ASHTAVAKRA

Maha Geeta 22

TwentySecond Discourse from the series of 91 discourses - Maha Geeta by Osho. These discourses were given during SEP 11 - FEB 10 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, कपिल ऋषि के सांख्य-दर्शन, अष्टावक्र की महागीता और कृष्णमूर्ति की देशना में क्या देश-काल अनुसार अभिव्यक्ति का ही भेद है? कृपा करके समझाइये!
सत्य तो कालातीत है, देशातीत है। सत्य का तो देश और काल से कोई संबंध नहीं। सत्य तो शाश्वत है; समय की सीमा के बाहर है। लेकिन अभिव्यक्ति कालातीत नहीं है, देशातीत नहीं है। अभिव्यक्ति समय के भीतर है; सत्य समय के बाहर है। जो जाना जाता है, वह तो समय में नहीं जाना जाता; लेकिन जो कहा जाता है, वह समय में कहा जाता है। जो जाना जाता है, वह तो नितांत एकांत में; वहां तो कोई दूसरा नहीं होता। लेकिन जो कहा जाता है, वह तो दूसरे से ही कहा जाता है।
सत्य की घटना तो घटती है व्यक्ति में; अभिव्यक्ति की घटना घटती है समाज में, समूह में।
तो स्वभावतः, कपिल जिनसे बोले, उनसे बोले। अष्टावक्र ने जिससे कहा, उससे कहा। कृष्णमूर्ति जिससे बोलते हैं, स्वभावतः उससे ही बोलते हैं। भेद अभिव्यक्ति में पड़ेगा। लेकिन जो जाना गया है, वह अभिन्न है।
इसका यह अर्थ मत समझ लेना कि कृष्णमूर्ति अष्टावक्र को दोहरा रहे हैं, या अष्टावक्र कपिल को दोहरा रहे हैं, या कपिल कृष्णमूर्ति को दोहरा रहे हैं। कोई किसी को दोहरा नहीं रहा है। जब तक दोहराना है तब तक सत्य का कोई अनुभव नहीं है। दोहराया गया सत्य, असत्य हो जाता है। जाना हुआ सत्य ही सत्य है। माना हुआ सत्य, असत्य है। प्रत्येक ने स्वयं जाना है।
और जब कोई सत्य को जानता है स्वयं, तो उसे ऐसा जरा भी भाव पैदा नहीं होता कि ऐसा किसी और ने भी जाना होगा। वह घटना इतनी अलौकिक, इतनी अद्वितीय, इतनी मौलिक है कि प्रत्येक व्यक्ति जब जानता है तो ऐसा ही अनुभव करता है: पहली बार, प्रथम बार यह किरण उतरी!
जैसे कि जब कोई व्यक्ति किसी के प्रेम में पड़ता है, तो क्या उसे लगता है यह प्रेम किसी और ने कभी जाना होगा? पृथ्वी पर अनेक प्रेमी हुए, अनंत प्रेमी हुए; लेकिन जब भी प्रेम की किरण उतरती है किसी हृदय में, तो उसे लगता है ऐसा प्रेम बस मैं ही जान रहा हूं। क्योंकि प्रेम पुनरुक्ति नहीं है; तुम किसी से उधार नहीं लेते। जब घटता है तो तुम्हें घटता है। और जब घटता है तो तुम्हें तो पहली बार ही घटता है। दूसरों को घटा, इसका न तो तुम्हें पता हो सकता...। दूसरों को कैसा घटा, इसका कोई अनुभव भी तुम्हें नहीं हो सकता। तुम्हें तो अपना ही अनुभव प्रतीत होता है।
इसलिए सत्य जब भी घटता है तो मौलिक उदघोषणा होती है। इस कारण ही अनुयायी बड़े धोखे में पड़ जाते हैं। अनुयायी भी दावा करने लगते हैं कि जो कपिल ने जाना वह किसी ने नहीं जाना; जो अष्टावक्र ने जाना वह किसी ने नहीं जाना; जो कृष्णमूर्ति कहते हैं वह किसी ने नहीं कहा। यह अनुयायी की भ्रांति है। यही जाना गया है; अन्यथा जानने को कुछ है ही नहीं। और यही कहा गया है। शब्दों के कितने ही भेद हों, सुनने वालों के कितने ही भेद हों--यही जाना गया है, यही कहा गया है!
लेकिन जब भी यह जाना जाता है तो सत्य का यह गुणधर्म है कि उसके साथ-साथ मौलिक होने की स्फुरणा होती है। तुम्हें लगता है, बस पहली दफा! न ऐसा कभी हुआ, न ऐसा फिर कभी होगा।
जब बुद्ध को सत्य का अनुभव हुआ तो उन्होंने उदघोषणा की: अपूर्व! पहले कभी हुआ नहीं, ऐसा मुझे अनुभव हुआ है।
यह उनके संबंध में घोषणा है। लेकिन शिष्यों ने समझा कि अपूर्व! अर्थात किसी को ऐसा नहीं हुआ, जैसा बुद्ध को हुआ है। भ्रांति हो गई। फिर बुद्ध के पीछे चलने वाला दावा करता है कि जो बुद्ध को हुआ वह महावीर को नहीं हुआ। जो बुद्ध को हुआ वह शंकर को नहीं हुआ। जो बुद्ध को हुआ वह अपूर्व है। खुद बुद्ध का वचन है कि जो मुझे हुआ वह अपूर्व है।
लेकिन बुद्ध के वचन का अर्थ बड़ा भिन्न है। बुद्ध सिर्फ अपने अनुभव की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, ऐसा मुझे कभी न हुआ था। यह सुबह पहली बार हुई। यह रात पहली बार टूटी। यह अंधेरा पहली बार हटा है।
अनुत्तर अपूर्व समाधि--बुद्ध ने कहा। लेकिन जब भी किसी को समाधि घटती है, तभी अनुत्तर अपूर्व होती है। उपद्रव होता है सुनने वाले, श्रावक, अनुयायी, पांथिक से। जैसे ही तुम सुनते हो, एक बड़ी अड़चन होती है।
मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं, जब तक मैंने नहीं कहा तब तक सत्य है; जैसे ही मैंने कहा और तुमने सुना, असत्य हुआ। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं वह मेरा अनुभव है। जो तुम सुन रहे हो, वह तुम्हारा अनुभव नहीं। जो मैं कह रहा हूं, वह मेरी प्रतीति है; जो तुम सुन रहे हो, वह ज्यादा से ज्यादा तुम्हारा विश्वास होगा। विश्वास असत्य है। तुम मानोगे; तुमने जाना नहीं। मानने से उपद्रव खड़ा होता है।
फिर, मानने वालों में संघर्ष खड़ा होता है। क्योंकि किसी ने बुद्ध को सुना, किसी ने महावीर को सुना, किसी ने कपिल को, किसी ने अष्टावक्र को, किसी ने कृष्णमूर्ति को। उन्होंने अलग-अलग अभिव्यक्तियां सुनीं। एक ही गीत है, लेकिन हर कंठ से स्वर भिन्न हो जाते हैं।
तुम्हें पता है ध्वनि-शास्त्री क्या कहते हैं? आधुनिक ध्वनि-शास्त्र की बड़ी से बड़ी खोजों में एक खोज यह है कि जैसे तुम्हारे अंगूठे का चिह्न भिन्न होता है, ऐसे प्रत्येक आदमी की आवाज भिन्न होती है। साऊंड-प्रिंट! दो आदमियों की आवाज एक जैसी नहीं होती। इतना वैभिन्य है व्यक्तित्वों का, कि दो आदमियों की आवाज भी एक जैसी नहीं होती। गीत एक ही दोहराओ, राग भिन्न हो जाता है। गीत एक ही दोहराओ, स्वर भिन्न हो जाता है। गीत एक ही दोहराओ, रंग भिन्न हो जाता है।
तो कृष्णमूर्ति जो कहते हैं, उस पर उनकी ध्वनि की छाप है; उनके व्यक्तित्व की छाप है; उनके हस्ताक्षर हैं। कपिल जो कहते हैं, उस पर उनके हस्ताक्षर हैं। इन हस्ताक्षरों में अगर उलझ गए तो संप्रदाय बनेगा, और अगर हस्ताक्षर को हटा कर मूल को देखने की चेष्टा की तो धर्म का जन्म होता है।
सब संप्रदायों के भीतर कहीं धर्म छिपा है। संप्रदाय वस्त्रों की भांति हैं। और जब तक तुम वस्त्रों को अलग न कर दोगे और निर्वस्त्र धर्म को न खोज लोगे, तक तक तुम्हें धर्म का कोई पता नहीं चलेगा। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, जैन--ये सब संप्रदाय हैं। ये अभिव्यक्तियों के भेद हैं। यह एक ही बात को अलग-अलग भाषाओं में कहने के कारण इतनी भिन्नता मालूम होती है। और भाषाएं अनेक हो सकती हैं। सभी धर्म भाषाओं जैसे हैं।
लेकिन मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम इन सभी धर्मों के बीच कोई समन्वय स्थापित करो। उस भ्रांति में मत पड़ना। वह भ्रांति बौद्धिक होगी। अष्टावक्र को पढ़ो, कृष्णमूर्ति को पढ़ो, कपिल को पढ़ो, फिर उनके बीच समानता खोजो और जो-जो मेल खाता लगे उसे इकट्ठा करो और फिर एक सिंथीसिस, एक समन्वय बनाओ--वह सब बुद्धि का जाल होगा। उससे कुछ तुम्हें धर्म का पता न चलेगा। जहां पहले तीन संप्रदाय थे, वहां चार हो जाएंगे बस। एक तुम्हारा संप्रदाय और संयुक्त हो जाएगा।
एक गांव में कुछ लोग झगड़ रहे थे। मुल्ला नसरुद्दीन पास से गुजरता था। तो उसने कहा, भई! झगड़ते क्यों हो? यह निपटारा तो बातचीत से हो सकता है। इतनी तलवारें क्यों खींचे हुए हो? खून, खतरा हो जाएगा, रुको!
उसने गांव के दो-चार पंच इकट्ठे कर दिए और कहा कि आप...तो दोनों पार्टियों ने अपने पांच-पांच पंच चुन लिए...ये निर्णय कर देंगे झगड़े का।
जब शाम को मुल्ला वहां वापिस पहुंचा तो देखा, जहां सुबह थोड़े-से झगड़ने वाले थे वहां और भारी भीड़ है। तलवारें खिंची हैं। उसने कहा, मामला क्या है?
उन्होंने कहा कि अब ये पंच भी लड़ रहे हैं। पहले तो सुबह विवादी थे, वे लड़ रहे थे; अब ये पंच भी लड़ रहे हैं। और तो कोई उपाय नहीं है। किसी ने सलाह दी कि नसरुद्दीन पंचों के लिए भी पंच नियुक्त करो। नसरुद्दीन ने कहा, अब बहुत हो गया। अब मुझे अक्ल आ गई। यह तो सुबह ही निपट लेते तुम, तो बेहतर था; यह तो झगड़ा और बढ़ गया।
जो समन्वयवादी हैं इनसे संप्रदाय समाप्त नहीं होते। जहां तीन संप्रदाय होते हैं, वहां इन तीन की जगह यह चार, चौथा समन्वय: अल्लाह ईश्वर तेरे नाम! चौथा खड़ा हो जाता है। उसके अपने दावे शुरू हो जाते हैं। समन्वय का उसका दावा हो जाता है।
तुमने देखा, महावीर के साथ ऐसा हुआ! महावीर ने कहा कि सभी सत्य की अभिव्यक्तियां सत्य हैं, आंशिक सत्य हैं; कोई अभिव्यक्ति पूर्ण सत्य नहीं है। इसलिए महावीर ने एक सिद्धांत को जन्म दिया--स्यादवाद। स्यादवाद का अर्थ होता है: मैं भी ठीक हूं, तुम भी ठीक हो, वह भी ठीक है। कुछ न कुछ तो ठीक सभी में है। इसलिए हम क्यों झगड़ें? स्यादवाद का अर्थ है: सभी के भीतर सत्य के अंश की स्वीकृति, ताकि विवाद न हो, व्यर्थ का झगड़ा न हो। लेकिन परिणाम क्या हुआ? स्यादवाद का अलग एक झगड़ा खड़ा हो गया।
एक जैन मुनि से मैं बात कर रहा था। मैंने उनसे कहा कि आप मुझे संक्षिप्त में कहिए कि स्यादवाद का अर्थ क्या है? उन्होंने कहा, स्यादवाद का अर्थ है कि कोई भी पूर्ण सत्य नहीं है; सभी सत्य आंशिक हैं। सभी में सत्य है थोड़ा-थोड़ा। हम सभी के सत्य को देखते हैं; हम विवादी नहीं हैं; हम संवादी हैं। मैंने थोड़ी देर इधर-उधर की बात की, और मैंने पूछा कि मैं आपसे एक बात पूछता हूं: स्यादवाद पूर्ण सत्य है या नहीं? उन्होंने कहा, बिलकुल पूर्ण सत्य है।
अब यह स्यादवाद पूर्ण सत्य है! अब अगर इसको कोई कहे कि यह आंशिक सत्य है, यह भी आंशिक सत्य है, तो झगड़ा खड़ा हो जायेगा। सब आंशिक सत्य हैं, लेकिन जो मैं कह रहा हूं वह पूर्ण सत्य है--यही तो झगड़ा था। इसी झगड़े को हल करने को स्यादवाद खोजा गया। अब स्यादवाद भी झगड़ा करने वालों में एक हिस्सा हो गया, एक पार्टी। वह भी एक विवाद है। वह भी एक संप्रदाय है।
अगर स्यादवाद समझा गया होता तो जैनों का कोई संप्रदाय होना नहीं चाहिए, क्योंकि स्यादवाद के आधार पर संप्रदाय खड़ा नहीं हो सकता। स्यादवाद का अर्थ ही यह है कि सभी में सत्य है और किसी में पूर्ण सत्य नहीं है; इसलिए संप्रदाय खड़े करने की कोई जगह नहीं है। संप्रदाय का तो मतलब ही यह होता है कि सत्य यहां है, वहां नहीं है। स्यादवाद ने तो संप्रदाय की जड़ काटी थी। लेकिन जैनों का एक संप्रदाय खड़ा है, जो अब स्यादवाद की रक्षा करता है।
इन तीनों के बीच तुमसे मैं समन्वय खोजने को नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे यही कह रहा हूं कि अगर तुम ध्यान की गहराइयों में गए, तुम साक्षी-भाव को उपलब्ध हुए तो अचानक तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि इस साक्षी के शिखर पर बैठ कर पता चलता है: सभी मार्ग इसी पहाड़ के शिखर की तरफ आते हैं। उन मार्गों के प्रारंभ होने के बिंदु कितने ही भिन्न हों, उनकी अंतिम पूर्णाहुति एक ही शिखर पर होती है। सभी मार्ग वहीं आ जाते हैं जहां साक्षी-भाव है। कैसे तुम आते हो, यह तुम्हारी मर्जी है--बैलगाड़ी पर, घोड़े पर, पैदल, हवाई जहाज पर, टे्रन पर, मोटर, बस में...। कैसे तुम आते हो, यह तुम्हारी मर्जी है। अगर जरा भी समझदारी हो तो इसमें कोई झगड़ा करने की जरूरत नहीं--कोई घोड़े पर आ रहा है, कोई बैलगाड़ी पर आ रहा है, अपनी-अपनी मौज। कोई मस्जिद से आ रहा है, कोई मंदिर से आ रहा है, कोई प्रार्थना करके आ रहा है, कोई ध्यान करके आ रहा है, कोई नाच कर, कोई चुप बैठकर। लेकिन अगर साक्षी-भाव जग रहा है, अगर तुम्हारे भीतर जागरूकता की किरण फूट रही है, प्रभात हो रहा है, होश गहन हो रहा है--अब तुम बेहोशी से नहीं जीते, होश से जीने लगे हो और तुम्हारे जीवन में करुणा और प्रेम की छाया आने लगी है; तुम्हारे जीवन से क्रोध और हिंसा विसर्जित होने लगे हैं।
बस दो बातें जानने की हैं। वे दो बातें भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भीतर ध्यान घटता है तो बाहर प्रेम घटता है। बाहर प्रेम घटता है तो भीतर ध्यान अनिवार्य रूप से घटता है। अगर प्रार्थना करो तो प्रेम घटेगा और ध्यान उसके पीछे आएगा। अगर ध्यान करो तो ध्यान घटेगा और प्रार्थना उसके पीछे से आएगी। तुम दो में से कोई एक साध लो, दूसरा अपने-आप सध जाता है।
साक्षी में पहुंच कर ही तुम्हें सारे जगत के सत्यों के बीच समन्वय की प्रतीति होगी। उस अनुभव की तरफ मेरा इशारा है। इसे तुम बौद्धिक समन्वय बनाने की कोशिश मत करना।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कल कहा कि सभी साधनाएं गोरखधंधा हैं। लेकिन साथ ही आप अपने संन्यासियों के लिए ध्यान करना अनिवार्य कर रखे हैं। इससे मन दुविधा में पड़ता है। ध्यान नहीं करने से लगता है कुछ चूक हो रही है और करने पर मन कहता है कि समय तो नहीं गंवा रहे हो? कृपापूर्वक मार्गदर्शन करें।
निश्चित ही सभी अनुष्ठान गोरखधंधे हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि तुम अनुष्ठान करना मत। जैसे कि मैं तुमसे कहूं, नाव पर सवार हो जाओ, लेकिन उस पार जा कर उतर जाना। तुम कहो कि आप तो दुविधा में डाल रहे हैं: एक हाथ से तो कहते हैं, सवार हो जाओ और तत्क्षण कहते हैं, उतर जाना। अगर उतरना ही है तो हम नाव पर चढ़ें ही क्यों? और अगर चढ़ ही गए तो फिर उतरें क्यों? यह तो आप दुविधा में डालते हैं; चढ़ने को भी कहते हैं, उतरने को भी कहते हैं।
लेकिन इसमें दुविधा है। नाव पर चढ़ना होगा और नाव से उतरना भी होगा।
दुनिया में दो तरह के पागल हैं। वे बड़े तार्किक हैं। तर्क बड़ा विक्षिप्त होता है। ठीक है तर्क यह।
मैंने सुना है कि कुछ लोग तीर्थ-यात्रा को जा रहे हैं--हरिद्वार। और ट्रेन पर बड़ी भीड़-भड़क्का है। और एक आदमी बड़ी कोशिश कर रहा है, लेकिन चढ़ नहीं पा रहा। किसी ने ऐसे ही मजाक में उससे कहा कि अरे, इतने क्यों मरे जा रहे हो चढ़ने के लिए, आखिर उतरना पड़ेगा! तो वह आदमी रहा होगा बड़ा विचारक, वह उतर ही गया। उसने चढ़ने की कोशिश छोड़ दी। उसके साथी जो अंदर चढ़ गये थे, उन्होंने कहा कि भई, तू खड़ा क्यों है, गाड़ी छूटने को हो रही है, चढ़! उसने कहा कि तुम्हें पता नहीं, उतरना पड़ेगा। जब उतरना ही है तो चढ़ने के लिए इतनी धक्कम-धक्की क्या करनी? समझ गये, यहीं उतर गये।
वे घबड़ाए, क्योंकि गाड़ी छूटी जा रही है। और उस आदमी को साथ ले आये हैं, कहां उसे छोड़ जाएं? उनमें से कुछ उतरे और जबर्दस्ती उसे चढ़ाया। वह चिल्लाता-चीखता रहा। उसने कहा, यह कर क्या रहे हो? जब उतरना ही है तो हम क्यों इस मुसीबत में फंसें?
पर उन्होंने उसकी कोई फिक्र नहीं की। उन्होंने कहा, विवाद पीछे कर लेंगे, पहले तू चढ़! अब तुझे हम कहां छोड़ जायें यहां अनजान जगह में?
कहीं गांव से आते थे। खैर किसी तरह उसको चढ़ा लिया। बड़ी मुश्किल वह चढ़ा। एक तो वैसे ही भीड़ थी और वह चढ़ने में झगड़ा खड़ा कर रहा था। वह उतर जाना चाहता था। चढ़ गया। फिर हरिद्वार आ गया। अब उतारने की झंझट खड़ी हुई। वह उतरता नहीं। वह कहता है, जब चढ़ ही गये, जब एक दफा चढ़ ही गये तो अब क्या उतरना बार-बार? अब फिर चढ़ने की झंझट होगी। इसलिए हम चढ़े ही रहेंगे। अब हमें तुम यहीं छोड़ दो, तुम जाओ।
अब उसको वे जबर्दस्ती उतार रहे हैं। वह आदमी चिल्ला रहा है कि तुम कैसे असंगत हो? क्षण भर पहले चढ़ाते, क्षण भर बाद उतारते--असंगति तो देखो! तुम मुझे दुविधा में डाल रहे हो। तुम मुझे सीधा सार-सूत्र कह दो कि या चढ़ना या उतरना, तो हम निपटा लें। हम वही हो जाएं।
तुम जिंदगी को इतना तर्क से अगर चले तो बड़ी बुरी तरह चूकोगे। अगर तुम चढ़ोगे ही नहीं तो तीर्थ नहीं पहुंचोगे। और अगर चढ़े ही रह गए तो भी तीर्थ नहीं पहुंचोगे।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि ध्यान भी करना और एक दिन स्मरण रखना कि ध्यान भी छोड़ देना है। दोनों बातें तुमसे कहता हूं। तुम तो चाहोगे कि कोई एक कहूं तो तुम्हें सुविधा हो जाए। तुम सुविधा की फिक्र कर रहे हो; तुम साधना की फिक्र नहीं कर रहे हो। तुम सुविधा खोज रहे हो। तुम क्रांति नहीं खोज रहे हो।
तो सुविधाओं में दो उपाय हैं। या तो मैं तुमसे कहूं कि करो ही मत। जैसे कृष्णमूर्ति कहते हैं-- उनकी बात सीधी-साफ है--ध्यान करने की कोई जरूरत नहीं। जिनको ध्यान नहीं करना है वे उनके पास इकट्ठे हो गए हैं; यद्यपि उन्हें कुछ भी नहीं हुआ।
मेरे पास आते हैं लोग। वे कहते हैं, हम कृष्णमूर्ति को सुनते-सुनते थक गए। हमें बात भी समझ में आ गई कि ध्यान इत्यादि में कुछ भी नहीं है, मगर हमें कुछ हुआ भी नहीं है। कुछ हुआ भी नहीं है और समझ में भी आ गया है कि ध्यान इत्यादि में कुछ भी नहीं है।
ये इसी पार रह गए, नाव पर न चढ़े। फिर दूसरी तरफ महेश योगी या उन जैसे लोग हैं, जो कहते हैं: ‘ध्यान, ध्यान, ध्यान! करो!’ और फिर कभी नहीं कहते कि इसे छोड़ना है। तो कुछ लोग हैं जो बस जप रहे हैं: राम, राम, राम, राम। राम-राम जपते ही चले जाते हैं। जिंदगी गुजर गई। वे भी मेरे पास आ जाते हैं। वे कहते हैं, राम-राम जपते हम थक गए, अब कब तक जपते रहें? और ध्यान तो छोड़ा नहीं जा सकता। ध्यान तो धर्म की विधि है।
तुम मेरी स्थिति को समझने की कोशिश करो। मैं तुमसे कहता हूं, ध्यान शुरू करो। नहीं तो खतरा है कि तुम कृष्णमूर्ति जैसी आखिरी बात सुन कर बैठ गए। यह बात सही है, नाव छोड़ देनी है--मगर उस किनारे, इस किनारे नहीं। और कृष्णमूर्ति ने नाव छोड़ी, इसलिए तुमसे कह रहे हैं कि छोड़ दो नाव। लेकिन यह उस किनारे की बात है, इस किनारे की बात नहीं है। इस किनारे छोड़ दी तो तुम कभी उस किनारे न पहुंचोगे। तुमने कृष्णमूर्ति को नाव से उतरते देखा है, यह सच है; तुम मत उतर जाना, क्योंकि तुम इस किनारे ही हो। तुम अगर उतर गए तो भटक जाओगे। और तुमने महेश योगी को चढ़ते देखा नाव पर, यह भी सच है। अब चढ़े ही मत रह जाना। क्योंकि दूसरा किनारा आ जाए तो उतरने का खयाल रखना।
मैं तुम्हें जब ये विरोधाभासी बातें कहता हूं कि ध्यान करो और ध्यान छोड़ो भी, तो ये दो किनारों की बातें हैं। इस किनारे से शुरू करो, उस किनारे पर छोड़ देना। अगर मैं कहूं सिर्फ ध्यान करो, तो एक खतरा पैदा होगा, जब छोड़ने की बात आएगी, तुम छोड़ न सकोगे। अगर मैं सिर्फ इतना ही कहूं कि छोड़ दो, तो तुम करोगे ही नहीं, छोड़ने की संभावना का सवाल ही नहीं; करोगे ही नहीं तो छोड़ोगे क्या खाक?
मैं तुमसे कहता हूं: कमाओ और दान कर दो! कमाने में भी मजा है, फिर दान करने में तो बहुत मजा है। ध्यान में बहुत रस है; फिर ध्यान के छोड़ने में तो महारस है।
दुविधा में पड़ने की तुम्हें जरूरत नहीं। सीधी-साफ बात है। मैं सभी विरोधों का उपयोग करना चाहता हूं। तुम चाहते हो अविरोधी वक्तव्य, जिसमें तुम्हें अड़चन न हो; तुम लकीर के फकीर बन जाओ और चल पड़ो। तुम लकीर के फकीर बनने को इतने आतुर हो कि बस तुम्हें एक झंडा पकड़ा दिया जाए, बस तुम चलते रहोगे।
निश्चित ही मेरी बात में विरोधाभास है, क्योंकि सारा जीवन विरोधाभास से निर्मित है। जन्म होता है, मृत्यु होती है--यह विरोधाभास है। तुम जीवन से नहीं कहते: यह क्या मामला है? तुम परमात्मा से कभी खड़े हो कर शिकायत नहीं करते कि यह क्या मामला है? अगर जन्म दिया तो मारते क्यों हो फिर? और अगर मारना ही है तो जन्म देना ही बंद कर दो।
तुम कहो तो भी परमात्मा तुम्हारी सुनेगा नहीं। कई लोगों ने कई बार कहा भी है। लेकिन परमात्मा जन्म देता है, मृत्यु देता है। एक हाथ से जन्म देता है, दूसरे हाथ से जन्म वापिस ले लेता है। यहां रात होती, दिन होता। यहां गर्मी आती, सर्दी आती। यहां मौसम बदलते रहते। यही तो जीवन की रसमयता है। यहां विरोध का मिलन है। अगर इकहरा होता जीवन तो इसमें रस न होता, इसमें समृद्धि न होती। यहां विपरीत संघात मिल कर अपूर्व संगीत का जन्म होता है। यहां जन्म और मृत्यु के बीच जीवन का खेल चलता है, जीवन का रास रसा जाता है
वही मैं तुमसे कह रहा हूं: ध्यान करो भी और ध्यान रखना कि छोड़ना है। एक दिन छोड़ना है। विधि का एक दिन विसर्जन कर देना है।
तुमने देखा, हिंदू इस संबंध में बड़े कुशल हैं। गणेश जी बना लिए मिट्टी के, पूजा इत्यादि कर ली--जा कर समुद्र में समा आए। दुनिया का कोई धर्म इतना हिम्मतवर नहीं है। अगर मंदिर में मूर्ति रख ली तो फिर सिराने की बात ही नहीं उठती। फिर वे कहते हैं अब इसकी पूजा जारी रहेगी। हिंदुओं की हिम्मत देखते हो! पहले बना लेते हैं, मिट्टी के गणेश जी बना लिए। मिट्टी के बना कर उन्होंने भगवान का आरोपण कर लिया। नाच-कूद, गीत, प्रार्थना-पूजा सब हो गई। फिर अब वह कहते हैं, अब चलो महाराज, अब हमें दूसरे काम भी करने हैं! अब आप समुद्र में विश्राम करो, फिर अगले साल उठा लेंगे।
यह हिम्मत देखते हो? इसका अर्थ क्या होता है? इसका बड़ा सांकेतिक अर्थ है: अनुष्ठान का उपयोग कर लो और समुद्र में सिरा दो। विधि का उपयोग कर लो, फिर विधि से बंधे मत रह जाओ। जहां हर चीज आती है, जाती है, वहां भगवान को भी बना लो, मिटा दो। जो भगवान तुम्हारे साथ करता है वही तुम भगवान के साथ करो--यही सज्जन का धर्म है। वह तुम्हें बनाता, मिटा देता। उसकी कला तुम भी सीखो। तुम उसे बना लो, उसे विसर्जित कर दो।
जब बनाते हिंदू, तो कितने भाव से! दूसरे धर्मों के लोगों को बड़ी हैरानी होती है। कितने भाव से बनाते, कैसा रंगते, मूर्ति को कितना सुंदर बनाते, कितना खर्च करते! महीनों मेहनत करते हैं। जब मूर्ति बन जाती, तो कितने भाव से पूजा करते, फूल-अर्चन, भजन, कीर्तन! मगर अदभुत लोग हैं! फिर आ गया उनका विसर्जन का दिन। फिर वे चले बैंड-बाजा बजाते, तो भी नाचते जाते हैं। जन्म भी नृत्य है, मृत्यु भी नृत्य होना चाहिए। चले परमात्मा को सिरा देने! जन्म कर लिया था, मृत्यु का वक्त आ गया।
इस जगत में जो भी चीज बनती है वह मिटती है। और इस जगत में हर चीज का उपयोग कर लेना है और किसी चीज से बंधे नहीं रह जाना है--परमात्मा से भी बंधे नहीं रह जाना है। मैं नहीं कहता कि हिंदुओं को ठीक-ठीक बोध है कि वे क्या कर रहे हैं। लेकिन जिन्होंने शुरू की होगी यात्रा उनको जरूर बोध रहा होगा। लोग भूल गये होंगे। अब उन्हें कुछ भी पता न हो कि वे क्या कर रहे हैं। मूर्च्छा में कर रहे होंगे। पुरानी परंपरा है कि बनाया, विसर्जन कर रहे होंगे; लेकिन उसका सार तो समझो। सार इतना ही है कि विधि उपयोग कर ली। फिर विधि से बंधे नहीं रह जाना है। अनुष्ठान पूरा हो गया, विसर्जन कर दिया।
वही मैं तुमसे कहता हूं: नाचो, कूदो, ध्यान करो, पूजा, प्रार्थना--इसमें उलझे मत रह जाना। यह पथ है, मार्ग है; मंजिल नहीं। जब मंजिल आ जाए तो तुम यह मत कहना कि ‘मैं इतना पुराना यात्री, अब मार्ग को छोड़ दूं? छोड़ो! इतने दिन जन्मों-जन्मों तक मार्ग पर चला, अब आज मंजिल आ गई, तो मार्ग को धोखा दे दूं? दगाबाज, गद्दार हो जाऊं? जिस मार्ग से इतना साथ रहा और जिस मार्ग ने यहां तक पहुंचा दिया, उसको छोड़ दूं? मंजिल छोड़ सकता हूं, मार्ग नहीं छोड़ सकता।’ तब तुम समझोगे कि कैसी मूढ़ता की स्थिति हो जाएगी। इसी मंजिल को पाने के लिए मार्ग पर चले थे; मार्ग से नाता-रिश्ता बनाया था--वह टूटने को ही था।
मार्ग की सफलता ही यही है कि एक दिन घड़ी आ जाए जब मार्ग छोड़ देना पड़े।
ध्यान के जो परम सूत्र हैं, उनमें एक सूत्र यह भी है कि जब ध्यान छोड़ने की घड़ी आ जाये तो ध्यान पूरा हुआ। जब तक ध्यान छूट न सके, तब तक जानना अभी कच्चा है, अभी पका नहीं। जब फल पक जाता है तो वृक्ष से गिर जाता है। और जब ध्यान का फल पक जाता है, तब ध्यान का फल भी गिर जाता है। जब ध्यान का फल गिर जाता है तब समाधि फलित होती है।
पतंजलि ने ध्यान की प्रक्रिया को तीन हिस्सों में बांटा है: धारणा, ध्यान, समाधि। धारणा छोटी-सी पगडंडी है, जो तुम्हें राजपथ से जोड़ देती है। तुम जहां हो वहां से राजपथ नहीं गुजरता। एक छोटी-सी पगडंडी है, जो राजपथ से जोड़ती है। मार्ग, जो राजमार्ग से जोड़ देता है--धारणा। फिर राजमार्ग-- ध्यान। फिर राजमार्ग मंजिल से जोड़ देता है--मंदिर से, अंतिम गंतव्य से। धारणा छूट जाती है जब ध्यान शुरू होता है। ध्यान छूट जाता जब समाधि आ जाती है।
इसलिए ध्यान करना--उतने ही भाव से जैसे गणेश को हिंदू निर्मित करते हैं, उतने ही अहोभाव से! ऐसा मन में खयाल मत रखना कि ‘इसे छोड़ना है तो क्या...तो क्या रंगना? कैसे भी बना लिया, क्या फिक्र करनी कि सुंदर है कि असुंदर है, कोई भी रंग पोत दिए, चेहरा जंचता है कि नहीं जंचता, आंख उभरी कि नहीं उभरी, नाक बनी कि नहीं--क्या करना है? अभी चार दिन बाद तो इसे विदा कर देना होगा, तो कैसे ही बना-बनू कर पूजा कर लो।’ नहीं, तो फिर पूजा हुई ही नहीं। तो छोड़ने की घड़ी आएगी ही नहीं। जब बने ही नहीं गणेश तो विसर्जन कैसे होगा?
तो जब ध्यान करो, तब ऐसे करना जैसे सारा जीवन दांव पर लगा है। तब ही उस महाघड़ी का आगमन होगा, वह महासौभाग्य का क्षण आएगा--जब तुम पाओगे अब विसर्जन का समय आ गया; अब ध्यान को भी छोड़ दें; अब ध्यान से भी ऊपर उठ जाएं; अब समाधि; अब समाधान; अब मंजिल।
तो मैं तुमसे यह विरोधाभास कहता हूं कि जो ध्यान को समग्रता से करेंगे वे ही एक दिन ध्यान को समग्रता से छोड़ पाएंगे। और जिन्होंने ऐसे-ऐसे किया, कुनकुने-कुनकुने किया, और कभी उबले नहीं और भाप न बने, उनकी कभी छोड़ने की घड़ी न आएगी। वे इसी किनारे अटके रह जाएंगे।
जैन शास्त्रों में एक कथा है। एक साधु स्नान कर रहा है। और वह देख रहा है कि एक आदमी आया, वह नाव में बैठा, पतवार चलाई; लेकिन कुछ हैरान है। वह साधु हंसने लगा। उस आदमी ने पूछा कि मेरे भाई, तुम्हें शायद पता हो, मामला क्या है? यह नाव चलती क्यों नहीं?
उस साधु ने कहा कि सज्जन पुरुष, महाशय! नाव किनारे से बंधी है। पतवार चलाने से कुछ भी न होगा। पहले खूंटी से रस्सी तो खोल लो!
वे पतवार चला रहे हैं, तेजी से चला रहे हैं! यह सोच कर कि शायद धीमे-धीमे चलाने से नाव नहीं चल रही है, तो और तेजी से चलाओ। पसीने-पसीने हुए जा रहे हैं। लेकिन नाव किनारे से बंधी है। उसे छोड़ा नहीं गया। नाव चलाने के पहले किनारे से छोड़ लेना जरूरी है।
तो अगर, तुमने आधे-आधे मन से ध्यान किया तो नाव किनारे से छूटेगी ही नहीं। तो तुम उस किनारे कभी पहुंचोगे ही नहीं। उतरने की घड़ी कभी आएगी ही नहीं।
अष्टावक्र ने जनक को कहा कि सब अनुष्ठान बंधन हैं। बिलकुल ठीक कहा। लेकिन तुम यह याद रखना कि यह नाव उस किनारे पहुंच गई है, तब कहे गए वचन हैं। इसलिए मैंने इसको महागीता कहा। कृष्ण की गीता को मैं सिर्फ गीता कहता हूं; अष्टावक्र की गीता को महागीता। क्योंकि कृष्ण की गीता अर्जुन से कही गई है--इस किनारे पर। वह नाव पर सवार ही नहीं हो रहा है। वह भाग-भाग खड़ा हो रहा है। वह कह रहा है, ‘मुझे संन्यास लेना है। मैं नाव पर नहीं चढ़ता। क्या सार है? मुझे जाने दो।’ वह भाग रहा है। वह कहता है, ‘मेरे गात शिथिल हो गए। मेरा गांडीव ढीला हो गया। मैं नहीं चढ़ना चाहता।’ वह रथ पर बैठा है, सुस्त हो गया है। वह कहता है, नाव पर मुझे चढ़ना ही नहीं। कृष्ण उसे पकड़-पकड़ कर, समझा-समझा कर नाव पर बिठाते हैं। कृष्ण की गीता सिर्फ गीता है; इस किनारे अर्जुन को नाव पर बिठा देना है। अष्टावक्र की गीता महागीता है। यह उस किनारे की बात है। ये जनक उस किनारे हैं, लेकिन नाव से उतरने को शायद तैयार नहीं; या नाव में बैठे रह गए हैं। बहुत दिनों तक नाव में यात्रा की है, नाव में ही घर बना लिया है।
अष्टावक्र कहते हैं: उतर आओ। सब अनुष्ठान बंधन हैं, अनुष्ठान छोड़ो!
कृष्ण कहते हैं: उतरो संघर्ष में, भागो मत ! सब परमात्मा पर छोड़ दो। वह जो करवाए, करो। तुम निमित्त-मात्र हो जाओ। इस नाव में चढ़ना ही होगा। यही तुम्हारी नियति, तुम्हारा भाग्य है।
अगर अर्जुन नाव में चढ़ जाए--चढ़ ही गया कृष्ण की बात मान कर--तो खतरा है, वह भी बड़ा तर्कनिष्ठ व्यक्ति था। एक दिन उसको फिर अष्टावक्र की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि वह उस किनारे जा कर उतरेगा नहीं। जितना विवाद उसने चढ़ने में किया था, उससे कम विवाद वह उतरने में नहीं करेगा, शायद ज्यादा ही करे। क्योंकि वह कहेगा, कृष्ण चढ़ा गए हैं। अब उतरना एक तरह की गद्दारी होगी। यह तो अपने गुरु के साथ धोखा होगा। बामुश्किल तो मैं चढ़ा था, अब तुम उतारने आ गए? मैं तो पहले ही कह रहा था कि मुझे चढ़ना नहीं है। यह भी क्या खेल है?
और अष्टावक्र कहते हैं, सब अनुष्ठान बंधन हैं। ध्यान बंधन है, धारणा बंधन है, योग बंधन है, पूजा-प्रार्थना बंधन है--सब बंधन हैं।
कृष्ण की गीता उसके लिए है जो अभी अ ब स सीख रहा है अध्यात्म का। अष्टावक्र की गीता उसके लिए है जिसके सब पाठ पूरे हो गए, दीक्षांत का समय आ गया। कृष्ण की गीता दीक्षारंभ है। अष्टावक्र की गीता दीक्षांत-प्रवचन है। इन दोनों गीताओं के बीच में सारी यात्रा पूरी हो जाती है। एक चढ़ा देती है अनुष्ठानों में, एक उतार लेती है अनुष्ठानों से। एक बताती है गणेश को कैसे निर्मित करो, कैसे भाव-भक्ति से, कैसे रंग भरो; एक बताती है, कैसे नाचते, गीत गुनगुनाते विसर्जित करो।
ऐसा जन्म और मृत्यु के बीच जीवन है, ऐसे ही नाव में चढ़ने और नाव से उतरने के बीच परमात्मा का अनुभव है।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, जब मैं आपका प्रवचन सुनता हूं तो न जाने क्यों उसके प्रेम-संगीत में खो जाता हूं। मुझे लगता है कि आप सितार बजा रहे हैं और मैं तबला बजा रहा हूं। कभी लगता है कि मैं तानपूरा बजा रहा हूं और आप तान लगा रहे हैं। भगवान, मुझे यह क्या हो गया है? कृपा कर मुझे थामें!
थामें? धक्का देंगे! ऐसी शुभ घड़ी आ गई, तुम कहते हो, कृपाकर थामें? यही तो मैं चाहता हूं कि सभी को हो, जो तुम्हें हुआ है।
यह जो मैं कह रहा हूं, यह शब्द नहीं, संगीत ही है। और इसे अगर तुम सुनना चाहते हो तो सुनने की जो श्रेष्ठतम व्यवस्था है वह यही कि तुम भी मेरे संगीत में सहभागी हो जाओ। मेरी इस लय में तुम भी तानपूरा तो बजाओ कम से कम। तुम ऐसे दूर-दूर खड़े न रह जाओ। तुम इस आर्केस्ट्रा के अंग बन जाओ, तभी तुम समझ पाओगे।
शुभ हो रहा है, सौभाग्य की घटना घट रही है। तुम डरो मत। दो तबले पर ताल! बजाओ तानपूरा! साथ मेरे गाओ, साथ मेरे नाचो। इसी नृत्य में तुम खो जाओगे। इसी खोने से तुम्हारा वास्तविक होना शुरू होगा। इसी नृत्य में तुम विसर्जित हो जाओगे; तुम्हारी सीमाएं असीम में डूब जाएंगी। अचानक तुम पहली दफा जागोगे और पाओगे कि तुम कौन हो! इसी खो जाने में नींद टूटेगी, जागरण होगा।
और तुम कहते हो, प्रभु, थामें! समझ रहा हूं तुम्हारी अड़चन भी, तुम्हारे प्रश्न को भी समझ रहा हूं। क्योंकि जब कोई ऐसा डूबने लगता, तो घबड़ाहट स्वाभाविक होती है कि यह क्या हो रहा? कहीं मैं पागल तो नहीं हुआ जा रहा? यहां कैसी वीणा और कैसा तबला?
पूछने में भी तुम डरे होओगे। प्रश्न को मैंने कहा तो बहुत लोग हंसे भी। उनको भी लगा, यह क्या पागलपन है? तुमको भी लगा होगा, क्या पागलपन है? यह मैं कर क्या रहा हूं? यहां सुनने आया हूं कि तबला बजाने? और यह कैसा तानपूरा मैंने साध लिया। यह कैसी कल्पना में मैं उलझा जा रहा हूं, यह कोई सम्मोहन तो नहीं? यह कोई मन की विक्षिप्तता तो नहीं? यह कैसी लहर मुझमें उठी?
मत घबड़ाओ, यही लहर तुम्हें ले जाएगी उस पार। यही लहर नाव बनेगी। इसी लहर पर चढ़ने को कह रहा हूं। चढ़ जाओ इस लहर पर। इस लहर को चूको मत। यह लहर डुबाए तो डूब जाओ। यह उबारे तो उबरो, डुबाए तो डूबो। इस लहर के साथ अपना तादात्म्य कर लो। इस लहर से लड़ो मत। इसके विपरीत तैरो मत। इससे बचने की चेष्टा मत करो।
तब बुला जाता मुझे उस पार जो
दूर के संगीत-सा वह कौन है?
जो तुम्हें बुला रहा है, वह अभी दूर का संगीत है। तुम उसके साथ अगर तानपूरा बजाने लगे, वह करीब आने लगेगा।
तब बुला जाता मुझे उस पार जो
दूर के संगीत-सा वह कौन है?
अभी दूर है संगीत। सहभागी बनो।
एक तो सुनने का ढंग होता है कि सुन रहे हैं--तटस्थ भाव से; जैसे कुछ लेना-देना नहीं। सुन रहे हैं--एक निष्क्रिय अवस्था में मुर्दे की तरह। कान हैं तो सुन रहे हैं। एक तो निष्क्रिय सुनना है। और एक सक्रिय सुनना है--प्रफुल्लित, आनंदमग्न, नाचते हुए, सहयोग करते हुए; जैसे मैं नहीं बोल रहा हूं, तुम्हीं बोल रहे हो; जैसे तुम्हारा ही भविष्य बोल रहा है; जैसे तुम्हारे ही भीतर छिपी हुई संभावना बोल रही है। मैं तुम्हारी ही गुनगुनाहट हूं। जो गीत तुम अभी गाए नहीं और गाना है, उसी की तरफ थोड़े-से पाठ तुम्हें दे रहा हूं।
अभी जो तुम्हें लगेगा तानपूरा है, बजाते-बजाते वही तुम्हारी वीणा हो जाएगी। अभी तुम मेरे साथ बजाओगे, धीरे-धीरे तुम पाओगे तुम और मैं का फासला तो समाप्त हो गया; न तो मैं हूं, न तुम हो--परमात्मा बजा रहा है। और तब तुम इस योग्य हो जाओगे कि कोई तुम्हारे पास आए तो वह अपना तानपूरा बजाने लगे।
प्राणों के अंतिम पाहुन!

चांदनी धुला अंजन-सा
विद्युत मुस्कान बिछाता
सुरभित समीर पंखों से
उड़ जो नभ में घिर आता
वह वारिद तुम आना बन!

ज्यों श्रांत पथिक पर रजनी
छाया-सी आ मुस्काती
भारी पलकों में धीरे
निद्रा का मधु खुलकाती
त्यों करना तुम बेसुध जीवन!

अज्ञात लोक से छिप-छिप
ज्यों उतर रश्मियां आतीं
मधु पीकर प्यास बुझाने
फूलों के उर खुलवातीं
छिप आना तुम छाया तन!
आने दो मुझे, तुम्हारे भीतर आने दो। थामने की बात ही मत उठाओ। तुम्हें मदमस्त होना है। तुम्हें शराबी बनना है। तुम्हें डोलना है किसी मदिरा में। थामने की बात ही मत उठाओ।
तुम्हारा डर मैं समझता हूं--कि यह क्या हो रहा है? कहीं मैं अपना होश तो न खो दूंगा? कहीं मैं बेसुध तो न हो जाऊंगा?
ज्यों श्रांत पथिक पर रजनी
छाया-सी आ मुस्काती
भारी पलकों में धीरे
निद्रा का मधु खुलकाती
त्यों करना तुम बेसुध जीवन!
यही अब तुम्हारी प्रार्थना हो:
त्यों करना तुम बेसुध जीवन!
तुम मुझसे कहो कि जल्दी करो! तुम मुझसे कहो कि अब ऐसा भय मुझे न रहे कि मैं कुछ थाम कर रुक जाऊं। तुम मुझसे कहो कि अब मुझे डुबाओ, मुझे बेसुध करो। क्योंकि तुमने जिसे अब तक सुध समझी है वह तो बेसुधि थी। तुमने जिसे अब तक होश समझा है वह तो बेहोशी थी। और तुम जिसे अब तक जागरण समझते थे वह सपनों से ज्यादा नहीं था। वह बड़ी गहन अंधेरी रात और नींद थी।
अब यह जो बेसुधि मैं तुम्हें देना चाहता हूं, जो बेहोशी तुम्हें पिलाना चाहता हूं--यह होश का आगमन है। यह तुम्हें बेहोशी लगती है, क्योंकि तुम जिसे अब तक होश समझे थे, यह उससे विपरीत है। यह मदिरा ऐसी है जो होश लाती है।
अज्ञात लोक से छिप-छिप
ज्यों उतर रश्मियां आतीं
मधु पीकर प्यास बुझाने
फूलों के उर खुलवातीं
छिप आना तुम छाया तन!
तुम मुझे आने दो। तुमने जो कहा है: थामें! उसका अर्थ हुआ कि तुम भयभीत हो गये हो। उसका अर्थ हुआ, अगर मैं तुम्हारे द्वार पर दस्तक दूंगा तो तुम द्वार न खोलोगे। उसका अर्थ हुआ कि तुम मुझे पास देख कर द्वार बंद कर लोगे। उसका अर्थ हुआ कि तुम पागलपन से घबड़ा रहे हो।
लेकिन ध्यान रखना, धर्म एक अनूठा पागलपन है--ऐसा पागलपन जो बुद्धिमानों की बुद्धियों से बहुत ज्यादा बुद्धिमान है; ऐसा पागलपन जो साधारण बुद्धि से बहुत पार और अतीत है; ऐसा पागलपन जो परमात्मा के निकट ले जाता है।
दुनिया में दो तरह के लोग पागल हो जाते हैं: एक तो वे, जो बुद्धि से नीचे गिर जाते हैं; और एक वे जो बुद्धि के पार निकल जाते हैं।
इसलिए आश्चर्य की बात नहीं है कि मनस्विद संतों को पागलों के साथ ही गिनते हैं--दोनों को एबनार्मल...। मनोविज्ञान की किताबों में तुम संतों के लिए और पागलों के लिए अलग-अलग विभाजन न पाओगे। उनके हिसाब से दो ही तरह के आदमी हैं--नार्मल, एबनार्मल; साधारण और रुग्ण। साधारण तुम हो। रुग्ण दो तरह के लोग हैं--फिर वे किसी ढंग के रुग्ण हों; चाहे धार्मिक रुग्ण हों, चाहे अधार्मिक हों; चाहे नास्तिक, चाहे आस्तिक--लेकिन एबनार्मल हैं।
अभी भी जीसस पर किताबें लिखी जाती हैं पश्चिम में, जिनमें दावा किया जाता है कि जीसस पागल थे, न्यूरोटिक थे। अभी हिंदुस्तान में मनोविज्ञान का उतना प्रभाव नहीं है, इसलिए बुद्ध और महावीर, अष्टावक्र अभी बचे हैं। लेकिन ज्यादा दिन यह बात चलेगी नहीं। जल्दी ही हिंदुस्तान के मनोवैज्ञानिक भी हिस्मत जुटा लेंगे। अभी उनकी इतनी हिम्मत भी नहीं है; लेकिन जल्दी हिम्मत जुटा लेंगे। जो जीसस के खिलाफ लिखा जा रहा है, वह किसी न किसी दिन महावीर के खिलाफ लिखा जाएगा। और तुम पक्का समझो कि जीसस को पागल सिद्ध करने के लिए उतने प्रमाण नहीं हैं, जिससे ज्यादा प्रमाण महावीर को पागल सिद्ध करने के लिए मिल जाएंगे।
तुमने देखा, महावीर नग्न खड़े हैं! कम से कम जीसस कपड़े तो पहने हैं। अब यह तो पागलपन है। तुमने देखा, महावीर अपने बालों को लोंच कर उखाड़ते हैं! पागलों का एक खास समूह होता है जो अपने बाल लोंच कर उखाड़ता है। तुमने पागलों को देखा होगा, तुमने कभी खुद भी देखा होगा, जब तुम पर कभी पागलपन चढ़ता है, तो तुम कहते हो, बाल लोंच लेने का मन होता है। कहावत है कि बाल लोंच लेने का मन होता है। स्त्रियों को गुस्सा आ जाता है तो बाल लोंच लेती हैं--किसी पागलपन के क्षण में! बहुत पागल हैं पागलखानों में जो अपने बाल लोंच लेते हैं। महावीर अपने बाल लोंच लेते थे। केश लुंच।
तुम्हारे पास एक गाली है--नंगा-लुच्चा। वह सबसे पहले महावीर को दी गई थी। क्योंकि वे नंगे थे और बाल लोंचते थे। नंगा-लुच्चा! अगर महावीर में खोजना हो पागलपन तो पूरा मिल जाएगा।
लेकिन मनोवैज्ञानिक अभी कुछ भी नहीं जानते हैं। जो उनका विभाजन है, अज्ञानमय है। यह भी हो सकता है कि एक आदमी शराब के नशे में चल रहा हो रास्ते पर--डांवांडोल, डगमगाता; और कोई किसी के प्रेम में मदमस्त हो कर चल रहा हो; और कोई किसी प्रार्थना में डोल रहा हो। तीनों राह पर डांवांडोल चल रहे हों, पैर जगह पर न पड़ते हों, समाए न समाते हों, भीतर की खुशी ऐसी बही जा रही हो--पीछे से तुम तीनों को देखो तो तीनों लगेंगे कि शराबी हैं। क्योंकि जैसा शराबी डांवांडोल हो रहा है, वैसी ही मीरा भी डांवांडोल हो रही है, वैसे ही चैतन्य भी डांवांडोल हो रहे हैं। जैसे शराबी गीत गुनगुना रहा है, वैसी मीरा भी गीत गुनगुना रही है। पीछे से तुम देखोगे तो तुम्हें दोनों एक जैसे लगेंगे। लेकिन कहां मीरा और कहां शराबी! कहां चैतन्य और कहां शराबी! शराबी ने बुद्धि गंवा दी शराब पी कर। मीरा ने भी बुद्धि गंवा दी।
मीरा कहती है, सब लोक-लाज खोई। कोई और बड़ी शराब पी ली! अंगूरों से बनती है जो शराब, वही तो शराब नहीं। एक और भी शराब है, जो प्रभु-प्रेम से बनती है। वह पी ली। वह भी मदमस्त है।
लेकिन मीरा रुग्ण नहीं है। अगर मीरा रुग्ण है तो फिर तुम्हारे स्वास्थ्य की परिभाषाएं गलत हैं। क्योंकि मीरा जैसी मस्त और आनंदित है...स्वास्थ्य का लक्षण ही मस्ती और आनंद होना चाहिए। साधारण, जिसको मनोवैज्ञानिक कहते हैं नार्मल, वह तो बड़ा अशांत, बेचैन, परेशान, दुखी दिखाई पड़ता है। यह कोई स्वास्थ्य की परिभाषा हुई? ये चिंताग्रस्त लोग, दुखी लोग, परेशान लोग, जिनके जीवन में कभी कोई फूल नहीं खिला, कोई सरगम नहीं फूटा, कोई रसधार नहीं बही--ये स्वस्थ लोग हैं? अगर यही स्वस्थ लोग हैं तो समझदार लोग तो मीरा का पागलपन चुनेंगे। वह चुनने योग्य है। पागलपन सही, नाम से क्या फर्क पड़ता है? गुलाब को तुम क्या नाम देते हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? गुलाब तो गुलाब है। गुलाब तो गुलाब ही रहेगा; तुम गेंदा कहो, इससे क्या फर्क पड़ता है?
तुम महावीर को पागल कहो, इससे क्या फर्क पड़ता है? या परमहंस कहो, इससे क्या फर्क पड़ता है? महावीर महावीर हैं।
यह तुम खयाल में लेना। घबड़ा मत जाना।
मेरे पास अगर तुम हो, तो निश्चित ही किसी शराब के पिलाने का आयोजन चल रहा है। यह मधुशाला है। इसे मंदिर कहने से बेहतर मधुशाला ही कहना उचित है। यहां मैं चाहता हूं कि तुम डोलो, नाचो! यहां तुम किसी गहरी मस्ती में उतरो! नया आयाम खुले!
दूर दिल से सब कदूरत हो गई है
जीस्त कितनी खूबसूरत हो गई है!
थोड़ा पीओ मुझे!
दूर दिल से सब कदूरत हो गई है
सब चिंता, फिक्र, बेचैनी, अशांति, सब दूर हो जाएगी!
जीस्त कितनी खूबसूरत हो गई है!
और जिंदगी बड़ी खूबसूरत हो जाएगी। एक-एक फूल में हजार-हजार फूल खिलते दिखाई पड़ेंगे।
इस कदर सतही है दुनिया की मसर्रत
दिल को फिर गम की जरूरत हो गई है।
और जब तुम जिंदगी के असली आनंद को जानोगे तो तुम चकित हो जाओगे। तुम पाओगे इस दुनिया के सुख से तो परमात्मा को, परमात्मा के विरह में, परमात्मा के बिछोह में पैदा होने वाला दुख बेहतर है। इस दुनिया के सुखों से तो परमात्मा के बिछोह में रोना बेहतर है। इस दुनिया की मुस्कुराहटों से तो परमात्मा के लिए बहे आंसू बेहतर हैं।
इस कदर सतही है दुनिया की मसर्रत
दिल को फिर गम की जरूरत हो गई है।
यूं बसी है मुझमें तेरी याद साजन
मेरे मन-मंदिर की मूरत हो गई है।
तेरी याद ने दिल को चमका दिया,
तेरे प्यार से यह सभा सज गई है।
जबां पर न आया कोई और नाम,
तेरा नाम ही रात-दिन भज गई है।
मेरे दिल में शहनाई-सी बज गई है।
इस शहनाई को बजने दो। इस इकतारे को बजने दो। इस तानपूरे को बजने दो। उठने दो तबले पर धुन। नाचो, गाओ, गुनगुनाओ!
मेरी दृष्टि में, धर्म वही है जो नाचता हुआ है। और दुनिया को एक नाचते हुए परमात्मा की जरूरत है। उदास परमात्मा काम नहीं आया। उदास परमात्मा सच्चा सिद्ध नहीं हुआ। क्योंकि आदमी वैसे ही उदास था, और उदास परमात्मा को ले कर बैठ गया। उदास परमात्मा तो लगता है उदास आदमी की ईजाद है, असली परमात्मा नहीं। नाचता, हंसता परमात्मा चाहिए! और जो धर्म हंसी न दे और जो धर्म खुशी न दे और जो धर्म तुम्हारे जीवन को मुस्कुराहटों से न भर दे, उत्सव से न भर दे, उत्साह से न भर दे--वह धर्म, धर्म नहीं है, आत्महत्या है। उससे राजी मत होना। वह धर्म बूढ़ों का धर्म है या मुर्दों का धर्म है--जिनके जीवन की धारा बह गई है और सब सूख गया है। धर्म तो जवान चाहिए! धर्म तो युवा चाहिए! धर्म तो छोटे बच्चों जैसा पुलकता, फुदकता, नाचता, आश्चर्य-भरा चाहिए!
तो मैं यहां तुम्हें उदास और लंबे चेहरे सिखाने को नहीं हूं। और मैं नहीं चाहता कि तुम यहां बड़े गंभीर हो कर जीवन को लेने लगो। गंभीरता ही तो तुम्हारी छाती पर पत्थर हो गई है। गंभीरता रोग है। हटाओ गंभीरता के पत्थर को।
वह पत्थर सरक रहा है और तानपूरा बजने को है, और तुम कहते हो थामो! तुम कहते हो, थामो मुझे! कहो कि धक्का दो! कहो कि ऐसा धक्का दो कि मैं तो मिट ही जाऊं, तानपूरा ही बजता रहे।

चौथा प्रश्न:
जिंदगी देने वाले, सुन! तेरी दुनिया से जी भर गया मेरा जीना यहां मुश्किल हो गया। रात कटती नहीं, दिन गुजरता नहीं, जख्म ऐसा दिया जो भरता नहीं। आंख वीरान है, दिल परेशान है, गम का सामान है जिंदगी देने वाले सुन! तेरी दुनिया से जी भर गया।
अगर जी सचमुच भर गया है, अगर सच में ही दुनिया से जी भर गया है तो उसका परिणाम उदासी नहीं है। उसका परिणाम निराशा भी नहीं है। उसका परिणाम तो एक अपूर्व उत्फुल्लता का जन्म है। जिसका जीवन से जी भर गया--अर्थ हुआ कि उसने जान लिया कि जीवन व्यर्थ है। अब कैसी निराशा? निराशा के लिए तो आशा चाहिए। इसे समझने की कोशिश करो।
जब तक तुम्हारे जीवन में आशा है कि कुछ मिलेगा जिंदगी से, कुछ मिलेगा--तब तक जिंदगी तुम्हें निराश करेगी, क्योंकि मिलने वाला कुछ भी नहीं है। जिस दिन तुम्हारी आशा छूट गई, उसी दिन निराशा भी छूट गई। लोग सोचते हैं: जब आशा छूट जाएगी तो हम बिलकुल निराश हो जाएंगे। आशा छूट गई, फिर तो निराश होने का उपाय ही नहीं। क्योंकि आशा, निराशा साथ ही विदा हो जाते हैं। आशा की छाया है निराशा। जितनी तुम आशा करोगे उतनी निराशा पलेगी। उतने ही तुम हारोगे। जीतना चाहा तो ही हार सकते हो।
लाओत्सु कहता है: मुझे कोई हरा नहीं सकता क्योंकि मैं जीतना चाहता ही नहीं। कैसे हराओगे उस आदमी को जो जीतना चाहता ही नहीं। लाओत्सु कहता है मैं हारा ही हुआ हूं, मुझे तुम हराओगे कैसे?
जिस आदमी को जीतने की आकांक्षा है, वह हारेगा--और जितनी ज्यादा आकांक्षा है, उतना ज्यादा हारेगा। जो आदमी धनी होना चाहता है वह निर्धन रहेगा--और जितना ज्यादा धनी होना चाहता है उतना निर्धन रहेगा। क्योंकि उसकी धन की अपेक्षा कभी भी भर नहीं सकती। जितना मिलेगा वह छोटा मालूम पड़ेगा, ओछा मालूम पड़ेगा। उसकी आकांक्षा का पात्र तो बड़ा है। उस पात्र में सभी जो मिलेगा, खो जाएगा।
इस सूत्र को खयाल में लेना: तुम्हारी आशा निराशा की जन्मदात्री है। तुम्हारी आकांक्षा तुम्हारी विफलता का सूत्र-आधार है। तुम्हारी मांग तुम्हारे जीवन का विषाद है।
अगर सच में ही जीवन से जी भर गया...। लगता नहीं।
‘जिंदगी देने वाले सुन
तेरी दुनिया से जी भर गया।’
अभी भरा नहीं। थक गए होओगे। आशाएं पूरी नहीं हुईं, लेकिन आशाएं समाप्त नहीं हो गई हैं। जिसको तुम जीवन से जी भर जाना कहते हो, वह विषाद की अवस्था है। तुम जो चाहते थे वह नहीं हुआ, इसलिए ऊब गए हो। लेकिन अगर अभी परमात्मा कहे कि हो सकता है, तुम फिर दौड़ पड़ोगे। अगर कोई तुम्हें फिर से कह दे कि दौड़ जाओ, अभी मिल जाएगा, बस पास ही है--तुम फिर चल पड़ोगे; फिर आशा का दीया जलने लगेगा।
यह तुम्हारी हार है, समझ नहीं। यह तुम्हारी पराजय है, लेकिन बोध नहीं। और पराजय को बोध मत समझ लेना। पराजित आदमी बैठ जाता है थक कर; लेकिन गहरे में तो अभी भी सोचता रहता है: मिल जाता शायद, कुछ और उपाय कर लेता! शायद कोई और ढंग होगा खोजने का! मैंने शायद गलत ढंग से खोजा, ठीक न खोजा। या मैंने पूरी ताकत न लगाई खोजने में!
तुम कितनी ही ताकत लगाओ, संसार में हार सुनिश्चित है। संसार में जीत होती नहीं।
मैंने सुना है, एक महिला एक दुकान पर बच्चों के खिलौने खरीद रही है। एक खिलौने को वह जमाने की कोशिश कर रही है, जो टुकड़े-टुकड़े में है और जमाया जाता है। उसने बहुत कोशिश की, उसके पति ने भी बहुत कोशिश की; लेकिन वह जमता ही नहीं। आखिर उसने दुकानदार से पूछा कि सुनो, पांच साल के बच्चे के लिए हम यह खिलौने खरीद रहे हैं; न मैं इसको जमा पाती हूं, न मेरे पति जमा पाते हैं। मेरे पति गणित के प्रोफेसर हैं। अब और कौन इसको जमा पाएगा? मेरा पांच साल का बच्चा इसको कैसे जमाएगा?
उस दुकानदार ने कहा, सुनें, परेशान न हों। यह खिलौना जमाने के लिए बनाया ही नहीं गया। यह तो बच्चे के लिए एक शिक्षण है कि दुनिया भी ऐसी ही है; कितना ही जमाओ, यह जमती नहीं। यह तो बच्चा अभी से सीख ले जीवन का एक सत्य...। इसको जमाने की कोशिश करेगा बच्चा, हजार कोशिश करेगा; मगर यह जमाने के लिए बनाया ही नहीं गया, यह जम सकता ही नहीं। इसमें तुम चूकते ही जाओगे। इसमें हार निश्चित है।
संसार एक प्रशिक्षण है। यह जमने को है नहीं। यह कभी जमा नहीं। यह सिकंदर से नहीं जमा। यह नेपोलियन से नहीं जमा। यह तुमसे भी जमने वाला नहीं है। यह किसी से कभी नहीं जमा। अगर यह जम ही जाता तो बुद्ध, महावीर छोड़ कर न हट जाते; उन्होंने जमा लिया होता। बुद्ध-महावीरों से नहीं जमा, तुमसे नहीं जमेगा। यह जमने को है ही नहीं। यह बनाया ही इस ढंग से गया है कि इसमें हार सुनिश्चित है, विषाद निश्चित है।
यह जागने को बनाया गया है कि तुम देख-देख कर, हार-हार कर जागो। एक दिन, जिस दिन तुम जाग जाओगे, तुम्हें यह समझ आ जाएगी कि यह जमता ही नहीं--नहीं कि मेरे उपाय में कोई कमी है; नहीं कि मैंने मेहनत कम की; नहीं कि मैं बुद्धिमान पूरा न था; नहीं कि मैं थोड़ा कम दौड़ा, अगर थोड़ा और दौड़ता तो पहुंच जाता। जिस दिन तुम समझोगे यह जमने को बना ही नहीं, उस दिन विषाद मिट जाएगा। उस दिन सब भीतर की पराजय, हार, सब खो जाएगी। उस दिन तुम खिलखिला कर हंसोगे। तुम कहोगे, यह भी खूब मजाक रही!
इस मजाक को जान कर ही हिंदुओं ने जगत को लीला कहा। खूब खेल रहा! इस संसार से तुम जब तक अपेक्षा रखे हो, तब तक बेचैनी है।
ऐ दिले-मर्ग-आशनां खत का जवाब सुन लिया?
और तू बेकरार हो! और तू इंतजार कर!
--बैठे हैं, बड़ी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि प्रेयसी का पत्र आता होगा।
ऐ दिले-मर्ग-आशनां!
--ऐ प्रेयसी पर मिटे हुए दिल।
ऐ दिले-मर्ग-आशनां खत का जवाब सुन लिया?
और तू बेकरार हो! और तू इंतजार कर!
अब जागो, बहुत हो चुका इंतजार! देखो, यहां कुछ मिलने को है नहीं। खेल है, खेल की तरह खेल लो। इसमें भटक मत जाओ। इसको अति गंभीरता से मत लो।
और तुम तो ऐसे पागल हो कि फिल्म देखने जाते हो, उसी को गंभीरता से ले लेते हो। देखा, फिल्म में किसी की हत्या हो जाती है, अनेक आहें निकल जाती हैं! पागल हो गए हो? कुछ तो होश रखो! लोगों के रूमाल अगर तुम फिल्म के बाद पकड़ कर एक-एक के देखो तो गीले पाओगे। आंसू बह जाते हैं, पोंछ लेते हैं अपने आंसू जल्दी से, रूमाल छिपा लेते हैं। अच्छा है वह तो अंधेरा रहता है सिनेमागृह में, तो कोई देख नहीं पाता। पत्नी भी बगल में रो रही है, पति भी रो रहे हैं। दोनों पोंछ कर अपना...। मगर दोनों को यह समझ में नहीं आ रहा कि पर्दे पर कुछ भी नहीं है। धूप-छांव! लेकिन वह भी प्रभावित कर जाती है। उससे भी तुम बड़े आंदोलित हो जाते हो। प्रतीक प्रभावित कर जाते हैं। शब्द प्रभावित कर जाते हैं।
तो स्वाभाविक है कि यह जीवन जो चारों तरफ फैला है, इतना विराट मंच, इसमें अगर तुम भटक जाओ तो कुछ आश्चर्य नहीं! तुम होश में नहीं हो, तुम मूर्च्छित हो।
‘जिंदगी देने वाले सुन
तेरी दुनिया से जी भर गया,
मेरा जीना यहां मुश्किल हो गया।’
मुश्किल? इसका मतलब है कि अभी भी अपेक्षा बनी है; नहीं तो क्या मुश्किल है? मुश्किल का मतलब है: अभी भी तुम चाहते हो कुछ सुविधा हो जाती, कुछ सफलता मिल जाती, कुछ तो राहत दे देते। एकदम हार ही हार तो मत दिलाए चले जाओ। कुछ बहाना तो, कुछ निमित्त तो रहे जीने का।
‘रात कटती नहीं, दिन गुजरता नहीं
जख्म ऐसा दिया, जो भरता नहीं।’
फिर से गौर से देखो। क्योंकि जानने वालों ने तो कहा कि जगत माया है, इससे जख्म तो हो ही नहीं सकता। यह तो ऐसा ही है--अष्टावक्र बार-बार कहते हैं--जैसे रज्जू में सर्प। जैसे कोई आदमी अंधेरे में देख कर रस्सी और भाग खड़ा हो कि सांप है; भागने में पसीना-पसीना हो जाए, छाती धड़कने लगे, हृदय का दौरा पड़ने लगे--और कोई दीया ले आए और कहे कि पागल, जरा देख भी तो, वहां न कुछ भागने को है, न कुछ भयभीत होने को है! रस्सी पड़ी है।
मेरे गांव में एक कबीरपंथी साधु थे। वे यह रज्जू में सर्प का उदाहरण सदा देते। छोटा-सा था, तब से उन्हें सुनता था। जब भी उनको सुनने जाता तो यह उदाहरण तो रहता ही। यह बड़ा प्राचीन, भारत का उदाहरण है। आखिर एक दफा मुझे सूझी कि यह आदमी इतना कहता है कि संसार तो रज्जू में सर्पवत, जरा इसकी परीक्षा भी कर ली जाए।
तो वे रोज मेरे घर के सामने से रात को निकलते थे। उनका मकान मेरे घर के पीछे, नाले को पार करके था, तो एक रस्सी में एक पतला धागा बांध कर मैं अपने घर में बैठ गया। रस्सी को दूसरी तरफ सड़क के किनारे नाली में डाल दिया। जब वे निकले अपना डंडा इत्यादि लिए हुए, तो मैंने धीरे से वह धागा खींचना शुरू किया। मैं दूसरी तरफ बैठा हूं, इसलिए उस...।
और जब रस्सी उन्होंने देखी सरकती हुई, तो वे ऐसे भागे, ऐसी चीख-पुकार मचा दी कि मैं एक खाट के पीछे छिपा था, उनकी चीख-पुकार में खाट गिर गई, मैं पकड़ा गया। बहुत डांट पड़ी कि यह...यह बात ठीक नहीं है, एक बूढ़े आदमी के साथ ऐसा मजाक करना! पर मैंने कहा, यह मजाक उन्होंने सुझाया है। मैं थक गया सुनते-सुनते--रज्जू में सर्पवत, रज्जू में सर्पवत! तो मैंने सोचा कि कम से कम ये तो न घबड़ाएंगे; ये तो पहचान लेंगे कि रस्सी है। ये भी चूक गए तो औरों का क्या कहना?
यह संसार प्रतीत होता, भासमान होता। और भासमान ऐसा होता है कि लगता है सच है। लेकिन तुम एक दिन नहीं थे और एक दिन फिर नहीं हो जाओगे। यह जो बीच का थोड़ी देर का खेल है, यह एक दिन सपने जैसा विलीन जाएगा। पीछे लौट कर देखो, तुम तीस साल जी लिए, चालीस साल जी लिए, पचास साल जी लिए--ये जो पचास साल तुम जीये, आज क्या तुम पक्का निर्णय कर सकते हो कि सपने में देखे थे पचास साल या असली जीये थे? अब तो सिर्फ स्मृति रह गई। स्मृति तो सपने की भी रह जाती है। आज तुम्हारे पास क्या उपाय है यह जांच करने का कि जो पचास साल मैंने जीए, ये वस्तुतः मैं जीया था। वस्तुतः या एक सपने में देखी कथा है? बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। बड़ा चित्त बेचैन हो जाएगा अगर सोचने बैठोगे। अगर इस पर ध्यान करोगे तो बड़े बेचैन, पसीने-पसीने हो जाओगे। क्योंकि तुम पकड़ न पाओगे सूत्र कि यह कैसे सिद्ध करें कि जो मैंने, सोचता हूं कि देखा, वह सच में देखा था, या केवल एक मृग-मरीचिका थी?
मरते वक्त जब मौत तुम्हारे द्वार पर खड़ी हो जाएगी और मौत का अंधकार तुम्हें घेरने लगेगा, क्या तुम्हें याद न आएगी कि जो मैं साठ, सत्तर, अस्सी साल जीवन जीया, वह था? तुम कैसे तय करोगे कि वह था? मृत्यु सब पोंछ जाएगी। कितने लोग इस जमीन पर रहे, कितने लोग इस जमीन पर गुजर गए, आए और गए--उनका आज कोई भी तो पता-ठिकाना नहीं है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि तुम जिस जगह बैठे हो वहां कम से कम दस आदमियों की लाशें गड़ी हैं। इतने लोग इस जमीन पर मर चुके हैं। इंच-इंच जमीन कब्र है। तुम यह मत सोचना कि कब्र गांव के बाहर है। जहां गांव है वहां कभी कब्र थी, कभी कब्रिस्तान था, मरघट था। जहां अब मरघट है, वहां कभी गांव था। सब चीजें बदलती रही हैं। कितने करोड़ों वर्षों में! जमीन का एक-एक इंच आदमी की लाशों से पटा है। हर इंच पर दस लाशें पटी हैं। तुम जहां बैठे हो, वहां दस मुर्दे नीचे गड़े हैं। तुम भी धीरे से ग्यारहवें हो जाओगे, उन्हीं में सरक जाओगे।
फिर इस सब दौड़-धूप का, इस आकांक्षा-अभिलाषा का, इस महत्वाकांक्षा का क्या अर्थ है? क्या सार है? इस सत्य को देख कर जो जागता, फिर वह ऐसा नहीं कहता कि ‘रात कटती नहीं, दिन गुजरता नहीं।’ फिर वह ऐसा नहीं कहता कि ‘जख्म ऐसा दिया जो भरता नहीं। आंख वीरान है, दिल परेशान है, गम का सामान है।’ यह तो सब आशा-अपेक्षा की ही छायाएं हैं। इनसे कोई धार्मिक नहीं होता। और इनके कारण जो आदमी धार्मिक हो जाता है, वह धर्म के नाम पर संसार की ही मांग जारी रखता है। वह मंदिर में भी जाएगा तो वही मांगेगा जो संसार में नहीं मिला है! उसका स्वर्ग उन्हीं चीजों की पूर्ति होगी जो संसार में नहीं मिल पायी हैं; उनकी आकांक्षा वहां पूरी कर लेगा। इसलिए तो स्वर्ग में हमने कल्पवृक्ष लगा रखे हैं; उनके नीचे बैठ गए, सब पूरा हो जाता है।
मैंने सुना, एक आदमी भूले-भटके कल्पवृक्ष के नीचे पहुंच गया। उसे पता नहीं था कि यह कल्पवृक्ष है। वह उसके नीचे बैठा, बड़ा थका था। उसने कहा, ‘बड़ा थका-मांदा हूं। ऐसे में कहीं कोई भोजन दे देता। मगर कहीं कोई दिखाई पड़ता ही नहीं।’ ऐसा उसका सोचना ही था कि अचानक भोजन के थाल प्रगट हुए। वह इतना भूखा था कि उसने ध्यान भी न दिया कि कहां से आ रहे हैं? क्या हो रहा है? भूखा आदमी, मर रहा था। उसने भोजन कर लिया। भोजन करके उसने सोचा, बड़ी अजीब बात है। मगर दुनिया है, यहां सब होता है, हर चीज होती है। इस वक्त तो अब चिंता करने का समय भी नहीं, पेट खूब भर गया है। उसने डट कर खा लिया है। जरूरत से ज्यादा खा लिया, तो नींद आ रही है। तो वह सोचने लगा कि एक बिस्तर होता तो मजे से सो जाते। सोचना था कि एक बिस्तर लग गया। जरा सा शक तो उठा मगर उसने सोचा, ‘अभी कोई समय है! अभी तो सो लो, देखेंगे। अभी तो बहुत जिंदगी पड़ी है, जल्दी क्या है, सोच लेंगे।’ सो भी गया। जब उठा सो कर, अब जरा निश्चिंत था। अब उसने देखा चारों तरफ कि मामला हो क्या रहा है। यहां कोई भूत-प्रेत तो नहीं हैं! भूत-प्रेत खड़े हो गए, क्योंकि वह तो कल्पवृक्ष था। उसने कहा, मारे गए! तो मारे गए! कि भूत-प्रेत झपटे उन पर, वे मारे गए!
कल्पवृक्ष की कल्पना कर रखी है स्वर्ग में । जो-जो यहां नहीं है, वहां सिर्फ कामना से मिलेगा।
तुमने देखा, आदमी की कामना कैसी है! यहां तो श्रम करना पड़ता है; कामना से ही नहीं मिलता। श्रम करो, तब भी जरूरी नहीं कि मिले। कहां मिलता? श्रम करके भी कहां मिलता? तो इससे ठीक विपरीत अवस्था स्वर्ग में है। वहां तुमने सोचा, तुमने सोचा नहीं कि मिला नहीं। तत्क्षण! उसी क्षण! समय का जरा भी अंतराल नहीं होता। लेकिन ध्यान रखना, तुम वहां भी सुखी न हो सकोगे।
देखा, इस आदमी की क्या हालत हुई! जहां सब मिल जाएगा वहां भी तुम सुखी न हो सकोगे। क्योंकि सुखी तुम तब तक हो ही नहीं सकते जब तक तुम सुख में भरोसा करते हो।
सुख से जागो! सुख से जागने से ही दुख विसर्जित हो जाता है।
बुद्ध के पास एक आदमी आया--उनका भिक्षु था, उनका संन्यासी था। उसने बहुत दिन ध्यान किया, बहुत शांत भी हो गया। एक दिन ध्यान करते-करते उसे खयाल आया कि बुद्ध ने असली बातों के तो जवाब ही नहीं दिए। वह आया उनके पास भागा हुआ। उसने कहा कि सुनिए, न तो आपने कभी बताया है कि ईश्वर है या नहीं, न आपने कभी यह बताया है कि स्वर्ग है या नहीं, न आपने कभी यह बताया है कि आत्मा मर कर कहां जाती है, पुनर्जन्म होता कि नहीं? इन बातों के उत्तर दें।
बुद्ध ने कहा, सुनो, अगर मैं इन बातों के उत्तर दूं तो तुम्हारे तक उत्तर पहुंचने के पहले मैं मर जाऊंगा और तुम्हारे समझने के पहले तुम मर जाओगे। इन बातों के उत्तर व्यर्थ हैं। ये तो ऐसे हैं जैसे किसी आदमी को तीर लग गया हो और वह मरने के करीब पड़ा हो और मैं उससे कहूं कि ला मैं तेरा तीर खींच लूं; और वह कहे, रुको, पहले मेरी बातों के उत्तर दो: ‘यह तीर किस दिशा से आया? यह किसने चलाया? चलाने वाला मित्र था कि दुश्मन था? भूल से लगा कि जान कर मारा गया? तीर जहर-बुझा है या साधारण है? पहले इन बातों के उत्तर दो!’ तो मैं उस आदमी को कहूंगा, फिर तू मरेगा। मुझे पहले तीर खींच लेने दे, फिर तू फिक्र करना इन प्रश्नों की। अभी तो बच जा।
तो बुद्ध ने उस भिक्षु को कहा कि मैंने तुम्हें बताया है कि जीवन में दुख है और मैंने तुम्हें बताया है कि जीवन के दुख से मुक्त होने का मार्ग है। मेरी देशना पूरी हो गई। इससे ज्यादा मुझे तुम्हें कुछ नहीं बताना। तुम्हारा दुख मिट जाए, फिर तुम जानो, खोज लेना।
यह बड़े सोचने जैसी बात है। बुद्ध ने ऐसा क्यों कहा? क्या बुद्ध ईश्वर के संबंध में उत्तर नहीं देना चाहते थे? बुद्ध जानते हैं कि तुम ईश्वर को भी दुख के कारण ही खोज रहे हो। जिस दिन दुख मिट जाएगा, तुम ईश्वर इत्यादि की बकवास बंद कर दोगे। ईश्वर भी तुम्हारी दुख की ही आकांक्षा है कि किसी तरह दुख मिट जाए। संसार में नहीं मिटा तो स्वर्ग में मिट जाए। यहां तो मांग-मांग कर हार गये, यहां तो न्याय मिलता नहीं, परमात्मा के घर तो मिलेगा!
लोग कहते हैं, वहां देर है अंधेर नहीं। कहते हैं, चाहे देर कितनी हो जाये, जन्म के बाद मिले, जन्मों के बाद मिले, मरने के बाद; लेकिन न्याय तो मिलेगा। अंधेर नहीं है।
लेकिन तुम्हारी आकांक्षाएं अपनी जगह खड़ी हैं। तुम कहते हो, कभी तो भरी जायेंगी! देर है, अंधेर नहीं।
बुद्ध ने कहा, मैंने दो ही बातें सिखाईं: दुख है, इसके प्रति जागो; और दुख से पार होने का उपाय है--साक्षी हो जाओ! बस इससे ज्यादा मुझे कुछ कहना नहीं, मेरी देशना पूरी हो गई। तुम ये दो काम कर लो, बाकी तुम खोज लेना।
और बुद्ध ने बिलकुल ठीक कहा। जिस आदमी का दुख मिट गया वह बिलकुल चिंता नहीं करता कि स्वर्ग है या नहीं। स्वर्ग तो हो ही गया, जिस आदमी का दुख मिट गया। और जिस आदमी का दुख मिट गया वह नहीं पूछता कि ईश्वर है या नहीं? जिस आदमी का दुख मिट गया, वह स्वयं ईश्वर हो गया। अब और बचा क्या?
जिसने पूछा है प्रश्न, उसे बहुत कुछ समझने की जरूरत है। जिंदगी को आकांक्षाओं के पर्दे से मत देखो। जिंदगी को अपेक्षाओं के ढंग से मत देखो। जैसी जिंदगी है उसे देखो और बीच में अपनी आकांक्षा को मत लाओ। और तब तुम अचानक पाओगे: सांप खो गया, रस्सी पड़ी रह गई। फिर उससे भय भी पैदा नहीं होता, जख्म भी नहीं लगते, हार भी नहीं होती, पराजय भी नहीं होती, विषाद भी नहीं होता। और उससे तुम्हारे भीतर उस दीए का जलना शुरू हो जाएगा, जिसको अष्टावक्र साक्षी-भाव कह रहे हैं।
दुख को देखो। सुख को चाहो मत, दुख को देखो।
दो ही तरह के लोग हैं दुनिया में: सुख को चाहने वाले लोग, और दुख को देखने वाले लोग। जो सुख को चाहता है वह नये-नये दुख पैदा करता जाता है, क्योंकि हर सुख की आकांक्षा में नये दुख का जन्म है। और जो दुख को देखता है, दुख विसर्जित हो जाता है। और दुख के विसर्जन में सुख का आविभार्र्व है।
मैं फिर से दोहरा दूं: दो ही तरह के लोग हैं, और तुम्हारी मर्जी जिस तरह के लोग तुम्हें बनना हो बन जाना।
सुख को मांगो, दुख बढ़ता जाएगा। क्योंकि सुख मिलता ही नहीं, मांगने से मिलता ही नहीं; इसलिए दुख बढ़ता जाता है। फिर जितना दुख बढ़ता है, उतना ही तुम सुख की मांग करते हो--उतना ही ज्यादा दुख बढ़ता है। पड़े एक दुष्टचक्र में, जिसके बाहर आना मुश्किल हो जाएगा। इसी को तो ज्ञानियों ने संसार-चक्र कहा है--भवसागर! बड़ा सागर बनता जाता है, क्योंकि जैसे-जैसे तुम्हारा दुख बढ़ता है, तुम सोचते हो: और सुख की खोज करें। और सुख की खोज करते हो, और दुख बढ़ता है। अब इसका कहीं पारावार नहीं, इसका कोई अंत नहीं। भवसागर निर्मित हुआ।
दूसरे तरह के लोग हैं, जो दुख को देखते हैं। दुख है, ठीक है। इससे विपरीत की आकांक्षा करने से क्या सार है? इसे देख लें: यह कहां है, क्या है, कैसा है? दुख तथ्य है तो इसके प्रति जाग जाएं।
तुम इसका छोटा-मोटा प्रयोग करके देखो। जब भी तुम उदास हो, दुखी हो, बैठ जाओ शांत अपने कमरे में। रहो दुखी! वस्तुतः जितने दुखी हो सको उतने दुखी हो जाओ। अतिशयोक्ति करो।
तिब्बत में एक प्रयोग है: अतिशयोक्ति। ध्यान का गहरा प्रयोग है। वे कहते हैं, जिस चीज से तुम्हें छुटकारा पाना हो, उसकी अतिशयोक्ति करो, ताकि वह पूरे रूप में प्रगट हो जाये, ऐसा मंद-मंद न हो। तुम दुखी हो रहे हो, बंद कर लो द्वार-दरवाजे, बैठ जाओ बीच कमरे के और हो जाओ दुखी, जितने होना है। तड़फो, आह भरो, चीखो; लोटना-पोटना हो जमीन पर, लोटो-पोटो; पीटना हो अपने को, पीटो--लेकिन दुख की अतिशयोक्ति करो। दुख को उसकी पूरी गरिमा में उठा दो, दुख की आग जला दो। और जब दुख की आग भभक कर जलने लगे, धू-धू करके जलने लगे, तब बीच में खड़े हो कर देखने लगो: क्या है, कैसा है दुख? इस दुख के साक्षी हो जाओ।
तुम चकित हो जाओगे, तुम हैरान हो जाओगे कि तुम्हारे साक्षी बनते ही दुख दूर होने लगा; तुम्हारे और दुख के बीच फासला होने लगा, तुम साक्षी बनने लगे, फासला बड़ा होने लगा। तुम और भी साक्षी बनने लगे, फासला और बड़ा होने लगा। और जैसे-जैसे फासला बड़ा होने लगा, सुख की धुन आने लगी, सुख की सुवास आने लगी। क्योंकि दुख का दूर होना, यानी सुख का पास आना। धीरे-धीरे तुम पाओगे, दुख इतने दूर पहुंच गया कि अब समझ में भी नहीं आता कि है या नहीं; दूर तारों पर पहुंच गया और सुख की वीणा भीतर बजने लगी। फिर एक ऐसी घड़ी आती है, जब दुख चला ही गया। जब दुख चला जाता है, तो जो शेष रह जाता है, वही सुख है।
सुख तुम्हारा स्वभाव है। सुख, दुख के विपरीत नहीं है। तुम्हें सुख पाने के लिए दुख से लड़ना नहीं है। दुख का अभाव है सुख। दुख की अनुपस्थिति है सुख। दुख को तुम देख लो भर आंख--और दुख गया। यही करो तुम क्रोध के साथ। यही करो तुम लोभ के साथ। यही करो तुम चिंता के साथ। और सौ में से नब्बे मौकों पर तो शरीर के दुख के साथ भी तुम यही कर सकते हो।
अभी पश्चिम में बड़े मनोवैज्ञानिक प्रयोग चल रहे हैं, जिन्होंने इस बात की सच्चाई की गवाही दी है। सौ में निन्यानबे मौकों पर सिरदर्द केवल साक्षी-भाव से देखने से चला जाता है--निन्यानबे मौके पर। एक ही मौका है जब कि शायद न जाए, क्योंकि उसका कारण शारीरिक हो, अन्यथा उसके कारण मानसिक होते हैं।
तुम्हें अब जब दुबारा सिरदर्द हो तो जल्दी से सेरिडॉन मत ले लेना, एस्प्रो मत ले लेना। अब की बार जब दुख हो तो ध्यान का प्रयोग करना, तुम चकित होओेगे। यह तो प्रयोगात्मक है। यह तो अब वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है, धार्मिक रूप से तो सदियों से सिद्ध रहा है, अब वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है। जब तुम्हारे सिर में दर्द हो, तुम बैठ जाना। उस दर्द को खोजने की कोशिश करना: कहां है ठीक- ठीक? ताकि तुम अंगुली रख सको, कहां है। पूरे सिर में मालूम होता है तो खोजने की कोशिश करना: कहां है ठीक-ठीक? तुम चकित होओगे: जैसे तुम खोजते हो, दर्द सिकुड़ने लगता है, उसकी जगह छोटी होने लगती है। पहले लगता था पूरे सिर में है, अब लगता है एक थोड़ी-सी जगह में है। और खोजते जाना, और खोजते जाना, और खोजते जाना, देखते जाना भीतर--और जरा भी चेष्टा नहीं करना कि दुख न हो, दर्द न हो; है तो है, स्वीकार कर लेना। और तुम अचानक पाओगे, एक ऐसी घड़ी आएगी कि दर्द ऐसा रह जाएगा जैसे कि कोई सुई चुभो रहा है। इतने-से, छोटे-से बिंदु पर! और तब तुम हैरान होओगे कि कभी-कभी दर्द खो जाएगा। कभी-कभी लौट आएगा। कभी-कभी फिर खो जाएगा। कभी-कभी फिर लौट आएगा। और तब तुम्हें एक बात साफ हो जाएगी कि जब भी तुम्हारा साक्षी-भाव सधेगा, दर्द खो जाएगा। और जब भी साक्षी-भाव से तुम विचलित हो जाओगे, दर्द वापिस लौट आएगा। और अगर साक्षी-भाव ठीक सध गया तो दर्द बिलकुल चला जाएगा।
इसे तुम जरा प्रयोग करके देखो। मानसिक दुख तो निश्चित रूप से चले जाते हैं; शायद शारीरिक दुख न जाएं। अब किसी ने अगर सिर में पत्थर मार दिया हो तो उसके लिए मैं नहीं कह रहा हूं। इसलिए सौ में एक मौका छोड़ा है कि तुमने अपना सिर दीवाल से टकरा लिया हो, फिर दर्द हो रहा हो, तो वह दर्द शारीरिक है। उसका मन से कुछ लेना-देना नहीं। लेकिन अगर किसी ने सिर में पत्थर भी मार दिया हो तो भी अगर तुम साक्षी-भाव से देखोगे तो दर्द मिटेगा तो नहीं, लेकिन एक बात साफ हो जाएगी कि तुम दर्द नहीं हो। तुम दर्द से भिन्न हो। दर्द रहेगा। अगर मानसिक दर्द है तो मिट जाएगा। अगर शारीरिक दर्द है तो दर्द रहेगा। लेकिन दोनों हालत में तुम दर्द के पार हो जाओगे। मानसिक होगा तो दर्द गया; अगर शारीरिक होगा तो दर्द रहा; लेकिन अब मुझे दर्द हो रहा है, ऐसी प्रतीति नहीं होगी। दर्द हो रहा है, जैसे किसी और के सिर में दर्द हो रहा है; जैसे किसी और के पैर में दर्द हो रहा है; जैसे किसी और को चोट लगी है। बड़े दूर हो जाएगा। तुम खड़े देख रहे हो। तुम द्रष्टा, साक्षी-मात्र!
घबड़ाओ मत।
‘जिंदगी देने वाले सुन!
तेरी दुनिया से जी भर गया।
मेरा जीना यहां मुश्किल हो गया।’
यह जिसने तुम्हें जिंदगी दी है, उसके कारण नहीं हुआ है; यह तुम्हारे कारण हुआ है। इसलिए घबड़ाओ मत; क्योंकि अगर उसके कारण हुआ हो, तब तो तुम्हारे हाथ में कुछ भी नहीं। तुम्हारे कारण हुआ है, इसलिए तुम्हारे हाथ में सब कुछ है। तुम जागो तो यह मिट सकता है। और ये गीत गाने से कुछ भी न होगा--कुछ करना होगा! कुछ श्रम करना होगा, ताकि भीतर की निद्रा टूटे।
निद्रा टूट सकती है। यह जो अंधेरा दिखाई पड़ रहा है, यह सदा रहने वाला नहीं है। सुबह हो सकती है।
यह एक शब की तड़फ है, सहर तो होने दो
बहिश्त सर पे लिए रोजगार गुजरेगा।
फिजा के दिल से पर
अफ्शां है आरजू-ए-गुबार
जरूर इधर से कोई शहसवार गुजरेगा।
‘नसीम’ जागो, कमर को बांधो,
उठाओ बिस्तर कि रात कम है।
रात तो गुजर ही जाएगी। तैयारी करो!
‘नसीम’ जागो, कमर को बांधो,
उठाओ बिस्तर कि रात कम है।
साक्षी-भाव बिस्तर का बांध लेना है, कि अब तो सुबह होने के करीब है। और तुमने जिस दिन बांधा बिस्तर, उसी दिन सुबह करीब आ जाती है। यह सुबह कुछ ऐसी है कि तुम्हारे बिस्तर बांधने पर निर्भर है। इधर तुमने बांधा, इधर तुमने तैयारी की, तुम जाग कर खड़े हो गए--सुबह हो गई!
सुबह अर्थात तुम्हारा जाग जाना। रात अर्थात तुम्हारा सोया रहना।
रो-रो कर दर्द की बातें कर लेने से कुछ हल न होगा। यह तो तुम करते ही रहे हो। यह रोना तो काफी हो चुका है। यह तो जन्मों-जन्मों से तुम रो रहे हो और कह रहे हो कि कोई कर दे, दुनिया को बनाने वाला हो या न हो। तुम किससे प्रार्थना कर रहे हो? उसका तुम्हें कुछ पता भी नहीं है। हो न हो; हो, बहरा हो; हो, और तुम्हें दुख देने में मजा लेता हो; हो, और तुम्हारा दुख उसे दुख जैसा दिखाई न पड़ता हो--तुम किससे प्रार्थना कर रहे हो? और वह है भी, इसका कुछ पक्का नहीं है।
आदमी ने अपने भय में भगवान खड़े किए हैं और अपने दुख में मूर्तियां गढ़ ली हैं, और अपनी पीड़ा में किसी का सहारा खोजने के लिए आकाश में आकार निर्मित कर लिए हैं। इनसे कुछ भी न होगा।
अष्टावक्र या बुद्ध या कपिल तुमसे इस तरह की बातें करने को नहीं कहते।
वे तो कहते हैं, जो हो सकता है वह एक बात है कि तुम्हारे भीतर चैतन्य है, इतना तो पक्का है; नहीं तो दुख का पता कैसे चलता? दुख का जिसे पता चल रहा है उस चैतन्य को और निखारो, साफ-सुथरा करो! कूड़े-कर्कट से अलग करो। उसको प्रज्वलित करो, जलाओ कि वह एक मशाल बन जाए। उसी मशाल में मुक्ति है।

आखिरी सवाल
और आखिरी सवाल सवाल नहीं है: एकटि नमस्कारे प्रभु, एकटि नमस्कारे! सकल देह लूटिए पडूक तोमार ए संसारे घन श्रावण-मेघेर मतो रसेर भारे नम्र नत एकटि नमस्कारे प्रभु, एकटि नमस्कारे! समस्त मन पड़िया थाक, तव भवन-द्वारे नाना सुरेर आकुल धारा मिलिए दिए आत्महारा एकटि नमस्कारे प्रभु, एकटि नमस्कारे! समस्त गान समाप्त होक, नीरव पारावारे हंस येमन मानस-यात्री तेमन सारा दिवस-रात्रि एकटि नमस्कारे प्रभु, एकटि नमस्कारे! समस्त प्राण उड़े चलूक महामरण-पारे! स्वामी आनंद सागरेर प्रणाम!
आनंद सागर ने निवेदन किया है, प्रश्न तो नहीं है। लेकिन सार्थक पंक्तियां हैं। उन्हें स्मरण रखना।
‘सकल देह लूटिए पडूक,
तोमार ए संसारे!’
--तेरे इस संसार में सब लुट गया! अब तो एक नमस्कार ही बचा है।
‘एकटि नमस्कारे प्रभु,
एकटि नमस्कारे!
सकल देह लूटिए पडूक,
तोमार ए संसारे
घन श्रावण-मेघेर मतो’
--और जैसे आषाढ़ में मेघ भर जाते हैं जल से।
‘रसेर भारे नम्र नत’...
--और रस से भरे हुए झुक जाते पृथ्वी पर और बरस जाते हैं।
‘एकटि नमस्कारे प्रभु,
एकटि नमस्कारे!’
--ऐसा मैं बरस जाऊं तुम्हारे चरणों में जैसे रस से भरे हुए मेघ बरस जाते हैं।
‘समस्त मन पड़िया थाक,
तव भवन द्वारे!’
--और तेरे भवन के द्वार पर सारे मन को थका कर तोड़ डालूं, मन से मुक्त हो जाऊं तेरे द्वार पर, बस इतनी ही प्रार्थना है।
‘नाना सुरेर आकुल धारा
मिलिए दिए आत्महारा
एकटि नमस्कारे प्रभु,
एकटि नमस्कारे!
समस्त गान समाप्त होक,
नीरव पारावारे!’
--ऐसा हो कि मेरे सब गीत अब खो जाएं, केवल नीरव पारावर बचे! शून्य का गीत शुरू हो, स्वरहीन रवहीन गीत शुरू हो!
‘समस्त गान समाप्त होक,
नीरव पारावारे!’
--अब आखिरी गीत नीरव हो, बिना कहे हो, बिना शब्दों का हो! अब मौन ही आखिरी गीत हो।
‘हंस येमन मानस-यात्री
तेमन सारा दिवस-रात्रि।’
--ये प्राण तो मानस-सरोवर के लिए, मान-सरोवर के लिए उड़ रहे हैं। ये प्राण तो हंस जैसे हैं, जो अपने घर के लिए तड़फ रहे हैं।
‘हंस येमन मानस-यात्री
तेमन सारा दिवस-रात्रि।’
--अहर्निश बस एक ही प्रार्थना है कि कैसे उस शून्य में, कैसे उस महाविराट में, कैसे उस मानसरोवर में इस हंस की वापिसी हो जाए! कैसे घर पुनः मिले!
‘एकटि नमस्कारे प्रभु,
एकटि नमस्कारे!
समस्त प्राण उड़े चलूक,
महामरण-पारे।’
--ऐसा कुछ हो कि सारे प्राण अब इस जन्म और मृत्यु को छोड़ कर, जन्म और मृत्यु के जो अतीत है उस तरफ उड़ चलें।
ऐसी बस एक नमस्कार शेष रह जाए! बस, ऐसी एक प्रार्थना शेष रह जाए और मेघों की भांति तुम्हारे प्राण झुक जाएं अनंत के चरणों में--तो सब प्रसाद-रूप फलित हो जाता है, घट जाता है। तुम झुको कि सब हो जाता है। तुम अकड़े खड़े रहो कि वंचित रह जाते हो।
तुम्हारे किए, तुम्हारी अस्मिता और अहंकार से, और तुम्हारे संकल्प से, दौड़-धूप ही होगी। तुम्हारे समर्पण से, तुम्हारे विसर्जन से, तुम्हारे डूब जाने से महाप्रसाद उतरेगा। तुम झुको।
‘रसेर भारे नम्र नत
घन श्रावण-मेघेर मतो
एकटि नमस्कारे प्रभु,
एकटि नमस्कारे!
समस्त मन पड़िया थाक
समस्त गान समाप्त होक
समस्त प्राण उड़े चलूक,
महामरण-पारे!’
जीवन का परम सत्य मृत्यु के पार है। जीवन का परम सत्य वहीं है जहां तुम मिटते हो। तुम्हारी मृत्यु ही समाधि है। और तुम्हारा न हो जाना ही प्रभु का होना है। जब तक तुम हो--प्रभु रुका, अटका। तुम दीवाल हो। तुम मिटे कि द्वार खुला! सीखो मिटना!
और मिटने के दो ही उपाय हैं: या तो साक्षी बन जाओ--जो कि अष्टावक्र, कपिल, कृष्णमूर्ति, बुद्ध इनका उपाय है; या प्रेम में डूब जाओ--जो कि मीरा, चैतन्य, जीसस, मोहम्मद, इनका मार्ग है। दोनों ही मार्ग ले जाते हैं--या तो बोध, या भक्ति। मगर दोनों मार्ग का सार-सूत्र एक ही है। बोध में भी तुम मिट जाते हो, क्योंकि अहंकार साक्षी में बचता नहीं; और प्रेम में भी तुम मिट जाते हो, क्योंकि प्रेम में अहंकार के बचने की कोई संभावना नहीं। तो एक बात सार-निचोड़ की है: अहंकार न रहे तो परमात्मा प्रगट हो जाता है।

हरि ॐ तत्सत्‌!

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