर फ्रायड ने अनुभव किया कि अगर उसके सामने बैठा जाए तो लेट कर भी वह थोड़ा अकड़ा रहता है। तो एक परदा डाल कर फ्रायड परदे के पीछे बैठ गया। कोई मौजूद नहीं रहा, मरीज लेटा हुआ है। वह पांच-सात मिनट में अपना डिफेंस छोड़ देता है। वह ऐसी बातें बोलने लगता है जो बैठ कर वह कभी नहीं बोल सकता था। वह अपने ऐसे अपराध स्वीकार करने लगता है जो खड़े होकर उसने कभी भी स्वीकार न किए होते।
अभी अमरीका के कुछ मनोवैज्ञानिक फ्रायड के कोच के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं। वे यह आंदोलन चला रहे हैं कि यह आदमी को बहुत असहाय अवस्था में डालने की तरकीब है। उनका कहना ठीक है। आंदोलन गलत है। उनका कहना ठीक है। आदमी असहाय अवस्था में पड़ जाता है निश्र्चित ही लेट कर। असहाय इसलिए हो जाता है कि उसने अपने तरफ सुरक्षा का जो इंतजाम किया था वह गिर जाता है।
पर शरणागति को हमने बहुत मूल्य दिया है। और अगर परमात्मा की तरफ, अरिहंत की तरफ, सिद्ध की तरफ, भगवान की तरफ शरणागति हो तो वह तो सदा परदे के पीछे ही है एक अर्थ में। अगर महावीर मौजूद भी हों तो महावीर का शरीर परदा बन जाता है और महावीर की चेतना तो परदे के पीछे होती है। और कोई उनके समक्ष जब समर्पण कर देता है तो वह अपने को सब भांति छोड़ देता है, जैसे कोई नदी की धार में अपने को छोड़ दे और धार बहाने लगे--तैरे नहीं, बहाने लगे। शरणागति भाव है, फ्लोटिंग है, और जैसे ही कोई बहता है, वैसे ही चित्त के सब तनाव छूट जाते हैं।
एक फ्रेंच खोजी, इजिप्त के पिरामिडों में दस वर्षों तक खोज करता रहा है। उस आदमी का नाम है, बोविस। वह एक वैज्ञानिक और एक इंजीनियर है। वह यह देख कर बहुत हैरान हुआ कि कभी-कभी पिरामिड में कोई चूहा भूल से या बिल्ली घुस जाती है और फिर निकल नहीं पाती--भटक जाती और मर जाती है। पर पिरामिड के भीतर जब भी कोई चूहा या बिल्ली या कोई प्राणी मर जाता है तो सड़ता नहीं। सड़ता नहीं, उसमें से दुर्गंध नहीं आती। वह ममीफाइड हो जाता है--सूख जाता है, सड़ता नहीं।
यह हैरानी की घटना है और बहुत अदभुत है। पिरामिड के भीतर इसके होने का कोई कारण नहीं है। और ऐसे पिरामिड्स के भीतर जो कि समुद्र के किनारे हैं जहां कि ह्युमिडिटी काफी है, जहां कि कोई भी चीज सड़नी ही चाहिए, और जल्दी सड़ जानी चाहिए, उन पिरामिड्स के भीतर भी कोई मर जाए तो सड़ता नहीं। मांस ले जाकर रख दिया जाए तो सूख जाता है, दुर्गंध नहीं देता। मछली डाल दी जो तो सूख जाती है, सड़ती नहीं। तो बहुत चकित हो गया। इसका तो कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता था। बहुत खोज-बीन की। आखिर यह खयाल में आना शुरू हुआ कि शायद पिरामिड का जो शेप है, वही कुछ कर रहा है।
लेकिन शेप, आकार कुछ कर सकता है? सब खोज के बाद कोई उपाय नहीं था। दस साल की खोज के बाद बोविस को खयाल आया कि कहीं पिरामिड का जो शेप, जो आकृति है, वह तो कुछ नहीं करती? तो उसने एक छोटा पिरामिड मॉडल बनाया--छोटा सा, तीन-चार फीट का बेस लेकर, और उसमें एक मरी हुई बिल्ली रख दी। वह चकित हुआ, वह ममीफाइड हो गई, वह सड़ी नहीं। तब तो एक बहुत नये विज्ञान का जन्म हुआ, और वह नया विज्ञान कहता है--ज्यामिट्री की जो आकृतियां हैं उनका जीवन ऊर्जाओं से बहुत संबंध है। और अब बोविस की सलाह पर यह कोशिश की जा रही है कि सारी दुनिया के अस्पताल पिरामिड की शक्ल में बनाए जाएं। उनमें मरीज जल्दी स्वस्थ होगा।
आपने सर्कस के ़जोकर को, हंसोड़े को जो टोपी लगाए देखी है, वह फूल्स कैप कहलाती है। उसी की वजह से कागज--जितने कागज से वह टोपी बनती है, वह फूल्स कैप कहलाता है। लेकिन बोविस का कहना है कि कभी दुनिया के बुद्धिमान आदमी वैसी टोपी लगाते थे। वह वाइ़ज-कैप है, क्योंकि वह टोपी पिरामिड के आकार की है। और अभी बोविस ने प्रयोग किए हैं, फूल्स कैप के ऊपर। और उसका कहना है कि जिन लोगों को भी सिरदर्द होता है, वे पिरामिड के आकार की टोपी लगाएं, तत्क्षण उनका सिरदर्द दूर हो सकता है। जिनको भी मानसिक विकार हैं वे पिरामिड के आकार की टोपी लगाएं, उनके मानसिक विकार दूर हो सकते हैं। अनेक चिकित्सालयों में जहां मानसिक चिकित्सा की जाती है, बोविस की टोपी का प्रयोग किया जा रहा है, और प्रमाणित हो रहा है कि वह ठीक कहता है।
क्या टोपी के भीतर का आकार, आकृति इतना भेद ला दे सकती है! अगर बाह्य आकृतियां इतना भेद ला सकती हैं तो आंतरिक आकृतियों में कितना भेद पड़ सकेगा, वह मैं आपसे कहना चाहता हूं। शरणागति आंतरिक आकृति को बदलने की चेष्टा है, इनर ज्यामेट्री को। जब आप खड़े होते हैं तो आपके भीतर की चित्त-आकृति और होती है, और जब आप पृथ्वी पर शरण में लेट जाते हैं तो आपके भीतर की चित्त-आकृति और होती है। चित्त में भी ज्यामेट्रिकल फिगर्स होते हैं। चित्त की आकृतियों में दो विशेष आकृतियां हैं, आपके खड़े होने का खयाल जमीन से नब्बे का कोण बनाता है। और जब आप जमीन पर लेट जाते हैं तो आप जमीन से कोई कोण नहीं बनाते, पैरेलल, समानांतर हो जाते हैं। अगर कोई परिपूर्ण भाव से कह सके कि मैं अरिहंत की शरण आता हूं, सिद्ध की शरण आता हूं, धर्म की शरण आता हूं, तो यह भाव उसकी आंतरिक आकृति को बदल देता है। और आंतरिक आकृति बदलते ही, आपके जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाते हैं। आपके अंतर में आकृतियां हैं। आपकी चेतना भी रूप लेती है। और आप जिस तरह का भाव करते हैं, चेतना उसी तरह का रूप लेती है।
चार साल पहले, सारे पश्र्चिम के वैज्ञानिक एक घटना से जितना धक्का खाए, उतना शायद पिछले दो सौ वर्षों में किसी घटना से नहीं खाए। दिमित्री दोजोनोव नाम का एक चेक किसान जमीन से चार फीट ऊपर उठ जाता है। और दस मिनट तक जमीन से चार फीट ऊपर, ग्रेविटेशन के पार, गुरुत्वाकर्षण के पार दस मिनट तक रुका रह जाता है। सैकड़ों वैज्ञानिकों के समक्ष अनेकों बार यह प्रयोग दिमित्री कर चुका है। सब तरह की जांच-पड़ताल कर ली गई है। कोई धोखा नहीं है, कोई तरकीब नहीं है।
दिमित्री से पूछा जाता है कि तेरे इस उठने का राज क्या है, तो वह दो बातें कहता है। वह कहता है--एक राज तो मेरा समर्पण भाव, कि मैं परमात्मा को कहता हूं कि मैं तेरे हाथ में अपने को सौंपता हूं, तेरी शरण आता हूं। मैं अपनी ताकत से ऊपर नहीं उठता, उसकी ताकत से ऊपर उठता हूं। जब तक मैं रहता हूं, तब तक मैं ऊपर नहीं उठ पाता।
दो-तीन बार उसके प्रयोग असफल भी गए। पसीना-पसीना हो गया। सैकड़ों लोग देखने आए हैं दूर-दूर से, और वह ऊपर नहीं उठ पा रहा है। आखिर में उसने कहा कि क्षमा करें। तो लोगों ने कहा: क्यों ऊपर नहीं उठ पा रहे हो? उसने कहा: नहीं उठ पा रहा इसलिए कि मैं अपने को भूल ही नहीं पा रहा हूं। और जब तक मुझे मेरा खयाल जरा सा भी बना रहे तब तक ग्रेविटेशन काम करता है, तब तक जमीन मुझे नीचे खींचे रहती है। जब मैं अपने को भूल जाता हूं, मुझे याद ही नहीं रहता कि मैं हूं, ऐसा ही याद रह जाता है कि परमात्मा है--बस, तत्काल मैं ऊपर उठ जाता हूं।
शरणागति का अर्थ ही है समर्पण। क्या यह दिमित्री जो कह रहा है, क्या परमात्मा पर छोड़ देने पर जीवन के साधारण नियम भी अपना काम करना छोड़ देते हैं? जमीन अपनी कशिश छोड़ देती है? अगर जमीन अपनी कशिश छोड़ देती है तो क्या आश्र्चर्य होगा कि जो व्यक्ति अरिहंत की शरण जाए, सेक्स की कशिश उसके भीतर छूट जाए! जीवन का सामान्य नियम टूट जाए! शरीर की जो मांग है वह छूट जाए! क्या यह हो सकता है कि शरीर भोजन मांगना बंद कर दे? क्या यह हो सकता है कि शरीर बिना भोजन के, और वर्षों रह जाए? अगर जमीन कशिश छोड़ सकती है तो कोई भी तो कारण नहीं है। प्रकृति का अगर एक नियम भी टूट जाता है तो सब नियम टूट सकते हैं।
और दिमित्री दूसरी बात यह कहता है कि जब मैं ऊपर उठ जाता हूं तब एक बात भर असंभव है ऊपर उठ जाने के बाद--जब तक मैं नीचे न आ जाऊं, मेरी शरीर की जो आकृति होती है उसमें मैं जरा भी फर्क नहीं कर सकता। अगर मेरा हाथ घुटने पर रखा है, तो मैं उसे हिला नहीं सकता, उठा नहीं सकता। मेरा सिर जैसा है फिर उसको मैं आड़ा-तिरछा नहीं कर सकता। मेरा शरीर उस आकृति में बिलकुल बंध जाता है। और न केवल मेरा शरीर, बल्कि मेरे भीतर चेतना भी उसी आकृति में बंध जाती है।
आपको खयाल में नहीं होगा--क्योंकि हमारे पास खयाल जैसी चीज ही नहीं बची है। आपके विचार में भी नहीं आया होगा कि सिद्धासन, पिरामिड की आकृति पैदा करना है शरीर में। बुद्ध की, महावीर की सारी मूर्तियां जिस आसन में हैं, वह पिरामिडिकल हैं। जमीन पर बेस बड़ी हो जाती है दोनों पैर की और ऊपर सब छोटा होता जाता है, सिर पर शिखर हो जाता है। एक ट्राएंगल बन जाता है। उस अवस्था में, उस आसन को सिद्धासन कहा है। क्यों? क्योंकि उस आसन में सरलता से प्रकृति के नियम अपना काम छोड़ देते हैं और प्रकृति के ऊपर जो परमात्मा के गहन, सूक्ष्म नियम हैं, वे काम करना शुरू कर देते हैं। वह आकृति महत्वपूर्ण है। दिमित्री कहता है कि जमीन से उठ जाने के बाद फिर मैं आकृति नहीं बदल सकता, कोई उपाय नहीं है। मेरा कोई वश नहीं रह जाता। जमीन पर लौट कर ही आकृति बदल सकता हूं।
यह शरणागति की अपनी आकृति है, अहंकार की अपनी आकृति है। अहंकार को आप जमीन पर लेटा हुआ सोच सकते हैं? कंसीव भी नहीं कर सकते। अहंकार को सदा खड़ा हुआ ही सोच सकते हैं। बैठा हुआ अहंकार, सोया हुआ अहंकार कोई अर्थ नहीं रखता। अहंकार सदा खड़ा हुआ होता है। शरण के भाव को आप खड़ा हुआ सोच सकते हैं? शरण का भाव लेट जाने का भाव है। किसी विराटतर शक्ति के समक्ष अपने को छोड़ देने का भाव है। मैं नहीं, तू--वह भावना उसमें गहन है।
मैंने आपसे कहा कि प्रकृति के नियम काम करना छोड़ देते हैं, अगर हम परमात्मा के नियम में अपने को समाविष्ट करने में समर्थ हो जाएं। इस संबंध में कुछ बातें कहनी जरूरी हैं।
महावीर के संबंध में कहा जाता है, और पच्चीस सौ साल में महावीर के पीछे चलने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं समझा पाया कि उसका राज क्या है--महावीर ने बारह वर्षों में केवल तीन सौ पैंसठ दिन भोजन किया। इसका अर्थ हुआ कि ग्यारह वर्ष भोजन नहीं किया। कभी तीन महीने बाद एक दिन किया, कभी महीने बाद एक दिन किया। बारह वर्ष के लंबे समय में सब मिला कर तीन सौ पैंसठ दिन, एक वर्ष भोजन किया। अनुपात अगर लें तो बारह दिन में एक दिन भोजन किया और ग्यारह दिन भूखे रहे। लेकिन महावीर से ज्यादा स्वस्थ शरीर खोजना मुश्किल है, शक्तिशाली शरीर खोजना मुश्किल है। बुद्ध या क्राइस्ट या कृष्ण या राम, शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से महावीर के सामने कोई भी नहीं टिकते। हैरानी की बात है! बहुत हैरानी की बात है! और महावीर शरीर के साथ जैसे-जैसे नियम बाह्य काम कर रहे हैं, उसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। बारह साल तक यह आदमी तीन सौ पैंसठ दिन भोजन करता है। इसके शरीर को तो गिर जाना चाहिए कभी का। लेकिन क्या हुआ है कि शरीर गिरता नहीं!
तो मैंने अभी नाम लिया है--राबर्ट पावलिटा का। इसकी प्रयोगशाला में बहुत अनूठे प्रयोग किए जा रहे हैं। उनमें एक प्रयोग भोजन के बाहर सम्मोहन के द्वारा हो जाने का भी है। जो व्यक्ति इस प्रयोगशाला में काम कर रहा है उसने चकित कर दिया है। पावलिटा की प्रयोगशाला में कुछ लोगों को दस-दस साल के लिए सम्मोहित किया गया। वह दस साल तक सम्मोहन में रहेंगे--उठेंगे, बैठेंगे,
काम करेंगे, खाएंगे, पीएंगे, लेकिन उनका सम्मोहन नहीं तोड़ा जाएगा। वह गहरी सम्मोहन की अवस्था बनी रहेगी। और कुछ लोगों ने तो अपना पूरा जीवन सम्मोहन के लिए दिया है जो पूरे जीवन के लिए सम्मोहित किए गए हैं, उनका जीवन भर सम्मोहन नहीं तोड़ा जाएगा।
उनमें एक व्यक्ति है, बरफिलाव। उसको तीन सप्ताह के लिए पिछले वर्ष सम्मोहित किया गया और तीन सप्ताह पूरे समय उसे बेहोश, सम्मोहित रखा गया। और उसे तीन सप्ताह बार-बार सम्मोहन में झूठा भोजन दिया गया। जैसे उसे बेहोशी में कहा गया कि तुझे एक बगीचे में ले जाया जा रहा है। देख, कितने सुगंधित फूल और कितने फल लगे हैं, सुगंध आ रही है? उस व्यक्ति ने एक जोर से श्र्वास खींची और कहा: अदभुत सुगंध है! प्रतीत होता है, सेव पक गए। पावलिटा ने उन झूठे, काल्पनिक, फैंटेसी के बगीचे से फल तोड़े; उस आदमी को दिए और कहा कि लो, बहुत स्वादिष्ट हैं। उस आदमी ने शून्य में, शून्य से लिए गए, शून्य सेवों को खाया। कुछ था नहीं वहां। स्वाद लिया, आनंदित हुआ।
पंद्रह दिन तक उसे इसी तरह का भोजन दिया गया--पानी भी नहीं, भोजन भी नहीं--झूठा पानी कहें, झूठा भोजन कहें। दस डॉक्टर उसका अध्ययन करते थे। उन्होंने कहा है कि रोज उसका शरीर और भी स्वस्थ होता चला गया। उसको जो शारीरिक तकलीफें थीं वे पांच दिन के बाद विलीन हो गईं। उसका शरीर अपने मैक्सिमम स्वास्थ्य की हालत में आ गया, सातवें दिन के बाद। शरीर की सामान्य क्रियाएं बंद हो गईं। पेशाब या पाखाना, मलमूत्र विसर्जन सब विदा हो गया, क्योंकि उसके शरीर में कुछ जा ही नहीं रहा है। तीन सप्ताह के बाद जो सबसे बड़े चमत्कार की बात थी, वह यह कि वह परिपूर्ण स्वस्थ अपनी बेहोशी के बाहर आया। और बड़े आश्र्चर्य की बात--जो आप कल्पना भी नहीं कर सकते, वह यह कि उसका वजन बढ़ गया।
यह असंभव है। जो वैज्ञानिक वहां अध्ययन कर रहा था, डॉक्टर रेझिल, उसने वक्तव्य दिया है: दिस इ़ज साइंटिफिकली इंपासिबल। पर उसने कहा कि इंपासिबल हो या न हो, असंभव हो या न हो, लेकिन यह हुआ है, और मैं मौजूद था। और दस रात और दस दिन पूरे वक्त पहरा था कि उस आदमी को कुछ खिला न दिया जाए कोई तरकीब से; कोई इंजेक्शन न लगा दिया जाए; कोई दवा न डाल दी जाए। कुछ भी उसके शरीर में नहीं डाला गया। वजन बढ़ गया। तो रेझिल उस पर साल भर से काम कर रहा है और रेझिल का कहना है कि यह मानना पड़ेगा कि देयर इ़ज समथिंग लाइक ऐन अननोन एक्स-फोर्स। कोई एक शक्ति है अज्ञात एक्स नाम की, जो हमारी वैज्ञानिक रूप से जानी गई किन्हीं शक्तियों में समाविष्ट नहीं होती--वही काम कर रही है। उसे हम भारत में प्राण कहते रहे हैं।
इस प्रयोग के बाद महावीर को समझना आसान हो जाएगा। और इसलिए मैं कहता हूं कि जिन लोगों को भी उपवास करना हो वे तथाकथित जैन साधुओं से सुन-समझ कर उपवास करने के पागलपन में न पड़ें। उन्हें कुछ भी पता नहीं है। वे सिर्फ भूखा मरवा रहे हैं। अनशन को उपवास कह रहे हैं। उपवास की तो पूरी, और ही वैज्ञानिक प्रक्रिया है। और अगर उस भांति प्रयोग किया जाए तो वजन नहीं गिरेगा, वजन बढ़ भी सकता है।
पर महावीर का वह सूत्र खो गया। संभव है, रेझिल उस सूत्र को चेकोस्लोवाकिया में फिर से पुनः पैदा कर ले--कर लेगा। यहां भी हो सकता है--लेकिन हम अभागे लोग हैं। हम व्यर्थ की बातों में और विवादों में इतना समय नष्ट करते हैं और करवाते हैं कि सार्थक को करने के लिए समय और सुविधा भी नहीं बचती। और हम ऐसी मूढ़ताओं में लीन होते हैं, जिन्होंने विद्वत्ता का आवरण ओढ़ रखा है। और हम बंधी हुई अंधी गलियों में भटकते रहते हैं जहां रोशनी की कोई किरण भी नहीं है।
यह प्रकृति के नियम के बाहर जाने की महावीर की तरकीब क्या होगी? क्योंकि महावीर तो सम्मोहित या बेहोश नहीं थे। यह पावलिटा और रेझिल का जो प्रयोग है, यह तो एक बेहोश और सम्मोहित आदमी पर है। महावीर तो पूर्ण जाग्रत पुरुष थे, वह तो बेहोश नहीं थे। वह तो उन जाग्रत लोगों में से थे जो कि निद्रा में भी जाग्रत रहते, जो कि नींद में भी सोते नहीं। जिन्हें नींद में भी पूरा होश रहता है कि यह रही नींद। नींद भी जिनके आस-पास ही होती है--अराउंड दि कार्नर--कभी भीतर नहीं होती। वे उसे जांचते हैं, जानते हैं कि यह रही नींद और वे सदा बीच में जागे हुए होते हैं।
तो महावीर ने कैसे किया होगा? फिर महावीर का सूत्र क्या है? असल में सम्मोहन में और महावीर के सूत्र में एक आंतरिक संबंध है, वह खयाल में आ जाए। सम्मोहित व्यक्ति बेहोशी में विवश होकर समर्पित हो जाता है। उसका अहंकार खो जाता है और तो कुछ फर्क नहीं है। अपने आप जान कर वह नहीं खोता, इसलिए उसे बेहोश करना पड़ता है। बेहोशी में खो जाता है। महावीर जान कर उस अस्मिता को, उस अहंकार को खो देते हैं और समर्पित हो जाते हैं। अगर आप होशपूर्वक भी, जागे हुए भी समर्पित हो सकें, कह सकें--‘अरिहंत शरणं पवज्जामि,’ तो आप उसी रहस्य लोक में प्रवेश कर जाते हैं जहां रेझिल और पावलिटा प्रयोगकर्ता केवल बेहोशी में प्रवेश कर पाता है। होश में आने पर तो उस आदमी को भी भरोसा नहीं आया कि यह हो सकता है। उसने कहा: कुछ न कुछ गड़बड़ हुई होगी। मैं नहीं मान सकता। होश में आने के बाद तो वह एक दिन बिना भोजन के न रह सका। उसने कहा कि मैं मर जाऊंगा। अहंकार वापस आ गया। अहंकार अपने सुरक्षा आयोजन को लेकर फिर खड़ा हो गया। उस आदमी को समझा रहे हैं डॉक्टर कि नहीं मरेगा; क्योंकि इक्कीस दिन तो हम देख चुके कि तेरा स्वास्थ्य और बढ़ा है। पर उस आदमी ने कहा कि मुझे कुछ पता नहीं। मुझे भोजन दें। भय लौट आया।
ध्यान रहे, मनुष्य के चित्त में जब तक अहंकार है, तब तक भय होता है। भय और अहंकार एक ही ऊर्जा के नाम हैं। तो जितना भयभीत आदमी, उतना अहंकारी। जितना अहंकारी, उतना भयभीत। तो आप सोचते होंगे कि अहंकारी बहुत निर्भय होता है, तो आप गलती में हैं। अहंकारी अत्यंत भयातुर होता है। यद्यपि अपने भय को प्रकट न होने देने के लिए वह निर्भयता के कवच ओढ़े रहता है। तलवारें लिए रहता है हाथ में कि सम्हल कर रहना। महावीर कहते हैं: अभय तो वही होता है जो अहंकारी नहीं होता। क्योंकि फिर भय के लिए कोई कारण नहीं रहा। भयभीत होने वाला भी नहीं रहा। इसलिए महावीर कहते हैं कि जो निर्भय अपने को दिखा रहा है, वह तो भयभीत है ही। अभय... अभय का अर्थ? वही हो सकता है अभय, जो समर्पित, शरणागत; जिसने छोड़ा अपने को। अब कोई भय का कारण न रहा।
यह सूत्र शरणागति का है। इस सूत्र के साथ नमोकार पूरा होता है। नमस्कार से शुरू होकर शरणागति पर पूरा होता है। और इस अर्थ में नमोकार पूरे धर्म की यात्रा बन जाता है। उस छोटे से सूत्र में पहले से लेकर आखिरी कदम तक सब छोड़ दें, कहीं किसी शरण में छोड़ दें। यह बात प्रयोजनहीन है--कहां छोड़ दें। महत्वपूर्ण यही है कि छोड़ दें।
तो शरणागति का पहला तो संबंध है--आंतरिक ज्यामिति से कि वह आपके भीतर की चेतना की आकृति बदलती है। दूसरा संबंध है: आपको प्रकृति के साधारण नियमों के बाहर ले जाती है। किसी गहन अर्थ में आप दिव्य हो जाते हैं, शरण जाते ही। आप ट्रांसेंड कर जाते हैं, अतिक्रमण कर जाते हैं--साधारण तथाकथित नियमों का--जो हमें बांधे हुए हैं। और तीसरी बात: शरणागति आपके जीवन-द्वारों को परम ऊर्जा की तरफ खोल देती है जैसे कि कोई अपनी आंख को सूरज की तरफ उठा ले। सूरज की तरफ पीठ करने की भी हमें स्वतंत्रता है। सूरज की तरफ पीठ करके भी हम खड़े हो सकते हैं। सूरज की तरफ मुंह करके भी आंख बंद रख सकते हैं। सूरज का अनंत प्रकाश बरसता रहेगा और हम वंचित रह जाएंगे। लेकिन एक आदमी सूरज की तरफ घूम जाता है, जैसे कि सूरजमुखी का फूल घूम गया हो। आंख खोल लेता है, द्वार खुले छोड़ देता है। सूर्य का प्रकाश उसके रोएं-रोएं, रंध्र-रंध्र तक पहुंच जाता है। उसके हृदय के अंधकारपूर्ण कक्षों तक भी प्रकाश की खबर पहुंच जाती है। वह नया और ताजा, पुनरुज्जीवित हो जाता है। ठीक ऐसे ही विश्र्व-ऊर्जा के स्रोत हैं और उन विश्र्व-ऊर्जा के स्रोतों की तरफ स्वयं को खोलना हो तो शरण में जाने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।
इसलिए अहंकारी व्यक्ति दीन से दीन व्यक्ति है, जिसने अपने को समस्त स्रोतों से तोड़ लिया है। जो सिर्फ अपने पर ही भरोसा कर रहा है। वह ऐसा फूल है जिसने जड़ों से अपने संबंध त्याग दिए। और जिसने सूरज की तरफ मुंह फेरने से अकड़ दिखाई। वर्षा आती है तो अपनी पंखुड़ियां बंद कर लेता है। सड़ेगा, उसका जीवन सिर्फ सड़ने का एक क्रम होगा। उसका जीवन मरने की एक प्रक्रिया होगी। उसका जीवन परम जीवन का मार्ग नहीं बनेगा। लेकिन फूल पाता है रस--जड़ों से, सूर्यों से, चांद-तारों से। अगर फूल समर्पित है तो प्रफुल्लित हो जाता है। सब द्वारों से उसे रोशनी, प्रकाश, जीवन मिलता है।
शरणागति का तीसरा और गहनतम जो रूप है, वह प्रकाश, जीवन-ऊर्जा के जो परम स्रोत हैं, जो एनर्जी सोर्सेज हैं--उनकी तरफ अपने को खोलना है।
इस पावलिटा का मैंने नाम लिया, इसके नाम से एक यंत्र वैज्ञानिक जगत में प्रसिद्ध है। वह कहलाता है--पावलिटा जनरेटर। बड़े छोटे-छोटे उसने यंत्र बनाए हैं। बहुत संवेदनशील पदार्थों से बहुत छोटी-छोटी चीजें बनाई हैं, और अभूतपूर्व काम उन यंत्रों से पावलिटा करवा रहा है। वह उन यंत्रों पर कहता है कि आप सिर्फ अपनी आंख गड़ा कर खड़े हो जाएं, पांच क्षण के लिए--कुछ न करें, सिर्फ आंख गड़ा कर उन यंत्रों के सामने खड़े हो जाएं। वह यंत्र आपकी शक्ति को संगृहीत कर लेते हैं और तत्काल उस शक्ति का उपयोग किया जा सकता है। और जो काम आपका मन कर सकता था, बहुत दूर तक, वही काम अब वह यंत्र कर सकता है। पांच मिनट पहले उस यंत्र को आप हाथ में उठाते तो वह मुर्दा था। पांच मिनट बाद आप उसको हाथ में उठाएं तो आपके हाथ में उस शक्ति का अनुभव होगा। पांच मिनट पहले आप जिसे प्रेम करते हैं, अगर आपने वह यंत्र उसके हाथ में दिया होता तो वह कहता: ठीक है। वह व्यक्ति कहता या वह स्त्री कहती कि ठीक है। लेकिन पांच मिनट उसे आप गौर से देख लें और आपकी ध्यान-ऊर्जा उससे संयुक्त हो जाए तो आप उस यंत्र को अपने प्रेमी के हाथ में दे दें--वह फौरन पहचानेगा कि आपकी प्रतिध्वनि उस यंत्र से आ रही है। अगर क्रोध और घृणा से भरा हुआ व्यक्ति उस यंत्र को देख ले तो आप उसको हाथ से अलग करना चाहेंगे। अगर प्रेम और दया और सहानुभूति से भरा व्यक्ति देख ले तो आप उसे सम्हाल कर रखना चाहेंगे।
पावलिटा ने तो एक बहुत अदभुत घोषणा की है। उसने कहा: बहुत शीघ्र भीड़ को छांटने के लिए गोली और लाठी चलाने की जरूरत न होगी। हम ऐसे यंत्र बना सकेंगे जो पंद्रह मिनट में वहां खड़े कर दिए जाएं, लोग भाग जाएंगे। इतनी घृणा उनसे विकीर्णित की जा सकेगी। अभी उसके प्रयोग तो सफल हुए हैं। उसने प्रयोग बताए हैं लोगों को करके, और वे सफल हुए हैं। अब उसने नवीनतम जो यंत्र बनाया है वह ऐसा है कि आपको देखने की भी जरूरत नहीं है। आप सिर्फ एक विशेष सीमा के भीतर उसके पास से गुजर जाएं, वह आपको पकड़ लेगा।
मैंने कल कहा था कि स्टैलिन ने एक आदमी की हत्या करवा दी--कार्ल आटोविच झीलिंग की, उन्नीस सौ सैंतीस में। वह आदमी उन्नीस सौ सैंतीस में यही काम कर रहा था, जो पावलिटा अब कर पाया है। बीस साल, तीस साल व्यर्थ पिछड़ गई बात। झीलिंग अदभुत व्यक्ति था। वह अंडे को हाथ में रख कर बता सकता था कि इस अंडे से मुर्गी पैदा होगी या मुर्गा, और कभी गलती नहीं हुई। पर यह तो बड़ी बात नहीं, क्योंकि अंडे के भीतर आखिर जो प्राण हैं--स्त्री और पुरुष की विद्युत में फर्क है, उनके विद्युत कंपन में फर्क है, वही उनके बीच आकर्षण है। वह निगेटिव-पाजिटिव का फर्क है--तो अंडे के ऊपर अगर संवेदनशील व्यक्ति हाथ रखे तो ऊर्जा-कण निकलते रहते हैं, वह बता सकता है।
लेकिन झीलिंग--चित्र को ढंक दें आप--वह चित्र, ढंके हुए चित्र पर हाथ रख कर बता सकता था कि चित्र नीचे स्त्री का है कि पुरुष का। झीलिंग का कहना था कि जिसका चित्र लिया गया है, उसके विद्युत-कण उस चित्र में समाविष्ट हो जाते हैं, जितनी देर लिया जाता है। और इसलिए समाविष्ट हो जाते हैं कि जब किसी का चित्र लिया जाता है, तो वह कैमरा कांशस हो जाता है, उसका ध्यान कैमरे पर अटक जाता है और धारा प्रवाहित हो जाती है। वह जो पावलिटा कह रहा है कि एक तरफ देखने से आपकी ऊर्जा चली जाती है; आपके चित्र में भी आपकी ऊर्जा चली जाती है।
पर यह तो कुछ भी नहीं है। झीलिंग की सबसे अदभुत बात जो थी, वह यह है कि किसी आईने पर हाथ रख कर वह बता सकता था कि आखिरी जो व्यक्ति, इस आईने के सामने से निकला, वह स्त्री थी या पुरुष। क्योंकि आईने के सामने भी आप मिरर कांशस हो जाते हैं। जब आप आईने के सामने होते हैं तो जितने एकाग्र होते हैं, शायद और कहीं नहीं होते। आपके बाथरूम में लगा आईना आपके संबंध में किसी दिन इतनी बातें कह सकेगा कि आपको अपना आईना बचाना पड़ेगा कि कोई ले न जाए उठा कर। वे सब रहस्य खुल जाएंगे, जो आपने किसी को नहीं बताए। जो सिर्फ आपका बाथरूम और आपके बाथरूम का आईना जानता है। क्योंकि जितने ध्यानमग्न होकर आप आईने को देखते हैं, शायद किसी चीज को नहीं देखते। आपकी ऊर्जा प्रविष्ट हो रही है।
अगर आपसे ऊर्जा प्रविष्ट होती है ध्यानमग्न होने से, तो क्या इससे विपरीत नहीं हो सकता? वह विपरीत ही शरणागति का राज है। कि अगर आप ध्यानमग्न होते हैं, बहुत छोटे से ऊर्जा के केंद्र हैं आप। और अगर आपसे भी ऊर्जा प्रवाहित हो जाती है, तो क्या परम शक्ति के प्रति आप समर्पित होकर, उसकी ऊर्जा को अपने में समाविष्ट नहीं कर सकते? ऊर्जा के प्रवाह हमेशा दोनों तरफ होते हैं। जो ऊर्जा आपसे बह सकती है, वह आपकी तरफ भी बह सकती है। और अगर गंगाएं सागर की तरफ बहती हैं तो क्या सागर गंगा की तरफ नहीं बह सकता? यह शरणागति, सागर को गंगा की गंगोत्री की तरफ बहाने की प्रक्रिया है।
हम तो सब बह-बह कर सागर में गिर ही जाते हैं, लड़-लड़ कर बचाने की कोशिश में हैं। जीसस ने कहा है: ‘जो भी अपने को बचाएगा, वह मिट जाएगा। और धन्य हैं वे जो अपने को मिटा देते हैं, क्योंकि उनको मिटाने की फिर किसी की सामर्थ्य नहीं है।’ गंगा तो लड़ती होगी, झगड़ती होगी, सागर में गिरने के पहले, सभी झगड़ते और लड़ते हैं। भयभीत होती होगी--‘मिटी जाती हूं।’ मौत से हमारा डर यही तो है। मौत का मतलब, सागर के किनारे पहुंच गई गंगा। ‘मरे’, बचा रहे हैं। लड़ते-लड़ते गिर जाते हैं। तब गिरने का जो मजा था, उससे भी चूक जाते हैं और पीड़ा भी पाते हैं।
शरणागति कहती है: लड़ो ही मत। गिर ही जाओ, और तुम पाओगे कि जिसकी शरण में तुम गिर गए हो, उससे तुमने कुछ नहीं खोया, पाया। सागर आया गंगोत्री की तरफ--वह जो अमृत का स्रोत है, चारों तरफ, जीवन का रहस्य स्रोत। ये तो प्रतीक शब्द हैं--अरिहंत, सिद्ध, साधु। ये हमारे पास आकृतियां हैं, उस अनंत स्रोत की। ये हमारे निकट, जिन्हें हम पहचान सकें। परमात्मा निराकार में खड़ा है, उसे पहचानना बहुत मुश्किल होगा। जो पहचान सके, धन्यभागी है।
लेकिन आकार में भी परमात्मा की छवि बहुत बार दिखाई पड़ती है--कभी किसी महावीर में, कभी किसी बुद्ध में, कभी किसी क्राइस्ट में, कभी उस परमात्मा की, उस निराकार की छवि दिखाई पड़ती है। लेकिन हम उस निराकार को तब भी चूकते हैं, क्योंकि हम आकृति में कोई भूल निकाल लेते हैं। कहते हैं कि जीसस की नाक थोड़ी कम लंबी है। यह परमात्मा की नहीं हो सकती। कि महावीर को तो बीमारी पकड़ती है, यह परमात्मा कैसे हो सकते हैं? कि बुद्ध भी तो मर जाते हैं, ये परमात्मा कैसे हो सकते हैं? आपको खयाल नहीं कि यह आप आकृति की भूलें निकाल रहे हैं और आकृति के बीच जो मौजूद था, उससे चूके जा रहे हैं।
आप वैसे आदमी हैं, जो कि दीये की मिट्टी की भूलें निकाल रहे हैं, तेल की भूलें निकाल रहे हैं और वह जो ज्योति चमक रही है, उसे चूके जा रहे हैं। होगी दीये में भूल। नहीं बना होगा पूरा सुघड़। पर प्रयोजन क्या है? तेल भर लेता है, काफी सुघड़ है। वह जो ज्योति बीच में जल रही है, वह जो निराकार ज्योति है, स्रोत-रहित--उसे तो देखना कठिन है। उसे भी देखा जा सकता है। लेकिन अभी तो प्रारंभिक चरण में उसे अरिहंत में, उसे सिद्ध में, उसे साधु में, उसे जाने हुए लोगों के द्वारा कहे गए धर्म में देखने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन हम ऐसे लोग हैं कि अगर कृष्ण बोल रहे हों तो हम यह फिकर कम करेंगे कि उन्होंने क्या कहा। हम इसकी फिकर करेंगे कि कोई व्याकरण की भूल तो नहीं थी। हम ऐसे लोग हैं!
हम जिद किए बैठे हैं चूकने की कि हम चूकते ही चले जाएंगे। और जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, उनसे ज्यादा बुद्धिहीन खोजना मुश्किल है, क्योंकि वे चूकने में सर्वाधिक कुशल होते हैं। वे महावीर के पास जाते हैं तो वे कहते हैं कि सब लक्षण पूरे हुए कि नहीं? पहले लक्षण जो शास्त्र में लिखे हैं--वे पूरे होते हैं कि नहीं। वे दीयों की नाप-जोख कर रहे हैं, तेल का पता लगा रहे हैं। और तब तक ज्योति विदा हो जाएगी। और जब तक वे तय कर पाएंगे कि दीया बिलकुल ठीक है, तब तक ज्योति जा चुकी होगी। और तब दीये को वे हजारों साल तक पूजते रहेंगे। इसलिए मरे हुए दीयों का हम बड़ा आदर करते हैं। क्योंकि जब तक हम तय कर पाते हैं कि दीया ठीक है, या अपने को तय कर पाते हैं कि चलो ठीक है, तब तक ज्योति तो जा चुकी होती है।
इस जगत में, जिंदा तीर्थंकर का उपयोग नहीं होता, सिर्फ मुर्दा तीर्थंकर का उपयोग होता है। क्योंकि मुर्दा तीर्थंकर के साथ, भूल-चूक निकालने की सुविधा नहीं रह जाती। अगर महावीर के साथ आप रास्ते पर चलते हों, और देखें कि महावीर भी थक कर और वृक्ष के नीचे विश्राम करते हैं, शक पकड़ेगा कि अरे महावीर तो कहते थे अनंत ऊर्जा है, अनंत शक्ति है, अनंत वीर्य है। कहां गई अनंत ऊर्जा? यह तो थक गए। दस मील चले और पसीना निकल आया। साधारण आदमी हैं। दीया थक रहा है। महावीर जिस अनंत ऊर्जा की बात कर रहे हैं वह ज्योति की बात है। दीये तो सभी के थक जाएंगे और गिर जाएंगे।
लेकिन ये सारी बातें हम क्यों सोचते हैं? यह हम सोचते हैं, इसलिए कि शरण से बच सकें। इसके सोचने का लॉजिक है। इसके सोचने का तर्क है। इसके सोचने का रेशनेलाइजेशन है। यह हम सोचते इसलिए हैं ताकि हमें कोई कारण मिल सके और कारण के द्वारा, हम अपने को रोक सकें--शरण जाने से। बुद्धिमान वह है जो कारण खोजता है शरण जाने के लिए। और बुद्धिहीन वह है जो कारण खोजता है शरण से बचने के लिए। दोनों खोजे जा सकते हैं।
महावीर जिस गांव से गुजरते हैं, सारा गांव उनका भक्त नहीं हो जाता। उस गांव में भी उनके शत्रु होते ही हैं। जरूर वे भी अकारण नहीं होते होंगे। उनको भी कारण मिल जाता है। वे भी खोज लेते हैं कि महावीर तो कहते हैं कि जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है वह सर्वज्ञ हो जाता है। और अगर महावीर सर्वज्ञ हैं तो वे उस घर के सामने भिक्षा क्यों मांगते थे, जिसमें कोई है ही नहीं? इन्हें तो पता होना ही चाहिए न कि घर में कोई भी नहीं है! सर्वज्ञ हैं! ये खुद ही कहते हैं: जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है। और हमने इनको ऐसे घर के सामने भीख मांगते देखा, जिसमें पता चला कि घर खाली है। घर में कोई है ही नहीं। नहीं, ये सर्वज्ञ नहीं हैं। बात खत्म हो गई। शरण से रुकने का उपाय हो गया।
क्योंकि महावीर के लिए तो लोग कहते हैं, शास्त्र कहते हैं, तीर्थंकरों के लक्षण कहे गए हैं कि इतनी-इतनी दूरी तक, इतने-इतने फासले तक, जहां महावीर चलते हैं--वहां घृणा का भाव नहीं रह जाता, वहां शत्रुता का भाव नहीं रह जाता। लेकिन फिर महावीर के कान में ही कोई कीलें ठोक पाता है। तो ये तीर्थंकर नहीं हो सकते। क्योंकि जब शत्रुता का भाव ही नहीं रह जाता--जहां महावीर चलते हैं, उनके मिल्यू में, उनके वातावरण में, कोई शत्रुता का भाव नहीं बचता है--और फिर कोई इनके कान में कीलें ठोक देता है, इतने पास आकर! कान में कीलें तो बहुत दूर से तो नहीं ठोकी जा सकतीं। बहुत पास आना पड़ता है। इतने पास आकर भी शत्रुता का भाव बच रहता है! बात गड़बड़ है। संदिग्ध है मामला, ये तीर्थंकर नहीं हैं।
मगर महावीर तीर्थंकर हैं या नहीं, इससे आप क्या पा लेंगे? हां, एक कारण आप पा लेंगे कि एक अरिहंत उपलब्ध होता था तो उसकी शरण जाने से आप बच सकेंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे आपके शरण जाने से महावीर को कुछ मिलने वाला था, जो आपने रोक लिया। भूल रहे हैं, शरण जाने से आपको ही कुछ मिल सकता था, जो आप ही चूक गए। ये बहाने हैं, और आदमी की बुद्धिहीनता इतनी प्रगाढ़ है कि वह बहाने खोजने में बड़ा कुशल है। खोज लेता है बहाने।
बुद्ध के पास आकर लोग पूछते हैं--चमत्कार दिखाओ, अगर भगवान हो तो? क्योंकि कहा है कि भगवान तो मुर्दे को जिला सकता है। तो मुर्दे को जिला कर दिखाओ। जीसस को सूली दी जा रही थी, लोग खड़े होकर देख रहे थे कि सूली न लगे तो मानें कुछ। सूली लग जाए और जीसस न मरें, हाथ-पैर कट जाएं और जीसस जिंदा रहें तो मानें कुछ। फिर जीसस मर गए। लोग बड़े प्रसन्न लौटे। हम तो पहले ही कहते थे, लोगों ने कहा होगा आस-पास कि यह आदमी धोखाधड़ी दे रहा है। यह कोई ईश्र्वर का पुत्र नहीं है। नहीं तो ईश्र्वर का पुत्र ऐसे मरता? परीक्षा के लिए जीसस को सूली दी तो दो चोरों को भी दोनों तरफ लटकाया था। तीन आदमियों को इकट्ठी सूली दी थी। जैसे चोर मर गए, वैसे ही जीसस मर गए। तो फर्क क्या रहा? कोई चमत्कार होना था। यह मौका चूक गए।
जीसस ईश्र्वर-पुत्र हैं या नहीं, इसकी जांच-पड़ताल हमारे मन में क्यों चलती है? चलती है इसलिए कि अगर हों, तो ही हम शरण जाएं। न हों तो हम शरण न जाएं। लेकिन अगर आपको शरण नहीं जाना तो आप कारण खोज लेंगे। और अगर आपको शरण जाना है तो एक पत्थर की मूर्ति में आप कारण खोज सकते हैं कि शरण जाने योग्य है। और मजा यह है कि शरण जाएं तो पत्थर की मूर्ति भी आपके लिए उसी परम-स्रोत का द्वार खोल देगी। और शरण न जाएं तो खुद महावीर सामने खड़े रहें तो भी द्वार बंद रहेंगे। धार्मिक आदमी मैं उसे कहता हूं जो शरण जाने का कारण खोजता रहता है, कहीं भी। जहां भी उसे लगता है कि यहां शरण जाने जैसा है, शरण चला जाता है। जहां भी मौका मिलता है, अपने को छोड़ता और तोड़ता और मिटाता है। बचाता नहीं। एक दिन निश्र्चित ही उसकी गंगोत्री में सागर गिरना शुरू हो जाता है। और जिस दिन सागर गिरता है, उसी दिन उसे पता चलता है कि शरणागति का पूरा रहस्य क्या था। इसकी पूरी कीमिया, इसका पूरा चमत्कार क्या था।
एक बात आखिरी: अगर जीसस सूली पर चमत्कार दिखा दें और आप शरण जाएं तो ध्यान रखना, वह शरणागति नहीं है। ध्यान रखना, वह शरणागति नहीं है! अगर बुद्ध किसी मुर्दे को जिंदा कर दें और आप उनके चरण पकड़ लें तो समझना कि वह शरणागति नहीं है। क्योंकि उसमें कारण बुद्ध हैं, कारण आप नहीं हैं। वह सिर्फ चमत्कार को नमस्कार है। उसमें कोई शरणागति नहीं है। शरणागति तो तब है, जब कारण आप हैं, बुद्ध नहीं। इस फर्क को ठीक से समझ लें, नहीं तो यह सूत्र का राज चूक जाएगा। शरणागति तो तब होती है जब आप शरण गए हैं। और शरणागति उसी मात्रा में गहन होती है, जिस मात्रा में शरणागति जाने का कोई कारण नहीं होता।
जितना कारण होता है उतना तो बार्गेन हो जाता है, उतना तो सौदा हो जाता है। शरणागति नहीं रह जाती। अब बुद्ध मुर्दे को उठा रहे हैं तो नमस्कार तो करना ही पड़ेगा। इसमें आपकी खूबी नहीं है। इसमें तो कोई भी नमस्कार कर लेगा। इसमें अगर कोई खूबी है तो बुद्ध की है। आपका इसमें कुछ भी नहीं है। लेकिन अदभुत लोग थे, इस दुनिया में। एक वृक्ष को जाकर नमस्कार कर रहे हैं, एक पत्थर को। तब, तब खूबी आपकी होनी शुरू हो जाती है। अकारण--जितनी अकारण होगी शरण की भावना--उतनी गहरी होगी। जितनी सकारण होगी, उतनी उथली हो जाएगी। जब कारण बिलकुल साफ होते हैं तो बिलकुल तर्कयुक्त हो जाती है, उसमें कोई छलांग नहीं रह जाती। और जब बिलकुल कारण नहीं होता, तभी छलांग घटित होती है।
तर्तूलियन ने, एक ईसाई फकीर ने कहा है कि मैं परमात्मा को मानता हूं, क्योंकि उसके मानने का कोई भी कारण नहीं है, कोई प्रमाण नहीं है, कोई तर्क नहीं है। अगर तर्क होता, प्रमाण होता, कारण होता--तो जैसे आप कमरे में रखी कुर्सी को मानते हैं, उससे ज्यादा मूल्य परमात्मा का भी नहीं होता।
मार्क्स मजाक में कहा करता था कि ‘मैं तब तक परमात्मा को न मानूंगा, जब तक प्रयोगशाला में, टेस्ट-ट्यूब में उसे पकड़ कर सिद्ध करने का कोई प्रमाण न मिल जाए। जब हम प्रयोगशाला में उसकी जांच-परख कर लेंगे, थर्मामीटर लगा कर सब तरफ से नाप-तौल कर लेंगे, मेजरमेंट ले लेंगे, तराजू पर रख कर नाप लेंगे, एक्सरे से आप बाहर-भीतर सब उसको देख लेंगे, तब मैं मानूंगा।’ और वह कहता था: लेकिन ध्यान रखना, अगर हम परमात्मा के साथ यह सब कर सके, तो एक बात तय है कि वह परमात्मा नहीं रह जाएगा--एक साधारण वस्तु हो जाएगी। क्योंकि, जो हम वस्तुओं के साथ कर पाते हैं--वस्तुओं का तो पूरा प्रमाण है। यह दीवार पूरी तरह है।
लेकिन इससे क्या होता है? महावीर के सामने खड़े होकर शरीर तो पूरी तरह होता है। दिखाई पड़ रहा है, पूरे प्रमाण होते हैं। लेकिन वह जो भीतर जलती ज्योति है, वह उतनी पूरी तरह नहीं होती है। उसमें तो आपको छलांग लगानी पड़ती है--तर्क के बाहर, कारण के बाहर। और जिस मात्रा में वह आपको नहीं दिखाई पड़ती है और छलांग लगाने की आप सामर्थ्य जुटाते हैं, उसी मात्रा में आप शरण जाते हैं। नहीं तो सौदे में जाते हैं।
एक आदमी आपके बीच आकर खड़ा हो जाए, मुर्दों को जिला दे, बीमारों को ठीक कर दे, इशारों से घटनाएं घटने लगें तो आप सब उसके पैर पर गिर ही जाएंगे। लेकिन वह शरणागति नहीं है। लेकिन महावीर जैसा आदमी खड़ा हो जाता है, कोई चमत्कार नहीं है। कुछ भी ऐसा नहीं कि आप ध्यान दें। कुछ भी ऐसा नहीं जिससे आपको तत्काल लाभ दिखाई पड़े। कुछ भी ऐसा नहीं जो आपके सिर पर पत्थर की चोट पर, प्रमाण बन जाए। बहुत तरल अस्तित्व, बहुत अदृश्य अस्तित्व और आप शरण चले जाते हैं। तो आपके भीतर क्रांति घटित होती है। आप अहंकार से नीचे गिरते हैं। सब तर्क, सब प्रमाण, सब बुद्धिमत्ता की बातें अहंकार के इर्द-गिर्द हैं। अतर्क्य, विचार के बाहर छलांग--अकारण समर्पण के इर्द-गिर्द है।
बुद्ध के पास एक युवक आया था। चरणों में उनके गिर गया। बुद्ध ने उससे पूछा कि मेरे चरण में क्यों गिरते हो? उस युवक ने कहा: क्योंकि गिरने में बड़ा राज है। आपके चरण में नहीं गिरता, आपके चरण मात्र बहाना हैं। मैं गिरता हूं क्योंकि खड़े रह कर बहुत देख लिया, सिवाय पीड़ा के और दुख के कुछ भी न पाया।
तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा कि भिक्षुओ, देखो! अगर तुम मुझे मानते हो कि मैं भगवान हूं, तब मेरे चरण में गिरते हो, तब तुम्हें इतना लाभ न होगा, जितना लाभ यह युवक मुझे बिना भगवान माने उठाए लिए जा रहा है। यह कह रहा है कि मैं गिरता हूं, क्योंकि गिरने का बड़ा आनंद है। और अभी मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं है कि शून्य में गिर पाऊं, इसलिए आपको निमित्त बना लिया है। किसी दिन जब मेरी सामर्थ्य आ जाएगी कि जब मैं शून्य में गिर पाऊंगा--उन चरणों में, जो दिखाई भी नहीं पड़ते; उन चरणों में, जिन्हें छुआ भी नहीं जा सकता। लेकिन जो चरण चारों तरफ मौजूद हैं--जब मैं उस कॉस्मिक--उस विराट अस्तित्व के, निराकार को सीधा ही गिर पाऊंगा। पर जरा मुझे गिरने का आनंद ले लेने दो। अगर इन दिखाई पड़ते हुए चरणों में इतना आनंद है, उसका मुझे थोड़ा स्वाद आ जाने दो, तो फिर मैं उस विराट में भी गिर जाऊंगा।
इसलिए बुद्ध का जो सूत्र है: ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’--वह बुद्ध से शुरू होता है, व्यक्ति से। ‘संघं शरणं गच्छामि’--समूह पर बढ़ता। संघ का अर्थ है: उन सब साधुओं का, उन सब साधुओं के चरणों में। और फिर धर्म पर--‘धम्मं शरणं गच्छामि’, फिर वह समूह से भी हट जाता है। फिर वह सिर्फ स्वभाव में, फिर निराकार में खो जाता है। वही, अरिहंत के शरण गिरता हूं; स्वीकार करता हूं, अरिहंत की शरण। सिद्ध की शरण स्वीकार करता हूं, साधु की शरण स्वीकार करता हूं। और अंत में ‘केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि’--धर्म की, जाने हुए लोगों के द्वारा बताए गए ज्ञान की शरण स्वीकार करता हूं। सारी बात इतनी है कि अपने को अस्वीकार करता हूं। और जो अपने को अस्वीकार करता है वह स्वयं को पा लेता है और जो स्वयं को ही पकड़ कर बैठा रह जाता है वह सब तो खो देता है, अंत में स्वयं को भी नहीं पाता है। स्वयं को पाने की यह प्रक्रिया बड़ी पैराडाक्सिकल है, बड़ी विपरीत दिखाई पड़ेगी। स्वयं को पाना हो तो स्वयं को छोड़ना पड़ता है। और स्वयं को मिटाना हो तो स्वयं को खूब जोर से पकड़े रखना पड़ता है।
दो सूत्र अब तक विकसित हुए हैं जैसा मैंने कहा: एक, सिद्ध की तरफ से कि मेरी शरण आ जाओ। दो, साधक की तरफ से कि मैं तुम्हारी शरण आता हूं। तीसरा कोई सूत्र नहीं है। लेकिन हम तीसरे की तरफ बढ़ रहे हैं। वह तीसरे की तरफ बढ़ते हुए हमारे कदम जीवन में जो भी शुभ है, जीवन में जो भी सुंदर है, जीवन में जो भी सत्य है, उसे खोने की तरफ बढ़ रहे हैं।
समर्पण यानी श्रद्धा। समर्पण यानी शरणागति। समर्पण यानी अहंकार विसर्जन। नमोकार इस पर पूरा होता है।
कल से हम महावीर की वाणी में प्रवेश करेंगे। लेकिन वे ही प्रवेश कर पाएंगे जो अपने भीतर शरण की आकृति निर्मित कर पाएंगे। चौबीस घंटे के लिए एक प्रयोग करना। जब भी खयाल आए तो मन में कहना--‘अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि।’ इसे दोहराते रहना चौबीस घंटे। रात सोते समय इसे दोहरा कर सो जाना। रात नींद टूट जाए तो इसे दोहरा लेना। सुबह नींद खुले तो पहले इसे दोहरा लेना। कल यहां आते वक्त इसे दोहराते आना। अगर वह शरण की आकृति भीतर बन जाए तो महावीर की वाणी में हम किसी और ढंग से प्रवेश कर सकेंगे--जैसा पच्चीस सौ वर्ष में संभव नहीं हुआ है।
आज इतना ही।
अब हम यह शरण की आकृति और उसकी ध्वनि में थोड़ा प्रवेश करें। कोई जाए न, कोई जाए न, बैठ जाएं और सम्मिलित हों...!