QUESTION & ANSWER

Koplen Phir Phoot Aayeen 06

Sixth Discourse from the series of 12 discourses - Koplen Phir Phoot Aayeen by Osho. These discourses were given in BOMBAY during JUL 31 - AUG 09 1986.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


पहला प्रश्न:
भगवान, अध्ययन, चिंतन और श्रवण से बुद्धिगत समझ तो मिल जाती है, लेकिन मेरा जीवन तो अचेतन तलघरों से उठने वाले आवेगों और धक्कों से पीड़ित और संचालित होता रहता है। मैं असहाय हूं, अचेतन तलघरों तक मेरी कोई पहुंच नहीं। कोई विधि, कोई जीवन-शैली, सूत्र और दिशा देने की कृपा करें।
अध्ययन, चिंतन और मनन से जो मिलता है, वह बुद्धि की समझ भी नहीं है, सिर्फ समझ की भ्रांति है। यूं ही जैसे किसी अंधे को प्रकाश के संबंध में हम समझाएं--सुने भी, और अंधों की पढ़ने की प्रणाली भी है, अध्ययन भी करे; और जो सुना है और जो पढ़ा है, उस पर भीतर चिंतन भी करे, मनन भी करे; तो भी क्या तुम सोचते हो उसे प्रकाश की कोई समझ मिल जाएगी? हां, एक भ्रांति मिल सकती है कि मैं प्रकाश को समझता हूं। और वह भ्रांति अंधेपन से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि अंधा आदमी यह समझे कि मैं नहीं समझता, तो शायद उस औषधि की तलाश करे, जिससे आंखें मिल जाएं। लेकिन अंधा अगर समझ ले कि मैं समझता हूं, तब तो वह द्वार भी बंद हो गया।
तुम्हारे प्रश्न के दो हिस्से हैं। तुम अध्ययन, श्रवण और मनन को बुद्धि की समझ कह रहे हो।
बुद्धि ने न कभी कुछ समझा है और न कभी कुछ समझ सकेगी। लेकिन तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम्हें यह स्मरण है कि यह समझ कुछ काम नहीं आ रही। तुम्हारे भीतर घना अंधकार है, अचेतन वासनाएं हैं और तुम्हें उनका भी बोध है। उनकी उपस्थिति, उनका उपद्रव तुम बुद्धि के शोरगुल में भूल नहीं गए हो।
तो एक बात तो तुमने गलत कही कि बौद्धिक समझ मिलती है। लेकिन दूसरी बात कीमती है। और तुम धन्यभागी हो कि उसे समझ मान कर भी तुम समझदार नहीं बन गए हो। उस झूठी समझदारी को तुमने अपना पांडित्य नहीं समझ लिया है। क्योंकि बहुत अभागे हैं, जो उसी पांडित्य में अपने जीवन को गंवा देते हैं।
यह सच है कि तुम बुद्धि से बहुत ज्यादा हो, बुद्धि से बहुत पार हो। बुद्धि का उपयोग है वस्तुओं को जानने के लिए, जो कि परायी हैं; औरों को जानने के लिए, जो कि तुम नहीं हो। इसलिए बुद्धि तुम्हारी कोई दुश्मन नहीं है। बुद्धि से सारे विज्ञान का जन्म हुआ है। लेकिन बुद्धि को तुम अपना दुश्मन बना सकते हो, अगर तुम यह सोचो कि तुम बुद्धि से अपने को भी जान लोगे।
यूं समझो कि कोई आदमी आंखों से संगीत को सुनने की कोशिश करे या कि कोई आदमी कानों से प्रकाश को देखने की कोशिश करे। इसमें न तो आंख का कोई कसूर है और न कान का कोई कसूर है। आंख प्रकाश देखने को बनी है, संगीत सुनने को नहीं। कान संगीत सुनने को बने हैं, प्रकाश देखने को नहीं। बुद्धि का उपयोग है वस्तु को जानना; जो तुमसे भिन्न है, उसे जानना। लेकिन बुद्धि का यह उपयोग नहीं है कि वह उसे जान ले, जो जानने वाला है। जो तुम्हारे भीतर जानने वाला बैठा है, वह कोई वस्तु नहीं है। और इसलिए विज्ञान की बड़ी मुसीबत है। विज्ञान इतना कुछ जानता है इतने-इतने तारों के संबंध में, इतना कुछ जानता है अणुओं-परमाणुओं के संबंध में, लेकिन चूक जाता है बस वैज्ञानिक अपने को जानने से। सब जान लेता है और भूल जाता है एक उसको, जो सबको जान रहा है।
और यह साधारणतया स्वाभाविक मालूम पड़ता है कि जिससे हमने सबको जाना है, उससे हम जानने वाले को भी जान लेंगे। तुम अपनी आंखों से सारी दुनिया को देख सकते हो, लेकिन खुद अपनी आंखों को नहीं। यह और बात है कि तुम दर्पण के सामने खड़े हो जाओ। लेकिन तुम जो देखोगे वह तुम्हारी आंखें नहीं हैं, आंखों की छाया है, आंखों का प्रतिबिंब है। कैसी मजबूरी है! आंख सब देख लेती है और अपने आपको देखने में असमर्थ है! ठीक वैसी ही स्थिति है।
तुमने पूछा है: मैं कैसे अपने अचेतन, अपने अंधेरे को प्रकाश से भर दूं?
एक छोटा सा काम करना पड़ेगा। बहुत छोटा सा काम।
चौबीस घंटे तुम दूसरे को देखने में लगे हो--दिन में भी और रात में भी। कम से कम कुछ समय दूसरे को भूलने में लगो। जिस दिन तुम दूसरे को बिलकुल भूल जाओगे, बुद्धि की उपयोगिता नष्ट हो जाएगी।
इसे ज्ञानियों ने ध्यान कहा है। ध्यान का अर्थ है: एक ऐसी अवस्था, जब जानने को कुछ भी नहीं बचा, सिर्फ जानने वाला ही बचा। उससे छुटकारे का कोई उपाय नहीं है। लाख भागो पहाड़ों पर और रेगिस्तानों में, चांद-तारों पर, लेकिन तुम्हारा जानने वाला तुम्हारे साथ होगा। चूंकि वह तुम हो, वह तुम्हारी अंतरात्मा है, उसे छोड़ कर भागा नहीं जा सकता। वह कोई छाया नहीं है। वह तुम्हारा अस्तित्व है। रोज घड़ी भर, कभी भी सुबह या सांझ या दोपहर, इस अनूठे आयाम को देना शुरू कर दो। बस आंख बंद करके बैठ जाओ।
लेकिन तुम्हारी आदतें खराब हैं। और तुम्हारी खराब आदतों का उपयोग करने वाले पेशेवर लोग हैं। वे कहेंगे: आंख बंद कर लो और देखो कि भगवान कृष्ण कैसे मुरली बजा रहे हैं! देखो कि जीसस कैसे सूली पर लटके हुए हैं! आंख बंद कर लो और देखो यह राम और सीता की जोड़ी!
लेकिन यह तो आंख बंद करके भी फिर भी तुम दूसरे में ही उलझे रहे। आंख तो बंद हो गई, लेकिन दूसरे से छुटकारा न हुआ।
गौतम बुद्ध का एक अनूठा वचन है कि ध्यान के रास्ते पर अगर मैं तुम्हें मिल जाऊं, तो तलवार उठा कर मेरी गर्दन को काट देना। अगर तुम मेरे शिष्य हो और अगर तुमने मेरी बात समझी है, तो संकोच मत करना क्षण भर को भी। क्योंकि ध्यान के मार्ग पर अगर गुरु भी खड़ा हो जाए तो वह भी दूसरा है।
शायद वह लड़ाई आखिरी लड़ाई है। पत्नी को छोड़ देना कोई बहुत कठिन बात नहीं है। और जो लोग पत्नी को छोड़ कर जंगलों में चले गए हैं, संन्यास ले लिया है, साधु हो गए हैं, महात्मा हो गए हैं, शायद तुम सोचते हो कि बहुत कठिन काम किया है उन्होंने। तुम बड़ी गलती में हो। कठिन काम तुम कर रहे हो कि पत्नी के साथ अब भी बने हुए हो। वे जो भाग गए हैं, भगोड़े हैं। लेकिन ऐसे भगोड़ेपन से, ऐसे पलायन से कोई हल न होगा।
धन को छोड़ कर भाग जाओ, तो भी कुछ फर्क न पड़ेगा। धन की आकांक्षा पीछा करेगी। धन में कोई पाप नहीं है, धन की आकांक्षा में पाप है। आकांक्षा को कहां छोड़ोगे? अगर धन में कोई पाप होता तो चोरों को ईनाम मिलने चाहिए थे, सजाएं नहीं। बेचारे कितनी मेहनत उठा कर लोगों को पापों से मुक्त कर रहे हैं। अगर पत्नियों को छोड़ कर भाग जाना पुण्य था, तो जो तुम्हारी पत्नी को ले भागा हो, उसका स्वर्ग निश्चित है।
मैंने सुना है, एक आदमी भागा हुआ पोस्ट आफिस पहुंचा। पसीने-पसीने है। पोस्ट मास्टर ने उसे बिठाया और पूछा कि क्या तकलीफ है?
उसने कहा: मेरी रिपोर्ट लिखो! मेरी पत्नी किसी के साथ भाग गई है।
पोस्ट मास्टर ने कहा: मेरी पूरी सहानुभूति है तुमसे और मैं समझता हूं कि हड़बड़ाहट में तुम यह भूल ही गए कि यह पुलिस स्टेशन नहीं है, यह पोस्ट आफिस है। पुलिस स्टेशन सामने है।
वह आदमी बोला: वह मुझे भी मालूम है। तुम रिपोर्ट लिखो जी।
पोस्ट मास्टर बोला: तुम अजीब आदमी हो। यह काम पोस्ट आफिस का नहीं है। यह रिपोर्ट तुम्हें पुलिस स्टेशन पर लिखानी होगी।
उसने कहा: पहले एक दफे लिखा चुका हूं। लेकिन हरामखोर दूसरे दिन ही उसे खोज कर वापस ले आए। अब यह भूल दुबारा मुझसे होने वाली नहीं है।
पोस्ट मास्टर हैरान हुआ, उसने कहा: यह तो बताओ पत्नी भागी कब?
उसने कहा: कोई सात दिन हो गए होंगे।
सात दिन बाद तुम रिपोर्ट लिखाने आए हो?
उसने कहा: मौका देना चाहता हूं कि जितनी दूर निकल जाए।...धन्यभागी है वह पुरुष। उसका स्वर्ग निश्चित है। और हमें महात्मा बना गया बिना किसी दिक्कत के।
न तो धन को छोड़ने से, न पत्नी को छोड़ने से, न पति को छोड़ने से, न बाजार छोड़ने से, क्योंकि...तुम मनोविज्ञान के एक छोटे से सूत्र को समझ लो। तुम जिसे छोड़ कर भागोगे, आंख बंद करोगे, उसे सामने खड़ा हुआ पाओगे। क्योंकि भागता कमजोर है, भागता वही है, जो डर से आक्रांत है, भयाक्रांत है। लेकिन दूसरे से इस तरह मुक्ति न होगी।
और फिर तुम अपनी पत्नी भी छोड़ कर भाग गए तो क्या फर्क पड़ता है? तुम्हारे भीतर स्त्री की वासना तो मौजूद है। पत्नी नहीं थी, तब भी थी। उसी के कारण तो तुम पत्नी को खोज लाए थे। वह वासना फिर तुम्हें पत्नी को खोजने के लिए मजबूर कर देगी। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि शक्लें कौन सी हैं। शक्लें बदल सकती हैं--कोई और स्त्री, कोई और पुरुष।
तुम महल छोड़ दे सकते हो और झोपड़ों में रह सकते हो। लेकिन असली सवाल यह न था। वह महल मेरा था, और अब यह झोपड़ा मेरा है। तुम उस महल के लिए अपनी जान दे देते, अब तुम इस झोपड़े के लिए अपनी जान दे दोगे। असली सवाल है मेरे का, उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता।
तो जब मैं कहता हूं कि घड़ी आधा घड़ी को आंख बंद करके बैठ जाओ, तो तुमसे मैं यह कह रहा हूं कि घड़ी आधा घड़ी को दूसरों को भूल जाओ। चौबीस घंटे पड़े हैं। तेईस घंटे सारे संसार को दे दो, बाजार को दे दो, दुकान को दे दो, मकान को दे दो--जिसको देना हो, उसको दे दो। लेकिन क्या तुम इतने भी अधिकारी नहीं हो कि एक घंटा अपने लिए बचा लो? शायद चौबीस घंटा बचाना बहुत मुश्किल हो। एक घंटा बचाना आसान हो सकता है। और फिर मैं तुमसे यह भी नहीं कहता कि इस घंटे को बचाने के लिए तुम हिमालय की किसी गुफा में बैठो। तुम्हारा घर पर्याप्त है, और सबसे ज्यादा आसान जगह है। क्योंकि वहां जो भी है, उससे तुम परिचित हो। और एक घंटे के लिए उस सबको भूल जाना कठिन नहीं है।
आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, जल्दी ही वह घड़ी आ जाती है कि तुम चुपचाप बैठे ही रहते हो। मूर्तियां आएंगी, मत रस लेना उनमें--न पक्ष में और न विपक्ष में। आने देना और जाने देना। रास्ता है, मन की राह है, चलती है। तुम राह के किनारे बैठे देखते रहना। और तुम चकित होओगे, इस जीवन के सबसे बड़े रहस्य से चकित होओगे, कि अगर तुम साक्षीभाव से--सिर्फ साक्षीभाव से, जैसे तुम्हें कुछ लेना-देना नहीं--कौन जा रहा है, कौन आ रहा है, तुम गुमसुम चुपचाप सड़क के किनारे बैठे ही रहना। जल्दी ही वह घड़ी आ जाएगी कि यह रास्ते की भीड़ कम होने लगेगी। क्योंकि इस भीड़ के रास्ते पर होने का कारण है। तुमने इसे निमंत्रण दिया है। तुमने अब तक इसका स्वागत किया है। यह बिन बुलाई नहीं है। और जब यह देखेगी कि तुम इतनी उपेक्षा से भर गए हो कि तुम लौट कर भी नहीं देखते--कौन आया, कौन गया, अच्छा था कि बुरा, सुंदर था कि असुंदर, अपना था कि पराया--यह भीड़ धीरे-धीरे विदा होने लगेगी।
ध्यान की प्रक्रिया बड़ी सरल है। थोड़ी सी धैर्य की क्षमता चाहिए। और खोने को क्या है? अगर कुछ न भी मिला तो घंटे भर आराम ही हो लेगा। लेकिन मैं जानता हूं अपने अनुभव से और उन हजारों लोगों के अनुभव से, जिनको मैंने इस प्रक्रिया से गुजारा है, एक दिन वह घड़ी आ जाती है, वह महाघड़ी आ जाती है कि मन का रास्ता खाली हो जाता है, धूल भी नहीं उड़ती, जानने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता। और जब जानने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता, तब सिर्फ जानने वाला शेष रह जाता है। और उस जानने वाले को अब कोई उपाय नहीं है किसी और को जानने का, सिवाय अपने को जानने के। जानना उसका स्वभाव है। अगर तुम कुछ खिलौना उसे हाथ में दे देते हो, कोई घुनघुना हाथ में दे देते हो, वह उसी को जानता रहता है। अब आज कुछ भी नहीं है। आज वह अपने को ही जानता है। और एक बार भी किसी ने अपना स्वाद ले लिया, तो उसने अमृत का स्वाद ले लिया। फिर न कोई अंधेरा है, फिर न कोई अचेतना है।
और वह एक घड़ी धीरे-धीरे तुम्हारे चौबीस घड़ियों पर फैल जाएगी। रहोगे फिर भी तुम बाजार में, रहोगे फिर भी तुम घर में। वही होगी पत्नी, वही होंगे बच्चे। लेकिन तुम वही नहीं होओगे। तुम्हारे जीवन में एक क्रांति घटित हो जाएगी। तुम्हारे देखने के सारे परिप्रेक्ष्य, तुम्हारी आंखें बदल जाएंगी। एक शांति--और ऐसी शांति, जिसकी कोई गहराई कभी नाप नहीं सका। और एक प्रकाश, और एक ऐसा प्रकाश, जिसमें न तो कोई तेल है, न कोई बाती है--बिन बाती बिन तेल। इसलिए उसके चुकने का कोई सवाल नहीं है।
इस अनुभूति के बिना सारा जीवन व्यर्थ है। और इस अनुभूति को पा लेना उस परम ऐश्वर्य को पा लेना है, जो कभी चुकता नहीं है। फिर तुम दोनों हाथ उलीच सकते हो, लेकिन उसे खाली नहीं कर सकते। इस ऐश्वर्य की स्थिति को ही हमने ईश्वर कहा है। ईश्वर ऐश्वर्य शब्द से ही बना है। इसलिए हमारे पास ईश्वर के लिए जो शब्द है, वह दुनिया की किसी भाषा में नहीं है।
तुम्हें याद रहे, इसलिए दोहरा दूं। पहली बात, जिसे तुम समझदारी समझते हो बुद्धि की, वह बुद्धि की भी समझदारी नहीं है। दूसरी बात, तुम जिसे बहुत कठिन समझ रहे हो, वह बहुत सरल है, बहुत सहज है। सिर्फ तुमने कभी प्रयास ही नहीं किया।
तुम्हारी सारी शिक्षा-दीक्षा, तुम्हारा समाज, तुम्हारे संस्कार तुम्हें दौड़ना सिखाते हैं दूसरे के पीछे। महत्वाकांक्षा सिखाते हैं--धन के लिए, पद के लिए, प्रतिष्ठा के लिए, यश के लिए। दुर्भाग्य है हमारा कि अब तक हम एक ऐसा समाज भी पैदा न कर सके, जो तुम्हें कुछ सिखाता हो राज की वे बातें कि कैसे तुम अपने को पहचान लोगे। और उससे बड़ी कोई प्रतिष्ठा नहीं है। और उससे बड़ी कोई अभीप्सा नहीं है।
एक बहुत अनूठी दुनिया है। यहां बादशाहत से भरे हुए लोग भिखमंगे बने हुए घूम रहे हैं। जिन्हें सम्राट होना था, वे हाथ में भिखारी के पात्र लिए हुए घूम रहे हैं। थोड़ा सा प्रयास...लेकिन तुम्हारे समाज और तुम्हारे संस्कार तुम्हें डराते हैं। वे तुमसे कहते हैं: स्वयं को जानना? यह जन्मों-जन्मों में होता है! यह कभी-कभी होता है। यह किसी अवतारी पुरुष के जीवन में होता है। यह किसी तीर्थंकर के जीवन में होता है। यह कोई मसीहा, कोई पैगंबर, कोई ईश्वर का पुत्र...। तुम तो एक अदना आदमी हो। तुम इस झंझट में मत पड़ जाना, तुम इस मुश्किल को हाथ में मत ले लेना। यह तुम्हारे बस की बात नहीं है।
मैं तुमसे कहता हूं कि यह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है, और इसके लिए तीर्थंकर होना जरूरी नहीं है। हां, यह घटना घट जाए तो तुम तीर्थंकर हो जाओगे। इसके लिए कोई मसीहा होना जरूरी नहीं है। हां, यह घटना घट जाए तो तुम मसीहा हो जाओगे। मसीहा होना पहली जरूरत नहीं है, अंतिम परिणाम है।
बस तुमसे एक घंटा मांगता हूं। और चौबीस घंटे में तुम एक घंटा न दे सको, इतने दीन तो नहीं। इतना दीन तो कोई भी नहीं। और मैं नहीं कहता कि मंदिर में जाओ, और मैं नहीं कहता कि मस्जिद की फिकर करो। क्योंकि मेरी दृष्टि यह है कि मंदिर और मस्जिद और गिरजे और गुरुद्वारे घातक सिद्ध हुए हैं। इन्होंने यह खयाल पैदा किया कि भगवान तुम्हारे घर में नहीं है। मैं तुमसे कहता हूं: तुम जहां हो, वहां भगवान है। इसलिए तुम जहां बैठ गए, वहीं तीर्थ हो गया। बस जरा मौन बैठ जाओ, शांत बैठ जाओ। थोड़ी देर-अबेर लगे तो घबड़ाना मत।
और लोग इतने अधैर्य से भरे हैं...एक साधारण सी शिक्षा, जो उन्हें ज्यादा से ज्यादा किसी आफिस में क्लर्क बना कर छोड़ेगी, उसके लिए जिंदगी का एक तिहाई हिस्सा खर्च करने को राजी हैं, और पच्चीस वर्ष यूनिवर्सिटी, स्कूल, कालेजों के चक्कर काटने के बाद फिर दफ्तरों के चक्कर काटेंगे; और तो भी नहीं सोचते कि मैं तुमसे केवल एक ही घंटा मांग रहा हूं। और उस घंटे भर की अनुभूति तुम्हें वहां पहुंचा देगी, उस अमृत अनुभव में, उस शाश्वत में, जिसके पाने के लिए यह जगत एक पाठशाला है।

प्रश्न:
भगवान, आपने ईश्वर तक पहुंचने के दो मार्ग--प्रेम और ध्यान बताए हैं। मेरी स्थिति ऐसी है कि प्रेम-भाव मेरे हृदय में उमड़ता नहीं। ऐसा नहीं कि मैं किसी को प्रेम नहीं करना चाहती। वह मेरे व्यक्तित्व का प्रकार नहीं। चुप रहना और शांत बैठना मुझे अच्छा लगता है। इसलिए मैंने ध्यान का मार्ग चुन कर साक्षी की साधना शुरू की। अब कठिनाई यह है कि जैसे ही मैं सजग होकर देख रही हूं कि मैं विचारों को देख रही हूं, तो विचार रुक जाते हैं और क्षणिक आनंद का अनुभव होता है, फिर विचारों का तांता शुरू हो जाता है। और फिर-फिर मेरा उनको देखना और बार-बार यही सब। मेरी स्थिति में प्रगति दिखाई नहीं देती। क्या कहीं कोई भूल हो रही है? अथवा मेरा ध्यान के मार्ग का चुनाव गलत है? कृपा करके मुझे मेरा मार्ग बताएं, ताकि और समय व्यर्थ न खो जाए और आपको चूक न जाऊं।
यह सच है कि उस परम सत्य को पाने के लिए प्रेम और ध्यान दो मार्ग हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि ध्यानी को प्रेम-शून्य होना पड़ेगा। न ही इसका यह अर्थ है कि प्रेमी को ध्यान की कोई चिंता न करनी पड़ेगी।
यह थोड़ा सा दुरूह मालूम पड़ेगा। यह केवल प्राथमिक रूप से चुनाव की बात है। अगर तुमने प्रेम को अपना मार्ग चुना है, तो ध्यान छाया की तरह तुम्हारे साथ आएगा। क्योंकि प्रेम, और ध्यान को न लाए, तो प्रेम नहीं है, वासना है। प्रेम में और वासना में भेद ही क्या है? इतना ही भेद है कि वासना के पीछे ध्यान की कोई छाया नहीं होती, और प्रेम के पीछे ध्यान की छाया होती है। और अगर तुमने ध्यान का मार्ग चुना है, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम प्रेम-शून्य, काठ के उल्लू हो जाओगे। ध्यान तुम्हारी साधना होगी, लेकिन तुम्हारे जीवन में प्रेम के फूल खिलने शुरू हो जाएंगे।
प्रेम और ध्यान सिर्फ तुम्हारे रुझान की बात है। अन्यथा वे ऐसे ही हैं, जैसे किसी पंछी के दो पंख। उनमें से एक भी कट जाए तो पंछी का उड़ना मुश्किल है। वे ऐसे ही हैं, जैसे तुम्हारे पैर। वे ऐसे ही हैं, जैसे कोई नाव को दो पतवारों को लेकर चलाता है। एक पतवार छूट जाए तो नाव एक ही जगह चक्कर मारती रहेगी।
तुम्हारी यही भूल हो गई। तुमने प्रेम का अर्थ नहीं समझा। तुमने प्रेम का वही अर्थ समझा, जो कि बंबई में समझा जा सकता है। गए चौपाटी पर और समझ गए प्रेम का अर्थ।
प्रेम एक सदभाव है इस सारे अस्तित्व के प्रति। प्रेम एक करुणा है, जिसके ऊपर कोई पता नहीं। प्रेम एक आनंद है--जैसे फूल खिलता है और उसकी बास चारों दिशाओं में बिखर जाती है, नहीं खोजती किन्हीं नासापुटों को।
मैंने सुना है, चीन में एक बौद्ध भिक्षुणी थी। बुद्ध से उसका बड़ा प्रेम था, ऐसा वह समझती थी। उसने अपनी सारी संपत्ति बेच कर बुद्ध की एक स्वर्ण-प्रतिमा बना ली थी। और रोज बुद्ध की उस स्वर्ण-प्रतिमा की वह पूजा करती थी। एक ही मुश्किल थी। ऊदबत्तियां जलाती--अब धुएं का क्या भरोसा? कभी बुद्ध की यात्रा भी करता और कभी बुद्ध के विपरीत भी चला जाता। धूप जलाती--अब धुएं का क्या भरोसा? और धुएं को क्या मतलब? जहां हवाएं ले जातीं, चला जाता। वह बड़ी परेशान थी। और परेशानी और बढ़ गई, क्योंकि वह जिस विशाल मंदिर में ठहरी हुई थी...संभवतः वह दुनिया का सबसे बड़ा विशाल मंदिर है अब भी शेष। न मालूम कितनी सदियां लगी होंगी उस मंदिर को बनाने में। एक पूरा पहाड़ खोद कर वह मंदिर बनाया गया है। उसमें एक हजार बुद्ध की प्रतिमाएं हैं। वह एक हजार बुद्धों का मंदिर कहलाता है। और एक से एक प्रतिमा सुंदर हैं।
इस भिक्षुणी की मुसीबत यह थी कि यह अपने बुद्ध को धूप देती, ऊदबत्ती जलाती, फूल चढ़ाती...और दूसरे बुद्ध बेईमान मजा लेते। यह असह्य था। इसे वह प्रेम समझती थी। बहुत सोचा, क्या करें? तब उसने एक बांस की पोंगरी बना ली। और जब धूप को जलाती तो बांस की पोंगरी से उसके धुएं को अपने बुद्ध की नाक तक ले जाती। अब गरीब बुद्ध, सोने के बुद्ध कुछ कह भी नहीं सकते कि यह तू क्या कर रही है, पागल! बुद्ध की नाक, उनकी आंख, उनका मुंह सब काला हो गया। तब वह बहुत घबड़ाई। वह मंदिर के पुजारी के पास गई और उसने कहा कि मैं क्या करूं, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ी हूं। अगर बांस की पोंगरी का उपयोग नहीं करती तो मेरी धूप मेरे बुद्ध को नहीं पहुंचती, मेरी सुगंध मेरे बुद्ध को नहीं पहुंचती। और दूसरे बेईमान बुद्धों की ऐसी भीड़ है, एक हजार बुद्ध चारों तरफ मौजूद हैं कि कब कौन खींच लेता है उस सुगंध को, मेरी समझ में नहीं आता। सो मुझ गरीब औरत ने यह पोंगरी बना ली। अब इस पोंगरी से एक नई उपद्रव की स्थिति हो गई। मेरे बुद्ध का मुंह काला हो गया।
उस पुजारी ने कहा: तूने जो किया है, वही दुनिया में हो रहा है। हर प्रेमी, जिसको प्रेम करता है, उसका मुंह काला कर देता है। इसको लोग प्रेम कहते हैं। कहीं मेरी सुगंध, कहीं मेरा प्रेम किसी और के पास न पहुंच जाए। तो सबने अपने-अपने ढंग से बांस की पोंगरियां बना ली हैं।
हिंदू हिंदू से विवाह करेगा, मुसलमान मुसलमान से विवाह करेगा। और विवाह कर लेने के बाद भी कुछ पक्का नहीं है, दुनिया बड़ी है और हजारों बुद्ध, तरह-तरह के बेईमान घूम रहे हैं, तो सब द्वार-दरवाजे बंद रखेगा। चाहे जिसको प्रेम करता है, उसकी सांसें घुट जाएं। चाहे उसके साथ-साथ उसकी खुद की सांसें घुट जाएं। और घर-घर में सांसें घुट रही हैं। मैं हजारों घरों में मेहमान हुआ हूं और मैंने घर-घर में सांसें घुटती देखी हैं। पत्नी रो रही है इसलिए कि उसने उस आदमी से शादी की जिससे प्रेम किया।
बड़े आश्चर्य की बात है! कुछ ऐसा लगता है कि लोगों को अपने दुश्मनों से प्रेम करना चाहिए। अपने दुश्मनों से कम से कम शादी तो करनी ही चाहिए। प्रेम चाहे किसी और से कर लेना, मगर शादी अपने दुश्मन से करना, छंटे दुश्मन से करना। क्योंकि जो व्यवहार तुम करने वाले हो बाद में...
प्रेम का तुम्हारा खयाल गलत है। और एक स्त्री होकर अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम्हारे भीतर कोई प्रेम नहीं है...यह असंभव है। जैसे हर तरफ हर जमीन के नीचे पानी है--यह और बात है कि कहीं पचास फीट गहराई पर होगा और कहीं साठ फीट गहराई पर होगा। हर मनुष्य के भीतर प्रेम है। आदमी जरा कठोर है, कुआं जरा गहरा खोदना पड़ता है। स्त्री जरा तरल है, इतनी कठोर नहीं है। थोड़ी ही खुदाई करनी पड़ती है और पानी निकल आता है। लेकिन कभी-कभी यूं हो जाता है कि हम अपने चारों तरफ प्रेम के नाम पर जो होते देखते हैं, वह हमें कठोर बना देता है, वह हमें डरा देता है, वह हमें भयभीत कर देता है कि अगर यही प्रेम है तो ईश्वर प्रेम से बचाए।
ऐसे ही तुमने अपने पास एक दीवाल खड़ी कर ली होगी। उस दीवाल को गिरा दो। कोई जरूरत नहीं है कि उस दीवाल को गिराने के लिए तुम्हें शादी करनी पड़े और बच्चे पैदा करने पड़ें। इतना ही काफी है कि तुम्हारे बीच और इस बड़े मनुष्य-समाज के बीच, पक्षियों के बीच और पौधों के बीच दीवाल न रहे। हम सब जुड़े हैं, हम सब साथ-साथ हैं। हम कितने ही दूर-दूर हों, फिर भी बहुत पास-पास हैं। आखिर हम एक ही अस्तित्व के हिस्से हैं। हम वहीं से पैदा होते हैं और वहीं एक दिन लीन हो जाते हैं।
तो पहला तो सुझाव मैं यह दूंगा कि तुम अपनी यह भ्रांत धारणा छोड़ दो कि तुम्हारे पास कोई प्रेम नहीं या प्रेम तुम्हारा मार्ग नहीं। प्रेम के बिना तुम रूखी-सूखी हो जाओगी। प्रेम के बिना तुम ऐसी हो जाओगी, जैसे कोई मरुस्थल में प्यासा हो। यह दीवाल तोड़ दो।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम प्रेम के मार्ग पर चलो। मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि प्रेम के संबंध में तुम्हारी जो धारणा है, वह हटा दो। ध्यान के मार्ग पर चलो, वह तुम्हें प्रीतिकर लगता है, वह तुम्हें रुचिकर लगता है। जैसे ही तुम प्रेम के संबंध में अपनी गलत धारणा छोड़ दोगी, वैसे ही तुम पाओगी--तुम्हारे ध्यान की धारणा, तुम्हारे ध्यान का मार्ग अपने आप सरल हो गया। अपने आप सरस हो गया। अपने आप वे कठिनाइयां जो कल तक मालूम होती थीं, अब मालूम नहीं होतीं।
तुमने पूछा है कि मैं बैठती हूं, साक्षी बन कर विचारों को देखती हूं। कभी-कभी विचार थम जाते हैं, क्षण भर को बड़ा आनंद आता है। और फिर विचार चल पड़ते हैं। और ऐसा ही हो रहा है। और ऐसा ही कब तक होता रहेगा?
यह तब तक होता रहेगा, जब तक कि तुम पहली भूल न सुधार लोगी। वह जो आनंद का थोड़ा सा अनुभव तुम्हें होता है क्षण भर को, वह बहुत बड़ा नहीं हो पाता; क्योंकि तुमने प्रेम को अवरुद्ध किया हुआ है। अगर प्रेम का बांध भी टूट जाए और आनंद का यह छोटा सा क्षण भी मिल जाए, तो तुम्हारे भीतर भी गंगा बहने लगे। फिर बड़े-बड़े अंतराल आने शुरू हो जाएंगे। देर-देर तक विचारों का कोई पता न रहेगा। और एक नई अनुभूति होगी कि यहां ध्यान बढ़ रहा है, वहां पीछे-पीछे प्रेम की सुगंध फैलती जा रही है। जिस दिन ध्यान और प्रेम तुम्हें दो न मालूम हों, उस दिन समझना कि मंजिल आ गई। जिस दिन ध्यान प्रेम हो और प्रेम ध्यान हो, उस दिन समझना कि मंदिर आ गया। अब कहीं और जाना नहीं है, यहीं आना था।
तो शुरुआत में चुनाव करना पड़े, लेकिन अंत में कोई चुनाव नहीं है। अंत में प्रेम और ध्यान, दोनों एक हो जाते हैं। ध्यान तुम्हें अपने से मिला देता है और प्रेम तुम्हें सब से मिला देता है।
अगर अपने से ही मिल कर रह गए, तो यह सारा अस्तित्व तुमसे भिन्न रह जाएगा। यह उपलब्धि अधूरी होगी। और अगर सब से मिल गए और अपने से ही न मिले, तो यह भी कोई मिलना हुआ? जिस दिन अपने से मिले, उसी दिन सब से भी मिल गए, तो उपलब्धि पूरी हो गई।
दोहरा दूं, ताकि तुम्हें भूल न जाए।
प्रेम के संबंध में तुम्हारी धारणा गलत है, उसे छोड़ दो।
प्रेम का अर्थ वासना नहीं है। प्रेम का अर्थ सबके लिए सदभावना है।
गौतम बुद्ध के जीवन में यह उल्लेख है कि वे अपने हर भिक्षु को यह कहते थे कि जब तुम ध्यान करो और जब आनंद से भर जाओ, तो एक काम करना मत भूलना। जब तुम आनंद से भर जाओ, तो अपने आनंद को सारे जगत को बांट देना। तभी उठना ध्यान से। ऐसा न हो कि ध्यान भी कंजूसी बन जाए। ऐसा न हो कि ध्यान को भी तुम तिजोड़ी में बंद करने लगो। जो पाओ, उसे लुटा देना। फिर कल और आएगा, उसे भी लुटा देना। और जितना तुम लुटाओगे, उतना ज्यादा आएगा।
एक आदमी खड़ा हुआ, उसने कहा: और सब ठीक है, आपकी आज्ञा शिरोधार्य, लेकिन एक अपवाद मांगना चाहता हूं।
बुद्ध ने कहा: क्या अपवाद?
उसने कहा कि मैं ध्यान करता हूं, ध्यान करूंगा। और आप जैसा कहते हैं, वैसा ही ध्यान के बाद जो आनंद की अनुभूति होती है, प्रार्थना करूंगा कि हे विश्व, इस अनुभूति को सम्हाल ले। लेकिन इसमें मैं एक छोटा सा अपवाद चाहता हूं। वह यह कि मैं अपने पड़ोसी को इसके बाहर छोड़ना चाहता हूं। क्योंकि वह कमबख्त मेरे ध्यान का लाभ उठाए, यह मैं नहीं देख सकता। बस इतनी सी स्वीकृति--एक पड़ोसी। सारी दुनिया को ध्यान बांटने को राजी हूं। दूर से दूर तारों पर कोई रहता हो, मुझे कोई चिंता नहीं। मगर इस हरामखोर को...!
बुद्ध ने कहा: तब बड़ी मुश्किल है। तब तुम बात समझे ही नहीं। सवाल यह नहीं था कि इसको देना है या उसको देना है। सवाल यह नहीं था कि अपने को देना है और पराए को नहीं देना है। सवाल यह नहीं था कि दोस्त को जरा ज्यादा दे देंगे, दुश्मन को जरा कम दे देंगे। सवाल यह था कि दे देंगे, बेशर्त दे देंगे। और यह न पूछेंगे कि लेने वाला कौन है। और तुम वहीं अटक गए हो। तुम्हारा ध्यान आगे न बढ़ सकेगा। ये चांद-तारे तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं रखते; इसलिए तुम तैयार हो इनको प्रेम देने को, ध्यान देने को, आनंद देने को। मगर वह पड़ोसी...।
तो बुद्ध ने कहा: मैं तुमसे यह कहता हूं कि तुम सबकी फिकर छोड़ो--चांद की, तारों की। तुम इतनी ही प्रार्थना करो रोज ध्यान के बाद कि मेरा सारा आनंद मेरे पड़ोसी को मिल जाए। बस, तुम्हारे लिए इतना ही काफी है। दूसरों के लिए पूरी दुनिया भी छोटी है, तुम्हारे लिए तुम्हारा पड़ोसी भी सारी दुनिया से बड़ा मालूम होता है।
प्रेम का इतना ही अर्थ है कि मेरा आनंद, मेरे जीवन की खुशी, मेरे जीवन की खुशबू बेशर्त बिना किसी कारण के सब तक पहुंच जाए।
तो पहली तो यह बात याद कर लो कि प्रेम की तुम्हारी पुरानी धारणा गलत है। और दूसरी बात कि वह जो क्षण आता है ध्यान में, घबड़ा कर छोड़ मत देना। क्योंकि वही क्षण...जैसे गंगा गंगोत्री में छोटी सी होती है। इतनी छोटी होती है कि हिंदुओं ने वहां एक गोमुख बना रखा है। पत्थर के गोमुख से गंगोत्री निकलती है। और वही गंगोत्री हजारों मील की यात्रा करके इतनी बड़ी हो जाती है कि जब वह सागर से मिलती है तो उसका नाम गंगासागर है। उसको एक पार से दूसरे पार तक देखना मुश्किल हो जाता है।
वह जो छोटा सा क्षण है, वह अभी गंगोत्री है। अगर तुमने प्रेम के संबंध में सुधार कर लिया, तो उस गंगोत्री को गंगासागर बनने में देर न लगेगी। उसका गंगासागर बनना निश्चित है। इस अस्तित्व के नियम बदलते नहीं; वे सदा से वही हैं। अगर कभी कोई भूल-चूक होती है, भूल-चूक हमारी है। जगत के नियमों का कोई पक्षपात नहीं है।

प्रश्न:
भगवान, हृदय को सभी संतों ने अध्यात्म अनुभव का द्वार कहा है और मन को विचार और बुद्धि का। हृदय और मन में क्या फर्क है? हृदय और आत्मा में क्या फर्क है? इस फर्क को कैसे स्पष्ट करें? कैसे पहचानें?
मनुष्य का सबसे पहला द्वार विचार है। मनुष्य सबसे पहले सोचना सीखता है। उस सोचने की, विचारने की मनुष्य की जो क्षमता है, उसका नाम बुद्धि है। हमारे सारे शिक्षण की संस्थाएं उसी बुद्धि को निष्णात करती हैं। और इसीलिए दुनिया में विचार तो बहुत हैं, लेकिन प्रेम बहुत नहीं है। और जिस दुनिया में विचार बहुत हों और प्रेम न हो, वह दुनिया नरक बन जाए, इसमें ज्यादा देर नहीं। क्योंकि विचार को इससे कोई संबंध नहीं--क्या ठीक है, क्या गलत है। विचार वेश्या है।
यूनान में सुकरात के पहले एक बहुत बड़ी दार्शनिक परंपरा थी। उस परंपरा का नाम था सोफिस्ट। उनका एक ही काम था, लोगों को विचार करना सिखाना। रईसजादे, राजकुमार या जो भी उनकी फीस चुकाने के लिए राजी थे, वे उनको विचार की प्रक्रिया और तर्क की प्रक्रिया भी सिखाने के लिए राजी थे। उनका कोई सिद्धांत न था। वे सिर्फ विचार सिखाते थे और तर्क की प्रक्रिया सिखाते थे। फिर तुम जो चाहो उसका उपयोग करो--अच्छे के लिए या बुरे के लिए।
यूं तलवार किसी की गर्दन भी काट सकती है और यूं तलवार किसी की कटती हुई गर्दन को भी रोक सकती है। यूं जहर किसी की जान भी ले सकता है और यूं जहर किसी के कुशल हाथों में किसी के जीवन को बचा भी सकता है।
सोफिस्टों का काम कुल इतना था कि हम तुम्हें तलवार चलाना सिखा देते हैं, फिर तुम किसलिए तलवार चलाते हो, क्या लक्ष्य है तुम्हारा, यह तुम्हारी बात है। इससे हमारा कोई लेना-देना नहीं है।
झेनो, एक बहुत विचारशील युवक एक बड़े सोफिस्ट के स्कूल में भरती हुआ। और सोफिस्टों का यह नियम था कि आधी फीस तुम पहले भर दो और आधी फीस तब भर देना, जब तुम कोई पहला विवाद जीतो। इतना भरोसा था उन्हें अपने विज्ञान पर कि तुम जीतोगे ही जीतोगे। झेनो ने आधी फीस भर दी। शिक्षण भी पूरा हो गया। चांद आए, डूबे; सूरज उगे, डूबे; दिन बीते, महीने बीते। गुरु पीछे लगा है कि आधी फीस का क्या? लेकिन झेनो ने कहा: शर्त पूरी होने दो। जब मैं कोई विवाद जीतूंगा तब। लेकिन मैंने निर्णय किया है कि मैं कोई विवाद करूंगा ही नहीं। अगर कोई मुझसे दिन में भी कहेगा कि यह रात है, मैं कहूंगा कि है, बिलकुल रात है। कोई झंझट ही नहीं करनी, तो विवाद किस बात का? और जब तक मैं विवाद न जीतूं, आधी फीस मैं देने का नहीं हूं। और तुम जानते हो कि आखिर मैं तुम्हारा ही शिष्य हूं, और तुम्हारी ही कला सीखा हूं।
लेकिन गुरु ने सोचा: यह तो बहुत ज्यादती हो गई। यह आदमी शरारती निकला। कुछ करना पड़ेगा। आखिर गुरु को अपनी गुरुता सिद्ध करनी ही पड़ेगी। उसने झेनो पर अदालत में मुकदमा किया कि इसने मेरी आधी फीस नहीं चुकाई है। उसके विचार की यह परंपरा थी--कि अब वह आधी फीस वसूल कर लेगा। अगर वह जीत गया तो अदालत से कहेगा कि झेनो को आज्ञा दो कि मेरी आधी फीस...अगर हार गया तो अदालत के बाहर झेनो की गर्दन पकड़ेगा कि बेटा, आधी फीस?
मगर झेनो भी उसी का शिष्य था। दोनों के सोचने का ढंग एक था, दोनों की तलवार एक थी, दोनों का तर्क एक था। उसने कहा: ठीक, अगर अदालत में हार गए तो मैं अदालत से निर्णय करवाऊंगा कि आप कह दें मेरे शिक्षक को कि अब मुझसे फीस न मांगें, मैं पहला मुकदमा ही हार गया। और अगर मैं अदालत में जीत गया, जिसकी पूरी संभावना है, क्योंकि सारे तर्क मेरे पक्ष में हैं। मैंने कोई विवाद ही नहीं किया तो फीस किस बात की? और शर्त यही थी। अगर मैं अदालत में जीत गया तो बाहर अपने गुरु को कहूंगा कि नमस्कार! मैं अदालत के खिलाफ कोई काम नहीं कर सकता हूं। मैं कानून को मान कर चलने वाला आदमी हूं।
विचार वेश्या है। विचार के पास अपनी कोई जीवन-दृष्टि नहीं है। विचार अंधा है। लेकिन हम उसी अंधेपन की शिक्षा देते हैं। और विचार से गहराई में छिपा हुआ हमारा हृदय है। लेकिन सारे समाज आज तक के आदमी को हृदय से बचाने की कोशिश करते रहे हैं। क्योंकि हृदय खतरनाक है। क्योंकि हृदय तर्क नहीं जानता, प्रेम जानता है। विचार का उपयोग किया जा सकता है, तुम्हें सैनिक बनाया जा सकता है, तुम्हें क्लर्क बनाया जा सकता है। लेकिन प्रेम का क्या उपयोग करोगे? समाज के लिए प्रेम की कोई उपादेयता नहीं है। वरन समाज के लिए प्रेम से खतरा है। क्योंकि आज तुम किसी को प्रेम करते हो, कल किसी और को प्रेम करने लगो, परसों किसी और को प्रेम करने लगो। तो समाज यह सब इंतजाम कहां से करता फिरेगा?
प्रेम को काट डालने के लिए समाज ने विवाह ईजाद किया। और हजार कानून बनाए कि सच्चा प्रेम वही है, जो कभी बदलता नहीं। हालांकि इस दुनिया में जो भी सच्ची चीजें हैं, वे रोज बदलती हैं। और जो झूठी चीजें हैं, वही नहीं बदलतीं। कागज के फूल नहीं बदलते; असली गुलाब के फूल रोज बदल जाते हैं।
और फिर प्रेम के साथ खतरा है। किसी आदमी को सैनिक बनाना मुश्किल है; सैनिक बनाने के लिए जरूरी है कि उसके प्रेम की बिलकुल हत्या कर दी जाए। नहीं तो वह गोली जब हाथ में लेगा किसी दुश्मन को मारने के लिए, तो उसका हृदय कहेगा--इसकी भी मां होगी, जैसी तुम्हारी मां है। और इसकी भी पत्नी होगी। और जैसे ज़ार-ज़ार तुम्हारी पत्नी रोई थी तुम्हें विदा करते वक्त, इसकी पत्नी भी रोई होगी। और इसके भी छोटे-छोटे बच्चे होंगे, जिन्हें तुम अनाथ करने जा रहे हो। और इसका भी बूढ़ा पिता होगा, जिसके बुढ़ापे में इसके सिवाय और कोई लाठी का सहारा नहीं है। तुम यह क्या कर रहे हो? और किसलिए कर रहे हो? और इस आदमी ने तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ा है। सिर्फ सौ रुपट्टी की नौकरी और आदमी, और इसकी जिंदगी...और यह भी बेचारा सिर्फ सौ रुपट्टी की नौकरी और तुम्हारी छाती पर बंदूक कसे है!
अगर प्रेम की दोनों में थोड़ी भी किरण हो तो दोनों बंदूकें छोड़ कर गले मिल जाएंगे, क्योंकि दोनों की समस्या एक है। और ये बंदूकें जिन पर तननी चाहिए, वे राजधानियों में बैठे हुए हैं।
यह जान कर तुम हैरान होओगे कि पिछले दूसरे महायुद्ध में अमरीकी सैनिकों में जो उम्र वाले सैनिक थे, उन्होंने तो ठीक वैसा ही व्यवहार किया जैसा करना चाहिए एक सैनिक को--हत्या का धंधा। लेकिन जो जवान थे, उनमें से तीस प्रतिशत लोगों ने किसी की हत्या नहीं की। वे बंदूकें लेकर मैदान पर जाते थे और सांझ को बंदूकें लिए मैदान से वापस लौट आते थे। और जब इस बात का मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया गया तो सारे अमरीका में एक घबड़ाहट छा गई, कि अगर युवकों में यह बात सनसनी की तरह फैल जाए...तीस प्रतिशत कोई छोटी घटना नहीं है। और अगर अमरीकी युवक यह कह दें कि हम क्यों किसी की हत्या करें जिन्होंने हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ा? तो अमरीका का यह दंभ कि हम दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति हैं, दो कौड़ी में मिल जाएगा। लेकिन जिनका यह दंभ है, वे वाशिंगटन में हैं। और जिनको मरना है और मारना है, उनका न कोई नाम है, न कोई ठिकाना है!
कोई समाज नहीं चाहता कि तुम्हारे हृदय को, तुम्हारे प्रेम को विकसित होने दे। उसे हर तरह से रोकता है। और सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि मस्तिष्क सब से ऊपर है, उससे गहराई में हृदय है और उससे गहराई में तुम्हारी आत्मा है। चूंकि तुम्हारे हृदय को ही विकसित नहीं होने दिया जाता, तुम्हारी आत्मा तक पहुंचने की संभावना ही समाप्त हो जाती है, दरवाजे ही बंद हो जाते हैं। इसलिए अगर आज की दुनिया में आत्मा को जानने वाले लोगों की एकदम कमी हो गई है तो कोई आश्चर्य नहीं है। होना तो नहीं चाहिए था। क्योंकि हजारों-हजारों साल से आत्मा को लोग खोजते रहे हैं, तो संख्या बढ़नी चाहिए थी उनकी जो अपने को जानते हैं। लेकिन उनकी संख्या रोज-रोज कम होती गई है। और जो व्यक्ति भी इस तरह की बातें करेगा कि तुम्हारे हृदय के द्वार कैसे खोले जा सकें और तुम्हारी आत्मा का फूल कैसे खिले--सारी दुनिया की वे शक्तियां जो प्रेम और आत्मोपलब्धि के खिलाफ हैं, उसकी दुश्मन हो जाएंगी।
मैंने किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा है। लेकिन अमरीका ने सारी दुनिया के गैर-कम्युनिस्ट देशों को राजी कर लिया है कि मुझे पैर रखने की जमीन भी न दी जाए। और कम्युनिस्ट राष्ट्र पहले से ही मुझसे परेशान हैं। इतनी बड़ी जमीन मेरे लिए एकदम छोटी हो गई है। उनकी घबड़ाहट क्या है?
उनकी घबड़ाहट बहुत बुनियादी है। उनकी घबड़ाहट यह है कि मैं उनके युवकों को प्रेम का संदेश दे रहा हूं। उनकी घबड़ाहट यह है कि मैं उनके युवकों को ध्यान की अनुप्रेरणा दे रहा हूं। उनकी घबड़ाहट यह है कि करोड़ों लोग सारी पृथ्वी पर आज पहली बार, बिना इस बात की फिकर किए कि वे हिंदू हैं या मुसलमान या ईसाई या पारसी या यहूदी, ध्यान की एक प्रक्रिया में उतरने के लिए और प्रेम के अनूठे सागर में गोते लेने के लिए राजी हो गए हैं। यह उनकी घबड़ाहट है।
बिना किसी जुर्म के आज मैं अमरीका की आंखों में दुश्मन नंबर एक हूं। उनकी अदालतों में वे सिद्ध न कर सके कि मेरा जुर्म क्या है। क्योंकि सिद्ध भी कैसे करें? दुनिया का कोई विधान नहीं कहता है कि प्रेम पाप है और दुनिया का कोई विधान नहीं कहता कि आत्मा को जानना अपराध है। तो सिद्ध भी क्या करें? दुनिया का कोई विधान नहीं कहता कि ध्यान या समाधि मनुष्य को नरक ले जाते हैं। तो अदालत में सिद्ध भी क्या करें?
अभी चार दिन पहले अमरीका के सब से बड़े कानूनविद अटर्नी जनरल ने पत्रकारों की परिषद को उत्तर देते हुए कहा--किसी ने पूछा था कि मुझे सजा क्यों नहीं दी गई? मुझे जेल क्यों नहीं भेजा गया? तो उत्तर में उन्होंने जो दी तर्कसरणी, वह सोचने जैसी है। उन्होंने कहा: हमें उत्सुकता थी, भगवान ने जो कम्यून यहां स्थापित किया था, उसको नष्ट करने की। वह हमारी प्रिआरिटी थी। वह हमारा पहला काम था।
और कम्यून क्या थी? पांच हजार लोगों की एक छोटी सी जमात थी। जो ध्यान कर रही थी एक रेगिस्तान में, जहां किसी अमरीका के आदमी को आने की न कोई जरूरत थी, न कोई आमंत्रण था। हमसे पड़ोसी नगर अमरीका का कम से कम बीस मील दूर था, छोटा सा गांव। और थोड़ा बड़ा गांव हमसे तीस मील दूर था। हमसे उन्हें क्या तकलीफ थी?
लेकिन कम्यून को नष्ट करना हो तो एक बात उनके लिए साफ हो गई थी कि मुझे पहले अमरीका से बाहर कर देना जरूरी है। क्योंकि उन पांच हजार संन्यासियों ने घोषणा की थी कि अगर मुझे अरेस्ट करने की कोशिश की गई, तो बिना पांच हजार संन्यासियों की हत्या किए मुझे अरेस्ट नहीं किया जा सकता। इसलिए दो साल से वे मुझे अरेस्ट करना चाहते थे, दो साल से रोज खबरें आती थीं कि आज, कि अब अरेस्ट-वारंट आने को है। और कम्यून के पास, बीस मील दूर के गांव में उन्होंने लाकर फौजें खड़ी कर रखी थीं कि अगर जरूरत पड़े तो पांच हजार संन्यासियों की हत्या भी कर दी जाए, वह भी हम करेंगे।
और इन पांच हजार संन्यासियों ने उनका कुछ भी न बिगाड़ा था। इनका कसूर इतना ही था कि इन्होंने एक रेगिस्तान को मरूद्यान बना दिया, और अमरीका को पहली बार ध्यान के अमृत की थोड़ी सी झलक दी। और पहली बार अमरीका में एक स्थान ऐसा बन गया, जो कि अमरीका में कहीं भी नहीं है, जिसको तीर्थ-स्थान कह सकते हैं--क्योंकि प्रतिवर्ष हजारों संन्यासी सारी दुनिया से कम्यून में आ रहे थे। उन्हें तो खुश होना चाहिए था कि हमने उनकी भूमि को एक पवित्रता दे दी, उनके अधार्मिक समाज को एक धर्म की भेंट दे दी। लेकिन वह उनके लिए खतरा था।
बुद्धि से सोचो, लेकिन ध्यान रहे, बुद्धि से इस तरह सोचो कि वह तुम्हें हृदय की तरफ ले जाए, हृदय के विरोध में नहीं। तो तुम समझदार आदमी हो। प्रेम करो, लेकिन प्रेम ऐसा करो कि वह तुम्हेंवासना की गंदी नालियों में न भटकाए, बल्कि आत्मा की तरफ इशारा करे। और ध्यान करो, ताकि एक दिन तुम्हारे भीतर उस दीये को तुम जला लो, जो कभी भी नहीं बुझता। जिसने उसे जला लिया, उसने अपने जीवन की परिपूर्णता पा ली। और जो उसे बिना जलाए मर गया, वह व्यर्थ जीया, व्यर्थ मरा।

और मैं अंततः फिर दोहरा देना चाहता हूं: यह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

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