QUESTION & ANSWER

Karuna Aur Kranti 05

Fifth Discourse from the series of 6 discourses - Karuna Aur Kranti by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
मैंने सुना है कि किसी अज्ञात ग्रह पर निवास करने वाले लोग एक बड़े पागलपन से पीड़ित हैं। उस ग्रह के निवासियों को यह खयाल पैदा हो गया है कि जमीन पर पैर रख कर खड़ा होना पाप है। वे अपने बच्चों को बचपन से ही शीर्षासन करना सिखा देते हैं। वे उन्हें सिर के बल खड़ा होना सिखा देते हैं। उनके बच्चों के पैर कभी भी चलने के योग्य नहीं हो पाते हैं। जीवन की जरूरतें कभी-कभी उनके बच्चों को भी चलने को मजबूर करती हैं, क्योंकि सिर के बल चला नहीं जा सकता, सिर्फ खड़ा हुआ जा सकता है। जीवन की मजबूरियों में उनके बच्चों को चलना पड़ता है, लेकिन तब उनके पैर बहुत लड़खड़ाते हैं। वे ज्यादा चल भी नहीं सकते। और सबसे बड़ी कठिनाई पैरों की कमजोरी से नहीं आती, सबसे बड़ी कठिनाई इस बात से आती है कि चलते समय उनके बच्चे समझते हैं कि वे कोई बहुत जघन्य अपराध कर रहे हैं, वे पाप कर रहे हैं। चलते हैं तो पाप मालूम पड़ता है और सिर के बल खड़े रहें तो जिंदगी का जीना मुश्किल हो जाता है।
उस जाति में कुछ लोग इतने विशेषज्ञ हो गए हैं कि वे जीवन भर सिर के बल खड़े-खड़े ही बिता देते हैं! शेष उन लोगों को महात्मा मानते हैं और उन्हें आदर देते हैं। लेकिन बाकी लोगों को कभी-कभी सिर के बल से नीचे उतरना पड़ता है, पैरों से चलना पड़ता है। रात सोते समय शीर्षासन करना मुश्किल हो जाता है। दिन खाना खाते समय भी, खेत पर काम करने जाते समय भी शीर्षासन में रहना मुश्किल हो जाता है।
तो उस ग्रह पर दो तरह की जातियां हो गई हैं उस ग्रह के प्राणियों की। वे लोग जो सोते समय शीर्षासन से नीचे उतर आते हैं, खेती करते समय पैर के बल चलते हैं, वे संसारी समझे जाते हैं। और जो चौबीस घंटे शीर्षासन में खड़े रहते हैं, वे संन्यासी समझे जाते हैं।
जो सिर के बल ही खड़े रहते हैं, वे तो पागल हो ही गए हैं। क्योंकि सिर के बल खड़ा रहना सिर में इतना खून पहुंचा देना है कि सिर की सब शिराएं नष्ट हो जाएंगी। और जो सिर के बल खड़े हुए हैं, उनका सिर धीरे-धीरे पैरों की स्थिति में आ गया है, उतना ही जड़ हो गया है। और जो सिर के बल नहीं खड़े हैं, वे भी पागल हो गए हैं। क्योंकि पूरे वक्त उन्हें ऐसा लगता है कि पैरों के बल खड़े होना जघन्य अपराध है और इसके लिए नरकों की अग्नि में सड़ना जरूरी होगा। वे भी विक्षिप्त हो गए हैं।
जब मैंने यह बात सुनी थी, तो मैं बहुत हैरान हुआ था। मैंने सोचा, ऐसा कोई ग्रह कहां हो सकता है? लेकिन तब मुझे यह पता न था कि वह ग्रह हमारी पृथ्वी ही है। तब इस पृथ्वी के रहने-सहने के ढंग के संबंध में मेरी समझ कम थी। तो मैं सोचता था, कहीं किसी चांद-तारे पर वह ग्रह होगा, जहां लोग ऐसे पागल होंगे। लेकिन जब मैंने आदमी को पास से देखा, तो मैंने पाया, हर आदमी शीर्षासन किए हुए खड़ा है। यह पृथ्वी ही वह ग्रह है, जहां के सारे लोग पागल हो गए हैं। इस शीर्षासन करने की प्रवृत्ति ने ही सारे जीवन को विकृत, कुरूप, अपंग, दुख और पीड़ा से भर दिया है।
इस उलटे होने की प्रक्रिया में हमने क्या-क्या किया है, उन कुछ बिंदुओं पर मैं आज बात करना चाहता हूं।
उलटे होने की प्रक्रिया में जो नीचे होना चाहिए उसे हमने ऊपर कर दिया है और जो ऊपर होना चाहिए उसे नीचे कर दिया है। एक आदमी शीर्षासन करता है तो यही तो करता है, सिर जो ऊपर होना चाहिए नीचे कर देता है, पैर जो नीचे होने चाहिए उन्हें ऊपर कर देता है। अगर हम उलटा मकान बनाएं, शीर्षासन करता हुआ मकान बनाएं, तो नींव ऊपर होगी और शिखर नीचे होगा। अभी तक हमने ऐसा मकान बनाने की कोशिश नहीं की, क्योंकि हम जानते हैं वह निपट पागलपन है। लेकिन जिंदगी हमने ऐसी बनाने की कोशिश की है, जिसको हमने उलटा कर दिया है। आधार ऊपर कर दिए हैं और शिखर नीचे कर दिए हैं।
जिस दिन आदमी ने यह समझा कि मोक्ष पाने योग्य है और पृथ्वी छोड़ देने योग्य है; जिस दिन आदमी ने यह समझा कि यह जीवन बुरा है और इस जीवन के बाद मृत्यु के बाद कोई जीवन अच्छा जीवन है; जिस दिन आदमी ने ऐसा समझा कि शरीर पाप है और आत्मा पुण्य है, उसी दिन आदमी के जीवन का भवन उलटा हो गया। तब से हम बुनियाद को इनकार कर रहे हैं और शिखर का सम्मान कर रहे हैं। और कोई शिखर बिना बुनियाद के खड़ा नहीं हो सकता। यह बड़े मजे की बात है। बुनियाद तो बिना शिखर के हो सकती है, लेकिन शिखर बिना बुनियाद के नहीं हो सकता।
एक मकान हम बनाएं, तो हम जमीन में सिर्फ बुनियाद डाल दें, तो बुनियाद तो हो सकती है, लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकते कि मंदिर का शिखर सिर्फ बना दें और नीचे की बुनियाद न हो। पृथ्वी तो बिना मोक्ष के हो सकती है, लेकिन मोक्ष बिना पृथ्वी के नहीं हो सकता। एक आदमी इस तरह जी सकता है कि आत्मा की उसे खबर ही न रह जाए, केवल शरीर में जी सके; लेकिन कोई आदमी भी केवल आत्मा में नहीं जी सकता, शरीर में जीना ही पड़ेगा।
जीवन में जो जितना श्रेष्ठ है, वह अपने से निकृष्ट पर निर्भर होता है। एक वीणा तो हो सकती है, जो संगीत न बज रहा हो जिसमें, अभी जिसके तार न छेड़े गए हों--ऐसी वीणा हो सकती है जो कि सोई हो, जिसके तार न छ़ेडे गए हों, जिसमें संगीत न बज रहा हो; लेकिन ऐसा संगीत नहीं हो सकता, जो बिना वीणा के हो और बज रहा हो।
जीवन में जो श्रेष्ठ है वह निकृष्ट पर खड़ा हुआ है, और इसलिए जिसे हम निकृष्ट कहते हैं वह भी निकृष्ट नहीं है, क्योंकि सब श्रेष्ठ का वह आधार है। और श्रेष्ठ का जो आधार है वह निकृष्ट कैसे हो सकता है? जिस पर सारे श्रेष्ठ को खड़ा होना पड़ता है वह निकृष्ट कैसे हो सकता है? वीणा निकृष्ट कैसे हो सकती है? संगीत श्रेष्ठ कैसे हो सकता है? क्योंकि संगीत को वीणा से ही पैदा होना पड़ता है।
कल दो संन्यासी मुझसे मिलने आए थे। और उन्होंने मुझसे कहा कि हमें ध्यान करना है, हमें ध्यान सीखना है। तो मैंने उनसे पूछा कि पागल हो गए हो? संन्यासी कैसे हो गए बिना ध्यान किए? क्योंकि ध्यान से अगर संन्यास न आया हो, तो संन्यास आ ही कैसे सकता है? यह तो बिना नींव के शिखर रख लिया। उन्होंने कहा: अब तो हो गए हैं, लेकिन अब हम सीखना चाहते हैं। हमें ध्यान सीखना है। तो मैंने उनसे कहा: कल सुबह आ जाओ ध्यान की बैठक में। तो उनमें से एक ने पूछा: वहां स्त्रियां तो न होंगी? मैंने कहा: क्या बिना स्त्रियों के नहीं आ सकोगे? उन्होंने कहा: नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है, अगर स्त्रियां हों तो हम न आ सकेंगे, क्योंकि स्त्रियों को देखना पाप है। और अगर स्त्री का स्पर्श हो जाए, तब तो हमें उपवास करके प्रायश्र्चित्त करना होगा।
मैंने उन संन्यासियों से पूछा: तुम किसी स्त्री से पैदा हुए हो कि किसी पुरुष से पैदा हुए हो? और तुम्हारे खून में किसी स्त्री का खून बहता है, तुम्हारी हड्डियां किसी स्त्री की हड्डी से बनी हैं, तुम्हारा मांस कहां से आया है, तुम्हारी चमड़ी कहां से आई है? तुम कहां से आए हो? और आज स्त्री को देखने से उन्हें पाप लगता है, और स्त्री को छू लेने से तो उन्हें प्रायश्र्चित्त करना होगा! और उनके शरीर में जो है, वह सब स्त्री से आया हुआ है।
ये शीर्षासन करते हुए लोग हैं। जो जिंदगी जहां से बुनियाद है उसको इनकार करना चाहते हैं, जहां जिंदगी खड़ी है उसको इनकार करना चाहते हैं। ये ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं कि हम जड़ों को इनकार कर देंगे, क्योंकि जड़ें जमीन में गड़ी हैं, अंधेरे में पड़ी हैं, न मालूम जमीन गंदी हो अंधेरे में और नरक की तरफ जड़ें जाती हैं, तो हम जड़ों को इनकार करते हैं। हम तो सिर्फ फूलों को स्वीकार करते हैं, जो वृक्षों में ऊपर आते हैं, आकाश की तरफ उठते हैं, सूरज की तरफ खिलते हैं। हम तो सिर्फ फूलों को स्वीकार करते हैं, जड़ों को हम स्वीकार नहीं करते।
लेकिन कोई फूल देखा है, जो बिना जड़ों के खिल गया हो? और अगर फूल जड़ों के बिना आते ही नहीं, तो जड़ें निकृष्ट कैसे हो जाएंगी? सच तो यह है कि जड़ें उस अंधेरे से जो इकट्ठा कर रही हैं, वही फूलों में जाकर प्रकट हो रहा है। जड़ें जो जमीन से खोज ला रही हैं, वही फूलों में आकाश की तरफ प्रकट हो रहा है। असल में फूल जड़ों के अंतिम छोर हैं। जड़ों ने कमाया है, मेहनत की है, फूलों में प्रकट किया है और सुरभि को लुटा दिया है।
लेकिन कुछ लोग हैं जो कहेंगे कि जड़ें हमें बरदाश्त नहीं, क्योंकि जड़ें अंधेरे में हैं, जमीन के नीचे हैं, नरक की तरफ जाती हैं। हम तो सिर्फ फूल पसंद करते हैं। जड़ों को काट डालो और फूलों को बचा लो। हो सकता है, जड़ें काट डाली जाएं तो फूल बच सकते हैं, लेकिन वे कागज के फूल होंगे या प्लास्टिक के होंगे, असली फूल नहीं हो सकते। कागज के फूलों की जरूर कोई जड़ें नहीं होतीं। और अगर हम जिंदगी को नीचे की जड़ों से उखाड़ लें, तो कागज के संन्यासी रह जाएंगे, असली संन्यासी नहीं रह जाएंगे। क्योंकि असली संन्यासी तो स्त्री से आता है। हां, कागजी संन्यासी सोच सकता है कि स्त्री से नहीं आया है। असली संन्यासी तो स्त्री के प्रति आदर से भरा होगा, सम्मान से। क्योंकि वह उसी की एक धारा है। लेकिन नकली संन्यासी क्रोध से भरा होगा, घृणा से और अपमान से, क्योंकि वह कागजी फूल है, जिसकी कोई जड़ें नहीं हैं। या जड़ों को जो इनकार कर रहा है।
क्या मनुष्यता ने अब तक अपनी ही जड़ें इनकार नहीं की हैं? हमने सब जड़ों को इनकार कर दिया है, हम सिर्फ ऊपर के फूलों को स्वीकार करते हैं। सारी मनुष्यता झूठ हो गई है। शिखर रह गए हैं, बुनियादें खो गई हैं। और कोई मकान जीवन का बिना बुनियाद के नहीं हो सकता है।
शरीर को इनकार कर दिया है, आत्मा को पकड़ कर हम बैठ गए हैं। पृथ्वी से आंख हटा ली है, स्वर्ग और मोक्ष और दूर के लोकों पर आंखों को जमा दिया है। अगर कहीं कोई मोक्ष होगा, तो यह पृथ्वी उसकी सीढ़ी है। और अगर कहीं कोई आत्मा है, तो शरीर के द्वार के अतिरिक्त उसके मंदिर में कोई प्रवेश न कभी हुआ है और न हो सकता है। यह असंभव है। जीवन का अपना गणित है। उस गणित में हमें सब स्वीकार करना पड़ेगा, तभी हम सीधे खड़े हो सकते हैं।
हमने मनुष्य को इस उलटाने में जो बहुत से काम किए हैं, उनमें पहला सूत्र मैं आपसे कहना चाहता हूं, वह यह कि हम नीचे को, जड़ को इनकार कर देते हैं और ऊपर को, शिखर को स्वीकार कर लेते हैं। जब कि सब शिखर नीचे की जड़ों से आते हैं, उन्हीं का फैलाव होते हैं। बहुत तरफ हमने ऐसा किया है, उसका फल हम भोग रहे हैं। बहुत तरफ हमने ऐसा किया है, उसका निरंतर कष्ट हम भोग रहे हैं।
अभी मैं एक गांव में था, एक संन्यासी आए थे मिलने। आज एक स्त्री भी मुझसे मिलने आई थी। उससे भी बहुत मजेदार बातें हुईं। वही बातें उन संन्यासी से हुईं। वह संन्यासी आकर बोले कि यह संसार सब माया है, यह कुछ है नहीं। जब उन्होंने यह कहा कि यह सब संसार माया है, यह कुछ है नहीं, तो फिर मैंने सामने कुर्सी पड़ी थी, उनसे न कहा कि आप कुर्सी पर बैठ जाएं, क्योंकि माया पर बिठालने में गिर जाएं तो झगड़ा है। मैं चुप ही रहा, वे खड़े रहे। मैंने उनसे कहा कि आपको अगर यहां कोई बैठने योग्य चीज दिखाई पड़ती हो तो बैठ जाएं, क्योंकि मैं बिठाऊं और आप गिर जाएं, क्योंकि आप कहते हैं, सब माया है। इस कुर्सी पर बैठें और गिर जाएं तो झंझट मेरे ऊपर लग जाए, तो आप खड़े ही रहें।
मैंने उनसे पूछा कि थके-मांदे हैं, पानी पीएंगे? उन्होंने कहा: हां, प्यास तो बहुत लगी है। मैंने कहा: लेकिन पानी माया होगा। और माया के पानी से कैसे प्यास बुझेगी? और अगर प्यास भी माया है तो बुझाने की कोशिश करनी ही फिजूल है। मैंने पूछा: भोजन करते हैं? उन्होंने कहा: करता हूं। मैंने कहा: बड़ी गड़बड़ बातें कर रहे हैं। एक तरफ सब माया कहे चले जा रहे हैं और एक तरफ उसी माया के साथ जीना पड़ेगा चौबीस घंटे! श्र्वास लेनी पड़ेगी उसी माया से, शिष्य खोजने पड़ेंगे उसी माया से, मंदिर-तीर्थ बनाने पड़ेंगे उसी माया से।
सब माया चलेगी, और ऊपर से इनकार चलेगा तो जीवन में खंड हो जाएंगे। जो आधार है, वह अस्वीकृत हो जाएगा और जो शिखर है स्वीकृत रह जाएगा। और तब बेईमानी पैदा होगी और पाखंड पैदा होगा, तब हिपोक्रेसी पैदा होगी। अब तक हमने पृथ्वी पर जो संस्कृति खड़ी की है, वह हिप्पोक्रेट है, वह सब पाखंडी है, क्योंकि उसने जीवन के पूरे सत्य को स्वीकार नहीं किया है। और जिस सत्य को अस्वीकार कर दिया है, वह है।
आज एक महिला आई थीं। वह मुझसे पूछने लगीं कि मुझे कुछ प्रश्र्न आपसे पूछने हैं। मैंने कहा: जरूर पूछ लें। उन्होंने कहा कि मुझे ध्यान करना है, क्या करूं? मैंने कहा: परमात्मा के प्रति समर्पण करें तो ध्यान आ जाएगा। उन्होंने कहा: कौन परमात्मा? मैं तो स्वयं ब्रह्म हूं। मैंने कहा: जब स्वयं ब्रह्म हैं तो फिर पूछने किसलिए आई हैं मेरे पास? उन्होंने कहा: नहीं, बाकी तो सब मेरी समझ में आ गया है कि मैं ब्रह्म हूं, यह समझ में आ गया है, लेकिन एक प्रश्र्न रह गया है। मैंने कहा: ब्रह्म को भी प्रश्र्न रह जाता है?
अब एक तरफ पकड़ा हुआ है कि मैं ब्रह्म हूं, और जिंदगी वहीं के वहीं खड़ी है, जहां तब थी जब ब्रह्म नहीं थे। जिंदगी के उलझाव वही हैं, जिंदगी की परेशानी वही है, जिंदगी के कष्ट वही हैं, और यहां ब्रह्म होने का खयाल भी पैदा हो गया है। तो हम आदमी को पागल करवा देंगे। हमने आदमी को पागल करवा दिया है। अब ऐसा नहीं है कि कुछ लोग पागलखानों में बंद हैं, अब ऐसा है कि पूरी पृथ्वी ही पागलखाना हो गई है। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे आदमी पागल होता चला गया है। हो ही जाएगा। बिलकुल स्वाभाविक है।
जैसा मैंने कहा कि उस ग्रह के लोग जिसकी मैंने कहानी कही, अगर पैर के बल चलते हैं तो समझते हैं पाप हो रहा है और सिर के बल खड़े होते हैं तो समझते हैं पुण्य हो रहा है। तो अगर वहां सारे लोग पागल हो गए हों, तो आश्र्चर्य नहीं है। हम सब भी उसी भांति पागल हुए जा रहे हैं। हम सब पागल हो गए हैं। जीवन का कोई सत्य पूरा का पूरा स्वीकृत नहीं है। जैसा जीवन है, वैसा नहीं। हम काट-काट कर टुकड़ों में बांट कर स्वीकार करते हैं। और ऊपर के हिस्से को बचा लेते हैं और नीचे के हिस्से को इनकार कर देते हैं। जब कि सब ऊपर के हिस्से नीचे के हिस्सों के सहारे खड़े होते हैं, उन्हीं से पैदा होते हैं, उन्हीं से विकसित होते हैं। वे उन्हीं का विस्तार हैं, उन्हीं का विकास हैं। आदमी को उलटा करने में इस बात ने बड़ा सहारा दिया।
मैं एक छोटी सी गुड़िया देखता था, एक जापानी गुड़िया। उसे फेंकिए, तो कैसा ही फेंकिए, वह सदा सीधी हो जाएगी। एक भिक्षु हुआ, बोधिधर्म। वह बोधिधर्म के ऊपर ही पहली दफा वह गुड़िया बनी। उस गुड़िया का नाम है दारुमा। बोधिधर्म का जापान में नाम है, दारुमा। वह एक हिंदू भारतीय भिक्षु था। हिंदुस्तान से गया बोधिधर्म। उसका जापानी नाम है, दारुमा। उस गुड़िया का नाम भी दारुमा डॉल्स, दारुमा गुड़िया। उसे फेंकें, तो वह कैसा भी फेंकें उसे, वह सदा सीधी हो जाएगी। उसके पेट में वजन है। उस वजन की वजह से सिर सदा ऊपर आ जाता है। मेरे पास कोई मित्र वह गुड़िया लाया था। मैंने कहा: यह गुड़िया तुम बहुत अच्छी लाए। एक-एक आदमी को यह गुड़िया दे दो। क्योंकि आदमी उलटी हालत में हो गया है। उसे कैसा ही फेंको, वह कभी सीधा नहीं पड़ता है, हमेशा उलटा पड़ता है, शीर्षासन कर जाता है। यह गुड़िया बहुत अदभुत है।
फिर मैंने पता लगाया कि यह गुड़िया बनाई क्यों गई? तो वह जो आदमी था बोधिधर्म, उसने यह कहा था कि आदमी ऐसा हो गया है कि कैसा भी पटको, वह उलटा ही गिरेगा। वह कभी सीधा हो ही नहीं सकता। और उस बोधिधर्म ने कहा था: मैं एक सीधा आदमी हूं; मुझको तुम कैसा भी पटको, मैं सीधा ही गिरूंगा। क्योंकि मैं जीवन के उस राज को समझ गया कि जो नीचे है वह नीचे है और जो ऊपर है वह ऊपर है। और मैंने नीचे को पूरा वजन दिया है, इसलिए ऊपर का शिखर सदा ऊपर आ जाता है। उसके इस कथन के अनुसार वह गुड़िया निर्मित की गई थी।
वह अपने-अपने घर में एक गुड़िया आपको खरीद कर रख लेनी चाहिए और रोज सुबह घर से निकलने के पहले गुड़िया को फेंक कर देख लेना चाहिए कि वह हर बार सीधी हो जाती है! उसके सीधे होने का राज यह है कि उसका बेस जो है वह वजनी है, उसकी बुनियाद जो है वह वजनी है। और उसका सिर जो है वह हलका है। हमारा सिर भारी है और बेस बिलकुल ही वजनी नहीं है। हम कैसे भी गिरेंगे, हम उलटे गिरेंगे, सिर के बल गिरेंगे।
इसलिए दूसरा सूत्र आपसे मैं कहना चाहता हूं: आदमी का सिर भारी हो गया है। आदमी ने सारे जीवन को खोपड़ी में निर्भर कर लिया है और सब शरीर से खींच लिया है। सारा जीवन खोपड़ी में आ गया है। हाथ में अब कोई जीवन नहीं है। जब आप किसी से हाथ मिलाते हैं तो आपके हाथ से कोई प्रेम उसकी तरफ नहीं बहता। सिर्फ आप सोचते हैं कि बड़े प्रेम से हाथ मिला रहे हैं। लेकिन हाथ से कोई प्रेम बहता नहीं है। वस्तुतः नहीं बहता! सिर्फ विचार में रहता है कि हां, प्रेम कर रहे हैं, इसलिए हाथ मिला रहे हैं। जब आप हाथ जोड़ते हैं, तो आप कल्पना में सोचते हैं कि बड़ा आदर कर रहे हैं इसलिए हाथ जोड़ रहे हैं, लेकिन हाथों से आदर की किरणें बाहर नहीं जातीं। सारे शरीर से जीवन सिकुड़ कर खोपड़ी में बैठ गया है। आदमी खोपड़ी में जी रहा है। और इसलिए उलटा होना अनिवार्य हो गया है। वह कैसे भी गिरेगा, उलटा हो जाएगा। असल में वह उलटा ही है, गिरे या न गिरे। सिर वजनी है, और सब हलका हो गया है।
इसलिए दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं: जीवन पूरे शरीर पर बंट जाना चाहिए, समभागों में वितरित हो जाना चाहिए। जीवन सिर में ही नहीं है। लेकिन हम सब काम सिर से कर रहे हैं। अगर हम प्रेम करते हैं तो भी हम--अगर हम प्रेम करते हैं तो वह भी हम विचार कर करते हैं। अगर हम प्रेम करने जाते हैं तो भी हम पता लगा लेते हैं कि जिससे प्रेम कर रहे हैं वह हिंदू तो है न; मुसलमान तो नहीं है।
अब हृदय के जगत में न कोई हिंदू होता है, न कोई मुसलमान होता है। हम प्रेम करते हैं तो हम पता लगा लेते हैं कि पैसा कुछ पास में है या नहीं! अब हृदय को पैसे से कोई संबंध नहीं है। लेकिन खोपड़ी पैसे का हिसाब रखना चाहती है। वह पक्का पता लगा लेना चाहती है कि इतना पैसे का इंतजाम है! हिंदू है, मुसलमान है, क्या है, क्या नहीं है, वह सारा पता हो जाना चाहिए।
अब तो अमरीका में उन्होंने कंप्यूटर्स बनाए हुए हैं कि एक लड़का और एक लड़की अगर विवाह करना चाहते हैं, तो वे दोनों अपने-अपने संबंध में जानकारी कंप्यूटर में डाल दें और कंप्यूटर उन्हें खबर दे देगा कि प्रेम करो या न करो, विवाह करो या न करो। क्योंकि कंप्यूटर हिसाब लगा कर बता देगा कि ठीक रहेगा कि नहीं। यह आखिरी बुद्धि की दौड़ है, जहां हम विचार से, मशीन से यह तय करवाएंगे कि हमें प्रेम करना है या नहीं करना है। कंप्यूटर बता देगा कि तुम दोनों के बीच तालमेल पड़ेगा या नहीं पड़ेगा। यह ठीक रहेगा कि नहीं रहेगा।
हम प्रेम भी विचार करके ही कर सकते हैं। हद हो गई! प्रेम का विचार से कोई संबंध नहीं है। सच तो यह है कि हमने जीवन के बहुत से हिस्सों को खींच कर सिर्फ खोपड़ी में केंद्रित कर लिया है। इसलिए हमारी खोपड़ी बहुत भारी हो गई है। रोज भारी होती चली जा रही है।
छोटे बच्चों से अगर चित्र बनवाएं, तो वे बहुत अदभुत चित्र बनाते हैं। वह आदमी का सच्चा चित्र है। बड़े-बड़े चित्रकार भी नहीं बनाते हैं। छोटे बच्चे से अगर चित्र बनवाएं, तो वह खोपड़ी बहुत बड़ी बनाएगा। और टांगें वगैरह छोटी लकीरों की तरह खींच देगा, हाथ लगा देगा--खोपड़ी बहुत भारी बनाएगा! ऐसा मालूम होता है कि बच्चों को कुछ समझ आ गई है कि आदमी की असली तस्वीर क्या है।
अगर हम भी अपनी जिंदगी में खोजने जाएंगे, तो आप किस अंग से जीए हैं--आप पूरे जीए हैं, पूरे शरीर से? या सिर्फ विचार से जीने की कोशिश की है? पिता के पैर दबाते हैं, उसमें भी प्रेम और हृदय नहीं है। उसमें भी यह सोच कर कि पिता हैं, इसलिए कर्तव्य है, पैर दबाने चाहिए! बुद्धि कहती है, कर्तव्य है, इसलिए मां की सेवा कर दो। हृदय कर्तव्य जानता ही नहीं, क्योंकि कर्तव्य बहुत बेहूदा शब्द है। जहां ड्यूटी है, वहां प्रेम है ही नहीं। जिस आदमी ने भी कहा कि यह मेरी ड्यूटी है, मेरा कर्तव्य है, इसलिए मैं पिता के पैर दबा रहा हूं, उस आदमी ने कभी पिता को प्रेम किया ही नहीं। वह बुद्धि से हिसाब लगा रहा है कि चूंकि इस आदमी ने हमको पैदा किया है, इसलिए हमें इस आदमी के पैर दबाने हैं।
यह हिसाब की बात है, यह गणित की बात है। इस स्त्री ने हमें पैदा किया है और नौ महीने पेट में रखा है, इसलिए हम इसके बुढ़ापे में सहायता कर रहे हैं। और न केवल यह बेटा ऐसा कर रहा है, मां भी अपने बेटे से यह कह रही है कि मैंने तुझे नौ महीने पेट में रखा, मैंने तुझे इतना बड़ा किया है, और अब तू मेरी सेवा नहीं कर रहा है! वह भी गणित बता रही है। वह भी गणित फैला रही है। वह भी हृदय की बात नहीं है। हृदय गणित जानता ही नहीं।
हम पूरी जिंदगी गणित से जी रहे हैं। सारी जिंदगी सिकुड़ कर खोपड़ी के भीतर आ गई है। इसलिए खोपड़ी वजनी हो गई है।
अब मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम बहुत अशांत हैं। अब उनकी अशांति का कुल कारण इतना है कि जीवन जो कि फैला हुआ होना चाहिए पूरे व्यक्तित्व में, वह सिकुड़ कर एक जगह आ जाए तो अशांति हो ही जाएगी।
अब लोग कहते हैं, हम बहुत टेंस हैं, चित्त बहुत तनाव से भरा है, कैसे हलके हो जाएं? वे हलके कैसे होंगे! और वे कहते हैं कि चित्त तनाव से भरा है, इसलिए हम गीता पढ़ रहे हैं, कुरान पढ़ रहे हैं, फलां गुरु के पास जा रहे हैं, यह पढ़ रहे हैं, वह पढ़ रहे हैं। ये हिसाब लगा रहे हैं। वे और चित्त को भारी करते चले जा रहे हैं। क्योंकि चित्त भारी इसलिए है कि हमने सब जीवन को सिकोड़ कर वहां अंदर बंद कर लिया है।
अभी एक परिवार में मैं ठहरा। उस परिवार के पिता की मृत्यु हो गई है। अभी कुछ दिन पहले मृत्यु हुई। घर के लोग बड़े पढ़े-लिखे हैं। लड़कियां यूरोप पढ़ कर आई हैं, सब लड़के बाहर पढ़े हैं। कोई डॉक्टर है, कोई वकील है, कोई कुछ और है, कोई कुछ और है। लड़कियां, बहुएं भी सब पढ़ी-लिखी हैं। वे कोई रोए नहीं पिता के मर जाने के बाद। क्योंकि उन्होंने कहा, रोना अशोभन है, असंस्कृत है, ग्रामीण है। यह कोई ढंग की बात नहीं है। अब जो मर गया मर गया, रोने की क्या बात है? जो घर में ज्ञानी हैं, उन्होंने कहा कि मर ही जाते हैं। जो और ज्यादा ज्ञानी हैं, उन्होंने कहा, आत्मा तो अमर है, रोने की कोई जरूरत नहीं है। अब उन्होंने सबने अपने रोने को रोक लिया है। मैं उनके घर में गया तो मैंने देखा कि वहां बड़ा तनाव है। उस घर की एक बहू ने मुझे कहा कि हम बड़ी परेशानी में पड़े हुए हैं। मन रोने का होता है, लेकिन बुद्धि कहती है, रोने से क्या फायदा? मन तो रोने का होता है, लेकिन बुद्धि कहती है कि क्या बेहूदी बात है? रोने से क्या होगा, मरा हुआ आदमी वापस लौट सकता है? मरा हुआ तो वापस नहीं लौटेगा, अब रोने से क्या फायदा है?
बुद्धि रोक रही है, रोने भी नहीं दे रही है! अब वे आंसू भीतर घने हो गए। अब प्राण संकट में पड़ गए। जो काम हृदय से होना था, वह बुद्धि से लिया जा रहा है। बुद्धि भारी हो जाएगी और कठिनाई में डाल देगी । आंसू इकट्ठे हो जाएंगे और कोई दूसरा बहाना लेकर निकलना चाहेंगे, क्योंकि वे भर गए हैं, उन्हें निकलना जरूरी है। जब बादल भर जाए तो उसका बरसना जरूरी है। जब आंसू भर जाएं तो उनका निकल जाना जरूरी है। लेकिन बुद्धि अटकाव डाल रही है, वह कहती है कि रोने से क्या होगा?
मैंने उस स्त्री को एक कहानी सुनाई। मैंने कहा उससे कि एक फकीर था, उसका गुरु मर गया। और उस फकीर के संबंध में यह खयाल था कि वह परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया है। जब उसका गुरु मर गया तो लाखों लोग देखने आए। वह फकीर अपने द्वार पर बैठ कर छाती पीट कर रो रहा था। उसकी आंखों से आंसुओं की धार लगी थी। लोगों ने उससे कहा कि आप और रो रहे हैं? हम तो सोचते थे आप परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए?
उस फकीर ने कहा कि परम ज्ञान में रोना नहीं होता है, यह तुमसे किसने कहा? और अगर परम ज्ञान में रोना न होता हो, तो हम परम ज्ञान छोड़ते हैं, लेकिन रोना नहीं छोड़ सकते। ऐसे परम ज्ञान से हम हाथ जोड़ते हैं, जिसमें रोना भी संभव न हो सके।
उन्होंने कहा कि कुछ तो खयाल रखो, लोग क्या सोचेंगे? लोग सोचते थे, तुमने पता लगा लिया कि आत्मा अमर है, अब तुम रो रहे हो! तुम तो खुद भी कहते थे कि आत्मा अमर है, रोना व्यर्थ है!
तो उस फकीर ने कहा: मैं आत्मा के लिए रो ही नहीं रहा, मैं तो उस शरीर के लिए रो रहा हूं जो अब दुबारा कभी नहीं आएगा। वह शरीर भी बड़ा प्यारा था, मैं तो उसके लिए रो रहा हूं।
उन्होंने कहा: पागल हो गए हो, शरीर के लिए रोते हो! शरीर के लिए क्या रोना?
उस फकीर ने कहा कि मैं कोई हिसाब लगा कर नहीं रो रहा हूं। रोना आ रहा है, और मैं रो रहा हूं, और मैं हिसाब लगाने से इनकार करता हूं।
लेकिन हम सबने हिसाब लगा लिया है। हम हंसते हैं तो हिसाब लगा कर हंसते हैं। और कितने इंच हंसना है किस मौके पर, उसका हम हिसाब रखते हैं। कितना रोना है, उसका भी हिसाब रखते हैं। कब रोना है, कब नहीं रोना है, उसका हिसाब रखते हैं। क्या हमने सारा का सारा सिर पर ही नहीं थोप दिया? जो कि सारे व्यक्तित्व का हिस्सा था, वह सब सिर में आ गया है।
अभी मैं एक किताब देख रहा था। एक बहुत समझदार आदमी ने, लेकिन बड़े नासमझ, क्योंकि समझदारों से ज्यादा नासमझ बहुत मुश्किल है खोजना आदमी। एक समझदार आदमी ने वह किताब लिखी है। उसने यह लिखा है कि एक्सरसाइज करने की कोई जरूरत ही नहीं है, क्योंकि लोगों को फुर्सत नहीं है कि लोग व्यायाम कर सकें। तो उसने एक बहुत अच्छी तरकीब बताई है। उसने तरकीब यह बताई है कि आंख बंद करके लेट जाओ और कल्पना करो कि तेजी से दौड़ रहे हो। दौड़ो मत! सिर्फ आंख बंद करके कल्पना करो कि तेजी से दौड़ रहे हो। इतनी तेजी से दौड़ो कि पसीना निकलना शुरू हो जाए और दौड़ते रहो, दौड़ते रहो! और लेटे रहो कुर्सी पर और दौड़ते रहो। तो उसका दावा है यह कि एक्सरसाइज हो जाएगी! एक्सरसाइज हो जाएगी--शरीर की नहीं, लेकिन खोपड़ी की हो जाएगी। और जरूरत है शरीर की एक्सरसाइज की। खोपड़ी की एक्सरसाइज वैसे ही काफी हो रही है। उसकी जरा एक्सरसाइज कम हो इसकी जरूरत है।
हमने सारे व्यक्तित्व को सिकोड़ कर एक बिंदु पर ले आए हैं। पूरा शरीर हमें करीब-करीब फिजूल हो गया है। इसलिए आप खयाल करें, अगर मैं आपसे कहूं कि आपका पैर काट डालें तो आप कट जाएंगे? आप कहेंगे, नहीं, पैर के कटने से मैं नहीं कटूंगा। हाथ काट डालें, आप कट जाएंगे? आप कहेंगे, नहीं, हाथ के कटने से मैं नहीं कटूंगा। लेकिन कोई कहे कि आपका सिर काट डालें, तो आप कहेंगे, फिर तो मैं कट जाऊंगा। ऐसा मालूम होता है कि केंद्र आपने सिर्फ सिर में बना लिया है अपना। सारा बीइंग, सारी आत्मा सिर में ही इकट्ठी हो गई है। बाकी यह पूरा का पूरा व्यक्तित्व निर्जीव हो गया है। इसमें कोई आत्मा नहीं रह गई है। पैर कटने से नहीं कटते हैं आप, लेकिन सिर कटने से कट जाते हैं!
आदमी उलटा हो गया है। सिर पर भार पड़ने की वजह से आदमी शीर्षासन कर लिया है। और हम रोज यह भार बढ़ाए चले जा रहे हैं। बच्चों को हम स्कूल में भेजते हैं, तो सिर्फ सिर उनका भारी करके वे वापस लौट आते हैं। उन्हें और कुछ भी सीखने को नहीं मिल पाता। न वे वहां प्रेम करना सीखते हैं, न वे वहां क्रोध करना सीखते हैं, न वे जिंदगी के कोई और राज सीखते हैं। वे सिर्फ सिर को भारी करके वहां से वापस लौट आते हैं। वे उतना सीख लेते हैं जो सिर में भरा जा सके और उनके दिमाग कंप्यूटर की मशीनें हो जाते हैं और वे वापस लौट आते हैं। सब शरीर का खून सिकुड़ कर सिर में चला जाता है। सब शरीर की ताकत सिकुड़ कर सिर में चली जाती है। और सब तरफ से ताकत खिंच जाए तो सारा व्यक्तित्व अपंग और कुरूप हो जाता है।
क्या आपको खयाल है, जब आप खाना खाते हैं तो आपको नींद क्यों आने लगती है? सिर्फ इसलिए नींद आने लगती है कि खाना खाते ही शरीर की ताकत की जरूरत पेट को हो जाती है। पेट सारी शक्ति को अपने पास बुला लेता है, इसलिए सिर सोने की हालत में आ जाता है। क्योंकि अगर सिर जगा रहे तो वह अपना काम जारी रखेगा। इसलिए झपकी आने लगती है। झपकी आने का मतलब यह है कि पेट यह कह रहा है कि सिर, तुम अपना काम बंद कर दो, हमें पाचन का काम पूरा कर लेने दो। इसलिए खाना खाने के बाद आपको नींद मालूम पड़ती है। नींद मालूम पड़ने का कुल कारण इतना है कि शक्ति सीमित है और पेट को जरूरत है, अभी सिर को जरूरत नहीं है। लेकिन हम खाना खाने के बाद भी सिर से ही काम लिए चले जाते हैं। और अब तो सोना भी बहुत मुश्किल है, सोने में भी हम सिर से काम लिए चले जाते हैं। रात भर सिर से काम चल रहा है, सिर से काम चल रहा है। सब अस्त-व्यस्त हो गया है।
मैंने सुना है, एक वैज्ञानिक कुछ प्रयोग कर रहा था। वह एक बिल्ली को उसने खाना दिया है और खाना देने के बाद एक्सरे की मशीन लगा कर वह उस बिल्ली को देख रहा है कि उसके पेट में क्या हो रहा है। खाना भीतर गया है, रस छूटे हैं, खाने को पचाने का काम शुरू हो गया है। तभी वह एक कुत्ते को भी कमरे में ले आया है। कुत्ते को देखते ही से बिल्ली का मस्तिष्क भारी हो गया। क्योंकि कुत्ते को देखना पेट से तो हो नहीं सकता। कुत्ते को देखना तो होता है सिर से। उसका सिर भारी हो गया। बिल्ली सिकुड़ गई। उसके पेट की सब आंतें सिकुड़ गईं और उन्होंने रस छोड़ना बंद कर दिया। भोजन पड़ा रह गया। क्योंकि अब भोजन करने की सुविधा शरीर को न रही। अब शरीर की सारी शक्ति सिर में चली गई। कुत्ता मौजूद है, कोई भी खतरा हो सकता है। कुत्ते को एक मिनट के बाद हटा लिया गया, लेकिन बिल्ली के पेट को वापस सक्रिय होने में छह घंटे लग गए। तब तक भोजन पूरा ठंडा हो गया। तब रस छूटे, तो उसको पचाने में असमर्थ हो गए। इस बिल्ली के साथ निरंतर तीन महीने तक ऐसा किया गया। उसके पेट में अल्सर हो गया। हो ही जाएंगे। भोजन जब ठंडा हो जाएगा और न पचाया जाएगा और रस बेवक्त छूटेंगे, तो पेट में घाव हो जाएंगे। अब बिल्ली को अल्सर पैदा हो गए, क्योंकि उसका मस्तिष्क पूरे वक्त तनावग्रस्त हो गया।
अगर हमारे सारे पेट अल्सर से भर गए हैं, और हजार तरह की बीमारियों से, तो उन हजार तरह की बीमारियों में नब्बे प्रतिशत कारण तो यह है कि मस्तिष्क पूरी शक्ति खींचे लिए ले रहा है। वह कोई ताकत छोड़ता ही नहीं। वह शरीर के किसी हिस्से के लिए कोई ताकत नहीं छोड़ रहा है। वह जीवन के किसी दूसरे आयाम में शक्ति को जाने ही नहीं दे रहा है। सारी शक्ति वहीं खींच ली गई है। सिर भारी न होगा तो और क्या होगा। सिर भारी हो जाएगा तो आदमी का व्यक्तित्व उलटा हो जाएगा।
हमें जिंदगी को कुछ और शिक्षण भी देने चाहिए जो सिर पर ही केंद्रित न करते हों। हमें कुछ और बातें भी सीखनी चाहिए जो शरीर में व्यक्तित्व को बांटती हों, सब अंगों में पहुंचा देती हों। आत्मा सिर में ही न रह जाए, कण-कण में हो जानी चाहिए। रोएं-रोएं में आत्मा प्रविष्ट हो जानी चाहिए। और अगर किसी व्यक्ति के पूरे जीवन में आत्मा प्रविष्ट हो जाए, तो उसका हाथ भी छुएंगे तो आत्मा का पता चलेगा। उसका पैर भी छुएंगे तो आत्मा का पता चलेगा। उसके पूरे शरीर के अणु-अणु में उसकी आत्मा का फैलाव होगा, उसकी आत्मा सिकुड़ नहीं गई होगी। और तब वह ऐसा नहीं कहेगा कि मैं पैर नहीं हूं, मैं सिर हूं। वह कहेगा, मैं यह सब हूं, यह सबका जोड़ मैं हूं। और इस पूरे जोड़ को वह जीएगा। लेकिन हम ऐसा कभी नहीं जीए।
कभी आपने खयाल किया कि आप अपने पैर धो रहे हैं, तो आपने पैर को इस तरह से धोया हो कि पैर में भी कोई आत्मा है? कभी आप हाथ धो रहे हैं पानी से, तो कभी आपने पानी का पूरा आनंद हाथों को लेने दिया है? नहीं, जब आप हाथ धो रहे हैं पानी से तो हाथों को कोई आनंद मिलने का सवाल नहीं है। तब भी आपकी खोपड़ी अपना काम कर रही है। हाथ तो मशीन की तरह धुल जाएंगे और आप हट जाएंगे। कभी आपने स्नान करते वक्त पूरे शरीर को आनंद लेने दिया है? न, कहां फुरसत है, पूरे शरीर को धो डालेंगे किसी तरह। पानी गिर जाएगा उसके ऊपर, साबुन भी लगेगी, साबुन भी बह जाएगी और आप अपनी खोपड़ी से पूरे वक्त काम करते रहेंगे। आप स्नान करके लौट आएंगे, लेकिन शरीर स्नान के आनंद को अनुभव नहीं कर पाएगा।
कल जरा प्रयोग करके देखें। जब स्नान कर रहे हों तब पूरे शरीर को पानी के स्पर्श का आनंद लेने दें और पानी की ताजगी को पूरे शरीर को छूने दें। शरीर के रोएं-रोएं को स्नान करने दें और कृपा करके थोड़ी देर को खोपड़ी के लिए छुट्टी दे दें। थोड़ी देर के लिए पूरे शरीर में फैल जाएं और खोपड़ी से कहें, तुम्हीं नहीं हो, यह पूरा शरीर मैं हूं। इस पूरे शरीर में मैं हूं। और तब आप नहाने से एक नई ताजगी लेकर निकलेंगे, जो आप कभी लेकर नहीं निकले। जब भोजन करें तब पूरे शरीर को भोजन का आनंद लेने दें। और जब घूमने जाएं तो पूरे शरीर को हवाओं का आनंद लेने दें। और जब किसी को प्रेम करें तो उसके पूरे शरीर को अपने हृदय से लगा लें। पूरे शरीर को जीने की कोशिश करें। सिर्फ खोपड़ी में मत जीएं।
शरीर का पुनर्जन्म जरूरी है। शरीर हमारा बिलकुल ही समाप्त हो गया है। एक हिस्सा भर जी रहा है। और इसलिए सारा तनाव वहां इकट्ठा हो गया है। और इस तरह के तनाव हो गए हैं कि जिनकी हम कल्पना नहीं कर सकते हैं। जहां-जहां से हमने जीना बंद कर दिया है, सिर को ही वह जीने का काम करना पड़ रहा है। आदमी की सारी सेक्सुअलिटी, सारी कामुकता सिर में चली गई है। जो कि बड़ी बेहूदी बात है। अगर जानवरों से हमारी कभी बातचीत हो सके, तो वे बड़े हैरान होंगे। वे कहेंगे कि यह क्या मामला है? सब-कुछ सिकुड़ कर सिर में आ गया है। आदमी की कामवासना भी सिर में आ गई है।
भोजन भी सिर में आ गया है। जब आप भोजन करते हैं तब आपको उतना रस नहीं आता, जितना आप कुर्सी पर बैठ कर भोजन करने का विचार करते हैं तब आता है। कभी आपने इसकाफर्क खयाल किया? जिस मित्र से मिलने के लिए आप इतने आतुर होते हैं उससे मिल कर उतना आनंद नहीं आता, जितना मिलने का विचार करने से आनंद आता है। यह तो बड़ी अजीब बात है। जिस स्त्री को आप प्रेम करते हैं, जितना इस आशा में कि कभी वह मिल जाए, इसकी कल्पना और विचार करने में जितना आनंद आता है, वह स्त्री मिल जाए तो एकदम सब फीका हो जाता है। फिर वह आनंद नहीं आता है। क्या बात है? जीना कम आनंदपूर्ण और विचार करना ज्यादा आनंदपूर्ण हो गया है? इसे देखेंगे, तो खयाल में आ जाएगी यह बात।
एक बड़ी लंबी कार को गुजरते हुए आप देखते हैं और आपके मन को कितना आनंद आता है कि कभी यह कार मिल जाए, तो कितना आनंदित न हो जाऊंगा। और मन में कितनी बार यह कार में आप बैठ लिए हैं--मन में! क्योंकि उस असली कार में जो आदमी बैठे हैं उनको उसमें बैठने में कोई आनंद आ ही नहीं रहा, और कल अगर आप भी बैठ गए तो आपको भी आने वाला नहीं है। क्योंकि जिंदगी से हमने आनंद लेना बंद कर दिया है। हम सिर्फ विचार करने में ही आनंद लेते हैं। इसलिए जिन चीजों में हमें निरंतर विचार ही करना पड़ता है और जो हमें कभी मिलती ही नहीं, उनमें हम ज्यादा आनंद लेते हैं। और जो हमें मिल जाती हैं, उनमें हमारा आनंद बहुत मुश्किल हो जाता है।
मैंने सुना है, एक पागलखाने में दो पागल बंद थे। दोनों मित्र थे। दोनों एक युनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे। उनका एक दूसरा प्रोफेसर मित्र उन्हें देखने पागलखाने गया था। एक कोठरी के पास पहुंच कर उसने पागलखाने के सुपरिन्टेंडेंट से पूछा कि इसके पागल हो जाने का कारण क्या है इस मेरे मित्र का? मैं दो साल देश के बाहर गया था। यह पागल क्यों हो गया है? तो उसने कहा: बड़ी अजीब बात है। यह एक स्त्री को पाना चाहता था और नहीं पा सका, इसलिए पागल हो गया। लेकिन वह बड़ा आनंदित था। उसने अपनी दीवालों पर कोयले से उस स्त्री के चित्र बना रखे थे। वह एक तस्वीर अपनी छाती से लगाए हुए बैठा था, और बड़ा प्रसन्न था और गीत गुनगुना रहा था। उस पागलखाने के सुपरिन्टेंडेंट ने कहा कि यह स्त्री इसको मिल नहीं सकी है, इसलिए यह पागल हो गया है। लेकिन उसके मित्र ने कहा: लेकिन प्रसन्न बहुत है? उसने कहा: प्रसन्न इसीलिए है कि वह मिल नहीं सकी।
दूसरे कटघरे में ले गया, वहां दूसरा मित्र बंद था। सुपरिन्टेंडेंट से उसने पूछा, आने वाले मित्र ने, यह क्यों पागल हो गए हैं? तो उसने कहा: यह और हैरानी की बात है>।> जो स्त्री उसको नहीं मिल सकी, वह इनको मिल गई है, और यह इसलिए पागल हो गए हैं! लेकिन वे सिर के बाल लोंच रहे थे और सींकचों से सिर मार रहे थे।
एक को वही स्त्री नहीं मिल पाई, इसलिए पागल हो गए हैं! लेकिन उनके पागलपन में भी एक रस और आनंद है। क्योंकि अभी भी वह कल्पना में उस स्त्री से मिलते रहते हैं। अभी भी विचार में वे मिल रहे हैं, चित्र उसका छाती से लगाए हुए हैं।
जिन्हें प्रेमिकाएं नहीं मिल पाती हैं, इस पागल दुनिया में वे बड़े धन्यभागी हैं। और जिन्हें प्रेमिकाएं मिल जाती हैं, इस पागल दुनिया में उनकी मुसीबत का कोई ठिकाना नहीं है। वे अपने बाल लोंच रहे हैं, क्योंकि उनको वह स्त्री मिल गई है! अब कल्पना और विचार करने को भी कुछ न बचा।
कैसी अजीब सी बात है कि जीवन इतना दुखद और विचार इतना सुखद! होना उलटा चाहिए। विचार फीका होना चाहिए, जिंदगी घनी और सघन होनी चाहिए। लेकिन हो ऐसा गया है कि आप जो सोचते हैं, वह ज्यादा आनंदपूर्ण मालूम पड़ता है।
एक होटल में भागे चले जा रहे हैं--यह खाना खाऊंगा, यह खाना खाऊंगा, तब आप बड़े आनंदित मालूम पड़ते हैं। लेकिन खाना खाने की टेबल पर बैठ कर आपके चेहरे से सब आनंद उड़ जाता है। हो सकता है उस वक्त भी आप कल किसी दूसरे होटल में खाना खाएंगे, उसके विचार में आनंद ले रहे हों। लेकिन वह जो आप खाना खा रहे हैं, वहां आनंद विदा हो गया।
अभी मेरे साथ कुछ मित्र कश्मीर गए थे। उनमें से एक से मैंने कहा, क्योंकि बहुत बार उन्होंने कहा, वह राजधानी में रहते हैं, बहुत बार वह मुझसे कहते थे, आपके साथ चलना है, पहाड़ पर। पहलगांव चलना है, डल झील पर चलना है, कश्मीर चलना है। बड़ा आनंद आएगा। और जब भी वे बातें करते थे, तब उनकी आंखों में एक आनंद की झलक आ जाती थी। बीस दिन वे मेरे साथ वहां थे। थे डल झील पर, लेकिन मैंने डल झील की कोई झलक उनकी आंख में देखी ही नहीं बीस दिन! पहलगांव मेरे साथ थे, लेकिन मैंने पहलगांव का कोई सौंदर्य उनको छुआ हो, यह नहीं देखा!
बीस दिन बाद वह वापस लौट कर जब दिल्ली आ गए, तब दिल्ली आकर उन्होंने कहा कि बड़ी सुंदर जगह थी, बड़ा आनंद आया! मैंने कहा कि मुझे हैरान मत करो। क्योंकि बीस दिन तुम्हारे साथ था, मैंने कभी एक बार नहीं सुना कि तुमने एक बार कहा हो कि किसी वृक्ष के पास जाकर तुमने उसे गले भेंट लिया हो, कि तुमने किसी वृक्ष की पीड़ को हाथ फेर कर स्पर्श किया हो, कि तुम किसी पत्थर के पास दोस्ती किए हो, कि तुम किसी झरने में हाथ या पैर डाल कर थोड़ी देर बैठ गए हो। मैंने तो अनुभव ही नहीं किया कि तुम वहां कभी थोड़ा भी रस लिए हो! हां, पहले तुम जरूर रस लेते थे। अब तुम फिर कह रहे हो कि वहां बड़ा आनंद है!
क्या हम सबकी जिंदगी में यह नहीं घट रहा है? हम सबकी जिंदगी में यह घट रहा है। और उसका कारण कुल इतना है कि हमने सिर से जीना शुरू कर दिया है। पूरे शरीर और पूरे व्यक्तित्व और पूरी आत्मा से नहीं। आदमी उलटा हो गया है। सारी मनुष्यता उलटी हो गई है। अगर इस मनुष्यता को ठीक करना है तो इस पर सबसे बड़ी करुणा यह होगी कि हम आदमी को सीधा होने में सहयोगी बनें। सबसे बड़ी क्रांति यह होगी कि आदमी सिर से न जीए, पूरे शरीर और पूरे व्यक्तित्व से जीने लगे। उसका जीवन सब तरफ फैल जाए। हमें अंदाज भी नहीं है, हमें खयाल भी नहीं है कि हमने किस तरह रोक ली हैं चीजें।
क्या आपको पता है एक अंधे आदमी का? एक अंधा आदमी कान से जिस भांति सुनता है, आपने कभी उस भांति सुना है? आपने कभी नहीं सुना। लेकिन कान आपके पास भी उतना ही शक्तिवान है, जितना अंधे के पास। लेकिन अंधा कान से बहुत सुनता है।
मैं एक ट्रेन में सफर कर रहा था। रात का वक्त था, कोई बारह बजे ट्रेन में सवार हुआ। ऊपर की बर्थ पर कौन है, मैंने देखा नहीं। नीचे की बर्थ पर बिस्तर लगा कर लेटने जा रहा था कि ऊपर से किसी ने झांक कर मेरा नाम लिया और कहा: आप वही तो नहीं हैं? तो मैंने कहा: मैं वही हूं। आप पहचानते हैं? लाइट जला कर देखा तो ऊपर एक अंधा आदमी है। मैंने कहा: आप मुझे पहचाने कैसे? तो उन्होंने कहा कि पांच-छह वर्ष पहले एक बार आपको सुना था। आपकी आवाज खयाल में रह गई। आप कुली से बात कर रहे थे तब मुझे लगा कि आप ही होने चाहिए। मैंने कहा: छह साल पहले सुनी हुई आवाज? तो उन्होंने कहा: मैं तो अंधा आदमी हूं, तो मैं तो आवाज से ही जीता हूं, आवाज ही मेरी पहचान है। आंखें तो नहीं हैं, तो कान से ही आंख का काम लेता हूं। पैरों को भी मैं पहचानने लगता हूं कि कौन आ रहा है, पदचाप सुन कर मैं पहचान लेता हूं कि घर में कौन आ रहा है। घर से कौन जा रहा है बाहर, यह भी मैं जान लेता हूं, क्योंकि सबके पैरों की चाप अलग है।
कभी खयाल किया आपने? व्यक्तित्व इतना अदभुत है कि दो आदमी एक जैसे पैर की आवाज भी नहीं करते। हर आदमी के पैर की आवाज अलग है, रिदिम अलग है। और हर आदमी के दो पैर का गैप अलग है। और हर आदमी के पैर की आवाज का फासला अलग है। गीत अलग है। सब अलग है। दो आदमी एक सा चलते भी नहीं हैं। उस अंधे आदमी ने मुझे कहा कि मुझे तो पैर की आवाज से भी पता चल जाता है कि घर के बाहर कौन जा रहा, घर के भीतर कौन आ रहा है।
इतना ही अदभुत कान हमारे पास भी है, लेकिन हमारे कान को यह कुछ पता नहीं चलता। हमने कान का उपयोग ही नहीं किया। अगर हम सारे कान का उपयोग कर सकें तो जीवन का संगीत हमें परमात्मा की खबर लाएगा। लेकिन संगीत का हमें अनुभव नहीं हो सकता, क्योंकि कान का हमने कोई उपयोग नहीं किया है। और कान का हमें कोई शिक्षण नहीं दिया गया कभी कि कान का शिक्षण दिया जाता।
हममें से बहुत कम लोगों को नाक से सुगंध आती है। जब मैं ऐसा कहता हूं, तो आप कहेंगे, गलत कहते हैं, हम सबको सुगंध आती है। लेकिन आपने खयाल किया, आपको सुगंध आती है जब तक कि बहुत तेज न हो। इसलिए फ्रेंच परफ्यूम हैं और दूसरे परफ्यूम हैं। जिसकी नाक को ठीक से सुगंध आती है, उसे वे बहुत घबड़ाने वाली मालूम पड़ सकती हैं। क्योंकि वे इतनी आक्रमक और इतनी हिंसक और इतनी तेज, लेकिन उनका भी हमें पता नहीं चलता है, उनको भी डाल कर थोड़ा सा मालूम पड़ता है कि हां कुछ है, कुछ अच्छा लग रहा है।
लेकिन क्या हमें एक-दूसरे के शरीर की भी गंध का बोध होता है? एक-एक आदमी के शरीर में गंध है, और एक-एक आदमी के शरीर की गंध का अपना अर्थ है। अपनी लय है। एक-एक आदमी के शरीर की गंध की अपनी खूबियां हैं। और कुछ मनोवैज्ञानिक तो यह कहते हैं कि जिन दो व्यक्तियों ने विवाह किया हो, अगर उनकी गंध मेल न खाती हो, तो चाहे उन्हें पता हो या न पता हो, वे जिंदगी में कभी भी मेल न खा पाएंगे। उनकी गंध कहीं गहरे में मेल खाती हो, तभी वे मेल खा पाएंगे। अन्यथा मेल खाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। लेकिन हमें गंध का कोई पता नहीं चलता है। हमें गंध का कोई शिक्षण नहीं दिया गया है। हमें स्पर्श का कोई पता नहीं चलता है।
हेलेन केलर सारी दुनिया में घूमी। वह लोगों के चेहरों पर हाथ लगा कर देखती थी। वह नेहरू को मिलने आई तो उसने उनके चेहरे को हाथ लगा कर देखा। दोनों हाथ से उसने नेहरू के चेहरे को छुआ--उनकी नाक को, उनकी आंख को, उनके चेहरे को। और हेलेन केलर ने कहा कि मैंने इतने सुंदर आदमी बहुत कम देखे हैं। किसी ने पूछा कि तुमने देखा कैसे, पहचानी कैसे? तो उसने कहा कि नेहरू के चेहरे पर हाथ फेरते वक्त ठीक मुझे वैसा ही लगा, जैसे यूनान में संगमरमर की मूर्तियों पर फेरते वक्त लगा। ठीक वही, जैसे संगमरमर की मूर्ति का चेहरा हो। उतना ही रहस्यपूर्ण, उतना ही सौंदर्य से भरा हुआ, वही कटाव, वही तेजी। हेलेन केलर ने कहा कि नेहरू बहुत तेज आदमी होंगे। उनकी नाक के स्पर्श से, उनके चेहरे के स्पर्श से मुझे लगा कि बहुत तेज आदमी होंगे।
हम किसी के स्पर्श से ऐसा पता लगा सकते हैं? हाथ में हमारे भी वही ताकत है। लेकिन हेलेन केलर के पास आंख नहीं है, कान नहीं है। कुछ भी नहीं हैं दूसरी इंद्रियां! तो हाथ से ही उसने सारा काम लिया है। और उसका हाथ बहुत संवेदनशील हो गया है। वह हाथ अब पहचानने लगा है। उसकी अगुंलियां भी स्पर्श से वह जानने लगी हैं जो आंख जान सकती है।
इसका क्या मतलब है?
इसका मतलब यह है कि हमारा पूरा शरीर इतना संवेदनशील यंत्र है कि अगर हम पूरे शरीर से जीने की कोशिश करें, तो हमें आनंद के न मालूम कितने लोकों का उदघाटन हो जाए। तब हमें एक गंध से भी परमात्मा का आगमन मालूम पड़े, और तब हमें ध्वनि से भी परमात्मा का आगमन मालूम पड़े, और तब किसी के स्पर्श से भी परमात्मा का आनंद अनुभव पड़े। लेकिन अभी हमें नहीं पड़ता। इसलिए तो हम अपने ज्ञानियों को कहते हैं: द्रष्टा, सीअर्स, विजनरी़ज। हम अपनी फिलॉसफी को इस मुल्क में कहते हैं: दर्शन। यह आंख-केंद्रित लोगों के खयाल हैं।
हम अगर ऐसा कहें, किसी ज्ञानी को अगर हम कहें, श्रोता, तो कोई नहीं मानेगा। वह कहेगा, द्रष्टा कहिए। श्रोता का क्या मतलब होता है? द्रष्टा का मतलब होता है देखने वाला, श्रोता का मतलब होता है सुनने वाला। और अगर हम किसी ज्ञानी को कहें, स्पर्श करने वाला, तो हम कहेंगे, क्या बातें करते हैं आप? लेकिन हमने आंख-केंद्रित बना ली है संस्कृति। वह खोपड़ी में भीतर विचार केंद्रित हो गए हैं और विचारों का द्वार आंख बन गई है। आंख से जी रहे हैं, खोपड़ी में जी रहे हैं। और सारे व्यक्तित्व से सारा जीवन सिकुड़ कर ऊपर आ गया है। और हम कहीं भी नहीं जी रहे हैं। इसलिए हमें जीवन का पूरा संपर्क भी नहीं हो पाता है। और जीवन के आनंद के कितने द्वार हो सकते हैं, वे भी हमें पता नहीं पड़ पाते हैं।
धार्मिक व्यक्ति मैं उसको कहता हूं जो समग्र रूप से जी रहा है, टोटली जी रहा है, जो जीवन के सब अंगों से पूरी तरह जी रहा है। वही व्यक्ति परमात्मा का अनुभव कर पाएगा। अंश में जीने वाला अनुभव नहीं कर पाएगा। उसके कारण हैं।
समझ लें कि मैं एक बहुत बड़े मकान में एक छोटे से छेद से देखूं तो मुझे क्या दिखाई पड़ेगा। कोई एक द्वार का कोना, किसी दीवाल का एक हिस्सा, कोई चित्र का एक छोटा सा टुकड़ा, किसी फोटो का एक कोई कोना, लेकिन मुझे और कुछ दिखाई नहीं पड़ेगा। मुझे तो कमरे के भीतर जाकर पूरा देखना पड़ेगा, तभी मैं पूरे कमरे से परिचित हो पाऊंगा।
हम परमात्मा से परिचित नहीं हो पाते, क्योंकि हम पूरे जीवन से देख नहीं पाते। हम देखते हैं छोटे-छोटे टुकड़ों से, और वे टुकड़े इतने भारग्रस्त हो जाते हैं कि उनका भी देखना मुश्किल हो जाता है।
सिर का काम है थोड़ा-बहुत। अगर मेरे पैर चलते हैं, मुझे आपके घर तक आना है, तो पैर से चल कर आऊंगा। फिर मैं घर बैठ जाऊंगा, तो फिर पैर नहीं चलाऊंगा। लेकिन अगर मैं घर बैठ कर भी पैर चलाता रहूं चौबीस घंटे, तो फिर जिस दिन मुझे आपके घर जाना है, पैर जवाब दे देंगे। फिर मैं आपके घर न पहुंच पाऊंगा, क्योंकि पैर चौबीस घंटे चलेंगे तो फिर बिलकुल न चल सकेंगे। चौबीस घंटे पैर चलाए आपने तो पैर फिर बिलकुल न चल सकेंगे। पैर चल सकते हैं, क्योंकि विश्राम भी करते हैं।
लेकिन मस्तिष्क विश्राम ही नहीं कर रहा है! वह सब काम उसी पर पड़ गया है। पैर का काम भी वही कर रहा है। प्रेम का काम भी वही कर रहा है। रोने का काम भी, हंसने का काम भी; विचार का काम भी, सेक्स का काम भी, धर्म का काम भी; प्रार्थना, भगवान, दुकान, बाजार, सब वही कर रहा है! उसे विश्राम नहीं जरा भी। इसका परिणाम यह हुआ है कि वह कुछ भी करने में असमर्थ हो गया है। वह अब कुछ भी नहीं कर पा रहा है। सब एक मैस हो गया है, सब एक पागलपन, सब गड्ड-मड्ड, एक अनारकी हो गई है भीतर। वह कुछ भी नहीं कर पा रहा है। सब अस्त-व्यस्त हो गया है। यह भार आदमी को उलटा कर दिया है।
तो जब मैंने आदमी को करीब से देखा, तो मुझे लगा, यह कहानी किसी दूसरे ग्रह के संबंध में नहीं, इसी पृथ्वी के ग्रह के लोगों के बाबत है। सिर भारी हो गया है। दारुमा डॉल से उलटी हालत हो गई है। कैसे भी गिराओ, आदमी उलटा ही गिर जाता है, शीर्षासन करने लगता है।
इसे बदलना जरूरी है। क्योंकि इस शीर्षासन करती हुई स्थिति ने इतने घाव आदमी पर छोड़ दिए हैं कि उसका सारा प्राण दुख से भर गया है, पीड़ा से भर गया है।
और ध्यान रहे, अगर हम आनंद से न भर पाए, तो दुख से भर जाना अनिवार्य है। दोनों के बीच में कोई जगह नहीं होती--या आनंद, या दुख। ऐसा नहीं होता कि हम आनंद को न पा पाएं तो हम दुख भी न पाएं, बीच में रह जाएं। बीच में कुछ होता ही नहीं। अगर हम आनंद को उपलब्ध नहीं होते, तो हम दुख को अनिवार्यरूपेण उपलब्ध हो जाते हैं। अगर हम स्वस्थ न हों, तो हम बीमार होंगे ही। स्वास्थ्य और बीमारी के बीच में कोई स्थान नहीं होता है। अगर कोई आदमी कहता हो कि मैं बीमार भी नहीं हूं, मैं स्वस्थ भी नहीं हूं, तो समझना कि वह झूठ ही कहता है। या उसे पता न होगा, गलत कहता है। क्योंकि आदमी दोनों के बीच में नहीं हो सकता। या तो बीमार होता है, या स्वस्थ होता है। और अगर स्वस्थ हों, तभी हम बीमार होने से मुक्त हो सकते हैं।
हम सब दुखी हो गए हैं, हजार-हजार घाव हमारी आत्मा पर छिद गए हैं। सबसे लहू बह रहा है और सबमें मवाद पड़ गई है, और सब तरफ गंदगी और दुर्गंध हो गई है। लेकिन आनंद की तरफ हम कैसे जाएं उसका कुछ खयाल नहीं आता। और अगर जाने की कोशिश करते हैं तो रास्ता बताने वाले लोग हैं। कोई कहता है कि बैठ कर ओम का जाप करो। कोई कहता है, राम का जाप करो। कोई कहता है, गीता पढ़ो। कोई कहता है, कुरान पढ़ो। कोई कहता है, भगवान की मूर्ति के सामने हाथ जोड़ कर बैठ जाओ। लेकिन जिंदगी बदलने को कोई भी नहीं कहता है!
और अगर कोई जिंदगी बदलने को भी कहता है, तो बड़ी पागलपन की बातें कहता है। कोई कहता है, जिंदगी बदल डालो--लोभ छोड़ दो, क्रोध छोड़ दो, काम छोड़ दो, यह सब छोड़ दो, तो सब ठीक हो जाएगा।
यह ऐसा ही है किसी आदमी से कहना, जैसे कोई बुखार से गर्मी में तप रहा हो, पसीना बह रहा हो, बुखार चढ़ा हो एक सौ चार डिग्री और उसके पास जाकर हम कहें कि मित्र बुखार छोड़ दो। क्यों बुखार में पड़े हो, छोड़ दो। और वह आदमी कहे, बात तो आप बिलकुल ठीक कहते हैं, छोड़ना तो मैं भी चाहता हूं, लेकिन छूटता नहीं है। हम कहें कि क्यों पकड़े हुए हो, छोड़ दो बुखार, मजा करो, स्वस्थ हो जाओ।
बुखार छोड़ा नहीं जा सकता। बुखार छोड़ा नहीं जा सकता; स्वस्थ हुआ जा सकता है, तो बुखार छूट जाएगा। बुखार छोड़ा नहीं जा सकता। कोई ऐसी बात नहीं कि आप लोभ छोड़ दें, क्रोध छोड़ दें, घृणा छोड़ दें। ये छोड़ी नहीं जा सकतीं। हां, आप आनंदित हो जाएं, तो ये छूट जाती हैं। क्योंकि आनंदित व्यक्ति क्रोध नहीं करेगा, इसलिए नहीं कि क्रोध करने में असमर्थ हो गया, बल्कि इसलिए कि अपने आनंद को खोने के लिए अब वह तैयार नहीं होगा। अब वह तैयार नहीं होगा कि क्रोध करके अपना आनंद खो दे।
बुद्ध ने कहा है कि जब मैं छोटा था, तो मेरे पास हीरे-जवाहरातों के खिलौने थे। लाखों रुपये की कीमत के खिलौने थे। लेकिन अगर कोई मेरी रोटी का एक टुकड़ा एक बच्चा खेलने में मुझसे छीन लेता था, तो मैं वह लाखों का खिलौना फेंक कर मार देता था। कई दफा ऐसा होता कि हीरे-मोती बिखर जाते और खिलौना टूट जाता। और घर के लोग मुझसे कहते कि दो कौड़ी की रोटी के टुकड़े के लिए तुमने लाखों का खिलौना बिगाड़ दिया। लेकिन तब मुझे पता ही नहीं था कि रोटी की कीमत क्या है और खिलौने की कीमत क्या है। फिर जब मैं बड़ा हुआ, तब मुझे पता चला। अब मुझसे कोई कहे कि एक रोटी का टुकड़ा किसी बच्चे ने छीना है, तो तुम लाख रुपये का खिलौना फेंक कर मार दो, तो मैं नहीं मारूंगा। इसलिए नहीं--इसलिए नहीं कि मैंने क्रोध छोड़ दिया है, बल्कि इसलिए कि क्रोध का गणित बिलकुल मूखर्तापूर्ण है, यह मुझे समझ में आ गया है। अब दो पैसे की रोटी के लिए लाख रुपये का खिलौना फेंक कर मैं नहीं मार सकता हूं। अब मैं जानता हूं कि किस चीज का क्या मूल्य है।
आनंद उपलब्ध हो तो ही मूल्य का पता चलता है।
लेकिन धर्मगुरु समझा रहे हैं, क्रोध छोड़ो, लोभ छोड़ो, सब ठीक हो जाएगा। और आदमी बेचारा सुन रहा है। और सोचता है कि छूट तो जाना चाहिए क्रोध और लोभ। वे छूटते नहीं। और धर्मगुरु भी बहुत अदभुत हैं। वे उसको फिर लोभ भी दिलाते हैं। वे कहते हैं, लोभ छोड़ दो, तो स्वर्ग मिल जाएगा। और उन्हें खयाल भी नहीं है कि अगर इसने स्वर्ग पाने के लिए लोभ छोड़ा तो लोभ छूटा ही नहीं। क्योंकि वह स्वर्ग पाने का लोभ फिर भी मौजूद रहा है। अब वह उसको समझा रहे हैं कि तुम यह छोड़ दो तो यह मिल जाएगा। लेकिन उन्हें पता ही नहीं है कि यह मिल जाने का लोभ फिर भी लोभ ही है, इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। वे उसको कह रहे हैं कि एक रुपया यहां छोड़ो, तो वहां करोड़ रुपये मिलेंगे।
गंगा के किनारे मैं गया था एक यज्ञ में, तो वहां संन्यासी समझाते थे लोगों को कि यहां गंगा के किनारे एक पैसा दान करो तो करोड़ गुना मिलता है। लोभ छोड़ो, दान करो। और वह जो आदमी बेचारा एक पैसा छोड़ रहा है, वह इसी लोभ में छोड़ रहा है कि एक करोड़ गुना मिल जाए तो अच्छा है। इसमें कोई हर्जा नहीं है। उसी के लोभ का शोषण किया जा रहा है, और समझाया जा रहा है, लोभ छोड़ दो। और लोभ कोई छोड़ता नहीं है दुनिया में। हां, लोभ छूट जाता है। अगर कोई संपदा मिल जाए इतनी बड़ी कि लोभ के कारण उसमें बाधा पड़ने लगे, तो लोभ छूट जाता है। वह संपदा मिल सकती है, लेकिन जिंदगी के रूपांतरण से।
और जिंदगी के रूपांतरण का क्या मतलब है?
जिंदगी के रूपांतरण के तीन सूत्र मैंने आज कहने चाहे।
पहला, जीवन के रूपांतरण का यह मतलब है कि ठीक से समझ लेना कि क्या बुनियाद है और क्या शिखर है। भूल कर शिखर को बुनियाद मत बना लेना। अन्यथा जिंदगी का रूपांतरण कभी भी न होगा। कभी भूल कर शिखर को जमीन में रखने की कोशिश मत करना। मैंने यह कहा कि जड़ों को सम्हालना, क्योंकि जड़ें ही फूल लाती हैं। जड़ों को काट मत देना। जड़ें ही फूल बनती हैं। फूल और जड़ एक ही चीज के दो छोर हैं। वह जो नीचे है, और जो ऊपर है, वह कोई नीचे और ऊपर नहीं है, वह एक का ही विस्तार है। यह पहली बात जीवन के रूपांतरण में ध्यान रखनी जरूरी है।
दूसरी बात मैंने यह कही कि सिर को भारी मत हो जाने देना। क्योंकि अगर सिर भारी हो गया, तो शीर्षासन लग जाएगा--चाहे दिखाई पड़े, चाहे दिखाई न पड़े। सिर अगर भारी हो गया, तो पैर ऊपर चले जाएंगे और सिर नीचे आ जाएगा। उलटी दारुमा डॉल मत बन जाना। और हम सब बन गए हैं। तो सिर को बांटना, डिसेंट्रलाइज करना सिर को, विकेंद्रित करना। उसको नीचे सारे अंगों में फैल जाने देना। और धीरे-धीरे प्रत्येक अंग को उसका काम करने देना। प्रत्येक अंग को उसका काम करने देना, ताकि एक केंद्र पर सारा काम इकट्ठा न हो जाए। और एक केंद्र विक्षिप्त न हो जाए, पागल न हो जाए, ज्यादा बोझ में टूट न जाए, भारी न हो जाए, पत्थर न बन जाए। उसके ऊपर इतना बोझ न हो जाए कि वह काम अस्त-व्यस्त हो जाए। सिर का अपना काम है, उतना काम उससे लेना। बाकी काम शरीर पर छोड़ देना। लेकिन सब काम सिर पर ले लिया है। दूसरी बात ध्यान में रखनी जरूरी है।
और तीसरी बात ध्यान में रखनी जरूरी है कि हमारे व्यक्तित्व के जितने द्वार हैं, जितनी इंद्रियां हैं, उन समस्त इंद्रियों के प्रशिक्षण की जरूरत है, उनके ट्रेनिंग की जरूरत है। अपने कान को भी और गहरे, और गहरे सुनने में सक्षम बनाने की जरूरत है, ताकि पत्ता भी हिले तो उसका संगीत भी पता चल जाए। हमारे स्वाद को इतना सूक्ष्म बनाने की जरूरत है कि जब हम भोजन करें, तो वह भोजन जो दिखाई पड़ रहा है स्थूल, वह भोजन ही हमें खयाल में न आए, उस स्थूल में जो विराट, सूक्ष्म छिपा है, उसका भी पता चल जाए।
उपनिषद के किसी ऋषि ने कहा है: अन्न ही ब्रह्म है। कितना स्वाद लिया होगा, तब वह यह जान सका होगा कि अन्न ब्रह्म है! यह कोई सिद्धांत नहीं है। यह किसी अदभुत रसमग्न व्यक्ति का वक्तव्य है, जिसने इतने आनंद से भोजन किया होगा कि भोजन में उसे ब्रह्म की झलक दिखाई पड़ गई होगी।
जिन्होंने कहा है कि अनाहद नाद है उसका, वह हम जैसे लोग नहीं हो सकते, क्योंकि जिन्होंने कान को इतने सूक्ष्म तलों में प्रशिक्षित किया होगा, इतने सूक्ष्म तल में कान से सुनने की कोशिश की होगी कि सूक्ष्म नाद उन्हें सुनाई पड़ने लगा होगा, वह संगीत जो सारे ब्रह्मांड को घेरे हुए है। एक संगीत है जो सारे जगत को घेरे हुए है, लेकिन हमें सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि सुनने की क्षमता हमने कभी विकसित ही नहीं की।
आपने कभी खयाल किया, आप भी निकलते है रास्ते से, एक पेंटर, एक चित्रकार भी निकलता है रास्ते से। आप सारे दरख्तों को हरा समझते हैं। सच्चाई यह है कि दो दरख्त एक से हरे नहीं होते, हरे हजार रंग के हरे होते हैं, हरे में भी हजार हरे होते हैं, लेकिन वह एक चित्रकार को दिखाई पड़ता है कि हजार रंग हैं हर हरे रंग। हरा रंग एक रंग नहीं है, हजार शेड हैं हरे रंग के। असल में पत्ता-पत्ता अलग-अलग हरे रंग का होता है। लेकिन हमें सिर्फ एक हरा रंग दिखाई पड़ता है। उसका कारण कुल इतना है कि हमारी आंख ने कोई रंग की सूक्ष्मता में उतरने की तैयारी नहीं की है।
मैं उस शिक्षा को बुनियादी शिक्षा कहता हूं... गांधी जी की शिक्षा को बुनियादी नहीं कहता, वह बहुत गैर-बुनियादी शिक्षा है कि किसी को चरखा चलाना सिखा दो, चटाई बुनना सिखा दो और शिक्षा पूरी हो जाए; कि क ख ग सिखा दो, चिट्ठी-पत्री लिख सके तो शिक्षा पूरी हो जाए। बुनियादी, बेसिक एजुकेशन मैं उसको कहता हूं, जो कान को इतना सक्षम बना दे कि जीवन का संगीत पकड़ में आ जाए; जो आंख को इतना सक्षम बना दे कि रूप नहीं, अरूप की झलक मिलने लगे; जो स्पर्श को इतना सक्षम बना दे कि शरीर को छुए, लेकिन स्पर्श आत्मा तक पहुंच जाए; जो स्वाद को इतना सक्षम बना दे कि ‘अन्न ही ब्रह्म है’, यह कहने की क्षमता आ जाए; और जो सारी इंद्रियों को इतना सक्षम बना दे कि सब तरफ के द्वार खुल जाएं और जीवन के सब द्वार से परमात्मा की झलक मिलने लगे। अधूरा उसे नहीं जाना जा सकता।
लेकिन पूरा तो हम तभी जानेंगे, जब हमारे घर के सारे द्वार खुले हों। हम ऐसे व्यक्ति हैं जो घर के सब दरवाजे बंद करके भीतर बैठ गए हैं। और शिक्षा उसी दिन सच्ची होगी और क्रांतिकारी होगी, जिस दिन हम एक-एक बच्चे को शीर्षासन सिर का करवाना नहीं, बल्कि समस्त इंद्रियों को खोलना सिखाएंगे।
ऐसे भी बच्चे हमसे ज्यादा सक्षम होते हैं। अगर बच्चा आपको प्रेम करता है, तो वह आपके चेहरे को छूना चाहेगा। अगर वह आपको प्रेम करता है, तो वह आपके शरीर से अपने ओंठ भी लगाना चाहेगा। अगर वह आपको प्रेम करता है, तो वह आपके गले से लटक कर आपके पूरे शरीर को भी छू लेना चाहेगा। वह पूरे शरीर से आपको पहचानने की कोशिश कर रहा है। लेकिन हम नहीं! अगर बच्चों को ठीक से शिक्षित किया जा सके, तो उनकी सारी इंद्रियों के द्वार खुल सकते हैं।
एक क्रांति इस जगत में हो सकती है और वह क्रांति सारे मनुष्य को रूपांतरित कर सकती है, अगर हम बीमारी के सारे कारणों को समझ लें। और करुणा खाएं, दया नहीं। ध्यान रहे, ‘दया’ बड़ा अपमानजनक शब्द है। करुणा बहुत और बात है।
करुणा का मतलब है: एक पीड़ा, एक सफरिंग, जो हम सबके साथ अनुभव करते हैं।
दया का मतलब है: हम ऊपर हैं और कोई नीचे है, जिस पर हम दया करते हैं।
दया बहुत अच्छा शब्द नहीं है। दया से कोई क्रांति न होगी। दान हो सकता है दया से, धर्मशाला बन सकती है। दया से कभी भी कोई क्रांति नहीं होगी। क्रांति होगी करुणा से।
करुणा का मतलब है: मैं भी सम्मिलित हूं, वहीं खड़ा हूं जहां आप खड़े हैं। वहीं खड़ा हूं जहां आप खड़े हैं! आपकी पीड़ा मेरी पीड़ा है, मेरी पीड़ा आपकी पीड़ा है। हम सबकी पीड़ा सामूहिक पीड़ा है। और हम सबने मिल कर मनुष्य को दुख के रास्ते पर धक्का दिया है। हम सब मिल कर मनुष्य को आनंद के मार्ग पर भी ला सकते हैं।
करुणा से क्रांति फलित हो, तो ही क्रांति फलित हो सकती है। और एक क्रांति अत्यंत जरूरी हो गई, क्योंकि जो आदमी हम पहचानते थे, वह मरने के करीब पहुंच गया। नया आदमी नहीं जन्मेगा, पुराना मर जाएगा, तो मनुष्य-जाति समाप्त हो सकती है। नये आदमी के जन्म की जरूरत है। पुराना तो जाएगा, जा चुका, जा ही रहा है। अगर हम नये को पैदा न कर लिए, तो आगे बहुत अंधकार हो सकता है।
बहुत से प्रश्र्न इकट्ठे हो गए हैं। वह कल सारे प्रश्र्नों की चर्चा मैं करूंगा।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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