QUESTION & ANSWER

Koplen Phir Phoot Aayeen 01

First Discourse from the series of 12 discourses - Koplen Phir Phoot Aayeen by Osho. These discourses were given in BOMBAY during JUL 31 - AUG 09 1986.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


प्रश्न:
भगवान, आप कैसे हैं?
मैं तो वैसा ही हूं। और तुम भी वैसे ही हो। जो बदल जाता है, वह हमारा असली चेहरा नहीं है, वह हमारी आत्मा नहीं है। जो नहीं बदलता, न जीवन में, न मृत्यु में, वही हमारा यथार्थ है। हम लोगों से पूछते हैं--कैसे हो? नहीं पूछना चाहिए। क्योंकि हमने स्वीकार ही कर लिया पूछने में--बदलाहट को, परिवर्तन को, बचपन को, जवानी को, बुढ़ापे को, जीवन को, मौत को।
कुछ है तुम्हारे भीतर जिसका तुम्हें भी पता है। बचपन में भी यही था, और नहीं जन्मे थे, तब भी यही था। गंगा में बहुत जल बहता गया, लेकिन तुम किनारे खड़े हो और वही हो। तुम दिखाई भी न पड़ोगे कल, तो भी वही रहोगे। नये होंगे रूप, नई आकृतियां, शायद तुम अपने को भी पहचान न पाओ। नये होंगे नाम, नया होगा परिचय, नया होगा वेश, फिर भी मैं कहता हूं--तुम वही होओगे। तुम सदा से वही हो और तुम सदा वही रहोगे। इस सदा सनातन, शाश्वत को चाहो तो ईश्वर कहो, चाहो तो तुम्हारी सत्ता कहो। इस पर बहुत लहरें आती और जाती हैं, पर समुंदर वही है।
बदलाहट झूठ है। लेकिन हमने बदलाहट को सच माना हुआ है और उसे संसार बना लिया है। काश, हम समझ सकें कि बदलाहट झूठ है, तो चोर और साधु में कोई फर्क न रह जाए, क्योंकि दोनों के भीतर जो है वह न तो चोर है और न साधु है; तो हिंदू और मुसलमान में कोई फर्क न रह जाए। उनकी भाषाएं अलग होंगी, लेकिन उनकी भाषाओं के भीतर छिपा एक साक्षी भी है। उनके कृत्य अलग होंगे, लेकिन उन कृत्यों के पीछे छिपा भी कुछ है, जो सदा वही है। और उस सनातन की तलाश ही धर्म है।
पूछना चाहिए लोगों से--बदले तो नहीं हो? मगर उलटा है संसार, उलटे हैं उसके नियम, ऊलजलूल हैं उसकी बातें। और चूंकि भीड़ उनको मान कर चलती है, दूसरे भी उनको स्वीकार कर लेते हैं। अपने चेहरे को तुम देखते हो दर्पण में, तो सोचते हो तुमने अपने को देख लिया। काश, इतना आसान होता तो सभी को आत्म-दर्शन हो गया होता। सुनते हो अपना नाम, तो सोचते हो तुम्हें अपना नाम पता है। बात इतनी सस्ती होती तो दुनिया में धर्म की कोई जरूरत न थी। वह नाम तुम्हारा नहीं है, उधार है और बासा है। आए थे तुम बिना नाम के और जाओगे तुम बिना नाम के।
हम जब मुर्दे को ले जाते हैं मरघट की तरफ तो कहते हैं: राम नाम सत्य। उस आदमी का नाम, जो मर गया, कोई नहीं कहता। और जिंदगी भर वही सच था, आज अचानक झूठ हो गया। पैदा हुआ तब बिना नाम के पैदा हुआ था और मरा है तो राम के नाम को सच कर गया और अपने नाम को झूठ कर गया। जिंदगी भर राम नाम सत्य है और हर पल, हर घड़ी आदमी अरथी पर सवार है। किसी भी पल तुम्हारी यात्रा मरघट की तरफ शुरू हो सकती है।
अंग्रेजी में कहावत है: मत पूछो कि चर्च की घंटियां किसके लिए बजती हैं। क्योंकि जब कोई मरता है तो चर्च की घंटियां बजती हैं पूरे गांव को खबर देने को। कहावत है कि मत पूछो कि घंटियां किसके लिए बजती हैं। घंटियां सदा तुम्हारे लिए बजती हैं, मरता कोई भी हो। अरथी हमेशा तुम्हारी निकलती है, भला अरथी लेकर ही तुम क्यों न चल पड़े हो। अरथी पर जलती हुई लाश तुम्हारी होती है, भला अरथी को आग तुमने ही क्यों न दी हो।
जीवन की सबसे बड़ी दुविधा यही है कि हमने उसमें बदलते हुए को सच मान लिया है और जो ठहरा हुआ है उसे बिलकुल भूल गए हैं।
मैं तो वही हूं। कुछ और होने का उपाय नहीं है। चाहो भी तो कुछ और हो नहीं सकते हो। जिंदगी भर कोशिश तो करते हो कुछ हो जाने की। सारी महत्वाकांक्षाएं, सारी दौड़-धूप एक ही तो है--कुछ हो जाऊं। और सारे जीवन का दुर्भाग्य क्या है? कि कोई भी कुछ नहीं हो पाता। और आश्चर्य कि तुम जो थे, सदा थे, कितने ही भागे, कितने ही दौड़े, फिर भी वही रहे। लेकिन अंतिम समय तक भी लोगों को इसका होश नहीं आता। जिस दिन इस बात का होश आ जाए कि मुझे कुछ होना नहीं है, मुझे सिर्फ उसे खोज लेना है जो मैं हूं--तुम्हारे जीवन में क्रांति का क्षण आ गया; तुम्हारे जीवन में परमात्मा की घड़ी आ गई; तुम मंदिर के द्वार आ गए। अब तुम्हारी अरथी नहीं उठ सकती; अब तुम्हारा नाम नहीं बदल सकता। अब सदियां आएंगी और जाएंगी, तारे ऊगेंगे और डूबेंगे, लेकिन तुम्हारा होना उस जगह पहुंच गया जहां सब थिर है, सब शांत है, सब मौन है; कोई हलचल नहीं, कोई लहर नहीं, कोई तरंग नहीं। इस निस्तरंग संगीत का नाम समाधि है। इस शून्य हो जाने का नाम सत्य हो जाना है।
मेरे पास लोग आते हैं कुछ होने के लिए। और मेरी मुसीबत है कि मैं उन्हें मिटाना चाहता हूं, ताकि वे वही बच रहें जो हैं। वह अस्तित्व का दान है। और जो हम बना लेते हैं, वे रेत पर बनाए हुए घरौंदे हैं--हवा का जरा सा झोंका और घर गिर जाते हैं। पानी पर खींची गई लकीरें हैं--तुम बना भी नहीं पाते और मिट जाती हैं। मगर तुम बनाए चले जाते हो। तुम लौट कर भी नहीं देखते कि तुम्हारा बनाया सब मिट जाता है, सब खो जाता है।
और एक बार नहीं, हजार बार; और एक जन्म में नहीं, हजारों जन्मों में तुमने यही किया है। कब तक यही करोगे? भूल कोई एक बार करे, क्षम्य है; दुबारा, अक्षम्य हो जाती है। मगर हम तो हजारों बार कर चुके हैं। अब तो हम भूल ही करना जानते हैं। अब तो हम भूल के ही चक्र में घूमना जानते हैं। और इतनी भूलें और ऐसी भीड़ भूलों की कि उसमें जो खो जाता है, वह तुम्हारा असली अस्तित्व था।
जिस दिन से मैंने अपने को पहचाना है, उस दिन से कोई परिवर्तन नहीं पाया है। सब बदल गया है, रोज बदलता जाएगा, लेकिन भीतर कोई चुपचाप खड़ा--स्वास्थ्य में और बीमारी में, सफलता में और असफलता में--बिलकुल वही है।
अमरीका की जेलों में मुझे बहुत सारे अनुभव हुए, जो शायद जेल के बाहर नहीं भी होते। क्योंकि करीब-करीब पांच जेलों में मुझे रखा गया--बिना कारण, बिना किसी जुर्म के। लेकिन शायद मैं गलत हूं, मैं जिसे जुर्म नहीं समझता हूं, वे उसे जुर्म समझते हैं। सोचना जुर्म है, शांत होना जुर्म है, मौन जुर्म है, ध्यान जुर्म है। सत्य शायद इस दुनिया में सब से बड़ा पाप है। वे उसकी ही मुझे सजा दे रहे थे। लेकिन उनकी तकलीफ यह थी, जो कि हर जेलर ने मुझे अपनी जेल से छोड़ते वक्त कही, कि हजारों कैदी हमारी जेल से गुजरे हैं, लेकिन एक बात जिसने हमें सोने नहीं दिया वह यह कि हम तुम्हें सता रहे हैं और तुम मजा ले रहे हो!
मैंने उनसे कहा कि तुम्हारी समझ के बाहर है, क्योंकि तुम जिसे सता रहे हो वह मैं नहीं हूं और जो मजा ले रहा है वह मैं हूं। मैं देख रहा हूं नाटक को, जो मेरे चारों तरफ चल रहा है।
और जब जेल के बाहर पत्रकार मुझसे पूछते कि आप कैसे हैं? तो मैं उनसे कहता कि ठीक वैसा जैसा हमेशा से था, तो अमरीकी पत्रकार की समझ के बाहर था। वह कहता कि जेल में और जेल के बाहर आपको कोई फर्क समझ में नहीं आता? मैं उनसे कहता: जेल में और जेल के बाहर तो बहुत फर्क है, मगर तुमने कुछ और पूछा था। तुमने मेरे बाबत पूछा था, जेल के बाबत नहीं पूछा था। जेल के भीतर और जेल के बाहर मैं वही हूं। जेल में फर्क है और जेल के बाहर फर्क है। हथकड़ियों में बंधा हुआ भी मैं वही हूं और हथकड़ियों से छूट जाऊंगा तो भी वही हूं। हथकड़ियां मुझे कैसे बदल सकती हैं? और जेल की दीवालें मुझे कैसे बदल सकती हैं?
आखिरी जेल से निकलते वक्त उस जेल के प्रधान ने मुझसे कहा कि यह मेरे जीवन का अनूठा अनुभव है। मैंने जेल में लोगों को प्रसन्न तो आते देखा है, प्रसन्न जाते नहीं देखा। तुम जैसे आए थे वैसे ही जा रहे हो। राज क्या है?
मैंने कहा: वही तो मेरा जुर्म है कि मैं लोगों को वही राज समझा रहा था। तुम्हारी सरकार और दुनिया की कोई सरकार नहीं चाहती कि वह राज लोग समझ जाएं। क्योंकि उस राज के समझते ही सरकारों की सारी ताकतें तुम्हारे ऊपर से समाप्त हो जाती हैं। जेल बेकार हो जाती हैं, बंदूकें बेमानी हो जाती हैं, बिना चले हुए कारतूस चले हुए कारतूस हो जाते हैं, आग फिर तुम्हें जलाती नहीं और तलवार फिर तुम्हें काटती नहीं। इसलिए जो लोग तलवार और आग के ऊपर तुम्हारी छाती पर सवार हैं, वे नहीं चाहते कि तुम पहचान सको कि तुम कौन हो। उनकी सारी ताकत नष्ट हो जाती है। तुम्हारी पहचान उनकी मौत है। और यह आश्चर्यजनक नहीं है कि सदियों में जब भी कभी किसी आदमी ने तुम्हें तुम्हारी याद दिलाने की कोशिश की है, तो सरकार आड़े आ गई है, न्यस्त स्वार्थ आड़े आ गए हैं।
साक्रेटीज को जहर देते वक्त जो जुर्म उसके ऊपर आरोपित किए गए थे, वे जुर्म थे कि वह लोगों को अनैतिक होना सिखा रहा है। वह केवल लोगों को यही सिखा रहा था कि तुम कौन हो। लेकिन नीति के ठेकेदारों को लगता था कि अगर लोग जान लें कि वे कौन हैं, तो फिर उनकी ठेकेदारी का क्या होगा!
तो मत किसी से पूछना कभी कि तुम कैसे हो। यही पूछना कि पहचान पाए अभी तक उसको या नहीं जो कभी नहीं बदलता? और ऐसे लोगों की संख्या बढ़ानी है दुनिया में जो कभी नहीं बदलते। वे ही नमक हैं इस जमीन के। वे ही सारभूत हैं। उनका होना ही सार्थक है। उन्होंने ही अस्तित्व के ऋण को चुका दिया है जिन्होंने अस्तित्व को पहचान लिया है।
कोई भी प्रश्न हों...सभी प्रश्न नासमझी के होते हैं, इसलिए झिझक न करना। समझदारी का तो कोई प्रश्न होता ही नहीं। लेकिन नासमझी के प्रश्न पूछते-पूछते आदमी समझदार हो जाता है।

प्रश्न:
भगवान, मुझे मार्गदर्शन दीजिए! (हंसी की लहरें...)
भद्रा, थोड़ी तो नासमझी दिखा! (हंसी की लहरें...)

प्रश्न:
यह पूछना है, आपने अभी कहा कि हम नासमझ हैं। आप हमें ऐसा क्यों नहीं कहते कि तुम नासमझ हो? आप हमारे साथ अपने को क्यों बोलेंगे नासमझ? आप कहते हैं: हम नासमझ हैं, हम बेहोश हैं। आप हमें ऐसा कहें--तुम बेहोश हो, तुम नासमझ हो। अभी मौका आया है कि आप हमें भी तुम कह कर बुला सकते हो।
मैं समझा। मैं जान कर ही कहता हूं कि हम नासमझ हैं। क्योंकि जैसे ही मैं अपने को तुमसे अलग करता हूं, तुम्हारा दुश्मन हो जाता हूं। और अभी जहर पीने की जल्दी नहीं है। और पागलों के बीच बेहतर है कि अपने को भी पागल समझूं। मेरा धंधा थोड़ा कठिन धंधा है। यह अंधों की दुनिया में चश्मे बेचने का धंधा है। और अंधों से यह कहना कि मेरे पास आंखें हैं और तुम अंधे हो, खतरनाक है। अंधों की भीड़ है--अंधाधुंध भीड़ है! और कोई अंधा आदमी यह पसंद नहीं करता कि कोई अपने को आंख वाला कहे और उसको अंधा कहे, और जब कि उसका बहुमत है।
वैसा हुआ, साउथ अमरीका के एक छोटे से पहाड़ी इलाके में तीन सौ लोगों का एक कबीला था इसी सदी के प्रारंभ में। यह ऐतिहासिक घटना है। वे तीन सौ ही आदमी अंधे थे। यह बहुत आश्चर्यजनक बात है। बच्चे आंख वाले पैदा होते थे, लेकिन चार महीने के भीतर, छह महीने के भीतर अंधे हो जाते थे। उस इलाके में एक मक्खी है, जिसके काटने से बच्चे अंधे हो जाते हैं। अगर छह महीने तक वह मक्खी बच्चों को न काटे, तो उनकी आंखें बच सकती हैं, फिर वे मजबूत हो जाते हैं। छह महीने तक वे इतने कमजोर होते हैं कि मक्खी उनकी आंखों को नष्ट कर देती है। मगर वह मक्खी इतनी बड़ी तादाद में है उस घाटी में कि कोई बच्चा बच नहीं सकता।
एक वैज्ञानिक ने जब यह खबर सुनी तो वह खोज में गया कि बात क्या है? क्योंकि तीन सौ आदमी पूरे के पूरे अंधे हों, यह अचंभा है। और उसने अध्ययन किया और देखा कि हर बच्चा आंख वाला पैदा होता है, लेकिन जब तक वह आंख वाला होता है तब तक बोल नहीं सकता। और छह महीना लंबा समय है और मक्खी बहुतायत से है--आम, घर-घर में--तो छह महीने के भीतर वह उसे अंधा कर देती है। जब तक वह बोलने योग्य हो पाता है, तब तक अंधा होता है। जब तक आंख होती है, तब तक बोल नहीं सकता। इसलिए उस कबीले को पता ही नहीं है कि आंख जैसी कोई चीज होती है।
इस वैज्ञानिक युवक को भी मक्खी काटती थी, लेकिन यह तो छह महीने से बहुत आगे जा चुका था, इस पर मक्खी के जहर का कोई असर नहीं होता था। और इसने निर्णय किया कि किसी भी तरह इस मक्खी को नष्ट करना है। और वह चकित हुआ देख कर कि ये तीन सौ अंधे लोग बिना आंखों के भी काम चला लेते हैं। छोटी-मोटी खेतीबाड़ी भी कर लेते हैं, अपने भोजन के लायक इंतजाम भी कर लेते हैं--कठिनाई से और मुश्किल से। मगर, अगर यही जिंदगी है तो किया भी क्या जा सकता है? हम सब भी यही कर रहे हैं। कितनी ही मुश्किल हो, और कितनी ही परेशानी हो, और कितनी ही झंझट हो, करें भी तो क्या करें? यही जिंदगी है। और चारों तरफ सभी लोग इसी जिंदगी में जी रहे हैं।
उस मक्खी का अध्ययन करते-करते उस युवक का मन एक अंधी युवती पर आ गया। सुंदर थी, सिर्फ आंखें न थीं। उसने कबीले के प्रमुख से उस युवती से शादी करने की प्रार्थना की। और तुम जानते हो, कबीले के प्रमुख ने क्या कहा? कबीले के प्रमुख ने कहा: पहले तुम यह भ्रम छोड़ दो कि तुम आंख वाले हो। क्योंकि यह बात न कभी देखी, न कभी सुनी। ये झूठी बातें छोड़ दो। विवाह की आज्ञा मिल सकती है, लेकिन एक ही शर्त पर कि हम, जिन्हें तुम आंखें कहते हो, उन्हें फोड़ देंगे। तुम अंधे होने को राजी हो, विवाह हो सकता है। तब तुम हमारी जाति के हो गए। तुम सोच लो। और अगर तुम आंखों वाले ही रहना चाहते हो, तो हमें माफ करो। तुम किसी और दुनिया के आदमी हो, हमारी जाति के नहीं। कल सुबह अपना निर्णय बता देना।
रात भर वह सोचता रहा कि क्या करे--क्या आंखें गंवा दे? मगर इन्हीं आंखों के कारण तो उस स्त्री के सौंदर्य में वह दीवाना हुआ है। यह इन्हीं आंखों की देन तो है कि उसने सौंदर्य को देखा है। इन्हीं आंखों को गंवा दे तो वह स्त्री सुंदर है या कुरूप, क्या फर्क पड़ता है? और सुबह होने के पहले निर्णय करना है। ठीक सूरज ऊगने के पहले वह वहां से भाग खड़ा हुआ, जितनी तेजी से भाग सकता था। कबीला उसका पीछा कर रहा था कि पकड़ो उसे, वह भाग न जाए, क्योंकि वह बाहर जाकर लोगों को यह झूठी खबर देगा कि मैं आंख वाला हूं और दूसरे लोग अंधे हैं।
यह उस वैज्ञानिक ने ही दुनिया को खबर दी। दूसरे वैज्ञानिक गए, धीरे-धीरे मक्खी को समाप्त किया। अब बच्चे वहां भी आंख वाले हैं। वे तीन सौ लोग, जो इस सदी के पहले चरण में अंधे थे, मर चुके, बूढ़े हो चुके, समाप्त हो चुके। अब वह कबीला विलीन हो गया। अब सब आंख वाले हैं।
लेकिन अंधों के बीच यह कहना कि मैं ही अकेला आंख वाला हूं और तुम सब अंधे हो, अशोभनीय है, अशिष्ट है।
तुम्हारी बात मैंने समझी। लेकिन तुम भी मेरी बात समझो। मैं तुम्हारे साथ हूं। तुम सोए हो, तब भी साथ हूं, भला मैं जागा हुआ हूं। आखिर सोए हुए आदमी के साथ जागा हुआ आदमी भी तो बैठा हुआ हो सकता है। और सोए हुए आदमी में और जागे हुए आदमी में फर्क ही क्या होता है? बड़ा जरा सा फर्क होता है कि सोए हुए आदमी की आंख खुल जाए तो वह भी जाग जाए। लेकिन सोए हुए लोगों के बीच रह कर यह बेहतर है कि तुम कम से कम यह ढोंग ही करते रहो कि तुम भी सोए हुए हो। नाहक उन्हें नाराज न करो। उनकी भीड़ है। उनका समाज है। उनकी दुनिया है। तुम अकेले हो। और सवाल इसका नहीं है। सवाल इसका है कि उन्हें जगाना है। इसलिए दुश्मनी पैदा नहीं करनी है, दोस्ती पैदा करनी है। इसलिए नहीं कहता कि तुम अंधे हो। इसलिए कहता हूं कि हम अंधे हैं।
मगर वही कह सकता है कि हम अंधे हैं जिसके पास आंखें हों। अंधा आदमी तो यह भी नहीं कह सकता कि मैं अंधा हूं। तुमने कभी शायद इस पर सोचा भी न हो; या सोचा भी होगा तो गलत सोचा होगा। लोग समझते हैं कि अंधे आदमी को अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देता होगा। तुम गलती में हो। अंधे आदमी को अंधेरा भी दिखाई नहीं देता। अंधेरा देखने के लिए भी आंखें चाहिए। तुम आंख बंद करते हो तो तुम्हें अंधेरा दिखाई देता है, क्योंकि तुम्हारे पास आंख है। रोशनी तुमने देखी है, इसलिए अंधेरा भी दिखाई देता है। अंधे आदमी को कुछ भी दिखाई नहीं देता। उसके पास आंख ही नहीं है। न अंधेरा, न रोशनी। वह सहानुभूति का पात्र है। वह करुणा और प्रेम का पात्र है। उसे आहिस्ता-आहिस्ता जगाना है। उसकी आंखों पर ठंडे पानी के छींटे बहुत आहिस्ता-आहिस्ता फेंकने हैं। उसे नाराज नहीं कर देना है। और फर्क कुछ बड़ा नहीं है। सोया हुआ भी वह वही है जो तुम जागे हुए हो। सिर्फ आंख खुल गई--और दुनिया बदल जाती है।
गौतम बुद्ध के जीवन में उन्होंने अपने पुराने जन्मों की बहुत सी कहानियां कही हैं। उनमें एक कहानी बहुत ही प्रीतिकर है। तब तक वे स्वयं जागे नहीं थे, बुद्ध नहीं हुए थे। लेकिन कोई बुद्ध हो गया था और उन्हें खबर मिली। वे उसके दर्शन को गए। उन्होंने झुक कर उसके चरण छुए, जो कि पूरब की अदभुत देन है! पूरब ने बहुत कुछ दुनिया को दिया है जिसकी कोई कीमत नहीं करता। उस तरह के आदमी को यूनान में जहर दिया जाता, जूदिया में फांसी पर लटकाया जाता, अरब में टुकड़े-टुकड़े करके काट दिया जाता। हिंदुस्तान ने बहुत कुछ दुनिया को दिया है जो अदभुत है। यहां अंधे आदमी को भी इतनी सहनशीलता दी है कि वह आंख वाले के पैर छूने को राजी है। और इसमें अपमान अनुभव नहीं करता, बल्कि गौरव अनुभव करता है। अनुभव करता है कि मैं महा महिमामंडित हूं कि एक आंख वाले आदमी के पैर छूने का मुझे अवसर मिला। नहीं सही मेरी आंखें, मगर कोई आंख वाला था जिसके मैंने पैर तो छुए। यह भी क्या कम है?
बुद्ध ने पैर छुए और जैसे ही वे खड़े हुए तो हैरान हो गए। वह व्यक्ति, वह महापुरुष, जो जाग चुका था, वह झुका और उसने इस सोए हुए आदमी के पैर छुए। बुद्ध ने कहा: आप यह क्या करते हैं? यह कैसा पाप आप मेरे ऊपर थोप रहे हैं? आप जाग्रत हैं, मैं आपके पैर छुऊं, यह मेरा सौभाग्य है। लेकिन आप मेरे पैर छूकर मुझे किस नरक में ढकेल रहे हैं?
उस बुद्ध पुरुष ने कहा था: नरक में नहीं ढकेल रहा हूं। कल तक मैं भी तुम्हारी ही तरह सोया हुआ था, आज जाग गया हूं। आज तुम सोए हुए हो, कल तुम भी जाग जाओगे। मुझमें और तुममें बुनियादी रूप से कोई अंतर नहीं है। जो अंतर है, बहुत ऊपरी है, बहुत मामूली है। वह अंतर मामूली है, यही बताने के लिए मैं तुम्हारे पैर छू रहा हूं। मैं तुम्हारे अंधेपन के पैर नहीं छू रहा हूं; मैं तुम्हारे भविष्य के, जब तुम भी जाग जाओगे, उस स्वर्ण दिन के, उस स्वर्ण प्रभात के पैर छू रहा हूं। और इसलिए भी ताकि तुम्हें याद रहे कि जाग कर भूल मत जाना कि सिर्फ अंधे ही तुम्हारे पैर छू सकते हैं। तुम्हें भी उनके पैर छूने हैं। तुम भी उनकी ही जमात के हिस्से हो। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कोई घड़ी भर पहले जाग गया और कोई घड़ी भर बाद जाग गया। इस अनंत काल में घड़ियों में गिनती नहीं होती।
इसलिए मैं ‘हम’ का ही उपयोग जारी रखूंगा।

प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं कि पूरब में ही धर्म फलित होता है। और पश्चिम की भूमि से लोग धर्म की जिज्ञासा के लिए भारत आते हैं। उन्हीं देशों ने आपका स्वागत क्यों नहीं किया? आपको इस तरह तिरस्कृत क्यों किया?
तुम्हारी वजह से। उन्होंने कम से कम छुरे फेंक कर मुझे मार डालने की कोशिश नहीं की, तुमने की! उन्होंने पत्थरों को फेंक कर मेरी सभाओं को विकृत करने की कोशिश नहीं की, तुमने की। और जब अपने ही न समझ सके, तो परायों से इतनी आशा रखनी उचित नहीं है।
फिर, पिछले दो हजार साल से तुम गुलाम हो। तुम्हारी गुलामी और तुम्हारी गरीबी ने पश्चिम को यह खयाल दे दिया है कि तुम किसी कीमत के नहीं हो। तुम जिंदा भी नहीं हो। तुम मुर्दों की एक जमात हो। और जो लोग मुझसे पहले पश्चिम गए--विवेकानंद, रामतीर्थ, योगानंद और दूसरे हिंदू संन्यासी--उनमें से किसी का अपमान पश्चिम में नहीं हुआ। कोई दरवाजे उनके लिए बंद नहीं हुए। क्योंकि उन्होंने झूठ का सहारा लिया। उन्होंने बुद्ध के साथ जीसस की तुलना की, उन्होंने उपनिषद के साथ गीता की तुलना की, गीता के साथ बाइबिल की तुलना की। पश्चिम के लोगों को और भी गौरवमंडित किया। गुलाम तुम थे, गरीब तुम थे। तुम्हारे संन्यासियों ने तुम्हें आध्यात्मिक रूप से भी दरिद्र साबित किया। क्योंकि उन्होंने तुम्हारी ऊंचाइयों को भी पश्चिम की साधारण नीचाइयों तक खींच कर खड़ा कर दिया।
मेरी स्थिति एकदम अलग थी। मैंने पश्चिम से कहा कि भारत आज गरीब है, हमेशा गरीब नहीं था। एक दिन था कि सोने की चिड़िया था। और भारत ने जो ऊंचाइयां पाई हैं, उनके तुमने सपने भी नहीं देखे। और तुम जिसको धर्म कहते हो, उसको भारत की ऊंचाइयों के समक्ष धर्म भी नहीं कहा जा सकता। जीसस मांसाहारी हैं, शराब पीते हैं। भारत का कोई धर्म यह स्वीकार नहीं कर सकता कि उसका परम श्रेष्ठ पुरुष मांसाहारी हो, शराब पीता हो; जिसमें इतनी भी करुणा न हो कि अपने खाने के लिए जीवन को बर्बाद करता हो; जो अपने भोजन के लिए इतना अनादर करता हो जीवन का। और जो व्यक्ति शराब पीता हो, उसे ध्यान की ऊंचाइयों को पाने का तो सवाल ही नहीं उठता। शराब तो दुखी लोग पीते हैं, परेशान लोग पीते हैं, तनाव से भरे हुए लोग पीते हैं। क्योंकि शराब का गुण, तुम जिस हालत में हो, उसे भुला देने का है। अगर तुम परेशान हो, पीड़ित हो, दुखी हो, शराब पीकर थोड़ी देर को तुम भूल जाते हो। दूसरे दिन फिर दुख वापस खड़े हो जाएंगे। शराब दुखों को मिटाती नहीं, सिर्फ भुलाती है। ध्यान दुखों को मिटाता है, भुलाता नहीं। और ध्यान और शराब विरोधी हैं। ईसाइयत में ध्यान के लिए कोई जगह नहीं है।
लेकिन तुम्हारे विवेकानंद और योगानंद और रामतीर्थ, सिर्फ प्रशंसा पाने के लिए पश्चिम की, यह समझाने की कोशिश करते रहे कि जीसस उसी कोटि में आते हैं, जिसमें बुद्ध आते हैं, जिसमें महावीर आते हैं। यह झूठ था। और चूंकि मैंने वही कहा जो सच था, स्वभावतः मेरे लिए द्वार पर द्वार बंद होते चले गए। मैं नहीं स्वीकार करता हूं कि जीसस के कोई भी वचनों में वैसी ऊंचाई है जो उपनिषद में है या उनके जीवन में कोई ऐसी खूबी है जो बुद्ध के जीवन में है। उनकी खूबियां साधारण हैं। कोई आदमी पानी पर चल भी सके तो ज्यादा से ज्यादा जादूगर हो सकता है। और पहली तो बात यह है कि वे कभी पानी पर चले, इसका कोई उल्लेख सिवाय ईसाइयों की खुद की किताब को छोड़ कर किसी और किताब में नहीं है। अगर जीसस पानी पर चले तो इसमें कौन सा अध्यात्म है? पहली बात तो चले नहीं। अगर चले हों तो पोप को कम से कम किसी स्वीमिंग पूल पर ही चल कर बता देना चाहिए। स्वीमिंग पूल भी छोड़ो, बाथ-टब। उतना भी प्रमाण काफी होगा, क्योंकि वे प्रतिनिधि हैं और इनफालिबल--उनसे कोई भूल नहीं होती। और अगर कोई आदमी पानी पर चला भी हो तो इससे अध्यात्म का क्या संबंध है?
रामकृष्ण के पास एक आदमी पहुंचा। वह एक पुराना योगी था। रामकृष्ण से उम्र में ज्यादा था। रामकृष्ण गंगा के तट पर बैठे थे और उस आदमी ने आकर कहा कि मैंने सुना है तुम्हें लोग पूजते हैं। लेकिन अगर सच में तुम्हारे जीवन में अध्यात्म है तो आओ, मेरे साथ गंगा पर चलो।
रामकृष्ण ने कहा: थके-मांदे हो, थोड़ा बैठ जाओ, फिर चल लेंगे। अभी कहीं जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। और तब तक कुछ थोड़ा परिचय भी हो ले। परिचय भी नहीं है। पानी पर चलने में तुम्हें कितना समय लगा सीखने में?
उस आदमी ने कहा: अठारह वर्ष।
रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा: मैं तो पानी पर नहीं चला। क्योंकि दो पैसे में गंगा पार कर जाता हूं। दो पैसे का काम अठारह वर्ष में सीखना मैं मूर्खता समझता हूं, अध्यात्म नहीं। और इसमें कौन सा अध्यात्म है कि तुम पानी पर चल लेते हो? इससे तुमने जीवन का कौन सा रहस्य पा लिया है?
एक घटना मुझे स्मरण आती है, जो तुम्हें फर्क को समझाएगी। जीसस के संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने एक मुर्दे आदमी को जिंदा किया। जरा सोचने की बात है कि आदमी रोज मरते हैं। एक को ही जिंदा किया! जो आदमी मुर्दों को जिंदा कर सकता था, यह थोड़ा आश्चर्यजनक है कि उसने एक को ही जिंदा किया और वह भी उसका अपना मित्र था--लजारस। मामला बिलकुल बनाया हुआ है! लजारस एक गुफा में लेटा हुआ है। और जीसस बाहर आकर आवाज देते हैं: लजारस, उठो! मृत्यु से बाहर जीवन में आओ! और लजारस तत्काल गुफा के बाहर आ जाते हैं। अब बहुत सी बातें विचारणीय हैं। पहली तो बात, यह आदमी जीसस का बचपन का मित्र था। दूसरी बात, जो आदमी मर जाने के बाद वापस लौटा हो, उसके जीवन में कोई क्रांति घटनी चाहिए। लजारस के जीवन में कोई क्रांति नहीं घटी। इस घटना के अलावा लजारस के बाबत कहीं कोई उल्लेख नहीं है। क्या तुम सोचते हो एक आदमी मर जाए, मृत्यु के पार के जगत को देख कर वापस लौटे और वैसा का ही वैसा बना रहे? और जब एक आदमी को जीसस जिंदा कर सकते थे तो फिर किसी को भी मरने की जूदिया में जरूरत क्या थी?
इस घटना को मैं इसलिए ले रहा हूं कि ठीक ऐसी ही घटना बुद्ध के जीवन में घटी। वे एक गांव में आए हैं, वहां एक स्त्री का इकलौता बेटा--उसका पति मर चुका है, उसके अन्य बच्चे मर चुके हैं--एक बेटा, जिसके सहारे वह जी रही है, वह भी मर गया। तुम सोच सकते हो उसकी स्थिति? वह बिलकुल पागल हो उठी। गांव के लोगों ने कहा कि पागल होने से कुछ भी न होगा। बुद्ध का आगमन हुआ है। ले चलो अपने बेटे को, रख दो बुद्ध के चरणों में और कहो उनसे कि तुम तो परम ज्ञानी हो, जिला दो इसे। मेरा सब कुछ छिन गया। इसी एक बेटे के सहारे मैं जी रही थी, अब यह भी छिन गया। अब तो मेरे जीवन में कुछ भी न बचा।
बुद्ध ने उस स्त्री से कहा: निश्चित ही तुम्हारे बेटे को मैं सांझ तक जिला दूंगा। लेकिन उसके पहले तुम्हें एक शर्त पूरी करनी पड़ेगी। तुम अपने गांव में जाओ और किसी घर से थोड़े से तिल के बीज ले आओ--ऐसे घर से जहां कोई मरा न हो। बस वे बीज तुम ले आओ, मैं तुम्हारे बेटे को जिला दूंगा।
वह पागल औरत, स्वभावतः पागल होने की स्थिति में थी, भागी। इस घर में गई, उस घर में गई। लोगों ने कहा: तुम कहती हो एक मुट्ठी बीज, हम बैलगाड़ियां भर कर तिल के ढेर लगा सकते हैं। मगर हमारे बीज काम न आएंगे। हमारे घर में तो न मालूम कितने लोगों की मृत्यु हो चुकी है। सांझ होते-होते सारे गांव ने उसे एक ही जवाब दिया कि हमारे बीज तुम जितने चाहो उतने ले लो, लेकिन ये बीज काम न आएंगे। बुद्ध ने बड़ी उलटी शर्त लगा दी। ऐसा कौन सा घर है जिसमें कोई मरा न हो!
दिन भर का अनुभव उस स्त्री के जीवन में क्रांति बन गया, वह वापस आई, उसने बुद्ध के चरणों को छुआ और कहा कि भूलें, छोड़ें इस बात को कि लड़का मर गया। यहां जो भी आया है उसको मरना पड़ेगा। तुमने मुझे ठीक शिक्षा दे दी। अब मैं तुमसे यह चाहती हूं कि इसके पहले मैं मरूं, मैं जानना चाहती हूं वह कौन है मेरे भीतर जो जीवन है। मुझे दीक्षा दो।
जो लड़के की जिंदगी मांगने आई थी, वह अपने जीवन से परिचित होने की प्रार्थना लेकर खड़ी हो गई। वह संन्यासिनी हो गई, और बुद्ध के जो शिष्य परम-अवस्था को उपलब्ध हुए, उनमें अग्रणी थी। इसको मैं क्रांति कहता हूं। बुद्ध अगर उस लड़के को जिंदा भी कर देते तो भी क्या था? एक दिन तो वह मरता ही। लजारस भी एक दिन मरा होगा। लेकिन बुद्ध ने उस स्थिति का एक आध्यात्मिक रुख, एक नया आयाम ले लिया।
हम हर चीज को ऊपरी और बाहरी तल से देखने के आदी नहीं हैं। मैं मानता हूं, बुद्ध ने जो किया वह महान है और जो जीसस ने किया वह साधारण है, उसका कोई मूल्य नहीं है। मेरी इन बातों ने पश्चिम को घबड़ा दिया। घबड़ा देने का कारण यह था कि पश्चिम आदी हो गया है एक बात का कि पूरब गरीब है, भेजो ईसाई मिशनरी और गरीबों को ईसाई बना लो। और करोड़ों लोग ईसाई बन रहे हैं। लेकिन जो लोग ईसाई बन रहे हैं पूरब में, वे सब गरीब हैं, भिखारी हैं, अनाथ हैं, आदिवासी हैं, भूखे हैं, नंगे हैं। उन्हें धर्म से कोई संबंध नहीं है। उन्हें स्कूल चाहिए, अस्पताल चाहिए, दवाइयां चाहिए; उनके बच्चों के लिए शिक्षा चाहिए, कपड़े चाहिए, भोजन चाहिए। ईसाइयत कपड़े और रोटी से उनका धर्म खरीद रही है।
मुझे दुश्मन की तरह देखने का कारण यह था कि मैंने कोई पश्चिम के गरीब को या अनाथ को या भिखमंगे को...और वहां कोई भिखमंगों की कमी नहीं है, सिर्फ अमरीका में तीस मिलियन भिखारी हैं। जो दुनिया के दूसरे भिखारियों को ईसाई बनाने में लगे हैं, वे अपने भिखारियों के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे ईसाई हैं ही। मैंने जिन लोगों को प्रभावित किया, उनमें प्रोफेसर्स थे, लेखक थे, कवि थे, चित्रकार थे, मूर्तिकार थे, वैज्ञानिक थे, आर्किटेक्ट थे, प्रतिभा-संपन्न लोग थे। और यह बात घबड़ाहट की थी कि अगर देश के प्रतिभा-संपन्न लोग मुझसे प्रभावित हो रहे हैं, तो यह एक बड़े खतरे की सूचना है। क्योंकि यही लोग हैं जो रास्ता तय करते हैं दूसरे लोगों के लिए। इनको देख कर दूसरे लोग उन रास्तों पर चलते हैं। इनके पद-चिह्न दूसरों को भी इन्हीं रास्तों पर ले जाएंगे।
और मैंने किसी को भी नहीं कहा कि तुम अपना धर्म छोड़ दो। मैंने किसी को भी नहीं कहा कि तुम कोई नया धर्म स्वीकार कर लो। मैंने तो सिर्फ इतना ही कहा कि तुम समझने की कोशिश करो--क्या धर्म है और क्या अधर्म है। फिर तुम्हारी मर्जी। तुम बुद्धिमान हो और विचारशील हो।
मेरा एक ही जुर्म है और एक ही अपराध है कि मैंने उन देशों में पहली बार यह जिज्ञासा पैदा की कि जिस पूरब के लोगों को हम ईसाई बनाने के लिए हजारों मिशनरियों को भेज रहे हैं, उस पूरब ने आकाश की बहुत ऊंचाइयां छुई हैं। हम अभी जमीन पर भी घसिटने के योग्य नहीं हैं। उन ऊंचाइयों के सामने उनकी बाइबिल, उनके प्रोफेट, उनके मसीहा बहुत बचकाने, बहुत अदना, अप्रौढ़, अपरिपक्व सिद्ध होते हैं। इससे एक घबड़ाहट और एक बेचैनी पैदा हो गई।
मेरी एक भी बात का जवाब पश्चिम में नहीं है। मैं तैयार था प्रेसिडेंट रोनाल्ड रीगन से व्हाइट हाउस में डिस्कस करने को खुले मंच पर, क्योंकि वे फंडामेंटलिस्ट ईसाई हैं। वे मानते हैं कि ईसाई धर्म ही एकमात्र धर्म है, बाकी सब धर्म थोथे हैं। पोप को मैंने कई बार निमंत्रण दिया कि मैं वेटिकन आने को तैयार हूं, तुम्हारे लोगों के बीच तुम्हारे धर्म के संबंध में चर्चा करना चाहता हूं। और तुम्हें चेतावनी देना चाहता हूं कि जिसे तुम धर्म कह रहे हो, वह धर्म नहीं है; और जो धर्म है, तुम्हें उसका पता भी नहीं है। स्वभावतः मैं उन्हें दुश्मन जैसा लगा।
एक अकेला आदमी कभी भी सारी दुनिया में इस बुरी तरह दुश्मन पैदा करने में समर्थ नहीं हुआ है। हर देश की पार्लियामेंट ने निश्चित किया हुआ है कि मैं उनके देश में प्रवेश न कर सकूं। क्योंकि मैं खतरनाक आदमी हूं, मैं उनकी नैतिकता को नष्ट कर दूंगा, उनके धर्म को नष्ट कर दूंगा।
दो सप्ताह के लिए एक टूरिस्ट तुम्हारे धर्म को नष्ट कर सकता है, दो हजार साल की तुम्हारी मेहनत को, तो वह मेहनत बचाने योग्य नहीं है, उसे नष्ट हो जाने दो।

प्रश्न:
भगवान, इस देश में बहुत से झूठे धर्म पैदा हो रहे हैं, जिनसे अधर्म फैल रहा है। ऐसे समय में हमारा क्या कर्तव्य है? कृपया मार्गदर्शन दें।
जिनके पास भी सोचने की थोड़ी भी समझ है, जिनके पास भी देखने की जरा सी आंख है, उनको मुझे बताना नहीं पड़ेगा कि उनका कर्तव्य क्या है। उनका कर्तव्य है इस देश में फैलते हुए झूठे धर्म को रोकना--एक। दो, इस देश के वास्तविक धर्म को पुनः फूल की तरह खिला देना। यह सच है कि जिस तरह मेरे दुश्मनों की संख्या बढ़ी है, उसी तरह मेरे दोस्तों की संख्या भी बढ़ी है। प्रकृति में एक संतुलन है। और दुश्मन नासमझी के कारण दुश्मन हैं, इसलिए उनसे डरने की कोई जरूरत नहीं है। दोस्त समझदारी के कारण दोस्त है, इसलिए दस दुश्मन के मुकाबले एक दोस्त ज्यादा कीमती है। उन दुश्मनों को हम जीत लेंगे, क्योंकि उन दुश्मनों के पास कुछ भी नहीं है। उनके भीतर एकदम खालीपन है, अर्थहीनता है। न कोई शांति है, न कोई आनंद है।
तुम्हारा कर्तव्य यही है कि इस देश ने जो हजारों वर्षों में अर्जित किया है, उसे कहीं तुम ही न भूल जाओ। अन्यथा तुम कैसे दुनिया को याद दिलाओगे? और तुम भूल रहे हो। तुम्हारे पंडितों, तुम्हारे पुजारियों, तुम्हारे स्वामियों को कोई चिंता नहीं है। उनको फिकर है सिर्फ उनके पेशे और उनके धंधे के चलने की। उन्हें इस विराट संसार और पृथ्वी पर जो आंदोलन हो रहे हैं, उनका कोई बोध नहीं है। वे इस देश में भी अपने धर्म को बचाने में समर्थ नहीं हैं।
ईसाइयत इस देश में आज तीसरा बड़ा धर्म हो गया है। आज नहीं कल ईसाइयत अलग मुल्क की मांग पैदा करेगा। और अगर मुसलमान अलग मांग कर सकते हैं तो ईसाइयत को भी हक है। वह नंबर तीन है। और उनकी संख्या रोज बढ़ रही है। और उनकी संख्या के बढ़ने के ढंग ऐसे हैं कि तुम समझ भी नहीं पा रहे हो। वे आकर लोगों को समझा रहे हैं कि बर्थ-कंट्रोल धर्म के खिलाफ है। और तुम्हें पता नहीं कि बर्थ-कंट्रोल अगर धर्म के खिलाफ है तो तुम गरीब से गरीब होते जाओगे। और जितनी गरीबी बढ़ेगी, उतनी ईसाइयत बढ़ेगी। जितने अनाथ होंगे, उतनी ज्यादा मदर टेरेसा होंगी।
तुम्हें सोचने की जरूरत है कि वह धर्म की आड़ में ईसाइयत को फैलाने का जो बड़ा जाल चल रहा है, उसे रोकना तुम्हारे हाथ में है। तुम्हारे बच्चे ईसाई होंगे, क्योंकि भूखे मरते बच्चों को सिवाय ईसाई होने के और कोई रास्ता न रह जाएगा। लेकिन अगर तुमसे कहा जाए कि संतति-नियमन करो, तो तत्क्षण तुम्हारे पंडित और तुम्हारे शंकराचार्य भी इसका विरोध करते हैं बिना सोचे-समझे कि वे जो कर रहे हैं, वे ईसाइयों के हाथ में खेल खेल रहे हैं--अनजाने, अंधे आदमियों की तरह।
पश्चिम के मुल्कों में--फ्रांस या स्वीडन--उनकी संख्याएं स्थिर हो गई हैं। वहां नये बच्चे और पैदा नहीं हो रहे। या उतने ही पैदा हो रहे हैं, जितने पुराने लोग मर रहे हैं। तो उनकी आर्थिक स्थिति रोज ऊंची होती चली जाती है और तुम्हारी आर्थिक स्थिति रोज नीचे गिरती चली जाती है।
मुसलमानों ने दुनिया को बंदूक और तलवार की नोक पर मुसलमान बनाया था। ईसाइयत ज्यादा होशियार है। वह न तो तलवार लाती है, न बंदूक लाती है। वह एक हाथ में रोटी लाती है और एक हाथ में बाइबिल लाती है। और भूखा यह नहीं देखता कि रोटी के साथ बाइबिल भी जुड़ी है।
अगर इस देश को अधर्म से बचाना है, तो पहला काम है कि इस देश की संख्या की बढ़ती हुई स्थिति को रोकने की हर चेष्टा की जाए। न तो सुनो तुम्हारे पंडितों को, न तुम्हारे शंकराचार्यों को। न सुनो पोप को और न मदर टेरेसा को। लेकिन बड़ा आश्चर्य है! उनको नोबल प्राइज दी जाएगी, डाक्ट्रेट दी जाएंगी, पद्मश्री की उपाधियां दी जाएंगी, भारत-रत्न बनाया जाएगा। और उनका सारा जहर एक ही बात पर निर्भर है कि वे तुम्हें समझाएं कि बच्चे पैदा करना...। उन्हें स्वीडन जाकर समझाना चाहिए, जहां बच्चे पैदा करना बंद हो गया है; जहां की सरकार हर नये बच्चे के लिए सहूलियतें देने को तैयार है। क्योंकि उन्हें डर है कि उनकी संख्या गिर रही है, कहीं ऐसा न हो कि उनकी संख्या बहुत ज्यादा गिर जाए और वे कमजोर हो जाएं। आश्चर्य की बात है, मदर टेरेसा कलकत्ता में बैठी हैं, इनको स्वीडन जाना चाहिए। नहीं, लेकिन स्वीडन जाने से क्या फायदा? वहां सब ईसाई हैं। कलकत्ता में रहने की जरूरत है, क्योंकि वहां अनाथ बच्चे हैं जिनको कि ईसाई बनाना है; और और अनाथ पैदा हो सकें, इसके लिए तुम्हें समझाना है।
तो पहला काम है कि इस देश की संख्या रोकी जाए। दूसरा काम है कि इस देश ने अपनी ऊंचाइयों के दिनों में जो महान उड़ानें भरी थीं--उनका कोई संबंध हिंदू से नहीं है, न जैन से है, न बौद्ध से है, उनका संबंध मनुष्य के स्वत्व से है, उसके सत्य से है--उन ऊंचाइयों को फिर से मौका दिया जाए। तुम्हारे स्कूलों में ध्यान की कोई व्यवस्था नहीं है, जो कि अविश्वसनीय है। सारे ईसाई स्कूलों में ईसाई धर्म की शिक्षा की व्यवस्था है। तुम्हारे स्कूलों में धर्म की या योग की कोई व्यवस्था नहीं है। तुम अब भी उसी तरह की फैक्टरियां चला रहे हो यूनिवर्सिटी के नाम से जो ब्रिटेन ने स्थापित की थीं--जिन फैक्टरियों से केवल क्लर्क पैदा होते हैं, और कुछ भी नहीं। तुम्हें वे लोग पैदा करने पड़ेंगे जिनकी ज्योति से दुनिया को यह अनुभव हो सके कि अध्यात्म के अतिरिक्त जीवन की कोई उपलब्धि उपलब्धि नहीं है।
और तुम्हें हिम्मत करके लड़ना भी सीखना पड़ेगा। लड़ने का मतलब कोई बंदूकें लेकर लड़ना नहीं है। जब मैं अमरीका की जेल में था तो सारी दुनिया से विरोध के पत्र, तार, टेलीग्राम, टेलीफोन, टेलेक्स हजारों की संख्या में पहुंचे, सिर्फ भारत से नहीं। दुनिया के अनेक महत्वपूर्ण लोगों ने--उनमें संगीतज्ञ हैं, कवि हैं, नृत्यकार हैं, अभिनेता हैं, डायरेक्टर हैं--अमरीका की गवर्नमेंट पर दबाव डाला कि मेरे साथ जो किया जा रहा है वह अन्याय है। लेकिन भारत की सरकार बिलकुल चुप रही। भारत का एंबेसेडर अमरीका के प्रेसीडेंट से जाकर नहीं मिला कि एक भारतीय के ऊपर अन्याय नहीं होना चाहिए। और तुमने कोई फिकर न की कि तुम दिल्ली की सरकार पर जोर डालते। यह पार्लियामेंट है या नपुंसकों की जमात है? इन हिजड़ों को बाहर करो!
उलटा, जिस दिन मैं जेल से छूट गया, उस दिन भारतीय एंबेसेडर का आदमी मेरे पास पहुंचा--कि हम आपकी क्या सहायता कर सकते हैं?
मैंने कहा: तुम और मेरी सहायता करोगे? अब मैं जब जेल से छूट गया हूं! बारह दिन तक तुम कहां थे? तुम्हारा एंबेसेडर कहां था? तुम्हारी गवर्नमेंट कहां थी? मुझे तुम्हारी किसी सहायता की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें और तुम्हारी सरकार को मेरी कोई सहायता की जरूरत हो तो मुझको खबर करना।
और जब मैं भारत आया तो अमरीकी एंबेसेडर ने भारत की सरकार पर जोर डाला कि मैं भारत में रह सकता हूं--दो शर्तों पर। एक, कि मेरा पासपोर्ट छीन लिया जाए, ताकि मैं भारत के बाहर न जा सकूं। दूसरा, कि किसी गैर-भारतीय को, विशेषकर पत्रकारों को मेरे पास न पहुंचने दिया जाए। और भारत की सरकार ने दोनों शर्तें मंजूर कर लीं। इन शर्तों की मंजूरी के कारण मुझे तत्काल भारत वापस छोड़ देना पड़ा। क्योंकि इन शर्तों के रहते अमरीका का जेल हुआ या भारत का जेल हुआ बराबर हो गया।
तुम्हें सजग होना पड़ेगा। मैं बार-बार दुनिया के चक्कर पर जाऊंगा। और बार-बार हर मुल्क की जेल मुझे देखनी ही है। और तुम्हें दिखाना है कि सत्य को बोलना इस दुनिया में सबसे बड़ा पाप है। और धर्म की बात करना इस दुनिया में सबसे बड़ी खतरनाक स्थिति में प्रवेश करना है। तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम अपनी सरकार को हिजड़ों की सरकार न रहने दो। इस सरकार पर दबाव होना चाहिए।
लेकिन इस सरकार पर उलटे दबाव हैं। उस पर दबाव अमरीका का है।
मैं अभी वापस भारत आया हूं। मेरे पास कोई लगेज नहीं। फिर भी मुझे तीन घंटे एयरपोर्ट पर बिठा रखा गया। मैंने उस आफिसर को कहा भी कि तुम यहां लिखे हुए हो एयरपोर्ट पर--वेलकम टु इंडिया। मैं भारत का हूं। मुझे किसलिए तीन घंटे यहां बिठाल रखा गया है? क्या कारण है? मेरे पास कोई लगेज नहीं है। जिनके पास लगेज है, उनको मैं पीछे छोड़ रहा हूं।
लेकिन उन्होंने कहा: माफ करिए, हम क्या करें? ऊपर से जैसी आज्ञा है, हम वैसा कर रहे हैं।
इन ऊपर की आज्ञाओं को तोड़ना होगा। ये कौन हैं जो ऊपर हैं? ये तुम्हारे नौकर हैं। ये भिखमंगे हैं जिन्होंने तुमसे वोट मांगी और आज तुम्हारे ऊपर हैं। और अकारण...उन आफिसरों ने तीन घंटे के बाद मुझसे क्षमा मांगी। मैंने कहा: तुम्हारी क्षमा का सवाल नहीं है। तुम्हारी सरकार को क्षमा मांगनी चाहिए। मेरे तीन घंटे तुम्हें खराब करने का क्या हक है? अगर कोई कारण होता तो ठीक था। लेकिन कोई भी कारण नहीं है और तुम मुझे तीन घंटे व्यर्थ यहां बिठा रखे हो।
मैं भारत वापस आया हूं सिर्फ इसलिए ताकि मैं भारत की जनता को यह आगाह कर सकूं कि अब दुबारा जब मैं वापस दुनिया के दौरे पर जाता हूं--और जगह-जगह मेरे लिए मुश्किल होगी--तो तुम कम से कम भारत की सरकार पर दबाव डालना कि अगर तुम एक भारतीय की भी, जो कि बिलकुल ही निर्दोष है...।
अभी दो दिन पहले अमरीका के अटर्नी जनरल ने, सब से बड़े कानूनविद ने, पत्रकारों को जवाब देते हुए उत्तर में कहा कि हम भगवान को जेल में बंद नहीं कर सके, क्योंकि उनके ऊपर कोई जुर्म नहीं है। लेकिन फिर भी उन्होंने साठ लाख रुपया मेरे ऊपर फाइन किया है। भारत की सरकार को पूछना चाहिए कि अगर मेरे ऊपर कोई जुर्म नहीं है तो साठ लाख रुपया किस तरह मुझ पर फाइन किया गया है? किस बात के लिए फाइन किया गया है? मुझे पांच साल के लिए अमरीका में प्रवेश बंद किया है, वह किस आधार पर किया है? और दस साल तक, अगर अमरीका में मैं कोई छोटा-मोटा जुर्म भी करूं, तो उसकी सजा दस साल कैद होगी और अदालत में मैं कोई मुकदमा नहीं लड़ सकूंगा। और अमरीका का सब से बड़ा कानूनविद, प्रेसिडेंट का अटर्नी जनरल, अपने उत्तर में कहता है कि वे मुझे जेल में नहीं रख सके, क्योंकि उनके पास मेरे खिलाफ कोई भी सबूत नहीं है और मैंने कोई जुर्म नहीं किया है।
दूसरी बात उन्होंने कही कि हम, भगवान ने जो कम्यून अमरीका में स्थापित किया था, उसे नष्ट करना चाहते थे। और वह भगवान की मौजूदगी में रहते नष्ट नहीं हो सकता था, इसलिए भगवान को हटाना पड़ा।
उस कम्यून का क्या जुर्म था?
उस कम्यून का यह जुर्म था कि हमने एक डेजर्ट को, जो वर्षों से डेजर्ट है, एक हरे-भरे उद्यान में परिवर्तित कर दिया था। पांच हजार संन्यासियों ने अपने मकान खुद बनाए थे, अपने रास्ते खुद बनाए थे और यह सिद्ध कर दिया था कि डेजर्ट में भी स्वर्ग को निर्मित किया जा सकता है। यह बात अमरीका के राजनीतिज्ञों को बहुत अखर रही थी। क्योंकि लोग उनसे पूछ रहे थे कि ये बाहर से आए हुए लोग मरुस्थल को स्वर्ग बना सकते हैं, तो तुम अब तक क्या करते रहे हो? इसलिए कम्यून को नष्ट करना जरूरी था। और मेरे रहते वहां कम्यून को नष्ट करना मुश्किल था, क्योंकि पांच हजार संन्यासी यह तय किए हुए बैठे थे कि उनको बिना मारे मुझे अरेस्ट नहीं किया जा सकता।
और तीसरी बात अटर्नी जनरल ने कही है कि हम भगवान को इसलिए जेल में नहीं रख सके कि हम नहीं चाहते कि दुनिया में वे एक पैगंबर बन जाएं। क्योंकि उन्हें जेल होगी तो उनका रुतबा एक शहीद का होगा। उनके संन्यासियों के मन में वही जोश और खरोश पैदा होगा जो कि जीसस के सूली पर चढ़ जाने के बाद पैदा हुआ था। लेकिन उनकी दिली इच्छा यही थी कि वे मुझे मार डालते। मार नहीं सके, क्योंकि सारी दुनिया में विरोध था, सिर्फ भारत को छोड़ कर। भारत में छोटा-मोटा विरोध हुआ। उस छोटे-मोटे विरोध का कोई मूल्य नहीं है। और भारत के विरोध में भारत की सरकार का कोई हाथ नहीं था। क्योंकि भारत की सरकार को फिकर इस बात की ज्यादा है कि अमरीका से न्युक्लियर बम बनाने की तरकीबें और सामान कैसे पाया जाए; इस बात की फिकर नहीं है कि अमरीका को आध्यात्मिक रूप से रूपांतरित कैसे किया जाए।
तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उन लोगों को आने वाले चुनाव में चुनना, जो दुनिया को आध्यात्मिक रूप से परिवर्तित करने की चेष्टा में संलग्न हों, न कि दुनिया को अपंग करने की, एक श्मशान बनाने की, एक मरघट बनाने की चेष्टा करें। तुम्हारी ताकत बड़ी है, क्योंकि मैं अनुभव करता हूं कि अगर मैं अकेला आदमी सारी दुनिया की सरकारों के खिलाफ लड़ सकता हूं, तुम भी लड़ सकते हो। सरकारों की ताकत बड़े नीचे तल की ताकत है।
मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूं। उरुग्वे में, उरुग्वे के प्रेसिडेंट ने, जो कि मेरी किताबों को पढ़ते रहे हैं और मुझ में उत्सुक हैं, मुझे निमंत्रित किया। मैं उरुग्वे में स्थायी रूप से निवास करने के लिए तैयार था। तत्क्षण अमरीका के प्रेसिडेंट ने उरुग्वे के प्रेसिडेंट को धमकी दी कि अगर छत्तीस घंटे के भीतर भगवान उरुग्वे नहीं छोड़ते हैं, तो जितना ऋण तुमने अतीत में हमसे लिया है, वह सब वापस करना होगा। वह तो बिलियंस ऑफ डालर्स, वह उरुग्वे जैसे गरीब देश को लौटाना असंभव है। और अगर तुम नहीं लौटा सकते, तो तुम पर जो रेट ऑफ इंट्रेस्ट है, ब्याज की जो दर है, वह दुगुनी हो जाएगी। दूसरा, छत्तीस घंटे के भीतर अगर उन्हें बाहर नहीं किया जाता है, तो भविष्य के लिए जो हमने तुम्हें बिलियंस ऑफ डालर्स देने का वचन दिया है, वह रद्द हो जाएगा।
प्रेसिडेंट के सेक्रेटरी ने मुझे आकर कहा कि मैंने पहली दफे उरुग्वे के प्रेसिडेंट की आंखों में आंसू देखे। और ये शब्द प्रेसिडेंट ने कहे कि भगवान के आने से कम से कम एक बात तो हुई कि हमारा यह भ्रम टूट गया कि हम स्वतंत्र हैं।
पुराने किस्म का साम्राज्य समाप्त हो गया है, एक नये किस्म का साम्राज्य व्याप्त हो गया है। हर देश को अमरीका धन दे रहा है, जिसको कोई देश लौटा नहीं सकता। वायदे कर रहा है ज्यादा धन देने के, जिनको कोई देश इनकार नहीं कर सकता। यह ज्यादा आसान गुलामी है। दिखती भी नहीं। झंडा भी तुम्हारा तिरंगा फहरता है और भीतर-भीतर तुम्हारी आत्मा पर अमरीकी झंडा गड़ा हुआ है।
इस झंडे को उखाड़ फेंकना है। यह बेहतर है कि हम गरीब हों। यह बेहतर है कि हम मर जाएं और इस दुनिया से भारत का नामोनिशान मिट जाए। मगर यह बेहतर नहीं है कि पैसा हमें खरीद ले और हमारी आत्माओं को खरीद ले। इस देश को अपनी आत्मा को बेचने से बचाना तुम्हारा कर्तव्य है।

धन्यवाद।

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