KRISHNA
Krishna Smriti 22
TwentySecond Discourse from the series of 22 discourses - Krishna Smriti by Osho.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
(ओशो द्वारा मनाली में छब्बीस सितंबर उन्नीस सौ सत्तर को ‘नव-संन्यास’ का सूत्रपात हुआ। कोई सोलह लोगों ने ‘नव-संन्यास’ में उनसे दीक्षा ग्रहण की। अट्ठाइस सितंबर उन्नीस सौ सत्तर की रात्रि एक अतिरिक्त बैठक में ओशो ने ‘नव-संन्यास’ पर यह विशेष प्रवचन दिया।)
संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं, आनंद है। संन्यास निषेध भी नहीं है, उपलब्धि है। लेकिन आज तक पृथ्वी पर संन्यास को निषेधात्मक अर्थों में ही देखा गया है--त्याग के अर्थों में, छोड़ने के अर्थों में, पाने के अर्थ में नहीं। मैं संन्यास को देखता हूं पाने के अर्थ में।
निश्र्चित ही, जब कोई हीरे-जवाहरात पा लेता है तो कंकड़-पत्थरों को छोड़ देता है। लेकिन कंकड़-पत्थरों को छोड़ने का अर्थ इतना ही है कि हीरे-जवाहरातों के लिए जगह बनानी पड़ती है। कंकड़-पत्थरों का त्याग नहीं किया जाता। त्याग तो हम उसी बात का करते हैं जिसका बहुत मूल्य मालूम होता है। कंकड़-पत्थर तो ऐसे छोड़े जाते हैं जैसे घर से कचरा फेंक दिया जाता है। घर से फेंके हुए कचरे का हम हिसाब नहीं रखते कि हमने कितना कचरा त्याग दिया।
संन्यास अब तक लेखा-जोखा रखता रहा उस सबका जो छोड़ा जाता है। मैं संन्यास को देखता हूं उस भाषा में, उस लेखे-जोखे में, जो पाया जाता है। निश्र्चित ही, इसमें बुनियादी फर्क पड़ेंगे। यदि संन्यास आनंद है, यदि संन्यास उपलब्धि है, यदि संन्यास पाना है, विधायक है, पाजिटिव है, तो संन्यास का अर्थ विराग नहीं हो सकता। तो संन्यास का अर्थ उदासी नहीं हो सकता। तो संन्यास का अर्थ जीवन का विरोध नहीं हो सकता। तब तो संन्यास का अर्थ होगा, जीवन में अहोभाव! तब तो संन्यास का अर्थ होगा, उदासी नहीं, प्रफुल्लता! तब तो संन्यास का अर्थ होगा, जीवन का फैलाव, विस्तार, गहराई। सिकोड़ना नहीं।
अभी तक जिसे हम संन्यासी कहते हैं वह अपने को सिकोड़ता है। सबसे तोड़ता है। सब तरफ से अपने को बंद करता है। मैं उसे संन्यासी कहता हूं जो सबसे अपने को जोड़े; जो अपने को बंद ही न करे, खुला छोड़ दे। निश्र्चित ही इसके और भी अर्थ होंगे। जो संन्यास सिकोड़ने वाला है, वह संन्यास बंधन बन जाएगा, वह संन्यास कारागृह बन जाएगा, वह संन्यास स्वतंत्रता नहीं हो सकता। और जो संन्यास स्वतंत्रता नहीं है वह संन्यास ही कैसे हो सकता है! संन्यास की आत्मा तो परम स्वतंत्रता है।
इसलिए मेरे लिए संन्यास की कोई मर्यादा नहीं, कोई बंधन नहीं। मेरे लिए संन्यास का कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं। मेरे लिए संन्यास कोई डिसिप्लिन नहीं है, कोई अनुशासन नहीं है। मेरे लिए संन्यास व्यक्ति के परम विवेक में परम स्वतंत्रता की उदभावना है। उस व्यक्ति को मैं संन्यासी कहता हूं जो परम स्वतंत्रता में जीने का साहस करता है। नहीं कोई बंधन ओढ़ता, नहीं कोई व्यवस्था ओढ़ता, नहीं कोई अनुशासन ओढ़ता।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह उच्छृंखल हो जाता है। इसका यह मतलब नहीं है कि वह स्वच्छंद हो जाता है। असलियत तो यह है कि जो आदमी परतंत्र है, वही उच्छृंखल हो सकता है। और जो आदमी परतंत्र है, बंधन में बंधा है, वही स्वच्छंद हो सकता है। जो स्वतंत्र है, वह तो कभी स्वच्छंद होता ही नहीं। उसके स्वच्छंद होने का उपाय नहीं है।
ऐसे अतीत से मैं भविष्य के संन्यासी को भी तोड़ता हूं। और मैं समझता हूं कि अतीत के संन्यास की जो आज तक व्यवस्था थी वह मरण-शय्या पर पड़ी है। मर ही गई है। उसे हम ढो रहे हैं। वह भविष्य में बच नहीं सकती।
लेकिन संन्यास ऐसा फूल है जो खो नहीं जाना चाहिए। वह ऐसी अदभुत उपलब्धि है, जो विदा नहीं हो जानी चाहिए। वह बहुत ही अनूठा फूल है, जो कभी-कभी खिलता रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि हम उसे भूल ही जाएं, खो ही दें। पुरानी व्यवस्था में बंधा हुआ वह मर सकता है। इसलिए संन्यास को नये अर्थ, नये उदभाव देने जरूरी हो गए हैं। संन्यास तो बचना ही चाहिए। वह तो जीवन की गहरी से गहरी संपदा है। लेकिन अब वह कैसे बचाई जा सकेगी? उसे बचाए जाने के लिए कुछ मेरे खयाल मैं आपको कहता हूं।
पहली बात तो मैं आपसे यह कहता हूं कि बहुत दिन हमने संन्यासी को संसार से तोड़ कर देख लिया। इससे दोहरे नुकसान हुए। संन्यासी संसार से टूटता है तो दरिद्र हो जाता है, बहुत गहरे अर्थों में दरिद्र हो जाता है। क्योंकि जीवन के अनुभव की सारी संपदा संसार में है। जीवन के सुख-दुख का, जीवन की संघर्ष-शांति का, जीवन की सारी गहनताओं का, जीवन के रसों का, जीवन के विरस का, सारा अनुभव तो संसार में है। और जब हम किसी व्यक्ति को संसार से तोड़ देते हैं तो वह हॉट हाउस प्लांट हो जाता है। वह खुले आकाश के नीचे खिलने वाला फूल नहीं रह जाता। वह बंद कमरे में, कृत्रिम हवाओं में, कृत्रिम गर्मी में खिलने वाला फूल हो जाता है--कांच की दीवारों में बंद। उसे मकान के बाहर लाएं तो वह मुरझा जाएगा, मर जाएगा।
संन्यासी अब तक हॉट हाउस प्लांट हो गया है। लेकिन संन्यास भी कहीं बंद कमरों में खिल सकता है? उसके लिए खुला आकाश चाहिए। रात का अंधेरा चाहिए, दिन का उजाला चाहिए, चांद-तारे चाहिए, पक्षी चाहिए, खतरे चाहिए, वह सब चाहिए। संसार से तोड़ कर हमने संन्यासी को भारी नुकसान पहुंचाया है, क्योंकि संन्यासी की आंतरिक समृद्धि क्षीण हो गई।
यह बड़े मजे की बात है कि साधारणतः जिन्हें हम अच्छे आदमी कहते हैं, उनकी जिंदगी बहुत रिच नहीं होती, उनकी जिंदगी में बहुत अनुभवों का भंडार नहीं होता। इसलिए उपन्यासकार कहते हैं कि अच्छे आदमी की जिंदगी पर कोई कहानी नहीं लिखी जा सकती। कहानी लिखनी हो तो बुरा आदमी पात्र बनाना पड़ता है। एक बुरे आदमी की कहानी होती है। अगर हम बता सकें कि एक आदमी जन्म से मरने तक बिलकुल अच्छा है, तो इतनी ही कहानी काफी है, अब और कुछ बताने को नहीं रह जाता।
संन्यासी को संसार से तोड़ कर हम अनुभव से तोड़ देते हैं। अनुभव से तोड़ कर हम उसे एक तरह की सुरक्षा तो दे देते हैं, लेकिन एक तरह की दरिद्रता भी दे देते हैं।
मैं संन्यासी को संसार से जोड़ना चाहता हूं। मैं ऐसे संन्यासी देखना चाहता हूं जो दुकान पर भी बैठे हों, दफ्तर में काम भी कर रहे हों, खेत पर मेहनत भी कर रहे हों। जो जिंदगी की पूरी सघनता में खड़े हों। भाग नहीं गए हों, भगोड़े न हों, एस्केपिस्ट न हों, पलायन न किया हो। जिंदगी के पूरे सघन बाजार में खड़े हों; भीड़ में, शोरगुल में खड़े हों। और फिर भी संन्यासी हों। तब उनके संन्यास का क्या मतलब होगा? अगर एक स्त्री संन्यासिनी होती है और पत्नी है, तो अब तक मतलब होता था कि वह भाग जाए जिंदगी से, छोड़ कर बच्चों को, पति को। अगर पति है, तो छोड़ जाए घर को, छोड़ कर भाग जाए। मेरे लिए ऐसे संन्यास का कोई अर्थ नहीं है। मैं तो मानता हूं कि अगर एक पति संन्यासी होता है, तो जहां है वहीं हो, भागे नहीं। संन्यास उसके जीवन में वहीं खिलने दे।
लेकिन तब क्या करेगा वह? भागने में तो रास्ता दिखता था कि भाग गए तो बच गए। अब क्या करेगा? अब उसे करने का क्या होगा? वह पति भी होगा, बाप भी होगा, दुकानदार भी होगा, नौकर भी होगा, मालिक भी होगा, हजार संबंधों में होगा। जिंदगी का मतलब ही अंतर-संबंधों का जाल है। वह यहां क्या करेगा? भाग जाता था तो बड़ी सहूलियत थी, क्योंकि वह दुनिया ही हट गई जहां कुछ करना पड़ता था। अब वह बैठ जाता था एक कोने में, जंगल में, एक गुफा में। सूखता था वहां, सिकुड़ता था वहां। यहां क्या करेगा? यहां संन्यास का क्या अर्थ होगा? अगर त्याग नहीं होगा तो संन्यास का क्या अर्थ होगा?
एक अभिनेता मेरे पास आया था। नया-नया अभिनेता है। अभी-अभी फिल्मों में गया है। वह मुझसे पूछने आया था कि मुझे भी कोई सूत्र मेरी डायरी पर लिख दें, जो मेरे काम आ जाए। तो उसे मैंने लिखा कि अभिनय ऐसे करो जैसे वह जीवन हो और जीओ ऐसे जैसे वह अभिनय हो।
संन्यासी का मेरे लिए यही अर्थ है। जीवन की सघनता में खड़े होकर अगर कोई संन्यास के फूल को खिलाना चाहता है, तो एक ही अर्थ हो सकता है कि वह कर्ता न रह जाए, भोक्ता न रह जाए, अभिनेता हो जाए। साक्षी हो जाए। देखे, करे, लेकिन कहीं भी बहुत गहरे में बंधे नहीं। गुजरे नदी से, लेकिन उसके पांव को पानी न छुए। नदी से गुजरना तो मुश्किल है कि पांव को पानी न छुए, लेकिन संसार से गुजरना संभव है कि संसार न छुए। अभिनय को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। और आश्र्चर्य तो यह है कि जितना अभिनय हो जाए जीवन, उतना कुशल हो जाता है, उतना सहज हो जाता है, उतना चिंतामुक्त हो जाता है।
कोई मां अगर मां होने में कर्ता न बन जाए, साक्षी रह सके और जान सके इतनी छोटी सी बात कि जिस बच्चे को वह पाल रही है, वह बच्चा उससे आया तो जरूर है लेकिन उसका ही नहीं है। उससे पैदा तो हुआ है लेकिन उसी ने पैदा नहीं किया है। वह उसके लिए द्वार से ज्यादा नहीं थी। और जहां से वह आया है और जिससे वह आया है और जिसके द्वारा वह जीएगा और जिसमें वह लौट जाएगा, उसका ही है। तो मां, कर्ता होने की उसे अब जरूरत नहीं रह गई। अब वह साक्षी हो सकती है। अब वह मां होने का अभिनय कर सकती है।
कभी एक छोटा सा प्रयोग करके देखें। चौबीस घंटे तय कर लें कि चौबीस घंटे मैं अभिनय करूंगा। जब कोई मुझे गाली देगा, तो मैं क्रोध न करूंगा, क्रोध का अभिनय करूंगा। और जब कोई मेरी प्रशंसा करेगा, तो मैं प्रसन्न न होऊंगा, प्रसन्न होने का अभिनय करूंगा। एक चौबीस घंटे का प्रयोग आपकी जिंदगी में नये दरवाजे खोल देगा। आप हैरान हो जाएंगे कि मैं नाहक परेशान हो रहा था। जो काम अभिनय से ही हो सकता था, उसमें मैं नाहक ही कर्ता बन कर दुख झेल रहा था। और जब सांझ आप दिन भर के अभिनय के बाद सोएंगे तो तत्काल गहरी नींद में चले जाएंगे। क्योंकि जो कर्ता नहीं रहा है उसकी कोई चिंता नहीं है, उसका कोई तनाव नहीं है, उसका कोई बोझ नहीं है। सारा बोझ कर्ता होने का बोझ है।
संन्यास को मैं घर-घर पहुंचा देना चाहता हूं। तो ही संन्यास बचेगा। लाखों संन्यासी चाहिए। दो-चार संन्यासी से नहीं होगा काम। और जैसा मैं कह रहा हूं, उसी आधार पर लाखों संन्यासी हो सकते हैं। संसार से तोड़ कर आप ज्यादा संन्यासी नहीं जगत में ला सकते। क्योंकि कौन उनके लिए काम करेगा? कौन उनके लिए भोजन जुटाएगा? कौन उनके लिए कपड़े जुटाएगा? एक छोटी सी दिखाऊ संख्या पाली-पोसी जा सकती है, लेकिन बड़े विराट पैमाने पर संन्यास संसार में नहीं आ सकता। यही दो-चार हजार संन्यासी एक मुल्क झेल सकता है। ये संन्यासी भी दीन हो जाते हैं। ये संन्यासी भी निर्भर हो जाते हैं। ये संन्यासी भी परवश हो जाते हैं। और इनका विराट व्यापक प्रभाव नहीं हो सकता।
अगर जगत में बहुत व्यापक प्रभाव चाहिए संन्यास का, जो कि जरूरी है, उपयोगी है, अर्थपूर्ण है, आनंदपूर्ण है, तो हमें धीरे-धीरे ऐसे संन्यास को जगह देनी पड़ेगी जिसमें से तोड़ कर भागना अनिवार्यता न हो। जिसमें जो जहां है वह वहीं संन्यासी हो सके। वहीं वह अभिनय...और वहीं वह साक्षी हो जाए। वह जो हो रहा है उसका साक्षी हो जाए।
तो एक तो संन्यास का मेरा घर से, दुकान से, बाजार से जोड़ने का खयाल है। अदभुत और मजेदार होगी वह दुनिया अगर हम बना सकें, जहां दुकानदार संन्यासी हो। स्वभावतः वैसा दुकानदार बेईमान होने में बड़ी कठिनाई पाएगा। जब अभिनय ही कोई कर रहा हो, तो बेईमान होने में बड़ी कठिनाई पाएगा। और जब कोई साक्षी बना हो, तो फिर बेईमान होने में बड़ी कठिनाई पाएगा। संन्यासी अगर दफ्तर में क्लर्क हो, चपरासी हो, डाक्टर हो, वकील हो, तो हम इस दुनिया को बिलकुल बदल डाल सकते हैं।
तो एक तो संन्यासी को तोड़ कर संन्यासी दीन हो जाता है, और संसार का भारी नुकसान होता है, संसार भी दीन हो जाता है। क्योंकि उसके बीच जो श्रेष्ठतम फूल खिल सकते थे वे हट जाते हैं। वे बगिया के बाहर हो जाते हैं। और बगिया उदास हो जाती है। इसलिए संन्यास का एक जगतव्यापी आंदोलन जरूरी है। जिसमें हम धीरे-धीरे घर में, द्वार में, बाजार में, दुकान में संन्यासी को...वह मां होगी, पति होगा, पत्नी होगी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वह जो भी होगा वही होगा। सिर्फ उसके देखने की दृष्टि बदल जाएगी, वह साक्षी रह जाएगा। उसके लिए जिंदगी अभिनय और लीला हो जाएगी, काम नहीं रह जाएगा। उसके लिए जिंदगी एक उत्सव हो जाएगी। उत्सव होते ही सब बदल जाता है।
दूसरी एक मेरी और दृष्टि है, वह आपको कहूं। वह मेरी दृष्टि है पीरियाडिकल रिनन्सिएशन की, सावधिक संन्यास की। ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि कोई आदमी जिंदगी भर संन्यासी होने की कसम ले। असल में भविष्य के लिए कोई भी कसम खतरनाक है। क्योंकि भविष्य के हम कभी भी नियंता नहीं हो सकते। वह भ्रम है। भविष्य को आने दें, वह जो लाएगा, हम देखेंगे। जो साक्षी है वह भविष्य के लिए निर्णय नहीं कर सकता। निर्णय सिर्फ कर्ता कर सकता है। जिसको खयाल है कि मैं करने वाला हूं, वह कह सकता है कि मैं जिंदगी भर संन्यासी रहूंगा। लेकिन सच में जो साक्षी है वह कहेगा, कल का तो मुझे कुछ पता नहीं, कल जो होगा होगा। कल जो होगा उसे देखूंगा और जो होगा होगा। कल के लिए कोई निर्णय नहीं ले सकता हूं।
इसलिए संन्यास की एक और कठिनाई अतीत में हुई, वह थी जीवन भर के संन्यास की, आजीवन संन्यास की। एक आदमी किसी भाव-दशा में संन्यासी हो जाए और कल किसी भाव-दशा में जीवन में वापस लौटना चाहे, तो हमने लौटने का द्वार नहीं छोड़ा है खुला। संन्यास में हमने एंट्रेंस तो रखा है, एक्झिट नहीं है। उसमें भीतर जा सकते हैं, बाहर नहीं आ सकते। और ऐसा स्वर्ग भी नरक हो जाता है जिसमें बाहर लौटने का दरवाजा न हो। परतंत्रता बन जाता है, कारागृह हो जाता है। आप कहेंगे, नहीं, कोई संन्यासी लौटना चाहे तो हम क्या करेंगे, लौट सकता है। लेकिन आप उसकी निंदा करते हैं, अपमान करते हैं। कंडेमनेशन है उसके पीछे।
और इसीलिए हमने एक तरकीब बना रखी है कि जब कोई संन्यास लेता है, तो उसका भारी शोरगुल मचाते हैं। जब कोई संन्यास लेता है तो बहुत बैंडबाजा बजाते हैं। जब कोई संन्यास लेता है तो बहुत फूलमालाएं पहनाते हैं, बड़ी प्रशंसा, बड़ा सम्मान, बड़ा आदर, जैसे कोई बहुत बड़ी घटना घट रही है, ऐसा हम उपद्रव करते हैं। और यह उपद्रव का दूसरा हिस्सा है, वह उस संन्यासी को पता नहीं है कि अगर वह कल लौटा तो जैसे फूलमालाएं फेंकी गईं, वैसे ही पत्थर और जूते भी फेंके जाएंगे। और ये ही लोग होंगे फेंकने वाले, कोई दूसरा आदमी नहीं होगा। असल में इन लोगों ने फूलमालाएं पहना कर उससे कहा कि अब सावधान, अब लौटना मत, जितना आदर दिया है उतना ही अनादर प्रतीक्षा करेगा। यह बड़ी खतरनाक बात है। इसके कारण न मालूम कितने लोग संन्यास का आनंद ले सकते हैं, वे नहीं ले पाते। वे कभी निर्णय ही नहीं कर पाते कि जीवन भर के लिए! जीवन भर का निर्णय बड़ी महंगी बात है, बड़ी मुश्किल बात है। फिर हकदार भी नहीं हैं हम जीवन भर के निर्णय के लिए।
तो मेरी दृष्टि है कि संन्यास सदा ही सावधिक है। आप कभी भी वापस लौट सकते हैं। कौन बाधा डालने वाला है? संन्यास आपने लिया था। संन्यास आप छोड़ते हैं। आपके अतिरिक्त इसमें कोई और निर्णायक नहीं है। आप ही डिसीसिव हैं, आपका ही निर्णय है। इसमें दूसरे की न कोई स्वीकृति है, न दूसरे का कोई संबंध है। संन्यास निजता है, मेरा निर्णय है। मैं आज लेता हूं, कल वापस लौटता हूं। न तो लेते वक्त आपसे अपेक्षा है कि आप सम्मान करें, न छोड़ते वक्त आपसे अपेक्षा है कि आप इसके लिए निंदा करें। आपका कोई संबंध नहीं है।
संन्यास को बड़ा गंभीर मामला बनाया हुआ था, इसलिए वह सिर्फ रुग्ण और गंभीर लोग ही ले पाते थे। संन्यास को बहुत गैर-गंभीर, खेल की घटना बनाना जरूरी है। आपकी मौज है, संन्यास ले लिया है। आपकी मौज है, आप कल लौट जाते हैं। नहीं मौज है, नहीं लौटते हैं, जीवन भर रह जाते हैं, वह आपकी मौज है। इससे किसी का कोई लेना-देना नहीं है।
फिर इसके साथ, यह भी मेरा खयाल है कि अगर संन्यास की ऐसी दृष्टि फैलाई जा सके, तो कोई भी आदमी जो वर्ष में एकाध-दो महीने के लिए संन्यास ले सकता है, वह एकाध-दो महीने के लिए ले ले। जरूरी क्या है कि वह दस-बारह महीने के लिए ले। वह दो महीने के लिए संन्यासी हो जाए, दो महीने संन्यास की जिंदगी को जीए, दो महीने के बाद वापस लौट जाए। यह बड़ी अदभुत बात होगी।
एक फकीर हुआ। उस फकीर के पास एक सम्राट गया। सूफी फकीर था। उस सम्राट ने कहा कि मुझे भी परमात्मा से मिला दो, मैं भी बड़ा प्यासा हूं। उस फकीर ने कहा: तुम एक काम करो, कल सुबह आ जाओ। तो वह सम्राट कल सुबह आया। और उस फकीर ने कहा: अब तुम सात दिन यहीं रुको। यह भिक्षा का पात्र हाथ में लो और रोज गांव में सात दिन तक भीख मांग कर लौट आना, यहां भोजन कर लेना, यहीं विश्राम करना। सात दिन के बाद परमात्मा के संबंध में बात करेंगे।
सम्राट बहुत मुश्किल में पड़ा। उसकी ही राजधानी थी वह। उसकी अपनी ही राजधानी में भिक्षा का पात्र लेकर भीख मांगना! उसने कहा कि अगर किसी दूसरे गांव में चला जाऊं? उस फकीर ने कहा: नहीं, गांव तो यही रहेगा। और अगर सात दिन भीख न मांग सको तो वापस लौट जाओ। फिर परमात्मा की बात मुझसे मत करना। सम्राट झिझका तो जरूर, लेकिन रुका। दूसरे दिन भीख मांगने गया बाजार में। सड़कों पर, द्वारों पर खड़े होकर उसने भीख मांगी। सात दिन उसने भीख मांगी।
सात दिन के बाद फकीर ने उसे बुलाया और कहा: अब पूछो। उसने कहा: अब मुझे कुछ भी नहीं पूछना है। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि सात दिन भिक्षा का पात्र फैला कर मुझे परमात्मा दिखाई पड़ जाएगा। फकीर ने कहा: क्या हुआ तुम्हें? उसने कहा: कुछ भी नहीं हुआ। सात दिन भीख मांगने में मेरा अहंकार गल गया और पिघल गया और बह गया। मैंने तो कभी सोचा ही नहीं था कि जो सम्राट होकर न पा सका, वह भिखारी होकर मिल सकता है। और जिस क्षण विनम्रता का भीतर जन्म होता है, ह्यूमिलिटी का, उसी क्षण द्वार खुल जाते हैं।
अब यह अदभुत अनुभव की बात होगी कि कोई आदमी वर्ष में एक महीने के लिए, दो महीने के लिए संन्यासी हो जाए, फिर वापस लौट जाए अपनी दुनिया में। इस दो महीने में संन्यास की जिंदगी के सारे अनुभव उसकी संपत्ति बन जाएंगे। वे उसके साथ चलने लगेंगे। और अगर एक आदमी चालीस-पचास साल, साठ साल की जिंदगी में दस-बीस बार थोड़े-थोड़े दिनों के लिए संन्यासी होता चला जाए तो फिर उसे संन्यासी होने की जरूरत न रह जाएगी, वह जहां है वहीं धीरे-धीरे संन्यासी हो जाएगा। तो ऐसा भी मैं सोचता हूं कि हर आदमी को मौका मिलना चाहिए कि वह कभी संन्यासी हो जाए।
और दो-चार बातें, फिर आपको कुछ इस संबंध में पूछना हो तो आप पूछ सकेंगे।
अब तक जमीन पर जितने संन्यासी रहे वे किसी धर्म के थे। इससे बहुत नुकसान हुआ है। संन्यासी भी और ‘किसी धर्म का’ होगा, यह बात ही बेतुकी है। कम से कम संन्यासी तो ‘सिर्फ धर्म का’ होना चाहिए। वह तो जैन न हो, ईसाई न हो, हिंदू न हो, वह तो सिर्फ धर्म का हो; वह तो कम से कम सर्व धर्मान् परित्यज्य, वह तो कम से कम सब धर्म छोड़ कर, वह निपट धर्म का हो जाए। यह बड़े मजे की बात होगी कि हम इस पृथ्वी पर एक ऐसे संन्यास को जन्म दे सकें, जो धर्म का संन्यास हो, किसी विशेष संप्रदाय का नहीं। वह संन्यासी मस्जिद में भी रुक सके, वह मंदिर में भी रुक सके, वह गुरुद्वारा में भी ठहर सके। उसके लिए कोई पराया न हो, सब अपने हो जाएं।
साथ ही ध्यान रहे, अब तक संन्यास सदा ही गुरु से बंधा रहा है। कोई गुरु दीक्षा देता है। संन्यास कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे कोई दे सके। संन्यास ऐसी चीज है जो लेनी पड़ती है, देता कोई भी नहीं। या कहना चाहिए कि परमात्मा के सिवाय और कौन दे सकता है संन्यास? अगर मेरे पास कोई आता है और कहता है कि मुझे दीक्षा दे दें, तो मैं कहता हूं, मैं कैसे दीक्षा दे सकता हूं, मैं सिर्फ गवाह हो सकता हूं, विटनेस हो सकता हूं। दीक्षा तो परमात्मा से ले लो, दीक्षा तो परम सत्ता से ले लो, मैं गवाह भर हो सकता हूं, एक विटनेस हो सकता हूं कि मैं मौजूद था, मेरे सामने यह घटना घटी। इससे ज्यादा कोई अर्थ नहीं होता। गुरु से बंधा हुआ संन्यास सांप्रदायिक हो ही जाएगा। गुरु से बंधा हुआ संन्यास मुक्ति नहीं ला सकता, बंधन ले आएगा। फिर यह संन्यासी करेगा क्या?
ये संन्यासी तीन प्रकार के हो सकते हैं। एक वे जिन्होंने सावधिक संन्यास लिया है, जो एक अवधि के लिए संन्यास लेकर आए हैं, जो दो महीने, तीन महीने संन्यासी होंगे, साधना करेंगे, एकांत में रह सकते हैं, फिर वापस जिंदगी में लौट जाएंगे। दूसरे वे संन्यासी हो सकते हैं, जो जहां हैं, वहां से इंच भर नहीं हटते, क्षण भर के लिए नहीं हटते, वहीं संन्यासी हो जाते हैं। और वहीं अभिनय और साक्षी का जीवन शुरू कर देते हैं। तीसरे वे भी संन्यासी होंगे, जो संन्यास के आनंद में इतने डूब जाते हैं कि न तो लौटने का उन्हें सवाल उठता, न ही उनके ऊपर कोई जिम्मेवारी है ऐसी जिसकी वजह से उन्हें किसी घर में बंधा हुआ रहना पड़े, न उन पर कोई निर्भर है, न उनके यहां-वहां हट जाने से कहीं भी कोई पीड़ा और कहीं भी कोई दुख और कहीं भी कोई अड़चन आती है। ऐसा जो तीसरा वर्ग होगा संन्यासियों का, यह तीसरा वर्ग ध्यान में जीए, ध्यान की खबरें ले जाए, ध्यान को लोगों तक पहुंचाए।
मुझे ऐसा लगता है कि इस समय पृथ्वी पर जितनी ध्यान की जरूरत है उतनी और किसी चीज की जरूरत नहीं है। और अगर हम पृथ्वी के एक बड़े मनुष्यता के हिस्से को ध्यान में लीन नहीं कर सके, तो शायद आदमी ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहेगा। आदमियत ज्यादा दिन बच नहीं सकती। आदमी समाप्त हो सकता है। इतना मानसिक रोग है, इतने पागलपन हैं, इतनी विक्षिप्तता है, इतनी राजनैतिक बीमारियां हैं, कि उन सबके बीच आदमी बचेगा, इसकी उम्मीद रोज कम होती जाती है। अगर इस बीच एक बड़े व्यापक पैमाने पर लाखों लोग ध्यान में नहीं डूब जाते, तो शायद हम मनुष्य को नहीं बचा सकेंगे। और या हो सकता है कि मनुष्य बच भी जाए तो सिर्फ यंत्र की भांति बचे, उसकी मनुष्यता का जो भी श्रेष्ठ है वह सब खो जाए।
इसलिए एक ऐसा वर्ग भी चाहिए युवकों का, युवतियों का, जिन पर कोई जिम्मेवारी न हो अभी, या वृद्धों का, जो जिम्मेवारी के बाहर जा चुके हों, जिनकी जिम्मेवारी समाप्त हो गई हो, जो जिम्मेवारी पूरी कर चुके हों। उन युवकों का जिन्होंने अभी जिम्मेदारी नहीं ली है, उन वृद्धों का जिनकी जिम्मेदारी जा चुकी है--इनका एक वर्ग चाहिए जो विराट पैमाने पर पृथ्वी को ध्यान में डुबाने में संलग्न हो जाए।
जिस ध्यान के प्रयोग की मैं बात कर रहा हूं वह इतना आसान है, इतना वैज्ञानिक है कि अगर सौ लोग करें, तो सत्तर प्रतिशत लोगों को तो होगा ही। सिर्फ शर्त करने की है और किसी पात्रता की कोई अपेक्षा नहीं है। सत्तर प्रतिशत लोगों को तो परिणाम होंगे ही। फिर जिस ध्यान की मैं बात कर रहा हूं उसके लिए किसी धर्म की कोई पूर्व अपेक्षा नहीं है, किसी शास्त्र की कोई पूर्व अपेक्षा नहीं है, किसी श्रद्धा और किसी विश्र्वास की पूर्व अपेक्षा नहीं है। सीधा, जैसे आप हैं वैसे ही उस ध्यान में आप उतर सकते हैं। वह सीधा वैज्ञानिक प्रयोग है। आपसे यह भी अपेक्षा नहीं है कि आप श्रद्धा रख कर उतरें। इतनी ही अपेक्षा है कि एक हाइपोथेटिकल, जैसा एक वैज्ञानिक प्रयोग करता है यह जानने के लिए कि देखें होता या नहीं, इतना ही प्रयोग का
भाव लेकर भी अगर आप ध्यान में उतरें, तो भी हो जाएगा।
और मुझे ऐसा लगता है कि एक चेन रिएक्शन, एक श्रृंखलाबद्ध ध्यान की प्रक्रिया सारी पृथ्वी पर फैलाई जा सकती है। और अगर एक व्यक्ति ध्यान को सीख ले और तय कर ले कि सात दिन न बीत पाएंगे तब तक वह एक व्यक्ति को कम से कम ध्यान सिखाएगा, तो हम दस वर्ष में इस पूरी पृथ्वी को ध्यान में डुबा दें। इससे ज्यादा बड़े श्रम की जरूरत नहीं है।
और मनुष्य के जीवन में जो भी श्रेष्ठ खो गया है, वह सब वापस लौट सकता है। और कोई कारण नहीं है कि कृष्ण फिर पैदा क्यों न हों, क्राइस्ट फिर क्यों न दिखाई पड़ें, बुद्ध फिर क्यों न हमारे पास, हमारे निकट मौजूद हो जाएं। वही बुद्ध नहीं लौटेंगे, वही कृष्ण नहीं लौटेंगे; हमारे भीतर सारी क्षमताएं हैं, वे फिर प्रकट हो सकती हैं। इसलिए मैंने गवाह होने का तय किया है।
इन तीन वर्गों में जो मित्र भी जाना चाहेंगे, उनके लिए मैं गवाह रहूंगा। उनका गुरु नहीं रहूंगा। संन्यास उनका और परमात्मा के बीच का संबंध होगा। इसके लिए कोई उत्सव नहीं किया जाएगा संन्यास देने के लिए, नहीं तो फिर छोड़ते वक्त भी उलटा उत्सव करना पड़ता है। इसे कोई गंभीर बात नहीं समझी जाएगी, यह कोई सीरियस अफेयर नहीं है। इसके लिए इतना परेशान और इतना चिंतित होने की जरूरत नहीं है। यह बड़ी सहज बात है। एक आदमी सुबह उठता है और उसके मन में आता है कि वह संन्यासी हो जाए, वह हो जाए। कठिनाई इसलिए नहीं है क्योंकि यह कमिटमेंट कोई लाइफ लांग नहीं है, यह कोई जिंदगी भर की बात नहीं है कि उसने तय कर लिया तो अब जिंदगी भर उसे रहना है। अगर कल सुबह उसे लगता है कि नहीं, वापस लौटना है, तो वह वापस लौट जाए। इसमें किसी दूसरे का कोई लेना-देना नहीं है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। इस संबंध में कुछ भी आपको सवाल हों, तो वे थोड़े से सवाल पूछ लें तो उनकी बात हो जाएगी।
भगवान, भगवे कपड़े पहनने का क्या मतलब होता है?
कपड़े पहनने से कोई संन्यासी नहीं होता, लेकिन संन्यासी भी अपने ढंग के कपड़े पहनता है। कपड़े पहनने से कोई संन्यासी नहीं होता, लेकिन संन्यासी के अपने कपड़े हो सकते हैं। कपड़े बड़ी साधारण चीज हैं, लेकिन एकदम व्यर्थ चीज नहीं हैं।
आप क्या पहनते हैं, इसके बहुत से अर्थ हैं। आप क्यों पहनते हैं, इसके भी बहुत से अर्थ हैं। एक आदमी ढीले-ढाले कपड़े पहनता है। ढीले-ढाले कपड़े पहनने से कुछ फर्क नहीं पड़ता, लेकिन एक आदमी ढीले-ढाले कपड़े क्यों चुनता है? और एक आदमी चुस्त कपड़े क्यों चुनता है? ये उस आदमी के सूचक होते हैं। अगर आदमी बहुत शांत है तो चुस्त कपड़े पसंद नहीं करेगा। चुस्त कपड़े की पसंदगी इस बात की खबर देती है कि आदमी झगड़ालू हो सकता है, अशांत हो सकता है, उपद्रवी हो सकता है, कामुक हो सकता है। लड़ने के लिए ढीले कपड़े ठीक नहीं पड़ते। इसलिए सैनिक को हम ढीले कपड़े नहीं पहना सकते। सिर्फ साधु को पहना सकते हैं। सैनिक को चुस्त कपड़े ही पहनने चाहिए, काम चुस्त कपड़े का है। जहां वह जा रहा है वहां कपड़े इतने कसे होने चाहिए कि उसे पूरे वक्त लगता रहे कि वह अपने शरीर के बाहर छलांग लगा सकता है। पूरे वक्त लगता रहे कि वह जब चाहे शरीर के बाहर कूद सकता है। कपड़े इतने चुस्त होने चाहिए। ये कपड़े उसे लड़ने में सहयोगी हो जाएंगे।
गैरिक वस्त्रों का भी उपयोग है। ऐसा नहीं कि गैरिक वस्त्रों के बिना कोई संन्यासी नहीं हो सकता। लेकिन गैरिक वस्त्रों का उपयोग है। और जिन्होंने वे खोजे थे, उनके पीछे बहुत कारण थे।
पहला कारण तो यह था। कभी छोटे-मोटे, हम तो सोचते नहीं, प्रयोग भी नहीं करते, इसलिए बड़ी कठिनाई होती है। सात रंगों की सात बोतलें ले लें और उनमें एक ही नदी का पानी भर दें। और सातों को सूरज की रोशनी में टांग दें। और आप बड़े हैरान हो जाएंगे! सातों रंग के कांच सात रंग के पानी पैदा कर देंगे उन बोतलों में। पीले रंग की बोतल का पानी जल्दी सड़ जाएगा, ज्यादा देर स्वच्छ नहीं रह सकता। लाल रंग की बोतल का पानी महीने भर तक स्वच्छ रह जाएगा, सड़ेगा नहीं। आप कहेंगे, क्या किया बोतल ने? कांच का रंग किरणों को आने-जाने में फर्क डाल रहा है। पीले रंग की बोतल पर और तरह की किरणें भीतर प्रवेश कर रही हैं। लाल रंग की बोतल पर और तरह की किरणें प्रवेश कर रही हैं। नीले रंग की बोतल पर और तरह की किरणें प्रवेश कर रही हैं। वह जो भीतर पानी है, वह उन किरणों को पी रहा है, वे उसका आहार बन रही हैं।
हजारों सालों के लंबे प्रयोग के बाद, जिन लोगों ने संन्यास पर बहुत प्रयोग किए उन्होंने बहुत तरह के कपड़ों में गैरिक वस्त्र को चुना था। कई अनुभव हैं उसके पीछे। एक तो बहुत अदभुत अनुभव यह है...जो लोग फिजिक्स को थोड़ा समझते हैं, उनके खयाल में होगा...कि जिस रंग का कपड़ा होता है, उस रंग की किरण हमसे वापस लौट जाती है। आमतौर से हम उलटा समझते हैं। आमतौर से हम समझते हैं कि जो कपड़ा लाल है, वह लाल होगा। असलियत यह नहीं है। असलियत उलटी है।
सूरज की किरणों में सात रंग होते हैं। और जब सूरज की किरण किसी चीज पर पड़ती है, अगर आपको लाल कपड़ा दिखाई पड़ रहा है तो उसका मतलब यह है कि सूरज की किरण के छह रंग तो वह कपड़ा पी गया, लाल रंग को उसने वापस लौटा दिया। आपको वही रंग दिखाई पड़ता है जो चीजें वापस लौटा देती हैं। नीले रंग की चीज का मतलब है, नीले रंग की किरण वापस लौट गई। उसे उस चीज ने एब्जॉर्व नहीं किया, उसने पीया नहीं। वह वापस छोड़ दी गई। वह किरण लौट कर आपकी आंख में पड़ती है इसलिए वह आपको चीज नीली दिखाई पड़ती है। और मजे की बात यह है कि वह चीज नीले रंग को पीती ही नहीं। वह उसको छोड़ देती है। जिस रंग का कपड़ा आप पहन रहे हैं, उस रंग की किरण आपके भीतर प्रवेश नहीं करेगी।
गैरिक वस्त्र बहुत सोच कर चुने गए। लाल रंग की किरण मनुष्य के चित्त में बहुत तरह की कामुकताओं को जन्म देती है। बहुत वाइटल है। लाल रंग की जो किरण है, वह शरीर के भीतर प्रवेश करके मनुष्य की सेक्सुअलिटी को उभारती है। इसलिए गर्म मुल्क के लोग ज्यादा कामुक होते हैं। जितना गर्म मुल्क होगा, उतने लोग ज्यादा कामुक होंगे। इसलिए आप हैरान होंगे यह जान कर कि कामसूत्र के मुकाबले की कोई किताब ठंडे मुल्कों में पैदा नहीं हुई। अरेबियन नाइट्स जैसी कोई किताब ठंडे मुल्कों में पैदा नहीं हुई। गर्म मुल्क बहुत कामुक होते हैं। सूरज की तेज तपती हुई किरणें हैं, वे सब शरीर में प्रवेश कर जाती हैं।
संन्यास पर जो लोग बहुत तरह के प्रयोग कर रहे थे, हजारों दिशाओं में, उनमें उनको यह भी खयाल आया कि अगर लाल किरण शरीर से वापस लौटाई जा सके तो कामुकता को शांत करती है। इसलिए गैरिक वस्त्र चुना गया। ठेठ लाल भी चुना जा सकता था, लेकिन थोड़ा सा फर्क किया गया, ऑरेंज। ठेठ लाल नहीं चुना। उसमें एक बड़ी अदभुत बात है। लाल चुना जा सकता था, बिलकुल लाल रंग और भी अच्छा होता, वह लाल किरण को बिलकुल ही वापस कर देता। लेकिन अगर लाल किरण बिलकुल वापस हो जाए तो शरीर के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचना शुरू हो जाता है। वह थोड़ी सी तो जानी चाहिए।
और भी एक कारण है कि लाल किरण अगर मेरे कपड़ों से पूरी तरह वापस लौटे तो जिसकी भी आंख पर पड़ती है उसको भी नुकसान पहुंचाती है। अब बड़े मजे की बात है कि संन्यासी ने इसकी भी चिंता की कि उसके कपड़े से किसी को बहुत नुकसान भी न पहुंच जाए।
आप लाल रंग का कपड़ा जरा बैल के सामने कर दें--आपने कभी की है कोशिश?--तो आपको पता चलेगा कि बैल भी कुछ रंगों को समझता है। बैल भी झिड़कता है लाल रंग के कपड़े को देख कर। उसकी आंख पर लाल रंग की चोट गहरी पड़ती है।
आप जान कर हैरान होंगे कि जो लोग कलर साइकोलाजी पर, रंग के मनसशास्त्र पर काम करते हैं, उनके बड़े अदभुत अनुभव हुए हैं। आज तो पश्र्चिम में रंग पर बहुत काम चलता है, क्योंकि रंग के बहुत उपयोग उनके खयाल में आ गए हैं। अभी एक बहुत बड़े दुकानदार ने, एक सुपर स्टोर के मालिक ने अमेरिका में एक रिसर्च करवाई कि हम अपनी चीजें जिन डिब्बों में रखते हैं, उन पर हम किस तरह के रंग लगाएं कि बिक्री पर उसका असर पड़े। तो बड़ी हैरानी की बात हुई। बड़ी हैरानी की बात यह हुई कि जो स्त्रियां खरीदने आती हैं उस सुपर स्टोर में, उन पर रिसर्च चलती रहती है पूरे वक्त कि जितनी स्त्रियां वहां आती हैं, पूरे वक्त रिकार्ड किया जाता है कि उनकी आंखें सबसे ज्यादा किस रंग के डिब्बे को पकड़ती हैं। तो यह पाया गया कि वही डिब्बा अगर पीले रंग में पोता जाए तो बीस प्रतिशत बिक्री होती है। और वही डिब्बा अगर लाल रंग में पोत दिया जाए तो अस्सी प्रतिशत बिक्री हो जाती है। डिब्बा वही, चीज वही, नाम वही, सिर्फ रंग डिब्बे का बदल दिया जाए। लाल रंग स्त्रियों की आंख को बहुत जोर से पकड़ लेता है। इसलिए सारी दुनिया में स्त्रियों ने लाल रंग के कपड़े सबसे ज्यादा पहने हैं।
लाल रंग न रखने के भी कारण हैं। लाल से थोड़ा सा शेड हटाया है, गैरिक किया है। यह जो गैरिक, यह जो ऑकर कलर है, इसमें लाल के सारे फायदे हैं और लाल का कोई भी नुकसान नहीं है। एक तो कामुकता को यह बहुत क्षीण करता है भीतर। और दूसरी बात--बहुत सी बातें हैं, सारी बात तो नहीं कह सकूंगा, क्योंकि बहुत लंबा मामला है। अगर रंग की सारी बात समझनी हो तो बहुत लंबी बात है। लेकिन थोड़ी सी बातें खयाल में ली जा सकती हैं। गैरिक रंग सूर्य के ऊगने का रंग है। जब सुबह सूर्य ऊग रहा होता है, बस फूट रही है पौ, सूरज निकलना शुरू हुआ है, उस वक्त का रंग है। ध्यान में भी जब प्रवेश शुरू होता है, तो जो पहले प्रकाश का रंग होता है वह गैरिक है। और जो प्रकाश का अंतिम अनुभव होता है वह नील है। गैरिक रंग का अनुभव शुरू होता है भीतर प्रकाश में और नील पर अंत होता है, नीले रंग पर पूरा हो जाता है।
ध्यान के पहले चरण की सूचना उस रंग में है। और जब संन्यासी ध्यान में प्रवेश करता है, तो उसे वे रंग दिखाई पड़ने शुरू होते हैं। और अगर वह दिन भर भी, खुली आंख में भी उस रंग को बार-बार देख लेता है, तब रिमेंबरिंग वापस लौट जाती है। और दोनों के बीच एक एसोसिएशन हो जाता है, एक अंतर्संबंध हो जाता है। जब भी वह अपने गैरिक वस्त्र को देखता है, तभी उसे ध्यान का स्मरण आता है। वह दिन में पच्चीसों दफा अकारण उसको ध्यान का स्मरण आ जाता है और वह वापस डूब जाता है।
आप बाजार जाते हैं, कोई चीज लानी है खरीद कर, आप एक कपड़े में गांठ लगा लेते हैं। गांठ से चीज लाने का कोई संबंध है? कोई भी तो संबंध नहीं है। लेकिन बाजार में अचानक गांठ की खयाल आती है और फौरन याद आ जाता है कि फलानी चीज ले आनी है। गांठ से एसोसिएशन हो गया। गांठ से एक कंडीशनिंग हो गई।
पावलफ ने एक प्रयोग किया था। पावलफ एक कुत्ते के सामने रोटी रखता है। साथ में घंटी बजाता रहता है। रोटी देख कर कुत्ते के मुंह से लार टपकती है। फिर पंद्रह दिन बाद रोटी देना बंद कर देता है, सिर्फ घंटी बजाता है। लेकिन घंटी सुन कर भी कुत्ते के मुंह से लार टपकने लगती है। क्या हो गया इस कुत्ते को? घंटी और रोटी में एक अंतर्संबंध, एक एसोसिएशन हो गया। एक कंडीशंड रिफ्लेक्स पैदा हो गया। अब कुत्ते को घंटी का बजना तत्काल रोटी की याद बन जाती है।
हम पूरी जिंदगी इसी तरह जी रहे हैं। हम पूरी जिंदगी इसी तरह कर रहे हैं। लेकिन हमने सब तरह के गलत कंडीशंड रिफ्लेक्स पैदा किए हुए हैं।
ध्यान का पहला रंग का जो अनुभव है, वह अगर संन्यासी को दिन में पच्चीस-पचास दफे, सौ बार याद आ जाए...जब भी वह उठे, जब भी वह बैठे, जब भी वह सोए, जब भी वह स्नान करने जाए, जब भी कपड़े उतारे, जब भी कपड़े निकाले...तो बार-बार उसे ध्यान की सुध लौट आती है। वह गांठ हो गई उसके पास, जो उसके काम पड़ जाती है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि कोई गैरिक वस्त्र पहने बिना संन्यासी नहीं हो सकता। संन्यास इतनी बड़ी चीज है कि वस्त्रों से उसे बांधा नहीं जा सकता। लेकिन वस्त्र एकदम व्यर्थ नहीं हैं। उनकी अपनी अर्थवत्ता है। इसलिए मैं पसंद करूंगा कि सारी पृथ्वी पर लाखों लोग गैरिक वस्त्रों में दिखाई पड़ें।
भगवान, साधक और संन्यासी में क्या फर्क है? और क्या बिना संन्यासी हुए कोई साधक नहीं हो सकता?
संन्यासी हुए बिना तो कोई साधक नहीं हो सकता। साधक का मतलब संन्यास की शुरुआत है। असल में साधक का मतलब संन्यास को साधना है। संन्यास साधना है, और क्या साधक करेगा? उसे जगत में धीरे-धीरे समस्त सुख-दुखों के पार होकर आनंद को उपलब्ध होना है, उसे कर्ता के पार होकर साक्षी को उपलब्ध होना है, उसे अहंकार के पार होकर शून्य को उपलब्ध होना है, उसे पदार्थ के पार होकर परमात्मा को उपलब्ध होना है। इन सबका इकट्ठा नाम संन्यास है। साधक का मतलब है, संन्यास शुरू कर रहा है वह। सिद्ध का मतलब है, संन्यास पूरा हो गया। साधक का मतलब है, संन्यास शुरू हुआ; सिद्ध का मतलब है, संन्यास पूरा हो गया। दोनों के बीच में जो यात्रा है वह संन्यास की यात्रा है। संन्यास के लिए ही तो साधना है।
तो साधक का अर्थ ही यह है कि वह संन्यास की खोज में निकला है। लेकिन मेरे संन्यास का मतलब खयाल में रखना आप। मेरा संन्यास उपलब्धि का है, पाने का है, रोज विराट, रोज विराट को पाते चले जाना है।
भगवान, आपके संन्यासी की दिनचर्या क्या होगी?
‘संन्यासी’ की दिनचर्या क्या होगी! ‘मेरे संन्यासी’ की नहीं, क्योंकि ‘मेरा संन्यासी’ कैसे होगा! संन्यासी की दिनचर्या की बात करें। असल में दिनचर्या जब भी हम बनाते हैं तभी नुकसान पहुंच जाता है।
एक झेन फकीर से किसी ने पूछा कि आपकी दिनचर्या क्या है? उसने कहा: जब मुझे नींद आती है तब मैं सो जाता हूं और जब मेरी नींद खुलती है तब मैं उठ आता हूं। और जब मुझे भूख लगती है तब मैं खाना खा लेता हूं और जब मुझे भूख नहीं लगती है तो मैं खाना बिलकुल नहीं खाता।
ठीक कही उसने बात। संन्यासी का मतलब यह है कि जो थोप नहीं रहा कुछ, जीवन को सहजता में ले जा रहा है। हम सब बड़े अजीब लोग हैं। जब नींद आती होती है तब हम रोकते हैं, जब नहीं आती होती है तब हम करवट बदल कर सोने का मंत्र पढ़ते हैं। जब भूख नहीं होती तब खा लेते हैं, जब भूख होती है तब रुके रहते हैं क्योंकि अभी समय नहीं हुआ। हम पूरी जिंदगी को अस्तव्यस्त कर देते हैं। और शरीर की जो अपनी एक अंतर-व्यवस्था है उसको नष्ट कर देते हैं।
संन्यासी का मतलब है कि वह जो व़िजडम ऑफ दि बॉडी है, जो शरीर की अपनी अंतरप्रज्ञा है, उसके अनुसार जीएगा। वह सोएगा, जब उसे नींद आ जाती है। जागेगा, जब नींद खुल जाती है। ब्रह्ममुहूर्त में नहीं उठेगा, जब नींद खुलती है उसको ब्रह्ममुहूर्त कहेगा। वह कहेगा, जब भगवान उठा देता है तब मैं उसे ब्रह्ममुहूर्त कहता हूं। ऐसा सहज होगा। इसलिए मैं कोई चर्या नहीं बता सकता। और फिर जब भी चर्या तय की जाती है तभी कठिनाइयां शुरू होती हैं। क्योंकि तय मैं अपने हिसाब से करूंगा। और मेरा हिसाब आपका हिसाब नहीं हो सकता। अगर मैं कहूं, तीन बजे रात उठना है, तो हो सकता है मुझे तीन बजे रात उठना आनंदपूर्ण पड़ता हो और आपके लिए बीमारी का कारण हो जाए। हर आदमी के शरीर की अपनी व्यवस्था है।
अब हमको खयाल में नहीं होता। आमतौर से लोग मुझे कहते हैं कि आजकल की स्त्रियां बहुत अलाल हो गई हैं, पति को उठ कर चाय बनानी पड़ती है, पत्नी सोई रहती है। लेकिन आपको पता नहीं है, यह बिलकुल उचित है। स्त्रियों के उठने की जो अंतर-व्यवस्था है, वह पुरुषों से दो घंटा पिछड़ी हुई है, पीछे है। अगर पुरुष पांच बजे उठ सकता है, तो स्त्री सात बजे उठ सकती है।
इस पर बहुत काम हुआ है। रिसर्च स्लीप पर जो चलती है सारी दुनिया में, उससे बड़ी हैरानी के अनुभव हुए हैं। वे अनुभव यह हैं कि चौबीस घंटे में दो घंटे के लिए आदमी के शरीर का तापमान नीचे गिर जाता है। सबके शरीर का। आपको अक्सर खयाल हुआ होगा कि सुबह चार बजे के करीब सर्दी लगने लगती है। वह सर्दी बढ़ने के कारण नहीं लगती, आपके शरीर का तापमान गिर गया होता है। दो घंटे के लिए चौबीस घंटे में हर आदमी के शरीर का तापमान गिरता है। और वे जो दो घंटे हैं, सबके अलग-अलग हैं। किसी का दो बजे से चार बजे के बीच गिरता है रात में। किसी का तीन से पांच के बीच गिरता है। किसी का पांच से सात के बीच गिरता है। वे जो दो घंटे हैं, वही गहरी नींद के घंटे हैं, जिस आदमी को वे दो घंटे नींद के नहीं मिले वह दिन भर परेशान रहेगा। लेकिन वे सबके अलग-अलग हैं। कोई दस हजार लोगों पर अमेरिका में पिछले पांच वर्षों में नींद पर प्रयोग किए गए हैं। और यह पाया गया कि वह समय हर आदमी का अलग है।
इसलिए अब कोई निश्र्चय नहीं किया जा सकता है कि आप कब उठें! आप पर ही छोड़ा जाएगा कि आप उठ कर सब तरह से देख लें कुछ दिन प्रयोग करके और जिसमें आप दिन भर ताजे रहते हों, वही क्षण आपके उठने का है। और जिसमें आप रात भर गहरे सोते हों, वही क्षण आपके सोने का है।
न समय की लंबाई तय की जा सकती है। कोई आदमी पांच घंटे में पूरी नींद ले सकता है, कोई सात घंटे में, किसी को आठ घंटे भी लग सकते हैं। कोई तीन घंटे में भी कर सकता है। लेकिन जो आदमी तीन घंटे में कर लेता है वह खतरनाक हो जाता है। वह दूसरों को कहता है, अलाल हो, तामसी हो। पागल हो गए हो? वह तीन घंटे में सो लिया है इसलिए वह बड़ा अहंकार से भर जाता है। वह सोचता है कि हम कोई बड़ा सात्विक कार्य कर रहे हैं। बाकी लोग जो छह घंटे सो रहे हैं, तामसी हैं। वह उनकी तरफ निंदा के भाव से देखना शुरू कर देता है। और अगर उसको किताब वगैरह लिखना आता हो, तब तो बहुत खतरा हो जाता है। वह नियम बना जाता है। वह नियम बना देता है सख्ती से कि तीन बजे रोज उठना, नहीं तो नरक में जाओगे। लेकिन तीन बजे आप उठे कि आप नरक में जाने के पहले ही नरक में चले जाओगे।
कितना खाना, क्या खाना, क्या पहनना, कैसे पहनना, कैसे सोना, इस सबकी बहुत ही सामान्य चर्चा की जा सकती है, चर्या नहीं बनाई जा सकती। चर्या तो आपको अपनी सदा तय करनी पड़ती है। इनडिविजुअल टु इनडिविजुअल, एक-एक व्यक्ति को अपनी ही तय करनी पड़ती है। अपनी ही तय करनी चाहिए भी। इतनी तो स्वतंत्रता कम से कम रखिए। संसारी नहीं रख पाता, संन्यासी तो रख सकता है। संन्यासी को तो रखनी ही चाहिए। उसको तो सख्ती से रखनी चाहिए कि उसके लिए जो सुखद है, जो शांतिपूर्ण है, जो आनंदपूर्ण है, वह वैसे जीएगा। एक ही बात ध्यान में रखने की है कि उसके कारण किसी को दुख, पीड़ा, परेशानी न हो, किसी को भी। ऐसे जीएगा, इतनी चर्या उसके लिए पर्याप्त होगी। यह विस्तार में मुझे आपसे बात करनी पड़े, क्योंकि सामान्य बात की जा सकती है, क्या खाना, क्या नहीं खाना, लेकिन सख्त नहीं हुआ जा सकता।
अब हम देखते हैं कि एक आदमी सिगरेट पी रहा है। अब सारी दुनिया उसके खिलाफ है, लेकिन वह पीए चला जा रहा है। डाक्टर उसको समझा रहे हैं कि तुम बीमार हो जाओगे। वह कहता है कि मानता हूं, बिलकुल सच जंचता है, लेकिन नहीं छूट सकती। क्या मामला क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि सिगरेट उसके लिए कोई बहुत जरूरी हिस्सा पूरा करती हो?
करती है। मैक्सिको में इधर एक अन्वेषण कार्य चलता था, तो पाया गया कि जो लोग सिगरेट पीने में बड़े पागल हो जाते हैं, इनके शरीर में निकोटिन की कमी होती है। उनको निकोटिन किसी न किसी तरह पूरा करना पड़ता है। वे चाहे सिगरेट से पूरा करें, चाहे चाय से पूरा करें, चाहे कॉफी से, चाहे कोको से, चाहे तमाखू खाएं, इन सबमें निकोटिन है। वे कहीं न कहीं से निकोटिन पूरा करेंगे। मगर बेचारे बड़े फंस जाएंगे। और अनैतिक हो जाएंगे।
अब एक आदमी धुआं भीतर ले जाता है, बाहर निकालता है, इसमें कोई अनीति का काम नहीं कर रहा है। कर रहा है तो ज्यादा से ज्यादा नासमझी का काम कर रहा है, अनीति का नहीं कर रहा है। धुआं भीतर ले जाने और बाहर निकालने में कौन सी अनीति है? हां, दूसरे की नाक पर न छोड़ता हो, इतना भर काफी है। दूसरे से पूछ लेता हो कि आप आज्ञा देते हैं कि मैं जरा धुआं बाहर-भीतर कर सकूं? यह आदमी धुआं बाहर-भीतर करता है, इसमें अनीति किसी के साथ कुछ करता नहीं। एक इनोसेंट नानसेंस करता है। कहना चाहिए एक निर्दोष बेवकूफी करता है। धुआं भीतर ले जाता है, बाहर ले जाता है। लेकिन हो सकता है कि इसकी जरूरत हो। अच्छा तो यह हो कि यह जाकर समझे-बूझे।
लेकिन शरीर के बाबत भी हमारी जानकारी बहुत कम है। इतना चिकित्साशास्त्र विकसित हुआ, फिर भी जानकारी बहुत कम है। अभी भी हम शरीर के पूरे रहस्यों को नहीं समझ पाए हैं कि शरीर की क्या मांग है, क्या जरूरत है, क्या मुसीबत है, क्या कठिनाई है। लेकिन शरीर अनजाने रास्तों से हमें पकड़ कर अपनी जरूरत पूरी करवाता है। वह कहता है कि सिगरेट पीओ, वह कहता है कि तमाखू खाओ। फिर जब पकड़ लेता है तो उसकी तृप्ति होने लगती है, फिर वह छोड़ता नहीं। ऐसा नहीं है कि जो लोग पीते हैं, सभी के भीतर कमी होगी। दस में से नौ तो दूसरे को देख कर पीते हैं। और जब देख कर पीने लगते हैं तो फिर एक तरह की आदत और एक तरह की मेकेनिकल हैबिट पकड़नी शुरू हो जाती है। फिर वे पीते चले जाते हैं। फिर न पीएं तो मुसीबत होने लगती है।
लेकिन कुछ भी बात तय नहीं की जा सकती ऊपर से। और निश्र्चित रूप से सबके लिए कोई एक योजना नहीं बनाई जा सकती कि आदमी ऐसा उठे, ऐसा बैठे, ऐसा सोए, ऐसा खाए-पीए। हां, कुछ मोटी बातें कही जा सकती हैं। जो भी करे, जाग्रत, जो भी करे, होशपूर्वक करे। जो भी करे, अपने सुख और दूसरे के सुख का ध्यान रख कर करे। जो भी करे, उससे स्वास्थ्य, शांति और आनंद बढ़ता हो, उस दिशा में करे; घटता हो, उस दिशा में न करे। जो भी खाए-पीए वह बोझ न बन जाता हो, हलका करता हो, स्वस्थ करता हो, ताजा करता हो। जो भी खाए-पीए उससे अकारण, अनावश्यक हिंसा न होती हो; अनावश्यक, अकारण किसी को चोट, दुख, पीड़ा न होती हो। जो भी भोजन में ले, उसमें स्वास्थ्य का ध्यान महत्वपूर्ण हो। स्वाद लेने की कला सीखे। स्वाद वस्तुओं पर कम निर्भर रह जाए, भोजन करने की कला पर ज्यादा निर्भर हो जाए, ऐसी मोटी बातें की जा सकती हैं। और इन मोटी बातों के आधार पर अपने व्यक्तित्व को देख कर निर्णय लेने चाहिए।
न किसी और की कोई डिसिप्लिन है, न कोई अनुशासन है। प्रत्येक व्यक्ति आत्मनियंता है। और संन्यास का तो मतलब ही यह है कि हम अपने निर्णय का अधिकार घोषित करते हैं कि अब हम अपने को अपने ही ढंग से निर्धारित करेंगे।
आप कहेंगे, इसमें कोई गलती करे?
करे तो गलती का दुख भोगेगा। इसमें आपको परेशान होने की जरूरत नहीं। गलती करे, तो जैसा गलती कोई करता है उसका दुख पाता है, पाएगा। ठीक करेगा, सुख पाएगा। दूसरे गलती न करें, इसमें दूसरों को बहुत उत्सुकता नहीं लेनी चाहिए। क्योंकि दूसरों की यह उत्सुकता अनैतिक है। आप दूसरों को गलती तक न करने देंगे, तो आप कौन हैं? दूसरे को गलती करनी है, करने दें। उसी सीमा पर उसे रोका जा सकता है, जहां उसकी गलती दूसरे के लिए पीड़ादायी बने, अन्यथा नहीं रोका जा सकता। वह अपनी गलती करता रहे। उसकी गलती अगर दुख लाती है तो उसको ले आएगी। और संन्यासी का मतलब यह है कि वह विवेक से जी रहा है, वह जांच रहा है पूरे समय कि कौन सी चीज से दुख आता है, कौन सी चीज से सुख आता है। जिससे सुख आता है उसको वह स्वीकार करेगा, जिससे दुख आता है, धीरे-धीरे उसे छोड़ेगा। वह धीरे-धीरे अपने आनंद की खोज की यात्रा पर निकला है। आप उसके लिए परेशान न हों।
लेकिन इधर मैं बहुत हैरान होता हूं। यहां संन्यासी जितना चिंतित नहीं होता, उसके आस-पास जो लोग इकट्ठे होते हैं वे चिंतित होते हैं कि कोई गलती तो नहीं कर रहा है?
ये जो सेल्फ-अपाइंटेड जज हैं, पता नहीं इनको किसने पट्टा लिख कर दिया है कि तुम इसकी फिकर करना कि कोई गलती तो नहीं कर रहा है? कि संन्यासी ठीक वक्त पर सोया कि नहीं कि ब्रह्ममुहूर्त में उठता है कि नहीं? दिन में तो नहीं सो जाता? आप कौन हैं, आप क्यों पीछे पड़े हैं किसी के?
नहीं, इसके पीछे कारण है। हमको बड़ा रस आता है इसमें। ये टार्चर करने की तरकीबें हैं, ये दूसरे आदमी को सताने के उपाय हैं। और फिर हम कहते हैं कि हम आदर भी देते हैं तो इसी की वजह से देते हैं कि तुम गलती नहीं करते। तो हम सौदा भी तय कर लेते हैं। उस आदमी को हम फंसा देते हैं। उसको आदर चाहिए आपसे? तो फिर ठीक है, वह आपके नियम मान कर चलता है। और या होशियार हुआ, तो ऊपर से दिखाता है कि नियम मानता है, पीछे से नियम तोड़ता जाता है।
मैं संन्यासी को पाखंडी नहीं होने दे सकता हूं। और एक ही रास्ता है कि संन्यासी पाखंडी होने से बचे और वह यह है कि हम उसकी फिकर छोड़ दें, उसे अपनी फिकर करने दें। नहीं तो वह पाखंडी हो ही जाएगा। हमने सब संन्यासियों को पाखंडी, हिपोक्रेट कर दिया है। क्योंकि उनको हमने दिक्कत में डाल दिया है। अब एक साधुओं का वर्ग है जो नहा नहीं सकता, स्नान नहीं कर सकता। अब उसके आस-पास के लोग देखते रहते हैं कि स्नान तो नहीं कर लिया? अब उसको गंदगी में ढकेल रहे हैं, और वह गंदगी में ढंका जा रहा है। लेकिन उसको आदर दे रहे हैं, पैर छू रहे हैं बदले में; अब वह सोचता है कि नहाने की कीमत पर पैर छूना मिल रहा है, चलने दो सौदा। एकांत में मौका देख कर, पानी से कपड़े को गीला करके स्पंज वॉश कर लेता है, कुछ अपना थोड़ी-बहुत सफाई-सुथराई कर लेता है। मगर उसको चोरी और गिल्ट में हम ढकेल रहे हैं, वह नहाने के पीछे उसको हम धक्का दे रहे हैं।
अभी एक सज्जन मेरे पास आए। उन्होंने कहा: फलानी साध्वी आपके पास आती है। हमने सुना वह टूथपेस्ट करती है? मैंने कहा: तुम पागल हो गए हो? संन्यासिनी टूथपेस्ट करती है कि नहीं करती है, तुम कोई टूथपेस्ट का काम करते हो? क्या मतलब तुम्हारा? तो उन्होंने कहा कि हमारे समाज में तो दतौन करने की मनाही है। तो तुम मत करो, मैंने उनसे कहा, तुम्हारे समाज में मनाही है तो तुमसे कौन कहता है? वे मजे से टूथपेस्ट कर रहे हैं। उनका संन्यासी न कर पाए। क्योंकि उसका कारण है, वे आदर देते हैं, बदला भी मांगते हैं।
तो मैं अपने संन्यासी को, जिसको मैं संन्यासी समझ रहा हूं, उसको कहूंगा, आदर मत मांगना, अन्यथा बंधन शुरू हो जाएगा। मांगना ही मत। नहीं तो सब तरफ बेईमान और सब तरह के चोर इकट्ठे हैं, वे फौरन फंसा लेंगे। वे कहेंगे, आदर हम देते हैं, पैर हम छूते हैं, लेकिन हमारी भी शर्तें हैं, इतना-इतना करना। संन्यासी का मतलब यह है कि जो यह कहता है कि हम तुम्हारे समाज, तुम्हारी शर्तों की कोई चिंता नहीं करते। अब हमने अपनी चिंता करनी शुरू कर दी है, अब आप हमारी फिकर न करें।
व्यक्ति का विवेक ही उसका पथ-प्रदीप है।
भगवान, आपने अपने संन्यासी की चर्चा करते हुए कहा कि संन्यास आनंद की घटना है, त्याग की नहीं। मेरे खयाल से शंकराचार्य आनंद से संन्यासी हुए थे, और ये संन्यासी जो होंगे वे भी त्याग को नहीं बल्कि आनंद को महत्व देंगे, इसलिए इस अर्थों में वे भी आपके संन्यासी हुए। दूसरी बात यह कि आप अभिनय पर बल देते हैं, कृपया उसे स्पष्ट करें। कोई संन्यासी दुकान पर होकर ब्लैक मार्केटिंग का अभिनय भी तो कर सकता है! फिर, आप गैरिक वस्त्र पहनने के लिए तो कहते हैं, लेकिन आप स्वयं गैरिक वस्त्र क्यों नहीं पहनते?
तीसरे से शुरू करें, कि संन्यासी दुकान पर बैठ कर दुकानदार का अभिनय करेगा, यह तो ठीक, लेकिन वह ब्लैक मार्केटिंग का भी अभिनय कर सकता है!
करेगा तो इससे बहुत नुकसान नहीं होगा, क्योंकि वह संन्यासी न होता तो भी ब्लैक मार्केटिंग करता। इससे कोई नुकसान नहीं होगा किसी का। लेकिन मैं मानता हूं कि जिस आदमी को संन्यास का खयाल आया है और जो हिम्मत जुटा कर, साहस जुटा कर अपने जीवन में एक प्रयोग करने चला है और जो दुकानदार होने का अभिनय कर रहा है, वह ब्लैक मार्केटिंग का अभिनय नहीं कर सकेगा। क्योंकि ब्लैक मार्केटिंग करने के लिए अभिनय पर्याप्त नहीं है, कर्ता होना जरूरी है।
जितना बुरा काम करना हो उतना ही कर्ता होना आवश्यक होता चला जाता है। बुरे काम के करने के लिए, क्योंकि बुरे काम का आंतरिक दंश है, पीड़ा है, उसके लिए इनवाल्व होना जरूरी होता है, उसके लिए कमिटेड होना जरूरी होता है, उसके लिए डूबना जरूरी होता है। मैं किसी आदमी को अभिनय में छुरा नहीं मार सकता। मुश्किल पड़ेगा। क्योंकि दूसरे आदमी की जिंदगी दांव पर होगी। और अभिनय में छुरा मारने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
अभिनय की जो धारणा है, अगर ठीक से खयाल में आए तो पहला तो मैं यह कहता हूं कि अगर वह करेगा ब्लैक मार्केटिंग तो कोई नुकसान किसी का नहीं हो रहा है, क्योंकि जो संन्यासी होकर ब्लैक मार्केटिंग कर रहा है, वह संन्यासी नहीं होकर कर ही रहा था, करता ही, इसलिए कहीं कोई नुकसान नहीं हो रहा है। उसमें तो हमें चिंतित होने की जरूरत नहीं। संभावना यह भी है, मेरे लिए बहुत संभावना है, कि वह जो संन्यासी होने के खयाल से भरा है, वह ब्लैक मार्केटिंग का अभिनय करने नहीं जाएगा। नहीं जा सकता है। संन्यासी होने की जो प्रज्ञा है, संन्यासी होने का जो विवेक है, वही बताएगा कि उसे क्या करना, क्या नहीं करना। अभिनय वह वहीं करेगा जहां बिलकुल करणीय है, जो उसका बिलकुल कर्तव्य है, जिसे छोड़ कर भागना पलायन होगा, जिससे हट जाना जिम्मेवारी से बचना होगा, जिससे भाग जाना किसी के लिए दुख और पीड़ा का इंतजाम बना जाना होगा, उतना ही अभिनय करेगा। अभिनय तो हमेशा ही अत्यंत करणीय का, अत्यंत आवश्यक का हो जाएगा। अनावश्यक का अभिनय करने की जरूरत नहीं रह जाएगी, वे हिस्से काट दिए जाएंगे, अपने आप कट जाएंगे।
दूसरी बात आप कहते हैं गैरिक वस्त्रों के लिए, मैं क्यों नहीं गैरिक वस्त्र पहने हुए हूं?
जान कर ही। एक तो, इसके पहले कि मैं गैरिक वस्त्र पहनता, संन्यास घट गया। इसके पहले कि मुझे पता चलता कि गैरिक वस्त्र पहनूंगा तो संन्यास घटेगा, संन्यास पहले ही घट गया। पीछे पहनने का कोई अर्थ न रहा, कोई कारण न रहा। दूसरा, मैं गैरिक वस्त्र पहनूं और फिर कहूं कि गैरिक वस्त्र का कोई उपयोग है, तो शायद लगे कि मेरे ही जैसे वस्त्र दूसरों को भी पहना देने की आतुरता है। नहीं, अपनी शक्ल मैं किसी पर ओढ़ाना नहीं चाहता। इसलिए जो भी मैं पहनता हूं, जैसे भी मैं उठता-बैठता हूं, जैसे मैं जीता हूं, उसको किसी पर ओढ़ा देने का, किसी पर ढांक देने का जरा भी मन नहीं है।
गैरिक वस्त्र पहन कर गैरिक वस्त्र के संबंध में कुछ कहता, तो शायद लग सकता था कि मैं अपने वस्त्रों की तारीफ करता हूं। लेकिन मैं बिना गैरिक वस्त्र का हूं, इसलिए गैरिक वस्त्रों से मेरा कोई निजी लगाव नहीं है, इतना तो बहुत साफ है। इसलिए अगर गैरिक वस्त्र की कोई तारीफ करता हूं तो सिवाय वैज्ञानिक कारणों के और कोई कारण नहीं है। मैं खुद तो पहनता नहीं हूं, मेरा खुद का तो कोई लगाव नहीं है, मैं तो बिलकुल बाहर हूं।
तीसरी बात, आपने कहा कि शंकराचार्य ने भी आनंद से संन्यास लिया था।
मैं नहीं मानता हूं। शंकराचार्य का जगत के प्रति बड़ा निषेध का भाव है। निषेध इतना गहरा है कि वे जगत को माया सिद्ध करने की सतत चेष्टा में लगे हुए हैं। यह जगत झूठा है, यह जगत भ्रम है, यह जगत माया है, यह जगत है ही नहीं, इसे सिद्ध करने का उनका आग्रह इतना प्रगाढ़ है कि यह जगत उन्हें चारों तरफ से परेशान कर रहा है, यह भी साफ है। यह जगत का होना उन्हें इतना गड़ रहा है कि इसे इनकार किए बिना, स्वप्न बनाए बिना वे छुटकारा नहीं पा सकते। शंकर का निषेध बहुत गहरा है।
आनंद की बात शंकर करते हैं, लेकिन मेरे और उनके आनंद में भी बड़ा बुनयादी फर्क है। वे उस आनंद की बात करते हैं जो इस संसार के त्याग से उपलब्ध होता है। वे उस आनंद की बात करते हैं जो माया को छोड़ने से, ब्रह्म-मिलन से उपलब्ध होता है। मैं उस आनंद की बात करता हूं जो समस्त को, समग्र को, माया को, ब्रह्म को, संसार को, प्रभु को, सबको स्वीकार कर लेने से उपलब्ध होता है। निषेध मेरे मन में कहीं भी नहीं है। त्याग मेरे मन में कहीं भी नहीं है। शंकर अगर आनंद की बात भी करते हैं, तो वह संसार के त्याग में ही छिपा है। वह संसार को छोड़ देने में ही छिपा है। मेरे लिए आनंद इतना विराट है कि संसार भी उसमें समा जाता है, परमात्मा भी उसमें समा जाता है, सब उसमें समा जाते हैं। आनंद में मेरे लिए किसी बात का कोई भी निषेध नहीं है।
और, आखिरी बात कि जब मैंने कहा: अपने संन्यासी, तो जीभ के चूक जाने से नहीं कहा। जीभ मेरी अजीब है, चूकती मुश्किल से ही है। पहली दफा जिन मित्र ने पूछा था कि आपके संन्यासी, तो मैंने इनकार किया था कि ‘मेरे’ मत कहिए। लेकिन प्रयोजन मेरा दूसरा था। प्रयोजन मेरा यह था कि संन्यासी ‘मेरा’ कैसे हो सकता है! लेकिन जब मैंने दुबारा कहा तो जीभ नहीं चूकी। मैंने कहा: अपने संन्यासी।
संन्यासी मेरा नहीं हो सकता, लेकिन मैं तो संन्यासियों का हो सकता हूं। और उस संन्यासी की, उस आनंद के संन्यासी की, जिसकी मैं बात कर रहा हूं, उससे मेरा लगाव है। उससे लगाव की अपेक्षा नहीं है मेरे प्रति। उससे कोई अपेक्षा नहीं है कि वह मेरे प्रति किसी तरह का भी संबंध रखे। लेकिन मेरा लगाव है। और मेरा लगाव इसमें है कि मैं देखता हूं कि उस तरह के संन्यासी में ही भविष्य में संन्यास के बचने की संभावना है, आशा है, भविष्य है।
भगवान, आपने कहा कि संन्यास की दीक्षा व्यक्ति और परमात्मा के बीच की सीधी बात है। लेकिन तब प्रश्र्न उठता है कि दीक्षा में आपको गवाह व साक्षी के रूप में बीच में रखना क्या संन्यास के प्रति अविश्र्वास न हो जाएगा?
यह बिलकुल ठीक कहते हो कि तुम्हारे और परमात्मा के बीच की बात है, अगर इतना समझ में आ जाए तो मेरे साक्षी होने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन तुम यहां आए इसलिए हो कि तुम्हारे और परमात्मा के बीच सीधा संबंध नहीं बन रहा। नहीं तो तुम इधर किसलिए भटकते? इधर किसलिए परेशान होते?
यहां हमें आनंद आता है, इसलिए हम आते हैं।
तब तो मैं साक्षी हो जाऊंगा! उस हालत में मैं साक्षी हो जाऊंगा।
क्या आपके आस-पास फिर संप्रदाय न बन जाएगा?
आप पूछती हैं कि फिर संप्रदाय बन जाएगा। नहीं, संप्रदाय नहीं बनेगा। नहीं बनेगा इसलिए कि संप्रदाय बनाने के लिए कुछ जरूरतें हैं अनिवार्य। एक, गुरु चाहिए, शास्त्र चाहिए, सिद्धांत चाहिए, विशेषण चाहिए। और इतना ही नहीं, इसके अतिरिक्त, इससे भिन्न, इससे अन्यथा जो है वह पूर्ण रूप से गलत है और यही पूर्ण रूप से सही है, ऐसा आग्रह भी चाहिए।
तो एक तो मैं कह रहा हूं कि उसे मैं संन्यासी कहता हूं जिसका कोई विशेषण नहीं। बिना विशेषण के संप्रदाय बनाना मुश्किल है। बिना विशेषण के संप्रदाय बन नहीं सकता। उसे संन्यासी कह रहा हूं जिसका कोई धर्म नहीं है। बिना धर्म के संप्रदाय कैसे बनाइएगा? उसे संन्यासी कह रहा हूं जिसका कोई धर्मग्रंथ नहीं है, जिसका कोई धर्मगुरु नहीं है, जिसका कोई मंदिर नहीं है, मस्जिद नहीं है, शिवालय नहीं है, गुरुद्वारा नहीं है।
तो संप्रदाय बनना मुश्किल है। कोशिश हमें करनी चाहिए कि संप्रदाय न बने, क्योंकि संप्रदाय ने धर्म को जितना नुकसान पहुंचाया है उतना किसी और चीज ने नहीं पहुंचाया है। अधर्म ने नहीं पहुंचाया है इतना नुकसान धर्म को, जितना संप्रदायों ने पहुंचाया है। असल में मिट्टी-पत्थर नुकसान नहीं पहुंचाते, असली सिक्के को कभी भी नुकसान पहुंचता है तो सिर्फ नकली सिक्के से पहुंचता है, मिट्टी-पत्थर से नहीं पहुंचता। धर्म के असली सिक्के को कभी भी नुकसान पहुंचता है तो संप्रदाय के नकली सिक्के से पहुंचता है। उसके लिए बहुत सचेत होने की जरूरत है।
वह नहीं बन सकेगा, क्योंकि न तो मेरा कोई शिष्य है, न मैं किसी का गुरु हूं। और जिन लोगों के लिए मैं कह रहा हूं कि मैं गवाह हूं, उनको भी सिर्फ इसीलिए कह रहा हूं कि अभी तुम सीधे नहीं जुड़ पाते। सीधे जुड़ जाओ तो तुम मुझे परेशान मत करना। मैं नाहक परेशान होने को तैयार भी नहीं हूं। मेरा लेना-देना नहीं है कुछ। उससे मुझे कुछ संबंध नहीं है। अगर तुम सीधे ही जुड़ जाओ, इससे बेहतर तो कुछ भी नहीं है, इससे बेहतर तो कोई सवाल ही नहीं है। तब तो साक्षी का भी कोई सवाल नहीं है, गवाह का भी कोई सवाल नहीं है।
भगवान, माला और जो नामकरण है, उसका कोई विशेष अर्थ है?
हां, अर्थ है, अर्थ बहुत है। संन्यासी का नाम बदलने का बड़ा अर्थ है। सूचक। और हमारी जिंदगी में सभी कुछ सूचक है। एक नाम से आप जीते रहे हैं, एक नाम से आपकी आइडेंटिटी है। एक नाम आपका प्रतीक रहा है। आपके व्यक्तित्व का उससे जोड़ हो गया है। आप कल तक जो थे, उसके साथ आपके नाम का एसोसिएशन है। उससे वह जुड़ा है। संन्यासी का नाम बदलने का अर्थ यह है कि हम उसकी पुरानी आइडेंटिटी से उसे तोड़ते हैं। हम कहते हैं कि अब तुम वह नहीं रहे जो तुम कल तक थे। अब तुम एक नई यात्रा पर जाते हो, नई आइडेंटिटी लेकर जाते हो।
पुराने दिनों में जब दीक्षा दी जाती थी तो एक छोटा सा प्रयोग करते थे। वह प्रयोग यह था कि जैसे हम मुर्दे को नहलाते हैं, अरथी पर चढ़ाने के पहले, वैसे उसे नहलाते। जैसे हम मुर्दे के बाल घोंट देते हैं, सिर घोंट देते हैं, ऐसा उसका सिर घोंट देते। फिर जैसा मुर्दे को अरथी पर चढ़ाते हैं, ऐसा उसे अरथी पर चढ़ा देते। फिर अरथी में आग लगा देते। और फिर आस-पास खड़े वे सारे लोग, जिनको मैं साक्षी कहूंगा, विटनेस कहूंगा, वे उससे कहते कि अब जल जाने दो उसे जो तुम कल तक थे। और अब हम चिता से तुम्हें बाहर खींचते हैं, यह तुम्हारा पुनर्जन्म है, रि-बॉर्न, अब तुम द्विज हुए, दूसरा जन्म हुआ।
यह सिर्फ सिंबालिक रिचुअल था। अपने आप में तो वह दिखता है कि न करें तो कोई हर्ज नहीं। नहीं है कोई हर्ज। अगर समझ बहुत हो तब तो इस दुनिया में किसी भी रिचुअल का, किसी भी बात का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन उतनी समझ कहां? वह आइडेंटिटी तोड़ने में सहयोगी हो जाता है। अचानक पता चलता है कि अब तुम वह नहीं रहे। बार-बार जब भी खयाल आएगा कि अब मेरा वह नाम नहीं है जो कल तक था, अब मेरा दूसरा नाम है। जब रास्ते पर कोई बुलाएगा, उस नाम से नहीं जो कल तक आपका था, नये नाम से, तो आप भी उतने ही चौंकेंगे। अपने भीतर से आइडेंटिटी रोज-रोज टूटेगी और पता चलेगा कि वह आदमी समाप्त हो गया जो मैं कल तक था और एक नई यात्रा शुरू हो गई। इसके स्मरण के लिए नाम के बदलने का उपयोग है।
दूसरी बात पूछी है कि माला का क्या अर्थ हो सकता है?
व्यर्थ तो कुछ भी नहीं होता कभी। लंबे चल-चल कर व्यर्थ हो जाता है, यह दूसरी बात है। सभी चीजें चलते-चलते घिस जाती हैं और गंदी हो जाती हैं।
माला में एक सौ आठ गुरिए देखे होंगे। लेकिन खयाल में नहीं आया होगा कि वे क्या हैं? एक सौ आठ ध्यान की पद्धतियां हैं। एक सौ आठ मार्ग हैं ध्यान के। एक सौ आठ विधियों से ध्यान की संभावना है। और आपका और मेरा संबंध बना रहा तो धीरे-धीरे एक सौ आठ विधियां सभी आपके खयाल में ला देने की हैं। वे एक सौ आठ गुरिए एक सौ आठ ध्यान के प्रतीक हैं। और जब कोई साक्षी किसी को वह माला देता था तो वह याद दिलाता था कि तुझे मैंने सिर्फ एक रास्ता ही समझाया, बताया, और भी रास्ते हैं एक सौ सात। इसलिए किसी दूसरे को गलत कहने में बहुत जल्दी मत करना। और सदा याद रखना कि अनंत रास्ते हैं उसके। और एक सौ आठ गुरियों के नीचे लटका हुआ एक बड़ा मनका देखा होगा। वह इस बात की खबर है कि एक सौ आठ में से किसी से भी पहुंचो, एक पर अंत में आदमी पहुंच जाता है। कहीं से भी चलो, एक पर पहुंचना हो जाता है। तो वह जो एक नीचे मनका लटका हुआ है...सब सिंबालिक हैं, पोएटिक हैं, काव्यात्मक हैं; लेकिन अर्थपूर्ण हैं।
एक आदमी शादी करके लाता है घर किसी स्त्री को। फिर हम उसका घर में नाम बदलते हैं। कभी पूछा नहीं कि क्यों बदलते हैं? आइडेंटिटी तोड़ते हैं। वह किसी और घर की लड़की है। वह कहीं और बड़ी हुई है, किसी और परिवार में पली, किन्हीं और संस्कारों में जन्मी। उसके नाम के साथ उसका सारा पुराना व्यक्तित्व जुड़ा है। घर में लाकर हम उसका नाम बदल देते हैं। नई यात्रा शुरू हो जाती है। हम उससे कहते हैं, अब भूल जा उस घर को जहां तू थी, भूल जा उस संबंध को जहां तू थी, भूल जा उन संस्कारों को जहां तू थी। अब एक नया परिवार, अब एक नया घर, अब एक नई दुनिया शुरू होती है, तेरे नये नाम के आस-पास अब एक नया क्रिस्टलाइजेशन होगा।
तो माला हो कि नाम हो कि और बहुत कुछ है, उन सबके अर्थ तो बहुत हैं, लेकिन वे सब बातें धीरे-धीरे चल-चल कर व्यर्थ हो गई हैं। और जब वे व्यर्थ हो गई हैं तो मैं हजार बार उनके खिलाफ बोलता रहता हूं। मैं उनकी व्यर्थता के खिलाफ बोलता रहता हूं। लेकिन मेरी पीड़ा समझना आपको बहुत मुश्किल पड़ती है। मेरी पीड़ा यह है कि मैं यह जानता हूं कि कोई चीज सार्थक है और व्यर्थ हो गई है। मैं उसके खिलाफ भी बोलता रहूंगा और उसके पक्ष में भी कुछ करता रहूंगा। अब यह मेरी मुश्किल है। यह मुश्किल आपको भी समझनी पड़ेगी।
मैं कुछ चीजों के खिलाफ बोलता रहूंगा, क्योंकि वे व्यर्थ हो गई हैं। और फिर भी किसी मार्ग से उन चीजों के पक्ष में कुछ करता रहूंगा, क्योंकि मैं जानता हूं, मूलतः उनकी सार्थकता थी। और वह मूलतः सार्थकता नहीं खो जानी चाहिए। यह दोनों एक साथ चलेगा। इसलिए मैं कई तरह के मित्रों को दुश्मन बना लूंगा और कई तरह के साथियों को खोऊंगा और रोज यह चलेगा। और यह चलता रहेगा, उसमें कोई उपाय नहीं है। क्योंकि मैं एक दिन माला के खिलाफ बोलूंगा, जब कोई मेरे पास आ जाएगा और माला की बात करने लगेगा तो मैं खिलाफ बोलूंगा।
लेकिन मैं हैरान हुआ हूं जान कर कि मैं बड़े से बड़े संन्यासियों के सामने माला के खिलाफ बोला, वे माला के पक्ष में एक शब्द भी न कह सके। तो मैं तो सोचता था, कोई मुझसे माला के पक्ष में कुछ कहेगा। अब कोई नहीं मिला तो मुझे खुद ही कहना पड़ेगा, और कोई उपाय नहीं है।
संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं, आनंद है। संन्यास निषेध भी नहीं है, उपलब्धि है। लेकिन आज तक पृथ्वी पर संन्यास को निषेधात्मक अर्थों में ही देखा गया है--त्याग के अर्थों में, छोड़ने के अर्थों में, पाने के अर्थ में नहीं। मैं संन्यास को देखता हूं पाने के अर्थ में।
निश्र्चित ही, जब कोई हीरे-जवाहरात पा लेता है तो कंकड़-पत्थरों को छोड़ देता है। लेकिन कंकड़-पत्थरों को छोड़ने का अर्थ इतना ही है कि हीरे-जवाहरातों के लिए जगह बनानी पड़ती है। कंकड़-पत्थरों का त्याग नहीं किया जाता। त्याग तो हम उसी बात का करते हैं जिसका बहुत मूल्य मालूम होता है। कंकड़-पत्थर तो ऐसे छोड़े जाते हैं जैसे घर से कचरा फेंक दिया जाता है। घर से फेंके हुए कचरे का हम हिसाब नहीं रखते कि हमने कितना कचरा त्याग दिया।
संन्यास अब तक लेखा-जोखा रखता रहा उस सबका जो छोड़ा जाता है। मैं संन्यास को देखता हूं उस भाषा में, उस लेखे-जोखे में, जो पाया जाता है। निश्र्चित ही, इसमें बुनियादी फर्क पड़ेंगे। यदि संन्यास आनंद है, यदि संन्यास उपलब्धि है, यदि संन्यास पाना है, विधायक है, पाजिटिव है, तो संन्यास का अर्थ विराग नहीं हो सकता। तो संन्यास का अर्थ उदासी नहीं हो सकता। तो संन्यास का अर्थ जीवन का विरोध नहीं हो सकता। तब तो संन्यास का अर्थ होगा, जीवन में अहोभाव! तब तो संन्यास का अर्थ होगा, उदासी नहीं, प्रफुल्लता! तब तो संन्यास का अर्थ होगा, जीवन का फैलाव, विस्तार, गहराई। सिकोड़ना नहीं।
अभी तक जिसे हम संन्यासी कहते हैं वह अपने को सिकोड़ता है। सबसे तोड़ता है। सब तरफ से अपने को बंद करता है। मैं उसे संन्यासी कहता हूं जो सबसे अपने को जोड़े; जो अपने को बंद ही न करे, खुला छोड़ दे। निश्र्चित ही इसके और भी अर्थ होंगे। जो संन्यास सिकोड़ने वाला है, वह संन्यास बंधन बन जाएगा, वह संन्यास कारागृह बन जाएगा, वह संन्यास स्वतंत्रता नहीं हो सकता। और जो संन्यास स्वतंत्रता नहीं है वह संन्यास ही कैसे हो सकता है! संन्यास की आत्मा तो परम स्वतंत्रता है।
इसलिए मेरे लिए संन्यास की कोई मर्यादा नहीं, कोई बंधन नहीं। मेरे लिए संन्यास का कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं। मेरे लिए संन्यास कोई डिसिप्लिन नहीं है, कोई अनुशासन नहीं है। मेरे लिए संन्यास व्यक्ति के परम विवेक में परम स्वतंत्रता की उदभावना है। उस व्यक्ति को मैं संन्यासी कहता हूं जो परम स्वतंत्रता में जीने का साहस करता है। नहीं कोई बंधन ओढ़ता, नहीं कोई व्यवस्था ओढ़ता, नहीं कोई अनुशासन ओढ़ता।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह उच्छृंखल हो जाता है। इसका यह मतलब नहीं है कि वह स्वच्छंद हो जाता है। असलियत तो यह है कि जो आदमी परतंत्र है, वही उच्छृंखल हो सकता है। और जो आदमी परतंत्र है, बंधन में बंधा है, वही स्वच्छंद हो सकता है। जो स्वतंत्र है, वह तो कभी स्वच्छंद होता ही नहीं। उसके स्वच्छंद होने का उपाय नहीं है।
ऐसे अतीत से मैं भविष्य के संन्यासी को भी तोड़ता हूं। और मैं समझता हूं कि अतीत के संन्यास की जो आज तक व्यवस्था थी वह मरण-शय्या पर पड़ी है। मर ही गई है। उसे हम ढो रहे हैं। वह भविष्य में बच नहीं सकती।
लेकिन संन्यास ऐसा फूल है जो खो नहीं जाना चाहिए। वह ऐसी अदभुत उपलब्धि है, जो विदा नहीं हो जानी चाहिए। वह बहुत ही अनूठा फूल है, जो कभी-कभी खिलता रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि हम उसे भूल ही जाएं, खो ही दें। पुरानी व्यवस्था में बंधा हुआ वह मर सकता है। इसलिए संन्यास को नये अर्थ, नये उदभाव देने जरूरी हो गए हैं। संन्यास तो बचना ही चाहिए। वह तो जीवन की गहरी से गहरी संपदा है। लेकिन अब वह कैसे बचाई जा सकेगी? उसे बचाए जाने के लिए कुछ मेरे खयाल मैं आपको कहता हूं।
पहली बात तो मैं आपसे यह कहता हूं कि बहुत दिन हमने संन्यासी को संसार से तोड़ कर देख लिया। इससे दोहरे नुकसान हुए। संन्यासी संसार से टूटता है तो दरिद्र हो जाता है, बहुत गहरे अर्थों में दरिद्र हो जाता है। क्योंकि जीवन के अनुभव की सारी संपदा संसार में है। जीवन के सुख-दुख का, जीवन की संघर्ष-शांति का, जीवन की सारी गहनताओं का, जीवन के रसों का, जीवन के विरस का, सारा अनुभव तो संसार में है। और जब हम किसी व्यक्ति को संसार से तोड़ देते हैं तो वह हॉट हाउस प्लांट हो जाता है। वह खुले आकाश के नीचे खिलने वाला फूल नहीं रह जाता। वह बंद कमरे में, कृत्रिम हवाओं में, कृत्रिम गर्मी में खिलने वाला फूल हो जाता है--कांच की दीवारों में बंद। उसे मकान के बाहर लाएं तो वह मुरझा जाएगा, मर जाएगा।
संन्यासी अब तक हॉट हाउस प्लांट हो गया है। लेकिन संन्यास भी कहीं बंद कमरों में खिल सकता है? उसके लिए खुला आकाश चाहिए। रात का अंधेरा चाहिए, दिन का उजाला चाहिए, चांद-तारे चाहिए, पक्षी चाहिए, खतरे चाहिए, वह सब चाहिए। संसार से तोड़ कर हमने संन्यासी को भारी नुकसान पहुंचाया है, क्योंकि संन्यासी की आंतरिक समृद्धि क्षीण हो गई।
यह बड़े मजे की बात है कि साधारणतः जिन्हें हम अच्छे आदमी कहते हैं, उनकी जिंदगी बहुत रिच नहीं होती, उनकी जिंदगी में बहुत अनुभवों का भंडार नहीं होता। इसलिए उपन्यासकार कहते हैं कि अच्छे आदमी की जिंदगी पर कोई कहानी नहीं लिखी जा सकती। कहानी लिखनी हो तो बुरा आदमी पात्र बनाना पड़ता है। एक बुरे आदमी की कहानी होती है। अगर हम बता सकें कि एक आदमी जन्म से मरने तक बिलकुल अच्छा है, तो इतनी ही कहानी काफी है, अब और कुछ बताने को नहीं रह जाता।
संन्यासी को संसार से तोड़ कर हम अनुभव से तोड़ देते हैं। अनुभव से तोड़ कर हम उसे एक तरह की सुरक्षा तो दे देते हैं, लेकिन एक तरह की दरिद्रता भी दे देते हैं।
मैं संन्यासी को संसार से जोड़ना चाहता हूं। मैं ऐसे संन्यासी देखना चाहता हूं जो दुकान पर भी बैठे हों, दफ्तर में काम भी कर रहे हों, खेत पर मेहनत भी कर रहे हों। जो जिंदगी की पूरी सघनता में खड़े हों। भाग नहीं गए हों, भगोड़े न हों, एस्केपिस्ट न हों, पलायन न किया हो। जिंदगी के पूरे सघन बाजार में खड़े हों; भीड़ में, शोरगुल में खड़े हों। और फिर भी संन्यासी हों। तब उनके संन्यास का क्या मतलब होगा? अगर एक स्त्री संन्यासिनी होती है और पत्नी है, तो अब तक मतलब होता था कि वह भाग जाए जिंदगी से, छोड़ कर बच्चों को, पति को। अगर पति है, तो छोड़ जाए घर को, छोड़ कर भाग जाए। मेरे लिए ऐसे संन्यास का कोई अर्थ नहीं है। मैं तो मानता हूं कि अगर एक पति संन्यासी होता है, तो जहां है वहीं हो, भागे नहीं। संन्यास उसके जीवन में वहीं खिलने दे।
लेकिन तब क्या करेगा वह? भागने में तो रास्ता दिखता था कि भाग गए तो बच गए। अब क्या करेगा? अब उसे करने का क्या होगा? वह पति भी होगा, बाप भी होगा, दुकानदार भी होगा, नौकर भी होगा, मालिक भी होगा, हजार संबंधों में होगा। जिंदगी का मतलब ही अंतर-संबंधों का जाल है। वह यहां क्या करेगा? भाग जाता था तो बड़ी सहूलियत थी, क्योंकि वह दुनिया ही हट गई जहां कुछ करना पड़ता था। अब वह बैठ जाता था एक कोने में, जंगल में, एक गुफा में। सूखता था वहां, सिकुड़ता था वहां। यहां क्या करेगा? यहां संन्यास का क्या अर्थ होगा? अगर त्याग नहीं होगा तो संन्यास का क्या अर्थ होगा?
एक अभिनेता मेरे पास आया था। नया-नया अभिनेता है। अभी-अभी फिल्मों में गया है। वह मुझसे पूछने आया था कि मुझे भी कोई सूत्र मेरी डायरी पर लिख दें, जो मेरे काम आ जाए। तो उसे मैंने लिखा कि अभिनय ऐसे करो जैसे वह जीवन हो और जीओ ऐसे जैसे वह अभिनय हो।
संन्यासी का मेरे लिए यही अर्थ है। जीवन की सघनता में खड़े होकर अगर कोई संन्यास के फूल को खिलाना चाहता है, तो एक ही अर्थ हो सकता है कि वह कर्ता न रह जाए, भोक्ता न रह जाए, अभिनेता हो जाए। साक्षी हो जाए। देखे, करे, लेकिन कहीं भी बहुत गहरे में बंधे नहीं। गुजरे नदी से, लेकिन उसके पांव को पानी न छुए। नदी से गुजरना तो मुश्किल है कि पांव को पानी न छुए, लेकिन संसार से गुजरना संभव है कि संसार न छुए। अभिनय को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। और आश्र्चर्य तो यह है कि जितना अभिनय हो जाए जीवन, उतना कुशल हो जाता है, उतना सहज हो जाता है, उतना चिंतामुक्त हो जाता है।
कोई मां अगर मां होने में कर्ता न बन जाए, साक्षी रह सके और जान सके इतनी छोटी सी बात कि जिस बच्चे को वह पाल रही है, वह बच्चा उससे आया तो जरूर है लेकिन उसका ही नहीं है। उससे पैदा तो हुआ है लेकिन उसी ने पैदा नहीं किया है। वह उसके लिए द्वार से ज्यादा नहीं थी। और जहां से वह आया है और जिससे वह आया है और जिसके द्वारा वह जीएगा और जिसमें वह लौट जाएगा, उसका ही है। तो मां, कर्ता होने की उसे अब जरूरत नहीं रह गई। अब वह साक्षी हो सकती है। अब वह मां होने का अभिनय कर सकती है।
कभी एक छोटा सा प्रयोग करके देखें। चौबीस घंटे तय कर लें कि चौबीस घंटे मैं अभिनय करूंगा। जब कोई मुझे गाली देगा, तो मैं क्रोध न करूंगा, क्रोध का अभिनय करूंगा। और जब कोई मेरी प्रशंसा करेगा, तो मैं प्रसन्न न होऊंगा, प्रसन्न होने का अभिनय करूंगा। एक चौबीस घंटे का प्रयोग आपकी जिंदगी में नये दरवाजे खोल देगा। आप हैरान हो जाएंगे कि मैं नाहक परेशान हो रहा था। जो काम अभिनय से ही हो सकता था, उसमें मैं नाहक ही कर्ता बन कर दुख झेल रहा था। और जब सांझ आप दिन भर के अभिनय के बाद सोएंगे तो तत्काल गहरी नींद में चले जाएंगे। क्योंकि जो कर्ता नहीं रहा है उसकी कोई चिंता नहीं है, उसका कोई तनाव नहीं है, उसका कोई बोझ नहीं है। सारा बोझ कर्ता होने का बोझ है।
संन्यास को मैं घर-घर पहुंचा देना चाहता हूं। तो ही संन्यास बचेगा। लाखों संन्यासी चाहिए। दो-चार संन्यासी से नहीं होगा काम। और जैसा मैं कह रहा हूं, उसी आधार पर लाखों संन्यासी हो सकते हैं। संसार से तोड़ कर आप ज्यादा संन्यासी नहीं जगत में ला सकते। क्योंकि कौन उनके लिए काम करेगा? कौन उनके लिए भोजन जुटाएगा? कौन उनके लिए कपड़े जुटाएगा? एक छोटी सी दिखाऊ संख्या पाली-पोसी जा सकती है, लेकिन बड़े विराट पैमाने पर संन्यास संसार में नहीं आ सकता। यही दो-चार हजार संन्यासी एक मुल्क झेल सकता है। ये संन्यासी भी दीन हो जाते हैं। ये संन्यासी भी निर्भर हो जाते हैं। ये संन्यासी भी परवश हो जाते हैं। और इनका विराट व्यापक प्रभाव नहीं हो सकता।
अगर जगत में बहुत व्यापक प्रभाव चाहिए संन्यास का, जो कि जरूरी है, उपयोगी है, अर्थपूर्ण है, आनंदपूर्ण है, तो हमें धीरे-धीरे ऐसे संन्यास को जगह देनी पड़ेगी जिसमें से तोड़ कर भागना अनिवार्यता न हो। जिसमें जो जहां है वह वहीं संन्यासी हो सके। वहीं वह अभिनय...और वहीं वह साक्षी हो जाए। वह जो हो रहा है उसका साक्षी हो जाए।
तो एक तो संन्यास का मेरा घर से, दुकान से, बाजार से जोड़ने का खयाल है। अदभुत और मजेदार होगी वह दुनिया अगर हम बना सकें, जहां दुकानदार संन्यासी हो। स्वभावतः वैसा दुकानदार बेईमान होने में बड़ी कठिनाई पाएगा। जब अभिनय ही कोई कर रहा हो, तो बेईमान होने में बड़ी कठिनाई पाएगा। और जब कोई साक्षी बना हो, तो फिर बेईमान होने में बड़ी कठिनाई पाएगा। संन्यासी अगर दफ्तर में क्लर्क हो, चपरासी हो, डाक्टर हो, वकील हो, तो हम इस दुनिया को बिलकुल बदल डाल सकते हैं।
तो एक तो संन्यासी को तोड़ कर संन्यासी दीन हो जाता है, और संसार का भारी नुकसान होता है, संसार भी दीन हो जाता है। क्योंकि उसके बीच जो श्रेष्ठतम फूल खिल सकते थे वे हट जाते हैं। वे बगिया के बाहर हो जाते हैं। और बगिया उदास हो जाती है। इसलिए संन्यास का एक जगतव्यापी आंदोलन जरूरी है। जिसमें हम धीरे-धीरे घर में, द्वार में, बाजार में, दुकान में संन्यासी को...वह मां होगी, पति होगा, पत्नी होगी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वह जो भी होगा वही होगा। सिर्फ उसके देखने की दृष्टि बदल जाएगी, वह साक्षी रह जाएगा। उसके लिए जिंदगी अभिनय और लीला हो जाएगी, काम नहीं रह जाएगा। उसके लिए जिंदगी एक उत्सव हो जाएगी। उत्सव होते ही सब बदल जाता है।
दूसरी एक मेरी और दृष्टि है, वह आपको कहूं। वह मेरी दृष्टि है पीरियाडिकल रिनन्सिएशन की, सावधिक संन्यास की। ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि कोई आदमी जिंदगी भर संन्यासी होने की कसम ले। असल में भविष्य के लिए कोई भी कसम खतरनाक है। क्योंकि भविष्य के हम कभी भी नियंता नहीं हो सकते। वह भ्रम है। भविष्य को आने दें, वह जो लाएगा, हम देखेंगे। जो साक्षी है वह भविष्य के लिए निर्णय नहीं कर सकता। निर्णय सिर्फ कर्ता कर सकता है। जिसको खयाल है कि मैं करने वाला हूं, वह कह सकता है कि मैं जिंदगी भर संन्यासी रहूंगा। लेकिन सच में जो साक्षी है वह कहेगा, कल का तो मुझे कुछ पता नहीं, कल जो होगा होगा। कल जो होगा उसे देखूंगा और जो होगा होगा। कल के लिए कोई निर्णय नहीं ले सकता हूं।
इसलिए संन्यास की एक और कठिनाई अतीत में हुई, वह थी जीवन भर के संन्यास की, आजीवन संन्यास की। एक आदमी किसी भाव-दशा में संन्यासी हो जाए और कल किसी भाव-दशा में जीवन में वापस लौटना चाहे, तो हमने लौटने का द्वार नहीं छोड़ा है खुला। संन्यास में हमने एंट्रेंस तो रखा है, एक्झिट नहीं है। उसमें भीतर जा सकते हैं, बाहर नहीं आ सकते। और ऐसा स्वर्ग भी नरक हो जाता है जिसमें बाहर लौटने का दरवाजा न हो। परतंत्रता बन जाता है, कारागृह हो जाता है। आप कहेंगे, नहीं, कोई संन्यासी लौटना चाहे तो हम क्या करेंगे, लौट सकता है। लेकिन आप उसकी निंदा करते हैं, अपमान करते हैं। कंडेमनेशन है उसके पीछे।
और इसीलिए हमने एक तरकीब बना रखी है कि जब कोई संन्यास लेता है, तो उसका भारी शोरगुल मचाते हैं। जब कोई संन्यास लेता है तो बहुत बैंडबाजा बजाते हैं। जब कोई संन्यास लेता है तो बहुत फूलमालाएं पहनाते हैं, बड़ी प्रशंसा, बड़ा सम्मान, बड़ा आदर, जैसे कोई बहुत बड़ी घटना घट रही है, ऐसा हम उपद्रव करते हैं। और यह उपद्रव का दूसरा हिस्सा है, वह उस संन्यासी को पता नहीं है कि अगर वह कल लौटा तो जैसे फूलमालाएं फेंकी गईं, वैसे ही पत्थर और जूते भी फेंके जाएंगे। और ये ही लोग होंगे फेंकने वाले, कोई दूसरा आदमी नहीं होगा। असल में इन लोगों ने फूलमालाएं पहना कर उससे कहा कि अब सावधान, अब लौटना मत, जितना आदर दिया है उतना ही अनादर प्रतीक्षा करेगा। यह बड़ी खतरनाक बात है। इसके कारण न मालूम कितने लोग संन्यास का आनंद ले सकते हैं, वे नहीं ले पाते। वे कभी निर्णय ही नहीं कर पाते कि जीवन भर के लिए! जीवन भर का निर्णय बड़ी महंगी बात है, बड़ी मुश्किल बात है। फिर हकदार भी नहीं हैं हम जीवन भर के निर्णय के लिए।
तो मेरी दृष्टि है कि संन्यास सदा ही सावधिक है। आप कभी भी वापस लौट सकते हैं। कौन बाधा डालने वाला है? संन्यास आपने लिया था। संन्यास आप छोड़ते हैं। आपके अतिरिक्त इसमें कोई और निर्णायक नहीं है। आप ही डिसीसिव हैं, आपका ही निर्णय है। इसमें दूसरे की न कोई स्वीकृति है, न दूसरे का कोई संबंध है। संन्यास निजता है, मेरा निर्णय है। मैं आज लेता हूं, कल वापस लौटता हूं। न तो लेते वक्त आपसे अपेक्षा है कि आप सम्मान करें, न छोड़ते वक्त आपसे अपेक्षा है कि आप इसके लिए निंदा करें। आपका कोई संबंध नहीं है।
संन्यास को बड़ा गंभीर मामला बनाया हुआ था, इसलिए वह सिर्फ रुग्ण और गंभीर लोग ही ले पाते थे। संन्यास को बहुत गैर-गंभीर, खेल की घटना बनाना जरूरी है। आपकी मौज है, संन्यास ले लिया है। आपकी मौज है, आप कल लौट जाते हैं। नहीं मौज है, नहीं लौटते हैं, जीवन भर रह जाते हैं, वह आपकी मौज है। इससे किसी का कोई लेना-देना नहीं है।
फिर इसके साथ, यह भी मेरा खयाल है कि अगर संन्यास की ऐसी दृष्टि फैलाई जा सके, तो कोई भी आदमी जो वर्ष में एकाध-दो महीने के लिए संन्यास ले सकता है, वह एकाध-दो महीने के लिए ले ले। जरूरी क्या है कि वह दस-बारह महीने के लिए ले। वह दो महीने के लिए संन्यासी हो जाए, दो महीने संन्यास की जिंदगी को जीए, दो महीने के बाद वापस लौट जाए। यह बड़ी अदभुत बात होगी।
एक फकीर हुआ। उस फकीर के पास एक सम्राट गया। सूफी फकीर था। उस सम्राट ने कहा कि मुझे भी परमात्मा से मिला दो, मैं भी बड़ा प्यासा हूं। उस फकीर ने कहा: तुम एक काम करो, कल सुबह आ जाओ। तो वह सम्राट कल सुबह आया। और उस फकीर ने कहा: अब तुम सात दिन यहीं रुको। यह भिक्षा का पात्र हाथ में लो और रोज गांव में सात दिन तक भीख मांग कर लौट आना, यहां भोजन कर लेना, यहीं विश्राम करना। सात दिन के बाद परमात्मा के संबंध में बात करेंगे।
सम्राट बहुत मुश्किल में पड़ा। उसकी ही राजधानी थी वह। उसकी अपनी ही राजधानी में भिक्षा का पात्र लेकर भीख मांगना! उसने कहा कि अगर किसी दूसरे गांव में चला जाऊं? उस फकीर ने कहा: नहीं, गांव तो यही रहेगा। और अगर सात दिन भीख न मांग सको तो वापस लौट जाओ। फिर परमात्मा की बात मुझसे मत करना। सम्राट झिझका तो जरूर, लेकिन रुका। दूसरे दिन भीख मांगने गया बाजार में। सड़कों पर, द्वारों पर खड़े होकर उसने भीख मांगी। सात दिन उसने भीख मांगी।
सात दिन के बाद फकीर ने उसे बुलाया और कहा: अब पूछो। उसने कहा: अब मुझे कुछ भी नहीं पूछना है। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि सात दिन भिक्षा का पात्र फैला कर मुझे परमात्मा दिखाई पड़ जाएगा। फकीर ने कहा: क्या हुआ तुम्हें? उसने कहा: कुछ भी नहीं हुआ। सात दिन भीख मांगने में मेरा अहंकार गल गया और पिघल गया और बह गया। मैंने तो कभी सोचा ही नहीं था कि जो सम्राट होकर न पा सका, वह भिखारी होकर मिल सकता है। और जिस क्षण विनम्रता का भीतर जन्म होता है, ह्यूमिलिटी का, उसी क्षण द्वार खुल जाते हैं।
अब यह अदभुत अनुभव की बात होगी कि कोई आदमी वर्ष में एक महीने के लिए, दो महीने के लिए संन्यासी हो जाए, फिर वापस लौट जाए अपनी दुनिया में। इस दो महीने में संन्यास की जिंदगी के सारे अनुभव उसकी संपत्ति बन जाएंगे। वे उसके साथ चलने लगेंगे। और अगर एक आदमी चालीस-पचास साल, साठ साल की जिंदगी में दस-बीस बार थोड़े-थोड़े दिनों के लिए संन्यासी होता चला जाए तो फिर उसे संन्यासी होने की जरूरत न रह जाएगी, वह जहां है वहीं धीरे-धीरे संन्यासी हो जाएगा। तो ऐसा भी मैं सोचता हूं कि हर आदमी को मौका मिलना चाहिए कि वह कभी संन्यासी हो जाए।
और दो-चार बातें, फिर आपको कुछ इस संबंध में पूछना हो तो आप पूछ सकेंगे।
अब तक जमीन पर जितने संन्यासी रहे वे किसी धर्म के थे। इससे बहुत नुकसान हुआ है। संन्यासी भी और ‘किसी धर्म का’ होगा, यह बात ही बेतुकी है। कम से कम संन्यासी तो ‘सिर्फ धर्म का’ होना चाहिए। वह तो जैन न हो, ईसाई न हो, हिंदू न हो, वह तो सिर्फ धर्म का हो; वह तो कम से कम सर्व धर्मान् परित्यज्य, वह तो कम से कम सब धर्म छोड़ कर, वह निपट धर्म का हो जाए। यह बड़े मजे की बात होगी कि हम इस पृथ्वी पर एक ऐसे संन्यास को जन्म दे सकें, जो धर्म का संन्यास हो, किसी विशेष संप्रदाय का नहीं। वह संन्यासी मस्जिद में भी रुक सके, वह मंदिर में भी रुक सके, वह गुरुद्वारा में भी ठहर सके। उसके लिए कोई पराया न हो, सब अपने हो जाएं।
साथ ही ध्यान रहे, अब तक संन्यास सदा ही गुरु से बंधा रहा है। कोई गुरु दीक्षा देता है। संन्यास कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे कोई दे सके। संन्यास ऐसी चीज है जो लेनी पड़ती है, देता कोई भी नहीं। या कहना चाहिए कि परमात्मा के सिवाय और कौन दे सकता है संन्यास? अगर मेरे पास कोई आता है और कहता है कि मुझे दीक्षा दे दें, तो मैं कहता हूं, मैं कैसे दीक्षा दे सकता हूं, मैं सिर्फ गवाह हो सकता हूं, विटनेस हो सकता हूं। दीक्षा तो परमात्मा से ले लो, दीक्षा तो परम सत्ता से ले लो, मैं गवाह भर हो सकता हूं, एक विटनेस हो सकता हूं कि मैं मौजूद था, मेरे सामने यह घटना घटी। इससे ज्यादा कोई अर्थ नहीं होता। गुरु से बंधा हुआ संन्यास सांप्रदायिक हो ही जाएगा। गुरु से बंधा हुआ संन्यास मुक्ति नहीं ला सकता, बंधन ले आएगा। फिर यह संन्यासी करेगा क्या?
ये संन्यासी तीन प्रकार के हो सकते हैं। एक वे जिन्होंने सावधिक संन्यास लिया है, जो एक अवधि के लिए संन्यास लेकर आए हैं, जो दो महीने, तीन महीने संन्यासी होंगे, साधना करेंगे, एकांत में रह सकते हैं, फिर वापस जिंदगी में लौट जाएंगे। दूसरे वे संन्यासी हो सकते हैं, जो जहां हैं, वहां से इंच भर नहीं हटते, क्षण भर के लिए नहीं हटते, वहीं संन्यासी हो जाते हैं। और वहीं अभिनय और साक्षी का जीवन शुरू कर देते हैं। तीसरे वे भी संन्यासी होंगे, जो संन्यास के आनंद में इतने डूब जाते हैं कि न तो लौटने का उन्हें सवाल उठता, न ही उनके ऊपर कोई जिम्मेवारी है ऐसी जिसकी वजह से उन्हें किसी घर में बंधा हुआ रहना पड़े, न उन पर कोई निर्भर है, न उनके यहां-वहां हट जाने से कहीं भी कोई पीड़ा और कहीं भी कोई दुख और कहीं भी कोई अड़चन आती है। ऐसा जो तीसरा वर्ग होगा संन्यासियों का, यह तीसरा वर्ग ध्यान में जीए, ध्यान की खबरें ले जाए, ध्यान को लोगों तक पहुंचाए।
मुझे ऐसा लगता है कि इस समय पृथ्वी पर जितनी ध्यान की जरूरत है उतनी और किसी चीज की जरूरत नहीं है। और अगर हम पृथ्वी के एक बड़े मनुष्यता के हिस्से को ध्यान में लीन नहीं कर सके, तो शायद आदमी ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहेगा। आदमियत ज्यादा दिन बच नहीं सकती। आदमी समाप्त हो सकता है। इतना मानसिक रोग है, इतने पागलपन हैं, इतनी विक्षिप्तता है, इतनी राजनैतिक बीमारियां हैं, कि उन सबके बीच आदमी बचेगा, इसकी उम्मीद रोज कम होती जाती है। अगर इस बीच एक बड़े व्यापक पैमाने पर लाखों लोग ध्यान में नहीं डूब जाते, तो शायद हम मनुष्य को नहीं बचा सकेंगे। और या हो सकता है कि मनुष्य बच भी जाए तो सिर्फ यंत्र की भांति बचे, उसकी मनुष्यता का जो भी श्रेष्ठ है वह सब खो जाए।
इसलिए एक ऐसा वर्ग भी चाहिए युवकों का, युवतियों का, जिन पर कोई जिम्मेवारी न हो अभी, या वृद्धों का, जो जिम्मेवारी के बाहर जा चुके हों, जिनकी जिम्मेवारी समाप्त हो गई हो, जो जिम्मेवारी पूरी कर चुके हों। उन युवकों का जिन्होंने अभी जिम्मेदारी नहीं ली है, उन वृद्धों का जिनकी जिम्मेदारी जा चुकी है--इनका एक वर्ग चाहिए जो विराट पैमाने पर पृथ्वी को ध्यान में डुबाने में संलग्न हो जाए।
जिस ध्यान के प्रयोग की मैं बात कर रहा हूं वह इतना आसान है, इतना वैज्ञानिक है कि अगर सौ लोग करें, तो सत्तर प्रतिशत लोगों को तो होगा ही। सिर्फ शर्त करने की है और किसी पात्रता की कोई अपेक्षा नहीं है। सत्तर प्रतिशत लोगों को तो परिणाम होंगे ही। फिर जिस ध्यान की मैं बात कर रहा हूं उसके लिए किसी धर्म की कोई पूर्व अपेक्षा नहीं है, किसी शास्त्र की कोई पूर्व अपेक्षा नहीं है, किसी श्रद्धा और किसी विश्र्वास की पूर्व अपेक्षा नहीं है। सीधा, जैसे आप हैं वैसे ही उस ध्यान में आप उतर सकते हैं। वह सीधा वैज्ञानिक प्रयोग है। आपसे यह भी अपेक्षा नहीं है कि आप श्रद्धा रख कर उतरें। इतनी ही अपेक्षा है कि एक हाइपोथेटिकल, जैसा एक वैज्ञानिक प्रयोग करता है यह जानने के लिए कि देखें होता या नहीं, इतना ही प्रयोग का
भाव लेकर भी अगर आप ध्यान में उतरें, तो भी हो जाएगा।
और मुझे ऐसा लगता है कि एक चेन रिएक्शन, एक श्रृंखलाबद्ध ध्यान की प्रक्रिया सारी पृथ्वी पर फैलाई जा सकती है। और अगर एक व्यक्ति ध्यान को सीख ले और तय कर ले कि सात दिन न बीत पाएंगे तब तक वह एक व्यक्ति को कम से कम ध्यान सिखाएगा, तो हम दस वर्ष में इस पूरी पृथ्वी को ध्यान में डुबा दें। इससे ज्यादा बड़े श्रम की जरूरत नहीं है।
और मनुष्य के जीवन में जो भी श्रेष्ठ खो गया है, वह सब वापस लौट सकता है। और कोई कारण नहीं है कि कृष्ण फिर पैदा क्यों न हों, क्राइस्ट फिर क्यों न दिखाई पड़ें, बुद्ध फिर क्यों न हमारे पास, हमारे निकट मौजूद हो जाएं। वही बुद्ध नहीं लौटेंगे, वही कृष्ण नहीं लौटेंगे; हमारे भीतर सारी क्षमताएं हैं, वे फिर प्रकट हो सकती हैं। इसलिए मैंने गवाह होने का तय किया है।
इन तीन वर्गों में जो मित्र भी जाना चाहेंगे, उनके लिए मैं गवाह रहूंगा। उनका गुरु नहीं रहूंगा। संन्यास उनका और परमात्मा के बीच का संबंध होगा। इसके लिए कोई उत्सव नहीं किया जाएगा संन्यास देने के लिए, नहीं तो फिर छोड़ते वक्त भी उलटा उत्सव करना पड़ता है। इसे कोई गंभीर बात नहीं समझी जाएगी, यह कोई सीरियस अफेयर नहीं है। इसके लिए इतना परेशान और इतना चिंतित होने की जरूरत नहीं है। यह बड़ी सहज बात है। एक आदमी सुबह उठता है और उसके मन में आता है कि वह संन्यासी हो जाए, वह हो जाए। कठिनाई इसलिए नहीं है क्योंकि यह कमिटमेंट कोई लाइफ लांग नहीं है, यह कोई जिंदगी भर की बात नहीं है कि उसने तय कर लिया तो अब जिंदगी भर उसे रहना है। अगर कल सुबह उसे लगता है कि नहीं, वापस लौटना है, तो वह वापस लौट जाए। इसमें किसी दूसरे का कोई लेना-देना नहीं है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। इस संबंध में कुछ भी आपको सवाल हों, तो वे थोड़े से सवाल पूछ लें तो उनकी बात हो जाएगी।
भगवान, भगवे कपड़े पहनने का क्या मतलब होता है?
कपड़े पहनने से कोई संन्यासी नहीं होता, लेकिन संन्यासी भी अपने ढंग के कपड़े पहनता है। कपड़े पहनने से कोई संन्यासी नहीं होता, लेकिन संन्यासी के अपने कपड़े हो सकते हैं। कपड़े बड़ी साधारण चीज हैं, लेकिन एकदम व्यर्थ चीज नहीं हैं।
आप क्या पहनते हैं, इसके बहुत से अर्थ हैं। आप क्यों पहनते हैं, इसके भी बहुत से अर्थ हैं। एक आदमी ढीले-ढाले कपड़े पहनता है। ढीले-ढाले कपड़े पहनने से कुछ फर्क नहीं पड़ता, लेकिन एक आदमी ढीले-ढाले कपड़े क्यों चुनता है? और एक आदमी चुस्त कपड़े क्यों चुनता है? ये उस आदमी के सूचक होते हैं। अगर आदमी बहुत शांत है तो चुस्त कपड़े पसंद नहीं करेगा। चुस्त कपड़े की पसंदगी इस बात की खबर देती है कि आदमी झगड़ालू हो सकता है, अशांत हो सकता है, उपद्रवी हो सकता है, कामुक हो सकता है। लड़ने के लिए ढीले कपड़े ठीक नहीं पड़ते। इसलिए सैनिक को हम ढीले कपड़े नहीं पहना सकते। सिर्फ साधु को पहना सकते हैं। सैनिक को चुस्त कपड़े ही पहनने चाहिए, काम चुस्त कपड़े का है। जहां वह जा रहा है वहां कपड़े इतने कसे होने चाहिए कि उसे पूरे वक्त लगता रहे कि वह अपने शरीर के बाहर छलांग लगा सकता है। पूरे वक्त लगता रहे कि वह जब चाहे शरीर के बाहर कूद सकता है। कपड़े इतने चुस्त होने चाहिए। ये कपड़े उसे लड़ने में सहयोगी हो जाएंगे।
गैरिक वस्त्रों का भी उपयोग है। ऐसा नहीं कि गैरिक वस्त्रों के बिना कोई संन्यासी नहीं हो सकता। लेकिन गैरिक वस्त्रों का उपयोग है। और जिन्होंने वे खोजे थे, उनके पीछे बहुत कारण थे।
पहला कारण तो यह था। कभी छोटे-मोटे, हम तो सोचते नहीं, प्रयोग भी नहीं करते, इसलिए बड़ी कठिनाई होती है। सात रंगों की सात बोतलें ले लें और उनमें एक ही नदी का पानी भर दें। और सातों को सूरज की रोशनी में टांग दें। और आप बड़े हैरान हो जाएंगे! सातों रंग के कांच सात रंग के पानी पैदा कर देंगे उन बोतलों में। पीले रंग की बोतल का पानी जल्दी सड़ जाएगा, ज्यादा देर स्वच्छ नहीं रह सकता। लाल रंग की बोतल का पानी महीने भर तक स्वच्छ रह जाएगा, सड़ेगा नहीं। आप कहेंगे, क्या किया बोतल ने? कांच का रंग किरणों को आने-जाने में फर्क डाल रहा है। पीले रंग की बोतल पर और तरह की किरणें भीतर प्रवेश कर रही हैं। लाल रंग की बोतल पर और तरह की किरणें प्रवेश कर रही हैं। नीले रंग की बोतल पर और तरह की किरणें प्रवेश कर रही हैं। वह जो भीतर पानी है, वह उन किरणों को पी रहा है, वे उसका आहार बन रही हैं।
हजारों सालों के लंबे प्रयोग के बाद, जिन लोगों ने संन्यास पर बहुत प्रयोग किए उन्होंने बहुत तरह के कपड़ों में गैरिक वस्त्र को चुना था। कई अनुभव हैं उसके पीछे। एक तो बहुत अदभुत अनुभव यह है...जो लोग फिजिक्स को थोड़ा समझते हैं, उनके खयाल में होगा...कि जिस रंग का कपड़ा होता है, उस रंग की किरण हमसे वापस लौट जाती है। आमतौर से हम उलटा समझते हैं। आमतौर से हम समझते हैं कि जो कपड़ा लाल है, वह लाल होगा। असलियत यह नहीं है। असलियत उलटी है।
सूरज की किरणों में सात रंग होते हैं। और जब सूरज की किरण किसी चीज पर पड़ती है, अगर आपको लाल कपड़ा दिखाई पड़ रहा है तो उसका मतलब यह है कि सूरज की किरण के छह रंग तो वह कपड़ा पी गया, लाल रंग को उसने वापस लौटा दिया। आपको वही रंग दिखाई पड़ता है जो चीजें वापस लौटा देती हैं। नीले रंग की चीज का मतलब है, नीले रंग की किरण वापस लौट गई। उसे उस चीज ने एब्जॉर्व नहीं किया, उसने पीया नहीं। वह वापस छोड़ दी गई। वह किरण लौट कर आपकी आंख में पड़ती है इसलिए वह आपको चीज नीली दिखाई पड़ती है। और मजे की बात यह है कि वह चीज नीले रंग को पीती ही नहीं। वह उसको छोड़ देती है। जिस रंग का कपड़ा आप पहन रहे हैं, उस रंग की किरण आपके भीतर प्रवेश नहीं करेगी।
गैरिक वस्त्र बहुत सोच कर चुने गए। लाल रंग की किरण मनुष्य के चित्त में बहुत तरह की कामुकताओं को जन्म देती है। बहुत वाइटल है। लाल रंग की जो किरण है, वह शरीर के भीतर प्रवेश करके मनुष्य की सेक्सुअलिटी को उभारती है। इसलिए गर्म मुल्क के लोग ज्यादा कामुक होते हैं। जितना गर्म मुल्क होगा, उतने लोग ज्यादा कामुक होंगे। इसलिए आप हैरान होंगे यह जान कर कि कामसूत्र के मुकाबले की कोई किताब ठंडे मुल्कों में पैदा नहीं हुई। अरेबियन नाइट्स जैसी कोई किताब ठंडे मुल्कों में पैदा नहीं हुई। गर्म मुल्क बहुत कामुक होते हैं। सूरज की तेज तपती हुई किरणें हैं, वे सब शरीर में प्रवेश कर जाती हैं।
संन्यास पर जो लोग बहुत तरह के प्रयोग कर रहे थे, हजारों दिशाओं में, उनमें उनको यह भी खयाल आया कि अगर लाल किरण शरीर से वापस लौटाई जा सके तो कामुकता को शांत करती है। इसलिए गैरिक वस्त्र चुना गया। ठेठ लाल भी चुना जा सकता था, लेकिन थोड़ा सा फर्क किया गया, ऑरेंज। ठेठ लाल नहीं चुना। उसमें एक बड़ी अदभुत बात है। लाल चुना जा सकता था, बिलकुल लाल रंग और भी अच्छा होता, वह लाल किरण को बिलकुल ही वापस कर देता। लेकिन अगर लाल किरण बिलकुल वापस हो जाए तो शरीर के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचना शुरू हो जाता है। वह थोड़ी सी तो जानी चाहिए।
और भी एक कारण है कि लाल किरण अगर मेरे कपड़ों से पूरी तरह वापस लौटे तो जिसकी भी आंख पर पड़ती है उसको भी नुकसान पहुंचाती है। अब बड़े मजे की बात है कि संन्यासी ने इसकी भी चिंता की कि उसके कपड़े से किसी को बहुत नुकसान भी न पहुंच जाए।
आप लाल रंग का कपड़ा जरा बैल के सामने कर दें--आपने कभी की है कोशिश?--तो आपको पता चलेगा कि बैल भी कुछ रंगों को समझता है। बैल भी झिड़कता है लाल रंग के कपड़े को देख कर। उसकी आंख पर लाल रंग की चोट गहरी पड़ती है।
आप जान कर हैरान होंगे कि जो लोग कलर साइकोलाजी पर, रंग के मनसशास्त्र पर काम करते हैं, उनके बड़े अदभुत अनुभव हुए हैं। आज तो पश्र्चिम में रंग पर बहुत काम चलता है, क्योंकि रंग के बहुत उपयोग उनके खयाल में आ गए हैं। अभी एक बहुत बड़े दुकानदार ने, एक सुपर स्टोर के मालिक ने अमेरिका में एक रिसर्च करवाई कि हम अपनी चीजें जिन डिब्बों में रखते हैं, उन पर हम किस तरह के रंग लगाएं कि बिक्री पर उसका असर पड़े। तो बड़ी हैरानी की बात हुई। बड़ी हैरानी की बात यह हुई कि जो स्त्रियां खरीदने आती हैं उस सुपर स्टोर में, उन पर रिसर्च चलती रहती है पूरे वक्त कि जितनी स्त्रियां वहां आती हैं, पूरे वक्त रिकार्ड किया जाता है कि उनकी आंखें सबसे ज्यादा किस रंग के डिब्बे को पकड़ती हैं। तो यह पाया गया कि वही डिब्बा अगर पीले रंग में पोता जाए तो बीस प्रतिशत बिक्री होती है। और वही डिब्बा अगर लाल रंग में पोत दिया जाए तो अस्सी प्रतिशत बिक्री हो जाती है। डिब्बा वही, चीज वही, नाम वही, सिर्फ रंग डिब्बे का बदल दिया जाए। लाल रंग स्त्रियों की आंख को बहुत जोर से पकड़ लेता है। इसलिए सारी दुनिया में स्त्रियों ने लाल रंग के कपड़े सबसे ज्यादा पहने हैं।
लाल रंग न रखने के भी कारण हैं। लाल से थोड़ा सा शेड हटाया है, गैरिक किया है। यह जो गैरिक, यह जो ऑकर कलर है, इसमें लाल के सारे फायदे हैं और लाल का कोई भी नुकसान नहीं है। एक तो कामुकता को यह बहुत क्षीण करता है भीतर। और दूसरी बात--बहुत सी बातें हैं, सारी बात तो नहीं कह सकूंगा, क्योंकि बहुत लंबा मामला है। अगर रंग की सारी बात समझनी हो तो बहुत लंबी बात है। लेकिन थोड़ी सी बातें खयाल में ली जा सकती हैं। गैरिक रंग सूर्य के ऊगने का रंग है। जब सुबह सूर्य ऊग रहा होता है, बस फूट रही है पौ, सूरज निकलना शुरू हुआ है, उस वक्त का रंग है। ध्यान में भी जब प्रवेश शुरू होता है, तो जो पहले प्रकाश का रंग होता है वह गैरिक है। और जो प्रकाश का अंतिम अनुभव होता है वह नील है। गैरिक रंग का अनुभव शुरू होता है भीतर प्रकाश में और नील पर अंत होता है, नीले रंग पर पूरा हो जाता है।
ध्यान के पहले चरण की सूचना उस रंग में है। और जब संन्यासी ध्यान में प्रवेश करता है, तो उसे वे रंग दिखाई पड़ने शुरू होते हैं। और अगर वह दिन भर भी, खुली आंख में भी उस रंग को बार-बार देख लेता है, तब रिमेंबरिंग वापस लौट जाती है। और दोनों के बीच एक एसोसिएशन हो जाता है, एक अंतर्संबंध हो जाता है। जब भी वह अपने गैरिक वस्त्र को देखता है, तभी उसे ध्यान का स्मरण आता है। वह दिन में पच्चीसों दफा अकारण उसको ध्यान का स्मरण आ जाता है और वह वापस डूब जाता है।
आप बाजार जाते हैं, कोई चीज लानी है खरीद कर, आप एक कपड़े में गांठ लगा लेते हैं। गांठ से चीज लाने का कोई संबंध है? कोई भी तो संबंध नहीं है। लेकिन बाजार में अचानक गांठ की खयाल आती है और फौरन याद आ जाता है कि फलानी चीज ले आनी है। गांठ से एसोसिएशन हो गया। गांठ से एक कंडीशनिंग हो गई।
पावलफ ने एक प्रयोग किया था। पावलफ एक कुत्ते के सामने रोटी रखता है। साथ में घंटी बजाता रहता है। रोटी देख कर कुत्ते के मुंह से लार टपकती है। फिर पंद्रह दिन बाद रोटी देना बंद कर देता है, सिर्फ घंटी बजाता है। लेकिन घंटी सुन कर भी कुत्ते के मुंह से लार टपकने लगती है। क्या हो गया इस कुत्ते को? घंटी और रोटी में एक अंतर्संबंध, एक एसोसिएशन हो गया। एक कंडीशंड रिफ्लेक्स पैदा हो गया। अब कुत्ते को घंटी का बजना तत्काल रोटी की याद बन जाती है।
हम पूरी जिंदगी इसी तरह जी रहे हैं। हम पूरी जिंदगी इसी तरह कर रहे हैं। लेकिन हमने सब तरह के गलत कंडीशंड रिफ्लेक्स पैदा किए हुए हैं।
ध्यान का पहला रंग का जो अनुभव है, वह अगर संन्यासी को दिन में पच्चीस-पचास दफे, सौ बार याद आ जाए...जब भी वह उठे, जब भी वह बैठे, जब भी वह सोए, जब भी वह स्नान करने जाए, जब भी कपड़े उतारे, जब भी कपड़े निकाले...तो बार-बार उसे ध्यान की सुध लौट आती है। वह गांठ हो गई उसके पास, जो उसके काम पड़ जाती है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि कोई गैरिक वस्त्र पहने बिना संन्यासी नहीं हो सकता। संन्यास इतनी बड़ी चीज है कि वस्त्रों से उसे बांधा नहीं जा सकता। लेकिन वस्त्र एकदम व्यर्थ नहीं हैं। उनकी अपनी अर्थवत्ता है। इसलिए मैं पसंद करूंगा कि सारी पृथ्वी पर लाखों लोग गैरिक वस्त्रों में दिखाई पड़ें।
भगवान, साधक और संन्यासी में क्या फर्क है? और क्या बिना संन्यासी हुए कोई साधक नहीं हो सकता?
संन्यासी हुए बिना तो कोई साधक नहीं हो सकता। साधक का मतलब संन्यास की शुरुआत है। असल में साधक का मतलब संन्यास को साधना है। संन्यास साधना है, और क्या साधक करेगा? उसे जगत में धीरे-धीरे समस्त सुख-दुखों के पार होकर आनंद को उपलब्ध होना है, उसे कर्ता के पार होकर साक्षी को उपलब्ध होना है, उसे अहंकार के पार होकर शून्य को उपलब्ध होना है, उसे पदार्थ के पार होकर परमात्मा को उपलब्ध होना है। इन सबका इकट्ठा नाम संन्यास है। साधक का मतलब है, संन्यास शुरू कर रहा है वह। सिद्ध का मतलब है, संन्यास पूरा हो गया। साधक का मतलब है, संन्यास शुरू हुआ; सिद्ध का मतलब है, संन्यास पूरा हो गया। दोनों के बीच में जो यात्रा है वह संन्यास की यात्रा है। संन्यास के लिए ही तो साधना है।
तो साधक का अर्थ ही यह है कि वह संन्यास की खोज में निकला है। लेकिन मेरे संन्यास का मतलब खयाल में रखना आप। मेरा संन्यास उपलब्धि का है, पाने का है, रोज विराट, रोज विराट को पाते चले जाना है।
भगवान, आपके संन्यासी की दिनचर्या क्या होगी?
‘संन्यासी’ की दिनचर्या क्या होगी! ‘मेरे संन्यासी’ की नहीं, क्योंकि ‘मेरा संन्यासी’ कैसे होगा! संन्यासी की दिनचर्या की बात करें। असल में दिनचर्या जब भी हम बनाते हैं तभी नुकसान पहुंच जाता है।
एक झेन फकीर से किसी ने पूछा कि आपकी दिनचर्या क्या है? उसने कहा: जब मुझे नींद आती है तब मैं सो जाता हूं और जब मेरी नींद खुलती है तब मैं उठ आता हूं। और जब मुझे भूख लगती है तब मैं खाना खा लेता हूं और जब मुझे भूख नहीं लगती है तो मैं खाना बिलकुल नहीं खाता।
ठीक कही उसने बात। संन्यासी का मतलब यह है कि जो थोप नहीं रहा कुछ, जीवन को सहजता में ले जा रहा है। हम सब बड़े अजीब लोग हैं। जब नींद आती होती है तब हम रोकते हैं, जब नहीं आती होती है तब हम करवट बदल कर सोने का मंत्र पढ़ते हैं। जब भूख नहीं होती तब खा लेते हैं, जब भूख होती है तब रुके रहते हैं क्योंकि अभी समय नहीं हुआ। हम पूरी जिंदगी को अस्तव्यस्त कर देते हैं। और शरीर की जो अपनी एक अंतर-व्यवस्था है उसको नष्ट कर देते हैं।
संन्यासी का मतलब है कि वह जो व़िजडम ऑफ दि बॉडी है, जो शरीर की अपनी अंतरप्रज्ञा है, उसके अनुसार जीएगा। वह सोएगा, जब उसे नींद आ जाती है। जागेगा, जब नींद खुल जाती है। ब्रह्ममुहूर्त में नहीं उठेगा, जब नींद खुलती है उसको ब्रह्ममुहूर्त कहेगा। वह कहेगा, जब भगवान उठा देता है तब मैं उसे ब्रह्ममुहूर्त कहता हूं। ऐसा सहज होगा। इसलिए मैं कोई चर्या नहीं बता सकता। और फिर जब भी चर्या तय की जाती है तभी कठिनाइयां शुरू होती हैं। क्योंकि तय मैं अपने हिसाब से करूंगा। और मेरा हिसाब आपका हिसाब नहीं हो सकता। अगर मैं कहूं, तीन बजे रात उठना है, तो हो सकता है मुझे तीन बजे रात उठना आनंदपूर्ण पड़ता हो और आपके लिए बीमारी का कारण हो जाए। हर आदमी के शरीर की अपनी व्यवस्था है।
अब हमको खयाल में नहीं होता। आमतौर से लोग मुझे कहते हैं कि आजकल की स्त्रियां बहुत अलाल हो गई हैं, पति को उठ कर चाय बनानी पड़ती है, पत्नी सोई रहती है। लेकिन आपको पता नहीं है, यह बिलकुल उचित है। स्त्रियों के उठने की जो अंतर-व्यवस्था है, वह पुरुषों से दो घंटा पिछड़ी हुई है, पीछे है। अगर पुरुष पांच बजे उठ सकता है, तो स्त्री सात बजे उठ सकती है।
इस पर बहुत काम हुआ है। रिसर्च स्लीप पर जो चलती है सारी दुनिया में, उससे बड़ी हैरानी के अनुभव हुए हैं। वे अनुभव यह हैं कि चौबीस घंटे में दो घंटे के लिए आदमी के शरीर का तापमान नीचे गिर जाता है। सबके शरीर का। आपको अक्सर खयाल हुआ होगा कि सुबह चार बजे के करीब सर्दी लगने लगती है। वह सर्दी बढ़ने के कारण नहीं लगती, आपके शरीर का तापमान गिर गया होता है। दो घंटे के लिए चौबीस घंटे में हर आदमी के शरीर का तापमान गिरता है। और वे जो दो घंटे हैं, सबके अलग-अलग हैं। किसी का दो बजे से चार बजे के बीच गिरता है रात में। किसी का तीन से पांच के बीच गिरता है। किसी का पांच से सात के बीच गिरता है। वे जो दो घंटे हैं, वही गहरी नींद के घंटे हैं, जिस आदमी को वे दो घंटे नींद के नहीं मिले वह दिन भर परेशान रहेगा। लेकिन वे सबके अलग-अलग हैं। कोई दस हजार लोगों पर अमेरिका में पिछले पांच वर्षों में नींद पर प्रयोग किए गए हैं। और यह पाया गया कि वह समय हर आदमी का अलग है।
इसलिए अब कोई निश्र्चय नहीं किया जा सकता है कि आप कब उठें! आप पर ही छोड़ा जाएगा कि आप उठ कर सब तरह से देख लें कुछ दिन प्रयोग करके और जिसमें आप दिन भर ताजे रहते हों, वही क्षण आपके उठने का है। और जिसमें आप रात भर गहरे सोते हों, वही क्षण आपके सोने का है।
न समय की लंबाई तय की जा सकती है। कोई आदमी पांच घंटे में पूरी नींद ले सकता है, कोई सात घंटे में, किसी को आठ घंटे भी लग सकते हैं। कोई तीन घंटे में भी कर सकता है। लेकिन जो आदमी तीन घंटे में कर लेता है वह खतरनाक हो जाता है। वह दूसरों को कहता है, अलाल हो, तामसी हो। पागल हो गए हो? वह तीन घंटे में सो लिया है इसलिए वह बड़ा अहंकार से भर जाता है। वह सोचता है कि हम कोई बड़ा सात्विक कार्य कर रहे हैं। बाकी लोग जो छह घंटे सो रहे हैं, तामसी हैं। वह उनकी तरफ निंदा के भाव से देखना शुरू कर देता है। और अगर उसको किताब वगैरह लिखना आता हो, तब तो बहुत खतरा हो जाता है। वह नियम बना जाता है। वह नियम बना देता है सख्ती से कि तीन बजे रोज उठना, नहीं तो नरक में जाओगे। लेकिन तीन बजे आप उठे कि आप नरक में जाने के पहले ही नरक में चले जाओगे।
कितना खाना, क्या खाना, क्या पहनना, कैसे पहनना, कैसे सोना, इस सबकी बहुत ही सामान्य चर्चा की जा सकती है, चर्या नहीं बनाई जा सकती। चर्या तो आपको अपनी सदा तय करनी पड़ती है। इनडिविजुअल टु इनडिविजुअल, एक-एक व्यक्ति को अपनी ही तय करनी पड़ती है। अपनी ही तय करनी चाहिए भी। इतनी तो स्वतंत्रता कम से कम रखिए। संसारी नहीं रख पाता, संन्यासी तो रख सकता है। संन्यासी को तो रखनी ही चाहिए। उसको तो सख्ती से रखनी चाहिए कि उसके लिए जो सुखद है, जो शांतिपूर्ण है, जो आनंदपूर्ण है, वह वैसे जीएगा। एक ही बात ध्यान में रखने की है कि उसके कारण किसी को दुख, पीड़ा, परेशानी न हो, किसी को भी। ऐसे जीएगा, इतनी चर्या उसके लिए पर्याप्त होगी। यह विस्तार में मुझे आपसे बात करनी पड़े, क्योंकि सामान्य बात की जा सकती है, क्या खाना, क्या नहीं खाना, लेकिन सख्त नहीं हुआ जा सकता।
अब हम देखते हैं कि एक आदमी सिगरेट पी रहा है। अब सारी दुनिया उसके खिलाफ है, लेकिन वह पीए चला जा रहा है। डाक्टर उसको समझा रहे हैं कि तुम बीमार हो जाओगे। वह कहता है कि मानता हूं, बिलकुल सच जंचता है, लेकिन नहीं छूट सकती। क्या मामला क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि सिगरेट उसके लिए कोई बहुत जरूरी हिस्सा पूरा करती हो?
करती है। मैक्सिको में इधर एक अन्वेषण कार्य चलता था, तो पाया गया कि जो लोग सिगरेट पीने में बड़े पागल हो जाते हैं, इनके शरीर में निकोटिन की कमी होती है। उनको निकोटिन किसी न किसी तरह पूरा करना पड़ता है। वे चाहे सिगरेट से पूरा करें, चाहे चाय से पूरा करें, चाहे कॉफी से, चाहे कोको से, चाहे तमाखू खाएं, इन सबमें निकोटिन है। वे कहीं न कहीं से निकोटिन पूरा करेंगे। मगर बेचारे बड़े फंस जाएंगे। और अनैतिक हो जाएंगे।
अब एक आदमी धुआं भीतर ले जाता है, बाहर निकालता है, इसमें कोई अनीति का काम नहीं कर रहा है। कर रहा है तो ज्यादा से ज्यादा नासमझी का काम कर रहा है, अनीति का नहीं कर रहा है। धुआं भीतर ले जाने और बाहर निकालने में कौन सी अनीति है? हां, दूसरे की नाक पर न छोड़ता हो, इतना भर काफी है। दूसरे से पूछ लेता हो कि आप आज्ञा देते हैं कि मैं जरा धुआं बाहर-भीतर कर सकूं? यह आदमी धुआं बाहर-भीतर करता है, इसमें अनीति किसी के साथ कुछ करता नहीं। एक इनोसेंट नानसेंस करता है। कहना चाहिए एक निर्दोष बेवकूफी करता है। धुआं भीतर ले जाता है, बाहर ले जाता है। लेकिन हो सकता है कि इसकी जरूरत हो। अच्छा तो यह हो कि यह जाकर समझे-बूझे।
लेकिन शरीर के बाबत भी हमारी जानकारी बहुत कम है। इतना चिकित्साशास्त्र विकसित हुआ, फिर भी जानकारी बहुत कम है। अभी भी हम शरीर के पूरे रहस्यों को नहीं समझ पाए हैं कि शरीर की क्या मांग है, क्या जरूरत है, क्या मुसीबत है, क्या कठिनाई है। लेकिन शरीर अनजाने रास्तों से हमें पकड़ कर अपनी जरूरत पूरी करवाता है। वह कहता है कि सिगरेट पीओ, वह कहता है कि तमाखू खाओ। फिर जब पकड़ लेता है तो उसकी तृप्ति होने लगती है, फिर वह छोड़ता नहीं। ऐसा नहीं है कि जो लोग पीते हैं, सभी के भीतर कमी होगी। दस में से नौ तो दूसरे को देख कर पीते हैं। और जब देख कर पीने लगते हैं तो फिर एक तरह की आदत और एक तरह की मेकेनिकल हैबिट पकड़नी शुरू हो जाती है। फिर वे पीते चले जाते हैं। फिर न पीएं तो मुसीबत होने लगती है।
लेकिन कुछ भी बात तय नहीं की जा सकती ऊपर से। और निश्र्चित रूप से सबके लिए कोई एक योजना नहीं बनाई जा सकती कि आदमी ऐसा उठे, ऐसा बैठे, ऐसा सोए, ऐसा खाए-पीए। हां, कुछ मोटी बातें कही जा सकती हैं। जो भी करे, जाग्रत, जो भी करे, होशपूर्वक करे। जो भी करे, अपने सुख और दूसरे के सुख का ध्यान रख कर करे। जो भी करे, उससे स्वास्थ्य, शांति और आनंद बढ़ता हो, उस दिशा में करे; घटता हो, उस दिशा में न करे। जो भी खाए-पीए वह बोझ न बन जाता हो, हलका करता हो, स्वस्थ करता हो, ताजा करता हो। जो भी खाए-पीए उससे अकारण, अनावश्यक हिंसा न होती हो; अनावश्यक, अकारण किसी को चोट, दुख, पीड़ा न होती हो। जो भी भोजन में ले, उसमें स्वास्थ्य का ध्यान महत्वपूर्ण हो। स्वाद लेने की कला सीखे। स्वाद वस्तुओं पर कम निर्भर रह जाए, भोजन करने की कला पर ज्यादा निर्भर हो जाए, ऐसी मोटी बातें की जा सकती हैं। और इन मोटी बातों के आधार पर अपने व्यक्तित्व को देख कर निर्णय लेने चाहिए।
न किसी और की कोई डिसिप्लिन है, न कोई अनुशासन है। प्रत्येक व्यक्ति आत्मनियंता है। और संन्यास का तो मतलब ही यह है कि हम अपने निर्णय का अधिकार घोषित करते हैं कि अब हम अपने को अपने ही ढंग से निर्धारित करेंगे।
आप कहेंगे, इसमें कोई गलती करे?
करे तो गलती का दुख भोगेगा। इसमें आपको परेशान होने की जरूरत नहीं। गलती करे, तो जैसा गलती कोई करता है उसका दुख पाता है, पाएगा। ठीक करेगा, सुख पाएगा। दूसरे गलती न करें, इसमें दूसरों को बहुत उत्सुकता नहीं लेनी चाहिए। क्योंकि दूसरों की यह उत्सुकता अनैतिक है। आप दूसरों को गलती तक न करने देंगे, तो आप कौन हैं? दूसरे को गलती करनी है, करने दें। उसी सीमा पर उसे रोका जा सकता है, जहां उसकी गलती दूसरे के लिए पीड़ादायी बने, अन्यथा नहीं रोका जा सकता। वह अपनी गलती करता रहे। उसकी गलती अगर दुख लाती है तो उसको ले आएगी। और संन्यासी का मतलब यह है कि वह विवेक से जी रहा है, वह जांच रहा है पूरे समय कि कौन सी चीज से दुख आता है, कौन सी चीज से सुख आता है। जिससे सुख आता है उसको वह स्वीकार करेगा, जिससे दुख आता है, धीरे-धीरे उसे छोड़ेगा। वह धीरे-धीरे अपने आनंद की खोज की यात्रा पर निकला है। आप उसके लिए परेशान न हों।
लेकिन इधर मैं बहुत हैरान होता हूं। यहां संन्यासी जितना चिंतित नहीं होता, उसके आस-पास जो लोग इकट्ठे होते हैं वे चिंतित होते हैं कि कोई गलती तो नहीं कर रहा है?
ये जो सेल्फ-अपाइंटेड जज हैं, पता नहीं इनको किसने पट्टा लिख कर दिया है कि तुम इसकी फिकर करना कि कोई गलती तो नहीं कर रहा है? कि संन्यासी ठीक वक्त पर सोया कि नहीं कि ब्रह्ममुहूर्त में उठता है कि नहीं? दिन में तो नहीं सो जाता? आप कौन हैं, आप क्यों पीछे पड़े हैं किसी के?
नहीं, इसके पीछे कारण है। हमको बड़ा रस आता है इसमें। ये टार्चर करने की तरकीबें हैं, ये दूसरे आदमी को सताने के उपाय हैं। और फिर हम कहते हैं कि हम आदर भी देते हैं तो इसी की वजह से देते हैं कि तुम गलती नहीं करते। तो हम सौदा भी तय कर लेते हैं। उस आदमी को हम फंसा देते हैं। उसको आदर चाहिए आपसे? तो फिर ठीक है, वह आपके नियम मान कर चलता है। और या होशियार हुआ, तो ऊपर से दिखाता है कि नियम मानता है, पीछे से नियम तोड़ता जाता है।
मैं संन्यासी को पाखंडी नहीं होने दे सकता हूं। और एक ही रास्ता है कि संन्यासी पाखंडी होने से बचे और वह यह है कि हम उसकी फिकर छोड़ दें, उसे अपनी फिकर करने दें। नहीं तो वह पाखंडी हो ही जाएगा। हमने सब संन्यासियों को पाखंडी, हिपोक्रेट कर दिया है। क्योंकि उनको हमने दिक्कत में डाल दिया है। अब एक साधुओं का वर्ग है जो नहा नहीं सकता, स्नान नहीं कर सकता। अब उसके आस-पास के लोग देखते रहते हैं कि स्नान तो नहीं कर लिया? अब उसको गंदगी में ढकेल रहे हैं, और वह गंदगी में ढंका जा रहा है। लेकिन उसको आदर दे रहे हैं, पैर छू रहे हैं बदले में; अब वह सोचता है कि नहाने की कीमत पर पैर छूना मिल रहा है, चलने दो सौदा। एकांत में मौका देख कर, पानी से कपड़े को गीला करके स्पंज वॉश कर लेता है, कुछ अपना थोड़ी-बहुत सफाई-सुथराई कर लेता है। मगर उसको चोरी और गिल्ट में हम ढकेल रहे हैं, वह नहाने के पीछे उसको हम धक्का दे रहे हैं।
अभी एक सज्जन मेरे पास आए। उन्होंने कहा: फलानी साध्वी आपके पास आती है। हमने सुना वह टूथपेस्ट करती है? मैंने कहा: तुम पागल हो गए हो? संन्यासिनी टूथपेस्ट करती है कि नहीं करती है, तुम कोई टूथपेस्ट का काम करते हो? क्या मतलब तुम्हारा? तो उन्होंने कहा कि हमारे समाज में तो दतौन करने की मनाही है। तो तुम मत करो, मैंने उनसे कहा, तुम्हारे समाज में मनाही है तो तुमसे कौन कहता है? वे मजे से टूथपेस्ट कर रहे हैं। उनका संन्यासी न कर पाए। क्योंकि उसका कारण है, वे आदर देते हैं, बदला भी मांगते हैं।
तो मैं अपने संन्यासी को, जिसको मैं संन्यासी समझ रहा हूं, उसको कहूंगा, आदर मत मांगना, अन्यथा बंधन शुरू हो जाएगा। मांगना ही मत। नहीं तो सब तरफ बेईमान और सब तरह के चोर इकट्ठे हैं, वे फौरन फंसा लेंगे। वे कहेंगे, आदर हम देते हैं, पैर हम छूते हैं, लेकिन हमारी भी शर्तें हैं, इतना-इतना करना। संन्यासी का मतलब यह है कि जो यह कहता है कि हम तुम्हारे समाज, तुम्हारी शर्तों की कोई चिंता नहीं करते। अब हमने अपनी चिंता करनी शुरू कर दी है, अब आप हमारी फिकर न करें।
व्यक्ति का विवेक ही उसका पथ-प्रदीप है।
भगवान, आपने अपने संन्यासी की चर्चा करते हुए कहा कि संन्यास आनंद की घटना है, त्याग की नहीं। मेरे खयाल से शंकराचार्य आनंद से संन्यासी हुए थे, और ये संन्यासी जो होंगे वे भी त्याग को नहीं बल्कि आनंद को महत्व देंगे, इसलिए इस अर्थों में वे भी आपके संन्यासी हुए। दूसरी बात यह कि आप अभिनय पर बल देते हैं, कृपया उसे स्पष्ट करें। कोई संन्यासी दुकान पर होकर ब्लैक मार्केटिंग का अभिनय भी तो कर सकता है! फिर, आप गैरिक वस्त्र पहनने के लिए तो कहते हैं, लेकिन आप स्वयं गैरिक वस्त्र क्यों नहीं पहनते?
तीसरे से शुरू करें, कि संन्यासी दुकान पर बैठ कर दुकानदार का अभिनय करेगा, यह तो ठीक, लेकिन वह ब्लैक मार्केटिंग का भी अभिनय कर सकता है!
करेगा तो इससे बहुत नुकसान नहीं होगा, क्योंकि वह संन्यासी न होता तो भी ब्लैक मार्केटिंग करता। इससे कोई नुकसान नहीं होगा किसी का। लेकिन मैं मानता हूं कि जिस आदमी को संन्यास का खयाल आया है और जो हिम्मत जुटा कर, साहस जुटा कर अपने जीवन में एक प्रयोग करने चला है और जो दुकानदार होने का अभिनय कर रहा है, वह ब्लैक मार्केटिंग का अभिनय नहीं कर सकेगा। क्योंकि ब्लैक मार्केटिंग करने के लिए अभिनय पर्याप्त नहीं है, कर्ता होना जरूरी है।
जितना बुरा काम करना हो उतना ही कर्ता होना आवश्यक होता चला जाता है। बुरे काम के करने के लिए, क्योंकि बुरे काम का आंतरिक दंश है, पीड़ा है, उसके लिए इनवाल्व होना जरूरी होता है, उसके लिए कमिटेड होना जरूरी होता है, उसके लिए डूबना जरूरी होता है। मैं किसी आदमी को अभिनय में छुरा नहीं मार सकता। मुश्किल पड़ेगा। क्योंकि दूसरे आदमी की जिंदगी दांव पर होगी। और अभिनय में छुरा मारने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
अभिनय की जो धारणा है, अगर ठीक से खयाल में आए तो पहला तो मैं यह कहता हूं कि अगर वह करेगा ब्लैक मार्केटिंग तो कोई नुकसान किसी का नहीं हो रहा है, क्योंकि जो संन्यासी होकर ब्लैक मार्केटिंग कर रहा है, वह संन्यासी नहीं होकर कर ही रहा था, करता ही, इसलिए कहीं कोई नुकसान नहीं हो रहा है। उसमें तो हमें चिंतित होने की जरूरत नहीं। संभावना यह भी है, मेरे लिए बहुत संभावना है, कि वह जो संन्यासी होने के खयाल से भरा है, वह ब्लैक मार्केटिंग का अभिनय करने नहीं जाएगा। नहीं जा सकता है। संन्यासी होने की जो प्रज्ञा है, संन्यासी होने का जो विवेक है, वही बताएगा कि उसे क्या करना, क्या नहीं करना। अभिनय वह वहीं करेगा जहां बिलकुल करणीय है, जो उसका बिलकुल कर्तव्य है, जिसे छोड़ कर भागना पलायन होगा, जिससे हट जाना जिम्मेवारी से बचना होगा, जिससे भाग जाना किसी के लिए दुख और पीड़ा का इंतजाम बना जाना होगा, उतना ही अभिनय करेगा। अभिनय तो हमेशा ही अत्यंत करणीय का, अत्यंत आवश्यक का हो जाएगा। अनावश्यक का अभिनय करने की जरूरत नहीं रह जाएगी, वे हिस्से काट दिए जाएंगे, अपने आप कट जाएंगे।
दूसरी बात आप कहते हैं गैरिक वस्त्रों के लिए, मैं क्यों नहीं गैरिक वस्त्र पहने हुए हूं?
जान कर ही। एक तो, इसके पहले कि मैं गैरिक वस्त्र पहनता, संन्यास घट गया। इसके पहले कि मुझे पता चलता कि गैरिक वस्त्र पहनूंगा तो संन्यास घटेगा, संन्यास पहले ही घट गया। पीछे पहनने का कोई अर्थ न रहा, कोई कारण न रहा। दूसरा, मैं गैरिक वस्त्र पहनूं और फिर कहूं कि गैरिक वस्त्र का कोई उपयोग है, तो शायद लगे कि मेरे ही जैसे वस्त्र दूसरों को भी पहना देने की आतुरता है। नहीं, अपनी शक्ल मैं किसी पर ओढ़ाना नहीं चाहता। इसलिए जो भी मैं पहनता हूं, जैसे भी मैं उठता-बैठता हूं, जैसे मैं जीता हूं, उसको किसी पर ओढ़ा देने का, किसी पर ढांक देने का जरा भी मन नहीं है।
गैरिक वस्त्र पहन कर गैरिक वस्त्र के संबंध में कुछ कहता, तो शायद लग सकता था कि मैं अपने वस्त्रों की तारीफ करता हूं। लेकिन मैं बिना गैरिक वस्त्र का हूं, इसलिए गैरिक वस्त्रों से मेरा कोई निजी लगाव नहीं है, इतना तो बहुत साफ है। इसलिए अगर गैरिक वस्त्र की कोई तारीफ करता हूं तो सिवाय वैज्ञानिक कारणों के और कोई कारण नहीं है। मैं खुद तो पहनता नहीं हूं, मेरा खुद का तो कोई लगाव नहीं है, मैं तो बिलकुल बाहर हूं।
तीसरी बात, आपने कहा कि शंकराचार्य ने भी आनंद से संन्यास लिया था।
मैं नहीं मानता हूं। शंकराचार्य का जगत के प्रति बड़ा निषेध का भाव है। निषेध इतना गहरा है कि वे जगत को माया सिद्ध करने की सतत चेष्टा में लगे हुए हैं। यह जगत झूठा है, यह जगत भ्रम है, यह जगत माया है, यह जगत है ही नहीं, इसे सिद्ध करने का उनका आग्रह इतना प्रगाढ़ है कि यह जगत उन्हें चारों तरफ से परेशान कर रहा है, यह भी साफ है। यह जगत का होना उन्हें इतना गड़ रहा है कि इसे इनकार किए बिना, स्वप्न बनाए बिना वे छुटकारा नहीं पा सकते। शंकर का निषेध बहुत गहरा है।
आनंद की बात शंकर करते हैं, लेकिन मेरे और उनके आनंद में भी बड़ा बुनयादी फर्क है। वे उस आनंद की बात करते हैं जो इस संसार के त्याग से उपलब्ध होता है। वे उस आनंद की बात करते हैं जो माया को छोड़ने से, ब्रह्म-मिलन से उपलब्ध होता है। मैं उस आनंद की बात करता हूं जो समस्त को, समग्र को, माया को, ब्रह्म को, संसार को, प्रभु को, सबको स्वीकार कर लेने से उपलब्ध होता है। निषेध मेरे मन में कहीं भी नहीं है। त्याग मेरे मन में कहीं भी नहीं है। शंकर अगर आनंद की बात भी करते हैं, तो वह संसार के त्याग में ही छिपा है। वह संसार को छोड़ देने में ही छिपा है। मेरे लिए आनंद इतना विराट है कि संसार भी उसमें समा जाता है, परमात्मा भी उसमें समा जाता है, सब उसमें समा जाते हैं। आनंद में मेरे लिए किसी बात का कोई भी निषेध नहीं है।
और, आखिरी बात कि जब मैंने कहा: अपने संन्यासी, तो जीभ के चूक जाने से नहीं कहा। जीभ मेरी अजीब है, चूकती मुश्किल से ही है। पहली दफा जिन मित्र ने पूछा था कि आपके संन्यासी, तो मैंने इनकार किया था कि ‘मेरे’ मत कहिए। लेकिन प्रयोजन मेरा दूसरा था। प्रयोजन मेरा यह था कि संन्यासी ‘मेरा’ कैसे हो सकता है! लेकिन जब मैंने दुबारा कहा तो जीभ नहीं चूकी। मैंने कहा: अपने संन्यासी।
संन्यासी मेरा नहीं हो सकता, लेकिन मैं तो संन्यासियों का हो सकता हूं। और उस संन्यासी की, उस आनंद के संन्यासी की, जिसकी मैं बात कर रहा हूं, उससे मेरा लगाव है। उससे लगाव की अपेक्षा नहीं है मेरे प्रति। उससे कोई अपेक्षा नहीं है कि वह मेरे प्रति किसी तरह का भी संबंध रखे। लेकिन मेरा लगाव है। और मेरा लगाव इसमें है कि मैं देखता हूं कि उस तरह के संन्यासी में ही भविष्य में संन्यास के बचने की संभावना है, आशा है, भविष्य है।
भगवान, आपने कहा कि संन्यास की दीक्षा व्यक्ति और परमात्मा के बीच की सीधी बात है। लेकिन तब प्रश्र्न उठता है कि दीक्षा में आपको गवाह व साक्षी के रूप में बीच में रखना क्या संन्यास के प्रति अविश्र्वास न हो जाएगा?
यह बिलकुल ठीक कहते हो कि तुम्हारे और परमात्मा के बीच की बात है, अगर इतना समझ में आ जाए तो मेरे साक्षी होने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन तुम यहां आए इसलिए हो कि तुम्हारे और परमात्मा के बीच सीधा संबंध नहीं बन रहा। नहीं तो तुम इधर किसलिए भटकते? इधर किसलिए परेशान होते?
यहां हमें आनंद आता है, इसलिए हम आते हैं।
तब तो मैं साक्षी हो जाऊंगा! उस हालत में मैं साक्षी हो जाऊंगा।
क्या आपके आस-पास फिर संप्रदाय न बन जाएगा?
आप पूछती हैं कि फिर संप्रदाय बन जाएगा। नहीं, संप्रदाय नहीं बनेगा। नहीं बनेगा इसलिए कि संप्रदाय बनाने के लिए कुछ जरूरतें हैं अनिवार्य। एक, गुरु चाहिए, शास्त्र चाहिए, सिद्धांत चाहिए, विशेषण चाहिए। और इतना ही नहीं, इसके अतिरिक्त, इससे भिन्न, इससे अन्यथा जो है वह पूर्ण रूप से गलत है और यही पूर्ण रूप से सही है, ऐसा आग्रह भी चाहिए।
तो एक तो मैं कह रहा हूं कि उसे मैं संन्यासी कहता हूं जिसका कोई विशेषण नहीं। बिना विशेषण के संप्रदाय बनाना मुश्किल है। बिना विशेषण के संप्रदाय बन नहीं सकता। उसे संन्यासी कह रहा हूं जिसका कोई धर्म नहीं है। बिना धर्म के संप्रदाय कैसे बनाइएगा? उसे संन्यासी कह रहा हूं जिसका कोई धर्मग्रंथ नहीं है, जिसका कोई धर्मगुरु नहीं है, जिसका कोई मंदिर नहीं है, मस्जिद नहीं है, शिवालय नहीं है, गुरुद्वारा नहीं है।
तो संप्रदाय बनना मुश्किल है। कोशिश हमें करनी चाहिए कि संप्रदाय न बने, क्योंकि संप्रदाय ने धर्म को जितना नुकसान पहुंचाया है उतना किसी और चीज ने नहीं पहुंचाया है। अधर्म ने नहीं पहुंचाया है इतना नुकसान धर्म को, जितना संप्रदायों ने पहुंचाया है। असल में मिट्टी-पत्थर नुकसान नहीं पहुंचाते, असली सिक्के को कभी भी नुकसान पहुंचता है तो सिर्फ नकली सिक्के से पहुंचता है, मिट्टी-पत्थर से नहीं पहुंचता। धर्म के असली सिक्के को कभी भी नुकसान पहुंचता है तो संप्रदाय के नकली सिक्के से पहुंचता है। उसके लिए बहुत सचेत होने की जरूरत है।
वह नहीं बन सकेगा, क्योंकि न तो मेरा कोई शिष्य है, न मैं किसी का गुरु हूं। और जिन लोगों के लिए मैं कह रहा हूं कि मैं गवाह हूं, उनको भी सिर्फ इसीलिए कह रहा हूं कि अभी तुम सीधे नहीं जुड़ पाते। सीधे जुड़ जाओ तो तुम मुझे परेशान मत करना। मैं नाहक परेशान होने को तैयार भी नहीं हूं। मेरा लेना-देना नहीं है कुछ। उससे मुझे कुछ संबंध नहीं है। अगर तुम सीधे ही जुड़ जाओ, इससे बेहतर तो कुछ भी नहीं है, इससे बेहतर तो कोई सवाल ही नहीं है। तब तो साक्षी का भी कोई सवाल नहीं है, गवाह का भी कोई सवाल नहीं है।
भगवान, माला और जो नामकरण है, उसका कोई विशेष अर्थ है?
हां, अर्थ है, अर्थ बहुत है। संन्यासी का नाम बदलने का बड़ा अर्थ है। सूचक। और हमारी जिंदगी में सभी कुछ सूचक है। एक नाम से आप जीते रहे हैं, एक नाम से आपकी आइडेंटिटी है। एक नाम आपका प्रतीक रहा है। आपके व्यक्तित्व का उससे जोड़ हो गया है। आप कल तक जो थे, उसके साथ आपके नाम का एसोसिएशन है। उससे वह जुड़ा है। संन्यासी का नाम बदलने का अर्थ यह है कि हम उसकी पुरानी आइडेंटिटी से उसे तोड़ते हैं। हम कहते हैं कि अब तुम वह नहीं रहे जो तुम कल तक थे। अब तुम एक नई यात्रा पर जाते हो, नई आइडेंटिटी लेकर जाते हो।
पुराने दिनों में जब दीक्षा दी जाती थी तो एक छोटा सा प्रयोग करते थे। वह प्रयोग यह था कि जैसे हम मुर्दे को नहलाते हैं, अरथी पर चढ़ाने के पहले, वैसे उसे नहलाते। जैसे हम मुर्दे के बाल घोंट देते हैं, सिर घोंट देते हैं, ऐसा उसका सिर घोंट देते। फिर जैसा मुर्दे को अरथी पर चढ़ाते हैं, ऐसा उसे अरथी पर चढ़ा देते। फिर अरथी में आग लगा देते। और फिर आस-पास खड़े वे सारे लोग, जिनको मैं साक्षी कहूंगा, विटनेस कहूंगा, वे उससे कहते कि अब जल जाने दो उसे जो तुम कल तक थे। और अब हम चिता से तुम्हें बाहर खींचते हैं, यह तुम्हारा पुनर्जन्म है, रि-बॉर्न, अब तुम द्विज हुए, दूसरा जन्म हुआ।
यह सिर्फ सिंबालिक रिचुअल था। अपने आप में तो वह दिखता है कि न करें तो कोई हर्ज नहीं। नहीं है कोई हर्ज। अगर समझ बहुत हो तब तो इस दुनिया में किसी भी रिचुअल का, किसी भी बात का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन उतनी समझ कहां? वह आइडेंटिटी तोड़ने में सहयोगी हो जाता है। अचानक पता चलता है कि अब तुम वह नहीं रहे। बार-बार जब भी खयाल आएगा कि अब मेरा वह नाम नहीं है जो कल तक था, अब मेरा दूसरा नाम है। जब रास्ते पर कोई बुलाएगा, उस नाम से नहीं जो कल तक आपका था, नये नाम से, तो आप भी उतने ही चौंकेंगे। अपने भीतर से आइडेंटिटी रोज-रोज टूटेगी और पता चलेगा कि वह आदमी समाप्त हो गया जो मैं कल तक था और एक नई यात्रा शुरू हो गई। इसके स्मरण के लिए नाम के बदलने का उपयोग है।
दूसरी बात पूछी है कि माला का क्या अर्थ हो सकता है?
व्यर्थ तो कुछ भी नहीं होता कभी। लंबे चल-चल कर व्यर्थ हो जाता है, यह दूसरी बात है। सभी चीजें चलते-चलते घिस जाती हैं और गंदी हो जाती हैं।
माला में एक सौ आठ गुरिए देखे होंगे। लेकिन खयाल में नहीं आया होगा कि वे क्या हैं? एक सौ आठ ध्यान की पद्धतियां हैं। एक सौ आठ मार्ग हैं ध्यान के। एक सौ आठ विधियों से ध्यान की संभावना है। और आपका और मेरा संबंध बना रहा तो धीरे-धीरे एक सौ आठ विधियां सभी आपके खयाल में ला देने की हैं। वे एक सौ आठ गुरिए एक सौ आठ ध्यान के प्रतीक हैं। और जब कोई साक्षी किसी को वह माला देता था तो वह याद दिलाता था कि तुझे मैंने सिर्फ एक रास्ता ही समझाया, बताया, और भी रास्ते हैं एक सौ सात। इसलिए किसी दूसरे को गलत कहने में बहुत जल्दी मत करना। और सदा याद रखना कि अनंत रास्ते हैं उसके। और एक सौ आठ गुरियों के नीचे लटका हुआ एक बड़ा मनका देखा होगा। वह इस बात की खबर है कि एक सौ आठ में से किसी से भी पहुंचो, एक पर अंत में आदमी पहुंच जाता है। कहीं से भी चलो, एक पर पहुंचना हो जाता है। तो वह जो एक नीचे मनका लटका हुआ है...सब सिंबालिक हैं, पोएटिक हैं, काव्यात्मक हैं; लेकिन अर्थपूर्ण हैं।
एक आदमी शादी करके लाता है घर किसी स्त्री को। फिर हम उसका घर में नाम बदलते हैं। कभी पूछा नहीं कि क्यों बदलते हैं? आइडेंटिटी तोड़ते हैं। वह किसी और घर की लड़की है। वह कहीं और बड़ी हुई है, किसी और परिवार में पली, किन्हीं और संस्कारों में जन्मी। उसके नाम के साथ उसका सारा पुराना व्यक्तित्व जुड़ा है। घर में लाकर हम उसका नाम बदल देते हैं। नई यात्रा शुरू हो जाती है। हम उससे कहते हैं, अब भूल जा उस घर को जहां तू थी, भूल जा उस संबंध को जहां तू थी, भूल जा उन संस्कारों को जहां तू थी। अब एक नया परिवार, अब एक नया घर, अब एक नई दुनिया शुरू होती है, तेरे नये नाम के आस-पास अब एक नया क्रिस्टलाइजेशन होगा।
तो माला हो कि नाम हो कि और बहुत कुछ है, उन सबके अर्थ तो बहुत हैं, लेकिन वे सब बातें धीरे-धीरे चल-चल कर व्यर्थ हो गई हैं। और जब वे व्यर्थ हो गई हैं तो मैं हजार बार उनके खिलाफ बोलता रहता हूं। मैं उनकी व्यर्थता के खिलाफ बोलता रहता हूं। लेकिन मेरी पीड़ा समझना आपको बहुत मुश्किल पड़ती है। मेरी पीड़ा यह है कि मैं यह जानता हूं कि कोई चीज सार्थक है और व्यर्थ हो गई है। मैं उसके खिलाफ भी बोलता रहूंगा और उसके पक्ष में भी कुछ करता रहूंगा। अब यह मेरी मुश्किल है। यह मुश्किल आपको भी समझनी पड़ेगी।
मैं कुछ चीजों के खिलाफ बोलता रहूंगा, क्योंकि वे व्यर्थ हो गई हैं। और फिर भी किसी मार्ग से उन चीजों के पक्ष में कुछ करता रहूंगा, क्योंकि मैं जानता हूं, मूलतः उनकी सार्थकता थी। और वह मूलतः सार्थकता नहीं खो जानी चाहिए। यह दोनों एक साथ चलेगा। इसलिए मैं कई तरह के मित्रों को दुश्मन बना लूंगा और कई तरह के साथियों को खोऊंगा और रोज यह चलेगा। और यह चलता रहेगा, उसमें कोई उपाय नहीं है। क्योंकि मैं एक दिन माला के खिलाफ बोलूंगा, जब कोई मेरे पास आ जाएगा और माला की बात करने लगेगा तो मैं खिलाफ बोलूंगा।
लेकिन मैं हैरान हुआ हूं जान कर कि मैं बड़े से बड़े संन्यासियों के सामने माला के खिलाफ बोला, वे माला के पक्ष में एक शब्द भी न कह सके। तो मैं तो सोचता था, कोई मुझसे माला के पक्ष में कुछ कहेगा। अब कोई नहीं मिला तो मुझे खुद ही कहना पड़ेगा, और कोई उपाय नहीं है।