QUESTION & ANSWER
Koplen Phir Phoot Aayeen 03
Third Discourse from the series of 12 discourses - Koplen Phir Phoot Aayeen by Osho. These discourses were given in BOMBAY during JUL 31 - AUG 09 1986.
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प्रश्न:
भगवान, वह कौन सी ऐसी अज्ञात शक्ति है जो हमें आपकी तरफ खींच रही है?
जीवन में सभी कुछ अज्ञात है--वह सब भी, जो हम सोचते हैं कि ज्ञात है।
सुकरात का वचन है कि जब मैं युवा था तो सोचता था कि बहुत कुछ जानता हूं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, जानना भी बढ़ा। लेकिन एक अनूठी घटना भी साथ-साथ, कदम से कदम मिलाते हुए चली। जितना ज्यादा जानने लगा, उतना ही अनुभव होने लगा कि कितना कम जानता हूं! और अंततः जीवन की वह घड़ी भी आई, जब मेरे पास कहने को केवल एक शब्द था कि मैं सिर्फ इतना ही जानता हूं कि कुछ भी नहीं जानता। यह सुकरात के अंतिम वचनों में से है। जीवन भर की यात्रा, ज्ञान की खोज, और परिणाम--एक छोटे बच्चे का भोलापन, जिसे कुछ भी पता नहीं है।
यूनान में डेल्फी का मंदिर है। उन दिनों बहुत प्रसिद्ध था, अब तो सिर्फ उसके खंडहर बाकी हैं। डेल्फी के मंदिर की जो पुजारिन थी, वह रामकृष्ण जैसी रही होगी। कभी-कभी गीत गाते-गाते, नाचते-नाचते बेहोश होकर गिर पड़ती थी। और उस बेहोशी में जो कहती थी, वह होश वालों के होश गुम कर देते। जब सुकरात ने यह वचन कहा था, उसके थोड़े ही दिन बाद डेल्फी की पुजारिन ने घोषणा की कि सुकरात दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी है।
लोगों ने सुना, हैरानी में पड़े। सुकरात कहता है: मैं कुछ भी नहीं जानता, बस इतना ही जानता हूं। और डेल्फी की पुजारिन की बात कभी झूठ नहीं गई थी। और वह कहती है: सुकरात जगत का सबसे बड़ा महाज्ञानी है। वे लोग सुकरात के पास आए। सुकरात से निवेदन किया कि देवी का आविष्ट अवस्था में यह उदघोष हुआ है।
सुकरात ने कहा: देवी बेहोश थी, मैं होश में हूं। मैं फिर कहता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। देवी गलत हो सकती है, सुकरात गलत नहीं हो सकता। देवी मुझे बाहर से जानती है, मैं स्वयं को भीतर से जानता हूं। लौट जाओ और देवी को कहना कि तुम्हारी एक भविष्यवाणी गलत हो गई। कम से कम एक तो निश्चित ही गलत हो गई।
लोग वापस लौट कर देवी से कहे। और देवी हंसी, उसने कहा: कहना सुकरात से कि मैंने तुम्हें महाज्ञानी इसीलिए तो कहा था कि तुमने जान लिया है कि जगत में सभी कुछ अज्ञात है और रहस्यमय है। मेरे वक्तव्य में और तुम्हारे वक्तव्य में कोई विरोध नहीं है।
हम जन्मते हैं, पता नहीं क्यों? कौन सी अज्ञात शक्ति हमें जीवन में लाती है? हम जीते भी हैं, पता नहीं क्यों? हम एक दिन मर भी जाते हैं। और शायद यह चक्र अनंतों बार घूम चुका है और हमें कोई भी पता नहीं कि क्यों?
यह प्रश्न भद्रा का है। चूंकि रोज मैं उसकी चोटी खींच रहा था कि भद्रा पूछ, भद्रा पूछ, बामुश्किल किसी तरह प्रश्न बना कर ले आई है।
जगत एक रहस्य है, एक ऐसा शास्त्र जो पढ़ा नहीं जा सकता। और जो दावा करते हैं जानने का, उनसे बड़े अज्ञानी इस दुनिया में दूसरे नहीं हैं। और जिनकी समझ में यह आ जाता है कि हम एक अज्ञात, अपरिसीम, अव्याख्य शक्ति की तरंगें हैं--न जिनके प्रारंभ का कोई पता है, न जिनके अंत की कोई खबर है, वे ही थोड़े से लोग अपने भीतर अचानक पाते हैं, जैसे चुंबक बन गए हों।
भद्रा पूछ रही है: ‘वह कौन सी अज्ञात शक्ति है जो हमें आपकी ओर खींचती है?’
वह वही अज्ञात शक्ति है जो तुम्हारे भीतर है और मेरे भीतर है। न मैं उसका नाम जानता हूं, न तुम उसका नाम जानती हो। लेकिन मैं इतना जानता हूं कि वह अज्ञात है और बेनाम है। और तुम्हें अभी भी यह भ्रम है कि शायद किसी दिन तुम उसे पहचान लोगी, उसके नाम को जान लोगी। जिस दिन यह भ्रम टूट जाएगा, उस दिन तुम भी एक अपूर्व आकर्षण और चुंबक का केंद्र बन जाओगी। तुम्हारे भीतर भी वही कशिश होगी। तुम्हारे शब्दों में भी वही अधिकार होगा। क्योंकि तब तुम नहीं बोलते, तब तुम्हारा गीत तुम्हारा गीत नहीं है। तब तो तुम सिर्फ बांस की पोली पोंगरी हो। ओंठ किसी और के हैं और गीत किसी और का है। तुम्हारा धन्यभाग इतना कि तुम उस गीत को अपने भीतर से प्रवाहित होने देते हो। और यह प्रवाह इस जगत का सबसे बड़ा आनंद है। ज्ञान की खोज मत करो, आनंद की खोज करो। आनंद है जो तुम्हें खींचता है मेरी ओर। मेरा मिट जाना है जो खींचता है तुम्हें मेरी ओर। और मिट कर ही तुम आनंद को पा सकते हो।
हम सब नामों से चिपके हैं--झूठे नाम। पैदा हुए थे तो साथ में न कोई आइडेंटिटी कार्ड था, न कोई नाम की छोटी सी स्लिप थी। अज्ञात तुम आए थे। नाम तो हमने चिपका दिए हैं। लेबल हैं जो तुम पर लगा दिए हैं। और जिस दिन तुम जाओगे, उस दिन उन लेबलों को हम अलग कर लेंगे। क्योंकि फिर तुम अज्ञात में प्रवेश कर रहे हो। लेकिन इन दो अज्ञातों के बीच में तुम इस भ्रम में रहे कि तुम अपने संबंध में कुछ जानते हो। दो अज्ञातों के बीच में भी जो था, वह भी अज्ञात था। नाम, प्रतिष्ठा, सम्मान, उपाधियां, वे सब चिपकाई हुई बातें थीं, जो सब उखड़ जाएंगी।
मैं यह कहना चाहता हूं कि जगत को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है--ज्ञात, दि नोन; अज्ञात, दि अननोन; और अज्ञेय, दि अननोएबल। जो आज ज्ञात है, कल अज्ञात था। जो आज अज्ञात है, शायद कल ज्ञात हो जाए। विज्ञान केवल दो कोटियां मानता है: ज्ञात की और अज्ञात की। विज्ञान सोचता है: एक दिन आएगा, एक घड़ी आएगी--उनके हिसाब से शुभ की घड़ी, मेरे हिसाब से दुर्भाग्य का क्षण--जिस दिन सब अज्ञात ज्ञात में बदल जाएगा। उस दिन जीवन अर्थहीन होगा, उस दिन जीवन के पास न कोई नई चुनौती होगी, न खोज के लिए कोई नया आयाम होगा। नहीं, यह घटना कभी नहीं घटेगी। क्योंकि एक और कोटि है अज्ञेय की, जो सदा अज्ञेय है। जो पहले भी अज्ञेय था, अब भी अज्ञेय है और कल भी अज्ञेय रहेगा। तुम वही हो--अननोएबल। और अपने को इस भांति पहचान लेना कि मेरे भीतर अज्ञेय का वास है, स्वयं को मंदिर में बदल लेना है। क्योंकि अज्ञेय ईश्वर का दूसरा नाम है। हम उसका रस तो पी सकते हैं। उपनिषद कहते हैं: रसो वै सः। हम उसका स्वाद तो ले सकते हैं। लेकिन उसकी व्याख्या, उसकी परिभाषा, उसे नाम नहीं दे सकते।
मैंने उस रस को चखा है। और तुम्हारे भीतर भी उस रस को चखने की जन्मों-जन्मों से प्यास है। वही प्यास तुम्हें खींच लाती है तुम्हारे बावजूद, क्योंकि खतरा है अज्ञेय में प्रवेश का। ज्ञात से तो आदमी संतुष्ट होता है, जानता है, पहचानता है। अज्ञात से भी इतना डर नहीं लगता, आज नहीं कल जान लेंगे। लेकिन अज्ञेय? वहां तो सिर्फ खो जाना है, विलीन हो जाना है, विराट विस्तार के साथ एक हो जाना है। इस अज्ञेय को हमने नाम देकर बड़ी भूलें कीं। किसी ने ईश्वर कहा, किसी ने खुदा और किसी ने परमात्मा और किसी ने यहोवा--और हजार-हजार नाम हमने दिए, जो सब झूठे नाम हैं। हम उसे जानते ही नहीं, जान सकते भी नहीं; लेकिन जी सकते हैं, जी रहे हैं। वह हमारी श्वास-श्वास में है, हमारी आंखों की झलक-झलक में है।
तो जानने की यात्रा के लिए मेरा आमंत्रण नहीं है। मेरा आमंत्रण है होने की यात्रा का। वही तुम्हें खींच लाता है। वही तुम्हारे लिए आकर्षण है। मैं तुम्हें ज्ञानी नहीं बनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम उतने ही निर्दोष हो जाओ, जितने निर्दोष जन्म के पहले क्षण में थे। आंखें खुली थीं, सब दिखाई पड़ता था; लेकिन कोई नाम न था, कोई शब्द न था।
ईसाइयों की बाइबिल में एक अनूठी बात है, जिसका मैं विरोध करता रहा हूं। बाइबिल कहती है: सबसे पहले शब्द था, शब्द के साथ ईश्वर था और शब्द ही ईश्वर था। मैंने बड़े से बड़े ईसाई पंडितों से पूछा है कि शब्द में और ध्वनि में क्या अंतर है? पहाड़ से जलप्रपात गिरता है, उसे तुम शब्द नहीं कहते, उसे तुम ध्वनि कहते हो। घने जंगलों में से हवाएं सरसराती हुई गुजरती हैं, उसे तुम शब्द नहीं कहते, उसे तुम ध्वनि कहते हो। क्योंकि शब्द का अर्थ होता है--ऐसी ध्वनि जिसको अर्थ दे दिया गया। तो प्रथमतः शब्द तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसके पहले किसी की जरूरत पड़ेगी जो उसे अर्थ दे। शब्द से बेहतर होगा कि कहें--पहले ध्वनि थी। भूल थोड़ी कम हो जाती है, लेकिन मिट नहीं जाती। क्योंकि ध्वनि को सुनने के लिए भी कोई कान चाहिए। जब कोई भी सुनने वाला नहीं है तो ध्वनि का भी कोई अस्तित्व नहीं होता। शायद तुम सोचते होओगे कि जंगलों में गिरते हुए जलप्रपातों का वह स्वर-संगीत तुम्हारे चले जाने पर भी वैसा ही बना रहता है--तो तुम गलती में हो। तुम गए कि वह भी गया। वह दो के बीच था। तुम्हारे कान जरूरी थे।
ध्वनि भी नहीं हो सकती। तो कौन था जो सबसे पहले था? उपनिषद बहुत ईमानदार हैं। उपनिषदों से ज्यादा ईमानदार किताबें इस जमीन पर दूसरी नहीं हैं। उपनिषद कहते हैं: वह कौन था जो पहले था? किसी को भी कोई पता नहीं। कैसे हो सकता है पता? वह कौन था जो था? उसका कोई भी तो साक्षी नहीं है। और कौन है जो अंत में रह जाएगा? उसका भी कोई साक्षी नहीं है। और अगर प्रारंभ में अज्ञेय है, और अंत में अज्ञेय है तो बीच में भी अज्ञेय ही है। तुम्हारे सब नाम-धाम झूठे हैं। तुम्हारी जाति, तुम्हारे धर्म, तुम्हारी दीवारें झूठी हैं। तुम्हारे राष्ट्र और तुम्हारे सारे भेद झूठे हैं।
ध्यान एकमात्र प्रक्रिया है उस अज्ञेय में उतर जाने की, जहां तुम अचानक मौन हो जाते हो। क्योंकि जो तुम देखते हो उसको कोई भी शब्द नहीं दिया जा सकता। और उस अज्ञेय से ही आकर्षण पैदा होता है।
हजारों लोग बुद्ध के पास मधुमक्खियों की तरह चले आए। न कोई विज्ञापन था, न कोई खबर थी। लेकिन जब फूल खिलते हैं तो मधुमक्खियों को पता चल ही जाता है। इतना मैं तुमसे कह सकता हूं कि मैंने अपने भीतर झांका है और उस शून्य को अनुभव किया है, जिसका कोई नाम नहीं है, कोई धर्म नहीं है। वही है तुम्हारा आकर्षण। और ईश्वर करे कि तुम भी उसको भीतर अपने जान लो। जितने ज्यादा लोग जान लें, जितने ज्यादा फूल खिलें, उतनी करोड़ों मधुमक्खियों के जीवन में बहार आ जाए।
प्रश्न:
भगवान, बीस साल से आपके साथ रहते-रहते मेरा आमूल-परिवर्तन हो गया है। मैं जो पहले थी, वह अब नहीं हूं। शांति और सुख से भर गई हूं। आपकी अनुकंपा अपार है। अब मुझे क्या करना चाहिए?
अब दोनों हाथों उलीचो। सुख और शांति जब तुम्हारे भीतर अनुभव हों तो कंजूसी मत करना। पुरानी आदतें हैं कि जो भी मूल्यवान है, उसे हम तिजोड़ियों में बंद कर देते हैं। और सुख और शांति से ज्यादा मूल्यवान तो तुमने कुछ जाना नहीं है। यह तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम्हारे जीवन में सुख है और शांति है। चूक न जाना। क्योंकि जितनी ऊंचाई से आदमी गिरता है, उतनी ही नीचाई में गिर जाता है। बांटो! उलीचो!
कबीर ने कहा है: दोनों हाथ उलीचिए, यही सज्जन को काम।
और यह बड़े मजे की बात है। क्योंकि जितना तुम उलीचते हो, उतना ही तुम पाते हो कि तुम्हारे भीतर नये स्रोत, नये झरने, नित नये अनुभव प्रकट होते चले जाते हैं।
सुख और शांति के भी ऊपर कुछ है। सुख और शांति मंजिल नहीं है। सुख और शांति के ऊपर ही शून्य है। और जब तक तुम सुख और शांति को उलीचने में समर्थ न हो जाओगे, तुम उस शून्यता को अनुभव न कर सकोगे, जिस शून्यता में इस जीवन के सारे रहस्य उतर आते हैं--अपने आप, बिन बुलाए।
पुरानी कहावत है, हम मेहमान को अतिथि कहते थे। और अतिथि को ईश्वर का दर्जा देते थे। लेकिन शायद तुमने न सोचा हो कि अतिथि शब्द का अर्थ क्या होता है। तिथि का अर्थ तो तारीख होता है। अतिथि का अर्थ होता है: जो बिना तारीख बताए, अचानक, न मालूम किस घड़ी तुम्हारे भीतर मौजूद हो जाए। और जो अतिथि की तरह तुम्हारे भीतर मौजूद हो जाए, वही जीवन का सार-सत्व है, वही ब्रह्मानुभव है, वही समाधि है।
सुख और शांति तो पहरेदार हैं। अभी मंदिर के भीतर प्रवेश करना है। अभी मंदिर के देवता से मिलना है। तो यहीं सीढ़ियों पर बैठे मत रह जाना। सुख और शांति बड़े लुभावने हैं, क्योंकि हम इतने तनाव में जीए हैं जन्मों-जन्मों से, इतनी अशांति झेली है, इतने नरकों से गुजरे हैं कि जब सुख और शांति मिलती है, तो लगता है--आ गई मंजिल। नहीं, केवल सीढ़ियां आई हैं। दो-चार कदम और। बस दो-चार कदम और। थोड़ी सी हिम्मत और। जब तक तुम्हें शून्यता का अनुभव न हो--यह मैं तुम्हें कसौटी देता हूं--तब तक रुकना मत। क्योंकि उसी शून्यता में अतिथि का आगमन होता है। जब तक तुम अपने से भरे हो, परमात्मा से नहीं भर सकते हो। जब तुम अपने से खाली हो जाते हो, शून्य हो जाते हो, तो अनंत दिशाओं से जीवन का सारा सौंदर्य और जीवन का सारा रस तुम्हारी तरफ बहने लगता है।
ध्यान का लक्ष्य है: समाधि, शून्यता--ताकि तुम मिट जाओ और वही रह जाए जो कभी नहीं मिटता है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आज जीवंत फूल की महक, सुंदरता, निजीपन, फिर से जिंदगी खिल गई। प्लास्टिक के फूल कैसे भी हों, लेकिन सुवास नहीं। यह मोह नहीं है, यह सौंदर्य-बोध है। इट इज़ नॉट अटैचमेंट, बट इट इज़ एस्थेटिकल। आपकी कृपा! आपका अनुग्रह!
यह सच है कि प्लास्टिक के फूलों में सुवास नहीं होती। और यह भी सच है कि प्लास्टिक के फूल मरते नहीं, जीए ही चले जाते हैं। रोज धो दो और रोज नये हो जाते हैं। असली फूल सुबह सूरज की किरणों के साथ खिलते हैं, अपनी सुवास को बिखेर देते हैं और सांझ होते-होते उनकी पंखुड़ियां धूल में मिल जाती हैं। फिर दुबारा उसी फूल से मिलना न हो सकेगा। और फूल आते रहेंगे, और फूल जाते रहेंगे।
इतना ही अगर सच होता कि असली फूलों में सुगंध होती है और प्लास्टिक के फूलों में सुगंध नहीं, तो भेद करना बहुत आसान था। बड़ी मुश्किल तो यह है कि नकली फूल बहुत जिंदा रहते हैं, बहुत देर तक टिकते हैं और असली फूल बहुत जल्दी मुरझा जाते हैं। जितना असली फूल होगा, उतने जल्दी मुरझा जाता है। क्योंकि जितना असली फूल होगा, उतना ही पूर्णता से जीता है और अपने को लुटा देता है। तो शुभ है कि तुम्हें अनुभव होता है कि तुम्हारे जीवन में असली फूल खिल रहे हैं। अब जरा खयाल रखना कि इन असली फूलों को, जब ये बिखरने लगें, तो बिखरने से मत रोकना। क्योंकि आने वाले फूलों के लिए ये जगह बना रहे हैं। और आने वाला हर फूल इनसे बेहतर होगा। इन फूलों में सुगंध है और इन फूलों में रंग हैं और इन फूलों में एक ताजगी है। मगर अगर तुमने मुट्ठी बंद करके इन फूलों को बचाने की कोशिश की तो तुम सब नष्ट कर दोगे।
और हम पूरे जीवन यही करते हैं। तुमने किसी से प्रेम किया, एक असली फूल उगा, और जल्दी ही तुम द्वार-दरवाजे बंद करने लगते हो, जल्दी ही तुम पहरेदार खड़े करने लगते हो। भय खड़ा हो जाता है कि जो प्रेम आज है, पता नहीं कल होगा या नहीं होगा। कल की चिंता तुम्हारे आज को मार देती है। और जिसका आज मुर्दा है, उसका कल तो और भी मुर्दा होगा। जब जीवन में प्रेम की लहर आए तो सारे द्वार-दरवाजे और खिड़कियां खोल देना। हिम्मत की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि हवा के एक झोंके की तरह प्रेम आता है और हवा के एक झोंके की तरह प्रेम चला जाता है। पर घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। हम एक अनंत अस्तित्व के हिस्सेदार हैं। और भी झोंके आते होंगे। खिड़कियां भर खुली रहें। दिमाग पक्षपातों से न भरें। जो हमें मिला है, उसको पकड़ रखने की, उसको जबरदस्ती रोक रखने की कोशिश न हो, तो तुम रोज-रोज नये फूल पाओगे। और एक दिन आता है जब फूल नहीं आते, तुम खुद फूल बन जाते हो। बुद्ध ने इस स्थिति को--जब तुम खुद फूल बन जाते हो--निर्वाण कहा है। अपनी सारी सुगंध बिखेर देते हो।
कस्तूरी-मृग की ही नाभि में कस्तूरी की सुगंध नहीं होती, तुम्हारी नाभि में भी सुगंध है, जो हजार कस्तूरी-मृगों की सुगंध से ज्यादा गहरी है और ज्यादा कीमती है। तुमने उसे मौका नहीं दिया। तुम खिलौनों से खेलते रहे। जिस दिन तुम्हारी कस्तूरी अपनी सुगंध को आकाश को दे देगी, उस दिन तुम भी बिखर जाओगे जैसे फूल बिखर जाता है। फिर तुम नहीं लौटोगे जगत में दुबारा। फिर तुम नहीं पाओगे शरीर। क्योंकि शरीर सिवाय एक कारागृह के और कुछ भी नहीं है। एक अस्थिपंजर, जो चमड़ी के पीछे छिपाया हुआ है। तब तुम इस अनंत आकाश के और इस अनंत अस्तित्व के हिस्सेदार हो जाओगे।
पहले फूल आते हैं। तुम उनके साथ क्या व्यवहार करते हो, इस पर सब निर्भर करता है। उनसे आसक्ति मत करना। वे आएं तो स्वागत, वे जाएं तो स्वागत। वे आएं तो भी गीत गाकर उन्हें अपनी छाती से लगा लेना और वे जाएं तो भी गीत गाकर उन्हें विदा दे देना। इससे आएगी प्रौढ़ता, वह बल, जो एक दिन तुम्हारे फूल को खिलने की क्षमता देगा। और तुम्हारा फूल खिल जाए तो यह तुम्हारा आखिरी जीवन है--या आखिरी मौत है। इसके बाद महाजीवन है। बुद्ध ने उसके लिए परिनिर्वाण कहा है। जब फूल आते हैं और जाते हैं तो निर्वाण। और जब तुम खुद ही फूल बन जाते हो तो परिनिर्वाण। और जब तुम्हारे लौटने की कोई संभावना नहीं रह जाती तो महापरिनिर्वाण।
और वही हमारी चेष्टा हजारों वर्षों से इस देश में रही कि कितने लोग मूल-स्रोत को उपलब्ध हो जाएं, उस असीम, अनंत शाश्वत के हिस्से हो जाएं। अव्याख्य है; नहीं बताया जा सकता शब्दों में। अनिर्वचनीय है।
गौतम बुद्ध के जीवन में यह घटना है। मौलुंकपुत्त, एक बहुत बड़ा दार्शनिक उन दिनों का, जिसके खुद हजारों शिष्य थे, अपने पांच सौ प्रतिष्ठित शिष्यों को लेकर गौतम बुद्ध से विवाद करने गया। उसने न मालूम कितने पंडितों को और कितने बड़े आचार्यों को पराजित किया था। उसने बुद्ध से निवेदन किया संवाद का। बुद्ध ने कहा: संवाद जरूर होगा, लेकिन ठीक समय पर। संवाद तो तुम जीवन भर करते रहे। तुमने पाया क्या है? क्योंकि तुम गैर-स्थान पर, गैर-समय में संवाद का आमंत्रण करते हो। तुम्हें कोई अंदाज नहीं है जीवन की गहरी प्रक्रियाओं का। मैं राजी हूं। लेकिन शर्त है। दो साल मेरे चरणों में चुपचाप बैठे रहो। और जो होता है, देखते रहो। हजारों लोग आएंगे और जाएंगे, दीक्षित होंगे, संन्यासी होंगे, रूपांतरित होंगे। एक शब्द भी तुम्हारे मुंह से मैं नहीं सुनना चाहता हूं। और यह भी चाहता हूं कि तुम भी उनके संबंध में कोई निर्णय न लेना। तुम सिर्फ चुपचाप मेरे पास बैठे रहना। और दो साल बाद ठीक समय पर मैं तुमसे पूछूंगा कि अब विवाद का समय आ गया है, अब तुम पूछ सकते हो।
यह जब बात हो रही थी तो बुद्ध का एक पुराना शिष्य, महाकाश्यप, वृक्ष के नीचे बैठा हुआ हंसने लगा। महाकाश्यप के संबंध में कोई ज्यादा उल्लेख नहीं है। बौद्ध-ग्रंथों में यह पहला उल्लेख है महाकाश्यप का, कि वह हंसने लगा।
मौलुंकपुत्त ने कहा: मैं समझ नहीं पाता कि आपका यह शिष्य हंस क्यों रहा है? मौलुंकपुत्त ने कहा: इसके पहले कि मैं चुप हो जाऊं, कम से कम इतनी तो आज्ञा दें कि मैं जान लूं, अन्यथा दो साल तक कीड़े की तरह यह मेरे मस्तिष्क को खाता रहेगा कि क्यों वह आदमी हंस रहा था? और जब भी मैं इसे देखूंगा--और यह यहीं बैठा रहता है। और यह भी हो सकता है, हमेशा जब यह मुझे देखे, मुस्कुराने लगे।
बुद्ध ने महाकाश्यप को आज्ञा दी कि तुम अपने हंसने का कारण कह दो, ताकि वह निश्चिंत हो जाए। महाकाश्यप ने कहा: मौलुंकपुत्त, अगर पूछना हो तो अभी पूछ लो। ऐसे ही एक दिन मैं भी आया था और दो साल इन चरणों में बैठ कर खो गया। और दो साल बाद जब मुझसे बुद्ध ने कहा कि महाकाश्यप, कुछ पूछना है? तो मेरे भीतर कोई प्रश्न, कोई शब्द, कोई जिज्ञासा, कुछ भी न था। यह आदमी बड़ा धोखेबाज है। यह मेरा गुरु है, लेकिन सच बात सच है। तुम्हें पूछना हो तो पूछ लो और न पूछना हो तो दो साल बैठे रहो।
और वही हुआ दो साल बाद। दो साल लंबा अरसा है। मौलुंकपुत्त तो भूल ही गया कि कब दिन आए और कब रातें आईं। कब चांद उगे और कब चांद ढले। वर्ष आए और बीत गए। और एक दिन अचानक बुद्ध ने उसे हिला कर कहा कि दो साल पूरे हो गए। यही दिन था कि तुम आए थे। अब खड़े हो जाओ और पूछो।
मौलुंकपुत्त उनके चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा कि महाकाश्यप ने ठीक कहा था। मेरे भीतर पूछने को कुछ भी नहीं बचा। मैं इतना शून्य हो गया हूं और उस शून्यता को सत्ता ने इतना भर दिया है! अब न कोई प्रश्न है, अब न कोई उत्तर है। अब एक सतत अमृत की वर्षा है। मत छेड़ो, मुझे मत सताओ। मुझे बस चुपचाप यहां चरणों में बैठा रहने दो।
सदगुरु के चरणों में बैठने के लिए हमने एक शब्द का उपयोग किया है: उपनिषद। उपनिषद का अर्थ होता है: गुरु के चरणों में बैठना। न तो पूछना, न जिज्ञासा करना। लेकिन बैठे-बैठे पिघलते जाना, शून्य होते जाना।
फूल आ रहे हैं--शुभ लक्षण है। प्लास्टिक के नहीं हैं, सौभाग्यशाली हो। लेकिन फूलों पर नहीं रुकना है, अपने फूल को खिलने देना है। इन फूलों को पकड़ना मत; आने देना, जाने देना। एक दिन ये विदा हो जाएंगे और तुम्हारे भीतर की पंखुड़ियां खुल जाएंगी। वह जो कमल खिलता है, फिर इस जगत में कुछ और पाने को शेष नहीं रह जाता। तुमने सब पा लिया। तुमने सब जीत लिया।
संन्यास का अर्थ ही यही विजय-यात्रा है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, अपने आपको कैसे समझूं? कुछ समझ नहीं आता और मृत्यु का तो बहुत भय लगता है।
मृत्यु का भय किसको नहीं लगता? हर आदमी यही सोचता है कि मौत हमेशा किसी और की होती है। और उसके तर्क में कुछ बात तो है, क्योंकि अपने को तो कभी मरते नहीं देखता, हमेशा औरों को मरते देखता है। दूसरों की अरथियों को मरघट तक पहुंचा आता है। नदी में स्नान करके प्रसन्न अपने घर लौट आता है--हैरान होता हुआ कि मैं क्या अपवाद हूं?
मरघट गांव के बाहर बनाए जाते हैं। बनाने चाहिए गांव के ठीक बीच में; ताकि हर आदमी रोज देखे कि कोई मर रहा है। और जो लाइन क्यू की उसने बना रखी थी, वह छोटी होती जा रही है। उसका नंबर भी अब करीब है। लेकिन हम गांव के बाहर बनाते हैं कि एक आदमी मर गया, बात भूलो, छोड़ो। कोई मरता है तो हम बच्चों को घर के भीतर खींच लेते हैं कि बच्चों को मृत्यु का पता न चले। लेकिन यूं धोखाधड़ी से काम तो न चलेगा। जो जन्मा है, उसे मरना पड़ेगा। जिस चीज का एक छोर है, उसका दूसरा छोर भी होगा।
अगर मृत्यु का भय लगता है तो जीवन को जानने की कोशिश करो। और कोई उपाय नहीं है। मृत्यु का भय इस बात का सबूत है कि तुम्हें अब तक जीवन का कोई अनुभव नहीं हुआ। मैंने तो सुना है कि बहुत लोग मरने के बाद ही जान पाते हैं कि हे राम, मैं इतने दिन जिंदा था! जिंदगी यूं ही गुजर जाती है फिजूल कामों में। कम से कम घड़ी भर अपने के लिए, अपने जीवन की खोज के लिए दो। एक घंटे भर के लिए कम से कम शांत बैठ जाओ, मौन बैठ जाओ। भूल जाओ कि हिंदू हो, कि मुसलमान, कि जैन, कि ईसाई। भूल जाओ कि आदमी हो कि औरत। भूल जाओ कि बच्चे हो कि जवान। भूल जाओ इस सारे जगत को।
धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर से एक शाश्वत जीवन का अनुभव उभरने लगता है। हिंदू मरता है, मरना पड़ेगा उसे। आदमी मरता है, औरत मरती है, बच्चा मरता है, जवान मरता है, मुसलमान मरता है। जो-जो चीजें मरती हैं, उनसे अपने को अलग कर लो एक घंटे के लिए रोज। और कोशिश करो अपने भीतर खोजने की कि क्या कुछ और भी है इन सब चीजों के अलावा? और हजारों लोगों ने अनुभव किया है निरपवाद रूप से, कि तुम्हारे भीतर शाश्वत जीवन का झरना है। जिस दिन तुम्हें उसकी एक बूंद भी पीने को मिल जाएगी, उसी दिन मौत का भय मिट जाएगा।
यह मौत का भय अच्छा है। यह तुम्हें जगाए रखता है। अगर तुम्हारे भीतर मौत का भय न होता तो शायद दुनिया में बुद्ध-महावीर जैसे व्यक्तियों के पैदा होने की कोई संभावना न थी। यह मौत की अनुकंपा है तुम्हारे ऊपर कि वह तुम्हें चैन से नहीं बैठने देती। कभी न कभी खयाल दिला देती है कि मरना होगा। यह बुढ़ापा आने लगा। अब दूसरी घड़ी में मौत के सिवाय और क्या है? इसके पहले कि मौत आए, तुम अमृत को पहचानने की थोड़ी सी कोशिश करो।
और एक घंटा चौबीस घंटे में से अपने लिए निकाल लेना कोई महंगा सौदा नहीं है। बेवकूफियों के लिए तुम कितना समय निकालते हो! मैंने लोगों को देखा है ताश खेल रहे हैं। पूछो: क्या कर रहे हो? कहते हैं: समय काट रहे हैं। नालायको, अपने को काट रहे हो कि समय काट रहे हो? समय को कौन काट सका है? सिनेमा की तरफ भागे जा रहे हैं, भीड़ें लगी हैं। टिकट की खिड़कियों पर झगड़े हो रहे हैं। पूछो: क्या? समय काटना है। तीन घंटे सुख से कट जाएंगे। और किन छोटी-छोटी बातों में तुम अपने समय को काटते फिर रहे हो? मित्रों से झूठी गपशप में समय काट रहे हो। बिना यह जाने कि यही समय तुम्हें अमृत का अनुभव भी दे सकता है। और मैं तुमसे नहीं कहता कि हिमालय चले जाओ, सब छोड़-छाड़ दो। उससे कुछ भी न होगा। हिमालय पर भी बैठ कर तुम शतरंज की चालें ही सोचोगे। यहीं रहो। एक घंटा खींच लो। तेईस घंटे संसार को दे रहे हो, एक घंटा ईश्वर को दे देने के लिए क्या इतनी कंजूसी! सोने के पहले बिस्तर पर बैठ कर एक घंटा दे दो। और ज्यादा देर नहीं लगेगी कि तुम उस संपर्क में आ जाओगे अपने भीतर, जहां अंतःसलिला की भांति अब भी गंगा जीवन की बह रही है। इसके पहले कि वह सूख जाए, उससे परिचय बना लेना जरूरी है। मृत्यु का भय मिट जाएगा। क्योंकि तब तुम जानोगे, मृत्यु होती ही नहीं।
मृत्यु इस दुनिया में सबसे बड़ा झूठ है। केवल शरीर बदलते हैं, घर बदलते हैं, वस्त्र बदलते हैं। लेकिन तुम्हारा जो सत्व है, वह सदा से वही का वही है। लेकिन उससे पहचान होनी चाहिए। उससे पहचान के अतिरिक्त धर्म का और कोई अर्थ नहीं है। न तो मस्जिद जाने से यह होगा और न गुरुद्वारा जाने से और न मंदिर जाने से। क्योंकि वहां भी तुम वही कमबख्तियां करोगे। आखिर तुम्हीं तो हो न! अब मंदिर में एक सुंदर स्त्री दिख गई तो बिना धक्का दिए कैसे रह सकते हो? और मंदिर जैसे पवित्र स्थान में ऐसा पवित्र कार्य करना एकदम शोभनीय है!
नहीं, इस संसार में ही, जहां सारा उपद्रव चल रहा है, असली मौका है, कसौटी है, अग्नि-परीक्षा है। यहीं घंटे भर के लिए कभी भी...। और यूं भी नहीं है कि वह समय निश्चित हो। क्योंकि लोग बहाने खोजते हैं एक से एक, कि समय निश्चित करना मुश्किल है। मैं तुमसे नहीं कहता कि समय निश्चित करो। जब बन सके, लेकिन एक बात याद रखो, चौबीस घंटे में एक घंटा तुम्हारा है। और उस एक घंटे में ही जीवन के सारे सत्यों का अवबोधन, अनुभव, तुम्हें मृत्यु के भय से छुड़ा देगा। जीवन को जान लो, फिर कोई मृत्यु नहीं है।
अलहिल्लाज मंसूर एक प्रसिद्ध सूफी हुआ, जिसके अंग-अंग काट दिए मुसलमानों ने, क्योंकि वह ऐसी बातें कह रहा था जो कुरान के खिलाफ पड़ती थीं। धर्म के खिलाफ नहीं! मगर किताबें बड़ी छोटी हैं, उनमें धर्म समाता नहीं। अलहिल्लाज मंसूर की एक ही आवाज थी--अनलहक! अहं ब्रह्मास्मि! और यह मुसलमानों के लिए बरदाश्त के बाहर था कि कोई अपने को ईश्वर कहे। उन्होंने उसे जिस तरह सता कर मारा है, उस तरह दुनिया में कोई आदमी कभी नहीं मारा गया। उस दिन दो घटनाएं घटीं।
मंसूर का गुरु जुन्नैद सिर्फ गुरु ही रहा होगा। गुरु जो कि दर्जनों में खरीदे जा सकते हैं, हर जगह मौजूद हैं, गांव-गांव में मौजूद हैं। कुछ भी तुम्हारे कान में फूंक देते हैं और गुरु बन जाते हैं। जुन्नैद उसको कह रहा था कि देख, भला तेरा अनुभव सच हो कि तू ईश्वर है, मगर कह मत। अलहिल्लाज कहता कि यह मेरे बस के बाहर है। क्योंकि जब मैं मस्ती में छाता हूं और जब मौज की घटाएं मुझे घेर लेती हैं, तब न तुम मुझे याद रहते हो, न मुसलमान याद रहते हैं, न दुनिया याद रहती है, न जीवन, न मौत। तब मैं अनलहक का उदघोष करता हूं, ऐसा नहीं है, उदघोष हो जाता है। मेरी श्वास-श्वास में वह अनुभव व्याप्त है।
अंततः वह पकड़ा गया। जिस दिन वह पकड़ा गया, वह अपनी ही परिक्रमा कर रहा था। लोगों ने पूछा: यह तुम क्या कर रहे हो? ये दिन तो काबा जाने के दिन हैं। और जाकर काबा के पवित्र पत्थर के चक्कर लगाने के दिन हैं। तुम खड़े होकर खुद ही अपने चक्कर दे रहे हो?
मंसूर ने कहा: कोई पत्थर अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव नहीं कर सकता, जो मैं अनुभव करता हूं। अपना चक्कर दे लिया, हज हो गई। बिना कहीं गए, घर बैठे अपने ही आंगन में ईश्वर को बुला लिया।
ऐसी सच्ची बातें कहने वाले आदमी को हमेशा मुसीबत में पड़ जाना पड़ता है। उसे सूली पर लटकाया गया, पत्थर फेंके गए, वह हंसता रहा। जुन्नैद भी भीड़ में खड़ा था। जुन्नैद डर रहा था--कि अगर उसने कुछ भी न फेंका तो भीड़ समझेगी कि वह मंसूर के खिलाफ नहीं है। तो वह एक फूल छिपा लाया था। पत्थर तो वह मार नहीं सकता था। वह जानता था कि मंसूर जो भी कह रहा है, उसकी अंतर-अनुभूति है। हम नहीं समझ पा रहे हैं, यह हमारी भूल है। तो उसने फूल फेंक कर मारा, उस भीड़ में जहां पत्थर पड़ रहे थे। जब तक पत्थर पड़ते रहे, मंसूर हंसता रहा। और जैसे ही फूल उसे लगा, उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे! किसी ने पूछा कि क्यों? पत्थर तुम्हें हंसाते हैं, फूल तुम्हें रुलाते हैं?
मंसूर ने कहा: पत्थर जिन्होंने मारे थे, वे अनजान थे; फूल जिसने मारा है, उसे यह वहम है कि वह जानता है। उस पर मुझे दया आती है। मेरे पास उसके लिए देने को आंसुओं के और कुछ भी नहीं है।
और जब उसके पैर काटे गए और हाथ काटे गए, तब उसने आकाश की तरफ देखा और जोर से खिलखिला कर हंसा। लहूलुहान शरीर, लाखों की भीड़। लोगों ने पूछा: तुम क्यों हंस रहे हो?
उसने कहा: मैं ईश्वर को कह रहा हूं कि क्या खेल दिखा रहे हो! जो नहीं मर सकता, उसके मारने का इतना आयोजन! नाहक इतने लोगों का समय खराब कर रहे हो। और इसलिए भी हंस रहा हूं कि तुम जिसे मार रहे हो, वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं, उसे तुम छू भी नहीं सकते। तुम्हारी तलवारें उसे नहीं काट सकतीं और तुम्हारी आगें उसे नहीं जला सकतीं।
एक बार अपने जीवन की धारा से थोड़ा सा परिचय हो जाए, मौत का भय मिट जाता है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, आपको महसूस कर दिल पर एक मीठी चुभन सी महसूस करती हूं। आप द्वारा प्रेम-वर्षा मुझे आपे से बाहर कर देती है। आंखों से झरना, शरीर में कंपन, भावों को शब्दों में उतारने में असमर्थ सी हूं। मेरी स्थिति क्या है?
मत सोचो कि तुम्हारी स्थिति क्या है। क्योंकि सोचा कि स्थिति खो जाएगी। कुछ चीजें हैं जो सोचने से मिलती हैं और कुछ चीजें हैं जिनके लिए बिना सोचे छलांग लगानी पड़ती है।
कहावत है: छलांग लगाने के पहले सोच लेना चाहिए।
किसी कायर ने और कमजोर ने यह कहावत रची होगी। मैं तुमसे कहता हूं: छलांग पहले लगा लो, सोचना कभी भी कर लेना। शाश्वत जीवन पड़ा है, जब दिल आए सोच लेना, मगर छलांग तो लगा लो।
जो हो रहा है, ठीक हो रहा है। आनंद से शरीर कंपने लगे, भीतर एक सिहरन दौड़ जाए, तुम्हारे जीवन की विद्युत-धारा सक्रिय हो उठे, ये जीवन के निकट आने के लक्षण हैं। जैसे फूल के पास कोई आए और सुगंध आने लगे। मगर सोचो मत। सोचने वाले इस दुनिया में बुरी तरह गंवाते हैं। क्योंकि ये बातें सोचने की नहीं हैं। जब तुम्हें किसी से प्रेम हो जाता है तो क्या तुम बैठ कर सोचते हो कि क्या मुझे प्रेम हो गया है? क्या यही प्रेम है? जिंदगी भर दांव पर लगाने चला हूं! और दांव कोई छोटा नहीं है, सोच तो लूं!
जर्मनी का बहुत बड़ा विचारक हुआ, इमेनुअल कांट। एक स्त्री ने उससे निवेदन किया, बहुत दिन प्रतीक्षा की। स्त्रियां समझदार हैं, प्रतीक्षा करती हैं। जानती हैं कि आदमी ज्यादा देर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। उसके भीतर बड़ी उथल-पुथल मच जाती है। मगर इमेनुअल कांट कोई साधारण आदमी न था, बड़ा विचारक था। आखिर देख कर कि उम्र ही बीती जाती है, इमेनुअल कांट तो कुछ कहता ही नहीं। कभी एक फूल भी भेंट नहीं करता। कभी यह भी नहीं कहता कान में फुसफुसा कर कि तुम्हारे लिए मेरे हृदय में बड़ा प्रेम है। इमेनुअल कांट तो एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रखता था। जैसे गरम दूध का जला हुआ छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। आखिर उस स्त्री ने इमेनुअल कांट से खुद ही कहा कि मैं तुमसे प्रेम करती हूं। इमेनुअल कांट ने कहा कि मुझे कम से कम सोचने का मौका तो दो। तुम करो प्रेम, मुझे कोई एतराज नहीं, मगर अभी मेरी तरफ से सहमति नहीं है। मैं सोचूंगा सारे तर्क जो प्रेम के पक्ष में हैं और सारे तर्क जो प्रेम के विपक्ष में हैं।
तीन साल लग गए उसको अनुसंधान कार्य करते हुए, उसने लाइब्रेरी में बैठ-बैठ तीन साल...। लेकिन बड़ी मुसीबत यह थी कि दोनों पलड़ों पर बराबर वजन था। करो तो भी, न करो तो भी। लेकिन अंततः एक बात उसे मिल गई। और वह बात यह थी कि अगर प्रेम नहीं किया, विवाह नहीं किया, तो तुम अनुभव से वंचित रह जाओगे। अनुभव बुरा होगा या भला, यह दूसरी बात है, मगर एक तत्व कम से कम ज्यादा है। जाकर हड़बड़ाहट में उसने लड़की के द्वार को खटखटाया। उसका बाप बाहर आया। उसने पूछा: क्या चाहिए? उसने कहा कि मैं उस लड़की को पूछने आया हूं जिसने मुझसे प्रेम का निवेदन किया था। तीन साल जी-जान से सोच-समझ कर यह तय किया कि प्रेम करूंगा, शादी करूंगा। उसके बाप ने कहा: जरा देर हो गई। अब तो लड़की के दो बच्चे भी हैं। कोई और बिना सोचे ही शादी कर बैठा। इमेनुअल कांट जीवन भर अविवाहित रहा।
जिंदगी में जब तुम पाओ कि कुछ आह्लादकारी है, तरंगमयी है, पुलक से भरा है, जीवन में जब तुम पाओ कि तुम्हारे खून में कविता का बहाव है और तुम्हारी श्वासों में सुगंध है नई, तो फिर सोचना मत। तुम ठीक रास्ते पर हो। ये सारे इंगित हैं कि तुम ठीक रास्ते पर हो। आगे बढ़े चलो।
इमेनुअल कांट के लिए तो मैं कोई गलत नहीं कह सकता हूं। क्योंकि न तो कोई पुलक थी, न कोई आनंद था, न कोई जीवन में उगते हुए नये सितारे थे। किताबी कीड़ा था। और चारों तरफ फैली हुई जिंदगी थी, जिसमें जिसको देखो, वहां एक मुसीबत है। शास्त्रों में हर चीज का वर्णन है। पत्नीव्रत की सूक्ष्म व्याख्या है कि पत्नी को क्या करना, कितने उपवास करना, पति की कैसे सेवा करना। लेकिन शास्त्र भी बिलकुल चुप हैं उस संबंध में जो दूसरा हिस्सा है: पतिव्रत। क्योंकि जब वे शास्त्र लिख रहे होंगे, पत्नी पास में खड़ी होगी कि देखें बच्चू क्या लिखते हैं! एक भी शास्त्र नहीं है दुनिया में जिसमें पतिव्रत के संबंध में कुछ भी लिखा हो। और पतिव्रत बड़ा कठिन व्रत है। पत्नी कहे उठो तो उठो, पत्नी कहे बैठो तो बैठो। सतत अभ्यास करवाती है, व्यायाम करवाती है।
मैंने एक आदमी को देखा है जो ग्यारह वर्षों से खड़ा हुआ है। उनका नाम ही खड़ेसिरी बाबा हो गया है। मैंने पूछा: लेकिन इस आदमी पर क्या मुसीबत पड़ी? यह खड़ा क्यों हो गया?
मेरे ड्राइवर एक सरदार जी थे। बड़े ज्ञानी थे, गाड़ी कम चलाते थे, जपुजी ज्यादा पढ़ते थे। बोले कि कुछ नहीं हुआ, इसकी पत्नी ने इससे कहा खड़े रहो और खुद किसी दूसरे पति के साथ भाग गई। तब से यह बेचारा खड़ा है। अब कोई इसको बिठाए तो बैठे। धर्म धर्म है, उसका पालन तो करना ही पड़ता है। पत्नी किसी और को अभ्यास करवा रही होगी धर्म का, अध्यात्म का। यह बेचारा यही अभ्यास कर रहा है। खड़ा हुआ है।
इमेनुअल कांट के लिए मैं कोई आलोचना नहीं करता। लेकिन तुमसे मैं यह कहता हूं कि अगर तुम्हारे जीवन में कभी भी कोई प्रकाश की जरा सी भी किरण दिखाई पड़े, सुगंध की कोई जरा सी भी झोंक, तो वही दिशा है, वही मार्ग है। फिर हिम्मत करना, फिर रुकना मत। सोचने का काम बाद में कर लेंगे। और यह मेरा अनुभव है कि जो इस रास्ते पर बढ़े हैं, उन्होंने फिर सोचने की कोई जरूरत नहीं समझी। क्योंकि हर अनुभव और गहरा होता गया। हर अनुभव नई छलांग, नई चुनौती और नये परिवर्तन और नई क्रांति पर ले जाता रहा।
तो जो तुम्हें हो रहा है, बिलकुल ठीक हो रहा है। सोचो मत। सोचने से रुक जाएगा। क्योंकि जीवन के सारे गहरे अनुभव हृदय से होते हैं, बुद्धि से नहीं होते। और सोचना बुद्धि से होता है। और बुद्धि और हृदय का कोई मेल नहीं बैठता। तो बुद्धि तो तुम्हें पागल कहेगी कि यह क्या पागलपन है कि शरीर में झुरझुरी आ रही है! जाओ किसी डाक्टर को दिखाओ। यह क्या पागलपन है कि अकेले बैठे-बैठे मुस्कुरा रहे हो! चलो, किसी मनोवैज्ञानिक को दिखाओ। यह दुनिया बहुत अजीब है। यहां अगर तुम शांति से बैठ कर कुछ भी नहीं कर रहे हो तो हर आदमी टोकेगा: क्यों जी, क्यों फिजूल बैठे हुए हो? शर्म नहीं आती? दुनिया मरी जा रही है और तुम बैठे हो! हजार काम करने को पड़े हैं और तुम बैठे हो! कोई जाकर एडोल्फ हिटलर को नहीं कहता कि यह तुम क्या कर रहे हो? छह करोड़ लोगों की हत्या! लेकिन काम बड़ा कर रहा है, संख्या बड़ी है, सम्मान के योग्य है। अगर तुम बैठे-बैठे गुनगुना रहे हो तो लोग कहेंगे कि जिंदगी बरबाद कर रहे हो। जैसे कि उन्हें जिंदगी मिल गई है। बीड़ी पीओ! दम मारो दम! बैठे-बैठे मुस्कुरा रहे हो। किसी ने देख लिया तो नाहक बदनामी होगी।
अंग्रेजी में कहावत है: इट इज़ बेटर टु डू समथिंग दैन नथिंग। और मैं तुमसे यह कह रहा हूं: इट इज़ बेटर टु डू नथिंग दैन समथिंग। कोई चौबीस घंटे कुछ न करो, यह नहीं कह रहा हूं। रोटी तो कमानी होगी, कपड़े तो कमाने होंगे। लेकिन घंटा भर तो निकाल सकते हो, जब कि तुम मन को कह दो कि बस, अब तुम चुप हो जाओ और मुझे घड़ी भर हृदय के साथ जी लेने दो। इतना मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि मन के पास तेईस घंटे और हृदय के पास एक घंटा--जीत हृदय की होने वाली है।
शुक्रिया।
भगवान, वह कौन सी ऐसी अज्ञात शक्ति है जो हमें आपकी तरफ खींच रही है?
जीवन में सभी कुछ अज्ञात है--वह सब भी, जो हम सोचते हैं कि ज्ञात है।
सुकरात का वचन है कि जब मैं युवा था तो सोचता था कि बहुत कुछ जानता हूं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, जानना भी बढ़ा। लेकिन एक अनूठी घटना भी साथ-साथ, कदम से कदम मिलाते हुए चली। जितना ज्यादा जानने लगा, उतना ही अनुभव होने लगा कि कितना कम जानता हूं! और अंततः जीवन की वह घड़ी भी आई, जब मेरे पास कहने को केवल एक शब्द था कि मैं सिर्फ इतना ही जानता हूं कि कुछ भी नहीं जानता। यह सुकरात के अंतिम वचनों में से है। जीवन भर की यात्रा, ज्ञान की खोज, और परिणाम--एक छोटे बच्चे का भोलापन, जिसे कुछ भी पता नहीं है।
यूनान में डेल्फी का मंदिर है। उन दिनों बहुत प्रसिद्ध था, अब तो सिर्फ उसके खंडहर बाकी हैं। डेल्फी के मंदिर की जो पुजारिन थी, वह रामकृष्ण जैसी रही होगी। कभी-कभी गीत गाते-गाते, नाचते-नाचते बेहोश होकर गिर पड़ती थी। और उस बेहोशी में जो कहती थी, वह होश वालों के होश गुम कर देते। जब सुकरात ने यह वचन कहा था, उसके थोड़े ही दिन बाद डेल्फी की पुजारिन ने घोषणा की कि सुकरात दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी है।
लोगों ने सुना, हैरानी में पड़े। सुकरात कहता है: मैं कुछ भी नहीं जानता, बस इतना ही जानता हूं। और डेल्फी की पुजारिन की बात कभी झूठ नहीं गई थी। और वह कहती है: सुकरात जगत का सबसे बड़ा महाज्ञानी है। वे लोग सुकरात के पास आए। सुकरात से निवेदन किया कि देवी का आविष्ट अवस्था में यह उदघोष हुआ है।
सुकरात ने कहा: देवी बेहोश थी, मैं होश में हूं। मैं फिर कहता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। देवी गलत हो सकती है, सुकरात गलत नहीं हो सकता। देवी मुझे बाहर से जानती है, मैं स्वयं को भीतर से जानता हूं। लौट जाओ और देवी को कहना कि तुम्हारी एक भविष्यवाणी गलत हो गई। कम से कम एक तो निश्चित ही गलत हो गई।
लोग वापस लौट कर देवी से कहे। और देवी हंसी, उसने कहा: कहना सुकरात से कि मैंने तुम्हें महाज्ञानी इसीलिए तो कहा था कि तुमने जान लिया है कि जगत में सभी कुछ अज्ञात है और रहस्यमय है। मेरे वक्तव्य में और तुम्हारे वक्तव्य में कोई विरोध नहीं है।
हम जन्मते हैं, पता नहीं क्यों? कौन सी अज्ञात शक्ति हमें जीवन में लाती है? हम जीते भी हैं, पता नहीं क्यों? हम एक दिन मर भी जाते हैं। और शायद यह चक्र अनंतों बार घूम चुका है और हमें कोई भी पता नहीं कि क्यों?
यह प्रश्न भद्रा का है। चूंकि रोज मैं उसकी चोटी खींच रहा था कि भद्रा पूछ, भद्रा पूछ, बामुश्किल किसी तरह प्रश्न बना कर ले आई है।
जगत एक रहस्य है, एक ऐसा शास्त्र जो पढ़ा नहीं जा सकता। और जो दावा करते हैं जानने का, उनसे बड़े अज्ञानी इस दुनिया में दूसरे नहीं हैं। और जिनकी समझ में यह आ जाता है कि हम एक अज्ञात, अपरिसीम, अव्याख्य शक्ति की तरंगें हैं--न जिनके प्रारंभ का कोई पता है, न जिनके अंत की कोई खबर है, वे ही थोड़े से लोग अपने भीतर अचानक पाते हैं, जैसे चुंबक बन गए हों।
भद्रा पूछ रही है: ‘वह कौन सी अज्ञात शक्ति है जो हमें आपकी ओर खींचती है?’
वह वही अज्ञात शक्ति है जो तुम्हारे भीतर है और मेरे भीतर है। न मैं उसका नाम जानता हूं, न तुम उसका नाम जानती हो। लेकिन मैं इतना जानता हूं कि वह अज्ञात है और बेनाम है। और तुम्हें अभी भी यह भ्रम है कि शायद किसी दिन तुम उसे पहचान लोगी, उसके नाम को जान लोगी। जिस दिन यह भ्रम टूट जाएगा, उस दिन तुम भी एक अपूर्व आकर्षण और चुंबक का केंद्र बन जाओगी। तुम्हारे भीतर भी वही कशिश होगी। तुम्हारे शब्दों में भी वही अधिकार होगा। क्योंकि तब तुम नहीं बोलते, तब तुम्हारा गीत तुम्हारा गीत नहीं है। तब तो तुम सिर्फ बांस की पोली पोंगरी हो। ओंठ किसी और के हैं और गीत किसी और का है। तुम्हारा धन्यभाग इतना कि तुम उस गीत को अपने भीतर से प्रवाहित होने देते हो। और यह प्रवाह इस जगत का सबसे बड़ा आनंद है। ज्ञान की खोज मत करो, आनंद की खोज करो। आनंद है जो तुम्हें खींचता है मेरी ओर। मेरा मिट जाना है जो खींचता है तुम्हें मेरी ओर। और मिट कर ही तुम आनंद को पा सकते हो।
हम सब नामों से चिपके हैं--झूठे नाम। पैदा हुए थे तो साथ में न कोई आइडेंटिटी कार्ड था, न कोई नाम की छोटी सी स्लिप थी। अज्ञात तुम आए थे। नाम तो हमने चिपका दिए हैं। लेबल हैं जो तुम पर लगा दिए हैं। और जिस दिन तुम जाओगे, उस दिन उन लेबलों को हम अलग कर लेंगे। क्योंकि फिर तुम अज्ञात में प्रवेश कर रहे हो। लेकिन इन दो अज्ञातों के बीच में तुम इस भ्रम में रहे कि तुम अपने संबंध में कुछ जानते हो। दो अज्ञातों के बीच में भी जो था, वह भी अज्ञात था। नाम, प्रतिष्ठा, सम्मान, उपाधियां, वे सब चिपकाई हुई बातें थीं, जो सब उखड़ जाएंगी।
मैं यह कहना चाहता हूं कि जगत को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है--ज्ञात, दि नोन; अज्ञात, दि अननोन; और अज्ञेय, दि अननोएबल। जो आज ज्ञात है, कल अज्ञात था। जो आज अज्ञात है, शायद कल ज्ञात हो जाए। विज्ञान केवल दो कोटियां मानता है: ज्ञात की और अज्ञात की। विज्ञान सोचता है: एक दिन आएगा, एक घड़ी आएगी--उनके हिसाब से शुभ की घड़ी, मेरे हिसाब से दुर्भाग्य का क्षण--जिस दिन सब अज्ञात ज्ञात में बदल जाएगा। उस दिन जीवन अर्थहीन होगा, उस दिन जीवन के पास न कोई नई चुनौती होगी, न खोज के लिए कोई नया आयाम होगा। नहीं, यह घटना कभी नहीं घटेगी। क्योंकि एक और कोटि है अज्ञेय की, जो सदा अज्ञेय है। जो पहले भी अज्ञेय था, अब भी अज्ञेय है और कल भी अज्ञेय रहेगा। तुम वही हो--अननोएबल। और अपने को इस भांति पहचान लेना कि मेरे भीतर अज्ञेय का वास है, स्वयं को मंदिर में बदल लेना है। क्योंकि अज्ञेय ईश्वर का दूसरा नाम है। हम उसका रस तो पी सकते हैं। उपनिषद कहते हैं: रसो वै सः। हम उसका स्वाद तो ले सकते हैं। लेकिन उसकी व्याख्या, उसकी परिभाषा, उसे नाम नहीं दे सकते।
मैंने उस रस को चखा है। और तुम्हारे भीतर भी उस रस को चखने की जन्मों-जन्मों से प्यास है। वही प्यास तुम्हें खींच लाती है तुम्हारे बावजूद, क्योंकि खतरा है अज्ञेय में प्रवेश का। ज्ञात से तो आदमी संतुष्ट होता है, जानता है, पहचानता है। अज्ञात से भी इतना डर नहीं लगता, आज नहीं कल जान लेंगे। लेकिन अज्ञेय? वहां तो सिर्फ खो जाना है, विलीन हो जाना है, विराट विस्तार के साथ एक हो जाना है। इस अज्ञेय को हमने नाम देकर बड़ी भूलें कीं। किसी ने ईश्वर कहा, किसी ने खुदा और किसी ने परमात्मा और किसी ने यहोवा--और हजार-हजार नाम हमने दिए, जो सब झूठे नाम हैं। हम उसे जानते ही नहीं, जान सकते भी नहीं; लेकिन जी सकते हैं, जी रहे हैं। वह हमारी श्वास-श्वास में है, हमारी आंखों की झलक-झलक में है।
तो जानने की यात्रा के लिए मेरा आमंत्रण नहीं है। मेरा आमंत्रण है होने की यात्रा का। वही तुम्हें खींच लाता है। वही तुम्हारे लिए आकर्षण है। मैं तुम्हें ज्ञानी नहीं बनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम उतने ही निर्दोष हो जाओ, जितने निर्दोष जन्म के पहले क्षण में थे। आंखें खुली थीं, सब दिखाई पड़ता था; लेकिन कोई नाम न था, कोई शब्द न था।
ईसाइयों की बाइबिल में एक अनूठी बात है, जिसका मैं विरोध करता रहा हूं। बाइबिल कहती है: सबसे पहले शब्द था, शब्द के साथ ईश्वर था और शब्द ही ईश्वर था। मैंने बड़े से बड़े ईसाई पंडितों से पूछा है कि शब्द में और ध्वनि में क्या अंतर है? पहाड़ से जलप्रपात गिरता है, उसे तुम शब्द नहीं कहते, उसे तुम ध्वनि कहते हो। घने जंगलों में से हवाएं सरसराती हुई गुजरती हैं, उसे तुम शब्द नहीं कहते, उसे तुम ध्वनि कहते हो। क्योंकि शब्द का अर्थ होता है--ऐसी ध्वनि जिसको अर्थ दे दिया गया। तो प्रथमतः शब्द तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसके पहले किसी की जरूरत पड़ेगी जो उसे अर्थ दे। शब्द से बेहतर होगा कि कहें--पहले ध्वनि थी। भूल थोड़ी कम हो जाती है, लेकिन मिट नहीं जाती। क्योंकि ध्वनि को सुनने के लिए भी कोई कान चाहिए। जब कोई भी सुनने वाला नहीं है तो ध्वनि का भी कोई अस्तित्व नहीं होता। शायद तुम सोचते होओगे कि जंगलों में गिरते हुए जलप्रपातों का वह स्वर-संगीत तुम्हारे चले जाने पर भी वैसा ही बना रहता है--तो तुम गलती में हो। तुम गए कि वह भी गया। वह दो के बीच था। तुम्हारे कान जरूरी थे।
ध्वनि भी नहीं हो सकती। तो कौन था जो सबसे पहले था? उपनिषद बहुत ईमानदार हैं। उपनिषदों से ज्यादा ईमानदार किताबें इस जमीन पर दूसरी नहीं हैं। उपनिषद कहते हैं: वह कौन था जो पहले था? किसी को भी कोई पता नहीं। कैसे हो सकता है पता? वह कौन था जो था? उसका कोई भी तो साक्षी नहीं है। और कौन है जो अंत में रह जाएगा? उसका भी कोई साक्षी नहीं है। और अगर प्रारंभ में अज्ञेय है, और अंत में अज्ञेय है तो बीच में भी अज्ञेय ही है। तुम्हारे सब नाम-धाम झूठे हैं। तुम्हारी जाति, तुम्हारे धर्म, तुम्हारी दीवारें झूठी हैं। तुम्हारे राष्ट्र और तुम्हारे सारे भेद झूठे हैं।
ध्यान एकमात्र प्रक्रिया है उस अज्ञेय में उतर जाने की, जहां तुम अचानक मौन हो जाते हो। क्योंकि जो तुम देखते हो उसको कोई भी शब्द नहीं दिया जा सकता। और उस अज्ञेय से ही आकर्षण पैदा होता है।
हजारों लोग बुद्ध के पास मधुमक्खियों की तरह चले आए। न कोई विज्ञापन था, न कोई खबर थी। लेकिन जब फूल खिलते हैं तो मधुमक्खियों को पता चल ही जाता है। इतना मैं तुमसे कह सकता हूं कि मैंने अपने भीतर झांका है और उस शून्य को अनुभव किया है, जिसका कोई नाम नहीं है, कोई धर्म नहीं है। वही है तुम्हारा आकर्षण। और ईश्वर करे कि तुम भी उसको भीतर अपने जान लो। जितने ज्यादा लोग जान लें, जितने ज्यादा फूल खिलें, उतनी करोड़ों मधुमक्खियों के जीवन में बहार आ जाए।
प्रश्न:
भगवान, बीस साल से आपके साथ रहते-रहते मेरा आमूल-परिवर्तन हो गया है। मैं जो पहले थी, वह अब नहीं हूं। शांति और सुख से भर गई हूं। आपकी अनुकंपा अपार है। अब मुझे क्या करना चाहिए?
अब दोनों हाथों उलीचो। सुख और शांति जब तुम्हारे भीतर अनुभव हों तो कंजूसी मत करना। पुरानी आदतें हैं कि जो भी मूल्यवान है, उसे हम तिजोड़ियों में बंद कर देते हैं। और सुख और शांति से ज्यादा मूल्यवान तो तुमने कुछ जाना नहीं है। यह तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम्हारे जीवन में सुख है और शांति है। चूक न जाना। क्योंकि जितनी ऊंचाई से आदमी गिरता है, उतनी ही नीचाई में गिर जाता है। बांटो! उलीचो!
कबीर ने कहा है: दोनों हाथ उलीचिए, यही सज्जन को काम।
और यह बड़े मजे की बात है। क्योंकि जितना तुम उलीचते हो, उतना ही तुम पाते हो कि तुम्हारे भीतर नये स्रोत, नये झरने, नित नये अनुभव प्रकट होते चले जाते हैं।
सुख और शांति के भी ऊपर कुछ है। सुख और शांति मंजिल नहीं है। सुख और शांति के ऊपर ही शून्य है। और जब तक तुम सुख और शांति को उलीचने में समर्थ न हो जाओगे, तुम उस शून्यता को अनुभव न कर सकोगे, जिस शून्यता में इस जीवन के सारे रहस्य उतर आते हैं--अपने आप, बिन बुलाए।
पुरानी कहावत है, हम मेहमान को अतिथि कहते थे। और अतिथि को ईश्वर का दर्जा देते थे। लेकिन शायद तुमने न सोचा हो कि अतिथि शब्द का अर्थ क्या होता है। तिथि का अर्थ तो तारीख होता है। अतिथि का अर्थ होता है: जो बिना तारीख बताए, अचानक, न मालूम किस घड़ी तुम्हारे भीतर मौजूद हो जाए। और जो अतिथि की तरह तुम्हारे भीतर मौजूद हो जाए, वही जीवन का सार-सत्व है, वही ब्रह्मानुभव है, वही समाधि है।
सुख और शांति तो पहरेदार हैं। अभी मंदिर के भीतर प्रवेश करना है। अभी मंदिर के देवता से मिलना है। तो यहीं सीढ़ियों पर बैठे मत रह जाना। सुख और शांति बड़े लुभावने हैं, क्योंकि हम इतने तनाव में जीए हैं जन्मों-जन्मों से, इतनी अशांति झेली है, इतने नरकों से गुजरे हैं कि जब सुख और शांति मिलती है, तो लगता है--आ गई मंजिल। नहीं, केवल सीढ़ियां आई हैं। दो-चार कदम और। बस दो-चार कदम और। थोड़ी सी हिम्मत और। जब तक तुम्हें शून्यता का अनुभव न हो--यह मैं तुम्हें कसौटी देता हूं--तब तक रुकना मत। क्योंकि उसी शून्यता में अतिथि का आगमन होता है। जब तक तुम अपने से भरे हो, परमात्मा से नहीं भर सकते हो। जब तुम अपने से खाली हो जाते हो, शून्य हो जाते हो, तो अनंत दिशाओं से जीवन का सारा सौंदर्य और जीवन का सारा रस तुम्हारी तरफ बहने लगता है।
ध्यान का लक्ष्य है: समाधि, शून्यता--ताकि तुम मिट जाओ और वही रह जाए जो कभी नहीं मिटता है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आज जीवंत फूल की महक, सुंदरता, निजीपन, फिर से जिंदगी खिल गई। प्लास्टिक के फूल कैसे भी हों, लेकिन सुवास नहीं। यह मोह नहीं है, यह सौंदर्य-बोध है। इट इज़ नॉट अटैचमेंट, बट इट इज़ एस्थेटिकल। आपकी कृपा! आपका अनुग्रह!
यह सच है कि प्लास्टिक के फूलों में सुवास नहीं होती। और यह भी सच है कि प्लास्टिक के फूल मरते नहीं, जीए ही चले जाते हैं। रोज धो दो और रोज नये हो जाते हैं। असली फूल सुबह सूरज की किरणों के साथ खिलते हैं, अपनी सुवास को बिखेर देते हैं और सांझ होते-होते उनकी पंखुड़ियां धूल में मिल जाती हैं। फिर दुबारा उसी फूल से मिलना न हो सकेगा। और फूल आते रहेंगे, और फूल जाते रहेंगे।
इतना ही अगर सच होता कि असली फूलों में सुगंध होती है और प्लास्टिक के फूलों में सुगंध नहीं, तो भेद करना बहुत आसान था। बड़ी मुश्किल तो यह है कि नकली फूल बहुत जिंदा रहते हैं, बहुत देर तक टिकते हैं और असली फूल बहुत जल्दी मुरझा जाते हैं। जितना असली फूल होगा, उतने जल्दी मुरझा जाता है। क्योंकि जितना असली फूल होगा, उतना ही पूर्णता से जीता है और अपने को लुटा देता है। तो शुभ है कि तुम्हें अनुभव होता है कि तुम्हारे जीवन में असली फूल खिल रहे हैं। अब जरा खयाल रखना कि इन असली फूलों को, जब ये बिखरने लगें, तो बिखरने से मत रोकना। क्योंकि आने वाले फूलों के लिए ये जगह बना रहे हैं। और आने वाला हर फूल इनसे बेहतर होगा। इन फूलों में सुगंध है और इन फूलों में रंग हैं और इन फूलों में एक ताजगी है। मगर अगर तुमने मुट्ठी बंद करके इन फूलों को बचाने की कोशिश की तो तुम सब नष्ट कर दोगे।
और हम पूरे जीवन यही करते हैं। तुमने किसी से प्रेम किया, एक असली फूल उगा, और जल्दी ही तुम द्वार-दरवाजे बंद करने लगते हो, जल्दी ही तुम पहरेदार खड़े करने लगते हो। भय खड़ा हो जाता है कि जो प्रेम आज है, पता नहीं कल होगा या नहीं होगा। कल की चिंता तुम्हारे आज को मार देती है। और जिसका आज मुर्दा है, उसका कल तो और भी मुर्दा होगा। जब जीवन में प्रेम की लहर आए तो सारे द्वार-दरवाजे और खिड़कियां खोल देना। हिम्मत की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि हवा के एक झोंके की तरह प्रेम आता है और हवा के एक झोंके की तरह प्रेम चला जाता है। पर घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। हम एक अनंत अस्तित्व के हिस्सेदार हैं। और भी झोंके आते होंगे। खिड़कियां भर खुली रहें। दिमाग पक्षपातों से न भरें। जो हमें मिला है, उसको पकड़ रखने की, उसको जबरदस्ती रोक रखने की कोशिश न हो, तो तुम रोज-रोज नये फूल पाओगे। और एक दिन आता है जब फूल नहीं आते, तुम खुद फूल बन जाते हो। बुद्ध ने इस स्थिति को--जब तुम खुद फूल बन जाते हो--निर्वाण कहा है। अपनी सारी सुगंध बिखेर देते हो।
कस्तूरी-मृग की ही नाभि में कस्तूरी की सुगंध नहीं होती, तुम्हारी नाभि में भी सुगंध है, जो हजार कस्तूरी-मृगों की सुगंध से ज्यादा गहरी है और ज्यादा कीमती है। तुमने उसे मौका नहीं दिया। तुम खिलौनों से खेलते रहे। जिस दिन तुम्हारी कस्तूरी अपनी सुगंध को आकाश को दे देगी, उस दिन तुम भी बिखर जाओगे जैसे फूल बिखर जाता है। फिर तुम नहीं लौटोगे जगत में दुबारा। फिर तुम नहीं पाओगे शरीर। क्योंकि शरीर सिवाय एक कारागृह के और कुछ भी नहीं है। एक अस्थिपंजर, जो चमड़ी के पीछे छिपाया हुआ है। तब तुम इस अनंत आकाश के और इस अनंत अस्तित्व के हिस्सेदार हो जाओगे।
पहले फूल आते हैं। तुम उनके साथ क्या व्यवहार करते हो, इस पर सब निर्भर करता है। उनसे आसक्ति मत करना। वे आएं तो स्वागत, वे जाएं तो स्वागत। वे आएं तो भी गीत गाकर उन्हें अपनी छाती से लगा लेना और वे जाएं तो भी गीत गाकर उन्हें विदा दे देना। इससे आएगी प्रौढ़ता, वह बल, जो एक दिन तुम्हारे फूल को खिलने की क्षमता देगा। और तुम्हारा फूल खिल जाए तो यह तुम्हारा आखिरी जीवन है--या आखिरी मौत है। इसके बाद महाजीवन है। बुद्ध ने उसके लिए परिनिर्वाण कहा है। जब फूल आते हैं और जाते हैं तो निर्वाण। और जब तुम खुद ही फूल बन जाते हो तो परिनिर्वाण। और जब तुम्हारे लौटने की कोई संभावना नहीं रह जाती तो महापरिनिर्वाण।
और वही हमारी चेष्टा हजारों वर्षों से इस देश में रही कि कितने लोग मूल-स्रोत को उपलब्ध हो जाएं, उस असीम, अनंत शाश्वत के हिस्से हो जाएं। अव्याख्य है; नहीं बताया जा सकता शब्दों में। अनिर्वचनीय है।
गौतम बुद्ध के जीवन में यह घटना है। मौलुंकपुत्त, एक बहुत बड़ा दार्शनिक उन दिनों का, जिसके खुद हजारों शिष्य थे, अपने पांच सौ प्रतिष्ठित शिष्यों को लेकर गौतम बुद्ध से विवाद करने गया। उसने न मालूम कितने पंडितों को और कितने बड़े आचार्यों को पराजित किया था। उसने बुद्ध से निवेदन किया संवाद का। बुद्ध ने कहा: संवाद जरूर होगा, लेकिन ठीक समय पर। संवाद तो तुम जीवन भर करते रहे। तुमने पाया क्या है? क्योंकि तुम गैर-स्थान पर, गैर-समय में संवाद का आमंत्रण करते हो। तुम्हें कोई अंदाज नहीं है जीवन की गहरी प्रक्रियाओं का। मैं राजी हूं। लेकिन शर्त है। दो साल मेरे चरणों में चुपचाप बैठे रहो। और जो होता है, देखते रहो। हजारों लोग आएंगे और जाएंगे, दीक्षित होंगे, संन्यासी होंगे, रूपांतरित होंगे। एक शब्द भी तुम्हारे मुंह से मैं नहीं सुनना चाहता हूं। और यह भी चाहता हूं कि तुम भी उनके संबंध में कोई निर्णय न लेना। तुम सिर्फ चुपचाप मेरे पास बैठे रहना। और दो साल बाद ठीक समय पर मैं तुमसे पूछूंगा कि अब विवाद का समय आ गया है, अब तुम पूछ सकते हो।
यह जब बात हो रही थी तो बुद्ध का एक पुराना शिष्य, महाकाश्यप, वृक्ष के नीचे बैठा हुआ हंसने लगा। महाकाश्यप के संबंध में कोई ज्यादा उल्लेख नहीं है। बौद्ध-ग्रंथों में यह पहला उल्लेख है महाकाश्यप का, कि वह हंसने लगा।
मौलुंकपुत्त ने कहा: मैं समझ नहीं पाता कि आपका यह शिष्य हंस क्यों रहा है? मौलुंकपुत्त ने कहा: इसके पहले कि मैं चुप हो जाऊं, कम से कम इतनी तो आज्ञा दें कि मैं जान लूं, अन्यथा दो साल तक कीड़े की तरह यह मेरे मस्तिष्क को खाता रहेगा कि क्यों वह आदमी हंस रहा था? और जब भी मैं इसे देखूंगा--और यह यहीं बैठा रहता है। और यह भी हो सकता है, हमेशा जब यह मुझे देखे, मुस्कुराने लगे।
बुद्ध ने महाकाश्यप को आज्ञा दी कि तुम अपने हंसने का कारण कह दो, ताकि वह निश्चिंत हो जाए। महाकाश्यप ने कहा: मौलुंकपुत्त, अगर पूछना हो तो अभी पूछ लो। ऐसे ही एक दिन मैं भी आया था और दो साल इन चरणों में बैठ कर खो गया। और दो साल बाद जब मुझसे बुद्ध ने कहा कि महाकाश्यप, कुछ पूछना है? तो मेरे भीतर कोई प्रश्न, कोई शब्द, कोई जिज्ञासा, कुछ भी न था। यह आदमी बड़ा धोखेबाज है। यह मेरा गुरु है, लेकिन सच बात सच है। तुम्हें पूछना हो तो पूछ लो और न पूछना हो तो दो साल बैठे रहो।
और वही हुआ दो साल बाद। दो साल लंबा अरसा है। मौलुंकपुत्त तो भूल ही गया कि कब दिन आए और कब रातें आईं। कब चांद उगे और कब चांद ढले। वर्ष आए और बीत गए। और एक दिन अचानक बुद्ध ने उसे हिला कर कहा कि दो साल पूरे हो गए। यही दिन था कि तुम आए थे। अब खड़े हो जाओ और पूछो।
मौलुंकपुत्त उनके चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा कि महाकाश्यप ने ठीक कहा था। मेरे भीतर पूछने को कुछ भी नहीं बचा। मैं इतना शून्य हो गया हूं और उस शून्यता को सत्ता ने इतना भर दिया है! अब न कोई प्रश्न है, अब न कोई उत्तर है। अब एक सतत अमृत की वर्षा है। मत छेड़ो, मुझे मत सताओ। मुझे बस चुपचाप यहां चरणों में बैठा रहने दो।
सदगुरु के चरणों में बैठने के लिए हमने एक शब्द का उपयोग किया है: उपनिषद। उपनिषद का अर्थ होता है: गुरु के चरणों में बैठना। न तो पूछना, न जिज्ञासा करना। लेकिन बैठे-बैठे पिघलते जाना, शून्य होते जाना।
फूल आ रहे हैं--शुभ लक्षण है। प्लास्टिक के नहीं हैं, सौभाग्यशाली हो। लेकिन फूलों पर नहीं रुकना है, अपने फूल को खिलने देना है। इन फूलों को पकड़ना मत; आने देना, जाने देना। एक दिन ये विदा हो जाएंगे और तुम्हारे भीतर की पंखुड़ियां खुल जाएंगी। वह जो कमल खिलता है, फिर इस जगत में कुछ और पाने को शेष नहीं रह जाता। तुमने सब पा लिया। तुमने सब जीत लिया।
संन्यास का अर्थ ही यही विजय-यात्रा है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, अपने आपको कैसे समझूं? कुछ समझ नहीं आता और मृत्यु का तो बहुत भय लगता है।
मृत्यु का भय किसको नहीं लगता? हर आदमी यही सोचता है कि मौत हमेशा किसी और की होती है। और उसके तर्क में कुछ बात तो है, क्योंकि अपने को तो कभी मरते नहीं देखता, हमेशा औरों को मरते देखता है। दूसरों की अरथियों को मरघट तक पहुंचा आता है। नदी में स्नान करके प्रसन्न अपने घर लौट आता है--हैरान होता हुआ कि मैं क्या अपवाद हूं?
मरघट गांव के बाहर बनाए जाते हैं। बनाने चाहिए गांव के ठीक बीच में; ताकि हर आदमी रोज देखे कि कोई मर रहा है। और जो लाइन क्यू की उसने बना रखी थी, वह छोटी होती जा रही है। उसका नंबर भी अब करीब है। लेकिन हम गांव के बाहर बनाते हैं कि एक आदमी मर गया, बात भूलो, छोड़ो। कोई मरता है तो हम बच्चों को घर के भीतर खींच लेते हैं कि बच्चों को मृत्यु का पता न चले। लेकिन यूं धोखाधड़ी से काम तो न चलेगा। जो जन्मा है, उसे मरना पड़ेगा। जिस चीज का एक छोर है, उसका दूसरा छोर भी होगा।
अगर मृत्यु का भय लगता है तो जीवन को जानने की कोशिश करो। और कोई उपाय नहीं है। मृत्यु का भय इस बात का सबूत है कि तुम्हें अब तक जीवन का कोई अनुभव नहीं हुआ। मैंने तो सुना है कि बहुत लोग मरने के बाद ही जान पाते हैं कि हे राम, मैं इतने दिन जिंदा था! जिंदगी यूं ही गुजर जाती है फिजूल कामों में। कम से कम घड़ी भर अपने के लिए, अपने जीवन की खोज के लिए दो। एक घंटे भर के लिए कम से कम शांत बैठ जाओ, मौन बैठ जाओ। भूल जाओ कि हिंदू हो, कि मुसलमान, कि जैन, कि ईसाई। भूल जाओ कि आदमी हो कि औरत। भूल जाओ कि बच्चे हो कि जवान। भूल जाओ इस सारे जगत को।
धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर से एक शाश्वत जीवन का अनुभव उभरने लगता है। हिंदू मरता है, मरना पड़ेगा उसे। आदमी मरता है, औरत मरती है, बच्चा मरता है, जवान मरता है, मुसलमान मरता है। जो-जो चीजें मरती हैं, उनसे अपने को अलग कर लो एक घंटे के लिए रोज। और कोशिश करो अपने भीतर खोजने की कि क्या कुछ और भी है इन सब चीजों के अलावा? और हजारों लोगों ने अनुभव किया है निरपवाद रूप से, कि तुम्हारे भीतर शाश्वत जीवन का झरना है। जिस दिन तुम्हें उसकी एक बूंद भी पीने को मिल जाएगी, उसी दिन मौत का भय मिट जाएगा।
यह मौत का भय अच्छा है। यह तुम्हें जगाए रखता है। अगर तुम्हारे भीतर मौत का भय न होता तो शायद दुनिया में बुद्ध-महावीर जैसे व्यक्तियों के पैदा होने की कोई संभावना न थी। यह मौत की अनुकंपा है तुम्हारे ऊपर कि वह तुम्हें चैन से नहीं बैठने देती। कभी न कभी खयाल दिला देती है कि मरना होगा। यह बुढ़ापा आने लगा। अब दूसरी घड़ी में मौत के सिवाय और क्या है? इसके पहले कि मौत आए, तुम अमृत को पहचानने की थोड़ी सी कोशिश करो।
और एक घंटा चौबीस घंटे में से अपने लिए निकाल लेना कोई महंगा सौदा नहीं है। बेवकूफियों के लिए तुम कितना समय निकालते हो! मैंने लोगों को देखा है ताश खेल रहे हैं। पूछो: क्या कर रहे हो? कहते हैं: समय काट रहे हैं। नालायको, अपने को काट रहे हो कि समय काट रहे हो? समय को कौन काट सका है? सिनेमा की तरफ भागे जा रहे हैं, भीड़ें लगी हैं। टिकट की खिड़कियों पर झगड़े हो रहे हैं। पूछो: क्या? समय काटना है। तीन घंटे सुख से कट जाएंगे। और किन छोटी-छोटी बातों में तुम अपने समय को काटते फिर रहे हो? मित्रों से झूठी गपशप में समय काट रहे हो। बिना यह जाने कि यही समय तुम्हें अमृत का अनुभव भी दे सकता है। और मैं तुमसे नहीं कहता कि हिमालय चले जाओ, सब छोड़-छाड़ दो। उससे कुछ भी न होगा। हिमालय पर भी बैठ कर तुम शतरंज की चालें ही सोचोगे। यहीं रहो। एक घंटा खींच लो। तेईस घंटे संसार को दे रहे हो, एक घंटा ईश्वर को दे देने के लिए क्या इतनी कंजूसी! सोने के पहले बिस्तर पर बैठ कर एक घंटा दे दो। और ज्यादा देर नहीं लगेगी कि तुम उस संपर्क में आ जाओगे अपने भीतर, जहां अंतःसलिला की भांति अब भी गंगा जीवन की बह रही है। इसके पहले कि वह सूख जाए, उससे परिचय बना लेना जरूरी है। मृत्यु का भय मिट जाएगा। क्योंकि तब तुम जानोगे, मृत्यु होती ही नहीं।
मृत्यु इस दुनिया में सबसे बड़ा झूठ है। केवल शरीर बदलते हैं, घर बदलते हैं, वस्त्र बदलते हैं। लेकिन तुम्हारा जो सत्व है, वह सदा से वही का वही है। लेकिन उससे पहचान होनी चाहिए। उससे पहचान के अतिरिक्त धर्म का और कोई अर्थ नहीं है। न तो मस्जिद जाने से यह होगा और न गुरुद्वारा जाने से और न मंदिर जाने से। क्योंकि वहां भी तुम वही कमबख्तियां करोगे। आखिर तुम्हीं तो हो न! अब मंदिर में एक सुंदर स्त्री दिख गई तो बिना धक्का दिए कैसे रह सकते हो? और मंदिर जैसे पवित्र स्थान में ऐसा पवित्र कार्य करना एकदम शोभनीय है!
नहीं, इस संसार में ही, जहां सारा उपद्रव चल रहा है, असली मौका है, कसौटी है, अग्नि-परीक्षा है। यहीं घंटे भर के लिए कभी भी...। और यूं भी नहीं है कि वह समय निश्चित हो। क्योंकि लोग बहाने खोजते हैं एक से एक, कि समय निश्चित करना मुश्किल है। मैं तुमसे नहीं कहता कि समय निश्चित करो। जब बन सके, लेकिन एक बात याद रखो, चौबीस घंटे में एक घंटा तुम्हारा है। और उस एक घंटे में ही जीवन के सारे सत्यों का अवबोधन, अनुभव, तुम्हें मृत्यु के भय से छुड़ा देगा। जीवन को जान लो, फिर कोई मृत्यु नहीं है।
अलहिल्लाज मंसूर एक प्रसिद्ध सूफी हुआ, जिसके अंग-अंग काट दिए मुसलमानों ने, क्योंकि वह ऐसी बातें कह रहा था जो कुरान के खिलाफ पड़ती थीं। धर्म के खिलाफ नहीं! मगर किताबें बड़ी छोटी हैं, उनमें धर्म समाता नहीं। अलहिल्लाज मंसूर की एक ही आवाज थी--अनलहक! अहं ब्रह्मास्मि! और यह मुसलमानों के लिए बरदाश्त के बाहर था कि कोई अपने को ईश्वर कहे। उन्होंने उसे जिस तरह सता कर मारा है, उस तरह दुनिया में कोई आदमी कभी नहीं मारा गया। उस दिन दो घटनाएं घटीं।
मंसूर का गुरु जुन्नैद सिर्फ गुरु ही रहा होगा। गुरु जो कि दर्जनों में खरीदे जा सकते हैं, हर जगह मौजूद हैं, गांव-गांव में मौजूद हैं। कुछ भी तुम्हारे कान में फूंक देते हैं और गुरु बन जाते हैं। जुन्नैद उसको कह रहा था कि देख, भला तेरा अनुभव सच हो कि तू ईश्वर है, मगर कह मत। अलहिल्लाज कहता कि यह मेरे बस के बाहर है। क्योंकि जब मैं मस्ती में छाता हूं और जब मौज की घटाएं मुझे घेर लेती हैं, तब न तुम मुझे याद रहते हो, न मुसलमान याद रहते हैं, न दुनिया याद रहती है, न जीवन, न मौत। तब मैं अनलहक का उदघोष करता हूं, ऐसा नहीं है, उदघोष हो जाता है। मेरी श्वास-श्वास में वह अनुभव व्याप्त है।
अंततः वह पकड़ा गया। जिस दिन वह पकड़ा गया, वह अपनी ही परिक्रमा कर रहा था। लोगों ने पूछा: यह तुम क्या कर रहे हो? ये दिन तो काबा जाने के दिन हैं। और जाकर काबा के पवित्र पत्थर के चक्कर लगाने के दिन हैं। तुम खड़े होकर खुद ही अपने चक्कर दे रहे हो?
मंसूर ने कहा: कोई पत्थर अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव नहीं कर सकता, जो मैं अनुभव करता हूं। अपना चक्कर दे लिया, हज हो गई। बिना कहीं गए, घर बैठे अपने ही आंगन में ईश्वर को बुला लिया।
ऐसी सच्ची बातें कहने वाले आदमी को हमेशा मुसीबत में पड़ जाना पड़ता है। उसे सूली पर लटकाया गया, पत्थर फेंके गए, वह हंसता रहा। जुन्नैद भी भीड़ में खड़ा था। जुन्नैद डर रहा था--कि अगर उसने कुछ भी न फेंका तो भीड़ समझेगी कि वह मंसूर के खिलाफ नहीं है। तो वह एक फूल छिपा लाया था। पत्थर तो वह मार नहीं सकता था। वह जानता था कि मंसूर जो भी कह रहा है, उसकी अंतर-अनुभूति है। हम नहीं समझ पा रहे हैं, यह हमारी भूल है। तो उसने फूल फेंक कर मारा, उस भीड़ में जहां पत्थर पड़ रहे थे। जब तक पत्थर पड़ते रहे, मंसूर हंसता रहा। और जैसे ही फूल उसे लगा, उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे! किसी ने पूछा कि क्यों? पत्थर तुम्हें हंसाते हैं, फूल तुम्हें रुलाते हैं?
मंसूर ने कहा: पत्थर जिन्होंने मारे थे, वे अनजान थे; फूल जिसने मारा है, उसे यह वहम है कि वह जानता है। उस पर मुझे दया आती है। मेरे पास उसके लिए देने को आंसुओं के और कुछ भी नहीं है।
और जब उसके पैर काटे गए और हाथ काटे गए, तब उसने आकाश की तरफ देखा और जोर से खिलखिला कर हंसा। लहूलुहान शरीर, लाखों की भीड़। लोगों ने पूछा: तुम क्यों हंस रहे हो?
उसने कहा: मैं ईश्वर को कह रहा हूं कि क्या खेल दिखा रहे हो! जो नहीं मर सकता, उसके मारने का इतना आयोजन! नाहक इतने लोगों का समय खराब कर रहे हो। और इसलिए भी हंस रहा हूं कि तुम जिसे मार रहे हो, वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं, उसे तुम छू भी नहीं सकते। तुम्हारी तलवारें उसे नहीं काट सकतीं और तुम्हारी आगें उसे नहीं जला सकतीं।
एक बार अपने जीवन की धारा से थोड़ा सा परिचय हो जाए, मौत का भय मिट जाता है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, आपको महसूस कर दिल पर एक मीठी चुभन सी महसूस करती हूं। आप द्वारा प्रेम-वर्षा मुझे आपे से बाहर कर देती है। आंखों से झरना, शरीर में कंपन, भावों को शब्दों में उतारने में असमर्थ सी हूं। मेरी स्थिति क्या है?
मत सोचो कि तुम्हारी स्थिति क्या है। क्योंकि सोचा कि स्थिति खो जाएगी। कुछ चीजें हैं जो सोचने से मिलती हैं और कुछ चीजें हैं जिनके लिए बिना सोचे छलांग लगानी पड़ती है।
कहावत है: छलांग लगाने के पहले सोच लेना चाहिए।
किसी कायर ने और कमजोर ने यह कहावत रची होगी। मैं तुमसे कहता हूं: छलांग पहले लगा लो, सोचना कभी भी कर लेना। शाश्वत जीवन पड़ा है, जब दिल आए सोच लेना, मगर छलांग तो लगा लो।
जो हो रहा है, ठीक हो रहा है। आनंद से शरीर कंपने लगे, भीतर एक सिहरन दौड़ जाए, तुम्हारे जीवन की विद्युत-धारा सक्रिय हो उठे, ये जीवन के निकट आने के लक्षण हैं। जैसे फूल के पास कोई आए और सुगंध आने लगे। मगर सोचो मत। सोचने वाले इस दुनिया में बुरी तरह गंवाते हैं। क्योंकि ये बातें सोचने की नहीं हैं। जब तुम्हें किसी से प्रेम हो जाता है तो क्या तुम बैठ कर सोचते हो कि क्या मुझे प्रेम हो गया है? क्या यही प्रेम है? जिंदगी भर दांव पर लगाने चला हूं! और दांव कोई छोटा नहीं है, सोच तो लूं!
जर्मनी का बहुत बड़ा विचारक हुआ, इमेनुअल कांट। एक स्त्री ने उससे निवेदन किया, बहुत दिन प्रतीक्षा की। स्त्रियां समझदार हैं, प्रतीक्षा करती हैं। जानती हैं कि आदमी ज्यादा देर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। उसके भीतर बड़ी उथल-पुथल मच जाती है। मगर इमेनुअल कांट कोई साधारण आदमी न था, बड़ा विचारक था। आखिर देख कर कि उम्र ही बीती जाती है, इमेनुअल कांट तो कुछ कहता ही नहीं। कभी एक फूल भी भेंट नहीं करता। कभी यह भी नहीं कहता कान में फुसफुसा कर कि तुम्हारे लिए मेरे हृदय में बड़ा प्रेम है। इमेनुअल कांट तो एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रखता था। जैसे गरम दूध का जला हुआ छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। आखिर उस स्त्री ने इमेनुअल कांट से खुद ही कहा कि मैं तुमसे प्रेम करती हूं। इमेनुअल कांट ने कहा कि मुझे कम से कम सोचने का मौका तो दो। तुम करो प्रेम, मुझे कोई एतराज नहीं, मगर अभी मेरी तरफ से सहमति नहीं है। मैं सोचूंगा सारे तर्क जो प्रेम के पक्ष में हैं और सारे तर्क जो प्रेम के विपक्ष में हैं।
तीन साल लग गए उसको अनुसंधान कार्य करते हुए, उसने लाइब्रेरी में बैठ-बैठ तीन साल...। लेकिन बड़ी मुसीबत यह थी कि दोनों पलड़ों पर बराबर वजन था। करो तो भी, न करो तो भी। लेकिन अंततः एक बात उसे मिल गई। और वह बात यह थी कि अगर प्रेम नहीं किया, विवाह नहीं किया, तो तुम अनुभव से वंचित रह जाओगे। अनुभव बुरा होगा या भला, यह दूसरी बात है, मगर एक तत्व कम से कम ज्यादा है। जाकर हड़बड़ाहट में उसने लड़की के द्वार को खटखटाया। उसका बाप बाहर आया। उसने पूछा: क्या चाहिए? उसने कहा कि मैं उस लड़की को पूछने आया हूं जिसने मुझसे प्रेम का निवेदन किया था। तीन साल जी-जान से सोच-समझ कर यह तय किया कि प्रेम करूंगा, शादी करूंगा। उसके बाप ने कहा: जरा देर हो गई। अब तो लड़की के दो बच्चे भी हैं। कोई और बिना सोचे ही शादी कर बैठा। इमेनुअल कांट जीवन भर अविवाहित रहा।
जिंदगी में जब तुम पाओ कि कुछ आह्लादकारी है, तरंगमयी है, पुलक से भरा है, जीवन में जब तुम पाओ कि तुम्हारे खून में कविता का बहाव है और तुम्हारी श्वासों में सुगंध है नई, तो फिर सोचना मत। तुम ठीक रास्ते पर हो। ये सारे इंगित हैं कि तुम ठीक रास्ते पर हो। आगे बढ़े चलो।
इमेनुअल कांट के लिए तो मैं कोई गलत नहीं कह सकता हूं। क्योंकि न तो कोई पुलक थी, न कोई आनंद था, न कोई जीवन में उगते हुए नये सितारे थे। किताबी कीड़ा था। और चारों तरफ फैली हुई जिंदगी थी, जिसमें जिसको देखो, वहां एक मुसीबत है। शास्त्रों में हर चीज का वर्णन है। पत्नीव्रत की सूक्ष्म व्याख्या है कि पत्नी को क्या करना, कितने उपवास करना, पति की कैसे सेवा करना। लेकिन शास्त्र भी बिलकुल चुप हैं उस संबंध में जो दूसरा हिस्सा है: पतिव्रत। क्योंकि जब वे शास्त्र लिख रहे होंगे, पत्नी पास में खड़ी होगी कि देखें बच्चू क्या लिखते हैं! एक भी शास्त्र नहीं है दुनिया में जिसमें पतिव्रत के संबंध में कुछ भी लिखा हो। और पतिव्रत बड़ा कठिन व्रत है। पत्नी कहे उठो तो उठो, पत्नी कहे बैठो तो बैठो। सतत अभ्यास करवाती है, व्यायाम करवाती है।
मैंने एक आदमी को देखा है जो ग्यारह वर्षों से खड़ा हुआ है। उनका नाम ही खड़ेसिरी बाबा हो गया है। मैंने पूछा: लेकिन इस आदमी पर क्या मुसीबत पड़ी? यह खड़ा क्यों हो गया?
मेरे ड्राइवर एक सरदार जी थे। बड़े ज्ञानी थे, गाड़ी कम चलाते थे, जपुजी ज्यादा पढ़ते थे। बोले कि कुछ नहीं हुआ, इसकी पत्नी ने इससे कहा खड़े रहो और खुद किसी दूसरे पति के साथ भाग गई। तब से यह बेचारा खड़ा है। अब कोई इसको बिठाए तो बैठे। धर्म धर्म है, उसका पालन तो करना ही पड़ता है। पत्नी किसी और को अभ्यास करवा रही होगी धर्म का, अध्यात्म का। यह बेचारा यही अभ्यास कर रहा है। खड़ा हुआ है।
इमेनुअल कांट के लिए मैं कोई आलोचना नहीं करता। लेकिन तुमसे मैं यह कहता हूं कि अगर तुम्हारे जीवन में कभी भी कोई प्रकाश की जरा सी भी किरण दिखाई पड़े, सुगंध की कोई जरा सी भी झोंक, तो वही दिशा है, वही मार्ग है। फिर हिम्मत करना, फिर रुकना मत। सोचने का काम बाद में कर लेंगे। और यह मेरा अनुभव है कि जो इस रास्ते पर बढ़े हैं, उन्होंने फिर सोचने की कोई जरूरत नहीं समझी। क्योंकि हर अनुभव और गहरा होता गया। हर अनुभव नई छलांग, नई चुनौती और नये परिवर्तन और नई क्रांति पर ले जाता रहा।
तो जो तुम्हें हो रहा है, बिलकुल ठीक हो रहा है। सोचो मत। सोचने से रुक जाएगा। क्योंकि जीवन के सारे गहरे अनुभव हृदय से होते हैं, बुद्धि से नहीं होते। और सोचना बुद्धि से होता है। और बुद्धि और हृदय का कोई मेल नहीं बैठता। तो बुद्धि तो तुम्हें पागल कहेगी कि यह क्या पागलपन है कि शरीर में झुरझुरी आ रही है! जाओ किसी डाक्टर को दिखाओ। यह क्या पागलपन है कि अकेले बैठे-बैठे मुस्कुरा रहे हो! चलो, किसी मनोवैज्ञानिक को दिखाओ। यह दुनिया बहुत अजीब है। यहां अगर तुम शांति से बैठ कर कुछ भी नहीं कर रहे हो तो हर आदमी टोकेगा: क्यों जी, क्यों फिजूल बैठे हुए हो? शर्म नहीं आती? दुनिया मरी जा रही है और तुम बैठे हो! हजार काम करने को पड़े हैं और तुम बैठे हो! कोई जाकर एडोल्फ हिटलर को नहीं कहता कि यह तुम क्या कर रहे हो? छह करोड़ लोगों की हत्या! लेकिन काम बड़ा कर रहा है, संख्या बड़ी है, सम्मान के योग्य है। अगर तुम बैठे-बैठे गुनगुना रहे हो तो लोग कहेंगे कि जिंदगी बरबाद कर रहे हो। जैसे कि उन्हें जिंदगी मिल गई है। बीड़ी पीओ! दम मारो दम! बैठे-बैठे मुस्कुरा रहे हो। किसी ने देख लिया तो नाहक बदनामी होगी।
अंग्रेजी में कहावत है: इट इज़ बेटर टु डू समथिंग दैन नथिंग। और मैं तुमसे यह कह रहा हूं: इट इज़ बेटर टु डू नथिंग दैन समथिंग। कोई चौबीस घंटे कुछ न करो, यह नहीं कह रहा हूं। रोटी तो कमानी होगी, कपड़े तो कमाने होंगे। लेकिन घंटा भर तो निकाल सकते हो, जब कि तुम मन को कह दो कि बस, अब तुम चुप हो जाओ और मुझे घड़ी भर हृदय के साथ जी लेने दो। इतना मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि मन के पास तेईस घंटे और हृदय के पास एक घंटा--जीत हृदय की होने वाली है।
शुक्रिया।