ASHTAVAKRA
Maha Geeta 81
EightyFirst Discourse from the series of 91 discourses - Maha Geeta by Osho. These discourses were given during SEP 11 - FEB 10 1977.
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अष्टावक्र उवाच।
न शांतं स्तौति निष्कामो न दुष्टमपि निंदति।
समदुःखसुखस्तृप्तः किंचित् कृत्यं न पश्यति।। 258।।
धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मानं न दिदृक्षति।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति।। 259।।
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
निश्चिंत स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः।। 260।।
तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथापतितवर्तिनः।
स्वच्छंदं चरतो देशान्यत्रास्तमितशायिनः।। 261।।
पततूदेतु वा देहो नास्य चिंता महात्मनः।
स्वभावभूमिविश्रांतिविस्मृताशेषसंसृतेः।। 262।।
अकिंचनः कामचारो निर्द्वंद्वश्छिन्नसंशयः।
असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः।। 263।।
देख मत तू यह कि तेरे
कौन दायें कौन बायें
तू चला चल बस, कि सब
पर प्यार की करता हवाएं
दूसरा कोई नहीं, विश्राम
है दुश्मन डगर पर
इसलिए जो गालियां भी दे
उसे तू दे दुआएं
बोल कड़वे भी उठा ले
गीत मैले भी घुला ले
क्योंकि बगिया के लिए
गुंजार सबका है बराबर
फूल पर हंसकर अटक तो
शूल को रोकर झटक मत
ओ पथिक! तुझ पर यहां
अधिकार सबका है बराबर
चैतन्य का जो अंतिम शिखर है, वहां सब स्वीकार है। जैसा है वैसा ही स्वीकार है। अन्यथा की कोई मांग नहीं है।
जब तक अन्यथा की मांग है, संसार शेष है। जब तक ऐसा लगे कि ऐसा होता तो अच्छा होता, ऐसा न होता तो अच्छा होता, तब तक मन कायम है। तब तक संसार जारी है।
जब ऐसा लगे कि जैसा है वैसा ही शुभ है, जैसा है ऐसा ही हो सकता था, जैसा है ऐसा ही होना था, जैसा है ऐसा ही होना चाहिए था; जो है, उसके साथ जब तुम्हारे स्वर संपूर्ण रूप से तालमेल खा जाते हैं, तो समर्पण, तो संन्यास, तो संसार समाप्त हुआ, तो तुम हुए जीवनमुक्त।
जहां तथाता परिपूर्ण है; जहां जरा-सी भी, इंच भर भी रूपांतरण की कामना नहीं--न बाहर, न भीतर; जहां इस क्षण के साथ पूरी समरसता है, वहीं शांति है। वहीं सम्यकत्व है।
पहला सूत्र--
न शांतं स्तौति निष्कामो न दुष्टमपि निंदति।
समदुःखसुखस्तृप्तः किंचित् कृत्यं न पश्यति।।
‘निष्काम पुरुष को न तो शांत पुरुष के प्रति कोई स्तुति का भाव पैदा होता’...महात्मा को देखकर भी निष्काम पुरुष के मन में कोई स्तुति का भाव पैदा नहीं होता...‘और दुष्ट को देखकर निंदा का भाव पैदा नहीं होता।’
तुम महात्मा की स्तुति करते हो, क्योंकि तुम महात्मा होना चाहते हो। स्तुति हम किसकी करते हैं? स्तुति हम उसी की करते हैं, जैसे हम होना चाहते। निंदा हम किसकी करते हैं? निंदा हम उसी की करते हैं जैसे हम नहीं होना नहीं चाहते। निंदा हम उसी की करते हैं जैसे हम चाहते हैं कि न हों और पाते हैं कि हैं। और स्तुति हम उसी की करते हैं जैसे हम चाहते हैं कि हों, सोचते भी हैं कि हैं और अभी हैं नहीं। स्तुति है अपने भविष्य की, निंदा है अपने अतीत की।
ईसाई फकीरों में बड़ा प्रसिद्ध वचन है: ‘हर संत का अतीत है और हर पापी का भविष्य है।’ जो आज संत है, कल अतीत में पापी था। इसलिए हर संत का अतीत है। और अतीत संतत्व से भरा हुआ नहीं हो सकता। और हर पापी का भविष्य है। आज जो पापी है, वह कल संत हो जाएगा, हो सकता है। तो जब तुम किसी की स्तुति करते हो, तब तुम क्या कर रहे हो, तुमने कभी सोचा? राजनेता गांव में आया, तुम चले! तुम सोचते हो तुम महान नेता के दर्शन करने को जा रहे हो, तुम गलती में हो। तुम्हारे मन में भी राजपद का मोह है। तुम भी चाहते हो पद हो, प्रतिष्ठा हो...जो तुम्हें नहीं हो सका है और किसी और को हो गया है, चलो कम-से-कम उसके दर्शन कर आएं!
एक होटल में एक आदमी भीतर प्रविष्ट हुआ। बड़ा मजबूत आदमी, ऊंचा-तगड़ा। उसने एक गिलास शराब पी ली और जोर से चिल्लाकर कहा, है किसी की ताकत कि जरा आजमाइश कर ले? लोग सिकुड़कर और डरकर बैठ गये। फिर उसने चिल्लाकर कहा कि कोई दमदार नहीं, कोई मर्द नहीं, सब नामर्द बैठे हैं? एक छोटा-सा आदमी उठा। लोग तो चकित हुए कि यह छोटा आदमी किसलिए उठ रहा है! यह तो इसको चकनाचूर कर देगा!!
लेकिन वह छोटा आदमी ‘कराते’ का जानकार था। उसने जाकर दो-चार हाथ मारे, वह जो बड़ा तगड़ा आदमी था, क्षण भर में जमीन पर चारों खाने चित हो गया। और वह छोटा आदमी उसकी छाती पर बैठ गया और बोला, बोलो क्या इरादा है! देखा मर्द? वह बड़ा आदमी, मजबूत आदमी बड़ा हैरान हो गया। उसने कहा, आखिर भाई तू है कौन? तो उसने कहा मैं वही हूं, जो तुम सोचते थे कि तुम हो जब तुम होटल में भीतर आए थे। मैं वही हूं जो तुम सोचते थे कि तुम हो, जब तुम होटल में भीतर आए थे। जो शराब पीकर तुमने सोचा कि तुम हो, मैं वही हूं। कुछ कहना है?
हम जब स्तुति करते किसी की, तो किसी बहुत गहरे तल पर अचेतन मन के हम अपने ही भविष्य की तलाश कर रहे हैं, जैसा हम होना चाहते हैं। इसलिए जो आदमी राजनेता के दर्शन को जाता है वह संत के दर्शन को नहीं जाएगा। या अगर संत के भी दर्शन को जा रहा हो, तो इस आदमी के मन में राजनीति और धर्म का कोई भेद ही नहीं है। जिसकी भी प्रतिष्ठा है! यह प्रतिष्ठित होना चाहता है, कैसे प्रतिष्ठा मिलेगी इसकी इसे कोई चिंता नहीं है। यह अपने अहंकार की पूजा चाहता है। चाहे राजनेता होकर मिल जाए, चाहे महात्मा होकर मिल जाए, इसे अहंकार पर आभूषण चाहिए।
तुम जब स्तुति करते हो किसी की, तो तुमने अपनी मांग जाहिर की, तुमने अपनी वासना प्रगट की--ऐसा मैं होना चाहता हूं। नहीं हो पाया, मजबूरी है; लेकिन उसे तो देख आऊं जो हो गया है! उसके चरण में तो श्रद्धा के फूल चढ़ा आऊं कि मैं तो हार गया लेकिन तुम हो गये, चलो, कोई तो हो गया! मगर यह घटना घट सकती है, इसके लिए आंख भर कर देख तो आऊं! जब तुम बुद्ध के पास जाते हो और बुद्ध के चरणों में सिर झुकाते हो, तब भी तुम यही कह रहे हो। मैं तो न हो सका, मैं तो खो गया मार्गों में, अनंत थे मार्ग, राह न मिली, मैं तो कांटों में उलझ गया, आप पहुंच गये! आपके दर्शन ही कर लूं, आंख इतने से ही भर लूं! इतना तो भरोसा आ जाए कि भला मैं भटक गया, लेकिन भटकाव अनिवार्य नहीं है। पहुंचना हो सकता था--कोई पहुंच गया है।
या तुम जब किसी की निंदा करते हो। बटर्रेंड रसॅल ने लिखा है कि अक्सर ऐसा होता है कि जब कोई आदमी किसी बात की बहुत निंदा करता हो, तो जरा उस आदमी को गौर से देखना। समझो कि यहां किसी की जेब कट जाए, और एक आदमी जोर से चिल्लाने लगे, पकड़ो, मारो, कौन है चोर, ठिकाने लगा देंगे! उस आदमी को पहले पकड़ लेना। बहुत संभावना तो यह है कि यह आदमी चोर है, इसी ने जेब काटी है। चोर बहुत जोर से चिल्लाता है। जोर से चिल्लाने के कारण दूसरों को भरोसा आ जाता है कि कम-से-कम यह तो चोर नहीं हो सकता। चोर होता तो यह चिल्लाता! चोर होता तो यह चोरी के इतने खिलाफ कैसे होता! इसलिए जो होशियार चोर है, वह चोरी के खिलाफ चिल्लाता है, शोरगुल मचाता है, और इसी तरह बच जाता है। कोई सीधा-सा आदमी डर के मारे अगर चुपचाप सिकुड़ा खड़ा रह जाए कि कहीं ऐसा न हो कि कोई हम पर शक कर ले, वह पकड़ लिया जाएगा। जो शोरगुल कर रहा है, उसे तो कौन पकड़ेगा!
बटर्रेंड रसॅल ने लिखा है कि जो आदमी जिस बात की जितनी निंदा करे, समझना कि भीतर गहरे में उसका कोई न्यस्त स्वार्थ है। या तो वह पाता है कि मैं ऐसा हूं, या तो वह डरा हुआ है कि कहीं जाहिर न हो जाए...तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी कामवासना की इतनी निंदा करते हैं उसका कुल कारण इतना है, कामवासना उनके भीतर बड़ी लहरें व तरंगें ले रही है। वे स्त्री से पीड़ित व परेशान हैं। इसलिए तुम्हारे शास्त्र स्त्रियों को गाली दिये जाते हैं। वे जो शास्त्र लिखनेवाले हैं, जरूर कहीं न कहीं स्त्री से बहुत पीड़ित रहे होंगे। उनके सपने में स्त्री उनको सता रही होगी। स्त्री उनका पीछा कर रही है। वे स्त्री से भाग गये हैं। जिससे कोई भाग जाता है, उससे कभी भाग नहीं पाता। जिससे भागे, उससे उलझे रह जाओगे। वे जो तुम्हारे शास्त्रकार तुमसे कहते हैं, धन से बचो, धन में पाप है, समझ लेना उनका लोभ अभी भी धन में लगा है। अन्यथा, इतनी निंदा का कोई कारण न था।
असल में तो निंदा का कोई कारण ही नहीं है। परमज्ञानी को न तो कोई स्तुति है, न कोई निंदा है। न तो वह महात्मा के चरणों में फूल चढ़ाने जाता और न निंदक के सिर पर अंगारे रखने जाता, जूते मारने जाता। बुरे को जूते नहीं मारता, भले का सम्मान नहीं करता। अगर कोई भला है, तो भला; अगर कोई बुरा है, तो बुरा। जैसा है, वैसा है।
इस बात को थोड़ा समझना। यह परम दशा की व्याख्या है। जैसा है, वैसा है। राम राम हैं, रावण रावण है। जैसा है, वैसा है। नीम कड़वी है और आम मीठा है। क्या तो नीम की निंदा और क्या आम की प्रशंसा! क्या सार है? कांटा कांटा है, फूल फूल है। जो जैसा, वैसा। इसमें रत्ती भर आकांक्षा नहीं है, आकांक्षा का कोई संबंध नहीं है।
न शांतं स्तौति निष्कामो।
जो स्वयं निष्काम हो गया है, वह शांत व्यक्ति की भी स्तुति नहीं करता। जब निष्काम ही हो गया, तो अब तो शांति की भी कामना नहीं है। तो स्तुति का क्या प्रयोजन!
न दुष्टमपि निंदति।
और न दुष्ट की निंदा करता। निंदा में भी दुष्टता है। तुम जब किसी की निंदा करते हो तब भी उसमें दुष्टता ही छिपी हुई है। निंदा में भी तुम चोट पहुंचाने की चेष्टा कर रहे हो। निंदा करके तुम स्वयं ही निंदित हो गये। न तो स्तुति का कुछ अर्थ है, न निंदा का कुछ अर्थ है। निष्काम व्यक्ति न पक्ष में है, न विपक्ष में। निष्काम व्यक्ति का कोई आग्रह नहीं है। निष्काम व्यक्ति अनाग्रही है।
‘वह दुख और सुख में समान है। सब स्थितियों में तृप्त। और उसको करने को कुछ भी नहीं बचा है।’
समदुःखसुखस्तृप्तः।
दोनों में समभाव आ गया है। इस समभाव की ही सारी खोज है इस देश में। जैन इसे कहते हैं, सम्यकत्व। लेकिन बात सम की है। बुद्ध कहते हैं, संतुलन, सम्यक। बात सम की है। हिंदू कहते हैं, समाधि--सम, आधि। बात सम की है। अगर एक छोटा-सा शब्द चुनना हो जिसमें पूरे पूरब की मनीषा समा जाती हो तो वह, सम। सम का अर्थ है, जिसके मन में न अब इधर डोलना रहा, न उधर डोलना रहा। न जो बायें झुकता, न दायें झुकता। क्योंकि इधर झुके तो खाई, उधर झुके तो कुआं। झुके कि भटके। जो झुकता ही नहीं। जो मध्य में खड़ा हो गया है। जो थिर हो गया, अकंप। समता, सम्यकत्व, समाधि।
अंग्रेजी में भी, यूनानी-लैटिन में भी संस्कृत का यह सम शब्द बच रहा है। इसने अनेक थोड़े फर्क रूप ले लिये हैं, लेकिन बच रहा है। अंग्रेजी के शब्दों में ‘सिन्थेसिस’ में जो सिन है, वह सम का ही रूप है। ‘सिम्फोनी’ में। ‘सिनाप्सिस’ में। जहां-जहां सिन प्रत्यय है, वह सम का ही रूप है।
सम चित्त की एक आंतरिक दशा है। ऐसी दशा, जहां कोई कंपन नहीं है। अकंप दशा। अगर तुम्हारे मन में शुभ की प्रशंसा है, अशुभ की निंदा है, तो तुम कंप गये। समझो तुम बैठे हो और एक दुष्ट आदमी निकल गया रास्ते से, तो तुम्हारे मन में कंपन पैदा हो जाएगा कि अरे! यह दुष्ट जा रहा है, इसे नरक में डाला जाए। या तुम्हारे मन में दया आ गयी और तुमने कहा इस दुष्ट को बचाना चाहिए, साधु बनाना चाहिए, तो भी तुम कंप गये। तुम जो बैठे थे अकंप, उसमें कंपन हो गया। तुम अब वही न रहे जो इस आदमी के निकलने के पहले थे। निकला कोई साधुपुरुष, कि महात्मा, कि तुम्हारे मन में हुआ--अहो! धन्यभाग इस आदमी के! ऐसा सौभाग्य मेरा कब होगा? कंप गये। विचार उठ गया, समता खो गयी।
सम स्थिति तब है, जब बुरा निकले कि भला, तुम वैसे ही रहे। तुम वैसे के वैसे रहे--जस के तस। जरा भी हिले-डुले न। सुख आया तो, दुख आया तो; सम्मान मिला तो, अपमान मिला तो, तुम वैसे के वैसे रहे, जरा भी न हिले। ऐसी समता की दशा को जो उपलब्ध हो जाए, उसे ही जानना कि निष्काम है।
समदुःखसुखस्तृप्तः।
और उसकी ही तृप्ति है। जो सुख-दुख में समानता को उपलब्ध हो गया है वही तृप्त है। अन्यथा दुखी तो तृप्त हैं ही नहीं, सुखी भी तृप्त नहीं हैं।
तुमने खयाल किया? जब दुख होता है, तो दुख से छूटने की आकांक्षा प्रबल होती है कैसे छूट जाएं, वही तकलीफ होती है, तृप्त कैसे होंगे। दुख से कोई तृप्त होता है! दुख से छूटना चाहता है, हटना चाहता है, मुक्त होना चाहता है। लेकिन जब सुख होता है, तब भी तुम तृप्त होते हो? जब सुख होता है तब यह डर लगता है कि कहीं सुख छिन न जाए!
कल एक युवा संन्यासी ने मुझे कहा कि अब मैं वापिस लौट रहा हूं अपने घर। जितने दिन यहां था, बड़े सुख में बीते, बड़ी शांति में बीते। अभी भी चित्त बड़ा आनंदित और शांत है। अब एक डर लग रहा है कि कहीं घर जाकर यह खो तो नहीं जाएगी शांति! अभी खोयी नहीं है, लेकिन डर, कि कहीं खो तो न जाएगी! बेचैनी शुरू हो गयी। अभी चित्त शांत है और अशांति शुरू हो गयी। अभी सुख बरस रहा है, लेकिन भय समा गया कि कहीं खो तो न जाएगा! जब भी तुम सुखी होते हो, तभी भीतर से भय भी आ जाता है कि कहीं खो तो न जाएगा। जैसे दुख के साथ यह भाव आता है--कैसे छुटकारा हो, वैसे सुख के साथ यह भाव आता है--कहीं छुटकारा हो न जाए! दोनों ही हालत में तुम डोल गये। दोनों ही हालत में तृप्ति नष्ट हो गयी, अतृप्त हो गये, असंतोष पैदा हो गया।
तो दुखी तो दुखी हैं ही, यहां सुखी भी दुखी हैं। जिनके पास धन नहीं है, वे परेशान हैं कि धन कैसे हो? जिनके पास धन है, वे परेशान हैं कि कहीं खो न जाए! कहीं चोर न चुरा लें! कहीं सरकार न छीन ले! कहीं कम्यूनिज़म न आ जाए! कहीं ऐसा न हो जाए! कहीं वैसा न हो जाए! क्या भरोसा! तो जिसके पास धन नहीं है, वह तो शायद रात ठीक से सो भी जाता है, जिसके पास है, वह सो ही नहीं पाता। वह और भयभीत है। उसके ऊपर निन्यानबे का फेर है। वह चिंता चिंता में ही लगा रहता है। कैसे बचाऊं! पहले लोग सोचते हैं, धन होगा तो बड़ी सुरक्षा होगी, फिर चिंता पैदा होती है कि अब धन की सुरक्षा कैसे करें? जिनको तुम धनी कहते हो, उनको तुम्हें धनी कहना नहीं चाहिए, ज्यादा से ज्यादा रखवाले, पहरेदार! धन की मालकियत कहां संभव है! बस कोई पहरा देता रहता है। पहरेदारी में ही तुम समझते हो कि तुम मालिक हो गये।
तृप्त तो वही है जो सुख और दुख में समभावी है। दुख आता है तो कहता नहीं कि जाओ। सुख आता है तो कहता नहीं कि रुको। जैसी मर्जी। अपनी मर्जी से आए, रुकना हो रुको, जाना हो जाओ। सुख और दुख दोनों के साथ उसकी अंतर्दशा एक-सी रहती है।
और यह बाहर की ही बात नहीं है, भीतर भी ध्यान का यही सूत्र है। एक बुरा विचार मन में आया--चोरी कर लें, हत्या कर दें, तुम इसकी भी निंदा मत करो। तुम इसे भी देखते रहो। इससे भी कुछ लेना-देना नहीं है। यह विचार तुम नहीं हो। तुम इसके साक्षी हो। एक अच्छा विचार आया कि सब दान कर दें, एक बड़ा मंदिर बना दें, अस्पताल खोल दें, यह भी एक विचार है। तुम इससे छाती न फुला लो। अकड़ मत जाओ कि कितना शुभ विचार मेरे भीतर आ रहा है। और अशुभ विचार से तुम परेशान न हो जाओ, माथे पर बल न ले आओ, पसीने-पसीने मत हो जाओ, घबड़ाओ मत कि कैसा अशुभ विचार आ गया! कि मैं कैसा अशुभ हो गया। न अशुभ विचार तुम हो, न शुभ विचार तुम हो, तुम तो साक्षी हो।
तो जहां शुभ और अशुभ, भला और बुरा, रात और दिन, सुख और दुख, जीवन और मृत्यु, दोनों के प्रति एक समदृष्टि उत्पन्न हो जाती है, वहीं जीवन का परम द्वार खुलता है। और ऐसे व्यक्ति को पता चलता है कि उसको कुछ करने को शेष नहीं रहा है।
किंचित् कृत्यं न पश्यति।
जिसने ऐसा समभाव जान लिया, अब इसे करने को कुछ भी नहीं बचा। न कोई साधना, न कोई सिद्धि। न कोई जप-तप, न कोई योग-याग। न इसे मोक्ष पाना है, न इसे संसार छोड़ना है। इसी क्षण सब हो गया। सम्यकत्व के क्षण में सब हो जाता है। समता के क्षण में सब हो जाता है। समाधि के क्षण में सब हो जाता है। अब कुछ करने को शेष नहीं रहा है।
किंचित् कृत्यं न पश्यति।
अब इसे कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता कि करने को कुछ बचा।
साक्षी तुम हुए कि अकर्ता हुए। या कि अकर्ता हो जाओ, तो साक्षी हो गये। अब तो सिर्फ आनंद ही आनंद है, करने को कुछ भी न बचा। खयाल करो, जब तक करने को बचा है, तब तक चिंता रहेगी, योजना रहेगी, भय रहेगा। करोगे तो लेकिन सफल होओगे या नहीं? सफल भी हो गये, तो जिस दिशा में चल पड़े थे वह ठीक थी या नहीं थी? सफल होकर भी सफलता मिलेगी? धन पाकर भी सुख होगा, शांति होगी? पद पाकर भी तृप्ति होगी? जहां तक कृत्य है, वहां तक चिंता का जाल है। जहां तक करना है, वहां तक असफलता का डर बना ही रहेगा। और यह भी डर बना रहेगा कि सफल होकर भी कहां सफलता पक्की है! क्योंकि सिकंदर होते, नेपोलियन होते, जीत लेते दुनिया और खाली हाथ जाते! धूल में पड़ी हैं उनकी अर्थियां, जो सिंहासन पर बैठे। तो सिंहासन पर भी बैठकर गिरना तो कब्र में ही पड़ता है। सिंहासन से भी तो आदमी कब्र में ही गिरता है। चाहे सिंहासन पर बैठो, चाहे सड़क की पटरी पर भिखमंगे की तरह बैठो, जब गिरोगे कब्र में तो एक-से गिरोगे। उमर खैयाम ने कहा है: धूल मिल जाती धूल में। डस्ट अनटू डस्ट। फिर धूल तुम्हारी सम्राट कहलाती थी कि भिखमंगा, इससे क्या फर्क पड़ता है! अंतिम चरण में सब एक हो जाता है।
ज्ञानी यह देखकर कि मृत्यु तो सब लीप-पोत देती है, स्वयं ही लीप-पोत देता है। वह कहता है जब मृत्यु सबको मिटाकर एक-सा कर देगी, तो मैं अपनी ही तरफ से एक-सा हुआ जाता हूं। इस भांति ज्ञानी स्वेच्छा से मर जाता है। उसके लिए करने को कुछ नहीं बचता, इससे यह भ्रांति मत ले लेना मन में कि वह कुछ करता नहीं है। करने को कुछ नहीं बचता, कृत्य उससे जारी रहते हैं। जो स्वाभाविक है, जो नैसर्गिक है। भूख लगती, तो भोजन करता है, प्यास लगती तो पानी पीता है। जो स्वाभाविक निसर्ग से होता है। जिसे करना नहीं पड़ता, अपने से होता है।
जैसे समझो, एक ज्ञानी बैठा है और कोई आदमी किसी को मार रहा है। तो ज्ञानी यह सोचकर नहीं उठता कि मैं इसे बचाऊं, कि मुझे बचाना चाहिए; कि मैं यहां बैठा हूं और यह आदमी मेरे सामने पिट रहा है, तो इस पाप में मैं भागीदार हो रहा हूं, ऐसा चिंतन नहीं करता। अगर पुलक आ गयी सहज, तो उठ आता है, बचा लेता है। पुलक न आयी, तो बैठा रहता है। हुआ, तो हो जाने देता है। न हुआ, तो कोई उपाय नहीं है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि ज्ञानी नहीं बचाएगा। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि ज्ञानी बचाएगा ही। ज्ञानी के संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। ज्ञानी सहज पुलक से जीता है। यही तो अष्टावक्र बार-बार कहते हैं, ज्ञानी स्व-स्फूर्ति से जीता है। आएगी स्फूर्ति, तो हो जाएगा। नहीं आएगी स्फूर्ति, तो नहीं होगा। अब स्फूर्ति का जिम्मा ज्ञानी पर नहीं है, उस परम विराट पर है जिसके चरणों में ज्ञानी ने अपने को छोड़ दिया। अब वह जो चाहे। बना ले निमित्त, ठीक। न बनाना चाहे निमित्त, ठीक। ज्ञानी तो खूंटी हो गया, भगवान चाहें अपना कपड़ा टांग लें, अंगरखा टांग दें, न चाहें न टांगें। खूंटी को कुछ प्रयोजन नहीं है, टंगे अंगरखा तो ठीक, न टंगे तो ठीक। खूंटी-खूंटी है, निमित्त मात्र।
बहुत कुछ ज्ञानी से होगा। कभी होगा, कभी नहीं भी होगा। किसी ज्ञानी से होगा और किसी ज्ञानी से नहीं भी होगा। कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिए तुम कोई व्याख्या बांधकर मत बैठ जाना। ज्ञानी हुए, जो बोले। ज्ञानी हुए, जो मौन रहे। ज्ञानी हुए, जिन्होंने गहरे कर्म के जगत में भाग लिया, हाथ बंटाया। ज्ञानी हुए, जो बैठ गये अपनी गुफाओं में और संसार को बिलकुल भूल ही गये। दोनों ही ठीक हैं। क्योंकि दोनों के भीतर जो मौलिक बात घट रही है वह एक ही है। वह है स्व-स्फुरणा। जो हो रहा है स्फुरणा से, हो रहा है; जो नहीं हो रहा, नहीं हो रहा। न तो ज्ञानी कुछ अपनी चेष्टा से करता है और न अपनी चेष्टा से रोकता है। ज्ञानी बीच से बिलकुल हट गया है। उसने दरवाजा परमात्मा को दे दिया है।
किंचित्त् कृत्यं न पश्यति।
‘धीरपुरुष न संसार के प्रति द्वेष करता है और न आत्मा को देखने की इच्छा करता है। हर्ष और शोक से मुक्त वह न मरा हुआ है और न जीवित ही है।’
धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मानं न दिदृक्षति।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति।।
धीरो न द्वेष्टि संसारं...।
यह तो समझ में आता है कि ज्ञानी को संसार नहीं दिखता। और संसार के प्रति देखने की आकांक्षा भी नहीं है। न संसार के प्रति कोई द्वेष है। जो है ही नहीं उसके प्रति द्वेष कैसा!
समझो।
राह पर रस्सी पड़ी है और तुमने अंधेरे में सांप समझ लिया। तो तुम भागे, घबड़ाए। फिर कोई दीया ले आया और रस्सी दिखायी पड़ गयी कि रस्सी है, सांप नहीं, फिर भी क्या तुम घबड़ाओगे? फिर भी क्या तुम डरोगे? फिर भी क्या रस्सी के पास से निकलने में भयभीत होओगे? फिर भी भागोगे? फिर भी क्या अपने बच्चों को जाकर कहोगे कि बचकर निकलना उस रास्ते से? वहां एक रस्सी पड़ी है जो सांप जैसी मालूम पड़ती है। क्या तुम अपने बच्चों को सावधान करोगे कि उस रास्ते से जाना मत, वहां एक झूठा सांप पड़ा है। अगर तुम ऐसी बातें कहो तो बच्चे भी हंसेंगे। वे कहेंगे अगर झूठा ही है, तो आप चौंका क्यों रहे हैं हमें? सावधान क्यों कर रहे हैं? आपने देख लिया कि झूठा है, तो बात खतम हो गयी।
अब तुम्हारे तथाकथित महात्मा हैं जो समझा रहे हैं तुम्हें, संसार से बचो। और साथ-साथ कह रहे हैं संसार माया है। तुमने उनकी जरा मूढ़तापूर्ण बात देखी? कहते हैं, संसार माया है और बचो! जो माया है उससे बचना कैसा! माया का तो अर्थ हुआ जो है ही नहीं। रस्सी में दिख गया सांप, इससे भागना कैसा! और न केवल तुमसे कह रहे हैं भागो, खुद भी भाग रहे हैं। और साथ-साथ यह भी चिल्लाते जा रहे हैं कि रस्सी है, सांप नहीं है--मगर भागो! और सावधान रहना कामिनी-कांचन से!
इस विकृति को देखते हो? इस असंगति को देखते हो? एक तरफ चिल्लाए चले जाते हैं कि संसार असत्य है, और दूसरी तरफ चिल्लाए चले जाते हैं छोड़ो संसार को, संसार का त्याग करो, मुक्त हो जाओ संसार से। जो असत्य है, उससे मुक्त होने का उपाय नहीं। जो असत्य है, उससे तो तुम मुक्त हो ही गये यह जानते ही कि असत्य है।
तो इतना ही कहेगा ज्ञानी कि संसार को गौर से देख लो, देखने में ही मुक्ति है। द्वेष का तो सवाल ही नहीं है।
धीरो न द्वेष्टि संसारं...।
ज्ञानी को, धीरपुरुष को संसार से कोई द्वेष नहीं है, क्योंकि संसार है नहीं। द्वेष के लिए होना तो जरूरी है! फिर जिससे द्वेष होता है, उससे राग भी हो सकता है। द्वेष तो राग का ही दूसरा पहलू है। तुम्हारी किसी से दुश्मनी हो जाती है, तो दोस्ती भी हो सकती है। जिससे भी दुश्मनी हो सकती है, उससे दोस्ती भी हो सकती है। जिससे दोस्ती हो सकती है, उससे दुश्मनी भी हो सकती है। दोनों के द्वार एक-साथ खुलते हैं। जिसको तुमने दोस्त बनाया, उससे किसी भी दिन दुश्मनी बन सकती है। और जो तुम्हारा आज दुश्मन है, कल दोस्त भी हो सकता है।
मैक्यावेली ने अपनी किताब ‘दि प्रिंस’ में कहा है, राजाओं के लिए सलाह दी है, उसमें एक सलाह यह भी है कि अपने दोस्तों से भी तुम वह बात मत कहना जो तुम अपने दुश्मनों से भी नहीं कहना चाहते। क्योंकि जो आज दोस्त है, कल दुश्मन हो सकता है। और यह भी सलाह दी है कि अपने दुश्मन के खिलाफ भी ऐसी बात मत कहना कि कल अगर उससे दोस्ती हो जाए तो फिर तुम्हें अड़चन हो लौटाने में, वह बात लौटाने में अड़चन हो। क्योंकि जो आज दुश्मन है, वह कल दोस्त हो सकता है। यह बात मैक्यावेली ने ठीक ही कही है। यह बात सच है। जिससे द्वेष है, उससे राग हो सकता है। क्योंकि द्वेष राग का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। जिससे राग है, उससे द्वेष हो सकता है।
ज्ञानी को न राग है, न द्वेष है। ज्ञानी को तो यह बोध हुआ, ज्ञानी ने तो जागकर यह देखा, अपने परम चैतन्य में यह अनुभव किया कि यहां कुछ राग-द्वेष करने को है ही नहीं। तुम छायाओं से उलझ रहे हो। न इनसे दोस्ती हो सकती है, न दुश्मनी हो सकती है। तुम छायाओं को अपने आलिंगन में बांध रहे हो। तुम किनके हाथ लेकर चल रहे हो? ये हाथ हैं नहीं, तुम्हारी कल्पनाएं हैं। तुमने यह जो इकट्ठा कर रखा है धन, दौलत, यह कुछ भी नहीं है। सिर्फ खयाल है।
खयाल है, ऐसा खयाल पैदा होते ही मुक्ति हो गयी।
धीरो न द्वेष्टि संसारं...।
इतना तो ठीक है, लेकिन बड़ी अदभुत बात अष्टावक्र कहते हैं कि वह जो धीर है, उसे संसार में तो द्वेष दिखायी पड़ता ही नहीं, उसे आत्मा को देखने का राग भी पैदा नहीं होता। यह और भी गहरी बात है। जब जान लिया कि संसार व्यर्थ है, जब जान लिया कि संसार सार्थक नहीं, जब जान लिया कि संसार है ही नहीं, मात्र भासता है--रज्जु में सर्पवत्; मृगमरीचिका है; खयालों का जमाव है; सपनों की भीड़ है; ऐसा जब जान लिया, तो सब वासनाएं व्यर्थ हो गयीं। क्योंकि जो नहीं है, उसको पाने की आकांक्षा का अब कोई मूल्य न रहा। इस संसार में पद पाने का तभी तक मूल्य है जब तक लगता है कि इस संसार में प्रतिष्ठा का कोई मूल्य है। इस संसार में कुछ अहंकार अर्जित करने का तभी तक मजा मालूम होता है जब तक लगता है कि अहंकार अर्जित हो सकता है। लेकिन अगर सब धोखा है, सब झूठ है, तो बात व्यर्थ हो गयी। जड़ से कट गयी बात।
यहां तक तो समझ में आता है। लेकिन अष्टावक्र कहते हैं कि जिस दिन यह समझ में आ गया कि संसार व्यर्थ है, यह बाहर जो दिखायी पड़ रहा है यह केवल एक सपना है, उस दिन आत्मा को पाने की, खोजने की बात भी समाप्त हो गयी। पाना ही व्यर्थ हो गया, तो आत्मा को पाने की बात भी व्यर्थ हो गयी। असल में पाना जिस दिन व्यर्थ हो गया, उस दिन आत्मा पा ही ली। इसलिए अब आत्मा को पाने का सवाल नहीं उठता।
थोड़ा जटिल है। थोड़ा सूक्ष्म है। लेकिन खयाल करोगे तो समझ में आ जाएगा।
अगर तुम्हें संसार सौ प्रतिशत दिखायी पड़ रहा है, तो तुम शून्य प्रतिशत होते हो। जिस मात्रा में आत्मा का विस्मरण होता है, उसी मात्रा में संसार वास्तविक मालूम होता है। यह गणित है। जब संसार नब्बे प्रतिशत सत्य रहा, तो आत्मा दस प्रतिशत सत्य हो जाती है। जब संसार पचास प्रतिशत सत्य रहा, तो आत्मा पचास प्रतिशत सत्य हो गयी। जिस मात्रा में संसार से ऊर्जा तुम्हारी मुक्त होने लगी, संसार में नियोजन न रहा, उसी मात्रा में तुम्हारी ऊर्जा आत्मा में पड़ने लगी। तुम आत्मवान होने लगे। इधर वासना क्षीण हुई, उधर आत्मा प्रबल हुई। इधर काम हारा, उधर राम जीते। एक ऐसी घड़ी आती है कि निन्यानबे प्रतिशत संसार व्यर्थ हो गया, उसी क्षण निन्यानबे प्रतिशत आत्मा तुमने जीत ली। जिस दिन सौ प्रतिशत संसार व्यर्थ मालूम हो गया, उस दिन सौ प्रतिशत आत्मा के तुम मालिक हो गये। तुम जिन हो गये। तुमने जीत लिया अपने को।
महावीर को मानने से कोई जैन नहीं होता, संसार सौ प्रतिशत शून्य हो जाए और आत्मा सौ प्रतिशत पूर्ण हो जाए, तब कोई जिन होता है। ये किसी के शास्त्र में मानने न मानने की बातें नहीं हैं, ये किसी के पीछे न चलने चलने की बातें नहीं हैं, यह तो एक भीतर का गणित है। जो ऊर्जा संसार में उंडेली जा रही थी यह सोचकर कि संसार सच है, अब संसार तो झूठ हो गया, वह ऊर्जा अब उंडेली नहीं जाती, वह ऊर्जा अब स्वयं में थिर होने लगती है। यह स्वयं में जो थिरता है, यही आत्मवान होना है। तो जिसको दिखायी पड़ गया कि संसार में अब कुछ भी नहीं, द्वेष करने योग्य भी नहीं--राग करने योग्य तो है ही नहीं, द्वेष करने योग्य भी नहीं है।
तुम देखो, तुम्हें दुनिया में दो तरह के लोग दिखायी पड़ेंगे। एक तो जिनको तुम संसारी कहते हो, उनका संसार से राग है। और एक जिनको तुम विरागी कहते हो, उनका संसार से द्वेष है। मगर दोनों एक ही चीज से बंधे हैं। दोनों मानते हैं कि संसार बड़ा बलशाली है। रागी कहता है कि इसके बिना मैं सुखी न हो सकूंगा। विरागी कहता है, इसके रहते मैं सुखी न हो सकूंगा। लेकिन दोनों का सुख इसी पर निर्भर है। एक का सुख इस बात पर निर्भर है कि संसार को जीतूं तो सुखी होऊंगा। एक का सुख इस बात पर निर्भर है कि संसार को छोडूं, त्यागूं, तो सुखी होऊंगा। लेकिन दोनों के सुख संसार पर निर्भर हैं।
ज्ञानी न तो भोगी है, न त्यागी है। न रागी, न विरागी। ज्ञानी है वीतराग दशा। देख लेता है, यहां न तो कुछ राग को है, न विराग को है। न पकड़ने को, न छोड़ने को। इस घटना में ही आत्मवान हो जाता है। और जो आत्मवान हो गया, उसको फिर आत्मा को देखने का भी सवाल कहां! और आत्मा को देखा भी कहां जा सकता है!
यह शब्द, आत्मदर्शन शब्द ठीक नहीं है। क्योंकि जो भी हम देख सकते हैं, वह हमसे पराया होगा। हम ‘पर’ को ही देख सकते हैं। दर्शन तो दूसरे का ही हो सकता है। स्वयं का तो दर्शन कैसे होगा! तुमने इस पर कभी विचार किया? देखने में तो दो मौजूद हो गये--देखनेवाला और दिखाई पड़नेवाला। द्रष्टा और दृश्य। आत्मा तो द्रष्टा है। इसलिए आत्मा कभी भी दृश्य नहीं हो सकती। जो भी दृश्य है, सब संसार है।
इसलिए मेरे पास तुम जब आकर कहने लगते हो कि कुंडलिनी जगने लगी, तो मैं कहता हूं, देखते रहो, मगर ज्यादा उलझना मत। क्योंकि जो भी दृश्य है, वह संसार है। तुम कहते हो, भीतर बड़ी रोशनी मालूम होने लगी; मैं कहता हूं, देखते रहो। तुम ध्यान रखो उस पर जो देखनेवाला है, रोशनी में बहुत ज्यादा मत उलझ जाना। अंधेरा तो डुबाता ही है, रोशनी भी डुबा लेती है। अंधेरा तो खतरनाक है ही, रोशनी भी बड़ी खतरनाक है। तुम तो उसका खयाल रखो, बस उसी एक सूत्र को पकड़े रहो कि मैं देखनेवाला, मैं देखनेवाला। तुम दृश्य में उलझना ही मत। नहीं तो मन के बड़े जाल हैं। पहले वह बाहर के दृश्य दिखलाता है--वह देखो दूर दिल्ली, चलो, दिल्ली चलो। अगर तुम वहां से छूटे, तो वह भीतर के दृश्य दिखलाता है कि देखो कुंडलिनी जगने लगी, कैसी ऊर्जा उठ रही है। कैसा आनंद मालूम हो रहा है! कैसा मस्तिष्क में प्रकाश-ही-प्रकाश फैल रहा है! अब यह उसने नयी दिल्लियां बसानी शुरू कर दीं। तुम तो इतना ही खयाल रखो कि मैं द्रष्टा हूं। जो भी दिखायी पड़ता है, वह मैं नहीं हूं। जो भी अनुभव में आता है, वह मैं नहीं हूं। मैं तो सभी अनुभवों के पार खड़ा साक्षी हूं।
इसलिए तुमसे मैं एक बात कहना चाहता हूं कि कोई अनुभव धार्मिक नहीं है। सब अनुभव सांसारिक हैं। अनुभव मात्र सांसारिक हैं। जिसको अनुभव हो रहा है, वही धार्मिक है।
तो उस घड़ी में पहुंचना है जहां सब अनुभव से छुटकारा हो जाए। कोई अनुभव न बचे। तुम शून्य में विराजमान। कोई अनुभव नहीं होता। शून्य का भी अनुभव होता रहे, तो अभी अनुभव बाकी है। और मन थोड़ा-सा अभी भी बाकी है। जब शून्य का भी अनुभव न हो, जब कुछ भी अनुभव न हो, जब अनुभव मात्र तिरोहित हो जाएं, धुएं की रेखाओं की तरह खो जाएं, बस तुम रह जाओ चैतन्यमात्र, चिन्मात्र, बोधमात्र, बुद्धत्व फलित हुआ। उसी को अष्टावक्र कहते हैं--धीरपुरुष।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो।
और ऐसा व्यक्ति हर्ष और शोक से मुक्त है। अब न तो कुछ खोने को बचा है, न पाने को बचा है। न कुछ दृश्य है, न कुछ अदृश्य है। न संसार है, न मोक्ष है। न बाहर का कुछ पाना है, न भीतर का कुछ पाना है। न संसार की खोज है, न आत्मा की खोज है। जब सारी खोज समाप्त हो गयी, फिर कैसा हर्ष, फिर कैसा शोक! और ऐसी दशा में एक अपूर्व घटना घटती है--
‘वह न मरा हुआ है, न जीवित ही है।’
इस सूत्र को खूब खयाल में लेना।
ज्ञानी पुरुष एक अर्थ में मरा हुआ है। उस अर्थ में मरा हुआ है, जिस अर्थ में तुम जीवित हो। तुम्हारी तरह जीवित नहीं है। तुम्हारे जीवन का क्या अर्थ है? दौड़-धाप, आपाधापी, धन-पद-प्रतिष्ठा, महत्वाकांक्षा। तुम्हारा जीवन क्या है? एक ज्वरग्रस्त विक्षिप्तता। इस अर्थ में ज्ञानी जीवित नहीं है। न तो कोई ज्वर है, न कोई महत्वाकांक्षा है, न दौड़ रहा है। न कोई आपाधापी है। इस अर्थ में तो ज्ञानी मुर्दा है। लेकिन एक अर्थ में जीवित है, जिस अर्थ में तुम जीवित नहीं हो। वस्तुतः अर्थों में जीवित है। तुम तो झूठे-झूठे जीवित हो। तुम तो मरोगे। यह तुम्हारी आपाधापी, तुम्हारी महत्वाकांक्षा मौत से टकराकर टूट जाएगी सब। ज्ञानी कुछ ऐसे तल पर पहुंच गया है जिस तल पर मौत घटती ही नहीं। जिस तल पर मौत एक असत्य है। होती ही नहीं। ज्ञानी अमृत को उपलब्ध हो गया है।
इसलिए ज्ञानी जीवित है एक अर्थ में और मृत है एक अर्थ में। तो न तो हम उसे मरा हुआ कह सकते और न जीवित कह सकते। क्योंकि हम कुछ भी कहेंगे तो गलती हो जाएगी। शायद वह जीवन-मरण के पार है।
न मृतो न च जीवति।
न तो मृत है और न जीवित। ज्ञानी की बड़ी अनूठी दशा है। इस बात को प्रगट करने के लिए बड़े विरोधाभासों का सहारा लेना पड़ता है। झेन फकीर कहते, जब ज्ञानी नदी पार करता, तो पानी तो उसके पैरों को छूता है, लेकिन ज्ञानी के पैर पानी को नहीं छूते। अब यह बात जरा बेबूझ है। जब पानी पैरों को छूता है, तो फिर ज्ञानी के पैर पानी को क्यों न छुएंगे? छुएंगे ही। लेकिन फिर भी वे ठीक कहते हैं। यह उलटबांसी है।
यह इसलिए कही जा रही है कि ज्ञानी हमारे संसार में रहता हुआ भी हमारे संसार का हिस्सा नहीं होता। हमारे जैसा श्वास लेता हुआ भी हमारे जैसा श्वास नहीं लेता। हमारे जैसा भोजन करता हुआ भी हमारे जैसा भोजन नहीं करता। ज्ञानी भोजन करते हुए भी उपवासा है। और तुम उपवास भी करो तो भी भोजन ही करते हो। तुमने कभी उपवास किया होगा तो तुम्हें पता होगा। उपवास करके देखना, तो तुम दिन भर भोजन करोगे, बार-बार भोजन करोगे। ऐसे तो दो बार करते हो कि तीन बार, उस दिन दिन भर करोगे। जब भी बैठोगे खाली, उलझन से बचोगे, फिर भोजन की याद आ जाएगी।
पर्यूषण में जैन उपवास करते हैं तो ज्यादा देर मंदिर में ही बैठते हैं, फिर घर नहीं आते, क्योंकि घर आओ तो भोजन-भोजन की ही याद आती है। मंदिर में बैठे रहो तो लगे रहो, भजन-कीर्तन चल रहा है, अब पाठ चल रहा है, शास्त्र पढ़ा जा रहा है, उलझे रहो। और फिर वहां यह भी भरोसा रहता है कि हम अकेले ही थोड़े फंसे हैं इस मुसीबत में, और न-मालूम कितने नासमझ फंसे हैं। देख-देख कर चित्त प्रसन्न रहता है कि हम अकेले ही थोड़े भूखे मर रहे हैं, ये सब मर रहे हैं। और एक-दूसरे से काम्पेटीशन और प्रतिस्पर्द्धा कि देखें कौन किसको हराता है, तो रस लगा रहता है। घर अकेले बैठकर फिर याद आती है कि हम अकेले कहां फंस गये, किस चक्कर में पड़ गये, पता नहीं ये कब खतम होंगे पर्यूषण। और जब खतम होंगे तब की योजनाएं बनाते हैं लोग। क्या-क्या खाना, क्या-क्या नहीं खाना। क्या-क्या बाजार से खरीद लाएंगे।
तुम जाकर पूछ सकते हो बाजार में, जैसे ही पर्यूषण खतम होते हैं, बिक्री एकदम बढ़ जाती है। मिठाई वालों की, सब्जी वालों की, फल वालों की एकदम बिक्री बढ़ जाती है। लोग एकदम टूट पड़ते हैं। दस दिन इकट्ठा करते रहे विचार, योजनाएं बनाते रहे। उपवास कर लिया दिन में तो रात सपने में भी भोजन ही करोगे। भोजन ही भोजन चलने लगेगा।
तो तुम समझ सकते हो, तुम उपवास करो तो भोजन हो जाता है। बौद्धिक रूप से भी ख्याल में आ सकता है। तो इससे विपरीत दशा भी हो सकती है कि कोई भोजन करते हुए भी उपवासा हो। उस विपरीत दशा का नाम ही वीतरागता है। अपूर्व दशा है वह। वहां तुम जल में चलो, पानी तो पैर को छूता है लेकिन तुम्हारे पैर पानी को नहीं छूते।
ज्ञानी मृत भी, जीवित भी। या, न मृत न जीवित। ज्ञानी को कोटि में रखना मुश्किल है। इतना ही सूचन ले लेना, ज्ञानी को किसी भी कोटि में रखो, गड़बड़ हो जाती है। क्योंकि सब कोटियां संसार की हैं। ज्ञानी कोटि के बाहर है। वह न मरा हुआ है, न जीवित ही है।
‘पुत्र और पत्नी आदि के प्रति स्नेहरहित और विषयों के प्रति कामनारहित और अपने शरीर के प्रति निश्चिंत बुद्धपुरुष ही शोभते हैं।’
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
निश्चिंत स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः।।
महत्वपूर्ण सूत्र है। और जिस तरह से अब तक इस सूत्र की व्याख्या की गयी है, वह ठीक नहीं है। जैसा हिंदी में अनुवाद है, वह भी बहुत ठीक नहीं है। इसलिए गौर से समझना।
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
पुत्र और पत्नी आदि के प्रति स्नेह रहित। इससे ऐसा अर्थ समझ में आता है--टीकाकार ऐसा ही अर्थ करते रहे हैं--कि ज्ञानी पुरुष में स्नेह नहीं होता। यह बात गलत है। ज्ञानी पुरुष में ही स्नेह होता है। अज्ञानी में क्या खाक स्नेह होगा! तो फिर इस सूत्र का क्या अर्थ होगा? इस सूत्र का अर्थ होता है कि ज्ञानी में स्नेह होता है, लेकिन अपने हैं इसलिए नहीं होता; पराये हैं इसलिए नहीं होता। मेरा बेटा है, इसलिए नहीं; मेरी पत्नी है, इसलिए नहीं।
फर्क समझना। तुम किसी को स्नेह करते हो तो कहते हो, मेरी मां है, इसलिए प्रेम करता हूं। तुम्हारे प्रेम में ‘इसलिए’ है। मेरी पत्नी है इसलिए प्रेम करता हूं। तुम्हारे प्रेम में ‘इसलिए’ है। मेरा बेटा है। थोड़ा समझो। तुम आज तक अपने बेटे के लिए अपनी जान देने को तैयार थे। तुम्हारा बेटा है। पढ़ाते थे, लिखाते थे, श्रम करते थे, मेहनत करते थे, बड़ी आकांक्षा करते थे, बड़ा हो, यशस्वी हो, सफल हो। और आज तुम्हें अचानक एक पत्र हाथ में लग गया पुरानी संदूक टटोलते हुए, जिससे पता चला कि बेटा तुम्हारा नहीं है, तुम्हारी पत्नी किसी के प्रेम में थी, उसका है। इसी क्षण तुम्हारा प्रेम समाप्त हो जाएगा। और यह भी हो सकता है कि पत्र झूठा हो, बेटा तुम्हारा ही हो। लेकिन तुम्हारा प्रेम इसी क्षण जैसे कपूर उड़ जाए, ऐसे उड़ जाएगा। प्रेम की तो बात दूर रही, अब तुम इस बेटे को घृणा करने लगोगे, तुम चाहोगे यह मर ही जाए तो अच्छा। यह तो एक कलंक है। अभी क्षण भर पहले यह बेटा तुम्हारा था, तो प्रेम था। अब तुम्हारा नहीं है तो प्रेम नहीं रहा। तुम्हारा प्रेम बड़ा सशर्त है। मेरा है तो प्रेम, मेरा नहीं तो प्रेम नहीं।
यह प्रेम बेटे से नहीं है, अहंकार से है। ये तुम्हारे अपने ही अहंकार की घोषणाएं हैं। मेरा है, तो प्रेम। मेरा नहीं है, तो बात गयी। यह बेटा अब तक सुंदर मालूम पड़ता था, आज एक क्षण की घटना में यह तुम्हें कुरूप मालूम पड़ने लगेगा, इसमें तुम सब तरह की बुराइयां देखने लगोगे।
सूफी फकीर बायजीद ने लिखा है कि एक आदमी की कुल्हाड़ी चोरी चली गयी। वह लकड़ियां काट रहा था और फिर घर के भीतर गया, कुल्हाड़ी बाहर ही छोड़ गया। कुल्हाड़ी चोरी चली गयी। जब वह बाहर आया, कुल्हाड़ी नदारद थी। उसने एक लड़के को जाते देखा, पड़ोसी के लड़के को। उसने कहा, हो न हो यही शैतान चुरा ले गया। मगर अब कह भी नहीं सकता था, क्योंकि देखा तो था नहीं। उस दिन से वह उस लड़के को गौर से देखने लगा, उसमें सब तरह की शैतानियां उसे दिखायी पड़ने लगीं। चालाक मालूम पड़े, उसकी आंख में बदमाशी मालूम पड़े, उसके ढंग-चाल में शरारत मालूम पड़े। और तीसरे दिन उसको कुल्हाड़ी अपनी लकड़ियों में ही मिल गयी। लकड़ियों में दब गयी थी। जिस दिन उसको कुल्हाड़ी मिली, वह लड़का फिर बाहर से निकला, आज उसे उसमें कोई शरारत दिखायी न पड़ी, न कोई शैतानी दिखायी पड़ी। आज वह लड़का बड़ा प्यारा मालूम होने लगा--भला, सज्जन। और उसे पश्चात्ताप होने लगा कि इस सज्जन लड़के के प्रति मैंने कैसे बुरे खयाल बना लिये!
तुमने भी खयाल किये होंगे ऐसे अनुभव! तुम्हारी भावनाएं तुम आरोपित करते हो। मेरा बेटा! तुम्हें बेटे से कुछ लेना-देना नहीं है, यह मेरे का फैलाव है, यह अहंकार का फैलाव है। मेरी पत्नी! यह मेरे अहंकार का विस्तार है। ‘मेरे’ का अर्थ होता है--‘मैं’ का विस्तार।
मैं इस सूत्र का अर्थ करता हूं--पुत्र और पत्नी आदि के प्रति स्नेहरहित, ऐसा नहीं; स्नेहरहित, ऐसा नहीं, क्योंकि यह तो बात ही गलत है। यह तो मैं जानकर कहता हूं, अनुभव से कहता हूं कि यह बात गलत है। इसके लिए मुझे कुछ किसी शास्त्र में जाने की जरूरत नहीं है। यह मैं अपनी प्रतीति से कहता हूं कि यह बात गलत है। ज्ञान में ही प्रेम घटता है। ज्ञान के पहले प्रेम कहां! प्रेम तो ज्ञान का ही प्रकाश है। ज्ञान के पहले प्रेम कहां है! ज्ञान का फूल खिलता है तभी प्रेम की गंध और प्रेम की सुगंध फैलती है। उसके पहले तुमने जिसे प्रेम समझा है वह प्रेम नहीं है, वह अहंकार का ही रोग है। वह अहंकार की ही दुर्गंध है। लेकिन पुरानी आदत के कारण सुगंध मालूम पड़ती है।
एक मछलियां बेचनेवाली औरत शहर मछलियां बेचने आती थी। एक दिन अचानक गांव लौटते वक्त शहर के बड़े रास्ते पर किसी पुरानी परिचित महिला से मुलाकात हो गयी--दोनों बचपन में साथ पढ़ी थीं। उस महिला ने कहा आज रात हमारे घर रुक जाओ। वह मालिन थी। उसके पास बड़ा सुंदर बगीचा था। और जब रात वह मछुआरिन उसके घर सोयी, तो उसने बहुत से बेेले के फूल लाकर उसके पास रख दिये। वह मछुआरिन करवटें बदले, उसको नींद न आए। तो मालिन ने पूछा बात क्या है बहन, तू सोती नहीं, नींद नहीं आ रही, कुछ अड़चन है, कुछ चिंता है? उसने कहा और कुछ नहीं, ये फूल यहां से हटा दें। मुझे तो मेरी टोकरी दे दें जिसमें मैं मछलियां बेचने लायी थी। उस में थोड़ा पानी सींच दें और मेरे पास रख दें। क्योंकि मछलियों की सुगंध जब तक मुझे न आए मुझे नींद न आ सकेगी। मछलियों की सुगंध! आदत हो जाए तो मछलियों की सुगंध के बिना भी नींद न आएगी। फूल भी बेचैन कर सकते हैं अगर आदत न हो। गंदगी के कीड़े गंदगी को गंदगी नहीं जानते। जानते तो छोड़ ही देते न! कौन रोकता था?
तुम जिसे प्रेम कहते हो वह प्रेम नहीं है, वह अहंकार की दुर्गंध है। ज्ञानी में वैसी अहंकार की दुर्गंध तो चली जाती है, तुम जिसे प्रेम कहते हो वह तो नहीं बचता, क्योंकि तुममें तो प्रेम है ही नहीं, ‘मेरा’-‘तेरा’ है। ‘मैं’-‘तू’ का उपद्रव और कलह है, उसको तुम प्रेम कहते हो। और तुम्हारे प्रेम का परिणाम क्या है? एक-दूसरे की गर्दन को फांस लेते हो। तुम्हारा प्रेम तो एक तरह की फांसी है, जो फंस गया वह पछताता है।
ज्ञानी परिपूर्ण ज्ञान से भरा है, उसी तरह परिपूर्ण प्रेम से भी भरा है। लेकिन उसका प्रेम अब ‘मेरे’ से बंधा नहीं है, बेशर्त है। अब किसी से बंधा नहीं है, ज्ञानी के प्रेम पर किसी का पता नहीं लिखा है कि इसके लिए है। ज्ञानी प्रेम है। वह उसकी अवस्था है, संबंध नहीं।
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
इसलिए मैं इसकी व्याख्या करता हूं कि ज्ञानी वह जो ‘मेरे’-‘तेरे’ वाला प्रेम है, उससे मुक्त हो गया होता है। और उससे मुक्त होकर ही वह उस प्रेम को उपलब्ध होता है जिसको जीसस ने परमात्मा कहा है। परमात्मा प्रेम है। जिसको बुद्ध ने करुणा कहा है। वह बुद्ध का शब्द है प्रेम के लिए। जिसको महावीर ने अहिंसा कहा है। वह महावीर का शब्द है प्रेम के लिए। हमारा तो प्रेम हिंसा है।
तुमने खयाल किया? जिसको तुम प्रेम करते हो उसी के साथ तुम हिंसा करते हो। उसी के चारों तरफ दीवालें खड़ी कर देते हो। किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गये, दीवालें बांधीं। सब तरफ से उसके पास सींखचे खड़े कर दिये, उसे पींजड़े में बंद कर दिया, उसके पंख काट दिये।
तुम इस स्त्री को प्रेम करते होते तो इसे स्वतंत्रता देते, न कि बांधते। तुम इसे मुक्त आकाश में छोड़ते न कि पींजड़े में बंद करते। यह तुम्हारा प्रेम बड़ा खतरनाक है। और अगर यह स्त्री किसी की तरफ देखकर मुस्कुरा भी दे, तो जहर फैल जाता है तुम्हारी छाती में। तुम इसकी गर्दन काट डालोगे। तुम कहते हो कि मैं चाहता हूं कि तू खुश हो। यह कैसी खुशी है जो तुम चाहते हो! यह किसीको देखकर मुस्कुराती थी, या किसी के पास बैठकर आनंदित थी, तुम्हें प्रसन्न होना था अगर तुम प्रेम करते थे। तुम्हारा प्रियपात्र प्रसन्न हो, यह तुम्हारी प्रसन्नता होती। लेकिन नहीं, यह प्रेम इत्यादि तो बातें हैं। बकवास है। भीतर तो कुछ और है। भीतर तो मालकियत है, कब्जा है। तो पुरुष स्त्रियों को स्त्री-धन कहते हैं। स्त्री धन है। उस पर तुमने कब्जा कर लिया है। वह तुम्हारी है।
पति अपने को मालिक कहता है, स्वामी। और स्त्रियां भी अपने को दासी कहती हैं; हालांकि भीतर से कोई दासी अपने को मानती नहीं। कहती हैं, कहना पड़ता है। और बड़ी छुपी तरकीब से वे भी अपनी मालकियत कायम रखती हैं। तुम्हारा प्रेम सिर्फ ईर्ष्या के ही हजार-हजार लपटों को जन्माता है और कुछ भी नहीं। तुम्हारे प्रेम में जो पड़ जाता है, वह मरता है, पछताता है, और कुछ भी नहीं।
ऐसा प्रेम ज्ञानी में नहीं है। यह सच। लेकिन इसके न होने की वजह से ही ज्ञानी में एक अपूर्व प्रेम का जन्म होता है। लेकिन उस अपूर्व प्रेम को वे ही समझ पाएंगे, जो थोड़े ऊंचे उड़े हैं। जमीन से थोड़े ऊपर उठे हैं। अगर तुम्हारी प्रेम की परिभाषा बड़ी छुद्र है, तो तुम बुद्ध और महावीर के प्रेम को न समझ पाओगे। इसलिए बुद्ध को नया शब्द खोजना पड़ा, प्रेम न कहकर करुणा कहा। क्योंकि लगा कि अगर प्रेम कहूंगा तो लोग समझेंगे वही प्रेम जो वे करते हैं। महावीर को और भी ज्यादा निषेधात्मक शब्द खोजना पड़ा, कहा--अहिंसा। क्योंकि तुम्हारा प्रेम हिंसा है, इसलिए महावीर को परिभाषा करनी पड़ी अपने प्रेम की--अहिंसा। तुम्हारा प्रेम तो मारता है, जिलाता कहां है! तोड़ता है, मिटाता है, खंडित करता है, विध्वंसक है।
मां कहती है अपने बेटे को, मैं तुझे प्रेम करती हूं, और उसको सब तरफ से ऐसा कस लेती है कि बेटा मर जाएगा। कौन अपने बेटों को जीने देना चाहता है स्वतंत्रता से! तुम उन्हें जीने देना चाहते हो उसी आधार पर, जैसा तुम चाहो। तुम्हारी आकांक्षा से। तुम चाहते हो तुम्हारे बेटे तुम्हारे प्रतिनिधि हों। तुम चाहते हो तुम्हारे बेटे बस तुम्हारी शक्लों को फिर-फिर दोहराते रहें। तुम चाहते हो तुम्हारे बेटे तुम्हारी अनुकृतियां हों, कार्बन कॉपी। तुम उन्हें थोड़े ही चाहते हो! तुम मर जाओगे यह तुम्हें पता है। तुम बेटों की शकल में अपने को फिर जिंदा रखना चाहते हो, बस। इसलिए इस देश में तो कहा जाता है कि जिसको बेटा पैदा न हो, उसका जीवन अकारथ। बेटा होना ही चाहिए। अगर अपना न हो तो चलो किसी दूसरे का गोदी ले लेना, लेकिन बेटा होना ही चाहिए।
क्यों होना चाहिए बेटा? क्योंकि बेटे के कंधे पर चढ़कर तुम्हारा अहंकार चलता रहेगा। तुम तो चले जाओगे, लेकिन कोई तो रहेगा, नाम लेवा! कोई तो होगा, तुम्हारी साख को चलाएगा। तुम्हारी दुकान तो चलती रहेगी।
यह तो अहंकार का ही विस्तार है। इसलिए महावीर ने कहा अपने प्रेम को अहिंसा। वास्तविक प्रेम अहिंसा है। वास्तविक प्रेम हिंसा कर ही नहीं सकता। वास्तविक प्रेम में निषेध और नकार है ही नहीं। वास्तविक प्रेम पूरी स्वतंत्रता देता है।
बुद्ध ने कहा, करुणा। जिससे तुम्हें प्रेम है, उसके प्रति तुम्हें करुणा होगी। दया होगी। तुम उसे सब तरह से सहयोग व सहारा देना चाहोगे। तुम चाहोगे कि वह मुक्त हो, स्वतंत्र हो, स्वच्छंद हो। तुम चाहोगे कि वह जैसा होने को पैदा हुआ है, वैसा हो, मेरी आकांक्षाएं उस पर थुप न जाएं। मैं उसका कारागृह न बनूं, मैं उसके पंख बनूं। मैं उसे जमीन पर अटका न लूं, मैं उसे आकाश में जाने का सहारा दूं। वह मुझसे दूर भी जाए--अगर यही उसकी नियति है तो दूर जाए। वह मुझसे विपरीत भी जाए--अगर यही उसकी नियति है तो विपरीत जाए। लेकिन वह जो होने को पैदा हुआ है वही होकर रहे। उसे मैं मार्ग से च्युत न करूं। ऐसी करुणा।
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
उसकी विषयों में अब कोई कामना नहीं।
निश्चिंत स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः।
यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है।
निश्चिंत स्वशरीरेऽपि...।
अपने शरीर के प्रति बुद्धपुरुष निश्चिंत है। निश्चिंत है इसलिए कि शरीर तो मरेगा। शरीर तो मरा ही हुआ है। शरीर तो मरणधर्मा है। जाएगा--आज नहीं कल, कल नहीं परसों, देर-अबेर। जाएगा। जिस दिन से पैदा हुआ है उसी दिन से जाना शुरू हो गया है, मर ही रहा है। तो मर कर रहेगा। इसलिए चिंता क्या? इस जीवन में एक ही चीज तो बिलकुल निश्चित है, वह मौत है। और उसी की तुम चिंता करते हो! जो बिलकुल निश्चित है, उसकी क्या चिंता करनी? वह तो होकर ही रहने वाली है।
जो बात होकर ही रहनेवाली है, जिससे अन्यथा कभी हुआ ही नहीं, उसकी तो चिंता छोड़ दो। उसकी चिंता का कोई प्रयोजन ही नहीं है। आज तक कोई मौत से बच सका? कितने उपाय नहीं किये गये हैं! मौत से कभी कोई बच नहीं सका।
तो मौत तो नियति है, होकर ही रहेगी, शरीर में छिपी है। ऐसा थोड़े ही है कि तुम सत्तर साल के बाद एक दिन अचानक मर जाते हो। सत्तर साल तक मौत तुम्हारे शरीर के भीतर फैलती है, बड़ी होती है, विकसित होती है, एक दिन तुम्हें पूरा घेर लेती है, ग्रस लेती है। मौत शरीर का हिस्सा है। मौत शरीर का धर्म है, होकर रहेगा। जब जन्म हो गया, तो अब मौत से नहीं बचा जा सकता। जब जन्म हो गया, तो मौत हो गयी। जन्म एक हिस्सा है, मौत दूसरा हिस्सा, एक ही ऊर्जा के।
तो ज्ञानी जानता है, मौत तो निश्चित है, फिर चिंता क्या? निश्चित जानकर मृत्यु को ज्ञानी निश्चिंत हो जाता है। और तुम उल्टी हालत कर लेते हो। तुम निश्चित जानकर और बड़ी चिंता से भर जाते हो। तुम मौत की बात ही नहीं उठाना चाहते। तुम तो यह मानकर रहते हो कि मौत दूसरों की होती है, मेरी थोड़े ही कभी होती है। दूसरे मरते हैं सदा, अर्थी किसी और की निकलती है, अपनी तो निकलती नहीं। बात सच भी है। तुम्हारी तो निकलेगी तो तुम थोड़े ही देखोगे, दूसरे देखेंगे! तुम जब भी किसी की अर्थी देखते हो, वह किसी और की है। तो एक भाव बना रहता है कि यह मरना हमेशा दूसरे लोग करते हैं, मैं थोड़े ही करता! तुमने कभी अपने को मरते तो देखा नहीं। मरे तुम भी बहुत बार हो, लेकिन तुम इतने बेहोश हो कि तुम जीवन में ही होश नहीं संभाल पाते, तो मरते वक्त तो तुम्हारा होश बिलकुल खो जाता है। मरने के पहले तुम मूर्च्छित हो जाते हो। मौत घटी है बहुत बार, अनेक-अनेक शरीरों में तुम रहे हो और अनेक-अनेक शरीर तुमने छोड़े हैं, पर जब भी शरीर छूटा तब तुम बेहोश थे। और जब भी तुमने नया गर्भ धारण किया तब भी तुम बेहोश थे। मरे भी बेहोशी में, जन्म भी लिया बेहोशी में, इसलिए तुम्हें जीवन के रहस्यों का कोई पता नहीं है।
ज्ञानी जानकर कि मौत निश्चित है, निश्चिंत हो गया।
बुद्ध को भूल से एक आदमी ने ऐसी सब्जी खिला दी जो विषाक्त थी। गरीब आदमी था। बुद्ध गांव में आए, उसने निमंत्रण कर लिया। अब वह निमंत्रण दे गया तो बुद्ध उसके घर भोजन करने गये। वह इतना गरीब था कि उसके पास सब्जियां भी नहीं थीं।
तो बिहार में लोग कुकुरमुत्ते को इकट्ठा कर लेते हैं वर्षा के दिनों में, सुखाकर रख लेते हैं, फिर उसको साल भर खाते रहते हैं। कुकुरमुत्ता कभी-कभी जहरीला होता है। वह जो कुकुरमुत्ता उसने बनाया था, वह बिलकुल निपट जहर था। कड़वा था।
उसने बुद्ध को जब परोसा और जब बुद्ध उसे खाने लगे, तो बुद्ध को लगा तो कि यह जहर है। लेकिन बुद्ध ने इतना भी न कहा उससे कि पागल, यह तूने क्या बना लिया! क्योंकि वह इतने भावविभोर होकर सामने बैठा पंखा कर रहा था, उसकी आंख से आंसू बह रहे थे--उसने कभी भरोसा न किया था कि बुद्ध उसके घर भोजन करेंगे! यह संभव भी नहीं मालूम होता था। बुद्ध उसके द्वार आएंगे यह भी कभी भरोसा नहीं था। वे स्वीकार कर लिये, आ भी गये, उसे आंखों पर भरोसा नहीं आ रहा था। उसकी आंखें आंसुओं से भरी थीं, गीली, वह पंखा कर रहा था। उसके घर में कुछ था भी नहीं। रूखी-सूखी रोटियां थी और कुकुरमुत्ते की सब्जी थी। वह रो रहा है, वह बड़ा गदगद है।
अब बुद्ध को यह भी कहने का मन न हुआ कि ये जहरीले हैं। इसके मन को चोट पहुंचेगी, यह बेचारा सदा के लिए पछताता रहेगा। इस पर ऐसा आघात पड़ेगा कि उसको शायद यह झेल भी न पाए--कि बुद्ध को घर लाया और जहरीले कुकुरमुत्ते खिलाए।
तो वे और मांग लिये, जितने थे सब ले लिये, सब खा गये! कि कहीं वह बाद में चखे और पाए कि कड़वे हैं, तो पछताए। तो उन्होंने कहा इतने अच्छे हैं कि तू और ले आ! सब्जियां मैंने जीवन में बहुत खायीं, बहुत सम्राटों के घर मेहमान हुआ, लेकिन तेरी सब्जी की बात ही और है। तो वह गरीब बड़ा प्रसन्न हुआ, उसने सब कुकुरमुत्ते दे दिये।
वह खाकर जब घर आए, तो नशा शरीर में फैलने लगा--जहर। तो उन्होंने अपने चिकित्सक जीवक को कहा कि मुझे लगता है कि अब मेरे दिन करीब आ गये हैं, यह जहर से मैं बच न सकूंगा। तो जीवक ने कहा, आप कैसे पागल हैं, आपने कहा क्यों नहीं, रोका क्यों नहीं, यह क्या पागलपन है! बुद्ध ने कहा, मौत तो होने ही वाली है; जो होने ही वाली है, उससे क्या फर्क पड़ता है! यह मैं रोक सकता था होने से कि वह आदमी दुखी न हो। यह मेरे हाथ में था। मौत तो मेरे हाथ में नहीं, वह तो होगी। आज रोक लूंगा, कल होगी; कल नहीं तो परसों होगी, क्या फर्क पड़ता है।
मरते वक्त बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा कि सुनो, गांव भर में खबर कर दो कि जिस आदमी के हाथ से बुद्ध अंतिम भोजन ग्रहण करते हैं, वह बहुत धन्यभागी है! दो व्यक्ति धन्यभागी हैं। एक वह मां, जो बुद्ध को पहली दफा स्तनपान कराती है, जन्म के समय। और एक वह व्यक्ति जो उन्हें अंतिम भोजन कराता है। और लोग कहने लगे यह आप क्या कह रहे हैं, किसलिए यह कह रहे हैं? उन्होंने कहा, इसलिए मैं कहता हूं, अन्यथा मेरे मरने के बाद उस गरीब को लोग मार डालेंगे। वह बच न सकेगा। जाकर गांव में घोषणा कर दो कि दो व्यक्ति अत्यंत धन्यभागी होते हैं।
ऐसा प्रेम! और मृत्यु के संबंध में ऐसी निश्चिंतता!!
निश्चिंत स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः।
और एक बड़ी अनूठी बात कह रहे हैं—
निराशः शोभते बुधः।
बुद्धपुरुषों को निराशा भी शोभायमान होती है। तुम तो आशा से भरे भी शोभायमान नहीं होते। तुम्हारी आंखों में तो कितने आशा के दीप जलते--ऐसा होगा, ऐसा होगा, ऐसा हो जाएगा! कितनी कामनाएं अंधड़ की भांति तुम्हारे चित्त में बहती हैं! भविष्य के कितने सुंदर सपने! कितनी आशाओं को संजोए तुम चलते हो। फिर भी तुम शोभायमान नहीं हो। तुम्हारी आशाएं भी तुम्हारी आंखों में दीये जलाती नहीं मालूम होतीं। तुम्हारी आशाएं भी तुम्हें रुग्ण करती मालूम होती हैं। लेकिन बुद्धपुरुष निराश होकर भी...बुद्धपुरुष का अर्थ ही है, जो परिपूर्णरूप से निराश हो गया। जिसने जान लिया कि जगत में कोई आशा पूरी हो ही नहीं सकती। जिसकी निराशा समग्र है। आत्यंतिक है। जिसकी निराशा परिपूर्ण हो गयी, जिसमें रत्ती भर शंका नहीं रही है उसे। इस जगत में कोई आशा पूरी होती ही नहीं, जिसने ऐसा सघन रूप से जान लिया।
मगर फिर भी इस परमनिराशा में बुद्धपुरुष सिंहासन पर विराजमान होते हैं। उनकी शोभा अदभुत है। इस निराशा में ही उनके जीवन का फूल खिलता है। जब बाहर कुछ पाने को नहीं, तो ऊर्जा सब भीतर लौट आती है। जब बाहर कोई दौड़ न रही, तो भीतर वे विराजमान हो जाते हैं अपने केंद्र पर। स्वस्थ हो जाते हैं। स्वयं में स्थित हो जाते हैं। इस स्थिति में ही असली सिंहासन है। परमपद है।
निराशः शोभते बुधः।
तुम्हारे रूप के अनुरूप संज्ञाएं चयन कर लूं
तुम्हारी ज्योति-किरणें देखने लायक नयन कर लूं
अभी अच्छी तरह आखर अढ़ाई पढ़ नहीं पाया
प्रेम की व्याकरण का और गहरा अध्ययन कर लूं
निकल पाया नहीं बाहर अहम् के इस अहाते से
जरा ये बांह धरती और ये आंखें गगन कर लूं
तुम्हारे रूप के अनुरूप संज्ञाएं चयन कर लूं
तुम्हारी ज्योति-किरणें देखने लायक नयन कर लूं
परम सत्य तो पास है। पास कहना ठीक नहीं, क्योंकि पास में भी दूरी मालूम होती है। परम सत्य तो भीतर विराजमान ही है। सिर्फ आंख चाहिए।
तुम्हारे रूप के अनुरूप संज्ञाएं चयन कर लूं
तुम्हारी ज्योति-किरणें देखने लायक नयन कर लूं
अभी अच्छी तरह आखर अढ़ाई पढ़ नहीं पाया
प्रेम की व्याकरण का और गहरा अध्ययन कर लूं
तुम जिसे प्रेम कहते हो, वह तो प्रेम नहीं है। वह तो तुम प्रेम के ढाई आखर अभी पढ़ ही नहीं पाए। कुछ-का-कुछ पढ़ रहे हो।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन ट्रेन में बैठा है, अखबार पढ़ रहा है। लेकिन अखबार उल्टा रखे है। पढ़ना-लिखना तो आता नहीं। मगर यह भी नहीं चाहता कि लोग जानें कि पढ़ना-लिखना नहीं आता, इसलिए अखबार खरीद लिया है। और जब पास के आदमी ने कहा कि बड़े मियां, इससे और भद्द खुली जा रही है! न पढ़ते तो कम-से-कम पता तो नहीं चलता कि पढ़ना-लिखना नहीं आता। अखबार उल्टा क्यों पकड़े हो? लेकिन आदमी तो बड़े तर्कजाल खोजता है। मुल्ला ने कहा, क्या तुम समझते हो! अरे, सीधा-सीधा पढ़ना-लिखना तो बहुतों को आता है, वह कोई खास बात नहीं, हमें उल्टा पढ़ना आता है!
आदमी अपने अहंकार को तो बचाता है, सब तरह से बचाता है। कभी-कभी बेहूदे ढंग से भी बचाना पड़ता है तो भी बचाता है।
अभी अच्छी तरह आखर अढ़ाई पढ़ नहीं पाया
प्रेम की व्याकरण का और गहरा अध्ययन कर लूं
तुम्हारे तथाकथित शास्त्रकार तुमसे यही कहे चले जाते हैं कि प्रेम छोड़ो, प्रेम पाप है! मैं तुमसे कहता हूं, जो तुम प्रेम की तरह जाने हो वह प्रेम ही नहीं है। अखबार उल्टा पढ़ रहे हो! अभी तो तुमने प्रेम के ढाई अक्षर पढ़े ही नहीं--
प्रेम की व्याकरण का और गहरा अध्ययन कर लूं
निकल पाया नहीं बाहर अहम् के इस अहाते से
जरा ये बांह धरती और ये आंखें गगन कर लूं
अभी तो तुम अहंकार के भीतर ही जी रहे हो। ऐसे समझो कि जैसे अभी कोई पक्षी अपने अंडे के भीतर बंद है, और सोचता है आकाश मिल गया। अहंकार के अंडे के भीतर बंद हो तुम, प्रेम का आकाश अभी कहां है! तोड़ो यह अंडा, निकलो इसके बाहर। यह अहंकार तो तुम्हें बांधे है। यह तुम्हें मुक्त नहीं होने देता।
निकल पाया नहीं बाहर अहम् के इस अहाते से
जरा ये बांह धरती और ये आंखें गगन कर लूं
जब तुम्हारी आंखें गगन जैसी विस्तीर्ण होंगी, तब तुम्हारे पास वे नयन होंगे जो उसे देख पाते हैं जो तुम्हारे भीतर छिपा है। अंतर्दृष्टि अहंकार के हट जाने पर ही उपलब्ध होती है। अहंकार की बदलियां जब आंखों में नहीं रह जातीं तो अंतर्दृष्टि का नीलाकाश उपलब्ध होता है।
‘यथाप्राप्त से जीविका चलानेवाला, देशों में स्वच्छंदता से विचरण करनेवाला तथा जहां सूर्यास्त हो वहां शयन करनेवाला धीरपुरुष सर्वत्र ही संतुष्ट है।’
तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथापतितवर्तिनः।
स्वच्छंदं चरतो देशान्यत्रास्तमितशायिनः।।
यह सूत्र थोड़ा उलझा हुआ है। उलझा हुआ इसलिए है कि यह सूत्र प्रतीकात्मक है। और अब तक इसकी जितनी व्याख्याएं की गयी हैं वे शाब्दिक हैं। शाब्दिक व्याख्या सीधी-साफ है।
पहले शाब्दिक व्याख्या समझ लें, फिर प्रतीक-व्याख्या में उतरें। शाब्दिक व्याख्या अड़चन से भरी हुई नहीं है।
‘यथाप्राप्त से जीविका चलानेवाला...।’
जो मिल गया उससे ही अपना काम चला लेने वाला, यही संन्यासी की पुरानी व्याख्या है, परिव्राजक की। जो मिल गया, जैसा मिल गया, जहां मिल गया।
‘यथाप्राप्त से जीविका चलानेवाला। देशों में स्वच्छंदता से विचरण करनेवाला।’
और कहीं रुकनेवाला नहीं। एक जगह से दूसरी जगह। जो कभी पोखर नहीं बनता। सरिता की तरह गतिमान है।
‘देशों में स्वच्छंदता से विचरण करनेवाला तथा जहां सूर्यास्त हो वहां शयन करनेवाला।’
जो पहले से तय भी नहीं करता कि कहां रात रुकूंगा। इतनी योजना भी नहीं बनाता। जहां सूरज ठहर जाता, वहीं वह भी ठहर जाता। जो किसी तरह की भविष्य की योजना नहीं बनाता।
‘जहां सूर्यास्त हो वहां शयन करनेवाला धीरपुरुष सर्वत्र ही संतुष्ट है।’
यह तो शाब्दिक व्याख्या है। इससे बात पूरी नहीं होती। और यह शाब्दिक व्याख्या अष्टावक्र के विपरीत भी जाती है। इसलिए इस व्याख्या से मैं राजी नहीं हूं। क्योंकि अष्टावक्र संसार के विरोध में नहीं हैं। और वे यह तो कह ही नहीं रहे हैं कि तुम सब छोड़-छाड़ कर परिव्राजक हो जाओ और गांव-गांव भटको। और कोई बहुत बड़ा बुद्धिमान पुरुष ऐसा कह भी नहीं सकता। क्योंकि अगर सारे लोग गांव-गांव भटकने लगें, तो यथाप्राप्त भी कुछ न होगा! किससे मांगोगे?
तुम्हारा संन्यासी तो गृहस्थ पर निर्भर है। और जिस पर तुम निर्भर हो, उससे ऊपर तुम नहीं हो सकते। इसको स्मरण रखना। जिस पर निर्भर हो, उससे नीचे होओगे। इसलिए श्रावक भले साधु के पैर छूता हो, लेकिन गहरे तल पर साधु श्रावक से बंधा है। वह श्रावक से मुक्त नहीं है। और श्रावक के इशारे पर चलता है। तो साधु की जो स्वतंत्रता है वह झूठी है। बिलकुल असत्य है। असली मालिक श्रावक है। जहां से तुम रोटी पाते हो वहां तुम बंध जाते हो। मगर करोड़ों के मुल्क में अगर दो-चार हजार, लाख-दो लाख संन्यासी हों, चलेगा। लेकिन अगर करोड़ों लोग संन्यासी हो जाएं, फिर!
थाईलैंड की सरकार को कानून बनाना पड़ा है। क्योंकि चार करोड़ की आबादी में कोई बीस लाख भिक्षु हैं। चार करोड़ की आबादी में बीस लाख भिक्षु जरा जरूरत से ज्यादा हो गये हैं। और उनको संभालना मुश्किल होता जा रहा है। देश गरीब है, भीड़ बढ़ती जा रही है, और ये बीस लाख भिक्षु! ये छाती पर बैठे हैं। तो थाईलैंड की सरकार को कानून बनाना पड़ा है कि इनको श्रम करना पड़ेगा। अब ये बौद्ध भिक्षु की बड़ी मुश्किल हो गयी है; बात उसके शास्त्र के विपरीत है कि वह श्रम करे। हल-बक्खर उठाए। मेहनत करे, यह तो उसके विपरीत है।
मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं कि यह घटना सारी दुनिया में घटनेवाली है। इस देश में भी घटेगी, आज नहीं कल। इसलिए मैं एक नये संन्यास का सूत्रपात कर रहा हूं, जो किसी पर निर्भर नहीं है। जो भिखारी का संन्यास नहीं है। तुम जहां हो, घर में, जैसे हो, वैसे ही संन्यस्त हो। तुम्हारे संन्यास को कोई सरकार छीन न सकेगी। पुराना संन्यास तो गया, उसके दिन लद चुके! अब वह कहीं बच नहीं सकता। क्योंकि पुराना संन्यासी तो अब शोषक मालूम होने लगा। है भी शोषक। दूसरों के श्रम पर जीता है। अपना श्रम करो! तुम्हें ध्यान करना है, तुम्हें समाधि लगानी है, तो श्रम कोई दूसरा करे, तुम समाधि लगाओ! यह बेईमानी ठीक नहीं। कोई कंकड़-पत्थर तोड़े और तुम बैठकर मंदिर में पूजा करो! यह बात ठीक नहीं। तुम्हें मंदिर में पूजा करनी है, कंकड़-पत्थर ता़ेड लो, समय बचाओ, पूजा कर लो। पूजा का समय खरीदो। श्रम से खरीदो। मुफ्त मत मांगो। अब नहीं मुफ्त के दिन चलेंगे। और मुफ्त के कारण बहुत से मुफ्तखोर संन्यासी हो गये थे। सौ में निन्यानबे बेईमान संन्यासी हो गये थे। जिनको कुछ नहीं करना था, जो किसी तरह झंझट से बचना चाहते थे, या योग्य भी नहीं थे कुछ करने के, वे संन्यासी हो गये थे।
इसलिए एक नये संन्यास की अत्यंत जरूरत है जगत में। जिसका संन्यास संसार के विरोध में है, वह ज्यादा दिन टिकेगा नहीं। अब एक ऐसा संन्यास ही टिकेगा जो संसार में है और संसार के बाहर भी। अब ऐसा संन्यासी, जो जीवित भी है और मृत भी। जो पानी में चलता भी है और पानी जिसके कदमों को छूता भी नहीं। संसार में होकर भी जो संसार के बाहर है, वही बचेगा।
तो मैं अष्टावक्र के इस सूत्र का ऐसा अर्थ कर भी नहीं सकता, क्योंकि अष्टावक्र की पूरी धारणा से इसकी संगति नहीं है। अष्टावक्र संसार-त्याग के पक्षपाती नहीं हैं, संसार का बोध चाहिए। ज्ञान के पक्षपाती हैं। कर्मत्याग के नहीं। मेरी व्याख्या कुछ और है।
तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथापतितवर्तिनः।
‘यथाप्राप्त से संतुष्ट।’
जो मिले परमात्मा से, उससे ज्यादा न मांगे। जितना मिले, उससे रत्ती भर ज्यादा न मांगे। जितना मिले, उसके लिए धन्यभाग! आभार स्वीकार करे। ऐसे व्यक्तियों को मैं कहता हूं--यथाप्राप्त से संतुष्ट।
‘देशों में स्वच्छंदता से विचरण करनेवाला।’
और मैं बाहर के देश की बात नहीं करता, अष्टावक्र भी बाहर के देशों की बात नहीं कर रहे हैं। यह कोई भूगोल थोड़े ही है, जो हम अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्यात्म है। यहां हिंदुस्तान से पाकिस्तान में गये और पाकिस्तान से चीन में गये, इसकी बात नहीं हो रही है। यहां तो तुम्हारे भीतर इतने अंतर देश हैं, एक देश से भीतर दूसरे देश में जाना है। तुम्हारे पूरे अंतर-आकाश का अनुभव लेना है।
तुम कुछ छोटे थोड़े ही हो भीतर, भीतर तुम बड़े विराट हो। यह पृथ्वी बड़ी छोटी है। तुम उतने ही विराट हो जितना यह विश्व है। तुम्हारे भीतर इतना ही बड़ा आकाश है जितना बड़ा आकाश तुम्हारे बाहर है। ये बाहर और भीतर दोनों संतुलित हैं। ये समान हैं। इनका अनुपात एक है। इन भीतर के आकाशों में प्रवेश करना है। इन भीतर के देशों में प्रवेश करना है। यहां भीतर नर्क हैं, यहां भीतर स्वर्ग हैं, यहां भीतर मोक्ष भी है। यहां भीतर क्रोध का देश है, यहां भीतर घृणा का देश है, यहां भीतर प्रेम का, करुणा का देश भी है। यहां भीतर मोह है, लोभ है, त्याग है, वैराग्य है, वीतरागता है। यहां भीतर बड़ी-बड़ी भूगोल है--अंतर की भूगोल है। यहां स्वच्छंदता से विचरण करना है, ताकि तुम अपने पूरे अंतःप्रदेशों से परिचित हो जाओ। तो मैं कहता हूं, अंतर्देशों में स्वच्छंदता से विचरण करनेवाला।
अभी पश्चिम में स्पेस शब्द का ठीक ऐसा ही अर्थ होने लगा है जैसा मैं अर्थ कर रहा हूं--अंतर्देश। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम भीतर की एक ऐसी स्पेस में पड़ गये हैं--एक भीतर के ऐसे अंतर्देश में आ गये हैं--जहां बड़ी शांति है। या बड़ा दुख है, कि बड़ी उदासी है। जैसा आज पश्चिम में स्पेस शब्द का अर्थ हो रहा है, वैसा ही कभी इस देश में अंतर्देश शब्द का उपयोग होता था। वह आध्यात्मिक शब्द है।
और वहां स्वच्छंदता चाहिए। क्योंकि अगर बंधे-बंधे चले, तो तुम अपने अंतर्जीवन से पूरे परिचित न हो पाओगे। सब जानना है। क्रोध को भी जानना है भीतर, तो ही क्रोध से मुक्त हो सकोगे। जो जान लिया, उससे मुक्त हो गये। जिसे पहचान लिया, उससे छुटकारा हो गया। सब जानना है। भीतर के नर्क भी जानने हैं, तो ही तुम नर्क से छूट सकोगे। भीतर के स्वर्ग भी जानने हैं, तो तुम स्वर्ग से भी छूट सकोगे। और जो व्यक्ति अपने भीतर के समस्त लोकों को जानकर सबके पार हो गया--लोकातीत--वही वीतराग है। वही धीरपुरुष है। स्थिर-धी। कहें बुद्धपुरुष, जिन, जो भी नाम देना चाहें।
‘जो अपने अंतर्देशों में स्वच्छंदता से विचरण करने वाला।’
स्वच्छंदं चरतो देशान्।
ये भीतर के देश और इनमें स्वच्छंदता का विचरण।
‘और जहां सूर्यास्त हो, वहीं शयन करने वाला।’
फिर भीतर सूर्यास्त का क्या अर्थ होगा? और वहीं शयन करने का क्या अर्थ होगा? समझें।
जैसे बाहर दिन और रात है, ऐसे ही भीतर भी दिन और रात है। जैसे बाहर सूरज ऊगता और डूबता है, ऐसे ही भीतर बोध का उदय होता है और बोध का अस्त होता है। दो तरह से हम इस विभाजन को समझ सकते हैं।
एक, आत्मा--साक्षी--और शरीर। और इन दोनों के बीच जोड़नेवाला मन। आत्मा तो है प्रकाश, ज्योति, बोध, सूर्य। शरीर है अंधकार, तमस, अमावस। एक तरफ शरीर है--मृत्यु और एक तरफ आत्मा है--अमृत। और दोनों जुड़े हैं मन से। तो मन आधा-आधा प्रभावित है। आधा प्रभावित है शरीर से और आधा प्रभावित है आत्मा से। तो मन के आधे हिस्से में तो दिन होता है, और मन के आधे हिस्से में रात होती है। ज्ञानी व्यक्ति बस वहीं तक आता है जहां तक दिन होता है। मन के उस हिस्से तक आता है जहां तक रोशनी होती है। जहां रोशनी समाप्त होती है, वहीं रुक जाता है, वहीं शयन करता है। उसके आगे नहीं जाता। अंधकारपूर्ण हिस्सों में प्रवेश नहीं करता। अंधकार में यात्रा नहीं करता। रुक जाता है।
अज्ञानी अंधकार में ही चलता है। उसे पता ही नहीं कि उसके भीतर भी कोई सूर्योदय होते हैं। अज्ञानी को बाहर की रोशनी का पता है, बाहर के अंधेरे का पता है। भीतर की रोशनी, अंधेरे, दोनों अपरिचित हैं।
या, एक दूसरा विभाजन भी है। सात चक्र हैं शरीर के। तीन चक्र नीचे हैं, तीन चक्र ऊपर हैं, एक चक्र मध्य में है जो जोड़ता है। जो जोड़नेवाला चक्र है, उसका नाम अनाहत। हृदय-चक्र। उसके नीचे तीन चक्र हैं और ऊपर तीन चक्र हैं। जो नीचे के तीन चक्र हैं उनसे संसार निर्मित होता है, जो ऊपर के तीन चक्र हैं उनसे मुक्ति निर्मित होती। और दोनों के बीच में है हृदय का चक्र। हृदय दोनों को जोड़ता है।
तो नीचे के चक्रों का भी संबंध हृदय से है। इसलिए नीचे के चक्रों में जीनेवाला आदमी भी प्रेम करता है। लेकिन उसका प्रेम निम्नता में दबा होता है। ऊपर के चक्रों में जीनेवाला आदमी भी प्रेम करता है, लेकिन उसका प्रेम विराट आकाश की तरह उन्मुक्त होता है। प्रेम में दोनों भागीदार हैं--अज्ञानी और ज्ञानी। क्योंकि हृदय में दोनों भागीदार हैं--अज्ञानी और ज्ञानी। आधा हृदय अंधेरे से भरा है। उसी को काम कहो, वासना कहो, हिंसा कहो। और आधा हृदय प्रार्थना से भरा है। उपासना कहो, पूजा कहो, आराधना कहो, अर्चना कहो--जो भी नाम देना चाहो।
ज्ञानी हृदय के उस आधे बिंदु तक आता है जहां तक रोशनी है। वहीं विश्राम करता है, उससे आगे नहीं जाता। अज्ञानी अंधेरे-अंधेरे में चलता है, जहां रोशनी का क्षण आता है वहीं सो जाता है। ज्ञानी जहां अंधेरा आता है वहां प्रवेश नहीं करता। अज्ञानी जहां रोशनी आती है वहां प्रवेश नहीं करता। कृष्ण ने गीता में कहा है: ‘या निशा सर्वभूतानाम् तस्यां जागर्ति संयमी।’ जो सबके लिए रात है, वह संयमी के लिए दिन है। और जो संयमी के लिए दिन है, वह सबके लिए रात है। जहां संयमी का दिन है, जहां उसकी कर्मठता है, वहां तो तुम सोए हुए हो। जहां तुम जागे हो, वहां संयमी सोया हुआ है। जहां तुम्हारा सूर्योदय है, वहां सूर्यास्त है संयमी का। और जहां तुम्हारा सूर्यास्त हो जाता है वहां संयमी का सूर्योदय होता है।
तुम आधे-आधे में बंटे हो। तुमने निम्न तल को चुन लिया अपने लिए। अंधेरी रात को। यह तुम्हारा चुनाव है। इसलिए इस चुनाव के बाहर जाने का एक ही उपाय है कि तुम थोड़े-थोड़े जागने लगो और थोड़े-थोड़े प्रेमपूर्ण होने लगो। या तो जागो, तो ऊपर उठो; या प्रेमपूर्ण हो जाओ तो ऊपर उठो। तो दो मार्ग हैं--ध्यान और प्रेम।
स्वच्छंदं चरतो देशान्यत्रास्तमितशायिनः।
और ज्ञानी का आचरण परममुक्त है। वह हवा की तरह मुक्त है।
हवा हूं,
हवा में वसंती हवा हूं
वही,
हां वही जो
धरा का वसंती सुसंगीत मीठा
गुंजाती फिरी हूं,
वही,
हां वही जो
सभी प्राणियों को
पिला प्रेम-आसव जिलाए हुए हूं,
कसम रूप की है
कसम प्रेम की है
कसम इस हृदय की
सुनो बात मेरी,
बड़ी बावली हूं
अनोखी हवा हूं
बड़ी मस्तमौला, नहीं कुछ फिकर है
बड़ी ही निडर हूं
जिधर चाहती हूं
उधर घूमती हूं
मुसाफिर अजब हूं
न घर-बार मेरा
न उद्देश्य मेरा
न इच्छा किसी की
न आशा किसी की
न प्रेमी
न दुश्मन
जिधर चाहती हूं उधर घूमती हूं,
हवा हूं,
हवा में वसंती हवा हूं
जहां से चली मैं
जहां को गयी मैं
शहर, गांव, बस्ती
नदी, रेत, निर्जन
हरे खेत, पोखर
झुलाती चली मैं,
झुमाती चली मैं,
हंसी जोर से मैं
हंसीं सब दिशाएं
हंसे लहलहाते
हरे खेत सारे
हंसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी
वसंती हवा में
हंसी सृष्टि सारी
हवा हूं,
हवा में
वसंती हवा हूं।
स्वच्छंद है हवा की भांति ज्ञानी। वसंत की स्वच्छंद हवा की भांति। उस पर न कोई रीति है, न कोई नियम, न कोई अनुशासन। आगे के सूत्र में बात साफ होगी--
‘जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता है और जिसे संसार विस्मृत हो गया है, उस महात्मा को इस बात की चिंता नहीं है कि देह रहे या जाए।’
पततूदेतु वा देहो नास्य चिंता महात्मनः।
स्वभावभूमिविश्रांतिविस्मृताशेषसंसृतेः।।
‘जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता है।’
अभी जिसकी मैं बात कर रहा था। जो अपने साक्षी में विश्राम करता है, जो अपने चैतन्य में विश्राम करता है, जो अपने प्रकाश में विश्राम करता है, जो अपने स्वभाव से जरा भी विपरीत नहीं होता, जो अपने स्वभाव से बाहर नहीं जाता, जो अपने स्वभाव से अन्यथा नहीं करता, जो व्यर्थ के तनाव नहीं लेता सिर पर, जो सहज है।
‘जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता है, और जिसे शेष संसार विस्मृत हो गया है।’
हो ही जाएगा। जिसे आत्मा का स्मरण होता है, उसे संसार का विस्मरण हो जाता है। और जिसे संसार का बहुत स्मरण हो जाता है, उसे आत्मा का विस्मरण हो जाता है। तुम दोनों को एक-साथ न बचा सकोगे। रस्सी में सांप दिखा, जब तक सांप दिखेगा, रस्सी न दिखेगी। जब रस्सी दिखने लगेगी, सांप न दिखेगा। तुम ऐसा न कर सकोगे कि दोनों को एक-साथ देख लो। यह असंभव है।
जब तक संसार में स्मरण उलझा है, तब तक आत्मा का स्मरण नहीं होता। जब आत्मा का स्मरण होता है, संसार का स्मरण खो जाता है।
‘जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता और जिसे शेष संसार विस्मृत हो गया है, उस महात्मा को इस बात की चिंता नहीं है कि देह रहे या जाए।’
क्योंकि उस महात्मा को पता है--देह संसार का हिस्सा है। देह मेरा हिस्सा नहीं। मैं देह नहीं हूं।
‘अकिंचन, स्वच्छंद विचरण करनेवाला, द्वंद्वरहित, संशयरहित, आसक्तिरहित और अकेला बुद्धपुरुष ही सब भावों में रमण करता है।’
अकिंचनः कामचारो निर्द्वंद्वश्छिन्नसंशयः।
असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः।।
जो अकिंचन है। जिसको यह पता चल गया कि अहंकार झूठी घोषणा है। मैं कुछ हूं, ऐसा जिसका दावा ही न रहा। जो दावेदार न रहा, जिसने सब दावे छोड़ दिये। जो कहने लगा, मैं तो ना-कुछ हूं, शून्यवत।
‘अकिंचन, स्वच्छंद विचरण करनेवाला...।’
जो संस्कृत शब्द है, वह बहुत अदभुत है--कामचारो। जो आचरण से मुक्त हो गया है। जिसके जीवन में अब आचरण-अनाचरण की कोई व्याख्या नहीं रही।
मैं निरंतर तुमसे कहता हूं कि परमज्ञान आचरणरहित होता है--करेक्टरलेस। कामचारो का वही अर्थ है। स्वच्छंद। रीति-नियम से मुक्त। स्वभाव से जीता है जो। स्फूर्ति से जीता है जो। न कोई अनुशासन है उसके ऊपर कि ऐसा करना चाहिए। वही करता है जो होता है। जो होता है उसे होने देता है। जो परिणाम हैं, उन्हें स्वीकार कर लेता है। न परिणामों से बचने की कोई चिंता है, न जो हो रहा है उसे रोकने का कोई आग्रह है। न अन्यथा करने का कोई उपाय है।
‘आसक्तिरहित, संशयरहित, द्वंद्वरहित और अकेला बुद्धपुरुष ही सब भावों में रमण करता है।’
और तब मुक्त हो जाता है व्यक्ति अपने भीतर के सब प्रदेशों में रमण करने को।
‘सब भावों में रमण करता है।’
तब सारे रमण उपलब्ध हो जाते हैं। तब उसे अपनी पूरी अंतःभूमि का पासपोर्ट मिल जाता है। रुकावट नहीं है फिर उसे। वह जहां जाना चाहे भीतर जाता है, जो देखना चाहे देखता है। अचेतन से अचेतन गर्तों में उतरता है और परम चेतन की आखिरी ऊंचाइयां छूता है। पूरी सीढ़ी का मालिक हो जाता है। आखिरी सीढ़ी रुकी है नर्क में और ऊपर की सीढ़ी रुकी है मोक्ष में। सीढ़ी के सब सोपानों पर चढ़ता है। स्वच्छंद भाव से अपनी पूरी चेतना का अनुभव करता है। इस अनुभव में ही सारे विराट के दर्शन हो जाते हैं।
कहते हैं शास्त्र कि मनुष्य पिंडरूप है। इसी ब्रह्मांड का छोटा-सा पिंड है। मनुष्य के भीतर सब छिपा है जो विराट में है। अगर भीतर हम मनुष्य को पूरा देख लें तो हमने पूरे विराट को देख लिया। मनुष्य को समझ लिया तो सब समझ लिया।
इस सूत्र में एक श्रृंखला है। अकिंचन, जो ना-कुछ है, वही स्वच्छंद हो सकता है। अकिंचन, स्वच्छंद। जो ना-कुछ है, वही स्वच्छंद हो सकता है; जिसको कुछ होना है वह स्वच्छंद नहीं हो सकता। उसको तो नियम बनाकर चलना पड़ेगा। उसको तो मर्यादा बांधनी पड़ेगी। जो प्रतिष्ठा चाहता है, समादर चाहता है, पुण्य चाहता है, स्वर्ग चाहता है, उसे तो मर्यादा बांधकर चलनी पड़ेगी। जो ना-कुछ है और ना-कुछ होने से राजी है, वही स्वच्छंद हो सकता है। शून्य ही स्वच्छंद हो सकता है। फिर द्वंद्वरहित। और जो स्वच्छंद है, वही द्वंद्वरहित हो सकता है। जब तक तुम्हारे मन में ऐसा हो जाये और ऐसा न हो, इस तरह का विभाजन रहेगा, द्वंद्व भी रहेगा। जैसा होता है, वैसा ही ठीक है, फिर कोई द्वंद्व न रहा। और जो द्वंद्वरहित हो गया, वही संशयरहित है। जब द्वंद्व ही न रहा, तो संशय क्या! जीवन के प्रति तब परम स्वीकार है, परम श्रद्धा है। और जो संशयरहित है, वही आसक्तिरहित हो पाता है। जब आस्था जीवन के प्रति परम हो गयी, तो हम आसक्ति नहीं बांधते। हम यह नहीं कहते जो मेरे पास है उसे रोक लूं, पता नहीं कल हो या न हो। जब अस्तित्व पर परमश्रद्धा है, तो जिसने आज दिया, कल भी देगा, परसों भी देगा। और नहीं देगा, तो शायद नहीं देना ही उचित होगा। तो नहीं देगा। और जो आसक्तिरहित है, वही अकेला है। वही केवल, एकांत का अनुभव कर पाता है। और जो अकेला है, वही है बुद्धत्व को उपलब्ध।
इसमें श्र्ंखला है। स्वच्छंद, अकिंचन, द्वंद्वरहित, संशयरहित, आसक्तिरहित, एकाकी, बुद्धपुरुष, इसमें एक श्र्ंखला है। एक क्रम है। सीढ़ी के सोपान हैं।
और वही सब भावों में रमण करता है। समस्तता उसकी है, पूरा आकाश उसका है। उसके लिए कोई सीमा नहीं है। कोई बंधन नहीं है। असीम उसका है, अनंत उसका है, शाश्वत उसका है। लेकिन पहले इस असीम की घोषणा स्वयं के भीतर करनी जरूरी है।
इन सूत्रों पर खूब मनन करना। मनन ही नहीं, ध्यान करना। इनका थोड़ा स्वाद लेने की कोशिश करना। क्योंकि ये शब्द ही नहीं हैं कि तुमने समझ लिये, बात पूरी हो गयी, इनके भीतर बहुत कुछ छिपा है। शब्द तो राख जैसा है। उसे झाड़ना तो भीतर अंगारा मिलेगा। वही अंगारे में अर्थ है, उसी अंगारे में अर्थ है।
एक-एक सूत्र ऐसा बहुमूल्य है कि सारे संसार की संपदा भी एक-एक सूत्र को पाने के लिए देनी पड़े तो भी हमने मूल्य चुकाया, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अमूल्य है।
आज इतना ही।
न शांतं स्तौति निष्कामो न दुष्टमपि निंदति।
समदुःखसुखस्तृप्तः किंचित् कृत्यं न पश्यति।। 258।।
धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मानं न दिदृक्षति।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति।। 259।।
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
निश्चिंत स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः।। 260।।
तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथापतितवर्तिनः।
स्वच्छंदं चरतो देशान्यत्रास्तमितशायिनः।। 261।।
पततूदेतु वा देहो नास्य चिंता महात्मनः।
स्वभावभूमिविश्रांतिविस्मृताशेषसंसृतेः।। 262।।
अकिंचनः कामचारो निर्द्वंद्वश्छिन्नसंशयः।
असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः।। 263।।
देख मत तू यह कि तेरे
कौन दायें कौन बायें
तू चला चल बस, कि सब
पर प्यार की करता हवाएं
दूसरा कोई नहीं, विश्राम
है दुश्मन डगर पर
इसलिए जो गालियां भी दे
उसे तू दे दुआएं
बोल कड़वे भी उठा ले
गीत मैले भी घुला ले
क्योंकि बगिया के लिए
गुंजार सबका है बराबर
फूल पर हंसकर अटक तो
शूल को रोकर झटक मत
ओ पथिक! तुझ पर यहां
अधिकार सबका है बराबर
चैतन्य का जो अंतिम शिखर है, वहां सब स्वीकार है। जैसा है वैसा ही स्वीकार है। अन्यथा की कोई मांग नहीं है।
जब तक अन्यथा की मांग है, संसार शेष है। जब तक ऐसा लगे कि ऐसा होता तो अच्छा होता, ऐसा न होता तो अच्छा होता, तब तक मन कायम है। तब तक संसार जारी है।
जब ऐसा लगे कि जैसा है वैसा ही शुभ है, जैसा है ऐसा ही हो सकता था, जैसा है ऐसा ही होना था, जैसा है ऐसा ही होना चाहिए था; जो है, उसके साथ जब तुम्हारे स्वर संपूर्ण रूप से तालमेल खा जाते हैं, तो समर्पण, तो संन्यास, तो संसार समाप्त हुआ, तो तुम हुए जीवनमुक्त।
जहां तथाता परिपूर्ण है; जहां जरा-सी भी, इंच भर भी रूपांतरण की कामना नहीं--न बाहर, न भीतर; जहां इस क्षण के साथ पूरी समरसता है, वहीं शांति है। वहीं सम्यकत्व है।
पहला सूत्र--
न शांतं स्तौति निष्कामो न दुष्टमपि निंदति।
समदुःखसुखस्तृप्तः किंचित् कृत्यं न पश्यति।।
‘निष्काम पुरुष को न तो शांत पुरुष के प्रति कोई स्तुति का भाव पैदा होता’...महात्मा को देखकर भी निष्काम पुरुष के मन में कोई स्तुति का भाव पैदा नहीं होता...‘और दुष्ट को देखकर निंदा का भाव पैदा नहीं होता।’
तुम महात्मा की स्तुति करते हो, क्योंकि तुम महात्मा होना चाहते हो। स्तुति हम किसकी करते हैं? स्तुति हम उसी की करते हैं, जैसे हम होना चाहते। निंदा हम किसकी करते हैं? निंदा हम उसी की करते हैं जैसे हम नहीं होना नहीं चाहते। निंदा हम उसी की करते हैं जैसे हम चाहते हैं कि न हों और पाते हैं कि हैं। और स्तुति हम उसी की करते हैं जैसे हम चाहते हैं कि हों, सोचते भी हैं कि हैं और अभी हैं नहीं। स्तुति है अपने भविष्य की, निंदा है अपने अतीत की।
ईसाई फकीरों में बड़ा प्रसिद्ध वचन है: ‘हर संत का अतीत है और हर पापी का भविष्य है।’ जो आज संत है, कल अतीत में पापी था। इसलिए हर संत का अतीत है। और अतीत संतत्व से भरा हुआ नहीं हो सकता। और हर पापी का भविष्य है। आज जो पापी है, वह कल संत हो जाएगा, हो सकता है। तो जब तुम किसी की स्तुति करते हो, तब तुम क्या कर रहे हो, तुमने कभी सोचा? राजनेता गांव में आया, तुम चले! तुम सोचते हो तुम महान नेता के दर्शन करने को जा रहे हो, तुम गलती में हो। तुम्हारे मन में भी राजपद का मोह है। तुम भी चाहते हो पद हो, प्रतिष्ठा हो...जो तुम्हें नहीं हो सका है और किसी और को हो गया है, चलो कम-से-कम उसके दर्शन कर आएं!
एक होटल में एक आदमी भीतर प्रविष्ट हुआ। बड़ा मजबूत आदमी, ऊंचा-तगड़ा। उसने एक गिलास शराब पी ली और जोर से चिल्लाकर कहा, है किसी की ताकत कि जरा आजमाइश कर ले? लोग सिकुड़कर और डरकर बैठ गये। फिर उसने चिल्लाकर कहा कि कोई दमदार नहीं, कोई मर्द नहीं, सब नामर्द बैठे हैं? एक छोटा-सा आदमी उठा। लोग तो चकित हुए कि यह छोटा आदमी किसलिए उठ रहा है! यह तो इसको चकनाचूर कर देगा!!
लेकिन वह छोटा आदमी ‘कराते’ का जानकार था। उसने जाकर दो-चार हाथ मारे, वह जो बड़ा तगड़ा आदमी था, क्षण भर में जमीन पर चारों खाने चित हो गया। और वह छोटा आदमी उसकी छाती पर बैठ गया और बोला, बोलो क्या इरादा है! देखा मर्द? वह बड़ा आदमी, मजबूत आदमी बड़ा हैरान हो गया। उसने कहा, आखिर भाई तू है कौन? तो उसने कहा मैं वही हूं, जो तुम सोचते थे कि तुम हो जब तुम होटल में भीतर आए थे। मैं वही हूं जो तुम सोचते थे कि तुम हो, जब तुम होटल में भीतर आए थे। जो शराब पीकर तुमने सोचा कि तुम हो, मैं वही हूं। कुछ कहना है?
हम जब स्तुति करते किसी की, तो किसी बहुत गहरे तल पर अचेतन मन के हम अपने ही भविष्य की तलाश कर रहे हैं, जैसा हम होना चाहते हैं। इसलिए जो आदमी राजनेता के दर्शन को जाता है वह संत के दर्शन को नहीं जाएगा। या अगर संत के भी दर्शन को जा रहा हो, तो इस आदमी के मन में राजनीति और धर्म का कोई भेद ही नहीं है। जिसकी भी प्रतिष्ठा है! यह प्रतिष्ठित होना चाहता है, कैसे प्रतिष्ठा मिलेगी इसकी इसे कोई चिंता नहीं है। यह अपने अहंकार की पूजा चाहता है। चाहे राजनेता होकर मिल जाए, चाहे महात्मा होकर मिल जाए, इसे अहंकार पर आभूषण चाहिए।
तुम जब स्तुति करते हो किसी की, तो तुमने अपनी मांग जाहिर की, तुमने अपनी वासना प्रगट की--ऐसा मैं होना चाहता हूं। नहीं हो पाया, मजबूरी है; लेकिन उसे तो देख आऊं जो हो गया है! उसके चरण में तो श्रद्धा के फूल चढ़ा आऊं कि मैं तो हार गया लेकिन तुम हो गये, चलो, कोई तो हो गया! मगर यह घटना घट सकती है, इसके लिए आंख भर कर देख तो आऊं! जब तुम बुद्ध के पास जाते हो और बुद्ध के चरणों में सिर झुकाते हो, तब भी तुम यही कह रहे हो। मैं तो न हो सका, मैं तो खो गया मार्गों में, अनंत थे मार्ग, राह न मिली, मैं तो कांटों में उलझ गया, आप पहुंच गये! आपके दर्शन ही कर लूं, आंख इतने से ही भर लूं! इतना तो भरोसा आ जाए कि भला मैं भटक गया, लेकिन भटकाव अनिवार्य नहीं है। पहुंचना हो सकता था--कोई पहुंच गया है।
या तुम जब किसी की निंदा करते हो। बटर्रेंड रसॅल ने लिखा है कि अक्सर ऐसा होता है कि जब कोई आदमी किसी बात की बहुत निंदा करता हो, तो जरा उस आदमी को गौर से देखना। समझो कि यहां किसी की जेब कट जाए, और एक आदमी जोर से चिल्लाने लगे, पकड़ो, मारो, कौन है चोर, ठिकाने लगा देंगे! उस आदमी को पहले पकड़ लेना। बहुत संभावना तो यह है कि यह आदमी चोर है, इसी ने जेब काटी है। चोर बहुत जोर से चिल्लाता है। जोर से चिल्लाने के कारण दूसरों को भरोसा आ जाता है कि कम-से-कम यह तो चोर नहीं हो सकता। चोर होता तो यह चिल्लाता! चोर होता तो यह चोरी के इतने खिलाफ कैसे होता! इसलिए जो होशियार चोर है, वह चोरी के खिलाफ चिल्लाता है, शोरगुल मचाता है, और इसी तरह बच जाता है। कोई सीधा-सा आदमी डर के मारे अगर चुपचाप सिकुड़ा खड़ा रह जाए कि कहीं ऐसा न हो कि कोई हम पर शक कर ले, वह पकड़ लिया जाएगा। जो शोरगुल कर रहा है, उसे तो कौन पकड़ेगा!
बटर्रेंड रसॅल ने लिखा है कि जो आदमी जिस बात की जितनी निंदा करे, समझना कि भीतर गहरे में उसका कोई न्यस्त स्वार्थ है। या तो वह पाता है कि मैं ऐसा हूं, या तो वह डरा हुआ है कि कहीं जाहिर न हो जाए...तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी कामवासना की इतनी निंदा करते हैं उसका कुल कारण इतना है, कामवासना उनके भीतर बड़ी लहरें व तरंगें ले रही है। वे स्त्री से पीड़ित व परेशान हैं। इसलिए तुम्हारे शास्त्र स्त्रियों को गाली दिये जाते हैं। वे जो शास्त्र लिखनेवाले हैं, जरूर कहीं न कहीं स्त्री से बहुत पीड़ित रहे होंगे। उनके सपने में स्त्री उनको सता रही होगी। स्त्री उनका पीछा कर रही है। वे स्त्री से भाग गये हैं। जिससे कोई भाग जाता है, उससे कभी भाग नहीं पाता। जिससे भागे, उससे उलझे रह जाओगे। वे जो तुम्हारे शास्त्रकार तुमसे कहते हैं, धन से बचो, धन में पाप है, समझ लेना उनका लोभ अभी भी धन में लगा है। अन्यथा, इतनी निंदा का कोई कारण न था।
असल में तो निंदा का कोई कारण ही नहीं है। परमज्ञानी को न तो कोई स्तुति है, न कोई निंदा है। न तो वह महात्मा के चरणों में फूल चढ़ाने जाता और न निंदक के सिर पर अंगारे रखने जाता, जूते मारने जाता। बुरे को जूते नहीं मारता, भले का सम्मान नहीं करता। अगर कोई भला है, तो भला; अगर कोई बुरा है, तो बुरा। जैसा है, वैसा है।
इस बात को थोड़ा समझना। यह परम दशा की व्याख्या है। जैसा है, वैसा है। राम राम हैं, रावण रावण है। जैसा है, वैसा है। नीम कड़वी है और आम मीठा है। क्या तो नीम की निंदा और क्या आम की प्रशंसा! क्या सार है? कांटा कांटा है, फूल फूल है। जो जैसा, वैसा। इसमें रत्ती भर आकांक्षा नहीं है, आकांक्षा का कोई संबंध नहीं है।
न शांतं स्तौति निष्कामो।
जो स्वयं निष्काम हो गया है, वह शांत व्यक्ति की भी स्तुति नहीं करता। जब निष्काम ही हो गया, तो अब तो शांति की भी कामना नहीं है। तो स्तुति का क्या प्रयोजन!
न दुष्टमपि निंदति।
और न दुष्ट की निंदा करता। निंदा में भी दुष्टता है। तुम जब किसी की निंदा करते हो तब भी उसमें दुष्टता ही छिपी हुई है। निंदा में भी तुम चोट पहुंचाने की चेष्टा कर रहे हो। निंदा करके तुम स्वयं ही निंदित हो गये। न तो स्तुति का कुछ अर्थ है, न निंदा का कुछ अर्थ है। निष्काम व्यक्ति न पक्ष में है, न विपक्ष में। निष्काम व्यक्ति का कोई आग्रह नहीं है। निष्काम व्यक्ति अनाग्रही है।
‘वह दुख और सुख में समान है। सब स्थितियों में तृप्त। और उसको करने को कुछ भी नहीं बचा है।’
समदुःखसुखस्तृप्तः।
दोनों में समभाव आ गया है। इस समभाव की ही सारी खोज है इस देश में। जैन इसे कहते हैं, सम्यकत्व। लेकिन बात सम की है। बुद्ध कहते हैं, संतुलन, सम्यक। बात सम की है। हिंदू कहते हैं, समाधि--सम, आधि। बात सम की है। अगर एक छोटा-सा शब्द चुनना हो जिसमें पूरे पूरब की मनीषा समा जाती हो तो वह, सम। सम का अर्थ है, जिसके मन में न अब इधर डोलना रहा, न उधर डोलना रहा। न जो बायें झुकता, न दायें झुकता। क्योंकि इधर झुके तो खाई, उधर झुके तो कुआं। झुके कि भटके। जो झुकता ही नहीं। जो मध्य में खड़ा हो गया है। जो थिर हो गया, अकंप। समता, सम्यकत्व, समाधि।
अंग्रेजी में भी, यूनानी-लैटिन में भी संस्कृत का यह सम शब्द बच रहा है। इसने अनेक थोड़े फर्क रूप ले लिये हैं, लेकिन बच रहा है। अंग्रेजी के शब्दों में ‘सिन्थेसिस’ में जो सिन है, वह सम का ही रूप है। ‘सिम्फोनी’ में। ‘सिनाप्सिस’ में। जहां-जहां सिन प्रत्यय है, वह सम का ही रूप है।
सम चित्त की एक आंतरिक दशा है। ऐसी दशा, जहां कोई कंपन नहीं है। अकंप दशा। अगर तुम्हारे मन में शुभ की प्रशंसा है, अशुभ की निंदा है, तो तुम कंप गये। समझो तुम बैठे हो और एक दुष्ट आदमी निकल गया रास्ते से, तो तुम्हारे मन में कंपन पैदा हो जाएगा कि अरे! यह दुष्ट जा रहा है, इसे नरक में डाला जाए। या तुम्हारे मन में दया आ गयी और तुमने कहा इस दुष्ट को बचाना चाहिए, साधु बनाना चाहिए, तो भी तुम कंप गये। तुम जो बैठे थे अकंप, उसमें कंपन हो गया। तुम अब वही न रहे जो इस आदमी के निकलने के पहले थे। निकला कोई साधुपुरुष, कि महात्मा, कि तुम्हारे मन में हुआ--अहो! धन्यभाग इस आदमी के! ऐसा सौभाग्य मेरा कब होगा? कंप गये। विचार उठ गया, समता खो गयी।
सम स्थिति तब है, जब बुरा निकले कि भला, तुम वैसे ही रहे। तुम वैसे के वैसे रहे--जस के तस। जरा भी हिले-डुले न। सुख आया तो, दुख आया तो; सम्मान मिला तो, अपमान मिला तो, तुम वैसे के वैसे रहे, जरा भी न हिले। ऐसी समता की दशा को जो उपलब्ध हो जाए, उसे ही जानना कि निष्काम है।
समदुःखसुखस्तृप्तः।
और उसकी ही तृप्ति है। जो सुख-दुख में समानता को उपलब्ध हो गया है वही तृप्त है। अन्यथा दुखी तो तृप्त हैं ही नहीं, सुखी भी तृप्त नहीं हैं।
तुमने खयाल किया? जब दुख होता है, तो दुख से छूटने की आकांक्षा प्रबल होती है कैसे छूट जाएं, वही तकलीफ होती है, तृप्त कैसे होंगे। दुख से कोई तृप्त होता है! दुख से छूटना चाहता है, हटना चाहता है, मुक्त होना चाहता है। लेकिन जब सुख होता है, तब भी तुम तृप्त होते हो? जब सुख होता है तब यह डर लगता है कि कहीं सुख छिन न जाए!
कल एक युवा संन्यासी ने मुझे कहा कि अब मैं वापिस लौट रहा हूं अपने घर। जितने दिन यहां था, बड़े सुख में बीते, बड़ी शांति में बीते। अभी भी चित्त बड़ा आनंदित और शांत है। अब एक डर लग रहा है कि कहीं घर जाकर यह खो तो नहीं जाएगी शांति! अभी खोयी नहीं है, लेकिन डर, कि कहीं खो तो न जाएगी! बेचैनी शुरू हो गयी। अभी चित्त शांत है और अशांति शुरू हो गयी। अभी सुख बरस रहा है, लेकिन भय समा गया कि कहीं खो तो न जाएगा! जब भी तुम सुखी होते हो, तभी भीतर से भय भी आ जाता है कि कहीं खो तो न जाएगा। जैसे दुख के साथ यह भाव आता है--कैसे छुटकारा हो, वैसे सुख के साथ यह भाव आता है--कहीं छुटकारा हो न जाए! दोनों ही हालत में तुम डोल गये। दोनों ही हालत में तृप्ति नष्ट हो गयी, अतृप्त हो गये, असंतोष पैदा हो गया।
तो दुखी तो दुखी हैं ही, यहां सुखी भी दुखी हैं। जिनके पास धन नहीं है, वे परेशान हैं कि धन कैसे हो? जिनके पास धन है, वे परेशान हैं कि कहीं खो न जाए! कहीं चोर न चुरा लें! कहीं सरकार न छीन ले! कहीं कम्यूनिज़म न आ जाए! कहीं ऐसा न हो जाए! कहीं वैसा न हो जाए! क्या भरोसा! तो जिसके पास धन नहीं है, वह तो शायद रात ठीक से सो भी जाता है, जिसके पास है, वह सो ही नहीं पाता। वह और भयभीत है। उसके ऊपर निन्यानबे का फेर है। वह चिंता चिंता में ही लगा रहता है। कैसे बचाऊं! पहले लोग सोचते हैं, धन होगा तो बड़ी सुरक्षा होगी, फिर चिंता पैदा होती है कि अब धन की सुरक्षा कैसे करें? जिनको तुम धनी कहते हो, उनको तुम्हें धनी कहना नहीं चाहिए, ज्यादा से ज्यादा रखवाले, पहरेदार! धन की मालकियत कहां संभव है! बस कोई पहरा देता रहता है। पहरेदारी में ही तुम समझते हो कि तुम मालिक हो गये।
तृप्त तो वही है जो सुख और दुख में समभावी है। दुख आता है तो कहता नहीं कि जाओ। सुख आता है तो कहता नहीं कि रुको। जैसी मर्जी। अपनी मर्जी से आए, रुकना हो रुको, जाना हो जाओ। सुख और दुख दोनों के साथ उसकी अंतर्दशा एक-सी रहती है।
और यह बाहर की ही बात नहीं है, भीतर भी ध्यान का यही सूत्र है। एक बुरा विचार मन में आया--चोरी कर लें, हत्या कर दें, तुम इसकी भी निंदा मत करो। तुम इसे भी देखते रहो। इससे भी कुछ लेना-देना नहीं है। यह विचार तुम नहीं हो। तुम इसके साक्षी हो। एक अच्छा विचार आया कि सब दान कर दें, एक बड़ा मंदिर बना दें, अस्पताल खोल दें, यह भी एक विचार है। तुम इससे छाती न फुला लो। अकड़ मत जाओ कि कितना शुभ विचार मेरे भीतर आ रहा है। और अशुभ विचार से तुम परेशान न हो जाओ, माथे पर बल न ले आओ, पसीने-पसीने मत हो जाओ, घबड़ाओ मत कि कैसा अशुभ विचार आ गया! कि मैं कैसा अशुभ हो गया। न अशुभ विचार तुम हो, न शुभ विचार तुम हो, तुम तो साक्षी हो।
तो जहां शुभ और अशुभ, भला और बुरा, रात और दिन, सुख और दुख, जीवन और मृत्यु, दोनों के प्रति एक समदृष्टि उत्पन्न हो जाती है, वहीं जीवन का परम द्वार खुलता है। और ऐसे व्यक्ति को पता चलता है कि उसको कुछ करने को शेष नहीं रहा है।
किंचित् कृत्यं न पश्यति।
जिसने ऐसा समभाव जान लिया, अब इसे करने को कुछ भी नहीं बचा। न कोई साधना, न कोई सिद्धि। न कोई जप-तप, न कोई योग-याग। न इसे मोक्ष पाना है, न इसे संसार छोड़ना है। इसी क्षण सब हो गया। सम्यकत्व के क्षण में सब हो जाता है। समता के क्षण में सब हो जाता है। समाधि के क्षण में सब हो जाता है। अब कुछ करने को शेष नहीं रहा है।
किंचित् कृत्यं न पश्यति।
अब इसे कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता कि करने को कुछ बचा।
साक्षी तुम हुए कि अकर्ता हुए। या कि अकर्ता हो जाओ, तो साक्षी हो गये। अब तो सिर्फ आनंद ही आनंद है, करने को कुछ भी न बचा। खयाल करो, जब तक करने को बचा है, तब तक चिंता रहेगी, योजना रहेगी, भय रहेगा। करोगे तो लेकिन सफल होओगे या नहीं? सफल भी हो गये, तो जिस दिशा में चल पड़े थे वह ठीक थी या नहीं थी? सफल होकर भी सफलता मिलेगी? धन पाकर भी सुख होगा, शांति होगी? पद पाकर भी तृप्ति होगी? जहां तक कृत्य है, वहां तक चिंता का जाल है। जहां तक करना है, वहां तक असफलता का डर बना ही रहेगा। और यह भी डर बना रहेगा कि सफल होकर भी कहां सफलता पक्की है! क्योंकि सिकंदर होते, नेपोलियन होते, जीत लेते दुनिया और खाली हाथ जाते! धूल में पड़ी हैं उनकी अर्थियां, जो सिंहासन पर बैठे। तो सिंहासन पर भी बैठकर गिरना तो कब्र में ही पड़ता है। सिंहासन से भी तो आदमी कब्र में ही गिरता है। चाहे सिंहासन पर बैठो, चाहे सड़क की पटरी पर भिखमंगे की तरह बैठो, जब गिरोगे कब्र में तो एक-से गिरोगे। उमर खैयाम ने कहा है: धूल मिल जाती धूल में। डस्ट अनटू डस्ट। फिर धूल तुम्हारी सम्राट कहलाती थी कि भिखमंगा, इससे क्या फर्क पड़ता है! अंतिम चरण में सब एक हो जाता है।
ज्ञानी यह देखकर कि मृत्यु तो सब लीप-पोत देती है, स्वयं ही लीप-पोत देता है। वह कहता है जब मृत्यु सबको मिटाकर एक-सा कर देगी, तो मैं अपनी ही तरफ से एक-सा हुआ जाता हूं। इस भांति ज्ञानी स्वेच्छा से मर जाता है। उसके लिए करने को कुछ नहीं बचता, इससे यह भ्रांति मत ले लेना मन में कि वह कुछ करता नहीं है। करने को कुछ नहीं बचता, कृत्य उससे जारी रहते हैं। जो स्वाभाविक है, जो नैसर्गिक है। भूख लगती, तो भोजन करता है, प्यास लगती तो पानी पीता है। जो स्वाभाविक निसर्ग से होता है। जिसे करना नहीं पड़ता, अपने से होता है।
जैसे समझो, एक ज्ञानी बैठा है और कोई आदमी किसी को मार रहा है। तो ज्ञानी यह सोचकर नहीं उठता कि मैं इसे बचाऊं, कि मुझे बचाना चाहिए; कि मैं यहां बैठा हूं और यह आदमी मेरे सामने पिट रहा है, तो इस पाप में मैं भागीदार हो रहा हूं, ऐसा चिंतन नहीं करता। अगर पुलक आ गयी सहज, तो उठ आता है, बचा लेता है। पुलक न आयी, तो बैठा रहता है। हुआ, तो हो जाने देता है। न हुआ, तो कोई उपाय नहीं है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि ज्ञानी नहीं बचाएगा। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि ज्ञानी बचाएगा ही। ज्ञानी के संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। ज्ञानी सहज पुलक से जीता है। यही तो अष्टावक्र बार-बार कहते हैं, ज्ञानी स्व-स्फूर्ति से जीता है। आएगी स्फूर्ति, तो हो जाएगा। नहीं आएगी स्फूर्ति, तो नहीं होगा। अब स्फूर्ति का जिम्मा ज्ञानी पर नहीं है, उस परम विराट पर है जिसके चरणों में ज्ञानी ने अपने को छोड़ दिया। अब वह जो चाहे। बना ले निमित्त, ठीक। न बनाना चाहे निमित्त, ठीक। ज्ञानी तो खूंटी हो गया, भगवान चाहें अपना कपड़ा टांग लें, अंगरखा टांग दें, न चाहें न टांगें। खूंटी को कुछ प्रयोजन नहीं है, टंगे अंगरखा तो ठीक, न टंगे तो ठीक। खूंटी-खूंटी है, निमित्त मात्र।
बहुत कुछ ज्ञानी से होगा। कभी होगा, कभी नहीं भी होगा। किसी ज्ञानी से होगा और किसी ज्ञानी से नहीं भी होगा। कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिए तुम कोई व्याख्या बांधकर मत बैठ जाना। ज्ञानी हुए, जो बोले। ज्ञानी हुए, जो मौन रहे। ज्ञानी हुए, जिन्होंने गहरे कर्म के जगत में भाग लिया, हाथ बंटाया। ज्ञानी हुए, जो बैठ गये अपनी गुफाओं में और संसार को बिलकुल भूल ही गये। दोनों ही ठीक हैं। क्योंकि दोनों के भीतर जो मौलिक बात घट रही है वह एक ही है। वह है स्व-स्फुरणा। जो हो रहा है स्फुरणा से, हो रहा है; जो नहीं हो रहा, नहीं हो रहा। न तो ज्ञानी कुछ अपनी चेष्टा से करता है और न अपनी चेष्टा से रोकता है। ज्ञानी बीच से बिलकुल हट गया है। उसने दरवाजा परमात्मा को दे दिया है।
किंचित्त् कृत्यं न पश्यति।
‘धीरपुरुष न संसार के प्रति द्वेष करता है और न आत्मा को देखने की इच्छा करता है। हर्ष और शोक से मुक्त वह न मरा हुआ है और न जीवित ही है।’
धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मानं न दिदृक्षति।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति।।
धीरो न द्वेष्टि संसारं...।
यह तो समझ में आता है कि ज्ञानी को संसार नहीं दिखता। और संसार के प्रति देखने की आकांक्षा भी नहीं है। न संसार के प्रति कोई द्वेष है। जो है ही नहीं उसके प्रति द्वेष कैसा!
समझो।
राह पर रस्सी पड़ी है और तुमने अंधेरे में सांप समझ लिया। तो तुम भागे, घबड़ाए। फिर कोई दीया ले आया और रस्सी दिखायी पड़ गयी कि रस्सी है, सांप नहीं, फिर भी क्या तुम घबड़ाओगे? फिर भी क्या तुम डरोगे? फिर भी क्या रस्सी के पास से निकलने में भयभीत होओगे? फिर भी भागोगे? फिर भी क्या अपने बच्चों को जाकर कहोगे कि बचकर निकलना उस रास्ते से? वहां एक रस्सी पड़ी है जो सांप जैसी मालूम पड़ती है। क्या तुम अपने बच्चों को सावधान करोगे कि उस रास्ते से जाना मत, वहां एक झूठा सांप पड़ा है। अगर तुम ऐसी बातें कहो तो बच्चे भी हंसेंगे। वे कहेंगे अगर झूठा ही है, तो आप चौंका क्यों रहे हैं हमें? सावधान क्यों कर रहे हैं? आपने देख लिया कि झूठा है, तो बात खतम हो गयी।
अब तुम्हारे तथाकथित महात्मा हैं जो समझा रहे हैं तुम्हें, संसार से बचो। और साथ-साथ कह रहे हैं संसार माया है। तुमने उनकी जरा मूढ़तापूर्ण बात देखी? कहते हैं, संसार माया है और बचो! जो माया है उससे बचना कैसा! माया का तो अर्थ हुआ जो है ही नहीं। रस्सी में दिख गया सांप, इससे भागना कैसा! और न केवल तुमसे कह रहे हैं भागो, खुद भी भाग रहे हैं। और साथ-साथ यह भी चिल्लाते जा रहे हैं कि रस्सी है, सांप नहीं है--मगर भागो! और सावधान रहना कामिनी-कांचन से!
इस विकृति को देखते हो? इस असंगति को देखते हो? एक तरफ चिल्लाए चले जाते हैं कि संसार असत्य है, और दूसरी तरफ चिल्लाए चले जाते हैं छोड़ो संसार को, संसार का त्याग करो, मुक्त हो जाओ संसार से। जो असत्य है, उससे मुक्त होने का उपाय नहीं। जो असत्य है, उससे तो तुम मुक्त हो ही गये यह जानते ही कि असत्य है।
तो इतना ही कहेगा ज्ञानी कि संसार को गौर से देख लो, देखने में ही मुक्ति है। द्वेष का तो सवाल ही नहीं है।
धीरो न द्वेष्टि संसारं...।
ज्ञानी को, धीरपुरुष को संसार से कोई द्वेष नहीं है, क्योंकि संसार है नहीं। द्वेष के लिए होना तो जरूरी है! फिर जिससे द्वेष होता है, उससे राग भी हो सकता है। द्वेष तो राग का ही दूसरा पहलू है। तुम्हारी किसी से दुश्मनी हो जाती है, तो दोस्ती भी हो सकती है। जिससे भी दुश्मनी हो सकती है, उससे दोस्ती भी हो सकती है। जिससे दोस्ती हो सकती है, उससे दुश्मनी भी हो सकती है। दोनों के द्वार एक-साथ खुलते हैं। जिसको तुमने दोस्त बनाया, उससे किसी भी दिन दुश्मनी बन सकती है। और जो तुम्हारा आज दुश्मन है, कल दोस्त भी हो सकता है।
मैक्यावेली ने अपनी किताब ‘दि प्रिंस’ में कहा है, राजाओं के लिए सलाह दी है, उसमें एक सलाह यह भी है कि अपने दोस्तों से भी तुम वह बात मत कहना जो तुम अपने दुश्मनों से भी नहीं कहना चाहते। क्योंकि जो आज दोस्त है, कल दुश्मन हो सकता है। और यह भी सलाह दी है कि अपने दुश्मन के खिलाफ भी ऐसी बात मत कहना कि कल अगर उससे दोस्ती हो जाए तो फिर तुम्हें अड़चन हो लौटाने में, वह बात लौटाने में अड़चन हो। क्योंकि जो आज दुश्मन है, वह कल दोस्त हो सकता है। यह बात मैक्यावेली ने ठीक ही कही है। यह बात सच है। जिससे द्वेष है, उससे राग हो सकता है। क्योंकि द्वेष राग का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। जिससे राग है, उससे द्वेष हो सकता है।
ज्ञानी को न राग है, न द्वेष है। ज्ञानी को तो यह बोध हुआ, ज्ञानी ने तो जागकर यह देखा, अपने परम चैतन्य में यह अनुभव किया कि यहां कुछ राग-द्वेष करने को है ही नहीं। तुम छायाओं से उलझ रहे हो। न इनसे दोस्ती हो सकती है, न दुश्मनी हो सकती है। तुम छायाओं को अपने आलिंगन में बांध रहे हो। तुम किनके हाथ लेकर चल रहे हो? ये हाथ हैं नहीं, तुम्हारी कल्पनाएं हैं। तुमने यह जो इकट्ठा कर रखा है धन, दौलत, यह कुछ भी नहीं है। सिर्फ खयाल है।
खयाल है, ऐसा खयाल पैदा होते ही मुक्ति हो गयी।
धीरो न द्वेष्टि संसारं...।
इतना तो ठीक है, लेकिन बड़ी अदभुत बात अष्टावक्र कहते हैं कि वह जो धीर है, उसे संसार में तो द्वेष दिखायी पड़ता ही नहीं, उसे आत्मा को देखने का राग भी पैदा नहीं होता। यह और भी गहरी बात है। जब जान लिया कि संसार व्यर्थ है, जब जान लिया कि संसार सार्थक नहीं, जब जान लिया कि संसार है ही नहीं, मात्र भासता है--रज्जु में सर्पवत्; मृगमरीचिका है; खयालों का जमाव है; सपनों की भीड़ है; ऐसा जब जान लिया, तो सब वासनाएं व्यर्थ हो गयीं। क्योंकि जो नहीं है, उसको पाने की आकांक्षा का अब कोई मूल्य न रहा। इस संसार में पद पाने का तभी तक मूल्य है जब तक लगता है कि इस संसार में प्रतिष्ठा का कोई मूल्य है। इस संसार में कुछ अहंकार अर्जित करने का तभी तक मजा मालूम होता है जब तक लगता है कि अहंकार अर्जित हो सकता है। लेकिन अगर सब धोखा है, सब झूठ है, तो बात व्यर्थ हो गयी। जड़ से कट गयी बात।
यहां तक तो समझ में आता है। लेकिन अष्टावक्र कहते हैं कि जिस दिन यह समझ में आ गया कि संसार व्यर्थ है, यह बाहर जो दिखायी पड़ रहा है यह केवल एक सपना है, उस दिन आत्मा को पाने की, खोजने की बात भी समाप्त हो गयी। पाना ही व्यर्थ हो गया, तो आत्मा को पाने की बात भी व्यर्थ हो गयी। असल में पाना जिस दिन व्यर्थ हो गया, उस दिन आत्मा पा ही ली। इसलिए अब आत्मा को पाने का सवाल नहीं उठता।
थोड़ा जटिल है। थोड़ा सूक्ष्म है। लेकिन खयाल करोगे तो समझ में आ जाएगा।
अगर तुम्हें संसार सौ प्रतिशत दिखायी पड़ रहा है, तो तुम शून्य प्रतिशत होते हो। जिस मात्रा में आत्मा का विस्मरण होता है, उसी मात्रा में संसार वास्तविक मालूम होता है। यह गणित है। जब संसार नब्बे प्रतिशत सत्य रहा, तो आत्मा दस प्रतिशत सत्य हो जाती है। जब संसार पचास प्रतिशत सत्य रहा, तो आत्मा पचास प्रतिशत सत्य हो गयी। जिस मात्रा में संसार से ऊर्जा तुम्हारी मुक्त होने लगी, संसार में नियोजन न रहा, उसी मात्रा में तुम्हारी ऊर्जा आत्मा में पड़ने लगी। तुम आत्मवान होने लगे। इधर वासना क्षीण हुई, उधर आत्मा प्रबल हुई। इधर काम हारा, उधर राम जीते। एक ऐसी घड़ी आती है कि निन्यानबे प्रतिशत संसार व्यर्थ हो गया, उसी क्षण निन्यानबे प्रतिशत आत्मा तुमने जीत ली। जिस दिन सौ प्रतिशत संसार व्यर्थ मालूम हो गया, उस दिन सौ प्रतिशत आत्मा के तुम मालिक हो गये। तुम जिन हो गये। तुमने जीत लिया अपने को।
महावीर को मानने से कोई जैन नहीं होता, संसार सौ प्रतिशत शून्य हो जाए और आत्मा सौ प्रतिशत पूर्ण हो जाए, तब कोई जिन होता है। ये किसी के शास्त्र में मानने न मानने की बातें नहीं हैं, ये किसी के पीछे न चलने चलने की बातें नहीं हैं, यह तो एक भीतर का गणित है। जो ऊर्जा संसार में उंडेली जा रही थी यह सोचकर कि संसार सच है, अब संसार तो झूठ हो गया, वह ऊर्जा अब उंडेली नहीं जाती, वह ऊर्जा अब स्वयं में थिर होने लगती है। यह स्वयं में जो थिरता है, यही आत्मवान होना है। तो जिसको दिखायी पड़ गया कि संसार में अब कुछ भी नहीं, द्वेष करने योग्य भी नहीं--राग करने योग्य तो है ही नहीं, द्वेष करने योग्य भी नहीं है।
तुम देखो, तुम्हें दुनिया में दो तरह के लोग दिखायी पड़ेंगे। एक तो जिनको तुम संसारी कहते हो, उनका संसार से राग है। और एक जिनको तुम विरागी कहते हो, उनका संसार से द्वेष है। मगर दोनों एक ही चीज से बंधे हैं। दोनों मानते हैं कि संसार बड़ा बलशाली है। रागी कहता है कि इसके बिना मैं सुखी न हो सकूंगा। विरागी कहता है, इसके रहते मैं सुखी न हो सकूंगा। लेकिन दोनों का सुख इसी पर निर्भर है। एक का सुख इस बात पर निर्भर है कि संसार को जीतूं तो सुखी होऊंगा। एक का सुख इस बात पर निर्भर है कि संसार को छोडूं, त्यागूं, तो सुखी होऊंगा। लेकिन दोनों के सुख संसार पर निर्भर हैं।
ज्ञानी न तो भोगी है, न त्यागी है। न रागी, न विरागी। ज्ञानी है वीतराग दशा। देख लेता है, यहां न तो कुछ राग को है, न विराग को है। न पकड़ने को, न छोड़ने को। इस घटना में ही आत्मवान हो जाता है। और जो आत्मवान हो गया, उसको फिर आत्मा को देखने का भी सवाल कहां! और आत्मा को देखा भी कहां जा सकता है!
यह शब्द, आत्मदर्शन शब्द ठीक नहीं है। क्योंकि जो भी हम देख सकते हैं, वह हमसे पराया होगा। हम ‘पर’ को ही देख सकते हैं। दर्शन तो दूसरे का ही हो सकता है। स्वयं का तो दर्शन कैसे होगा! तुमने इस पर कभी विचार किया? देखने में तो दो मौजूद हो गये--देखनेवाला और दिखाई पड़नेवाला। द्रष्टा और दृश्य। आत्मा तो द्रष्टा है। इसलिए आत्मा कभी भी दृश्य नहीं हो सकती। जो भी दृश्य है, सब संसार है।
इसलिए मेरे पास तुम जब आकर कहने लगते हो कि कुंडलिनी जगने लगी, तो मैं कहता हूं, देखते रहो, मगर ज्यादा उलझना मत। क्योंकि जो भी दृश्य है, वह संसार है। तुम कहते हो, भीतर बड़ी रोशनी मालूम होने लगी; मैं कहता हूं, देखते रहो। तुम ध्यान रखो उस पर जो देखनेवाला है, रोशनी में बहुत ज्यादा मत उलझ जाना। अंधेरा तो डुबाता ही है, रोशनी भी डुबा लेती है। अंधेरा तो खतरनाक है ही, रोशनी भी बड़ी खतरनाक है। तुम तो उसका खयाल रखो, बस उसी एक सूत्र को पकड़े रहो कि मैं देखनेवाला, मैं देखनेवाला। तुम दृश्य में उलझना ही मत। नहीं तो मन के बड़े जाल हैं। पहले वह बाहर के दृश्य दिखलाता है--वह देखो दूर दिल्ली, चलो, दिल्ली चलो। अगर तुम वहां से छूटे, तो वह भीतर के दृश्य दिखलाता है कि देखो कुंडलिनी जगने लगी, कैसी ऊर्जा उठ रही है। कैसा आनंद मालूम हो रहा है! कैसा मस्तिष्क में प्रकाश-ही-प्रकाश फैल रहा है! अब यह उसने नयी दिल्लियां बसानी शुरू कर दीं। तुम तो इतना ही खयाल रखो कि मैं द्रष्टा हूं। जो भी दिखायी पड़ता है, वह मैं नहीं हूं। जो भी अनुभव में आता है, वह मैं नहीं हूं। मैं तो सभी अनुभवों के पार खड़ा साक्षी हूं।
इसलिए तुमसे मैं एक बात कहना चाहता हूं कि कोई अनुभव धार्मिक नहीं है। सब अनुभव सांसारिक हैं। अनुभव मात्र सांसारिक हैं। जिसको अनुभव हो रहा है, वही धार्मिक है।
तो उस घड़ी में पहुंचना है जहां सब अनुभव से छुटकारा हो जाए। कोई अनुभव न बचे। तुम शून्य में विराजमान। कोई अनुभव नहीं होता। शून्य का भी अनुभव होता रहे, तो अभी अनुभव बाकी है। और मन थोड़ा-सा अभी भी बाकी है। जब शून्य का भी अनुभव न हो, जब कुछ भी अनुभव न हो, जब अनुभव मात्र तिरोहित हो जाएं, धुएं की रेखाओं की तरह खो जाएं, बस तुम रह जाओ चैतन्यमात्र, चिन्मात्र, बोधमात्र, बुद्धत्व फलित हुआ। उसी को अष्टावक्र कहते हैं--धीरपुरुष।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो।
और ऐसा व्यक्ति हर्ष और शोक से मुक्त है। अब न तो कुछ खोने को बचा है, न पाने को बचा है। न कुछ दृश्य है, न कुछ अदृश्य है। न संसार है, न मोक्ष है। न बाहर का कुछ पाना है, न भीतर का कुछ पाना है। न संसार की खोज है, न आत्मा की खोज है। जब सारी खोज समाप्त हो गयी, फिर कैसा हर्ष, फिर कैसा शोक! और ऐसी दशा में एक अपूर्व घटना घटती है--
‘वह न मरा हुआ है, न जीवित ही है।’
इस सूत्र को खूब खयाल में लेना।
ज्ञानी पुरुष एक अर्थ में मरा हुआ है। उस अर्थ में मरा हुआ है, जिस अर्थ में तुम जीवित हो। तुम्हारी तरह जीवित नहीं है। तुम्हारे जीवन का क्या अर्थ है? दौड़-धाप, आपाधापी, धन-पद-प्रतिष्ठा, महत्वाकांक्षा। तुम्हारा जीवन क्या है? एक ज्वरग्रस्त विक्षिप्तता। इस अर्थ में ज्ञानी जीवित नहीं है। न तो कोई ज्वर है, न कोई महत्वाकांक्षा है, न दौड़ रहा है। न कोई आपाधापी है। इस अर्थ में तो ज्ञानी मुर्दा है। लेकिन एक अर्थ में जीवित है, जिस अर्थ में तुम जीवित नहीं हो। वस्तुतः अर्थों में जीवित है। तुम तो झूठे-झूठे जीवित हो। तुम तो मरोगे। यह तुम्हारी आपाधापी, तुम्हारी महत्वाकांक्षा मौत से टकराकर टूट जाएगी सब। ज्ञानी कुछ ऐसे तल पर पहुंच गया है जिस तल पर मौत घटती ही नहीं। जिस तल पर मौत एक असत्य है। होती ही नहीं। ज्ञानी अमृत को उपलब्ध हो गया है।
इसलिए ज्ञानी जीवित है एक अर्थ में और मृत है एक अर्थ में। तो न तो हम उसे मरा हुआ कह सकते और न जीवित कह सकते। क्योंकि हम कुछ भी कहेंगे तो गलती हो जाएगी। शायद वह जीवन-मरण के पार है।
न मृतो न च जीवति।
न तो मृत है और न जीवित। ज्ञानी की बड़ी अनूठी दशा है। इस बात को प्रगट करने के लिए बड़े विरोधाभासों का सहारा लेना पड़ता है। झेन फकीर कहते, जब ज्ञानी नदी पार करता, तो पानी तो उसके पैरों को छूता है, लेकिन ज्ञानी के पैर पानी को नहीं छूते। अब यह बात जरा बेबूझ है। जब पानी पैरों को छूता है, तो फिर ज्ञानी के पैर पानी को क्यों न छुएंगे? छुएंगे ही। लेकिन फिर भी वे ठीक कहते हैं। यह उलटबांसी है।
यह इसलिए कही जा रही है कि ज्ञानी हमारे संसार में रहता हुआ भी हमारे संसार का हिस्सा नहीं होता। हमारे जैसा श्वास लेता हुआ भी हमारे जैसा श्वास नहीं लेता। हमारे जैसा भोजन करता हुआ भी हमारे जैसा भोजन नहीं करता। ज्ञानी भोजन करते हुए भी उपवासा है। और तुम उपवास भी करो तो भी भोजन ही करते हो। तुमने कभी उपवास किया होगा तो तुम्हें पता होगा। उपवास करके देखना, तो तुम दिन भर भोजन करोगे, बार-बार भोजन करोगे। ऐसे तो दो बार करते हो कि तीन बार, उस दिन दिन भर करोगे। जब भी बैठोगे खाली, उलझन से बचोगे, फिर भोजन की याद आ जाएगी।
पर्यूषण में जैन उपवास करते हैं तो ज्यादा देर मंदिर में ही बैठते हैं, फिर घर नहीं आते, क्योंकि घर आओ तो भोजन-भोजन की ही याद आती है। मंदिर में बैठे रहो तो लगे रहो, भजन-कीर्तन चल रहा है, अब पाठ चल रहा है, शास्त्र पढ़ा जा रहा है, उलझे रहो। और फिर वहां यह भी भरोसा रहता है कि हम अकेले ही थोड़े फंसे हैं इस मुसीबत में, और न-मालूम कितने नासमझ फंसे हैं। देख-देख कर चित्त प्रसन्न रहता है कि हम अकेले ही थोड़े भूखे मर रहे हैं, ये सब मर रहे हैं। और एक-दूसरे से काम्पेटीशन और प्रतिस्पर्द्धा कि देखें कौन किसको हराता है, तो रस लगा रहता है। घर अकेले बैठकर फिर याद आती है कि हम अकेले कहां फंस गये, किस चक्कर में पड़ गये, पता नहीं ये कब खतम होंगे पर्यूषण। और जब खतम होंगे तब की योजनाएं बनाते हैं लोग। क्या-क्या खाना, क्या-क्या नहीं खाना। क्या-क्या बाजार से खरीद लाएंगे।
तुम जाकर पूछ सकते हो बाजार में, जैसे ही पर्यूषण खतम होते हैं, बिक्री एकदम बढ़ जाती है। मिठाई वालों की, सब्जी वालों की, फल वालों की एकदम बिक्री बढ़ जाती है। लोग एकदम टूट पड़ते हैं। दस दिन इकट्ठा करते रहे विचार, योजनाएं बनाते रहे। उपवास कर लिया दिन में तो रात सपने में भी भोजन ही करोगे। भोजन ही भोजन चलने लगेगा।
तो तुम समझ सकते हो, तुम उपवास करो तो भोजन हो जाता है। बौद्धिक रूप से भी ख्याल में आ सकता है। तो इससे विपरीत दशा भी हो सकती है कि कोई भोजन करते हुए भी उपवासा हो। उस विपरीत दशा का नाम ही वीतरागता है। अपूर्व दशा है वह। वहां तुम जल में चलो, पानी तो पैर को छूता है लेकिन तुम्हारे पैर पानी को नहीं छूते।
ज्ञानी मृत भी, जीवित भी। या, न मृत न जीवित। ज्ञानी को कोटि में रखना मुश्किल है। इतना ही सूचन ले लेना, ज्ञानी को किसी भी कोटि में रखो, गड़बड़ हो जाती है। क्योंकि सब कोटियां संसार की हैं। ज्ञानी कोटि के बाहर है। वह न मरा हुआ है, न जीवित ही है।
‘पुत्र और पत्नी आदि के प्रति स्नेहरहित और विषयों के प्रति कामनारहित और अपने शरीर के प्रति निश्चिंत बुद्धपुरुष ही शोभते हैं।’
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
निश्चिंत स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः।।
महत्वपूर्ण सूत्र है। और जिस तरह से अब तक इस सूत्र की व्याख्या की गयी है, वह ठीक नहीं है। जैसा हिंदी में अनुवाद है, वह भी बहुत ठीक नहीं है। इसलिए गौर से समझना।
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
पुत्र और पत्नी आदि के प्रति स्नेह रहित। इससे ऐसा अर्थ समझ में आता है--टीकाकार ऐसा ही अर्थ करते रहे हैं--कि ज्ञानी पुरुष में स्नेह नहीं होता। यह बात गलत है। ज्ञानी पुरुष में ही स्नेह होता है। अज्ञानी में क्या खाक स्नेह होगा! तो फिर इस सूत्र का क्या अर्थ होगा? इस सूत्र का अर्थ होता है कि ज्ञानी में स्नेह होता है, लेकिन अपने हैं इसलिए नहीं होता; पराये हैं इसलिए नहीं होता। मेरा बेटा है, इसलिए नहीं; मेरी पत्नी है, इसलिए नहीं।
फर्क समझना। तुम किसी को स्नेह करते हो तो कहते हो, मेरी मां है, इसलिए प्रेम करता हूं। तुम्हारे प्रेम में ‘इसलिए’ है। मेरी पत्नी है इसलिए प्रेम करता हूं। तुम्हारे प्रेम में ‘इसलिए’ है। मेरा बेटा है। थोड़ा समझो। तुम आज तक अपने बेटे के लिए अपनी जान देने को तैयार थे। तुम्हारा बेटा है। पढ़ाते थे, लिखाते थे, श्रम करते थे, मेहनत करते थे, बड़ी आकांक्षा करते थे, बड़ा हो, यशस्वी हो, सफल हो। और आज तुम्हें अचानक एक पत्र हाथ में लग गया पुरानी संदूक टटोलते हुए, जिससे पता चला कि बेटा तुम्हारा नहीं है, तुम्हारी पत्नी किसी के प्रेम में थी, उसका है। इसी क्षण तुम्हारा प्रेम समाप्त हो जाएगा। और यह भी हो सकता है कि पत्र झूठा हो, बेटा तुम्हारा ही हो। लेकिन तुम्हारा प्रेम इसी क्षण जैसे कपूर उड़ जाए, ऐसे उड़ जाएगा। प्रेम की तो बात दूर रही, अब तुम इस बेटे को घृणा करने लगोगे, तुम चाहोगे यह मर ही जाए तो अच्छा। यह तो एक कलंक है। अभी क्षण भर पहले यह बेटा तुम्हारा था, तो प्रेम था। अब तुम्हारा नहीं है तो प्रेम नहीं रहा। तुम्हारा प्रेम बड़ा सशर्त है। मेरा है तो प्रेम, मेरा नहीं तो प्रेम नहीं।
यह प्रेम बेटे से नहीं है, अहंकार से है। ये तुम्हारे अपने ही अहंकार की घोषणाएं हैं। मेरा है, तो प्रेम। मेरा नहीं है, तो बात गयी। यह बेटा अब तक सुंदर मालूम पड़ता था, आज एक क्षण की घटना में यह तुम्हें कुरूप मालूम पड़ने लगेगा, इसमें तुम सब तरह की बुराइयां देखने लगोगे।
सूफी फकीर बायजीद ने लिखा है कि एक आदमी की कुल्हाड़ी चोरी चली गयी। वह लकड़ियां काट रहा था और फिर घर के भीतर गया, कुल्हाड़ी बाहर ही छोड़ गया। कुल्हाड़ी चोरी चली गयी। जब वह बाहर आया, कुल्हाड़ी नदारद थी। उसने एक लड़के को जाते देखा, पड़ोसी के लड़के को। उसने कहा, हो न हो यही शैतान चुरा ले गया। मगर अब कह भी नहीं सकता था, क्योंकि देखा तो था नहीं। उस दिन से वह उस लड़के को गौर से देखने लगा, उसमें सब तरह की शैतानियां उसे दिखायी पड़ने लगीं। चालाक मालूम पड़े, उसकी आंख में बदमाशी मालूम पड़े, उसके ढंग-चाल में शरारत मालूम पड़े। और तीसरे दिन उसको कुल्हाड़ी अपनी लकड़ियों में ही मिल गयी। लकड़ियों में दब गयी थी। जिस दिन उसको कुल्हाड़ी मिली, वह लड़का फिर बाहर से निकला, आज उसे उसमें कोई शरारत दिखायी न पड़ी, न कोई शैतानी दिखायी पड़ी। आज वह लड़का बड़ा प्यारा मालूम होने लगा--भला, सज्जन। और उसे पश्चात्ताप होने लगा कि इस सज्जन लड़के के प्रति मैंने कैसे बुरे खयाल बना लिये!
तुमने भी खयाल किये होंगे ऐसे अनुभव! तुम्हारी भावनाएं तुम आरोपित करते हो। मेरा बेटा! तुम्हें बेटे से कुछ लेना-देना नहीं है, यह मेरे का फैलाव है, यह अहंकार का फैलाव है। मेरी पत्नी! यह मेरे अहंकार का विस्तार है। ‘मेरे’ का अर्थ होता है--‘मैं’ का विस्तार।
मैं इस सूत्र का अर्थ करता हूं--पुत्र और पत्नी आदि के प्रति स्नेहरहित, ऐसा नहीं; स्नेहरहित, ऐसा नहीं, क्योंकि यह तो बात ही गलत है। यह तो मैं जानकर कहता हूं, अनुभव से कहता हूं कि यह बात गलत है। इसके लिए मुझे कुछ किसी शास्त्र में जाने की जरूरत नहीं है। यह मैं अपनी प्रतीति से कहता हूं कि यह बात गलत है। ज्ञान में ही प्रेम घटता है। ज्ञान के पहले प्रेम कहां! प्रेम तो ज्ञान का ही प्रकाश है। ज्ञान के पहले प्रेम कहां है! ज्ञान का फूल खिलता है तभी प्रेम की गंध और प्रेम की सुगंध फैलती है। उसके पहले तुमने जिसे प्रेम समझा है वह प्रेम नहीं है, वह अहंकार का ही रोग है। वह अहंकार की ही दुर्गंध है। लेकिन पुरानी आदत के कारण सुगंध मालूम पड़ती है।
एक मछलियां बेचनेवाली औरत शहर मछलियां बेचने आती थी। एक दिन अचानक गांव लौटते वक्त शहर के बड़े रास्ते पर किसी पुरानी परिचित महिला से मुलाकात हो गयी--दोनों बचपन में साथ पढ़ी थीं। उस महिला ने कहा आज रात हमारे घर रुक जाओ। वह मालिन थी। उसके पास बड़ा सुंदर बगीचा था। और जब रात वह मछुआरिन उसके घर सोयी, तो उसने बहुत से बेेले के फूल लाकर उसके पास रख दिये। वह मछुआरिन करवटें बदले, उसको नींद न आए। तो मालिन ने पूछा बात क्या है बहन, तू सोती नहीं, नींद नहीं आ रही, कुछ अड़चन है, कुछ चिंता है? उसने कहा और कुछ नहीं, ये फूल यहां से हटा दें। मुझे तो मेरी टोकरी दे दें जिसमें मैं मछलियां बेचने लायी थी। उस में थोड़ा पानी सींच दें और मेरे पास रख दें। क्योंकि मछलियों की सुगंध जब तक मुझे न आए मुझे नींद न आ सकेगी। मछलियों की सुगंध! आदत हो जाए तो मछलियों की सुगंध के बिना भी नींद न आएगी। फूल भी बेचैन कर सकते हैं अगर आदत न हो। गंदगी के कीड़े गंदगी को गंदगी नहीं जानते। जानते तो छोड़ ही देते न! कौन रोकता था?
तुम जिसे प्रेम कहते हो वह प्रेम नहीं है, वह अहंकार की दुर्गंध है। ज्ञानी में वैसी अहंकार की दुर्गंध तो चली जाती है, तुम जिसे प्रेम कहते हो वह तो नहीं बचता, क्योंकि तुममें तो प्रेम है ही नहीं, ‘मेरा’-‘तेरा’ है। ‘मैं’-‘तू’ का उपद्रव और कलह है, उसको तुम प्रेम कहते हो। और तुम्हारे प्रेम का परिणाम क्या है? एक-दूसरे की गर्दन को फांस लेते हो। तुम्हारा प्रेम तो एक तरह की फांसी है, जो फंस गया वह पछताता है।
ज्ञानी परिपूर्ण ज्ञान से भरा है, उसी तरह परिपूर्ण प्रेम से भी भरा है। लेकिन उसका प्रेम अब ‘मेरे’ से बंधा नहीं है, बेशर्त है। अब किसी से बंधा नहीं है, ज्ञानी के प्रेम पर किसी का पता नहीं लिखा है कि इसके लिए है। ज्ञानी प्रेम है। वह उसकी अवस्था है, संबंध नहीं।
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
इसलिए मैं इसकी व्याख्या करता हूं कि ज्ञानी वह जो ‘मेरे’-‘तेरे’ वाला प्रेम है, उससे मुक्त हो गया होता है। और उससे मुक्त होकर ही वह उस प्रेम को उपलब्ध होता है जिसको जीसस ने परमात्मा कहा है। परमात्मा प्रेम है। जिसको बुद्ध ने करुणा कहा है। वह बुद्ध का शब्द है प्रेम के लिए। जिसको महावीर ने अहिंसा कहा है। वह महावीर का शब्द है प्रेम के लिए। हमारा तो प्रेम हिंसा है।
तुमने खयाल किया? जिसको तुम प्रेम करते हो उसी के साथ तुम हिंसा करते हो। उसी के चारों तरफ दीवालें खड़ी कर देते हो। किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गये, दीवालें बांधीं। सब तरफ से उसके पास सींखचे खड़े कर दिये, उसे पींजड़े में बंद कर दिया, उसके पंख काट दिये।
तुम इस स्त्री को प्रेम करते होते तो इसे स्वतंत्रता देते, न कि बांधते। तुम इसे मुक्त आकाश में छोड़ते न कि पींजड़े में बंद करते। यह तुम्हारा प्रेम बड़ा खतरनाक है। और अगर यह स्त्री किसी की तरफ देखकर मुस्कुरा भी दे, तो जहर फैल जाता है तुम्हारी छाती में। तुम इसकी गर्दन काट डालोगे। तुम कहते हो कि मैं चाहता हूं कि तू खुश हो। यह कैसी खुशी है जो तुम चाहते हो! यह किसीको देखकर मुस्कुराती थी, या किसी के पास बैठकर आनंदित थी, तुम्हें प्रसन्न होना था अगर तुम प्रेम करते थे। तुम्हारा प्रियपात्र प्रसन्न हो, यह तुम्हारी प्रसन्नता होती। लेकिन नहीं, यह प्रेम इत्यादि तो बातें हैं। बकवास है। भीतर तो कुछ और है। भीतर तो मालकियत है, कब्जा है। तो पुरुष स्त्रियों को स्त्री-धन कहते हैं। स्त्री धन है। उस पर तुमने कब्जा कर लिया है। वह तुम्हारी है।
पति अपने को मालिक कहता है, स्वामी। और स्त्रियां भी अपने को दासी कहती हैं; हालांकि भीतर से कोई दासी अपने को मानती नहीं। कहती हैं, कहना पड़ता है। और बड़ी छुपी तरकीब से वे भी अपनी मालकियत कायम रखती हैं। तुम्हारा प्रेम सिर्फ ईर्ष्या के ही हजार-हजार लपटों को जन्माता है और कुछ भी नहीं। तुम्हारे प्रेम में जो पड़ जाता है, वह मरता है, पछताता है, और कुछ भी नहीं।
ऐसा प्रेम ज्ञानी में नहीं है। यह सच। लेकिन इसके न होने की वजह से ही ज्ञानी में एक अपूर्व प्रेम का जन्म होता है। लेकिन उस अपूर्व प्रेम को वे ही समझ पाएंगे, जो थोड़े ऊंचे उड़े हैं। जमीन से थोड़े ऊपर उठे हैं। अगर तुम्हारी प्रेम की परिभाषा बड़ी छुद्र है, तो तुम बुद्ध और महावीर के प्रेम को न समझ पाओगे। इसलिए बुद्ध को नया शब्द खोजना पड़ा, प्रेम न कहकर करुणा कहा। क्योंकि लगा कि अगर प्रेम कहूंगा तो लोग समझेंगे वही प्रेम जो वे करते हैं। महावीर को और भी ज्यादा निषेधात्मक शब्द खोजना पड़ा, कहा--अहिंसा। क्योंकि तुम्हारा प्रेम हिंसा है, इसलिए महावीर को परिभाषा करनी पड़ी अपने प्रेम की--अहिंसा। तुम्हारा प्रेम तो मारता है, जिलाता कहां है! तोड़ता है, मिटाता है, खंडित करता है, विध्वंसक है।
मां कहती है अपने बेटे को, मैं तुझे प्रेम करती हूं, और उसको सब तरफ से ऐसा कस लेती है कि बेटा मर जाएगा। कौन अपने बेटों को जीने देना चाहता है स्वतंत्रता से! तुम उन्हें जीने देना चाहते हो उसी आधार पर, जैसा तुम चाहो। तुम्हारी आकांक्षा से। तुम चाहते हो तुम्हारे बेटे तुम्हारे प्रतिनिधि हों। तुम चाहते हो तुम्हारे बेटे बस तुम्हारी शक्लों को फिर-फिर दोहराते रहें। तुम चाहते हो तुम्हारे बेटे तुम्हारी अनुकृतियां हों, कार्बन कॉपी। तुम उन्हें थोड़े ही चाहते हो! तुम मर जाओगे यह तुम्हें पता है। तुम बेटों की शकल में अपने को फिर जिंदा रखना चाहते हो, बस। इसलिए इस देश में तो कहा जाता है कि जिसको बेटा पैदा न हो, उसका जीवन अकारथ। बेटा होना ही चाहिए। अगर अपना न हो तो चलो किसी दूसरे का गोदी ले लेना, लेकिन बेटा होना ही चाहिए।
क्यों होना चाहिए बेटा? क्योंकि बेटे के कंधे पर चढ़कर तुम्हारा अहंकार चलता रहेगा। तुम तो चले जाओगे, लेकिन कोई तो रहेगा, नाम लेवा! कोई तो होगा, तुम्हारी साख को चलाएगा। तुम्हारी दुकान तो चलती रहेगी।
यह तो अहंकार का ही विस्तार है। इसलिए महावीर ने कहा अपने प्रेम को अहिंसा। वास्तविक प्रेम अहिंसा है। वास्तविक प्रेम हिंसा कर ही नहीं सकता। वास्तविक प्रेम में निषेध और नकार है ही नहीं। वास्तविक प्रेम पूरी स्वतंत्रता देता है।
बुद्ध ने कहा, करुणा। जिससे तुम्हें प्रेम है, उसके प्रति तुम्हें करुणा होगी। दया होगी। तुम उसे सब तरह से सहयोग व सहारा देना चाहोगे। तुम चाहोगे कि वह मुक्त हो, स्वतंत्र हो, स्वच्छंद हो। तुम चाहोगे कि वह जैसा होने को पैदा हुआ है, वैसा हो, मेरी आकांक्षाएं उस पर थुप न जाएं। मैं उसका कारागृह न बनूं, मैं उसके पंख बनूं। मैं उसे जमीन पर अटका न लूं, मैं उसे आकाश में जाने का सहारा दूं। वह मुझसे दूर भी जाए--अगर यही उसकी नियति है तो दूर जाए। वह मुझसे विपरीत भी जाए--अगर यही उसकी नियति है तो विपरीत जाए। लेकिन वह जो होने को पैदा हुआ है वही होकर रहे। उसे मैं मार्ग से च्युत न करूं। ऐसी करुणा।
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
उसकी विषयों में अब कोई कामना नहीं।
निश्चिंत स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः।
यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है।
निश्चिंत स्वशरीरेऽपि...।
अपने शरीर के प्रति बुद्धपुरुष निश्चिंत है। निश्चिंत है इसलिए कि शरीर तो मरेगा। शरीर तो मरा ही हुआ है। शरीर तो मरणधर्मा है। जाएगा--आज नहीं कल, कल नहीं परसों, देर-अबेर। जाएगा। जिस दिन से पैदा हुआ है उसी दिन से जाना शुरू हो गया है, मर ही रहा है। तो मर कर रहेगा। इसलिए चिंता क्या? इस जीवन में एक ही चीज तो बिलकुल निश्चित है, वह मौत है। और उसी की तुम चिंता करते हो! जो बिलकुल निश्चित है, उसकी क्या चिंता करनी? वह तो होकर ही रहने वाली है।
जो बात होकर ही रहनेवाली है, जिससे अन्यथा कभी हुआ ही नहीं, उसकी तो चिंता छोड़ दो। उसकी चिंता का कोई प्रयोजन ही नहीं है। आज तक कोई मौत से बच सका? कितने उपाय नहीं किये गये हैं! मौत से कभी कोई बच नहीं सका।
तो मौत तो नियति है, होकर ही रहेगी, शरीर में छिपी है। ऐसा थोड़े ही है कि तुम सत्तर साल के बाद एक दिन अचानक मर जाते हो। सत्तर साल तक मौत तुम्हारे शरीर के भीतर फैलती है, बड़ी होती है, विकसित होती है, एक दिन तुम्हें पूरा घेर लेती है, ग्रस लेती है। मौत शरीर का हिस्सा है। मौत शरीर का धर्म है, होकर रहेगा। जब जन्म हो गया, तो अब मौत से नहीं बचा जा सकता। जब जन्म हो गया, तो मौत हो गयी। जन्म एक हिस्सा है, मौत दूसरा हिस्सा, एक ही ऊर्जा के।
तो ज्ञानी जानता है, मौत तो निश्चित है, फिर चिंता क्या? निश्चित जानकर मृत्यु को ज्ञानी निश्चिंत हो जाता है। और तुम उल्टी हालत कर लेते हो। तुम निश्चित जानकर और बड़ी चिंता से भर जाते हो। तुम मौत की बात ही नहीं उठाना चाहते। तुम तो यह मानकर रहते हो कि मौत दूसरों की होती है, मेरी थोड़े ही कभी होती है। दूसरे मरते हैं सदा, अर्थी किसी और की निकलती है, अपनी तो निकलती नहीं। बात सच भी है। तुम्हारी तो निकलेगी तो तुम थोड़े ही देखोगे, दूसरे देखेंगे! तुम जब भी किसी की अर्थी देखते हो, वह किसी और की है। तो एक भाव बना रहता है कि यह मरना हमेशा दूसरे लोग करते हैं, मैं थोड़े ही करता! तुमने कभी अपने को मरते तो देखा नहीं। मरे तुम भी बहुत बार हो, लेकिन तुम इतने बेहोश हो कि तुम जीवन में ही होश नहीं संभाल पाते, तो मरते वक्त तो तुम्हारा होश बिलकुल खो जाता है। मरने के पहले तुम मूर्च्छित हो जाते हो। मौत घटी है बहुत बार, अनेक-अनेक शरीरों में तुम रहे हो और अनेक-अनेक शरीर तुमने छोड़े हैं, पर जब भी शरीर छूटा तब तुम बेहोश थे। और जब भी तुमने नया गर्भ धारण किया तब भी तुम बेहोश थे। मरे भी बेहोशी में, जन्म भी लिया बेहोशी में, इसलिए तुम्हें जीवन के रहस्यों का कोई पता नहीं है।
ज्ञानी जानकर कि मौत निश्चित है, निश्चिंत हो गया।
बुद्ध को भूल से एक आदमी ने ऐसी सब्जी खिला दी जो विषाक्त थी। गरीब आदमी था। बुद्ध गांव में आए, उसने निमंत्रण कर लिया। अब वह निमंत्रण दे गया तो बुद्ध उसके घर भोजन करने गये। वह इतना गरीब था कि उसके पास सब्जियां भी नहीं थीं।
तो बिहार में लोग कुकुरमुत्ते को इकट्ठा कर लेते हैं वर्षा के दिनों में, सुखाकर रख लेते हैं, फिर उसको साल भर खाते रहते हैं। कुकुरमुत्ता कभी-कभी जहरीला होता है। वह जो कुकुरमुत्ता उसने बनाया था, वह बिलकुल निपट जहर था। कड़वा था।
उसने बुद्ध को जब परोसा और जब बुद्ध उसे खाने लगे, तो बुद्ध को लगा तो कि यह जहर है। लेकिन बुद्ध ने इतना भी न कहा उससे कि पागल, यह तूने क्या बना लिया! क्योंकि वह इतने भावविभोर होकर सामने बैठा पंखा कर रहा था, उसकी आंख से आंसू बह रहे थे--उसने कभी भरोसा न किया था कि बुद्ध उसके घर भोजन करेंगे! यह संभव भी नहीं मालूम होता था। बुद्ध उसके द्वार आएंगे यह भी कभी भरोसा नहीं था। वे स्वीकार कर लिये, आ भी गये, उसे आंखों पर भरोसा नहीं आ रहा था। उसकी आंखें आंसुओं से भरी थीं, गीली, वह पंखा कर रहा था। उसके घर में कुछ था भी नहीं। रूखी-सूखी रोटियां थी और कुकुरमुत्ते की सब्जी थी। वह रो रहा है, वह बड़ा गदगद है।
अब बुद्ध को यह भी कहने का मन न हुआ कि ये जहरीले हैं। इसके मन को चोट पहुंचेगी, यह बेचारा सदा के लिए पछताता रहेगा। इस पर ऐसा आघात पड़ेगा कि उसको शायद यह झेल भी न पाए--कि बुद्ध को घर लाया और जहरीले कुकुरमुत्ते खिलाए।
तो वे और मांग लिये, जितने थे सब ले लिये, सब खा गये! कि कहीं वह बाद में चखे और पाए कि कड़वे हैं, तो पछताए। तो उन्होंने कहा इतने अच्छे हैं कि तू और ले आ! सब्जियां मैंने जीवन में बहुत खायीं, बहुत सम्राटों के घर मेहमान हुआ, लेकिन तेरी सब्जी की बात ही और है। तो वह गरीब बड़ा प्रसन्न हुआ, उसने सब कुकुरमुत्ते दे दिये।
वह खाकर जब घर आए, तो नशा शरीर में फैलने लगा--जहर। तो उन्होंने अपने चिकित्सक जीवक को कहा कि मुझे लगता है कि अब मेरे दिन करीब आ गये हैं, यह जहर से मैं बच न सकूंगा। तो जीवक ने कहा, आप कैसे पागल हैं, आपने कहा क्यों नहीं, रोका क्यों नहीं, यह क्या पागलपन है! बुद्ध ने कहा, मौत तो होने ही वाली है; जो होने ही वाली है, उससे क्या फर्क पड़ता है! यह मैं रोक सकता था होने से कि वह आदमी दुखी न हो। यह मेरे हाथ में था। मौत तो मेरे हाथ में नहीं, वह तो होगी। आज रोक लूंगा, कल होगी; कल नहीं तो परसों होगी, क्या फर्क पड़ता है।
मरते वक्त बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा कि सुनो, गांव भर में खबर कर दो कि जिस आदमी के हाथ से बुद्ध अंतिम भोजन ग्रहण करते हैं, वह बहुत धन्यभागी है! दो व्यक्ति धन्यभागी हैं। एक वह मां, जो बुद्ध को पहली दफा स्तनपान कराती है, जन्म के समय। और एक वह व्यक्ति जो उन्हें अंतिम भोजन कराता है। और लोग कहने लगे यह आप क्या कह रहे हैं, किसलिए यह कह रहे हैं? उन्होंने कहा, इसलिए मैं कहता हूं, अन्यथा मेरे मरने के बाद उस गरीब को लोग मार डालेंगे। वह बच न सकेगा। जाकर गांव में घोषणा कर दो कि दो व्यक्ति अत्यंत धन्यभागी होते हैं।
ऐसा प्रेम! और मृत्यु के संबंध में ऐसी निश्चिंतता!!
निश्चिंत स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः।
और एक बड़ी अनूठी बात कह रहे हैं—
निराशः शोभते बुधः।
बुद्धपुरुषों को निराशा भी शोभायमान होती है। तुम तो आशा से भरे भी शोभायमान नहीं होते। तुम्हारी आंखों में तो कितने आशा के दीप जलते--ऐसा होगा, ऐसा होगा, ऐसा हो जाएगा! कितनी कामनाएं अंधड़ की भांति तुम्हारे चित्त में बहती हैं! भविष्य के कितने सुंदर सपने! कितनी आशाओं को संजोए तुम चलते हो। फिर भी तुम शोभायमान नहीं हो। तुम्हारी आशाएं भी तुम्हारी आंखों में दीये जलाती नहीं मालूम होतीं। तुम्हारी आशाएं भी तुम्हें रुग्ण करती मालूम होती हैं। लेकिन बुद्धपुरुष निराश होकर भी...बुद्धपुरुष का अर्थ ही है, जो परिपूर्णरूप से निराश हो गया। जिसने जान लिया कि जगत में कोई आशा पूरी हो ही नहीं सकती। जिसकी निराशा समग्र है। आत्यंतिक है। जिसकी निराशा परिपूर्ण हो गयी, जिसमें रत्ती भर शंका नहीं रही है उसे। इस जगत में कोई आशा पूरी होती ही नहीं, जिसने ऐसा सघन रूप से जान लिया।
मगर फिर भी इस परमनिराशा में बुद्धपुरुष सिंहासन पर विराजमान होते हैं। उनकी शोभा अदभुत है। इस निराशा में ही उनके जीवन का फूल खिलता है। जब बाहर कुछ पाने को नहीं, तो ऊर्जा सब भीतर लौट आती है। जब बाहर कोई दौड़ न रही, तो भीतर वे विराजमान हो जाते हैं अपने केंद्र पर। स्वस्थ हो जाते हैं। स्वयं में स्थित हो जाते हैं। इस स्थिति में ही असली सिंहासन है। परमपद है।
निराशः शोभते बुधः।
तुम्हारे रूप के अनुरूप संज्ञाएं चयन कर लूं
तुम्हारी ज्योति-किरणें देखने लायक नयन कर लूं
अभी अच्छी तरह आखर अढ़ाई पढ़ नहीं पाया
प्रेम की व्याकरण का और गहरा अध्ययन कर लूं
निकल पाया नहीं बाहर अहम् के इस अहाते से
जरा ये बांह धरती और ये आंखें गगन कर लूं
तुम्हारे रूप के अनुरूप संज्ञाएं चयन कर लूं
तुम्हारी ज्योति-किरणें देखने लायक नयन कर लूं
परम सत्य तो पास है। पास कहना ठीक नहीं, क्योंकि पास में भी दूरी मालूम होती है। परम सत्य तो भीतर विराजमान ही है। सिर्फ आंख चाहिए।
तुम्हारे रूप के अनुरूप संज्ञाएं चयन कर लूं
तुम्हारी ज्योति-किरणें देखने लायक नयन कर लूं
अभी अच्छी तरह आखर अढ़ाई पढ़ नहीं पाया
प्रेम की व्याकरण का और गहरा अध्ययन कर लूं
तुम जिसे प्रेम कहते हो, वह तो प्रेम नहीं है। वह तो तुम प्रेम के ढाई आखर अभी पढ़ ही नहीं पाए। कुछ-का-कुछ पढ़ रहे हो।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन ट्रेन में बैठा है, अखबार पढ़ रहा है। लेकिन अखबार उल्टा रखे है। पढ़ना-लिखना तो आता नहीं। मगर यह भी नहीं चाहता कि लोग जानें कि पढ़ना-लिखना नहीं आता, इसलिए अखबार खरीद लिया है। और जब पास के आदमी ने कहा कि बड़े मियां, इससे और भद्द खुली जा रही है! न पढ़ते तो कम-से-कम पता तो नहीं चलता कि पढ़ना-लिखना नहीं आता। अखबार उल्टा क्यों पकड़े हो? लेकिन आदमी तो बड़े तर्कजाल खोजता है। मुल्ला ने कहा, क्या तुम समझते हो! अरे, सीधा-सीधा पढ़ना-लिखना तो बहुतों को आता है, वह कोई खास बात नहीं, हमें उल्टा पढ़ना आता है!
आदमी अपने अहंकार को तो बचाता है, सब तरह से बचाता है। कभी-कभी बेहूदे ढंग से भी बचाना पड़ता है तो भी बचाता है।
अभी अच्छी तरह आखर अढ़ाई पढ़ नहीं पाया
प्रेम की व्याकरण का और गहरा अध्ययन कर लूं
तुम्हारे तथाकथित शास्त्रकार तुमसे यही कहे चले जाते हैं कि प्रेम छोड़ो, प्रेम पाप है! मैं तुमसे कहता हूं, जो तुम प्रेम की तरह जाने हो वह प्रेम ही नहीं है। अखबार उल्टा पढ़ रहे हो! अभी तो तुमने प्रेम के ढाई अक्षर पढ़े ही नहीं--
प्रेम की व्याकरण का और गहरा अध्ययन कर लूं
निकल पाया नहीं बाहर अहम् के इस अहाते से
जरा ये बांह धरती और ये आंखें गगन कर लूं
अभी तो तुम अहंकार के भीतर ही जी रहे हो। ऐसे समझो कि जैसे अभी कोई पक्षी अपने अंडे के भीतर बंद है, और सोचता है आकाश मिल गया। अहंकार के अंडे के भीतर बंद हो तुम, प्रेम का आकाश अभी कहां है! तोड़ो यह अंडा, निकलो इसके बाहर। यह अहंकार तो तुम्हें बांधे है। यह तुम्हें मुक्त नहीं होने देता।
निकल पाया नहीं बाहर अहम् के इस अहाते से
जरा ये बांह धरती और ये आंखें गगन कर लूं
जब तुम्हारी आंखें गगन जैसी विस्तीर्ण होंगी, तब तुम्हारे पास वे नयन होंगे जो उसे देख पाते हैं जो तुम्हारे भीतर छिपा है। अंतर्दृष्टि अहंकार के हट जाने पर ही उपलब्ध होती है। अहंकार की बदलियां जब आंखों में नहीं रह जातीं तो अंतर्दृष्टि का नीलाकाश उपलब्ध होता है।
‘यथाप्राप्त से जीविका चलानेवाला, देशों में स्वच्छंदता से विचरण करनेवाला तथा जहां सूर्यास्त हो वहां शयन करनेवाला धीरपुरुष सर्वत्र ही संतुष्ट है।’
तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथापतितवर्तिनः।
स्वच्छंदं चरतो देशान्यत्रास्तमितशायिनः।।
यह सूत्र थोड़ा उलझा हुआ है। उलझा हुआ इसलिए है कि यह सूत्र प्रतीकात्मक है। और अब तक इसकी जितनी व्याख्याएं की गयी हैं वे शाब्दिक हैं। शाब्दिक व्याख्या सीधी-साफ है।
पहले शाब्दिक व्याख्या समझ लें, फिर प्रतीक-व्याख्या में उतरें। शाब्दिक व्याख्या अड़चन से भरी हुई नहीं है।
‘यथाप्राप्त से जीविका चलानेवाला...।’
जो मिल गया उससे ही अपना काम चला लेने वाला, यही संन्यासी की पुरानी व्याख्या है, परिव्राजक की। जो मिल गया, जैसा मिल गया, जहां मिल गया।
‘यथाप्राप्त से जीविका चलानेवाला। देशों में स्वच्छंदता से विचरण करनेवाला।’
और कहीं रुकनेवाला नहीं। एक जगह से दूसरी जगह। जो कभी पोखर नहीं बनता। सरिता की तरह गतिमान है।
‘देशों में स्वच्छंदता से विचरण करनेवाला तथा जहां सूर्यास्त हो वहां शयन करनेवाला।’
जो पहले से तय भी नहीं करता कि कहां रात रुकूंगा। इतनी योजना भी नहीं बनाता। जहां सूरज ठहर जाता, वहीं वह भी ठहर जाता। जो किसी तरह की भविष्य की योजना नहीं बनाता।
‘जहां सूर्यास्त हो वहां शयन करनेवाला धीरपुरुष सर्वत्र ही संतुष्ट है।’
यह तो शाब्दिक व्याख्या है। इससे बात पूरी नहीं होती। और यह शाब्दिक व्याख्या अष्टावक्र के विपरीत भी जाती है। इसलिए इस व्याख्या से मैं राजी नहीं हूं। क्योंकि अष्टावक्र संसार के विरोध में नहीं हैं। और वे यह तो कह ही नहीं रहे हैं कि तुम सब छोड़-छाड़ कर परिव्राजक हो जाओ और गांव-गांव भटको। और कोई बहुत बड़ा बुद्धिमान पुरुष ऐसा कह भी नहीं सकता। क्योंकि अगर सारे लोग गांव-गांव भटकने लगें, तो यथाप्राप्त भी कुछ न होगा! किससे मांगोगे?
तुम्हारा संन्यासी तो गृहस्थ पर निर्भर है। और जिस पर तुम निर्भर हो, उससे ऊपर तुम नहीं हो सकते। इसको स्मरण रखना। जिस पर निर्भर हो, उससे नीचे होओगे। इसलिए श्रावक भले साधु के पैर छूता हो, लेकिन गहरे तल पर साधु श्रावक से बंधा है। वह श्रावक से मुक्त नहीं है। और श्रावक के इशारे पर चलता है। तो साधु की जो स्वतंत्रता है वह झूठी है। बिलकुल असत्य है। असली मालिक श्रावक है। जहां से तुम रोटी पाते हो वहां तुम बंध जाते हो। मगर करोड़ों के मुल्क में अगर दो-चार हजार, लाख-दो लाख संन्यासी हों, चलेगा। लेकिन अगर करोड़ों लोग संन्यासी हो जाएं, फिर!
थाईलैंड की सरकार को कानून बनाना पड़ा है। क्योंकि चार करोड़ की आबादी में कोई बीस लाख भिक्षु हैं। चार करोड़ की आबादी में बीस लाख भिक्षु जरा जरूरत से ज्यादा हो गये हैं। और उनको संभालना मुश्किल होता जा रहा है। देश गरीब है, भीड़ बढ़ती जा रही है, और ये बीस लाख भिक्षु! ये छाती पर बैठे हैं। तो थाईलैंड की सरकार को कानून बनाना पड़ा है कि इनको श्रम करना पड़ेगा। अब ये बौद्ध भिक्षु की बड़ी मुश्किल हो गयी है; बात उसके शास्त्र के विपरीत है कि वह श्रम करे। हल-बक्खर उठाए। मेहनत करे, यह तो उसके विपरीत है।
मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं कि यह घटना सारी दुनिया में घटनेवाली है। इस देश में भी घटेगी, आज नहीं कल। इसलिए मैं एक नये संन्यास का सूत्रपात कर रहा हूं, जो किसी पर निर्भर नहीं है। जो भिखारी का संन्यास नहीं है। तुम जहां हो, घर में, जैसे हो, वैसे ही संन्यस्त हो। तुम्हारे संन्यास को कोई सरकार छीन न सकेगी। पुराना संन्यास तो गया, उसके दिन लद चुके! अब वह कहीं बच नहीं सकता। क्योंकि पुराना संन्यासी तो अब शोषक मालूम होने लगा। है भी शोषक। दूसरों के श्रम पर जीता है। अपना श्रम करो! तुम्हें ध्यान करना है, तुम्हें समाधि लगानी है, तो श्रम कोई दूसरा करे, तुम समाधि लगाओ! यह बेईमानी ठीक नहीं। कोई कंकड़-पत्थर तोड़े और तुम बैठकर मंदिर में पूजा करो! यह बात ठीक नहीं। तुम्हें मंदिर में पूजा करनी है, कंकड़-पत्थर ता़ेड लो, समय बचाओ, पूजा कर लो। पूजा का समय खरीदो। श्रम से खरीदो। मुफ्त मत मांगो। अब नहीं मुफ्त के दिन चलेंगे। और मुफ्त के कारण बहुत से मुफ्तखोर संन्यासी हो गये थे। सौ में निन्यानबे बेईमान संन्यासी हो गये थे। जिनको कुछ नहीं करना था, जो किसी तरह झंझट से बचना चाहते थे, या योग्य भी नहीं थे कुछ करने के, वे संन्यासी हो गये थे।
इसलिए एक नये संन्यास की अत्यंत जरूरत है जगत में। जिसका संन्यास संसार के विरोध में है, वह ज्यादा दिन टिकेगा नहीं। अब एक ऐसा संन्यास ही टिकेगा जो संसार में है और संसार के बाहर भी। अब ऐसा संन्यासी, जो जीवित भी है और मृत भी। जो पानी में चलता भी है और पानी जिसके कदमों को छूता भी नहीं। संसार में होकर भी जो संसार के बाहर है, वही बचेगा।
तो मैं अष्टावक्र के इस सूत्र का ऐसा अर्थ कर भी नहीं सकता, क्योंकि अष्टावक्र की पूरी धारणा से इसकी संगति नहीं है। अष्टावक्र संसार-त्याग के पक्षपाती नहीं हैं, संसार का बोध चाहिए। ज्ञान के पक्षपाती हैं। कर्मत्याग के नहीं। मेरी व्याख्या कुछ और है।
तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथापतितवर्तिनः।
‘यथाप्राप्त से संतुष्ट।’
जो मिले परमात्मा से, उससे ज्यादा न मांगे। जितना मिले, उससे रत्ती भर ज्यादा न मांगे। जितना मिले, उसके लिए धन्यभाग! आभार स्वीकार करे। ऐसे व्यक्तियों को मैं कहता हूं--यथाप्राप्त से संतुष्ट।
‘देशों में स्वच्छंदता से विचरण करनेवाला।’
और मैं बाहर के देश की बात नहीं करता, अष्टावक्र भी बाहर के देशों की बात नहीं कर रहे हैं। यह कोई भूगोल थोड़े ही है, जो हम अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्यात्म है। यहां हिंदुस्तान से पाकिस्तान में गये और पाकिस्तान से चीन में गये, इसकी बात नहीं हो रही है। यहां तो तुम्हारे भीतर इतने अंतर देश हैं, एक देश से भीतर दूसरे देश में जाना है। तुम्हारे पूरे अंतर-आकाश का अनुभव लेना है।
तुम कुछ छोटे थोड़े ही हो भीतर, भीतर तुम बड़े विराट हो। यह पृथ्वी बड़ी छोटी है। तुम उतने ही विराट हो जितना यह विश्व है। तुम्हारे भीतर इतना ही बड़ा आकाश है जितना बड़ा आकाश तुम्हारे बाहर है। ये बाहर और भीतर दोनों संतुलित हैं। ये समान हैं। इनका अनुपात एक है। इन भीतर के आकाशों में प्रवेश करना है। इन भीतर के देशों में प्रवेश करना है। यहां भीतर नर्क हैं, यहां भीतर स्वर्ग हैं, यहां भीतर मोक्ष भी है। यहां भीतर क्रोध का देश है, यहां भीतर घृणा का देश है, यहां भीतर प्रेम का, करुणा का देश भी है। यहां भीतर मोह है, लोभ है, त्याग है, वैराग्य है, वीतरागता है। यहां भीतर बड़ी-बड़ी भूगोल है--अंतर की भूगोल है। यहां स्वच्छंदता से विचरण करना है, ताकि तुम अपने पूरे अंतःप्रदेशों से परिचित हो जाओ। तो मैं कहता हूं, अंतर्देशों में स्वच्छंदता से विचरण करनेवाला।
अभी पश्चिम में स्पेस शब्द का ठीक ऐसा ही अर्थ होने लगा है जैसा मैं अर्थ कर रहा हूं--अंतर्देश। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम भीतर की एक ऐसी स्पेस में पड़ गये हैं--एक भीतर के ऐसे अंतर्देश में आ गये हैं--जहां बड़ी शांति है। या बड़ा दुख है, कि बड़ी उदासी है। जैसा आज पश्चिम में स्पेस शब्द का अर्थ हो रहा है, वैसा ही कभी इस देश में अंतर्देश शब्द का उपयोग होता था। वह आध्यात्मिक शब्द है।
और वहां स्वच्छंदता चाहिए। क्योंकि अगर बंधे-बंधे चले, तो तुम अपने अंतर्जीवन से पूरे परिचित न हो पाओगे। सब जानना है। क्रोध को भी जानना है भीतर, तो ही क्रोध से मुक्त हो सकोगे। जो जान लिया, उससे मुक्त हो गये। जिसे पहचान लिया, उससे छुटकारा हो गया। सब जानना है। भीतर के नर्क भी जानने हैं, तो ही तुम नर्क से छूट सकोगे। भीतर के स्वर्ग भी जानने हैं, तो तुम स्वर्ग से भी छूट सकोगे। और जो व्यक्ति अपने भीतर के समस्त लोकों को जानकर सबके पार हो गया--लोकातीत--वही वीतराग है। वही धीरपुरुष है। स्थिर-धी। कहें बुद्धपुरुष, जिन, जो भी नाम देना चाहें।
‘जो अपने अंतर्देशों में स्वच्छंदता से विचरण करने वाला।’
स्वच्छंदं चरतो देशान्।
ये भीतर के देश और इनमें स्वच्छंदता का विचरण।
‘और जहां सूर्यास्त हो, वहीं शयन करने वाला।’
फिर भीतर सूर्यास्त का क्या अर्थ होगा? और वहीं शयन करने का क्या अर्थ होगा? समझें।
जैसे बाहर दिन और रात है, ऐसे ही भीतर भी दिन और रात है। जैसे बाहर सूरज ऊगता और डूबता है, ऐसे ही भीतर बोध का उदय होता है और बोध का अस्त होता है। दो तरह से हम इस विभाजन को समझ सकते हैं।
एक, आत्मा--साक्षी--और शरीर। और इन दोनों के बीच जोड़नेवाला मन। आत्मा तो है प्रकाश, ज्योति, बोध, सूर्य। शरीर है अंधकार, तमस, अमावस। एक तरफ शरीर है--मृत्यु और एक तरफ आत्मा है--अमृत। और दोनों जुड़े हैं मन से। तो मन आधा-आधा प्रभावित है। आधा प्रभावित है शरीर से और आधा प्रभावित है आत्मा से। तो मन के आधे हिस्से में तो दिन होता है, और मन के आधे हिस्से में रात होती है। ज्ञानी व्यक्ति बस वहीं तक आता है जहां तक दिन होता है। मन के उस हिस्से तक आता है जहां तक रोशनी होती है। जहां रोशनी समाप्त होती है, वहीं रुक जाता है, वहीं शयन करता है। उसके आगे नहीं जाता। अंधकारपूर्ण हिस्सों में प्रवेश नहीं करता। अंधकार में यात्रा नहीं करता। रुक जाता है।
अज्ञानी अंधकार में ही चलता है। उसे पता ही नहीं कि उसके भीतर भी कोई सूर्योदय होते हैं। अज्ञानी को बाहर की रोशनी का पता है, बाहर के अंधेरे का पता है। भीतर की रोशनी, अंधेरे, दोनों अपरिचित हैं।
या, एक दूसरा विभाजन भी है। सात चक्र हैं शरीर के। तीन चक्र नीचे हैं, तीन चक्र ऊपर हैं, एक चक्र मध्य में है जो जोड़ता है। जो जोड़नेवाला चक्र है, उसका नाम अनाहत। हृदय-चक्र। उसके नीचे तीन चक्र हैं और ऊपर तीन चक्र हैं। जो नीचे के तीन चक्र हैं उनसे संसार निर्मित होता है, जो ऊपर के तीन चक्र हैं उनसे मुक्ति निर्मित होती। और दोनों के बीच में है हृदय का चक्र। हृदय दोनों को जोड़ता है।
तो नीचे के चक्रों का भी संबंध हृदय से है। इसलिए नीचे के चक्रों में जीनेवाला आदमी भी प्रेम करता है। लेकिन उसका प्रेम निम्नता में दबा होता है। ऊपर के चक्रों में जीनेवाला आदमी भी प्रेम करता है, लेकिन उसका प्रेम विराट आकाश की तरह उन्मुक्त होता है। प्रेम में दोनों भागीदार हैं--अज्ञानी और ज्ञानी। क्योंकि हृदय में दोनों भागीदार हैं--अज्ञानी और ज्ञानी। आधा हृदय अंधेरे से भरा है। उसी को काम कहो, वासना कहो, हिंसा कहो। और आधा हृदय प्रार्थना से भरा है। उपासना कहो, पूजा कहो, आराधना कहो, अर्चना कहो--जो भी नाम देना चाहो।
ज्ञानी हृदय के उस आधे बिंदु तक आता है जहां तक रोशनी है। वहीं विश्राम करता है, उससे आगे नहीं जाता। अज्ञानी अंधेरे-अंधेरे में चलता है, जहां रोशनी का क्षण आता है वहीं सो जाता है। ज्ञानी जहां अंधेरा आता है वहां प्रवेश नहीं करता। अज्ञानी जहां रोशनी आती है वहां प्रवेश नहीं करता। कृष्ण ने गीता में कहा है: ‘या निशा सर्वभूतानाम् तस्यां जागर्ति संयमी।’ जो सबके लिए रात है, वह संयमी के लिए दिन है। और जो संयमी के लिए दिन है, वह सबके लिए रात है। जहां संयमी का दिन है, जहां उसकी कर्मठता है, वहां तो तुम सोए हुए हो। जहां तुम जागे हो, वहां संयमी सोया हुआ है। जहां तुम्हारा सूर्योदय है, वहां सूर्यास्त है संयमी का। और जहां तुम्हारा सूर्यास्त हो जाता है वहां संयमी का सूर्योदय होता है।
तुम आधे-आधे में बंटे हो। तुमने निम्न तल को चुन लिया अपने लिए। अंधेरी रात को। यह तुम्हारा चुनाव है। इसलिए इस चुनाव के बाहर जाने का एक ही उपाय है कि तुम थोड़े-थोड़े जागने लगो और थोड़े-थोड़े प्रेमपूर्ण होने लगो। या तो जागो, तो ऊपर उठो; या प्रेमपूर्ण हो जाओ तो ऊपर उठो। तो दो मार्ग हैं--ध्यान और प्रेम।
स्वच्छंदं चरतो देशान्यत्रास्तमितशायिनः।
और ज्ञानी का आचरण परममुक्त है। वह हवा की तरह मुक्त है।
हवा हूं,
हवा में वसंती हवा हूं
वही,
हां वही जो
धरा का वसंती सुसंगीत मीठा
गुंजाती फिरी हूं,
वही,
हां वही जो
सभी प्राणियों को
पिला प्रेम-आसव जिलाए हुए हूं,
कसम रूप की है
कसम प्रेम की है
कसम इस हृदय की
सुनो बात मेरी,
बड़ी बावली हूं
अनोखी हवा हूं
बड़ी मस्तमौला, नहीं कुछ फिकर है
बड़ी ही निडर हूं
जिधर चाहती हूं
उधर घूमती हूं
मुसाफिर अजब हूं
न घर-बार मेरा
न उद्देश्य मेरा
न इच्छा किसी की
न आशा किसी की
न प्रेमी
न दुश्मन
जिधर चाहती हूं उधर घूमती हूं,
हवा हूं,
हवा में वसंती हवा हूं
जहां से चली मैं
जहां को गयी मैं
शहर, गांव, बस्ती
नदी, रेत, निर्जन
हरे खेत, पोखर
झुलाती चली मैं,
झुमाती चली मैं,
हंसी जोर से मैं
हंसीं सब दिशाएं
हंसे लहलहाते
हरे खेत सारे
हंसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी
वसंती हवा में
हंसी सृष्टि सारी
हवा हूं,
हवा में
वसंती हवा हूं।
स्वच्छंद है हवा की भांति ज्ञानी। वसंत की स्वच्छंद हवा की भांति। उस पर न कोई रीति है, न कोई नियम, न कोई अनुशासन। आगे के सूत्र में बात साफ होगी--
‘जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता है और जिसे संसार विस्मृत हो गया है, उस महात्मा को इस बात की चिंता नहीं है कि देह रहे या जाए।’
पततूदेतु वा देहो नास्य चिंता महात्मनः।
स्वभावभूमिविश्रांतिविस्मृताशेषसंसृतेः।।
‘जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता है।’
अभी जिसकी मैं बात कर रहा था। जो अपने साक्षी में विश्राम करता है, जो अपने चैतन्य में विश्राम करता है, जो अपने प्रकाश में विश्राम करता है, जो अपने स्वभाव से जरा भी विपरीत नहीं होता, जो अपने स्वभाव से बाहर नहीं जाता, जो अपने स्वभाव से अन्यथा नहीं करता, जो व्यर्थ के तनाव नहीं लेता सिर पर, जो सहज है।
‘जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता है, और जिसे शेष संसार विस्मृत हो गया है।’
हो ही जाएगा। जिसे आत्मा का स्मरण होता है, उसे संसार का विस्मरण हो जाता है। और जिसे संसार का बहुत स्मरण हो जाता है, उसे आत्मा का विस्मरण हो जाता है। तुम दोनों को एक-साथ न बचा सकोगे। रस्सी में सांप दिखा, जब तक सांप दिखेगा, रस्सी न दिखेगी। जब रस्सी दिखने लगेगी, सांप न दिखेगा। तुम ऐसा न कर सकोगे कि दोनों को एक-साथ देख लो। यह असंभव है।
जब तक संसार में स्मरण उलझा है, तब तक आत्मा का स्मरण नहीं होता। जब आत्मा का स्मरण होता है, संसार का स्मरण खो जाता है।
‘जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता और जिसे शेष संसार विस्मृत हो गया है, उस महात्मा को इस बात की चिंता नहीं है कि देह रहे या जाए।’
क्योंकि उस महात्मा को पता है--देह संसार का हिस्सा है। देह मेरा हिस्सा नहीं। मैं देह नहीं हूं।
‘अकिंचन, स्वच्छंद विचरण करनेवाला, द्वंद्वरहित, संशयरहित, आसक्तिरहित और अकेला बुद्धपुरुष ही सब भावों में रमण करता है।’
अकिंचनः कामचारो निर्द्वंद्वश्छिन्नसंशयः।
असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः।।
जो अकिंचन है। जिसको यह पता चल गया कि अहंकार झूठी घोषणा है। मैं कुछ हूं, ऐसा जिसका दावा ही न रहा। जो दावेदार न रहा, जिसने सब दावे छोड़ दिये। जो कहने लगा, मैं तो ना-कुछ हूं, शून्यवत।
‘अकिंचन, स्वच्छंद विचरण करनेवाला...।’
जो संस्कृत शब्द है, वह बहुत अदभुत है--कामचारो। जो आचरण से मुक्त हो गया है। जिसके जीवन में अब आचरण-अनाचरण की कोई व्याख्या नहीं रही।
मैं निरंतर तुमसे कहता हूं कि परमज्ञान आचरणरहित होता है--करेक्टरलेस। कामचारो का वही अर्थ है। स्वच्छंद। रीति-नियम से मुक्त। स्वभाव से जीता है जो। स्फूर्ति से जीता है जो। न कोई अनुशासन है उसके ऊपर कि ऐसा करना चाहिए। वही करता है जो होता है। जो होता है उसे होने देता है। जो परिणाम हैं, उन्हें स्वीकार कर लेता है। न परिणामों से बचने की कोई चिंता है, न जो हो रहा है उसे रोकने का कोई आग्रह है। न अन्यथा करने का कोई उपाय है।
‘आसक्तिरहित, संशयरहित, द्वंद्वरहित और अकेला बुद्धपुरुष ही सब भावों में रमण करता है।’
और तब मुक्त हो जाता है व्यक्ति अपने भीतर के सब प्रदेशों में रमण करने को।
‘सब भावों में रमण करता है।’
तब सारे रमण उपलब्ध हो जाते हैं। तब उसे अपनी पूरी अंतःभूमि का पासपोर्ट मिल जाता है। रुकावट नहीं है फिर उसे। वह जहां जाना चाहे भीतर जाता है, जो देखना चाहे देखता है। अचेतन से अचेतन गर्तों में उतरता है और परम चेतन की आखिरी ऊंचाइयां छूता है। पूरी सीढ़ी का मालिक हो जाता है। आखिरी सीढ़ी रुकी है नर्क में और ऊपर की सीढ़ी रुकी है मोक्ष में। सीढ़ी के सब सोपानों पर चढ़ता है। स्वच्छंद भाव से अपनी पूरी चेतना का अनुभव करता है। इस अनुभव में ही सारे विराट के दर्शन हो जाते हैं।
कहते हैं शास्त्र कि मनुष्य पिंडरूप है। इसी ब्रह्मांड का छोटा-सा पिंड है। मनुष्य के भीतर सब छिपा है जो विराट में है। अगर भीतर हम मनुष्य को पूरा देख लें तो हमने पूरे विराट को देख लिया। मनुष्य को समझ लिया तो सब समझ लिया।
इस सूत्र में एक श्रृंखला है। अकिंचन, जो ना-कुछ है, वही स्वच्छंद हो सकता है। अकिंचन, स्वच्छंद। जो ना-कुछ है, वही स्वच्छंद हो सकता है; जिसको कुछ होना है वह स्वच्छंद नहीं हो सकता। उसको तो नियम बनाकर चलना पड़ेगा। उसको तो मर्यादा बांधनी पड़ेगी। जो प्रतिष्ठा चाहता है, समादर चाहता है, पुण्य चाहता है, स्वर्ग चाहता है, उसे तो मर्यादा बांधकर चलनी पड़ेगी। जो ना-कुछ है और ना-कुछ होने से राजी है, वही स्वच्छंद हो सकता है। शून्य ही स्वच्छंद हो सकता है। फिर द्वंद्वरहित। और जो स्वच्छंद है, वही द्वंद्वरहित हो सकता है। जब तक तुम्हारे मन में ऐसा हो जाये और ऐसा न हो, इस तरह का विभाजन रहेगा, द्वंद्व भी रहेगा। जैसा होता है, वैसा ही ठीक है, फिर कोई द्वंद्व न रहा। और जो द्वंद्वरहित हो गया, वही संशयरहित है। जब द्वंद्व ही न रहा, तो संशय क्या! जीवन के प्रति तब परम स्वीकार है, परम श्रद्धा है। और जो संशयरहित है, वही आसक्तिरहित हो पाता है। जब आस्था जीवन के प्रति परम हो गयी, तो हम आसक्ति नहीं बांधते। हम यह नहीं कहते जो मेरे पास है उसे रोक लूं, पता नहीं कल हो या न हो। जब अस्तित्व पर परमश्रद्धा है, तो जिसने आज दिया, कल भी देगा, परसों भी देगा। और नहीं देगा, तो शायद नहीं देना ही उचित होगा। तो नहीं देगा। और जो आसक्तिरहित है, वही अकेला है। वही केवल, एकांत का अनुभव कर पाता है। और जो अकेला है, वही है बुद्धत्व को उपलब्ध।
इसमें श्र्ंखला है। स्वच्छंद, अकिंचन, द्वंद्वरहित, संशयरहित, आसक्तिरहित, एकाकी, बुद्धपुरुष, इसमें एक श्र्ंखला है। एक क्रम है। सीढ़ी के सोपान हैं।
और वही सब भावों में रमण करता है। समस्तता उसकी है, पूरा आकाश उसका है। उसके लिए कोई सीमा नहीं है। कोई बंधन नहीं है। असीम उसका है, अनंत उसका है, शाश्वत उसका है। लेकिन पहले इस असीम की घोषणा स्वयं के भीतर करनी जरूरी है।
इन सूत्रों पर खूब मनन करना। मनन ही नहीं, ध्यान करना। इनका थोड़ा स्वाद लेने की कोशिश करना। क्योंकि ये शब्द ही नहीं हैं कि तुमने समझ लिये, बात पूरी हो गयी, इनके भीतर बहुत कुछ छिपा है। शब्द तो राख जैसा है। उसे झाड़ना तो भीतर अंगारा मिलेगा। वही अंगारे में अर्थ है, उसी अंगारे में अर्थ है।
एक-एक सूत्र ऐसा बहुमूल्य है कि सारे संसार की संपदा भी एक-एक सूत्र को पाने के लिए देनी पड़े तो भी हमने मूल्य चुकाया, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अमूल्य है।
आज इतना ही।