MAHAVIR
Mahaveer Vani 01
First Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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नमो अरिहंताणं।
नमो सिद्धाणं।
नमो आयरियाणं।
नमो उवज्झायाणं।
नमो लोए सव्वसाहूणं।
एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं।।
अरिहंतों (अर्हतों) को नमस्कार। सिद्धों को नमस्कार। आचार्यों को नमस्कार। उपाध्यायों को नमस्कार। लोक संसार में सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पांचों नमस्कार सर्व पापों के नाशक हैं और सर्व मंगलों में प्रथम मंगल रूप हैं।
पंच-नमोकार-सूत्र
जैसे सुबह सूरज निकले और कोई पक्षी आकाश में उड़ने के पहले अपने घोसले के पास परों को तौले, सोचे, साहस जुटाए; या जैसे कोई नदी सागर में गिरने के करीब हो, स्वयं को खोने के निकट, पीछे लौट कर देखे, सोचे क्षण भर, ऐसा ही महावीर की वाणी में प्रवेश के पहले दो क्षण सोच लेना जरूरी है।
जैसे पर्वतों में हिमालय है या शिखरों में गौरीशंकर, वैसे ही व्यक्तियों में महावीर हैं। बड़ी है चढ़ाई। जमीन पर खड़े होकर भी गौरीशंकर के हिमाच्छादित शिखर को देखा जा सकता है। लेकिन जिन्हें चढ़ाई करनी हो और शिखर पर पहुंच कर ही शिखर को देखना हो, उन्हें बड़ी तैयारी की जरूरत है। दूर से भी देख सकते हैं महावीर को, लेकिन दूर से जो परिचय होता है वह वास्तविक परिचय नहीं है। महावीर में तो छलांग लगा कर ही वास्तविक परिचय पाया जा सकता है। उस छलांग के पहले जो जरूरी है वे कुछ बातें आपसे कहूं।
बहुत बार ऐसा होता है कि हमारे हाथ में निष्पत्तियां रह जाती हैं, कनक्लूजंस रह जाते हैं--प्रक्रियाएं खो जाती हैं। मंजिल रह जाती है, रास्ते खो जाते हैं। शिखर तो दिखाई पड़ता है, लेकिन वह पगडंडी दिखाई नहीं पड़ती जो वहां तक पहुंचा दे। ऐसा ही यह नमोकार मंत्र भी है। यह निष्पत्ति है। इसे पच्चीस सौ वर्ष से लोग दोहराते चले आ रहे हैं। यह शिखर है, लेकिन पगडंडी जो इस नमोकार मंत्र तक पहुंचा दे, वह न मालूम कब की खो गई है।
इसके पहले कि हम मंत्र पर बात करें, उस पगडंडी पर थोड़ा सा मार्ग साफ कर लेना उचित होगा। क्योंकि जब तक प्रक्रिया न दिखाई पड़े, तब तक निष्पत्तियां व्यर्थ हैं। और जब तक मार्ग न दिखाई पड़े, तब तक मंजिल बेबूझ होती है। और जब तक सीढ़ियां न दिखाई पड़ें, तब तक दूर दिखते हुए शिखरों का कोई भी मूल्य नहीं--वे स्वप्नवत हो जाते हैं। वे हैं भी या नहीं, इसका भी निर्णय नहीं किया जा सकता। कुछ दो-चार मार्गों से नमोकार के रास्ते को समझ लें।
उन्नीस सौ सैंतीस में तिब्बत और चीन के बीच बोकान पर्वत की एक गुफा में सात सौ सोलह पत्थर के रिकॉर्ड मिले हैं--पत्थर के। और वे रिकॉर्ड हैं महावीर से दस हजार साल पुराने, यानी आज से कोई साढ़े बारह हजार साल पुराने। बड़े आश्र्चर्य के हैं, क्योंकि वे रिकॉर्ड ठीक वैसे हैं जैसे ग्रामोफोन का रिकॉर्ड होता है। ठीक उनके बीच में एक छेद है, और पत्थर पर ग्रूव्ज हैं--जैसे कि ग्रामोफोन के रिकॉर्ड पर होते हैं। अब तक राज नहीं खोला जा सका है कि वे किस यंत्र पर बजाए जा सकेंगे। लेकिन एक बात तय हो गई है--रूस के एक बड़े वैज्ञानिक डॉक्टर सर्जिएव ने वर्षों तक मेहनत करके यह प्रमाणित किया है कि वे हैं तो रिकॉर्ड ही। किस यंत्र पर और किस सुई के माध्यम से वे पुनरुज्जीवित हो सकेंगे, यह अभी तय नहीं हो सका। अगर एकाध पत्थर का टुकड़ा होता तो सांयोगिक भी हो सकता था। सात सौ सोलह हैं। सब एक जैसे, जिनमें बीच में छेद हैं। सब पर ग्रूव्ज हैं और उनकी पूरी तरह सफाई, धूल-धवांस जब अलग कर दी गई और जब विद्युत यंत्रों से उनकी परीक्षा की गई तब बड़ी हैरानी हुई, उनसे प्रतिपल विद्युत की किरणें विकीर्णित हो रही हैं।
लेकिन क्या आदमी के पास आज से बारह हजार साल पहले ऐसी कोई व्यवस्था थी कि वह पत्थरों में कुछ रिकॉर्ड कर सके? तब तो हमें सारा इतिहास और ढंग से लिखना पड़ेगा।
जापान के एक पर्वत शिखर पर पच्चीस हजार वर्ष पुरानी मूर्तियों का एक समूह है। वे मूर्तियां ‘डोबू’ कहलाती हैं। उन मूर्तियों ने बहुत हैरानी खड़ी कर दी, क्योंकि अब तक उन मूर्तियों को समझना संभव नहीं था--लेकिन अब संभव हुआ। जिस दिन हमारे यात्री अंतरिक्ष में गए उसी दिन डोबू मूर्तियों का रहस्य खुल गया; क्योंकि डोबू मूर्तियां उसी तरह के वस्त्र पहने हुए हैं जैसे अंतरिक्ष का यात्री पहनता है। अंतरिक्ष में यात्रियों ने, रूसी या अमरीकी एस्ट्रोनाट्स ने जिन वस्तुओं का उपयोग किया है, वे ही उन मूर्तियों के ऊपर हैं, पत्थर में खुदे हुए। वे मूर्तियां पच्चीस हजार साल पुरानी हैं। और अब इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है मानने का कि पच्चीस हजार साल पहले आदमी ने अंतरिक्ष की यात्रा की है या अंतरिक्ष के किन्हीं और ग्रहों से आदमी जमीन पर आता रहा है।
आदमी जो आज जानता है, वह पहली बार जान रहा है, ऐसी भूल में पड़ने का अब कोई कारण नहीं है। आदमी बहुत बार जान लेता है और भूल जाता है। बहुत बार शिखर छू लिए गए हैं और खो गए हैं। सभ्यताएं उठती हैं और आकाश को छूती हैं लहरों की तरह और विलीन हो जाती हैं। जब भी कोई लहर आकाश को छूती है तो सोचती है: उसके पहले किसी और लहर ने आकाश को नहीं छुआ होगा।
महावीर एक बहुत बड़ी संस्कृति के अंतिम व्यक्ति हैं, जिस संस्कृति का विस्तार कम से कम दस लाख वर्ष है। महावीर जैन-विचार और परंपरा के अंतिम तीर्थंकर हैं--चौबीसवें। शिखर की, लहर की आखिरी ऊंचाई। और महावीर के बाद वह लहर और वह सभ्यता और वह संस्कृति सब बिखर गई। आज उन सूत्रों को समझना इसीलिए कठिन है; क्योंकि वह पूरा का पूरा मिल्यू, वह वातावरण जिसमें वे सूत्र सार्थक थे, आज कहीं भी नहीं है।
ऐसा समझें कि कल तीसरा महायुद्ध हो जाए, सारी सभ्यता बिखर जाए, फिर भी लोगों के पास याददाश्त रह जाएगी कि लोग हवाई जहाजों में उड़ते थे। हवाई जहाज तो बिखर जाएंगे, याददाश्त रह जाएगी। वह याददाश्त हजारों साल तक चलेगी और बच्चे हंसेंगे, वे कहेंगे कि कहां हैं हवाई जहाज, जिनकी तुम बात करते हो? ऐसा मालूम होता है--कहानियां हैं, पुराण-कथाएं हैं, ‘मिथ’ हैं।
जैन चौबीस तीर्थंकरों की ऊंचाई--शरीर की ऊंचाई--बहुत काल्पनिक मालूम पड़ती है। उनमें महावीर भर की ऊंचाई आदमी की ऊंचाई है, बाकी तेईस तीर्थंकर बहुत ऊंचे हैं, इतनी ऊंचाई नहीं हो सकती; ऐसा ही वैज्ञानिकों का अब तक खयाल था, लेकिन अब नहीं है। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, जैसे-जैसे जमीन सिकुड़ती गई है, वैसे-वैसे जमीन पर ग्रेविटेशन, गुरुत्वाकर्षण भारी होता गया है। और जिस मात्रा में गुरुत्वाकर्षण भारी होता है, लोगों की ऊंचाई कम होती चली जाती है। आपकी दीवाल की छत पर छिपकली चलती है, आप कभी सोच नहीं सकते कि छिपकली आज से दस लाख साल पहले हाथी से बड़ा जानवर थी। वह अकेली बची है, उसकी जाति के सारे जानवर खो गए।
उतने बड़े जानवर अचानक क्यों खो गए? अब वैज्ञानिक कहते हैं कि जमीन के गुरुत्वाकर्षण में कोई राज छिपा हुआ मालूम पड़ता है। अगर गुरुत्वाकर्षण और सघन होता गया तो आदमी और छोटा होता चला जाएगा। अगर आदमी चांद पर रहने लगे तो आदमी की ऊंचाई चौगुनी हो जाएगी, क्योंकि चांद पर चौगुना कम है गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी से। अगर हमने कोई और तारे और ग्रह खोज लिए जहां गुरुत्वाकर्षण और कम हो तो ऊंचाई और बड़ी हो जाएगी। इसलिए आज एकदम कथा कह देनी बहुत कठिन है।
नमोकार को जैन-परंपरा ने महामंत्र कहा है। पृथ्वी पर दस-पांच ऐसे मंत्र हैं जो नमोकार की हैसियत के हैं। असल में प्रत्येक धर्म के पास एक महामंत्र अनिवार्य है, क्योंकि उसके इर्द-गिर्द ही उसकी सारी व्यवस्था, सारा भवन निर्मित होता है।
ये महामंत्र करते क्या हैं, इनका प्रयोजन क्या है, इनसे क्या फलित हो सकता है?
आज साउंड इलेक्ट्रानिक्स, ध्वनि-विज्ञान बहुत से नये तथ्यों के करीब पहुंच रहा है। उसमें एक तथ्य यह है कि इस जगत में पैदा की गई कोई भी ध्वनि कभी भी नष्ट नहीं होती--इस अनंत आकाश में संगृहीत होती चली जाती है। ऐसा समझें कि जैसे आकाश भी रिकॉर्ड करता है, आकाश पर भी किसी सूक्ष्म तल पर ग्रूव्ज बन जाते हैं। इस पर रूस में इधर पंद्रह वर्षों में बहुत काम हुआ है। उस काम पर दो-तीन बातें खयाल में ले लेंगे तो आसानी हो जाएगी।
अगर एक सदभाव से भरा हुआ व्यक्ति, मंगलकामना से भरा हुआ व्यक्ति आंख बंद करके अपने हाथ में जल से भरी हुई एक मटकी ले ले और कुछ क्षण सदभावों से भरा हुआ उस जल की मटकी को हाथ में लिए रहे--तो रूसी वैज्ञानिक कामेनिएव और अमरीकी वैज्ञानिक डॉक्टर रूडोल्फ किर, इन दो व्यक्तियों ने बहुत से प्रयोग करके यह प्रमाणित किया है कि वह जल गुणात्मक रूप से परिवर्तित हो जाता है। केमिकली कोई फर्क नहीं होता। उस भली भावनाओं से भरे हुए, मंगल-आकांक्षाओं से भरे हुए व्यक्ति के हाथ में जल का स्पर्श जल में कोई केमिकल, कोई रासायनिक परिवर्तन नहीं करता, लेकिन उस जल में फिर भी कोई गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। और वह जल अगर बीजों पर छिड़का जाए तो वे जल्दी अंकुरित होते हैं, साधारण जल की बजाय। उनमें बड़े फूल आते हैं, बड़े फल लगते हैं। वे पौधे ज्यादा स्वस्थ होते हैं, साधारण जल की बजाय।
कामेनिएव ने साधारण जल भी उन्हीं बीजों पर, वैसी ही भूमि में छिड़का है और यह विशेष जल भी। और रुग्ण, विक्षिप्त, निगेटिव इमोशंस से भरे हुए व्यक्ति, निषेधात्मक भाव से भरे हुए व्यक्ति, हत्या का विचार करने वाले, दूसरे को नुकसान पहुंचाने का विचार करने वाले, अमंगल की भावनाओं से भरे हुए व्यक्ति के हाथ में दिया गया जल भी बीजों पर छिड़का है--या तो वे बीज अंकुरित ही नहीं होते, या अंकुरित होते हैं तो रुग्ण अंकुरित होते हैं।
पंद्रह वर्ष हजारों प्रयोगों के बाद यह निष्पत्ति ली जा सकी कि जल में अब तक हम सोचते थे केमिस्ट्री ही सब-कुछ है, लेकिन केमिकली तो कोई फर्क नहीं होता, रासायनिक रूप से तीनों जलों में कोई फर्क नहीं होता, फिर भी कोई फर्क होता है; वह फर्क क्या है? और वह फर्क जल में कहां से प्रवेश करता है? निश्चित ही वह फर्क, अब तक जो भी हमारे पास उपकरण हैं, उनसे नहीं जांचा जा सकता। लेकिन वह फर्क होता है, यह परिणाम से सिद्ध होता है। क्योंकि तीनों जलों का आत्मिक रूप बदल जाता है। केमिकल रूप तो नहीं बदलता, लेकिन तीनों जलों की आत्मा में कुछ रूपांतरण हो जाता है।
अगर जल में यह रूपांतरण हो सकता है तो हमारे चारों ओर फैले हुए आकाश में भी हो सकता है। मंत्र की प्राथमिक आधारशिला यही है। मंगल भावनाओं से भरा हुआ मंत्र, हमारे चारों ओर के आकाश में गुणात्मक अंतर पैदा करता है, क्वालिटेटिव ट्रांसफार्मेशन करता है। और उस मंत्र से भरा हुआ व्यक्ति जब आपके पास से भी गुजरता है, तब भी वह अलग तरह के आकाश से गुजरता है। उसके चारों तरफ शरीर के आस-पास एक भिन्न तरह का आकाश, ए डिफरेंट क्वालिटी ऑफ स्पेस पैदा हो जाती है।
एक दूसरे रूसी वैज्ञानिक किरलियान ने हाई फ्रिक्वेंसी फोटोग्राफी विकसित की है। वह शायद आने वाले भविष्य में सबसे अनूठा प्रयोग सिद्ध होगा। अगर मेरे हाथ का चित्र लिया जाए, हाई फ्रिक्वेंसी फोटोग्राफी से, जो कि बहुत संवेदनशील प्लेट्स पर होती है, तो मेरे हाथ का ही चित्र सिर्फ नहीं आता, मेरे हाथ के आस-पास जो किरणें मेरे हाथ से निकल रही हैं, उनका चित्र भी आता है। और आश्र्चर्य की बात तो यह है कि अगर मैं निषेधात्मक विचारों से भरा हुआ हूं तो मेरे हाथ के आस-पास जो विद्युत-पैटर्न, जो विद्युत के जाल का चित्र आता है, वह रुग्ण, बीमार, अस्वस्थ और केऑटिक, अराजक होता है--विक्षिप्त होता है। जैसे किसी पागल आदमी ने लकीरें खींची हों। अगर मैं शुभ भावनाओं से, मंगल-भावनाओं से भरा हुआ हूं, आनंदित हूं, पाजिटिव हूं, प्रफुल्लित हूं, प्रभु के प्रति अनुग्रह से भरा हुआ हूं, तो मेरे हाथ के आस-पास जो किरणों का चित्र आता है, किरलियान की फोटोग्राफी से, वह रिदमिक, लयबद्ध, सुंदर, सिमिट्रिकल, सानुपातिक, और एक और ही व्यवस्था में निर्मित होता है।
किरलियान का कहना है--और किरलियान का प्रयोग तीस वर्षों की मेहनत है--किरलियान का कहना है कि बीमारी के आने के छह महीने पहले शीघ्र ही हम बताने में समर्थ हो जाएंगे कि यह आदमी बीमार होने वाला है। क्योंकि इसके पहले कि शरीर परबीमारी उतरे, वह जो विद्युत का वर्तुल है, उस पर बीमारी उतर जाती है। मरने के पहले, इसके पहले कि आदमी मरे, वह विद्युत का वर्तुल सिकुड़ना शुरू हो जाता है और मरना शुरू हो जाता है। इसके पहले कि कोई आदमी हत्या करे किसी की, उस विद्युत के वर्तुल में हत्या के लक्षण शुरू हो जाते हैं। इसके पहले कि कोई आदमी किसी के प्रति करुणा से भरे, उस विद्युत के वर्तुल में करुणा प्रवाहित होने के लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं।
किरलियान का कहना है कि कैंसर पर हम तभी विजय पा सकेंगे जब शरीर को पकड़ने के पहले हम कैंसर को पकड़ लें। और यह पकड़ा जा सकेगा। इसमें कोई विधि की भूल अब नहीं रह गई है। सिर्फ प्रयोगों के और फैलाव की जरूरत है। प्रत्येक मनुष्य अपने आस-पास एक आभामंडल लेकर, एक ऑरा लेकर चलता है। आप अकेले ही नहीं चलते, आपके आस-पास एक विद्युत-वर्तुल, एक इलेक्ट्रो डाइनैमिक फील्ड प्रत्येक व्यक्ति के आस-पास चलता है। व्यक्ति के आस-पास ही नहीं, पशुओं के आस-पास भी, पौधों के आस-पास भी। असल में रूसी वैज्ञानिकों का कहना है कि जीव और अजीव में एक ही फर्क किया जा सकता है, जिसके आस-पास आभामंडल है वह जीवित है और जिसके पास आभामंडल नहीं है, वह मृत है।
जब आदमी मरता है तो मरने के साथ ही आभामंडल क्षीण होना शुरू हो जाता है। बहुत चकित करने वाली और संयोग की बात है कि जब भी कोई आदमी मरता है तो तीन दिन लगते हैं उसके आभामंडल के विसर्जित होने में। हजारों साल से सारी दुनिया में मरने के बाद तीसरे दिन का बड़ा मूल्य रहा है। जिन लोगों ने उस तीसरे दिन को--तीसरे को इतना मूल्य दिया था, उन्हें किसी न किसी तरह इस बात का अनुभव होना ही चाहिए, क्योंकि वास्तविक मृत्यु तीसरे दिन घटित होती है। इन तीन दिनों के बीच, किसी भी दिन वैज्ञानिक उपाय खोज लेंगे, तो आदमी को पुनरुज्जीवित किया जा सकता है। जब तक आभामंडल नहीं खो गया, तब तक जीवन अभी शेष है। हृदय की धड़कन बंद हो जाने से जीवन समाप्त नहीं होता। इसलिए पिछले महायुद्ध में रूस में छह व्यक्तियों को हृदय की धड़कन बंद हो जाने के बाद पुनरुज्जीवित किया जा सका। जब तक आभामंडल चारों तरफ है, तब तक व्यक्ति सूक्ष्म तल पर अभी भी जीवन में वापस लौट सकता है। अभी सेतु कायम है। अभी रास्ता बना है वापस लौटने का।
जो व्यक्ति जितना जीवंत होता है, उसके आस-पास उतना बड़ा आभामंडल होता है। हम महावीर की मूर्ति के आस-पास अगर एक आभामंडल निर्मित करते हैं--या कृष्ण, या राम, या क्राइस्ट के आस-पास--तो वह सिर्फ कल्पना नहीं है। वह आभामंडल देखा जा सकता है। और अब तक तो केवल वे ही देख सकते थे जिनके पास थोड़ी गहरी और सूक्ष्म दृष्टि हो--मिस्टिक्स, संत; लेकिन उन्नीस सौ तीस में एक अंग्रेज वैज्ञानिक ने अब तो केमिकल, रासायनिक प्रक्रिया निर्मित कर दी है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति--कोई भी--उस माध्यम से, उस यंत्र के माध्यम से दूसरे के आभामंडल को देख सकता है।
आप सब यहां बैठे हैं। प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी आभामंडल है। जैसे आपके अंगूठे की छाप निजी है वैसे ही आपका आभामंडल भी निजी है। और आपका आभामंडल आपके संबंध में वह सब-कुछ कहता है जो आप भी नहीं जानते। आपका आभामंडल आपके संबंध में वे बातें भी कहता है जो भविष्य में घटित होंगी। आपका आभामंडल वे बातें भी कहता है जो अभी आपके गहन अचेतन में निर्मित हो रही हैं, बीज की भांति, कल खिलेंगी और प्रकट होंगी।
मंत्र आभामंडल को बदलने की आमूल प्रक्रिया है। आपके आस-पास की स्पेस, और आपके आस-पास का इलेक्ट्रो डाइनैमिक फील्ड बदलने की प्रक्रिया है। और प्रत्येक धर्म के पास एक महामंत्र है। जैन-परंपरा के पास नमोकार है। आश्र्चर्यजनक घोषणा: ‘एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो।’ सब पाप का नाश कर दे, ऐसा महामंत्र है नमोकार। ठीक नहीं लगता। नमोकार से कैसे पाप नष्ट हो जाएगा? नमोकार से सीधा पाप नष्ट नहीं होता, लेकिन नमोकार से आपके आस-पास का इलेक्ट्रो डाइनैमिक फील्ड रूपांतरित होता है और पाप करना असंभव हो जाता है। क्योंकि पाप करने के लिए आपके पास एक खास तरह का आभामंडल चाहिए। अगर इस मंत्र को सीधा ही सुनेंगे तो लगेगा कैसे हो सकता है? एक चोर यह मंत्र पढ़ लेगा तो क्या होगा? एक हत्यारा यह मंत्र पढ़ लेगा तो क्या होगा? कैसे पाप नष्ट हो जाएगा? पाप नष्ट होता है इसलिए, कि जब आप पाप करते हैं, उसके पहले आपके पास एक विशेष तरह का पाप का आभामंडल चाहिए--उसके बिना आप पाप नहीं कर सकते--वह आभामंडल अगर रूपांतरित हो जाए तो असंभव हो जाएगी बात, पाप करना असंभव हो जाएगा।
यह नमोकार कैसे उस आभामंडल को बदलता होगा? यह नमस्कार है, यह नमन का भाव है। नमन का अर्थ है: समर्पण। यह शाब्दिक नहीं है। यह नमो अरिहंताणं, यह अरिहंतों को नमस्कार करता हूं, यह शाब्दिक नहीं है, ये शब्द नहीं हैं, यह भाव है। अगर प्राणों में यह भाव सघन हो जाए कि अरिहंतों को नमस्कार करता हूं, तो इसका अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ होता है: जो जानते हैं उनके चरणों में सिर रखता हूं। जो पहुंच गए हैं, उनके चरणों में समर्पित करता हूं। जो पा गए हैं, उनके द्वार पर मैं भिखारी बन कर खड़ा होने को तैयार हूं।
किरलियान की फोटोग्राफी ने यह भी बताने की कोशिश की है कि आपके भीतर जब भाव बदलते हैं तो आपके आस-पास का विद्युत-मंडल बदलता है। और अब तो ये फोटोग्राफ उपलब्ध हैं। अगर आप अपने भीतर विचार कर रहे हैं चोरी करने का, तो आपका आभामंडल और तरह का हो जाता है--उदास, रुग्ण, खूनी रंगों से भर जाता है। आप किसी को, गिर गए को उठाने जा रहे हैं--आपके आभामंडल के रंग तत्काल बदल जाते हैं।
रूस में एक महिला है, नेल्या माइखालोवा। इस महिला ने पिछले पंद्रह वर्षों में रूस में आमूल क्रांति खड़ी कर दी है। और यह जान कर हैरानी होगी कि मैं रूस के इन वैज्ञानिकों के नाम क्यों ले रहा हूं। कुछ कारण हैं। आज से चालीस साल पहले अमरीका के एक बहुत बड़े प्रोफेट एडगर केयसी ने, जिसको अमरीका का स्लीपिंग प्रोफेट कहा जाता है; जो कि सो जाता था गहरी तंद्रा में, जिसे हम समाधि कहें, और उसमें वह जो भविष्यवाणियां करता था वह अब तक सभी सही निकली हैं। उसने थोड़ी भविष्यवाणियां नहीं कीं, दस हजार भविष्यवाणियां कीं। उसकी एक भविष्यवाणी चालीस साल पहले की यह है--उस वक्त तो सब लोग हैरान हुए थे--उसने यह भविष्यवाणी की थी कि आज से चालीस साल बाद धर्म का एक नवीन वैज्ञानिक आविर्भाव रूस से प्रारंभ होगा। रूस से? और एडगर केयसी ने चालीस साल पहले कहा, जब कि रूस में तो धर्म नष्ट किया जा रहा था, चर्च गिराए जा रहे थे, मंदिर हटाए जा रहे थे, पादरी-पुरोहित साइबेरिया भेजे जा रहे थे। उन क्षणों में कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि रूस में जन्म होगा। रूस अकेली भूमि थी उस समय जमीन पर जहां धर्म पहली दफे व्यवस्थित रूप से नष्ट किया जा रहा था, जहां पहली दफा नास्तिकों के हाथ में सत्ता थी। पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में जहां पहली बार नास्तिकों ने एक संगठित प्रयास किया था--आस्तिकों के संगठित प्रयास तो होते रहे हैं। और केयसी की यह घोषणा कि चालीस साल बाद रूस से ही जन्म होगा!
असल में जैसे ही रूस पर नास्तिकता अति आग्रहपूर्ण हो गई तो जीवन का एक नियम है कि जीवन एक तरह का संतुलन निर्मित करता है। जिस देश में बड़े नास्तिक पैदा होने बंद हो जाते हैं, उस देश में बड़े आस्तिक भी पैदा होने बंद हो जाते हैं। जीवन एक संतुलन है। और जब रूस में इतनी प्रगाढ़ नास्तिकता थी तो अंडरग्राउंड, छिपे मार्गों से आस्तिकता ने पुनः आविष्कार करना शुरू कर दिया। स्टैलिन के मरने तक सारी खोज-बीन छिप कर चलती थी, स्टैलिन के मरने के बाद वह खोज-बीन प्रकट हो गई। स्टैलिन खुद भी बहुत हैरान था। वह मैं बात आपसे करूंगा।
यह माइखालोवा पंद्रह वर्ष से रूस में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व है। क्योंकि माइखालोवा सिर्फ ध्यान से किसी भी वस्तु को गतिमान कर पाती है। हाथ से नहीं, शरीर के किसी प्रयोग से नहीं। वहां दूर, छह फीट दूर रखी हुई कोई भी चीज, माइखालोवा सिर्फ उस पर एकाग्र चित्त होकर उसे गतिमान--या तो अपने पास खींच पाती है, वस्तु चलना शुरू कर देती है, या अपने से दूर हटा पाती है, या मैग्नेटिक नीडल लगी हो तो उसे घुमा पाती है, या घड़ी हो तो उसके कांटे को तेजी से चक्कर दे पाती है, या घड़ी हो तो बंद कर पाती है--सैकड़ों प्रयोग। लेकिन एक बहुत हैरानी की बात है कि अगर माइखालोवा प्रयोग कर रही हो और आस-पास संदेहशील लोग हों तो उसे पांच घंटे लग जाते हैं, तब वह हिला पाती है। अगर आस-पास मित्र हों, सहानुभूतिपूर्ण हों, तो वह आधे घंटे में हिला पाती है। अगर आस-पास श्रद्धा से भरे हुए लोग हों तो पांच मिनट में। और एक मजे की बात है कि जब उसे पांच घंटे लगते हैं किसी वस्तु को हिलाने में तो उसका कोई दस पौंड वजन कम हो जाता है। जब उसे आधा घंटा लगता है तो कोई तीन पौंड वजन कम होता है। और जब पांच मिनट लगते हैं तो उसका कोई वजन कम नहीं होता।
ये पंद्रह सालों में बड़े वैज्ञानिक प्रयोग किए गए हैं। दो नोबल प्राइज विनर वैज्ञानिक डॉक्टर वासिलिएव और कामेनिएव और चालीस और चोटी के वैज्ञानिकों ने हजारों प्रयोग करके इस बात की घोषणा की है कि माइखालोवा जो कर रही है, वह तथ्य है। और अब उन्होंने यंत्र विकसित किए हैं जिनके द्वारा माइखालोवा के आस-पास क्या घटित होता है, वह रिकॉर्ड हो जाता है। तीन बातें रिकॉर्ड होती हैं। एक तो जैसे ही माइखालोवा ध्यान एकाग्र करती है, उसके आस-पास का आभामंडल सिकुड़ कर एक धारा में बहने लगता है--जिस वस्तु के ऊपर वह ध्यान करती है, जैसे लेसर रे की तरह, एक विद्युत की किरण की तरह संगृहीत हो जाता है। और उसके चारों तरफ किरलियान फोटोग्राफी से, जैसे कि समुद्र में लहरें उठती हैं, ऐसा उसका आभामंडल तरंगित होने लगता है। और वे तरंगें चारों तरफ फैलने लगती हैं। उन्हीं तरंगों के धक्के से वस्तुएं हटती हैं या पास खींची जाती हैं। सिर्फ भाव मात्र--उसका भाव कि वस्तु मेरे पास आ जाए, वस्तु पास आ जाती है। उसका भाव कि दूर हट जाए, वस्तु दूर चली जाती है।
इससे भी हैरानी की बात जो तीसरी है वह यह कि रूसी वैज्ञानिकों का खयाल है कि यह जो एनर्जी है, यह चारों तरफ जो ऊर्जा फैलती है, इसे संगृहीत किया जा सकता है, इसे यंत्रों में संगृहीत किया जा सकता है। निश्चित ही जब एनर्जी है तो संगृहीत की जा सकती है। कोई भी ऊर्जा संगृहीत की जा सकती है। और इस प्राण-ऊर्जा का, जिसको योग ‘प्राण’ कहता है, यह ऊर्जा अगर यंत्रों में संगृहीत हो जाए, तो उस समय जो मूलभाव था व्यक्ति का, वह गुण उस संगृहीत शक्ति में भी बना रहता है।
जैसे, माइखालोवा अगर किसी वस्तु को अपने पास खींच रही है, उस समय उसके शरीर से जो ऊर्जा गिर रही है--जिसमें कि उसका तीन पौंड या दस पौंड वजन कम हो जाएगा--वह ऊर्जा संगृहीत की जा सकती है। ऐसे रिसेप्टिव यंत्र तैयार किए हैं कि वह ऊर्जा उन यंत्रों में प्रविष्ट हो जाती है और संगृहीत हो जाती है। फिर यदि उस यंत्र को इस कमरे में रख दिया जाए और आप कमरे के भीतर आएं तो वह यंत्र आपको अपनी तरफ खींचेगा। आपका मन होगा, उसके पास जाएं--यंत्र के, आदमी वहां नहीं है। और अगर माइखालोवा किसी वस्तु को दूर हटा रही थी और शक्ति संगृहीत की है, तो आप इस कमरे में आएंगे और तत्काल बाहर भागने का मन होगा।
क्या भाव शक्ति में इस भांति प्रविष्ट हो जाते हैं?
मंत्र की यही मूल आधारशिला है। शब्द में, विचार में, तरंग में भाव संगृहीत और समाविष्ट हो जाते हैं। जब कोई व्यक्ति कहता है: ‘नमो अरिहंताणं’--मैं उन सबको जिन्होंने जीता और जाना अपने को, उनकी शरण में छोड़ता हूं, तब उसका अहंकार तत्काल विगलित होता है। और जिन-जिन लोगों ने इस जगत में अरिहंतों की शरण में अपने को छोड़ा है, उस महाधारा में उसकी शक्ति सम्मिलित होती है। उस गंगा में वह भी एक हिस्सा हो जाता है। और इस चारों तरफ आकाश में, इस अरिहंत के भाव के आस-पास जो ग्रूव्ज निर्मित हुए हैं, जो स्पेस में, आकाश में जो तरंगें संगृहीत हुई हैं, उन संगृहीत तरंगों में आपकी तरंग भी चोट करती है। आपके चारों तरफ एक वर्षा हो जाती है जो आपको दिखाई नहीं पड़ती। आपके चारों ओर एक और दिव्यता का, भगवत्ता का लोक निर्मित हो जाता है। इस लोक के साथ, इस भाव लोक के साथ आप दूसरे तरह के व्यक्ति हो जाते हैं।
महामंत्र स्वयं के आस-पास के आकाश को, स्वयं के आस-पास के आभामंडल को बदलने की कीमिया है। और अगर कोई व्यक्ति दिन-रात जब भी उसे स्मरण मिले, तभी नमोकार में डूबता रहे, तो वह व्यक्ति दूसरा ही व्यक्ति हो जाएगा। वह वही व्यक्ति नहीं रह सकता, जो वह था।
पांच नमस्कार हैं। अरिहंत को नमस्कार। अरिहंत का अर्थ होता है: जिसके सारे शत्रु विनष्ट हो गए; जिसके भीतर अब कुछ ऐसा नहीं रहा, जिससे उसे लड़ना पड़ेगा। लड़ाई समाप्त हो गई। भीतर अब क्रोध नहीं, जिससे लड़ना पड़े; भीतर अब काम नहीं, जिससे लड़ना पड़े; भीतर अब लोभ नहीं, जिससे लड़ना पड़े; अहंकार नहीं, जिससे लड़ना पड़े; अज्ञान नहीं है। वे सब समाप्त हो गए जिनसे लड़ाई थी।
अब एक नॉन-कांफ्लिक्ट, एक निर्द्वंद्व अस्तित्व शुरू हुआ। अरिहंत शिखर है, जिसके आगे यात्रा नहीं है। अरिहंत मंजिल है, जिसके आगे फिर कोई यात्रा नहीं है। कुछ करने को न बचा जहां, कुछ पाने को न बचा जहां, कुछ छोड़ने को भी न बचा जहां--जहां सब समाप्त हो गया--जहां शुद्ध अस्तित्व रह गया, प्योर एक्झिस्टेंस जहां रह गया, जहां ब्रह्म मात्र रह गया, जहां होना मात्र रह गया, उसे कहते हैं--अरिहंत।
अदभुत है यह बात भी कि इस महामंत्र में किसी व्यक्ति का नाम नहीं है--महावीर का नहीं, पार्श्र्वनाथ का नहीं, किसी का नाम नहीं है। जैन परंपरा का भी कोई नाम नहीं। क्योंकि जैन परंपरा यह स्वीकार करती है कि अरिहंत जैन परंपरा में ही नहीं हुए हैं और सब परंपराओं में भी हुए हैं। इसलिए अरिहंतों को नमस्कार है--किसी अरिहंत को नहीं है। यह नमस्कार बड़ा विराट है।
संभवतः विश्र्व के किसी धर्म ने ऐसा महामंत्र--इतना सर्वांगीण, इतना सर्वस्पर्शी--विकसित नहीं किया है। व्यक्ति पर जैसे खयाल ही नहीं है, शक्ति पर खयाल है। रूप पर ध्यान ही नहीं है, वह जो अरूप सत्ता है, उसी का खयाल है--अरिहंतों को नमस्कार।
अब महावीर को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए महावीर को नमस्कार। बुद्ध को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए बुद्ध को नमस्कार। राम को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए राम को नमस्कार--पर यह मंत्र बहुत अनूठा है। यह बेजोड़ है। और किसी परंपरा में ऐसा मंत्र नहीं है, जो सिर्फ इतना कहता है--अरिहंतों को नमस्कार; उन सबको नमस्कार जिनकी मंजिल आ गई है। असल में मंजिल को नमस्कार--वे जो पहुंच गए, उनको नमस्कार।
लेकिन ‘अरिहंत’ शब्द निगेटिव है, नकारात्मक है। उसका अर्थ है: जिनके शत्रु समाप्त हो गए; वह पाजिटिव नहीं है, वह विधायक नहीं है। असल में इस जगत में जो श्रेष्ठतम अवस्था है उसको निषेध से ही प्रकट किया जा सकता है--‘नेति-नेति’ से ही। उसको विधायक शब्द नहीं दिया जा सकता। उसके कारण हैं। सभी विधायक शब्दों में सीमा आ जाती है, निषेध में सीमा नहीं होती। अगर मैं कहता हूं: ‘ऐसा है’, तो एक सीमा निर्मित होती है। अगर मैं कहता हूं: ‘ऐसा नहीं है’, तो कोई सीमा निर्मित नहीं होती। ‘नहीं’ की कोई सीमा नहीं है, ‘है’ की तो सीमा है। तो ‘है’ तो बड़ा छोटा शब्द है, ‘नहीं’ है बहुत विराट। इसलिए परम शिखर पर रखा है अरिहंत को। सिर्फ इतना ही कहा है कि जिनके शत्रु समाप्त हो गए, जिनके अंतर्द्वंद्व विलीन हो गए--नकारात्मक--जिनमें लोभ नहीं, मोह नहीं, काम नहीं--क्या है, यह नहीं कहा; क्या नहीं है जिनमें, वह कहा।
इसलिए अरिहंत बहुत वायवीय, बहुत एब्सट्रेक्ट शब्द है और शायद पकड़ में न आए, इसलिए ठीक दूसरे शब्द में पाजिटिव का उपयोग किया है--‘नमो सिद्धाणं।’ सिद्ध का अर्थ होता है: वे, जिन्होंने पा लिया। अरिहंत का अर्थ होता है: वे, जिन्होंने कुछ छोड़ दिया। सिद्ध बहुत पाजिटिव शब्द है। सिद्धि, उपलब्धि, अचीवमेंट, जिन्होंने पा लिया। लेकिन ध्यान रहे, उनको ऊपर रखा है जिन्होंने खो दिया। उनको नंबर दो पर रखा है जिन्होंने पा लिया। क्यों? सिद्ध अरिहंत से छोटा नहीं होता--सिद्ध वहीं पहुंचता है जहां अरिहंत पहुंचता है, लेकिन भाषा में पाजिटिव नंबर दो पर रखा जाएगा। ‘नहीं’, ‘शून्य’ प्रथम है, ‘होना’ द्वितीय है, इसलिए सिद्ध को दूसरे स्थल पर रखा। लेकिन सिद्ध के संबंध में भी सिर्फ इतनी ही सूचना है: पहुंच गए, और कुछ नहीं कहा है। कोई विशेषण नहीं जोड़ा। पर जो पहुंच गए, इतने से भी हमारी समझ में नहीं आएगा। अरिहंत भी हमें बहुत दूर लगता है--शून्य हो गए जो, निर्वाण को पा गए जो, मिट गए जो, नहीं रहे जो। सिद्ध भी बहुत दूर हैं। सिर्फ इतना ही कहा है, पा लिया जिन्होंने। लेकिन क्या? और पा लिया, तो हम कैसे जानें? क्योंकि सिद्ध होना अनभिव्यक्त भी हो सकता है, अनमैनिफेस्ट भी हो सकता है।
बुद्ध से कोई पूछता है कि आपके ये दस हजार भिक्षु--आप बुद्धत्व को पा गए--इनमें से और कितनों ने बुद्धत्व को पा लिया है? बुद्ध कहते हैं: बहुतों ने। लेकिन वह पूछने वाला कहता है--दिखाई नहीं पड़ता। तो बुद्ध कहते हैं: मैं प्रकट होता हूं, वे अप्रकट हैं। वे अपने में छिपे हैं, जैसे बीज में वृक्ष छिपा हो। तो सिद्ध तो बीज जैसा है, पा लिया। और बहुत बार ऐसा होता है कि पाने की घटना घटती है और वह इतनी गहन होती है कि प्रकट करने की चेष्टा भी उससे पैदा नहीं होती। इसलिए सभी सिद्ध बोलते नहीं, सभी अरिहंत बोलते नहीं। सभी सिद्ध, सिद्ध होने के बाद जीते भी नहीं। इतनी लीन भी हो सकती है चेतना उस उपलब्धि में कि तत्क्षण शरीर छूट जाए। इसलिए हमारी पकड़ में सिद्ध भी न आ सकेगा। और मंत्र तो ऐसा चाहिए जो पहली सीढ़ी से लेकर आखिरी शिखर तक, जहां जिसकी पकड़ में आ जाए, जो जहां खड़ा हो वहीं से यात्रा कर सके। इसलिए तीसरा सूत्र कहा है: आचार्यों को नमस्कार।
आचार्य का अर्थ है: वह जिसने पाया भी और आचरण से प्रकट भी किया। आचार्य का अर्थ: जिसका ज्ञान और आचरण एक है। ऐसा नहीं है कि सिद्ध का आचरण ज्ञान से भिन्न होता है। लेकिन शून्य हो सकता है, हो ही न, आचरण-शून्य ही हो जाए। ऐसा भी नहीं है कि अरिहंत का आचरण भिन्न होता है, लेकिन अरिहंत इतना निराकार हो जाता है कि आचरण हमारी पकड़ में न आएगा। हमें फ्रेम चाहिए जिसमें पकड़ में आ जाए। आचार्य से शायद हमें निकटता मालूम पड़ेगी। उसका अर्थ है: जिसका ज्ञान आचरण है। क्योंकि हम ज्ञान को तो न पहचान पाएंगे, आचरण को पहचान लेंगे।
इससे खतरा भी हुआ। क्योंकि आचरण ऐसा भी हो सकता है जैसा ज्ञान न हो। एक आदमी अहिंसक न हो, अहिंसा का आचरण कर सकता है। एक आदमी अहिंसक हो तो हिंसा का आचरण नहीं कर सकता--वह तो असंभव है--लेकिन एक आदमी अहिंसक न हो और अहिंसा का आचरण कर सकता है। एक आदमी लोभी हो और अलोभ का आचरण कर सकता है। उलटा नहीं है, दि वाइस वरसा इ़ज नॉट पॉसिबल। इससे एक खतरा भी पैदा हुआ। आचार्य हमारी पकड़ में आता है, लेकिन वहीं से खतरा शुरू होता है; जहां से हमारी पकड़ शुरू होती है, वहीं से खतरा शुरू होता है। तब खतरा यह है कि कोई आदमी आचरण ऐसा कर सकता है कि आचार्य मालूम पड़े। तो मजबूरी है हमारी। जहां से सीमाएं बननी शुरू होती हैं, वहीं से हमें दिखाई पड़ता है। और जहां से हमें दिखाई पड़ता है, वहीं से हमारे अंधे होने का डर है।
पर मंत्र का प्रयोजन यही है कि हम उनको नमस्कार करते हैं जिनका ज्ञान उनका आचरण है। यहां भी कोई विशेषण नहीं है। वे कौन? वे कोई भी हों।
एक ईसाई फकीर जापान गया था और जापान के एक झेन भिक्षु से मिलने गया। उसने पूछा झेन भिक्षु को कि जीसस के संबंध में आपका क्या खयाल है? उस भिक्षु ने कहा: मुझे जीसस का कुछ भी पता नहीं, तुम कुछ कहो ताकि मैं खयाल बना सकूं। तो उसने कहा कि जीसस ने कहा है: जो तुम्हारे गाल पर एक चांटा मारे, तुम दूसरा गाल उसके सामने कर देना। तो उस झेन फकीर ने कहा: आचार्य को नमस्कार। वह ईसाई फकीर कुछ समझ न सका। उसने कहा: जीसस ने कहा है कि जो अपने को मिटा देगा, वही पाएगा। उस झेन फकीर ने कहा: सिद्ध को नमस्कार। वह कुछ समझ न सका। उसने कहा: आप क्या कह रहे हैं? उस ईसाई फकीर ने कहा कि जीसस ने अपने को सूली पर मिटा दिया, वे शून्य हो गए, मृत्यु को उन्होंने चुपचाप स्वीकार कर लिया, वे निराकार में खो गए। उस झेन फकीर ने कहा: अरिहंत को नमस्कार।
आचरण और ज्ञान एक हैं जहां, उसे हम आचार्य कहते हैं। वह सिद्ध भी हो सकता है, वह अरिहंत भी हो सकता है। लेकिन हमारी पकड़ में वह आचरण से आता है। पर जरूरी नहीं है, क्योंकि आचरण बड़ी सूक्ष्म बात है और हम बड़ी स्थूल बुद्धि के लोग हैं। आचरण बड़ी सूक्ष्म बात है! तय करना कठिन है कि जो आचरण है... अब जैसे कि महावीर का नग्न खड़ा हो जाना! निश्चित ही लोगों को अच्छा नहीं लगा। गांव-गांव से महावीर को खदेड़ कर भगाया गया, गांव-गांव महावीर पर पत्थर फेंके गए। हम ही लोग थे, हम ही सब यह करते रहे। ऐसा मत सोचना कोई और। महावीर की नग्नता लोगों को भारी पड़ी, क्योंकि लोगों ने कहा, यह तो आचरणहीनता है। यह कैसा आचरण? आचरण बड़ा सूक्ष्म है। अब महावीर का नग्न हो जाना इतना निर्दोष आचरण है, जिसका कोई हिसाब लगाना कठिन है। हिम्मत अदभुत है। महावीर इतने सरल हो गए कि छिपाने को कुछ न बचा। और महावीर को इस चमड़ी और हड्डी की देह का बोध मिट गया और वह जो, जिसको रूसी वैज्ञानिक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड कहते हैं, उस प्राण-शरीर का बोध इतना सघन हो गया कि उस पर तो कोई कपड़े डाले नहीं जा सकते, कपड़े गिर गए। और ऐसा भी नहीं कि महावीर ने कपड़े छोड़े, कपड़े गिर गए।
एक दिन गुजरते हैं एक राह से चादर उलझ गई है एक झाड़ी में, तो झाड़ी के फूल न गिर जाएं, पत्ते न टूट जाएं, कांटों को चोट न लग जाए, तो आधी चादर फाड़ कर वहीं छोड़ दी। फिर आधी रह गई शरीर पर। फिर वह भी गिर गई। वह कब गिर गई, उसका महावीर को पता न चला। लोगों को पता चला कि महावीर नग्न खड़े हैं। आचरण सहना मुश्किल हो गया।
आचरण के रास्ते सूक्ष्म हैं, बहुत कठिन हैं। और हम सबके आचरण के संबंध में बंधे-बंधाए खयाल हैं। ऐसा करो--और जो ऐसा करने को राजी हो जाते हैं, वे करीब-करीब मुर्दा लोग हैं। जो आपकी मान कर आचरण कर लेते हैं, उन मुर्दों को आप काफी पूजा देते हैं। इसमें कहा है: आचार्यों को नमस्कार। आप आचरण तय नहीं करेंगे, उनका ज्ञान ही उनका आचरण तय करेगा। और ज्ञान परम स्वतंत्रता है। जो व्यक्ति आचार्य को नमस्कार कर रहा है, वह यह भाव कर रहा है कि मैं नहीं जानता क्या है ज्ञान, क्या है आचरण, लेकिन जिनका भी आचरण उनके ज्ञान से उपजता और बहता है, उनको मैं नमस्कार करता हूं।
अभी भी बात सूक्ष्म है; इसलिए चौथे चरण में, उपाध्यायों को नमस्कार। उपाध्याय का अर्थ है: आचरण ही नहीं, उपदेश भी। उपाध्याय का अर्थ है: ज्ञान ही नहीं, आचरण ही नहीं, उपदेश भी। वे जो जानते हैं, जान कर वैसा जीते हैं; और जैसा वे जीते हैं और जानते हैं, वैसा बताते भी हैं। उपाध्याय का अर्थ है: वह जो बताता भी है। क्योंकि हम मौन से न समझ पाएं। आचार्य मौन हो सकता है। वह मान सकता है कि आचरण काफी है। और अगर तुम्हें आचरण दिखाई नहीं पड़ता तो तुम जानो। उपाध्याय आप पर और भी दया करता है--बोलता भी है, वह आपको कह कर भी बताता है।
ये चार सुस्पष्ट रेखाएं हैं। लेकिन इन चार के बाहर भी जानने वाले छूट जाएंगे। क्योंकि जानने वालों को बांधा नहीं जा सकता कैटेगरी़ज में। इसलिए मंत्र बहुत हैरानी का है। इसलिए पांचवें चरण में एक सामान्य नमस्कार है: ‘नमो लोए सव्वसाहूणं।’ लोक में जो भी साधु हैं, उन सबको नमस्कार। जगत में जो भी साधु हैं, उन सबको नमस्कार। जो उन चार में कहीं भी छूट गए हों, उनके प्रति भी हमारा नमन न छूट जाए। क्योंकि उन चार में बहुत लोग छूट सकते हैं। जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है, कैटेगराइ़ज नहीं किया जा सकता, खांचों में नहीं बांटा जा सकता। इसलिए जो शेष रह जाएंगे, उनको सिर्फ साधु कहा--वे जो सरल हैं। और साधु का एक अर्थ और भी है। इतना सरल भी हो सकता है कोई कि उपदेश देने में भी संकोच करे। इतना सरल भी हो सकता है कोई कि आचरण को भी छिपाए। पर उसको भी हमारे नमस्कार पहुंचने चाहिए।
सवाल यह नहीं है कि हमारे नमस्कार से उसको कुछ फायदा होगा, सवाल यह है कि हमारा नमस्कार हमें रूपांतरित करता है। न अरिहंतों को कोई फायदा होगा, न सिद्धों को, न आचार्यों को, न उपाध्यायों को, न साधुओं को--पर आपको फायदा होगा। यह बहुत मजे की बात है कि हम सोचते हैं कि शायद इस नमस्कार में हम सिद्धों के लिए, अरिहंतों के लिए कुछ कर रहे हैं, तो इस भूल में मत पड़ना। आप उनके लिए कुछ भी न कर सकेंगे, या आप जो भी करेंगे उसमें उपद्रव ही करेंगे। आपकी इतनी ही कृपा काफी है कि आप उनके लिए कुछ न करें। आप गलत ही कर सकते हैं। नहीं, यह नमस्कार अरिहंतों के लिए नहीं है, अरिहंतों की तरफ है, लेकिन आपके लिए है। इसके जो परिणाम हैं, वह आप पर होने वाले हैं। जो फल है, वह आप पर बरसेगा।
अगर कोई व्यक्ति इस भांति नमन से भरा हो, तो क्या आप सोचते हैं उस व्यक्ति में अहंकार टिक सकेगा? असंभव है।
लेकिन नहीं, हम बहुत अदभुत लोग हैं। अगर अरिहंत सामने खड़ा हो तो हम पहले इस बात का पता लगाएंगे कि अरिहंत है भी? महावीर के आस-पास भी लोग यही पता लगाते-लगाते जीवन नष्ट किए--अरिहंत हैं भी? तीर्थंकर हैं भी? आज आपको पता नहीं है, आप सोचते हैं कि बस तय हो गया, महावीर के वक्त में बात इतनी तय न थी। और भी भीड़ें थीं, और भी लोग थे जो कह रहे थे--ये अरिहंत नहीं हैं, अरिहंत और है। गोशालक है अरिहंत। ये तीर्थंकर नहीं हैं, यह दावा झूठा है।
महावीर का तो कोई दावा नहीं था। लेकिन जो महावीर को जानते थे, वे दावे से बच भी नहीं सकते थे। उनकी भी अपनी कठिनाई थी। पर महावीर के समय पूरे चारों ओर यही विवाद था। लोग जांच करने आते कि महावीर अरिहंत हैं या नहीं, वे तीर्थंकर हैं या नहीं, वे भगवान हैं या नहीं। बड़ी आश्र्चर्य की बात है, आप जांच भी कर लेंगे और सिद्ध भी हो जाएगा कि महावीर भगवान नहीं हैं, आपको क्या मिलेगा? और महावीर भगवान न भी हों और आप अगर उनके चरणों में सिर रखें और कह सकें: ‘नमो अरिहंताणं,’ तो आपको मिलेगा। महावीर के भगवान होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
असली सवाल यह नहीं है कि महावीर भगवान हैं या नहीं, असली सवाल यह है कि कहीं भी आपको भगवान दिख सकते हैं या नहीं--कहीं भी--पत्थर में, पहाड़ में। कहीं भी आपको दिख सकें तो आप नमन को उपलब्ध हो जाएं। असली राज तो नमन में है, असली राज तो झुक जाने में है--असली राज तो झुक जाने में है। वह जो झुक जाता है, उसके भीतर सब-कुछ बदल जाता है। वह आदमी दूसरा हो जाता है। यह सवाल नहीं है कि कौन सिद्ध हैं और कौन सिद्ध नहीं हैं--और इसका कोई उपाय भी नहीं है कि किसी दिन यह तय हो सके--लेकिन यह बात ही इररिलेवेंट है, असंगत है। इससे कोई संबंध ही नहीं है। न रहे हों महावीर, इससे क्या फर्क पड़ता है। लेकिन अगर आपके लिए झुकने के लिए निमित्त बन सकते हैं तो बात पूरी हो गई। महावीर सिद्ध हैं या नहीं, यह वे सोचें और समझें, वे अरिहंत अभी हुए या नहीं यह उनकी अपनी चिंता है, आपके लिए चिंतित होने का कोई भी तो कारण नहीं है। आपके लिए चिंतित होने का अगर कोई कारण है तो एक ही कारण है कि कहीं कोई कोना है इस अस्तित्व में जहां आपका सिर झुक जाए। अगर ऐसा कोई कोना है तो आप नये जीवन को उपलब्ध हो जाएंगे।
यह नमोकार, अस्तित्व में कोई कोना न बचे--इसकी चेष्टा है। सब कोने जहां-जहां सिर झुकाया जा सके--अज्ञात, अनजान, अपरिचित--पता नहीं कौन साधु है, इसलिए नाम नहीं लिए। पता नहीं कौन अरिहंत है। पर इस जगत में जहां अज्ञानी हैं, वहां ज्ञानी भी हैं। क्योंकि जहां अंधेरा है, वहां प्रकाश भी है। जहां रात, सांझ होती है, वहां सुबह भी होती है। जहां सूरज अस्त होता है, वहां सूरज उगता भी है। यह अस्तित्व द्वंद्व की व्यवस्था है। तो जहां इतना सघन अज्ञान है, वहां इतना ही सघन ज्ञान भी होगा ही। यह श्रद्धा है। और इस श्रद्धा से भर कर जो ये पांच नमन कर पाता है, वह एक दिन कह पाता है कि निश्र्चय ही मंगलमय है यह सूत्र। इससे सारे पाप विनष्ट हो जाते हैं।
ध्यान ले लें, मंत्र आपके लिए है। मंदिर में जब मूर्ति के चरणों में आप सिर रखते हैं, तो सवाल यह नहीं है कि वे चरण परमात्मा के हैं या नहीं, सवाल इतना ही है कि वह जो चरण के समक्ष झुकने वाला सिर है वह परमात्मा के समक्ष झुक रहा है या नहीं। वे चरण तो निमित्त हैं। उन चरणों का कोई प्रयोजन नहीं है। वह तो आपको झुकने की कोई जगह बनाने के लिए व्यवस्था की है। लेकिन झुकने में पीड़ा होती है। और इसलिए जो भी वैसी पीड़ा दे, उस पर क्रोध आता है। जीसस पर या महावीर पर या बुद्ध पर जो क्रोध आता है, वह भी स्वाभाविक मालूम पड़ता है। क्योंकि झुकने में पीड़ा होती है। अगर महावीर आएं और आपके चरण पर सिर रख दें तो चित्त बड़ा प्रसन्न होगा। फिर आप महावीर को पत्थर न मारेंगे; कि मारेंगे? फिर आप महावीर के कानों में कीले न ठोकेंगे; कि ठोकेंगे? लेकिन महावीर आपके चरणों में सिर रख दें तो आपको कोई लाभ नहीं होता। नुकसान होता है। आपकी अकड़ और गहन हो जाएगी।
महावीर ने अपने साधुओं को कहा है कि वह गैर-साधुओं को नमस्कार न करें। बड़ी अजीब सी बात है! साधु को तो विनम्र होना चाहिए। इतना निर-अहंकारी होना चाहिए कि सभी के चरणों में सिर रखे। तो साधु गैर-साधु को, गृहस्थ को नमस्कार न करे--यह तो महावीर की बात अच्छी नहीं मालूम पड़ती। लेकिन प्रयोजन करुणा का है। क्योंकि साधु निमित्त बनना चाहिए कि आपका नमस्कार पैदा हो। और साधु आपको नमस्कार करे तो निमित्त तो बनेगा नहीं, आपकी अस्मिता और अहंकार को और मजबूत कर देगा। कई बार दिखती है बात कुछ और, होती है कुछ और। हालांकि, जैन साधुओं ने इसका ऐसा प्रयोग किया है, यह मैं नहीं कह रहा हूं। असल में साधु का तो लक्षण यही है कि जिसका सिर अब सबके चरणों पर है। साधु का लक्षण तो यही है कि जिसका सिर अब सबके चरणों पर है। फिर भी साधु आपको नमस्कार नहीं करता है। क्योंकि निमित्त बनना चाहता है। लेकिन अगर साधु का सिर आप सबके चरणों पर न हो और फिर वह आपको अपने चरणों में झुकाने की कोशिश करे, तब वह आत्महत्या में लगा है। पर फिर भी आपको चिंतित होने की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि आत्महत्या का प्रत्येक को हक है। अगर वह अपने नरक का रास्ता तय कर रहा है, तो उसे करने दें। लेकिन नरक जाता हुआ आदमी भी अगर आपको स्वर्ग के इशारे के लिए निमित्त बनता हो, तो अपना निमित्त लें, अपने मार्ग पर बढ़ जाएं। पर नहीं, हमें इसकी चिंता कम है कि हम कहां जा रहे हैं, हमें इसकी चिंता ज्यादा है कि दूसरा कहां जा रहा है।
नमोकार नमन का सूत्र है। यह पांच चरणों में समस्त जगत में जिन्होंने भी कुछ पाया है, जिन्होंने भी कुछ जाना है, जिन्होंने भी कुछ जीया है, जो जीवन के अंतर्तम गूढ़ रहस्य से परिचित हुए हैं, जिन्होंने मृत्यु पर विजय पाई है, जिन्होंने शरीर के पार कुछ पहचाना है, उन सबके प्रति--समय और क्षेत्र दोनों में। लोक दो अर्थ रखता है। लोक का अर्थ: विस्तार में जो हैं वे, स्पेस में, आकाश में जो आज हैं वे--लेकिन जो कल थे वे भी और जो कल होंगे वे भी। लोक--सव्व लोए: सर्व लोक में, सव्वसाहूणं: समस्त साधुओं को। समय के अंतराल में पीछे कभी जो हुए हों वे, भविष्य में जो होंगे वे, आज जो हैं वे, समय या क्षेत्र में कहीं भी जब भी कहीं कोई ज्योति ज्ञान की जली हो, उस सबके लिए नमस्कार। इस नमस्कार के साथ ही आप तैयार होंगे। फिर महावीर की वाणी को समझना आसान होगा। इस नमन के बाद ही, इस झुकने के बाद ही आपकी झोली फैलेगी और महावीर की संपदा उसमें गिर सकती है।
नमन है रिसेप्टिविटी, ग्राहकता। जैसे ही आप नमन करते हैं, वैसे ही आपका हृदय खुलता है और आप भीतर किसी को प्रवेश देने के लिए तैयार हो जाते हैं। क्योंकि जिसके चरणों में आपने सिर रखा, उसको आप भीतर आने में बाधा न डालेंगे, निमंत्रण देंगे। जिसके प्रति आपने श्रद्धा प्रकट की, उसके लिए आपका द्वार, आपका घर खुला हो जाएगा। वह आपके घर, आपका हिस्सा होकर जी सकता है। लेकिन ट्रस्ट नहीं है, भरोसा नहीं है, तो नमन असंभव है। और नमन असंभव है तो समझ असंभव है। नमन के साथ ही अंडरस्टैंडिंग है, नमन के साथ ही समझ का जन्म है।
इस ग्राहकता के संबंध में एक आखिरी बात और आपसे कहूं। मास्को युनिवर्सिटी में उन्नीस सौ छियासठ तक एक अदभुत व्यक्ति था, डॉक्टर वार्सिलिएव। वह ग्राहकता पर प्रयोग कर रहा था। माइंड की रिसेप्टिविटी, मन की ग्राहकता कितनी हो सकती है। करीब-करीब ऐसा हाल है जैसे कि एक बड़ा भवन हो और हमने उसमें एक छोटा सा छेद कर रखा हो और उसी छेद से हम बाहर के जगत को देखते हैं। यह भी हो सकता है कि भवन की सारी दीवालें गिरा दी जाएं और हम खुले आकाश के नीचे समस्त रूप से ग्रहण करने वाले हो जाएं। वासिलिएव ने एक बहुत हैरानी का प्रयोग किया--और पहली दफा। उस तरह के बहुत से प्रयोग पूरब में--विशेषकर भारत में, और सर्वाधिक विशेषकर महावीर ने किए थे। लेकिन उनका डाइमेन्शन, उनका आयाम अलग था। महावीर ने जाति-स्मरण के प्रयोग किए थे कि प्रत्येक व्यक्ति को आगे अगर ठीक यात्रा करनी हो तो उसे अपने पिछले जन्मों को स्मरण और याद कर लेना चाहिए। उसको पिछले जन्म याद आ जाएं, स्मरण आ जाएं तो आगे की यात्रा आसान हो जाए।
लेकिन वासिलिएव ने एक और अनूठा प्रयोग किया। उस प्रयोग को वे कहते हैं: आर्टिफिशियल रीइनकारनेशन। आर्टिफिशियल रीइनकारनेशन, कृत्रिम पुनर्जन्म या कृत्रिम पुनरुज्जीवन--यह क्या है? वासिलिएव और उसके साथी एक व्यक्ति को बेहोश करेंगे, तीस दिन तक निरंतर सम्मोहित करके उसको गहरी बेहोशी में ले जाएंगे, और जब वह गहरी बेहोशी में आने लगेगा, और अब यंत्र हैं--ई. ई. जी. नाम का यंत्र है, जिससे जांच की जा सकती है कि नींद की कितनी गहराई है। अल्फा नाम की वेव्स पैदा होनी शुरू हो जाती हैं, जब व्यक्ति चेतन मन से गिर कर अचेतन में चला जाता है। तो यंत्र पर, जैसे कि कार्डियोग्राम पर ग्राफ बन जाता है, ऐसा ई. ई. जी. भी ग्राफ बना देता है, कि यह व्यक्ति अब सपना देख रहा है, अब सपने भी बंद हो गए, अब यह नींद में है, अब यह गहरी नींद में है, अब यह अतल गहराई में डूब गया। जैसे ही कोई व्यक्ति अतल गहराई में डूब जाता है, उसे सुझाव देता था वासिलिएव। समझ लें कि वह एक चित्रकार है, छोटा-मोटा चित्रकार है, या चित्रकला का विद्यार्थी है, तो वासिलिएव उसको समझाएगा कि तू माइकलएंजलो है, पिछले जन्म का, या वानगॉग है। या कवि है तो वह समझाएगा कि तू शेक्सपियर है, या कोई और। और तीस दिन तक निरंतर गहरी अल्फा वेव्स की हालत में उसको सुझाव दिया जाएगा कि वह कोई और है, पिछले जन्म का। तीस दिन में उसका चित्त इसको ग्रहण कर लेगा।
तीस दिन के बाद बड़ी हैरानी के अनुभव हुए, कि वह व्यक्ति जो साधारण सा चित्रकार था, जब उसे भीतर भरोसा हो गया कि मैं माइकलएंजलो हूं, वह विशेष चित्रकार हो गया--तत्काल। वह साधारण सा तुकबंद था, जब उसे भरोसा हो गया कि मैं शेक्सपियर हूं तो शेक्सपियर की हैसियत की कविताएं उस व्यक्ति से पैदा होने लगीं।
हुआ क्या? वासिलिएव तो कहता था: यह आर्टिफिशियल रीइनकारनेशन है। वासिलिएव कहता था कि हमारा चित्त तो बहुत बड़ी चीज है। छोटी सी खिड़की खुली है, जो हमने अपने को समझ रखा है कि हम यह हैं, उतना ही खुला है, उसी को मान कर हम जीते हैं। अगर हमें भरोसा दिया जाए कि हम और बड़े हैं, तो खिड़की बड़ी हो जाती है। हमारी चेतना उतना काम करने लगती है।
वासिलिएव का कहना है कि आने वाले भविष्य में हम जीनियस निर्मित कर सकेंगे। कोई कारण नहीं है कि जीनियस पैदा ही न हों। सच तो यह है कि वासिलिएव कहता है: सौ में से कम से कम नब्बे बच्चे प्रतिभा की, जीनियस की क्षमता लेकर पैदा होते हैं, हम उनकी खिड़की छोटी कर देते हैं। मां-बाप, स्कूल, शिक्षक, सब मिल-जुल कर उनकी खिड़की छोटी करते जाते हैं। बीस-पच्चीस साल तक हम एक साधारण आदमी खड़ा कर देते हैं, जो कि क्षमता बड़ी लेकर आया था, लेकिन हम उसका द्वार छोटा करते जाते हैं, छोटा करते जाते हैं। वासिलिएव कहता है: सभी बच्चे जीनियस की तरह पैदा होते हैं। कुछ जो हमारी तरकीबों से बच जाते हैं वे जीनियस बन जाते हैं, बाकी नष्ट हो जाते हैं। पर वासिलिएव का कहना है: असली सूत्र है रिसेप्टिविटी। इतना ग्राहक हो जाना चाहिए चित्त--कि जो उसे कहा जाए, वह उसके भीतर गहनता में प्रवेश कर जाए।
इस नमोकार मंत्र के साथ हम शुरू करते हैं महावीर की यह वाणी पर चर्चा। क्योंकि गहन होगा मार्ग, सूक्ष्म होंगी बातें। अगर आप ग्राहक हैं--नमन से भरे, श्रद्धा से भरे--तो आपके उस अतल गहराई में बिना किसी यंत्र की सहायता के--यह भी यंत्र है, इस अर्थ में, नमोकार--बिना किसी यंत्र की सहायता के आपमें अल्फा वेव्स पैदा हो जाती हैं। जब कोई श्रद्धा से भरता है तो अल्फा वेव्स पैदा हो जाती हैं--यह आप हैरान होंगे जान कर कि गहन सम्मोहन में, गहरी निद्रा में, ध्यान में या श्रद्धा में ई. ई. जी. की जो मशीन है वह एक सा ग्राफ बनाती है। श्रद्धा से भरा हुआ चित्त उसी शांति की अवस्था में होता है जिस शांति की अवस्था में गहन ध्यान में होता है, या उसी शांति की अवस्था में होता है, जैसा गहन निद्रा में होता है, या उसी शांति की अवस्था में होता है, जैसा कि कभी भी आप जब बहुत रिलैक्स्ड और बहुत शांत होते हैं।
जिस व्यक्ति पर वासिलिएव काम करता था, वह है निकोलिएव नाम का युवक, जिस पर उसने वर्षों काम किया। निकोलिएव को दो हजार मील दूर से भी भेजे गए विचारों को पकड़ने की क्षमता आ गई है। सैकड़ों प्रयोग किए गए हैं जिसमें वह दो हजार मील दूर तक के विचारों को पकड़ पाता है। उससे जब पूछा जाता है कि उसकी तरकीब क्या है? तो वह कहता है: तरकीब यह है कि मैं आधा घंटा पूर्ण रिलैक्स, शिथिल होकर पड़ जाता हूं और एक्टिविटी सब छोड़ देता हूं, भीतर सब सक्रियता छोड़ देता हूं, पैसिव हो जाता हूं। पुरुष की तरह नहीं; स्त्री की तरह हो जाता हूं। कुछ भेजता नहीं, कुछ आता हो तो लेने को राजी हो जाता हूं। और आधा घंटे में ई. ई. जी. की मशीन जब बता देती है कि अल्फा वेव्स शुरू हो गईं, तब वह दो हजार मील दूर से भेजे गए विचारों को पकड़ने में समर्थ हो जाता है। लेकिन जब तक वह इतना रिसेप्टिव नहीं होता, तब तक यह नहीं हो पाता।
वासिलिएव और दो कदम आगे गया। उसने कहा: आदमी ने तो बहुत तरह से अपने को विकृत किया है। अगर आदमी में यह क्षमता है तो पशुओं में और भी शुद्ध होगी। और इस सदी का अनूठे से अनूठा प्रयोग वासिलिएव ने किया कि एक मादा चूहे को, चुहिया को ऊपर रखा और उसके आठ बच्चों को पानी के भीतर, पनडुब्बी के भीतर हजारों फीट नीचे सागर में भेजा। पनडुब्बी का इसलिए उपयोग किया कि पानी के भीतर से कोई रेडियो वेव्स बाहर नहीं आती हैं, न बाहर से भीतर जाती हैं। अब तक जानी गई जितनी वेव्स वैज्ञानिकों को पता हैं, जितनी तरंगें, वे कोई भी पानी के भीतर इतनी गहराई तक प्रवेश नहीं करतीं। एक गहराई के बाद सूर्य की किरण भी पानी में प्रवेश नहीं करती।
तो उस गहराई के नीचे पनडुब्बी को भेज दिया गया, और इस चुहिया की खोपड़ी पर सब तरफ इलेक्ट्रोड्स लगा कर ई. ई .जी. से जोड़ दिए गए--मशीन से, जो चुहिया के मस्तिष्क में जो वेव्स चलती हैं उनको रिकॉर्ड करेगी। और बड़ी अदभुत बात हुई। हजारों फीट नीचे, पानी के भीतर एक-एक उसके बच्चे को मारा गया, खास-खास मोमेंट पर नोट किया गया--जैसे ही वहां बच्चा मरता, वैसे ही यहां उसकी ई. ई. जी. की वेव्स बदल जातीं--दुर्घटना घटित हो गई। ठीक छह घंटे में उसके बच्चे मारे गए--खास-खास समय पर, नियत समय पर। उस नियत समय का ऊपर कोई पता नहीं है। नीचे जो वैज्ञानिक है उसको छोड़ दिया गया है कि इतने समय के बीच वह कभी भी, पर नोट कर ले मिनट और सेकेंड। जिस मिनट और सेकेंड पर नीचे चुहिया के बच्चे मारे गए, उस मां ने, उसके मस्तिष्क में उस वक्त धक्के अनुभव किए। वासिलिएव का कहना है कि जानवरों के लिए टेलिपैथी सहज सी घटना है। आदमी भूल गया है। लेकिन जानवर अभी भी टेलिपैथिक जगत में जी रहे हैं।
मंत्र का उपयोग है, आपका वापस टेलिपैथिक जगत में प्रवेश--अगर आप अपने को छोड़ पाएं, हृदय से, उस गहराई से कह पाएं जहां कि आपकी अचेतना में डूब जाता है सब: ‘‘नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं’’--यह भीतर उतर जाए तो आप अपने अनुभव से कह पाएंगे: ‘सव्वपावप्पणासणो’--यह सब पापों का नाश करने वाला महामंत्र है।
आज इतनी ही बात।
फिर अब इस महामंत्र का हम उदघोष करेंगे। इसमें आप सम्मिलित हों--नहीं, कोई जाएगा नहीं। कोई जाएगा नहीं। जिन मित्रों को खड़े होकर सम्मिलित होना हो, वे कुर्सियों के किनारे खड़े हो जाएं, क्योंकि संन्यासी नाचेंगे और इस मंत्र के उदघोष में डूबेंगे। इस मंत्र को अपने प्राणों में उतार कर ही यहां से जाएं। जिनको बैठ कर साथ देना हो, वे बैठ कर ताली बजाएंगे और उदघोष करेंगे--सभी सम्मिलित हों, कोई खाली न बैठा रहे, कोई व्यर्थ न बैठा रहे।
नमो सिद्धाणं।
नमो आयरियाणं।
नमो उवज्झायाणं।
नमो लोए सव्वसाहूणं।
एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं।।
अरिहंतों (अर्हतों) को नमस्कार। सिद्धों को नमस्कार। आचार्यों को नमस्कार। उपाध्यायों को नमस्कार। लोक संसार में सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पांचों नमस्कार सर्व पापों के नाशक हैं और सर्व मंगलों में प्रथम मंगल रूप हैं।
पंच-नमोकार-सूत्र
जैसे सुबह सूरज निकले और कोई पक्षी आकाश में उड़ने के पहले अपने घोसले के पास परों को तौले, सोचे, साहस जुटाए; या जैसे कोई नदी सागर में गिरने के करीब हो, स्वयं को खोने के निकट, पीछे लौट कर देखे, सोचे क्षण भर, ऐसा ही महावीर की वाणी में प्रवेश के पहले दो क्षण सोच लेना जरूरी है।
जैसे पर्वतों में हिमालय है या शिखरों में गौरीशंकर, वैसे ही व्यक्तियों में महावीर हैं। बड़ी है चढ़ाई। जमीन पर खड़े होकर भी गौरीशंकर के हिमाच्छादित शिखर को देखा जा सकता है। लेकिन जिन्हें चढ़ाई करनी हो और शिखर पर पहुंच कर ही शिखर को देखना हो, उन्हें बड़ी तैयारी की जरूरत है। दूर से भी देख सकते हैं महावीर को, लेकिन दूर से जो परिचय होता है वह वास्तविक परिचय नहीं है। महावीर में तो छलांग लगा कर ही वास्तविक परिचय पाया जा सकता है। उस छलांग के पहले जो जरूरी है वे कुछ बातें आपसे कहूं।
बहुत बार ऐसा होता है कि हमारे हाथ में निष्पत्तियां रह जाती हैं, कनक्लूजंस रह जाते हैं--प्रक्रियाएं खो जाती हैं। मंजिल रह जाती है, रास्ते खो जाते हैं। शिखर तो दिखाई पड़ता है, लेकिन वह पगडंडी दिखाई नहीं पड़ती जो वहां तक पहुंचा दे। ऐसा ही यह नमोकार मंत्र भी है। यह निष्पत्ति है। इसे पच्चीस सौ वर्ष से लोग दोहराते चले आ रहे हैं। यह शिखर है, लेकिन पगडंडी जो इस नमोकार मंत्र तक पहुंचा दे, वह न मालूम कब की खो गई है।
इसके पहले कि हम मंत्र पर बात करें, उस पगडंडी पर थोड़ा सा मार्ग साफ कर लेना उचित होगा। क्योंकि जब तक प्रक्रिया न दिखाई पड़े, तब तक निष्पत्तियां व्यर्थ हैं। और जब तक मार्ग न दिखाई पड़े, तब तक मंजिल बेबूझ होती है। और जब तक सीढ़ियां न दिखाई पड़ें, तब तक दूर दिखते हुए शिखरों का कोई भी मूल्य नहीं--वे स्वप्नवत हो जाते हैं। वे हैं भी या नहीं, इसका भी निर्णय नहीं किया जा सकता। कुछ दो-चार मार्गों से नमोकार के रास्ते को समझ लें।
उन्नीस सौ सैंतीस में तिब्बत और चीन के बीच बोकान पर्वत की एक गुफा में सात सौ सोलह पत्थर के रिकॉर्ड मिले हैं--पत्थर के। और वे रिकॉर्ड हैं महावीर से दस हजार साल पुराने, यानी आज से कोई साढ़े बारह हजार साल पुराने। बड़े आश्र्चर्य के हैं, क्योंकि वे रिकॉर्ड ठीक वैसे हैं जैसे ग्रामोफोन का रिकॉर्ड होता है। ठीक उनके बीच में एक छेद है, और पत्थर पर ग्रूव्ज हैं--जैसे कि ग्रामोफोन के रिकॉर्ड पर होते हैं। अब तक राज नहीं खोला जा सका है कि वे किस यंत्र पर बजाए जा सकेंगे। लेकिन एक बात तय हो गई है--रूस के एक बड़े वैज्ञानिक डॉक्टर सर्जिएव ने वर्षों तक मेहनत करके यह प्रमाणित किया है कि वे हैं तो रिकॉर्ड ही। किस यंत्र पर और किस सुई के माध्यम से वे पुनरुज्जीवित हो सकेंगे, यह अभी तय नहीं हो सका। अगर एकाध पत्थर का टुकड़ा होता तो सांयोगिक भी हो सकता था। सात सौ सोलह हैं। सब एक जैसे, जिनमें बीच में छेद हैं। सब पर ग्रूव्ज हैं और उनकी पूरी तरह सफाई, धूल-धवांस जब अलग कर दी गई और जब विद्युत यंत्रों से उनकी परीक्षा की गई तब बड़ी हैरानी हुई, उनसे प्रतिपल विद्युत की किरणें विकीर्णित हो रही हैं।
लेकिन क्या आदमी के पास आज से बारह हजार साल पहले ऐसी कोई व्यवस्था थी कि वह पत्थरों में कुछ रिकॉर्ड कर सके? तब तो हमें सारा इतिहास और ढंग से लिखना पड़ेगा।
जापान के एक पर्वत शिखर पर पच्चीस हजार वर्ष पुरानी मूर्तियों का एक समूह है। वे मूर्तियां ‘डोबू’ कहलाती हैं। उन मूर्तियों ने बहुत हैरानी खड़ी कर दी, क्योंकि अब तक उन मूर्तियों को समझना संभव नहीं था--लेकिन अब संभव हुआ। जिस दिन हमारे यात्री अंतरिक्ष में गए उसी दिन डोबू मूर्तियों का रहस्य खुल गया; क्योंकि डोबू मूर्तियां उसी तरह के वस्त्र पहने हुए हैं जैसे अंतरिक्ष का यात्री पहनता है। अंतरिक्ष में यात्रियों ने, रूसी या अमरीकी एस्ट्रोनाट्स ने जिन वस्तुओं का उपयोग किया है, वे ही उन मूर्तियों के ऊपर हैं, पत्थर में खुदे हुए। वे मूर्तियां पच्चीस हजार साल पुरानी हैं। और अब इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है मानने का कि पच्चीस हजार साल पहले आदमी ने अंतरिक्ष की यात्रा की है या अंतरिक्ष के किन्हीं और ग्रहों से आदमी जमीन पर आता रहा है।
आदमी जो आज जानता है, वह पहली बार जान रहा है, ऐसी भूल में पड़ने का अब कोई कारण नहीं है। आदमी बहुत बार जान लेता है और भूल जाता है। बहुत बार शिखर छू लिए गए हैं और खो गए हैं। सभ्यताएं उठती हैं और आकाश को छूती हैं लहरों की तरह और विलीन हो जाती हैं। जब भी कोई लहर आकाश को छूती है तो सोचती है: उसके पहले किसी और लहर ने आकाश को नहीं छुआ होगा।
महावीर एक बहुत बड़ी संस्कृति के अंतिम व्यक्ति हैं, जिस संस्कृति का विस्तार कम से कम दस लाख वर्ष है। महावीर जैन-विचार और परंपरा के अंतिम तीर्थंकर हैं--चौबीसवें। शिखर की, लहर की आखिरी ऊंचाई। और महावीर के बाद वह लहर और वह सभ्यता और वह संस्कृति सब बिखर गई। आज उन सूत्रों को समझना इसीलिए कठिन है; क्योंकि वह पूरा का पूरा मिल्यू, वह वातावरण जिसमें वे सूत्र सार्थक थे, आज कहीं भी नहीं है।
ऐसा समझें कि कल तीसरा महायुद्ध हो जाए, सारी सभ्यता बिखर जाए, फिर भी लोगों के पास याददाश्त रह जाएगी कि लोग हवाई जहाजों में उड़ते थे। हवाई जहाज तो बिखर जाएंगे, याददाश्त रह जाएगी। वह याददाश्त हजारों साल तक चलेगी और बच्चे हंसेंगे, वे कहेंगे कि कहां हैं हवाई जहाज, जिनकी तुम बात करते हो? ऐसा मालूम होता है--कहानियां हैं, पुराण-कथाएं हैं, ‘मिथ’ हैं।
जैन चौबीस तीर्थंकरों की ऊंचाई--शरीर की ऊंचाई--बहुत काल्पनिक मालूम पड़ती है। उनमें महावीर भर की ऊंचाई आदमी की ऊंचाई है, बाकी तेईस तीर्थंकर बहुत ऊंचे हैं, इतनी ऊंचाई नहीं हो सकती; ऐसा ही वैज्ञानिकों का अब तक खयाल था, लेकिन अब नहीं है। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, जैसे-जैसे जमीन सिकुड़ती गई है, वैसे-वैसे जमीन पर ग्रेविटेशन, गुरुत्वाकर्षण भारी होता गया है। और जिस मात्रा में गुरुत्वाकर्षण भारी होता है, लोगों की ऊंचाई कम होती चली जाती है। आपकी दीवाल की छत पर छिपकली चलती है, आप कभी सोच नहीं सकते कि छिपकली आज से दस लाख साल पहले हाथी से बड़ा जानवर थी। वह अकेली बची है, उसकी जाति के सारे जानवर खो गए।
उतने बड़े जानवर अचानक क्यों खो गए? अब वैज्ञानिक कहते हैं कि जमीन के गुरुत्वाकर्षण में कोई राज छिपा हुआ मालूम पड़ता है। अगर गुरुत्वाकर्षण और सघन होता गया तो आदमी और छोटा होता चला जाएगा। अगर आदमी चांद पर रहने लगे तो आदमी की ऊंचाई चौगुनी हो जाएगी, क्योंकि चांद पर चौगुना कम है गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी से। अगर हमने कोई और तारे और ग्रह खोज लिए जहां गुरुत्वाकर्षण और कम हो तो ऊंचाई और बड़ी हो जाएगी। इसलिए आज एकदम कथा कह देनी बहुत कठिन है।
नमोकार को जैन-परंपरा ने महामंत्र कहा है। पृथ्वी पर दस-पांच ऐसे मंत्र हैं जो नमोकार की हैसियत के हैं। असल में प्रत्येक धर्म के पास एक महामंत्र अनिवार्य है, क्योंकि उसके इर्द-गिर्द ही उसकी सारी व्यवस्था, सारा भवन निर्मित होता है।
ये महामंत्र करते क्या हैं, इनका प्रयोजन क्या है, इनसे क्या फलित हो सकता है?
आज साउंड इलेक्ट्रानिक्स, ध्वनि-विज्ञान बहुत से नये तथ्यों के करीब पहुंच रहा है। उसमें एक तथ्य यह है कि इस जगत में पैदा की गई कोई भी ध्वनि कभी भी नष्ट नहीं होती--इस अनंत आकाश में संगृहीत होती चली जाती है। ऐसा समझें कि जैसे आकाश भी रिकॉर्ड करता है, आकाश पर भी किसी सूक्ष्म तल पर ग्रूव्ज बन जाते हैं। इस पर रूस में इधर पंद्रह वर्षों में बहुत काम हुआ है। उस काम पर दो-तीन बातें खयाल में ले लेंगे तो आसानी हो जाएगी।
अगर एक सदभाव से भरा हुआ व्यक्ति, मंगलकामना से भरा हुआ व्यक्ति आंख बंद करके अपने हाथ में जल से भरी हुई एक मटकी ले ले और कुछ क्षण सदभावों से भरा हुआ उस जल की मटकी को हाथ में लिए रहे--तो रूसी वैज्ञानिक कामेनिएव और अमरीकी वैज्ञानिक डॉक्टर रूडोल्फ किर, इन दो व्यक्तियों ने बहुत से प्रयोग करके यह प्रमाणित किया है कि वह जल गुणात्मक रूप से परिवर्तित हो जाता है। केमिकली कोई फर्क नहीं होता। उस भली भावनाओं से भरे हुए, मंगल-आकांक्षाओं से भरे हुए व्यक्ति के हाथ में जल का स्पर्श जल में कोई केमिकल, कोई रासायनिक परिवर्तन नहीं करता, लेकिन उस जल में फिर भी कोई गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। और वह जल अगर बीजों पर छिड़का जाए तो वे जल्दी अंकुरित होते हैं, साधारण जल की बजाय। उनमें बड़े फूल आते हैं, बड़े फल लगते हैं। वे पौधे ज्यादा स्वस्थ होते हैं, साधारण जल की बजाय।
कामेनिएव ने साधारण जल भी उन्हीं बीजों पर, वैसी ही भूमि में छिड़का है और यह विशेष जल भी। और रुग्ण, विक्षिप्त, निगेटिव इमोशंस से भरे हुए व्यक्ति, निषेधात्मक भाव से भरे हुए व्यक्ति, हत्या का विचार करने वाले, दूसरे को नुकसान पहुंचाने का विचार करने वाले, अमंगल की भावनाओं से भरे हुए व्यक्ति के हाथ में दिया गया जल भी बीजों पर छिड़का है--या तो वे बीज अंकुरित ही नहीं होते, या अंकुरित होते हैं तो रुग्ण अंकुरित होते हैं।
पंद्रह वर्ष हजारों प्रयोगों के बाद यह निष्पत्ति ली जा सकी कि जल में अब तक हम सोचते थे केमिस्ट्री ही सब-कुछ है, लेकिन केमिकली तो कोई फर्क नहीं होता, रासायनिक रूप से तीनों जलों में कोई फर्क नहीं होता, फिर भी कोई फर्क होता है; वह फर्क क्या है? और वह फर्क जल में कहां से प्रवेश करता है? निश्चित ही वह फर्क, अब तक जो भी हमारे पास उपकरण हैं, उनसे नहीं जांचा जा सकता। लेकिन वह फर्क होता है, यह परिणाम से सिद्ध होता है। क्योंकि तीनों जलों का आत्मिक रूप बदल जाता है। केमिकल रूप तो नहीं बदलता, लेकिन तीनों जलों की आत्मा में कुछ रूपांतरण हो जाता है।
अगर जल में यह रूपांतरण हो सकता है तो हमारे चारों ओर फैले हुए आकाश में भी हो सकता है। मंत्र की प्राथमिक आधारशिला यही है। मंगल भावनाओं से भरा हुआ मंत्र, हमारे चारों ओर के आकाश में गुणात्मक अंतर पैदा करता है, क्वालिटेटिव ट्रांसफार्मेशन करता है। और उस मंत्र से भरा हुआ व्यक्ति जब आपके पास से भी गुजरता है, तब भी वह अलग तरह के आकाश से गुजरता है। उसके चारों तरफ शरीर के आस-पास एक भिन्न तरह का आकाश, ए डिफरेंट क्वालिटी ऑफ स्पेस पैदा हो जाती है।
एक दूसरे रूसी वैज्ञानिक किरलियान ने हाई फ्रिक्वेंसी फोटोग्राफी विकसित की है। वह शायद आने वाले भविष्य में सबसे अनूठा प्रयोग सिद्ध होगा। अगर मेरे हाथ का चित्र लिया जाए, हाई फ्रिक्वेंसी फोटोग्राफी से, जो कि बहुत संवेदनशील प्लेट्स पर होती है, तो मेरे हाथ का ही चित्र सिर्फ नहीं आता, मेरे हाथ के आस-पास जो किरणें मेरे हाथ से निकल रही हैं, उनका चित्र भी आता है। और आश्र्चर्य की बात तो यह है कि अगर मैं निषेधात्मक विचारों से भरा हुआ हूं तो मेरे हाथ के आस-पास जो विद्युत-पैटर्न, जो विद्युत के जाल का चित्र आता है, वह रुग्ण, बीमार, अस्वस्थ और केऑटिक, अराजक होता है--विक्षिप्त होता है। जैसे किसी पागल आदमी ने लकीरें खींची हों। अगर मैं शुभ भावनाओं से, मंगल-भावनाओं से भरा हुआ हूं, आनंदित हूं, पाजिटिव हूं, प्रफुल्लित हूं, प्रभु के प्रति अनुग्रह से भरा हुआ हूं, तो मेरे हाथ के आस-पास जो किरणों का चित्र आता है, किरलियान की फोटोग्राफी से, वह रिदमिक, लयबद्ध, सुंदर, सिमिट्रिकल, सानुपातिक, और एक और ही व्यवस्था में निर्मित होता है।
किरलियान का कहना है--और किरलियान का प्रयोग तीस वर्षों की मेहनत है--किरलियान का कहना है कि बीमारी के आने के छह महीने पहले शीघ्र ही हम बताने में समर्थ हो जाएंगे कि यह आदमी बीमार होने वाला है। क्योंकि इसके पहले कि शरीर परबीमारी उतरे, वह जो विद्युत का वर्तुल है, उस पर बीमारी उतर जाती है। मरने के पहले, इसके पहले कि आदमी मरे, वह विद्युत का वर्तुल सिकुड़ना शुरू हो जाता है और मरना शुरू हो जाता है। इसके पहले कि कोई आदमी हत्या करे किसी की, उस विद्युत के वर्तुल में हत्या के लक्षण शुरू हो जाते हैं। इसके पहले कि कोई आदमी किसी के प्रति करुणा से भरे, उस विद्युत के वर्तुल में करुणा प्रवाहित होने के लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं।
किरलियान का कहना है कि कैंसर पर हम तभी विजय पा सकेंगे जब शरीर को पकड़ने के पहले हम कैंसर को पकड़ लें। और यह पकड़ा जा सकेगा। इसमें कोई विधि की भूल अब नहीं रह गई है। सिर्फ प्रयोगों के और फैलाव की जरूरत है। प्रत्येक मनुष्य अपने आस-पास एक आभामंडल लेकर, एक ऑरा लेकर चलता है। आप अकेले ही नहीं चलते, आपके आस-पास एक विद्युत-वर्तुल, एक इलेक्ट्रो डाइनैमिक फील्ड प्रत्येक व्यक्ति के आस-पास चलता है। व्यक्ति के आस-पास ही नहीं, पशुओं के आस-पास भी, पौधों के आस-पास भी। असल में रूसी वैज्ञानिकों का कहना है कि जीव और अजीव में एक ही फर्क किया जा सकता है, जिसके आस-पास आभामंडल है वह जीवित है और जिसके पास आभामंडल नहीं है, वह मृत है।
जब आदमी मरता है तो मरने के साथ ही आभामंडल क्षीण होना शुरू हो जाता है। बहुत चकित करने वाली और संयोग की बात है कि जब भी कोई आदमी मरता है तो तीन दिन लगते हैं उसके आभामंडल के विसर्जित होने में। हजारों साल से सारी दुनिया में मरने के बाद तीसरे दिन का बड़ा मूल्य रहा है। जिन लोगों ने उस तीसरे दिन को--तीसरे को इतना मूल्य दिया था, उन्हें किसी न किसी तरह इस बात का अनुभव होना ही चाहिए, क्योंकि वास्तविक मृत्यु तीसरे दिन घटित होती है। इन तीन दिनों के बीच, किसी भी दिन वैज्ञानिक उपाय खोज लेंगे, तो आदमी को पुनरुज्जीवित किया जा सकता है। जब तक आभामंडल नहीं खो गया, तब तक जीवन अभी शेष है। हृदय की धड़कन बंद हो जाने से जीवन समाप्त नहीं होता। इसलिए पिछले महायुद्ध में रूस में छह व्यक्तियों को हृदय की धड़कन बंद हो जाने के बाद पुनरुज्जीवित किया जा सका। जब तक आभामंडल चारों तरफ है, तब तक व्यक्ति सूक्ष्म तल पर अभी भी जीवन में वापस लौट सकता है। अभी सेतु कायम है। अभी रास्ता बना है वापस लौटने का।
जो व्यक्ति जितना जीवंत होता है, उसके आस-पास उतना बड़ा आभामंडल होता है। हम महावीर की मूर्ति के आस-पास अगर एक आभामंडल निर्मित करते हैं--या कृष्ण, या राम, या क्राइस्ट के आस-पास--तो वह सिर्फ कल्पना नहीं है। वह आभामंडल देखा जा सकता है। और अब तक तो केवल वे ही देख सकते थे जिनके पास थोड़ी गहरी और सूक्ष्म दृष्टि हो--मिस्टिक्स, संत; लेकिन उन्नीस सौ तीस में एक अंग्रेज वैज्ञानिक ने अब तो केमिकल, रासायनिक प्रक्रिया निर्मित कर दी है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति--कोई भी--उस माध्यम से, उस यंत्र के माध्यम से दूसरे के आभामंडल को देख सकता है।
आप सब यहां बैठे हैं। प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी आभामंडल है। जैसे आपके अंगूठे की छाप निजी है वैसे ही आपका आभामंडल भी निजी है। और आपका आभामंडल आपके संबंध में वह सब-कुछ कहता है जो आप भी नहीं जानते। आपका आभामंडल आपके संबंध में वे बातें भी कहता है जो भविष्य में घटित होंगी। आपका आभामंडल वे बातें भी कहता है जो अभी आपके गहन अचेतन में निर्मित हो रही हैं, बीज की भांति, कल खिलेंगी और प्रकट होंगी।
मंत्र आभामंडल को बदलने की आमूल प्रक्रिया है। आपके आस-पास की स्पेस, और आपके आस-पास का इलेक्ट्रो डाइनैमिक फील्ड बदलने की प्रक्रिया है। और प्रत्येक धर्म के पास एक महामंत्र है। जैन-परंपरा के पास नमोकार है। आश्र्चर्यजनक घोषणा: ‘एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो।’ सब पाप का नाश कर दे, ऐसा महामंत्र है नमोकार। ठीक नहीं लगता। नमोकार से कैसे पाप नष्ट हो जाएगा? नमोकार से सीधा पाप नष्ट नहीं होता, लेकिन नमोकार से आपके आस-पास का इलेक्ट्रो डाइनैमिक फील्ड रूपांतरित होता है और पाप करना असंभव हो जाता है। क्योंकि पाप करने के लिए आपके पास एक खास तरह का आभामंडल चाहिए। अगर इस मंत्र को सीधा ही सुनेंगे तो लगेगा कैसे हो सकता है? एक चोर यह मंत्र पढ़ लेगा तो क्या होगा? एक हत्यारा यह मंत्र पढ़ लेगा तो क्या होगा? कैसे पाप नष्ट हो जाएगा? पाप नष्ट होता है इसलिए, कि जब आप पाप करते हैं, उसके पहले आपके पास एक विशेष तरह का पाप का आभामंडल चाहिए--उसके बिना आप पाप नहीं कर सकते--वह आभामंडल अगर रूपांतरित हो जाए तो असंभव हो जाएगी बात, पाप करना असंभव हो जाएगा।
यह नमोकार कैसे उस आभामंडल को बदलता होगा? यह नमस्कार है, यह नमन का भाव है। नमन का अर्थ है: समर्पण। यह शाब्दिक नहीं है। यह नमो अरिहंताणं, यह अरिहंतों को नमस्कार करता हूं, यह शाब्दिक नहीं है, ये शब्द नहीं हैं, यह भाव है। अगर प्राणों में यह भाव सघन हो जाए कि अरिहंतों को नमस्कार करता हूं, तो इसका अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ होता है: जो जानते हैं उनके चरणों में सिर रखता हूं। जो पहुंच गए हैं, उनके चरणों में समर्पित करता हूं। जो पा गए हैं, उनके द्वार पर मैं भिखारी बन कर खड़ा होने को तैयार हूं।
किरलियान की फोटोग्राफी ने यह भी बताने की कोशिश की है कि आपके भीतर जब भाव बदलते हैं तो आपके आस-पास का विद्युत-मंडल बदलता है। और अब तो ये फोटोग्राफ उपलब्ध हैं। अगर आप अपने भीतर विचार कर रहे हैं चोरी करने का, तो आपका आभामंडल और तरह का हो जाता है--उदास, रुग्ण, खूनी रंगों से भर जाता है। आप किसी को, गिर गए को उठाने जा रहे हैं--आपके आभामंडल के रंग तत्काल बदल जाते हैं।
रूस में एक महिला है, नेल्या माइखालोवा। इस महिला ने पिछले पंद्रह वर्षों में रूस में आमूल क्रांति खड़ी कर दी है। और यह जान कर हैरानी होगी कि मैं रूस के इन वैज्ञानिकों के नाम क्यों ले रहा हूं। कुछ कारण हैं। आज से चालीस साल पहले अमरीका के एक बहुत बड़े प्रोफेट एडगर केयसी ने, जिसको अमरीका का स्लीपिंग प्रोफेट कहा जाता है; जो कि सो जाता था गहरी तंद्रा में, जिसे हम समाधि कहें, और उसमें वह जो भविष्यवाणियां करता था वह अब तक सभी सही निकली हैं। उसने थोड़ी भविष्यवाणियां नहीं कीं, दस हजार भविष्यवाणियां कीं। उसकी एक भविष्यवाणी चालीस साल पहले की यह है--उस वक्त तो सब लोग हैरान हुए थे--उसने यह भविष्यवाणी की थी कि आज से चालीस साल बाद धर्म का एक नवीन वैज्ञानिक आविर्भाव रूस से प्रारंभ होगा। रूस से? और एडगर केयसी ने चालीस साल पहले कहा, जब कि रूस में तो धर्म नष्ट किया जा रहा था, चर्च गिराए जा रहे थे, मंदिर हटाए जा रहे थे, पादरी-पुरोहित साइबेरिया भेजे जा रहे थे। उन क्षणों में कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि रूस में जन्म होगा। रूस अकेली भूमि थी उस समय जमीन पर जहां धर्म पहली दफे व्यवस्थित रूप से नष्ट किया जा रहा था, जहां पहली दफा नास्तिकों के हाथ में सत्ता थी। पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में जहां पहली बार नास्तिकों ने एक संगठित प्रयास किया था--आस्तिकों के संगठित प्रयास तो होते रहे हैं। और केयसी की यह घोषणा कि चालीस साल बाद रूस से ही जन्म होगा!
असल में जैसे ही रूस पर नास्तिकता अति आग्रहपूर्ण हो गई तो जीवन का एक नियम है कि जीवन एक तरह का संतुलन निर्मित करता है। जिस देश में बड़े नास्तिक पैदा होने बंद हो जाते हैं, उस देश में बड़े आस्तिक भी पैदा होने बंद हो जाते हैं। जीवन एक संतुलन है। और जब रूस में इतनी प्रगाढ़ नास्तिकता थी तो अंडरग्राउंड, छिपे मार्गों से आस्तिकता ने पुनः आविष्कार करना शुरू कर दिया। स्टैलिन के मरने तक सारी खोज-बीन छिप कर चलती थी, स्टैलिन के मरने के बाद वह खोज-बीन प्रकट हो गई। स्टैलिन खुद भी बहुत हैरान था। वह मैं बात आपसे करूंगा।
यह माइखालोवा पंद्रह वर्ष से रूस में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व है। क्योंकि माइखालोवा सिर्फ ध्यान से किसी भी वस्तु को गतिमान कर पाती है। हाथ से नहीं, शरीर के किसी प्रयोग से नहीं। वहां दूर, छह फीट दूर रखी हुई कोई भी चीज, माइखालोवा सिर्फ उस पर एकाग्र चित्त होकर उसे गतिमान--या तो अपने पास खींच पाती है, वस्तु चलना शुरू कर देती है, या अपने से दूर हटा पाती है, या मैग्नेटिक नीडल लगी हो तो उसे घुमा पाती है, या घड़ी हो तो उसके कांटे को तेजी से चक्कर दे पाती है, या घड़ी हो तो बंद कर पाती है--सैकड़ों प्रयोग। लेकिन एक बहुत हैरानी की बात है कि अगर माइखालोवा प्रयोग कर रही हो और आस-पास संदेहशील लोग हों तो उसे पांच घंटे लग जाते हैं, तब वह हिला पाती है। अगर आस-पास मित्र हों, सहानुभूतिपूर्ण हों, तो वह आधे घंटे में हिला पाती है। अगर आस-पास श्रद्धा से भरे हुए लोग हों तो पांच मिनट में। और एक मजे की बात है कि जब उसे पांच घंटे लगते हैं किसी वस्तु को हिलाने में तो उसका कोई दस पौंड वजन कम हो जाता है। जब उसे आधा घंटा लगता है तो कोई तीन पौंड वजन कम होता है। और जब पांच मिनट लगते हैं तो उसका कोई वजन कम नहीं होता।
ये पंद्रह सालों में बड़े वैज्ञानिक प्रयोग किए गए हैं। दो नोबल प्राइज विनर वैज्ञानिक डॉक्टर वासिलिएव और कामेनिएव और चालीस और चोटी के वैज्ञानिकों ने हजारों प्रयोग करके इस बात की घोषणा की है कि माइखालोवा जो कर रही है, वह तथ्य है। और अब उन्होंने यंत्र विकसित किए हैं जिनके द्वारा माइखालोवा के आस-पास क्या घटित होता है, वह रिकॉर्ड हो जाता है। तीन बातें रिकॉर्ड होती हैं। एक तो जैसे ही माइखालोवा ध्यान एकाग्र करती है, उसके आस-पास का आभामंडल सिकुड़ कर एक धारा में बहने लगता है--जिस वस्तु के ऊपर वह ध्यान करती है, जैसे लेसर रे की तरह, एक विद्युत की किरण की तरह संगृहीत हो जाता है। और उसके चारों तरफ किरलियान फोटोग्राफी से, जैसे कि समुद्र में लहरें उठती हैं, ऐसा उसका आभामंडल तरंगित होने लगता है। और वे तरंगें चारों तरफ फैलने लगती हैं। उन्हीं तरंगों के धक्के से वस्तुएं हटती हैं या पास खींची जाती हैं। सिर्फ भाव मात्र--उसका भाव कि वस्तु मेरे पास आ जाए, वस्तु पास आ जाती है। उसका भाव कि दूर हट जाए, वस्तु दूर चली जाती है।
इससे भी हैरानी की बात जो तीसरी है वह यह कि रूसी वैज्ञानिकों का खयाल है कि यह जो एनर्जी है, यह चारों तरफ जो ऊर्जा फैलती है, इसे संगृहीत किया जा सकता है, इसे यंत्रों में संगृहीत किया जा सकता है। निश्चित ही जब एनर्जी है तो संगृहीत की जा सकती है। कोई भी ऊर्जा संगृहीत की जा सकती है। और इस प्राण-ऊर्जा का, जिसको योग ‘प्राण’ कहता है, यह ऊर्जा अगर यंत्रों में संगृहीत हो जाए, तो उस समय जो मूलभाव था व्यक्ति का, वह गुण उस संगृहीत शक्ति में भी बना रहता है।
जैसे, माइखालोवा अगर किसी वस्तु को अपने पास खींच रही है, उस समय उसके शरीर से जो ऊर्जा गिर रही है--जिसमें कि उसका तीन पौंड या दस पौंड वजन कम हो जाएगा--वह ऊर्जा संगृहीत की जा सकती है। ऐसे रिसेप्टिव यंत्र तैयार किए हैं कि वह ऊर्जा उन यंत्रों में प्रविष्ट हो जाती है और संगृहीत हो जाती है। फिर यदि उस यंत्र को इस कमरे में रख दिया जाए और आप कमरे के भीतर आएं तो वह यंत्र आपको अपनी तरफ खींचेगा। आपका मन होगा, उसके पास जाएं--यंत्र के, आदमी वहां नहीं है। और अगर माइखालोवा किसी वस्तु को दूर हटा रही थी और शक्ति संगृहीत की है, तो आप इस कमरे में आएंगे और तत्काल बाहर भागने का मन होगा।
क्या भाव शक्ति में इस भांति प्रविष्ट हो जाते हैं?
मंत्र की यही मूल आधारशिला है। शब्द में, विचार में, तरंग में भाव संगृहीत और समाविष्ट हो जाते हैं। जब कोई व्यक्ति कहता है: ‘नमो अरिहंताणं’--मैं उन सबको जिन्होंने जीता और जाना अपने को, उनकी शरण में छोड़ता हूं, तब उसका अहंकार तत्काल विगलित होता है। और जिन-जिन लोगों ने इस जगत में अरिहंतों की शरण में अपने को छोड़ा है, उस महाधारा में उसकी शक्ति सम्मिलित होती है। उस गंगा में वह भी एक हिस्सा हो जाता है। और इस चारों तरफ आकाश में, इस अरिहंत के भाव के आस-पास जो ग्रूव्ज निर्मित हुए हैं, जो स्पेस में, आकाश में जो तरंगें संगृहीत हुई हैं, उन संगृहीत तरंगों में आपकी तरंग भी चोट करती है। आपके चारों तरफ एक वर्षा हो जाती है जो आपको दिखाई नहीं पड़ती। आपके चारों ओर एक और दिव्यता का, भगवत्ता का लोक निर्मित हो जाता है। इस लोक के साथ, इस भाव लोक के साथ आप दूसरे तरह के व्यक्ति हो जाते हैं।
महामंत्र स्वयं के आस-पास के आकाश को, स्वयं के आस-पास के आभामंडल को बदलने की कीमिया है। और अगर कोई व्यक्ति दिन-रात जब भी उसे स्मरण मिले, तभी नमोकार में डूबता रहे, तो वह व्यक्ति दूसरा ही व्यक्ति हो जाएगा। वह वही व्यक्ति नहीं रह सकता, जो वह था।
पांच नमस्कार हैं। अरिहंत को नमस्कार। अरिहंत का अर्थ होता है: जिसके सारे शत्रु विनष्ट हो गए; जिसके भीतर अब कुछ ऐसा नहीं रहा, जिससे उसे लड़ना पड़ेगा। लड़ाई समाप्त हो गई। भीतर अब क्रोध नहीं, जिससे लड़ना पड़े; भीतर अब काम नहीं, जिससे लड़ना पड़े; भीतर अब लोभ नहीं, जिससे लड़ना पड़े; अहंकार नहीं, जिससे लड़ना पड़े; अज्ञान नहीं है। वे सब समाप्त हो गए जिनसे लड़ाई थी।
अब एक नॉन-कांफ्लिक्ट, एक निर्द्वंद्व अस्तित्व शुरू हुआ। अरिहंत शिखर है, जिसके आगे यात्रा नहीं है। अरिहंत मंजिल है, जिसके आगे फिर कोई यात्रा नहीं है। कुछ करने को न बचा जहां, कुछ पाने को न बचा जहां, कुछ छोड़ने को भी न बचा जहां--जहां सब समाप्त हो गया--जहां शुद्ध अस्तित्व रह गया, प्योर एक्झिस्टेंस जहां रह गया, जहां ब्रह्म मात्र रह गया, जहां होना मात्र रह गया, उसे कहते हैं--अरिहंत।
अदभुत है यह बात भी कि इस महामंत्र में किसी व्यक्ति का नाम नहीं है--महावीर का नहीं, पार्श्र्वनाथ का नहीं, किसी का नाम नहीं है। जैन परंपरा का भी कोई नाम नहीं। क्योंकि जैन परंपरा यह स्वीकार करती है कि अरिहंत जैन परंपरा में ही नहीं हुए हैं और सब परंपराओं में भी हुए हैं। इसलिए अरिहंतों को नमस्कार है--किसी अरिहंत को नहीं है। यह नमस्कार बड़ा विराट है।
संभवतः विश्र्व के किसी धर्म ने ऐसा महामंत्र--इतना सर्वांगीण, इतना सर्वस्पर्शी--विकसित नहीं किया है। व्यक्ति पर जैसे खयाल ही नहीं है, शक्ति पर खयाल है। रूप पर ध्यान ही नहीं है, वह जो अरूप सत्ता है, उसी का खयाल है--अरिहंतों को नमस्कार।
अब महावीर को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए महावीर को नमस्कार। बुद्ध को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए बुद्ध को नमस्कार। राम को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए राम को नमस्कार--पर यह मंत्र बहुत अनूठा है। यह बेजोड़ है। और किसी परंपरा में ऐसा मंत्र नहीं है, जो सिर्फ इतना कहता है--अरिहंतों को नमस्कार; उन सबको नमस्कार जिनकी मंजिल आ गई है। असल में मंजिल को नमस्कार--वे जो पहुंच गए, उनको नमस्कार।
लेकिन ‘अरिहंत’ शब्द निगेटिव है, नकारात्मक है। उसका अर्थ है: जिनके शत्रु समाप्त हो गए; वह पाजिटिव नहीं है, वह विधायक नहीं है। असल में इस जगत में जो श्रेष्ठतम अवस्था है उसको निषेध से ही प्रकट किया जा सकता है--‘नेति-नेति’ से ही। उसको विधायक शब्द नहीं दिया जा सकता। उसके कारण हैं। सभी विधायक शब्दों में सीमा आ जाती है, निषेध में सीमा नहीं होती। अगर मैं कहता हूं: ‘ऐसा है’, तो एक सीमा निर्मित होती है। अगर मैं कहता हूं: ‘ऐसा नहीं है’, तो कोई सीमा निर्मित नहीं होती। ‘नहीं’ की कोई सीमा नहीं है, ‘है’ की तो सीमा है। तो ‘है’ तो बड़ा छोटा शब्द है, ‘नहीं’ है बहुत विराट। इसलिए परम शिखर पर रखा है अरिहंत को। सिर्फ इतना ही कहा है कि जिनके शत्रु समाप्त हो गए, जिनके अंतर्द्वंद्व विलीन हो गए--नकारात्मक--जिनमें लोभ नहीं, मोह नहीं, काम नहीं--क्या है, यह नहीं कहा; क्या नहीं है जिनमें, वह कहा।
इसलिए अरिहंत बहुत वायवीय, बहुत एब्सट्रेक्ट शब्द है और शायद पकड़ में न आए, इसलिए ठीक दूसरे शब्द में पाजिटिव का उपयोग किया है--‘नमो सिद्धाणं।’ सिद्ध का अर्थ होता है: वे, जिन्होंने पा लिया। अरिहंत का अर्थ होता है: वे, जिन्होंने कुछ छोड़ दिया। सिद्ध बहुत पाजिटिव शब्द है। सिद्धि, उपलब्धि, अचीवमेंट, जिन्होंने पा लिया। लेकिन ध्यान रहे, उनको ऊपर रखा है जिन्होंने खो दिया। उनको नंबर दो पर रखा है जिन्होंने पा लिया। क्यों? सिद्ध अरिहंत से छोटा नहीं होता--सिद्ध वहीं पहुंचता है जहां अरिहंत पहुंचता है, लेकिन भाषा में पाजिटिव नंबर दो पर रखा जाएगा। ‘नहीं’, ‘शून्य’ प्रथम है, ‘होना’ द्वितीय है, इसलिए सिद्ध को दूसरे स्थल पर रखा। लेकिन सिद्ध के संबंध में भी सिर्फ इतनी ही सूचना है: पहुंच गए, और कुछ नहीं कहा है। कोई विशेषण नहीं जोड़ा। पर जो पहुंच गए, इतने से भी हमारी समझ में नहीं आएगा। अरिहंत भी हमें बहुत दूर लगता है--शून्य हो गए जो, निर्वाण को पा गए जो, मिट गए जो, नहीं रहे जो। सिद्ध भी बहुत दूर हैं। सिर्फ इतना ही कहा है, पा लिया जिन्होंने। लेकिन क्या? और पा लिया, तो हम कैसे जानें? क्योंकि सिद्ध होना अनभिव्यक्त भी हो सकता है, अनमैनिफेस्ट भी हो सकता है।
बुद्ध से कोई पूछता है कि आपके ये दस हजार भिक्षु--आप बुद्धत्व को पा गए--इनमें से और कितनों ने बुद्धत्व को पा लिया है? बुद्ध कहते हैं: बहुतों ने। लेकिन वह पूछने वाला कहता है--दिखाई नहीं पड़ता। तो बुद्ध कहते हैं: मैं प्रकट होता हूं, वे अप्रकट हैं। वे अपने में छिपे हैं, जैसे बीज में वृक्ष छिपा हो। तो सिद्ध तो बीज जैसा है, पा लिया। और बहुत बार ऐसा होता है कि पाने की घटना घटती है और वह इतनी गहन होती है कि प्रकट करने की चेष्टा भी उससे पैदा नहीं होती। इसलिए सभी सिद्ध बोलते नहीं, सभी अरिहंत बोलते नहीं। सभी सिद्ध, सिद्ध होने के बाद जीते भी नहीं। इतनी लीन भी हो सकती है चेतना उस उपलब्धि में कि तत्क्षण शरीर छूट जाए। इसलिए हमारी पकड़ में सिद्ध भी न आ सकेगा। और मंत्र तो ऐसा चाहिए जो पहली सीढ़ी से लेकर आखिरी शिखर तक, जहां जिसकी पकड़ में आ जाए, जो जहां खड़ा हो वहीं से यात्रा कर सके। इसलिए तीसरा सूत्र कहा है: आचार्यों को नमस्कार।
आचार्य का अर्थ है: वह जिसने पाया भी और आचरण से प्रकट भी किया। आचार्य का अर्थ: जिसका ज्ञान और आचरण एक है। ऐसा नहीं है कि सिद्ध का आचरण ज्ञान से भिन्न होता है। लेकिन शून्य हो सकता है, हो ही न, आचरण-शून्य ही हो जाए। ऐसा भी नहीं है कि अरिहंत का आचरण भिन्न होता है, लेकिन अरिहंत इतना निराकार हो जाता है कि आचरण हमारी पकड़ में न आएगा। हमें फ्रेम चाहिए जिसमें पकड़ में आ जाए। आचार्य से शायद हमें निकटता मालूम पड़ेगी। उसका अर्थ है: जिसका ज्ञान आचरण है। क्योंकि हम ज्ञान को तो न पहचान पाएंगे, आचरण को पहचान लेंगे।
इससे खतरा भी हुआ। क्योंकि आचरण ऐसा भी हो सकता है जैसा ज्ञान न हो। एक आदमी अहिंसक न हो, अहिंसा का आचरण कर सकता है। एक आदमी अहिंसक हो तो हिंसा का आचरण नहीं कर सकता--वह तो असंभव है--लेकिन एक आदमी अहिंसक न हो और अहिंसा का आचरण कर सकता है। एक आदमी लोभी हो और अलोभ का आचरण कर सकता है। उलटा नहीं है, दि वाइस वरसा इ़ज नॉट पॉसिबल। इससे एक खतरा भी पैदा हुआ। आचार्य हमारी पकड़ में आता है, लेकिन वहीं से खतरा शुरू होता है; जहां से हमारी पकड़ शुरू होती है, वहीं से खतरा शुरू होता है। तब खतरा यह है कि कोई आदमी आचरण ऐसा कर सकता है कि आचार्य मालूम पड़े। तो मजबूरी है हमारी। जहां से सीमाएं बननी शुरू होती हैं, वहीं से हमें दिखाई पड़ता है। और जहां से हमें दिखाई पड़ता है, वहीं से हमारे अंधे होने का डर है।
पर मंत्र का प्रयोजन यही है कि हम उनको नमस्कार करते हैं जिनका ज्ञान उनका आचरण है। यहां भी कोई विशेषण नहीं है। वे कौन? वे कोई भी हों।
एक ईसाई फकीर जापान गया था और जापान के एक झेन भिक्षु से मिलने गया। उसने पूछा झेन भिक्षु को कि जीसस के संबंध में आपका क्या खयाल है? उस भिक्षु ने कहा: मुझे जीसस का कुछ भी पता नहीं, तुम कुछ कहो ताकि मैं खयाल बना सकूं। तो उसने कहा कि जीसस ने कहा है: जो तुम्हारे गाल पर एक चांटा मारे, तुम दूसरा गाल उसके सामने कर देना। तो उस झेन फकीर ने कहा: आचार्य को नमस्कार। वह ईसाई फकीर कुछ समझ न सका। उसने कहा: जीसस ने कहा है कि जो अपने को मिटा देगा, वही पाएगा। उस झेन फकीर ने कहा: सिद्ध को नमस्कार। वह कुछ समझ न सका। उसने कहा: आप क्या कह रहे हैं? उस ईसाई फकीर ने कहा कि जीसस ने अपने को सूली पर मिटा दिया, वे शून्य हो गए, मृत्यु को उन्होंने चुपचाप स्वीकार कर लिया, वे निराकार में खो गए। उस झेन फकीर ने कहा: अरिहंत को नमस्कार।
आचरण और ज्ञान एक हैं जहां, उसे हम आचार्य कहते हैं। वह सिद्ध भी हो सकता है, वह अरिहंत भी हो सकता है। लेकिन हमारी पकड़ में वह आचरण से आता है। पर जरूरी नहीं है, क्योंकि आचरण बड़ी सूक्ष्म बात है और हम बड़ी स्थूल बुद्धि के लोग हैं। आचरण बड़ी सूक्ष्म बात है! तय करना कठिन है कि जो आचरण है... अब जैसे कि महावीर का नग्न खड़ा हो जाना! निश्चित ही लोगों को अच्छा नहीं लगा। गांव-गांव से महावीर को खदेड़ कर भगाया गया, गांव-गांव महावीर पर पत्थर फेंके गए। हम ही लोग थे, हम ही सब यह करते रहे। ऐसा मत सोचना कोई और। महावीर की नग्नता लोगों को भारी पड़ी, क्योंकि लोगों ने कहा, यह तो आचरणहीनता है। यह कैसा आचरण? आचरण बड़ा सूक्ष्म है। अब महावीर का नग्न हो जाना इतना निर्दोष आचरण है, जिसका कोई हिसाब लगाना कठिन है। हिम्मत अदभुत है। महावीर इतने सरल हो गए कि छिपाने को कुछ न बचा। और महावीर को इस चमड़ी और हड्डी की देह का बोध मिट गया और वह जो, जिसको रूसी वैज्ञानिक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड कहते हैं, उस प्राण-शरीर का बोध इतना सघन हो गया कि उस पर तो कोई कपड़े डाले नहीं जा सकते, कपड़े गिर गए। और ऐसा भी नहीं कि महावीर ने कपड़े छोड़े, कपड़े गिर गए।
एक दिन गुजरते हैं एक राह से चादर उलझ गई है एक झाड़ी में, तो झाड़ी के फूल न गिर जाएं, पत्ते न टूट जाएं, कांटों को चोट न लग जाए, तो आधी चादर फाड़ कर वहीं छोड़ दी। फिर आधी रह गई शरीर पर। फिर वह भी गिर गई। वह कब गिर गई, उसका महावीर को पता न चला। लोगों को पता चला कि महावीर नग्न खड़े हैं। आचरण सहना मुश्किल हो गया।
आचरण के रास्ते सूक्ष्म हैं, बहुत कठिन हैं। और हम सबके आचरण के संबंध में बंधे-बंधाए खयाल हैं। ऐसा करो--और जो ऐसा करने को राजी हो जाते हैं, वे करीब-करीब मुर्दा लोग हैं। जो आपकी मान कर आचरण कर लेते हैं, उन मुर्दों को आप काफी पूजा देते हैं। इसमें कहा है: आचार्यों को नमस्कार। आप आचरण तय नहीं करेंगे, उनका ज्ञान ही उनका आचरण तय करेगा। और ज्ञान परम स्वतंत्रता है। जो व्यक्ति आचार्य को नमस्कार कर रहा है, वह यह भाव कर रहा है कि मैं नहीं जानता क्या है ज्ञान, क्या है आचरण, लेकिन जिनका भी आचरण उनके ज्ञान से उपजता और बहता है, उनको मैं नमस्कार करता हूं।
अभी भी बात सूक्ष्म है; इसलिए चौथे चरण में, उपाध्यायों को नमस्कार। उपाध्याय का अर्थ है: आचरण ही नहीं, उपदेश भी। उपाध्याय का अर्थ है: ज्ञान ही नहीं, आचरण ही नहीं, उपदेश भी। वे जो जानते हैं, जान कर वैसा जीते हैं; और जैसा वे जीते हैं और जानते हैं, वैसा बताते भी हैं। उपाध्याय का अर्थ है: वह जो बताता भी है। क्योंकि हम मौन से न समझ पाएं। आचार्य मौन हो सकता है। वह मान सकता है कि आचरण काफी है। और अगर तुम्हें आचरण दिखाई नहीं पड़ता तो तुम जानो। उपाध्याय आप पर और भी दया करता है--बोलता भी है, वह आपको कह कर भी बताता है।
ये चार सुस्पष्ट रेखाएं हैं। लेकिन इन चार के बाहर भी जानने वाले छूट जाएंगे। क्योंकि जानने वालों को बांधा नहीं जा सकता कैटेगरी़ज में। इसलिए मंत्र बहुत हैरानी का है। इसलिए पांचवें चरण में एक सामान्य नमस्कार है: ‘नमो लोए सव्वसाहूणं।’ लोक में जो भी साधु हैं, उन सबको नमस्कार। जगत में जो भी साधु हैं, उन सबको नमस्कार। जो उन चार में कहीं भी छूट गए हों, उनके प्रति भी हमारा नमन न छूट जाए। क्योंकि उन चार में बहुत लोग छूट सकते हैं। जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है, कैटेगराइ़ज नहीं किया जा सकता, खांचों में नहीं बांटा जा सकता। इसलिए जो शेष रह जाएंगे, उनको सिर्फ साधु कहा--वे जो सरल हैं। और साधु का एक अर्थ और भी है। इतना सरल भी हो सकता है कोई कि उपदेश देने में भी संकोच करे। इतना सरल भी हो सकता है कोई कि आचरण को भी छिपाए। पर उसको भी हमारे नमस्कार पहुंचने चाहिए।
सवाल यह नहीं है कि हमारे नमस्कार से उसको कुछ फायदा होगा, सवाल यह है कि हमारा नमस्कार हमें रूपांतरित करता है। न अरिहंतों को कोई फायदा होगा, न सिद्धों को, न आचार्यों को, न उपाध्यायों को, न साधुओं को--पर आपको फायदा होगा। यह बहुत मजे की बात है कि हम सोचते हैं कि शायद इस नमस्कार में हम सिद्धों के लिए, अरिहंतों के लिए कुछ कर रहे हैं, तो इस भूल में मत पड़ना। आप उनके लिए कुछ भी न कर सकेंगे, या आप जो भी करेंगे उसमें उपद्रव ही करेंगे। आपकी इतनी ही कृपा काफी है कि आप उनके लिए कुछ न करें। आप गलत ही कर सकते हैं। नहीं, यह नमस्कार अरिहंतों के लिए नहीं है, अरिहंतों की तरफ है, लेकिन आपके लिए है। इसके जो परिणाम हैं, वह आप पर होने वाले हैं। जो फल है, वह आप पर बरसेगा।
अगर कोई व्यक्ति इस भांति नमन से भरा हो, तो क्या आप सोचते हैं उस व्यक्ति में अहंकार टिक सकेगा? असंभव है।
लेकिन नहीं, हम बहुत अदभुत लोग हैं। अगर अरिहंत सामने खड़ा हो तो हम पहले इस बात का पता लगाएंगे कि अरिहंत है भी? महावीर के आस-पास भी लोग यही पता लगाते-लगाते जीवन नष्ट किए--अरिहंत हैं भी? तीर्थंकर हैं भी? आज आपको पता नहीं है, आप सोचते हैं कि बस तय हो गया, महावीर के वक्त में बात इतनी तय न थी। और भी भीड़ें थीं, और भी लोग थे जो कह रहे थे--ये अरिहंत नहीं हैं, अरिहंत और है। गोशालक है अरिहंत। ये तीर्थंकर नहीं हैं, यह दावा झूठा है।
महावीर का तो कोई दावा नहीं था। लेकिन जो महावीर को जानते थे, वे दावे से बच भी नहीं सकते थे। उनकी भी अपनी कठिनाई थी। पर महावीर के समय पूरे चारों ओर यही विवाद था। लोग जांच करने आते कि महावीर अरिहंत हैं या नहीं, वे तीर्थंकर हैं या नहीं, वे भगवान हैं या नहीं। बड़ी आश्र्चर्य की बात है, आप जांच भी कर लेंगे और सिद्ध भी हो जाएगा कि महावीर भगवान नहीं हैं, आपको क्या मिलेगा? और महावीर भगवान न भी हों और आप अगर उनके चरणों में सिर रखें और कह सकें: ‘नमो अरिहंताणं,’ तो आपको मिलेगा। महावीर के भगवान होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
असली सवाल यह नहीं है कि महावीर भगवान हैं या नहीं, असली सवाल यह है कि कहीं भी आपको भगवान दिख सकते हैं या नहीं--कहीं भी--पत्थर में, पहाड़ में। कहीं भी आपको दिख सकें तो आप नमन को उपलब्ध हो जाएं। असली राज तो नमन में है, असली राज तो झुक जाने में है--असली राज तो झुक जाने में है। वह जो झुक जाता है, उसके भीतर सब-कुछ बदल जाता है। वह आदमी दूसरा हो जाता है। यह सवाल नहीं है कि कौन सिद्ध हैं और कौन सिद्ध नहीं हैं--और इसका कोई उपाय भी नहीं है कि किसी दिन यह तय हो सके--लेकिन यह बात ही इररिलेवेंट है, असंगत है। इससे कोई संबंध ही नहीं है। न रहे हों महावीर, इससे क्या फर्क पड़ता है। लेकिन अगर आपके लिए झुकने के लिए निमित्त बन सकते हैं तो बात पूरी हो गई। महावीर सिद्ध हैं या नहीं, यह वे सोचें और समझें, वे अरिहंत अभी हुए या नहीं यह उनकी अपनी चिंता है, आपके लिए चिंतित होने का कोई भी तो कारण नहीं है। आपके लिए चिंतित होने का अगर कोई कारण है तो एक ही कारण है कि कहीं कोई कोना है इस अस्तित्व में जहां आपका सिर झुक जाए। अगर ऐसा कोई कोना है तो आप नये जीवन को उपलब्ध हो जाएंगे।
यह नमोकार, अस्तित्व में कोई कोना न बचे--इसकी चेष्टा है। सब कोने जहां-जहां सिर झुकाया जा सके--अज्ञात, अनजान, अपरिचित--पता नहीं कौन साधु है, इसलिए नाम नहीं लिए। पता नहीं कौन अरिहंत है। पर इस जगत में जहां अज्ञानी हैं, वहां ज्ञानी भी हैं। क्योंकि जहां अंधेरा है, वहां प्रकाश भी है। जहां रात, सांझ होती है, वहां सुबह भी होती है। जहां सूरज अस्त होता है, वहां सूरज उगता भी है। यह अस्तित्व द्वंद्व की व्यवस्था है। तो जहां इतना सघन अज्ञान है, वहां इतना ही सघन ज्ञान भी होगा ही। यह श्रद्धा है। और इस श्रद्धा से भर कर जो ये पांच नमन कर पाता है, वह एक दिन कह पाता है कि निश्र्चय ही मंगलमय है यह सूत्र। इससे सारे पाप विनष्ट हो जाते हैं।
ध्यान ले लें, मंत्र आपके लिए है। मंदिर में जब मूर्ति के चरणों में आप सिर रखते हैं, तो सवाल यह नहीं है कि वे चरण परमात्मा के हैं या नहीं, सवाल इतना ही है कि वह जो चरण के समक्ष झुकने वाला सिर है वह परमात्मा के समक्ष झुक रहा है या नहीं। वे चरण तो निमित्त हैं। उन चरणों का कोई प्रयोजन नहीं है। वह तो आपको झुकने की कोई जगह बनाने के लिए व्यवस्था की है। लेकिन झुकने में पीड़ा होती है। और इसलिए जो भी वैसी पीड़ा दे, उस पर क्रोध आता है। जीसस पर या महावीर पर या बुद्ध पर जो क्रोध आता है, वह भी स्वाभाविक मालूम पड़ता है। क्योंकि झुकने में पीड़ा होती है। अगर महावीर आएं और आपके चरण पर सिर रख दें तो चित्त बड़ा प्रसन्न होगा। फिर आप महावीर को पत्थर न मारेंगे; कि मारेंगे? फिर आप महावीर के कानों में कीले न ठोकेंगे; कि ठोकेंगे? लेकिन महावीर आपके चरणों में सिर रख दें तो आपको कोई लाभ नहीं होता। नुकसान होता है। आपकी अकड़ और गहन हो जाएगी।
महावीर ने अपने साधुओं को कहा है कि वह गैर-साधुओं को नमस्कार न करें। बड़ी अजीब सी बात है! साधु को तो विनम्र होना चाहिए। इतना निर-अहंकारी होना चाहिए कि सभी के चरणों में सिर रखे। तो साधु गैर-साधु को, गृहस्थ को नमस्कार न करे--यह तो महावीर की बात अच्छी नहीं मालूम पड़ती। लेकिन प्रयोजन करुणा का है। क्योंकि साधु निमित्त बनना चाहिए कि आपका नमस्कार पैदा हो। और साधु आपको नमस्कार करे तो निमित्त तो बनेगा नहीं, आपकी अस्मिता और अहंकार को और मजबूत कर देगा। कई बार दिखती है बात कुछ और, होती है कुछ और। हालांकि, जैन साधुओं ने इसका ऐसा प्रयोग किया है, यह मैं नहीं कह रहा हूं। असल में साधु का तो लक्षण यही है कि जिसका सिर अब सबके चरणों पर है। साधु का लक्षण तो यही है कि जिसका सिर अब सबके चरणों पर है। फिर भी साधु आपको नमस्कार नहीं करता है। क्योंकि निमित्त बनना चाहता है। लेकिन अगर साधु का सिर आप सबके चरणों पर न हो और फिर वह आपको अपने चरणों में झुकाने की कोशिश करे, तब वह आत्महत्या में लगा है। पर फिर भी आपको चिंतित होने की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि आत्महत्या का प्रत्येक को हक है। अगर वह अपने नरक का रास्ता तय कर रहा है, तो उसे करने दें। लेकिन नरक जाता हुआ आदमी भी अगर आपको स्वर्ग के इशारे के लिए निमित्त बनता हो, तो अपना निमित्त लें, अपने मार्ग पर बढ़ जाएं। पर नहीं, हमें इसकी चिंता कम है कि हम कहां जा रहे हैं, हमें इसकी चिंता ज्यादा है कि दूसरा कहां जा रहा है।
नमोकार नमन का सूत्र है। यह पांच चरणों में समस्त जगत में जिन्होंने भी कुछ पाया है, जिन्होंने भी कुछ जाना है, जिन्होंने भी कुछ जीया है, जो जीवन के अंतर्तम गूढ़ रहस्य से परिचित हुए हैं, जिन्होंने मृत्यु पर विजय पाई है, जिन्होंने शरीर के पार कुछ पहचाना है, उन सबके प्रति--समय और क्षेत्र दोनों में। लोक दो अर्थ रखता है। लोक का अर्थ: विस्तार में जो हैं वे, स्पेस में, आकाश में जो आज हैं वे--लेकिन जो कल थे वे भी और जो कल होंगे वे भी। लोक--सव्व लोए: सर्व लोक में, सव्वसाहूणं: समस्त साधुओं को। समय के अंतराल में पीछे कभी जो हुए हों वे, भविष्य में जो होंगे वे, आज जो हैं वे, समय या क्षेत्र में कहीं भी जब भी कहीं कोई ज्योति ज्ञान की जली हो, उस सबके लिए नमस्कार। इस नमस्कार के साथ ही आप तैयार होंगे। फिर महावीर की वाणी को समझना आसान होगा। इस नमन के बाद ही, इस झुकने के बाद ही आपकी झोली फैलेगी और महावीर की संपदा उसमें गिर सकती है।
नमन है रिसेप्टिविटी, ग्राहकता। जैसे ही आप नमन करते हैं, वैसे ही आपका हृदय खुलता है और आप भीतर किसी को प्रवेश देने के लिए तैयार हो जाते हैं। क्योंकि जिसके चरणों में आपने सिर रखा, उसको आप भीतर आने में बाधा न डालेंगे, निमंत्रण देंगे। जिसके प्रति आपने श्रद्धा प्रकट की, उसके लिए आपका द्वार, आपका घर खुला हो जाएगा। वह आपके घर, आपका हिस्सा होकर जी सकता है। लेकिन ट्रस्ट नहीं है, भरोसा नहीं है, तो नमन असंभव है। और नमन असंभव है तो समझ असंभव है। नमन के साथ ही अंडरस्टैंडिंग है, नमन के साथ ही समझ का जन्म है।
इस ग्राहकता के संबंध में एक आखिरी बात और आपसे कहूं। मास्को युनिवर्सिटी में उन्नीस सौ छियासठ तक एक अदभुत व्यक्ति था, डॉक्टर वार्सिलिएव। वह ग्राहकता पर प्रयोग कर रहा था। माइंड की रिसेप्टिविटी, मन की ग्राहकता कितनी हो सकती है। करीब-करीब ऐसा हाल है जैसे कि एक बड़ा भवन हो और हमने उसमें एक छोटा सा छेद कर रखा हो और उसी छेद से हम बाहर के जगत को देखते हैं। यह भी हो सकता है कि भवन की सारी दीवालें गिरा दी जाएं और हम खुले आकाश के नीचे समस्त रूप से ग्रहण करने वाले हो जाएं। वासिलिएव ने एक बहुत हैरानी का प्रयोग किया--और पहली दफा। उस तरह के बहुत से प्रयोग पूरब में--विशेषकर भारत में, और सर्वाधिक विशेषकर महावीर ने किए थे। लेकिन उनका डाइमेन्शन, उनका आयाम अलग था। महावीर ने जाति-स्मरण के प्रयोग किए थे कि प्रत्येक व्यक्ति को आगे अगर ठीक यात्रा करनी हो तो उसे अपने पिछले जन्मों को स्मरण और याद कर लेना चाहिए। उसको पिछले जन्म याद आ जाएं, स्मरण आ जाएं तो आगे की यात्रा आसान हो जाए।
लेकिन वासिलिएव ने एक और अनूठा प्रयोग किया। उस प्रयोग को वे कहते हैं: आर्टिफिशियल रीइनकारनेशन। आर्टिफिशियल रीइनकारनेशन, कृत्रिम पुनर्जन्म या कृत्रिम पुनरुज्जीवन--यह क्या है? वासिलिएव और उसके साथी एक व्यक्ति को बेहोश करेंगे, तीस दिन तक निरंतर सम्मोहित करके उसको गहरी बेहोशी में ले जाएंगे, और जब वह गहरी बेहोशी में आने लगेगा, और अब यंत्र हैं--ई. ई. जी. नाम का यंत्र है, जिससे जांच की जा सकती है कि नींद की कितनी गहराई है। अल्फा नाम की वेव्स पैदा होनी शुरू हो जाती हैं, जब व्यक्ति चेतन मन से गिर कर अचेतन में चला जाता है। तो यंत्र पर, जैसे कि कार्डियोग्राम पर ग्राफ बन जाता है, ऐसा ई. ई. जी. भी ग्राफ बना देता है, कि यह व्यक्ति अब सपना देख रहा है, अब सपने भी बंद हो गए, अब यह नींद में है, अब यह गहरी नींद में है, अब यह अतल गहराई में डूब गया। जैसे ही कोई व्यक्ति अतल गहराई में डूब जाता है, उसे सुझाव देता था वासिलिएव। समझ लें कि वह एक चित्रकार है, छोटा-मोटा चित्रकार है, या चित्रकला का विद्यार्थी है, तो वासिलिएव उसको समझाएगा कि तू माइकलएंजलो है, पिछले जन्म का, या वानगॉग है। या कवि है तो वह समझाएगा कि तू शेक्सपियर है, या कोई और। और तीस दिन तक निरंतर गहरी अल्फा वेव्स की हालत में उसको सुझाव दिया जाएगा कि वह कोई और है, पिछले जन्म का। तीस दिन में उसका चित्त इसको ग्रहण कर लेगा।
तीस दिन के बाद बड़ी हैरानी के अनुभव हुए, कि वह व्यक्ति जो साधारण सा चित्रकार था, जब उसे भीतर भरोसा हो गया कि मैं माइकलएंजलो हूं, वह विशेष चित्रकार हो गया--तत्काल। वह साधारण सा तुकबंद था, जब उसे भरोसा हो गया कि मैं शेक्सपियर हूं तो शेक्सपियर की हैसियत की कविताएं उस व्यक्ति से पैदा होने लगीं।
हुआ क्या? वासिलिएव तो कहता था: यह आर्टिफिशियल रीइनकारनेशन है। वासिलिएव कहता था कि हमारा चित्त तो बहुत बड़ी चीज है। छोटी सी खिड़की खुली है, जो हमने अपने को समझ रखा है कि हम यह हैं, उतना ही खुला है, उसी को मान कर हम जीते हैं। अगर हमें भरोसा दिया जाए कि हम और बड़े हैं, तो खिड़की बड़ी हो जाती है। हमारी चेतना उतना काम करने लगती है।
वासिलिएव का कहना है कि आने वाले भविष्य में हम जीनियस निर्मित कर सकेंगे। कोई कारण नहीं है कि जीनियस पैदा ही न हों। सच तो यह है कि वासिलिएव कहता है: सौ में से कम से कम नब्बे बच्चे प्रतिभा की, जीनियस की क्षमता लेकर पैदा होते हैं, हम उनकी खिड़की छोटी कर देते हैं। मां-बाप, स्कूल, शिक्षक, सब मिल-जुल कर उनकी खिड़की छोटी करते जाते हैं। बीस-पच्चीस साल तक हम एक साधारण आदमी खड़ा कर देते हैं, जो कि क्षमता बड़ी लेकर आया था, लेकिन हम उसका द्वार छोटा करते जाते हैं, छोटा करते जाते हैं। वासिलिएव कहता है: सभी बच्चे जीनियस की तरह पैदा होते हैं। कुछ जो हमारी तरकीबों से बच जाते हैं वे जीनियस बन जाते हैं, बाकी नष्ट हो जाते हैं। पर वासिलिएव का कहना है: असली सूत्र है रिसेप्टिविटी। इतना ग्राहक हो जाना चाहिए चित्त--कि जो उसे कहा जाए, वह उसके भीतर गहनता में प्रवेश कर जाए।
इस नमोकार मंत्र के साथ हम शुरू करते हैं महावीर की यह वाणी पर चर्चा। क्योंकि गहन होगा मार्ग, सूक्ष्म होंगी बातें। अगर आप ग्राहक हैं--नमन से भरे, श्रद्धा से भरे--तो आपके उस अतल गहराई में बिना किसी यंत्र की सहायता के--यह भी यंत्र है, इस अर्थ में, नमोकार--बिना किसी यंत्र की सहायता के आपमें अल्फा वेव्स पैदा हो जाती हैं। जब कोई श्रद्धा से भरता है तो अल्फा वेव्स पैदा हो जाती हैं--यह आप हैरान होंगे जान कर कि गहन सम्मोहन में, गहरी निद्रा में, ध्यान में या श्रद्धा में ई. ई. जी. की जो मशीन है वह एक सा ग्राफ बनाती है। श्रद्धा से भरा हुआ चित्त उसी शांति की अवस्था में होता है जिस शांति की अवस्था में गहन ध्यान में होता है, या उसी शांति की अवस्था में होता है, जैसा गहन निद्रा में होता है, या उसी शांति की अवस्था में होता है, जैसा कि कभी भी आप जब बहुत रिलैक्स्ड और बहुत शांत होते हैं।
जिस व्यक्ति पर वासिलिएव काम करता था, वह है निकोलिएव नाम का युवक, जिस पर उसने वर्षों काम किया। निकोलिएव को दो हजार मील दूर से भी भेजे गए विचारों को पकड़ने की क्षमता आ गई है। सैकड़ों प्रयोग किए गए हैं जिसमें वह दो हजार मील दूर तक के विचारों को पकड़ पाता है। उससे जब पूछा जाता है कि उसकी तरकीब क्या है? तो वह कहता है: तरकीब यह है कि मैं आधा घंटा पूर्ण रिलैक्स, शिथिल होकर पड़ जाता हूं और एक्टिविटी सब छोड़ देता हूं, भीतर सब सक्रियता छोड़ देता हूं, पैसिव हो जाता हूं। पुरुष की तरह नहीं; स्त्री की तरह हो जाता हूं। कुछ भेजता नहीं, कुछ आता हो तो लेने को राजी हो जाता हूं। और आधा घंटे में ई. ई. जी. की मशीन जब बता देती है कि अल्फा वेव्स शुरू हो गईं, तब वह दो हजार मील दूर से भेजे गए विचारों को पकड़ने में समर्थ हो जाता है। लेकिन जब तक वह इतना रिसेप्टिव नहीं होता, तब तक यह नहीं हो पाता।
वासिलिएव और दो कदम आगे गया। उसने कहा: आदमी ने तो बहुत तरह से अपने को विकृत किया है। अगर आदमी में यह क्षमता है तो पशुओं में और भी शुद्ध होगी। और इस सदी का अनूठे से अनूठा प्रयोग वासिलिएव ने किया कि एक मादा चूहे को, चुहिया को ऊपर रखा और उसके आठ बच्चों को पानी के भीतर, पनडुब्बी के भीतर हजारों फीट नीचे सागर में भेजा। पनडुब्बी का इसलिए उपयोग किया कि पानी के भीतर से कोई रेडियो वेव्स बाहर नहीं आती हैं, न बाहर से भीतर जाती हैं। अब तक जानी गई जितनी वेव्स वैज्ञानिकों को पता हैं, जितनी तरंगें, वे कोई भी पानी के भीतर इतनी गहराई तक प्रवेश नहीं करतीं। एक गहराई के बाद सूर्य की किरण भी पानी में प्रवेश नहीं करती।
तो उस गहराई के नीचे पनडुब्बी को भेज दिया गया, और इस चुहिया की खोपड़ी पर सब तरफ इलेक्ट्रोड्स लगा कर ई. ई .जी. से जोड़ दिए गए--मशीन से, जो चुहिया के मस्तिष्क में जो वेव्स चलती हैं उनको रिकॉर्ड करेगी। और बड़ी अदभुत बात हुई। हजारों फीट नीचे, पानी के भीतर एक-एक उसके बच्चे को मारा गया, खास-खास मोमेंट पर नोट किया गया--जैसे ही वहां बच्चा मरता, वैसे ही यहां उसकी ई. ई. जी. की वेव्स बदल जातीं--दुर्घटना घटित हो गई। ठीक छह घंटे में उसके बच्चे मारे गए--खास-खास समय पर, नियत समय पर। उस नियत समय का ऊपर कोई पता नहीं है। नीचे जो वैज्ञानिक है उसको छोड़ दिया गया है कि इतने समय के बीच वह कभी भी, पर नोट कर ले मिनट और सेकेंड। जिस मिनट और सेकेंड पर नीचे चुहिया के बच्चे मारे गए, उस मां ने, उसके मस्तिष्क में उस वक्त धक्के अनुभव किए। वासिलिएव का कहना है कि जानवरों के लिए टेलिपैथी सहज सी घटना है। आदमी भूल गया है। लेकिन जानवर अभी भी टेलिपैथिक जगत में जी रहे हैं।
मंत्र का उपयोग है, आपका वापस टेलिपैथिक जगत में प्रवेश--अगर आप अपने को छोड़ पाएं, हृदय से, उस गहराई से कह पाएं जहां कि आपकी अचेतना में डूब जाता है सब: ‘‘नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं’’--यह भीतर उतर जाए तो आप अपने अनुभव से कह पाएंगे: ‘सव्वपावप्पणासणो’--यह सब पापों का नाश करने वाला महामंत्र है।
आज इतनी ही बात।
फिर अब इस महामंत्र का हम उदघोष करेंगे। इसमें आप सम्मिलित हों--नहीं, कोई जाएगा नहीं। कोई जाएगा नहीं। जिन मित्रों को खड़े होकर सम्मिलित होना हो, वे कुर्सियों के किनारे खड़े हो जाएं, क्योंकि संन्यासी नाचेंगे और इस मंत्र के उदघोष में डूबेंगे। इस मंत्र को अपने प्राणों में उतार कर ही यहां से जाएं। जिनको बैठ कर साथ देना हो, वे बैठ कर ताली बजाएंगे और उदघोष करेंगे--सभी सम्मिलित हों, कोई खाली न बैठा रहे, कोई व्यर्थ न बैठा रहे।