QUESTION & ANSWER

Karuna Aur Kranti 03

Third Discourse from the series of 6 discourses - Karuna Aur Kranti by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
एक छोटे से गांव में मैं कुछ दिनों के लिए ठहरा हुआ था। पहाड़ की तलहटी में बसा हुआ वह गांव है। रोज सुबह उस पहाड़ के पास घूमने जाता था। रास्ते के किनारे ही एक झरने से दोस्ती हो गई थी। कुछ देर वहां बैठता था, फिर लौट आता था। छोटा ही झरना था, लेकिन बड़ा जीवंत था। गति थी, प्रवाह था, जिंदगी थी।
फिर दो वर्ष बाद मैं उस गांव में गया, उस झरने की खोज में गया, लेकिन अब वह झरना नहीं था। एक बड़ी चट्टान उस झरने के ऊपर गिर गई थी। अब भी पानी बहता था, लेकिन झरना अब नहीं था। झरना खंड-खंड में टूट गया था। बहुत टुकड़े हो गए थे। छोटी-छोटी बहुत धाराएं हो गई थीं। न अब गर्जन था, न अब तेजी थी, न अब बहाव था। पानी रिसता था। पहाड़ अब भी उस पानी से गीला हो जाता था, लेकिन झरना अब नहीं था। उस चट्टान के पास बैठ कर मैं सोचने लगा: आदमी की जीवन-धारा पर भी क्या कोई चट्टान नहीं गिर गई है? आदमी की चेतना की धारा पर, उसके झरने पर भी तो कोई चट्टान नहीं गिर गई है?
मैं कल कह रहा था कि हमने मनुष्य के प्राकृतिक रूप को स्वीकार नहीं किया।
दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं कि चूंकि हमने प्राकृतिक रूप को स्वीकार नहीं किया, झरने पर चट्टान रख कर हमने अप्राकृतिक स्वरूप का निर्माण किया है। गति चली गई, आवाज चली गई, झरना खो गया। अब पानी की छोटी-छोटी धाराएं रह गई हैं--खंड-खंड। मनुष्य के ऊपर दमन की चट्टान रख कर हमने उसे अप्राकृतिक बनाने की कोशिश की है। मनुष्य को अप्राकृतिक बनाने की जो प्रक्रिया है, वह रिप्रेशन है, वह दमन है। और मनुष्य का रूप जो-जो दमित हो गया है, वह हजार-हजार छोटी-छोटी धाराओं में टूट कर नये-नये रास्तों को तोड़ कर अब भी पहाड़ को गीला करता है। झरने की शान नहीं रह गई है, लेकिन पानी बहुत तरफ से बहता है। अब झरने की जगह घाव मालूम पड़ता है। धारा की जगह सब बंध गया है। और जो झरना एक जिंदगी देता था, वह झरना अब छोटे-छोटे डबरों में बंध कर गंदगी दे रहा है।
आज दूसरा सूत्र आपसे मैं बात करना चाहता हूं कि मनुष्य के ऊपर जो बड़ी से बड़ी करुणा की जरूरत है, वह करुणा उसे दमन से मुक्त करने की ही हो सकती है। क्योंकि दमन ने ही मनुष्य को क्रूर, कठोर, दुखी और पीड़ित कर दिया है। दमन ने ही मनुष्य को हिंसा से, प्रतिहिंसा से और न मालूम कितने रोगों से भर दिया है।
इसे थोड़ा समझना जरूरी होगा।
क्योंकि एकदम से यह बात दिखाई नहीं पड़ती है, क्योंकि हमने वह झरना ही नहीं देखा है।
मैं तो उस गांव में दो बार गया था--एक बार जब वह झरना था और दूसरी बार जब चट्टान गिर गई थी। हम जिंदगी के जिस गांव में आए हैं, वहां चट्टान गिरी हुई ही हमें मिली है। हमें झरने का कोई पता ही नहीं है। इसलिए हम तौल भी नहीं कर पाते कि हम क्या हो सकते थे?
हजारों साल, लाखों साल की लंबी कहानी है उस चट्टान के गिर जाने की, इसलिए अब हमें पता भी नहीं है कि कोई चट्टान गिर गई है। और उसने झरने को खंड-खंड कर दिया है--संगीत छीन लिया है, सौंदर्य छीन लिया है, शान छीन ली है, गरिमा छीन ली है। सब नष्ट कर दिया है। सिर्फ घाव और डबरे रह गए हैं, जिन पर गंदगी के सिवाय अब कुछ भी पैदा नहीं होता है। तो हम... इस दमन की चट्टान ने कैसे खंड पैदा किए, इसे थोड़ा समझें।
बहुत कठिन है समझना, लेकिन थोड़ी खोज-बीन करें, तो समझ में बात आ सकती है। मैं कल कह रहा था कि सारी दुनिया में धन को इकट्ठा करने का पागलपन है, लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि धन को इकट्ठा करने का पागलपन किस मूल झरने के टूटे हुए खंडों से पैदा हुआ है?
तो मैं आपसे कहना चाहता हूं: जो आदमी जीवन में प्रेम देने और लेने में असमर्थ रह जाता है, जिसके प्रेम की धारा पर चट्टान गिर जाती है, वह आदमी धन इकट्ठा करने में लग जाता है। जब प्रेम की धारा पर दमन की चट्टान गिरती है, तो धन इकट्ठा करने का पागलपन पैदा हो जाता है। इसके पीछे गहरे कारण हैं।
कभी देखा होगा अनाथ बच्चों को, तो उनके पेट बहुत बड़े हुए मालूम पड़ेंगे। अनाथ बच्चे का पेट बड़ा हो जाएगा, क्योंकि अनाथ बच्चे को मां के प्रेम का कोई भरोसा नहीं है। जब वह रोएगा, तभी दूध मिलेगा, इसका कोई पक्का भरोसा नहीं है। तो जब उसे दूध मिलता है, तो वह ज्यादा से ज्यादा दूध इकट्ठा कर लेना चाहता है। खाना मिलता है, तो ज्यादा से ज्यादा खाना इकट्ठा कर लेना चाहता है। अनाथ बच्चे के मन में संग्रह की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है, क्योंकि प्रेम का कोई भरोसा नहीं है।
लेकिन मां के पास बड़ा हो रहा बच्चा है, वह कभी ज्यादा दूध नहीं पी लेता है, बल्कि मां कोशिश भी करे ज्यादा दूध पिलाने की, तो इनकार करता है। उसे पक्का भरोसा है, जब रोएगा, तब प्रेम मौजूद है। वह उसके लिए भोजन बन जाएगा। लेकिन अनाथ बच्चे का मन ऐसा नहीं रह जाता। जब भोजन मिलता है, तब जितना ले सकते हो ले लो, इकट्ठा कर लो, क्योंकि प्रेम का कोई भरोसा नहीं है। भूख लगे, और प्रेम न हो, तो कठिनाई हो जाएगी।
जिन बच्चों को जीवन में प्रेम नहीं मिल पाया है, वे भोजन को इकट्ठा करने की प्रवृत्ति से भर जाते हैं! धन तो बहुत बाद में आया, पहले तो भोजन था--गेहूं था। लोग भोजन इकट्ठा कर रहे थे। फिर पीछे धन आया। और धन ने और इकट्ठा करने के हजार रास्ते खोज लिए। क्योंकि गेहूं कितना इकट्ठा करिएगा? दूध कितना इकट्ठा करिएगा? फल कितना इकट्ठे करिएगा? वे सड़ जाएंगे, खराब हो जाएंगे। लेकिन रुपया न सड़ता है, न खराब होता है। रुपया इकट्ठा किया जा सकता है। रुपया बदली हुई शक्ल है भोजन की, और धन की आकांक्षा बदला हुआ प्रेम है, जो तृप्त नहीं हो पाया है।
इसीलिए जहां धन इकट्ठा करने का पागलपन होगा, उस आदमी में कभी प्रेम के दर्शन नहीं होंगे। और जिस आदमी की जिंदगी में प्रेम का जन्म होगा, धीरे-धीरे आप पाएंगे कि धन का संग्रह करने की दौड़ वहां से विदा हो गई है। प्रेम और धन को इकट्ठा करने की दौड़ एक साथ अस्तित्व में नहीं होती, उनका कोई कोएक्झिस्टेंस, कोई सह-अस्तित्व नहीं है।
धन इकट्ठा हुआ है, यह हमें दिखाई पड़ता है। लोग धन इकट्ठा कर रहे हैं, यह हमें दिखाई पड़ता है। कुछ लोग हैं, जो इस धन को बांटने के लिए आतुर हैं कि यह धन बांट दिया जाए, वह भी हमें दिखाई पड़ता है। लेकिन शायद हमें यह खयाल में नहीं है कि हम कितना ही धन बांटें, वह जो प्रेम की धारा टूट गई है, अगर फिर से अखंड और जुड़ नहीं जाती, तो हम धन की जगह फिर दूसरी चीज कोई इकट्ठी करनी शुरू कर देंगे। लेकिन इकट्ठा करना जारी रहेगा। असल में जो प्रेम में जीता है, उसे इकट्ठा करने की फिकर ही छूट जाती है। वह इकट्ठा नहीं करता है।
मोहम्मद ने जिंदगी भर कुछ इकट्ठा नहीं किया। कोई दिन में भेंट कर जाता था, सांझ वे बांट देते थे। सांझ वे बिलकुल ही नंगे फकीर होकर सो जाते थे। एक पैसा उनके पास नहीं होता था, एक दाना चावल का उनके पास नहीं होता था। उनकी पत्नी ने बहुत बार उन्हें कहा कि आप यह क्या करते हैं? कल फिर जरूरत पड़ सकती है। तो मोहम्मद कहते हैं कि मुझे प्रेम का इतना भरोसा है कि जिसने आज पहुंचाया है, वह कल भी पहुंचा देगा। प्रेम का भरोसा पक्का है। कल के लिए वे इकट्ठा करते हैं, जिन्हें प्रेम का भरोसा नहीं है। कल पता नहीं, आए न आए। तो कल के लिए इकट्ठा करते हैं। कल की असुरक्षा उन्हें मालूम पड़ती है।
फिर मोहम्मद बीमार पड़े, और आखिरी रात, जिस दिन उनकी मृत्यु हुई, उनकी पत्नी ने सोचा कि आधी रात है, हो सकता है दवा की जरूरत पड़ जाए, चिकित्सक बुलाना पड़े--तो उसने सोचा कि आज तो पांच रुपये बचा लो। तो उसने पांच रुपये बिस्तर के नीचे छिपा कर रख दिए हैं। मोहम्मद ने, कोई बारह बजे रात बड़ा तड़प रहे हैं, और उन्होंने कहा कि मुझे ऐसा लगता है, अपनी पत्नी को, आज तेरी आंखों में मुझे प्रेम का भरोसा नहीं दिखाई पड़ता है। मुझे ऐसा लगता है कि जरूर तूने कुछ पैसे रोक लिए हैं।
उसने कहा: आपको कैसे पता चला?
मोहम्मद ने कहा: जितनी स्वतंत्र तू रोज मालूम पड़ती थी, आज उतनी स्वतंत्र नहीं मालूम पड़ती है। आज कहीं कुछ है, जहां तू बंध गई है। तूने कुछ रोका तो नहीं है?
वह पत्नी घबड़ा गई। और उसने कहा: मैंने पांच रुपये रोके हैं, इस डर से कि हो सकता है रात बीमारी बढ़ जाए, चिकित्सक बुलाना पड़े, दवा लानी पड़े, तो हम कहां से लाएंगे।
मोहम्मद ने कहा: पागल, जिंदगी भर जहां से आता था, फिर भी तुझे उस प्रेम का कोई पता न चल सका! फिर भी तूने रुपये रोक लिए! वह निकाल, रुपये कहां हैं? क्योंकि अगर मैं मर गया और भगवान मुझसे पूछेगा, तो वह कहेगा कि आखिरी वक्त तूने प्रेम खो दिया और धन पकड़ लिया। वह रुपये निकाल! उसने वह रुपये निकाल लिए--मोहम्मद ने कहा: यह बांट दे। मैं प्रेम को लेकर जीया हूं और प्रेम को लेकर ही जाना चाहता हूं।
वे रुपये बांट दिए गए। उन्होंने चादर ओढ़ ली, और वह उनका आखिरी काम था। चादर ओढ़ी और वे समाप्त हो गए।
बहुत संभावना इसी बात की है कि उन पांच रुपयों के लिए वे बड़ी देर तक रुके रहे और तड़फते रहे। शायद वे खोज-बीन करते रहे कि बात क्या है, अड़चन क्या है?
लेकिन पांच रुपये इतना रोक लेते हों, तो हमारी क्या हालत होगी? अगर पांच रुपये घर में बचा लेने से मन ऐसा बंध जाता हो कि मोहम्मद ने कहा कि मैं परमात्मा के सामने प्रेम लेकर हाजिर होना चाहता हूं, धन लेकर नहीं। तो हमारी क्या हालत होगी? और परमात्मा तो बहुत दूर है, जब हम आदमी को भी प्रेम करते हैं, तो हम धन लेकर ही हाजिर होते हैं। प्रेम लेकर हम हाजिर नहीं होते हैं। हम आदमी को भी धन से ही प्रेम करते हैं। हमने धन को ही प्रेम का सब्स्टीट्यूट बनाया हुआ है। हम धन दे पाते हैं, तो प्रेम है। हम धन नहीं दे पाते हैं, तो प्रेम मुश्किल हो जाता है।
कहीं न कहीं धन प्रेम की जगह सब्स्टीट्यूट, परिपूरक बन गया है। लेकिन प्रेम का परिपूरक धन कैसे बन सकता है? प्रेम तो एक आनंद है, और धन तो सिर्फ एक बोझ है। और प्रेम तो एक मुक्ति है, और धन तो सिर्फ एक भार है। धन एक उपयोगिता हो सकती है, लेकिन प्रेम उपयोगिता नहीं, प्रेम तो एक खेल है। प्रेम की कोई युटिलिटी नहीं है। प्रेम का कोई उपयोग नहीं है। प्रेम तो एक निपट सहज आनंद है। और धन? धन एक उपयोगिता है। तो हम कितना ही धन इकट्ठा कर लें, वह जो प्रेम की कमी रह गई है भीतर, वह पूरी नहीं हो गई है।
एक बच्चा कितना ही पेट भर ले, उसका पेट फूल जाए, फूल जाए, शरीर छोटा हो जाए और पेट बड़ा हो जाए, तो भी जो प्रेम छूट गया, नहीं मिल पाया, वह इस बड़े पेट से नहीं मिल जाने वाला है। धनी आदमी लोहे के बड़े पेट बना कर बड़ा हो गया है, क्योंकि चमड़े के पेट में कितना भरा जा सकता है। इसलिए हमने तिजोड़ियां बनाई हैं। वे लोहे के पेट हैं, जिनको मजबूती से भरा जा सकता है, और जिनको तोड़ा भी नहीं जा सकता है। हमारी तिजोड़ियां हमारे पेट की शक्लों में ही बनी हैं। उनमें हम भोजन को इकट्ठा कर रहे हैं, इकट्ठा कर रहे हैं, इकट्ठा कर रहे हैं। और रोज हम उसका हिसाब लगाए चले जा रहे हैं।
प्रेम का झरना था। टूट गई धार, तो धन संग्रह बन गया है। हजार-हजार तरकीब से हम आदमी को जहां-जहां सप्रेस किए हैं, जहां-जहां दमन किए हैं, वहां-वहां आदमी कुछ गलत रास्ते पर चला गया, कुछ और हो गया, जो होने की उसकी नियति, उसकी डेस्टिनी नहीं थी। लेकिन हमें खयाल ही नहीं है। हमने अब तक मनुष्य की पूरी जिंदगी रिप्रेशन और दमन के आधार पर ही खड़ी करने की कोशिश की है।
हमने जो आदमी बनाया है, वह हमने आदमी बनाया है कि दबा-दबा कर बनायाहै। वह ऐसा ही है, जैसे किसी बीज के चारों तरफ हमने लोहे की जाली बिठा दी हो, या किसी पौधे को सब तरफ से बांध दिया हो। ऐसा हमने आदमी को खड़ा कर दिया है। तो आदमी जैसा हमें दिखाई पड़ता है, यह आदमी की नियति नहीं है। यह रुग्ण आदमी है, यह बीमार आदमी है। यह हजारों साल की संस्कृति का विक्टिम, शिकार आदमी है। इस आदमी को आदमी मत समझ लेना, यह सिर्फ आदमी की शक्ल है। फैंटम, प्रेत है आदमी का। यह आदमी नहीं है। आदमी कुछ और ही हो सकता था।
और इस पृथ्वी पर जहां साधारण सी झाड़ियों में फूल खिलते हैं, और जहां साधारण से पक्षी गीत गाते हैं आनंद के, और जहां साधारण से पशु भी एक सहज जीवन जीते हैं, वहां आदमी कितने आनंद के फूलों को और कितनी आनंद की सुगंधों को जन्म दे सकता था, और कितना संगीत पैदा हो सकता था, उसकी तो कल्पना करनी कठिन है। लेकिन आदमी वह कुछ भी नहीं कर पाया, आदमी खो गया है। और रोग ही पैदा कर पाया है। सिर्फ रुग्णता ही हमने पैदा की है। और उस रोग का नाम हमने रखा है सभ्यता! और उस रोग का नाम हमने रखा है संस्कृति! तब फिर रोग से मुक्त होना भी मुश्किल हो जाता है।
मैं कुछ और दो-चार बातें कहना चाहूंगा, ताकि दिखाई पड़ सके कि चट्टान ने हमारे झरने को कहां कैसा रूप दे दिया है। और जब तक हम चट्टान नहीं हटा देते, तब तक कोई भी आदमी की जिंदगी में क्रांति नहीं हो सकती है। ऐसा मालूम पड़ता है कि कोई भी आदमी अपने सुख में उतना उत्सुक नहीं है, जितना दूसरे को सुखी न होने देने में उत्सुक है। अगर हम आदमियों के भीतर झांक कर देखें, तो उनके भीतर ऐसा नहीं मिलेगा कि वे अपने सुख की तलाश में हैं। वे इस तलाश में हैं कि कोई और सुखी न हो जाए।
मैं एक मकान में ठहरता था। उस मकान के मालिक बड़ी तारीफ करते थे उस मकान की। उन्होंने बनाया था, तब से वे उसके ही गीत गाते रहते थे, सुबह से सांझ तक वे उसकी ही बात करते थे। जब मैं वहां गया, तो कभी वे स्विमिंग-पूल दिखाते थे, कभी यह दिखाते, कभी वह दिखाते। दो साल बाद गया, तो उन्होंने मकान की कोई भी बात न की। मकान वही था। मैंने पूछा कि क्या हो गया, आप मकान की बात नहीं करते हैं?
उन्होंने कहा: आपने देखा नहीं? आप रात में आए इसलिए देखा नहीं, सुबह देखिएगा। बड़ी गड़बड़ हो गई!
मैंने कहा: फिर भी क्या हो गया? मकान में कोई नुकसान पहुंचा? मकान वैसा ही दिखता है, बल्कि पौधे अब बड़े हो गए हैं जो आपने लगाए थे, और पौधों में फूल आने लगे हैं, बगीचा हरा हो गया है, घास हरी हो गई है, लॉन तैयार हो गया है।
उन्होंने कहा: वह सब ठीक है, उससे कोई ज्यादा मतलब नहीं। सुबह आप देखना।
सुबह मैंने देखा तो पता चला, बगल में एक बड़ा मकान खड़ा हो गया है।
उन्होंने कहा: यह मकान जब से बना है, मेरे मकान की सारी खुशी खो गई है।
मैंने उनसे पूछा: तब फिर आपको अपने मकान की खुशी न थी, बगल में जो छोटे-छोटे झोपड़े थे, उनको देख कर खुशी आती रही होगी! क्योंकि बगल में बड़े मकान को देख कर दुख आ गया!
ध्यान रहे, धनी आदमी अपने धन में उतना खुश नहीं है, जितना पड़ोसी की गरीबी में खुश है। और ध्यान रहे, आदमी अपने बड़े मकान में प्रसन्न नहीं है, पड़ोस की झोपड़ियों में प्रसन्न है। और बड़े मकान खड़े हो जाएं, तो उसका मकान वही का वही है, लेकिन एकदम छोटा हो गया है, एकदम कहीं कोई बात खो गई है, और कहीं कुछ नष्ट हो गया है।
हम सारे के सारे लोग अपने सुख में उतने उत्सुक नहीं हैं, जितने दूसरा सुखी न हो जाए! यहां तक भी कि चाहे हमें दुखी होना पड़े, लेकिन हम दूसरे को सुखी न होने देंगे। जरूर कहीं कोई भूल हो गई है। यह तो बड़ी रुग्ण-चित्त दशा है, यह तो बहुत ड़िजीज्ड माइंड है, जो दूसरे को सुखी न देख ले, इसमें उत्सुक है! सहज आदमी अगर होगा, तो वह अपने सुख में उत्सुक होगा।
और ध्यान रहे, जो आदमी अपने सुख में उत्सुक होगा, वह कभी भी दूसरे के दुख की चेष्टा नहीं कर सकता है। जो आदमी अपने सुख में उत्सुक होगा, वह सबके सुख में उत्सुक होगा, क्योंकि सबके सुख के बीच ही मेरे सुख का फूल भी खिल सकता है। अगर सभी दुखी हों, तो मेरे सुख के फूल खिलने की कोई संभावना नहीं है। जो आदमी अपना सुख चाहेगा, वह सबका सुख चाहेगा। और जो आदमी दूसरे को दुखी देखना चाहता है, किसी न किसी अर्थों में वह अपने को भी दुखी देखना चाहता है, अन्यथा वह दूसरे को दुखी न देखना चाहेगा।
यह असंभव है कि यह पूरा गांव बीमार हो जाए और मैं स्वस्थ रह सकूं। यह पूरे गांव में रोग के कीटाणु फैल जाएं और मैं अकेला स्वस्थ रह सकूं--यह कैसे संभव है? हवाएं वे कीटाणु मुझ तक भी ले आएंगी और मैं भी दुखी हो जाऊंगा। चाहे मैं कितना ही बड़ा परकोटा उठाऊं और लोहे की दीवालें बनाऊं, या तो मैं कब्र में बंद हो जाऊंगा, जिंदा ही मर जाऊंगा, बाहर न निकल सकूंगा। तब स्वस्थ रह सकता हूं, मर जाऊं तो। और या अगर मैं जिंदा रहा और बाहर निकला और दरवाजे खोले, तो उन दरवाजों से रोग के कीटाणु भीतर आ जाएंगे, क्योंकि पूरा गांव बीमार है। अगर मुझे स्वस्थ रहना है और मैं अपने स्वास्थ्य में उत्सुक हूं, तो जाने-अनजाने मुझे सबके स्वास्थ्य में उत्सुकता दिखानी चाहिए।
यह जितना शरीर के तल पर सही है, मन के तल पर और भी ज्यादा सही है। अगर पूरा गांव उदास है, तो आप मुस्कुरा नहीं सकते, और अगर मुस्कुराएंगे तो आपकी मुस्कुराहट व्यंग मालूम होगी, मजाक मालूम होगी, कठोरता मालूम होगी, क्रूरता मालूम होगी। अगर पूरा गांव उदास है, तो आप कैसे मुस्कुरा सकते हैं? उदासी के भी कीटाणु हैं, जो और गहरे भीतर प्रवेश कर जाते हैं। और अगर पूरा गांव दुखी है, तो आप कैसे सुखी हो सकते हैं?
लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं। हम दूसरे को सुखी नहीं देखना चाहते हैं। इसका अंतिम मतलब यही हो सकता है कि हम सुसाइडल हैं। हम अपने को ही सुखी देखने के लिए तैयार नहीं हैं। और हमने यह तरकीब खोजी है कि सारे लोग दुखी हो जाएं, तभी हम सुखी हो सकेंगे! सारे लोगों के दुखी होने पर मैं कैसे सुखी हो सकता हूं? सारे लोगों के दुखी होने पर मैं सिर्फ और गहरे दुख में गिर जाऊंगा। लेकिन, तब एक सांत्वना रहेगी कि मैं अकेला ही दुखी नहीं हूं, सारे लोग दुखी हैं। मैं कोई अकेला ही परेशान नहीं हूं, सारे लोग ही परेशान हैं। बस इतना एक कनसोलेशन हो सकता है, इतनी सांत्वना हो सकती है।
स्वस्थ मनुष्य अपने सुख की आकांक्षा करेगा। मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि स्वस्थ मनुष्य बड़ा स्वार्थी होगा। लेकिन स्वार्थ ही परार्थ की बुनियाद है। और यह ध्यान में रखना कि स्वार्थ और परार्थ विरोधी चीजें नहीं हैं, जैसा कि धर्मगुरु समझाते हैं। असल में जो अभी स्वार्थी भी नहीं हो पाया है, उसके परार्थी होने का तो कोई सवाल ही नहीं है। और जिस आदमी ने अभी स्वयं का हित भी समझा नहीं है, वह दूसरे के हित की तरफ तो एक कदम नहीं उठा सकता है। लेकिन यहां दो तरह के बीमार लोग हैं जमीन पर--एक वे हैं, जो दूसरे को हानि पहुंचाने में अपना स्वार्थ समझ रहे हैं। और एक वे हैं, जो दूसरे को लाभ पहुंचाने की चेष्टा में लगे हैं और उन्होंने अभी अपने को भी लाभ पहुंचाया नहीं है।
जिसने अभी अपने को भी लाभ नहीं पहुंचाया है, वह किसी को लाभ नहीं पहुंचा सकता है। अगर दूसरे का दुख दूर करना हो, तो पहली शर्त है कि अपने दुख से मुक्त हो जाना। क्योंकि जिसके पास आनंद है, वह आनंद बांट सकता है। और जिसके पास दुख है, वह दुख ही बांटता है। वह चाहे बातें कुछ भी करे, वह चाहे अपने दुख के पैकेट के ऊपर सुख के नाम लिखे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन वह दुख ही बांटता है। हो सकता है, वह आपके पास सुख देने ही आए, लेकिन घड़ी भर बाद आप पाएंगे कि अब यह जाए तो बहुत अच्छा है। उसने दुख देना शुरू कर दिया है। वह चाहे जाने भी न, लेकिन वह दुख ही पहुंचाएगा।
स्वस्थ व्यक्ति स्वार्थी होगा, यह बात बड़ी अजीब सी लगेगी। क्योंकि हमें तो निरंतर यह सिखाया गया है कि स्वार्थी कभी मत होना। स्वार्थ बड़ी बुरी चीज है। और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि स्वस्थ आदमी स्वार्थी होगा ही। यह बिलकुल सहज बात है।
लेकिन स्वार्थ का अर्थ समझा है कभी?
उसमें दो शब्द हैं: ‘स्व’ और ‘अर्थ’--स्वयं के लिए जो अर्थपूर्ण है। और जो व्यक्ति अभी स्वयं के लिए भी अर्थपूर्ण जीवन नहीं बना सका है, वह किसी के लिए अर्थपूर्ण हो सकता है, यह असंभव है। यह दीया यहां जल जाए मेरे भीतर प्रकाश का, तो मेरे मकान की खिड़कियों से रोशनी दूसरे के घरों तक भी जा सकती है। लेकिन मेरे घर का ही दीया बुझा हो, तो यह रोशनी किसी के घर तक नहीं जा सकती है। और जिनके अपने घर का दीया बुझा है, वे दूसरों के घरों में दीया जलाने पहुंच गए हैं। बहुत संभावना यह है कि उनके शोरगुल में, उपद्रव में दूसरों के घर के थोड़े-बहुत जले हुए दीये भी बुझ जाएं। जिनके अभी अपने घर अंधेरे हैं, वे किसके घर के दीये जला सकते हैं?
लेकिन यह आदमी को कौन सी बीमारी पकड़ गई है कि वह दूसरे को दुखी देखने में बड़ा उत्सुक है? इसको उसने बड़े अच्छे-अच्छे नाम दिए हैं, और उन नामों में बात को छिपा दिया है। अगर एक आदमी अपने कपड़े छोड़ कर सड़क पर नंगा खड़ा हो जाए, तो कई लोग उसके पैर पड़ने पहुंच जाएंगे। यह दुख की पूजा हो रही है। इसको हम कहेंगे, त्याग, तपश्र्चर्या। यह आदमी बड़ी तपस्वी है, इसलिए हम इसकी पूजा कर रहे हैं। एक आदमी अगर अपने को अपने हाथ से दुख में डाल ले, तो उसकी इज्जत बढ़ती चली जाएगी। अगर एक आदमी अपने हाथ से अपने को परेशानी में डाल ले...
अभी मैं एक गांव से गुजरता था, एक आदमी काशी की तरफ जा रहा है, वह जमीन पर लेट कर यात्रा कर रहा है। वह जमीन पर सरक-सरक कर काशी जा रहा है। उसके सब घुटने छिल गए हैं, उसके हाथ छिल गए हैं, लहू बह रहा है, और सैकड़ों लोग उसकी पूजा करते हुए उसके साथ जा रहे हैं। मैंने उनसे कहा कि तुम सब अपराधी हो, इस आदमी को तुम्हीं इस जमीन में घसिटवा रहे हो। क्योंकि तुम जो आदर दे रहे हो, उस आदर से उसको खून अब बेमानी मालूम पड़ रहा है, बल्कि आदर बड़ा सार्थक मालूम पड़ रहा है। उसके हाथ-पैर छिल गए हैं, कट गए हैं, लेकिन वह सरकता जा रहा है। क्योंकि तुम आदर दे रहे हो। और तुम जो आदर दे रहे हो, इसमें बड़ी हिंसा है। तुम इस आदमी को दुखी देख कर इतने प्रसन्न क्यों हो रहे हो? नहीं, उन्होंने कहा, यह आदमी दुखी नहीं है। यह आदमी तपश्र्चर्या कर रहा है। तप का मतलब है, स्वयं वरण किया हुआ दुख।
ऐसे ही दुख काफी है। बिना वरण किए दुनिया में दुख काफी है। अब और किसी को वरण करने की जरूरत नहीं है। दुनिया वैसे ही तप में जी रही है। एक-एक आदमी तपश्र्चर्या में पड़ा हुआ है। वह जो दुकान पर बैठा है, वह भी तपश्र्चर्या में है। वह जो दफ्तर में बैठा है, वह भी तपश्र्चर्या में है। और वे जो लोग दिल्ली में इकट्ठे हो गए हैं, उनकी तपश्र्चर्या का कोई अंत है? उनके दुख की कोई सीमा है? अब अलग से किसी को तपश्र्चर्या करने की जरूरत नहीं है। आदमी वैसे ही बहुत दुखी है।
लेकिन हम कहते हैं, और स्वेच्छा से दुख वरण करो! अगर जमीन ठीक हो तो उस पर मत बैठो, दो-चार कांटे और रखो, तब बैठो! तब फिर दस-पच्चीस लोग आदर करने आ जाएंगे। जब तक दुनिया में दुख का आदर करने वाले लोग हैं, तब तक आदमी सुखी नहीं हो सकता है। सुख का आदर सीखना पड़ेगा, लेकिन सुख का हमारे मन में कहीं कोई विरोध हो गया है। कहीं धारा बदल गई है। सारे जगत में सारा जीवन सुख की तलाश में है, सिर्फ आदमी दूसरे को दुखी करने की तलाश में है। यह हमारे झरने की धारा कहां टूट गई है, कहां क्या बात आ गई है?
बचपन से ही हम किसी को सुखी नहीं देखना चाहते हैं। एक छोटा बच्चा है, उसे भी हम सब तरह से दुखी देखना चाहते हैं। अगर एक छोटा बच्चा चंचल है, दौड़ता है, भागता है, उछल-कूद करता है, तो घर भर परेशान हो जाएगा, मां-बाप परेशान हो जाएंगे। असल में जिंदगी तो सदा उछल-कूद करती है, चंचल होती है, भागती है, दौड़ती है। लेकिन मां-बाप एक छोटे बच्चे के साथ यह अपेक्षा करते हैं कि वह बूढ़े की तरह एक कोने में शिथिल होकर बैठ जाए। और कभी गोबर-गणेश बच्चा घर में पैदा हो जाए, तो मां-बाप कहते हैं, बड़ा आज्ञाकारी है! अगर बिलकुल गोबर की मूर्ति पैदा हो जाए तो फिर कहना ही क्या है। वह परम आज्ञाकारी है, मां-बाप उसकी बड़ी प्रशंसा करते हैं। उनके चित्त को बड़ी राहत मिलती है--मुर्दा बच्चा पैदा हो जाए, मरा हुआ बच्चा पैदा हो जाए। अगर जिंदा बच्चा पैदा हो तो मां-बाप उसके हाथ-पैर काटने में लग जाते हैं, समाज उसके हाथ-पैर काटने में लग जाता है। असहाय बच्चे को सब तरफ से काट दिया जाता है! उसकी जिंदगी में जो प्रफुल्लता है, वह सब तरफ से छीन ली जाती है।
हमने तरकीबें बहुत अच्छी निकाली हैं। हमारी तरकीबें ऐसी हैं कि बच्चे उनके खिलाफ बगावत भी नहीं कर सकते। हम कहते हैं, हम पच्चीस साल शिक्षा देंगे। पच्चीस साल तक बच्चा शिक्षित हो रहा है। पच्चीस साल तक की शिक्षा में उसे कुछ भी मूल्यवान सिखाया नहीं जा रहा है--कुछ भी मूल्यवान, जिससे जीवन की दिशा में गति होती हो। पच्चीस साल की शिक्षा में ज्यादा से ज्यादा उसे रोटी पैदा करना सिखाया जा रहा है। और रोटी? रोटी अशिक्षित भी सदा पैदा करते रहे हैं। और रोटी पशु भी अपनी खोज लेते हैं, और पक्षी भी अपनी खोज लेते हैं।
अगर शिक्षा सिर्फ रोटी पैदा करना सिखा पाती है, तो कोई शिक्षा का बड़ा अर्थ नहीं मालूम होता है। लेकिन पच्चीस साल कारागृह बनाए हुए हैं हमने। उनका नाम विश्र्वविद्यालय और विद्यालय, और सब नाम हमने रखे हैं! बड़े अच्छे नाम रखे हैं। और उन कारागृहों में हम बच्चों को भर देते हैं।
कभी आपने किसी प्राइमरी स्कूल के पास जाकर खड़े होकर देखा है, जहां आपका बच्चा बंद है? लेकिन आप कभी नहीं गए होंगे, क्योंकि आप बड़े प्रसन्न हैं कि उपद्रव स्कूल में चला गया। स्कूल जो है वह मां-बाप के लिए छुटकारा है। रविवार का दिन उनके लिए परेशानी है, क्योंकि जिंदगी घर में आ जाती है। स्कूल में जिंदगी को भेज दिया है। घर उन्होंने सुविधापूर्ण कर लिया है। न कोई सोफे को बिगाड़ता है, न कोई फोटो तोड़ता है, न कोई कांच तोड़ता है, न कोई आईना गिराता है। आईना बच जाए, चाहे बच्चे की आत्मा टूट जाए। आईना बहुत कीमती है।
अच्छा हो घर में ऐसी चीजें मत रखें, जिनको टूटने का डर है। लेकिन बच्चों को चीजों को पटकने दें, उन्हें खेलने दें, उन्हें दौड़ने दें। उनकी खुशी मत छीन लें। नहीं तो जिंदगी भर वे दूसरों की खुशियां छीनते रहेंगे। फिर पता नहीं चलेगा कि ये दूसरों की खुशी छीनने में इतने उत्सुक क्यों हैं? जिनकी खुशी छीनी गई है, वे सबकी खुशी छीनने में उत्सुक हो जाते हैं!
कभी स्कूल के पास खड़े होकर जाकर देखें। बच्चे स्कूल से निकलते हैं तो ऐसा कूदते हुए निकलते हैं, जैसे कारागृह के बाहर निकल गए हैं। बस्ते उछाल रहे हैं, चिल्ला रहे हैं। छुट्टी हो गई है तो ऐसा मालूम पड़ता है कि जिंदगी आ गई है। पांच-छह घंटे छोटे-छोटे निरीह बच्चों को जेल की दीवालों में बंद किए हुए हैं।
कुछ दिन पहले तो... अब तो जरा कुछ फर्क पड़ा है। जेल की दीवालों में और स्कूल की दीवालों में रंग बदल गया है। पहले बिलकुल एक ही रंग था--लाल दीवाल जेल की भी थी और लाल स्कूल की भी थी। अभी थोड़ा फर्क पड़ा है। लेकिन कोई दीवाल का रंग बदल देने से दीवाल नहीं बदल जाती है। और दीवाल लाल हो कि पीली हो कि सफेद हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। दीवाल दीवाल है। और वहां हम जिंदगी की सारी खुशी उससे छीन रहे हैं, उसको दबा कर ढाल रहे हैं एक ढांचे में। उसके भीतर जो झरना है उसे तोड़ रहे हैं और जगह-जगह पत्थर रख रहे हैं। छोटी-छोटी बातों में हम उसकी खुशी छीन रहे हैं।
अगर यह खुशी सारे बच्चों से छीन ली जाए--सबसे छीन ली गई है, कल हमसे छीनी गई थी, आज हम किसी और से छीन रहे हैं; और जिनसे हम छीन रहे हैं, कल वे अपने बच्चों से छीनेंगे। सैकड़ों वर्षों से यह हो रहा कि बचपन खुशी छीन लेता है और फिर जिंदगी भर वह आदमी दूसरों से खुशी छीनने में समय व्यय कर देता है। एक बड़ा भयंकर संक्रामक रोग है।
क्या सिखा रहे हैं हम? स्कूल में, विद्यालय में खुशी सिखा रहे हैं?
वहां हम उदास चेहरे पैदा कर रहे हैं। गंभीर चेहरे पैदा कर रहे हैं। वहां से हम आदमी निकाल रहे हैं जो गंभीर हैं, उदास हैं, सीरियस हैं। जिनको जिंदगी एक खेल नहीं है, जिंदगी जिनके लिए एक बोझ हो गई है। इसलिए देखें, युनिवर्सिटी का कन्वोकेशन होता हो, दीक्षांत समारोह होता हो, तो वहां देखें, काले चोगे पहने हुए वाइस चांसलर्स और रेक्टर और डीन भूत-प्रेत बने हुए खड़े हैं। ये मरघट पर पहनने के कपड़े वहां किसलिए पहने हुए हैं? नहीं, वहां बड़ी गंभीरता का वातावरण पैदा किया जा रहा है। बहुत सीरियस, बहुत गंभीर काम हो रहा है। वहां देखें, उप-कुलपतियों, वाइस चांसलर्स, अध्यापकों के चेहरे देखें, वे पत्थर की मूर्तियां बने हुए हैं। वे कोई बहुत भारी काम कर रहे हैं।
और वह काम कुल इतना कर रहे हैं कि वह जो जिंदगी की चंचलता है, वह जो प्रफुल्लता है, वह जिंदगी का जो प्रवाह है, उसको सब तरफ से रोक रहे हैं। हां, उसको वे दिशाएं दे रहे हैं। वे नदी को नहर बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं। नहर में भी पानी तो बहता है, लेकिन कभी नहर देखी, और नदी देखी? नदी और नहर में एक बुनियादी फर्क पड़ जाता है। नदी में तो एक जिंदगी होती है अपनी, और नहर में अपनी कोई जिंदगी नहीं होती है। एक बहाव होता है और इंजीनियर उसे जहां चाहता है वहां ले जाता है।
हम सब आदमियों को नदी नहीं बनने देना चाहते हैं, नहर बनाते हैं। हमारी सारी शिक्षा आदमी की नदी को नहर बनाने का उपाय है। नहर में वह खुशी नहीं हो सकती। हम सारी खुशी छीन लेते हैं। बचपन से सारी व्यवस्था ऐसी है कि बच्चा किसी चीज में आनंदित न हो पाए। और आप कहेंगे, बड़ी अजीब बात आप कहते हैं! क्योंकि मां-बाप तो यही चाहते हैं कि बच्चा आनंदित हो। लेकिन मां-बाप चाहते हैं, बच्चा हमारे ढंग से आनंदित हो।
मां-बाप के ढंग से बच्चा कैसे आनंदित हो सकता है? यह दुख थोपने की तरकीब है। यह बड़ी डिसेप्टिव बात है। मां-बाप भी कहते हैं, हम चाहते हैं कि बच्चा आनंदित हो। हमारा बच्चा आनंदित हो, यह हम न चाहेंगे? लेकिन हमारे ढंग से आनंदित हो। एक बूढ़े आदमी के ढंग से एक बच्चा आनंदित हो।
थोड़ा उलटा करके देखें कि सारे बच्चों के हाथ में ताकत चली जाए और बूढ़े से वे कहें कि हमारे ढंग से आनंदित हों। तब आपको पता चलेगा कि बच्चों के ढंग से बूढ़ों को आनंदित होने में कितनी तकलीफ पड़ जाती है। तब बच्चे कहेंगे: कूदो, छलांग लगाओ, उचको, चीजें फोड़ो, दौड़ो, झाड़ों पर चढ़ जाओ। तब बूढ़ों को पता चलेगा कि यह आनंदित होना हमें पसंद नहीं है। यह कोई आनंद हुआ, यह तो पागलपन है।
लेकिन अब तक बच्चों और बूढ़ों के बीच संवाद नहीं हो सका। अब तक बूढ़े और बच्चे एक-दूसरे को समझ नहीं पाए। लेकिन इससे बूढ़ों को कोई खास नुकसान ऊपर से नहीं दिखाई पड़ता, भीतर से तो हो ही जाता है। क्योंकि जो आदमी आज बूढ़ा है, कल वह बच्चा था। और अगर बचपन में ही वह रुग्ण हो गया है, तो बुढ़ापा उसका कभी भी सुंदर और स्वस्थ नहीं हो सकता है। वह रोग ले जाएगा बुढ़ापे तक। इसलिए कोई बूढ़ा आदमी भी शांत और आनंदित नहीं दिखाई पड़ता। बचपन में ही जड़ काट दी गई है, आनंदित होने की जड़ तोड़ दी गई है।
इसलिए हमारे साधु-संत हैं, उनके पास जाएं, वहां बड़ी गंभीरता है। वहां जाते से ही आपको भी गंभीर हो जाना पड़ेगा। साधु-संतों के पास हंस नहीं सकते हैं। वहां हंसेंगे तो वह एक तरह की प्रोफेनिटी मालूम होगी, एक तरह की अपवित्रता मालूम होगी। वहां गंभीर होकर बैठ जाना पड़ता है हाथ जोड़ कर। वहां भी हमने मरघट की हवा बना रखी है, वहां भी जिंदगी की खबरें नहीं हैं।
तीन फकीर हुए हैं चीन में। उनका कोई नाम पता नहीं है। क्योंकि कभी उन्होंने अपना नाम नहीं बताया। बल्कि जब लोगों ने पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? तो वे तीनों इतने जोर से हंसने लगते थे कि धीरे-धीरे लोग उनको ‘थ्री लाफिंग सेंट्‌स’ कहने लगे, तीन हंसते हुए फकीर कहने लगे। यही उनका नाम हो गया। और जब भी कोई उनसे पूछता कि तुम्हारा नाम क्या है? तो वे कहते, हमें खुद ही पता नहीं है। और हमें बड़ी हंसी आती है कि तुम्हारा नाम है। इस पर हमें बड़ी हंसी आती है। क्योंकि नाम तो किसी का नहीं है। नाम तो दिया हुआ है। बचपन में हम सब बिना नाम के आते हैं और फिर बिना नाम के विदा हो जाते हैं।
तो वे तीनों हंसते कि हम बड़े हैरान हैं, हमारा तो कोई नाम नहीं है, लेकिन सारी दुनिया में सबका नाम है। हम इससे हैरान हैं। वे तीनों हंसते। वे गांवों में जाते, लोग उनसे कहते कि कुछ उपदेश दो, तो वे कहते कि उपदेश में कहीं न कहीं कुछ मरा हुआपन है। उपदेश कहीं न कहीं डेडनेस लिए हुए है। उपदेश में कहीं न कहीं भारी बोझिलता है। तो वे कहते, हम तो हंसना जानते हैं और कुछ भी नहीं जानते। वे गांव के चौरस्ते पर खड़े हो जाते और हंसना शुरू कर देते। फिर हंसना संक्रामक हो जाता। फिर गांव के और लोग आ जाते, और वे भी उन तीनों को हंसते देख कर, कोई उनमें से भी हंसने लगता, फिर हंसी फैलने लगती। फिर ऐसा होता कि दो-चार दिन वे उस गांव में रह जाते, तो सारे गांव में हंसी के फूल ही फूल खिल जाते।
फिर एक गांव में उनमें से एक मर गया। तो गांव के लोगों ने कहा: अब तो दो जरूर उदास हो गए होंगे। वे गए वहां, लेकिन वे दोनों उस मरे हुए के हाथ और पैर पकड़ कर उसे झुला रहे थे और हंस रहे थे। तो उन्होंने कहा: पागलो, यह क्या कर रहे हो? तुम यह क्या कर रहे हो? वह मर गया है, हमने सुना है, और तुम हंस रहे हो! तो उन दोनों ने कहा कि जो जिंदगी भर हंसे हों, उनकी मृत्यु भी एक हंसी हो जाती है।
असल में जो जिंदगी भर रोया है, उसकी मृत्यु ही रुदन हो जाती है। मृत्यु तो अंतिम परिपूर्णता है। हम जो जिंदगी भर रहे हैं, वही हो जाता है। अगर मृत्यु बहुत बुरी मालूम पड़ रही है, अंधेरी, तो उसका कारण यह नहीं है कि मृत्यु अंधेरी है। उसका कारण है कि हम बचपन से ही अंधेरे में जी रहे हैं। हमारी सारी जिंदगी अंधेरी है। इसलिए अंतिम फल भी अंधेरा मालूम पड़ता है।
उन दोनों ने कहा: हम बड़े खुश हैं, और हम इसको हिला रहे हैं इसलिए, कि हम यह कह रहे हैं कि तू हमें धोखा दे गया है। और हमने यह तय किया था कि पहले हम जाएंगे और यह आदमी पहले चला गया। अगर यह रात हमको बता देता तो हम पहले चले गए होते। लेकिन इसने बताया नहीं, यह चुपचाप चला गया।
लोगों ने कहा कि फिर भी यह आदमी मर गया है, तो इतनी हंसी-खुशी मत मनाओ। यह बड़ी बुरी बात मालूम पड़ती है। चुप रहो। अगर रोओ मत, तो कम से कम चुप तो रहो। तो उन दोनों ने कहा कि ध्यान रहे, चुप होने जैसी कोई चीज ही नहीं है। या तो आदमी रोता है या हंसता है। दोनों के बीच में कोई जगह ही नहीं है।
और सच में ही दोनों के बीच में कोई जगह नहीं है। या तो आप हंसते हैं या रोते हैं। बीच में कोई जगह होती नहीं है। या तो आप आनंदित होते हैं या दुखी होते हैं। दोनों के बीच में कोई जगह नहीं होती है। और अगर आप आनंदित नहीं हैं तो जानना कि दुखी हैं, और अगर आप नहीं हंस पाते हैं तो जानना कि भीतर आंसू बोझिल हो गए हैं, भारी हो गए हैं।
फिर उसकी लाश लेकर वे चले। सारा गांव तो उदास है, लेकिन वे दोनों हंसते हुए हैं। फिर वे मरघट पर पहुंचे। फिर उन्होंने चिता जलाई। तो जब गांव के लोगों ने कहा कि उसके कपड़े बदलने हैं तुम्हारे साथी के, क्योंकि हमारे गांव का रिवाज है। उन्होंने कहा कि नहीं, वह हमसे कह गया है कि कपड़े मत बदलना। कपड़े बदलना ही मत, क्योंकि मैं ही कपड़े बदले ले रहा हूं, तब और कपड़े क्या बदलना है। तो ऐसे ही मुझे चढ़ा देना।
तो उसकी शर्त तो माननी पड़ेगी। उसे ऐसे ही चढ़ा दिया है मरघट पर, आग लगा दी है। और फिर धीरे-धीरे हंसी फैलनी शुरू हुई, क्योंकि वह आदमी अपने कपड़ों के भीतर फुलझड़ी, पटाके रख कर मर गया है। अब वे फुलझड़ियां छूटने लगी हैं, पटाके छूटने लगे हैं और धीरे-धीरे सारा गांव हंसने लगा है। और सारा गांव कहता है कि अजीब आदमी था! मर गया, फिर भी हमें हंसा गया है! हालांकि भीतर से रोने का मन होता है। लेकिन उसकी, उसकी चिता से फूटती हुई फुलझड़ियां! कैसा आदमी था, मौत पर भी हंस गया है, मौत पर भी व्यंग कर गया है!
जो आदमी जिंदगी भर हंसता है, उसके लिए मौत भी एक हंसी हो जाती है। लेकिन हम तो जिंदगी भर रोते हैं। हमारी तो रोने में दीक्षा है। हमारा तो इनिशिएशन किया जाता है रोने में, और बचपन से हम एक-एक बच्चे को रोने के लिए तैयार करते हैं। हंसने के लिए तैयार नहीं करते हैं। हम सब तरफ से उसकी हंसी के झरने को रोक देते हैं। हम सब तरफ से उसकी खुशी को रोक देते हैं। तब फिर अगर वह दूसरों को भी दुखी करने में लग जाता हो तो आश्र्चर्य नहीं है। हमारी यह जो पूरी मनुष्यता सूली पर लटक गई है, उसमें एक कारण यह भी है। लेकिन हमें खयाल नहीं है कि हम क्या-क्या करते हैं। और कौन सी छोटी सी चीज आगे जाकर क्या परिणाम ले आएगी।
अब एक मां है, उसका बच्चा दूध पी रहा है, वह उसको जल्दी दूध से छुड़ा देती है। जल्दी चाहती है कि उसका दूध पीना वह बंद कर दे। वह बंद करवा दे सकती है, क्योंकि मां के हाथ में है। और पश्र्चिम की माताओं ने तो करीब-करीब बंद कर दिया है। और शायद आने वाले सौ-पचास वर्षों में दुनिया की कोई मां अपने बच्चे को दूध पिलाने को राजी नहीं होगी। लेकिन क्या आपको पता है, यह जो बच्चे को दूध पीने से जो राहत, जो शांति, उसके ओंठों को जो आनंद, जो स्पर्श का सुख मिलता था, अगर यह छिन गया, अगर यह धारा रुक गई तो यह नई धाराएं पकड़ेंगी।
सारी दुनिया सिगरेट पी रही है। और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि वह ओंठों को जो सुख नहीं मिल पाया है, उसका सब्स्टीट्यूट खोजा जा रहा है। और जिस समाज में मां बच्चों को दूध पिलाना बंद कर देगी, उस समाज में सिगरेट का पीना बढ़ता चला जाएगा। अगर सारी माताएं बंद कर देंगी तो हम ओंठ से फिर कुछ और उपाय करेंगे। लेकिन सिगरेट वह सुख कभी भी नहीं दे सकती है, जो मां के स्तन से बच्चे को मिल सकता था। इसलिए कितनी ही सिगरेट पीओ, दिन भर में साठ पीओ कि सौ पीओ, कुछ फल नहीं होता है, सिर्फ ओंठ चल कर रह जाते हैं, जल जाते हैं, और कुछ भी नहीं होता है। कोई सब्स्टीट्यूट वह नहीं दे सकता, जो मिल सकता था मूल से। अगर मूल की जगह कुछ और रख लिया है, तो वह नहीं मिलने वाला है जो मिल सकता था।
लेकिन हम माता और पिता बच्चों को समझाएंगे कि सिगरेट मत पीओ, लेकिन वह यह न देखेंगे कि सिगरेट पीने की धारा कहीं से पैदा की जा रही है। बच्चे को ओंठों से कुछ मिल रहा है। बच्चे की जिंदगी में ओंठ उसका पहला जीवंत हिस्सा है। बच्चे को जिंदगी पहली दफा ओंठ की तरफ से शुरू हुई है, और बच्चे को प्रेम की धारा पहली दफा ओंठ की तरफ से आई है। अगर बच्चे के ओंठ अतृप्त रह गए, तो वे अपनी तृप्ति की मांग करते रहेंगे। वे जिंदगी भर मांग करते रहेंगे कि ओंठ कहीं कुछ खाली रह गया है, उसे भरो। फिर वह... फिर क्या करे? तो जला डालेगा ओंठों को सिगरेट से। लेकिन उससे कोई मां का स्तन, मां का प्रेम उसे मिल जाने वाला नहीं है। और वह कभी समझ भी नहीं पाएगा कि उसके चित्त में यह क्या हो गया है, यह क्या पागलपन हो गया है।
अब छोटे बच्चे हैं, वे अपने पूरे शरीर से खेलने में आनंदित होते हैं। सच तो यह है कि अगर हम भी पूरी तरह स्वस्थ होंगे, तो अपने पूरे शरीर से खेलने में आनंदित होंगे। लेकिन हम तो स्वस्थ नहीं हैं। हम कभी जाकर नदी की रेत पर न लेटेंगे, और कभी नदी की रेत पर न नाचेंगे, और न कभी पानी में छलांग लगाएंगे, और न कभी पानी के फव्वारे उछालेंगे। हम कभी अपने पूरे शरीर के साथ आनंदित न होंगे। हमने अपने पूरे शरीर को इनकार कर दिया है! और शरीर में हमने कुछ हिस्से चुन लिए हैं, जिनसे हम सिर्फ आनंदित होंगे! लेकिन कभी आपने सोचा कि वह हिस्से हमने कैसे चुन लिए हैं? क्योंकि शरीर तो इकट्ठा है। उसमें हमने कोई हिस्से कैसे चुन लिए हैं? वह हमें चुनवाए गए हैं। सप्रेशन में, रिप्रेशन में वह जो चट्टान हम पर गिर गई है, उसने हमें चुनवा दिया है।
छोटा बच्चा अपने पूरे शरीर से खेलता है। वह अपनी जननेंद्रिय से भी खेलेगा। लेकिन मां-बाप उसको रोकेंगे कि बंद करो, यह क्या कर रहे हो? पहली दफा उसे पता चलेगा कि जननेंद्रिय को छूना कुछ पाप है। बस, उसके शरीर में और जननेंद्रिय में एक फासला हो गया। अब जिंदगी भर यह हिस्सा उसके शरीर का हिस्सा होने वाला नहीं है। और पहली दफा वह कांशस हो गया है कि शरीर में कोई एक ऐसा हिस्सा भी है जिसको छूना पाप है, देखना पाप है, जिसको छिपाना है, जिसको छूना नहीं है। और वह जिंदगी भर इसी इंद्रिय के आस-पास भटकता रहेगा। वह जो छूने की तृप्ति अधूरी रह गई है, और वह जो उसका चित्त चेतन हो गया है, तो सारी दुनिया फैलिक हो गई है। सारी दुनिया सेक्स सेंटर के पास भटक रही है।
और भटकाने का कारण गंदी फिल्में नहीं हैं, भटकाने का कारण गंदे उपन्यास नहीं हैं, और भटकाने का कारण गंदे गीत नहीं हैं, और भटकाने का कारण गंदे पोस्टर नहीं हैं। भटकाने का कारण बच्चे को शरीर में दमन की शुरुआत है। बच्चे को हमने सिखा दिया है कि यह हिस्सा मत छूना। बच्चे को कुछ पता ही नहीं है, उसका पूरा शरीर उसका शरीर है। उसे पता ही नहीं है, और पता होने का कोई कारण भी नहीं है।
दुनिया अगर स्वस्थ होगी तो हमारा भी पूरा शरीर, हमारा पूरा शरीर होगा। उसका यह हिस्सा अलग और वह हिस्सा अलग नहीं हो जाएगा। लेकिन बच्चे को हम कांशस किए दे रहे हैं, उसको बार-बार झिड़के दे रहे हैं। उसके शरीर के एक हिस्से के प्रति कंडेम्नेशन और निंदा भरे दे रहे हैं। उसका एक हिस्सा शरीर से अलग हो जाएगा। वह अलग हो गया।
जब वह अलग हो जाएगा तो वह जीवन भर उस हिस्से से वापस जुड़ने की तलाश करता रहेगा। वह जिंदगी भर उसी परेशानी में जीएगा! उसके सपने सब कामोत्तेजना से भर जाएंगे। उसकी कहानियां, उसके उपन्यास, उसके गीत, उसकी फिल्में सब उसको सब्स्टीट्यूट देने की कोशिश करेंगी कि यह सब्स्टीट्यूट है। इससे तुम अपने मन को तृप्त कर लो, लेकिन वह तृप्ति न हो पाएगी। वह शिवलिंग भी बनाएगा। और शिवलिंगों की कहानी तो पुरानी पड़ गई, वह नये-नये प्रतीक खोजेगा, जिनसे कि वह वही तृप्ति पाना चाह रहा है जो उससे छीन ली गई है। यह छीनी गई तृप्ति, यह छीना गया भाव, यह दमन, यह निंदा उसके झरने को तोड़ देगी और गलत रास्तों पर ले जाएगी।
यह बड़ी आश्र्चर्य की बात है, यह बहुत हैरानी की बात है कि हम शरीर के कुछ हिस्सों के प्रति इतने पागल क्यों हो गए हैं? अगर एक मूर्ति बनाई जाती है स्त्री की, तो उस मूर्ति में ऐसा नहीं लगता कि स्तन जो बनाए गए हैं, वे कोई मूर्ति के हिस्से हों। ऐसा लगता है कि स्तन बनाने के लिए ही मूर्ति बनाई गई है। एक चित्र बनाया जाता है स्त्री का, तो ऐसा नहीं लगता है कि पूरी स्त्री महत्वपूर्ण है, स्तन ही महत्वपूर्ण हैं! सारी मनुष्यता स्तन के प्रति इतनी आतुर क्यों है?
दो कारण हैं। एक तो बच्चे से स्तन बहुत जल्दी छीन लिया गया है। वह उसका पहला परिचय था, वह उससे जल्दी छीन लिया गया है। उसके मन में उसकी आकांक्षा रह गई है। इसलिए पुरुष जीवन भर स्तन के प्रति आतुर है, उत्सुक है, परेशान है।
स्त्री क्यों उत्सुक है इतनी? अगर पुरुष से छीन लिया गया है, तो स्त्री क्यों उत्सुक है? वह भी उत्सुक है। उससे भी जल्दी छीना गया है, एक। और बहुत जल्दी उसे सचेत कर दिया गया है कि शरीर का यह हिस्सा शरीर का हिस्सा नहीं है, इसे छिपाना है, या दिखाना है! लेकिन इसे स्वीकार नहीं कर लेना है सहज कि यह शरीर का हिस्सा है। शरीर में हमने हिस्से काट दिए हैं। और तब उसके परिणाम होंगे, दुष्परिणाम होंगे और आदमी रुग्ण होता चला जाएगा, बीमार होता चला जाएगा। और नई-नई मुसीबतें, उनको हल करने के लिए लाई गई, बीमारियां पैदा करती रहेंगी।
लेकिन कभी हम बुनियाद में जाकर यह न देखेंगे कि आदमी के झरने पर गिराए गए पत्थर को हटाएं, आदमी को स्वस्थ करें, उसे सरल करें, उसे सहज करें। वह जैसा पैदा हुआ है, उसको हम वैसा बढ़ाने की कोशिश करें। और उसकी जिंदगी में उसकी धारा खंड-खंड न हो जाए, अखंड रह सके, इसकी दिशा में कुछ काम करें।
अब तक यह नहीं हो सका है, इसलिए आदमी सूली पर लटक गया है। और आगे भी यह नहीं हो सकेगा। अगर हमारी समझ में न आए, तो हम पत्थर हटाएंगे नहीं। हम सब पत्थर रखने वाले लोग हैं। हम सब पत्थर... और अच्छे लोग, भले लोग पत्थर रखे चले जा रहे हैं। एक-एक आदमी पर पत्थर रखे चले जा रहे हैं।
हमारी पूरी सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा की व्यवस्था, मां, बाप, मित्र, प्रियजन सब एक नये आए बच्चे पर पत्थर रखने की कोशिश में लगे हैं। सब तरफ से उसे दबा देंगे। कल वह कुरूप, अपंग होकर खड़ा हो जाएगा। फिर उसकी हम निंदा भी करेंगे। फिर हम उसे अपराधी भी ठहराएंगे। फिर कल हम उसे जेलखाने भी भेजेंगे, पागलखाने भी भेजेंगे। कल वह मरीज होकर अस्पताल में भर्ती भी होगा। यह सब चलेगा, यह सब उपाय चलता रहेगा, लेकिन पत्थर को हम न हटाएंगे। पत्थर अपनी जगह है।
बल्कि कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि शायद पत्थर ठीक से नहीं रखा जा सका, इसलिए यह सारी गड़बड़ हो गई है। कुछ लोग हैं जो कहते हैं, और जोर से दमन करो। कुछ लोग हैं जो कहते हैं, और जोर से पत्थर रख दो, झरने को प्रकट ही मत होने दो। तो फिर कहां से... गंदे डबरे बनेंगे, झरना प्रकट ही नहीं होगा। कुछ लोग तो हैं, जो यह कहते हैं कि अगर आदमी किसी तरह मार डाला जा सके, उसका सब काट दिया जाए, वह बिलकुल भूत-प्रेत की तरह रह जाए, छाया की तरह, जिसमें जिंदगी बिलकुल न हो--ऐसे लोग हमारे चारों तरफ खड़े हैं।
उनमें महात्मा हैं, धर्मगुरु हैं। उनमें वे सारे लोग हैं, जिनके हम चरणों में सिर झुकाते हैं। वे सारे लोग हमारी गर्दन को कसने में लगे हुए हैं। वे हमें जिंदा रहने में सहयोगी बनने को नहीं हैं। वे हमें रास्ता बता रहे हैं मोक्ष जाने का। वे हमें जिंदा रहने का रास्ता नहीं बता रहे हैं। वे कह रहे हैं कि तुम कैसे जल्दी मरो, और तुम मर कर फिर कैसे वापस जिंदगी में न आ सको, इसका रास्ता हमें बता देते हैं। पहली तो गलती यह की कि जिंदगी में आए, अब दुबारा यह गलती मत कर लेना जिंदगी में लौटने की। यह जिंदगी बड़ा पाप है। यह शरीर बड़ा पाप है, इस सबको हटाओ, इस सबको मिटाओ और मोक्ष की यात्रा करो। आवागमन से मुक्त हो जाओ।
यह जो प्रवृत्ति अगर शेष रह गई--आज तक रही है, आज तक की पूरी मनुष्यता को हमने यही जहर, यही विष उसके खून में डाला है, तो ह म जिंदगी को प्रफुल्लता से नहीं भर पाए हैं।
नीत्शे कहता था, और नीत्शे ठीक कहता था, नीत्शे कहता था: धर्मगुरुओं ने मनुष्य का दमन किया कि वे उसको धार्मिक बना सकेंगे। धार्मिक वे नहीं बना पाए। धर्मगुरुओं ने मनुष्य को जहर पिलाया, ताकि मनुष्य के स्वभाव को नष्ट कर दें और उसको वह बना लें जो वे बनाना चाहते हैं। जो मूर्ति वे ढालना चाहते हैं, ढाल लें।
वह मूर्ति नहीं ढल पाई, लेकिन एक बड़ा दुष्परिणाम जरूर हुआ। आदमी को जहर दे दिया था बदलने के लिए, वह बदला तो नहीं, लेकिन जहरीला हो गया, पायज़नस हो गया। उसका सब विकृत हो गया, कुरूप हो गया, सब तरफ खराब हो गया।
मैंने कल एक प्रतीक कथा कही थी कि जीसस को सूली लगाई गई, तो उनके दोनों तरफ दो चोर भी लटकाए गए थे। मुझे यह खयाल में बड़ा अर्थपूर्ण मालूम पड़ता है। जिसे हम बुराई कहते हैं और जिसे हम भलाई कहते हैं, वह जिंदगी को दो हिस्सों में तोड़ कर देखी गई तरकीब है। जब तक हम बुराई और भलाई दोनों को एक साथ खड़ा करके दोनों को स्वीकार करके जिंदगी का भवन न बनाएंगे, तब तक एक तरफ बुरा आदमी सूली पर लटक जाएगा और एक तरफ अच्छा आदमी भी सूली पर लटक जाएगा। क्योंकि बुरा आदमी भी आधा आदमी है और अच्छा आदमी भी आधा आदमी है। पूरा आदमी कोई भी नहीं है। और जब तक पूरा आदमी न हो, तब तक सूली पर लटकना ही पड़ेगा। दुख और पीड़ा और चिंता की सूली पर लटकने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है।
लेकिन कुछ चीजों को हमने बुरा करार दे दिया है। अब हम दुबारा सोचने को भी राजी नहीं हैं कि क्या बुरा है उनमें! क्या बुरा है उनमें, इसे सोचने को हम राजी भी नहीं हैं। हमने शरीर को बुरा करार दे दिया है और हमने मान लिया हजारों साल में कि शरीर बुरा है। आज हम फिर दुबारा सोचने को तैयार नहीं हैं कि शरीर में क्या बुराई है।
सच तो यह है कि जीवन के सारे आनंद शरीर के द्वारा ही हम तक आते हैं। सूरज की किरण भी शरीर से हम तक आती है। फूल की सुगंध भी शरीर से हम तक आती है। पक्षियों के गीत भी शरीर से हम तक आते हैं। इस सारे जगत का जो कुछ भी हम तक आता है, वह शरीर से आता है। और ध्यान रहे, हम भी इस जगत तक शरीर से ही जाते हैं। अगर एक फूल तक मैं पहुंचता हूं तो मेरे हाथ के द्वारा, और अगर सूरज तक मैं पहुंचता हूं तो मेरी आंख के द्वारा।
लेकिन शरीर की निंदा करके हमने शरीर के सब द्वारों पर खीले ठोक दिए हैं, ताले ठोक दिए हैं, चाबियां बंद कर दी हैं, क्योंकि शरीर बुरा है। इसलिए शरीर के कुछ हिस्से हमने बिलकुल बंद कर दिए हैं। शरीर की सबसे बड़े आनंद की जो क्षमता है, वह है स्पर्श। लेकिन हम कभी शरीर के स्पर्श-आनंद को स्वीकार करने की तैयारी में नहीं हैं।
न तो हम कभी नग्न होकर हवाओं में नाचते हैं कि हवाएं हमारे पूरे शरीर को छू लें, न कभी हम नग्न होकर सूरज की रोशनी में बैठते हैं कि सूरज की पूरी किरणें हमारे रंध्र-रंध्र को स्पर्श कर जाएं। न कभी हम रेत में लेटते हैं, न कभी हम पानी में लोटते हैं। न कभी हम किसी व्यक्ति को पूरे प्राणों से प्रेम करते हैं और पूरे शरीर से स्पर्श कर लेते हैं। सब तरफ भय हो गया है! स्पर्श हमने कुंठित कर दिया है। शरीर का स्पर्श सबसे बड़ा संवेदन है। तो स्पर्श का हमने विरोध कर दिया है! और सब अपने-अपने हृदय पर तख्ती लगाए हुए हैं, टच मी नाट। मुझे छुएं मत। वह दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन हर आदमी लगाए हुए है कि मुझे छुएं मत, जरा फासले पर रहें! हम बात भी करते हैं तो एक जेंटलमैनली डिस्टेंस, एक सभ्य आदमी का फासला है, उससे हम बात करते हैं!
मैं एक जंगली कबीले में कुछ दिन था, तो मैं बड़ा हैरान हुआ। उस जंगली कबीले के लोग अगर घंटे भर बात करें, तो कम से कम सौ बार आपके शरीर को छुएंगे। बातचीत करेंगे तो कितनी बार आपके शरीर को पकड़ लेंगे, इसका हिसाब मैंने लगाया तो मैंने पाया है कि घंटे भर अगर बातचीत चलती हो, तो कम से कम सौ बार। हमारी घंटे भर की बातचीत में अगर तीन बार भी शरीर का स्पर्श हो जाए तो बहुत है। और अगर स्पर्श हो, तो बहुत ही निकट जो हैं उनके ही शरीर का हो सकता है। अगर अपरिचित, अनजान आदमी के शरीर को आप निकट मान लें, तो झगड़ा और झंझट हो सकती है। हमने शरीर के स्पर्श पर बिलकुल दरवाजे बंद कर दिए हैं। और शरीर के स्पर्श से हमारे पास जीवन के बड़े सुख आते हैं, लेकिन हमने सब बंद कर दिया है।
हमने कुछ द्वार थोड़े से खुले रखे हैं--एक आंख हमने खुला हुआ द्वार रखा है, इसलिए आंख बड़ी रुग्ण हो गई है। क्योंकि उससे हम बहुत से काम ले रहे हैं। अगर हमें किसी आदमी को प्रेम में छूना हो, तो छू तो नहीं सकते, तो फिर आंख से ही उसको छूना पड़ता है, तो आंख बीमार हो जाती है, क्योंकि आंख छूने का काम नहीं कर सकती। इसलिए लुच्चे पैदा हो गए हैं।
लुच्चे का मतलब आप समझते हैं? लुच्चे का मतलब घूर कर देखने वाला, और कुछ मतलब नहीं होता। वह आंख से हाथ का काम ले रहा है, लुच्चे का मतलब है। लोचन संस्कृत में आंख को कहते हैं। लुच्चा वह जो आंख ही आंख हो गया है, और कुछ मतलब नहीं है। आलोचक कहते हैं न हम। आलोचक उसको कहते हैं, जो बहुत गौर से किसी चीज को देखे। लुच्चा उसको कहते हैं, जो देखता ही चला जाए, जो देखना जिसका स्टेअर, जिसका बिलकुल ही घूरना बन जाए। वह हाथ का काम आंख से ले रहा है, बेचारा व्यर्थ लुच्चा हो गया है।
और सच बात यह है कि अगर हम अपने भीतर खोज करें, तो सौ में से सौ के भीतर लुच्चा मिल जाएगा। इससे कम में नहीं मिलेगा। मिल ही जाएगा, क्योंकि वह जो काम शरीर से होना था, वह हमें आंख से लेना पड़ रहा है। हमने एक आंख-केंद्रित एक द्वार खोल दिया है, उससे हमें बहुत काम लेना पड़ रहा है। आंख बिलकुल रुग्ण और बीमार हो गई है। न वह ठीक से देख पाती है, न वह ठीक से पहचान पाती है, क्योंकि जो उसका काम नहीं है, वह हम उससे ले रहे हैं।
यह भी पत्थर है हमारे ऊपर, हमारी कोई भी इंद्रिय मुक्त होकर पूरा काम नहीं कर पा रही है। न हम ठीक से सुनते हैं, न ठीक से स्पर्श करते हैं, न ठीक से देखते हैं, क्योंकि शरीर की निंदा है, तो इन सबके प्रति भी निंदा हो गई। धर्मगुरु समझाते हैं कि भोजन में स्वाद भी मत लेना, अस्वाद से भोजन करना। गांधी जी के ग्यारह नियमों में एक नियम वह भी है: अस्वाद से भोजन करना, स्वाद मत लेना!
हद पागलपन की बात है। हद पागलपन की बात है! यह तो समझ में आता है कि इतना स्वाद लेना कि भोजन भी ब्रह्म मालूम पड़ने लगे। यह समझ में आ सकता है। इतना स्वाद लेना कि भोजन से भी उसके दर्शन हो जाएं, जो परम है। लेकिन स्वाद ही मत लेना, तो उसका अंतिम परिणाम क्या होगा? उसका अंतिम परिणाम होगा कि सप्रेस करना पड़ेगा। स्वाद तो आएगा, और आपको लेना नहीं है, तो आपको जीभ को मारना पड़ेगा। धीरे-धीरे जीभ का द्वार बंद हो जाएगा। इसी तरह हम सब द्वार बंद कर देंगे, तो व्यक्ति बंद हो जाएगा।
कभी आपने सोचा, अगर आपके पास आंखें न हों, तो यह जिंदगी, यह दुनिया इतनी ही होगी, जितनी है? इसमें से एक बहुत बड़ा हिस्सा कट जाएगा। वह कभी नहीं होगा। अगर आपके पास कान भी न हों, तो आपको पता है कि जिंदगी यही होगी, जो है? एक बहुत बड़ा हिस्सा कट जाएगा। अगर आंखें नहीं हैं, तो रंग और रूप और किरणों से संबंधित सब दुनिया विदा हो जाएगी। अगर कान नहीं हैं, तो ध्वनि से संबंधित सारा जगत विलीन हो जाएगा। अगर स्वाद नहीं है, तो स्वाद से संबंधित जगत विदा हो जाएगा। अगर गंध नहीं है, तो गंध विदा हो जाएगी। अगर स्पर्श नहीं है, तो स्पर्श विदा हो जाएगा। अगर पांचों इंद्रियों को बंद किया जा सके, तो आप अपनी कैपसूल में बंद हो जाएंगे, कब्र में। आप इस जगत और परमात्मा से संबंधित नहीं हो जाएंगे, आप सिर्फ अपने अहंकार में बंद हो जाएंगे। दमन करने वाले लोगों ने इंद्रियों का द्वार बंद करना सिखाया है; जीवन की राह नहीं, जीवन का मार्ग नहीं!
तो मैं आपसे कल तीसरे सूत्र में यह कहना चाहूंगा कि इंद्रियों से इतने बाहर जाएं, इतने बाहर जाएं, और इंद्रियों से इतना भीतर आने दें कि बाहर और भीतर का फासला ही अंत में गिर जाए। जब तक बाहर-भीतर का फासला बना रहेगा, तब तक जीवन की परिपूर्णता का आनंद उपलब्ध नहीं हो सकता। तब तक पत्थर हमारी छाती पर रखा है। यह मैंने दूसरे सूत्र की बात कही।
कुछ मित्रों के प्रश्र्न आए हैं, वह धीरे-धीरे मैं बात कर लूंगा। जो मित्र कल सुबह ध्यान के लिए आना चाहें, वे स्नान करके आएं, ताजे कपड़े पहन कर आएं, और घर से आते वक्त चुप और मौन आएं, और वहां स्थान पर आकर कोई बात न करें, कोई शब्द का उपयोग न करें, चुपचाप आकर बैठ जाएं। ठीक आठ बजे के पहले आ जाएं। आज कुछ लोग थोड़ी बाद में पहुंचे। फिर बात पूरी हो जाती है, फिर उन्हें कठिनाई होगी समझने में। ठीक आठ के पांच-दस मिनट पहले पहुंच जाएं। आठ के बाद नहीं। आठ के पहले आ जाएं, आठ से नौ तक वहां ध्यान का प्रयोग होगा। यहां ध्यान के संबंध में कुछ प्रश्र्न पूछे हैं, वह मैं वहीं बात करूंगा। यहां सांझ की जो चर्चाएं होंगी, उस संबंध में बात होगी।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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