QUESTION & ANSWER
Koplen Phir Phoot Aayeen 02
Second Discourse from the series of 12 discourses - Koplen Phir Phoot Aayeen by Osho. These discourses were given in BOMBAY during JUL 31 - AUG 09 1986.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
प्रश्न:
भगवान, आपको समझने में आज की सरकारें और चर्च तो क्या बुद्धिजीवी भी जिस जड़ता का परिचय दे रहे हैं, वह घबड़ाने वाली है। ऐसा क्यों हुआ कि मनुष्य-जाति अपने श्रेष्ठतम फूल के साथ यह दुर्व्यवहार करे? क्या उसकी आत्मा मरी हुई है? आपके साथ पिछले दस महीनों से जो दुर्व्यवहार हुआ है, वह क्या एक किस्म का अंतर्राष्ट्रीय तल का एपारथाइड नहीं है जो साउथ अफ्रीका के एपारथाइड से भी बदतर है? क्या इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे?
मैं एक बात इन दस महीनों में गहराई से अनुभव किया हूं, और वह है--हर आदमी के चेहरे पर चढ़ा हुआ झूठा चेहरा। मैं सोचता था, कुछ लोग हैं जो नाटक-मंडलियों में हैं। लेकिन जो देखा है, तो प्रतीत हुआ कि हर आदमी एक झूठे चेहरे के भीतर छिपा है। ये महीने कीमती थे और आदमी को देखने के लिए जरूरी थे; यह समझने को भी कि जिस आदमी के लिए मैं जीवन भर लड़ता रहा हूं, वह आदमी लड़ने के योग्य नहीं है; एक सड़ी-गली लाश है, एक अस्थिपंजर है। मुखौटे सुंदर हैं, आत्माएं बड़ी कुरूप हैं।
सारी दुनिया के विभिन्न देशों ने जिस भांति मेरा स्वागत किया है, उससे बहुत से निष्कर्ष साफ हो जाते हैं। एक तो कि पश्चिम के समृद्धिशाली देश, जिनके पास सब कुछ है--धन है और दौलत है, विज्ञान है, तकनीकी विकास है, आदमी की मृत्यु का पूरा सामान है--लेकिन जीवन की कोई एक भी किरण नहीं। और इस सारे भौतिक विकास ने स्वभावतः उन्हें एक गलत निष्कर्ष दे दिया है कि वे न केवल सारी दुनिया के मालिक हैं, बल्कि सारी दुनिया की आत्मा के भी मालिक हैं। और पूरब के देशों से जो लोग पश्चिम जाते रहे--विवेकानंद, रामतीर्थ, योगानंद, कृष्णमूर्ति--इन सबने एक धोखा किया। और वह धोखा दोहरा था। पश्चिम को भुलावा दिया कि तुम्हारे मसीहा, तुम्हारे पैगंबर, तुम्हारी बाइबिलें, तुम्हारे कुरान वही सारभूत संदेश लिए हैं, जो पूरब के उपनिषदों में है, लाओत्सु के वचनों में है, बुद्ध के चरणों में है। ऐसे उन्होंने पश्चिम के लोगों को एक झूठी बात कही। इस झूठी बात से उन्हें फायदा हुआ। उनका कोई विरोध न हुआ, बल्कि उनका सम्मान हुआ। और पूरब के लोग भी खुश हुए कि विवेकानंद का पश्चिम में सम्मान हो रहा है, वह हमारा सम्मान है। वह तुम्हारा सम्मान नहीं था, विवेकानंद के झूठ का सम्मान था। एक झूठ ने दुधारी तलवार का काम किया।
मेरा अपराध था कि मैंने उनको ठीक-ठीक वही कहा जो असलियत है। मैंने उनको कहा कि पश्चिम के पास कोई धर्म नहीं है, न कभी था। और पश्चिम के मसीहा और पैगंबर दो कौड़ी के भी नहीं हैं, बुद्ध के चरणों की धूल भी नहीं हैं। उपनिषद की ऊंचाइयों का एक छोटा सा अंश भी पश्चिम के धर्मग्रंथों में नहीं है। इसलिए मैं असमर्थ हूं कि ईसा को या मूसा को, मोहम्मद या इजाकील--या औरों को--बुद्ध और लाओत्सु, बोधिधर्म, बोकोजू, च्वांगत्सु, नागार्जुन, इनकी कोटि में बिठा सकूं। यह मेरी असमर्थता है। क्योंकि फासला इतना बड़ा है कि उन्हें एक ही कोटि में रखना जगत का सबसे बड़ा झूठ होगा।
पश्चिम की ईसाइयत का भ्रम, कि वह सारी दुनिया को ईसाई बना कर अध्यात्म के रास्ते पर ले जा रही है, न केवल झूठ है, बल्कि इतना भ्रांत है कि जिस मात्रा में ईसाइयत फैलती जाएगी, उस मात्रा में दुनिया में अंधेरा बढ़ता चला जाएगा। मेरे विरोध का कारण था, क्योंकि मैं ईसाइयत को कोई सम्मान न दे सका। सम्मान देने योग्य कुछ था भी नहीं।
तो एक तरफ पश्चिम के मुल्क, जो कि सारे के सारे ईसाई हैं और ईसाइयत के भारी दबाव में हैं--चाहे वे लोकतंत्र हों और चाहे वे अधिनायक तंत्र हों--उनका राजनीतिज्ञ भला भीतर से मेरी बात को ठीक समझे, लेकिन सत्ता में बने रहने को, वह जो ईसाई पादरी कह रहा है, उसे ही सत्य स्वीकार करना होगा। उसके हाथ में मत हैं, उसके हाथ में लोगों की भीड़ है। इस भांति पश्चिम में स्वभावतः मैंने दुश्मन खड़े कर लिए।
और आश्चर्य तो--बड़ा आश्चर्य यह है कि भारत दो हजार साल से गुलाम था, यह पश्चिम की तरफ देखता है! जो चीज पश्चिम में स्वीकृत है, वह सही हो या गलत, पूरब में भी स्वीकृत हो जाती है। और जो चीज पश्चिम में स्वीकृत नहीं है, वह निखालिस सोना हो, तो भी मिट्टी हो जाता है।
तो चूंकि पश्चिम के सारे देश, समृद्धिशाली देश मेरे विरोध में थे, भारत के राजनीतिज्ञ, भारत के टुटपुंजिया पत्रकार, जो दो कौड़ी पर जीते हैं और जो दो कौड़ी पर अपनी आत्मा को बेचने के लिए तैयार हैं, उन्होंने भी मेरे विरोध में लिखना शुरू कर दिया। उनको भी मुझसे मतलब नहीं है, उनको मतलब है--पश्चिम की छत्रछाया बनी रहे। गुलामी ऊपर से टूट गई है, मगर भीतर से आकांक्षा गुलाम रहने की मिटी नहीं।
मैं बारह दिन अमरीका की जेल में अकारण बंद था, बिना किसी गिरफ्तारी के वारंट के, बिना किसी कारण के; लेकिन भारत की नपुंसक सरकार की यह हैसियत न हो सकी कि वह अमरीका से पूछ सकती कि एक भारतीय नागरिक को बिना किसी जुर्म के, बिना किसी गिरफ्तारी के वारंट के, बारह संगीनों के दबाव में जबरदस्ती जेल में बंद रखना और यह मौका भी न देना--जो कि उनका ही विधान है--कि मैं अपने वकीलों से मिल सकूं या अपने वकीलों को खबर कर सकूं। भारत की सरकार चुप रही। भारत का राजदूत चुप रहा। वे बारह दिन मेरे लिए इतने शर्म के दिन थे--इस बात की शर्म के कि मैं भारत में पैदा क्यों हुआ? जिस देश के पास कोई गौरव नहीं है! और जिस देश के पास कोई गरिमा नहीं है! और जिस देश के पास अपने नागरिकों को सुरक्षा देने का कोई साधन नहीं है! और कम से कम जिज्ञासा तो की जा सकती थी, पूछा तो जा सकता था। आखिर भारत का राजदूत अमरीका में बैठ कर क्या कर रहा है? उन बारह दिनों में एक ही बात जो मेरे मन में कांटे की तरह चुभती रही, वह यह थी कि क्या भारत ने अपनी आत्मा बिलकुल खो दी है?
और जिस दिन मुझे अदालत से छोड़ा गया--क्योंकि कोई कारण न था मुझे बंद रखने का--उस दिन भारतीय राजदूतावास का आदमी मुझसे मिलने आया कि भारत के प्रधानमंत्री ने पुछवाया है कि हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं?
मैंने कहा: बारह दिनों तक शायद भारत के मंत्री, भारत के प्रधानमंत्री अफीम के नशे में थे? भारत का राजदूत शराब पीए हुए पड़ा था? आज जब कि मैं जेल से छूट गया हूं, तुम पूछने आए हो कि हम क्या सेवा कर सकते हैं! मुझे तुम्हारी कोई सेवा की जरूरत नहीं है। हां, कभी तुम्हारे प्रधानमंत्री को मेरी सेवा की जरूरत हो तो मुझसे पूछ लेना। और ज्यादा देर नहीं लगेगी तुम्हारे प्रधानमंत्री को मेरी सेवा की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि जिन दो कौड़ी के लोगों को तुमने प्रधानमंत्री बना कर बिठा दिया है, उनकी प्रधानमंत्री होने की हैसियत क्या है? क्या तुम्हारी मां को गोली मार कर हत्या दे दी जाए तो तुम प्रधानमंत्री बनने के योग्य हो जाते हो? प्रधानमंत्री होना तो दूर, किसी दफ्तर में क्लर्क होने के भी योग्य नहीं होते। तुम्हारी मां और बाप दोनों भी अगर गोली से मार दिए जाएं, तो भी किसी दफ्तर में चपरासी होने के लिए तुम्हें योग्यता की जरूरत पड़ेगी। यह कोई योग्यता नहीं है।
लेकिन छिपाने के लिए, कि हमने फिकर की...और फिकर तब की जब कि मैं जेल के बाहर हो गया।
भारत दो हजार साल से गुलाम था। इस गुलामी ने भारत को गरीब ही बनाया होता तो कुछ बड़ी बात न थी। इस गुलामी ने भारत को इस बात का स्मरण भी भुला दिया कि एक भीतरी समृद्धि भी होती है, एक आत्मा का भी गौरव है, जो धन से नहीं तौला जाता और न धन से खरीदा जाता। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसे धन से खरीदने का कोई उपाय नहीं है। और तीन सौ वर्षों की अंग्रेजों की गुलामी ने भारत को जो शिक्षा दी, वह शिक्षा कम थी, जहर ज्यादा था। उसने भारत की ही प्रतिभा को भारत के विपरीत जहर से भर दिया। आज तुम्हें पता भी नहीं है कि तुमने उपनिषद के दिनों में किन ऊंचाइयों पर उड़ानें ली हैं। आज तुम्हें पता भी नहीं है कि तुम्हारे रहस्यवादियों ने--कबीर ने और नानक ने और दादू ने और फरीद ने--आकाश के किन तारों को छू लिया है। आज तुम्हें पता भी नहीं है कि बुद्ध ने, महावीर ने, मनुष्य-जाति के भीतर जो छिपी हुई चेतना है, उसके अंतिम शिखर को, उसके गौरीशंकर को उपलब्ध कर लिया है। हम उस सबके वसीयतदार हैं। और वसीयतदार होना कोई छोटी-मोटी जिम्मेवारी नहीं है। हमें उस वसीयत को सारी दुनिया तक पहुंचाना है। क्योंकि दुनिया में आदमी के पास कुछ भी नहीं है; आदमी खोखला है।
ईसाइयत या इस्लाम या यहूदी धर्म--तीन धर्म जो भारत के बाहर पैदा हुए हैं, धर्म कहने के योग्य भी नहीं हैं। क्योंकि जहां ध्यान का ही कोई स्थान न हो, वहां धर्म की कोई संभावना नहीं हो सकती। और इन तीनों धर्मों में ध्यान का कोई स्थान नहीं है। इस देश ने ध्यान के विज्ञान को हजारों साल तक धार दी है, तलवार बनाया है। हमारे पास कुछ है, जो किसी के पास नहीं है।
मेरा विरोध मेरा विरोध नहीं है। मैं एक साधारण आदमी, तुम जैसा आदमी। मेरे विरोध से क्या होगा? यूरोप की पार्लियामेंट ने तय किया है कि मैं किसी यूरोप के अड्डे पर अपने हवाई जहाज को उतार नहीं सकता। इंग्लैंड में एक रात बारह बजे मैं पहुंचा और सिर्फ छह घंटे हवाई जहाज पर रुकना चाहता था, उसकी भी आज्ञा नहीं। और दूसरे दिन इंग्लैंड की पार्लियामेंट में इस पर प्रश्न था, तो इंग्लैंड की प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर ने कहा कि यह आदमी खतरनाक है। न मेरे हाथ में कोई न्युक्लियर शस्त्र हैं...और हवाई जहाज पर अपने, एयरपोर्ट पर छह घंटे सोया रहता, तो इंग्लैंड को क्या खतरा हो सकता था?
यह पूछा गया कि क्या खतरा था?
तो खतरे के नाम पर बताया गया कि यह आदमी युवकों की नैतिकता को नष्ट कर सकता है, देश के धर्म को नष्ट कर सकता है, हमारी जाति की परंपराओं को, हमारे अतीत को नष्ट कर सकता है। और उस पूरी पार्लियामेंट में एक भी कमबख्त ऐसा न था जो कम से कम इतना तो पूछ लेता कि छह घंटे में अगर यह सारा काम हवाई जहाज पर रह कर एयरपोर्ट पर हो सकता है, तो तुम दो हजार साल से क्या कर रहे हो? जिस नैतिकता का पाठ और जिस धर्म का पाठ चर्चों, स्कूलों, कालेजों, यूनिवर्सिटियों में दिया जा रहा है, अगर वह छह घंटे में नष्ट की जा सकती है, तो नष्ट कर देने योग्य है। जरूर कोई झूठ है। यह झूठ का ही लक्षण है। सिर्फ झूठ ही क्षण में नष्ट किया जा सकता है। अगर तुम्हें यह भ्रांति है कि दो और दो मिल कर पांच होते हैं, तो कोई भी आदमी एक क्षण में इसको नष्ट कर सकता है। सिर्फ जरा सी समझाने की बात है कि दो और दो पांच कैसे हो सकते हैं? दो और दो बराबर हैं इसलिए चार से ज्यादा नहीं हो सकते।
तो जरूर झूठ फैलाए गए हैं। और उन झूठों के आधारों पर नैतिकताएं खड़ी हैं। और इस दुनिया में सबसे बड़ा दुख आदमी को तब होता है, जब उसके झूठ उससे छीने जाते हैं--जिनको वह सत्य समझता था और जिनके सहारे सोचता था कि उसके पास कुछ है।
मेरा कसूर एक ही था कि मैंने वही कहा, जो है, जैसा है।
खबरें हैं--और एक स्रोत से नहीं, अनेक स्रोतों से--कि अमरीकी प्रेसिडेंट आधा करोड़ रुपया देने को तैयार हैं, अगर कोई मेरी हत्या करने को तैयार हो।
यह कीमत थोड़ी ज्यादा है। आदमी के शरीर की कीमत ही क्या है? जानवरों के शरीर की भी कीमत होती है। चमड़ी के जूते बन सकते हैं, हड्डियों के खिलौने बन सकते हैं, ग्रंथियों से दवाएं बन सकती हैं। आदमी के पास इस दुनिया में सबसे ज्यादा मूल्यरहित शरीर है, जिसकी कोई कीमत नहीं है। उलटे उसे जलाने के लिए कुछ और खर्च करना पड़ता है। उसे घर में रख भी नहीं सकते।
आधा करोड़ रुपया अगर कोई देश मेरी हत्या पर खर्च करने को राजी है, तो यूं ही नहीं, डर भारी है। क्योंकि मैंने प्रेसिडेंट रोनाल्ड रीगन को चुनौती दी थी कि मैं व्हाइट हाउस आने के लिए तैयार हूं। वे खुद एक फेनेटिक क्रिश्चियन हैं। उनकी मान्यता है कि ईसाइयत के सिवाय कोई धर्म धर्म नहीं है। और मैंने कहा: मैं इसे चुनौती देता हूं, और तुम्हारे लोगों के बीच, तुम्हारे घर में मैं विवाद करने को आ जाने के लिए राजी हूं। अगर तुम मुझे समझा लो तो मैं ईसाई हो जाऊंगा औरअगर मैं तुम्हें समझा लूं तो संन्यासी होना है।
जानते हैं रोनाल्ड रीगन कि जिन आधारों पर वे अपनी ईसाइयत को धर्म कहते हैं, वे निहायत बेवकूफी की बातें हैं। जीसस पानी पर चले हों, चले भी हों, तो भी धर्म का कोई इससे संबंध नहीं है। एक तो कभी चले नहीं; अगर चले हों तो उनके पादरियों को, कम से कम पोप को, किसी स्वीमिंग पूल पर ही चल कर बता देना चाहिए। प्रतिनिधि को कम से कम थोड़ा तो प्रतिनिधित्व करना चाहिए। स्वीमिंग पूल बड़ा दिखाई देता हो तो एक बाथ-टब भी काफी है। दो कदम ही सिद्ध कर देंगे कि पानी पर चलना प्रकृति के कानून के खिलाफ है। और धर्म प्रकृति के कानून के खिलाफ नहीं है, धर्म प्रकृति के कानून का विकास है। धर्म प्रकृति के कानून का सहारा है। धर्म का अर्थ ही यही होता है कि जो प्रकृति में छिपा हुआ है उसे हम प्रकट करें।
लेकिन बेहूदा बातों पर--कि जीसस मुर्दा को जिंदा कर देते हैं...मुर्दा को जिंदा भी कर दोगे तो क्या होगा? आखिर जिस लजारस को ईसा ने जिंदा किया था, वह फिर मर तो गया। और जब मरना ही है तो आज मरे कि कल मरे, क्या फर्क पड़ता है? इससे अध्यात्म का क्या मूल्य है? और जो आदमी एक आदमी को जिंदा कर सकता था, उसके देश में सिर्फ एक ही आदमी मरा हो उसके समय में, ऐसा तो नहीं है। आदमी रोज मरते हैं। लेकिन लजारस बचपन का दोस्त था। और यह सीधी मदारीगिरी है। कि इस आदमी को गुफा में छिपाया गया है और जीसस बाहर आकर आवाज देते हैं: लजारस, अपनी मौत से बाहर आ जाओ! और लजारस तत्काल बाहर आ जाते हैं। लेकिन अगर सचमुच लजारस मर गया था, और मृत्यु के पार जो अमृत का लोक है उसके दर्शन करके लौटा था, तो उसके जीवन में कोई प्रतिभा प्रकट होनी थी, उसकी आंखों में कोई रोशनी होनी थी, उसके हाथों में कोई जादू होना था, उसके शब्दों में कोई अधिकार होना था। बस इस घटना के बाद लजारस का कोई पता नहीं चलता। इसकी भी कोई खबर नहीं कि वह कब मरा।
इन सड़ी-गली बातों पर, इन सड़ी-गली कहानियों पर, झूठी ईजादों पर धर्म खड़े नहीं होते। धर्म को खड़ा करने के लिए चेतना का विज्ञान चाहिए। जीसस को खुद भी चेतना के विज्ञान का कोई पता नहीं है। इसलिए सूली पर वे रास्ता देख रहे हैं कि आसमान से देवता उतरते ही होंगे अपने-अपने बैंड-बाजे लेकर। फूलों की वर्षा बस होने को है--अब हुई, अब हुई। लेकिन न फूल बरसे, न बाजे बजे, न संगीत उठा। आकाश जैसा खाली था, वैसा खाली रहा। और जीसस का चूंकि सारा आधार विश्वास था, कोई अनुभव न था, इसलिए आखिर-आखिर में टूट गया। खींचा बहुत, दिलाया अपने को भरोसा बहुत कि परीक्षा का क्षण है, लेकिन आखिर में चिल्ला कर कहा आकाश की तरफ कि हे परमात्मा! क्या तू मुझे भूल गया है? न तो परमात्मा का कोई अनुभव है, न आत्मा का कोई अनुभव है।
चूंकि मैंने ईसाइयत को उघाड़ कर सामने रखने की कोशिश की, और परिणाम स्वरूप एक अनूठी क्रांति घटित हुई कि पश्चिम का युवक वर्ग, सुशिक्षित वर्ग, प्रतिभाशाली लोग--चित्रकार, मूर्तिकार, वैज्ञानिक, डाक्टर, प्रोफेसर्स, कवि, अभिनेता, नर्तक--विश्वख्याति के लोग जब मुझसे प्रभावित होकर कम्यून में सम्मिलित होने लगे, तो सारी ईसाइयत के भीतर एक घबड़ाहट फैल गई। क्योंकि अब तक उन्होंने पूरब में लोगों को हिंदू से ईसाई बनाया था, मुसलमान से ईसाई बनाया था; लेकिन जिन लोगों को बनाया था, वे या तो भिखमंगे थे या अनाथ बच्चे थे या आदिवासी थे जिनको अभी कपड़े भी पहनने नहीं आते थे, अशिक्षित थे, जिनको धर्म से कोई वास्ता न था, जिन्हें रोटी चाहिए थी। रोटी के साथ-साथ उन्हें धर्म भी पिला दिया। लेकिन पूरब में उन्होंने एक भी सुसंस्कृत व्यक्ति को, एक भी व्यक्ति को जो उपनिषदों को समझता हो, एक भी व्यक्ति को जो बुद्ध के चरणों पर चला हो, ईसाई बनाने में सफलता हासिल नहीं की। मेरी सफलता उनके लिए प्राणघाती मालूम हुई। वे हमारे भिखमंगों को ईसाई बना रहे थे; मैं उनकी प्रतिभाओं को ईसाइयत की कैद के बाहर ला रहा था। यह सफलता नहीं सही जा सकती थी। यह सफलता मेरा जुर्म थी।
और तुम ठीक पूछते हो कि बुद्धिजीवियों को क्या हुआ? सिर्फ भारत के संबंध में ठीक है। पश्चिम के बुद्धिजीवियों के संबंध में ठीक नहीं है। सिर्फ इटली में पैंसठ श्रेष्ठतम बुद्धिजीवियों ने, जिनमें अनेक नोबल प्राइज विनर हैं, विश्वविख्यात कलाकार हैं, कवि हैं, उन्होंने इटली की सरकार को दरख्वास्त की है कि मुझे इटली आने से रोकना लोकतंत्र की हत्या है। मेरी बातों पर तुम विश्वास करो या न करो, लेकिन मुझे उन्हें हकपूर्वक प्रकट करने से नहीं रोका जा सकता। और अगर मुझे रोका जा रहा है तो तुम अपने हाथ से अपना गला घोंट रहे हो। छह महीने से मैं कोशिश कर रहा हूं इटली में प्रवेश की, लेकिन पोप इटली सरकार को रोकने पर लगा हुआ है।
पोप हिंदुस्तान आए तो मैंने स्वागत किया। और मैंने उन लोगों का विरोध किया जो पोप को पत्थर मार कर और झंडियां दिखा कर और गालियां देकर वापस लौट जाने के लिए कह रहे थे। यह भारतीयता नहीं है, यह संस्कृति नहीं है। यह कोई विरोध का ढंग नहीं है। यह कोई आदमियत नहीं है। अगर पोप भारत आए थे तो उन्हें जगह-जगह से निमंत्रण मिलने चाहिए थे कि हम संवाद चाहते हैं, हम सुनना चाहते हैं कि आपके धर्म की बुनियादें क्या हैं और आपके समक्ष हम अपने धर्म की बुनियादों को रखना चाहते हैं, ताकि हमारे लोग तुलना कर सकें, विचार कर सकें। हो सकता है आप सही हों। और हम सत्य के साथ हैं। यह कोई सवाल नहीं है कि सत्य कौन के मुंह से निकलता है।
इटली की सरकार रोज बहाना कर रही है कि वह आज निर्णय करती है, कल निर्णय करती है। लेकिन पोप का अड़ंगा भारी है कि मुझे इटली में प्रवेश न होने दिया जाए। और अड़ंगे का सबसे बड़ा कारण है, पैंसठ इटली के अत्यधिक प्रतिष्ठित लोगों द्वारा निमंत्रण; और मेरी यह उनके लिए चुनौती कि मैं वेटिकन आकर संवाद करना चाहता हूं। कोई लड़ने और झगड़ने की बात नहीं है। लड़ते-झगड़ते वे हैं जो कमजोर हैं और झूठ हैं। अगर तुम्हारे पास सत्य है तो बात ही काफी है, तलवारें नहीं उठानी पड़तीं।
जर्मनी के बुद्धिजीवियों ने विरोध किया है। हालैंड के बुद्धिजीवी अदालत में सरकार को ले गए हैं। स्पेन के बुद्धिजीवी स्पेन में लड़ रहे हैं कि मुझे स्पेन में प्रवेश मिलना चाहिए। मुझे रोकने का किसी को कोई भी हक नहीं है। अगर मेरी बात नहीं माननी है तो कोई जबरदस्ती नहीं है। सिर्फ भारत एक ऐसा देश है जिसके बुद्धिजीवियों ने कोई विरोध नहीं किया; जिसके बुद्धिजीवियों ने भारत की सरकार को नहीं कहा कि तुम हमारे प्रतिनिधि हो या हमारे दुश्मन? भारत के बुद्धिजीवी चुप रहे; क्योंकि भारत में सचमुच में कोई बुद्धिजीवी नहीं है। भारत में जिनको तुम बुद्धिजीवी कहते हो, दो कौड़ी पर बिकने को राजी हैं। इनके पास कोई आत्मगौरव नहीं है। इनके पास इनका अपना धर्म नहीं है, अपनी कोई पहचान नहीं है। ये खुद अपने हस्ताक्षर भूल गए हैं। और तीन सौ साल में ब्रिटेन ने इन्हें इस तरह भुलाया है कि ये क्लर्क बन गए हैं, स्कूल मास्टर बन गए हैं, स्टेशन मास्टर बन गए हैं, अखबारनवीस बन गए हैं। मगर बुद्धिजीवी होना कुछ बात और है। जहर पीने की हिम्मत होनी चाहिए। सत्य को पाने के लिए मूल्य चुकाना जरूरी है। सुकरात होने की जरूरत है। ये बुद्धिजीवी नहीं हैं।
फिर मुझसे तो और भी तकलीफ थी। मुझसे तकलीफ थी कि हिंदुस्तान का बुद्धिजीवी बंटा हुआ है। या तो वह हिंदू है, या मुसलमान है, या ईसाई है, या जैन है। मैं तो कोई भी नहीं, सिर्फ आदमी हूं। आदमी के पक्ष में खड़े होने को कौन राजी है? हिंदू को कोई प्रयोजन नहीं। हिंदू शंकराचार्य खुश होंगे अगर मेरी हत्या कर दी जाती है। शायद जलसे मनाएंगे। जैनाचार्य प्रसन्न होंगे कि एक झंझट टली। मुस्लिम इमाम आनंदित होंगे। कितने आदमी हैं इस देश में?
मुझे याद पड़ता है, एक आदमी ने नौकरी के लिए दरख्वास्त की। उसके मालिक ने पूछा: पिछली जगह तुमने कितने दिन काम किया? उसने कहा: मैंने दो साल काम किया। मालिक ने फोन उठाया और उस कंपनी को फोन किया जहां वह कह रहा था कि उसने दो साल काम किया। और पूछा कि इस-इस नाम का आदमी आपके यहां कितने दिन काम किया? मालिक ने कहा: दो सप्ताह। वह हैरान हुआ। उसने कहा: लेकिन उसका तो कहना है कि उसने दो साल काम किया। दूसरा आदमी हंसा, उसने कहा: उसने दो साल नौकरी पाई, काम दो सप्ताह ही किया।
यहां कितने बुद्धिजीवी हैं जिन्होंने जगत को कोई बौद्धिक दान दिया हो? और मुझसे तो उनकी अड़चन है, क्योंकि वे सब बंधे हैं अपने-अपने कारागृह से। उनकी जंजीरें हैं। और मैं उनकी जंजीरों के उतने ही खिलाफ हूं जितने ईसाइयों की जंजीरों के खिलाफ हूं। मैं दुनिया में आदमी चाहता हूं। मैं दुनिया में ईसाई नहीं चाहता और हिंदू नहीं चाहता और मुसलमान नहीं चाहता। क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम जंजीरें बदल लेते हो, लेकिन तुम्हारी कैदी की स्थिति वही की वही बनी रहती है। तुम एक कारागृह से निकलते हो और दूसरे में प्रवेश कर जाते हो। तुम्हें खुला आकाश भाता ही नहीं है। और मैं तुम्हें खुले आकाश में लाना चाहता हूं।
तो कठिनाई है। इस मुल्क के बुद्धिजीवियों में से कोई विरोध नहीं हुआ। और आश्चर्य तो यह है कि मेरे अपने लोग, मेरे संन्यासी--उनकी हिम्मतें भी अंततः भारत की टूटी हुई हिम्मत के ही हिस्से हैं। आज मैं तीन दिन से यहां हूं, विनोद खन्ना का कोई पता नहीं है। क्योंकि विनोद खन्ना की पत्नी का आदेश है कि अगर वह यहां आता है तो पत्नी के दरवाजे बंद। मुझे छोड़ा जा सकता है, मगर पत्नी की बात मानना तो पति का धर्म है। सो बेचारा तड़पता होगा--विनोद की चाची यहां मौजूद होंगी, वे उसे खबर पहुंचा देंगी--कि तुमसे ऐसी आशा न थी कि तुम इतने बेजान निकलोगे।
और धर्म के नाम पर जिनके बड़े नाम हैं, उन सबसे मेरा विरोध है। क्योंकि जिस कारण उनके बड़े नाम हैं, वे बातें इतनी बेवकूफी की भी हैं कि मैं उनको समर्थन नहीं दे सकता। जैन मुनि स्नान नहीं करता। मैं समर्थन नहीं कर सकता। यह निपट नासमझी है। और खासकर बंबई में जहां कि जैन मुनियों का अड्डा बना हुआ है, जहां पसीने से तरबतर हैं, स्नान नहीं कर सकते। क्योंकि स्नान करना शरीर का प्रसाधन है। पागल हो गए हो तुम! दतौन नहीं कर सकते, क्योंकि दतौन करना शरीर का प्रसाधन है। जैन मुनियों से बात करनी हो तो दूर बैठना पड़ता है, क्योंकि उनके मुंह से बास आती है, उनके शरीर से बास आती है। वे गंदगी के घर हैं। लेकिन सीधे-सीधे उनसे बात करनी...इतनी प्रतिभा भी हमारे पास नहीं रही कि हम सोच सकें, विचार कर सकें।
मैंने सुना है, एक रात एक बिस्तर पर एक औरत और एक आदमी, दोनों प्रेम में संलग्न हैं। और तत्काल उस औरत ने कहा: उठो, उठो। कार की आवाज सुनाई पड़ी, यह मेरे पति की कार है। तुम जल्दी से पास की अलमारी में छिप जाओ।
वह आदमी उठा और पास की अलमारी में छिप गया। और कार पति की ही थी। पति भीतर आया। वह आदमी अलमारी में जब खड़ा था, तब उसने धीरे से एक आवाज सुनी। एक छोटा सा लड़का भी वहां अलमारी में बैठा हुआ है। उसने देखा कि...और वह लड़का कह रहा है: बहुत अंधेरा है।
उसने कहा: भैया, तू जरा धीरे बोल। अंधेरा कितना ही हो, मैं यहां मौजूद हूं। ये पांच रुपये रख और शांत रह।
उसने कहा: लेकिन अंधेरा ज्यादा है।
दस रुपये ले, मगर चुप तो रह।
लड़का बोला: इससे काम नहीं चलेगा, अंधेरा बहुत-बहुत है। और मेरे मन में ऐसी घबड़ाहट हो रही है कि जोर से चीख मार दूं।
उस आदमी के पास पचास रुपये थे, उसने पूरे
निकाल कर दे दिए कि बस अब ये आखिरी हैं। अब तू चीख मार या जो तुझे करना हो कर। अब मेरे पास कुछ भी नहीं है।
उसने कहा: कोई फिकर नहीं, शांति से खड़े रहो। मेरे पिताजी ज्यादा देर नहीं रुकते। उनकी रात की ड्यूटी है, वे जाने ही वाले हैं। और यह मेरा काम है।
दूसरे दिन इस लड़के ने अपनी दादी मां से कहा कि मुझे एक साइकिल खरीदनी है। उसकी दादी मां ने कहा कि साइकिल पचास से कम में न मिलेगी। तीन पहिए की साइकिल चाहिए थी। लड़के ने कहा कि तुम फिकर न करो, रुपये का मैंने इंतजाम किया हुआ है।
उसने कहा: तूने रुपये पाए कहां से?
यह वह न बताए कि रुपये उसने पाए कहां से। दादी ने कहा: जब तक तू यह न बताए--वह बड़ी धार्मिक, हर रविवार को चर्च जाने वाली--जब तक तू यह न बताए, और रविवार का दिन था, तो उसने कहा: चल मेरे साथ चर्च और पहले कनफेशन कर पादरी से कि तूने रुपये कहां से पाए। मुझे नहीं बताता, मत बता, लेकिन पादरी को तो बता। फिर मैं तुझे साइकिल की दुकान पर ले चलती हूं।
वह उस कोठरी में गया जहां कनफेशन करने वाले को खड़ा होना पड़ता है। और जरा सी खिड़की से दूसरी तरफ चर्च का पादरी खड़ा होता है। जैसे ही पादरी आया, उसने कहा कि नमस्कार, बहुत अंधेरा है।
उसने कहा: कमबख्त! तूने फिर शुरू कर दिया? और मेरे पास धेला नहीं है।
ये पादरी एक तरफ ब्रह्मचर्य का प्रचार करते रहेंगे और दूसरी तरफ इनकी जिंदगी ठीक उससे उलटी चलती रहेगी। तुम्हारे संन्यासी तुम्हें समझाते रहेंगे कि भोजन का स्वाद लेना पाप है, अस्वाद धर्म है। और जितनी बड़ी तोंदें तुम्हारे संन्यासियों की हैं, उतनी बड़ी तोंदें तुम्हारी नहीं हैं। तुमने नित्यानंद की तोंद देखी? अगर तुम नित्यानंद का लेटा हुआ फोटो देख लो तो तुम हैरान हो जाओगे कि यह एवरेस्ट है या आदमी की तोंद है? जब मैंने पहली दफा यह फोटो देखी तो मैंने कहा: अब क्या कहना! यह तोंद नित्यानंद की है या नित्यानंद तोंद के हैं? और ये समझा रहे हैं कि अस्वाद धर्म है। और अंधे सुन रहे हैं और मान रहे हैं कि अस्वाद धर्म है और इनकी तोंद साफ दिखाई पड़ रही है।
मेरी मुसीबत है--मुझे जैसा दिखाई पड़ता है, मैं ठीक वैसा ही कह देना चाहता हूं। उससे किसी को दुख पहुंच सकता है, लेकिन दुख पहुंचाने की मेरी इच्छा न थी। इच्छा थी कि उस आदमी को समझ आए, सोच आए, विचार जगे। मैं घूमता रहूंगा दुनिया के कोने-कोने में। सिर्फ कैथलिक धर्म के पास एक लाख मिशनरी हैं। प्रोटेस्टेंट धर्म के पास अपने मिशनरी हैं। जैनियों के पास अपने संन्यासी हैं। बौद्धों के पास लाखों संन्यासी हैं। मैं अकेला हूं। लेकिन फिर भी हैरानी की बात है कि अगर तुमने एक बात का निर्णय कर लिया है कि तुम सत्य के साथ हो, तो इस दुनिया में सबसे बड़ी ताकत तुम्हारे साथ है। तुम अकेले नहीं हो। इस दुनिया का आधार तुम्हारे साथ है, अस्तित्व तुम्हारे साथ है।
तो न मुझे बुद्धिजीवियों की चिंता है, न धर्मगुरुओं की चिंता है। मुझे चिंता है तो सिर्फ एक बात की कि कभी भूल कर भी मैं अपनी आत्मा को न बेचूं। कभी भूल कर भी मैं सत्य को भी न बेचूं। मौत को स्वीकार कर लूं, लेकिन सत्य से मेरा साथ न छूटे। और मैं चाहता हूं कि तुम सब आशीर्वाद दो मुझे कि मौत वरणीय है, लेकिन सत्य नहीं छोड़ा जा सकता। मैं अकेला काफी हूं। तुम्हारा आशीर्वाद पर्याप्त है।
प्रश्न:
भगवान, प्रसिद्ध चिंतक अल्डुअस हक्सले ने मरने के कुछ दिन पहले कहा था कि यह कहना कठिन है कि गुफावासी मनुष्य और गगनचुंबी अट्टालिका में रहने वाले मनुष्य में कौन ज्यादा बर्बर है। आपने कहा हाल ही कि मनुष्य अभी बंदर से ऊपर नहीं उठा है। इस पर कुछ कहने की कृपा करें।
मनुष्य के कृत्यों को देखो। तीन हजार वर्षों में पांच हजार युद्ध आदमी ने लड़े हैं! उसकी पूरी कहानी हत्याओं की कहानी है, लोगों को जिंदा जला देने की कहानी है--और एक को नहीं, हजारों को। और यह कहानी खत्म नहीं हो गई है।
अभी मैं यूनान में था, सिर्फ चार सप्ताह के लिए। और यूनान का चर्च और यूनान के चर्च का प्रमुख अधिकारी आर्च बिशप जहर उगलने लगा। तार पर तार--प्रेसिडेंट, प्राइम मिनिस्टर, अखबारों को--कि अगर मुझे यूनान से बाहर नहीं किया जाता, तो हम जिंदा इस खतरनाक आदमी को इस मकान के साथ जला देंगे जिसमें यह रह रहा है। मैं मकान के बाहर भी नहीं गया। जो मुझसे मिलने आए थे, उनमें से कोई भी यूनानी न थे। मुझसे मिलने आए थे यूरोप के अलग-अलग देशों के संन्यासी। और वे मुझसे घर में आकर मिल रहे थे। मुझसे क्या खतरा था? और मुझे जिंदा जला देने की धमकी--क्या तुम सोचते हो आदमी बंदर से विकसित हो गया है? किसी बंदर ने अब तक किसी दूसरे बंदर को जिंदा तो नहीं जलाया। कोई बंदर न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है; बंदर सिर्फ बंदर है।
और अगर यही विकास है, तो ऐसे विकास का कोई मतलब नहीं। सच तो यह है कि आदमी विकसित नहीं हुआ है, केवल वृक्षों से नीचे गिर गया है। अब तुम बंदर के साथ भी मुकाबला नहीं कर सकते हो। अब तुममें वह बल भी नहीं है कि तुम एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर छलांग लगा जाओ। अब वह जान भी न रही, वह यौवन भी न रहा, वह ऊर्जा भी न रही। और तुम्हारे कृत्यों की पूरी कहानी इस बात का सबूत है कि तुम आदमी नहीं बने, राक्षस बन गए। हां, राक्षस लेकिन अच्छे-अच्छे नामों की आड़ में। हिंदू की आड़ में तुम मुसलमान की छाती में छुरा भोंक सकते हो--बिना किसी परेशानी के। मुसलमान की आड़ में तुम हिंदू के मंदिर को जला सकते हो जिसने तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ा--बिना किसी चिंता के।
दूसरे महायुद्ध में अकेले हिटलर ने छह करोड़ लोगों की हत्या की--एक आदमी ने। इसको तुम विकास कहोगे? दूसरा महायुद्ध खत्म होने को है, जर्मनी ने हथियार डाल दिए हैं और अमरीका के प्रेसिडेंट ने जापान के ऊपर, हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिरवाए। खुद अमरीकी सेनापतियों का कहना है कि यह बिलकुल बेकार बात थी, क्योंकि जर्मनी के हार जाने के बाद जापान का हार जाना ज्यादा से ज्यादा दो सप्ताह की बात थी। पांच साल की लड़ाई अगर दो सप्ताह और चल जाती तो कुछ बिगड़ न जाता। लेकिन हिरोशिमा और नागासाकी जैसे बड़े नगरों पर, जिनके निवासियों का युद्धों से कोई संबंध नहीं; छोटे बच्चे और बूढ़े और स्त्रियां--दस मिनट के भीतर दो लाख व्यक्ति राख हो गए। और अमरीका के जिस प्रेसिडेंट ने यह आज्ञा दी, उसका नाम भी हमने अभी तक नहीं बदला। उस प्रेसिडेंट का नाम था: ट्रुमैन--सच्चा आदमी। अब तो कम से कम उसे अनट्रुमैन कहना शुरू कर दो!
और दूसरे दिन सुबह जब अखबारों ने, अखबारों के प्रतिनिधियों ने प्रेसिडेंट से पूछा: क्या आप रात आराम से सो तो सके? तो ट्रुमैन ने कहा: मैं इतने आराम से कभी नहीं सोया जितना कल रात सोया, जब मुझे खबर मिली कि एटम बम सफल हो गया है।
एटम बम की सफलता महत्वपूर्ण है। दो लाख निहत्थे, निर्दोष आदमियों की हत्या कोई चिंता पैदा नहीं करती। इसको तुम आदमी कहते हो?
नहीं, आदमी का कोई विकास नहीं हुआ। आदमी का सिर्फ एक ही विकास है और वह है कि वह अपनी अंतरात्मा को पहचान ले। उसके सिवाय आदमी का कभी कोई विकास नहीं हो सकता। जिस दिन मैं अपनी अंतरात्मा को पहचान लेता हूं, उस दिन मैंने तुम्हारी अंतरात्मा को भी पहचान लिया। जिस दिन मैंने अपने को जान लिया, उस दिन मैंने इस जगत में जो भी जानने योग्य है, वह सब जान लिया। और उसके बाद मेरे जीवन में जो सुगंध होगी, वही केवल मात्र विकास है; जो रोशनी होगी, वही केवल एकमात्र विकास है। जिसको हम अभी तक विकास कहते रहे हैं, वह कोई विकास नहीं है। हमारे पास बंदरों से सामान ज्यादा है, लेकिन हमारे पास बंदरों से ज्यादा आत्मा नहीं है।
आत्मिक विकास ही एकमात्र विकास है।
यह भी हो सकता है आदमी अंधा हो और अपने को जानता हो, तो वह आंख वाले से बेहतर है। आखिर तुम्हारी आंख क्या देखेगी? उसने अंधा होकर भी अपने को देख लिया है। और अपने को देखते ही उसने उस केंद्र को देख लिया है जो इस सारे अस्तित्व का केंद्र है। वह अनुभूति अमृत की अनुभूति है, शाश्वत नित्यता की अनुभूति है। केवल थोड़े से लोग मनुष्य-जाति के इतिहास में आदमी बने हैं। वे ही थोड़े से लोग जिन्होंने अपनी आत्मा को अनुभव किया है। शेष सब नाममात्र के आदमी हैं। उनके ऊपर लेबल आदमी का है, खोखा आदमी का है, भीतर कुछ भी नहीं है। और जो कुछ भी है वह हर तरह के जहर से भरा है--ईर्ष्या से भरा है, घृणा से भरा है, विध्वंस से भरा है, हिंसा से भरा है।
अंतिम रूप में मैं तुमसे यही कहना चाहता हूं कि अगर तुम्हारे जीवन में जरा सी भी बुद्धि है, तो इस चुनौती को स्वीकार कर लेना कि बिना अपने को जाने अरथी को उठने नहीं दोगे। हां, अपने को जान कर कल की उठने वाली अरथी आज उठ जाए तो भी कोई हर्ज नहीं। क्योंकि जिसने अपने को जान लिया, उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं है।
अमृत का अनुभव एकमात्र विकास है।
धन्यवाद।
भगवान, आपको समझने में आज की सरकारें और चर्च तो क्या बुद्धिजीवी भी जिस जड़ता का परिचय दे रहे हैं, वह घबड़ाने वाली है। ऐसा क्यों हुआ कि मनुष्य-जाति अपने श्रेष्ठतम फूल के साथ यह दुर्व्यवहार करे? क्या उसकी आत्मा मरी हुई है? आपके साथ पिछले दस महीनों से जो दुर्व्यवहार हुआ है, वह क्या एक किस्म का अंतर्राष्ट्रीय तल का एपारथाइड नहीं है जो साउथ अफ्रीका के एपारथाइड से भी बदतर है? क्या इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे?
मैं एक बात इन दस महीनों में गहराई से अनुभव किया हूं, और वह है--हर आदमी के चेहरे पर चढ़ा हुआ झूठा चेहरा। मैं सोचता था, कुछ लोग हैं जो नाटक-मंडलियों में हैं। लेकिन जो देखा है, तो प्रतीत हुआ कि हर आदमी एक झूठे चेहरे के भीतर छिपा है। ये महीने कीमती थे और आदमी को देखने के लिए जरूरी थे; यह समझने को भी कि जिस आदमी के लिए मैं जीवन भर लड़ता रहा हूं, वह आदमी लड़ने के योग्य नहीं है; एक सड़ी-गली लाश है, एक अस्थिपंजर है। मुखौटे सुंदर हैं, आत्माएं बड़ी कुरूप हैं।
सारी दुनिया के विभिन्न देशों ने जिस भांति मेरा स्वागत किया है, उससे बहुत से निष्कर्ष साफ हो जाते हैं। एक तो कि पश्चिम के समृद्धिशाली देश, जिनके पास सब कुछ है--धन है और दौलत है, विज्ञान है, तकनीकी विकास है, आदमी की मृत्यु का पूरा सामान है--लेकिन जीवन की कोई एक भी किरण नहीं। और इस सारे भौतिक विकास ने स्वभावतः उन्हें एक गलत निष्कर्ष दे दिया है कि वे न केवल सारी दुनिया के मालिक हैं, बल्कि सारी दुनिया की आत्मा के भी मालिक हैं। और पूरब के देशों से जो लोग पश्चिम जाते रहे--विवेकानंद, रामतीर्थ, योगानंद, कृष्णमूर्ति--इन सबने एक धोखा किया। और वह धोखा दोहरा था। पश्चिम को भुलावा दिया कि तुम्हारे मसीहा, तुम्हारे पैगंबर, तुम्हारी बाइबिलें, तुम्हारे कुरान वही सारभूत संदेश लिए हैं, जो पूरब के उपनिषदों में है, लाओत्सु के वचनों में है, बुद्ध के चरणों में है। ऐसे उन्होंने पश्चिम के लोगों को एक झूठी बात कही। इस झूठी बात से उन्हें फायदा हुआ। उनका कोई विरोध न हुआ, बल्कि उनका सम्मान हुआ। और पूरब के लोग भी खुश हुए कि विवेकानंद का पश्चिम में सम्मान हो रहा है, वह हमारा सम्मान है। वह तुम्हारा सम्मान नहीं था, विवेकानंद के झूठ का सम्मान था। एक झूठ ने दुधारी तलवार का काम किया।
मेरा अपराध था कि मैंने उनको ठीक-ठीक वही कहा जो असलियत है। मैंने उनको कहा कि पश्चिम के पास कोई धर्म नहीं है, न कभी था। और पश्चिम के मसीहा और पैगंबर दो कौड़ी के भी नहीं हैं, बुद्ध के चरणों की धूल भी नहीं हैं। उपनिषद की ऊंचाइयों का एक छोटा सा अंश भी पश्चिम के धर्मग्रंथों में नहीं है। इसलिए मैं असमर्थ हूं कि ईसा को या मूसा को, मोहम्मद या इजाकील--या औरों को--बुद्ध और लाओत्सु, बोधिधर्म, बोकोजू, च्वांगत्सु, नागार्जुन, इनकी कोटि में बिठा सकूं। यह मेरी असमर्थता है। क्योंकि फासला इतना बड़ा है कि उन्हें एक ही कोटि में रखना जगत का सबसे बड़ा झूठ होगा।
पश्चिम की ईसाइयत का भ्रम, कि वह सारी दुनिया को ईसाई बना कर अध्यात्म के रास्ते पर ले जा रही है, न केवल झूठ है, बल्कि इतना भ्रांत है कि जिस मात्रा में ईसाइयत फैलती जाएगी, उस मात्रा में दुनिया में अंधेरा बढ़ता चला जाएगा। मेरे विरोध का कारण था, क्योंकि मैं ईसाइयत को कोई सम्मान न दे सका। सम्मान देने योग्य कुछ था भी नहीं।
तो एक तरफ पश्चिम के मुल्क, जो कि सारे के सारे ईसाई हैं और ईसाइयत के भारी दबाव में हैं--चाहे वे लोकतंत्र हों और चाहे वे अधिनायक तंत्र हों--उनका राजनीतिज्ञ भला भीतर से मेरी बात को ठीक समझे, लेकिन सत्ता में बने रहने को, वह जो ईसाई पादरी कह रहा है, उसे ही सत्य स्वीकार करना होगा। उसके हाथ में मत हैं, उसके हाथ में लोगों की भीड़ है। इस भांति पश्चिम में स्वभावतः मैंने दुश्मन खड़े कर लिए।
और आश्चर्य तो--बड़ा आश्चर्य यह है कि भारत दो हजार साल से गुलाम था, यह पश्चिम की तरफ देखता है! जो चीज पश्चिम में स्वीकृत है, वह सही हो या गलत, पूरब में भी स्वीकृत हो जाती है। और जो चीज पश्चिम में स्वीकृत नहीं है, वह निखालिस सोना हो, तो भी मिट्टी हो जाता है।
तो चूंकि पश्चिम के सारे देश, समृद्धिशाली देश मेरे विरोध में थे, भारत के राजनीतिज्ञ, भारत के टुटपुंजिया पत्रकार, जो दो कौड़ी पर जीते हैं और जो दो कौड़ी पर अपनी आत्मा को बेचने के लिए तैयार हैं, उन्होंने भी मेरे विरोध में लिखना शुरू कर दिया। उनको भी मुझसे मतलब नहीं है, उनको मतलब है--पश्चिम की छत्रछाया बनी रहे। गुलामी ऊपर से टूट गई है, मगर भीतर से आकांक्षा गुलाम रहने की मिटी नहीं।
मैं बारह दिन अमरीका की जेल में अकारण बंद था, बिना किसी गिरफ्तारी के वारंट के, बिना किसी कारण के; लेकिन भारत की नपुंसक सरकार की यह हैसियत न हो सकी कि वह अमरीका से पूछ सकती कि एक भारतीय नागरिक को बिना किसी जुर्म के, बिना किसी गिरफ्तारी के वारंट के, बारह संगीनों के दबाव में जबरदस्ती जेल में बंद रखना और यह मौका भी न देना--जो कि उनका ही विधान है--कि मैं अपने वकीलों से मिल सकूं या अपने वकीलों को खबर कर सकूं। भारत की सरकार चुप रही। भारत का राजदूत चुप रहा। वे बारह दिन मेरे लिए इतने शर्म के दिन थे--इस बात की शर्म के कि मैं भारत में पैदा क्यों हुआ? जिस देश के पास कोई गौरव नहीं है! और जिस देश के पास कोई गरिमा नहीं है! और जिस देश के पास अपने नागरिकों को सुरक्षा देने का कोई साधन नहीं है! और कम से कम जिज्ञासा तो की जा सकती थी, पूछा तो जा सकता था। आखिर भारत का राजदूत अमरीका में बैठ कर क्या कर रहा है? उन बारह दिनों में एक ही बात जो मेरे मन में कांटे की तरह चुभती रही, वह यह थी कि क्या भारत ने अपनी आत्मा बिलकुल खो दी है?
और जिस दिन मुझे अदालत से छोड़ा गया--क्योंकि कोई कारण न था मुझे बंद रखने का--उस दिन भारतीय राजदूतावास का आदमी मुझसे मिलने आया कि भारत के प्रधानमंत्री ने पुछवाया है कि हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं?
मैंने कहा: बारह दिनों तक शायद भारत के मंत्री, भारत के प्रधानमंत्री अफीम के नशे में थे? भारत का राजदूत शराब पीए हुए पड़ा था? आज जब कि मैं जेल से छूट गया हूं, तुम पूछने आए हो कि हम क्या सेवा कर सकते हैं! मुझे तुम्हारी कोई सेवा की जरूरत नहीं है। हां, कभी तुम्हारे प्रधानमंत्री को मेरी सेवा की जरूरत हो तो मुझसे पूछ लेना। और ज्यादा देर नहीं लगेगी तुम्हारे प्रधानमंत्री को मेरी सेवा की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि जिन दो कौड़ी के लोगों को तुमने प्रधानमंत्री बना कर बिठा दिया है, उनकी प्रधानमंत्री होने की हैसियत क्या है? क्या तुम्हारी मां को गोली मार कर हत्या दे दी जाए तो तुम प्रधानमंत्री बनने के योग्य हो जाते हो? प्रधानमंत्री होना तो दूर, किसी दफ्तर में क्लर्क होने के भी योग्य नहीं होते। तुम्हारी मां और बाप दोनों भी अगर गोली से मार दिए जाएं, तो भी किसी दफ्तर में चपरासी होने के लिए तुम्हें योग्यता की जरूरत पड़ेगी। यह कोई योग्यता नहीं है।
लेकिन छिपाने के लिए, कि हमने फिकर की...और फिकर तब की जब कि मैं जेल के बाहर हो गया।
भारत दो हजार साल से गुलाम था। इस गुलामी ने भारत को गरीब ही बनाया होता तो कुछ बड़ी बात न थी। इस गुलामी ने भारत को इस बात का स्मरण भी भुला दिया कि एक भीतरी समृद्धि भी होती है, एक आत्मा का भी गौरव है, जो धन से नहीं तौला जाता और न धन से खरीदा जाता। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसे धन से खरीदने का कोई उपाय नहीं है। और तीन सौ वर्षों की अंग्रेजों की गुलामी ने भारत को जो शिक्षा दी, वह शिक्षा कम थी, जहर ज्यादा था। उसने भारत की ही प्रतिभा को भारत के विपरीत जहर से भर दिया। आज तुम्हें पता भी नहीं है कि तुमने उपनिषद के दिनों में किन ऊंचाइयों पर उड़ानें ली हैं। आज तुम्हें पता भी नहीं है कि तुम्हारे रहस्यवादियों ने--कबीर ने और नानक ने और दादू ने और फरीद ने--आकाश के किन तारों को छू लिया है। आज तुम्हें पता भी नहीं है कि बुद्ध ने, महावीर ने, मनुष्य-जाति के भीतर जो छिपी हुई चेतना है, उसके अंतिम शिखर को, उसके गौरीशंकर को उपलब्ध कर लिया है। हम उस सबके वसीयतदार हैं। और वसीयतदार होना कोई छोटी-मोटी जिम्मेवारी नहीं है। हमें उस वसीयत को सारी दुनिया तक पहुंचाना है। क्योंकि दुनिया में आदमी के पास कुछ भी नहीं है; आदमी खोखला है।
ईसाइयत या इस्लाम या यहूदी धर्म--तीन धर्म जो भारत के बाहर पैदा हुए हैं, धर्म कहने के योग्य भी नहीं हैं। क्योंकि जहां ध्यान का ही कोई स्थान न हो, वहां धर्म की कोई संभावना नहीं हो सकती। और इन तीनों धर्मों में ध्यान का कोई स्थान नहीं है। इस देश ने ध्यान के विज्ञान को हजारों साल तक धार दी है, तलवार बनाया है। हमारे पास कुछ है, जो किसी के पास नहीं है।
मेरा विरोध मेरा विरोध नहीं है। मैं एक साधारण आदमी, तुम जैसा आदमी। मेरे विरोध से क्या होगा? यूरोप की पार्लियामेंट ने तय किया है कि मैं किसी यूरोप के अड्डे पर अपने हवाई जहाज को उतार नहीं सकता। इंग्लैंड में एक रात बारह बजे मैं पहुंचा और सिर्फ छह घंटे हवाई जहाज पर रुकना चाहता था, उसकी भी आज्ञा नहीं। और दूसरे दिन इंग्लैंड की पार्लियामेंट में इस पर प्रश्न था, तो इंग्लैंड की प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर ने कहा कि यह आदमी खतरनाक है। न मेरे हाथ में कोई न्युक्लियर शस्त्र हैं...और हवाई जहाज पर अपने, एयरपोर्ट पर छह घंटे सोया रहता, तो इंग्लैंड को क्या खतरा हो सकता था?
यह पूछा गया कि क्या खतरा था?
तो खतरे के नाम पर बताया गया कि यह आदमी युवकों की नैतिकता को नष्ट कर सकता है, देश के धर्म को नष्ट कर सकता है, हमारी जाति की परंपराओं को, हमारे अतीत को नष्ट कर सकता है। और उस पूरी पार्लियामेंट में एक भी कमबख्त ऐसा न था जो कम से कम इतना तो पूछ लेता कि छह घंटे में अगर यह सारा काम हवाई जहाज पर रह कर एयरपोर्ट पर हो सकता है, तो तुम दो हजार साल से क्या कर रहे हो? जिस नैतिकता का पाठ और जिस धर्म का पाठ चर्चों, स्कूलों, कालेजों, यूनिवर्सिटियों में दिया जा रहा है, अगर वह छह घंटे में नष्ट की जा सकती है, तो नष्ट कर देने योग्य है। जरूर कोई झूठ है। यह झूठ का ही लक्षण है। सिर्फ झूठ ही क्षण में नष्ट किया जा सकता है। अगर तुम्हें यह भ्रांति है कि दो और दो मिल कर पांच होते हैं, तो कोई भी आदमी एक क्षण में इसको नष्ट कर सकता है। सिर्फ जरा सी समझाने की बात है कि दो और दो पांच कैसे हो सकते हैं? दो और दो बराबर हैं इसलिए चार से ज्यादा नहीं हो सकते।
तो जरूर झूठ फैलाए गए हैं। और उन झूठों के आधारों पर नैतिकताएं खड़ी हैं। और इस दुनिया में सबसे बड़ा दुख आदमी को तब होता है, जब उसके झूठ उससे छीने जाते हैं--जिनको वह सत्य समझता था और जिनके सहारे सोचता था कि उसके पास कुछ है।
मेरा कसूर एक ही था कि मैंने वही कहा, जो है, जैसा है।
खबरें हैं--और एक स्रोत से नहीं, अनेक स्रोतों से--कि अमरीकी प्रेसिडेंट आधा करोड़ रुपया देने को तैयार हैं, अगर कोई मेरी हत्या करने को तैयार हो।
यह कीमत थोड़ी ज्यादा है। आदमी के शरीर की कीमत ही क्या है? जानवरों के शरीर की भी कीमत होती है। चमड़ी के जूते बन सकते हैं, हड्डियों के खिलौने बन सकते हैं, ग्रंथियों से दवाएं बन सकती हैं। आदमी के पास इस दुनिया में सबसे ज्यादा मूल्यरहित शरीर है, जिसकी कोई कीमत नहीं है। उलटे उसे जलाने के लिए कुछ और खर्च करना पड़ता है। उसे घर में रख भी नहीं सकते।
आधा करोड़ रुपया अगर कोई देश मेरी हत्या पर खर्च करने को राजी है, तो यूं ही नहीं, डर भारी है। क्योंकि मैंने प्रेसिडेंट रोनाल्ड रीगन को चुनौती दी थी कि मैं व्हाइट हाउस आने के लिए तैयार हूं। वे खुद एक फेनेटिक क्रिश्चियन हैं। उनकी मान्यता है कि ईसाइयत के सिवाय कोई धर्म धर्म नहीं है। और मैंने कहा: मैं इसे चुनौती देता हूं, और तुम्हारे लोगों के बीच, तुम्हारे घर में मैं विवाद करने को आ जाने के लिए राजी हूं। अगर तुम मुझे समझा लो तो मैं ईसाई हो जाऊंगा औरअगर मैं तुम्हें समझा लूं तो संन्यासी होना है।
जानते हैं रोनाल्ड रीगन कि जिन आधारों पर वे अपनी ईसाइयत को धर्म कहते हैं, वे निहायत बेवकूफी की बातें हैं। जीसस पानी पर चले हों, चले भी हों, तो भी धर्म का कोई इससे संबंध नहीं है। एक तो कभी चले नहीं; अगर चले हों तो उनके पादरियों को, कम से कम पोप को, किसी स्वीमिंग पूल पर ही चल कर बता देना चाहिए। प्रतिनिधि को कम से कम थोड़ा तो प्रतिनिधित्व करना चाहिए। स्वीमिंग पूल बड़ा दिखाई देता हो तो एक बाथ-टब भी काफी है। दो कदम ही सिद्ध कर देंगे कि पानी पर चलना प्रकृति के कानून के खिलाफ है। और धर्म प्रकृति के कानून के खिलाफ नहीं है, धर्म प्रकृति के कानून का विकास है। धर्म प्रकृति के कानून का सहारा है। धर्म का अर्थ ही यही होता है कि जो प्रकृति में छिपा हुआ है उसे हम प्रकट करें।
लेकिन बेहूदा बातों पर--कि जीसस मुर्दा को जिंदा कर देते हैं...मुर्दा को जिंदा भी कर दोगे तो क्या होगा? आखिर जिस लजारस को ईसा ने जिंदा किया था, वह फिर मर तो गया। और जब मरना ही है तो आज मरे कि कल मरे, क्या फर्क पड़ता है? इससे अध्यात्म का क्या मूल्य है? और जो आदमी एक आदमी को जिंदा कर सकता था, उसके देश में सिर्फ एक ही आदमी मरा हो उसके समय में, ऐसा तो नहीं है। आदमी रोज मरते हैं। लेकिन लजारस बचपन का दोस्त था। और यह सीधी मदारीगिरी है। कि इस आदमी को गुफा में छिपाया गया है और जीसस बाहर आकर आवाज देते हैं: लजारस, अपनी मौत से बाहर आ जाओ! और लजारस तत्काल बाहर आ जाते हैं। लेकिन अगर सचमुच लजारस मर गया था, और मृत्यु के पार जो अमृत का लोक है उसके दर्शन करके लौटा था, तो उसके जीवन में कोई प्रतिभा प्रकट होनी थी, उसकी आंखों में कोई रोशनी होनी थी, उसके हाथों में कोई जादू होना था, उसके शब्दों में कोई अधिकार होना था। बस इस घटना के बाद लजारस का कोई पता नहीं चलता। इसकी भी कोई खबर नहीं कि वह कब मरा।
इन सड़ी-गली बातों पर, इन सड़ी-गली कहानियों पर, झूठी ईजादों पर धर्म खड़े नहीं होते। धर्म को खड़ा करने के लिए चेतना का विज्ञान चाहिए। जीसस को खुद भी चेतना के विज्ञान का कोई पता नहीं है। इसलिए सूली पर वे रास्ता देख रहे हैं कि आसमान से देवता उतरते ही होंगे अपने-अपने बैंड-बाजे लेकर। फूलों की वर्षा बस होने को है--अब हुई, अब हुई। लेकिन न फूल बरसे, न बाजे बजे, न संगीत उठा। आकाश जैसा खाली था, वैसा खाली रहा। और जीसस का चूंकि सारा आधार विश्वास था, कोई अनुभव न था, इसलिए आखिर-आखिर में टूट गया। खींचा बहुत, दिलाया अपने को भरोसा बहुत कि परीक्षा का क्षण है, लेकिन आखिर में चिल्ला कर कहा आकाश की तरफ कि हे परमात्मा! क्या तू मुझे भूल गया है? न तो परमात्मा का कोई अनुभव है, न आत्मा का कोई अनुभव है।
चूंकि मैंने ईसाइयत को उघाड़ कर सामने रखने की कोशिश की, और परिणाम स्वरूप एक अनूठी क्रांति घटित हुई कि पश्चिम का युवक वर्ग, सुशिक्षित वर्ग, प्रतिभाशाली लोग--चित्रकार, मूर्तिकार, वैज्ञानिक, डाक्टर, प्रोफेसर्स, कवि, अभिनेता, नर्तक--विश्वख्याति के लोग जब मुझसे प्रभावित होकर कम्यून में सम्मिलित होने लगे, तो सारी ईसाइयत के भीतर एक घबड़ाहट फैल गई। क्योंकि अब तक उन्होंने पूरब में लोगों को हिंदू से ईसाई बनाया था, मुसलमान से ईसाई बनाया था; लेकिन जिन लोगों को बनाया था, वे या तो भिखमंगे थे या अनाथ बच्चे थे या आदिवासी थे जिनको अभी कपड़े भी पहनने नहीं आते थे, अशिक्षित थे, जिनको धर्म से कोई वास्ता न था, जिन्हें रोटी चाहिए थी। रोटी के साथ-साथ उन्हें धर्म भी पिला दिया। लेकिन पूरब में उन्होंने एक भी सुसंस्कृत व्यक्ति को, एक भी व्यक्ति को जो उपनिषदों को समझता हो, एक भी व्यक्ति को जो बुद्ध के चरणों पर चला हो, ईसाई बनाने में सफलता हासिल नहीं की। मेरी सफलता उनके लिए प्राणघाती मालूम हुई। वे हमारे भिखमंगों को ईसाई बना रहे थे; मैं उनकी प्रतिभाओं को ईसाइयत की कैद के बाहर ला रहा था। यह सफलता नहीं सही जा सकती थी। यह सफलता मेरा जुर्म थी।
और तुम ठीक पूछते हो कि बुद्धिजीवियों को क्या हुआ? सिर्फ भारत के संबंध में ठीक है। पश्चिम के बुद्धिजीवियों के संबंध में ठीक नहीं है। सिर्फ इटली में पैंसठ श्रेष्ठतम बुद्धिजीवियों ने, जिनमें अनेक नोबल प्राइज विनर हैं, विश्वविख्यात कलाकार हैं, कवि हैं, उन्होंने इटली की सरकार को दरख्वास्त की है कि मुझे इटली आने से रोकना लोकतंत्र की हत्या है। मेरी बातों पर तुम विश्वास करो या न करो, लेकिन मुझे उन्हें हकपूर्वक प्रकट करने से नहीं रोका जा सकता। और अगर मुझे रोका जा रहा है तो तुम अपने हाथ से अपना गला घोंट रहे हो। छह महीने से मैं कोशिश कर रहा हूं इटली में प्रवेश की, लेकिन पोप इटली सरकार को रोकने पर लगा हुआ है।
पोप हिंदुस्तान आए तो मैंने स्वागत किया। और मैंने उन लोगों का विरोध किया जो पोप को पत्थर मार कर और झंडियां दिखा कर और गालियां देकर वापस लौट जाने के लिए कह रहे थे। यह भारतीयता नहीं है, यह संस्कृति नहीं है। यह कोई विरोध का ढंग नहीं है। यह कोई आदमियत नहीं है। अगर पोप भारत आए थे तो उन्हें जगह-जगह से निमंत्रण मिलने चाहिए थे कि हम संवाद चाहते हैं, हम सुनना चाहते हैं कि आपके धर्म की बुनियादें क्या हैं और आपके समक्ष हम अपने धर्म की बुनियादों को रखना चाहते हैं, ताकि हमारे लोग तुलना कर सकें, विचार कर सकें। हो सकता है आप सही हों। और हम सत्य के साथ हैं। यह कोई सवाल नहीं है कि सत्य कौन के मुंह से निकलता है।
इटली की सरकार रोज बहाना कर रही है कि वह आज निर्णय करती है, कल निर्णय करती है। लेकिन पोप का अड़ंगा भारी है कि मुझे इटली में प्रवेश न होने दिया जाए। और अड़ंगे का सबसे बड़ा कारण है, पैंसठ इटली के अत्यधिक प्रतिष्ठित लोगों द्वारा निमंत्रण; और मेरी यह उनके लिए चुनौती कि मैं वेटिकन आकर संवाद करना चाहता हूं। कोई लड़ने और झगड़ने की बात नहीं है। लड़ते-झगड़ते वे हैं जो कमजोर हैं और झूठ हैं। अगर तुम्हारे पास सत्य है तो बात ही काफी है, तलवारें नहीं उठानी पड़तीं।
जर्मनी के बुद्धिजीवियों ने विरोध किया है। हालैंड के बुद्धिजीवी अदालत में सरकार को ले गए हैं। स्पेन के बुद्धिजीवी स्पेन में लड़ रहे हैं कि मुझे स्पेन में प्रवेश मिलना चाहिए। मुझे रोकने का किसी को कोई भी हक नहीं है। अगर मेरी बात नहीं माननी है तो कोई जबरदस्ती नहीं है। सिर्फ भारत एक ऐसा देश है जिसके बुद्धिजीवियों ने कोई विरोध नहीं किया; जिसके बुद्धिजीवियों ने भारत की सरकार को नहीं कहा कि तुम हमारे प्रतिनिधि हो या हमारे दुश्मन? भारत के बुद्धिजीवी चुप रहे; क्योंकि भारत में सचमुच में कोई बुद्धिजीवी नहीं है। भारत में जिनको तुम बुद्धिजीवी कहते हो, दो कौड़ी पर बिकने को राजी हैं। इनके पास कोई आत्मगौरव नहीं है। इनके पास इनका अपना धर्म नहीं है, अपनी कोई पहचान नहीं है। ये खुद अपने हस्ताक्षर भूल गए हैं। और तीन सौ साल में ब्रिटेन ने इन्हें इस तरह भुलाया है कि ये क्लर्क बन गए हैं, स्कूल मास्टर बन गए हैं, स्टेशन मास्टर बन गए हैं, अखबारनवीस बन गए हैं। मगर बुद्धिजीवी होना कुछ बात और है। जहर पीने की हिम्मत होनी चाहिए। सत्य को पाने के लिए मूल्य चुकाना जरूरी है। सुकरात होने की जरूरत है। ये बुद्धिजीवी नहीं हैं।
फिर मुझसे तो और भी तकलीफ थी। मुझसे तकलीफ थी कि हिंदुस्तान का बुद्धिजीवी बंटा हुआ है। या तो वह हिंदू है, या मुसलमान है, या ईसाई है, या जैन है। मैं तो कोई भी नहीं, सिर्फ आदमी हूं। आदमी के पक्ष में खड़े होने को कौन राजी है? हिंदू को कोई प्रयोजन नहीं। हिंदू शंकराचार्य खुश होंगे अगर मेरी हत्या कर दी जाती है। शायद जलसे मनाएंगे। जैनाचार्य प्रसन्न होंगे कि एक झंझट टली। मुस्लिम इमाम आनंदित होंगे। कितने आदमी हैं इस देश में?
मुझे याद पड़ता है, एक आदमी ने नौकरी के लिए दरख्वास्त की। उसके मालिक ने पूछा: पिछली जगह तुमने कितने दिन काम किया? उसने कहा: मैंने दो साल काम किया। मालिक ने फोन उठाया और उस कंपनी को फोन किया जहां वह कह रहा था कि उसने दो साल काम किया। और पूछा कि इस-इस नाम का आदमी आपके यहां कितने दिन काम किया? मालिक ने कहा: दो सप्ताह। वह हैरान हुआ। उसने कहा: लेकिन उसका तो कहना है कि उसने दो साल काम किया। दूसरा आदमी हंसा, उसने कहा: उसने दो साल नौकरी पाई, काम दो सप्ताह ही किया।
यहां कितने बुद्धिजीवी हैं जिन्होंने जगत को कोई बौद्धिक दान दिया हो? और मुझसे तो उनकी अड़चन है, क्योंकि वे सब बंधे हैं अपने-अपने कारागृह से। उनकी जंजीरें हैं। और मैं उनकी जंजीरों के उतने ही खिलाफ हूं जितने ईसाइयों की जंजीरों के खिलाफ हूं। मैं दुनिया में आदमी चाहता हूं। मैं दुनिया में ईसाई नहीं चाहता और हिंदू नहीं चाहता और मुसलमान नहीं चाहता। क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम जंजीरें बदल लेते हो, लेकिन तुम्हारी कैदी की स्थिति वही की वही बनी रहती है। तुम एक कारागृह से निकलते हो और दूसरे में प्रवेश कर जाते हो। तुम्हें खुला आकाश भाता ही नहीं है। और मैं तुम्हें खुले आकाश में लाना चाहता हूं।
तो कठिनाई है। इस मुल्क के बुद्धिजीवियों में से कोई विरोध नहीं हुआ। और आश्चर्य तो यह है कि मेरे अपने लोग, मेरे संन्यासी--उनकी हिम्मतें भी अंततः भारत की टूटी हुई हिम्मत के ही हिस्से हैं। आज मैं तीन दिन से यहां हूं, विनोद खन्ना का कोई पता नहीं है। क्योंकि विनोद खन्ना की पत्नी का आदेश है कि अगर वह यहां आता है तो पत्नी के दरवाजे बंद। मुझे छोड़ा जा सकता है, मगर पत्नी की बात मानना तो पति का धर्म है। सो बेचारा तड़पता होगा--विनोद की चाची यहां मौजूद होंगी, वे उसे खबर पहुंचा देंगी--कि तुमसे ऐसी आशा न थी कि तुम इतने बेजान निकलोगे।
और धर्म के नाम पर जिनके बड़े नाम हैं, उन सबसे मेरा विरोध है। क्योंकि जिस कारण उनके बड़े नाम हैं, वे बातें इतनी बेवकूफी की भी हैं कि मैं उनको समर्थन नहीं दे सकता। जैन मुनि स्नान नहीं करता। मैं समर्थन नहीं कर सकता। यह निपट नासमझी है। और खासकर बंबई में जहां कि जैन मुनियों का अड्डा बना हुआ है, जहां पसीने से तरबतर हैं, स्नान नहीं कर सकते। क्योंकि स्नान करना शरीर का प्रसाधन है। पागल हो गए हो तुम! दतौन नहीं कर सकते, क्योंकि दतौन करना शरीर का प्रसाधन है। जैन मुनियों से बात करनी हो तो दूर बैठना पड़ता है, क्योंकि उनके मुंह से बास आती है, उनके शरीर से बास आती है। वे गंदगी के घर हैं। लेकिन सीधे-सीधे उनसे बात करनी...इतनी प्रतिभा भी हमारे पास नहीं रही कि हम सोच सकें, विचार कर सकें।
मैंने सुना है, एक रात एक बिस्तर पर एक औरत और एक आदमी, दोनों प्रेम में संलग्न हैं। और तत्काल उस औरत ने कहा: उठो, उठो। कार की आवाज सुनाई पड़ी, यह मेरे पति की कार है। तुम जल्दी से पास की अलमारी में छिप जाओ।
वह आदमी उठा और पास की अलमारी में छिप गया। और कार पति की ही थी। पति भीतर आया। वह आदमी अलमारी में जब खड़ा था, तब उसने धीरे से एक आवाज सुनी। एक छोटा सा लड़का भी वहां अलमारी में बैठा हुआ है। उसने देखा कि...और वह लड़का कह रहा है: बहुत अंधेरा है।
उसने कहा: भैया, तू जरा धीरे बोल। अंधेरा कितना ही हो, मैं यहां मौजूद हूं। ये पांच रुपये रख और शांत रह।
उसने कहा: लेकिन अंधेरा ज्यादा है।
दस रुपये ले, मगर चुप तो रह।
लड़का बोला: इससे काम नहीं चलेगा, अंधेरा बहुत-बहुत है। और मेरे मन में ऐसी घबड़ाहट हो रही है कि जोर से चीख मार दूं।
उस आदमी के पास पचास रुपये थे, उसने पूरे
निकाल कर दे दिए कि बस अब ये आखिरी हैं। अब तू चीख मार या जो तुझे करना हो कर। अब मेरे पास कुछ भी नहीं है।
उसने कहा: कोई फिकर नहीं, शांति से खड़े रहो। मेरे पिताजी ज्यादा देर नहीं रुकते। उनकी रात की ड्यूटी है, वे जाने ही वाले हैं। और यह मेरा काम है।
दूसरे दिन इस लड़के ने अपनी दादी मां से कहा कि मुझे एक साइकिल खरीदनी है। उसकी दादी मां ने कहा कि साइकिल पचास से कम में न मिलेगी। तीन पहिए की साइकिल चाहिए थी। लड़के ने कहा कि तुम फिकर न करो, रुपये का मैंने इंतजाम किया हुआ है।
उसने कहा: तूने रुपये पाए कहां से?
यह वह न बताए कि रुपये उसने पाए कहां से। दादी ने कहा: जब तक तू यह न बताए--वह बड़ी धार्मिक, हर रविवार को चर्च जाने वाली--जब तक तू यह न बताए, और रविवार का दिन था, तो उसने कहा: चल मेरे साथ चर्च और पहले कनफेशन कर पादरी से कि तूने रुपये कहां से पाए। मुझे नहीं बताता, मत बता, लेकिन पादरी को तो बता। फिर मैं तुझे साइकिल की दुकान पर ले चलती हूं।
वह उस कोठरी में गया जहां कनफेशन करने वाले को खड़ा होना पड़ता है। और जरा सी खिड़की से दूसरी तरफ चर्च का पादरी खड़ा होता है। जैसे ही पादरी आया, उसने कहा कि नमस्कार, बहुत अंधेरा है।
उसने कहा: कमबख्त! तूने फिर शुरू कर दिया? और मेरे पास धेला नहीं है।
ये पादरी एक तरफ ब्रह्मचर्य का प्रचार करते रहेंगे और दूसरी तरफ इनकी जिंदगी ठीक उससे उलटी चलती रहेगी। तुम्हारे संन्यासी तुम्हें समझाते रहेंगे कि भोजन का स्वाद लेना पाप है, अस्वाद धर्म है। और जितनी बड़ी तोंदें तुम्हारे संन्यासियों की हैं, उतनी बड़ी तोंदें तुम्हारी नहीं हैं। तुमने नित्यानंद की तोंद देखी? अगर तुम नित्यानंद का लेटा हुआ फोटो देख लो तो तुम हैरान हो जाओगे कि यह एवरेस्ट है या आदमी की तोंद है? जब मैंने पहली दफा यह फोटो देखी तो मैंने कहा: अब क्या कहना! यह तोंद नित्यानंद की है या नित्यानंद तोंद के हैं? और ये समझा रहे हैं कि अस्वाद धर्म है। और अंधे सुन रहे हैं और मान रहे हैं कि अस्वाद धर्म है और इनकी तोंद साफ दिखाई पड़ रही है।
मेरी मुसीबत है--मुझे जैसा दिखाई पड़ता है, मैं ठीक वैसा ही कह देना चाहता हूं। उससे किसी को दुख पहुंच सकता है, लेकिन दुख पहुंचाने की मेरी इच्छा न थी। इच्छा थी कि उस आदमी को समझ आए, सोच आए, विचार जगे। मैं घूमता रहूंगा दुनिया के कोने-कोने में। सिर्फ कैथलिक धर्म के पास एक लाख मिशनरी हैं। प्रोटेस्टेंट धर्म के पास अपने मिशनरी हैं। जैनियों के पास अपने संन्यासी हैं। बौद्धों के पास लाखों संन्यासी हैं। मैं अकेला हूं। लेकिन फिर भी हैरानी की बात है कि अगर तुमने एक बात का निर्णय कर लिया है कि तुम सत्य के साथ हो, तो इस दुनिया में सबसे बड़ी ताकत तुम्हारे साथ है। तुम अकेले नहीं हो। इस दुनिया का आधार तुम्हारे साथ है, अस्तित्व तुम्हारे साथ है।
तो न मुझे बुद्धिजीवियों की चिंता है, न धर्मगुरुओं की चिंता है। मुझे चिंता है तो सिर्फ एक बात की कि कभी भूल कर भी मैं अपनी आत्मा को न बेचूं। कभी भूल कर भी मैं सत्य को भी न बेचूं। मौत को स्वीकार कर लूं, लेकिन सत्य से मेरा साथ न छूटे। और मैं चाहता हूं कि तुम सब आशीर्वाद दो मुझे कि मौत वरणीय है, लेकिन सत्य नहीं छोड़ा जा सकता। मैं अकेला काफी हूं। तुम्हारा आशीर्वाद पर्याप्त है।
प्रश्न:
भगवान, प्रसिद्ध चिंतक अल्डुअस हक्सले ने मरने के कुछ दिन पहले कहा था कि यह कहना कठिन है कि गुफावासी मनुष्य और गगनचुंबी अट्टालिका में रहने वाले मनुष्य में कौन ज्यादा बर्बर है। आपने कहा हाल ही कि मनुष्य अभी बंदर से ऊपर नहीं उठा है। इस पर कुछ कहने की कृपा करें।
मनुष्य के कृत्यों को देखो। तीन हजार वर्षों में पांच हजार युद्ध आदमी ने लड़े हैं! उसकी पूरी कहानी हत्याओं की कहानी है, लोगों को जिंदा जला देने की कहानी है--और एक को नहीं, हजारों को। और यह कहानी खत्म नहीं हो गई है।
अभी मैं यूनान में था, सिर्फ चार सप्ताह के लिए। और यूनान का चर्च और यूनान के चर्च का प्रमुख अधिकारी आर्च बिशप जहर उगलने लगा। तार पर तार--प्रेसिडेंट, प्राइम मिनिस्टर, अखबारों को--कि अगर मुझे यूनान से बाहर नहीं किया जाता, तो हम जिंदा इस खतरनाक आदमी को इस मकान के साथ जला देंगे जिसमें यह रह रहा है। मैं मकान के बाहर भी नहीं गया। जो मुझसे मिलने आए थे, उनमें से कोई भी यूनानी न थे। मुझसे मिलने आए थे यूरोप के अलग-अलग देशों के संन्यासी। और वे मुझसे घर में आकर मिल रहे थे। मुझसे क्या खतरा था? और मुझे जिंदा जला देने की धमकी--क्या तुम सोचते हो आदमी बंदर से विकसित हो गया है? किसी बंदर ने अब तक किसी दूसरे बंदर को जिंदा तो नहीं जलाया। कोई बंदर न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है; बंदर सिर्फ बंदर है।
और अगर यही विकास है, तो ऐसे विकास का कोई मतलब नहीं। सच तो यह है कि आदमी विकसित नहीं हुआ है, केवल वृक्षों से नीचे गिर गया है। अब तुम बंदर के साथ भी मुकाबला नहीं कर सकते हो। अब तुममें वह बल भी नहीं है कि तुम एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर छलांग लगा जाओ। अब वह जान भी न रही, वह यौवन भी न रहा, वह ऊर्जा भी न रही। और तुम्हारे कृत्यों की पूरी कहानी इस बात का सबूत है कि तुम आदमी नहीं बने, राक्षस बन गए। हां, राक्षस लेकिन अच्छे-अच्छे नामों की आड़ में। हिंदू की आड़ में तुम मुसलमान की छाती में छुरा भोंक सकते हो--बिना किसी परेशानी के। मुसलमान की आड़ में तुम हिंदू के मंदिर को जला सकते हो जिसने तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ा--बिना किसी चिंता के।
दूसरे महायुद्ध में अकेले हिटलर ने छह करोड़ लोगों की हत्या की--एक आदमी ने। इसको तुम विकास कहोगे? दूसरा महायुद्ध खत्म होने को है, जर्मनी ने हथियार डाल दिए हैं और अमरीका के प्रेसिडेंट ने जापान के ऊपर, हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिरवाए। खुद अमरीकी सेनापतियों का कहना है कि यह बिलकुल बेकार बात थी, क्योंकि जर्मनी के हार जाने के बाद जापान का हार जाना ज्यादा से ज्यादा दो सप्ताह की बात थी। पांच साल की लड़ाई अगर दो सप्ताह और चल जाती तो कुछ बिगड़ न जाता। लेकिन हिरोशिमा और नागासाकी जैसे बड़े नगरों पर, जिनके निवासियों का युद्धों से कोई संबंध नहीं; छोटे बच्चे और बूढ़े और स्त्रियां--दस मिनट के भीतर दो लाख व्यक्ति राख हो गए। और अमरीका के जिस प्रेसिडेंट ने यह आज्ञा दी, उसका नाम भी हमने अभी तक नहीं बदला। उस प्रेसिडेंट का नाम था: ट्रुमैन--सच्चा आदमी। अब तो कम से कम उसे अनट्रुमैन कहना शुरू कर दो!
और दूसरे दिन सुबह जब अखबारों ने, अखबारों के प्रतिनिधियों ने प्रेसिडेंट से पूछा: क्या आप रात आराम से सो तो सके? तो ट्रुमैन ने कहा: मैं इतने आराम से कभी नहीं सोया जितना कल रात सोया, जब मुझे खबर मिली कि एटम बम सफल हो गया है।
एटम बम की सफलता महत्वपूर्ण है। दो लाख निहत्थे, निर्दोष आदमियों की हत्या कोई चिंता पैदा नहीं करती। इसको तुम आदमी कहते हो?
नहीं, आदमी का कोई विकास नहीं हुआ। आदमी का सिर्फ एक ही विकास है और वह है कि वह अपनी अंतरात्मा को पहचान ले। उसके सिवाय आदमी का कभी कोई विकास नहीं हो सकता। जिस दिन मैं अपनी अंतरात्मा को पहचान लेता हूं, उस दिन मैंने तुम्हारी अंतरात्मा को भी पहचान लिया। जिस दिन मैंने अपने को जान लिया, उस दिन मैंने इस जगत में जो भी जानने योग्य है, वह सब जान लिया। और उसके बाद मेरे जीवन में जो सुगंध होगी, वही केवल मात्र विकास है; जो रोशनी होगी, वही केवल एकमात्र विकास है। जिसको हम अभी तक विकास कहते रहे हैं, वह कोई विकास नहीं है। हमारे पास बंदरों से सामान ज्यादा है, लेकिन हमारे पास बंदरों से ज्यादा आत्मा नहीं है।
आत्मिक विकास ही एकमात्र विकास है।
यह भी हो सकता है आदमी अंधा हो और अपने को जानता हो, तो वह आंख वाले से बेहतर है। आखिर तुम्हारी आंख क्या देखेगी? उसने अंधा होकर भी अपने को देख लिया है। और अपने को देखते ही उसने उस केंद्र को देख लिया है जो इस सारे अस्तित्व का केंद्र है। वह अनुभूति अमृत की अनुभूति है, शाश्वत नित्यता की अनुभूति है। केवल थोड़े से लोग मनुष्य-जाति के इतिहास में आदमी बने हैं। वे ही थोड़े से लोग जिन्होंने अपनी आत्मा को अनुभव किया है। शेष सब नाममात्र के आदमी हैं। उनके ऊपर लेबल आदमी का है, खोखा आदमी का है, भीतर कुछ भी नहीं है। और जो कुछ भी है वह हर तरह के जहर से भरा है--ईर्ष्या से भरा है, घृणा से भरा है, विध्वंस से भरा है, हिंसा से भरा है।
अंतिम रूप में मैं तुमसे यही कहना चाहता हूं कि अगर तुम्हारे जीवन में जरा सी भी बुद्धि है, तो इस चुनौती को स्वीकार कर लेना कि बिना अपने को जाने अरथी को उठने नहीं दोगे। हां, अपने को जान कर कल की उठने वाली अरथी आज उठ जाए तो भी कोई हर्ज नहीं। क्योंकि जिसने अपने को जान लिया, उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं है।
अमृत का अनुभव एकमात्र विकास है।
धन्यवाद।