ASHTAVAKRA
Maha Geeta 59
FiftyNinth Discourse from the series of 91 discourses - Maha Geeta by Osho. These discourses were given during SEP 11 - FEB 10 1977.
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अष्टावक्र उवाच।
क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व ध्यानं क्व मुक्तता।
सर्वसंकल्पसीमायां विश्रांतस्य महात्मनः।। 190।।
येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोति वै।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति।। 191।।
येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिंतयेत्।
किं चिंतयति निश्चिन्तो द्वितीयं यो न पश्यति।। 192।।
दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ।
उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम्।। 193।।
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।
न समाधिं न विक्षेपं न लेपं स्वस्थ पश्यति।। 194।।
भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः।
नैव किंचित्कृतं तेन लोकदृष्ट्या विकुर्वता।। 195।।
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
यदा यत्कर्त्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठतः सुखम्।। 196।।
एक मित्र ने बड़े क्रोध में पत्र लिखा है। लिखा है कि अष्टावक्र जो कहते हैं, आप जो समझाते हैं, वैसा अगर लोग मान लेंगे तो संसार-चक्र बंद ही हो जायेगा।
सुनें। एक तो संसार-चक्र चले, इसका मैंने कोई जुम्मा नहीं लिया। आपने लिया हो, आपकी आप जानें। फिर संसार-चक्र आप नहीं थे तब भी चल रहा था, आप नहीं होंगे तब भी चलता रहेगा। संसार-चक्र आप पर निर्भर है, इस भ्रांति में पड़ें मत। जो चलाता है, चलायेगा, और न चलाना चाहेगा तो तुम्हारे चलाये न चलेगा। तुम अपने को ही चला लो, उतना ही बहुत है। बड़ी चिंतायें सिर पर मत लो। छोटी चिंतायें हल नहीं हो रही हैं। ऐसी चिंताओं में मत उलझ जाना जिन पर तुम्हारा कोई बस ही न हो।
अष्टावक्र को हुए कोई पांच हजार साल होते हैं। अष्टावक्र कह गये, संसार-चक्र चल रहा है। और मेरे पांच हजार साल बाद अगर तुम आओगे, तो भी तुम पाओगे संसार सब चल रहा है। संसार-चक्र के चलने का मेरे या तुम्हारे कुछ कहने या होने से कोई संबंध नहीं है। हां, इतना ही है कि अगर तुम समझ जाओ तो तुम संसार-चक्र के बाहर हो जाते हो। तुम्हारे लिए चलना बंद हो जाता है। आवागमन से छूटने की बात, मुक्ति की आकांक्षा और क्या है?--संसार-चक्र के मैं बाहर हो जाऊं।
तुम्हें संसार-चक्र की चिंता भी नहीं है; तुम छिपे ढंग से कुछ और कह रहे हो। शायद तुम्हें होश भी न हो कि तुम क्या कह रहे हो। तुम इस संसार के चक्र को छोड़ना नहीं चाहते। बात तुम कर रहे हो: कहीं यह बंद तो न हो जाये! तुम भीतर से पकड़ना चाहते हो। पकड़ने के लिए बहाने खोज रहे हो। बहाना तुम कितना ही करो, तुम मुझे धोखा न दे पाओगे। तुम्हें चिंता भी क्या है संसार की? कौड़ी भर चिंता नहीं है तुम्हें--कल का मिटता आज मिट जाये। फिक्र तुम्हें कुछ और है। तुम्हारी वासनाओं का एक जाल है। उस वासना के जाल को तुम छिपाना चाहते हो। वह वासना का जाल नई-नई तरकीबें खोजता है। वह सीधा-सीधा हाथ में आता भी नहीं, क्योंकि सीधा-सीधा हाथ में आ जाये तो बड़ी शर्म लगेगी। तुम अपनी भ्रांति और मूढ़ता को बचाना चाहते हो, नाम बड़ा ले रहे हो। नाम तुम कह रहे हो संसार-चक्र; जैसे तुम कुछ इस चक्र के रक्षक हो!
मैंने सुना है, एक प्रोफेसर हैं पोपट लाल। दादर के एक प्राइवेट सिंधी कालेज में प्रोफेसर हैं। एक तो प्राइवेट कालेज--और फिर सिंधियों का! तो प्रोफेसर की जो गति हो गई वह समझ सकते हो। असमय में मरने की तैयारी है। समय के पहले आंखों पर बड़ा मोटा चश्मा चढ़ गया है, कमर झुक गई है। पिता तो चल बसे हैं; बूढ़ी मां, वह पीछे पड़ी थी कि विवाह करो, विवाह करो पोपट! पोपट ने बहुत समझाया, बहुत तरह के बहाने खोजे। कहा कि मैं तो विवेकानंद का भक्त हूं और मैं तो ब्रह्मचर्य का जीवन जीना चाहता हूं। लेकिन मां कहीं इस तरह की बातें सुनती है! मां ने समझाया कि संसार-चक्र कैसे चलेगा? ऐसे में तो संसार-चक्र बंद हो जायेगा। फिर मां पर दया करके पोपट लाल विवाह को राजी हुए।
बंबई में तो कोई लड़की उनसे विवाह करने को राजी थी नहीं। सच तो यह है कि जब से वे प्रोफेसर हुए, जिस विभाग में प्रोफेसर हुए उसमें लड़कियों ने भर्ती होना बंद कर दिया। तो कोई गांव की, देहात की लड़की खोजी गई। वह विवाह करके आ भी गई। प्रोफेसर तो सुबह ही से निकल जाते दूर, उपनगर में रहते हैं, सुबह से ही निकल जाते हैं। दिन भर पढ़ाना। प्राइवेट कालेज और सिंधियों का! फिर प्रिंसिपल की भी सेवा करनी, प्रिंसिपल की पत्नी को भी सिनेमा दिखाना, बच्चों को चौपाटी घुमाना-- सब तरह के काम। रात कुटे-पिटे लौटते, तो सो जाते।
बूढ़ी को बहू पर दया आने लगी। एक दिन बंबई भी नहीं दिखाया ले जा कर, तो एक दिन वह बंबई दिखाने ले गई। जैसे ही बस पर पहुंचे स्टेशन पर, तो वहां कोई किसी सांड को पकड़ का बधिया बनाते थे। तो उस बहू ने बूढ़ी से पूछा कि इस सांड को यह क्या कर रहे हैं? बूढ़ी शर्माई भी, किन शब्दों में कहे! लेकिन बहू न मानी तो उसे कहना पड़ा कि ये इसे खस्सी करते हैं। तो उसने कहा, इतनी मेहनत क्यों करते हैं--दादर के सिंधी कालेज में प्रोफेसर ही बना दिया होता!
जो मन में छिपा हो वह कहीं न कहीं से निकलता है। तुम्हारे दबाये-दबाये नहीं दबता--नई-नई शक्लों में प्रगट हो जाता है। कहीं से तो निकलेगा। तुम संसार-चक्र के बंद होने से घबड़ाये हुए हो! परमात्मा ने तुमसे पूछ कर संसार-चक्र चलाया था? और अगर बंद करना चाहेगा तो तुमसे सलाह लेगा? तुम्हारी सलाह चलती है कुछ? अपने पर ही नहीं चलती, दूसरे पर क्या चलेगी? और सर्व पर तो चलने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन तुम ऐसी चिंतायें लेते हो। ऐसी बड़ी चिंताओं में तुम छोटी चिंताओं को छिपा लेते हो। असली चिंता भूल जाती है। और इस भांति तुम एक पर्दा डाल लेते हो अपनी आंख पर और आंख नहीं खुलने देते।
छोड़ो! यह रुकता हो रुक जाये।
यह तो ऐसे ही हुआ कि तुम किसी चिकित्सक के पास जाओ और उससे कहो कि दवाइयां खोजना बंद करो, अगर ऐसी दवाइयों को खोजते रहे तो फिर बीमारियों का क्या होगा, बीमारियों का चक्र बंद ही हो जायेगा!
संसार-चक्र--जिसे तुम कहते हो--सिवाय बीमारियों के और क्या है? सिवाय दुख और पीड़ा के क्या जाना? जीवन में घाव ही घाव तो हो गये हैं, कहीं फूल खिले? मवाद ही मवाद है! कहीं कोई संगीत पैदा हुआ? दुर्गंध ही दुर्गंध है। कहीं तो कोई सुगंध नहीं। फिर भी संसार-चक्र बंद न हो जाये, इसकी चिंता है। गटर में पड़े हो; लेकिन कहीं गटर की गंदगी समाप्त न हो जाये, इसकी चिंता है। कहीं गटर बहना बंद न हो जाये, इसकी चिंता है। पाया क्या है? अन्यथा सारे ज्ञानी संसार से मुक्त होने की आकांक्षा क्यों करते?
तुम्हारा संसार सिवाय नर्क के और कुछ भी नहीं है। इस संसार से तुम थोड़े जागो तो स्वर्ग के द्वार खुलें। यह तुम्हारा सपना है। यह सत्य नहीं है जिसे तुम संसार कहते हो। सत्य तो वही है जिसे ज्ञानी ब्रह्म कहते हैं।
अब इस बात को भी तुम खयाल में ले लेना: जब अष्टावक्र या मैं तुमसे कहता हूं कि संसार से जागो, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जब तुम जाग जाओगे तो ये वृक्ष वृक्ष न रहेंगे, कि पक्षी गीत न गायेंगे, कि आकाश में इंद्रधनुष न बनेगा, कि सूरज न निकलेगा, कि चांद-तारे न होंगे। सब होगा। सच तो यह है कि पहली दफा, पहली दफा प्रगाढ़ता से होगा। अभी तो तुम्हारी आंखें इतने सपनों से भरी हैं कि तुम इंद्रधुनष को देख कैसे पाओगे? तुम्हारी आंख का अंधेरा इतना है कि इंद्रधनुष धुंधले हो जाते हैं। तुम फूल का सौंदर्य पहचानोगे कैसे? भीतर इतनी कुरूपता है, फूल पर उंडल जाती है। सब फूल खराब हो जाते हैं। पक्षियों के गीत तुम्हारे हृदय में कहां पहुंच पाते हैं? तुम्हारा खुद का शोरगुल इतना है कि पक्षियों सारे गीत बाहर के बाहर रह जाते हैं।
जब ज्ञानी कहते हैं संसार के बाहर हो जाओ, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि यह जो वस्तुतः है इससे तुम बाहर हो जाओगे। इससे तो बाहर होने का कोई उपाय नहीं। इसके साथ तो तुम एकीभूत हो, एकरस हो। यह तो तुम्हारा ही स्वरूप है। तुम इसके ही हिस्से हो। फिर किससे बाहर हो जाओगे? वह जो तुमने मान रखा है और है नहीं; वह जो रस्सी में तुमने सांप देख रखा है। सांप से मुक्ति हो जायेगी, रस्सी तो रहेगी। तुम्हारा सपनों का एक जाल है। तुम कुछ का कुछ देख रहे हो।
एक मित्र हैं। वे हमेशा मुझसे कहते हैं कि मुझे नींद में, रात सपने में बड़े काव्य का स्फुरण होता है। मैंने उनसे कहा कि तुम्हें मैं जानता हूं, तुम्हें मैं देखता हूं, तुम्हारे जागरण में भी काव्य का स्फुरण नहीं होता, तो नींद में कैसे होगा! आखिर नींद तो तुम्हारी ही है न! जागरण तुम्हारा इतना कोरा और रेगिस्तान जैसा है, इसमें कहीं कोई मरूद्यान नहीं दिखाई पड़ता, तो नींद में काव्य पैदा होता होगा!
वे कहने लगे कि आप मानो, जब मैं रोज सुबह उठता हूं तो मुझे ऐसा थोड़ी-थोड़ी भनक रहती है कि रात बड़ी कविता पैदा हुई। और आपसे क्या कहूं, आप न मानोगे; हिंदी में तो होती ही है, अंग्रेजी तक में होती है।
तो मैंने कहा, तुम ऐसा करो कि आज रात अपने बिस्तर के पास ही टेबल रख कर कापी और पेंसिल रख कर सो जाओ और सोते वक्त यह खयाल रख कर सोओ कि आज कोई भी कविता भीतर पैदा होगी तो उसी क्षण मेरी नींद खुल जाये। ऐसा दोहराते रहो। दोहराते-दोहराते ही सो जाओ। हजार बार दोहराकर और सो जाओ। और जब तक ऐसा हो न जाये तब तक रोज यह करते रहो, एक न एक दिन नींद टूट जायेगी। तुम उठ कर तत्क्षण लिख लेना और सुबह मेरे पास ले आना, ईमानदारी से, जो भी लिखो।
वे दूसरे दिन कापी लेकर आ गये, बड़े उदास थे। मैंने पूछा, क्या मामला है? वे कहने लगे, शायद आप ठीक ही कहते थे। मैं ऐसा ही किया रात में और बीच में मेरी नींद टूट भी गई और मैंने लिख भी लिया और मैं ले आया हूं, लेकिन बताने में शर्म लगती है।
मैंने कहा, फिर भी दिखा तो दो। उन्होंने कहा, आप क्षमा करो, न देखो तो ठीक। फिर भी मैंने आग्रह किया तो उन्होंने बड़े डरते-डरते और संकोच से अपनी कापी दे दी। आड़े-तिरछे अक्षरों में नींद में लिखा गया था, आधी नींद में रहे होंगे। जो लिखा था, वह उनके दरवाजे के बाहर गोल्ड स्पॉट का एक बड़ा विज्ञापन लगा है: लिव्वा लिटल हॉट, सिप्पा गोल्ड स्पॉट! यह अंग्रेजी और इसका हिंदी में तरजुमा भी लिखा है: जी भर के जीयो, गोल्ड स्पॉट पीयो। यह कविता उतरी। इसी को रोज पढ़ते रहे होंगे। सामने ही लगा है बोर्ड। यही मन में बैठ गई होगी। यही रात सपने में डोलने लगी।
तुम्हारा जो संसार है, वह तुम्हारी नींद में है। जो भ्रांतियां हो रही हैं, उनका ही नाम है। तो जब भी अष्टावक्र ‘संसार’ शब्द का उपयोग करते हैं कि ज्ञानी संसार से जाग जाता है, संसार से मुक्त हो जाता है, तो तुम संसार से यह मत समझना कि जो है उससे मुक्त हो जाता है। जो है, उससे कैसे मुक्त हो जाओगे? जो है, उसमें तो मुक्त होना है। जो नहीं है, उससे मुक्त होना है। और जो नहीं है, उससे मुक्त हो जाता है वही जो है, उसमें मुक्त हो जाता है।
मुक्ति के दो पहलू हैं। झूठ से मुक्त होना है, सच में मुक्त होना है। झूठ के बंधन के कारण सच में हम अपने पंख नहीं खोल पाते। झूठ की जंजीरों के कारण सच के आकाश में नहीं उड़ पाते।
नहीं! अगर ज्ञानियों की बात तुम ठीक से समझे तो तुम्हारा जीवन और भी सुंदर हो जायेगा, सुंदरतम हो जायेगा--सत्यम् शिवम् सुंदरम् होगा।
यह संसार बड़ा स्वर्णिम हो जाये अगर तुम जाग जाओ; तुम्हारी नींद के कारण बहुत गंदा हो गया है। तुम्हारी बेहोशी के कारण विक्षिप्त दशा है यह। इस विक्षिप्त दशा को तुम संसार कह रहे हो! लोग दौड़े जा रहे, भागे जा रहे--यह भी नहीं जानते कहां जा रहे; यह भी नहीं जानते क्यों जा रहे। सब जा रहे, इसलिए वे भी जा रहे; सब दिल्ली जा रहे, इसलिए वे भी दिल्ली जा रहे। सबको पद चाहिए तो उनको भी पद चाहिए। सबको धन चाहिए तो उनको भी धन चाहिए। बाकी सबसे भी पूछो तो वे कहते हैं कि बाकी सबको चाहिए, इसलिए हमको भी चाहिए। लोग धक्कम-धुक्की में हैं; एक-दूसरे का अनुकरण कर रहे हैं। लोग कार्बन कापियां हैं; छाया की तरह जी रहे हैं। वास्तविक नहीं हैं, ठोस नहीं हैं, प्रामाणिक नहीं हैं। इस दौड़-धाप को, इस आपा-धापी को बीमारी कहना चाहिए।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, दुनिया में चार आदमियों में करीब-करीब तीन पागल हैं। और चौथे के संबंध में वे कहते हैं कि हम इतना ही कह सकते हैं कि संभव है कि न हो पागल, पक्का नहीं। और ऐसा होना ही चाहिए। जिनको हमने बुद्धपुरुष कहा है, ठीक यह होगा कि हम कहें कि ये वे थोड़े-से लोग हैं जो हमारे पागलपन के घेरे के बाहर हो गये। भीड़ तो पागल है।
धन जोड़ते हो और जीवन गंवा देते हो। कंकड़-पत्थर इकट्ठे कर लेते हो, आत्मा बेच डालते हो। पागल नहीं तो और क्या हो? कांटे बटोर रहे हो, छाती से लगाये बैठे हो और फूलों का खयाल कर रहे हो। या कि कांटों पर फूलों के लेबिल लगा रखे हैं। कांटे चुभ भी रहे हैं, पीड़ा भी हो रही है, फिर भी छोड़ते नहीं। और अगर कोई कहे, तो तुम कहते हो संसार-चक्र बंद हो जायेगा; जैसे कि तुमने कुछ ठेका लिया है संसार-चक्र को चलाने का!
संसार-चक्र तो परमात्मा का ही आयोजन है। संसार-चक्र तो परमात्मा की ही यात्रा है। ये संसार के चक्के तो उसके ही रथ के चक्के हैं। यह तो चलता रहेगा। अभी तुम घसीटे जा रहे हो, फिर तुम रथ पर सवार हो जाओगे--इतना ही फर्क है। इस फर्क को मैं फिर दोहरा दूं। अभी तुम ऐसी हालत में हो, जैसे कि चाक से बंधे और सड़क पर घसिट रहे हो; सारी धूल-धवांस तुम्हारे ऊपर पड़ रही है; हड्डी-पसली टूटी जा रही है; जीर्ण-जर्जर हुए जा रहे हो--चक्के से बंधे हो।
रथ तो चलता रहेगा। सूरज तो उगेगा। चांद तो आयेंगे। तारे तो चलेंगे। पृथ्वी तो हरी होगी। पक्षी तो गीत गायेंगे। प्रेम तो होगा। सत्य की वर्षा तो होती रहेगी। अमृत तो उगेगा। यह सब तो होगा। लेकिन तुम रथ पर सवार होओगे सम्राट की तरह--रथ के चक्के से गुलाम की तरह बंधे हुए नहीं।
घबड़ाओ मत। जागने में कुछ भी खोता नहीं। वही खोता है जो कभी था ही नहीं और तुमने सोच रखा था कि है। जागने में मिलता ही मिलता है। और वही मिलता है जो तुम्हारे पास ही था, लेकिन तुमने कभी अपनी गांठ ही न खोली, तुमने कभी भीतर झांका ही नहीं।
तो मैं अपने संन्यासियों को निरंतर कहता हूं: मैं तुम्हें वही देना चाहता हूं जो तुम्हारे पास है और तुमसे वही ले लेना चाहता हूं जो तुम्हारे पास नहीं है।
मुझसे कोई पूछता है: हम संन्यास ले रहे हैं तो अब हम क्या त्यागें? तो मैं उनसे कहता हूं: वही त्याग दो जो तुम्हारे पास नहीं है। वही त्याग दो जो तुम्हारे पास नहीं है। जो तुमने मान रखा है कि है और है नहीं। अहंकार है नहीं जरा भी; खोजने जाओगे तो पाओगे नहीं। जितना खोजोगे उतना ही कम पाओगे। ठीक-ठीक खोजोगे, बिलकुल नहीं पाओगे। भीतर आंख बंद करके जाओगे पता लगाने कि अहंकार कहां है, तो कहीं भी जरा-सी भी छाया न मिलेगी। पर है। और उसी के लिए हम जी रहे और मर रहे और मार रहे हैं। मान रखा है कि यही हूं मैं।
‘मेरा-तेरा’ झूठ है। यहां कुछ भी मेरा नहीं है और कुछ भी तेरा नहीं है। सब था, हम नहीं थे; सब होगा, हम नहीं हो जायेंगे। तो यहां ‘मेरा-तेरा’ झूठ है। सब है प्रभु का। तो जहां तुमने कहा मेरा वहां तुमने झूठ खड़ा कर दिया। झूठ जितने तुम खड़े कर लेते हो उतना ही सत्य से मिलन असंभव हो जाता है। तुम अगर कभी सत्य की तरफ उन्मुख भी होते हो तो सत्य की खोज के कारण नहीं।
किसी की पत्नी मर गई, वह आ जाता है कि अब क्या रखा संसार में, अब तो मुझे संन्यास दे दें! मैं कहता हूं: थोड़ी देर रुक, अभी इस दुख में संन्यास मत ले। क्योंकि दो महीने बाद जब दुख चला जायेगा तो फिर तू पत्नी की तलाश करने लगेगा। यह तो दुखावेश है। इस आवेश में संन्यास मत ले।
किसी का दिवाला निकल जाता है; वह कहता है अब तो संन्यास लेना है। अभी एक क्षण पहले तक संसार-चक्र को चलाने का आग्रह था; अब दिवाला निकल गया तो एकदम संसार-चक्र को बंद कर देने की इच्छा हो रही है। लेकिन अभी खबर आ जाये कि घर में खजाना दबा पड़ा था, पिता रख गये थे, वह मिल गया, तो यह सोचेगा कि छोड़ो, अभी कहां संन्यास की बात करनी, फिर देखेंगे!
तुम तो जब हारते हो और टूटते हो, तभी तुम संन्यास की सोचते हो, संसार से हटने की सोचते हो। यह कोई समझपूर्वक बात नहीं हो रही।
मैंने सुना, एक जहाज पर मुल्ला नसरुद्दीन यात्रा कर रहा था। एक बच्चा गिर पड़ा, रेलिंग से झुक रहा था, गिर पड़ा। कौन कूदे समुद्र में! लोग खड़े होकर देखने लगे और तभी अचानक लोगों ने देखा कि मुल्ला कूदा और बच्चे को निकाल कर बाहर आया। जयजयकार होने लगा: मुल्ला नसरुद्दीन जिंदाबाद! और लोग बड़ी फूलमालायें ले आये और उन्होंने कहा: गजब कर दिया! मुल्ला ने कहा: बंद करो बकवास! पहले यह बताओ, मुझे धक्का किसने दिया? चमड़ी उधेड़ दूंगा जिसने धक्का दिया है, पता भर चल जाये।
ऐसा तुम्हारा संन्यास है--कोई धक्का दे दे।
तुम संसार से हटो भी, तो खुद नहीं हटते, इज्जत से नहीं हटते, बेइज्जती से। जब तक काफी जूते न पड़ जायें, तुम हटते ही नहीं।
कहावत है: सौ सौ जूते खायें, तमाशा घुस कर देखें। कौन फिक्र करता है, तमाशा जब हो रहा हो तो कितने ही जूते पड़ जायें!
संसार का इतना मोह क्या है? पाया क्या है? क्यों इतने जोर से पकड़े हुए हो? अगर इसके विश्लेषण में जाओगे तो तुम्हें दिखाई पड़ेगा: इतने जोर से इसीलिए पकड़े हुए हो कि कुछ भी नहीं पाया है। तुम्हारा जीवन खाली है। आशा में पकड़े हुए हो, शायद संसार से कुछ मिल जाये, आज नहीं कल, कल नहीं परसों। अब तक तो नहीं मिला, कल शायद मिल जाये! पकड़े हो। छोड़ते नहीं।
देखो जरा गौर से, तुम रेत को निचोड़ कर तेल निकालना चाहते हो, यह निकलेगा नहीं! सब समय व्यर्थ जायेगा। कभी कोई नहीं जीत पाया इस तरह। कितने मनुष्य पृथ्वी पर रहे हैं! अरबों-खरबों आदमी तुमसे पहले आ चुके हैं और यही सब कर चुके हैं, यही तमाशा देख चुके हैं। और फिर, खाली हाथ वापिस विदा हो गये हैं। इसके पहले कि तुम्हारा भी विदा का क्षण आ जाये, तुम स्वेच्छा से जाग उठो। जो मौत करेगी, वह जिस दिन तुम स्वयं करने को राजी हो जाते हो उसी दिन सत्य उपलब्ध होना शुरू हो जाता है। मौत तुमसे छीनेगी; तुम खुद ही कह दो: इसमें कुछ है नहीं, मैं पकड़ता नहीं।
फिर मैं तुमसे यह भी नहीं कह रहा हूं, न अष्टावक्र कह रहे हैं कि तुम भाग जाओ जंगल-पहाड़ों पर। क्योंकि भगोड़ापन कोई ज्ञानी नहीं सिखायेगा। जो भाग कर भी गये हैं, जब उन्हें ज्ञान उपलब्ध हो गया तो वापिस लौट आये। बुद्ध और महावीर भाग कर गये थे, लेकिन जब ज्ञान उपलब्ध हुआ तब समझ में आ गई बात, वापिस लौट आये।
रवींद्रनाथ की एक बड़ी प्यारी कविता है। बुद्ध जब वापिस लौटते हैं छः वर्ष के बाद और उनकी पत्नी से मिलन होता है, यशोधरा मिलने आती है, तो यशोधरा उनसे एक सवाल पूछती है कि मुझे सिर्फ एक सवाल पूछना है; इन वर्षों में जब आप मुझे छोड़ कर चले गये तो एक ही सवाल मुझे पीड़ित करता रहा है, मैं उसके लिए ही जीवित रही हूं, वही पूछ लूं, तो बस। बुद्ध ने कहा कि क्या सवाल है तेरा? यशोधरा ने कहा: मुझे यही पूछना है कि जो तुम्हें जंगल में जा कर मिला, क्या यहीं इसी महल में रहते हुए नहीं मिल सकता था?
रवींद्रनाथ बुद्ध के भागने के पक्ष में नहीं थे। भागने के पक्ष में कोई भी नहीं हो सकता। इसलिए उन्होंने यह कविता लिखी है और यशोधरा से अपना मंतव्य कहलवा दिया है। पूछती है यशोधरा: अगर तुम, जंगल में जो तुमने पाया, माना कि पाया जंगल में, अगर तुम यहीं रहते तो पा सकते थे या नहीं? और रवींद्रनाथ कहते हैं कि बुद्ध चुप रह गये। क्या कहें? अगर यह कहें कि यहीं रह कर मिल सकता था तो यशोधरा कहेगी, क्या पागलपन किया, फिर किसलिए भागे-दौड़े? और यह तो कह ही नहीं सकते कि यहां नहीं मिल सकता था जो वहां मिला। क्योंकि जो वहां मिला वह कहीं भी मिल सकता था। वह तो भ्रांति ही थी।
भगोड़ापन, अष्टावक्र की शिक्षा नहीं है। निश्चित ही मेरी तो बिलकुल नहीं है। आज के सूत्र तुम्हें साफ करेंगे।
संसार में रहते हुए जागरण की कला ही धर्म है। तब तुम इस भांति हो जाते हो जैसे जल में कमल। होते हो जल में, लेकिन जल छूता नहीं। मजा भी तभी है। गरिमा भी तभी, गौरव भी तभी है। महिमा भी तभी है, जब तुम भीड़ में खड़े और अकेले हो जाओ। बाजार के शोरगुल में और ध्यान के फल लग जायें। जहां सब व्याघात हैं और सब विक्षेप हैं, वहां तुम्हारे भीतर समाधि की सुगंध आ जाये। क्योंकि हिमालय पर तो डर है, तुम अगर चले जाओ तो हिमालय की शांति धोखा दे सकती है। हिमालय शांत है, निश्चित शांत है। वहां बैठे-बैठे तुम भी शांत हो जाओगे, लेकिन इसका पक्का पता नहीं चलेगा कि तुम शांत हुए कि हिमालय की शांति के कारण तुम शांत मालूम हुए। यह वातावरण के कारण है शांति या तुम्हारा मन बदला, इसका पता न चलेगा। यह तो पता तभी चलेगा जब तुम बाजार में वापिस आओगे।
और मैं तुमसे कहता हूं: हिमालय पर जो उलझ जाता है वह फिर बाजार में आने में डरने लगता है। डरता है इसलिए कि बाजार में आया कि खोया। और बाजार में आता है, तभी परीक्षा है, तभी कसौटी है। क्योंकि यहीं पता चलेगा। जहां खोने की सुविधा हो वहां न खोये, तो ही कुछ पाया। जहां खोने की सुविधा ही न हो वहां अगर न खोये तो कुछ भी नहीं पाया। अगर हिमालय के एकांत में अपनी गुफा में बैठ कर तुम्हें क्रोध न आये तो कुछ मूल्य है इसका? कोई गाली दे तब पता चलता है कि क्रोध आया या नहीं। कोई गाली ही नहीं दे रहा है, तुम अपनी गुफा में बैठे हो, कोई उकसा नहीं रहा है, कोई भड़का नहीं रहा है, कोई उत्तेजना नहीं है, कोई शोरगुल नहीं है, कोई उपद्रव नहीं है--ऐसी घड़ी में अगर शांति लगने लगे तो यह शांति उधार है। यह हिमालय की शांति है जो तुममें झलकने लगी। यह तुम्हारी नहीं! तुम्हारी शांति की कसौटी तो बाजार में है।
इसलिए अष्टावक्र भागने के पक्ष में नहीं हैं, न मैं हूं; जागने के पक्ष में जरूर हैं। भागना कायरता है। भागने में भय है। और भय से कहां विजय है!
यह सूत्र समझो। पहला सूत्र:
क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व ध्यानं क्व मुक्तता।
सर्वसंकल्पसीमायां विश्रांतस्य महात्मनः।।
‘संपूर्ण संकल्पों के अंत होने पर विश्रांत हुए महात्मा के लिए कहां मोह है, कहां संसार है, कहां ध्यान है, कहां मुक्ति है?’
सुनो यह अपूर्व वचन। अष्टावक्र कहते हैं: जिसके संपूर्ण संकल्पों का अंत आ गया; जिसके मन में अब संकल्प-विकल्प नहीं उठते; जिसके मन में अब क्या हो क्या न हो, इस तरह के कोई सपने जाल नहीं बुनते; जिसके मन में भविष्य की कोई धारणा नहीं पैदा होती; जिसकी कल्पना शांत हो गई है और जिसकी स्मृति भी सो गई; जो सिर्फ वर्तमान में जीता है।
सर्व संकल्प सीमायां विश्रांतस्य महात्मनः।
और इन सब संकल्पों का जहां सीमांत आ गया है, वहां जो विश्राम को उपलब्ध हो गया वही महात्मा है।
महात्मा का अर्थ--जिसके जीवन में अब कोई आकांक्षा की दौड़ न रही; अब जो कुछ भी नहीं चाहता, परमात्मा को भी नहीं चाहता, ब्रह्म को भी नहीं चाहता, मोक्ष को भी नहीं चाहता--जो चाहता ही नहीं, चाह मात्र विसर्जित हो गई। अब तो जो है, उसमें रस-मुग्ध। जो है, उसके काव्य में डूबा। अब तो जो है उसमें परम तृप्त। अब तो जैसा है उसमें ही महोत्सव को उपलब्ध।
‘संपूर्ण संकल्पों के अंत होने पर विश्रांत हुए महात्मा के लिए कहां मोह!’
अब किसको कहे मेरा? मैं ही न बचा। इसे समझो।
संकल्पों और विकल्पों के जोड़ का नाम ही मैं है। सोचो एक धारणा: अगर कोई तुमसे तुम्हारा अतीत छीन ले तो तुम यह बता न सकोगे कि तुम कौन हो। क्योंकि अतीत के छिनते ही तुम बता न सकोगे, कौन तुम्हारा पिता, कौन तुम्हारी मां, किस कुल से आते, किस देश के वासी, किस भाषा को बोलते, हिंदू हो कि मुसलमान कि ईसाई कि जैन, ब्राह्मण कि शूद्र, कुछ भी न बता सकोगे। अगर कोई एक झटके में तुम्हारा अतीत छीन ले तो तुम्हारे पास ‘मैं’ की कोई परिभाषा बचेगी? एकदम तुम पाओगे परिभाषा खो गई।
मेरे एक मित्र हैं, डाक्टर हैं। ट्रेन से जाते थे, भीड़ थी ट्रेन में, दरवाजे पर खड़े थे। थोड़े झक्की स्वभाव के हैं। भूल गये होंगे कि डंडे को पकड़े रहना है जोर से। खड़े-खड़े कुछ विचार में खो गए होंगे, गिर पड़े। ट्रेन से बाहर गिर गये, सिर में बड़ी चोट लगी। ऐसे ऊपर से कोई खास चोट नहीं लगी। ऊपर से कोई घाव नहीं हुआ। कोई हड्डी-पसली नहीं टूटी। लेकिन स्मृति खो गई। याददाश्त खो गई। मस्तिष्क तो यंत्र है, बड़ा बारीक यंत्र है--कुछ चोट भीतर पहुंच गयी और स्मृति के धागे टूट गये। बस भूल गये। वे यह भी न बता सके कि उनका नाम क्या है। वे यह भी न बता सके कि वे कहां से आ रहे हैं। उनकी टिकिट वगैरह देख कर उनको गांव वापिस भेजा गया। तीन वर्ष तक उन्हें कुछ भी याद न रही। मेरे साथ पढ़े, बचपन से मेरे दोस्त, मैं उन्हें देखने गया। वे मेरी तरफ देखते रहे। वे मुझे पहचान ही न सके। सब खो गया। वे अपनी पत्नी न पहचान सके, अपने बाप को न पहचान सके। फिर से अ ब स से सीखना शुरू किया।
अगर तुम्हारी स्मृति हट जाये तो तुम कौन हो? तुम्हारा मैं तुम्हारी स्मृति का संग्रहीभूत सार-संचय है। और अगर तुम्हारे भविष्य की योजनायें तुमसे छूट जायें, तब तो तुम बिलकुल ही खो गये। तुम्हारा अतीत भी तुम्हारे ‘मैं’ को बनाता है। तुम कहते हो, मैं फलां का बेटा, इतना धन मेरे पास, मैं ब्राह्मण। और आगे की योजना-कल्पना भी तुम्हें बनाती है। तुम कहते हो, आज नहीं कल चीफ मिनिस्टर होने वाला, कि प्राइम मिनिस्टर होने वाला, कि जरा ठहरो, देखो करोड़ों रुपये कमा देने वाला हूं। तो तुम्हारा अतीत भी तुम्हारे ‘मैं’ को बनाता है और तुम्हारा भविष्य भी तुम्हारे ‘मैं’ को बनाता है। इन दोनों के बीच में ‘मैं’ खड़ा है। ये दो बैसाखियां तुम्हारे ‘मैं’ के पैर हैं। ये दोनों गिर जायें, तुम्हारा ‘मैं’ गिर गया।
संकल्प-विकल्प के अंत हो जाने पर व्यक्ति की चेतना परम विश्राम में पहुंच जाती है। न तो पीछे का कोई धक्का रहता है, न आगे का कोई खिंचाव रहता है। तुम वर्तमान क्षण में रह जाते शांत, विश्रांति को उपलब्ध। ऐसे महात्मा के लिए कहां मोह है और कहां संसार!
क्या तुम समझते हो ऐसे महात्मा के लिए ये सब वृक्ष, चांद-तारे, आकाश, बादल खो जायेंगे? अगर ऐसा होता तो अष्टावक्र बोल किससे रहे हैं? जनक तो है ही नहीं फिर, समझा किसको रहे हैं? नहीं; ‘कहां संसार’ का अर्थ है: कहां सपना! ‘संसार’ शब्द का अर्थ है तुम्हारे भीतर चलते हुए सपनों की दौड़--ऐसा हो जाये, ऐसा पा लूं, ऐसा कर लूं। वह जो तुम्हारे भीतर शेखचिल्ली बैठा है, उस शेखचिल्ली की ही यात्रा का नाम संसार है़।
इसे मैं तुम्हें बार-बार समझा देना चाहता हूं, नहीं तो तुम्हें बड़ी भ्रांति होती है। तुम सोचते हो संसार छोड़ने का अर्थ घर-द्वार छोड़ो। संसार छोड़ने का अर्थ है: भविष्य छोड़ो! संसार छोड़ने का अर्थ है: अतीत छोड़ो। संसार छोड़ने का अर्थ है: कल्पना-विकल्पना छोड़ो।
‘कहां संसार!’
और बड़ा अदभुत सूत्र है! अष्टावक्र कहते हैं: ‘ऐसे व्यक्ति को कहां ध्यान और कहां मुक्ति!’
सब गया। जब बीमारी गई तो औषधि भी गई। तुम्हारी जब बीमारी चली जाती है तो तुम औषधि की बोतलें थोड़े ही टांगे फिरते हो कि इनका बड़ा धन्यवाद, कि इन्हीं के कारण बीमारी गई, अब इनको कैसे छोड़ें, कि अब तो इनको हम सदा टांगे फिरेंगे! ये पेनिसिलिन का इंजेक्शन, इसी के कारण बीमारी गई, तो अब इसकी पूजा करेंगे! जिस दिन बीमारी गई उसी दिन तुम कचरे-घर में फेंक आते हो सब दवाइयां, बात खतम हो गई।
ध्यान तो औषधि है। विचार बीमारी है; ध्यान औषधि है। संसार बीमारी है; मोक्ष औषधि है। जब संसार ही न रहा तो कहां मोक्ष, कैसा मोक्ष! जिससे बंधे थे वही न रहा, तो अब कैसा छुटकारा!
यह तुम्हें बड़ा कठिन मालूम पड़ेगा, क्योंकि तुमने यह तो सुना है कि संसार नहीं रह जायेगा, तब तुमने मान रखा है कि मोक्ष होगा। लेकिन अष्टावक्र ठीक कह रहे हैं, बिलकुल ठीक कह रहे हैं। अष्टावक्र के वचन ऐसे सत्य हैं अध्यात्म के जगत में, जैसे गणित के जगत में आइंस्टीन के वचन सत्य हैं। बड़ी गहरी आंख है। ये कह रहे हैं कि जब बीमारी चली गई तो औषधि भी गई। जब संसार ही न बचा तो अब मोक्ष की बात ही क्या उठानी।
सर्वसंकल्पसीमायां विश्रांतस्य महात्मनः।
अब तो सबसे विश्रांति हो गई--संसार से, मोक्ष से, विचार से, ध्यान से।
क्व मोहः क्व विश्वं क्व ध्यानं क्व मुक्तता।
अब कैसा संसार, कैसी मुक्ति, कैसा बंधन, कैसी स्वतंत्रता! सब गये, साथ ही साथ गये।
हमारे जीवन के सभी द्वैत साथ ही साथ जाते हैं। तुम बहुत हैरान होओगे: जिस दिन तुम्हारे जीवन से दुख चला जाता है उसी दिन सुख भी चला जाता है। और उस दशा को ही हमने आनंद कहा है। जिस दिन तुम्हारे जीवन से संसार जाता है, उसी दिन मोक्ष भी चला जाता है। और उसी दशा को हमने स्वभाव कहा है, सत्य कहा है।
‘जिसने इस जगत को देखा है, वह भला उसे इंकार भी करे’--सुनना--‘लेकिन वासनारहित पुरुष को क्या करना है; वह देखता हुआ भी नहीं देखता है।’
‘जिसने इस संसार को देखा है, वह भला उसे इंकार भी करे...।’
वह जो भाग रहा है संसार से, उसको अभी भी संसार दिखाई पड़ रहा है, नहीं तो भागेगा क्यों? भाग कहां रहा है? किससे भाग रहा है? अगर कोई डर कर भाग रहा है स्त्री से, तो स्त्री में उसकी वासना अभी शेष है। डर कर भाग रही है कोई स्त्री पति से, तो पति में उसकी वासना शेष है। जिसमें हमारा लगाव है उसी से हम भागते हैं। जहां हमारी चाह है उसी से हम अपने को रोकते हैं।
तो जिसको तुम त्यागी कहते हो, वह भोगी का ही विपरीत रूप है; भोगी का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। त्यागी और भोगी में कुछ बहुत बुनियादी फर्क नहीं। हां, एक-दूसरे के उल्टे खड़े हैं। एक-दूसरे की तरफ पीठ किए खड़े हैं। लेकिन दोनों की नजर एक ही बात पर है। भोगी धन चाहता है, त्यागी धन से डरा हुआ है। डर का मतलब ही है चाह अभी मौजूद है। भोगी कहता है: धन न मिलेगा तो मर जाऊंगा। त्यागी कहता है: धन मेरे सामने मत लाना, धन देख कर ही मुझे ऐसा होता है जैसे कोई सांप-बिच्छू ले आया। धन मेरे सामने मत लाना, धन जहर है!
भोगी कहता है कामनी और कांचन जीवन का लक्ष्य है। और त्यागी समझाता है लोगों को, कामिनी-कांचन से बचो। मगर दोनों की नजर एक ही बात पर लगी है, भेद नहीं है। ज्ञानी को न तो कामिनी-कांचन में कोई रस है न कोई त्याग है।
येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोति वै।
जिसको संसार दिखाई पड़ रहा है, वह अगर इंकार करे संसार का, त्याग करे, चल सकता है।
निर्वासनः किं कुरुते...।
लेकिन जिसकी सब वासना ही शून्य हो गई, अब क्या करेगा, त्याग करेगा? कैसे करेगा? भोग ही नहीं बचा तो त्याग कैसे बचेगा? त्याग तो भोग के ही सिक्के का दूसरा पहलू है।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति।
ऐसा व्यक्ति तो देखता है, फिर भी उसे कुछ दिखाई कहां पड़ता है! संसार दिखाई नहीं पड़ता उसे; देखता है। वस्तुतः उसी के पास देखने वाली आंखें हैं, जो देखते हुए संसार नहीं देखता है।
धन पड़ा है। तुम पास से गुजरे। तुम अगर भोगी हो तो जल्दी से कब्जा कर लेना चाहोगे। तुम अगर त्यागी हो, छलांग लगा कर भाग खड़े होओगे, क्योंकि धन पड़ा है; कहीं ऐसा न हो कि तुम जरा देर रुक जाओ और लोभ पकड़ ले; कहीं ऐसा न हो किसी को आसपास न देख कर दिल हो कि उठा ही लो, कोई भी तो नहीं देख रहा, वक्त-बे-वक्त काम पड़ जायेगा। तुम एकदम छलांग लगा कर भागोगे। तुम्हारी छलांग बता रही है कि तुम्हारे भीतर अभी भी वासना शेष है। एक तीसरा आदमी है वह चलता है, जैसा चल रहा था वैसे ही चलता है। धन पड़ा है; न तो उठाता उसे, न भागता।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर को गवर्नर जनरल ने एक उपाधि देने का आयोजन किया था। तो गरीब आदमी थे और दीन-हीन वस्त्र थे उनके। मित्रों ने कहा कि वायसराय के भवन में जाओगे, स्वागत- समारोह होगा, बड़े-बड़े लोग होंगे, पदाधिकारी होंगे--इन कपड़ों में? नहीं, यह ठीक नहीं। हम तुम्हें अच्छे कपड़े बना देते हैं।
ईश्वरचंद्र ने बहुत मना किया कि मेरे ही कपड़े...जो भी हैं, मेरे ही हैं; तुम्हारे बनाये उधार होंगे। लेकिन मित्र न माने तो वे राजी हो गये। एक ही दिन पहले सांझ को घूमने निकले थे और उनके सामने ही एक मुसलमान लखनवी कपड़े पहने हुए, हाथ में छड़ी लिए हुए, लखनवी चाल से चलता हुआ टहल रहा था--आगे ही उनके। और तभी एक आदमी भागा हुआ आया और उसने कहा उस मुसलमान को कि मीर साहिब, आपके मकान में आग लग गई, चलिए, जल्दी चलिए! सब जला जा रहा है! यह सुन कर विद्यासागर तक उत्तेजित हो गये और भागने को खड़े हो गये कि कहां लग गई आग! लेकिन वह आदमी वैसा ही चलता रहा जैसा चल रहा था। उस नौकर ने फिर कहा: मालिक सुना नहीं, आप होश में हैं? मकान में आग लग गई है, सब जला जा रहा है! और आपकी चाल वही चले जा रहे हैं आप! लखनवी चाल का यह मौका नहीं।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने लिखा है कि उस आदमी ने मुस्कुरा कर कहा: चाल मेरी जिंदगी भर की है, मकान के जलने न जलने से चाल को नहीं बदल सकता। फिर जो जल रहा है, जल रहा है; मेरे दौड़ने से भी क्या होगा! यह मेरी जिंदगी भर की चाल है, इसको इतनी आसानी से नहीं बदल सकता। तुझे भागना हो, तू भाग; मैं आता हूं। यह मेरे टहलने का समय है। फिर मकान जल ही रहा है; मेरे भागने से क्या होगा! मेरे भागने से कुछ बचने वाला नहीं है।
और वह आदमी उसी चाल से चलता रहा। विद्यासागर ने लिखा है कि मुझे होश हुआ। मैंने कहा, हद हो गई बात, यह एक आदमी है जिसे कोई फर्क न पड़ा। और एक मैं हूं कि वायसराय की सभा में जा रहा हूं पुरस्कार लेने, तो मित्रों के उधार कपड़े ले लिए! और यह आदमी अपनी चाल नहीं बदल रहा है, मकान में आग लग गई तो भी! और मैं अपने कपड़े बदल रहा हूं!
वे दूसरे दिन अपने पुराने गरीब के कपड़े ही पहने हुए वायसराय के भवन में पहुंच गये। वायसराय भी थोड़ा चिंतित था। उसने पूछा भी कि ईश्वरचंद्र मैंने तो सुना था मित्रों ने कपड़ों की व्यवस्था कर दी। उन्होंने कहा: कर दी थी, लेकिन इन मीर साहिब ने सब गड़बड़ कर दी। नहीं; इतनी आसानी से क्या जिंदगी भर की चालें बदली जाती हैं!
जीवन में ऐसा हो कि वैसा हो, अगर तुम्हारी चाल वैसी की वैसी बनी रहे, जरा भी फर्क न पड़े, भोग में कि त्याग में, सुख में कि दुख में, सफलता में कि विफलता में, तुम ठीक वैसे ही अकंप बने रहो, तो ही विश्राम उपलब्ध हुआ।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति।
तब तुम्हें संसार दिखाई भी पड़ता है और नहीं भी दिखाई पड़ता है। जो है वही दिखाई पड़ता है। जो नहीं है वह नहीं दिखाई पड़ता। तब तुम्हारे लिए वस्तुतः यथार्थ प्रगट होता है। तुम उस यथार्थ पर अपने प्रक्षेपण नहीं करते हो।
जो जैसा है उसे वैसा ही देख लेना परम आनंद है, परम विश्राम है।
‘जिसने परमब्रह्म को देखा है, वह भला ‘मैं ब्रह्म हूं’ का चिंतन भी करे, लेकिन जो निश्चिंत हो कर दूसरा नहीं देखता है, वह क्या चिंतन करे!’
सुनो उपनिषद से भी ऊंची उड़ान! उपनिषद आखिरी उड़ान मालूम होते हैं। उपनिषद के पार भी कोई उड़ान हो सकती है, इसकी संभावना नहीं मालूम होती है, लेकिन अष्टावक्र उपनिषद से भी ऊंची उड़ान भरते हैं। यह सूत्र कह रहा है:
येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिंतयेत्।
जिसको ब्रह्म दिखाई पड़ता हो वह शायद ऐसा सोचे भी कि मैं ब्रह्म हूं...।
किं चिंतयति निश्चिंतो द्वितीयं यो न पश्यति।
लेकिन जिसे दूसरा दिखाई ही नहीं पड़ता, जिसका सारा चिंतन और चिंतायें समाप्त हो गई हैं, वह क्या सोचे! वह क्या करे! वह तो यह भी नहीं कह सकता: अहं ब्रह्मास्मि! क्योंकि अहं और ब्रह्म का कोई भेद ही नहीं बचा है।
उपनिषद का महावाक्य है: अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं!
अष्टावक्र कहते हैं: मैं कौन, ब्रह्म कौन! अभी तो दो बचे हैं। अभी तुम दो के बीच संबंध जोड़ रहे हो, मगर दो मिटे नहीं; अभी दूसरा दिखाई पड़ता है।
प्रसिद्ध झेन फकीर रिंझाई का एक शिष्य उसके पास आया और उसने कहा कि ध्यान फल गया है, फूल लग गये हैं, मैं शून्य को उपलब्ध हुआ हूं। रिंझाई कुछ काम कर रहा था, कुछ चित्र बना रहा था। उसने आंख भी न उठाई। शिष्य बड़ा दुखी हुआ--इतनी बड़ी घटना की खबर ले कर आया कि मैं शून्य को उपलब्ध हो गया हूं और यह एक गुरु है, यह अपना चित्र बना रहा है, आंख भी नहीं उठाई! उसने फिर कहा: आपने सुना नहीं, मैं समाधि को उपलब्ध हो कर आया हूं! रिंझाई ने वैसे ही चित्र बनाते कहा कि समाधि इत्यादि फेंक कर आ, शून्य इत्यादि बाहर फेंक कर आ, भीतर मत ला। क्योंकि जब तक तुझे लगता है कि मैं शून्य को उपलब्ध हुआ हूं तब तक तू मौजूद है, फिर कैसा शून्य!
शून्य को जो उपलब्ध हुआ वह यह कह ही नहीं सकता कि मैं शून्य को उपलब्ध हुआ हूं। कैसे कहोगे! कौन कहेगा! शून्य और मैं दो तो नहीं, एक ही हो गये।
तो रिंझाई ठीक कह रहा है कि इसे भी तू बाहर फेंक कर आ। वर्षों बीत गये, पहले ध्यान करने में वर्षों बीते थे, फिर ध्यान को फेंकने में वर्षों बीते। हमारा मन ऐसा है कि हम जो पकड़ लें सो पकड़ लेते हैं; पहले संसार पकड़ लेते हैं, फिर त्याग पकड़ लेते हैं। संन्यास पकड़ लेते हैं। शून्य तक को पकड़ लेते हैं। हमें पकड़ने की ऐसी आदत है कि शून्य पर भी मुट्ठी बांधने की कोशिश करते हैं।
वर्षों बीत गये, तब शिष्य एक दिन वापिस आया। रिंझाई खड़ा हो गया। तो उसने कहा: अच्छा, तो अब बात हो गई! शिष्य ने कुछ कहा भी नहीं था, लेकिन रिंझाई खड़ा हो गया। उसने शिष्य को गले लगा लिया। उसने कहा: ‘तो बात हो गई!’ पर शिष्य ने कहा: आज तो मैंने कुछ निवेदन भी नहीं किया है। रिंझाई ने कहा: इसीलिए, इसीलिए! निवेदन तो किया नहीं जा सकता। आज तू शून्य हो कर आया है, निवेदन करने वाला मौजूद नहीं है।
‘मैं ब्रह्म हूं’--तो थोड़ा-सा भेद शेष है। सुनो इस वचन को:
‘जिसने परमब्रह्म को देखा है वह भला ‘मैं ब्रह्म हूं’ का चिंतन भी करे, लेकिन जो निश्चिंत हो कर दूसरा नहीं देखता है वह क्या चिंतन करे!’
किं चिंतयति निश्चिंतो द्वितीयं यो न पश्यति।
यह परम ज्ञान की अवस्था है। यह ज्ञान के भी पार परमज्ञान की अवस्था है। शायद इसीलिए बुद्ध और महावीर ने परमात्मा की बात नहीं की। हिंदुओं ने समझा नास्तिक हैं, कि बुद्ध परमात्मा की बात नहीं करते, महावीर भी परमात्मा की बात नहीं करते। लेकिन मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं: यह परम अवस्था है जहां परमात्मा की बात की नहीं जा सकती। परमात्मा की बात करने के लिए भी थोड़ा नीचे उतरना पड़ता है। तो बुद्ध ने तो आत्मा तक की बात नहीं की, क्योंकि ये तो अनुभव हैं, इनकी बातें नहीं हो सकती हैं। इनके विचार...इनको विचार में नहीं बांधा जा सकता। ये तो चिंतन के पार की प्रतीतियां हैं। चिंतन में इनकी छाया भी नहीं बनती। और जो भी चिंतन में बनता है वह विकृत हो जाता है।
‘जो आत्मा में विक्षेप देखता है, वह पुरुष भला चित्त का निरोध करे...।’
देखें एक-एक सूत्र! पहला सूत्र त्यागियों के विरोध में कि त्यागी भी भोगी जैसे हैं; दूसरा सूत्र उपनिषद के पार जाता है, उपनिषद के विरोध में, कि ‘मैं ब्रह्म हूं’ ऐसी घोषणा करने वाला भी अभी एक सीढ़ी नीचे है। तीसरा सूत्र पतंजलि के विरोध में है:
‘जो आत्मा में विक्षेप देखता है, वह पुरुष भला चित्त का निरोध करे...।’
पतंजलि ने कहा: योग का अर्थ है चित्त-वृत्ति निरोध।
‘लेकिन विक्षेप-मुक्त उदार पुरुष साध्य के अभाव में क्या करे!’
जब तक मन में विक्षेप हैं तब तक कोई निरोध भी करे, लेकिन विक्षेप न रहे तो कैसा निरोध, किसका निरोध और कौन करे!
दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ।
हां, जिसके मन में बेचैनियां हैं, वह संयम साधे। जिसके मन में तनाव हैं, वह विश्रांति साधे। और जिसके मन में हजार-हजार तरंगें उठती हैं वासना की, वह निरोध साधे।
उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम्।
लेकिन, जिसका मन सच में शांत हुआ, चैतन्य सच में ही विश्रांति को उपलब्ध हुआ, वह किस बात का निरोध करे! निरोध करने को कुछ बचा नहीं।
‘विक्षेप-मुक्त उदार पुरुष साध्य के अभाव में क्या करे!’
उसके लिए कोई साध्य भी नहीं बचा। न साध्य बचा न साधन बचा। ऐसी ही घड़ी परममुक्ति की घड़ी है: जब न कुछ पाने को बचा न कुछ खोने को बचा। तब तुम आ गये घर। तब तुम आ गये उस जगह जहां आने के लिए सदा से दौड़ रहे थे। और यह जगह कुछ ऐसी है कि तुम्हारे भीतर सदा मौजूद थी; तुम कभी भी भीतर मुड़ जाते तो इसे पा लेते। इसे खोजने के लिए खोजना जरूरी ही न था; वस्तुतः खोजने के कारण ही भटके रहे। यह तुम्हारा स्वभाव है। साध्य नहीं; तुम्हारा स्वभाव है। इसे पाने के लिए कुछ करना नहीं है; इसे तुमने पाया ही हुआ है! यह प्रभु-प्रसाद है। यह तुम्हें मिला ही हुआ है। यह तुम्हारे भीतर ही मौजूद है। लेकिन भीतर तुम जरा आंख तो करो।
‘जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है, वह धीरपुरुष न अपनी समाधि को न विक्षेप को और न दूषण को ही देखता है।’
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।
और परम ज्ञानी की परिभाषा करते हैं: ‘जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है।’
अब तुम खयाल करना, जैसे ही तुम्हारे जीवन में त्याग आना शुरू होता है, तुम तत्क्षण कोशिश करते हो कि भोगियों जैसे न बरतो। विशिष्ट होने की कोशिश करते हो।
कल ही किसी ने पूछा था कि मुझे रास्ता बतायें कि मेरे भीतर महामानव कैसे पैदा हो, मैं महात्मा कैसे बनूं? यह तो अहंकार ही है। अब यह महात्मा की आड़ में बचना चाहता है। तुम सहज हो जाओ। यह महान बनने की चेष्टा बीमार है। इस चेष्टा में ही रोग के सारे बीज छिपे हैं, कीटाणु छिपे हैं। तुम तो ऐसे ही बरतो जैसा सामान्य जन बरतता है। तुम भिन्न होने की चेष्टा ही मत करो।
इसलिए मैं संन्यास के बाद यह नहीं तुमसे कहता कि तुम विशिष्ट होने की चेष्टा करो। मैं तुमसे कहता हूं: तुम जैसे हो वैसे ही रहो; जैसे साधारण जन हैं, वैसे ही रहो। अंतर आना है भीतर। घटना घटनी है भीतर। तुम भीतर साक्षी हो जाओ, क्रांति हो जायेगी। तुम वही करो जो तुम कल तक करते थे; बस अब साक्षी का सूत्र जोड़ दो।
संन्यास किसी चीज का त्याग नहीं, बल्कि किसी नई भाव-दशा का ग्रहण है। संन्यास किसी चीज को तोड़ नहीं देना है, बल्कि तुम्हारे जीवन में एक नये साक्षी-भाव को जोड़ लेना है। ऋण नहीं है संन्यास, धन है।
‘जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है, वह धीरपुरुष न अपनी समाधि को न विक्षेप को और न दूषण, बंधनलिप्त होने को ही देखता है।’
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।
न समाधिं न विक्षेपं न लेपं स्वस्थ पश्यति।।
ऐसा पुरुष न तो दावा करता कि मैं समाधिस्थ हूं, न दावा करता है कि मैं अलिप्त हूं, न दावा करता कि मैं वीतराग हूं--दावा ही नहीं करता। लेकिन तुम अगर उसके पास जाओगे तो तुम अनुभव करोगे। उसकी तरंग-तरंग में दावा है; उसमें कोई दावा नहीं है। उसकी मौजूदगी में दावा है। तुम उसके पास अनुभव करोगे कुछ हुआ है, कुछ अपूर्व घटा है, कुछ अद्वितीय घटा है; कुछ ऐसा घटा है जो घटता नहीं है साधारणतः। और फिर भी तुम चकित होओगे कि वह तुम्हारे जैसा ही व्यवहार करता है।
कबीर ज्ञान को उपलब्ध हो गये तो उनके भक्तों ने कहा कि अब आप ये कपड़े बुनना बंद कर दें; यह शोभा नहीं देता। कबीर तो जुलाहे थे। अब यह बैठे-बैठे दिन भर कपड़े बुनना, फिर बाजार में कपड़े बेचने जाना--और आप तो इतने बड़े महात्मा हैं, आपके इतने शिष्य हैं, यह आप बंद कर दें! लेकिन कबीर ने कहा कि नहीं; जो था जैसा था वैसा ही रहने दो। और फिर बहुत रूपों में राम आते हैं बाजार में कपड़े खरीदने और मैं कपड़ा न बनाऊंगा उनके लिए, तो इतने ढंग से कोई कपड़े उनके लिए बनायेगा नहीं। देखते मैं कितने जतन से बुनता हूं! इतने जतन से कोई बुनेगा नहीं। नहीं, काम जारी रहेगा।
तो कबीर जुलाहे ही बने रहे; मरते दम तक कपड़ा बुनते रहे और बेचते रहे। यह परम ज्ञानी की अवस्था है। अगर जरा भी अहंकार होता तो यह मौका छोड़ने जैसा नहीं था।
गोरा कुम्हार ज्ञान को उपलब्ध हो गया लेकिन घड़े तो बनाता ही रहा और घड़े तो बेचता ही रहा। कहते हैं किसी ने उससे कहा भी कि यह भी क्या धंधा कर रहे हो कुम्हार का!
तो उसने कहा, मैंने तो सुना है कि परमात्मा भी कुम्हार है, उसने संसार को बनाया। जब उसे भी शर्म न आई तो मुझे क्या शर्म! हम छोटे-छोटे घड़े बनाते हैं, उसने बड़े-बड़े घड़े बनाये। अब निश्चित ही वह बड़ा है, हम छोटे हैं।
मगर जो चलता था वह चलता रहा।
सेना नाई लोगों के बाल ही काटता रहा। भक्त उससे कहते कि बंद करो। कोई भक्त बाल बनवाने आया था, वह कहता हमें संकोच लगता है कि आप जैसे महात्मा से हम बाल बनवायें! तो सेना ने कहा, तुम बाल बनवा लो! घोंटते-घोंटते सिर भी घोंट देंगे, सफा कर देंगे सब। सफाई ही करना है न! महात्मा का काम ही यही है कि सफाई करता रहे। हजामत ही करनी है न, तो महात्मा का काम ही यह है। तुम आते भर रहो, बाल कटाते-कटाते किसी दिन सिर भी कटा बैठोगे।
मगर सेना नाई बाल ही बनाता रहा। रैदास चमार का काम करते रहे। ये अनूठे पुरुष हैं; इनमें ही ठीक-ठीक ‘महाशय’ प्रगट हुआ है!
‘जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है।’
वर्तन तो लोगों जैसा है, लेकिन भेद भीतर है। लोग मूर्च्छित बरत रहे हैं, वह जाग्रत। उसी राह पर चल रहा है जिस पर और लोग भी चल रहे हैं; लेकिन लोग नशे में चल रहे हैं, वह होश में चल रहा है। वही कर रहा है जो लोग कर रहे हैं! लेकिन लोगों को करने का कोई पता नहीं कि क्या हो रहा है, किए जा रहे हैं, वासनाओं की धुंध में चले जा रहे हैं, दौड़े जा रहे हैं। ज्ञानी भीतर दीये को जलाये है। भेद भीतर के दीये में है।
और ध्यान रखना, व्यवहार में जो भेद दिखाना चाहता है, शायद उसके भीतर दीया नहीं जला है; इसलिए जो दीये से पता चलना चाहिए था, वह भेद से दिखलाना चाहता है। दीया तो नहीं है; दीया तो खाली है, घर सूना पड़ा है। तो वह फिर ऊपर के आयोजन करता है। नंगा खड़ा हो जाता है। भीतर निर्दोष होता तो नंगे खड़े होने की कोई ऐसी आवश्यकता न थी। भीतर तो निर्दोष नहीं है। भीतर तो अभी बालवत नहीं हुआ। लेकिन बाहर से दावा तो कर ही सकता है। नंगे खड़े हो जाने से तो कुछ हल नहीं होता। नंगे तो पागल भी खड़े हो जाते हैं। नंगे खड़ा हो जाना तो बड़ी छोटे-से अभ्यास की बात है। इससे तुम्हारे भीतर रूपांतरण नहीं होगा।
मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि अगर तुम्हारे भीतर रूपांतरण हो जाये और तुम्हें सहज यही लगे नग्न होना, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि रुकना। जो सहज हो करना। लेकिन चेष्टा से नहीं हो।
तुम देखते अपने साधु-महात्मा को! वह सब तरह की कोशिश करता है तुमसे विशिष्ट होने की।
एक साधु मेरे साथ ही यात्रा को गये। उनके साथ मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा क्योंकि उनका सब काम तीन बजे रात। तो वे उठ आयें। मैंने कहा कि दूसरे के घर में ठहरे हैं, दूसरे का भी तो खयाल करो। उन्होंने कहा, मैं कोई गृहस्थ थोड़े ही हूं; मैं तो तीन ही बजे उठूंगा। मैंने कहा, चलो कोई बात नहीं तीन बजे उठ आओ, लेकिन इतने जोर-जोर से तो राम-राम न करो, घर के लोग जगते हैं, मुहल्ले के लोग जगते हैं। उन्होंने कहा, वह तो मैं सदा से करता रहा हूं। मैंने कहा, धीरे-धीरे कर लो, मन में करने में क्या बिगड़ता है? राम तो सुन लेंगे। कोई राम बहरे तो नहीं हैं। कहा नहीं है कबीर ने कि बहरा हुआ खुदाय! क्या तेरा खुदा बहरा है जो इतने जोर से अजान कर रहा है? इतने जोर से क्या चिल्लाना!
लेकिन लगता ऐसा है, मैंने उनसे कहा कि तुम्हें ईश्वर से कोई मतलब नहीं है, तुम पूरे मुहल्ले को, गांव को खबर करना चाहते हो कि स्वामी जी उठ गये, कि देखो स्वामी जी तीन बजे ब्रह्म-मुहूर्त में उठ गये हैं! फिर तो बड़ी झंझटें उनके साथ: घी ताजा चाहिए तीन घंटे पहले बना, नहीं तो वे ले नहीं सकते। और गाय का दूध चाहिए, भैंस का नहीं। मैंने पूछा, मामला क्या है? वे कहने लगे कि भैंस का दूध लो तो भैंस जैसी बुद्धि हो जाती है। तो मैंने कहा, तरबूज-खरबूज मत खाना, नहीं तो तरबूज-खरबूज जैसी बुद्धि हो जायेगी। साग-भाजी मत खाना, नहीं तो साग-भाजी हो जाओगे। और गाय भी सफेद चाहिए, काली गाय नहीं! वे इतना उपद्रव खड़ा कर देते, मगर जल्दी से प्रसिद्ध हो जाते। पूरा गांव जान जाता कि महात्मा जी आ गये। पूरा गांव मुश्किल में पड़ जाता। मगर इतना ही सारा खेल था। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।
जितना बाहर तुम प्रगट करना चाहते हो उसका कुल मतलब इतना ही होता है, भीतर का दीया नहीं जला; उसका परिपूरक कोई ढंग खोज रहे हो तुम कि लोगों को पता चल जाये। भीतर का दीया जल जाता है, तब तो लोगों को पता चलता है। वह पता चलना बड़ा सूक्ष्म है। तुम्हारी तरंगें लोगों के हृदय को छूने लगती हैं। तुम्हारे पास से उठती हुई तरंगें धीरे-धीरे लोगों के हृदय को घेर लेती हैं। बड़ा कोमल स्पर्श है। बड़ी स्त्रैण छाया है महाशय की, महात्मा की। आक्रमण नहीं है किसी के ऊपर।
अहंकार आक्रमक है। अहंकार पुरुष है। निरहंकारिता तो बड़ी प्रेमपूर्ण है।
भीतर का दीया मौजूद हो तो तुम बाहर की चिंता नहीं करते; लेकिन भीतर का दीया मौजूद न हो तब तो बाहर की ही चिंता पर निर्भर रहना पड़ता है। तो उपवास करोगे, शीर्षासन कर लोगे, आसन करोगे, व्यायाम करोगे, हजार तरह की मूढ़तायें करोगे। और पीछे खयाल रखना कि कुल आयोजन इतना ही हो रहा है कि लोगों को पता चल जाये कि तुम विशिष्ट हो; तुम कोई साधारण आदमी नहीं, बड़े विशिष्ट आदमी हो।
तुम अगर अपने महात्माओं की जीवन-चर्या गौर से देखो तो निन्यानबे प्रतिशत इस तरह की बातें पाओगे जिनका कुल आयोजन अहंकार की पुष्टि है। किसी भी तरह सिद्ध कर देना है कि हम सामान्य नहीं हैं, विशिष्ट हैं। और जो विशिष्ट है वह कभी इस तरह की आकांक्षा नहीं करता। वह विशिष्ट है; सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं है। उसकी विशिष्टता इतनी प्रगाढ़ है कि वह सामान्य होने की हिम्मत कर सकता है।
इस बात को तुम खयाल में लेना। जिसकी विशिष्टता सुनिश्चित है, वही केवल सामान्य होने का साहस कर सकता है। जिसकी विशिष्टता सुनिश्चित नहीं है, वह विशिष्ट होने की चेष्टा करता है। असाधारण पुरुष साधारण हो सकता है। साधारण पुरुष असाधारण होने की योजना करता है।
‘जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है...।’
भिन्नता आंतरिक है, आत्मिक है। भिन्नता भीतर के प्रकाश की है; बाहर के व्यवहार की नहीं।
‘वह धीर पुरुष न अपनी समाधि को, न विक्षेप को और न दूषण को ही देखता है।’
उसे फिर कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। न अपनी समाधि दिखाई पड़ती है और न दूसरों की गैर-समाधि दिखाई पड़ती है। वह तुम्हारी तरफ ऐसे नहीं देखता कि तुम कोई हीन, पापी, नारकीय, कि तुम नरक की यात्रा पर जा रहे हो। वह ऐसा नहीं देखता। जिसको अपने भीतर विश्रांति मिल गई वह तुम्हारे भीतर भी कुछ दूषण नहीं देखता।
बुद्ध का बड़ा अदभुत वचन है। बुद्ध ने कहा कि जिस क्षण मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, मेरे लिए सारा संसार ज्ञान को उपलब्ध हो गया; उसके बाद मैंने अज्ञानी देखा ही नहीं। यह मत समझ लेना कि तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गये इस कारण। बुद्ध यह कह रहे हैं कि जिसकी आंख में ज्ञान आ जाता है वह तुम्हारे भीतर भी छिपे हुए रत्न को देख लेता है। वह तुम्हारे स्वभाव को भी देख लेता है। तो बुद्ध ने किसी के भीतर अज्ञानी नहीं देखा। और जब भी कोई महात्मा तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार करने लगे कि मैं पवित्र, तुम अपवित्र; मैं ऊपर, तुम नीचे; मैं महात्मा, तुम साधारण पुरुष, सांसारिक--तब समझ लेना कि इस आदमी को अभी दिखाई नहीं पड़ा, इसकी आंखें नहीं खुलीं, यह अंधा है। ये अंधे के ढंग हैं। यह अंधे की तरह अभी भी टटोल रहा है। इसके पास आंख नहीं है। अन्यथा तुम्हारे भीतर बैठा परमात्मा भी इसको दिखाई पड़ जाता--उतना ही जितना अपने भीतर का दिखाई पड़ जाता है।
ऐसा समझो कि जितना तुम अपने भीतर जाते हो उतना ही तुम दूसरे के भीतर भी चले गये, क्योंकि तुम और दूसरे का भीतर अलग-अलग नहीं है। मेरा अंतस्तल और तुम्हारा अंतस्तल अलग-अलग नहीं है। अंतरतम में हम एक हैं; बाहर-बाहर भिन्न हैं। तो जिसको सिर्फ बाहर की सूझ है उसको भेद दिखाई पड़ता है। जिसको भीतर की सूझ होती है उसे कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता है। तो न तो वह अपनी समाधि को देखता है।
न समाधिं न विक्षेपं।
और तुम उसके लिए विक्षेप भी पैदा नहीं कर सकते।
कहावत है कि घर में एक आदमी धार्मिक हो जाये तो पूरा घर परेशान हो जाता है। तुमने देखा, एकाध धार्मिक आदमी तुम्हारे घर में पैदा हो जाये, घर भर की मुसीबत आ गई! वे नहा कर चले आ रहे हैं: कोई छू न दे! किसी ने छू दिया कि उपद्रव हो गया, विक्षेप हो गया।
मेरी नानी थी--सीधी-साधी ग्रामीण, पुरानी परंपरागत, जैन ढांचे में पली थी। कोई इतना भी नाम ले दे, मांसाहार का नाम ले दे भोजन करते वक्त कि विक्षेप हो गया। अब ‘मांसाहार’ शब्द में तो मांसाहार नहीं है। मांसाहार की तो दूर छोड़ो, कोई कह दे टमाटर, तो वह नाराज हो जाती। जब तक वह जीवित रही, घर में टमाटर नहीं आ सकता था, क्योंकि टमाटर से थोड़ा-थोड़ा मांस का खयाल आता है। जैसे ही मुझे समझ आ गया, मैं बचपन में काफी दिन तक उनके साथ रहा, तो मैं कुछ भी नहीं कहता था; मैं एकदम से अपने मुंह पर ऐसा उंगली रख लेता। तो वह कहती, क्या कर रहे हो? मैं कहता, गलत चीज आ रही है। बस विक्षेप हो गया। वह कहती, विक्षेप हो गया। अब मैंने कुछ कहा ही नहीं है अभी, टमाटर भी नहीं कहा है, मगर उंगली रख लेना काफी था। अभी जो कहा ही नहीं है, उसके कारण विक्षेप हो गया।
विक्षेप का क्या अर्थ होता है? विक्षेप का अर्थ होता है: हम विक्षुब्ध होने को तत्पर हैं, तैयार हैं; हम मौका ही देख रहे हैं; कोई भी कारण मिल जाये, हम विक्षुब्ध हो जायेंगे। फिर कारण मिल जायेगा। फिर कारण ज्यादा दूर नहीं है। जब तुम्हीं तैयार बैठे हो तो कोई न कोई कारण मिल जायेगा। कुछ न कुछ हो जायेगा। न होगा तो तुम खोज लोगे।
अष्टावक्र कहते हैं: न समाधिं न विक्षेपं।
जो व्यक्ति सच में ही शांत हुआ, विश्राम को उपलब्ध हुआ, तुम उसे विक्षुब्ध नहीं कर सकते। उसके लिए कोई विक्षेप नहीं रहा। वह ध्यान कर रहा हो, शांत बैठा हो, तुम बैंड-बाजे बजाओ तो भी कोई विक्षेप नहीं होगा। तुम शोरगुल मचाओ तो भी कोई विक्षेप नहीं होगा। उसकी शांति में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। शांति है तो बाधा पड़ती ही नहीं है। शांति नहीं है तो ही बाधा पड़ती है। जिसको तुम जबर्दस्ती आरोपित कर लेते हो, उसमें बाधा पड़ती है। जो भीतर से विकसित होता है, आता है अंतरतम से, जिसका आविर्भाव होता है, उसमें कोई बाधा नहीं पड़ती।
शंकराचार्य गंगा से स्नान करके लौट रहे हैं सुबह, ब्रह्म-मुहूर्त, और एक शूद्र ने उनको धक्का मार दिया। नाराज हो गये कि तूने मेरा स्नान खराब कर दिया। शूद्र हो कर! खयाल नहीं रखता कि ब्राह्मण को देख कर चले?
उस शूद्र ने बड़ी अदभुत बात कही। उस शूद्र ने कहा: मैं एक बात पूछना चाहता हूं। आप कहते हैं संसार माया, तो देह माया है, झूठ है; है नहीं, भासती है। तो जो देह भासती है उसके कारण आप अपवित्र हो गये? या तो ऐसा हुआ, या फिर मेरी आत्मा शूद्र है और आपकी आत्मा ब्राह्मण है। तो फिर आत्मा में भी शूद्र और ब्राह्मण हैं। तो आत्मा फिर मेरी ब्रह्म कैसे होगी? तो फिर आत्मा भी निर्विकार नहीं है। तो या तो मेरी देह को छूने के कारण आप भ्रष्ट हो गये--देह जो कि है ही नहीं आपके हिसाब से; या फिर मेरी आत्मा ही भ्रष्ट है। आप मुझे कह दें।
शंकर को कहते हैं बोध हुआ। झुक कर चरण छू लिए और कहा कि मैं अब तक शब्दों के जाल में ही खोया रहा।
यह विक्षेप कि शूद्र ने मुझे छू दिया, तुम्हारी धारणा के कारण है।
एक दफा मैं ट्रेन में सवार हुआ। बंबई से बैठा। तो मेरे डब्बे में एक ही सज्जन और थे। बहुत लोग मुझे छोड़ने आये थे तो उन्होंने सोचा जरूर कोई महात्मा हैं। तो भारत में तो ऐसा है कि महात्मा हो कि फिर पैर में गिरना। तो जैसे ही मैं दरवाजा बंद करके, गाड़ी चली, भीतर आया, वे एकदम साष्टांग मेरे पैर में गिर पड़े। मैंने उनसे पूछा, भाई पहले पूछ तो लेते कि मैं कौन हूं। वे बोले, क्या मतलब? वे एकदम चौंक कर उठ आये। मैंने कहा, मैं मुसलमान हूं। वे बोले, धत तेरे की! पहले क्यों न कहा? मैंने कहा कि तुमने मौका ही नहीं दिया, तुम एकदम पैर छू लिए। तुम मौका भी तो देते, पूछ तो लेते।
फिर उन्हें कुछ शक हुआ, मेरे चेहरे की तरफ देखा कि नहीं-नहीं। और मैंने कहा कि तुम अपने को समझाना चाहो तो तुम्हारी मर्जी, हालांकि तुमने छू लिए पैर। वे बोले, मैं ब्राह्मण हूं और मैं तो यही समझा कि कोई महात्मा हैं, इतने लोग छोड़ने आये थे।
मैंने कहा, ये कोई लोग भले लोग नहीं थे। ये सब बंबई के सटोरिया, स्मगलर इस तरह के लोग हैं। ये कोई सज्जन नहीं हैं। तुम बड़ी भूल में पड़ गये।
दोनों हम बैठे हैं एक ही कमरे में, वे बार-बार मेरे चेहरे की तरफ देखें गौर से, पता लगायें कि आदमी मुसलमान है कि हिंदू। थोड़ी देर बाद बोले कि नहीं-नहीं, मालूम तो आप मुसलमान नहीं पड़ते। मैंने कहा, भई तुम्हारी मर्जी, तुम्हें समझाना हो तुम समझा लो। कहो तो मैं लिख कर दे दूं कि मैं मुसलमान नहीं हूं, लेकिन अब मैं हूं तो हूं। तुमने भूल तो कर ली।
जब उनको बहुत बेचैन देखा तो मैंने कहा, अरे मजाक कर रहा हूं। उन्होंने फिर मेरे पैर छूए कि अरे, आप भी, ऐसी मजाक की जाती है? मैंने कहा, मैं अभी भी मजाक कर रहा हूं। वह तो टिकिट कलक्टर आया तो उससे कहा कि मेरा कमरा बदल दो, मैं दूसरे कमरे में जाना चाहता हूं। और जाते वक्त ऐसे देखते गये कि यह आदमी पागल है या क्या मामला!
तुम्हारी धारणा! अगर मैं मुसलमान हूं, विक्षेप हो गया। अब मैं मैं ही हूं, चाहे मुसलमान कहो चाहे हिंदू कहो। अगर मैं नहीं हूं मुसलमान, फिर पैर छू लिए, फिर ठीक हो गई बात।
तुर्गनेव की एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी है कि दो पुलिस वाले एक रास्ते से गुजर रहे हैं, एक होटल के सामने भीड़ लगी है और एक आदमी ने कुत्ते की दोनों टांगें पकड़ रखी हैं, वह उसको पछाड़ने को खड़ा है और चिल्ला रहा है कि इसको मार ही डालूंगा, इसने मुझे काटा। एक पुलिस वाले ने भी कहा कि अच्छा है, मार ही डालिए; हम पुलिस वालों को भी बहुत भौंकता है।
कुत्ते कुछ अजीब ही होते हैं। पुलिस वाले, पोस्टमैन, संन्यासी, जहां भी यूनीफार्म देखा कि वे भौंके।
...मार ही डालो इसको। मगर दूसरे पुलिस वाले ने उसके कान में कहा कि ठहरो, यह इंस्पेक्टर साहिब का कुत्ता मालूम होता है। बस बात बदल गई, वह आदमी एकदम झपट पड़ा। वह पुलिस वाला उस आदमी को पकड़ लिया, कहा कि तुम क्या हंगामा मचा रहे हो सड़क पर, तमाशा कर रहे हो? छोड़ो, जानते हो यह कुत्ता कौन है, किसका है? और जल्दी से उसने कुत्ते को अपने कंधे में ले लिया और पुचकारने लगा। बात बदल गई और उसने दूसरे पुलिस वाले से कहा कि पकड़ो इस आदमी को, हवालात ले चलो। बलवा करवायेगा!
मगर दूसरे ने कहा कि भाई, यह कुत्ता लगता तो वैसा है लेकिन है नहीं। उसने तत्क्षण कुत्ता पटक दिया। और उसने कहा, स्नान करना पड़ेगा। पहले क्यों ऐसा कह दिया कि कुत्ता वही है। और उस आदमी से कहा, पकड़ इस कुत्ते को, मार ही डाल इसको।
ऐसे कहानी चलती है। वह फिर कह देता है पुलिस वाला कि भई मैं पक्का नहीं कह सकता, क्योंकि लगता तो बिलकुल ऐसे ही है इंस्पेक्टर साहिब का कुत्ता, अपन झंझट में न पड़ें। फिर कहानी बदल जाती है।
तुम्हारे विक्षेप तुम्हारी धारणायें हैं। तुम मान लेते हो तो विक्षेप। शूद्र हो गया कोई, कोई मुसलमान हो गया, कोई हिंदू हो गया, कोई ब्राह्मण हो गया। फिर हर चीज से उपद्रव होने लगा। तुम्हारी धारणायें छूट जायें, तुम शांत हो जाओ, निर्धारणा को उपलब्ध हो जाओ, फिर कैसा विक्षेप! फिर तो पास में कोई चिल्लाता भी रहे, शोरगुल भी मचाये तो भी शोरगुल तुम्हारे भीतर कोई तनाव पैदा नहीं करता। शोरगुल भी तुम सुन लोगे। यह भी स्वीकार है।
स्वीकार में एक क्रांति घट जाती है। रूप बदल जाता है।
‘जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है, वह धीरपुरुष न अपनी समाधि को, न विक्षेप को और न दूषण को ही देखता है।’
न समाधिं न विक्षेपं न लेपं स्वस्थ पश्यति।
और जीवन में उसके ऊपर कोई भी चीज लेप नहीं बनती। कोई चीज उसे लिप्त नहीं कर पाती। तुम उसे काली कोठरी में से भी भेज दे सकते हो, तो भी वह साफ-सुथरा का साफ-सुथरा बाहर आ जायेगा। और तुम कितने ही साफ-सुथरे सफेद वस्त्र पहने बैठे रहो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
मुल्ला नसरुद्दीन ने राह पर एक सुंदर स्त्री को देख कर एकदम उसे धक्का मार दिया। वह स्त्री नाराज हो गई। नये जमाने की स्त्री, उसने मुल्ला का एकदम हाथ पकड़ लिया और कहा कि शर्म नहीं आती, बाल सफेद हो गये! मुल्ला ने कहा: अरे बाल सफेद हो गये तो क्या हुआ, दिल तो अभी भी काला का काला है!
कपड़े कितने ही सफेद पहन लो, इससे क्या हो सकता है; दिल काला है तो काला है। मुल्ला ने कहा, बाल से धोखा मत खा, दिल अभी काला का काला है।
एक तो आवरण है जिसमें हम भीतर कुछ छिपाये हुए हैं। जो छिपाये हैं, वह विपरीत है। लेकिन ज्ञानीपुरुष को कोई चीज लिप्त नहीं करती, इसका अर्थ हुआ कि हर घड़ी में उसका जागरण अविच्छिन्न बना रहता है। वह संसार से गुजर जायेगा और यह संसार की कोई चीज उसे छुएगी नहीं। और ऐसा भी नहीं कि डरा-डरा गुजरेगा। ऐसा भी नहीं भागा-भागा गुजरेगा। ऐसा भी नहीं कि अपने को छिपा कर और कंबल ओढ़ कर गुजरेगा। नहीं, ऐसे गुजरेगा जैसे तुम गुजरते हो। लेकिन तुम बार-बार लिप्त हो जाओगे और वह लिप्त न होगा। बस वहीं भेद है।
एक फकीर को--जापान की पुरानी कथा है--एक सम्राट ने कहा कि आपको मैं सदा इस वृक्ष के नीचे बैठे देखता हूं, मेरे मन में बड़ी श्रद्धा जन्मती है। आपके प्रति मुझे बड़ा भाव पैदा होता है। जब भी मैं यहां से गुजरता हूं, कुछ घटता है। आप महल चलें। आप यहां न बैठें। आप मेरे मेहमान बनें। आप जैसे महापुरुष यहां वृक्ष के नीचे बैठे हैं! धूप-धाप, वर्षा-गर्मी! आप चलें।
वह फकीर उठ कर खड़ा हो गया। उसने कहा, अच्छा। सम्राट थोड़ा झिझका, क्योंकि हमारी तो परिभाषा ही त्याग की यही होती है...। सम्राट ने भी सोचा होगा कि संन्यासी कहेगा, ‘अरे कहां तू मुझे ले जाता है कचरे में, महल इत्यादि सब कूड़ा-कर्कट! मैं संसारी नहीं हूं, मैं संन्यासी हूं।’ तो सम्राट बिलकुल पैर में गिर गया होता। लेकिन यह संन्यासी खड़ा हो गया। यह कुछ अष्टावक्र की धारणा का आदमी रहा होगा। उसने कहा, ठीक, यहां नहीं तो वहां। तुझे दुखी क्यों करें! चल।
लेकिन सम्राट दुखी हो गया। उसने सोचा: यह कहां की झंझट ले ली सिर! यह तो कोई ऐसे ही भोगी दिखाई पड़ता है, बना-ठना बैठा था, रास्ता ही देख रहा था कि कोई बुला ले कि चल पड़ें। फंस गये इसके जाल में। लेकिन अब कह चुके तो एकदम इंकार भी नहीं कर सकते।
ले आया। उसे महल में रख दिया। सुंदरतम जो भवन था महल का, उसमें रख दिया। वह अच्छे से अच्छा भोजन करता, शानदार गद्दे-तकियों पर सोता। छः महीने बाद सम्राट ने उससे कहा, महाराज, अब मुझे एक बात बतायें कि अब मुझमें और आपमें भेद क्या? अब तो हम एक ही जैसे हैं। बल्कि आपकी हालत मुझसे भी बेहतर है कि न कोई चिंता न फिक्र। हम धक्के खाते चौबीस घंटे, परेशान होते; आप मजा कर रहे! यह तो खूब रही। फर्क क्या है? अब मुझे फर्क बता दें। मेरे मन में यह बार-बार सवाल उठता है।
उस फकीर ने कहा: यह सवाल उसी वक्त उठ गया था जब मैं उठ कर खड़ा हुआ था झाड़ के नीचे। इसका तेरे महल में आने से कोई संबंध नहीं है। वह तो जब मैं उठ कर खड़ा हो गया था और मैंने कहा चलो चलता हूं, तभी यह सवाल उठ गया था। ठीक किया, तूने इतनी देर क्यों लगाई? छः महीने क्यों खराब किए? वहीं पूछ लेता। फर्क जानना चाहता है तो कल सुबह बताऊंगा। कल सुबह हम उठ कर गांव के बाहर चलेंगे।
सम्राट उसके साथ हो लिया, गांव के बाहर निकले। सूरज उग आया। सम्राट ने कहा, अब बता दें। उसने कहा, थोड़े और आगे चलें। दोपहर हो गई, साम्राज्य की सीमा आ गई; नदी पार होने लगे। सम्राट ने कहा, अब क्यों घसीटे जा रहे हैं? कहना हो तो कह दें। जो कहना है बता दें। कहां ले जा रहे हैं?
उस फकीर ने कहा: यह है मेरा उत्तर कि अब मैं तो जाता हूं; तुम भी मेरे साथ आते हो? मैं पीछे लौटने वाला नहीं हूं।
सम्राट ने कहा, यह कैसे हो सकता है? मैं कैसे आ सकता हूं? पीछे राज्य है, पत्नी-बच्चे, धन-दौलत, सारा हिसाब-किताब है, मेरे बिना कैसे चलेगा?
तो फकीर ने कहा: फर्क समझ में आया? मैं जा रहा हूं और तुम नहीं जा सकते।
सम्राट को एकदम फिर श्रद्धा उमड़ी। एकदम पैर पर गिर पड़ा कि नहीं महाराज। मैं भी कैसा मूढ़ कि आपको छोड़े दे रहा हूं। आप जैसे हीरे को पाकर और गंवा रहा हूं। नहीं-नहीं महाराज, आप वापिस चलिए।
उस फकीर ने कहा, मैं तो चल सकता हूं, लेकिन फिर सवाल उठ आयेगा। तू सोच ले। मैं तो अभी चल सकता हूं कि मुझे क्या फर्क कि इस तरफ गया कि इस तरफ गया! तू सोच ले।
सम्राट फिर संदिग्ध हो गया। फकीर ने कहा, बेहतर यही है, तेरे सुख-चैन के लिए यही बेहतर है कि मैं सीधा जाऊं, लौटूं न, तो ही तू फर्क समझ पायेगा।
फर्क एक ही है संन्यासी और संसारी में कि संसारी लिप्त है, ग्रस्त है, पकड़ा हुआ है, जाल में बंधा है। संन्यासी भी वहीं है, लेकिन किसी भी क्षण जाल के बाहर हो सकता है। पीछे लौट कर नहीं देखेगा। संन्यासी वही है जो पीछे लौट कर नहीं देखता। जो हुआ, हुआ। जो नहीं हुआ, नहीं हुआ। जहां से हट गया, हट गया।
संसारी ग्रसित हो जाता है, बंध जाता है। नहीं कि महल किसी को बांधते हैं; महल क्या बांधेंगे? तुम्हारा मोह तुम्हें बांध लेता है। इतना ही भेद है। भेद बहुत बारीक है और भेद बहुत आंतरिक है। बाहर से भेद करने में मत पड़ना, अन्यथा संसार और संन्यास में तुम एक तरह का द्वंद्व खड़ा कर लोगे। वही द्वंद्व सम्राट के मन में था। वह सोचता था संन्यासी तो त्यागी और संसारी भोगी।
नहीं, त्यागी-भोगी दोनों संसारी। संन्यासी तो साक्षी। त्याग में भी साक्षी रहता, भोग में भी साक्षी रहता। सुख में भी साक्षी रहता, दुख में भी। साक्षी स्वाद है संन्यास का।
बुद्ध ने कहा है: तुम कहीं से मुझे चखो, मेरा स्वाद तुम एक ही पाओगे। जैसे कोई सागर को कहीं से भी चखे, खारा पाता है--ऐसे बुद्ध को तुम कहीं से भी चखो, बुद्धत्व, साक्षी, जागरूकता।
‘जो तृप्त हुआ ज्ञानीपुरुष भाव और अभाव से रहित है और निर्वासना है, वह लोक-दृष्टि में कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता है।’
भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः।
वही है बुद्धपुरुष। वही है जागा हुआ। वही है ज्ञानी। जो भाव से भी रहित है, अभाव से भी रहित है। न तो उसका कोई पक्ष है न कोई विपक्ष है। न तो वह कहता है ऐसा ही हो और न वह कहता कि ऐसा होगा तो मैं दुखी हो जाऊंगा। न कोई भाव न कोई अभाव।
भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः।
और ऐसा भाव-अभाव में शून्य हो कर जो अपने स्वभाव में तृप्त हो गया, वही है बुद्धपुरुष।
नैव किंचित कृतं तेन लोकदृष्ट्या विकुर्वता।
ऐसा व्यक्ति सांसारिक दृष्टि से तो सांसारिक ही मालूम होगा। वही कर रहा जो और कर रहे। वैसा ही कर रहा जैसा और कर रहे।
पूछा है किसी ने बोकोजू को कि तुम तो ज्ञानी हो, तुम्हारी साधना क्या है? तो बोकोजू ने कहा: जब भूख लगती है भोजन कर लेता; जब नींद आती है तब सो जाता।
तो उस आदमी ने कहा, यह भी कोई साधना हुई? यह तो हम सभी करते हैं। जब भूख लगती है, खा लेते हैं; जब नींद आती, सो जाते।
बोकोजू ने कहा कि नहीं, तुम जब भोजन करते हो तब और हजार काम भी मन में करते हो, मैं सिर्फ भोजन करता। और तुम जब सोते हो, तब तुम हजार सपने भी देखते हो; मैं सिर्फ सोता हूं। तुम जागते हो तो भी पूरे जागते नहीं; सोते हो तो भी पूरे सोते नहीं। तुम बंटे-बंटे हो, हजार खंडों में हो। तुम एक भीड़ हो। मैं भीड़ नहीं हूं। मेरा सोना शुद्ध है। तुम्हारा सोना भी अशुद्ध, जागने की तो बात ही छोड़ दो।
क्या कह रहा है बोकोजू? बोकोजू यही कह रहा है कि लोक-दृष्टि में कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता है; भीतर अकर्ता बना रहता है। कर्म की रेखा भी नहीं खिंचती। भीतर तो जानता रहता है, मैं सिर्फ द्रष्टा हूं।
‘जब कभी जो कुछ कर्म करने को आ पड़ता है उसको करके धीरपुरुष सुख-पूर्वक रहता है और प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति में दुराग्रह नहीं रखता।’
सुनते हो!
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
उसका कोई आग्रह नहीं है, क्योंकि सभी आग्रह दुराग्रह हैं। सत्याग्रह तो कोई होता ही नहीं। आग्रह मात्र दुराग्रह है। जहां तुमने कहा ऐसा ही हो, वैसे ही चिंता तुमने बुला ली। जहां तुमने कहा ऐसा ही होना चाहिए, वहीं तुम अड़चन में पड़ गये। अगर वैसा न होगा तो दुखी होओगे। और वैसा होने का कोई पक्का नहीं है।
यह जगत किसी की आकांक्षायें तृप्त नहीं करता। इस जगत ने कोई ठेका नहीं लिया है किसी की आकांक्षायें तृप्त करने का। तुम्हारी निजी आकांक्षायें इस पूरे विश्व की आकांक्षाओं से मेल खा जाती हैं कभी तो तृप्त हो जाती हैं; कभी मेल नहीं खाती हैं तो तृप्त नहीं होतीं। और अधिकतर तो मेल नहीं खाती हैं। क्योंकि इस विराट आयोजन का तुम्हें पता ही नहीं है। तुम तो अपना छोटा-छोटा खयाल लिए चल रहे हो।
हमारी हालत वैसे ही है जैसे तुम्हारे चौके में घूमती हुई चींटियों की हालत है। वह शायद यही सोचती हैं कि वह जो भोजन इत्यादि गिर जाता है, उसी के लिए तुम भोजन बनाने का आयोजन करते हो। वे जो शक्कर के दाने नीचे पड़े रह जाते हैं फर्श पर, शायद उसी के लिए दूकान चलाते, दफ्तर जाते, रोटी-रोजी कमाते, भोजन बनाते, इतना सब आयोजन करते हो। ये सब आदमी जो घर में घूमते-फिरते दिखाई पड़ते हैं, ये सब इसी काम के लिए घूम रहे हैं कि चौके में कुछ शक्कर के दाने गिर जायें और चींटियां उनका मजा ले लें।
हमारी हालत भी ऐसी है। यह जो विराट विश्व है, हम सोचते हैं हमारे लिए चल रहा है; हमारी इच्छा की तृप्ति के लिए चल रहा है।
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
यदा यत् कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठतः सुखम्।।
जब कभी जो कुछ कर्म करने को आ पड़ता है--बुलाता भी नहीं कि ऐसा आये--जो आ पड़ता है, उसको करके धीरपुरुष सुखपूर्वक रहता है। सफल हो असफल, इसकी भी फिक्र नहीं है। कर देता है, अपने से जो बनता है कर देता है। जो स्थिति आ जाती है, जैसी चुनौती आ जाती है वैसा कर देता है। और प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति में कोई दुराग्रह नहीं रखता है। न तो वह यह कहता है कि मैं संन्यासी हूं, यह मैं कैसे करूं!
तेरापंथ जैनों का एक संप्रदाय है। अगर कोई रास्ते के किनारे मर रहा हो और तेरापंथी साधु निकल रहा हो और वह आदमी चिल्लाता हो कि मुझे प्यास लगी, मुझे पानी पिला दो, तो भी तेरापंथी साधु पानी नहीं पिलायेगा। क्योंकि वह संन्यासी है, वह कैसे पानी पिला सकता है! और उन्होंने बड़े तर्क-जाल खोज लिए हैं। वे कहते हैं, यह आदमी तड़फ रहा है किसी पिछले जन्म के पाप के कारण। इसने कुछ पाप किया होगा, किसी को तड़फाया होगा, इसलिए तड़फ रहा है। अब इसके कर्म में हम बाधा क्यों डालें? हम अगर पानी पिला दें तो हम बाधा हो गये। हमने इसको इसका कर्मफल न भोगने दिया, फिर बेचारा भविष्य में भोगेगा। भोगना तो पड़ेगा ही, तो हमने और इसका जाल बढ़ा दिया। इसी जन्म में छूट जाता, अब अगले जन्म में भोगेगा। तो बेहतर है हम कुछ बाधा न दें, हम अपने रास्ते चले जायें।
यह तो बड़ी कठोर बात हो गई। यह तो बड़ी हिंसक बात हो गई। और बड़े तर्क आदमी खोज सकता है। तेरापंथियों ने बड़े तर्क खोजे हैं। वे कहते हैं, कोई आदमी कुएं में गिर पड़ा है तो उसे निकालना मत, क्योंकि अगर मान लो उसे तुमने निकाला और वह जाकर गांव में किसी की हत्या कर दे, तो तुम भी जुम्मेवार हुए हत्या में। क्योंकि न तुम निकालते न वह हत्या करता। तो असली जुम्मेवार तो तुम्हीं हो गये। तुम भी साझीदार हो गये। पाओगे फल इसका। सड़ोगे नरकों में।
इसलिए कोई आदमी गिर गया है, कुएं में गिर गया है, चिल्ला रहा है, तुम चुपचाप गुजर जाना। तुम दखल मत देना।
लेकिन यह साक्षी-पुरुष की बात न हुई। साक्षी-पुरुष की तो बात यही है: ‘जब कभी जो कुछ कर्म करने को आ पड़ता है।’ कोई कुएं में गिर पड़ा है तो वह बचा लेगा। ऐसा भी नहीं सोचता कि मेरे बचाने से यह बचता है। न ऐसा ही सोचता है कि यह कल हत्या कर देगा किसी की, तो मैं जुम्मेवार होता हूं। कर्ता तो वह अपने को मानता ही नहीं। उसने तो सारा कर्तृत्व परमात्मा पर छोड़ दिया है। अगर उसकी मर्जी होगी तो बच रहा है। उसकी मर्जी है, इसीलिए मैं कुएं के किनारे आ गया हूं। सामने स्थिति आ गई है, जो बन पड़े कर देता है--जो हो परिणाम हो।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठतः सुखम्।
और ऐसा जो हो जाये जब, वैसा करके सुख में प्रतिष्ठित रहता है। उसके सुख को कोई छीन नहीं सकता। उसके कोई आग्रह नहीं हैं। वह ऐसा नहीं कहता है कि मैं संन्यासी हूं, इसलिए इतना ही व्यवहार करूंगा; कि मैं गृहस्थ हूं, इसलिए ऐसा व्यवहार करूंगा; कि मैं ब्राह्मण हूं तो मैं ऐसा व्यवहार करूंगा। नहीं, उसके कोई आग्रह नहीं हैं। मुक्त भाव से जो परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, जो उस परिस्थिति में उसके चैतन्य में सहज स्फुरणा होती है, वैसा कर देता है। बात खतम हो गई। उसका कुछ लेखा-जोखा भी नहीं रखता। प्रभु जो करवा लेता कर देता। जिस बात में उपकरण बना लेता उसी में उपकरण बन जाता। लेकिन सदा याद रखता कि मैं निमित्त मात्र हूं।
यदा यत् कर्तुम् आयाति...।
जो आ जाये उसे कर लेना। जो स्फुरणा उठे, उसे हो जाने देना। सहज भाव से जीना। जीने के लिए कोई पहले से योजना मत रखना। जीवन पर कोई जबर्दस्ती का ढांचा मत बिठाना। जीवन में ‘ऐसा कर्तव्य है और ऐसा कर्तव्य नहीं है’ यह भी सोच कर मत चलना। मुक्त रहना। क्षण के लिए खुले रहना। क्षण जो जगा दे, जो उठा दे, उसको कर लेना और फिर भूल जाना और आगे बढ़ जाना। बोझ भी मत ढोना। इसको खींचना भी मत अपने सिर पर कि देखो मैंने एक आदमी को कुएं से बचा लिया; मर रहा था, मैंने बचाया! अतीत का बोझ मत ढोना, भविष्य की योजना मत रखना; वर्तमान में जो हो जाये।
यह ‘वर्तमान’ शब्द देखते हो, वर्तन से बना है! ‘जो यहां वर्तन में आ जाये’। अतीत तो वह है जो जा चुका, अब है नहीं। भविष्य वह है जो अभी आया नहीं। वर्तमान वही है जो वर्तन में आ रहा है। जो इस क्षण वर्तन हो रहा है, वही वर्तमान है।
सिर्फ साक्षी-पुरुष का ही वर्तमान होता है। तुम तो पीछे से चलते हो। तुम तो अतीत से प्रभावित होते हो। वह वर्तमान नहीं है। या तुम भविष्य से प्रभावित होते हो। तुम तो किसी आदमी को जयराम जी भी करते हो तो सोच लेते हो कि करना कि नहीं, यह किसी मतलब का है, मेयर होने वाला है कि मिनिस्टर होने वाला है, कभी काम पड़ेगा! तो तुम नमस्कार करते हो। नमस्कार भी तुम आगे की योजना से करते हो, या पीछे के हिसाब से, कि इसने पीछे साथ दिया था; वक्त पड़ा था, काम आया था--नमस्कार कर लो! तुम तो नमस्कार भी शुद्ध वर्तमान में नहीं करते।
साक्षी का पूरा जीवन वर्तमान में है। जो होता है बिना किसी कारण के, सहज भाव से।
यदा यत् कर्तुम् आयाति तत् सुखं कृत्वा।
और तब स्वभावतः सहज भाव में सुख उत्पन्न होता है। सहज भाव सुख है। सहज भाव में सुख के फूल लगते हैं।
तिष्ठतः धीरस्य।
और ऐसा जो धीरपुरुष है उसकी अपने में प्रतिष्ठा हो जाती है। उसका अपने में आसन जम जाता है। वह सम्राट हो जाता है, सिंहासन पर बैठ जाता है। सुख के सिंहासन पर, स्वयं के सिंहासन पर, शांति के, स्वर्ग के सिंहासन पर।
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ।
न तो प्रवृत्ति में उसे रस है न निवृत्ति में। न तो वह कहता है कि मैं संसारी हूं, न वह कहता मैं त्यागी हूं।
मेरे संन्यास का यही अर्थ है: न त्यागी न भोगी। सहज। मध्य में। कभी भोगी जैसा व्यवहार करना पड़े तो भोगी जैसा कर लेना, कभी त्यागी जैसा व्यवहार करना पड़े तो त्यागी जैसा कर लेना। लेकिन सदा मध्य को मत खोना, बीच में आ जाना। वह जो सम्यक दशा है मध्य की, उसी का नाम संन्यास है। ‘सम्यक न्यास’ अर्थात संन्यास। बीच में ठहर जाना। संतुलित हो जाना। सहज भाव में संतुलन संन्यास है। क्योंकि सहज भाव ही मध्य भाव है। वही स्वर्ण-सूत्र है।
ऐसे ये अनूठे सूत्र हैं। सुन कर ही मत समझ लेना पूरे हो गये। सुनने से तो यात्रा शुरू होती है। गुनना! खूब-खूब चूसना इन सूत्रों को। इनका स्वाद लेना। चबाना। पचाना। ये धीरे-धीरे तुम्हारे रक्त-मांस-मज्जा में मिल जायेंगे। और तब इनसे अपूर्व सुगंध उठेगी। ऐसी सुगंध, जो तुमने पहले नहीं जानी। और ऐसी सुगंध, जो तुम्हारे भीतर छुपी है। कस्तूरी कुंडल बसै! तुम्हारी कस्तूरी खुल जाये, तुम्हारी कस्तूरी प्रगट हो जाये कि परमात्मा फिर विजयी हुआ, तुममें फिर से जीता। फिर एक फूल खिला। फिर परमात्मा के लिए एक उत्सव का क्षण आया।
इन सूत्रों को सुनने में भी रस है, गुनने में तो बहुत महारस होगा। और जब तुम इन्हें जीयोगे तब तुम पाओगे जीवन का पूरा अर्थ, जीवन की पूरी निर्झरणी तुम्हें उपलब्ध हो जायेगी।
अमृत के द्वार खुल सकते हैं। और तुम द्वार पर खड़े हो, दस्तक देने की ही बात है।
जीसस ने कहा है: खटखटाओ और द्वार खुल जायेंगे।
फकीर हसन एक मस्जिद के सामने खड़ा चिल्ला रहा था कि प्रभु द्वार खोलो, मैं कब से बुला रहा हूं! एक दूसरी फकीर औरत राबिया निकलती थी पास से, उसने कहा: ‘हसन, बंद कर बकवास! द्वार बंद कहां हैं? द्वार खुले हैं, आंख खोल!’
राबिया ठीक कहती है। जीसस से भी ज्यादा ठीक है उसका वचन। जीसस कहते हैं: खटखटाओ और द्वार खुल जायेंगे। हसन वही तो कर रहा था। वह कह रहा था: हे प्रभु द्वार खोलो। और राबिया ने कहा: बंद कर बकवास, हसन। द्वार खुले हैं, आंख खोल। खटखटाने की भी कोई जरूरत नहीं है।
तुम मंदिर में विराजमान ही हो, भीतर जाने की भी कोई जरूरत नहीं। भीतर तुम हो। तुम जहां हो, वहीं सब उपलब्ध है। थोड़े जागो। तो द्वार खटखटाओ, इसका अर्थ अपने को थोड़ा खटखटाओ, अपने को थोड़ा झकझोरो। जैसे सुबह नींद से उठ कर झकझोरते हो, ऐसे इस संसार की नींद से अपने को झकझोरो। नहीं तो दुख ही दुख है; सार जरा भी नहीं। जागे तो ही सार है।
हरि ॐ तत्सत्!
क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व ध्यानं क्व मुक्तता।
सर्वसंकल्पसीमायां विश्रांतस्य महात्मनः।। 190।।
येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोति वै।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति।। 191।।
येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिंतयेत्।
किं चिंतयति निश्चिन्तो द्वितीयं यो न पश्यति।। 192।।
दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ।
उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम्।। 193।।
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।
न समाधिं न विक्षेपं न लेपं स्वस्थ पश्यति।। 194।।
भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः।
नैव किंचित्कृतं तेन लोकदृष्ट्या विकुर्वता।। 195।।
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
यदा यत्कर्त्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठतः सुखम्।। 196।।
एक मित्र ने बड़े क्रोध में पत्र लिखा है। लिखा है कि अष्टावक्र जो कहते हैं, आप जो समझाते हैं, वैसा अगर लोग मान लेंगे तो संसार-चक्र बंद ही हो जायेगा।
सुनें। एक तो संसार-चक्र चले, इसका मैंने कोई जुम्मा नहीं लिया। आपने लिया हो, आपकी आप जानें। फिर संसार-चक्र आप नहीं थे तब भी चल रहा था, आप नहीं होंगे तब भी चलता रहेगा। संसार-चक्र आप पर निर्भर है, इस भ्रांति में पड़ें मत। जो चलाता है, चलायेगा, और न चलाना चाहेगा तो तुम्हारे चलाये न चलेगा। तुम अपने को ही चला लो, उतना ही बहुत है। बड़ी चिंतायें सिर पर मत लो। छोटी चिंतायें हल नहीं हो रही हैं। ऐसी चिंताओं में मत उलझ जाना जिन पर तुम्हारा कोई बस ही न हो।
अष्टावक्र को हुए कोई पांच हजार साल होते हैं। अष्टावक्र कह गये, संसार-चक्र चल रहा है। और मेरे पांच हजार साल बाद अगर तुम आओगे, तो भी तुम पाओगे संसार सब चल रहा है। संसार-चक्र के चलने का मेरे या तुम्हारे कुछ कहने या होने से कोई संबंध नहीं है। हां, इतना ही है कि अगर तुम समझ जाओ तो तुम संसार-चक्र के बाहर हो जाते हो। तुम्हारे लिए चलना बंद हो जाता है। आवागमन से छूटने की बात, मुक्ति की आकांक्षा और क्या है?--संसार-चक्र के मैं बाहर हो जाऊं।
तुम्हें संसार-चक्र की चिंता भी नहीं है; तुम छिपे ढंग से कुछ और कह रहे हो। शायद तुम्हें होश भी न हो कि तुम क्या कह रहे हो। तुम इस संसार के चक्र को छोड़ना नहीं चाहते। बात तुम कर रहे हो: कहीं यह बंद तो न हो जाये! तुम भीतर से पकड़ना चाहते हो। पकड़ने के लिए बहाने खोज रहे हो। बहाना तुम कितना ही करो, तुम मुझे धोखा न दे पाओगे। तुम्हें चिंता भी क्या है संसार की? कौड़ी भर चिंता नहीं है तुम्हें--कल का मिटता आज मिट जाये। फिक्र तुम्हें कुछ और है। तुम्हारी वासनाओं का एक जाल है। उस वासना के जाल को तुम छिपाना चाहते हो। वह वासना का जाल नई-नई तरकीबें खोजता है। वह सीधा-सीधा हाथ में आता भी नहीं, क्योंकि सीधा-सीधा हाथ में आ जाये तो बड़ी शर्म लगेगी। तुम अपनी भ्रांति और मूढ़ता को बचाना चाहते हो, नाम बड़ा ले रहे हो। नाम तुम कह रहे हो संसार-चक्र; जैसे तुम कुछ इस चक्र के रक्षक हो!
मैंने सुना है, एक प्रोफेसर हैं पोपट लाल। दादर के एक प्राइवेट सिंधी कालेज में प्रोफेसर हैं। एक तो प्राइवेट कालेज--और फिर सिंधियों का! तो प्रोफेसर की जो गति हो गई वह समझ सकते हो। असमय में मरने की तैयारी है। समय के पहले आंखों पर बड़ा मोटा चश्मा चढ़ गया है, कमर झुक गई है। पिता तो चल बसे हैं; बूढ़ी मां, वह पीछे पड़ी थी कि विवाह करो, विवाह करो पोपट! पोपट ने बहुत समझाया, बहुत तरह के बहाने खोजे। कहा कि मैं तो विवेकानंद का भक्त हूं और मैं तो ब्रह्मचर्य का जीवन जीना चाहता हूं। लेकिन मां कहीं इस तरह की बातें सुनती है! मां ने समझाया कि संसार-चक्र कैसे चलेगा? ऐसे में तो संसार-चक्र बंद हो जायेगा। फिर मां पर दया करके पोपट लाल विवाह को राजी हुए।
बंबई में तो कोई लड़की उनसे विवाह करने को राजी थी नहीं। सच तो यह है कि जब से वे प्रोफेसर हुए, जिस विभाग में प्रोफेसर हुए उसमें लड़कियों ने भर्ती होना बंद कर दिया। तो कोई गांव की, देहात की लड़की खोजी गई। वह विवाह करके आ भी गई। प्रोफेसर तो सुबह ही से निकल जाते दूर, उपनगर में रहते हैं, सुबह से ही निकल जाते हैं। दिन भर पढ़ाना। प्राइवेट कालेज और सिंधियों का! फिर प्रिंसिपल की भी सेवा करनी, प्रिंसिपल की पत्नी को भी सिनेमा दिखाना, बच्चों को चौपाटी घुमाना-- सब तरह के काम। रात कुटे-पिटे लौटते, तो सो जाते।
बूढ़ी को बहू पर दया आने लगी। एक दिन बंबई भी नहीं दिखाया ले जा कर, तो एक दिन वह बंबई दिखाने ले गई। जैसे ही बस पर पहुंचे स्टेशन पर, तो वहां कोई किसी सांड को पकड़ का बधिया बनाते थे। तो उस बहू ने बूढ़ी से पूछा कि इस सांड को यह क्या कर रहे हैं? बूढ़ी शर्माई भी, किन शब्दों में कहे! लेकिन बहू न मानी तो उसे कहना पड़ा कि ये इसे खस्सी करते हैं। तो उसने कहा, इतनी मेहनत क्यों करते हैं--दादर के सिंधी कालेज में प्रोफेसर ही बना दिया होता!
जो मन में छिपा हो वह कहीं न कहीं से निकलता है। तुम्हारे दबाये-दबाये नहीं दबता--नई-नई शक्लों में प्रगट हो जाता है। कहीं से तो निकलेगा। तुम संसार-चक्र के बंद होने से घबड़ाये हुए हो! परमात्मा ने तुमसे पूछ कर संसार-चक्र चलाया था? और अगर बंद करना चाहेगा तो तुमसे सलाह लेगा? तुम्हारी सलाह चलती है कुछ? अपने पर ही नहीं चलती, दूसरे पर क्या चलेगी? और सर्व पर तो चलने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन तुम ऐसी चिंतायें लेते हो। ऐसी बड़ी चिंताओं में तुम छोटी चिंताओं को छिपा लेते हो। असली चिंता भूल जाती है। और इस भांति तुम एक पर्दा डाल लेते हो अपनी आंख पर और आंख नहीं खुलने देते।
छोड़ो! यह रुकता हो रुक जाये।
यह तो ऐसे ही हुआ कि तुम किसी चिकित्सक के पास जाओ और उससे कहो कि दवाइयां खोजना बंद करो, अगर ऐसी दवाइयों को खोजते रहे तो फिर बीमारियों का क्या होगा, बीमारियों का चक्र बंद ही हो जायेगा!
संसार-चक्र--जिसे तुम कहते हो--सिवाय बीमारियों के और क्या है? सिवाय दुख और पीड़ा के क्या जाना? जीवन में घाव ही घाव तो हो गये हैं, कहीं फूल खिले? मवाद ही मवाद है! कहीं कोई संगीत पैदा हुआ? दुर्गंध ही दुर्गंध है। कहीं तो कोई सुगंध नहीं। फिर भी संसार-चक्र बंद न हो जाये, इसकी चिंता है। गटर में पड़े हो; लेकिन कहीं गटर की गंदगी समाप्त न हो जाये, इसकी चिंता है। कहीं गटर बहना बंद न हो जाये, इसकी चिंता है। पाया क्या है? अन्यथा सारे ज्ञानी संसार से मुक्त होने की आकांक्षा क्यों करते?
तुम्हारा संसार सिवाय नर्क के और कुछ भी नहीं है। इस संसार से तुम थोड़े जागो तो स्वर्ग के द्वार खुलें। यह तुम्हारा सपना है। यह सत्य नहीं है जिसे तुम संसार कहते हो। सत्य तो वही है जिसे ज्ञानी ब्रह्म कहते हैं।
अब इस बात को भी तुम खयाल में ले लेना: जब अष्टावक्र या मैं तुमसे कहता हूं कि संसार से जागो, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जब तुम जाग जाओगे तो ये वृक्ष वृक्ष न रहेंगे, कि पक्षी गीत न गायेंगे, कि आकाश में इंद्रधनुष न बनेगा, कि सूरज न निकलेगा, कि चांद-तारे न होंगे। सब होगा। सच तो यह है कि पहली दफा, पहली दफा प्रगाढ़ता से होगा। अभी तो तुम्हारी आंखें इतने सपनों से भरी हैं कि तुम इंद्रधुनष को देख कैसे पाओगे? तुम्हारी आंख का अंधेरा इतना है कि इंद्रधनुष धुंधले हो जाते हैं। तुम फूल का सौंदर्य पहचानोगे कैसे? भीतर इतनी कुरूपता है, फूल पर उंडल जाती है। सब फूल खराब हो जाते हैं। पक्षियों के गीत तुम्हारे हृदय में कहां पहुंच पाते हैं? तुम्हारा खुद का शोरगुल इतना है कि पक्षियों सारे गीत बाहर के बाहर रह जाते हैं।
जब ज्ञानी कहते हैं संसार के बाहर हो जाओ, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि यह जो वस्तुतः है इससे तुम बाहर हो जाओगे। इससे तो बाहर होने का कोई उपाय नहीं। इसके साथ तो तुम एकीभूत हो, एकरस हो। यह तो तुम्हारा ही स्वरूप है। तुम इसके ही हिस्से हो। फिर किससे बाहर हो जाओगे? वह जो तुमने मान रखा है और है नहीं; वह जो रस्सी में तुमने सांप देख रखा है। सांप से मुक्ति हो जायेगी, रस्सी तो रहेगी। तुम्हारा सपनों का एक जाल है। तुम कुछ का कुछ देख रहे हो।
एक मित्र हैं। वे हमेशा मुझसे कहते हैं कि मुझे नींद में, रात सपने में बड़े काव्य का स्फुरण होता है। मैंने उनसे कहा कि तुम्हें मैं जानता हूं, तुम्हें मैं देखता हूं, तुम्हारे जागरण में भी काव्य का स्फुरण नहीं होता, तो नींद में कैसे होगा! आखिर नींद तो तुम्हारी ही है न! जागरण तुम्हारा इतना कोरा और रेगिस्तान जैसा है, इसमें कहीं कोई मरूद्यान नहीं दिखाई पड़ता, तो नींद में काव्य पैदा होता होगा!
वे कहने लगे कि आप मानो, जब मैं रोज सुबह उठता हूं तो मुझे ऐसा थोड़ी-थोड़ी भनक रहती है कि रात बड़ी कविता पैदा हुई। और आपसे क्या कहूं, आप न मानोगे; हिंदी में तो होती ही है, अंग्रेजी तक में होती है।
तो मैंने कहा, तुम ऐसा करो कि आज रात अपने बिस्तर के पास ही टेबल रख कर कापी और पेंसिल रख कर सो जाओ और सोते वक्त यह खयाल रख कर सोओ कि आज कोई भी कविता भीतर पैदा होगी तो उसी क्षण मेरी नींद खुल जाये। ऐसा दोहराते रहो। दोहराते-दोहराते ही सो जाओ। हजार बार दोहराकर और सो जाओ। और जब तक ऐसा हो न जाये तब तक रोज यह करते रहो, एक न एक दिन नींद टूट जायेगी। तुम उठ कर तत्क्षण लिख लेना और सुबह मेरे पास ले आना, ईमानदारी से, जो भी लिखो।
वे दूसरे दिन कापी लेकर आ गये, बड़े उदास थे। मैंने पूछा, क्या मामला है? वे कहने लगे, शायद आप ठीक ही कहते थे। मैं ऐसा ही किया रात में और बीच में मेरी नींद टूट भी गई और मैंने लिख भी लिया और मैं ले आया हूं, लेकिन बताने में शर्म लगती है।
मैंने कहा, फिर भी दिखा तो दो। उन्होंने कहा, आप क्षमा करो, न देखो तो ठीक। फिर भी मैंने आग्रह किया तो उन्होंने बड़े डरते-डरते और संकोच से अपनी कापी दे दी। आड़े-तिरछे अक्षरों में नींद में लिखा गया था, आधी नींद में रहे होंगे। जो लिखा था, वह उनके दरवाजे के बाहर गोल्ड स्पॉट का एक बड़ा विज्ञापन लगा है: लिव्वा लिटल हॉट, सिप्पा गोल्ड स्पॉट! यह अंग्रेजी और इसका हिंदी में तरजुमा भी लिखा है: जी भर के जीयो, गोल्ड स्पॉट पीयो। यह कविता उतरी। इसी को रोज पढ़ते रहे होंगे। सामने ही लगा है बोर्ड। यही मन में बैठ गई होगी। यही रात सपने में डोलने लगी।
तुम्हारा जो संसार है, वह तुम्हारी नींद में है। जो भ्रांतियां हो रही हैं, उनका ही नाम है। तो जब भी अष्टावक्र ‘संसार’ शब्द का उपयोग करते हैं कि ज्ञानी संसार से जाग जाता है, संसार से मुक्त हो जाता है, तो तुम संसार से यह मत समझना कि जो है उससे मुक्त हो जाता है। जो है, उससे कैसे मुक्त हो जाओगे? जो है, उसमें तो मुक्त होना है। जो नहीं है, उससे मुक्त होना है। और जो नहीं है, उससे मुक्त हो जाता है वही जो है, उसमें मुक्त हो जाता है।
मुक्ति के दो पहलू हैं। झूठ से मुक्त होना है, सच में मुक्त होना है। झूठ के बंधन के कारण सच में हम अपने पंख नहीं खोल पाते। झूठ की जंजीरों के कारण सच के आकाश में नहीं उड़ पाते।
नहीं! अगर ज्ञानियों की बात तुम ठीक से समझे तो तुम्हारा जीवन और भी सुंदर हो जायेगा, सुंदरतम हो जायेगा--सत्यम् शिवम् सुंदरम् होगा।
यह संसार बड़ा स्वर्णिम हो जाये अगर तुम जाग जाओ; तुम्हारी नींद के कारण बहुत गंदा हो गया है। तुम्हारी बेहोशी के कारण विक्षिप्त दशा है यह। इस विक्षिप्त दशा को तुम संसार कह रहे हो! लोग दौड़े जा रहे, भागे जा रहे--यह भी नहीं जानते कहां जा रहे; यह भी नहीं जानते क्यों जा रहे। सब जा रहे, इसलिए वे भी जा रहे; सब दिल्ली जा रहे, इसलिए वे भी दिल्ली जा रहे। सबको पद चाहिए तो उनको भी पद चाहिए। सबको धन चाहिए तो उनको भी धन चाहिए। बाकी सबसे भी पूछो तो वे कहते हैं कि बाकी सबको चाहिए, इसलिए हमको भी चाहिए। लोग धक्कम-धुक्की में हैं; एक-दूसरे का अनुकरण कर रहे हैं। लोग कार्बन कापियां हैं; छाया की तरह जी रहे हैं। वास्तविक नहीं हैं, ठोस नहीं हैं, प्रामाणिक नहीं हैं। इस दौड़-धाप को, इस आपा-धापी को बीमारी कहना चाहिए।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, दुनिया में चार आदमियों में करीब-करीब तीन पागल हैं। और चौथे के संबंध में वे कहते हैं कि हम इतना ही कह सकते हैं कि संभव है कि न हो पागल, पक्का नहीं। और ऐसा होना ही चाहिए। जिनको हमने बुद्धपुरुष कहा है, ठीक यह होगा कि हम कहें कि ये वे थोड़े-से लोग हैं जो हमारे पागलपन के घेरे के बाहर हो गये। भीड़ तो पागल है।
धन जोड़ते हो और जीवन गंवा देते हो। कंकड़-पत्थर इकट्ठे कर लेते हो, आत्मा बेच डालते हो। पागल नहीं तो और क्या हो? कांटे बटोर रहे हो, छाती से लगाये बैठे हो और फूलों का खयाल कर रहे हो। या कि कांटों पर फूलों के लेबिल लगा रखे हैं। कांटे चुभ भी रहे हैं, पीड़ा भी हो रही है, फिर भी छोड़ते नहीं। और अगर कोई कहे, तो तुम कहते हो संसार-चक्र बंद हो जायेगा; जैसे कि तुमने कुछ ठेका लिया है संसार-चक्र को चलाने का!
संसार-चक्र तो परमात्मा का ही आयोजन है। संसार-चक्र तो परमात्मा की ही यात्रा है। ये संसार के चक्के तो उसके ही रथ के चक्के हैं। यह तो चलता रहेगा। अभी तुम घसीटे जा रहे हो, फिर तुम रथ पर सवार हो जाओगे--इतना ही फर्क है। इस फर्क को मैं फिर दोहरा दूं। अभी तुम ऐसी हालत में हो, जैसे कि चाक से बंधे और सड़क पर घसिट रहे हो; सारी धूल-धवांस तुम्हारे ऊपर पड़ रही है; हड्डी-पसली टूटी जा रही है; जीर्ण-जर्जर हुए जा रहे हो--चक्के से बंधे हो।
रथ तो चलता रहेगा। सूरज तो उगेगा। चांद तो आयेंगे। तारे तो चलेंगे। पृथ्वी तो हरी होगी। पक्षी तो गीत गायेंगे। प्रेम तो होगा। सत्य की वर्षा तो होती रहेगी। अमृत तो उगेगा। यह सब तो होगा। लेकिन तुम रथ पर सवार होओगे सम्राट की तरह--रथ के चक्के से गुलाम की तरह बंधे हुए नहीं।
घबड़ाओ मत। जागने में कुछ भी खोता नहीं। वही खोता है जो कभी था ही नहीं और तुमने सोच रखा था कि है। जागने में मिलता ही मिलता है। और वही मिलता है जो तुम्हारे पास ही था, लेकिन तुमने कभी अपनी गांठ ही न खोली, तुमने कभी भीतर झांका ही नहीं।
तो मैं अपने संन्यासियों को निरंतर कहता हूं: मैं तुम्हें वही देना चाहता हूं जो तुम्हारे पास है और तुमसे वही ले लेना चाहता हूं जो तुम्हारे पास नहीं है।
मुझसे कोई पूछता है: हम संन्यास ले रहे हैं तो अब हम क्या त्यागें? तो मैं उनसे कहता हूं: वही त्याग दो जो तुम्हारे पास नहीं है। वही त्याग दो जो तुम्हारे पास नहीं है। जो तुमने मान रखा है कि है और है नहीं। अहंकार है नहीं जरा भी; खोजने जाओगे तो पाओगे नहीं। जितना खोजोगे उतना ही कम पाओगे। ठीक-ठीक खोजोगे, बिलकुल नहीं पाओगे। भीतर आंख बंद करके जाओगे पता लगाने कि अहंकार कहां है, तो कहीं भी जरा-सी भी छाया न मिलेगी। पर है। और उसी के लिए हम जी रहे और मर रहे और मार रहे हैं। मान रखा है कि यही हूं मैं।
‘मेरा-तेरा’ झूठ है। यहां कुछ भी मेरा नहीं है और कुछ भी तेरा नहीं है। सब था, हम नहीं थे; सब होगा, हम नहीं हो जायेंगे। तो यहां ‘मेरा-तेरा’ झूठ है। सब है प्रभु का। तो जहां तुमने कहा मेरा वहां तुमने झूठ खड़ा कर दिया। झूठ जितने तुम खड़े कर लेते हो उतना ही सत्य से मिलन असंभव हो जाता है। तुम अगर कभी सत्य की तरफ उन्मुख भी होते हो तो सत्य की खोज के कारण नहीं।
किसी की पत्नी मर गई, वह आ जाता है कि अब क्या रखा संसार में, अब तो मुझे संन्यास दे दें! मैं कहता हूं: थोड़ी देर रुक, अभी इस दुख में संन्यास मत ले। क्योंकि दो महीने बाद जब दुख चला जायेगा तो फिर तू पत्नी की तलाश करने लगेगा। यह तो दुखावेश है। इस आवेश में संन्यास मत ले।
किसी का दिवाला निकल जाता है; वह कहता है अब तो संन्यास लेना है। अभी एक क्षण पहले तक संसार-चक्र को चलाने का आग्रह था; अब दिवाला निकल गया तो एकदम संसार-चक्र को बंद कर देने की इच्छा हो रही है। लेकिन अभी खबर आ जाये कि घर में खजाना दबा पड़ा था, पिता रख गये थे, वह मिल गया, तो यह सोचेगा कि छोड़ो, अभी कहां संन्यास की बात करनी, फिर देखेंगे!
तुम तो जब हारते हो और टूटते हो, तभी तुम संन्यास की सोचते हो, संसार से हटने की सोचते हो। यह कोई समझपूर्वक बात नहीं हो रही।
मैंने सुना, एक जहाज पर मुल्ला नसरुद्दीन यात्रा कर रहा था। एक बच्चा गिर पड़ा, रेलिंग से झुक रहा था, गिर पड़ा। कौन कूदे समुद्र में! लोग खड़े होकर देखने लगे और तभी अचानक लोगों ने देखा कि मुल्ला कूदा और बच्चे को निकाल कर बाहर आया। जयजयकार होने लगा: मुल्ला नसरुद्दीन जिंदाबाद! और लोग बड़ी फूलमालायें ले आये और उन्होंने कहा: गजब कर दिया! मुल्ला ने कहा: बंद करो बकवास! पहले यह बताओ, मुझे धक्का किसने दिया? चमड़ी उधेड़ दूंगा जिसने धक्का दिया है, पता भर चल जाये।
ऐसा तुम्हारा संन्यास है--कोई धक्का दे दे।
तुम संसार से हटो भी, तो खुद नहीं हटते, इज्जत से नहीं हटते, बेइज्जती से। जब तक काफी जूते न पड़ जायें, तुम हटते ही नहीं।
कहावत है: सौ सौ जूते खायें, तमाशा घुस कर देखें। कौन फिक्र करता है, तमाशा जब हो रहा हो तो कितने ही जूते पड़ जायें!
संसार का इतना मोह क्या है? पाया क्या है? क्यों इतने जोर से पकड़े हुए हो? अगर इसके विश्लेषण में जाओगे तो तुम्हें दिखाई पड़ेगा: इतने जोर से इसीलिए पकड़े हुए हो कि कुछ भी नहीं पाया है। तुम्हारा जीवन खाली है। आशा में पकड़े हुए हो, शायद संसार से कुछ मिल जाये, आज नहीं कल, कल नहीं परसों। अब तक तो नहीं मिला, कल शायद मिल जाये! पकड़े हो। छोड़ते नहीं।
देखो जरा गौर से, तुम रेत को निचोड़ कर तेल निकालना चाहते हो, यह निकलेगा नहीं! सब समय व्यर्थ जायेगा। कभी कोई नहीं जीत पाया इस तरह। कितने मनुष्य पृथ्वी पर रहे हैं! अरबों-खरबों आदमी तुमसे पहले आ चुके हैं और यही सब कर चुके हैं, यही तमाशा देख चुके हैं। और फिर, खाली हाथ वापिस विदा हो गये हैं। इसके पहले कि तुम्हारा भी विदा का क्षण आ जाये, तुम स्वेच्छा से जाग उठो। जो मौत करेगी, वह जिस दिन तुम स्वयं करने को राजी हो जाते हो उसी दिन सत्य उपलब्ध होना शुरू हो जाता है। मौत तुमसे छीनेगी; तुम खुद ही कह दो: इसमें कुछ है नहीं, मैं पकड़ता नहीं।
फिर मैं तुमसे यह भी नहीं कह रहा हूं, न अष्टावक्र कह रहे हैं कि तुम भाग जाओ जंगल-पहाड़ों पर। क्योंकि भगोड़ापन कोई ज्ञानी नहीं सिखायेगा। जो भाग कर भी गये हैं, जब उन्हें ज्ञान उपलब्ध हो गया तो वापिस लौट आये। बुद्ध और महावीर भाग कर गये थे, लेकिन जब ज्ञान उपलब्ध हुआ तब समझ में आ गई बात, वापिस लौट आये।
रवींद्रनाथ की एक बड़ी प्यारी कविता है। बुद्ध जब वापिस लौटते हैं छः वर्ष के बाद और उनकी पत्नी से मिलन होता है, यशोधरा मिलने आती है, तो यशोधरा उनसे एक सवाल पूछती है कि मुझे सिर्फ एक सवाल पूछना है; इन वर्षों में जब आप मुझे छोड़ कर चले गये तो एक ही सवाल मुझे पीड़ित करता रहा है, मैं उसके लिए ही जीवित रही हूं, वही पूछ लूं, तो बस। बुद्ध ने कहा कि क्या सवाल है तेरा? यशोधरा ने कहा: मुझे यही पूछना है कि जो तुम्हें जंगल में जा कर मिला, क्या यहीं इसी महल में रहते हुए नहीं मिल सकता था?
रवींद्रनाथ बुद्ध के भागने के पक्ष में नहीं थे। भागने के पक्ष में कोई भी नहीं हो सकता। इसलिए उन्होंने यह कविता लिखी है और यशोधरा से अपना मंतव्य कहलवा दिया है। पूछती है यशोधरा: अगर तुम, जंगल में जो तुमने पाया, माना कि पाया जंगल में, अगर तुम यहीं रहते तो पा सकते थे या नहीं? और रवींद्रनाथ कहते हैं कि बुद्ध चुप रह गये। क्या कहें? अगर यह कहें कि यहीं रह कर मिल सकता था तो यशोधरा कहेगी, क्या पागलपन किया, फिर किसलिए भागे-दौड़े? और यह तो कह ही नहीं सकते कि यहां नहीं मिल सकता था जो वहां मिला। क्योंकि जो वहां मिला वह कहीं भी मिल सकता था। वह तो भ्रांति ही थी।
भगोड़ापन, अष्टावक्र की शिक्षा नहीं है। निश्चित ही मेरी तो बिलकुल नहीं है। आज के सूत्र तुम्हें साफ करेंगे।
संसार में रहते हुए जागरण की कला ही धर्म है। तब तुम इस भांति हो जाते हो जैसे जल में कमल। होते हो जल में, लेकिन जल छूता नहीं। मजा भी तभी है। गरिमा भी तभी, गौरव भी तभी है। महिमा भी तभी है, जब तुम भीड़ में खड़े और अकेले हो जाओ। बाजार के शोरगुल में और ध्यान के फल लग जायें। जहां सब व्याघात हैं और सब विक्षेप हैं, वहां तुम्हारे भीतर समाधि की सुगंध आ जाये। क्योंकि हिमालय पर तो डर है, तुम अगर चले जाओ तो हिमालय की शांति धोखा दे सकती है। हिमालय शांत है, निश्चित शांत है। वहां बैठे-बैठे तुम भी शांत हो जाओगे, लेकिन इसका पक्का पता नहीं चलेगा कि तुम शांत हुए कि हिमालय की शांति के कारण तुम शांत मालूम हुए। यह वातावरण के कारण है शांति या तुम्हारा मन बदला, इसका पता न चलेगा। यह तो पता तभी चलेगा जब तुम बाजार में वापिस आओगे।
और मैं तुमसे कहता हूं: हिमालय पर जो उलझ जाता है वह फिर बाजार में आने में डरने लगता है। डरता है इसलिए कि बाजार में आया कि खोया। और बाजार में आता है, तभी परीक्षा है, तभी कसौटी है। क्योंकि यहीं पता चलेगा। जहां खोने की सुविधा हो वहां न खोये, तो ही कुछ पाया। जहां खोने की सुविधा ही न हो वहां अगर न खोये तो कुछ भी नहीं पाया। अगर हिमालय के एकांत में अपनी गुफा में बैठ कर तुम्हें क्रोध न आये तो कुछ मूल्य है इसका? कोई गाली दे तब पता चलता है कि क्रोध आया या नहीं। कोई गाली ही नहीं दे रहा है, तुम अपनी गुफा में बैठे हो, कोई उकसा नहीं रहा है, कोई भड़का नहीं रहा है, कोई उत्तेजना नहीं है, कोई शोरगुल नहीं है, कोई उपद्रव नहीं है--ऐसी घड़ी में अगर शांति लगने लगे तो यह शांति उधार है। यह हिमालय की शांति है जो तुममें झलकने लगी। यह तुम्हारी नहीं! तुम्हारी शांति की कसौटी तो बाजार में है।
इसलिए अष्टावक्र भागने के पक्ष में नहीं हैं, न मैं हूं; जागने के पक्ष में जरूर हैं। भागना कायरता है। भागने में भय है। और भय से कहां विजय है!
यह सूत्र समझो। पहला सूत्र:
क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व ध्यानं क्व मुक्तता।
सर्वसंकल्पसीमायां विश्रांतस्य महात्मनः।।
‘संपूर्ण संकल्पों के अंत होने पर विश्रांत हुए महात्मा के लिए कहां मोह है, कहां संसार है, कहां ध्यान है, कहां मुक्ति है?’
सुनो यह अपूर्व वचन। अष्टावक्र कहते हैं: जिसके संपूर्ण संकल्पों का अंत आ गया; जिसके मन में अब संकल्प-विकल्प नहीं उठते; जिसके मन में अब क्या हो क्या न हो, इस तरह के कोई सपने जाल नहीं बुनते; जिसके मन में भविष्य की कोई धारणा नहीं पैदा होती; जिसकी कल्पना शांत हो गई है और जिसकी स्मृति भी सो गई; जो सिर्फ वर्तमान में जीता है।
सर्व संकल्प सीमायां विश्रांतस्य महात्मनः।
और इन सब संकल्पों का जहां सीमांत आ गया है, वहां जो विश्राम को उपलब्ध हो गया वही महात्मा है।
महात्मा का अर्थ--जिसके जीवन में अब कोई आकांक्षा की दौड़ न रही; अब जो कुछ भी नहीं चाहता, परमात्मा को भी नहीं चाहता, ब्रह्म को भी नहीं चाहता, मोक्ष को भी नहीं चाहता--जो चाहता ही नहीं, चाह मात्र विसर्जित हो गई। अब तो जो है, उसमें रस-मुग्ध। जो है, उसके काव्य में डूबा। अब तो जो है उसमें परम तृप्त। अब तो जैसा है उसमें ही महोत्सव को उपलब्ध।
‘संपूर्ण संकल्पों के अंत होने पर विश्रांत हुए महात्मा के लिए कहां मोह!’
अब किसको कहे मेरा? मैं ही न बचा। इसे समझो।
संकल्पों और विकल्पों के जोड़ का नाम ही मैं है। सोचो एक धारणा: अगर कोई तुमसे तुम्हारा अतीत छीन ले तो तुम यह बता न सकोगे कि तुम कौन हो। क्योंकि अतीत के छिनते ही तुम बता न सकोगे, कौन तुम्हारा पिता, कौन तुम्हारी मां, किस कुल से आते, किस देश के वासी, किस भाषा को बोलते, हिंदू हो कि मुसलमान कि ईसाई कि जैन, ब्राह्मण कि शूद्र, कुछ भी न बता सकोगे। अगर कोई एक झटके में तुम्हारा अतीत छीन ले तो तुम्हारे पास ‘मैं’ की कोई परिभाषा बचेगी? एकदम तुम पाओगे परिभाषा खो गई।
मेरे एक मित्र हैं, डाक्टर हैं। ट्रेन से जाते थे, भीड़ थी ट्रेन में, दरवाजे पर खड़े थे। थोड़े झक्की स्वभाव के हैं। भूल गये होंगे कि डंडे को पकड़े रहना है जोर से। खड़े-खड़े कुछ विचार में खो गए होंगे, गिर पड़े। ट्रेन से बाहर गिर गये, सिर में बड़ी चोट लगी। ऐसे ऊपर से कोई खास चोट नहीं लगी। ऊपर से कोई घाव नहीं हुआ। कोई हड्डी-पसली नहीं टूटी। लेकिन स्मृति खो गई। याददाश्त खो गई। मस्तिष्क तो यंत्र है, बड़ा बारीक यंत्र है--कुछ चोट भीतर पहुंच गयी और स्मृति के धागे टूट गये। बस भूल गये। वे यह भी न बता सके कि उनका नाम क्या है। वे यह भी न बता सके कि वे कहां से आ रहे हैं। उनकी टिकिट वगैरह देख कर उनको गांव वापिस भेजा गया। तीन वर्ष तक उन्हें कुछ भी याद न रही। मेरे साथ पढ़े, बचपन से मेरे दोस्त, मैं उन्हें देखने गया। वे मेरी तरफ देखते रहे। वे मुझे पहचान ही न सके। सब खो गया। वे अपनी पत्नी न पहचान सके, अपने बाप को न पहचान सके। फिर से अ ब स से सीखना शुरू किया।
अगर तुम्हारी स्मृति हट जाये तो तुम कौन हो? तुम्हारा मैं तुम्हारी स्मृति का संग्रहीभूत सार-संचय है। और अगर तुम्हारे भविष्य की योजनायें तुमसे छूट जायें, तब तो तुम बिलकुल ही खो गये। तुम्हारा अतीत भी तुम्हारे ‘मैं’ को बनाता है। तुम कहते हो, मैं फलां का बेटा, इतना धन मेरे पास, मैं ब्राह्मण। और आगे की योजना-कल्पना भी तुम्हें बनाती है। तुम कहते हो, आज नहीं कल चीफ मिनिस्टर होने वाला, कि प्राइम मिनिस्टर होने वाला, कि जरा ठहरो, देखो करोड़ों रुपये कमा देने वाला हूं। तो तुम्हारा अतीत भी तुम्हारे ‘मैं’ को बनाता है और तुम्हारा भविष्य भी तुम्हारे ‘मैं’ को बनाता है। इन दोनों के बीच में ‘मैं’ खड़ा है। ये दो बैसाखियां तुम्हारे ‘मैं’ के पैर हैं। ये दोनों गिर जायें, तुम्हारा ‘मैं’ गिर गया।
संकल्प-विकल्प के अंत हो जाने पर व्यक्ति की चेतना परम विश्राम में पहुंच जाती है। न तो पीछे का कोई धक्का रहता है, न आगे का कोई खिंचाव रहता है। तुम वर्तमान क्षण में रह जाते शांत, विश्रांति को उपलब्ध। ऐसे महात्मा के लिए कहां मोह है और कहां संसार!
क्या तुम समझते हो ऐसे महात्मा के लिए ये सब वृक्ष, चांद-तारे, आकाश, बादल खो जायेंगे? अगर ऐसा होता तो अष्टावक्र बोल किससे रहे हैं? जनक तो है ही नहीं फिर, समझा किसको रहे हैं? नहीं; ‘कहां संसार’ का अर्थ है: कहां सपना! ‘संसार’ शब्द का अर्थ है तुम्हारे भीतर चलते हुए सपनों की दौड़--ऐसा हो जाये, ऐसा पा लूं, ऐसा कर लूं। वह जो तुम्हारे भीतर शेखचिल्ली बैठा है, उस शेखचिल्ली की ही यात्रा का नाम संसार है़।
इसे मैं तुम्हें बार-बार समझा देना चाहता हूं, नहीं तो तुम्हें बड़ी भ्रांति होती है। तुम सोचते हो संसार छोड़ने का अर्थ घर-द्वार छोड़ो। संसार छोड़ने का अर्थ है: भविष्य छोड़ो! संसार छोड़ने का अर्थ है: अतीत छोड़ो। संसार छोड़ने का अर्थ है: कल्पना-विकल्पना छोड़ो।
‘कहां संसार!’
और बड़ा अदभुत सूत्र है! अष्टावक्र कहते हैं: ‘ऐसे व्यक्ति को कहां ध्यान और कहां मुक्ति!’
सब गया। जब बीमारी गई तो औषधि भी गई। तुम्हारी जब बीमारी चली जाती है तो तुम औषधि की बोतलें थोड़े ही टांगे फिरते हो कि इनका बड़ा धन्यवाद, कि इन्हीं के कारण बीमारी गई, अब इनको कैसे छोड़ें, कि अब तो इनको हम सदा टांगे फिरेंगे! ये पेनिसिलिन का इंजेक्शन, इसी के कारण बीमारी गई, तो अब इसकी पूजा करेंगे! जिस दिन बीमारी गई उसी दिन तुम कचरे-घर में फेंक आते हो सब दवाइयां, बात खतम हो गई।
ध्यान तो औषधि है। विचार बीमारी है; ध्यान औषधि है। संसार बीमारी है; मोक्ष औषधि है। जब संसार ही न रहा तो कहां मोक्ष, कैसा मोक्ष! जिससे बंधे थे वही न रहा, तो अब कैसा छुटकारा!
यह तुम्हें बड़ा कठिन मालूम पड़ेगा, क्योंकि तुमने यह तो सुना है कि संसार नहीं रह जायेगा, तब तुमने मान रखा है कि मोक्ष होगा। लेकिन अष्टावक्र ठीक कह रहे हैं, बिलकुल ठीक कह रहे हैं। अष्टावक्र के वचन ऐसे सत्य हैं अध्यात्म के जगत में, जैसे गणित के जगत में आइंस्टीन के वचन सत्य हैं। बड़ी गहरी आंख है। ये कह रहे हैं कि जब बीमारी चली गई तो औषधि भी गई। जब संसार ही न बचा तो अब मोक्ष की बात ही क्या उठानी।
सर्वसंकल्पसीमायां विश्रांतस्य महात्मनः।
अब तो सबसे विश्रांति हो गई--संसार से, मोक्ष से, विचार से, ध्यान से।
क्व मोहः क्व विश्वं क्व ध्यानं क्व मुक्तता।
अब कैसा संसार, कैसी मुक्ति, कैसा बंधन, कैसी स्वतंत्रता! सब गये, साथ ही साथ गये।
हमारे जीवन के सभी द्वैत साथ ही साथ जाते हैं। तुम बहुत हैरान होओगे: जिस दिन तुम्हारे जीवन से दुख चला जाता है उसी दिन सुख भी चला जाता है। और उस दशा को ही हमने आनंद कहा है। जिस दिन तुम्हारे जीवन से संसार जाता है, उसी दिन मोक्ष भी चला जाता है। और उसी दशा को हमने स्वभाव कहा है, सत्य कहा है।
‘जिसने इस जगत को देखा है, वह भला उसे इंकार भी करे’--सुनना--‘लेकिन वासनारहित पुरुष को क्या करना है; वह देखता हुआ भी नहीं देखता है।’
‘जिसने इस संसार को देखा है, वह भला उसे इंकार भी करे...।’
वह जो भाग रहा है संसार से, उसको अभी भी संसार दिखाई पड़ रहा है, नहीं तो भागेगा क्यों? भाग कहां रहा है? किससे भाग रहा है? अगर कोई डर कर भाग रहा है स्त्री से, तो स्त्री में उसकी वासना अभी शेष है। डर कर भाग रही है कोई स्त्री पति से, तो पति में उसकी वासना शेष है। जिसमें हमारा लगाव है उसी से हम भागते हैं। जहां हमारी चाह है उसी से हम अपने को रोकते हैं।
तो जिसको तुम त्यागी कहते हो, वह भोगी का ही विपरीत रूप है; भोगी का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। त्यागी और भोगी में कुछ बहुत बुनियादी फर्क नहीं। हां, एक-दूसरे के उल्टे खड़े हैं। एक-दूसरे की तरफ पीठ किए खड़े हैं। लेकिन दोनों की नजर एक ही बात पर है। भोगी धन चाहता है, त्यागी धन से डरा हुआ है। डर का मतलब ही है चाह अभी मौजूद है। भोगी कहता है: धन न मिलेगा तो मर जाऊंगा। त्यागी कहता है: धन मेरे सामने मत लाना, धन देख कर ही मुझे ऐसा होता है जैसे कोई सांप-बिच्छू ले आया। धन मेरे सामने मत लाना, धन जहर है!
भोगी कहता है कामनी और कांचन जीवन का लक्ष्य है। और त्यागी समझाता है लोगों को, कामिनी-कांचन से बचो। मगर दोनों की नजर एक ही बात पर लगी है, भेद नहीं है। ज्ञानी को न तो कामिनी-कांचन में कोई रस है न कोई त्याग है।
येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोति वै।
जिसको संसार दिखाई पड़ रहा है, वह अगर इंकार करे संसार का, त्याग करे, चल सकता है।
निर्वासनः किं कुरुते...।
लेकिन जिसकी सब वासना ही शून्य हो गई, अब क्या करेगा, त्याग करेगा? कैसे करेगा? भोग ही नहीं बचा तो त्याग कैसे बचेगा? त्याग तो भोग के ही सिक्के का दूसरा पहलू है।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति।
ऐसा व्यक्ति तो देखता है, फिर भी उसे कुछ दिखाई कहां पड़ता है! संसार दिखाई नहीं पड़ता उसे; देखता है। वस्तुतः उसी के पास देखने वाली आंखें हैं, जो देखते हुए संसार नहीं देखता है।
धन पड़ा है। तुम पास से गुजरे। तुम अगर भोगी हो तो जल्दी से कब्जा कर लेना चाहोगे। तुम अगर त्यागी हो, छलांग लगा कर भाग खड़े होओगे, क्योंकि धन पड़ा है; कहीं ऐसा न हो कि तुम जरा देर रुक जाओ और लोभ पकड़ ले; कहीं ऐसा न हो किसी को आसपास न देख कर दिल हो कि उठा ही लो, कोई भी तो नहीं देख रहा, वक्त-बे-वक्त काम पड़ जायेगा। तुम एकदम छलांग लगा कर भागोगे। तुम्हारी छलांग बता रही है कि तुम्हारे भीतर अभी भी वासना शेष है। एक तीसरा आदमी है वह चलता है, जैसा चल रहा था वैसे ही चलता है। धन पड़ा है; न तो उठाता उसे, न भागता।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर को गवर्नर जनरल ने एक उपाधि देने का आयोजन किया था। तो गरीब आदमी थे और दीन-हीन वस्त्र थे उनके। मित्रों ने कहा कि वायसराय के भवन में जाओगे, स्वागत- समारोह होगा, बड़े-बड़े लोग होंगे, पदाधिकारी होंगे--इन कपड़ों में? नहीं, यह ठीक नहीं। हम तुम्हें अच्छे कपड़े बना देते हैं।
ईश्वरचंद्र ने बहुत मना किया कि मेरे ही कपड़े...जो भी हैं, मेरे ही हैं; तुम्हारे बनाये उधार होंगे। लेकिन मित्र न माने तो वे राजी हो गये। एक ही दिन पहले सांझ को घूमने निकले थे और उनके सामने ही एक मुसलमान लखनवी कपड़े पहने हुए, हाथ में छड़ी लिए हुए, लखनवी चाल से चलता हुआ टहल रहा था--आगे ही उनके। और तभी एक आदमी भागा हुआ आया और उसने कहा उस मुसलमान को कि मीर साहिब, आपके मकान में आग लग गई, चलिए, जल्दी चलिए! सब जला जा रहा है! यह सुन कर विद्यासागर तक उत्तेजित हो गये और भागने को खड़े हो गये कि कहां लग गई आग! लेकिन वह आदमी वैसा ही चलता रहा जैसा चल रहा था। उस नौकर ने फिर कहा: मालिक सुना नहीं, आप होश में हैं? मकान में आग लग गई है, सब जला जा रहा है! और आपकी चाल वही चले जा रहे हैं आप! लखनवी चाल का यह मौका नहीं।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने लिखा है कि उस आदमी ने मुस्कुरा कर कहा: चाल मेरी जिंदगी भर की है, मकान के जलने न जलने से चाल को नहीं बदल सकता। फिर जो जल रहा है, जल रहा है; मेरे दौड़ने से भी क्या होगा! यह मेरी जिंदगी भर की चाल है, इसको इतनी आसानी से नहीं बदल सकता। तुझे भागना हो, तू भाग; मैं आता हूं। यह मेरे टहलने का समय है। फिर मकान जल ही रहा है; मेरे भागने से क्या होगा! मेरे भागने से कुछ बचने वाला नहीं है।
और वह आदमी उसी चाल से चलता रहा। विद्यासागर ने लिखा है कि मुझे होश हुआ। मैंने कहा, हद हो गई बात, यह एक आदमी है जिसे कोई फर्क न पड़ा। और एक मैं हूं कि वायसराय की सभा में जा रहा हूं पुरस्कार लेने, तो मित्रों के उधार कपड़े ले लिए! और यह आदमी अपनी चाल नहीं बदल रहा है, मकान में आग लग गई तो भी! और मैं अपने कपड़े बदल रहा हूं!
वे दूसरे दिन अपने पुराने गरीब के कपड़े ही पहने हुए वायसराय के भवन में पहुंच गये। वायसराय भी थोड़ा चिंतित था। उसने पूछा भी कि ईश्वरचंद्र मैंने तो सुना था मित्रों ने कपड़ों की व्यवस्था कर दी। उन्होंने कहा: कर दी थी, लेकिन इन मीर साहिब ने सब गड़बड़ कर दी। नहीं; इतनी आसानी से क्या जिंदगी भर की चालें बदली जाती हैं!
जीवन में ऐसा हो कि वैसा हो, अगर तुम्हारी चाल वैसी की वैसी बनी रहे, जरा भी फर्क न पड़े, भोग में कि त्याग में, सुख में कि दुख में, सफलता में कि विफलता में, तुम ठीक वैसे ही अकंप बने रहो, तो ही विश्राम उपलब्ध हुआ।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति।
तब तुम्हें संसार दिखाई भी पड़ता है और नहीं भी दिखाई पड़ता है। जो है वही दिखाई पड़ता है। जो नहीं है वह नहीं दिखाई पड़ता। तब तुम्हारे लिए वस्तुतः यथार्थ प्रगट होता है। तुम उस यथार्थ पर अपने प्रक्षेपण नहीं करते हो।
जो जैसा है उसे वैसा ही देख लेना परम आनंद है, परम विश्राम है।
‘जिसने परमब्रह्म को देखा है, वह भला ‘मैं ब्रह्म हूं’ का चिंतन भी करे, लेकिन जो निश्चिंत हो कर दूसरा नहीं देखता है, वह क्या चिंतन करे!’
सुनो उपनिषद से भी ऊंची उड़ान! उपनिषद आखिरी उड़ान मालूम होते हैं। उपनिषद के पार भी कोई उड़ान हो सकती है, इसकी संभावना नहीं मालूम होती है, लेकिन अष्टावक्र उपनिषद से भी ऊंची उड़ान भरते हैं। यह सूत्र कह रहा है:
येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिंतयेत्।
जिसको ब्रह्म दिखाई पड़ता हो वह शायद ऐसा सोचे भी कि मैं ब्रह्म हूं...।
किं चिंतयति निश्चिंतो द्वितीयं यो न पश्यति।
लेकिन जिसे दूसरा दिखाई ही नहीं पड़ता, जिसका सारा चिंतन और चिंतायें समाप्त हो गई हैं, वह क्या सोचे! वह क्या करे! वह तो यह भी नहीं कह सकता: अहं ब्रह्मास्मि! क्योंकि अहं और ब्रह्म का कोई भेद ही नहीं बचा है।
उपनिषद का महावाक्य है: अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं!
अष्टावक्र कहते हैं: मैं कौन, ब्रह्म कौन! अभी तो दो बचे हैं। अभी तुम दो के बीच संबंध जोड़ रहे हो, मगर दो मिटे नहीं; अभी दूसरा दिखाई पड़ता है।
प्रसिद्ध झेन फकीर रिंझाई का एक शिष्य उसके पास आया और उसने कहा कि ध्यान फल गया है, फूल लग गये हैं, मैं शून्य को उपलब्ध हुआ हूं। रिंझाई कुछ काम कर रहा था, कुछ चित्र बना रहा था। उसने आंख भी न उठाई। शिष्य बड़ा दुखी हुआ--इतनी बड़ी घटना की खबर ले कर आया कि मैं शून्य को उपलब्ध हो गया हूं और यह एक गुरु है, यह अपना चित्र बना रहा है, आंख भी नहीं उठाई! उसने फिर कहा: आपने सुना नहीं, मैं समाधि को उपलब्ध हो कर आया हूं! रिंझाई ने वैसे ही चित्र बनाते कहा कि समाधि इत्यादि फेंक कर आ, शून्य इत्यादि बाहर फेंक कर आ, भीतर मत ला। क्योंकि जब तक तुझे लगता है कि मैं शून्य को उपलब्ध हुआ हूं तब तक तू मौजूद है, फिर कैसा शून्य!
शून्य को जो उपलब्ध हुआ वह यह कह ही नहीं सकता कि मैं शून्य को उपलब्ध हुआ हूं। कैसे कहोगे! कौन कहेगा! शून्य और मैं दो तो नहीं, एक ही हो गये।
तो रिंझाई ठीक कह रहा है कि इसे भी तू बाहर फेंक कर आ। वर्षों बीत गये, पहले ध्यान करने में वर्षों बीते थे, फिर ध्यान को फेंकने में वर्षों बीते। हमारा मन ऐसा है कि हम जो पकड़ लें सो पकड़ लेते हैं; पहले संसार पकड़ लेते हैं, फिर त्याग पकड़ लेते हैं। संन्यास पकड़ लेते हैं। शून्य तक को पकड़ लेते हैं। हमें पकड़ने की ऐसी आदत है कि शून्य पर भी मुट्ठी बांधने की कोशिश करते हैं।
वर्षों बीत गये, तब शिष्य एक दिन वापिस आया। रिंझाई खड़ा हो गया। तो उसने कहा: अच्छा, तो अब बात हो गई! शिष्य ने कुछ कहा भी नहीं था, लेकिन रिंझाई खड़ा हो गया। उसने शिष्य को गले लगा लिया। उसने कहा: ‘तो बात हो गई!’ पर शिष्य ने कहा: आज तो मैंने कुछ निवेदन भी नहीं किया है। रिंझाई ने कहा: इसीलिए, इसीलिए! निवेदन तो किया नहीं जा सकता। आज तू शून्य हो कर आया है, निवेदन करने वाला मौजूद नहीं है।
‘मैं ब्रह्म हूं’--तो थोड़ा-सा भेद शेष है। सुनो इस वचन को:
‘जिसने परमब्रह्म को देखा है वह भला ‘मैं ब्रह्म हूं’ का चिंतन भी करे, लेकिन जो निश्चिंत हो कर दूसरा नहीं देखता है वह क्या चिंतन करे!’
किं चिंतयति निश्चिंतो द्वितीयं यो न पश्यति।
यह परम ज्ञान की अवस्था है। यह ज्ञान के भी पार परमज्ञान की अवस्था है। शायद इसीलिए बुद्ध और महावीर ने परमात्मा की बात नहीं की। हिंदुओं ने समझा नास्तिक हैं, कि बुद्ध परमात्मा की बात नहीं करते, महावीर भी परमात्मा की बात नहीं करते। लेकिन मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं: यह परम अवस्था है जहां परमात्मा की बात की नहीं जा सकती। परमात्मा की बात करने के लिए भी थोड़ा नीचे उतरना पड़ता है। तो बुद्ध ने तो आत्मा तक की बात नहीं की, क्योंकि ये तो अनुभव हैं, इनकी बातें नहीं हो सकती हैं। इनके विचार...इनको विचार में नहीं बांधा जा सकता। ये तो चिंतन के पार की प्रतीतियां हैं। चिंतन में इनकी छाया भी नहीं बनती। और जो भी चिंतन में बनता है वह विकृत हो जाता है।
‘जो आत्मा में विक्षेप देखता है, वह पुरुष भला चित्त का निरोध करे...।’
देखें एक-एक सूत्र! पहला सूत्र त्यागियों के विरोध में कि त्यागी भी भोगी जैसे हैं; दूसरा सूत्र उपनिषद के पार जाता है, उपनिषद के विरोध में, कि ‘मैं ब्रह्म हूं’ ऐसी घोषणा करने वाला भी अभी एक सीढ़ी नीचे है। तीसरा सूत्र पतंजलि के विरोध में है:
‘जो आत्मा में विक्षेप देखता है, वह पुरुष भला चित्त का निरोध करे...।’
पतंजलि ने कहा: योग का अर्थ है चित्त-वृत्ति निरोध।
‘लेकिन विक्षेप-मुक्त उदार पुरुष साध्य के अभाव में क्या करे!’
जब तक मन में विक्षेप हैं तब तक कोई निरोध भी करे, लेकिन विक्षेप न रहे तो कैसा निरोध, किसका निरोध और कौन करे!
दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ।
हां, जिसके मन में बेचैनियां हैं, वह संयम साधे। जिसके मन में तनाव हैं, वह विश्रांति साधे। और जिसके मन में हजार-हजार तरंगें उठती हैं वासना की, वह निरोध साधे।
उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम्।
लेकिन, जिसका मन सच में शांत हुआ, चैतन्य सच में ही विश्रांति को उपलब्ध हुआ, वह किस बात का निरोध करे! निरोध करने को कुछ बचा नहीं।
‘विक्षेप-मुक्त उदार पुरुष साध्य के अभाव में क्या करे!’
उसके लिए कोई साध्य भी नहीं बचा। न साध्य बचा न साधन बचा। ऐसी ही घड़ी परममुक्ति की घड़ी है: जब न कुछ पाने को बचा न कुछ खोने को बचा। तब तुम आ गये घर। तब तुम आ गये उस जगह जहां आने के लिए सदा से दौड़ रहे थे। और यह जगह कुछ ऐसी है कि तुम्हारे भीतर सदा मौजूद थी; तुम कभी भी भीतर मुड़ जाते तो इसे पा लेते। इसे खोजने के लिए खोजना जरूरी ही न था; वस्तुतः खोजने के कारण ही भटके रहे। यह तुम्हारा स्वभाव है। साध्य नहीं; तुम्हारा स्वभाव है। इसे पाने के लिए कुछ करना नहीं है; इसे तुमने पाया ही हुआ है! यह प्रभु-प्रसाद है। यह तुम्हें मिला ही हुआ है। यह तुम्हारे भीतर ही मौजूद है। लेकिन भीतर तुम जरा आंख तो करो।
‘जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है, वह धीरपुरुष न अपनी समाधि को न विक्षेप को और न दूषण को ही देखता है।’
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।
और परम ज्ञानी की परिभाषा करते हैं: ‘जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है।’
अब तुम खयाल करना, जैसे ही तुम्हारे जीवन में त्याग आना शुरू होता है, तुम तत्क्षण कोशिश करते हो कि भोगियों जैसे न बरतो। विशिष्ट होने की कोशिश करते हो।
कल ही किसी ने पूछा था कि मुझे रास्ता बतायें कि मेरे भीतर महामानव कैसे पैदा हो, मैं महात्मा कैसे बनूं? यह तो अहंकार ही है। अब यह महात्मा की आड़ में बचना चाहता है। तुम सहज हो जाओ। यह महान बनने की चेष्टा बीमार है। इस चेष्टा में ही रोग के सारे बीज छिपे हैं, कीटाणु छिपे हैं। तुम तो ऐसे ही बरतो जैसा सामान्य जन बरतता है। तुम भिन्न होने की चेष्टा ही मत करो।
इसलिए मैं संन्यास के बाद यह नहीं तुमसे कहता कि तुम विशिष्ट होने की चेष्टा करो। मैं तुमसे कहता हूं: तुम जैसे हो वैसे ही रहो; जैसे साधारण जन हैं, वैसे ही रहो। अंतर आना है भीतर। घटना घटनी है भीतर। तुम भीतर साक्षी हो जाओ, क्रांति हो जायेगी। तुम वही करो जो तुम कल तक करते थे; बस अब साक्षी का सूत्र जोड़ दो।
संन्यास किसी चीज का त्याग नहीं, बल्कि किसी नई भाव-दशा का ग्रहण है। संन्यास किसी चीज को तोड़ नहीं देना है, बल्कि तुम्हारे जीवन में एक नये साक्षी-भाव को जोड़ लेना है। ऋण नहीं है संन्यास, धन है।
‘जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है, वह धीरपुरुष न अपनी समाधि को न विक्षेप को और न दूषण, बंधनलिप्त होने को ही देखता है।’
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।
न समाधिं न विक्षेपं न लेपं स्वस्थ पश्यति।।
ऐसा पुरुष न तो दावा करता कि मैं समाधिस्थ हूं, न दावा करता है कि मैं अलिप्त हूं, न दावा करता कि मैं वीतराग हूं--दावा ही नहीं करता। लेकिन तुम अगर उसके पास जाओगे तो तुम अनुभव करोगे। उसकी तरंग-तरंग में दावा है; उसमें कोई दावा नहीं है। उसकी मौजूदगी में दावा है। तुम उसके पास अनुभव करोगे कुछ हुआ है, कुछ अपूर्व घटा है, कुछ अद्वितीय घटा है; कुछ ऐसा घटा है जो घटता नहीं है साधारणतः। और फिर भी तुम चकित होओगे कि वह तुम्हारे जैसा ही व्यवहार करता है।
कबीर ज्ञान को उपलब्ध हो गये तो उनके भक्तों ने कहा कि अब आप ये कपड़े बुनना बंद कर दें; यह शोभा नहीं देता। कबीर तो जुलाहे थे। अब यह बैठे-बैठे दिन भर कपड़े बुनना, फिर बाजार में कपड़े बेचने जाना--और आप तो इतने बड़े महात्मा हैं, आपके इतने शिष्य हैं, यह आप बंद कर दें! लेकिन कबीर ने कहा कि नहीं; जो था जैसा था वैसा ही रहने दो। और फिर बहुत रूपों में राम आते हैं बाजार में कपड़े खरीदने और मैं कपड़ा न बनाऊंगा उनके लिए, तो इतने ढंग से कोई कपड़े उनके लिए बनायेगा नहीं। देखते मैं कितने जतन से बुनता हूं! इतने जतन से कोई बुनेगा नहीं। नहीं, काम जारी रहेगा।
तो कबीर जुलाहे ही बने रहे; मरते दम तक कपड़ा बुनते रहे और बेचते रहे। यह परम ज्ञानी की अवस्था है। अगर जरा भी अहंकार होता तो यह मौका छोड़ने जैसा नहीं था।
गोरा कुम्हार ज्ञान को उपलब्ध हो गया लेकिन घड़े तो बनाता ही रहा और घड़े तो बेचता ही रहा। कहते हैं किसी ने उससे कहा भी कि यह भी क्या धंधा कर रहे हो कुम्हार का!
तो उसने कहा, मैंने तो सुना है कि परमात्मा भी कुम्हार है, उसने संसार को बनाया। जब उसे भी शर्म न आई तो मुझे क्या शर्म! हम छोटे-छोटे घड़े बनाते हैं, उसने बड़े-बड़े घड़े बनाये। अब निश्चित ही वह बड़ा है, हम छोटे हैं।
मगर जो चलता था वह चलता रहा।
सेना नाई लोगों के बाल ही काटता रहा। भक्त उससे कहते कि बंद करो। कोई भक्त बाल बनवाने आया था, वह कहता हमें संकोच लगता है कि आप जैसे महात्मा से हम बाल बनवायें! तो सेना ने कहा, तुम बाल बनवा लो! घोंटते-घोंटते सिर भी घोंट देंगे, सफा कर देंगे सब। सफाई ही करना है न! महात्मा का काम ही यही है कि सफाई करता रहे। हजामत ही करनी है न, तो महात्मा का काम ही यह है। तुम आते भर रहो, बाल कटाते-कटाते किसी दिन सिर भी कटा बैठोगे।
मगर सेना नाई बाल ही बनाता रहा। रैदास चमार का काम करते रहे। ये अनूठे पुरुष हैं; इनमें ही ठीक-ठीक ‘महाशय’ प्रगट हुआ है!
‘जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है।’
वर्तन तो लोगों जैसा है, लेकिन भेद भीतर है। लोग मूर्च्छित बरत रहे हैं, वह जाग्रत। उसी राह पर चल रहा है जिस पर और लोग भी चल रहे हैं; लेकिन लोग नशे में चल रहे हैं, वह होश में चल रहा है। वही कर रहा है जो लोग कर रहे हैं! लेकिन लोगों को करने का कोई पता नहीं कि क्या हो रहा है, किए जा रहे हैं, वासनाओं की धुंध में चले जा रहे हैं, दौड़े जा रहे हैं। ज्ञानी भीतर दीये को जलाये है। भेद भीतर के दीये में है।
और ध्यान रखना, व्यवहार में जो भेद दिखाना चाहता है, शायद उसके भीतर दीया नहीं जला है; इसलिए जो दीये से पता चलना चाहिए था, वह भेद से दिखलाना चाहता है। दीया तो नहीं है; दीया तो खाली है, घर सूना पड़ा है। तो वह फिर ऊपर के आयोजन करता है। नंगा खड़ा हो जाता है। भीतर निर्दोष होता तो नंगे खड़े होने की कोई ऐसी आवश्यकता न थी। भीतर तो निर्दोष नहीं है। भीतर तो अभी बालवत नहीं हुआ। लेकिन बाहर से दावा तो कर ही सकता है। नंगे खड़े हो जाने से तो कुछ हल नहीं होता। नंगे तो पागल भी खड़े हो जाते हैं। नंगे खड़ा हो जाना तो बड़ी छोटे-से अभ्यास की बात है। इससे तुम्हारे भीतर रूपांतरण नहीं होगा।
मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि अगर तुम्हारे भीतर रूपांतरण हो जाये और तुम्हें सहज यही लगे नग्न होना, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि रुकना। जो सहज हो करना। लेकिन चेष्टा से नहीं हो।
तुम देखते अपने साधु-महात्मा को! वह सब तरह की कोशिश करता है तुमसे विशिष्ट होने की।
एक साधु मेरे साथ ही यात्रा को गये। उनके साथ मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा क्योंकि उनका सब काम तीन बजे रात। तो वे उठ आयें। मैंने कहा कि दूसरे के घर में ठहरे हैं, दूसरे का भी तो खयाल करो। उन्होंने कहा, मैं कोई गृहस्थ थोड़े ही हूं; मैं तो तीन ही बजे उठूंगा। मैंने कहा, चलो कोई बात नहीं तीन बजे उठ आओ, लेकिन इतने जोर-जोर से तो राम-राम न करो, घर के लोग जगते हैं, मुहल्ले के लोग जगते हैं। उन्होंने कहा, वह तो मैं सदा से करता रहा हूं। मैंने कहा, धीरे-धीरे कर लो, मन में करने में क्या बिगड़ता है? राम तो सुन लेंगे। कोई राम बहरे तो नहीं हैं। कहा नहीं है कबीर ने कि बहरा हुआ खुदाय! क्या तेरा खुदा बहरा है जो इतने जोर से अजान कर रहा है? इतने जोर से क्या चिल्लाना!
लेकिन लगता ऐसा है, मैंने उनसे कहा कि तुम्हें ईश्वर से कोई मतलब नहीं है, तुम पूरे मुहल्ले को, गांव को खबर करना चाहते हो कि स्वामी जी उठ गये, कि देखो स्वामी जी तीन बजे ब्रह्म-मुहूर्त में उठ गये हैं! फिर तो बड़ी झंझटें उनके साथ: घी ताजा चाहिए तीन घंटे पहले बना, नहीं तो वे ले नहीं सकते। और गाय का दूध चाहिए, भैंस का नहीं। मैंने पूछा, मामला क्या है? वे कहने लगे कि भैंस का दूध लो तो भैंस जैसी बुद्धि हो जाती है। तो मैंने कहा, तरबूज-खरबूज मत खाना, नहीं तो तरबूज-खरबूज जैसी बुद्धि हो जायेगी। साग-भाजी मत खाना, नहीं तो साग-भाजी हो जाओगे। और गाय भी सफेद चाहिए, काली गाय नहीं! वे इतना उपद्रव खड़ा कर देते, मगर जल्दी से प्रसिद्ध हो जाते। पूरा गांव जान जाता कि महात्मा जी आ गये। पूरा गांव मुश्किल में पड़ जाता। मगर इतना ही सारा खेल था। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।
जितना बाहर तुम प्रगट करना चाहते हो उसका कुल मतलब इतना ही होता है, भीतर का दीया नहीं जला; उसका परिपूरक कोई ढंग खोज रहे हो तुम कि लोगों को पता चल जाये। भीतर का दीया जल जाता है, तब तो लोगों को पता चलता है। वह पता चलना बड़ा सूक्ष्म है। तुम्हारी तरंगें लोगों के हृदय को छूने लगती हैं। तुम्हारे पास से उठती हुई तरंगें धीरे-धीरे लोगों के हृदय को घेर लेती हैं। बड़ा कोमल स्पर्श है। बड़ी स्त्रैण छाया है महाशय की, महात्मा की। आक्रमण नहीं है किसी के ऊपर।
अहंकार आक्रमक है। अहंकार पुरुष है। निरहंकारिता तो बड़ी प्रेमपूर्ण है।
भीतर का दीया मौजूद हो तो तुम बाहर की चिंता नहीं करते; लेकिन भीतर का दीया मौजूद न हो तब तो बाहर की ही चिंता पर निर्भर रहना पड़ता है। तो उपवास करोगे, शीर्षासन कर लोगे, आसन करोगे, व्यायाम करोगे, हजार तरह की मूढ़तायें करोगे। और पीछे खयाल रखना कि कुल आयोजन इतना ही हो रहा है कि लोगों को पता चल जाये कि तुम विशिष्ट हो; तुम कोई साधारण आदमी नहीं, बड़े विशिष्ट आदमी हो।
तुम अगर अपने महात्माओं की जीवन-चर्या गौर से देखो तो निन्यानबे प्रतिशत इस तरह की बातें पाओगे जिनका कुल आयोजन अहंकार की पुष्टि है। किसी भी तरह सिद्ध कर देना है कि हम सामान्य नहीं हैं, विशिष्ट हैं। और जो विशिष्ट है वह कभी इस तरह की आकांक्षा नहीं करता। वह विशिष्ट है; सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं है। उसकी विशिष्टता इतनी प्रगाढ़ है कि वह सामान्य होने की हिम्मत कर सकता है।
इस बात को तुम खयाल में लेना। जिसकी विशिष्टता सुनिश्चित है, वही केवल सामान्य होने का साहस कर सकता है। जिसकी विशिष्टता सुनिश्चित नहीं है, वह विशिष्ट होने की चेष्टा करता है। असाधारण पुरुष साधारण हो सकता है। साधारण पुरुष असाधारण होने की योजना करता है।
‘जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है...।’
भिन्नता आंतरिक है, आत्मिक है। भिन्नता भीतर के प्रकाश की है; बाहर के व्यवहार की नहीं।
‘वह धीर पुरुष न अपनी समाधि को, न विक्षेप को और न दूषण को ही देखता है।’
उसे फिर कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। न अपनी समाधि दिखाई पड़ती है और न दूसरों की गैर-समाधि दिखाई पड़ती है। वह तुम्हारी तरफ ऐसे नहीं देखता कि तुम कोई हीन, पापी, नारकीय, कि तुम नरक की यात्रा पर जा रहे हो। वह ऐसा नहीं देखता। जिसको अपने भीतर विश्रांति मिल गई वह तुम्हारे भीतर भी कुछ दूषण नहीं देखता।
बुद्ध का बड़ा अदभुत वचन है। बुद्ध ने कहा कि जिस क्षण मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, मेरे लिए सारा संसार ज्ञान को उपलब्ध हो गया; उसके बाद मैंने अज्ञानी देखा ही नहीं। यह मत समझ लेना कि तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गये इस कारण। बुद्ध यह कह रहे हैं कि जिसकी आंख में ज्ञान आ जाता है वह तुम्हारे भीतर भी छिपे हुए रत्न को देख लेता है। वह तुम्हारे स्वभाव को भी देख लेता है। तो बुद्ध ने किसी के भीतर अज्ञानी नहीं देखा। और जब भी कोई महात्मा तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार करने लगे कि मैं पवित्र, तुम अपवित्र; मैं ऊपर, तुम नीचे; मैं महात्मा, तुम साधारण पुरुष, सांसारिक--तब समझ लेना कि इस आदमी को अभी दिखाई नहीं पड़ा, इसकी आंखें नहीं खुलीं, यह अंधा है। ये अंधे के ढंग हैं। यह अंधे की तरह अभी भी टटोल रहा है। इसके पास आंख नहीं है। अन्यथा तुम्हारे भीतर बैठा परमात्मा भी इसको दिखाई पड़ जाता--उतना ही जितना अपने भीतर का दिखाई पड़ जाता है।
ऐसा समझो कि जितना तुम अपने भीतर जाते हो उतना ही तुम दूसरे के भीतर भी चले गये, क्योंकि तुम और दूसरे का भीतर अलग-अलग नहीं है। मेरा अंतस्तल और तुम्हारा अंतस्तल अलग-अलग नहीं है। अंतरतम में हम एक हैं; बाहर-बाहर भिन्न हैं। तो जिसको सिर्फ बाहर की सूझ है उसको भेद दिखाई पड़ता है। जिसको भीतर की सूझ होती है उसे कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता है। तो न तो वह अपनी समाधि को देखता है।
न समाधिं न विक्षेपं।
और तुम उसके लिए विक्षेप भी पैदा नहीं कर सकते।
कहावत है कि घर में एक आदमी धार्मिक हो जाये तो पूरा घर परेशान हो जाता है। तुमने देखा, एकाध धार्मिक आदमी तुम्हारे घर में पैदा हो जाये, घर भर की मुसीबत आ गई! वे नहा कर चले आ रहे हैं: कोई छू न दे! किसी ने छू दिया कि उपद्रव हो गया, विक्षेप हो गया।
मेरी नानी थी--सीधी-साधी ग्रामीण, पुरानी परंपरागत, जैन ढांचे में पली थी। कोई इतना भी नाम ले दे, मांसाहार का नाम ले दे भोजन करते वक्त कि विक्षेप हो गया। अब ‘मांसाहार’ शब्द में तो मांसाहार नहीं है। मांसाहार की तो दूर छोड़ो, कोई कह दे टमाटर, तो वह नाराज हो जाती। जब तक वह जीवित रही, घर में टमाटर नहीं आ सकता था, क्योंकि टमाटर से थोड़ा-थोड़ा मांस का खयाल आता है। जैसे ही मुझे समझ आ गया, मैं बचपन में काफी दिन तक उनके साथ रहा, तो मैं कुछ भी नहीं कहता था; मैं एकदम से अपने मुंह पर ऐसा उंगली रख लेता। तो वह कहती, क्या कर रहे हो? मैं कहता, गलत चीज आ रही है। बस विक्षेप हो गया। वह कहती, विक्षेप हो गया। अब मैंने कुछ कहा ही नहीं है अभी, टमाटर भी नहीं कहा है, मगर उंगली रख लेना काफी था। अभी जो कहा ही नहीं है, उसके कारण विक्षेप हो गया।
विक्षेप का क्या अर्थ होता है? विक्षेप का अर्थ होता है: हम विक्षुब्ध होने को तत्पर हैं, तैयार हैं; हम मौका ही देख रहे हैं; कोई भी कारण मिल जाये, हम विक्षुब्ध हो जायेंगे। फिर कारण मिल जायेगा। फिर कारण ज्यादा दूर नहीं है। जब तुम्हीं तैयार बैठे हो तो कोई न कोई कारण मिल जायेगा। कुछ न कुछ हो जायेगा। न होगा तो तुम खोज लोगे।
अष्टावक्र कहते हैं: न समाधिं न विक्षेपं।
जो व्यक्ति सच में ही शांत हुआ, विश्राम को उपलब्ध हुआ, तुम उसे विक्षुब्ध नहीं कर सकते। उसके लिए कोई विक्षेप नहीं रहा। वह ध्यान कर रहा हो, शांत बैठा हो, तुम बैंड-बाजे बजाओ तो भी कोई विक्षेप नहीं होगा। तुम शोरगुल मचाओ तो भी कोई विक्षेप नहीं होगा। उसकी शांति में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। शांति है तो बाधा पड़ती ही नहीं है। शांति नहीं है तो ही बाधा पड़ती है। जिसको तुम जबर्दस्ती आरोपित कर लेते हो, उसमें बाधा पड़ती है। जो भीतर से विकसित होता है, आता है अंतरतम से, जिसका आविर्भाव होता है, उसमें कोई बाधा नहीं पड़ती।
शंकराचार्य गंगा से स्नान करके लौट रहे हैं सुबह, ब्रह्म-मुहूर्त, और एक शूद्र ने उनको धक्का मार दिया। नाराज हो गये कि तूने मेरा स्नान खराब कर दिया। शूद्र हो कर! खयाल नहीं रखता कि ब्राह्मण को देख कर चले?
उस शूद्र ने बड़ी अदभुत बात कही। उस शूद्र ने कहा: मैं एक बात पूछना चाहता हूं। आप कहते हैं संसार माया, तो देह माया है, झूठ है; है नहीं, भासती है। तो जो देह भासती है उसके कारण आप अपवित्र हो गये? या तो ऐसा हुआ, या फिर मेरी आत्मा शूद्र है और आपकी आत्मा ब्राह्मण है। तो फिर आत्मा में भी शूद्र और ब्राह्मण हैं। तो आत्मा फिर मेरी ब्रह्म कैसे होगी? तो फिर आत्मा भी निर्विकार नहीं है। तो या तो मेरी देह को छूने के कारण आप भ्रष्ट हो गये--देह जो कि है ही नहीं आपके हिसाब से; या फिर मेरी आत्मा ही भ्रष्ट है। आप मुझे कह दें।
शंकर को कहते हैं बोध हुआ। झुक कर चरण छू लिए और कहा कि मैं अब तक शब्दों के जाल में ही खोया रहा।
यह विक्षेप कि शूद्र ने मुझे छू दिया, तुम्हारी धारणा के कारण है।
एक दफा मैं ट्रेन में सवार हुआ। बंबई से बैठा। तो मेरे डब्बे में एक ही सज्जन और थे। बहुत लोग मुझे छोड़ने आये थे तो उन्होंने सोचा जरूर कोई महात्मा हैं। तो भारत में तो ऐसा है कि महात्मा हो कि फिर पैर में गिरना। तो जैसे ही मैं दरवाजा बंद करके, गाड़ी चली, भीतर आया, वे एकदम साष्टांग मेरे पैर में गिर पड़े। मैंने उनसे पूछा, भाई पहले पूछ तो लेते कि मैं कौन हूं। वे बोले, क्या मतलब? वे एकदम चौंक कर उठ आये। मैंने कहा, मैं मुसलमान हूं। वे बोले, धत तेरे की! पहले क्यों न कहा? मैंने कहा कि तुमने मौका ही नहीं दिया, तुम एकदम पैर छू लिए। तुम मौका भी तो देते, पूछ तो लेते।
फिर उन्हें कुछ शक हुआ, मेरे चेहरे की तरफ देखा कि नहीं-नहीं। और मैंने कहा कि तुम अपने को समझाना चाहो तो तुम्हारी मर्जी, हालांकि तुमने छू लिए पैर। वे बोले, मैं ब्राह्मण हूं और मैं तो यही समझा कि कोई महात्मा हैं, इतने लोग छोड़ने आये थे।
मैंने कहा, ये कोई लोग भले लोग नहीं थे। ये सब बंबई के सटोरिया, स्मगलर इस तरह के लोग हैं। ये कोई सज्जन नहीं हैं। तुम बड़ी भूल में पड़ गये।
दोनों हम बैठे हैं एक ही कमरे में, वे बार-बार मेरे चेहरे की तरफ देखें गौर से, पता लगायें कि आदमी मुसलमान है कि हिंदू। थोड़ी देर बाद बोले कि नहीं-नहीं, मालूम तो आप मुसलमान नहीं पड़ते। मैंने कहा, भई तुम्हारी मर्जी, तुम्हें समझाना हो तुम समझा लो। कहो तो मैं लिख कर दे दूं कि मैं मुसलमान नहीं हूं, लेकिन अब मैं हूं तो हूं। तुमने भूल तो कर ली।
जब उनको बहुत बेचैन देखा तो मैंने कहा, अरे मजाक कर रहा हूं। उन्होंने फिर मेरे पैर छूए कि अरे, आप भी, ऐसी मजाक की जाती है? मैंने कहा, मैं अभी भी मजाक कर रहा हूं। वह तो टिकिट कलक्टर आया तो उससे कहा कि मेरा कमरा बदल दो, मैं दूसरे कमरे में जाना चाहता हूं। और जाते वक्त ऐसे देखते गये कि यह आदमी पागल है या क्या मामला!
तुम्हारी धारणा! अगर मैं मुसलमान हूं, विक्षेप हो गया। अब मैं मैं ही हूं, चाहे मुसलमान कहो चाहे हिंदू कहो। अगर मैं नहीं हूं मुसलमान, फिर पैर छू लिए, फिर ठीक हो गई बात।
तुर्गनेव की एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी है कि दो पुलिस वाले एक रास्ते से गुजर रहे हैं, एक होटल के सामने भीड़ लगी है और एक आदमी ने कुत्ते की दोनों टांगें पकड़ रखी हैं, वह उसको पछाड़ने को खड़ा है और चिल्ला रहा है कि इसको मार ही डालूंगा, इसने मुझे काटा। एक पुलिस वाले ने भी कहा कि अच्छा है, मार ही डालिए; हम पुलिस वालों को भी बहुत भौंकता है।
कुत्ते कुछ अजीब ही होते हैं। पुलिस वाले, पोस्टमैन, संन्यासी, जहां भी यूनीफार्म देखा कि वे भौंके।
...मार ही डालो इसको। मगर दूसरे पुलिस वाले ने उसके कान में कहा कि ठहरो, यह इंस्पेक्टर साहिब का कुत्ता मालूम होता है। बस बात बदल गई, वह आदमी एकदम झपट पड़ा। वह पुलिस वाला उस आदमी को पकड़ लिया, कहा कि तुम क्या हंगामा मचा रहे हो सड़क पर, तमाशा कर रहे हो? छोड़ो, जानते हो यह कुत्ता कौन है, किसका है? और जल्दी से उसने कुत्ते को अपने कंधे में ले लिया और पुचकारने लगा। बात बदल गई और उसने दूसरे पुलिस वाले से कहा कि पकड़ो इस आदमी को, हवालात ले चलो। बलवा करवायेगा!
मगर दूसरे ने कहा कि भाई, यह कुत्ता लगता तो वैसा है लेकिन है नहीं। उसने तत्क्षण कुत्ता पटक दिया। और उसने कहा, स्नान करना पड़ेगा। पहले क्यों ऐसा कह दिया कि कुत्ता वही है। और उस आदमी से कहा, पकड़ इस कुत्ते को, मार ही डाल इसको।
ऐसे कहानी चलती है। वह फिर कह देता है पुलिस वाला कि भई मैं पक्का नहीं कह सकता, क्योंकि लगता तो बिलकुल ऐसे ही है इंस्पेक्टर साहिब का कुत्ता, अपन झंझट में न पड़ें। फिर कहानी बदल जाती है।
तुम्हारे विक्षेप तुम्हारी धारणायें हैं। तुम मान लेते हो तो विक्षेप। शूद्र हो गया कोई, कोई मुसलमान हो गया, कोई हिंदू हो गया, कोई ब्राह्मण हो गया। फिर हर चीज से उपद्रव होने लगा। तुम्हारी धारणायें छूट जायें, तुम शांत हो जाओ, निर्धारणा को उपलब्ध हो जाओ, फिर कैसा विक्षेप! फिर तो पास में कोई चिल्लाता भी रहे, शोरगुल भी मचाये तो भी शोरगुल तुम्हारे भीतर कोई तनाव पैदा नहीं करता। शोरगुल भी तुम सुन लोगे। यह भी स्वीकार है।
स्वीकार में एक क्रांति घट जाती है। रूप बदल जाता है।
‘जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है, वह धीरपुरुष न अपनी समाधि को, न विक्षेप को और न दूषण को ही देखता है।’
न समाधिं न विक्षेपं न लेपं स्वस्थ पश्यति।
और जीवन में उसके ऊपर कोई भी चीज लेप नहीं बनती। कोई चीज उसे लिप्त नहीं कर पाती। तुम उसे काली कोठरी में से भी भेज दे सकते हो, तो भी वह साफ-सुथरा का साफ-सुथरा बाहर आ जायेगा। और तुम कितने ही साफ-सुथरे सफेद वस्त्र पहने बैठे रहो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
मुल्ला नसरुद्दीन ने राह पर एक सुंदर स्त्री को देख कर एकदम उसे धक्का मार दिया। वह स्त्री नाराज हो गई। नये जमाने की स्त्री, उसने मुल्ला का एकदम हाथ पकड़ लिया और कहा कि शर्म नहीं आती, बाल सफेद हो गये! मुल्ला ने कहा: अरे बाल सफेद हो गये तो क्या हुआ, दिल तो अभी भी काला का काला है!
कपड़े कितने ही सफेद पहन लो, इससे क्या हो सकता है; दिल काला है तो काला है। मुल्ला ने कहा, बाल से धोखा मत खा, दिल अभी काला का काला है।
एक तो आवरण है जिसमें हम भीतर कुछ छिपाये हुए हैं। जो छिपाये हैं, वह विपरीत है। लेकिन ज्ञानीपुरुष को कोई चीज लिप्त नहीं करती, इसका अर्थ हुआ कि हर घड़ी में उसका जागरण अविच्छिन्न बना रहता है। वह संसार से गुजर जायेगा और यह संसार की कोई चीज उसे छुएगी नहीं। और ऐसा भी नहीं कि डरा-डरा गुजरेगा। ऐसा भी नहीं भागा-भागा गुजरेगा। ऐसा भी नहीं कि अपने को छिपा कर और कंबल ओढ़ कर गुजरेगा। नहीं, ऐसे गुजरेगा जैसे तुम गुजरते हो। लेकिन तुम बार-बार लिप्त हो जाओगे और वह लिप्त न होगा। बस वहीं भेद है।
एक फकीर को--जापान की पुरानी कथा है--एक सम्राट ने कहा कि आपको मैं सदा इस वृक्ष के नीचे बैठे देखता हूं, मेरे मन में बड़ी श्रद्धा जन्मती है। आपके प्रति मुझे बड़ा भाव पैदा होता है। जब भी मैं यहां से गुजरता हूं, कुछ घटता है। आप महल चलें। आप यहां न बैठें। आप मेरे मेहमान बनें। आप जैसे महापुरुष यहां वृक्ष के नीचे बैठे हैं! धूप-धाप, वर्षा-गर्मी! आप चलें।
वह फकीर उठ कर खड़ा हो गया। उसने कहा, अच्छा। सम्राट थोड़ा झिझका, क्योंकि हमारी तो परिभाषा ही त्याग की यही होती है...। सम्राट ने भी सोचा होगा कि संन्यासी कहेगा, ‘अरे कहां तू मुझे ले जाता है कचरे में, महल इत्यादि सब कूड़ा-कर्कट! मैं संसारी नहीं हूं, मैं संन्यासी हूं।’ तो सम्राट बिलकुल पैर में गिर गया होता। लेकिन यह संन्यासी खड़ा हो गया। यह कुछ अष्टावक्र की धारणा का आदमी रहा होगा। उसने कहा, ठीक, यहां नहीं तो वहां। तुझे दुखी क्यों करें! चल।
लेकिन सम्राट दुखी हो गया। उसने सोचा: यह कहां की झंझट ले ली सिर! यह तो कोई ऐसे ही भोगी दिखाई पड़ता है, बना-ठना बैठा था, रास्ता ही देख रहा था कि कोई बुला ले कि चल पड़ें। फंस गये इसके जाल में। लेकिन अब कह चुके तो एकदम इंकार भी नहीं कर सकते।
ले आया। उसे महल में रख दिया। सुंदरतम जो भवन था महल का, उसमें रख दिया। वह अच्छे से अच्छा भोजन करता, शानदार गद्दे-तकियों पर सोता। छः महीने बाद सम्राट ने उससे कहा, महाराज, अब मुझे एक बात बतायें कि अब मुझमें और आपमें भेद क्या? अब तो हम एक ही जैसे हैं। बल्कि आपकी हालत मुझसे भी बेहतर है कि न कोई चिंता न फिक्र। हम धक्के खाते चौबीस घंटे, परेशान होते; आप मजा कर रहे! यह तो खूब रही। फर्क क्या है? अब मुझे फर्क बता दें। मेरे मन में यह बार-बार सवाल उठता है।
उस फकीर ने कहा: यह सवाल उसी वक्त उठ गया था जब मैं उठ कर खड़ा हुआ था झाड़ के नीचे। इसका तेरे महल में आने से कोई संबंध नहीं है। वह तो जब मैं उठ कर खड़ा हो गया था और मैंने कहा चलो चलता हूं, तभी यह सवाल उठ गया था। ठीक किया, तूने इतनी देर क्यों लगाई? छः महीने क्यों खराब किए? वहीं पूछ लेता। फर्क जानना चाहता है तो कल सुबह बताऊंगा। कल सुबह हम उठ कर गांव के बाहर चलेंगे।
सम्राट उसके साथ हो लिया, गांव के बाहर निकले। सूरज उग आया। सम्राट ने कहा, अब बता दें। उसने कहा, थोड़े और आगे चलें। दोपहर हो गई, साम्राज्य की सीमा आ गई; नदी पार होने लगे। सम्राट ने कहा, अब क्यों घसीटे जा रहे हैं? कहना हो तो कह दें। जो कहना है बता दें। कहां ले जा रहे हैं?
उस फकीर ने कहा: यह है मेरा उत्तर कि अब मैं तो जाता हूं; तुम भी मेरे साथ आते हो? मैं पीछे लौटने वाला नहीं हूं।
सम्राट ने कहा, यह कैसे हो सकता है? मैं कैसे आ सकता हूं? पीछे राज्य है, पत्नी-बच्चे, धन-दौलत, सारा हिसाब-किताब है, मेरे बिना कैसे चलेगा?
तो फकीर ने कहा: फर्क समझ में आया? मैं जा रहा हूं और तुम नहीं जा सकते।
सम्राट को एकदम फिर श्रद्धा उमड़ी। एकदम पैर पर गिर पड़ा कि नहीं महाराज। मैं भी कैसा मूढ़ कि आपको छोड़े दे रहा हूं। आप जैसे हीरे को पाकर और गंवा रहा हूं। नहीं-नहीं महाराज, आप वापिस चलिए।
उस फकीर ने कहा, मैं तो चल सकता हूं, लेकिन फिर सवाल उठ आयेगा। तू सोच ले। मैं तो अभी चल सकता हूं कि मुझे क्या फर्क कि इस तरफ गया कि इस तरफ गया! तू सोच ले।
सम्राट फिर संदिग्ध हो गया। फकीर ने कहा, बेहतर यही है, तेरे सुख-चैन के लिए यही बेहतर है कि मैं सीधा जाऊं, लौटूं न, तो ही तू फर्क समझ पायेगा।
फर्क एक ही है संन्यासी और संसारी में कि संसारी लिप्त है, ग्रस्त है, पकड़ा हुआ है, जाल में बंधा है। संन्यासी भी वहीं है, लेकिन किसी भी क्षण जाल के बाहर हो सकता है। पीछे लौट कर नहीं देखेगा। संन्यासी वही है जो पीछे लौट कर नहीं देखता। जो हुआ, हुआ। जो नहीं हुआ, नहीं हुआ। जहां से हट गया, हट गया।
संसारी ग्रसित हो जाता है, बंध जाता है। नहीं कि महल किसी को बांधते हैं; महल क्या बांधेंगे? तुम्हारा मोह तुम्हें बांध लेता है। इतना ही भेद है। भेद बहुत बारीक है और भेद बहुत आंतरिक है। बाहर से भेद करने में मत पड़ना, अन्यथा संसार और संन्यास में तुम एक तरह का द्वंद्व खड़ा कर लोगे। वही द्वंद्व सम्राट के मन में था। वह सोचता था संन्यासी तो त्यागी और संसारी भोगी।
नहीं, त्यागी-भोगी दोनों संसारी। संन्यासी तो साक्षी। त्याग में भी साक्षी रहता, भोग में भी साक्षी रहता। सुख में भी साक्षी रहता, दुख में भी। साक्षी स्वाद है संन्यास का।
बुद्ध ने कहा है: तुम कहीं से मुझे चखो, मेरा स्वाद तुम एक ही पाओगे। जैसे कोई सागर को कहीं से भी चखे, खारा पाता है--ऐसे बुद्ध को तुम कहीं से भी चखो, बुद्धत्व, साक्षी, जागरूकता।
‘जो तृप्त हुआ ज्ञानीपुरुष भाव और अभाव से रहित है और निर्वासना है, वह लोक-दृष्टि में कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता है।’
भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः।
वही है बुद्धपुरुष। वही है जागा हुआ। वही है ज्ञानी। जो भाव से भी रहित है, अभाव से भी रहित है। न तो उसका कोई पक्ष है न कोई विपक्ष है। न तो वह कहता है ऐसा ही हो और न वह कहता कि ऐसा होगा तो मैं दुखी हो जाऊंगा। न कोई भाव न कोई अभाव।
भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः।
और ऐसा भाव-अभाव में शून्य हो कर जो अपने स्वभाव में तृप्त हो गया, वही है बुद्धपुरुष।
नैव किंचित कृतं तेन लोकदृष्ट्या विकुर्वता।
ऐसा व्यक्ति सांसारिक दृष्टि से तो सांसारिक ही मालूम होगा। वही कर रहा जो और कर रहे। वैसा ही कर रहा जैसा और कर रहे।
पूछा है किसी ने बोकोजू को कि तुम तो ज्ञानी हो, तुम्हारी साधना क्या है? तो बोकोजू ने कहा: जब भूख लगती है भोजन कर लेता; जब नींद आती है तब सो जाता।
तो उस आदमी ने कहा, यह भी कोई साधना हुई? यह तो हम सभी करते हैं। जब भूख लगती है, खा लेते हैं; जब नींद आती, सो जाते।
बोकोजू ने कहा कि नहीं, तुम जब भोजन करते हो तब और हजार काम भी मन में करते हो, मैं सिर्फ भोजन करता। और तुम जब सोते हो, तब तुम हजार सपने भी देखते हो; मैं सिर्फ सोता हूं। तुम जागते हो तो भी पूरे जागते नहीं; सोते हो तो भी पूरे सोते नहीं। तुम बंटे-बंटे हो, हजार खंडों में हो। तुम एक भीड़ हो। मैं भीड़ नहीं हूं। मेरा सोना शुद्ध है। तुम्हारा सोना भी अशुद्ध, जागने की तो बात ही छोड़ दो।
क्या कह रहा है बोकोजू? बोकोजू यही कह रहा है कि लोक-दृष्टि में कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता है; भीतर अकर्ता बना रहता है। कर्म की रेखा भी नहीं खिंचती। भीतर तो जानता रहता है, मैं सिर्फ द्रष्टा हूं।
‘जब कभी जो कुछ कर्म करने को आ पड़ता है उसको करके धीरपुरुष सुख-पूर्वक रहता है और प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति में दुराग्रह नहीं रखता।’
सुनते हो!
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
उसका कोई आग्रह नहीं है, क्योंकि सभी आग्रह दुराग्रह हैं। सत्याग्रह तो कोई होता ही नहीं। आग्रह मात्र दुराग्रह है। जहां तुमने कहा ऐसा ही हो, वैसे ही चिंता तुमने बुला ली। जहां तुमने कहा ऐसा ही होना चाहिए, वहीं तुम अड़चन में पड़ गये। अगर वैसा न होगा तो दुखी होओगे। और वैसा होने का कोई पक्का नहीं है।
यह जगत किसी की आकांक्षायें तृप्त नहीं करता। इस जगत ने कोई ठेका नहीं लिया है किसी की आकांक्षायें तृप्त करने का। तुम्हारी निजी आकांक्षायें इस पूरे विश्व की आकांक्षाओं से मेल खा जाती हैं कभी तो तृप्त हो जाती हैं; कभी मेल नहीं खाती हैं तो तृप्त नहीं होतीं। और अधिकतर तो मेल नहीं खाती हैं। क्योंकि इस विराट आयोजन का तुम्हें पता ही नहीं है। तुम तो अपना छोटा-छोटा खयाल लिए चल रहे हो।
हमारी हालत वैसे ही है जैसे तुम्हारे चौके में घूमती हुई चींटियों की हालत है। वह शायद यही सोचती हैं कि वह जो भोजन इत्यादि गिर जाता है, उसी के लिए तुम भोजन बनाने का आयोजन करते हो। वे जो शक्कर के दाने नीचे पड़े रह जाते हैं फर्श पर, शायद उसी के लिए दूकान चलाते, दफ्तर जाते, रोटी-रोजी कमाते, भोजन बनाते, इतना सब आयोजन करते हो। ये सब आदमी जो घर में घूमते-फिरते दिखाई पड़ते हैं, ये सब इसी काम के लिए घूम रहे हैं कि चौके में कुछ शक्कर के दाने गिर जायें और चींटियां उनका मजा ले लें।
हमारी हालत भी ऐसी है। यह जो विराट विश्व है, हम सोचते हैं हमारे लिए चल रहा है; हमारी इच्छा की तृप्ति के लिए चल रहा है।
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
यदा यत् कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठतः सुखम्।।
जब कभी जो कुछ कर्म करने को आ पड़ता है--बुलाता भी नहीं कि ऐसा आये--जो आ पड़ता है, उसको करके धीरपुरुष सुखपूर्वक रहता है। सफल हो असफल, इसकी भी फिक्र नहीं है। कर देता है, अपने से जो बनता है कर देता है। जो स्थिति आ जाती है, जैसी चुनौती आ जाती है वैसा कर देता है। और प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति में कोई दुराग्रह नहीं रखता है। न तो वह यह कहता है कि मैं संन्यासी हूं, यह मैं कैसे करूं!
तेरापंथ जैनों का एक संप्रदाय है। अगर कोई रास्ते के किनारे मर रहा हो और तेरापंथी साधु निकल रहा हो और वह आदमी चिल्लाता हो कि मुझे प्यास लगी, मुझे पानी पिला दो, तो भी तेरापंथी साधु पानी नहीं पिलायेगा। क्योंकि वह संन्यासी है, वह कैसे पानी पिला सकता है! और उन्होंने बड़े तर्क-जाल खोज लिए हैं। वे कहते हैं, यह आदमी तड़फ रहा है किसी पिछले जन्म के पाप के कारण। इसने कुछ पाप किया होगा, किसी को तड़फाया होगा, इसलिए तड़फ रहा है। अब इसके कर्म में हम बाधा क्यों डालें? हम अगर पानी पिला दें तो हम बाधा हो गये। हमने इसको इसका कर्मफल न भोगने दिया, फिर बेचारा भविष्य में भोगेगा। भोगना तो पड़ेगा ही, तो हमने और इसका जाल बढ़ा दिया। इसी जन्म में छूट जाता, अब अगले जन्म में भोगेगा। तो बेहतर है हम कुछ बाधा न दें, हम अपने रास्ते चले जायें।
यह तो बड़ी कठोर बात हो गई। यह तो बड़ी हिंसक बात हो गई। और बड़े तर्क आदमी खोज सकता है। तेरापंथियों ने बड़े तर्क खोजे हैं। वे कहते हैं, कोई आदमी कुएं में गिर पड़ा है तो उसे निकालना मत, क्योंकि अगर मान लो उसे तुमने निकाला और वह जाकर गांव में किसी की हत्या कर दे, तो तुम भी जुम्मेवार हुए हत्या में। क्योंकि न तुम निकालते न वह हत्या करता। तो असली जुम्मेवार तो तुम्हीं हो गये। तुम भी साझीदार हो गये। पाओगे फल इसका। सड़ोगे नरकों में।
इसलिए कोई आदमी गिर गया है, कुएं में गिर गया है, चिल्ला रहा है, तुम चुपचाप गुजर जाना। तुम दखल मत देना।
लेकिन यह साक्षी-पुरुष की बात न हुई। साक्षी-पुरुष की तो बात यही है: ‘जब कभी जो कुछ कर्म करने को आ पड़ता है।’ कोई कुएं में गिर पड़ा है तो वह बचा लेगा। ऐसा भी नहीं सोचता कि मेरे बचाने से यह बचता है। न ऐसा ही सोचता है कि यह कल हत्या कर देगा किसी की, तो मैं जुम्मेवार होता हूं। कर्ता तो वह अपने को मानता ही नहीं। उसने तो सारा कर्तृत्व परमात्मा पर छोड़ दिया है। अगर उसकी मर्जी होगी तो बच रहा है। उसकी मर्जी है, इसीलिए मैं कुएं के किनारे आ गया हूं। सामने स्थिति आ गई है, जो बन पड़े कर देता है--जो हो परिणाम हो।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठतः सुखम्।
और ऐसा जो हो जाये जब, वैसा करके सुख में प्रतिष्ठित रहता है। उसके सुख को कोई छीन नहीं सकता। उसके कोई आग्रह नहीं हैं। वह ऐसा नहीं कहता है कि मैं संन्यासी हूं, इसलिए इतना ही व्यवहार करूंगा; कि मैं गृहस्थ हूं, इसलिए ऐसा व्यवहार करूंगा; कि मैं ब्राह्मण हूं तो मैं ऐसा व्यवहार करूंगा। नहीं, उसके कोई आग्रह नहीं हैं। मुक्त भाव से जो परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, जो उस परिस्थिति में उसके चैतन्य में सहज स्फुरणा होती है, वैसा कर देता है। बात खतम हो गई। उसका कुछ लेखा-जोखा भी नहीं रखता। प्रभु जो करवा लेता कर देता। जिस बात में उपकरण बना लेता उसी में उपकरण बन जाता। लेकिन सदा याद रखता कि मैं निमित्त मात्र हूं।
यदा यत् कर्तुम् आयाति...।
जो आ जाये उसे कर लेना। जो स्फुरणा उठे, उसे हो जाने देना। सहज भाव से जीना। जीने के लिए कोई पहले से योजना मत रखना। जीवन पर कोई जबर्दस्ती का ढांचा मत बिठाना। जीवन में ‘ऐसा कर्तव्य है और ऐसा कर्तव्य नहीं है’ यह भी सोच कर मत चलना। मुक्त रहना। क्षण के लिए खुले रहना। क्षण जो जगा दे, जो उठा दे, उसको कर लेना और फिर भूल जाना और आगे बढ़ जाना। बोझ भी मत ढोना। इसको खींचना भी मत अपने सिर पर कि देखो मैंने एक आदमी को कुएं से बचा लिया; मर रहा था, मैंने बचाया! अतीत का बोझ मत ढोना, भविष्य की योजना मत रखना; वर्तमान में जो हो जाये।
यह ‘वर्तमान’ शब्द देखते हो, वर्तन से बना है! ‘जो यहां वर्तन में आ जाये’। अतीत तो वह है जो जा चुका, अब है नहीं। भविष्य वह है जो अभी आया नहीं। वर्तमान वही है जो वर्तन में आ रहा है। जो इस क्षण वर्तन हो रहा है, वही वर्तमान है।
सिर्फ साक्षी-पुरुष का ही वर्तमान होता है। तुम तो पीछे से चलते हो। तुम तो अतीत से प्रभावित होते हो। वह वर्तमान नहीं है। या तुम भविष्य से प्रभावित होते हो। तुम तो किसी आदमी को जयराम जी भी करते हो तो सोच लेते हो कि करना कि नहीं, यह किसी मतलब का है, मेयर होने वाला है कि मिनिस्टर होने वाला है, कभी काम पड़ेगा! तो तुम नमस्कार करते हो। नमस्कार भी तुम आगे की योजना से करते हो, या पीछे के हिसाब से, कि इसने पीछे साथ दिया था; वक्त पड़ा था, काम आया था--नमस्कार कर लो! तुम तो नमस्कार भी शुद्ध वर्तमान में नहीं करते।
साक्षी का पूरा जीवन वर्तमान में है। जो होता है बिना किसी कारण के, सहज भाव से।
यदा यत् कर्तुम् आयाति तत् सुखं कृत्वा।
और तब स्वभावतः सहज भाव में सुख उत्पन्न होता है। सहज भाव सुख है। सहज भाव में सुख के फूल लगते हैं।
तिष्ठतः धीरस्य।
और ऐसा जो धीरपुरुष है उसकी अपने में प्रतिष्ठा हो जाती है। उसका अपने में आसन जम जाता है। वह सम्राट हो जाता है, सिंहासन पर बैठ जाता है। सुख के सिंहासन पर, स्वयं के सिंहासन पर, शांति के, स्वर्ग के सिंहासन पर।
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ।
न तो प्रवृत्ति में उसे रस है न निवृत्ति में। न तो वह कहता है कि मैं संसारी हूं, न वह कहता मैं त्यागी हूं।
मेरे संन्यास का यही अर्थ है: न त्यागी न भोगी। सहज। मध्य में। कभी भोगी जैसा व्यवहार करना पड़े तो भोगी जैसा कर लेना, कभी त्यागी जैसा व्यवहार करना पड़े तो त्यागी जैसा कर लेना। लेकिन सदा मध्य को मत खोना, बीच में आ जाना। वह जो सम्यक दशा है मध्य की, उसी का नाम संन्यास है। ‘सम्यक न्यास’ अर्थात संन्यास। बीच में ठहर जाना। संतुलित हो जाना। सहज भाव में संतुलन संन्यास है। क्योंकि सहज भाव ही मध्य भाव है। वही स्वर्ण-सूत्र है।
ऐसे ये अनूठे सूत्र हैं। सुन कर ही मत समझ लेना पूरे हो गये। सुनने से तो यात्रा शुरू होती है। गुनना! खूब-खूब चूसना इन सूत्रों को। इनका स्वाद लेना। चबाना। पचाना। ये धीरे-धीरे तुम्हारे रक्त-मांस-मज्जा में मिल जायेंगे। और तब इनसे अपूर्व सुगंध उठेगी। ऐसी सुगंध, जो तुमने पहले नहीं जानी। और ऐसी सुगंध, जो तुम्हारे भीतर छुपी है। कस्तूरी कुंडल बसै! तुम्हारी कस्तूरी खुल जाये, तुम्हारी कस्तूरी प्रगट हो जाये कि परमात्मा फिर विजयी हुआ, तुममें फिर से जीता। फिर एक फूल खिला। फिर परमात्मा के लिए एक उत्सव का क्षण आया।
इन सूत्रों को सुनने में भी रस है, गुनने में तो बहुत महारस होगा। और जब तुम इन्हें जीयोगे तब तुम पाओगे जीवन का पूरा अर्थ, जीवन की पूरी निर्झरणी तुम्हें उपलब्ध हो जायेगी।
अमृत के द्वार खुल सकते हैं। और तुम द्वार पर खड़े हो, दस्तक देने की ही बात है।
जीसस ने कहा है: खटखटाओ और द्वार खुल जायेंगे।
फकीर हसन एक मस्जिद के सामने खड़ा चिल्ला रहा था कि प्रभु द्वार खोलो, मैं कब से बुला रहा हूं! एक दूसरी फकीर औरत राबिया निकलती थी पास से, उसने कहा: ‘हसन, बंद कर बकवास! द्वार बंद कहां हैं? द्वार खुले हैं, आंख खोल!’
राबिया ठीक कहती है। जीसस से भी ज्यादा ठीक है उसका वचन। जीसस कहते हैं: खटखटाओ और द्वार खुल जायेंगे। हसन वही तो कर रहा था। वह कह रहा था: हे प्रभु द्वार खोलो। और राबिया ने कहा: बंद कर बकवास, हसन। द्वार खुले हैं, आंख खोल। खटखटाने की भी कोई जरूरत नहीं है।
तुम मंदिर में विराजमान ही हो, भीतर जाने की भी कोई जरूरत नहीं। भीतर तुम हो। तुम जहां हो, वहीं सब उपलब्ध है। थोड़े जागो। तो द्वार खटखटाओ, इसका अर्थ अपने को थोड़ा खटखटाओ, अपने को थोड़ा झकझोरो। जैसे सुबह नींद से उठ कर झकझोरते हो, ऐसे इस संसार की नींद से अपने को झकझोरो। नहीं तो दुख ही दुख है; सार जरा भी नहीं। जागे तो ही सार है।
हरि ॐ तत्सत्!