ASHTAVAKRA

Maha Geeta 50

Fiftieth Discourse from the series of 91 discourses - Maha Geeta by Osho. These discourses were given during SEP 11 - FEB 10 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, काम, क्रोध, लोभ, मोह क्या समय की ही छायाएं हैं? समय का सार क्या है? कृपा करके हमें समझायें।
समय को दो ढंग से सोचा जा सकता है। एक तो घड़ी का समय है, वह तो बाहर है। उससे तुम्हारा कुछ लेना- देना नहीं है। एक तुम्हारे भीतर समय है। उस भीतर के समय से घड़ी का कुछ लेना-देना नहीं है। तो जब भी मैं कहता हूं कि वासना समय है, कामना समय है, तृष्णा समय है--तो तुम घड़ी का समय मत समझना। तुम्हारे भीतर एक समय है। जब हम कहते हैं, बुद्ध और महावीर कालातीत हो गये, तो ऐसा नहीं है कि घड़ी चलती होती है तो उनके लिए बंद हो जाती है। घड़ी तो चलती रहती है--भीतर की घड़ी बंद हो गयी। ध्यान में, समाधि में, भीतर का समय शून्य हो जाता है।
तो भीतर के समय को थोड़ा हम पहचान लें।
तुम जब सुख में होते हो तब तुमने देखा होगा घड़ी तो पुरानी ही चाल से चलती है, लेकिन तुम्हारे भीतर का समय जल्दी-जल्दी भागने लगता है। किसी प्रियजन से मिलना हो गया तो घंटे ऐसे बीत जाते हैं जैसे पल बीते। घड़ी तो अब भी वैसी ही चल रही है। जब तुम आनंद में होते हो तो समय सिकुड़ जाता है। जब तुम दुख में होते हो तो समय फैल जाता है। जैसे तुम्हारी मां मृत्यु-शैया पर पड़ी है और तुम उसके पास बैठे हो तो घड़ी-घड़ी ऐसी बीतती है जैसे सालों लंबी हो गयी। पल-पल सरकते मालूम पड़ते हैं, घसिटते मालूम पड़ते हैं। सुख में तो समय भागता मालूम पड़ता है। दुख में समय घसिटता मालूम पड़ता है; जैसे लंगड़ी चाल चलता हो। दुख में समय लंगड़ाता है, सुख में ओलंपिक के दौड़ने वालों की चाल से चलता है।
इसका अर्थ हुआ: अगर महासुख की घड़ी आ जाये तो समय इतना धीमा हो जाता है कि पता ही नहीं चलता है कि चला। महासुख की घड़ी आ जाये तो समय का परिवर्तन पता नहीं चलता। दुख की घड़ी में, महादुख की घड़ी में बड़ी लंबाई हो जाती है।
कहते हैं, नरक अनंतकालीन है। वहां क्षण भी अनंत काल जैसा लगता होगा, क्योंकि बहुत कठिनाई से गुजरता होगा। स्वर्ग में सभी जल्दी भाग रहा होगा; क्षण भर में बीत जाता मालूम होता होगा। इतनी तेज चाल होगी। अगर महासुख की घड़ी आ जाये...।
महासुख का अर्थ है: जहां दुख भी न रह जाये और सुख भी न रह जाये। आनंद की घड़ी आ जाए--जहां दुख भी न रहा, सुख भी न रहा--तो न तो समय चलता, न दौड़ता। समय होता ही नहीं--कालातीत, समयातीत! समय-शून्य घड़ी आ जाती है। सब ठहर जाता है।
इस भीतर के समय को ही समझने की बात है। बाहर की घड़ी तो वैसे ही चलती रहेगी--तुम ज्ञानी हो जाओ, अज्ञानी हो जाओ; सुख में, दुख में; समाधि में। तुम ध्यान में बैठो, घंटों बीत जायें, आंख खोलो तो तुम्हें लगे कि कोई समय बीता ही नहीं; लेकिन घड़ी तो बतायेगी कि तीन घंटे बीत गये।
रामकृष्ण ध्यान में, गहरी समाधि में चले जाते थे। छह घंटे बीत गये। भक्त तो घबराने लगते, क्योंकि उनका शरीर बिलकुल ऐसा हो जाता जैसे पत्थर हो गया। वे किसी भीतर के लोक में खो गये। भक्त घबराने लगते कि लौटेंगे कि नहीं लौटेंगे, लौट पायेंगे कि नहीं लौटेंगे! एक बार तो छह दिन तक ऐसी ही दशा बनी रही। श्वास भी ऐसी लगे जैसे ठहर गयी। सब शून्य हो गया मालूम पड़ने लगा। भक्तों ने तो आशा छोड़ दी। जब वे लौटे तो भक्तों ने कहा: आपको पता है, छह दिन...? तो उन्होंने कहा: आश्चर्य है, क्योंकि मुझे तो ऐसा लगा अभी-अभी गया था, अभी-अभी लौट आया, क्षण भर भी नहीं बीता।
यह जो भीतर की प्रतीति है समय की, यह तृष्णा के कारण है। तुम्हारी जितनी तृष्णा होती है, भीतर समय का उतना ही विस्तार होता है। तृष्णा के फैलने के लिए समय की जगह चाहिए, नहीं तो तृष्णा फैलेगी कहां? बाहर जो घड़ी का समय है उसमें तो एक ही पल मिलता है एक बार; दो पल साथ नहीं मिलते। एक पल में क्या तृष्णा करोगे? एक पल में तो सिर्फ जी सकते हो, वासना नहीं कर सकते। वासना की कि पल तो गया। गीत गुनगुना सकते हो, लेकिन तैयारी नहीं कर सकते कि गीत गुनगुनायेंगे। क्योंकि अगर गीत गुनगुनाने की तैयारी की तो यह तो समय गया। इतनी देर रुकता कहां है! वह पल तो आया नहीं कि गया नहीं। इतनी फुर्सत कहां है! वर्तमान में तुम जी सकते हो, लेकिन जीने की योजना नहीं बना सकते।
इसलिए समस्त ध्यानियों ने कहा है: वर्तमान में जीओ, अभी और यहीं! इसके पार तुम्हारी कोई वासना न हो तो समय समाप्त हो गया। समय की जरूरत पड़ती है, क्योंकि हमें कल तो चाहिए ही। कल न होगा तो कैसे काम चलेगा? फिर कहां, किस कैनवास पर हम अपनी तृष्णा के चित्र फैलायेंगे? कल सुख होगा। आज दुख है, कल की आशा रखते हैं। कल सपना पूरा होगा। कल भी आज की तरह आयेगा; तब तुम फिर और आगे कल पर सपने को फैला दोगे। ऐसे तुम्हारा सपना फैलता जाता है--शून्य आकाश में!
भविष्य है थोड़े ही। जो है, वह तो वर्तमान है। जो गया, वह गया। जो आया नहीं, आया नहीं। अभी जो है, भविष्य और अतीत के बीच में जो छोटा-सा सेतु है, एक पल का--वही है। उस पल में डूब जाओ। जी सकते हो, लेकिन जीने की योजना नहीं बना सकते। सत्य को पा सकते हो, लेकिन सपना नहीं फैला सकते। सत्य तो यहीं खड़ा है द्वार पर, लेकिन तुम्हारी आंखें अगर सपनीली हैं और तुम सपने देख रहे हो, तो तुम्हें समय चाहिए। सपने को देखने के लिए समय चाहिए। सत्य को देखने के लिए समय की कोई भी जरूरत नहीं है। तो जितना बड़ा सपना होगा उतना ही ज्यादा समय चाहिए, उतना ही लंबा समय चाहिए।
तो जितनी वासना होती है उतना ही आदमी मौत से घबराता है। मौत से घबराने का क्या अर्थ होता है? मौत करती क्या है? मौत समय छीन लेती है। मौत करती क्या है? मौत भविष्य का दरवाजा बंद कर देती है। मौत मौका नहीं देती कि अब आगे और समय है। होशियार आदमियों ने और आगे की भी तरकीब निकाल ली है। वे कहते हैं, फिर जन्म होगा; फिर वासना फैलने लगी। इस जन्म में जो नहीं हुआ, अगले जन्म में कर लेंगे! क्या जल्दी है? फिर वासना ने नये अंकुर ले लिये, नये पत्ते खिलने लगे। उन्होंने मौत को भी झुठला दिया। वह जो मौत घबराहट लाती थी, वह भी मिटा दी। उन्होंने मौत में से भी रास्ता निकाल लिया। मौत का डर इसी बात का डर है कि मौत कहती है: अब आगे कल नहीं। जो कल को मिटा दे, उसी को तो हम काल कहते हैं। काल यानी मृत्यु। अब कल नहीं। प्राण घबड़ाने लगे। आज तो कुछ मिला नहीं। आज तो कभी मिला नहीं। आज तो ऐसे ही खाली गया। कल की ही आशा में जीते थे, वह आशा भी मौत ने छीन ली।
मौत तुमसे कुछ भी नहीं छीनती--सिवाय तुम्हारी आशाओं के। इसलिए जिस आदमी ने आशाएं छोड़ दी हैं, उससे मौत कुछ भी नहीं छीनती। फिर उसके पास छीनने को कुछ है ही नहीं। वह मौत के सामने खड़ा हो जाता है। जिस आदमी ने सपने छोड़ दिये, मौत का उस पर कोई प्रभाव नहीं है। क्योंकि मौत सिर्फ सपनों को मार सकती है, सत्य को नहीं; झूठ को मार सकती है, सच को नहीं। तो जिस आदमी के सपने नहीं हैं उसके लिए मौत का कोई भय न रहा; मौत समाप्त हो गयी, वह आदमी अमृत हो गया।
जैसे ही तुम सपने से छूटे, समय से छूटे। समय से छूटे कि अमरत्व को उपलब्ध हुए।
अब यहां भी खयाल रखना, साधारण वासनाग्रस्त आदमी की जो अमरता की धारणा है, वह भी गलत है। उसकी अमरता की धारणा है: खूब लंबा जीवन, कभी खतम न होने वाला जीवन! यह उसकी अमरता की धारणा है। वह कहता है: जीयेंगे, जीयेंगे; मरेंगे कभी नहीं। और आगे, और आगे, और आगे! उसकी अमरता की धारणा समय का फैलाव है। ज्ञानी जब अमरत्व की बात करता है तो उसका मतलब यह नहीं होता। उसका अर्थ यह नहीं होता कि लंबाई समय की। उसका अर्थ होता है समय की समाप्ति।
इसलिए ज्ञानी और अज्ञानी कभी-कभी एक ही भाषा बोलते हैं, लेकिन उनके अर्थ बिलकुल अलग-अलग होते हैं। ज्ञानी जब कहता है, अमर हो गये तुम, तो वह यह नहीं कह रहा है कि अब तुम सदा रहोगे। अब वह यह कह रहा है बस, वर्तमान ही तुम्हारा रहना है, और कोई रहना नहीं। इस क्षण में तुम हो। बस इतना काफी है। इससे ज्यादा की कोई जरूरत नहीं है। यह क्षण ही शाश्वत हो गया। कोई लंबाई नहीं है, गहराई है। इस क्षण में से ही तुम गहरे उतर गये। उस गहराई का कोई ओर-छोर नहीं है, पारावार नहीं है!
पूछा है तुमने: ‘काम, क्रोध, लोभ, मोह क्या समय की ही छायाएं हैं?’
समय की छाया सिर्फ काम है। चाहे काम को समय की छाया कहो या समय को काम की छाया कहो। ज्यादा उचित होगा कि समय काम की छाया है। अगर काम गिर जाता है तो समय गिर जाता है। अगर समय गिर जाये तो काम भी गिर जाता है। लेकिन प्रयास तुम्हें काम को गिराने से ही करना पड़ेगा। क्योंकि बहुत मूल में काम है, कामना है; कुछ चाहिए! जैसा मैं हूं वैसे से राजी नहीं हूं; कुछ और होना चाहिए! बस इसी में काम का बीज है। जो मुझे मिला, काफी नहीं; कुछ और मिलना चाहिए! जैसा जगत है वैसा नहीं; कुछ और अन्यथा होना चाहिए! मेरे सपनों के अनुकूल नहीं है। मेरा मन प्रफुल्लित नहीं।
रत्ती भर भी अतृप्ति है तो कामना उठ गयी। उसी कामना के फैलाव में समय भी उठ गया। ज्यादा अच्छा होगा कि हम कहें कि समय और काम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
जब काम में, तुम्हारी कामना में कोई बाधा डालता है तो क्रोध पैदा होता है। तो क्रोध बहुत मौलिक नहीं है। काम बहुत मौलिक है। क्रोध तो उप-उत्पत्ति, बाइप्रोडक्ट है। तुम जो पाना चाहते थे, किसी ने बाधा डाल दी। तुम भागे चले जा रहे थे धन कमाने, कोई दुश्मन बीच में अड़कर खड़ा हो गया, किसी ने दीवाल बना दी या कोई तुमसे पहले झपट कर ले लिया, जो तुम लेने चले थे--क्रोध पैदा हुआ।
खयाल करना, क्रोध कब पैदा होता है? जब तुम्हारी काम की दौड़ में कहीं कोई अड़चन आ जाती है, कोई अड़चन डाल देता है। तो कभी-कभी तुम्हें ऐसी चीजों पर क्रोध आ जाता है कि तुम हंसोगे, खुद ही हंसोगे। तुम पत्र लिखने बैठे थे और फाउंटेन पेन ठीक नहीं चल रहा था, क्रोध में पटक दिया। फाउंटेन पेन को क्रोध में पटक रहे हो, पीछे खुद ही पछताओगे कि यह पारकर कलम खराब हो गयी, नुकसान लग गया। इसको पटकने से क्या अर्थ था? लेकिन बात तो प्रतीकात्मक है। तुम पत्र लिखने बैठे थे, अपनी प्रेयसी को पत्र लिख रहे थे, बड़ी कामना का जाल था, बड़े शब्द उतर रहे थे, कविताएं तैर रही थीं मन में--और यह कलम बीच में बाधा डालने लगी? यह कलम दुश्मन बनने लगी?
मैं एक सज्जन को जानता हूं जो क्रिकेट के दीवाने हैं। क्रिकेट का कहीं मैच चलता था, वे रेडियो पर बैठे सुन रहे थे। उनकी पार्टी हार गयी, रेडियो उठा कर पटक दिया! अब तुम्हारी पार्टी के हारने से और रेडियो के पटकने से कोई भी तो लेना-देना नहीं है। रेडियो का कोई कसूर भी नहीं है, मगर गुस्सा आ गया। कुछ और सूझा नहीं, वहां कुछ और था भी नहीं।
जो तुम चाहते हो वैसा न हो तो तुम अंधे हो जाते हो। फिर तुम यह देखते ही नहीं कि तुम क्या कर रहे हो। लोग वस्तुओं को गालियां देते हैं। कार स्टार्ट नहीं हो रही है, उसको गाली देते हैं। सोचते भी नहीं क्या कर रहे हैं। जैसे कि कार जान-बूझकर...तुम तो जा रहे हो दूकान और कार बीच में खड़ी हो गयी, चलती नहीं, गुस्सा आता है।
तुम अपने गुस्से को गौर से देखना। गुस्सा मौलिक नहीं है। कामवासना जहां भी अड़चन पाती है वहां क्रोध आ जाता है। कामवासना जो पा लेती है, उस पर मोह आ जाता है--कहीं छूट न जाये!
इसलिए मोह भी मौलिक नहीं है। तुमने धन पा लिया, फिर तुम उसको तिजोरी में बंद करके बैठ जाते हो। कहते हैं, लोग मर जाते हैं तो भी फिर धन पर सांप बन कर कुंडली मार कर बैठ जाते हैं। मर कर बैठते हों न बैठते हों, जिंदा में बैठे हुए हैं। कुंडली मार कर! कोई ले न जाये! मर जायेंगे मगर खर्च न करेंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा नदी में डूब रहा था--बाढ़ आयी नदी में। एक पुलिस वाले ने अपनी जान को जोखिम में डाल कर उसे बचाया। उसे लेकर घर गया। बेटा दौड़ता हुआ भीतर गया, पुलिस वाला खड़ा रहा कि शायद मां-बाप में से कोई आकर...कम से कम धन्यवाद तो देगा। नसरुद्दीन भीतर से आया और उस लड़के ने इशारा किया पुलिस वाले की तरफ। नसरुद्दीन ने कहा: क्या आपने ही मेरे बेटे को नदी में बचाया? पुलिस वाला प्रसन्न हुआ कि अब धन्यवाद देगा या कुछ भेंट देगा या कुछ पुरस्कार। उसने कहा: जी हां, मैंने ही बचाया, बड़ी खतरनाक हालत थी। उसने कहा: छोड़ो जी खतरनाक हालत, बेटे की टोपी कहां है?
वह टोपी कहीं बह गयी है। अब बेटे को बचाया, इसकी चिंता नहीं है, टोपी का मोह...।
कामवासना जो पा लेती है उस पर मोह मार कर बैठ जाती है। उसे छीन न ले कोई! बड़ी मुश्किल से तो पाया, बड़े द्वार-दरवाजे खटकाये, भीख मांगी, दर-दर भटके, राह-राह की धूल फांकी, किसी तरह से पाये, अब कहीं छूट न जाये! तो जो मिल जाता है, उसे आदमी भोगता तक नहीं, उस पर कुंडली मार कर बैठ जाता है।
इसलिए तुम अमीर से ज्यादा गरीब आदमी न पाओगे। गरीब तो भोग भी लेता है। उसके पास ज्यादा है नहीं कुंडली मारने को। कुंडली मारने के लिए कुछ चाहिए। मिल जाता है, रुपये-दो रुपये कमा लिये, मजा कर लेता है। है ही नहीं बचाने योग्य तो बचाना क्या? बचकर भी क्या बचेगा? लेकिन अमीर, जिसके पास है; वह नहीं भोग पाता; कृपणता पैदा होती है। और बचा लो, और बचा लो! यह भूल ही जाता है कि बचाया किसलिए था। जैसे बचाना ही लक्ष्य हो जाता है!
तो मोह भी बाइ-प्रोडक्ट, वह भी मौलिक नहीं है। फिर जो मिल गया, उतने से तृप्ति कहां होती है! तृप्ति तो होती ही नहीं। अतृप्ति का जाल तो फैलता ही चला जाता है। हजार मिल गये तो दस हजार चाहिए। दस हजार मिल गये तो लाख चाहिए। तुम्हारे और तुम्हारे मिलने के बीच अनुपात सदा वही रहता है। उसमें फर्क नहीं पड़ता। एक रुपया तो दस रुपया चाहिए; एक लाख तो दस लाख चाहिए। दोनों के बीच का अनुपात वही का वही है। दस का अनुपात है।
तुम कभी अपने जीवन के गणित को देखना। तुम बड़े चकित होओगे। जब तुम्हारे पास रुपया था तब तुम दस मांग रहे थे। तुम्हारा दुख इतना का इतना था। क्योंकि नौ की कमी थी। अब तुम्हारे पास लाख रुपये हैं, अब तुम दस लाख मांग रहे। अब भी दुख उतना का उतना ही है, क्योंकि नौ लाख की कमी है। वह नौ की कमी बनी ही रहती है। करोड़ हो जायेंगे तो दस करोड़ मांगने लगोगे। तुम्हारी मांग कभी तुम्हारे पास जो है उसके साथ तालमेल नहीं खाती। उसके आगे झपट्टा मारती रहती है। इस झपट्टा मारते हुए कामवासना के दौड़ते हुए रूप का नाम लोभ है।
तो क्रोध, मोह, लोभ, ये मौलिक नहीं हैं। इसलिए इनसे सीधे मत लड़ना। कुछ लोग इनसे सीधे लड़ते हैं और इसलिए कभी नहीं जीत पाते। जब भी लड़ना हो तो बीज से लड़ना, पत्तों से मत लड़ना। जब भी लड़ना हो, जड़ काटना, शाखाएं-प्रशाखाएं मत काटना; अन्यथा कभी कोई लाभ न होगा। तुम क्रोध को काटते रहो, कुछ फर्क न होगा। तुम्हारी वासना के वृक्ष पर नये पत्ते लगने लगेंगे। सच तो यह है, जितना तुम काटोगे उतना वृक्ष घना होने लगेगा। इसलिए इनसे तो उलझना ही मत। यह तो गलत निदान हो जायेगा। मूल को पकड़ना।
काम को काटने से क्रोध, मोह, लोभ तीनों अपने-आप क्षीण होते चले जाते हैं। और काम को काटने से धीरे-धीरे समय भी क्षीण हो जाता है। और एक ऐसी दशा आने लगती है जब तुम जहां हो वहां परिपूर्ण रूप से हो; तुम जैसे हो वैसे परम तृप्त, एक गहरा संतोष, लहर भी नहीं उठती! कुछ और होने का भाव भी नहीं उठता। जैसे हैं वैसे! और वैसे ही ठीक! और एक धन्यवाद, एक अहोभाव, प्रभु के प्रति एक अनुकंपा! ऐसी घड़ी में समय नहीं रह जाता। ऐसी घड़ी में तुम कालातीत हो जाते हो।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं बार-बार: तुम जो भी करो, ऐसी तल्लीनता से करना कि उस समय समय मिट जाये। वही ध्यान हो गया। अगर तुम जमीन में गड्ढा खोद रहे हो बगीचे में तो इतनी तल्लीनता से खोदना कि खोदना ही रह जाये। खोदने में ऐसा रस आ जाये, ऐसी तृप्ति मिलने लगे कि जैसे इसके पार कुछ करने को नहीं है, न कुछ होने को है। तो फिर यह गड्ढा खोदना ही ध्यान हो गया। यहीं तुम समय के बाहर हो गये और गड्ढा खोदते-खोदते ही तुम पाओगे ध्यान की रसधार बहने लगी।
जहां समय गया, वहीं ध्यान। जहां समय शून्य हुआ, वहीं समाधि।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, आप बार-बार कहते हैं: ‘जो है है। उसके स्वीकार में ही सुख है, शांति है, भगवत्ता है।’ मुझे भौतिक तल पर अपने ‘जो है’ को बुढ़ापे को छोड़ कर स्वीकारना बहुत कठिन नहीं लगता। लेकिन मानसिक तल पर मेरे पास महत्वाकांक्षा और तज्जनित द्वेष, अप्रेम, हिंसा, विध्वंसात्मक वृत्ति के सिवाय और क्या है! क्या मुझसे अधिक संकीर्ण चित्तवाला और मुझसे बढ़ कर क्षुद्र आशय वाला कोई और हो सकता है? क्या उसे भी स्वीकारूं? और क्या यह संभव है?
पहली बात: जो है, है; स्वीकारो या न स्वीकारो। जो है, है। उसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे अस्वीकार से भी फर्क नहीं पड़ता। अगर बुढ़ापा आ गया, आ गया। तुम्हारे अस्वीकार से क्या फर्क पड़ता है? इतना ही फर्क पड़ेगा कि बुढ़ापे का जो मजा ले सकते थे वह न ले पाओगे। बुढ़ापे में जो एक शालीनता हो सकती थी, वह न हो पायेगी। बुढ़ापे में जो एक प्रसाद हो सकता था, वह खंडित हो जायेगा। बुढ़ापा तो नहीं हट जायेगा। जो है, है। तुम्हारे अस्वीकार करने से मिटता कहां? बदलता कहां? तुम्हारे अस्वीकार करने से कुछ भी तो नहीं होता! तुम्हीं खुद कुछ और गंवा देते हो अस्वीकार में, पाते क्या हो?
जिस व्यक्ति ने अपने वार्धक्य को, अपने बुढ़ापे को परिपूर्ण भाव से स्वीकार कर लिया है, तुम उसके चेहरे पर एक सौंदर्य देखोगे जो कि जवान के चेहरे पर भी नहीं होता। जवानी के सौंदर्य में एक तरह का बुखार है, उत्ताप है। बुढ़ापे के सौंदर्य में एक शीतलता है। जवानी के सौंदर्य में वासना की तरंगें हैं, उद्वेलित चित्त है, चंचलता है। जवानी के सौंदर्य में एक तरह की विक्षिप्तता है, ज्वर है। होगा ही। एक तरह का तूफान है, आंधी है।
बुढ़ापे का सौंदर्य ऐसा है जैसे तूफान आया और चला गया; और तूफान के बाद जो शांति हो जाती है, जो गहन शांति छा जाती है। कभी देखा, बादल घुमड़े, आंधी आयी, बिजली चमकी, फिर सब चला गया। उसके बाद जो विराम होता है! सब चुप! सारी प्रकृति मौन! वैसी ही शांति बुढ़ापे की है।
अगर स्वीकार कर लो तो बुढ़ापे में प्रसाद है। वह जो बूढ़े आदमी के सिर के सफेद हो गये बाल हैं, अगर उनको परिपूर्ण भाव से अंगीकार किया गया हो तो जैसे हिमालय के शिखरों पर जमी हुई सफेद बर्फ होती है, ऐसा ही उनका सौंदर्य है।
तो बुढ़ापा तो रहेगा, तुम चाहे इनकार करो चाहे स्वीकार करो। इनकार करने से इतना ही हो जायेगा--एक तनाव फैल जायेगा बुढ़ापे पर, एक विकृति आ जायेगी, दरारें पड़ जायेंगी बुढ़ापे में। बुढ़ापा और भी कुरूप हो जायेगा, बदतर हो जायेगा। जब मैं तुमसे कहता हूं, जो है उसे स्वीकार करो, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम अगर स्वीकार करोगे तो उसे बदल पाओगे। बदल तो कोई कभी नहीं पाया। बदलाहट तो होती ही नहीं। और अगर कोई बदलाहट होती है तो स्वीकार से होती है। क्योंकि दंश चला जाता है, विष चला जाता है और अमृत हो जाता है।
प्राण में जब क्लांति, जीवन में थकन जब व्यापती है।
स्वप्न सारे टूट कर उड्डीण हो जाते
रूख के पत्ते यथा पतझाड़ में
स्वप्न मेरे भी चतुर्दिक टूट कर उड़ने लगे हैं
और मैं दुबली भुजाओं पर उठाये
व्योम का विस्तार, एकाकी खड़ा हूं
इस भरोसे में नहीं कि कोई बड़ा पुरुषार्थ है यह
किंतु केवल इसलिए अब और चारा ही नहीं है।
फिर स्वीकार में एक बात और खयाल रखना। स्वीकार का यह अर्थ नहीं होता कि अब और कोई चारा ही नहीं है। तो फिर स्वीकार नहीं है। फिर तो मजबूरी है। फिर तुमने धन्यभाव से स्वीकार न किया।
जिस स्वीकार में स्वागत नहीं है, उसे तुम स्वीकार मत समझ लेना। जब मैं स्वीकार कहता हूं तो स्वीकार का प्राण है स्वागत। स्वीकार का अर्थ ही है कि ‘मैं धन्यभागी हूं, कि प्रभु तुमने बुढ़ापा भी दिया! तुमने सौंदर्य की आंधी भी दी जवानी में, तुमने यह बुढ़ापे का शांत प्रसादपूर्ण सौंदर्य भी दिया, यह गरिमा भी दी! बचपन की अबोध दशा दी, जवानी की बोध और अबोध की मिश्रित दशा दी; यह बुढ़ापे का शुद्ध बोध भी दिया!
अगर जीवन ऐसे स्वीकार-भाव से चले, जो मिले उसे स्वीकार कर ले, गहरा धन्यवाद हो भीतर, तो तुम पाओगे: तुम्हारे हाथ में एक कुंजी लग गयी जो सभी बंद द्वारों को खोल लेगी। जीवन का कोई रहस्य तुमसे छिपा न रह जायेगा। नाहक सिर मारने से, शोरगुल मचाने से कुछ भी नहीं होता। शोरगुल मचाने वाला अगर किसी दिन स्वीकार भी करता है तो वह हारा-थका। कहता है: ठीक है, अब कोई चारा ही नहीं है।
हमारे पास एक शब्द है ‘समर्पण’। अंग्रेजी में भी शब्द है ‘सरेंडर’, लेकिन समर्पण का ठीक-ठीक पर्यायवाची नहीं है। मुझे बड़ी अड़चन होती है जब मैं पश्चिम से आये किसी खोजी को समर्पण समझाना चाहता हूं, क्योंकि उनके पास ठीक-ठीक शब्द नहीं है। सरेंडर का अर्थ तो समर्पण होता है, लेकिन गलत होता है; ऐसे ही होता है जैसे कि कोई देश किसी से हार जाये तो सरेंडर कर देता है। एक सैनिक दूसरे से हार जाये तो अपने शस्त्र सरेंडर कर देता है। यही समर्पण का अर्थ है अंग्रेजी में या पश्चिम की किसी भी भाषा में।
भारत की भाषा में समर्पण का कुछ और भी अर्थ है। प्रेम में भी समर्पण होता है, युद्ध में ही नहीं। युद्ध में भी हार होती है; लेकिन वह सिर्फ हार है। प्रेम में भी हार होती है; लेकिन प्रेम की हार जीत है। प्रेम में जिसने हारना जान लिया उसने जीतने की कला सीख ली।
शिष्य गुरु के पास समर्पण करता है, यह ऐसा नहीं है जैसे कि दुश्मन दुश्मन के पास समर्पण करता है। जैसे पोरस ने सिकंदर के पास समर्पण किया या जर्मनी ने इंग्लैंड के सामने समर्पण किया--यह वैसा समर्पण नहीं है। तो जब मैं किसी पाश्चात्य खोजी को कहता हूं ‘सरेंडर’, तो वह थोड़ा चौंकता है, सरेंडर! सरेंडर के साथ ही गलत संबंध जुड़े हैं। सरेंडर का मतलब ही यह है कि ‘नहीं’। हारने को कौन राजी है! पूरब में जब हम कहते हैं ‘समर्पण’, तो बड़ा और अर्थ है। उसका अर्थ होता है: अब एक ऐसी जगह आ गयी जहां विश्राम करो। अब लड़ो मत। अब लड़ने से हारोगे। अब तो अगर हार जाओ तो जीत जाओ।
लाओत्सु कहता है: मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं हारा हुआ हूं। तुम मुझे जीत न सकोगे, क्योंकि मेरी जीतने की कोई आकांक्षा नहीं है। तुम मुझे हरा न सकोगे, क्योंकि मैंने पहले ही समर्पण कर दिया है।
और लाओत्सु का सौंदर्य! जीवन जैसा है और जीवन जो दिखाये, और जीवन जो ले आये, उसके लिए पूरा खुला हृदय है। कहीं कोई प्रतिरोध नहीं है, विरोध नहीं है। किसी तल पर किसी तरह का संघर्ष नहीं है।
पूछा है: ‘आप कहते हैं, जो है, है। उसके स्वीकार में ही सुख है।’
उसका स्वीकार ही सुख है। स्वीकार में ही सुख है, ऐसा नहीं। उसमें तो ऐसा भाव है कि स्वीकार करेंगे, फिर सुख होगा। नहीं, स्वीकार ही सुख है। स्वीकार किया नहीं कि सुख हुआ नहीं। साथ ही साथ घट जाता है। करो और देखो। किसी भी चीज को स्वीकार करके देखो।
अस्वीकार में दुख है। अस्वीकार का मतलब ही है कि वासना का जाल फैल गया। अस्वीकार का अर्थ ही है कि हम कुछ और चाहते थे प्रभु और यह तूने क्या करवा दिया? हमने कुछ और मांगा था, यह तूने क्या दे दिया? अस्वीकार का अर्थ है: शिकायत हो गयी। अस्वीकार का अर्थ है: गलत हो गया, यह हमने घोषणा कर दी। स्वीकार का अर्थ है: इस परमात्मा के जगत में गलत होता ही नहीं। गलत हो ही नहीं सकता। उसके रहते गलत हो कैसे सकता है?
एक बहुत बड़े नास्तिक दिदरो ने लिखा है: संसार में इतना गलत हो रहा है कि परमात्मा हो नहीं सकता। यह बात भी जंचती है। मुझे भी जंचती है। अगर तुम मानते हो कि संसार में गलत हो रहा है तो तुम्हारी परमात्मा में श्रद्धा हो ही नहीं सकती। क्योंकि परमात्मा के होते गलत हो कैसे सकता है? दिदरो की दलील यह है कि या तो परमात्मा है तो फिर गलत नहीं हो सकता। या गलत हो रहा है तो कम से कम इतना तो मानो कि परमात्मा नहीं है।
तो जो आदमी कहता है, परमात्मा है और गलत हो रहा है, समझ लेना कि वह झूठा आस्तिक है। उसका परमात्मा बिलकुल झूठा है। अभी उसको गलत तो मालूम हो रहा है। उसी को मैं आस्तिक कहता हूं जो कहता है: गलत तो हो ही कैसे सकता है, परमात्मा है! गलत असंभव है। अगर मुझे गलत दिखाई पड़ता है तो मेरे देखने की कहीं कोई भूल हो रही है। मेरी दृष्टि का, मेरी आंख पर कोई पर्दा है। मेरा देखना साफ-सुथरा नहीं है। मैं कुछ का कुछ देख रहा हूं। मगर गलत हो नहीं सकता। अगर हत्यारा भी मुझे मारने चला आया है, तो कुछ ठीक ही हो रहा होगा, क्योंकि गलत हो कैसे सकता है? उसकी मर्जी से हो रहा है। उसकी मर्जी के बिना कुछ हो नहीं सकता।
तो मैं तुमसे कहता हूं: स्वीकार ही सुख है। स्वीकार ही शांति है। और जिस दिन तुम ऐसा स्वीकार कर लोगे कि हत्यारे में भी परमात्मा का ही हाथ है, उस दिन क्या तुम यह सोच पाओगे कि तुम्हारे भीतर परमात्मा के अतिरिक्त कोई और है? जब हत्यारे में भी वही दिखाई पड़ेगा, तो तुम अपने में भी उसे देख पाओगे। इसलिए स्वीकार ही भगवत्ता है। तुम भगवान होते हो स्वीकार करके।
पूछा है: ‘मुझे भौतिक तल पर अपने ‘जो है’ को स्वीकार करना कठिन नहीं, लेकिन मानसिक तल पर महत्वाकांक्षा, तज्जनित द्वेष, अप्रेम, हिंसा, विध्वंसक वृत्ति के सिवाय और क्या है? क्या मुझसे अधिक संकीर्ण चित्त वाला और मुझसे बढ़ कर क्षुद्र आशय कोई और हो सकता है?’
अहले-दिल और भी हैं अहले-वफा और भी हैं
एक हम ही नहीं, दुनिया से खफा और भी हैं।
हम पे ही खत्म नहीं मसलके शोरिदासरी
चाक दिल और भी हैं चाक कबा और भी हैं।
सर सलामत है तो क्या संगे-मलामत की कमी
जान बाकी है तो पैकाने-कजा और भी हैं।
नहीं, ऐसा तो भूल कर भी मत सोचना कभी कि तुमसे क्षुद्र आशय कौन होगा! यह सारा संसार, ये सभी लोग कितने ही परमात्मा की बात कर रहे हों, लेकिन इनका परमात्मा बातचीत का है। इनका आशय क्षुद्र है।
विवेकानंद के घर में खाना-पीना नहीं था। बाप मर गये। मां भूखी, खुद भूखे। तो रामकृष्ण ने कहा: ‘तू ऐसा कर जाकर प्रभु को क्यों नहीं कह देता? जा मंदिर में, तेरी जरूर सुनेंगे। मुझे पक्का भरोसा है। तू जा और कह। जो मांगेगा, मिल जायेगा।’
विवेकानंद भीतर गये। आधा घंटा बाद आंसुओं से भरे मग्न भाव से डोलते जैसे नशा किया हो, बाहर आये। रामकृष्ण ने कहा: ‘मांगा?’ विवेकानंद ने कहा: ‘क्या?’ रामकृष्ण ने कहा: ‘तुझे भेजा था कि मांग ले जो तुझे चाहिए। यह दुख-दारिद्रय अलग कर।’ विवेकानंद ने कहा: ‘मैं तो भूल ही गया। उनके सामने खड़े हो कर मांगना कैसा! उनके सामने खड़े हो कर तो डोलने लगा। उनके सामने खड़े हो कर मांगना कैसा?’
कहते हैं, रामकृष्ण ने तीन बार भेजा और तीनों बार यही हुआ। फिर रामकृष्ण खूब खिलखिला कर हंसने लगे। विवेकानंद ने पूछा कि मैं समझा नहीं परमहंसदेव, आप हंसते क्यों हैं? रामकृष्ण ने कहा: अगर आज तू मांग लेता तो मुझसे तेरे सब संबंध छूट जाते। आज न मांग कर तू मेरे हृदय के बहुत करीब आ गया। क्योंकि यही भक्त का लक्षण है।
सब मांगें क्षुद्र हैं। मांग के साथ जीने वाला मन क्षुद्राशय है। फिर मांग हमारी क्या है, इससे फर्क नहीं पड़ता। यह सारा जगत भिखमंगों से भरा है। हरेक मांग रहा है। कोई धन मांग रहा है, कोई ध्यान मांग रहा है। मगर मांग जारी है। कोई कहता है, अच्छा मकान हो। कोई कहता है, मकान-वकान में कुछ फर्क नहीं पड़ता; अच्छा मन दे दो, जिसमें द्वेष न हो, ईर्ष्या न हो! मगर बात तो वही रही।
जब मैं कहता हूं स्वीकार, तो मेरा अर्थ परम स्वीकार से है, जो है! अगर उसने द्वेष दिया, ईर्ष्या दी, वह भी स्वीकार! इसी स्वीकार में तुम एक चमत्कार देखोगे। इस स्वीकार में एक चमत्कार छिपा है। जैसे ही तुम स्वीकार करोगे, तुम चकित हो जाओगे। इस स्वीकार के दीये के जलते ही द्वेष कहां खो गया, पता न चलेगा। क्योंकि द्वेष और ईर्ष्या और जलन तो मांग की ही छायाएं हैं। जैसे ही तुम्हारे जीवन में स्वीकार आ गया, तुम अचानक पाओगे अप्रेम कहां चला गया, पता न चला। दीया स्वीकार का जले तो अप्रेम, हिंसा और घृणा का अंधेरा अपने-आप मिट जाता है।
अप्रेम का अर्थ क्या है? इतना ही अर्थ है कि जैसा मैं चाहता था वैसा आदमी नहीं है यह, तो अप्रेम हो गया।
जिनको हम प्रेम करते हैं, उनको भी हम कहां पूरा प्रेम कर पाते हैं, क्योंकि उनमें भी हजारों भूलें दिखाई पड़ती हैं, हजार कमियां दिखाई पड़ती हैं। क्षण भर पहले प्रेम करते हैं, क्षण भर में क्रोध आ जाता है, क्योंकि कोई कमी आ गयी। पूर्ण तो कहीं कुछ दिखाई पड़ता नहीं। पूर्ण की हमारी ऐसी असंभव कल्पना है, असंभव धारणा है। कोई उसे पूरा कर नहीं सकता। परमात्मा भी तुम्हारे सामने खड़ा हो तो तुम मेरी मानो, तुम कुछ न कुछ भूल-चूक उसमें निकाल लोगे। तुम जरूर निकाल लोगे कुछ न कुछ भूल-चूक। असंभव है। शायद इसी डर से वह तुम्हारे सामने खड़ा नहीं होता है। तुम लाख चिल्लाते कि साक्षात्कार हो, लेकिन छिपा है। छिपता रहता है। तुम्हें जानता है, तुम्हारे सामने प्रगट हो कर सिर्फ उपद्रव होगा। तुम हजार कमियां निकाल लोगे।
तुमने कभी इस तरह सोचा कि अगर परमात्मा तुम्हारे सामने खड़ा हो तो तुम क्या-क्या कमियां निकाल लोगे? बुद्ध तुम्हारे पास से गुजरे, तुमने कमियां निकाल लीं। महावीर तुम्हारे बीच से गुजरे, तुमने कमियां निकाल लीं। कृष्ण तुम्हारे बीच रहे, तुमने कमियां निकाल लीं। क्राइस्ट में तो तुमने इतनी कमियां निकाल लीं कि सूली लगा दी। सुकरात से तो तुम ऐसे नाराज हुए कि जहर पिला दिया। मंसूर को तुमने काट डाला। फकीरों को, संतों को, तुमने कैसा व्यवहार किया है!
परमात्मा बहुत बार प्रगट भी हुआ है और हर बार उसने पाया कि तुम कमी निकाल लेते हो।
एक कहानी मैं पढ़ता था कि ईश्वर स्वर्ग में बैठे-बैठे थक गया है। और उसके किसी सलाहकार ने कहा कि आप कहीं थोड़े दिन के लिए छुट्टी पर क्यों नहीं चले जाते? उसने कहा: ‘कहां जाऊं? छुट्टी पर कहां जाऊं?’ तो उन्होंने कहा: ‘बहुत दिन से आप जमीन पर नहीं गये, वहीं चले जायें।’ तो उसने कहा: ‘न बाबा! जमीन की भूल गये इतनी जल्दी? दो हजार साल पहले मैंने अपने बेटे को भेजा था, जीसस को, क्या हाल किया? वही वे मेरे साथ भी करेंगे!’
तुम भूल निकाल ही लोगे, जब तक कि तुम्हारे जीवन में पूर्ण स्वीकार न हो। और पूर्ण स्वीकार हो तो तुम क्या कोई ऐसी जगह खोज सकते हो जहां परमात्मा दिखाई न पड़े? तब फूल में भी वही खिलता हुआ मालूम होगा। तब झरने में भी वही बहता मालूम होगा। तब आकाश में भटकते एक शुभ्र बादल में भी तुम उसी को तिरते हुए पाओगे। तब पक्षी की गुनगुनाहट में तुम उसी का उच्चार अनुभव करोगे।
अगर तुम्हारे भीतर स्वीकार है तो तत्क्षण उस स्वीकार की क्रांति में सारा जगत रूपांतरित हो जाता है। तुम बचोगे रूपांतरण से? तुम भी रूपांतरित हो जाते हो।
तो मैं तो तुमसे कहता हूं, यह तुम्हें बहुत कठिन लगेगा, क्योंकि तुम्हारे संतों ने यह तो कहा है कि धन न हो तो स्वीकार कर लेना। तुम्हारे संतों ने तुमसे यह तो कहा है, झोपड़ा हो, महल न हो, तो स्वीकार कर लेना। तुम्हारे संतों ने यह तो कहा है कि बेटा घर में पैदा न हो तो स्वीकार कर लेना। लेकिन तुम्हारे संतों ने तुमसे यह नहीं कहा कि क्रोध को भी स्वीकार कर लेना, ईर्ष्या को भी स्वीकार कर लेना, घृणा को भी स्वीकार कर लेना। मैं तुमसे यह भी कहता हूं। क्योंकि मेरा स्वीकार परिपूर्ण है। मैं तुमसे कहता हूं, जो हो उसे स्वीकार कर लेना। बाहर की ही स्वीकृति अधूरी स्वीकृति होगी।
मैं तुमसे कहता हूं, तुम अपने को भी क्षमा कर दो। तुम्हारे संतों ने कहा है, दूसरों को क्षमा करना। मैं तुमसे कहता हूं, तुम कृपा करो, तुम अपने को भी क्षमा कर दो। और ध्यान रखना, जिसने अपने को क्षमा न किया, वह किसी को क्षमा न कर सकेगा। इस सूत्र को समझो।
अगर तुम अपने पर कठोर हो तो तुम दूसरे पर भी कठोर रहोगे। अगर तुम्हारे भीतर द्वेष है और तुम जानते हो कि द्वेष बुरा है, नहीं होना चाहिए, तो तुम दूसरे आदमी में जब द्वेष देखोगे तो उसे क्षमा कैसे करोगे? कहो, कैसे यह संभव होगा? यह तो गणित में बैठेगा नहीं। अगर तुम्हारे भीतर क्रोध है और तुम अपने क्रोध को क्षमा नहीं कर सकते तो जब तुम किसी दूसरे आदमी में क्रोध की झलक देखोगे तो कैसे क्षमा करोगे?
तुम्हारे संत तुमसे बड़ी व्यर्थ की बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, क्षमा कर दो दूसरे को।
महात्मा गांधी अपने शिष्यों को कहते थे: अपने साथ कठोर रहना, दूसरे के साथ नम्र। यह असंभव है। यह बात ही गलत है। जो अपने साथ कठोर है, वह जाने-अनजाने दूसरे के साथ भी कठोर होगा। सच तो यह है, जो अपने साथ कठोर है, वह दूसरे के साथ और भी ज्यादा कठोर होगा।
तुम जो अपने साथ करोगे, वही तुम दूसरे के साथ भी करोगे। इससे अन्यथा तुम कर नहीं सकते। तो छोटी-छोटी बातों पर तुम दूसरे की निंदा अपने मन में ले आओगे--बड़ी छोटी बातों पर, जिनका कोई मूल्य नहीं! तुम क्षमा न कर सकोगे।
मैं तुम्हें कुछ और ही बात कह रहा हूं। मैं तुमसे कहता हूं: क्षमा करो स्वयं को भी। क्योंकि स्वयं के भीतर भी वही परमात्मा विराजमान है। क्षमा करो! एक बार करो, दो बार करो, हजार बार करो, क्षमा करो! और तुम जैसे हो वैसा ही परमात्मा ने तुम्हें चाहा, ऐसा स्वीकार करो। उसकी यही मर्जी कि तुममें क्रोध हो। अब तुम क्या करोगे? तुम इसे भी स्वीकार कर लो।
और तुम जरा समझना। जैसे ही तुम स्वीकार कर लोगे क्रोध को भी, तुम्हारे भीतर क्रोध बच सकेगा? क्रोध तो अस्वीकार करने से ही पैदा होता है। क्रोध तो तनाव है, बेचैनी है; जब तुम अस्वीकार करते हो तो पैदा होता है।
तुमने फर्क देखा? जिस चीज को तुम स्वीकार कर लो, उसमें क्रोध नहीं होता। एक आदमी आया, उसने जोर से एक धौल तुम्हारी पीठ पर जमायी। क्रोध आ ही रहा था, तुमने लौट कर देखा अपना मित्र है, बात खत्म हो गयी। क्रोध आ ही रहा था, आ ही गया था, नाक पर खड़ा था। लौट कर देखा होता कि कोई अजनबी है तो तुम जूझ ही पड़े होते। धौल तो धौल है, मित्र ने मारी कि दुश्मन ने मारी, उसमें कुछ फर्क नहीं है। तुम भी फर्क नहीं कर सकते जब तक पीछे लौट कर न देखो। क्या कर सकते हो? कि तुम ऐसे ही खड़े रहो और तुम तय करो कि दुश्मन ने मारी कि दोस्त ने, कैसे फर्क करोगे? क्रोध उठेगा। लौटकर देखोगे दोस्त है, तो बात बदल गयी। क्या हो गया? स्वीकार हो गया। मित्र है, प्रेम में मारी है। दुश्मन है, अस्वीकार हो गया। क्रोध उबलने लगा। चोट तो वही की वही है।
तुमने देखा, मित्र एक-दूसरे को गाली देते हैं, कोई नाराज नहीं होता। सच तो यह है, मित्रता तब तक मित्रता ही नहीं होती जब तक गाली का लेन-देन न होने लगे। तब तक कोई मित्रता है? किसी से पूछो, कैसी मित्रता है? अगर वह कहे गाली का लेन-देन है, तब फिर समझो कि पक्की है। होना भी चाहिए ठीक यही। क्योंकि पक्की मित्रता का अर्थ ही यह है कि जिन बातों से साधारणतः शत्रुता हो जाती थी, उनसे भी अब शत्रुता नहीं होती। गाली भी दे देता है तो भी अपना है। कोई अड़चन नहीं है। स्वीकार है। सच तो यह है, मित्र गाली देता है, उसमें भी रस आता है कि मित्र ने गाली दी। ध्यान रखता है। भूल नहीं गया। अभी भी मैत्री कायम है। वही गाली, वे ही शब्द, किसी और ओंठ से आते हैं तो बस अड़चन हो जाती है।
जहां तुम स्वीकार कर लेते हो, वहां फूल खिल जाते हैं। जहां अस्वीकार कर देते हो, वहीं कांटा चुभ जाता है। मैं तुमसे कहता हूं, परम स्वीकार, आत्यंतिक स्वीकार। तुम छोड़ो यह बकवास बदलने की कि यह हो, यह हो, यह न हो। तुम हो कौन? तुम कह दो परमात्मा को: ‘अब जो तेरी मर्जी हो वैसा हो!’ तुम बदल-बदल कर बदल कहां पाये? एक और यह मजा है...।
एक बूढ़े सज्जन मेरे पास आये, वे कहने लगे कि मुझे क्रोध बड़ा होता है।
मैंने कहा, उम्र कितनी है?
‘अठहत्तर साल!’
‘कितने दिन से क्रोध से लड़ रहे हो?’
उन्होंने कहा, ‘पूरे जीवन से लड़ रहा हूं।’
मैंने कहा, ‘अब तो समझो। अठहत्तर साल लड़ने के बाद भी क्रोध नहीं गया है, इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि लड़ने से कुछ भी नहीं जाता। तुम अब मरते दम तो स्वीकार कर लो, समर्पण कर दो। इससे साफ जाहिर है कि परमात्मा चाहता है तुममें क्रोध हो और तुम चाहते हो न हो। तो तुम हारोगे, परमात्मा जीत रहा है। अठहत्तर साल हो गये हारते-हारते। अब कब तक इरादा है?’
मैंने कहा, ‘तुम मेरी मानो। इसे स्वीकार कर लो। लड़कर तुमने अठहत्तर साल देख लिया, मेरी मान कर एक साल देख लो।’ कुछ बात चोट पड़ गयी। बात कुछ लगी। गणित साफ-साफ लगा: अठहत्तर साल! खुद भी सोचा। शायद इस तरह कभी सोचा न होगा पहले कभी।
आदमी सोचता ही कहां है! चलता जाता है, भागता जाता है, करता जाता है। वही-वही करता रहता है जो बार-बार किया है। कुछ परिणाम नहीं होता, फिर भी करता रहता है। निचोड़ता रहता है रेत को कि तेल निकल आयेगा।
‘अठहत्तर साल हो गये’, मैंने कहा, ‘छोड़ो भी, यह रेत है। इससे तेल निकलता ही नहीं। नहीं तो तुम जीत जाते, मजबूत आदमी हो! कितनी दफा अदालत में तुम पर मुकदमे चल चुके हैं?’
वे कहते हैं, कई दफे चल चुके हैं इस क्रोध की वजह से। झगड़ा-झांसा मेरी जिंदगी में ही रहा। जहां-जहां जो करूं, झगड़ा-झांसा। हर बात में उपद्रव। घर में भी नहीं बनती। बेटोंसे भी नहीं बनती। भाई से भी नहीं बनती। बाप से भी नहीं बनी कभी। बाप चले भी गये, झगड़े में ही गये। जब बाप मरे तो बोलचाल बंद था। पत्नी ऐसे ही मर गयी रो-रो कर। मगर कुछ है कि बात जाती नहीं।
मैंने कहा, ‘तुमने अपनी पूरी चेष्टा भी कर ली है। एक साल अब तुम मेरी मान लो। स्वीकार कर लो।’
साल भर बाद वे मेरे पास आये तो उनको पहचानना मुश्किल था। उनके चेहरे पर ऐसा प्रसाद था...वे कहने लगे, अपूर्व हुई घटना। स्वीकार मैंने कर लिया और सबको मैंने कह दिया कि मैं क्रोधी आदमी हूं और मैंने अब अन्यथा होने का भाव भी त्याग दिया। मैं वहां से कसम ले कर आ गया हूं कि एक साल तो अब मैं जो हूं सो हूं। अपने बेटों को कह दिया, अपने भाइयों को कह दिया कि अब मुझे स्वीकार कर लो जैसा हूं; मैंने भी स्वीकार कर लिया। और कुछ ऐसा हुआ कि साल तो बीत गया, क्रोध की खबर नहीं आ रही है।
क्या हो गया? तुम जब स्वीकार कर लेते हो, तनाव चला गया। जब तुमने ही मान लिया कि मैं क्रोधी हूं तो तुमने समर्पण कर दिया। अन्यथा हम घूमते रहते हैं एक ही वर्तुल में, जैसे कोल्हू का बैल चलता है; फिर वही, फिर वही, कहीं पहुंचना नहीं होता।
दिशाएं बंद हैं
आकाश उड़ता-फड़फड़ाता है
वहीं फिर लौट आता है।
आंधियां कल जो इधर से जा रही थीं
जा नहीं पायीं
हांफती है बंद बोझिल कुहासे-सी
एक परछाईं
दिशाएं बंद हैं
दीवार को उस पार से कोई हिलाता है
थका फिर लौट आता है
धूप जलता हुआ सागर द्वीप छांहों के
सरक जाते पिघल कर
मछलियां जैसे मरे पल-छिन
उतर आ रोज जाते हैं सतह पर
जाल कंधों पर धरे
दिन सुबह आता है
हर शाम खाली लौट जाता है
दिशाएं बंद हैं
आकाश उड़ता-फड़फड़ाता है
वहीं फिर लौट आता है
तुम्हारी पूरी जिंदगी एक वर्तुल में घूमता हुआ चाक है। इसलिए हिंदुओं ने जीवन को जीवन-चक्र कहा।
देखते हैं, भारत के ध्वज पर जो चक्र बना है, वह बौद्धों का चक्र है। बौद्धों ने जीवन को एक गाड़ी का चक्का माना; घूमता रहता है उसी कील पर, वहीं का वहीं। एक आरा ऊपर आता, फिर नीचे चला जाता; फिर थोड़ी देर बाद वही आरा ऊपर आ जाता है।
तुम जरा चौबीस घंटे अपने जीवन का विश्लेषण करो। तुम पाओगे: क्रोध आता, पश्चात्ताप आता, फिर क्रोध आ जाता। प्रेम होता, घृणा होती, फिर प्रेम हो जाता। मित्रता बनती, शत्रुता आती, फिर मित्रता। ऐसे ही चलते रहते, आरे घूमते रहते, जीवन का चाक घूमता रहता है। चाक का अर्थ है: जीवन में पुनरुक्ति हो रही है।
कब जागोगे इस पुनरुक्ति से? कुछ तो करो! एक काम करो: अब तक बदलना चाहा, अब स्वीकार करो! स्वीकार होते ही एक नया आयाम खुलता है। यह तुमने कभी किया ही नहीं था। यह बिलकुल नयी घटना तुम करोगे। और मैं नहीं कह रहा हूं कि लाचारी...। मैं कह रहा हूं, धन्यभाव से! प्रभु ने जो दिया है उसका प्रयोजन होगा। क्रोध भी दिया है तो प्रयोजन होगा। तुम्हारे महात्मा तो समझाते रहे कि क्रोध न हो, लेकिन परमात्मा नहीं समझता है। फिर बच्चा आता है, फिर क्रोध के साथ आता है। अब कितनी सदियों से महात्मा समझाते रहे! न तुम समझे न परमात्मा समझा। कोई समझते ही नहीं महात्माओं की। महात्मा मर कर सब स्वर्ग पहुंच गये होंगे। वहां भी परमात्मा की खोपड़ी खाते होंगे कि अब तो बंद कर दो--क्रोध रखो ही मत आदमी में।
लेकिन तुम जरा सोचो, एक बच्चा अगर पैदा हो बिना क्रोध के, जी सकेगा? उसमें बल ही न होगा। उसमें रीढ़ न होगी। वह बिना रीढ़ का होगा। तुम एक धप्प लगा दोगे उसको, वह वैसे ही का वैसा मिट्टी का लौंदा जैसा पड़ा रहेगा। जी सकेगा? उठ सकेगा? चल सकेगा? गोबर के गणेश जी होंगे। किसी काम के न सिद्ध होंगे।
तुमने कभी खयाल किया, जिस बच्चे में जितनी क्रोध की क्षमता होती है उतना ही प्राणवान होता है, उतना ही बलशाली होता है। और दुनिया में जो महानतम घटनाएं घटी हैं व्यक्तित्व की, वे सभी बड़ी ऊर्जा वाले लोग थे।
तुमने महावीर की क्षमा देखी? महावीर के क्रोध की हमें कोई कथा नहीं बतायी गयी। लेकिन मैं तुमसे यह कहता हूं कि अगर इतनी महाक्षमा पैदा हुई तो पैदा होगी कहां से? महाक्रोध रहा होगा। जैन डरते हैं, उसकी कोई बात करते नहीं। लेकिन यह मैं मान नहीं सकता कि महाक्षमा महाक्रोध के बिना हो कैसे सकती है। अगर इतना बड़ा ब्रह्मचर्य पैदा हुआ है तो महान कामवासना रही होगी, नहीं तो होगा कहां से? नपुंसक को कभी तुमने ब्रह्मचारी होते देखा? और नपुंसक के ब्रह्मचर्य का क्या अर्थ होगा? सार भी क्या होगा?
तुम यह जरा देखो! जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय हैं और बुद्ध भी क्षत्रिय हैं! और सभी ने अहिंसा का उपदेश दिया है, यह जरा सोचने जैसी बात है, क्षत्रिय घरों में पैदा हुए, तलवारों के साये में जीवन बना, वही शिक्षण था उनका। मार-काट उनकी व्यवस्था थी। खून ही उनका खेल था। और फिर सब एकदम अहिंसक हो गये!
कभी तुमने सुना कि कोई ब्राह्मण अहिंसक हुआ हो? अभी तक तो नहीं सुना। ब्राह्मण में जो बड़ा से बड़ा ब्राह्मण हुआ है, परशुराम, वह बड़े से बड़ा हिंसक था। उसने सारी दुनिया से, कहते हैं, क्षत्रियों को अट्ठारह दफा नष्ट कर दिया। गजब का आदमी रहा होगा! ब्राह्मण के घर में पैदा हुआ। क्षत्रियों में से तो अहिंसा का सूत्र आया। और परशुराम फरसा लिये आये। कुछ सोचने जैसा है।
कुछ सोचने जैसा है। जहां क्रोध है, हिंसा है, वहीं से अहिंसा पैदा होती है। अहिंसा कायर की नहीं है। कायर की हो भी नहीं सकती। अहिंसा तो उसकी है जिसके पास प्रज्ज्वलित अग्नि है।
परमात्मा क्रोध देता है, क्योंकि यह तुम्हारी ऊर्जा है--कच्ची ऊर्जा है। इसी ऊर्जा को निखारते- निखारते, इसी उर्जा को स्वीकार करके, इस ऊर्जा को समझकर, बूझकर, जागकर तुम एक दिन पाओगे कि यही ऊर्जा क्षमा बन गयी।
क्रोध करुणा बन जाता है--स्वीकार की कीमिया चाहिए। और कामवासना ब्रह्मचर्य बन जाती है--स्वीकार की कीमिया चाहिए। कामवासना से लड़ कर कोई कभी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होता। कामवासना को समझ कर, कामवासना को परिपूर्ण भाव से बोधपूर्वक जी कर कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है।
बस एक ही चीज तुम्हारी साथी है--और वह है स्वीकार-भाव में जो सूझ पैदा होती है, जो समझ पैदा होती है। लड़ने वाले के पास समझ होती नहीं। क्रोध से लड़ोगे, उसी लड़ने में समझ गंवा दोगे। काम से लड़ोगे, उसी लड़ने में समझ खो दोगे। लड़ने में कहां समझ? समझ के लिए तो बड़ा स्वीकार-भाव चाहिए। स्वीकार की शांति में समझ का दीया जलने लगता है।
सूझ का साथी मौम दीप मेरा!
कितना बेबस है यह, जीवन का रस है यह
क्षण-क्षण पल-पल बल-बल छू रहा सवेरा
अपना अस्तित्व भूल सूरज को टेरा
मौम दीप मेरा!
कितना बेबस दीखा, इसने मिटना सीखा
रक्त-रक्त बिंदु-बिंदु झर रहा प्रकाश सिंधु
कोटि-कोटि बना व्याप्त छोटा-सा घेरा
मौम दीप मेरा!
जी से लग जेब बैठ, तंबल पर जमा पैठ
जब चाहूं जाग उठे, जब चाहूं सो जावे
पीड़ा में साथ रहे, लीला में खो जावे
मौम दीप मेरा!
सूझ का साथी मौम दीप मेरा!
छोटा-सा दीया है--मोमबत्ती जैसा। लेकिन इसी से सूरज को पुकारा जाता है। इसी ने सूरज को टेरा। इस छोटी-सी मोमबत्ती की ज्योति में जो जल रहा प्रकाश, वह सूरज का ही है। तुम स्वीकार करो।
परमात्मा ने इस सारे अस्तित्व को स्वीकार किया है, अन्यथा यह हो ही न। यह परमात्मा ने सारा खेल अंगीकार किया है, अन्यथा यह हो ही न। इसलिए तो हम इसे लीला कहते हैं। परमात्मा अपनी लीला में कैसा तल्लीन है! कहीं कोई अस्वीकार नहीं है। तुम कितने ही बुरे होओ, फिर भी तुम परमात्मा को अंगीकार हो। तुम कितने ही बुरे, कितने ही पापी, कितने ही दूर चले गये होओ, फिर भी परमात्मा को अंगीकार हो।
जीसस कहते थे: जैसे कोई गड़रिया सांझ अपने भेड़ों को ले कर लौटता है, अचानक गिनती करता है और पाता है कि एक भेड़ कहीं खो गयी, तो निन्यानबे भेड़ों को असहाय जंगल में अंधेरे में छोड़कर उस एक भेड़ को खोजने निकल जाता है। लेकर लालटेन, घाटियों में आवाजें देता है और जब वह भेड़ मिल जाती है तो क्या करता है, पता है? जीसस कहते हैं: उस भेड़ को कंधे पर रखकर लौटता है।
परमात्मा, जो दूर से दूर चला गया है, उसको भी कंधे पर रखे हुए है। भटके को तो और प्यार से रखे हुए है। जैसे परमात्मा ने सबको अंगीकार किया है, ऐसे तुम भी अंगीकार कर लो। तो तुम्हारे भीतर का दीया जलेगा और तुम्हारे भीतर की छोटी-सी ज्योति सूरज को पुकारेगी। तुम सूरज जैसे हो जाओगे। छोटे से घेरे में सही, लेकिन विराट उतरेगा! तुम्हारे आंगन में आकाश उतरेगा!

तीसरा प्रश्न:
भगवान, रोज सुनता हूं, आंसुओं में स्नान होता है, हृदय धड़कता है--चाहे आप भक्ति पर बोलें चाहे ध्यान पर। जब गहराई में ले जाते हैं तो गंगा-यमुना स्नान हो जाता है। आपको साकार और निराकार रूप में देखकर आनंद से भर जाता हूं, धन्य हो जाता हूं। प्रेम और ध्यान तब दो नहीं रह जाते। दोनों से उस एक की ही झलक आती है। अनुगृहीत हूं। कोटि-कोटि प्रणाम!
प्रेम और ध्यान यात्रा की तरह दो हैं, मंजिल की तरह एक। जब भी ध्यान घटेगा, प्रेम अपने-आप घट जायेगा। और जब भी प्रेम घटेगा, ध्यान अपने-आप घट जायेगा। तो जो चलने वाला है अभी, वह चाहे प्रेम चुन ले चाहे ध्यान चुन ले, लेकिन जब पहुंचेगा तो दूसरा भी उसे मिल जायेगा। यह तो असंभव है कि कोई ध्यानी हो और प्रेमी न हो। ध्यान का परिणाम प्रेम होगा। जब तुम परिपूर्ण शांत हो जाओगे तो बचेगा क्या तुम्हारे पास सिवाय प्रेम की धारा के? प्रेम बहेगा।
इसलिए जीसस ने कहा है, प्रेम परमात्मा है। अगर तुम प्रेमी हो तो अंततः ध्यान के अतिरिक्त बचेगा क्या? क्योंकि प्रेमी तो खो जाता है, प्रेमी तो डूब जाता है, अहंकार तो गल जाता है। जहां अहंकार गल गया और तुम डूब गये, वहां जो बच रहता है, वही तो ध्यान है, वही तो समाधि है।
दुनिया में दो तरह के धर्म हैं--एक ध्यान के धर्म और एक प्रेम के धर्म। ध्यान के धर्म--जैसे बौद्ध, जैन। प्रेम के धर्म--जैसे इस्लाम, हिंदू, ईसाई, सिक्ख। मगर अंतिम परिणाम पर कहीं से भी तुम गये...जैसे पहाड़ पर बहुत-से रास्ते होते हैं, कहीं से भी तुम चलो, शिखर पर सब मिल जाते हैं; पूरब से चढ़ो कि पश्चिम से। चढ़ते वक्त बड़ा अलग-अलग मालूम पड़ता है; कोई पूरब से चढ़ रहा है, कोई पश्चिम से चढ़ रहा है। अलग-अलग दृश्यावली, अलग-अलग घाटियां, अलग-अलग पत्थर-पहाड़ मिलते हैं, सब अलग मालूम होता है। पहुंच कर, जब शिखर पर पहुंचते हो, आत्यंतिक शिखर पर, तो एक पर ही पहुंच जाते हो। मार्ग हैं अनेक; जहां पहुंचते हो, वह एक ही है।
शुभ हुआ कि ऐसा लगता है कि प्रेम और ध्यान एक ही बात है। एक ही हैं।
और अगर मुझे प्रेम से और ध्यान से सुना तो करने को कुछ बच नहीं जाता। सुनने में ही हो सकता है। सुनने में न हो पाये तो करने को बचता है। अगर ठीक-ठीक सुन लिया, अगर सत्य की उदघोषणा को ठीक-ठीक सुन लिया तो उतनी उदघोषणा काफी है। कहो, क्या करने को बचता है अगर ठीक से सुन लिया? तो सुनने में ही घटना हो जाती है। क्योंकि कुछ पाना थोड़े ही है; जो पाना है वह तो मिला ही हुआ है। सिर्फ याद दिलानी है।
इसलिए संत कहते हैं, नामस्मरण! बस उसका नाम याद आ जाये, बात खत्म हो गयी। खोया तो कभी है नहीं। अपने घर में ही बैठे हैं, बस खयाल बैठ गया है कि कहीं और चले गये। याद आ जाये कि अपने घर में ही बैठे हैं--बात हो गयी। जैसे सपना देख रहा है कोई आदमी, अपने घर में सोया और सपना देख रहा है कि टोकियो पहुंच गया, कि टिंबकटू पहुंच गया। आंख खुलती है, पाता अपने घर में है; न टिंबकटू है न टोकियो है। तुम कहीं गये नहीं हो; वहीं हो।
तो अगर किसी की उदघोषणा, जो जाग गया हो...। ऐसी ही दशा है, मैं तुम्हें सोया देखता अपने पास और देखता तुम करवट बदल रहे और तुम्हारी आंखें झपक रही हैं। लगता है सपना देख रहे हो, कुछ बुदबुदाते भी हो--तो मैं तुमसे कहता हूं, जागो! अगर तुम ठीक से मेरी सुन लो और जाग जाओ तो फिर करने को और क्या बचता है! बात खत्म हो गयी।
जो सुनने में समर्थ नहीं हैं, वे पूछते हैं: ‘हम क्या करें? कुछ विधि बतायें। कुछ उपाय बतायें।’ मगर जो सो रहा है, उसको तुम विधि भी बता दो तो क्या करेगा? वह टिंबकटू में है, तुम उसको कहो कि घर लौट आओ तो वह कहता है: ‘किस ट्रेन से लौटें?’ अब और एक झंझट है। वह घर में ही है। ‘हवाई जहाज पकड़ें कि ट्रेन से आयें कि जहाज पकड़ें?’ अब इसको क्या कहा जाये? टे्रन पकड़ ले? उसमें और खतरा है कि ट्रेन में बैठ कर न मालूम और कहां जायेगा! वैसे ही टिंबकटू पहुंच गया है बिना टे्रन के। अब यह टिंबकटू से ट्रेन में सवार हो जाये तो यह कहीं और चला। यह घर तो नहीं लौट सकता।
टे्रन की जरूरत ही नहीं है घर लौटने के लिए। विधि की जरूरत नहीं है, उपाय की जरूरत नहीं है--बोध मात्र काफी है। अबोध में चले गये हो, बोध में लौट आओगे। सो गये, चले गये; जाग गये, लौट आये।
मौन यामिनी मुखरित मेरी
मधुर तुम्हारी पग पायल सी
इस पायल की लय में मेरी
श्वासों ने निज लय पहचानी
इस पायल की ध्वनि में मेरे
प्राणों ने अपनी ध्वनि जानी
ताल दे रहा रोम-रोम है
तन का उसकी रुनक-झुनक पर
इस अधीर मंजीर मुखर से
आज बांध लो मेरी वाणी
मौन यामिनी मुखरित मेरी
मधुर तुम्हारी पग पायल से
जो मैं तुमसे कह रहा हूं, उसमें कुछ सिद्धांत नहीं है; बस एक संगीत है। संगीत है कि तुम जाग जाओ। एक तो संगीत होता है जो सुलाता है। लोरी गाती है मां तो बच्चा सो जाता है। फिर एक और संगीत है जो जगाता है। घड़ी का अलार्म बजता है और नींद टूट जाती है।
मैं तुमसे जो कह रहा हूं, उसमें कुछ सिद्धांत नहीं है। उसमें केवल एक संगीत है, एक स्वर है--जो तुम सुन पाओ तो तुम जागने लगो। उसी स्वर की धारा को पकड़ कर तुम वहां पहुंच जाओगे जहां से तुम कभी हटे नहीं हो। तुम वही हो जाओगे जो तुम हो, जो तुम्हें होना चाहिए। तुम अपने स्वभाव को पहचान लोगे--उसी संगीत की झलक में! और तब निश्चित ही तुम पाओगे कि सुन कर ही गंगा-यमुना में स्नान हो गया।
निश्चित ही, यह जो मैं तुमसे कह रहा हूं, तुम्हारे द्वार पर गंगा-यमुना को ले आया हूं। तुम किनारे मत खड़े रहो, डुबकी ले लो! बहुत हैं ऐसे अभागे--तुममें भी बहुत हैं, जिनके सामने भी गंगा आ जायेगी तो भी वे प्यासे ही खड़े रहेंगे। इतना भी न हो सकेगा उनसे कि झुककर अंजुली भर लें; कंठ जो प्यासे हैं, उन्हें तृप्त कर लें। किनारे पर ही खड़े रह जायेंगे। अगर जरा तुम झुको...तुम जरा झुको, तो हर जगह तुम प्रभु को पाओ।
तेरे रूप की धूप उजागर पनघट पनघट
छलके रस की गागर पनघट पनघट
तेरी आशाएं बसती हैं बस्ती बस्ती
तेरी मस्ती सागर सागर पनघट पनघट
तुम जरा झुको, तो तुम मदमस्त हो जाओ। तुम जरा अपनी गागर को खोलो तो सागर उतर आये।
मैं तुमसे जो कह रहा हूं, वह कोई सिद्धांत नहीं, कोई दर्शनशास्त्र नहीं। मैं तुम्हें हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, जैन नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हें सिर्फ जगाना चाहता हूं--उसमें, जो तुम हो। मैं तुम्हें कुछ भी नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हें वही दे देना चाहता हूं जो तुम्हारा ही है और तुम्हें विस्मरण हो गया है। मैं तुम्हें वही दे देना चाहता हूं जो तुम्हारे भीतर ही पड़ा है। सिर्फ याद दिला देने की बात है। और अगर तुम मेरे स्वर में थोड़े बंध जाओ तो रास रच जाये!
तो जो भी बंध जाता है स्वर में थोड़ी देर को, वह जरूर गंगा-यमुना में पहुंच जायेगा। आंसुओं की धार लग जायेगी! एक नृत्य शुरू होता है, जो बाहर से किसी को दिखाई न पड़ेगा; जो उसका ही भीतरी आंतरिक अनुभव होगा। तुम चाहोगे भी किसी और को समझाना तो समझा न पाओगे। समझाने की कोशिश भी मत करना; क्योंकि उसमें खतरा है कि दूसरा ही तुम्हें समझा देगा कि ‘तुम पागल हो गये हो। कहीं ऐसा हुआ है? सुनकर कहीं सत्य मिला है?’ मैं तुमसे कहता हूं, सुनकर ही मिल जाता है; क्योंकि खोया तो है ही नहीं। खोया होता तो सुनकर भी नहीं मिल सकता था। खोया होता तो खोजना पड़ता।
कोई मुझसे आ कर कहता है, ईश्वर को खोजना है। मैं कहता हूं, तू खोज, तुझे कभी मिलेगा नहीं। क्योंकि खोया कब, पहले यह तो पूछ! खोया हो तो खोजा जा सकता है। खोया ही न हो तो कैसे खोजेगा?
तो तुम्हें अगर मस्ती आने लगे और तुम्हारे भीतर कोई द्वार खुलने लगे, कोई झरोखा और तुम्हारे भीतर एक शराब ढलने लगे तो तुम किसी को कहना मत, गुपचुप पी जाना! कोई इसे समझेगा नहीं। दूसरे हंसेंगे। कहेंगे: ‘सम्मोहित हो गये हो, कि पागल हो गये, कि खोया तुमने अपनी बुद्धि से हाथ अब। किस चक्कर में पड़ गये हो?’ किसी से कहना मत, चुपचाप पी लेना। क्योंकि जो दूसरों का अनुभव नहीं है, वह दूसरे समझ न पायेंगे।
फगुनाये क्षण में अनगायी गजल उगी
बौराये मन में गीतों की फसल उगी
खुलते भिनसारे बनजारे सपन हुए
नयनों की भाषा अनयारे नयन हुए
श्याम साथ राधा दोपहरी सांझ हुई
अब न रही बाधा, हुई हुई छुई मुई
बौराये मन में गीतों की फसल उगी।
जब तुम करीब-करीब मस्ती में पागल होते हो तभी गीतों की फसल उगती है।
फगुनाये क्षण में अनगायी गजल उगी
जो तुमने अभी तक गायी नहीं, वैसी गजल प्रतीक्षा कर रही है। जो गीत तुमने अभी गुनगुनाया नहीं, वह तुम्हारे बीज में पड़ा है, फूटना चाहता है, तड़प रहा है। उसे मौका दो। अगर मेरे साथ, मेरे संग बैठ तुम थोड़ा नाच लो, गुनगुना लो, तुम थोड़े डोल लो...।
श्याम साथ राधा दोपहरी सांझ हुई
अब न रही बाधा, हुई हुई छुई मुई।
किसी क्षण जब तुम मेरे साथ डोल उठते हो, जिन दूर की ऊंचाइयों पर मैं तुम्हें उड़ा ले चलना चाहता हूं, कभी तुम क्षण भर को भी पंख मार लेते हो, उसी क्षण आंसू बहते हैं। उसी क्षण तुम्हारे भीतर कोई मधुर स्वाद फैलने लगता है। तुम्हारे कंठ में कोई तृप्ति आने लगती है। कहो इसे प्रेम का क्षण, ध्यान का क्षण--एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं।

चौथा प्रश्न:
भगवान, मुझे जैसा मौका मिलता है वैसा ही ध्यान या कीर्तन या कर्म करके रस ले लेता हूं। इनमें कम या ज्यादा रस का फर्क भी नहीं कर पाता। हरेक परिस्थिति से मन सध जाता है। और इस कारण अपने लिए कोई एक मार्ग नहीं चुन पाता हूं। कृपया मार्गदर्शन करें।
अब मार्ग की जरूरत नहीं है। अगर तुम हर स्थिति में मन के सधने का मजा लेने लगे हो, अब मार्ग की जरूरत नहीं। औषधि उनके लिए है जो बीमार हों। अगर स्वास्थ्य आने लगा तो अब औषधि की बात ही मत करो। अब तो भूल कर औषधि के पास मत जाना। क्योंकि औषधि, बीमार हो तो लाभ करती है; और अगर स्वस्थ हो तो औषधि नुकसान करती है। औषधि जहर है।
तुम पूछते हो, ‘अब तो हर कहीं कीर्तन में, ध्यान में या कर्म करके रस ले लेता हूं!’
बस तो बात हो गयी। जहां रस आने लगा वहां परमात्मा की ध्वनि आने लगी।
रसो वै सः। उस प्रभु का रूप-रंग रस का है। उस प्रभु का नाम रस है। सुंदरतम नाम रस है। रस ही उसे कहो। जहां रस मिल जाये वहां प्रभु मौजूद है। रस मिले तो समझना कि पास ही कहीं मौजूद है। द्वार-दरवाजे खोल कर स्वागत को तैयार हो जाना: आ गया है! रस उसके पैरों की भनक है, उसके पायल की झनक है। रस उसकी मौजूदगी की खबर है। तो अगर काम में, ध्यान में, प्रार्थना, कीर्तन, भजन में, संगीत में, नाच में, सबमें रस आने लगा तो बात हो गयी। अब तुम्हें कोई जरूरत मार्ग चुनने की नहीं है। ऐसे ही चले चलो।
‘हरेक परिस्थिति में मन सध जाता है।’
तो अब इसको समस्या मत बनाओ। यह तो समस्या का समाधान होने लगा। ऐसा ही होना चाहिए। ऐसा ही तो होना चाहिए।
अब तुम पूछते हो: ‘इस कारण अपने लिए कोई एक मार्ग नहीं चुन पाता।’
अब तुम्हें कोई जरूरत नहीं है। रस तुम्हारा मार्ग है। अब सब तरफ से रस को चुनते चलो।
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!
पथरा चलीं पुतलियां, मैंने
विविध धुनों में कितना गाया!
दायें बायें ऊपर नीचे
दूर-पास तुमको कब पाया!
धन्य कुसुम पाषाणों पर ही
तुम खिलते हो तो खिलते हो
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो!
रस तुम्हारी राह है। और रस का अर्थ होता है: डूबना। रस का अर्थ होता है: भूलना। रस का अर्थ होता है: ऐसे लवलीन हो जाना, ऐसे तल्लीन हो जाना कि मिट ही जाओ।
रस यानी शराबी का मार्ग। और जिसने रस को जान लिया उसके लिए सारा जगत मधुशाला हो जाता है। और तब तुम एक दिन पाओगे कि परमात्मा ही साकी बन कर ढाल रहा है; वही तुम्हें पिला रहा है। वही है पिलाने वाला। वही है पीने वाला। उसी की है प्याली, उसी के रस से भरी है। उसी का रस है सुराही में। वही ढाल रहा है। सब कुछ उसी का है।
रस तुम्हारा मार्ग है। अब और मार्ग खोजने की कोई जरूरत नहीं। बस इतना ही स्मरण रखना: जहां भूल जाओगे वहीं उससे मिलन होने लगेगा।
रच सकते हैं अच्युत ही महा रास
बंधी हुई है उनके ही स्थिर से गोपिकाओं की च्युति
गूंजता है रागिनियों के वैविध्य में उनका ही ओंकार
व्यक्त है उनकी ही लीला में अव्यक्त ऋतंभरा।
यह जो सारा रसमुग्ध संसार है--यह जो कहीं रस हरा हो कर वृक्षों में बह रहा, कहीं चांद-तारों में ज्योति बन कर झर रहा; यह जो रस से भरा संसार है--कहीं मोर नाच रहा, कहीं बादल घुमड़ आये; यह जो रस से भरा संसार है--पानी के झरनों में, पत्थरों-चट्टानों में या आंखों में--एक ही सब तरफ से सब रूपों में प्रगट हो रहा है! यह जो रास चल रहा है, यह जो लीला है, यह जो खेल है, इसमें तुम तल्लीन होना सीख गये, इसमें डुबकी लगाने लगे, इसमें ऐसे मंत्रमुग्ध होने लगे कि तुम बचे ही नहीं पीछे, मंत्रमुग्धता ही रही, तल्लीनता ही रही, तुम न रहे; नाच तो बचा, नाचने वाला न बचा--तो रस उपलब्ध होगा। गीत तो बचा, गानेवाला न बचा...!
यहां मैं बोल रहा हूं; अगर बोलने वाला भी पीछे है तो इस बोलने में कुछ बहुत सार नहीं है। यहां तुम सुन रहे हो; अगर सुनने वाला भी मौजूद है तो सुनने में कुछ रस नहीं। इधर बोलने वाला नहीं है, उधर सुनने वाला न हो--तब दोनों की एक गांठ बन जाती है; दोनों बंध जाते हैं, भांवर पड़ जाती है! न बोलने वाला बोलने वाला है, न सुनने वाला सुनने वाला है। जब न गुरु गुरु होता न शिष्य शिष्य होता, जब दोनों एक-दूसरे में ऐेसे लीन हो जाते हैं कि पता नहीं चलता कि कौन कौन है; जब सीमाएं एक-दूसरे के ऊपर छा जातीं, सीमाएं टूट जातीं, बिखर जातीं--वहीं, वहीं रस है। रस तुम्हारा मार्ग है!

पांचवां प्रश्न:
भगवान, भगवान बुद्ध को किसी ने गाली दी तो उन्होंने कहा, मैं यह भेंट नहीं लेता, इसे वापिस ले जाओ। रमण महर्षि हठी-विवादी के पीछे लाठी ले कर भागे। और आप पर जब किसी ने जूता फेंका तो आपने उसे एक हाथ में ले कर उसके जोड़े जूते की मांग की। आत्मोपलब्ध पुरुषों के व्यवहार में यह जो भिन्नता दिखती है, क्या उस पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करेंगे?
भिन्नता दिखती ही है, है नहीं। भिन्नता दिखती ही है, क्योंकि परिस्थितियां भिन्न-भिन्न हैं। बुद्ध को जिसने गाली दी, वही आदमी मुझ पर जूता नहीं फेंका। मैं तो ठीक वहीं हूं। रमण को जिस आदमी ने अपमानित किया, वही आदमी मेरे ऊपर जूता नहीं फेंका।
तो जो फर्क पड़ रहा है, वह बुद्धों में नहीं पड़ रहा है। जो फर्क पड़ रहा है वह जूता फेंकने वाले, गाली देने वाले, अपमानित करने वाले से पड़ रहा है। इस भेद को ठीक से समझना।
अगर मुझ पर जूता फेंकने वाला भी वही आदमी होता जिसने बुद्ध को गाली दी थी तो मैं भी उससे कहता कि मैं यह भेंट नहीं लेता। जिसने रमण का अपमान किया था, अगर वही आदमी होता तो मैं भी उसके पीछे लाठी ले कर दौड़ता।
जाग्रत चैतन्य का तो इतना ही अर्थ है कि जैसी परिस्थिति हो उस परिस्थिति में बिना पूर्व-नियोजन के, बिना पूर्व-आयोजन के जो घटे उसे घटने देना। बुद्धपुरुष तो दर्पण की भांति होते हैं।
मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन को राह के किनारे एक दर्पण पड़ा हुआ मिल गया। उसने उसमें अपना चेहरा देखा: ‘चमत्कार हुआ कि बिलकुल पिता जी जैसे लगते हैं। मगर पिता जी ने फोटो कब उतरवायी? यह भी हद हो गयी! हमको पता ही न चला कि पिता जी ने फोटो कब उतरवा ली! और पिता जी तो मर भी चुके। तो उसने कहा, अच्छा हुआ मिल गयी पड़ी हुई। चलो घर ले चलें, सम्हाल कर रख लें।’ उसने जा कर छिपा कर ऊपर रख दिया।
अब पत्नियों से कोई दुनिया में चीज छिपा तो सकता ही नहीं। ऐसी दबी आंख पत्नी देखती रही कि कुछ लाया है छिपा कर। कुछ छिपा रहा है--रुपये-पैसे हैं या क्या मामला है कि कोई हीरा-जवाहरात लग गया! जब सब सो गये दोपहर में तो वह ऊपर गयी। खोज-खाज कर उसने दर्पण निकाला। देखा। ‘अरे’, उसने कहा, ‘तो इस रांड के पीछे पड़ा है?’ वह समझी कि किसी औरत की फोटू ले आया है।
दर्पण तो दर्पण है। तुम्हारी ही तस्वीर उसमें दिखाई पड़ती है। बुद्धत्व यानी दर्पण। तो बुद्ध जो करते हैं या उनसे जो होता है, ठीक से सोचना, वे करते नहीं, सिर्फ तुम्हारी तस्वीर झलकती है। इसलिए अलग-अलग मालूम होता है। अलग-अलग कुछ भी नहीं है; अलग-अलग हो नहीं सकता। लेकिन परिस्थिति अलग है। क्योंकि एक पात्र बदल गया। असली पात्र तो बदल गया। बुद्ध तो दर्पण मात्र हैं। कृत्य तो उस आदमी का है जो गाली दिया; जो जूता फेंका; जिसने अपमान किया। करने वाला तो वह है। ये बुद्ध तो न करने वाले हैं। तो इनसे तो जो प्रतिबिंब बनता है, वह बनता है। जो बन जाता है, बन जाता है।
अगर तुम इस तरह देखोगे तो तुम चकित हो जाओगे। तब तुम्हें एक बात और भी समझ में आ जायेगी, प्रसंगवशात उसे भी समझ लो।
कृष्ण ने कुछ कहा, अष्टावक्र कुछ कह रहे हैं, बुद्ध ने कुछ कहा, क्राइस्ट ने कुछ कहा--इसमें भी इन्होंने भिन्न-भिन्न बातें नहीं कही हैं। यह भिन्न-भिन्न शिष्यों के कारण ऐसा मालूम पड़ता है। अगर अर्जुन उपलब्ध होता अष्टावक्र को तो गीता ही पैदा होती; कुछ और पैदा नहीं हो सकता था। और अगर कृष्ण को जनक मिलता तो यह अष्टावक्र की महागीता पैदा होती, कुछ और पैदा नहीं हो सकता था। अगर जीसस भारत में बोलते, हिंदुओं से बोलते, तो बुद्ध जैसे बोलते; लेकिन यहूदियों से बोल रहे थे तो फर्क पड़ गया। दर्पण बदला। दर्पण बदला--अपने कारण नहीं। दर्पण बदला--जो उसके सामने पड़ा, उसके कारण। दर्पण के भीतर तो कोई चित्र है नहीं। कोई न हो तो दर्पण खाली हो जाये।
इसलिए अगर बुद्ध और जीसस, नानक और कबीर और मुहम्मद और जरथुस्त्र का मिलना हो जाये तो ऐसा ही होगा, वहां कुछ भी न होगा।
जैसे दर्पण के सामने दर्पण रख दो, क्या होगा? कुछ न बनेगा। दर्पण में दर्पण झलकता रहेगा। ये सब बैठे रहेंगे चुपचाप। ये एक-दूसरे में अपने को ही पायेंगे। यहां कुछ भेद ही न होगा। भेद पैदा होता है--शिष्य के कारण, सुनने वाले के कारण। क्योंकि असली वही है। बुद्ध तो खो गये। वे तो परम शून्य हो गये हैं।

आखिरी प्रश्न--
पूछा है स्वामी आनंद भारती, हिम्मत भाई जोशी ने। प्रश्न तो है भी नहीं, इतना ही लिखा है: हम्मा के प्रणाम!
मगर कुछ कहने का मन उनका हुआ होगा। कई बार ऐसा होता है, कुछ कहने का मन होता है और कहने को भी कुछ नहीं होता। कुछ गाने का मन होता है, गीत कुछ बनता भी नहीं। कुछ धुंधला-धुंधला होता है, साफ पकड़ में नहीं आता, शब्द में बंधता नहीं। सच तो यह है कि जब भी कुछ महत्वपूर्ण होता है तो शब्द में बंधना मुश्किल हो जाता है। तो उस क्षण आदमी क्या करे? कभी रोता है; आंख से आंसू गिरा देता है। वह भी कुछ कह रहा है। कभी हंसता; हंसी से कुछ कह रहा है। कभी चुप रह जाता, अवाक रह जाता; चुप्पी से कुछ कह रहा है। कभी अपने प्रणाम ही निवेदित कर देता, और क्या करे?
हजारों-हजारों सालों से बुद्धपुरुषों के चरणों में लोगों ने सिर रखे हैं--किसी और कारण से नहीं। कुछ करने को सूझता नहीं। कुछ और क्या करें?
पश्चिम में पैरों पर सिर रखने की कोई परंपरा नहीं है। क्योंकि बहुत बुद्धपुरुष नहीं हुए। यह तो बुद्धपुरुषों के कारण पैदा हुई परंपरा। क्योंकि सब खाली मालूम पड़ता है, क्या कहें? धन्यवाद भी देते हैं तो धन्यवाद शब्द थोथा मालूम पड़ता है। तब एक ही उपाय है कि पूरा सिर चरणों पर रख दें।
तुमने कभी खयाल किया, क्रोध आ जाता है तो तुम जूता उतार कर किसी के सिर पर मार देते हो। क्या कर रहे हो तुम? तुम यह कह रहे हो कि हम अपने पैर तुम्हारे सिर पर रखते हैं--प्रतीकात्मक रूप से। सिर पर पैर रखना बड़ा कठिन काम है--उछलना-कूदना पड़े, हाथ-पैर टूट जायें--तो संकेत के रूप में जूता रख देते हैं सिर पर; कि लो, तुम्हारा सिर और हमारा जूता!--जब क्रोध होता है। और जब कोई बहुत गहन श्रद्धा पैदा हो तब तुम क्या करोगे? तब तुम किसी के चरणों पर अपना सिर रख देते हो कि अब हम और क्या करें। अब कुछ कहने को नहीं।
हिम्मत भाई वर्षों से मेरे साथ जुड़े हैं--बहुत ढंग से जुड़े हैं। कभी दोस्ती में, कभी दुश्मनी में; कभी श्रद्धा, कभी अश्रद्धा; कभी मेरे पक्ष में, कभी विपक्ष में--सब रंग में जुड़े हैं! बुरी तरह जुड़े हैं! कच्चा काम नहीं है। सब रंगों से जुड़े हैं। अब तो धीरे-धीरे सब रंग भी चले गये। अब सिर्फ जोड़ रह गया है।
क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं!
मिट्टी की अंजलि में मैंने जोड़ा स्नेह तुम्हारा
बाती की छाती दे तुमने मेरा भाग्य संवारा
करूं आरती तो भी दिखते हैं वरदान तुम्हारे
अपने प्राणों के दीप कहां जो बालूं!
क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं!
छंदों में जो लय लहराती वह पदचाप तुम्हारी
पायल की रुन-झुन पर मेरा राग मुखर बलिहारी
शब्दों में जो भाव मचलते उन पर क्या वश मेरा
अपने को ही बहलाना है तो गा लूं!
क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं!
सब तरह से वे मेरे करीब आये हैं। और इसी तरह कोई करीब आता है--सब ऋतुओं से गुजर कर करीब आता है।
गुरु और शिष्य का संबंध एक रंग का नहीं है, सतरंगा है। एक रंग का हो तो बेस्वाद हो जाये। जिसके साथ श्रद्धा जोड़ी है उस पर कई बार अश्रद्धा भी आती है--स्वाभाविक है। जिसके साथ लगाव बांधा है उस पर कभी नाराजगी भी होती है--स्वाभाविक है। जिसको सब दे डालना चाहा है, कभी ऐसा लगता है धोखा तो नहीं हो गया, भूल तो नहीं हो गयी, चूक तो नहीं हो गयी। कभी चिंता भी उठती है, संदेह भी उठता है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। ऐसे ही धूप-छांव में मन पकता है।
हिम्मत भाई पके और उनका फल गिर गया। अब धूप-छांव का खेल नहीं रहा है। अब वे परम विश्रांति में मेरे पास बैठ गये हैं। इसी भाव को प्रगट करने के लिए उनके मन में यह बात उठी होगी कि लिख कर भेज दें: हम्मा के प्रणाम! मुझे पता है। लिख कर न भी भेजो तो भी पता है। बहुत हैं जो कभी लिख कर कुछ नहीं भेजते, उनका भी पता है। यह घटना कुछ ऐसी है, जब घट जाती है तो पता चल ही जाता है। यह घटना इतनी बड़ी है। जब तुम वस्तुतः झुक जाते हो तो तुम्हारी तरंग-तरंग कहने लगती है, तुम्हारा उठना-बैठना, तुम्हारी आंख का पलक का झपना, तुम्हारे हृदय की धड़कन-धड़कन कहने लगती है कि घटना घट गयी, मिलन हो गया है!
हरि ॐ तत्सत्‌!

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