MAHAVIR

Mahaveer Meri Drishti Mein 14

Fourteenth Discourse from the series of 26 discourses - Mahaveer Meri Drishti Mein by Osho. These discourses were given in SRINAGAR during SEP 17 - OCT 01 1969.
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प्रश्न:
भगवान, महावीर को ऐसा कोई गुरु अथवा पंथ क्यों नहीं मिल सका, जिनके चरणों में महावीर अपना आत्मसमर्पण कर सकें? महावीर ऐसा क्या चाहते थे?
जीवन में बहुत कुछ है, जो दूसरे से नहीं मिल सकता है। और जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सत्य है, सुंदर है, उसे दूसरे से पाने का कोई भी उपाय नहीं है। जो दूसरे से पाया जा सकता है, परम अर्थों में उसका कोई मूल्य नहीं हो सकता। क्योंकि जिसे हम दूसरे से पा लेते हैं, वह हमारे प्राणों से विकसित हुआ हुआ नहीं होता।
वह ऐसा ही है जैसे कि कागज के फूल कोई बाजार से ले आए और घर को सजा ले। वृक्षों से आए हुए फूलों की बात और है, वे जीवंत हैं। यह भी हो सकता है कि कोई उधार वृक्षों के फूल भी ले आए, तो भी वे मृत हो जाते हैं। थोड़ी-बहुत देर गुलदस्ते में धोखा दे सकते हैं जीवित होने का, लेकिन फिर भी वे जीवित नहीं हैं। सत्य के फूल तो कभी भी उधार नहीं मिलते हैं। इसलिए जो भी सत्य को खोजने निकला हो, वह गुरु को खोजने नहीं निकलता है। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए। जो सत्य को खोजने निकला है, वह गुरु को खोजने नहीं निकलता है। हां, असत्य को कोई खोजने निकला हो तो गुरु की खोज बहुत जरूरी है। सत्य की खोज में गुरु एकदम अनावश्यक है। सत्य की खोज में गुरु अनावश्यक है, लेकिन शिष्यत्व, सीखने की क्षमता, एटिट्यूड ऑफ डिसाइपलशिप बहुत कीमती है।
महावीर ने कोई गुरु कभी नहीं बनाया। असल में अगर कोई शिष्य होने को तैयार है, तो उसे गुरु बनाने की जरूरत ही नहीं है, तब सारा जीवन ही गुरु बन जाता है। जो व्यक्ति सीखने को तैयार है, वह सब जगह से सीख लेता है--उन जगहों से भी, जहां सीखने की कोई उम्मीद न थी।
गुरु तो बनाते ही वे हैं, जिनके शिष्य होने की क्षमता बड़ी छोटी है। जो सबके शिष्य नहीं हो सकते हैं, वे गुरु बनाते हैं। जो इस अनंत जीवन से नहीं सीख सकते, वे किसी एक को पकड़ कर सीखने की कोशिश करते हैं। और जो अनंत से न सीख सकता हो, वह एक से सीख सकेगा, इसकी कोई संभावना नहीं है। क्योंकि अनंत भी जिसे सिखाने में असमर्थ है, उसे एक कैसे सिखा सकेगा!
असली सवाल सीखने की क्षमता का है। और जिसके पास सीखने की क्षमता है, वह गुरु नहीं बनाता, सीखता चला जाता है, क्योंकि गुरु बनाना बंधना है। गुरु बनाना एक तरह का बंधन निर्मित करना है। वह इस बात की चेष्टा है कि सत्य पाएंगे तो इस व्यक्ति से, और कहीं से, सब तरफ से अंधे हो जाएंगे।
सत्य कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी एक व्यक्ति से प्रवाहित हो रही हो। सत्य तो पूरे जीवन पर छाया हुआ है। अगर हम सीखने को तत्पर हैं, उत्सुक हैं, रिसेप्टिव हैं, ग्राहक हैं, तो सत्य सब जगह से सीखा जा सकता है। एक गुरु लाख समझाए कि जिंदगी असार है, और एक गुरु लाख समझाए कि कल मौत आ जाएगी, चेत जाओ, और अगर हम सीख न सकते हों तो आवाज कान में सुनाई पड़ेगी और समाप्त हो जाएगी। और अगर कोई सीख सकता है तो एक वृक्ष से गिरते हुए सूखे पत्ते को देख कर भी सीख सकता है कि जिंदगी असार है। और अभी जो हरा था, अभी सूख गया है; कल जो जन्मा था, आज मर गया है। और एक सूखा पत्ता गिरता हुआ भी एक व्यक्ति को जीवन की सारी व्यर्थता का बोध करा जा सकता है। लेकिन सीखने की क्षमता न हो तो यह बोध कोई भी नहीं करा सकता।
महावीर में सीखने की अदभुत क्षमता है, इसलिए उन्होंने गुरु नहीं बनाया। गुरु खोजा भी नहीं, बस सीखने निकल पड़े, खोजने निकल पड़े। बीच में किसी व्यक्ति को लेना नहीं चाहा, क्योंकि उधार ज्ञान लेने की उनकी कोई आकांक्षा नहीं है।
और उधार भी कभी ज्ञान हो सकता है? और सब चीजें उधार हो सकती हैं, ज्ञान उधार नहीं हो सकता। ज्ञान तो उसका ही होता है, जो पाता है। दूसरे को देते ही व्यर्थ हो जाता है। इसलिए गुरुओं की कमी न थी महावीर के जीवन में, सब तरफ गुरु मौजूद थे। शास्त्रों की कमी न थी, शास्त्र मौजूद थे। सिद्धांतों की कमी न थी, सिद्धांत मौजूद थे। लेकिन महावीर ने सबकी तरफ पीठ कर दी, क्योंकि शास्त्र की तरफ मुंह करना या सिद्धांत की तरफ या गुरु की तरफ, बासे और उधार के लिए उत्सुक होना है। वे निपट अपनी खोज पर चले गए। स्वयं ही पा लेना है।
और जो स्वयं न मिले, वह दूसरे से मांग कर मिल भी कैसे सकता है? मिलने का मार्ग भी क्या है, राय भी क्या है? दूसरे से ज्यादा से ज्यादा शब्द मिल सकते हैं, सिद्धांत मिल सकते हैं, सत्य नहीं। इसलिए महावीर ने किसी गुरु के प्रति समर्पण नहीं किया।
यह भी समझ लेने जैसी बात है कि समर्पण ही करना हो तो क्षुद्र के प्रति, सीमित के प्रति क्या! समर्पण ही करने कोई राजी हो गया हो तो समस्त के प्रति क्यों नहीं? सच तो यह है कि एक के प्रति समर्पण असली में समर्पण नहीं है। एक के प्रति समर्पण में शर्त है।
जब मैं कहता हूं कि फलां व्यक्ति के प्रति मैं समर्पण करूंगा और फलां के प्रति नहीं, तो मैं शर्त रख रहा हूं; क्योंकि मैं मानता हूं कि यह ठीक है, दूसरा गलत है; यह पा लिया है, दूसरा नहीं पाया है; इससे मिलेगा, दूसरे से नहीं मिलेगा; यही दे सकता है, दूसरा नहीं दे सकता है। तब समर्पण कैसा हुआ? सौदा हुआ। जिससे हमें मिलेगा, जिससे हम पा सकते हैं, इसकी आकांक्षा को ध्यान में रख कर अगर समर्पण किया गया हो तो समर्पण कैसा हुआ? बड़ा सौदा हुआ, लेन-देन हुआ।
समर्पण का तो अर्थ यह है: बिना शर्त, बिना आकांक्षा के स्वयं को छोड़ देना।
तब कोई किसी व्यक्ति के प्रति कभी समर्पित नहीं हो सकता, समर्पित तो हो सकता है सिर्फ परमात्मा के प्रति। और परमात्मा का मतलब है समस्त। अगर परमात्मा भी एक व्यक्ति है, तो भी समर्पण नहीं हो सकता। जैसे अगर किसी ने परमात्मा को राम मान लिया है तो राम के प्रति समर्पण है उसका, कृष्ण के प्रति समर्पण नहीं है।
एक बड़े प्रसिद्ध संत के जीवन में उल्लेख है कि उन्हें, वह राम के भक्त हैं, उन्हें कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया है, तो बांसुरी बजाते कृष्ण की मूर्ति को उन्होंने नमस्कार करने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि मैं तो धनुर्धारी राम के प्रति ही झुकता हूं, और अगर चाहते हो कि मैं झुकूं तो धनुषबाण हाथ में ले लो!
यानी झुकने वाला शर्त लगाएगा! वह यह भी शर्त लगाएगा कि तुम कैसे खड़े होओ--धनुषबाण लेकर कि बांसुरी लेकर! तुम्हारी कैसी शक्ल हो, तुम्हारी कैसी आंखें हों--इस सबकी वह शर्त लगाएगा! और समर्पण में शर्त हो सकती है? यानी कोई यह कहे कि तुम ऐसे हो जाओ तो मैं समर्पण करूंगा, तो समर्पण क्या रहा? समर्पण का तो अर्थ ही सदा बेशर्त है, अनकंडीशनल।
तो मैं मानता हूं कि महावीर का समर्पण है, लेकिन किसी व्यक्ति के प्रति नहीं, समस्त के प्रति। और समस्त के प्रति जिनका समर्पण है, उनका हमें समर्पण पता नहीं चलता। क्योंकि पता कैसे चलेगा? हम तो व्यक्तियों के समर्पण को ही समझ पाते हैं कि यह आदमी फलां आदमी के प्रति समर्पित है, तो हमें समझ में आता है। लेकिन एक आदमी समस्त के प्रति समर्पित है--उस पत्थर के प्रति भी जो सड़क पर पड़ा है, और आकाश के तारे के प्रति भी, और फूल के प्रति भी, और आदमी के प्रति भी, और बच्चे के प्रति भी, और जानवर के प्रति भी। जो समस्त के प्रति समर्पित है, उसका समर्पण हमारी पहचान में नहीं आएगा, क्योंकि हमारा मापदंड सीमित, सौदे का है। जैसे अगर मैं एक व्यक्ति को प्रेम करूं तो समझ में आ सकता है कि मैं प्रेम करता हूं। लेकिन अगर मेरा समस्त के प्रति प्रेम हो तो समझ में आना मुश्किल हो जाएगा कि इस आदमी का शायद किसी से भी प्रेम नहीं है! क्योंकि हम प्रेम को पहचान ही तब पाते हैं, जब वह व्यक्ति से बंध जाए। अगर वह फैला हो, अनबंधा हो, असीम हो, तो हम नहीं पहचान पाते।
इसलिए महावीर को समझने वाले सोचते रहे हैं कि महावीर ने किसी के प्रति समर्पण नहीं किया। यह बात ही झूठ है। असल में महावीर ने किसी के प्रति इसीलिए समर्पण नहीं किया कि किसी के प्रति समर्पण करने से शेष के प्रति असमर्पण हो जाता है। अगर टोटल सरेंडर है, अगर पूर्ण समर्पण है, तो पूर्ण के प्रति ही हो सकता है। अपूर्ण के प्रति, सीमित के प्रति, पूर्ण समर्पण नहीं हो सकता।
अब तक किसी ने भी इस तरह नहीं सोचा है महावीर के प्रति कि वे समर्पित व्यक्ति थे। मैं कहता हूं कि वे बिलकुल ही पूर्ण समर्पित व्यक्ति थे। लेकिन पूर्ण समर्पित व्यक्ति किसी के प्रति समर्पित नहीं होता। वे किसी के आगे सिर नहीं झुकाएंगे, इसलिए नहीं कि अहंकार है कि किसी के प्रति सिर नहीं झुका सकते हैं; बल्कि इसीलिए कि किसी के प्रति सिर झुकाना किसी के प्रति सिर न झुकाना बनता है। और जिसका सिर झुका ही हुआ है सबके प्रति, अब वह कैसे अलग-अलग खोजने जाए कि इसके प्रति झुकूं और उसके प्रति न झुकूं? उसका किसी के प्रति झुकने का कोई सवाल नहीं है।
और ध्यान रहे, जो व्यक्ति किसी के प्रति झुकता है, वह किसी के प्रति सदा अकड़ा रहता है। और जो व्यक्ति किसी के चरण छूता है, वह किसी से चरण छुआने की आतुरता में रहता है। मैं एक बड़े संन्यासी के आश्रम में गया था। एक बड़े मंच पर संन्यासी बैठे हुए हैं, उनके मंच के नीचे ही एक छोटा तख्त है, उस पर एक दूसरे संन्यासी बैठे हैं, उस तख्त के नीचे और संन्यासी बैठे हुए हैं।
उन बड़े संन्यासी ने मुझसे कहा कि आप देखते हैं मेरे बगल में कौन बैठा हुआ है? मैंने कहा, मुझे जरूरत नहीं है; कोई बैठा है जरूर, कोई जरूरत नहीं है। नहीं, उन्होंने कहा, आपको शायद पता नहीं, वे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे। साधारण आदमी नहीं हैं! लेकिन बड़े विनम्र हैं, कभी मेरे साथ तख्त पर नहीं बैठते, हमेशा छोटे तख्त पर नीचे बैठते हैं।
मैंने कहा, वह मुझे दिखाई पड़ रहा है, लेकिन उनसे भी नीचे तख्त पर कुछ लोग बैठे हुए हैं। उनके प्रति विनम्र नहीं हैं? उनसे ऊंचे तख्त पर बैठे हुए हैं! और मैंने कहा, वे आपके मरने की प्रतीक्षा देख रहे हैं कि जब आप मरें तो वे इस तख्त पर बैठें और वे जो नीचे बैठे हैं, वे सरक कर उनके बगल के तख्त पर बैठ जाएंगे। और वे भी लोगों से कहेंगे कि यह आदमी बड़ा विनम्र है, कभी मेरे साथ नहीं बैठता। और मैंने कहा कि यह आदमी विनम्र है क्योंकि आपके साथ नहीं बैठता, आप कैसे आदमी हैं? इसको भी तो सोचना जरूरी है कि आप कैसे आदमी हैं? आप बड़े ईगोइस्ट, बड़े अहंकारी आदमी मालूम होते हैं, कि इसके साथ बैठने से आप अविनय समझेंगे कि यह साथ बैठ गया तो यह आदमी अहंकारी है! आप कैसे आदमी हैं, जो साथ बैठने में दूसरे के अविनय को समझेंगे, नीचे बैठने में विनय को! लेकिन वह भी आदमी बिलकुल नीचे नहीं बैठा हुआ है। वह प्रतीक्षा कर रहा है सिर्फ आपकी।
सब चेले प्रतीक्षा करते हैं कि कब गुरु हो जाएं। और सब समर्पित व्यक्ति--किसी के प्रति समर्पित व्यक्ति-- दूसरों के समर्पण की मांग करते हैं। क्योंकि जो वे इधर देते हैं, वह दूसरे से मांग करते हैं।
यह निरंतर आपने देखा होगा कि जो आदमी किसी की खुशामद करेगा, वह आदमी अपने से पीछे वाले लोगों से खुशामद मांगेगा। जो आदमी किसी की खुशामद नहीं करेगा, वह खुशामद भी नहीं मांगेगा। ये दोनों बातें एक साथ चलती हैं। जो आदमी बहुत विनम्रता दिखलाएगा, वह आदमी दूसरों से विनम्रता की मांग करेगा।
महावीर को समझना इस अर्थ में कठिन हो जाता है। वे किसी के प्रति समर्पित नहीं हैं, कोई उनका गुरु नहीं है, किसी के चरण नहीं छुए हैं, किसी के चरणों में नहीं बैठे हैं, किसी के पीछे नहीं चले हैं, तो समझना हमें कठिन हो जाता है। लेकिन मेरी अपनी दृष्टि यही है कि वे इतने समर्पित व्यक्ति हैं, वे समस्त के प्रति इस भांति झुके हुए हैं कि अब और किसके लिए झुकना है? और क्यों झुकना है?
एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहा कि आप फलां-फलां आदमी को महात्मा मानते हैं कि नहीं? मैंने कहा, तुम अगर मुझसे कहते कि आदमी को महात्मा मानते हैं कि नहीं, तो मैं जल्दी से राजी हो जाता। तुम कहते हो, फलां-फलां व्यक्ति को! अब उसमें यह बात छिपी है कि मैं एक व्यक्ति को महात्मा मानूं तो दूसरों को हीनात्मा मानूं, इसके सिवाय कोई चारा नहीं है। एक को महात्मा मानने में दूसरे को हीनात्मा मानना ही पड़ेगा, नहीं तो उसे महात्मा कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
तो मैंने कहा कि मैं किसी को हीनात्मा मानने को राजी नहीं हूं, इसलिए महात्मा भी एकदम विदा हो जाता है मेरे मन से। मेरे लिए कोई महात्मा नहीं है, क्योंकि कोई हीनात्मा नहीं है। और एक को महात्मा बनाओ तो हजार, लाख, करोड़ को हीनात्मा बनाना जरूरी है, नहीं तो काम चलता नहीं। यानी एक महात्मा की रेखा खींचने के लिए करोड़ हीनात्माओं का घेरा खड़ा करना पड़ता है, तब एक महात्मा बन सकता है, बनाया जा सकता है।
लेकिन यह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता! यह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता कि एक महात्मा बनाने में करोड़ों लोगों को हीनात्मा की दृष्टि से हम देखना शुरू कर देते हैं।
महावीर किसी को न महात्मा मानते हैं, न किसी को हीनात्मा मानते हैं। महावीर इस विचार में ही नहीं पड़ते। वे एक-एक की गिनती ही नहीं कर रहे हैं। समस्त जीवन का सीधा समर्पण है, इसलिए व्यक्ति बीच में आता नहीं।
और इसी तरह, इस संबंध में, इस प्रश्न से संबंधित दूसरी बात भी मैं आपको याद दिला दूं, कि चूंकि महावीर ने किसी को गुरु नहीं बनाया, इसलिए जितने लोगों ने महावीर को गुरु बनाया, उन सबने महावीर के साथ अन्याय किया है। क्योंकि समझ ही नहीं पाए उस आदमी को। यानी जो आदमी किसी को कभी गुरु नहीं बनाया, वह कभी किसी को शिष्य बनाने की बात भी नहीं सोच सकता है। ये संयुक्त बातें हैं। क्योंकि जब वह अपने ही लिए नहीं यह मानता है ठीक कि किसी को गुरु की तरह ऊपर स्थापित करे, वह यह कैसे मान सकता है कि कोई उसे गुरु की तरह स्थापित करे?
इसलिए महावीर के जो अपने को शिष्य और अनुयायी समझते हों, वे महावीर के साथ बुनियादी अन्याय कर रहे हैं। उस आदमी को समझ ही नहीं पा रहे हैं। जिस महावीर ने अपने से पहले चले आए किसी शास्त्र को मान्यता नहीं दी, तो जिन्होंने महावीर का शास्त्र बना लिया, उन्होंने महावीर के साथ जो व्यभिचार किया है, उसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। महावीर ने अपने से पहले के किसी--किसी भी व्यक्ति को ऐसा नहीं कहा कि उससे मुझे मिल जाएगा, या वह मुझे देने वाला हो सकता है। बात ही नहीं उठाई इसकी। मुझे ही पाना होगा। उस महावीर के पीछे लाखों लोग हैं, जो यह कहते हैं कि तुम्हीं हमें पहुंचा दो, तुम्हीं हमें मिला दो, तुम्हीं हमारा कल्याण करो, तुम्हीं हमारे नाव, खिवैया, जो कुछ हो तुम्हीं हो!
उस महावीर के प्रति ये बातें ऐसी अशोभन हैं! लेकिन खयाल में नहीं आतीं। खयाल में नहीं आतीं, क्योंकि हम महावीर को समझ ही नहीं पाए।
यह भी पूछा है उस प्रश्न में ‘कि ऐसा महावीर क्या खोज रहे थे, जिसकी वजह से वे किसी गुरु के पास नहीं गए?’
निश्चित ही, वे ऐसी कोई चीज खोज रहे थे, जो किसी गुरु से कभी किसी को नहीं मिली है। हां, कुछ चीजें हैं, जो गुरु से मिल जाती हैं। असल में जीवन का बाह्य-ज्ञान सदा गुरु से ही मिलता है। गणित सीखनी है, भूगोल सीखनी है, इतिहास सीखना है, इन सबका कोई आत्म-ज्ञान नहीं होता। ऐसा नहीं होता कि एक आदमी आंख बंद करके बैठ जाए और भूगोल सीख जाए। और किसी गुरु के पास न जाए और भाषा सीख जाए, ऐसा नहीं होता। असल में जो चीजें जीवन के बाहर के फैलाव से संबंधित हैं, वे सब की सब किसी से सीखनी पड़ती हैं।
लेकिन कुछ बात ऐसी भी है, जो बाहर के फैलाव से संबंधित ही नहीं है, जो मेरी अंतस चेतना में ही छिपी है, उसे कभी किसी गुरु से नहीं सीखना पड़ता है। जैसे कोई भूगोल, सोचता हो कि मैं आंख बंद करके अंतर्यात्रा करूं और जगत की भूगोल जान लूं, जैसी गलती वह करेगा, ऐसा ही वह भी आदमी गलती करेगा, जो अंतर्यात्रा करना चाहता हो और किसी गुरु के पास चला जाए, जैसा भूगोल सीखने के लिए जाना पड़ता है--और किसी गुरु के पास सीखने की कोशिश करने लगे, वह भी वैसी ही भूल करेगा।
कुछ है, जो दूसरे से सीखा जाता है और स्वयं सीखा ही नहीं जा सकता। और कुछ है, जो स्वयं ही सीखा जाता है और दूसरे से कभी भी नहीं सीखा जा सकता।
महावीर उसी परम सत्य की खोज पर थे, इसलिए कोई--वे किसी के पास नहीं गए, उन्होंने किसी को बीच में नहीं लेना चाहा। क्योंकि बीच में ले लेने से ही शुद्धता नष्ट हो जाती है।
अगर मैं प्रेम की खोज में हूं तो मैं किसी को बीच में नहीं लेना चाहूंगा। अगर मैं सत्य की खोज में हूं तो भी मैं किसी को बीच में नहीं लेना चाहूंगा। अगर मैं सौंदर्य की खोज में हूं तो भी मैं अपनी आंखों से ही सौंदर्य देखना चाहूंगा, मैं दूसरों की आंखें उधार नहीं लेना चाहूंगा। क्योंकि वे आंखें दूसरों की होंगी, अनुभव दूसरे का होगा, मुझे क्या हो सकता है?
इसलिए महावीर उस परम सत्य की खोज में हैं, जो स्वयं में ही छिपा है। और किसी के पास न मांगने गए, न हाथ जोड़ने गए, न प्रार्थना करने गए।
इससे कोई ऐसा न समझ ले कि बहुत अहंकारी व्यक्ति रहे होंगे। क्योंकि साधारणतः हमारा खयाल यह है कि जो किसी के प्रति सिर नहीं झुकाता, नमस्कार नहीं करता, किसी के चरणों में नहीं बैठता, किसी को आदर नहीं देता, किसी को सम्मान नहीं देता, वह आदमी बड़ा अहंकारी है।
लेकिन जो आदमी किसी को सम्मान नहीं देता, जो आदमी किसी को आदर नहीं देता, वह आदमी किसी से आदर मांगता है, किसी से सम्मान मांगता है तो अहंकार की खबर मिलती है। लेकिन जो आदमी न आदर देता, न मांगता, उसे कैसे अहंकारी कहोगे? जो न गुरु बनाता, न बनता, जो न शास्त्र मानता, न शास्त्र रचता, उसे कैसे अहंकारी कहोगे? अत्यंत विनम्र व्यक्ति है, सीधी खोज पर गया है, सीधा रास्ता अपना खोज रहा है, किसी को साथ नहीं लेना चाहता। कोई साथ हो भी नहीं सकता। अकेले के रास्ते हैं, अकेले की यात्राएं हैं।
प्लोटिनस ने एक किताब लिखी है और उस किताब में उसने कहा है कि बहुत सी यात्राएं थीं जो सबके साथ हुईं, बहुत सी खोजें थीं जिनमें मित्र थे, बहुत सी संपत्ति थी जिसमें साथी-सहयोगी थे। फिर एक ऐसी खोज आई, जहां न मित्र थे, न संगी था, न कोई साथी था--फ्लाइट ऑफ दि अलोन टु दि अलोन; अकेले की उड़ान थी अकेले की तरफ। और कोई बीच में न था। और जरा भी बीच में ले लेते तो बस भटकन शुरू हो जाती थी। क्योंकि उड़ान ही अकेले की अकेले की तरफ थी।
इसलिए महावीर बहुत सचेत हैं। उतने ही लोग अगर महावीर को प्रेम करने वाले भी सचेत होते तो दुनिया ज्यादा बेहतर होती। बुद्ध को प्रेम करने वाले, क्राइस्ट को प्रेम करने वाले भी अगर इतने ही सचेत होते तो दुनिया बहुत बेहतर होती। तब दुनिया में धर्म होता--जैन न होता, हिंदू न होता, मुसलमान न होता, ईसाई न होता। क्योंकि हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन गुरुओं से बंधी हुई धारणा से पैदा होते हैं। अगर गुरु की धारणा ही टूट जाए तो दुनिया में आदमियत होगी, धर्म होगा, लेकिन पंथ न होंगे। और तब सारी वसीयत हमारी हो जाएगी।
आज एक ईसाई के लिए महावीर अपने नहीं मालूम पड़ते, क्योंकि कुछ लोगों ने उन्हें अपना बना रखा है। और जब कुछ लोग किसी को अपना बनाते हैं तो शेष लोगों के लिए वह पराया हो जाता है। आज क्राइस्ट जैनियों के लिए अपने नहीं मालूम पड़ते, क्योंकि कुछ लोगों ने उन्हें अपना बना लिया है। इसका मतलब यह हुआ कि जो लोग भी किसी बड़े सत्य को अपना बनाने का दावा करते हैं, वे शेष मनुष्य-जाति को वंचित कर देते हैं उस सत्य की संपदा से, उसकी वसीयत से, उसके हेरीटेज से।
अगर गुरु के आस-पास पागलपन पैदा न हो, श्रद्धा पैदा न हो, अंध-भक्ति पैदा न हो, गुरुडम पैदा न हो, तो संप्रदाय विदा हो जाएं। तब क्राइस्ट भी हमारे हों, मोहम्मद भी हमारे हों, महावीर भी हमारे हों, बुद्ध भी हमारे हों, सारी दुनिया की समस्त जाग्रत चेतनाएं हमारी हों। और तब हम इतने समृद्ध हों, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
लेकिन हम दरिद्र हैं और हम दरिद्र अपने हाथों से हैं। महावीर दरिद्र नहीं होना चाहे, इसलिए उन्होंने किसी को नहीं पकड़ा। जो किसी को पकड़ेगा, वह दरिद्र हो जाएगा। वे पूर्ण समृद्ध हो गए, क्योंकि सब-कुछ उनका था। कुछ न था, जिसका निषेध करना है; कुछ न था, जिसको इनकार करना है; कुछ न था, जिसको पकड़ना है। जो पकड़ेगा, वह निषेध करेगा। जो पकड़ेगा, वह इनकार करेगा। जो एक को पकड़ेगा, वह दूसरे को छोड़ने की भी जिद करेगा।
महावीर समग्र के प्रति समर्पित व्यक्ति हैं।
और इसलिए, इसलिए ये सवाल उठ सकते हैं कि क्यों गुरु नहीं? क्यों शास्त्र नहीं? क्यों प्राचीन तीर्थंकर हुए उनको क्यों मान्यता नहीं? यह प्रश्न उठ सकता है। लेकिन यह प्रश्न व्यर्थ है, यह हमारे उस चित्त से उठता है, जो बिना गुरु बनाए, बिना शास्त्र पकड़े, बिना संप्रदाय बनाए एक क्षण नहीं रह सकता।

प्रश्न:
भगवान, इसी संबंध में महावीर की उन शर्तों का क्या अभिप्राय है? वह भी तो वे लेते थे कि मैं ऐसा होगा, कि सामने भिक्षा देने वाला ऐसा व्यक्ति होगा तो ही लूंगा, नहीं तो नहीं लूंगा। जैसे चंदन वाला है...।
अभिप्राय है।

प्रश्न:
हां, उसका क्या अर्थ है? वह शर्त क्या है?
अभिप्राय है। महावीर, जैसा मैंने कहा--अगर मेरी बात समझ में आ गई हो तो ही अभिप्राय समझ में आ सकता है--जैसा मैंने कहा कि महावीर की खोज पूरी हो चुकी थी। इस जन्म में वे खोज नहीं कर रहे हैं, इस जन्म में वे सिर्फ बांटने आए हैं। इस जन्म में उनकी अपनी कोई खोज नहीं है।
और इसलिए महावीर ने एक बहुत गहरा प्रयोग किया, जो कि मनुष्य-जाति में कभी किसी ने नहीं किया था। महावीर ने यह प्रयोग किया है कि अगर मैं बांटने ही आया हूं और मेरा अपना कोई स्वार्थ नहीं है, तो अगर विश्वसत्ता मुझे भोजन देना चाहे तो ठीक, न देना चाहे तो मैं भोजन भी क्यों लूं? अगर विश्वसत्ता मुझे जीवन देना चाहे तो ठीक, न देना चाहे तो मेरे जीवन का भी क्या अर्थ है?
अब महावीर का कोई निजी स्वार्थ नहीं है, अब होने की कोई आकांक्षा नहीं है, जिसको हम जिजीविषा कहते हैं, लस्ट फार लाइफ, वह महावीर में नहीं है। इसलिए महावीर ने बड़े अनूठे काम किए।
महावीर भोजन लेने निकलते तो वह पहले अपने मन में एक संकल्प बना लेते कि आज ऐसे घर में भोजन लूंगा जिस घर के सामने दो गाएं लड़ती हों, गायों का रंग काला हो, स्त्री खड़ी हो, एक पैर बाहर हो, एक पैर भीतर हो, आंख से आंसू बहते हों, ओंठों पर हंसी हो--ऐसा कुछ भी, वे एक धारणा कर लेते सुबह और तब वे भिक्षा मांगने निकलते। अगर यह धारणा पूरी हो जाती कहीं, तो वे भिक्षा ग्रहण कर लेते उस द्वार पर, अन्यथा वे वापस लौट आते।
इसका मतलब बहुत गहरा है। और जैन तो नहीं समझ सके कि मतलब क्या है। इसका मतलब यह है कि महावीर यह कह रहे हैं कि अगर अब विश्व की पूरी सत्ता की इच्छा हो तो ही मैं जीता हूं, अपनी तरफ से मैं जीता ही नहीं। तो अगर भोजन देना हो तो--यानी मैं मांगने नहीं जा रहा हूं अब, कोई मुझे दे रहा है, इसलिए भी मैं नहीं लूंगा, अब मैं किसी का अनुग्रह भी नहीं मान रहा हूं। अब तो परिपूर्ण जगत की सत्ता भी अगर आज मुझे भोजन देना चाहती हो तो ठीक, अन्यथा मैं वापस लौट आता हूं। लेकिन मुझे कैसे पता चलेगा कि विश्व की सत्ता ने मुझे भोजन दिया? तो मैं एक शर्त ले लेता हूं, वह शर्त विश्व की सत्ता पूरी कर दे तो मैं समझूं कि भोजन उससे आया। न देने वाले को मैं धन्यवाद दूंगा, क्योंकि अब यह सवाल ही न रहा। न देने वाले को मैं धन्यवाद दूंगा, क्योंकि देने वाले का कोई सवाल न रहा। न मैं अनुगृहीत हूं किसी का।
और बड़ी गहरी बात है और वह यह है कि जो व्यक्ति पूर्णता को उपलब्ध हुआ, लौटा, अब उसके लिए कर्म जैसी कोई चीज नहीं है। और कर्म होता है इच्छा से, और कर्म का जन्म होता है आकांक्षा से।
तो अब महावीर यह कहते हैं कि अब मैं यह भी इच्छा नहीं करता कि भोजन मुझे मिलना ही चाहिए, यह भी विश्व की सत्ता पर छोड़ देता हूं। यह पूरे के प्रति समर्पण है। अगर, अगर पूरी हवाएं, पहाड़, पत्थर, पर्वत, आदमी की चेतना, जानवर, पशु, देवी-देवता--जो भी है--अगर उस पूरे की आकांक्षा है कि महावीर एक दिन और जी जाए तो इंतजाम करो, अन्यथा अपना कोई इंतजाम नहीं। इसका मतलब गहरे में यह है--इसलिए मैं शर्त लगा देता हूं, क्योंकि मुझे पता कैसे चलेगा? मुझे पता कैसे चलेगा कि यह किसी ने मुझे भोजन दिया या पूरे जगत के अस्तित्व ने मुझे भोजन दिया?
तो महावीर बड़ी पेचीदा शर्तें लगाते हैं, जिनका पूरा होना भी मुश्किल मालूम होता है, कि अब एक स्त्री एक पैर बाहर किए हो, एक पैर भीतर किए हो, राजकुमारी हो, हाथ में हथकड़ियां पड़ी हों, आंख से आंसू गिरते हों, मुंह से हंसी आती हो--ऐसा किसी द्वार पर मुझे कोई मिल जाएगा तो उस द्वार से मैं भोजन कर लूंगा।
फिर जरूरी नहीं है कि उस द्वार पर भोजन देने वाला हो। उस द्वार पर महावीर को भोजन देने वाला हो, यह भी जरूरी नहीं। ऐसा द्वार मिल जाए आज, यह भी जरूरी नहीं। ऐसी स्थिति बने, यह भी जरूरी नहीं। महावीर बिलकुल ही अनहोनी की कल्पना करके घर से निकलते हैं, अपनी भिक्षा के लिए निकलते हैं। यह अनहोना अगर पूरा हो जाए तो महावीर अपने मन में जानते हैं कि विश्व की सत्ता ने एक दिन जीने के लिए और दिया है। यानी मैं अपनी तरफ से, अपनी जिद से नहीं टिका हूं। जरूरत है अस्तित्व को तो मैं आ रहा हूं, नहीं तो मैं एक दिन भी जीने की आशा नहीं करता। अपनी तरफ से जीने का कोई अर्थ नहीं है।
इसलिए यह बड़ा सार्थक है। और ऐसा प्रयोग कभी किसी ने नहीं किया है जगत में। कभी किसी व्यक्ति ने नहीं किया। बहुत अनूठा है।
आज भी जैन मुनि करते हैं, लेकिन श्रावक उनको पहले ही बता जाते हैं कि ऐसा-ऐसा कर लेना, या वे श्रावकों को बता देते हैं! और कुछ बंधे हुए इंतजाम कर रखे हैं उन्होंने! एक घर के सामने दो केले लटके हों तो वहां हम भोजन ले लेंगे! और सब मुनियों का सबको पता चल जाता है कि वह किस तरह की बातें करते हैं, तो दस-पांच घरों में लोग अपने घर के सामने केला लटका लेते हैं दो! एक स्त्री थाल लेकर खड़ी हो जाती है! एक स्त्री बच्चे को लेकर खड़ी हो जाती है! ऐसे दस-पांच बंधे हुए नियम हैं उनके, वे बंधे हुए नियम दस घरों में पूरे कर दिए जाते हैं! एक घर का उनका काम बैठ जाता है और वह अपना ले लेते हैं।
अब भी चलता है, दिगंबर जैन मुनि वैसा ही करता है रोज भोजन लेने के पहले। पच्चीस चौके सज जाते हैं, पच्चीस चौकों के सामने वह घूमता है, पच्चीस चौकों में उसकी बात पूरी हो जाती है। और सबके सीक्रेट्‌स सबको पता रहते हैं। और वे सब पता हो गए हैं, सब हो जाता है, उसमें कोई कठिनाई नहीं होती।
मगर महावीर ने जो प्रयोग किया था, बहुत ही अनूठा था। वह ऐसी हैरानी से भरी हुई धारणा लेकर चलते थे कि जिसमें उपाय कम ही था कि वह अपने आप घट जाए, जब तक कि विश्वसत्ता राजी न हो। इसलिए महावीर एक-एक दिन, एक-एक दिन जी रहे हैं--अपने लिए नहीं, अगर जरूरत है परमात्मा को तो ही।
और उनका पूरा जीवन इस बात का प्रमाण है कि जिस व्यक्ति को विश्वसत्ता के लिए जरूरत है, वह उसके लिए आयोजन करती है। पूरी विश्वसत्ता भी मिल कर उसके लिए आयोजन करती है, जिसके होने का, जिसकी एक-एक श्वास का परिणाम है। और जिसकी श्वास से, जिसके होने से, जिसके जीने से, जिसकी आंख से, जिसके चलने से कुछ घटित हो रहा है, जो कि कल्प-कल्प बीत जाएं तो दुबारा घटित मुश्किल से होता है। तो विश्वसत्ता को उसकी जरूरत है--उसके अस्तित्व की।
तो एक-एक दिन और एक-एक दिन की लीज़ पर महावीर जी रहे हैं। यानी ऐसा भी नहीं है कि इकट्ठा एक दिन तय कर लिया तो बारह साल के लिए काफी हो गया। ऐसा भी नहीं है, एक-एक दिन की लीज़ है कि आज जी लूंगा, और इनकारी हो तो बात खत्म है।
यह इस बात की खबर है कि यह आदमी अपनी तरफ से जीने का कोई मोह, कहीं भी नहीं रह गया। बड़ी कीमती है वह बात। और कोई व्यक्ति चाहे तो बराबर वैसा जी सकता है। लेकिन तभी जी सकता है, जब अपने जीवन का मोह विदा हो गया हो। तब पूरा अस्तित्व हमारे प्रति मोहपूर्ण हो जाता है, यह मैं कहना चाहता हूं। जैसे ही किसी व्यक्ति का अपने जीवन के प्रति मोह विदा हो जाता है, उसी क्षण सारा अस्तित्व उसके प्रति मोहपूर्ण हो जाता है। और सारा अस्तित्व उसे बचाने के सब उपाय करने लगता है। और उसकी सब ढंग की, बेढंग की शर्तें भी स्वीकार करने लगता है। यानी उसके ढंग-बेढंग की शर्तों का फिर हिसाब नहीं रह जाता। फिर वह क्या कहता है, क्या नहीं कहता है, कैसा उठता है, कैसा बैठता है, सबकी स्वीकृति हो जाती है। सारा जगत एक गहरे प्रेम से उसे घेर लेता है और उसके लिए जो भी किया जा सके, वह करने का उपाय करता है।
बुद्ध के, जिस दिन बुद्ध घर त्याग किए, उस रात जो कथा प्रचलित है, बहुत मधुर है। बुद्ध जब घर से चले तो उनका जो घोड़ा है, वैसा घोड़ा नहीं है दूर-दूर के लोकों में। उसके पैरों की टाप ऐसी है कि बारह-बारह कोस तक सुनी जाती है। आधी रात है, बुद्ध उस घोड़े पर सवार होकर चले हैं। तो घोड़े की टाप तो इतनी होगी कि सारा महल जाग जाए, सारा गांव जाग जाए। तो कहानी यह कहती है कि घोड़े की टाप के नीचे देवता फूल रखते चले जाते हैं, टाप फूलों पर पड़ती है, ताकि गांव में कोई जाग न जाए। क्योंकि बहुत-बहुत कल्पों के बाद कभी कोई व्यक्ति इतना बड़ा महाअभिनिष्क्रमण करता है। कभी ऐसा अवसर आता है अस्तित्व को कि कोई ऐसा व्यक्ति...।
फिर द्वार पर वे पहुंचे हैं नगर के तो द्वार पर बड़ी-बड़ी कीलें हैं, जिन्हें पागल हाथी भी धक्के मारें तो खुल नहीं सकते हैं। और जब वे द्वार खुलते हैं तो उनकी इतनी आवाज होती है कि पूरा नगर सुनता है उनकी आवाज को। असल में सुबह उनकी आवाज को सुन कर ही नगर उठता है, जब वह द्वार खुलता है नगर का। अब वह द्वार खुल जाएगा और आवाज हो जाएगी और हो सकता है बुद्ध रोक लिए जाएं, और वह जो होने वाला है, न हो पाए।
तो देवता उस दरवाजे को ऐसे खोल देते हैं, जैसे वह बंद ही न था। ये जो सारी कहानियां हैं ये तो प्रतीक हैं, ये सब प्रतीक हैं। लेकिन सूचक ये इस बात के हैं--ऐसा कहीं घटा नहीं है, कहीं कोई घोड़े के नीचे फूल नहीं रख गया है। नहीं, सूचक हैं सिर्फ इस बात के कि हम वह कहना चाहते हैं कि ऐसे व्यक्ति के लिए सारा जगत, सारा अस्तित्व मात्र सुविधा देने लगता है। क्योंकि इस अस्तित्व मात्र को इस आदमी की जरूरत पड़ जाती है।
हम सबको अस्तित्व की जरूरत है। हम सबके लिए अस्तित्व की आवश्यकता है--हमारे लिए। श्वास चले इसलिए हवा की जरूरत है, प्यास बुझे इसलिए पानी की जरूरत है, गरमी मिले इसलिए सूरज की जरूरत है। सारे अस्तित्व की हमें जरूरत है अपने लिए, लेकिन कभी-कभी वैसा व्यक्ति भी पैदा होता है, जिसके लिए अस्तित्व को लगने लगता है कि उस आदमी के होने की जरूरत है। वह हो जाए, और थोड़ी देर रह जाए, और थोड़ी देर रह जाए। वह उसके लिए कोई असुविधा न आ जाए।
और महावीर इस बात को जानते हैं। और अस्तित्व के साथ मजे का जुआ खेल रहे हैं, ऐसा जुआ किसी आदमी ने नहीं खेला। यानी वह बिलकुल ही दांव की बात है कि ठीक है अब, अब जिलाना हो तो आज ऐसा इंतजाम हो जाए, नहीं हो तो हम वापस लौट आएंगे। न कोई शिकायत है पीछे लौटने की, न कोई नाराजगी है। इतनी ही खबर है कि अस्तित्व कहता है अब तुम्हारी जरूरत नहीं, वह हम स्वीकार कर लेंगे और विदा हो जाएंगे। इस वजह से वैसा भाव लेकर वे चलते हैं। न तो...।
लेकिन उसको नहीं समझ पाया जा सका, उसको समझा ही नहीं जा सका। ऐसा आदमी चुनौती दे रहा है परमात्मा को। यह चैलेंजिंग है ऐसा आदमी कि ठीक है, रखना हो तो इतना इंतजाम, अन्यथा जाते हैं।

प्रश्न:
भगवान, महावीर को पारिवारिक या सामाजिक कौन सा असंतोष था? क्या उनका गृह-त्याग जवाबदारियों से पलायन नहीं है?
महावीर को कौन सा पारिवारिक, सामाजिक असंतोष था? और क्या उनका गृह-त्याग उत्तरदायित्व से पलायन नहीं है?
पहली बात तो यह कि महावीर को न कोई पारिवारिक असंतोष था और न कोई सामाजिक असंतोष था। इस जन्म में तो व्यक्तिगत असंतोष भी कोई नहीं था। इस जन्म में, जिससे दुनिया महावीर को पहचानी है, इस जन्म में तो व्यक्तिगत भी असंतोष कोई न था।
लेकिन पिछले जन्मों में...। आमतौर से तीन तरह के असंतोष होते हैं: पारिवारिक असंतोष, सामाजिक असंतोष या नितांत वैयक्तिक असंतोष। पारिवारिक असंतोष आर्थिक हो सकता है, विवाह-दांपत्य का हो सकता है, शरीर की सुविधा-असुविधा का हो सकता है।
वैसा असंतोष जिसे है, वैसा आदमी कभी धार्मिक नहीं बनता, क्योंकि वैसा आदमी उसी तरह के असंतोष को मिटाने में लगा रहता है। वैसा आदमी, जिसको हम कहें अत्यधिक भौतिक, मैटीरियलिस्ट होता है।
फिर सामाजिक असंतोष है। व्यवस्था है समाज की, नीति है, नियम है, शोषण है, धन है, राज्य है, संपत्ति है, वितरण है, यह सब है; ऐसा असंतोष भी होता है। ऐसा व्यक्ति सामाजिक क्रांतिकारी, सुधारक, रिफार्मिस्ट, रिवोल्यूशनरी, ऐसी दिशा में चला जाता है। ऐसा व्यक्ति भी धार्मिक नहीं होता।
धार्मिक तो होता है वह व्यक्ति जिसके असंतोष का न समाज से कोई संबंध है, न परिवार से कोई संबंध है, न संपत्ति से कोई संबंध है, न शरीर से कोई संबंध है। जिसके असंतोष की एक ही अर्थवत्ता है, एक ही अर्थ है और वह यह है कि मेरा होना मात्र अभी ऐसा नहीं है कि जिससे मैं संतुष्ट हो जाऊं। जिसका अल्टीमेट कन्सर्न, जिसकी आखिरी चिंता इस बात की है कि मैं जैसा हूं, क्या ऐसा ही होना काफी है, पर्याप्त है? अगर हिंसक हूं तो हिंसक होना ही काफी है, पर्याप्त है? अगर क्रोधी हूं तो क्रोधित होना ही काफी है, पर्याप्त है? अशांत हूं तो बस अशांत ही होना ठीक है? दुखी हूं, अज्ञानी हूं, सत्य का कोई पता नहीं, प्रेम का कोई अनुभव नहीं, क्या बस ऐसा होना काफी है?
एक ऐसा असंतोष है, जो इस भीतरी जगत से उठता है, जहां व्यक्ति कहता है नहीं, अज्ञान नहीं, अंधकार नहीं, दुख नहीं, अशांति नहीं, क्रोध नहीं, घृणा नहीं, द्वेष नहीं, कोई नहीं; ऐसा जीवन चाहता हूं, जहां यह कुछ भी न हो, क्योंकि इसके रहते जीवन जीवन ही कहां है! इस आंतरिक असंतोष से धार्मिक व्यक्ति का जन्म होता है।
इस जीवन में तो महावीर का यह असंतोष भी नहीं है, क्योंकि धार्मिक व्यक्ति का जन्म हो चुका है। लेकिन पिछले जन्म में, पिछले जन्मों में उनका नितांत असंतोष, डिसकंटेंट जो है, वह आध्यात्मिक है; न तो सामाजिक है, न पारिवारिक है। आध्यात्मिक असंतोष बड़ी कीमत की चीज है। और जिसमें नहीं है, वह कभी उस यात्रा पर जाएगा ही नहीं, जहां आध्यात्मिक संतोष उपलब्ध हो जाए।
जिस असंतोष से हम गुजरते हैं, उसी तल का संतोष हमें उपलब्ध हो सकता है। अगर धन का असंतोष है तो ज्यादा से ज्यादा धन मिलने का संतोष उपलब्ध हो सकता है। लेकिन बड़े मजे की बात है, जिस तल पर हमारा असंतोष होगा, उसी तल पर हमारा जीवन होगा। प्रत्येक व्यक्ति को खोज लेना चाहिए कि मैं किस बात से असंतुष्ट हूं? तो उसे पता चल जाएगा कि वह किस तल पर जी रहा है।
अब यह हो सकता है कि एक आदमी महल में जी रहा है, लक्जरी में, विलास में, भोग में; और एक आदमी लंगोटी बांध कर संन्यासी की तरह खड़ा है नंगा धूप में, सर्दी में, वर्षा में; इससे कुछ पता नहीं चलता कि कौन धार्मिक है। पता तो चलेगा--इस व्यक्ति के भीतर डिसकंटेंट क्या है? इस व्यक्ति के भीतर असंतोष क्या है?
हो सकता है महल में जो है, उसके भीतर एक ही असंतोष है कि यह सब महल किस मतलब का है! यह धन किस मतलब का है! और उसे एक असंतोष पकड़ा हुआ है कि मैं उसे कैसे पाऊं--वह जो मेरा स्वरूप है, वह जो मेरा अंतिम आनंद है--उसे मैं कैसे पाऊं? सोता है महल में, लेकिन असंतोष उसका उस तल पर चल रहा है, तो वह व्यक्ति आध्यात्मिक है, धार्मिक है।
और एक आदमी लंगोटी बांधे सड़क पर खड़ा है, मंदिर में प्रार्थना कर रहा है, पूजा कर रहा है, लेकिन प्रार्थना में मांग यही कर रहा है कि आज अच्छा भोजन मिल जाए, ठहरने को जगह मिल जाए, इज्जत मिल जाए, अनुयायी मिल जाएं, भक्त मिल जाएं, आश्रम मिल जाए। अगर वह इसी तरह की प्रार्थना मंदिर में भी कर रहा है तो वह आदमी धार्मिक नहीं है।
हमारा असंतोष हमारी खबर देता है कि हम कहां हैं। महावीर इस जन्म में तो किसी असंतोष में नहीं हैं, लेकिन पिछले सारे जन्मों में उनके असंतोष की एक लंबी यात्रा है। वह निरंतर यही है कि मेरा अस्तित्व, मेरा सत्य, मेरी वह स्थिति, जहां मैं परम मुक्त हूं, न कोई सीमा है, न कोई बंधन है--वह कहां है? वह कैसे मिले? उसकी खोज जारी है।
ऐसी खोज वाला व्यक्ति भी, ऐसी खोज पूरी हो गई ऐसा व्यक्ति भी, दूसरों के पारिवारिक असंतोष को मिटाने के लिए उत्सुक हो सकता है, दूसरों के सामाजिक असंतोष को मिटाने के लिए भी उत्सुक हो सकता है। ऐसा व्यक्ति निपट संत भी रह सकता है, क्रांतिकारी भी बन सकता है, सुधारक भी बन सकता है। लेकिन ऐसे व्यक्ति की स्वयं की चिंता इन तलों पर नहीं है। उसकी चिंता एक अलग ही तल पर है। और बहुत कम लोग हैं, जिनके जीवन में आध्यात्मिक असंतोष होता है। अगर हम लोगों के सिर खोल कर देख सकें तो हम बहुत हैरान हो जाएंगे, उनके असंतोष बड़े ही नीचे तल पर होते हैं। और जिस तल पर असंतोष होता है, उसी तल पर व्यक्ति होता है।
नीत्शे ने एक बहुत अदभुत बात कही है। नीत्शे ने कहा है, अभागा होगा वह दिन, जिस दिन आदमी अपने से संतुष्ट हो जाएगा। अभागा होगा वह दिन, जिस दिन आदमी अपने से संतुष्ट हो जाएगा। अभागा होगा वह दिन, जिस दिन मनुष्य की आकांक्षा का तीर पृथ्वी के अतिरिक्त और किन्हीं तारों की तरफ न मुड़ेगा। आकांक्षाओं का तीर पृथ्वी को छोड़ कर और किन्हीं तारों की तरफ न मुड़ेगा।
लेकिन हम सबकी आकांक्षाओं के तीर पृथ्वी से भिन्न कहीं भी नहीं जाते। और हम सबकी...बड़ी अदभुत बात है कि हम सब चीजों से अतृप्त होते हैं, सिर्फ अपने को छोड़ कर। एक आदमी मकान से अतृप्त होगा कि मकान ठीक नहीं, दूसरा बड़ा मकान बनाऊं। एक आदमी अतृप्त होगा, यह पत्नी ठीक नहीं, दूसरी पत्नी चाहिए। एक आदमी अतृप्त होगा कि यह बेटा ठीक नहीं, दूसरा बेटा चाहिए। एक आदमी अतृप्त होगा, ये कपड़े ठीक नहीं, दूसरे कपड़े चाहिए। लेकिन अगर हम खोजने जाएं तो ऐसा आदमी मुश्किल से मिलता है, जो न मकान से अतृप्त है, न कपड़ों से, न पत्नी से, न बेटों से, जो अपने से अतृप्त है। और जो कहता है, यह मैं आदमी ठीक नहीं, यह और तरह का आदमी चाहिए। जब कोई आदमी इस तरह की भाषा में अतृप्त होता है कि और तरह का आदमी चाहिए, अपने प्रति ही असंतुष्ट हो जाता है, तब उसके जीवन में धर्म की यात्रा शुरू होती है।
महावीर जरूर असंतुष्ट रहे हैं, वही यात्रा उन्हें उस तक लाई है, जहां तृप्ति और संतोष उपलब्ध होता है। क्योंकि जिस दिन व्यक्ति अपने को रूपांतरित करके उसे पा लेता है, जो वह वस्तुतः है, उस दिन परम तृप्ति का क्षण आ जाता है। उसके बाद फिर कोई अतृप्ति नहीं है। उसके बाद उस व्यक्ति की फिर कोई अतृप्ति नहीं है। फिर अगर वह जीता है एक क्षण भी, तो वह दूसरों की अतृप्ति को कैसे तृप्ति के मार्ग पर दिशा दे सके, उसके लिए ही जीता है। पर उसकी अपनी यात्रा समाप्त हो जाती है।
साथ ही उसमें एक बात और पूछी है कि क्या उनका गृह-त्याग दायित्व से पलायन नहीं है, एस्केप नहीं है?
गृह-त्याग महावीर ने कभी किया ही नहीं है। गृह का त्याग वे करते हैं, जिन्हें गृह के साथ पकड़, क्लिंगिंग, आसक्ति होती है। महावीर ने तो वही छोड़ दिया है, जो घर नहीं था। यह हमें खयाल में आना जरा मुश्किल होता है, क्योंकि हम तो मिट्टी-पत्थर के घरों को घर समझे हुए हैं। जो घर नहीं था, महावीर ने उसका ही त्याग किया है। इसलिए गृह-त्याग का तो शब्द ही भ्रांत है।
असल में महावीर घर की खोज में निकले हैं, अगृह को छोड़ कर गृह की खोज में चले गए हैं। जो घर नहीं था, उसे छोड़ा है; और जो घर है, उसकी खोज में गए हैं। और हम जो घर नहीं है, उसे पकड़े बैठे हैं; और जो घर हो सकता है, उसकी तरफ आंख बंद किए हुए हैं! एस्केपिस्ट हम हैं, पलायनवादी हम हैं।
पलायन का क्या मतलब होता है?
एक आदमी कंकड़-पत्थरों को पकड़ ले और हीरों की तरफ आंख बंद कर ले और दूसरा आदमी कंकड़-पत्थर छोड़ दे और हीरों की खोज पर निकल जाए--पलायनवादी कौन है? एस्केपिस्ट कौन है? क्या आनंद की खोज पलायन है? तो फिर दुख में जीना पलायन नहीं होगा। क्या ज्ञान की खोज पलायन है? तो फिर अज्ञान में जीना पलायन नहीं होगा। तो क्या परम जीवन की खोज पलायन है? तो फिर क्षुद्र जीवन पलायन नहीं होगा।
पहली तो बात, महावीर ने कोई गृह-त्याग नहीं किया, वे गृह की खोज में ही गए हैं। और दूसरी बात, पलायन शब्द हमारे खयाल में नहीं आता कि उसका मतलब क्या हो सकता है।
आमतौर से आदमी सोचता है कि जो आदमी दायित्व से भागता है, उत्तरदायित्व से, जिम्मेवारी से, रिस्पांसिबिलिटी से, वह पलायनवादी है। ठीक सोचता है। लेकिन पक्का पता है कि रिस्पांसिबिलिटी क्या है? दायित्व क्या है?
महावीर जैसा आदमी एक दुकान पर बैठ कर दुकान चलाता रहे, यह दायित्व होगा जगत के प्रति, जीवन के प्रति? महावीर जैसा व्यक्ति एक घर में बैठ कर बाल-बच्चों को बड़ा करता रहे, यह दायित्व होगा जीवन के प्रति, जगत के प्रति? इससे बड़ी और ज्यादा इर्रिस्पांसिबिलिटी क्या होगी? महावीर जैसे व्यक्ति के लिए इस तरह के क्षुद्रतम घेरे में खड़े होकर क्षुद्र में ही सब खो देने से ज्यादा बड़ी और दायित्वहीनता क्या हो सकती है?
बड़े दायित्व जब पुकारते हैं, छोटे दायित्व छोड़ देने पड़ते हैं। बड़े दायित्व की पुकार चूंकि हमारे जीवन में नहीं है, इसलिए हमें देख कर बड़ी मुश्किल होती है। हमें देख कर बड़ी मुश्किल होती है कि यह आदमी सब जिम्मेवारियां छोड़ कर जा रहा है। यह आदमी बड़ी जिम्मेवारियां ले रहा है, यह हमारे खयाल में नहीं है।
और महावीर जैसा व्यक्ति कितनी बड़ी जिम्मेवारियां ले रहा है, उसका हमारे, उसकी धारणा बनानी भी कठिन है, उसकी कल्पना करनी भी कठिन है।
एक घर को आदमी छोड़ता दिखता है, करोड़ घर के लोग उसके घर के लोग हो जाते हैं। एक आंगन को छोड़ता है, सारा आकाश का विस्तार उसका आंगन हो जाता है। एक पत्नी को, एक बेटे को, एक प्रियजन को छोड़ कर जाता है, सारा जगत उसका प्रियजन और मित्र हो जाता है। लेकिन हमने हमेशा उसे जो छोड़ा है, उस भाषा में सोचा है। जिस विस्तार पर वह फैला है, वह हमने सोचा नहीं! और जो इस एक को छोड़ कर गया, उसे भी छोड़ कर कहां गया?
बुद्ध के जीवन में बड़ी मधुर घटना है कि बुद्ध लौटे हैं घर बारह वर्ष बाद। पत्नी नाराज है, क्रुद्ध है। वह व्यंग्य में, मजाक में--बुद्ध का बेटा एक दिन का था, जब वे छोड़ कर गए थे रात, वह अब बारह वर्ष का हो गया है राहुल--उसे सामने कर देती है और व्यंग्य करती है, मजाक करती है, टांट करती है और कहती है कि ये तुम्हारे पिता हैं, पहचान लो। ये जो भिक्षापात्र लिए खड़े हैं, यही तुम्हारे पिता हैं, इन्हीं ने तुम्हें जन्म दिया था और एक ही दिन बाद ये भाग गए थे! इनसे पूछ लो, तुम्हारे लिए क्या कमाई इन्होंने छोड़ी? तुम्हारा दायित्व क्या निभाया है? यही रहे तुम्हारे पिता--ये जो भिक्षापात्र लिए खड़े हैं, यही सज्जन तुम्हें जन्म देकर एक ही रात बाद भाग गए थे! इन्होंने जगा कर भी मुझे नहीं कहा था कि मैं जाता हूं। इनसे अपना देय, भाग मांग लो, ये तुम्हारे पिता हैं!
भिक्षु सन्नाटे में आ गए। आनंद घबड़ाने लगा कि इस पागल को पता नहीं कि किससे क्या कह रही है। बुद्ध से यह कह रही है! और बुद्ध बहुत आनंदित हो राहुल से कहे कि निश्चित ही बेटा, मैं तेरा पिता हूं, हाथ फैला, कि जो संपत्ति मैंने तेरे लिए इकट्ठी की, तुझे दान कर दूं। लेकिन हाथ तो खाली हैं! और बुद्ध की पत्नी हंसती है कि हाथ में कुछ है! हाथ में कुछ दिखता तो नहीं, फिर भी बेटा हाथ फैला दे। और उस भीड़ में कैसा अपमानित बुद्ध को वह कर रही है! राहुल ने, उस बारह वर्ष के लड़के ने हाथ फैला दिए हैं।
बुद्ध ने अपना भिक्षापात्र उसके हाथ में दे दिया और कहा, तू दीक्षित हुआ। तू दीक्षित हुआ, क्योंकि बुद्ध जैसा पिता तुझे ऐसी ही संपदा दे सकता है, जो तुझे भी बुद्ध बना दे। तू दीक्षित हुआ। मैंने बहुत दिन भटका, तुझे क्यों भटकाऊं? मुझे देर लगी भटकने में, तुझे क्यों भटकाऊं?
यशोधरा तो रोने लगी है। सब लोग चिल्लाने लगे कि यह क्या पागलपन हो रहा है! एक बेटा छोड़ गए थे, तुम घर से भाग गए हो, सारी व्यवस्था अस्तव्यस्त हो गई, उस बेटे को भी लिए जाते हो? तो बुद्ध कहते हैं कि और भी जिनको चलना हो, उनको भी ले जाने को मैं तैयार हूं। क्योंकि जो मैंने वहां पाया है, अपने बेटे को कैसे छोड़ जाऊं वहां ले जाने से? जिस हीरों की खदान पर मैं पहुंच गया हूं, अपने बेटे को न ले जाऊं? उसे तो ले जाऊंगा, लेकिन और भी जिनको जाना हो, वे भी आ जाएं।
लगेगा हमें कि दायित्व छोड़ कर बुद्ध भाग गए। लेकिन मैं कहता हूं कि जैसा बुद्ध थे, वैसा ही रह कर दायित्व भी क्या पूरा कर लेते? कितने बाप हुए हैं, और कितने बेटे हुए हैं, किसने क्या दायित्व पूरा कर लिया! लेकिन बुद्ध ने दायित्व पूरा किया है। एक बाप जो कर सकता था ज्यादा से ज्यादा बेटे के लिए वह बुद्ध ने किया है। और जो कुछ जाना था, जो पाया था, उसके सामने खोल दिया है।
लेकिन इस दायित्व को पहचानना हमें मुश्किल हो जाए। शायद दुख के भार को हस्तांतरित करने को ही हम दायित्व समझते हैं! अज्ञान की यात्रा को और गति देने को ही हम दायित्व समझते हैं! तो फिर पलायनवादी मालूम पड़ेंगे महावीर-बुद्ध जैसे लोग, लेकिन वे पलायनवादी नहीं हैं।
एक बात और समझनी चाहिए इस संबंध में कि पलायन वह करता है, जो दुखी हो; भागता वह है, जो दुखी हो; भागता वह है, जो डरता हो, भयभीत हो; भागता वह है, जिसे शक हो कि जीत न सकूंगा। ऐसा आदमी हमें भागता दिखता है। इस घर में आग लगी हो और एक आदमी इस घर के बाहर निकले, उसे आप भागने वाला तो न कहेंगे। उसे कोई यह तो नहीं कहेगा, एस्केपिस्ट है! घर में आग लगी थी और यह बाहर निकल आया! कोई उसे न कहेगा कि यह पलायनवादी है कि जब घर में आग लगी थी, तब तुम बाहर निकल आए और जब घर में आग नहीं थी, तब मजे से रहते थे! घर में आग लगी थी, तभी तो रहना था, तभी तो पता चलता कि तुम पलायनवादी तो नहीं हो।
लेकिन घर लगी आग में कोई भागने वाले को पलायनवादी नहीं कहेगा। क्योंकि घर में आग लगी हो तो कोई भाग नहीं रहा है, भागने का सवाल ही नहीं है। घर में आग लगी हो तो विवेक की बात है कि कोई बाहर हो जाए। विवेकपूर्ण है, बाहर हो जाए। हो सकता है बाहर के लोग कहें कि तुम पलायनवादी हो। घर में आग लगी, बाहर आ गए।
महावीर जैसे व्यक्ति जहां से भी हटते हैं, भागते नहीं हैं। जहां-जहां आग है, हटते हैं। हटना एकदम विवेकपूर्ण है। और इसलिए भी हटते हैं कि जहां-जहां दुख जन्मता है, जहां-जहां दुख उत्पन्न होता है, जहां-जहां व्यर्थ ही दुख बढ़ता है और फैलता है, वहां खड़े रहने का क्या अर्थ है? क्या प्रयोजन है? वहां से वे हटते हैं। हटते सिर्फ इसलिए हैं कि और बेहतर जगह हैं, जहां आग नहीं है।
समझें कि आप बीमार पड़े हैं और आप इलाज कराने चले जाएं और डॉक्टर आपसे कहे, बड़े पलायनवादी हैं आप, बीमारी से भागते हैं? एस्केपिस्ट हैं! अब बीमारी आई है तो भोगें, जीएं, भागना क्या है? वह आदमी कहेगा, मैं बीमारी से नहीं भागता; लेकिन बीमारी में, बीमारी में खड़े रहने में न तो कोई बुद्धिमत्ता है, न कोई अर्थ है। मैं स्वास्थ्य की खोज में जाता हूं, वह आनंदपूर्ण है।
तो हम बीमार आदमी को कभी नहीं कहते कि तुम डॉक्टर के यहां मत जाओ, क्योंकि यह पलायन है। एक अंधेरे में खड़ा आदमी अगर सूरज की रोशनी की तरफ आता है तो हम नहीं कहते कि पलायनवादी है। लेकिन हम महावीर जैसे लोगों को क्यों पलायनवादी कहना चाहते हैं?
उसका कारण है। उसका कारण सिर्फ यह है कि अगर हम महावीर जैसे लोगों को सिद्ध कर दें कि पलायनवादी हैं तो हम जहां खड़े हैं, वहां से हमें हटने की कोई जरूरत न रह जाए। हम निश्चिंत हो जाएं कि यह आदमी गड़बड़ था। हम जहां खड़े हैं, हम बिलकुल ठीक हैं। हम सब मिल कर इसको तय कर दें कि यह आदमी सिर्फ भगोड़ा है, भागता है जिंदगी से। हम बहादुर लोग हैं, हम जिंदगी में खड़े हुए हैं।
किस जिंदगी में खड़े हैं हम? जहां जिंदगी है ही नहीं। और बहादुरी क्या है? और उस बहादुरी से हमें क्या उपलब्ध हो रहा है?
जिन लोगों ने महावीर को महावीर का नाम दिया, उन्होंने महावीर को पलायनवादी नहीं समझा था इसीलिए। शायद कारण तो यही है कि हम अपनी कमजोरी की वजह से जहां से नहीं हट सकते हैं, वहां से महावीर अपने साहस की वजह से हट जाते हैं। लेकिन हम अपनी कमजोरी को भी छिपाते हैं और जस्टीफाई करते हैं! हम उसके भी न्याययुक्त कारण खोज लेते हैं! और कोई नहीं मानना चाहता कि हम कमजोर हैं। और तब हमारे बीच से अगर एक बहादुर आदमी हटता हो...।
बड़ा मुश्किल है हिम्मत जुटाना। घर में आग लगी हो और घर में पचास आदमी हों और हर आदमी मानता ही न हो कि घर में आग लगी है, तो जिस आदमी को आग लगी दिखाई पड़ती हो वह घर के बाहर निकलता हो, तो वे कहेंगे कि यह पलायनवादी कहां भागा चला जा रहा है!
हमने दुनिया के श्रेष्ठतम लोगों को सदा पलायनवादी कहा है। उसका कारण है। स्टीफन ज्विग ने आत्महत्या की। लेकिन आत्महत्या करने के पहले उसने एक पत्र लिखा और उस पत्र में उसने लिखा कि ध्यान रहे, कोई यह न समझे कि मैं पलायनवादी हूं। और यह भी ध्यान रहे, कोई यह न समझे कि मैं कायर या कावर्ड हूं। बल्कि मेरा नतीजा तो यह है जिंदगी भर का कि लोग चूंकि मरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, इसलिए जिंदा रहे चले जाते हैं। मैं भी बहुत दिन तक हिम्मत नहीं जुटा पाया, इसलिए मैं जिंदा रहे चला गया हूं। लेकिन अब मुझे साफ दिखाई पड़ गया है कि इस तरह की जिंदगी अगर रोज जीनी है, तो मैं इसको तोड़ता हूं। और ध्यान रहे कि मैं तोड़ता हूं सिर्फ इसलिए कि मैं हिम्मतवर हूं; और तुम नहीं तोड़ते हो, क्योंकि तुम हिम्मतवर नहीं हो। लेकिन मैं जानता हूं कि मेरे मरने के बाद लोग कहेंगे कि कावर्ड था, कायर था, पलायनवादी था--मर गया, भाग गया जिंदगी से।
ज्विग बहुत कीमती बात कह रहा है। और ज्विग उस जगह खड़ा है, जहां से या तो आदमी आत्महत्या करता है या आत्म-साधना में जाता है। ज्विग उस जगह खड़ा है, जहां जिंदगी व्यर्थ हो गई, जिसे हम जिंदगी कहते हैं। वही रोज सुबह का उठना, वही सांझ सो जाना, वही काम; वही पुनरुक्त वासनाएं, वही पुनरुक्त भोग, वही पुनरुक्त क्रोध, काम, लोभ; वही रोज-रोज, रिपीटेडली वही! एक मशीन की तरह हम घूमते चले जाते हैं। ज्विग उस जगह पहुंच गया है, जहां वह कहता है कि अगर यही जिंदगी है तो मैं खत्म करता हूं अपने को। और ध्यान रहे कि मैं कायर नहीं हूं।
और मैं भी कहता हूं कि वह कायर नहीं है। हां, वह गलती करता है, कायर नहीं है। वह चूक गया एक बिंदु को जिसको महावीर नहीं चूकते। महावीर भी उस जगह पहुंचते हैं। दुनिया के सभी वे लोग जिनकी जिंदगी में क्रांति घटित होती है, एक दिन उस जगह पहुंचते हैं, जहां या तो आत्महत्या या साधना, इसके सिवाय विकल्प नहीं रह जाता। या तो जैसे हम हैं, उसको खत्म करो फिजिकली, शरीर से मिटा दो; या जैसे हम हैं, उसे बदलो, रूपांतरित करो आत्मिक अर्थों में, ताकि हम दूसरे हो जाएं।
ज्विग आत्महत्या कर लेता है। कायर नहीं है, है तो बहादुर ही, लेकिन भूल से भरा है। क्योंकि आत्महत्या से क्या होगा? जीवन की आकांक्षा फिर नये जीवन बना देगी। महावीर जैसे व्यक्ति आत्महत्या नहीं करते, आत्मा को ही रूपांतरित करने में लग जाते हैं। वे कहते हैं कि आत्महत्या करने से क्या होगा? आत्मा को ही बदल डालें, नई ही आत्मा कर लें, नया ही जीवन कर लें।
लेकिन हमें दोनों भागे हुए लग सकते हैं। और इसके लगने के पीछे कारण भी हैं, क्योंकि सौ में से निन्यानबे लोग निश्चित ही भागते हैं। सौ संन्यासियों में निन्यानबे संन्यासी एस्केपिस्ट ही होते हैं। और उन निन्यानबे के कारण सौवें को पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता है। निन्यानबे तो इसीलिए भागते हैं कि बीमारी है, झगड़ा है, पत्नी मर गई है, दिवाला निकल गया है; कुछ ऐसे कारण हैं, जो उन्हें कहते हैं कि इस झंझट से दूर हो जाओ। लेकिन ऐसे आदमी अगर इस झंझट से भागते हैं तो नई झंझटें खड़ी कर लेते हैं, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि वह आदमी तो वही का वही था, वह नई झंझटें निर्मित कर लेता है।
ऐसा आदमी तो एस्केपिस्ट कहा जा सकता है, पलायनवादी, महावीर जैसा व्यक्ति नहीं। क्योंकि वह कोई नई झंझट खड़ी ही नहीं करता है और किसी भय से नहीं भागता है, किसी समझ, किसी ज्ञानपूर्ण चेतना में सीढ़ी बदल देता है, दूसरी सीढ़ी पर चला जाता है।
इसको मैं ऐसा मानता हूं कि अगर कोई आदमी भाग रहा हो किसी से डर कर तो एक बात है, और एक आदमी भाग रहा हो कुछ पाने को, तो बिलकुल दूसरी बात है। वह आदमी भी दौड़ता है जिसके पीछे बंदूक लगी है और वह आदमी भी दौड़ता है जिसे हीरों की खदान दिखाई पड़ गई है। लेकिन एक के पीछे बंदूक का भय है, इसलिए भागता है; एक को हीरों की खदान दिख गई, इसलिए भागता है।
दूसरे आदमी को भी आप भागने वाला नहीं कह सकते, एस्केपिस्ट नहीं कह सकते, पलायनवादी नहीं कह सकते। गतिवान कह सकते हैं, दौड़ने वाला कह सकते हैं; भागने वाला नहीं। किसी चीज से भाग नहीं रहा है वह, कहीं जा रहा है। कहीं से नहीं जा रहा है, कहीं जा रहा है। उसकी दृष्टि की जो एंफेसिस है, जो जोर है, वह जिस चीज से जा रहा है, वहां से उसका जोर नहीं है, जहां जा रहा है, वहां जोर है। दोनों हालत में वह जगह छूट जाती है, लेकिन दोनों हालतों में बुनियादी फर्क है।
महावीर कहीं से भी भागे हुए नहीं हैं। लेकिन निन्यानबे भागे हुए संन्यासियों में एक गया हुआ संन्यासी पहचानना, बहुत मुश्किल हो जाती है, एकदम मुश्किल हो जाती है। और वह मुश्किल हमारी समझ में ऐसी बाधाएं खड़ी कर देती है कि उसके दो ही रास्ते रह जाते हैं: या तो हम सौ ही संन्यासियों को गया हुआ मान लेते हैं और या हम सौ ही संन्यासियों को भागा हुआ मान लेते हैं, जब कि जरूरत इस बात की है कि हम ठीक से जांच-पड़ताल करें कि कोई आदमी पाने गया है या कोई आदमी सिर्फ छोड़ कर भागा है। पाने गया हो तो जरूर कुछ चीजें छूट जाती हैं।
आप सीढ़ियां चढ़ रहे हों, दूसरी सीढ़ी पर पैर रखते हैं, पहली सीढ़ी छूट जाती है। पहली सीढ़ी से आप भागते नहीं हैं, सिर्फ पहली सीढ़ी छूटती है, क्योंकि दूसरी सीढ़ी पर पैर रखना जरूरी है। जो लोग ऊंची सीढ़ियों पर पैर रखते हैं, नीची सीढ़ियां छूटती हैं; भागते नहीं हैं, न वे छोड़ते हैं।
और नीची सीढ़ियों से जो भागता है, छोड़ता है, डरता है; वह ऊंची सीढ़ी पर नहीं पहुंच पाता, और नीचे की सीढ़ियों पर उतर आता है। क्योंकि डरा हुआ, ऊंचा कहां जा सकता है! जो इतनी ही ऊंचाई से डर रहा है, वह और ऊंचाई पर और डर जाने वाला है। उसका भागना सिर्फ उसे और नीचे की सीढ़ियों पर ले आता है।
इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि अगर एक गृहस्थ भाग कर संन्यासी ह
ो जाए तो और बड़ा महागृहस्थ हो जाता है। उसकी गृहस्थी के जाल और भी ज्यादा हिपोक्रेट, पाखंडी हो जाते हैं। फिर भी वह पैसा इकट्ठा करता है, लेकिन कल वह कमा कर इकट्ठा करता था, अब वह कमाने वालों को फंसा कर इकट्ठा करता है। अब उसका जाल जरा गहरा, सूक्ष्म, चालाकी का हो जाता है। कल भी वह मकान बनाता था, अब भी बनाता है! कल बनाए हुए मकानों को मकान कहता था; अब उनको आश्रम, मंदिर और सब नाम देता है! कल जो करता था, वही अब करता है। कल भी अदालत में खड़ा होता था, अब भी अदालत में खड़ा होता है। कल भी अदालत में लड़ता था, अब भी अदालत में लड़ता है। लेकिन लड़ने का--कल व्यक्तिगत संपत्ति थी उसकी, आज आश्रम की संपत्ति है, उसके झगड़े हैं।
भागा हुआ व्यक्ति और नीची सीढ़ियों पर उतर जाता है। लेकिन ऊपर की सीढ़ी पर जो जाएगा, उसकी भी सीढ़ी छूटती है। यह बारीक है पहचान और खयाल से हमें देखनी चाहिए। लेकिन यह हमें समझ में भी तब आएगी, जब हम अपनी जिंदगी में इसकी पहचान करें कि हम कहीं से भागे हैं या कहीं गए हैं?
यहां आप सब मित्र आए हैं, कोई आ भी सकता है, कोई भागा हुआ भी हो सकता है। एक आदमी सिर्फ इसलिए भागा हुआ हो सकता है कि बेचैन हो गए, परेशान हो गए, पत्नी सिर खाए जाती है, दफ्तर में मुश्किल है, काम ठीक नहीं चलता है, चलो एक पंद्रह दिन के लिए सब भूल जाओ। ऐसा आदमी भी आ सकता है यहां मेरे पास।
वह भागा हुआ आदमी है। वह आया हुआ दिखाई पड़ेगा, आ नहीं सकता। क्योंकि जिससे वह भागा है, वह उसका पीछा करेगा। वह सब भय, वे सब चिंताएं इस पहाड़ पर भी उसे घेरे रहेंगी। हां, थोड़ी-बहुत देर के लिए बातचीत में मुझसे भूल जाएगा, लेकिन फिर लौट कर सब पकड़ लेगा। और पंद्रह दिन बाद, जिस उलझन से वह आया था, वह उलझन पंद्रह दिन में कम नहीं हो जाने वाली, पंद्रह दिन में और बढ़ गई होगी उसकी गैर-मौजूदगी में। पंद्रह दिन बाद वह उसी उलझन में फिर खड़ा हो जाएगा, और भी दुगनी परेशानी लेकर वहीं पहुंच जाएगा।
लेकिन कोई आया हुआ भी हो सकता है, कहीं से भागा हुआ नहीं है वह। कहीं कोई ऐसी बात न थी, जिससे भाग रहा है; बल्कि कहीं कुछ पाने जैसा लगा है, इसलिए चला आया है। यह आदमी आ सकेगा यहां सच में। और यहां आकर वह पीछे को सब भूल गया होगा, क्योंकि कहीं आया है, कहीं से भागा नहीं है। और यहां से लौट कर दूसरा आदमी होकर भी जा सकता है। और आदमी बदल जाए तो सारी परिस्थितियां बदल जाती हैं।
मैं महावीर को पलायनवादी नहीं कहता हूं।

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