UPANISHAD

Kathopanishad 11

Eleventh Discourse from the series of 19 discourses - Kathopanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during OCT 06-13 1973.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


द्वितीय वल्ली

पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतसः।
अनुष्ठाय न शोचति विमुक्तश्च विमुच्यते।।एतद्वै तत्‌।।1।।

हन्सः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्‌।
नृषद् वरसदृतसद् व्योमसदब्‌जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत्‌।।2।।

ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति।
मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते।।3।।

अस्य विस्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिनः।
देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते।।एतद्वै तत्‌।।4।।

न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन।
इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ।।5।।

हन्त त इदं प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम्‌।
यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम।।6।।

योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।
स्थाणुमन्ये नुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्‌।।7।।

य एष सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।।
तस्मिंल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन। एतद्वै तत्‌।।8।।

सरल, विशुद्ध ज्ञानस्वरूप अजन्मा परमेश्वर का ग्यारह द्वारों वाला (मनुष्य शरीररूप) नगर है, (इसके रहते हुए ही परमेश्वर का ध्यान आदि) साधन करके (मनुष्य) कभी शोक नहीं करता, अपितु जीवन-मुक्त होकर (मरने के बाद) विदेह हो जाता है। यही है वह (परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था)।।1।।

जो विशुद्ध परमधाम में रहने वाला स्वयंप्रकाश (पुरुषोत्तम) है, (वही) अंतरिक्ष में निवास करने वाला वसु है, घरों में उपस्थित होने वाला अतिथि है, (और) यज्ञ की वेदी पर स्थापित अग्निस्वरूप तथा उसमें आहुति डालने वाला होता है (तथा) समस्त मनुष्यों में रहने वाला, मनुष्यों से श्रेष्ठ देवताओं में रहने वाला, सत्य में रहने वाला (और) आकाश में रहने वाला (है तथा) जलों में नाना रूपों से प्रगट, पृथ्वी में नाना रूपों से प्रगट, सत्कर्मों में प्रगट होने वाला (और) पर्वतों में प्रगट होने वाला, (वही) सबसे बड़ा परम सत्य है, वही सब जगह है।।2।।

(जो) प्राण को ऊपर की ओर उठाता है (और) अपान को नीचे ढकेलता है, शरीर के मध्य (हृदय) में बैठे हुए (उस) सर्वश्रेष्ठ भजनेयोग्य परमात्मा की सभी देवता उपासना करते हैं।।3।।

इस शरीर में स्थित, एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने वाले जीवात्मा के शरीर से निकल जाने पर, यहां (इस शरीर में) शेष ही क्या रहता है? यही है वह (परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था)।।4।।

कोई भी मरणधर्मा प्राणी न तो प्राण से (जीता है, और) न अपान से (ही) जीता है; किंतु जिसमें (प्राण और अपान) ये दोनों आश्रय पाए हुए हैं, (ऐसे किसी) दूसरे से ही (सब) जीते हैं। हे गौतमवंशीय नचिकेता! (वह) रहस्यमय सनातन ब्रह्म (जैसा है) और जीवात्मा मरकर जिस प्रकार से रहता है, यह बात मैं अब तुम्हें फिर से बताऊंगा।।5-6।।

जिसका जैसा कर्म होता है और शास्त्रादि के श्रवण द्वारा जिसको जैसा भाव प्राप्त होता है (उन्हीं के अनुसार) शरीर धारण करने के लिए कितने ही जीवात्मा तो (नाना प्रकार की) योनियों को प्राप्त हो जाते हैं (और) दूसरे (कितने ही) जीवात्मा वृक्ष, लता, पर्वत आदि स्थावर-भाव का अनुसरण करते हैं।।7।।

जो यह (जीवों के कर्मानुसार) नाना प्रकार के भोगों का निर्माण करने वाला परमपुरुष परमेश्वर (प्रलयकाल में सबके) सो जाने पर भी जागता रहता है, वही परम विशुद्ध तत्व है, वही ब्रह्म है, वही अमृत कहलाता है, (तथा) उसी में संपूर्ण लोक आश्रय पाए हुए हैं। उसे कोई भी अतिक्रमण नहीं कर सकता। यही है वह (परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था)।।8।।
उपनिषद के ऋषियों के मन में मनुष्य के शरीर की कोई भी निंदा नहीं है। मनुष्य के शरीर के प्रति बहुत सदभाव है, बहुत श्रद्धा भाव है, क्योंकि मनुष्य का शरीर वस्तुतः मंदिर है। उस परमात्मा का निवास जिसके भीतर है, उसकी निंदा तो कैसे की जा सकती है! परमात्मा जिसके भीतर बसा है, उस परमात्मा के बसने के कारण ही शरीर पवित्र हो जाता है।
उपनिषद की दृष्टि में शरीर अपवित्र नहीं है। साधारणतः धार्मिक लोग--तथाकथित धार्मिक लोग--शरीर के प्रति एक तरह की गहरी निंदा से भरे होते हैं, एक कंडेमनेशन, जैसे शरीर कुछ बुरा है, गर्हित, घृणित। जैसे शरीर के कारण ही जीवन में दुख, पीड़ा और बंधन है। जैसे शरीर ही नर्क का द्वार है।
लेकिन इस तथाकथित धार्मिक दृष्टि के लिए कोई भी आधार नहीं है। और अगर कोई आधार है तो केवल रुग्ण-चित्त मनुष्यों में है।
शरीर आपको बांधे हुए नहीं है। शरीर आपको पकड़े हुए भी नहीं है। शरीर तो आपको पकड़ भी कैसे सकता है! आपने ही शरीर को पकड़ा है। आपने ही शरीर को चुना है। यह आपकी ही वासनाओं और इच्छाओं का मूर्तरूप है।
तो पहले तो इस बात को समझ लें कि जो भी शरीर आपको उपलब्ध हुआ है--मनुष्य का, कि पशु का, कि पक्षी का, कि वृक्ष का, कि पत्थर का; कि स्त्री का, कि पुरुष का; सुंदर या कुरूप; स्वस्थ या बीमार; जैसा भी, जो भी देह आपको उपलब्ध हुई है, यह आपकी ही कामनाओं, आपकी ही वासनाओं और इच्छाओं का मूर्तरूप है। जो आपने चाहा था, वह आपको मिल गया है। लेकिन यह हमें दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि चाह में और पूरे होने में बड़ा फासला है।
एक आदमी बीज बोता है। वर्षों बाद अंकुर निकलता है। वह भूल ही जाता है कि बीज बोया था। आप जानकर चकित होंगे कि सैकड़ों ऐसी जातियां जमीन पर रही हैं, और आज भी अफ्रीका के कुछ कबीले हैं, जो यह नहीं मानते कि बच्चे का जन्म संभोग से होता है। क्योंकि संभोग किए हुए तो महीनों बीत जाते हैं, तब बच्चे का जन्म होता है। तो कई जातियां यह तर्क ही नहीं उठा पाईं कि बच्चे का जन्म संभोग से होता है।
फिर सभी संभोग से जन्म होता भी नहीं। सैकड़ों संभोग में एक संभोग जन्म बनता है। फिर जो संभोग जन्म बनता है वह भी तत्काल नहीं बन जाता, उसमें भी महीनों लग जाते हैं। तो उन जातियों को यह स्मरण ही नहीं आ पाया कि संभोग से जन्म का कोई संबंध है। वे सोचते हैं कि जन्म परमात्मा की कृपा है, या किसी देवता का वरदान है, या किसी गुरु का आशीष है। लेकिन संभोग से उसका कोई संबंध नहीं जोड़ पाते। फासला इतना है।
आदमी के कर्म और आदमी की वासनाओं और इच्छाओं और उनके पूरा होने में तो कई बार बहुत लंबा फासला हो जाता है। आप खुद ही भूल जाते हैं कि यह आपने चाहा था।
मनसविद कहते हैं कि बहुत-सी बीमारियां आप ही बुला लेते हैं। आप उन्हें चाहे हैं कभी, और वह चाह अचेतन में दबी रह गई। फिर धीरे-धीरे शरीर उस बीमारी को पैदा कर लेता है। यह थोड़ी हमें सोचकर कठिनाई होगी, मानने में थोड़ी मुसीबत होगी, क्योंकि बीमारी तो कोई भी चाहता नहीं, इसलिए कौन बीमार होना चाहेगा? उसके बीज कोई क्यों बोएगा? लेकिन बड़े गहरे कारण मनुष्य के जीवन में हैं, बड़ा जटिल जाल है।
एक छोटा बच्चा है। जब भी वह बीमार पड़ता है, तो लोग उसकी चिंता करते हैं, फिक्र करते हैं। जब वह स्वस्थ रहता है, तब उसकी तरफ कोई भी ध्यान नहीं देता। बच्चे के अचेतन में एक बात निश्चित हो जाती है कि बीमार होना भी एक गुण है, तभी लोग उस पर ध्यान देते हैं। और सभी लोग चाहते हैं कि ध्यान दिया जाए। बड़ी गहरी आकांक्षा है कि लोग आप पर ध्यान दें, क्योंकि ध्यान भोजन है। जब कोई आपकी तरफ देखता है, आप प्रफुल्लित होते हैं। जब कोई भी नहीं देखता तो आप उदास हो जाते हैं।
एक छोटा बच्चा धीरे-धीरे अनुभव करता है कि वह जब बीमार होता है, तब जरूर कोई गरिमापूर्ण घटना घट जाती है। पिता ज्यादा प्यार करता है, मां पास बैठती है। बहुत चाहता है वह कि मां पास बैठे, पिता प्यार करे, सब उसकी फिक्र करें, लेकिन कोई उसकी फिक्र नहीं करता। लेकिन जब बीमार होता है, तब उसकी सब इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। बीमारी के साथ एक आकांक्षा जुड़ जाती है।
यह बच्चा जिंदगी में बहुत वर्षों बाद जब भी अनुभव करेगा कि कोई ध्यान नहीं दे रहा, तभी इसकी भीतरी इच्छा प्रबल हो जाएगी कि मैं बीमार पड़ जाऊं। यह चेतन में नहीं होगी, यह गहरे अचेतन, अनकांशस में होगी।
स्त्रियों की तो अधिकतम बीमारियां ध्यान न मिलने की बीमारियां हैं। जब एक स्त्री को कोई प्रेम करता है, तो वह स्वस्थ होती है। और जैसे ही प्रेम विदा होने लगता है, या समाप्त हो जाता है, या क्षीण हो जाता है, वह रुग्ण होने लगती है। उसका रोग यह कह रहा है कि अब उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा।
स्त्रियों की पचास प्रतिशत बीमारियां कामना से, कोई ध्यान दे, उस आकांक्षा से पैदा होती हैं। पति के घर आते ही स्त्री बीमार हो जाती है। जब तक वे घर नहीं, तब तक वह ठीक है। और ऐसा नहीं कि वह कोई झूठा आडंबर रचती है। नहीं, पति को देखते ही बीमार हो जाती है। पति को देखते ही--पति उस पर ध्यान दे, उसके सिर पर हाथ रखे, उसकी फिक्र करे, चिंता करे--यह वासना जगती है। यह वासना भीतर बहुत-सी चीजों को छोड़ देती है अचेतन में। और वह उन स्थितियों में अपने को रख लेती है, जहां पति ध्यान करेगा, उसका विचार करेगा, उसकी सेवा करेगा।
आदमी का मन बहुत गहरे जाल से भरा हुआ है। मनसविद यह आज कहते हैं। लेकिन पूरब के मनोशास्त्री निरंतर यह कहते रहे हैं कि यह बात--हम जो कुछ भी हो जाते हैं, हम जो भी हैं, हमारी ही इच्छाओं का सघन रूप है। इस जन्म में, पिछले जन्म में, और पिछले जन्मों में हमने जो चाहा है, जो इकट्ठा किया है, वह आज पूरा हो गया है।
तो शरीर को घृणा करने का कोई भी कारण नहीं है। यही शरीर आपने मांगा था, यही शरीर आपको उपलब्ध हो गया है।
दूसरी बात ध्यान रखनी जरूरी है कि यह शरीर आपको नहीं पकड़े हुए है। शरीर कैसे आपको पकड़ेगा! आप शरीर को पकड़े हुए हैं। और जिस दिन भी आप शरीर को छोड़ने में समर्थ हो जाएंगे, शरीर विदा हो जाएगा। एक क्षण भी रुकेगा नहीं। एक क्षण को भी भीतर आप शरीर से अपने को पूरा अलग कर लें, शरीर विदा होने लगेगा।
इसलिए संत स्वेच्छा से मर सकते हैं। स्वेच्छा से मरने की कला यही है कि वे उस राज को जानते हैं कि शरीर से कैसे अलग हो जाएं। शायद एक-आध खूंटी शरीर में गड़ाए रखते हैं, ताकि शरीर का कोई उपयोग है, वह पूरा हो ले। जिस दिन भी उन्हें लगता है कि विदा हो जाना है, आखिरी खूंटी भी उखाड़ लेते हैं, नाव छूट जाती है।
इसलिए संत अक्सर अपनी मृत्यु की खबर दे देते हैं कि फलां दिन मैं मर जाऊंगा। यह कोई भविष्य-दर्शन के कारण नहीं, जैसा कि लोग समझते हैं कि संत को भविष्य का पता है। नहीं, संत शरीर से अपने को किसी भी क्षण मुक्त कर सकता है। यह उसकी स्वतंत्रता है। वह जिस दिन चाहे, उस दिन विदा हो सकता है। उसने इस रहस्य को समझ लिया है कि शरीर उसे नहीं पकड़े हुए है, उसने ही शरीर को पकड़ा है। तो जब तक पकड़ना हो, ठीक है। जब छोड़ना हो, तब छोड़ा जा सकता है।
आप यह बात बिलकुल भूल ही गए हैं। आप ऐसा समझते हैं कि जैसे शरीर ने आपको पकड़ा हुआ है। और तब इससे बहुत नासमझियां पैदा होती हैं।
ईसाइयों का एक संप्रदाय था, जिसके फकीर अपने को दिन-रात कोड़े मारते थे, शरीर को कष्ट देने के लिए। क्योंकि शरीर दुश्मन है। और जो जितने ज्यादा कोड़े मारता, उतना बड़ा संत समझा जाता। अगर आज वैसे संत हों, तो हम उनको कहेंगे कि वे मैसोचिस्ट हैं, वे अपने को सताने में रस लेने वाले बीमार लोग हैं। उनको हम पागलखाने में रखेंगे। लेकिन मध्य-सदी में पूरा यूरोप ऐसे संतों से भरा था। वे संत नहीं थे, सिर्फ रुग्ण, बीमार लोग थे।
ऐसे ईसाई फकीर हुए हैं, जो जूते पहनेंगे जिनमें अंदर कीले लगे होंगे; कमर में पट्टे बांधेंगे जिनमें अंदर कीले चुभे होंगे, ताकि शरीर में कीले चुभे रहें और शरीर को पीड़ा दिन-रात, सोते-जागते मिलती रहे। उन्हें लोग बड़ा आदर देते थे।
हम भी उसी तरह के लोगों को आदर देते हैं जो शरीर को सता रहे हैं। कोई भूखा मरकर सता रहा है। कोई धूप में खड़ा होकर सता रहा है। कोई पैर के बल खड़ा है तो बैठता ही नहीं, खड़े होकर सता रहा है। कोई कांटों पर लेटकर सता रहा है। काशी में जाकर देखें, ऐसी बहुत सी प्रदर्शनियां लगी हुई हैं। कुंभ के मेले में चले जाएं, वहां पूरा प्रदर्शन इस सब पागलपन का है।
लेकिन यह शरीर को सताने वाले आदमी के लिए हमारे मन में भी आदर उठता है कि क्या गजब की बात है! कुछ भी नहीं हो रहा है। शरीर को सताने का मतलब केवल इतना ही है कि तुम्हें अभी यह भी पता नहीं चल सका कि शरीर तुम्हें नहीं पकड़े हुए है, तुमने शरीर को पकड़ा है।
यह तो वैसे ही है जैसे कोई उठकर अपनी कार की पिटाई करने लगे, क्योंकि यह कार मुझे कहीं भी ले जाए जा रही है। कार तुम्हें कैसे कहीं ले जाएगी? तुम उसमें पेट्रोल डालते हो, तुम उसकी साज-संवार करते हो, तुम उसका स्टइरिंग सम्हालते हो। तुम्हीं कहीं जाना चाहते हो, इसलिए कार जाती है। हालांकि तुम उसके भीतर बैठे हो, लेकिन कार तुम्हारे पीछे जा रही है। तुम कार के पीछे नहीं जा रहे।
शरीर रथ है, जैसा कि इस उपनिषद में कहा है। एक कार है, उसमें भीतर बैठकर तुम्हीं चला रहे हो। तो अगर तुम पाप की तरफ जाते हो, तो यह मत सोचना कि शरीर ले जा रहा है। यह बहुत नासमझी की बात है। तुम पाप की तरफ जाना चाहते हो, शरीर तुम्हारे साथ चला जाता है। तुम कार को वेश्यालय की तरफ ले जाते हो, कार वेश्यालय चली जाती है। कार को कोई प्रयोजन नहीं कि तुम कहां जा रहे हो। कार का काम चलना है। तुम मंदिर ले जाना चाहते हो, कार मंदिर के द्वार पर रुक जाती है। लेकिन जब वेश्यालय के द्वार पर रुकती है, तो तुम उतरकर कार की पिटाई शुरू कर देते हो। तुम नासमझ हो।
और ऐसा नहीं कि तुम, जिनको बहुत लोगों ने आदर दिया है, ऐसे अनेक लोग इस तरह का काम करते रहे हैं। हाथ काट दिए हैं फकीरों ने, क्योंकि हाथ ने कोई बुराई की। हाथ कैसे बुराई कर सकता है? आंखें फोड़ दी हैं फकीरों ने, क्योंकि आंख ने वासना जगाई। आंख क्या वासना जगाएगी? आंख के भीतर तुम छिपे हो। तुम जहां आंख को ले जाते हो, आंख वहां जाती है। आंख अपने आप चलती नहीं, तुमसे चलती है। दोष तुम करते हो, आंख फोड़कर सजा तुम किसको दे रहे हो?
फकीरों ने जबान काट दी है, जननेंद्रियां काट दी हैं। विक्षिप्तताएं हैं ये। यह तुम समझ ही नहीं पा रहे हो कि शरीर तो सिर्फ यंत्र है। शरीर के पास कोई चेतना नहीं है, चेतना तो तुम हो। इसलिए अगर दोष है तो तुम्हारा, अगर गुण है तो तुम्हारा। अगर नर्क जाओगे तो तुम, अगर स्वर्ग जाओगे तो तुम।
शरीर को दोष देने वाला बिलकुल निर्बुद्धि है। उपनिषद की इस धारणा को समझकर, आप इस सूत्र में प्रवेश करें।
सरल, विशुद्ध ज्ञानस्वरूप अजन्मा परमेश्वर का ग्यारह द्वारों वाला मनुष्य शरीर नगर है, पुर है।
इसलिए हमने मनुष्य को पुरुष कहा है। पुरुष का अर्थ है जिसके भीतर, जिस पुर में परमात्मा बसा है, जिस नगर में छिपा है। पुरुष बड़ा बहुमूल्य शब्द है, पुर से बना है--नगर। और नगर ही कहना चाहिए, घर कहना ठीक नहीं है, क्योंकि घर बड़ी छोटी चीज है। आपका शरीर सच में ही नगर है। और छोटी-मोटी आबादी नहीं है उस नगर की। सात करोड़ जीवकोष्ठ हैं। सात करोड़ जीवित कोष्ठ आपके शरीर को बना रहे हैं। एक विशाल नगर है।
उन कोष्ठों की दृष्टि से अगर हम सोचें, अगर आपके शरीर के एक कोष्ठ को, एक सेल को आपकी ऊंचाई के बराबर बड़ा कर दिया जाए, तो आपका शरीर लंदन के बराबर बड़ा नगर हो जाएगा, उसी अनुपात में। और लंदन में जैसी सड़कें हैं, और लंदन में जैसी नदी बहती है, और लंदन में जैसे तारों का जाल है, टेलीफोन का, टेलीग्राफ का; पुलिस के सिपाही हैं, मिलिटरी है, नगर-निवासी हैं; मालिक हैं, गुलाम हैं; गरीब हैं, अमीर हैं--इन सात सौ करोड़ निवासियों में सारी की सारी ऐसी अवस्था है। इसमें पुलिस के सिपाही हैं। अगर आप चिकित्साशास्त्र से पूछें, तो आप बड़े चकित हो जाएंगे।
शरीर बड़ी अनूठी घटना है। जरा सी चोट लगती है आपको और आप पाते हैं कि थोड़ी ही देर में वहां मवाद इकट्ठी हो गई। आपने कभी सोचा नहीं होगा कि मवाद चोट लगते ही क्यों इकट्ठी होती है? यह मवाद नहीं है, ये आपके खून के सफेद सेल हैं, जो कि शरीर में पुलिस का काम कर रहे हैं, पूरे समय। जहां भी खतरा होता है, उपद्रव होता है, दुर्घटना होती है, भागकर वहां पहुंच जाते हैं। और उस जगह को घेर लेते हैं। क्योंकि उस जगह को घेर लेने के बाद फिर कोई इन्फेक्शन भीतर प्रवेश नहीं कर सकता। और अगर वह जगह खुली रह जाए, तो कोई भी कीटाणु, बैक्टीरिया, कोई भी बीमारियों के वाहक तत्काल भीतर प्रवेश कर सकते हैं। तो आपके खून के सफेद सेल हैं, वे तत्काल भागकर पहुंच जाते हैं और जहां भी घाव लगता है उसको चारों तरफ से घेरकर ढांक देते हैं। उसको आप मवाद कहते हैं। वह मवाद नहीं है, वह आपके शरीर की सुरक्षा का उपाय है।
अब यह बड़ी हैरानी की बात है। चिकित्साशास्त्र समझाने में असमर्थ है कि इन सफेद सेलों को कैसे पता चलता है कि चोट पैर में लगी, कि सिर में लगी, कि हाथ में लगी! और वे पूरे शरीर से भागकर, खून में यात्रा करके वहां पहुंच जाते हैं, तत्काल उस जगह को घेर लेते हैं। अगर आपके शरीर के सफेद सेल कम हो जाएं, तो आप बहुत ज्यादा बीमार पड़ने लगेंगे, क्योंकि आपके सुरक्षा-दल की कमी हो गई। इसलिए सफेद सेल की एक मात्रा आपके शरीर में होनी ही चाहिए। अगर वह न हो तो आपका रेसिस्टेन्स, आपकी बीमारी से लड़ने की ताकत कम हो जाएगी। क्योंकि वे लड़ रहे हैं। उनको आपका कोई भी पता नहीं है।
बड़ा मजा यह है कि इन सात सौ करोड़ सेलों का जो बसा हुआ नगर है, आपका इसको कोई अनुभव ही नहीं है, कि आप भी इसमें हैं। हो भी नहीं सकता। आपसे इनकी कोई मुलाकात भी नहीं होती। वे अपने काम में लगे रहते हैं। कुछ खून बनाने का काम कर रहे हैं, कुछ भोजन को पचाने का काम कर रहे हैं। भोजन आप कर लेते हैं, उसको जीवाणु तोड़ रहे हैं, पचा रहे हैं, रासायनिक द्रव्यों में बदल रहे हैं। खून, मांस बन रहा है। पूरा काम चल रहा है। और सब काम ठीक से विभाजित है।
हिंदुओं ने बहुत पुराने समय में चार वर्णों की कल्पना की थी, करीब-करीब चार वर्णों के सेल शरीर में हैं। उसमें शूद्र सेल हैं, जो सेवा में लगे हैं। उसमें वैश्य सेल हैं, जो चीजों को रूपांतरित करने का व्यवसाय कर रहे हैं। एक चीज को दूसरे में बदलते हैं। एक रासायनिक को हारमोन बनाते हैं, एक हारमोन को कुछ और बनाते हैं। पूरे वक्त व्यवसाय में लगे हैं। उसमें क्षत्रिय हैं, जो पूरे समय रक्षा में लगे हैं। उसमें ब्राह्मण हैं, जो पूरे समय विचार में संलग्न हैं। आपके मस्तिष्क के सब सेल ब्राह्मण सेल हैं।
हिंदुओं ने जो कल्पना की थी कि शूद्र पैर से, और ब्राह्मण सिर से, वह प्रतीक कीमती है। पूरा शरीर विभाजित है। इस बात की बहुत संभावना है कि योगियों के अंतर्दर्शन से भीतर की जो व्यवस्था खयाल में आई हो, उसी व्यवस्था को उन्होंने समाज में लागू किया हो और वर्ण की व्यवस्था प्रचलित हुई हो। इसकी बहुत संभावना है। क्योंकि ये चार वर्णों का खयाल कैसे पैदा हुआ? और यह सिर्फ भारत में पैदा हुआ। भारत के बाहर कहीं भी चार वर्णों का, वर्णों का कोई खयाल पैदा नहीं हुआ। असल में भारत के बाहर शरीर के नगर में प्रवेश की कोई चेष्टा ही नहीं हुई। तो भीतर के गहरे दर्शन से यह समझ में आया होगा। इस दर्शन को ही फैलाकर समाज पर...।
चाहे दुनिया में चार वर्ण माने जाते हों या न माने जाते हों, चार वर्ण होते तो हैं ही। चाहे रूस हो और चाहे अमरीका हो, शूद्र तो होता ही है। शूद्र को रूस में वे प्रोलोतेरियेत कहते हैं, सर्वहारा। नाम बदलने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। कोई है, जो मजदूर का काम करता ही रहता है। चाहे समाज बदले, राज्य की व्यवस्था बदले, अर्थशास्त्र बदले, लेकिन कोई तो वहां शूद्र का काम करता ही रहेगा। लोकतंत्र हो, कि तानाशाही हो, कि किसी तरह का तंत्र हो, कोई तो वहां होगा कि जो क्षत्रिय की तरह छाती पर बैठा ही रहेगा।
और कैसा ही तंत्र हो, ब्राह्मण को सिर से नीचे उतारना असंभव है। उसका कोई उपाय नहीं है। क्योंकि ब्राह्मण सिर है, उसको उतारने का कोई उपाय नहीं। कितनी ही चेष्टा की जाए, ब्राह्मण सदा सिर पर पहुंच जाएगा।
आज रूस में प्रोफेसर की, डाक्टर की, इंजीनियर की, वैज्ञानिक की जो प्रतिष्ठा है, वह किसी और की नहीं है। वे ब्राह्मण हैं। उनका सबका धंधा विद्या है। अमरीका में तो यह डर पैदा होता जा रहा है कि आने वाले सौ वर्षों में वैज्ञानिक इतने ज्यादा शक्तिशाली होते जा रहे हैं कि कहीं वे पूरे राज्यतंत्र पर कब्जा न कर लें, क्योंकि सारी कुंजी उनके हाथ में है।
आज राजनीतिज्ञ बाहर दिखता है ताकत में, लेकिन पीछे वैज्ञानिक ताकत में है। क्योंकि एटम की कुंजी उसके हाथ में है। वह आज नहीं कल, कभी भी छाती पर सवार हो सकता है। और राजनीतिज्ञ भी उसके पास पहुंचता है सलाह-मशविरा लेने। केनेडी जैसे ही अमरीका के राष्ट्रपति हुए, उन्होंने अमरीका में जितने बुद्धिमान लोग थे, उनमें से चुने हुए लोगों को तत्काल बुला लिया--अपने सलाहकार के लिए। बड़े प्रोफेसर, बड़े वैज्ञानिक, बड़े लेखक, बड़े कवि केनेडी ने अपने चारों तरफ इकट्ठे कर लिए। क्योंकि क्षत्रिय की खुद की बुद्धि तो ज्यादा चल नहीं सकती। वह क्षत्रिय सदा ब्राह्मण से सलाह लेता रहा है। ब्राह्मण सामने नहीं होता; वह पीछे होता है। क्षत्रिय सामने होता है, लेकिन ब्राह्मण गहरे में चलाता रहता है।
शरीर के भीतर एक बड़ा नगर है। और यह बड़े नगर का इतना व्यवस्थित काम है, जितना अभी तक किसी नगर का भी नहीं है। इतना व्यवस्थित काम है और सब चुपचाप चलता जाता है, बिलकुल आटोमैटिक है, स्वचालित है। आप सो रहे हैं, तो चल रहा है; आप जग रहे हैं, तो चल रहा है। आप काम कर रहे हैं, तो चल रहा है; आप विश्राम कर रहे हैं, तो चल रहा है। और आपको कोई बाधा भी नहीं है इससे। अपने आप चलता रहता है। कब भोजन पच जाता है, कब खून बन जाता है, कब हड्डी निर्मित होती है, कब मुर्दा सेल बाहर फेंक दिए जाते हैं--आपको कुछ प्रयोजन नहीं। पूरा नगर स्वचालित है।
इस नगर के बीच में आप हैं। यह नगर सम्मानयोग्य है। और इस नगर ने आपको मौका दिया है कि आप चाहें तो नरक की यात्रा कर लें इसके सहारे, और आप चाहें तो स्वर्ग पहुंच जाएं। और आप चाहें तो स्वर्ग और नर्क दोनों से मुक्त होकर मोक्ष की उपलब्धि कर लें। शरीर साधन है।
यह सूत्र कहता है--
सरल, विशुद्ध ज्ञानस्वरूप अजन्मा परमेश्वर का ग्यारह द्वारों वाला मनुष्य शरीररूप नगर है।
पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां और एक मन, ऐसे ग्यारह इसके द्वार हैं।
इसके रहते हुए ही परमेश्वर का ध्यान आदि साधन करके मनुष्य कभी शोक नहीं करता, अपितु जीवन-मुक्त होकर मरने के बाद विदेह हो जाता है। यही है वह परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था।
इसके रहते हुए ही परमेश्वर का ध्यान करके, साधन करके, मनुष्य कभी शोक नहीं करता, अपितु जीवन-मुक्त हो जाता है। और जीवन-मुक्त होकर विदेह हो जाता है। फिर इस नगर की कोई जरूरत नहीं रह जाती, फिर इस यंत्र से मुक्ति हो जाती है।
इस शरीर के यंत्र के दो उपयोग हो सकते हैं। एक है अपने को विस्मरण करने में, वासना उसी का नाम है। एक है अपने को स्मरण करने में, ध्यान उसी का नाम है। या तो आप इस शरीर का उपयोग कर लें इस भांति कि जीवन में क्षुद्र सुखों की खोज में लग जाएं। और सुख है क्या? जहां भी आप थोड़ी देर को अपने को भूल पाते हैं, वहीं आप समझते हैं सुख है।
सुख खुद को भूलने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। एक आदमी शराब पीकर भूल पाता है, तो वह कहता है, बड़ा सुख मिलता है। एक आदमी संगीत सुनकर भूल पाता है, तो कहता है, बड़ा सुख मिलता है। एक आदमी संभोग में भूल पाता है, तो कहता है, बड़ा सुख मिलता है। एक आदमी भोजन में भूल पाता है, तो कहता है, बड़ा सुख मिलता है। एक आदमी सिंहासन पर बैठकर भूल पाता है, तो कहता है, बड़ा सुख मिलता है। हमारी सुख की परिभाषा क्या है? जहां भी हमें अपनी याद नहीं रहती, वहीं हम कहते हैं, सुख मिलता है। और जहां भी हमें अपनी याद आती है, वहीं हम कहते हैं, दुख मिलता है!
असल में जहां भी आपको स्मरण आना शुरू होता है अपना, वहीं पीड़ा सघन होने लगती है। क्योंकि आपको लगता है--क्या कर रहे हैं? कहां हैं? क्यों हैं? यह सब क्या हो रहा है? चिंता पकड़ लेती है। फिर अपने को भुला लेते हैं। कोई अखबार पढ़ने में भुला रहा है। कोई गीता पढ़ने में भुला रहा है। भुलाने के रास्ते अनेक हैं, लेकिन भुलाने की कोशिश चल रही है।
वासना है आत्म-विस्मरण, अपने को भुलाना। और जो अपने को भुला रहा है, वह कैसे आत्मवान हो सकेगा? और जो अपने को भुला रहा है, वह चैतन्य को कैसे उपलब्ध होगा? परमेश्वर बहुत दूर हो जाएगा। जितना ही आप अपने को भूल जाते हैं, उतना ही परमेश्वर दूर है।
इसलिए सभी धर्मों ने शराब का विरोध किया है। विरोध शराब का नहीं है। शराब निर्दोष चीज है, उसका क्या विरोध करना! विरोध है खुद को भूल जाने का। सिर्फ तांत्रिकों ने शराब का विरोध नहीं किया है, पर बात उनकी भी वही है। तांत्रिक कहते हैं, शराब का क्या विरोध करना! शराब पीकर भी होश बनाए रखें, तो कोई हर्ज नहीं है।
तो तांत्रिकों ने उपाय किया है कि शराब पीयो और होश को सम्हालो। धीरे-धीरे शराब की मात्रा बढ़ाते जाओ और होश को भी सम्हालते जाओ। उतनी ही मात्रा बढ़ाओ, जितना होश रहे। फिर बढ़ाते जाओ, बढ़ाते जाओ; फिर जहर भी तांत्रिक पी जाता है, तो भी होश नहीं खोता। फिर तांत्रिक शराब, जहर इनसे कुछ भी असर नहीं होता, तो सांप पाल लेता है। सांप को जीभ पर कटा देता है। उसका भी कोई परिणाम नहीं होता, तब तांत्रिक कहता है कि अब मैं सच में जागा। अब कोई चीज मुझे सुला नहीं सकती।
तो तांत्रिक का भी विरोध शराब से तो है ही। सारी दुनिया का विरोध बेहोशी से है। धार्मिक खोज होश की खोज है; प्रक्रिया अलग है। जैन-साधु है, बौद्ध-साधु है, वह सोच भी नहीं सकता--शराब, जहर। तांत्रिक कहता है, पीयो, लेकिन होश मत खोओ। दोनों एक ही बात कह रहे हैं। वह इसलिए कह रहा है मत पीयो कि कहीं होश न खो जाए। और तांत्रिक कह रहा है, पीकर जांच करते रहो कि पीने से कहीं होश तो नहीं खोता। होश बढ़ता जाए।
और मैं मानता हूं कि अगर तांत्रिक और दूसरे साधुओं को साथ खड़ा कर दिया जाए, तो तांत्रिक का जो होश है, वह किसी दूसरे साधु का नहीं हो सकता। क्योंकि तांत्रिक होश को सम्हाल रहा है विपरीत परिस्थिति में, इसलिए उसके होश की कीमत और ऊंचाई बड़ी गहन है। अगर दुनिया के सब साधु इकट्ठे कर लिए जाएं और उनको शराब पिला दी जाए, तो सिर्फ तांत्रिक भर होश में रहेंगे। बाकी तो सब उपद्रव में पड़ जाएंगे। अगर जहर की वर्षा भी हो जाए, तो तांत्रिक बेहोश होने वाला नहीं है। उसने तो उसके साथ ही होश को साधा है।
इसलिए तंत्र की प्रक्रिया बड़ी दुरूह है। और साधारण आदमी अपने को धोखा दे सकता है, वह सोच सकता है कि हम शराब इसलिए पी रहे हैं कि हम तांत्रिक हैं।
तंत्र ने किसी भी बुराई का विरोध नहीं किया है, कहा है कि हर बुराई में होश को साधा जा सकता है। इसलिए संभोग का कोई विरोध नहीं किया है। संभोग में भी होश सधा रहे, तो संभोग भी ध्यान हो गया। एक बात साफ है कि चाहे विरोध हो धर्मों का और चाहे विरोध न हो, बेहोशी से सबका विरोध है, होश से सबकी सहमति है।
इस शरीर का उपयोग जो होश को साधने के लिए कर लेता है, वह इस शरीर से, इसमें रहते ही मुक्त हो जाता है। जैसे-जैसे होश बढ़ता है, वैसे-वैसे पता चलता है कि मैं अलग हूं, शरीर अलग है। बीच का फासला बड़ा होता जाता है। फिर शरीर को कुछ होता है, तो ऐसा नहीं लगता कि मुझे होता है। ऐसा लगता है कि शरीर को होता है।
आप चले जा रहे हैं और कार खड़खड़ की आवाज करने लगी, तो आप सोचते हैं, इंजन में कुछ खराबी है। आप ऐसा नहीं सोचते कि मुझमें कुछ खराबी है! आप रोकते हैं, गाड़ी की जांच-पड़ताल करते हैं।
आपके शरीर में कुछ गड़बड़ होगी, जब होश सधा होगा तो आपको लगेगा: शरीर में कुछ गड़बड़ है; ऐसा नहीं लगेगा: मुझे, मुझमें कुछ गड़बड़ है। शरीर की चिकित्सा करवा लेंगे, व्यवस्था कर देंगे। लेकिन इससे कुछ पीड़ित और परेशान होने का कहीं भी कोई कारण नहीं है। भूख लगेगी तो लगेगा, शरीर को भूख लगी है, ठीक वैसे ही जैसे पेट्रोल खत्म हो जाएगा कार का तो आप कहेंगे, टंकी खाली है, इसमें पेट्रोल डालना है; लेकिन अपने में पेट्रोल नहीं डालना है।
जैसे-जैसे होश जगता है, वैसे-वैसे सारी क्रियाएं शरीर की हो जाती हैं। सिर्फ एक ही क्रिया आपकी रह जाती है, वह है जागरूकता की क्रिया, ध्यान की क्रिया। इसलिए ध्यान आत्मिक है, शेष सब शारीरिक है। इसलिए जो ध्यान को नहीं साध रहा है, वह सिर्फ शरीर में ही जी रहा है, वह आत्मा में कोई प्रवेश नहीं कर सकता। सिर्फ एक सूत्र है जो आत्मा का है, वह है ध्यान।
यह सूत्र कह रहा है--इसके रहते हुए ही परमेश्वर का ध्यान आदि साधन करके मनुष्य कभी शोक नहीं करता। क्योंकि शोक का कोई कारण नहीं है। दुख का कोई कारण नहीं है। दुख तो होता इसलिए है कि मैं शरीर हूं, ऐसी प्रतीति गहरी हो गई है। दुख मिट जाता है, जैसे ही यह साफ हो जाता है कि मैं शरीर नहीं हूं। और इसी शरीर में व्यक्ति जीवन-मुक्त हो जाता है।
जीवन-मुक्त का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति जिसे ठीक-ठीक प्रतीति हो गई है कि मैं शरीर नहीं हूं। जीवन-मुक्त कुछ देर तक शरीर में रुक सकता है। आप भी शरीर में रुके हैं, जीवन-मुक्त भी कुछ देर शरीर में रुकता है। महावीर को ज्ञान हुआ, फिर वे चालीस वर्ष तक और शरीर में थे। बुद्ध को ज्ञान हुआ, वे भी चालीस वर्ष तक और शरीर में थे। क्यों रुके? आप भी शरीर में रुकते हैं, बुद्ध और महावीर भी शरीर में रुकते हैं। आप रुकते हैं, कुछ वासना पूरी करनी है इसलिए। और बुद्ध और महावीर रुकते हैं कि जो उन्हें मिला है, वह बांट दें। कुछ करुणा पूरी करनी है इसलिए।
जन्मों-जन्मों के बाद एक संपदा उपलब्ध होती है बुद्ध को। अगर उसी वक्त वे शरीर से हट जाएं--चाहें तो हट सकते हैं। बुद्ध ने चाहा भी था। बुद्ध सात दिन तक चुप बैठे रह गए थे ज्ञान के बाद। बड़ी मीठी कथा है कि देवता उनके चरणों में आए और उन्होंने कहा, आप बोलें। आप लोगों को समझाएं। क्योंकि सदियों के बाद कोई इस अवस्था को उपलब्ध होता है, बुद्ध होता है कोई। आप चुप न रहें। आप लीन न हो जाएं। आप खो न जाएं। आप थोड़ी देर ठहरें। इस किनारे पर थोड़ी देर रुकें।
बुद्ध चालीस वर्ष रुकते हैं इस किनारे पर। यह रुकना कुछ पाने के लिए नहीं है, यह रुकना कुछ देने के लिए है। हम कुछ पाने के लिए शरीर को पकड़े हुए हैं, बुद्ध कुछ देने के लिए शरीर को पकड़ रखते हैं।
जीवन-मुक्त भी शरीर में रह सकता है। लेकिन जीवन-मुक्त होते ही एक बात तय हो गई कि एक बार शरीर छोड़ा गया अब, फिर कोई शरीर नहीं है, फिर शरीर में प्रवेश संभव नहीं है। इस घर को खाली किया कि फिर कोई दूसरा घर होने को नहीं है।
बुद्ध को ज्ञान हुआ तो बुद्ध ने जो पहले वचन कहे, वह यह कहे कि हे वासना के देव! अब तुझे मेरे लिए और घर बनाने की जरूरत न पड़ेगी। मेरा आखिरी घर बन चुका और मिट चुका, अब तुझे मेरे लिए शरीर न गढ़ने होंगे। कितने तूने शरीर मेरे लिए गढ़े! हे वासना के देव! कितने जन्मों-जन्मों तक कितने-कितने प्रकार के शरीर तूने मेरे लिए गढ़े! अब तू मुक्त हुआ। अब तेरी सेवा की कोई जरूरत न होगी।
जो व्यक्ति देह के रहते जान लेता है कि मैं देह नहीं हूं, इस देह के गिरते ही उसकी अवस्था विदेह हो जाती है। उसका अस्तित्व होता है, लेकिन फिर कोई रूप नहीं होता। फिर होना तो होता है, लेकिन इस होने के लिए कोई घर नहीं होता। फिर इस विराट के साथ तादात्म्य सध जाता है। जैसे बूंद सागर में होती है, लेकिन बूंद की तरह नहीं होती, सागर हो जाती है। जैसे एक दीए की लौ आकाश में खो जाती है, खोती नहीं है, क्योंकि कोई भी ऊर्जा खो नहीं सकती, लेकिन महासूर्य का हिस्सा हो जाती है, महाप्रकाश का हिस्सा हो जाती है। लेकिन देह में रहते हुए जो साध लेगा, वही।
कुछ लोग क्या करते हैं--सोचते हैं कि साध लेंगे अंत में। कुछ तो यहां तक खींच देते हैं इस तर्क को कि वे मरे हुए पड़े हैं, और लोग उनके कान में मंत्र पढ़ रहे हैं, गीता सुना रहे हैं, नमोकार सुना रहे हैं--वे मरे पड़े हैं, या करीब-करीब मर रहे हैं, जब कि वे कुछ नहीं सुन सकते हैं। जीते-जी जिनको सुनने की बुद्धि नहीं आ सकी, मरते वक्त लोग उनको गंगाजल पिला रहे हैं, इस आशा में कि शायद मुक्ति हो जाए!
जब जीते थे, तब वे गंगा न जा सके। बोतलों में बंद गंगा उनको अब पिलाई जा रही है! जीते-जी ज्ञान की यात्रा न कर सके, अब मुर्दा शास्त्रों के शब्द उनके कानों में दोहराए जा रहे हैं। और जो दोहरा रहे हैं, वे किराए के लोग हैं। वे अपने लिए नहीं दोहरा रहे हैं। वे भी चार पैसे उनको मिलने वाले हैं इसलिए वे दोहरा रहे हैं। उनको खुद भी पता नहीं है कि वे जो कह रहे हैं वह क्या है? मरते वक्त उनको भी जरूरत पड़ेगी कि कोई चार पैसे लेकर दोहराए।
आदमी ने इस जीवन में ही धोखे नहीं दिए, उसने परम जीवन के लिए भी धोखों का इंतजाम किया है। हम इतने चालाक हैं कि हम सोचते हैं कि हम परमसत्ता को भी धोखा दे ही देंगे। तो हमने ऐसी कहानियां गढ़ ली हैं कि कोई आदमी मरता था, कोई पापी, उसका बेटा था नारायण। वह मरते वक्त उसने कहा, नारायण! और ऊपर जो नारायण है, वह समझा कि मुझे बुला रहा है। और वह पापी जो था, जिसने कभी प्रभु का स्मरण नहीं किया था, वह सीधा स्वर्ग पहुंच गया।
यह जरूर पापियों ने ही कहानी गढ़ी होगी। बेटे को बुला रहे थे वे, जिसका नाम नारायण था। और पता नहीं, कोई पाप का सीक्रेट बताने के लिए बुला रहे थे कि बेटा तू भी ऐसा करना! जहां तक तो मरता बाप बेटे को इसीलिए बुलाता है कि बता दे राज। और जिंदगीभर पाप किए थे, लोगों को धोखा दिया, चोरी की होंगी, जेब काटी होंगी, कुछ किया होगा, वह बेटे को तरकीबें बताना चाहते होंगे कि ये अपने ट्रेड, ये अपने धंधे के राज हैं। नारायण जो ऊपर हैं, वे धोखे में आ गए। तो ये नारायण जो ऊपर बैठे हैं, निपट मूढ़ सिद्ध होते हैं। मगर पापी अपने को समझाने के लिए बड़ी कहानियां गढ़ लेते हैं।
इतना आसान नहीं है। अस्तित्व को धोखा देने का कोई उपाय नहीं है। परमात्मा को धोखा देने काकोई मार्ग नहीं है। और वहां कोई भूल-चूक हो...! यह कोई सरकारी दफ्तर नहीं है, कि कुछ का कुछ समझ लिया जाए, कि फाइलें कहीं की कहीं हो जाएं। परमसत्ता के साथ हमारा जो सत्य का, जो हमारा सत्य जीवन है, बस उतना ही परमसत्ता के साथ हमारा संबंध होता है। हम वहां पूरे नग्न हो जाते हैं। हम वहां जैसे हैं, वैसे ही होते हैं। इसमें कुछ किसी तरह का उपाय बचाव का नहीं है।
इसलिए इस तरह की कहानियां सुनकर अपने को मत बहलाना। और यह मत सोचना कि कोई हर्ज नहीं, अपने बेटे का नाम भी नारायण रख लेंगे। अनेक लोग शायद बेटों का नाम भगवान के नाम पर इसीलिए रखते हैं। कोई नारायण, कोई राम, कोई कृष्ण। तो शायद इसीलिए रख रहे हैं कि अजामिल की तरकीब अपने भी हाथ रहे, वक्त पर काम आ जाए। नहीं तो किराए का पंडित है, वह कान में भगवान का नाम दोहरा देगा।
भगवान का नाम भी कोई किराए का आदमी दोहरा सकता है? प्रार्थना भी आपके लिए कोई और कर सकता है? पूजा भी उधार आदमी कर सकेगा? तो आप समझ ही नहीं पा रहे हैं कि पूजा और प्रार्थना का क्या अर्थ है! क्या गरिमा है! यह तो ऐसा हुआ, जैसे आपका किसी से प्रेम हो जाए और आप एक नौकर रख दें कि तू मेरी तरफ से प्रेम किया कर। मुझे तो फुरसत नहीं है। नहीं, प्रेम के मामले में आप ऐसी भूल न करेंगे। लेकिन प्रार्थना के संबंध में सदियों से यह भूल हो रही है।
प्रार्थना प्रेम है, महानतम प्रेम है, जो हो सकता है। लेकिन पैसे वाले लोग हैं, वे एक मंदिर बना लेते हैं, एक पुजारी रख देते हैं, वह उनकी तरफ से पूजा करता रहता है। तिब्बती बड़े होशियार हैं। उन्होंने एक यंत्र बना लिया है। उसको वे प्रेयरव्हील कहते हैं। एक छोटा-सा गोल चाक बना लिया, उस पर मंत्र लिख दिया। बैठे-बैठे वे उस चक्के को घुमाते रहते हैं! दूसरा भी काम करते रहते हैं और उसको घुमा दिया। वह चाक जितने चक्कर लगा लेता है, उतने मंत्र पूरे हो गए!
एक तिब्बती लामा मुझे मिलने आए। मैंने कहा, तुम यह क्या कर रहे हो? इसको बिजली के प्लग से जोड़कर लगा दो। यह चलता ही रहेगा, तुम अपना काम करो, तुम क्यों इसके साथ उलझे हो? इससे बाधा पड़ती है काम में, बीच-बीच में तुमको फिर इसको घुमाना पड़ता है। यह तो काम बिजली कर देगी।
लेकिन कहीं प्रार्थनाएं इस तरह पूरी हुई हैं? लेकिन आदमी चूंकि बेईमान है, इसलिए वह अपनी बेईमानी सभी दिशाओं में फैला देता है। परमात्मा की दिशा में भी बेईमानी फैल जाती है।
शरीर के रहते, शरीर के भीतर जो ध्यान की अवस्था को साध लेता है, वही जीवन-मुक्त होकर एक दिन देहमुक्त भी हो जाता है।
यही है वह परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था।
जो विशुद्ध, परमधाम में रहने वाला, स्वयंप्रकाश पुरुषोत्तम है, वही अंतरिक्ष में निवास करने वाला वसु है, घरों में उपस्थित होने वाला अतिथि और यज्ञ की वेदी पर स्थापित अग्निस्वरूप तथा उसमें आहुति डालने वाला होता है, तथा समस्त मनुष्यों में रहने वाला, मनुष्यों से श्रेष्ठ देवताओं में रहने वाला, सत्य में रहने वाला और आकाश में रहने वाला है तथा जलों में नाना रूपों से प्रगट, पृथ्वी में नाना रूपों से अभिव्यक्त, सत्कर्मों में प्रगट होने वाला, पर्वतों में प्रगट होने वाला, वही सबसे बड़ा सत्य, वही सब जगह है।
सभी स्थानों पर, यहां और वहां, नीचे और ऊपर, बाहर और भीतर, वही एक प्रगट हो रहा है। लेकिन इस एक के प्रगटीकरण की बात आपको तभी बोध बनेगी जब ध्यान आपका गहन होगा, और शरीर से भिन्न आप अपने को देख पाएंगे। जब तक आप देखते हैं कि आप शरीर के साथ एक हैं, तब तक आपको अनेक दिखाई पड़ेंगे। क्योंकि अनेक शरीर हैं।
ऐसे ही, जैसे हम यहां एक हजार घड़े रख दें। जहां-जहां आप बैठे हैं, वहां-वहां एक-एक घड़ा रख दें। एक हजार घड़े रख दें। हर घड़े के भीतर आकाश है। सब घड़ों के भीतर एक ही आकाश है। पर जो आदमी घड़ों को गिनेगा, वह कहेगा, यहां एक हजार घटाकाश हैं। जो आदमी घड़ों को गिनेगा, वह कहेगा, यहां एक हजार घड़ों के आकाश हैं। हर घड़े का अपना आकाश है, उसके भीतर बंद है। और जो एक घड़े के भीतर बंद है, वह दूसरे के भीतर कैसे हो सकता है? दूसरे के भीतर दूसरा, तीसरे के भीतर तीसरा, तो एक हजार घटाकाश हैं।
फिर कोई आदमी आए और एक-एक डंडा बजाकर घड़ों को फोड़ता चला जाए। फिर वहां एक आकाश रह जाता है।
आपके शरीर घड़े से ज्यादा नहीं हैं। और जब मौत आपके घड़े को तोड़ती है, उस वक्त अगर आप घड़े से जिंदगीभर न बंधे रहे हों, तो आप कहेंगे--ठीक है, तोड़ दो घड़ा, क्योंकि आकाश थोड़े ही डंडे से टूटता है; सिर्फ घड़ा टूटता है। तोड़ दो, हो भी गया पुराना।
अगर मरते वक्त कोई यह देख पाए कि घड़ा टूट रहा है और आकाश तो सुरक्षित है। फिर कोई घड़े की जरूरत न रही, फिर कोई देह में प्रवेश न होगा। लेकिन हम शरीर को ही अपना होना मानते हैं। तो फिर इतने शरीर हैं जगत में, उतने ही व्यक्तित्व, उतना ही भेद। हर शरीर एक दीवाल बन जाता है और विराट आकाश को घेर लेता है।
सबके भीतर एक ही आकाश है और एक ही आत्मा है। लेकिन इसे आप सिद्धांत की तरह मानकर और जिंदगीभर दोहराते रहें, तो कुछ भी न होगा। इसे आप अनुभव की तरह भीतर जान लें--अपने घड़े से अलग होकर जान लें--तो आपको सारे घड़े मिट गए, सिर्फ घड़ों के भीतर एक ही आकाश रह गया। उस एक आकाश का नाम ही ब्रह्म है। वही है बाहर, वही भीतर, वही नीचे, वही ऊपर, वही सब जगह है। क्षुद्र में और विराट में, निम्न में और उच्च में, पर्वतों में और नदियों में, पृथ्वी में और आकाश में, सभी जगह वही है।
जो प्राण को ऊपर की ओर उठाता है और अपान को नीचे ढकेलता है, शरीर के मध्य हृदय में बैठे हुए उस सर्वश्रेष्ठ भजने योग्य परमात्मा की सभी देवता उपासना करते हैं।
भारतीय योग की एक गहरी खोज इस सूत्र में छिपी है। पश्चिम का चिकित्साशास्त्र, मेडिकल साइंस अभी भी इस संबंध में करीब-करीब अपरिचित है। यह खोज है प्राण और अपान की।
भारतीय चिकित्साशास्त्र आयुर्वेद, योग, तंत्र, इन सबकी यह प्रतीति है कि शरीर में वायु की दो दिशाएं हैं। एक दिशा ऊपर की ओर है, उसका नाम प्राण। और एक दिशा नीचे की ओर है, उसका नाम अपान। शरीर में वायु का दोहरा रूप है और दो तरह की धाराएं हैं। जो मल-मूत्र विसर्जित होता है, वह अपान के कारण है। वह जो नीचे की तरफ वायु बह रही है, वही मल-मूत्र को नीचे की तरफ अपनी धारा में ले जाती है। और जीवन में जितनी भी ऊपर की तरफ जाने वाली चीजें हैं, वे सब प्राण से जाती हैं।
इसलिए जो जितना ज्यादा प्राणायाम को साध लेता है, उतना ऊपर उठने में कुशल हो जाता है। क्योंकि ऊपर जाने वाली धारा को विस्तार कर रहा है, फैला रहा है, बड़ा कर रहा है।
ये दो धाराएं हैं, दो करेंट हैं वायु के, शरीर के भीतर। और इन दोनों के मध्य स्थित है परमात्मा, या आत्मा, या चेतना, या जो भी नाम आप देना चाहें। वह जो अंगुष्ठ आकार का आत्मा है, वह इन दोनों धाराओं के बीच में उपस्थित है। वही वायु को नीचे की तरफ धकाता है, वही वायु को ऊपर की तरफ धकाता है। प्राण--ऊपर की तरफ जाने वाली वायु। अपान--नीचे की तरफ जाने वाली वायु।
पश्चिम का चिकित्साशास्त्र अभी भी इस दोहरी धारा को नहीं पहचान पाया है। उनका खयाल है, वायु एक ही तरह की है। इसलिए वायु के आधार पर जो बहुत-से काम आयुर्वेद कर सकता है, वह ऐलोपैथी नहीं कर सकती। वायु की इन धाराओं को ठीक से समझ लेने वाला व्यक्ति जीवन में बड़ी क्रांतियां कर सकता है।
छोटा बच्चा श्वास लेता है, तो आपने देखा है कि जब छोटा बच्चा श्वास लेता है तो उसका पेट ऊपर-नीचे जाता है। बच्चा लेटा है, श्वास लेता है, तो पेट ऊपर जाता है, नीचे जाता है। छाती पर कोई हलन-चलन भी नहीं होती। उसकी श्वास बड़ी गहरी है। आप जब श्वास लेते हैं तो सीना ऊपर उठता है, नीचे गिरता है। आपकी श्वास उथली है, गहरी नहीं है।
मनसविद बड़े हैरान हैं कि यह घटना क्यों घटती है? उम्र बढ़ने के साथ श्वास उथली क्यों हो जाती है? और बच्चे की श्वास गहरी क्यों होती है? जानवरों की श्वास भी गहरी होती है। जंगली आदमियों की श्वास भी गहरी होती है। जितना सभ्य आदमी हो, उतनी उथली श्वास हो जाती है। बड़ी मुश्किल की बात है कि सभ्यता से श्वास का ऐसा क्या संबंध होगा? और वह कौन-सी घड़ी है जब से बच्चा गहरी श्वास लेना बंद कर देता है?
योग इस राज को जानता है। और यह राज अब मनोविज्ञान को भी थोड़ा-थोड़ा साफ होने लगा है। क्योंकि मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे को जिस दिन से काम का भय पैदा हो जाता है, वासना का भय, मां-बाप जिस दिन से उसे सचेत कर देते हैं सेक्स के प्रति, उसी दिन से उसकी श्वास उथली हो जाती है। क्योंकि श्वास जब गहरी जाती है, तो कामकेंद्र पर चोट करती है। वह अपान बन जाती है। और कामवासना को जगाती है।
जितनी गहरी श्वास होगी, उतनी कामवासना सतेज होगी। बच्चे भयभीत कर दिए जाते हैं कि काम बुरा है, सेक्स पाप है। वे घबरा जाते हैं। तो अपनी श्वास को ऊपर सम्हालने लगते हैं, वे उसको गहरा नहीं जाने देते। फिर धीरे-धीरे उनकी श्वास सिर्फ ऊपर-ऊपर चलने लगती है। उनके कामकेंद्र और स्वयं के बीच एक फासला हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों के जीवन में कामवासना विकृत हो जाती है। वे संभोग का किसी तरह का भी सुख नहीं ले पाते, क्योंकि संभोग के लिए बड़ी गहरी श्वास जरूरी है।
और जब गहरी श्वास हो, तो पूरा शरीर आंदोलित होता है। और शरीर के पूरे आंदोलन में, शरीर के पूरी तरह समाविष्ट हो जाने में इस प्रक्रिया में, पूरी तरह डूब जाने से, थोड़ा-बहुत सुख का आभास मिलता है। लेकिन वह आभास भी असंभव हो जाता है, क्योंकि श्वास इतनी गहरी नहीं जाती। और न-मालूम कितनी बीमारियां इसके साथ पैदा होती हैं, क्योंकि आपका अपान कमजोर हो जाता है।
जो लोग भी उथली श्वास लेते हैं, उनको कब्जियत हो जाएगी। क्योंकि अपान, जो वायु नीचे जाकर मल को विसर्जित करती है, वह वायु नीचे नहीं जा रही है। लेकिन डर वही है। क्योंकि वीर्य भी मल है, उसको भी निष्कासित करने के लिए वायु को नीचे तक जाना चाहिए। अपान बनना चाहिए। तो जो व्यक्ति भी डरेगा सेक्स से, उसको कब्जियत भी पकड़ लेगी। क्योंकि वह एक ही वायु दोनों को धक्का देती है।
ब्रह्मचर्य का प्रयोग अपान को रोकने से नहीं होता। ब्रह्मचर्य का प्रयोग प्राण को बढ़ाने से होता है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। हम सारे लोगों ने ब्रह्मचर्य के नाम पर गलत कर लिया है और अपान को रोक लिया है। उसकी वजह से हम सिर्फ रुग्ण और बीमार हो गए हैं। हमारे व्यक्तित्व की जो गरिमा और जो स्वास्थ्य हो सकता था, वह नष्ट हो गया है। और शरीर न-मालूम कितने जहर से भर जाता है। क्योंकि जो अपान सारे जहरों को शरीर के बाहर फेंकती है, वह नहीं फेंक पाती। आप डरे हुए हैं। ब्रह्मचर्य की यह निषेधात्मक प्रक्रिया है--निगेटिव।
एक विधायक प्रक्रिया है--अपान को मत छेड़ें, प्राण को बढ़ाएं। प्राण इतना ज्यादा हो जाए कि अपान उसके मुकाबले बिलकुल छोटा हो जाए। एक बड़ी लकीर खींच दें। तो अपान शुद्ध रहे और प्राण विराट हो जाए, तो आपकी ऊर्जा ऊपर की तरफ बहने लगे।
इसलिए प्राणायाम का इतना उपयोग है योग में, क्योंकि प्राणायाम धक्के देता है ऊपर की तरफ ऊर्जा को। जो काम-ऊर्जा अपान के द्वारा सेक्स बनती है, वही काम-ऊर्जा प्राण के द्वारा कुंडलिनी बन जाती है। वह ऊपर की तरफ बहने लगती है। और ऊपर की तरफ बहते-बहते मस्तिष्क में जाकर उसका कमल खिल जाता है।
अपान के धक्के से वही कामवासना किसी बच्चे का जन्म बनती है, प्राण के धक्के से वही कामवासना आपका स्वयं का नया जन्म बन जाती है--लेकिन मस्तिष्क तक आ जाए तब। तो प्राण उसे ऊपर की तरफ लाता है।
यह सूत्र कह रहा है कि प्राण और अपान दोनों के बीच में छिपा है वह परमात्मा, जिसके संबंध में तुमने पूछा था। वही नीचे की तरफ अपान को ले जाता है, वही प्रकृति का आधार है। और वही प्राण को ऊपर की तरफ ले जाता है, वही परलोक का आधार है। यह तेरे ऊपर निर्भर है कि तू किस धारा में प्रविष्ट होना चाहता है। अगर तू नीचे की धारा में प्रविष्ट होना चाहता है, तो तुझे अपान को बढ़ाना होगा।
सभी पशुओं का अपान बड़ा प्रबल होता है, उनका प्राण बहुत निर्बल होता है। सिर्फ योगियों का प्राण सबल होता है। अपान स्वस्थ होता है और प्राण इतना सबल होता है कि अपान, स्वस्थ अपान भी उस पर कब्जा नहीं कर पाता; कब्जा प्राण का ही होता है। साधारण आदमी का प्राण तो कमजोर होता ही है, वह अपान भी कमजोर कर लेता है, डर और भय के कारण।
भयभीत आदमी गहरी श्वास नहीं लेता। सिर्फ निर्भय आदमी गहरी श्वास लेता है। किसी भी कारण से डरा हुआ आदमी गहरी श्वास नहीं लेता। कोई आदमी आपकी छाती पर छुरा लाकर रख दे, श्वास रुक जाएगी। जब भी आप भयभीत होंगे, श्वास रुक जाएगी। जहां भी आप घबड़ा जाते हैं, किसी से मिलने गए हैं, किसी बड़े आफिसर से और घबड़ा गए हैं, बस श्वास उथली हो जाती है, ऊपर-ऊपर चलने लगती है। फिर आप बाहर आकर ही ठीक से श्वास ले पाते हैं।
हम इतना डरा दिए हैं एक-दूसरे को कि हमारा सब श्वास का पूरा यंत्र-जाल अस्वस्थ हो गया है।
दोनों के बीच में छिपा है परमात्मा, दोनों का मालिक वही है।
अपान से डरने की कोई भी जरूरत नहीं, क्योंकि शरीर का सारा स्वास्थ्य उस पर निर्भर है। निष्कासन उसका काम है। और अगर निष्कासन ठीक न हो, तो शरीर में जहर, टाक्सिन्स इकट्ठे हो जाएंगे। और वे इकट्ठे हो गए हैं। हर आदमी के खून में जहर चल रहा है।
व्यायाम कोई आदमी करे, दौड़े, चले, तैरे, तो अपान सबल हो जाता है। इसलिए शरीर में एक ताजगी और स्वास्थ्य आ जाता है। लेकिन कोई गहरी श्वास ले--प्राणायाम सिर्फ गहरी श्वास नहीं है, प्राणायाम बोधपूर्वक गहरी श्वास है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। बहुत से लोग प्राणायाम भी करते हैं, तो बोधपूर्वक नहीं, बस गहरी श्वास लेते रहते हैं।
अगर गहरी श्वास ही आप सिर्फ लेंगे, तो अपान स्वस्थ हो जाएगा। बुरा नहीं है, अच्छा है। लेकिन ऊर्ध्वगति नहीं होगी। ऊर्ध्वगति तो तब होगी जब श्वास की गहराई के साथ आपकी अवेयरनेस, आपकी जागरूकता भीतर जुड़ जाए।
बुद्ध ने कहा है, श्वास चले, नाक को छुए, तब तुम जानो कि नाक छू रही है। भीतर चले, नासापुटों में स्पर्श हो, जानो कि नासापुटों में स्पर्श हो रहा है। कंठ में उतरे, जानो कि कंठ में स्पर्श हो रहा है। फेफड़ों में आए, नीचे जाए, पेट तक पहुंचे, तुम देखते चले जाओ, उसके पीछे-पीछे ही तुम्हारी स्मृति लगी रहे। फिर एक क्षण को रुक जाएगी--गैप। वह गैप बड़ा कीमती है।
जब आप श्वास गहरी लेंगे, एक क्षण को जब भीतर पहुंच जाएंगे, एक क्षण को कोई श्वास नहीं होगी, न बाहर न भीतर। सब ठहर जाएगा। फिर श्वास बाहर लौटेगी। एक सेकेंड विश्राम करके फिर बाहर की तरफ चलेगी, तब तुम भी उसके साथ बाहर चलो। उठो, उसी के साथ। आओ कंठ तक, आओ नाक तक। बाहर निकल जाए, उसका पीछा करते रहो। फिर बाहर जाकर एक सेकेंड को सब ठहर जाएगा। फिर नई श्वास शुरू होगी। फिर भीतर, फिर बाहर।
बुद्ध ने कहा है, तुम इसको माला बना लो और तुम इसी के गुरियों के साथ अपने स्मरण को जगाते रहो। अगर गहरी श्वास के साथ बोध हो, तो प्राण का विस्तार होता है, और जीवन-ऊर्जा की गति ऊपर की तरफ होनी शुरू हो जाती है।
बोध ऊपर का सूत्र है, मूर्च्छा नीचे का सूत्र है।
अगर कोई व्यक्ति निरंतर, जब भी उसे स्मरण आ जाए, सिर्फ श्वास पर बोध को साधता रहे, तो किसी और साधना की जरूरत नहीं। उतना काफी है। पर वह बड़ा कठिन है। चौबीस घंटे, जब भी खयाल आ जाए, तो श्वास को...। किसी को पता भी नहीं चलेगा, चुपचाप यह हो सकता है। किसी को खबर भी नहीं होगी कि आप क्या कर रहे हैं। किसी को भी पता नहीं चलेगा।
जीसस ने कहा है कि तुम्हारा बायां हाथ जब कुछ करे, तो दाएं हाथ को पता न चले।
यह इस तरह की प्रक्रिया है, जिसमें किसी को भी पता नहीं चलेगा। तुम चुपचाप अपनी श्वास के साथ धीरे-धीरे स्मृति से भरते चले जाओगे। और जैसे-जैसे स्मृति गहन होगी, श्वास गहरी होगी, वैसे-वैसे उसकी चोट स्मरणपूर्वक तुम्हारी ऊर्जा को रीढ़ के मार्ग से ऊपर की तरफ उठाने लगेगी। और यह कोई कल्पना की बात नहीं है, तुम अपनी रीढ़ में निश्चित रूप से विद्युत की धारा को उठता हुआ पाओगे। तरंगें तुम्हारी रीढ़ में दौड़ने लगेंगी। वे तरंगें उत्तप्त होंगी। और तुम चाहो तो तुम अपने हाथ से छूकर देख भी सकते हो, जहां तरंगें होंगी वहां रीढ़ गरम हो जाएगी। और जैसे-जैसे यह गर्म ऊर्जा ऊपर की तरफ उठेगी, तुम्हारी रीढ़ उत्तप्त होने लगेगी। तुम अनुभव करोगे कि कहां तक जाती है यह ऊर्जा। फिर गिर जाती है, फिर जाती है।
निरंतर अभ्यास से एक दिन यह ऊर्जा तुम्हारे ठीक सहस्रार तक पहुंच जाती है। लेकिन इस बीच यह और चक्रों से गुजरती है और हर चक्र के अपने अनुभव हैं। हर चक्र पर तुम्हारे जीवन में नया प्रकाश, और हर चक्र से जब यह ऊर्जा गुजरेगी तो तुम्हारे जीवन में नई सुगंध, नए अर्थ, नए अभिप्राय प्रगट होने लगेंगे। नए फूल खिलने लगेंगे।
योगशास्त्र ने पूरी तरह निश्चित किया है--हजारों-लाखों प्रयोग करने के बाद--कि हर केंद्र पर क्या घटता है। एक-दो उदाहरण, ताकि खयाल में आ जाए। और उसी हिसाब से इन केंद्रों के, चक्रों के नाम रखे हैं।
जैसे दोनों आंखों के बीच में जो चक्र है, उसको योग ने आज्ञा-चक्र कहा है। उसको आज्ञा-चक्र इसलिए कहा है कि जिस दिन तुम्हारी ऊर्जा उस चक्र से गुजरेगी, तुम्हारा शरीर, तुम्हारी इंद्रियां तुम्हारी आज्ञा मानने लगेंगी। तुम जो कहोगे, उसी क्षण होगा। तुम्हारा व्यक्तित्व तुम्हारे हाथ में आ जाएगा, तुम मालिक हो जाओगे।
इस चक्र के पहले तुम गुलाम हो। इस चक्र में जिस दिन ऊर्जा प्रवेश करेगी, उस दिन से तुम्हारी मालकियत हो जाएगी। उस दिन से तुम जो चाहोगे, तुम्हारा शरीर तुम्हारी आज्ञा मानेगा। अभी तुम्हें शरीर की आज्ञा माननी पड़ती है, क्योंकि जहां से शरीर को आज्ञा दी जा सकती है, उस जगह पर तुम अभी भी खाली हो। वहां ऊर्जा नहीं है, जहां से आज्ञा दी जा सकती है। इसलिए उस चक्र का नाम आज्ञा-चक्र है।
ऐसे ही सब चक्रों के नाम हैं। वे नाम सार्थक हैं। और हर चक्र के साथ एक विशिष्ट अनुभव जुड़ा है। आखिरी चक्र है सहस्रार। सहस्रार का अर्थ होता है--सहस्र पंखुड़ियों वाला कमल। निश्चित ही जिस दिन वहां ऊर्जा पहुंचती है, वहां पूरा मस्तिष्क ऐसा मालूम होता है कि जैसे हजार पंखुड़ियों वाला कमल हो गया। और वह कमल खिला है, आकाश की तरफ उन्मुख, सारी पंखुड़ियां खिल गयीं। और उससे जो अपूर्व आनंद का अनुभव, और जो अपूर्व सुगंध की वर्षा, और जीवन में जो पहली बार पूर्ण प्रकाश उतरता है--ठीक ही कमल से उसको हमने चुना है। कई कारण हैं। उसको हमने सहस्रार कहा है, सहस्रदल कमल।
कमल की एक खूबी है कि वह कीचड़ में पैदा होता है और उससे ज्यादा सुंदर और उससे ज्यादा पवित्र कुछ भी नहीं है। उससे ज्यादा अपवित्र जगह में कोई भी पैदा नहीं होता। गंदे कीचड़ में पैदा होता है, लेकिन गंदे कीचड़ से एक डंठल उठता है, उठता है, और पानी के पार निकल जाता है। वह डंठल आपकी रीढ़ है। वह गंदा कीचड़ आपकी कामवासना है। आपकी रीढ़ के डंठल से फूल खिलता है एक दिन। और जिस दिन यह कमल का फूल खिलता है, उस दिन यह इतना अदभुत है कि कीचड़ से पैदा हुआ कमल का फूल, उसको पानी भी छू नहीं पाता। पानी भी उस पर गिरे तो वह अछूता रहता है। उसे फिर कोई चीज नहीं छू पाती। वह अस्पर्शित रहता है।
यह कमल का फूल संन्यास की परम अभिव्यक्ति है। उसको कुछ भी छू नहीं पाता। गिरता रहे उसके ऊपर, तो भी उसे कुछ छू नहीं पाता। वह अछूता ही रहता है। अस्पर्शित। कीचड़ से पैदा होकर कीचड़ के पार, इतनी पवित्रता को उपलब्ध होने की जो संभावना कमल की है, वही प्रत्येक मनुष्य की है। इसलिए हमने आखिरी चक्र को सहस्रदल कमल कहा है।
ये दो, प्राण और अपान वायु हैं। इन दोनों के मध्य में वह परमात्मा बैठा है।
इस शरीर में स्थित, एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने वाले जीवात्मा के शरीर से निकल जाने पर, यहां इस शरीर में शेष ही क्या रहता है?
जब जीवात्मा निकल जाता है तो शरीर में शेष ही क्या रहता है?
वह जो निकल जाता है, यही है वह परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था।
कोई भी मरणधर्मा प्राणी न तो प्राण से जीता है और न अपान से ही जीता है; किंतु जिसमें प्राण और अपान ये दोनों आश्रय पाए हुए हैं, ऐसे किसी दूसरे से ही सब जीते हैं।
उसी परमात्मा में, उसी मध्य में छिपे हुए जीवात्मा में इन दोनों का आश्रय है--प्राण का भी, अपान का भी। उससे ही हम जीते हैं।
हे गौतमवंशी नचिकेता! वह रहस्यमय सनातन ब्रह्म जैसा है और जीवात्मा मरकर जिस प्रकार से रहता है, यह बात अब मैं तुम्हें फिर से बतलाऊंगा।
कुछ सत्य ऐसे हैं जो बार-बार कहने पड़ते हैं। इसलिए नहीं कि बार-बार कहने से, उन्हें पुनरुक्त करने, दोहराने से, कुछ दोहराने वाले को मिलने वाला है, वरन इसलिए कि आप इतने बहरे हैं कि एक बार शायद आपके कान पर वह बात पड़कर भी न पड़ पाए। तो दुबारा।
बुद्ध की आदत थी कि हर बात को वे तीन बार कहते थे। अब जो लोग बुद्ध के शास्त्रों का अनुवाद करते हैं, वे उसमें से दो हिस्से काट देते हैं। वे कहते हैं, पुनरुक्ति है। इतनी पुनरुक्ति की क्या जरूरत है? वे बुद्ध से भी ज्यादा समझदार मालूम पड़ते हैं। पुनरुक्ति की जरूरत इसलिए है कि बुद्ध जिससे कह रहे हैं, उसको एक बार में समझ में आने वाला नहीं है। उसे दो बार में भी समझ में आने वाला नहीं है। बुद्ध पूरी कोशिश कर रहे हैं कि किसी तरह कोई चोट, आघात उसमें लग जाए, तो वे तीन बार दोहराते हैं।
यम भी नचिकेता से कहता है--हे नचिकेता! अब मैं तुझे फिर से दोबारा बतलाऊंगा।
जिसका जैसा कर्म होता है और शास्त्रादि के श्रवण द्वारा जिसको जैसा भाव प्राप्त होता है, उन्हीं के अनुसार शरीर धारण करने के लिए कितने ही जीवात्मा तो नाना प्रकार की योनियों को प्राप्त हो जाते हैं, और दूसरे कितने ही जीवात्मा वृक्ष, लता, पर्वत आदि स्थावर-भाव का अनुसरण करते हैं।
जो यह जीवों के कर्मानुसार नाना प्रकार के भोगों का निर्माण करने वाला, परमपुरुष परमेश्वर प्रलयकाल में सबके सो जाने पर भी जागता रहता है, वही परम विशुद्ध तत्व है, वही ब्रह्म है, वही अमृत कहलाता है; तथा उसी में संपूर्ण लोक आश्रय पाए हुए हैं। उसे कोई भी अतिक्रमण नहीं कर सकता। यही है वह परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था।
इसमें एक बात बहुत ठीक से समझ लेने जैसी है। प्रलयकाल में सबके सो जाने पर भी जो जागता रहता है, वही है वह परमात्मा जिसके संबंध में नचिकेता ने पूछा है। प्रलयकाल में जब सब नष्ट हो जाता है, या सब सो जाता है, प्रकृति का सारा क्रिया-कलाप सो जाता है, तब भी जो जागता रहता है...।
हमें तो प्रलयकाल का कोई पता नहीं, हम कहां से इसे समझें? हम अपनी ही नींद से इसे समझें तो आसान होगा। नींद में शरीर तो सो जाता है--शरीर यानी प्रकृति--सब सो जाता है। लेकिन क्या आपने कभी खयाल किया कि कोई आपके भीतर जागता रहता है?
एक मां है, उसका छोटा बच्चा है। बाहर तूफान हो, आंधी गरजे, आकाश में बादल घुमड़ें, बिजली गिरे, उसकी नींद नहीं टूटेगी; उसका बच्चा जरा कुनमुनाए, वह जल्दी से जाग जाएगी। बड़ी हैरानी की बात है। बिजली कड़कती थी बाहर, उसकी नींद न टूटी, और बच्चे की जरा-सी आवाज! कोई उसके भीतर जागता है, जो बच्चे का स्मरण रखता है।
आप हजार लोग यहां सो जाएं, गहरी नींद में खोए हों, और मैं आकर कहूं--राम! किसी को सुनाई नहीं पड़ेगा। लेकिन जिसका नाम राम है, वह कहेगा, कौन मेरी नींद खराब कर रहा है? जरूर कोई हिस्सा जागता है, जो जानता है कि मेरा नाम राम है।
सुबह आप उठते हैं, कहते हैं, रात बड़ी गहरी नींद आई। किसने जानी? अगर आप बिलकुल ही सो गए थे, तो कौन है जो कह रहा है कि बड़ी गहरी नींद आई? कौन है जो जानने वाला है नींद का भी? अगर नींद पूरी थी, तो वहां कोई भी नहीं था, सब सो गया था। लेकिन कोई जागता रहा है। कोई हिस्सा देखता रहा है कि नींद गहरी आई कि नहीं, कि सपने थे कि नहीं। रात देखे गए सपने सुबह कोई याद रखता है। अगर आप बिलकुल सो गए थे तो किसने बनाई स्मृति? कौन लाया सपनों को जागने तक? नहीं, आप बिलकुल नहीं सो जाते।
सम्मोहन गहरी से गहरी निद्रा है। पश्चिम में बहुत प्रयोग होता है हिप्नोसिस का, और अब तो पूरा विज्ञान बन गया है। अब तो कोई मदारीगिरी न रही, क्योंकि सम्मोहन अब तो अस्पतालों में उपयोग होता है। और छोटे-मोटे काम में नहीं, बड़े से बड़ी सर्जरी में भी सम्मोहन का उपयोग होता है। इसलिए साधारण नींद तो कुछ भी नहीं है। साधारण नींद में आप किसी की सर्जरी नहीं कर सकते। कांटा ही चुभाएंगे तो वह उठकर खड़ा हो जाएगा। लेकिन सम्मोहित अवस्था में, ठीक हिप्नोटाइज्ड हालत में, बड़ी सर्जरी की जा सकती है। पेट काटा-पीटा जा सकता है, एपेंडिक्स निकाली जा सकती है। घंटों लग जाएं, लेकिन वह आदमी सोया रहेगा।
तो सम्मोहन गहरी से गहरी नींद है। लेकिन एक बड़े मजे की बात सम्मोहन में है। और वह यह कि आप पेट की अंतड़ी काट डालें और आदमी सोया रहेगा, लेकिन उस आदमी की धारणाओं, नैतिक धारणाओं के विपरीत अगर आप कोई काम करवाना चाहें, वह फौरन जग जाएगा। जैसे अगर कोई हिंदू स्त्री, जिसने सच में ही हिंदू-धारणा के अनुसार एक पति के सिवाय किसी को नहीं चाहा है--अगर चाहा है, तब बात अलग है--तो उसे सम्मोहित किया जाए और उससे कहा जाए कि एक पुरुष तेरे पास बैठा है, तू इसे चुंबन दे दे। कितना ही गहरा सम्मोहन हो, तत्क्षण टूट जाएगा। वह उठकर बैठ जाएगी। वह कहेगी, क्या कहा? यह असंभव है। आप पेट काट सकते हैं और नींद नहीं टूटेगी! जरूर भीतर कोई जाग रहा है।
लेकिन अगर कोई स्त्री राजी हो जाती है, तो मनसविद कहते हैं कि वह चुंबन तो देना चाहती थी, वह उसके अचेतन में दबा पड़ा था, लेकिन समझ के कारण इसको दबाए थी। सम्मोहित अवस्था में उसे मौका मिल गया। अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं है। कहा जा सकता है, हम बेहोश थे। क्या किया, उसका हम पर कोई दायित्व नहीं है। तो वह चुंबन दे सकती है।
नैतिक धारणा के विपरीत सम्मोहन में भी आदमी जागा रहता है। आप उसके विपरीत उससे कुछ भी नहीं करवा सकते। वह करना चाहे तो ही करता है। वहां भी आखिरी चुनाव उसी का है। गहरी से गहरी नींद में भी कोई जागा हुआ है।
यह सूत्र यह कह रहा है कि आपके शरीर की निद्रा में जो जागता है, वही तत्व, जब सारी प्रकृति प्रलय में सो जाती है...।
प्रलय का अर्थ है, पूरी प्रकृति की रात। इसलिए हमने इस देश में जैसा गणित फैलाया था, अब पश्चिम के वैज्ञानिक और गणितज्ञ भी उसको सम्मान से देखने लगे हैं। क्योंकि पश्चिम में ईसाइयत की धारणा थी कि दुनिया का निर्माण परमात्मा ने किया बहुत थोड़े ही दिन पहले, चार हजार चार साल पहले। अब यह बात बिलकुल गलत हो गई और इसलिए ईसाइयत को बड़ा नुकसान हुआ, क्योंकि वे जिद्द किए रहे कि हमारी किताब में ऐसा लिखा है, यह सच होना चाहिए। लेकिन उनके ही वैज्ञानिकों ने खोजा है कि इस जमीन को बने तो कोई चार अरब वर्ष हो चुके हैं। और तुम कहते हो, चार हजार चार साल पहले! इस जमीन में ऐसे अवशेष मौजूद हैं, जो लाखों साल पहले के प्रमाण देते हैं। तो वह धारणा गलत हो गई। लेकिन हिंदुओं की धारणा गलत नहीं हो पाई।
हिंदुओं ने जो गणित का फैलाव किया है, वह अरबों वर्षों का है। और इन अरबों वर्षों को उन्होंने ब्रह्मा का एक दिन कहा है। प्रकृति की शुरुआत, सृष्टि और प्रलय--इसको उन्होंने ब्रह्मा का दिवस कहा है। एक दिवस परमात्मा का। हमारे लिए अरबों वर्ष, परमात्मा के लिए एक दिन। फिर होती है रात, प्रलय में सब सो जाता है, पूरी प्रकृति।
आखिर प्रकृति भी थक जाएगी। आप ही नहीं थक जाते दिनभर में, ये सब वृक्ष, ये पौधे, ये पहाड़, यह पृथ्वी, ये चांद-तारे, ये सब भी थक जाएंगे। थकान की यह दृष्टि भारत को बड़ी साफ है। कि आप जब थक जाते हैं, तो हर चीज एक दिन थक जाएगी, चाहे कितनी ही लंबाई हो। जिस दिन सब चीजें थककर विश्राम में पड़ जाएंगी, उस दिन प्रलय हो जाएगा। सब सो गया, ब्रह्मा की रात शुरू हो गई।
उस दिन भी जो जागता रहता है, वही है वह परमात्मा, जिसके संबंध में तुमने पूछा था।
आपके शरीर और आपके बीच जो संबंध है, वही प्रकृति और परमात्मा के बीच संबंध है। कहें कि यह पूरा जगत उसका शरीर है। आप छोटे रूप में एक मिनिएचर अस्तित्व, एक विश्व हैं। शरीर और आप, ऐसे ही पूरी प्रकृति और वह परमात्मा। जब सब सो जाता है, तब भी वह जागा हुआ है।
कृष्ण ने इसलिए गीता में कहा है कि योगी उस समय भी जागता है, जब भोगी सो जाता है। रात्रि भी उसके लिए भीतर निद्रा नहीं है। शरीर ही उसका सोता है, भीतर वह सतत जागता रहता है।
जैसे-जैसे आपका होश बढ़ेगा, वैसे-वैसे नींद में भी आप पाएंगे कि आप जाग रहे हैं। और जिस दिन आपको लगने लगे, नींद में भी आप जाग रहे हैं, नींद भी आपका प्रत्यक्ष अनुभव है, उस दिन आप समझना कि अब शरीर से, शरीर के किनारे से खूंटियां टूटने लगीं और आत्मा की तरफ नाव का बहना शुरू हुआ है।

अब ध्यान के लिए तैयार हों।

Spread the love