QUESTION & ANSWER
Kya Sove Tu Bavri 04
Fourth Discourse from the series of 4 discourses - Kya Sove Tu Bavri by Osho.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
पहले दिन मैंने आपसे कहा, हमें इस बात का स्मरण भी नहीं है कि हम हैं। हमारी सत्ता का बोध भी हमें नहीं है। और जिसे यह भी पता न हो कि वह है...पुनर्जन्म को न मानें और कर्म को न मानें, यानी किसी चीज को जैसे ही आप बिलीफ की तरह पकड़ लेते हैं, आपका मस्तिष्क सोचना बंद कर देता है। आपने कैसे जाना कि लॉ ऑफ कर्म है? सुना तो वह बिलीफ बन गई। अगर आप दूसरे मुल्क में पैदा होते, जहां यह बात न सुनी जाती, तो फिर न बनती बिलीफ। यह तो आस-पास का प्रोपेगेंडा है, जिसका परिणाम है कि आपमें बिलीफ पैदा हो जाती है। अब यही हिंदुस्तान में है: पड़ोस में ही दूसरे बिलीफ वाले लोग भी रह रहे हैं और आप भी रह रहे हैं। वे माइंड अपना क्लोज रखे हुए हैं। जो उनकी बिलीफ है उसको वे पकड़े हुए हैं, जो आपकी बिलीफ है आप पकड़े हुए हैं। आप पड़ोसी थोड़े ही हैं किसी के, क्योंकि सब क्लोज्ड हैं; कोई किसी से मिल थोड़े ही रहा है, मिल सकते नहीं हैं। जब तक आपमें बिलीफ है, तब तक आप किसी के पड़ोसी नहीं हो सकते। मैं हिंदू हूं, आप मुसलमान हैं, तो कैसे पड़ोसी होंगे। और वह बिलीफ बांधे हुए है घेरे को। लेकिन अगर बिलीफ अलग हो जाए, तो जिनको हम सीकर्स ऑफ नॉलेज कहें, वे पड़ोसी होंगे, और कोई पड़ोसी नहीं हो सकता दुनिया में। विश्वास तोड़ देता है संबंध को। लोगों से तोड़ देता है और खोज से भी तोड़ देता है।
यह कैसे आपने मान लिया? इसको मानने की कौन सी बुनियाद है? सिवाय इसके कि संयोग की बात है कि आपके आस-पास एक प्रचार हो रहा है, वह आपने सुन लिया। जैसे कि कोई साबुन का विज्ञापन करता हो, तो रेडियो पर कहता हो, अखबार पर लिखता हो, अभिनेत्रियों के चित्र बनाता हो कि यही साबुन अच्छा है। दस-पच्चीस दफा सुनते-सुनते जब आप बाजार में खरीदने जाते हैं, तो आप कहते हैं, फलां साबुन दे दें। अगर आपसे कोई पूछे कि आपने यही साबुन क्यों चुना, हजारों साबुन हैं? तो आप कहेंगे, मेरा विश्वास है कि यह अच्छा है। यह विश्वास कैसे आ गया? यह आस-पास प्रोपेगेंडा किया गया है आपके। यह तो एडवरटाइजमेंट की पूरी की पूरी व्यवस्था ही यह है न कि आपके आस-पास हवा पैदा की गई कि यही अच्छा है, यही अच्छा है। और आप कहने लगे--यही अच्छा है।
जैसे यह बिलीफ पैदा होती है कि फलां साबुन अच्छा है, वैसे ही ये बिलीफ भी हैं आपकी। इनमें कोई फर्क नहीं है। यह सब बहुत गहरे में प्रोपेगेंडा है और प्रचार है, और आपके मन को पकड़ लेता है।
जो आदमी जानने को उत्सुक है, वह मानने को उत्सुक नहीं होगा कभी। वह कहेगा, मैं जानना चाहता हूं। मैं खोजना चाहता हूं। मैं एक-एक तथ्य को आंकूंगा। पहचानूंगा और समझूंगा। अगर मुझे लगेगा, मेरा अनुभव कहेगा, तो ठीक। फिर वह विश्वास नहीं होगा। फिर वह ज्ञान होगा। फिर वह बिलीफ नहीं होगी। फिर वह नॉलेज होगी।
बिलीफ जो है अज्ञान की घटना है, इग्नोरेंस की घटना है। फिर जितना इग्नोरेंट आदमी होगा, उतने ज्यादा बिलीफ होंगे उसके आस-पास। जितना आदमी ज्ञान की तरफ बढ़ेगा, बिलीफ गिरती जाएंगी और जो आदमी खुद ज्ञान को उपलब्ध होगा, उसकी कोई बिलीफ नहीं होगी। यानी अगर आप उससे पूछें कि क्या तुम ईश्वर को मानते हो? तो वह कहेगा, मैं जानता हूं। मानता हूं, यह नहीं कहेगा। मानने का कोई सवाल नहीं रहा। मानता तो वह है, जो जानता नहीं है। मानने का क्या सवाल है?
अगर सच में ही खोजना हो, इंक्वायरी करनी हो, सच में ही जानने की इच्छा पैदा हुई हो, तो सब मानना छोड़ दें। बड़ी घबड़ाहट होगी। घबड़ाहट यह होगी कि मानना छोड़ने से आपको लगेगा कि आप तो बिलकुल इग्नोरेंट आदमी हैं। घबड़ाहट यह होगी कि अगर मानना छोड़ा, तो लगेगा कि मेरे जैसा अज्ञानी नहीं है कोई। मैं तो कुछ भी नहीं जान पाता।
प्रश्न:
भगवान, वह सिखाया जा रहा है।
हां, वह सिखाया जा रहा है। वही सिखाया जा रहा है और उस सिखाने की वजह से ही इतनी करप्टेड दुनिया पैदा हुई है, और इतने करप्टेड आदमी पैदा हुए हैं--उस सिखाने की वजह से।
यह पांच हजार साल का फल क्या है इस सिखावट का? यह आदमी जो हमारे चारों तरफ दिखाई पड़ रहे हैं यही न। यही दुनिया जो हमारी है? यही दुनिया पैदा हुई न इस शिक्षा से? तो पांच हजार साल की यह सारी टीचिंग कहां ले गई है आपको? रोज नीचे गिरते जाते हैं और रोज गिरते जाएंगे। वह बुनियाद में ही बात गलत है। बुनियाद में ही बात गलत है। न तो श्रद्धा की जरूरत है, न विश्वास की जरूरत है। खोज की जरूरत है, साहस की जरूरत है। खोजने की जरूरत है, साहस करने की जरूरत है।
ये सब कमजोरी के लक्षण हैं। इसलिए जिन कौमों ने जितनी ज्यादा श्रद्धा पर विश्वास किया, वे कौमें उतनी ही नीचे पिछड़ गईं। देखें। जिन कौमों ने भी इस पर विश्वास किया, वे उतनी पीछे पिछड़ गईं। क्योंकि कदम आगे बढ़ने का सवाल ही नहीं रहा। अगर बैलगाड़ी में बैठे थे, तो बैलगाड़ी में बैठे हुए हैं श्रद्धा और विश्वास से, तो फिर और आगे उठने का सवाल कहां उठता है।
विश्वासी मन विकास कहीं करता, कर ही नहीं सकता। देखें दुनिया में। कौमें भी जो विश्वास करेंगी, वे पिछड़ जाएंगी। व्यक्ति भी जो विश्वास करेंगे, वे पिछड़ जाएंगे। मगर विश्वास करना सुविधापूर्ण है, कंफर्टेबल है, इसे मैं कहूंगा। कंफर्टेबल है, सुविधापूर्ण है; झंझट नहीं है। हमें कोई मतलब नहीं है खोजने से। हम कहां खोजने जाएं, अपनी दुकानदारी करें कि खोजने जाएं कि कर्म है या नहीं! तो हम मान लेते हैं, कोई कह जाता है कि भई है, तो ठीक, मान लेते हैं। पिताजी कहते हैं, तो मान लेते हैं; पास-पड़ोस के लोग कहते हैं, तो मान लेते हैं। कौन झंझट में पड़े, ठीक है, होगा। फिर उसे मान कर चिंतन शुरू कर देते हैं कि अगर कर्म का सिद्धांत है, तो फलां आदमी गरीब क्यों हो गया? जरूर इसने कोई बुरे कर्म किए होंगे, इसलिए गरीब हो गया। एक चीज मान लेते हैं, और फिर उसके आधार पर सब हिसाब फैलाने लगते हैं। कि हम अमीर हो गए हैं, तो हमने जरूर कोई अच्छे कर्म किए होंगे। फिर उसके हिसाब से...। तो एक तो ऐसी बात को जिसे हम नहीं जानते, मान लिया और अब फिर उन बातों को जो हमारे सामने हैं, उनकी हम उसके आधार पर व्याख्या करने लगते हैं। फिर जिंदगी एक ऐसे अजीब हिसाब में चलने लगती है।
अब जैसे आपने कह दिया कि यह योग की बात है, यह कैसे आपने जाना? यह कैसे जाना कि डेस्टिनी होती है? आप कहेंगे, हमने तथ्यों को देख कर जाना। बिलकुल झूठ है। डेस्टिनी का सिद्धांत पहले मान लिया और फिर तथ्यों की व्याख्या करने लगे कि देखो। जैसे आप कह सकते हैं कि इतने दिन तक पूर्णिमा ने आपसे कहा कि मेरे पास समय है, लेकिन नहीं आ सके, कोई योग ही नहीं था। मगर यह योग का विश्वास पहले से मन में बैठा हुआ है, इसलिए व्याख्या आपने कर ली।
एक आदमी हुआ। वहां सारी दुनिया में कुछ विश्वास हैं कि फलां दिन खराब होता है, फलां तारीख खराब होती है। तो उसने एक किताब लिख डाली कि तेरह तारीख सबसे खराब तारीख है। और उसने कहा कि मैं कोई झूठ नहीं कह रहा हूं, मैं तो प्रमाण दे रहा हूं। वह म्युनिसिपल दफ्तरों में, कार्पोरेशन के दफ्तरों में गया; तेरह तारीख को कितने लोग मरे, उनकी लिस्ट ले आया। तेरह तारीख को अस्पताल में कितने लोग भर्ती हुए, कितने लोग पागल हुए, उनकी लिस्ट ले ली। तेरह तारीख को कितने सुसाइड हुए, उनकी लिस्ट ले ली। तेरह तारीख को कितने एक्सिडेंट हुए, उनका सब पता लगा लिया। एक बड़ी किताब लिख दी कि तेरह तारीख को यह-यह होता है। आप किताब पढ़ कर मान जाएंगे कि बात तो बिलकुल ठीक कह रहा है। यह दिखता है--होता है।
तो मेरे एक मित्र किताब मेरे पास लेकर आए कि आप यह देखते हैं! अब तो आप मानते हैं? मैंने कहा: तुम बारह तारीख की खोज करो, इतने ही तथ्य उसमें मिल जाएंगे। या तुम ग्यारह तारीख की खोज करो, इतने ही तथ्य उसमें मिल जाएंगे।
नहीं लेकिन, यह जो गैर-साइंटिफिक और साइंटिफिक माइंड का फर्क क्या है? गैर-साइंटिफिक माइंड किसी विश्वास को पहले मान लेता है, फिर तथ्य पर उस विश्वास को थोपने लगता है। साइंटिफिक माइंड किसी विश्वास को नहीं मानता, तथ्य को खोजता है। और तथ्य से ही ज्ञान को निकलने देता है, इतना ही फर्क है। और कोई फर्क नहीं है। अंधविश्वासी, अवैज्ञानिक जो मन है, वह किसी चीज को पहले मान लेता है और फिर तथ्यों की व्याख्या कर देता है। वैज्ञानिक जो मन है, वह पहले तथ्यों को खोजता है, फिर सिद्धांत को निकालता है। बस इतना ही फर्क है, और इतना फर्क बहुत बड़ा फर्क है--बहुत बड़ा फर्क है।
ज्ञान की चेष्टा और खोज करने से दुनिया बहुत बेहतर हो जाए। दुनिया में बड़े जिंदा लोग हों, दुनिया में बड़ी खोज हो। और जब खोज हो, तो कुछ तथ्य निकलें और जीवन का अनुभव आए।
हम सब मुर्दा लोग हैं। यह मैं अपना अपमान समझता हूं कि मैं किसी और की बात पर विश्वास करूं। मैं क्यों विश्वास करूं? मैं अपनी जिंदगी जीने के लिए पैदा हुआ हूं--जीऊं, जानूं, पहचानूं। कौन हकदार है इस बात का कि मेरे ऊपर अपना विश्वास थोप दे? नहीं तो मेरे पैदा होने की कोई जरूरत क्या थी! आखिर मेरे जीवन का अनुभव ही मुझे कुछ दे। लेकिन हम अनुभव से भी डरते हैं--अनुभव से भी डरते हैं। पता नहीं अनुभव कहां ले जाए! क्या हो, क्या न हो! बंधे-बंधाए रास्तों से कहीं भटक न जाएं! और बड़ा मजा यह है कि बंधे-बंधाए रास्तों पर भी चल कर आप कहां पहुंच रहे हैं? कहीं भी नहीं पहुंच रहे हैं। भटके हुए हैं ही।
मैं तो विश्वास का पक्षपाती नहीं हूं। ज्ञान का पक्षपाती जरूर हूं। खोजें, जब कोई चीज दिखाई पड़े, तो जरूर जानेंगे आप उसको। तब मानने का कोई सवाल नहीं रह जाएगा। और तब जरूर जीवन में कोई संपत्ति आप उपलब्ध कर लेंगे।
अगर खोज जारी रखी और हिम्मत से प्रयोग किया, तो रत्ती-रत्ती मिल कर भी आप एक संपदा बना लेंगे। और विश्वास करते रहे, तो ठीक है, विश्वास करते रहेंगे और समाप्त हो जाएंगे। आपकी कोई निजी संपत्ति, कोई उपलब्धि अनुभूति की नहीं खड़ी हो सकती है।
और व्याख्याओं का बड़ा मजा है। कोई भी सिद्धांत आप पकड़ लें और व्याख्याएं की जा सकती हैं। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। नहीं तो दुनिया में इतनी मूर्खता चलती क्या? अस्सी करोड़ मुसलमान हैं, कोई एक अरब क्रिश्चियन हैं, बीस करोड़ हिंदू हैं। बीस करोड़ हिंदू मानते हैं, पुनर्जन्म है। लेकिन ये दो अरब लोग क्रिश्चियन और मोहम्मडन, इनके कान पर जूं भी नहीं रेंगती इस बात से कि पुनर्जन्म है। क्योंकि उनका विश्वास है कि नहीं है। तो उन्हीं तथ्यों को, जिनको देख कर आप व्याख्या कर लेते थे, इससे पुनर्जन्म सिद्ध होता है। वे सिद्ध कर लेते हैं, उन्हीं तथ्यों से कि पुनर्जन्म सिद्ध नहीं होता है। नहीं तो एक डेढ़ अरब आदमियों को बुद्धू बनाया जा सकता है बहुत देर तक? अगर पुनर्जन्म होता हो, तो दुनिया में दो अरब आदमी कितनी देर तक माने रह सकते हैं कि पुनर्जन्म नहीं होता। या अगर पुनर्जन्म नहीं होता हो, तो ये बीस करोड़ हिंदू कैसे माने रह सकते हैं कि पुनर्जन्म होता है। जो भी तथ्य होता, वह अब तक मामला हल कर देता।
आप देखते हैं कि साइंस में बहुत जल्दी युनिवर्सल निर्णय हो जाते हैं। कोई दिक्कत नहीं होती। साइंटिस्ट लड़ सकते हैं थोड़ी-बहुत देर कि इसका हम ऐसा अर्थ नहीं लेते, वैसा अर्थ नहीं लेते। थोड़ी देर में निर्णय हो जाता है कि क्या अर्थ लेते हैं। क्योंकि तथ्यों पर जोर होता है। लेकिन धर्म निर्णय नहीं कर पाया आज तक, क्योंकि जोर विश्वास पर है। अब विश्वास के साथ तो कोई झंझट ही नहीं खड़ी होती है; आपके जो मन में आया आप मान सकते हैं, और तथ्य की वैसी व्याख्या कर सकते हैं।
जब तक विश्वास के आधार पर तथ्य की व्याख्या होगी, दुनिया में एक धर्म पैदा नहीं हो सकता। और जब तक एक धर्म पैदा न हो, तब तक सच्चा धर्म पैदा नहीं हो सकता। यानी तब तक एक साइंटिफिक रिलीजन खड़ा नहीं हो सकता, वह युनिवर्सल नहीं हो सकता। लेकिन वह तब तक, जब तक विश्वास से तथ्य की व्याख्या हो। जिस दिन तथ्य के माध्यम से ज्ञान के उत्पन्न करने की फिकर जैसी विज्ञान में हुई है, धर्म में भी हो जाएगी, उस दिन दुनिया में एक धर्म रह जाएगा; दो रहने की गुंजाइश नहीं है। यह कैसे संभव है कि दो रह जाएं? और तब जो धर्म होगा, उसकी शक्ति आप सोच सकते हैं कि क्या होगी?
अभी तो धार्मिकों की शक्ति इसमें लगती रही कि दूसरे धार्मिकों को नष्ट करो। मुसलमानों की शक्ति इसमें लगी है कि हिंदुओं को नष्ट करें। हिंदुओं की शक्ति इसमें लगी है कि मुसलमानों को नष्ट करें। क्रिश्चियन इसलिए ताकत लगाए हुए हैं कि सबको हड़प जाएं। दूसरे इसलिए ताकत लगाए हुए हैं कि हम हड़प जाएं। अभी उनका सारा का सारा श्रम और शक्ति दूसरे को पी जाने और हड़प जाने में लगी हुई है।
अगर दुनिया में एक वैज्ञानिक धर्म हो, तो यह सारी की सारी शक्ति दुनिया के विकास में अदभुत परिणाम ला सकती है। और ऐसा भाईचारा और इतना प्रेम पैदा हो सकता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। मगर वह तभी होगा, जब बिलीफ से शुरुआत न हो। इसलिए कोई इतना आसान मामला नहीं है कि बच्चों को हम कह दें कि भई श्रद्धा रखो, विश्वास रखो। यह बड़ा खतरनाक मामला है। इतना खतरनाक मामला है कि मनुष्य इसी खतरनाक मामले की वजह से पांच हजार साल से परेशान है और परेशान रहेगा, अगर यही सिलसिला चलता है तो।
वैज्ञानिक मन पैदा होना चाहिए सब दिशाओं में। तो मैं नहीं पक्षपाती हूं, और किसी विश्वास से नहीं कहता कि आप सोचना शुरू करें। सोचते ही नहीं हैं जब आप विश्वास से शुरू करते हैं, मामला ही खत्म हो गया। आप मेरे पास आए और तय करके आ गए मेरे बाबत, कोई निर्णय लेकर आ गए कि बहुत बुरे आदमी हैं या बहुत भले आदमी हैं। फिर आप मेरी जो व्याख्या करोगे, वह अपने ही हिसाब के अनुकूल कर लोगे और चले जाओगे। अगर मुझे ही जानना है, तो मेरे बाबत कोई विश्वास लेकर न आएं और सीधा एनकाउंटर होने दें--सीधा, बिना किसी विश्वास को बीच में लाए।
कभी जीवन में बिलीफ न बनाएं। और सब, बिलीफ बनाई हों, तो तोड़ दें।
प्रश्न:
भगवान, आप पांच हजार साल की जो बात करते हैं, वह पांच हजार साल की ही क्यों बात कहते हैं?
पांच हजार साल का हमें ज्ञात है। पांच हजार साल के बाबत हम कुछ जानते हैं, बाकी नहीं जानते हैं।
प्रश्न:
भगवान, शुभ और सदगुणों पर तो बिलीफ करना चाहिए न?
इस दिशा में अगर हम बिलीफ छोड़ सकें, तो जिसे हम शुभ कहें, महत्वपूर्ण कहें, वह आपमें उत्पन्न हो जाएगा। और अगर बिलीफ आप पकड़े रहे, आपमें कभी उत्पन्न नहीं होगा। आपमें सदगुण पैदा ही नहीं हो सकता बिना ज्ञान के। और यही तो वजह है कि आपकी बिलीफ एक होती है और आचरण दूसरा होता है। आप कहते तो हैं कि चोरी करना बुरा है और चोरी करते हैं। आपका विश्वास और आचरण में भेद क्यों है? भेद इसलिए है कि विश्वास झूठा है और विश्वास पहले बना लिया गया है, बिना आचरण को जाने और पहचाने। इसलिए आचरण उसके अनुकूल नहीं बैठता कभी। यानी वह मामला ऐसा है कि जैसे कोई दर्जी आपको बिना नापे-जोखे और आपके कपड़े बना ले। और फिर उन कपड़ों को आपमें बिठालने की कोशिश करे। तो फिर कांट-छांट आपमें करना पड़े, कपड़ों में नहीं। हाथ-पैर काटने पड़ें आपके।
प्रश्न:
भगवान, हाथ-पैर क्यों काटने पड़ेंगे?
क्योंकि कपड़े पहले बना लिए गए और आप पीछे आए। ऐसा है, यह जो आपकी मॉरेलिटी है कि नियम आप पर पहले बिठा दिए जाते हैं, अब इनके अनुकूल आप हो जाइए। जैसे नियमों के लिए आदमी पैदा हुआ है! नहीं, आदमी पहले है, और आदमी के जीवन से ही नियम निकलते हैं। कपड़े बाद में बनाए जा सकते हैं, आदमी को पहले नापना होगा।
हम कुछ धारणाएं बना लेते हैं। और वे धारणाएं जब नहीं बैठती हैं ऊपर हमारे, तो फिर हम परेशान होना शुरू हो जाते हैं कि यह क्या हुआ। हम तो बहुत कोशिश करते हैं, यह होता नहीं है!
मेरी समझ में, जैसे कि आपको कोई भी चीज कही गई है कि यह बुरी है, इस पर विश्वास मत करिए, इस पर प्रयोग करिए। जानिए, मन को खुला रखिए, पहचानिए और अपने अनुभव से नतीजे पर पहुंचिए कि यह बुरी है या नहीं। अगर आप अपने अनुभव से इस नतीजे पर पहुंच गए कि यह बुरी है, आप उससे मुक्त हो जाओगे। फिर आपके आचरण में और आपके ज्ञान में भेद नहीं होगा। और अगर आप अपने अनुभव से पहुंच गए कि यह चीज भली है, आप पाओगे, वह आपके जीवन में प्रवाहित होने लगेगी। आपके आचरण में और विचार में भेद नहीं रह जाएगा।
आचार और विचार का जो भेद है, वह भेद यह इस वजह से है जो हम पकड़े हुए हैं--जो हम पकड़े हुए हैं। जीवन तो प्रयोग करने के लिए एक बड़ा अदभुत अवसर है। लेकिन हम प्रयोग कर ही नहीं पाते, क्योंकि दूसरे हमें पहले ही सब बता देते हैं कि यह अच्छा है और यह बुरा है। तुम्हें कोई करने की जरूरत नहीं है। हम तुम्हें उधार ज्ञान दिए देते हैं; तुम इससे ही काम चला लेना।
प्रश्न:
भगवान, जो आत्मा है वह तो है कि नहीं, यह पहले कोई बताता है, क्योंकि वह प्रयोग करके बताता है कि है।
क्यों कोई बताए? तुम हो--यह तो पता चलता है कि नहीं चलता? यह तो बिलीफ नहीं है। यह तो फैक्ट है। तुम्हारा होना तो फैक्ट है न? यह तो बिलीफ नहीं है। यह तो किसी ने तुम्हें नहीं बताया कि तुम हो। यह तुम्हें लग रहा है कि मैं हूं। मैं हूं, यह मुझे लग रहा है, लेकिन यह मुझे पता नहीं चलता कि कौन हूं? इसलिए खोज शुरू करनी चाहिए। इसमें किसी को मानने का कहां सवाल आता है? हमेशा खोज फैक्ट से शुरू होनी चाहिए, बिलीफ से शुरू नहीं होनी चाहिए।
तथ्य क्या है? तथ्य यह है कि मैं हूं। मुझे पता नहीं कि भीतर आत्मा है या नहीं। मैं हूं, यह तथ्य है। और यह दूसरा तथ्य है कि मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूं। ये तथ्य हैं सीधे, इन तथ्य से खोज शुरू होनी चाहिए। तथ्य से शुरू करना चाहिए, विश्वास से शुरू नहीं करना चाहिए।
प्रश्न:
भगवान, यदि कोई जहर को बताए और कहे कि मैंने प्रयोग करके देखा है कि जहर है और हम उसकी बात न मानें और अपने पर प्रयोग करके देखें, तब तो जीवन के भी जाने का खतरा रहेगा! क्या उसकी भी बात नहीं माननी चाहिए?
अगर तुम्हें खोज करनी हो कि जहर है या नहीं, तो प्रयोग करना पड़ेगा। अगर खोज करनी है। लेकिन खोज करनी किसलिए है? और जो जहर पर काम करते हैं, उनको तो प्रयोग करके देखना पड़ेगा। मेरा मतलब समझीं न? जहर है या नहीं, इसकी खोज तुम्हें किसलिए करनी है?
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
नहीं-नहीं, मेरी बात आप नहीं समझीं। अगर आपको जहर में ही कोई ज्ञान उत्पन्न करना हो और जहर के बाबत ही जानकारी करनी हो, तो प्रयोग करना पड़ेगा। दूसरा कोई रास्ता नहीं है। और नहीं तो ऐसी बेवकूफियां चलती रहीं दुनिया में।
अरस्तू ने, इतना बड़ा विचारशील और ज्ञानी आदमी था, उसने लिखा है कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। असल में स्त्री को हमेशा पुरुष से छोटा होना चाहिए। यह नियम की बात है। यानी यह सिद्धांत माना हुआ है। यह बिलीफ की बात है। यानी वह स्त्री कोई हालत में पुरुष के बराबर हो ही नहीं सकती।
अरस्तू जैसा विचारशील आदमी, जिसको कहें कि पश्चिम में तर्क का पिता था, उसने किताब में लिख दिया कि स्त्री के दांत पुरुष से कम होते हैं। उसकी दो औरतें थीं, एक भी नहीं। मगर उसको यह न सूझा कि जरा उठ कर दांत गिन लूं। एक औरत भी नहीं थी, दो औरतें थीं। एक में भूल-चूक होती, दूसरे में परीक्षा हो जाती। वह उसको खयाल ही नहीं आया!
और आप हैरान होंगे, एक हजार साल पूरा यूरोप मानता रहा कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं। और किसी मूढ़ को यह खयाल में न आया कि स्त्रियां हमेशा मौजूद हैं, दांत गिन लिए जाएं। यह बिलीफ है।
एक हजार साल बाद जब जिस आदमी ने दांत गिने पहली औरत के, वह घबड़ा गया। वह बोला, यह स्त्री कुछ गड़बड़ है! क्योंकि दांत तो स्त्री के होना चाहिए कम, यह मामला क्या है?
और जब बहुत स्त्रियों के दांत गिने गए, तो पता चला कि अरस्तू ने गिना नहीं। उसके पहले से ही यह बिलीफ चलती थी, उसने फिर बिलीफ को लिख दिया था। एक खयाल चलता था कि दांत स्त्री के कम होते हैं। फिर कोई जरूरत नहीं पड़ी उसकी गिनने की।
प्रश्न:
भगवान, क्या फिर किसी के अनुभव को या आपके अनुभव को मान कर नहीं चलूं?
आपका अनुभव--मेरा अनुभव नहीं। मेरा अनुभव मान कर आप नहीं चल सकतीं।
प्रश्न:
भगवान, किसी के अनुभव को समझना चाहिए न?
समझने और मानने में फर्क हो गया। समझने को मना नहीं करता। समझने को दुनिया खुली है। मानें मत।
मानें तो अपने अनुभव को, क्योंकि मैं जिस जगह तक चला हूं और जहां मेरा पैर है, उसके आगे मैं ही पैर उठा सकता हूं, आप कैसे उसके आगे पैर उठाएंगी? आप तो वहीं से पैर उठाएंगी जहां आपका पैर है। अगर हम इस सीढ़ी पर चढ़ रहे हैं और मैं दसवें स्टेप पर खड़ा हूं और आप पांचवें स्टेप पर खड़े हैं और मैं कहता हूं कि मेरा अनुभव है कि दसवें के बाद ग्यारहवां आता है, आप भी ग्यारहवें पर पैर रखो। आप तो छठवें पर पैर रखोगे, पैर आपका ग्यारहवें पर हो नहीं सकता कभी। मेरे अनुभव के बाद का जो अनुभव होगा वह मेरा होगा। मेरे अनुभव के आगे आप विकास नहीं कर सकती हैं।
प्रश्न:
भगवान, क्या किसी के काम की जानकारी काम नहीं आ सकती?
काम में मेरा मतलब यह है, काम में आपकी जानकारी हो सकती है, आपका ज्ञान नहीं बन सकता। और विश्वास कभी नहीं बनना चाहिए। मेरा फर्क समझीं न आप? आपका ज्ञान तो कभी बन नहीं सकता मेरा जानना, आपकी जानकारी बन सकती है, इनफर्मेशन बन सकती है। लेकिन विश्वास कभी नहीं बनना चाहिए।
प्रश्न:
भगवान, किसी के अनुभव और जानकारी मान लेने से आदमी भटकता नहीं है। और यदि हम न मानें, तो भटकते ही रहेंगे!
यह किसने कहा? ये मां-बाप नहीं भटकेंगे, यह किसने बता दिया आपको? यह तो अगर चोर का बच्चा हो और चोरी न करे, तो चोर कहेगा, रास्ता भटक गया लड़का! यानी उसका तो मापदंड तय है कि मेरा धंधा चलाना चाहिए लड़के को। मैं हूं चोर, तो मेरे लड़के को भी चोरी करनी चाहिए। अगर वह चोरी न करे और संन्यासी हो जाए, वह कहेगा, लड़का भटक गया! सब रास्ता ही छोड़ दिया।
बच्चे जो हैं--बच्चे भटक जाते हैं। यह तो हमने यह बात मान ली कि मां-बाप जो हैं, भटके हुए नहीं हैं।
प्रश्न:
भगवान, बच्चे को तो अपना अनुभव करना ही चाहिए न?
बिलकुल अनुभव करना चाहिए। और मां-बाप का यह कर्तव्य है कि बच्चे को अपने में न बांधें। बच्चे को मुक्त होने का मौका दें। और बच्चे को सदा कहें कि यह मेरा अनुभव है, मैं तुम्हें कह देता हूं जानकारी के लिए। तुम्हारे विश्वास के लिए नहीं, तुम्हारे ज्ञान के लिए नहीं। मैंने जीवन में यह-यह जाना है, वह मैं तुम्हें जानकारी के लिए कह देता हूं। लेकिन न तुम इस पर विश्वास करना और न इसको ज्ञान मानना। और न इसके आगे तुम कदम उठाना, क्योंकि कदम तो तुम उसके आगे उठाओगे जो तुम्हारा अनुभव बनेगा। लेकिन मेरे अनुभव की जानकारी तुम्हारे मस्तिष्क को वृहत करेगी।
विश्वास अगर बन जाएगी, तो वृहत नहीं करेगी, संकुचित कर देगी। अगर मेरे पिता हैं और वे मुझे कहते हैं कि मैंने अपने जीवन में यह-यह जाना है अपने अनुभव से, तो मैं तुम्हें बताए देता हूं। यह मेरा कर्तव्य है। यह मैंने जाना था अपने अनुभव से, इन्हीं जीवन के अनुभवों से तुम भी गुजरोगे, तो तुम्हारा मस्तिष्क विस्तीर्ण होगा इस जानकारी से। लेकिन इन्हें विश्वास अगर कर लें हम, तो मस्तिष्क विस्तीर्ण नहीं होगा, संकुचित हो जाएगा।
मैं जो कह रहा हूं--विश्व भर का जो ज्ञान है, वह जानकारी है। उससे रोकता नहीं आपको कि आप रुकें उससे। चाहता यह हूं कि जानकारी आपका विश्वास नहीं बनना चाहिए। आपका मन मुक्त होना चाहिए। महावीर को जानें, बुद्ध को जानें, सबको जानें। मन को मुक्त रखें, बांधें मत। खुद अनुभव करें, वह आपका ज्ञान बनेगा।
और यह तभी होगा, जब तथ्य से हम शुरू करें--जो मैं कहा, तथ्य से शुरू करें, फैक्ट को पकड़ें। बिलीफ से शुरू मत करें। और नहीं तो ऐसे-ऐसे पागलपन की बातें चलती रहेंगी और चलती रही हैं--अभी भी चल रही हैं हजारों। ऐसा नहीं है कि वे दांत जो, अरस्तू ने गलती की थी, वह अभी नहीं है। अभी भी चल रहा है। अभी भी हजारों बातें चल रही हैं। जो निपट मूर्खतापूर्ण हैं। लेकिन चूंकि उनका विश्वास है और चूंकि हजारों साल की परंपरा का समर्थन है उनको, वे चलेंगी, कोई मनाही नहीं है, वे चलती रहेंगी।
प्रश्न:
भगवान, सजगता के विषय में कुछ बताइए?
आप किसी कैंप में आएं, तभी मामला बने। वह तो थोड़ा सा, कैंप में आएं, थोड़ा प्रयोग करें तो खयाल में बनें। इतना थोड़ा खयाल करें, सजगता को समझने के लिए अपने चित्त की जो अभी अवस्था है, उसको समझना चाहिए। वह मूर्च्छित मालूम होगी। जैसे आप रास्ते पर चले जा रहे हैं, तो क्या चलते वक्त चलने की क्रिया का आपको होश है या मन में दूसरी क्रियाएं चल रही हैं? मन में दूसरे काम चल रहे हैं।
अभी मैं यहां बोल रहा हूं। अगर सिर्फ मेरा बोलना ही आप सुन रहे हों, तो यह सजग सुनना होगा। और अगर मेरे बोलने के साथ आपके भीतर दूसरे विचार भी चल रहे हैं, तो यह मूर्च्छित सुनना होगा। यह जो श्रवण हुआ, फिर मूर्च्छित हो गया। क्योंकि आप मालूम तो हो रहे हैं कि मुझे सुन रहे हैं, लेकिन आप काम मन में दूसरा कर रहे हैं। आपका चित्त कहीं और ही लगा हुआ है। तो फिर आपकी प्रेजेंस मेरे सुनने में पूरी नहीं हो सकती।
यह भी हो सकता है कि एक क्षण को आप अपने मन में इतने गहरे विचार में चले जाएं कि आप मुझे सुन ही न पाएं। आप बिलकुल ही एब्सेंट हो जाएं। तो उस हालत में आप सुन रहे हैं--मालूम पड़ रहे हैं कि आप सुन रहे हैं। कान में आवाज भी पड़ रही है, सब हो रहा है, लेकिन आप बिलकुल नहीं सुन रहे हैं। यह मूर्च्छित अवस्था हो गई। और अगर ऐसी स्थिति आ जाए कि जब आप सुन रहे हैं, तो केवल सुनने की ही क्रिया हो रही है मन में, और कोई क्रिया नहीं हो रही है, तो वह सजगता, वह अवेयरनेस होगी। उस वक्त आप जो सुन रहे हैं, वह पूरी अवेयरनेस में सुन रहे हैं।
ऐसा पूरा जीवन हो जाए कि हम जो भी कर रहे हैं, वह विवेक में और सजगता में हो रहा है, तो जीवन में धन्यता आ जाती है। और लेकिन हमारा पूरा जीवन सोया हुआ है। सोए हुए के विरोध में सजगता है। यह सब सोया हुआ काम है। आपको मैंने अगर एक धक्का दे दिया, तो आपमें जो गुस्सा आ रहा है, आप सजग हैं उसके प्रति? बिलकुल सोया हुआ काम है। जैसे मैंने बटन दबा दी, पंखा चलने लगा। आपको एक धक्का मार दिया, आपको गुस्सा आ गया। यह बिलकुल मैकेनिकल है। इसमें आपने कोई एक क्षण को भी सोचा हो कि मुझे क्रोध करना कि नहीं करना, ऐसा भी नहीं है। एक भी क्षण को आपको खयाल आया हो कि मुझमें क्रोध पैदा हो रहा है कि नहीं हो रहा है, वह भी नहीं है। बस क्रोध आ गया!
यह मूर्च्छित व्यवहार है, सोया हुआ व्यवहार है। हम जगे हुए मालूम पड़ते हैं। जगे हुए लोग बहुत थोड़े हैं। मालूम तो हम सब पड़ते हैं कि हम जगे हुए हैं। जब सुबह उठ आए, हाथ-मुंह धो लिए, तो हम बिलकुल जगे हुए हैं। बाकी जगे हुए लोग बहुत थोड़े हैं।
जगे हुए होने का अर्थ है कि मन चौबीस घंटे जो भी क्रिया कर रहा हो, उसमें पूर्ण उपस्थित हो। सजगता का मतलब हुआ: टोटल प्रेजेंस। जो भी हम कर रहे हैं--अगर आप बुहारी लगा रहे हैं, तो पूरा मन बुहारी लगाने में उपस्थित हो, तो बुहारी लगाना ध्यान हो जाएगा। अगर आप भोजन कर रहे हैं और पूरा मन भोजन करने में उपस्थित हो, तो भोजन करना ध्यान हो जाएगा।
वह जो अभी आप पूछ रही थीं न कि वह किस भांति साक्षी हों? पूरा मन वहीं मौजूद हो और हम क्रिया को पूरे जानते हों कि यह हो रहा है।
और इसका जो व्यापक परिणाम होगा, वह यह होगा कि जो भी गलत है, वह आपको होना बंद हो जाएगा। क्योंकि गलत के होने के लिए एक कंडीशन जरूरी है कि मूर्च्छा हो, नहीं तो नहीं हो सकता है। यानी अभी मैंने आपसे कहा न कि अनीति अपने आप विलीन हो जाएगी। अगर आप सजग हों, तो आप कुछ भी नहीं कर सकते जो गलत है।
मैंने तो परिभाषा यह करनी शुरू की: जो मूर्च्छा में ही किया जा सके, वही पाप है। सिर्फ मूर्च्छा में ही किया जा सके, सोए हुए ही किया जा सके, वही पाप है। और जो जाग जाने पर भी करना संभव हो, वही पुण्य है। और मैं कोई अर्थ भी नहीं देखता उसमें। और नीति-अनीति भी मैं यही मानता हूं, इससे ज्यादा नहीं मानता।
सोया हुआ आदमी जो भी कर रहा है, सब अनैतिक होगा। यानी क्या आप सोचते हैं कोई हत्यारा सजग स्थिति में किसी की छाती में छुरा मार सकता है? जागा हुआ, पूरे होश से, नहीं मार सकता है। आप तो हैरान होंगे, हत्यारों ने किसी को मारने के बाद, अनेक हत्यारों ने दो-दो तीन-तीन दिन तक वे स्मरण भी नहीं कर सके कि हमने मारा है! और पहले तो लोग समझते थे कि ये धोखा दे रहे हैं। अब मनोवैज्ञानिक जानते हैं कि वे धोखा नहीं दे रहे। इतनी गहरी मूर्च्छा पैदा हुई और मारने के बाद वह मूर्च्छा इतनी लंबी चली कि दो-तीन दिन तक वे इसको रिमेंबर भी नहीं कर पाए कि हमने मारा है। जब उनकी मूर्च्छा टूटी, तब वे कहते हैं: हमने तो नहीं मारा! जैसे कोई सपने में कर आया हो एक काम।
आप भी पछताते हैं न बाद में? एक काम कर लेते हैं, फिर पछताते हैं; और कई दफा आपको लगता है कि जैसे कि मैंने अपने बावजूद यह कर लिया। मैं तो नहीं करना चाहता था, फिर कैसे कर लिया? जब आप नहीं करना चाहते थे, तब कैसे हो जाएगा काम? नहीं, आप सो गए थे। वह जो जानता था कि क्या है ठीक करना, वह सोया हुआ था। गलती हो गई।
प्रश्न:
भगवान, जागरण के बाद क्या जानने को कुछ नहीं रह जाता है?
जानने को बहुत रह जाता है, भीतर जानने की इच्छा नहीं रह जाती। जानने को तो यह दुनिया पड़ी है। जानने को तो बड़ी दुनिया पड़ी है। जानने को तो बहुत शेष रह जाता है, लेकिन जानने की जो भीतर प्रवृत्ति है, वह विलीन हो जाती है। इंक्वायरी विलीन हो जाती है, क्योंकि अब कोई अर्थ नहीं रह जाता, कोई कारण नहीं रह जाता।
अब जैसे महावीर को ऐसा थोड़े ही खयाल आता होगा कि साइकिल कैसे बनाई जाए, बिजली का पंखा कैसे बनाया जाए! कोई यह न समझे कि महावीर ने अपने को जान लिया था, तो उनसे अगर आप पूछने जाएं कि बिजली का पंखा बिगड़ गया, तो इसको ठीक कैसे किया जाए, तो वे बता देंगे। वे नहीं बता पाएंगे। इसका कोई मतलब नहीं है।
साइंस की दुनिया में तो बहुत जानने को शेष रह जाता है, लेकिन स्वयं की दुनिया में जानने को कुछ शेष नहीं रह जाता। लेकिन होता यह है कि जो स्वयं को जान लेता है, वह इतने आनंद से, इतने आलोक से भर जाता है, सारा अंधकार उसके भीतर से नष्ट हो जाता है कि अब उसे कोई कारण नहीं रह जाता। जैसे छोटे बच्चे हैं, उनमें कुतूहल होता है हर चीज का कि यह कैसा, वह कैसा! लेकिन जैसे ही तुम प्रौढ़ हो जाते हो, कुतूहल विलीन हो जाता है। छोटा बच्चा है, उसको छोटी-छोटी बात की क्युआरिसिटी होती है कि यह ऐसा क्यों हो रहा है, वह वैसा क्यों हो रहा है? लेकिन जैसे ही तुम थोड़े मैच्योर होते हो, थोड़े बड़े होते हो, प्रौढ़ होते-होते वह तुम्हारी क्युआरिसिटी कहां विलीन हो गई! वह विलीन हो गई। समझे न?
ऐसे ही जो व्यक्ति स्वयं को जान लेता है, उसकी और एक प्रौढ़ता आती है, एक और मैच्योरिटी आती है और उसकी यह जिज्ञासा भी विलीन हो जाती है कि फलां क्यों है, क्यों नहीं है। जानने को बहुत शेष रहता है, लेकिन जानने की कोई आकांक्षा भीतर नहीं रह जाती, कोई कारण भी नहीं रह जाता। मेरा मतलब समझे न? कोई कारण नहीं रह जाता।
असल में हर चीज को जानने की जो चेष्टा है, वह दुख से पैदा होती है--दुख से पैदा होती है। भीतर चित्त दुखी होता है, तो हम सोचते हैं कि शायद इसको जान लें, तो दुख मिट जाए। विज्ञान की सारी जो खोज है, वह दुख के कारण है। इस बात का दुख है, उस बात का दुख है; यह बीमारी का दुख है। तो वैज्ञानिक खोज करता है कि शायद बीमारी के कारण को हम जान लें, तो फिर बीमारी मिट जाए। गर्मी लगती है, गर्मी का दुख है, तो वह वैज्ञानिक सोचता है, पंखा चलाया जाए। तो पहले आदमी हाथ से पंखा चलाता था। फिर देखा कि आदमी हाथ से पंखा चलाते-चलाते थक जाता है, यह भी दुख है। तो फिर ऐसी व्यवस्था की जाए कि आदमी की जरूरत न हो, पंखा चले।
दुख हमारा खोज में ले जाता है। जो व्यक्ति स्वयं को जान लेता है, उसका दुख विलीन हो जाता है, इसलिए उसकी कोई खोज नहीं रह जाती। मेरा मतलब समझे न? जानने को तो बहुत शेष है। सारी दुनिया पड़ी है। लेकिन उसका दुख विलीन हो जाता है, इसलिए जानने का कोई सवाल नहीं रह जाता।
दुख के कारण हम जानने को जाते हैं। अगर महावीर या बुद्ध जैसे व्यक्ति को बीमारी भी हो जाए, तो भी दुख नहीं देती। वे अपने को जानते हैं, इसलिए शरीर से भिन्न अनुभव करते हैं। इसलिए कोई दुख नहीं देती, ठीक है, तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
मेरा मतलब समझ गए न तुम? ऑब्जेक्ट तो बहुत शेष रह जाते हैं, लेकिन भीतर कारण नहीं रह जाता है, चेष्टा नहीं रह जाती है। इसलिए कहा जाता है कि जो अपने को जान लेता है, वह सब जान लेता है। इसका मतलब ऐसा नहीं है। इसका मतलब ऐसा नहीं है कि वह सब जान गया--केमिस्ट्री, फिजिक्स और मैथेमेटिक्स--वह सब जान गया। ऐसा नहीं है। वह तो मैट्रिक की परीक्षा में बिठाओ, आत्म-ज्ञानी को, तो फेल हो जाए! इससे कोई मतलब नहीं है। आत्म-ज्ञान और बात है।
इस अर्थ में होता नहीं। वह तो ‘जिसने स्वयं को जान लिया है, सब जान लिया है,’ इसका मतलब यह है कि अब उसमें कुछ जानने की इच्छा नहीं रह गई, कुछ जानने की इच्छा नहीं रह गई। सर्वज्ञ का भी मतलब यह है जिसमें अब कुछ जानने की इच्छा नहीं रह गई। जब तक जानने की कुछ भी इच्छा शेष है, तब तक मतलब है कि भीतर अज्ञान है, इसलिए जानने की इच्छा शेष है। सर्वज्ञ का अर्थ है: जिसके भीतर अज्ञान न रह जाने के कारण जानने की कोई इच्छा शेष नहीं रह गई। इसलिए कहते हैं, जिसने स्वयं को जाना सबको जान लिया।
लेकिन नासमझ तो पक्के हैं हरेक के पीछे। उन्होंने इसका अर्थ लिया कि उसने सब जान लिया। ‘सब जान लिया’ इससे झगड़े खड़े हो गए दुनिया में।
क्राइस्ट ने लिख दिया था कि जमीन जो है वह चपटी है। जब वैज्ञानिकों ने खोजा कि जमीन गोल है, तो चर्च खिलाफ खड़ा हो गया। यह तो गड़बड़ हो जाएगा, अगर यह पता चल जाए कि क्राइस्ट को यह भी पता नहीं है। ईश्वर के पुत्र थे और यह भी पता नहीं था कि जमीन गोल है कि चपटी है, तो बड़ा अज्ञान सिद्ध हो जाएगा क्राइस्ट का।
उन्होंने वैज्ञानिकों को बुलवाया पोप ने और कहा कि यह बात बिलकुल गलत है। यह हो नहीं सकता। क्योंकि यह सर्वज्ञ ने कहा है, ईश्वर के पुत्र ने कहा है--जो सब जानता था। उसने कहा है कि जमीन चपटी है। जमीन चपटी ही होगी, जरूर तुम्हारी ही कोई भूल है। जमीन गोल हो ही नहीं सकती। लेकिन अब वह जमीन गोल ही थी भाग्य से, अब कोई रास्ता न बना। जानकारी बढ़ती गई। वह जमीन गोल सिद्ध हो गई।
पादरी, पुरोहित डरा। कि इसमें एक खतरा जो है, वह क्या है? अगर क्राइस्ट इसमें भूल कर सकते हैं, तो और चीजों में भी भूल कर सकते हैं। नहीं तो फिर एक, यानी यह आदमी इतनी बड़ी बात भूल कर गया है, कोई छोटा ब्लंडर है? यह छोटी भूल है कि इतनी बड़ी जमीन गोल है सदा से और उसने चपटी कह दिया! तो जब इसमें भूल कर सकता है, तो हो सकता है कि स्वर्ग-नरक और परमात्मा वगैरह के बाबत भी सब भूल हो।
इसलिए हर धर्म का मानने वाला अपने तीर्थंकर को, अपने अवतार को, अपने ईश्वर-पुत्र को कहता है, वह सर्वज्ञ है। क्योंकि अगर एक भी भूल उससे हो सकती है, तो फिर बड़ी दिक्कत हो जाएगी, फिर शक पैदा हो जाएगा कि कहीं दूसरी बातों में भी भूल न हो। इसलिए सब धर्म यह कोशिश करते हैं कि उनके ग्रंथ जो हैं, उसमें सब ज्ञान है। उनका जो तीर्थंकर है, वह सर्वज्ञ है। ये दूसरे लोग सारी चेष्टा करके सिद्ध करने की कोशिश करते हैं।
मगर ये चेष्टाएं गलत होती जाती हैं और नासमझी की सिद्ध होती जाती हैं। एकदम नासमझी की सिद्ध होती जाती हैं। और वे इसलिए नासमझी कि सिद्ध होती जाती हैं कि सर्वज्ञ का अर्थ ही हमने गलत ले लिया है। सर्वज्ञ का अर्थ है: जिसने स्वयं को जाना--पूर्णता में जाना, और अब उसे जानने को कुछ शेष नहीं रहा। उसका यह मतलब नहीं है कि उसने जो सब सारी दुनिया फैली हुई है, वह जान ली। उसने नहीं जानी। उससे कोई संबंध नहीं है उस बात का।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
असल बात जो है, हमारे सामने तो हमेशा च्वाइस का सवाल होता है कि यह करें या न करें? कर सकते हैं कि नहीं कर सकते हैं? उसके सामने कोई च्वाइस का सवाल नहीं होता। तो वह भी जो आपको कहेगा, वह आपकी च्वाइस में से न चुनेगा। वह आपकी इग्नोरेंस बताएगा कि इग्नोरेंस की वजह से आप ये चीजें पेश कर रहे हैं।
जैसे कि आप मुझसे एक प्रश्न पूछते हैं। मेरे पास--मैं एक गांव में गया--एक आदमी आया। उन्होंने पूछा कि यह दुनिया जो है, ईश्वर ने बनाई कि नहीं बनाई, यह मुझे बता दीजिए? तो मैंने उनको पूछा कि अगर यह पता चल जाए कि ईश्वर ने यह दुनिया बनाई, फिर आप क्या करोगे? बोले: करेंगे क्या, एक जानकारी हो जाएगी। तो मैंने कहा कि कितने दिन से यह जानकारी करने की कोशिश चलती है? उन्होंने कहा: जब से युवा हूं, तब से पूछता हूं। अब तो वृद्ध हो गया। बहुत खोज-बीन करता हूं इसकी कि ईश्वर ने बनाई दुनिया कि नहीं बनाई? मैंने उनसे कहा: जीवन आपने व्यर्थ खो दिया। जिस बात को जानने के बाद फिर कुछ और होना नहीं है। यानी आप जान लेंगे कि ईश्वर ने बनाई या नहीं बनाई, फिर क्या होगा? इससे आपके जीवन में क्या होगा? उन्होंने तो मेरे सामने विकल्प रखे, ईश्वर ने बनाई या नहीं बनाई? लेकिन मुझे दिखाई पड़ रहा है कि विकल्प कहां से पैदा हो रहे हैं। तो मैं उनके विकल्प का उत्तर नहीं दे सकता हूं। कहूंगा कि यह अज्ञान से विकल्प पैदा हुआ।
ऐसे जैसे घर में एक आदमी को सन्निपात हो गया हो, बुखार चढ़ गया हो और सन्निपात में चिल्लाने लगा कि मकान उड़ा जा रहा है, और आप खड़े हैं वहां। और वह कहने लगा, मकान किस दिशा में उड़ रहा है? तो आप क्या करोगे? यानी सवाल यह है, एक आदमी तो फीवर में है और दिमाग गड़बड़ा गया है और वह कह रहा है कि मेरा मकान उड़ा जा रहा है और आपसे पूछने लगे कि मकान किस दिशा में उड़ रहा है, उत्तर में कि दक्षिण में? उसने तो विकल्प रख दिए सामने। अब आप क्या करोगे? क्या आप उत्तर दोगे कि उत्तर में या दक्षिण में या खोज करने निकलोगे कि मकान उड़ रहा है कि नहीं? आप फौरन डॉक्टर को बुलाओगे--कि तुम शांति से सोए रहो। चिकित्सक को बुला कर...। समझे न?
तो अगर आत्म-ज्ञानी के पास जाकर आप पूछो कि यह ऐसा या वैसा, तो वह चिकित्सक का व्यवहार करेगा आपके साथ। यानी आपके साथ शिक्षक का व्यवहार नहीं करेगा।
दो तरह के व्यवहार हैं दुनिया में। एक शिक्षक का व्यवहार है और एक चिकित्सक का व्यवहार है। पंडित जो है, वह शिक्षक का व्यवहार करता है। और ज्ञानी जो है, वह चिकित्सक का व्यवहार करता है। और ये व्यवहार बड़े भिन्न हैं और इनकी पूरी दृष्टि भिन्न होती है। इसलिए जो शिक्षक के बहुत आदी हो जाते हैं, चिकित्सक मिल जाए तो उन्हें बड़ी परेशानी होती है। क्योंकि वे, शिक्षक के जो आदी हो गए हैं न, कोई न कोई प्रीचर के आदी हो गए हैं, वह जब उनको कभी चिकित्सक मिल जाए, तो उन्हें बड़ी तकलीफ और परेशानी हो जाती है। क्योंकि वह गड़बड़ बातें करता है, कि वे जो पूछते हैं, वह तो उत्तर देता नहीं। वह कुछ और बात कहता है। असल में उसे आपकी बीमारी से मतलब है, आपके प्रश्न से मतलब नहीं है--आपके प्रश्न से मतलब नहीं है।
अभी मैं एक गांव में गया। एक लड़के को लोग मेरे पास लाए। उसको यह वहम हो गया कि उसके सिर में तीन मक्खियां घुस गई हैं। वह पागल हो गया था। और वे उसके सिर में घूम रही हैं! बड़े परेशान थे गांव के लोग। बड़े अच्छे घर का लड़का था। जगह-जगह दिखला लाए उसको। उसकी सब परीक्षा हो गई। बोले कि भई, कोई मक्खी-वक्खी तो हैं नहीं, कहां घूमेंगी? घूमने की कोई ऐसी जगह है कि वहां घूम रही हैं? और सब परीक्षा भी हो गई, उसमें मक्खी-वक्खी हैं नहीं, इसको वहम है। उस लड़के को वे कहें, वहम है। वह कहे कि आप कहते हैं, मैं कैसे मानूं? मुझे तो मालूम हो रहा है कि घूम रही हैं।
कोई साधु-संन्यासी गांव में आया, तो उसके पास ले गए, कि भई आप कुछ समझा दीजिए। कोई समझदार था गांव का, उसके पास ले गए, आप समझा दीजिए। तो लोग उसको समझाए कि यह तुम्हारा वहम है। वह कहे कि आप कहते हैं तो जरूर मुझे लगता है कि आप जब कहते हैं, लेकिन आपको पता भी कैसे कि मेरे सिर में घूम रही हैं! और जब मैं खुद ही अनुभव कर रहा हूं कि घूम रही हैं, तो अब मैं क्या करूं?
मैं उस गांव में गया था, तो वे मेरे पास ले आए थे उसको। वे लाए तो लड़का घबड़ाया हुआ था, क्योंकि हरेक के पास ले जाया जाता रहा था। जो भी आए उसके पास ही ले जाने का हिसाब चलता था। वह लड़का घबड़ाया हुआ था। वह आया, तो वह बिलकुल जैसे कि कोई अपराधी हो, वैसा बेचारा खड़ा हो गया। मैंने पूछा: क्या बात है? उन्होंने कहा कि इसको ऐसा वहम हो गया है कि इसके सिर में तीन मक्खियां घूम रही हैं। मैंने उनसे पूछा: यह वहम है, यह आपको कैसे पता चला? लड़का जरा आश्वस्त हुआ। उसने कहा: यह आदमी ठीक है।
यह मैंने उसके पिता से पूछा कि यह वहम है, यह आपको कैसे पता चला? जब वह कह रहा है कि घूम रही हैं, तो जरूर घूम रही हैं। वह लड़का अपने पिता से बोला कि आप ठीक आदमी के पास मुझे लिवा लाए हैं। मेरे घूम रही हैं, कोई मेरी मानता नहीं। उसने कहा कि जब मेरे सिर में घूम रही हैं, मेरी कोई मानता ही नहीं। सभी मुझे यह समझाते हैं कि तुम वहम में हो, तुम्हारा दिमाग खराब है। कौन कहता है, मेरा दिमाग खराब है? मैंने उसको कहा कि दिमाग दूसरों का खराब होगा। वे जरूर घूम रही हैं, तब तो पता चल रही हैं। तुम बैठो। मैंने उससे पूछा: कितनी मक्खियां हैं? उसने कहा: तीन मक्खियां हैं। तुम ठीक से गिने हो? बिलकुल मुझे अनुभव ही हो जाता है कि तीन हैं। कब से? उसने सब बताया और मैं उससे बात करता रहा। पिता बड़ा हैरान हुआ। मैं जब यह कहने लगा कि जरूर घूम रही हैं, तो पिता थोड़ा घबड़ाया।
तो उसने कहा कि एक तो परेशानी यह थी कि यह जो है लड़का वैसे ही खराब है और अब इसको एक सहारा भी है। तो उसके पिता मुझसे कहे कि आप जरा बाहर आइए। दो मिनट आपसे मुझे बात करनी है। वे बाहर ले गए। कहे कि आप यह क्या कर रहे हैं? हम तो परेशान हो गए हैं और उसको समझाना है कि मक्खियां नहीं घूम रही हैं और आप कह रहे हैं कि घूम रही हैं, तो मुश्किल हो जाएगी! डाक्टर कहते हैं, मक्खियां हैं नहीं, घूमेंगी कैसे? और वह तो लड़का बड़ा प्रसन्न है आपके पास। वह अभी तक किसी के पास प्रसन्न नहीं हुआ जाकर। और यह तो खतरा हो जाएगा, क्योंकि अब वह घर जाकर कहेगा कि उन्होंने भी कहा कि ठीक है, और अब एक प्रमाण मिल गया उसको।
मैंने कहा कि मैं उससे शिक्षक का व्यवहार नहीं करता हूं। मैं उससे चिकित्सक का व्यवहार कर रहा हूं। आप चले जाएं, आप फिकर छोड़ दें। मैंने उसको कहा कि तुम रात मेरे ही पास रुक जाओ। मैं थोड़ा अनुभव करूं। जरूर घूम रही हैं, तो मुझे भी थोड़ा तो अनुभव होगा। तो रात मैं उसके सिर पर हाथ रखे रहा। और मैंने सुबह उससे कहा कि निश्चित तीन मक्खियां हैं और घूमती हैं! वह बहुत प्रसन्न हुआ, आश्वस्त हुआ। वह बड़ा स्वस्थ मालूम हुआ।
उसके पिता से मैंने कहा कि तीन मक्खियां कहीं से पकड़वा लाएं और एक शीशी में बंद कर लाएं। रात को जब वह सोया, तो मैंने एक खाली शीशी उसके पास रखी और मैंने कहा कि रात कोशिश करेंगे नींद में निकालने की। जहां तक तो आशा है कि सुबह तक तो निकल जाएंगी। और सुबह वह शीशी बदल दी और वे तीन मक्खियां बंद वाली शीशी उसके पास रख दी। सुबह वह प्रसन्न हो गया और मुक्त हो गया।
इसको मैं चिकित्सक का व्यवहार कहता हूं। यह शिक्षक का व्यवहार नहीं है। और फिर दो ही तरह के व्यवहार हो सकते हैं। आप जब मुझसे पूछते हैं, तो मुझे बड़ी दिक्कत होती है। यानी मेरी दिक्कत यह नहीं है कि आप क्या पूछ रहे हैं। मेरी दिक्कत यह है कि आप पूछ क्यों रहे हैं? कि आपके भीतर गड़बड़ कहां है? यह कहां से परेशानी आ रही है...जहां से यह प्रश्न पैदा हो रहा है?
तो मुझे आपका प्र्रश्न बहुत महत्वपूर्ण नहीं मालूम पड़ता, सिर्फ संकेत मालूम पड़ता है कि भीतर बीमारी कहां है। तो कई दफा यह हो सकता है कि आपका उत्तर इधर जाता मालूम पड़े और मेरा उत्तर और कहीं जाता मालूम पड़े। कई दफा ऐसा आपको लग सकता है। यह तो बात असंगत हो गई। असंगत लगेगी, क्योंकि आदत हमारी यह है कि सीधा उत्तर दीजिए आप हमारे प्रश्न का। ईश्वर है या नहीं, इसका सीधा उत्तर दीजिए! आत्मा है या नहीं, इसका उत्तर दीजिए! पुनर्जन्म होता है या नहीं होता; डेस्टिनी होती है या नहीं, इसका उत्तर दीजिए सीधा आप! आप दूसरी बातें क्यों करते हैं? लेकिन मैं आपसे कहूं कि दूसरी बातें ही करनी पड़ेंगी। इसके उत्तर से कोई मतलब नहीं है। वह आपके पूरे के पूरे मन की चिकित्सा होनी चाहिए। और वह हो सकती है।
प्रश्न:
भगवान, आपने कहा है दमन नहीं करना चाहिए। तो उसके लिए ऊर्ध्वीकरण होना चाहिए। बदलना चाहिए। बताइए क्या करना चाहिए?
क्यों करना चाहती हैं ऊर्ध्वीकरण?
प्रश्नकर्ता:
वृत्तियों को बदलने के लिए। जो आपने कहा था।
मेरे कहने से करिएगा क्या?
प्रश्नकर्ता:
इससे सुख मिलता है, संतोष मिलता है, आनंद मिलता है ।
इससे सुख नहीं मिलता। मैं आपकी बात समझ गया हूं। पहली बात यह है कि आप सब्लिमेशन करना क्यों चाहती हैं? जैसे समझ लीजिए सेक्स है, इसका क्यों सब्लिमेशन करना चाहती हैं?
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
यानी मुसीबत यह है, कठिनाई यह है कि मैं जो इतनी देर से कह रहा था, वही कठिनाई है। आप तो यह बता रही हैं कि समझ लीजिए मुझे कोई प्रेम करता है, दूसरे लोगों को बुरा लगता है, इसलिए मैं इस प्रेम को सब्लिमेट कर दूं। मुझे कैसा लग रहा है यह प्रेम? सुखद लग रहा है या दुखद? दूसरों से क्या मतलब है। दूसरे गलती में हो सकते हैं। फिर आपके पड़ोसी गलती में हो सकते हैं; जो उन्होंने नीति बनाई है, वह नासमझी हो सकती है।
प्रश्न:
भगवान, पड़ोसी से प्यार का नाता तो है ही, लेन-देन का नाता तो है ही, उसको कैसे छोड़ दें?
न-न-न। यह मैं नहीं कह रहा। आप मेरी बात नहीं समझीं। मैं जो कह रहा हूं वह यह बहुत वैज्ञानिक रूप से पकड़ें।
हमारे भीतर सेक्स की वृत्ति है और हम कहते हैं, इसे हमें ऊर्ध्वीकरण करना है। मैं यह पूछ रहा हूं कि क्यों करना है? क्या सेक्स में सुख नहीं मिल रहा है? आप कहती हैं कि ऊर्ध्वीकरण का सुख मिलेगा! तो पहले तो यह जानना जरूरी है कि क्या सेक्स में सुख नहीं मिल रहा है? या कि दूसरे ऐसा कहते हैं कि नहीं मिलता, इसलिए आपने मान लिया? मेरी आप बात समझ रही हैं न? अगर इसमें सुख नहीं मिल रहा है, यह आपको अनुभव से आता हो, तो ऊर्ध्वीकरण शुरू हो जाएगा। मेरी बात समझीं आप? ऊर्ध्वीकरण शुरू हो जाएगा।
जिस चीज में मुझे सुख नहीं मिलेगा, उससे मेरे हाथ खिंचने लगेंगे। लेकिन कठिनाई इसलिए है कि दूसरे ऐसा कहते हैं कि सुख नहीं मिलता है, ऊर्ध्वीकरण में सुख मिलेगा और मुझे सुख मिल रहा है। इसलिए सवाल उठता है कि अब मैं सब्लिमेट कैसे करूं?
मेरा आप मतलब समझीं न?
सब्लिमेट कैसे करूं यह प्रश्न इसलिए उठता है कि मुझसे दूसरे ऐसा कह रहे हैं--गुरु हैं, शिक्षक हैं, संन्यासी हैं, वे समझा रहे हैं कि सेक्स बड़ी दुख की बात है। और अगर सेक्स का सब्लिमेशन हो जाए, तो बड़ा सुख मिलेगा। और मेरा अनुभव यह है कि मुझे सेक्स में सुख मिल रहा है। इससे दिक्कत है। अब मैं यह पूछता हूं कि सेक्स को सब्लिमेट कैसे करूं, फिर वह और सुख मिल जाए शायद। लेकिन सेक्स का सब्लिमेशन ही तब होगा, जब आपके अनुभव में यह आए कि सेक्स में सुख नहीं मिल रहा है। यह दूसरे के कहने से नहीं होगा। मेरी मतलब आप समझीं न? सब्लिमेशन तो प्रत्येक क्षण होता है प्रत्येक वृत्ति का, अगर अनुभव हो।
आप हैरान होंगी। लोगों के बच्चे पैदा हो जाएं, जिंदगी गुजार दें, बूढ़े हो जाएं, सेक्स का उन्हें अनुभव नहीं होता। आप समझेंगी कि यह मैं क्या बात कर रहा हूं! सेक्सुअल एक्ट से गुजर जाना सेक्स का अनुभव नहीं है। सेक्स का अनुभव बड़ी और बात है। वह हो ही नहीं सकता आपको। इसलिए नहीं हो सकता कि सेक्स के बाबत जो आपने धारणाएं बना रखी हैं, उनकी वजह से अनुभव को आप--प्रेमपूर्ण ढंग से जाग नहीं पाते अनुभव में। धारणाएं बना रखी हैं।
अभी मैं एक घर में ठहरा। एक पत्नी ने मुझसे पूछा कि मैं पति के प्रति बहुत आदर रखना चाहती हूं। मानती हूं कि पति जो है वह परमेश्वर है। लेकिन फिर भी झगड़ा-फसाद हो जाता है। फिर भी कुछ न कुछ गड़बड़ बीच में आ जाती है और कुछ विरोध हो जाता है और कोई संघर्ष हो जाता है। चौबीस घंटे यह जानते हुए कि पति का मुझे आदर करना है, मानते हुए, फिर भी बस अनादर की बातें हो जाती हैं। ये क्यों हो जाती हैं?
जैसा मैंने आपसे कहा कि मेरी दृष्टि तो और है। मैंने उनसे यह पूछा...। बचपन से बच्ची को, बच्चे को हम सिखाते हैं, जाने-अनजाने शिक्षा देते हैं कि यह जो सेक्स है, सबसे घृणित बात है। यह समझाते हैं कि यह सबसे घृणित बात है। यह सबसे बुरी बात है, इसकी चर्चा ही मत करना, इसकी बात ही मत करना। इसको कभी उठाना ही मत। यह हो ही नहीं रही दुनिया में, ऐसा मालूम होता है। बातचीत देखें, किताबें देखें, हिसाब-किताब, तो यह कहीं है ही नहीं। यह इतनी गंदी बात है कि इसकी बात ही मत करना। इस तरह का कोई संबंध किसी से बनाना मत। यह बहुत बुरा, बहुत अनैतिक बात है।
बीस साल तक एक लड़की, सेक्स अनैतिक है, गंदा है, यह सुन कर फिर विवाहित होती है और पति को हम कहते हैं, इसको परमेश्वर मानना, और यह आदमी उसी कृत्य में उसे ले जाएगा जो कि सबसे गंदा है--बीस साल तक सिखाया गया है। बीस साल तक जो कृत्य सबसे गंदा कहा गया है--यह जो परमेश्वर समझाया जा रहा है पति, यह उसी कृत्य में उसे ले जाएगा। उसके चित्त की क्या दशा होगी? इसके प्रति आदर हो कैसे सकता है?
हिंदुस्तान में कोई पत्नी पति के प्रति आदर कर ही नहीं सकती। यह संभव ही नहीं है, असंभव है। यह बिलकुल झूठी बात है। पति के प्रति उसके मन में घृणा होगी। और वह पति भी नहीं कर सकता पत्नी को प्रेम। वह तो जानता है कि यही तो नरक का द्वार है। यानी, यह नरक के द्वार को कोई प्रेम कर सकता है? तो वह प्रेम की बातें करेगा और भीतर नरक का द्वार जानेगा। और सेक्स की वृत्ति है, वह है नैसर्गिक; उससे छुटकारा नहीं। बस एक चक्कर में सारी बात डोलेगी और तब उसके पच्चीस-पच्चीस प्रश्न खड़े हो जाएंगे और वह प्रश्न पूछेगा और असली बात पूछेगा नहीं कि असली बात कहां बैठी हुई है? मेरा आप मतलब समझ रही न? और फिर वह सोचेगा, कैसे सब्लिमेशन हो? यह कैसी गंदगी में मैं पड़ गया हूं--फलाना-ढिकाना। और ये सबकी सब झूठी बातें हैं। असली बात कुछ और है।
मेरा कहना यह है कि सेक्स एक नैसर्गिक बात है। इसके प्रति दुर्भाव छोड़ दें। इसके प्रति कोई भी दुर्भाव रखना बहुत खतरनाक है। यह दुर्भाव पूरे जीवन को नष्ट कर देगा, और नष्ट कर देता है। दुर्भाव बिलकुल छोड़ दें। जानें कि एक नैसर्गिक शक्ति है। इसको अनुभव करें। इसे पूरी सरलता से अनुभव करें। क्योंकि दुर्भाव हुआ, तो मन सरल नहीं रह जाता है। हम तैयार हो गए कि यह गलत चीज है और फिर भी करनी पड़ रही है। खींच भी रहे हैं अपने को और कर भी रहे हैं; कर भी रहे हैं, दुखी भी हो रहे हैं। ऐसे तो सब गड़बड़ हो जाएगा।
न, बहुत सहज भाव से। जैसे आंखें मिली हैं मुझे, हाथ-पैर मिले हैं, वैसा ही सेक्स भी मिला है। यह भी उतना ही नैसर्गिक है। इसमें कुछ पाप नहीं है। चाहे दुनिया की कोई नीति इसको पाप कहती हो, यह नैसर्गिक है। इसको जानें पूरा। और वह जो सेक्सुअल एक्ट है, उसको भी बड़े प्रेम से, बड़ी सहजता से, बड़े निर्दोष मन से देखें और समझें कि उसमें क्या रस है और क्या आनंद है? और आप धीरे-धीरे अनुभव करेंगी कि उसमें कोई भी रस नहीं है और कोई भी आनंद नहीं है। और तब उस कृत्य से मुक्ति शुरू हो जाएगी।
प्रश्न:
भगवान, आप इसको निर्दोष कहते हैं, लेकिन इससे दोष शुरू हो जाएगा।
वे सारे भाव छोड़ें जो पकड़े हुए हैं। इसीलिए तो समझाया। मतलब यह कि आपका माइंड तो बन चुका है न! वह सारा भाव छोड़ें। वह सारा भाव छोड़ें। अभी मैं कहीं जाऊं और एक लड़की मेरे साथ जा रही हो, तो आपके मन में लगेगा कि अरे, मेरे साथ यह लड़की कैसे जा रही है? यह तो भाव है। अगर मुझे थोड़ा आप...मेरे प्रति थोड़ी भावना, दया हुई आपकी, आप कहेंगे, इस लड़की को साथ मत ले जाइए, लोग न मालूम क्या सोचेंगे।
अभी एक लड़की मेरे साथ जाती थी, तो एक वृद्ध ने मुझसे कहा कि इन्हें वहां मत ले जाइए। जिस गांव में आप जा रहे हैं, उस गांव में बड़े ऑर्थाडाक्स लोग हैं। वहां आप मत ले जाइए, वे पूछेंगे कि यह कौन लड़की है आपके साथ है? और किसी ने अगर यह पूछ लिया कि आपकी कौन लगती है, तो फिर क्या कहिएगा? मैंने कहा कि मैं कहूंगा कि यह मुझे प्रेम करती है। इसलिए मेरे साथ जाती है। वे बोले: अरे, यह आप किसी को भूल कर कहना ही मत, नहीं तो बड़ा गड़बड़ हो जाएगा। वह तो सब मामला ही गड़बड़ हो जाएगा। आपकी सब इज्जत ही मिट जाएगी।
यानी हमारे दिमाग में जो, यह जो हमारी बुद्धिहीन स्थिति है और यह जो हमने जड़ता पकड़ी हुई है, यह हमें कष्ट दे रही है। और हम भगवान को खोजने जा रहे हैं और बुद्धि यहां अटकी हुई है सारी, इन सब बेवकूफियों में! और वह खुद पैदा किए हुए हैं।
इसलिए मैं बड़ी तकलीफ में हूं। तकलीफ में यह हूं कि आपके असली मसले नहीं हैं आपके सामने। असली मसले बहुत गहरे में बैठे हुए हैं और वे जड़ से खोदे डाल रहे हैं। उनको हम छिपा कर और दूसरे मसले चर्चा कर रहे हैं। उसको तोड़िए।
अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। कोई भी दिन शुरुआत करिए। वह दिन नया है। छोड़ दीजिए दुर्भाव सेक्स प्रति। आप पति के प्रति और तरह का भाव अनुभव करेंगी। वह दुश्मन नहीं रह जाएगा। वह बुरा आदमी नहीं रह जाएगा। आपके पूरे आस-पास की हवा में फर्क हो जाएगा। आपका बच्चों के प्रति प्रेम होगा। कभी कोई मां जो सेक्स को बुरा मानती है बच्चे को कैसे प्रेम करेगी? वह उसी सेक्स की तो प्रॉडक्ट है। यह उसी घृणित काम का तो फल है। तो वह दिखाए भी ऊपर से कि बड़ा प्रेम है, लेकिन बहुत गहरे में तो जानेगी...। और इसलिए वह जो संन्यासी है, जो ब्रह्मचारी है, वह उसके पैर छुएगी कि यह आदमी ऊंचा है। और पति के कैसे पैर छुएगी? अगर छुएगी, तो जबरदस्ती छुएगी। यह आदमी ऊंचा हो ही कैसे सकता है! तो अगर संन्यासी के बाबत पता चल जाए कि किसी स्त्री से उसका प्रेम है, तो सारा आदर खत्म। वह तो वही आदमी हो गया जैसे आदमी हम जानते थे रोज-रोज। तो मामला खत्म हो गया। यह हमारा जो ड़िजीज्ड माइंड है, बिलकुल सड़ गया है। इसकी पूरी सड़ांध को तोड़ना बड़ा कठिन है। लेकिन प्रयोग करना पड़ेगा।
प्रश्न:
भगवान, संभोग व्यर्थ लगता है, लगता है कि यह नहीं चाहिए?
यह जो आप अनुभव करती हैं कि नहीं चाहिए, यह बिलकुल झूठ है। यह झूठ इसलिए है कि अनुभव से नहीं है। वह कंडेमनेशन पहले बैठा हुआ है। इसलिए प्रतीत होगा आपको सौ में निन्यानबे मौके में। और अगर अनुभव से प्रतीत होगा, तो आप बहुत हैरान हो जाएंगी। अगर आपको अनुभव से यह प्रतीत हो जाए, तो मैं आपको...।
इस पर कभी एक पूरा चुकता कैंप अलग लेने का सोचता हूं कि ब्रह्मचर्य पर ही पूरी आपसे चर्चा कर सकूं। अगर आपको यह अनुभव से पता चल जाए--आपके अनुभव से--तो आप हैरान हो जाएंगी। अब यह अगर मैथुन की स्थिति में पति और पत्नी पड़े हों और पत्नी को उस वक्त अनुभव हो कि यह एक्ट बिलकुल व्यर्थ है, तो यह थॉट ट्रांसफर हो जाता है फौरन पति पर। वह इतना शांत क्षण होता है मन का और इतना मौन क्षण होता है कि अगर पत्नी को उस वक्त यह खयाल आ जाए कि व्यर्थ है या पति को खयाल आ जाए, तो दूसरे को, जो दूसरा उस वक्त उसके साथ है, उसको फौरन यह अनुभव में आना शुरू होगा कि यह व्यर्थ है। इसको आप प्रयोग करके देख सकते हैं, जो मैं कह रहा हूं। और अगर पत्नी या पति में से एक को सेक्स व्यर्थ हो जाए, तो दूसरे को अपने आप हो जाएगा। लेकिन कंडेमनेशन से अगर हो...।
यह हमको पहले से ही पता है कि यह गंदी चीज है। और स्त्रियां जो हैं, वे ज्यादा, जिसको कहें, सम्मोहन-प्रवण हैं। इसलिए समाज जो बेवकूफियां पुरुषों और स्त्रियों को सिखाता है, स्त्रियां ज्यादा सीखती हैं, पुरुष कम सीखते हैं। यही वजह है कि साधुओं की संख्या कम और साध्वियों की संख्या ज्यादा है।
बच्चों को भी सिखाते हैं, बच्चियों को भी सिखाते हैं कि सेक्स गंदा है। लेकिन बच्चे उतने गहरे कभी नहीं सीख पाते जितनी कि बच्चियां सीख लेती हैं। वह सीखने की जो क्षमता है, किसी चीज को ग्रहण करने की जो क्षमता है स्त्रियों की पुरुषों से ज्यादा है; और इसलिए वे दोनों चाक अलग-अलग हो जाते हैं गाड़ी के और बड़ी गड़बड़ पैदा हो जाती है।
पहला तो यह है कि किसी भी वृत्ति के प्रति बहुत सहज हो जाएं। और समाज ने कुछ भी सिखाया हो, उसे अलग करें और सोचें कि मैं कैसे जानूं? कोई भी वृत्ति। तब आपको जो अनुभव होगा, वह बड़ा गहरा होगा, बड़ा और होगा, बहुत दूसरी तरह का होगा।
अभी अनुभव तो सुख का होता रहेगा और चित्त यह कहता रहेगा, यह क्या पाप है! यह पाप की वजह से दुख मालूम हो सकता है, लेकिन वह दुख है नहीं। भीतर सुख है, भीतर सुख की संवेदना सरक रही है और ऊपर से वह पाप की वजह से दुख मालूम होता है।
यह दुख मालूम होना इंटेलेक्चुअल है और सुख मालूम होना बिलकुल इंस्टिंक्ट है। तो गहरे में सुख मालूम होता है और उथले में दुख मालूम होता है। इससे फिर चित्त जो है, अलग-अलग पटरी पर, विरोध में पड़ जाता है।
प्रश्न:
सब्लिमेशन!
नहीं है। मैं जो कहता हूं, सब्लिमेशन होता है। मेरा जो कहना है, सब्लिमेशन किया नहीं जाता। आपका जैसे-जैसे ज्ञान विकसित होता है किसी वृत्ति के बाबत, वह सब्लिमेट होने लगती है। सब्लिमेशन जो है वह किया नहीं जाता, होता है।
मेरा पूरा जोर यह है कि जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह ज्ञान के माध्यम से होता है, किया नहीं जाता है। और जब भी आप पूछते हैं, कैसे करें? तब मैं जानता हूं कि चित्त जो है वह समाज के सिखाए हुए हिसाब की वजह से परेशान हो रहा है और पूछ रहा है--कैसे करें।
प्रश्न:
भगवान, वह बंधी हुई व्यवस्था जो है समाज की, वह गड़बड़ में नहीं पड़ जाएगी?
कोई गड़बड़ में नहीं पड़ेगी, जरा भी गड़बड़ में नहीं पड़ेगी। बहुत सुंदर हो जाएगी। जरा भी गड़बड़ नहीं होगी। गड़बड़ तो है। अभी गड़बड़ है। और इससे ज्यादा गड़बड़ कुछ नहीं हो सकती है। मैं कल्पना नहीं कर सकता, इससे ज्यादा गड़बड़ और क्या हो सकती है, जो है अभी?
अभी एक कॉलेज में बोलने गया था। तो लड़कों ने मुझसे, मैं कुछ बोला, एक लड़के ने मुझसे पूछा कि आप जो कह रहे हैं, अगर यह हुआ, तो सब गड़बड़ हो जाएगा। तो मैंने उससे कहा: क्या तुम मुझे बता सकते हो कि इससे गड़बड़ समाज कैसा होगा? मैंने कहा: यह समाज है, इससे गड़बड़ और कैसे हो सकता है? क्या तुम कल्पना दे सकते हो मुझे? वह थोड़ा खड़ा रह गया। उसने कहा कि यह मैंने कभी खयाल नहीं किया। लेकिन सोचता हूं, तो यह बात ठीक है। इससे गड़बड़ और क्या हो सकती है? यानी मतलब यह कि अब सातवें नरक में हम खड़े हैं, और नीचे और कौन सा नरक होगा? इसलिए पतन का तो कोई डर नहीं है। बिलकुल मत घबड़ाइए। कोई डर नहीं है। कोई डर नहीं है।
प्रश्न:
भगवान, व्यवस्था में आज गड़बड़ है और जो है वह परिवर्तित होने जा रही है या परिवर्तन होना चाहिए। मगर ये बातें इस संदर्भ में हम ग्रहण नहीं कर पाते।
ग्रहण नहीं कर पाते, उसकी वजह कई हैं, बहुत वजह हैं। नहीं ग्रहण कर पाते, ग्रहणशील मन नहीं है। बहुत भीतर बातें बैठी हैं, उनकी वजह से कुछ ग्रहण नहीं हो पाता है, कुछ ग्रहण नहीं हो पाता है।
यानी मनुष्य का मन इतना आसान मामला नहीं है, जैसा यह भजन-कीर्तन करने वाले समझते हैं कि अपना बैठे, भजन-कीर्तन किया--मामला हल हो गया! गए, माला फेरी--सब मामला हल हो गया! साधु महाराज की सेवा की--सब ठीक हो गया! मंदिर चले! इतना आसान मामला नहीं है। मन बहुत जटिल है और उसके बड़े तल हैं। और उन सारे तलों पर बिना प्रयोग किए कुछ नहीं हो सकता, कभी नहीं हो सकता है। और ये सब इतनी बचकानी बातें हैं, ये इतनी बचकानी बातें हैं, लेकिन ये इतनी महत्वपूर्ण मालूम हो रही हैं हमें जिसका हिसाब नहीं है। कुछ इनसे होने वाला नहीं है। जीवन का असली तथ्य और समस्या पकड़नी है, और उसको खोजना और उस पर प्रयोग करना है। हो सकता है, अभी तथ्य सामने रखे भी नहीं गए हैं, ऐसी भी कठिनाई है। ऐसी भी कठिनाई है कि हमें तथ्यों का भी पता नहीं है कि क्या हैं, क्या नहीं हैं।
और जीवन के प्रति बहुत असहज भाव सिखाया गया है, बहुत असहज भाव। उसे सहज भाव से लेने का मन ही नहीं रहा, कोई जरा भी मन नहीं रहा। मेरा तो यह खयाल है कि जीवन पूरी सहजता में ले लिया जाए, पूरी सहजता में, तो जीवन ही मार्ग बन जाता है। और पूरी सहजता में अगर जीवन को अनुभव किया जाए, तो उसी सहजता में मुक्ति अपने आप चली आती है; वह मुक्ति कहीं से लानी नहीं पड़ती।
प्रश्न:
भगवान, अपने हिसाब से, गांव में जो जाट लोग रहते हैं, आनंद से रहते हैं?
नहीं-नहीं। यह भी किसने कहा कि आनंद से रहते हैं? बिलकुल नहीं। आप गलती में हैं। फिर से जाकर देखिए। ये सब हमारी प्रचलित कुछ बड़ी अजीब बातें हैं।
होता क्या है, शहर के लोग सोचते हैं, गांव में बड़ा आनंद है। गांव के लोग सोचते हैं, शहर में बड़ा आनंद है। गांव के लोग मुझसे कहते हैं कि शहर वालों की आंखों में बड़ी खुशी और बड़ा आनंद और बड़ी महत्वाकांक्षा दिखाई पड़ती है। मैं दोनों को जानता हूं। और चूंकि मैं न गांव वाला हूं और न शहर वाला हूं, इसलिए बहुत आसानी है जानने की। इसलिए मेरा कोई सवाल नहीं है कि वहां सुख है या यहां सुख है। कोई सुखी नहीं है।
अगर गांव वाले गांव में सुखी हों, तो शहर कभी पैदा ही नहीं होते। आप कैसे शहर की तरफ चले आए! और वह जो गांव है, वह भी मिटता जा रहा है और शहर की तरफ आता चला जा रहा है। और एक दिन जमीन पर एक गांव नहीं रह जाएगा। यह हो कैसे गया? अगर गांव के लोग सुखी थे, तो यह कैसे संभव हुआ कि वे सब शहर की तरफ चले आ रहे हैं? और गांव नष्ट हो रहा है और शहर बसता चला जा रहा है। और अगर गांव के लोग सुखी हैं, तो कौन आपसे कह रहा है कि आप शहर में बसे रहें? कौन आपको शहर में रोक रहा है? चले जाएं गांव में। लेकिन शहर से कोई गांव में नहीं जा रहा है और गांव से लोग शहर चले आ रहे हैं।
यह जो है, हमको हमेशा ऐसा लगता है कि जहां हम हैं वहां बड़ा दुख है और जहां हम नहीं हैं वहां बड़ा सुख है। क्यों? क्योंकि दूसरे के दुख तो हमें दिखाई नहीं पड़ते, कि उसकी पीड़ा, उसकी परेशानियां क्यां हैं, उसकी कठिनाइयां क्या हैं? उसके जीवन का क्या संताप है--वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। और कोई बैलगाड़ी में बैठने से कोई सरल हो जाता है? या कोई छोटे झोपड़े में रहने से सरल हो जाता है? या कोई खादी के कपड़े पहनने से सरल हो जाता है?
सरलता और कठिनता तो मन की बात है। और मन गांव वाले का और शहर वाले का भिन्न नहीं है। न कोई युनिवर्सिटी में शिक्षा पाने से कोई मन में भिन्नता हो जाती है। कोई फर्क नहीं पड़ता। वह वही का वही है। वह सब हिसाब वही कर रहा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक आदमी के हाथ में छुरा है और एक आदमी के हाथ में तलवार है। तो छुरे वाला क्या सरल है? तलवार वाला कोई कठिन है? दोनों को गाली दीजिए, जिसके पास छुरा है, वह छुरा उठा लेगा; जिसके पास तलवार है, वह तलवार उठा लेगा। वह जो आदमी एटम बम उठा रहा है, वह वही का वही आदमी है जो तीर-कमान उठा लेता था। इसमें कोई फर्क थोड़े ही है।
तो माइंड में कोई फर्क नहीं है, एटम में और तीर-कमान में फर्क है। मेरा आप मतलब समझे न? आप शहर में हैं, आपके पास छोटी कार है, तो जैसे आप दुखी हैं, वैसे ही गांव में जिसके पास छोटी गाड़ी है, तो वह दुखी है। आप शहर में हैं, आपके पास छोटा मकान है, तो आप परेशान हैं। गांव में जिसके पास बैल नहीं है अपने, वह उतना ही परेशान है। यानी वह जो चीजों में फर्क है, लेकिन चित्त की जो दशा है, वह तो वही की वह है, उसमें तो कोई फर्क नहीं पड़ता, पड़ नहीं सकता।
प्रश्न:
भगवान, गांव वालों में सरलता होती है?
किसने कहा आपको? कहां मिलती? मैं तो आज तक खोज कर नहीं पा सका। यानी ये वहम प्रचलित किए गए हैं। लोग समझाते फिरते हैं। कहां, मुझे जरा भी नहीं मिलती। कौन कहता है कि उनमें सरलता है? और किस भांति की सरलता है जरा बताओ? यानी यह हम कहते हैं बातें, तो लगती हैं कि बड़ी बात है, लेकिन कुछ नहीं है--कुछ भी नहीं है। ये मामले सब झूठे हैं। कोई सरलता-वरलता नहीं है। और नहीं तो बड़ा आसान नुस्खा है। शहर मिटा दिए जाएं, दुनिया सरल हो जाएगी। फिर कोई झंझट ही नहीं है। बहुत आसान सी बात है। दुनिया में जब गांव ही गांव थे, दुनिया बड़ी सरल थी, तो बुद्ध किसके खिलाफ बोलते थे? महावीर किसके खिलाफ बोल रहे थे? और किसको समझा रहे थे? उस वक्त तो गांव ही गांव थे।
यानी आखिर महावीर का पूरा उपदेश चालीस साल का गांव में हो रहा है, ठेठ देहातों में और वहां भी वे समझा रहे हैं कि चित्त को सरल कर लो। तो किसको समझा रहे थे? पागल थे क्या? जब गांव में सब सरल थे--अभी सरल हैं; तो पच्चीस सौ साल पहले तो बिलकुल ही सरल रहे होंगे!
आप हैरान हो जाओगे--आप पुरानी से पुरानी किताब खोज लो, पुरानी से पुरानी जो किताब है चीन में, कोई छह हजार वर्ष पुरानी, चमड़े पर लिखी हुई--उसमें भी लिखा हुआ है कि ‘पहले दुनिया बहुत सरल थी।’ उसमें लिखा हुआ है कि पहले के लोग बड़े अच्छे थे और अब दुनिया बिलकुल विकृत हो गई है और अब कोई आदमी अच्छा नहीं है।
छह हजार वर्ष पुरानी किताब में भी यही लिखा हुआ है। बुद्ध भी यही कहते हैं, महावीर भी यही कहते हैं कि पहले लोग बड़े सरल थे, अब लोग बड़े गड़बड़ हो गए हैं। पहले बड़ा धर्म था, अब बड़ा अधर्म हो गया है। अगर आप दस हजार साल पहले पहुंच सको, दस लाख साल पहले, तो भी लोग यही कहते हुए मिलेंगे कि पहले दुनिया बहुत अच्छी थी, अब दुनिया बहुत बिगड़ गई है।
असल में जहां हम नहीं रह जाते हैं, लगता है, वहां सब अच्छा रहा होगा। और जहां हम होते हैं, वहां लगने लगता है, सब गड़बड़ हो गई है।
मैं नहीं मानता हूं, मैं नहीं मानता। मनुष्य के मन में कोई शहर, देहात से फर्क नहीं पड़ता। कपड़े-लत्तों से फर्क नहीं पड़ता। सदियों से फर्क नहीं पड़ता कि कोई बीसवीं सदी में रह रहा है, कोई दसवीं सदी में, तो फर्क पड़ जाता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। माइंड में फर्क तो सिवाय साधना के और कोई रास्ते से पड़ता नहीं--कोई रास्ते से पड़ता नहीं।
यह कैसे आपने मान लिया? इसको मानने की कौन सी बुनियाद है? सिवाय इसके कि संयोग की बात है कि आपके आस-पास एक प्रचार हो रहा है, वह आपने सुन लिया। जैसे कि कोई साबुन का विज्ञापन करता हो, तो रेडियो पर कहता हो, अखबार पर लिखता हो, अभिनेत्रियों के चित्र बनाता हो कि यही साबुन अच्छा है। दस-पच्चीस दफा सुनते-सुनते जब आप बाजार में खरीदने जाते हैं, तो आप कहते हैं, फलां साबुन दे दें। अगर आपसे कोई पूछे कि आपने यही साबुन क्यों चुना, हजारों साबुन हैं? तो आप कहेंगे, मेरा विश्वास है कि यह अच्छा है। यह विश्वास कैसे आ गया? यह आस-पास प्रोपेगेंडा किया गया है आपके। यह तो एडवरटाइजमेंट की पूरी की पूरी व्यवस्था ही यह है न कि आपके आस-पास हवा पैदा की गई कि यही अच्छा है, यही अच्छा है। और आप कहने लगे--यही अच्छा है।
जैसे यह बिलीफ पैदा होती है कि फलां साबुन अच्छा है, वैसे ही ये बिलीफ भी हैं आपकी। इनमें कोई फर्क नहीं है। यह सब बहुत गहरे में प्रोपेगेंडा है और प्रचार है, और आपके मन को पकड़ लेता है।
जो आदमी जानने को उत्सुक है, वह मानने को उत्सुक नहीं होगा कभी। वह कहेगा, मैं जानना चाहता हूं। मैं खोजना चाहता हूं। मैं एक-एक तथ्य को आंकूंगा। पहचानूंगा और समझूंगा। अगर मुझे लगेगा, मेरा अनुभव कहेगा, तो ठीक। फिर वह विश्वास नहीं होगा। फिर वह ज्ञान होगा। फिर वह बिलीफ नहीं होगी। फिर वह नॉलेज होगी।
बिलीफ जो है अज्ञान की घटना है, इग्नोरेंस की घटना है। फिर जितना इग्नोरेंट आदमी होगा, उतने ज्यादा बिलीफ होंगे उसके आस-पास। जितना आदमी ज्ञान की तरफ बढ़ेगा, बिलीफ गिरती जाएंगी और जो आदमी खुद ज्ञान को उपलब्ध होगा, उसकी कोई बिलीफ नहीं होगी। यानी अगर आप उससे पूछें कि क्या तुम ईश्वर को मानते हो? तो वह कहेगा, मैं जानता हूं। मानता हूं, यह नहीं कहेगा। मानने का कोई सवाल नहीं रहा। मानता तो वह है, जो जानता नहीं है। मानने का क्या सवाल है?
अगर सच में ही खोजना हो, इंक्वायरी करनी हो, सच में ही जानने की इच्छा पैदा हुई हो, तो सब मानना छोड़ दें। बड़ी घबड़ाहट होगी। घबड़ाहट यह होगी कि मानना छोड़ने से आपको लगेगा कि आप तो बिलकुल इग्नोरेंट आदमी हैं। घबड़ाहट यह होगी कि अगर मानना छोड़ा, तो लगेगा कि मेरे जैसा अज्ञानी नहीं है कोई। मैं तो कुछ भी नहीं जान पाता।
प्रश्न:
भगवान, वह सिखाया जा रहा है।
हां, वह सिखाया जा रहा है। वही सिखाया जा रहा है और उस सिखाने की वजह से ही इतनी करप्टेड दुनिया पैदा हुई है, और इतने करप्टेड आदमी पैदा हुए हैं--उस सिखाने की वजह से।
यह पांच हजार साल का फल क्या है इस सिखावट का? यह आदमी जो हमारे चारों तरफ दिखाई पड़ रहे हैं यही न। यही दुनिया जो हमारी है? यही दुनिया पैदा हुई न इस शिक्षा से? तो पांच हजार साल की यह सारी टीचिंग कहां ले गई है आपको? रोज नीचे गिरते जाते हैं और रोज गिरते जाएंगे। वह बुनियाद में ही बात गलत है। बुनियाद में ही बात गलत है। न तो श्रद्धा की जरूरत है, न विश्वास की जरूरत है। खोज की जरूरत है, साहस की जरूरत है। खोजने की जरूरत है, साहस करने की जरूरत है।
ये सब कमजोरी के लक्षण हैं। इसलिए जिन कौमों ने जितनी ज्यादा श्रद्धा पर विश्वास किया, वे कौमें उतनी ही नीचे पिछड़ गईं। देखें। जिन कौमों ने भी इस पर विश्वास किया, वे उतनी पीछे पिछड़ गईं। क्योंकि कदम आगे बढ़ने का सवाल ही नहीं रहा। अगर बैलगाड़ी में बैठे थे, तो बैलगाड़ी में बैठे हुए हैं श्रद्धा और विश्वास से, तो फिर और आगे उठने का सवाल कहां उठता है।
विश्वासी मन विकास कहीं करता, कर ही नहीं सकता। देखें दुनिया में। कौमें भी जो विश्वास करेंगी, वे पिछड़ जाएंगी। व्यक्ति भी जो विश्वास करेंगे, वे पिछड़ जाएंगे। मगर विश्वास करना सुविधापूर्ण है, कंफर्टेबल है, इसे मैं कहूंगा। कंफर्टेबल है, सुविधापूर्ण है; झंझट नहीं है। हमें कोई मतलब नहीं है खोजने से। हम कहां खोजने जाएं, अपनी दुकानदारी करें कि खोजने जाएं कि कर्म है या नहीं! तो हम मान लेते हैं, कोई कह जाता है कि भई है, तो ठीक, मान लेते हैं। पिताजी कहते हैं, तो मान लेते हैं; पास-पड़ोस के लोग कहते हैं, तो मान लेते हैं। कौन झंझट में पड़े, ठीक है, होगा। फिर उसे मान कर चिंतन शुरू कर देते हैं कि अगर कर्म का सिद्धांत है, तो फलां आदमी गरीब क्यों हो गया? जरूर इसने कोई बुरे कर्म किए होंगे, इसलिए गरीब हो गया। एक चीज मान लेते हैं, और फिर उसके आधार पर सब हिसाब फैलाने लगते हैं। कि हम अमीर हो गए हैं, तो हमने जरूर कोई अच्छे कर्म किए होंगे। फिर उसके हिसाब से...। तो एक तो ऐसी बात को जिसे हम नहीं जानते, मान लिया और अब फिर उन बातों को जो हमारे सामने हैं, उनकी हम उसके आधार पर व्याख्या करने लगते हैं। फिर जिंदगी एक ऐसे अजीब हिसाब में चलने लगती है।
अब जैसे आपने कह दिया कि यह योग की बात है, यह कैसे आपने जाना? यह कैसे जाना कि डेस्टिनी होती है? आप कहेंगे, हमने तथ्यों को देख कर जाना। बिलकुल झूठ है। डेस्टिनी का सिद्धांत पहले मान लिया और फिर तथ्यों की व्याख्या करने लगे कि देखो। जैसे आप कह सकते हैं कि इतने दिन तक पूर्णिमा ने आपसे कहा कि मेरे पास समय है, लेकिन नहीं आ सके, कोई योग ही नहीं था। मगर यह योग का विश्वास पहले से मन में बैठा हुआ है, इसलिए व्याख्या आपने कर ली।
एक आदमी हुआ। वहां सारी दुनिया में कुछ विश्वास हैं कि फलां दिन खराब होता है, फलां तारीख खराब होती है। तो उसने एक किताब लिख डाली कि तेरह तारीख सबसे खराब तारीख है। और उसने कहा कि मैं कोई झूठ नहीं कह रहा हूं, मैं तो प्रमाण दे रहा हूं। वह म्युनिसिपल दफ्तरों में, कार्पोरेशन के दफ्तरों में गया; तेरह तारीख को कितने लोग मरे, उनकी लिस्ट ले आया। तेरह तारीख को अस्पताल में कितने लोग भर्ती हुए, कितने लोग पागल हुए, उनकी लिस्ट ले ली। तेरह तारीख को कितने सुसाइड हुए, उनकी लिस्ट ले ली। तेरह तारीख को कितने एक्सिडेंट हुए, उनका सब पता लगा लिया। एक बड़ी किताब लिख दी कि तेरह तारीख को यह-यह होता है। आप किताब पढ़ कर मान जाएंगे कि बात तो बिलकुल ठीक कह रहा है। यह दिखता है--होता है।
तो मेरे एक मित्र किताब मेरे पास लेकर आए कि आप यह देखते हैं! अब तो आप मानते हैं? मैंने कहा: तुम बारह तारीख की खोज करो, इतने ही तथ्य उसमें मिल जाएंगे। या तुम ग्यारह तारीख की खोज करो, इतने ही तथ्य उसमें मिल जाएंगे।
नहीं लेकिन, यह जो गैर-साइंटिफिक और साइंटिफिक माइंड का फर्क क्या है? गैर-साइंटिफिक माइंड किसी विश्वास को पहले मान लेता है, फिर तथ्य पर उस विश्वास को थोपने लगता है। साइंटिफिक माइंड किसी विश्वास को नहीं मानता, तथ्य को खोजता है। और तथ्य से ही ज्ञान को निकलने देता है, इतना ही फर्क है। और कोई फर्क नहीं है। अंधविश्वासी, अवैज्ञानिक जो मन है, वह किसी चीज को पहले मान लेता है और फिर तथ्यों की व्याख्या कर देता है। वैज्ञानिक जो मन है, वह पहले तथ्यों को खोजता है, फिर सिद्धांत को निकालता है। बस इतना ही फर्क है, और इतना फर्क बहुत बड़ा फर्क है--बहुत बड़ा फर्क है।
ज्ञान की चेष्टा और खोज करने से दुनिया बहुत बेहतर हो जाए। दुनिया में बड़े जिंदा लोग हों, दुनिया में बड़ी खोज हो। और जब खोज हो, तो कुछ तथ्य निकलें और जीवन का अनुभव आए।
हम सब मुर्दा लोग हैं। यह मैं अपना अपमान समझता हूं कि मैं किसी और की बात पर विश्वास करूं। मैं क्यों विश्वास करूं? मैं अपनी जिंदगी जीने के लिए पैदा हुआ हूं--जीऊं, जानूं, पहचानूं। कौन हकदार है इस बात का कि मेरे ऊपर अपना विश्वास थोप दे? नहीं तो मेरे पैदा होने की कोई जरूरत क्या थी! आखिर मेरे जीवन का अनुभव ही मुझे कुछ दे। लेकिन हम अनुभव से भी डरते हैं--अनुभव से भी डरते हैं। पता नहीं अनुभव कहां ले जाए! क्या हो, क्या न हो! बंधे-बंधाए रास्तों से कहीं भटक न जाएं! और बड़ा मजा यह है कि बंधे-बंधाए रास्तों पर भी चल कर आप कहां पहुंच रहे हैं? कहीं भी नहीं पहुंच रहे हैं। भटके हुए हैं ही।
मैं तो विश्वास का पक्षपाती नहीं हूं। ज्ञान का पक्षपाती जरूर हूं। खोजें, जब कोई चीज दिखाई पड़े, तो जरूर जानेंगे आप उसको। तब मानने का कोई सवाल नहीं रह जाएगा। और तब जरूर जीवन में कोई संपत्ति आप उपलब्ध कर लेंगे।
अगर खोज जारी रखी और हिम्मत से प्रयोग किया, तो रत्ती-रत्ती मिल कर भी आप एक संपदा बना लेंगे। और विश्वास करते रहे, तो ठीक है, विश्वास करते रहेंगे और समाप्त हो जाएंगे। आपकी कोई निजी संपत्ति, कोई उपलब्धि अनुभूति की नहीं खड़ी हो सकती है।
और व्याख्याओं का बड़ा मजा है। कोई भी सिद्धांत आप पकड़ लें और व्याख्याएं की जा सकती हैं। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। नहीं तो दुनिया में इतनी मूर्खता चलती क्या? अस्सी करोड़ मुसलमान हैं, कोई एक अरब क्रिश्चियन हैं, बीस करोड़ हिंदू हैं। बीस करोड़ हिंदू मानते हैं, पुनर्जन्म है। लेकिन ये दो अरब लोग क्रिश्चियन और मोहम्मडन, इनके कान पर जूं भी नहीं रेंगती इस बात से कि पुनर्जन्म है। क्योंकि उनका विश्वास है कि नहीं है। तो उन्हीं तथ्यों को, जिनको देख कर आप व्याख्या कर लेते थे, इससे पुनर्जन्म सिद्ध होता है। वे सिद्ध कर लेते हैं, उन्हीं तथ्यों से कि पुनर्जन्म सिद्ध नहीं होता है। नहीं तो एक डेढ़ अरब आदमियों को बुद्धू बनाया जा सकता है बहुत देर तक? अगर पुनर्जन्म होता हो, तो दुनिया में दो अरब आदमी कितनी देर तक माने रह सकते हैं कि पुनर्जन्म नहीं होता। या अगर पुनर्जन्म नहीं होता हो, तो ये बीस करोड़ हिंदू कैसे माने रह सकते हैं कि पुनर्जन्म होता है। जो भी तथ्य होता, वह अब तक मामला हल कर देता।
आप देखते हैं कि साइंस में बहुत जल्दी युनिवर्सल निर्णय हो जाते हैं। कोई दिक्कत नहीं होती। साइंटिस्ट लड़ सकते हैं थोड़ी-बहुत देर कि इसका हम ऐसा अर्थ नहीं लेते, वैसा अर्थ नहीं लेते। थोड़ी देर में निर्णय हो जाता है कि क्या अर्थ लेते हैं। क्योंकि तथ्यों पर जोर होता है। लेकिन धर्म निर्णय नहीं कर पाया आज तक, क्योंकि जोर विश्वास पर है। अब विश्वास के साथ तो कोई झंझट ही नहीं खड़ी होती है; आपके जो मन में आया आप मान सकते हैं, और तथ्य की वैसी व्याख्या कर सकते हैं।
जब तक विश्वास के आधार पर तथ्य की व्याख्या होगी, दुनिया में एक धर्म पैदा नहीं हो सकता। और जब तक एक धर्म पैदा न हो, तब तक सच्चा धर्म पैदा नहीं हो सकता। यानी तब तक एक साइंटिफिक रिलीजन खड़ा नहीं हो सकता, वह युनिवर्सल नहीं हो सकता। लेकिन वह तब तक, जब तक विश्वास से तथ्य की व्याख्या हो। जिस दिन तथ्य के माध्यम से ज्ञान के उत्पन्न करने की फिकर जैसी विज्ञान में हुई है, धर्म में भी हो जाएगी, उस दिन दुनिया में एक धर्म रह जाएगा; दो रहने की गुंजाइश नहीं है। यह कैसे संभव है कि दो रह जाएं? और तब जो धर्म होगा, उसकी शक्ति आप सोच सकते हैं कि क्या होगी?
अभी तो धार्मिकों की शक्ति इसमें लगती रही कि दूसरे धार्मिकों को नष्ट करो। मुसलमानों की शक्ति इसमें लगी है कि हिंदुओं को नष्ट करें। हिंदुओं की शक्ति इसमें लगी है कि मुसलमानों को नष्ट करें। क्रिश्चियन इसलिए ताकत लगाए हुए हैं कि सबको हड़प जाएं। दूसरे इसलिए ताकत लगाए हुए हैं कि हम हड़प जाएं। अभी उनका सारा का सारा श्रम और शक्ति दूसरे को पी जाने और हड़प जाने में लगी हुई है।
अगर दुनिया में एक वैज्ञानिक धर्म हो, तो यह सारी की सारी शक्ति दुनिया के विकास में अदभुत परिणाम ला सकती है। और ऐसा भाईचारा और इतना प्रेम पैदा हो सकता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। मगर वह तभी होगा, जब बिलीफ से शुरुआत न हो। इसलिए कोई इतना आसान मामला नहीं है कि बच्चों को हम कह दें कि भई श्रद्धा रखो, विश्वास रखो। यह बड़ा खतरनाक मामला है। इतना खतरनाक मामला है कि मनुष्य इसी खतरनाक मामले की वजह से पांच हजार साल से परेशान है और परेशान रहेगा, अगर यही सिलसिला चलता है तो।
वैज्ञानिक मन पैदा होना चाहिए सब दिशाओं में। तो मैं नहीं पक्षपाती हूं, और किसी विश्वास से नहीं कहता कि आप सोचना शुरू करें। सोचते ही नहीं हैं जब आप विश्वास से शुरू करते हैं, मामला ही खत्म हो गया। आप मेरे पास आए और तय करके आ गए मेरे बाबत, कोई निर्णय लेकर आ गए कि बहुत बुरे आदमी हैं या बहुत भले आदमी हैं। फिर आप मेरी जो व्याख्या करोगे, वह अपने ही हिसाब के अनुकूल कर लोगे और चले जाओगे। अगर मुझे ही जानना है, तो मेरे बाबत कोई विश्वास लेकर न आएं और सीधा एनकाउंटर होने दें--सीधा, बिना किसी विश्वास को बीच में लाए।
कभी जीवन में बिलीफ न बनाएं। और सब, बिलीफ बनाई हों, तो तोड़ दें।
प्रश्न:
भगवान, आप पांच हजार साल की जो बात करते हैं, वह पांच हजार साल की ही क्यों बात कहते हैं?
पांच हजार साल का हमें ज्ञात है। पांच हजार साल के बाबत हम कुछ जानते हैं, बाकी नहीं जानते हैं।
प्रश्न:
भगवान, शुभ और सदगुणों पर तो बिलीफ करना चाहिए न?
इस दिशा में अगर हम बिलीफ छोड़ सकें, तो जिसे हम शुभ कहें, महत्वपूर्ण कहें, वह आपमें उत्पन्न हो जाएगा। और अगर बिलीफ आप पकड़े रहे, आपमें कभी उत्पन्न नहीं होगा। आपमें सदगुण पैदा ही नहीं हो सकता बिना ज्ञान के। और यही तो वजह है कि आपकी बिलीफ एक होती है और आचरण दूसरा होता है। आप कहते तो हैं कि चोरी करना बुरा है और चोरी करते हैं। आपका विश्वास और आचरण में भेद क्यों है? भेद इसलिए है कि विश्वास झूठा है और विश्वास पहले बना लिया गया है, बिना आचरण को जाने और पहचाने। इसलिए आचरण उसके अनुकूल नहीं बैठता कभी। यानी वह मामला ऐसा है कि जैसे कोई दर्जी आपको बिना नापे-जोखे और आपके कपड़े बना ले। और फिर उन कपड़ों को आपमें बिठालने की कोशिश करे। तो फिर कांट-छांट आपमें करना पड़े, कपड़ों में नहीं। हाथ-पैर काटने पड़ें आपके।
प्रश्न:
भगवान, हाथ-पैर क्यों काटने पड़ेंगे?
क्योंकि कपड़े पहले बना लिए गए और आप पीछे आए। ऐसा है, यह जो आपकी मॉरेलिटी है कि नियम आप पर पहले बिठा दिए जाते हैं, अब इनके अनुकूल आप हो जाइए। जैसे नियमों के लिए आदमी पैदा हुआ है! नहीं, आदमी पहले है, और आदमी के जीवन से ही नियम निकलते हैं। कपड़े बाद में बनाए जा सकते हैं, आदमी को पहले नापना होगा।
हम कुछ धारणाएं बना लेते हैं। और वे धारणाएं जब नहीं बैठती हैं ऊपर हमारे, तो फिर हम परेशान होना शुरू हो जाते हैं कि यह क्या हुआ। हम तो बहुत कोशिश करते हैं, यह होता नहीं है!
मेरी समझ में, जैसे कि आपको कोई भी चीज कही गई है कि यह बुरी है, इस पर विश्वास मत करिए, इस पर प्रयोग करिए। जानिए, मन को खुला रखिए, पहचानिए और अपने अनुभव से नतीजे पर पहुंचिए कि यह बुरी है या नहीं। अगर आप अपने अनुभव से इस नतीजे पर पहुंच गए कि यह बुरी है, आप उससे मुक्त हो जाओगे। फिर आपके आचरण में और आपके ज्ञान में भेद नहीं होगा। और अगर आप अपने अनुभव से पहुंच गए कि यह चीज भली है, आप पाओगे, वह आपके जीवन में प्रवाहित होने लगेगी। आपके आचरण में और विचार में भेद नहीं रह जाएगा।
आचार और विचार का जो भेद है, वह भेद यह इस वजह से है जो हम पकड़े हुए हैं--जो हम पकड़े हुए हैं। जीवन तो प्रयोग करने के लिए एक बड़ा अदभुत अवसर है। लेकिन हम प्रयोग कर ही नहीं पाते, क्योंकि दूसरे हमें पहले ही सब बता देते हैं कि यह अच्छा है और यह बुरा है। तुम्हें कोई करने की जरूरत नहीं है। हम तुम्हें उधार ज्ञान दिए देते हैं; तुम इससे ही काम चला लेना।
प्रश्न:
भगवान, जो आत्मा है वह तो है कि नहीं, यह पहले कोई बताता है, क्योंकि वह प्रयोग करके बताता है कि है।
क्यों कोई बताए? तुम हो--यह तो पता चलता है कि नहीं चलता? यह तो बिलीफ नहीं है। यह तो फैक्ट है। तुम्हारा होना तो फैक्ट है न? यह तो बिलीफ नहीं है। यह तो किसी ने तुम्हें नहीं बताया कि तुम हो। यह तुम्हें लग रहा है कि मैं हूं। मैं हूं, यह मुझे लग रहा है, लेकिन यह मुझे पता नहीं चलता कि कौन हूं? इसलिए खोज शुरू करनी चाहिए। इसमें किसी को मानने का कहां सवाल आता है? हमेशा खोज फैक्ट से शुरू होनी चाहिए, बिलीफ से शुरू नहीं होनी चाहिए।
तथ्य क्या है? तथ्य यह है कि मैं हूं। मुझे पता नहीं कि भीतर आत्मा है या नहीं। मैं हूं, यह तथ्य है। और यह दूसरा तथ्य है कि मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूं। ये तथ्य हैं सीधे, इन तथ्य से खोज शुरू होनी चाहिए। तथ्य से शुरू करना चाहिए, विश्वास से शुरू नहीं करना चाहिए।
प्रश्न:
भगवान, यदि कोई जहर को बताए और कहे कि मैंने प्रयोग करके देखा है कि जहर है और हम उसकी बात न मानें और अपने पर प्रयोग करके देखें, तब तो जीवन के भी जाने का खतरा रहेगा! क्या उसकी भी बात नहीं माननी चाहिए?
अगर तुम्हें खोज करनी हो कि जहर है या नहीं, तो प्रयोग करना पड़ेगा। अगर खोज करनी है। लेकिन खोज करनी किसलिए है? और जो जहर पर काम करते हैं, उनको तो प्रयोग करके देखना पड़ेगा। मेरा मतलब समझीं न? जहर है या नहीं, इसकी खोज तुम्हें किसलिए करनी है?
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
नहीं-नहीं, मेरी बात आप नहीं समझीं। अगर आपको जहर में ही कोई ज्ञान उत्पन्न करना हो और जहर के बाबत ही जानकारी करनी हो, तो प्रयोग करना पड़ेगा। दूसरा कोई रास्ता नहीं है। और नहीं तो ऐसी बेवकूफियां चलती रहीं दुनिया में।
अरस्तू ने, इतना बड़ा विचारशील और ज्ञानी आदमी था, उसने लिखा है कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। असल में स्त्री को हमेशा पुरुष से छोटा होना चाहिए। यह नियम की बात है। यानी यह सिद्धांत माना हुआ है। यह बिलीफ की बात है। यानी वह स्त्री कोई हालत में पुरुष के बराबर हो ही नहीं सकती।
अरस्तू जैसा विचारशील आदमी, जिसको कहें कि पश्चिम में तर्क का पिता था, उसने किताब में लिख दिया कि स्त्री के दांत पुरुष से कम होते हैं। उसकी दो औरतें थीं, एक भी नहीं। मगर उसको यह न सूझा कि जरा उठ कर दांत गिन लूं। एक औरत भी नहीं थी, दो औरतें थीं। एक में भूल-चूक होती, दूसरे में परीक्षा हो जाती। वह उसको खयाल ही नहीं आया!
और आप हैरान होंगे, एक हजार साल पूरा यूरोप मानता रहा कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं। और किसी मूढ़ को यह खयाल में न आया कि स्त्रियां हमेशा मौजूद हैं, दांत गिन लिए जाएं। यह बिलीफ है।
एक हजार साल बाद जब जिस आदमी ने दांत गिने पहली औरत के, वह घबड़ा गया। वह बोला, यह स्त्री कुछ गड़बड़ है! क्योंकि दांत तो स्त्री के होना चाहिए कम, यह मामला क्या है?
और जब बहुत स्त्रियों के दांत गिने गए, तो पता चला कि अरस्तू ने गिना नहीं। उसके पहले से ही यह बिलीफ चलती थी, उसने फिर बिलीफ को लिख दिया था। एक खयाल चलता था कि दांत स्त्री के कम होते हैं। फिर कोई जरूरत नहीं पड़ी उसकी गिनने की।
प्रश्न:
भगवान, क्या फिर किसी के अनुभव को या आपके अनुभव को मान कर नहीं चलूं?
आपका अनुभव--मेरा अनुभव नहीं। मेरा अनुभव मान कर आप नहीं चल सकतीं।
प्रश्न:
भगवान, किसी के अनुभव को समझना चाहिए न?
समझने और मानने में फर्क हो गया। समझने को मना नहीं करता। समझने को दुनिया खुली है। मानें मत।
मानें तो अपने अनुभव को, क्योंकि मैं जिस जगह तक चला हूं और जहां मेरा पैर है, उसके आगे मैं ही पैर उठा सकता हूं, आप कैसे उसके आगे पैर उठाएंगी? आप तो वहीं से पैर उठाएंगी जहां आपका पैर है। अगर हम इस सीढ़ी पर चढ़ रहे हैं और मैं दसवें स्टेप पर खड़ा हूं और आप पांचवें स्टेप पर खड़े हैं और मैं कहता हूं कि मेरा अनुभव है कि दसवें के बाद ग्यारहवां आता है, आप भी ग्यारहवें पर पैर रखो। आप तो छठवें पर पैर रखोगे, पैर आपका ग्यारहवें पर हो नहीं सकता कभी। मेरे अनुभव के बाद का जो अनुभव होगा वह मेरा होगा। मेरे अनुभव के आगे आप विकास नहीं कर सकती हैं।
प्रश्न:
भगवान, क्या किसी के काम की जानकारी काम नहीं आ सकती?
काम में मेरा मतलब यह है, काम में आपकी जानकारी हो सकती है, आपका ज्ञान नहीं बन सकता। और विश्वास कभी नहीं बनना चाहिए। मेरा फर्क समझीं न आप? आपका ज्ञान तो कभी बन नहीं सकता मेरा जानना, आपकी जानकारी बन सकती है, इनफर्मेशन बन सकती है। लेकिन विश्वास कभी नहीं बनना चाहिए।
प्रश्न:
भगवान, किसी के अनुभव और जानकारी मान लेने से आदमी भटकता नहीं है। और यदि हम न मानें, तो भटकते ही रहेंगे!
यह किसने कहा? ये मां-बाप नहीं भटकेंगे, यह किसने बता दिया आपको? यह तो अगर चोर का बच्चा हो और चोरी न करे, तो चोर कहेगा, रास्ता भटक गया लड़का! यानी उसका तो मापदंड तय है कि मेरा धंधा चलाना चाहिए लड़के को। मैं हूं चोर, तो मेरे लड़के को भी चोरी करनी चाहिए। अगर वह चोरी न करे और संन्यासी हो जाए, वह कहेगा, लड़का भटक गया! सब रास्ता ही छोड़ दिया।
बच्चे जो हैं--बच्चे भटक जाते हैं। यह तो हमने यह बात मान ली कि मां-बाप जो हैं, भटके हुए नहीं हैं।
प्रश्न:
भगवान, बच्चे को तो अपना अनुभव करना ही चाहिए न?
बिलकुल अनुभव करना चाहिए। और मां-बाप का यह कर्तव्य है कि बच्चे को अपने में न बांधें। बच्चे को मुक्त होने का मौका दें। और बच्चे को सदा कहें कि यह मेरा अनुभव है, मैं तुम्हें कह देता हूं जानकारी के लिए। तुम्हारे विश्वास के लिए नहीं, तुम्हारे ज्ञान के लिए नहीं। मैंने जीवन में यह-यह जाना है, वह मैं तुम्हें जानकारी के लिए कह देता हूं। लेकिन न तुम इस पर विश्वास करना और न इसको ज्ञान मानना। और न इसके आगे तुम कदम उठाना, क्योंकि कदम तो तुम उसके आगे उठाओगे जो तुम्हारा अनुभव बनेगा। लेकिन मेरे अनुभव की जानकारी तुम्हारे मस्तिष्क को वृहत करेगी।
विश्वास अगर बन जाएगी, तो वृहत नहीं करेगी, संकुचित कर देगी। अगर मेरे पिता हैं और वे मुझे कहते हैं कि मैंने अपने जीवन में यह-यह जाना है अपने अनुभव से, तो मैं तुम्हें बताए देता हूं। यह मेरा कर्तव्य है। यह मैंने जाना था अपने अनुभव से, इन्हीं जीवन के अनुभवों से तुम भी गुजरोगे, तो तुम्हारा मस्तिष्क विस्तीर्ण होगा इस जानकारी से। लेकिन इन्हें विश्वास अगर कर लें हम, तो मस्तिष्क विस्तीर्ण नहीं होगा, संकुचित हो जाएगा।
मैं जो कह रहा हूं--विश्व भर का जो ज्ञान है, वह जानकारी है। उससे रोकता नहीं आपको कि आप रुकें उससे। चाहता यह हूं कि जानकारी आपका विश्वास नहीं बनना चाहिए। आपका मन मुक्त होना चाहिए। महावीर को जानें, बुद्ध को जानें, सबको जानें। मन को मुक्त रखें, बांधें मत। खुद अनुभव करें, वह आपका ज्ञान बनेगा।
और यह तभी होगा, जब तथ्य से हम शुरू करें--जो मैं कहा, तथ्य से शुरू करें, फैक्ट को पकड़ें। बिलीफ से शुरू मत करें। और नहीं तो ऐसे-ऐसे पागलपन की बातें चलती रहेंगी और चलती रही हैं--अभी भी चल रही हैं हजारों। ऐसा नहीं है कि वे दांत जो, अरस्तू ने गलती की थी, वह अभी नहीं है। अभी भी चल रहा है। अभी भी हजारों बातें चल रही हैं। जो निपट मूर्खतापूर्ण हैं। लेकिन चूंकि उनका विश्वास है और चूंकि हजारों साल की परंपरा का समर्थन है उनको, वे चलेंगी, कोई मनाही नहीं है, वे चलती रहेंगी।
प्रश्न:
भगवान, सजगता के विषय में कुछ बताइए?
आप किसी कैंप में आएं, तभी मामला बने। वह तो थोड़ा सा, कैंप में आएं, थोड़ा प्रयोग करें तो खयाल में बनें। इतना थोड़ा खयाल करें, सजगता को समझने के लिए अपने चित्त की जो अभी अवस्था है, उसको समझना चाहिए। वह मूर्च्छित मालूम होगी। जैसे आप रास्ते पर चले जा रहे हैं, तो क्या चलते वक्त चलने की क्रिया का आपको होश है या मन में दूसरी क्रियाएं चल रही हैं? मन में दूसरे काम चल रहे हैं।
अभी मैं यहां बोल रहा हूं। अगर सिर्फ मेरा बोलना ही आप सुन रहे हों, तो यह सजग सुनना होगा। और अगर मेरे बोलने के साथ आपके भीतर दूसरे विचार भी चल रहे हैं, तो यह मूर्च्छित सुनना होगा। यह जो श्रवण हुआ, फिर मूर्च्छित हो गया। क्योंकि आप मालूम तो हो रहे हैं कि मुझे सुन रहे हैं, लेकिन आप काम मन में दूसरा कर रहे हैं। आपका चित्त कहीं और ही लगा हुआ है। तो फिर आपकी प्रेजेंस मेरे सुनने में पूरी नहीं हो सकती।
यह भी हो सकता है कि एक क्षण को आप अपने मन में इतने गहरे विचार में चले जाएं कि आप मुझे सुन ही न पाएं। आप बिलकुल ही एब्सेंट हो जाएं। तो उस हालत में आप सुन रहे हैं--मालूम पड़ रहे हैं कि आप सुन रहे हैं। कान में आवाज भी पड़ रही है, सब हो रहा है, लेकिन आप बिलकुल नहीं सुन रहे हैं। यह मूर्च्छित अवस्था हो गई। और अगर ऐसी स्थिति आ जाए कि जब आप सुन रहे हैं, तो केवल सुनने की ही क्रिया हो रही है मन में, और कोई क्रिया नहीं हो रही है, तो वह सजगता, वह अवेयरनेस होगी। उस वक्त आप जो सुन रहे हैं, वह पूरी अवेयरनेस में सुन रहे हैं।
ऐसा पूरा जीवन हो जाए कि हम जो भी कर रहे हैं, वह विवेक में और सजगता में हो रहा है, तो जीवन में धन्यता आ जाती है। और लेकिन हमारा पूरा जीवन सोया हुआ है। सोए हुए के विरोध में सजगता है। यह सब सोया हुआ काम है। आपको मैंने अगर एक धक्का दे दिया, तो आपमें जो गुस्सा आ रहा है, आप सजग हैं उसके प्रति? बिलकुल सोया हुआ काम है। जैसे मैंने बटन दबा दी, पंखा चलने लगा। आपको एक धक्का मार दिया, आपको गुस्सा आ गया। यह बिलकुल मैकेनिकल है। इसमें आपने कोई एक क्षण को भी सोचा हो कि मुझे क्रोध करना कि नहीं करना, ऐसा भी नहीं है। एक भी क्षण को आपको खयाल आया हो कि मुझमें क्रोध पैदा हो रहा है कि नहीं हो रहा है, वह भी नहीं है। बस क्रोध आ गया!
यह मूर्च्छित व्यवहार है, सोया हुआ व्यवहार है। हम जगे हुए मालूम पड़ते हैं। जगे हुए लोग बहुत थोड़े हैं। मालूम तो हम सब पड़ते हैं कि हम जगे हुए हैं। जब सुबह उठ आए, हाथ-मुंह धो लिए, तो हम बिलकुल जगे हुए हैं। बाकी जगे हुए लोग बहुत थोड़े हैं।
जगे हुए होने का अर्थ है कि मन चौबीस घंटे जो भी क्रिया कर रहा हो, उसमें पूर्ण उपस्थित हो। सजगता का मतलब हुआ: टोटल प्रेजेंस। जो भी हम कर रहे हैं--अगर आप बुहारी लगा रहे हैं, तो पूरा मन बुहारी लगाने में उपस्थित हो, तो बुहारी लगाना ध्यान हो जाएगा। अगर आप भोजन कर रहे हैं और पूरा मन भोजन करने में उपस्थित हो, तो भोजन करना ध्यान हो जाएगा।
वह जो अभी आप पूछ रही थीं न कि वह किस भांति साक्षी हों? पूरा मन वहीं मौजूद हो और हम क्रिया को पूरे जानते हों कि यह हो रहा है।
और इसका जो व्यापक परिणाम होगा, वह यह होगा कि जो भी गलत है, वह आपको होना बंद हो जाएगा। क्योंकि गलत के होने के लिए एक कंडीशन जरूरी है कि मूर्च्छा हो, नहीं तो नहीं हो सकता है। यानी अभी मैंने आपसे कहा न कि अनीति अपने आप विलीन हो जाएगी। अगर आप सजग हों, तो आप कुछ भी नहीं कर सकते जो गलत है।
मैंने तो परिभाषा यह करनी शुरू की: जो मूर्च्छा में ही किया जा सके, वही पाप है। सिर्फ मूर्च्छा में ही किया जा सके, सोए हुए ही किया जा सके, वही पाप है। और जो जाग जाने पर भी करना संभव हो, वही पुण्य है। और मैं कोई अर्थ भी नहीं देखता उसमें। और नीति-अनीति भी मैं यही मानता हूं, इससे ज्यादा नहीं मानता।
सोया हुआ आदमी जो भी कर रहा है, सब अनैतिक होगा। यानी क्या आप सोचते हैं कोई हत्यारा सजग स्थिति में किसी की छाती में छुरा मार सकता है? जागा हुआ, पूरे होश से, नहीं मार सकता है। आप तो हैरान होंगे, हत्यारों ने किसी को मारने के बाद, अनेक हत्यारों ने दो-दो तीन-तीन दिन तक वे स्मरण भी नहीं कर सके कि हमने मारा है! और पहले तो लोग समझते थे कि ये धोखा दे रहे हैं। अब मनोवैज्ञानिक जानते हैं कि वे धोखा नहीं दे रहे। इतनी गहरी मूर्च्छा पैदा हुई और मारने के बाद वह मूर्च्छा इतनी लंबी चली कि दो-तीन दिन तक वे इसको रिमेंबर भी नहीं कर पाए कि हमने मारा है। जब उनकी मूर्च्छा टूटी, तब वे कहते हैं: हमने तो नहीं मारा! जैसे कोई सपने में कर आया हो एक काम।
आप भी पछताते हैं न बाद में? एक काम कर लेते हैं, फिर पछताते हैं; और कई दफा आपको लगता है कि जैसे कि मैंने अपने बावजूद यह कर लिया। मैं तो नहीं करना चाहता था, फिर कैसे कर लिया? जब आप नहीं करना चाहते थे, तब कैसे हो जाएगा काम? नहीं, आप सो गए थे। वह जो जानता था कि क्या है ठीक करना, वह सोया हुआ था। गलती हो गई।
प्रश्न:
भगवान, जागरण के बाद क्या जानने को कुछ नहीं रह जाता है?
जानने को बहुत रह जाता है, भीतर जानने की इच्छा नहीं रह जाती। जानने को तो यह दुनिया पड़ी है। जानने को तो बड़ी दुनिया पड़ी है। जानने को तो बहुत शेष रह जाता है, लेकिन जानने की जो भीतर प्रवृत्ति है, वह विलीन हो जाती है। इंक्वायरी विलीन हो जाती है, क्योंकि अब कोई अर्थ नहीं रह जाता, कोई कारण नहीं रह जाता।
अब जैसे महावीर को ऐसा थोड़े ही खयाल आता होगा कि साइकिल कैसे बनाई जाए, बिजली का पंखा कैसे बनाया जाए! कोई यह न समझे कि महावीर ने अपने को जान लिया था, तो उनसे अगर आप पूछने जाएं कि बिजली का पंखा बिगड़ गया, तो इसको ठीक कैसे किया जाए, तो वे बता देंगे। वे नहीं बता पाएंगे। इसका कोई मतलब नहीं है।
साइंस की दुनिया में तो बहुत जानने को शेष रह जाता है, लेकिन स्वयं की दुनिया में जानने को कुछ शेष नहीं रह जाता। लेकिन होता यह है कि जो स्वयं को जान लेता है, वह इतने आनंद से, इतने आलोक से भर जाता है, सारा अंधकार उसके भीतर से नष्ट हो जाता है कि अब उसे कोई कारण नहीं रह जाता। जैसे छोटे बच्चे हैं, उनमें कुतूहल होता है हर चीज का कि यह कैसा, वह कैसा! लेकिन जैसे ही तुम प्रौढ़ हो जाते हो, कुतूहल विलीन हो जाता है। छोटा बच्चा है, उसको छोटी-छोटी बात की क्युआरिसिटी होती है कि यह ऐसा क्यों हो रहा है, वह वैसा क्यों हो रहा है? लेकिन जैसे ही तुम थोड़े मैच्योर होते हो, थोड़े बड़े होते हो, प्रौढ़ होते-होते वह तुम्हारी क्युआरिसिटी कहां विलीन हो गई! वह विलीन हो गई। समझे न?
ऐसे ही जो व्यक्ति स्वयं को जान लेता है, उसकी और एक प्रौढ़ता आती है, एक और मैच्योरिटी आती है और उसकी यह जिज्ञासा भी विलीन हो जाती है कि फलां क्यों है, क्यों नहीं है। जानने को बहुत शेष रहता है, लेकिन जानने की कोई आकांक्षा भीतर नहीं रह जाती, कोई कारण भी नहीं रह जाता। मेरा मतलब समझे न? कोई कारण नहीं रह जाता।
असल में हर चीज को जानने की जो चेष्टा है, वह दुख से पैदा होती है--दुख से पैदा होती है। भीतर चित्त दुखी होता है, तो हम सोचते हैं कि शायद इसको जान लें, तो दुख मिट जाए। विज्ञान की सारी जो खोज है, वह दुख के कारण है। इस बात का दुख है, उस बात का दुख है; यह बीमारी का दुख है। तो वैज्ञानिक खोज करता है कि शायद बीमारी के कारण को हम जान लें, तो फिर बीमारी मिट जाए। गर्मी लगती है, गर्मी का दुख है, तो वह वैज्ञानिक सोचता है, पंखा चलाया जाए। तो पहले आदमी हाथ से पंखा चलाता था। फिर देखा कि आदमी हाथ से पंखा चलाते-चलाते थक जाता है, यह भी दुख है। तो फिर ऐसी व्यवस्था की जाए कि आदमी की जरूरत न हो, पंखा चले।
दुख हमारा खोज में ले जाता है। जो व्यक्ति स्वयं को जान लेता है, उसका दुख विलीन हो जाता है, इसलिए उसकी कोई खोज नहीं रह जाती। मेरा मतलब समझे न? जानने को तो बहुत शेष है। सारी दुनिया पड़ी है। लेकिन उसका दुख विलीन हो जाता है, इसलिए जानने का कोई सवाल नहीं रह जाता।
दुख के कारण हम जानने को जाते हैं। अगर महावीर या बुद्ध जैसे व्यक्ति को बीमारी भी हो जाए, तो भी दुख नहीं देती। वे अपने को जानते हैं, इसलिए शरीर से भिन्न अनुभव करते हैं। इसलिए कोई दुख नहीं देती, ठीक है, तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
मेरा मतलब समझ गए न तुम? ऑब्जेक्ट तो बहुत शेष रह जाते हैं, लेकिन भीतर कारण नहीं रह जाता है, चेष्टा नहीं रह जाती है। इसलिए कहा जाता है कि जो अपने को जान लेता है, वह सब जान लेता है। इसका मतलब ऐसा नहीं है। इसका मतलब ऐसा नहीं है कि वह सब जान गया--केमिस्ट्री, फिजिक्स और मैथेमेटिक्स--वह सब जान गया। ऐसा नहीं है। वह तो मैट्रिक की परीक्षा में बिठाओ, आत्म-ज्ञानी को, तो फेल हो जाए! इससे कोई मतलब नहीं है। आत्म-ज्ञान और बात है।
इस अर्थ में होता नहीं। वह तो ‘जिसने स्वयं को जान लिया है, सब जान लिया है,’ इसका मतलब यह है कि अब उसमें कुछ जानने की इच्छा नहीं रह गई, कुछ जानने की इच्छा नहीं रह गई। सर्वज्ञ का भी मतलब यह है जिसमें अब कुछ जानने की इच्छा नहीं रह गई। जब तक जानने की कुछ भी इच्छा शेष है, तब तक मतलब है कि भीतर अज्ञान है, इसलिए जानने की इच्छा शेष है। सर्वज्ञ का अर्थ है: जिसके भीतर अज्ञान न रह जाने के कारण जानने की कोई इच्छा शेष नहीं रह गई। इसलिए कहते हैं, जिसने स्वयं को जाना सबको जान लिया।
लेकिन नासमझ तो पक्के हैं हरेक के पीछे। उन्होंने इसका अर्थ लिया कि उसने सब जान लिया। ‘सब जान लिया’ इससे झगड़े खड़े हो गए दुनिया में।
क्राइस्ट ने लिख दिया था कि जमीन जो है वह चपटी है। जब वैज्ञानिकों ने खोजा कि जमीन गोल है, तो चर्च खिलाफ खड़ा हो गया। यह तो गड़बड़ हो जाएगा, अगर यह पता चल जाए कि क्राइस्ट को यह भी पता नहीं है। ईश्वर के पुत्र थे और यह भी पता नहीं था कि जमीन गोल है कि चपटी है, तो बड़ा अज्ञान सिद्ध हो जाएगा क्राइस्ट का।
उन्होंने वैज्ञानिकों को बुलवाया पोप ने और कहा कि यह बात बिलकुल गलत है। यह हो नहीं सकता। क्योंकि यह सर्वज्ञ ने कहा है, ईश्वर के पुत्र ने कहा है--जो सब जानता था। उसने कहा है कि जमीन चपटी है। जमीन चपटी ही होगी, जरूर तुम्हारी ही कोई भूल है। जमीन गोल हो ही नहीं सकती। लेकिन अब वह जमीन गोल ही थी भाग्य से, अब कोई रास्ता न बना। जानकारी बढ़ती गई। वह जमीन गोल सिद्ध हो गई।
पादरी, पुरोहित डरा। कि इसमें एक खतरा जो है, वह क्या है? अगर क्राइस्ट इसमें भूल कर सकते हैं, तो और चीजों में भी भूल कर सकते हैं। नहीं तो फिर एक, यानी यह आदमी इतनी बड़ी बात भूल कर गया है, कोई छोटा ब्लंडर है? यह छोटी भूल है कि इतनी बड़ी जमीन गोल है सदा से और उसने चपटी कह दिया! तो जब इसमें भूल कर सकता है, तो हो सकता है कि स्वर्ग-नरक और परमात्मा वगैरह के बाबत भी सब भूल हो।
इसलिए हर धर्म का मानने वाला अपने तीर्थंकर को, अपने अवतार को, अपने ईश्वर-पुत्र को कहता है, वह सर्वज्ञ है। क्योंकि अगर एक भी भूल उससे हो सकती है, तो फिर बड़ी दिक्कत हो जाएगी, फिर शक पैदा हो जाएगा कि कहीं दूसरी बातों में भी भूल न हो। इसलिए सब धर्म यह कोशिश करते हैं कि उनके ग्रंथ जो हैं, उसमें सब ज्ञान है। उनका जो तीर्थंकर है, वह सर्वज्ञ है। ये दूसरे लोग सारी चेष्टा करके सिद्ध करने की कोशिश करते हैं।
मगर ये चेष्टाएं गलत होती जाती हैं और नासमझी की सिद्ध होती जाती हैं। एकदम नासमझी की सिद्ध होती जाती हैं। और वे इसलिए नासमझी कि सिद्ध होती जाती हैं कि सर्वज्ञ का अर्थ ही हमने गलत ले लिया है। सर्वज्ञ का अर्थ है: जिसने स्वयं को जाना--पूर्णता में जाना, और अब उसे जानने को कुछ शेष नहीं रहा। उसका यह मतलब नहीं है कि उसने जो सब सारी दुनिया फैली हुई है, वह जान ली। उसने नहीं जानी। उससे कोई संबंध नहीं है उस बात का।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
असल बात जो है, हमारे सामने तो हमेशा च्वाइस का सवाल होता है कि यह करें या न करें? कर सकते हैं कि नहीं कर सकते हैं? उसके सामने कोई च्वाइस का सवाल नहीं होता। तो वह भी जो आपको कहेगा, वह आपकी च्वाइस में से न चुनेगा। वह आपकी इग्नोरेंस बताएगा कि इग्नोरेंस की वजह से आप ये चीजें पेश कर रहे हैं।
जैसे कि आप मुझसे एक प्रश्न पूछते हैं। मेरे पास--मैं एक गांव में गया--एक आदमी आया। उन्होंने पूछा कि यह दुनिया जो है, ईश्वर ने बनाई कि नहीं बनाई, यह मुझे बता दीजिए? तो मैंने उनको पूछा कि अगर यह पता चल जाए कि ईश्वर ने यह दुनिया बनाई, फिर आप क्या करोगे? बोले: करेंगे क्या, एक जानकारी हो जाएगी। तो मैंने कहा कि कितने दिन से यह जानकारी करने की कोशिश चलती है? उन्होंने कहा: जब से युवा हूं, तब से पूछता हूं। अब तो वृद्ध हो गया। बहुत खोज-बीन करता हूं इसकी कि ईश्वर ने बनाई दुनिया कि नहीं बनाई? मैंने उनसे कहा: जीवन आपने व्यर्थ खो दिया। जिस बात को जानने के बाद फिर कुछ और होना नहीं है। यानी आप जान लेंगे कि ईश्वर ने बनाई या नहीं बनाई, फिर क्या होगा? इससे आपके जीवन में क्या होगा? उन्होंने तो मेरे सामने विकल्प रखे, ईश्वर ने बनाई या नहीं बनाई? लेकिन मुझे दिखाई पड़ रहा है कि विकल्प कहां से पैदा हो रहे हैं। तो मैं उनके विकल्प का उत्तर नहीं दे सकता हूं। कहूंगा कि यह अज्ञान से विकल्प पैदा हुआ।
ऐसे जैसे घर में एक आदमी को सन्निपात हो गया हो, बुखार चढ़ गया हो और सन्निपात में चिल्लाने लगा कि मकान उड़ा जा रहा है, और आप खड़े हैं वहां। और वह कहने लगा, मकान किस दिशा में उड़ रहा है? तो आप क्या करोगे? यानी सवाल यह है, एक आदमी तो फीवर में है और दिमाग गड़बड़ा गया है और वह कह रहा है कि मेरा मकान उड़ा जा रहा है और आपसे पूछने लगे कि मकान किस दिशा में उड़ रहा है, उत्तर में कि दक्षिण में? उसने तो विकल्प रख दिए सामने। अब आप क्या करोगे? क्या आप उत्तर दोगे कि उत्तर में या दक्षिण में या खोज करने निकलोगे कि मकान उड़ रहा है कि नहीं? आप फौरन डॉक्टर को बुलाओगे--कि तुम शांति से सोए रहो। चिकित्सक को बुला कर...। समझे न?
तो अगर आत्म-ज्ञानी के पास जाकर आप पूछो कि यह ऐसा या वैसा, तो वह चिकित्सक का व्यवहार करेगा आपके साथ। यानी आपके साथ शिक्षक का व्यवहार नहीं करेगा।
दो तरह के व्यवहार हैं दुनिया में। एक शिक्षक का व्यवहार है और एक चिकित्सक का व्यवहार है। पंडित जो है, वह शिक्षक का व्यवहार करता है। और ज्ञानी जो है, वह चिकित्सक का व्यवहार करता है। और ये व्यवहार बड़े भिन्न हैं और इनकी पूरी दृष्टि भिन्न होती है। इसलिए जो शिक्षक के बहुत आदी हो जाते हैं, चिकित्सक मिल जाए तो उन्हें बड़ी परेशानी होती है। क्योंकि वे, शिक्षक के जो आदी हो गए हैं न, कोई न कोई प्रीचर के आदी हो गए हैं, वह जब उनको कभी चिकित्सक मिल जाए, तो उन्हें बड़ी तकलीफ और परेशानी हो जाती है। क्योंकि वह गड़बड़ बातें करता है, कि वे जो पूछते हैं, वह तो उत्तर देता नहीं। वह कुछ और बात कहता है। असल में उसे आपकी बीमारी से मतलब है, आपके प्रश्न से मतलब नहीं है--आपके प्रश्न से मतलब नहीं है।
अभी मैं एक गांव में गया। एक लड़के को लोग मेरे पास लाए। उसको यह वहम हो गया कि उसके सिर में तीन मक्खियां घुस गई हैं। वह पागल हो गया था। और वे उसके सिर में घूम रही हैं! बड़े परेशान थे गांव के लोग। बड़े अच्छे घर का लड़का था। जगह-जगह दिखला लाए उसको। उसकी सब परीक्षा हो गई। बोले कि भई, कोई मक्खी-वक्खी तो हैं नहीं, कहां घूमेंगी? घूमने की कोई ऐसी जगह है कि वहां घूम रही हैं? और सब परीक्षा भी हो गई, उसमें मक्खी-वक्खी हैं नहीं, इसको वहम है। उस लड़के को वे कहें, वहम है। वह कहे कि आप कहते हैं, मैं कैसे मानूं? मुझे तो मालूम हो रहा है कि घूम रही हैं।
कोई साधु-संन्यासी गांव में आया, तो उसके पास ले गए, कि भई आप कुछ समझा दीजिए। कोई समझदार था गांव का, उसके पास ले गए, आप समझा दीजिए। तो लोग उसको समझाए कि यह तुम्हारा वहम है। वह कहे कि आप कहते हैं तो जरूर मुझे लगता है कि आप जब कहते हैं, लेकिन आपको पता भी कैसे कि मेरे सिर में घूम रही हैं! और जब मैं खुद ही अनुभव कर रहा हूं कि घूम रही हैं, तो अब मैं क्या करूं?
मैं उस गांव में गया था, तो वे मेरे पास ले आए थे उसको। वे लाए तो लड़का घबड़ाया हुआ था, क्योंकि हरेक के पास ले जाया जाता रहा था। जो भी आए उसके पास ही ले जाने का हिसाब चलता था। वह लड़का घबड़ाया हुआ था। वह आया, तो वह बिलकुल जैसे कि कोई अपराधी हो, वैसा बेचारा खड़ा हो गया। मैंने पूछा: क्या बात है? उन्होंने कहा कि इसको ऐसा वहम हो गया है कि इसके सिर में तीन मक्खियां घूम रही हैं। मैंने उनसे पूछा: यह वहम है, यह आपको कैसे पता चला? लड़का जरा आश्वस्त हुआ। उसने कहा: यह आदमी ठीक है।
यह मैंने उसके पिता से पूछा कि यह वहम है, यह आपको कैसे पता चला? जब वह कह रहा है कि घूम रही हैं, तो जरूर घूम रही हैं। वह लड़का अपने पिता से बोला कि आप ठीक आदमी के पास मुझे लिवा लाए हैं। मेरे घूम रही हैं, कोई मेरी मानता नहीं। उसने कहा कि जब मेरे सिर में घूम रही हैं, मेरी कोई मानता ही नहीं। सभी मुझे यह समझाते हैं कि तुम वहम में हो, तुम्हारा दिमाग खराब है। कौन कहता है, मेरा दिमाग खराब है? मैंने उसको कहा कि दिमाग दूसरों का खराब होगा। वे जरूर घूम रही हैं, तब तो पता चल रही हैं। तुम बैठो। मैंने उससे पूछा: कितनी मक्खियां हैं? उसने कहा: तीन मक्खियां हैं। तुम ठीक से गिने हो? बिलकुल मुझे अनुभव ही हो जाता है कि तीन हैं। कब से? उसने सब बताया और मैं उससे बात करता रहा। पिता बड़ा हैरान हुआ। मैं जब यह कहने लगा कि जरूर घूम रही हैं, तो पिता थोड़ा घबड़ाया।
तो उसने कहा कि एक तो परेशानी यह थी कि यह जो है लड़का वैसे ही खराब है और अब इसको एक सहारा भी है। तो उसके पिता मुझसे कहे कि आप जरा बाहर आइए। दो मिनट आपसे मुझे बात करनी है। वे बाहर ले गए। कहे कि आप यह क्या कर रहे हैं? हम तो परेशान हो गए हैं और उसको समझाना है कि मक्खियां नहीं घूम रही हैं और आप कह रहे हैं कि घूम रही हैं, तो मुश्किल हो जाएगी! डाक्टर कहते हैं, मक्खियां हैं नहीं, घूमेंगी कैसे? और वह तो लड़का बड़ा प्रसन्न है आपके पास। वह अभी तक किसी के पास प्रसन्न नहीं हुआ जाकर। और यह तो खतरा हो जाएगा, क्योंकि अब वह घर जाकर कहेगा कि उन्होंने भी कहा कि ठीक है, और अब एक प्रमाण मिल गया उसको।
मैंने कहा कि मैं उससे शिक्षक का व्यवहार नहीं करता हूं। मैं उससे चिकित्सक का व्यवहार कर रहा हूं। आप चले जाएं, आप फिकर छोड़ दें। मैंने उसको कहा कि तुम रात मेरे ही पास रुक जाओ। मैं थोड़ा अनुभव करूं। जरूर घूम रही हैं, तो मुझे भी थोड़ा तो अनुभव होगा। तो रात मैं उसके सिर पर हाथ रखे रहा। और मैंने सुबह उससे कहा कि निश्चित तीन मक्खियां हैं और घूमती हैं! वह बहुत प्रसन्न हुआ, आश्वस्त हुआ। वह बड़ा स्वस्थ मालूम हुआ।
उसके पिता से मैंने कहा कि तीन मक्खियां कहीं से पकड़वा लाएं और एक शीशी में बंद कर लाएं। रात को जब वह सोया, तो मैंने एक खाली शीशी उसके पास रखी और मैंने कहा कि रात कोशिश करेंगे नींद में निकालने की। जहां तक तो आशा है कि सुबह तक तो निकल जाएंगी। और सुबह वह शीशी बदल दी और वे तीन मक्खियां बंद वाली शीशी उसके पास रख दी। सुबह वह प्रसन्न हो गया और मुक्त हो गया।
इसको मैं चिकित्सक का व्यवहार कहता हूं। यह शिक्षक का व्यवहार नहीं है। और फिर दो ही तरह के व्यवहार हो सकते हैं। आप जब मुझसे पूछते हैं, तो मुझे बड़ी दिक्कत होती है। यानी मेरी दिक्कत यह नहीं है कि आप क्या पूछ रहे हैं। मेरी दिक्कत यह है कि आप पूछ क्यों रहे हैं? कि आपके भीतर गड़बड़ कहां है? यह कहां से परेशानी आ रही है...जहां से यह प्रश्न पैदा हो रहा है?
तो मुझे आपका प्र्रश्न बहुत महत्वपूर्ण नहीं मालूम पड़ता, सिर्फ संकेत मालूम पड़ता है कि भीतर बीमारी कहां है। तो कई दफा यह हो सकता है कि आपका उत्तर इधर जाता मालूम पड़े और मेरा उत्तर और कहीं जाता मालूम पड़े। कई दफा ऐसा आपको लग सकता है। यह तो बात असंगत हो गई। असंगत लगेगी, क्योंकि आदत हमारी यह है कि सीधा उत्तर दीजिए आप हमारे प्रश्न का। ईश्वर है या नहीं, इसका सीधा उत्तर दीजिए! आत्मा है या नहीं, इसका उत्तर दीजिए! पुनर्जन्म होता है या नहीं होता; डेस्टिनी होती है या नहीं, इसका उत्तर दीजिए सीधा आप! आप दूसरी बातें क्यों करते हैं? लेकिन मैं आपसे कहूं कि दूसरी बातें ही करनी पड़ेंगी। इसके उत्तर से कोई मतलब नहीं है। वह आपके पूरे के पूरे मन की चिकित्सा होनी चाहिए। और वह हो सकती है।
प्रश्न:
भगवान, आपने कहा है दमन नहीं करना चाहिए। तो उसके लिए ऊर्ध्वीकरण होना चाहिए। बदलना चाहिए। बताइए क्या करना चाहिए?
क्यों करना चाहती हैं ऊर्ध्वीकरण?
प्रश्नकर्ता:
वृत्तियों को बदलने के लिए। जो आपने कहा था।
मेरे कहने से करिएगा क्या?
प्रश्नकर्ता:
इससे सुख मिलता है, संतोष मिलता है, आनंद मिलता है ।
इससे सुख नहीं मिलता। मैं आपकी बात समझ गया हूं। पहली बात यह है कि आप सब्लिमेशन करना क्यों चाहती हैं? जैसे समझ लीजिए सेक्स है, इसका क्यों सब्लिमेशन करना चाहती हैं?
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
यानी मुसीबत यह है, कठिनाई यह है कि मैं जो इतनी देर से कह रहा था, वही कठिनाई है। आप तो यह बता रही हैं कि समझ लीजिए मुझे कोई प्रेम करता है, दूसरे लोगों को बुरा लगता है, इसलिए मैं इस प्रेम को सब्लिमेट कर दूं। मुझे कैसा लग रहा है यह प्रेम? सुखद लग रहा है या दुखद? दूसरों से क्या मतलब है। दूसरे गलती में हो सकते हैं। फिर आपके पड़ोसी गलती में हो सकते हैं; जो उन्होंने नीति बनाई है, वह नासमझी हो सकती है।
प्रश्न:
भगवान, पड़ोसी से प्यार का नाता तो है ही, लेन-देन का नाता तो है ही, उसको कैसे छोड़ दें?
न-न-न। यह मैं नहीं कह रहा। आप मेरी बात नहीं समझीं। मैं जो कह रहा हूं वह यह बहुत वैज्ञानिक रूप से पकड़ें।
हमारे भीतर सेक्स की वृत्ति है और हम कहते हैं, इसे हमें ऊर्ध्वीकरण करना है। मैं यह पूछ रहा हूं कि क्यों करना है? क्या सेक्स में सुख नहीं मिल रहा है? आप कहती हैं कि ऊर्ध्वीकरण का सुख मिलेगा! तो पहले तो यह जानना जरूरी है कि क्या सेक्स में सुख नहीं मिल रहा है? या कि दूसरे ऐसा कहते हैं कि नहीं मिलता, इसलिए आपने मान लिया? मेरी आप बात समझ रही हैं न? अगर इसमें सुख नहीं मिल रहा है, यह आपको अनुभव से आता हो, तो ऊर्ध्वीकरण शुरू हो जाएगा। मेरी बात समझीं आप? ऊर्ध्वीकरण शुरू हो जाएगा।
जिस चीज में मुझे सुख नहीं मिलेगा, उससे मेरे हाथ खिंचने लगेंगे। लेकिन कठिनाई इसलिए है कि दूसरे ऐसा कहते हैं कि सुख नहीं मिलता है, ऊर्ध्वीकरण में सुख मिलेगा और मुझे सुख मिल रहा है। इसलिए सवाल उठता है कि अब मैं सब्लिमेट कैसे करूं?
मेरा आप मतलब समझीं न?
सब्लिमेट कैसे करूं यह प्रश्न इसलिए उठता है कि मुझसे दूसरे ऐसा कह रहे हैं--गुरु हैं, शिक्षक हैं, संन्यासी हैं, वे समझा रहे हैं कि सेक्स बड़ी दुख की बात है। और अगर सेक्स का सब्लिमेशन हो जाए, तो बड़ा सुख मिलेगा। और मेरा अनुभव यह है कि मुझे सेक्स में सुख मिल रहा है। इससे दिक्कत है। अब मैं यह पूछता हूं कि सेक्स को सब्लिमेट कैसे करूं, फिर वह और सुख मिल जाए शायद। लेकिन सेक्स का सब्लिमेशन ही तब होगा, जब आपके अनुभव में यह आए कि सेक्स में सुख नहीं मिल रहा है। यह दूसरे के कहने से नहीं होगा। मेरी मतलब आप समझीं न? सब्लिमेशन तो प्रत्येक क्षण होता है प्रत्येक वृत्ति का, अगर अनुभव हो।
आप हैरान होंगी। लोगों के बच्चे पैदा हो जाएं, जिंदगी गुजार दें, बूढ़े हो जाएं, सेक्स का उन्हें अनुभव नहीं होता। आप समझेंगी कि यह मैं क्या बात कर रहा हूं! सेक्सुअल एक्ट से गुजर जाना सेक्स का अनुभव नहीं है। सेक्स का अनुभव बड़ी और बात है। वह हो ही नहीं सकता आपको। इसलिए नहीं हो सकता कि सेक्स के बाबत जो आपने धारणाएं बना रखी हैं, उनकी वजह से अनुभव को आप--प्रेमपूर्ण ढंग से जाग नहीं पाते अनुभव में। धारणाएं बना रखी हैं।
अभी मैं एक घर में ठहरा। एक पत्नी ने मुझसे पूछा कि मैं पति के प्रति बहुत आदर रखना चाहती हूं। मानती हूं कि पति जो है वह परमेश्वर है। लेकिन फिर भी झगड़ा-फसाद हो जाता है। फिर भी कुछ न कुछ गड़बड़ बीच में आ जाती है और कुछ विरोध हो जाता है और कोई संघर्ष हो जाता है। चौबीस घंटे यह जानते हुए कि पति का मुझे आदर करना है, मानते हुए, फिर भी बस अनादर की बातें हो जाती हैं। ये क्यों हो जाती हैं?
जैसा मैंने आपसे कहा कि मेरी दृष्टि तो और है। मैंने उनसे यह पूछा...। बचपन से बच्ची को, बच्चे को हम सिखाते हैं, जाने-अनजाने शिक्षा देते हैं कि यह जो सेक्स है, सबसे घृणित बात है। यह समझाते हैं कि यह सबसे घृणित बात है। यह सबसे बुरी बात है, इसकी चर्चा ही मत करना, इसकी बात ही मत करना। इसको कभी उठाना ही मत। यह हो ही नहीं रही दुनिया में, ऐसा मालूम होता है। बातचीत देखें, किताबें देखें, हिसाब-किताब, तो यह कहीं है ही नहीं। यह इतनी गंदी बात है कि इसकी बात ही मत करना। इस तरह का कोई संबंध किसी से बनाना मत। यह बहुत बुरा, बहुत अनैतिक बात है।
बीस साल तक एक लड़की, सेक्स अनैतिक है, गंदा है, यह सुन कर फिर विवाहित होती है और पति को हम कहते हैं, इसको परमेश्वर मानना, और यह आदमी उसी कृत्य में उसे ले जाएगा जो कि सबसे गंदा है--बीस साल तक सिखाया गया है। बीस साल तक जो कृत्य सबसे गंदा कहा गया है--यह जो परमेश्वर समझाया जा रहा है पति, यह उसी कृत्य में उसे ले जाएगा। उसके चित्त की क्या दशा होगी? इसके प्रति आदर हो कैसे सकता है?
हिंदुस्तान में कोई पत्नी पति के प्रति आदर कर ही नहीं सकती। यह संभव ही नहीं है, असंभव है। यह बिलकुल झूठी बात है। पति के प्रति उसके मन में घृणा होगी। और वह पति भी नहीं कर सकता पत्नी को प्रेम। वह तो जानता है कि यही तो नरक का द्वार है। यानी, यह नरक के द्वार को कोई प्रेम कर सकता है? तो वह प्रेम की बातें करेगा और भीतर नरक का द्वार जानेगा। और सेक्स की वृत्ति है, वह है नैसर्गिक; उससे छुटकारा नहीं। बस एक चक्कर में सारी बात डोलेगी और तब उसके पच्चीस-पच्चीस प्रश्न खड़े हो जाएंगे और वह प्रश्न पूछेगा और असली बात पूछेगा नहीं कि असली बात कहां बैठी हुई है? मेरा आप मतलब समझ रही न? और फिर वह सोचेगा, कैसे सब्लिमेशन हो? यह कैसी गंदगी में मैं पड़ गया हूं--फलाना-ढिकाना। और ये सबकी सब झूठी बातें हैं। असली बात कुछ और है।
मेरा कहना यह है कि सेक्स एक नैसर्गिक बात है। इसके प्रति दुर्भाव छोड़ दें। इसके प्रति कोई भी दुर्भाव रखना बहुत खतरनाक है। यह दुर्भाव पूरे जीवन को नष्ट कर देगा, और नष्ट कर देता है। दुर्भाव बिलकुल छोड़ दें। जानें कि एक नैसर्गिक शक्ति है। इसको अनुभव करें। इसे पूरी सरलता से अनुभव करें। क्योंकि दुर्भाव हुआ, तो मन सरल नहीं रह जाता है। हम तैयार हो गए कि यह गलत चीज है और फिर भी करनी पड़ रही है। खींच भी रहे हैं अपने को और कर भी रहे हैं; कर भी रहे हैं, दुखी भी हो रहे हैं। ऐसे तो सब गड़बड़ हो जाएगा।
न, बहुत सहज भाव से। जैसे आंखें मिली हैं मुझे, हाथ-पैर मिले हैं, वैसा ही सेक्स भी मिला है। यह भी उतना ही नैसर्गिक है। इसमें कुछ पाप नहीं है। चाहे दुनिया की कोई नीति इसको पाप कहती हो, यह नैसर्गिक है। इसको जानें पूरा। और वह जो सेक्सुअल एक्ट है, उसको भी बड़े प्रेम से, बड़ी सहजता से, बड़े निर्दोष मन से देखें और समझें कि उसमें क्या रस है और क्या आनंद है? और आप धीरे-धीरे अनुभव करेंगी कि उसमें कोई भी रस नहीं है और कोई भी आनंद नहीं है। और तब उस कृत्य से मुक्ति शुरू हो जाएगी।
प्रश्न:
भगवान, आप इसको निर्दोष कहते हैं, लेकिन इससे दोष शुरू हो जाएगा।
वे सारे भाव छोड़ें जो पकड़े हुए हैं। इसीलिए तो समझाया। मतलब यह कि आपका माइंड तो बन चुका है न! वह सारा भाव छोड़ें। वह सारा भाव छोड़ें। अभी मैं कहीं जाऊं और एक लड़की मेरे साथ जा रही हो, तो आपके मन में लगेगा कि अरे, मेरे साथ यह लड़की कैसे जा रही है? यह तो भाव है। अगर मुझे थोड़ा आप...मेरे प्रति थोड़ी भावना, दया हुई आपकी, आप कहेंगे, इस लड़की को साथ मत ले जाइए, लोग न मालूम क्या सोचेंगे।
अभी एक लड़की मेरे साथ जाती थी, तो एक वृद्ध ने मुझसे कहा कि इन्हें वहां मत ले जाइए। जिस गांव में आप जा रहे हैं, उस गांव में बड़े ऑर्थाडाक्स लोग हैं। वहां आप मत ले जाइए, वे पूछेंगे कि यह कौन लड़की है आपके साथ है? और किसी ने अगर यह पूछ लिया कि आपकी कौन लगती है, तो फिर क्या कहिएगा? मैंने कहा कि मैं कहूंगा कि यह मुझे प्रेम करती है। इसलिए मेरे साथ जाती है। वे बोले: अरे, यह आप किसी को भूल कर कहना ही मत, नहीं तो बड़ा गड़बड़ हो जाएगा। वह तो सब मामला ही गड़बड़ हो जाएगा। आपकी सब इज्जत ही मिट जाएगी।
यानी हमारे दिमाग में जो, यह जो हमारी बुद्धिहीन स्थिति है और यह जो हमने जड़ता पकड़ी हुई है, यह हमें कष्ट दे रही है। और हम भगवान को खोजने जा रहे हैं और बुद्धि यहां अटकी हुई है सारी, इन सब बेवकूफियों में! और वह खुद पैदा किए हुए हैं।
इसलिए मैं बड़ी तकलीफ में हूं। तकलीफ में यह हूं कि आपके असली मसले नहीं हैं आपके सामने। असली मसले बहुत गहरे में बैठे हुए हैं और वे जड़ से खोदे डाल रहे हैं। उनको हम छिपा कर और दूसरे मसले चर्चा कर रहे हैं। उसको तोड़िए।
अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। कोई भी दिन शुरुआत करिए। वह दिन नया है। छोड़ दीजिए दुर्भाव सेक्स प्रति। आप पति के प्रति और तरह का भाव अनुभव करेंगी। वह दुश्मन नहीं रह जाएगा। वह बुरा आदमी नहीं रह जाएगा। आपके पूरे आस-पास की हवा में फर्क हो जाएगा। आपका बच्चों के प्रति प्रेम होगा। कभी कोई मां जो सेक्स को बुरा मानती है बच्चे को कैसे प्रेम करेगी? वह उसी सेक्स की तो प्रॉडक्ट है। यह उसी घृणित काम का तो फल है। तो वह दिखाए भी ऊपर से कि बड़ा प्रेम है, लेकिन बहुत गहरे में तो जानेगी...। और इसलिए वह जो संन्यासी है, जो ब्रह्मचारी है, वह उसके पैर छुएगी कि यह आदमी ऊंचा है। और पति के कैसे पैर छुएगी? अगर छुएगी, तो जबरदस्ती छुएगी। यह आदमी ऊंचा हो ही कैसे सकता है! तो अगर संन्यासी के बाबत पता चल जाए कि किसी स्त्री से उसका प्रेम है, तो सारा आदर खत्म। वह तो वही आदमी हो गया जैसे आदमी हम जानते थे रोज-रोज। तो मामला खत्म हो गया। यह हमारा जो ड़िजीज्ड माइंड है, बिलकुल सड़ गया है। इसकी पूरी सड़ांध को तोड़ना बड़ा कठिन है। लेकिन प्रयोग करना पड़ेगा।
प्रश्न:
भगवान, संभोग व्यर्थ लगता है, लगता है कि यह नहीं चाहिए?
यह जो आप अनुभव करती हैं कि नहीं चाहिए, यह बिलकुल झूठ है। यह झूठ इसलिए है कि अनुभव से नहीं है। वह कंडेमनेशन पहले बैठा हुआ है। इसलिए प्रतीत होगा आपको सौ में निन्यानबे मौके में। और अगर अनुभव से प्रतीत होगा, तो आप बहुत हैरान हो जाएंगी। अगर आपको अनुभव से यह प्रतीत हो जाए, तो मैं आपको...।
इस पर कभी एक पूरा चुकता कैंप अलग लेने का सोचता हूं कि ब्रह्मचर्य पर ही पूरी आपसे चर्चा कर सकूं। अगर आपको यह अनुभव से पता चल जाए--आपके अनुभव से--तो आप हैरान हो जाएंगी। अब यह अगर मैथुन की स्थिति में पति और पत्नी पड़े हों और पत्नी को उस वक्त अनुभव हो कि यह एक्ट बिलकुल व्यर्थ है, तो यह थॉट ट्रांसफर हो जाता है फौरन पति पर। वह इतना शांत क्षण होता है मन का और इतना मौन क्षण होता है कि अगर पत्नी को उस वक्त यह खयाल आ जाए कि व्यर्थ है या पति को खयाल आ जाए, तो दूसरे को, जो दूसरा उस वक्त उसके साथ है, उसको फौरन यह अनुभव में आना शुरू होगा कि यह व्यर्थ है। इसको आप प्रयोग करके देख सकते हैं, जो मैं कह रहा हूं। और अगर पत्नी या पति में से एक को सेक्स व्यर्थ हो जाए, तो दूसरे को अपने आप हो जाएगा। लेकिन कंडेमनेशन से अगर हो...।
यह हमको पहले से ही पता है कि यह गंदी चीज है। और स्त्रियां जो हैं, वे ज्यादा, जिसको कहें, सम्मोहन-प्रवण हैं। इसलिए समाज जो बेवकूफियां पुरुषों और स्त्रियों को सिखाता है, स्त्रियां ज्यादा सीखती हैं, पुरुष कम सीखते हैं। यही वजह है कि साधुओं की संख्या कम और साध्वियों की संख्या ज्यादा है।
बच्चों को भी सिखाते हैं, बच्चियों को भी सिखाते हैं कि सेक्स गंदा है। लेकिन बच्चे उतने गहरे कभी नहीं सीख पाते जितनी कि बच्चियां सीख लेती हैं। वह सीखने की जो क्षमता है, किसी चीज को ग्रहण करने की जो क्षमता है स्त्रियों की पुरुषों से ज्यादा है; और इसलिए वे दोनों चाक अलग-अलग हो जाते हैं गाड़ी के और बड़ी गड़बड़ पैदा हो जाती है।
पहला तो यह है कि किसी भी वृत्ति के प्रति बहुत सहज हो जाएं। और समाज ने कुछ भी सिखाया हो, उसे अलग करें और सोचें कि मैं कैसे जानूं? कोई भी वृत्ति। तब आपको जो अनुभव होगा, वह बड़ा गहरा होगा, बड़ा और होगा, बहुत दूसरी तरह का होगा।
अभी अनुभव तो सुख का होता रहेगा और चित्त यह कहता रहेगा, यह क्या पाप है! यह पाप की वजह से दुख मालूम हो सकता है, लेकिन वह दुख है नहीं। भीतर सुख है, भीतर सुख की संवेदना सरक रही है और ऊपर से वह पाप की वजह से दुख मालूम होता है।
यह दुख मालूम होना इंटेलेक्चुअल है और सुख मालूम होना बिलकुल इंस्टिंक्ट है। तो गहरे में सुख मालूम होता है और उथले में दुख मालूम होता है। इससे फिर चित्त जो है, अलग-अलग पटरी पर, विरोध में पड़ जाता है।
प्रश्न:
सब्लिमेशन!
नहीं है। मैं जो कहता हूं, सब्लिमेशन होता है। मेरा जो कहना है, सब्लिमेशन किया नहीं जाता। आपका जैसे-जैसे ज्ञान विकसित होता है किसी वृत्ति के बाबत, वह सब्लिमेट होने लगती है। सब्लिमेशन जो है वह किया नहीं जाता, होता है।
मेरा पूरा जोर यह है कि जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह ज्ञान के माध्यम से होता है, किया नहीं जाता है। और जब भी आप पूछते हैं, कैसे करें? तब मैं जानता हूं कि चित्त जो है वह समाज के सिखाए हुए हिसाब की वजह से परेशान हो रहा है और पूछ रहा है--कैसे करें।
प्रश्न:
भगवान, वह बंधी हुई व्यवस्था जो है समाज की, वह गड़बड़ में नहीं पड़ जाएगी?
कोई गड़बड़ में नहीं पड़ेगी, जरा भी गड़बड़ में नहीं पड़ेगी। बहुत सुंदर हो जाएगी। जरा भी गड़बड़ नहीं होगी। गड़बड़ तो है। अभी गड़बड़ है। और इससे ज्यादा गड़बड़ कुछ नहीं हो सकती है। मैं कल्पना नहीं कर सकता, इससे ज्यादा गड़बड़ और क्या हो सकती है, जो है अभी?
अभी एक कॉलेज में बोलने गया था। तो लड़कों ने मुझसे, मैं कुछ बोला, एक लड़के ने मुझसे पूछा कि आप जो कह रहे हैं, अगर यह हुआ, तो सब गड़बड़ हो जाएगा। तो मैंने उससे कहा: क्या तुम मुझे बता सकते हो कि इससे गड़बड़ समाज कैसा होगा? मैंने कहा: यह समाज है, इससे गड़बड़ और कैसे हो सकता है? क्या तुम कल्पना दे सकते हो मुझे? वह थोड़ा खड़ा रह गया। उसने कहा कि यह मैंने कभी खयाल नहीं किया। लेकिन सोचता हूं, तो यह बात ठीक है। इससे गड़बड़ और क्या हो सकती है? यानी मतलब यह कि अब सातवें नरक में हम खड़े हैं, और नीचे और कौन सा नरक होगा? इसलिए पतन का तो कोई डर नहीं है। बिलकुल मत घबड़ाइए। कोई डर नहीं है। कोई डर नहीं है।
प्रश्न:
भगवान, व्यवस्था में आज गड़बड़ है और जो है वह परिवर्तित होने जा रही है या परिवर्तन होना चाहिए। मगर ये बातें इस संदर्भ में हम ग्रहण नहीं कर पाते।
ग्रहण नहीं कर पाते, उसकी वजह कई हैं, बहुत वजह हैं। नहीं ग्रहण कर पाते, ग्रहणशील मन नहीं है। बहुत भीतर बातें बैठी हैं, उनकी वजह से कुछ ग्रहण नहीं हो पाता है, कुछ ग्रहण नहीं हो पाता है।
यानी मनुष्य का मन इतना आसान मामला नहीं है, जैसा यह भजन-कीर्तन करने वाले समझते हैं कि अपना बैठे, भजन-कीर्तन किया--मामला हल हो गया! गए, माला फेरी--सब मामला हल हो गया! साधु महाराज की सेवा की--सब ठीक हो गया! मंदिर चले! इतना आसान मामला नहीं है। मन बहुत जटिल है और उसके बड़े तल हैं। और उन सारे तलों पर बिना प्रयोग किए कुछ नहीं हो सकता, कभी नहीं हो सकता है। और ये सब इतनी बचकानी बातें हैं, ये इतनी बचकानी बातें हैं, लेकिन ये इतनी महत्वपूर्ण मालूम हो रही हैं हमें जिसका हिसाब नहीं है। कुछ इनसे होने वाला नहीं है। जीवन का असली तथ्य और समस्या पकड़नी है, और उसको खोजना और उस पर प्रयोग करना है। हो सकता है, अभी तथ्य सामने रखे भी नहीं गए हैं, ऐसी भी कठिनाई है। ऐसी भी कठिनाई है कि हमें तथ्यों का भी पता नहीं है कि क्या हैं, क्या नहीं हैं।
और जीवन के प्रति बहुत असहज भाव सिखाया गया है, बहुत असहज भाव। उसे सहज भाव से लेने का मन ही नहीं रहा, कोई जरा भी मन नहीं रहा। मेरा तो यह खयाल है कि जीवन पूरी सहजता में ले लिया जाए, पूरी सहजता में, तो जीवन ही मार्ग बन जाता है। और पूरी सहजता में अगर जीवन को अनुभव किया जाए, तो उसी सहजता में मुक्ति अपने आप चली आती है; वह मुक्ति कहीं से लानी नहीं पड़ती।
प्रश्न:
भगवान, अपने हिसाब से, गांव में जो जाट लोग रहते हैं, आनंद से रहते हैं?
नहीं-नहीं। यह भी किसने कहा कि आनंद से रहते हैं? बिलकुल नहीं। आप गलती में हैं। फिर से जाकर देखिए। ये सब हमारी प्रचलित कुछ बड़ी अजीब बातें हैं।
होता क्या है, शहर के लोग सोचते हैं, गांव में बड़ा आनंद है। गांव के लोग सोचते हैं, शहर में बड़ा आनंद है। गांव के लोग मुझसे कहते हैं कि शहर वालों की आंखों में बड़ी खुशी और बड़ा आनंद और बड़ी महत्वाकांक्षा दिखाई पड़ती है। मैं दोनों को जानता हूं। और चूंकि मैं न गांव वाला हूं और न शहर वाला हूं, इसलिए बहुत आसानी है जानने की। इसलिए मेरा कोई सवाल नहीं है कि वहां सुख है या यहां सुख है। कोई सुखी नहीं है।
अगर गांव वाले गांव में सुखी हों, तो शहर कभी पैदा ही नहीं होते। आप कैसे शहर की तरफ चले आए! और वह जो गांव है, वह भी मिटता जा रहा है और शहर की तरफ आता चला जा रहा है। और एक दिन जमीन पर एक गांव नहीं रह जाएगा। यह हो कैसे गया? अगर गांव के लोग सुखी थे, तो यह कैसे संभव हुआ कि वे सब शहर की तरफ चले आ रहे हैं? और गांव नष्ट हो रहा है और शहर बसता चला जा रहा है। और अगर गांव के लोग सुखी हैं, तो कौन आपसे कह रहा है कि आप शहर में बसे रहें? कौन आपको शहर में रोक रहा है? चले जाएं गांव में। लेकिन शहर से कोई गांव में नहीं जा रहा है और गांव से लोग शहर चले आ रहे हैं।
यह जो है, हमको हमेशा ऐसा लगता है कि जहां हम हैं वहां बड़ा दुख है और जहां हम नहीं हैं वहां बड़ा सुख है। क्यों? क्योंकि दूसरे के दुख तो हमें दिखाई नहीं पड़ते, कि उसकी पीड़ा, उसकी परेशानियां क्यां हैं, उसकी कठिनाइयां क्या हैं? उसके जीवन का क्या संताप है--वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। और कोई बैलगाड़ी में बैठने से कोई सरल हो जाता है? या कोई छोटे झोपड़े में रहने से सरल हो जाता है? या कोई खादी के कपड़े पहनने से सरल हो जाता है?
सरलता और कठिनता तो मन की बात है। और मन गांव वाले का और शहर वाले का भिन्न नहीं है। न कोई युनिवर्सिटी में शिक्षा पाने से कोई मन में भिन्नता हो जाती है। कोई फर्क नहीं पड़ता। वह वही का वही है। वह सब हिसाब वही कर रहा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक आदमी के हाथ में छुरा है और एक आदमी के हाथ में तलवार है। तो छुरे वाला क्या सरल है? तलवार वाला कोई कठिन है? दोनों को गाली दीजिए, जिसके पास छुरा है, वह छुरा उठा लेगा; जिसके पास तलवार है, वह तलवार उठा लेगा। वह जो आदमी एटम बम उठा रहा है, वह वही का वही आदमी है जो तीर-कमान उठा लेता था। इसमें कोई फर्क थोड़े ही है।
तो माइंड में कोई फर्क नहीं है, एटम में और तीर-कमान में फर्क है। मेरा आप मतलब समझे न? आप शहर में हैं, आपके पास छोटी कार है, तो जैसे आप दुखी हैं, वैसे ही गांव में जिसके पास छोटी गाड़ी है, तो वह दुखी है। आप शहर में हैं, आपके पास छोटा मकान है, तो आप परेशान हैं। गांव में जिसके पास बैल नहीं है अपने, वह उतना ही परेशान है। यानी वह जो चीजों में फर्क है, लेकिन चित्त की जो दशा है, वह तो वही की वह है, उसमें तो कोई फर्क नहीं पड़ता, पड़ नहीं सकता।
प्रश्न:
भगवान, गांव वालों में सरलता होती है?
किसने कहा आपको? कहां मिलती? मैं तो आज तक खोज कर नहीं पा सका। यानी ये वहम प्रचलित किए गए हैं। लोग समझाते फिरते हैं। कहां, मुझे जरा भी नहीं मिलती। कौन कहता है कि उनमें सरलता है? और किस भांति की सरलता है जरा बताओ? यानी यह हम कहते हैं बातें, तो लगती हैं कि बड़ी बात है, लेकिन कुछ नहीं है--कुछ भी नहीं है। ये मामले सब झूठे हैं। कोई सरलता-वरलता नहीं है। और नहीं तो बड़ा आसान नुस्खा है। शहर मिटा दिए जाएं, दुनिया सरल हो जाएगी। फिर कोई झंझट ही नहीं है। बहुत आसान सी बात है। दुनिया में जब गांव ही गांव थे, दुनिया बड़ी सरल थी, तो बुद्ध किसके खिलाफ बोलते थे? महावीर किसके खिलाफ बोल रहे थे? और किसको समझा रहे थे? उस वक्त तो गांव ही गांव थे।
यानी आखिर महावीर का पूरा उपदेश चालीस साल का गांव में हो रहा है, ठेठ देहातों में और वहां भी वे समझा रहे हैं कि चित्त को सरल कर लो। तो किसको समझा रहे थे? पागल थे क्या? जब गांव में सब सरल थे--अभी सरल हैं; तो पच्चीस सौ साल पहले तो बिलकुल ही सरल रहे होंगे!
आप हैरान हो जाओगे--आप पुरानी से पुरानी किताब खोज लो, पुरानी से पुरानी जो किताब है चीन में, कोई छह हजार वर्ष पुरानी, चमड़े पर लिखी हुई--उसमें भी लिखा हुआ है कि ‘पहले दुनिया बहुत सरल थी।’ उसमें लिखा हुआ है कि पहले के लोग बड़े अच्छे थे और अब दुनिया बिलकुल विकृत हो गई है और अब कोई आदमी अच्छा नहीं है।
छह हजार वर्ष पुरानी किताब में भी यही लिखा हुआ है। बुद्ध भी यही कहते हैं, महावीर भी यही कहते हैं कि पहले लोग बड़े सरल थे, अब लोग बड़े गड़बड़ हो गए हैं। पहले बड़ा धर्म था, अब बड़ा अधर्म हो गया है। अगर आप दस हजार साल पहले पहुंच सको, दस लाख साल पहले, तो भी लोग यही कहते हुए मिलेंगे कि पहले दुनिया बहुत अच्छी थी, अब दुनिया बहुत बिगड़ गई है।
असल में जहां हम नहीं रह जाते हैं, लगता है, वहां सब अच्छा रहा होगा। और जहां हम होते हैं, वहां लगने लगता है, सब गड़बड़ हो गई है।
मैं नहीं मानता हूं, मैं नहीं मानता। मनुष्य के मन में कोई शहर, देहात से फर्क नहीं पड़ता। कपड़े-लत्तों से फर्क नहीं पड़ता। सदियों से फर्क नहीं पड़ता कि कोई बीसवीं सदी में रह रहा है, कोई दसवीं सदी में, तो फर्क पड़ जाता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। माइंड में फर्क तो सिवाय साधना के और कोई रास्ते से पड़ता नहीं--कोई रास्ते से पड़ता नहीं।