ASHTAVAKRA
Maha Geeta 75
SeventyFifth Discourse from the series of 91 discourses - Maha Geeta by Osho. These discourses were given during SEP 11 - FEB 10 1977.
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सर्वारंभेषु निष्कामो यश्चरेद्बालवन्मुनिः।
न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रियमाणेऽपि कर्माणि।। 240।।
स एव धन्य आत्मज्ञः सर्वभावेषु यः समः।
पश्यन् श्रृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्निस्तर्षमानसः।। 241।।
क्व संसारः क्व चाभासः क्व साध्यं क्व च साधनम्।
आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्येव सर्वदा।। 242।।
स जयत्यर्थसंन्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः।
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते।। 243।।
बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्वो महाशयः।
भोगमोक्षनिराकांक्षी सदा सर्वत्र नीरसः।। 244।।
महदादि जगद्द्वैतं नाममात्रविजृम्भितम्।
विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते।। 245।।
सर्वारंभेषु निष्कामो यः चरेत् बालवन्मुनिः।
न लेपः तस्य शुद्धस्य क्रियमाणेऽपि कर्माणि।।
पहला सूत्र: ‘जो मुनि सब क्रियाओं में निष्काम है और बालवत व्यवहार करता है, उस शुद्ध के किये हुए कर्म में भी लेप नहीं होता है।’
बहुत-सी बातें इस सूत्र में समझ लेने जैसी हैं।
पहली बात: सर्वारंभेषु। साधारणतः हम किसी कार्य का प्रारंभ करते हैं तो कामना से करते हैं। कुछ पाना है इसलिए करते हैं। कोई महत्वाकांक्षा है, उसे पूरा करना है इसलिए करते हैं।
ज्ञानी किसी कर्म का प्रारंभ किसी कारण से नहीं करता। उसे कुछ भी पाना नहीं है, कुछ भी होना नहीं है। जो होना था हो चुका। जो पाना था पा लिया। फिर भी कर्म तो होते हैं। तो इन कर्मों में कोई प्रारंभ की वासना नहीं है। कोई आरंभ नहीं है। प्रभु जो करवाता वह होता। ज्ञानी अपने तईं कुछ भी नहीं कर रहा है। प्रभु बुलाये तो बोलता। प्रभु मौन रखे तो मौन रहता। प्रभु चलाये तो चलता। प्रभु न चलाये तो रुक रहता।
जिस दिन अहंकार गया उसी दिन कर्मों को प्रारंभ करने की जो आकांक्षा थी वह भी गई। अब कर्मों का प्रारंभ परमात्मा से होता और कर्मों का अंत भी उसी को समर्पित है। ज्ञानी में कर्म प्रगट होता है लेकिन शुरू नहीं होता; शुरू परमात्मा में होता है। लहर परमात्मा से उठती है, ज्ञानी से प्रगट होती है।
इसे समझना। होता तो ऐसा ही अज्ञानी में भी है, लेकिन अज्ञानी सोचता है लहर भी मुझसे उठी। अज्ञानी अपने कर्मों का स्रोत स्वयं को मान लेता। वहीं बंधन पैदा होता है। कर्मों में बंधन नहीं है, कर्मों का स्रोत स्वयं को मान लेने में बंधन है। तुमने कभी कोई कर्म किया है? तुम कभी कोई कर्म कर कैसे सकोगे? न जन्म तुम्हारा न मृत्यु तुम्हारी; तो जीवन तुम्हारा कैसे हो सकता है?
मैंने सुना है, एक महल के पास पत्थरों का एक ढेर लगा था। और एक छोटा बच्चा खेलता आया और उसने एक पत्थर उठाकर महल की खिड़की की तरफ फेंका। पत्थर जब ऊपर उठने लगा तो पत्थर ने अपने नीचे पड़े हुए पत्थरों से कहा, सगे-संबंधियों से कहा, सुनो, जिन पंखों के तुमने सदा स्वप्न देखे, वे मेरे पैदा हो गये हैं। आज मैं आकाश में उड़ने के लिए जा रहा हूं।
स्वप्न तो पत्थर भी देखते हैं उड़ने के। उड़ नहीं पाते। मजबूरी में तड़पते हैं। आज इस पत्थर को अहंकार जगा। फेंका तो किसी ने था लेकिन पत्थर ने घोषणा की, कि देखते हो, सुनते हो? जिन पंखों के तुमने स्वप्न देखे वे मुझमें पैदा हो गये। आज मैं आकाश की यात्रा को जा रहा हूं। भेजा जा रहा था लेकिन उसने कहा, जा रहा हूं। पहल उसके स्वयं के भीतर से न आई थी। प्रारंभ किसी और ने किया था, लेकिन प्रारंभ का मालिक वह स्वयं बन गया।
और फिर जब जाकर कांच की खिड़की से टकराया और कांच चकनाचूर हो गया तो खिलखिला कर अट्टहास करके हंसा। और उसने कहा, सुनते हो? हजार बार मैंने कहा है, हजार बार चेताया है, मेरे मार्ग में कोई न आये अन्यथा चकनाचूर कर दूंगा।
अब जब पत्थर कांच से टकराता है तो कांच चकनाचूर होता है, पत्थर करता नहीं। यह कांच और पत्थर के स्वभाव से घटता है कि कांच चकनाचूर होता है। फर्क समझ लेना होने में और करने में। पत्थर ने कुछ किया नहीं है। करने को क्या है? कांच टूटा है। पत्थर निमित्त है तोड़ने में, कर्ता नहीं है।
लेकिन यह मौका कौन छोड़े? पत्थर यह मौका कैसे छोड़े? जैसे औरों ने घोषणायें की हैं, तुमने की हैं, उसने भी की: मेरे मार्ग में कोई न आये अन्यथा चकनाचूर कर दूंगा। आज मौका मिला है, घोषणा सही हो गई है, सही होती मालूम पड़ती। आज इस अवसर को चूक देना ठीक नहीं है। और कांच के टुकड़े कहें भी क्या? बात तो घट रही है, आंख के सामने घट रही है। पत्थर ने चकनाचूर कर ही दिया है। तो इनकार भी कहां है? प्रमाण भी कहां है इसके विपरीत? लेकिन फिर भी पत्थर ने कांच को चकनाचूर किया नहीं है, कांच चकनाचूर हुआ है। पत्थर जब कांच से टकराता है तो दोनों के स्वभाव से...और स्वभाव का नाम परमात्मा है। यह सहज हो रहा है। न कोई कर रहा है, न कुछ किया जा रहा है।
और जब कांच चकनाचूर हो गया और पत्थर जाकर महल के कालीन पर गिरा तो उसने सुख की सांस ली। उसने कहा, लंबी यात्रा की, थक भी गया हूं, दुश्मन को भी मारा, अब थोड़ा विश्राम कर लूं। गिरा है कालीन पर, लेकिन कहता है, थोड़ा विश्राम कर लूं।
और फिर मन में सोचने लगा, मेरे स्वागत में तैयारी की गई है। कालीन बिछाये गये। कोई मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। और तभी महल का नौकर पत्थर और कांच की टकराहट की आवाज और कांच का टूटना और पत्थर का गिरना सुनकर भागा हुआ आया। तो पत्थर ने मन में कहा, मालिक आता है स्वागत के लिए। और जब नौकर ने पत्थर को अपने हाथ में उठाया तो पत्थर ने कहा, धन्यवाद। हालांकि किसी ने सुना नहीं। पत्थर की भाषा अलग, आदमी की भाषा अलग।
नौकर ने तो फेंकने को उठाया है वापिस, लेकिन पत्थर ने कहा धन्यवाद, तुम्हारे स्वागत से मैं प्रसन्न हूं। हो भी क्यों न? मैं कोई साधारण पत्थर नहीं हूं, विशिष्ट हूं। कभी-कभी विरले ऐसे पत्थर होते हैं जिनके पंख निकलते हैं और जो आकाश में उड़ते हैं। पुराणों में सुनी है यह बात, देखने में आज-कल तो आती नहीं।
नौकर ने फेंक दिया पत्थर वापिस। फेंका गया है, लेकिन पत्थर कहने लगा, घर की बहुत याद आती है। यात्रा बहुत लंबी हुई, समय भी बहुत व्यतीत हुआ, घर वापिस चलूं। और जब गिरने लगा पत्थरों की ढेरी में तो उसने कहा, देखो, लौट आया। यद्यपि महलों में मेहमान था, सम्राटों के हाथों का श्रृंगार बना। कैसे-कैसे स्वागत-समारंभ न हुए! तुम तो समझ भी न पाओगे। तुम तो कभी इस ढेरी से उठे नहीं, उड़े नहीं। आकाश की स्वच्छंदता, चांद-तारों से मेल--सब जाना, सब देखा, लेकिन फिर भी घर अपना घर है। घर की बहुत याद आती थी। लौट आया हूं। पत्थर वापिस ढेरी में गिर गया।
ऐसी आदमी की भी कथा है। न तो प्रारंभ तुम्हारे हाथ में है और न अंत तुम्हारे हाथ में है। श्वास जब तक चलती है, चलती है; जब न चलेगी तो तुम क्या कर सकोगे? लेकिन तुम तो यह कहते हो, मैं श्वास ले रहा हूं। परमात्मा तुमसे श्वास लेता और तुम कहते हो, मैं श्वास ले रहा हूं। तुम श्वास ले रहे होओगे तो मौत द्वार पर आ जायेगी तब लेते रहना तो पता चलेगा कि कौन लेनेवाला था! मौत द्वार पर आयेगी तो तुम एक श्वास भी ज्यादा न ले सकोगे। जो श्वास बाहर गई तो बाहर गई; भीतर न लौटेगी। लाख तड़पो और चिल्लाओ। लाख शोरगुल मचाओ, श्वास वापिस न आयेगी। तुम लेना चाहोगे लेकिन ले न सकोगे।
श्वास तुम ले नहीं रहे हो, श्वास चल रही है। परमात्मा ले रहा है। परमात्मा का अर्थ है, यह समग्र। यह समग्र अपने अंश-अंश में तरंगायित है, श्वास ले रहा है। ज्ञानी इसे ऐसा देख लेता है, जैसा है। अज्ञानी वैसा मान लेता है जैसा मानना चाहता है। वैसा नहीं देखता, जैसा है।
सर्वारंभेषु--सब कामों का जो प्रारंभ है, वहीं समझ लेने की बात है।
कृष्ण ने गीता में कहा है, फलाकांक्षा को प्रभु को समर्पित कर दो। यह सूत्र उससे भी गहरा है। क्योंकि यह कहता है, फलारंभ को प्रभु को समर्पित कर दो। फलाकांक्षा तो अंत में होगी, फल तो पीछे मिलेगा। कृष्ण कहते हैं फलाकांक्षा को प्रभु को समर्पित कर दो, अष्टावक्र कहते हैं फलारंभ को। क्योंकि अगर फलारंभ को समर्पित न किया तो तुम फलाकांक्षा को भी समर्पित न कर पाओगे। जो प्रारंभ में ही चूक गया वह बाद में कैसे सम्हलेगा? पहले कदम पर ही गिर गया, अंतिम कदम ठीक कैसे पड़ेगा? गणित तो शुरू से ही गलत हो गया। भूल तो पहले ही हो गई।
इसलिए मैंने कृष्ण की गीता को गीता कहा है और अष्टावक्र की गीता को महागीता कहता हूं। ज्यादा गहरे जाती है। ज्यादा जड़ को, जड़मूल से पकड़ती है। आमूल उखाड़ देने का रूपांतरण संभव है।
प्रारंभ को परमात्मा पर छोड़ दो। और जिसने प्रारंभ छोड़ दिया, अंत तो छूट ही गया। जब प्रारंभ में ही तुम मालिक न रहे तो अब कैसे मालिक हो सकोगे? अब तो कोई जगह न बची। अब तो मालकियत कहीं पैर जमाकर खड़ी न हो सकेगी। तुमने जमीन ही खींच ली।
सर्वारंभेषु--सब कर्मों के प्रारंभ में। वह जो करने की वासना है कि मैं करूं; कि मैं दिखाऊं; कि मैं ऐसा हो जाऊं; कि ऐसा मुझसे घटित हो, वह छोड़ दो। उसे छोड़ते ही कोई ज्ञानी हो जाता है। उसे पकड़े ही आदमी अज्ञानी है।
और अगर तुमने प्रारंभ न छोड़ा तो तुम लाख उपाय करो, तुम अंत भी न छोड़ सकोगे। कैसे छोड़ोगे? ये सब चीजें संयुक्त हैं। अगर तुमने कहा कि जन्म तो मैंने लिया है तो फिर तुम कैसे कहोगे कि मृत्यु घटी? क्योंकि जन्म और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक ही यात्रा के दो पड़ाव हैं। जिसके हाथ में जन्म है उसी के हाथ में मृत्यु है। अगर जन्म तुम्हारे हाथ में है तो मृत्यु भी तुम्हारे हाथ में है। और अगर जन्म तुम्हारे हाथ में नहीं है तो ही यह संभव है कि मृत्यु भी तुम्हारे हाथ में न हो। बीज भी तुम्हारे हाथ में नहीं है, फल भी तुम्हारे हाथ में नहीं।
कृष्ण कहते हैं फल को छोड़ दो, अष्टावक्र कहते हैं बीज को ही छोड़ दो न! सब छूट गया। क्योंकि फिर बीज से ही निकलेगा वृक्ष। फिर वृक्ष में ही लगेंगे फल और फिर लगेंगे बीज। फल तक प्रतीक्षा करोगे, फल तक प्रतीक्षा करने में बीच में जो तुम गलत यात्रा करोगे वह इतनी सघन हो जायेगी, वह आदत इतनी मजबूत हो जायेगी कि तुम छोड़ न पाओगे।
इसलिए एक मजेदार घटना घटती है, कि गीता के भक्त जब फल बुरा हो जाता है तब तो परमात्मा पर छोड़ देते हैं और जब फल अच्छा हो जाता है तो नहीं छोड़ पाते। शुभ को छोड़ना फिर मुश्किल हो जाता है। अशुभ को तो छोड़ देते हैं।
मैंने सुना है, ऐसा एक गीताभक्त एक गांव में रहता था। उसने बड़ी सुंदर बगिया लगाई थी। और वह सबको बताता था अपनी बगिया कि देखो, ऐसे फूल किसी और बगीचे में नहीं खिलते और ऐसी हरियाली किसी और बगीचे में नहीं है। यह मेरी मेहनत का फल है। और रोज गीता पढ़ता था। भगवान ने सोचा कि यह गीता रोज पढ़ता, फलाकांक्षा त्यागो ऐसा चिंतन-मनन करता लेकिन ‘बगिया मैंने लगाई है।’ इसके वृक्षों को हरा मैं कर रहा हूं लेकिन यह कहता है कि मैंने लगाई है। इसके वृक्षों पर फूल मैं लगा रहा हूं, लेकिन यह कहता है, मेरे फूल बड़े हैं। इसके वृक्षों पर वर्षा मैं करता, सूरज मैं बरसाता और यह कहता है कि मैंने यह सब इतना सुंदर...इतने सुंदर को जन्म दिया है।
तो भगवान आये एक दरिद्र ब्राह्मण के वेश में। पूछा उससे; उसने कहा कि मैंने लगाई है। आओ दिखायें। सब दिखाया। और तभी--भगवान ने व्यवस्था कर रखी थी--एक गाय उसके बगीचे में घुस गई। वह तो बगीचा दिखला रहा था, एक गाय बगीचे में घुस गई। वह तो पागल हो गया। उस गाय ने उसके सुंदरतम पौधे चर डाले; उसके गुलाब चर डाले। वह तो उठाकर एक लट्ठ दौड़ा, गाय को मार दिया। भूल ही गया कि ब्राह्मण हूं। भूल ही गया कि मैं बीच में न आऊं। जिसके फूल हैं उसी की गाय है। इतनी जल्दबाजी न करूं।
और जब गाय को मार दिया लट्ठ और गाय मर गई तो घबड़ाया, क्योंकि गौहत्या तो भारी पाप! और इस आदमी ने भी देख लिया--यह जो भिखारी, जिसको वह घुमा रहा था। और उस भिखारी ने कहा, यह तुमने क्या किया? तो उस ब्राह्मण ने कहा, मैं करनेवाला कौन? अरे सब प्रभु कर रहा है। कहा नहीं गीता में भगवान ने कि हे अर्जुन! जिनको तू देखता है ये जीवित हैं, इनको मैं पहले ही मार चुका हूं। तू तो निमित्तमात्र है। यह गाय मरने को थी महाराज! मैंने मारी नहीं। मुझे तो निमित्त बना लिया है।
और वह भिखारी हंसने लगा। और उसने कहा कि तुझे निमित्त बनाया गाय को मारने में, और फूल खिलाने में तुझे निमित्त नहीं बनाया? वृक्षों को हरा बनाने में तुझे निमित्त नहीं बनाया? ये वृक्ष तूने लगाये हैं और गाय परमात्मा ने मारी?
मीठा-मीठा गप, कडुवा-कडुवा थू; ऐसा मन का तर्क है। अच्छा-अच्छा चुन लूं। अच्छे-अच्छे से अहंकार को सजा लूं, श्रृंगारित कर दूं, बुरे-बुरे को छोड़ दूं।
अष्टावक्र का सूत्र ज्यादा गहरा जाता है। अष्टावक्र कहते हैं प्रारंभ ही छोड़ दो। बीज से ही चलो। ठीक-ठीक पहले कदम से ही चलो। मूल से ही पकड़ो। यात्रा बदलनी है, अंत को अगर मंदिर तक ले जाना है तो पहले ही क्षण से पूजन, पहले ही क्षण से प्रार्थना, पहले ही क्षण से उतारो आरती, गुनगुनाओ गीत प्रभु का ताकि अंततः मंदिर बन जाये। ऐसे मत चलो कि जीवन भर तो मधुशालाओं में रहोगे, जुआघरों में, आखिरी क्षण में परमात्मा पर पहुंच जाओगे।
लोग बड़े चालाक हैं। वे कहते हैं फल छोड़ देंगे। लेकिन फल तुम न छोड़ सकोगे। जब तक कि तुमने आरंभ न छोड़ दिया, पहल न छोड़ी, तब तक फल भी न छूटेगा।
‘जो मुनि सब क्रियाओं में निष्काम है...।’
सर्वारंभेषु निष्कामो।
और जिसने प्रारंभ छोड़ा वही निष्काम है। काम में ही प्रारंभ छिपा है, कामना में। मैं करूं, मुझसे हो, मेरे द्वारा हो। दिखाऊं कि मैं कुछ हूं।
‘जो मुनि सब क्रियाओं में निष्काम है...।’
मुनि शब्द को भी समझ लेना जरूरी है। मुनि शब्द बनता मौन से। जो अब अपनी तरफ से बोलता भी नहीं वही मुनि है। अब प्रभु उपयोग करता है तो बोलता है, नहीं उपयोग करता तो चुप रह जाता है।
कूलरिज अंग्रेजी का बड़ा कवि मरा तो उसके घर में हजारों अधूरी कवितायें पड़ी मिलीं। और उसके मित्र उससे बार-बार कहते थे, ये कवितायें तुम पूरी क्यों नहीं कर देते हो? कोई कविता तो करीब-करीब पूरी हो गई है, एक पंक्ति अधूरी है। इसे तुम पूरा कर दो। इतनी सुंदर कविता, यह अधूरी रह जायेगी। कूलरिज कहता, जिसने शुरू की है वही पूरा करे। मैं पूरा करनेवाला कौन?
पहले मैंने कोशिश की थी। सब कोशिश व्यर्थ गई। कभी तीन पंक्तियां उतरती हैं एक चौपाई की, और चौथी नहीं उतरती। तो मैं पहले शुरू-शुरू में जब सिक्खड़ था, जवान था, अहंकारी था, अंधा था तब चौथी को बना-बनूकर बिठा देता था। तोड़-मोड़कर जमा देता था। लेकिन मैंने बार-बार पाया कि वह चौथी बड़ी साधारण होती थी। वे तीन तो होतीं अपूर्व, और वह चौथी एक गंदे धब्बे की तरह उन तीन की शुभ्रता को नष्ट करती। वे तीन तो होतीं आकाश की और वह चौथी होती जमीन की। उनमें कोई तालमेल न होता। वे तीन तो होतीं परमात्मा की, वह एक होती मेरी। उससे वे तीन भी लंगड़ा जातीं। फिर मैंने तय कर लिया कि वही रचायेगा, वही रचेगा। उतना ही रचूंगा, उतना ही होने दूंगा। अब तो मैं सिर्फ प्रतीक्षा करता। अब तो मैं उसके हाथ का एक उपकरण हूं। जब वह गुनगुनाता है, तो लिख लेता हूं। जितनी गुनगुनाता है उतनी लिख लेता हूं। अगर तीन की उसकी मर्जी है तो तीन ही सही। इन्हें अशुद्ध न करूंगा।
कूलरिज ने केवल सात कवितायें पूरी कीं अपने जीवन में। अनूठी हैं। और कोई चालीस हजार कविताएं अधूरी छोड़कर मरा। वे सब अनूठी हो सकती थीं, लेकिन कूलरिज बड़ा ईमानदार कवि था। उसे ऋषि कहना चाहिए, कवि कहना ठीक नहीं। वह कोई तुकबंद नहीं था, ऋषि था। ठीक उपनिषद के ऋषियों जैसा ऋषि था। जो उतरा, उतर आने दिया। जितना उतर सका उतना ही उतरा। उससे ज्यादा नहीं उतरा, नहीं उतरा। प्रभु-मर्जी!
मुनि का अर्थ होता है, जो अपनी तरफ से बोलता भी नहीं। और तो बात और, जो अपनी तरफ से हां-ना भी नहीं कहता। जब तुम किसी ज्ञानी से कुछ पूछते हो तो ज्ञानी परमात्मा से पूछता है। तुम्हें शायद यह दिखाई भी न पड़े क्योंकि यह अगोचर है। यह दृश्य तो नहीं है। तुम ज्ञानी से पूछते हो, ज्ञानी परमात्मा के चरणों में तुम्हारे प्रश्न को निवेदन कर देता है। फिर जो उत्तर बहता है, बहता है।
यह उत्तर ज्ञानी से आता है लेकिन ज्ञानी का नहीं है। वाणी ज्ञानी से फूटती है लेकिन ज्ञानी की नहीं है।
मुनि का अर्थ होता है, जो अपनी तरफ से तो शून्यवत हो गया। और जब कोई शून्यवत हो जाता है, परम मौन हो जाता है, तभी तो परमात्मा बोल पाता है। जब तक तुम्हारे भीतर शोरगुल है, जब तक तुम्हारी ही तरंगें तुम्हें भरे हुए हैं तब तक उसकी छोटी-छोटी, धीमी-धीमी फुसफुसाहट सुनाई न पड़ेगी। जब तक तुम पागल हो अपने विचारों से तब तक उसके मधुर स्वर तुमसे बह न सकेंगे। तुम उनके लिए मार्ग न बन सकोगे।
सर्वारंभेषु निष्कामो यः चरेत् बालवन्मुनिः।
और बालवत इस शब्द को भी खयाल में ले लेना।
‘जो मुनि सब क्रियाओं में निष्काम है और बालवत व्यवहार करता है।’
बालक के क्या लक्षण हैं? एक: कि बालक अज्ञानी है। ज्ञानी भी अज्ञानी है। तुम बहुत चौंकोगे। क्योंकि ज्ञानी और अज्ञानी तो विरोधाभास मालूम पड़ेगा। लेकिन मैं तुम्हें कहता हूं, ज्ञानी अज्ञानी है। ज्ञानी कुछ जानता नहीं। जितना परमात्मा जना देता है, बस ठीक। ज्ञानी अपनी तरफ से नहीं जानता। ज्ञानी पंडित नहीं है। पंडित कभी ज्ञानी नहीं हो पाता। पापी भी पहुंच जायें, पंडित कभी नहीं पहुंचते। पंडित तो भटकते रह जाते हैं। पंडित में तो एक दंभ होता है कि मैं जानता हूं। ज्ञानी को इतना ही बोध होता है कि मैं क्या जानता हूं! मैं हूं ही नहीं, जानूंगा कैसे? जानना कहां संभव है?
ज्ञानी बालवत है। उसने अपने अज्ञान को स्वीकार कर लिया है, कि तुम जनाओगे उतना ही जान लूंगा। तुम जितना दिखाओगे उतना ही देख लूंगा। मेरे पास न तो अपनी आंख है, न अपने कान हैं, न मेरे पास अपनी प्रतिभा है। मेरे पास अपना कुछ भी नहीं। तुम ही मेरे धन हो। मैं तो हूं ही नहीं। मैं तो सिफर, मैं तो एक शून्य। तुम जितने इस शून्य से प्रगट हो जाओगे उतना ही मैं प्रगट होने लगूंगा। लेकिन तुम ही प्रगट हो रहे हो।
सुकरात ने कहा है कि जिस दिन मैंने जाना कि मैं कुछ भी नहीं जानता उसी दिन ज्ञान की पहली किरण उतरी। उपनिषद कहते हैं, जो कहे जानता हूं, जान लेना नहीं जानता। लाओत्सु ने कहा है, जानने का दंभ केवल उन्हीं में होता है जिन्हें अभी कुछ भी पता नहीं चला है। जाननेवालों में जानने का खयाल ही तिरोहित हो जाता है। जाननेवालों को ‘जानता हूं,’ ऐसा बोध ही नहीं उठता। यह तो अज्ञान का ही हिस्सा है।
अब तुम्हें खयाल में आ सकती है बात। अज्ञानी को ही यह बोध उठता है कि मैं जानता हूं। क्योंकि मैं अज्ञान में ही सघनीभूत होता है। ज्ञानी को बोध नहीं होता कि मैं जानता हूं। और ज्ञानी ही जानता है, अज्ञानी जानता नहीं।
विरोधाभासी है यह, लेकिन जीवन बड़ा विरोधाभासी है ही। यहां जिनको अकड़ है जानने की उनके पास कुछ भी नहीं। और जिन्हें न जानने का भाव है उनके पास सब कुछ है। यहां जिनको धनी होने का दंभ है वे निर्धन हैं। और जिन्हें अपने निर्धन होने का पता चल गया उन्हें धन मिल गया। यहां जो अकड़े हैं, दो कौड़ी के हैं। यहां जिन्होंने अकड़ छोड़ दी, अमूल्य हो गये। किसी मूल्य से अब कूते नहीं जा सकते। यहां जो हैं, नहीं हैं। और जो नहीं हो गये उनके जीवन में होने की पहली किरण उतरी। धीरे-धीरे सूरज भी उतरेगा। मिटो, अगर चाहो होना।
तो पहली बात बालवत में--अज्ञान। ज्ञानी बच्चों जैसा अज्ञानी है। थोड़ा-सा फर्क है, इसलिए बालवत कहते हैं, बालक नहीं कहते। बालवत का अर्थ हुआ बच्चे जैसा; बच्चा ही नहीं।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है। किसी ने पूछा एक बाजार में कि कौन पहुंचेगा प्रभु के राज्य में? तो उन्होंने चारों तरफ नजर डाली; सामने ही भीड़ में गांव का रबाई खड़ा था, पंडित-पुरोहित खड़े थे, धनी-मानी खड़े थे, उन्होंने सोचा शायद हमारी तरफ इशारा करें, शायद हमारी तरफ इशारा करें। लेकिन जीसस ने एक छोटा बच्चा जो भीड़ में खड़ा था उसे कंधे पर उठा लिया और कहा, जो इस बच्चे की भांति होंगे, वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे।
इस बच्चे की भांति! यह नहीं कहा कि बच्चे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे। नहीं तो फिर सभी बच्चे प्रवेश कर जायें। बच्चे की भांति--फर्क खयाल में ले लेना। बच्चे जैसे फिर भी बच्चे जैसे नहीं। कुछ-कुछ बच्चे जैसे, कुछ-कुछ कुछ और। बालवत।
तो क्या फर्क है? बच्चा अज्ञानी है लेकिन उसे अपने अज्ञान का कोई पता नहीं। ज्ञानी भी अज्ञानी है लेकिन ज्ञानी को अपने अज्ञान का पता है। यहीं भेद है। उसी पता में सब पता चल गया। बच्चा अज्ञानी है, सिर्फ अज्ञानी है, अबोध भी है। अज्ञान+अबोध--बच्चा। अज्ञान+बोध--ज्ञानी। फर्क जो है, बोध और अबोध का है। बच्चा सोया हुआ है, ज्ञानी जागा हुआ है। बच्चे को भी कुछ पता नहीं है, ज्ञानी को कुछ पता नहीं है। लेकिन बच्चे को यह भी पता नहीं है कि मुझे कुछ पता नहीं है। इसलिए बच्चा जल्दी ही चक्कर में पड़ेगा। जैसे-जैसे उसे पता चलने लगेगा, वह सोचने लगेगा, अब मैं जानने लगा...अब मैं जानने लगा। अब इतना जान लिया, अब देखो कालेज से लौट आया, अब युनिवर्सिटी से लौट आया।
ऐसे ही उद्दालक का बेटा एक दिन लौटा गुरुकुल से। सब शास्त्र जानकर लौटा, सब वेद कंठस्थ करके लौटा। और बाप ने जब उसे आया हुआ देखा तो बाप बड़ा दुखी हुआ। बाप की आंखों में आंसू आ गये। क्योंकि यह तो अकड़कर चला आ रहा है। ज्ञानी तो अकड़कर कैसे आयेगा? ज्ञानी तो विनम्र हो जाता है। और यह बेटा तो अकड़ा चला आ रहा है।
अकड़कर आने का कारण था। वह सारे गुरुकुल में प्रथम आया था। उसने बड़े पुरस्कार जीते थे। वह सब शास्त्रों में पारंगत होकर आ रहा था। वह सोचता था, बाप मेरी पीठ थपथपायेंगे, लेकिन बाप उदास बैठ गये। जब वह आकर सामने खड़ा हुआ तो उसकी अकड़ ऐसी थी कि अपने बाप के पैर भी न छू सका। अब क्या छुए? उसको ऐसा लगा होगा, यह बाप तो अज्ञानी है, मैं तो ज्ञानी होकर लौटा।
अक्सर ऐसा होता है। जब कालेज-युनिवर्सिटी से लड़के लौटते हैं तो सोचते हैं, यह बाप भी कुछ नहीं जानता। बेपढ़ा-लिखा!
पैर भी नहीं छुए श्वेतकेतु ने। खड़ा हो गया। उद्दालक ने कहा, बेटे, तूने वह जाना जिसको जानने से सब जान लिया जाता है?
उसने कहा, यह कौन-सी बात कही? यह तो कोई पाठ्यक्रम में था ही नहीं। वह, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है? इसकी तो गुरु ने कभी बात नहीं की। वेद जाने, इतिहास जाना, पुराण जाना, व्याकरण, भाषा, गणित, भूगोल--जो-जो था, सब जानकर आ रहा हूं। यह तो बात ही कभी नहीं उठी इतने वर्षों में--उस एक को जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है?
तो उद्दालक ने कहा, तो फिर तू वापिस जा बेटे। क्योंकि हमारे घर में नाम के ही ब्राह्मण नहीं होते रहे। हमारे घर में सच के ब्राह्मण होते रहे हैं, नाममात्र के नहीं। ब्रह्म को जानकर हमने ब्राह्मण होने का रस लिया है। ब्राह्मण घर में पैदा होकर हम ब्राह्मण नहीं रहे हैं। हमने ब्रह्म को चखा है। तू जा। तू उस एक की खोज कर।
तो एक तो ज्ञान है, जो बाहर से मिल जाता। तुम उसे इकट्ठा कर लेते हो। जो बाहर से मिलता है, बाहर ही रहेगा। जो बाहर का है, बाहर का है। वह कभी भीतर का न बनेगा। वह कभी तुम्हारे अंतश्चैतन्य को जगायेगा नहीं। वह तुम्हारे अंतर्गृह की ज्योति न बनेगा। उधार है, उधार ही रहेगा। बासा है, बासा ही रहेगा। इकट्ठा कर लिया है उच्छिष्ट, लेकिन तुमने स्वयं नहीं जाना है। यह जो स्वयं को जानना है, एक को जानना है, वह जो एक भीतर छिपा है उसको जानना है। उसके जानने से ही सब जान लिया जाता है।
लेकिन हर बच्चा जायेगा स्कूल, कालेज, युनिवर्सिटी, खूब ज्ञान इकट्ठा करेगा, उपाधियां इकट्ठी करेगा। और सब उपाधियां अंततः उपाधि ही सिद्ध होती हैं, व्याधि ही सिद्ध होती हैं। लेकिन इकट्ठी करेगा। यह तो भटकेगा अभी।
ज्ञानी का बालवत होना किसी और अर्थ में है। वह सब जानकर अब इस नतीजे पर पहुंचा है कि इस जानने से कुछ भी नहीं जाना जाता। जानकर सब उसने ज्ञान को कूड़े-करकट की तरह कचरेघर में फेंक दिया है। अब वह फिर अबोध हो गया, फिर बालवत हो गया। घूम आया सब संसार में, पाया कुछ भी नहीं। हाथ खाली के खाली रहे।
यह जानकर अब उसने जानने में ही रस छोड़ दिया है। अब तो वह कहता है, जानने से क्या होगा? अब तो हम उसी को जान लें जो सबको जानता है। अब तो हम ज्ञाता को जान लें; ज्ञान से क्या होगा? दृश्य में बहुत भटके, अब हम द्रष्टा को जान लें। यह जो भीतर छिपा सबका जाननेवाला है, इसको ही पहचान लें।
बालवत--एक बात।
दूसरी बात: बच्चे में एक खूबी है कि जो भी घटता वह क्षण के पार नहीं जाता। तुमने बच्चे को डांट दिया, वह नाराज हो गया, आंखें उसकी लाल हो गईं, पैर पटकने लगा, क्रोध से भर गया। तुमसे कहा, अब सदा के लिए तुमसे दुश्मनी हो गई। अब कभी तुम्हारा चेहरा न देखेंगे। और घड़ी भर बाद बाहर घूमकर आया, सब भूल-भाल गया, तुम्हारी गोद में बैठ गया।
उसमें जो भी होता वह क्षण के लिए है। रुकता नहीं, बह जाता है। पकड़कर नहीं रह जाता। गांठ नहीं बनती है बच्चे में, तुममें गांठ बंध जाती है। किसी ने अपमान कर दिया, गांठ बंध गई। अब यह हो सकता है, बीस साल पहले अपमान किया था, गांठ अभी भी बंधी है। पचास साल पहले किसी ने गाली दी थी, गांठ अभी भी बंधी है। गाली देनेवाला जा चुका, गांठ रह गई।
और ऐसी गांठ पर गांठ बंधती जाती है। और तुम बड़े गठीले हो जाते हो, बड़े जटिल हो जाते हो। बच्चा सरल है, उस पर गांठ नहीं बंधती। बच्चा पानी की तरह है।
ऐसे समझो तुम पानी पर एक लकीर खींचो, तुम खींच भी नहीं पाते, मिट गई। रेत पर लकीर खींचो, थोड़ी देर टिकती है। हवा का झोंका आयेगा तब मिटेगी। या कोई इस पर चलेगा तब मिटेगी। पत्थर पर लकीर खींचो, फिर हवा के झोंकों से भी न मिटेगी, सदियों तक रहेगी।
छोटा बच्चा पानी जैसा है। पानी जैसा सरल, तरल। खींची लकीर, खिंच भी न पाई कि मिट गई। कुछ बनता नहीं। खाली रह जाता है। आती हैं, जाती हैं लहरें, दाग नहीं छूटते। उसकी निर्दोषता, उसका कुंआरापन कायम रहता है। जिस दिन तुम्हारे मन में गांठ पड़ने लगती है, बस उसी दिन बचपन गया।
लोग मुझसे पूछते हैं, किस दिन बचपन गया? उस दिन बचपन गया जिस दिन गांठ पड़ने लगी। तुम पीछे लौटकर देखो। तुम याद करो कि तुम्हें सबसे आखिरी कौन-सी बात याद आती है अपने बचपन में। तो तुम जा सकोगे चार साल की उम्र तक; या बहुत गये तो तीन साल की उम्र तक। जहां तुम्हें स्मृति की यात्रा में अंतिम पड़ाव आ जाये कि इसके बाद कुछ याद नहीं आती, समझना कि उसी दिन गांठ पड़ी। गांठ की याद आती है और किसी चीज की याद आती ही नहीं। इसलिए तीन-चार साल की उम्र तक याद नहीं बनती। क्योंकि गांठ ही नहीं बनती तो याद कैसे बनेगी?
याद बनती है तब, जब तुम गांठों को सम्हालकर रखने लगे। किसी ने गाली दी और तुमने इसको संपत्ति सम्हालकर रख लिया कि बदला लेकर रहेंगे। अब यह बात कभी मिटेगी नहीं। पानी न रहे तुम, अब तुम जम गये। अब तुम्हारे ऊपर रेखायें खिंचने लगीं। अब तुम्हारा कुंआरापन नष्ट हुआ। अब तुम कुंआरे न रहे। अब तुम्हारी कोमलता गई, तुम्हारी तरलता गई। अब तुम बच्चे न रहे।
ज्ञानी फिर बालवत हो जाता, फिर पानी जैसा हो जाता। तुम गाली दे गये, बात आई-गई, खतम हो गई।
बुद्ध के ऊपर एक आदमी आकर थूक गया। तो उन्होंने अपनी चादर से अपना मुंह पोंछ लिया। और मुंह पोंछकर उस आदमी से कहा, और कुछ कहना है भाई? जैसे उसने कुछ कहा हो! उसने थूका है। आनंद तो बड़ा नाराज हो गया। आनंद है बुद्ध का शिष्य। उसने तो कहा कि प्रभु मुझे आज्ञा दें तो इसकी गर्दन तोड़ दूं। पुराना क्षत्रिय! संन्यासी हुए भी आज उसको बीस वर्ष हो गये लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है, गांठें आसानी से थोड़े ही छूटती हैं। उसकी भुजायें फड़क उठीं। उसने कहा कि हद हो गई। यह आदमी आपके ऊपर थूके और हम बैठे देख रहे हैं। आप जरा आज्ञा दे दें। आपका संकोच हो रहा है, इसकी गर्दन तोड़ दूं।
बुद्ध ने कहा, इस आदमी ने थूका उससे मुझे हैरानी नहीं होती, लेकिन तेरी बात से मुझे बड़ी हैरानी होती है। आनंद, बीस साल तुझे हुए हो गये मेरे पास, तेरी पुरानी आदतें न गईं? और मैं यह कह रहा हूं कि इस आदमी ने कुछ कहना चाहा है। कई बार ऐसा हो जाता है कि कहने को शब्द नहीं मिलते तो इसने थूककर कहा है। यह कुछ कहना चाहता था। भाषा में बहुत कुशल न होगा, गाली-गलौज देना ठीक से आता न होगा या गाली जो आती होंगी उनसे काम न चलताहोगा। इसकी मजबूरी तो समझ। यह कुछ कहना चाहता था।
कई बार ऐसा होता है, तुम किसी को गले लगाते हो, क्योंकि तुम कुछ कहना चाहते थे, जो शब्दों में नहीं आता था। तुम किसी का हाथ लेकर दबाते हो; तुम कुछ कहना चाहते थे जो शब्दों में नहीं आता, हाथ दबाकर कहते हो। तुम किसी के गले में फूल की माला डाल देते हो; कुछ कहना चाहते थे, नहीं कहा जा पाता तो फूल से कहते हो। कभी कुछ कहना चाहते हो, आंख आंसुओं से नम हो जाती है। कहना चाहते थे, नहीं कह पाये, आंख आंसुओं से कहती है। यह आदमी कुछ कहना चाहता था। कोई कांटा इसके भीतर गड़ रहा है। थूककर इसने फेंक लिया, चलो यह निर्भार हुआ।
वह आदमी खड़ा ये सब बातें सुन रहा है। वह तो बड़ा मुश्किल में पड़ गया। वह तो वहां से भागा घर। वह तो चादर ओढ़कर सो रहा। उसको तो भारी पश्चात्ताप होने लगा, वह तो रोने लगा। वह दूसरे दिन क्षमा मांगने आया। वह बुद्ध के चरणों पर गिर पड़ा। उसने कहा, मुझे क्षमा कर दें।
बुद्ध ने कहा, पागल! क्षमा कौन करे? जिसको तूने गाली दी थी वह अब है कहां? चौबीस घंटे में गंगा बहुत बह गई। जिस गंगा को तू गाली दे गया था वह गंगा अब है कहां? तूने मुझे गाली दी थी, चौबीस घंटे हो गये। बात आई-गई हो गई। पानी पर खिंची लकीरें टिकती तो नहीं। अब तू क्षमा मांगने किससे आया है? अब मैं तुझे क्षमा कैसे करूं? मैंने कोई गांठ नहीं बांधी। बांधता तो खोलता। अब मैं क्या खोलूं? मैं तुझसे इतना ही कह सकता हूं, तू भी अब यह गांठ मत बांध। बात आई-गई हो गई। आया हवा का झोंका, चला गया। अब तू पश्चात्ताप भी मत कर।
यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है बुद्ध ने कही: अब तू पश्चात्ताप भी मत कर।
मेरे पास लोग आते हैं। कोई कहता है, हम क्रोध करते हैं फिर पश्चात्ताप करते हैं। लेकिन फिर क्रोध हो जाता है, फिर पश्चात्ताप करते हैं, फिर क्रोध हो जाता है। हम क्या करें? मैं उनसे कहता हूं, तुमने क्रोध छोड़ने की जीवन भर कोशिश की। अब कृपा करके इतना करो, पश्चात्ताप छोड़ दो। वे कहते हैं, इससे क्या लाभ होगा? पश्चात्ताप कर-करके क्रोध नहीं छूटा और आप हमें और उल्टी शिक्षा दे रहे हैं--पश्चात्ताप छोड़ दो। मैं उनसे कहता हूं, तुम कुछ तो छोड़ो। पश्चात्ताप छोड़ो; क्रोध तो छूटता नहीं। एक उपाय करके देखो। क्योंकि पश्चात्ताप ही हो सकता है, क्रोध को बनाये रखने में ईंधन का काम कर रहा है।
तुमने किसी को गाली दी, क्रोध हो गया। घर आये, सोचा यह तो बड़ी बुरी बात हो गई। तुम्हारे अहंकार की प्रतिमा खंडित हुई। तुम सोचते हो, तुम बड़े सज्जन, संतपुरुष! तुमसे गाली निकली? यह होना ही नहीं था। अब तुम पश्चात्ताप करके लीपापोती कर रहे हो। वह जो गाली ने तुम्हारी प्रतिमा पर काले दाग फेंक दिये, उनको धो रहे हो पश्चात्ताप करके कि मैं तो भला आदमी हूं। हो गया, मेरे बावजूद हो गया। करना नहीं चाहता था, हो गया। परिस्थिति ऐसी आ गई कि हो गया। चूक हो गई लेकिन चूक करने की कोई मंशा न थी। देखो पश्चात्ताप कर रहा हूं, अब और क्या करूं? पश्चात्ताप करके तुमने फिर पुताई कर ली। फिर तुम उसी जगह पर पहुंच गये जहां तुम क्रोध करने के पहले थे। अब तुम फिर क्रोध करने के लिए तैयार हो गये। अब फिर तुम सज्जन, साधुपुरुष हो गये।
मैं तुमसे कहता हूं, कम से कम पश्चात्ताप न करो। इतनी गांठ क्या बांधनी! हो गया सो हो गया। और तुम चकित होओगे, अगर तुम पश्चात्ताप छोड़ दो तो दुबारा क्रोध न कर सकोगे। क्योंकि पश्चात्ताप अगर छोड़ दो तो तुम दुबारा संत और साधुपुरुष न हो सकोगे। तुम जानोगे मैं बुरा आदमी हूं, क्रोध मुझसे होता है।
यह बड़ा भारी अनुभव होगा। तुम धोखा न दे सकोगे अपने को। तुम जाकर अपने मित्रों को कह दोगे कि भाई, मैं बुरा आदमी हूं, कभी-कभी गाली भी देता हूं--बावजूद नहीं, मुझसे ही होती है; निकलती है। क्षमा क्या मांगूं? आदमी बुरा हूं। तुम सोच-समझकर ही मुझसे संबंध बनाओ। तुम जाकर घोषणा कर दोगे वृहत संसार में कि मैं बुरा आदमी हूं, मुझसे जरा सावधान रहो। दोस्ती मत बनाना, कभी न कभी बुरा करूंगा। काटूंगा। काटना मेरी आदत है।
अगर तुम ऐसी घोषणा कर सको तो देखते हो कैसी क्रांति घटित न हो जाये! तुम्हारा अहंकार तुमने खंडित कर दिया। क्रोध तो अहंकार से उठता है। जितना तुम्हारा अहंकार चला जाये उतना ही क्रोध नहीं उठता। और पश्चात्ताप अहंकार को मजबूत करता है। इसलिए पश्चात्ताप से कभी किसी का क्रोध नहीं जाता।
बुद्ध ने उस आदमी को कहा, तू पश्चात्ताप छोड़। जैसा मैंने छोड़ दिया, तू भी छोड़। न मैंने गांठ बांधी, न तू बांध। जो हुआ, हुआ। अब क्या लेना-देना? अतीत तो जा चुका, अब उसे क्या खींचना! स्नान कर ले! यह धूल-धवांस धो डाल। राह की यह धूल अब ढोनी ठीक नहीं।
अगर तुम समझो तो ध्यान का यही अर्थ होता है: स्नान। रोज-रोज ध्यान कर लो, अर्थात रोज-रोज स्नान कर लो ताकि जो धूल जम गई है वह बह जाये। जैसे शरीर पर जमी धूल स्नान से बह जाती है ऐेसे मन पर जमी धूल ध्यान से बह जाती है। तुम फिर ताजे हो गये, फिर बालवत हो गये।
तो बच्चा निर्दोष है। ज्ञानी निर्दोष है।
‘जो मुनि सब क्रियाओं में निष्काम और बालवत व्यवहार करता है, उस शुद्ध चित्त के किए हुए कर्म भी उसे लिप्त नहीं करते हैं।’
फिर कर्म भी करता है, लेकिन कर्ता तो रहा नहीं इसलिए किसी कर्म से कोई लेप नहीं लगता। किसी कर्म के कारण लिप्त नहीं होता। यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है।
तुमने शब्द सुना है, कर्मबंध। लेकिन अगर ठीक से समझो तो वह शब्द ठीक नहीं है। क्योंकि कर्म से कोई बंध नहीं होता, बंध होता है कामना से। कर्म से बंध नहीं होता। अन्यथा कृष्ण अर्जुन से न कहते कि तू उतर युद्ध में, कर कर्म। नहीं कहते, अगर कर्म से बंध होता। नहीं, काम से बंध होता। तो कहा, फलाकांक्षा छोड़ दे फिर उतर। तूने फलाकांक्षा छोड़ दी तो तू उतरा ही नहीं, परमात्मा ही उतरा।
और वही अष्टावक्र कहते हैं। और भी गहराई से कहते हैं: सर्वारंभेषु निष्कामो। हर काम के प्रारंभ में कामना न हो इतना ध्यान रहे। कर्म चलने दो। कर्म तो जीवन का स्वभाव है। कर्म तो रुकेगा नहीं। कर्म की यात्रा होती रहे। लेकिन तुम? तुम भीतर से शून्य हो जाओ। तुम मत करो, होने दो।
कर्म से कोई नहीं बंधता, कामना में बंधन है। इसलिए कर्मबंध से ज्यादा ठीक शब्द है, कामबंध।
बुद्ध भी कर्म करते हैं ज्ञानी हो जाने के बाद; चालीस वर्ष तक कर्म किया। महावीर भी कर्म करते हैं ज्ञानी हो जाने के बाद, कृष्ण भी करते हैं, मोहम्मद भी करते हैं, जीसस भी करते हैं। कर्म नहीं रुकता। हां, कर्म का गुण बदल जाता है। अब कर्ता नहीं रहा पीछे।
‘वही आत्मज्ञानी धन्य है जो मन का निस्तरण कर गया है और जो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सब भावों में एकरस है।’
स एव धन्य आत्मज्ञः सर्वभावेषु यः समः।
पश्यन् श्रृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्निस्तर्षमानसः।।
निस्तर्षमानसः--जो मन के पार हो गया है वही धन्य है। जो निस्तरण कर गया है।
हम तो शरीर से भी पार नहीं होते। भूख लगती है तो हम कहते हैं, मुझे भूख लगी है। तुम भलीभांति जानते हो कि भूख शरीर को लगी है, तुम्हें नहीं लगी। तुम तो जाननेवाले हो, जो जान रहा है कि शरीर को भूख लगी है। सिर में दर्द होता है, तुम कहते हो मुझे पीड़ा हो रही है। तुम भलीभांति जानते हो, पीड़ा तुम्हें हो नहीं सकती। तुम तो जाननेवाले हो, पीड़ा तो शरीर को हो रही है। किसी ने गाली दी, क्षुब्ध हुए। क्षोभ तो मन में होता है, तुम्हें नहीं होता। तुम तो जाननेवाले हो, मन के पीछे खड़े। साक्षी हो; जो देख रहा है कि मन क्षुब्ध हुआ। किसी ने गाली का पत्थर फेंका, मन के सागर में लहरें उठ गईं। मन की झील तरंगित हो गई। तुम तो देख रहे। जैसे किनारे पर बैठा कोई देखता हो कि किसी ने पत्थर फेंका झील में, और झील में लहरें उठ गईं। ऐसा तुम पीछे बैठे किनारे पर देख रहे; किसी ने गाली फेंकी और मन में तरंगें उठ गईं।
तुम मन नहीं हो। न तुम देह, न तुम मन। तुम दोनों के पार हो--कुछ अपरिभाष्य। लेकिन एक बात सुनिश्चित है, तुम जागृति हो, बोध हो, होश हो। इस बोध को पा लेने से ही तो किसी को हम बुद्धपुरुष कहते हैं। इस साक्षीभाव को उपलब्ध हो जाने का ही नाम निस्तरण है।
निस्तर्षमानसः।
‘वही आत्मज्ञानी धन्य है जो मन का निस्तरण कर गया।’
जो मन से तैरकर आगे निकल गया या मन के पीछे निकल गया। मन से पार हो गया। मन की धार में जो नहीं खड़ा है वही ज्ञानी धन्य है।
‘ऐसा ज्ञानी देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सब भावों में एकरस है।’
सुख आये, दुख आये, जो मन के पार हो गया है उसे न सुख आता न दुख आता। दोनों मन में घटते हैं। न सुख से सुखी होता, न दुख से दुखी होता। कोई फूल फेंके कि गालियां बरसाये, सफलता मिले कि विफलता, कांटे चुभें कि फूलों की सेज कोई बिछाये, ज्ञानी दोनों अवस्थाओं में समरस।
एक बुलबुल का जला कल आशियाना जब चमन में
फूल मुस्काते रहे छलका न पानी तक नयन में
सब मगन अपने भजन में था किसी को दुख न कोई
सिर्फ कुछ तिनके पड़े सिर धुन रहे थे उस हवन में
हंस पड़ा मैं देख यह तो एक झरता पात बोला
हो मुखर या मूक, हाहाकार सबका है बराबर
फूल पर हंसकर अटक तो शूल को रोकर झटक मत
ओ पथिक, तुझ पर यहां अधिकार सबका है बराबर
है अदा यह फूल की छूकर उंगलियां रूठ जाना
स्नेह है यह शूल का चुभ उम्र छालों की बढ़ाना
मुश्किलें कहते जिन्हें हम राह की आशीष हैं वे
और ठोकर नाम है बेहोश पग को होश आना
एक ही केवल नहीं है, प्यार के रिश्ते हजारों
इसलिए हर अश्रु को उपहार सबका है बराबर
फूल पर हंसकर अटक तो शूल को रोकर झटक मत
ओ पथिक, तुझ पर यहां अधिकार सबका है बराबर
सुख है, दुख है। जीवन है, मृत्यु है। मित्र हैं, शत्रु हैं। दिन है, रात है। सबका अधिकार बराबर। न तुम मांगो सुख, न तुम मांगो कि दुख न हो। तुम मांगो ही मत। जो आ जाये, तुम समरस साक्षी रहो।
धन्य है वही दशा जो सब भावों में एकरस है; जिसे कुछ भी कंपित नहीं करता; जो निष्कंप है; जो अडोल अपने केंद्र पर थिर है।
इस शब्द को याद रखना: निस्तर्षमानसः। मन के पार जाना, उन्मन होना। जिसको झेन फकीर नो माइंड कहते हैं।
एक ऐसी दशा अपने भीतर खोज लेनी है जहां कुछ भी स्पर्श नहीं करता। और वैसी दशा तुम्हारे भीतर छिपी पड़ी है। वही तुम्हारी आत्मा। और जब तक हम उसे न जान लें तो हमने उस एक को नहीं जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। उस एक को जानने से फिर द्वंद्व मिट जाता है। फिर दो के बीच चुनाव नहीं रह जाता, अचुनाव पैदा होता है। उस अचुनाव में ही आनंद है, सच्चिदानंद है।
जनक के जीवन में एक उल्लेख है। जनक रहते तो राजमहल में थे, बड़े ठाठ-बाट से। सम्राट थे और साक्षी भी। अनूठा जोड़ था। सोने में सुगंध थी। बुद्ध साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं। महावीर साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं, सरल बात है। सब छोड़कर साक्षी हैं। जनक का साक्षी होना बड़ा महत्वपूर्ण है। सब है और साक्षी हैं।
एक गुरु ने अपने शिष्य को कहा कि तू वर्षों से सिर धुन रहा है और तुझे कुछ समझ नहीं आती। अब तू मेरे बस के बाहर है। तू जा, जनक के पास चला जा। उसने कहा कि आप जैसे महाज्ञानी के पास कुछ न हुआ तो यह जनक जैसे अज्ञानी के पास क्या होगा? जो अभी महलों में रहता, वेश्याओं के नृत्य देखता; और मैंने तो सुना है कि शराब इत्यादि भी पीता है। आप मुझे कहां भेजते हैं? लेकिन गुरु ने कहा, तू जा!
गया शिष्य। बेमन से गया। न जाना था तो गया, क्योंकि गुरु की आज्ञा थी तो आज्ञावश गया। था तो पक्का कि वहां क्या मिलेगा। मन में तो उसके निंदा थी। मन में तो वह सोचता था, उससे ज्यादा तो मैं ही जानता हूं। और जब वह पहुंचा तो संयोग की बात, जनक बैठे थे, वेश्यायें नृत्य कर रही थीं, दरबारी शराब ढाल रहे थे। वह तो बड़ा ही नाराज हो गया। उसने जनक को कहा, महाराज, मेरे गुरु ने भेजा है इसलिए आ गया हूं। भूल हो गई है। क्यों उन्होंने भेजा है, किस पाप का मुझे दंड दिया है यह भी मैं नहीं जानता। लेकिन अब आ गया हूं तो आपसे यह पूछना है कि यह अफवाह आपने किस भांति उड़ा दी है कि आप ज्ञान को उपलब्ध हो गये हैं? यह क्या हो रहा है यहां? यह राग-रंग चल रहा है। इतना बड़ा साम्राज्य, यह महल, यह धन-दौलत, यह सारी व्यवस्था, इस सबके बीच में आप बैठे हैं तो ज्ञान को उपलब्ध कैसे हो सकते हैं? त्यागी ही ज्ञान को उपलब्ध होते हैं।
जनक ने कहा, तुम जरा बेवक्त आ गये। यह कोई सत्संग का समय नहीं है। तुम एक काम करो, मैं अभी उलझा हूं। तुम यह दीया ले लो। पास में रखे एक दीये को दे दिया और कहा कि तुम पूरे महल का चक्कर लगा आओ। एक-एक कमरे में हो आना। मगर एक बात खयाल रखना, इस महल की एक खूबी है; अगर दीया बुझ गया तो फिर लौट न सकोगे, भटक जाओगे। बड़ा विशाल महल था। तो दीया न बुझे इसका खयाल रखना। सब महल को देख आओ। तुम जब तक लौटोगे तब तक मैं फुरसत में हो जाऊंगा, फिर सत्संग के लिए बैठेंगे।
वह गया युवक उस दीये को लेकर। उसकी जान बड़ी मुसीबत में फंसी। महलों में कभी आया भी नहीं था। वैसे ही यह महल बड़ा तिलिस्मी, इसकी खबरें उसने सुनी थीं कि इसमें लोग खो जाते हैं; और एक झंझट। और यह दीया अगर बुझ जाये तो जान पर आ बने। ऐसे ही संसार में भटके हैं, और संसार के भीतर यह और एक झंझट खड़ी हो गई। अभी संसार से ही नहीं छूटे थे और एक और मुसीबत आ गई।
लेकिन अब जनक ने कहा है और गुरु ने भेजा है तो वह दीये को लेकर गया बड़ा डरता-डरता। महल बड़ा सुंदर था; अति सुंदर था। महल में सुंदर चित्र थे, सुंदर मूर्तियां थीं, सुंदर कालीन थे, लेकिन उसे कुछ दिखाई न पड़ता। वह तो एक ही चीज देख रहा है कि दीया न बुझ जाये। वह दीये को सम्हाले हुए है। और सारे महल का चक्कर लगाकर जब आया तब निश्चिंत हुआ। दीया रखकर उसने कहा कि महाराज, बचे। जान बची तो लाखों पाये। बुद्धू लौटकर घर को आये। यह तो एक जान पर ऐसी मुसीबत हो गई, हम फकीर आदमी और यह महल जरूर उपद्रव है, मगर दीये ने बचाया।
सम्राट ने कहा, छोड़ो दीये की बात; तुम यह बताओ, कैसा लगा? उसने कहा, किसको फुरसत थी देखने की? जान पर फंसी थी। जान पर आ गई थी। दीया देखें कि महल देखें? कुछ देखा नहीं। सम्राट ने कहा, ऐसा करो, अब आ गये हो तो रात रुक जाओ। सुबह सत्संग कर लेंगे। तुम भी थके हो और यह महल का चक्कर भी थका दिया है। और मैं भी थक गया हूं।
बड़े सुंदर भवन में बड़ी बहुमूल्य शय्या पर उसे सुलाया। और जाते वक्त सम्राट कह गया कि ऊपर जरा खयाल रखना। ऊपर एक तलवार लटकी है। और पतले धागे में बंधी है--शायद कच्चे धागे में बंधी हो। जरा इसका खयाल रखना कि यह कहीं गिर न जाये। और इस तलवार की यह खूबी है कि तुम्हारी नींद लगी कि यह गिरी।
उसने कहा, क्यों फंसा रहे हो मुझको झंझट में? दिन भर का थका-मांदा जंगल से चलकर आया, यह महल का उपद्रव और अब यह तलवार! सम्राट ने कहा, यह हमारी यहां की व्यवस्था है। मेहमान आता है तो उसका सब तरह का स्वागत करना।
रात भर वह पड़ा रहा और तलवार देखता रहा। एक क्षण को पलक झपकने तक में घबड़ाये। कि कहीं तलवार भ्रांति से भी समझ ले कि सो गया और टपक पड़े तो जान गई। सुबह जब सम्राट ने पूछा तो वह तो आधा हो गया था सूखकर, कि कैसी रही रात? बिस्तर ठीक था?
उसने कहा, कहां की बातें कर रहे हो! कैसा बिस्तर? हम तो अपने झोपड़े में जहां जंगल में पड़े रहते थे वहीं सुखद था। ये तो बड़ी झंझटों की बातें हैं। रात एक दीया पकड़ा दिया कि अगर बुझ जाये तो खो जाओ। अब यह तलवार लटका दी। रात भर सो भी न सके, क्योंकि अगर यह झपकी आ जाये...उठ-उठ कर बैठ जाता था रात में। क्योंकि जरा ही डर लगे कि झपकी आ रही है कि तलवार टूट जाये। कच्चे धागे में लटकी है। गरीब आदमी हूं, कहां मुझे फंसा दिया! मुझे बाहर निकल जाने दो। मुझे कोई सत्संग नहीं करना।
सम्राट ने कहा, अब तुम आ ही गये हो तो भोजन तो करके जाओ। सत्संग भोजन के बाद होगा। लेकिन एक बात तुम्हें और बता दूं, कि तुम्हारे गुरु का संदेश आया है कि अगर सत्संग में तुम्हें सत्य का बोध न हो सके तो जान से हाथ धो बैठोगे। शाम को सूली लगवा देंगे। सत्संग में बोध होना ही चाहिए।
उसने कहा, यह क्या मामला है? अब सत्संग में बोध होना ही चाहिए यह भी कोई मजबूरी है? हो गया तो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ। यह मामला...।
तुम्हें राजाओं-महाराजाओं का हिसाब नहीं मालूम। तुम्हारे गुरु की आज्ञा है। हो गया बोध तो ठीक, नहीं हुआ बोध तो शाम को सूली लग जायेगी।
अब वह भोजन करने बैठा। बड़ा सुस्वादु भोजन है, सब है, मगर कहां स्वाद? अब यह घबड़ाहट कि तीस साल गुरु के पास रहे तब बोध नहीं हुआ, इसके पास एक सत्संग में बोध होगा कैसे? किसी तरह भोजन कर लिया। सम्राट ने पूछा, स्वाद कैसा--भोजन ठीक-ठाक? उसने कहा, आप छोड़ो। किसी तरह यहां से बचकर निकल जायें, बस इतनी ही प्रार्थना है। अब सत्संग हमें करना ही नहीं है।
सम्राट ने कहा, बस इतना ही सत्संग है कि जैसे रात तुम दीया लेकर घूमे और बुझने का डर था, तो महल का सुख न भोग पाये, ऐसा ही मैं जानता हूं कि यह दीया तो बुझेगा, यह जीवन का दीया बुझेगा; यह बुझने ही वाला है। रात दीये के बुझने से तुम भटक जाते। और यह जीवन का दीया तो बुझने ही वाला है। और फिर मौत के अंधकार में भटकन हो जाएगी। इसके पहले कि दीया बुझे, जीवन को समझ लेना जरूरी है। मैं हूं महल में, महल मुझमें नहीं है।
रात देखा, तलवार लटकी थी तो तुम सो न पाये। और तलवार प्रतिपल लटकी है। तुम पर ही लटकी नहीं, हरेक पर लटकी है। मौत हरेक पर लटकी है। और किसी भी दिन, कच्चा धागा है, किसी भी क्षण टूट सकता है। और मौत कभी भी घट सकती है। जहां मौत इतनी सुगमता से घट सकती है वहां कौन उलझेगा राग-रंग में? बैठता हूं राग-रंग में; उलझता नहीं हूं।
अब तुमने इतना सुंदर भोजन किया लेकिन तुम्हें स्वाद भी न आया। ऐसा ही मुझे भी। यह सब चल रहा है, लेकिन इसका कुछ स्वाद नहीं है। मैं अपने भीतर जागा हूं। मैं अपने भीतर के दीये को सम्हाले हूं। मैं मौत की तलवार को लटकी देख रहा हूं। फांसी होने को है। यह जीवन का पाठ अगर न सीखा, अगर इस सत्संग का लाभ न लिया तो मौत तो आने को है। मौत के पहले कुछ ऐसा पा लेना है जिसे मौत न छीन सके। कुछ ऐसा पा लेना है जो अमृत हो। इसलिए यहां हूं सब, लेकिन इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।
यह जो जनक ने कहा: महल में हूं महल मुझमें नहीं है; संसार में हूं, संसार मुझमें नहीं है, यह ज्ञानी का परम लक्षण है। वह कर्म करते हुए भी किसी बात में लिप्त नहीं होता। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, साक्षी होना। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, निस्तर्षमानसः। मन के पार हो जाना।
जैसे ही तुम मन के पार हुए, एकरस हुए। मन में अनेक रस हैं, मन के पार एकरस। क्योंकि मन अनेक है इसलिए अनेक रस हैं।
तुम्हारे भीतर एक मन थोड़े ही है, जैसा तुम सोचते हो। महावीर ने कहा है, मनुष्य बहुचित्तवान है। एक चित्त नहीं है मनुष्य के भीतर, बहुत चित्त हैं। क्षण-क्षण बदल रहे हैं चित्त। सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। चित्त तो बदलता ही रहता है। इतने चित्त हैं। आधुनिक मनोविज्ञान कहता है, मनुष्य पोलीसाइकिक है। वह ठीक महावीर का शब्द है। पोलीसाइकिक का अर्थ होता है, बहुचित्तवान। बहुत चित्त हैं।
गुरजिएफ कहता था, तुम भीड़ हो, एक नहीं। सुबह बड़े प्रसन्न थे, तब तुम्हारे पास एक चित्त था। फिर जरा-सी बात में खिन्न हो गये और तुम्हारे पास दूसरा चित्त हो गया। फिर कोई पत्र आ गया मित्र का, बड़े खुश हो गये। तीसरा चित्त हो गया। पत्र खोला, मित्र ने कुछ ऐसी बात लिख दी, फिर खिन्न हो गये; फिर दूसरा चित्त हो गया।
चित्त चौबीस घंटे बदल रहा है। तो चित्त के साथ एक रस तो कैसे उपलब्ध होगा? एक रस तो उसी के साथ हो सकता है, जो एक है। और एक तुम्हारे भीतर साक्षी है। उस एक को जानकर ही जीवन में एकरसता पैदा होती है। और एकरस आनंद का दूसरा नाम है।
‘सर्वदा आकाशवत निर्विकल्प ज्ञानी को कहां संसार है, कहां आभास है, कहां साध्य है, कहां साधन है?’
क्व संसारः क्व चाभासः क्व साध्यं क्व च साधनम् ।
आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्येव सर्वदा।।
वह जो अपने भीतर आकाश की तरह साक्षीभाव में निर्विकल्प होकर बैठ गया है उसके लिए फिर कोई संसार नहीं है। संसार है मन और चेतना का जोड़। संसार है साक्षी का मन के साथ तादात्म्य। जिसका मन के साथ तादात्म्य टूट गया उसके लिए फिर कोई संसार नहीं। संसार है भ्रांति मन की; मन के महलों में भटक जाना। वह दीया बुझ गया साक्षी का तो फिर मन के महल में तुम भटक जाओगे। दीया जलता रहे तो मन के महल में न भटक पाओगे।
इतनी-सी बात है। बस इतनी-सी ही बात है सार की, समस्त शास्त्रों में। फिर कहां साध्य है, कहां साधन है? जिसको साक्षी मिल गया उसके लिए फिर कोई साध्य नहीं, कोई साधन नहीं। न उसे कुछ विधि साधनी है, न कोई योग, जप-तप; न उसे कहीं जाना है, कोई मोक्ष, कोई स्वर्ग, कोई परमात्मा। न ही उसे कहीं जाना, न ही उसे कुछ करना। पहुंच गया।
साक्षी में पहुंच गये तो मुक्त हो गये। साक्षी में पहुंच गये तो पा लिया फलों का फल। भीतर ही जाना है। अपने में ही आना है।
मैंने सुना है कि किसी गांव में एक फकीर घूमा करता था। उसकी सफेद लंबी दाढ़ी थी और हाथ में एक मोटा डंडा। चीथड़ों में लिपटा उसका ढीला-ढीला और झुर्रियों से भरा बुढ़ापे का शरीर। अपने साथ एक गठरी लिए रहता था सदा। और गठरी पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख रखा था: ‘माया’। वह बार-बार उस गठरी को खोलता भी था। उसमें उसने बड़े जतन से रंगीन रद्दी कागज लपेटकर रख छोड़े थे। कहीं मिल जाते रास्ते पर तो कागजों को इकट्ठा कर लेता। अपनी माया की गठरी में रख लेता। जिस गली से निकलता उसमें रंगीन कागज दिखता तो बड़ी सावधानी से उठा लेता। सिकुड़नों पर हाथ फेरता, उनकी गड्डी बनाकर, जैसे कोई नोटों की गड्डी बनाता है, अपनी माया की गठरी में रख लेता।
उसकी गठरी रोज बड़ी होती जाती थी। बूढ़ा हो जा रहा था और गठरी बड़ी होती जाती थी। लोग उसे समझाते कि पागल, यह कचरा क्यों ढोता है? वह हंसता और कहता कि जो खुद पागल हैं वे दूसरों को पागल बता रहे हैं।
कभी-कभी किसी दरवाजे पर बैठ जाता और कागजों को दिखाकर कहता, ये मेरे प्राण हैं। ये खो जायें तो मैं एक क्षण जी न सकूंगा। ये खो जायें तो मेरा दिवाला निकल जाएगा। ये चोरी चले जायें तो मैं आत्महत्या कर लूंगा। कभी कहता ये मेरे रुपये हैं, यह मेरा धन है। इनसे मैं अपने गांव के गिरते हुए किले का पुनः निर्माण कराऊंगा। कभी अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरकर स्वाभिमान से कहता, उस किले पर हमारा झंडा फहरायेगा और मैं राजा बनूंगा। और कभी कहता कि इनको नोट ही मत समझो, इनकी ही मैं नावें बनाऊंगा। इन्हीं नावों में बैठकर उस पार जाऊंगा।
और लोग हंसते। और बच्चे हंसते और बूढ़े भी हंसते। और जब भी कोई जोर से हंसता तो वह कहता, चुप रहो। पागल हो और दूसरों को पागल समझते हो।
तभी गांव में एक ज्ञानी का आगमन हुआ। और उस ज्ञानी ने गांव के लोगों से कहा, इसको पागल मत समझो और इसकी हंसी मत उड़ाओ। इसकी पूजा करो नासमझो! क्योंकि यह जो गठरी ढो रहा है, तुम्हारे लिए ढो रहा है। ऐसे ही कागज की गठरियां तुम ढो रहे हो। यह तुम्हारी मूढ़ता को प्रगट करने के लिए इतना श्रम उठा रहा है। इसकी गठरी पर इसने ‘माया’ लिख रख छोड़ा है। कागज, कूड़ा-कचरा भरा है। तुम क्या लिए घूम रहे हो? तुम भी सोचते हो कि महल बनायेंगे, उस पर झंडा फहरायेंगे। नाव बनायेंगे, उस पार जायेंगे। सिकंदर बनेंगे कि नेपोलियन। सारे संसार को जीत लेंगे। बड़े किले बनायेंगे कि मौत भी प्रवेश न कर सकेगी।
और जब यह फकीर समझाने लगा लोगों को तो वह बूढ़ा भिखमंगा हंसने लगा और उसने कहा कि मत समझाओ। ये खाक समझेंगे! ये कुछ भी न समझेंगे। मैं वर्षों से समझाने की कोशिश कर रहा हूं। ये सुनते नहीं। ये मेरी गठरी देखते हैं, अपनी गठरी नहीं देखते। ये मेरे रंगीन कागजों को रंगीन कागज समझते हैं और जिन नोटों को इन्होंने तिजोड़ियों में भर रखा है उन्हें असली धन समझते हैं। मुझे कहते हैं पागल, खुद पागल हैं।
यह पृथ्वी बड़ा पागलखाना है। इसमें से जागो। इसमें से जागो, इसमें से न जागे तो बार-बार मौत आयेगी और बार-बार तुम वापिस इसी पागलखाने में फेंक दिये जाओगे। फिर-फिर जन्म! इसीलिए तो पूरब के मनीषी एक ही चिंतना करते रहे हैं सदियों से--आवागमन से कैसे छुटकारा हो? कैसे मिटे जन्म? कैसे मिटे मौत?
मिटने का एक ही उपाय है। तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा है जिसका न कभी जन्म हुआ और न कभी मृत्यु होती है। तुम्हारे भीतर अजन्मा और अमृतस्वरूप कुछ पड़ा है। वही तुम्हारा हीरा है; उसे खोज लो। वही तुम्हारा धन।
और बहुत दूर नहीं पड़ा है। जैसे शरीर के पीछे मन है, और ठीक मन के पीछे साक्षी है। इंच भर की दूरी नहीं है। जरा भीतर सरको। जरा-सा भीतर सरको, और तुम उसे पा लोगे जिसे पाने के लिए जन्मों से कोशिश कर रहे हो। लेकिन गलत स्थान पर खोज रहे हो इसलिए उपलब्ध नहीं कर पाते हो।
यह साक्षी आकाशवत है। जैसे आकाश की कोई सीमा नहीं, ऐसे ही साक्षी की कोई सीमा नहीं। और जैसे आकाश पर कभी बादल घिर जाते हैं तो आकाश खो जाता है, ऐसे ही साक्षी पर जब मन घिर जाता है--मन के बादल, विचार के बादल--तो साक्षी खो जाता है। लेकिन वस्तुतः खोता नहीं। जब वर्षा में घने बादल घिरे होते हैं तब भी आकाश खोता थोड़े ही, सिर्फ दिखाई नहीं पड़ता है। ओझल हो जाता है। आंख से ओझल हो जाता है। फिर बादल आते, चले जाते, आकाश फिर प्रगट हो जाता है।
जिसको तुम विचार कहते हो वे तुम्हारे चैतन्य के आकाश पर घिरे बादल हैं। उनसे तुम जरा अपने को अलग कर लो, निस्तरण कर लो अपना और तुम अचानक पाओगे, उसे पा लिया जिसे कभी खोया ही न था। उसे पा लिया जो खोया ही नहीं जा सकता। और वही पाने योग्य है, जो खोया नहीं जा सकता। जो खो जायेगा, जो खो सकता है, उसे पा-पा कर भी क्या करोगे? वह खो ही जायेगा। वह फिर-फिर खो जायेगा।
‘वही कर्मफल को त्यागनेवाला पूर्णानंदस्वरूप ज्ञानी जय को प्राप्त होता है जिसकी सहज समाधि अविच्छिन्न रूप में वर्तती है।’
स जयत्यर्थसंन्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः।
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते।।
समझो।
स जयति अर्थसंन्यासी...।
जिसने जीवन में से अर्थ की अपनी खोज छोड़ दी। जो कहता है अर्थ परमात्मा का, मेरा क्या? अंश का क्या कोई अर्थ होता है? अर्थ तो पूर्ण का होता है।
समझो, यह मेरा हाथ उठा तुम्हारे सामने। यह हाथ अगर मुझसे तोड़ लो तो भी हो सकता है इसी मुद्रा में हो, लेकिन तब इसमें कोई अर्थ न होगा। मुर्दा हाथ की कोई मुद्रा होती है? मैं अभी तुम्हें देख रहा हूं, मेरी आंख में झांको। मैं मर जाऊं, मेरे भीतर जो छिपा है वह विदा हो जाये, फिर भी यह आंख तुम्हारी तरफ इसी तरह देखती रहे, लेकिन इसमें फिर कुछ अर्थ न होगा। देखनेवाला न रहा तो आंख में क्या अर्थ होगा? हाथ उठानेवाला न रहा तो उठे हुए हाथ में क्या अर्थ होगा?
अर्थ पूर्ण में होता, अंश में नहीं होता। और हम सब इस विराट अस्तित्व के, पूर्ण परमात्मा के, परात्पर ब्रह्म के अंश हैं। हममें अर्थ नहीं हो सकता, अर्थ तो परमात्मा में है। जब तक तुम अपना अर्थ, निजी अथर्र् खोज रहे हो तब तक तुम पागल हो।
अंग्रेजी का शब्द इडियट बहुत अच्छा है। वह जिस मूल धातु से आता है उसका अर्थ होता है, जो अपना निजी अर्थ खोज रहा है। जो अपना व्यक्तिगत इडियम खोज रहा है वह इडियट। वही मूढ़ है जो अपना निजी अर्थ खोज रहा है। जो सोच रहा है कि मेरी कोई नियति है। मुझे कुछ खोजना है। मुझे कुछ सिद्ध करके बताना है।
वही समझदार है जिसने विराट के साथ अपनी नियति जोड़ दी। कोई लहर सागर की अपना लक्ष्य खोजने लगे तो पागल ही हो जायेगी न! लक्ष्य सागर का होगा, लहर का कैसे हो सकता है? फिर सागर का भी कैसे होगा, महासागर का होगा। फिर महासागर का भी कैसे होगा, अस्तित्व का होगा। अंततः तो अर्थ समग्र का होगा। व्यक्ति का कोई अर्थ नहीं होता, समष्टि का अर्थ होता है। अर्थ विराट का होता है।
और यह वचन बड़ा अदभुत है।
स जयत्यर्थसंन्यासी...।
जिसने अर्थ का त्याग कर दिया वही जीत गया। अर्थ के त्यागी को ही संन्यासी कहते हैं। जिसने कहा, अब मैं क्या खोजूं? मेरा क्या लेना-देना! बहूंगा तेरी धार में। ले चलेगा जहां, वहां चलूंगा। डुबा देगा तो डूबूंगा। उबारेगा तो उबरूंगा। अब तू समझ। अब तू जान। तेरी मर्जी हो जैसी। जब कहते हैं कि पत्ते भी उसकी मर्जी के बिना नहीं हिलते तो मैं क्यों हिलूं? हिलाये तो हिलूं, न हिलाये तो न हिलूं। जैसा नाच नचायेगा, नाचूंगा। ऐसा जिसने समग्ररूपेण छोड़ दिया परमात्मा पर, उसका नाम ही संन्यासी। अर्थसंन्यासी।
स जयति अर्थसंन्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः।
और जिसने इस तरह छोड़ दिया उसके जीवन में उस विग्रह का पदार्पण होता है, उस प्रसाद का पदार्पण होता है जहां स्वरस जन्मता है; जहां परम रस की धार बहती है।
तुम रोके खड़े हो। तुम बाधा हो। तुम झरने पर पड़े हुए पत्थर हो, हटो तो झरना बहे। तुम्हारे कारण झरना नहीं बह पा रहा है।
‘वही कर्मफल को त्यागनेवाला पूर्णानंदस्वरूप ज्ञानी जय को प्राप्त होता, जिसकी सहज समाधि अविच्छिन्न रूप में वर्तती है।’
और ध्यान रखना, समाधि तो तभी अविच्छिन्न रूप में वर्तेगी जब सहज हो। सहज का अर्थ, जब स्वाभाविक हो। स्वाभाविक का अर्थ, जब चेष्टा से निर्मित न हो, आयोजना न की जाये, रोपित न की जाये। वही समाधि, जो किसी प्रयास से उत्पन्न न हो, अनायास हो।
इस फर्क को समझना। यही पतंजलि और अष्टावक्र का भेद है। पतंजलि जिस समाधि की बात कर रहे वह चेष्टा से होगी। यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, तब समाधि। ऐसी लंबी यात्रा होगी। बड़ी योजना करनी पड़ेगी। बड़े प्रयास करने पड़ेंगे। सब तरह से अपने को साधना पड़ेगा, तब होगी। वह संकल्प का मार्ग है।
अष्टावक्र कहते हैं, समर्पण। छोड़ो भी। तुम क्या साधोगे यम-नियम? तुम कैसे प्रत्याहार साधोगे? श्वास तो अपनी नहीं, प्राणायाम क्या करोगे? ध्यान-धारणा क्या करोगे? तुम हो कौन? तुम हटो बीच से। यह अहंकार जाने दो। इसी अहंकार पर तुमने अब तक हीरे-जवाहरात लटकाये, अब यम-नियम लटकाना चाहते हो? इसी अहंकार से तुमने संसार जीता, अब इसी अहंकार से तुम परमात्मा को भी जीतना चाहते हो? छोड़ो यह सब। तुम सिर्फ इतना ही करो, एक ही कदम में छलांग लो। तुम कहो, अब जैसी तेरी मर्जी। अब जो विराट करायेगा, होगा।
ऐसे सरल भाव से जो समाधि पैदा होती है वही सहज समाधि। कबीर कहते हैं, साधो सहज समाधि भली। सहज समाधि का अर्थ होता है, तुम्हारी चेष्टा से नहीं, तुम्हारे बोध से जो आती है। जागरण से जो आती है। समझ मात्र से जो आ जाती है। जिसके लिए बड़े-बड़े उपाय, विधि-विधान नहीं करने पड़ते।
‘जिसकी सहज समाधि अविच्छिन्न रूप में वर्तती है वही अर्थसंन्यासी है, धन्यभागी है।’
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते।
अकृत्रिम। कई लोग हैं जो कृत्रिम समाधि साध लेते हैं। बैठ गये, उपवास कर लिया। अगर खूब उपवास किया तो शरीर क्षीण हो जाता है। जब शरीर क्षीण हो जाता तो विचार को ऊर्जा नहीं मिलती, विचार क्षीण हो जाता। उस निस्तेज अवस्था में विचार नहीं उठते। उसको तुम समाधि मत समझ लेना! वह तो एक तरह की आंतरिक दुर्बलता है, समाधि नहीं। धोखा है।
वह तो ऐसे ही समझो कि किसी आदमी को नपुंसक कर दिया और वह कहने लगा कि मैं ब्रह्मचारी हो गया। नपुंसकता ब्रह्मचर्य नहीं है। नपुंसकता तो सिर्फ अभाव है। ब्रह्मचर्य तो बड़ी भावदशा है, भावात्मक है।
समाधि दो तरह की हो सकती है। तुम उपवास करो खूब--इसलिए बहुत से पंथ उपवास करवाते हैं। उपवास करने से शरीर क्षीण होता है! और जब शरीर क्षीण होता तो मन को ऊर्जा नहीं मिलती। जब मन को ऊर्जा नहीं मिलती तो तुम्हें लगता है कि मन से मुक्त हो गये। मन पड़ा रहता है फन पटके। जैसे कि सांप बेहोश पड़ा हो, भूखा पड़ा हो। फिर भोजन करोगे, फिर मन का फन उठेगा। इस तरह से कुछ जबरदस्ती साधने से कुछ हल नहीं है। तुम्हें अगर ब्रह्मचर्य साधना है, लंबे उपवास करो।
अमरीका के एक विश्वविद्यालय में एक प्रयोग किया हार्वर्ड में। तीस विद्यार्थियों को उपवास पर रखा गया। सात दिन के बाद उनके पास प्लेब्वाय जैसी पत्रिकायें पड़ी रहें, वे देखें ही नहीं। नग्न स्त्रियां, सुंदर स्त्रियों के चित्र--वे बिलकुल न देखें। उनका रस ही जाता रहा। जब शरीर ही क्षीण होने लगा तो वासना को ऊर्जा कहां से मिले? दो सप्ताह बीतते-बीतते उनका बिलकुल रस न रहा। तीन सप्ताह बीतते-बीतते तो वे बिलकुल नीरस हो गये। उनसे कितना ही पूछा जाये कि स्त्रियों के संबंध में कुछ विचार? वे कहते, कुछ नहीं।
भोजन दिया चौथे सप्ताह के बाद। बस, भोजन के आते ही सारी ऊर्जा वापिस आ गई। वे जो फन मारकर पड़ गये थे विचार, फिर उठ आये। फिर वासना। फिर स्त्रियों के नग्न चित्रों में रस आने लगा। फिर बातचीत रसपूर्ण होने लगी।
इस प्रयोग ने बड़ी महत्वपूर्ण बात सिद्ध की: शरीर को शक्ति न मिले तो मन को शक्ति नहीं मिलती। शरीर से ही मन को शक्ति मिलती है। शक्तिशून्य हो जाने का नाम मुक्ति नहीं है। मुक्ति तो महाशक्ति में घटती है।
इसलिए सहज समाधि पर मेरा भी जोर है। खाते-पीते, सहज, स्वस्थ समाधि घटे तभी उसका कोई मूल्य है। जबरदस्ती घटा ली, वह कृत्रिम है; वे कागज के फूल हैं, असली फूल नहीं। उन पर भरोसा मत करना। वे काम नहीं आयेंगे।
‘इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन है? तत्वज्ञ महाशय भोग और मोक्ष दोनों में निराकांक्षी सदा और सर्वत्र रागरहित है।’
बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्वो महाशयः।
भोगमोक्षनिराकांक्षी सदा सर्वत्र नीरसः।।
अष्टावक्र इतना कहे और अब कहते हैं कि इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन? इसका मजा समझो। इतना कहे हैं, कहते जा रहे हैं, और कहते हैं कि इतना बहुत कहने से क्या प्रयोजन।
उसका कारण है। कितना ही कहो, कम ही रहता है। कितना ही कहो, जो कहना था, अनकहा ही रह जाता है। कितना ही गुनगुनाओ, जो गीत गाना था, गाया ही नहीं जा सकता। लाओत्सु ने कहा है, जो कहा जा सके वह सत्य नहीं। जो अनकहा रह जाये वही।
इतने दूर तक महागीता के ये अदभुत वचन कहने के बाद--और ऐसे वचन कभी नहीं कहे गये हैं--अष्टावक्र कहते हैं, इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन?
बहुनात्र किमुक्तेन।
बात छोटी है, बहुत कहने से क्या सार? संक्षिप्त में कही जा सकती है। इतनी-सी बात है:
ज्ञाततत्वा महाशयः भोगमोक्षनिराकांक्षी सदा सर्वत्र नीरसः।
जो समझ सके: तत्वज्ञ, महाशय; जिसका आशय विराट हो और जो तत्व को समझ सके--तो जरा-सी बात है। भोग और मोक्ष, दोनों में जो निष्कांक्षी हो गया वही पा लिया सब। वही संन्यासी है।
तत्वज्ञ कहते हैं उसे, जो अपने विचारों को एक तरफ रखकर समझने की कोशिश करे। तत्वज्ञ बहुत मुश्किल हैं खोजना और महाशय बहुत मुश्किल हैं।
अब यहां तुम बैठे हो; इसमें महाशय बहुत मुश्किल है खोजना। कोई हिंदू है, वह महाशय न रहा। उसका आशय क्षुद्र हो गया। कोई मुसलमान है, वह महाशय न रहा। उसका आशय क्षुद्र हो गया। आशय पर सीमा बंध गई तो महाशय न रहे, क्षुद्राशय हो गये।
संप्रदाय क्षुद्र बना देता है। किसी शास्त्र में मान्यता है, क्षुद्र हो गये। महाशय का अर्थ है: जिसको न कोई शास्त्र बांधता, न कोई संप्रदाय बांधता, न कोई धारणा बांधती। जो मुक्त है। जो कहता है ये सब किनारे रखकर सुनने को राजी हूं। तब अष्टावक्र कहते हैं, श्रवणमात्रेण। फिर तो सुनने से ही हो जायेगा। कुछ करना न पड़ेगा। अगर तुम महाशय होने की हिम्मत रखो--तुम्हारे पक्षपात, तुम्हारी जड़ हो गई धारणायें, तुम्हारे संस्कार एक तरफ रख दो तो तुम महाशय हो गये; आकाश जैसे हो गये। विचार हटा दिये, बादल हट गये, खुला आकाश प्रगट हो गया।
उस खुले आकाश में किसी सदगुरु की जरा-सी चोट तुम्हें सदा के लिए जगा दे। लेकिन तुम विचारों की पर्तों से घिरे होकर सुनते हो। चोट तुम तक पहुंचती ही नहीं। या पहुंचती है तो कुछ का कुछ अर्थ हो जाता है; अनर्थ हो जाता है। यहां कहा कुछ जाता है, तुम समझ कुछ लेते हो।
मैंने सुना है, महाराष्ट्र के एक अपूर्व संत हुए एकनाथ। एक आदमी उनके पास बार-बार आता था। खोजी था। कहता कि प्रभु, कुछ ज्ञान दें। हजार बार उसे समझा चुके थे मगर वह कुछ उसकी समझ में न आता था। वह फिर आ जाता था कि प्रभु, कुछ ज्ञान दें। जीवन निष्पाप कैसे हो? एक दिन सुबह-सुबह आया, एकनाथ से कहने लगा, आप कुछ तो समझायें कि जीवन निष्पाप कैसे हो? उन्होंने कहा, मैं तुझे रोज समझाता, तेरी समझ में नहीं आता तो मैं क्या करूं? वह आदमी कहने लगा कि आप कैसे निष्पाप हुए यह बता दो, तो उसी रास्ते मैं भी चलूं।
एकनाथ ने कहा कि ठहर, अचानक मेरी नजर तेरे हाथ पर पड़ गई, तेरी उम्र की रेखा कट गई है। यह बात तो पीछे हो लेगी। उसकी तो कुछ जल्दी भी नहीं है। यह तो तू जनम भर से कर रहा है। मगर यह मैं तुझे बता दूं, कहीं भूल न जाऊं, सात दिन में तू मर जायेगा। तेरी उम्र की रेखा कट गई है।
अब जब एकनाथ किसी को कहें कि सात दिन में तू मर जायेगा तो अविश्वास करना तो मुश्किल है। और सब बातों पर चाहे अविश्वास कर लिया हो, मगर इस पर तो कौन अविश्वास करे? एकनाथ जैसा निस्पृह व्यक्ति कहेगा तो ठीक ही कहेगा। वह तो आदमी घबड़ा गया। उसके तो हाथ-पैर कंप गये। वह तो उठकर खड़ा हो गया। एकनाथ ने कहा, अरे कहां चले? बैठो। तुम्हारा प्रश्न तो अभी उत्तर दिया ही नहीं कि मैं कैसे निष्पाप हुआ। उसने कहा, महाराज, अब तुम समझो निष्पाप कैसे हुए। इधर मौत आ रही है, सत्संग की किसको पड़ी है? अब कभी फुरसत मिली तो आयेंगे फिर। एकनाथ ने हाथ पकड़ा कि भागे कहां जाते हो? वह बोला कि छोड़ो भी जी! इधर बाल-बच्चों को देखूं, इंतजाम करूं। सात दिन! कहते हो कि सात दिन में मर जाऊंगा।
वह तो भागा। अभी आया था तो अकड़ से भरा था। उसके पैर की चाल देखने जैसी थी। अब गया तो कंपने लगा। उन्हीं सीढ़ियों से उतरा मंदिर की लेकिन सहारा लेकर उतरा। घर गया तो बिस्तर से लग गया। घर के लोगों ने पूछा, हुआ क्या? समझाया-बुझाया कि ऐेसे कहीं कोई मौत आती है? लेकिन उसने कहा कि वह पक्का है। मौत आ रही है। ऐसा इंतजाम कर लो, ऐसा इंतजाम कर लो, सब करके वह अपने बिस्तर पर पड़ा रहा। खाना-पीना छूट गया। मरते आदमी को क्या खाना-पीना! तीन दिन में तो वह बिलकुल निढाल होकर पड़ गया। मौत निश्चित आने लगी। घर भर के लोग भी उदास होकर बैठे उसकी खाट के पास।
सातवें दिन जब सूरज ढलने के करीब था और वह बिलकुल मौत की प्रतीक्षा कर रहा था, मौत तो नहीं, एकनाथ आ पहुंचे अपना। दरवाजा खटखटाया। एकनाथ को देखकर नमस्कार करने तक की आवाज उससे नहीं निकल सकी। हाथ नहीं जोड़ सका, इतना कमजोर हो गया। एकनाथ ने कहा, अरे भाई इतनी क्या बात है? बड़ी मुश्किल से उसने कहा कि अब और क्या? मौत आ रही है। एकनाथ ने कहा, एक प्रश्न पूछने आया हूं। सात दिन में कुछ पाप किया? पाप करने का कोई विचार आया? उसने कहा, हद हो गई मजाक की। मौत सामने खड़ी हो तो पाप करने की सुविधा कहां? मौत सामने खड़ी हो तो पाप का खयाल कैसे उठे?
एकनाथ ने कहा, उठ, तेरी मौत अभी आई नहीं। रेखा तेरी काफी लंबी है। यह तो मैंने तेरे को सिर्फ तेरा उत्तर...तेरे प्रश्न का जवाब दिया है। और तो तू समझता ही नहीं था। तेरे तो सिर पर खूब जोर से डंडा मारें तो ही शायद तेरी समझ आये। अब तेरी समझ में आया कि हम निष्पाप कैसे हैं? मौत सामने खड़ी है।
जहां जीवन क्षण-क्षण बीता जाता हो, जहां समय चुकता जाता हो, वहां कैसा पाप? जहां मौत सब छीन लेगी वहां कैसा इकट्ठा करना? जहां मौत सब पोंछ देगी वहां कैसे सपने संजोने? जहां मौत आकर सब नष्ट कर देगी वहां क्या बनाना? लेकिन एकनाथ ने उससे कहा कि तुझे लाख समझाया, तेरी समझ में न आया। यही समझाता था सब, लेकिन जब तक तुझे जोर से चोट न मारी गई तब तक तेरी बुद्धि में प्रविष्ट न हुआ।
और कहानी का मुझे आगे पता नहीं क्या हुआ। जहां तक मैं समझता हूं, वह आदमी उठकर बैठ गया होगा और उसने कहा होगा, छोड़ो! अगर अभी मरना नहीं है तो महाराज, तुम अपने घर जाओ, हमें अपना संसार देखने दो। कहानी का मुझे आगे पता नहीं, कहानी आगे लिखी नहीं है। शायद इसीलिए नहीं लिखी है। क्योंकि मौत की चोट में अगर थोड़ी-सी उसको समझ भी आई होगी तो मौत की चोट के हटते ही समझ भी हट गई होगी। वह चोट भी तो जबरदस्ती हो गई न! आयोजित हो गई। मौत उसे थोड़े ही दिखाई पड़ी है, मान ली है। मानने में घबड़ा गया। अब जब फिर पता चला होगा कि अभी जिंदगी काफी बची है तो वह कहा होगा कि महाराज, आयेंगे फुरसत से, सत्संग करेंगे, लेकिन अभी और काम हैं। सात दिन के काम भी इकट्ठे हो गये हैं, वे भी निपटाने हैं।
और उस आदमी ने शायद एकनाथ को कभी क्षमा न किया होगा कि इस आदमी ने भी खूब मजाक की। ऐसी भी मजाक की जाती है महाराज? संतपुरुष होकर और ऐसी मजाक करते हैं? शायद उसने एकनाथ का सत्संग भी छोड़ दिया होगा कि फिर यह आदमी कुछ भरोसे का नहीं। फिर किसी दिन कुछ ऐसी उल्टी-सीधी बात कह दे और झंझट खड़ी कर दे।
आगे लिखा नहीं गया है। नहीं लिखे जाने का मतलब साफ है। नहीं तो हिंदुस्तान में जब कहानियां लिखी जाती हैं तो पूरी लिखी जाती हैं। हिंदुस्तानी ढंग कहानी का यह है कि फिर वह आया होगा, महाराज के चरणों में गिर पड़ा, उसने संन्यास ले लिया और उसने कहा कि अब बस मैं बदल गया। मगर यह लिखा नहीं है, तो यह हुआ नहीं है। यहां तो ऐसा है, न भी होता हो तो भी अंत ऐसा ही होता है। सुखांत होती हैं हिंदुस्तान की कहानियां। उसमें दुखांत कभी नहीं होता। सब अंत में सब ठीक हो जाता है। दुर्जन सज्जन बन जाते, असाधु साधु बन जाते, संसारी मोक्षगामी हो जाते। सब अंत में ठीक हो जाता है। मरते-मरते तक हम कहानी को ठीक कर लेते हैं।
कहानियां हैं कि मर रहा है कोई, उसके लड़के का नाम नारायण है। उसने कभी जिंदगी भर भगवान का नाम नहीं लिया। मरते वक्त वह बुलाया, ‘नारायण, नारायण।’ अपने बेटे को बुला रहा है, ऊपर के नारायण धोखे में आ गये। वह मर गया नारायण कहते-कहते; उसको मोक्ष मिला।
अब जिन्होंने ये कहानियां गढ़ी हैं, बड़े बेईमान लोग रहे होंगे। तुम ईश्वर को धोखा देते ऐसे? और ईश्वर धोखा खाता! तो ईश्वर तुमसे गया-बीता हो गया। वह अपने बेटे को बुला रहा है, ऊपर के नारायण समझे, मुझे बुला रहा है। सोचा कि चलो बेचारा जिंदगी भर नहीं बुलाया, अब तो बुला लिया। ऐसे आखिर में हमने कहानी ठीक कर दी। जमा दी सब बात, सब ठीक-ठीक हो गया। जिंदगी भर के पाप...दो बार उसने नारायण को बुला दिया, वह भी अपने बेटे को बुला रहा है। शायद लोग अपने बेटों के नाम इसलिए भगवान के रखते हैं: नारायण, विष्णु, कृष्ण, राम, खुदाबक्श। इस तरह के नाम रख लेते हैं कि चलो, इसी बहाने। मरते वक्त खुदाबक्श को ही बुला रहे हैं, उसी वक्त खुदा ने सुन लिया और मुक्ति हो गई।
ऐसे झूठों से कुछ सार नहीं है। जहां तक मैं समझता हूं, वह आदमी अगर तुम जैसा आदमी रहा होगा तो फिर कभी एकनाथ के पास न गया होगा। फिर उसने कहा, अब झंझट मिट गई। यह आदमी धोखेबाज है। उसने यही समझा होगा कि इसने धोखा किया, झूठ बोला। संतपुरुष कहीं झूठ बोलते हैं? उसने यह समझा होगा।
तत्वज्ञ का अर्थ होता है, वही समझो जो समझाया जा रहा है। वही देखो, जो दिखाई पड़ रहा है। बीच में अपने को मत डालो। इतनी छोटी-सी बात है: मोक्ष और भोग दोनों में निराकांक्षी। सदा और सर्वत्र रोगरहित--इतनी कुंजी है।
‘महत्तत्व आदि जो द्वैत जगत है और जो नाममात्र को ही भिन्न है, उसका त्याग कर देने के बाद शुद्ध बोधवाले का क्या कर्तव्य शेष रह जाता है!’
महदादि जगद्द्वैतं नाममात्रविजृम्भितम्।
विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते।।
यह जो चारों तरफ फैला हुआ जगत है द्वंद्व का, द्वैत का, दुई का, अनेकत्व का; यह जो चारों तरफ अनेक-अनेक रूप फैले हुए हैं, ये नाममात्र को ही भिन्न हैं। जैसे सोने से ही कोई बहुत गहने बना ले, वे नाममात्र को ही भिन्न हैं। सबके भीतर सोना है। ऐसे ही यह जो सारा इतना विराट जगत फैला हुआ है, यह सब नाममात्र को ही भिन्न है, रूपमात्र में ही भिन्न है। नाम-रूप का भेद है, मौलिक रूप से भिन्न नहीं है।
विज्ञान भी इसकी गवाही देता है। विज्ञान कहता है, सारा अस्तित्व बस विद्युतकणों से बना है; एक से ही बना है। अष्टावक्र का सूत्र कह रहा है:
महदादि जगद्द्वैतं नाममात्र विजृम्भितम्।
बस नाममात्र का भेद है इस जगत की चीजों में, कुछ बहुत भेद नहीं है। सब चीजें एक ही तत्व की विभिन्न-विभिन्न मात्राओं से बनी हैं।
इसलिए ऐसा जानकर, ऐसा समझकर व्यक्ति इन रूपों के और नामों के मोह में नहीं पड़ता है; कल्पना के जाल में नहीं उलझता है। कल्पना का त्याग कर देने से...।
विहाय शुद्धबोधस्य।
इस जगत में तुम्हारी कल्पना जो छिटकी-छिटकी फिर रही है--इस स्त्री को पा लूं कि उस स्त्री को पा लूं, कि इस धन को पा लूं कि उस पद को पा लूं, यह पुरुष मिल जाये। यह जो तुम्हारी कल्पना छिटकी-छिटकी फिर रही है।
विहाय शुद्धबोधस्य।
इस कल्पना के त्याग मात्र से शुद्ध बुद्ध का तुम्हारे भीतर जन्म हो जाता है। शुद्ध बोध पैदा होता है।
किं कृत्यमवशिष्यते।
और फिर न तो कुछ करने को रह जाता, न न करने को रह जाता। फिर कोई कर्तव्य नहीं बचता। फिर तो कर्ता परमात्मा हो गया, तुम्हारा क्या कर्तव्य है? कल्पना के कारण, मात्र कल्पना के कारण तुम उलझे हो। संसार ने तुम्हें नहीं बांधा है, तुम्हारी कल्पना ने बांधा है।
यह मौलिक उपदेश है अष्टावक्र का। संसार ने बांधा हो तो संसार से भाग जाओ, मुक्ति हो जायेगी। ऐसा तुम्हारे तथाकथित महात्मा कर रहे हैं। संसार ने बांधा नहीं है, बांधा कल्पना ने है। कल्पना को गिरा दो।
विहाय शुद्धबोधस्य।
इस कल्पना के गिरते ही शुद्ध बुद्धत्व का जन्म हो जायेगा।
यह जो हमारी कल्पना है, इसे पा लूं, उसे पा लूं, इस कल्पना में हमारी ऊर्जा क्षीण हो रही है। हम पागल होकर दौड़ते हैं। सब दिशाओं में दौड़ रहे हैं। दौड़-दौड़ में थके जा रहे हैं। आपाधापी में मिटे जा रहे हैं। चिंता ही चिंता। जरा भी विश्राम नहीं। यह कल्पना तुम्हारी क्षीण हो जाये--कल्पना ही, और कुछ छोड़ना नहीं है। पत्नी को छोड़कर नहीं जाना है, पत्नी के प्रति जो कल्पना है उसे भर गिर जाने दो; पर्याप्त है। बेटों को छोड़कर नहीं जाना है।
अष्टावक्र ने तुम्हें पलायन नहीं सिखाया है, मैं भी नहीं सिखाता हूं। तुम जहां हो वहीं डटकर रहो। घर में तो घर में, दूकान पर तो दूकान में। कुछ छोड़कर नहीं जाना है। एक बात छोड़ दो, वह जो कल्पना है। यह पत्नी मेरी है, यह कल्पना है। यह बेटा मेरा है, यह कल्पना है। न बेटा तुम्हारा है, न पत्नी तुम्हारी है। न दूकान तुम्हारी है, न मंदिर तुम्हारा है। सब परमात्मा का है। तुम भी उसके, यह सब भी उसका। इस पर तुम व्यक्तिगत दावे छोड़ दो, अधिकार छोड़ दो, परिग्रह छोड़ दो।
इस दावे के छूटते ही तुम्हारा अहंकार विसर्जित हो जायेगा। और तब जो शेष रह जाता है, तब जो विराट आकाश उपलब्ध होता है, तब जो असीम आकाश उपलब्ध होता है, तब जो स्वतंत्रता मिलती है, जो स्वच्छंदता मिलती है, वही है जीवन का असली अर्थ। वही है जीवन का असली स्वाद। वही है प्रभु-रस। उस रसमयता को पाये बिना तुम भिखारी के भिखारी रहोगे। उस रस को पाओ। रसो वै सः। वह परमात्मा रसरूप है।
लेकिन तुम अपनी कल्पना के जाल छोड़ो तो उसकी रसधार बहे। फिर तुमसे कहता--तुम हो पत्थर, चट्टान जिसके कारण झरना रुका है। तुम हटो। यह तुम्हारा अहंकार भी तुम्हारी कल्पना मात्र है; है नहीं कहीं।
बोधिधर्म चीन गया। चीन के सम्राट ने उससे कहा कि आपकी मैं प्रतीक्षा करता वर्षों से। अब आप आ गये, एक काम भर कर दें। यह मेरा अहंकार मुझे बहुत सताता है। इसी अहंकार के कारण मैंने यह साम्राज्य बनाया है, लेकिन फिर भी इसकी कोई तृप्ति नहीं होती। यह भरता ही नहीं। इतना धन है, फिर भी नहीं भरता। अभी भी धन की सोचता है। इतने बड़े महल हैं फिर भी नहीं भरता; अभी बड़े महलों की सोचता है। इस अहंकार से मुझे छुड़ा दें।
बोधिधर्म ने कहा, छुड़ा दूंगा। तू सुबह तीन बजे आ जा। अकेला आना, किसी को साथ लेकर मत आना। और एक बात खयाल रखना, अहंकार को लेकर आना। इसको घर मत छोड़ आना। वह सम्राट डरा। यह क्या बात हुई? उसने बहुत-से ज्ञानियों से कहा था। सबने उपदेश दिया था। किसी ने नहीं कहा था, छुड़ा दूंगा। कोई कैसे छुड़ा देगा किसी को? यह आदमी पागल मालूम होता है। फिर तीन बजे रात की जरूरत? अभी क्या अड़चन है? और अकेले आना! और यह आदमी भयंकर मालूम पड़ता है।
बोधिधर्म बड़ा जंगली ढंग का आदमी था। देख ले जोर से तो तुम्हारे प्राण कंप जायें, घबड़ा जाओ। तलवार की धार की तरह आदमी था। कहते हैं, कभी जोर से चीख देता था तो लोगों के विचार बंद हो जाते थे। उसका हुंकार लोगों को ध्यान लगवा देता था। एक क्षण को विचार-श्रृंखला टूट जाती थी।
इस आदमी के पास तीन बजे रात आना ठीक है? और फिर यह आदमी दुबारा--यह भी अजीब बात कह रहा है, अहंकार साथ ले आना। और जब वह सीढ़ियां उतरकर जाने लगा सम्राट तो फिर डंडा ठोंककर बोधिधर्म ने कहा, देख भूलना मत। ठीक तीन बजे आ जाना। और अहंकार को साथ ले आना, घर मत रख आना, क्योंकि मैं उसे खतम ही कर दूंगा आज।
वह डरने लगा और रात सो नहीं सका। जाऊं, न जाऊं? यह जाने के जैसी बात है कि नहीं? लेकिन आकर्षण भी पकड़ने लगा। इस आदमी की आंखों में बल भी कुछ था। इस आदमी की मौजूदगी में कुछ आकर्षण भी था। कोई प्रबल आकर्षण था। नहीं रोक सका। बहुत समझाया अपने को कि जाना ठीक नहीं, लेकिन खिंचा चला गया। तीन बजे पहुंच गया।
पहली बात जो बोधिधर्म ने पूछी वह यही, अहंकार ले आया? तो सम्राट ने कहा, आप भी कैसी बातें करते हैं! अहंकार कोई चीज तो नहीं है कि ले आऊं। यह तो मेरे भीतर है। उसने कहा, चलो इतना तो पक्का हुआ, भीतर है; बाहर तो नहीं है! तो आधी दुनिया तो साफ हो गई। आधा काम तो हो चुका। बाहर नहीं है, भीतर है। उसने कहा, भीतर है।
‘आंख बंद कर। बैठ जा सामने। और खोज भीतर, कहां है। और मैं डंडा लिये बैठा हूं तेरे सामने। जैसे ही तुझे मिले, इशारा कर देना कि पकड़ लिया। वहीं खतम कर दूंगा।’
वह सम्राट बहुत घबड़ाने लगा। तीन बजे रात अंधेरे उस मठ में। और यह आदमी डंडा लिये बैठा है और पागल मालूम होता है। अब भागने का भी उपाय नहीं है। और खुद ही कह फंसा कि बाहर नहीं, भीतर है। अब इंकार भी नहीं कर सकता। आंख बंद करके भीतर देखने लगा। भीतर जितना खोजा उतना ही पाया कि मिलता नहीं। जितना खोजा उतना ही पाया, मिलता नहीं। सूरज उगने लगा, तीन घंटे बीत गये। और उसके चेहरे पर अपूर्व आभा छा गई।
बोधिधर्म ने उसे हिलाया और उसने कहा कि अब उठ। मुझे दूसरे काम भी करने हैं। मिला कि नहीं? सम्राट वू उसके चरणों में झुक गया और कहा कि आपने मिटा दिया। मैं धन्यभागी कि आपके चरणों में आ गया। बहुत खोजा। खोजने से एक बात समझ में आ गई, न बाहर है न भीतर है; है ही नहीं। सिर्फ भ्रांति है, कल्पना है। मान रखा है।
यह मैं सिर्फ एक मान्यता है। यह मैं ही संसार है। यह मैं का बीज ही फैलकर संसार बनता है। यह मैं गिर जाये, यह कल्पना गिर जाए--विहाय शुद्धबोधस्य; इसके छूट जाते ही शुद्ध बोधि, संबोधि का जन्म हो जाता है। और तब न कुछ करने को बचता, न कुछ न करने को। कर्ता ही नहीं बचता। मैं गया तो कर्ता गया।
और उस कर्ताशून्यता में प्रभु तुम्हारे भीतर बहता। तुम उपकरण हो जाते--निमित्तमात्र। बांस की पोली बांसुरी। वेणु बन जाते।
वेणु बनो। समर्पण करो। कुछ और छोड़ना नहीं है, इस मैं की कल्पना को विसर्जित करो। इसे जाने दो। इसके जाते ही--निस्तर्षमानसः। तुम मन का निस्तरण कर गये। यह मैं मन का संग्रहीभूत रूप है। इसके पार तुम्हारा साक्षी है।
साक्षी रस है।
रसो वै सः।
आज इतना ही।
न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रियमाणेऽपि कर्माणि।। 240।।
स एव धन्य आत्मज्ञः सर्वभावेषु यः समः।
पश्यन् श्रृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्निस्तर्षमानसः।। 241।।
क्व संसारः क्व चाभासः क्व साध्यं क्व च साधनम्।
आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्येव सर्वदा।। 242।।
स जयत्यर्थसंन्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः।
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते।। 243।।
बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्वो महाशयः।
भोगमोक्षनिराकांक्षी सदा सर्वत्र नीरसः।। 244।।
महदादि जगद्द्वैतं नाममात्रविजृम्भितम्।
विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते।। 245।।
सर्वारंभेषु निष्कामो यः चरेत् बालवन्मुनिः।
न लेपः तस्य शुद्धस्य क्रियमाणेऽपि कर्माणि।।
पहला सूत्र: ‘जो मुनि सब क्रियाओं में निष्काम है और बालवत व्यवहार करता है, उस शुद्ध के किये हुए कर्म में भी लेप नहीं होता है।’
बहुत-सी बातें इस सूत्र में समझ लेने जैसी हैं।
पहली बात: सर्वारंभेषु। साधारणतः हम किसी कार्य का प्रारंभ करते हैं तो कामना से करते हैं। कुछ पाना है इसलिए करते हैं। कोई महत्वाकांक्षा है, उसे पूरा करना है इसलिए करते हैं।
ज्ञानी किसी कर्म का प्रारंभ किसी कारण से नहीं करता। उसे कुछ भी पाना नहीं है, कुछ भी होना नहीं है। जो होना था हो चुका। जो पाना था पा लिया। फिर भी कर्म तो होते हैं। तो इन कर्मों में कोई प्रारंभ की वासना नहीं है। कोई आरंभ नहीं है। प्रभु जो करवाता वह होता। ज्ञानी अपने तईं कुछ भी नहीं कर रहा है। प्रभु बुलाये तो बोलता। प्रभु मौन रखे तो मौन रहता। प्रभु चलाये तो चलता। प्रभु न चलाये तो रुक रहता।
जिस दिन अहंकार गया उसी दिन कर्मों को प्रारंभ करने की जो आकांक्षा थी वह भी गई। अब कर्मों का प्रारंभ परमात्मा से होता और कर्मों का अंत भी उसी को समर्पित है। ज्ञानी में कर्म प्रगट होता है लेकिन शुरू नहीं होता; शुरू परमात्मा में होता है। लहर परमात्मा से उठती है, ज्ञानी से प्रगट होती है।
इसे समझना। होता तो ऐसा ही अज्ञानी में भी है, लेकिन अज्ञानी सोचता है लहर भी मुझसे उठी। अज्ञानी अपने कर्मों का स्रोत स्वयं को मान लेता। वहीं बंधन पैदा होता है। कर्मों में बंधन नहीं है, कर्मों का स्रोत स्वयं को मान लेने में बंधन है। तुमने कभी कोई कर्म किया है? तुम कभी कोई कर्म कर कैसे सकोगे? न जन्म तुम्हारा न मृत्यु तुम्हारी; तो जीवन तुम्हारा कैसे हो सकता है?
मैंने सुना है, एक महल के पास पत्थरों का एक ढेर लगा था। और एक छोटा बच्चा खेलता आया और उसने एक पत्थर उठाकर महल की खिड़की की तरफ फेंका। पत्थर जब ऊपर उठने लगा तो पत्थर ने अपने नीचे पड़े हुए पत्थरों से कहा, सगे-संबंधियों से कहा, सुनो, जिन पंखों के तुमने सदा स्वप्न देखे, वे मेरे पैदा हो गये हैं। आज मैं आकाश में उड़ने के लिए जा रहा हूं।
स्वप्न तो पत्थर भी देखते हैं उड़ने के। उड़ नहीं पाते। मजबूरी में तड़पते हैं। आज इस पत्थर को अहंकार जगा। फेंका तो किसी ने था लेकिन पत्थर ने घोषणा की, कि देखते हो, सुनते हो? जिन पंखों के तुमने स्वप्न देखे वे मुझमें पैदा हो गये। आज मैं आकाश की यात्रा को जा रहा हूं। भेजा जा रहा था लेकिन उसने कहा, जा रहा हूं। पहल उसके स्वयं के भीतर से न आई थी। प्रारंभ किसी और ने किया था, लेकिन प्रारंभ का मालिक वह स्वयं बन गया।
और फिर जब जाकर कांच की खिड़की से टकराया और कांच चकनाचूर हो गया तो खिलखिला कर अट्टहास करके हंसा। और उसने कहा, सुनते हो? हजार बार मैंने कहा है, हजार बार चेताया है, मेरे मार्ग में कोई न आये अन्यथा चकनाचूर कर दूंगा।
अब जब पत्थर कांच से टकराता है तो कांच चकनाचूर होता है, पत्थर करता नहीं। यह कांच और पत्थर के स्वभाव से घटता है कि कांच चकनाचूर होता है। फर्क समझ लेना होने में और करने में। पत्थर ने कुछ किया नहीं है। करने को क्या है? कांच टूटा है। पत्थर निमित्त है तोड़ने में, कर्ता नहीं है।
लेकिन यह मौका कौन छोड़े? पत्थर यह मौका कैसे छोड़े? जैसे औरों ने घोषणायें की हैं, तुमने की हैं, उसने भी की: मेरे मार्ग में कोई न आये अन्यथा चकनाचूर कर दूंगा। आज मौका मिला है, घोषणा सही हो गई है, सही होती मालूम पड़ती। आज इस अवसर को चूक देना ठीक नहीं है। और कांच के टुकड़े कहें भी क्या? बात तो घट रही है, आंख के सामने घट रही है। पत्थर ने चकनाचूर कर ही दिया है। तो इनकार भी कहां है? प्रमाण भी कहां है इसके विपरीत? लेकिन फिर भी पत्थर ने कांच को चकनाचूर किया नहीं है, कांच चकनाचूर हुआ है। पत्थर जब कांच से टकराता है तो दोनों के स्वभाव से...और स्वभाव का नाम परमात्मा है। यह सहज हो रहा है। न कोई कर रहा है, न कुछ किया जा रहा है।
और जब कांच चकनाचूर हो गया और पत्थर जाकर महल के कालीन पर गिरा तो उसने सुख की सांस ली। उसने कहा, लंबी यात्रा की, थक भी गया हूं, दुश्मन को भी मारा, अब थोड़ा विश्राम कर लूं। गिरा है कालीन पर, लेकिन कहता है, थोड़ा विश्राम कर लूं।
और फिर मन में सोचने लगा, मेरे स्वागत में तैयारी की गई है। कालीन बिछाये गये। कोई मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। और तभी महल का नौकर पत्थर और कांच की टकराहट की आवाज और कांच का टूटना और पत्थर का गिरना सुनकर भागा हुआ आया। तो पत्थर ने मन में कहा, मालिक आता है स्वागत के लिए। और जब नौकर ने पत्थर को अपने हाथ में उठाया तो पत्थर ने कहा, धन्यवाद। हालांकि किसी ने सुना नहीं। पत्थर की भाषा अलग, आदमी की भाषा अलग।
नौकर ने तो फेंकने को उठाया है वापिस, लेकिन पत्थर ने कहा धन्यवाद, तुम्हारे स्वागत से मैं प्रसन्न हूं। हो भी क्यों न? मैं कोई साधारण पत्थर नहीं हूं, विशिष्ट हूं। कभी-कभी विरले ऐसे पत्थर होते हैं जिनके पंख निकलते हैं और जो आकाश में उड़ते हैं। पुराणों में सुनी है यह बात, देखने में आज-कल तो आती नहीं।
नौकर ने फेंक दिया पत्थर वापिस। फेंका गया है, लेकिन पत्थर कहने लगा, घर की बहुत याद आती है। यात्रा बहुत लंबी हुई, समय भी बहुत व्यतीत हुआ, घर वापिस चलूं। और जब गिरने लगा पत्थरों की ढेरी में तो उसने कहा, देखो, लौट आया। यद्यपि महलों में मेहमान था, सम्राटों के हाथों का श्रृंगार बना। कैसे-कैसे स्वागत-समारंभ न हुए! तुम तो समझ भी न पाओगे। तुम तो कभी इस ढेरी से उठे नहीं, उड़े नहीं। आकाश की स्वच्छंदता, चांद-तारों से मेल--सब जाना, सब देखा, लेकिन फिर भी घर अपना घर है। घर की बहुत याद आती थी। लौट आया हूं। पत्थर वापिस ढेरी में गिर गया।
ऐसी आदमी की भी कथा है। न तो प्रारंभ तुम्हारे हाथ में है और न अंत तुम्हारे हाथ में है। श्वास जब तक चलती है, चलती है; जब न चलेगी तो तुम क्या कर सकोगे? लेकिन तुम तो यह कहते हो, मैं श्वास ले रहा हूं। परमात्मा तुमसे श्वास लेता और तुम कहते हो, मैं श्वास ले रहा हूं। तुम श्वास ले रहे होओगे तो मौत द्वार पर आ जायेगी तब लेते रहना तो पता चलेगा कि कौन लेनेवाला था! मौत द्वार पर आयेगी तो तुम एक श्वास भी ज्यादा न ले सकोगे। जो श्वास बाहर गई तो बाहर गई; भीतर न लौटेगी। लाख तड़पो और चिल्लाओ। लाख शोरगुल मचाओ, श्वास वापिस न आयेगी। तुम लेना चाहोगे लेकिन ले न सकोगे।
श्वास तुम ले नहीं रहे हो, श्वास चल रही है। परमात्मा ले रहा है। परमात्मा का अर्थ है, यह समग्र। यह समग्र अपने अंश-अंश में तरंगायित है, श्वास ले रहा है। ज्ञानी इसे ऐसा देख लेता है, जैसा है। अज्ञानी वैसा मान लेता है जैसा मानना चाहता है। वैसा नहीं देखता, जैसा है।
सर्वारंभेषु--सब कामों का जो प्रारंभ है, वहीं समझ लेने की बात है।
कृष्ण ने गीता में कहा है, फलाकांक्षा को प्रभु को समर्पित कर दो। यह सूत्र उससे भी गहरा है। क्योंकि यह कहता है, फलारंभ को प्रभु को समर्पित कर दो। फलाकांक्षा तो अंत में होगी, फल तो पीछे मिलेगा। कृष्ण कहते हैं फलाकांक्षा को प्रभु को समर्पित कर दो, अष्टावक्र कहते हैं फलारंभ को। क्योंकि अगर फलारंभ को समर्पित न किया तो तुम फलाकांक्षा को भी समर्पित न कर पाओगे। जो प्रारंभ में ही चूक गया वह बाद में कैसे सम्हलेगा? पहले कदम पर ही गिर गया, अंतिम कदम ठीक कैसे पड़ेगा? गणित तो शुरू से ही गलत हो गया। भूल तो पहले ही हो गई।
इसलिए मैंने कृष्ण की गीता को गीता कहा है और अष्टावक्र की गीता को महागीता कहता हूं। ज्यादा गहरे जाती है। ज्यादा जड़ को, जड़मूल से पकड़ती है। आमूल उखाड़ देने का रूपांतरण संभव है।
प्रारंभ को परमात्मा पर छोड़ दो। और जिसने प्रारंभ छोड़ दिया, अंत तो छूट ही गया। जब प्रारंभ में ही तुम मालिक न रहे तो अब कैसे मालिक हो सकोगे? अब तो कोई जगह न बची। अब तो मालकियत कहीं पैर जमाकर खड़ी न हो सकेगी। तुमने जमीन ही खींच ली।
सर्वारंभेषु--सब कर्मों के प्रारंभ में। वह जो करने की वासना है कि मैं करूं; कि मैं दिखाऊं; कि मैं ऐसा हो जाऊं; कि ऐसा मुझसे घटित हो, वह छोड़ दो। उसे छोड़ते ही कोई ज्ञानी हो जाता है। उसे पकड़े ही आदमी अज्ञानी है।
और अगर तुमने प्रारंभ न छोड़ा तो तुम लाख उपाय करो, तुम अंत भी न छोड़ सकोगे। कैसे छोड़ोगे? ये सब चीजें संयुक्त हैं। अगर तुमने कहा कि जन्म तो मैंने लिया है तो फिर तुम कैसे कहोगे कि मृत्यु घटी? क्योंकि जन्म और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक ही यात्रा के दो पड़ाव हैं। जिसके हाथ में जन्म है उसी के हाथ में मृत्यु है। अगर जन्म तुम्हारे हाथ में है तो मृत्यु भी तुम्हारे हाथ में है। और अगर जन्म तुम्हारे हाथ में नहीं है तो ही यह संभव है कि मृत्यु भी तुम्हारे हाथ में न हो। बीज भी तुम्हारे हाथ में नहीं है, फल भी तुम्हारे हाथ में नहीं।
कृष्ण कहते हैं फल को छोड़ दो, अष्टावक्र कहते हैं बीज को ही छोड़ दो न! सब छूट गया। क्योंकि फिर बीज से ही निकलेगा वृक्ष। फिर वृक्ष में ही लगेंगे फल और फिर लगेंगे बीज। फल तक प्रतीक्षा करोगे, फल तक प्रतीक्षा करने में बीच में जो तुम गलत यात्रा करोगे वह इतनी सघन हो जायेगी, वह आदत इतनी मजबूत हो जायेगी कि तुम छोड़ न पाओगे।
इसलिए एक मजेदार घटना घटती है, कि गीता के भक्त जब फल बुरा हो जाता है तब तो परमात्मा पर छोड़ देते हैं और जब फल अच्छा हो जाता है तो नहीं छोड़ पाते। शुभ को छोड़ना फिर मुश्किल हो जाता है। अशुभ को तो छोड़ देते हैं।
मैंने सुना है, ऐसा एक गीताभक्त एक गांव में रहता था। उसने बड़ी सुंदर बगिया लगाई थी। और वह सबको बताता था अपनी बगिया कि देखो, ऐसे फूल किसी और बगीचे में नहीं खिलते और ऐसी हरियाली किसी और बगीचे में नहीं है। यह मेरी मेहनत का फल है। और रोज गीता पढ़ता था। भगवान ने सोचा कि यह गीता रोज पढ़ता, फलाकांक्षा त्यागो ऐसा चिंतन-मनन करता लेकिन ‘बगिया मैंने लगाई है।’ इसके वृक्षों को हरा मैं कर रहा हूं लेकिन यह कहता है कि मैंने लगाई है। इसके वृक्षों पर फूल मैं लगा रहा हूं, लेकिन यह कहता है, मेरे फूल बड़े हैं। इसके वृक्षों पर वर्षा मैं करता, सूरज मैं बरसाता और यह कहता है कि मैंने यह सब इतना सुंदर...इतने सुंदर को जन्म दिया है।
तो भगवान आये एक दरिद्र ब्राह्मण के वेश में। पूछा उससे; उसने कहा कि मैंने लगाई है। आओ दिखायें। सब दिखाया। और तभी--भगवान ने व्यवस्था कर रखी थी--एक गाय उसके बगीचे में घुस गई। वह तो बगीचा दिखला रहा था, एक गाय बगीचे में घुस गई। वह तो पागल हो गया। उस गाय ने उसके सुंदरतम पौधे चर डाले; उसके गुलाब चर डाले। वह तो उठाकर एक लट्ठ दौड़ा, गाय को मार दिया। भूल ही गया कि ब्राह्मण हूं। भूल ही गया कि मैं बीच में न आऊं। जिसके फूल हैं उसी की गाय है। इतनी जल्दबाजी न करूं।
और जब गाय को मार दिया लट्ठ और गाय मर गई तो घबड़ाया, क्योंकि गौहत्या तो भारी पाप! और इस आदमी ने भी देख लिया--यह जो भिखारी, जिसको वह घुमा रहा था। और उस भिखारी ने कहा, यह तुमने क्या किया? तो उस ब्राह्मण ने कहा, मैं करनेवाला कौन? अरे सब प्रभु कर रहा है। कहा नहीं गीता में भगवान ने कि हे अर्जुन! जिनको तू देखता है ये जीवित हैं, इनको मैं पहले ही मार चुका हूं। तू तो निमित्तमात्र है। यह गाय मरने को थी महाराज! मैंने मारी नहीं। मुझे तो निमित्त बना लिया है।
और वह भिखारी हंसने लगा। और उसने कहा कि तुझे निमित्त बनाया गाय को मारने में, और फूल खिलाने में तुझे निमित्त नहीं बनाया? वृक्षों को हरा बनाने में तुझे निमित्त नहीं बनाया? ये वृक्ष तूने लगाये हैं और गाय परमात्मा ने मारी?
मीठा-मीठा गप, कडुवा-कडुवा थू; ऐसा मन का तर्क है। अच्छा-अच्छा चुन लूं। अच्छे-अच्छे से अहंकार को सजा लूं, श्रृंगारित कर दूं, बुरे-बुरे को छोड़ दूं।
अष्टावक्र का सूत्र ज्यादा गहरा जाता है। अष्टावक्र कहते हैं प्रारंभ ही छोड़ दो। बीज से ही चलो। ठीक-ठीक पहले कदम से ही चलो। मूल से ही पकड़ो। यात्रा बदलनी है, अंत को अगर मंदिर तक ले जाना है तो पहले ही क्षण से पूजन, पहले ही क्षण से प्रार्थना, पहले ही क्षण से उतारो आरती, गुनगुनाओ गीत प्रभु का ताकि अंततः मंदिर बन जाये। ऐसे मत चलो कि जीवन भर तो मधुशालाओं में रहोगे, जुआघरों में, आखिरी क्षण में परमात्मा पर पहुंच जाओगे।
लोग बड़े चालाक हैं। वे कहते हैं फल छोड़ देंगे। लेकिन फल तुम न छोड़ सकोगे। जब तक कि तुमने आरंभ न छोड़ दिया, पहल न छोड़ी, तब तक फल भी न छूटेगा।
‘जो मुनि सब क्रियाओं में निष्काम है...।’
सर्वारंभेषु निष्कामो।
और जिसने प्रारंभ छोड़ा वही निष्काम है। काम में ही प्रारंभ छिपा है, कामना में। मैं करूं, मुझसे हो, मेरे द्वारा हो। दिखाऊं कि मैं कुछ हूं।
‘जो मुनि सब क्रियाओं में निष्काम है...।’
मुनि शब्द को भी समझ लेना जरूरी है। मुनि शब्द बनता मौन से। जो अब अपनी तरफ से बोलता भी नहीं वही मुनि है। अब प्रभु उपयोग करता है तो बोलता है, नहीं उपयोग करता तो चुप रह जाता है।
कूलरिज अंग्रेजी का बड़ा कवि मरा तो उसके घर में हजारों अधूरी कवितायें पड़ी मिलीं। और उसके मित्र उससे बार-बार कहते थे, ये कवितायें तुम पूरी क्यों नहीं कर देते हो? कोई कविता तो करीब-करीब पूरी हो गई है, एक पंक्ति अधूरी है। इसे तुम पूरा कर दो। इतनी सुंदर कविता, यह अधूरी रह जायेगी। कूलरिज कहता, जिसने शुरू की है वही पूरा करे। मैं पूरा करनेवाला कौन?
पहले मैंने कोशिश की थी। सब कोशिश व्यर्थ गई। कभी तीन पंक्तियां उतरती हैं एक चौपाई की, और चौथी नहीं उतरती। तो मैं पहले शुरू-शुरू में जब सिक्खड़ था, जवान था, अहंकारी था, अंधा था तब चौथी को बना-बनूकर बिठा देता था। तोड़-मोड़कर जमा देता था। लेकिन मैंने बार-बार पाया कि वह चौथी बड़ी साधारण होती थी। वे तीन तो होतीं अपूर्व, और वह चौथी एक गंदे धब्बे की तरह उन तीन की शुभ्रता को नष्ट करती। वे तीन तो होतीं आकाश की और वह चौथी होती जमीन की। उनमें कोई तालमेल न होता। वे तीन तो होतीं परमात्मा की, वह एक होती मेरी। उससे वे तीन भी लंगड़ा जातीं। फिर मैंने तय कर लिया कि वही रचायेगा, वही रचेगा। उतना ही रचूंगा, उतना ही होने दूंगा। अब तो मैं सिर्फ प्रतीक्षा करता। अब तो मैं उसके हाथ का एक उपकरण हूं। जब वह गुनगुनाता है, तो लिख लेता हूं। जितनी गुनगुनाता है उतनी लिख लेता हूं। अगर तीन की उसकी मर्जी है तो तीन ही सही। इन्हें अशुद्ध न करूंगा।
कूलरिज ने केवल सात कवितायें पूरी कीं अपने जीवन में। अनूठी हैं। और कोई चालीस हजार कविताएं अधूरी छोड़कर मरा। वे सब अनूठी हो सकती थीं, लेकिन कूलरिज बड़ा ईमानदार कवि था। उसे ऋषि कहना चाहिए, कवि कहना ठीक नहीं। वह कोई तुकबंद नहीं था, ऋषि था। ठीक उपनिषद के ऋषियों जैसा ऋषि था। जो उतरा, उतर आने दिया। जितना उतर सका उतना ही उतरा। उससे ज्यादा नहीं उतरा, नहीं उतरा। प्रभु-मर्जी!
मुनि का अर्थ होता है, जो अपनी तरफ से बोलता भी नहीं। और तो बात और, जो अपनी तरफ से हां-ना भी नहीं कहता। जब तुम किसी ज्ञानी से कुछ पूछते हो तो ज्ञानी परमात्मा से पूछता है। तुम्हें शायद यह दिखाई भी न पड़े क्योंकि यह अगोचर है। यह दृश्य तो नहीं है। तुम ज्ञानी से पूछते हो, ज्ञानी परमात्मा के चरणों में तुम्हारे प्रश्न को निवेदन कर देता है। फिर जो उत्तर बहता है, बहता है।
यह उत्तर ज्ञानी से आता है लेकिन ज्ञानी का नहीं है। वाणी ज्ञानी से फूटती है लेकिन ज्ञानी की नहीं है।
मुनि का अर्थ होता है, जो अपनी तरफ से तो शून्यवत हो गया। और जब कोई शून्यवत हो जाता है, परम मौन हो जाता है, तभी तो परमात्मा बोल पाता है। जब तक तुम्हारे भीतर शोरगुल है, जब तक तुम्हारी ही तरंगें तुम्हें भरे हुए हैं तब तक उसकी छोटी-छोटी, धीमी-धीमी फुसफुसाहट सुनाई न पड़ेगी। जब तक तुम पागल हो अपने विचारों से तब तक उसके मधुर स्वर तुमसे बह न सकेंगे। तुम उनके लिए मार्ग न बन सकोगे।
सर्वारंभेषु निष्कामो यः चरेत् बालवन्मुनिः।
और बालवत इस शब्द को भी खयाल में ले लेना।
‘जो मुनि सब क्रियाओं में निष्काम है और बालवत व्यवहार करता है।’
बालक के क्या लक्षण हैं? एक: कि बालक अज्ञानी है। ज्ञानी भी अज्ञानी है। तुम बहुत चौंकोगे। क्योंकि ज्ञानी और अज्ञानी तो विरोधाभास मालूम पड़ेगा। लेकिन मैं तुम्हें कहता हूं, ज्ञानी अज्ञानी है। ज्ञानी कुछ जानता नहीं। जितना परमात्मा जना देता है, बस ठीक। ज्ञानी अपनी तरफ से नहीं जानता। ज्ञानी पंडित नहीं है। पंडित कभी ज्ञानी नहीं हो पाता। पापी भी पहुंच जायें, पंडित कभी नहीं पहुंचते। पंडित तो भटकते रह जाते हैं। पंडित में तो एक दंभ होता है कि मैं जानता हूं। ज्ञानी को इतना ही बोध होता है कि मैं क्या जानता हूं! मैं हूं ही नहीं, जानूंगा कैसे? जानना कहां संभव है?
ज्ञानी बालवत है। उसने अपने अज्ञान को स्वीकार कर लिया है, कि तुम जनाओगे उतना ही जान लूंगा। तुम जितना दिखाओगे उतना ही देख लूंगा। मेरे पास न तो अपनी आंख है, न अपने कान हैं, न मेरे पास अपनी प्रतिभा है। मेरे पास अपना कुछ भी नहीं। तुम ही मेरे धन हो। मैं तो हूं ही नहीं। मैं तो सिफर, मैं तो एक शून्य। तुम जितने इस शून्य से प्रगट हो जाओगे उतना ही मैं प्रगट होने लगूंगा। लेकिन तुम ही प्रगट हो रहे हो।
सुकरात ने कहा है कि जिस दिन मैंने जाना कि मैं कुछ भी नहीं जानता उसी दिन ज्ञान की पहली किरण उतरी। उपनिषद कहते हैं, जो कहे जानता हूं, जान लेना नहीं जानता। लाओत्सु ने कहा है, जानने का दंभ केवल उन्हीं में होता है जिन्हें अभी कुछ भी पता नहीं चला है। जाननेवालों में जानने का खयाल ही तिरोहित हो जाता है। जाननेवालों को ‘जानता हूं,’ ऐसा बोध ही नहीं उठता। यह तो अज्ञान का ही हिस्सा है।
अब तुम्हें खयाल में आ सकती है बात। अज्ञानी को ही यह बोध उठता है कि मैं जानता हूं। क्योंकि मैं अज्ञान में ही सघनीभूत होता है। ज्ञानी को बोध नहीं होता कि मैं जानता हूं। और ज्ञानी ही जानता है, अज्ञानी जानता नहीं।
विरोधाभासी है यह, लेकिन जीवन बड़ा विरोधाभासी है ही। यहां जिनको अकड़ है जानने की उनके पास कुछ भी नहीं। और जिन्हें न जानने का भाव है उनके पास सब कुछ है। यहां जिनको धनी होने का दंभ है वे निर्धन हैं। और जिन्हें अपने निर्धन होने का पता चल गया उन्हें धन मिल गया। यहां जो अकड़े हैं, दो कौड़ी के हैं। यहां जिन्होंने अकड़ छोड़ दी, अमूल्य हो गये। किसी मूल्य से अब कूते नहीं जा सकते। यहां जो हैं, नहीं हैं। और जो नहीं हो गये उनके जीवन में होने की पहली किरण उतरी। धीरे-धीरे सूरज भी उतरेगा। मिटो, अगर चाहो होना।
तो पहली बात बालवत में--अज्ञान। ज्ञानी बच्चों जैसा अज्ञानी है। थोड़ा-सा फर्क है, इसलिए बालवत कहते हैं, बालक नहीं कहते। बालवत का अर्थ हुआ बच्चे जैसा; बच्चा ही नहीं।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है। किसी ने पूछा एक बाजार में कि कौन पहुंचेगा प्रभु के राज्य में? तो उन्होंने चारों तरफ नजर डाली; सामने ही भीड़ में गांव का रबाई खड़ा था, पंडित-पुरोहित खड़े थे, धनी-मानी खड़े थे, उन्होंने सोचा शायद हमारी तरफ इशारा करें, शायद हमारी तरफ इशारा करें। लेकिन जीसस ने एक छोटा बच्चा जो भीड़ में खड़ा था उसे कंधे पर उठा लिया और कहा, जो इस बच्चे की भांति होंगे, वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे।
इस बच्चे की भांति! यह नहीं कहा कि बच्चे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे। नहीं तो फिर सभी बच्चे प्रवेश कर जायें। बच्चे की भांति--फर्क खयाल में ले लेना। बच्चे जैसे फिर भी बच्चे जैसे नहीं। कुछ-कुछ बच्चे जैसे, कुछ-कुछ कुछ और। बालवत।
तो क्या फर्क है? बच्चा अज्ञानी है लेकिन उसे अपने अज्ञान का कोई पता नहीं। ज्ञानी भी अज्ञानी है लेकिन ज्ञानी को अपने अज्ञान का पता है। यहीं भेद है। उसी पता में सब पता चल गया। बच्चा अज्ञानी है, सिर्फ अज्ञानी है, अबोध भी है। अज्ञान+अबोध--बच्चा। अज्ञान+बोध--ज्ञानी। फर्क जो है, बोध और अबोध का है। बच्चा सोया हुआ है, ज्ञानी जागा हुआ है। बच्चे को भी कुछ पता नहीं है, ज्ञानी को कुछ पता नहीं है। लेकिन बच्चे को यह भी पता नहीं है कि मुझे कुछ पता नहीं है। इसलिए बच्चा जल्दी ही चक्कर में पड़ेगा। जैसे-जैसे उसे पता चलने लगेगा, वह सोचने लगेगा, अब मैं जानने लगा...अब मैं जानने लगा। अब इतना जान लिया, अब देखो कालेज से लौट आया, अब युनिवर्सिटी से लौट आया।
ऐसे ही उद्दालक का बेटा एक दिन लौटा गुरुकुल से। सब शास्त्र जानकर लौटा, सब वेद कंठस्थ करके लौटा। और बाप ने जब उसे आया हुआ देखा तो बाप बड़ा दुखी हुआ। बाप की आंखों में आंसू आ गये। क्योंकि यह तो अकड़कर चला आ रहा है। ज्ञानी तो अकड़कर कैसे आयेगा? ज्ञानी तो विनम्र हो जाता है। और यह बेटा तो अकड़ा चला आ रहा है।
अकड़कर आने का कारण था। वह सारे गुरुकुल में प्रथम आया था। उसने बड़े पुरस्कार जीते थे। वह सब शास्त्रों में पारंगत होकर आ रहा था। वह सोचता था, बाप मेरी पीठ थपथपायेंगे, लेकिन बाप उदास बैठ गये। जब वह आकर सामने खड़ा हुआ तो उसकी अकड़ ऐसी थी कि अपने बाप के पैर भी न छू सका। अब क्या छुए? उसको ऐसा लगा होगा, यह बाप तो अज्ञानी है, मैं तो ज्ञानी होकर लौटा।
अक्सर ऐसा होता है। जब कालेज-युनिवर्सिटी से लड़के लौटते हैं तो सोचते हैं, यह बाप भी कुछ नहीं जानता। बेपढ़ा-लिखा!
पैर भी नहीं छुए श्वेतकेतु ने। खड़ा हो गया। उद्दालक ने कहा, बेटे, तूने वह जाना जिसको जानने से सब जान लिया जाता है?
उसने कहा, यह कौन-सी बात कही? यह तो कोई पाठ्यक्रम में था ही नहीं। वह, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है? इसकी तो गुरु ने कभी बात नहीं की। वेद जाने, इतिहास जाना, पुराण जाना, व्याकरण, भाषा, गणित, भूगोल--जो-जो था, सब जानकर आ रहा हूं। यह तो बात ही कभी नहीं उठी इतने वर्षों में--उस एक को जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है?
तो उद्दालक ने कहा, तो फिर तू वापिस जा बेटे। क्योंकि हमारे घर में नाम के ही ब्राह्मण नहीं होते रहे। हमारे घर में सच के ब्राह्मण होते रहे हैं, नाममात्र के नहीं। ब्रह्म को जानकर हमने ब्राह्मण होने का रस लिया है। ब्राह्मण घर में पैदा होकर हम ब्राह्मण नहीं रहे हैं। हमने ब्रह्म को चखा है। तू जा। तू उस एक की खोज कर।
तो एक तो ज्ञान है, जो बाहर से मिल जाता। तुम उसे इकट्ठा कर लेते हो। जो बाहर से मिलता है, बाहर ही रहेगा। जो बाहर का है, बाहर का है। वह कभी भीतर का न बनेगा। वह कभी तुम्हारे अंतश्चैतन्य को जगायेगा नहीं। वह तुम्हारे अंतर्गृह की ज्योति न बनेगा। उधार है, उधार ही रहेगा। बासा है, बासा ही रहेगा। इकट्ठा कर लिया है उच्छिष्ट, लेकिन तुमने स्वयं नहीं जाना है। यह जो स्वयं को जानना है, एक को जानना है, वह जो एक भीतर छिपा है उसको जानना है। उसके जानने से ही सब जान लिया जाता है।
लेकिन हर बच्चा जायेगा स्कूल, कालेज, युनिवर्सिटी, खूब ज्ञान इकट्ठा करेगा, उपाधियां इकट्ठी करेगा। और सब उपाधियां अंततः उपाधि ही सिद्ध होती हैं, व्याधि ही सिद्ध होती हैं। लेकिन इकट्ठी करेगा। यह तो भटकेगा अभी।
ज्ञानी का बालवत होना किसी और अर्थ में है। वह सब जानकर अब इस नतीजे पर पहुंचा है कि इस जानने से कुछ भी नहीं जाना जाता। जानकर सब उसने ज्ञान को कूड़े-करकट की तरह कचरेघर में फेंक दिया है। अब वह फिर अबोध हो गया, फिर बालवत हो गया। घूम आया सब संसार में, पाया कुछ भी नहीं। हाथ खाली के खाली रहे।
यह जानकर अब उसने जानने में ही रस छोड़ दिया है। अब तो वह कहता है, जानने से क्या होगा? अब तो हम उसी को जान लें जो सबको जानता है। अब तो हम ज्ञाता को जान लें; ज्ञान से क्या होगा? दृश्य में बहुत भटके, अब हम द्रष्टा को जान लें। यह जो भीतर छिपा सबका जाननेवाला है, इसको ही पहचान लें।
बालवत--एक बात।
दूसरी बात: बच्चे में एक खूबी है कि जो भी घटता वह क्षण के पार नहीं जाता। तुमने बच्चे को डांट दिया, वह नाराज हो गया, आंखें उसकी लाल हो गईं, पैर पटकने लगा, क्रोध से भर गया। तुमसे कहा, अब सदा के लिए तुमसे दुश्मनी हो गई। अब कभी तुम्हारा चेहरा न देखेंगे। और घड़ी भर बाद बाहर घूमकर आया, सब भूल-भाल गया, तुम्हारी गोद में बैठ गया।
उसमें जो भी होता वह क्षण के लिए है। रुकता नहीं, बह जाता है। पकड़कर नहीं रह जाता। गांठ नहीं बनती है बच्चे में, तुममें गांठ बंध जाती है। किसी ने अपमान कर दिया, गांठ बंध गई। अब यह हो सकता है, बीस साल पहले अपमान किया था, गांठ अभी भी बंधी है। पचास साल पहले किसी ने गाली दी थी, गांठ अभी भी बंधी है। गाली देनेवाला जा चुका, गांठ रह गई।
और ऐसी गांठ पर गांठ बंधती जाती है। और तुम बड़े गठीले हो जाते हो, बड़े जटिल हो जाते हो। बच्चा सरल है, उस पर गांठ नहीं बंधती। बच्चा पानी की तरह है।
ऐसे समझो तुम पानी पर एक लकीर खींचो, तुम खींच भी नहीं पाते, मिट गई। रेत पर लकीर खींचो, थोड़ी देर टिकती है। हवा का झोंका आयेगा तब मिटेगी। या कोई इस पर चलेगा तब मिटेगी। पत्थर पर लकीर खींचो, फिर हवा के झोंकों से भी न मिटेगी, सदियों तक रहेगी।
छोटा बच्चा पानी जैसा है। पानी जैसा सरल, तरल। खींची लकीर, खिंच भी न पाई कि मिट गई। कुछ बनता नहीं। खाली रह जाता है। आती हैं, जाती हैं लहरें, दाग नहीं छूटते। उसकी निर्दोषता, उसका कुंआरापन कायम रहता है। जिस दिन तुम्हारे मन में गांठ पड़ने लगती है, बस उसी दिन बचपन गया।
लोग मुझसे पूछते हैं, किस दिन बचपन गया? उस दिन बचपन गया जिस दिन गांठ पड़ने लगी। तुम पीछे लौटकर देखो। तुम याद करो कि तुम्हें सबसे आखिरी कौन-सी बात याद आती है अपने बचपन में। तो तुम जा सकोगे चार साल की उम्र तक; या बहुत गये तो तीन साल की उम्र तक। जहां तुम्हें स्मृति की यात्रा में अंतिम पड़ाव आ जाये कि इसके बाद कुछ याद नहीं आती, समझना कि उसी दिन गांठ पड़ी। गांठ की याद आती है और किसी चीज की याद आती ही नहीं। इसलिए तीन-चार साल की उम्र तक याद नहीं बनती। क्योंकि गांठ ही नहीं बनती तो याद कैसे बनेगी?
याद बनती है तब, जब तुम गांठों को सम्हालकर रखने लगे। किसी ने गाली दी और तुमने इसको संपत्ति सम्हालकर रख लिया कि बदला लेकर रहेंगे। अब यह बात कभी मिटेगी नहीं। पानी न रहे तुम, अब तुम जम गये। अब तुम्हारे ऊपर रेखायें खिंचने लगीं। अब तुम्हारा कुंआरापन नष्ट हुआ। अब तुम कुंआरे न रहे। अब तुम्हारी कोमलता गई, तुम्हारी तरलता गई। अब तुम बच्चे न रहे।
ज्ञानी फिर बालवत हो जाता, फिर पानी जैसा हो जाता। तुम गाली दे गये, बात आई-गई, खतम हो गई।
बुद्ध के ऊपर एक आदमी आकर थूक गया। तो उन्होंने अपनी चादर से अपना मुंह पोंछ लिया। और मुंह पोंछकर उस आदमी से कहा, और कुछ कहना है भाई? जैसे उसने कुछ कहा हो! उसने थूका है। आनंद तो बड़ा नाराज हो गया। आनंद है बुद्ध का शिष्य। उसने तो कहा कि प्रभु मुझे आज्ञा दें तो इसकी गर्दन तोड़ दूं। पुराना क्षत्रिय! संन्यासी हुए भी आज उसको बीस वर्ष हो गये लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है, गांठें आसानी से थोड़े ही छूटती हैं। उसकी भुजायें फड़क उठीं। उसने कहा कि हद हो गई। यह आदमी आपके ऊपर थूके और हम बैठे देख रहे हैं। आप जरा आज्ञा दे दें। आपका संकोच हो रहा है, इसकी गर्दन तोड़ दूं।
बुद्ध ने कहा, इस आदमी ने थूका उससे मुझे हैरानी नहीं होती, लेकिन तेरी बात से मुझे बड़ी हैरानी होती है। आनंद, बीस साल तुझे हुए हो गये मेरे पास, तेरी पुरानी आदतें न गईं? और मैं यह कह रहा हूं कि इस आदमी ने कुछ कहना चाहा है। कई बार ऐसा हो जाता है कि कहने को शब्द नहीं मिलते तो इसने थूककर कहा है। यह कुछ कहना चाहता था। भाषा में बहुत कुशल न होगा, गाली-गलौज देना ठीक से आता न होगा या गाली जो आती होंगी उनसे काम न चलताहोगा। इसकी मजबूरी तो समझ। यह कुछ कहना चाहता था।
कई बार ऐसा होता है, तुम किसी को गले लगाते हो, क्योंकि तुम कुछ कहना चाहते थे, जो शब्दों में नहीं आता था। तुम किसी का हाथ लेकर दबाते हो; तुम कुछ कहना चाहते थे जो शब्दों में नहीं आता, हाथ दबाकर कहते हो। तुम किसी के गले में फूल की माला डाल देते हो; कुछ कहना चाहते थे, नहीं कहा जा पाता तो फूल से कहते हो। कभी कुछ कहना चाहते हो, आंख आंसुओं से नम हो जाती है। कहना चाहते थे, नहीं कह पाये, आंख आंसुओं से कहती है। यह आदमी कुछ कहना चाहता था। कोई कांटा इसके भीतर गड़ रहा है। थूककर इसने फेंक लिया, चलो यह निर्भार हुआ।
वह आदमी खड़ा ये सब बातें सुन रहा है। वह तो बड़ा मुश्किल में पड़ गया। वह तो वहां से भागा घर। वह तो चादर ओढ़कर सो रहा। उसको तो भारी पश्चात्ताप होने लगा, वह तो रोने लगा। वह दूसरे दिन क्षमा मांगने आया। वह बुद्ध के चरणों पर गिर पड़ा। उसने कहा, मुझे क्षमा कर दें।
बुद्ध ने कहा, पागल! क्षमा कौन करे? जिसको तूने गाली दी थी वह अब है कहां? चौबीस घंटे में गंगा बहुत बह गई। जिस गंगा को तू गाली दे गया था वह गंगा अब है कहां? तूने मुझे गाली दी थी, चौबीस घंटे हो गये। बात आई-गई हो गई। पानी पर खिंची लकीरें टिकती तो नहीं। अब तू क्षमा मांगने किससे आया है? अब मैं तुझे क्षमा कैसे करूं? मैंने कोई गांठ नहीं बांधी। बांधता तो खोलता। अब मैं क्या खोलूं? मैं तुझसे इतना ही कह सकता हूं, तू भी अब यह गांठ मत बांध। बात आई-गई हो गई। आया हवा का झोंका, चला गया। अब तू पश्चात्ताप भी मत कर।
यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है बुद्ध ने कही: अब तू पश्चात्ताप भी मत कर।
मेरे पास लोग आते हैं। कोई कहता है, हम क्रोध करते हैं फिर पश्चात्ताप करते हैं। लेकिन फिर क्रोध हो जाता है, फिर पश्चात्ताप करते हैं, फिर क्रोध हो जाता है। हम क्या करें? मैं उनसे कहता हूं, तुमने क्रोध छोड़ने की जीवन भर कोशिश की। अब कृपा करके इतना करो, पश्चात्ताप छोड़ दो। वे कहते हैं, इससे क्या लाभ होगा? पश्चात्ताप कर-करके क्रोध नहीं छूटा और आप हमें और उल्टी शिक्षा दे रहे हैं--पश्चात्ताप छोड़ दो। मैं उनसे कहता हूं, तुम कुछ तो छोड़ो। पश्चात्ताप छोड़ो; क्रोध तो छूटता नहीं। एक उपाय करके देखो। क्योंकि पश्चात्ताप ही हो सकता है, क्रोध को बनाये रखने में ईंधन का काम कर रहा है।
तुमने किसी को गाली दी, क्रोध हो गया। घर आये, सोचा यह तो बड़ी बुरी बात हो गई। तुम्हारे अहंकार की प्रतिमा खंडित हुई। तुम सोचते हो, तुम बड़े सज्जन, संतपुरुष! तुमसे गाली निकली? यह होना ही नहीं था। अब तुम पश्चात्ताप करके लीपापोती कर रहे हो। वह जो गाली ने तुम्हारी प्रतिमा पर काले दाग फेंक दिये, उनको धो रहे हो पश्चात्ताप करके कि मैं तो भला आदमी हूं। हो गया, मेरे बावजूद हो गया। करना नहीं चाहता था, हो गया। परिस्थिति ऐसी आ गई कि हो गया। चूक हो गई लेकिन चूक करने की कोई मंशा न थी। देखो पश्चात्ताप कर रहा हूं, अब और क्या करूं? पश्चात्ताप करके तुमने फिर पुताई कर ली। फिर तुम उसी जगह पर पहुंच गये जहां तुम क्रोध करने के पहले थे। अब तुम फिर क्रोध करने के लिए तैयार हो गये। अब फिर तुम सज्जन, साधुपुरुष हो गये।
मैं तुमसे कहता हूं, कम से कम पश्चात्ताप न करो। इतनी गांठ क्या बांधनी! हो गया सो हो गया। और तुम चकित होओगे, अगर तुम पश्चात्ताप छोड़ दो तो दुबारा क्रोध न कर सकोगे। क्योंकि पश्चात्ताप अगर छोड़ दो तो तुम दुबारा संत और साधुपुरुष न हो सकोगे। तुम जानोगे मैं बुरा आदमी हूं, क्रोध मुझसे होता है।
यह बड़ा भारी अनुभव होगा। तुम धोखा न दे सकोगे अपने को। तुम जाकर अपने मित्रों को कह दोगे कि भाई, मैं बुरा आदमी हूं, कभी-कभी गाली भी देता हूं--बावजूद नहीं, मुझसे ही होती है; निकलती है। क्षमा क्या मांगूं? आदमी बुरा हूं। तुम सोच-समझकर ही मुझसे संबंध बनाओ। तुम जाकर घोषणा कर दोगे वृहत संसार में कि मैं बुरा आदमी हूं, मुझसे जरा सावधान रहो। दोस्ती मत बनाना, कभी न कभी बुरा करूंगा। काटूंगा। काटना मेरी आदत है।
अगर तुम ऐसी घोषणा कर सको तो देखते हो कैसी क्रांति घटित न हो जाये! तुम्हारा अहंकार तुमने खंडित कर दिया। क्रोध तो अहंकार से उठता है। जितना तुम्हारा अहंकार चला जाये उतना ही क्रोध नहीं उठता। और पश्चात्ताप अहंकार को मजबूत करता है। इसलिए पश्चात्ताप से कभी किसी का क्रोध नहीं जाता।
बुद्ध ने उस आदमी को कहा, तू पश्चात्ताप छोड़। जैसा मैंने छोड़ दिया, तू भी छोड़। न मैंने गांठ बांधी, न तू बांध। जो हुआ, हुआ। अब क्या लेना-देना? अतीत तो जा चुका, अब उसे क्या खींचना! स्नान कर ले! यह धूल-धवांस धो डाल। राह की यह धूल अब ढोनी ठीक नहीं।
अगर तुम समझो तो ध्यान का यही अर्थ होता है: स्नान। रोज-रोज ध्यान कर लो, अर्थात रोज-रोज स्नान कर लो ताकि जो धूल जम गई है वह बह जाये। जैसे शरीर पर जमी धूल स्नान से बह जाती है ऐेसे मन पर जमी धूल ध्यान से बह जाती है। तुम फिर ताजे हो गये, फिर बालवत हो गये।
तो बच्चा निर्दोष है। ज्ञानी निर्दोष है।
‘जो मुनि सब क्रियाओं में निष्काम और बालवत व्यवहार करता है, उस शुद्ध चित्त के किए हुए कर्म भी उसे लिप्त नहीं करते हैं।’
फिर कर्म भी करता है, लेकिन कर्ता तो रहा नहीं इसलिए किसी कर्म से कोई लेप नहीं लगता। किसी कर्म के कारण लिप्त नहीं होता। यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है।
तुमने शब्द सुना है, कर्मबंध। लेकिन अगर ठीक से समझो तो वह शब्द ठीक नहीं है। क्योंकि कर्म से कोई बंध नहीं होता, बंध होता है कामना से। कर्म से बंध नहीं होता। अन्यथा कृष्ण अर्जुन से न कहते कि तू उतर युद्ध में, कर कर्म। नहीं कहते, अगर कर्म से बंध होता। नहीं, काम से बंध होता। तो कहा, फलाकांक्षा छोड़ दे फिर उतर। तूने फलाकांक्षा छोड़ दी तो तू उतरा ही नहीं, परमात्मा ही उतरा।
और वही अष्टावक्र कहते हैं। और भी गहराई से कहते हैं: सर्वारंभेषु निष्कामो। हर काम के प्रारंभ में कामना न हो इतना ध्यान रहे। कर्म चलने दो। कर्म तो जीवन का स्वभाव है। कर्म तो रुकेगा नहीं। कर्म की यात्रा होती रहे। लेकिन तुम? तुम भीतर से शून्य हो जाओ। तुम मत करो, होने दो।
कर्म से कोई नहीं बंधता, कामना में बंधन है। इसलिए कर्मबंध से ज्यादा ठीक शब्द है, कामबंध।
बुद्ध भी कर्म करते हैं ज्ञानी हो जाने के बाद; चालीस वर्ष तक कर्म किया। महावीर भी कर्म करते हैं ज्ञानी हो जाने के बाद, कृष्ण भी करते हैं, मोहम्मद भी करते हैं, जीसस भी करते हैं। कर्म नहीं रुकता। हां, कर्म का गुण बदल जाता है। अब कर्ता नहीं रहा पीछे।
‘वही आत्मज्ञानी धन्य है जो मन का निस्तरण कर गया है और जो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सब भावों में एकरस है।’
स एव धन्य आत्मज्ञः सर्वभावेषु यः समः।
पश्यन् श्रृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्निस्तर्षमानसः।।
निस्तर्षमानसः--जो मन के पार हो गया है वही धन्य है। जो निस्तरण कर गया है।
हम तो शरीर से भी पार नहीं होते। भूख लगती है तो हम कहते हैं, मुझे भूख लगी है। तुम भलीभांति जानते हो कि भूख शरीर को लगी है, तुम्हें नहीं लगी। तुम तो जाननेवाले हो, जो जान रहा है कि शरीर को भूख लगी है। सिर में दर्द होता है, तुम कहते हो मुझे पीड़ा हो रही है। तुम भलीभांति जानते हो, पीड़ा तुम्हें हो नहीं सकती। तुम तो जाननेवाले हो, पीड़ा तो शरीर को हो रही है। किसी ने गाली दी, क्षुब्ध हुए। क्षोभ तो मन में होता है, तुम्हें नहीं होता। तुम तो जाननेवाले हो, मन के पीछे खड़े। साक्षी हो; जो देख रहा है कि मन क्षुब्ध हुआ। किसी ने गाली का पत्थर फेंका, मन के सागर में लहरें उठ गईं। मन की झील तरंगित हो गई। तुम तो देख रहे। जैसे किनारे पर बैठा कोई देखता हो कि किसी ने पत्थर फेंका झील में, और झील में लहरें उठ गईं। ऐसा तुम पीछे बैठे किनारे पर देख रहे; किसी ने गाली फेंकी और मन में तरंगें उठ गईं।
तुम मन नहीं हो। न तुम देह, न तुम मन। तुम दोनों के पार हो--कुछ अपरिभाष्य। लेकिन एक बात सुनिश्चित है, तुम जागृति हो, बोध हो, होश हो। इस बोध को पा लेने से ही तो किसी को हम बुद्धपुरुष कहते हैं। इस साक्षीभाव को उपलब्ध हो जाने का ही नाम निस्तरण है।
निस्तर्षमानसः।
‘वही आत्मज्ञानी धन्य है जो मन का निस्तरण कर गया।’
जो मन से तैरकर आगे निकल गया या मन के पीछे निकल गया। मन से पार हो गया। मन की धार में जो नहीं खड़ा है वही ज्ञानी धन्य है।
‘ऐसा ज्ञानी देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सब भावों में एकरस है।’
सुख आये, दुख आये, जो मन के पार हो गया है उसे न सुख आता न दुख आता। दोनों मन में घटते हैं। न सुख से सुखी होता, न दुख से दुखी होता। कोई फूल फेंके कि गालियां बरसाये, सफलता मिले कि विफलता, कांटे चुभें कि फूलों की सेज कोई बिछाये, ज्ञानी दोनों अवस्थाओं में समरस।
एक बुलबुल का जला कल आशियाना जब चमन में
फूल मुस्काते रहे छलका न पानी तक नयन में
सब मगन अपने भजन में था किसी को दुख न कोई
सिर्फ कुछ तिनके पड़े सिर धुन रहे थे उस हवन में
हंस पड़ा मैं देख यह तो एक झरता पात बोला
हो मुखर या मूक, हाहाकार सबका है बराबर
फूल पर हंसकर अटक तो शूल को रोकर झटक मत
ओ पथिक, तुझ पर यहां अधिकार सबका है बराबर
है अदा यह फूल की छूकर उंगलियां रूठ जाना
स्नेह है यह शूल का चुभ उम्र छालों की बढ़ाना
मुश्किलें कहते जिन्हें हम राह की आशीष हैं वे
और ठोकर नाम है बेहोश पग को होश आना
एक ही केवल नहीं है, प्यार के रिश्ते हजारों
इसलिए हर अश्रु को उपहार सबका है बराबर
फूल पर हंसकर अटक तो शूल को रोकर झटक मत
ओ पथिक, तुझ पर यहां अधिकार सबका है बराबर
सुख है, दुख है। जीवन है, मृत्यु है। मित्र हैं, शत्रु हैं। दिन है, रात है। सबका अधिकार बराबर। न तुम मांगो सुख, न तुम मांगो कि दुख न हो। तुम मांगो ही मत। जो आ जाये, तुम समरस साक्षी रहो।
धन्य है वही दशा जो सब भावों में एकरस है; जिसे कुछ भी कंपित नहीं करता; जो निष्कंप है; जो अडोल अपने केंद्र पर थिर है।
इस शब्द को याद रखना: निस्तर्षमानसः। मन के पार जाना, उन्मन होना। जिसको झेन फकीर नो माइंड कहते हैं।
एक ऐसी दशा अपने भीतर खोज लेनी है जहां कुछ भी स्पर्श नहीं करता। और वैसी दशा तुम्हारे भीतर छिपी पड़ी है। वही तुम्हारी आत्मा। और जब तक हम उसे न जान लें तो हमने उस एक को नहीं जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। उस एक को जानने से फिर द्वंद्व मिट जाता है। फिर दो के बीच चुनाव नहीं रह जाता, अचुनाव पैदा होता है। उस अचुनाव में ही आनंद है, सच्चिदानंद है।
जनक के जीवन में एक उल्लेख है। जनक रहते तो राजमहल में थे, बड़े ठाठ-बाट से। सम्राट थे और साक्षी भी। अनूठा जोड़ था। सोने में सुगंध थी। बुद्ध साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं। महावीर साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं, सरल बात है। सब छोड़कर साक्षी हैं। जनक का साक्षी होना बड़ा महत्वपूर्ण है। सब है और साक्षी हैं।
एक गुरु ने अपने शिष्य को कहा कि तू वर्षों से सिर धुन रहा है और तुझे कुछ समझ नहीं आती। अब तू मेरे बस के बाहर है। तू जा, जनक के पास चला जा। उसने कहा कि आप जैसे महाज्ञानी के पास कुछ न हुआ तो यह जनक जैसे अज्ञानी के पास क्या होगा? जो अभी महलों में रहता, वेश्याओं के नृत्य देखता; और मैंने तो सुना है कि शराब इत्यादि भी पीता है। आप मुझे कहां भेजते हैं? लेकिन गुरु ने कहा, तू जा!
गया शिष्य। बेमन से गया। न जाना था तो गया, क्योंकि गुरु की आज्ञा थी तो आज्ञावश गया। था तो पक्का कि वहां क्या मिलेगा। मन में तो उसके निंदा थी। मन में तो वह सोचता था, उससे ज्यादा तो मैं ही जानता हूं। और जब वह पहुंचा तो संयोग की बात, जनक बैठे थे, वेश्यायें नृत्य कर रही थीं, दरबारी शराब ढाल रहे थे। वह तो बड़ा ही नाराज हो गया। उसने जनक को कहा, महाराज, मेरे गुरु ने भेजा है इसलिए आ गया हूं। भूल हो गई है। क्यों उन्होंने भेजा है, किस पाप का मुझे दंड दिया है यह भी मैं नहीं जानता। लेकिन अब आ गया हूं तो आपसे यह पूछना है कि यह अफवाह आपने किस भांति उड़ा दी है कि आप ज्ञान को उपलब्ध हो गये हैं? यह क्या हो रहा है यहां? यह राग-रंग चल रहा है। इतना बड़ा साम्राज्य, यह महल, यह धन-दौलत, यह सारी व्यवस्था, इस सबके बीच में आप बैठे हैं तो ज्ञान को उपलब्ध कैसे हो सकते हैं? त्यागी ही ज्ञान को उपलब्ध होते हैं।
जनक ने कहा, तुम जरा बेवक्त आ गये। यह कोई सत्संग का समय नहीं है। तुम एक काम करो, मैं अभी उलझा हूं। तुम यह दीया ले लो। पास में रखे एक दीये को दे दिया और कहा कि तुम पूरे महल का चक्कर लगा आओ। एक-एक कमरे में हो आना। मगर एक बात खयाल रखना, इस महल की एक खूबी है; अगर दीया बुझ गया तो फिर लौट न सकोगे, भटक जाओगे। बड़ा विशाल महल था। तो दीया न बुझे इसका खयाल रखना। सब महल को देख आओ। तुम जब तक लौटोगे तब तक मैं फुरसत में हो जाऊंगा, फिर सत्संग के लिए बैठेंगे।
वह गया युवक उस दीये को लेकर। उसकी जान बड़ी मुसीबत में फंसी। महलों में कभी आया भी नहीं था। वैसे ही यह महल बड़ा तिलिस्मी, इसकी खबरें उसने सुनी थीं कि इसमें लोग खो जाते हैं; और एक झंझट। और यह दीया अगर बुझ जाये तो जान पर आ बने। ऐसे ही संसार में भटके हैं, और संसार के भीतर यह और एक झंझट खड़ी हो गई। अभी संसार से ही नहीं छूटे थे और एक और मुसीबत आ गई।
लेकिन अब जनक ने कहा है और गुरु ने भेजा है तो वह दीये को लेकर गया बड़ा डरता-डरता। महल बड़ा सुंदर था; अति सुंदर था। महल में सुंदर चित्र थे, सुंदर मूर्तियां थीं, सुंदर कालीन थे, लेकिन उसे कुछ दिखाई न पड़ता। वह तो एक ही चीज देख रहा है कि दीया न बुझ जाये। वह दीये को सम्हाले हुए है। और सारे महल का चक्कर लगाकर जब आया तब निश्चिंत हुआ। दीया रखकर उसने कहा कि महाराज, बचे। जान बची तो लाखों पाये। बुद्धू लौटकर घर को आये। यह तो एक जान पर ऐसी मुसीबत हो गई, हम फकीर आदमी और यह महल जरूर उपद्रव है, मगर दीये ने बचाया।
सम्राट ने कहा, छोड़ो दीये की बात; तुम यह बताओ, कैसा लगा? उसने कहा, किसको फुरसत थी देखने की? जान पर फंसी थी। जान पर आ गई थी। दीया देखें कि महल देखें? कुछ देखा नहीं। सम्राट ने कहा, ऐसा करो, अब आ गये हो तो रात रुक जाओ। सुबह सत्संग कर लेंगे। तुम भी थके हो और यह महल का चक्कर भी थका दिया है। और मैं भी थक गया हूं।
बड़े सुंदर भवन में बड़ी बहुमूल्य शय्या पर उसे सुलाया। और जाते वक्त सम्राट कह गया कि ऊपर जरा खयाल रखना। ऊपर एक तलवार लटकी है। और पतले धागे में बंधी है--शायद कच्चे धागे में बंधी हो। जरा इसका खयाल रखना कि यह कहीं गिर न जाये। और इस तलवार की यह खूबी है कि तुम्हारी नींद लगी कि यह गिरी।
उसने कहा, क्यों फंसा रहे हो मुझको झंझट में? दिन भर का थका-मांदा जंगल से चलकर आया, यह महल का उपद्रव और अब यह तलवार! सम्राट ने कहा, यह हमारी यहां की व्यवस्था है। मेहमान आता है तो उसका सब तरह का स्वागत करना।
रात भर वह पड़ा रहा और तलवार देखता रहा। एक क्षण को पलक झपकने तक में घबड़ाये। कि कहीं तलवार भ्रांति से भी समझ ले कि सो गया और टपक पड़े तो जान गई। सुबह जब सम्राट ने पूछा तो वह तो आधा हो गया था सूखकर, कि कैसी रही रात? बिस्तर ठीक था?
उसने कहा, कहां की बातें कर रहे हो! कैसा बिस्तर? हम तो अपने झोपड़े में जहां जंगल में पड़े रहते थे वहीं सुखद था। ये तो बड़ी झंझटों की बातें हैं। रात एक दीया पकड़ा दिया कि अगर बुझ जाये तो खो जाओ। अब यह तलवार लटका दी। रात भर सो भी न सके, क्योंकि अगर यह झपकी आ जाये...उठ-उठ कर बैठ जाता था रात में। क्योंकि जरा ही डर लगे कि झपकी आ रही है कि तलवार टूट जाये। कच्चे धागे में लटकी है। गरीब आदमी हूं, कहां मुझे फंसा दिया! मुझे बाहर निकल जाने दो। मुझे कोई सत्संग नहीं करना।
सम्राट ने कहा, अब तुम आ ही गये हो तो भोजन तो करके जाओ। सत्संग भोजन के बाद होगा। लेकिन एक बात तुम्हें और बता दूं, कि तुम्हारे गुरु का संदेश आया है कि अगर सत्संग में तुम्हें सत्य का बोध न हो सके तो जान से हाथ धो बैठोगे। शाम को सूली लगवा देंगे। सत्संग में बोध होना ही चाहिए।
उसने कहा, यह क्या मामला है? अब सत्संग में बोध होना ही चाहिए यह भी कोई मजबूरी है? हो गया तो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ। यह मामला...।
तुम्हें राजाओं-महाराजाओं का हिसाब नहीं मालूम। तुम्हारे गुरु की आज्ञा है। हो गया बोध तो ठीक, नहीं हुआ बोध तो शाम को सूली लग जायेगी।
अब वह भोजन करने बैठा। बड़ा सुस्वादु भोजन है, सब है, मगर कहां स्वाद? अब यह घबड़ाहट कि तीस साल गुरु के पास रहे तब बोध नहीं हुआ, इसके पास एक सत्संग में बोध होगा कैसे? किसी तरह भोजन कर लिया। सम्राट ने पूछा, स्वाद कैसा--भोजन ठीक-ठाक? उसने कहा, आप छोड़ो। किसी तरह यहां से बचकर निकल जायें, बस इतनी ही प्रार्थना है। अब सत्संग हमें करना ही नहीं है।
सम्राट ने कहा, बस इतना ही सत्संग है कि जैसे रात तुम दीया लेकर घूमे और बुझने का डर था, तो महल का सुख न भोग पाये, ऐसा ही मैं जानता हूं कि यह दीया तो बुझेगा, यह जीवन का दीया बुझेगा; यह बुझने ही वाला है। रात दीये के बुझने से तुम भटक जाते। और यह जीवन का दीया तो बुझने ही वाला है। और फिर मौत के अंधकार में भटकन हो जाएगी। इसके पहले कि दीया बुझे, जीवन को समझ लेना जरूरी है। मैं हूं महल में, महल मुझमें नहीं है।
रात देखा, तलवार लटकी थी तो तुम सो न पाये। और तलवार प्रतिपल लटकी है। तुम पर ही लटकी नहीं, हरेक पर लटकी है। मौत हरेक पर लटकी है। और किसी भी दिन, कच्चा धागा है, किसी भी क्षण टूट सकता है। और मौत कभी भी घट सकती है। जहां मौत इतनी सुगमता से घट सकती है वहां कौन उलझेगा राग-रंग में? बैठता हूं राग-रंग में; उलझता नहीं हूं।
अब तुमने इतना सुंदर भोजन किया लेकिन तुम्हें स्वाद भी न आया। ऐसा ही मुझे भी। यह सब चल रहा है, लेकिन इसका कुछ स्वाद नहीं है। मैं अपने भीतर जागा हूं। मैं अपने भीतर के दीये को सम्हाले हूं। मैं मौत की तलवार को लटकी देख रहा हूं। फांसी होने को है। यह जीवन का पाठ अगर न सीखा, अगर इस सत्संग का लाभ न लिया तो मौत तो आने को है। मौत के पहले कुछ ऐसा पा लेना है जिसे मौत न छीन सके। कुछ ऐसा पा लेना है जो अमृत हो। इसलिए यहां हूं सब, लेकिन इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।
यह जो जनक ने कहा: महल में हूं महल मुझमें नहीं है; संसार में हूं, संसार मुझमें नहीं है, यह ज्ञानी का परम लक्षण है। वह कर्म करते हुए भी किसी बात में लिप्त नहीं होता। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, साक्षी होना। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, निस्तर्षमानसः। मन के पार हो जाना।
जैसे ही तुम मन के पार हुए, एकरस हुए। मन में अनेक रस हैं, मन के पार एकरस। क्योंकि मन अनेक है इसलिए अनेक रस हैं।
तुम्हारे भीतर एक मन थोड़े ही है, जैसा तुम सोचते हो। महावीर ने कहा है, मनुष्य बहुचित्तवान है। एक चित्त नहीं है मनुष्य के भीतर, बहुत चित्त हैं। क्षण-क्षण बदल रहे हैं चित्त। सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। चित्त तो बदलता ही रहता है। इतने चित्त हैं। आधुनिक मनोविज्ञान कहता है, मनुष्य पोलीसाइकिक है। वह ठीक महावीर का शब्द है। पोलीसाइकिक का अर्थ होता है, बहुचित्तवान। बहुत चित्त हैं।
गुरजिएफ कहता था, तुम भीड़ हो, एक नहीं। सुबह बड़े प्रसन्न थे, तब तुम्हारे पास एक चित्त था। फिर जरा-सी बात में खिन्न हो गये और तुम्हारे पास दूसरा चित्त हो गया। फिर कोई पत्र आ गया मित्र का, बड़े खुश हो गये। तीसरा चित्त हो गया। पत्र खोला, मित्र ने कुछ ऐसी बात लिख दी, फिर खिन्न हो गये; फिर दूसरा चित्त हो गया।
चित्त चौबीस घंटे बदल रहा है। तो चित्त के साथ एक रस तो कैसे उपलब्ध होगा? एक रस तो उसी के साथ हो सकता है, जो एक है। और एक तुम्हारे भीतर साक्षी है। उस एक को जानकर ही जीवन में एकरसता पैदा होती है। और एकरस आनंद का दूसरा नाम है।
‘सर्वदा आकाशवत निर्विकल्प ज्ञानी को कहां संसार है, कहां आभास है, कहां साध्य है, कहां साधन है?’
क्व संसारः क्व चाभासः क्व साध्यं क्व च साधनम् ।
आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्येव सर्वदा।।
वह जो अपने भीतर आकाश की तरह साक्षीभाव में निर्विकल्प होकर बैठ गया है उसके लिए फिर कोई संसार नहीं है। संसार है मन और चेतना का जोड़। संसार है साक्षी का मन के साथ तादात्म्य। जिसका मन के साथ तादात्म्य टूट गया उसके लिए फिर कोई संसार नहीं। संसार है भ्रांति मन की; मन के महलों में भटक जाना। वह दीया बुझ गया साक्षी का तो फिर मन के महल में तुम भटक जाओगे। दीया जलता रहे तो मन के महल में न भटक पाओगे।
इतनी-सी बात है। बस इतनी-सी ही बात है सार की, समस्त शास्त्रों में। फिर कहां साध्य है, कहां साधन है? जिसको साक्षी मिल गया उसके लिए फिर कोई साध्य नहीं, कोई साधन नहीं। न उसे कुछ विधि साधनी है, न कोई योग, जप-तप; न उसे कहीं जाना है, कोई मोक्ष, कोई स्वर्ग, कोई परमात्मा। न ही उसे कहीं जाना, न ही उसे कुछ करना। पहुंच गया।
साक्षी में पहुंच गये तो मुक्त हो गये। साक्षी में पहुंच गये तो पा लिया फलों का फल। भीतर ही जाना है। अपने में ही आना है।
मैंने सुना है कि किसी गांव में एक फकीर घूमा करता था। उसकी सफेद लंबी दाढ़ी थी और हाथ में एक मोटा डंडा। चीथड़ों में लिपटा उसका ढीला-ढीला और झुर्रियों से भरा बुढ़ापे का शरीर। अपने साथ एक गठरी लिए रहता था सदा। और गठरी पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख रखा था: ‘माया’। वह बार-बार उस गठरी को खोलता भी था। उसमें उसने बड़े जतन से रंगीन रद्दी कागज लपेटकर रख छोड़े थे। कहीं मिल जाते रास्ते पर तो कागजों को इकट्ठा कर लेता। अपनी माया की गठरी में रख लेता। जिस गली से निकलता उसमें रंगीन कागज दिखता तो बड़ी सावधानी से उठा लेता। सिकुड़नों पर हाथ फेरता, उनकी गड्डी बनाकर, जैसे कोई नोटों की गड्डी बनाता है, अपनी माया की गठरी में रख लेता।
उसकी गठरी रोज बड़ी होती जाती थी। बूढ़ा हो जा रहा था और गठरी बड़ी होती जाती थी। लोग उसे समझाते कि पागल, यह कचरा क्यों ढोता है? वह हंसता और कहता कि जो खुद पागल हैं वे दूसरों को पागल बता रहे हैं।
कभी-कभी किसी दरवाजे पर बैठ जाता और कागजों को दिखाकर कहता, ये मेरे प्राण हैं। ये खो जायें तो मैं एक क्षण जी न सकूंगा। ये खो जायें तो मेरा दिवाला निकल जाएगा। ये चोरी चले जायें तो मैं आत्महत्या कर लूंगा। कभी कहता ये मेरे रुपये हैं, यह मेरा धन है। इनसे मैं अपने गांव के गिरते हुए किले का पुनः निर्माण कराऊंगा। कभी अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरकर स्वाभिमान से कहता, उस किले पर हमारा झंडा फहरायेगा और मैं राजा बनूंगा। और कभी कहता कि इनको नोट ही मत समझो, इनकी ही मैं नावें बनाऊंगा। इन्हीं नावों में बैठकर उस पार जाऊंगा।
और लोग हंसते। और बच्चे हंसते और बूढ़े भी हंसते। और जब भी कोई जोर से हंसता तो वह कहता, चुप रहो। पागल हो और दूसरों को पागल समझते हो।
तभी गांव में एक ज्ञानी का आगमन हुआ। और उस ज्ञानी ने गांव के लोगों से कहा, इसको पागल मत समझो और इसकी हंसी मत उड़ाओ। इसकी पूजा करो नासमझो! क्योंकि यह जो गठरी ढो रहा है, तुम्हारे लिए ढो रहा है। ऐसे ही कागज की गठरियां तुम ढो रहे हो। यह तुम्हारी मूढ़ता को प्रगट करने के लिए इतना श्रम उठा रहा है। इसकी गठरी पर इसने ‘माया’ लिख रख छोड़ा है। कागज, कूड़ा-कचरा भरा है। तुम क्या लिए घूम रहे हो? तुम भी सोचते हो कि महल बनायेंगे, उस पर झंडा फहरायेंगे। नाव बनायेंगे, उस पार जायेंगे। सिकंदर बनेंगे कि नेपोलियन। सारे संसार को जीत लेंगे। बड़े किले बनायेंगे कि मौत भी प्रवेश न कर सकेगी।
और जब यह फकीर समझाने लगा लोगों को तो वह बूढ़ा भिखमंगा हंसने लगा और उसने कहा कि मत समझाओ। ये खाक समझेंगे! ये कुछ भी न समझेंगे। मैं वर्षों से समझाने की कोशिश कर रहा हूं। ये सुनते नहीं। ये मेरी गठरी देखते हैं, अपनी गठरी नहीं देखते। ये मेरे रंगीन कागजों को रंगीन कागज समझते हैं और जिन नोटों को इन्होंने तिजोड़ियों में भर रखा है उन्हें असली धन समझते हैं। मुझे कहते हैं पागल, खुद पागल हैं।
यह पृथ्वी बड़ा पागलखाना है। इसमें से जागो। इसमें से जागो, इसमें से न जागे तो बार-बार मौत आयेगी और बार-बार तुम वापिस इसी पागलखाने में फेंक दिये जाओगे। फिर-फिर जन्म! इसीलिए तो पूरब के मनीषी एक ही चिंतना करते रहे हैं सदियों से--आवागमन से कैसे छुटकारा हो? कैसे मिटे जन्म? कैसे मिटे मौत?
मिटने का एक ही उपाय है। तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा है जिसका न कभी जन्म हुआ और न कभी मृत्यु होती है। तुम्हारे भीतर अजन्मा और अमृतस्वरूप कुछ पड़ा है। वही तुम्हारा हीरा है; उसे खोज लो। वही तुम्हारा धन।
और बहुत दूर नहीं पड़ा है। जैसे शरीर के पीछे मन है, और ठीक मन के पीछे साक्षी है। इंच भर की दूरी नहीं है। जरा भीतर सरको। जरा-सा भीतर सरको, और तुम उसे पा लोगे जिसे पाने के लिए जन्मों से कोशिश कर रहे हो। लेकिन गलत स्थान पर खोज रहे हो इसलिए उपलब्ध नहीं कर पाते हो।
यह साक्षी आकाशवत है। जैसे आकाश की कोई सीमा नहीं, ऐसे ही साक्षी की कोई सीमा नहीं। और जैसे आकाश पर कभी बादल घिर जाते हैं तो आकाश खो जाता है, ऐसे ही साक्षी पर जब मन घिर जाता है--मन के बादल, विचार के बादल--तो साक्षी खो जाता है। लेकिन वस्तुतः खोता नहीं। जब वर्षा में घने बादल घिरे होते हैं तब भी आकाश खोता थोड़े ही, सिर्फ दिखाई नहीं पड़ता है। ओझल हो जाता है। आंख से ओझल हो जाता है। फिर बादल आते, चले जाते, आकाश फिर प्रगट हो जाता है।
जिसको तुम विचार कहते हो वे तुम्हारे चैतन्य के आकाश पर घिरे बादल हैं। उनसे तुम जरा अपने को अलग कर लो, निस्तरण कर लो अपना और तुम अचानक पाओगे, उसे पा लिया जिसे कभी खोया ही न था। उसे पा लिया जो खोया ही नहीं जा सकता। और वही पाने योग्य है, जो खोया नहीं जा सकता। जो खो जायेगा, जो खो सकता है, उसे पा-पा कर भी क्या करोगे? वह खो ही जायेगा। वह फिर-फिर खो जायेगा।
‘वही कर्मफल को त्यागनेवाला पूर्णानंदस्वरूप ज्ञानी जय को प्राप्त होता है जिसकी सहज समाधि अविच्छिन्न रूप में वर्तती है।’
स जयत्यर्थसंन्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः।
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते।।
समझो।
स जयति अर्थसंन्यासी...।
जिसने जीवन में से अर्थ की अपनी खोज छोड़ दी। जो कहता है अर्थ परमात्मा का, मेरा क्या? अंश का क्या कोई अर्थ होता है? अर्थ तो पूर्ण का होता है।
समझो, यह मेरा हाथ उठा तुम्हारे सामने। यह हाथ अगर मुझसे तोड़ लो तो भी हो सकता है इसी मुद्रा में हो, लेकिन तब इसमें कोई अर्थ न होगा। मुर्दा हाथ की कोई मुद्रा होती है? मैं अभी तुम्हें देख रहा हूं, मेरी आंख में झांको। मैं मर जाऊं, मेरे भीतर जो छिपा है वह विदा हो जाये, फिर भी यह आंख तुम्हारी तरफ इसी तरह देखती रहे, लेकिन इसमें फिर कुछ अर्थ न होगा। देखनेवाला न रहा तो आंख में क्या अर्थ होगा? हाथ उठानेवाला न रहा तो उठे हुए हाथ में क्या अर्थ होगा?
अर्थ पूर्ण में होता, अंश में नहीं होता। और हम सब इस विराट अस्तित्व के, पूर्ण परमात्मा के, परात्पर ब्रह्म के अंश हैं। हममें अर्थ नहीं हो सकता, अर्थ तो परमात्मा में है। जब तक तुम अपना अर्थ, निजी अथर्र् खोज रहे हो तब तक तुम पागल हो।
अंग्रेजी का शब्द इडियट बहुत अच्छा है। वह जिस मूल धातु से आता है उसका अर्थ होता है, जो अपना निजी अर्थ खोज रहा है। जो अपना व्यक्तिगत इडियम खोज रहा है वह इडियट। वही मूढ़ है जो अपना निजी अर्थ खोज रहा है। जो सोच रहा है कि मेरी कोई नियति है। मुझे कुछ खोजना है। मुझे कुछ सिद्ध करके बताना है।
वही समझदार है जिसने विराट के साथ अपनी नियति जोड़ दी। कोई लहर सागर की अपना लक्ष्य खोजने लगे तो पागल ही हो जायेगी न! लक्ष्य सागर का होगा, लहर का कैसे हो सकता है? फिर सागर का भी कैसे होगा, महासागर का होगा। फिर महासागर का भी कैसे होगा, अस्तित्व का होगा। अंततः तो अर्थ समग्र का होगा। व्यक्ति का कोई अर्थ नहीं होता, समष्टि का अर्थ होता है। अर्थ विराट का होता है।
और यह वचन बड़ा अदभुत है।
स जयत्यर्थसंन्यासी...।
जिसने अर्थ का त्याग कर दिया वही जीत गया। अर्थ के त्यागी को ही संन्यासी कहते हैं। जिसने कहा, अब मैं क्या खोजूं? मेरा क्या लेना-देना! बहूंगा तेरी धार में। ले चलेगा जहां, वहां चलूंगा। डुबा देगा तो डूबूंगा। उबारेगा तो उबरूंगा। अब तू समझ। अब तू जान। तेरी मर्जी हो जैसी। जब कहते हैं कि पत्ते भी उसकी मर्जी के बिना नहीं हिलते तो मैं क्यों हिलूं? हिलाये तो हिलूं, न हिलाये तो न हिलूं। जैसा नाच नचायेगा, नाचूंगा। ऐसा जिसने समग्ररूपेण छोड़ दिया परमात्मा पर, उसका नाम ही संन्यासी। अर्थसंन्यासी।
स जयति अर्थसंन्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः।
और जिसने इस तरह छोड़ दिया उसके जीवन में उस विग्रह का पदार्पण होता है, उस प्रसाद का पदार्पण होता है जहां स्वरस जन्मता है; जहां परम रस की धार बहती है।
तुम रोके खड़े हो। तुम बाधा हो। तुम झरने पर पड़े हुए पत्थर हो, हटो तो झरना बहे। तुम्हारे कारण झरना नहीं बह पा रहा है।
‘वही कर्मफल को त्यागनेवाला पूर्णानंदस्वरूप ज्ञानी जय को प्राप्त होता, जिसकी सहज समाधि अविच्छिन्न रूप में वर्तती है।’
और ध्यान रखना, समाधि तो तभी अविच्छिन्न रूप में वर्तेगी जब सहज हो। सहज का अर्थ, जब स्वाभाविक हो। स्वाभाविक का अर्थ, जब चेष्टा से निर्मित न हो, आयोजना न की जाये, रोपित न की जाये। वही समाधि, जो किसी प्रयास से उत्पन्न न हो, अनायास हो।
इस फर्क को समझना। यही पतंजलि और अष्टावक्र का भेद है। पतंजलि जिस समाधि की बात कर रहे वह चेष्टा से होगी। यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, तब समाधि। ऐसी लंबी यात्रा होगी। बड़ी योजना करनी पड़ेगी। बड़े प्रयास करने पड़ेंगे। सब तरह से अपने को साधना पड़ेगा, तब होगी। वह संकल्प का मार्ग है।
अष्टावक्र कहते हैं, समर्पण। छोड़ो भी। तुम क्या साधोगे यम-नियम? तुम कैसे प्रत्याहार साधोगे? श्वास तो अपनी नहीं, प्राणायाम क्या करोगे? ध्यान-धारणा क्या करोगे? तुम हो कौन? तुम हटो बीच से। यह अहंकार जाने दो। इसी अहंकार पर तुमने अब तक हीरे-जवाहरात लटकाये, अब यम-नियम लटकाना चाहते हो? इसी अहंकार से तुमने संसार जीता, अब इसी अहंकार से तुम परमात्मा को भी जीतना चाहते हो? छोड़ो यह सब। तुम सिर्फ इतना ही करो, एक ही कदम में छलांग लो। तुम कहो, अब जैसी तेरी मर्जी। अब जो विराट करायेगा, होगा।
ऐसे सरल भाव से जो समाधि पैदा होती है वही सहज समाधि। कबीर कहते हैं, साधो सहज समाधि भली। सहज समाधि का अर्थ होता है, तुम्हारी चेष्टा से नहीं, तुम्हारे बोध से जो आती है। जागरण से जो आती है। समझ मात्र से जो आ जाती है। जिसके लिए बड़े-बड़े उपाय, विधि-विधान नहीं करने पड़ते।
‘जिसकी सहज समाधि अविच्छिन्न रूप में वर्तती है वही अर्थसंन्यासी है, धन्यभागी है।’
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते।
अकृत्रिम। कई लोग हैं जो कृत्रिम समाधि साध लेते हैं। बैठ गये, उपवास कर लिया। अगर खूब उपवास किया तो शरीर क्षीण हो जाता है। जब शरीर क्षीण हो जाता तो विचार को ऊर्जा नहीं मिलती, विचार क्षीण हो जाता। उस निस्तेज अवस्था में विचार नहीं उठते। उसको तुम समाधि मत समझ लेना! वह तो एक तरह की आंतरिक दुर्बलता है, समाधि नहीं। धोखा है।
वह तो ऐसे ही समझो कि किसी आदमी को नपुंसक कर दिया और वह कहने लगा कि मैं ब्रह्मचारी हो गया। नपुंसकता ब्रह्मचर्य नहीं है। नपुंसकता तो सिर्फ अभाव है। ब्रह्मचर्य तो बड़ी भावदशा है, भावात्मक है।
समाधि दो तरह की हो सकती है। तुम उपवास करो खूब--इसलिए बहुत से पंथ उपवास करवाते हैं। उपवास करने से शरीर क्षीण होता है! और जब शरीर क्षीण होता तो मन को ऊर्जा नहीं मिलती। जब मन को ऊर्जा नहीं मिलती तो तुम्हें लगता है कि मन से मुक्त हो गये। मन पड़ा रहता है फन पटके। जैसे कि सांप बेहोश पड़ा हो, भूखा पड़ा हो। फिर भोजन करोगे, फिर मन का फन उठेगा। इस तरह से कुछ जबरदस्ती साधने से कुछ हल नहीं है। तुम्हें अगर ब्रह्मचर्य साधना है, लंबे उपवास करो।
अमरीका के एक विश्वविद्यालय में एक प्रयोग किया हार्वर्ड में। तीस विद्यार्थियों को उपवास पर रखा गया। सात दिन के बाद उनके पास प्लेब्वाय जैसी पत्रिकायें पड़ी रहें, वे देखें ही नहीं। नग्न स्त्रियां, सुंदर स्त्रियों के चित्र--वे बिलकुल न देखें। उनका रस ही जाता रहा। जब शरीर ही क्षीण होने लगा तो वासना को ऊर्जा कहां से मिले? दो सप्ताह बीतते-बीतते उनका बिलकुल रस न रहा। तीन सप्ताह बीतते-बीतते तो वे बिलकुल नीरस हो गये। उनसे कितना ही पूछा जाये कि स्त्रियों के संबंध में कुछ विचार? वे कहते, कुछ नहीं।
भोजन दिया चौथे सप्ताह के बाद। बस, भोजन के आते ही सारी ऊर्जा वापिस आ गई। वे जो फन मारकर पड़ गये थे विचार, फिर उठ आये। फिर वासना। फिर स्त्रियों के नग्न चित्रों में रस आने लगा। फिर बातचीत रसपूर्ण होने लगी।
इस प्रयोग ने बड़ी महत्वपूर्ण बात सिद्ध की: शरीर को शक्ति न मिले तो मन को शक्ति नहीं मिलती। शरीर से ही मन को शक्ति मिलती है। शक्तिशून्य हो जाने का नाम मुक्ति नहीं है। मुक्ति तो महाशक्ति में घटती है।
इसलिए सहज समाधि पर मेरा भी जोर है। खाते-पीते, सहज, स्वस्थ समाधि घटे तभी उसका कोई मूल्य है। जबरदस्ती घटा ली, वह कृत्रिम है; वे कागज के फूल हैं, असली फूल नहीं। उन पर भरोसा मत करना। वे काम नहीं आयेंगे।
‘इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन है? तत्वज्ञ महाशय भोग और मोक्ष दोनों में निराकांक्षी सदा और सर्वत्र रागरहित है।’
बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्वो महाशयः।
भोगमोक्षनिराकांक्षी सदा सर्वत्र नीरसः।।
अष्टावक्र इतना कहे और अब कहते हैं कि इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन? इसका मजा समझो। इतना कहे हैं, कहते जा रहे हैं, और कहते हैं कि इतना बहुत कहने से क्या प्रयोजन।
उसका कारण है। कितना ही कहो, कम ही रहता है। कितना ही कहो, जो कहना था, अनकहा ही रह जाता है। कितना ही गुनगुनाओ, जो गीत गाना था, गाया ही नहीं जा सकता। लाओत्सु ने कहा है, जो कहा जा सके वह सत्य नहीं। जो अनकहा रह जाये वही।
इतने दूर तक महागीता के ये अदभुत वचन कहने के बाद--और ऐसे वचन कभी नहीं कहे गये हैं--अष्टावक्र कहते हैं, इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन?
बहुनात्र किमुक्तेन।
बात छोटी है, बहुत कहने से क्या सार? संक्षिप्त में कही जा सकती है। इतनी-सी बात है:
ज्ञाततत्वा महाशयः भोगमोक्षनिराकांक्षी सदा सर्वत्र नीरसः।
जो समझ सके: तत्वज्ञ, महाशय; जिसका आशय विराट हो और जो तत्व को समझ सके--तो जरा-सी बात है। भोग और मोक्ष, दोनों में जो निष्कांक्षी हो गया वही पा लिया सब। वही संन्यासी है।
तत्वज्ञ कहते हैं उसे, जो अपने विचारों को एक तरफ रखकर समझने की कोशिश करे। तत्वज्ञ बहुत मुश्किल हैं खोजना और महाशय बहुत मुश्किल हैं।
अब यहां तुम बैठे हो; इसमें महाशय बहुत मुश्किल है खोजना। कोई हिंदू है, वह महाशय न रहा। उसका आशय क्षुद्र हो गया। कोई मुसलमान है, वह महाशय न रहा। उसका आशय क्षुद्र हो गया। आशय पर सीमा बंध गई तो महाशय न रहे, क्षुद्राशय हो गये।
संप्रदाय क्षुद्र बना देता है। किसी शास्त्र में मान्यता है, क्षुद्र हो गये। महाशय का अर्थ है: जिसको न कोई शास्त्र बांधता, न कोई संप्रदाय बांधता, न कोई धारणा बांधती। जो मुक्त है। जो कहता है ये सब किनारे रखकर सुनने को राजी हूं। तब अष्टावक्र कहते हैं, श्रवणमात्रेण। फिर तो सुनने से ही हो जायेगा। कुछ करना न पड़ेगा। अगर तुम महाशय होने की हिम्मत रखो--तुम्हारे पक्षपात, तुम्हारी जड़ हो गई धारणायें, तुम्हारे संस्कार एक तरफ रख दो तो तुम महाशय हो गये; आकाश जैसे हो गये। विचार हटा दिये, बादल हट गये, खुला आकाश प्रगट हो गया।
उस खुले आकाश में किसी सदगुरु की जरा-सी चोट तुम्हें सदा के लिए जगा दे। लेकिन तुम विचारों की पर्तों से घिरे होकर सुनते हो। चोट तुम तक पहुंचती ही नहीं। या पहुंचती है तो कुछ का कुछ अर्थ हो जाता है; अनर्थ हो जाता है। यहां कहा कुछ जाता है, तुम समझ कुछ लेते हो।
मैंने सुना है, महाराष्ट्र के एक अपूर्व संत हुए एकनाथ। एक आदमी उनके पास बार-बार आता था। खोजी था। कहता कि प्रभु, कुछ ज्ञान दें। हजार बार उसे समझा चुके थे मगर वह कुछ उसकी समझ में न आता था। वह फिर आ जाता था कि प्रभु, कुछ ज्ञान दें। जीवन निष्पाप कैसे हो? एक दिन सुबह-सुबह आया, एकनाथ से कहने लगा, आप कुछ तो समझायें कि जीवन निष्पाप कैसे हो? उन्होंने कहा, मैं तुझे रोज समझाता, तेरी समझ में नहीं आता तो मैं क्या करूं? वह आदमी कहने लगा कि आप कैसे निष्पाप हुए यह बता दो, तो उसी रास्ते मैं भी चलूं।
एकनाथ ने कहा कि ठहर, अचानक मेरी नजर तेरे हाथ पर पड़ गई, तेरी उम्र की रेखा कट गई है। यह बात तो पीछे हो लेगी। उसकी तो कुछ जल्दी भी नहीं है। यह तो तू जनम भर से कर रहा है। मगर यह मैं तुझे बता दूं, कहीं भूल न जाऊं, सात दिन में तू मर जायेगा। तेरी उम्र की रेखा कट गई है।
अब जब एकनाथ किसी को कहें कि सात दिन में तू मर जायेगा तो अविश्वास करना तो मुश्किल है। और सब बातों पर चाहे अविश्वास कर लिया हो, मगर इस पर तो कौन अविश्वास करे? एकनाथ जैसा निस्पृह व्यक्ति कहेगा तो ठीक ही कहेगा। वह तो आदमी घबड़ा गया। उसके तो हाथ-पैर कंप गये। वह तो उठकर खड़ा हो गया। एकनाथ ने कहा, अरे कहां चले? बैठो। तुम्हारा प्रश्न तो अभी उत्तर दिया ही नहीं कि मैं कैसे निष्पाप हुआ। उसने कहा, महाराज, अब तुम समझो निष्पाप कैसे हुए। इधर मौत आ रही है, सत्संग की किसको पड़ी है? अब कभी फुरसत मिली तो आयेंगे फिर। एकनाथ ने हाथ पकड़ा कि भागे कहां जाते हो? वह बोला कि छोड़ो भी जी! इधर बाल-बच्चों को देखूं, इंतजाम करूं। सात दिन! कहते हो कि सात दिन में मर जाऊंगा।
वह तो भागा। अभी आया था तो अकड़ से भरा था। उसके पैर की चाल देखने जैसी थी। अब गया तो कंपने लगा। उन्हीं सीढ़ियों से उतरा मंदिर की लेकिन सहारा लेकर उतरा। घर गया तो बिस्तर से लग गया। घर के लोगों ने पूछा, हुआ क्या? समझाया-बुझाया कि ऐेसे कहीं कोई मौत आती है? लेकिन उसने कहा कि वह पक्का है। मौत आ रही है। ऐसा इंतजाम कर लो, ऐसा इंतजाम कर लो, सब करके वह अपने बिस्तर पर पड़ा रहा। खाना-पीना छूट गया। मरते आदमी को क्या खाना-पीना! तीन दिन में तो वह बिलकुल निढाल होकर पड़ गया। मौत निश्चित आने लगी। घर भर के लोग भी उदास होकर बैठे उसकी खाट के पास।
सातवें दिन जब सूरज ढलने के करीब था और वह बिलकुल मौत की प्रतीक्षा कर रहा था, मौत तो नहीं, एकनाथ आ पहुंचे अपना। दरवाजा खटखटाया। एकनाथ को देखकर नमस्कार करने तक की आवाज उससे नहीं निकल सकी। हाथ नहीं जोड़ सका, इतना कमजोर हो गया। एकनाथ ने कहा, अरे भाई इतनी क्या बात है? बड़ी मुश्किल से उसने कहा कि अब और क्या? मौत आ रही है। एकनाथ ने कहा, एक प्रश्न पूछने आया हूं। सात दिन में कुछ पाप किया? पाप करने का कोई विचार आया? उसने कहा, हद हो गई मजाक की। मौत सामने खड़ी हो तो पाप करने की सुविधा कहां? मौत सामने खड़ी हो तो पाप का खयाल कैसे उठे?
एकनाथ ने कहा, उठ, तेरी मौत अभी आई नहीं। रेखा तेरी काफी लंबी है। यह तो मैंने तेरे को सिर्फ तेरा उत्तर...तेरे प्रश्न का जवाब दिया है। और तो तू समझता ही नहीं था। तेरे तो सिर पर खूब जोर से डंडा मारें तो ही शायद तेरी समझ आये। अब तेरी समझ में आया कि हम निष्पाप कैसे हैं? मौत सामने खड़ी है।
जहां जीवन क्षण-क्षण बीता जाता हो, जहां समय चुकता जाता हो, वहां कैसा पाप? जहां मौत सब छीन लेगी वहां कैसा इकट्ठा करना? जहां मौत सब पोंछ देगी वहां कैसे सपने संजोने? जहां मौत आकर सब नष्ट कर देगी वहां क्या बनाना? लेकिन एकनाथ ने उससे कहा कि तुझे लाख समझाया, तेरी समझ में न आया। यही समझाता था सब, लेकिन जब तक तुझे जोर से चोट न मारी गई तब तक तेरी बुद्धि में प्रविष्ट न हुआ।
और कहानी का मुझे आगे पता नहीं क्या हुआ। जहां तक मैं समझता हूं, वह आदमी उठकर बैठ गया होगा और उसने कहा होगा, छोड़ो! अगर अभी मरना नहीं है तो महाराज, तुम अपने घर जाओ, हमें अपना संसार देखने दो। कहानी का मुझे आगे पता नहीं, कहानी आगे लिखी नहीं है। शायद इसीलिए नहीं लिखी है। क्योंकि मौत की चोट में अगर थोड़ी-सी उसको समझ भी आई होगी तो मौत की चोट के हटते ही समझ भी हट गई होगी। वह चोट भी तो जबरदस्ती हो गई न! आयोजित हो गई। मौत उसे थोड़े ही दिखाई पड़ी है, मान ली है। मानने में घबड़ा गया। अब जब फिर पता चला होगा कि अभी जिंदगी काफी बची है तो वह कहा होगा कि महाराज, आयेंगे फुरसत से, सत्संग करेंगे, लेकिन अभी और काम हैं। सात दिन के काम भी इकट्ठे हो गये हैं, वे भी निपटाने हैं।
और उस आदमी ने शायद एकनाथ को कभी क्षमा न किया होगा कि इस आदमी ने भी खूब मजाक की। ऐसी भी मजाक की जाती है महाराज? संतपुरुष होकर और ऐसी मजाक करते हैं? शायद उसने एकनाथ का सत्संग भी छोड़ दिया होगा कि फिर यह आदमी कुछ भरोसे का नहीं। फिर किसी दिन कुछ ऐसी उल्टी-सीधी बात कह दे और झंझट खड़ी कर दे।
आगे लिखा नहीं गया है। नहीं लिखे जाने का मतलब साफ है। नहीं तो हिंदुस्तान में जब कहानियां लिखी जाती हैं तो पूरी लिखी जाती हैं। हिंदुस्तानी ढंग कहानी का यह है कि फिर वह आया होगा, महाराज के चरणों में गिर पड़ा, उसने संन्यास ले लिया और उसने कहा कि अब बस मैं बदल गया। मगर यह लिखा नहीं है, तो यह हुआ नहीं है। यहां तो ऐसा है, न भी होता हो तो भी अंत ऐसा ही होता है। सुखांत होती हैं हिंदुस्तान की कहानियां। उसमें दुखांत कभी नहीं होता। सब अंत में सब ठीक हो जाता है। दुर्जन सज्जन बन जाते, असाधु साधु बन जाते, संसारी मोक्षगामी हो जाते। सब अंत में ठीक हो जाता है। मरते-मरते तक हम कहानी को ठीक कर लेते हैं।
कहानियां हैं कि मर रहा है कोई, उसके लड़के का नाम नारायण है। उसने कभी जिंदगी भर भगवान का नाम नहीं लिया। मरते वक्त वह बुलाया, ‘नारायण, नारायण।’ अपने बेटे को बुला रहा है, ऊपर के नारायण धोखे में आ गये। वह मर गया नारायण कहते-कहते; उसको मोक्ष मिला।
अब जिन्होंने ये कहानियां गढ़ी हैं, बड़े बेईमान लोग रहे होंगे। तुम ईश्वर को धोखा देते ऐसे? और ईश्वर धोखा खाता! तो ईश्वर तुमसे गया-बीता हो गया। वह अपने बेटे को बुला रहा है, ऊपर के नारायण समझे, मुझे बुला रहा है। सोचा कि चलो बेचारा जिंदगी भर नहीं बुलाया, अब तो बुला लिया। ऐसे आखिर में हमने कहानी ठीक कर दी। जमा दी सब बात, सब ठीक-ठीक हो गया। जिंदगी भर के पाप...दो बार उसने नारायण को बुला दिया, वह भी अपने बेटे को बुला रहा है। शायद लोग अपने बेटों के नाम इसलिए भगवान के रखते हैं: नारायण, विष्णु, कृष्ण, राम, खुदाबक्श। इस तरह के नाम रख लेते हैं कि चलो, इसी बहाने। मरते वक्त खुदाबक्श को ही बुला रहे हैं, उसी वक्त खुदा ने सुन लिया और मुक्ति हो गई।
ऐसे झूठों से कुछ सार नहीं है। जहां तक मैं समझता हूं, वह आदमी अगर तुम जैसा आदमी रहा होगा तो फिर कभी एकनाथ के पास न गया होगा। फिर उसने कहा, अब झंझट मिट गई। यह आदमी धोखेबाज है। उसने यही समझा होगा कि इसने धोखा किया, झूठ बोला। संतपुरुष कहीं झूठ बोलते हैं? उसने यह समझा होगा।
तत्वज्ञ का अर्थ होता है, वही समझो जो समझाया जा रहा है। वही देखो, जो दिखाई पड़ रहा है। बीच में अपने को मत डालो। इतनी छोटी-सी बात है: मोक्ष और भोग दोनों में निराकांक्षी। सदा और सर्वत्र रोगरहित--इतनी कुंजी है।
‘महत्तत्व आदि जो द्वैत जगत है और जो नाममात्र को ही भिन्न है, उसका त्याग कर देने के बाद शुद्ध बोधवाले का क्या कर्तव्य शेष रह जाता है!’
महदादि जगद्द्वैतं नाममात्रविजृम्भितम्।
विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते।।
यह जो चारों तरफ फैला हुआ जगत है द्वंद्व का, द्वैत का, दुई का, अनेकत्व का; यह जो चारों तरफ अनेक-अनेक रूप फैले हुए हैं, ये नाममात्र को ही भिन्न हैं। जैसे सोने से ही कोई बहुत गहने बना ले, वे नाममात्र को ही भिन्न हैं। सबके भीतर सोना है। ऐसे ही यह जो सारा इतना विराट जगत फैला हुआ है, यह सब नाममात्र को ही भिन्न है, रूपमात्र में ही भिन्न है। नाम-रूप का भेद है, मौलिक रूप से भिन्न नहीं है।
विज्ञान भी इसकी गवाही देता है। विज्ञान कहता है, सारा अस्तित्व बस विद्युतकणों से बना है; एक से ही बना है। अष्टावक्र का सूत्र कह रहा है:
महदादि जगद्द्वैतं नाममात्र विजृम्भितम्।
बस नाममात्र का भेद है इस जगत की चीजों में, कुछ बहुत भेद नहीं है। सब चीजें एक ही तत्व की विभिन्न-विभिन्न मात्राओं से बनी हैं।
इसलिए ऐसा जानकर, ऐसा समझकर व्यक्ति इन रूपों के और नामों के मोह में नहीं पड़ता है; कल्पना के जाल में नहीं उलझता है। कल्पना का त्याग कर देने से...।
विहाय शुद्धबोधस्य।
इस जगत में तुम्हारी कल्पना जो छिटकी-छिटकी फिर रही है--इस स्त्री को पा लूं कि उस स्त्री को पा लूं, कि इस धन को पा लूं कि उस पद को पा लूं, यह पुरुष मिल जाये। यह जो तुम्हारी कल्पना छिटकी-छिटकी फिर रही है।
विहाय शुद्धबोधस्य।
इस कल्पना के त्याग मात्र से शुद्ध बुद्ध का तुम्हारे भीतर जन्म हो जाता है। शुद्ध बोध पैदा होता है।
किं कृत्यमवशिष्यते।
और फिर न तो कुछ करने को रह जाता, न न करने को रह जाता। फिर कोई कर्तव्य नहीं बचता। फिर तो कर्ता परमात्मा हो गया, तुम्हारा क्या कर्तव्य है? कल्पना के कारण, मात्र कल्पना के कारण तुम उलझे हो। संसार ने तुम्हें नहीं बांधा है, तुम्हारी कल्पना ने बांधा है।
यह मौलिक उपदेश है अष्टावक्र का। संसार ने बांधा हो तो संसार से भाग जाओ, मुक्ति हो जायेगी। ऐसा तुम्हारे तथाकथित महात्मा कर रहे हैं। संसार ने बांधा नहीं है, बांधा कल्पना ने है। कल्पना को गिरा दो।
विहाय शुद्धबोधस्य।
इस कल्पना के गिरते ही शुद्ध बुद्धत्व का जन्म हो जायेगा।
यह जो हमारी कल्पना है, इसे पा लूं, उसे पा लूं, इस कल्पना में हमारी ऊर्जा क्षीण हो रही है। हम पागल होकर दौड़ते हैं। सब दिशाओं में दौड़ रहे हैं। दौड़-दौड़ में थके जा रहे हैं। आपाधापी में मिटे जा रहे हैं। चिंता ही चिंता। जरा भी विश्राम नहीं। यह कल्पना तुम्हारी क्षीण हो जाये--कल्पना ही, और कुछ छोड़ना नहीं है। पत्नी को छोड़कर नहीं जाना है, पत्नी के प्रति जो कल्पना है उसे भर गिर जाने दो; पर्याप्त है। बेटों को छोड़कर नहीं जाना है।
अष्टावक्र ने तुम्हें पलायन नहीं सिखाया है, मैं भी नहीं सिखाता हूं। तुम जहां हो वहीं डटकर रहो। घर में तो घर में, दूकान पर तो दूकान में। कुछ छोड़कर नहीं जाना है। एक बात छोड़ दो, वह जो कल्पना है। यह पत्नी मेरी है, यह कल्पना है। यह बेटा मेरा है, यह कल्पना है। न बेटा तुम्हारा है, न पत्नी तुम्हारी है। न दूकान तुम्हारी है, न मंदिर तुम्हारा है। सब परमात्मा का है। तुम भी उसके, यह सब भी उसका। इस पर तुम व्यक्तिगत दावे छोड़ दो, अधिकार छोड़ दो, परिग्रह छोड़ दो।
इस दावे के छूटते ही तुम्हारा अहंकार विसर्जित हो जायेगा। और तब जो शेष रह जाता है, तब जो विराट आकाश उपलब्ध होता है, तब जो असीम आकाश उपलब्ध होता है, तब जो स्वतंत्रता मिलती है, जो स्वच्छंदता मिलती है, वही है जीवन का असली अर्थ। वही है जीवन का असली स्वाद। वही है प्रभु-रस। उस रसमयता को पाये बिना तुम भिखारी के भिखारी रहोगे। उस रस को पाओ। रसो वै सः। वह परमात्मा रसरूप है।
लेकिन तुम अपनी कल्पना के जाल छोड़ो तो उसकी रसधार बहे। फिर तुमसे कहता--तुम हो पत्थर, चट्टान जिसके कारण झरना रुका है। तुम हटो। यह तुम्हारा अहंकार भी तुम्हारी कल्पना मात्र है; है नहीं कहीं।
बोधिधर्म चीन गया। चीन के सम्राट ने उससे कहा कि आपकी मैं प्रतीक्षा करता वर्षों से। अब आप आ गये, एक काम भर कर दें। यह मेरा अहंकार मुझे बहुत सताता है। इसी अहंकार के कारण मैंने यह साम्राज्य बनाया है, लेकिन फिर भी इसकी कोई तृप्ति नहीं होती। यह भरता ही नहीं। इतना धन है, फिर भी नहीं भरता। अभी भी धन की सोचता है। इतने बड़े महल हैं फिर भी नहीं भरता; अभी बड़े महलों की सोचता है। इस अहंकार से मुझे छुड़ा दें।
बोधिधर्म ने कहा, छुड़ा दूंगा। तू सुबह तीन बजे आ जा। अकेला आना, किसी को साथ लेकर मत आना। और एक बात खयाल रखना, अहंकार को लेकर आना। इसको घर मत छोड़ आना। वह सम्राट डरा। यह क्या बात हुई? उसने बहुत-से ज्ञानियों से कहा था। सबने उपदेश दिया था। किसी ने नहीं कहा था, छुड़ा दूंगा। कोई कैसे छुड़ा देगा किसी को? यह आदमी पागल मालूम होता है। फिर तीन बजे रात की जरूरत? अभी क्या अड़चन है? और अकेले आना! और यह आदमी भयंकर मालूम पड़ता है।
बोधिधर्म बड़ा जंगली ढंग का आदमी था। देख ले जोर से तो तुम्हारे प्राण कंप जायें, घबड़ा जाओ। तलवार की धार की तरह आदमी था। कहते हैं, कभी जोर से चीख देता था तो लोगों के विचार बंद हो जाते थे। उसका हुंकार लोगों को ध्यान लगवा देता था। एक क्षण को विचार-श्रृंखला टूट जाती थी।
इस आदमी के पास तीन बजे रात आना ठीक है? और फिर यह आदमी दुबारा--यह भी अजीब बात कह रहा है, अहंकार साथ ले आना। और जब वह सीढ़ियां उतरकर जाने लगा सम्राट तो फिर डंडा ठोंककर बोधिधर्म ने कहा, देख भूलना मत। ठीक तीन बजे आ जाना। और अहंकार को साथ ले आना, घर मत रख आना, क्योंकि मैं उसे खतम ही कर दूंगा आज।
वह डरने लगा और रात सो नहीं सका। जाऊं, न जाऊं? यह जाने के जैसी बात है कि नहीं? लेकिन आकर्षण भी पकड़ने लगा। इस आदमी की आंखों में बल भी कुछ था। इस आदमी की मौजूदगी में कुछ आकर्षण भी था। कोई प्रबल आकर्षण था। नहीं रोक सका। बहुत समझाया अपने को कि जाना ठीक नहीं, लेकिन खिंचा चला गया। तीन बजे पहुंच गया।
पहली बात जो बोधिधर्म ने पूछी वह यही, अहंकार ले आया? तो सम्राट ने कहा, आप भी कैसी बातें करते हैं! अहंकार कोई चीज तो नहीं है कि ले आऊं। यह तो मेरे भीतर है। उसने कहा, चलो इतना तो पक्का हुआ, भीतर है; बाहर तो नहीं है! तो आधी दुनिया तो साफ हो गई। आधा काम तो हो चुका। बाहर नहीं है, भीतर है। उसने कहा, भीतर है।
‘आंख बंद कर। बैठ जा सामने। और खोज भीतर, कहां है। और मैं डंडा लिये बैठा हूं तेरे सामने। जैसे ही तुझे मिले, इशारा कर देना कि पकड़ लिया। वहीं खतम कर दूंगा।’
वह सम्राट बहुत घबड़ाने लगा। तीन बजे रात अंधेरे उस मठ में। और यह आदमी डंडा लिये बैठा है और पागल मालूम होता है। अब भागने का भी उपाय नहीं है। और खुद ही कह फंसा कि बाहर नहीं, भीतर है। अब इंकार भी नहीं कर सकता। आंख बंद करके भीतर देखने लगा। भीतर जितना खोजा उतना ही पाया कि मिलता नहीं। जितना खोजा उतना ही पाया, मिलता नहीं। सूरज उगने लगा, तीन घंटे बीत गये। और उसके चेहरे पर अपूर्व आभा छा गई।
बोधिधर्म ने उसे हिलाया और उसने कहा कि अब उठ। मुझे दूसरे काम भी करने हैं। मिला कि नहीं? सम्राट वू उसके चरणों में झुक गया और कहा कि आपने मिटा दिया। मैं धन्यभागी कि आपके चरणों में आ गया। बहुत खोजा। खोजने से एक बात समझ में आ गई, न बाहर है न भीतर है; है ही नहीं। सिर्फ भ्रांति है, कल्पना है। मान रखा है।
यह मैं सिर्फ एक मान्यता है। यह मैं ही संसार है। यह मैं का बीज ही फैलकर संसार बनता है। यह मैं गिर जाये, यह कल्पना गिर जाए--विहाय शुद्धबोधस्य; इसके छूट जाते ही शुद्ध बोधि, संबोधि का जन्म हो जाता है। और तब न कुछ करने को बचता, न कुछ न करने को। कर्ता ही नहीं बचता। मैं गया तो कर्ता गया।
और उस कर्ताशून्यता में प्रभु तुम्हारे भीतर बहता। तुम उपकरण हो जाते--निमित्तमात्र। बांस की पोली बांसुरी। वेणु बन जाते।
वेणु बनो। समर्पण करो। कुछ और छोड़ना नहीं है, इस मैं की कल्पना को विसर्जित करो। इसे जाने दो। इसके जाते ही--निस्तर्षमानसः। तुम मन का निस्तरण कर गये। यह मैं मन का संग्रहीभूत रूप है। इसके पार तुम्हारा साक्षी है।
साक्षी रस है।
रसो वै सः।
आज इतना ही।