ASHTAVAKRA
Maha Geeta 57
FiftySeventh Discourse from the series of 91 discourses - Maha Geeta by Osho. These discourses were given during SEP 11 - FEB 10 1977.
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अष्टावक्र उवाच।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
निष्कामः किंविजानाति किंब्रूते च करोति किम्।। 184।।
अयं सोऽहमयं नाहमिति क्षीणा विकल्पनाः।
सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णीभूतस्य योगिनः।। 185।।
न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढ़ता।
न सुखं न च वा दुःखमुपशांतस्य योगिनः।। 186।।
स्वराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभालाभे जने वने।
निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः।। 187।।
क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकिता।
इदं कृतमिदं नेति द्वंद्वैर्मुक्तस्य योगिनः।। 188।।
कृत्यं किमपि नैवास्ति न कापि हृदि रंजना।
यथा जीवनमेवेह जीवनमुक्तस्य योगिनः।। 189।।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम्।।
पहला सूत्र: ‘आत्मा ब्रह्म है और भाव और अभाव कल्पित है। यह निश्चयपूर्वक जान कर निष्काम पुरुष क्या जानता है, क्या कहता है और क्या करता है?’
समझना: ‘आत्मा ब्रह्म है ऐसा निश्चयपूर्वक जान कर...।’
जो भी किसी और के माध्यम से जाना वह कभी भी निश्चयपूर्वक नहीं होगा। भरोसा दूसरे पर किया तो भीतर गहरे में गैर-भरोसा बना ही रहेगा। विश्वास के अंतस्तल में संदेह सदा मौजूद रहता है। तुम लाख विश्वास करने की चेष्टा करो, संदेह से छुटकारा नहीं है। विश्वास का अर्थ ही होता है कि संदेह है और संदेह को दबाने की तुम चेष्टा में संलग्न हो। दबा सकते हो, मिटा नहीं सकते। भुला सकते हो, मिटा नहीं सकते।
और जितना संदेह दब जायेगा, एक बड़ी विपरीत स्थिति पैदा होती है: ऊपर-ऊपर विश्वास होता है, भीतर-भीतर संदेह होता है। शब्दों में विश्वास होता है, प्राणों में संदेह होता है। कहने की बात एक रह जाती है, होना बिलकुल ही विपरीत हो जाता है। इसी का नाम पाखंड है।
इसीलिए लोग कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं, सोचते कुछ हैं, जीवन में एकरसता नहीं। और जहां एकरसता न हो वहां संगीत कैसा! जहां वीणा के सब तार अलग-अलग जा रहे हों वहां संगीत कैसा! वहां शोरगुल होगा, संगीत नहीं हो सकता। लयबद्धता नहीं होगी, शांति नहीं होगी। सुख कहां!
पहला सूत्र है: ‘जिसने निश्चित रूप से जाना कि आत्मा ब्रह्म है...।’
किसने निश्चित रूप से जाना? कौन निश्चित रूप से जान लेता है?
इति निश्चित्यं...।
किसको हम कहेंगे कि इसे निश्चय हो गया? जिसे अनुभव हुआ। अनुभव में संदेह नहीं है। अनुभव ही संदेह से मुक्ति है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: हमारा आपमें दृढ़ विश्वास है। मैं कहता हूं, दृढ़? दृढ़ का अर्थ ही हुआ कि बड़ा सघन संदेह मौजूद है भीतर; नहीं तो दृढ़ता से किसको दबा रहे हो?
कोई जब कहता है कि मुझे तुमसे पूरा-पूरा प्रेम है तो जरा सावधान होना, क्योंकि पूरा प्रेम, तो पीछे क्या छिपा रहे हो? इस ‘पूरे’ में क्या छिपा है? इतना आग्रह करके क्यों कह रहे हो कि मुझे पूरा-पूरा प्रेम है, मुझे पूरा-पूरा विश्वास है, मुझे दृढ़ श्रद्धा है? इस आग्रह के पीछे, परदे के पीछे विपरीत मौजूद है। जितना बड़ा संदेह हो उतनी ही दृढ़ता चाहिए विश्वास की। मगर फिर भी संदेह मिटता नहीं।
इसलिए तो नास्तिक और आस्तिक में ऊपर से कितना ही फर्क हो, भीतर से फर्क नहीं होता। क्या भीतर से फर्क है? नास्तिक मंदिर नहीं जाता, नास्तिक परमात्मा को नमस्कार नहीं करता। तुम मंदिर जाते हो, पहुंचे कभी? तुमने नमस्कार किया, लेकिन नमस्कार उसके चरणों तक पहुंचा? तुम करते हो, नास्तिक नहीं करता है, लेकिन तुम्हारा करना भी कहां पहुंचता है? जीवन-व्यवहार में तो तुम बिलकुल एक जैसे हो। जीवन-व्यवहार में जरा भी भेद नहीं है। मुसलमान है, हिंदू है, ईसाई है, जैन है--जीवन-व्यवहार में जरा भी भेद नहीं है। ये सब श्रद्धाएं थोथी हैं, क्योंकि उधार हैं। निश्चित श्रद्धा किसकी होती है? जिसे अनुभव हुआ।
रामकृष्ण के पास केशवचंद्र मिलने गये। और केशवचंद्र ने कहा कि मेरा ईश्वर में भरोसा नहीं है! मैं विवाद करने आया हूं। मैं आपके भरोसे को खंडित कर दूंगा। आप मेरी चुनौती स्वीकार करें।
रामकृष्ण ने कहा: बहुत मुश्किल है। तुम यह कर न पाओगे। तुम्हारी हार निश्चित है। नहीं कि मैं विवाद कर सकता हूं। नहीं कि मेरे पास कोई तर्क है। मेरे पास कोई तर्क नहीं, लेकिन मैंने प्रभु को जाना है। तुम लाख खंडन करो, क्या फर्क पड़ता है? मैं फिर भी जानता हूं कि परमात्मा है। यह मेरा अपना निजी अनुभव है, तुम इसे छीन न सकोगे। यह मेरी श्वास-श्वास में समाया है। यह मेरे हृदय की धड़कन-धड़कन में व्यापा है। यह मेरे रोएं-रोएं की पुकार है, इसे तुम छीन न सकोगे। तुम्हारे तर्क का उत्तर मैं न दे पाऊंगा, केशवचंद्र। तुम बुद्धिमान हो, शास्त्रज्ञ हो, ज्ञानी हो, पंडित हो; मैं अपढ़ गंवार हूं--रामकृष्ण ने कहा। लेकिन उलझोगे तो गंवार से जीतोगे नहीं, क्योंकि मेरे कोई सिद्धांत थोड़े ही हैं, कोई विश्वास थोड़े ही हैं। ऐसा मेरा अनुभव है। तुम मेरे अनुभव को कैसे खंडित करोगे? जो मैंने जाना है उसे तुम कैसे अनजाना करवा दोगे? मैंने इन आंखों से देखा है। लाख दुनिया कहे, सारी दुनिया एक तरफ हो जाये और कहे कि ईश्वर नहीं है, तो भी मैं कहता रहूंगा, है। क्योंकि मैंने तो जाना है!
केशव तो नहीं माने, उन्होंने तो बड़ा विवाद किया। और रामकृष्ण उनके विवाद को सुनते रहे, एक भी तर्क का उत्तर न दिया। बीच-बीच में जब केशवचंद्र कोई बहुत गंभीर तर्क उठाते तो वे खड़े हो-हो कर केशवचंद्र को गले लगा लेते। केशवचंद्र बहुत बेचैन होने लगे, वह जो भीड़ इकट्ठी हो गयी थी देखने, केशवचंद्र के शिष्य आ गये थे कि बड़ा विवाद होगा, वे भी जरा बेचैन होने लगे। और केशवचंद्र को भी पसीना आने लगा। और केशवचंद्र ने कहा, यह मामला क्या है? आप होश में हैं? मैं आपके विपरीत बोल रहा हूं!
रामकृष्ण ने कहा कि तुम सोचते हो कि मेरे विपरीत बोल रहे हो। तुम्हें देख कर मुझे परमात्मा पर और भरोसा आने लगा है। जब ऐसी प्रतिभा हो सकती है संसार में तो बिना परमात्मा के कैसे होगी? तुम्हारी प्रतिभा अनूठी है। तुम्हारे तर्क बहुमूल्य हैं--बड़ी धार है तुम्हारे तर्कों में। यह प्रमाण है कि प्रभु है। यह तुम्हारा चैतन्य, यह तुम्हारा तर्क, ये तुम्हारे विचार, यह तुम्हारी प्रणाली--इस बात का सबूत है कि परमात्मा है। जब फूल लगते हैं तो सबूत है कि वृक्ष होगा। फूल लाख उपाय करें, वृक्ष को खंडित न कर पायेंगे। उनका होना ही वृक्ष का सबूत हो जाता है। फूल लाख गवाही दें अदालत में जा कर कि वृक्ष नहीं होते हैं, लेकिन फूलों की गवाही ही बता देगी कि वृक्ष होते हैं, अन्यथा फूल कहां से आयेंगे?
रामकृष्ण ने कहा: मैं तो गंवार हूं, मेरे पास तो कोई प्रतिभा का फूल नहीं है; तुम्हारे पास तो प्रतिभा का कमल है। मैं हजार-हजार धन्यवाद से भरा हूं। इसलिए उठ-उठ कर तुम्हें गले लगता हूं कि हे प्रभु, तूने खूब किया, केशवचंद्र को मेरे पास भेजा! तेरी एक झलक और मिली! तुझसे मेरी एक पहचान और हुई! एक नये द्वार से तुझे फिर देखा! अब तो कोई लाख उपाय करे केशव, तुम्हें देख लिया, अब तो कभी मान न सकूंगा कि ईश्वर नहीं है।
केशवचंद्र ने अपने स्मरणों में लिखा है कि जिस एक आदमी से मैं हार गया, वे रामकृष्ण हैं। इस आदमी से जीतने का उपाय न था। उस रात मैं सो न सका और बार-बार सोचने लगा, जरूर इस आदमी को कोई अनुभव हुआ है। कोई ऐसा प्रगाढ़ अनुभव हुआ है कि कोई तर्क उसे डगमगाते नहीं। इतना प्रगाढ़ अनुभव हुआ है कि तर्कों के माध्यम से भी, जो विपरीत तर्क हैं उनसे भी वही अनुभव सिद्ध होता है। नहीं, इस आदमी के चरणों में बैठना होगा। इस आदमी से सीखना होगा। इसे जो दिखाई पड़ा है वह मुझे भी देखना होगा। इसके पास आंख है, मेरे पास तर्क है। तर्क काफी नहीं। तर्क से कब किसी की भूख मिटी है! और तर्क से कब किसका कंठ तृप्त हुआ!
निश्चित जानने का अर्थ है रामकृष्ण की भांति जानना। निश्चित जानने का अर्थ है--विश्वास नहीं; अनुभव से आती है जो श्रद्धा, वही।
और जिसने विश्वास बना लिया, उसके भीतर श्रद्धा पैदा होने में बाधा पड़ जाती है। इसलिए उधार को तो काटो। बासे को तो हटाओ। पराये को तो त्यागो। कोई चिंता न करो। अगर सारे विश्वास हाथ से छूट जायें तो घबड़ाओ मत, क्योंकि उनके हाथ में होने से भी कुछ लाभ नहीं है। जाने दो। तुम उस शून्य में खड़े हो जाओ जहां कोई विश्वास नहीं होता, कोई विचार नहीं होता। और वहीं से बजेगी धुन। वहीं से उठेगा एक नया स्वर। उसी शून्य से व्याप्त होता है कुछ अनुभव जो तुम्हें घेर लेता है। उसी अनुभव में जाना जाता है।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य...।
आत्मा ब्रह्म है, ऐसा उस अनुभव में जाना जाता है जहां तुम्हारी सीमाएं गिर जाती हैं और असीम और तुम्हारे बीच कोई भेद-रेखा नहीं रह जाती। आत्मा ब्रह्म है, इसका अर्थ हुआ: बूंद सागर है। लेकिन यह कैसे बूंद जानेगी? बूंद गिरे नहीं तो जान सकेगी? बूंद सागर में गिरे तो ही जानेगी। बूंद कितनी ही पंडित हो जाये, महापंडित हो जाये; लेकिन जिस बूंद ने सागर में गिर कर नहीं देखा, उसे कुछ पता नहीं चलेगा कि बूंद सागर है। बूंद तो जब मिटती है तभी पता चलता है कि सागर है। तुम मिटते हो तभी ब्रह्म का पता चलता है। तुम तिरोहित हो जाते हो, तो ही ब्रह्म मौजूद होता है। तुम्हारी गैर-मौजूदगी उसकी मौजूदगी है। तुम्हारी मौजूदगी उसकी गैर-मौजूदगी है। तुम्हारे होने में ही ब्रह्म ‘नहीं’ हो गया है; तुम्हारे बिखरते ही पुनः हो जायेगा।
‘आत्मा ब्रह्म है, ऐसा निश्चित रूप से जिसने जान लिया...।’
इस निश्चित रूप से जानने के लिए शास्त्र में मत जाओ, शून्य में जाओ। शब्द में मत जाओ, निःशब्द में उतरो। विचारों के तर्कजाल में मत उलझो। मौन। मौन ही द्वार है। चुप्पी साधो। घड़ी दो घड़ी को रोज बिलकुल चुप हो जाओ। जब तुम्हारे मन में कोई भी बोलने वाला न बचेगा, तब जो बोलेगा वही ब्रह्म है। जब तुम अपने भीतर पाओगे सन्नाटा ही सन्नाटा है, कोई पारावार नहीं है सन्नाटे का, कहीं शुरू नहीं होता, कहीं अंत नहीं होता--सन्नाटा ही सन्नाटा है, उसी सन्नाटे में पहली दफे प्रभु की पगध्वनि तुम्हें सुनाई पड़ेगी, पहली दफा तुम उसका स्पर्श अनुभव करोगे। वह पास से भी पास है। तुम जब तक विचार से भरे हो, वह दूर से भी दूर।
उपनिषद कहते हैं: परमात्मा दूर से भी दूर और पास से भी पास। दूर से भी दूर, अगर तुम विचार से भरे हो। क्योंकि तुम्हारे विचार आंखों को ढांक लेते हैं। जैसे दर्पण पर धूल जम जाये और दर्पण पर कोई प्रतिबिंब न बने। या जैसे झील में बहुत लहरें हो जायें और चांद की झलक न बने। ऐसा जब तुम विचार से भरे हो तो तुम्हारे भीतर ‘जो है’ उसका प्रतिबिंब नहीं बनता।
निश्चित जानने का अर्थ है: तुम इतने शांत हो गये, दर्पण बन गये, झील मौन हो गयी, विचार सो गये, धूल हट गयी--तो जो है, उसका दर्पण में चित्र बनने लगा। वही है निश्चित जानना--जब तुम प्रतिबिंब बनाते हो और उस प्रतिबिंब में तुम जानते हो: बूंद सागर है।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
उस क्षण तुम्हें यह भी पता चलेगा कि भाव और अभाव मेरी कल्पनाएं थीं। कुछ मैंने सोचा था है, कुछ मैंने सोचा था नहीं है--दोनों झूठ थे। जो है उसका तो मुझे पता ही न था। मैं ही झूठ था, तो जो मैंने सोचा कि है, वह भी झूठ था; जो मैंने सोचा नहीं है, वह भी झूठ था।
ऐसा समझो कि एक रात तुमने सपना देखा। सपने में तुमने देखा कि सम्राट हो गये। बड़ा साम्राज्य है, बड़े महल हैं, स्वर्णों के अंबार हैं। और दूसरी रात तुमने सपना देखा कि तुम भिखारी हो गये, सब गंवा बैठे, राज्य खो गया, सब हार गये, जंगल-जंगल भटकने लगे, भूखे-प्यासे। एक रात तुमने सपना देखा राज्य है, एक रात तुमने सपना देखा राज्य नहीं है--क्या दोनों सपनों में कुछ भी भेद है? दोनों तुम्हारी कल्पनाएं हैं। भाव भी तुम्हारी कल्पना है, अभाव भी तुम्हारी कल्पना है। और जो है वह तुम्हें दिखाई ही न पड़ा। जिस रात तुमने सपना देखा सम्राट होने का, सपना तो झूठा था; लेकिन जो देख रहा था सपना, वह सच है। दूसरी रात सपना देखा भिखारी होने का। सपना तो फिर भी झूठा था, जो दिखाई पड़ रहा था वह तो झूठा था; लेकिन जिसने देखा, वह अब भी सच है। साम्राज्य देखा कि भिखमंगापन, देखनेवाला दोनों हालत में सच है। जो दिखाई पड़ा--भाव और अभाव--वे दोनों तो कल्पित हैं। सिर्फ द्रष्टा सच है, सिर्फ साक्षी सच है। और सब सपना है।
जैसे ही तुम शांत होओगे, ये दोनों प्रतीतियां एक ही साथ घट जाती हैं कि मैं नहीं हूं, ब्रह्म है। क्योंकि साक्षी एक ही है। मेरा साक्षी अलग और तुम्हारा साक्षी अलग, ऐसा नहीं। मेरा सपना अलग, तुम्हारा सपना अलग--निश्चित ही। लेकिन मेरा साक्षी और तुम्हारा साक्षी तो बिलकुल एकरूप हैं। साक्षी में कोई भेद नहीं।
ऐसा समझो, तुम यहां बैठे हो, अगर तुम सभी शांत और मौन हो कर बैठ गये हो कि किसी के भीतर विचार की कोई लहर नहीं उठती--तो यहां कितने आदमी बैठे हैं? यहां फिर आदमियों की गिनती नहीं की जा सकती। फिर तो यहां एक ही शून्य बैठा है। तुम एक शून्य में कितने ही शून्य जोड़ते जाओ, संख्या थोड़े ही बढ़ती है। दो शून्य भी मिल कर एक ही शून्य, तीन शून्य भी मिल कर एक ही शून्य, चार शून्य भी मिल कर एक ही शून्य। अनंत शून्य भी जोड़ते जाओ तो भी शून्य एक ही रहता है। शून्य में कहीं संख्या थोड़े ही बढ़ती है। लेकिन तुम बोले, दूसरा बोला, तो दो हो गये। बोले कि दो हुए, चुप हुए कि एक हुए। तुमने कुछ कहा कि तुम अलग हुए, किसी दूसरे ने कुछ कहा कि अलग हुआ। विचार आया कि भेद आया। शब्द आये कि शत्रुता आयी। तुमने कहा कि मैं हिंदू, मैंने कहा कि मैं मुसलमान--फर्क हो गया। तुमने कहा मैं बाइबिल मानता, मैंने कहा मैं कुरान--फर्क हो गया, विवाद आ गया। जहां विवाद आ गया वहां हम अलग-अलग हो गये। जहां निर्विवाद हम बैठे हैं चुप, वहां हम अलग नहीं; वहां एक ही बैठा है। जब तुम दौड़ते हो तो अलग-अलग, जब तुम बैठते हो तो एक ही रह जाता है। जब तुम सपने में होते हो तो भिन्न-भिन्न...।
तुमने एक मजा देखा! सपने में तुम अपने मित्र को निमंत्रित नहीं कर सकते, इतने अकेले हो जाते हो। रात सपना देखते हो, खूब अच्छा सपना भी देखो तो भी तुम अपनी पत्नी को अपने सपने में नहीं ले जा सकते। यह नहीं कह सकते कि तू भी आ जा, बड़ा सुंदर सपना है। कोई उपाय नहीं है। सपने में साझेदारी नहीं की जा सकती। दो आदमी एक ही सपना नहीं देख सकते। सपना इतना भिन्न कर देता है हमें! दो आदमी एक ही सपना नहीं देख सकते। कितना ही प्रेम उनके भीतर हो और कितना ही एक-दूसरे के साथ उनकी आत्मीयता हो, तो भी सपने में अलग हो जाते हैं। जैसे दो आदमी एक साथ सपना नहीं देख सकते, ऐसे ही साक्षी में दो आदमी दो नहीं रह सकते, एक हो जाते हैं। उस एक का नाम ब्रह्म है।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
और जो तुमने मान रखा है ‘है’ और जो तुमने मान रखा है ‘नहीं है’--वे दोनों ही कल्पना-जाल हैं। वह तुम्हारी कल्पना है। तुम सच हो, तुम्हारा होना परम सत्य है, लेकिन शेष सब कल्पना का जाल है। अब इसे तुम अष्टावक्र को सुन कर मान लोगे तो यह निश्चित ज्ञान न होगा। इसको तुम प्रयोग कर के जानोगे तो निश्चित ज्ञान हो जायेगा।
धर्म उतना ही प्रयोगात्मक है जितना विज्ञान। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए।
वैज्ञानिक कहते हैं: विज्ञान बड़ा प्रयोगात्मक, एक्सपेरिमेंटल है। मैं तुमसे कहता हूं: धर्म भी उतना ही प्रयोगात्मक है। विज्ञान और धर्म में प्रयोग को ले कर विवाद नहीं है। जो विरोध है वह प्रयोगशाला को लेकर है। विज्ञान की प्रयोगशाला बाहर है; धर्म की प्रयोगशाला भीतर है। विज्ञान प्रयोग करता है अन्य पर, धर्म प्रयोग करता है स्वयं पर। वैज्ञानिक टेबिल पर बिछा देता है किसी चीज को, उसका परीक्षण, उसका विश्लेषण करता है। धार्मिक अपने ही भीतर जाता है, अपने को ही बिछा देता है टेबिल पर, अपना ही परीक्षण करता है। धर्म है स्व-परीक्षा; विज्ञान पर-परीक्षा। विज्ञान है दूसरे को जानना, धर्म है स्व-ज्ञान--लेकिन प्रयोगात्मक है, एकदम प्रयोगात्मक है।
और तुमने अगर बिना प्रयोग किये कुछ मान लिया है तो उस कूड़े-कर्कट को हटाओ। उससे कुछ सार नहीं है। उससे तुम बोझिल हो गये हो। उससे तुम्हारा सिर भारी हो गया है। उससे पांडित्य तो मिल गया, मूढ़ता नहीं मिटी।
‘यह निश्चयपूर्वक जान कर निष्काम पुरुष क्या जानता है, क्या कहता है और क्या करता है?’
यह वचन बड़ा अनूठा है। सुनो--
निष्कामः किंविजानाति किं ब्रूते च करोति किम्।
जिस व्यक्ति ने ऐसा जान लिया कि ब्रह्म ही है, मैं नहीं हूं, उसकी सब वासना चली जाती है। चली ही जायेगी, चली ही जानी चाहिए।
पहली बात: तुम्हें साधारणतः समझाया गया है कि जब तुम्हारी वासना चली जायेगी, तब ब्रह्म तुम्हें मिलेगा। नहीं, बात थोड़ी उल्टी हो गयी। जब ब्रह्म मिल जाता है, तो ही वासना जाती है। तुमने जरा बैलगाड़ी में बैल पीछे बांध दिये, गाड़ी के पीछे बैल बांध दिये। वासना तो तब तक रहेगी जब तक तुम हो। रूप बदल ले, नये रास्ते पकड़ ले, यहां तक भी हो सकता है कि ब्रह्म को जानने की वासना बन जाये कि मैं ब्रह्म को जानूं, कि मैं मोक्ष को पाऊं--मगर यह भी वासना है। धन पाऊं--वासना। ध्यान पाऊं--वासना। संसार मिल जाये, मेरी मुट्ठी में हो--वासना। परमात्मा मिल जाये, मेरी मुट्ठी में हो--वासना। इस जीवन में सुख मिले--वासना। परलोक में सुख मिले, बहिश्त में, स्वर्ग में--वासना। वासना नये रूप ले सकती है, नये आयाम ले सकती है, नयी दिशाएं पकड़ सकती है, नये विषयों पर आधारित हो सकती है। मिटेगी नहीं। जब तक तुम हो, वासना रहेगी। क्योंकि तुम्हारी मौजूदगी में वासना की तरंगें उठती हैं। तुम्हारी मौजूदगी वासनाओं की तरंगों के लिए स्रोत है। जब तुम ही खो जाते हो तभी वासना खोती है।
तुम तो एक ही उपाय से खो सकते हो और वह यह है कि तुम मौन हो कर, यह भीतर कौन तुम्हारे विराजमान है इसको आंख में आंख डाल कर देखने लगो। तो जिन्होंने तुमसे कहा है, वासना को पहले खोओ, उन्होंने तुम्हें झंझट में डाल दिया; उन्होंने तुम्हारे जीवन में नयी वासनाओं को जन्म दे दिया--धार्मिक वासनाएं। मैं तुमसे कहता हूं, वासना तुम नहीं खो सकते, लेकिन विचार तुम खो सकते हो। और विचार को खो दिया तो तुम जानोगे कि मैं कहां, मैं कौन; वही है। जब वही है तो फिर वासना के लिए कोई कारण नहीं रह गया। जब मैं हूं ही नहीं तो बांस मिट गया, अब बांसुरी नहीं बज सकती। बांस ही न बचा तो बांसुरी कैसी!
वासना तो छाया है; जैसे तुम रास्ते पर चलते हो और छाया बनती है। तुम जा कर बैठ गये शांत, वृक्ष के नीचे, धूप में नहीं चलते, छाया बननी बंद हो गयी। जिस दिन अहंकार शांत हो कर बैठ जाता है, बैठते ही गिर जाता है, क्योंकि अहंकार दौड़ने में ही जीता है; बैठने में कभी जीता नहीं। अहंकार महत्वाकांक्षा में जीता है, भाग-दौड़, आपाधापी में जीता है, ज्वर में जीता है। अहंकार शांत बैठने में तो बिखर जाता है। तुम बैठ गये शांत छाया में, मौन हो गये, विचार न रहे, तुम न रहे, वासना भी गयी। इस घड़ी में अष्टावक्र का सूत्र कहता है: निष्काम हुआ पुरुष क्या जानता है?
तुम शायद सोचते होओगे: जब हम बिलकुल शांत हो जायेंगे तो कुछ जानेंगे। तो फिर जाननेवाला बना रहा। तो अभी तुम बिलकुल शांत नहीं हुए, पूरे शांत नहीं हुए, समग्र रूपेण शांत नहीं हुए। अब तुमने कुछ और बचा लिया; भोक्ता न रहे तो ज्ञाता बन गये।
अष्टावक्र कहते हैं, ऐसा पुरुष क्या जानेगा? जाननेवाला ही नहीं बचा तो अब जानने को क्या है? भेद नहीं बचा तो किसको जानेगा? क्या कहता है? ऐसा पुरुष क्या बोलेगा? ऐसा थोड़े ही है कि परमात्मा तुम्हें मिल जायेगा तो तुम कुछ बोलोगे और परमात्मा तुमसे कुछ बोलेगा। बोल खो जायेगा। अबोल हो जाओगे।
तुलसीदास और दूसरे कवियों ने कहा है कि परमात्मा जो मूक हैं उन्हें वाचाल कर देता; जो पंगु हैं उन्हें दौड़ने की सामर्थ्य दे देता है। अष्टावक्र ने उल्टी बात कही है और ज्यादा सही बात कही है। अष्टावक्र ने कहा है: जो बोलते हैं उन्हें मूक कर देता है; जो दौड़ते हैं उन्हें पंगु कर देता है; जो कर्मठ थे वे आलसी शिरोमणि हो जाते हैं।
वचन है: मूकं करोति वाचालम्। मूक को वाचाल कर देता है। पर इसी वचन को उल्टी तरफ से पढ़ा जाता है, पढ़ा जा सकता है। हम कह सकते हैं: मूक को वाचाल कर देते; मूकं करोति वाचाल। हम ऐसा भी पढ़ सकते हैं: मूकं, करोति वाचाल। वह जो वाचाल है उसको मूक कर देता है। वही ज्यादा सही है। वह जो बोलता है चुप हो जाता है। वह जो चलता है, रुक जाता है। वह जो आता-जाता है, अब कहीं आता-जाता नहीं, बिलकुल पंगु हो जाता है। कर्ता खो जाता, कर्म खो जाता।
‘समस्त तरह की लहरें स्थूल या सूक्ष्म विसर्जित हो जातीं। ऐसा पुरुष न तो कुछ जानता, न कुछ कहता, न कुछ करता।’
किं विजानाति किं बू्रते च किं करोति।
और यही परम ज्ञान की दशा है: जहां कुछ भी जाना नहीं जाता। क्योंकि न जानने वाला है, न कुछ जाना जाने वाला है। सुनते हैं यह विरोधाभासी वक्तव्य! यही परम ज्ञान की दशा है।
किं विजानाति किं ब्रूते...।
न कुछ कहा जाता, न कुछ कहा जा सकता।
किं करोति...।
करने को भी कुछ बचता नहीं। जो होता है होता है। जो हो रहा है होता रहता है।
कहते हैं, बुद्ध बयालीस साल तक लोगों को समझाते रहे। गांव-गांव जाते रहे। इतना बोले, सुबह से सांझ तक समझाते रहे। और एक दिन आनंद कुछ पूछता था तो आनंद से उन्होंने कहा कि आनंद तुझे पता है, बयालीस साल से मैं एक शब्द भी नहीं बोला हूं? आनंद ने कहा कि प्रभु किसी और को आप कहते तो शायद मान भी लेता। मैं बयालीस साल से आपके साथ फिरता हूं, मैं आपकी छाया की तरह हूं; मुझसे आप कह रहे हैं कि आप कुछ नहीं बोले! सुबह से सांझ तक आप लोगों को समझाते हैं।
बुद्ध ने कहा: आनंद, फिर भी मैं कहता हूं, तू स्मरण रखना, कि बयालीस साल से मैं एक शब्द नहीं बोला। आनंद ने कहा: गांव-गांव भटकते हैं, घर-घर, द्वार-द्वार पर दस्तक देते हैं। तो बुद्ध ने कहा: आनंद, मैं फिर तुझसे कहता हूं कि बयालीस साल से मैं कहीं आया-गया नहीं। आनंद ने कहा: आप शायद मजाक कर रहे हैं। मुझे छेड़ें मत।
लेकिन आनंद समझ नहीं पाया। यह तो आनंद जब स्वयं बुद्ध के विसर्जन के बाद, बुद्ध के निर्वाण के बाद ज्ञान को उपलब्ध हुआ तब समझा, तब रोया। तब रोते समय उसने कहा कि हे प्रभु, तुमने कितना समझाया और मैं न समझा। आज मैं जानता हूं कि बयालीस साल तक न तुम कहीं गये, न आये। और आज मैं जानता हूं कि बयालीस साल तक तुमने एक शब्द नहीं बोला।
किं विजानाति किं ब्रूते किं करोति।
तुमने कुछ भी नहीं किया।
जब अहंकार चला जाता है तो सब क्रियाएं चली जाती हैं। क्रिया मात्र अहंकार की है। जानना भी क्रिया है, बोलना भी क्रिया है, चलना भी क्रिया है, करना भी क्रिया है। सब चला जाता है।
तुम्हें भी अड़चन होगी, अगर मैं तुमसे कहूं कि मैं एक शब्द भी नहीं बोला। अभी बोल ही रहा हूं। और अगर कहूं कि एक शब्द भी नहीं बोल रहा हूं तो तुम्हें भी अड़चन होगी। तुम्हारी अड़चन भी मैं समझता हूं। क्योंकि तुमने अब तक जो भी किया है वह ‘किया’ है; तुमने जीवन में कुछ होने नहीं दिया। ये शब्द बोले जा रहे हैं; इन शब्दों को कोई बोल नहीं रहा है। जैसे वृक्षों पर पत्ते लगते हैं और वृक्षों पर फूल लगते हैं, ऐसे ये शब्द भी लग रहे हैं। इन्हें कोई लगा नहीं रहा। इनके पीछे कोई चेष्टा नहीं है, कोई प्रयास नहीं है, कोई आग्रह नहीं है। ये न लगें तो कुछ फर्क न पड़ेगा। ये लगते हैं तो कुछ फर्क नहीं पड़ता है। अचानक बोलते-बोलते अगर बीच में ही मैं रुक जाऊं तो कुछ फर्क न पड़ेगा। अगर शब्द न आया तो न आया।
कूलरिज मरा--अंग्रेजी का महाकवि--तो हजारों अधूरी कविताएं छोड़ कर मरा। मरने के पहले उसके एक मित्र ने पूछा कि इतनी कविताएं अधूरी छोड़े जा रहे हो! इन्हें पूरा क्यों न किया? तो कूलरिज ने कहा, मैं कौन था पूरा करने वाला! जितनी आयी उतनी आयी; उससे ज्यादा नहीं आयी तो नहीं आयी। तीन पंक्तियां उतरीं तो मैंने तीन पंक्तियां लिख दीं। मैं तो उपकरण था। चौथी पंक्ति नहीं आयी। पूरी चौपाई भी न बनी तो मैं क्या कर सकता था? जितना आया, आया।
केवल सात कविताएं पूरी करके कूलरिज ने जीवन भर में...सात कविताएं। लेकिन सात कविताओं के आधार पर महाकवि है। सात-सात हजार कविताएं लिखने वाले लोग भी महाकवि नहीं हैं। कुछ बात है कूलरिज की कविता में, कुछ पार की बात है, कुछ बड़े दूर की ध्वनि है। कोई अज्ञात उतरा है। कूलरिज नहीं बोला; परमात्मा बोला है।
यही अर्थ है जब हम कहते हैं कि वेद अपौरुषेय हैं, या हम कहते हैं कुरान उतरी। इसका मतलब समझ लेना। हिंदू-मुसलमान क्या दावे करते हैं, उससे मुझे मतलब नहीं है। उनके दावे का मैं समर्थन भी नहीं कर रहा हूं। लेकिन इसका अर्थ यही है। कुरान उतरी। मुहम्मद ने खुद बनायी नहीं; उतरता हुआ पाया। जब पहली दफा कुरान मुहम्मद पर उतरी तो वे बहुत घबरा गये। क्योंकि वे तो गैर-पढ़े-लिखे आदमी थे। उन्होंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा अपूर्व काव्य, और उतर आयेगा। इसकी कभी कल्पना भी न की थी, सपना भी न देखा था। यह तो उनके हिसाब-किताब के बाहर था। यह तो ऐसा ही समझो कि तुमने जिंदगी भर मूर्ति न बनायी हो और एक दिन अचानक तुम पाओ कि तुमने छैनी उठा ली है, हथौड़ी उठा ली है और तुम संगमरमर खराद रहे हो, संगमरमर को छैनी से काट रहे हो और तुम चौंको कि मैं यह क्या कर रहा हूं, मैं कोई मूर्तिकार नहीं हूं, मैंने कभी सोचा भी नहीं! मगर विवश, कोई अदम्य तुम्हें खींचे ले जाये और तुम न केवल इतना पाओ कि मूर्ति खोद रहे हो, तुम एक जगत की श्रेष्ठतम मूर्ति खोद दो, तो क्या तुम यह कह सकोगे कि मैंने खोदी? तुमने न तो कभी सीखा न तुमने सपना देखा। तुम्हारे मन में मूर्तियां तैरती ही न थीं।
मुहम्मद तो साधारण व्यक्ति थे, गैर-पढ़े-लिखे थे, काम से काम था। यह तो कभी सोचा भी न था। जब पहली दफा मुहम्मद पर कुरान उतरी और किसी अंतरआकाश में उन्हें सुनाई पड़ा कि गुनगुना, गा! तो वे बहुत घबरा गये। लिख! तो वे बहुत घबरा गये। क्योंकि वे तो लिखना भी नहीं जानते थे। भीतर आवाज आयी: नहीं लिख सकता, पढ़! तो उन्होंने कहा, मैं पढ़ना भी नहीं जानता। वे तो दस्तखत भी नहीं कर सकते थे। वे इतने घबरा गये कि उन्हें बुखार आ गया। समझा कि कोई भूत-प्रेत है या क्या मामला है? वे तो घर आ कर रजाई ओढ़ कर सो गये। पत्नी ने बोला, क्या हुआ? भले-चंगे गये थे, क्या हो गया? उन्होंने कहा, मत पूछ कुछ तू। वे तो दुबके पड़े रहे रजाई में, कंपते रहे और वह आवाज गूंजती रही, और वह आवाज रूप लेने लगी और कुरान की पहली आयत उतरने लगी। इसे मुहम्मद ने उतरते देखा। यह मुहम्मद से बिलकुल अलग है। इसका मुहम्मद से कुछ लेना-देना नहीं है। मुहम्मद तो जैसे बांस की पोंगरी हैं; कोई इसमें से गीत गाने लगा; किसी के स्वर इसमें भरने लगे। मुहम्मद ने तो जगह दे दी और जगह भी आश्चर्यचकित भाव में दी, कुछ पता ही नहीं कि यह क्या हो रहा है। इसके लिए कोई तैयारी न थी। यह महान कुरान उतरी। यह महाकाव्य उतरा।
इस अर्थ में कुरान अपौरुषेय है, मनुष्य की बनायी हुई नहीं है। ऐसे ही वेद उतरे। ऐसे ही बाइबिल उतरी। ऐसे ही उपनिषद उतरे। ऐसे ही धम्मपद उतरा। ऐसे ही महावीर की वाणी उतरी। नहीं, किसी ने कहा नहीं है। अस्तित्व बोला। विराट बोला। अज्ञात बोला।
निष्कामः किं विजानाति किं बू्रते च करोति किम्।
ऐसी वासनामुक्त दशा में जहां जान लिया गया कि आत्मा ब्रह्म है, फिर न तो कुछ कोई बोलता, न कुछ कोई जानता, न कुछ कोई करता; यद्यपि सब होता है--बोला भी जाता, किया भी जाता, जाना भी जाता।
‘सब आत्मा है ऐसा निश्चयपूर्वक जान कर शांत हुए योगी की ऐसी कल्पनाएं कि यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं, क्षीण हो जाती हैं।’
अयं सोऽहमयं नाहमिति क्षीणा विकल्पनाः।
सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णीभूतस्य योगिनः।।
सर्वं आत्मा!
ब्रह्म का अर्थ है: एक ही है। और सबमें एक ही है। पत्थर से ले कर परमात्मा तक एक का ही विस्तार है, एक की ही तरंगें हैं। जड़ से ले कर चैतन्य तक एक ही प्रगट हुआ है। अनेक-अनेक रूप धरे हैं, अनेक-अनेक भाव-भंगिमाएं हैं--मगर जिसकी हैं वह एक है।
सर्वं आत्मा!
सब आत्मा है।
इति निश्चित्य...।
ऐसा जिसने निश्चयपूर्वक जाना, अनुभव किया, स्वाद लिया! सिर में ही न घूमी ये बातें, हृदय में उतर गयीं; ऊपर-ऊपर से न चिपकायी गयीं, भीतर से अंकुरण हुआ, उदभव हुआ!
तूष्णीभूतस्य योगिनः।
ऐसा व्यक्ति परम शांति को उपलब्ध हो जाता है, परम विश्राम को।
तुमने खयाल किया? मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि ‘बड़ी अशांति है, शांत कैसे हो जायें? कोई शांति का रास्ता बता दें।’ वे कोई सस्ता रास्ता चाहते हैं। वे कुछ ऐसा रास्ता चाहते हैं कि जैसे वे हैं वैसे बने भी रहें और शांत हो जायें। धन के पीछे दौड़ रहे हैं तो दौड़ते रहें। सच तो यह है शायद शांत इसीलिए होना चाहते हैं ताकि धन के पीछे और ठीक से दौड़ सकें। रात नींद नहीं आती तो सुबह से दूकान में दौड़-धूप उतनी नहीं हो पाती जितनी हो सकती थी; विश्राम ही नहीं हो पाया तो श्रम कैसे हो?
आदमी शांत भी होना चाहता है तो सिर्फ इसीलिए ताकि वह जो अशांति का व्यापार चला रहा है, व्यवसाय चला रहा है, उसको वह ठीक से चला सके।
अगर मैं उनसे कहता हूं कि शांत तो तुम तब तक न हो सकोगे जब तक तुम हो, तो वे कहते हैं कि फिर अपने वश के बाहर है! शांति वे चाहते हैं किसी वस्तु की तरह उनमें जुड़ जाये। वे जैसे हैं, वैसे के वैसे रहें; शांति और आ जाये और उनमें जुड़ जाये। जैसे हम एक वस्तु खरीद लाते हैं बाजार से। नयी टेबिल खरीद लाये कि टेलिविजन खरीद लाये। पुराना मकान है, पुराना घर, पुरानी पत्नी, पुराने बच्चे, सब पुराना, हम पुराने, सब पुराना, एक टेलिविजन खरीद लाये, उसको भी उसी कमरे में रख दिया। लोग चाहते हैं ऐसी शांति आ जाये, कि ऐसा ज्ञान आ जाये।
नहीं, सब पुराना जायेगा तो ही शांति आ सकती है। शांति तो तुम्हारे चले जाने की अवस्था है। जहां से तुम तिरोहित हो गये। जब तक तुम हो, तुम उपद्रव करते ही रहोगे। उपद्रव तुम्हारा स्वभाव है। उपद्रव अहंकार का स्वभाव है। अहंकार रोग है।
तूष्णीभूतस्य योगिनः।
जिसने जान लिया कि एक ही है, वही शांत हो पाता है; वही उस परम विश्रांति को उपलब्ध होता है जहां कोई तनाव नहीं रह जाता।
तनाव क्या है? तनाव यह है...तनाव को समझें। दूसरा दुश्मन है--यह तो तनाव पहला। दूसरा है, यह मान लेने से ही उपद्रव शुरू हो गया। तो फिर दूसरा छीन-झपट करेगा, प्रतिस्पर्धा करेगा, संघर्ष करना होगा। दूसरा है तो युद्ध है और दूसरा है तो दुश्मनी है। दूसरा है तो तुम अकेले नहीं हो। तुम जिन वासनाओं के पीछे दौड़ रहे, दूसरे भी दौड़ रहे हैं। तुम्हीं थोड़े ही राष्ट्रपति होना चाहते हो, साठ करोड़ भारतवासी राष्ट्रपति होना चाहते हैं। पद एक है और साठ करोड़ उम्मीदवार हैं, तो हर एक आदमी के खिलाफ बाकी साठ करोड़ जो बचे हैं, वे इसके दुश्मन हैं। जहां दूसरा है वहां दुश्मनी है। और जब दूसरा है तो फिर अपनी आत्मरक्षा का उपाय भी करना होगा। तो भय है, घबड़ाहट है, सुरक्षा करनी है। तुम सुरक्षा करते हो तो दूसरा भी डर जाता है।
तुमने देखा, पाकिस्तान खरीद ले अमरीका से हवाई जहाज कि हिंदुस्तान घबड़ाया कि बस शोरगुल मचा। तो खरीदो रूस से जल्दी या कुछ इंतजाम करो। इधर हिंदुस्तान ने खरीदा कि उधर पाकिस्तान घबराया कि अरे, और इंतजाम करो! कोई इसकी फिक्र ही नहीं करता कि जब तुम दूसरे से घबड़ा कर इंतजाम करने लगते हो तो दूसरा भी तुमसे घबरा कर इंतजाम करने लगता है। दुष्ट चक्र पैदा होता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक राह से गुजर रहा था। सांझ का वक्त था, धुंधलका था। और उसने एक किताब पढ़ी थी और किताब में डाकुओं और हत्यारों की बात थी। कुछ होगी पुराने जासूसी ढंग की किताब, भूत-प्रेत, तिलिस्मी। वह घबड़ाया हुआ था, किताब की छाया उसके सिर पर थी। और उसने देखा कि लोग चले आ रहे हैं। उसने कहा, मालूम होता है दुश्मन। और बैंड-बाजे भी बजा रहे हैं, हमला हो रहा है। घोड़े पर चढ़ा आ रहा है कोई आदमी और तलवार लटकाये हुए। वह तो एक बारात थी। मगर वह बहुत घबड़ा गया। उसने देखा, यहां तो कुछ उपाय भी नहीं है। पास ही एक कब्रिस्तान था, तो घबड़ा कर दीवाल छलांग कर कब्रिस्तान में पहुंच गया। वहां एक नयी-नयी कब्र खुदी थी। अभी मुर्दा लाने लोग गये होंगे कब्र खोदकर, तो वह उसी में लेट गया। उसने सोचा कि मुर्दे की कौन झंझट करता है।
लेकिन उसको ऐसा छलांग लगा कर देख कर, छाया को उतरते देख कर बाराती भी घबड़ा गये कि मामला क्या है! अचानक एक आदमी छलांग लगाया, भागा--वे भी देख रहे हैं। वे भी घबड़ा गये, उन्होंने भी बैंड-बाजे बंद कर दिये। जब बैंड-बाजे बंद कर दिये तो मुल्ला ने कहा मारे गये! देखे गये! वह बिलकुल सांस रोक कर पड़ा रहा। वे भी आहिस्ता से धीरे-धीरे दीवाल के ऊपर आ कर झांके। जब बारातियों ने दीवाल के ऊपर झांका, उसने कहा: हो गया खात्मा समझो! अब पत्नी-बच्चों का मुंह दुबारा देखने न मिलेगा। और जब उसको उन्होंने देखा कि वह आदमी, बिलकुल जिंदा आदमी अभी गया और नयी-नयी खुदी कब्र में बिलकुल मुर्दे की तरह लेटा। उन्होंने कहा, कोई जालसाजी है। यह आदमी हमला करेगा, बम फेंकेगा या क्या करेगा! तो वे सब आये लालटेनें ले कर, मशालें जला कर खड़े हो गये चारों तरफ।
अब मुल्ला कब तक सांस रोके रहे! आखिर सांस सांस ही है। थोड़ी देर रोके रहा, फिर उठ कर बैठा गया। उसने कहा, अच्छा भाई कर लो जो करना है। उन्होंने कहा, क्या करना, क्या मतलब? तुम क्या करना चाहते हो? तब उसकी समझ में आया। उन बारातियों ने पूछा कि तुम यहां क्या कर रहे हो? तुम इस कब्र में क्यों लेटे हुए हो? तो नसरुद्दीन ने कहा, हद हो गयी। मैं तुम्हारी वजह से यहां हूं और तुम मेरी वजह से यहां हो! और बेवजह सारा मामला है। जब उसने देखा लालटेन वगैरह, ज्योति में कि यह तो बारात है, दूल्ला-वूल्हा सजाये है, कहीं कोई हमला करने नहीं जा रहे हैं। अपना वहम है।
तुमने देखा? पड़ोसी कुछ करने लगे तो तुम तैयारी करने लगते हो। तुम कुछ करने लगे तो पड़ोसी तैयारी करने लगता है। दुनिया में आधे संघर्ष तो इसीलिए हो रहे हैं कि भय है। तुम घर लौटते--ऐसा कोई राष्ट्रों में हो रहा है, ऐसा नहीं है--तुम घर लौटते, तुम रास्ते में ही तैयारी करने लगते कि पत्नी क्या कहेगी, जवाब क्या देना है! तुम तैयारी करने लगे। पत्नी भी घर तैयारी कर रही है कि अच्छा, पांच बज रहा है, पति लौटते होंगे; देखें क्या उत्तर ले कर आ रहे हैं! वह भी तैयारी करने लगी। दोनों तैयार हैं।
दूसरे से बचने का भय तुम्हें और सिकोड़ जाता है, तनाव से भर जाता है, असुरक्षित कर जाता है। सारा जीवन इस कलह में बीत जाता है। छोटी कलह, बड़ी कलह, जातियों की, धर्मों की, राष्ट्रों की--मगर कलह एक ही है।
‘सब आत्मा है ऐसा जिसने निश्चयपूर्वक जाना, वह हो गया शांत।’
तूष्णीभूतस्य योगिनः।
वही है योगी। जिसने यह जान लिया कि एक ही है, फिर क्या भय है! तुममें भी मैं ही हूं, तो फिर क्या प्रश्न, फिर किससे संघर्ष?
डार्विन का सिद्धांत है: संघर्ष। और पूरब के समस्त ज्ञानियों का सिद्धांत है: समर्पण। और डार्विन कहता है: जो सबलतम हैं वे बचे रहते हैं। सरवाइवल ऑफ दि फिटेस्ट। और पूरब के ज्ञानी कुछ और कहते हैं। पूछो लाओत्सु से, पूछो अष्टावक्र से, पूछो बुद्ध से, महावीर से; वे कुछ और कहते हैं। वे कहते हैं: जो कोमल है वही बच रहता है। जो प्रेमपूर्ण है वही बच रहता है। स्त्रैण तो बच रहता है, कठोर तो हार जाता है।
लाओत्सु कहता है: गिरती है जल की धार पहाड़ से कठोर चट्टान पर। ऊपर से तो देखने में यही लगेगा कि चट्टान जीतेगी, धार हारेगी। धार तो कोमल है, चट्टान तो मजबूत है। अगर डार्विन सच था तो धार हारनी थी, चट्टान जीतनी थी। लेकिन लाओत्सु सच मालूम होता है। धार जीत जाती है, चट्टान हार जाती है। कुछ वर्षों बाद तुम पाओगे चट्टान तो रेत हो कर बह गयी, धार अपनी जगह है।
कोमल जीतता है, कठोर हारता है। निरहंकारी जीतता है, अहंकारी हारता है। अहंकारी चट्टान की तरह है, निरहंकारी जल की धार है।
इसे ऐसा कहें, जो लड़ता वह हारता। जो हारता वही जीतता। जो हारने को राजी है उसका अर्थ ही यह है कि वह कहता है तुम भी मैं ही हो।
कभी तुमने देखा, अपने छोटे बेटे से तुम कुश्ती लड़ते हो तो तुम जीतते थोड़े ही हो। बेटे से जीतोगे तो मुहल्ले के लोग भी हंसेंगे, यह क्या नासमझी की बात की तुमने! जरा-से बेटे से जीत कर उसकी छाती पर बैठ गये। नहीं, बाप जब बेटे से लड़ता है तो बस हारने के लिए लड़ता है। ऐसा थोड़ा...ऐसा भी नहीं कि एकदम से लेट जायें, नहीं तो बेटे को भी मजा नहीं आयेगा। वह कहेगा, यह क्या मामला है! क्या धोखा दे रहे? तो थोड़ा हाथ-पैर चलाता है, बल दिखलाता है, धमकाता है, लेकिन फिर लेट जाता है। बेटा छाती पर बैठ कर प्रसन्न होता है और कहता है जीत गये! बेटा अपना है तो हारने में डर क्या। अपने बेटे से कौन नहीं हारना चाहेगा!
उपनिषद के गुरुओं ने कहा है: गुरु तभी प्रसन्न होता है जब शिष्य से हार जाता है। अपने शिष्य से कौन नहीं हारना चाहेगा? कौन गुरु न चाहेगा कि शिष्य मुझसे आगे निकल जाये--वहां पहुंच जाये जहां मैं भी नहीं पहुंच पाया! जब अपना ही है तो हार का मजा है। पराये से हम जीतना चाहते हैं, अपने से थोड़े ही जीतना चाहते हैं। अगर यह मेरा ही विस्तार है, अगर मैं इस विस्तार का ही एक हिस्सा हूं, अगर तुम और मेरे बीच कोई फासला नहीं है, एक ही चेतना का सागर है, तो फिर कैसी हार, कैसी जीत, फिर कैसा संघर्ष! और जहां संघर्ष न रहा वहां शांति है। शांति लायी नहीं जाती; संघर्ष के अभाव का नाम शांति है।
तूष्णीभूतस्य योगिनः।
और वही है योगी जो इस भांति शांत हुआ। ऐसे बैठ गये पालथी मार कर, आंख बंद करके, जबर्दस्ती अपने को किसी तरह संभाल कर शांत किये बैठे हैं--यह कोई शांति नहीं है। यह तो सिकुड़ जाना है। मुर्दे की तरह बैठ गये अकड़ कर, किसी तरह अपने को समझा-बुझा कर, बांध-बूंध कर शांत कर लिया--यह कोई शांति नहीं है। वास्तविक योगी तो विश्राम को उपलब्ध हो जाता है, विराम को उपलब्ध हो जाता है। वह तो अपने को छोड़ देता, निमज्जित कर देता, बूंद सागर में गिर जाती है।
इति विकल्पनाःअयं सः अहं अयं न क्षीणाः।
‘यह मैं हूं, यह मैं नहीं हूं--ऐसी सब कल्पनाएं योगी की सदा के लिए क्षीण हो जाती हैं।’
यह कहना कि यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं, भेद खड़ा करना है, जब कि एक ही है, तो किसी को कहना मैं और किसी को कहना तू, भेद खड़ा करना है; विकल्पना है, तुम्हारी धारणा है। और देखना, भय से भूत खड़े हो जाते हैं। खयाल पैदा हो जाये तो बस...।
मेरे गांव में मैं जब कभी-कभी जाता, तो एक सज्जन को मैं जानता था जो सदा बात करते कि मैं भूत-प्रेत से बिलकुल नहीं डरता। उनसे मैं इतनी दफे सुन चुका--स्कूल में शिक्षक हैं--कि मैंने उनसे कहा कि तुम जरूर डरते होओगे। तुम बार-बार कहते हो कि मैं भूत-प्रेत से नहीं डरता। कोई कारण भी नहीं होता तब भी तुम कहते हो कि भूत-प्रेत से नहीं डरता। तुम जरूर डरते होओगे। मैंने कहा कि मैं भूत-प्रेत जानता हूं, एक जगह हैं। अगर तुम्हारी सच में हिम्मत हो तो तुम चले चलो। अब वे सदा कहते थे। तो घबड़ाये तो बहुत। उनके चेहरे से तो बहुत घबड़ाहट मालूम पड़ी। लेकिन अब अहंकार का मामला था। उन्होंने कहा, मैं डरता ही नहीं, कहां है?
तो मेरे पड़ोस में ही एक गोडाउन, जहां एक कैरोसिन तेल बेचने वाले के टीन के डब्बे इकट्ठे रहते थे। खाली डब्बे गर्मी के दिन में सिकुड़ते और आवाज करते। और डब्बों की कतार लगी है उस घर में। तो मैंने उनसे कहा, बस तुम इसमें रात भर रह जाओ। घबड़ाये तो वे बहुत, क्योंकि उसमें वर्षों से कोई नहीं रहा है। उसमें डब्बे ही भरे रहते हैं वहां। कहने लगे, क्या आपको पक्का है कि यहां भूत-प्रेत हैं? मैंने कहा, पक्का है ही और तुम खुद अनुभव करोगे कि जब भूत-प्रेत एक डब्बे में से दूसरे में जाने लगेंगे, तब तुम्हें पता चलेगा। घबड़ाना मत। और अगर कोई बहुत घबड़ाहट की बात हो जाये तो मैं एक घंटा टांग जाता हूं, इसको तुम बजा देना। तो मैं आ जाऊंगा और पास-पड़ोस के लोग आ जायेंगे, तुम्हें बचा लेंगे, तुम घबड़ाना मत।
उन्होंने कहा, घबड़ाता ही नहीं मैं। तो मैंने कहा, फिर घंटा ले जाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा, घंटा तो रख ही लेना चाहिए।
‘तुम घबड़ाते ही नहीं तो घंटे का क्या करोगे?’
‘अब वक्त-बेवक्त की कौन जानता है!’
मगर उनके हाथ-पैर कंपने लगे। मैं उन्हें छोड़ कर ही आया, कोई आधा ही घंटा नहीं हुआ होगा, शाम ही थी, साढ़े आठ-नौ बजे होंगे, कि उन्होंने जोर से घंटा बजाया। क्योंकि जैसे ही सांझ होती है और तापमान बदलता है तो दिन भर के तपे हुए डब्बे फैल जाते हैं और रात को सिकुड़ते हैं। जैसे ही सिकुड़ते कि आवाज होनी शुरू होती। अब उनको कल्पना तो पक्की थी और अकेले थे वहां, तो उन्होंने खूब कल्पना कर ली होगी अपने को संभालने के लिए, कि कोई कुछ नहीं कर सकता है, यह...। और जब उन्होंने सुना निकलने लगे भूत, एक डब्बे में से दूसरे में जाने लगे, घंटा बजाया। मैं पहुंचा। मुझे पता ही था कि घंटा बजेगा ही थोड़ी-बहुत देर में। ज्यादा देर नहीं लग सकती, क्योंकि वे भूत-प्रेत तो निकलेंगे ही। वे छज्जे पर खड़े हैं। उनको मैं कहूं कि आप अंदर से आ कर दरवाजा खोलो, क्योंकि दरवाजा भीतर से तुम ही लगा गये हो। मगर उनकी इतनी हिम्मत नहीं कि वे उस कमरे में से गुजर सकें जहां से भूत-प्रेत निकल रहे हैं। और उनकी घिग्घी भी बंद हो गयी। वे बोल भी न सकें। सीढ़ी लगा कर उनको नीचे उतारना पड़ा।
मैंने उनसे पूछा, बोलते क्यों नहीं? उन्होंने कहा, क्या खाक बोलूं? किसी तरह आधा घंटा बर्दाश्त किया है। अब भूल कर कभी नहीं यह कहूंगा कि...। भूत-प्रेत होते हैं। अपना प्रत्यक्ष अनुभव अब मुझे हुआ। मैंने उन्हें लाख समझाया कि कोई भूत-प्रेत नहीं हैं। चलो मैं तुम्हारे साथ चलता हूं। तुम्हें सब राज समझाये देता हूं। उन्होंने कहा, छोड़ो, अब इस मकान में मैं दुबारा नहीं जा सकता हूं।
मैं फिर गांव जब भी जाता हूं उनसे पूछता हूं कि क्या खयाल है? उन्होंने कहा कि मैंने वह बात ही छोड़ दी।
तुम्हारी कल्पना तुम आरोपित कर ले सकते हो--किसी भी चीज पर आरोपित कर ले सकते हो। और विकल्पना का बड़ा बल है। तुम एक स्त्री को सुंदर मान लेते हो, बस वह सुंदर हो जाती है। तुम धन में कुछ देखने लगते हो, दिखाई पड़ने लगता है। तुम पद में कुछ लोलुप हो जाते हो, वासना वहां जुड़ जाती है, विकल्पना जाल फैलाने लगती है। तुम कितनी बार नहीं बैठे-बैठे कल्पना करने लगते हो कि सफल हो गये, चुनाव जीत गये, अब जुलूस निकल रहा है, अब लोग फूलमालाएं पहना रहे हैं! बैठे अपने-अपने घर में हैं, लेकिन यह कल्पना चल रही है। कितनी बार नहीं तुम शेखचिल्ली हो जाते हो! ज्ञानी कहते हैं कि हमारा सारा जीवन शेखचिल्लीपन है। हमने कुछ कल्पनाएं बना रखी हैं। उन कल्पनाओं को हमने इतना बल दे दिया है, अपने प्राण उनमें उंडेल दिये हैं, उन पर इतना भरोसा कर लिया है कि वे वास्तविक मालूम होती हैं। वास्तविक हैं नहीं।
बच्चा जब पैदा होता है तो शून्य की तरह पैदा होता है। उसे कुछ पता नहीं होता। हम उसे सिखाते हैं कि यह तेरा शरीर। मान्यता पैदा होती है। वह सीख लेता है कि यह मेरा शरीर। हम उसे सिखाते हैं चरित्र, हम उसे सिखाते हैं अहंकार कि ‘देख तू किस कुल में पैदा हुआ! देख, स्कूल में प्रथम आना। इसमें कुल की प्रतिष्ठा है। सबसे आगे रहना! चरित्र बनाना, अपने को विभूषित करना सुंदर गुणों से।’ धीरे-धीरे धीरे-धीरे यह निरंतर जो सम्मोहन चलता है, बच्चा भी मानने लगता है कि मैं कुछ विशिष्ट हूं, मैं कुछ हूं, विशेष घर में पैदा हुआ, विशेष परिवार में पैदा हुआ, विशेष धर्म में पैदा हुआ, विशेष देश में पैदा हुआ, राष्ट्र का गौरव हूं, और-और इस तरह की सब बातें--देह हूं, मन हूं--ये सब बातें गहन होती चली जाती हैं।
निरंतर पुनरुक्ति से झूठ भी सच हो जाते हैं। बार-बार दोहराने से कोई भी बात सच मालूम होने लगती है। और एक बार तुम्हें सच मालूम होने लगे कि बस तुम उसके गिरफ्त में आ गये।
‘सब आत्मा है, ऐसा निश्चयपूर्वक जान कर शांत हुए योगी की ऐसी कल्पनाएं कि यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं, क्षीण हो जाती हैं।’
तुम न तो देह हो, न तो मन हो। तुम इन दोनों के पार हो। न तुम हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न तुम स्त्री, न तुम पुरुष, न तुम भारतीय, न तुम चीनी, न तुम जर्मन। न तुम गोरे न तुम काले। न तुम जवान न तुम बूढ़े। तुम इन सबके पार हो। वह जो इन सब के पार छिपा देख रहा है--वही हो तुम। उस साक्षी के सत्य को जितना ही तुम अनुभव कर लो, जितना निश्चयपूर्वक अनुभव कर लो, उतने ही शांत हो जाओगे।
‘उपशांत हुए योगी के लिए न विक्षेप है और न एकाग्रता है, न अतिबोध है और न मूढ़ता है, न सुख है न दुख है।’
इस सूत्र को खयाल में लेना: ‘उपशांत’। इस तरह शांत हो गये योगी के लिए। जिसने अहंकार की विकल्पनाएं छोड़ दीं। जिसने अपने सब तरह के तादात्म्य छोड़ दिये हैं। जो अब नहीं कहता कि यह मैं हूं और जो तू से अपने को अलग नहीं करता, ऐसे उपशांत हुए योगी के लिए न विक्षेप है, अब उसे कोई चीज ‘डिस्ट्रेक्ट’ नहीं करती। अब कैसे उसे कोई चीज विक्षेप बन सकती है?
तुम बैठे। तुम कहते हो, मैं ध्यान करने बैठा और पत्नी ने बर्तन गिरा दिया चौके में और विक्षेप हो गया। ध्यान भंग हो गया। यह ध्यान नहीं था अगर यह भंग हो गया। कि बच्चा चिल्ला दिया, कि राह से कोई ट्रक निकल गया, कि हवाई जहाज गुजर गया ऊपर से--इससे बड़ी विघ्न-बाधा पड़ गयी। अगर विघ्न-बाधा पड़ गयी तो यह ध्यान नहीं था। तुम किसी तरह अपने को संभाल कर बैठे थे जबर्दस्ती; जरा-सी चोट, कि तुम्हारी जबर्दस्ती टूट गयी। यह कोई ध्यान नहीं था।
ध्यान की अवस्था तो शून्य की अवस्था है; विक्षेप हो कैसे सकता है? शून्य में कहीं कोई विक्षेप होता है? कोई विघ्न-बाधा पड़ती है? तुम अगर शांत बैठे थे, वस्तुतः उपशांत हो कर बैठे थे तो पत्नी गिरा देती बर्तन, बर्तन की आवाज गूंजती, तुम्हें सुनाई पड़ती, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। सुनाई पड़ती जरूर, क्योंकि कान तो हैं तुम्हारे, कान तो नहीं समाप्त हो गये। शायद और भी अच्छी तरह से सुनाई पड़ती, क्योंकि तुम बिलकुल शांत बैठे थे, सूई भी गिरती तो सुनाई पड़ती। लेकिन आवाज गूंजती। जैसे खाली मकान में आवाज गूंजती है, फिर विलीन हो जाती है--ऐसे तुम्हारे खालीपन में आवाज आती, गूंजती, विदा हो जाती; तुम जैसे थे वैसे ही बैठे रहते। तुम्हारा शून्य जरा भी न कंपता। शून्य कंपता ही नहीं; सिर्फ अहंकार कंपता है। सिर्फ अहंकार पर चोट लगती है। अहंकार तो एक तरह का घाव है, उस पर चोट लगती है। जरा कोई छू दे तो चोट लगती है। इसको खयाल में लेना।
‘न तो कोई विक्षेप है और न कोई एकाग्रता है।’
यह बड़ा अनूठा वचन है! साधारणतः तुम सोचते हो ध्यान का अर्थ: एकाग्रता। ध्यान का अर्थ एकाग्रता या कनसंट्रेशन नहीं है। क्योंकि अगर एकाग्रता करोगे तो विक्षेप होगा, बाधा पड़ेगी। तुम अगर बैठे थे अपना ध्यान लगाये राम जी की प्रतिमा पर और कोई कुत्ता भौंक गया, बस गड़बड़ हो गयी। क्योंकि वह कुत्ते का भौंकना तुम्हें सुनाई पड़ेगा न! जितनी देर कुत्ते का भौंकना सुनाई पड़ा, उतनी देर राम पर से ध्यान हट गया। एक क्षण को भूल गये। तुम अपनी माला फेर रहे थे और फोन की घंटी बजने लगी। एक सेकेंड को चित्त फोन की घंटी पर चला गया, माला हाथ से चूक गयी। चाहे हाथ फेरता भी रहे, लेकिन भीतर तो चूक गयी। तुम दुखी हो गये कि यह तो विक्षेप हो गया, बाधा पड़ गयी।
ध्यान एकाग्रता नहीं है। ध्यान तो जागरूकता है।
तुम बैठे थे, कुत्ता भौंका तो वह भी सुनाई पड़ा। घंटी बजी टेलीफोन की, वह भी सुनाई पड़ी। जब कुत्ता भौंका तो ऐसा विचार नहीं पैदा हुआ भीतर कि कुत्ते को नहीं भौंकना चाहिए। तुम कौन हो कुत्ते को रोकने वाले? तुम्हें कुत्ता नहीं रोक रहा ध्यान करने से! कुत्ता नहीं कहता कि तुम्हारे ध्यान करने से बड़ा विक्षेप पड़ता है, कि हमें भौंकने में बाधा आती है। बंद करो ध्यान इत्यादि, क्योंकि इससे हमें भौंकने में थोड़ा अपराध भाव मालूम पड़ता है कि भौंकते हैं तो विक्षेप पड़ेगा। तुम हमारी स्वतंत्रता पर बाधा डाल रहे हो यहां बैठ कर, आंख बंद करके, आसन लगा कर।
नहीं, कुत्ते को तुम्हारे ध्यान से कुछ मतलब नहीं है। तुम्हारे ध्यान को कुत्ते से क्या मतलब है? कुत्ता भौंका, भौंका। आवाज गूंजी, गूंजी। कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं हुई। तुम्हारे भीतर ऐसा नहीं हुआ कि नहीं, इस कुत्ते को नहीं भौंकना चाहिए था। कि यह पड़ोसी का कुत्ता और यह पड़ोसी, ये मेरे दुश्मन हैं, ये मेरी जान के पीछे पड़े हैं। कि देखो, मैं ध्यान करने बैठा हूं और यह पड़ोसी अपने कुत्ते को भुंकवा रहा है! साजिश है। षड्यंत्र है। चल पड़ा मन कि इसका बदला चुका कर रहूंगा। कि खरीद कर लाऊंगा इससे भी मजबूत कुत्ता, अलसेशियन, और इसको बदला चुकवा कर रहूंगा। कि यह कारपोरेशन क्या कर रहा है, आवारा कुत्ते घूम रहे हैं, इनको गोली क्यों नहीं दे देता? चल पड़ा मन। प्रतिक्रिया शुरू हो गयी। तो विक्षेप...।
विक्षेप कुत्ते के भौंकने से नहीं होता, विक्षेप तुमने जो कुत्ते के भौंकने के साथ प्रतिक्रिया की, जो विचार करने लगे...। अब विचार तुम्हारा है। तुम विचार न करो। कुत्ता भौंका, भौंका। तुम शांत भाव से बैठे रहो। टेलीफोन की घंटी बजने लगी, तुम बेचैन हो जाते हो।
मैं कलकत्ते में एक सटोरिया के घर ठहरता था। वे बड़े सटोरिया थे। कमरा ही नहीं था कोई जहां उन्होंने टेलीफोन न लगा रखे हों। बाथरूम में भी दो-दो तीन-तीन टेलीफोन रखे हुए थे। बाथरूम की दीवाल पर भी सब वह गूद डाला था उन्होंने। लिख देते थे वहीं। क्योंकि बाथरूम में नहा रहे हैं और कोई सौदा कर लिया, वहीं फोन उठा कर टब में बैठे-बैठे, कि टायलेट पर बैठे-बैठे, पता नहीं...तो वहीं लिख देते। जब मैं उनके बाथरूम में स्नान किया तब मैंने देखा कि सब दीवालों पर पेंसिल से लिखा हुआ है। एक पेंसिल भी रखी है। मैंने उनसे पूछा कि मामला क्या है। उन्होंने कहा, अब सट्टे का मामला ही ऐसा है कि इसमें क्षण भर की देर नहीं होनी चाहिए। तो मैंने कहा बाथरूम तो समझ में आ गया, तुम्हारा पूजा घर देखना चाहता हूं। वह भी उन्होंने बना कर रखा है। वहां भी फोन लगा है। मैंने कहा, यह मामला क्या है? तुम यहां तो...। उन्होंने कहा, यह सट्टे का मामला ही ऐसा है। भगवान रुक सकता है थोड़ी देर। यह सट्टे का मामला ही ऐसा है कि जरा सी देर हो गयी तो सब गड़बड़ हो जाये, लाखों यहां के वहां हो जायें। तो यहां तो उसी वक्त निपटाना पड़ता है। माला चलती रहती है। निपटा देता हूं जल्दी से। एक सेकेंड में निपटा दिया, फिर अपनी माला फेरने लगे।
पर मैंने कहा, यह तो विक्षेप हुआ।
घंटी बजी टेलीफोन की तो तुम सोचने लगे, कौन फोन कर रहा होगा! कहीं कोई सौदा तो नहीं है! विचार उठ गया। ख्याल करना, टेलीफोन की घंटी बाधा नहीं डाल रही है, तुम्हारे भीतर जो विचार पैदा हो गया उससे बाधा पड़ रही है।
अब मैं भी उनके बाथरूम में नहाता था। तो मैंने कहा, घंटी बजती रहती है हमें क्या लेना-देना! अपना कोई सौदा ही नहीं है। तो घंटी कोई बाधा नहीं डालती। घंटी बजती रहती है, हम उसका मधुर संगीत सुनते, कि अपने को कोई लेना-देना नहीं है।
मैं एक रेस्ट हाउस में मेहमान था। और एक मंत्री भी वहां रुके थे। और रात मंत्री सो न सके, क्योंकि कुछ दस-बारह कुत्ते रेस्ट हाउस के कंपाउंड में भौंके। वे आये मेरे पास कमरे में, उन्होंने कहा कि आप तो बड़े मजे से सो रहे हैं। मुझे हिलाया। मैंने कहा, क्या मामला है? उन्होंने कहा, आपको देख कर ईर्ष्या होती है। आप मजे से सो रहे हैं, ये कुत्ते भौंक रहे हैं। ये मुझे सोने नहीं देते।
मैंने कहा कि आप देख ही रहे हैं कि मैं सो रहा हूं। अगर आप नहीं सो पा रहे हैं तो गड़बड़ कुछ आपमें होगी, कुत्तों में नहीं हो सकती। फिर कुत्तों को तो पता भी नहीं है कि नेता जी आये हैं। न अखबार पढ़ें, न रेडियो सुनें। ये कुत्ते हैं, इनको कुछ पता ही नहीं है कि आपका यहां आगमन हुआ है। ये कोई आदमी थोड़े ही हैं कि आपके स्वागत में कुछ शोरगुल कर रहे हैं, कि कोई आपके स्वागत में व्याख्यान कर रहे हैं। इनको कुछ लेना-देना नहीं है, अपने काम में लगे हैं।
पर उन्होंने कहा, मैं सोऊं कैसे यह बतायें। तो मैंने कहा, आप एक काम करें। कुत्ते नहीं भौंकना चाहिए, यह बात आपको बाधा डाल रही है। आप बिस्तर पर लेट जायें और कहें कि ‘भौंको कुत्तो, तुम्हारा काम भौंकना है, मेरा काम सोना है। तुम भौंको, हम सोते हैं।’ और शांति से सुनें। कुत्तों के भौंकने में भी एक रस है।
उन्होंने कहा, क्या कह रहे हैं! मैंने कहा, आप कोशिश करके देख लें। आप अपनी कोशिश करके देख लिये, उससे कुछ हल नहीं हो रहा है, आधी रात हो गयी। कुत्तों के भौंकने में भी एक रस है। वहां भी परमात्मा ही भौंक रहा है। यह भी परमात्मा का एक रूप है। इसको स्वीकार कर लें। इसके साथ विरोध छोड़ दें। इसे अंगीकार कर लें कि ठीक है तुम भी भौंको और हम भी सोयें। दुनिया बड़ी है। तुम्हारे लिए भी जगह है, मेरे लिए भी जगह है। परमात्मा बहुत बड़ा है, सबको संभाले है।
उन्होंने कहा, अच्छा चलो करके देख लेते हैं। राजी तो वे नहीं दिखाई पड़े। लेकिन कोई उपाय भी न था, तो करके देख लिया। कोई आधा घंटे बाद वे तो घुर्राने लगे। मैं गया। मैंने उनको हिलाया। मैंने कहा, क्या मामला है? बोले, हद हो गयी, अब आपने फिर जगा दिया। किसी तरह मेरी नींद लगी थी।
मैंने कहा, अब तो आपको तरकीब हाथ में लग गयी, अब कोई अड़चन नहीं है। मगर नींद लग गयी थी, यह मैं जान लेना चाहता हूं। क्योंकि आप घुर्रा रहे थे। उन्होंने कहा, काम तो की बात, क्योंकि जैसे ही मैं शिथिल हो कर पड़ गया हूं...मैंने कहा ठीक है। कुत्ते भौंकते हैं, भौंकते हैं।
ऐसी सहज स्वीकृत दशा है ध्यान। तुम जाग कर देखो: जो हो रहा है हो रहा है। हवाई जहाज भी चलेंगे, ट्रेन भी गुजरेगी, मालगाड़ियां शंटिंग भी करेंगी, ट्रक भी गुजरेंगे, बच्चे रोएंगे भी, स्त्रियां बर्तन भी गिरायेंगी, पोस्टमैन दरवाजा भी खटखटाएगा--यह सब होगा।
एकाग्रता के कारण लोग जंगल भाग-भाग कर गये। उनको ध्यान का पता नहीं था; नहीं तो ध्यान तो यहीं हो जायेगा।
मैं एक अमरीकी मनोवैज्ञानिक का जीवन पढ़ रहा था। वह पूरब आना चाहता था विपस्सना ध्यान सीखने। तो बर्मा में सबसे बड़ा विपस्सना का स्कूल है--बौद्धों के ध्यान का। तो उसने तीन सप्ताह की छुट्टी निकाली। बड़ी तैयारियां करके रंगून पहुंचा। बड़ी कल्पनाएं ले कर पहुंचा था कि किसी पहाड़ की तलहटी में, कि घने वृक्षों की छाया में, कि झरने बहते होंगे, कि पक्षी कलरव करते होंगे, कि फूल खिले होंगे--एकांत में तीन सप्ताह आनंद से गुजारूंगा। यह न्यूयार्क का पागलपन...! तीन सप्ताह के लिए बड़ा प्रसन्न था। लेकिन जब उसकी टैक्सी जा कर आश्रम के सामने रुकी तो उसने सिर पीट लिया। वह रंगून के बीच बाजार में था, मछली बाजार में। बास ही बास और उपद्रव ही उपद्रव, सब तरफ शोरगुल और मक्खियां भिनभिना रही हैं और कुत्ते भौंक रहे और आदमी सौदा कर रहे हैं और स्त्रियां भागी जा रही हैं, और बच्चे चीख रहे हैं। यह आश्रम की जगह है? उसके मन में तो हुआ कि इसी वक्त सीधा वापिस लौट जाऊं। लेकिन तीन दिन तक कोई लौटने के लिए हवाई जहाज भी न था। तो उसने सोचा अब आ ही गया हूं तो कम से कम इन सदगुरु के दर्शन तो कर ही लूं! यह किन सदगुरु ने यह आश्रम खोल रखा है यहां? यह कोई जगह है आश्रम खोलने की?
भीतर गया तो बड़ा हैरान हुआ। सांझ का वक्त था और कोई दो सौ कौए आश्रम पर लौट रहे, क्योंकि सांझ को बौद्ध भिक्षु भोजन करके उनको कुछ फेंक देते होंगे चावल इत्यादि। तो वे सब वहां...बड़ा शोरगुल। कौए, महाराजनीतिज्ञ, बड़े विवाद में लगे। शास्त्रार्थ चल रहा है। और कौए तो शिकायत ही करते रहते हैं। उनको कभी किसी चीज से शांति तो मिलती नहीं। भ्रष्ट योगी हैं। शिकायत उनका धंधा है। वे एक-दूसरे से शिकायत में लगे हुए, चीख-चीत्कार मच रहा है।
उसने कहा...। और वहीं भिक्षु ध्यान करते हैं। कोई टहल रहा, जैसा बौद्ध टहल कर ध्यान करते हैं। कोई वृक्ष के नीचे शांत बैठा ध्यान कर रहा है। खड़ा हो कर एक क्षण देखता रहा, बात कुछ समझ में नहीं आयी, बड़ी विरोधाभासी लगी। लेकिन भिक्षुओं के चेहरों पर बड़ी शांति भी है। जैसे यह सब कुछ हो ही नहीं रहा है, या जैसे ये कहीं और हैं, किसी और लोक में हैं जहां ये सब खबरें नहीं पहुचतीं या पहुंचती हैं तो कोई विक्षेप नहीं है। इन भिक्षुओं के चेहरों को देख कर उसने सोचा तीन दिन तो रुक ही जाऊं।
वह गुरु के पास गया तो गुरु से उसने यही कहा कि यह क्या मामला है? यह कहां जगह चुनी आपने? तो गुरु ने कहा: रुको, तीन सप्ताह बाद अगर तुम फिर यही प्रश्न पूछोगे तो उत्तर दूंगा। तीन सप्ताह रुक गया। पहले तो तीन दिन के लिए रुका, लेकिन तीन दिन में लगा कि बात में कुछ है। एक सप्ताह रुका। एक सप्ताह रुका तो पता चला कि धीरे-धीरे यह बात कुछ अर्थ नहीं रखती कि बाजार में शोरगुल हो रहा है, ट्रक जा रहे हैं, कारें दौड़ रहीं, कौए कांव-कांव कर रहे, कुत्ते भौंक रहे, मक्खियां भिनभिना रहीं, ये सब बातें कुछ अर्थ नहीं रखतीं। तुम कहीं दूर लोक में जाने लगे। तुम कहीं भीतर उतरने लगे, कोई चीज अटकाव नहीं बनती।
दूसरे सप्ताह होते-होते तो उसे याद ही नहीं रहा। तीसरे सप्ताह तो उसे ऐसे लगा कि अगर ये कौए यहां न होते, ये कुत्ते यहां न होते, यह बाजार न होता, तो शायद ध्यान हो ही नहीं सकता था। क्योंकि इसके कारण एक पृष्ठभूमि बन गयी। तब उसने गुरु को कहा कि मुझे क्षमा करें। मैंने जो शिकायत की थी वह ठीक न थी। वह मेरी जल्दबाजी थी।
गुरु ने कहा: बहुत सोच कर ही यह आश्रम यहां बनाया है। जान कर ही यहां बनाया है। क्योंकि विपस्सना का प्रयोग ही यही है कि जहां बाधा पड़ रही हो वहां बाधा के प्रति प्रतिक्रिया न करनी। प्रतिक्रिया-शून्य हो जाये चित्त, तो शांत हो जाता है।
‘उपशांत हुए योगी के लिये न विक्षेप है और न एकाग्रता है। न अतिबोध है और न मूढ़ता है।’
यह सुनो अदभुत वचन! कि जो सच में शांत हो गया है वह कोई महाज्ञानी नहीं हो जाता, क्योंकि वह भी अतिशयोक्ति होगी। वह भी अतिशय हो जायेगा। जो शांत हो गया है वह तो संतुलित हो जाता है। वह तो मध्य में ठहर जाता है। न तो मूढ़ रह जाता है और न ज्ञानी। तो न तो अतिबोध और न अति मूढ़ता; वह दोनों के मध्य में शांत चित्त खड़ा होता है। तुम उसे मूढ़ भी नहीं कह सकते, उसे पंडित भी नहीं कह सकते। वह तो बड़ा सरल, संतुलित होता है, मध्य में होता है। उसके जीवन में कोई अति नहीं रह जाती। कोई अति नहीं रह जाती! न तुम उसे हिंसक कह सकते न अहिंसक। ये दोनों अतियां हैं। न तुम उसे मित्र कह सकते न शत्रु। ये दोनों अतियां हैं। वह अति से मुक्त हो जाता है। और अति से मुक्त हो जाना ही मुक्त हो जाना है। उसे न सुख है न दुख है। वह द्वंद्व के पार हो जाता है।
साधारणतः लोग सोचते हैं: जब ज्ञान उत्पन्न होगा तो हम महाज्ञानी हो जायेंगे। नहीं, जब ज्ञान उत्पन्न होगा, तब न तो तुम ज्ञानी रह जाओगे और न मूढ़। जब ज्ञान उत्पन्न होगा तो तुम इतने शांत हो जाओगे कि ज्ञान का तनाव भी न रह जायेगा। तुम ऐसा भी न जानोगे कि मैं जानता हूं। यह बात भी चली जायेगी। तुम जानोगे भी और जानने का कोई अहंकार भी न रह जायेगा। तुम जानते हुए ऐसे हो जाओगे जैसे न जानते हुए हो। मूढ़ और ज्ञानी के मध्य हो जाओगे। कुछ-कुछ मूढ़ जैसे--जानते हुए न जानते हुए से। कुछ-कुछ ज्ञानी जैसे--न जानते हुए में जानते हुए से। ठीक बीच में खड़े हो जाओगे। इस मध्य में खड़े हो जाने का नाम संयम। इस मध्य में खड़े हो जाने का नाम सम्यकत्व। इस मध्य में खड़े हो जाने का नाम संगीत।
बुद्ध ने कहा है कि अगर वीणा के तार बहुत ढीले हों तो संगीत पैदा नहीं होता। और अगर वीणा के तार बहुत कसे हों तो वीणा टूट जाती है, तो भी संगीत पैदा नहीं होता। एक ऐसी भी दशा है वीणा के तारों की कि जब न तो तार कसे होते, न ढीले होते; ठीक मध्य में होते हैं। वहीं उठता है संगीत। जीवन की वीणा के संबंध में भी यही सच है।
‘निर्विकल्प स्वभाव वाले योगी के लिए राज्य और भिक्षावृत्ति में, लाभ और हानि में, समाज और वन में फर्क नहीं है।’
न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढ़ता।
न सुखं न च वा दुःखमुपशांतस्य योगिनः।।
स्वराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभालाभे जने वने।
निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः।।
ऐसा जो शांत हो गया, मध्य में ठहर गया, संतुलित हो गया, ऐसे अंतरसंगीत को जो उपलब्ध हो गया--ऐसे निर्विकल्प स्वभाव वाले योगी के लिए फिर न राज्य में कुछ विशेषता है, न भिक्षावृत्ति में। ऐसा योगी अगर भिक्षा मांगते मिल जाये तो भी तुम सम्राट की शान उसमें पाओगे। और ऐसा व्यक्ति अगर सम्राट के सिंहासन पर बैठा मिल जाये तो भी तुम भिक्षु की स्वतंत्रता उसमें पाओगे।
ऐसा व्यक्ति कहीं भी मिल जाये, तुम अगर जरा गौर से देखोगे तो तुम उसमें दूसरा छोर भी संतुलित पाओगे। सम्राट होकर वह सिर्फ सम्राट नहीं हो जाता; वह किसी भी क्षण छोड़ कर चल सकता है। और भिक्षु हो कर वह भिक्षु नहीं हो जाता, दीन नहीं हो जाता। भिक्षु में भी उसका गौरव मौजूद होता है और सम्राट में भी उसका शांत चित्त मौजूद होता है। भिक्षु और सम्राट से कुछ फर्क नहीं पड़ता। ऐसे व्यक्ति को ‘विशेष न अस्ति’ कोई चीज विशेष नहीं है। फिर वह समाज में हो कि वन में, कोई भेद नहीं, तुम ऐसे व्यक्ति को भीड़ में भी अकेला पाओगे। और तुम ऐसे व्यक्ति को जंगल में बैठा हुआ पाओगे तो भीड़ से दूर न पाओगे, विपरीत न पाओगे। दुश्मन न पाओगे। ऐसा व्यक्ति भीड़ से डर कर नहीं चला गया है जंगल में। ऐसे व्यक्ति को तुम जंगल से भीड़ में ले आओ कि भीड़ से जंगल में ले जाओ, कोई फर्क न पड़ेगा। ऐसा व्यक्ति अब अपने भीतर ठहर गया है। कोई चीज कंपाती नहीं।
स्वराज्ये भैक्ष्यवृत्ता...।
चाहे राज्य हो चाहे भिक्षा।
लाभालाभे...।
चाहे लाभ हो चाहे हानि।
जने वा वने...।
चाहे जंगल चाहे भीड़।
निर्विकल्पस्वभावस्य योगिनः।
योगी तो निर्विकल्प बना रहता है।
उसका कोई चुनाव नहीं है। वह ऐसा भी नहीं कहता कि ऐसा ही हो। हो जाये तो ठीक, न हो जाये तो ठीक। ऐसा हो तो ठीक, अन्यथा हो तो ठीक। उसने सारी प्रतिक्रिया छोड़ दी। वह अब वक्तव्य ही नहीं देता। वह जो घटता है, उसे घट जाने देता है। उसकी अब कोई शिकायत नहीं है। सब उसे स्वीकार है। तथाता। सब उसे अंगीकार है।
‘यह किया है और यह अनकिया है, इस प्रकार के द्वंद्व से मुक्त योगी के लिए कहां धर्म है, कहां काम है, कहां अर्थ, कहां विवेक?’
क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकिता।
इदं कृतमिदं नेति द्वंद्वैर्मुक्तस्य योगिनः।।
हम तो इसी में पड़े रहते हैं कि क्या किया और क्या नहीं किया; क्या कर पाये और क्या नहीं कर पाये--हिसाब लगाते रहते हैं। गणित बिठाते रहते हैं: इतना कमा लिया, इतना नहीं कमा पाये; यह-यह विजय कर ली, यह-यह बात में हार गये; यहां-यहां सफलता मिल गयी, यहां-यहां असफल हो गये। चौबीस घंटे चिंतन चल रहा है--क्या किया, क्या नहीं किया! मरते-मरते दम तक आदमी यही सोचता रहता है: क्या किया, क्या नहीं किया।
एंड्रू कारनेगी, अमरीका का बहुत बड़ा करोड़पति, मर रहा था तो मरते वक्त उसने आंख खोली और कहा कि मुझे ठीक-ठीक बता दो कि मैं कितनी संपत्ति छोड़ कर मर रहा हूं। उसके सेक्रेटरी ने, जल्दी से भागा, फाइलों में से हिसाब लगाया, और ऐसा लगता है एंड्रू कारनेगी अटका रहा, उसकी सांस अटकी रही। जब उसने आ कर कह दिया कि कोई दस अरब रुपये छोड़ कर आप मर रहे हैं तो एंड्रू कारनेगी मरा, और वह भी बहुत सुख से नहीं। क्योंकि उसने कहा: ‘मैंने तो सोचा था कम से कम सौ अरब रुपये कमा कर जाऊंगा। मैं एक हारा हुआ आदमी हूं।’
दस अरब रुपये छोड़ कर मरने वाला आदमी भी सोचता है हारा हुआ हूं! ठीक है, अगर सौ अरब कमाने थे तो नब्बे अरब से हार हो गयी। हार भारी है! ऐसा लगता है दस अरब रुपये जैसे दस रुपये भी नहीं हैं। ऐसा विषाद से भर कर गया यह आदमी। और जीवन भर दौड़ता रहा।
उसके सेक्रेटरी ने लिखा है कि अगर मुझे भगवान कहे कि तुम्हें एंड्रू कारनेगी होना है कि एंड्रू कारनेगी का सेक्रेटरी, तो मैं सेक्रेटरी ही होना पसंद करूंगा। क्यों? क्योंकि मैंने इससे ज्यादा परेशान व्यस्त आदमी नहीं देखा। चौबीस घंटे लगा है।
कहते हैं कि एंड्रू कारनेगी एक दफा अपने बेटे को न पहचान पाया। दफ्तर में बैठा था और एक युवा निकला तो उसने अपने सेक्रेटरी को पूछा कि यह कौन है?
‘आपने हद कर दी...आपका बेटा!’
‘अरे, मुझे फुर्सत कहां?’
कभी अपने बेटों के पास बैठने की, बात करने की, चीत करने की, कभी उनके साथ खेलने की, छुट्टियों में किसी पहाड़ पर जाने की फुर्सत कहां। धन ही धन, एक ही दौड़। धन से आंख अंधी। अपना बेटा भी नहीं दिखाई पड़ता।
मुल्ला नसरुद्दीन अदालत में खड़ा था और मजिस्ट्रेट ने उससे कहा: नसरुद्दीन, यह अजीब बात है कि तुमने बॉक्स तो चुराया, मगर पास ही में जो नोट रखे हुए थे उनको नहीं लिया। इसका राज क्या है?
नसरुद्दीन ने कहा: खुदा के लिए इस बात का जिक्र न कीजिए। मेरी बीबी इसी गलती के लिए सप्ताह भर मुझसे लड़ती रही है। अब आप फिर वही उठाये दे रहे हैं।
बॉक्स तो चुरा लिया, उसके पास जो रुपये रखे थे, बीबी लड़ती रही सात दिन तक कि वह क्यों नहीं लाये? वह मजिस्ट्रेट से कह रहा है। खुदा के लिए यह बात फिर मत उठाइए। अब हो गयी भूल हो गयी। बॉक्स चुराया, यह कोई भूल नहीं; वे जो रुपये पास में रखे थे, वह नहीं चुराया। भूल हो गयी, क्षमा करिये, अब दोबारा यह बात मत उठाइये। सात दिन सुन-सुन कर सिर पक गया। पत्नी यही बार-बार कहती है, बार-बार उठाती है कि वे रुपये क्यों छोड़ कर आये?
तुम्हारी जिंदगी इसी तरह के हिसाब में लगी है: क्या कर लिया, क्या नहीं किया। पूरी जिंदगी तुम यही जोड़ते रहोगे? और जब जाओगे, खाली हाथ जाओगे। सब किया, सब अनकिया, सब पड़ा रह जायेगा। किया तो व्यर्थ हो जाता है, न किया तो व्यर्थ हो जाता है।
‘यह किया यह अनकिया, इस प्रकार के द्वंद्व से मुक्त योगी के लिए कहां धर्म!’
उसके लिए तो धर्म तक का कोई अर्थ नहीं रह जाता। क्योंकि धर्म का तो अर्थ ही होता है: जो करना चाहिए, वही धर्म। अधर्म का अर्थ होता है: जो नहीं करना चाहिए!
सुनते हो इस क्रांतिकारी वचन को? ऐसे व्यक्ति के लिए धर्म का भी कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि अब करने, न करने से ही झंझट छुड़ा ली। अब तो साक्षीभाव में आ गये। ऐसे व्यक्ति के लिए कहां धर्म, कहां काम, कहां अर्थ, कहां विवेक! विवेक तक की कोई जरूरत नहीं है। अब ऐसा व्यक्ति डिसक्रिमिनेशन भी नहीं करता कि क्या अच्छा, क्या बुरा; क्या कर्तव्य, क्या अकर्तव्य; कौन-सी बात नीति, कौन-सी बात अनीति। ये सब बातें व्यर्थ हुईं। द्वंद्व गया और इस द्वंद्व के जाने पर जो पीछे शेष रह जाती है शांति, वही शांति है, वही संपदा है।
इदं कृतं इदं न कृतं द्वंद्वैर्मुक्तस्य योगिनः।
यह किया, यह नहीं किया, ऐसे द्वंद्व से जो मुक्त हो गया वही योगी है। जो किया उसने किया और जो नहीं किया उसने किया--परमात्मा जाने! जो साक्षी हो गया वही योगी है।
कृत्यं किमपि न एव न कापि हृदि रंजना।
यथा जीवनमेवेह जीवन्मुक्तस्य योगिनः।।
‘जीवनमुक्त योगी के लिए कर्तव्य कर्म कुछ भी नहीं है।’
देखते हैं आग्नेय वचन, जलते हुए अग्नि के अंगारों जैसे वचन! इनसे ज्यादा क्रांतिकारी उदघोष कभी नहीं हुए।
‘जीवनमुक्त योगी के लिए कर्तव्य कर्म कुछ भी नहीं है और न हृदय में कोई अनुराग है। वह इस संसार में यथाप्राप्त जीवन जीता है।’
जैसा जीवन है, वैसा है। जो मिला, मिला। जो नहीं मिला, नहीं मिला। जो हुआ, हुआ; जो नहीं हुआ, नहीं हुआ। वह हर हाल खुश है, हर हाल सुखी है।
यथा जीवनमेवेह...।
जैसा जीवन है उससे अन्यथा की जरा भी आकांक्षा नहीं है। जैसा जीवन है वैसा ही जीवन है।
तुम अन्यथा की आकांक्षा किये चले जाते हो। तुम्हारे पास दस रुपये हैं तो चाहते हो बीस हो जायें। बीस रुपये हैं, तो चाहते हो चालीस हो जायें। कुछ फर्क नहीं पड़ता; चालीस होंगे, तुम चाहोगे अस्सी हो जायें। निन्यानबे का फेर तो तुम जानते ही हो। मगर यह धन के संबंध में ही लागू होता तो भी ठीक था।...तुम्हारा चेहरा सुंदर नहीं है, सुंदर हो जाये। तुम्हारा चरित्र सुंदर हो जाये, सुशील हो जाये। तुम महात्मा हो जाओ। बात वही की वही है। तुम जैसे हो वैसे में राजी नहीं; महात्मा होना है। यह क्या क्षुद्रात्मा! यह क्या पड़े घर-गृहस्थी में। तुम्हें तो बुद्ध-महावीर होना है! कुछ होना है! कुछ हो कर रहना है! जो तुम हो उसमें तुम राजी नहीं।
और खयाल रखना, जो तुम हो उसमें अगर राजी हो जाओ, तो ही तुम बुद्ध होते हो, तो ही तुम महावीर होते हो। महात्मा कोई लक्ष्य नहीं है जिसे तुम पूरा कर लोगे। महात्मा का अर्थ है जो जैसा है वैसे में राजी हो गया। ऐसी परम तृप्ति, कि अब इससे अन्यथा कुछ भी नहीं होना है। जो उसने बनाया, जैसा उसने बनाया। जो वह दिखा दे, देख लेंगे। जो वह करा दे, कर लेंगे। जब उठा ले, उठ जायेंगे। जब तक रखे, रहे रहेंगे। जैसा खेल खिला दे, खेलेंगे। ऐसी जो भावदशा है वही महात्मा की, महाशय की दशा है।
यह सूत्र बहुत मनन करना। ध्यान करना।
कृत्यं किमपि न एव।
नहीं कोई कृत्य है।
न कापि हृदि रंजना।
और न हृदय में कुछ आकांक्षा है कि ऐसा ही हो, ऐसा कोई राग नहीं, ऐसा कोई अनुराग नहीं, ऐसा कोई मोह नहीं, ऐसी कोई ममता नहीं, आकांक्षा नहीं।
यथा जीवनमेवेह।
जैसा जीवन है, है। बस, ऐसे ही जीवन से मैं राजी हूं। इस राजीपन का नाम: योग।
जीवनमुक्तस्य योगिनः।
और ऐसा व्यक्ति ही जीवन के सारे जाल से मुक्त हो जाता है।
इस एक सूत्र से सारा जीवन रूपांतरित हो सकता है। इस एक सूत्र में सब समाया है--सब वेदों का सार, सब कुरानों का सार। इस एक छोटे से सूत्र में सारी प्रार्थनाएं, सारी साधनाएं, सारी अर्चनाएं समाहित हैं। इस एक छोटे-से सूत्र का विस्फोट तुम्हारे जीवन को आमूल बदल सकता है।
बस जैसे हो वैसे ही प्रभु को समर्पित हो जाओ। कह दो कि बस, जैसी तेरी मर्जी। जैसा रखेगा, रहेंगे। जो करायेगा, करेंगे। भटकायेगा, भटकेंगे। नर्क में डाल देगा, नर्क में रहेंगे। मगर शिकायत न करेंगे।
जैसे ही शिकायत से तुम मुक्त हो गये, प्रार्थना का जन्म होता है। और जैसे ही जो है उससे तुम राजी हो गये कि फिर तुम्हारे जीवन में सच्चिदानंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं बचता। फिर परमात्मा ही परमात्मा का स्वाद है। फिर उसी-उसी की रसधार बहती है। फिर परम मंगल का क्षण आ गया।
इस सूत्र पर ध्यान करना। इस सूत्र का थोड़ा-थोड़ा स्वाद लेने की कोशिश करना। चौबीस घंटे जब भी याद आ जाये, इस सूत्र का थोड़ा उपयोग करना। चौबीस घंटे में हजारों मौके आते हैं जब यह सूत्र कुंजी बन सकता है। जहां शिकायत उठे वहीं इस सूत्र को कुंजी बना लेना। सब शिकायत के ताले इस सूत्र से खुल जा सकते हैं। और शिकायत गिर जाये तो मंदिर के द्वार खुले हैं, प्रभु उपलब्ध है। तुम अपनी आकांक्षाओं, शिकायतों, अभिरुचियों, अनुरागों के कारण देख नहीं पा रहे, अंधे बने हो।
यथा जीवनं एव--बस ऐसा है जीवन, ऐसा है; इससे रत्ती भर भिन्न नहीं चाहिए।
जीसस ने सूली पर मरते वक्त यही सूत्र उदघोष किया है। आखिरी वचन में जीसस ने कहा: दाई विल बी डन। तेरी मर्जी पूरी हो, प्रभु! सूली तो सूली, मारे तो मारे। तेरी मर्जी से अन्यथा मेरी कोई मर्जी नहीं है। तेरी मर्जी के साथ मैं राजी हूं।
इसी क्षण जीसस समाप्त हो गये और क्राइस्ट का जन्म हुआ। इसी क्षण जीसस का मनुष्य रूप विदा हो गया, प्रभु-रूप पैदा हुआ। पुनरुज्जीवन हुआ। जीसस द्विज बने। जीसस ब्रह्मज्ञानी हो गये। इसी क्षण!
मंसूर को सूली लगायी गयी, हाथ-पैर काटे गये, तब भी वह हंस रहा था। आकाश की तरफ देख कर हंस रहा था। और किसी ने भीड़ में से पूछा कि तुम क्यों हंसते हो मंसूर, तुम्हें इतनी पीड़ा दी जा रही है?
उसने कहा: मैं इसलिए हंस रहा हूं कि ईश्वर यह हालत पैदा करके भी मेरे भीतर शिकायत पैदा नहीं कर पाया। मैं हंस रहा हूं। मैं ईश्वर की तरफ देख कर हंस रहा हूं कि कर ले तू यह भी, मगर मैं राजी हूं। तू किसी भी रूप में आये, तू मुझे धोखा न दे पायेगा। मैं तुझे पहचान गया। तू मौत की तरह आया है, स्वीकार है। मैं हंस रहा हूं ईश्वर की तरफ देख कर कि तूने धोखा तो खूब दिया, डर था कि शायद इसमें मैं धोखा खा जाता; लेकिन नहीं, तू धोखा नहीं दे पाया। मैं राजी हूं! अहोभाग्य है यह भी मेरा: तू आया तो सही, मृत्यु की तरह सही! तूने मेरी परीक्षा तो ली!
अग्निपरीक्षा तो उन्हीं की ली जाती है जो वस्तुतः योग्य हैं। तो कठिनाई को परीक्षा समझना। संकट को संकट मत समझना, चुनौती समझना और इस सूत्र को याद रखना। इस सूत्र के सहारे तुम जहां हो वहां से परमात्मा तक सेतु बन सकता है।
देखा न लक्ष्मणझूला--रस्सियों का झूला! ऐसा यह सूत्र बहुत पतला धागा है, लेकिन इस धागे के सहारे तुम अंतिम यात्रा कर ले सकते हो।
हरि ॐ तत्सत्!
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
निष्कामः किंविजानाति किंब्रूते च करोति किम्।। 184।।
अयं सोऽहमयं नाहमिति क्षीणा विकल्पनाः।
सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णीभूतस्य योगिनः।। 185।।
न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढ़ता।
न सुखं न च वा दुःखमुपशांतस्य योगिनः।। 186।।
स्वराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभालाभे जने वने।
निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः।। 187।।
क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकिता।
इदं कृतमिदं नेति द्वंद्वैर्मुक्तस्य योगिनः।। 188।।
कृत्यं किमपि नैवास्ति न कापि हृदि रंजना।
यथा जीवनमेवेह जीवनमुक्तस्य योगिनः।। 189।।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम्।।
पहला सूत्र: ‘आत्मा ब्रह्म है और भाव और अभाव कल्पित है। यह निश्चयपूर्वक जान कर निष्काम पुरुष क्या जानता है, क्या कहता है और क्या करता है?’
समझना: ‘आत्मा ब्रह्म है ऐसा निश्चयपूर्वक जान कर...।’
जो भी किसी और के माध्यम से जाना वह कभी भी निश्चयपूर्वक नहीं होगा। भरोसा दूसरे पर किया तो भीतर गहरे में गैर-भरोसा बना ही रहेगा। विश्वास के अंतस्तल में संदेह सदा मौजूद रहता है। तुम लाख विश्वास करने की चेष्टा करो, संदेह से छुटकारा नहीं है। विश्वास का अर्थ ही होता है कि संदेह है और संदेह को दबाने की तुम चेष्टा में संलग्न हो। दबा सकते हो, मिटा नहीं सकते। भुला सकते हो, मिटा नहीं सकते।
और जितना संदेह दब जायेगा, एक बड़ी विपरीत स्थिति पैदा होती है: ऊपर-ऊपर विश्वास होता है, भीतर-भीतर संदेह होता है। शब्दों में विश्वास होता है, प्राणों में संदेह होता है। कहने की बात एक रह जाती है, होना बिलकुल ही विपरीत हो जाता है। इसी का नाम पाखंड है।
इसीलिए लोग कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं, सोचते कुछ हैं, जीवन में एकरसता नहीं। और जहां एकरसता न हो वहां संगीत कैसा! जहां वीणा के सब तार अलग-अलग जा रहे हों वहां संगीत कैसा! वहां शोरगुल होगा, संगीत नहीं हो सकता। लयबद्धता नहीं होगी, शांति नहीं होगी। सुख कहां!
पहला सूत्र है: ‘जिसने निश्चित रूप से जाना कि आत्मा ब्रह्म है...।’
किसने निश्चित रूप से जाना? कौन निश्चित रूप से जान लेता है?
इति निश्चित्यं...।
किसको हम कहेंगे कि इसे निश्चय हो गया? जिसे अनुभव हुआ। अनुभव में संदेह नहीं है। अनुभव ही संदेह से मुक्ति है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: हमारा आपमें दृढ़ विश्वास है। मैं कहता हूं, दृढ़? दृढ़ का अर्थ ही हुआ कि बड़ा सघन संदेह मौजूद है भीतर; नहीं तो दृढ़ता से किसको दबा रहे हो?
कोई जब कहता है कि मुझे तुमसे पूरा-पूरा प्रेम है तो जरा सावधान होना, क्योंकि पूरा प्रेम, तो पीछे क्या छिपा रहे हो? इस ‘पूरे’ में क्या छिपा है? इतना आग्रह करके क्यों कह रहे हो कि मुझे पूरा-पूरा प्रेम है, मुझे पूरा-पूरा विश्वास है, मुझे दृढ़ श्रद्धा है? इस आग्रह के पीछे, परदे के पीछे विपरीत मौजूद है। जितना बड़ा संदेह हो उतनी ही दृढ़ता चाहिए विश्वास की। मगर फिर भी संदेह मिटता नहीं।
इसलिए तो नास्तिक और आस्तिक में ऊपर से कितना ही फर्क हो, भीतर से फर्क नहीं होता। क्या भीतर से फर्क है? नास्तिक मंदिर नहीं जाता, नास्तिक परमात्मा को नमस्कार नहीं करता। तुम मंदिर जाते हो, पहुंचे कभी? तुमने नमस्कार किया, लेकिन नमस्कार उसके चरणों तक पहुंचा? तुम करते हो, नास्तिक नहीं करता है, लेकिन तुम्हारा करना भी कहां पहुंचता है? जीवन-व्यवहार में तो तुम बिलकुल एक जैसे हो। जीवन-व्यवहार में जरा भी भेद नहीं है। मुसलमान है, हिंदू है, ईसाई है, जैन है--जीवन-व्यवहार में जरा भी भेद नहीं है। ये सब श्रद्धाएं थोथी हैं, क्योंकि उधार हैं। निश्चित श्रद्धा किसकी होती है? जिसे अनुभव हुआ।
रामकृष्ण के पास केशवचंद्र मिलने गये। और केशवचंद्र ने कहा कि मेरा ईश्वर में भरोसा नहीं है! मैं विवाद करने आया हूं। मैं आपके भरोसे को खंडित कर दूंगा। आप मेरी चुनौती स्वीकार करें।
रामकृष्ण ने कहा: बहुत मुश्किल है। तुम यह कर न पाओगे। तुम्हारी हार निश्चित है। नहीं कि मैं विवाद कर सकता हूं। नहीं कि मेरे पास कोई तर्क है। मेरे पास कोई तर्क नहीं, लेकिन मैंने प्रभु को जाना है। तुम लाख खंडन करो, क्या फर्क पड़ता है? मैं फिर भी जानता हूं कि परमात्मा है। यह मेरा अपना निजी अनुभव है, तुम इसे छीन न सकोगे। यह मेरी श्वास-श्वास में समाया है। यह मेरे हृदय की धड़कन-धड़कन में व्यापा है। यह मेरे रोएं-रोएं की पुकार है, इसे तुम छीन न सकोगे। तुम्हारे तर्क का उत्तर मैं न दे पाऊंगा, केशवचंद्र। तुम बुद्धिमान हो, शास्त्रज्ञ हो, ज्ञानी हो, पंडित हो; मैं अपढ़ गंवार हूं--रामकृष्ण ने कहा। लेकिन उलझोगे तो गंवार से जीतोगे नहीं, क्योंकि मेरे कोई सिद्धांत थोड़े ही हैं, कोई विश्वास थोड़े ही हैं। ऐसा मेरा अनुभव है। तुम मेरे अनुभव को कैसे खंडित करोगे? जो मैंने जाना है उसे तुम कैसे अनजाना करवा दोगे? मैंने इन आंखों से देखा है। लाख दुनिया कहे, सारी दुनिया एक तरफ हो जाये और कहे कि ईश्वर नहीं है, तो भी मैं कहता रहूंगा, है। क्योंकि मैंने तो जाना है!
केशव तो नहीं माने, उन्होंने तो बड़ा विवाद किया। और रामकृष्ण उनके विवाद को सुनते रहे, एक भी तर्क का उत्तर न दिया। बीच-बीच में जब केशवचंद्र कोई बहुत गंभीर तर्क उठाते तो वे खड़े हो-हो कर केशवचंद्र को गले लगा लेते। केशवचंद्र बहुत बेचैन होने लगे, वह जो भीड़ इकट्ठी हो गयी थी देखने, केशवचंद्र के शिष्य आ गये थे कि बड़ा विवाद होगा, वे भी जरा बेचैन होने लगे। और केशवचंद्र को भी पसीना आने लगा। और केशवचंद्र ने कहा, यह मामला क्या है? आप होश में हैं? मैं आपके विपरीत बोल रहा हूं!
रामकृष्ण ने कहा कि तुम सोचते हो कि मेरे विपरीत बोल रहे हो। तुम्हें देख कर मुझे परमात्मा पर और भरोसा आने लगा है। जब ऐसी प्रतिभा हो सकती है संसार में तो बिना परमात्मा के कैसे होगी? तुम्हारी प्रतिभा अनूठी है। तुम्हारे तर्क बहुमूल्य हैं--बड़ी धार है तुम्हारे तर्कों में। यह प्रमाण है कि प्रभु है। यह तुम्हारा चैतन्य, यह तुम्हारा तर्क, ये तुम्हारे विचार, यह तुम्हारी प्रणाली--इस बात का सबूत है कि परमात्मा है। जब फूल लगते हैं तो सबूत है कि वृक्ष होगा। फूल लाख उपाय करें, वृक्ष को खंडित न कर पायेंगे। उनका होना ही वृक्ष का सबूत हो जाता है। फूल लाख गवाही दें अदालत में जा कर कि वृक्ष नहीं होते हैं, लेकिन फूलों की गवाही ही बता देगी कि वृक्ष होते हैं, अन्यथा फूल कहां से आयेंगे?
रामकृष्ण ने कहा: मैं तो गंवार हूं, मेरे पास तो कोई प्रतिभा का फूल नहीं है; तुम्हारे पास तो प्रतिभा का कमल है। मैं हजार-हजार धन्यवाद से भरा हूं। इसलिए उठ-उठ कर तुम्हें गले लगता हूं कि हे प्रभु, तूने खूब किया, केशवचंद्र को मेरे पास भेजा! तेरी एक झलक और मिली! तुझसे मेरी एक पहचान और हुई! एक नये द्वार से तुझे फिर देखा! अब तो कोई लाख उपाय करे केशव, तुम्हें देख लिया, अब तो कभी मान न सकूंगा कि ईश्वर नहीं है।
केशवचंद्र ने अपने स्मरणों में लिखा है कि जिस एक आदमी से मैं हार गया, वे रामकृष्ण हैं। इस आदमी से जीतने का उपाय न था। उस रात मैं सो न सका और बार-बार सोचने लगा, जरूर इस आदमी को कोई अनुभव हुआ है। कोई ऐसा प्रगाढ़ अनुभव हुआ है कि कोई तर्क उसे डगमगाते नहीं। इतना प्रगाढ़ अनुभव हुआ है कि तर्कों के माध्यम से भी, जो विपरीत तर्क हैं उनसे भी वही अनुभव सिद्ध होता है। नहीं, इस आदमी के चरणों में बैठना होगा। इस आदमी से सीखना होगा। इसे जो दिखाई पड़ा है वह मुझे भी देखना होगा। इसके पास आंख है, मेरे पास तर्क है। तर्क काफी नहीं। तर्क से कब किसी की भूख मिटी है! और तर्क से कब किसका कंठ तृप्त हुआ!
निश्चित जानने का अर्थ है रामकृष्ण की भांति जानना। निश्चित जानने का अर्थ है--विश्वास नहीं; अनुभव से आती है जो श्रद्धा, वही।
और जिसने विश्वास बना लिया, उसके भीतर श्रद्धा पैदा होने में बाधा पड़ जाती है। इसलिए उधार को तो काटो। बासे को तो हटाओ। पराये को तो त्यागो। कोई चिंता न करो। अगर सारे विश्वास हाथ से छूट जायें तो घबड़ाओ मत, क्योंकि उनके हाथ में होने से भी कुछ लाभ नहीं है। जाने दो। तुम उस शून्य में खड़े हो जाओ जहां कोई विश्वास नहीं होता, कोई विचार नहीं होता। और वहीं से बजेगी धुन। वहीं से उठेगा एक नया स्वर। उसी शून्य से व्याप्त होता है कुछ अनुभव जो तुम्हें घेर लेता है। उसी अनुभव में जाना जाता है।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य...।
आत्मा ब्रह्म है, ऐसा उस अनुभव में जाना जाता है जहां तुम्हारी सीमाएं गिर जाती हैं और असीम और तुम्हारे बीच कोई भेद-रेखा नहीं रह जाती। आत्मा ब्रह्म है, इसका अर्थ हुआ: बूंद सागर है। लेकिन यह कैसे बूंद जानेगी? बूंद गिरे नहीं तो जान सकेगी? बूंद सागर में गिरे तो ही जानेगी। बूंद कितनी ही पंडित हो जाये, महापंडित हो जाये; लेकिन जिस बूंद ने सागर में गिर कर नहीं देखा, उसे कुछ पता नहीं चलेगा कि बूंद सागर है। बूंद तो जब मिटती है तभी पता चलता है कि सागर है। तुम मिटते हो तभी ब्रह्म का पता चलता है। तुम तिरोहित हो जाते हो, तो ही ब्रह्म मौजूद होता है। तुम्हारी गैर-मौजूदगी उसकी मौजूदगी है। तुम्हारी मौजूदगी उसकी गैर-मौजूदगी है। तुम्हारे होने में ही ब्रह्म ‘नहीं’ हो गया है; तुम्हारे बिखरते ही पुनः हो जायेगा।
‘आत्मा ब्रह्म है, ऐसा निश्चित रूप से जिसने जान लिया...।’
इस निश्चित रूप से जानने के लिए शास्त्र में मत जाओ, शून्य में जाओ। शब्द में मत जाओ, निःशब्द में उतरो। विचारों के तर्कजाल में मत उलझो। मौन। मौन ही द्वार है। चुप्पी साधो। घड़ी दो घड़ी को रोज बिलकुल चुप हो जाओ। जब तुम्हारे मन में कोई भी बोलने वाला न बचेगा, तब जो बोलेगा वही ब्रह्म है। जब तुम अपने भीतर पाओगे सन्नाटा ही सन्नाटा है, कोई पारावार नहीं है सन्नाटे का, कहीं शुरू नहीं होता, कहीं अंत नहीं होता--सन्नाटा ही सन्नाटा है, उसी सन्नाटे में पहली दफे प्रभु की पगध्वनि तुम्हें सुनाई पड़ेगी, पहली दफा तुम उसका स्पर्श अनुभव करोगे। वह पास से भी पास है। तुम जब तक विचार से भरे हो, वह दूर से भी दूर।
उपनिषद कहते हैं: परमात्मा दूर से भी दूर और पास से भी पास। दूर से भी दूर, अगर तुम विचार से भरे हो। क्योंकि तुम्हारे विचार आंखों को ढांक लेते हैं। जैसे दर्पण पर धूल जम जाये और दर्पण पर कोई प्रतिबिंब न बने। या जैसे झील में बहुत लहरें हो जायें और चांद की झलक न बने। ऐसा जब तुम विचार से भरे हो तो तुम्हारे भीतर ‘जो है’ उसका प्रतिबिंब नहीं बनता।
निश्चित जानने का अर्थ है: तुम इतने शांत हो गये, दर्पण बन गये, झील मौन हो गयी, विचार सो गये, धूल हट गयी--तो जो है, उसका दर्पण में चित्र बनने लगा। वही है निश्चित जानना--जब तुम प्रतिबिंब बनाते हो और उस प्रतिबिंब में तुम जानते हो: बूंद सागर है।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
उस क्षण तुम्हें यह भी पता चलेगा कि भाव और अभाव मेरी कल्पनाएं थीं। कुछ मैंने सोचा था है, कुछ मैंने सोचा था नहीं है--दोनों झूठ थे। जो है उसका तो मुझे पता ही न था। मैं ही झूठ था, तो जो मैंने सोचा कि है, वह भी झूठ था; जो मैंने सोचा नहीं है, वह भी झूठ था।
ऐसा समझो कि एक रात तुमने सपना देखा। सपने में तुमने देखा कि सम्राट हो गये। बड़ा साम्राज्य है, बड़े महल हैं, स्वर्णों के अंबार हैं। और दूसरी रात तुमने सपना देखा कि तुम भिखारी हो गये, सब गंवा बैठे, राज्य खो गया, सब हार गये, जंगल-जंगल भटकने लगे, भूखे-प्यासे। एक रात तुमने सपना देखा राज्य है, एक रात तुमने सपना देखा राज्य नहीं है--क्या दोनों सपनों में कुछ भी भेद है? दोनों तुम्हारी कल्पनाएं हैं। भाव भी तुम्हारी कल्पना है, अभाव भी तुम्हारी कल्पना है। और जो है वह तुम्हें दिखाई ही न पड़ा। जिस रात तुमने सपना देखा सम्राट होने का, सपना तो झूठा था; लेकिन जो देख रहा था सपना, वह सच है। दूसरी रात सपना देखा भिखारी होने का। सपना तो फिर भी झूठा था, जो दिखाई पड़ रहा था वह तो झूठा था; लेकिन जिसने देखा, वह अब भी सच है। साम्राज्य देखा कि भिखमंगापन, देखनेवाला दोनों हालत में सच है। जो दिखाई पड़ा--भाव और अभाव--वे दोनों तो कल्पित हैं। सिर्फ द्रष्टा सच है, सिर्फ साक्षी सच है। और सब सपना है।
जैसे ही तुम शांत होओगे, ये दोनों प्रतीतियां एक ही साथ घट जाती हैं कि मैं नहीं हूं, ब्रह्म है। क्योंकि साक्षी एक ही है। मेरा साक्षी अलग और तुम्हारा साक्षी अलग, ऐसा नहीं। मेरा सपना अलग, तुम्हारा सपना अलग--निश्चित ही। लेकिन मेरा साक्षी और तुम्हारा साक्षी तो बिलकुल एकरूप हैं। साक्षी में कोई भेद नहीं।
ऐसा समझो, तुम यहां बैठे हो, अगर तुम सभी शांत और मौन हो कर बैठ गये हो कि किसी के भीतर विचार की कोई लहर नहीं उठती--तो यहां कितने आदमी बैठे हैं? यहां फिर आदमियों की गिनती नहीं की जा सकती। फिर तो यहां एक ही शून्य बैठा है। तुम एक शून्य में कितने ही शून्य जोड़ते जाओ, संख्या थोड़े ही बढ़ती है। दो शून्य भी मिल कर एक ही शून्य, तीन शून्य भी मिल कर एक ही शून्य, चार शून्य भी मिल कर एक ही शून्य। अनंत शून्य भी जोड़ते जाओ तो भी शून्य एक ही रहता है। शून्य में कहीं संख्या थोड़े ही बढ़ती है। लेकिन तुम बोले, दूसरा बोला, तो दो हो गये। बोले कि दो हुए, चुप हुए कि एक हुए। तुमने कुछ कहा कि तुम अलग हुए, किसी दूसरे ने कुछ कहा कि अलग हुआ। विचार आया कि भेद आया। शब्द आये कि शत्रुता आयी। तुमने कहा कि मैं हिंदू, मैंने कहा कि मैं मुसलमान--फर्क हो गया। तुमने कहा मैं बाइबिल मानता, मैंने कहा मैं कुरान--फर्क हो गया, विवाद आ गया। जहां विवाद आ गया वहां हम अलग-अलग हो गये। जहां निर्विवाद हम बैठे हैं चुप, वहां हम अलग नहीं; वहां एक ही बैठा है। जब तुम दौड़ते हो तो अलग-अलग, जब तुम बैठते हो तो एक ही रह जाता है। जब तुम सपने में होते हो तो भिन्न-भिन्न...।
तुमने एक मजा देखा! सपने में तुम अपने मित्र को निमंत्रित नहीं कर सकते, इतने अकेले हो जाते हो। रात सपना देखते हो, खूब अच्छा सपना भी देखो तो भी तुम अपनी पत्नी को अपने सपने में नहीं ले जा सकते। यह नहीं कह सकते कि तू भी आ जा, बड़ा सुंदर सपना है। कोई उपाय नहीं है। सपने में साझेदारी नहीं की जा सकती। दो आदमी एक ही सपना नहीं देख सकते। सपना इतना भिन्न कर देता है हमें! दो आदमी एक ही सपना नहीं देख सकते। कितना ही प्रेम उनके भीतर हो और कितना ही एक-दूसरे के साथ उनकी आत्मीयता हो, तो भी सपने में अलग हो जाते हैं। जैसे दो आदमी एक साथ सपना नहीं देख सकते, ऐसे ही साक्षी में दो आदमी दो नहीं रह सकते, एक हो जाते हैं। उस एक का नाम ब्रह्म है।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
और जो तुमने मान रखा है ‘है’ और जो तुमने मान रखा है ‘नहीं है’--वे दोनों ही कल्पना-जाल हैं। वह तुम्हारी कल्पना है। तुम सच हो, तुम्हारा होना परम सत्य है, लेकिन शेष सब कल्पना का जाल है। अब इसे तुम अष्टावक्र को सुन कर मान लोगे तो यह निश्चित ज्ञान न होगा। इसको तुम प्रयोग कर के जानोगे तो निश्चित ज्ञान हो जायेगा।
धर्म उतना ही प्रयोगात्मक है जितना विज्ञान। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए।
वैज्ञानिक कहते हैं: विज्ञान बड़ा प्रयोगात्मक, एक्सपेरिमेंटल है। मैं तुमसे कहता हूं: धर्म भी उतना ही प्रयोगात्मक है। विज्ञान और धर्म में प्रयोग को ले कर विवाद नहीं है। जो विरोध है वह प्रयोगशाला को लेकर है। विज्ञान की प्रयोगशाला बाहर है; धर्म की प्रयोगशाला भीतर है। विज्ञान प्रयोग करता है अन्य पर, धर्म प्रयोग करता है स्वयं पर। वैज्ञानिक टेबिल पर बिछा देता है किसी चीज को, उसका परीक्षण, उसका विश्लेषण करता है। धार्मिक अपने ही भीतर जाता है, अपने को ही बिछा देता है टेबिल पर, अपना ही परीक्षण करता है। धर्म है स्व-परीक्षा; विज्ञान पर-परीक्षा। विज्ञान है दूसरे को जानना, धर्म है स्व-ज्ञान--लेकिन प्रयोगात्मक है, एकदम प्रयोगात्मक है।
और तुमने अगर बिना प्रयोग किये कुछ मान लिया है तो उस कूड़े-कर्कट को हटाओ। उससे कुछ सार नहीं है। उससे तुम बोझिल हो गये हो। उससे तुम्हारा सिर भारी हो गया है। उससे पांडित्य तो मिल गया, मूढ़ता नहीं मिटी।
‘यह निश्चयपूर्वक जान कर निष्काम पुरुष क्या जानता है, क्या कहता है और क्या करता है?’
यह वचन बड़ा अनूठा है। सुनो--
निष्कामः किंविजानाति किं ब्रूते च करोति किम्।
जिस व्यक्ति ने ऐसा जान लिया कि ब्रह्म ही है, मैं नहीं हूं, उसकी सब वासना चली जाती है। चली ही जायेगी, चली ही जानी चाहिए।
पहली बात: तुम्हें साधारणतः समझाया गया है कि जब तुम्हारी वासना चली जायेगी, तब ब्रह्म तुम्हें मिलेगा। नहीं, बात थोड़ी उल्टी हो गयी। जब ब्रह्म मिल जाता है, तो ही वासना जाती है। तुमने जरा बैलगाड़ी में बैल पीछे बांध दिये, गाड़ी के पीछे बैल बांध दिये। वासना तो तब तक रहेगी जब तक तुम हो। रूप बदल ले, नये रास्ते पकड़ ले, यहां तक भी हो सकता है कि ब्रह्म को जानने की वासना बन जाये कि मैं ब्रह्म को जानूं, कि मैं मोक्ष को पाऊं--मगर यह भी वासना है। धन पाऊं--वासना। ध्यान पाऊं--वासना। संसार मिल जाये, मेरी मुट्ठी में हो--वासना। परमात्मा मिल जाये, मेरी मुट्ठी में हो--वासना। इस जीवन में सुख मिले--वासना। परलोक में सुख मिले, बहिश्त में, स्वर्ग में--वासना। वासना नये रूप ले सकती है, नये आयाम ले सकती है, नयी दिशाएं पकड़ सकती है, नये विषयों पर आधारित हो सकती है। मिटेगी नहीं। जब तक तुम हो, वासना रहेगी। क्योंकि तुम्हारी मौजूदगी में वासना की तरंगें उठती हैं। तुम्हारी मौजूदगी वासनाओं की तरंगों के लिए स्रोत है। जब तुम ही खो जाते हो तभी वासना खोती है।
तुम तो एक ही उपाय से खो सकते हो और वह यह है कि तुम मौन हो कर, यह भीतर कौन तुम्हारे विराजमान है इसको आंख में आंख डाल कर देखने लगो। तो जिन्होंने तुमसे कहा है, वासना को पहले खोओ, उन्होंने तुम्हें झंझट में डाल दिया; उन्होंने तुम्हारे जीवन में नयी वासनाओं को जन्म दे दिया--धार्मिक वासनाएं। मैं तुमसे कहता हूं, वासना तुम नहीं खो सकते, लेकिन विचार तुम खो सकते हो। और विचार को खो दिया तो तुम जानोगे कि मैं कहां, मैं कौन; वही है। जब वही है तो फिर वासना के लिए कोई कारण नहीं रह गया। जब मैं हूं ही नहीं तो बांस मिट गया, अब बांसुरी नहीं बज सकती। बांस ही न बचा तो बांसुरी कैसी!
वासना तो छाया है; जैसे तुम रास्ते पर चलते हो और छाया बनती है। तुम जा कर बैठ गये शांत, वृक्ष के नीचे, धूप में नहीं चलते, छाया बननी बंद हो गयी। जिस दिन अहंकार शांत हो कर बैठ जाता है, बैठते ही गिर जाता है, क्योंकि अहंकार दौड़ने में ही जीता है; बैठने में कभी जीता नहीं। अहंकार महत्वाकांक्षा में जीता है, भाग-दौड़, आपाधापी में जीता है, ज्वर में जीता है। अहंकार शांत बैठने में तो बिखर जाता है। तुम बैठ गये शांत छाया में, मौन हो गये, विचार न रहे, तुम न रहे, वासना भी गयी। इस घड़ी में अष्टावक्र का सूत्र कहता है: निष्काम हुआ पुरुष क्या जानता है?
तुम शायद सोचते होओगे: जब हम बिलकुल शांत हो जायेंगे तो कुछ जानेंगे। तो फिर जाननेवाला बना रहा। तो अभी तुम बिलकुल शांत नहीं हुए, पूरे शांत नहीं हुए, समग्र रूपेण शांत नहीं हुए। अब तुमने कुछ और बचा लिया; भोक्ता न रहे तो ज्ञाता बन गये।
अष्टावक्र कहते हैं, ऐसा पुरुष क्या जानेगा? जाननेवाला ही नहीं बचा तो अब जानने को क्या है? भेद नहीं बचा तो किसको जानेगा? क्या कहता है? ऐसा पुरुष क्या बोलेगा? ऐसा थोड़े ही है कि परमात्मा तुम्हें मिल जायेगा तो तुम कुछ बोलोगे और परमात्मा तुमसे कुछ बोलेगा। बोल खो जायेगा। अबोल हो जाओगे।
तुलसीदास और दूसरे कवियों ने कहा है कि परमात्मा जो मूक हैं उन्हें वाचाल कर देता; जो पंगु हैं उन्हें दौड़ने की सामर्थ्य दे देता है। अष्टावक्र ने उल्टी बात कही है और ज्यादा सही बात कही है। अष्टावक्र ने कहा है: जो बोलते हैं उन्हें मूक कर देता है; जो दौड़ते हैं उन्हें पंगु कर देता है; जो कर्मठ थे वे आलसी शिरोमणि हो जाते हैं।
वचन है: मूकं करोति वाचालम्। मूक को वाचाल कर देता है। पर इसी वचन को उल्टी तरफ से पढ़ा जाता है, पढ़ा जा सकता है। हम कह सकते हैं: मूक को वाचाल कर देते; मूकं करोति वाचाल। हम ऐसा भी पढ़ सकते हैं: मूकं, करोति वाचाल। वह जो वाचाल है उसको मूक कर देता है। वही ज्यादा सही है। वह जो बोलता है चुप हो जाता है। वह जो चलता है, रुक जाता है। वह जो आता-जाता है, अब कहीं आता-जाता नहीं, बिलकुल पंगु हो जाता है। कर्ता खो जाता, कर्म खो जाता।
‘समस्त तरह की लहरें स्थूल या सूक्ष्म विसर्जित हो जातीं। ऐसा पुरुष न तो कुछ जानता, न कुछ कहता, न कुछ करता।’
किं विजानाति किं बू्रते च किं करोति।
और यही परम ज्ञान की दशा है: जहां कुछ भी जाना नहीं जाता। क्योंकि न जानने वाला है, न कुछ जाना जाने वाला है। सुनते हैं यह विरोधाभासी वक्तव्य! यही परम ज्ञान की दशा है।
किं विजानाति किं ब्रूते...।
न कुछ कहा जाता, न कुछ कहा जा सकता।
किं करोति...।
करने को भी कुछ बचता नहीं। जो होता है होता है। जो हो रहा है होता रहता है।
कहते हैं, बुद्ध बयालीस साल तक लोगों को समझाते रहे। गांव-गांव जाते रहे। इतना बोले, सुबह से सांझ तक समझाते रहे। और एक दिन आनंद कुछ पूछता था तो आनंद से उन्होंने कहा कि आनंद तुझे पता है, बयालीस साल से मैं एक शब्द भी नहीं बोला हूं? आनंद ने कहा कि प्रभु किसी और को आप कहते तो शायद मान भी लेता। मैं बयालीस साल से आपके साथ फिरता हूं, मैं आपकी छाया की तरह हूं; मुझसे आप कह रहे हैं कि आप कुछ नहीं बोले! सुबह से सांझ तक आप लोगों को समझाते हैं।
बुद्ध ने कहा: आनंद, फिर भी मैं कहता हूं, तू स्मरण रखना, कि बयालीस साल से मैं एक शब्द नहीं बोला। आनंद ने कहा: गांव-गांव भटकते हैं, घर-घर, द्वार-द्वार पर दस्तक देते हैं। तो बुद्ध ने कहा: आनंद, मैं फिर तुझसे कहता हूं कि बयालीस साल से मैं कहीं आया-गया नहीं। आनंद ने कहा: आप शायद मजाक कर रहे हैं। मुझे छेड़ें मत।
लेकिन आनंद समझ नहीं पाया। यह तो आनंद जब स्वयं बुद्ध के विसर्जन के बाद, बुद्ध के निर्वाण के बाद ज्ञान को उपलब्ध हुआ तब समझा, तब रोया। तब रोते समय उसने कहा कि हे प्रभु, तुमने कितना समझाया और मैं न समझा। आज मैं जानता हूं कि बयालीस साल तक न तुम कहीं गये, न आये। और आज मैं जानता हूं कि बयालीस साल तक तुमने एक शब्द नहीं बोला।
किं विजानाति किं ब्रूते किं करोति।
तुमने कुछ भी नहीं किया।
जब अहंकार चला जाता है तो सब क्रियाएं चली जाती हैं। क्रिया मात्र अहंकार की है। जानना भी क्रिया है, बोलना भी क्रिया है, चलना भी क्रिया है, करना भी क्रिया है। सब चला जाता है।
तुम्हें भी अड़चन होगी, अगर मैं तुमसे कहूं कि मैं एक शब्द भी नहीं बोला। अभी बोल ही रहा हूं। और अगर कहूं कि एक शब्द भी नहीं बोल रहा हूं तो तुम्हें भी अड़चन होगी। तुम्हारी अड़चन भी मैं समझता हूं। क्योंकि तुमने अब तक जो भी किया है वह ‘किया’ है; तुमने जीवन में कुछ होने नहीं दिया। ये शब्द बोले जा रहे हैं; इन शब्दों को कोई बोल नहीं रहा है। जैसे वृक्षों पर पत्ते लगते हैं और वृक्षों पर फूल लगते हैं, ऐसे ये शब्द भी लग रहे हैं। इन्हें कोई लगा नहीं रहा। इनके पीछे कोई चेष्टा नहीं है, कोई प्रयास नहीं है, कोई आग्रह नहीं है। ये न लगें तो कुछ फर्क न पड़ेगा। ये लगते हैं तो कुछ फर्क नहीं पड़ता है। अचानक बोलते-बोलते अगर बीच में ही मैं रुक जाऊं तो कुछ फर्क न पड़ेगा। अगर शब्द न आया तो न आया।
कूलरिज मरा--अंग्रेजी का महाकवि--तो हजारों अधूरी कविताएं छोड़ कर मरा। मरने के पहले उसके एक मित्र ने पूछा कि इतनी कविताएं अधूरी छोड़े जा रहे हो! इन्हें पूरा क्यों न किया? तो कूलरिज ने कहा, मैं कौन था पूरा करने वाला! जितनी आयी उतनी आयी; उससे ज्यादा नहीं आयी तो नहीं आयी। तीन पंक्तियां उतरीं तो मैंने तीन पंक्तियां लिख दीं। मैं तो उपकरण था। चौथी पंक्ति नहीं आयी। पूरी चौपाई भी न बनी तो मैं क्या कर सकता था? जितना आया, आया।
केवल सात कविताएं पूरी करके कूलरिज ने जीवन भर में...सात कविताएं। लेकिन सात कविताओं के आधार पर महाकवि है। सात-सात हजार कविताएं लिखने वाले लोग भी महाकवि नहीं हैं। कुछ बात है कूलरिज की कविता में, कुछ पार की बात है, कुछ बड़े दूर की ध्वनि है। कोई अज्ञात उतरा है। कूलरिज नहीं बोला; परमात्मा बोला है।
यही अर्थ है जब हम कहते हैं कि वेद अपौरुषेय हैं, या हम कहते हैं कुरान उतरी। इसका मतलब समझ लेना। हिंदू-मुसलमान क्या दावे करते हैं, उससे मुझे मतलब नहीं है। उनके दावे का मैं समर्थन भी नहीं कर रहा हूं। लेकिन इसका अर्थ यही है। कुरान उतरी। मुहम्मद ने खुद बनायी नहीं; उतरता हुआ पाया। जब पहली दफा कुरान मुहम्मद पर उतरी तो वे बहुत घबरा गये। क्योंकि वे तो गैर-पढ़े-लिखे आदमी थे। उन्होंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा अपूर्व काव्य, और उतर आयेगा। इसकी कभी कल्पना भी न की थी, सपना भी न देखा था। यह तो उनके हिसाब-किताब के बाहर था। यह तो ऐसा ही समझो कि तुमने जिंदगी भर मूर्ति न बनायी हो और एक दिन अचानक तुम पाओ कि तुमने छैनी उठा ली है, हथौड़ी उठा ली है और तुम संगमरमर खराद रहे हो, संगमरमर को छैनी से काट रहे हो और तुम चौंको कि मैं यह क्या कर रहा हूं, मैं कोई मूर्तिकार नहीं हूं, मैंने कभी सोचा भी नहीं! मगर विवश, कोई अदम्य तुम्हें खींचे ले जाये और तुम न केवल इतना पाओ कि मूर्ति खोद रहे हो, तुम एक जगत की श्रेष्ठतम मूर्ति खोद दो, तो क्या तुम यह कह सकोगे कि मैंने खोदी? तुमने न तो कभी सीखा न तुमने सपना देखा। तुम्हारे मन में मूर्तियां तैरती ही न थीं।
मुहम्मद तो साधारण व्यक्ति थे, गैर-पढ़े-लिखे थे, काम से काम था। यह तो कभी सोचा भी न था। जब पहली दफा मुहम्मद पर कुरान उतरी और किसी अंतरआकाश में उन्हें सुनाई पड़ा कि गुनगुना, गा! तो वे बहुत घबरा गये। लिख! तो वे बहुत घबरा गये। क्योंकि वे तो लिखना भी नहीं जानते थे। भीतर आवाज आयी: नहीं लिख सकता, पढ़! तो उन्होंने कहा, मैं पढ़ना भी नहीं जानता। वे तो दस्तखत भी नहीं कर सकते थे। वे इतने घबरा गये कि उन्हें बुखार आ गया। समझा कि कोई भूत-प्रेत है या क्या मामला है? वे तो घर आ कर रजाई ओढ़ कर सो गये। पत्नी ने बोला, क्या हुआ? भले-चंगे गये थे, क्या हो गया? उन्होंने कहा, मत पूछ कुछ तू। वे तो दुबके पड़े रहे रजाई में, कंपते रहे और वह आवाज गूंजती रही, और वह आवाज रूप लेने लगी और कुरान की पहली आयत उतरने लगी। इसे मुहम्मद ने उतरते देखा। यह मुहम्मद से बिलकुल अलग है। इसका मुहम्मद से कुछ लेना-देना नहीं है। मुहम्मद तो जैसे बांस की पोंगरी हैं; कोई इसमें से गीत गाने लगा; किसी के स्वर इसमें भरने लगे। मुहम्मद ने तो जगह दे दी और जगह भी आश्चर्यचकित भाव में दी, कुछ पता ही नहीं कि यह क्या हो रहा है। इसके लिए कोई तैयारी न थी। यह महान कुरान उतरी। यह महाकाव्य उतरा।
इस अर्थ में कुरान अपौरुषेय है, मनुष्य की बनायी हुई नहीं है। ऐसे ही वेद उतरे। ऐसे ही बाइबिल उतरी। ऐसे ही उपनिषद उतरे। ऐसे ही धम्मपद उतरा। ऐसे ही महावीर की वाणी उतरी। नहीं, किसी ने कहा नहीं है। अस्तित्व बोला। विराट बोला। अज्ञात बोला।
निष्कामः किं विजानाति किं बू्रते च करोति किम्।
ऐसी वासनामुक्त दशा में जहां जान लिया गया कि आत्मा ब्रह्म है, फिर न तो कुछ कोई बोलता, न कुछ कोई जानता, न कुछ कोई करता; यद्यपि सब होता है--बोला भी जाता, किया भी जाता, जाना भी जाता।
‘सब आत्मा है ऐसा निश्चयपूर्वक जान कर शांत हुए योगी की ऐसी कल्पनाएं कि यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं, क्षीण हो जाती हैं।’
अयं सोऽहमयं नाहमिति क्षीणा विकल्पनाः।
सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णीभूतस्य योगिनः।।
सर्वं आत्मा!
ब्रह्म का अर्थ है: एक ही है। और सबमें एक ही है। पत्थर से ले कर परमात्मा तक एक का ही विस्तार है, एक की ही तरंगें हैं। जड़ से ले कर चैतन्य तक एक ही प्रगट हुआ है। अनेक-अनेक रूप धरे हैं, अनेक-अनेक भाव-भंगिमाएं हैं--मगर जिसकी हैं वह एक है।
सर्वं आत्मा!
सब आत्मा है।
इति निश्चित्य...।
ऐसा जिसने निश्चयपूर्वक जाना, अनुभव किया, स्वाद लिया! सिर में ही न घूमी ये बातें, हृदय में उतर गयीं; ऊपर-ऊपर से न चिपकायी गयीं, भीतर से अंकुरण हुआ, उदभव हुआ!
तूष्णीभूतस्य योगिनः।
ऐसा व्यक्ति परम शांति को उपलब्ध हो जाता है, परम विश्राम को।
तुमने खयाल किया? मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि ‘बड़ी अशांति है, शांत कैसे हो जायें? कोई शांति का रास्ता बता दें।’ वे कोई सस्ता रास्ता चाहते हैं। वे कुछ ऐसा रास्ता चाहते हैं कि जैसे वे हैं वैसे बने भी रहें और शांत हो जायें। धन के पीछे दौड़ रहे हैं तो दौड़ते रहें। सच तो यह है शायद शांत इसीलिए होना चाहते हैं ताकि धन के पीछे और ठीक से दौड़ सकें। रात नींद नहीं आती तो सुबह से दूकान में दौड़-धूप उतनी नहीं हो पाती जितनी हो सकती थी; विश्राम ही नहीं हो पाया तो श्रम कैसे हो?
आदमी शांत भी होना चाहता है तो सिर्फ इसीलिए ताकि वह जो अशांति का व्यापार चला रहा है, व्यवसाय चला रहा है, उसको वह ठीक से चला सके।
अगर मैं उनसे कहता हूं कि शांत तो तुम तब तक न हो सकोगे जब तक तुम हो, तो वे कहते हैं कि फिर अपने वश के बाहर है! शांति वे चाहते हैं किसी वस्तु की तरह उनमें जुड़ जाये। वे जैसे हैं, वैसे के वैसे रहें; शांति और आ जाये और उनमें जुड़ जाये। जैसे हम एक वस्तु खरीद लाते हैं बाजार से। नयी टेबिल खरीद लाये कि टेलिविजन खरीद लाये। पुराना मकान है, पुराना घर, पुरानी पत्नी, पुराने बच्चे, सब पुराना, हम पुराने, सब पुराना, एक टेलिविजन खरीद लाये, उसको भी उसी कमरे में रख दिया। लोग चाहते हैं ऐसी शांति आ जाये, कि ऐसा ज्ञान आ जाये।
नहीं, सब पुराना जायेगा तो ही शांति आ सकती है। शांति तो तुम्हारे चले जाने की अवस्था है। जहां से तुम तिरोहित हो गये। जब तक तुम हो, तुम उपद्रव करते ही रहोगे। उपद्रव तुम्हारा स्वभाव है। उपद्रव अहंकार का स्वभाव है। अहंकार रोग है।
तूष्णीभूतस्य योगिनः।
जिसने जान लिया कि एक ही है, वही शांत हो पाता है; वही उस परम विश्रांति को उपलब्ध होता है जहां कोई तनाव नहीं रह जाता।
तनाव क्या है? तनाव यह है...तनाव को समझें। दूसरा दुश्मन है--यह तो तनाव पहला। दूसरा है, यह मान लेने से ही उपद्रव शुरू हो गया। तो फिर दूसरा छीन-झपट करेगा, प्रतिस्पर्धा करेगा, संघर्ष करना होगा। दूसरा है तो युद्ध है और दूसरा है तो दुश्मनी है। दूसरा है तो तुम अकेले नहीं हो। तुम जिन वासनाओं के पीछे दौड़ रहे, दूसरे भी दौड़ रहे हैं। तुम्हीं थोड़े ही राष्ट्रपति होना चाहते हो, साठ करोड़ भारतवासी राष्ट्रपति होना चाहते हैं। पद एक है और साठ करोड़ उम्मीदवार हैं, तो हर एक आदमी के खिलाफ बाकी साठ करोड़ जो बचे हैं, वे इसके दुश्मन हैं। जहां दूसरा है वहां दुश्मनी है। और जब दूसरा है तो फिर अपनी आत्मरक्षा का उपाय भी करना होगा। तो भय है, घबड़ाहट है, सुरक्षा करनी है। तुम सुरक्षा करते हो तो दूसरा भी डर जाता है।
तुमने देखा, पाकिस्तान खरीद ले अमरीका से हवाई जहाज कि हिंदुस्तान घबड़ाया कि बस शोरगुल मचा। तो खरीदो रूस से जल्दी या कुछ इंतजाम करो। इधर हिंदुस्तान ने खरीदा कि उधर पाकिस्तान घबराया कि अरे, और इंतजाम करो! कोई इसकी फिक्र ही नहीं करता कि जब तुम दूसरे से घबड़ा कर इंतजाम करने लगते हो तो दूसरा भी तुमसे घबरा कर इंतजाम करने लगता है। दुष्ट चक्र पैदा होता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक राह से गुजर रहा था। सांझ का वक्त था, धुंधलका था। और उसने एक किताब पढ़ी थी और किताब में डाकुओं और हत्यारों की बात थी। कुछ होगी पुराने जासूसी ढंग की किताब, भूत-प्रेत, तिलिस्मी। वह घबड़ाया हुआ था, किताब की छाया उसके सिर पर थी। और उसने देखा कि लोग चले आ रहे हैं। उसने कहा, मालूम होता है दुश्मन। और बैंड-बाजे भी बजा रहे हैं, हमला हो रहा है। घोड़े पर चढ़ा आ रहा है कोई आदमी और तलवार लटकाये हुए। वह तो एक बारात थी। मगर वह बहुत घबड़ा गया। उसने देखा, यहां तो कुछ उपाय भी नहीं है। पास ही एक कब्रिस्तान था, तो घबड़ा कर दीवाल छलांग कर कब्रिस्तान में पहुंच गया। वहां एक नयी-नयी कब्र खुदी थी। अभी मुर्दा लाने लोग गये होंगे कब्र खोदकर, तो वह उसी में लेट गया। उसने सोचा कि मुर्दे की कौन झंझट करता है।
लेकिन उसको ऐसा छलांग लगा कर देख कर, छाया को उतरते देख कर बाराती भी घबड़ा गये कि मामला क्या है! अचानक एक आदमी छलांग लगाया, भागा--वे भी देख रहे हैं। वे भी घबड़ा गये, उन्होंने भी बैंड-बाजे बंद कर दिये। जब बैंड-बाजे बंद कर दिये तो मुल्ला ने कहा मारे गये! देखे गये! वह बिलकुल सांस रोक कर पड़ा रहा। वे भी आहिस्ता से धीरे-धीरे दीवाल के ऊपर आ कर झांके। जब बारातियों ने दीवाल के ऊपर झांका, उसने कहा: हो गया खात्मा समझो! अब पत्नी-बच्चों का मुंह दुबारा देखने न मिलेगा। और जब उसको उन्होंने देखा कि वह आदमी, बिलकुल जिंदा आदमी अभी गया और नयी-नयी खुदी कब्र में बिलकुल मुर्दे की तरह लेटा। उन्होंने कहा, कोई जालसाजी है। यह आदमी हमला करेगा, बम फेंकेगा या क्या करेगा! तो वे सब आये लालटेनें ले कर, मशालें जला कर खड़े हो गये चारों तरफ।
अब मुल्ला कब तक सांस रोके रहे! आखिर सांस सांस ही है। थोड़ी देर रोके रहा, फिर उठ कर बैठा गया। उसने कहा, अच्छा भाई कर लो जो करना है। उन्होंने कहा, क्या करना, क्या मतलब? तुम क्या करना चाहते हो? तब उसकी समझ में आया। उन बारातियों ने पूछा कि तुम यहां क्या कर रहे हो? तुम इस कब्र में क्यों लेटे हुए हो? तो नसरुद्दीन ने कहा, हद हो गयी। मैं तुम्हारी वजह से यहां हूं और तुम मेरी वजह से यहां हो! और बेवजह सारा मामला है। जब उसने देखा लालटेन वगैरह, ज्योति में कि यह तो बारात है, दूल्ला-वूल्हा सजाये है, कहीं कोई हमला करने नहीं जा रहे हैं। अपना वहम है।
तुमने देखा? पड़ोसी कुछ करने लगे तो तुम तैयारी करने लगते हो। तुम कुछ करने लगे तो पड़ोसी तैयारी करने लगता है। दुनिया में आधे संघर्ष तो इसीलिए हो रहे हैं कि भय है। तुम घर लौटते--ऐसा कोई राष्ट्रों में हो रहा है, ऐसा नहीं है--तुम घर लौटते, तुम रास्ते में ही तैयारी करने लगते कि पत्नी क्या कहेगी, जवाब क्या देना है! तुम तैयारी करने लगे। पत्नी भी घर तैयारी कर रही है कि अच्छा, पांच बज रहा है, पति लौटते होंगे; देखें क्या उत्तर ले कर आ रहे हैं! वह भी तैयारी करने लगी। दोनों तैयार हैं।
दूसरे से बचने का भय तुम्हें और सिकोड़ जाता है, तनाव से भर जाता है, असुरक्षित कर जाता है। सारा जीवन इस कलह में बीत जाता है। छोटी कलह, बड़ी कलह, जातियों की, धर्मों की, राष्ट्रों की--मगर कलह एक ही है।
‘सब आत्मा है ऐसा जिसने निश्चयपूर्वक जाना, वह हो गया शांत।’
तूष्णीभूतस्य योगिनः।
वही है योगी। जिसने यह जान लिया कि एक ही है, फिर क्या भय है! तुममें भी मैं ही हूं, तो फिर क्या प्रश्न, फिर किससे संघर्ष?
डार्विन का सिद्धांत है: संघर्ष। और पूरब के समस्त ज्ञानियों का सिद्धांत है: समर्पण। और डार्विन कहता है: जो सबलतम हैं वे बचे रहते हैं। सरवाइवल ऑफ दि फिटेस्ट। और पूरब के ज्ञानी कुछ और कहते हैं। पूछो लाओत्सु से, पूछो अष्टावक्र से, पूछो बुद्ध से, महावीर से; वे कुछ और कहते हैं। वे कहते हैं: जो कोमल है वही बच रहता है। जो प्रेमपूर्ण है वही बच रहता है। स्त्रैण तो बच रहता है, कठोर तो हार जाता है।
लाओत्सु कहता है: गिरती है जल की धार पहाड़ से कठोर चट्टान पर। ऊपर से तो देखने में यही लगेगा कि चट्टान जीतेगी, धार हारेगी। धार तो कोमल है, चट्टान तो मजबूत है। अगर डार्विन सच था तो धार हारनी थी, चट्टान जीतनी थी। लेकिन लाओत्सु सच मालूम होता है। धार जीत जाती है, चट्टान हार जाती है। कुछ वर्षों बाद तुम पाओगे चट्टान तो रेत हो कर बह गयी, धार अपनी जगह है।
कोमल जीतता है, कठोर हारता है। निरहंकारी जीतता है, अहंकारी हारता है। अहंकारी चट्टान की तरह है, निरहंकारी जल की धार है।
इसे ऐसा कहें, जो लड़ता वह हारता। जो हारता वही जीतता। जो हारने को राजी है उसका अर्थ ही यह है कि वह कहता है तुम भी मैं ही हो।
कभी तुमने देखा, अपने छोटे बेटे से तुम कुश्ती लड़ते हो तो तुम जीतते थोड़े ही हो। बेटे से जीतोगे तो मुहल्ले के लोग भी हंसेंगे, यह क्या नासमझी की बात की तुमने! जरा-से बेटे से जीत कर उसकी छाती पर बैठ गये। नहीं, बाप जब बेटे से लड़ता है तो बस हारने के लिए लड़ता है। ऐसा थोड़ा...ऐसा भी नहीं कि एकदम से लेट जायें, नहीं तो बेटे को भी मजा नहीं आयेगा। वह कहेगा, यह क्या मामला है! क्या धोखा दे रहे? तो थोड़ा हाथ-पैर चलाता है, बल दिखलाता है, धमकाता है, लेकिन फिर लेट जाता है। बेटा छाती पर बैठ कर प्रसन्न होता है और कहता है जीत गये! बेटा अपना है तो हारने में डर क्या। अपने बेटे से कौन नहीं हारना चाहेगा!
उपनिषद के गुरुओं ने कहा है: गुरु तभी प्रसन्न होता है जब शिष्य से हार जाता है। अपने शिष्य से कौन नहीं हारना चाहेगा? कौन गुरु न चाहेगा कि शिष्य मुझसे आगे निकल जाये--वहां पहुंच जाये जहां मैं भी नहीं पहुंच पाया! जब अपना ही है तो हार का मजा है। पराये से हम जीतना चाहते हैं, अपने से थोड़े ही जीतना चाहते हैं। अगर यह मेरा ही विस्तार है, अगर मैं इस विस्तार का ही एक हिस्सा हूं, अगर तुम और मेरे बीच कोई फासला नहीं है, एक ही चेतना का सागर है, तो फिर कैसी हार, कैसी जीत, फिर कैसा संघर्ष! और जहां संघर्ष न रहा वहां शांति है। शांति लायी नहीं जाती; संघर्ष के अभाव का नाम शांति है।
तूष्णीभूतस्य योगिनः।
और वही है योगी जो इस भांति शांत हुआ। ऐसे बैठ गये पालथी मार कर, आंख बंद करके, जबर्दस्ती अपने को किसी तरह संभाल कर शांत किये बैठे हैं--यह कोई शांति नहीं है। यह तो सिकुड़ जाना है। मुर्दे की तरह बैठ गये अकड़ कर, किसी तरह अपने को समझा-बुझा कर, बांध-बूंध कर शांत कर लिया--यह कोई शांति नहीं है। वास्तविक योगी तो विश्राम को उपलब्ध हो जाता है, विराम को उपलब्ध हो जाता है। वह तो अपने को छोड़ देता, निमज्जित कर देता, बूंद सागर में गिर जाती है।
इति विकल्पनाःअयं सः अहं अयं न क्षीणाः।
‘यह मैं हूं, यह मैं नहीं हूं--ऐसी सब कल्पनाएं योगी की सदा के लिए क्षीण हो जाती हैं।’
यह कहना कि यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं, भेद खड़ा करना है, जब कि एक ही है, तो किसी को कहना मैं और किसी को कहना तू, भेद खड़ा करना है; विकल्पना है, तुम्हारी धारणा है। और देखना, भय से भूत खड़े हो जाते हैं। खयाल पैदा हो जाये तो बस...।
मेरे गांव में मैं जब कभी-कभी जाता, तो एक सज्जन को मैं जानता था जो सदा बात करते कि मैं भूत-प्रेत से बिलकुल नहीं डरता। उनसे मैं इतनी दफे सुन चुका--स्कूल में शिक्षक हैं--कि मैंने उनसे कहा कि तुम जरूर डरते होओगे। तुम बार-बार कहते हो कि मैं भूत-प्रेत से नहीं डरता। कोई कारण भी नहीं होता तब भी तुम कहते हो कि भूत-प्रेत से नहीं डरता। तुम जरूर डरते होओगे। मैंने कहा कि मैं भूत-प्रेत जानता हूं, एक जगह हैं। अगर तुम्हारी सच में हिम्मत हो तो तुम चले चलो। अब वे सदा कहते थे। तो घबड़ाये तो बहुत। उनके चेहरे से तो बहुत घबड़ाहट मालूम पड़ी। लेकिन अब अहंकार का मामला था। उन्होंने कहा, मैं डरता ही नहीं, कहां है?
तो मेरे पड़ोस में ही एक गोडाउन, जहां एक कैरोसिन तेल बेचने वाले के टीन के डब्बे इकट्ठे रहते थे। खाली डब्बे गर्मी के दिन में सिकुड़ते और आवाज करते। और डब्बों की कतार लगी है उस घर में। तो मैंने उनसे कहा, बस तुम इसमें रात भर रह जाओ। घबड़ाये तो वे बहुत, क्योंकि उसमें वर्षों से कोई नहीं रहा है। उसमें डब्बे ही भरे रहते हैं वहां। कहने लगे, क्या आपको पक्का है कि यहां भूत-प्रेत हैं? मैंने कहा, पक्का है ही और तुम खुद अनुभव करोगे कि जब भूत-प्रेत एक डब्बे में से दूसरे में जाने लगेंगे, तब तुम्हें पता चलेगा। घबड़ाना मत। और अगर कोई बहुत घबड़ाहट की बात हो जाये तो मैं एक घंटा टांग जाता हूं, इसको तुम बजा देना। तो मैं आ जाऊंगा और पास-पड़ोस के लोग आ जायेंगे, तुम्हें बचा लेंगे, तुम घबड़ाना मत।
उन्होंने कहा, घबड़ाता ही नहीं मैं। तो मैंने कहा, फिर घंटा ले जाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा, घंटा तो रख ही लेना चाहिए।
‘तुम घबड़ाते ही नहीं तो घंटे का क्या करोगे?’
‘अब वक्त-बेवक्त की कौन जानता है!’
मगर उनके हाथ-पैर कंपने लगे। मैं उन्हें छोड़ कर ही आया, कोई आधा ही घंटा नहीं हुआ होगा, शाम ही थी, साढ़े आठ-नौ बजे होंगे, कि उन्होंने जोर से घंटा बजाया। क्योंकि जैसे ही सांझ होती है और तापमान बदलता है तो दिन भर के तपे हुए डब्बे फैल जाते हैं और रात को सिकुड़ते हैं। जैसे ही सिकुड़ते कि आवाज होनी शुरू होती। अब उनको कल्पना तो पक्की थी और अकेले थे वहां, तो उन्होंने खूब कल्पना कर ली होगी अपने को संभालने के लिए, कि कोई कुछ नहीं कर सकता है, यह...। और जब उन्होंने सुना निकलने लगे भूत, एक डब्बे में से दूसरे में जाने लगे, घंटा बजाया। मैं पहुंचा। मुझे पता ही था कि घंटा बजेगा ही थोड़ी-बहुत देर में। ज्यादा देर नहीं लग सकती, क्योंकि वे भूत-प्रेत तो निकलेंगे ही। वे छज्जे पर खड़े हैं। उनको मैं कहूं कि आप अंदर से आ कर दरवाजा खोलो, क्योंकि दरवाजा भीतर से तुम ही लगा गये हो। मगर उनकी इतनी हिम्मत नहीं कि वे उस कमरे में से गुजर सकें जहां से भूत-प्रेत निकल रहे हैं। और उनकी घिग्घी भी बंद हो गयी। वे बोल भी न सकें। सीढ़ी लगा कर उनको नीचे उतारना पड़ा।
मैंने उनसे पूछा, बोलते क्यों नहीं? उन्होंने कहा, क्या खाक बोलूं? किसी तरह आधा घंटा बर्दाश्त किया है। अब भूल कर कभी नहीं यह कहूंगा कि...। भूत-प्रेत होते हैं। अपना प्रत्यक्ष अनुभव अब मुझे हुआ। मैंने उन्हें लाख समझाया कि कोई भूत-प्रेत नहीं हैं। चलो मैं तुम्हारे साथ चलता हूं। तुम्हें सब राज समझाये देता हूं। उन्होंने कहा, छोड़ो, अब इस मकान में मैं दुबारा नहीं जा सकता हूं।
मैं फिर गांव जब भी जाता हूं उनसे पूछता हूं कि क्या खयाल है? उन्होंने कहा कि मैंने वह बात ही छोड़ दी।
तुम्हारी कल्पना तुम आरोपित कर ले सकते हो--किसी भी चीज पर आरोपित कर ले सकते हो। और विकल्पना का बड़ा बल है। तुम एक स्त्री को सुंदर मान लेते हो, बस वह सुंदर हो जाती है। तुम धन में कुछ देखने लगते हो, दिखाई पड़ने लगता है। तुम पद में कुछ लोलुप हो जाते हो, वासना वहां जुड़ जाती है, विकल्पना जाल फैलाने लगती है। तुम कितनी बार नहीं बैठे-बैठे कल्पना करने लगते हो कि सफल हो गये, चुनाव जीत गये, अब जुलूस निकल रहा है, अब लोग फूलमालाएं पहना रहे हैं! बैठे अपने-अपने घर में हैं, लेकिन यह कल्पना चल रही है। कितनी बार नहीं तुम शेखचिल्ली हो जाते हो! ज्ञानी कहते हैं कि हमारा सारा जीवन शेखचिल्लीपन है। हमने कुछ कल्पनाएं बना रखी हैं। उन कल्पनाओं को हमने इतना बल दे दिया है, अपने प्राण उनमें उंडेल दिये हैं, उन पर इतना भरोसा कर लिया है कि वे वास्तविक मालूम होती हैं। वास्तविक हैं नहीं।
बच्चा जब पैदा होता है तो शून्य की तरह पैदा होता है। उसे कुछ पता नहीं होता। हम उसे सिखाते हैं कि यह तेरा शरीर। मान्यता पैदा होती है। वह सीख लेता है कि यह मेरा शरीर। हम उसे सिखाते हैं चरित्र, हम उसे सिखाते हैं अहंकार कि ‘देख तू किस कुल में पैदा हुआ! देख, स्कूल में प्रथम आना। इसमें कुल की प्रतिष्ठा है। सबसे आगे रहना! चरित्र बनाना, अपने को विभूषित करना सुंदर गुणों से।’ धीरे-धीरे धीरे-धीरे यह निरंतर जो सम्मोहन चलता है, बच्चा भी मानने लगता है कि मैं कुछ विशिष्ट हूं, मैं कुछ हूं, विशेष घर में पैदा हुआ, विशेष परिवार में पैदा हुआ, विशेष धर्म में पैदा हुआ, विशेष देश में पैदा हुआ, राष्ट्र का गौरव हूं, और-और इस तरह की सब बातें--देह हूं, मन हूं--ये सब बातें गहन होती चली जाती हैं।
निरंतर पुनरुक्ति से झूठ भी सच हो जाते हैं। बार-बार दोहराने से कोई भी बात सच मालूम होने लगती है। और एक बार तुम्हें सच मालूम होने लगे कि बस तुम उसके गिरफ्त में आ गये।
‘सब आत्मा है, ऐसा निश्चयपूर्वक जान कर शांत हुए योगी की ऐसी कल्पनाएं कि यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं, क्षीण हो जाती हैं।’
तुम न तो देह हो, न तो मन हो। तुम इन दोनों के पार हो। न तुम हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न तुम स्त्री, न तुम पुरुष, न तुम भारतीय, न तुम चीनी, न तुम जर्मन। न तुम गोरे न तुम काले। न तुम जवान न तुम बूढ़े। तुम इन सबके पार हो। वह जो इन सब के पार छिपा देख रहा है--वही हो तुम। उस साक्षी के सत्य को जितना ही तुम अनुभव कर लो, जितना निश्चयपूर्वक अनुभव कर लो, उतने ही शांत हो जाओगे।
‘उपशांत हुए योगी के लिए न विक्षेप है और न एकाग्रता है, न अतिबोध है और न मूढ़ता है, न सुख है न दुख है।’
इस सूत्र को खयाल में लेना: ‘उपशांत’। इस तरह शांत हो गये योगी के लिए। जिसने अहंकार की विकल्पनाएं छोड़ दीं। जिसने अपने सब तरह के तादात्म्य छोड़ दिये हैं। जो अब नहीं कहता कि यह मैं हूं और जो तू से अपने को अलग नहीं करता, ऐसे उपशांत हुए योगी के लिए न विक्षेप है, अब उसे कोई चीज ‘डिस्ट्रेक्ट’ नहीं करती। अब कैसे उसे कोई चीज विक्षेप बन सकती है?
तुम बैठे। तुम कहते हो, मैं ध्यान करने बैठा और पत्नी ने बर्तन गिरा दिया चौके में और विक्षेप हो गया। ध्यान भंग हो गया। यह ध्यान नहीं था अगर यह भंग हो गया। कि बच्चा चिल्ला दिया, कि राह से कोई ट्रक निकल गया, कि हवाई जहाज गुजर गया ऊपर से--इससे बड़ी विघ्न-बाधा पड़ गयी। अगर विघ्न-बाधा पड़ गयी तो यह ध्यान नहीं था। तुम किसी तरह अपने को संभाल कर बैठे थे जबर्दस्ती; जरा-सी चोट, कि तुम्हारी जबर्दस्ती टूट गयी। यह कोई ध्यान नहीं था।
ध्यान की अवस्था तो शून्य की अवस्था है; विक्षेप हो कैसे सकता है? शून्य में कहीं कोई विक्षेप होता है? कोई विघ्न-बाधा पड़ती है? तुम अगर शांत बैठे थे, वस्तुतः उपशांत हो कर बैठे थे तो पत्नी गिरा देती बर्तन, बर्तन की आवाज गूंजती, तुम्हें सुनाई पड़ती, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। सुनाई पड़ती जरूर, क्योंकि कान तो हैं तुम्हारे, कान तो नहीं समाप्त हो गये। शायद और भी अच्छी तरह से सुनाई पड़ती, क्योंकि तुम बिलकुल शांत बैठे थे, सूई भी गिरती तो सुनाई पड़ती। लेकिन आवाज गूंजती। जैसे खाली मकान में आवाज गूंजती है, फिर विलीन हो जाती है--ऐसे तुम्हारे खालीपन में आवाज आती, गूंजती, विदा हो जाती; तुम जैसे थे वैसे ही बैठे रहते। तुम्हारा शून्य जरा भी न कंपता। शून्य कंपता ही नहीं; सिर्फ अहंकार कंपता है। सिर्फ अहंकार पर चोट लगती है। अहंकार तो एक तरह का घाव है, उस पर चोट लगती है। जरा कोई छू दे तो चोट लगती है। इसको खयाल में लेना।
‘न तो कोई विक्षेप है और न कोई एकाग्रता है।’
यह बड़ा अनूठा वचन है! साधारणतः तुम सोचते हो ध्यान का अर्थ: एकाग्रता। ध्यान का अर्थ एकाग्रता या कनसंट्रेशन नहीं है। क्योंकि अगर एकाग्रता करोगे तो विक्षेप होगा, बाधा पड़ेगी। तुम अगर बैठे थे अपना ध्यान लगाये राम जी की प्रतिमा पर और कोई कुत्ता भौंक गया, बस गड़बड़ हो गयी। क्योंकि वह कुत्ते का भौंकना तुम्हें सुनाई पड़ेगा न! जितनी देर कुत्ते का भौंकना सुनाई पड़ा, उतनी देर राम पर से ध्यान हट गया। एक क्षण को भूल गये। तुम अपनी माला फेर रहे थे और फोन की घंटी बजने लगी। एक सेकेंड को चित्त फोन की घंटी पर चला गया, माला हाथ से चूक गयी। चाहे हाथ फेरता भी रहे, लेकिन भीतर तो चूक गयी। तुम दुखी हो गये कि यह तो विक्षेप हो गया, बाधा पड़ गयी।
ध्यान एकाग्रता नहीं है। ध्यान तो जागरूकता है।
तुम बैठे थे, कुत्ता भौंका तो वह भी सुनाई पड़ा। घंटी बजी टेलीफोन की, वह भी सुनाई पड़ी। जब कुत्ता भौंका तो ऐसा विचार नहीं पैदा हुआ भीतर कि कुत्ते को नहीं भौंकना चाहिए। तुम कौन हो कुत्ते को रोकने वाले? तुम्हें कुत्ता नहीं रोक रहा ध्यान करने से! कुत्ता नहीं कहता कि तुम्हारे ध्यान करने से बड़ा विक्षेप पड़ता है, कि हमें भौंकने में बाधा आती है। बंद करो ध्यान इत्यादि, क्योंकि इससे हमें भौंकने में थोड़ा अपराध भाव मालूम पड़ता है कि भौंकते हैं तो विक्षेप पड़ेगा। तुम हमारी स्वतंत्रता पर बाधा डाल रहे हो यहां बैठ कर, आंख बंद करके, आसन लगा कर।
नहीं, कुत्ते को तुम्हारे ध्यान से कुछ मतलब नहीं है। तुम्हारे ध्यान को कुत्ते से क्या मतलब है? कुत्ता भौंका, भौंका। आवाज गूंजी, गूंजी। कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं हुई। तुम्हारे भीतर ऐसा नहीं हुआ कि नहीं, इस कुत्ते को नहीं भौंकना चाहिए था। कि यह पड़ोसी का कुत्ता और यह पड़ोसी, ये मेरे दुश्मन हैं, ये मेरी जान के पीछे पड़े हैं। कि देखो, मैं ध्यान करने बैठा हूं और यह पड़ोसी अपने कुत्ते को भुंकवा रहा है! साजिश है। षड्यंत्र है। चल पड़ा मन कि इसका बदला चुका कर रहूंगा। कि खरीद कर लाऊंगा इससे भी मजबूत कुत्ता, अलसेशियन, और इसको बदला चुकवा कर रहूंगा। कि यह कारपोरेशन क्या कर रहा है, आवारा कुत्ते घूम रहे हैं, इनको गोली क्यों नहीं दे देता? चल पड़ा मन। प्रतिक्रिया शुरू हो गयी। तो विक्षेप...।
विक्षेप कुत्ते के भौंकने से नहीं होता, विक्षेप तुमने जो कुत्ते के भौंकने के साथ प्रतिक्रिया की, जो विचार करने लगे...। अब विचार तुम्हारा है। तुम विचार न करो। कुत्ता भौंका, भौंका। तुम शांत भाव से बैठे रहो। टेलीफोन की घंटी बजने लगी, तुम बेचैन हो जाते हो।
मैं कलकत्ते में एक सटोरिया के घर ठहरता था। वे बड़े सटोरिया थे। कमरा ही नहीं था कोई जहां उन्होंने टेलीफोन न लगा रखे हों। बाथरूम में भी दो-दो तीन-तीन टेलीफोन रखे हुए थे। बाथरूम की दीवाल पर भी सब वह गूद डाला था उन्होंने। लिख देते थे वहीं। क्योंकि बाथरूम में नहा रहे हैं और कोई सौदा कर लिया, वहीं फोन उठा कर टब में बैठे-बैठे, कि टायलेट पर बैठे-बैठे, पता नहीं...तो वहीं लिख देते। जब मैं उनके बाथरूम में स्नान किया तब मैंने देखा कि सब दीवालों पर पेंसिल से लिखा हुआ है। एक पेंसिल भी रखी है। मैंने उनसे पूछा कि मामला क्या है। उन्होंने कहा, अब सट्टे का मामला ही ऐसा है कि इसमें क्षण भर की देर नहीं होनी चाहिए। तो मैंने कहा बाथरूम तो समझ में आ गया, तुम्हारा पूजा घर देखना चाहता हूं। वह भी उन्होंने बना कर रखा है। वहां भी फोन लगा है। मैंने कहा, यह मामला क्या है? तुम यहां तो...। उन्होंने कहा, यह सट्टे का मामला ही ऐसा है। भगवान रुक सकता है थोड़ी देर। यह सट्टे का मामला ही ऐसा है कि जरा सी देर हो गयी तो सब गड़बड़ हो जाये, लाखों यहां के वहां हो जायें। तो यहां तो उसी वक्त निपटाना पड़ता है। माला चलती रहती है। निपटा देता हूं जल्दी से। एक सेकेंड में निपटा दिया, फिर अपनी माला फेरने लगे।
पर मैंने कहा, यह तो विक्षेप हुआ।
घंटी बजी टेलीफोन की तो तुम सोचने लगे, कौन फोन कर रहा होगा! कहीं कोई सौदा तो नहीं है! विचार उठ गया। ख्याल करना, टेलीफोन की घंटी बाधा नहीं डाल रही है, तुम्हारे भीतर जो विचार पैदा हो गया उससे बाधा पड़ रही है।
अब मैं भी उनके बाथरूम में नहाता था। तो मैंने कहा, घंटी बजती रहती है हमें क्या लेना-देना! अपना कोई सौदा ही नहीं है। तो घंटी कोई बाधा नहीं डालती। घंटी बजती रहती है, हम उसका मधुर संगीत सुनते, कि अपने को कोई लेना-देना नहीं है।
मैं एक रेस्ट हाउस में मेहमान था। और एक मंत्री भी वहां रुके थे। और रात मंत्री सो न सके, क्योंकि कुछ दस-बारह कुत्ते रेस्ट हाउस के कंपाउंड में भौंके। वे आये मेरे पास कमरे में, उन्होंने कहा कि आप तो बड़े मजे से सो रहे हैं। मुझे हिलाया। मैंने कहा, क्या मामला है? उन्होंने कहा, आपको देख कर ईर्ष्या होती है। आप मजे से सो रहे हैं, ये कुत्ते भौंक रहे हैं। ये मुझे सोने नहीं देते।
मैंने कहा कि आप देख ही रहे हैं कि मैं सो रहा हूं। अगर आप नहीं सो पा रहे हैं तो गड़बड़ कुछ आपमें होगी, कुत्तों में नहीं हो सकती। फिर कुत्तों को तो पता भी नहीं है कि नेता जी आये हैं। न अखबार पढ़ें, न रेडियो सुनें। ये कुत्ते हैं, इनको कुछ पता ही नहीं है कि आपका यहां आगमन हुआ है। ये कोई आदमी थोड़े ही हैं कि आपके स्वागत में कुछ शोरगुल कर रहे हैं, कि कोई आपके स्वागत में व्याख्यान कर रहे हैं। इनको कुछ लेना-देना नहीं है, अपने काम में लगे हैं।
पर उन्होंने कहा, मैं सोऊं कैसे यह बतायें। तो मैंने कहा, आप एक काम करें। कुत्ते नहीं भौंकना चाहिए, यह बात आपको बाधा डाल रही है। आप बिस्तर पर लेट जायें और कहें कि ‘भौंको कुत्तो, तुम्हारा काम भौंकना है, मेरा काम सोना है। तुम भौंको, हम सोते हैं।’ और शांति से सुनें। कुत्तों के भौंकने में भी एक रस है।
उन्होंने कहा, क्या कह रहे हैं! मैंने कहा, आप कोशिश करके देख लें। आप अपनी कोशिश करके देख लिये, उससे कुछ हल नहीं हो रहा है, आधी रात हो गयी। कुत्तों के भौंकने में भी एक रस है। वहां भी परमात्मा ही भौंक रहा है। यह भी परमात्मा का एक रूप है। इसको स्वीकार कर लें। इसके साथ विरोध छोड़ दें। इसे अंगीकार कर लें कि ठीक है तुम भी भौंको और हम भी सोयें। दुनिया बड़ी है। तुम्हारे लिए भी जगह है, मेरे लिए भी जगह है। परमात्मा बहुत बड़ा है, सबको संभाले है।
उन्होंने कहा, अच्छा चलो करके देख लेते हैं। राजी तो वे नहीं दिखाई पड़े। लेकिन कोई उपाय भी न था, तो करके देख लिया। कोई आधा घंटे बाद वे तो घुर्राने लगे। मैं गया। मैंने उनको हिलाया। मैंने कहा, क्या मामला है? बोले, हद हो गयी, अब आपने फिर जगा दिया। किसी तरह मेरी नींद लगी थी।
मैंने कहा, अब तो आपको तरकीब हाथ में लग गयी, अब कोई अड़चन नहीं है। मगर नींद लग गयी थी, यह मैं जान लेना चाहता हूं। क्योंकि आप घुर्रा रहे थे। उन्होंने कहा, काम तो की बात, क्योंकि जैसे ही मैं शिथिल हो कर पड़ गया हूं...मैंने कहा ठीक है। कुत्ते भौंकते हैं, भौंकते हैं।
ऐसी सहज स्वीकृत दशा है ध्यान। तुम जाग कर देखो: जो हो रहा है हो रहा है। हवाई जहाज भी चलेंगे, ट्रेन भी गुजरेगी, मालगाड़ियां शंटिंग भी करेंगी, ट्रक भी गुजरेंगे, बच्चे रोएंगे भी, स्त्रियां बर्तन भी गिरायेंगी, पोस्टमैन दरवाजा भी खटखटाएगा--यह सब होगा।
एकाग्रता के कारण लोग जंगल भाग-भाग कर गये। उनको ध्यान का पता नहीं था; नहीं तो ध्यान तो यहीं हो जायेगा।
मैं एक अमरीकी मनोवैज्ञानिक का जीवन पढ़ रहा था। वह पूरब आना चाहता था विपस्सना ध्यान सीखने। तो बर्मा में सबसे बड़ा विपस्सना का स्कूल है--बौद्धों के ध्यान का। तो उसने तीन सप्ताह की छुट्टी निकाली। बड़ी तैयारियां करके रंगून पहुंचा। बड़ी कल्पनाएं ले कर पहुंचा था कि किसी पहाड़ की तलहटी में, कि घने वृक्षों की छाया में, कि झरने बहते होंगे, कि पक्षी कलरव करते होंगे, कि फूल खिले होंगे--एकांत में तीन सप्ताह आनंद से गुजारूंगा। यह न्यूयार्क का पागलपन...! तीन सप्ताह के लिए बड़ा प्रसन्न था। लेकिन जब उसकी टैक्सी जा कर आश्रम के सामने रुकी तो उसने सिर पीट लिया। वह रंगून के बीच बाजार में था, मछली बाजार में। बास ही बास और उपद्रव ही उपद्रव, सब तरफ शोरगुल और मक्खियां भिनभिना रही हैं और कुत्ते भौंक रहे और आदमी सौदा कर रहे हैं और स्त्रियां भागी जा रही हैं, और बच्चे चीख रहे हैं। यह आश्रम की जगह है? उसके मन में तो हुआ कि इसी वक्त सीधा वापिस लौट जाऊं। लेकिन तीन दिन तक कोई लौटने के लिए हवाई जहाज भी न था। तो उसने सोचा अब आ ही गया हूं तो कम से कम इन सदगुरु के दर्शन तो कर ही लूं! यह किन सदगुरु ने यह आश्रम खोल रखा है यहां? यह कोई जगह है आश्रम खोलने की?
भीतर गया तो बड़ा हैरान हुआ। सांझ का वक्त था और कोई दो सौ कौए आश्रम पर लौट रहे, क्योंकि सांझ को बौद्ध भिक्षु भोजन करके उनको कुछ फेंक देते होंगे चावल इत्यादि। तो वे सब वहां...बड़ा शोरगुल। कौए, महाराजनीतिज्ञ, बड़े विवाद में लगे। शास्त्रार्थ चल रहा है। और कौए तो शिकायत ही करते रहते हैं। उनको कभी किसी चीज से शांति तो मिलती नहीं। भ्रष्ट योगी हैं। शिकायत उनका धंधा है। वे एक-दूसरे से शिकायत में लगे हुए, चीख-चीत्कार मच रहा है।
उसने कहा...। और वहीं भिक्षु ध्यान करते हैं। कोई टहल रहा, जैसा बौद्ध टहल कर ध्यान करते हैं। कोई वृक्ष के नीचे शांत बैठा ध्यान कर रहा है। खड़ा हो कर एक क्षण देखता रहा, बात कुछ समझ में नहीं आयी, बड़ी विरोधाभासी लगी। लेकिन भिक्षुओं के चेहरों पर बड़ी शांति भी है। जैसे यह सब कुछ हो ही नहीं रहा है, या जैसे ये कहीं और हैं, किसी और लोक में हैं जहां ये सब खबरें नहीं पहुचतीं या पहुंचती हैं तो कोई विक्षेप नहीं है। इन भिक्षुओं के चेहरों को देख कर उसने सोचा तीन दिन तो रुक ही जाऊं।
वह गुरु के पास गया तो गुरु से उसने यही कहा कि यह क्या मामला है? यह कहां जगह चुनी आपने? तो गुरु ने कहा: रुको, तीन सप्ताह बाद अगर तुम फिर यही प्रश्न पूछोगे तो उत्तर दूंगा। तीन सप्ताह रुक गया। पहले तो तीन दिन के लिए रुका, लेकिन तीन दिन में लगा कि बात में कुछ है। एक सप्ताह रुका। एक सप्ताह रुका तो पता चला कि धीरे-धीरे यह बात कुछ अर्थ नहीं रखती कि बाजार में शोरगुल हो रहा है, ट्रक जा रहे हैं, कारें दौड़ रहीं, कौए कांव-कांव कर रहे, कुत्ते भौंक रहे, मक्खियां भिनभिना रहीं, ये सब बातें कुछ अर्थ नहीं रखतीं। तुम कहीं दूर लोक में जाने लगे। तुम कहीं भीतर उतरने लगे, कोई चीज अटकाव नहीं बनती।
दूसरे सप्ताह होते-होते तो उसे याद ही नहीं रहा। तीसरे सप्ताह तो उसे ऐसे लगा कि अगर ये कौए यहां न होते, ये कुत्ते यहां न होते, यह बाजार न होता, तो शायद ध्यान हो ही नहीं सकता था। क्योंकि इसके कारण एक पृष्ठभूमि बन गयी। तब उसने गुरु को कहा कि मुझे क्षमा करें। मैंने जो शिकायत की थी वह ठीक न थी। वह मेरी जल्दबाजी थी।
गुरु ने कहा: बहुत सोच कर ही यह आश्रम यहां बनाया है। जान कर ही यहां बनाया है। क्योंकि विपस्सना का प्रयोग ही यही है कि जहां बाधा पड़ रही हो वहां बाधा के प्रति प्रतिक्रिया न करनी। प्रतिक्रिया-शून्य हो जाये चित्त, तो शांत हो जाता है।
‘उपशांत हुए योगी के लिये न विक्षेप है और न एकाग्रता है। न अतिबोध है और न मूढ़ता है।’
यह सुनो अदभुत वचन! कि जो सच में शांत हो गया है वह कोई महाज्ञानी नहीं हो जाता, क्योंकि वह भी अतिशयोक्ति होगी। वह भी अतिशय हो जायेगा। जो शांत हो गया है वह तो संतुलित हो जाता है। वह तो मध्य में ठहर जाता है। न तो मूढ़ रह जाता है और न ज्ञानी। तो न तो अतिबोध और न अति मूढ़ता; वह दोनों के मध्य में शांत चित्त खड़ा होता है। तुम उसे मूढ़ भी नहीं कह सकते, उसे पंडित भी नहीं कह सकते। वह तो बड़ा सरल, संतुलित होता है, मध्य में होता है। उसके जीवन में कोई अति नहीं रह जाती। कोई अति नहीं रह जाती! न तुम उसे हिंसक कह सकते न अहिंसक। ये दोनों अतियां हैं। न तुम उसे मित्र कह सकते न शत्रु। ये दोनों अतियां हैं। वह अति से मुक्त हो जाता है। और अति से मुक्त हो जाना ही मुक्त हो जाना है। उसे न सुख है न दुख है। वह द्वंद्व के पार हो जाता है।
साधारणतः लोग सोचते हैं: जब ज्ञान उत्पन्न होगा तो हम महाज्ञानी हो जायेंगे। नहीं, जब ज्ञान उत्पन्न होगा, तब न तो तुम ज्ञानी रह जाओगे और न मूढ़। जब ज्ञान उत्पन्न होगा तो तुम इतने शांत हो जाओगे कि ज्ञान का तनाव भी न रह जायेगा। तुम ऐसा भी न जानोगे कि मैं जानता हूं। यह बात भी चली जायेगी। तुम जानोगे भी और जानने का कोई अहंकार भी न रह जायेगा। तुम जानते हुए ऐसे हो जाओगे जैसे न जानते हुए हो। मूढ़ और ज्ञानी के मध्य हो जाओगे। कुछ-कुछ मूढ़ जैसे--जानते हुए न जानते हुए से। कुछ-कुछ ज्ञानी जैसे--न जानते हुए में जानते हुए से। ठीक बीच में खड़े हो जाओगे। इस मध्य में खड़े हो जाने का नाम संयम। इस मध्य में खड़े हो जाने का नाम सम्यकत्व। इस मध्य में खड़े हो जाने का नाम संगीत।
बुद्ध ने कहा है कि अगर वीणा के तार बहुत ढीले हों तो संगीत पैदा नहीं होता। और अगर वीणा के तार बहुत कसे हों तो वीणा टूट जाती है, तो भी संगीत पैदा नहीं होता। एक ऐसी भी दशा है वीणा के तारों की कि जब न तो तार कसे होते, न ढीले होते; ठीक मध्य में होते हैं। वहीं उठता है संगीत। जीवन की वीणा के संबंध में भी यही सच है।
‘निर्विकल्प स्वभाव वाले योगी के लिए राज्य और भिक्षावृत्ति में, लाभ और हानि में, समाज और वन में फर्क नहीं है।’
न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढ़ता।
न सुखं न च वा दुःखमुपशांतस्य योगिनः।।
स्वराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभालाभे जने वने।
निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः।।
ऐसा जो शांत हो गया, मध्य में ठहर गया, संतुलित हो गया, ऐसे अंतरसंगीत को जो उपलब्ध हो गया--ऐसे निर्विकल्प स्वभाव वाले योगी के लिए फिर न राज्य में कुछ विशेषता है, न भिक्षावृत्ति में। ऐसा योगी अगर भिक्षा मांगते मिल जाये तो भी तुम सम्राट की शान उसमें पाओगे। और ऐसा व्यक्ति अगर सम्राट के सिंहासन पर बैठा मिल जाये तो भी तुम भिक्षु की स्वतंत्रता उसमें पाओगे।
ऐसा व्यक्ति कहीं भी मिल जाये, तुम अगर जरा गौर से देखोगे तो तुम उसमें दूसरा छोर भी संतुलित पाओगे। सम्राट होकर वह सिर्फ सम्राट नहीं हो जाता; वह किसी भी क्षण छोड़ कर चल सकता है। और भिक्षु हो कर वह भिक्षु नहीं हो जाता, दीन नहीं हो जाता। भिक्षु में भी उसका गौरव मौजूद होता है और सम्राट में भी उसका शांत चित्त मौजूद होता है। भिक्षु और सम्राट से कुछ फर्क नहीं पड़ता। ऐसे व्यक्ति को ‘विशेष न अस्ति’ कोई चीज विशेष नहीं है। फिर वह समाज में हो कि वन में, कोई भेद नहीं, तुम ऐसे व्यक्ति को भीड़ में भी अकेला पाओगे। और तुम ऐसे व्यक्ति को जंगल में बैठा हुआ पाओगे तो भीड़ से दूर न पाओगे, विपरीत न पाओगे। दुश्मन न पाओगे। ऐसा व्यक्ति भीड़ से डर कर नहीं चला गया है जंगल में। ऐसे व्यक्ति को तुम जंगल से भीड़ में ले आओ कि भीड़ से जंगल में ले जाओ, कोई फर्क न पड़ेगा। ऐसा व्यक्ति अब अपने भीतर ठहर गया है। कोई चीज कंपाती नहीं।
स्वराज्ये भैक्ष्यवृत्ता...।
चाहे राज्य हो चाहे भिक्षा।
लाभालाभे...।
चाहे लाभ हो चाहे हानि।
जने वा वने...।
चाहे जंगल चाहे भीड़।
निर्विकल्पस्वभावस्य योगिनः।
योगी तो निर्विकल्प बना रहता है।
उसका कोई चुनाव नहीं है। वह ऐसा भी नहीं कहता कि ऐसा ही हो। हो जाये तो ठीक, न हो जाये तो ठीक। ऐसा हो तो ठीक, अन्यथा हो तो ठीक। उसने सारी प्रतिक्रिया छोड़ दी। वह अब वक्तव्य ही नहीं देता। वह जो घटता है, उसे घट जाने देता है। उसकी अब कोई शिकायत नहीं है। सब उसे स्वीकार है। तथाता। सब उसे अंगीकार है।
‘यह किया है और यह अनकिया है, इस प्रकार के द्वंद्व से मुक्त योगी के लिए कहां धर्म है, कहां काम है, कहां अर्थ, कहां विवेक?’
क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकिता।
इदं कृतमिदं नेति द्वंद्वैर्मुक्तस्य योगिनः।।
हम तो इसी में पड़े रहते हैं कि क्या किया और क्या नहीं किया; क्या कर पाये और क्या नहीं कर पाये--हिसाब लगाते रहते हैं। गणित बिठाते रहते हैं: इतना कमा लिया, इतना नहीं कमा पाये; यह-यह विजय कर ली, यह-यह बात में हार गये; यहां-यहां सफलता मिल गयी, यहां-यहां असफल हो गये। चौबीस घंटे चिंतन चल रहा है--क्या किया, क्या नहीं किया! मरते-मरते दम तक आदमी यही सोचता रहता है: क्या किया, क्या नहीं किया।
एंड्रू कारनेगी, अमरीका का बहुत बड़ा करोड़पति, मर रहा था तो मरते वक्त उसने आंख खोली और कहा कि मुझे ठीक-ठीक बता दो कि मैं कितनी संपत्ति छोड़ कर मर रहा हूं। उसके सेक्रेटरी ने, जल्दी से भागा, फाइलों में से हिसाब लगाया, और ऐसा लगता है एंड्रू कारनेगी अटका रहा, उसकी सांस अटकी रही। जब उसने आ कर कह दिया कि कोई दस अरब रुपये छोड़ कर आप मर रहे हैं तो एंड्रू कारनेगी मरा, और वह भी बहुत सुख से नहीं। क्योंकि उसने कहा: ‘मैंने तो सोचा था कम से कम सौ अरब रुपये कमा कर जाऊंगा। मैं एक हारा हुआ आदमी हूं।’
दस अरब रुपये छोड़ कर मरने वाला आदमी भी सोचता है हारा हुआ हूं! ठीक है, अगर सौ अरब कमाने थे तो नब्बे अरब से हार हो गयी। हार भारी है! ऐसा लगता है दस अरब रुपये जैसे दस रुपये भी नहीं हैं। ऐसा विषाद से भर कर गया यह आदमी। और जीवन भर दौड़ता रहा।
उसके सेक्रेटरी ने लिखा है कि अगर मुझे भगवान कहे कि तुम्हें एंड्रू कारनेगी होना है कि एंड्रू कारनेगी का सेक्रेटरी, तो मैं सेक्रेटरी ही होना पसंद करूंगा। क्यों? क्योंकि मैंने इससे ज्यादा परेशान व्यस्त आदमी नहीं देखा। चौबीस घंटे लगा है।
कहते हैं कि एंड्रू कारनेगी एक दफा अपने बेटे को न पहचान पाया। दफ्तर में बैठा था और एक युवा निकला तो उसने अपने सेक्रेटरी को पूछा कि यह कौन है?
‘आपने हद कर दी...आपका बेटा!’
‘अरे, मुझे फुर्सत कहां?’
कभी अपने बेटों के पास बैठने की, बात करने की, चीत करने की, कभी उनके साथ खेलने की, छुट्टियों में किसी पहाड़ पर जाने की फुर्सत कहां। धन ही धन, एक ही दौड़। धन से आंख अंधी। अपना बेटा भी नहीं दिखाई पड़ता।
मुल्ला नसरुद्दीन अदालत में खड़ा था और मजिस्ट्रेट ने उससे कहा: नसरुद्दीन, यह अजीब बात है कि तुमने बॉक्स तो चुराया, मगर पास ही में जो नोट रखे हुए थे उनको नहीं लिया। इसका राज क्या है?
नसरुद्दीन ने कहा: खुदा के लिए इस बात का जिक्र न कीजिए। मेरी बीबी इसी गलती के लिए सप्ताह भर मुझसे लड़ती रही है। अब आप फिर वही उठाये दे रहे हैं।
बॉक्स तो चुरा लिया, उसके पास जो रुपये रखे थे, बीबी लड़ती रही सात दिन तक कि वह क्यों नहीं लाये? वह मजिस्ट्रेट से कह रहा है। खुदा के लिए यह बात फिर मत उठाइए। अब हो गयी भूल हो गयी। बॉक्स चुराया, यह कोई भूल नहीं; वे जो रुपये पास में रखे थे, वह नहीं चुराया। भूल हो गयी, क्षमा करिये, अब दोबारा यह बात मत उठाइये। सात दिन सुन-सुन कर सिर पक गया। पत्नी यही बार-बार कहती है, बार-बार उठाती है कि वे रुपये क्यों छोड़ कर आये?
तुम्हारी जिंदगी इसी तरह के हिसाब में लगी है: क्या कर लिया, क्या नहीं किया। पूरी जिंदगी तुम यही जोड़ते रहोगे? और जब जाओगे, खाली हाथ जाओगे। सब किया, सब अनकिया, सब पड़ा रह जायेगा। किया तो व्यर्थ हो जाता है, न किया तो व्यर्थ हो जाता है।
‘यह किया यह अनकिया, इस प्रकार के द्वंद्व से मुक्त योगी के लिए कहां धर्म!’
उसके लिए तो धर्म तक का कोई अर्थ नहीं रह जाता। क्योंकि धर्म का तो अर्थ ही होता है: जो करना चाहिए, वही धर्म। अधर्म का अर्थ होता है: जो नहीं करना चाहिए!
सुनते हो इस क्रांतिकारी वचन को? ऐसे व्यक्ति के लिए धर्म का भी कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि अब करने, न करने से ही झंझट छुड़ा ली। अब तो साक्षीभाव में आ गये। ऐसे व्यक्ति के लिए कहां धर्म, कहां काम, कहां अर्थ, कहां विवेक! विवेक तक की कोई जरूरत नहीं है। अब ऐसा व्यक्ति डिसक्रिमिनेशन भी नहीं करता कि क्या अच्छा, क्या बुरा; क्या कर्तव्य, क्या अकर्तव्य; कौन-सी बात नीति, कौन-सी बात अनीति। ये सब बातें व्यर्थ हुईं। द्वंद्व गया और इस द्वंद्व के जाने पर जो पीछे शेष रह जाती है शांति, वही शांति है, वही संपदा है।
इदं कृतं इदं न कृतं द्वंद्वैर्मुक्तस्य योगिनः।
यह किया, यह नहीं किया, ऐसे द्वंद्व से जो मुक्त हो गया वही योगी है। जो किया उसने किया और जो नहीं किया उसने किया--परमात्मा जाने! जो साक्षी हो गया वही योगी है।
कृत्यं किमपि न एव न कापि हृदि रंजना।
यथा जीवनमेवेह जीवन्मुक्तस्य योगिनः।।
‘जीवनमुक्त योगी के लिए कर्तव्य कर्म कुछ भी नहीं है।’
देखते हैं आग्नेय वचन, जलते हुए अग्नि के अंगारों जैसे वचन! इनसे ज्यादा क्रांतिकारी उदघोष कभी नहीं हुए।
‘जीवनमुक्त योगी के लिए कर्तव्य कर्म कुछ भी नहीं है और न हृदय में कोई अनुराग है। वह इस संसार में यथाप्राप्त जीवन जीता है।’
जैसा जीवन है, वैसा है। जो मिला, मिला। जो नहीं मिला, नहीं मिला। जो हुआ, हुआ; जो नहीं हुआ, नहीं हुआ। वह हर हाल खुश है, हर हाल सुखी है।
यथा जीवनमेवेह...।
जैसा जीवन है उससे अन्यथा की जरा भी आकांक्षा नहीं है। जैसा जीवन है वैसा ही जीवन है।
तुम अन्यथा की आकांक्षा किये चले जाते हो। तुम्हारे पास दस रुपये हैं तो चाहते हो बीस हो जायें। बीस रुपये हैं, तो चाहते हो चालीस हो जायें। कुछ फर्क नहीं पड़ता; चालीस होंगे, तुम चाहोगे अस्सी हो जायें। निन्यानबे का फेर तो तुम जानते ही हो। मगर यह धन के संबंध में ही लागू होता तो भी ठीक था।...तुम्हारा चेहरा सुंदर नहीं है, सुंदर हो जाये। तुम्हारा चरित्र सुंदर हो जाये, सुशील हो जाये। तुम महात्मा हो जाओ। बात वही की वही है। तुम जैसे हो वैसे में राजी नहीं; महात्मा होना है। यह क्या क्षुद्रात्मा! यह क्या पड़े घर-गृहस्थी में। तुम्हें तो बुद्ध-महावीर होना है! कुछ होना है! कुछ हो कर रहना है! जो तुम हो उसमें तुम राजी नहीं।
और खयाल रखना, जो तुम हो उसमें अगर राजी हो जाओ, तो ही तुम बुद्ध होते हो, तो ही तुम महावीर होते हो। महात्मा कोई लक्ष्य नहीं है जिसे तुम पूरा कर लोगे। महात्मा का अर्थ है जो जैसा है वैसे में राजी हो गया। ऐसी परम तृप्ति, कि अब इससे अन्यथा कुछ भी नहीं होना है। जो उसने बनाया, जैसा उसने बनाया। जो वह दिखा दे, देख लेंगे। जो वह करा दे, कर लेंगे। जब उठा ले, उठ जायेंगे। जब तक रखे, रहे रहेंगे। जैसा खेल खिला दे, खेलेंगे। ऐसी जो भावदशा है वही महात्मा की, महाशय की दशा है।
यह सूत्र बहुत मनन करना। ध्यान करना।
कृत्यं किमपि न एव।
नहीं कोई कृत्य है।
न कापि हृदि रंजना।
और न हृदय में कुछ आकांक्षा है कि ऐसा ही हो, ऐसा कोई राग नहीं, ऐसा कोई अनुराग नहीं, ऐसा कोई मोह नहीं, ऐसी कोई ममता नहीं, आकांक्षा नहीं।
यथा जीवनमेवेह।
जैसा जीवन है, है। बस, ऐसे ही जीवन से मैं राजी हूं। इस राजीपन का नाम: योग।
जीवनमुक्तस्य योगिनः।
और ऐसा व्यक्ति ही जीवन के सारे जाल से मुक्त हो जाता है।
इस एक सूत्र से सारा जीवन रूपांतरित हो सकता है। इस एक सूत्र में सब समाया है--सब वेदों का सार, सब कुरानों का सार। इस एक छोटे से सूत्र में सारी प्रार्थनाएं, सारी साधनाएं, सारी अर्चनाएं समाहित हैं। इस एक छोटे-से सूत्र का विस्फोट तुम्हारे जीवन को आमूल बदल सकता है।
बस जैसे हो वैसे ही प्रभु को समर्पित हो जाओ। कह दो कि बस, जैसी तेरी मर्जी। जैसा रखेगा, रहेंगे। जो करायेगा, करेंगे। भटकायेगा, भटकेंगे। नर्क में डाल देगा, नर्क में रहेंगे। मगर शिकायत न करेंगे।
जैसे ही शिकायत से तुम मुक्त हो गये, प्रार्थना का जन्म होता है। और जैसे ही जो है उससे तुम राजी हो गये कि फिर तुम्हारे जीवन में सच्चिदानंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं बचता। फिर परमात्मा ही परमात्मा का स्वाद है। फिर उसी-उसी की रसधार बहती है। फिर परम मंगल का क्षण आ गया।
इस सूत्र पर ध्यान करना। इस सूत्र का थोड़ा-थोड़ा स्वाद लेने की कोशिश करना। चौबीस घंटे जब भी याद आ जाये, इस सूत्र का थोड़ा उपयोग करना। चौबीस घंटे में हजारों मौके आते हैं जब यह सूत्र कुंजी बन सकता है। जहां शिकायत उठे वहीं इस सूत्र को कुंजी बना लेना। सब शिकायत के ताले इस सूत्र से खुल जा सकते हैं। और शिकायत गिर जाये तो मंदिर के द्वार खुले हैं, प्रभु उपलब्ध है। तुम अपनी आकांक्षाओं, शिकायतों, अभिरुचियों, अनुरागों के कारण देख नहीं पा रहे, अंधे बने हो।
यथा जीवनं एव--बस ऐसा है जीवन, ऐसा है; इससे रत्ती भर भिन्न नहीं चाहिए।
जीसस ने सूली पर मरते वक्त यही सूत्र उदघोष किया है। आखिरी वचन में जीसस ने कहा: दाई विल बी डन। तेरी मर्जी पूरी हो, प्रभु! सूली तो सूली, मारे तो मारे। तेरी मर्जी से अन्यथा मेरी कोई मर्जी नहीं है। तेरी मर्जी के साथ मैं राजी हूं।
इसी क्षण जीसस समाप्त हो गये और क्राइस्ट का जन्म हुआ। इसी क्षण जीसस का मनुष्य रूप विदा हो गया, प्रभु-रूप पैदा हुआ। पुनरुज्जीवन हुआ। जीसस द्विज बने। जीसस ब्रह्मज्ञानी हो गये। इसी क्षण!
मंसूर को सूली लगायी गयी, हाथ-पैर काटे गये, तब भी वह हंस रहा था। आकाश की तरफ देख कर हंस रहा था। और किसी ने भीड़ में से पूछा कि तुम क्यों हंसते हो मंसूर, तुम्हें इतनी पीड़ा दी जा रही है?
उसने कहा: मैं इसलिए हंस रहा हूं कि ईश्वर यह हालत पैदा करके भी मेरे भीतर शिकायत पैदा नहीं कर पाया। मैं हंस रहा हूं। मैं ईश्वर की तरफ देख कर हंस रहा हूं कि कर ले तू यह भी, मगर मैं राजी हूं। तू किसी भी रूप में आये, तू मुझे धोखा न दे पायेगा। मैं तुझे पहचान गया। तू मौत की तरह आया है, स्वीकार है। मैं हंस रहा हूं ईश्वर की तरफ देख कर कि तूने धोखा तो खूब दिया, डर था कि शायद इसमें मैं धोखा खा जाता; लेकिन नहीं, तू धोखा नहीं दे पाया। मैं राजी हूं! अहोभाग्य है यह भी मेरा: तू आया तो सही, मृत्यु की तरह सही! तूने मेरी परीक्षा तो ली!
अग्निपरीक्षा तो उन्हीं की ली जाती है जो वस्तुतः योग्य हैं। तो कठिनाई को परीक्षा समझना। संकट को संकट मत समझना, चुनौती समझना और इस सूत्र को याद रखना। इस सूत्र के सहारे तुम जहां हो वहां से परमात्मा तक सेतु बन सकता है।
देखा न लक्ष्मणझूला--रस्सियों का झूला! ऐसा यह सूत्र बहुत पतला धागा है, लेकिन इस धागे के सहारे तुम अंतिम यात्रा कर ले सकते हो।
हरि ॐ तत्सत्!