QUESTION & ANSWER
Karuna Aur Kranti 06
Sixth Discourse from the series of 6 discourses - Karuna Aur Kranti by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
पिछले चार दिनों की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्र्न मित्रों ने पूछे हैं। जितने प्रश्र्नों के उत्तर संभव हो सकेंगे, मैं देने की कोशिश करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि शांति और क्रांति में क्या संबंध हो सकता है और कैसे हो सकता है? करुणा और क्रांति में क्या संबंध हो सकता है और कैसे हो सकता है? ये दोनों बातें तो विरोधी मालूम पड़ती हैं। ऐसा किसी दूसरे मित्र ने भी पूछा है।
रास्ते पर कभी चलते हुए बैलगाड़ी देखी होगी आपने। गाड़ी का चाक चलता है, लेकिन चाक के बीच में एक कील ठहरी रहती है और चलती नहीं है। क्या कभी यह दिखाई पड़ा कि ठहरी हुई कील के ऊपर ही चाक का चलना निर्भर होता है? दोनों में विरोध है--कील ठहरी हुई है और चाक चलता है। और मजे की बात यह है कि कील ठहरी हुई है, इसीलिए चाक चलता है। अगर कील भी चल जाए, तो चाक न चल पाए। ठहरी हुई कील पर चलते हुए चाक का आधार है।
जीवन बहुत विरोधों से निर्मित है।
कभी जोर का बवंडर देखा हो, तूफान देखा हो, धूल का आकाश में उठता हुआ गुब्बारा देखा हो और जमीन पर पड़े उसके चिह्न देखे हों, तो एक बात देख कर हैरानी होगी कि सब तरफ तो गुब्बारे के चिह्न बन जाते हैं, लेकिन बीच में एक जगह खाली रह जाती है, वहां कोई तूफान नहीं होता। उठी हुई आंधी के घेरे के बीच में एक जगह होती है, जहां सब शांत होता है, जहां कोई तूफान नहीं होता।
‘शांति’ मनुष्य के भीतर चाहिए और ‘क्रांति’ उसके बाहर के जीवन में चाहिए।
शांति बनेगी कील और क्रांति होगी घूमता हुआ चाक। और हम सोचते हैं कि इन दोनों से एक को बचा लें। या तो हम सोचते हैं कि शांति ही बच जाए, कील ही बच जाए, चाक न रहे, तो कील व्यर्थ हो जाएगी, क्योंकि कील की सार्थकता चाक के साथ ही है।
भारत ने, पूरब के मुल्कों ने यह प्रयोग करके देख लिया कि शांति ही बच जाए, क्रांति की कोई जरूरत नहीं है। तो हम मुर्दा हो गए जमीन पर, मरे हुए लोग हो गए। हमारा अस्तित्व अनस्तित्व जैसा हो गया, न होने के बराबर हम हो गए। और अच्छा था कि न हो जाते। हमारा होना, न होने से भी दुखद हो गया। रुग्ण, बीमार, दीन-हीन, दरिद्र, दास। हमने जीवन की सारी पीड़ा झेल ली एक गलती के आधार पर कि हमने कहा, हम कील बचाएंगे, हम चाक नहीं बचाते, क्योंकि चाक कील का विरोधी है। हम सिर्फ शांति बचाएंगे, क्रांति की, परिवर्तन की हमें कोई जरूरत नहीं।
पश्चिम ने दूसरी भूल कर ली। उन्होंने चाक बचा लिया है और कील फेंक दी है। अब वे चाक को लिए बैठे हैं, लेकिन बिना कील के चाक बेकार है। उन्होंने क्रांति बचा ली है, परिवर्तन बचा लिया है, शांति की फिकर छोड़ दी है। उनका भी तर्क यही है कि अगर क्रांति करनी है तो शांति की क्या जरूरत है, जो तर्क हमारा है।
और ध्यान रहे, दिखाई पड़ता है कि पूरब और पश्र्चिम उलटे हैं, लेकिन दोनों का तर्क एक है। पूरब का तर्क यह है कि अगर शांति चाहिए तो क्रांति की क्या जरूरत है। पश्र्चिम का तर्क है कि अगर क्रांति चाहिए तो शांति की क्या जरूरत है। दोनों का तर्क भिन्न नहीं है। दोनों का तर्क एक है। और वह इस बात पर निर्भर है कि जीवन में से एक चीज को हम चुनेंगे, विरोधी को छोड़ देंगे। लेकिन जीवन विरोध से बना है, जीवन की सारी व्यवस्था विरोध पर खड़ी है।
कभी किसी मकान का दरवाजा देखें। दरवाजे में कारीगर ने विरोधी ईंटें लगा दी हैं। एक तरफ से ईंटें गई हैं और दूसरी तरफ से ईंटें आई हैं। और दोनों ईंटों में विरोध--और दोनों के विरोध के ऊपर सारा भवन खड़ा हो गया है। हम कह सकते हैं कि ईंटें एक ही दिशा में लगा देते तो क्या हर्ज था? लग सकती थी ईंटें, लेकिन फिर भवन खड़ा नहीं होता।
दो विरोध के आधार पर बल पैदा होता है, इसलिए जीवन सभी विरोधों के आधार पर खड़ा हुआ है।
स्त्री और पुरुष एक तरह का विरोध है। ऋण और धन विद्युत एक तरह का विरोध है। निगेटिव और पाजिटिव पोल्स एक तरह का विरोध है। अगर हम जिंदगी में खोजने जाएंगे तो सब तरफ विरोध मिलेंगे, और विरोधों के आधार पर जीवन का भवन खड़ा होता हुआ मिलेगा।
लेकिन पूरब ने भी इस बात को न समझा और पश्चिम ने भी न समझा। पूरब ने भी आधी संस्कृति बनाई, कहा कि हम सिर्फ जिंदा रहेंगे, शांत होकर रहेंगे। पश्चिम ने कहा, हम जिंदा रहेंगे तो क्रांत होकर रहेंगे, शांति से क्या संबंध है?
यह ऐसा ही है, जैसे मैं कहूं कि मैं श्वास सिर्फ भीतर ले जाऊंगा, बाहर न ले जाऊंगा, क्योंकि बाहर ले जाने और भीतर ले जाने में विरोध है। अब जब भीतर श्र्वास ले जानी है तो बाहर ले जाने की क्या जरूरत है। और जब भीतर ले जानी है तो भीतर ही ले जाइए और रोक रखिए भीतर श्र्वास को, बाहर मत जाने दीजिए। क्योंकि बाहर और भीतर में विरोध है। लेकिन अगर भीतर ही श्वास रोक ली तो मर जाएंगे। दूसरा आदमी कह सकता है कि जब बाहर ले जानी ही पड़ती है तो भीतर क्यों ले जाएं, बाहर ही रोक दें। दोनों में विरोध है, हम बाहर ही रोक देते हैं। बाहर रोकने वाला भी मर जाएगा। एक भीतर रोक कर मरेगा, एक बाहर रोक कर मरेगा, क्योंकि जिंदगी बाहर और भीतर आते हुए विरोध पर निर्भर है।
जिंदगी निरंतर विरोध पर निर्भर है।
लेकिन हम इस विरोध को कभी स्वीकार नहीं कर पाते, इसलिए बड़ी मुश्किल हो जाती है। हम कहते हैं, जन्म तो हमें स्वीकार है, मृत्यु हमें स्वीकार नहीं है। यह बड़े पागलपन की बात है। जिंदगी जन्म और मृत्यु के विरोध के आधार पर खड़ी हुई है। जिंदगी जन्म और मृत्यु के विरोध पर ही निर्भर है।
हम कहते हैं, जन्म तो बहुत सुखद है, मृत्यु बहुत दुखद है। जन्म स्वीकार करते हैं, मृत्यु हम नहीं चाहते हैं, तो हम पागलपन की बात कर रहे हैं। जिस दिन हम जन्म और मृत्यु दोनों को एक साथ स्वीकार कर पाएंगे, उस दिन जिंदगी का रस कुछ और ही हो जाएगा। शांति और क्रांति एक साथ स्वीकार करेंगे, तो जिंदगी कुछ बात और ही हो जाएगी। भीतर एक बिंदु होगा, जहां कोई परिवर्तन नहीं। और बाहर परिवर्तन, परिवर्तन और परिवर्तन का घूमता हुआ चाक होगा। और भीतर एक कील होगी, जहां कोई परिवर्तन नहीं।
परमात्मा निरंतर वहां है, जहां कोई परिवर्तन नहीं।
संसार वहां है, जहां निरंतर परिवर्तन है।
और वह जो परमात्मा है निरंतर शांत, चुप, मौन, जहां कभी कुछ नहीं बदला, उसके ऊपर ही सारे संसार का चाक घूम रहा है।
‘संसार’ शब्द आपके खयाल में है?
संसार का अर्थ ही चाक होता है। संसार का अर्थ होता है: जो घूम रहा है, दि व्हील। संसार शब्द का ही मतलब होता है घूमता हुआ, और परमात्मा का अर्थ होता है ठहरा हुआ। लेकिन ये दोनों विरोधी नहीं हैं। इस अर्थ में विरोधी नहीं हैं कि एक को हम बचा लेंगे। ये इस अर्थ में विरोधी हैं कि दूसरा एक पर निर्भर है। भीतर आती श्वास बाहर जाती श्वास की तरह निर्भर है। संसार न हो तो परमात्मा भी न होगा और परमात्मा न हो तो संसार भी न होगा। और इस भूल में मत रहना कि परमात्मा एक क्षण भी संसार के बिना रह सकता है। और इस भूल में भी मत पड़ना कि संसार एक क्षण भी परमात्मा के बिना रह सकता है। वे दोनों विरोधी ध्रुव हैं, जो एक-दूसरे को सम्हाले हुए हैं। और इसलिए मुझे सब विरोध स्वीकार हैं।
और क्रांति और शांति के विरोध को मैं जिंदगी के लिए, जिंदगी को बदलने, परिवर्तन करने और जिंदगी को उससे भी जोड़ने में उपयोगी मानता हूं जो सनातन है, शाश्र्वत है, जिसका कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है। लेकिन मेरी बातों में इसलिए कठिनाई हो जाती है, कोई कहता है, आप इधर क्रांति की बात कर रहे हैं, उधर आप शांति की बात करते हैं। और मैं मानता ही ऐसा हूं कि वही आदमी क्रांति कर सकता है जो शांत है। और जो आदमी शांत नहीं है, अगर क्रांति करेगा तो क्रांति के नाम पर सिर्फ पागलपन करेगा और कुछ भी नहीं कर सकता है। सिर्फ शांत व्यक्ति क्रांति कर सकता है। शांत हाथों में ही क्रांति का हथियार दिया जा सकता है, अन्यथा क्रांति का हथियार खतरनाक सिद्ध हुआ है और खतरनाक सिद्ध होता रहेगा।
इसलिए मैं कहता हूं: करुणा पहला सूत्र है, क्रांति उसके पीछे आनी चाहिए, करुणा पहले।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं कि जो है, उसे समझ लेने से करुणा आ जाएगी। जो है, उसे समझ लेने से करुणा कैसे आ जाएगी? उन्होंने पूछा है।
अगर जो है, हम उसे समझ लें, तो करुणा के अतिरिक्त हमारे चित्त में और कुछ भी न रह जाएगा। क्योंकि जो है, वह इतना दुखद हो गया है; जो है, वह इतना रुग्ण हो गया है; जो है, हमारे चारों तरफ फैला हुआ इतना बीमार और विक्षिप्त हो गया है कि अगर हम उसे देख लें और समझ लें, तो करुणा के सिवाय और कोई भाव न आएगा। लेकिन हो सकता है कि आप कहें क्रोध आ जाए। क्रोध तब आता है, जब हम पूरी स्थिति से अपने को बाहर खड़ा कर लेते हैं। करुणा तब आती है, जब पूरी स्थिति में हम भी सम्मिलित और एक हिस्सा होते हैं।
अगर आज कोई आदमी चोरी कर रहा है, तो हमें क्रोध आ सकता है कि इस चोर को मिटा डालो। लेकिन अगर हमें पूरी स्थिति पता चल जाए और यह खयाल आए कि हम भी उसकी चोरी में हाथ बंटा रहे हैं, हम भी उसकी चोरी में साझीदार हैं। वह जो मजिस्ट्रेट अदालत में बैठ कर चोरों का निर्णय कर रहा है, वह भी चोरों की चोरी में साझीदार है। अगर हमें यह खयाल आ जाए तो मजिस्ट्रेट को क्रोध नहीं आएगा, करुणा आएगी। और चोर को सजा देते वक्त वह जानेगा कि मैं अपने को ही सजा दे रहा हूं। और तब सजा देना बहुत मुश्किल हो जाएगा। परिवर्तन और क्रांति करना आसान हो जाएगा।
चोरों को हम सजा कितने दिन से दे रहे हैं, लेकिन एक चोर को हम कम नहीं कर पाए। जमीन पर चोर रोज बढ़ते गए हैं। जितनी सजा बढ़ी है, उतने चोर बढ़ते गए हैं। जितने जेलखाने बढ़े हैं, उतने चोर बढ़ते चले गए हैं। पृथ्वी पर अनादि से हम चोरों को सजा दे रहे हैं, लेकिन एक चोर कम नहीं कर पाए। और उसका कारण यह है कि चोर को सजा देते वक्त हम अपने को बाहर रख लेते हैं। हम सोचते हैं, हम तो चोर नहीं हैं, जो चोरी कर रहा है वह चोर है, उसको सजा दे रहे हैं। लेकिन हमारे गहरे हाथ हैं, और इसलिए चोर को सजा मिल जाती है, लेकिन चोरी बंद नहीं होती। क्योंकि हम, जिनका हाथ चोर को पैदा करने में था, तब तक दूसरे चोर पैदा कर लेते हैं। बल्कि हम जिस कारागृह में चोरों को बंद करते हैं, वह चोरों के लिए शिक्षा का प्रशिक्षण महाविद्यालय हो जाता है, और कुछ भी नहीं होता। वहां और पुराने, ज्यादा योग्य, ज्यादा कुशल चोरों का साथ हो जाता है, और कुछ भी नहीं होता। वहां वे और अच्छी तरह चोरी करना सीख कर वापस लौट आते हैं।
इसलिए एक दफा जो आदमी जेल गया है, फिर वह नियमित रूप से जेल जाने लगता है, वह जेल बर्ड ही हो जाता है, उस पक्षी का घर ही वही हो जाता है। उसे यहां इतना अच्छा नहीं लगता, जितना वहां अच्छा लगने लगता है। वहां उसके संगी-साथी, मित्र हमने सब इकट्ठे कर दिए हैं। वहां हमने चोरों के लिए सबको इकट्ठा कर दिया है--पूरे प्रदेश के, पूरे देश के चोरों को कि तुम साथ में सलाह-मशविरा करो और एक-दूसरे को तरकीबें बताओ कि कैसे पकड़ा न जा सकें।
और हम चारों तरफ चोर पैदा किए चले जा रहे हैं। सजा हम इसलिए दे भी नहीं रहे हैं कि चोर को मिटा देना है। क्योंकि चोर तो हम भी हैं। अगर चोर मिटेगा तो हम भी मिट जाएंगे। सजा हम इसलिए दे रहे हैं कि हम जो सजा देने वाले हैं, अपने मन में यह मजा ले सकें कि हम चोर नहीं हैं। चोर कोई और है, इसका हम आनंद ले रहे हैं, इसका हम सुख ले रहे हैं।
यह तो क्रोध है चोर के ऊपर। इससे कोई परिवर्तन नहीं होगा। सजा से कोई परिवर्तन नहीं होगा।
मैंने सुना है, इंग्लैंड में सौ वर्ष पहले जो आदमी चोरी करता था, उसे चौराहों पर खड़ा करके कोड़े मारे जाते थे, ताकि और लोग देख लें, और लोग सचेत हो जाएं कि चोरी करने वाले की यह गति और यह दुर्गति होती है। लेकिन सौ वर्ष पहले फिर यह सजा बंद कर देनी पड़ी, क्योंकि नतीजे बड़े उलटे आए। लंदन में एक चौराहे पर कुछ पांच-छह चोरों को कोड़े मारे जा रहे थे। हजारों लोग देखने इकट्ठे हुए थे। आप यह मत सोचना कि वे यह देखने इकट्ठे हुए थे कि चोरों की क्या गति होती है। वे असल में यह देखने इकट्ठे हुए थे कि जब कोड़े मारे जाते हैं, तो चमड़ा कैसे उधड़ता है, खून कैसे बहता है। उनके दिल में भी कई दफा कोड़े मारने की इच्छा हुई होगी, वह अधूरी रह गई। वे उसे देख कर पूरा कर लेना चाहते हैं। वे वहां से, चोरी नहीं करनी चाहिए, यह सीख कर नहीं लौटते थे; वे वहां से कोड़ा मारने का भी कैसा रस और मजा है इसकी थ्रिल और इसकी पुलक लेकर वापस लौटते थे।
लेकिन एक तो और अदभुत घटना घटी उस दिन लंदन में। जब चार-पांच चोरों को कोड़ों से पीट कर बेहोश कर दिया गया और सड़क खून से भर गई--और कोई दस हजार आदमी देखने इकट्ठे हुए थे। तभी पता चला कि कुछ लोगों की जेबें कट गईं। भीड़ थी, लोग देख रहे थे चोरों को पिटते हुए, कुछ चोरों ने उनकी जेबें काट लीं। तब यह पता चला कि जब चोर पीटे जा रहे हों, उनकी चमड़ी उधेड़ी जा रही हो, तो उसी वक्त जेब कट सकती है! तो इससे कोई चोरी नहीं रुक सकती है।
कोई सजा चोरी नहीं रोक पाई है, क्योंकि सजा हमारी करुणा से नहीं है, सजा हमारे क्रोध से निकल रही है। क्रोध से कोई परिवर्तन कभी भी नहीं होता है। और क्रोध से अगर जबरदस्ती परिवर्तन थोप भी दिया जाए तो बहुत जल्दी विद्रोह शुरू हो जाता है, बगावत शुरू हो जाती है। और क्रोध को कितनी देर थोपा जा सकता है, आज नहीं कल क्रोध को शिथिल होना पड़ता है।
रूस में एक क्रांति हुई, जो क्रोध से हुई, करुणा से नहीं। तीस, पैंतीस, चालीस साल उन्होंने कोड़े के बल पर क्रांति को बचाने की कोशिश की, बंदूक के बल पर क्रांति को बचाने की कोशिश की। अंदाज किया जाता है कि कोई साठ लाख से लेकर एक करोड़ लोगों तक की रूस में हत्या की गई क्रांति के बाद। क्रांति को बचाने के लिए यह हत्या करनी पड़ी। कोई हर्ज नहीं, अगर क्रांति बच जाती तो समझ में आता। लेकिन इतनी हत्या के बाद, इतने लोगों को इतना कष्ट, इतनी पीड़ा देने के बाद अब वहां क्रांति शिथिल होने लगी है। क्योंकि इस तरह की जबरदस्ती से कोई क्रांति कितनी देर टिकाई जा सकती है। वापस रूस व्यक्तिगत पूंजी को बांटने की तरफ सोचने लगा है। मकान व्यक्तिगत अब हो सकता है और कार भी अब व्यक्तिगत हो सकती है। और ऐसा लगता है कि आने वाले पचास वर्षों में रूस और अमरीका में फर्क करना बहुत मुश्किल हो जाएगा कि कौन समाजवादी है और कौन पूंजीवादी है।
क्योंकि अमरीका में भी पूंजीवाद को जबरदस्ती थोपने की कोशिश मुश्किल हुई जा रही है। वे धीरे-धीरे न मालूम कितनी चीजों का राष्ट्रीयकरण करते चले जा रहे हैं। उधर रूस में जबरदस्ती समाजवाद थोपने की बात मुश्किल होती चली जा रही है। वे धीरे-धीरे पूंजीवाद को मौका दिए चले जा रहे हैं। पचास साल में वे एक ही जगह आ जाएंगे अलग-अलग यात्राओं से, वे वहां पहुंच जाएंगे जहां दोनों के बीच फासला करना मुश्किल होगा। नाम के फासले रह जाएंगे--एक समाजवादी होगा, एक पूंजीवादी होगा, लेकिन फासले नहीं रह जाएंगे।
जबरदस्ती किसी भी चीज को बहुत देर तक नहीं ठहराया जा सकता है। और एक मजा है कि जिस चीज को हम जबरदस्ती ठहराते हैं, बहुत जल्दी पेंडुलम उलट जाता है। अगर आप किसी दुश्मन की छाती पर आप बैठ गए हैं जबरदस्ती और पूरी ताकत से उसको दबा रहे हैं, अगर वह होशियार है और चुपचाप पड़ा रहे और ताकत न लगाए, तो थोड़ी देर में आप थक जाएंगे, क्योंकि आपको ताकत लगानी पड़ रही है और वह ताकत को इकट्ठा कर लेगा उतनी देर में। बहुत जल्दी वह मौका आएगा कि आप नीचे पड़े होंगे और वह आपकी छाती पर बैठा होगा। क्योंकि जो श्रम करता है, वह थक जाता है और जो नीचे दबा होता है, वह विश्राम कर लेता है। इसलिए करवटें बदलती रहती हैं।
क्रोध और प्रतिशोध से क्रांतियां नहीं होतीं, सिर्फ समाज करवट बदलता रहता है। करवट बदलने से कोई मतलब नहीं है।
क्रांति से मेरा मतलब है: मनुष्य का हमने आज तक जैसा निर्माण किया है, उसमें भूल हो गई है। उस भूल की वजह से हम बहुत दुख और बहुत पीड़ा और बहुत चिंता उठा रहे हैं। उस भूल के कारण पूरी मनुष्य-जाति पागल होने के करीब पहुंच गई है। उस भूल को समझ कर, उस भूल को पहचान कर, उस भूल को देख कर स्वभावतः करुणा पैदा होगी, क्योंकि वह भूल हमने ही मिल-जुल कर की है। वे घाव हमने ही मारे, चाहे नींद में मारे हों, चाहे बेहोशी में मारे हों। हमने अपने ही पैर अपने हाथ से काट लिए हैं, और अपनी आंखें अपने हाथों से फोड़ ली हैं और अपने को सब तरह से अपंग कर लिया है। यह मनुष्य की जो अपंग स्थिति है, पैरालाइज्ड, लकवा लगी हुई, सड़क पर घिसटती हुई, घावों से भरी हुई--यह हम ही जिम्मेवार हैं। अगर यह प्रतीत हो तो करुणा पैदा होगी।
करुणा का मतलब यह नहीं है कि किसी और पर करुणा पैदा होगी। करुणा का मतलब हम अपने पर करुणा कर पाएंगे। क्रोध असंभव हो जाएगा। और अगर ऐसी करुणा पैदा हो, तो परिवर्तन अनिवार्य है। अगर हमें दिखाई पड़ जाए कि कुछ गलत हो गया है, तो उस गलत को फिर खींचने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। वह अपने आप गिर जाएगा। करुणा से आने वाली क्रांति का अर्थ है कि हमें कुछ तोड़ने-फोड़ने का उतना सवाल नहीं है, जितना समझने का सवाल है। अगर समझ पूरी हो जाए, तो शायद चीजें अपने आप छूट जाएं, टूट जाएं, अलग हो जाएं। उतनी समझ विकसित करने की बात है। और वह समझ विकसित हो सकती है। अगर हम अपने दुखों के मूल कारणों की खोज करें तो समझ के विकसित होने में कोई बाधा नहीं है।
एक और मित्र ने पूछा है कि आप करुणा, अहिंसा, दया, प्रेम इन सबमें क्या फर्क करते हैं? ये तो सब एक ही अर्थ रखते हैं?
ये एक ही अर्थ नहीं रखते। इनमें बहुत बुनियादी फर्क है। असल में, सही अर्थों में दो समानार्थक शब्द होते ही नहीं हैं। कितने ही समानार्थक मालूम पड़ते हों, उनमें कुछ बुनियादी फर्क होता है, इसलिए दो शब्द ईजाद करने पड़ते हैं।
अब जैसे प्रेम और अहिंसा, और करुणा और दया, इन्हें थोड़ा समझ लेना उपयोगी है, क्योंकि हम इन शब्दों से बहुत भरे हुए हैं।
अहिंसा का मतलब है: दूसरे को दुख न पहुंचाना। वह बिलकुल निगेटिव है। एक आदमी बिना किसी को प्रेम किए हुए भी अहिंसक हो सकता है। क्योंकि किसी को दुख न पहुंचाना, इतना ही अहिंसा शब्द का अर्थ है--किसी की हिंसा न करना, किसी को दुख न पहुंचाना।
लेकिन प्रेम पाजिटिव है। प्रेम का मतलब है: किसी को सुख पहुंचाना। प्रेम का मतलब यह नहीं है कि किसी को दुख न पहुंचाना। प्रेम का मतलब है: किसी को सुख पहुंचाना।
तो प्रेम तो आएगा किसी को सुख पहुंचाने, और अहिंसक सिकुड़ जाएगा कि किसी को दुख न पहुंचे, काफी है। अगर आपके रास्ते पर कांटे बिछे हैं, तो प्रेम उन्हें आकर उठाएगा। अहिंसक आपके रास्ते पर कांटे नहीं बिछाएगा, बस इतना ही। लेकिन आपके रास्ते पर पड़े कांटों को उठाने नहीं आएगा अहिंसक, क्योंकि अहिंसक को आपको दुख नहीं पहुंचाना, इतना ही ध्यान रखना पर्याप्त है। शर्त ही उतनी है कि आपको दुख नहीं पहुंचाना है। और यह भी, आपको दुख क्यों नहीं पहुंचाना है, क्या इसलिए कि आपसे प्रेम है? नहीं, यह दुख इसलिए नहीं पहुंचाना है कि आपको दुख पहुंचाने से मेरे नरकजाने की संभावना है। आपको दुख पहुंचाऊंगा तो मेरे नरक में सड़ने का उपाय हो जाएगा। और अगर आपको दुख न पहुंचाया तो मेरी मोक्ष की सीढ़ी बन जाएगी। आपसे कोई प्रयोजन नहीं है अहिंसक को। अहिंसक को प्रयोजन है अपने से। वह इस फिकर में लगा है कि मैं मोक्ष कैसे जाऊं, नरक से कैसे बचूं, इसलिए किसी को दुख नहीं पहुंचाना है। दुख पहुंचाने से कहीं नरक जानान हो जाए।
लेकिन प्रेम का मतलब बहुत भिन्न है। प्रेम का मतलब यह है कि किसी को सुख पहुंचाना है। और किसी को सुख पहुंचाने में ही हमारा सुख है। और तब प्रेमी आपको स्वर्ग पहुंचाने के लिए नरक जाने के लिए भी तैयार हो सकता है--प्रेमी आपको स्वर्ग पहुंचाने के लिए नरक जाने के लिए भी तैयार हो सकता है! लेकिन अहिंसक आपको सुख पहुंचाने के लिए नरक जाने को तैयार नहीं हो सकता है। अहिंसक आपको दुख नहीं पहुंचाता, ताकि उसके स्वर्ग जाने की तैयारी पूरी हो सके।
अहिंसा निषेध है, निगेटिव है; प्रेम पाजिटिव है, विधायक है।
लेकिन प्रेम और करुणा में भी बहुत फर्क है।
प्रेम का अर्थ है कि हम किसी को सुख पहुंचाना चाहते हैं और किसी के सुख में भागीदार होना चाहते हैं। करुणा का अर्थ है: हम सबके दुख में भागीदार हैं और सबका दुख हमें दिखाई पड़ रहा है और चित्त करुणा से भर गया है।
फर्क को समझ लेना।
प्रेम का अर्थ है: हम सबके सुख में भागीदार होना चाहते हैं। सुख पहुंचाना चाहते हैं, किसी के सुख में मित्र होना चाहते हैं।
करुणा का अर्थ है: सबके जीवन में जो दुख है, उसमें हम हिस्सेदार हैं, इसकी प्रतीति, इसका बोध, इसकी सफरिंग, इसकी पीड़ा।
तो प्रेम में तो एक आनंद है, करुणा में एक पीड़ा है। प्रेम में एक रस है, करुणा में एक घाव है। करुणा एक फोड़े की तरह दुखता हुआ घाव है। प्रेम एक फूल है, करुणा एक कांटे की तरह चुभन है। इसलिए प्रेम और करुणा समानार्थी नहीं हैं।
और करुणा और दया तो बहुत ही भिन्न बातें हैं।
करुणा का अर्थ है: सबके दुख की प्रतीति और उस दुख में मैं भी जिम्मेवार हूं इसकी प्रतीति।
दया में? दया में दूसरे के दुख की प्रतीति है, लेकिन दूसरा अपने दुख के लिए जिम्मेवार है, इसकी भी प्रतीति है। और मैं उसके दुख को दूर करने का थोड़ा-बहुत उपाय कर रहा हूं, इसके अहंकार का भी बोध है। इसलिए दया करने वाला ऊपर खड़ा होता है। दान लेने वाला नीचे खड़ा होता है। दया करने वाला दान दे रहा है, दया करने वाला कृपा कर रहा है, दया करने वाला बहुत सूक्ष्म अपमान कर रहा है जिसके साथ दया कर रहा है। ‘दया’ शब्द बहुत बेहूदा और कुरूप है। दया शब्द बहुत अच्छा नहीं है। इसलिए भूल कर किसी पर दया मत करना, क्योंकि जिस पर भी आप दया करेंगे, उसका अपमान करेंगे ही।
प्रेम करना समझ में आ सकता है, लेकिन प्रेम में बड़ा फर्क है। जब प्रेम किसी को देता है तो ऐसा अनुभव नहीं करता है कि मैंने दिया। प्रेम सदा ऐसा ही अनुभव करता है कि जितना देना चाहिए था, उतना नहीं दे पाया। एक मां से पूछें कि तूने अपने बेटे के लिए कितना किया। तो वह कहेगी, आंख से आंसू बहाने लगेगी कि मैं कुछ भी नहीं कर पाई। जो कपड़े मुझे देने थे, वह नहीं दे पाई; जो खाना मुझे खिलाना था, वह नहीं खिला पाई; जो शिक्षा मुझे देनी थी, वह मैं नहीं दे पाई। मां एक पूरी की पूरी फेहरिस्त बता देगी, जो वह नहीं कर पाई। लेकिन जाएं, एक धर्मादा कमेटी के सेक्रेटरी से पूछें कि आपने गरीबों के लिए क्या-क्या किया, तो वह एक पूरी फेहरिस्त बता देंगे कि हमने यह किया, हमने यह किया, हमने यह किया। जो उन्होंने नहीं किया है, वह भी उसमें जोड़ देंगे कि हमने यह किया। दया करने वाला कहता है, हमने यह किया। वह अहंकार की तृप्ति कर रहा है। प्रेम करने वाला कहता है, हम यह नहीं कर पाए, करना था। उसका अहंकार टूट गया है।
प्रेम अहंकार तोड़ जाता है, दया अहंकार मजबूत कर जाती है।
ये सब शब्द बड़े अलग-अलग हैं। ये समानार्थी नहीं हैं। इनके पीछे गहरे भेद हैं।
दया से कोई क्रांति नहीं होती है। इसलिए हिंदुस्तान में दया पांच हजार साल से चल रही है, लेकिन क्रांति नहीं हुई। दया पुरानी है। हम बड़े दयावान लोग हैं। और जैसे कि दयावान लोग खतरनाक होते हैं, हम खतरनाक हैं। हम पांच हजार साल से दया कर रहे हैं, दान कर रहे हैं। हम कह रहे, गरीब पर दया करो, बीमार पर दया करो। क्यों? क्योंकि गरीब पर दया करने से आपके स्वर्ग की सीढ़ी उपलब्ध होगी।
करपात्री जी ने एक किताब लिखी है। बहुत अदभुत किताब लिखी है। उसे खूब सबको पढ़ लेना चाहिए। उस किताब में उन्होंने समाजवाद का विरोध किया है और कहा है कि समाजवाद के विरोध के कई कारण हैं। उसमें एक कारण यह है कि समाजवाद में कोई गरीब न रह जाएगा, कोई अमीर न रह जाएगा, तो फिर दया कौन करेगा, दान कौन करेगा? दया कौन लेगा, दान कौन लेगा? और बिना दान के मोक्ष असंभव है। इसलिए समाजवाद में फिर मोक्ष संभव नहीं रह जाएगा। अगर मोक्ष चाहिए तो समाजवाद मत आने देना। अगर मोक्ष चाहिए तो गरीब को गरीब बना कर रखना और अमीर को अमीर बना कर रखना। और सड़क पर भिखमंगे को खड़ा रखना, क्योंकि उसी के कंधे पर दया करके आप मोक्ष जा सकेंगे, और तो कोई रास्ता नहीं है।
ये दया करने वाले लोग हैं, इनमें करुणा है? इनकी बात सुन कर तो ऐसा लगता है कि करुणा का इनमें कहीं कोई पता नहीं है। वे यह कह रहे हैं कि गरीब को रखना पड़ेगा, नहीं तो दान कौन लेगा! आज रूस में कोई दान तो नहीं लेगा। और आप अगर किसी को दान देने जाओगे, तो हो सकता है पुलिस में पकड़ कर आपको रिपोर्ट लिखवा दे कि यह आदमी हमको दान देने की कोशिश कर रहा है। हमारा अपमान करना चाहता है। आज कोई भीख मांगने हाथ तो नहीं फैलाएगा आपके सामने। आज रूस में दानी होने का कोई उपाय नहीं है।
तो करपात्री जी ठीक कहते हैं: शास्त्रों में यही लिखा है कि बिना दान के मोक्ष नहीं है, क्योंकि दान सबसे बड़ा धर्म है। तो रूस में सबसे बड़े धर्म की तो जड़ कट गई। तो वे ठीक कह रहे हैं। शास्त्र के हिसाब से बिलकुल ठीक कह रहे हैं कि अगर मोक्ष बचाना है तो गरीब को बचाओ, भिखमंगे को बचाओ, बीमार को बचाओ। बीमार रहेगा, तब तो अस्पताल बना पाएंगे। और जब गरीब रहेगा, तभी तो धर्मशाला काम में आएगी। और जब भिखमंगे सड़क पर भीख मांगेंगे, तब धर्मादय और दान-दया करने वाले लोगों को मजा आएगा दान-दया करने का, नहीं तो सब मुश्किल हो जाएगा।
दया करने वाले में करुणा नहीं है, दया करने वाले में बहुत गहरी कठोरता और क्रूरता है। वह दया में भी रस ले रहा है। वह जब दो पैसे आपको दे रहा है, तो हजार रुपये का अहंकार वापस खरीद ले रहा है। वह दो पैसे इसलिए चिल्ला कर देता है, अखबारों में खबर करके देता है; पत्थरों पर खोद कर देता है; मंदिरों पर पत्थर लगा देता है; धर्मशालाओं पर पत्थर लगा देता है कि मैंने दिए हैं! उसे रस इसमें नहीं है कि कोई पीड़ित था, उसे रस इसमें है कि उसने किसी की पीड़ा दूर करने का बड़ा भारी काम किया है।
दया क्रांति नहीं लाती, इसलिए भारत में क्रांति नहीं आ सकी। दया बल्कि क्रांति को रोकती है। क्योंकि दया भिखमंगे को दो पैसे दे देती है, लेकिन भिखमंगा क्यों पैदा होता है, इसकी तलाश में नहीं जाती। और भिखमंगे को दो पैसे मिल जाते हैं, तो भिखमंगा भी राहत अनुभव करता है। वह भी उस सीमा पर नहीं पहुंच पाता कि दान देने वाले की गर्दन पकड़ ले और कहे कि यह दान नहीं लेंगे; क्योंकि पहले हमारी जेब काटते हो और फिर हमको दान देते हो। वह कहेगा कि पहले हमें भिखमंगा बना देते हो और फिर दान देने आ जाते हो। वह कहेगा किपहले तो हमें चूस लेते हो हमारे खून को और फिर हमारे लिए अस्पतालें बना देते हो, जिनमें खून का दान चल रहा है। यह जाल कैसा है?
नहीं, दया यह भी नहीं होने देती है। दया कंसोलेशन बन जाती है। और गरीब को लगता है कि अमीर इतना दयावान है। अमीर को बचाने में दया ने जितना काम किया उतना और किसी चीज ने काम नहीं किया। अमीर को बचाने में धर्मशालाओं ने जितनी आड़ की है और मंदिरों ने जितनी आड़ की है उतनी और किसी चीज ने नहीं की है। क्योंकि ऐसा लगता है कि कितना दयावान है अमीर। लेकिन यह नहीं दिखाई पड़ता है कि धन इकट्ठा करना क्रूरता है। एक लाख रुपये एक आदमी क्रूरता से इकट्ठा करता है, दस हजार रुपये दान करता है। नब्बे हजार की क्रूरता इकट्ठी करता है, दस हजार का दान भी इकट्ठा कर लेता है। फिर वह महादानी हो जाता है। फिर हम उसको नमस्कार करते हैं कि वह परम दानी है। लेकिन कोई भी यह नहीं पूछता कि दान में जो धन दिया गया, वह आया कहां से, वह आया कैसे? धन आया कैसे?
नहीं, दया से क्रांति नहीं हो सकती। अहिंसा से भी क्रांति नहीं हो सकती है, क्योंकि अहिंसा निगेटिव है। अहिंसा से क्रांति इसलिए नहीं हो सकती कि अहिंसा इतना ही कहती है कि दूसरे को दुख मत दो। तो कुछ लोग अहिंसक हो जाते हैं, वे दूसरे को दुख नहीं देते। लेकिन दूसरे के दुख को दूर करने के लिए वे कोई उपाय भी नहीं करते, दूसरे के सुख की कोई व्यवस्था भी नहीं करते। वे केवल हाथ अलग करके रास्ते से किनारे हट जाते हैं कि हम इस रास्ते पर न चलेंगे, जहां दूसरे को दुख दिया जाता है। बस इतना ही वे करते हैं। वे नकारात्मक लोग हैं।
जैसे कोई आदमी कहे कि दूसरे को बीमार मत करो। ठीक है, हम किसी को बीमार नहीं करेंगे। लेकिन दूसरे लोग बीमार हैं, उनके लिए भी हम कुछ न करेंगे, क्योंकि हमें इससे कोई संबंध नहीं है, हमने उन्हें बीमार नहीं किया है। किसी की आंख मत फोड़ो, यह ठीक है, लेकिन किन्हीं की आंखें फूटी हुई हैं, अंधे हैं? उनकी आंखों को ठीक करने का उपाय अहिंसा से नहीं निकलता।
अहिंसा की वृत्ति नकारात्मक है।
हिंदुस्तान में अहिंसा भी चल रही है कोई ढाई हजार साल से, लेकिन उससे भी कोई हल नहीं हुआ। क्योंकि उसने लोगों को सिकोड़ दिया बुरी तरह। उन्होंने सब तरफ से हाथ खींच लिए। वे पैर फूंक-फूंक कर रखने लगे कि कोई कीड़ा जमीन पर न मर जाए। वे मुंह पर पिट्टयां बांधने लगे कि कहीं नाक की गर्म हवा से कोई कीड़ा न मर जाए। वे रात करवट नहीं बदलते हैं कि कहीं कीड़ा न मर जाए। वे पानी छान कर पीते हैं कि कहीं कोई कीड़ा न मर जाए। वे हरी सब्जी नहीं खाते हैं कि कहीं कोई कीड़ा न मर जाए। वे रात खाना नहीं खाते हैं कि कहीं कोई कीड़ा न मर जाए। उन्होंने सब तरफ से अपने को रोक लिया कि हिंसा न हो जाए। लेकिन जो चल रहा है--दुख, हिंसा--उसे बदलने को वे कहीं भी नहीं जाते। और उसमें उन्हें डर लगता कि बदलने जाएं तो हिंसा न हो जाए।
एक आदमी को घाव है और उसके घाव में कीड़े पड़े हुए हैं। अहिंसक आदमी उसके घाव पर मलहम नहीं बांध सकता। क्योंकि मलहम बांधने से कीड़े मर जाएंगे। वह अहिंसक आदमी कहेगा, हमने तो घाव नहीं किया, आप जानिए, आपका काम जानिए। हम कीड़े मारने की झंझट नहीं लेते।
कलकत्ते में मारवाड़ी जैन, खाटों में खटमल पड़ जाएं, तो उनको मारते नहीं रहे हैं। अहिंसक लोग हैं, खाट के खटमल कैसे मारे! लेकिन अगर खाट पर कोई न सोए तो वे मर ही जाएंगे। तो वे एक रुपया-दो रुपया देकर रात में आदमी किराए पर रख लेते हैं और उस खाट पर सुला देते हैं कि तुम इस पर सो जाओ, दो रुपया ले लेना। खटमल न मर पाएं और तुमने अपना काम किया, उसके दो रुपया ले लिए। हमने तुमसे मुफ्त काम भी नहीं लिया। अहिंसा उनकी पूरी हो गई। खटमल भी नहीं मरे और खटमलों को खून भी पिलवा दिया, खून के पैसे भी चुका दिए। लीगल रास्ता खोज लिया उन्होंने, कोई झंझट नहीं रही उसमें!
अहिंसक आदमी जीवन के दुख को नहीं मिटाने आएगा। वह उसकी सिर्फ चेष्टा इतनी है कि मैं दुख न दूं, बस काफी है। लेकिन इतनी चेष्टा अधूरी है। इससे कुछ हो नहीं सकता। प्रेम करने वाले लोग भी सदा से रहे हैं। प्रेम सदा से है, प्रेम निरंतर रहा है। प्रेम सुख देना चाहता है, दूसरे को सुख देना चाहता है। अहिंसा से बहुत ऊपर है प्रेम। दूसरों को सुख देने की खोज करता है। लेकिन दूसरे को सुख देने की खोज काफी नहीं है, जब तक कि दूसरे के दुख के बुनियादी कारणों में भी हमारा हाथ है, इसका हमें पता न चल जाए।
एक पति अपनी पत्नी को सुख देना चाहता है। वह प्रेम करता है उसे। लेकिन उसका पति होना भी उसकी पत्नी के दुख का एक हिस्सा है, यह उसे कभी दिखाई नहीं पड़ने वाला है। एक पति अपनी पत्नी को सुख देना चाहता है, सब तरह का सुख देना चाहता है। वह उसे प्रेम करता है। वह उसे साड़ियां ला रहा है, गहने खरीद रहा है, मकान बना रहा है, बड़ी कारें खरीद रहा है, वह अपनी जिंदगी लगाए दे रहा है उसको सुख देने के लिए। लेकिन पत्नी सुखी नहीं हो पा रही है। वह पूरी कोशिश कर रहा है, लेकिन पत्नी सुखी नहीं हो पा रही है। लेकिन उस पति को अगर करुणा हो प्रेम की जगह, और वह देख सके कि पत्नी का दुख क्या है, तो शायद उसका पति होना भी पत्नी के दुखों में एक कारण है।
जब भी कोई किसी का मालिक बन जाता है तो दुख देने वाला हो जाता है। मालिक सदा ही दुख देता है। और जब कोई किसी को बांध लेता है तो दुख देने वाला हो जाता है। और जब कोई किसी की परतंत्रता बन जाता है तो दुख देने वाला हो जाता है। और जब कोई किसी को पजेस कर लेता है और मालकियत कर लेता है, तब दुख देने वाला हो जाता है। यह उसे पता नहीं है।
एक फूल को मैं प्रेम करता हूं, बहुत प्रेम करता हूं, इतना प्रेम करता हूं कि मुझे डर लगता है कि कहीं सूरज की रोशनी में कुम्हला न जाए; और मुझे डर लगता है कि कहीं जोर की हवा आए, इसकी पंखुड़ियां न गिर जाएं; और मुझे डर लगता है कोई जानवर आकर इसे चर न जाए; और मुझे डर लगता है कि पड़ोसियों के बच्चे इसको उखाड़ न लें, तो मैं फूल के पौधे को मय गमले के तिजोड़ी में बंद करके ताला लगा देता हूं। प्रेम तो मेरा बड़ा है, लेकिन करुणा मेरे पास बिलकुल नहीं है। प्रेम तो बड़ा है, मैंने पौधे को बचाने के सब उपाय किए। धूप से बचा लिया, हवा से बचा लिया, बच्चों से, जानवरों से। मजबूत तिजोड़ी खरीदी, उसको भी मेहनत करके बनाया, ताला लगा कर पौधे को बंद कर लिया। लेकिन अब यह पौधा मर जाएगा, मेरा प्रेम इसे बचा न सकेगा। और जल्दी मर जाएगा। हो सकता था बाहर हवाएं थोड़ी देर लगातीं, और पड़ोसी के बच्चे हो सकता था इतनी जल्दी न भी आते, और सूरज की किरणें फूल को इतनी जल्दी न मुरझा देतीं, लेकिन तिजोड़ी में बंद पौधा जल्दी ही मर जाएगा। प्रेम तो पूरा था, लेकिन करुणा जरा भी न थी।
जगत में प्रेम भी रहा है, अहिंसा भी रही है, दया भी रही है; लेकिन करुणा नहीं, कंपैशन नहीं। करुणा का अनुभव ही नहीं रहा है। और करुणा का अनुभव आए, तो हम जीवन को बदलेंगे। और करुणा से अगर दया निकले, तो वह दया न रह जाएगी। क्योंकि उसमें कोई अहंकार की तृप्ति न होगी। और करुणा से अगर अहिंसा निकले, तो वह निषेधात्मक न रह जाएगी। वह सिर्फ इतना न कहेगी कि दुख मत दो, वह इतना भी कहेगी कि दुख मिटाओ भी, दुख से बचाओ भी, दुख से मुक्त भी करो, सुख भी लाओ। और अगर करुणा से प्रेम निकले, तो प्रेम मुक्तिदायी हो जाएगा, बंधनकारी नहीं रह जाएगा।
अब तक का सारा प्रेम गुलामी लाने वाला सिद्ध हुआ है। सब प्रेम ने जंजीरें बांध दी हैं। हां, गरीब आदमी लोहे की जंजीर बांधता है, अमीर आदमी सोने की जंजीर बांधता है। लेकिन सब प्रेम ने जंजीरें बांध दी हैं। अगर करुणा से प्रेम निकलेगा, तो वह मुक्ति लाएगा। मैं जिसे प्रेम करता हूं, मैं उसे मुक्त करूंगा, अगर मेरी करुणा भी उसके साथ है। मैं जिससे प्रेम करता हूं, मैं उसके जीवन के संकटों को, कष्टों को, पीड़ाओं को, भीतर की स्थितियों को समझूंगा, सहयोगी बनूंगा। मैं जिसे प्रेम करता हूं, अगर वह किसी और को प्रेम करके सुख होता हो उसे, तो मैं सुखी होऊंगा। क्योंकि जिसे मैं प्रेम करता हूं, उसे मैं सुखी देखना चाहता हूं।
लेकिन जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह बरदाश्त न कर सकेगा। मैं जिसे प्रेम करता हूं, अगर वह किसी की तरफ प्रेम की नजरों से देख ले, तो मैं उसकी गर्दन पकड़ लूंगा। और मैं कहूंगा कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, तुमने दूसरे की तरफ प्रेम की नजर से कैसे देखा? यह करुणा नहीं है, यह अत्यंत कठोरता है, और प्रेम के नाम पर बहुत गहरी हिंसा है। इसलिए प्रेमी एक-दूसरे के साथ जितने हिंसक हो जाते हैं, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। और जब प्रेमी हिंसक होते हैं तो उन जैसा हिंसक और कोई भी नहीं हो सकता है। और जब वे एक-दूसरे के प्रति हिंसा से भर जाते हैं, ईर्ष्या से भर जाते हैं, तब वे जितना कष्ट जगत में पैदा करते हैं, उतना कोई भी नहीं करता।
नहीं, करुणा से अगर प्रेम निकले, तो प्रेम मुक्तिदायी होगा। और करुणा से दया निकले, तो निर-अहंकार होगी। और करुणा से अहिंसा निकले, तो विधायक होगी, निषेधात्मक नहीं होगी। इसलिए मैंने करुणा पर जोर दिया है। वह सिर्फ शब्दों का ही फासला नहीं है, भीतर कोई दृष्टि है। इसलिए मैंने कहा, करुणा की छाया है क्रांति। अहिंसा की नहीं, तथाकथित प्रेम की नहीं, तथाकथित दया की नहीं।
एक और मित्र ने पूछा है कि मैं निरंतर कहता हूं कि हम सब परमात्मा में, प्रभु में, सत्य में एक हो जाएं। कहां है वह सत्य, कहां है वह प्रभु, कहां है वह परमात्मा, कैसा है वह?
किसको कहते हैं परमात्मा, इसे भी थोड़ा समझ लेना उचित है।
क्योंकि मनुष्य के जीवन में जो क्रांति लानी है, उसमें अगर प्रभु की मौजूदगी न रही, तो वह क्रांति बहुत गहरी न हो सकेगी। अगर उस क्रांति को गहरा करना है और जड़-मूल तक ले जाना है, तो उसमें प्रभु का हाथ और मौजूदगी बहुत जरूरी है। प्रभु-विहीन क्रांतियां हो गई हैं। असल में, जिन्हें मैं कह रहा हूं क्रोध से निकली हुई क्रांतियां, वे प्रभु-विहीन क्रांतियां हैं। और जिसे मैं कह रहा हूं करुणा से आने वाली क्रांति, वह प्रभु की मौजूदगी को स्वीकार करके आने वाली क्रांति है।
ऐसी क्रांतियां हो गई हैं जिनमें ईश्र्वर को हमने स्वीकार नहीं किया है, बल्कि क्रांतिकारी अक्सर ईश्र्वर को इनकार करता रहा है। उसे ऐसा लगता रहा है कि ईश्र्वर भी क्रांति में बाधा है। उसने ईश्र्वर को भी तोड़ देना चाहा है। वह ईश्र्वर पर भी क्रोधित हो गया है। उसे लगा है कि इतनी गरीबी है दुनिया में, तो कहां है ईश्र्वर! कैसा ईश्र्वर है! इतनी पीड़ा है तो ईश्र्वर नहीं हो सकता है! उसने ईश्र्वर को भी पोंछ देना चाहा है।
लेकिन पीड़ा और गरीबी और तकलीफ ईश्र्वर के कारण नहीं है। हमारे कारण है। और ईश्र्वर की अनुकंपा इतनी है कि वह हमें सब तरह से स्वतंत्र किए हुए है। वह हमें भटकने के लिए भी स्वतंत्र किए हुए है। वह हमें पाप करने के लिए भी स्वतंत्र किए हुए है। और स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं होता, अगर ईश्र्वर हम सबको जन्म लेने के पहले एक चिट्ठी लिख कर दे दे और कहे कि आपको अच्छे काम करने की पूर्ण स्वतंत्रता है, लेकिन बुरा काम करने की बिलकुल स्वतंत्रता नहीं है; और वह हमसे कह दे कि आपको प्रेम करने की पूरी स्वतंत्रता है, जितना चाहो प्रेम करो, लेकिन घृणा करने की बिलकुल स्वतंत्रता नहीं है, तो क्या वह स्वतंत्रता स्वतंत्रता होगी? अगर हमसे कहा जाए कि आपको संत बनने की पूरी स्वतंत्रता है, बनो, लेकिन असाधु बनने की स्वतंत्रता नहीं है, तो संत बनने की स्वतंत्रता भी समाप्त हो जाएगी। क्योंकि संत बनने की स्वतंत्रता असंत बनने की स्वतंत्रता से ही जुड़ी हो सकती है, अन्यथा नहीं हो सकती।
अगर हमसे कहा जाए कि आपको जागने की पूरी स्वतंत्रता है, लेकिन सोने की स्वतंत्रता नहीं है, तो जागने की स्वतंत्रता फौरन खो जाएगी। क्योंकि जागने की स्वतंत्रता सोने की स्वतंत्रता के साथ ही जुड़ी है। अलग-अलग नहीं हो सकती। आदमी को शुभ करने की स्वतंत्रता इसीलिए उपलब्ध है कि उसे अशुभ करने की भी स्वतंत्रता उपलब्ध है। और परमात्मा ने आदमी को इतना स्वतंत्र कर दिया है कि उसने अपने को सबके सामने मौजूद भी नहीं रखा है। यह भी परमात्मा की स्वतंत्रता का ही उपक्रम है।
हम अक्सर पूछते हैं: ‘ईश्र्वर सामने क्यों नहीं है?’
अगर ईश्र्वर सामने हो तो हमारी स्वतंत्रता में पूरी तरह बाधा पड़ेगी। आप एक घर में चोरी करने गए हैं और परमात्मा आपके साथ ही लगा हुआ है, वह आपके बगल में ही खड़ा हुआ है। ऐसे तो वह खड़ा ही हुआ है। इसलिए जिनको वह दिखाई पड़ जाता है कि खड़ा हुआ है, उनकी चोरी मुश्किल हो जाती है। लेकिन हमको दिखाई नहीं पड़ता है, इसलिए स्वतंत्रता है। हम चोरी कर सकते हैं और सोच सकते हैं कि कोई दिक्कत नहीं है, सबको धोखा दे दिया है।
मैंने सुना है, एक फकीर के पास कुछ युवक आए और उन्होंने कहा कि हम उस अज्ञात परमात्मा की खोज करना चाहते हैं, वह कहां है? जैसा इस मित्र ने पूछा है कि ‘कहां है वह ईश्र्वर, कैसा है वह प्रभु?’ उन्होंने भी पूछा। उस फकीर ने कहा कि एक छोटा सा काम कर लाओ, फिर मैं तुम्हें बताऊं। चार शिष्य थे, उसने एक-एक कबूतर उनको दे दिया और कहा: यह ले जाओ और जहां कोई न देखता हो, जल्दी से कबूतरों को मार कर वापस लौट आओ।
एक शिष्य बाहर सड़क पर गया। दोनों तरफ देखा, भरी दोपहरी थी, कोई भी नहीं था, लोग घरों में सोए थे। उसने कबूतर को मरोड़ा और भीतर वापस आ गया और उसने कहा: यह लीजिए। कोई भी नहीं देख रहा था।
दूसरा शिष्य सड़क पर गया। उसने सोचा कि यद्यपि सड़क पर कोई नहीं है, लेकिन भरी रोशनी है, दोपहरी है, मैं मरोडूं और कोई आ जाए, कोई खिड़की से झांक ले, कोई घर के बाहर निकल आए। तो वह अंधेरी गली में गया, जहां कोई द्वार न थे, बड़ी दीवालें थीं। गांव के किले की मजबूत दीवाल थी पत्थरों की, वह उसकी आड़ में गया। जब वह सब तरह निश्चिंत हो गया कि अब दूर मीलों तक कोई दिखाई नहीं पड़ता है, तब उसने गर्दन मरोड़ी, वापस आकर गुरु को दे दिया।
तीसरे शिष्य ने सोचा कि दिन में तो कोई न कोई देख ही सकता है। प्रकाश देखने का माध्यम है। वह रात तक रुका, रात के अंधेरे में अपने घर के भीतर द्वार बंद करके उसने गर्दन मरोड़ी और लाकर गुरु को दे दिया।
लेकिन चौथे शिष्य का, महीना भर हो गया, कोई पता न चला। गुरु बहुत चिंतित है। वह अपने मित्रों को, अपने शिष्यों को कहता है, खोजो, वह कहां गया? वह पागल कहां है? महीने भर के बाद उसे एक जंगल में पकड़ा गया। वह करीब-करीब पागल हालत में था। उसको लाया गया। उसके गुरु ने पूछा कि क्या हुआ? वह कबूतर को साथ में लिए था। उसने कहा: मुझे बहुत मुश्किल में डाल दिया। मैं अंधेरी से अंधेरी जगह में गया, लेकिन अंधेरे में भी जब मैं गया और कबूतर की गर्दन पर हाथ रखा मैंने, तो मैंने देखा, कबूतर देख रहा है। तब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। फिर मैंने बहुत तरकीबें खोजीं। फिर मैंने कबूतर की आंख पर पट्टी बांध दी और मैं एक अंधेरे तलघरे में गया, जहां घनघोर अंधेरा था, जहां कि पट्टी के भीतर से देखना क्या, पट्टी के बाहर से भी कबूतर को देखना संभव न होता। वहां जाकर जब मैं उसकी गर्दन मरोड़ रहा था, तब मुझे दिखाई पड़ा कि मैं देख रहा हूं! और गहरी गुफाओं में गया, जहां कि हाथ को हाथ न सूझता हो, और जब मैं उसे दबाने लगा, तब मुझे अचानक प्रतीत हुआ कि परमात्मा देख रहा है! मुझे मुश्किल में डाल दिया है। यह काम नहीं हो सकता। यह कबूतर आप वापस ले लो। मैं बिलकुल पागल हो गया। वह जगह खोज रहा हूं, जहां परमात्मा न हो। सब जगह घूम आया, जंगल, पहाड़, पर्वत सब देख डाले, वह सब जगह है।
उस फकीर ने उन तीन को जो कबूतर को मार लाए थे, कहा: तुम भाग जाओ। तुम अदृश्य को न खोज सकोगे। तुम्हारी आंखें बड़ी स्थूल हैं। तुम सूक्ष्म को न देख सकोगे। आंखों को थोड़ा सूक्ष्म करके आओ। यह युवक कुछ काम पड़ सकता है। इसकी आंखें सूक्ष्म हैं। यह किसी प्रेजेंस को, किसी उपस्थिति को अनुभव करता है। कबूतर की भी उपस्थिति अनुभव करता है, अपनी भी। और सब तरफ से रोक लेता है तो भी इसे किसी की उपस्थिति मालूम पड़ती है।
परमात्मा अदभुत है कि उसने हटा लिया है अपने से हमको--हमसे दूर, अलग, अदृश्य, ताकि हम पूरे स्वतंत्र हो सकें, अन्यथा हम स्वतंत्र न हो पाएं। बेटा बाप के सामने सिगरेट नहीं पीता है, बगल के कमरे में जाकर पी लेता है। लेकिन अगर, अगर पता चल जाए कि वहां परमात्मा मौजूद है, तो फिर किस कमरे में जाए, कहां छिपे, क्या करे, फिर बहुत मुश्किल हो जाए। और अगर निरंतर यह मालूम होने लगे कि दो आंखें सदा झांक रही हैं, हर जगह, हर कोने में, हर अंधेरे में, तब बहुत मुश्किल हो जाए। स्वतंत्रता असंभव हो जाए।
मनुष्य पूरी तरह स्वतंत्र हो सके, इसलिए परमात्मा अदृश्य हो गया है। परमात्मा का अदृश्य होना मनुष्य को दी गई पूरी स्वतंत्रता के आधारभूत कारणों में से है।
लेकिन क्या मतलब है परमात्मा से?
कोई व्यक्ति, कोई आदमी, कोई पर्सनैलिटी, कहीं कोई छिपा हुआ बैठा है?
नहीं, इस भाषा में सोचने के कारण ही बहुत कठिनाई हो गई है। इस भाषा में सोचने के कारण हमने मंदिर बना लिए हैं, मूर्तियां बना ली हैं, पूजा चल रही है, भजन-कीर्तन चल रहे हैं। जिनका परमात्मा से कोई भी संबंध नहीं है। न हो सकता है। ये हमारे गढ़े हुए परमात्मा हैं, जो हमने अपनी कल्पना से गढ़ लिए हैं।
परमात्मा का अर्थ है: समग्र, दि टोटल। वह जो सारा जगत है, सारा जीवन है उसका जोड़।
खंड-खंड हम देखते हैं। एक आदमी है, एक पौधा है, एक जमीन है, एक चांद है, एक पहाड़ है, एक सागर है। खंड-खंड हैं, अलग-अलग हैं। लेकिन सबका अस्तित्व जुड़ा हुआ है, सबका अस्तित्व गहरे में जुड़ा और संयुक्त है।
दस करोड़ मील दूर है सूरज, लेकिन अगर अभी ठंडा हो जाए तो सुबह हम फिर कोई पता न चलेगा कि कहां गए, हम साथ ही ठंडे हो जाएंगे। दस करोड़ मील दूर जो है, उसकी किरणें हमें जिलाए हुए हैं, गरम किए हुए हैं। ऐसा नहीं है कि थर्मामीटर से फिर आप नापेंगे, सूरज के ठंडे हो जाने पर, तो आपको शरीर ठंडा होता मालूम पड़ेगा। नहीं, थर्मामीटर भी ठंडा हो चुका होगा। वह भी गर्मी नहीं बताएगा। आप भी ठंडे हो चुके होंगे। और कोई नहीं होगा जो जान सके कि कुछ गरम है। वह सारी गर्मी दस करोड़ मील दूर से चली आ रही है। दस करोड़ मील दूर से हम बंधे हैं।
एक फूल खिल रहा है पृथ्वी पर, वह सूरज की किरणों से बंधा है। एक बीज अंकुरित हो रहा है, वह सूरज से बंधा है। लेकिन सूरज से ही बंधे हैं, ऐसा नहीं, और गहरे, गहरे, दूर से दूर के तारे से भी हमारे संबंध हैं। उससे भी हम बंधे हैं। एक अनंत जाल है अस्तित्व का, जिसमें सब पिरोए हुए हैं।
फूल की एक माला कोई मेरे गले में डाल जाता है। फूल-फूल दिखाई पड़ते हैं, भीतर का सूत दिखाई नहीं पड़ता है। लेकिन फूल अगर अलग-अलग होते, तो माला न होती। भीतर कोई सूत है, जो पिरोया हुआ है, इसलिए माला है। यह सारा अस्तित्व पिरोया हुआ है। इस सारे अस्तित्व में हम एक-दूसरे के भीतर प्रवेश कर गए हैं। हमें खयाल में नहीं आता!
आप हैं, आपने कभी सोचा है कि आपके भीतर करोड़ों-करोड़ों साल का अस्तित्व पिरोया हुआ है। एक छोटा बच्चा मां के पेट में निर्मित होता है, तो चौबीस अणु पिता से आते हैं उसके पास, चौबीस अणु उसकी मां से आते हैं। पिता के चौबीस अणुओं में उसके पिता के बारह अणु होते हैं, उसकी मां के बारह अणु होते हैं। पिता के पिता के बारह अणुओं में छह उसके पिता के पिता के होते हैं, छह उसकी मां के मां के होते हैं। और यह सारे अणुओं की यात्रा अंतहीन चल रही है। आप आज ही अचानक पैदा नहीं हो गए, हजारों-लाखों साल की श्रृंखला की एक कड़ी हैं आप। एक लंबी श्रृंखला की कड़ी, जो जुड़ी हुई है। और ऐसा नहीं है कि आप पीछे से ही जुड़े हैं, भविष्य में भी जोड़ जारी रहेगा। वहां भी यात्रा जारी रहेगी। आज आपकी बगिया में जो फूल खिला है, वह अचानक नहीं खिल गया है। उसके बीजों की यात्रा अनंत है।
और अब तो वैज्ञानिक सोचते हैं कि किसी न किसी दिन जब पहली दफा कोई बीज जमीन पर आया होगा, तो भी पैदा कैसे हो गया होगा। जरूर किसी दूसरे ग्रह-उपग्रह से उड़ कर आया होगा। या कोई दूसरे ग्रह-उपग्रह से किसी यात्री के साथ चला आया होगा। अभी हमारे यात्री चांद पर गए, तो लौट कर हमने उनकी महीने भर परीक्षा की और जांच-पड़ताल की कि चांद से वे कोई कीटाणु तो नहीं ले आए हैं। लेकिन चांद पर वे कुछ कीटाणु जरूर छोड़ आए होंगे, जिसकी कोई परीक्षा नहीं हुई। और हो सकता है चांद से हमारा संबंध टूट जाए, आगे न हो; और वे कीटाणु विकसित होते रहें और करोड़ों साल में वहां एक प्राणी पैदा हो जाए। कभी न कभी किसी अंतहीन काल में इस पृथ्वी पर, किसी दूसरे ग्रह से जीवन के कोई पहले चरण इसी भांति आए होंगे। उनसे हमारा जोड़ है।
अंतहीन श्रृंखला है, उससे हम जुड़े हैं। यह श्रृंखला बहुत दिशाओं में, मल्टी डाइमेन्शनल है, बहुआयाम में फैली हुई है। पीछे-आगे, चारों तरफ, नीचे-ऊपर सब तरफ। जितनी दिशाएं हैं सब दिशाओं में हम जुड़े हुए हैं। उन सब दिशो के जोड़ पर हमारा छोटा सा बिंदु का अस्तित्व है, और इस अस्तित्व को हम कहते हैं ‘मैं।’ ‘मैं’ कहने का अधिकार सिवाय परमात्मा के और किसी को भी नहीं हो सकता है। क्योंकि हम ‘मैं’ कह भी न पाएंगे और बिखरने का क्षण आ जाएगा। लेकिन सब बिखरता रहे, सब बनता रहे--जिसमें बिखरता है और जिसमें बनता है, वह है, वह है। वह न बिखरता है, न वह बनता है।
एक सागर है, उस पर लहरें बन रही हैं। अभी एक लहर उठी कितनी शान से, कितनी अकड़ से। आकाश को छूने की हिम्मत से, आकांक्षा से। कितने जोर से उछल कर उसने सागर के चारों तरफ देखा है और पास-पड़ोस की छोटी लहरों से कहा होगा: देखती हो, कौन हूं मैं? लेकिन जब वह कह रही है, ‘देखती हो, कौन हूं मैं?’ तभी बिखराव शुरू हो चुका है। वह वापस गिरना शुरू हो गई है। वह कह भी नहीं पाई है और गिरना शुरू हो गया है। उसका कहना पूरा भी न हो पाएगा। दूसरी लहरें शायद सुन भी न पाएंगी और लहर खो जाएगी। सागर में लहरें उठती रहती हैं, खोती रहती हैं।
आप ऐसा तो सोच सकते हैं कि सागर हो बिना लहर के, ऐसा कभी हो सकता है कि शांत हो, कोई लहर न हो, सागर हो। लेकिन ऐसा आप नहीं सोच सकते हैं कि लहर हो बिना सागर के। ऐसा आप नहीं सोच सकते। समुद्र की छाती पर लहरें उठती, बनती, बिगड़ती रहती हैं। अगर हम लहर लहर को देखते रहें, तो सागर का हमें कोई पता न चलेगा। हम सब लहर को जोड़ कर देख लेते हैं, इसलिए सागर का पता चलता है।
परमात्मा का अर्थ है: वह जो अस्तित्व की अनंत-अनंत लहरें हैं, उनको हम जोड़ में देखने में समर्थ हो जाएं, टोटेलिटी में देखने में समर्थ हो जाएं, तो परमात्मा का पता चलता है। और अगर समग्र को न देख सके, एक-एक टुकड़े को देखते रहे, तो हमें आदमियों का पता चलेगा, पौधों का पता चलेगा, पत्थरों का पता चलेगा, पहाड़ों का पता चलेगा, लेकिन परमात्मा का पता नहीं चलेगा।
परमात्मा है जोड़, योग--परमात्मा है सबका जोड़। अगर सारे जगत के समस्त अस्तित्व को जोड़ा जा सके, तो जो हिसाब आएगा नीचे, वह परमात्मा है। लेकिन वह पूरी तरह जोड़ा नहीं जा सकेगा। वह पूरी तरह जोड़ा नहीं जा सकेगा, क्योंकि वह अंतहीन और अनंत है। इसलिए हम सिर्फ कंसीव कर सकते हैं, हम केवल भाव में अनुभव कर सकते हैं उस जोड़ का। लेकिन किसी दिन हम जोड़ कर बता नहीं सकते कोई फार्मूला बना कर कि इतना रहा जोड़। यह हम नहीं बता सकते हैं। इसके भी कुछ कारण हैं कि हम नहीं बता सकते। इसे थोड़ा सोच लेना उपयोगी होगा। ईश्र्वर को समझने में आधारभूत होगा।
हम कभी नहीं सोच सकते कि कोई चीज असीम हो सकती है। हमारी कल्पना सीमा पर जाकर रुक ही जाती है। हम कितनी ही दूर सीमा को ले जाएं फिर भी सीमा हटती है, मिटती नहीं। अगर हम सोचें कि जगत असीम है, तो हम इतना ही कर सकते हैं कि बहुत-बहुत, करोड़ों-करोड़ों, अरबों-अरबों मीलों दूर कहीं सीमा होगी, लेकिन हमारी बुद्धि में सीमा नहीं होगी, यह पकड़ में नहीं आता! हम कहेंगे, और थोड़ा आगे, और थोड़ा आगे, और थोड़ा आगे। जैसे छोटे बच्चे, उनको कहानियां कहो, तो वे पूछते हैं, फिर और, फिर और। वे पूछते ही चले जाते हैं। क्योंकि उनकी समझ में यह नहीं आता कि बात एकदम खत्म कैसे हो जाएगी। फिर और, आगे तो होगा न कुछ।
तो हम भी अगर पूछते हैं, तो हम सोच सकते हैं ज्यादा से ज्यादा और आगे, और आगे, और आगे। लेकिन हम यह नहीं सोच सकते कि ऐसा भी है यह जगत कि इसकी कोई सीमा ही न होगी। इसे सोचने में सिर घूम जाता है। इसे कभी-कभी सोचना चाहिए। सिर को कभी-कभी घुमाना भी चाहिए। ताकि सिर की जो अकड़ है, वह थोड़ी कम हो जाए। नहीं तो, सिर को बहुत अकड़ है, वह सोचता है, सभी हम सोच सकते हैं। वह नहीं सोच सकता। हम असंख्य को नहीं सोच सकते।
बड़े से बड़ा गणितज्ञ भी सोचेगा, तो बड़ी से बड़ी संख्या सोच सकता है। वह कहेगा, और इतना जोड़ दो, और इतना जोड़ दो, और इतना जोड़ दो। लेकिन कोई कहता है, असंख्य, तो हमको असंख्य का मतलब होता है ऐसा, जो गिना न जा सके। लेकिन हम सोचते हैं, अगर मेहनत की जाए तो गिना जा सकता है। अगर कोई आपसे पूछे कि आदमी के सिर पर कितने बाल हैं, तो आप कह देंगे, असंख्य। उसका यह मतलब नहीं है कि असंख्य हैं। बाल तो गिने जा सकते हैं। और कुछ बुद्धिमानों ने मेहनत करके गिन भी लिए। कुछ बुद्धिमान ऐसी ही नासमझी के काम भी किया करते हैं।
आदमी की खोपड़ी के बाल गिने जा सकते हैं, आकाश के तारे गिने जा सकते हैं, लेकिन हम यह नहीं सोच सकते कि ऐसा भी हो सकता है कि संख्या समाप्त ही न होती हो। कहीं भी, कहीं भी, कहीं भी समाप्त न होती हो। तब सिर घूम जाता है। सीमा समझ में आती है, असीम समझ में नहीं आता। बिगिनिंग समझ में आती है, किसी चीज की शुरुआत हुई, अंत हुआ, यह समझ में आता है। यह समझ में नहीं आता कि कोई चीज शुरू ही नहीं हुई, शुरू ही नहीं हुई, अंत भी नहीं होगी, अंत भी नहीं होगी। अगर बुद्धि से नापने जाएंगे, तो परमात्मा की पकड़ कभी भी न आ पाएगी। क्योंकि बुद्धि न असीम को सोच सकती है, न पूर्ण को सोच सकती है, न अनंत को सोच सकती है।
लेकिन अनंत को सोचने की कोशिश करें, यह भी एक मेडिटेशन का प्रकार है, एक ध्यान का प्रकार है। अनंत को सोचें और सोचते चले जाएं और सीमाओं को आगे हटाते जाएं, हटाते जाएं, हटाते जाएं, अंततः मिटा देने की कोशिश करें कि कोई सीमा नहीं है। सीमा मिटी वहां कि यहां भीतर बुद्धि भी मिट जाएगी। ये दोनों एक साथ मिट जाते हैं। वहां सीमा मिटी, यहां बुद्धि मिटी। वहां प्रारंभ और अंत मिटा, यहां बुद्धि मिटी। वहां संख्या मिटी, यहां बुद्धि मिटी। और जिस क्षण बुद्धि मिट जाती है, उस दिन असीम, अनंत, समग्र का बोध शुरू हो जाता है। वह बोध परमात्मा का बोध है।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं, समग्र जोड़ का नाम है। लेकिन वह जोड़ भी हमारी बुद्धि का कोई गणित नहीं है, हमारी बुद्धि की असफलता है।
और अंत में इतनी ही बात ठीक से समझा दूं कि बुद्धि की असफलता जहां है, वहीं से धर्म का प्रारंभ है। बुद्धि जहां पूरी तरह असफल हो जाती है--पूरी तरह! ध्यान रहे, अगर थोड़ी भी बची रही, तो उसने कहा कि ठहरो, अभी हम और थोड़ी कोशिश करें। टोटल फेल्योर, जहां पूर्ण असफलता आ गई।
एक मित्र से मैं बात कर रहा था परसों ही रात और मैंने उनसे कहा कि जब पूर्ण असफल हो जाता है मनुष्य का सोचना, तब सोचना समाप्त हो जाता है और तब जानना शुरू होता है। जहां थिंकिंग समाप्त होती है, वहां नोइंग शुरू होती है। जहां विचार बंद होते हैं, वहां जानना शुरू होता है। तो उनसे मैं कह रहा था कि जहां बुद्धि पूरी तरह असफल हो जाती है। तो उन्होंने कहा: तब तो मन में बड़ा विषाद, डिप्रेशन मालूम होता होगा। मैंने कहा: अगर विषाद मालूम होता हो तो अभी पूरी असफलता नहीं हुई, क्योंकि अभी सफलता की कोई आशा मन में शेष है, उसी की वजह से विषाद मालूम होता है। पूर्ण असफलता का अर्थ है कि अब सफलता की कोई आशा भी न रही। निराशा भी नहीं, आशा भी नहीं। असफलता पूरी हो गई। और यह पता चल गया कि यह हो ही नहीं सकता था, यह हो ही नहीं सकता है।
बुद्धि से असीम को जाना नहीं जा सकता, सोचा नहीं जा सकता, समझा नहीं जा सकता। फिर, जैसे ही यह पता चल जाए, बुद्धि ठहर कर खड़ी हो जाती है।
कितनी बार हम कहते हैं कि बुद्धि बड़ी चंचल है। बुद्धि चंचल रहेगी ही। आप ऐसी छोटी-छोटी चीजों पर लगाते हैं, जिनमें बुद्धि चंचल रहेगी ही। जरा असीम पर लगा कर देखें और आप पाएंगे कि बुद्धि ठहर गई। फिर वहां चंचलता नहीं होती। बुद्धि को आप लगाते हैं इतनी क्षुद्र चीजों पर कि वह चंचल हो ही जाएगी, ऊब जाएगी, दूसरे पर जाएगी, तीसरे पर जाएगी। असीम पर लगा दें बुद्धि को और आप अचानक पाएंगे कि वह असफल हो गई। ठगी खड़ी रह गई। खड़ी रह गई, अब जाने को कहीं न रहा। नो व्हेयर टु गो। क्योंकि असीम है, जाओ कहां? कोई सीमा नहीं, कोई अंत नहीं।
और जहां असीम पर बुद्धि को लगाया जाता है, वहीं बुद्धि टूट कर बिखर जाती है--एक्सप्लोजन की तरह, एक विस्फोट की तरह बुद्धि बिखर जाती है। फिर जो शेष रह जाता है, वह परमात्मा है। ऐसा नहीं है कि वह परमात्मा आपके सामने होगा, ऐसा कि आप भी उसमें ही होंगे। ऐसा नहीं है कि आप इधर खड़े होंगे, उधर परमात्मा होगा। नहीं, जहां आपकी बुद्धि बिखर गई, तब जो शेष रह जाएगा आपमें, आपके बाहर, आपसे दूर, आपके पास, भीतर, बाहर, यहां, वहां, सब कहीं, जो शेष रह जाएगा, वह परमात्मा है।
परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता। ऐसा नहीं कि आप कभी उसका दर्शन कर लेंगे और नमस्कार कर लेंगे। हां, रामचंद्र जी मिल सकते हैं, क्राइस्ट मिल सकते हैं, कृष्ण जी मिल सकते हैं, बुद्ध, महावीर मिल सकते हैं, ये सब मिल सकते हैं, परमात्मा नहीं मिल सकता। ये सब मिल सकते हैं, क्योंकि इनको आप अपनी ही कल्पना से पैदा कर सकते हैं। लेकिन परमात्मा आपकी कल्पना से पैदा नहीं होता। जहां कल्पना हार कर थक जाती है, विश्राम करने लगती है, वहां उसका अनुभव शुरू होता है। और मैं कह रहा हूं कि इस परमात्मा की उपस्थिति अगर मौजूद रहे, तो ही वास्तविक क्रांति हो सकती है। क्योंकि तब हम अस्तित्व की जड़ों तक उतर जाते हैं, और जड़ों से रूपांतरण होता है।
प्रभु में जीने के अतिरिक्त और कोई क्रांति नहीं है।
प्रभु से संबंधित होने के अतिरिक्त और कोई म्युटेशन, कोई रूपांतरण नहीं है।
प्रभु से संबंधित होने के अतिरिक्त न कोई क्रांति है, न कोई परिवर्तन, न कोई रूपांतरण, न कोई अनुभव, न कोई आनंद, न कोई आलोक, न कोई सत्य, न कोई मुक्ति। इसलिए प्रभु पर जोर दे रहा हूं।
इधर मेरे पास मित्र हैं, वे कहते हैं कि प्रभु को बीच में लाने की कोई भी जरूरत नहीं। अगर चल सकता बिना लाए तो ठीक था, लेकिन वह मौजूद है ही। उसे हटा सकते तो भी ठीक था, लेकिन वह हटता नहीं, वह मौजूद है ही। हां, जो देख नहीं रहे, उन्हें पता नहीं चलता है।
जैसे अंधों की एक बस्ती हो और वे कहें कि प्रकाश को बीच में लाए बिना बात नहीं बनेगी, और आंख वाला कहे कि मैं बीच में लाता नहीं, वह बीच में है ही। तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता, यह दूसरी बात है। और तुम अंधे हो, फिर भी चलते प्रकाश में ही हो। वे अंधे कहें कि प्रकाश की बात ही बीच से हटा दो। तो भी वह आंख वाला कहेगा, बात हटाने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा, प्रकाश बीच में है ही। और अच्छा है कि हम उसे जान ही लें, क्योंकि वह हमें टकराने से बचा सकेगा। हम उसे पहचान ही लें, क्योंकि वह हमारे रास्ते पर साथी बन जाएगा। हम उसे देख ही लें, क्योंकि उसे देख लेने के बाद ही हम ठीक-ठीक चल पाएंगे और ठीक-ठीक पहुंच पाएंगे।
अंधे को प्रकाश नहीं दिखता, हमें परमात्मा नहीं दिखता। निश्चित ही किसी अर्थ में हम अंधे हैं। उस अंधेपन को तोड़ने का उपाय ही ध्यान है।
ध्यान के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं, वह मैं सुबह की कल की बैठक में उन सारे प्रश्नों को लूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
पिछले चार दिनों की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्र्न मित्रों ने पूछे हैं। जितने प्रश्र्नों के उत्तर संभव हो सकेंगे, मैं देने की कोशिश करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि शांति और क्रांति में क्या संबंध हो सकता है और कैसे हो सकता है? करुणा और क्रांति में क्या संबंध हो सकता है और कैसे हो सकता है? ये दोनों बातें तो विरोधी मालूम पड़ती हैं। ऐसा किसी दूसरे मित्र ने भी पूछा है।
रास्ते पर कभी चलते हुए बैलगाड़ी देखी होगी आपने। गाड़ी का चाक चलता है, लेकिन चाक के बीच में एक कील ठहरी रहती है और चलती नहीं है। क्या कभी यह दिखाई पड़ा कि ठहरी हुई कील के ऊपर ही चाक का चलना निर्भर होता है? दोनों में विरोध है--कील ठहरी हुई है और चाक चलता है। और मजे की बात यह है कि कील ठहरी हुई है, इसीलिए चाक चलता है। अगर कील भी चल जाए, तो चाक न चल पाए। ठहरी हुई कील पर चलते हुए चाक का आधार है।
जीवन बहुत विरोधों से निर्मित है।
कभी जोर का बवंडर देखा हो, तूफान देखा हो, धूल का आकाश में उठता हुआ गुब्बारा देखा हो और जमीन पर पड़े उसके चिह्न देखे हों, तो एक बात देख कर हैरानी होगी कि सब तरफ तो गुब्बारे के चिह्न बन जाते हैं, लेकिन बीच में एक जगह खाली रह जाती है, वहां कोई तूफान नहीं होता। उठी हुई आंधी के घेरे के बीच में एक जगह होती है, जहां सब शांत होता है, जहां कोई तूफान नहीं होता।
‘शांति’ मनुष्य के भीतर चाहिए और ‘क्रांति’ उसके बाहर के जीवन में चाहिए।
शांति बनेगी कील और क्रांति होगी घूमता हुआ चाक। और हम सोचते हैं कि इन दोनों से एक को बचा लें। या तो हम सोचते हैं कि शांति ही बच जाए, कील ही बच जाए, चाक न रहे, तो कील व्यर्थ हो जाएगी, क्योंकि कील की सार्थकता चाक के साथ ही है।
भारत ने, पूरब के मुल्कों ने यह प्रयोग करके देख लिया कि शांति ही बच जाए, क्रांति की कोई जरूरत नहीं है। तो हम मुर्दा हो गए जमीन पर, मरे हुए लोग हो गए। हमारा अस्तित्व अनस्तित्व जैसा हो गया, न होने के बराबर हम हो गए। और अच्छा था कि न हो जाते। हमारा होना, न होने से भी दुखद हो गया। रुग्ण, बीमार, दीन-हीन, दरिद्र, दास। हमने जीवन की सारी पीड़ा झेल ली एक गलती के आधार पर कि हमने कहा, हम कील बचाएंगे, हम चाक नहीं बचाते, क्योंकि चाक कील का विरोधी है। हम सिर्फ शांति बचाएंगे, क्रांति की, परिवर्तन की हमें कोई जरूरत नहीं।
पश्चिम ने दूसरी भूल कर ली। उन्होंने चाक बचा लिया है और कील फेंक दी है। अब वे चाक को लिए बैठे हैं, लेकिन बिना कील के चाक बेकार है। उन्होंने क्रांति बचा ली है, परिवर्तन बचा लिया है, शांति की फिकर छोड़ दी है। उनका भी तर्क यही है कि अगर क्रांति करनी है तो शांति की क्या जरूरत है, जो तर्क हमारा है।
और ध्यान रहे, दिखाई पड़ता है कि पूरब और पश्र्चिम उलटे हैं, लेकिन दोनों का तर्क एक है। पूरब का तर्क यह है कि अगर शांति चाहिए तो क्रांति की क्या जरूरत है। पश्र्चिम का तर्क है कि अगर क्रांति चाहिए तो शांति की क्या जरूरत है। दोनों का तर्क भिन्न नहीं है। दोनों का तर्क एक है। और वह इस बात पर निर्भर है कि जीवन में से एक चीज को हम चुनेंगे, विरोधी को छोड़ देंगे। लेकिन जीवन विरोध से बना है, जीवन की सारी व्यवस्था विरोध पर खड़ी है।
कभी किसी मकान का दरवाजा देखें। दरवाजे में कारीगर ने विरोधी ईंटें लगा दी हैं। एक तरफ से ईंटें गई हैं और दूसरी तरफ से ईंटें आई हैं। और दोनों ईंटों में विरोध--और दोनों के विरोध के ऊपर सारा भवन खड़ा हो गया है। हम कह सकते हैं कि ईंटें एक ही दिशा में लगा देते तो क्या हर्ज था? लग सकती थी ईंटें, लेकिन फिर भवन खड़ा नहीं होता।
दो विरोध के आधार पर बल पैदा होता है, इसलिए जीवन सभी विरोधों के आधार पर खड़ा हुआ है।
स्त्री और पुरुष एक तरह का विरोध है। ऋण और धन विद्युत एक तरह का विरोध है। निगेटिव और पाजिटिव पोल्स एक तरह का विरोध है। अगर हम जिंदगी में खोजने जाएंगे तो सब तरफ विरोध मिलेंगे, और विरोधों के आधार पर जीवन का भवन खड़ा होता हुआ मिलेगा।
लेकिन पूरब ने भी इस बात को न समझा और पश्चिम ने भी न समझा। पूरब ने भी आधी संस्कृति बनाई, कहा कि हम सिर्फ जिंदा रहेंगे, शांत होकर रहेंगे। पश्चिम ने कहा, हम जिंदा रहेंगे तो क्रांत होकर रहेंगे, शांति से क्या संबंध है?
यह ऐसा ही है, जैसे मैं कहूं कि मैं श्वास सिर्फ भीतर ले जाऊंगा, बाहर न ले जाऊंगा, क्योंकि बाहर ले जाने और भीतर ले जाने में विरोध है। अब जब भीतर श्र्वास ले जानी है तो बाहर ले जाने की क्या जरूरत है। और जब भीतर ले जानी है तो भीतर ही ले जाइए और रोक रखिए भीतर श्र्वास को, बाहर मत जाने दीजिए। क्योंकि बाहर और भीतर में विरोध है। लेकिन अगर भीतर ही श्वास रोक ली तो मर जाएंगे। दूसरा आदमी कह सकता है कि जब बाहर ले जानी ही पड़ती है तो भीतर क्यों ले जाएं, बाहर ही रोक दें। दोनों में विरोध है, हम बाहर ही रोक देते हैं। बाहर रोकने वाला भी मर जाएगा। एक भीतर रोक कर मरेगा, एक बाहर रोक कर मरेगा, क्योंकि जिंदगी बाहर और भीतर आते हुए विरोध पर निर्भर है।
जिंदगी निरंतर विरोध पर निर्भर है।
लेकिन हम इस विरोध को कभी स्वीकार नहीं कर पाते, इसलिए बड़ी मुश्किल हो जाती है। हम कहते हैं, जन्म तो हमें स्वीकार है, मृत्यु हमें स्वीकार नहीं है। यह बड़े पागलपन की बात है। जिंदगी जन्म और मृत्यु के विरोध के आधार पर खड़ी हुई है। जिंदगी जन्म और मृत्यु के विरोध पर ही निर्भर है।
हम कहते हैं, जन्म तो बहुत सुखद है, मृत्यु बहुत दुखद है। जन्म स्वीकार करते हैं, मृत्यु हम नहीं चाहते हैं, तो हम पागलपन की बात कर रहे हैं। जिस दिन हम जन्म और मृत्यु दोनों को एक साथ स्वीकार कर पाएंगे, उस दिन जिंदगी का रस कुछ और ही हो जाएगा। शांति और क्रांति एक साथ स्वीकार करेंगे, तो जिंदगी कुछ बात और ही हो जाएगी। भीतर एक बिंदु होगा, जहां कोई परिवर्तन नहीं। और बाहर परिवर्तन, परिवर्तन और परिवर्तन का घूमता हुआ चाक होगा। और भीतर एक कील होगी, जहां कोई परिवर्तन नहीं।
परमात्मा निरंतर वहां है, जहां कोई परिवर्तन नहीं।
संसार वहां है, जहां निरंतर परिवर्तन है।
और वह जो परमात्मा है निरंतर शांत, चुप, मौन, जहां कभी कुछ नहीं बदला, उसके ऊपर ही सारे संसार का चाक घूम रहा है।
‘संसार’ शब्द आपके खयाल में है?
संसार का अर्थ ही चाक होता है। संसार का अर्थ होता है: जो घूम रहा है, दि व्हील। संसार शब्द का ही मतलब होता है घूमता हुआ, और परमात्मा का अर्थ होता है ठहरा हुआ। लेकिन ये दोनों विरोधी नहीं हैं। इस अर्थ में विरोधी नहीं हैं कि एक को हम बचा लेंगे। ये इस अर्थ में विरोधी हैं कि दूसरा एक पर निर्भर है। भीतर आती श्वास बाहर जाती श्वास की तरह निर्भर है। संसार न हो तो परमात्मा भी न होगा और परमात्मा न हो तो संसार भी न होगा। और इस भूल में मत रहना कि परमात्मा एक क्षण भी संसार के बिना रह सकता है। और इस भूल में भी मत पड़ना कि संसार एक क्षण भी परमात्मा के बिना रह सकता है। वे दोनों विरोधी ध्रुव हैं, जो एक-दूसरे को सम्हाले हुए हैं। और इसलिए मुझे सब विरोध स्वीकार हैं।
और क्रांति और शांति के विरोध को मैं जिंदगी के लिए, जिंदगी को बदलने, परिवर्तन करने और जिंदगी को उससे भी जोड़ने में उपयोगी मानता हूं जो सनातन है, शाश्र्वत है, जिसका कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है। लेकिन मेरी बातों में इसलिए कठिनाई हो जाती है, कोई कहता है, आप इधर क्रांति की बात कर रहे हैं, उधर आप शांति की बात करते हैं। और मैं मानता ही ऐसा हूं कि वही आदमी क्रांति कर सकता है जो शांत है। और जो आदमी शांत नहीं है, अगर क्रांति करेगा तो क्रांति के नाम पर सिर्फ पागलपन करेगा और कुछ भी नहीं कर सकता है। सिर्फ शांत व्यक्ति क्रांति कर सकता है। शांत हाथों में ही क्रांति का हथियार दिया जा सकता है, अन्यथा क्रांति का हथियार खतरनाक सिद्ध हुआ है और खतरनाक सिद्ध होता रहेगा।
इसलिए मैं कहता हूं: करुणा पहला सूत्र है, क्रांति उसके पीछे आनी चाहिए, करुणा पहले।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं कि जो है, उसे समझ लेने से करुणा आ जाएगी। जो है, उसे समझ लेने से करुणा कैसे आ जाएगी? उन्होंने पूछा है।
अगर जो है, हम उसे समझ लें, तो करुणा के अतिरिक्त हमारे चित्त में और कुछ भी न रह जाएगा। क्योंकि जो है, वह इतना दुखद हो गया है; जो है, वह इतना रुग्ण हो गया है; जो है, हमारे चारों तरफ फैला हुआ इतना बीमार और विक्षिप्त हो गया है कि अगर हम उसे देख लें और समझ लें, तो करुणा के सिवाय और कोई भाव न आएगा। लेकिन हो सकता है कि आप कहें क्रोध आ जाए। क्रोध तब आता है, जब हम पूरी स्थिति से अपने को बाहर खड़ा कर लेते हैं। करुणा तब आती है, जब पूरी स्थिति में हम भी सम्मिलित और एक हिस्सा होते हैं।
अगर आज कोई आदमी चोरी कर रहा है, तो हमें क्रोध आ सकता है कि इस चोर को मिटा डालो। लेकिन अगर हमें पूरी स्थिति पता चल जाए और यह खयाल आए कि हम भी उसकी चोरी में हाथ बंटा रहे हैं, हम भी उसकी चोरी में साझीदार हैं। वह जो मजिस्ट्रेट अदालत में बैठ कर चोरों का निर्णय कर रहा है, वह भी चोरों की चोरी में साझीदार है। अगर हमें यह खयाल आ जाए तो मजिस्ट्रेट को क्रोध नहीं आएगा, करुणा आएगी। और चोर को सजा देते वक्त वह जानेगा कि मैं अपने को ही सजा दे रहा हूं। और तब सजा देना बहुत मुश्किल हो जाएगा। परिवर्तन और क्रांति करना आसान हो जाएगा।
चोरों को हम सजा कितने दिन से दे रहे हैं, लेकिन एक चोर को हम कम नहीं कर पाए। जमीन पर चोर रोज बढ़ते गए हैं। जितनी सजा बढ़ी है, उतने चोर बढ़ते गए हैं। जितने जेलखाने बढ़े हैं, उतने चोर बढ़ते चले गए हैं। पृथ्वी पर अनादि से हम चोरों को सजा दे रहे हैं, लेकिन एक चोर कम नहीं कर पाए। और उसका कारण यह है कि चोर को सजा देते वक्त हम अपने को बाहर रख लेते हैं। हम सोचते हैं, हम तो चोर नहीं हैं, जो चोरी कर रहा है वह चोर है, उसको सजा दे रहे हैं। लेकिन हमारे गहरे हाथ हैं, और इसलिए चोर को सजा मिल जाती है, लेकिन चोरी बंद नहीं होती। क्योंकि हम, जिनका हाथ चोर को पैदा करने में था, तब तक दूसरे चोर पैदा कर लेते हैं। बल्कि हम जिस कारागृह में चोरों को बंद करते हैं, वह चोरों के लिए शिक्षा का प्रशिक्षण महाविद्यालय हो जाता है, और कुछ भी नहीं होता। वहां और पुराने, ज्यादा योग्य, ज्यादा कुशल चोरों का साथ हो जाता है, और कुछ भी नहीं होता। वहां वे और अच्छी तरह चोरी करना सीख कर वापस लौट आते हैं।
इसलिए एक दफा जो आदमी जेल गया है, फिर वह नियमित रूप से जेल जाने लगता है, वह जेल बर्ड ही हो जाता है, उस पक्षी का घर ही वही हो जाता है। उसे यहां इतना अच्छा नहीं लगता, जितना वहां अच्छा लगने लगता है। वहां उसके संगी-साथी, मित्र हमने सब इकट्ठे कर दिए हैं। वहां हमने चोरों के लिए सबको इकट्ठा कर दिया है--पूरे प्रदेश के, पूरे देश के चोरों को कि तुम साथ में सलाह-मशविरा करो और एक-दूसरे को तरकीबें बताओ कि कैसे पकड़ा न जा सकें।
और हम चारों तरफ चोर पैदा किए चले जा रहे हैं। सजा हम इसलिए दे भी नहीं रहे हैं कि चोर को मिटा देना है। क्योंकि चोर तो हम भी हैं। अगर चोर मिटेगा तो हम भी मिट जाएंगे। सजा हम इसलिए दे रहे हैं कि हम जो सजा देने वाले हैं, अपने मन में यह मजा ले सकें कि हम चोर नहीं हैं। चोर कोई और है, इसका हम आनंद ले रहे हैं, इसका हम सुख ले रहे हैं।
यह तो क्रोध है चोर के ऊपर। इससे कोई परिवर्तन नहीं होगा। सजा से कोई परिवर्तन नहीं होगा।
मैंने सुना है, इंग्लैंड में सौ वर्ष पहले जो आदमी चोरी करता था, उसे चौराहों पर खड़ा करके कोड़े मारे जाते थे, ताकि और लोग देख लें, और लोग सचेत हो जाएं कि चोरी करने वाले की यह गति और यह दुर्गति होती है। लेकिन सौ वर्ष पहले फिर यह सजा बंद कर देनी पड़ी, क्योंकि नतीजे बड़े उलटे आए। लंदन में एक चौराहे पर कुछ पांच-छह चोरों को कोड़े मारे जा रहे थे। हजारों लोग देखने इकट्ठे हुए थे। आप यह मत सोचना कि वे यह देखने इकट्ठे हुए थे कि चोरों की क्या गति होती है। वे असल में यह देखने इकट्ठे हुए थे कि जब कोड़े मारे जाते हैं, तो चमड़ा कैसे उधड़ता है, खून कैसे बहता है। उनके दिल में भी कई दफा कोड़े मारने की इच्छा हुई होगी, वह अधूरी रह गई। वे उसे देख कर पूरा कर लेना चाहते हैं। वे वहां से, चोरी नहीं करनी चाहिए, यह सीख कर नहीं लौटते थे; वे वहां से कोड़ा मारने का भी कैसा रस और मजा है इसकी थ्रिल और इसकी पुलक लेकर वापस लौटते थे।
लेकिन एक तो और अदभुत घटना घटी उस दिन लंदन में। जब चार-पांच चोरों को कोड़ों से पीट कर बेहोश कर दिया गया और सड़क खून से भर गई--और कोई दस हजार आदमी देखने इकट्ठे हुए थे। तभी पता चला कि कुछ लोगों की जेबें कट गईं। भीड़ थी, लोग देख रहे थे चोरों को पिटते हुए, कुछ चोरों ने उनकी जेबें काट लीं। तब यह पता चला कि जब चोर पीटे जा रहे हों, उनकी चमड़ी उधेड़ी जा रही हो, तो उसी वक्त जेब कट सकती है! तो इससे कोई चोरी नहीं रुक सकती है।
कोई सजा चोरी नहीं रोक पाई है, क्योंकि सजा हमारी करुणा से नहीं है, सजा हमारे क्रोध से निकल रही है। क्रोध से कोई परिवर्तन कभी भी नहीं होता है। और क्रोध से अगर जबरदस्ती परिवर्तन थोप भी दिया जाए तो बहुत जल्दी विद्रोह शुरू हो जाता है, बगावत शुरू हो जाती है। और क्रोध को कितनी देर थोपा जा सकता है, आज नहीं कल क्रोध को शिथिल होना पड़ता है।
रूस में एक क्रांति हुई, जो क्रोध से हुई, करुणा से नहीं। तीस, पैंतीस, चालीस साल उन्होंने कोड़े के बल पर क्रांति को बचाने की कोशिश की, बंदूक के बल पर क्रांति को बचाने की कोशिश की। अंदाज किया जाता है कि कोई साठ लाख से लेकर एक करोड़ लोगों तक की रूस में हत्या की गई क्रांति के बाद। क्रांति को बचाने के लिए यह हत्या करनी पड़ी। कोई हर्ज नहीं, अगर क्रांति बच जाती तो समझ में आता। लेकिन इतनी हत्या के बाद, इतने लोगों को इतना कष्ट, इतनी पीड़ा देने के बाद अब वहां क्रांति शिथिल होने लगी है। क्योंकि इस तरह की जबरदस्ती से कोई क्रांति कितनी देर टिकाई जा सकती है। वापस रूस व्यक्तिगत पूंजी को बांटने की तरफ सोचने लगा है। मकान व्यक्तिगत अब हो सकता है और कार भी अब व्यक्तिगत हो सकती है। और ऐसा लगता है कि आने वाले पचास वर्षों में रूस और अमरीका में फर्क करना बहुत मुश्किल हो जाएगा कि कौन समाजवादी है और कौन पूंजीवादी है।
क्योंकि अमरीका में भी पूंजीवाद को जबरदस्ती थोपने की कोशिश मुश्किल हुई जा रही है। वे धीरे-धीरे न मालूम कितनी चीजों का राष्ट्रीयकरण करते चले जा रहे हैं। उधर रूस में जबरदस्ती समाजवाद थोपने की बात मुश्किल होती चली जा रही है। वे धीरे-धीरे पूंजीवाद को मौका दिए चले जा रहे हैं। पचास साल में वे एक ही जगह आ जाएंगे अलग-अलग यात्राओं से, वे वहां पहुंच जाएंगे जहां दोनों के बीच फासला करना मुश्किल होगा। नाम के फासले रह जाएंगे--एक समाजवादी होगा, एक पूंजीवादी होगा, लेकिन फासले नहीं रह जाएंगे।
जबरदस्ती किसी भी चीज को बहुत देर तक नहीं ठहराया जा सकता है। और एक मजा है कि जिस चीज को हम जबरदस्ती ठहराते हैं, बहुत जल्दी पेंडुलम उलट जाता है। अगर आप किसी दुश्मन की छाती पर आप बैठ गए हैं जबरदस्ती और पूरी ताकत से उसको दबा रहे हैं, अगर वह होशियार है और चुपचाप पड़ा रहे और ताकत न लगाए, तो थोड़ी देर में आप थक जाएंगे, क्योंकि आपको ताकत लगानी पड़ रही है और वह ताकत को इकट्ठा कर लेगा उतनी देर में। बहुत जल्दी वह मौका आएगा कि आप नीचे पड़े होंगे और वह आपकी छाती पर बैठा होगा। क्योंकि जो श्रम करता है, वह थक जाता है और जो नीचे दबा होता है, वह विश्राम कर लेता है। इसलिए करवटें बदलती रहती हैं।
क्रोध और प्रतिशोध से क्रांतियां नहीं होतीं, सिर्फ समाज करवट बदलता रहता है। करवट बदलने से कोई मतलब नहीं है।
क्रांति से मेरा मतलब है: मनुष्य का हमने आज तक जैसा निर्माण किया है, उसमें भूल हो गई है। उस भूल की वजह से हम बहुत दुख और बहुत पीड़ा और बहुत चिंता उठा रहे हैं। उस भूल के कारण पूरी मनुष्य-जाति पागल होने के करीब पहुंच गई है। उस भूल को समझ कर, उस भूल को पहचान कर, उस भूल को देख कर स्वभावतः करुणा पैदा होगी, क्योंकि वह भूल हमने ही मिल-जुल कर की है। वे घाव हमने ही मारे, चाहे नींद में मारे हों, चाहे बेहोशी में मारे हों। हमने अपने ही पैर अपने हाथ से काट लिए हैं, और अपनी आंखें अपने हाथों से फोड़ ली हैं और अपने को सब तरह से अपंग कर लिया है। यह मनुष्य की जो अपंग स्थिति है, पैरालाइज्ड, लकवा लगी हुई, सड़क पर घिसटती हुई, घावों से भरी हुई--यह हम ही जिम्मेवार हैं। अगर यह प्रतीत हो तो करुणा पैदा होगी।
करुणा का मतलब यह नहीं है कि किसी और पर करुणा पैदा होगी। करुणा का मतलब हम अपने पर करुणा कर पाएंगे। क्रोध असंभव हो जाएगा। और अगर ऐसी करुणा पैदा हो, तो परिवर्तन अनिवार्य है। अगर हमें दिखाई पड़ जाए कि कुछ गलत हो गया है, तो उस गलत को फिर खींचने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। वह अपने आप गिर जाएगा। करुणा से आने वाली क्रांति का अर्थ है कि हमें कुछ तोड़ने-फोड़ने का उतना सवाल नहीं है, जितना समझने का सवाल है। अगर समझ पूरी हो जाए, तो शायद चीजें अपने आप छूट जाएं, टूट जाएं, अलग हो जाएं। उतनी समझ विकसित करने की बात है। और वह समझ विकसित हो सकती है। अगर हम अपने दुखों के मूल कारणों की खोज करें तो समझ के विकसित होने में कोई बाधा नहीं है।
एक और मित्र ने पूछा है कि आप करुणा, अहिंसा, दया, प्रेम इन सबमें क्या फर्क करते हैं? ये तो सब एक ही अर्थ रखते हैं?
ये एक ही अर्थ नहीं रखते। इनमें बहुत बुनियादी फर्क है। असल में, सही अर्थों में दो समानार्थक शब्द होते ही नहीं हैं। कितने ही समानार्थक मालूम पड़ते हों, उनमें कुछ बुनियादी फर्क होता है, इसलिए दो शब्द ईजाद करने पड़ते हैं।
अब जैसे प्रेम और अहिंसा, और करुणा और दया, इन्हें थोड़ा समझ लेना उपयोगी है, क्योंकि हम इन शब्दों से बहुत भरे हुए हैं।
अहिंसा का मतलब है: दूसरे को दुख न पहुंचाना। वह बिलकुल निगेटिव है। एक आदमी बिना किसी को प्रेम किए हुए भी अहिंसक हो सकता है। क्योंकि किसी को दुख न पहुंचाना, इतना ही अहिंसा शब्द का अर्थ है--किसी की हिंसा न करना, किसी को दुख न पहुंचाना।
लेकिन प्रेम पाजिटिव है। प्रेम का मतलब है: किसी को सुख पहुंचाना। प्रेम का मतलब यह नहीं है कि किसी को दुख न पहुंचाना। प्रेम का मतलब है: किसी को सुख पहुंचाना।
तो प्रेम तो आएगा किसी को सुख पहुंचाने, और अहिंसक सिकुड़ जाएगा कि किसी को दुख न पहुंचे, काफी है। अगर आपके रास्ते पर कांटे बिछे हैं, तो प्रेम उन्हें आकर उठाएगा। अहिंसक आपके रास्ते पर कांटे नहीं बिछाएगा, बस इतना ही। लेकिन आपके रास्ते पर पड़े कांटों को उठाने नहीं आएगा अहिंसक, क्योंकि अहिंसक को आपको दुख नहीं पहुंचाना, इतना ही ध्यान रखना पर्याप्त है। शर्त ही उतनी है कि आपको दुख नहीं पहुंचाना है। और यह भी, आपको दुख क्यों नहीं पहुंचाना है, क्या इसलिए कि आपसे प्रेम है? नहीं, यह दुख इसलिए नहीं पहुंचाना है कि आपको दुख पहुंचाने से मेरे नरकजाने की संभावना है। आपको दुख पहुंचाऊंगा तो मेरे नरक में सड़ने का उपाय हो जाएगा। और अगर आपको दुख न पहुंचाया तो मेरी मोक्ष की सीढ़ी बन जाएगी। आपसे कोई प्रयोजन नहीं है अहिंसक को। अहिंसक को प्रयोजन है अपने से। वह इस फिकर में लगा है कि मैं मोक्ष कैसे जाऊं, नरक से कैसे बचूं, इसलिए किसी को दुख नहीं पहुंचाना है। दुख पहुंचाने से कहीं नरक जानान हो जाए।
लेकिन प्रेम का मतलब बहुत भिन्न है। प्रेम का मतलब यह है कि किसी को सुख पहुंचाना है। और किसी को सुख पहुंचाने में ही हमारा सुख है। और तब प्रेमी आपको स्वर्ग पहुंचाने के लिए नरक जाने के लिए भी तैयार हो सकता है--प्रेमी आपको स्वर्ग पहुंचाने के लिए नरक जाने के लिए भी तैयार हो सकता है! लेकिन अहिंसक आपको सुख पहुंचाने के लिए नरक जाने को तैयार नहीं हो सकता है। अहिंसक आपको दुख नहीं पहुंचाता, ताकि उसके स्वर्ग जाने की तैयारी पूरी हो सके।
अहिंसा निषेध है, निगेटिव है; प्रेम पाजिटिव है, विधायक है।
लेकिन प्रेम और करुणा में भी बहुत फर्क है।
प्रेम का अर्थ है कि हम किसी को सुख पहुंचाना चाहते हैं और किसी के सुख में भागीदार होना चाहते हैं। करुणा का अर्थ है: हम सबके दुख में भागीदार हैं और सबका दुख हमें दिखाई पड़ रहा है और चित्त करुणा से भर गया है।
फर्क को समझ लेना।
प्रेम का अर्थ है: हम सबके सुख में भागीदार होना चाहते हैं। सुख पहुंचाना चाहते हैं, किसी के सुख में मित्र होना चाहते हैं।
करुणा का अर्थ है: सबके जीवन में जो दुख है, उसमें हम हिस्सेदार हैं, इसकी प्रतीति, इसका बोध, इसकी सफरिंग, इसकी पीड़ा।
तो प्रेम में तो एक आनंद है, करुणा में एक पीड़ा है। प्रेम में एक रस है, करुणा में एक घाव है। करुणा एक फोड़े की तरह दुखता हुआ घाव है। प्रेम एक फूल है, करुणा एक कांटे की तरह चुभन है। इसलिए प्रेम और करुणा समानार्थी नहीं हैं।
और करुणा और दया तो बहुत ही भिन्न बातें हैं।
करुणा का अर्थ है: सबके दुख की प्रतीति और उस दुख में मैं भी जिम्मेवार हूं इसकी प्रतीति।
दया में? दया में दूसरे के दुख की प्रतीति है, लेकिन दूसरा अपने दुख के लिए जिम्मेवार है, इसकी भी प्रतीति है। और मैं उसके दुख को दूर करने का थोड़ा-बहुत उपाय कर रहा हूं, इसके अहंकार का भी बोध है। इसलिए दया करने वाला ऊपर खड़ा होता है। दान लेने वाला नीचे खड़ा होता है। दया करने वाला दान दे रहा है, दया करने वाला कृपा कर रहा है, दया करने वाला बहुत सूक्ष्म अपमान कर रहा है जिसके साथ दया कर रहा है। ‘दया’ शब्द बहुत बेहूदा और कुरूप है। दया शब्द बहुत अच्छा नहीं है। इसलिए भूल कर किसी पर दया मत करना, क्योंकि जिस पर भी आप दया करेंगे, उसका अपमान करेंगे ही।
प्रेम करना समझ में आ सकता है, लेकिन प्रेम में बड़ा फर्क है। जब प्रेम किसी को देता है तो ऐसा अनुभव नहीं करता है कि मैंने दिया। प्रेम सदा ऐसा ही अनुभव करता है कि जितना देना चाहिए था, उतना नहीं दे पाया। एक मां से पूछें कि तूने अपने बेटे के लिए कितना किया। तो वह कहेगी, आंख से आंसू बहाने लगेगी कि मैं कुछ भी नहीं कर पाई। जो कपड़े मुझे देने थे, वह नहीं दे पाई; जो खाना मुझे खिलाना था, वह नहीं खिला पाई; जो शिक्षा मुझे देनी थी, वह मैं नहीं दे पाई। मां एक पूरी की पूरी फेहरिस्त बता देगी, जो वह नहीं कर पाई। लेकिन जाएं, एक धर्मादा कमेटी के सेक्रेटरी से पूछें कि आपने गरीबों के लिए क्या-क्या किया, तो वह एक पूरी फेहरिस्त बता देंगे कि हमने यह किया, हमने यह किया, हमने यह किया। जो उन्होंने नहीं किया है, वह भी उसमें जोड़ देंगे कि हमने यह किया। दया करने वाला कहता है, हमने यह किया। वह अहंकार की तृप्ति कर रहा है। प्रेम करने वाला कहता है, हम यह नहीं कर पाए, करना था। उसका अहंकार टूट गया है।
प्रेम अहंकार तोड़ जाता है, दया अहंकार मजबूत कर जाती है।
ये सब शब्द बड़े अलग-अलग हैं। ये समानार्थी नहीं हैं। इनके पीछे गहरे भेद हैं।
दया से कोई क्रांति नहीं होती है। इसलिए हिंदुस्तान में दया पांच हजार साल से चल रही है, लेकिन क्रांति नहीं हुई। दया पुरानी है। हम बड़े दयावान लोग हैं। और जैसे कि दयावान लोग खतरनाक होते हैं, हम खतरनाक हैं। हम पांच हजार साल से दया कर रहे हैं, दान कर रहे हैं। हम कह रहे, गरीब पर दया करो, बीमार पर दया करो। क्यों? क्योंकि गरीब पर दया करने से आपके स्वर्ग की सीढ़ी उपलब्ध होगी।
करपात्री जी ने एक किताब लिखी है। बहुत अदभुत किताब लिखी है। उसे खूब सबको पढ़ लेना चाहिए। उस किताब में उन्होंने समाजवाद का विरोध किया है और कहा है कि समाजवाद के विरोध के कई कारण हैं। उसमें एक कारण यह है कि समाजवाद में कोई गरीब न रह जाएगा, कोई अमीर न रह जाएगा, तो फिर दया कौन करेगा, दान कौन करेगा? दया कौन लेगा, दान कौन लेगा? और बिना दान के मोक्ष असंभव है। इसलिए समाजवाद में फिर मोक्ष संभव नहीं रह जाएगा। अगर मोक्ष चाहिए तो समाजवाद मत आने देना। अगर मोक्ष चाहिए तो गरीब को गरीब बना कर रखना और अमीर को अमीर बना कर रखना। और सड़क पर भिखमंगे को खड़ा रखना, क्योंकि उसी के कंधे पर दया करके आप मोक्ष जा सकेंगे, और तो कोई रास्ता नहीं है।
ये दया करने वाले लोग हैं, इनमें करुणा है? इनकी बात सुन कर तो ऐसा लगता है कि करुणा का इनमें कहीं कोई पता नहीं है। वे यह कह रहे हैं कि गरीब को रखना पड़ेगा, नहीं तो दान कौन लेगा! आज रूस में कोई दान तो नहीं लेगा। और आप अगर किसी को दान देने जाओगे, तो हो सकता है पुलिस में पकड़ कर आपको रिपोर्ट लिखवा दे कि यह आदमी हमको दान देने की कोशिश कर रहा है। हमारा अपमान करना चाहता है। आज कोई भीख मांगने हाथ तो नहीं फैलाएगा आपके सामने। आज रूस में दानी होने का कोई उपाय नहीं है।
तो करपात्री जी ठीक कहते हैं: शास्त्रों में यही लिखा है कि बिना दान के मोक्ष नहीं है, क्योंकि दान सबसे बड़ा धर्म है। तो रूस में सबसे बड़े धर्म की तो जड़ कट गई। तो वे ठीक कह रहे हैं। शास्त्र के हिसाब से बिलकुल ठीक कह रहे हैं कि अगर मोक्ष बचाना है तो गरीब को बचाओ, भिखमंगे को बचाओ, बीमार को बचाओ। बीमार रहेगा, तब तो अस्पताल बना पाएंगे। और जब गरीब रहेगा, तभी तो धर्मशाला काम में आएगी। और जब भिखमंगे सड़क पर भीख मांगेंगे, तब धर्मादय और दान-दया करने वाले लोगों को मजा आएगा दान-दया करने का, नहीं तो सब मुश्किल हो जाएगा।
दया करने वाले में करुणा नहीं है, दया करने वाले में बहुत गहरी कठोरता और क्रूरता है। वह दया में भी रस ले रहा है। वह जब दो पैसे आपको दे रहा है, तो हजार रुपये का अहंकार वापस खरीद ले रहा है। वह दो पैसे इसलिए चिल्ला कर देता है, अखबारों में खबर करके देता है; पत्थरों पर खोद कर देता है; मंदिरों पर पत्थर लगा देता है; धर्मशालाओं पर पत्थर लगा देता है कि मैंने दिए हैं! उसे रस इसमें नहीं है कि कोई पीड़ित था, उसे रस इसमें है कि उसने किसी की पीड़ा दूर करने का बड़ा भारी काम किया है।
दया क्रांति नहीं लाती, इसलिए भारत में क्रांति नहीं आ सकी। दया बल्कि क्रांति को रोकती है। क्योंकि दया भिखमंगे को दो पैसे दे देती है, लेकिन भिखमंगा क्यों पैदा होता है, इसकी तलाश में नहीं जाती। और भिखमंगे को दो पैसे मिल जाते हैं, तो भिखमंगा भी राहत अनुभव करता है। वह भी उस सीमा पर नहीं पहुंच पाता कि दान देने वाले की गर्दन पकड़ ले और कहे कि यह दान नहीं लेंगे; क्योंकि पहले हमारी जेब काटते हो और फिर हमको दान देते हो। वह कहेगा कि पहले हमें भिखमंगा बना देते हो और फिर दान देने आ जाते हो। वह कहेगा किपहले तो हमें चूस लेते हो हमारे खून को और फिर हमारे लिए अस्पतालें बना देते हो, जिनमें खून का दान चल रहा है। यह जाल कैसा है?
नहीं, दया यह भी नहीं होने देती है। दया कंसोलेशन बन जाती है। और गरीब को लगता है कि अमीर इतना दयावान है। अमीर को बचाने में दया ने जितना काम किया उतना और किसी चीज ने काम नहीं किया। अमीर को बचाने में धर्मशालाओं ने जितनी आड़ की है और मंदिरों ने जितनी आड़ की है उतनी और किसी चीज ने नहीं की है। क्योंकि ऐसा लगता है कि कितना दयावान है अमीर। लेकिन यह नहीं दिखाई पड़ता है कि धन इकट्ठा करना क्रूरता है। एक लाख रुपये एक आदमी क्रूरता से इकट्ठा करता है, दस हजार रुपये दान करता है। नब्बे हजार की क्रूरता इकट्ठी करता है, दस हजार का दान भी इकट्ठा कर लेता है। फिर वह महादानी हो जाता है। फिर हम उसको नमस्कार करते हैं कि वह परम दानी है। लेकिन कोई भी यह नहीं पूछता कि दान में जो धन दिया गया, वह आया कहां से, वह आया कैसे? धन आया कैसे?
नहीं, दया से क्रांति नहीं हो सकती। अहिंसा से भी क्रांति नहीं हो सकती है, क्योंकि अहिंसा निगेटिव है। अहिंसा से क्रांति इसलिए नहीं हो सकती कि अहिंसा इतना ही कहती है कि दूसरे को दुख मत दो। तो कुछ लोग अहिंसक हो जाते हैं, वे दूसरे को दुख नहीं देते। लेकिन दूसरे के दुख को दूर करने के लिए वे कोई उपाय भी नहीं करते, दूसरे के सुख की कोई व्यवस्था भी नहीं करते। वे केवल हाथ अलग करके रास्ते से किनारे हट जाते हैं कि हम इस रास्ते पर न चलेंगे, जहां दूसरे को दुख दिया जाता है। बस इतना ही वे करते हैं। वे नकारात्मक लोग हैं।
जैसे कोई आदमी कहे कि दूसरे को बीमार मत करो। ठीक है, हम किसी को बीमार नहीं करेंगे। लेकिन दूसरे लोग बीमार हैं, उनके लिए भी हम कुछ न करेंगे, क्योंकि हमें इससे कोई संबंध नहीं है, हमने उन्हें बीमार नहीं किया है। किसी की आंख मत फोड़ो, यह ठीक है, लेकिन किन्हीं की आंखें फूटी हुई हैं, अंधे हैं? उनकी आंखों को ठीक करने का उपाय अहिंसा से नहीं निकलता।
अहिंसा की वृत्ति नकारात्मक है।
हिंदुस्तान में अहिंसा भी चल रही है कोई ढाई हजार साल से, लेकिन उससे भी कोई हल नहीं हुआ। क्योंकि उसने लोगों को सिकोड़ दिया बुरी तरह। उन्होंने सब तरफ से हाथ खींच लिए। वे पैर फूंक-फूंक कर रखने लगे कि कोई कीड़ा जमीन पर न मर जाए। वे मुंह पर पिट्टयां बांधने लगे कि कहीं नाक की गर्म हवा से कोई कीड़ा न मर जाए। वे रात करवट नहीं बदलते हैं कि कहीं कीड़ा न मर जाए। वे पानी छान कर पीते हैं कि कहीं कोई कीड़ा न मर जाए। वे हरी सब्जी नहीं खाते हैं कि कहीं कोई कीड़ा न मर जाए। वे रात खाना नहीं खाते हैं कि कहीं कोई कीड़ा न मर जाए। उन्होंने सब तरफ से अपने को रोक लिया कि हिंसा न हो जाए। लेकिन जो चल रहा है--दुख, हिंसा--उसे बदलने को वे कहीं भी नहीं जाते। और उसमें उन्हें डर लगता कि बदलने जाएं तो हिंसा न हो जाए।
एक आदमी को घाव है और उसके घाव में कीड़े पड़े हुए हैं। अहिंसक आदमी उसके घाव पर मलहम नहीं बांध सकता। क्योंकि मलहम बांधने से कीड़े मर जाएंगे। वह अहिंसक आदमी कहेगा, हमने तो घाव नहीं किया, आप जानिए, आपका काम जानिए। हम कीड़े मारने की झंझट नहीं लेते।
कलकत्ते में मारवाड़ी जैन, खाटों में खटमल पड़ जाएं, तो उनको मारते नहीं रहे हैं। अहिंसक लोग हैं, खाट के खटमल कैसे मारे! लेकिन अगर खाट पर कोई न सोए तो वे मर ही जाएंगे। तो वे एक रुपया-दो रुपया देकर रात में आदमी किराए पर रख लेते हैं और उस खाट पर सुला देते हैं कि तुम इस पर सो जाओ, दो रुपया ले लेना। खटमल न मर पाएं और तुमने अपना काम किया, उसके दो रुपया ले लिए। हमने तुमसे मुफ्त काम भी नहीं लिया। अहिंसा उनकी पूरी हो गई। खटमल भी नहीं मरे और खटमलों को खून भी पिलवा दिया, खून के पैसे भी चुका दिए। लीगल रास्ता खोज लिया उन्होंने, कोई झंझट नहीं रही उसमें!
अहिंसक आदमी जीवन के दुख को नहीं मिटाने आएगा। वह उसकी सिर्फ चेष्टा इतनी है कि मैं दुख न दूं, बस काफी है। लेकिन इतनी चेष्टा अधूरी है। इससे कुछ हो नहीं सकता। प्रेम करने वाले लोग भी सदा से रहे हैं। प्रेम सदा से है, प्रेम निरंतर रहा है। प्रेम सुख देना चाहता है, दूसरे को सुख देना चाहता है। अहिंसा से बहुत ऊपर है प्रेम। दूसरों को सुख देने की खोज करता है। लेकिन दूसरे को सुख देने की खोज काफी नहीं है, जब तक कि दूसरे के दुख के बुनियादी कारणों में भी हमारा हाथ है, इसका हमें पता न चल जाए।
एक पति अपनी पत्नी को सुख देना चाहता है। वह प्रेम करता है उसे। लेकिन उसका पति होना भी उसकी पत्नी के दुख का एक हिस्सा है, यह उसे कभी दिखाई नहीं पड़ने वाला है। एक पति अपनी पत्नी को सुख देना चाहता है, सब तरह का सुख देना चाहता है। वह उसे प्रेम करता है। वह उसे साड़ियां ला रहा है, गहने खरीद रहा है, मकान बना रहा है, बड़ी कारें खरीद रहा है, वह अपनी जिंदगी लगाए दे रहा है उसको सुख देने के लिए। लेकिन पत्नी सुखी नहीं हो पा रही है। वह पूरी कोशिश कर रहा है, लेकिन पत्नी सुखी नहीं हो पा रही है। लेकिन उस पति को अगर करुणा हो प्रेम की जगह, और वह देख सके कि पत्नी का दुख क्या है, तो शायद उसका पति होना भी पत्नी के दुखों में एक कारण है।
जब भी कोई किसी का मालिक बन जाता है तो दुख देने वाला हो जाता है। मालिक सदा ही दुख देता है। और जब कोई किसी को बांध लेता है तो दुख देने वाला हो जाता है। और जब कोई किसी की परतंत्रता बन जाता है तो दुख देने वाला हो जाता है। और जब कोई किसी को पजेस कर लेता है और मालकियत कर लेता है, तब दुख देने वाला हो जाता है। यह उसे पता नहीं है।
एक फूल को मैं प्रेम करता हूं, बहुत प्रेम करता हूं, इतना प्रेम करता हूं कि मुझे डर लगता है कि कहीं सूरज की रोशनी में कुम्हला न जाए; और मुझे डर लगता है कि कहीं जोर की हवा आए, इसकी पंखुड़ियां न गिर जाएं; और मुझे डर लगता है कोई जानवर आकर इसे चर न जाए; और मुझे डर लगता है कि पड़ोसियों के बच्चे इसको उखाड़ न लें, तो मैं फूल के पौधे को मय गमले के तिजोड़ी में बंद करके ताला लगा देता हूं। प्रेम तो मेरा बड़ा है, लेकिन करुणा मेरे पास बिलकुल नहीं है। प्रेम तो बड़ा है, मैंने पौधे को बचाने के सब उपाय किए। धूप से बचा लिया, हवा से बचा लिया, बच्चों से, जानवरों से। मजबूत तिजोड़ी खरीदी, उसको भी मेहनत करके बनाया, ताला लगा कर पौधे को बंद कर लिया। लेकिन अब यह पौधा मर जाएगा, मेरा प्रेम इसे बचा न सकेगा। और जल्दी मर जाएगा। हो सकता था बाहर हवाएं थोड़ी देर लगातीं, और पड़ोसी के बच्चे हो सकता था इतनी जल्दी न भी आते, और सूरज की किरणें फूल को इतनी जल्दी न मुरझा देतीं, लेकिन तिजोड़ी में बंद पौधा जल्दी ही मर जाएगा। प्रेम तो पूरा था, लेकिन करुणा जरा भी न थी।
जगत में प्रेम भी रहा है, अहिंसा भी रही है, दया भी रही है; लेकिन करुणा नहीं, कंपैशन नहीं। करुणा का अनुभव ही नहीं रहा है। और करुणा का अनुभव आए, तो हम जीवन को बदलेंगे। और करुणा से अगर दया निकले, तो वह दया न रह जाएगी। क्योंकि उसमें कोई अहंकार की तृप्ति न होगी। और करुणा से अगर अहिंसा निकले, तो वह निषेधात्मक न रह जाएगी। वह सिर्फ इतना न कहेगी कि दुख मत दो, वह इतना भी कहेगी कि दुख मिटाओ भी, दुख से बचाओ भी, दुख से मुक्त भी करो, सुख भी लाओ। और अगर करुणा से प्रेम निकले, तो प्रेम मुक्तिदायी हो जाएगा, बंधनकारी नहीं रह जाएगा।
अब तक का सारा प्रेम गुलामी लाने वाला सिद्ध हुआ है। सब प्रेम ने जंजीरें बांध दी हैं। हां, गरीब आदमी लोहे की जंजीर बांधता है, अमीर आदमी सोने की जंजीर बांधता है। लेकिन सब प्रेम ने जंजीरें बांध दी हैं। अगर करुणा से प्रेम निकलेगा, तो वह मुक्ति लाएगा। मैं जिसे प्रेम करता हूं, मैं उसे मुक्त करूंगा, अगर मेरी करुणा भी उसके साथ है। मैं जिससे प्रेम करता हूं, मैं उसके जीवन के संकटों को, कष्टों को, पीड़ाओं को, भीतर की स्थितियों को समझूंगा, सहयोगी बनूंगा। मैं जिसे प्रेम करता हूं, अगर वह किसी और को प्रेम करके सुख होता हो उसे, तो मैं सुखी होऊंगा। क्योंकि जिसे मैं प्रेम करता हूं, उसे मैं सुखी देखना चाहता हूं।
लेकिन जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह बरदाश्त न कर सकेगा। मैं जिसे प्रेम करता हूं, अगर वह किसी की तरफ प्रेम की नजरों से देख ले, तो मैं उसकी गर्दन पकड़ लूंगा। और मैं कहूंगा कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, तुमने दूसरे की तरफ प्रेम की नजर से कैसे देखा? यह करुणा नहीं है, यह अत्यंत कठोरता है, और प्रेम के नाम पर बहुत गहरी हिंसा है। इसलिए प्रेमी एक-दूसरे के साथ जितने हिंसक हो जाते हैं, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। और जब प्रेमी हिंसक होते हैं तो उन जैसा हिंसक और कोई भी नहीं हो सकता है। और जब वे एक-दूसरे के प्रति हिंसा से भर जाते हैं, ईर्ष्या से भर जाते हैं, तब वे जितना कष्ट जगत में पैदा करते हैं, उतना कोई भी नहीं करता।
नहीं, करुणा से अगर प्रेम निकले, तो प्रेम मुक्तिदायी होगा। और करुणा से दया निकले, तो निर-अहंकार होगी। और करुणा से अहिंसा निकले, तो विधायक होगी, निषेधात्मक नहीं होगी। इसलिए मैंने करुणा पर जोर दिया है। वह सिर्फ शब्दों का ही फासला नहीं है, भीतर कोई दृष्टि है। इसलिए मैंने कहा, करुणा की छाया है क्रांति। अहिंसा की नहीं, तथाकथित प्रेम की नहीं, तथाकथित दया की नहीं।
एक और मित्र ने पूछा है कि मैं निरंतर कहता हूं कि हम सब परमात्मा में, प्रभु में, सत्य में एक हो जाएं। कहां है वह सत्य, कहां है वह प्रभु, कहां है वह परमात्मा, कैसा है वह?
किसको कहते हैं परमात्मा, इसे भी थोड़ा समझ लेना उचित है।
क्योंकि मनुष्य के जीवन में जो क्रांति लानी है, उसमें अगर प्रभु की मौजूदगी न रही, तो वह क्रांति बहुत गहरी न हो सकेगी। अगर उस क्रांति को गहरा करना है और जड़-मूल तक ले जाना है, तो उसमें प्रभु का हाथ और मौजूदगी बहुत जरूरी है। प्रभु-विहीन क्रांतियां हो गई हैं। असल में, जिन्हें मैं कह रहा हूं क्रोध से निकली हुई क्रांतियां, वे प्रभु-विहीन क्रांतियां हैं। और जिसे मैं कह रहा हूं करुणा से आने वाली क्रांति, वह प्रभु की मौजूदगी को स्वीकार करके आने वाली क्रांति है।
ऐसी क्रांतियां हो गई हैं जिनमें ईश्र्वर को हमने स्वीकार नहीं किया है, बल्कि क्रांतिकारी अक्सर ईश्र्वर को इनकार करता रहा है। उसे ऐसा लगता रहा है कि ईश्र्वर भी क्रांति में बाधा है। उसने ईश्र्वर को भी तोड़ देना चाहा है। वह ईश्र्वर पर भी क्रोधित हो गया है। उसे लगा है कि इतनी गरीबी है दुनिया में, तो कहां है ईश्र्वर! कैसा ईश्र्वर है! इतनी पीड़ा है तो ईश्र्वर नहीं हो सकता है! उसने ईश्र्वर को भी पोंछ देना चाहा है।
लेकिन पीड़ा और गरीबी और तकलीफ ईश्र्वर के कारण नहीं है। हमारे कारण है। और ईश्र्वर की अनुकंपा इतनी है कि वह हमें सब तरह से स्वतंत्र किए हुए है। वह हमें भटकने के लिए भी स्वतंत्र किए हुए है। वह हमें पाप करने के लिए भी स्वतंत्र किए हुए है। और स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं होता, अगर ईश्र्वर हम सबको जन्म लेने के पहले एक चिट्ठी लिख कर दे दे और कहे कि आपको अच्छे काम करने की पूर्ण स्वतंत्रता है, लेकिन बुरा काम करने की बिलकुल स्वतंत्रता नहीं है; और वह हमसे कह दे कि आपको प्रेम करने की पूरी स्वतंत्रता है, जितना चाहो प्रेम करो, लेकिन घृणा करने की बिलकुल स्वतंत्रता नहीं है, तो क्या वह स्वतंत्रता स्वतंत्रता होगी? अगर हमसे कहा जाए कि आपको संत बनने की पूरी स्वतंत्रता है, बनो, लेकिन असाधु बनने की स्वतंत्रता नहीं है, तो संत बनने की स्वतंत्रता भी समाप्त हो जाएगी। क्योंकि संत बनने की स्वतंत्रता असंत बनने की स्वतंत्रता से ही जुड़ी हो सकती है, अन्यथा नहीं हो सकती।
अगर हमसे कहा जाए कि आपको जागने की पूरी स्वतंत्रता है, लेकिन सोने की स्वतंत्रता नहीं है, तो जागने की स्वतंत्रता फौरन खो जाएगी। क्योंकि जागने की स्वतंत्रता सोने की स्वतंत्रता के साथ ही जुड़ी है। अलग-अलग नहीं हो सकती। आदमी को शुभ करने की स्वतंत्रता इसीलिए उपलब्ध है कि उसे अशुभ करने की भी स्वतंत्रता उपलब्ध है। और परमात्मा ने आदमी को इतना स्वतंत्र कर दिया है कि उसने अपने को सबके सामने मौजूद भी नहीं रखा है। यह भी परमात्मा की स्वतंत्रता का ही उपक्रम है।
हम अक्सर पूछते हैं: ‘ईश्र्वर सामने क्यों नहीं है?’
अगर ईश्र्वर सामने हो तो हमारी स्वतंत्रता में पूरी तरह बाधा पड़ेगी। आप एक घर में चोरी करने गए हैं और परमात्मा आपके साथ ही लगा हुआ है, वह आपके बगल में ही खड़ा हुआ है। ऐसे तो वह खड़ा ही हुआ है। इसलिए जिनको वह दिखाई पड़ जाता है कि खड़ा हुआ है, उनकी चोरी मुश्किल हो जाती है। लेकिन हमको दिखाई नहीं पड़ता है, इसलिए स्वतंत्रता है। हम चोरी कर सकते हैं और सोच सकते हैं कि कोई दिक्कत नहीं है, सबको धोखा दे दिया है।
मैंने सुना है, एक फकीर के पास कुछ युवक आए और उन्होंने कहा कि हम उस अज्ञात परमात्मा की खोज करना चाहते हैं, वह कहां है? जैसा इस मित्र ने पूछा है कि ‘कहां है वह ईश्र्वर, कैसा है वह प्रभु?’ उन्होंने भी पूछा। उस फकीर ने कहा कि एक छोटा सा काम कर लाओ, फिर मैं तुम्हें बताऊं। चार शिष्य थे, उसने एक-एक कबूतर उनको दे दिया और कहा: यह ले जाओ और जहां कोई न देखता हो, जल्दी से कबूतरों को मार कर वापस लौट आओ।
एक शिष्य बाहर सड़क पर गया। दोनों तरफ देखा, भरी दोपहरी थी, कोई भी नहीं था, लोग घरों में सोए थे। उसने कबूतर को मरोड़ा और भीतर वापस आ गया और उसने कहा: यह लीजिए। कोई भी नहीं देख रहा था।
दूसरा शिष्य सड़क पर गया। उसने सोचा कि यद्यपि सड़क पर कोई नहीं है, लेकिन भरी रोशनी है, दोपहरी है, मैं मरोडूं और कोई आ जाए, कोई खिड़की से झांक ले, कोई घर के बाहर निकल आए। तो वह अंधेरी गली में गया, जहां कोई द्वार न थे, बड़ी दीवालें थीं। गांव के किले की मजबूत दीवाल थी पत्थरों की, वह उसकी आड़ में गया। जब वह सब तरह निश्चिंत हो गया कि अब दूर मीलों तक कोई दिखाई नहीं पड़ता है, तब उसने गर्दन मरोड़ी, वापस आकर गुरु को दे दिया।
तीसरे शिष्य ने सोचा कि दिन में तो कोई न कोई देख ही सकता है। प्रकाश देखने का माध्यम है। वह रात तक रुका, रात के अंधेरे में अपने घर के भीतर द्वार बंद करके उसने गर्दन मरोड़ी और लाकर गुरु को दे दिया।
लेकिन चौथे शिष्य का, महीना भर हो गया, कोई पता न चला। गुरु बहुत चिंतित है। वह अपने मित्रों को, अपने शिष्यों को कहता है, खोजो, वह कहां गया? वह पागल कहां है? महीने भर के बाद उसे एक जंगल में पकड़ा गया। वह करीब-करीब पागल हालत में था। उसको लाया गया। उसके गुरु ने पूछा कि क्या हुआ? वह कबूतर को साथ में लिए था। उसने कहा: मुझे बहुत मुश्किल में डाल दिया। मैं अंधेरी से अंधेरी जगह में गया, लेकिन अंधेरे में भी जब मैं गया और कबूतर की गर्दन पर हाथ रखा मैंने, तो मैंने देखा, कबूतर देख रहा है। तब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। फिर मैंने बहुत तरकीबें खोजीं। फिर मैंने कबूतर की आंख पर पट्टी बांध दी और मैं एक अंधेरे तलघरे में गया, जहां घनघोर अंधेरा था, जहां कि पट्टी के भीतर से देखना क्या, पट्टी के बाहर से भी कबूतर को देखना संभव न होता। वहां जाकर जब मैं उसकी गर्दन मरोड़ रहा था, तब मुझे दिखाई पड़ा कि मैं देख रहा हूं! और गहरी गुफाओं में गया, जहां कि हाथ को हाथ न सूझता हो, और जब मैं उसे दबाने लगा, तब मुझे अचानक प्रतीत हुआ कि परमात्मा देख रहा है! मुझे मुश्किल में डाल दिया है। यह काम नहीं हो सकता। यह कबूतर आप वापस ले लो। मैं बिलकुल पागल हो गया। वह जगह खोज रहा हूं, जहां परमात्मा न हो। सब जगह घूम आया, जंगल, पहाड़, पर्वत सब देख डाले, वह सब जगह है।
उस फकीर ने उन तीन को जो कबूतर को मार लाए थे, कहा: तुम भाग जाओ। तुम अदृश्य को न खोज सकोगे। तुम्हारी आंखें बड़ी स्थूल हैं। तुम सूक्ष्म को न देख सकोगे। आंखों को थोड़ा सूक्ष्म करके आओ। यह युवक कुछ काम पड़ सकता है। इसकी आंखें सूक्ष्म हैं। यह किसी प्रेजेंस को, किसी उपस्थिति को अनुभव करता है। कबूतर की भी उपस्थिति अनुभव करता है, अपनी भी। और सब तरफ से रोक लेता है तो भी इसे किसी की उपस्थिति मालूम पड़ती है।
परमात्मा अदभुत है कि उसने हटा लिया है अपने से हमको--हमसे दूर, अलग, अदृश्य, ताकि हम पूरे स्वतंत्र हो सकें, अन्यथा हम स्वतंत्र न हो पाएं। बेटा बाप के सामने सिगरेट नहीं पीता है, बगल के कमरे में जाकर पी लेता है। लेकिन अगर, अगर पता चल जाए कि वहां परमात्मा मौजूद है, तो फिर किस कमरे में जाए, कहां छिपे, क्या करे, फिर बहुत मुश्किल हो जाए। और अगर निरंतर यह मालूम होने लगे कि दो आंखें सदा झांक रही हैं, हर जगह, हर कोने में, हर अंधेरे में, तब बहुत मुश्किल हो जाए। स्वतंत्रता असंभव हो जाए।
मनुष्य पूरी तरह स्वतंत्र हो सके, इसलिए परमात्मा अदृश्य हो गया है। परमात्मा का अदृश्य होना मनुष्य को दी गई पूरी स्वतंत्रता के आधारभूत कारणों में से है।
लेकिन क्या मतलब है परमात्मा से?
कोई व्यक्ति, कोई आदमी, कोई पर्सनैलिटी, कहीं कोई छिपा हुआ बैठा है?
नहीं, इस भाषा में सोचने के कारण ही बहुत कठिनाई हो गई है। इस भाषा में सोचने के कारण हमने मंदिर बना लिए हैं, मूर्तियां बना ली हैं, पूजा चल रही है, भजन-कीर्तन चल रहे हैं। जिनका परमात्मा से कोई भी संबंध नहीं है। न हो सकता है। ये हमारे गढ़े हुए परमात्मा हैं, जो हमने अपनी कल्पना से गढ़ लिए हैं।
परमात्मा का अर्थ है: समग्र, दि टोटल। वह जो सारा जगत है, सारा जीवन है उसका जोड़।
खंड-खंड हम देखते हैं। एक आदमी है, एक पौधा है, एक जमीन है, एक चांद है, एक पहाड़ है, एक सागर है। खंड-खंड हैं, अलग-अलग हैं। लेकिन सबका अस्तित्व जुड़ा हुआ है, सबका अस्तित्व गहरे में जुड़ा और संयुक्त है।
दस करोड़ मील दूर है सूरज, लेकिन अगर अभी ठंडा हो जाए तो सुबह हम फिर कोई पता न चलेगा कि कहां गए, हम साथ ही ठंडे हो जाएंगे। दस करोड़ मील दूर जो है, उसकी किरणें हमें जिलाए हुए हैं, गरम किए हुए हैं। ऐसा नहीं है कि थर्मामीटर से फिर आप नापेंगे, सूरज के ठंडे हो जाने पर, तो आपको शरीर ठंडा होता मालूम पड़ेगा। नहीं, थर्मामीटर भी ठंडा हो चुका होगा। वह भी गर्मी नहीं बताएगा। आप भी ठंडे हो चुके होंगे। और कोई नहीं होगा जो जान सके कि कुछ गरम है। वह सारी गर्मी दस करोड़ मील दूर से चली आ रही है। दस करोड़ मील दूर से हम बंधे हैं।
एक फूल खिल रहा है पृथ्वी पर, वह सूरज की किरणों से बंधा है। एक बीज अंकुरित हो रहा है, वह सूरज से बंधा है। लेकिन सूरज से ही बंधे हैं, ऐसा नहीं, और गहरे, गहरे, दूर से दूर के तारे से भी हमारे संबंध हैं। उससे भी हम बंधे हैं। एक अनंत जाल है अस्तित्व का, जिसमें सब पिरोए हुए हैं।
फूल की एक माला कोई मेरे गले में डाल जाता है। फूल-फूल दिखाई पड़ते हैं, भीतर का सूत दिखाई नहीं पड़ता है। लेकिन फूल अगर अलग-अलग होते, तो माला न होती। भीतर कोई सूत है, जो पिरोया हुआ है, इसलिए माला है। यह सारा अस्तित्व पिरोया हुआ है। इस सारे अस्तित्व में हम एक-दूसरे के भीतर प्रवेश कर गए हैं। हमें खयाल में नहीं आता!
आप हैं, आपने कभी सोचा है कि आपके भीतर करोड़ों-करोड़ों साल का अस्तित्व पिरोया हुआ है। एक छोटा बच्चा मां के पेट में निर्मित होता है, तो चौबीस अणु पिता से आते हैं उसके पास, चौबीस अणु उसकी मां से आते हैं। पिता के चौबीस अणुओं में उसके पिता के बारह अणु होते हैं, उसकी मां के बारह अणु होते हैं। पिता के पिता के बारह अणुओं में छह उसके पिता के पिता के होते हैं, छह उसकी मां के मां के होते हैं। और यह सारे अणुओं की यात्रा अंतहीन चल रही है। आप आज ही अचानक पैदा नहीं हो गए, हजारों-लाखों साल की श्रृंखला की एक कड़ी हैं आप। एक लंबी श्रृंखला की कड़ी, जो जुड़ी हुई है। और ऐसा नहीं है कि आप पीछे से ही जुड़े हैं, भविष्य में भी जोड़ जारी रहेगा। वहां भी यात्रा जारी रहेगी। आज आपकी बगिया में जो फूल खिला है, वह अचानक नहीं खिल गया है। उसके बीजों की यात्रा अनंत है।
और अब तो वैज्ञानिक सोचते हैं कि किसी न किसी दिन जब पहली दफा कोई बीज जमीन पर आया होगा, तो भी पैदा कैसे हो गया होगा। जरूर किसी दूसरे ग्रह-उपग्रह से उड़ कर आया होगा। या कोई दूसरे ग्रह-उपग्रह से किसी यात्री के साथ चला आया होगा। अभी हमारे यात्री चांद पर गए, तो लौट कर हमने उनकी महीने भर परीक्षा की और जांच-पड़ताल की कि चांद से वे कोई कीटाणु तो नहीं ले आए हैं। लेकिन चांद पर वे कुछ कीटाणु जरूर छोड़ आए होंगे, जिसकी कोई परीक्षा नहीं हुई। और हो सकता है चांद से हमारा संबंध टूट जाए, आगे न हो; और वे कीटाणु विकसित होते रहें और करोड़ों साल में वहां एक प्राणी पैदा हो जाए। कभी न कभी किसी अंतहीन काल में इस पृथ्वी पर, किसी दूसरे ग्रह से जीवन के कोई पहले चरण इसी भांति आए होंगे। उनसे हमारा जोड़ है।
अंतहीन श्रृंखला है, उससे हम जुड़े हैं। यह श्रृंखला बहुत दिशाओं में, मल्टी डाइमेन्शनल है, बहुआयाम में फैली हुई है। पीछे-आगे, चारों तरफ, नीचे-ऊपर सब तरफ। जितनी दिशाएं हैं सब दिशाओं में हम जुड़े हुए हैं। उन सब दिशो के जोड़ पर हमारा छोटा सा बिंदु का अस्तित्व है, और इस अस्तित्व को हम कहते हैं ‘मैं।’ ‘मैं’ कहने का अधिकार सिवाय परमात्मा के और किसी को भी नहीं हो सकता है। क्योंकि हम ‘मैं’ कह भी न पाएंगे और बिखरने का क्षण आ जाएगा। लेकिन सब बिखरता रहे, सब बनता रहे--जिसमें बिखरता है और जिसमें बनता है, वह है, वह है। वह न बिखरता है, न वह बनता है।
एक सागर है, उस पर लहरें बन रही हैं। अभी एक लहर उठी कितनी शान से, कितनी अकड़ से। आकाश को छूने की हिम्मत से, आकांक्षा से। कितने जोर से उछल कर उसने सागर के चारों तरफ देखा है और पास-पड़ोस की छोटी लहरों से कहा होगा: देखती हो, कौन हूं मैं? लेकिन जब वह कह रही है, ‘देखती हो, कौन हूं मैं?’ तभी बिखराव शुरू हो चुका है। वह वापस गिरना शुरू हो गई है। वह कह भी नहीं पाई है और गिरना शुरू हो गया है। उसका कहना पूरा भी न हो पाएगा। दूसरी लहरें शायद सुन भी न पाएंगी और लहर खो जाएगी। सागर में लहरें उठती रहती हैं, खोती रहती हैं।
आप ऐसा तो सोच सकते हैं कि सागर हो बिना लहर के, ऐसा कभी हो सकता है कि शांत हो, कोई लहर न हो, सागर हो। लेकिन ऐसा आप नहीं सोच सकते हैं कि लहर हो बिना सागर के। ऐसा आप नहीं सोच सकते। समुद्र की छाती पर लहरें उठती, बनती, बिगड़ती रहती हैं। अगर हम लहर लहर को देखते रहें, तो सागर का हमें कोई पता न चलेगा। हम सब लहर को जोड़ कर देख लेते हैं, इसलिए सागर का पता चलता है।
परमात्मा का अर्थ है: वह जो अस्तित्व की अनंत-अनंत लहरें हैं, उनको हम जोड़ में देखने में समर्थ हो जाएं, टोटेलिटी में देखने में समर्थ हो जाएं, तो परमात्मा का पता चलता है। और अगर समग्र को न देख सके, एक-एक टुकड़े को देखते रहे, तो हमें आदमियों का पता चलेगा, पौधों का पता चलेगा, पत्थरों का पता चलेगा, पहाड़ों का पता चलेगा, लेकिन परमात्मा का पता नहीं चलेगा।
परमात्मा है जोड़, योग--परमात्मा है सबका जोड़। अगर सारे जगत के समस्त अस्तित्व को जोड़ा जा सके, तो जो हिसाब आएगा नीचे, वह परमात्मा है। लेकिन वह पूरी तरह जोड़ा नहीं जा सकेगा। वह पूरी तरह जोड़ा नहीं जा सकेगा, क्योंकि वह अंतहीन और अनंत है। इसलिए हम सिर्फ कंसीव कर सकते हैं, हम केवल भाव में अनुभव कर सकते हैं उस जोड़ का। लेकिन किसी दिन हम जोड़ कर बता नहीं सकते कोई फार्मूला बना कर कि इतना रहा जोड़। यह हम नहीं बता सकते हैं। इसके भी कुछ कारण हैं कि हम नहीं बता सकते। इसे थोड़ा सोच लेना उपयोगी होगा। ईश्र्वर को समझने में आधारभूत होगा।
हम कभी नहीं सोच सकते कि कोई चीज असीम हो सकती है। हमारी कल्पना सीमा पर जाकर रुक ही जाती है। हम कितनी ही दूर सीमा को ले जाएं फिर भी सीमा हटती है, मिटती नहीं। अगर हम सोचें कि जगत असीम है, तो हम इतना ही कर सकते हैं कि बहुत-बहुत, करोड़ों-करोड़ों, अरबों-अरबों मीलों दूर कहीं सीमा होगी, लेकिन हमारी बुद्धि में सीमा नहीं होगी, यह पकड़ में नहीं आता! हम कहेंगे, और थोड़ा आगे, और थोड़ा आगे, और थोड़ा आगे। जैसे छोटे बच्चे, उनको कहानियां कहो, तो वे पूछते हैं, फिर और, फिर और। वे पूछते ही चले जाते हैं। क्योंकि उनकी समझ में यह नहीं आता कि बात एकदम खत्म कैसे हो जाएगी। फिर और, आगे तो होगा न कुछ।
तो हम भी अगर पूछते हैं, तो हम सोच सकते हैं ज्यादा से ज्यादा और आगे, और आगे, और आगे। लेकिन हम यह नहीं सोच सकते कि ऐसा भी है यह जगत कि इसकी कोई सीमा ही न होगी। इसे सोचने में सिर घूम जाता है। इसे कभी-कभी सोचना चाहिए। सिर को कभी-कभी घुमाना भी चाहिए। ताकि सिर की जो अकड़ है, वह थोड़ी कम हो जाए। नहीं तो, सिर को बहुत अकड़ है, वह सोचता है, सभी हम सोच सकते हैं। वह नहीं सोच सकता। हम असंख्य को नहीं सोच सकते।
बड़े से बड़ा गणितज्ञ भी सोचेगा, तो बड़ी से बड़ी संख्या सोच सकता है। वह कहेगा, और इतना जोड़ दो, और इतना जोड़ दो, और इतना जोड़ दो। लेकिन कोई कहता है, असंख्य, तो हमको असंख्य का मतलब होता है ऐसा, जो गिना न जा सके। लेकिन हम सोचते हैं, अगर मेहनत की जाए तो गिना जा सकता है। अगर कोई आपसे पूछे कि आदमी के सिर पर कितने बाल हैं, तो आप कह देंगे, असंख्य। उसका यह मतलब नहीं है कि असंख्य हैं। बाल तो गिने जा सकते हैं। और कुछ बुद्धिमानों ने मेहनत करके गिन भी लिए। कुछ बुद्धिमान ऐसी ही नासमझी के काम भी किया करते हैं।
आदमी की खोपड़ी के बाल गिने जा सकते हैं, आकाश के तारे गिने जा सकते हैं, लेकिन हम यह नहीं सोच सकते कि ऐसा भी हो सकता है कि संख्या समाप्त ही न होती हो। कहीं भी, कहीं भी, कहीं भी समाप्त न होती हो। तब सिर घूम जाता है। सीमा समझ में आती है, असीम समझ में नहीं आता। बिगिनिंग समझ में आती है, किसी चीज की शुरुआत हुई, अंत हुआ, यह समझ में आता है। यह समझ में नहीं आता कि कोई चीज शुरू ही नहीं हुई, शुरू ही नहीं हुई, अंत भी नहीं होगी, अंत भी नहीं होगी। अगर बुद्धि से नापने जाएंगे, तो परमात्मा की पकड़ कभी भी न आ पाएगी। क्योंकि बुद्धि न असीम को सोच सकती है, न पूर्ण को सोच सकती है, न अनंत को सोच सकती है।
लेकिन अनंत को सोचने की कोशिश करें, यह भी एक मेडिटेशन का प्रकार है, एक ध्यान का प्रकार है। अनंत को सोचें और सोचते चले जाएं और सीमाओं को आगे हटाते जाएं, हटाते जाएं, हटाते जाएं, अंततः मिटा देने की कोशिश करें कि कोई सीमा नहीं है। सीमा मिटी वहां कि यहां भीतर बुद्धि भी मिट जाएगी। ये दोनों एक साथ मिट जाते हैं। वहां सीमा मिटी, यहां बुद्धि मिटी। वहां प्रारंभ और अंत मिटा, यहां बुद्धि मिटी। वहां संख्या मिटी, यहां बुद्धि मिटी। और जिस क्षण बुद्धि मिट जाती है, उस दिन असीम, अनंत, समग्र का बोध शुरू हो जाता है। वह बोध परमात्मा का बोध है।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं, समग्र जोड़ का नाम है। लेकिन वह जोड़ भी हमारी बुद्धि का कोई गणित नहीं है, हमारी बुद्धि की असफलता है।
और अंत में इतनी ही बात ठीक से समझा दूं कि बुद्धि की असफलता जहां है, वहीं से धर्म का प्रारंभ है। बुद्धि जहां पूरी तरह असफल हो जाती है--पूरी तरह! ध्यान रहे, अगर थोड़ी भी बची रही, तो उसने कहा कि ठहरो, अभी हम और थोड़ी कोशिश करें। टोटल फेल्योर, जहां पूर्ण असफलता आ गई।
एक मित्र से मैं बात कर रहा था परसों ही रात और मैंने उनसे कहा कि जब पूर्ण असफल हो जाता है मनुष्य का सोचना, तब सोचना समाप्त हो जाता है और तब जानना शुरू होता है। जहां थिंकिंग समाप्त होती है, वहां नोइंग शुरू होती है। जहां विचार बंद होते हैं, वहां जानना शुरू होता है। तो उनसे मैं कह रहा था कि जहां बुद्धि पूरी तरह असफल हो जाती है। तो उन्होंने कहा: तब तो मन में बड़ा विषाद, डिप्रेशन मालूम होता होगा। मैंने कहा: अगर विषाद मालूम होता हो तो अभी पूरी असफलता नहीं हुई, क्योंकि अभी सफलता की कोई आशा मन में शेष है, उसी की वजह से विषाद मालूम होता है। पूर्ण असफलता का अर्थ है कि अब सफलता की कोई आशा भी न रही। निराशा भी नहीं, आशा भी नहीं। असफलता पूरी हो गई। और यह पता चल गया कि यह हो ही नहीं सकता था, यह हो ही नहीं सकता है।
बुद्धि से असीम को जाना नहीं जा सकता, सोचा नहीं जा सकता, समझा नहीं जा सकता। फिर, जैसे ही यह पता चल जाए, बुद्धि ठहर कर खड़ी हो जाती है।
कितनी बार हम कहते हैं कि बुद्धि बड़ी चंचल है। बुद्धि चंचल रहेगी ही। आप ऐसी छोटी-छोटी चीजों पर लगाते हैं, जिनमें बुद्धि चंचल रहेगी ही। जरा असीम पर लगा कर देखें और आप पाएंगे कि बुद्धि ठहर गई। फिर वहां चंचलता नहीं होती। बुद्धि को आप लगाते हैं इतनी क्षुद्र चीजों पर कि वह चंचल हो ही जाएगी, ऊब जाएगी, दूसरे पर जाएगी, तीसरे पर जाएगी। असीम पर लगा दें बुद्धि को और आप अचानक पाएंगे कि वह असफल हो गई। ठगी खड़ी रह गई। खड़ी रह गई, अब जाने को कहीं न रहा। नो व्हेयर टु गो। क्योंकि असीम है, जाओ कहां? कोई सीमा नहीं, कोई अंत नहीं।
और जहां असीम पर बुद्धि को लगाया जाता है, वहीं बुद्धि टूट कर बिखर जाती है--एक्सप्लोजन की तरह, एक विस्फोट की तरह बुद्धि बिखर जाती है। फिर जो शेष रह जाता है, वह परमात्मा है। ऐसा नहीं है कि वह परमात्मा आपके सामने होगा, ऐसा कि आप भी उसमें ही होंगे। ऐसा नहीं है कि आप इधर खड़े होंगे, उधर परमात्मा होगा। नहीं, जहां आपकी बुद्धि बिखर गई, तब जो शेष रह जाएगा आपमें, आपके बाहर, आपसे दूर, आपके पास, भीतर, बाहर, यहां, वहां, सब कहीं, जो शेष रह जाएगा, वह परमात्मा है।
परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता। ऐसा नहीं कि आप कभी उसका दर्शन कर लेंगे और नमस्कार कर लेंगे। हां, रामचंद्र जी मिल सकते हैं, क्राइस्ट मिल सकते हैं, कृष्ण जी मिल सकते हैं, बुद्ध, महावीर मिल सकते हैं, ये सब मिल सकते हैं, परमात्मा नहीं मिल सकता। ये सब मिल सकते हैं, क्योंकि इनको आप अपनी ही कल्पना से पैदा कर सकते हैं। लेकिन परमात्मा आपकी कल्पना से पैदा नहीं होता। जहां कल्पना हार कर थक जाती है, विश्राम करने लगती है, वहां उसका अनुभव शुरू होता है। और मैं कह रहा हूं कि इस परमात्मा की उपस्थिति अगर मौजूद रहे, तो ही वास्तविक क्रांति हो सकती है। क्योंकि तब हम अस्तित्व की जड़ों तक उतर जाते हैं, और जड़ों से रूपांतरण होता है।
प्रभु में जीने के अतिरिक्त और कोई क्रांति नहीं है।
प्रभु से संबंधित होने के अतिरिक्त और कोई म्युटेशन, कोई रूपांतरण नहीं है।
प्रभु से संबंधित होने के अतिरिक्त न कोई क्रांति है, न कोई परिवर्तन, न कोई रूपांतरण, न कोई अनुभव, न कोई आनंद, न कोई आलोक, न कोई सत्य, न कोई मुक्ति। इसलिए प्रभु पर जोर दे रहा हूं।
इधर मेरे पास मित्र हैं, वे कहते हैं कि प्रभु को बीच में लाने की कोई भी जरूरत नहीं। अगर चल सकता बिना लाए तो ठीक था, लेकिन वह मौजूद है ही। उसे हटा सकते तो भी ठीक था, लेकिन वह हटता नहीं, वह मौजूद है ही। हां, जो देख नहीं रहे, उन्हें पता नहीं चलता है।
जैसे अंधों की एक बस्ती हो और वे कहें कि प्रकाश को बीच में लाए बिना बात नहीं बनेगी, और आंख वाला कहे कि मैं बीच में लाता नहीं, वह बीच में है ही। तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता, यह दूसरी बात है। और तुम अंधे हो, फिर भी चलते प्रकाश में ही हो। वे अंधे कहें कि प्रकाश की बात ही बीच से हटा दो। तो भी वह आंख वाला कहेगा, बात हटाने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा, प्रकाश बीच में है ही। और अच्छा है कि हम उसे जान ही लें, क्योंकि वह हमें टकराने से बचा सकेगा। हम उसे पहचान ही लें, क्योंकि वह हमारे रास्ते पर साथी बन जाएगा। हम उसे देख ही लें, क्योंकि उसे देख लेने के बाद ही हम ठीक-ठीक चल पाएंगे और ठीक-ठीक पहुंच पाएंगे।
अंधे को प्रकाश नहीं दिखता, हमें परमात्मा नहीं दिखता। निश्चित ही किसी अर्थ में हम अंधे हैं। उस अंधेपन को तोड़ने का उपाय ही ध्यान है।
ध्यान के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं, वह मैं सुबह की कल की बैठक में उन सारे प्रश्नों को लूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।