QUESTION & ANSWER

Kya Sove Tu Bavri 01

First Discourse from the series of 4 discourses - Kya Sove Tu Bavri by Osho.
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तो पहली बात, सबसे पहले तो जैसा कि धीरू भाई ने कहा: जरूर एक ऐसा संगठन चाहिए युवकों का, जो किसी न किसी रूप में सैन्य ढंग से संगठित हो। संगठन तो चाहिए ही। और जैसा काकू भाई ने भी कहा: जब तक एक अनुशासन, एक डिसिप्लिन न हो, तब तक कोई संगठन आगे नहीं जा सकता है; युवकों का तो नहीं जा सकता है।
तो काकू भाई का सुझाव और धीरू भाई का सुझाव दोनों उपयोगी हैं। चाहे रोज मिलना आज संभव न हो पाए, तो सप्ताह में तीन बार मिलें, अगर वह भी संभव न हो, तो दो बार मिलें। एक जगह इकट्ठे हों। एक नियत समय पर, घंटे-डेढ़ घंटे के लिए इकट्ठे हों। और जैसा कि एक मित्र ने कहा कि ‘मित्रता कैसे बढ़े?’ मित्रता बढ़ती है साथ में कोई भी काम करने से। मित्रता बढ़ने का और कोई रास्ता नहीं है। काकू भाई ने जो कहा, उस तरह परिचय बढ़ सकता है, मित्रता नहीं बढ़ेगी। मित्रता बढ़ती है कोई भी काम में जब हम साथ होते हैं। अगर हम एक खेल में साथ खेलें, तो मित्रता बन पाएगी, मित्रता नहीं रुक सकती है। अगर हम साथ कवायद करें, तो मित्रता बन जाएगी; अगर हम साथ गड्ढा भी खोदें, तो भी मित्रता बन जाएगी; अगर हम साथ खाना भी खाएं, तो भी मित्रता बन जाएगी। हम कोई काम साथ करें, तो मित्रता बननी शुरू होती है। हम विचार भी करें साथ बैठ कर, तो भी मित्रता बननी शुरू होगी। और वे ठीक कहते हैं कि मित्रता बनानी चाहिए। लेकिन वह सिर्फ परिचय होता है। फिर मित्रता गहरी तो होती है जब हम साथ खड़े होते हैं, साथ काम करते हैं। और अगर कोई ऐसा काम हमें करना पड़े, जिसको हम अकेला कर ही नहीं सकते, जिसको साथ ही किया जा सकता है, तो मित्रता गहरी होनी शुरू होती है।
तो यह ठीक है कि कुछ खेलने का उपाय हो, कुछ चर्चा करने का उपाय हो। बैठ कर हम साथ बात कर सकें, खेल सकें। और वह भी उचित है कि कभी हम पिकनिक का भी आयोजन करें। कभी कहीं बाहर आउटिंग के लिए भी इकट्ठे लोग जाएं। मित्रता तो तभी बढ़ती है जब हम एक-दूसरे के साथ किन्हीं कामों में काफी देर तक संलग्न होते हैं।
और एक जगह मिलना बहुत उपयोगी होगा। एक घंटे भर के लिए, डेढ़ घंटे के लिए। वहां मेरी दृष्टि है, कि जैसा उन्होंने उदाहरण दिया कुछ और संगठनों का। उन संगठनों की रूप-रेखा का उपयोग किया जा सकता है। उनकी आत्मा से मेरी कोई स्वीकृति नहीं है, उनकी धारणा और दृष्टि से मेरी कोई स्वीकृति नहीं है। पूरा विरोध है। क्योंकि वे सारी संस्थाएं, जो अब तक चलती रही हैं, एक अर्थों में क्रांति-विरोधी संस्थाएं हैं। लेकिन उनकी रूप-रेखा का पूरा उपयोग किया जा सकता है।
साथ में जोड़ देने का है जो...वह काकू भाई समझते हैं कि साथ में अगर कवायद की जाए, तो उसके बड़े गहरे परिणाम होते हैं। जब हमारे शरीर एक साथ, एक रिदम में कुछ काम करते हैं, तो हमारे मन भी थोड़ी देर में एक रिदम में आना शुरू हो जाते हैं। साथ में जोड़ देने का जो है, वह यह है कि अकेली कवायद को मैं पसंद नहीं करता हूं, क्योंकि वह शारीरिक से ज्यादा नहीं है। और न खेल को अकेला पसंद करता हूं, क्योंकि वह भी शारीरिक है। साथ में मैं यह पसंद करूंगा और उसके लिए शीघ्र ही अपन कुछ उपाय करेंगे कि मेरे साथ दस-पचास युवक एक जगह बैठ कर दो-चार दिन में उस प्रयोग को पूरा समझ लें।
कवायद भी चले और साथ में ध्यान भी चले; खेल भी चले और साथ में ध्यान भी चले। तो ‘मेडिटेशन इन एक्शन’ कहता हूं उसको मैं। बूढ़े आदमी जब भी मेडिटेशन करेंगे, तो ‘इनएक्शन’ की होगी वह। वे एक कोने में बैठ कर कर सकते हैं। एक युवक को, एक युवती को हम कहें, एक छोटे बच्चे को कहें कि तुम एक कोने में घंटे भर शांत बैठे रहो, तो उसके लिए बहुत घबड़ाने वाला है। और इसीलिए दुनिया में युवक-युवतियां और छोटे बच्चे ध्यान नहीं कर पाए आज तक, क्योंकि ध्यान की जो शर्त है, वह बूढ़े आदमी के लिए तो बिलकुल ठीक है, लेकिन छोटे बच्चों के लिए बिलकुल ठीक नहीं है। हमें कुछ ऐसी व्यवस्था करनी पड़ेगी कि जब बच्चा खेल रहा है, तब हमें उसे कहना पड़ेगा कि खेल के वक्त वह ध्यानपूर्वक खेले। या जब वह कवायद कर रहा है, तो बाहर पैर तो कवायद करें और भीतर मन बिलकुल शांत हो--कहां हो, किस जगह हो, वह उसका ध्यान रखे। दोहरे काम हों, बाहर शरीर कवायद करे और भीतर चित्त ध्यान करे। तो एक सक्रिय ध्यान की व्यवस्था उस संगठन के साथ जोड़नी जरूरी है।
और वह तो जो रूप-रेखा में--जिस तरह सारी दुनिया में युवकों के संगठन चलते हैं--वह समझ कर उस तरह के संगठन बनाने की कोशिश करनी चाहिए। अंततः तो यह जरूरी होगा कि रोज वह संगठन के लोग मिलें--वे उनके शारीरिक स्वास्थ्य की फिकर करें--जैसा काकूभाई ने कहा, क्योंकि मानसिक स्वास्थ्य के सारे आधार शारीरिक स्वास्थ्य से ही रखे जाते हैं।
और यह भी ध्यान रहे कि बीमार आदमी भी क्रांति चाह सकता है, लेकिन बीमार आदमी की क्रांति हमेशा डिस्ट्रक्टिव होगी; वह कभी भी सृजनात्मक नहीं हो सकती। बीमार आदमी का मन होता है, तोड़ दो चीजों को, मिटा दो चीजों को। लेकिन मिटा देना काफी नहीं है। कुछ बनाने के लिए मिटाने का सवाल है। और इसलिए स्वस्थ आदमी जब क्रांति चाहता है, तो बड़ी और तरह की क्रांति होती है। वह चीजों को तोड़ने में उत्सुक नहीं है--तोड़ सकता है, लेकिन उत्सुकता हमेशा ‘बनाने’ की है। वह कुछ बनाना चाहता है।
सिमोन वेल एक बहुत क्रांतिकारी महिला थी फ्रांस में। उसने लिखा कि मेरी तीस साल की उम्र तक मेरे सिर में हमेशा दर्द बना रहा। और तीस साल की उम्र तक मैं नास्तिक थी, क्रांतिकारी थी, और बड़ी अनार्किक, ब़हुत अराजक थी; और मुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि मेरे स्वास्थ्य की वजह से यह सारी गड़बड़ हो रही है। और जब मेरा स्वास्थ्य बिलकुल ठीक हो गया, तो मुझमें एक रूपांतरण हुआ। वे मेरे सारे विचार विलीन हो गए जो कल तक थे और नये विचार आने शुरू हो गए।
बीमार मस्तिष्क एक तरह के विचारों को आकर्षित करता है, स्वस्थ मस्तिष्क दूसरी तरह के विचारों को आकर्षित करता है। तो यह तो बहुत जरूरी है कि जो संगठन है, वह स्वास्थ्य की दिशा में कुछ करे। खेल हो, कवायद हो, और भी सब खोजा जा सकता है। वह सब स्वास्थ्य की दिशा में हो। योगासन के कुछ प्रयोग किए जा सकते हैं और उस तरह की क्लासेस चलाई जा सकती हैं कि जहां कि वे जो हमारे साथ संबंधित होते हैं।
हमारे युवक संगठन में जो आदमी वर्ष भर रह जाए, उसके स्वास्थ्य में आमूल परिवर्तन आ जाने चाहिए; उसके चित्त में परिवर्तन आ जाना चाहिए। उसका मन शांत हो जाना चाहिए। शरीर शक्तिशाली हो जाना चाहिए। तो वह जो घंटे भर वह आया है, उसे मालूम पड़ेगा कि उसने तेईस घंटे गंवाए, वह घंटा भर वर्ष भर के बाद उसके पास बच रहा है। सिर्फ आएगा-जाएगा, इतने से कुछ नहीं रुकने वाला है। जब उसको आने से लगे कि कुछ मिलता है और जो नहीं आ रहा है वह कुछ खो रहा है।
तो एक तो स्वास्थ्य की चिंता बहुत जरूरी है कि हमारे इस संगठन में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वास्थ्य की एक नई अनुभूति लेने लगे।
साथ ही जरूरी है कि हम...वे जो लोग वहां इकट्ठे होते हैं, वे इस तरह की बातों पर बहुत चिंता न करें कि आत्मा है या नहीं है, परमात्मा है या नहीं है! इन पर कभी सोचें। लेकिन जैसा काकू भाई ने कहा, खाने के संबंध में, व्यायाम के संबंध में, स्वास्थ्य के संबंध में, ध्यान के संबंध में--जिनका हम उपयोग कर सकें, इन पर ज्यादा सोचें। इन पर विचार करें और इन पर प्रयोग भी करें। तो प्रयोग परिणाम लाने शुरू कर देंगे। कैसे हम उठें, कैसे बैठें; कैसे खाएं, क्या खाएं; क्या कपड़े पहनें, ये सब चिंतनीय हैं, ये सब विचारणीय हैं। यह सब अव्यवस्थित चल रहा है अभी। और युवकों को, जिन्हें पूरी जिंदगी बनानी है, उन्हें पूरी जिंदगी के बाबत सोचना पड़ेगा।
जल्दी मैं सोचता हूं कि आपका थोड़ा संगठन बढ़े और एक सौ-पांच सौ युवक आपके पास इकट्ठे हो जाएं, तो एक कैंप सिर्फ युवकों और युवतियों का मैं लेना चाहता हूं, ताकि मैं उनसे चार दिन में उनके पूरे जीवन की प्रक्रिया के बाबत बात कर सकूं। फिर उस दिशा में वे आगे काम कर सकें।
यह भी उचित है कि छोटे-मोटे कुछ प्रयोग, जैसे...वे सारी बातें महत्वपूर्ण हैं। यह बात बहुत जरूरी है, मेरे मन में हमेशा से रही है, हमेशा मैं कहता हूं इस बात को कि हिंदुस्तान में आने वाले बीस वर्षों में हमें एक ही जाति में विवाह की व्यवस्था सख्ती से बंद कर देनी चाहिए। अगर हिंदुस्तान से कभी भी जातियों का दुर्भाग्य नष्ट करना है और हिंदुस्तान से यह कोढ़ की तरह जो धर्मों की दीवालें पकड़े हुए हैं, इसको नष्ट करना है...। समझाने से यह नहीं होगा। हम कितना ही समझ जाएं कि हिंदू-मुसलमान एक हैं, इससे कभी कुछ एक नहीं होगा। हमें एक करने के लिए एक-दूसरे के घर की दीवालें तोड़ कर प्रविष्ट कर जाना होगा; और विवाह के अतिरिक्त एक-दूसरे के घर में और कोई प्रवेश अभी हिंदुस्तान में तो संभव नहीं है।
तो यह बिलकुल जरूरी है कि आने वाला जो युवक हमारे पास आए, उसको हम यह धारणा दें कि कम से कम जिंदगी में वह एक प्रयोग करेगा, वह अपनी जाति में शादी करने को राजी नहीं होगा। वह कोशिश करेगा कि हम इतर जाति में शादी करेंगे।
सच बात तो यह है कि हिंदुस्तान की पूरी नस्ल बर्बाद हो गई है; हिंदुस्तान की पूरी रेस बर्बाद हो गई है--एक ही जाति में शादी करने के कारण। न केवल अधार्मिक है वह बात, अमानवीय है, गैर-साइंटिफिक भी है। जितनी दूर की जाति में शादी हो, उतने अच्छे बच्चे पैदा होने की संभावना है--क्रास-ब्रीडिंग जितनी बढ़ जाए...। लेकिन हम जानवरों के संबंध में ज्यादा वैज्ञानिक हैं, आदमियों के संबंध में उतने वैज्ञानिक नहीं हैं। जाकर अंग्रेज बैल खरीद लाएंगे और हिंदुस्तानी गाय से शादी करवा देंगे उसकी। लेकिन आदमी के मामले में हम उतने वैज्ञानिक नहीं हैं। हम जानते हैं कि अंग्रेज बुल और हिंदुस्तानी गाय का जो बच्चा पैदा होता है, उसकी शान न अंग्रेज बैल का बच्चा कर सकता है, न हिंदुस्तानी बैल का बच्चा कर सकता है। जितनी दो दूर की धाराएं आकर मिलती हैं, उतना ही सबल व्यक्तित्व पैदा होता है।
तो अंततः तो आज नहीं कल...। आज तो हमें यह सोचना चाहिए कि हम अंतर्जातीय विवाह करें। धीरे-धीरे हमें फिकर करनी पड़ेगी आने वाले दिनों में कि वह अंतर्देशीय विवाह शुरू होना चाहिए, आज नहीं कल, बीस साल के बाद सारे मुल्क को यह फिकर करनी चाहिए कि अंतर्देशीय विवाह हो। हम जितनी लड़कियां हिंदुस्तान के बाहर से ला सकें, जितनी लड़कियां हिंदुस्तान के बाहर भेज सकें, जितने लड़के ला सकें, लड़कों को भेज सकें--यह लेन-देन जितनी तेजी से हो जाए, उतनी इस दुनिया को अच्छी दुनिया बनाने में सहयोग मिलेगा।
तो इस पर हमें सोचना चाहिए और थोड़ी हिम्मत जुटानी चाहिए। और जो बच्चे हिम्मत जुटा सकते हैं, उनको हवा खड़ी करनी चाहिए और इस तरफ प्रयोग करना चाहिए। तो यह तो व्यक्तिगत प्रयोग की बात है कि एक-एक बच्चे को खयाल में आना चाहिए कि हम जाति के बाहर अपने संबंध जोड़ने की फिकर करें। यह बिलकुल उचित है।
और दूसरी बात भी मैं कहता रहा हूं वह भी बहुत उचित है कि हम नामों के संबंध में पुरानी जिद्द छोड़ दें। मेरे एक मित्र हैं बिहार में। उन्होंने अपने बच्चे का नाम ‘कृष्ण करीम’ रखा हुआ है। मुझे समझ पड़ा। बहुत अच्छा है, एकदम प्यारा है। कितना प्यारा नाम है! और कृष्ण करीम कितना खूबसूरत भी है! इसकी फिकर करनी चाहिए कि घर में अगर चार बच्चे हैं, और नये बच्चे आएं घर में, तब तो बहुत ही फिकर करनी चाहिए कि नाम कुछ ऐसा रखो कि उसका नाम अंतर्राष्ट्रीय हो। उसको पहचानना मुश्किल हो जाए कि किस जाति का है, किस धर्म का है। वह जब किसी को नाम बताए, तो वह आदमी नाम से कुछ भी न पहचान सके। अगर हम बीस साल फिकर कर लें, तो हिंदुस्तान में हिंदू-मुसलमान और ईसाई को पहचानना मुश्किल हो जाएगा। यह आपकी बात है कि आप भीतर से चाहे चर्च जाते हों, चाहे मस्जिद जाते हों, चाहे मंदिर--इसमें हमें कोई दिक्कत नहीं है।
लेकिन नाम, एक तख्ती की तरह बताना नहीं चाहिए कि यह आदमी कौन है। आदमी पर्याप्त है, इससे ज्यादा नाम की फिकर नहीं होनी चाहिए। यह बात बहुत अच्छी है। जो हिम्मत कर सकते हैं, उनको नाम बदलने चाहिए। नहीं बदल सकते, तो घरों में नये बच्चे आते हैं, उनको नये नाम देने की कोशिश करनी चाहिए। और एक हवा बीस साल में पैदा करनी चाहिए। क्योंकि आज नहीं कल जो तुम्हारे युवक हैं, वे कल बाप बन जाएंगे, मां बन जाएंगी। उस वक्त उनको अगर यह याद रह गया और मां-बाप बन कर उन्होंने बच्चों के नाम भी बदल लिए, तो भी बड़ी काम की बात होगी--बहुत बड़े काम की बात होगी। वह भी उचित है। इस तरह के छोटे-छोटे सुझाव उचित हैं, उनका उपयोग करना चाहिए। वे उपयोगी होंगे। और हमारे मूवमेंट को फैलाने में और गति देने में, हवा खड़ी करने में सार्थक होंगे।
यह जो कपड़ों का मामला है, वह भी मामूली जैसा है। अब तो कपड़े कुछ टूटे हैं, अंग्रेजों की कृपा माननी चाहिए, हमारी वजह से नहीं टूट गए हैं, मजबूरी में टूट गए हैं कपड़े। लेकिन फिर भी, आज भी फासला जाहिर है। आज भी पता चल जाता है कपड़े पहनने से कि आदमी क्या है, कौन है, किस जाति का है, कैसा, क्या है। यह जाना चाहिए। कपड़े कोई खबर नहीं देने चाहिए। और धीरे-धीरे एक से कपड़े सारी जाति के लोग पहनते हों, इस तरह की हमें चिंता करनी चाहिए। हमारा युवक, हमारी युवती तो पहनती ही हों। उसके कपड़ों से पता न चल सके कि वह कौन जाति का आदमी है। इसकी हमें चिंता करनी चाहिए। जो-जो बैरियर्स हैं--आदमी को आदमी से अलग दिखलाते हैं, वे बैरियर्स हमें तोड़ने चाहिए। तो हम...जिसको तुम बार-बार कहते हो कि कंस्ट्रक्टिव क्या है, तो तुम्हें लगेगा कि तुम कुछ कर रहे हो, कुछ बैरियर्स तोड़ रहे हो।
ये बैरियर्स बहुत तरह से तोड़े जा सकते हैं, इसकी फिकर करनी चाहिए--इनकी फिकर करनी चाहिए। अगर मस्जिद में कोई अच्छा व्याख्यान हो रहा है, तो हमारे युवक-दल के लोगों को वहां जाना चाहिए, चाहे वे किसी जाति के हों, उन्हें सुनने जाना चाहिए और मस्जिद के लोगों को निमंत्रण करके आना चाहिए कि हमारा भी कभी होता है, आप वहां आएं। अगर चर्च में कुछ हो रहा है, जाना चाहिए। अगर पारसी के मंदिर में कुछ हो रहा है, तो जाना चाहिए। जहां भी अच्छी बात मिलती है, वहां जाना चाहिए।
एक इतनी अजीब हालत हो गई है कि मैं वर्षों बोलता रहूं बंबई में आकर: अगर हिंदू सुनते हैं, तो हिंदू ही सुनते रहेंगे, मुसलमान का पता नहीं चलेगा। मुश्किल हो जाएगा उसका पता लगाना; उसका कोई पता नहीं चलेगा। यह तो बहुत दूर की बात है। कलकत्ता मैं बोलता हूं, अभी तक बंगाली मुझे कलकत्ते में सुनने नहीं आया, क्योंकि आयोजन करने वाले मारवाड़ी हैं। बस मारवाड़ी मुझे सुनते हैं। कलकत्ते में मुझे ऐसा लगता है जैसे जयपुर में हूं। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि कलकत्ते में एक बंगाली आएगा नहीं। कलकत्ते मैं बोलूंगा, सुनने वाला तो, आयोजक अगर मारवाड़ी है, तो मारवाड़ी सुनने आएगा।
तो हिंदू-मुसलमान तो दूर का मामला है। अगर जैनों के बीच बोलूंगा किसी गांव में जाकर, वहां के हिंदू नहीं आएंगे। हिंदुओं के बीच बोलूंगा, उसी गांव में...। ग्वालियर मैं बोला पहली दफा, तो जैनों के बीच बोलने गया, तो जैन मुझे सुनने वाले थे। और दूसरी बार उसी गांव में बोलने गया, तो कोई महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों की संस्था थी, उन्होंने आयोजन किया था, तो वहां मुझे एक जैन नहीं दिखाई पड़ा। मैं बहुत हैरान हुआ कि यह क्या है! वह उनको खबर ही नहीं मिल सकी। कोई संबंध ही नहीं है हमारे। एक-दूसरे के भीतर हमारा कोई प्रवेश नहीं है।
तो कपड़े बदलने हैं, नाम बदलना है, विवाह को गति देनी है।
हिंदुस्तान में राजा राममोहन राय से लेकर गांधी तक सारे लोगों ने इस बात की कोशिश की कि हिंदू-मुस्लिम एक हो जाएं। लेकिन वह कोशिश सफल नहीं हो सकी, क्योंकि समझाने का कोई सवाल नहीं है। अगर इन सारे लोगों ने एक कोशिश की होती कि हिंदू-मुसलमान विवाह करें और इनके जितने मानने वाले थे, वे विवाह अगर भर लेते, तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा असंभव था, यह कभी नहीं होता। चीन जैसे मुल्क में आज तक कोई धार्मिक झगड़ा नहीं हुआ है। और न होने का कारण यह नहीं है कि चीन के आदमी बहुत अच्छे हैं, लड़ते नहीं। कुल कारण इतना है कि चीन में एक-एक घर में दो-दो, तीन-तीन धर्मों के लोग हैं, झगड़ा किससे करिएगा? पत्नी बौद्ध है, पति कनफ्यूशियस है। अब अगर कनफ्यूशियनों में और बौद्धों में झगड़ा हो जाए, तो कैसे झगड़ा चलेगा गांव में? हिंदुस्तान में झगड़ा चल सकता है। हिंदू अलग हैं, मुसलमान अलग हैं। झगड़ा हो जाए, छुरेबाजी हो सकती है। अगर मेरी मां मुसलमान है और मेरे पिता हिंदू हैं, तो मैं कहां खड़ा होऊं, किससे झगड़ने जाऊं? अगर हिंदू-मुस्लिम दंगा होता है, तो मेरे घर में दंगा हो जाएगा। वह नहीं चल सकता। इतना एक-दूसरे के घर में--एक-एक घर में पांच-पांच धर्म के लोग भी चीन में उपलब्ध हो सकते हैं।
मेरे एक मित्र एक घर में ठहरे। वे दंग रह गए जब उनको पता चला कि इस घर में पांच धर्मों के लोग हैं। तो कैसे झगड़ा होगा? झगड़ा करोगे कैसे? चर्च जलाओगे, तो तुम्हारे घर में एक आदमी है; और मस्जिद में आग लगाओगे, तो एक आदमी है; और मंदिर को जलाओगे, तो एक आदमी है। और ध्यान पड़ेगा घर के सब आदमियों का कि यह--इसका चर्च है, इसका मंदिर है।
हिंदुस्तान में कभी पाकिस्तान नहीं बंटा होता अगर हिंदुस्तान के बच्चों ने मुसलमान और हिंदू और जैनों और बौद्धों के बीच विवाह किए होते। लेकिन बच्चे बिलकुल कमजोर हैं, बच्चे एकदम कमजोर हैं, उनमें कोई हिम्मत ही नहीं है। तो हिम्मत जुटाने की बात है। अगर एक सोशल रेवोल्यूशन लानी है, तो यह हिम्मत जुटाने की बात है।
और जिस तरह फर्क-फासला गिराना है हिंदू-मुसलमान के बीच, उससे भी बड़ी एक जाति है स्त्रियों की और पुरुषों की, उसके बीच का फासला भी गिराना है। वह और भी बड़ी जाति है। हिंदू-मुसलमान का झगड़ा गिर भी जाए, वह स्त्री और पुरुष का झगड़ा गिरता नहीं। अब यह देख कर बड़ा मन खुश होता है कि स्त्रियां बैठी हैं बीच-बीच में। यह देख कर कितना दिल दुख होता है कि इधर एक बीच में जगह छोड़ी हुई है। इधर पुरुष बैठे हैं, स्त्रियां एक तरफ बैठी हैं! यह सब बेहूदा मालूम होता है कि अशिष्ट लोग हैं। यह अशिष्टता का लक्षण है, असंस्कृति का लक्षण है कि स्त्री तुम्हारे बीच में नहीं बैठ सकती। यह इस बात का सबूत है कि पास जो पुरुष बैठे हैं, वे खतरनाक हैं, वे सभ्य नहीं हैं। उनके बीच में स्त्री का बैठना मुश्किल है। कोई धक्का मार देगा, कोई कपड़ा खींच लेगा, कोई कुछ कर लेगा! वह फासला हमें तोड़ने की जरूरत है कि वह फासला टूट जाना चाहिए। वह फासला टूटना चाहिए।
स्त्री और पुरुष कोई दो जाति के जानवर नहीं हैं। उनके बीच ऐसा फासला नहीं होना चाहिए। लेकिन वह फासला है, और इस मुल्क में तो भारी है। इस फासले को बिलकुल तोड़ डालना है।
तो वह जो युवक क्रांति दल हो, वह धीरे-धीरे इस हिम्मत को जुटाएगा कि वहां स्त्री-पुरुष को हम रिकग्नाइज नहीं करते। हम यह नहीं स्वीकृति देते कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष है। हम इसकी चिंता नहीं करते। और यह स्त्री-पुरुष के बीच इतना फासला क्यों खड़ा किया हुआ है? यह इसी बात का सबूत है कि हमारे चित्त बहुत अनैतिक हैं। अगर चित्त नैतिक हों, तो इस फासले को खड़े करने की जरूरत नहीं है।
और बड़े मजे की बात है, चित्त अनैतिक हैं इसलिए फासला है। और फासला है इसलिए चित्त नैतिक हो नहीं सकते, वे अनैतिक होते चले जाएंगे--वे अनैतिक होते चले जाएंगे।
पूरे देश में--पूरे देश में जहां भी मैं जाता हूं, मैं सुन कर हैरान हो जाता हूं, कोई लड़की अकेली नहीं निकल सकती रास्तों पर। कोई गाली दे देगा, कोई धक्का मार देगा, कोई कुछ न कुछ कह देगा, कुछ न कुछ हो जाएगा। अभी जबलपुर, जहां मैं रहता हूं, क्योंकि वहां का मुझे ज्यादा पता चलता है। वहां तो मैं दंग रहा गया हूं देख कर। युनिवर्सिटी में मैं था, तो लड़कियां, लड़कियां इस तरह जैसे कि बिलकुल कोई शिकार का जानवर हैं, जिनके चारों तरफ शिकारी पड़े हुए हैं। जिनको कहीं से भी कोई चोट मारेगा। वे किस तरह घबड़ाई हुई कॉलेज में आती हैं, किस तरह घबड़ाई हुई कॉलेज से जाती हैं। लेकिन न वे किसी से कह सकती हैं, न कोई सुनने वाला है। और कोई सवाल ही नहीं है, कोई विचार का सवाल नहीं है।
यह इतना पागलपन कैसे खड़ा हुआ है? यह पागलपन तोड़ने जैसा है। हिंदू-मुसलमान के बीच भी फासले गिराने हैं, स्त्री और पुरुष के बीच भी फासले गिराने हैं। लेकिन अब तक क्यों नहीं गिरे फासले? फासले खड़े क्यों किए गए? फासले इसलिए खड़े किए गए कि स्त्री और पुरुष के बीच अगर निकटता हो, तो प्रेम का खतरा पैदा होता है। और जातिवादी जो दिमाग है, वह प्रेम से बचना चाहता है, क्योंकि प्रेम पता नहीं रखता कि कौन मुसलमान है, कौन हिंदू है, कौन ईसाई है।
विवाह में इंतजाम रखा जा सकता है कि हमको हिंदू से हिंदू का विवाह करना है, ब्राह्मण का ब्राह्मण से विवाह करना है। और प्रेम बड़ा गड़बड़ है, डिस्टर्बिंग है। वह कभी हिसाब नहीं रखता कि सामने वाला ब्राह्मण है कि नहीं। पहले प्रेम हो जाता है, पीछे पता चलता है कि ब्राह्मण है कि ईसाई है कि मुसलमान है।
तो चूंकि जातियों को अलग रखना है, इसलिए प्रेम को गुंजाइश नहीं देनी है, जगह नहीं देनी है जरा भी। प्रेम को जगह दी कि जातियां गईं।
जिस दिन दुनिया में प्रेम को जगह दे दी जाएगी, उसी दिन जातियां उसी वक्त खत्म हो जाएंगी--जातियां नहीं बच सकती हैं। जातियों को बचाने के लिए प्रेम की हत्या कर दी है कि प्रेम को बचने मत दो, तो जातियां बचेंगी, नहीं तो जातियां नहीं बच सकतीं।
अगर हम खयाल करेंगे, तो हमें पूरा का पूरा जो सोशल मिल्यू जिसको कहें, वह जो हवा है पूरे समाज की, उसमें खोज-बीन करनी है; और सबको चिंतन करना है कि वहां क्या-क्या चीजें हैं जो तोड़ने जैसी हैं, जिन पर हम सहमत हो सकते हों और जिनको हम तोड़ें। चाहे हम आज न तोड़ सकें, तो लक्ष्य की तरह सामने रखें कि हम तोड़ने की कोशिश करेंगे। हो सकता है, हम न तोड़ सकें, हमारा बच्चा तोड़ेगा। हम तोड़ने की हवा पैदा करेंगे, हम उपाय करेंगे, हम सोचेंगे। इस सब पर चिंतन वहां पैदा करना चाहिए। और जितनी बड़ी क्रांति लानी हो, उतने शांत लोग चाहिए, यह ध्यान में रहे। क्रांति अशांत लोग नहीं लाते। क्रांति शांत लोग लाते हैं। जितने शांत होंगे, उतनी बड़ी क्रांति ला सकते हैं।
तो सबसे बड़ी केंद्रीय बात, वहां हम शक्ति इकट्ठी करें, विचार इकट्ठा करें। लेकिन सबसे बड़ी बात, शांति इकट्ठी करें--कि जब हमारा युवक कोई बात कहे किसी से जाकर तो ऐसा मालूम न पड़े कि वह उच्छृंखलता की बातें कह रहा है। ऐसा मालूम न पड़े कि वह कुछ चीजों को तोड़ने-फोड़ने की गलत बातें कह रहा हो। उसको देख कर लगे कि वह इतना शांत है कि उसके भीतर से उच्छृंखलता की बात नहीं आ सकती। अगर वह कह रहा है तो सोच कर कह रहा है, विचार कर कह रहा है।
फिर हम किन-किन बातों को समाज तक पहुंचाएं, उसकी हमें फिकर करनी चाहिए। अभी तो दो वर्षों तक सारे युवक जो मेरे आस-पास आते हैं, उनको एक ही फिकर करनी चाहिए कि इन खयालों को एक-एक घर तक कैसे पहुंचा दिया जाए। साहित्य पहुंचाएं लोगों के घर तक। आपके जितने परिचित हैं, यह आपका कस्द होना चाहिए कि मेरे परिचितों में एक भी आदमी का ऐसा घर नहीं होगा कि साहित्य नहीं पहुंचा दूंगा। वहां साहित्य पहुंचा दें। टेप अपने मित्रों को सुनवा दें। इसकी पूरी फिकर करें कि मेरे मित्र पूरे आ सकेंगे, सुनेंगे, समझेंगे। एक बार तो उनको मैं ले आऊंगा। दुबारा उनकी फिकर छोड़ देंगे, वे अगर आना चाहते हैं तो आएं; कोई जबरदस्ती नहीं है। अगर सौ-पांच सौ युवक इकट्ठे होकर पूरे बंबई के घर-घर में साहित्य पहुंचाने का काम हाथ में ले लें, तो हम दो वर्ष में पूरे बंबई के घर-घर में साहित्य पहुंचा देंगे, कोई कठिनाई नहीं है।
साहित्य पहुंचा देना है एक-एक घर में। एक-एक घर में खबर पहुंचा देनी है, बात पहुंचा देनी है। खासकर नये युवकों और युवतियों तक तो पूरी खबर पहुंचा देनी है। और अभी तो बहुत काम पड़ सकेगा, क्योंकि जो भी मैं कह रहा हूं, उसके कहने में हजार बाधाएं खड़ी की जाएंगी। हजार विरोध किए जाएंगे। उस सारे विरोध और बाधाओं को पार करने के लिए सिवाय युवकों के और कोई रास्ता नहीं होगा। हो सकता है, कोई अखबार मेरी बात न छापे। तो हमारे पास इतने युवक होने चाहिए कि अखबार जितनी खबर पहुंचा सकें, वहां हमारे युवक पहुंचा देंगे।
आज नहीं कल वे और तरह की भी बाधाएं खड़ी करेंगे, क्योंकि जैसे-जैसे उनको लगेगा, समाज में जो न्यस्त स्वार्थ है, जिसका वेस्टेड इंट्रेस्ट है, उसको लगेगा कि यह तो सब टूट जाएगा, अगर ये बातें चलती हैं। तो वह पच्चीस तरह के उपद्रव खड़े करेगा। उन उपद्र्रवों के सामने खड़े होने का बल युवकों को जुटाना पड़ेगा। आज नहीं कल यह हो सकता है कि सत्याग्रह जैसी हमें कोई बात करनी पड़े, कोई जोर देना पड़े। आज गांव-गांव में जो हो रहा है, अगर हमारे पास पांच सौ युवक एक गांव में हैं, तो हम वहां कुछ सत्याग्रह जैसी चीजें कर सकते हैं। हजार चीजें चल रही हैं, जिनके खिलाफ एक हवा पैदा की जा सकती है। जिस हवा का उपयोग किया जा सकता है, हम अपना संकल्प जाहिर कर सकते हैं कि यह नहीं होने देंगे। वह सारा का सारा करने को काम बहुत है।
लेकिन इसके पहले कि वह काम हो, विचार पहुंचाने जरूरी हैं, ताकि विचार से लोग आएं और फिर काम पैदा हो सके। तो अभी दो साल के लिए तो, ये जो सारी बातें जो मैंने कही हैं, आपने सबने सुझाईं, इन सबको करिए। और सबसे बड़ी केंदीय बात की फिकर करिए कि अधिकतम लोगों तक खबर कैसे पहुंचाई जाए, अधिकतम लोगों तक बात कैसे पहुंचाई जाए। और फिर हर गांव के अपने-अपने छोटे-छोटे मसले होंगे जो गांव के अपने होते हैं, नगर के अपने होते हैं, उन पर भी ध्यान देने की जरूरत है।
अब अपनी सभाएं होती हैं...। अभी मैं प्रेमचंद भाई से बात किया हूं कि युवक क्रांति दल के जो युवक हों, युवती हों, एक विशेष यूनिफार्म होनी चाहिए उनका। कम से कम सभाओं में वे यूनिफार्म में दिखाई पड़ने चाहिए। पांच सौ युवक वहां यूनिफार्म में होने चाहिए। उसका इम्पैक्ट और होगा। सभा व्यवस्थित मालूम पड़ेगी। सभा के पीछे एक आंदोलन खड़ा हो रहा है, यह मालूम पड़ेगा। विचार सिर्फ विचार नहीं है, उसके पीछे बल और एक ताकत भी खड़ी हो रही है, यह भी मालूम पड़ेगा। मैं क्या कह रहा हूं, उसका भी उतना परिणाम नहीं है, जितना इस बात का परिणाम होगा कि कितने लोग उस बात के लिए संकल्पपूर्वक करने को राजी हो रहे हैं। वह सारी हवा पैदा करने की बात है।
अभी तो चाहे एक दिन मिलते हैं, तो वहां टेप सुनें, वह तो ठीक है। चर्चा करें, वह भी ठीक है। लेकिन चर्चा और टेप पर्याप्त नहीं है। आपको कुछ काम चाहिए वह ठीक है। युवक को कुछ काम चाहिए, नहीं तो वह ऊब जाएगा। तो उसके लिए कुछ काम खोजें--साहित्य पहुंचाए, टेप दूसरी जगह ले जाए सुनाने को। वहीं सुनें, जब दूसरे को सुनवाए। खबर पहुंचाए, चर्चा पहुंचाए। छोटी यहां कोई पत्रिका निकाल सकते हैं युवक क्रांति दल की--चाहे महीने में निकालें, चार पन्नों की निकालें। उस पत्रिका को घर-घर पहुंचाने की फिकर करें। क्योंकि यह तो दो साल के भीतर कोई पत्र मेरी बात छापने को धीरे-धीरे राजी नहीं होगा। हमारे पास अपने पत्र चाहिए, अपने पत्र से पहुंचाना पड़ेगा, नहीं तो बात ही नहीं पहुंचाई जा सकेगी। वे कुछ भी छाप देंगे, वह पहुंच जाएगा, हम नहीं पहुंचा सकेंगे।
आज पचास हजार की मीटिंग भी आप ले लें, तो उसका उतना परिणाम नहीं होता, जितना एक छोटे से अखबार का परिणाम हो जाता है। तो छोटी बुलेटिन यहां निकालनी चाहिए। और बंबई में फिकर ज्यादा करनी चाहिए, क्योंकि फिर उसी के आधार पर पूरे मुल्क में हम केंद्रों को खड़ा कर लेंगे। तो यहां जिम्मा ज्यादा बड़ा है आपके ऊपर। क्योंकि यहां एक न्यूक्लइस खड़ा हो जाए, तो फिर उसके आधार पर...। पूरे मुल्क में युवक पूछ रहे हैं कि क्या करें, क्या नहीं करें। तो उनको फिर यहां से सर्कुलर भेजे जा सकते हैं, खबर भेजी जा सकती है, वे वहां खड़ा कर सकते हैं। युनिवर्सिटी कैम्पस में, कॉलेज में वहां ग्रुप खड़े करिए, वहां सेल्स ख़ड़ी करिए, वहां मिलने का इंतजाम करिए। नहीं सब जगह मिल सकते हैं--एक कॉलेज में आप पांच मित्र पढ़ते हैं, तो वहां के रिसेस में, छुट्टी में पचास लोगों को इकट्ठा करके टेप सुना दीजिए। पंद्रह मिनट सही।
मेरे खिलाफ लिखा जाएगा बहुत-कुछ--मेरे विचारों के खिलाफ लिखा जाएगा। अभी हमको कोई खयाल नहीं है। हम सोचते हैं कि वह लिखा गया खिलाफ, ठीक है। हमको क्या करना है! वह सब भूल जाएंगे लोग। यह गलत बात है। अगर हमारे पास पांच सौ युवक हैं, तो उसका जवाब लिखा जाना चाहिए, उसका उत्तर लिखा जाना चाहिए। अगर एक उनके पास मेरे विपक्ष में कुछ पहुंचाता है, तो उनके पास दो मेरे पक्ष में भी कोई खबर पहुंचनी चाहिए। उनको लगना चाहिए कि विपक्ष में छापना आसान नहीं है, क्योंकि दस आदमी पक्ष में भी कुछ बात कहने को तैयार हैं।
अक्सर होता यह है कि चार आदमी अगर गांव में विरोध में हों, वे चार आदमी जाकर लिख आएंगे अखबार में। और सारी दुनिया को ऐसा लगेगा कि पूरा गांव विरोध में है। और वे जो मेरे साथ हैं, वे कहेंगे कि ठीक है, हमको क्या करना है! वे तो लिख रहे हैं; गलत लिख रहे हैं। लेकिन लोग जो मुझे नहीं जानते हैं, उनको पता भी नहीं चलेगा कि उन्होंने क्या लिख दिया और क्या नहीं लिख दिया। और क्या छाप रहे हैं, क्या नहीं छाप रहे हैं। कुछ भी लिख सकते हैं, कुछ भी छाप सकते हैं।
अभी एक किताब निकाली है मेरे खिलाफ। उसमें लिखा है कि मैं जैन साधु था। मैं कब जैन साधु था, मुझे पता ही नहीं। पहली दफा पढ़ कर मुझको पता चला कि मैं जैन साधु था और जैन साधु मैं छोड़ दिया हूं अब। और अब मैं भ्रष्ट हो गया हूं साधु से। मगर मैं कब था, यह मुझे पहली दफा उसी किताब को पढ़ कर पता चला। तो इस सबके लिए कुछ बल खड़ा करना पड़ेगा। तो वह सबके लिए तो संगठन होना चाहिए न! तो युवक इकट्ठे होंगे, तो ही होगा, तो ही हो सकेगा।
तो इस पर थोड़ी फिकर करिए। और इस पर मिल कर ज्यादा बातचीत, बहुत विचार मत करिए। एक सूत्रबद्ध व्यवस्था बनाइए कि इतना हमें करना है। ऐसे-ऐसे करना है, कैसे करेंगे, और करना शुरू कर दीजिए। इसकी बहुत फिकर मत करिए कि बहुत लोग आएंगे तब हम शुरू करेंगे। लोग हमेशा आएंगे। अगर काम में और विचार में कोई बल है, तो लोग आते रहेंगे। अगर आपके पास उनको रोकने की व्यवस्था रही, तो लोग आएंगे और रुक जाएंगे। अगर आपके पास रोकने की व्यवस्था नहीं रही, तो हजारों लोग आएंगे और चले जाएंगे। वहां कुछ रोकने के लिए जगह होनी चाहिए कि जो लोग उत्सुक होकर आते हैं...। मैं क्या कर सकता हूं, कितना कर सकता हूं? मैं सारे मुल्क में चिल्लाता घूम सकता हूं। तीन दिन यहां रहूंगा, फिर चला जाऊंगा। फिर मेरे पीछे फॉलोअप करने के लिए फिकर होनी चाहिए।
कितनी छोटी-छोटी चीजों से असर पड़ता है, जिसका हमें पता ही नहीं! हिटलर ने पहली बार जब वहां संगठन युवकों का खड़ा किया जर्मनी में, तो उसके साथ सात आदमी थे कुल जमा। और एक भी प्रशिक्षित आदमी नहीं था। सात साधारण लोग थे। उन सात लोगों को लेकर उसने किस भांति काम शुरू किया? हिटलर बोलने जाता मीटिंग में, तो उन सात लोगों को सिखा कर रखता कि तुम जाकर सात जगह बैठ जाओ और फलां-फलां जगह जोर से ताली पीटना। क्योंकि लोगों का जो दिमाग है, वह दूसरे सात लोगों को ताली पीटते देख कर पूरा हॉल ताली पीटता है। कोई अपनी बुद्धि से ताली नहीं पीटता। यह सोचना ही नहीं तुम कभी। सौ में से अस्सी आदमी दूसरों को ताली पीटते देख कर ताली पीटते हैं। हिटलर का भाषण और सारा हॉल ताली पीटे। सारे गांव में खबर हो गई कि मामला क्या है। बहुत अदभुत बोलने वाला है। और वे कुल जमा सात आदमी थे, जो ताली पिटवाते थे, और वह सारा हॉल ताली पीटता था।
फिर उसने दूसरा काम शुरू किया। मैं नहीं कहता कि ऐसा काम आप शुरू कर दें। उसने दूसरा काम शुरू किया कि दूसरे की मीटिंग को होने देना मुश्किल कर दिया जर्मनी में। क्योंकि वही सात-आठ आदमी दूसरे की मीटिंग में गड़बड़ करेंगे। वे सात-आठ आदमी गड़बड़ करेंगे, तो पूरा हॉल डिस्टर्ब हो जाएगा। धीरे-धीरे यह हालत हो गई कि गांव के लोगों को पता चल गया कि सिर्फ हिटलर की मीटिंग में ही ठीक शांति रहती है और कहीं शांति नहीं रहती। जाना फिजूल है, वहां अशांति होगी, वहां कोई जाने की जरूरत नहीं। और न वह कोई अच्छा बोलने वाला था, न कोई बड़ा विचार था, न कोई बुद्धिमान आदमी था। लेकिन बस, और इन थोड़े से लोगों ने धीरे-धीरे सारे जर्मनी पर कब्जा कर लिया। न केवल जर्मनी पर कब्जा कर लिया, इन थोड़े से लोगों ने सारी दुनिया को इतनी मुसीबत में डाल दिया कि दुनिया के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ था कि एक आदमी ने इतनी बड़ी दुनिया को इतनी मुसीबत में कभी डाला हो।
बुरे काम को करने वाले लोग हमेशा संगठन खड़ा कर लेते हैं; संसार को कठिनाइयों में डाल देते हैं। अच्छे काम को करने वाले लोग बैठ कर बातचीत करते हैं और घर चले जाते हैं। यह अब तक की खराबी रही है। बुरा काम करने के लिए हमेशा संगठन खड़े हो जाते हैं। अच्छे काम के लिए हमेशा बातचीत होती है और खत्म हो जाता है। इसलिए बुरा आदमी, जिसको किसी का समर्थन नहीं है, वह धीरे-धीरे जीत जाता है। और अच्छा आदमी जिसको सबका समर्थन मिल सकता था, वह धीरे-धीरे हार जाता है।
इस पर थोड़ा ध्यान देना जरूरी है कि अगर कोई विचार हमें अच्छा लगता है, तो यह हमारा कर्तव्य हो गया कि हम जहां तक उसे पहुंचा सकें, पहुंचाएं। नहीं तो अच्छा विचार सिर में रहने से किसी काम का नहीं है वह, बेकार हो जाएगा। वह सक्रिय होगा, तो ही काम कर पाएगा, नहीं तो नहीं कर पाएगा। और कोई भी अच्छा विचार जैसे ही सक्रिय होगा, जिन विचारों के हाथ में ताकत है, वे उसके विरोध में खड़े हो जाने वाले हैं। और उनके पास पूरी व्यवस्था है और आयोजन है। इसलिए वे कभी भी किसी भी नये विचार की गर्दन घोंट सकते हैं।
आज हमको लगता है कि जीसस का विचार बड़ा प्रभावशाली है, लेकिन जिस दिन जीसस को सूली दी, तो एक आदमी इनकार करने वाला भी नहीं था। अब यह सोचने जैसा मामला है कि जीसस जैसे अच्छे आदमी को, जिसके मुकाबले जमीन पर मुश्किल से दो-चार आदमी हुए हैं, इस आदमी को जिस दिन सूली दी गई, तो एक आदमी यह कहने वाला नहीं था कि गलत कर रहे हो तुम। एक लाख आदमी देखने इकट्ठे थे, लेकिन एक आदमी ने यह नहीं कहा कि गलत कर रहे हो। और लोगों ने कहा कि बिलकुल ठीक है। क्योंकि जिनके हाथ में ताकत थी, उन्होंने प्रचार किया कि यह आदमी गलत है।
जीसस के कुल अनुयायी जीसस की जिंदगी में आठ थे, इससे ज्यादा नहीं। और वे आठ भी घबड़ा गए। जब सारी दुनिया खिलाफ हो जाए! रात को जब जीसस को पकड़ कर ले जाने लगे, तो उनके एक मित्र ने, पीटर ने, जो उनका साथी था उसने कहा कि कोई फिकर नहीं, हम साथ चलते हैं। जीसस ने कहा कि सूरज उगने के पहले, मुर्गा बांग दे उसके पहले तू मुझे तीन दफे इनकार कर देगा। पीटर ने कहा: मैं कभी जिंदगी में इनकार नहीं करूंगा आपको।
जीसस को पकड़ कर ले चले। पीटर पीछे चल रहा है। वह जो भीड़ ले जा रही है, उसको शक हुआ कि यह आदमी कुछ अजनबी है। हमारा आदमी नहीं मालूम होता। उसको पकड़ कर पूछा कि तू कौन है? जीसस के साथ है? उसने कहा कि नहीं, मैं क्यों साथ हूं? मैं तो अजनबी आदमी हूं! जीसस ने पीछे लौट कर कहा: कहा था मैंने कि सूरज उगने के पहले तीन दफे इनकार कर देगा।
जब इतनी बड़ी भीड़ विरोध में हो, जब इतना सारी दुनिया, व्यवस्था विरोध में हो, तो वे जो साथ भी खड़े होते हैं, उनकी हिम्मत भी डांवाडोल हो जाती है कि कितनी देर साथ खड़े रहें, कैसे साथ खड़े रहें। और उनका दिमाग भी इसी भीड़ ने बनाया हुआ है। उनके दिमाग में भी शक होने लगता है कि हो न हो यह आदमी गड़बड़ हो। क्योंकि जब इतने सारे लोग कहते हैं, तो गड़बड़ होना चाहिए। इतने सारे लोग कभी गलत कह सकते हैं?
सुकरात को सूली दी, जहर पिला दिया। बस्ती में लोग नहीं मिले, जो उसकी गवाही दे सकते कि यह आदमी ठीक है। और आज दो हजार साल से हम गवाही दे रहे हैं कि वह बहुत बढ़िया आदमी है। बड़ी हैरानी की बात है! लेकिन जिनके पास व्यवस्था है, प्रचार के साधन हैं, वे कुछ भी प्रचार कर सकते हैं। वे कोई भी व्यवस्था खड़ी कर सकते हैं।
तो अगर कोई भी विचार पहुंचाना हो, लगता हो कि प्रीतिपूर्ण है, पहुंचाने जैसा है, तो उसके लिए बल इकट्ठा करना, संगठित होना, उसके लिए सहारा बनना एकदम जरूरी है। तो उसके लिए तो डिटेल्स में सोचें, विचार करें। लेकिन ये सारी बातें जो मुझे सुझाई हैं, ये सब ठीक हैं। इन सबके आधार पर सोचना शुरू करें।
काम शुरू कर दें, पांच-दस लोग इकट्ठे हों, कोई फिकर नहीं है। और यह अगर कर पाते हैं, तो पांच वर्षों में पूरे मुल्क में युवकों की एक बिलकुल ही नई धारा खड़ी की जा सकती है: जो सारी शिक्षा बदल डाले, सारे समाज को बदल डाले, सारी व्यवस्था को बदल डाले, सारे चिंतन को बदल डाले। उस दिशा में कुछ सोचें।
और जल्दी ऐसा कुछ करें कि पांच सौ युवक यहां बंबई इकट्ठे होते हैं, तो फिर जल्दी हम एक कैंप ले लेते हैं, ताकि वह पहला कैंप बने और वहां विस्तार से सारी बात हो सके। और उस विस्तार के आधार पर फिर हम व्यवस्थित योजना बना सकें। और अभी तो आप जितने लोग मिलते हैं, उनमें से तीन लोगों की एक कमेटी बना दें। वे तीन लोग कांस्टिट्यूशन बनाएं, एक विधान बनाएं कि क्या विधान होगा, क्या सदस्यता के नियम होंगे। वह जो औपचारिक सारा है, वह नियम पूरा व्यवस्थित कर लें और फिर व्यवस्था के अनुसार काम शुरू कर दें।
और जिंदगी कोई ऐसी चीज नहीं है कि हम आज आखिरी निर्णय ले लेते हैं। वह तो हम काम करेंगे, कल ठीक लगेगा, नहीं लगेगा। फिर जो और कुछ सुझाव आएंगे, उनके हिसाब से काम होता चला जाएगा और हम आगे उसको विकसित कर ले सकते हैं। लेकिन बड़ा जिम्मा बंबई के मित्रों पर है और वह बड़ा जिम्मा यह है कि आप जैसा बनाएंगे, उस आधार पर पूरे मुल्क में बनना शुरू हो सकता है।
और हर चीज के लिए मेरी तरफ नहीं देखना चाहिए। वे जो गाइडिंग थॉट्‌स हैं, वे मैं दे देता हूं, फिर डिटेल्स में और ब्यौरों की बातें आपको तय कर लेनी चाहिए। एक-एक ब्यौरे की बात के लिए मेरी तरफ प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए कि मैं आऊंगा और तब यह बात होगी। तब तो काम होना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

प्रश्न:
आपको यहीं रखेंगे न?
उसमें भी बाधाएं डालने वाले लोग बाधाएं डालना शुरू करेंगे। उसके लिए भी बल जुटाना पड़ेगा। उसके लिए भी बल जुटाना पड़ेगा कि मैं कहां रहूं।

प्रश्न:
भगवान, क्या यह नहीं हो सकता है कि हरेक शहर से पांच-पांच, उदाहरण के तौर पर, कि राजकोट में से हमारे अच्छे लोग तैयार हो गए हैं, तो उनमें से पांच लोग अपने जीवन के दो-तीन साल दें--और एक पंजाब में चला जाए, एक महाराष्ट में चला जाए, और चार साल, पांच साल के लिए...।
ठीक है। प्रचार के लिए जा सकें। बिलकुल ठीक है। उस तरफ भी सोचना है। वह हमारा, यह धीरू भाई जो कहते हैं उस तरफ भी सोचना है।
अभी एक युवक भी अगर गर्मियों के दो महीने की छुट्टियों में दो युवक टोली बना कर एक टेप-रिकॉर्डर लेकर और साहित्य लेकर गांव चले जाएं, तो बहुत काम करके लौट सकते हैं। और बहुत आनंद अनुभव करके लौट सकते हैं कि कुछ किया। वह भी ठीक है, पांच-पांच लोगों के लिए एक छोटा कैंप रख लिया जाए। लेकिन वह कुछ यहां काम शुरू हो।

प्रश्न:
कि एक ऐसा हर जगह से लोग आएं और वह अपनी जगह जाकर कैसे कंडक्ट करना।
समझ गया मैं। सब जगह से लोग आएं। ठीक है। एक दफा तुम यहां कांस्टिट्यूशन बना लो, ब्यौरे की सब बातें बना लो। तो फिर उसके बाद सबको बुला लिया जाए।

प्रश्न:
हरेक व्यक्ति को दो साल अपने कार्य के लिए देना पड़ेगा और बाहर चला जाए।
हां, दे सकते हैं। कोई कठिनाई नहीं है उसमें। अभी तो मामला ऐसा हो गया है कि हमारे पास कोई भी इंतजाम नहीं है। मैं जो बोलता हूं, वह तत्काल पूरे मुल्क में, जो भी मुझे प्रेम करने वाले हैं, उन सब तक फौरन पहुंच जाना चाहिए। मेरी बात पहुंचने के पहले मेरे खिलाफ जो भी पहुंचता है, वह पहले पहुंच जाता है। और वे बेचारे सब परेशान हो जाते हैं कि क्या हुआ, क्या नहीं हुआ। हमें कुछ पता भी नहीं क्या हुआ, क्या नहीं हुआ।

प्रश्न:
भगवान, युवक क्रांति दल का राजनीति से क्या संबंध रहेगा?
हमारी सारी की सारी दृष्टि एक सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति की है। राजनीति से हमें सीधा कोई मतलब ही नहीं है, जरा भी मतलब नहीं है। वह तो हमारी सांस्कृतिक क्रांति की जो विचारधारा फैलेगी उसके परोक्ष परिणाम राजनीति तक पहुंचेंगे, वह दूसरी बात है। हमें उससे कोई मतलब नहीं है। सीधा हमें मतलब नहीं है कोई। युवक संगठन का कोई सीधा मतलब राजनीति से नहीं है। हमारा तो वैचारिक क्रांति करने का मुल्क में ध्येय है। वह वैचारिक क्रांति तो हर चीज में फर्क ला देगी। वह तो राजनीति को भी प्रभावित करेगी, वह बिलकुल दूसरी बात है। लेकिन हमारा कोई सीधा मतलब नहीं है। वह तो हम अगर मुल्क को विचार करना सिखा सकें, तो मुल्क की राजनीति बदल जाएगी।

प्रश्न:
भगवान, एक दूसरा भी होता है, आप तीन के लिए आते हैं, तो तीन दिन के व्याख्यान में एक बात करते हैं और पत्रकार के बीच आप पत्रकारों को जब आप मिलते हैं, तो इतनी क्रांतिकारी बात आप कह देते हैं, और वह हमारे बीच तो कभी हुई नहीं होती, जैसे कि मार्क्सवाद के बारे में, आज ऐसा हवामान हो गया कि रजनीश जी तो पूरे कम्युनिस्ट हैं। आपके व्याख्यान में तो कहीं कम्युनिस्ट जैसा नहीं दिखाई पड़ता। तो आप जो बात व्याख्यान में कहें वही पत्रकारों से करें। क्योंकि पत्रकार वही बात छापते हैं।
न, न, न। होता क्या है, पत्रकारों से मैं वह बात करता हूं जो वे मुझसे पूछते हैं। तुम जो मुझसे पूछते हो वह मैं बात करता हूं। अभी जितनी बात मैंने की, वह तुमने जो उठा दिए थे सवाल, उस पर की। तुमने नहीं उठाई होते, तो वह मैं बात नहीं किए होता, तुमने जो उठाए होते उस पर बात करता। पत्रकार से क्या तकलीफ होती है, उसको न तो आत्मा में उत्सुकता है, न परमात्मा में। वह उसकी जो उत्सुकता है वह पूछता है, अब मुझे उसके लिए कुछ भी कहना पड़ता है, वह जाकर उसको छापता है। वह तो धीरे-धीरे यह होगा, धीरे-धीरे यह होगा कि हमको जैसे व्यवस्थित सारा हो जाए, तो हम सारी मीटिंग्स की अलग रूप-रेखा करनी पड़ेगी। कभी मैं आऊं तो मीटिंग पर समाज पर बोलूं, कभी आऊं तो धर्म पर बोलूं, कभी आऊं तो व्यक्ति पर बोलूं, कभी आऊं तो आचरण पर बोलूं। वह हमें सारी व्यवस्था करनी पड़ेगी।
अभी, अभी क्या है, वह कोई व्यवस्था नहीं। अभी साहित्य भी जो बन पाया है वह भी सब धर्म से संबंधित साहित्य है। उस पर सामाजिक और यह सारी बातों पर पूरी बात का साहित्य होना चाहिए। वह जल्दी कर लेना चाहिए इंतजाम। कैंप भी ले लेना चाहिए कुछ, जिनमें मैं इन सारी बातों पर बोल सकूं।

प्रश्न:
भगवान, आप उदारहण देते हैं तो पश्चिम के साहित्य के क्यों देते हैं?
नहीं-नहीं, बहुत बातें हैं। जो उदाहरण मैं देता हूं वह इस खयाल से नहीं देता कि भारत का है कि पश्चिम का है। जो उदाहरण मैं देता हूं वह जिस बात को मैं समझा रहा हूं उससे देता हूं। वैसा उदाहरण जो मैंने दिया अगर पश्चिम का है, तू अगर भारत में से वैसा उदारहरण बता दे तो मैं समझूं। मेरा मतलब समझे न? यानी मैं कोई बात समझाने के लिए कोई उदाहरण दे रहा हूं, ऊं, अब वह कहां से है इससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं। मेरे लिए कोई न पश्चिम है, न कोई भारत है, न पूरब है। मेरे लिए तो सारी दुनिया एक है। मुझे जो बात समझानी है उस बात को समझाने के लिए जो श्रेष्ठतम हो सकता है वह मैं कहता हूं।
अगर कोई मुझसे कहे कि भारत में इससे ज्यादा श्रेष्ठतम उदाहरण हैं इसके मुकाबले, तो वह मुझे बताए। तो वह हमेशा उसका दूं। लेकिन मैं जो भी दे रहा हूं, जब मैं भारत का देता हूं तब तभी देता हूं जब कि मुझे वह भारत का जब श्रेष्ठतम होता है तब भारत का दे देता हूं। नहीं तो नहीं देता।
मैं जो भी, कोई भी उदारहण तुम खोजना, जो भी मैं बोलता हूं...। समझी न? अब जैसे कल मैं फोर्ड के कारखाने की बात कहा, अब भारत में नहीं मिल सकता फोर्ड का कारखाना। मुश्किल मामला है। नहीं मिल सकता न। तो पहले तो बैल नहीं हैं। अब अगर फ्यूल की बात समझानी हो, तो बैलगाड़ी में कोई फ्यूल नहीं डालना पड़ता। तो मजबूरी है। और फिर मुझे कोई फर्क-फासला नहीं है।
दूसरी बात यह है कि भारत के सारे उदाहरण इस बुरी तरह पिट गए हैं। इतनी बात की जा रही है उनकी। और तीसरा खतरा यह है कि मैं तो भारत के बहुत दूं, लेकिन तुम सब दिक्कत में पड़ जाओ। सब दिक्कत में पड़ जाओ एकदम।

प्रश्न:
क्यों?
यहां नाम ही लेना तो झंझट की बातें हैं। अगर जरा सा नाम लिया तो तुम अभी दिक्कत में पड़ जाओ। तो तुम्हारी दिक्कतें मुझे निरंतर...। तुम्हारी दिक्कतों की तैयारी हो, तो मैं तो इतने उदाहरण दूं जिसका कोई हिसाब नहीं। वह तो झगड़ा खड़ा होता, उससे कोई मतलब नहीं है। समझे न? और फिर, फिर जिस चीज से तुम्हें लड़ना है वह भारत के ही समाज से लड़ना है। और उसकी पूरी ट्रेडीशन से लड़ना है। तुमको पश्चिम की ट्रेडीशन से तो लड़ना नहीं है। दूसरा मजा यह है कि पश्चिम का या परदेशी कोई भी उदाहरण देने से तुम्हें सिर्फ उदारहण खयाल में होता है। बाकी उस उदारहण के आस-पास का तुमसे कोई संबंध नहीं होता।
अगर मैंने गुरजिएफ का नाम लिया, तो जितनी मैंने बात कही उससे ही संबंध है तुम्हारा। उससे तुम्हारा तुम्हें कोई पता नहीं कि गुरजिएफ और क्या है, क्या नहीं है। अगर मैं राम का नाम लेकर कुछ भी कहता हूं, तो तुमको राम की और हजार बातें मालूम हैं, और तुम्हारे दिमाग में और कंफ्यूजन शुरू होता है कि उसमें तो राम ने तो यह किया और राम ने तो वह किया और इन्होंने यह कह दिया और यह कैसा है और कैसा नहीं है।
फ्रैग्मेंट्‌स हैं न उदाहरण तो, टुकड़े हैं। पूरी जिंदगी का उनसे कोई संबंध नहीं है। कभी मैं गांधी की किसी बात की तारीफ करता हूं, कभी किसी बात का विरोध करता हूं। लोग मेरे पास आते हैं कि आपने उस दिन तो गांधी की तारीफ की थी। मैंने जिस बात की तारीफ की थी उससे मुझे मतलब है, न मुझे गांधी की तारीफ से मतलब। जिस बात का मैंने विरोध किया, वहां भी गांधी के विरोध से मुझे कौड़ी भर मतलब नहीं है। जिस बात का मैंने विरोध किया उसका मैंने विरोध किया। लेकिन हमारी समझ भी बहुत कमजोर है। हम तो बस उसको उतने को पकड़ कर आदमियों को पकड़ते हैं।
तो इधर इस मुल्क में आदमियों की पकड़ इतनी ज्यादा हो गई है कि यहां किसी का नाम लेकर कोई बात करनी एकदम खतरे से खाली नहीं है। मुझे खतरे में दिक्कत नहीं है। मेरे आस-पास जितने भी मित्र इकट्टे हैं, उन सबको खतरे में कितना डाला जाए, यह सोचना पड़ता है। वैसे भी जरूरत से ज्यादा उनको डालता हूं। उनकी हिम्मत से ज्यादा भी डालता हूं। और देखता हूं कि कितना उनको खींचा जा सकता है। और लगे कि बहुत ज्यादा खींचना हो गया, तो पीछे लौटना पड़ता है, उतना आगे नहीं ले जाया सकता। तुम्हारी जितनी तैयारी होगी, उतना सब होगा। और मुझे कोई फर्क नहीं है। मुझे कोई फर्क नहीं है। मुझे कोई फर्क नहीं। वह तो मामला ऐसा है न कि महाराष्ट्र मैं बोलूं...

प्रश्न:
भगवान, साइकोलॉजिकल इफेक्ट पड़ती है न पब्लिक के ऊपर।
पब्लिक के ऊपर तो ऐसा है न, कि पब्लिक का दिमाग तो ऐसा है कि--मैं एक जैन मंदिर में बोलने गया, तो मैंने शेख फरीद का, एक मुसलमान फकीर का उदाहरण लिया, तो मुझे पीछे वे आए कि आपने हमारे मंदिर में मुसलमान फकीर का क्यों नाम लिया। अब यह साइकोलॉजी के लिए क्या करोगे। क्या करोगे इस पर?
मेरी एक किताब, कोई एक लेक्चर कोई किसी ने आठ-दस साल पहले किसी ने छापा, तो उसमें महावीर, जीसस, बुद्ध और मोहम्मद, इन चारों का एक ही लाइन में नाम है, तो एक जैन मुनि ने वह किताब फेंक दी उठा कर और कहा कि हमारे महावीर का नाम मोहम्मद और ईसा के साथ रखा हुआ है? कहां महावीर और कहां ईसा! इनके साथ नाम रखा हुआ है!
इन लोगों से झगड़ा लेना है जिनकी बुद्धि बहुत ही इस तल पर खड़ी हुई है, तो उस सारे झगड़े को अनेक-अनेक रूपों में चारों तरफ से लेने की बात है। और फिर मैं यह धारणा ही तोड़ना चाहता हूं कि कोई भारतीय है, कि कोई परंपरा, संस्कृति यह है और कल वह है। सारी दुनिया एक है, सारी मनुष्यता एक है।
तो जब कोई बात कहनी हो, तो उस संबंध में जो दुनिया में श्रेष्ठतम बात कही गई हो और श्रेष्ठतम आदमी हो और श्रेष्ठतम उदाहरण हो, उसकी ही फिकर करनी चाहिए। इसकी फिकर नहीं करनी चाहिए कि वह किस चमड़ी का था, किस जाति का था, किस रंग का था, इसकी क्या फिकर करनी।
अब मोहम्मद की जिंदगी में ऐसे उदाहरण हैं कि राम की जिंदगी में जिंदगी भर खोजो तो नहीं मिल सकते। राम की जिंदगी में ऐसे उदाहरण हैं कि तुम मर जाओ खोज-खोज कर तो महावीर की जिंदगी में नहीं मिल सकते। तो जब वह उस संबंध की बात कहनी है तो फिर राम की बात अदभुत है, फिर राम की ही बात करनी चाहिए। लेकिन वह बात विचारणीय है, मुझे इससे कोई प्रयोजन नहीं कि वह कहां है, किससे है, क्या है, इससे कोई मतलब नहीं है।

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