KRISHNA

Krishna Smriti 21

TwentyFirst Discourse from the series of 22 discourses - Krishna Smriti by Osho.
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भगवान, कृष्ण के संदर्भ में जीसस पर चर्चा करते समय एक बार आपने कहा कि जीसस के क्रॉस से जिस सभ्यता का प्रारंभ हुआ, उसका अंत आधुनिक स्थिति में एटम बम पर जाकर हुआ। और आधुनिक सभ्यता को अभी वर्तमान स्थिति में क्रॉस या वंशी के बीच चुनाव करना है। कृपया इस बात को फिर स्पष्ट करें। तथा जिस प्रकार क्रॉस की संस्कृति का अंत एटम बम पर हुआ है अभी, उसी प्रकार वंशी से जो जीवन-धारा चली, उसका भी तो अंत सुदर्शन-चक्र और महाभारत पर हुआ था। मैं यह पूछना चाहूंगा कि आप क्रॉस और एटम बम का जोड़ चुनेंगे कि वंशी और महाभारत का जोड़ भारत के लिए चुनेंगे?
क्रॉस मृत्यु का सूचक है। कब्र पर लगता है तो उसका अर्थ है, और जब जीवन पर लग जाता है तो खतरनाक है। लेकिन, बहुत सारे तथाकथित धार्मिक लोगों ने मनुष्य के शरीर को कब्र ही समझा है। उनकी इस समझ का परिणाम खतरनाक होने वाला है। और अगर मनुष्य की छाती पर क्रॉस लटका दिया जाए, जैसे कब्र पर क्रॉस लगा होता है, तो हम जीवन को स्वीकार नहीं करते, अस्वीकार करने की घोषणा करते हैं। हम जीवन को वरदान नहीं मानते, अभिशाप मानते हैं। ईसाइयत--जीसस का नाम नहीं कह रहा हूं--ईसाइयत ऐसा समझती रही है कि जो मनुष्य का जीवन है, पाप का फल है, ओरिजिनल सिन का फल है। जिसे हम जिंदगी समझ रहे हैं, वह जिंदगी परमात्मा के द्वारा दिया गया वरदान नहीं, परमात्मा के द्वारा दी गई सजा है।
ऐसा चिंतन गहरे में दुखवादी और पैसिमिस्ट है। ऐसा चिंतन गुलाब के फूल के पास खड़े होकर कांटों की गिनती करता है, फूल को भूल जाता है। ऐसा चिंतन दो अंधेरी रातों के बीच में एक छोटे से दिन को देखता है, दो प्रकाशित दिनों के बीच में एक अंधेरी रात को नहीं। ऐसा चिंतन जीवन के दुखों को बटोर कर इकट्ठा कर लेता है, जीवन के सुखों को विस्मृत कर देता है। असल में दुख को बटोर कर इकट्ठा करना भी रुग्णचित्त का लक्षण है। अस्वाभाविक, भटका हुआ। और फिर उस दुख के आधार पर पूरे जीवन के संबंध में जो फिलासफी, जो दर्शन का फैलाव होता है, वह उदासी का, अंधेरे का, निषेध का, नकार का और क्रॉस का हो जाता है।
जीसस का प्रभाव, शायद वे सूली पर न लटकाए गए होते तो दुनिया पर इतना न पड़ता। शायद दुनिया उन्हें भूल ही गई होती। लेकिन जीसस का सूली पर लटकाया जाना ही क्रिश्र्चिएनिटी का जन्म बन गया। आज कोई एक अरब आदमी के करीब ईसाइयत में सम्मिलित हैं। यह मैं जीसस की विजय नहीं मानता हूं, यह मैं क्रॉस की विजय मानता हूं। जीसस सूली पर लटके हुए हमारे रुग्ण और उदास चित्तों को बड़े ही ठीक मालूम पड़े, वे हमारे जीवन के प्रतीक ही मालूम पड़े। हम सब सूली पर लटके हुए लोग हैं। हम सब दुख में जी रहे लोग हैं। हम सब दुख को ही चुनते हैं, इकट्ठा करते हैं। हम दुख का ढेर लगाए चले जाते हैं। आखिर में दुख ही हाथ में रह जाता है, सुख सब खो जाते हैं।
कृष्ण बिलकुल ही विपरीत व्यक्तित्व है। और कृष्ण की बांसुरी का प्रतीक क्रॉस से ठीक उलटा है। जैसे बांसुरी को कब्र पर रखने का कोई अर्थ नहीं होता। उसे जिंदा ओंठ चाहिए। और सिर्फ ओंठ ही नहीं चाहिए, नाचते हुए ओंठ भी चाहिए। गाते हुए ओंठ भी चाहिए। और ओंठ ऐसे ही नहीं नाचते और गाते हैं, जब तक कि भीतर के प्राण आनंद से उल्लसित नहीं हों। मेरे लिए जीसस के क्रॉस और कृष्ण की बांसुरी में चुनाव दिखाई पड़ता है। ऐसा नहीं है कि जिंदगी में दुख नहीं हैं, दुख जिंदगी में हैं। लेकिन जो आदमी उन्हें इकट्ठा कर लेता है, जो उन्हें समूहगत रूप से देखने लगता है, उसे फिर सुख दिखाई पड़ने बंद हो जाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि जिंदगी में सुख नहीं हैं--सुख हैं। और जो आदमी सुखों को इकट्ठा कर लेता है, और सुखों की उस आनंद-राशि में डूबता है, उसे दुख दिखाई पड़ने बंद हो जाते हैं।
जीवन में तो सुख और दुख दोनों हैं। सब कुछ निर्भर करता है व्यक्ति पर कि वह क्या देखता है। मेरी अपनी समझ ऐसी है कि अगर कोई आदमी गुलाब के फूल को ठीक से देख पाए और प्रेम कर पाए, तो उसे कांटे दिखाई पड़ने बंद हो जाते हैं। क्योंकि जो आंखें गुलाब के फूल से रस जाती हैं, रम जाती हैं, वे आंखें कांटों को देखना बंद कर देती हैं। ऐसा नहीं कि कांटे मिट जाते हैं, बल्कि ऐसा कि कांटे भी गुलाब के साथी और मित्र हो जाते हैं और वे गुलाब के फूल की रक्षा की तरह ही दिखाई पड़ते हैं। वे एक ही पौधे पर फूल की रक्षा के लिए निकले हुए कांटे होते हैं।
लेकिन जो आदमी कांटों को चुन लेता है, उसे फूल दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। जो आदमी कांटों को चुनता है, वह यह कहेगा कि जहां इतने कांटे हैं वहां एक फूल खिल कैसे सकता है? जहां कांटे ही कांटे हैं, वहां फूल असंभावना है। जरूर मैं किसी भ्रम में हूं कि मुझे फूल दिखाई पड़ रहा है। जहां कांटे ही कांटे हैं, वहां फूल हो नहीं सकता। कांटा सत्य हो जाता है, फूल स्वप्न हो जाता है। और जो आदमी फूल को देख लेता है, और देख पाता है और प्रेम कर पाता है और जी पाता है, उस आदमी को एक दिन लगना शुरू होता है कि जिस पौधे पर गुलाब जैसा कोमल फूल खिलता हो, उस पौधे पर कांटे कैसे हो सकते हैं! उसके लिए कांटे धीरे-धीरे भ्रम और झूठ हो जाते हैं।
मर्जी है आदमी की कि वह क्या चुने। स्वतंत्रता है आदमी को कि वह क्या चुने। सार्त्र का एक वचन बहुत अदभुत है; उसमें वह कहता है: वी आर कंडेम्ड टु बी फ्री। हम मजबूर हैं स्वतंत्र होने को। जबरदस्ती है हमारे ऊपर स्वतंत्रता। हम सब चुन सकते हैं, सिर्फ एक स्वतंत्रता को नहीं चुन सकते, वह हमें मिली ही हुई है। कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि मैं परतंत्रता चुन सकता हूं, क्योंकि वह चुनना भी उसकी स्वतंत्रता ही है। इसलिए सार्त्र कहता है: कंडेम्ड टु बी फ्री। कभी भी स्वतंत्रता के साथ किसी ने कंडेम्ड शब्द का प्रयोग नहीं किया होगा। मनुष्य स्वतंत्र है। और परमात्मा के होने की यह घोषणा है। और मनुष्य जो चुनना चाहे, चुन सकता है। यदि मनुष्य ने दुख चुना, तो चुन सकता है। जिंदगी उसके लिए दुख बन जाएगी। हम जो चुनते हैं, जिंदगी वही हो जाती है। हम जो देखने जाते हैं, वह दिखाई पड़ जाता है। हम जो खोजने जाते हैं, वह मिल जाता है। हम जो मांगते हैं, वह फुलफिल हो जाता है, उसकी पूर्ति हो जाती है। दुख चुनने जाएंगे, दुख मिल जाएगा।
लेकिन, दुख चुनने वाला आदमी अपने लिए ही दुख नहीं चुनता। वहीं से अनैतिकता शुरू होती है। दुख चुनने वाला आदमी दूसरे के लिए भी दुख चुनता है। यह असंभव है कि दुखी आदमी और किसी के लिए सुख देने वाला बन जाए। जो लेने तक में दुख लेता है, वह देने में सुख नहीं दे सकता। जो लेने तक में चुन-चुन कर दुख को लाता है, वह देने में सुख देने वाला नहीं हो सकता।
यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि जो हमारे पास नहीं है, उसे हम कभी दे नहीं सकते हैं। हम वही देते हैं जो हमारे पास है। यदि मैंने दुख चुना है, तो मैं दुख ही दे सकता हूं। दुख मेरा प्राण हो गया है। जिसने दुख चुना है, वह दुख देगा। इसलिए दुखी आदमी अकेला दुखी नहीं होता, अपने चारों तरफ दुख की हजार तरह की तरंगें फेंकता रहता है। अपने उठने-बैठने, अपने होने, अपनी चुप्पी, अपने बोलने, अपने कुछ करने, न करने, सबसे चारों तरफ दुख के वर्तुल फैलाता रहता है। उसके चारों तरफ दुख की उदास लहरें घूमती रहती हैं और परिव्याप्त होती रहती हैं। तो जब आप अपने लिए दुख चुनते हैं तो अपने ही लिए नहीं चुनते, आप इस पूरे संसार के लिए भी दुख चुनते हैं।
तो जब मैंने कहा कि दुख के चुनाव ने मनुष्य को युद्ध तक पहुंचा दिया है। और एक ऐसे युद्ध तक, जो कि टोटल स्युसाइड बन सकता है, जो कि समग्र आत्मघात बन सकता है। यह मनुष्य के दुख का चुनाव है जो हमें उस जगह ले आया। हमने सुना है बहुत बार, जानते हैं हम कि कभी कोई दुखी आदमी आत्मघात कर लेता है। लेकिन हमें इस बात का खयाल नहीं था कि दुखी आदमी आत्मघात कर लेता है, यह तो ठीक ही है, एक ऐसा वक्त भी आ सकता है कि पूरी मनुष्यता इतनी दुखी हो जाए कि आत्मघात कर ले। हमारे बढ़ते हुए युद्ध आत्मघात के बढ़ते हुए चरण हैं। यह दुख के चुनाव से संभव हुआ है। और दुख को जब हम धर्म की तरह चुन लेते हैं, तो फिर अधर्म की तरह चुनने को कुछ बचता भी नहीं है। जब दुख को हम धर्म बना लेते हैं, तो फिर अधर्म क्या करेगा? जब दुख धर्म बन जाता है, तो गौरवान्वित भी हो जाता है, ग्लोरीफाइड भी हो जाता है।
यह जो दुख की धारा क्रॉस के आस-पास निर्मित हुई, मैं नहीं कहता जीसस के आस-पास, क्योंकि जीसस का क्रॉस से कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। जीसस बिना क्रॉस के भी हो सकते थे। यह जिन लोगों ने जीसस को सूली दी, जिन्होंने क्रॉस दिया, ईसाइयत उन्होंने पैदा की है।
इसलिए मैं निरंतर ऐसा कहता हूं कि ईसाइयत को पैदा करने वाले जीसस नहीं हैं, ईसाइयत को पैदा करने वाले वे पंडे और पुरोहित हैं यहूदी, जिन्होंने जीसस को सूली दी। ईसाइयत का जन्म क्रॉस से होता है, जीसस से नहीं। जीसस तो बेचारा क्रॉस पर लटकाया गया है, यह बिलकुल ही सेकेंड्री बात है, इससे कोई लेना-देना नहीं है। वह क्रॉस महत्वपूर्ण होता चला गया हमारे चित्त में। और जो-जो लोग अपने को क्रॉस पर अनुभव करते हैं लटका हुआ, सूली पर, चाहे वह सूली परिवार की हो, चाहे वह सूली प्रेम की हो, चाहे वह सूली राष्ट्रों की हो, चाहे वह सूली धर्मों की हो, चाहे वह सूली दैनंदिन जीवन की हो, जो लोग भी अनुभव करते हैं कि सूली पर लटके हैं, उन्हें जीवन एक महापाप हो जाता है। वे सारे महापाप को अनुभव करने वाले लोग क्रॉस से प्रभावित होते चले गए हैं और पैसिमिस्टों का एक बड़ा गिरोह सारी दुनिया में इकट्ठा हो गया है।
पिछले दो महायुद्ध ईसाई मुल्कों ने लड़े और पैदा किए। गैर-ईसाई मुल्क अगर उन युद्धों में आए भी, तो घसीटे गए। सिर्फ एक जापान ऐसा मुल्क था, जो गैर-ईसाई था जो युद्ध में आक्रामक की तरह आया था। लेकिन जापान को अब पूर्वी मुल्क कहना मुश्किल है। जापान बहुत गहरे अर्थों में भूगोल का खयाल छोड़ दें, तो अब पश्र्चिम का हिस्सा है। और जापान के पास भी स्युसाइड की लंबी परंपरा है, जिसको वे हाराकिरी कहते हैं। जरा सा आदमी दुखी हो जाए तो मर जाए, बस इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है। जैसे कि कल फूल खिलने की कोई संभावना न रही। आज सांझ फूल मुर्झा गया तो मर जाओ, कल सुबह फूल खिलने का कोई उपाय नहीं। इतनी प्रतीक्षा भी नहीं, इतना धैर्य भी नहीं है।
तो हाराकिरी वाला एक मुल्क और पश्र्चिम के क्रॉस वाले मुल्कों ने इधर पिछले दो बड़े युद्ध लड़े हैं। तीसरा युद्ध पूरी मनुष्यता का अंत हो सकता है। जैसे जीसस सूली पर लटके हैं, ऐसे ही पूरी मनुष्यता सूली पर लटक सकती है। मैं नहीं कहता हूं कि इसमें जीसस का हाथ है; मैं कहता हूं, क्रॉस पर लटकाने वाले लोगों का हाथ है। और मैं यह भी नहीं कहता हूं कि जीसस से प्रभावित होकर लोग क्रॉस के पास आए हैं, क्रॉस से प्रभावित होकर जीसस के पास आए हैं।
दूसरी बात पूछी है, तो मैं मानता हूं कि क्रॉसवादी, दुखवादी, सैडिस्ट सभ्यता मनुष्य को अंततः आत्मघात में ले जाने वाली है। असल में क्रॉस को लेकर चलने का कोई अर्थ नहीं है और अगर जिंदगी क्रॉस भी रख दे तो उस पर दो फूल लटका देना भी हमारा चुनाव है।
कृष्ण ठीक मुझे विपरीत मालूम पड़ते हैं, उनकी बांसुरी मुझे ठीक विपरीत मालूम पड़ती है। और यह भी मैं आपको कह दूं कि जीसस को क्रॉस पर दूसरे लटकाते हैं, कृष्ण के ओंठों पर कोई दूसरा बांसुरी नहीं रखता। इसलिए यह खयाल में रख लेना जरूरी है कि कृष्ण की बांसुरी उनके व्यक्तित्व का प्रतीक है और जीसस का क्रॉस उनके व्यक्तित्व का प्रतीक नहीं है। उसे दूसरों ने दिया है, कृष्ण की बांसुरी अपने हाथों से ओंठों पर रखी गई है। कृष्ण की बांसुरी में मुझे जीवन के अहोभाव, जीवन के अनुग्रह, जीवन के प्रति ग्रेटीट्यूड का गीत, धन्यवाद, आभार मालूम होता है। कृष्ण का चुनाव जीवन में सुख का चुनाव है, आनंद का चुनाव है। और जैसा मैंने कहा, जो दुख को चुनता है वह दुख देने वाला बन जाता है, जो आनंद को चुनता है वह आनंद देने वाला बन जाता है।
तो कृष्ण अगर बांसुरी बजाएंगे--यह भी थोड़ा समझ लेने वाली बात है--कि अगर कृष्ण बांसुरी बजाएंगे तो यह आनंद कृष्ण तक ही सीमित नहीं रहेगा, यह उन कानों तक भी पहुंच जाएगा जिन पर ये बांसुरी के स्वर पड़ते हैं। अगर जीसस को आप सूली पर लटका हुआ देखेंगे और उनके पास से गुजरेंगे तो आप भी उदास हो जाएंगे। और कृष्ण को अगर नाचते हुए देखेंगे किसी वृक्ष की छाया में और पास से गुजरेंगे, तो आप भी प्रफुल्लित होंगे। सुख भी संक्रामक है, दुख भी संक्रामक है। वे सब फैलते हैं और दूसरों तक हो जाते हैं। इसलिए जो आदमी अपने लिए दुख चुनता है, वह सारी दुनिया के लिए कंडेमनेशन चुनता है। वह यह कह रहा है कि मैं दुखी होकर अब सारी दुनिया को दुखी होने का निर्णय करता हूं। जो आदमी जीवन में सुख का चुनाव करता है, वह सारी दुनिया के लिए गीत और संगीत और नृत्य चुनता है। मैं धार्मिक आदमी उसी को कहता हूं जो दूसरे के लिए भी सुख चुनता है। मेरे लिए धार्मिक का अर्थ आनंद के अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकता है। कृष्ण इन अर्थों में मेरे लिए धार्मिक हैं। उनका सारा होना आनंद के एक स्फुरण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
लेकिन पूछा गया है कि कृष्ण की बांसुरी के बाद भी तो महाभारत का युद्ध हुआ?
यह कृष्ण की बांसुरी के बावजूद हुआ। यह कृष्ण की बांसुरी के कारण नहीं हुआ। क्योंकि बांसुरी से युद्ध होने का कोई आंतरिक संबंध नहीं है। क्रॉस का और युद्ध से तो आंतरिक संबंध है, एक लॉजिकल रिलेशनशिप है। लेकिन बांसुरी से युद्ध का कोई भी तार्किक संबंध नहीं है। कृष्ण की बांसुरी के बावजूद युद्ध हुआ। इसका मतलब यह है कि हम इतने दुखवादी हैं कि कृष्ण की बांसुरी भी हमें प्रफुल्लित नहीं कर पाई है। बांसुरी बजती रही है और हम युद्ध में उतर गए हैं। बांसुरी बजती रही, लेकिन हम अहोभाव से नहीं भर पाए हैं। बांसुरी हमारी बांसुरी नहीं हो पाई।
यह भी बहुत मजे की बात है कि दूसरे का सुख अपना सुख बनाना बहुत मुश्किल है। दूसरे का दुख अपना दुख बनाना बहुत आसान है। इसलिए आप दूसरे के रोने में रो सकते हैं, लेकिन दूसरे के हंसने में हंसना मुश्किल हो जाता है। अगर किसी के मकान में आग लग गई है तो आप सहानुभूति बता पाते हैं, लेकिन किसी का मकान बड़ा हो गया है तो उसके आनंद में भाग नहीं ले पाते हैं। इसमें बुनियादी कारण हैं।
जीसस के क्रॉस के साथ हम निकट हो पाते हैं; लेकिन कृष्ण की बांसुरी के साथ हो सकता है हम ईर्ष्या से भर कर लौट जाएं। कृष्ण की बांसुरी हममें सिर्फ ईर्ष्या ही जगाए, कोई समानुभूति, कोई एम्पैथी पैदा न करे। लेकिन जीसस का क्रॉस हममें सिम्पैथी पैदा करता है, ईर्ष्या पैदा नहीं करता। जीसस का क्रॉस इसलिए भी ईर्ष्या पैदा नहीं कर सकता है कि हम कोई क्रॉस पर लटकने के लिए तैयार तो नहीं हैं। कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं तो हमारा मन ईर्ष्या से भर सकता है, और ईर्ष्या दुख बन सकती है। सुख में सहभागी होना बड़ी कठिन बात है। दुख में सहभागी होना बड़ी सरल बात है। अति साधारण चित्त का व्यक्ति भी दुख में सहभागी हो जाता है। अति असाधारण चित्त का व्यक्ति चाहिए जो सुख में सहभागी हो सके। दूसरे के सुख में पार्टिसिपेट करना, दूसरे के सुख में डूबना और दूसरे के सुख को अपने जैसा अनुभव कर पाना बड़ी ऊंचाई की बात है। दूसरे के दुख में कठिनाई नहीं है। इसके बहुत कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि हम दुखी हैं ही, आलरेडी। कोई भी दुखी हो तो हमें कोई दिक्कत नहीं आती, हम उसमें डूब पाते हैं। सुखी हम नहीं हैं। कोई सुखी हो तो हमारा कोई तालमेल नहीं बन पाता, कोई संबंध नहीं बन पाता।
युद्ध हुआ कृष्ण की बांसुरी के बाद भी। और भी मजे की बात है कि जीसस के क्रॉस के बाद युद्धों की गति बढ़ते-बढ़ते अभी दो हजार साल लगे तब हुआ। कृष्ण तो बांसुरी बजा रहे थे तभी युद्ध हो गया। कृष्ण की बांसुरी के बावजूद यह युद्ध हुआ है। कृष्ण की बांसुरी न तो समझी जा सकी है, न पकड़ी जा सकी है, न पहचानी जा सकी है।
यह भी सोचने जैसा है कि कृष्ण तो खुद युद्ध में उतरे हैं, जीसस को युद्ध में नहीं उतारा जा सकता। जीसस से अगर कोई कहेगा कि आप युद्ध में उतरें, तो जीसस कहेंगे, पागल हो गए हैं? क्योंकि मैं कहता हूं कि जो एक चांटा तुम्हारे गाल पर मारे, दूसरा उसके सामने कर देना। और जीसस कहते हैं कि पुराने पैगंबरों ने कहा था कि जो तुम्हारी तरफ ईंट फेंके, तुम उसकी तरफ पत्थर से मारना; और जो तुम्हारी एक आंख फोड़े, तुम उसकी दोनों आंखें छीन लेना। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तुम दूसरा गाल उसके सामने कर देना। और मैं तुमसे कहता हूं कि कोई अगर तुम्हारा कोट छीने, तो तुम अपनी कमीज भी दे देना। और मैं तुमसे कहता हूं कि कोई अगर एक मील तक तुमसे बोझा ढोने को कहे, तो तुम दो मील तक ढो देना। हो सकता है संकोच में वह बेचारा ज्यादा न कह पा रहा हो।
यह जो जीसस है, इसको हम युद्ध में नहीं उतार सकते। अब चीज थोड़ी जटिल मालूम पड़ेगी। जीसस को युद्ध में नहीं उतारा जा सकता। लेकिन कृष्ण युद्ध में उतर जाते हैं। जीसस को इसलिए युद्ध में नहीं उतारा जा सकता कि जीवन इतना बदतर है कि उसके लिए लड़ने का कोई अर्थ नहीं है। कृष्ण को युद्ध में उतारा जा सकता है। जीवन इतना आनंदपूर्ण है कि उसके लिए लड़ा जा सकता है।
इसे थोड़ा समझ लेंगे।
जीसस के लिए जीवन इतना व्यर्थ है, जैसा जीवन है वह इतना दुखपूर्ण है कि आपने एक चांटा मार दिया तो इससे दुख में कोई बढ़ती नहीं होती। कहना चाहिए कि जीसस पहले से ही इतने पिटे हुए हैं कि आपके एक चांटे से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह दूसरा गाल भी सामने कर देते हैं कि आपको उनका गाल फेरने की तकलीफ भी न हो। जीसस इतने दुखी हैं कि उन्हें और दुखी नहीं किया जा सकता। इसलिए जीसस को लड़ने के लिए तो तैयार नहीं किया जा सकता। लड़ने के लिए तो केवल वे ही तैयार हो सकते हैं जो जीवन के आनंद के घोषक हैं। अगर जीवन के आनंद पर हमला हो तो वे लड़ेंगे। वे जीवन के आनंद के लिए अपने को दांव पर लगा देंगे। वे जीवन के आनंद को बचाने के लिए सब कुछ करने को तैयार हो सकते हैं। जीसस को तैयार नहीं किया जा सकता युद्ध के लिए। इसलिए महावीर को भी तैयार नहीं किया जा सकता युद्ध के लिए। बुद्ध को भी तैयार नहीं किया जा सकता युद्ध के लिए। सिर्फ कृष्ण को तैयार किया जा सकता है। या एक और आदमी है, मोहम्मद, उसे तैयार किया जा सकता है युद्ध के लिए। मोहम्मद किसी बहुत गहरे रास्ते से कृष्ण के थोड़े समीप आते हैं। पूरा आना तो मुश्किल है, थोड़े समीप आते हैं। जिनको ऐसा लगता है कि जीवन में कुछ बचाने योग्य है, केवल वे ही लड़ने के लिए तैयार किए जा सकते हैं। जिनको ऐसा लगता है कि जीवन में कुछ बचाने योग्य ही नहीं है, उनके लड़ने का क्या सवाल है!
लेकिन कृष्ण युद्धखोर नहीं हैं, युद्धवादी नहीं हैं। हैं तो वे जीवनवादी, लेकिन अगर जीवन पर संकट हो, तो वे लड़ने को तैयार हैं। इसलिए कृष्ण ने पूरी कोशिश की है कि युद्ध न हो। इसके सब उपाय कर लिए गए हैं कि यह युद्ध न हो। इस युद्ध को टाला जा सके और जीवन बचाया जा सके, इसके लिए कृष्ण ने कुछ भी उठा नहीं रखा है। लेकिन जब ऐसा लगता है कि कोई उपाय ही नहीं है, और मृत्यु की शक्तियां लड़ेंगी ही, और अधर्म की शक्तियां झुकने के लिए तैयार नहीं हैं, समझौते के लिए भी तैयार नहीं हैं, तब कृष्ण जीवन के पक्ष में और धर्म के पक्ष में लड़ने को खड़े हो जाते हैं। मेरे देखे, कृष्ण के लिए जीवन और धर्म दो चीजें नहीं हैं। वे लड़ने को तैयार हो जाते हैं।
स्वभावतः, कृष्ण जैसा आदमी जब लड़ता है, तब भी प्रफुल्लित और आनंदित होता है; और जीसस जैसा आदमी अगर न भी लड़े, तो भी उदास मिलेगा। कृष्ण जैसा व्यक्ति जब लड़ता है, तब भी आनंदित है, क्योंकि लड़ना भी जीवन के एक हिस्से की तरह आया है। इसे कोई जीवन से अलग बांटा नहीं जा सकता। और जैसे मैंने पीछे आपको बार-बार कहा, कृष्ण का जिंदगी में ऐसा चुनाव नहीं है जैसा कि आमतौर से साधुओं और प्यूरिटंस और नैतिकवादियों का होता है। कृष्ण ऐसा नहीं कहते हैं कि युद्ध जो है वह हर हालत में बुरा है। कृष्ण कहते हैं, युद्ध बुरा भी हो सकता है, अच्छा भी हो सकता है। हर हालत में कोई चीज न बुरी होती है, न कोई चीज हर हालत में अच्छी होती है। ऐसे क्षण होते हैं जब जहर अमृत होता है और अमृत जहर हो जाता है। और ऐसे क्षण होते हैं जब अभिशाप वरदान बन जाता है और वरदान अभिशाप हो जाता है।
कृष्ण कहते हैं, हर हालत में कुछ तय नहीं है। यह प्रतिपल और प्रति परिस्थिति में तय होता है कि क्या शुभ है। इसे कोई पहले से तय करके नहीं चल सकता है कि यह शुभ है। परिस्थिति बदले तो कठिनाई हो सकती है। इसलिए कृष्ण तो प्रतिपल निर्णय के लिए राजी हैं। उन्होंने कोशिश कर ली है कि युद्ध न हो, लेकिन देखते हैं कि युद्ध होगा ही, तो फिर बेमन से लड़ना बेकार है। कृष्ण जैसा आदमी बेमन से नहीं लड़ेगा। लड़ने भी जाएगा तो फिर पूरे मन से ही जाएगा। पूरे मन से कोशिश कर ली है, युद्ध न हो। अब युद्ध होगा ही, तो कृष्ण पूरे मन से लड़ने जाते हैं। युद्ध करने का उनका खयाल न था कि वे सीधे युद्ध में भागीदार बनेंगे। वे सीधे सक्रिय होंगे युद्ध में, इसका खयाल न था। लेकिन ऐसा क्षण आ जाता है, तो उन्हें सीधे भी भागीदार हो जाना पड़ता है और वे सुदर्शन हाथ में ले लेते हैं।
जैसा मैंने पीछे कहा, कृष्ण क्षणजीवी हैं। सभी आनंदवादी क्षणजीवी होते हैं। सिर्फ दुखवादी क्षणजीवी नहीं होते। सिर्फ दुखवादी लंबा हिसाब रखते हैं। और लंबे हिसाब की वजह से दुखी रहते हैं। वे, पृथ्वी जब से बनी है, तब से सारा दुख इकट्ठा कर लेते हैं। और जब जगत का अंत होगा, तब तक का सारा दुख इकट्ठा करके अपने ऊपर रख लेते हैं। दुख इतना ज्यादा मालूम पड़ता है कि वे उसके नीचे दब कर मर जाते हैं। आनंदवादी क्षणवादी है। वह कहता है, क्षण के अतिरिक्त अस्तित्व नहीं है। जब भी अस्तित्व है, तब क्षण में है--मोमेंट टू मोमेंट, क्षण से क्षण में उसकी यात्रा है। न वह कल का हिसाब रखता है जो बीत गया, न वह आने वाले कल का हिसाब रखता है जो आने वाला है। क्योंकि वह कहता है, जो बीत गया वह बीत गया और जो अभी नहीं आया वह अभी नहीं आया है। जो है, इस क्षण में जो है, इस क्षण के प्रति पूरी रिस्पांसिबिलिटी, इस क्षण के प्रति पूरा का पूरा रिस्पांस, इस क्षण के प्रति पूरा खुला होना उसका आनंद है।
दुखवादी क्लोज्ड है, वह इस क्षण की तरफ देखता ही नहीं। अगर आप उसको फूल के पास ले जाएं और कहें कि फूल खिले हैं, वह कहेगा कि सांझ मुर्झा जाएंगे। दुखवादी से आप कहें कि देखें यह यौवन है। वह कहेगा, देख लिया बहुत यौवन! सब यौवन बुढ़ापे के अतिरिक्त और कहीं नहीं जाता है। आप उससे कहेंगे, यह सुख है। वह कहेगा, हमने बहुत सुख देखे, जरा उलटा कर देखो, सब सुखों के पीछे दुख छिपा है। हमें धोखा नहीं दिया जा सकता।
दुखवादी विस्तार में देखता है, क्षण में होता ही नहीं। सुखवादी कहता है, सांझ जब मुर्झाएंगे... लेकिन सांझ तो आने दो, अभी से दुखी होने का क्या कारण है? आनंदवादी कहता है, सांझ आने दो, अभी से दुखी होने का क्या कारण है? जब फूल ही दुखी नहीं हैं सांझ की वजह से और आनंद से नाच रहे हैं, तो हम क्यों दुखी हो जाएं? आने दो सांझ। और मजा यह है कि आनंदवादी चित्त सांझ को गिरते हुए फूलों का भी सुख ले पाता है। क्योंकि किसने कहा कि सिर्फ खिलते हुए फूलों में सुख होता है और गिरते हुए फूलों में नहीं होता? शायद नहीं देखा हमने, वह हमारे दुख के कारण। किसने कहा कि बच्चे ही सुंदर होते हैं और बूढ़े नहीं होते? बुढ़ापे का अपना सौंदर्य है! और जब कोई आदमी सच में ही बूढ़ा होता है--कोई रवींद्रनाथ--तो उसके सौंदर्य
का कोई हिसाब नहीं है। कोई वाल्ट व्हिटमन, तो उसके सौंदर्य का बुढ़ापे में कोई हिसाब नहीं है! वाल्ट व्हिटमन को बुढ़ापे में देख कर ऐसा लगता है कि और क्या सौंदर्य होगा! असल में बचपन का अपना ढंग है सौंदर्य का, जवानी का अपना ढंग है, बुढ़ापे का अपना ढंग है। लेकिन ढंगों की फुर्सत किसे है? जब सारे बाल शुभ्र हो जाते हैं और जीवन की जब सारी यात्रा पूरी होने के करीब आती है, तो वैसा ही सौंदर्य होता है जैसा सूर्यास्त का होता है। किसने कहा कि सूर्योदय में ही सौंदर्य है? सूर्यास्त का अपना सौंदर्य है। लेकिन, दुखवादी सूर्योदय के समय भी सौंदर्य नहीं देखता। वह कहता है, क्या पागलपन में पड़े हो! अभी घड़ी भी नहीं बीत पाएगी और यह सब सूर्यास्त हो जाने वाला है। अंधकार छा जाएगा।
कृष्ण क्षणवादी हैं। समस्त आनंद की यात्रा क्षण की यात्रा है। कहना चाहिए कि यात्रा ही नहीं है, क्योंकि क्षण में यात्रा कैसे हो सकती है! क्षण में सिर्फ डूबना होता है। समय में यात्रा होती है। क्षण में आप लंबे नहीं जा सकते; गहरे जा सकते हैं। क्षण में आप डुबकी ले सकते हैं। क्षण में कोई लंबाई नहीं है, सिर्फ गहराई है। समय में लंबाई है, गहराई कोई भी नहीं है। इसलिए जो क्षण में डूबता है, वह समय के पार हो जाता है। जो क्षण में डूबता है, वह इटरनिटी को, शाश्र्वत को उपलब्ध हो जाता है। कृष्ण क्षण में हैं, और साथ ही शाश्र्वत में हैं। जो क्षण में है, वह शाश्र्वत में है। जो समय में है, टाइम ए़ज ए सीरीज, वह कभी शाश्र्वत से संबंध नहीं जोड़ पाता। वह तो समय के क्षणों का हिसाब लगाता रहता है, कणों का हिसाब लगाता रहता है। जब वह जीता है तब मरने का हिसाब लिखता रहता है। जब सुबह होती है तब वह सांझ की सोचता रहता है। जब प्रेम आता है तब वह बिछोह की सोचता है। जब मिलन होता है तब वह विरह के आंसुओं से पीड़ित हो जाता है।
इसलिए कृष्ण को अगर किसी क्षण में ऐसी घड़ी आ गई कि सुदर्शन हाथ में ले लेना पड़ा, तो वे पिछले कृष्ण की प्रॉमिस के लिए रुके नहीं, जिसने कहा था कि युद्ध में मैं सक्रिय होने को नहीं हूं। क्योंकि वे कहेंगे, अब वह कृष्ण ही कहां जिसने वायदा किया था! अब गंगा वहां कहां है जहां थी! अब फूल वहां कहां हैं जहां थे! अब बादल वहां कहां हैं जहां थे! अब सब बदल गया है, तो मैंने ही कोई ठेका लिया है वही होने का! सब जा चुका है। अब मैं जहां हूं वहां हूं। और इस क्षण से मेरा जो रिस्पांस है, इस क्षण में मेरी जो प्रतिध्वनि है, मेरा वही अस्तित्व है। वे क्षमा नहीं मांगते, वे कोई पश्र्चात्ताप नहीं करते। वे यह नहीं कहते कि मैंने भूल की थी कि वचन दिया था। वे यह नहीं कहते कि बुरा हो गया, गलत हो गया, मैं दुखी हूं, पश्र्चात्ताप कर लूंगा, पीछे प्रायश्र्चित्त कर लूंगा। वे यह कुछ भी नहीं कहते। वे क्षण के प्रति बड़े सच्चे हैं।
अब इसको थोड़ा समझना चाहिए। टु बी ट्रू टु दि मोमेंट। वे क्षण के प्रति बहुत सच्चे हैं। वे इतने सच्चे हैं कि क्षण ऐसी घटना ले आता है जिसका उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था, तो भी वे डूब जाते हैं, कूद जाते हैं। हां, हमें बहुत बार लगेगा कि हमारे प्रति उतने सच्चे नहीं मालूम होते। क्योंकि कहा था कि युद्ध में नहीं उतरेंगे और अब युद्ध में उतर गए!
जो क्षण के प्रति सच्चा है वह अस्तित्व के प्रति सच्चा है, लेकिन समाज के प्रति बहुत सच्चा नहीं हो सकता। क्योंकि समाज समय में जीता है और वह इटरनिटी में जीता है। समाज समय में जीता है, वह पीछे का हिसाब रखता है, आगे का हिसाब रखता है। ऐसा आदमी क्षण में जीता है, वह हिसाब रखता ही नहीं।
मैंने सुनी है एक कहानी कि एक बहुत बड़े झेन फकीर रिंझाई के पास एक युवक मिलने आया और उस युवक ने कहा कि मैं सत्य की खोज में आपके पास आया हूं। तो रिंझाई ने कहा, सत्य की बात छोड़ो, अभी मैं कुछ और पूछना चाहता हूं। तुम पेकिंग से आते हो? उसने कहा, हां। तो रिंझाई ने पूछा कि पेकिंग में चावल के दाम क्या भाव हैं? वह आदमी इतनी लंबी यात्रा करके आया है इसके पास। यह सोच कर नहीं आया था कि चावल के दाम बताने पड़ेंगे। तो उस आदमी ने कहा कि माफ करिए और पहले यह आपको सूचना कर दूं, ताकि और इस तरह के सवाल आप न पूछ सकें, मैं जिन रास्तों से गुजर जाता हूं, उन्हें तोड़ देता हूं; और जिन ब्ऱिजेज को पार कर जाता हूं, उन्हें गिरा देता हूं; और जिन सीढ़ियों से चढ़ जाता हूं, उन्हें मिटा देता हूं; मेरा कोई अतीत नहीं है। रिंझाई ने कहा, फिर बैठो, फिर सत्य की कोई बात हो सकती है। मैंने तो जानने के लिए यह पूछा कि कहीं पेकिंग में चावल के जो दाम हैं वे तुम्हें याद तो नहीं हैं! अगर वे याद हैं, तो सत्य से तुम्हें मिलाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि सत्य सदा क्षण में है, वर्तमान में है। उसका अतीत से कोई लेना-देना नहीं। और जो अतीत में जीता है, वह वर्तमान में नहीं जी पाता। जो अतीत में जीता है, वह भविष्य में हो सकता है उसका मन, वर्तमान में नहीं हो पाता।
कृष्ण के बावजूद युद्ध हुआ है। और कृष्ण युद्ध में भागीदार हो सके हैं, क्योंकि आनंद का पक्षपाती लड़ भी सकता है। फिर कृष्ण का कहना यह है कि लड़ना जीवन के भीतर का हिस्सा है। जीवन जब तक है, तब तक किसी न किसी भांति का युद्ध जारी रहेगा। युद्ध के तल बदलेंगे, युद्ध के आधार बदलेंगे, युद्ध के मार्ग बदलेंगे, प्लेन बदलेंगे युद्ध के, गुण बदलेगा युद्ध का, लेकिन युद्ध जारी रहेगा। ऐसा नहीं हो सकता कि युद्ध बंद हो जाए। युद्ध उसी दिन बंद हो सकता है कि या तो मनुष्यता न रहे, समाप्त हो जाए, या मनुष्यता पूर्ण हो जाए। दो ही अर्थों में युद्ध बंद हो सकता है। मनुष्य पूर्ण हो जाए तो भी समाप्त हो जाता है, समाप्त हो जाए तो भी समाप्त हो जाता है। मनुष्य जैसा है, वैसे मनुष्य के जीवन में युद्ध जारी रहेगा। फिर खयाल क्या करना है? युद्ध न हो, इसका? नहीं, कृष्ण इतना ही कहते हैं, युद्ध धर्मयुद्ध हो, इतना। शांति धर्मशांति हो, इतना।
अब ध्यान रहे, शांति भी अधार्मिक हो सकती है और युद्ध भी धार्मिक हो सकता है। लेकिन शांतिवादी सोचता है कि शांति सदा ही धार्मिक है। और युद्धवादी सोचता है कि युद्ध सदा ही ठीक है। कृष्ण कोई वादी नहीं हैं, वे बहुत लिक्विड हैं, बहुत तरल हैं। जिंदगी में वहां पत्थर की तरह कटी हुई चीजें नहीं हैं, उनकी जिंदगी में। उनकी जिंदगी में सब हवा की तरह तरल है। वे कहते हैं कि शांति भी...
मैं रास्ते से गुजर रहा हूं, एक शांत आदमी हूं, और कोई किसी को लूट रहा है। मैं शांति से गुजर जाऊंगा, क्योंकि मैं कहता हूं कि लड़ना मेरे लिए नहीं है। मैं शांति से गुजर रहा हूं, लेकिन मेरी शांति अधार्मिक हो गई; क्योंकि मेरी शांति भी सहयोगी हो रही है किसी के लुटने में और किसी के लूटने में। अनिवार्य नहीं है कि शांति सदा ही धर्म हो। बर्ट्रेंड रसल जैसे लोग, पैसिफिस्ट, शांति को सदा ही ठीक मान लेते हैं। वे मान लेते हैं कि सदा ही ठीक है, शांत होना ही ठीक है। लेकिन ऐसी शांति इम्पोटेंस भी बन सकती है। ऐसी शांति नपुंसकता हो सकती है।
इसलिए कृष्ण बार-बार अर्जुन को कहते हैं, दौर्बल्य त्याग। मैंने कभी सोचा न था कि तू क्लीव हो सकता है, तू नपुंसक हो सकता है। तू कैसी नपुंसकों जैसी बातें कर रहा है! जब कि युद्ध सामने खड़ा हो और जब कि युद्ध कृष्ण की दृष्टि में धर्म के लिए हो, तब तू कैसी कमजोरी की बातें कर रहा है! तेरी शक्ति कहां खो गई? तेरा पौरुष कहां गया?
शांति जरूरी नहीं है कि धर्म हो। युद्ध भी जरूरी नहीं है कि धर्म हो। कहा जा सकता है कि तब तो सब युद्धखोर कह सकते हैं कि हमारा युद्ध धर्म है। कह सकते हैं। जिंदगी जटिल है। कोई उन्हें रोक नहीं सकता। लेकिन, धर्म क्या है, अगर इसका विचार स्पष्ट फैलता चला जाए, तो कठिन होता जाएगा उनका ऐसा दावा करना।
कृष्ण की दृष्टि में धर्म क्या है, वह मैं कहूं। कृष्ण की दृष्टि में, जीवन को जो विकसित करे, जीवन को जो खिलाए, जीवन को जो नचाए, जीवन को जो आनंदित करे, वह धर्म है। जीवन के आनंद में जो बाधा बने, जीवन की प्रफुल्लता में जो रुकावट डाले, जीवन को जो तोड़े, मरोड़े, जीवन को जो खिलने न दे, फूलने न दे, फलने न दे, वह अधर्म है। जीवन में जो बाधाएं बन जाएं, वे अधर्म हैं; और जीवन में जो सीढ़ियां बन जाए, वह धर्म है।

भगवान, कृष्ण को सही ढंग से किसने और कब आत्मसात किया? हमें उनको आत्मसात करना हो तो क्या करें? कृष्ण को आत्मसात कर मनुष्य-सभ्यता और संस्कृति जिन आयामों में प्रवेश कर पाएगी, उसकी रूपरेखा प्रस्तुत करने की कृपा करें।
कोई किसी दूसरे को आत्मसात कैसे कर सकता है? करे भी क्यों? दायित्व भी वैसा नहीं है। मैं अपने को ही आत्मसात करूंगा, कृष्ण को कैसे करूंगा? और जब कृष्ण खुद को आत्मसात करते हैं, तो कृष्ण को कोई दूसरा आत्मसात करने क्यों जाए?
नहीं, दूसरे को आत्मसात करना व्यभिचार है। दूसरे को आत्मसात करना अपने साथ अन्याय है। दूसरे को आत्मसात करने की बात ही गलत है। मेरी अपनी आत्मा है। वह खिलनी चाहिए। अगर मैं दूसरे को आत्मसात करूं तो मेरी आत्मा का क्या होगा? हां, दूसरा मुझ पर हावी हो जाएगा, दूसरा मुझ पर उढ़ जाएगा, दूसरे को मैं ओढ़ लूंगा, मेरा क्या होगा? मेरा दायित्व मेरे होने के प्रति है।
नहीं, कृष्ण को समझना काफी है, आत्मसात करने की कोई भी जरूरत नहीं है। समझना पर्याप्त है। और समझना इसलिए नहीं कि पीछे जाना है, आत्मसात करना है, एक हो जाना है कृष्ण से। समझना इसलिए कि कृष्ण जैसा व्यक्ति जब खिलता है, तो उसके खिलने के नियम क्या हैं? कृष्ण जैसा व्यक्ति जब अपनी सहजता में प्रकट होता है, तो उसकी सहजता के नियम क्या हैं? मैं भी अपनी सहजता में प्रकट हो सकता हूं। कृष्ण को समझने से एक सूत्र तो यह मिलेगा कि अगर कृष्ण खिल सकते हैं, तो मेरे रोए चले जाने की जरूरत क्या है? जब कृष्ण नाच सकते हैं, तो मैं क्यों न नाच सकूंगा? ऐसा नहीं है कि कृष्ण का नाच और आपका नाच एक हो जाएगा। आपका नाच आपका होगा, कृष्ण का नाच कृष्ण का होगा। लेकिन कृष्ण को समझने से आपके आत्म-आविर्भाव में सहायता मिल सकती है। आत्मसात करने में नहीं, आपके अपने आविर्भाव में सहायता मिल सकती है।
इसलिए पहली बात तो यह कहता हूं कि किसी को आत्मसात करने की जरूरत नहीं है। हालांकि कुछ नासमझों ने करने की कोशिश की है। पूरा तो कोई भी नहीं कर पाएगा, क्योंकि वह असंभव है। मैं दूसरे को ओढ़ ही सकता हूं, दूसरे को आत्मा नहीं बना सकता। कितना ही गहरा ओढूं, तो भी मैं पीछे अलग रह ही जाऊंगा। अभिनय ही कर सकता हूं दूसरे का, होना तो सदा अपना ही होता है। वह दूसरे का कभी नहीं होता। बारोड बीइंग, उधार आत्मा नहीं होती। हो नहीं सकती। रहूंगा तो मैं मैं ही। हां, किसी को इतना ओढ़ सकता हूं कि मेरे मैं को मैं भीतर दबाए चला जाऊं, दबाए चला जाऊं, वह मेरे अंतर्गर्भ में छिप जाए और मेरा सारा व्यक्तित्व दूसरे का हो जाए। लेकिन मैं फिर भी मैं ही रहूंगा।
कृष्ण को आत्मसात करने की कोशिश बहुत लोगों ने की है, जैसे बुद्ध को करने की कोशिश की है, राम को करने की कोशिश की है, क्राइस्ट को करने की कोशिश की है। लेकिन कोई कभी किसी को आत्मसात नहीं कर पाता है। वह असफलता सुनिश्र्चित है। जो वैसा करने चलता है, उसने अपनी असफलता को ही नियति बना लिया है। और असफलता ही नहीं होगी, आत्मघात भी होगा। और जो लोग आत्मघात करते हैं साधारणतः, उनको हमें आत्मघाती नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वे केवल शरीर-आघाती हैं, वे केवल अपने शरीर की हत्या करते हैं। लेकिन जो दूसरे को आत्मसात करते हैं, वे आत्मघाती हैं। वे अपनी आत्मा को ही मार डालने की कोशिश करते हैं। सब अनुयायी, सब शिष्य, सब अनुकरण करने वाले, सब पीछे चलने वाले आत्मघाती होते हैं।
लेकिन कुछ लोगों ने करने की कोशिश की है। उस कोशिश में दोहरे परिणाम निकलते हैं। एक तो वह आदमी सिर्फ ओढ़ पाता है, अभिनय कर पाता है। दूसरा, उसके ओढ़ने में ही कृष्ण का पूरा रूप बदल जाता है। उसके ओढ़ने में ही। क्योंकि मैं ओढूंगा कृष्ण को तो मेरे ढंग से ओढूंगा, उतना तो कम से कम मैं रहूंगा ही। आप ओढ़ेंगे तो आपके ढंग से ओढ़ेंगे, उतने तो आप कम से कम रहेंगे ही। इसलिए न केवल अपने साथ व्यभिचार होता है, बल्कि कृष्ण के साथ भी व्यभिचार हो जाता है। जितने भी थियोलॉजियन, जितने भी धर्मशास्त्री, चाहे क्राइस्ट, चाहे कृष्ण, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, इनके पीछे ओढ़ने की चेष्टा में चलते हैं, वे सब ऐसा ही करते हैं। वे मनुष्यता की विफलता की अदभुत कहानियां हैं। और मनुष्यता के आत्मघाती होने के अदभुत प्रमाण हैं।
लेकिन, मीरा या चैतन्य जैसे लोग कृष्ण को ओढ़ते नहीं, जरा नहीं ओढ़ते। मीरा कृष्ण को ओढ़ती नहीं। चैतन्य कृष्ण को ओढ़ते नहीं। वे कृष्ण को आत्मसात नहीं करते हैं। वे तो जो हैं, हैं, उसको ही पूरा प्रगट करते हैं। उनके प्रकट होने में, मीरा के प्रकट होने में कृष्ण का व्यक्तित्व ओढ़ा नहीं जाता है। मीरा के प्रगट होने में, या चैतन्य के नृत्य में या चैतन्य के नाच में और चैतन्य के गीतों में कृष्ण ओढ़े नहीं गए हैं, न आत्मसात किए गए हैं। चैतन्य चैतन्य हैं, अपने ढंग से। हां, उनके ढंग में कृष्ण के प्रति जो प्रेम की धारा है, वह है। और जैसे-जैसे यह धारा बड़ी होती है, जैसे-जैसे धारा यह बड़ी होती है, वैसे-वैसे चैतन्य खोते जाते हैं, वैसे-वैसे कृष्ण भी खोते जाते हैं और एक घड़ी आती है कि सब खो जाता है। उस सब खो जाने में न कृष्ण बचते हैं, न चैतन्य बचते हैं। उस क्षण अगर हम पूछें कि तुम कृष्ण हो कि चैतन्य? तो चैतन्य कहेंगे, मुझे कुछ पता नहीं चलता कि मैं कौन हूं। मैं हूं। या शायद मैं भी नहीं बचता, ‘हूं’ ही। प्योर एक्झिस्टेंस है। और यह जो उपलब्धि है, यह चैतन्य का अपने ही आत्मा का फूल है। इसमें कोई ओढ़ना नहीं है, इसमें किसी को आत्मसात करना नहीं है।
ऐसी भूल कभी करनी भी नहीं चाहिए। ऐसी भूल करने का हमारा मन होता है। मन होता है इसलिए कि रेडीमेड कपड़े खरीद लेना सदा आसान है। तत्काल पहने जा सकते हैं, बड़ी सुविधा जो है। पहनने के लिए रुकना नहीं पड़ता। अगर किसी को अपने को खोजना है, तो कब होगी यह बात, नहीं कहा जा सकता। लेकिन अगर कृष्ण को ओढ़ना है, तो अभी हो सकती है। उधार तो कभी भी हो सकता है। कमाई वक्त मांग सकती है। इसलिए ओढ़ने का मन होता है। किसी को भी ओढ़ लें और झंझट के बाहर हो जाएं। लेकिन कभी कोई उस तरह झंझट के बाहर नहीं हुआ, और गहरी झंझट के भंवर में पड़ गया है।
इसलिए धार्मिक आदमी मैं उसे कहता हूं, जो अपना आविष्कार कर रहा है। हां, इस आविष्कार करने में महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट की समझ सहयोगी हो सकती है। क्योंकि जब हम दूसरे को समझते हैं, तब हम अपने को समझने के भी आधार रख रहे होते हैं। जब हम दूसरे को समझते हैं, तब समझना आसान पड़ता है बजाय अपने को समझने के। क्योंकि दूसरे से एक फासला है, एक दूरी है और समझ के लिए उपाय है। अपने को समझने के लिए बड़ी जटिलता है, क्योंकि फासला नहीं है समझने वाले में और जिसे समझना है उसमें। तो समझ के लिए दूसरा उपयोगी होता है। लेकिन उसे समझ लेने के बाद हमारी अपनी ही समझ बढ़नी चाहिए, हमारी अपने प्रति ही समझ बढ़नी चाहिए।
कभी आपने कई बार अनुभव किया होगा, अगर कोई आदमी आए और अपनी कोई मुसीबत आपके पास लाए, तो आप जितनी योग्य सलाह उसे दे पाते हैं, वही मुसीबत आप पर पड़ जाए तो उतनी योग्य सलाह अपने को नहीं दे पाते हैं। यह बड़े मजे की बात है। क्या मामला है? यह आदमी बड़ा बुद्धिमान है। किसी की भी दिक्कत हो तो उसको सलाह दे पाता है। जब दिक्कत इसी पर आती है, वही दिक्कत, तो अचानक यह खुद सलाह मांगने चला जाता है! नहीं, इतनी निकटता होती है कि समझने के लिए अवकाश नहीं मिल पाता। दूसरे को समझना आसान होता है। और दूसरे की समझ धीरे-धीरे हमारी अपनी समझ बनती चली जाए तो कृष्ण बाद में भूल जाएंगे, क्राइस्ट भूल जाएंगे, बुद्ध-महावीर भूल जाएंगे, अंततः हम ही रह जाएंगे। आखिर में मेरी शुद्धता ही बचनी चाहिए।
वैसी शुद्धता की उपलब्धि ही मुक्ति है। वैसे परम शुद्ध हो जाने का नाम ही निर्वाण है। वैसे परम शुद्ध हो जाने का नाम ही भागवत चैतन्य की उपलब्धि है। हां, लेकिन जो कृष्ण को समझ कर वहां तक पहुंचेगा, वह हो सकता है कृष्ण नाम का उपयोग करे, वह कहे कि मैंने कृष्ण को पा लिया। यह सिर्फ पुराने ऋण का चुकतारा है, यह सिर्फ पुराने ऋण के प्रति अनुग्रह है। और कुछ भी नहीं। वैसे पहुंचने वाला कह सकता है, मैं जीसस को पा लिया हूं। वह सिर्फ जीसस के प्रति, जीसस को समझने से जो समझ उसे मिली थी उसके प्रति ऋण का चुकतारा है। इससे ज्यादा नहीं है। पाते तो सदा हम अंततः अपने को ही हैं। कोई दूसरे को नहीं पा सकता। लेकिन जिस दिन हम अपने को पाते हैं उस दिन कोई दूसरा रह नहीं जाता है। इसलिए हम कोई न कोई शब्द का उपयोग करेंगे। जो हमने यात्रा पर उपयोगी पाया होगा, वह हम उपयोग करेंगे। एक छोटी सी बात, फिर हम ध्यान के लिए बैठें।

भगवान, प्रश्र्न का दूसरा हिस्सा है कि कृष्ण की जीवनधारा से प्रभावित होकर मनुष्य-सभ्यता और संस्कृति किन जीवन-आयामों में प्रवेश कर पाएगी, इसकी संक्षिप्त रूपरेखा स्पष्ट करें।
इस पर तो बहुत लंबी बात करनी पड़े। वैसे उसकी ही बात कर रहे हैं इतने दिन से। दो-तीन शब्द कहे जा सकते हैं। मनुष्य की सभ्यता कृष्ण की समझ से सहज हो सकेगी; क्षणजीवी हो सकेगी, आनंद-समर्पित हो सकेगी; दुखवादी नहीं रहेगी, समयवादी नहीं रहेगी, निषेधवादी नहीं रहेगी, त्यागवादी नहीं रहेगी। अनुग्रहपूर्वक जीवन को वरदान समझा जा सकेगा। और जीवन और परमात्मा में भेद नहीं रहेगा। जीवन ही परमात्मा है, ऐसी प्रतिष्ठा धीरे-धीरे बढ़ती जाएगी। जीवन के विरोध में कोई परमात्मा कहीं बैठा है, ऐसा नहीं, जीवन ही परमात्मा है। सृष्टि के अतिरिक्त कोई स्रष्टा कहीं बैठा है, ऐसा नहीं, सृष्टि की प्रक्रिया, सृजन की शक्ति, क्रिएटिविटी इटसेल्फ परमात्मा है।
ये पूरी बातें जो मैंने इस बीच कही हैं, उनको खयाल में लेंगे तो जो मैंने अंतिम बात कही है, वह स्पष्ट हो जाएगी। इन दिनों में बहुत सी बातें मैंने आपसे कहीं, कुछ रुचिकर लगी होंगी, कुछ अरुचिकर लगी होंगी। रुचिकर लगने से भी समझने में बाधा पड़ती है, अरुचिकर लगने से भी समझने में बाधा पड़ती है। जो रुचिकर लगती है उसे हम बिना समझे पी जाते हैं, जो अरुचिकर लगती है उसे हम बिना समझे द्वार बंद करके बाहर छोड़ देते हैं। मैंने जो बातें कहीं, वे इसलिए नहीं कहीं कि आप उनको पी जाएं या द्वार के बाहर छोड़ दें, मैंने सिर्फ इसलिए कहीं कि आप उनको सहजता और सरलता से समझ पाएं। मेरी बातों को घर मत ले जाइए। उन बातों को समझने में जो समझ आपके पास आई हो, जो प्रज्ञा, जो व़िजडम आई हो, उसको भर ले जाइए। फूलों को यहीं छोड़ जाइए, इत्र कुछ बचा हो आपके हाथ में, उसे ले जाइए। मेरी बातों को ले जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरी बातें वैसी ही बेकार हैं जैसी सब बातें बेकार होती हैं। लेकिन इन बातों के संदर्भ में, इन बातों के संघर्ष में, इन बातों के आमने-सामने एनकाउंटर में आपके भीतर कुछ पैदा हुआ हो--वह तभी पैदा हो सकता है जब आपने पक्षपात न लिए हों; वह तभी पैदा हो सकता है जब आपने ऐसा न कहा हो कि ठीक कह रहे हैं, ऐसा ही मैं मानता हूं; कि गलत कह रहे हैं, ऐसा मैं मानता नहीं हूं; तभी आपमें समझ, अंडरस्टैंडिंग पैदा हो सकती है।
अगर आपने समझा हो कि यह तो कृष्ण के पक्ष में बोल रहे हैं, हमारे महावीर के पक्ष में नहीं बोलते हैं, तो आप दुख ले जाएंगे, समझ नहीं ले जाएंगे। उसका जिम्मा मेरा नहीं होगा। जिम्मा महावीर का भी नहीं होगा। आपका ही होगा। आपने सोचा कि यह तो हमारे जीसस के पक्ष में नहीं बोले, तो आप समझ नहीं ले जाएंगे। या आपने ऐसा समझा कि यह तो हमारे कृष्ण के संबंध में बोल रहे हैं, तो आप नासमझ ही लौट जाएंगे। आपके कृष्ण से मुझे क्या लेना-देना? न रुचि, न अरुचि; न पक्ष, न विपक्ष; मुझे जो दिखाई पड़ता है उसे सीधा मैंने आपकी आंखों के सामने फैला दिया है। और मैं खुद ही क्षणजीवी व्यक्ति हूं, इसलिए भरोसे का नहीं हूं। कल क्या कहूंगा, इससे आज कोई प्रॉमिस नहीं बनती है, इससे आज कोई आश्र्वासन नहीं है। आज जैसा मुझे दिखाई पड़ता था, वैसा मैंने कहा। आज जो आपकी समझ में आया हो--समझ में आया हो, उसका मूल्य नहीं है; जो समझ में आने में समझ बढ़ी हो, उसका मूल्य है।
मैं आशा करता हूं, यह दस दिन में सबके पास थोड़ी न बहुत समझ का विकास हुआ होगा, थोड़ी न बहुत दृष्टि फैली होगी, द्वार थोड़े न बहुत खुले होंगे, सूरज को आने के लिए थोड़ी-बहुत जगह बनी होगी। मैं नहीं कहता हूं कि आपके भीतर जब सूरज आए तो आप उसे क्या नाम दें--कृष्ण कहें, कि बुद्ध कहें, कि राम कहें, यह आपकी मर्जी है, नाम आपके होंगे--मैं इतना ही कहता हूं कि दरवाजा आपके चित्त का खुला हो। तो सूरज आ जाएगा। नाम आप पर निर्भर होगा, क्योंकि सूरज अपना कोई नाम कहता नहीं कि मेरा नाम क्या है। वह अनाम है। नाम आप अपना दे लेंगे। लेकिन दरवाजा सिर्फ उनके ही चित्त का खुलता है, जो समझपूर्वक, समझ में, समझ के साथ जीते हैं, पक्षों और धारणाओं और सिद्धांतों के साथ नहीं। सिद्धांतों और धारणाओं और पक्षों के साथ वे ही लोग जीते हैं, जिनको अपनी समझ का भरोसा नहीं है। तो वे पक्के, बंधे-बंधाए, सीमेंट-कांक्रीट के बाजार में बिकते हुए सिद्धांतों को ले आते हैं। समझ तो पानी की तरह तरल है। समझ तो बहाव है, एक फ्लो है। सिद्धांत, सिद्धांत कोई बहाव नहीं है।
तो अगर आपने सिद्धांतों की आड़ से मुझे सुना हो--चाहे मित्र हों उन सिद्धांतों के, चाहे शत्रु--तो फिर आप नहीं समझ पाएंगे कि मैंने क्या कहा है।
आखिरी बात आपसे कह दूं, कृष्ण से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। कृष्ण से कोई संबंध ही नहीं है। कोई कृष्ण के पक्ष में आप हो जाएं, इसलिए नहीं कहा है; कि कृष्ण के विपक्ष में आप हो जाएं, इसलिए नहीं कहा है। कृष्ण को तो मैंने एक कैनवस की तरह उपयोग किया, जैसे एक चित्रकार एक कैनवस का उपयोग करता है। कैनवस से उसका कोई मतलब ही नहीं होता। कुछ रंग उसे फैलाने होते हैं कैनवस पर, वह उन रंगों को फैला देता है। कुछ रंग मुझे फैलाने थे आपके सामने, वह कृष्ण के कैनवस पर मैंने फैला दिए। मुझे महावीर का कैनवस भी काम दे जाता है, बुद्ध का कैनवस भी काम दे जाता है, जीसस का कैनवस भी काम दे जाता है। और एक कैनवस पर जिन रंगों का मैं उपयोग करता हूं, कोई जरूरी नहीं कि दूसरे कैनवस पर उन्हीं रंगों का उपयोग करूं। और ऐसा भी मुझसे कोई कभी नहीं कह सकता है कि कल आपने जो चित्र बनाया था, आज तो उससे बिलकुल विपरीत बना दिया! अगर मैं चित्रकार हूं, तो विपरीत बनाऊंगा ही। और अगर सिर्फ कापीइस्ट हूं तो फिर कल उसी की नकल फिर करूंगा।
इसलिए मेरे वक्तव्यों को जड़ता से पकड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरे वक्तव्यों को समझें और छोड़ दें। समझ पीछे बाकी रह जाएगी, वक्तव्य छूट जाएगा। इससे एक और फायदा होगा कि किसी दिन मुझे पकड़ने का खतरा पैदा नहीं होगा। नहीं तो मेरे वक्तव्यों को पकड़ा--पक्ष से या विपक्ष से--तो मैं पकड़ा जाऊंगा। नहीं, मुझे कोई हर्जा नहीं होगा। हर्जा आपको हो जाएगा। जब भी हम किसी को पकड़ लेते हैं, तभी हम अपने को खो देते हैं। जब हमारे हाथ सबसे खाली हो जाते हैं, तब अचानक हमारे हाथों में हम ही भर जाते हैं। इस आशा में ये सारी बातें कही हैं।
मेरी बातों को इतने प्रेम, इतनी शांति, इतने मौन, इतने आनंद से सुना है, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
अब हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
अंतिम बैठक है, इसलिए जो लोग देखने आए हों वे बाहर चले जाएंगे, रास्ते पर खड़े हो जाएंगे।
हां, जिन मित्रों को देखना है वे बाहर सड़क पर खड़े हो जाएंगे। यहां कंपाउंड में करने वालों के सिवाय कोई नहीं रहेगा।...किन्हीं मित्रों को खड़े होकर ध्यान करना हो, उन्हें खड़े होने में सुविधा होती हो, तो वे पीछे लान पर खड़े हो जाएं। और कंपाउंड में सिर्फ करने वाले लोग रुकेंगे, जिनको देखना है वे बाहर चले जाएंगे। यहां आंख खोल कर कोई नहीं बैठ सकेगा।
ठीक है, अपनी-अपनी जगह बैठ जाएं। जिन मित्रों को खड़े होकर करना है वे पीछे खड़े हो जाएं। कुछ दो-चार मित्र नये हैं तो मैं सूचनाएं दे दूं। पहले दस मिनट गहरी श्र्वास लेनी है और पूरी शक्ति श्र्वास लेने-छोड़ने में लगा देनी है। श्र्वास ही रह जाए। दस मिनट की श्र्वास की चोट से भीतर की ऊर्जा जगेगी, भीतर की विद्युत जगेगी। और सारा शरीर शक्ति का एक स्पंदन मात्र रह जाएगा। दूसरे दस मिनट में शरीर को मुक्त छोड़ देना है। शरीर नाचेगा, रोएगा, डोलेगा, चिल्लाएगा, जो भी करेगा उसे पूरी शक्ति से सहयोग देना है। जिन दो-चार-दस मित्रों को ऐसा नहीं होता उन्हें अपनी ओर से प्रयोग करना है, ताकि एक-दो दिन में उनकी धारा टूट जाए और वे प्रयोग में सहज उतर जाएं। तीसरे चरण में दस मिनट तक, मैं कौन हूं? यह पूछना है। और चौथे चरण में दस मिनट तक मौन प्रतीक्षा में पड़े रह जाना है।
आंख बंद कर लें। यह आंख चालीस मिनट के लिए बंद होती है, इस बीच आंख नहीं खोलनी है। आंख बंद कर लें। कंपाउंड में कोई खुली आंख से नहीं होगा। अन्यथा उसे बीच में उठाना पड़ेगा। यह आंख चालीस मिनट के लिए बंद होती है, अब आपको आंख चालीस मिनट तक नहीं खोलनी है। जब तक मैं न कहूं आंख बंद रखनी है।
दोनों हाथ जोड़ लें। प्रभु को साक्षी रख कर अपने मन में संकल्प कर लें: मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा।
जो मित्र देखने खड़े हैं वे शांत खड़े रहेंगे, इतनी कृपा करेंगे, ताकि हमें बाधा न पड़े। अब पहला चरण शुरू करें।
धौंकनी की तरह शरीर का उपयोग करें। श्र्वास बाहर फेंकें, भीतर ले जाएं। श्र्वास बाहर फेंकें, भीतर ले जाएं। दस मिनट में ऐसा हो जाए कि सिर्फ श्र्वास ही श्र्वास आपमें बचे। सारी शक्ति, सार मन श्र्वास पर ही लग जाए। और सब भूल जाए, श्र्वास ही रह जाए। इसलिए धीरे न करें, धीरे करेंगे तो नहीं, दूसरे काम चलते रहेंगे। आप पूरी ताकत से श्र्वास लें और छोड़ें। दस मिनट में डूब जाना है श्र्वास के कृत्य में, और कोई बचे न, आप भी न बचें पीछे। बस श्र्वास ही श्र्वास रह जाए। आखिरी दिन है, पूरी शक्ति लगा दें। जो दो-चार मित्र पीछे रह गए हैं, वे पूरा कर लें। गहरी श्र्वास, तेज श्र्वास, श्र्वास ही श्र्वास रह जाए।...बहुत ठीक, बहुत ठीक, खयाल कर लें कि कोई पीछे तो नहीं है। अपनी तरफ ध्यान कर लें, खयाल कर लें, पीछे तो नहीं हैं। पूरी शक्ति लगाएं।...
तेज, तेज, तेज, चोट करें। श्र्वास की भीतर चोट करनी है ताकि शक्ति जगे। थोड़ी देर में शरीर में विद्युत दौड़नी शुरू हो जाएगी।...
बहुत ठीक! बहुत ठीक! और बढ़ें, और बढ़ें, जरा भी कंजूसी नहीं, पूरी शक्ति लगानी है। थकने से न डरें, थक जाएं कोई हर्जा नहीं। पूरी शक्ति लगाएं।...पूरी शक्ति, पूरी शक्ति, पूरी शक्ति। सात मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं, पूरी शक्ति लगाएं। एकदम विद्युत के प्रवाह मात्र हो जाएं। एक बिजली के पुंज मात्र रह जाएंगे। चोट करें, भीतर शक्ति जागेगी और शक्ति ही शक्ति मालूम होने लगेगी।...हां, शक्ति जाग रही है, आप चोट करते जाएं, चोट करते जाएं, चोट करते जाएं।...बहुत ठीक, बहुत ठीक, बहुत ठीक, चोट करें, चोट करें। देखें, कोई पीछे न रह जाए, पूरी शक्ति लगा दें।...
जो पहले चरण को पूरा करेगा वही दूसरे में प्रवेश कर पाएगा, इसलिए पूरी फिकर कर लें। शक्ति जाग रही है, उसे जागने दें; शरीर डोलता है, डोलने दें; कंपता है, कंपने दें; हाथ-पैर हिलते हैं, हिलने दें; आप श्र्वास पर ताकत लगाएं। आप श्र्वास लें और शरीर को जो होने देना है होने दें। आप श्र्वास लें, बस आप श्र्वास ही रह जाएं।...
जोर से, जोर से, जोर से।...
बहुत ठीक! बहुत ठीक! पांच मिनट बचे हैं, शक्ति पर चोट करें, शक्ति जागनी शुरू हुई है, उसे अधूरे में न छोड़ें। पूरी चोट करें। बस एक शक्ति के पुंज मात्र रह जाएंगे। शक्ति ही शक्ति रह जाएगी, आप मिट जाएंगे। श्र्वास, श्र्वास, श्र्वास। जोर से, जोर से, जोर से।...
शक्ति जाग गई है, जागने दें, जागने दें, जोर से चोट करें। शक्ति जाग गई, जागने दें। शरीर कंपता है, कंपने दें; डोलता है, डोलने दें; आप जोर से श्र्वास की चोट करते जाएं।...
शक्ति जाग गई है, जागने दें, चोट करें, जोर से चोट करें, शक्ति को पूरा जागने दें। शरीर को जो हो रहा है होने दें, आप श्र्वास की चोट करते जाएं। चार मिनट बचे हैं। पूरा उपयोग करें।...
जोर से, जोर से, जोर से, बहुत ठीक, करीब-करीब आ गए हैं, ताकत लगाएं।...
बहुत ठीक! बहुत ठीक! बहुत ठीक! जोर से, जोर से, जोर से।...तीन मिनट बचे हैं, अब पूरी ताकत लगाएं, जब मैं एक दो तीन कहूं तब पूरे तूफान में आ जाएं।...
जागें, जागें, जोर से जगाएं। दो मिनट बचे हैं, जोर से जगाएं, श्र्वास की चोट करें, थोड़ा ही समय और है। जोर से जगाएं। भीतर की शक्ति को पूरी चोट कर दें। बहुत ठीक! एक, पूरी ताकत लगा दें।...दो, पूरी ताकत लगाएं।...तीन, पूरी ताकत लगा दें। कूद जाएं पूरी ताकत से, एक मिनट के लिए पूरी ताकत लगा दें।...
बहुत ठीक! बहुत ठीक! तेजी पर आएं, पूरे क्लाइमेक्स पर आ जाएं। फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करेंगे। कुछ सेकेंड के लिए पूरी ताकत को डुबा दें।...बहुत ठीक! बहुत ठीक! थोड़ा सा श्रम और लें, कुछ सेकेंड और, पूरी ताकत में आएं।...
बहुत अच्छा! बहुत अच्छा! पूरी ताकत, पूरी ताकत, कुछ भी बचे न, पूरी ताकत लगा दें।...
अब दूसरे चरण में प्रवेश करें। शरीर को जो करना है, करने दें। दस मिनट के लिए चिल्लाएं, हंसें, रोएं, डोलें, नाचें।...
जोर से, जो भी कर रहे हैं जोर से करें। जोर से, जोर से, दस मिनट में बिलकुल थका डालें। चिल्लाएं जोर से, नाचें, डोलें जोर से, हंसें जोर से, हंसें जोर से।...शक्ति जाग गई है, उसे पूरा काम करने दें, जोर से काम करने दें। डोलें, नाचें, चिल्लाएं, हंसें। धीमे कुछ भी न करें। जो भी कर रहे हैं शक्ति से करें। आनंद से चिल्लाएं, आनंद से डोलें, जोर से चिल्लाएं।...
जोर से ताकत लगा दें। पूरी ताकत लगा दें।...जोर से, जोर से, जोर से, दिल खोल कर करें जो भी कर रहे हैं। जरा सा भी संकोच न लें। चिल्लाएं, जोर से चिल्लाएं।...शक्ति जाग गई है। पांच मिनट बचे हैं, उसे पूरा काम करने दें। जोर से, जोर से, जोर से।...
बहुत ठीक! पूरी शक्ति लगाएं। चार मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगा दें। जोर से करें जो भी कर रहे हैं। नाचें जोर से, डोलें जोर से, चिल्लाएं जोर से, हंसें जोर से, रोएं जोर से।...जोर से आनंद से, जोर से आनंद से, जो भी हो रहा है जोर से।...बहुत ठीक! बहुत ठीक! चार मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं।...
जोर से, जोर से चिल्लाएं, जोर से नाचें, जोर से हंसें, जोर से रोएं। हंसें, हंसें, जोर से हंसें, जोर से हंसें, डोलें, नाचें, जोर से हंसें।...जोर से, जोर से, तीन मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं। चिल्लाना है, जोर से चिल्लाएं, दिल खोल कर चिल्लाएं। डोलें, नाचें, चिल्लाएं, भूल जाएं, सब भूल जाएं, सिर्फ चिल्लाना रह जाए। चिल्लाएं जोर से।...
जोर से, जोर से, दो मिनट बचे हैं, जोर से।...जोर से, दो मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगा दें। जोर से, जोर से, दो मिनट बचे हैं, चिल्लाएं, चीखें, हंसें।...
जोर से, एक मिनट बचा है, पूरी ताकत लगा दें।...एक, पूरी शक्ति लगाएं।...दो, पूरी शक्ति लगाएं।...तीन, पूरे तूफान में आ जाएं। बिलकुल पागल हो जाएं। बिलकुल पागल हो जाएं, एक मिनट के लिए सारी ताकत लगा दें...पागल हो जाएं कुछ सेकेंड के लिए, पूरी ताकत लगा दें। चिल्लाएं जोर से।...
बस अब तीसरे चरण में प्रवेश करें। अब भीतर पूछें, मैं कौन हूं? शक्ति जाग गई है, उसकी जिज्ञासा में उपयोग करें। भीतर पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? शक्ति को पूरा प्रश्र्न बना दें। शक्ति जाग गई है, पूछें, मैं कौन हूं? भीतर पूछें, जोर से पूछें भीतर, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पांच मिनट तक अंदर पूछते रहें मैं कौन हूं, फिर हम बाहर पूछेंगे। पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? एकदम तूफान उठा दें भीतर।...
मैं कौन हूं? पूछें, पूछें, शक्ति सो जाएगी, जग गई है उसे पूछें। शीघ्रता से पूछें भीतर, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? डोलते रहें, डोलते रहें, पूछते रहें, मैं कौन हूं? डोलते रहें, कंपते रहें, पूछते रहें, मैं कौन हूं? आनंद से पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें, पूछें, शक्ति जग गई है उसका उपयोग करें। उसको जरा भी ढीला छोड़ा वह बेकार चली जाएगी। जोर से पूछते रहें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
जोर से, जोर से, जोर से, सतत पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? आनंद से पूछें, डोलते रहें, नाचते रहें, पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मन को बिलकुल थका डालना है, पूछें, पूछें, पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
जोर से, जोर से, जोर से, ताकत लगाएं, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? शक्ति का उपयोग करें। शक्ति जग गई है उसका उपयोग करें। अब जोर से बाहर भी चिल्ला कर पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? चिल्ला कर पूछें।...
मैं कौन हूं? जोर से। पांच मिनट बचे हैं। अब पूरी ताकत से चिल्ला कर पूछें, मैं कौन हूं?...पूछें, पूछें, शिथिल न पड़ें। जोर से पूछें।...चिल्लाएं, जोर से पूछें, मैं कौन हूं? बिलकुल पागल हो जाएं, जोर से चिल्लाएं, पूछें, मैं कौन हूं?...चार मिनट की बात है, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम विश्राम करेंगे।...
चिल्लाएं, चिल्लाएं, पूछें, चिल्लाएं, डोलें, चिल्लाएं, पूछें। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...बहुत ठीक! बहुत ठीक! जोर से, जोर से, जोर से, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? बिलकुल पागल हो जाएं। सब भूल जाएं। एक सवाल रह जाए। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...तीन मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगा दें।...जोर से, जोर से, जोर से, पूरे तूफान में आ जाएं। जोर से, जोर से, जोर से।...
दो मिनट बचे हैं। पूरी ताकत में आ जाएं।...एक, पूरी शक्ति लगाएं।...दो, पूरी शक्ति लगा दें, भूल जाएं सब।...तीन, सब भूल कर चिल्लाएं, मैं कौन हूं?...
जोर से, जोर से, जोर से, जोर से। आखिरी मौका है। पूरे जोर से, मैं कौन हूं?...जोर से, जोर से, जोर से, पूरे पहाड़ गूंज उठें। जोर से, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
बस अब रुक जाएं, अब चौथे चरण में प्रवेश कर जाएं, पूछना छोड़ दें, डोलना छोड़ दें, श्र्वास लेना छोड़ दें। अब सब छोड़ दें। दस मिनट के लिए बिलकुल शून्य में डूब जाएं जैसे हैं ही नहीं। सब मिट गया, सब समाप्त हो गया। सब शून्य हो गया। सब शांत हो गया। जैसे बूंद सागर में खो जाए ऐसे हम खो गए। जैसे बूंद सागर में खो जाए ऐसे हम खो गए। सब मिट गया, सब खो गया, सब समाप्त हो गया।...
प्रकाश ही प्रकाश, आनंद ही आनंद शेष रह जाता है। प्रकाश ही प्रकाश, दूर तक अनंत प्रकाश, भीतर आनंद ही आनंद शेष रह जाता है। हम मिट गए, परमात्मा ही शेष रह गया है। वही है चारों ओर, उसमें डूब जाएं, निमज्जित हो जाएं, खो जाएं। स्मरण करें, स्मरण करें, चारों ओर परमात्मा के अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। परमात्मा के अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। परमात्मा के अतिरिक्त और कोई भी नहीं है।...वही है, वही है चारों ओर, ऊपर, नीचे, हवाओं में, बादलों में, पहाड़ों में, बाहर, भीतर, परमात्मा के अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। स्मरण करें, स्मरण करें, स्मरण करें। वही हमारा स्वरूप है। वही हम हैं। परमात्मा के अतिरिक्त और कोई भी नहीं है।...
आनंद ही आनंद, इस आनंद को पी जाएं। इसको रोएं-रोएं में भर जाने दें। आनंद ही आनंद, इस आनंद को पी जाएं, रोएं-रोएं में भर जाने दें। प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया। प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया और चारों ओर परमात्मा है। इस स्मरण को गहरे से गहरे प्रवेश कर जाने दें। चारों ओर परमात्मा है। वही है, वही है, उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है।...
स्वाद लें, स्वाद लें, सुगंध लें, इस शांति का स्वाद लें, इस आनंद का स्वाद लें। प्रभु की सुगंध को अनुभव करें, चारों ओर वही है, चारों ओर वही है। मिट गए, मिट गए, बिलकुल मिट गए, हैं ही नहीं। बूंद जैसे सागर में खो जाए, ऐसे खो गए।...
बूंद जैसे सागर में खो जाए, ऐसे खो गए। स्मरण करें, चारों ओर सागर ही सागर, प्रभु का सागर, चेतना का सागर, प्रकाश और आनंद का सागर है। चारों ओर, चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है, आनंद ही आनंद है।...देखें, पहचानें, अनुभव करें।...देखें, पहचानें, अनुभव करें। आनंद से भर जाएं उसके, प्रकाश से भर जाएं उसके, निकटता से भर जाएं उसके। हृदय नाच उठेगा। आनंद से भर जाएं उसके, प्रकाश से भर जाएं उसके। वही है, चारों ओर वही है, बाहर-भीतर वही है।...
आनंद से भर जाएं उसके, प्रकाश से भर जाएं उसके। चारों ओर वही है, चारों ओर वही है। स्मरण करें और इस स्मरण को सदा याद रखें, उठते-बैठते, चलते-सोते स्मरण रखें, चारों ओर वही है। पहचानें, देखें, चारों ओर वही है। प्रकाश ही प्रकाश, आनंद ही आनंद, रोएं-रोएं में समा जाने दें, श्र्वास-श्र्वास में प्रवेश कर जाने दें। अस्तित्व के कण-कण में समा जाने दें।...प्रकाश ही प्रकाश, आनंद ही आनंद, फिर उसकी अंतर्धारा चौबीस घंटे बहने लगेगी। फिर चौबीस घंटे, यह परमात्मा चारों ओर दिखाई पड़ने लगेगा। फिर कोई अंधकार नहीं है, फिर कोई दुख नहीं है। फिर आनंद ही है, फिर प्रकाश ही है।...
अब दोनों हाथ जोड़ लें। उसे धन्यवाद दे दें। उसके चरणों में गिर जाएं। उसके अज्ञात चरणों में सिर झुका लें। दोनों हाथ जोड़ लें। उसके अज्ञात चरणों में सिर झुका लें। उसकी अनुकंपा अपार है, उसे धन्यवाद दे दें। उसकी अनुकंपा को आपके सिर पर बरस जाने दें, झुका लें सिर उसके अज्ञात चरणों में। जोड़ लें दोनों हाथ, गिर जाएं उसके चरणों में, समर्पित हो जाएं। उतरने दें उसे आपके ऊपर, आपके भीतर उतर जाने दें।...
प्रभु की अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है।...
प्रभु की अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है।...
अब दोनों हाथ छोड़ दें। दो-चार गहरी श्र्वास लें। फिर आंख खोल लें। ध्यान से वापस लौट आएं। आंख न खुलती हो तो दोनों हाथ आंख पर रख लें, फिर आंख खोलें। उठते न बनता हो तो और दो-चार गहरी श्र्वास लें, फिर धीरे-धीरे उठ आएं।

हमारी ध्यान की बैठक पूरी हो गई है।

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