QUESTION & ANSWER

Kya Ishwar Mar Gaya Hai 04

Fourth Discourse from the series of 8 discourses - Kya Ishwar Mar Gaya Hai by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
ईश्र्वर मर गया है! कैसे पुनरुज्जीवित हो सकता है, इस संबंध में पिछले तीन दिनों में थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं। उस बाबत बहुत से प्रश्र्न यहां आए हैं। उनमें से थोड़े प्रश्र्नों का, जो कि सभी प्रश्र्नों के प्रतिनिधि प्रश्र्न हैं, मैं आपको उत्तर दूंगा।

सबसे पहले तो बहुत से मित्रों ने यह पूछा है:

यह बात सुन कर कि ईश्र्वर मर गया, हमें बहुत दुख हुआ!

आपको दुख हुआ इस बात से मुझे बहुत खुशी हुई। क्योंकि मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं, जिनसे मैंने कहा कि ईश्र्वर मर गया है, तो उन्होंने कहा: मर जाने दो, हर्जा क्या है? मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं, जिनसे मैंने कहा कि ईश्र्वर मर गया है, तो उन्होंने कहा: कौन? ईश्र्वरलाल ठेकेदार? अच्छा आदमी था बेचारा! कैसे मर गया? मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं, जिनसे मैंने कहा कि ईश्र्वर मर गया है, तो उन्होंने कहा: उससे कहा किसने था कि वह जिंदा रहे?
इसलिए, जब मुझे यह पता चला है कि आपमें से बहुत से मित्रों को दुख पहुंचा है, तो मुझे खुशी हुई। ईश्र्वर के मरने की बात से जिन्हें दुख पहुंचा है, उनका ईश्र्वर से कोई न कोई लगाव है। कोई न कोई प्रेम है। वे ईश्र्वर के संबंध में कुछ सोचते और विचार करते होंगे।
अगर दुनिया में कुछ लोगों को इस बात से दुख होता रहा कि ईश्र्वर मर गया है, तो शायद ईश्वर पुनरुज्जीवित हो सके। लेकिन अगर लोगों ने उपेक्षा ग्रहण कर ली, तो फिर ईश्र्वर के पुनरुज्जीवित होने की कोई संभावना नहीं है। नास्तिक कभी भी ईश्र्वर की हत्या नहीं कर सकता है, लेकिन जिनके मन में उपेक्षा है, इनडिफरेंस है, वे ईश्र्वर की हत्या कर सकते हैं। अगर सारी दुनिया उपेक्षा से भर जाए, तो ईश्र्वर जिंदा भी रहे तो उसका क्या जिंदा होने का अर्थ होगा?
इसलिए मैं स्वागत करता हूं, अगर किसी को इस बात से दुख पहुंचा हो कि ईश्र्वर मर गया है। यह बड़ी खुशी की बात है। लेकिन इस दुख में कहीं ऐसा न हो कि हम मरे-मराए ईश्र्वर को अपना दुख भुलाने के लिए पूजते चले जाएं। कहीं ऐसा न हो कि मरे-मराए ईश्र्वर की ही मंदिर में हम पूजा किए चले जाएं। क्योंकि हमें यह जान कर बहुत दुख होता है कि ईश्र्वर मर गया, इसलिए मानते चले जाएं कि अभी जिंदा है। यह खतरनाक बात होगी।
अगर ईश्र्वर मर गया है, तो जो ईश्र्वर मर गया हो, जिन्हें दुख हो रहा हो, वे चाहे रोएं, चाहे आंसू बहाएं, लेकिन कृपा करें, उस ईश्र्वर को जाकर दफना दें। पिता मर जाते हैं, मां मर जाती है तो हम क्या करते हैं? रोते हैं, लेकिन दफना आते हैं। मुर्दे को घर में रखना मरने से भी ज्यादा खतरनाक बात हो जाएगी। किसी का मर जाना उतना खतरनाक नहीं है, उसकी लाश को घर में रखे रहना बहुत खतरनाक है। क्योंकि जो जिंदा हैं, उनके भी मरने की संभावना उससे पैदा हो जाती है।
ईश्र्वर तो मर गया है, लेकिन मनुष्य के मंदिरों में उसकी पूजा जारी है। इससे यह खतरा है कि कहीं मनुष्य भी न मर जाए, क्योंकि मुर्दे को घर में रखना बहुत खतरनाक है। यह तो मैंने कहा कि ईश्र्वर मर गया है, अब डर यह है कि कहीं आदमी भी न मर जाए। इसके पहले कि आदमी मरे, इस मरे हुए ईश्र्वर को दफना देना। और जब तक इसे न दफनाया जाएगा, तब तक उस ईश्र्वर को नहीं पाया जा सकता, जो कि न कभी जन्मता है और न कभी मरता है।
यह मनुष्य-निर्मित ईश्र्वर है, जो मरा है। ये मनुष्य-निर्मित धर्म हैं, जो बनते हैं और मिट जाते हैं। ये मनुष्य-निर्मित ग्रंथ हैं, जो लिखे जाते हैं और भूल जाते हैं। ये मनुष्य-निर्मित मूर्तियां हैं, जो गढ़ी जाती हैं और बिखर जाती हैं। मनुष्य जो भी बनाएगा, वह शाश्र्वत नहीं हो सकता। बनाया हुआ कुछ भी शाश्र्वत नहीं हो सकता; क्योंकि जो बनाया गया है, वह मिटने के बीज अपने में लिए होता है।
क्या आपका ईश्र्वर आपका बनाया हुआ है? अगर है, तो चाहे उसे कितना ही छाती से संजो कर रखो, वह मरेगा। अगर आपका ईश्र्वर आपका बनाया हुआ नहीं है, तो आप सब मिल कर कोशिश करो कि वह मर जाए, तो भी नहीं मर पाएगा।
लेकिन हमारा ईश्र्वर तो हमारा बनाया हुआ है। इसीलिए तो इतना कमजोर, इतना इंपोटेंट है, इतना नपुंसक है। कहते तो हम हैं कि ईश्र्वर है सर्वशक्तिमान, लेकिन उस सर्वशक्तिमान ईश्र्वर के मंदिर के बाहर भी एक सिपाही को बंदूक लेकर खड़ा कर देते हैं कि तुम इनकी रक्षा करो। बड़े अदभुत सर्वशक्तिमान ये ईश्र्वर हैं, एक सिपाही इनकी रक्षा के लिए बाहर खड़ा है!
यह हमारा बनाया हुआ ईश्र्वर है, जिसको सिपाही की जरूरत है। जिसको चोरी हो जाने का भय है। जिसे दुश्मनों के द्वारा फोड़े जाने का खतरा है। फिर यह ईश्र्वर बड़ा कमजोर है। हम इसके सामने प्रार्थनाएं भी करते रहते हैं। कोई प्रार्थना कभी नहीं सुनी जाती।
पिछले तीस साल से, चालीस साल से सारी मनुष्य-जाति प्रार्थना कर रही है कि अब युद्ध न हो। लेकिन दो महायुद्ध हो गए। और दो महायुद्धों में दस करोड़ लोगों की हत्या भी हो गई। एकाध आदमी के मरने की बात न सुने ईश्र्वर, लेकिन हर दस-पांच वर्षों में युद्ध हो और करोड़ों लोग मर जाएं, और करोड़ों हृदय प्रार्थना करें और न सुने, या तो ईश्र्वर बहरा है और या फिर जिस ईश्र्वर के सामने हम प्रार्थनाएं कर रहे हैं वह जिंदा ही नहीं है। बहरा ईश्र्वर भी सुन लेता है। कितना हम चिल्लाते हैं, कितना रोते हैं, गिड़गिड़ाते हैं। लेकिन अब ईश्र्वर हो ही न, हम अपनी ही किसी कल्पित प्रतिमा के सामने खड़े होकर चिल्ला रहे हों...।
लेकिन अगर कोई वहम बहुत दिनों तक पोसा जाए, तो हम भूल जाते हैं कि यह पागलपन है। घरों में छोटे-छोटे बच्चे गुड्डियों का विवाह रचाते हैं। हम हंसते हैं कि बच्चे हैं। और हम रामचंद्र जी का विवाह रचाते हैं, तो हम समझते हैं हम धार्मिक हैं। उम्र बढ़ने से किसी का बचपन नहीं मिटता; उम्र बढ़ जाती है, बच्चे बच्चे ही बने रहते हैं।
दो तरह के बच्चे होते हैं: छोटे बच्चे और बड़े बच्चे। बच्चे गुड्डे-गुड्डियों को कपड़े पहनाते हैं, मिठाइयां खिलाते हैं, तो हम हंसते हैं कि बच्चे हैं। बड़े हो जाएंगे, अपने आप छोड़ देंगे। और हम रोज भगवान की मूर्ति को भोग लगाते हैं और न मालूम क्या-क्या पागलपन करते हैं और सोचते हैं कि हम धार्मिक हैं। इडियाटिक है, मूढ़तापूर्ण है, जड़तापूर्ण है।
बच्चों को माफ किया जा सकता है, बूढ़ों को माफ नहीं किया जा सकता। बच्चे आखिर बच्चे हैं। लेकिन बूढ़े क्या हैं ये? और बच्चे तो गुड्डे-गुड्डी को थोड़ी देर खेलते हैं, फिर भूल भी जाते हैं, एक कोने में पटक देते हैं, अपना दूसरा काम करने लगते हैं। लेकिन ये बड़े? जिन भगवान की गुड्डे-गुड्डियों जैसी मूर्तियां बना लेते हैं, मौका आ जाए तो तलवारें निकाल लेते हैं, हत्याएं कर देते हैं, लाखों लोगों को मार डालते हैं कि इनके भगवान को चोट पहुंच गई, इनके भगवान का अंग तोड़ दिया गया, इनके भगवान को गाली दे दी गई। खून करते हैं, हत्याएं करते हैं, आग लगाते हैं, न मालूम क्या-क्या करते हैं। क्या नहीं किया धार्मिक लोगों ने जमीन पर, इन पूजा करने वाले लोगों ने, मंदिर और मस्जिद बनाने वाले लोगों ने क्या नहीं किया है जमीन पर जिसको पाप न कहा जा सके?
सब तरह के पाप किए हैं। एक-एक आदमी ने अकेले-अकेले कोई बड़ा पाप नहीं किया है। लेकिन समूह, संगठन और धर्म के नाम पर ऐसे पाप किए गए हैं कि उनको अगर खयाल में भी ले आएं तो ऐसा प्रतीत होता है कि अगर यह दुनिया में इतने धर्म न होते तो शायद दुनिया ज्यादा धार्मिक होती। इनसे इतना अधर्म आया है जिसका कोई हिसाब नहीं है।
लेकिन हम कहते हैं कि हम धार्मिक हैं! ऐसे लोग, जिनका मस्तिष्क बिलकुल बचकाना। यह हमारा बनाया हुआ भगवान किसी भी काम का साबित नहीं हुआ है। हो भी नहीं सकता। आदमी कमजोर है। जो आदमी भगवान बनाएगा वह उससे भी ज्यादा कमजोर होगा। स्रष्टा से उसकी सृष्टि कभी ज्यादा ताकत की नहीं हो सकती है। मैं जो बनाऊंगा, वह मुझसे कमजोर होगा। आप जो बनाएंगे, वह आपसे कमजोर होगा। बनाने वाले से जो बनाई गई चीज है, वह बड़ी नहीं हो सकती, ताकतवर नहीं हो सकती। यह भगवान तो हमारा बनाया हुआ है, यह हमसे ज्यादा ताकतवर नहीं हो सकता। इसकी सुरक्षा के लिए भी हमारी जरूरत पड़ती है। और इसी के सामने हम हाथ जोड़ कर खड़े हैं। कैसा पागलपन है? खुद ही मूर्तियां गढ़ लेते हैं, उनको प्रतिष्ठा दे देते हैं, उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते हैं। खुद ही प्रार्थनाएं बना लेते हैं, उनको करने लगते हैं।
यह भगवान मर गया है। न मरा हो, तो मर जाना चाहिए। और जिनके मन में भी धर्म के प्रति थोड़ा प्रेम है, उन्हें इन भगवान के मर जाने में सहारा और सहयोग देना चाहिए। यह विदा हो जाए।
तो स्मरण रखिए, मनुष्य का मन भगवान से मुक्त नहीं हो सकता। लेकिन अगर झूठा भगवान विदा हो जाए, तो एक खालीपन पैदा होगा। एक खालीपन पैदा होगा! और उस खालीपन से एक प्यास पैदा होगी और हम भगवान की खोज में संलग्न होंगे। लेकिन यह जो सब्स्टीट्यूट गॉड है, यह जो पूरक भगवान है, यह प्यास को पैदा नहीं होने देता। प्यास को पैदा नहीं होने देता! यह पूर्ति कर देता है।
जैसे किसी आदमी को रुपयों की तलाश हो और हम नकली सिक्के उसके हाथ में दे दें, वह निश्चिंत हो जाए और सो जाए। उसकी खोज बंद हो जाए। वह तिजोरी में ताला लगा दे और प्रसन्न घूमने लगे कि सिक्के मेरे पास आ गए, बात खत्म हो गई। अब वह, अब वह सिक्कों की खोज भी बंद कर देगा। अब उसका अन्वेषण भी बंद हो जाएगा, अब उसका श्रम भी बंद हो जाएगा।
यह जो हमारे हाथ में एक परिपूरक भगवान हमें मिल गया है, इससे हमारी असली भगवान की खोज बंद हो गई है।
एक रात दो साधु एक पहाड़ी स्थान से निकलते थे। वृद्ध साधु था, वह अपने कंधे पर एक झोला लटकाए हुए था; पीछे उसका युवा साधु, उसका शिष्य था, वह साथ में था। बार-बार वह वृद्ध साधु कहने लगा: जंगल...अंधेरी रात है...अपने शिष्य से पूछने लगा: यहां कोई खतरा तो नहीं है?
उसके शिष्य ने कहा: संन्यासी को और खतरा? रात अंधेरी हो तो हो, जंगल हो तो हो, खतरा क्या है?
लेकिन थोड़ी बहुत दूर चल कर वह वृद्ध साधु फिर पूछे: रात बड़ी अंधेरी है, अमावस है, रास्ता खतरनाक तो नहीं है कुछ? पूछा था किसी से? गांव में पता लगाया था?
उसे कुछ हैरानी हुई, इस भांति तो इस साधु ने कभी नहीं पूछा।
फिर वे एक कुएं के पास ठहरे। उस साधु ने कहा कि मैं थोड़ा हाथ-मुंह धो लूं। झोला अपने युवक शिष्य को दिया और कहा कि इसे सम्हाल कर रखना! साधु हाथ-मुंह धोने गया। उस युवक ने उस झोले के भीतर देखा एक सोने की ईंट उस झोले में थी। उसे शक तो हो गया था कि साधु को खतरा है तो जरूर झोले में कुछ होना चाहिए। नहीं तो खतरा क्या होगा? उसने वह ईंट देखी। साधु अपने काम में लगा हुआ था। उसने ईंट तो फेंक दी एक गड्ढे में और एक पत्थर उठा कर उसके झोले में रख दिया। सब्स्टीट्यूट ईंट रख दी। एक पूरक ईंट रख दी। साधु हाथ-मुंह धोकर आया। उसने अपना झोला जल्दी से कंधे पर टांगा और देखा कि वजन है, मजे से चलने लगा। फिर थोड़ी देर चल कर उसने पूछा कि अब तो रात गहरी हो गई, क्या कोई गांव करीब नहीं है कि हम रुक जाएं? कोई खतरा तो नहीं है?
उस युवक ने कहा कि कोई खतरा नहीं है, बिलकुल चले चलिए। साधु ने कई बार पूछा था, लेकिन इस युवक ने यह नहीं कहा था अब तक कि कोई खतरा नहीं है। साधु को शक हुआ। उसने टटोल कर अपनी ईंट देखी। देखा कि ईंट अपनी जगह है। फिर उसने थोड़ी देर में पूछा कि मुझे बहुत भय लगता है।
उस युवक ने कहा: आप बिलकुल निर्भय हो जाइए, आपके भय को मैं पीछे गड्ढे में फेंक आया हूं।
उसने घबड़ा कर अपनी झोली खोली, देखी, तो वहां तो एक पत्थर की ईंट रखी हुई है!
उसने कहा: आप निर्भय हो जाइए और मजे से चलिए, मैं भय को पीछे फेंक आया हूं।
वह साधु बोला: हद हो गई! हद हो गई!! मैं तो इसी ईंट को सम्हाले हुए चला जा रहा था। मैं तो इसी ईंट को प्राणों से लगाए हुए चले जा रहा था। और अगर कोई हमला कर देता मुझ पर और इस ईंट को छीनने की कोशिश करता, तो शायद खून-खराबा हो जाता, मैं अपनी जान दे देता, लेकिन इस ईंट को बचाता।
हमारा भगवान इसी तरह की ईंट है। जिसको आप सम्हाले चले जा रहे हैं और खून-खराबा किए दे रहे हैं और लड़े जा रहे हैं और मरे जा रहे हैं। और झोली खोल कर नहीं देखते कि सोने की ईंट बहुत पहले विलीन हो गई है। पत्थर की ईंट आप ढो रहे हैं।
यह मर गया भगवान है! यह मरे हुए भगवान को ढोते रहिए, ढोते रहिए, आपकी मर्जी!
कुछ लोगों को बोझ ढोना अच्छा लगता है। कोई क्या कर सकता है? लेकिन यह बहुत मंहगा पड़ रहा है। सारी मनुष्य-जाति मरी जा रही है, पत्थर के नीचे दबी जा रही है। थोड़ा देखिए खोल कर अपने इस भगवान को कि यह है क्या? इसे छोड़ना नहीं पड़ेगा। इसे खोल कर देखते ही आप निर्भय हो जाएंगे कि यह पत्थर की ईंट है। भय विलीन हो जाएगा। फिर इसके मरने से दुख भी नहीं होगा। दुख इसलिए हो रहा है कि आप सोच रहे हैं कि ईंट सोने की न हो।
इसलिए अगर कोई आपको खबर दे दे कि वह ईंट खो गई तो आप प्रश्न पूछेंगे कि ईंट के खोने से हमें बड़ा दुख हो रहा है? लेकिन अगर आपको पता चल जाए कि ईंट पत्थर की है, तो आप कहेंगे, ईंट उतर गई कंधे के बोझ से तो हमें बहुत आराम मिल रहा है, बहुत सुख हो रहा है।
मैं आपको कहता हूं: यह जो ईश्र्वर मर गया है, यह उनके हृदय के लिए खुशी का समाचार है जिन्हें ईश्र्वर से कोई प्रेम है।

इस संबंध में बहुत से प्रश्र्न पूछे हैं। वह करीब-करीब उस संबंध में मैंने तीन दिनों में बहुत सी बातें कही हैं। इसलिए उस संबंध में और ज्यादा कुछ कहना ठीक नहीं होगा।

कुछ मित्रों ने पूछा है कि कल मैंने कहा कि सेवा खतरनाक है। तो उन्होंने पूछा है कि क्या सेवा प्रेम नहीं है?

मैं कहना चाहूंगा: प्रेम तो सेवा है, लेकिन सेवा प्रेम नहीं है। फिर से दोहराऊं: प्रेम तो सेवा है, लेकिन सेवा प्रेम नहीं है।
जहां प्रेम होता है, वहां तो सेवा अनिवार्य आ जाती है; लेकिन उसका पता नहीं चलता कि मैं सेवा कर रहा हूं। और अगर यह पता चलता हो कि मैं सेवा कर रहा हूं, तो समझ लेना कि प्रेम नहीं है।
सेवक को पूरे वक्त पता चलता है कि मैं सेवा कर रहा हूं। पता न चले तो वह करे ही नहीं सेवा। वह सेवा करने के लिए सेवा करता है। सेवा उसके लिए एक कर्तव्य है, एक ड्यूटी है। सेवा उसके लिए एक साधन है, जिसके द्वारा मोक्ष पाना है, ईश्र्वर पाना है, कुछ और पाना है।
प्रेमी सेवा करता नहीं है। सेवक सेवा करता है। प्रेमी सेवा करता नहीं; प्रेमी से सेवा होती है, निकलती है। जैसे फूल से सुगंध निकलती है, ऐसे प्रेम से सेवा निकलती है। और अगर प्रेमी से पूछो कि क्या तुम सेवा कर रहे हो, तो वह कहेगा, कैसी सेवा, मैं तो जानता नहीं।
एक पहाड़ी पर एक छोटी सी लड़की, होगी कोई बारह-तेरह वर्ष की, अपने छोटे भाई को कंधे पर बांधे हुए पहाड़ चढ़ती थी। पीछे से एक संन्यासी भी आया, वह भी पहाड़ चढ़ रहा था। वह लड़की तो जा रही थी अपने गांव। वह संन्यासी तीर्थ जा रहा था। पसीने से तर-बतर थी लड़की। संन्यासी भी। संन्यासी अपना बिस्तर अपने कंधे पर लिए हुए था। लड़की अपने एक छोटे से भाई को कंधे पर बांधे हुई थी। जब वह करीब पहुंचा, भरी दोपहर, सूरज ऊपर आग बरसाए, पहाड़ की सीधी चढ़ाई, पसीने से तर-बतर, थका-मांदा, श्र्वास चढ़ गई। उसने उस लड़की के पास जाकर कहा कि बेटा, तुझे बहुत वजन लग रहा होगा।
उस लड़की ने उस संन्यासी की तरफ देखा और कहा: स्वामी जी वजन आप लिए हुए हैं, यह तो मेरा छोटा भाई है। उसने कहा: वजन आप लिए हुए हैं, यह तो मेरा छोटा भाई है!
तराजू पर तौलें, तो संन्यासी के बिस्तर में भी वजन होगा और इसके छोटे भाई में भी। लेकिन हृदय के तराजू पर बिस्तर में वजन है और छोटे भाई में वजन नहीं है।
सेवा का वजन होता है। प्रेम का कोई वजन नहीं होता। इसलिए सेवा से अहंकार घनीभूत होता है। सेवक का अहंकार: मैं सेवक हूं! हम सभी उससे परिचित होंगे। लेकिन प्रेमी का कोई अहंकार नहीं होता।
बड़े मजे की बात है, जितना सेवक सेवा करेगा, उतना ही अहंकार पुष्ट होगा कि मैं कुछ हूं। और जो व्यक्ति प्रेम में जितना गहरा उतरेगा, वह पाएगा कि जितना अहंकार विलीन होता है, उतनी ही प्रेम में गहराई आती है।
प्रेम का फूल जब खिलता है, तो अहंकार अनुपस्थित होता है, एब्सेंट होता है। और सेवा का चक्कर जब बहुत जोर से चलता है, तो अहंकार घनीभूत होकर बीच में स्तंभ की भांति खड़ा हो जाता है।
इसलिए मैं कहता हूं: प्रेम तो सेवा है, लेकिन सेवा प्रेम नहीं है। और प्रेम एक हार्दिक संबंध है। सेवा, सेवा एक बौद्धिक संबंध है। सोच-विचार से संबंध है सेवा का। और इसलिए सेवा अपमानजनक है। जिसकी हम सेवा करते हैं, उसे निश्र्चित अपमान का अनुभव होता है।
प्रेम सम्मानजनक है। जिसे हम प्रेम देते हैं, वह गौरवान्वित अनुभव करता है। प्रेम जिसे हम देते हैं, वह गौरवान्वित होता है। क्यों? क्योंकि प्रेम देने वाले के पास कोई अहंकार नहीं होता। सेवा जब कोई हमारी करता है तो हमें संकोच लगता है। अपमान मालूम होता है। किसी से सेवा न लेना पड़े, ऐसा मालूम होता है। क्योंकि सेवा करने वाले का अहंकार सामने खड़ा होता है, वह मजबूत होता है।
सेवा तो धर्म नहीं है। यद्यपि धार्मिक व्यक्ति बहुत सेवा करता है।
प्रेम जितना विकसित होता है, जीवन में सेवा के फूल अपने आप लगने शुरू होते हैं।
कोई यह कहे कि जब प्रेम से सेवा आ जाती है, तो सेवा से प्रेम भी आ सकता है?
तर्क में और गणित में तो ऐसा दिखाई पड़ता है। जैसे एक घर में अंधकार छाया हो, और हम कहें कि अगर अंधकार को निकाल दें तो प्रकाश जल जाएगा, क्योंकि प्रकाश को जलाते हैं तो अंधकार निकल जाता है। तो तर्क तो बिलकुल ठीक है। लॉजिक का जहां तक सवाल है, बिलकुल ठीक है। प्रकाश को जलाते हैं तो अंधकार निकल जाता है, तो अगर अंधकार को निकाल दें तो प्रकाश जल जाएगा। तो तर्क तो बिलकुल ठीक है।
लेकिन ऐसा होगा नहीं। जीवन में ऐसा नहीं होगा। प्रकाश जलाएंगे तो अंधकार तो निकल जाएगा, अंधकार निकालने गए तो खुद समाप्त हो जाएंगे। अंधकार को कभी निकाल ही नहीं सकेंगे। प्रकाश के जलने का तो सवाल ही नहीं है। तो ऐसा तो होगा कि प्रकाश जल जाए, अंधकार निकल जाए; लेकिन ऐसा कभी न होगा कि अंधकार को आप निकाल दें और प्रकाश जल जाए। अंधकार निकाला ही नहीं जा सकता।
तो मेरा कहना है: प्रेम का दीया जल जाए, तो वे सारे तत्व जीवन से विलीन हो जाते हैं जिनके कारण सेवा के खिलने में, फैलने में बाधा है। अगर प्रेम का तत्व उपलब्ध हो जाए, तो सेवा के मार्ग के सारे अवरोध, सारे पत्थर हट जाते हैं। सेवा प्रवाहित होने लगती है। लेकिन कोई चाहे कि हम सेवा को प्रवाहित कर दें और इससे प्रेम का जन्म हो जाए। यह वैसे ही गलत है कि कोई सोचे कि हम अंधेरे को बाहर निकाल दें और घर का दीया जल जाए। कभी नहीं जलेगा।
लेकिन यह भूल बहुत पुरानी है। और मनुष्य-जाति ने जिन भूलों के कारण कष्ट उठाया है उन बुनियादी दो-चार भूलों में से एक है। हम सभी को यह खयाल है। जिस आदमी को खयाल पैदा होता है कि मेरे मन में प्रेम होना चाहिए, वह सोचता है कि घृणा को निकाल कर बाहर कर दूं तो प्रेम आ जाएगा। यह गलती बात है। जिस आदमी के मन में खयाल आता है कि मेरे भीतर क्षमा होनी चाहिए, तो वह सोचता है कि क्रोध को निकाल कर बाहर कर दूं तो क्षमा आ जाएगी। जिस आदमी को खयाल होता है कि मेरे भीतर ब्रह्मचर्य आ जाए, वह सोचता है कि सेक्स को निकाल कर बाहर कर दूं तो ब्रह्मचर्य आ जाएगा। ये एक ही श्रेणी की भूलें हैं। वही कि अंधकार को निकाल दूं तो प्रकाश आ जाएगा। यह बिलकुल ही एब्सर्ड, एकदम गलत, एकदम गणित ही गलत है। यह कभी हो ही नहीं सकता।
यही तो वजह है कि ब्रह्मचर्य लाने वाला सेक्स को निकालते-निकालते सेक्स में ही डूबता चला जाता है। और ब्रह्मचर्य कभी नहीं आता। और क्रोध को निकालने वाला क्रोध को निकाल-निकाल कर और क्रोधी होता चला जाता है। और कभी क्षमा नहीं आती।
एक क्रोधी सज्जन एक गांव में निवास करते थे। जैसा कि सभी गांव में सभी सज्जन निवास करते हैं। वह सज्जन भी उस गांव में निवास करते थे। बहुत क्रोधी थे। छोटी-छोटी बात पर, छोटी-छोटी बात पर क्रोध उनके भीतर जल जाता था। आग लग जाती थी। छोटी-छोटी बात पर बबूला हो उठते थे। पत्नी की हत्या कर दी क्रोध में आकर। एक बच्चे को उठा कर कुएं में फेंक दिया। गांव घबड़ा गया। गांव में एक संन्यासी आए, एक मुनि आए, तो गांव के लोगों ने कहा कि यह परम क्रोधी हैं हमारे गांव में। इनको कोई ठीक करने का उपाय नहीं?
संन्यासी ने कहा: इसमें क्या कठिनाई है। क्रोध को छोड़ दो। बिलकुल सरल सी तरकीब बताई। जैसा कि सभी संन्यासी बताते हैं। क्रोध को छोड़ दो, बात खत्म हो गई।
जैसे कोई बीमार हो और कहे कि मैं बहुत बीमार हूं और डॉक्टर आए और कहे कि इसमें क्या गड़बड़ है, बीमारी छोड़ दो, बात खत्म हो जाएगी। नुस्खा बहुत आसान है। मरीज सिर पकड़े बैठा रहेगा कि यह कहते तो आप ठीक हैं कि हम बीमारी छोड़ दें। कभी किसी ने बीमारी छोड़ी है? नहीं, आज तक दुनिया में कोई बीमारी नहीं छोड़ सका। हां, स्वास्थ्य पैदा किया जाता है तो बीमारी छूट जाती है। स्वास्थ्य पाजिटिव हेल्थ। बीमारी तो निगेटिव है, नकारात्मक है। बीमारी छोड़ी नहीं जा सकती। स्वास्थ्य पैदा किया जाए। तो स्वास्थ्य पैदा करने की कोशिश की जाए तो बीमारी नष्ट होती है, अपने आप विलीन हो जाती है।
लेकिन उन संन्यासी ने कहा: क्रोध को छोड़ दो।
वह आदमी तो पक्का क्रोधी था। उसने कहा कि मैं कसम खाता हूं कि क्रोध को छोड़ कर रहूंगा।
क्रोधी आदमी ऐसी कसम अक्सर खा लेते हैं, क्रोध में। हालांकि उन्हें पता नहीं कि यह क्रोध का हिस्सा है। यह जो कसम कि मैं क्रोध छोड़ कर रहूंगा, चाहे जान रहे कि जाए, उसने कहा। बातें वह वही की वही बोल रहा था जो कल तक बोलता था। किसी से झगड़ा हो जाता था तो वह कहता था कि मेरी जान रहे कि तुम्हारी।
संन्यासी ने कहा: क्रोध को छोड़ दो! बिलकुल सरल बात है।
वह खड़ा हो गया और उसने कहा कि मैं क्रोध छोड़ कर रहूंगा, चाहे जान रहे कि जाए!
यह वही का वही क्रोध था। इसमें कोई फर्क थोड़े ही था। लेकिन संन्यासी भी खुश हुए कि यह तो बड़ा संकल्पवान आदमी है। ऐसे मूढ़ अक्सर संकल्पवान समझ लिए जाते हैं। कि यह बड़ा विल-पॉवर का आदमी है।
संन्यासी ने कहा कि अगर तूने ऐसा संकल्प ही कर लिया है, तो संन्यासी हो जा!
वह आदमी संन्यासी हो गया। क्रोधी आदमी कुछ भी कर सकता है। संन्यासी भी हो सकता है। क्रोधी आदमी से कुछ भी हो सकता है। जो हत्या कर सकता है अपनी पत्नी की, वह संन्यासी नहीं हो सकता? यह तो बिलकुल आसान बात है। उसने कपड़े-लत्ते वहीं उतार कर फेंक दिए! वह गया बाजार और कपड़े रंग कर आ गया और संन्यासी हो गया। जैसा कि किसी को भी संन्यासी होना हो, कपड़ा बदल दे, रंग ले और संन्यासी हो जाए। वह भी हो गया।
गांव के लोगों ने कहा कि है तो परम तपस्वी मालूम होता है! कितनी शीघ्रता से, कितने संकल्प से परिवर्तन हो गया!
बुद्धिमान आदमी में परिवर्तन धीरे-धीरे होता है, मूढ़ आदमियों में एकदम से भी हो जाता है।
उस मुनि ने कहा कि ठीक। मैंने बहुत लोग देखे, लेकिन तेरे जैसा खोजी मैंने नहीं देखा कि एक दो मिनट के भीतर तुझमें परिवर्तन हो गया। उस संन्यासी को उन्होंने कहा कि हम तेरा नाम--मुनि शांतिनाथ--रख देते हैं। तू तो शांति का अवतार मालूम होता है। इतनी शीघ्रता से!
मुनि शांतिनाथ, जो अभी ढीले से बैठे थे, वह और अकड़ कर सीधे हो गए, उन्होंने रीढ़ ऊंची कर ली। लोगों ने कहा कि मुनि शांतिनाथ! वह जो कि परम क्रोधी था, बिलकुल आंख बंद करके शांत होकर बैठने लगा।
क्रोध ऐसे कहीं विलीन तो हो नहीं जाएगा। वह भीतर-भीतर घूमता है। पहले निकल जाता था, तो थोड़े-बहुत छुटकारा भी होता था। अब वह भी न रहा। अब कोई निकास का कोई द्वार न रहा। कोई एक्झिट कोई भी नहीं। अब वह भीतर-भीतर उसका क्रोध घूमने लगा। क्रोध में वह बड़ी तेजी से भाषण करने लगा। क्रोध में कोई भी तेजी से भाषण कर सकता है। क्रोध में वह बड़ी ऊंची सिद्धांतों की बातें बोलने लगा। खंडन-मंडन करने लगा। शास्त्रार्थ करने लगा। क्रोधी कुछ भी कर सकता है। और ये सब क्रोध के लक्षण हैं।
दस साल बीत गए। वह क्रोधी व्यक्ति जो कि मुनि शांतिनाथ हो गए थे, बहुत प्रसिद्ध हो गए। प्रसिद्धि के लिए जो भी गुण चाहिए, सभी उन्हीं में थे। कोई उनमें कमी न थी। नेता होने के लिए, गुरु होने के लिए क्रोध होना बहुत जरूरी है। नहीं तो कोई हो नहीं सकता। वह एक बड़ी राजधानी में आए। वहां उनके बचपन के साथी एक मित्र रहते थे। उन्हें तो हैरानी थी कि उनका वह परम क्रोधी मित्र और संन्यासी हो गया और सुनते हैं मुनि शांतिनाथ कहलाने लगा!
अब तक तो उन्होंने लंगोटी और कपड़े भी छोड़ दिए थे। अब वह नग्न ही रहने लगे थे। जब क्रोधी आदमी कोई काम करता है तो एक्सट्रीम तक करता है। बीच में कभी नहीं रुकता। उन्होंने लंगोटी-वंगोटी सब छोड़ दी थी। अब वह बिलकुल नग्न, परम दिगंबर हो गए थे।
तो वह मित्र उनका मिलने गया। मित्र तो उनको पहचान गया। लेकिन जो दस साल तक संन्यासी रह चुके थे, अब वे किसी मित्र को पहचान सकते थे? संन्यासी का कोई मित्र होता ही नहीं। संन्यासी का तो कोई लाग-लगाव होता है?
तो यद्यपि पहचान तो गया वह, लेकिन वह कुछ बोला नहीं, क्योंकि मित्रता दिखानी एक सामान्य आदमी से अशोभन है। बड़े आदमी छोटे आदमियों से कोई मित्रता कभी नहीं रखते। उनके आप शिष्य हो सकते हैं, वे आपके गुरु हो सकते हैं। मित्र आप उनके कभी नहीं हो सकते।
तो वह बड़ा आदमी हो गया था। महान त्यागी था। मित्र बैठे हुए थे तो उनकी तरफ देख भी नहीं रहा था। तो इन्होंने उनसे पूछा कि क्या महानुभाव,... उसके हिसाब से मित्र पहचान तो गया कि मुझे पहचान लिया है। बार-बार किनारे की आंख से वह देख लेता था। लेकिन पहचानना नहीं चाहता है। जब कोई आदमी बड़ा आदमी हो जाता है तो छोटे आदमियों को सड़क पर पहचानना पसंद नहीं करता, क्योंकि उनके पहचान से यह पता चलता है कि तुम भी कभी छोटे थे, जब इनसे दोस्ती रही होगी। तो कोई नहीं पहचानता। कोई बड़ा आदमी कभी छोटे आदमियों को नहीं पहचानता है। वह भी नहीं पहचाना। तो इसमें कोई कसूर की बात तो नहीं है। इसमें उस पर नाराज होने की कोई जरूरत भी नहीं है। मित्र ने पूछा कि क्या महानुभाव, मैं पूछ सकता हूं कि आपका नाम क्या है?
उसने कहा: मेरा नाम? क्या अखबार नहीं पढ़ते हो! आंखें बंद करके जिंदा रहते हो! सारी दुनिया मेरा नाम ले रही है--मुनि शांतिनाथ!
मित्र समझ तो गया कि आदमी वहीं का वहीं है, कहीं गया नहीं है। थोड़ी देर संन्यासी कुछ ब्रह्मचर्चा करते रहे। आत्म-ज्ञान की बातें, उपनिषद की बातें बताते रहे। फिर उस मित्र ने पूछा: क्या महानुभाव, मैं पूछ सकता हूं आपका नाम क्या है?
उन्होंने बड़े गुस्से से उसे देखा। और बोले: हद हो गई। मैंने अभी तेरे को बताया है कि मेरा नाम मुनि शांतिनाथ है। भूल गया इतनी जल्दी?
बात आई-गई। फिर ब्रह्मचर्चा चलने लगी। कोई दो मिनट बीते होंगे। उस मित्र ने फिर पूछा: क्या महानुभाव, मैं पूछ सकता हूं आपका नाम क्या है?
उन्होंने डंडा उठा लिया। उन्होंने कहा: कह दिया कि मेरा नाम मुनि शांतिनाथ है! और अगर अबकी दफा पूछा तो वह मजा चखाऊंगा कि जीवन भर याद रहेगा।
उस मित्र ने कहा: मैं पहचान गया कि आप वही शांतिनाथ हैं जो अपने बचपन में साथ में रहे, और कोई फर्क नहीं हुआ है! इसी बात को पूछने के लिए तीन दफा मुझे नाम पूछ कर आपको कष्ट देना पड़ा।
क्रोध वहीं का वहीं है। ऐसे कहीं कोई क्रोध नहीं छूटता है। सो साधु-संन्यासी अभिशाप देते रहे, शाप देते रहे। काहे के लिए? ऋषि-मुनि अभिशाप देते रहे कि जाओ कई जन्मों तक भटको, नरक में जाओ, यह हो जाए। कैसे लोग रहे होंगे? इनको ऋषि-मुनि कौन कहता रहा होगा? ये परम क्रोधी लोग रहे होंगे। क्रोध से ही इनका संन्यास निकला होगा। वह क्रोध भीतर मजबूत रहा होगा। छोटी-छोटी बात पर अभिशाप! ऋषि से और अभिशाप? मुनि से और अभिशाप? यह तो अकल्पनीय है। इनकी तो कोई कल्पना भी नहीं हो सकती। लेकिन सारी कथाएं, सारे पुराण भरे हैं।
क्रोध ऐसे नहीं जाता, नहीं जा सकता। जीवन में कोई भी निषेधात्मक, कोई भी निगेटिव इमोशन कभी सीधा नहीं हटाया जा सकता। घृणा नहीं छोड़ी जा सकती, क्रोध नहीं छोड़ा जा सकता। हां, प्रेम जगाया जा सकता है। और प्रेम जग जाए, तो क्रोध विलीन हो जाता है, घृणा छूट जाती है। यह वैसे ही है, जैसे दीया जल जाए, तो अंधकार चला जाता है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि क्रोध छोड़ो। मैं नहीं कहता कि घृणा छोड़ो। मैं नहीं कहता हूं कि कठोरता छोड़ो। मैं नहीं कहता हूं कि सेक्स, काम छोड़ो। मैं नहीं कहता हूं कि लोभ छोड़ो। छोड़ने की भाषा गलत है। मैं कहता हूं: प्रेम को उपलब्ध करो, प्रकाश को उपलब्ध करो। उसकी उपलब्धि, इनका छोड़ना अपने आप बन जाएगी। उसे पा लेना, इनका छूट जाना है।
इसलिए जो धर्म छोड़ना सिखाता है, वह धर्म ही नहीं है। जो धर्म पाना सिखाता है, उपलब्ध करना, पाजिटिव, विधायक रूप से कुछ होना सिखाता है, वही सच्चा है। निषेधात्मक धर्म का ईश्र्वर मर गया, जो कहता था कि क्रोध छोड़ो, हिंसा छोड़ो।
विधायक धर्म के ईश्र्वर को जन्म देने का इरादा है क्या? जो कहे कि प्रेम को फैलाओ, प्रेम को विकसित करो, प्रकाश को जगाओ। अगर संसार में कभी भी कोई धर्म का राज्य होगा, तो वह विधायक खोज से होगा, निषेधात्मक निषेध से नहीं।
इसलिए मैं कहता हूं: धर्म त्याग नहीं है, धर्म है उपलब्धि। धर्म छोड़ना नहीं है, धर्म है पाना। धर्म संसार का विरोध नहीं है, धर्म है ईश्र्वर को पा लेना। यह जो विरोध की भाषा है--छोड़ने की, त्यागने की--गलत है।
इसलिए मैंने कहा: प्रेम तो सेवा है, सेवा प्रेम नहीं है।

अंत में बहुत से ऐसे प्रश्र्न हैं, जिनमें कोई तारतम्य और कोई संगति नहीं है।

जैसे कोई पूछता है: ईश्र्वर कहां रहता है?

ठीक है। जब उन्होंने सोचा कि मैंने खबर कर दी कि ईश्र्वर मर गया है, तो इतना तो पता ही होगा कि रेसिडेंस कहां है? रहते कहां हैं ये सज्जन?
तो पूछना उनका स्वाभाविक है कि ‘ईश्र्वर कहां रहता है? कितने हाथ-पैर हैं? कैसा मुंह है? क्या शक्ल है? अगर आपने देखा है तो क्या उनका रूप बतला सकते हैं? स्वर्ग और नरक हैं या नहीं? हैं तो उनके बीच फासला क्या है? क्या कोई नरक से स्वर्ग जा सकता है? दुनिया में जनसंख्या आदमी की बढ़ती जा रही है और कहते हैं कि आत्माएं सीमित हैं, तो ये कैसे बढ़ती जा रही हैं?’
ऐसे बहुत-बहुत प्रश्र्न हैं, अनेक-अनेक प्रकार के।
तो जब ऐसे बहुत से प्रश्र्न मेरे पास होते हैं तो उस दिन मैं एक सपना जरूर देखता हूं। आज मैंने वह सपना देखा। उसी सपने को मैं आपसे कहूंगा। जब भी ऐसे बहुत से प्रश्र्न मेरे पास होते हैं तो उस दिन मैं एक सपना जरूर ही देखता हूं। आज ही दोपहर मैंने एक सपना देखा। उस सपने को ही आपसे कहूंगा। अब प्रश्र्नों के उत्तर नहीं दूंगा। हो सकता है उस सपने में इन प्रश्र्नों में से बहुतों के उत्तर मिल जाएं और बहुत से प्रश्न जिनका मैं उल्लेख भी नहीं कर रहा हूं उनके भी उत्तर मिल जाएं। और यह भी हो सकता है कि कोई भी उत्तर न मिले। सपने का क्या भरोसा?
दोपहर में सोया और मैंने एक सपना देखा कि मैं एक बहुत टूटे-फूटे से मकान के सामने खड़ा हूं। उसके सामने ही एक बहुत बड़ी हवेली है। सिर उठा कर देखता हूं तो उस हवेली के ऊपर का आखिरी हिस्सा दिखाई नहीं पड़ता, वह आकाश में कहीं दूर उठती ही चला जाती है। और उसके ही सामने एक टूटे-फूटे फाटक पर उसके पीछे एक छोटा सा झोपड़ा है।
मैंने सोचा कि यह क्या है? लेकिन स्वाभाविक है। जहां बहुत बड़े मकान होते हैं, उनके सामने छोटे झोपड़े होने जरूरी हैं, नहीं तो बड़े मकान होंगे कैसे? छोटे मकानों को और छोटा करके ही तो बड़ा मकान और बड़ा होता है। तो एक मकान बड़ा होता चला गया है, दूसरा मकान छोटा होता चला गया है। धीरे-धीरे एक मकान आकाश छू लेगा, दूसरा मकान जमीन पर बिछ जाएगा और सो जाएगा। ठीक है। ये किसके मकान हैं? तो मैंने देखा, वह जो टूटा सा झोपड़ा है, उसके सामने एक तख्ती लगी है। वर्षा में शायद उसके रंग उड़ गए हैं। शायद बहुत दिन से कोई पुताई नहीं हुई है। उस पर लिखा हुआ है: श्री भगवान।
मैं बहुत घबड़ाया। भगवान का मकान! दिखता है किसी शरारती ने, होली का वक्त करीब आता है, तख्ती बदल दी है। भगवान का मकान यह होना चाहिए! भगवान जो कि परम शक्तिशाली, परमपिता, सबके बनाने वाले, वे कोई झोपड़े में रहेंगे, इस झोपड़े में?
लेकिन सामने जो तख्ती लगी है वह तो लगी है। इधर तो लिखा है: श्री भगवान। बिलकुल हिंदी में लिखा है। और वह भी आड़े-टेढ़े अक्षरों में। उधर लिखा है: डॉक्टर डेविल डी़. डी़.--डॉक्टर ऑफ डिग्निटी और डॉक्टर डेविल। शैतान का घर है यह।
और इनको डी़ डी़. किसने दे दी है--यह डॉक्टर ऑफ डिग्निटी कब हो गए? यह धर्माचारी कब हो गया डेविल? जो है यह शैतान!
तख्ती में कोई गड़बड़ है। और यह श्री भगवान की तख्ती बहुत दिन से पुती भी नहीं है। और सन्नाटा है। और इधर कोई दिखाई भी नहीं पड़ता। फिर भी मैंने कहा कि जब पूछना ही है तो बजाय शैतान के घर में जाने के भगवान के घर में जाकर पूछना ठीक है।
मैंने वह फटकी खोली, उस पर इतनी धूल जमी है कि जिससे पता चलता है कि इस पर कभी कोई आता ही नहीं है। मैं अंदर घुसा, तो एक बहुत बड़े कुत्ते को वह झोपड़े के बाहर बैठा देखा। तो मैं थोड़ा डरा। क्योंकि कुत्ते कई प्रकार के होते हैं। जैसे आदमी कई प्रकार के होते हैं। पता नहीं किस प्रकार का कुत्ता हो।
एक तो वह कुत्ता होता है, बिलकुल मरियल। उसकी जाति अलग होती है। और उसको पहचानने का एक ढंग होता है। बच्चे अगर घर में मिठाई भी खा रहे हों और बाहर मरियल कुत्ता आ जाए, तो मिठाई खाना छोड़ कर फौरन पत्थर उठा कर उसके पीछे भागते हैं। मरियल कुत्ते में कुछ मैग्नेटिक फोर्स होती है, कोई जादू होता है कि बच्चे एकदम भागते हैं और पत्थर उठा लेते हैं। चाहे लाख मिठाई खा रहे हों, गुड्डी से खेल रहे हों, या कुछ भी कर रहे हों। मरियल कुत्ता बाहर निकलता है, तो बच्चे भाग कर निकल आते हैं, पत्थर उठा लेते हैं। एक तो कुत्ता मरियल होता है। मरियल कुत्ता हमेशा कानून से चलता है। जैसे सड़क पर लिखा रहता है: बाएं चलो; तो वह हमेशा बाएं चलता है। वह गरीब का कुत्ता। उसको नियम पालन करना पड़ता है। नहीं तो पुलिसवाला कहेगा, चलो, रास्ते से बाएं चलो।
एक अलसेसियन डॉग होता है। वह सड़क के बीच में चलता है। वह कभी बाएं नहीं चलता है। क्योंकि पुलिसवाला उसको नमस्कार करता है। वह बड़े साहब का कुत्ता है। और अलसेसियन कुत्ता जब निकलता है, तो बच्चा चाहे घर के बाहर गिल्ली-डंडा खेलता हो, वह फौरन भाग कर दरवाजा बंद करता है और होमवर्क करने लगता है। उसको पत्थर नहीं मारता।
ऐसे कुत्ते कई तरह के होते हैं। लेकिन यह दो तो खास जातियां हैं। तो मैंने कहा, पता नहीं यह मरियल कुत्ता है कि अलसेसियन कुत्ता है। इसके पास जाना उचित है कि नहीं। पर फिर भी जाना तो था, तो मैं धीरे-धीरे बढ़ा।
बढ़ने पर बड़ी हैरानी हुई। करीब जाने पर देखा, तो कुत्ता बिलकुल आंखें बंद किए हुए सोया है। तो मैंने सोचा: श्री भगवान का कुत्ता है। शायद कोई योग-साधना करता हो। सत्संग से तो पत्थर तक जीवित हो गए हैं, तो यह तो कुत्ता है। तो सत्संग के प्रभाव से मालूम होता है आंख बंद करके... जैसा कि सुनते हैं ऋषि-मुनियों के घर के तोते भी वेद-मंत्र पढ़ते थे, ऐसे ही दिखता है यह कुत्ता भी कोई ध्यान वगैरह कर रहा है, कोई समाधि लगा रहा है, क्या कर रहा है!
पर मैंने कहा, फिर भी सम्हल कर जाना चाहिए, क्योंकि कई समाधि बगुले जैसी समाधि होती है। बगुला समाधि लगाता रहता है और मछली को ताकता भी रहता है। पास गए और कुत्ता कहीं धोखा दे दे और टूट पड़े और समाधि झूठी निकले तो मुश्किल हो जाए। जैसा कि अक्सर समाधियां झूठी निकलती हैं। पास जाओ टूट जाती हैं। दूर से समाधि मालूम पड़ती है, पास जाकर पता चलता है समाधि नहीं थी, धोखा था।
तो मैंने कहा, पता नहीं किस प्रकार का योगी है। बगुला योगी है कि सचमुच योगी है, कुछ कहा नहीं जा सकता। फिर भी पास जाना जरूरी था। पास जाकर, कितना ही पास चला गया, लेकिन वह तो परम ध्यान में है, वह हिलता-डुलता नहीं है।
तो मैंने कहा कि चमत्कार है! एक कुत्ता भी देखो, आदमी को छोड़ो, एक कुत्ता भी भाव-दशा को उपलब्ध हो गया! पता नहीं ब्रह्मलीन है इस समय, या क्या करता है, कहां है! स्वभावतः मैंने हाथ जोड़े और उसको नमस्कार कर ही रहा था तब मुझे एक खयाल आया कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि कुत्ता मर गया हो और हम सोचते हों कि यह ब्रह्मलीन है। उस पर एक कंकड़ मार कर देखा, तो पता चला कि कुत्ता तो मरा हुआ है। और जब मैं उसको हाथ जोड़ता था तभी एक बूढ़ा आदमी बाहर निकला और उसने कहा: क्या करते हैं?
तो मैंने कहा कि मुझे प्रतीत होता है कि यह जीव ब्रह्मज्ञान की स्थिति में है। इसको नमस्कार करता हूं।
तो उन्होंने कहा कि नहीं, यह कुत्ता ब्रह्मज्ञान की स्थिति में नहीं है, ब्रह्मलोक सिधार चुका है। इसने ब्रह्मलोक उपलब्ध कर लिया है। यह बड़ा अदभुत कुत्ता था। यह बड़ा साधक था। यह बड़ा योगी था। इसने सब तरह के योग साधे और आखिर यह परमगति को प्राप्त हो गया।
तो मैंने कहा कि क्या श्री भगवान यहीं रहते हैं?
उन्होंने कहा कि मालूम होता है आप कुछ भी नहीं जानते हैं। मैं ही श्री भगवान हूं। वह बूढ़ा आदमी बोला।
उस बूढ़े आदमी को देख कर मुझे भी बड़ी घबड़ाहट हुई, क्योंकि कभी कल्पना नहीं की थी कि ऐसे श्री भगवान होंगे। उनके कपड़े भी फटे हुए थे। उनकी हालत बड़ी खराब थी। चश्मा उनका टूटा हुआ था, एक रस्सी बांधे हुए थे।
तो मैंने कहा: मुझे विश्र्वास नहीं आता। और फिर मेरा विश्र्वास में विश्र्वास भी नहीं है। मुझे शक होता है।
उन्होंने कहा: देखो, विश्र्वास फलदायी होता है। शक करोगे, भटक जाओगे। संदेह जिन्होंने किया, गए नरक में। मैं जो कहता हूं मानो।
तब मुझे भी डर हुआ और मैंने सोचा कि ठीक ही कहते हैं, भगवान कई रूपों में प्रकट होते हैं। कई दफा कछुए के रूप में प्रकट हो जाते हैं। तो हो सकता है कि इस बार उन्होंने यही बूढ़े का रूप प्रकट किया हो। किस भेष में मिल जाएं, कुछ पता भी नहीं है। तो क्यों झंझट करनी। मैंने जल्दी से झुक कर नमस्कार किया। वे बड़े प्रसन्न हुए। और उन्होंने कहा कि आओ, अंदर आ जाओ।
भीतर मैं गया, तो मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने देखा कि वहां तो कुछ भी नहीं था। कोई फर्नीचर भी नहीं था, कोई सामान भी नहीं था। हम तो सुनते थे कि बड़े सिंहासन पर भगवान बैठते हैं। वहां कुछ भी नहीं था। एक फटी चटाई पर बैठे हुए थे। और क्या कर रहे थे, उसे देख कर और हैरानी हुई। हम तो सोचते थे कि शायद दुनिया को बनाने की, बदलने की, गरीबों की, इसकी, उसकी योजना करते होंगे। नये-नये प्राणी बनाते होंगे। वे एक स्लेट-पट्टी लिए, कुछ किताबें रखे हुए--सी ए टी कैट, कैट यानी बिल्ली--यह पढ़ रहे थे। आर ए टी रैट, रैट यानी चूहा। मैं बहुत हैरान हुआ कि यह कैसे भगवान हैं!
मैंने उनसे पूछा: यह क्या कर रहे हैं आप?
वे बोले कि मैं संस्कृत के चक्कर में पड़े-पड़े बर्बाद हो गया, अब अंग्रेजी सीख रहा हूं। वह सामने जो शैतान रहता है, अंग्रेजी उसने पहले सीख ली। और मैं इसी भूल-भुलक्कड़ में पड़ा रहा कि संस्कृत देवभाषा है, भटक गया। उसने सब जिंदगी, दुनिया जीत ली उसने। अंतर्राष्ट्रीय भाषा सीख गया। हम संस्कृत के पीछे पड़े रहे। अभी-अभी किसी ने कहा कि तुम पिछड़ते ही जा रहे हो, पिछड़ते ही जा रहे हो। अंतर्राष्ट्रीय भाषा सीखो! तो मैं अंग्रेजी सीख रहा हूं। वे जल्दी से अपनी किताब उठा कर बैठ गए और पढ़ने लगे: सी ए टी कैट, कैट यानी बिल्ली! आर ए टी रैट, रैट यानी चूहा!
मुझे तो इतनी घबड़ाहट होने लगी कि यह क्या हो रहा है? ये कैसे भगवान हैं?
मैंने उनको पूछा: हद कर दी! इस उम्र में अंग्रेजी सीख रहे हो?
तो उन्होंने कहा: उम्र का क्या सवाल है? उम्र का सवाल होता है तुम्हारी दुनिया में, जहां आदमी मरते हैं। यहां मुसीबत है कि कोई मरता ही नहीं। उम्र का कोई सवाल ही नहीं है यहां। तुम्हारी दुनिया में लोग चिल्लाते हैं कि हे भगवान, हमें अमर कर दो। और हम यहां अपनी छाती पर हाथ रख कर रोते हैं कि कोई मरने का उपाय मिल जाए। क्योंकि कितने-कितने दिन से बैठे हैं, बैठे हैं, कुछ रास्ता ही नहीं मिलता, कोई मरने का उपाय नहीं है।
अमरता बड़ी खतरनाक है, क्योंकि मर नहीं सकते, कभी नहीं मर सकेंगे। इससे ऐसी घबड़ाहट होती है कि यही बोझ रोज, यही बोझ, यही बोर्डम। यही सुबह से लोगों की प्रार्थनाएं, पतित-पावन चिल्ला रहे हैं दुनिया भर के लोग और हम सुन रहे हैं बैठे। कोई रघुपति राघव राजा राम कर रहा है, कोई कुछ कर रहा है। हम इसको सुन रहे हैं। हमारा दिमाग खराब हो गया!
इधर पीछे तो एक आदमी आ गया था, उसने सलाह दी कि तुम अपने कान खराब करवा लो, तो हमने कान खराब करवा लिए। अब तो हमने यंत्र बनवा लिया है। जिसकी सुननी होती है, यंत्र लगा लेते हैं; नहीं सुननी होती है, यंत्र बाहर निकाल लेते हैं। तो जो बहुत अपने वाले हैं, उनकी सुन भी लेते हैं। जो नहीं हैं, उनकी नहीं भी सुनते।
मुझे तो बहुत घबड़ाहट हुई। मैंने तो सोचा कि यह ढंग दुनिया में चलता है, यहां भी चलता है? वे बोले कि मैं अंग्रेजी सीख रहा हूं। जल्दी, आशाहै कि सीख लेंगे, तो शायद शैतान के मुकाबले कोई जीत भी हो जाए। देखते हैं शैतान मकान पर मकान बनाता जा रहा है। यहां जमीन उखड़ती जा रही है। मैंने उनसे पूछा कि लेकिन आपके ऋषि-मुनि कहां हैं, जो हजारों-हजारों हो गए और यहां स्वर्ग में आ चुके हैं? यह स्वर्ग है न?
उन्होंने कहा: हां, यह स्वर्ग है।
और मैंने कहा: वह सामने?
उन्होंने कहा: वह नरक है।
हम तो सुने थे कि नरक में आग की लपटें जलती हैं, और वहां तो बढ़िया रास्ते बने हुए हैं, बढ़िया मकान और बगीचे लगे हुए हैं।
भगवान ने कहा: वह सब शैतान की करतूत है। उन्होंने सब गड़बड़ कर डाला है।
और यहां? हमने कहा: कहां हैं कल्पवृक्ष वगैरह?
उन्होंने कहा: अब कहां? नदी पर उन लोगों ने बांध बांध लिया है। पानी इस तरफ आने नहीं देते नरक से। सारे वैज्ञानिक वहां इकट्ठे हो गए हैं, वे बादलों को नहीं आने देते इस तरफ। सारे राजनीतिज्ञ वहां इकट्ठे हो गए हैं, वे रोज एन्क्रोचमेंट किए चले जाते हैं, जमीन स्वर्ग की हड़पते चले जाते हैं। हमको पीछे हटना पड़ रहा है। हम अकेले रह गए हैं।
ऐसे सौ-दो सौ थोड़े-बहुत लोग हैं--बुद्ध हैं, महावीर हैं, क्राइस्ट हैं, राम हैं, कृष्ण हैं--वे लोग यहां रहते हैं। अभी यह गांधी आया बूढ़ा, यह भी यहां रहता है। ऐसे दस-पांच लोग यहां हैं। लेकिन इनसे कुछ काम नहीं चलता। ये कोई भी लड़ाक नहीं हैं। इनसे कहो, तो ये कहते हैं: जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, दूसरा उसके सामने कर दो। अब क्या करें? ये लड़ने को तैयार नहीं होते। ये कहते हैं: जो बाएं गाल पर चांटा मारे, दायां उसके सामने कर दो। और वह शैतान के सब आदमी, सारे प्राइम मिनिस्टर दुनिया के वहां हैं। सारे मिनिस्टर वहां हैं। सारे प्रेसिडेंट्‌स वहां हैं। सारे धर्म-पुरोहित वहां इकट्ठे हैं।
तो मैंने कहा: और ऋषि-मुनि कहां गए, जो इतने आए थे?
उन्होंने कहा: तुम चूंकि बहुत ज्यादा निकट हो गए इतनी देर में, मैं तुम्हें अपने दिल की बात कह देता हूं। सौ ऋषि-मुनि आते हैं तो तुम यह मत सोचना कि सौ स्वर्ग में आ जाते हैं। सौ में से मुश्किल से एक आता है।
और मैंने कहा: निन्यानबे?
उन्होंने कहा: निन्यानबे लोगों को तो स्वर्ग भेजने का रास्ता बताते हैं, खुद पीछे के रास्ते से नरक चले जाते हैं। इतने होशियार हैं ऋषि-मुनि कि जनता को कहते हैं कि स्वर्ग जाओ और पीछे से सीक्रेट-पाथ बना रखे हैं उन्होंने। किताबें भी हैं सीक्रेट-पाथ की। वह पीछे के गुप्त रास्ते बना रखे हैं। उनसे खुद नरक चले जाते हैं। एकाध कोई भूल-चूक में उनके चक्कर में फंस कर स्वर्ग आ भी जाता है, तो दो-तीन दिन में घबड़ा जाता है और एकदम दरवाजे पर धरना दे देता है। कहता है,हम उपवास करेंगे, अनशन करेंगे, हड़ताल कर देंगे, हमको नरक भेजो।
तो मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने कहा: हम तो जमीन पर से स्वर्ग आने की कोशिश करते हैं। यहां आए हुए, पहुंच गए लोग नरक जाना चाहते हैं?
बोले: हां।
कारण?
तो उन्होंने कहा: वे ऋषि-मुनि कहते हैं कि बिना भाषण किए रात हमें नींद नहीं आती है। यहां किसको भाषण करें? यहां स्वर्ग में कोई सुनने को राजी ही नहीं; क्योंकि जितने हैं वे सब खुद ही भाषण देने वाले हैं। और वे ऋषि-मुनि कहते हैं कि बिना अनुयायियों के हमारे मन को राहत नहीं मिलती है। हमें अनुयायियों से, फॉलोअर्स से बहुत प्रेम है। और फॉलोअर्स सब नरक में हैं। तो वे कहते हैं, हम वहीं जाएंगे।
वे कहते हैं कि यहां सुबह अखबार भी नहीं छपता। स्वर्ग में कोई अखबार नहीं छपता है--भगवान ने बताया। और नरक में तो अखबार ही अखबार छपते हैं। तो वे ऋषि-मुनि कहते हैं कि बिना अखबार में सुबह नाम पढ़े दिन भर हमें बड़ी बेचैनी रहती है, गर्मी लगती है। तो वहीं जाएंगे। तो दो दिन, चार दिन रहते हैं मुश्किल से, फिर नरक चले जाते हैं। सौ-दो सौ आदमी यहां टिके हैं हजारों साल से। कोई रस नहीं है।
भगवान ने कहा: कई दफा तो मेरा मन भी होता है कि नरक ही चला जाऊं। यहां कोई रस नहीं है। एकदम बोर्डम है। किसी से बात करो, तो वह कहता है, सब असार है। सब ज्ञानी यहां हैं। वे कहते हैं कि सब असार है, सब माया है। किसी बात में कोई रस नहीं लेते। कोई संगीत नहीं, कोई नृत्य नहीं।
तो मैंने कहा: यह तो बड़ी घबड़ाहट की बात है। मुझे तो बहुत दया आने लगी है। मैंने तो सोचा था कि आपसे कुछ दया पाऊंगा और मुझे तो आप पर दया आने लगी है। यह तो बड़े दुख की स्थिति में आप फंसे हैं। आपका छुटकारा कैसे किया जाए?
उन्होंने कहा: इधर एक तरकीब निकाल ली है। एक वृद्धजन आए थे, उनको मैंने कहा, तो उन्होंने कहा कि तुम एक तरकीब करो। पुराना ताला निकाल कर अलग करो। बीच में दीवाल है नरक के और भगवान के स्वर्ग के और बीच में दरवाजा है, ताला है। उन्होंने कहा: यह ताला अलग करो। नये ढंग का ताला लगाओ, जिसमें की-होल होता है, जिसमें छेद होता है चाबी का। चाबी को निकाल कर की-होल में से नरक का मजा देखते रहा करो।
वह बूढ़े ने कहा कि इसी तरह तो हम दुनिया में दिन गुजारते हैं। पड़ोसी के की-होल में से देखते रहते हैं कि क्या-क्या हो रहा है। दिन गुजर जाते हैं बड़े सुख से। रातें गुजर जाती हैं बड़े सुख से। पड़ोसी की लीला देखते रहते हैं कि क्या-क्या हो रहा है: प्रेम हो रहा है कि लड़ाई हो रही है, कि पत्नी पति को मार रही है कि क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। उसे देखने से बड़ा रस आता है। तो उस बूढ़े ने तरकीब बताई।
हमने एक नया ताला लगा लिया है। इसी की-होल में से दिन गुजार देते हैं। या तो आर ए टी रैट, चूहा; सी ए टी कैट, बिल्ली, यह पढ़ते हैं, इस की-होल में से नरक का मजा देखते हैं।
मेरा भी मन हुआ कि उस की-होल में से देखूं नरक का मजा। कौन नहीं देखना चाहेगा? अगर आपमें से भी कोई होता तो उसका मन होता कि छोड़ो इन श्री भगवान को। जरा नरक का मजा देखें, क्या हो रहा है वहां!
मैंने भी उस की-होल में से... तो उन्होंने कहा: यह जो दरवाजा है, यह वह कल्पवृक्ष जो सूख गया, जिसके नीचे बैठ कर सब इच्छाएं पूरी हो जाती थीं, उसी को काट कर बना लिया है। इस दरवाजे में एक खूबी है: जिसका भी स्मरण करोगे, इस की-होल में से वही दिखाई पड़ने लगेगा। तो मैंने कहा कि हे ऋषि-मुनि! जो तुम नरक में निवास कर रहे हो, तुमको देखना चाहता हूं।
‘एकदम सामने की-होल के एक दृश्य आ गया। कोई दस हजार से ज्यादा ऋषि-मुनि रहे होंगे। बड़ी भारी सभा हो रही है। पर उस सभा में बड़ी गजब की बातें दिखाई पड़ीं। उसमें एक बड़ी गजब की बात यह दिखाई पड़ी कि वह सभा बड़ी डेमोक्रेटिक थी। ऐसा नहीं था कि जैसे हम यहां--मैं एक बोल रहा हूं और आप सब सुन रहे हैं। आप सबके साथ अन्याय कर रहा हूं और अकेला बोल रहा हूं। उस डेमोक्रेटिक सभा में दस हजार आदमी इकट्ठे बोल रहे थे। क्योंकि उनका कहना है कि किसी मनुष्य को यह अधिकार नहीं है कि किसी के ऊपर अनाचार करे। तो वहां दस हजार माइक लगे हुए थे और दस हजार आदमी बोल रहे थे। वहां ऐसा तूफान मचा हुआ था कि कुछ समझ में नहीं आता था।’
मैंने श्री भगवान से कहा: ये नरक के लोग तो हमसे बहुत आगे निकल गए हैं। जमीन पर ऐसा होता है कि एक आदमी बोलता है, बाकी लोग भी बोलते हैं, लेकिन मन ही मन में बोलते हैं। ऐसा नहीं करते। एक आदमी बोलता है, बाकी लोग अपने मन-मन में बोलते रहते हैं। ऐसा नहीं होता कि सभी लोग... ये तो बहुत ही विकसित हो गए। यह तो ह्यूमन इक्वॉलिटी, यह तो मनुष्य-जाति समानता का सिद्धांत इन्होंने पूरा कर दिया। ये कोई किसी की सुन नहीं रहे। किसको फुरसत है!
जमीन पर भी ऐसा होता है। कोई किसी की नहीं सुनता। लेकिन फिर भी ढंग तो हम दिखलाते हैं कि सुन रहे हैं। इस ढंग से बैठे रहते हैं कि मालूम होता है सुन रहे हैं। वैसे अपनी बातें भीतर-भीतर कहते रहते हैं। लेकिन यह क्या बात हुई?
भगवान ने कहा: ये नरक के लोग बड़े प्रोगे्रसिव हैं, बड़े प्रगतिशील हैं। इनका तो मुकाबला ही नहीं। तुम्हारी पृथ्वी क्या, स्वर्ग को इन्होंने बर्बाद कर दिया।
‘और दृश्य बदलते गए। ऋषि नाच रहे हैं नदियों के किनारे, बड़े आधुनिक ढंग के नाच।’
बहुत घबड़ाहट देख कर होने लगी। पूछा, तो उन्होंने कहा: इसमें कोई कसूर नहीं है। इन सब ऋषियों का कहना है कि हमने खूब त्याग-तपश्र्चर्या की, अब हम उसका फल चाहते हैं। हमने बहुत कष्ट भोगे, बहुत उपवास किए, शरीर को सुखाया, अब हम फल चाहते हैं। हमें सुख चाहिए। अच्छे मकान चाहिए, एअरकंडीशन चाहिए। और नरक पूरा एअरकंडीशन कर डाला है उन लोगों ने। और नाच चाहिए और शराब चाहिए। और शराब के झरने बहा रहे हैं और बगीचे बसा रहे हैं।
मैंने कहा: यह तो बिलकुल स्वाभाविक है। ऐसा ही तो हमारे मुल्क में हुआ। आजादी के पहले कुछ लोगों ने--थोड़ा सा जेल गए, तपश्र्चर्या की। पीछे वे कहने लगे: हमको गद्दी चाहिए, हमको दिल्ली चाहिए; क्योंकि हमने किया त्याग। हम भोग करेंगे। ऐसा तो जमीन पर भी हुआ। वही यहां हो रहा है। यह तो सब जगह होगा। जो त्याग करेगा, वह भोग करने के लिए तो त्याग करेगा। वह कहता है, हम छोड़ते हैं तो हम पाने के लिए छोड़ते हैं।यहां छोड़ोगे, तो कहते हैं, वहां स्वर्ग में मिलेगा। स्वर्ग में नहीं मिला, तो वे लोग नरक में ले रहे हैं। बहुत घबड़ाहट, बहुत बेचैनी मुझे मालूम हुई। श्री भगवान से मैंने कहा: आपकी हालत तो बड़ी खराब है। और छोड़िए, इस उम्र में इसको मत सीखिए, यह अंग्रेजी भाषा कोई अब आपके पल्ले नहीं पड़ेगी।
वे बोले कि अब कैसे करूं, एक ट्यूटर लगा छोड़ा है! वह आता है, सिखाता है। बहुत डांट-डपट बताता है, बहुत परेशान करता है। छोटी-छोटी बात पर कहता है, खड़े होओ, बैठो। पुराने ढंग का ट्यूटर है। बेंत बताता है, गाली बकता है। बड़ा गुस्सा जाहिर करता है।
मैंने कहा: आपको पता नहीं है। होमवर्क न हो पाए तो कॉपी में पांच रुपये का नोट छिपा कर बता दिया करें। उसी वक्त ट्यूटर भी आ गए। वे बूढ़े सज्जन थे। हिंदुस्तान के किसी हाई स्कूल में प्रधान अध्यापक रहे थे। वे आए और उन्होंने आते से ही डांटना शुरू किया कि होमवर्क किया कि नहीं?
श्री भगवान थर-थर कांपने लगे। उन्हें विषाद-योग हो गया। बहुत घबड़ाहट हुई। उन्होंने कॉपी निकाली, डरते-डरते पांच का नोट रखा और कॉपी दी।
ट्यूटर ने देखा और कहा कि शाबाश! आज तूने होमवर्क किया। और अब तू बिलकुल बेफिकर रह। अगर ऐसा ही होमवर्क रोज किया, परीक्षा भी देने की अब कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। और अगर सदा ही इसी तरह का अनुशासन, इसी तरह का डिसिप्लिन माना और इसी तरह रोज-रोज प्रगति की--पांच से दस, दस से पंद्रह, पंद्रह से बीस--तू पक्का मान, तेरा मैरिट में स्थान निश्र्चित है। ...ट्यूटर ने कहा कि मैं जरा सब्जी ले आऊं। तू अपना आगे काम कर। मैं थोड़ी देर में फिर आता हूं, फिर होमवर्क देखूंगा।
ट्यूटर तो चला गया। भगवान ने कहा कि धन्य हैं, आपने अच्छी तरकीब बताई। यह नया टेक्नीक है शिक्षा का? हमको पता भी नहीं। हम वही पुराने ढंग से आर ए टी रैट, आर ए टी रैट रटे जा रहे हैं। अब तो हम जरूर ही, न सही कुछ, हो गए हैं डी़ डी़ शैतान, तो हम भी मैट्रिक तो पास हो ही जाएंगे। अब तो आशा बंधती है।
मैंने उनसे पूछा: आपकी मातृभाषा क्या है? यह कुछ लोग कहते हैं संस्कृत है; कोई कहता है अरबी है; कोई कहता है हिब्रू है। आपकी मदर-टंग क्या है?
भगवान ने कहा: बड़ी मुश्किल की बात है। सारी दुनिया में लोग मुझसे कहते हैं, हे अनाथों के नाथ! और हमारी हालत यह है कि हम सुप्रीम ऑर्फन, हमारे मां-बाप हैं ही नहीं! और दुनिया हमसे कहती
है, हे अनाथों के नाथ! और हमसे ज्यादा अनाथ कोई नहीं है, क्योंकि हमारा कोई मां-बाप ही नहीं है! जो जमीन पर अनाथ हैं, उनके मां-बाप तो रहे होंगे। मर गए होंगे। हमारे हैं ही नहीं, कभी थे ही नहीं। हम तो परम अनाथ हैं, सुप्रीम ऑर्फन। तो हमारी कौन सी मातृभाषा है!
मुझे बड़ी मुश्किल हुई। हम तो यही सुनते थे कि उनकी कोई खास मातृभाषा है।
उन्होंने कहा: मातृभाषा ही नहीं है, क्योंकि हमारी कोई मां ही नहीं है!
मैंने उनसे पूछा कि यह बड़ी अजीब बात है, सारी दुनिया में भाषाएं मातृभाषाएं क्यों कही जाती हैं? पितृभाषाएं क्यों नहीं कही जातीं? फादर-टंग क्यों नहीं कहते? मदर-टंग क्यों कहते हैं?
वे बेचारे बड़े दिक्कत में पड़ गए। सिर खुजलाने लगे। कहने लगे, यह तो मेरे कोर्स में कहीं लिखा भी नहीं है। और इस शिक्षक ने पढ़ाया भी नहीं है। परीक्षा में आएगा भी नहीं। आप कहां-कहां के प्रश्र्न पूछते हैं?
तो मैंने उनसे कहा--कि फिर मुझसे पूछ लीजिए।
उन्होंने कहा: आप बता दें तो बड़ी कृपा हो। मैं नोट कर लूं। उन्होंने अपनी कॉपी निकाल ली और नोट करने लगे।
मैंने उनसे कहा कि जहां तक मैं समझता हूं इसका एक ही कारण हो सकता है। बच्चों की भाषा मातृभाषा इसीलिए कहलाती है कि बच्चे कभी पिता को मां के सामने बोलते देख ही नहीं पाते हैं, मां ही हमेशा बोलती है। पिता सुबह उठ भी नहीं पाता कि मां बोलना शुरू कर देती है। और न मालूम क्या-क्या बोलना शुरू कर देती है। पिता बेचारा डर के मारे अखबार पढ़ता रहता है और मां बोलती ही चली जाती है। पिता किसी तरह नाश्ता करता है और मां बोलती चली जाती है। पिता दफ्तर से लौटता है, खाना खाता है और मां बोलती चली जाती है। यह क्रम रात पिता सोकर घुर्राने लगता है और मां बोलती चली जाती है। इसलिए बच्चे इसको कहते हैं मदर-टंग। यह मातृभाषा है। इसलिए दुनिया में कहीं इसे पितृभाषा नहीं कहा जाता।
श्री भगवान ने जल्दी से उसे नोट कर लिया। वे बड़े उत्सुक विद्यार्थी मालूम पड़े।
मैंने उनसे कहा कि अब मैं जाऊं। मैं तो आया था कुछ आपसे पाने को। यहां तो हालत उलटी हुई जा रही है, आप मुझी से पूछने लगे और मेरी बातों को लिखने लगे। हम तो सोचते थे कि ज्ञान मिलेगा, यहां उलटा ज्ञान देना पड़ रहा है। मैं जाता हूं।
मैं बाहर निकलने लगा, तो वे भागे हुए बाहर आए और उन्होंने कहा कि अपना पता-ठिकाना तो देते जाओ, कभी जरूरत पड़े। एक ऐसी तरकीब बता दी परीक्षा पास होने की! कोई और मौका आ जाए तो पूछने आ जाऊंगा।
मैंने कहा: पता मैं बताए देता हूं, लेकिन पहले से अपाइंटमेंट अगर नहीं लिया तो मिलना बहुत मुश्किल है। तो मैंने उनको पता लिखा दिया: पांच सौ पांच, कालबा देवी रोड, जीवन जागृति केंद्र। फोन नंबर लिखा दिया: 22331 और कहा, इसको रख लो। लेकिन पहले से अपाइंटमेंट ले लेना, क्योंकि जीवन जागृति केंद्र के लोग बड़े मजबूत हैं। तुम लाख सिर पटको, बहुत मुश्किल से भीतर घुसने देंगे और मुझसे मिलने देंगे। लेकिन तुम भी हठयोग पकड़ कर बैठ ही जाना और कहना कि मैं जाऊंगा ही नहीं बिना मिले। तो शायद किसी को दया आ जाए और तुमको भीतर ले आए और दो-चार-पांच मिनट मिलने का वक्त मिल जाए।
फिर मैंने कहा: अब मैं जाऊं? तुम्हारी घड़ी में कितने बजे हैं?
उन्होंने कहा: घड़ी मेरी बहुत दिन से बंद है। यह जो गांधी बुड्ढा आया था, उसी ने मुझको यह घड़ी भेंट कर दी थी। तो मैंने इसको लटका लिया। न इसमें कांटा है, न इसमें डायल है, न कुछ है, न कुछ है। लेकिन यहां कोई जरूरत भी नहीं पड़ती कि देखें कि कितना बजा है।
तो मैंने कहा: अब मुझे जाने दें, मुझे ठीक साढ़े छह बजे क्रॉस मैदान में पहुंचना है। वहां कुछ लोग मनोरंजन के लिए इकट्ठे हुए होंगे। उनको देर हो जाएगी तो बहुत दिक्कत होगी।
इसी घबड़ाहट में मेरी नींद खुल गई। जाग कर बहुत सोचने लगा कि यह कैसा सपना है! कैसा! यह कैसा सपना है? अब लेकिन सपने से कोई झगड़ा भी नहीं कर सकता कि कैसा है। सपना जैसा है, है।
ये कैसे श्री भगवान हैं? यह कैसा शैतान है? लेकिन हालत ऐसी हो गई है। शैतान के मकान बड़े होते चले गए, भगवान का मकान छोटा होता चला गया। शैतान ने लोगों की अंतर्राष्ट्रीय भाषा समझ ली, आदमी की कमजोरी समझ ली। इंटरनेशनल लैंग्वेज और कोई भी नहीं है, आदमी की कमजोरी है। अंग्रेज भी उसी बात में कमजोर है, जिसमें हिंदू। जर्मन भी उसी बात में कमजोर है, जिसमें अफ्रीकन। कमजोरियां, ह्यूमन वीकनेसेस एक ही हैं। शैतान ने आदमी की कमजोरी की भाषा समझ ली। अंतर्राष्ट्रीय भाषा समझ ली। वह अंग्रेजी, वह अंतर्राष्ट्रीय भाषा से सारे मनुष्यों को देख रहा है।
भगवान अभी तक अंतर्राष्ट्रीय भाषा नहीं समझ पाया। और आदमी, जो भगवान को प्रेम करते हैं, उन्होंने लोकल लैंग्वेजस बना ली हैं कि हम हिंदू हैं, हम मुसलमान हैं, हम ईसाई हैं। उन्होंने खंड-खंड बना लिए। क्या आपको पता है कि शैतान के शिष्यों के कितने संप्रदाय हैं? बिलकुल भी नहीं। एक भी नहीं!...
स्वर्ग उजड़ता जा रहा है। नरक बसता जा रहा है। भगवान ने सोचा कि कि मैं नरक में जाकर रहने लगूं तो शायद कुछ राहत मिल जाए।
एक आदमी मरा। उसकी पत्नी ने एक प्रेतात्मविद से कहा कि क्या तुम मेरे पति की आत्मा को बुला सकते हो? उसने उसके पति की आत्मा को बुलाया। उसकी पत्नी ने उस आत्मा से पूछा कि तुम कहां हो? क्या तुम सुख में हो? आनंद में हो?
उसके पति ने कहा कि मैं परम आनंद में हूं। हे देवी! मैं बहुत परम आनंद में हूं।
उसकी पत्नी ने कहा: क्या उससे भी ज्यादा आनंद में हो जितने मेरे साथ थे?
उसने कहा कि अब तो भय का कोई कारण नहीं है। तुम मुझसे काफी दूर हो। मैं सच्ची बात कह दूं। तुम्हारे साथ था, उससे भी बहुत ज्यादा आनंद में हूं।
उसकी पत्नी ने कहा: इसका मतलब स्पष्ट है कि तुम स्वर्ग में हो।
उसके पति ने कहा कि नहीं देवी! मैं नरक में हूं।
बहुत घबड़ाई। उसने कहा कि नरक में होकर तुम यहां से आनंद में?
उसके पति ने कहा कि जमीन नरक से भी ज्यादा बदतर हो गई है। अब तो नरक में भी अच्छा लगता है जमीन से।
तो अगर भगवान भी यह सोचने लगा हो कि नरक में बस जाएं, तो कोई आश्र्चर्य नहीं है। क्योंकि स्वर्ग बिलकुल उजाड़ हो गया है। वहां अब कोई नहीं जाता। वहां के दरवाजों पर मिट्टी जमी है। धीरे-धीरे वे दरवाजे टूट जाएंगे दो-चार वर्षाओं में। दो-चार वर्षाएं और आएंगी, मनुष्य-जाति पर वह मकान गिर जाएगा। दो-चार और तूफान आएंगे, वे बल्लियां उखड़ जाएंगी। कुत्ता तो मर गया है भगवान का, जो उनका रखवाला था। कौन जाने भगवान भी मर गए हों, या किसी दिन मर जाएं!
मैंने आपको पूर्व सूचना दे दी है कि भगवान मर चुके हैं। ये भगवान जो हमने अब तक पुराणों की कथाओं के आधार पर गढ़े थे, जो हमने कल्पना के लोक में निर्मित किए थे, वे जा चुके।
क्या किसी दूसरे भगवान को जन्म देने की इच्छा है?
निश्र्चित ही! वह भगवान किसी रूप का भगवान नहीं होगा--उसकी कोई शक्ल नहीं होगी, उसके हाथ-पैर नहीं होंगे, उसका नाम नहीं होगा, उसके मंदिर नहीं होंगे, उसकी मस्जिदें नहीं होंगी। उस भगवान का एक व्यापक विस्तार होगा--प्रेम का, आनंद का, शांति का, प्रकाश का, ज्योति का।
भगवान से अर्थ किसी व्यक्ति से नहीं है। इसलिए यह न पूछें कि उसकी शक्ल कैसी है और वह कहां रहता है? भगवान से अर्थ है एक अनुभूति का। भगवान से अर्थ है एक अनुभूति का! कोई नहीं पूछता है कि प्रेम कैसा है और कहां रहता है? फिर क्यों पूछते हैं कि परमात्मा कैसा है और कहां रहता है?
प्रेम है एक अनुभूति। प्रेम की ही पराकाष्ठा परमात्मा की अनुभूति है। एक व्यक्ति से मैं प्रेम करूं, यह प्रेम कहलाता है; और अगर समस्त के प्रति मेरी वही भाव-दशा हो जाए, तो यह परमात्मा कहलाती है। परमात्मा प्रेम का परम विकास है।
ये बच्चों जैसी एंथ्रोपोमॉर्फिक बातें कि एक ईश्र्वर बैठा हुआ है ऊपर और दुनिया बना रहा है और दुनिया चला रहा है। ये बच्चों जैसी बातें छोड़ें, ये बातें गईं। ये बातें छोड़ें कि भगवान ने एक दिन तय किया और दुनिया बना दी और कहा कि जाओ बन गई दुनिया और चलो। ये बच्चों जैसी बातें छोड़ें। भगवान ने ऐसी किसी दिन दुनिया नहीं बना दी है।
और भगवान और उसकी सृष्टि दो अलग बातें नहीं हैं। क्रिएटर और क्रिएशन दो अलग बातें नहीं हैं।
क्रिएटिविटी, सर्जनात्मक ऊर्जा जब अप्रकट होती है, तो उसे हम परमात्मा कहते हैं और जब प्रकट होती है, तो हम उसे सृष्टि कहते हैं।
जब हृदय में कोई गीत उठता है, तो वह परमात्मा है और जब वह वाणी से प्रकट हो जाता है, तो वह सृष्टि है।
यह समस्त सृष्टि, यह समस्त सत्ता, यह पूरा एक्झिस्टेंस किसी बहुत अंतर-निनाद को अपने भीतर लिए है--कोई गीत, कोई संगीत, कोई आनंद--वह फूटना चाह रहा है, वह प्रकट हो रहा है। वही प्रकटीकरण यह संसार है। संसार और परमात्मा दो विरोधी बातें नहीं हैं। परमात्मा का ही प्रकाशन संसार है।
और जो लोग प्रेम को अनुभव करेंगे, वे सब तरफ उस परमात्मा की छवि को--छवि से भूल में न पड़ जाएं, नहीं तो वही कृष्ण कन्हैया बांसुरी बजाते हुए देखने लगें, या धनुर्धारी राम देखने लगें--वे परमात्मा के स्पर्श को सब तरफ अनुभव करेंगे। सब तरफ जो है, वही है। लेकिन उसे जानने के लिए, उसे पाने के लिए खुद के भीतर ना-कुछ हो जाना जरूरी है। शून्य हो जाना जरूरी है। मैंने कल उसकी बात आपसे कही है।
कैसे शून्य हो सकते हैं?
ज्ञान को छोड़ दें और प्रेम को विकसित होने दें। जहां ज्ञान का तट छूटता है और प्रेम के फूल खिलने शुरू हो जाते हैं, वहीं वह संगीत पैदा होता है जो समस्त के भीतर छिपा है। और खुद के प्राणों को उस समस्त से जोड़ लेता है, वह अनुभव ही परमात्मा है।
ये थोड़ी सी बातें इन चार दिनों में मैंने आपसे कही हैं। इस आशा में नहीं कि मेरी बातों को आप मान लेना। मान लेने का मैं दुश्मन हूं। मेरी बातों को मानना मत। मैं कोई उपदेशक नहीं हूं, न मैं कोई गुरु हूं। और न मेरी कोई यह मंशा है कि मेरी बात कोई माने।
फिर मेरी मंशा क्या है?
मेरी मंशा यह है कि मैंने अपने हृदय की बातें आपसे कहीं, इन पर विचार करना। मानना मत। मानने की जल्दी मत करना, न मानने की जल्दी भी मत करना। क्योंकि जो मानने या न मानने की जल्दी करता है, वह सोच-विचार नहीं कर पाता।
तो मैंने जो कहा है उस पर सोच-विचार करना। और सोच-विचार भी उस सीमा तक करना जब तक कि उस बात के संबंध में जरा सा भी संदेह शेष न रह जाए। जरा सा भी संदेह शेष रहे, तो और सोचना, और सोचना। सत्य के संबंध में बहुत जल्दी नहीं--बहुत धैर्य, बहुत शांति, बहुत पेशेंस। सोचना, सोचना, संदेह करना, संदेह करना... और संदेह करते-करते, सोचते-विचारते किसी क्षण अगर कोई चीज दिखाई पड़ेगी कि सत्य है, तो फिर वह मेरा कहा हुआ सत्य नहीं होगा, किसी और का कहा हुआ नहीं, वह आपका सत्य हो जाएगा। और स्मरण रहे, खुद का सत्य ही केवल मुक्त करता है। किसी और का सत्य मुक्त नहीं करता है।
तो अंत में एक निवेदन कर दूं, जिसका खतरा रोज है, कहीं मेरी बातें आपके भीतर जाकर, बैठ कर विश्र्वास न बन जाएं। कोई मेरी बातों को न मान ले। नहीं तो वह एक खतरा पैदा हो जाएगा। मेरी बातों को मानना मत, इतनी कृपा करना। चार दिन सुना है, बड़ी कृपा की। अंतिम कृपा की प्रार्थना यह करता हूं: मेरी बातों को मानना मत। सोचना, विचारना, खोजना, काटना। और अगर किसी दिन कुछ बच जाए, वह फिर आपका होगा। और वह जो आपका है, वही आपकी आत्मा है, वही आपका सत्य है। वही सत्य मुक्त करता है। परमात्मा करे, सत्य आपको मुक्त करे, ऐसी प्रार्थना करता हूं।

और इतने दिन इतनी शांति से न मालूम कितनी कड़वी-मीठी बातों को इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में पुनः सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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