ASHTAVAKRA

Maha Geeta 27

TwentySeventh Discourse from the series of 91 discourses - Maha Geeta by Osho. These discourses were given during SEP 11 - FEB 10 1977.
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अष्टावक्र उवाच।

कृताकृते च द्वंद्वानि कदा शांतानि कस्य वा।
एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद्भ्रव त्यागपरोऽव्रती।। 83।।
कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात्‌।
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमं गताः।। 84।।
अनित्यं सर्वमेवेदं तापत्रितय दूषितम्‌।
असारं निंदितं हेयमिति निश्चित्य शाम्यति।। 85।।
काऽसौ कालो वयाः किं वा यत्र द्वंद्वानि नो नृणाम्‌।
तान्युपेक्ष्य यथाप्राप्तवर्ती सिद्धिमवाप्नुयात।। 86।।
नाना मतं महर्षीणां साधुनां योगिनां तथा।
दृष्टव निर्वेदमापन्नः को न शाम्यति मानवः।। 87।।
कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न किं गुरुः।
निर्वेदसमतायुक्तया यस्तारयति संसृतेः।। 88।।
पश्य भूतविकारास्त्वं भूतमात्रान्‌ यथार्थतः।
तत्क्षणाद् बंधनिर्मुक्तः स्वरूपस्थो भविष्यसि।। 89।।
वासना एव संसार इति सर्वा विमुञ्च ताः।
तत्त्यागो वासनात्यागात्‌ स्थितिरद्य यथा तथा।। 90।।
अष्टावक्र ने कहा:
‘किया और अनकिया कर्म, और द्वंद्व किसके कब शांत हुए हैं! इस प्रकार निश्चित जान कर इस संसार में उदासीन (निर्वेद) हो कर अव्रती और त्यागपरायण हो।’
कृताकृते च द्वंद्वानि कदा शांतानि कस्य वा।
एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद्भ्रव त्यागपरोऽवृती।।
बहुत बहुमूल्य सूत्र है। एक-एक शब्द को ठीक से समझने की कोशिश करें।
‘किया और अनकिया कर्म...।’
मनुष्य उससे ही नहीं बंधता जो करता है; उससे भी बंध जाता है जो करना चाहता है। किया या नहीं, इससे बहुत भेद नहीं पड़ता; करना चाहा था तो बंधन निर्मित हो जाता है। चोरी की या नहीं--अगर की तो अपराध हो जाता है; लेकिन न की हो तो भी पाप तो हो ही जाता है।
पाप और अपराध का यही भेद है। सोचा, तो पाप तो हो गया। कोई पकड़ नहीं सकेगा। कोई अदालत, कोई कानून तुम्हें अपराधी नहीं ठहरा सकेगा, अपने घर में बैठ कर तुम सोचते रहो--डाके डालना, चोरी करनी, हत्या करनी--कौन नहीं सोचता है!
विचार पर समाज का कोई अधिकार नहीं, जब तक कि विचार कृत्य न बन जाए। इस कारण तुम इस भ्रांति में मत पड़ना कि विचार करने में कोई पाप नहीं; क्योंकि तुमने विचार किया, तो परमात्मा के समक्ष तो तुम पापी हो ही गए। तुमने सोचा--इतना काफी है; तुम तो पतित हो ही गए। विचार की तरंग उठी, न बनी कृत्य, इससे भेद नहीं पड़ता; लेकिन तुम्हारे भीतर तो मलिनता प्रविष्ट हो गई।
किया, तो अपराध बन जाता है; न किया, सोचा, तो भी पाप बन जाता है। और अपराध से तो बचने के उपाय हैं; क्योंकि कानून, अदालत, पुलिस, इनसे बचने की व्यवस्थाएं खोजी जा सकती हैं, खोज ली गई हैं। जितने कानून बनते हैं, उतना कानून से बचने का उपाय भी निकल आता है। आखिर वकीलों का सारा काम ही वही है।
‘वकील’ शब्द सूफियों का है--बड़ी बुरी तरह विकृत हुआ। वकील के जो मौलिक अर्थ हैं, वे हैं: जो परमात्मा के सामने तुम्हारा गवाह होगा कि तुम सच हो। मुहम्मद वकील हैं। वे परमात्मा के सामने गवाही देंगे कि हां, यह आदमी सच है। लेकिन फिर वकील शब्द का तो बड़ा अजीब पतन हुआ। अब तो तुम झूठ हो या सच, तुम्हारे लिए जो गवाही दे सकता है और प्रमाण जुटा सकता है कि तुम सच हो; वस्तुतः तुम जितने झूठे हो, उतना ही जो प्रमाण जुटा सके कि तुम सच हो--वह उतना ही बड़ा वकील। अगर तुम सच हो और वकील तुम्हें सच सिद्ध करे, तो उसकी वकालत का क्या मूल्य? कौन उसको वकील कहेगा? वकील तो हम उसी को कहते हैं इस दुनिया में, जो झूठ को सच करे, सच को झूठ करे।
सूफियों का शब्द था वकील--और वकील का अर्थ था: गुरु तुम्हारा वकील होगा। वह तुम्हें परमात्मा के सामने प्रमाण देगा कि मेरी गवाही सुनो, यह आदमी सच है। जीसस ने कहा है अपने अनुयायियों से कि ‘तुम घबड़ाना मत, आखिरी क्षण में मैं तुम्हारा गवाह रहूंगा। मेरी गवाही का भरोसा रखना।’ वह वकालत है।
लेकिन साधारणतः तो वकील का अर्थ है, जो तुमसे कहे: घबड़ाओ मत; पाप किया, झूठ बोले, चोरी की--कोई फिक्र मत करो, कानून में बचने का उपाय है। आदमी ऐसा कोई कानून तो खोज ही नहीं सकता, जिससे बचने का कोई उपाय न हो। आदमी ही कानून खोजता है, आदमी ही कानून से बचने का उपाय भी खोज लेगा।
अपराध से तो तुम बच सकते हो--और अक्सर बड़े अपराधी बच जाते हैं, छोटे अपराधी पकड़े जाते हैं। जिसको बचाने वाला कोई नहीं, वे फंस जाते हैं। जिनको बचाने के लिए धन है, सुविधा है, संपत्ति है, वे बच जाते हैं। बड़े अपराधी नहीं पकड़े जाते। बड़े अपराधी तो सेनापति हो जाते हैं, राजनेता हो जाते हैं। बड़े अपराधी तो इतिहास-पुरुष हो जाते हैं। छोटे अपराधी कारागृहों में सड़ते हैं।
लेकिन जहां विचार का संबंध है, वहां कोई तुम्हें बचा न सकेगा। यहां तुमने विचार किया कि तुम पतित हो ही गए। ऐसा अगर होता कि अभी तुम विचार करते और कई जन्मों के बाद पतित होते, तो बीच में हम कोई उपाय खोज लेते, रिश्वत खिला देते। ऐसा कोई उपाय नहीं है। विचार किया कि तुम पतित हुए।
तुमने देखा, जब तुम भीतर विचार करते हो क्रोध का, तो तुम्हारे लिए तो क्रोध घट ही गया! तुम तो उसी में उबल जाते हो। तुम तो जल जाते हो, तुम तो दग्ध हो जाते हो। फिर तुमने क्रोध किया है या नहीं किया, यह दूसरी बात है। भीतर-भीतर तो छाले पड़ गए, भीतर-भीतर तो घाव हो गए। वह तो क्रोध के भाव में ही हो गए। क्रोध में ही क्रोध का परिणाम है।
इसलिए परमात्मा को धोखा देने का उपाय नहीं है। उसने परिणाम को कारण से दूर नहीं रखा है। आग में हाथ डालो तो ऐसा नहीं कि इस जन्म में हाथ डालोगे और अगले जन्म में जलोगे; हाथ डाला कि जल गये।
यहां भी आदमी ने तरकीबें निकाली हैं। लोग कहते हैं: अभी करोगे, अगले जन्म में भरोगे। क्या मजे की बात कह रहे हैं! वे कह रहे हैं: अभी पाप करोगे, अगले जन्म में मिलेगा फल; इतनी तो अभी सुविधा है! कौन देख आया अगले जन्म की! और तब तक बीच में कुछ पुण्य कर लेंगे, बचने का कुछ उपाय कर लेंगे; पूजा, प्रार्थना, अर्चना कर लेंगे; पंडित, पुरोहित को नौकरी पर लगा देंगे; मंदिर बना देंगे, दान करेंगे, धर्मशाला बना देंगे--कुछ कर लेंगे! अभी तो होता नहीं!
पंडितों ने तुम्हें समझाया है कि धर्म उधार है। यह हो नहीं सकता, क्योंकि धर्म तो उतना ही वैज्ञानिक है जितना विज्ञान। अगर विज्ञान नगद है तो धर्म उधार नहीं हो सकता। आग में हाथ डालते हो तो अभी जलते हो। क्रोध करोगे तो भी अभी जलोगे। बुरा सोचोगे तो बुरा हो गया।
विचार से मनुष्य पाप करता है और जब पाप को कृत्य तक ले आता है तो अपराध हो जाते हैं। अपराधों से तो बचने का उपाय है; लेकिन अगर तुमने सोच लिया बुरा विचार, तो बस घटना घट गई; अब बचने की कोई सुविधा न रही; जो होना था हो गया।
अष्टावक्र कहते हैं: ‘किया और अनकिया कर्म और द्वंद्व, सुख और दुख का संघर्षण, किसके कब शांत हुए हैं!’
बड़ी अनूठी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं: तुम इनको शांत करने में मत लग जाना, अन्यथा और अशांत हो जाओगे। ये कब किसके शांत हुए हैं!
तुमने कभी कोई ऐसा आदमी देखा, जिसके सुख-दुख शांत हो गए हों? महावीर की भी मृत्यु होती तो पेचिस की बीमारी से होती। बुद्ध की मृत्यु होती है तो विषाक्त भोजन शरीर में फैल जाता है--विष के कारण होती है। जीसस सूली पर लटक कर मरते हैं। सुकरात जहर पी कर मरता है। रमण को कैंसर था, रामकृष्ण को कैंसर था। सुख-दुख कब किसके शांत हुए! सुख-दुख तो चलते ही रहेंगे--और विचार भी!
किये-अनकिये कर्मों से भी बिलकुल छुटकारा नहीं हो सकता। तुम कैसे छुटकारा करोगे? तुम कहो कि हम बिलकुल बैठ जाएंगे, हम कुछ करेंगे ही नहीं--यही तो पुराने ढब का संन्यासी कहता है: हम बैठ जाएंगे, कुछ करेंगे ही नहीं--लेकिन बैठना कर्म है। बैठे-बैठे हजारों चीजें हो जाएंगी। तुम बैठोगे, सांस तो लोगे? सांस लोगे तो पूछो वैज्ञानिक से, वह कहता है: एक श्वास में लाखों जीवाणु मर जाते हैं। हो गई हत्या, हो गई हिंसा। बांध लो कितनी ही मुंहपट्टी मुंह पर, बन जाओ जैन तेरापंथी मुनि, बांध लो मुंहपट्टी--कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारी पट्टी से टकरा कर मर जाएंगे। मुंह तो खोलोगे, बोलोगे तो, श्रावकों को समझाओगे तो? वह जो मुंह से गर्म हवा निकलती है, उसमें मर जाएंगे। भोजन तो करोगे, पानी तो पीयोगे, कुछ तो करोगे ही--जब तक जीवन है कृत्य तो रहेगा। और प्रत्येक कृत्य के साथ कुछ न कुछ हो रहा है। प्रत्येक कृत्य में कुछ न कुछ हिंसा हो ही रही है। जीवन हिंसाशून्य हो ही नहीं सकता। भाग जाओगे, छोड़ दोगे सब--जहां जाओगे वहां कुछ न कुछ करना पड़ेगा। भीख तो मांगोगे?
कृत्य तो जारी रहेगा; जीवन का अनिवार्य अंग है। जीवन जब शून्य हो जाता, तभी कृत्य शून्य होता है। और जब कुछ करोगे तो कुछ विचार भी चलते रहेंगे। अब संन्यासी बैठा है, उसे भूख लगी है तो विचार न उठेगा कि भूख लगी? महावीर को भी उठता होगा कि भूख लगी, नहीं तो भिक्षा मांगने क्यों जाते? विचार तो स्वाभाविक है, उठेगा कि अब भूख लगी। रास्ते पर अंगारा पड़ा हो तो महावीर भी हों तो बच कर निकलेंगे; उनको भी तो विचार उठेगा कि अंगारा पड़ा है, इस पर पैर न रखूं, पैर जल जाएगा। तुम पत्थर महावीर की तरफ फेंकोगे तो उनकी आंख भी झप जाएगी। इतना तो विचार होगा न, इतनी तो तरंग होगी न, कि पत्थर आ रहा है, आंख फूटी जाती है, आंख झपा लो!
विचार तो उठता रहेगा, क्योंकि विचार भी जीवन का अनुषंग है। जब तक श्वास चलती है, तब तक विचार भी उठता रहेगा। इसका क्या अर्थ हुआ? क्या इसका अर्थ हुआ कि आदमी के शांत होने का कोई उपाय नहीं? नहीं, उपाय है। उसी उपाय की तरफ इंगित करने के लिए अष्टावक्र कहते हैं कि पहले यह समझ लो कि कौन-कौन से उपाय काम नहीं आएंगे। छोड़ कर भागना काम नहीं आएगा। कर्म से बचना काम नहीं आएगा। विचार से लड़ना काम नहीं आएगा।
कृताकृते च द्वंद्वानि कदा शांतानि कस्य वा।
तू मुझे बता जनक, किसके कब विचार शांत हुए हैं? किसके कब द्वंद्व, दुख शांत हुए?
जीवन है तो द्वंद्व है। दिन को जागोगे, तो रात सोओगे न? द्वंद्व शुरू हो गया, दोहरी प्रक्रियाएं हो गईं। श्रम करोगे तो विश्राम करोगे। सुख होगा तो उसके पीछे दुख आएगा, जैसे दिन के पीछे रात आती है। रात के पीछे फिर दिन चला आ रहा है। हर सुख के पीछे दुख है, हर दुख के पीछे सुख है--श्रृंखला बंधी है। श्वास भीतर लोगे तो फिर बाहर भी तो छोड़ोगे न? नहीं तो फिर भीतर न ले सकोगे। बाहर लोगे श्वास तो भीतर जाएगी, भीतर लोगे तो बाहर जाएगी--द्वंद्व जारी रहेगा।
इस जीवन की सारी गति द्वंद्वात्मक है। दो पैर से आदमी चलता है। सब चलने में दो की जरूरत है। दो पंख से पक्षी उड़ता है। उड़ने में दो की जरूरत है। एक पंख काट दो, पक्षी गिर जाएगा। एक पैर काट दो, आदमी गिर जाएगा।
जीवन द्वंद्व से चलता है। जो निर्द्वंद्व हुआ वह तत्क्षण गिर जाएगा। इसलिए तो परमात्मा तुम्हें कहीं दिखाई नहीं पड़ता। जो भी दिखाई पड़ता है, वह द्वंद्व से घिरा होगा। जहां द्वंद्व गया, वहां दृश्य भी गया; वहां व्यक्ति अदृश्य हो जाता है। जीवन तो उसी अदृश्य का दृश्य होना है।
इसलिए अष्टावक्र कहते हैं: किया-अनकिया कर्म, द्वंद्व किसके कब शांत हुए! तो तू इस उलझन में मत पड़ जाना कि इनको शांत करना है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, मन में बड़ा क्रोध है, इसे कैसे शांत करें? मैं उनसे कहता हूं, झंझट में मत पड़ो। क्रोध को कौन कब शांत कर पाया है? तुम तो साक्षी-भाव से देखो--जो है, सो है--और देखते से ही शांत होना शुरू हो जाता है। लेकिन यह शांति बड़ी और है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि तरंगें नहीं उठेंगी; तरंगें उठती रहेंगी, लेकिन तुम तरंगों से दूर हो जाओगे। तरंगें उठती रहेंगी, लेकिन इन तरंगों से तुम्हारा तादात्म्य टूट जाएगा। तुम ऐसा न समझोगे: ये तरंगें मेरी हैं। भूख लगेगी तो तुम ऐसा न समझोगे: मुझे भूख लगी; तुम समझोगे: शरीर को भूख लगी। पैर में कांटा चुभेगा तो तुम समझोगे: शरीर को पीड़ा हुई। विचार तो उठेगा--तुम में भी उठता है, महावीर में भी उठता है। तुममें उठता है: अरे, मुझे पीड़ा हुई! महावीर को उठता है: अरे, शरीर को कांटा गड़ा! जब तुम मरोगे तो तुम्हें विचार उठता है: मैं मरा! जब रमण मरते हैं, तो उन्हें विचार उठता है: यह शरीर के दिन पूरे हुए। मृत्यु तो होगी ही। वह तो जन्म के साथ ही बंधा है द्वंद्व।
‘इस प्रकार निश्चित जान कर इस संसार में उदासीन हो कर अव्रती और त्यागपरायण हो।’
एक-एक शब्द कोहिनूर जैसा है!
‘इस प्रकार निश्चित जान कर...।’
एवं ज्ञात्वेह...
--ऐसा जान कर!
‘निश्चित जान कर’ का क्या अर्थ है? सुन कर नहीं; किसी और के जानने से उधार ले कर नहीं--ऐसा जीवन का अवलोकन करके। ऐसा जीवन को देख कर कि द्वंद्व यहां रुक कैसे सकता है? यहां विचार समाप्त कैसे हो सकते हैं? सागर की सतह पर तो चलती ही रहेंगी तरंगें। हवा के इतने झकोरे हैं, सूरज निकलेगा, बादल आएंगे, हवा चलेगी, तूफान उठेंगे--सतह पर तो सब चलता ही रहेगा। इतना ही हो सकता है कि तू सतह पर मत रह, तू सरक जरा, सरक कर अपने केंद्र पर आ जा।
प्रत्येक के भीतर एक ऐसी जगह है जहां कोई तरंग नहीं पहुंचती। तुम तरंग को रोकने की चेष्टा मत करो; तुम तो वहां सरक जाओ जहां तरंग नहीं पहुंचती। बाहर तुम बैठे हो, सुबह है, सर्दी के दिन हैं, धूप सुहावनी लगती, मीठी लगती; फिर थोड़ी देर में सूरज ज्यादा गर्म हो आया, ऊपर आ गया, ऊपर उठने लगा, पसीना-पसीना होने लगे--अब तुम क्या करते हो? क्या तुम सूरज के ऊपर पानी छिड़कते हो कि चलो ठंडा कर दो सूरज को थोड़ा? तुम चुपचाप सरक जाते अपने घर की छाया में, तुम हट आते छप्पर के नीचे।
अब कोई आदमी ले कर हौज और सूरज को ठंडा करने की कोशिश करने लगे, तो उसको तुम पागल कहोगे। तुम कहोगे: ‘अरे पागल! सूरज को कौन कब शांत कर पाया!’ यही अष्टावक्र कह रहे हैं: जब सूरज बहुत गर्म हो जाए तो सरक जाना अपने छप्पर में, और गर्म हो जाए तो हट जाना अपने घर के अंतर्तम भाग में, और गर्म हो जाए तो चले जाना भूमिगत कमरों में, जहां कोई सूरज की किरण न पहुंचती हो। सरकते जाना भीतर!
प्रत्येक के भीतर एक ऐसी जगह है जहां कोई तरंग नहीं पहुंचती; वही तुम्हारा केंद्र है; वही तुम्हारा स्वरूप है। उस गहराई में ही तुम्हारा वास्तविक ‘होना’ है।
‘इस प्रकार निश्चित जान कर--एवं ज्ञात्वेह--ऐसा जान कर...।’
मगर यह मैं कहूं, इससे न होगा। अष्टावक्र कहें, इससे भी न होगा। वेद-कुरान कहते रहे हैं, कुछ भी नहीं होता। जब तक तुम न जानोगे; जब तक यह तुम्हारी प्रतीति न बनेगी...।
ज्ञान मुफ्त नहीं मिलता और उधार भी नहीं मिलता--जीवन के कड़वे-मीठे अनुभव से मिलता है; जीवन जी कर मिलता है; जीवन को जीने में जो पीड़ा है, तप है, उस सबको झेल कर मिलता है।
‘ऐसा निश्चित जान कर आदमी इस संसार में उदासीन हो जाता है।’
‘उदासीन’ शब्द बड़ा प्यारा है। आसीन का मतलब तो तुम समझते ही हो: बैठ जाना; आसन। उदासीन का अर्थ है अपने में बैठ जाना, अपनी गहराई में बैठ जाना; ऐसे सरक जाना अपने भीतर कि जहां बाहर की कोई तरंग न पहुंचती हो।
हैरिगेल ने बड़ी मीठी घटना लिखी है अपने झेन गुरु के बाबत। हैरिगेल जापान में था और तीन वर्षों तक धनुर्विद्या सीखता था एक झेन गुरु से। धनुर्विद्या भी ध्यान को सिखाने के लिए एक माध्यम है। तीन वर्ष पूरे हो गए थे और हैरिगेल उत्तीर्ण भी हो गया था--बामुश्किल उत्तीर्ण हो पाया। क्योंकि पाश्चात्य बुद्धि तकनीक को तो समझ लेती है, टेक्नोलॉजिकल है; लेकिन उससे गहरी किसी बात को समझने में उसे बड़ी अड़चन होती है।
वह झेन गुरु कहता था: तुम चलाओ तो तीर, लेकिन ऐसे चलाओ जैसे तुमने नहीं चलाया। अब यह बड़ी मुश्किल बात है। हैरिगेल निष्णात धनुर्विद था। सौ प्रतिशत उसके निशाने ठीक बैठते थे। लेकिन वह गुरु कहता: नहीं, अभी इसमें झेन नहीं है; अभी इसमें ध्यान नहीं है।
हैरिगेल कहता: मेरे निशाने बिलकुल ठीक पड़ते हैं, अब और क्या चाहिए?
यह पाश्चात्य तर्क है कि जब निशाने सब ठीक लग रहे हैं, सौ प्रतिशत ठीक लग रहे हैं, तो अब और क्या इसमें भूल-चूक है? लेकिन झेन गुरु कहता: हमें तुम्हारा निशाना ठीक लगता है कि नहीं, इससे सवाल नहीं; तुम ठीक हो या नहीं, इससे सवाल है। निशाना चूके तो भी चलेगा। निशाने की फिक्र किसको है? तुम न चूको।
बात बड़ी कठिन थी। वह कहता: तुम ऐसे तीर चलाओ कि चलाने वाले तुम न रहो; कर्ता तुम न रहो, तुम सिर्फ साक्षी...। चलाने दो परमात्मा को, चलाने दो विश्व की ऊर्जा को; मगर तुम न चलाओ।
अब यह बड़ी कठिन बात है। हैरिगेल कहेगा कि मैं न चलाऊं तो मैं फिर तीर को प्रत्यंचा पर रखूं ही क्यों? अब जो रखूंगा तो मैं ही रखूंगा। जब खींचूंगा प्रत्यंचा को तो मैं ही खींचूंगा, कौन बैठा है खींचने वाला? और जब तीर का निशाना लगाऊंगा तो मैं ही लगाऊंगा, कौन बैठा है देखने वाला और?
तीन वर्ष बीत गए और गुरु ने उससे कहा कि अब बहुत हो गया, अब तुम्हारी समझ में न आएगा। यह बात नहीं होने वाली, तुम वापिस लौट जाओ।
तो आखिरी दिन वह छोड़ दिया...उसने खयाल किया, अपने से होने वाला नहीं है या यह कुछ पागलपन का मामला है। वह गुरु से विदा लेने गया है। गुरु दूसरे शिष्यों को सिखा रहा है। तीन वर्ष उसने कई बार गुरु को तीर चलाते देखा, लेकिन यह बात दिखाई न पड़ी थी। नहीं दिखाई पड़ी थी, क्योंकि खुद की चाह से भरा था कि कैसे सीख लूं? कैसे सीख लूं? बड़ा भीतर तनाव था। आज सीखने की बात तो खत्म हो गई थी। वह विदा होने को आया है--आखिरी नमस्कार करने। कुछ भी हो इस गुरु ने तीन वर्ष उसके साथ मेहनत तो की है। तो वह बैठा है एक बेंच पर, गुरु दूसरे शिष्यों को सिखा रहा है। वह खाली हो जाए, तो हैरिगेल उससे क्षमा मांग ले और विदा ले ले। खाली बैठे- बैठे उसको पहली दफा दिखाई पड़ा कि अरे, गुरु उठाता है प्रत्यंचा, लेकिन जैसे उसने नहीं उठाई। कोई तनाव नहीं है उठाने में। रखता है तीर, लेकिन जैसे उदासीन। चढ़ाता है हाथ, खींचता है हाथ, लेकिन जैसे प्रयोजन-शून्य; सूना-सूना; भीतर कोई चाहत नहीं है कि ऐसा हो; जैसे कोई करवा ले रहा है!
तुमने फर्क देखा? तुम अपनी प्रेयसी से मिलने जा रहे हो तो तुम्हारी गति और होती है; और किसी के संदेशवाहक हो कर जा रहे हो, किसी ने चिट्ठी दे दी कि जरा मेरी प्रेयसी को पहुंचा देना, तो तुम रख लेते हो उदासीन मन से खीसे में, तुम्हें क्या लेना-देना! चले जाते हो, दे भी देते हो; मगर वह गति, त्वरा, ज्वर, जो तुम्हारी प्रेयसी की तरफ जाने में होता है, वह तो नहीं होता; तुम सिर्फ संदेशवाहक हो।
तुमने देखा, पोस्टमैन आता है, डाकिया! तुम्हें लाख रुपये की लाटरी मिल गई हो, वह ऐसे ही चला आता है कि जैसे दो कौड़ी का लिफाफा पकड़ा रहा है। तुम्हें हैरानी होती है कि अरे, तू कैसा पागल है? लाख रुपये मुझे मिल गए और तू बिलकुल ऐसे ही चला आ रहा है जैसे रोज आता है--वही रोनी सूरत, वही साइकिल पर सवार चला आ रहा है! मगर उसे क्या लेना-देना है? संदेशवाहक, संदेशवाहक है।
देखा हैरिगेल ने कि गुरु ठीक कहता था, मैं चूकता रहा हूं। वह उठा, और चकित हुआ थोड़ा, क्योंकि उसे लगा: मैं नहीं उठा हूं, कोई चीज उठी! वह उठ कर गुरु के पास गया, उसने गुरु के हाथ से तीर-कमान ले लिया, चढ़ाया, निशाना मारा और गुरु प्रफुल्लित हो गया, उसने गले से लगा लिया। उसने कहा, हो गया! आज ‘उसने’ चलाया। आज तू उदासीन था। तीन वर्ष में जो न हो पाया, वह आज आखिरी घड़ी में हो गया।
उसकी खुशी में उसने गुरु को निमंत्रण दिया कि आज मेरे साथ भोजन करें। गुरु आया, एक सात-मंजिल मकान में भोजन करने बैठे, अचानक भूकंप आ गया। जापान में आमतौर से भूकंप आ जाते हैं। सब भागे, पूरा भवन कंप गया। हैरिगेल खुद भी भागा। भागने में उसे यह भी याद न रही कि गुरु कहां है। सीढ़ी पर भीड़ हो गई, क्योंकि कोई पचीस-तीस आदमियों को उसने बुलाया था। तो उसने पीछे लौट कर देखा, गुरु तो शांत आंख बंद किए बैठा है; जहां बैठा था, वहीं बैठा है। हैरिगेल को यह इतना मनमोहक लगा--यह घटना, गुरु का यह निश्चिंत रहना, यह भूकंप का होना, यह मौत द्वार पर खड़ी, यह मकान अभी गिर सकता है, सात-मंजिल मकान है, कंपा जा रहा है जड़ों से, और गुरु ऐसा बैठा है निश्चिंत, जैसे कुछ भी नहीं हो रहा है! वह भूल ही गया भागना। ऐसा कुछ जादू गुरु की मौजूदगी में उसे लगा! कुछ ऐसी गहराई, जो उसने कभी नहीं जानी! वह आ कर गुरु के पास बैठ गया; कंप रहा है, लेकिन उसने कहा कि मेहमान घर में बैठा हो और मेजबान भाग जाए, यह तो अशोभन है--तो मैं भी बैठूंगा; फिर जो इनका होगा, मेरा भी होगा। भूकंप आया और गया, क्षण भर टिका। गुरु ने आंख खोली, और जहां से बात टूट गई थी भूकंप के आने और लोगों के भागने के कारण, उसे फिर वहीं से शुरू कर दिया।
हैरिगेल ने कहा: छोड़िए भी, अब मुझे कुछ याद नहीं कि कौन-सी हम बात कर रहे थे। वह बात आयी-गयी हो गई, इस संबंध में कुछ अब मुझे जानना नहीं। मुझे कुछ और जानने की उत्सुकता है। इस भूकंप का क्या हुआ? हम सब भागे, आप नहीं भागे?
गुरु ने कहा: तुमने देखा नहीं, भागा मैं भी। तुम बाहर की तरफ भागे, मैं भीतर की तरफ भागा। तुम्हारा भागना नासमझी से भरा है, क्योंकि तुम जहां जा रहे हो वहां भी भूकंप है। पागलो, जा कहां रहे हो? इस मंजिल पर भूकंप है तो छठवीं पर नहीं है? तो पांचवीं पर नहीं है? तो चौथी पर नहीं है? क्या पहली मंजिल पर नहीं है? तुम अगर किसी तरह मकान के बाहर भी निकल गए, तो सड़क पर भी भूकंप है। तुम भूकंप में ही भागे जा रहे हो। तुम्हारे भागने में कुछ अर्थ नहीं है। मैं ऐसी जगह सरक गया, जहां कोई भूकंप कभी नहीं जाते। मैं अपने भीतर सरक गया। इस भीतर सरक जाने का नाम है ‘उदासीन’--अपने भीतर बैठ गए!
भूकंप आएगा तो शरीर तक जा सकता है, ज्यादा से ज्यादा मन तक जा सकता है; इससे पार भूकंप की कोई गति नहीं है। तुम्हारी आत्मा में भूकंप के जाने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि उन दोनों के होने का ढंग इतना अलग है कि एक-दूसरे का कहीं मिलन नहीं हो सकता। भूकंप आएगा तो शरीर पर तो निश्चित परिणाम होगा; क्योंकि शरीर इसी मिट्टी का बना है, इसी भूमि का बना है, जिसमें भूकंप आया है। दोनों की तरंगें एक हैं। दोनों एक ही धातु से निर्मित हैं, एक ही द्रव्य से निर्मित हैं। तो पूरी भूमि कंप रही हो तो तुम्हारा शरीर न कंपे, यह नहीं हो सकता; शरीर तो कंपेगा।
यही तो कहते अष्टावक्र कि अरे पागल, कौन कब शांत हुआ? कौन कब सुख-दुख के पार हुआ? एक सीमा तक तो सब कंपता ही रहेगा। भूकंप आएगा तो महावीर को भी आएगा, कोई तुम्हारा शरीर ही थोड़े ही टूटेगा? अगर महावीर होंगे तो उनका शरीर भी टूटेगा। शरीर तो मिट्टी का है, तो मिट्टी के नियम काम करेंगे। और जब भूकंप आएगा और शरीर टूटेगा, तो मन भी विचलित होगा; क्योंकि मन तो शरीर का गुलाम है; क्योंकि मन तो शरीर का सेवक है; क्योंकि मन तो शरीर का ही अपने को बचाए रखने का एक उपाय है, अपनी सुरक्षा है।
जब भूख लगती है तो मन कहता भूख लगी, क्योंकि शरीर अबोल है, गूंगा है, तो उसने एक बोलने वाले का सहारा ले रखा है। प्यास लगती है तो मन कहता है प्यास लगी; शरीर कह न सकेगा।
तो जैसा तुमने सुना होगा कि एक अंधे आदमी ने और एक लंगड़े आदमी ने दोस्ती कर ली थी--दोनों भिखमंगे थे, एक-दूसरे को सहारा देते थे। अंधा देख नहीं सकता था, लंगड़ा चल नहीं सकता था। अंधा चल सकता था, लंगड़ा देख सकता था--दोनों की दोस्ती काम आई। अंधा बैठा लेता था लंगड़े को अपने कंधों पर, दोनों भिक्षा मांग आते थे। दोनों अकेले तो असमर्थ थे, दोनों साथ-साथ बड़े समर्थ हो जाते थे।
शरीर में घटना घटती है, मन में अंकन होता है। मन और शरीर का संयोग है। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं, मन और शरीर इस तरह दो चीजों की बात नहीं करनी चाहिए--मनोशरीर। एक ही घटना है; उसका एक बाहर का हिस्सा है, एक भीतर का हिस्सा है। तो अब नवीन मनोविज्ञान में शरीर और मन ऐसे दो शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता, बल्कि ‘मनोशरीर’ का प्रयोग किया जाता है, साइकोसोमैटिक। दोनों संयुक्त हैं।
इसलिए जो शरीर में घटता है, उसी तरंगें मन तक पहुंच जाती हैं। सच तो यह है शरीर में घटा नहीं कि तरंगें पहुंच जाती हैं। कभी-कभी तो शरीर में घटने के पहले पहुंच जाती हैं। जैसे कोई आदमी छुरा लिए चला आ रहा है मारने तुम्हें, तो अभी शरीर में तो छुरा लगा नहीं, लेकिन मन में खबर पहले पहुंच जाएगी।
मन की जरूरत ही यही है कि कुछ घटे, उसके पहले खबर दे दे कि बचो, यह आदमी छुरा मारने आ रहा है। तुम जब सोए हो, तब कोई छुरा मारने आए, तो मन सोया रहता है। शरीर तो मौजूद रहता है; लेकिन शरीर तो अंधा है, शरीर को तो कुछ दिखाई पड़ता नहीं; कोई आ जाए, छुरा मार जाए, तो कुछ पता न चलेगा। तुम जागे हो तो मन सजग है। मन तो ऐसा है जैसे तुमने हवाई जहाज में राडार देखा हो। जैसे राडार का उपकरण दो सौ मील दूर तक देखता रहता है, क्योंकि हवाई जहाज की गति इतनी है अब तो, ध्वनि से भी ज्यादा गति है, कि अगर दो सौ मील दूर तक दिखाई न पड़े तो दुर्घटना हो जाएगी। क्योंकि एक क्षण लगेगा दो सौ मील पार करने में। अगर हवाई जहाज आठ सौ मील प्रति घंटे की रफ्तार से जा रहा है, तो कितनी देर लगने वाली है? तो अगर हवाई जहाज के सामने ही जब कोई चीज आ जाए, तब दिखाई पड़े, तब तो गए; तब तो तुम्हारे देखने और बचाने के बीच समय न होगा। तो राडार देखता है दो सौ मील, छह सौ मील, हजार मील दूर--बादल हैं, बिजली चमक रही है, पानी गिर रहा है, क्या हो रहा है?
मन राडार है। वह देखता है, कौन छुरा मारने आ रहा है? वह देखता है, अरे, यह वृक्ष गिर रहा है, हट जाओ! वह देखता है, राह पर कांटे पड़े हैं, बच जाओ। मगर है वह शरीर का सेवक, शरीर की सेवा में रत है। वह शरीर का ही विकसिततम रूप है। वह शरीर की ही शुद्ध ऊर्जा है।
इसलिए जब शरीर कंपेगा, तब तो मन कंपेगा ही। कभी-कभी तो शरीर नहीं भी कंपता और मन कंप जाता है। जैसे कि तुमसे कोई कह दे कि भूकंप आने वाला है, अभी आया नहीं, तब इस शरीर को तो कुछ पता नहीं चल रहा, लेकिन मन कंप जाएगा कि भूकंप आने वाला है।
देखा अभी, पेकिंग में कई दिनों तक लोग घर के बाहर तंबू डाले पड़े रहे! भूकंप आने वाला है, इसकी संभावना से मन तो कंप गया, मन तो घबड़ा गया।
अभी यहां कोई जोर से चिल्ला दे, ‘आग, आग’--इनमें से कई भाग खड़े होंगे। आग न भी लगी हो, तो भी भाग खड़े होंगे; क्योंकि इसकी सुविधा कहां मिलेगी कि जांच-पड़ताल करें? मन ने सुना आग कि भागा मन।
देखा तुमने, कोई कह दे नीबू, और तत्क्षण लार मन में बहनी शुरू हो जाती है! अभी नीबू शरीर में डाला नहीं, लेकिन नीबू शब्द--और भीतर लार बहनी शुरू हो गई! मन तैयारी करने लगा कि नीबू करीब आ रहा है। शब्द आया है तो शायद यथार्थ भी आता होगा।
उस झेन गुरु ने हैरिगेल को कहा: भागे तुम, लेकिन तुम्हारा भागना व्यर्थ था, क्योंकि तुम भूकंप में ही भागे जाते थे। भागा मैं भी, यद्यपि तुम्हें दिखाई न पड़ा; मैं भीतर की तरफ भागा। मैंने तत्क्षण अपना तादात्म्य शरीर और मन से अलग कर लिया: इन पर भूकंप घट सकता है, इनसे दोस्ती अभी ठीक नहीं। मैं तत्क्षण अपने को अलग कर लिया। शरीर कंपता रहा, मन कंपता रहा--मैं भीतर बैठा देखता रहा। भूकंप आ जाता तो शरीर मरता, मन टूटता, बिखरता; मेरा कुछ होने वाला नहीं था। नैनं छिंदंति शस्त्राणि--नहीं शस्त्र उसे छेद पाते; नैनं दहति पावकः--नहीं आग उसे जला पाती है।
‘किया और अनकिया कर्म और द्वंद्व किसके कब शांत हुए हैं! इस प्रकार निश्चित जान कर इस संसार में उदासीन, निर्वेद हो कर अव्रती और त्यागपरायण हो।’
तुमने ‘उदासीन’ शब्द सुना होगा। लेकिन इसका ठीक-ठीक अर्थ शायद कभी न समझा होगा। लोग तो समझते हैं: उदासीन का संबंध उदास से है। लोग सोचते हैं: जो जिंदगी से उदास हो गए वे उदासीन। उदास से उदासीन का कुछ लेना-देना नहीं। क्योंकि जिंदगी में जो उदास हो गए हैं, वे तो उदासीन हो ही नहीं सकते। जिंदगी में उदास होने का तो इतना ही मतलब है कि अभी उनकी बुद्धि जागी नहीं; नहीं तो उदास होने को भी यहां कुछ नहीं है। यहां प्रफुल्लित होने को भी कुछ नहीं है, उदास होने को भी कुछ नहीं है। न यहां पाना है न देना है। हानि-लाभ न कछु! अगर लाभ हो सकता हो तो तुम प्रफुल्लित हो जाते हो, अगर हानि होने लगे तो उदास हो जाते हो; लेकिन यहां तो न हानि है न लाभ।
इसलिए उदासीन का उदास शब्द से कोई अर्थ नहीं; भला भाषा-शास्त्र कुछ भी कहते हों, मुझे उसका प्रयोजन नहीं है। मैं तुम्हें कुछ आत्म-शास्त्र की बात कह रहा हूं, भाषा-शास्त्री मैं हूं भी नहीं। उदासीन का अर्थ है: अपने भीतर जो आसीन; उद-आसीन। जो अपने भीतर बैठ गया! जो अपने अंतरतम में बैठ गया! और वहां से देखने लगा लीला, वहां साक्षी हो गया। और सारा जगत बाहर का, भीतर का सब दृश्य-मात्र, नाटक हो गया।
जो ठीक से जान लेता है--अष्टावक्र कहते हैं--वह उदासीन हो जाता है। वह फिर यह भी नहीं कहता कि मुझे शांत होना है। वह कहता है: न मैं शांत हो सकता हूं न अशांत; मैं तो द्रष्टा हूं। यह शांत और अशांत होने की बात भी मन के साथ तादात्म्य के कारण है। वह यह भी नहीं कहता कि मुझे सुखी होना है; क्योंकि यह सुखी होना और दुखी होना, साथ-साथ चलने वाला है। जो सुखी होना चाहता है, वह दुखी भी होगा। दोनों पंख चाहिए उड़ने के लिए। तुम अकेले सुखी होना चाहते हो--तुम व्यर्थ की आकांक्षा कर रहे हो, जो कभी सफल नहीं हो सकती। जितने तुम सुखी होना चाहोगे, उतने दुखी हो जाओगे। जिसने जान लिया, वह तो कहता है: अब मुझे न सुखी होना, न दुखी; न शांत, न अशांत।
लोग आते हैं मेरे पास। वे कहते हैं, ध्यान हमें सीखना है, क्योंकि हम शांत होना चाहते हैं। उन्हें ध्यान का अर्थ भी पता नहीं है। ध्यान का अर्थ होता है: ऐसी भीतर की अवस्था, जहां न शांति है न अशांति। वहीं शांति है--जहां शांति भी नहीं। क्योंकि जहां तक शांति है, वहां तक अशांत होने का उपाय है।
तुम बैठे हो तो तुमने देखा होगा, कभी-कभी घर में कोई आदमी ध्यान में उत्सुक हो जाता है तो वह शांत हो कर बैठा है। किसी बच्चे ने किलकारी मार दी, वह अशांत हो गया। यह भी कोई शांति हुई? कि आप बड़े ध्यान-मंदिर में बैठे हैं, ध्यान कर रहे हैं और पत्नी ने एक प्याली गिरा दी--और ऐसे मौके पर पत्नी जरूर गिरा देगी--और आप बौखला गए कि अशांति हो गई; कि पड़ोसी ने रेडियो चला दिया और आप अशांत हो गए; कि पड़ोसी के यहां बड़े अधार्मिक हैं, पापी हैं, नर्क जाएंगे, ध्यान भ्रष्ट कर दिया!
जो भ्रष्ट हो जाए, वह ध्यान नहीं। जिससे तुम डांवांडोल हो जाओ वह ध्यान नहीं। प्यालियों के टूटने से, रेडियो के चल पड़ने से, बच्चे के हंसने से जो बिखर जाता हो, वह है ही नहीं। तुम किसी तरह अपने को सम्हाल-सम्हाल कर बैठे थे, मगर वह सम्हाल कर बैठा होना सिर्फ नियंत्रण था, कोई गहरा अनुभव नहीं था। थे तो तुम बिलकुल करीब सतह के, शायद सिर डुबा लिया था; लेकिन थे बिलकुल सतह के करीब। जरा-सी चोट बाहर से आयी कि तुम अस्तव्यस्त हो गये।
ध्यान न तो शांति है न अशांति। ध्यान तो वैसी चित्त की साक्षी-दशा है, जहां तुम शांति को उठते देखते और आसक्त नहीं होते; जहां तुम अशांति को उठते देखते और विक्षुब्ध नहीं होते। तुम कहते, यह तो मन का खेल है, चलता रहेगा, ये तो सागर की लहरें हैं, चलती रहेंगी, इनसे क्या लेना-देना है! तुम दूर बैठे उदासीन देखते रहते।
एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद्भ्रव...!
‘निर्वेद’ शब्द का ठीक वही अर्थ है, जो उदासीन का। समझो।
निर्वेद का अर्थ होता है: ऐसी दशा, जहां कोई भाव-तरंग से तुम्हारा संबंध न रह जाए। वेद का अर्थ होता है: भाव-तरंग। वेद का अर्थ होता है: ज्ञान-तरंग। इसलिए तो हम हिंदुओं के शास्त्र को वेद कहते हैं। इसलिए तो हम दुख को वेदना कहते हैं; भाव-तरंग, पीड़ा घेर लेती। निर्वेद का अर्थ है: जहां न तो ज्ञान की तरंग रह जाए, न भाव की तरंग रह जाए। क्योंकि ज्ञान की तरंग उठती है मस्तिष्क में और भाव की तरंग उठती है हृदय में--और तुम दोनों के पार जब बैठ जाओ; न वहां भाव उठे न ज्ञान उठे; न तो तुम्हें लगे कि कुछ मैं जानने वाला हूं, न तुम्हें लगे कि मैं कुछ भावने वाला हूं; जहां ज्ञान और भाव दोनों से दूर खड़े तुम मात्र साक्षी रह जाओ; किसी तरंग से तुम्हारा कोई तादात्म्य न रह जाए। ये दो ही तरंगें हैं तुम्हारे भीतर, इनसे जब तुम तीसरे हो जाओ--तो निर्वेद। वही उदासीन का अर्थ है। जो निर्वेद हो गया, वही उदासीन हो गया।
‘ऐसा निश्चित जान कर संसार में उदासीन हो कर अव्रती और त्यागपरायण हो।’
बड़ी बहुमूल्य बात आगे आती है--अव्रती! तुम चौंकोगे, क्योंकि तुम तो कहते हो: व्रती! आदमी को व्रती होना चाहिए! हम कहते हैं: फलां आदमी बड़ा त्यागी-व्रती है! जब किसी का हमें बड़ा सम्मान करना होता है तो हम कहते हैं: महान त्यागी, व्रती! लेकिन अष्टावक्र कह रहे हैं, अव्रती।
अष्टावक्र निश्चित ही अदभुत क्रांतिकारी व्यक्ति हैं। वे कह रहे हैं: जिसने व्रत लिया, वह तो धोखे में पड़ जाएगा। क्योंकि व्रत तो जबर्दस्ती है। व्रत का अर्थ तो है हठ। व्रत का अर्थ तो है आग्रह। अव्रती का अर्थ है: जिसका कोई आग्रह नहीं; जिसकी कोई मंसा नहीं; जो नहीं कहता कि ऐसा ही हो।
समझो, एक आदमी चोर है। वह व्रत ले लेता है मंदिर में जा कर कि अब मैं चोरी नहीं करूंगा। क्या घटेगा इसके भीतर? यह आदमी चोर है। व्रत लेने से ही तो चोरी नहीं रुक सकती है। नहीं तो दुनिया में सभी व्रत ले लेते और संत हो जाते। इसने मंदिर में जा कर व्रत लिया कि मैं चोरी नहीं करूंगा। किसी महात्मा के चरणों में सिर झुका कर कहा कि आशीर्वाद दें कि मेरा व्रत पूरा हो कि मैं चोरी नहीं करूंगा। समूह-समाज के समक्ष इसने घोषणा की कि अब मैं चोरी नहीं करूंगा। यह कर क्या रहा है? यह कर यह रहा है कि यह चोरी के खिलाफ अपने अहंकार को खड़ा कर रहा है, यह कहता है अब मंदिर में समूह के समक्ष, हजार आदमियों के सामने कह दिया, अब अगर चोरी की तो वह तो थूके को निगलना होगा। लोग क्या कहेंगे कि अरे, पतित हो गए!
और जब कोई व्रत का नियम लेता है, तो समाज उसमें फूल-मालाएं उसके गले में डालता, उसका जुलूस निकालता, अखबारों में फोटो छापता, महात्मा आशीर्वाद देते, महात्मा गवाह बनते, समाज चारों तरफ से प्रशंसा के फूल बरसाने लगता। व्रती को इतनी प्रशंसा मिलती है कि अहंकार मजबूत होता है। अब उसके सामने अड़चन आएगी। अगर वह चोरी करने जाए तो इतना अहंकार खोने की हिम्मत होनी चाहिए।
तो जितना व्रती को सम्मान दिया जाता है, उतना ही उसका अहंकार परिपुष्ट हो जाता है। और अब अहंकार को लड़ाता है वह अपनी पुरानी आदत के खिलाफ। इतना ही कुल अर्थ है व्रती का। व्रती में कुछ और मामला नहीं है।
अब तुम सोचो, चोरी से छूटे और अहंकार में फंसे--यह कुछ मुक्ति न हुई; इससे चोरी बेहतर थी। इससे चोरी बुरी नहीं थी। यह तो कुएं से बचे और खाई में गिरे! और इससे भी चोरी नष्ट नहीं हो जाएगी, चोरी भीतर-भीतर सुलगेगी; अहंकार ऊपर-ऊपर पताका फहराएगा, चोरी भीतर-भीतर सुलगेगी। और भीतर सतत एक संघर्ष होगा, चौबीस घंटे एक लड़ाई चलेगी।
अब समझ लो कि लाख रुपये इस आदमी को रास्ते के किनारे पड़े मिल जाएं, अब इसको बड़ी मुश्किल हो जाएगी कि क्या करूं! अब यह लाख बचाऊं कि अहंकार बचाऊं? एक हाथ बढ़ाएगा कि उठा लूं, एक हाथ रोकेगा कि अरे, यह क्या कर रहे हो? इसी को समाज अंतःकरण कहता है, कॉनशिएन्स कहता है। कॉनशिएन्स बड़ी समाज की गहरी तरकीब है। वह तुम्हें एक तरह का अहंकार दे देता है, जिसको तुम अंतःकरण कहते हो। तुमसे बचपन से कहा गया है कि तुम बड़े कुलीन हो, बड़े घर में पैदा हुए, हिंदू, मुसलमान, ईसाई! खयाल रखना--अपनी इज्जत का, अपने परिवार का, अपने वंश का, अपने कुल का, अपने धर्म का, अपने राष्ट्र का! स्मरण रखना, तुम कौन हो! तुम कोई साधारण पुरुष नहीं हो। तुम हिंदू हो, कि मुसलमान हो, कि ईसाई हो! बाकी सब साधारण हैं।
मुल्ला जब मरने लगा तो लोगों ने उसकी प्रार्थना सुनी--वह कह रहा था परमात्मा से कि हे प्रभु, मैंने चोरी की है बहुत बार, यह सच है; और मैं कई बार अचौर्य के व्रत से पतित हुआ हूं। मैंने दूसरों की स्त्रियों की तरफ बुरी नजर से देखा है, यह भी सच है; मैं व्यभिचारी हूं। और मैंने कोई बड़ी-बड़ी चोरियां ही की हों, यह भी नहीं है; मैंने मुर्गियां तक पड़ोसियों की चुरा ली हैं। और मैं सब तरफ से बेईमान हूं, झूठा हूं। झूठ मेरी आदत में शुमार हो गई है, सच मुझसे बोला नहीं गया। मैं दुष्ट भी हूं। छोटी-मोटी बात पर झगड़ा मुझे बिलकुल आसान है, मारपीट आसान है। इतना ही नहीं, मैंने एक आदमी की हत्या भी कर दी है। और हत्या के विचार तो मेरे मन में सदा उठते रहे हैं। यह सब है; लेकिन एक बात तुमसे कहना चाहता हूं कि मैंने सब कुछ किया हो, लेकिन अपना धर्म कभी नहीं खोया!
अब यह बड़े मजे की बात है! अब यह धर्म क्या है? मैंने अपना ‘दीन’ कभी नहीं खोया, रहा सदा मुसलमान ही! उस संबंध में मैंने कभी ऐसा नहीं कि ईसाई हो गया, कि हिंदू हो गया--रहा सदा मुसलमान ही! धर्म मैंने कभी नहीं खोया! इतनी बात मैं जरूर तुझसे कहूंगा, यह तू याद रखना! लाख बुरे काम कर लिए हों, लेकिन धर्म कभी नहीं खोया!
अब लोग धर्म बचा रहे हैं। धर्म भी अहंकार का हिस्सा हो जाता है। कुल, प्रतिष्ठा, मान, मर्यादा...।
और तुम थोड़ा सोचो, तुमने कसम ले ली कि चोरी नहीं करेंगे--और चोर का तुम्हारा मन है, और यह अहंकार है; अब इन दोनों में संघर्ष चलेगा; एक युद्ध तुम्हारे भीतर पैदा होगा, महाभारत तुम्हारे भीतर चलेगा। तुम आ गए जोश-खरोश में, सुन रहे थे किसी साधु-संत की बात, उसने तुमको घबड़ा दिया कि अगर काम-वासना रही तो नर्क में सड़ोगे। और उसने खूब स्पष्ट चित्र खींचे, रंगीन, थ्री डायमेंशनल, कि वहां आग की लपटें हैं, और कड़ाहे जल रहे हैं तेल के, और उन कड़ाहों में डाले जाओगे, मरोगे भी नहीं और सेंके भी जाओगे और उबाले भी जाओगे, और मरोगे भी नहीं, और कीड़े तुम्हारे शरीर में छेद बना-बना कर दौड़ेंगे, और मरोगे भी नहीं और छिद्र-छिद्र हो जाओगे। उसने खूब तस्वीर खींची रंगीन और तुम्हें बिलकुल घबड़ा दिया। उस घबड़ाहट के भावावेश के क्षण में तुम खड़े हो गए, तुमने कहा: मैं ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेता हूं।
अब मरे! घर तक लौटते-लौटते जब शांत हो जाओगे थोड़े, उद्विग्नता थोड़ा बैठेगी, मंदिर की हवा से थोड़े दूर जाओगे और तुम्हें याद आएगा: यह क्या कर बैठे? अब फांसी लगी! व्रती हो गए! और लोगों ने तालियां बजा दीं। और लोग तो कोई भी बुद्धू बन रहा हो तो ताली बजाते हैं। लोगों की तालियों से बड़े सावधान रहना।
एक अदभुत फकीर थे: महात्मा भगवानदीन। वे कभी-कभी मेरे पास रुकते थे। मेरी तो छोटी उम्र थी, लेकिन उनका मुझसे बड़ा लगाव था। वे कभी मेरे गांव से गुजरते तो मेरे पास जरूर रुकते। उनकी एक खूबी थी: जब वे बोलते, अगर कोई ताली बजा दे तो बड़े नाराज हो जाते। वे उठ कर ही खड़े हो जाते कि अब मैं बोलूंगा ही नहीं, क्यों ताली बजाई? मैंने उनसे कहा कि लोग ताली बजा रहे हैं, आप इतने नाराज होते हैं? वे कहते: लोग ताली ही तब बजाते हैं, जब कोई आदमी बुद्धूपन करता है। मैंने जरूर कोई गलती की होगी। पहली तो बात, इन बुद्धुओं को अगर मैं सच बात कहूं तो समझ में न आएगी, गलत कहूं तभी समझ में आती है--और तभी ये ताली बजाते हैं। ताली बजाई कि मैं तत्काल समझ जाता हूं कि हो गई कोई गलती।
वे ठीक कहते हैं। जैसा आदमी है उसको देख कर ऐसा ही लगता है। आदमी तो उसी बात पर ताली बजाता है जो उसको जंचती है। जब तुम किसी के ब्रह्मचर्य के व्रत लेने पर ताली बजाते हो, तो मतलब क्या है? तुम यह कह रहे हो कि लेना तो हम भी चाहते हैं, लेकिन अभी नहीं। तुमने हिम्मत की, बड़ा अच्छा; तुम आगे बढ़े, बड़ा अच्छा। तुम शहीद हो रहे हो, बड़ा अच्छा, जाओ। हमारी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं।
मगर यही लोग जिन्होंने ताली बजाई, अब नजर रखेंगे। अब वे देखेंगे कि कहीं सिनेमा में तो नहीं बैठे हो ब्रह्मचर्य का व्रत ले कर? यहां होटल में बैठे क्या कर रहे, क्लब में क्या कर रहे? यह किसकी स्त्री के साथ चले जा रहे?
मेरे एक संन्यासी ने संन्यास लिया--एक युवक ने। वह कुछ दिन बाद मेरे पास आया कि मेरी पत्नी को भी संन्यास दे दो। तो मैंने कहा, मामला क्या है? उसने कहा कि मैं गरीब आदमी हूं, अब मैं ये गेरुए वस्त्र पहन कर अपनी पत्नी के साथ कहीं जाता हूं तो लोग रोक लेते हैं कि किसकी पत्नी है? संन्यासी...! लोग भला धार्मिक न हों, लेकिन दूसरे को तो धार्मिक बनाने में उत्सुक रहते ही हैं! ‘यह किसकी पत्नी को ले कर जा रहे हो?’ झगड़ा-झांसा खड़ा करते हैं। इसको भी आप संन्यास दे दें।
मैंने उसको संन्यास दे दिया। वह आठ दिन बाद फिर आया कि मेरे बेटे को...। क्योंकि लोग कहते हैं कि बाबा जी, किसका बच्चा भगाए ले जा रहे हो? यह गेरुआ तो खतरनाक है! क्योंकि लोगों की अपेक्षाएं हैं।
लोग ताली बजा देंगे, फूल-माला पहना देंगे--उनकी फूल-माला में छिपी फांसी को मत भूल जाना। उन्होंने गर्दन पर हाथ रख लिया, अब वे कहेंगे: कहां जा रहे हो? क्या कर रहे हो? कैसे उठते? कैसे बैठते? किससे बात करते? कितनी देर सोते? ब्रह्ममुहूर्त में उठते कि नहीं? अब वे सब तरफ तुम्हारी जांच रखेंगे। उन्होंने जो ताली बजाई थी उसका बदला लेंगे। और तुम मरे, तुम मुश्किल में पड़े; क्योंकि कामवासना कसम खाने से मिटती होती, इतनी आसान बात होती, तो सारी दुनिया कामवासना के बाहर हो गयी होती। अब यह ब्रह्मचर्य खींचेगा और यह कामवासना खींचेगी और इन दोनों के बीच तुम पिसोगे। दो पाटन के बीच अब तुम्हारी बुरी तरह मरम्मत होगी! बार-बार तुम वासना में गिरोगे और बार-बार तुम अपने को सम्हाल कर बाहर निकालोगे और बार-बार गिरोगे। तुम्हारा जो अब तक थोड़ा-बहुत आत्म-गौरव था वह भी नष्ट हो जाएगा। तुम पाओगे: मुझ जैसा पापी कोई भी नहीं!
मंदिर में जा कर लोग सिर्फ यही समझ कर लौटते हैं कि हम जैसा पापी कोई भी नहीं।
अष्टावक्र कहते हैं: ‘अव्रती! त्यागपरायण!’
यही मैं भी तुमसे कहता हूं। तुम्हारा बोध ही तुम्हारा व्रत हो; उससे ज्यादा व्रत की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें समझ में आ गई है बात, बस काफी है। इसके लिए समाज की स्वीकृति और समादर की कोई भी जरूरत नहीं है। तुम समझ गए, तुम्हें ब्रह्मचर्य में रस आने लगा बिलकुल ठीक है, अब व्रत की क्या जरूरत है? व्रत तो इतना ही बताता है कि रस अभी आया नहीं था, सिर्फ लोभ पैदा हुआ था। ब्रह्मचर्य का लोभ पैदा हुआ तो व्रत।
अगर समझ में ही आ गया, तो तुम ऐसी तो कभी कसम नहीं खाते कि मैं कसम खाता हूं कि सदा दो और दो चार ही जोडूंगा। तुम जानते हो कि दो और दो चार होते हैं, इसमें जोड़ना क्या है, कसम क्या खानी है? और अगर तुम जा कर किसी मंदिर-मस्जिद में कसम खाओ कि हे सदगुरु, मुझे आशीर्वाद दें, अब से मैं दो और दो चार ही जोडूंगा, तो साफ है कि तुम विक्षिप्त हो। और जो तुम्हें आशीर्वाद दे, वह तुमसे भी आगे है विक्षिप्तता में। तुम्हारा दिमाग खराब है। तुम्हें शक है कि तुम दो औरदो पांच जोड़ोगे। उस शक से लड़ने के लिए तुम इंतजाम कर रहे हो पहले से। तुम्हें अपनी भीतरी अवस्था का पता है कि जब मैं जोडूंगा तो दो और दो पांच होंगे। ‘नहीं-नहीं, कसम खा लो, पहले से इंतजाम कर लो!’ वह भीतर तो तुम जानते ही हो कि दो और दो पांच होने वाले हैं, इसलिए कसम खा कर इंतजाम कर लो, रुकावट डाल दो कि दो और दो चार हों। लेकिन यह ज्ञान नहीं है, यह बोध नहीं है--यह लोभ है।
लोभी व्रती होता है; बोध को उपलब्ध व्यक्ति अव्रती होता है। इसका यह अर्थ नहीं कि उसके जीवन में क्रांति नहीं होती--उसी के जीवन में क्रांति होती है! व्रत के कारण कहीं क्रांतियां हुई हैं? अगर व्रत के कारण क्रांति हो सके तो इसका अर्थ हुआ कि ऊपर से थोपने से, जबर्दस्ती आग्रह अपने ऊपर आरोपित कर लेने से आत्मा बदल जाएगी--यह तो नहीं हो सकता। तुम व्रत के कारण सैनिक तो हो सकते हो, संन्यासी नहीं हो सकते। तुम व्रत के कारण एक अभ्यास कर ले सकते हो, एक हठ कर ले सकते हो और एक खास ढंग में चलने की आदत बना ले सकते हो, लेकिन उससे तुम्हारे जीवन में सूर्योदय न होगा। सूर्योदय तो अव्रती का होता है।
अव्रती का अर्थ इतना ही है कि जो तुम्हें दिखाई पड़ता है, वह करना; लेकिन इसकी घोषणा क्या करनी? इसके लिए किसी की स्वीकृति क्या लेनी? जो तुम्हें समझ में आ गया है, अगर ठीक से आ गया है, तो अपने-आप तुम्हारे आचरण में आना शुरू हो जाएगा। समझ आचरण में रूपांतरित होती ही है; उससे अन्यथा न हुआ है न हो सकता है। इसलिए व्रत की कहां जरूरत है?
मेरे पास कोई आता है कि मुझे व्रत दे दें ब्रह्मचर्य का, मैं कहता हूं: पागलपन मत करना। मैं तुम्हारे किसी पागलपन में सम्मिलित नहीं हो सकता हूं। तुम्हें अगर ब्रह्मचर्य में रस आने लगा है--बहो उस तरफ, मगर व्रत नहीं! कोई मुझसे कहता है कि आप मुझे कसम दिलवा दें कि मैं सदा ध्यान करूं, कभी चूकूं न। मैं तुम्हें यह कसम नहीं दिलवाता, मैं किसी पाप में भागीदार नहीं होता। तुम्हें अगर समझ आ गई, तो तुम ध्यान करोगे। और अगर ध्यान में रस आएगा तो वही रस नियम बनेगा। आज करोगे और कल नहीं करोगे, तो कल तुम पाओगे: कुछ चूका, कुछ खोया, कुछ गंवाया, दिन ऐसे ही गया! एक तंद्रा छाई रही। तो परसों तुम फिर करोगे। कर-करके तुम जानोगे कि जब तुम करते हो तो एक उज्ज्वलता, एक पवित्रता, एक शुचिता का जन्म होता है! करने से पता चलेगा कि तुम ताजे-ताजे रहते, एक स्वच्छता, जैसे सद्यःस्नात! चौबीस घंटे जीवन की सब उलझनों के बीच भी तुम गैर-उलझे बने रहते। उपद्रव हैं, चलते रहते हैं; काम-धाम है, व्यवसाय है, आपाधापी है--लेकिन भीतर कहीं कोई सूत्र जुड़ा रहता अंतरात्मा से। और वहां सब शांत है; न कोई आपाधापी है, न कोई व्यवसाय, न कोई उपद्रव। कर-करके तुम्हें पता चलेगा कि अगर एक दिन भोजन न करो तो उतनी हानि नहीं है, जितनी ध्यान न करने से। एक दिन अगर स्नान न करो तो चल जाएगा। क्योंकि भोजन शरीर का कृत्य है; ध्यान आत्मा का। ध्यान आत्मा का भोजन है। अगर ऐसा किसी दिन हो कि आज समय ज्यादा नहीं है, या तो भोजन करना छोडूं या ध्यान कर लूं, तो तुम ध्यान करोगे। मगर व्रत के कारण नहीं। क्योंकि व्रत के कारण किया तो धोखा होगा।
मैं राजस्थान जाता था अक्सर, तो राह में एक जगह मुझे ट्रेन बदलनी पड़ती थी; वहां कोई दो-तीन घंटे रुकना पड़ता। सांझ का वक्त होता तो कुछ मुसलमान मित्रों को मैं देखता कि वे स्टेशन पर अपना कपड़ा बिछा कर नमाज पढ़ रहे हैं। मैं घूमता रहता, क्योंकि दो-तीन घंटे वहां ट्रेन खड़ी रहती तो प्लेटफार्म पर घूमता रहता। मगर जो नमाज पढ़ रहे हैं, वे बीच-बीच में लौटकर देखते जाते कि ट्रेन कहीं छूट तो नहीं गई!
एक सज्जन मेरे ही डिब्बे में एक बार यात्रा कर रहे थे, तो रास्ते में उनसे पहचान भी हो गई। वे मौलवी थे, धर्मगुरु थे। जब वे भी यही करने लगे--उस स्टेशन पर मैंने देखा कि उन्होंने भी बिछा लिया कपड़ा और अपनी नमाज कर रहे हैं, लेकिन बीच-बीच में देखते जाते है। तो मैं उनके पीछे गया, मैंने उनका सिर पकड़ कर उस तरफ कर दिया। अब वे नमाज में थे तो कुछ बोल भी न सके; नाराज तो बहुत हुए, भनभना गए।
वे उठे तो एकदम नाराज हो गए कि यह क्या मामला है, आपने मेरा सिर क्यों मोड़ा? मैंने कहा कि या तो इस तरफ कर लो, क्योंकि ट्रेन और परमात्मा दोनों को साथ-साथ याद न कर सकोगे। अगर ट्रेन की याद करनी है तो छोड़ो यह बकवास, काहे के लिए नमाज, कौन कह रहा है? मैंने तो नहीं कहा! अगर परमात्मा को याद करना है तो भूलो इस ट्रेन को कम से कम आधा घड़ी के लिए; छूट जाएगी, बहुत से बहुत इतना ही होगा न? परमात्मा रह गया हाथ में और ट्रेन छूट गई तो क्या खाक छूटा? कुछ भी नहीं छूटा--दूसरी ट्रेन आती है।
अगर परमात्मा की याद में इतना भी नहीं भूल पाते...तो मैंने उनसे सूफियों की एक कहानी कही। एक सूफी नमाज पढ़ रहा था और एक औरत भागी हुई निकली, उसको धक्का देती हुई, उसके कपड़े पर पैर डालती हुई। वह बड़ा नाराज हुआ! बड़ा नाराज हुआ, लेकिन नमाज में था तो बोल नहीं सका। जल्दी उसने नमाज पूरी की कि इसका पीछा करें, कैसी बदतमीज औरत, इतना भी ध्यान नहीं! लेकिन जब वह नमाज करके उठा तो वह औरत वापिस आ रही थी, तो उसने उसे पकड़ा। उसने कहा कि सुन बदतमीज औरत! तुझे इतना भी पता नहीं कि कोई ध्यान कर रहा है, नमाज कर रहा है, प्रार्थना कर रहा है? तो इस तरह, इस तरह सलूक करना चाहिए कि तू मुझे धक्का देती, मेरे कपड़े पर पैर रखती निकल गई?
उसने कहा: क्षमा करें, मुझे याद भी नहीं। मैं अपने प्रेमी से मिलने जाती थी। मुझे याद भी नहीं कि आप कहां बैठे थे, कहां नमाज पढ़ रहे थे, कौन नमाज पढ़ रहा था, कौन नहीं पढ़ रहा था, मुझे याद नहीं। वर्षों बाद मेरा प्रेमी आता था, मैं उसे लेने गांव के बाहर द्वार पर जाती थी। क्षमा करें! लेकिन एक बात आपसे पूछती हूं: मैं अपने प्रेमी से मिलने जाती थी--क्षणभंगुर प्रेमी; आप अपने प्रेमी से मिलने गए थे, आपको, मेरे पैर कपड़े पर पड़ गए, मेरा धक्का लगा, इसका समझ में आ गया? आप परमात्मा से मिल रहे थे? तब तो मेरी प्रार्थना आपसे बेहतर है। माना कि मैं किसी के शरीर के मोह में पड़ी हूं, और यह मोह ठीक नहीं, लेकिन कम से कम है तो! और माना कि तुम परमात्मा के मोह में पड़े हो, मगर है कहां?
कहते हैं, उस सूफी के जीवन में क्रांति हो गई इस बात से। उसने कहा, अब नमाज तभी पढ़ेंगे जब प्रेम होगा, अन्यथा क्या सार है?
व्रत से नहीं--बोध से। व्रत से नहीं--प्रेम से। व्रत से नहीं, नियम से नहीं, किसी बाहरी अनुशासन से नहीं--अंतरभाव से!
‘अव्रती और त्यागपरायण हो!’
बड़ी उल्टी बात, बड़ा कंट्राडिक्शन, बड़ा विरोधाभास है। कहते हैं कि तू व्रत तो मत ले, लेकिन तेरा बोध ही तेरे जीवन में त्याग बन जाए, बस। त्याग को लाना न पड़े, बोध के पीछे छाया की तरह आए।
एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद्भ्रव त्यागपरोऽव्रती।
इसे याद रखना। यही मेरे संन्यास का सूत्र भी है।
अव्रती त्यागपरः भव।
त्यागी बनो--त्याग की कसम खा कर नहीं। त्यागी बनो--त्यागी बनना चाहिए, ऐसे निर्णय और आग्रह से नहीं। त्यागी बनो--इसलिए नहीं कि त्यागी को सम्मान, समादर, प्रतिष्ठा मिलती है। त्यागी बनो--अव्रत, बिना किसी लोभ के, बिना किसी नियम के, बिना किसी आग्रह के, अनाग्रह-भाव से। त्यागी बनो--बोध से। कचरा, कचरा दिखाई पड़े तो छूट जाएगा। कचरे को छोड़ने की कसम नहीं लेनी है। कचरा, कचरा दिखाई पड़े, इसकी चेष्टा करनी है। ज्ञान त्याग है। वे ही छोड़ पाते हैं जो जागते हैं और देखते हैं।
‘हे प्रिय, लोकव्यवहार, उत्पत्ति और विनाश को देख कर किसी भाग्यशाली की ही जीने की कामना, भोगने की वासना और ज्ञान की इच्छा शांत हुई है।’
किसी भाग्यशाली की ही! लोकव्यवहार को देख कर--ठीक से देख कर!
जीवन में जो चल रहा है चारों तरफ, उसका ठीक से अवलोकन करो! शास्त्र में मत जाओ खोजने। शास्त्र में नियम मिलेंगे और शास्त्र से व्रत आएगा। खोजो जीवन में--वहां से बोध मिलेगा और बोध का कोई व्रत नहीं है। बोध पर्याप्त है। उसे व्रत के सहारे की जरूरत नहीं है। व्रत तो अंधे के हाथ की लकड़ी है; और बोध, आंख वाले आदमी की आंख है। आंख वाले आदमी को लक़ड़ी नहीं चाहिए। व्रत तो बैसाखी है लूले-लंगड़े की। जिसको बोध नहीं है, उसके लिए व्रत चाहिए; वह बैसाखी के सहारे चलता है। लेकिन जिसके अंग और देह स्वस्थ हैं, उसके लिए बैसाखी की कोई जरूरत नहीं होती। जिसके अंग स्वस्थ हैं, वह तो अपने पैर से चलता है। व्रत दूसरे से उधार मिलते हैं--बोध अपना है।
कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात्‌।
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमं गताः।।
हे प्रिय, लोकव्यवहार को ठीक से अवलोकन करके--लोकचेष्टा अवलोकनात्‌--ठीक से जाग कर, जीवन में जो हो रहा है, उसे देखो।
कोई पैदा हो रहा, कोई मर रहा--जोड़ो! इस हिसाब को जोड़ो कि जो पैदा होता, मरता। किसी के पास दीनता है, दरिद्रता है--वह दुखी है। धनी को देखो, धन है, सब कुछ है--और दुखी है। यहां ऐसा लगता है, सुखी होने का किसी को कोई उपाय नहीं। विफल रो रहा है, सफल रो रहा है। कुरूप रो रहा है, सुंदर रो रहा है। बीमार रो रहा है, स्वस्थ रो रहा है। यहां जैसे रुदन ही, हाहाकार मचा है।
‘जीवन के ठीक से अवलोकन से किसी भाग्यशाली को ही जीने की कामना, भोगने की वासना और ज्ञान की इच्छा शांत हुई है।’
तीन बातें कह रहे हैं: जीने की कामना, जीवितेच्छा! जीवन को देखो तो, फिर कामना करो जीने की। यहां जीवन में रखा क्या है, धरा क्या है? जीवन को गौर से तो देखो! इसकी आकांक्षा करने योग्य है? तो लोग यह तो देखते ही नहीं, लोग इस जीवन को तो देखते ही नहीं गौर से, परलोक की आकांक्षा करने लगते हैं। तो व्रत पैदा होता है। इस लोक को ही गौर से देखो, तो जीवितेच्छा विलीन हो जाती है, जीवन की आकांक्षा नहीं रह जाती। और जिसकी जीवन की आकांक्षा न रही, उसका परलोक है। जिसके जीवन की आकांक्षा न रही, उसका परम जीवन है।
अब तुम फर्क समझना। फर्क बहुत बारीक है। जिस आदमी ने इस जीवन की व्यर्थता को देखा और पहचाना, वह किसी जीवन की भी आकांक्षा नहीं करता। उसकी आकांक्षा ही विलीन हो जाती है, देख कर ही विलीन हो जाती है।
मैंने सुना है, एक युवक संन्यासी गांव से गुजरता था। वह बचपन से ही संन्यासी हो गया था। पिता मर गए, मां मर गई, कोई और पालने वाला न था। गांव के एक बूढ़े संन्यासी ने उसे पाला। फिर बूढ़ा संन्यासी हिमालय चला गया, तो वह बच्चा भी उसके साथ हिमालय चला गया। वह हिमालय में ही बड़ा हुआ। अब बूढ़ा संन्यासी मर गया था, तो वह वापिस दुनिया में लौट रहा था। युवा था, स्वस्थ था। वह पहले ही गांव में आया, तो उसने देखा एक बारात जा रही है! उसने कभी बारात नहीं देखी थी। बैंड-बाजा बज रहा था। एक युवक घोड़े पर सवार है, बड़े लोग पीछे जा रहे हैं। उसने पूछा, यह क्या है? तो किसी ने समझाया कि बारात है। उसने पूछा, बारात यानी क्या?
तो किसी ने समझाया कि भई तुम्हें इतना भी बोध नहीं है। यह जो घोड़े पर बैठा है, यह दूल्हा है; इसका विवाह होने वाला है एक लड़की से।
उसने कहा, फिर क्या होगा? तो किसी ने उसको पकड़ कर पास ले गया कि तू यहां आ, तुझे कुछ भी पता नहीं। उसने उसे सब समझाया कि फिर क्या होगा--शादी होगी इनकी, भोग करेंगे एक-दूसरे का, फिर इनका बच्चा पैदा होगा।
बारात तो निकल गई। संन्यासी, रात हो गई थी, तो गांव के बाहर जा कर कुएं के पाट पर सो रहा, गर्मी के दिन थे। सपना उसने देखा कि घोड़े पर सवार है, बैंड-बाजे बज रहे हैं, बारात चल रही, फिर उसकी शादी हो गई, फिर वह अपनी पत्नी के साथ सो रहा है। और पत्नी ने उससे कहा कि जरा सरको, मुझे भी तो जगह दो। वह जरा सरका कि कुएं में गिर गया। सारा गांव इकट्ठा हो गया। हैरानी तो गांव को और इसलिए हुई कि वह कुएं में पड़ा-पड़ा खूब खिलखिला कर हंस रहा है। लोगों ने पूछा: अरे भई हंसते क्यों हो? उसने कहा, हंसें नहीं तो क्या करें? मुझे निकालो तो मैं अपनी कथा कहूं।
उसे निकाला। लोगों ने पूछा, हंसते क्यों हो? कुएं में गिरना, तो मौत हो जाए--और तुम हंसते हो? उसने कहा, हंसने की बात हो गई। सपने की स्त्री ने कुएं में गिरा दिया, असली स्त्री क्या न करती होगी लोगों के साथ!
उसने कहा: बचे! सपने के अनुभव ने जगा दिया। अब कोई बारात नहीं, अब यह घोड़े-वोड़े पर चढ़ना अपने से होने वाला नहीं। इतना काफी है अनुभव। सपने की झूठी स्त्री ने ऐसा धक्का दिया कि भले-चंगे सोए, मैं जिंदगी भर से सोता आ रहा हूं कुओं पर, कभी नहीं गिरा। इस स्त्री ने कहा, जरा सरको...। असली स्त्रियां क्या न करती होंगी?
अगर बोध हो तो सपना भी जगा देता है। अगर बोध न हो तो जीवन भी ऐसा ही बीत जाता है, तुम उसका हिसाब भी नहीं लगा पाते।
लोकचेष्टा अवलोकनात्‌...।
लोक की चेष्टाओं का अवलोकन!
कस्य धन्यस्य अपि...।
और कोई धन्यभागी ही जीवन की चेष्टाओं का अवलोकन करता है। अधिक लोग तो शास्त्रों में खोजते उसे, जो चारों तरफ बरस रहा है; जो चारों तरफ मौजूद है, उसे शब्दों में खोजते; जो हर घड़ी मौजूद है, जो कहीं से भी पकड़ा जा सकता है सूत्र, उसके लिए व्यर्थ के तर्क और सिद्धांत और विवाद में पड़ते हैं।
कस्य धन्यस्य अपि...।
इसलिए अष्टावक्र कहते हैं: कोई धन्यभागी कभी जीवन का ठीक अवलोकन करके...।
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमं गताः।
तीन चीजों से मुक्त हो जाता है--जीने की इच्छा से, भोगने की इच्छा से और जानने की इच्छा से।
तुम चकित होओगे: जानने की इच्छा भी--कि मैं और ज्यादा जान लूं, और ज्यादा जान लूं, पंडित हो जाऊं, महापंडित हो जाऊं, सब कुछ जान लूं जो दुनिया में है--वह भी बंधन का कारण है। इच्छा-मात्र बंधन का कारण है। और तीन ही इच्छाएं हैं। या तो आदमी जीवन की इच्छा से भरा रहता है तो धन कमाता है, पद की प्रतिष्ठा खोजता है। या भोगने की वासना से भरता है, तो शराब पीता है, वेश्यागमन करता है, भागता-फिरता भोगने। और तीसरे तरह के लोग हैं जो ज्ञान की आकांक्षा करते हैं। वे शास्त्राध्ययन, तर्क को निखारते हैं, सिद्धांतों पर धार धरते हैं, वाद-विवाद में पड़े रहते हैं। ये तीन तरह के साधारण लोग हैं।
चौथा व्यक्ति वह है--धन्यभागी, जिसकी कोई आकांक्षा नहीं; जो न भोगना चाहता, न जानना चाहता, न जीना चाहता; जो कहता है: देख लिया सब, इसमें कुछ भी नहीं है।
‘यह सब अनित्य है, तीनों तापों से दूषित है, सारहीन है, निंदित है, त्याज्य है--ऐसा निश्चय कर वह शांति को प्राप्त होता है।’
ये तीनों दौड़ें सिर्फ तीन ताप ले आती हैं।
अनित्यं सर्वमेवेदं तापत्रितय दूषितम्‌।
असारं निंदितं हेयमिति निश्चित्य शाम्यति।।
इदम्‌ सर्वम्‌ अनित्यम्‌...।
यह सब अनित्य है, असार है--ऐसा बोध! अवलोकन से--याद रखना! शास्त्र से नहीं, उधार नहीं--अवलोकन से। अपनी ही आंख के अनुभव से। आधि-दैविक, आधि-भौतिक, आध्यात्मिक-- तीन तरह के दुख। शरीर का दुख, मन का दुख, आत्मा का दुख। बस, इतना ही मिलता है इस जगत में; और कुछ मिलता नहीं। दुख ही दुख मिलता है; और कुछ मिलता नहीं। राख ही राख हाथ आती है अंततः; कुछ और हाथ आता नहीं।
असारम्‌ निंदितम्‌ हेयम्‌ इति निश्चित्य शाम्यति।
ऐसा जान कर कि यह बिलकुल व्यर्थ है, निंदित है, असार है, शांति उपलब्ध हो जाती है।
इति निश्चित्य शाम्यति...।
जैसे ही यह निश्चय हो जाता, कि यह जगत असार है, शांति फलित हो जाती है।
‘वह कौन काल है और कौन-सी अवस्था है, जिसमें मनुष्य को द्वंद्व, सुख-दुख न हो? उनकी उपेक्षा कर, यथाप्राप्त वस्तुओं में संतोष करने वाला मनुष्य, सिद्धि को प्राप्त होता है।’
ऐसा कोई काल नहीं है, जैसा कि लोग सोचते हैं, जैसा कि पुराण कहते हैं कि कभी ऐसा था। जैन-शास्त्र कहते हैं: सुखमा-सुखमा, एक ऐसा काल था जब सुख ही सुख था; फिर ऐसा काल आया जब सुखमा-दुखमा, सुख और दुख मिश्रित थे; फिर ऐसा काल आ गया दुखमा-दुखमा, दुख ही दुख। या हिंदू कहते हैं: ऐसा काल था सतयुग, जब सुख ही सुख था, रामराज्य था। लेकिन ये सब मन की कल्पनाएं हैं।
दुनिया में दो तरह के कल्पनाशील लोगों ने दो तरह की धारणाएं बनाई हैं। एक कहते हैं अतीत में था स्वर्ग। सभी पुराने धर्म यही कहते हैं कि अतीत में सब ठीक था। दूसरा, जो नया पागलपन है दुनिया में, वह है कम्यूनिज्म, साम्यवाद--वे कहते हैं, भविष्य में है स्वर्ग। लेकिन इसे तुम जान लो। स्वर्ग कभी नहीं रहा है। न राम के समय में रामराज्य था। रामराज्य ही होता तो रामकथा के बनने की कोई जगह नहीं थी। अगर सुख ही सुख हो तो समाचार होते ही नहीं। रामकथा बनेगी कहां से? सीता चुराएगा कौन? चौदह वर्ष का वनवास खुद राम को भोगना पड़ा। सब तरह की कलह और सब तरह की राजनीति थी। खुद की सौतेली मां धोखा दे गई। खुद का बाप कामी और लोलुप सिद्ध हुआ। पत्नी की गलत बात मान कर भी--लेकिन पत्नी युवा थी--अपने प्यारे से प्यारे बेटे को घर के बाहर भेज दिया, जंगल भेज दिया। तुम कहते हो रामराज्य?
सीता को राम ले भी आए लंका से छुड़ा कर, तो जो पहले शब्द उन्होंने कहे, वे कुछ बड़े अच्छे शब्द नहीं। उन्होंने सीता से कहा: तू यह मत सोचना कि तेरे लिए मैंने युद्ध किया; यह युद्ध तो प्रतिष्ठा, कुल के लिए किया। फिर जरा-सी बात पर कि किसी धोबी ने कह दिया अपनी औरत को कि तूने क्या समझा है! कह दिया, मैं कोई राम नहीं हूं। एक रात धोबिन कहीं और रह गई तो धोबी नाराज हो गया, उसने कहा कि मैं कोई राम नहीं हूं, तूने समझा क्या है मुझे, कि वर्षों रावण के घर रह आई सीता और फिर भी स्वीकार कर लिया! इतनी-सी बात से, अग्नि-परीक्षा ले लेने के बाद भी, सीता को जंगल में फेंक दिया। राजनीति ज्यादा रही होगी, रामराज्य कम। अगर ऐसा ही था तो सीता के साथ खुद भी जंगल चले गए होते। अगर ऐसा ही था, मर्यादा ही रखनी थी, तो सीता को भी ले जाते जंगल और खुद भी चले गए होते।
लेकिन सब कहानियां हैं कि रामराज्य था। दीन थे, दरिद्र थे, दुखी, पीड़ित थे--सब तरह के लोग थे। सब तरह के उपद्रव, सब तरह की जालसाजियां, सब तरह की कूटनीति-राजनीति थी। कब था सुख? अब उससे लोग घबड़ा गए। अतीत का सुख, अतीत के उटोपिआ व्यर्थ हो गए, तो लोगों ने नए ईजाद कर लिए। नए पुराणकार हैं मार्क्स, एंजिल्स, लेनिन, माओ। अब इन्होंने नए पुराण ईजाद कर लिए। ये कहते हैं, भविष्य में होगा।
एक बात तो पक्की है, कोई भी नहीं कहता कि अभी है; क्योंकि अभी कहोगे तो दुनिया में कौन मानेगा, कैसे मानेगा? दुख ही दुख दिखाई पड़ता है। अभी तो दुख ही दुख दिखाई पड़ता है। या तो कहो, कभी था या कभी होगा। अब इसमें कुछ विवाद करना मुश्किल हो जाता है--कभी था, कुछ निर्णायक नहीं हैं। मगर शायद अतीत को तो खंडित भी किया जा सकता है, भविष्य को कैसे खंडित करोगे? इसलिए कम्यूनिज्म और भी चालाक है। वह कहता है: भविष्य में होगा; स्वर्णयुग आता है, आने वाला है। तुम कुर्बान होओ उसके लिए, तो आएगा।
अष्टावक्र कहते हैं, ‘वह कौन काल है, कौन अवस्था है, जिसमें मनुष्य को द्वंद्व न रहा हो? सुख-दुख न रहे हों?’
नहीं, किसी काल की प्रतीक्षा मत करो, किसी स्थिति की प्रतीक्षा मत करो। एक चैतन्य की क्रांति चाहिए। वह क्रांति कैसे घटित होगी?
‘उनकी उपेक्षा कर, यथाप्राप्त वस्तुओं में संतोष करने वाला मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है।’
यथा प्राप्तवर्ती सिद्धिम!
जो मिला है! जो मिला है, उसमें ही बरतने वाला पुरुष मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है।
जो है, उसमें ही बरतो। उससे ज्यादा की चाह मत करो। उससे अन्यथा कभी नहीं हुआ है, कभी नहीं होगा। ऐसा ही रहा है। कथा यही की यही है। युग बदलते हैं, आदमी नहीं बदलता। चीजें बदलती हैं, चैतन्य नहीं बदलता। सब समय में ऐसा ही रहा है। यही वारदातें, यही झंझटें, यही उपद्रव-- कमोबेश--मगर सब ऐसा ही रहा है।
‘कौन सिद्धि को उपलब्ध होता है?’
अष्टावक्र कहते हैं: जो जैसा है, जो मिला है, जो वर्तमान है--यथा प्राप्तवर्ती--जो है, जो मिला है, उसमें जो संतोष मान लेता कि ठीक है।
तो दौड़ पैदा नहीं होती। तो अभीप्सा पैदा नहीं होती, आकांक्षा पैदा नहीं होती, चाह पैदा नहीं होती। संतोष पैदा होता है कि जो है, ठीक है। जो है, इससे अन्यथा हो नहीं सकता, अन्यथा कभी हुआ नहीं, अन्यथा कभी होगा नहीं--इसलिए अन्यथा की चाह नहीं करनी।
‘उनकी उपेक्षा कर, यथाप्राप्त वस्तुओं में संतोष कर लेने वाला मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है।’
‘महर्षियों के, साधुओं के, योगियों के अनेक मत हैं। ऐसा देख कर उपेक्षा को प्राप्त हुआ कौन मनुष्य शांति को नहीं प्राप्त होता है?’
यह भी बड़ी महत्वपूर्ण बात वे कहते हैं।
नाना मतं महर्षीणां...।
महर्षियों के बहुत-से सिद्धांत हैं, दार्शनिकों के बड़े सिद्धांत हैं। अगर उनमें उलझे तो कोई पारावार नहीं है, भटकते ही रहोगे। साधुओं के अनेक सिद्धांत हैं, योगियों के अनेक सिद्धांत हैं। सिद्धांतों की भरमार है। जीवन एक है, जीवन को समझाने वाली दृष्टियां बहुत हैं। और जिसको तुम सुनोगे, वही ठीक लगेगा। जिसको तुम पढ़ोगे, वही ठीक लगेगा। निश्चित ही तुमसे ज्यादा प्रतिभाशाली लोगों ने उनको ईजाद किया है, महर्षियों ने ईजाद किया है, योगियों ने ईजाद किया है। तो उन्होंने जरूर बड़ा तर्कबल भरा है उनमें। तुम उससे प्रभावित हो जाओगे। लेकिन जब तुम दूसरे को सुनोगे, दूसरा ठीक लगने लगेगा। जब तुम तीसरे को सुनोगे, तीसरा ठीक लगने लगेगा। ऐसे तो तुम न घर के रहोगे न घाट के। ऐसे तो तुम दर-दर के भिखारी हो जाओगे।
अष्टावक्र कहते हैं: ऐसा देख कर कि अनेक मत हैं, बुद्धिमान व्यक्ति मतों को ही छोड़ देता है, मतों की झंझट में ही नहीं पड़ता। ऐसा देख कर कि अनेक शास्त्र हैं--कौन ठीक? कुरान कि बाइबिल? वेद कि धम्मपद? कौन सही? कौन गलत? इस झंझट में बुद्धिमान आदमी नहीं पड़ता। इस झंझट में जो पड़ जाते हैं वे कभी इस झंझट के बाहर नहीं आ पाते हैं। उस झंझट का कोई अंत ही नहीं है। उसमें तो एक उलझन में से दूसरी उलझन निकलती चली जाती है। एक प्रश्न का उत्तर हल करो, तो उस उत्तर में से दस नए प्रश्न खड़े हो जाते हैं। चलता ही चला जाता है। अंतहीन श्रृंखला है। उससे कभी कोई बाहर नहीं आ पाता।
नाना मतं महर्षीणां साधुनां योगिनां तथा।
दृष्टव निर्वेदमापन्नः को न शाम्यति मानवः।।
‘ऐसा देखकर कि इस विवाद में क्या सार है? यह कहीं ले जाएगा नहीं...’
दृष्टव निर्वेदमापन्नः को न शाम्यति मानवः।
‘...ऐसा कौन व्यक्ति है जो इतनी-सी बात समझ कर शांत न हो जाए?’
शांत अगर होना है तो सिद्धांतों से बचना। शांत अगर होना है तो मतवादों से बचना। शांत अगर होना हो तो हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध होने से बचना। शांत अगर होना हो तो स्वयं में खोजना, सिद्धांतों में मत भटक जाना।
नाना मतं महर्षीणां...।
और सभी महर्षि हैं, झंझट तो यह है! अगर ऐसे ही होता कि एक आदमी बुरा होता और एक आदमी अच्छा होता, तो अच्छे की हम मान लेते, बुरे की हम छोड़ देते। यहां झंझट बड़ी गहरी है, दोनों अच्छे हैं। किसको पकड़ो, किसको छोड़ो! जीसस की सुनो कि मुहम्मद की? कि महावीर की? सभी अदभुत पुरुष हैं! सभी के व्यक्तित्व में बड़ा चमत्कार है। जब वे कहते हैं तो उनकी बातों में सम्मोहन है। लेकिन उलझना मत।
ऐसा देख कर कि यह तो सिद्धांत और दर्शनशास्त्र का जाल चला ही आ रहा है, कभी समाप्त नहीं हुआ...।
दर्शनशास्त्र से एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिला है, और तर्क से जीवन को हल करने वाला एक आधार नहीं मिला है। और तर्क बड़ा दोगला है। और तर्क से तुम ऐसा भी सिद्ध कर सकते हो और वैसा भी सिद्ध कर सकते हो। तर्क वेश्या जैसा है। तर्क का कुछ लेना-देना नहीं।
मैं एक बड़े वकील हरि सिंह गौर से परिचित था। उन्होंने सागर विश्वविद्यालय का निर्माण किया। वे बड़े वकील थे, सारी दुनिया के ख्यातिलब्ध वकील थे। प्रिवि कौंसिल में एक मुकदमा था। वे किसी महाराजा की तरफ से मुकदमा लड़ रहे थे। वे तो जिसके पक्ष में खड़े हो जाते थे, वह जीतेगा ही--यह निश्चित था। इसलिए वे कुछ ज्यादा फिक्र भी नहीं करते थे।
धीरे-धीरे उनकी प्रतिष्ठा ऐेसी हो गई थी कि वे जिसके पक्ष में हों, वह जीतने ही वाला है। तो विरोधी तो पस्त हो जाते थे। उनका ज्ञान-भंडार भी बहुत था। और उनके पास काम भी बहुत था। एक दिल्ली में दफ्तर था, एक पेकिंग में, एक लंदन में। भागे फिरते थे तीनों जगह। काम भी बहुत था, उलझन भी बहुत थी। रात किसी पार्टी में संलग्न थे और देर से आए और सो गए और देख नहीं पाए फाइल। सुबह अदालत में जाना पड़ा बिना फाइल देखे, तो सीधे खड़े हो गए, भूल गए कि किसके पक्ष में हैं--और विपक्षी के पक्ष में दलील देने लगे।
विपक्षी के पक्ष में उन्होंने घंटे भर तक दलील की। बड़ा सन्नाटा छा गया अदालत में कि यह हो क्या रहा है! मजिस्ट्रेट भी बेचैन, विरोधी वकील भी बेचैन कि यह मामला क्या है? विरोधी भी बेचैन! और उनका जो आदमी था, जिसके पक्ष में वे लड़ रहे थे--किसी महाराजा के--वह तो पसीने-पसीने हो गया कि जब अपना ही वकील यह कह रहा है, तो अब क्या रहा? अब तो कोई उपाय नहीं है। अब तो मारे गए।
आखिर उनके सेक्रेटरी ने हिम्मत जुटाई, उनके पास जा कर कान में कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं? यह तो आपने अपने आदमी को मार डाला। आपने तो बुरी तरह उसे खराब कर दिया। अब तो यह मुकदमा जीतना मुश्किल है।
उन्होंने कहा, क्या मतलब? क्या मैं विरोधी की तरफ से बोल रहा हूं? उन्होंने कहा, घबड़ा मत! उन्होंने टाई-वाई ठीक की और मजिस्ट्रेट से कहा कि महानुभाव, अभी मैंने वे दलीलें दीं जो मेरा विरोधी वकील देगा, अब मैं इनका खंडन शुरू करता हूं।
और खंडन शुरू कर दिया और मुकदमा जीत गए। और बड़ी सुगमता से जीते, क्योंकि अब विरोधी को कुछ कहने को बचा ही नहीं; वह जो कहता और जितनी अच्छी तरह से कह सकता था, उससे भी ज्यादा अच्छी तरह से उन्होंने कह ही दिया था, अब कुछ बचा ही नहीं था कहने को, और उसका खंडन भी कर दिया था।
तर्क की कोई निष्ठा नहीं है। तर्क तो वेश्या है। वह तो किसी के भी साथ खड़ा हो जाता है। जिसमें भी थोड़ी अक्ल हो, तर्क उसी के आसपास नाचने लगता है। उससे तुम चाहो ईश्वर को सिद्ध कर दो, चाहो ईश्वर को असिद्ध कर दो। तुम चाहो आत्मा को सिद्ध कर दो, तुम चाहो आत्मा को असिद्ध कर दो।
अष्टावक्र कहते हैं: बुद्धिमान पुरुष वही है जो तर्क में आस्था नहीं रखता, तर्क का त्याग कर देता है। यह देख कर कि साधुओं के, योगियों के, महर्षियों के बहुत मत हैं, तो एक बात तो सच है कि मतों में सत्य नहीं हो सकता, नहीं तो बहुत मत नहीं होते। सत्य तो मतातीत है। तर्कों में सत्य नहीं हो सकता, नहीं तो तर्क का एक ही निष्कर्ष होता। तो सत्य तो तर्कातीत है।
ऐसा देख कर मतों के प्रति उपेक्षा पैदा हो जाती है। और जो उस उपेक्षा को प्राप्त होता है, वह मनुष्य निश्चित ही शांति को प्राप्त हो जाता है।
‘जो उपेक्षा, समता और युक्ति द्वारा चैतन्य के सच्चे स्वरूप को जान कर संसार से अपने को तारता है, क्या वह गुरु नहीं है?’
यह बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र है। अष्टावक्र कह रहे हैं कि गुरु तेरे भीतर छिपा है। अगर तू उपेक्षा, समता और युक्ति द्वारा चैतन्य के सच्चे स्वरूप को जान ले, तो मिल गया तुझे तेरा गुरु।
कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न किं गुरुः।
क्या यही गुरु नहीं है? समता से, उपेक्षा से, युक्ति द्वारा स्वयं के चैतन्य-स्वरूप को जान लेना--क्या यही गुरु नहीं है? क्या यही जान लेने की घटना पर्याप्त नहीं है?
निर्वेदसमतायुक्त्या यस्तारयति संसृतेः।
बाहर जिसको तुम गुरु की तरह स्वीकार भी करते हो...जनक ने अष्टावक्र को स्वीकार किया है। जनक अष्टावक्र को ले आया है अपने राजमहल में और कहा: गुरुदेव, मुझे समझाएं ज्ञान क्या? मुक्ति क्या? सच्चिदानंद परमात्मा क्या? मुझे समझाएं।
गुरु का यह अंतिम कृत्य है कि वह समझाए कि जो मैंने तुझे समझाया, वह तेरे भीतर ही घट सकता है। गुरु की यह अंतिम कृपा है कि वह शिष्य को गुरु से भी छुटकारा दिला दे। यह आखिरी काम है। जो गुरु यह न करे, वह सदगुरु नहीं। जो गुरु शिष्य को उलझा ले और फिर अपने में ही उलझाए रखे, वह गुरु ही नहीं है। क्योंकि वह फिर इस शिष्य का शोषण कर रहा है। फिर उसकी चेष्टा यही है कि तुम शिष्य ही बने रहो।
लेकिन वास्तविक गुरु तो जल्दी ही जैसे ही तुम्हारे शिष्यत्व का काल पूरा हुआ और बोध का जागरण शुरू हुआ--कहेगा कि अब, अब मेरी तरफ देखने की जरूरत नहीं, अब भीतर देख, अब आंख बंद कर। मैं तो दर्पण था। तब तक मेरी जरूरत थी, जब तक तेरी अपनी आंख साफ न थी। अब तो तू अपनी ही आंख से देख लेगा। मैंने तुझे जो दिखाया वह वही था जो तू भी देख सकता है। मेरी जरूरत पड़ी थी, क्योंकि तू बेहोश था। अब मेरी कोई जरूरत नहीं रही।
‘जो उपेक्षा, समता और युक्ति द्वारा चैतन्य के सच्चे स्वरूप को जान कर अपने को तारता है, क्या वही गुरु नहीं है?’
वही गुरु है! गुरु तो भीतर है। बाहर का गुरु तो केवल प्रतीक-रूप है। जो तुम्हारे भीतर घटना है, वह किसी में घट गया है, बस। लेकिन आत्यंतिक घटना तुम्हारे भीतर घटती है।
बाहर के गुरु से संकेत ले लेना, लेकिन बाहर के गुरु को जंजीर मत बना लेना। बाहर का गुरु तुम्हारा कारागृह बन जाए, इससे सावधान रहना।
जरथुस्त्र का बड़ा बहुमूल्य वचन है। जब जरथुस्त्र अपने शिष्यों को छोड़ कर बाहर जाने लगा, विलीन होने को अपनी अंतिम समाधि में, तो उसने कहा, ‘अब आखिरी सूत्र: जरथुस्त्र से सावधान रहना! आखिरी सूत्र: जरथुस्त्र से सावधान रहना।’ बस, इतना कह कर वह पहाड़ों में चला गया। ‘बिवेयर ऑफ जरथुस्त्रा!’ सब समझाया, आखिर में यह समझाया कि अब मुझसे सावधान रहना, कहीं ऐसा न हो कि तुम मुझसे बंध जाओ! कहीं तुम्हारी आसक्ति मुझ पर न टिक जाए! नहीं तो फिर चूक हो गई।
दर्पण में तुम्हारा चेहरा दिखाई पड़ता है। इससे तुम यह मत समझ लेना कि दर्पण में तुम्हारा चेहरा है, नहीं तो पागल हो जाओगे। फिर दर्पण लिए फिरोगे कि अब दर्पण न ले जाएंगे तो चेहरा घर ही छूट जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन एक धनपति के घर मस्जिद के लिए कुछ दान मांगने गया। जैसे कि धनपति होते हैं, धनपति ने ऐसा खिड़की से झांक कर देखा, देखा कि मुल्ला आया है, जरूर कुछ दान मांगने आया होगा। उसने अपने दरबान को कहा कि कह दो कि वे बाहर गए हैं। मुल्ला ने भी देख लिया था। उस सिर को मुल्ला भी देख चुका था खिड़की से।
दरबान ने कहा कि महानुभाव, आप गलत समय आए, मालिक बाहर गए हैं।
तो मुल्ला ने कहा, कोई हर्जा नहीं, हम फिर आ जाएंगे। मालिक आ जाएं तो हमारी तरफ से मुफ्त एक सलाह उनको दे देना कि बाहर तो जाएं, लेकिन सिर घर न छोड़ कर जाया करें। इसमें कभी खतरा हो सकता है।
अगर तुमने समझा कि दर्पण में तुम्हारा चेहरा है, तो फिर तुम्हें दर्पण को ले कर घूमना पड़ेगा; नहीं तो चेहरा घर छूट जाएगा, बिना चेहरे के तुम जाओगे।
गुरु तो दर्पण है; तुम्हें तुम्हारा चेहरा पहचनवा देता है। लेकिन एक दफा पहचान आनी शुरू हो गई, तो अंततः तो अपने भीतर ही खोजना है।
गुरु तो वही है जो तुम्हें तुम्हारे गुरु से मिला दे। गुरु तो वही है जो तुम्हारे भीतर के सोए गुरु को जगा दे। स्वयं में छिपा है गुरु। बाहर का गुरु तो केवल प्रतिध्वनि है तुम्हारे भीतर के गुरु की।
‘जब भूत-विकारों को, देह, इंद्रिय आदि को यथार्थतः भूत-मात्र देखेगा, उसी क्षण तू बंध से मुक्त हो कर अपने स्वभाव में स्थित होगा।’
पश्य भूतविकारास्त्वं भूतमात्रान्‌ यथार्थतः।
--जो जैसा है, जब तू उसको वैसा ही देखने लगेगा।
तत्क्षणाद् बंध निर्मुक्तः
--उसी क्षण तू बंधन से मुक्त हो जाएगा।
स्वरूपस्थो भविष्यसि
--और अपने स्वभाव में थिर हो जाएगा। पहुंच जाएगा उस आंतरिक केंद्र पर जहां कोई तरंग नहीं पहुंचती।
‘जब भूत-विकारों को, देह, इंद्रिय आदि को यथार्थतः वैसा ही देखेगा, जैसे वे हैं...।’
शरीर को जब तू शरीर की भांति देखेगा। अभी हम देखते हैं: मेरा शरीर, मैं शरीर; मेरा मन, मैं मन। अभी हम चीजों को वैसा देखते हैं जैसी वे नहीं हैं; हम अन्यथा देखते हैं। और हम अन्यथा इसलिए देखते हैं कि अभी हमारी देखने की क्षमता ही साफ नहीं है, बड़ी धूमिल है; कुछ का कुछ दिखाई पड़ता है।
अष्टावक्र कहते हैं: जो जैसा है, उसे वैसा ही देख लेना है। शरीर, शरीर है। मन, मन है। और मैं तो दोनों के पार हूं--जो दोनों को देखता, दोनों को पहचानता।
तुमने कभी खयाल किया? मन में क्रोध आता है, तब भी तो कोई तुम्हारे भीतर देखता है कि क्रोध आ रहा है। तुमने उस भीतर देखने वाले को थोड़ा पहचानने की कोशिश की--कौन देखता है क्रोध आ रहा है? जब क्रोध आता है तो कोई देखता है क्रोध आ रहा है। तुम देखते हो कि शरीर में जहर फैल रहा है, हिंसा की भावना उठ रही है। कौन देखता है? कौन देखता है? कोई अपमान कर देता है तो अपमान हो जाता है; तुम्हारे भीतर कोई देखता है कि मैं अपमानित अनुभव कर रहा हूं। कौन देखता है कि अपमान हो गया?
तुम मुझे सुन रहे हो। मैं यहां बोल रहा हूं, तुम वहां सुन रहे हो--यह बोलने और सुनने के पीछे तुम्हारा साक्षी खड़ा है, जो यह देख रहा है कि तुम सुन रहे हो। और कभी-कभी तुम्हारा साक्षी तुमसे यह भी कहेगा कि तुमने सुना तो, फिर भी सुना नहीं, चूक गए!
तुम एक पन्ना पढ़ते हो किताब का, पूरा पन्ना पढ़ जाते हो--अचानक खयाल आता है कि अरे, पढ़ते तो रहे, लेकिन चूक गए! यह किसको याद आया? पढ़ने के अतिरिक्त भी तुम्हारे पीछे कोई खड़ा है--अंतिम निर्णायक--जो कहता है, फिर से पढ़ो, चूक गए! यह जो अंतिम है तुम्हारे भीतर, यही तुम्हारा स्वरूप है।
‘जो जैसा है उसे वैसा ही देख ले कर उसी क्षण तू बंध से मुक्त हो कर अपने स्वभाव में स्थिर होगा।’
‘वासना ही संसार है। इसलिए वासना को छोड़।’
संसार को नहीं! वासना संसार है, इसलिए वासना को छोड़।
‘वासना के त्याग से संसार का त्याग है। अब जहां चाहे वहां रह।’
बड़े क्रांतिकारी वचन हैं! अब जहां चाहे वहां रह! अब संसार में रहना है, संसार में रह; बाजार में रहना है, बाजार में रह। अब जहां चाहे वहां रह। बस, तेरा साक्षी सुस्पष्ट बना रहे, फिर कुछ और चाहिए नहीं।
वासना एव संसार इति सर्वा विमुञ्च ताः।
तत्त्यागो वासनात्यागात्‌ स्थितिरद्य यथा तथा।।
जैसा है फिर तू, जहां है फिर तू, बिलकुल ठीक है और सुंदर है। कहीं कुछ करने को नहीं है। बस, एक बात जानते रहने को है कि मैं सिर्फ साक्षी-मात्र! अहो चिन्मात्रम्‌!
वासना एव संसारः...।
इस भेद को समझना। लोग तुमसे कहते हैं, वासनाएं छोड़ो तो संसार छूटेगा। लोग तुमसे कहते हैं, वासनाएं छोड़ो तो संसार छूटेगा। वासनाएं नहीं हैं, वासना है। कोई बहुत वासनाएं नहीं हैं; वासना तो एक ही है। वासना तो एक ही वृत्ति है: कुछ होना है, कुछ पाना है। उनके नाम तुम कुछ भी रखो। किसी को धन पाना है, किसी को पद पाना है, किसी को मोक्ष पाना है--वासना तो एक ही है। वासना का अर्थ है: जो मैं हूं, उससे मैं राजी नहीं; कुछ और होना चाहिए, तब मैं राजी होऊंगा। वासना का अर्थ है: जो है, उससे मैं नाराज, और जो नहीं है वह होना चाहिए। जब तुम जो है उससे राजी हो जाओगे, और जो नहीं है उसकी मांग न करोगे--वासना गई।
वासना एव संसारः...!
और वासना ही संसार है!
कुछ हैं जो कहते हैं: संसार छोड़ो, तब वासना छूटेगी। गलत कहते हैं। संसार छोड़ने से कुछ भी न होगा। तुम जंगल में भाग जाओगे, वासना तुम्हारे साथ छाया की तरह लगी रहेगी। तुम मंदिर में बैठ जाओगे वासना तुम्हारा पीछा करेगी; वहीं संसार बन जाएगा। जहां तुम हो, वहां वासना होगी। वासना होगी, वहीं संसार निर्मित हो जाएगा। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
वासना एव संसारः...।
--वासना संसार है, इसलिए वासना छूट जाए!
इति ज्ञात्वा...।
--ऐसा जो जान लेता है।
ताः सर्वा विमुञ्च...।
--वह सबसे मुक्त हो ही गया। उससे सब छूट गया। इस सत्य को पहचान लिया कि वासना ही संसार है, बस इस पहचान में ही सब छूट हो गई।
वासना त्यागात तत्त्यागः...।
--इधर वासना गई, वहां संसार गया।
अद्य यथा तथा स्थिति।
--फिर तेरी जनक, जहां मर्जी हो, वहां रह। फिर जहां चाहे वहां रह।
इस सूत्र को भी खयाल में ले लेना। इसका यह अर्थ हुआ कि फिर जहां पाए अपने को, वहीं ठीक है। फिर जो हो रहा हो, वही ठीक है। महल में पाए तो महल ठीक है, जंगल में पाए तो जंगल ठीक है।
एक फकीर एक सम्राट का मित्र था। सम्राट उस फकीर से बहुत ही प्रभावित था। इतना प्रभावित था कि एक दिन उसने कहा कि प्रभु, मुझसे देखा नहीं जाता कि इस वृक्ष के नीचे धूप, छाया, गर्मी में आप बैठे रहें; राजमहल चलें!
सोचा था सम्राट ने कि जब मैं यह कहूंगा, फकीर कहेगा कि ‘नहीं-नहीं, नहीं-नहीं, राजमहल और मैं? मैं छोड़ चुका संसार!’ ऐसा कहा होता फकीर ने तो सम्राट प्रसन्न हुआ होता। उसके मन में और भी फकीर के प्रति आदर बढ़ा होता। लेकिन फकीर मेरे जैसा रहा होगा। वह उठ कर खड़ा हो गया। उसने कहा, घोड़ा इत्यादि कहां है? सम्राट थोड़ा सकुचाया कि अरे, यह कैसा त्यागी! मगर अब कुछ कह भी न सकता था। ले आया घोड़ा, लेकिन बेमन से लाया। वह तो फकीर चढ़ कर घोड़े पर बैठ गया। उसने कहा कि चलो।
ले आया महल, लेकिन मजा चला गया। क्योंकि मजा तो यही था सम्राट का कि महात्यागी गुरु! यह कैसा त्यागी? अब लेकिन कह भी कुछ नहीं सकता, अपने हाथ से ही फंस गया, बुला लाया। उसको अच्छे से अच्छे कमरे में रखा, जो श्रेष्ठतम, सुंदरतम महल का हिस्सा था। वह वहीं रहने लगा। वह जैसे वृक्ष के नीचे बैठा रहा था, वह सुंदर महल में बैठा रहने लगा।
कुछ दिन बाद सम्राट की बेचैनी बढ़ने लगी। उसने कहा, यह तो बात अजीब हो गई। छह महीने बीत जाने पर उसने कहा कि महाराज एक प्रश्न उठता रहा है।
फकीर ने कहा, इतनी देर क्यों की? प्रश्न तो उसी दिन उठ गया था जब मैंने कहा, घोड़ा ले आओ!
सम्राट डरा। उसने कहा कि आपको पता है?
‘पता कैसे नहीं होगा? क्योंकि तत्क्षण तुम्हारा चेहरा बदल गया था। उसी क्षण मेरा तुमसे संबंध छूट गया, जब मैंने घोड़े से संबंध जोड़ा। उसी क्षण मैं कोई त्यागी नहीं रहा तुम्हारे लिए। बोलो, छह महीने क्यों रुके? इतनी देर क्यों तकलीफ सही? मुझे पता है कि तुम बेचैन हो रहे। क्या है?’
कहा, ‘इतना-सा पूछना है कि अब तो मुझमें और आपमें कुछ भी अंतर नहीं है। अब तो ठीक आप भी मेरे जैसे हैं--महल में रहते हैं, सुख-सुविधा, नौकर-चाकर, अच्छा खाना-पीना! भेद तो तब था, जब आप बैठे थे वृक्ष के नीचे--आप फकीर थे, त्यागी थे, महात्मा थे; मैं राजा था, भोगी था। अब क्या भेद है?’
उस फकीर ने कहा, जानना चाहते हो भेद, तो गांव के बाहर चलो।
राजा ने कहा, ठीक।
दोनों गांव के बाहर गए। फकीर ने कहा, थोड़ी दूर और चलें।
दोपहर हो गई। सम्राट ने कहा, अब बता भी दें, बताना है तो कहीं भी बता दें, अब आधा जंगल आ गया यह।
नहीं, उसने कहा कि थोड़ी दूर और। सूरज अस्त होते ही समझा दूंगा।
सूरज अस्त होने लगा। सम्राट ने कहा, अब...अब बोलें!
उसने कहा कि इतना ही समझाना है कि अब मैं वापिस नहीं जा रहा। तुम जाते हो कि चलते हो?
सम्राट ने कहा, मैं कैसे चल सकता हूं आपके साथ? महल है, पत्नी है, बच्चे हैं, सारी व्यवस्था...। मैं कैसे चल सकता हूं?
फकीर ने कहा, लेकिन मैं जा रहा हूं। फर्क समझ में आया?
सम्राट उसके पैर पर गिर पड़ा। उसने कहा कि नहीं, मुझे छोड़ें मत, मुझसे बड़ी भूल हो गई।
उसने कहा, मैं तो अभी फिर घोड़े पर बैठने को तैयार हूं। लेकिन तुम फिर मुश्किल में पड़ जाओगे। ले आ, घोड़ा कहां है?
जब अष्टावक्र कह रहे हैं तो उनका इशारा यही है: अब जहां चाहे, वहां रह।
अद्य यथा तथा स्थितिः।
फिर जो हो, जैसा हो--ठीक है, स्वीकार है। तथाता! ऐसे तथाता के भाव में जो रहता है, उसी को बौद्धों ने तथागत कहा है।
बुद्ध का एक नाम है: तथागत। तथागत का अर्थ है: जो हवा की तरह आता, हवा की तरह चला जाता; पूरब कि पश्चिम का कोई भेद नहीं, उत्तर कि दक्षिण का कोई भेद नहीं। रेगिस्तानों में बहे हवा कि मरूद्यानों में बहे हवा--कुछ भेद नहीं। जो ऐसा आया और ऐसा गया! तथागत! जिसे सब स्वीकार है!
अद्य यथा तथा स्थितिः।
इस सूत्र को महावाक्य समझो। इस पर खूब-खूब ध्यान करना। इसे धीरे-धीरे तुम्हारे अंतरतम में विराजमान कर लेना। यह तुम्हारे मंदिर का जलता हुआ दीया बने--तो बहुत प्रसाद फलित होगा, बहुत आशीष बरसेंगे!
तुम वही हो सकते हो, जिसको अष्टावक्र ने कहा है: कस्य धन्यस्य अपि! कोई धन्यभागी! तुम वही धन्यभागी हो सकते हो। उसका ही मैंने तुम्हारे लिए द्वार खोला है।

हरि ॐ तत्सत्‌!

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