MAHAVIR

Mahaveer Meri Drishti Mein 06

Sixth Discourse from the series of 26 discourses - Mahaveer Meri Drishti Mein by Osho. These discourses were given in SRINAGAR during SEP 17 - OCT 01 1969.
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प्रश्न:
भगवान, जैसा आपने कल बताया कि महावीर का बारह वर्ष का साधना-काल, जो कुछ उन्होंने पिछले जन्म में परमावस्था तक प्राप्त किया था, उसे विश्व के सभी तलों को लाभ हो, उसकी अभिव्यक्ति की खोज थी। तो फिर उनके पिछले जन्मों-जन्मों की साधना या तप क्या था, जिससे उनके बंधन कट कर उन्हें सत्य की उपलब्धि हो सकी?
इस संबंध में सबसे पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि तप या संयम से बंधनों की समाप्ति नहीं होती, बंधन नहीं कटते। तप और संयम कुरूप बंधनों की जगह सुंदर बंधनों का निर्माण भर कर सकते हैं। लोहे की जंजीरों की जगह सोने की जंजीरें आ सकती हैं, लेकिन जंजीर मात्र नहीं कट सकती है। क्योंकि तप और संयम करने वाला व्यक्ति वही है जो अतप और असंयम कर रहा था, उस व्यक्ति में कोई फर्क नहीं पड़ा है।
एक आदमी व्यभिचार कर रहा है। इसके पास जो चेतना है, इसी चेतना को लेकर अगर कल यह ब्रह्मचर्य की साधना करने लगे तो व्यभिचार बदल कर ब्रह्मचर्य होगा, लेकिन इस व्यक्ति की भीतर की चेतना जो व्यभिचार करती थी, वही ब्रह्मचर्य साधेगी। और इसलिए व्यभिचार जैसे एक बंधन था, वैसे ब्रह्मचर्य भी एक बंधन ही सिद्ध होने वाला है।
इसलिए सवाल तप और संयम का नहीं है, बंधन की निर्जरा उनसे नहीं होगी। सवाल है चेतना के रूपांतरण का, चेतना के बदल जाने का। और चेतना को बदलने के लिए बाहर के कर्म का कोई भी अर्थ नहीं है। चेतना को बदलने के लिए भीतर की मूर्च्छा के टूटने का प्रश्न है।
चेतना के दो ही रूप हैं--मूर्च्छित और अमूर्च्छित। जैसे कर्म के दो रूप हैं--संयमी और असंयमी। बदलाहट अगर कर्म में की गई तो संयम आ सकता है असंयम की जगह, लेकिन चेतना इससे अमूर्च्छित दशा में नहीं पहुंच जाएगी मूर्च्छित से। भीतर व्यक्ति सोया हुआ है, प्रमाद में है, वह अप्रमाद में कैसे पहुंचे?
महावीर की पिछले जन्मों की साधना अप्रमाद की साधना है, अवेयरनेस की साधना है। भीतर हमारी जो जीवन चेतना है, वह कैसे परिपूर्ण रूप से जागी हुई हो, वह सोई हुई न हो। महावीर ने इसे विवेक कहा है। इसलिए वे कहते हैं: विवेक से उठे, विवेक से बैठे, विवेक से चले, विवेक से भोजन करे, विवेक से सोए भी। अर्थ यह है कि उठते-बैठते, सोते, खाते-पीते, प्रत्येक स्थिति में चेतना जाग्रत हो, मूर्च्छित नहीं।
इसे थोड़े गहरे में समझना उपयोगी होगा। हम रास्ते पर चलते हों, तो शायद ही हमने कभी खयाल किया हो कि चलने की जो क्रिया हो रही है, उसके प्रति हम जागे हुए हैं। हम भोजन कर रहे हैं, तो शायद ही हमें स्मरण रहा हो कि भोजन करते वक्त जो भी हो रहा है, उसके प्रति हम सचेत हैं। चीजें यंत्रवत हो रही हैं। रास्ते के किनारे खड़े हो जाएं और लोगों को रास्ते से गुजरते देखें। तो ऐसा लगेगा मशीनों की तरह वे चले जा रहे हैं। ऐसे लोग भी दिखाई पड़ेंगे जो हाथ हिला कर किसी से बातें कर रहे हैं और साथ में कोई भी नहीं है। ऐसे लोग भी मिलेंगे, जिनके ओंठ हिल रहे हैं और बात चल रही है, लेकिन साथ में कोई भी नहीं है। किसी स्वप्न में खोए हुए, निद्रा में डूबे हुए ये लोग मालूम पड़ेंगे। दूसरे के लिए ही नहीं है ऐसा, हम अपने को भी देख सकें, अपना भी खयाल कर सकें तो यही प्रतीत होगा।
जीवन में हम ऐसे जीते हैं, जैसे किसी गहरी मूर्च्छा में पड़े हों। हमने जिन्हें प्रेम किया है, वह मूर्च्छा में। हमें पता नहीं क्यों। हम नहीं बता सकते कोई कारण। हमने जिनसे घृणा की है, वह मूर्च्छा में। हम जब क्रोध किए हैं, तब मूर्च्छा में। हम जैसे भी जीए हैं, उस जीने को एक सजग व्यक्ति का जीना तो नहीं कहा जा सकता--एक सोए हुए व्यक्ति का जीना है।
कुछ लोग हैं जो रात्रि में, नींद में भी उठ आते हैं। एक बीमारी है निद्रा में चलने की--सोम्नाबुलिज्म। नींद में उठते हैं, खाना खा लेते हैं, घर में घूम लेते हैं, किताब पढ़ लेते हैं, फिर सो जाते हैं। सुबह उनसे पूछिए, वे कहेंगे, कौन उठा! कोई भी नहीं उठा।
अमरीका में एक आदमी था जो रात निद्रा में उठ कर अपनी छत से पड़ोसी की छत पर कूद जाता था, फिर वापस कूद आता था। अस्सी-नब्बे मंजिल के मकानों की छत पर से कूदना और बीच में दस-बारह फीट का फासला! यह रोज चल रहा था। धीरे-धीरे पड़ोसियों को पता चला कि वह रोज रात यह करता है। एक दिन लोग, सौ-पचास लोग नीचे इकट्ठे रहे रात देखने के लिए। वह तो बेचारा नींद में करता था। होश में तो वह भी नहीं छलांग लगा सकता था, जागा हुआ। वह तो नींद में करता था। जैसे ही वह छलांग लगाने को हुआ, नीचे के लोगों ने जोर से आवाज की और उसकी नींद टूट गई और वह बीच खड्ड में गिर गया और प्राणांत हो गया। और यह वह वर्षों से कर रहा था, लेकिन वह कभी मानता नहीं था कि मैं यह करता हूं।
निद्रा में बहुत से काम हम करते हैं, लेकिन जागे हुए भी हम किसी सूक्ष्म निद्रा में जीते हैं। इसे महावीर ने प्रमाद कहा है। जागे हुए भी, चलते हुए भी, होश से भरे हुए भी हमारे भीतर एक धीमी सी तंद्रा का जाल फैला हुआ है।
जैसे एक आदमी ने आपको धक्का दे दिया और आप क्रोध से भर गए। कभी आपने सोचा कि यह क्रोध आपने जान कर किया है या कि हो गया है? जैसे बिजली की बटन दबाई है और पंखा चल पड़ा है, तो हम पंखे को नहीं कह सकते कि पंखा चल रहा है। पंखा सिर्फ चलाया जा रहा है। और एक आदमी ने आपको धक्का दिया और आपके भीतर क्रोध चल पड़ा, तो हम यह नहीं कह सकते कि आपने क्रोध किया है। हम इतना ही कह सकते हैं कि बटन किसी ने दबाई और क्रोध चल पड़ा। आप भी नहीं कह सकते कि मैं क्रोध कर रहा हूं। क्योंकि जो आदमी यह कह सकता है, मैं क्रोध कर रहा हूं, उस आदमी को कभी क्रोध करना संभव नहीं है। क्योंकि वह अगर मालिक है तो करेगा ही नहीं। अगर मालिक नहीं है तो ही कर सकता है।
हमारी सारी जीवन की क्रिया सोई-सोई है। स्लीप वाकर्स हैं हम सब। नींद में चल रहे हैं। इसे महावीर ने कहा है प्रमाद। यह है मूर्च्छा। और साधना एक ही है कि कैसे हम क्रिया मात्र में जागे हुए हो जाएं। क्योंकि जैसे ही हम जागेंगे, वैसे ही रूपांतरण चेतना का शुरू हो जाएगा।
आपने कभी खयाल किया कि रात जब आप सोते हैं, तब आपकी चेतना बिलकुल दूसरी हो जाती है, वही नहीं रहती जो जागने में थी! सुबह जब आप जागते हैं तो चेतना वही नहीं रहती, जो सोने में थी। चेतना मूल रूप से दूसरे तलों पर पहुंच जाती है निद्रा में, रात को। जो आपने कभी सोचा नहीं था, वह आप कर सकते हैं रात। जो कभी आप कल्पना नहीं कर सकते थे कि पिता को मार डालें, वह आप रात में हत्या कर सकते हैं। और जरा भी दंश नहीं होगा मन को। और दिन में जो भी आप थे, जो आपके संबंध थे, वे सब खो गए निद्रा में। एक करोड़पति निद्रा में वैसा ही साधारण हो गया है, जैसा एक दरिद्र भिखमंगा सड़क पर सोया हुआ।
एक फकीर था। उसके गांव का सम्राट एक दिन उसके पास से निकल रहा था, तो उस सम्राट ने उससे पूछा कि हममें और तुममें फर्क क्या है? और फर्क तो निश्चित है। तुम भिखारी हो एक गांव के सड़क पर भीख मांगने वाले, मैं सम्राट हूं। उस आदमी ने कहा, जरूर फर्क है, लेकिन जहां तक जागने का संबंध है, वहीं तक। सोने के बाद हममें तुममें कोई फर्क नहीं, क्योंकि सोने के बाद न तुम्हें खयाल रह जाता है कि तुम सम्राट हो और न मुझे खयाल रह जाता है कि मैं भिखारी हूं। तो खेल जगने का है।
कभी आपको खयाल है कि सोने में आपको यह भी पता नहीं रह जाता कि आप कौन हैं। जो आप जागने में थे, उसका भी पता नहीं रह जाता। आपकी उम्र क्या है, यह भी पता नहीं रह जाता। आपका चेहरा कैसा है, यह भी पता नहीं रह जाता। आप बीमार हैं कि स्वस्थ, यह भी पता नहीं रह जाता। निश्चित ही चेतना किसी और ही तल पर सक्रिय हो जाती है, इस तल से एकदम हट जाती है।
तो नींद और जागने की साधारण स्थितियों से हम जान सकते हैं कि अगर हम जागने को भी समझें कि वह भी एक तंद्रा है, तो वह तंद्रा जिसकी टूट जाती होगी, वह बिलकुल ही नये लोक में प्रवेश कर जाता है।
साधना का एक ही अर्थ है कि हम कैसे सोए-सोए जीने से जागे-जागे जीने में प्रवेश कर जाएं। और महावीर की पूरी साधना ही इतनी है कि सोना नहीं है, जागना है। जागने की प्रक्रिया क्या होगी? जागने की प्रक्रिया जागने का ही प्रयास होगी!
जैसे किसी आदमी को हमें तैरना सिखाना है तो वह हमसे कहे कि तैरना सीखने का कोई रास्ता बताएं; क्योंकि मैं तो तभी पानी में उतरूंगा, जब मैं तैरना सीख जाऊं, बिना तैरना सीखे मैं पानी में कैसे उतर सकता हूं! तो बात तो वह बिलकुल दलील की कह रहा है और ठीक कह रहा है, बिना तैरना जाने पानी में उतरना खतरनाक है। लेकिन सिखाने वाला कहेगा कि अगर तुम बिना तैरे पानी में उतरने को राजी नहीं हो तो तैरना कैसे सिखाया जा सकता है? क्योंकि तैरना सीखने की एक ही तरकीब है कि तैरो। तैरना सीखने की और कोई तरकीब नहीं है। तैरने के अलावा कोई तरकीब नहीं है, तैरना शुरू करना पड़ेगा। पहले हाथ-पैर तड़फड़ाओगे, उलटा-सीधा गिरोगे, डूबोगे-उतराओगे, लेकिन तैरना शुरू करना पड़ेगा। उसी शुरुआत से धीरे-धीरे तैरना व्यवस्थित हो जाएगा और तैर सकोगे।
लोग भी पूछते हैं, जागने की तरकीब क्या है? जागने की कोई तरकीब नहीं है--जागना ही पड़ेगा। पहले हाथ-पैर तड़फड़ाने पड़ेंगे, गलत-सही होगा, डूबना-उतराना होगा, क्षण भर को जागेंगे फिर सो जाएंगे, ऐसा होगा, लेकिन जागना ही पड़ेगा। निरंतर जागने की धारणा से धीरे-धीरे जागना फलित हो जाता है।
तो जागने की तरकीब का मतलब सिर्फ इतना ही है कि हम जो भी करें, यह हमारा प्रयास हो, यह हमारा संकल्प हो कि हम उसे जागे हुए करेंगे। और अगर आप इसकी कोशिश करेंगे तो आप पाएंगे कि नींद बड़ी गहरी है, एक क्षण भी नहीं जाग पाते हैं कि नींद पकड़ लेती है।
जैसे एक छोटा सा काम है रास्ते पर चलने का, और आप तय करके चलें कि आज मैं रास्ते पर जागा हुआ ही चलूंगा, तब आपको पता चलेगा कि निद्रा कितनी गहरी है और निद्रा का क्या मतलब है! आप एक सेकेंड एकाध-दो कदम उठा पाएंगे और स्लिप हो जाएगा दिमाग, चलने की क्रिया से हट जाएगा, और कहीं चला जाएगा। फिर आपको खयाल आएगा कि मैं तो फिर से सो गया, जागना तो भूल गया था, यह चलना तो भूल गया था। क्षण भर को भी पूरी तरह जाग कर चलना मुश्किल है, क्योंकि नींद बहुत गहरी है। लेकिन हमें नींद का पता नहीं चलता, क्योंकि हमें जागने का कोई पता ही नहीं है। तो तुलना नहीं है हमारे पास।
अभी जिसको हम जागना और सोना कहते हैं, जिस आदमी की नींद...समझो एक आदमी ऐसा पैदा हो जो रात सो न सके, तो उसे कभी पता नहीं चलेगा कि वह जिस हालत में है, वह जागी हुई हालत है। इस सोए और जागने में उसे कोई फर्क तभी हो सकता है, जब वह दूसरी स्थिति को भी समझ ले।
जब महावीर जैसे लोग कहते हैं कि हम सोए हुए जी रहे हैं तो हमारी समझ में नहीं पड़ती बात, क्योंकि जाग कर जीने का क्षण भर का अनुभव भी हमें नहीं है, तुलना कहां से हो? कंपेरिजन कैसे हो? कहां तौलें? तो इसका तो थोड़ा सा प्रयास करेंगे। एक क्षण को भी अगर जाग कर चल लेंगे दो कदम, तो आप पाएंगे कि एक बिलकुल ही अलग चित्त की दशा है। लेकिन क्षण भर में खो जाती है और नींद फिर पकड़ लेती है। जैसे बादल जरा सी देर को हटते हैं, सूरज दिख भी नहीं पाता कि फिर घिर जाते हैं।
और नींद का हमारा लंबा अभ्यास है। और अकारण नहीं है नींद का अभ्यास, कारण हैं उसमें। कारण हैं उसमें। पहला कारण तो यह है कि सोए हुए जीना बड़ा सुविधापूर्ण है, कन्वीनिएंट है, बहुत सुविधापूर्ण है।
इसलिए सुविधापूर्ण है कि सोए हुए जीने में क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है; क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे हैं; इसकी कोई विभेदक रेखा नहीं खिंचती। जागे हुए व्यक्ति को फौरन विभेद-रेखा खड़ी हो जाती है कि यह करने जैसा, यह न करने जैसा। और फिर जो न करने जैसा है उसे करने में वह एकदम असमर्थ हो जाता है।
और अभी जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं उसमें निन्यानबे प्रतिशत ऐसा है, जो न करने जैसा है--जिसे हम सोए रहें तो ही कर सकते हैं, जागे तो नहीं कर सकेंगे; जो जाग जाता है, वह नहीं कर पाता है। तो भीतर कहीं भय भी है कि जैसे हम हैं, उसमें कहीं सब आमूल उपद्रव न हो जाए। इसलिए सोए हुए चलना ही ठीक मालूम पड़ता है।
दूसरी बात है कि सोए हुए लोगों के साथ सोए हुए होने में ही सरलता पड़ती है। चारों तरफ लोग सोए हुए हों और एक आदमी जाग जाए तो उसकी कठिनाई आप नहीं समझ सकते कि उसकी कठिनाई कैसी होगी।
मेरे एक मित्र, वे पागल हो गए। पागल हो गए उन्नीस सौ छत्तीस के करीब। तो घर से भाग गए और एक अदालत में पकड़े गए, कुछ उन पर मुकदमे चले। लेकिन मजिस्ट्रेट ने कहा, वह पागल है। तो उन्हें छह महीने की सजा दी गई, लेकिन सजा उनकी पागलखाने में कटे। और लाहौर के पागलखाने में वे भेज दिए गए।
वे मुझे कहते हैं कि दो महीने तो मेरे बड़े आनंद से कटे, क्योंकि मैं भी पागल था और सब वहां पागल थे, कोई तीन सौ पागलों का एक जमाव था। बड़ा आनंद ही आनंद था। बल्कि बाहर मैं कष्ट में था। क्योंकि मेरा तालमेल ही नहीं बैठता था किसी से। क्योंकि सब ठीक थे, मैं पागल था। तो मैं जो करता, उनको न जंचता, वे जो करते, मुझको न जंचता। पागलखाने में पहुंच कर जैसे मैं स्वर्ग में पहुंच गया। जाकर मैंने जो पहला काम किया, वह परमात्मा को, उस मजिस्ट्रेट को धन्यवाद दिया, जिसने मुझे पागलखाने भेज दिया। सब अपने जैसे लोग थे, बहुत ही बढ़िया था।
लेकिन दो महीने बाद बड़ी मुसीबत हो गई। छह महीने की सजा हुई थी और दो महीने बाद पागलखाने में कहीं एक डब्बा मिल गया रखा हुआ फिनायल का, और वे उसको उठा कर पी गए। पागल आदमी थे, वे फिनायल पी गए पूरा। फिनायल पीने से उनको पंद्रह दिन तक इतने कै-दस्त हुए कि सारी सफाई हो गई और सब गर्मी निकल गई और वे बिलकुल ठीक हो गए। पंद्रह दिन बाद वे बिलकुल ठीक हो गए। यानी उस पागलखाने में वे गैर-पागल हो गए। और वे डाक्टरों को कहने लगे कि अब मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं और अब मेरी बड़ी मुसीबत हो गई है।
लेकिन वहां कौन मानता था! क्योंकि डाक्टरों ने कहा, यहां सभी पागल यह कहते हैं कि हम ठीक हैं, यहां कोई--यह कोई बात है, यह तो सब पागल रोज ही कहते हैं कि हम ठीक हैं, कोई पागल कभी मानता है कि हम पागल हैं! उन्होंने जितना ही समझाने की कोशिश की, कोई समझने को राजी ही नहीं था। छह महीने की सजा पूरी करनी पड़ी।
वे मुझसे कहते थे कि चार महीने मेरे इतने कष्ट में कटे कि ऐसा नरक में कोई किसी को न डाले। क्योंकि सब थे पागल और मैं हो गया ठीक, कोई मेरी टांग खींच रहा है, कोई मेरा कान घुमा रहा है, कोई धक्का ही मार देता है, कोई पानी ही डाल देता है ऊपर लाकर, सो रहा हूं तो कोई घसीट कर दो कदम चार कदम आगे कर जाता है। यह मैं भी करता रहा होऊंगा दो महीने, लेकिन तब हम सब साथी थे, तब कभी खयाल न आया था कि यह गलत कर रहा है।
अब बड़ी मुश्किल हो गई। और अब मैं करने में असमर्थ हो गया कि मैं भी यही करूं। अब मैं किसी की टांग न खींच सकता और किसी पर पानी न डाल सकता। मैं बिलकुल ठीक था और वे सब पागल थे और उनकी जो मर्जी आती, वे करते। कोई चलते चपत ही मार जाता, कोई बाल ही खींच जाता। जो जिसकी मर्जी। कोई आकर कंधे पर बैठ जाता, कोई गोदी में बैठ जाता। चार महीने निरंतर यही भगवान से प्रार्थना रही कि या तो जल्दी बाहर कर या फिर पागल कर दे। क्योंकि यह तो बड़ा इनकन्वीनिएंट हो गया, यह तो बड़ा असुविधापूर्ण हो गया।
पागलखाने में किसी आदमी के ठीक हो जाने की जो तकलीफ है, वही सोए हुए जगत के बीच जागने की तकलीफ है। क्योंकि वह आदमी फिर सोए हुए आदमी के ढंग, व्यवहार नहीं कर सकता। और सोया हुआ आदमी तो अपने ढंग जारी रखता है।
तो महावीर जैसे लोग जिस कष्ट में पड़ जाते हैं, उस कष्ट का हम हिसाब नहीं लगा सकते। हम हिसाब ही नहीं लगा सकते, क्योंकि हमें पता ही नहीं है कि वह कष्ट कैसा है। क्योंकि हम सोए हुए लोगों के बीच में एक आदमी जाग गया। हमारी उसकी भाषा बदल गई। हमारी उसकी चेतना बदल गई। वह एकदम अजनबी हो गया--ऐसा स्ट्रेंजर, ऐसा अजनबी, जो कि कोई अजनबी नहीं होता।
अगर एक तिब्बती भारत में आ जाए या आप तिब्बत में चले जाएं तो जो अजनबीपन है, वह सिर्फ भाषा के शब्दों का है, बहुत ऊपरी अजनबीपन है, भीतर के आदमी एक जैसे हैं। क्रोध उसको आता है, क्रोध आपको आता है। घृणा उसको आती है, घृणा आपको आती है। ईर्ष्या में वह जीता है, ईर्ष्या में आप जीते हैं। फर्क है तो इतना कि ईर्ष्या का आपका शब्द अलग है, ईर्ष्या का उसका शब्द अलग है। थोड़े दिन में पहचान हो जाएगी कि ये सब शब्द हमारे हैं। मेल खा जाएंगे और अजनबीपन मिट जाएगा।
यानी साधारणतः पृथ्वी के अलग-अलग कोनों पर रहने वाले को हम स्ट्रेंजर कहते हैं, अजनबी कहते हैं, लेकिन वह अजनबीपन बड़ा छोटा है, सिर्फ भाषा का है। आदमी-आदमी एक जैसे हैं। लेकिन जब कोई आदमी सोई हुई पृथ्वी पर जागा हुआ हो जाता है, तो जो अजनबीपन शुरू होता है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। क्योंकि अब भाषा का भेद नहीं है, अब तो सारी चेतना का भेद पड़ गया। सब आमूल बदल गया है। अगर हमें कोई गाली देता है तो हमारे भीतर क्रोध उठता है, उसे अगर कोई गाली देता है तो उसके भीतर करुणा उठती है। इतनी चेतना का फर्क हो गया है। क्योंकि उसे दिखाई पड़ता है कि एक आदमी बेचारा गाली देने की स्थिति में आ गया, कितनी तकलीफ में न होगा! और उसके भीतर से करुणा बहनी शुरू होती है।
और हमारे लिए समझना आसान है, अगर आप मुझे गाली दें और मैं भी आपको गाली दूं तो आपका मैं मित्र हूं, क्योंकि आपकी ही दुनिया का निवासी हूं। आप मुझे गाली दें और मैं आपको प्रेम करूं तो आप जितना क्रोध से भरेंगे मेरे प्रति, उतना गाली देने वाले के प्रति नहीं भरेंगे।
नीत्शे ने एक बहुत अजीब बात और बड़ी अदभुत, लेकिन मजाक में कही है। नीत्शे ने कहा है कि जीसस कहते हैं कि जो आदमी तुम्हारे गाल पर एक चांटा मारे, दूसरा तुम उसके सामने कर देना। तो नीत्शे ने कहा है कि इससे बड़ा अपमान दूसरे आदमी का कोई और हो सकता है? एक आदमी तुम्हारे गाल पर चांटा मारे और तुम दूसरा उसके सामने कर दोगे, तो इससे ज्यादा इंसल्टिंग, इससे ज्यादा अपमानजनक और कोई स्थिति दूसरे आदमी के लिए हो सकती है? तुमने तो उसको कीड़ा-मकोड़ा बना दिया। यानी तुमने उसकी आदमियत भी स्वीकार न की। तुमने इतना भी न कहा कि ठीक है, तूने एक चांटा मारा, एक चांटा हम भी मारेंगे। तो तुम बराबर हो गए होते। तुम तो एकदम आसमान में चले गए और वह एकदम जमीन पर रेंगता हुआ कीड़ा हो गया। यह अपमान बरदाश्त नहीं किया जा सकता।
नीत्शे ने लिखा है: यह अपमान बरदाश्त के बाहर है। तुमने उस आदमी को तो बिलकुल ही मिटा दिया, आदमी भी स्वीकार न किया तुमने। और तुमने ऐसा दुर्व्यवहार किया उसके साथ, जिसका कोई हिसाब नहीं। यह सदव्यवहार न हुआ, नीत्शे कहता है, यह तो बहुत दुर्व्यवहार हो गया। सदव्यवहार तो यही था कि समानता के साथ एक चांटा तुमने भी मारा होता, तो हम दोनों बराबर तो हो गए होते, हम एक ही तल पर होते। तुम पहाड़ पर खड़े हो गए, हम खाई में पड़ गए।
वह ठीक कह रहा है। गाली देने वाला उत्तर में आई गाली से इतना नाराज न होगा, क्योंकि यह उसकी अपनी भाषा है। गाली आनी चाहिए, गाली दी इसलिए गई है। लेकिन अगर उत्तर में करुणा लौटे तो उसके क्रोध का हिसाब नहीं रह जाएगा। उसके अपमान और उसकी पीड़ा को हम नहीं समझ सकते हैं। वह इसका बदला लेगा।
तो सोए हुए आदमियों के भीतर एक अनजानी स्वीकृति है इस बात की कि अगर जीना है सबके साथ तो चुपचाप सोए रहो। पागलों के साथ रहना है तो पागल बने रहो। और भीतरी भी हमें डर है, क्योंकि सब बदल जाएगा, सब बदलने की हम हिम्मत नहीं जुटा पाते।
इसलिए साधक का पहला लक्षण है--अनजान, अपरिचित, अनहोनी के लिए हिम्मत जुटाना। उसके लिए हम हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, साहस ही नहीं जुटा पाते हैं। हम कहते भी हैं कि हमको शांति चाहिए, हमको सत्य चाहिए, लेकिन हम सब ये बातें इस तरह करते हैं कि जैसे हम हैं, वैसे में ही सब मिल जाए। हमें बदलना न पड़े। हमने जो व्यवस्था कर रखी है, जो मकान बना रखा है, जो संबंध बना रखे हैं, उनमें कोई हेर-फेर न करना पड़े, सब जैसा है वैसा रहे, और कुछ मिल जाए।
लेकिन हमें यह पता ही नहीं है कि अगर अंधे आदमी को आंख मिलेगी तो उसके सब संबंध बदल जाएंगे, क्योंकि कल के संबंध अंधे आदमी के संबंध थे। कल वह जिस आदमी का हाथ पकड़ कर रास्ता चलता था, अब हाथ पकड़ने से इनकार कर देगा।
और हो सकता है, जिसका हाथ पकड़ कर वह चला था उसे हमेशा यह खयाल रहा था कि मैं उसका सहारा हूं। कल वह हाथ पकड़ने के लिए इनकार कर देगा। वह कहेगा, क्षमा करो, मेरे पास आंख है, मैं चल सकता हूं। तो यह आदमी भी नाराज होगा, जिसका उसने सदा हाथ पकड़ा था, क्योंकि अब वह सहारा नहीं मांगता है। सहारा देने का भी सुख है। सहारा देने का भी अहंकार है।
तो अंधे आदमी ने एक तरह के संबंध बनाए थे और आंख वाला आदमी दूसरे तरह के संबंध बनाएगा। सोए हुए आदमी ने एक तरह की दुनिया बसाई है, जागा हुआ आदमी उस दुनिया को बिलकुल ही अस्तव्यस्त कर देगा। तो वह भी डर है भीतर हमारे। वह साहस भी नहीं है।
लेकिन अगर थोड़ा सा साहस हम जुटा पाएं तो जागनाा कठिन नहीं है। क्योंकि जो सो सकता है, वह जाग सकता है, चाहे कितनी ही गहरी नींद में सोया हो, जो सोया है, उसमें जागने की क्षमता शेष है। एक आदमी यहां कितनी ही गहरी नींद में सोया हुआ है, हम उसके पास जागे हुए बैठे हैं। हम दोनों बिलकुल भिन्न हालत में हैं। अगर उस सोए हुए आदमी पर खतरा आएगा तो उसको पता नहीं चलेगा, जागे हुए आदमी पर खतरा आएगा तो उसे पता चलेगा।
इस मकान में आग लग गई है तो सोए हुए आदमी को कोई पता नहीं चलेगा कि मकान में आग लग गई है, जब तक कि वह जाग न जाए। लेकिन जागे हुए आदमी को फौरन पता चला है कि आग लग गई। ये दोनों आदमी इस मकान में हैं--एक सोया है, एक जागा है। मकान में आग लग गई, सोया हुआ आदमी सोया हुआ है निश्चिंत, जागे हुए आदमी को चिंता पकड़ गई है। लेकिन फिर भी ये दोनों आदमियों में बुनियादी भेद नहीं है, क्योंकि सोया हुआ आदमी एक क्षण में जाग सकता है और जागा हुआ आदमी एक क्षण में सो सकता है।
यह जो साधारण तल पर जागना और सोना है, ठीक ऐसे ही जो व्यक्ति जाग गया है, वह जानता है कि जो सोए हैं, वे जाग सकते हैं। लेकिन वहां एक फर्क है। इस साधारण तल पर जागने और सोने में बुनियादी फर्क नहीं है। क्योंकि जिसे हम जागना कह रहे हैं, वह थोड़ी सी कम डिग्री में सोना ही है और जिसको हम सोना कह रहे हैं, वह थोड़ी कम डिग्री में जागना ही है। उन दोनों में डिग्री का ही भेद है। लेकिन उस तल पर, परम जागरण के तल पर, निद्रा और जागने में डिग्री का भेद नहीं है, मौलिक रूपांतरण का भेद है। इसलिए सोया हुआ आदमी जाग सकता है, लेकिन जागा हुआ आदमी सो नहीं सकता। उस तल पर कोई जागा हुआ आदमी फिर कभी नहीं सो सकता।
यह रूपांतरण ऐसे है जैसे कि हम दूध को चाहें तो दही बना सकते हैं, लेकिन फिर दही से वापस दूध नहीं बना सकते। लेकिन पानी को हम बर्फ बना सकते हैं, बर्फ को हम फिर पानी बना सकते हैं। क्योंकि बर्फ और पानी में क्रम का भेद है, सिर्फ गर्मी के क्रम का भेद है, रूपांतरण नहीं हो गया है। जो बर्फ है, वह कल पानी था, वह कल फिर पानी हो सकता है, सिर्फ गर्मी का फर्क प़
ड जाए। जो अभी पानी है वह कल बर्फ हो सकता है, भाप हो सकता है। वे सब एक ही चीज की क्रमिक अवस्थाएं हैं।
लेकिन दूध अगर दही हो जाए तो फिर वापस दूध बनाने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि दही सिर्फ दूध की एक अवस्था नहीं है, मौलिक रूपांतरण है। वह चीज ही नई हो गई है। सब बदल गया। लेकिन दूध दही हो सकता है, दही दूध नहीं हो सकता।
निद्रा से जागरण आ सकता है, लेकिन जागरण से फिर निद्रा का कोई उपाय नहीं। यह जागरण की जो विधि है, वह विधि सिर्फ एक है कि हम जागने की कोशिश करें। जो भी हम कर रहे हैं उसमें हम जागे हुए होने की कोशिश करें।
जैसे अभी आप मुझे सुन रहे हैं तो आप दो तरह से सुन सकते हैं--बिलकुल सोए हुए सुन सकते हैं। सोए हुए सुनने में--मैं बोल रहा हूं, आपके कानों पर चोट पड़ रही है, आप मौजूद नहीं हैं। सोए हुए सुनने का मतलब है, मैं बोलूंगा, सुनेंगे भी आप और नहीं भी सुनेंगे। सुनेंगे इस अर्थों में कि आपके पास कान हैं, तो कानों पर आवाज की चोट पड़ती रहेगी। आवाज की चोट पड़ती रहेगी, भीतर ध्वनि गूंजती रहेगी, आप समझेंगे कि सुनाई पड़ रहा है। लेकिन आप अगर मौजूद नहीं हैं, आप एब्सेंट हो सकते हैं, आप भीतर से अनुपस्थित हो सकते हैं, आप कहीं और हों, तो आप यहां सो गए। आप यहां सो गए।
एक युवक खेल रहा है, हाकी खेल रहा है। पैर में चोट लग गई, खेल में मस्त है। पैर से खून बह रहा है। सारे दर्शकों को दिखाई पड़ रहा है कि पैर से खून टपक रहा है, जगह-जगह बिंदुओं की कतार बन गई है, लेकिन उसे कोई पता नहीं। उसका ही पैर है, उसे पता नहीं है, बात क्या है?
वह पैर के पास अनुपस्थित है। वह खेल में उपस्थित है। जहां ध्यान है, जहां उपस्थिति है, वहां वह है। जहां ध्यान नहीं है, जहां उपस्थिति नहीं है, वहां निद्रा है। खेल खत्म हुआ है और एकदम से उसने पैर पकड़ लिया है कि उफ, मैं तो मर गया, कितनी चोट लग गई, कितना खून बह गया। इतनी देर मुझे पता क्यों नहीं चला?
पता हमें सिर्फ उसका चलता है जहां हम उपस्थित होते हैं। अगर ठीक से समझें तो ध्यान की अनुपस्थिति ही निद्रा है। तो जो हम कर रहे हैं, अगर ध्यान वहां अनुपस्थित है तो निद्रा है और ध्यान अगर वहां उपस्थित है तो जागरण है। प्रत्येक क्रिया में ध्यान उपस्थित हो जाए, अटेंशन उपस्थित हो जाए, तो जागरण शुरू हो गया।
महावीर जिसे विवेक कहते हैं, उसका यही अर्थ है। क्रिया मात्र में ध्यान की उपस्थिति का नाम विवेक है। क्रिया में ध्यान की अनुपस्थिति का नाम प्रमाद है।
महावीर का एक भक्त उनसे मिलने आया, एक सम्राट उनसे मिलने आया है। रास्ते में ही उस सम्राट के बचपन का एक साथी महावीर से दीक्षित होकर संन्यासी हो गया है, वह भी रास्ते में तपश्चर्या कर रहा है। तो सम्राट ने सोचा अपने उस मित्र को भी देखते चलें। जब वह मित्र के पास गया है तो वह राजा--जो कभी राजा था अब संन्यासी हो गया है--नग्न खड़ा है, आंखें बंद हैं, एकदम शांत है। उसके मित्र सम्राट ने खूब नमस्कार किया और मन में बहुत कामना की कि कब ऐसी शांति मुझे भी उपलब्ध होगी!
फिर वह महावीर से मिलने गया। महावीर से उसने पूछा कि मैंने प्रसन्नचंद्र को देखा खड़े हुए, वे अत्यंत शांत हैं, कितने अदभुत हो गए हैं वे! ईर्ष्या होती है मन में। मैं पूछता हूं आपसे कि इस शांत अवस्था में अगर उनकी देह छूट जाए तो वे कहां जाएंगे?
तो महावीर ने कहा, जिस समय तुम वहां से गुजरते थे, अगर उस वक्त प्रसन्नचंद्र की देह छूट जाए तो वह सातवें नरक में गिरेगा।
तो वह सम्राट तो एकदम हैरान हो गया। उसने कहा, क्या कहते हैं आप--सातवें नरक में! तो हमारा क्या होगा? सातवें नरक के नीचे और कोई नरक है? हां, हमारा क्या होगा? अगर वह शांत मुद्रा में खड़ा हुआ प्रसन्नचंद्र सातवें नरक में गिरेगा, तो हमारा क्या होगा?
महावीर ने कहा, नहीं, तुम समझे नहीं मेरा मतलब। जब तुम आए, तब प्रसन्नचंद्र ऊपर से शांत दिखाई पड़ रहा था, भीतर बड़ी कठिनाई में पड़ा था। तुमसे पहले ही तुम्हारे वजीर निकले थे, तुम्हारे सैनिक निकले थे। उन्होंने भी खड़े होकर प्रसन्नचंद्र को देखा था। और एक वजीर ने कहा कि देखो मूरख, सब छोड़-छाड़ कर यहां खड़ा है! छोटे-छोटे बच्चे हैं इसके, वजीरों के हाथ में सब छोड़ आया है। वे सब हड़पे जा रहे हैं। जब तक बच्चे बड़े होंगे, तब तक सब समाप्त ही हो गया होगा। इसने किया है विश्वास और उधर विश्वासघात हो रहा है। और यह मूढ़ बना यहां खड़ा है! ऐसा उसके सामने कहा था। ऐसा जैसे ही उसने सुना था कि उसका हाथ तलवार पर चला गया--जो अब नहीं थी। लेकिन सदा थी तलवार उसके बगल में, हाथ तलवार पर चला गया भीतर। तलवार उसने बाहर निकाल ली। उसने कहा कि वे वजीर क्या समझते हैं अपने को, अभी मैं जिंदा हूं! अभी प्रसन्नचंद्र मर नहीं गया! एक-एक की गर्दन उतार दूंगा। और जब तुम उसके पास आए तब वह गर्दनें उतार रहा था। उस वक्त अगर वह मर जाता तो वह सातवें नरक में पड़ जाता, क्योंकि वह जहां था, वहां नहीं था। वह गहरी निद्रा में चला गया था। चेहरा उसका जो दिखाई पड़ रहा था, वह एक जगह था और वह कहीं और जगह चला गया था। सब सो गया था। वह बिलकुल निद्रा में था। वह सपना देख रहा था, क्योंकि न तलवार थी हाथ में, न वजीर थे सामने, लेकिन गर्दनें काट डालीं उसने। तो तुम जब निकले थे, तब वह सातवें नरक में गिर जाता। लेकिन अब अगर पूछते हो इस वक्त तो वह श्रेष्ठतम स्वर्ग पाने का हकदार हो गया है।
उसने कहा, अभी तो घड़ी भर भी नहीं हुई हमें वहां से गुजरे! महावीर ने कहा, जब उसने तलवार रख दी नीचे तो जैसी उसकी सदा आदत थी युद्धों के बाद अपने मुकुट को संभालने की, उसने मुख--सिर पर हाथ ले गया, लेकिन सिर पर तो घुटी हुई खोपड़ी थी, वहां कोई मुकुट न था। तब एक सेकेंड में वह जाग गया, सारी निद्रा से वापस आ गया, सब स्वप्न खंड-खंड हो गया। और उसने कहा कि यह मैं क्या कर रहा हूं! न तलवार है पास में, न वजीर हैं। और मैं प्रसन्नचंद्र नहीं हूं अब, जो तलवार उठा सके। उसके उठाने का तो मैं खयाल छोड़ कर आया हूं। और क्षण में वह लौट आया है। इस समय वह बिलकुल वहीं खड़ा है। अभी वह स्वर्ग का हकदार है।
हम सोए हैं तो हम नरक में हो जाते हैं, हम जागे हैं तो हम स्वर्ग में हो जाते हैं। यह जागने की चेष्टा हमें सतत करनी पड़ेगी। जन्म-जन्म भी लग सकते हैं। एक क्षण में भी हो सकता है। कितनी तीव्र हमारी प्यास है, कितना तीव्र संकल्प है, इस पर निर्भर करेगा।
तो महावीर ने अपने पिछले जन्मों में अगर कुछ भी साधा है तो साधा है विवेक, साधा है ध्यान। और इस जागरण की जितनी गहराई बढ़ती चली जाती है, उतने ही हम मुक्त होते चले जाते हैं, क्योंकि बंधने का कोई कारण नहीं रह जाता; उतने ही हम पुण्य में जीने लगते हैं, क्योंकि पाप का कोई कारण नहीं रह जाता; उतने ही हम अपने में जीने लगते हैं, क्योंकि दूसरे में जीना भ्रामक हो जाता है। उतना ही व्यक्ति शांत है, उतना ही आनंदित है, जितना जागा हुआ है। जिस दिन पूर्ण जागरण की घटना घट जाती है, एक्सप्लोजन हो जाता है, चेतना के कण-कण, कोने-कोने से निद्रा विलीन हो जाती है, उस दिन के बाद फिर लौटना नहीं है, उस दिन के बाद फिर परिपूर्ण जागना है। ऐसी परिपूर्ण जागी हुई चेतना ही मुक्त चेतना है। सोई हुई चेतना बंधी हुई चेतना है।
इसलिए ध्यान से समझना, पाप नहीं बांधता है कि हम पुण्य से उसको मिटा सकें, मूर्च्छा बांधती है। मूर्च्छित पाप भी बांधता है, मूर्च्छित पुण्य भी बांधता है। असंयम नहीं बांधता है, मूर्च्छा बांधती है। मूर्च्छित असंयम भी बांधता है, मूर्च्छित संयम भी बांधता है। और इसलिए यह बहुत समझ लेने जैसा है कि कोई अगर असंयम को संयम बनाने में लग गया है तो कुछ भी न होगा, पाप को पुण्य बनाने में लग गया है तो कुछ भी न होगा, क्रूरता को दान बनाने में लग गया है तो कुछ भी न होगा--क्योंकि वह सिर्फ क्रिया बदल रहा है और भीतर की चेतना वैसी की वैसी अमूर्च्छित बनी है।
और कई बार उलटा भी हो जाता है। उलटे का मतलब यह है कि कई बार लोहे की जंजीर ही ठीक है, क्योंकि उसे तोड़ने का मन भी करता है और सोने की जंजीर गलत है, क्योंकि उसे संभालने का मन करने लगता है। क्योंकि सोने की जंजीर को जंजीर समझना बहुत मुश्किल है, सोने की जंजीर को अक्सर आभूषण समझ लेना आसान है।
इसलिए पापी भी कई बार जागने के लिए आतुर हो जाता है और जिसको हम साधु कहते हैं, वह जागने को आतुर नहीं होता। फर्क ऐसा ही है, जैसे कि कोई आदमी दुखद स्वप्न देख रहा है, सपना ही है; और एक आदमी सुखद स्वप्न देख रहा है, सपना ही है; लेकिन सुखद सपना देखने वाला जागना नहीं चाहता। चाहता है और थोड़ी देर सो लूं! सपना बहुत सुखद है, कोई तोड़ न दे, और थोड़ी देर सो लूं। लेकिन दुखद स्वप्न वाला, नाइटमेयर वाला, एकदम जाग जाता है हड़बड़ा कर। पापी दुखद स्वप्न देख रहा है, पुण्यात्मा सुखद स्वप्न देख रहा है। इसलिए बहुत बार डर है कि पापी जाग जाए और पुण्यात्मा रह जाए।
इसलिए मैं यह कहता हूं कि इसकी फिकर ही मत करना कि पाप को हम कैसे पुण्य बनाएं, असंयम को संयम कैसे बनाएं, हिंसा को अहिंसा कैसे बनाएं, कठोरता को दया कैसे बनाएं। इस चक्कर में ही मत पड़ना। सवाल यह है ही नहीं कि हम क्रिया को कैसे बदलें, सवाल यह है कि कर्ता कैसे रूपांतरित हो। अगर कर्ता बदल जाता है तो क्रिया अनिवार्यरूपेण बदल जाती है, क्योंकि तब कुछ चीजें करने में असमर्थ हो जाता है और कुछ चीजें करने में समर्थ हो जाता है। भीतर से कर्ता बदला, चेतना बदली...तो फिर मैं कहता हूं, पाप वह है, जो सजग व्यक्ति नहीं कर सकता है। मेरी पाप की परिभाषा यह है कि पाप वह है, जो जागा हुआ व्यक्ति करने में असमर्थ है; और पुण्य वह है, जो जागे हुए व्यक्ति को करना ही पड़ता है। पुण्य वह है, जो जागे हुए व्यक्ति की अनिवार्यता है, इनएविटेबिलिटी है। और पाप वह है, जो सोए हुए व्यक्ति की अनिवार्यता है।
इसलिए ऐसे भी पुण्य हैं जो छिपे हुए पाप हैं, क्योंकि आदमी सोया हुआ है। दिखता पुण्य है, वह होगा पाप ही, क्योंकि आदमी सोया हुआ है। सोया हुआ आदमी पुण्य कर कैसे सकता है? इसलिए पुण्य दिखाई पड़ेगा, लेकिन भीतर पाप छिपा होगा। और ऐसा भी संभव है कि जागा हुआ व्यक्ति कुछ ऐसे काम करे, जो आपको पाप समझ में आएं और वे पाप न हों, क्योंकि जागा हुआ व्यक्ति पाप कर ही नहीं सकता है। इसलिए दोनों तरह की भूलें संभव हैं।
कबीर को एक रात ऐसा हुआ। कबीर थोड़े से जागे हुए लोगों में से एक है। रोज लोग आते हैं कबीर के घर सुबह, भजन-कीर्तन चलता है। कबीर के पास बैठते हैं। फिर जाने लगते हैं तो कबीर कहता है, खाना तो खा जाओ! कभी दो सौ, कभी चार सौ, गरीब आदमी है! कबीर का बेटा और पत्नी परेशान हो गए और उन्होंने कहा कि हमारे बरदाश्त के बाहर है, हम यह कैसे संभाल पाएं! कहां से इंतजाम करें! आपने तो इतना कह दिया कि बस भोजन कर जाओ, यह भोजन हम कहां से लाएं?
कबीर ने कहा कि भोजन लाने की व्यवस्था इतनी कठिन नहीं है, जितना घर आए आदमी को खाने के लिए न कहें, यह कठिन है। यह हो नहीं सकता कि कोई घर आए, मैं उसको कहूं खाना मत खाओ। कुछ इंतजाम करो।
आखिर कब तक इंतजाम चलता? उधारी भी ले ली गई। उधारी भी चढ़ गई। फिर एक दिन सांझ लड़के ने कहा कि अब बरदाश्त के बाहर हो गया, कोई हम चोरी करने लगें? कबीर ने कहा, अरे यह तुम्हें खयाल क्यों न आया अब तक! कबीर ने कहा, यह तुम्हें अब तक खयाल क्यों न आया!
लड़के ने तो क्रोध में कहा था, लेकिन यह सुन कर लड़का हैरान हुआ कि कबीर कहते हैं यह तुम्हें खयाल क्यों न आया! तो लड़के ने और बात को सिर्फ जांचने के लिए कहा, तो क्या चोरी करने जाऊं मैं? कबीर ने
कहा, हां! अगर मेरी जरूरत हो तो मैं भी चलूं।
तो लड़के ने और जांचने के लिए कहा कि अच्छा ठीक है, मैं चलता हूं, उठो आप। पर उसकी समझ के बाहर हो गई यही बात कि कबीर और चोरी करने! समझ रहे हैं कबीर कि नहीं समझ रहे मैं क्या कह रहा हूं!
फिर जाकर उस लड़के ने एक घर में दीवाल खोद डाली, सेंध लगा दी। वह कबीर से कहता है, जाऊं भीतर? कबीर कहते हैं, बिलकुल चला जा। वह भीतर गया है। वह वहां से एक बोरा गेहूं का खिसका कर लाया है बाहर। बाहर बोरा निकल आया है तो कबीर उसे उठाने लगे हैं, और फिर उस लड़के से पूछा, घर के लोगों को कह आया है कि नहीं कि एक बोरा ले जाते हैं?
उसने कहा कि चोरी है यह! यह कोई मांग कर, कोई दान ले जा रहे हैं या किसी से भेंट ले जा रहे हैं! तो कबीर ने कहा, यह नहीं हो सकता। तू जाकर कह आ घर में। यही कह आ कि हम चोरी करके एक बोरा ले जाते हैं। लेकिन घर के मालिक को खबर तो कर देनी जरूरी है!
बड़ी अदभुत बात है। दूसरे दिन लोगों ने कबीर से पूछा तो कबीर ने कहा कि बड़ी गलती हो गई। गलती ऐसे हो गई कि यह भाव ही चला गया कि क्या मेरा है और क्या उसका है। तब बाद में खयाल आया कि चोरी तो उसी भाव का हिस्सा था कि वह उसकी चीज है। जब मेरी कोई चीज न रही तो किसी की कोई चीज न रही। पर इतनी बात जरूर थी कि उसके घर से लाते थे, सुबह ढूंढेगा, परेशान होगा। तो इतनी खबर कर देनी चाहिए कि एक बोरा ले जाते हैं।
अब इस आदमी को समझना हमें बहुत मुश्किल हो जाएगा। इसके चोरी करने में भी इतना अदभुत पुण्य है, क्योंकि उसे यह भाव ही खो गया है कि क्या दूसरे का है, क्या पराया है। कबीर जैसा व्यक्ति अगर चोरी भी करने चला जाए तो भी पुण्य है और हम जैसा व्यक्ति अगर दान भी करता हो तो भी चोरी है। क्योंकि दान में भी हमारी जो वृत्ति है और मूर्च्छा होगी, वह चोरी की ही है। दान में भी हमें लगता है कि मेरा है और मैं दे रहा हूं। और कबीर को चोरी में भी नहीं लगता कि उसका है और मैं ले रहा हूं।
यह जो फर्क है, हमें खयाल में आ जाए तो खयाल में आ जाएगा। वह दान हमारा पाप है, क्योंकि उसमें मेरा मौजूद है। और कबीर की चोरी को भी कोई परमात्मा कहीं बैठा हो तो पाप नहीं कह सकता, क्योंकि वहां मेरा नहीं है। हां, इतनी ही बात थी कि घर के लोगों को खबर तो कर देनी चाहिए, नहीं तो सुबह बेचारे ढूंढेंगे। वह जो खबर करवाने भेजा है, वह इसलिए नहीं कि चोरी बुरी चीज है, बल्कि सुबह घर के लोग नाहक ढूंढें, परेशान हों, खोजें कि कहां चला गया बोरा। तो इतना जगा कर तू खबर कर आ, मैं घर चलता हूं। यह जो...ऐसा बहुत बार हुआ है और हमें समझना मुश्किल हो जाता है।
अब जैसे कृष्ण भी हैं। अर्जुन समझ नहीं पाया कृष्ण को। अर्जुन समझ लेता तो बात ही और होती। अर्जुन भाग रहा है कि ये मेरे प्रियजन हैं, ये मर जाएंगे। तो कृष्ण उसको कहते हैं, पागल, कभी कोई मरता है? न कोई मरता, न कोई मारता। अब कृष्ण किस तल पर खड़े होकर कह रहे हैं, अर्जुन को कुछ खबर नहीं। अर्जुन जिस तल पर खड़ा है, वही समझेगा न! अर्जुन समझ रहा था कि मेरे हैं। कृष्ण कहते हैं, कौन किसका है?
यह दो बिलकुल अलग तलों पर बात हो रही है। और मैं समझता हूं कि गीता को पढ़ने वाले निरंतर इस भूल में पड़े हैं, क्योंकि यह बिलकुल, बिलकुल भिन्न तलों पर यह बात हो रही है।
अर्जुन कहता है, ये मेरे हैं; मेरे प्रियजन हैं, मेरे गुरु हैं, मेरे भाई के रिश्तेदार हैं, मेरे रिश्तेदार हैं; साले हैं, बहनोई हैं, मामा हैं, फूफा हैं; ये सब खड़े हैं; ये मेरे हैं। कृष्ण जिस जगह खड़े हैं, वहां से वे कहते हैं, कौन किसका है? कोई किसी का भी नहीं है। अपने ही तुम नहीं हो, कौन किसका है?
अर्जुन समझ लेता है: तो फिर ठीक है, जब कोई अपना नहीं तो मारा जा सकता है। पीड़ा तो अपने की थी; अब अपना कोई नहीं है तो मारा जा सकता है।
अर्जुन कहता है कि मर जाएंगे तो पाप लगेगा। कृष्ण कहते हैं, कभी कोई मरा या कभी किसी ने मारा? और शरीर के मारने से कहीं वह मरता है जो भीतर है? यह बिलकुल और तल से कही जा रही है बात। अर्जुन सोचता है, जब कोई मरता ही नहीं तो मारने में हर्ज भी क्या है? मारो।
और यह भूल निरंतर चलती रही है, यानी मैं मानता हूं कि अगर अर्जुन कृष्ण को समझ जाए तो महाभारत कभी हो न। लेकिन अर्जुन समझा ही नहीं। और समझने की कठिनाई जो थी, वह मैं मानता हूं, कठिनाई सिर्फ यही है कि कृष्ण जिस चेतना में खड़े होकर कह रहे हैं, वह अर्जुन की चेतना नहीं है। सवाल अर्जुन की चेतना के बदलने का है, सवाल अर्जुन को समझाने का नहीं है। और वह जो अर्जुन ने समझा वह उसने किया।
अब अगर कबीर का बेटा कल कबीर मर जाए और कल उसके घर में खाना न हो तो वह चोरी कर लाए, क्योंकि वह कहे कि चोरी में पाप ही क्या है, क्योंकि खुद कबीर ने साथ दिया था चोरी में। लेकिन कबीर जिस चोरी को गया था, वह बात और थी; और कमाल जिस चोरी को चला जाए, उनका बेटा, यह बात और है। ये दो तल की बातें थीं, जिनमें भूल बहुत निश्चित हो जानी संभव है।
और ऐसी ही भूल कृष्ण और अर्जुन के बीच हो गई है और वह भूल अब तक नहीं मिट सकी है। और हजार-हजार टीकाएं लिखी गई हैं गीता पर, लेकिन किसी को भूल खयाल में नहीं है कि भूल बुनियादी हो गई है।
तो दो अलग चेतनाओं के बीच हुई बात में निरंतर भूल हो गई है, क्योंकि जो कहा जाता है, वह समझा नहीं जाता। जो समझा जाता है, वह कहा ही नहीं गया है।
तो इसलिए मेरा जोर निरंतर यह है कि हम कर्म को बदलने के विचार में न पड़ें। हम चेतना को बदलने के विचार में पड़ें, क्योंकि चेतना से कर्म आता है, चेतना बदल जाती है तो कर्म बदल जाते हैं।
महावीर की पूरी साधना विवेक की साधना है, संयम की नहीं। क्योंकि विवेक से संयम छाया की तरह आता है। लेकिन निरंतर यह समझा गया है कि महावीर संयम की साधना कर रहे हैं। और वह बुनियादी भूल है।

प्रश्न:
भगवान, मुक्त आत्माओं में करुणा शेष रह जाती है और करुणा भी वासना का ही एक सूक्ष्मतम रूप है--ऐसा आपने कहा। वासना में सदा द्वंद्व रहता है, सदा दो रहते हैं, परस्पर-विरोधी दो। ऐसी स्थिति में करुणा का विरोधी कौन सा तत्व है जो मुक्त आत्माओं में शेष रह जाता है?
पहली बात तो यह कि करुणा वासना का सूक्ष्म रूप है, ऐसा नहीं, करुणा वासना का अंतिम रूप है। इन दोनों में भेद है। अंतिम रूप का मतलब मेरा यह है कि वासना और निर्वासना के बीच जो सेतु है। चाहें तो हम करुणा को वासना का अंतिम रूप कह सकते हैं और चाहें तो करुणा को निर्वासना का प्रथम रूप कह सकते हैं। वह बीच की कड़ी है जहां वासना समाप्त होती है और निर्वासना शुरू होती है।
करुणा सूक्ष्म रूप नहीं है वासना का। अगर सूक्ष्म रूप हो तो करुणा में भी द्वंद्व होगा। वासना में सदा द्वंद्व है। वासना में निर्द्वंद्व कभी भी कोई नहीं हो सकता। इसलिए वासना में दुख है, क्योंकि जहां द्वंद्व है, वहां दुख है। तो वासना चाहे कितनी ही सुखद हो, उसके पीछे उसका दुखद रूप खड़ा ही रहेगा, वह जा ही नहीं सकता।
इसलिए सब वासना एक सीमा पर अपने से विपरीत में बदल जाती है। प्रत्येक वासना का विरोधी तत्क्षण मौजूद ही रहता है, वह कभी अलग होता ही नहीं। क्योंकि जब हम प्रेम की बात करते हैं, तभी घृणा खड़ी हो जाती है। जब हम क्षमा की बात करते हैं, तभी क्रोध खड़ा हो जाता है। जब हम दया की बात करते हैं, तभी कठोरता आ जाती है। यानी अगर ठीक से समझें तो दया जो है, वह कठोरता का ही अत्यंत अत्यंत कम कठोर रूप है। यानी जो फर्क है, वह इस तरह का है, जैसे ठंडे और गर्म में। गर्म और ठंडे में फर्क क्या है? गर्म-ठंडी दो चीजें नहीं हैं। गर्म-ठंडी दो चीजें नहीं हैं, एक ही तापमान के दो तल हैं।
इसलिए इसे ऐसा समझें तो बहुत ठीक से समझ में आएगा। एक बर्तन में गर्म पानी रखा है, एक बर्तन में बिलकुल ठंडा पानी रखा है। आप दोनों में अपने दोनों हाथ डाल दें--एक आइस-कोल्ड ठंडे पानी में और एक उबलते हुए गर्म पानी में। फिर दोनों हाथों को निकाल कर एक ही बाल्टी में डाल दें, जिसमें साधारण पानी रखा है। और तब आप हैरान हो जाएंगे, आपका एक हाथ कहेगा कि पानी बहुत ठंडा है और आपका एक हाथ कहेगा कि पानी बहुत गर्म है। और पानी बिलकुल एक है बाल्टी में। आपके हाथ की गर्मी और ठंडक पर निर्भर करेगा कि आप इस पानी को क्या कहते हैं और आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे कि इस पानी को क्या कहें। क्योंकि एक हाथ खबर दे रहा है कि ठंडा है, एक हाथ खबर दे रहा है कि गर्म है।
कठोरता और दया इसी तरह की चीजें हैं, इनमें जो भेद है, वह भेद अनुपात का है। और तब यह भी हो सकता है कि एक बहुत कठोर आदमी को, जो चीज बहुत दयापूर्ण मालूम पड़े, एक बहुत दयापूर्ण आदमी को बहुत कठोर मालूम पड़े। यह रिलेटिव होगा, सापेक्ष होगा।
तैमूरलंग जैसे आदमी को जो बात बहुत दयापूर्ण मालूम पड़े, वह गांधी जैसे आदमी को अत्यंत कठोर मालूम पड़ सकती है। दोनों हाथ हैं, लेकिन कौन ठंडा कौन गर्म, तो पानी की खबर वे वैसी देंगे।
नैतिक पुरुष जो है, वह इसी द्वंद्व में जीता है, इसके बाहर नहीं जाता। कठोरता छोड़ो, दया पकड़ो; शोषण छोड़ो, दान पकड़ो; हिंसा छोड़ो, अहिंसा पकड़ो। नैतिक व्यक्ति कहता है कि वह जो बुरा है, वह छोड़ो; और जो अच्छा है, उसे पकड़ो। लेकिन वह यह भूल जाता है कि जिसे वह अच्छा कह रहा है, वह उसी बुरे की अत्यंत छोटी, कम, कम विकसित अवस्था है। वह उससे भिन्न और विरोधी नहीं है।
लेकिन जैसे ही व्यक्ति वासना से निर्वासना के जगत में प्रवेश करता है तो बीच की एक बफर-स्टेट जिसको कहना चाहिए, दो अवस्थाओं के बीच का एक खाली रिक्त स्थान, उस रिक्त स्थान में भी सेतु हैं। करुणा वैसा सेतु है। इसलिए करुणा कठोरता का उलटा नहीं है। करुणा और दया समानार्थक नहीं हैं। दया कठोरता की उलटी है।
और इस फर्क को ठीक से समझ लेना उपयोगी होगा। जब मैं किसी व्यक्ति पर दया करता हूं तो ध्यान में दूसरा व्यक्ति होता है, जिस पर मैं दया कर रहा हूं--भूखा है, दीन है, दया योग्य है। दया का जो ध्यान है, वह दूसरे की दीनता पर, दुख पर, दरिद्रता पर है। दूसरा केंद्र में है। और जब मैं कठोर होता हूं तब भी दूसरा केंद्र में है कि दूसरा दुश्मन है, दूसरा बुरा है; उसे मिटाना जरूरी है।
दया और अदया, दोनों में दृष्टि-बिंदु दूसरे पर होता है। करुणा का दूसरे से कोई संबंध नहीं है। करुणा का मतलब है कि दूसरा कैसा है, इससे प्रयोजन ही नहीं है। मैं कैसा हूं, यह प्रयोजन है--मैं करुणापूर्ण हूं। जैसे एक दीया जल रहा है और उससे रोशनी गिर रही है। पास से कौन निकलता है, इससे दीया रोशनी कम और ज्यादा नहीं करता। कौन पास से निकलता है--अच्छा आदमी कि बुरा आदमी, कि दीन कि दरिद्र, कि धनवान, कौन निकलता है पास से--हारा हुआ कि जीता हुआ--दीया जलता रहता है। कोई नहीं निकलता तब भी जलता रहता है, क्योंकि दीये का जलना दूसरे पर निर्भर नहीं है, दीये का जलना उसकी अंतर-अवस्था है।
एक भिखारी सड़क पर निकला तो आप दयापूर्ण होंगे, लेकिन एक सम्राट निकला तो फिर कैसे दयापूर्ण होंगे? अगर भिखारी निकला तो आप दयापूर्ण होंगे और सम्राट निकला तो आप दया की आकांक्षा करने लगेंगे, क्योंकि दया जो थी, वह दूसरे से बंधी थी, आप पर निर्भर नहीं थी। लेकिन महावीर जैसे व्यक्ति के पास से कोई निकले, दीन, भिखारी कि सम्राट, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, करुणा बरसती रहेगी। करुणा बरसती रहेगी--सम्राट पर भी उतनी ही करुणा है, भिखारी पर भी उतनी ही करुणा है। क्योंकि करुणा दूसरे पर निर्भर नहीं है। महावीर का अपना दीया है, जो जल रहा है, जिससे रोशनी गिर रही है।
तो इसलिए करुणा को निरंतर शब्दकोश में दया का जो पर्यायवाची बनाया जाता है, वह बुनियादी भूल है, एकदम भूल है। दया बात ही और है। और दया कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है। हां, बुरी चीजों में अच्छी है। बुरी चीजों में अच्छी है। वह कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है।
करुणा बात ही और है। करुणा के विपरीत कुछ भी नहीं है। करुणा में द्वंद्व नहीं है। दया में विपरीत सदा मौजूद है; क्योंकि दया जो है सकारण है, उसमें कारण है, कंडीशन है कि वह आदमी दीन है इसलिए दया करो; वह आदमी भूखा है, इसलिए रोटी दो; वह आदमी प्यासा है, इसलिए पानी दो। उसमें कंडीशन है। उसमें दूसरे आदमी की शर्त है।
करुणा अनकंडीशनल है। वह दूसरा कैसा है, इससे कोई संबंध नहीं है। मैं करुणा ही दे सकता हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कैसा है, कौन है, क्या है। इससे कोई संबंध नहीं है। अगर कोई भी नहीं है तो करुणापूर्ण व्यक्ति अगर अकेले में खड़ा है, अगर महावीर एक वृक्ष के नीचे अकेले खड़े हैं और दिन बीत जाते हैं और कोई नहीं निकलता वहां से, तो भी करुणा झरती रहती है और प्रतीक्षा करती है। इससे कोई संबंध नहीं है।
एक फूल खिला है एक निर्जन में और उसकी सुगंध फैल रही है। रास्ते से कोई निकलता है तो उसे मिल जाती है, कोई नहीं निकलता तो भी सुगंध झरती रहती है। फूल का सुगंध देना स्वभाव है, राहगीर को देख कर नहीं कि कौन निकल रहा है, इसको जरूरत है कि नहीं! यह सवाल ही नहीं है। यह फूल का आनंद है।
करुणा जो है, वह अंतस-अवस्था है, इनर स्टेट ऑफ माइंड है। दया जो है, वह एक रिलेशनशिप है। वह मेरी अवस्था नहीं है, मैं किससे जुड़ा हूं, इस पर निर्भर करती है। तो दया उधर से भी ले सकता हूं, इधर से भी दे सकता हूं। किससे जुड़ा हूं, इस पर निर्भर करेगी बात।
करुणा अंतर-अवस्था है और वासना का अंतिम छोर कहें। अंतिम छोर इस अर्थों में कि उसके बाद फिर निर्वासना का जगत शुरू होता है, या निर्वासना का प्रथम छोर कहें, इस अर्थों में कि उसके बाद निर्वासना शुरू होती है।
और वासना का जगत द्वंद्व का जगत है। वासना का जगत द्वंद्व का जगत है। यह थोड़ा समझने जैसा होगा। वासना द्वैत का जगत है, जहां दो के बिना काम नहीं चलेगा, सब चीजें विरोधी पर होंगी--अंधेरा तो प्रकाश और जन्म तो मृत्यु, ऐसा विरोध जहां होगा। वासना द्वैत का जगत है। और वासना और निर्वासना के बीच में जो सेतु है, वह अद्वैत का है। वासना है द्वैत, जहां हम स्पष्ट कहेंगे दो हैं; और बीच का जो सेतु है, वह है अद्वैत, जहां हम कहेंगे दो नहीं हैं। अभी हम दो का उपयोग करेंगे। पहले कहते थे दो हैं, अब हम कहेंगे दो नहीं हैं। और निर्वासना का जो जगत है, वहां तो हम यह भी नहीं कह सकते कि अद्वैत, क्योंकि वहां दो का शब्द भी उठाना गलत है।
वासना है द्वैत और निर्वासना में तो संख्या का सवाल ही नहीं है। यानी यह भी कहना गलत है वहां कि दो नहीं। बीच का जो सेतु है, वहां हम कह सकते हैं दो नहीं। क्योंकि वासना छूट गई और निर्वासना अभी आती है। बीच का जो छोटा अंतराल है, उस अंतराल में करुणा है। करुणा अद्वैत है। अद्वैत के भी ऊपर एक लोक है, जहां से यह भी कहना गलत है कि अद्वैत है, जहां हम कहें दो नहीं। दो हैं, ऐसी एक सार्थकता थी, फिर दो नहीं, ऐसी एक सार्थकता थी। और अब कुछ भी कहना मुश्किल है, मौन हो जाना ही ठीक है। अब एक और दो और तीन का कोई सवाल ही नहीं उठता, वह है निर्वासना।
लेकिन इसके पहले कि हम संख्या से असंख्या में पहुंचें, सीमा से अ-सीमा में पहुंचें, बीच में निषेध का एक क्षण, निषेध की एक यात्रा है, वह करुणा है। करुणा, कंपैशन का विरोधी कोई भी नहीं है। दया का विरोधी है, करुणा का विरोधी कोई भी नहीं है।
बुद्ध ने उसे करुणा कहा है। महावीर उसे ही अहिंसा कहते हैं। जीसस उसे ही लव, प्रेम कहते हैं। ये शब्दों की पसंदगियां हैं। लेकिन वे सेतु पर इंगित कर रहे हैं। करुणा से गुजरना पड़ेगा--बुद्ध कहते हैं। अहिंसा से गुजरना पड़ेगा--महावीर कहते हैं। प्रेम से गुजरना पड़ेगा--जीसस कहते हैं। ये सिर्फ शब्द-भेद हैं। सेतु एक ही है। दो सेतु भी नहीं हैं वहां, एक ही सेतु है, जहां से हम द्वंद्व से छूटते हैं और द्वंद्व-मुक्त में जाते हैं। बीच में एक जगह है--उसे मैंने कहा करुणा, अहिंसा, प्रेम, जो भी हम कहना चाहें--इसका विरोधी कोई भी नहीं है।
सब चीजों के विरोधी हैं, कुछ चीजों के विरोधी नहीं हैं। और जिनके विरोधी नहीं हैं, वे ही सेतु बनते हैं। और फिर आगे तो न पक्ष है, न विपक्ष है; कोई भी नहीं है। आगे तो कोई भी नहीं है। वहां न पक्ष है, न विपक्ष है। विरोधी का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि वह भी नहीं है जिसका विरोधी हुआ जा सके।

प्रश्न:
भगवान, द्रष्टा-भाव में संसार स्वप्न ही है, ऐसा आपका कहना है। किंतु यह व्यक्तिपरक, सब्जेक्टिव दृष्टिकोण की बात हुई। वस्तुपरक, ऑब्जेक्टिव दृष्टि से संसार क्या स्वप्न ही है? इस संबंध में महावीर की दृष्टि शंकराचार्य के मायावाद से कहीं भिन्न है?
असल में स्वप्न हम देखते हैं...।

प्रश्न:
जरा प्रश्न समझा दें सरल भाषा में।
हां, वह उन्होंने यह पूछा है...कल मैंने रात कहा कि अगर स्वप्न में कर्ता-भाव आ जाए तो स्वप्न सत्य हो जाता है। इससे ठीक उलटे, जिसे हम सत्य कहते हैं, यथार्थ, उसमें अगर कर्ता-भाव खो जाए तो वह सत्य भी स्वप्न हो जाता है। यानी अहंकार जो है, वही सूत्र है, चाहो तो स्वप्न को सत्य बना लो और चाहो तो सत्य को भी स्वप्न कर दो।
वह मैंने कल कहा, वह उसी संबंध में उन्होंने पूछा है कि इसका क्या यह मतलब हुआ कि अगर समझ लें कि मुझे दिखाई पड़ने लगे कि जगत स्वप्न है तो क्या सचमुच ही जगत नहीं है या कि यह स्वप्न होने का भाव सिर्फ सब्जेक्टिव है, मेरा आत्मपरक है? मुझे ऐसा लग रहा है कि यह मकान नहीं है, सब सपना है। लेकिन क्या इसका यह मतलब मान लिया जाए कि सच में ही मकान नहीं है, ऑब्जेक्टिवली? खाली जगह है यहां, मकान है ही नहीं? जैसा कि रात सपने का मकान खो जाता है, ऐसा ही यह मकान भी क्या इतना ही असत्य है? तो फिर शंकर के मायावाद में कि सब जगत माया है, इल्यूजन है और महावीर के द्वैतवाद में--क्योंकि महावीर जगत को माया नहीं कहते हैं--क्या फर्क है?
इसमें बहुत बातें समझने जैसी होंगी। पहली बात तो यह समझने जैसी होगी कि स्वप्न भी असत्य नहीं है, स्वप्न भी सत्य है। स्वप्न का भी अपना होना है। स्वप्न का भी अपना अस्तित्व है, एक्झिस्टेंस है। जब आप रात सपना देखते हैं तो साधारणतः हम सुबह जाग कर कहते हैं कि सब सपना था, कुछ भी न था, लेकिन जो न हो तो सपने तक में नहीं हो सकता है।
स्वप्न के बाबत बड़ी भ्रांति है। स्वप्न असत्य नहीं है, स्वप्न की अपनी तरह की सत्ता है, अपने तरह का सत्य है उसका। वह अत्यंत सूक्ष्म परमाणुओं का लोक है, अत्यंत तरल परमाणुओं का लोक है, अत्यंत साइको-एटम्स का, मनो-परमाणुओं का लोक है। असत्य नहीं है। असत्य का मतलब है, जो है ही नहीं।
तो तीन चीजें हैं। असत्य, जो है ही नहीं। सत्य, जो है। और इन दोनों के बीच में एक स्वप्न है, जो न तो उस अर्थों में नहीं है, जिस अर्थों में खरगोश के सींग या बांझ मां का बेटा, जो इस अर्थों में नहीं है ऐसा नहीं कह सकते और न इस अर्थों में कह सकते हैं कि है जैसे पहाड़, जो दोनों के बीच है। जो है भी किसी सूक्ष्म अर्थ में और जो नहीं भी है किसी सूक्ष्म अर्थ में।
शंकर का भी माया से यही मतलब है। शंकर के साथ बड़ी भूल हुई है। शंकर का भी इल्यूजन या माया से यही मतलब है। शंकर कहते हैं, तीन यथार्थ हैं--सत्‌, असत्‌ और मध्य का माया।

प्रश्न:
तो उसे मिथ्या कहें?
हां, मिथ्या कहें। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन मिथ्या से भी लोगों को खयाल होता है कि जो नहीं है।
एक तो ऐसी चीज है, जो है ही नहीं। और एक ऐसी चीज है, जो बिलकुल है। और एक ऐसी चीज है जो दोनों के बीच में है; जिसमें दोनों की क्वालिटीज मिलती हैं, दोनों के गुण मिलते हैं। स्वप्न असत्य नहीं है। हां, जागरण जैसा सत्य नहीं है, और तल का सत्य है।
तो पहले तो स्वप्न असत्य नहीं है, स्वप्न का अपना सत्य है। और अगर स्वप्न के सत्य की खोज में कोई जाए तो जितना सत्य उसे बाहर की दुनिया में मिल सकता है, इतना ही सत्य वहां भी मिल सकता है। लेकिन हम तो बाहर की दुनिया में ही नहीं जा पाते तो स्वप्न की दुनिया में जाना तो बहुत मुश्किल है। स्वप्न की दुनिया में प्रवेश भी बहुत मुश्किल है, क्योंकि बिलकुल छायाओं का लोक है, जहां अत्यंत तरल चीजें हैं, जिन पर मुट्ठी बांधना मुश्किल है।
स्वप्न में भी खोज की जा सकती है, की गई है, की जाती रही है। और जो लोग स्वप्नलोक की गहराइयों में गए हैं, वे बहुत हैरान हो गए हैं। वे हैरान हो गए हैं कि जिसको हम स्वप्न कहते हैं, वह बहुत गहरे अर्थों में हमारे सत्य के लोक से बहुत ज्यादा जुड़ा है। एकदम असत्य नहीं है।
बहुत से स्वप्न तो हमारे पिछले जन्मों की स्मृतियां हैं, जो कभी सत्य थे। बहुत से स्वप्न हमारे भविष्य की झलक हैं, जो कभी सत्य होंगे। और बहुत से स्वप्न हमारी अंतर्यात्राएं हैं मनो-जगत में, जिनका हमें कोई पता नहीं चलता। क्योंकि इस देह से वे यात्राएं नहीं होतीं, वे और सूक्ष्म देहों से यात्राएं होती हैं।
तो एक तो स्वप्न को असत्य नहीं मैं कहता हूं। फर्क इतना ही कर रहा हूं कि स्वप्न में जितना सत्य दिखाई पड़ता है, वह सत्य स्वप्न के सत्य होने से नहीं आता, वह सत्य हमारे कर्ता होने से आता है। और अगर हमारा कर्तापन मिट जाए तो हमारे लिए स्वप्न मिट जाएगा। स्वप्न का सत्य तो बना ही रहेगा, हमारे लिए स्वप्न मिट जाएगा।
मेरा मतलब समझे आप? अगर हमारा कर्तापन का भाव मिट जाए, अगर मैं नींद में जाग जाऊं और मुझे खयाल आ जाए कि यह स्वप्न है और मैं तो सिर्फ देख रहा हूं तो स्वप्न एकदम विलीन हो जाएगा। इसका यह मतलब नहीं है कि स्वप्न के सत्य नष्ट हो गए। स्वप्न के सत्य अपने तल पर बने रहेंगे। जैसे समझ लें कि मैंने एक दूरबीन लगाई और दूरबीन से मैंने आकाश देखा और मुझे वे तारे दिखाई पड़े जो खाली आंख से दिखाई नहीं पड़ते थे। फिर मैंने दूरबीन हटा दी, अब मुझे वे तारे फिर नहीं दिखाई पड़ रहे हैं, तो मैं यह तो नहीं कहूंगा कि वे तारे मिट गए मेरी दूरबीन हटाने से। नहीं, दूरबीन होने से प्रकट हुए थे, अब अप्रकट हो गए।
कर्ता-भाव से स्वप्न में सत्य प्रकट हुआ था, अब अप्रकट हो गया। ठीक ऐसे ही जागने में जो चीजें हमें दिखाई पड़ रही हैं, वे हैं, उनकी अपनी सत्ता है, वे इल्यूजरी नहीं हैं, उनकी अपनी सत्ता है। और महावीर को भी निकलना हो, शंकर को भी निकलना हो तो दरवाजे से ही निकलेंगे, दीवाल से नहीं निकल जाएंगे। शंकराचार्य को भी निकलना हो तो दीवाल से नहीं निकलेंगे, कि इल्यूजरी दीवाल है, वह क्या करेगी? निकलेंगे दरवाजे से ही।
इल्यूजरी कहने का मतलब बहुत दूसरा है, माया कहने का मतलब बहुत दूसरा है, स्वप्नवत कहने का मतलब बिलकुल दूसरा है। मतलब दूसरा यह है कि दीवाल का अपना एक सत्य है, आब्जेक्टिव वस्तु का अपना एक सत्य है। लेकिन वह सत्य एक बात है और हम कर्ता होकर, मोहग्रस्त होकर, अहंग्रस्त होकर उस पर और सत्य प्रोजेक्ट कर रहे हैं, जो उसमें कहीं भी नहीं है।
जैसे यह मकान है, इस मकान का तो अपना सत्य है, लेकिन यह मकान ‘मेरा’ है, यह बिलकुल ही सत्य नहीं है। यह ‘मेरा’ बिलकुल मेरे प्रोजेक्शन की बात है। यह मकान को पता भी नहीं होगा। और तीन काल में इसको पता नहीं चलेगा कि मैं किसका था।
और कई बार--इसकी भ्रांतियां गहरी हैं--जैसे हम कहते हैं, यह देह मेरी है। और आपको खयाल होना चाहिए कि इस देह में करोड़ों कीटाणु जी रहे हैं और वे सब समझ रहे हैं, यह देह उनकी है। और उनमें से किसी को पता नहीं कि आप भी इसमें हैं एक, आपका बिलकुल पता नहीं है। जब आपको कैंसर हो गया और एक, या एक घाव हो गया, एक नासूर हो गया और दस कीड़े उसमें पल रहे हैं, तो आप सोच रहे हैं कि ये मेरी देह को खाए जा रहे हैं। कीड़ों को खयाल भी नहीं हो सकता, कीड़ों की अपनी देह है। वे इसमें जी रहे हैं। और जब आप उन्हें हटाते हैं तो उनके स्वत्व से वंचित कर रहे हैं। आप समझ रहे हैं कि आपकी देह है।
इस देह में कितने लोग देह बनाए हुए हैं! अरबों-खरबों कीटाणु, सेल्स देह बनाए हुए हैं। और सब यह मान रहे हैं कि उनकी देह है।
तो जब हम यह कह रहे हैं कि वस्तु की तो अपनी सत्ता है, इस देह की अपनी सत्ता है, लेकिन मेरी है, यह बिलकुल स्वप्नवत है। और जिस दिन आप जागेंगे तो देह रह जाएगी, मेरा नहीं रह जाएगा। और अगर मेरा न रह जाए तो देह बहुत और अर्थों में प्रकट होगी, जिस अर्थों में कभी प्रकट नहीं हुई थी। वह मेरे की वजह से उसने दूसरा ही रूप ले लिया था, एकदम दूसरा रूप ले लिया था।
तो जब मैं कह रहा हूं कि अगर हम जाग जाएं और कर्ता मिट जाए, साक्षी रह जाए तो भी वस्तुओं का सत्य रहेगा, लेकिन तब वह वस्तु-सत्य रह जाएगा, तब मैं उसमें कुछ प्रोजेक्ट नहीं करूंगा, प्रक्षेप नहीं करूंगा।
और तब एक बहुत बड़ी दुनिया मिट जाएगी एकदम से। जिसको आप अपना बेटा कह रहे हैं, उसको आप अपना बेटा नहीं कह सकेंगे, शायद बेटा भी नहीं कह सकेंगे। अगर आप बिलकुल साक्षी हो गए तो आप सिर्फ एक पैसेज रह जाएंगे--सिर्फ पैसेज रह जाएंगे, एक द्वार रह जाएंगे, जिससे वह व्यक्ति आया। लेकिन आप पिता नहीं रह जाएंगे।
और बहुत गहरे में देखेंगे तो आपका शरीर का मैल आपने झाड़ दिया, इस मैल के आप पिता नहीं कहलाते, तो आप अपने वीर्य-अणुओं के कैसे पिता हो सकते हैं? यह मैल भी शरीर में उसी तरह पैदा होता है जैसे वीर्य-अणु पैदा होते हैं। ये नाखून आप काट कर फेंक देते हैं और कभी नहीं कहते कि मैं इनका पिता हूं। ये बाल आप काट कर फेंक देते हैं और कभी नहीं कहते कि मैं इनका पिता हूं। कभी लौट कर नहीं देखते। जिस शरीर ने ये सब पैदा किए हैं, उसी शरीर ने वीर्य-अणु भी पैदा किए हैं। आप कौन हैं? आप कहां हैं? यानी मैं यह कह रहा हूं कि अगर हमें ठीक से साक्षीभाव हो जाए तो कौन पिता है! कौन मालिक है! क्या मेरा है! यह सब एकदम विदा हो जाएगा।
और ये अगर सारे अंतर्संबंध एकदम से विदा हो जाएं तो जगत बिलकुल दूसरे अर्थों में प्रकट होगा। तब जगत होगा, आप होंगे, लेकिन बीच में कोई संबंध नहीं होगा। जो हम बांधते हैं, वह सब विदा हो जाएगा।
तो जब मैं यह कहता हूं कि आप अगर जाग जाएंगे तो जगत स्वप्नवत हो जाएगा, इसका मेरा मतलब यह नहीं है कि जगत झूठा हो जाएगा, कि जगत रहेगा ही नहीं। जगत और अर्थों में रहेगा, जिन अर्थों में आज है, उन अर्थों में नहीं रह जाएगा। स्वप्न भी बचता है, वह भी कहीं खो नहीं जाता, उसकी भी अपनी सार्थकता है। और आप हैरान होंगे कि अगर थोड़ी चेष्टा करें तो एक ही स्वप्न में हजार बार प्रवेश कर सकते हैं।
हमको क्यों स्वप्न इल्यूजरी मालूम पड़ता है? उसका कारण है कि आप एक ही स्वप्न में दुबारा प्रवेश नहीं कर पाते। और एक ही मकान में दुबारा जग जाते हैं, तो यह मकान सच्चा मालूम होने लगता है, क्योंकि बार-बार इसी मकान में आप जगते हैं रोज सुबह। यही मकान फिर, यही मकान फिर, यही मकान फिर। यही दुकान, यही मित्र, यही पत्नी, यही बेटा, तो यह बार-बार...।
अगर समझ लें कि हर बार सुबह आप जागें और मकान दूसरा हो जाए तो आपको मकान का सत्य भी उतना ही झूठा हो जाएगा जितना सपने का हो जाता है, कि इसका क्या भरोसा, कल सुबह क्या हो जाए! और सपने में आप एक ही दफे जा पाते हैं, दुबारा उस सपने को आप कंटिन्यू नहीं कर पाते। क्योंकि आप जागने में ही अपने मालिक नहीं हैं, सोने की मालकियत तो बहुत दूर की बात है, तो आप उसी सपने में फिर कैसे जा सकते हैं?
लेकिन उस तरह की पद्धतियां और व्यवस्थाएं हैं कि एक ही स्वप्न में बार-बार जाया जा सकता है। और तब आप हैरान हो जाएंगे कि स्वप्न इतना ही सत्य मालूम होगा जितना यह मकान। क्योंकि आज स्वप्न में अगर एक स्त्री आपकी पत्नी थी तो कल वह नहीं रह जाएगी, कल आप खोजें कितना ही, तो भी पता नहीं चलेगा वह कहां गई। लेकिन अगर ऐसा हो सके--और ऐसा हो सकता है--कि रोज रात आप सोएं और एक निश्चित स्त्री रोज रात सपने में आपकी पत्नी होने लगे, ऐसा दस वर्ष तक चले, तो आप ग्यारहवें वर्ष पर यह कह सकेंगे कि रात झूठ है? आप कहेंगे, जैसा दिन सच्चा है, ऐसे रात भी सच्ची है।
स्वप्न को स्थिर करने के भी उपाय हैं। उसी स्वप्न में रोज-रोज प्रवेश किया जा सकता है, तब वह सच्चा मालूम होने लगेगा। और अगर हम गौर से देखें तो रोज-रोज हम उसी मकान में सुबह जागते भी नहीं हैं जिसमें हम कल सोए थे, क्योंकि मकान बुनियादी रूप से बदल जाता है। अगर हमारी दृष्टि उतनी भी गहरी हो जाए कि बदलाहट को हम देख सकें तो जिस पत्नी को आपने कल रात सोते वक्त छोड़ा था, सुबह आपको वही पत्नी उपलब्ध नहीं होती है। उसका शरीर बदल गया, उसका मन बदल गया, उसकी चेतना बदल गई, उसका सब बदल गया।
लेकिन उतनी सूक्ष्म दृष्टि भी नहीं है हमारी कि हम उतनी गहरी दृष्टि से जांच कर सकें कि सब बदल गया है, यह तो दूसरा व्यक्ति है। इसलिए आप कल की अपेक्षा करके झंझट में पड़ जाते हैं। कल शांत थी वह बड़ी और बड़ी प्रसन्न थी और सुबह से नाराज हो गई है। तो आप कहते हैं, ऐसा कैसे हो सकता है? क्योंकि आप अपेक्षा कल की लिए बैठे हुए हैं। कल उसने बहुत प्रेम किया था और आज बिलकुल पीठ किए हुए है, तो आपको लगता है कि यह तो कुछ गड़बड़ हो रहा है। लेकिन आपको खयाल नहीं है कि सब चीजें बदल गई हैं।
जिस दिन हम बहुत गहरे में इधर घुस जाएं, यानी मैं यह कह रहा हूं कि अगर गहरे स्वप्न में जाएं तो स्वप्न भी मालूम होगा वही है, और अगर गहरे इस सत्य में जाएं तो पता चलेगा कि वही कहां है, रोज बदलता चला जा रहा है। कहने का मेरा प्रयोजन इतना ही है कि इन सारी स्थितियों में--चाहे स्वप्न, चाहे जागरण--अगर साक्षी जग जाए तो एक बिलकुल ही नई चेतना का आरंभ होता है, लेकिन उससे कोई जगत मिथ्या हो जाता है, झूठ हो जाता है, ऐसा नहीं। उससे सिर्फ इतना ही हो जाता है कि जो कल तक का जगत हमने बनाया था, वह विदा हो जाता है और एक बिलकुल नया जगत, पहली दफे आब्जेक्टिव, पहली दफे वस्तुपरक सत्य सामने आता है। जो हमने बनाया था, वह विदा हो जाता है। जो हमने क्रिएट किया है, खुद सृजन कर लिया है, वह नदारद हो जाता है, वह विदा हो जाता है।
महावीर इसीलिए उसको माया का उपयोग नहीं करना चाहते, क्योंकि माया से ऐसा लगता है कि जैसे सब झूठ है। इसलिए वे उपयोग नहीं करते हैं। वे कहते हैं, वह भी सत्य है, यह भी सत्य है। लेकिन दोनों सत्यों के बीच में हमने बहुत से झूठ गढ़ रखे हैं, वे विदा हो जाने चाहिए। तब पदार्थ भी अपने में सत्य है और परमात्मा भी अपने में सत्य है। और बहुत गहरे में दोनों एक ही सत्य के दो छोर हैं।
शंकर उसके लिए माया का उपयोग करते हैं, उसमें भी कुछ हर्ज नहीं है, वह भी उपयोग किया जा सकता है। क्योंकि जिसमें हम जी रहे हैं, वह बिलकुल इल्यूजरी है, बिलकुल माया जैसी बात है।
एक आदमी है, रुपये गिन रहा है और गिन-गिन कर ढेर लगाता जा रहा है, तिजोड़ी बंद करता जा रहा है। रोज गिनता है, तिजोड़ी बंद करता है। अगर हम उसके मनो-जगत में उतरें तो वह रुपयों की गिनती में जी रहा है। और बड़े मजे की बात है कि रुपये में क्या है जिसकी गिनती में कोई जीए! कल सरकार बदल जाए और वह कह दे पुराने सिक्के खत्म और उस आदमी का पूरा का पूरा मनो-लोक एकदम तिरोहित हो गया। वह एकदम नंगा खड़ा रह गया, अब कोई गिनती नहीं है उसके पास।
मेक-बिलीफ के जगत में हम जी रहे हैं। और ऐसे ही सिक्के हमने सब तरफ बना रखे हैं--परिवार के, प्रेम के, मित्रता के--सब ऐसे ही सिक्के बना रखे हैं। कल सुबह एकदम सब नियम बदल जाएं...।
मुझे एक मित्र ने एक पत्र लिखा। बहुत बढ़िया पत्र लिखा। कुछ लोग जो मेरे साथ थे, वे साथ नहीं रह गए, तो उन्होंने मुझे पत्र लिखा। और हम सबको यह भ्रांति होती है कि जो साथ है, वह सदा साथ हो। यह बिलकुल पागलपन है। जितनी देर साथ है, बहुत है। जिस दिन अलग हो गया, अलग हो गया। जैसे साथ होना एक सत्य था, वैसे अलग होना एक सत्य है। साथ ही बना रहे, तो फिर हम एक माया के जगत में जीना शुरू कर देते हैं, एक्सपेक्टेशंस के, अपेक्षाओं के। आप मेरे मित्र हैं, तो बात काफी है इतना। लेकिन कल भी आप मेरे मित्र हों, तो फिर मैंने कल्पना के जगत में जीना शुरू कर दिया। फिर मैं दुख भी पाऊंगा, पीड़ा भी पाऊंगा। अपेक्षा मैंने बना ली। कल का कौन जानता है! कल क्या हो जाए! रास्ते कभी हमारे पास आ जाते हैं, कभी दूर चले जाते हैं। कभी एक-दूसरे का रास्ता कटता भी है। कभी बड़े फासले हो जाते हैं।
तो कुछ मित्र मुझे छोड़ कर चले गए हैं, तो एक मित्र ने मुझे एक कहानी लिखी। उसने लिखा कि यूनान में एक बार ऐसा हुआ कि एक साधु था। एथेंस नगर में उस साधु पर मुकदमा चला। उसकी बातों को एथेंस नगर के न्यायाधीशों ने कहा कि ये लोगों को बिगाड़ देने वाली हैं, इसलिए हम तुम्हें नगर-निकाला देते हैं, नगर से बाहर कर देते हैं।
साधु नगर से निकाल दिया गया। वह एथेंस छोड़ कर दूसरे नगर में गया। दूसरे नगर के लोगों ने उसका बड़ा स्वागत किया, क्योंकि उस साधु की जो मान्यताएं थीं, उस नगर के लोगों से मेल खा गईं।
उस नगर का एक नियम था कि जो भी नया आदमी उस नगर में मेहमान बने, सारा नगर मिल कर उसका मकान बना दे। तो राज ने ईंटें जोड़ दीं, ईंट बनाने वाले ने ईंटें ला दीं, पत्थर वाला पत्थर लाया, बढ़ई लकड़ी लाया, खपड़ा लाने वाला खपड़ा लाया। सारे गांव के लोगों ने श्रम किया, जल्दी ही उसका एक बहुत शानदार मकान बन गया।
वह उस मकान में जिस दिन प्रवेश करने को था, मकान बन गया है, प्रवेश होने की तैयारी हो रही है, साधु द्वार पर आया है, तभी गांव एकदम से पूरे मकान पर टूट पड़ा। छप्पर वाला छप्पर ले गया, ईंट वाले ने ईंट निकाल ली, दरवाजे वाला अपना दरवाजा निकालने लगा। सब चीजें एकदम अस्तव्यस्त हो गईं, सारा मकान टूटने लगा।
तो उस साधु ने खड़े होकर पूछा कि यह क्या बात है? मुझसे कोई गलती हो गई क्या?
तो जो लोग सामान लिए जा रहे थे, उन्होंने कहा, नहीं, तुम्हारी गलती का सवाल नहीं, हमारा कांस्टिट्यूशन बदल गया। यानी कल तक हमारे विधान में यह बात थी कि जो भी नया आदमी गांव में आए और रहे, उसका हम मकान बनाएं। रात की धारा-सभा में वह हमने खत्म कर दिया। हमारा विधान जो है, वह बदल गया। दि कांस्टिट्यूशन हैज चेंज्ड। इसलिए हम अपना-अपना सामान लिए जा रहे हैं, बात खत्म हो गई। अब यह तुम्हारा प्रवेश हो जाता तो मुश्किल पड़ता, इसलिए हमें जल्दी करनी पड़ रही है। क्योंकि तुम्हारे प्रवेश के बाद पुराना कांस्टिट्यूशन लागू हो जाता। अभी तुम्हारा प्रवेश नहीं हुआ, इसलिए हम इसे लिए चले जाते हैं।
उन मित्र ने मुझे यह कहानी लिखी और मुझे पूछा, वाज़ साधु ऐट फाल्ट? क्या साधु की कोई भूल थी?
तो मैंने उनको उत्तर दिया कि साधु की एक ही भूल थी कि उसने आदमियों के बनाए हुए नियम को ज्यादा मूल्य दे दिया था। जो आदमी नियम बनाते हैं, वे कभी भी तोड़ सकते हैं। यानी जो मकान बनाने का तय करते हैं, कल गिराने का तय कर सकते हैं।
साधु की भूल इतनी ही थी कि उसने यह भी क्यों पूछा दरवाजे पर खड़े होकर कि क्या मुझसे कोई भूल हो गई? यह भी नहीं पूछना था। उसे जानना चाहिए था कि ठीक है, जो मकान बनाते हैं, वे गिरा सकते हैं। नियम बदल गया था। और साधु ने नियम को अपना सम्मान समझ लिया, यह भूल हो गई थी उससे। वह उसका सम्मान नहीं था, वह सिर्फ नियम का सम्मान था। नियम बदल गया, सारी बात खत्म हो गई।
हम एक जिंदगी में जीते हैं, जो हमारे बनाए हुए नियमों, बनाई हुई मान्यताओं, बनाई हुई व्यवस्थाओं की है। वह जैसे ही हम जागेंगे, वे एकदम इल्यूजरी मालूम पड़ेगी।
पत्नी एकदम इल्यूजरी मालूम पड़ेगी, स्त्री सत्य रह जाएगी। स्त्री होगी एक, लेकिन पत्नी एकदम माया मालूम पड़ेगी। वह हमारी बनाई हुई व्यवस्था है। एक युवक रह जाएगा, लेकिन बेटा होना उसका एकदम खो जाएगा। मकान रह जाएगा, लेकिन मेरा होना एकदम तिरोहित हो जाएगा। धन का ढेर रह जाएगा, लेकिन फिर गिनती का रस एकदम खो जाएगा, उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा। जगत होगा वस्तुपरक, लेकिन हमने सब्जेक्टिवली, आत्मा से उसमें जो उंडेल दिया है और मान लिया है कि वहां है, वह एकदम तिरोहित हो जाएगा। जैसे कोई जादू की दुनिया से एकदम जाग गया हो, और सब खो जाए; वृक्ष और वृक्ष में लगे फल, सब विदा हो जाएं; और चीजें जैसी हैं, वैसी रह जाएं। वस्तु रह जाएगी, लेकिन हमारी कल्पित वस्तु एकदम विदा हो जाएगी।
इस अर्थ में मैंने कहा कि स्वप्न भी सत्य बन जाता है, अगर हम उसमें लीन हो जाते हैं। और जिसे हम सत्य कहते हैं वह भी स्वप्नवत हो जाएगा, अगर हम अपनी लीनता को तोड़ लेते हैं।

प्रश्न:
भगवान, महावीर पूर्व-जन्म में ही पूर्ण हो गए, यह आपका कहना है। किंतु वर्तमान जीवन में अभिव्यक्ति के साधन खोजने के लिए उन्हें तपश्चर्या करनी पड़ी। पूर्ण में यह अपूर्णता कैसी? क्या पूर्णता में ही अभिव्यक्ति के साधनों की उपलब्धि शामिल नहीं है?
नहीं, पूर्णता की उपलब्धि में अभिव्यक्ति के साधन सम्मिलित नहीं हैं। अभिव्यक्ति की पूर्णता उपलब्धि की पूर्णता से बिलकुल अलग पूर्णता है। असल में पूर्णता भी एक नहीं है, अनंत पूर्णताएं हैं। इससे हमें बड़ी कठिनाई होती है। पूर्णता एक चीज नहीं है, अनंत पूर्णताएं हैं। पूर्णताएं भी अनंत हैं। अनंतानंत महावीर तो कहते हैं। एक दिशा में एक आदमी पूर्ण हो जाता है, इसका यह मतलब नहीं है कि वह और सब दिशाओं में पूर्ण हो गया।
एक आदमी चित्र बनाता है और चित्र बनाने में पूर्ण हो गया। इसका यह मतलब नहीं है कि वह संगीत बजाने में पूर्ण हो जाएगा, कि वीणा बजा सकेगा। वीणा की अपनी पूर्णता है। वीणा की अपनी दिशा है। और कोई अगर वीणा बजाने में पूर्ण हो गया तो इसका यह मतलब नहीं है कि वह नाचने में पूर्ण हो जाएगा। नाचने की अपनी पूर्णता है। मल्टी डायमेंशनल है पूर्णता जो है। बहुआयाम हैं पूर्णता के।

प्रश्न:
भगवान, क्या बहुआयामी पूर्णता किसी को मिली है?
नहीं, असंभव ही है। असंभव ही है कि कोई व्यक्ति समस्त पूर्णताओं में पूर्ण हो जाए। इसलिए असंभव है कि कुछ पूर्णताएं तो ऐसी हैं कि एक में होंगे तो दूसरे में फिर हो ही नहीं सकेंगे, वे विरोधी पूर्णताएं हैं।
जैसे समझ लें कि एक पुण्यात्मा पूर्ण हो जाए, तो फिर पाप की पूर्णता में पूर्ण नहीं हो सकता। पाप की भी अपनी पूर्णता है। यानी पाप की भी अपनी पूर्णता है! और कोई अगर पाप में पूर्ण हो जाए तो वह कैसे पुण्य में पूर्ण होगा? तो न केवल पूर्णताएं अनंत हैं, पूर्णताएं विरोधी भी हैं। तो सब...कोई यह तो सोच ही नहीं सकता कि कोई व्यक्ति समस्त दृष्टि से पूर्ण हो जाए। ऐसा नहीं हो सकता।
परमात्मा की जो धारणा है, वह धारणा इस लिहाज से कीमती है। इसीलिए परमात्मा की धारणा का जो मतलब है, वह यह है कि सिर्फ परमात्मा सब दिशाओं में पूर्ण है। क्योंकि परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, वह सब व्यक्तियों में से अनंत दिशाओं में पूर्णता प्राप्त कर रहा है। परमात्मा अगर कोई व्यक्ति हो तो वह भी पूर्ण नहीं हो सकता सब दिशाओं में। लेकिन पापी से भी वह एक तरह की पूर्णता पा रहा है, पुण्यात्मा से दूसरी तरह की पूर्णता पा रहा है।
तो परमात्मा के अनंत-अनंत जो हाथ हम चित्रों में देखते हैं, उसका कारण कुल इतना है। अनंत हाथों से वह पूर्ण हो रहा है, इसलिए हो सकता है। हम दो हाथों से कैसे पूर्ण होंगे? सब हाथ उसके ही हों, तब तो ठीक है, फिर कोई कठिनाई नहीं रह गई। फिर अगर महावीर एक दिशा में पूर्ण हों और हिटलर दूसरी दिशा में पूर्ण हो जाए तो कोई परमात्मा को कठिनाई नहीं पड़ती, क्योंकि हिटलर के हाथ भी उसके हैं और महावीर के हाथ भी उसके।
परमात्मा को छोड़ कर और कोई सब दिशाओं में पूर्ण नहीं हो सकता। और परमात्मा व्यक्ति नहीं है, इसीलिए। वह शक्ति है--सबकी ही शक्ति का समग्रीभूत नाम है। इसलिए उसको तो छोड़ दें, लेकिन कोई भी व्यक्ति कभी भी इस अर्थ में पूर्ण नहीं होता। उसकी अपनी दिशा होती है, उसमें वह पूर्ण हो जाता है।
अनुभूति की एक दिशा है और अभिव्यक्ति की बिलकुल दूसरी। और अनुभूति के लिए जो करना पड़ता है, अभिव्यक्ति के लिए करीब-करीब उससे उलटा करना पड़ता है। इसलिए दोनों साधी जा सकती हैं, लेकिन एक साथ नहीं। एक सध जाए तो फिर दूसरी साधी जा सकती है।
इसलिए कभी अनुभूति की पूर्णता के साथ अभिव्यक्ति की पूर्णता नहीं होती, क्योंकि अनुभूति में जाना पड़ता है भीतर और अभिव्यक्ति में आना पड़ता है बाहर। और ये बिलकुल ही उलटे आयाम हैं। अनुभूति में छोड़ना पड़ता है सबको, और हो जाना पड़ता है बिलकुल स्व, सब छोड़ कर बिलकुल एक बिंदु। और अभिव्यक्ति में फैलना पड़ता है, सबको जोड़ना पड़ता है। अभिव्यक्ति में दूसरा महत्वपूर्ण है, अनुभूति में स्वयं ही महत्वपूर्ण है। उलटी दिशाएं हैं बिलकुल। जानना मौन में है और बताना वाणी में है। तो जो जानेगा, उसको मौन होना पड़ेगा और जब बताने जाएगा तो फिर शब्द की साधना करनी पड़ेगी।
इसलिए जरूरी नहीं है कि जो अभिव्यक्ति दे रहा हो, वह जानता भी हो। यह जरूरी नहीं है। हो सकता है सिर्फ अभिव्यक्ति हो, तब वह उधार हो जाएगी। किसी और ने जाना होगा, वह सिर्फ अभिव्यक्ति दिए चला जा रहा है। इसलिए बहुत बार ऐसा होता है कि अकेली अभिव्यक्ति वाला आदमी भी बड़ा ज्ञानी मालूम पड़ता है। उसके पास अनुभूति कोई भी नहीं है। सिर्फ उसने उधार अनुभूतियां बटोर ली हैं। पंडित ऐसे ही आदमी को मैं कहता हूं, जिसके पास अभिव्यक्ति है, अनुभूति नहीं। ऐसे भी लोग हैं जिनके पास अनुभूति है, लेकिन अभिव्यक्ति नहीं।
बुद्ध से एक दिन किसी ने जाकर पूछा कि आप इतने वर्षों से समझाते हैं, कितने ऐसे लोग हैं जो उसी सत्य को उपलब्ध हो गए हों जिसको आप हो गए हैं? बुद्ध ने कहा, बहुत। यहीं बैठे हुए हैं। उस आदमी ने पूछा, लेकिन आप जैसा तो इनमें से कोई भी नहीं दिखाई पड़ता--आप जैसा महिमाशाली! तो बुद्ध ने कहा, थोड़ा ही सा फर्क है। मैंने अभिव्यक्ति भी साधी है। अनुभूति में तो वे मेरी जगह पहुंच गए हैं। अभिव्यक्ति! तो जब तक अभिव्यक्ति न साधें, तुम्हें उनका पता भी नहीं चलेगा। क्योंकि जब वे तुमसे कहेंगे, तब तुम जानोगे। उन्हें हो गया है, इससे थोड़े ही जानोगे।
केवल-ज्ञानी और तीर्थंकर में यही फर्क है। तीर्थंकर भी केवल-ज्ञानी से ज्यादा नहीं है, सिर्फ अभिव्यक्ति और है उसके पास। केवल-ज्ञानी तीर्थंकर से इंच भर कम नहीं है; अनुभूति में वहीं है, जहां वह है; सिर्फ अभिव्यक्ति नहीं है उसके पास।

प्रश्न:
केवल-ज्ञानी के पास?
अभिव्यक्ति नहीं है। अभिव्यक्ति साध ले तो वह भी टीचर हो जाता है, वह भी शिक्षक हो जाता है। अभिव्यक्ति न साधे तो अनुभूति तो होती है, सिद्ध होता है, लेकिन बंद हो जाता है; सब तरफ फैला नहीं पाता कि जो उसने जाना है, उसे कह दे।
तो अनुभूति की पूर्णता तो महावीर को पिछले जन्म में हुई है, अभिव्यक्ति की पूर्णता के लिए उन्हें इस जन्म में साधना करनी पड़ी। और मैं कहता हूं कि अनुभूति की पूर्णता उतनी कठिन चीज नहीं है, जितनी अभिव्यक्ति की पूर्णता कठिन चीज है। बहुत ही कठिन है। क्योंकि अनुभूति में मैं अकेला ही हूं, जो भी मुझे करना है, अपने से ही करना है। अभिव्यक्ति में दूसरा सम्मिलित हुआ जा रहा है। इसलिए दूसरे को जानना, समझना, दूसरे तक पहुंचाना; दूसरे की भाषा है, दूसरे का अनुभव है, दूसरे का व्यक्तित्व है; करोड़-करोड़ तरह के व्यक्तित्व हैं, करोड़-करोड़ योनियों में बंटा हुआ प्राण है, उन सब पर प्रतिध्वनि हो सके, उन सब तक खबर पहुंच सके; पत्थर भी सुन ले और देवता भी सुन ले; उस सबकी फिकर साधना बहुत बड़ी बात है।
इसलिए केवल-ज्ञान तो बहुत लोगों को उपलब्ध होता है, लेकिन तीर्थंकर बहुत कम लोग बन पाते हैं। उसका कारण यह है, केवल-ज्ञान तो अनंत-अनंत लोगों को उपलब्ध होता है, परिपूर्ण ज्ञान की अनुभूति तो करोड़ों लोगों को होती है, लेकिन जिसको हम शिक्षक कह सकें, तीर्थंकर कह सकें--जो बता भी सके कि ऐसे हुआ है--ऐसा मुश्किल से कभी होता है।
इसलिए मैंने कल कहा, वह पहले जन्म में तो...पर हमारा क्या होता है, हम पूर्णता को बड़े टोटेलिटेरियन सेंस में लेते हैं।

प्रश्न:
इसीलिए गड़बड़ हो जाती है?
हां, इसलिए गड़बड़ हो जाती है।

प्रश्न:
तो पूर्णता कहते हुए अलग-अलग कहना पड़ेगा?
बिलकुल अलग कहना पड़े, बिलकुल अलग कहना पड़े...।

प्रश्न:
भगवान, तो जब आप पूर्णता कहते हैं, तो उसमें अलग-अलग करना पड़ेगा?
अलग-अलग करना ही पड़े, क्योंकि कोई व्यक्ति अनुभूति में पूर्ण हो सकता है और अभिव्यक्ति बिलकुल न हो। अनेक लोग जाने हैं और मौन रह गए, फिर कहा ही नहीं उन्होंने। खोज ही नहीं सके मार्ग कहने का वे। खोज ही नहीं सके।
जैसा मैंने कल कहा। जैसे कि आप अभी जाएंगे डल झील पर और सौंदर्य को देखेंगे। और हो सकता है कि सौंदर्य का पूर्ण अनुभव आपको हो जाए, लेकिन इससे यह मतलब नहीं कि आप आकर एक पेंटिंग बना सकें जिसमें आप डल झील को पेंट कर दें। इससे यह मतलब नहीं है। और यह भी हो सकता है कि आपसे कम अनुभव किसी को हो और वह आकर पेंट कर दे, क्योंकि पेंट की कुशलता अलग बात है। मेरा मतलब समझे न आप?
पेंटिंग की कुशलता बिलकुल अलग बात है अनुभूति की कुशलता से। अनुभूति तो आपको हो सकती है डल झील पर जाकर सौंदर्य की, सारा प्राण भीग जाए, लेकिन आपसे कोई कहे कि रंग उठा कर और ब्रुश उठा कर जरा पेंट कर दें, तो आप कहें, यह मुझसे नहीं हो सकेगा।

प्रश्न:
दोनों होता तो पूर्णता कहते उसको?
और भी दिशाएं हैं न! और भी दिशाएं हैं, और भी दिशाएं हैं, क्योंकि जब आप डल झील पर गए थे तो आपने सोचा होगा कि आप सिर्फ देख रहे हैं। वह सौंदर्य सिर्फ देखने का नहीं था। अगर आप बहरे होते तो इतना सौंदर्य आपको दिखाई न पड़ता।
उसमें चिड़ियों की आवाज भी छिपी थी, उसमें लहरों की छप-छप भी छिपी थी, उसमें सब था जुड़ा हुआ। अगर आप बहरे होते तो आप देख तो लेते, लेकिन आपके देखने में कमी रह गई होती। उसमें आस-पास जो सुगंध आ रही थी, वह भी उस सौंदर्य का हिस्सा थी।
हमको कभी पता नहीं चलता कि जब कोई एक आदमी किसी स्त्री को प्रेम करता है तो वह कभी नहीं सोचता कि उसके शरीर की गंध भी उसमें कोई तीस परसेंट हिस्सा लेती है, कम नहीं। यानी वह कितनी ही सुंदर हो, अगर उसकी गंध उसको मेल नहीं खाती है तो वह बिलकुल ही तालमेल नहीं बैठ सकता, कभी तालमेल नहीं बैठ सकता। उसके शरीर की एक गंध है जो उसे भीतर से आकर्षित करती है। और पर्टिकुलर गंध है, जो पर्टिकुलर लोगों को आकर्षित करती है, नहीं तो नहीं करती। यानी वह कितनी ही सुंदर हो, जरा सी गंध उसकी विपरीत हो, तो कभी तालमेल नहीं होगा, विरोध बना ही रहेगा, झंझट खड़ी ही रहेगी और आप कभी सोच भी नहीं पाएंगे कि उसके शरीर की गंध बाधा दे रही है।
तो जैसे कि सौंदर्य बड़ी चीज है, उसमें गंध भी सम्मिलित थी, उसमें ध्वनि भी सम्मिलित थी, उसमें रंग भी सम्मिलित थे, उसमें सब सम्मिलित था। वह एक टोटल बात थी। आप आकर अगर पेंट भी कर लो और मैं आपसे कहूं कि झील पर जो संगीत अनुभव हुआ था, वह बजाओ। आप कहोगे, वह मैं नहीं कर सकता हूं। तब भी आप पेंट करके सिर्फ आंख से जो देखा गया था, वही पेंट कर पा रहे हो; कान से जो जाना गया था, वह आप नहीं कर पा रहे हो; नाक से जो जाना गया था, वह आप नहीं कर पा रहे हो। तो भी पूर्णता पूर्णता नहीं है।
तब फिर मेरा कहना ऐसा है कि अगर हम संपूर्णता के लिए रुकेंगे तो शायद कोई आदमी कभी पृथ्वी पर संपूर्ण नहीं रहा और न हो सकता है। असंभव है। और असंभव के बहुत भीतरी कारण हैं, वे हमें दिखाई नहीं पड़ते। जैसे जिस आदमी की आंख रंगों को देखने लगेगी बहुत गहराई में, उस आदमी के कान धीमे-धीमे शक्ति खो देते हैं। इसलिए अंधों के पास कान की जो शक्ति होती है, आंख वालों के पास कभी नहीं होती। इसलिए अंधा जैसा संगीतज्ञ हो सकता है, आंख वाला कभी नहीं हो सकता। उसका कारण है कि भीतर शक्ति की सीमा है। अगर वह पूरी आंख से बहने लगती है तो दूसरी इंद्रियों से खींच लेती है; अगर पूरे कान से बहने लगती है तो दूसरी इंद्रियों से खींच लेती है।
तो अंधे के पास कान की ताकत सदा ज्यादा होती है, क्योंकि आंख की जो शक्ति बच गई है, वह क्या करे, वह कानों से बह जाती है। तो अगर कोई व्यक्ति संगीत में बहुत कुशल हो जाए तो कान तो ट्रेंड हो जाएगा, लेकिन आंखें मंदी हो जाएंगी, स्पर्श क्षीण हो जाएगा। और दिशाओं में वह एकदम सिकुड़ जाएगा।
शक्ति सीमित है और अनुभूति अनंत है। इसलिए सिर्फ परमात्मा को छोड़कर, जो कि सभी शक्ति का जोड़ है, कोई व्यक्ति कभी संपूर्ण नहीं होगा। हां, लेकिन एक-एक दिशा में पूर्णता पा लेने से वह परमात्मा में लीन हो जाता है और परमात्मा में लीनता पाने से वह समग्र में पूर्ण हो जाता है। वह बिलकुल दूसरी बात है।
इसे थोड़ा खयाल में लेना चाहिए। जैसे कोई नदी कभी पूर्ण नहीं होगी, लेकिन सागर में खोकर पूर्ण हो जाती है। नदी रहते नहीं होगी पूर्ण, क्योंकि उसके किनारे होंगे, तट होंगे। लेकिन सागर में होकर वह पूर्ण हो जाती है।
जब तक कोई व्यक्ति है, तब तक वह एक दिशा में ही पूर्ण हो सकता है, दो दिशा में हो सकता है, तीन दिशा में हो सकता है, लेकिन समस्त पूर्णताओं को नहीं पकड़ सकता। लेकिन एक दिशा में भी कोई पूर्ण हो जाए तो वह उस द्वार पर खड़ा हो जाता है, जहां से परमात्मा में प्रवेश संभव है--एक दिशा में भी पूर्ण हो जाए। यानी पूर्णता जो है वह किसी भी दिशा से लाई गई हो, परमात्मा के द्वार पर खड़ा कर देती है। और अगर वहां से वह अपने को छोड़ दे और खो जाए तो वह परमात्मा के साथ एक हो गया। उस अर्थ में वह अब संपूर्ण हो गया। लेकिन अब वह रहा ही नहीं। अब वह नदी रही नहीं, अब वह सागर ही हो गई है।
अनंत-अनंत पूर्णताओं की दृष्टि अगर हमारे खयाल में हो तो हम और बहुत सी बातें समझ सकेंगे। तब हम समझ सकेंगे कि सर्वज्ञ का क्या मतलब होगा। तब हम पागलपन में नहीं पड़ेंगे। तब हम इतना ही कहेंगे कि महावीर, स्वयं को जानने में जो भी जाना जा सकता था, वह सब जान लिए हैं। सर्वज्ञ का यह मतलब होगा। फिर यह मतलब नहीं होगा कि वह साइकिल का टायर फट जाए तो उसको जोड़ना भी जानते हैं। उसका यह मतलब नहीं होगा कि आदमी को टी.बी. हो जाए तो उसकी दवाई भी जानते हैं। सर्वज्ञ का यह मतलब नहीं होगा।
लेकिन महावीर को पकड़ने वालों ने सर्वज्ञ का कुछ ऐसा मतलब पकड़ लिया है कि जो भी जाना जा सकता है, वह सब वे जानते हैं। आइंस्टीन को भी वे जानते हैं, मोझर्ट को भी वे जानते हैं, बीथोवन को भी वे जानते हैं, सबको वे जानते हैं। यह बिलकुल फिजूल, गलत बात है।
सर्वज्ञ का इतना ही मतलब है कि जिस पूर्णता की एक दिशा को उन्होंने पकड़ा है, उसमें वे सर्वज्ञ हो गए हैं। आत्मज्ञान की दिशा में वे सर्वज्ञ हैं। जो भी आत्मज्ञान की दिशा में जाना जा सकता है, वह सब उन्होंने जान लिया है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है, इसका यह मतलब नहीं है कि वे आपको कोई बीमारी है तो वह जानते हैं; भविष्य में क्या होगा, वह जानते हैं; कल क्या होगा, वह जानते हैं; कल क्या हुआ था, वह जानते हैं! इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है। इनसे कोई मतलब नहीं है।
और इस तरह बहुत तरह के लोग सर्वज्ञ हो सकते हैं, चूंकि मैंने कहा कि पूर्णताएं अनंत हैं, तो अनंत तरह के लोग सर्वज्ञ हो सकते हैं।

प्रश्न:
इसी तरह हमारे केवल-ज्ञान भी फलित पैदा हुआ। वह भी एक ही...।
उसका हां, उसका मतलब ही इतना ही है। केवल-ज्ञान तो शब्द ही बहुत अदभुत है, हमें खयाल में नहीं आता। केवल-ज्ञान का मतलब है...केवल-ज्ञान का मतलब क्या होता है? उसका मतलब सिर्फ इतना होता है कि जहां ज्ञेय न रहा, जहां ज्ञाता न रहा, बस ज्ञान रह गया। जस्ट नोइंग। केवल-ज्ञान का मतलब है, जस्ट नोइंग। न कुछ जानने को शेष रहा, न कोई जानने वाला शेष रह गया। बस ज्ञान ही शेष रह गया। जानने की क्षमता ही सिर्फ शेष रह गई।

प्रश्न:
वह हर चीज की...?
नहीं, बिलकुल नहीं, बिलकुल नहीं। वह हर चीज से हम जोड़ कर ही दिक्कत में पड़ जाते हैं। जानने की शुद्ध क्षमता शेष रह गई है उसमें। यह क्षमता पूर्ण है। पूर्ण इस अर्थ में नहीं कि वह सब जानता है, पूर्ण इस अर्थ में कि जैसे समझ लें। समझ लें कि एक आदमी है, वह गीत गाने की पूर्ण क्षमता को उपलब्ध हो गया है। इसका यह मतलब नहीं कि उसने सब गीत गाए, क्योंकि गीत अनंत हैं। इसका यह मतलब भी नहीं कि वह सब गीत गाएगा, क्योंकि गीत अनंत हैं। इसका यह मतलब नहीं कि इस वक्त वह गा रहा है। लेकिन गीत गाने की पूर्णता को उपलब्ध हो गया है।
उसका मतलब यह है कि अब वह जो भी गीत गाना चाहे, गा सकता है। लेकिन जब वह एक गीत गाएगा तब दूसरा गीत न गा पाएगा। तब एक गीत बांध लेगा उसको। जब तक वह कुछ नहीं गा रहा है, तब तक वह कोई भी गीत गा सकता है। सिर्फ क्षमता है यह। यानी केवल-ज्ञान जो है, वह जस्ट नोइंग--क्षमता है।

प्रश्न:
जान सब गया।
न-न-न! जान सकता है।

प्रश्न:
जान सकता है!
हां, जानने की क्षमता उसकी शुद्ध निर्मल हो गई है, वह कुछ भी जान सकता है।

प्रश्न:
उसकी प्रकटता क्या है? बाहर के लोगों को कैसे मालूम पड़ेगा?
हां, उसकी अपन पीछे बात करेंगे।
वह सिर्फ जानने की...जैसे कि आईना है। आईने का क्या मतलब है? उसके पास एक क्षमता है कि वह दर्पण हो सकता है। जरूरी नहीं है कि इस वक्त उसमें कोई छाया बन रही हो, किसी आदमी का चेहरा बन रहा हो, वह खाली पड़ा हो। लेकिन कोई भी चेहरा सामने आए तो जाना जा सकता है। दर्पण जाने जा सकने की क्षमता रखता है। वह उसकी पोटेंशियलिटी है। जरूरी नहीं है कि इस वक्त कोई उसके सामने खड़ा हो, वह जाने। हां, कोई भी खड़ा हो जाए तो वह जानेगा। लेकिन एक खड़ा हो जाए तो दूसरे को जानना मुश्किल हो जाएगा और दो खड़े हो जाएं तो तीसरे को जानना मुश्किल हो जाएगा। और दस आदमी उसको घेर लें तो पीछे करोड़ों की भीड़ हो तो उसको जानना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन इनमें से कोई भी आदमी उसके सामने खड़ा हो तो वह जान सकेगा।
केवल-ज्ञान का मतलब है ज्ञान की शुद्धता उपलब्ध हो गई है। ज्ञान नहीं, नालेज नहीं--नोइंग। समझ लेना चाहिए जो फर्क है। नालेज नहीं उपलब्ध हो गई है--नोइंग। हां, जानने की क्षमता उपलब्ध हो गई है। अब वह जिस दिशा में भी लगा देगा, उसी दिशा में पूर्णता को जान लेगा। हां, पूर्णता को जान लेगा, जिस दिशा में लगा देगा। लेकिन एक दिशा में लगाएगा, तो दूसरी दिशाओं से तत्काल वंचित हो जाएगा।
और मजा यह है कि शुद्ध ज्ञान की क्षमता में जीना इतना आनंदपूर्ण है कि फिर उसे कोई लगाता नहीं। यह जो मामला है न, शुद्ध दर्पण होना इतना आनंदपूर्ण है कि कौन प्रतिबिंब बनाए!
इसलिए केवल-ज्ञानी सब जानना छोड़ देता है। जानने की जैसे ही शुद्धता उपलब्ध होती है, जानना ही छोड़ देता है। क्योंकि अब सब जानना उसके जानने की क्षमता पर ऊपर छाएगा और उसके जानने की क्षमता को अशुद्ध करेगा, आवरण बनेगा।
तो अब यह बड़े मजे की बात है, केवल-ज्ञानी जो कि जान सकता है किसी भी चीज को, सब जानना छोड़ देता है। जानता ही नहीं फिर वह। फिर जानने की क्षमता में ही रम जाता है। वह इतना आनंदपूर्ण है कि कौन सी बाधा ले वह! जानने की क्षमता ही इतनी आनंदपूर्ण है कि वह क्यों जानने जाए किसी को? अज्ञान जानने जाता है और ज्ञान ठहर जाता है। अज्ञान जानने जाता है, क्योंकि अज्ञान में जिज्ञासा है कि जानूं। और जब ज्ञान की क्षमता उपलब्ध होती है तो ज्ञान ठहर जाता है, वह जानने जाता ही नहीं है, क्योंकि जानने का कोई सवाल भी नहीं रह जाता!
अज्ञान भटकाता है, यात्रा करवाता है। ज्ञान ठहरा देता है। अब यह मजे की बात है, अज्ञानी इसलिए जानते हुए मिल जाएंगे और केवल-ज्ञानी बिलकुल ही मौन हो जाएगा, जानता हुआ भी नहीं मालूम पड़ेगा। क्योंकि अज्ञानी चेष्टा कर रहा है निरंतर--यह जानूं, यह जानूं, यह जानूं।
तो यह केवल-ज्ञान की तो धारणा ही बहुत अदभुत है, लेकिन उसको इस तरह विकृत किया हुआ है जिसका कोई हिसाब नहीं। उसका हमने कुछ ऐसा मतलब निकाल लिया है कि जो सब जानता है! नहीं, जो सब जान सकता है! इन दोनों में बिलकुल भिन्नता है। और जो जान सकता है, वह जानेगा, यह जरूरी नहीं है। आमतौर से तो यही जरूरी है कि वह जानेगा ही नहीं। अब इस झंझट में ही नहीं पड़ेगा। अब वह झंझट में ही नहीं पड़ेगा।
इसलिए अगर मैं आपसे कहूं कि केवल-ज्ञानी सब जान सकता है और कुछ भी नहीं जानता है, तो आप इसमें विरोध मत समझना। सब जान सकता है और कुछ भी नहीं जानता है। अब वह किसी दिशा में जाता ही नहीं, वह चुप खड़ा हो जाता है।
यह खड़ा होना ही इतना आनंदपूर्ण है, इतना मुक्तिदायी है! और अगर वह किसी दिशा में गया तो परमात्मा में नहीं जा सकेगा, यह बात और समझ लेनी चाहिए। किसी भी दिशा में गया हुआ व्यक्ति परमात्मा में नहीं जा सकेगा, क्योंकि परमात्मा सब दिशाओं का जोड़ है। और एक दिशा में गया हुआ व्यक्ति शेष दिशाओं के विपरीत पड़ जाता है।
इसलिए जिस व्यक्ति को परिपूर्ण ज्ञान की क्षमता उपलब्ध होगी, वह तत्काल सब दिशाएं छोड़ देगा और परमात्मा में लीन हो जाएगा। परमात्मा का मतलब है, नो व्हेयरनेस। और दिशा का मतलब होता है, समव्हेयर। अगर किसी भी दिशा में जा रहे हैं तो कहीं जा रहे हैं। और परमात्मा का मतलब है कहीं नहीं जा रहे हैं, सब कहीं में लीन हो गए हैं। तो जो उस पूर्ण स्थिति पर पहुंचता है, जहां सिर्फ जानना ही शेष रह जाता है, वह एकदम डूब जाता है।

प्रश्न:
वह सर्वव्यापी हो गया?
हो ही गया, हो ही गया। जैसे कि एक बूंद सागर में गिरी और सर्वव्यापी हो गई, क्योंकि वह सागर से एक ही हो गई। और जब तक वह दिशा पकड़े रहता है, तब तक वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता।
जीसस ने कहा है, जो अपने को बचाएंगे, वे नष्ट हो जाएंगे। जो अपने को खो देंगे, वे सब पा लेंगे। बचाओ मत अपने को, खो दो। लेकिन खो वही सकता है, जिसका अब कोई किनारा नहीं, किनारे खोने की हिम्मत होनी चाहिए। नदी यदि किनारा पकड़े रहे तो सागर में कैसे जाए? तो फिर डेल्टा पर खड़ी हो जाए, कि यह तो खोना हुआ जा रहा है, सब किनारा छूटा जा रहा है!
दिशाओं के तो किनारे होते हैं और परमात्मा जो है, वह डायमेंशनलेस, आयाम-शून्य है, इसलिए वहां कोई किनारा नहीं है। उतनी खोने की क्षमता--उस क्षमता का ही नाम केवल-ज्ञान है, जहां सिर्फ जानना शेष रह जाता है और आदमी डूब जाता है। फिर वह जानने की कोशिश में नहीं पड़ता।
यहां दो संभावनाएं हैं, या तो वह डूब जाए परमात्मा में, जो सामान्यतया होता है, या एक जीवन के लिए वह लौट आए और जहां पहुंचा है उस क्षमता की खबर दे जाए। उसी को मैं करुणा कह रहा हूं। और वह करुणा हो तो उसे अभिव्यक्ति की पूर्णता पानी पड़े। वह एक दूसरा उपाय करना पड़े उसे, क्योंकि अब उसे दूसरे से कहना है।
गूंगा भी जान सकता है सत्य को, लेकिन कह नहीं सकता। गूंगा भी प्रेम कर सकता है, लेकिन कह नहीं सकता। और गूंगे को अगर कहना हो अपनी प्रेयसी को कि मैं तुझे प्रेम करता हूं, तो वाणी सीखनी पड़े। प्रेम करने के लिए वाणी सीखने की जरूरत नहीं है। प्रेम करना एक और बात है। वह गूंगा भी कर सकता है प्रेम। गूंगा इशारों से कुछ बातें कर भी सकता है। लेकिन अगर उसे कहना हो, बताना हो, क्या जाना है उसने प्रेम में, तब फिर उसे और एक दूसरी तरह की पूर्णता पानी पड़े।
महावीर इस जन्म में उस दूसरी तरह की पूर्णता की साधना में लगे हैं।
उस पर रात अपन बात करेंगे कि वह साधना कैसी है।
फिर कल और बात करेंगे।

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