UPANISHAD

Kathopanishad 06

Sixth Discourse from the series of 19 discourses - Kathopanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during OCT 06-13 1973.
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आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति।।21।।

अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्‌।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।।22।।

नायामात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूंस्वाम्‌।।23।।

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्‌।।24।।

यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः।।25।।

तृतीय वल्ली

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पंचाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।।1।।

यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत्‌ परम्‌।
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतं शकेमहि।।2।।

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।।3।।

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयान्स्तेषु गोचरान्‌।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।।4।।

यस्त्वविज्ञानवान्‌ भवत्ययुक्तेन मनसा सदा।
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः।।5।।
वह परमेश्वर बैठा हुआ ही दूर पहुंच जाता है, सोता हुआ (भी) सब ओर चलता रहता है। उस ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त न होने वाले देव को मुझसे भिन्न दूसरा कौन जानने में समर्थ है।।21।।

(जो) स्थिर न रहने वाले (विनाशशील) शरीरों में शरीररहित (एवं) अविचलभाव से स्थित है, (उस) महान सर्वव्यापी परमात्मा को जानकर बुद्धिमान महापुरुष (कभी किसी कारण से) शोक नहीं करता।।22।।

यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से (और) न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। जिसको यह स्वीकार कर लेता है, उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है; (क्योंकि) यह परमात्मा उसके लिए अपने यथार्थ स्वरूप को प्रगट कर देता है।।23।।

सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा भी इस परमात्मा को न तो वह मनुष्य प्राप्त कर सकता है जो बुरे आचरणों से निवृत्त नहीं हुआ है, न वह प्राप्त कर सकता है जो अशांत है, न वह कि जिसके मन तथा इंद्रियां संयत नहीं हैं। और न वह प्राप्त करता है, जिसका मन शांत नहीं है।।24।।

(संहारकाल) में जिस परमेश्वर के ब्राह्मण और क्षत्रिय--ये दोनों ही अर्थात संपूर्ण प्राणिमात्र भोजन बन जाते हैं (तथा) सबका संहार करने वाली मृत्यु (भी) जिसका उपसेचन (अर्थात भोज्य वस्तु के साथ लगाकर खाने का व्यंजन, तरकारी आदि) बन जाता है, वह परमेश्वर जहां (और) जैसा है, यह ठीक-ठीक कौन जानता है! ।।25।।

तृतीय वल्ली

शुभ कर्मों के फलस्वरूप मनुष्य-शरीर में परब्रह्म के उत्तम निवास-स्थान (हृदय-आकाश) में, बुद्धिरूप परम गुफा में छिपे हुए सत्य का पान करने वाले (व अवश्यंभावी कर्म का भोग करने वाले दो भिन्न तत्व हैं)। (वे) छाया और धूप की भांति परस्पर भिन्न हैं, (यह बात) ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी महापुरुष कहते हैं। तथा जो तीन बार नाचिकेत अग्नि का चयन कर लेने वाले (और) पंचाग्निसंपन्न गृहस्थ हैं, वे भी यही बात कहते हैं।।1।।

यज्ञ करने वालों के लिए जो दुख-समुद्र से पार पहुंचा देने योग्य सेतु है, उस नाचिकेत अग्नि को (और) संसार-समुद्र से पार होने की इच्छा वालों के लिए जो भयरहित पद है, उस अविनाशी परब्रह्म पुरुषोत्तम को जानने और प्राप्त करने में हम समर्थ हों।।2।।

(हे नचिकेता! तुम) जीवात्मा को तो रथ का स्वामी (उसमें बैठकर चलने वाला) समझो और शरीर को ही रथ, बुद्धि को सारथि (रथ को चलाने वाला) समझो, और मन को लगाम (समझो) ।।3।।

ज्ञानीजन (इस रूपक में) इंद्रियों को घोड़े बतलाते हैं (और) विषयों को उन घोड़ों के विचरने का मार्ग (बतलाते हैं)। (तथा) शरीर, इंद्रिय और मन--इन सबके साथ रहने वाला जीवात्मा ही भोक्ता है, ऐसा कहते हैं।।4।।
जो सदा विवेकहीन बुद्धि वाला और अवशीभूत (चंचल) मन से (युक्त) रहता है, उसकी इंद्रियां असावधान सारथि के दुष्ट घोड़ों की भांति वश में न रहने वाली हो जाती हैं।।5।।
परमेश्वर के संबंध में कुछ आधारभूत बातें समझ लें। एक, परमेश्वर समस्त विरोधों का समन्वय है। इस जगत में प्रत्येक वस्तु अपने विरोधी के साथ मौजूद है। यही प्रकृति के होने का ढंग है। प्रकृति का तनाव, प्रकृति का होना विरोध के बिना नहीं हो सकता। रात न हो, तो दिन न होगा। स्त्री न हो, तो पुरुष न होगा। मृत्यु न हो, तो जन्म न होगा। दुख न हो, तो सुख न होगा। सारा जीवन विपरीत से जुड़ा और बना है।
इसलिए जीवन द्वंद्व है, एक संघर्ष है। और विपरीत के आधार पर ही यहां कुछ भी हो सकता है। यहां आपने किसी को मित्र बनाया कि आपने शत्रु बनाने शुरू कर दिए। यहां आपने प्रेम किया कि घृणा का प्रारंभ हो गया। यहां आप कुछ भी नहीं कर सकते हैं, जिसके विपरीत की उपस्थिति साथ ही मौजूद न हो जाए।
बुद्ध ने कहा है, मैं मित्र नहीं बनाता, क्योंकि मैं शत्रु नहीं बनाना चाहता हूं। बुद्ध ने कहा है, मैं प्रेम नहीं करता, क्योंकि मैं घृणा नहीं करना चाहता हूं।
जीवन पदार्थ है और साथ ही चेतना भी। चेतना का अर्थ है, पदार्थ से विपरीत। तत्वचिंतक पूरब के निरंतर इस द्वंद्व को स्वीकार किए हैं। इसलिए उन्होंने कहा है, जगत द्वैत है, डुआलिटी है।
पश्चिम में नई विज्ञान की खोजें भी इस द्वैत को अंगीकार करने लगी हैं। और उनकी तो धारणा अब यह हो गई है कि अगर हमें एक का पता हो और दूसरे का पता न भी हो, तो भी दूसरा होगा ही।
इसलिए एक बहुत अनूठी खोज है, वह है एंटी मैटर की। वे कहते हैं, पदार्थ है, तो पदार्थ के विपरीत पदार्थ भी होना चाहिए। अभी तक वह पकड़ में नहीं आया, लेकिन होना चाहिए। क्योंकि जहां सभी चीजें विपरीत के साथ निर्मित होती हैं, वहां पदार्थ के विपरीत भी कुछ होना चाहिए।
चूंकि टाइम है, समय है, इसलिए एंटी टाइम, समय के विपरीत भी कोई धारा होनी चाहिए। समय जाता है आगे की तरफ। तो वह जो विपरीत समय होगा, वह जाएगा पीछे की तरफ। यहां बच्चा पैदा होता है, फिर जवान होता है, फिर बूढ़ा होता है। अगर कोई विपरीत समय होगा, तो वहां बूढ़ा होगा, फिर जवान होगा, फिर बच्चा होगा। उलटी यात्रा होगी।
और यह कोई तत्वचिंतक नहीं कह रहे हैं। आधुनिक फिजिसिस्ट, भौतिकशास्त्री कह रहे हैं कि इस समय की धारा के ठीक पास विपरीत समय की धारा होनी चाहिए। क्योंकि समय हो नहीं सकता बिना विपरीत के। बिना विपरीत के कुछ हो ही नहीं सकता।
आप देखते हैं कि एक पत्थर रखा हुआ है। तो पत्थर एक ठोस वस्तु है। विज्ञान कहता है कि जिस तरह पत्थर ठोस वस्तु है, और स्थान घेरता है, ऐसे ही स्थान में छिद्र भी होने चाहिए, होल्स--पदार्थ के विपरीत। अभी तक वे पकड़े नहीं जा सके हैं, लेकिन इस के ऊपर, इस सिद्धांत के ऊपर एक व्यक्ति को नोबल प्राइज उपलब्ध हो गई है।
आकाश में छिद्र भी होने चाहिए। बड़ा कठिन है सोचना भी कि छिद्र का क्या अर्थ होगा? आकाश भरा हुआ है, एक भराव है। ठीक इसके पास ही खाली, शून्य छिद्र भी होने चाहिए।
महावीर ने आज से पच्चीस सौ साल पहले ठीक ऐसी बात कही थी। उन्होंने कहा था, लोक है और अलोक है। अलोक इसके विपरीत है। यह जो अस्तित्व दिखाई पड़ रहा है, यह मैटर--लोक। इसके विपरीत जो है, अलोक--एंटी मैटर।
यह तो जगत की व्यवस्था है, दृश्य की। परमात्मा है अदृश्य। वहां कोई भी विरोध न होगा। वहां सभी विरोध समन्वित हो जाएंगे। वहां विपरीत अपनी विपरीतता खो देंगे।
परमात्मा है एक। तो एंटी गाड, परमात्मा के विपरीत अगर कुछ हो, तो परमात्मा भी जगत का हिस्सा हो गया। लेकिन परमात्मा जगत से बड़ा है। लोक और अलोक, दोनों को घेर लेता है। पदार्थ और विपरीत-पदार्थ, काल और काल के विपरीत धारा, जन्म और मृत्यु, दोनों को एक साथ घेर लेता है। वह एक है, जिसमें दोनों ही समाविष्ट हैं।
यह पहली बात परमेश्वर के संबंध में समझ लेनी चाहिए कि वह समग्रता का जोड़ है। उसके भीतर जन्म भी है और उसके भीतर मृत्यु भी है। इसलिए वही स्रष्टा है और वही विध्वंसक है। वही मित्र है, वही शत्रु है। वही बनाता है, वही मिटाता है।
जब ऐसे शब्दों का हम प्रयोग करते हैं, तो एक कठिनाई है। ऐसा लगता है, जैसे वह कोई व्यक्ति है। यह भाषा की भूल है। और भाषा के पास और कोई उपाय नहीं है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा केवल ऊर्जा का विराट विस्तार है। इस ऊर्जा के विराट विस्तार में दोनों संयुक्त हैं। जो हमें विपरीत दिखाई पड़ते हैं, दिन और रात, वे दोनों ही परमात्मा में समाविष्ट हैं। रात भी उसकी, दिन भी उसका। इस बात को आज नहीं कल विज्ञान को भी स्वीकार कर ही लेना पड़ेगा।
विज्ञान यह तो स्वीकार करता है कि विपरीतता है, एक डुआलिटी है, एक द्वैत है। उसे यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि जहां भी दो हों, उन दोनों को जोड़ने वाला एक तीसरा सेतु चाहिए, अन्यथा उन दोनों के बीच कोई संबंध न रह जाएगा। और उन दोनों के बीच एक तारतम्य है, एक गति है, एक संगीत है। निश्चित ही कोई तीसरा चाहिए, जो दोनों को घेर लेता है, दोनों को समाविष्ट कर लेता है।
परमात्मा का अर्थ है, टोटलिटी, समग्रता, जहां सभी द्वंद्व एक साथ मौजूद हैं। यह हमें समझने में बड़ा कठिन है। क्योंकि तर्क तोड़ता है, जोड़ने की कला तर्क के पास नहीं है। जैसे कैंची काटती है, लेकिन कैंची के पास जोड़ने का कोई उपाय नहीं है। और अगर आप कैंची से जोड़ने का उपाय करें, तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। जितना आप जोड़ेंगे, उतना ही कटता चला जाएगा।
तर्क कैंची है। इसलिए हमने तर्क के देवता को--गणेश तर्क के देवता हैं भारतीय पुराण-कथा में--चूहे पर सवार किया है। चूहा कैंची है, वह काटता है। चूहा जोड़ नहीं सकता। इसलिए चूहे को उनका वाहन बनाया है। सिर्फ एक प्रतीक है।
और आप जानकर हैरान होंगे कि आप गणेश का हर काम में स्मरण करते हैं, शुभ काम में। आपको पता नहीं होगा कि कारण बड़ा अजीब है। क्योंकि गणेश खतरनाक हैं, विध्वंसक हैं। वे उपद्रवी हैं, तर्क की सवारी है। तो ऐसी कथा है कि गणेश हर तरह के शुभ कार्यों में बाधा उपस्थित करते रहे हैं, प्राचीन समय में। फिर लोग उनसे इतने डरने लगे कि उनका पहले ही स्मरण कर लेना उचित है, ताकि वे बाधा न बनें। इसलिए--श्री गणेशाय नमः! वह पहले से जो याद कर रहे हैं, उसका मतलब यह है कि तुम कृपा करना, तुमसे भय है।
धीरे-धीरे लोग भूल ही गए कि वे विध्वंसक हैं, अब तो वे मंगल के प्रतीक हो गए। लंबे समय में मनुष्य की चेतना में ऐसा हो जाता है। उनकी याददाश्त उनके उपद्रवी होने के कारण थी। फिर धीरे-धीरे बात भूल गई। और अब तो वे मंगल-सूचक हैं। अब तो उनकी याददाश्त हम करते हैं इसलिए कि उनसे सभी काम मंगलकारी होंगे। लेकिन उनके उपद्रव का कारण है उनकी तर्कनिष्ठा, तोड़ने की कला, काटने की बात।
विज्ञान तर्क पर निर्भर है। वह तर्क का ही फैलाव है। इसलिए विज्ञान तोड़ता है। इसलिए एनालिसिस, विश्लेषण उसकी विधि है। विज्ञान को कोई भी चीज दें, वह तोड़कर उसको खंड-खंड में बांट देगा। इसलिए विज्ञान परमाणु तक पहुंच गया--तोड़ते-तोड़ते, काटते-काटते।
धर्म तर्क के पार जाता है। क्योंकि धर्म कहता है, तोड़ने से तुम पूर्ण को कभी भी न जान सकोगे। तोड़ने से खंड तो जान लिया जाएगा, अखंड कैसे जाना जाएगा? परमाणु को तो तुम जान लोगे, लेकिन परमेश्वर को कैसे जानोगे?
ये दो छोर हैं। परमाणु--तोड़ते चले जाएं तो परमाणु बचता है। जोड़ते चले जाएं तो--परमेश्वर। परमेश्वर का अर्थ है, सबका जोड़, जिसके आगे जोड़ने को नहीं बचता। और परमाणु का अर्थ है, आखिरी तोड़, जिसके आगे तोड़ने को नहीं बचता। इसलिए विज्ञान की आखिरी निष्पत्ति परमाणु है, एटम है। धर्म की आखिरी निष्पत्ति परमेश्वर है। ये दो छोर हैं। विज्ञान द्वैत से शुरू होता है और अनेक पर समाप्त होता है। धर्म भी द्वैत से शुरू होता है और एक पर समाप्त होता है।
धर्म की विधि का नाम है सिन्थेसिस, संश्लेषण, जोड़ना। और जोड़ते चले जाना, जब तक कुछ भी शेष रहे। जब सभी जुड़ जाए, तो उस समग्रता का नाम परमेश्वर है। वह कोई व्यक्ति नहीं है। वह इस पूरे अस्तित्व की अखंडता का नाम है। उस अखंडता में सभी भेद समाप्त हो जाएंगे, क्योंकि वह जोड़ है। और विज्ञान में सभी भेद प्रगट हो जाएंगे, क्योंकि वह तोड़ना है।
इसलिए विज्ञान न केवल वस्तुओं को तोड़ता है, बल्कि खुद भी टूटता चला जाता है। आज से कोई पांच सौ साल पहले विज्ञान का कुछ अर्थ था, शब्द का। अब तो कोई अर्थ नहीं है। विज्ञान जैसी कोई चीज अब नहीं है। फिजिक्स है, केमेस्ट्री है, बायोलाजी है, विज्ञान जैसी अब कोई चीज नहीं है। आप अगर पूछें कि साइंटिस्ट कौन है, तो बताना मुश्किल है। कोई बायोलाजिस्ट है, कोई फिजिसिस्ट, कोई केमिस्ट है, साइंटिस्ट तो कोई भी नहीं है। विज्ञान तोड़ते-तोड़ते खुद भी टूट गया, छोटी-छोटी शाखाओं में विभाजित हो गया। और इन शाखाओं के बीच भी कोई तालमेल नहीं रह गया है।
इस समय मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि हमारे ज्ञान की शाखाओं के बीच कोई समन्वय नहीं रह गया है, कोई संबंध नहीं रह गया है। वह जो भौतिकशास्त्री है, उसे कुछ भी पता नहीं कि रसायनशास्त्र क्या कर रहा है। क्योंकि भौतिकशास्त्र ही इतना बड़ा शास्त्र है कि एक आदमी हजार साल भी जीए, तो भी उसे पूरा नहीं जान पाएगा। और रसायनशास्त्र खुद इतना बड़ा शास्त्र है कि उसे भी कोई आदमी पूरा नहीं जान पाएगा।
पुराने समय में एक ही वैद्य या एक ही डाक्टर सभी का इलाज कर देता था। अब वैसी बात नहीं है। अब अगर आपकी आंख खराब है, तो अलग डाक्टर है। कान खराब है, पैर खराब है, पेट खराब है, तो बंटता जा रहा है। पश्चिम में एक मजाक है कि इक्कीसवीं सदी में एक आदमी अपनी आंख के इलाज के लिए एक डाक्टर के पास गया। उस डाक्टर ने पूछा, आपकी कौन-सी आंख खराब है, बायीं कि दायीं? क्योंकि मैं बायीं आंख का डाक्टर हूं।
इसकी संभावना है। चीजें टूटती चली जाती हैं।
विज्ञान, जो दूसरे को खंडित करता है, वह स्वयं भी खंडित होता चला जाता है। इसलिए वैज्ञानिकों के बीच कोई संवाद नहीं रहा है। एक वैज्ञानिक की बात दूसरा वैज्ञानिक नहीं समझ सकता, इतना स्पेशलाइजेशन है। विज्ञान का डर अब यही है कि कहीं ऐसा न हो जाए कि ज्ञान की एक शाखा दूसरे से बिलकुल अपरिचित हो, तो कठिनाई खड़ी हो जाए।
जैसा हुआ है। पिछले महायुद्ध में जब एटम के प्रयोग शुरू हुए, तो फिजिसिस्ट ने कहा कि कोई खतरा नहीं है। क्योंकि फिजिसिस्ट को बायोलाजी का, जीवशास्त्र का कोई पता नहीं था, जीवशास्त्रियों से पूछा नहीं गया। हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराने के वक्त भौतिकशास्त्रियों से पूछा गया, क्योंकि उन्होंने एटम बम बनाया था, और जीवशास्त्रियों से पूछा नहीं गया कि जीवन पर इसका क्या परिणाम होगा।
यह तो परिणाम बाद में पता चले, कि परिणाम बड़े भयंकर हैं। और परिणाम एक दिन में समाप्त हो जाने वाले नहीं हैं। जो स्त्रियां गर्भवती थीं और बच गईं, उनके गर्भ के बच्चे रेडियो-एक्टीविटी से भर गए। उनके बच्चे अब हजारों सदियों तक, जब तक उनके बच्चों के बच्चे होते रहेंगे, रुग्ण और बीमार, पंगु होंगे।
जहां एटम गिरा, वहां तो लोग समाप्त हो ही गए, लेकिन उस एटम से जो धुआं उठा और उसके साथ जो रेडियो-एक्टीविटी चारों तरफ फैल गई। सागर में गिरी वह राख, मछलियां उससे विषाक्त हो गईं। अब उन मछलियों को शुद्ध करने का कोई उपाय नहीं। उन मछलियों को जिन लोगों ने खाया, उनकी हड्डियों में रेडियो-एक्टीविटी प्रविष्ट हो गई। उनकी हड्डियां विषाक्त हो गईं, उनका खून विषाक्त हो गया। उन मछलियों की खाद जिन वृक्षों में डाली गई, वे विषाक्त हो गए। चल पड़ी यात्रा।
अब वैज्ञानिक कहते हैं कि उसे सम्हालने का कोई उपाय नहीं है। इतना विस्तार है जीवन का कि वह सब जगह प्रविष्ट हो गई। और लोगों ने सोचा था, भौतिकशास्त्रियों ने, कि एक सीमा में प्रभाव होगा। लेकिन जगत इतना जुड़ा हुआ है, इतना जुड़ा हुआ है कि आप कल्पना ही नहीं कर सकते कि उसका प्रभाव किस भांति फैलता चला जाएगा। गायों के दूध में प्रविष्ट हो गया। गायों का दूध बच्चों ने पीया, वह बच्चों में प्रविष्ट हो गया। उन गायों के जो बच्चे होंगे, वे पहले से ही आण्विक-प्रक्रिया से विषाक्त हो गए। यह पीछे पता चला कि जीवशास्त्री से पूछ लेना चाहिए था कि जीवन पर इसका क्या परिणाम होगा?
इसलिए पश्चिम में एक नया आंदोलन है, इकोलाजी। वे कहते हैं कि कोई भी काम करना हो तो समस्त ज्ञान की शाखाओं से पूछकर ही करना चाहिए, क्योंकि जीवन इतना जुड़ा हुआ है। आपने तोड़ लिया है अलग-अलग विज्ञान, लेकिन जीवन नहीं टूट गया है, जीवन इकट्ठा है। यहां छोटी-सी बात के परिणाम होंगे।
अब जैसे कि अभी चांद पर आदमी गया, तो जो चांद पर ले जाने की व्यवस्था कर रहे थे, अंतरिक्ष यात्री और यात्रा से संबंधित जो विज्ञान थे, उनसे पूछ लिया गया। लेकिन जीवन इतना बड़ा है कि कोई विज्ञान उसे पूरा नहीं घेर पाता।
सारी व्यवस्था के बाद भी एक भूल हो गई, जो पीछे ही पता चली। जैसे ही चांद की यात्रा पर हमारे राकेट जाते हैं, तो हमारे वायुमंडल में छिद्र कर जाते हैं। कोई दो सौ मील का वायुमंडल जमीन को घेरे हुए है। और उस वायुमंडल के कारण आपको श्वास ही नहीं मिलती, उस वायुमंडल के कारण अंतरिक्ष से आने वाली जो विषाक्त किरणें हैं, वे रोक ली जाती हैं। यह दो सौ मील की हवा का घेरा खतरनाक किरणों को भीतर नहीं आने देता, इसलिए आप जीवित हैं। नहीं तो अंतरिक्ष से, चांद-तारों से बहुत तरह की किरणें आ रही हैं, जो अगर सब प्रविष्ट हो जाएं तो हम अभी समाप्त हो जाएं।
जब हमारे राकेट निकले वायुमंडल से, तो वे छेद कर गए। उन छिद्रों से, पहली दफा पृथ्वी के इतिहास में, विषाक्त किरणें प्रविष्ट कर गईं। लेकिन जब वे प्रविष्ट कर गईं, तब पता चला। कुछ वैज्ञानिकों का खयाल है कि कैंसर की बढ़ती हुई हालत वायुमंडल में हुए छिद्रों के कारण है। अब उसे रोकने का कोई उपाय नहीं है। और अब रोज अंतरिक्ष में जाने की बात चल रही है। और इन सारे तथ्यों को छिपाया जाता है, ताकि आम आदमी को पता न चले।
सारे समुद्र विषाक्त होते जा रहे हैं। क्योंकि जो हमारी मिलें और फैक्ट्रियां जो जहर छोड़ रही हैं, वह सागरों को विषाक्त कर रहा है। लेकिन जीवन संयुक्त है। सागर कोई ऐसी जगह नहीं है कि उसमें हमने छोड़ दिया...। सागर में पौधे हैं, वे पौधे आक्सीजन पैदा करते हैं और वह आक्सीजन हम पीते हैं। उनके बिना हम जी नहीं सकते। वे पौधे मरते जा रहे हैं। उनके मर जाने पर हमारी आक्सीजन की मात्रा कम होती जा रही है। वैज्ञानिक कहते हैं कि इन तीन सौ वर्षों में आक्सीजन इतना कम हुआ है कि यह आश्चर्य है कि आदमी जिंदा कैसे है? तो मुर्दा-मुर्दा जिंदा है, स्वास्थ्य खो गया है।
जीवन एक अखंडता है। सब चीजें जुड़ी हैं। जैसे कि मकड़ी का जाल हो और आप उस मकड़ी के जाल के एक धागे को हिला दें, तो पूरा जाल हिल जाता है। ऐसा ही जीवन में आप जरा-सा कुछ करें, तो पूरे जीवन का जाल हिल जाता है। उस अखंड जाल का नाम परमेश्वर है।
विज्ञान तोड़ता है, खुद भी टूटता है। धर्म जोड़ता है और खुद जुड़ता है। इसलिए जिस दिन आदमी ठीक-ठीक प्रौढ़ होगा, इस पृथ्वी पर एक ही धर्म रह जाएगा। और जितना विज्ञान बढ़ता जाएगा, उतने अनंत विज्ञान होते चले जाएंगे।
दूसरी बात, परमात्मा कोई सिद्धांत नहीं है; परमात्मा एक अनुभव है, जैसे प्रेम एक अनुभव है। और जिसने कभी प्रेम नहीं किया, वह कितने ही शास्त्र पढ़ ले प्रेम के ऊपर, वह कितनी ही जानकारी इकट्ठी कर ले, तो भी प्रेम का उसे कुछ भी पता नहीं चलेगा। और जिसने प्रेम किया है, उसने चाहे कोई भी शास्त्र न पढ़ा हो, तो भी प्रेम क्या है, इसका उसे अनुभव होगा।
परमात्मा कोई सिद्धांत नहीं है। गणित में सिद्धांत होते हैं, उनको अनुभव करने की कोई जरूरत नहीं है। अनुभव का उनसे कोई संबंध नहीं है। धर्म में अनुभव होता है, सिद्धांत नहीं। सिद्धांत से उसका कोई संबंध नहीं है। इसलिए जो लोग सैद्धांतिक खोज करते हैं, वे लोग व्यर्थ ही भटक जाते हैं। लेकिन जो अनुभव से अपने को बदलकर और किसी नई दिशा में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं, वे जरूर उसे उपलब्ध हो जाते हैं।
तीसरी बात, आपके पास जो बुद्धि है, वह बुद्धि आपकी पूर्णता नहीं है। आप बुद्धि से बहुत ज्यादा हैं। जैसे मेरा हाथ सिर्फ मेरा हाथ है, हाथ से मैं बहुत ज्यादा हूं। मेरा पैर सिर्फ मेरा पैर है, मैं पैर से बहुत ज्यादा हूं। ऐसे ही बुद्धि भी मेरा एक उपकरण है, उससे मैं बहुत ज्यादा हूं। तो जो सिर्फ बुद्धि से खोज करेंगे, वे परमात्मा तक नहीं पहुंचेंगे।
समग्र तक पहुंचना हो तो खुद भी समग्र होना पड़ेगा। बुद्धि एक अंग है, उपयोगी। लेकिन बुद्धि ने पूरी मालकियत कर ली है। और आपको ऐसा लगने लगा है बुद्धि की मालकियत से कि आप खोपड़ी के भीतर रह रहे हैं। अगर कोई आपसे पूछे कि आप कहां हैं, तो आप इशारा करेंगे खोपड़ी के भीतर। यह एक बड़ी भारी दुर्घटना है।
बच्चा जब मां के पेट में होता है, तो मस्तिष्क न के बराबर होता है, लेकिन बच्चा पूरा होता है। और मस्तिष्क के बिना भी शरीर बढ़ता है, बड़ा होता है।
जीवन मस्तिष्क से पहले है। और जीवन की प्रक्रिया से मस्तिष्क पैदा होता है। जब बच्चा पैदा होता है, तो उसके पास केवल दस प्रतिशत मस्तिष्क होता है। फिर नब्बे प्रतिशत तो विकसित होगा। और जब मां के पेट में पहले दिन बच्चे का अणु निर्मित होता है, तब तो मस्तिष्क जैसी कोई चीज होती ही नहीं। लेकिन जीवन होता है। और जीवन फैलता है।
जिस तरह पैर बढ़ता है, हाथ बढ़ते हैं, उसी तरह मस्तिष्क भी बढ़ता है। वह जीवन की एक शाखा है। शाखा को मूल मत समझें। और उस शाखा को ही सब समझकर जो जीने की कोशिश करेगा, उसकी दृष्टि पंगु हो जाएगी।
इसलिए बुद्धि से जीने वाले लोग पंगु हो जाते हैं, क्रिपिल्ड। जैसे कोई आदमी सिर्फ हाथ से ही जी रहा हो, और सारे शरीर को बांधकर रख दे। तो उस आदमी की क्या जिंदगी होगी! वह हाथ से ही देखने की भी कोशिश करेगा। हाथ से ही सुनने की भी कोशिश करेगा। हाथ से ही चलेगा भी। हाथ ही सब कुछ बना ले और सारे शरीर को बांधकर रख ले, ऐसी हमारी हालत है।
हमने मस्तिष्क को सब कुछ बना लिया है और सारे व्यक्तित्व को बांधकर रख दिया है। यह जकड़ा हुआ, बंधा हुआ व्यक्तित्व परम सत्य को नहीं जान सकता। इसलिए बुद्धि से थोड़ा गहरे उतरना जरूरी है। और जीवन के उस तल पर आना चाहिए जो बुद्धि के पहले था, और जिस दिन मस्तिष्क जल रहा होगा चिता में, उस दिन भी होगा।
जीवन विराट शक्ति है। आप उस जीवन की विराट शक्ति का एक छोटा-सा पहलू हैं--मस्तिष्क में।
शिव ने पार्वती को दिए गए सूत्रों में एक सूत्र कहा है। और कहा है कि तू ऐसे जी जैसे मस्तिष्क नहीं है--हेडलेस--जैसे खोपड़ी नहीं है। आप भी चकित होंगे। अगर आप चलते-उठते एक ही बात का स्मरण रख सकें कि खोपड़ी गई, नहीं है, बिना खोपड़ी के सिर्फ धड़! अगर आप तीन महीने इसका अभ्यास कर सकें--जब भी स्मरण आ जाए तो बस, खोपड़ी नहीं है--आप बहुत चकित होंगे, आपकी जिंदगी में बड़े परिवर्तन हो जाएंगे।
क्योंकि खोपड़ी नहीं है, तो आप धीरे-धीरे हृदय की तरफ सरकने लगेंगे, वह केंद्र बन जाएगा होने का। और खोपड़ी नहीं है तो आप बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे कि अब अशांत कैसे हों? खोपड़ी नहीं है तो अब बेचैन कैसे हों? खोपड़ी नहीं है तो अब क्रोध कैसे करें? अब चिंतित कैसे हों?
खोपड़ी का त्याग सब उपद्रव का त्याग हो जाता है। अगर तीन महीने आप इस अभ्यास को करते रहें, आप पाएंगे आपकी चिंताएं विसर्जित हो गईं, आपके मन में चलने वाले तूफान और आंधियां खो गईं, और आप ज्यादा संतुलित, शांत और सौम्य हो गए। और हृदय में उतर आए।
लेकिन हृदय से भी नीचे एक और गहराई है, जो नाभि है। क्योंकि बच्चे के जीवन की पहली पुलक नाभि से शुरू होती है। हृदय से भी नीचे उतरने के उपाय हैं। और जब कोई व्यक्ति ठीक नाभि में पहुंच जाता है, तब अपने केंद्र पर, सेंटर पर आ गया। और उस केंद्र से ही परमात्मा से संबंध जुड़ सकता है।
अब हम इन सूत्रों में प्रवेश करें--
वह परमेश्वर बैठा हुआ ही दूर पहुंच जाता है, सोता हुआ भी सब ओर चलता है। उस ऐश्वर्य के मद से उन्मत न होने वाले देव को मुझसे भिन्न दूसरा कौन जानने में समर्थ है!
यह काव्य की भाषा में द्वंद्व के ऊपर निर्द्वंद्व की सूचनाएं हैं।
वह परमेश्वर बैठा हुआ ही दूर पहुंच जाता है।
यह विपरीत हो गई बात, क्योंकि बैठा हुआ कोई कैसे दूर पहुंच सकता है? दूर पहुंचने के लिए चलना होगा। हम चलकर दूर पहुंच सकते हैं। यह काव्य की भाषा है, विपरीत को जोड़ने की, अपोजिट्‌स को एक साथ लाने की।
यम कह रहा है, वह परमेश्वर बैठा हुआ ही दूर पहुंच जाता है, सोता हुआ भी सब ओर चलता रहता है। उस ऐश्वर्य के मद से उन्मत न होने वाले देव को मुझसे भिन्न दूसरा कौन जानने में समर्थ है!
हमने परमात्मा का एक नाम रखा है, ईश्वर। ईश्वर का अर्थ होता है, ऐश्वर्य से भरपूर। ईश्वर का अर्थ है, जिसके पास सारा ऐश्वर्य है। लेकिन जिसके पास थोड़ा-सा भी ऐश्वर्य होता है, उसके पास अहंकार निर्मित हो जाता है। जरा-सा धन हो तो धन गर्मी देने लगता है। जरा-सी संपदा हो तो आदमी उछलकर चलने लगता है। धन मद है, शराब है।
एक अमीर आदमी का दिवाला निकल जाए तो सब नशा उखड़ जाता है। फिर उसकी चाल ऐसे हो जाती, जैसे शराबी का जब नशा उतर जाता है तब चलता है--हैंगओवर। नशा भी नहीं है, लेकिन चाल लुस्त-पुस्त हो गई। पीया था कभी, उसकी याद भर रह गई। लेकिन वह याद व्यथित किए जाती है। उसने एक खालीपन पैदा कर दिया।
ईश्वर परम ऐश्वर्य है। लेकिन द्वंद्व के अतीत की सूचना इस बात में है--उस ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त न होने वाले...। लेकिन मद वहां नहीं है। ऐश्वर्य वहां पूर्ण है, लेकिन मूर्च्छा और बेहोशी जरा भी नहीं है। अहंकार वहां नहीं है।
परमात्मा को अहंकार हो, तो समझ में आ सकता है। हमको अहंकार होता है, बिलकुल समझ में आने जैसा नहीं है। दीन, दुर्बल, ना-कुछ, फिर भी अहंकार पकड़ता है कि मैं हूं। परमात्मा को अहंकार हो कि वह घोषणा करे कि मैं हूं, तो समझ में आता है; लेकिन वहां कोई घोषणा नहीं है। यहां हम दीन-दुर्बल घोषणा करते हैं कि मैं हूं, और उसकी कोई घोषणा नहीं है!
इसीलिए आप कितना ही चिल्लाते रहें कि कहां है परमात्मा, मैं देखना चाहता हूं! आपकी आवाजें, आपके तर्क, उसे इतना भी उत्तेजित नहीं कर पाते कि वह सामने आकर खड़ा हो जाए और कहे कि यह रहा मैं।
मैं वहां नहीं है। नहीं तो नास्तिकों ने उसे कभी का बुला लिया होता।
एक यूरोप का विचारशील नास्तिक हुआ--बर्क। वह एक विवाद में उतरा था एक पादरी के साथ। तो पहला ही तर्क बर्क ने उपस्थित किया। उसने अपनी घड़ी हाथ से निकाली और कहा कि मैं तुम्हारे परमात्मा को कहता हूं कि अगर वह सर्वशक्तिमान है, तो इतना ही करे कि मेरी घड़ी को रोक दे इसी वक्त, बंद कर दे, चले न। अभी घड़ी में आठ बजा है, बस आठ पर ही कांटा रुक जाए। इतना भी तुम्हारा परमात्मा कर दे, तो भी मैं समझ लूंगा कि वह है। लेकिन घड़ी चलती रही। परमात्मा ने इतना भी न किया। सर्वशक्तिमान, इतनी छोटी-सी शक्ति भी न दिखा सका, जो कि एक छोटा बच्चा भी पटककर कर सकता था!
बर्क ने कहा कि प्रमाण जाहिर है। कोई परमात्मा नहीं है।
लेकिन बर्क कर क्या रहा था? वह सिर्फ अहंकार को चोट पहुंचा रहा था। वह यह कह रहा है कि अगर हो, तो इतना-सा करके दिखा दो। बर्क समझ ही नहीं पा रहा। मुद्दे की बात ही उसकी चूक गई। परमात्मा के पास कोई अहंकार नहीं है, आप इसलिए उसे उत्तेजित नहीं कर सकते। उत्तेजित उसे किया जा सकता है जहां अस्मिता हो।
असल में क्षुद्र को ही उत्तेजित किया जा सकता है; विराट को उत्तेजित करने का कोई उपाय नहीं है। असल में सिर्फ चाय की प्यालियों में ही तूफान लाए जा सकते हैं। विराट में आपकी बातें तूफान नहीं उठा सकतीं। उनसे कोई चोट ही नहीं पड़ती। वे हों या न हों, कोई भेद नहीं होता।
यह सूत्र सूचना कर रहा है कि परम ऐश्वर्यवान, लेकिन ऐश्वर्य के मद से शून्य...।
यह विपरीतता को जोड़ना है। छोटा-सा भी ऐश्वर्य अहंकार देता है; विराट ऐश्वर्य--अगर गणित से हम चलें--तो महान अहंकार देगा। लेकिन धर्म गणित की भाषा नहीं है। जितना बड़ा ऐश्वर्य, जितना विराट अनंत ऐश्वर्य, उतना ही शून्य अहंकार। इसे अगर हम मनोविज्ञान की भाषा में समझें तो बहुत आसान होगा।
पश्चिम में एक बहुत कीमती मनोवैज्ञानिक हुआ, एडलर। और एडलर ने अपने पूरे मनस-शास्त्र का आधार रखा--इनफिरियारिटी कांप्लेक्स, हीनता का भाव। और एडलर ने कहा कि मनुष्य की सारी चेष्टाएं हीनता की ग्रंथि से पैदा होती हैं। जो आदमी बड़े पद पर पहुंचना चाहता है, एडलर का कहना है, उसको भीतर लगता है कि मैं ना-कुछ हूं। ना-कुछ की बात को पोंछने के लिए वह बड़ी कुर्सी पर बैठना चाहता है। राजनीतिज्ञों से ज्यादा हीन-ग्रंथि से पीड़ित और कोई भी नहीं होता। एडलर ने कहा है कि लिंकन या लेनिन या हिटलर या कोई और, ये सब किसी न किसी हीनता की ग्रंथि से पीड़ित हैं और उस हीनता की ग्रंथि को भरने के लिए दौड़ पड़ते हैं।
लेनिन के पैर छोटे थे। ऊपर का हिस्सा बड़ा था शरीर का, नीचे का हिस्सा छोटा था। वह कुर्सी पर बैठता था तो उसके पैर जमीन को नहीं छूते थे। इससे वह बड़ा पीड़ित था। तो उसने रूस के सबसे बड़े सिंहासन पर बैठकर दिखा दिया कि तुम्हारे पैर जमीन पर पहुंचते हों भला, लेकिन मेरे पैर सिंहासन पर पहुंच जाते हैं।
एडलर का कहना है कि वह हीनता की ग्रंथि उसको खींचती ही रही। हिटलर, शक है कि नपुंसक था। उसकी नपुंसकता शक्ति की दौड़ बन गई। और यह दौड़ इतनी बड़ी बन गई कि उसकी आकांक्षा थी कि सारी दुनिया को मुट्ठी में लेकर बता दे कि तुम्हारी पुंसकता, तुम्हारी शक्ति क्या है?
विपरीत दौड़ पैदा हो जाती है। अगर कोई आदमी कुरूप है, तो वह किसी न किसी ढंग से उस कुरूपता को पूरा करने की कोशिश करता है। अगर कोई आदमी अंधा है, तो उसकी आंख की सारी शक्ति कानों को उपलब्ध हो जाती है। इसलिए अंधे जितने ढंग से सुनते हैं, कोई आंख वाला नहीं सुन सकता। और अंधे अक्सर संगीत में प्रवीण हो जाते हैं। क्योंकि आंख की शक्ति दौड़कर कान को मिल जाती है। वह जो आंख की कमी थी, कान से अंधा पूरा करने लगता है। जहां-जहां कमी है, उसको ढांकने के लिए उससे विपरीत हमें कुछ करना पड़ता है
एडलर ने कहा है कि आदमी को जो अहंकार पैदा होता है, वह हीनता के कारण है। धन की दौड़ पैदा हो जाती है। जिन लोगों के जीवन में भी प्रेम की कमी है, वे धन के दीवाने हो जाते हैं। जिन्हें प्रेम का स्वर्ण नहीं मिला, वे फिर कंकड़-पत्थर वाला स्वर्ण इकट्ठा करने में लग जाते हैं।
यह बड़े मजे की बात है कि अगर कोई आदमी ठीक-ठीक प्रेम से भरा हो, तो कंजूस नहीं हो सकता। और कंजूस आदमी प्रेमी नहीं हो सकता। क्योंकि असल में कंजूस प्रेम की कमी को ही धन से पूरा कर रहा है। जिसके जीवन में प्रेम है, उसके जीवन में एक सुरक्षा है। वह जानता है कि मैं भूखा नहीं मरूंगा। वह जानता है, मैं बूढ़ा हो जाऊंगा, तो कोई न कोई मेरी सेवा कर देगा।
लेकिन जिसके जीवन में प्रेम नहीं है, वह घबड़ाया हुआ है, वह असुरक्षित है। वह जानता है कि अगर मैं बूढ़ा हो गया, तो कोई मेरी तरफ देखने वाला भी नहीं है। उसकी पूर्ति वह धन की तरफ पकड़ से करेगा। धन इकट्ठा करने लगेगा, क्योंकि अब धन ही सुरक्षा है। जिसके जीवन में प्रेम की सुरक्षा नहीं है, उसके जीवन में धन की सुरक्षा का भाव पैदा हो जाएगा।
हम पूर्ति करते हैं, छिपाते हैं, ढांकते हैं। हमारे सारे व्यवहार को हम गौर से देखें तो एडलर की बात सच मालूम पड़ती है।
परमात्मा के पास सब कुछ है, इसलिए हीनता की कोई ग्रंथि नहीं हो सकती। इसलिए जो व्यक्ति जितना परमात्मा के करीब पहुंचने लगता है, उतना ही निरअहंकारी होता चला जाता है। जिसके पास जितना ज्यादा है, उतना ही अहंकार कम होने लगता है; और जिसके पास जितना कम है, उतना ही ज्यादा अहंकार होता है। अहंकार दरिद्र, भिखारी का प्रतीक है। निरअहंकारिता सम्राट होने की सूचना है।
स्वभावतः, जिसके पास जगत की समग्र समग्रता है, उसके पास मैं होने का कोई भी खयाल न होगा। ये विपरीत को जोड़ने के प्रयास हैं, काव्य के ढंग से।
और एक बड़े मजे की बात यम कह रहा है कि उस ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त न होने वाले देव को, मुझसे भिन्न दूसरा कौन जानने में समर्थ है?
मृत्यु के अतिरिक्त उस परमात्मा को कोई भी जानने में समर्थ नहीं है। क्यों? क्योंकि जब तक आप मरते नहीं, मिटते नहीं, खोते नहीं, तब तक आप उससे नहीं जुड़ सकते। जब तक आपका अहंकार जल नहीं जाता, राख नहीं हो जाता, तब तक आप उस निरअहंकार के तत्व के साथ एकता नहीं बना सकते। उससे मिलना हो तो उस जैसे हो जाना जरूरी है। समान ही समान से मिल सकता है।
आप अभी बिलकुल उससे विपरीत हैं, और पूछते हैं, ईश्वर कहां है? आप पीठ किए खड़े हैं सूरज की तरफ, और पूछते हैं, सूरज कहां है? कोई उपाय नहीं है, अगर आप पीठ किए खड़े रहें। सूरज है, आपकी ही पीठ ने छिपाया है। और आप कहते हैं, जब तक सिद्ध न हो जाए कि सूरज है, तब तक मैं पीठ क्यों मोडूं? पहले सिद्ध हो कि सूरज है तो फिर मैं चेष्टा करूं। सभी तार्किक यही कह रहे हैं।
धार्मिक कहता है कि तुम पीठ मोड़ो, तभी सूरज है। तुम बदलो अपने को। इस अहंकार को छोड़ो।
यह यम का सूत्र बड़ा कीमती है, कि मेरे अतिरिक्त--मृत्यु के अतिरिक्त--उसे जानने में और कोई भी समर्थ नहीं है। इसलिए जो मरने को राजी है, मिटने को राजी है...।
जीसस ने कहा है, जो अपने को खोएंगे, वे ही बचेंगे। और जो अपने को बचाएंगे, उनके बचने का कोई उपाय नहीं है।
एक विसर्जन, जैसे बूंद गिर जाए सागर में और अपने को खो दे, ऐसा जब कोई व्यक्ति राजी हो जाता है गिरने को, खोने को, समर्पित, निवेदित होने को, तत्क्षण अहंकार विसर्जित हो जाता है। और अहंकार के विसर्जित होते ही भीतर की छिपी हीनता तिरोहित हो जाती है।
जब तक आप अहंकार से भरे हैं, आप भीतर हीन रहेंगे। हीनता को मिटा नहीं रहे हैं आप, सिर्फ ढांक रहे हैं। जैसे कोई घाव हो, और हम घाव पर पट्टियां बांध लें सुंदर रेशम की, मखमल की। वे पट्टियां कितनी ही सुंदर हों, और देखने वालों को कितना ही आकर्षित करें, उन पट्टियों के कारण घाव मिटता नहीं है। बल्कि खतरा यह है कि घाव खुला होता तो शायद मिट भी जाता--सूरज की किरणें पड़तीं, हवा पड़ती, प्रकृति उसे भर देती--ढका हुआ घाव और नासूर बनता चला जाएगा।
हम अपनी हीनता को दबा रहे हैं, छिपा रहे हैं। कोई धन से, कोई पद से, कोई ज्ञान से, कोई त्याग से। कोई न कोई उपाय करके हम कह रहे हैं कि मैं कुछ हूं। समबडी का हम भाव पैदा कर रहे हैं और भीतर नोबडी, ना-कुछ की हालत है।
धार्मिक व्यक्ति मृत्यु से गुजरता है, उसका अर्थ है कि वह इस कुछ होने की बात, फिजूल बात को जो ऊपर से थोपी है, छोड़ देता है और ना-कुछ होने वाली बात से पूरी तरह राजी हो जाता है।
यह रहस्यपूर्ण सूत्र है। जो ना-कुछ होने से राजी है, वह सब कुछ के साथ एक हो जाता है। और जो कुछ बनने की कोशिश में लगा है, वह सिकुड़ता रहता है, सड़ता रहता है। वह विराट के साथ संबंधित नहीं हो पाता है। ना-कुछ की पीड़ा छोड़ दें, और ना-कुछ के भाव को सहज स्वीकार कर लें, यही भक्त की दशा है।
इसलिए यम कह रहा है कि मेरे अतिरिक्त, उसे जानने में कौन समर्थ है?
जो स्थिर न रहने वाले विनाशशील शरीरों में शरीररहित एवं अविचलभाव से स्थित है, उस महान सर्वव्यापी परमात्मा को जानकर बुद्धिमान महापुरुष कभी किसी कारण से शोक नहीं करता।
जो स्थिर न रहने वाले विनाशशील शरीरों में शरीररहित अविचलभाव से स्थित है...।
शरीर तो परिवर्तनशील है। इस परिवर्तनशील के भीतर वह अपरिवर्तनशील छिपा है। विरोध को जोड़ने की निरंतर चेष्टा है, ताकि अखंड का स्मरण आ जाए। परिवर्तन के भीतर नित्य छिपा है। मरणधर्मा के भीतर अमृत छिपा है। वह जो प्रवाहशील है, उसके भीतर ध्रुव छिपा है। और जो व्यक्ति इस भीतर के अमृत, नित्य को जानने में समर्थ हो जाता है, फिर उसे कोई शोक, कोई दुख ग्रसित नहीं कर सकते।
सारा दुख एक ही बात का है कि हम परिवर्तन से बंधे हैं। और परिवर्तन का अर्थ ही है कि वह बदलेगा। और हम नहीं चाहते हैं कि वह बदले। जवान चाहता है कि शरीर बूढ़ा न हो जाए, शरीर बूढ़ा होगा। बूढ़ा चाहता है कि मर न जाए, शरीर मरेगा। तो जिससे हम बंधे हैं और जिसको हम रोक रखना चाहते हैं, वह रुकने वाला नहीं है। जैसे कोई आदमी नदी के किनारे बैठा है और सोच रहा है कि नदी न बहे, और बहेगी तो दुखी होगा। क्योंकि अपेक्षा पूरी नहीं होती।
सब कुछ बह रहा है। सब कुछ क्षणभंगुर है। लेकिन उस क्षणभंगुर को हम पकड़कर शाश्वत बनाना चाहते हैं। उसी से हमारा दुख पैदा होता है, क्योंकि वह शाश्वत हो नहीं सकता।
एक युवक एक युवती के प्रेम में हो, तो वह उससे कहता है कि सदा-सदा तुझे प्रेम करूंगा। वह युवती भी सोचती है कि सदा-सदा यह प्रेम रहेगा! लेकिन जो बोल रहा है, जहां से यह बात बोली जा रही है, वह देह, वह मस्तिष्क, वह मन क्षणभंगुर है। इससे कही गई कोई भी बात शाश्वत नहीं हो सकती। कल प्रेम बदल जाएगा, राख रह जाएगी पीछे। दीया बुझ जाएगा, बुझी हुई ज्योति रह जाएगी पीछे। तब पीड़ा होगी। तब लगेगा, किसी ने धोखा दिया। कहा था कि सदा-सदा प्रेम करूंगा, और यह प्रेम दिनभर भी न टिका! दुख होगा।
लेकिन दुख का कारण यह नहीं कि किसी ने आपको धोखा दिया। किसी ने धोखा नहीं दिया। परिवर्तन के साथ जो भी शाश्वत बनाने की आकांक्षा रखता है, वह दुख में पड़ता है। उस युवक को भी उस क्षण में ऐसा ही लगा था कि सदा-सदा प्रेम करूंगा, कोई धोखा नहीं दे रहा था। और अब लग रहा है कि प्रेम चला गया, अब क्या कर सकता है!
ईसाइयों का एक संप्रदाय है--क्वेकर। जमीन पर थोड़े से संप्रदाय जो सच में गहरे रूप में धार्मिक होने की कोशिश करते हैं, उनमें क्वेकर्स एक हैं। वे किसी तरह का आश्वासन नहीं देते, कोई प्रामिस नहीं देते। क्योंकि वे कहते हैं, क्षणभंगुर मन से क्या आश्वासन दें? अपना ही भरोसा नहीं है कि कल यही रहेंगे, तो आश्वासन क्या दें?
क्वेकर अदालत में कसम नहीं खाते, इसलिए सैकड़ों क्वेकर्स ने सजा खाई है, सिर्फ इसलिए कि वे अदालत में कसम नहीं खाते। वे कहते हैं, कसम खाए कौन? कल का भरोसा नहीं है। क्षणभर के बाद हम बदल सकते हैं। कसम तो वह खाए, जिसे शाश्वत का भरोसा हो। अदालत कहती है कि खाओ कसम बाइबिल पर हाथ रखकर कि तुम सत्य ही बोलोगे। क्वेकर कहता है कि मैं कसम भी खा लूं तो भी क्या फर्क पड़ता है! क्षणभर बाद मेरा मन सत्य न बोलना चाहे तो मैं क्या करूंगा? इसलिए कसम नहीं खाता। इसलिए कोई आश्वासन नहीं देता। इसलिए क्वेकर कहता है कि कल का कोई भरोसा नहीं है। अपना ही भरोसा नहीं है। सब बदल रहा है। नदी की तरह सब बहा जा रहा है।
बहती हुई धारा में जो ठहरने की कोशिश करता है, वह दुख पाएगा। वह धारा ठहर नहीं सकती, वह उसका स्वभाव नहीं है।
सिर्फ वही व्यक्ति शोक के पार हो जाता है, शोकवीत हो जाता है, जो भीतर छिपे हुए अविचल को पकड़ लेता है। उसके साथ फिर कभी कोई परिवर्तन नहीं, इसलिए कभी कोई दुख नहीं। वह भीतर का तत्व न कभी बूढ़ा होता है, न कभी मरता है, न कभी बदलता है। वह सदा एकरस है।
यह जो भीतर का अविचल तत्व है, यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। जिसको यह स्वीकार कर लेता है, उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि यह परमात्मा उसके लिए अपने यथार्थ स्वरूप को प्रगट कर देता है।
यह थोड़ा-सा कठिन सूत्र है। पर बहुत अनिवार्य है कि ठीक से समझ लिया जाए। इस पर बहुत कुछ निर्भर होता है।
न तो प्रवचन से...।
कितना ही शास्त्र को पढ़ें, सुनें, समझें, वह परमात्मा उपलब्ध नहीं होता। कोरे शब्द ही हाथ आते हैं, पांडित्य इकट्ठा हो जाता है। बुद्धि भर जाती है। स्मृति सघन हो जाती है। प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं, लेकिन कोई समाधान नहीं मिलता। आत्मा अतृप्त ही रह जाती है।
यह ऐसे ही है, जैसे किसी को प्यास लगी हो और आप उसको समझाएं कि पानी का अर्थ है--एच टू ओ। पानी आक्सीजन और हाइड्रोजन से मिलकर बनता है। और दो उदजन के परमाणु और एक अक्षजन का परमाणु, तीनों से मिलकर पानी बनता है। पानी कोई तत्व नहीं है, असली तत्व आक्सीजन, उदजन है। और जो एच टू ओ को समझ लेता है, उसने जल को समझ लिया। वह आदमी कहेगा, सब ठीक, लेकिन मेरी प्यास!
ध्यान रहे, एच टू ओ से प्यास नहीं बुझती। लिखते रहें बैठकर कागज पर एच टू ओ, एच टू ओ...। कई लोग लिख रहे हैं--राम, राम; कृष्ण, कृष्ण। लिखे जा रहे हैं! एक पागल आदमी मुझे मिला, उसने एक पूरी लाइबे्ररी बना रखी है। हजारों किताबें भरी रखी हैं। और पूरे मुल्क में उनके भक्त हैं जो लिख-लिखकर--राम, राम, राम, राम--कापियां भर-भरकर वहां भेजते रहते हैं। उनकी लाइब्रेरी में बस ये सिर्फ राम-राम लिखी हुई कापियां हैं। एच टू ओ लिखने से प्यास नहीं बुझती और न राम-राम लिखने से कोई राम को उपलब्ध होता है। समय व्यर्थ होता है। मूढ़ता के प्रतीक हैं।
लेकिन मूढ़ों की कोई कमी नहीं है। सब तरफ हैं। वह आदमी दिन में सुबह बैठकर घंटे दो घंटे खराब करके सोचता है, बड़ा काम कर लिया! क्या होगा तुम्हारे राम-राम लिखते रहने से? यह काम तो प्रेस कर दे सकता है। इसके लिए तुम्हें अपनी बुद्धि लगाने की जरा भी जरूरत नहीं है। और जो प्रेस कर दे, तो प्रेस कोई परमात्मा को उपलब्ध नहीं होता। आप भी उपलब्ध नहीं हो जाएंगे।
वह परमात्मा न तो प्रवचन से उपलब्ध होता है, न शास्त्र से, न बुद्धि से, न बहुत सुनने से।
कोई उपाय नहीं हैं ये उसको पाने के। उसको पाने का तो एक ही उपाय है। और बड़ी अजीब बात यम कह रहा है, वह यह कह रहा है कि जब वह तुम्हें स्वीकार कर ले...।
वह, परमात्मा जब तुम्हें स्वीकार कर ले, तब उपलब्ध होता है। बड़ी झंझट की बात है। इसका अर्थ यह हुआ कि तुम उसके योग्य जिस दिन हो जाओ। तुम अपने को बदलो और इस योग्य बनाओ कि वह तुम्हें स्वीकार कर ले, बस उसी दिन उपलब्ध होता है।
तुम्हारा आत्मिक रूपांतरण, तुम्हारी पात्रता, तुम्हारा इस भांति हो जाना कि कोई उपाय ही न रहे कि तुम्हें अस्वीकार किया जा सके। तुम्हें उसे स्वीकार करना ही पड़े। वह तुम्हें स्वीकार कर ही ले। तुम्हारी ऐसी शुद्धता और निर्दोषता और सरलता, तुम्हारे आचरण में ऐसी सुगंध, तुम्हारे व्यक्तित्व में ऐसी सात्विकता, तुम्हारे होने का ढंग ऐसा ध्यानपूर्ण हो जाए कि उसे तुम्हें स्वीकार करना ही पड़े। तुम उसे मजबूर कर दो। उस स्थिति के अतिरिक्त वह कभी किसी को उपलब्ध नहीं होता है।
शास्त्र पढ़ना बहुत आसान है, जीवन को बदलना बहुत कठिन है। और लोग हमेशा शार्टकट खोजते हैं। जिंदगी में कोई शार्टकट नहीं होते। जिंदगी में तो ठीक रास्ते से ही चलना पड़ता है। रास्ते की पीड़ा भी भोगनी पड़ती है, कष्ट भी झेलने पड़ते हैं। मार्ग के उपद्रव भी सहने पड़ते हैं। भटकन, यात्रा का श्रम, वह सब करना पड़ता है, तो ही कोई पहुंचता है। वह श्रम इसलिए जरूरी है कि उसी श्रम से आप रूपांतरित होते हैं, बदलते हैं, नए होते हैं। यात्रा सिर्फ यात्रा नहीं है, यात्रा रूपांतरण भी है।
यम यह कह रहा है कि जिसको यह स्वीकार कर लेता है, उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि यह परमात्मा उसके लिए अपने यथार्थ स्वरूप को प्रगट कर देता है।
अगर आपको परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता, तो आप समझना कि कहीं न कहीं आपमें कुछ ऐसी भूल है, कहीं न कहीं कोई ऐसी बाधा है, जिसके कारण परमात्मा अपने को प्रगट नहीं कर पा रहा है। शायद आप आंख बंद किए खड़े हैं। सूरज सामने है और दिखाई नहीं पड़ रहा है। और अंधे को हम कितना ही प्रवचन दें सूरज के संबंध में, क्या होगा? आंख खोलनी पड़ेगी। व्यक्तित्व को खोलना पड़ेगा।
ध्यान की सारी प्रक्रियाएं व्यक्तित्व को खोलने की प्रक्रियाएं हैं। प्रवचन, शास्त्र, सब बौद्धिक हैं। ध्यान हार्दिक है। और ध्यान आपको बदलेगा। क्योंकि ध्यान का अर्थ है, कुछ आपको करना पड़ रहा है।
एक मित्र मेरे पास आए और उन्होंने कहा, आपकी बातें सुनकर बहुत अच्छा लगता है। बहुत भाती हैं। मैंने कहा, वे कितनी ही भाएं और कितनी ही अच्छी लगें, उनसे कुछ होगा नहीं। वह मनोरंजन है। अच्छा लगता है, ठीक है। किसी को फिल्म देखनी अच्छी लगती है, किसी को रेडियो सुनना अच्छा लगता है; आपको मेरी बात सुननी अच्छी लगती है, पर होगा क्या? जब तक आप कुछ न करेंगे, कुछ भी न होगा। जब तक आप न बदलेंगे, कुछ भी न होगा। मेरी बातें इतना ही कर सकती हैं कि आपको बदलने के लिए प्रेरित कर दें, बस और कुछ भी नहीं कर सकतीं।
बुद्धपुरुष प्यास जगाते हैं, सत्य नहीं दे सकते। लेकिन अगर आप प्यास के जगने में ही मजा लेने लगें तो भी मुश्किल हो गई। प्यास ही जग जाए तो क्या होगा? सागर की यात्रा तो आपको करनी पड़ेगी। इसमें कभी झंझट भी हो सकती है। प्यास जगते-जगते आप झंझट में पड़ सकते हैं। यह प्यास ही अगर रस बन जाए, कि सुनने में अच्छा लगता है, पढ़ने में अच्छा लगता है, बुद्धि तृप्त होती है, तो आप जल की तरफ कब जाएंगे? सरोवर कब खोजेंगे?
यम ठीक कह रहा है, सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा भी इस परमात्मा को न तो वह मनुष्य प्राप्त कर सकता है जो बुरे आचरणों से निवृत्त नहीं हुआ...।
कितनी ही सूक्ष्म बुद्धि हो, और कितना ही प्रगाढ़ चिंतन हो, और कितना ही तर्कनिष्ठ व्यक्तित्व हो, तो भी परमात्मा को मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता, जो बुरे आचरणों से निवृत्त नहीं हुआ है।
न वह प्राप्त कर सकता है जो अशांत है, न वह कि जिसके मन तथा इंद्रियां संयत नहीं हैं। और न वही प्राप्त करता है, जिसका मन शांत नहीं है।
आचरण भी एक तरह की मूर्च्छा या जागृति है। आप बुरा करते हैं इसलिए कि बेहोश हैं। होश में होंगे, तो बुरा न कर पाएंगे। जागे हुए होंगे तो बुरा होना बंद हो जाएगा। सोए हुए हैं, इसलिए बुरा होता है।
एक आदमी शराब पी लेता है, फिर वह जो भी व्यवहार करता है, वह जो गालियां बकने लगता है, या किसी को चोट पहुंचा देता है--तो हम उससे नहीं कहते कि तू गालियां बकना बंद कर; तू किसी को चोट मत पहुंचा। यह कहना व्यर्थ है। वह शराबी है, उसे कुछ सुनाई भी नहीं पड़ रहा है, समझ भी नहीं पड़ रहा है। ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता है कि वह आपको गालियां देने लगे, कि आपको ही चोट कर बैठे। हम अगर समझाएं भी तो हम यह समझाते हैं कि तू शराब मत पी। क्योंकि हम जानते हैं कि जब वह शराब में नहीं होता, बेहोश नहीं होता, तो न गालियां बकता है, न दुराचरण करता है। इसलिए असली सवाल उसका आचरण कम, उसके होश को बढ़ाना ज्यादा है, उसकी बेहोशी को कम करना ज्यादा है।
यम कह रहा है कि आप कितना ही सोच-विचार की बातें करें, कितनी ही समझदारी की बातें करें, लेकिन अगर आपका आचरण नहीं बदलता है, तो वह खबर दे रहा है कि आप भीतर से बेहोश हैं। यह बेहोशी जब तक न टूट जाए! और इस बेहोशी के साथ जुड़ी है अशांति, इस बेहोशी के साथ जुड़ा है इंद्रियों का असंयम! जब तक यह टूट न जाए असंयम, इंद्रियां संयत न हो जाएं, मन शांत न हो जाए, आप थिर न हो जाएं भीतर, तब तक कोई उस परमात्मा को उपलब्ध नहीं होता है।
संहारकाल में जिस परमेश्वर के ब्राह्मण और क्षत्रिय, ये दोनों ही, अर्थात संपूर्ण प्राणिमात्र भोजन बन जाते हैं तथा सबका संहार करने वाली मृत्यु भी जिसका उपसेचन अर्थात भोज्य वस्तु के साथ लगाकर खाने का व्यंजन, तरकारी आदि बन जाता है, वह परमेश्वर जहां और जैसा है, यह ठीक-ठीक कौन जानता है!
यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है। परमात्मा को जाना जा सकता है, लेकिन ठीक-ठीक कभी नहीं जाना जा सकता। क्योंकि ठीक-ठीक जानने का अर्थ हुआ कि जानने वाला बड़ा हो जाएगा। आप ठीक-ठीक उसी को जान सकते हैं, जो आपसे छोटा हो, जिसको आप चारों तरफ से घेर लें, जिसको आप सब तरफ से पहचान लें।
परमात्मा को ठीक-ठीक कभी भी कोई नहीं जान सकता। वह रहस्य है और रहस्य ही रहेगा। आप उसमें कूद सकते हैं, जान सकते हैं कि जान लिया, पहचान सकते हैं कि पहचान लिया, एक हो गए। लेकिन फिर भी आप यह नहीं कह सकते कि ठीक-ठीक जान लिया। आपके जानने में थोड़ी कमी सदा ही रह जाएगी। क्योंकि वह आपसे बड़ा है। वह विराट है। उससे संबंध हो जाएगा, लेकिन उसका पूरा ज्ञान कभी भी नहीं हो सकता।
यह थोड़ा समझ लेने जैसा है।
जैसे एक आदमी सागर में कूद जाए। तो सागर में कूद जाना एक बात है। सागर में डुबकी लगा ली, यह भी एक बात है। और लौटकर वह यह भी कहे कि मैं सागर में स्नान करके लौटा हूं, सागर को जान कर लौटा हूं--यह भी ठीक है। लेकिन सागर बहुत बड़ा है। उस सागर के एक किनारे एक छोटे से जल की परिधि को ही जानकर लौटा है। और वह आदमी सागर में ही रहने लगे, तो भी सागर के एक अंग को और हिस्से को ही जानेगा। एक अर्थ में तो जान लिया उसने, क्योंकि सागर की एक बूंद भी कोई जान ले तो पूरे सागर का सार समझ में आ गया। क्योंकि सागर की एक बूंद में भी वह सब कुछ छिपा है, जो सागर में विराट है। लेकिन फिर भी वह यह नहीं कह सकता कि सागर को पूरा-पूरा जान लिया, ठीक-ठीक जान लिया।
इसे थोड़ा समझें।
विज्ञान का पूरा जोर है इस बात पर कि हर चीज जानी जा सकती है, पूरी-पूरी जानी जा सकती है। और धर्म का जोर है इस बात पर कि सब कुछ जाना जा सकता है, लेकिन पूरा-पूरा कभी भी नहीं। रहस्य शेष रहेगा। दि मिस्ट्री रिमेन्स।
धर्म इसलिए रहस्यवादी है। और विज्ञान रहस्य का शत्रु है। वैज्ञानिक कहते हैं कि विज्ञान की परिभाषा है, डिमिस्ट्रीफिकेशन--जहां-जहां रहस्य है, उसको तोड़ना। जहां-जहां रहस्य है, वहां साफ-साफ करना। जहां-जहां चीजें धुंधली हैं, उनको प्रगट करना। और उस दिन विज्ञान पूरी तरह सफल होगा, जिस दिन जगत में कोई रहस्य नहीं रह जाएगा। जिस दिन आप कुछ भी पूछें, उसका उत्तर विज्ञान के पास होगा। धर्म कहता है, ऐसा कभी भी नहीं होगा। और जो विज्ञान में भी बहुत गहरे गए हैं, जैसे आइंस्टीन या प्लांक या ओपनहोइमर जैसे लोग, वे भी यही कहते हैं।
विज्ञान जो स्कूल में पढ़ाता है, वह कोई वैज्ञानिक नहीं है। या कालेज में, यूनिवर्सिटी में जो विज्ञान पढ़ाता है, वह कोई वैज्ञानिक नहीं है। ये तो सिर्फ विज्ञान के पंडित हैं। ये प्रश्न और उत्तर जानते हैं। आइंस्टीन जैसा व्यक्ति, जो कि विज्ञान का संत है, जो विज्ञान में बहुत गहरे गया है, वह आखिरी क्षण में कहता है--अपने जीवन की अंतिम ऊंचाई पर कहता है--कि रहस्य कभी समाप्त न होगा। और हम जितना ही खोज लेते हैं, उतना ही रहस्य बड़ा होता जाता है, कम नहीं होता। क्योंकि जो भी हम खोजते हैं, उस पर नए प्रश्न खड़े हो जाते हैं।
धर्म की यह प्रतीति है कि जगत अनंत रहस्य है। इसलिए यम कहता है, ठीक-ठीक कौन जान सकता है! उससे बड़ा कोई भी नहीं है। ज्ञाता हमेशा ज्ञेय से बड़ा हो, तो ही पूरा-पूरा जान सकता है। लेकिन यहां ज्ञाता है छोटा, और ज्ञेय है बड़ा। यहां एक तितली के पंख हैं, और विराट आकाश है, अंतहीन। इन तितली के पंखों से इस पूरे विराट आकाश को कैसे जाना जा सकता है!
इसका यह मतलब नहीं है कि कोई निराश हो जाए। तितली आकाश में उड़ सकती है। और आकाश का पूरा आनंद ले सकती है। और पूरे को जानने की जरूरत भी क्या है! अपने पंख जहां तक ले जाएं, उतना काफी है, काफी से ज्यादा है।
ज्ञान अनंत यात्रा है, कभी भी चुकता नहीं और समाप्त नहीं होता। यही अर्थ है अनंत सत्य का, अनादि सत्य का--जिसका न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत है।
शुभ कर्मों के फलस्वरूप मनुष्य शरीर में परब्रह्म के उत्तम निवासस्थान हृदय-आकाश में बुद्धिरूप परमगुफा में छिपे हुए सत्य का पान करने वाले व अवश्यंभावी कर्म का भोग करने वाले दो भिन्न तत्व हैं। वे छाया और धूप की भांति परस्पर भिन्न हैं, यह बात ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी महापुरुष कहते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति के भीतर, उपनिषदों की धारणा है, कि दो तत्व हैं। और वह धारणा अत्यंत सही है। एक तो है आपके भीतर ज्ञाता और एक है आपके भीतर भोक्ता। उपनिषदों ने कहा है, जैसे एक ही वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हों। एक पक्षी ऊपर बैठा हो और एक नीचे बैठा हो। नीचे का पक्षी उछलता है, कूदता है, फल चखता है, नाचता है, प्रेम करता है, पुकार देता है प्रेयसी को, सब करता है। ऊपर का पक्षी सिर्फ बैठकर नीचे के पक्षी को देखता रहता है। वह कुछ करता नहीं, या सिर्फ देखना ही उसका करना है।
उपनिषद कहते हैं, प्रत्येक व्यक्ति के भीतर दो तत्व हैं। एक उसके भीतर द्रष्टा है जो सिर्फ देखता है, जस्ट विटनेसिंग, सिर्फ साक्षी है, वह कुछ नहीं करता। और एक उसके नीचे तत्व है जो कर्ता है--दुकान चलाता है, लड़ता है, झगड़ता है, मित्रता बनाता है, प्रेम करता है, गृहस्थी बनाता है, संन्यास लेता है। वह कर्ता है। और पीछे एक सिर्फ देखता है--राग-विराग, अच्छा-बुरा, अधार्मिक-धार्मिक, शुभ कर्म, अशुभ कर्म। और दूसरा कर्ता है।
करने वाला तत्व आप नहीं हैं। करने वाला तत्व आपके अनंत जन्मों के कर्मों का जोड़ है। और जब तक वह करने वाला तत्व पूरा न बिखर जाए, तब तक मुक्ति नहीं होती। उसे चाहें आप मन कहें--बौद्धों ने उसे संघात कहा, जैनों ने उसे कर्म-मल कहा--या उसे आप कर्ता-तत्व कहें, जैसा उपनिषद कहते हैं। लेकिन उससे भी गहरे में एक देखने वाला है।
इसे ऐसा समझें, एक चोर चोरी करने जा रहा है। जब चोर चोरी करने जा रहा है, तब भी उसके भीतर कोई जानता है कि मैं चोरी करने जा रहा हूं। यह जानने वाला है भीतर। आप दुकान चला रहे हैं। कोई भीतर जानता है कि आप दुकान चला रहे हैं। आप जवान हैं। कोई भीतर जानता है कि आप जवान हैं, और बूढ़े होते जा रहे हैं। बीमार हैं। कोई जानता है, आप बीमार हैं।
लेकिन यह जानने वाला तत्व बहुत साफ नहीं है, यही हमारी अड़चन है। इसे हम भूल-भूल जाते हैं और कर्ता के साथ एक हो जाते हैं, आइडेंटिटी हो जाती है। जब आप जवान से बूढ़े हो रहे हैं, तो आप कहने लगते हैं, मैं ब़ूढा हो रहा हूं। बस वहीं भूल हो जाती है। जब आप क्रोध से भरते हैं, तो आप कहते हैं, मैं क्रुद्ध हो रहा हूं। जब आप दुकान करते हैं, तो आप कहते हैं, मैं दुकान कर रहा हूं।
बुद्ध ने कहा है, भूख पहले भी लगती थी, भूख अब भी लगती है। लेकिन पहले मैं समझता था कि मुझे भूख लग रही है। अब मैं समझता हूं कि मैं देख रहा हूं, शरीर को भूख लग रही है। इतना फासला है। जरा-सा फासला है, लेकिन बहुत बड़ा है। सूक्ष्म, लेकिन अंतहीन।
बीमार होते हैं तो आपको लगता है, मैं बीमार हो गया, यहां भूल है। इतना ही स्मरण आ जाए कि मैं जान रहा हूं कि शरीर बीमार हो गया, तो आपके भीतर दो तत्व हो गए, एक कर्ता के तल पर और एक द्रष्टा के तल पर।
वह द्रष्टा ही जितना निखरता आए, उतने आप परमात्मा के करीब पहुंचने लगे। और द्रष्टा जितना खोता जाए और कर्ता मजबूत होता जाए, उतना आप संसार में प्रविष्ट होते चले गए। कर्म के साथ एकता जुड़ जाए, तो आप संसार में होते हैं। कर्म के साथ एकता टूट जाए, तो आप परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं।
यज्ञ करने वालों के लिए जो दुख-समुद्र से पार पहुंचा देने योग्य सेतु है, उस नाचिकेत अग्नि को और संसार-समुद्र से पार होने की इच्छा वालों के लिए जो भयरहित पद है, उस अविनाशी परब्रह्म पुरुषोत्तम को जानने और प्राप्त करने में हम समर्थ हों।
हे नचिकेता! तुम जीवात्मा को तो रथ का स्वामी, उसमें बैठकर चलने वाला समझो, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथि, रथ को चलाने वाला समझो, और मन को लगाम।
ज्ञानीजन इस रूपक में इंद्रियों को घोड़े बतलाते हैं और विषयों को उन घोड़ों के विचरने का मार्ग बतलाते हैं, तथा शरीर, इंद्रिय और मन--इन सबके साथ रहने वाला जीवात्मा ही भोक्ता है, ऐसा कहते हैं।
जो सदा विवेकहीन बुद्धि वाला और अवशीभूत चंचल मन से युक्त रहता है, उसकी इंद्रियां असावधान सारथि के दुष्ट घोड़ों की भांति वश में न रहने वाली हो जाती हैं।
बहुत पुराना भारतीय प्रतीक है कि मनुष्य जैसे एक रथ है। उसके भीतर एक मालिक है, गहरे में बैठा हुआ रथ के, वह साक्षी है। फिर घोड़े हैं, वे इंद्रियां हैं। घोड़ों को सम्हाल रखने वाली लगाम है, वह मन है। घोड़े जिस पथ पर दौड़ रहे हैं, वह वासना है। सारथि है, जो लगाम को सम्हाले हुए है, वह मन है। और उन सबके पीछे गहरे में रथ में छिपा बैठा जो साक्षी है, जो द्रष्टा है, वही परम तत्व है। जो उसको पहचानने लगता है, उसके सारे रथ की यात्रा संयत हो जाती है।
लेकिन हम उसको पहचानते ही नहीं। हम घोड़ों के पास ठहरे हुए हैं, या घोड़ों में रमे हुए हैं। फिर बहुत घोड़े जुते हैं रथ में। सब घोड़े अलग-अलग भगा रहे हैं। एक घोड़ा एक तरफ, दूसरा घोड़ा दूसरी तरफ।
तो जीवन बड़ा द्वंद्व और कलह है। एक मन कहता है, यह करो। और दूसरा मन कहता है, यह करो। तीसरी इंद्रिय पुकारती है, यह करो। उन सबके बीच इतना कनफ्यूजन, इतना विभ्रम हो जाता है कि आपको कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करो, क्या न करो? गीता पढ़ने बैठे हैं, एक इंद्रिय पुकारती है कि फिल्म देखने चलो। एक इंद्रिय कहती है, क्या व्यर्थ समय खराब कर रहे हो! यह बुढ़ापे में करने का काम है। गीता बाद में पढ़ लेना। और जल्दी भी क्या है? और यह सब चल रहा है भीतर। तो गीता भी पढ़ रहे हैं, यह भीतर चल भी रहा है। सब घोड़े अलग-अलग भाग रहे हैं। रथ इन घोड़ों के साथ घसिट रहा है।
अगर कोई आदमी थोड़ा-सा सम्हलता है, तो घोड़ों से हटकर मन में अपने को केंद्रित करता है। मन है सारथि। अगर कोई आदमी और थोड़ा सम्हलता है, तो सारथि से भी पीछे हटता है। क्योंकि सारथि भी मालिक नहीं है, वह भी नौकर है। और नौकर के साथ अपने को एक कर लेना खतरे में जाना है।
सरकते-सरकते आदमी रथ के ठीक भीतर आ जाता है, जहां साक्षी बैठा हुआ है, जहां देखने वाला बैठा हुआ है। उस मालिक के साथ एक होते ही जीवन का स्वामित्व उपलब्ध होता है। आप पहली दफा अपने सम्राट हो जाते हैं। उसके बाद भूल-चूक अपने आप बंद हो जाती है। उसके बाद दुराचरण गिर जाता है।
एक ही यात्रा है कि घोड़ों से हटकर धीरे-धीरे साक्षी तक पहुंच जाएं। साक्षी पर जो ठहर गया, उसके जीवन में फिर कोई दुख, कोई पीड़ा, कोई संताप नहीं है।

अब ध्यान के लिए तैयार हों।

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