QUESTION & ANSWER
Karuna Aur Kranti 02
Second Discourse from the series of 6 discourses - Karuna Aur Kranti by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
ध्यान का अर्थ है: समर्पण, टोटल लेट-गो।
ध्यान का अर्थ है: अपने को पूरी तरह छोड़ देना।
और जैसे ही कोई व्यक्ति अपने को पूरी तरह छोड़ देता है, वह परमात्मा के हाथों में गिर जाता है। जब तक हम अपने को पकड़े हुए हैं, तब तक परम शक्ति से हमारा मिलन नहीं हो सकता। हमें अपने को छोड़ना ही पड़ेगा। हमें अपने को खो ही देना होगा। हमें मिटना ही होगा, तभी हम उसके साथ एक हो सकते हैं, जो सच में है। जैसे कोई लहर अपने को जोर से पकड़ ले, तो फिर सागर नहीं हो सकती है और लहर अपने को छोड़ दे, बिखर जाए, खो जाए, तो वह सागर है ही।
ध्यान कोई क्रिया नहीं है, जो आपको करनी है। ध्यान है सब क्रियाओं का छोड़ देना। ध्यान कोई अभ्यास नहीं है जो आप कर सकते हैं। ध्यान है सब अभ्यास का छोड़ देना। ध्यान है बस रह जाना--जैसे हम हैं, जो हम हैं। और कुछ भी न करना।
तो इस ध्यान की स्थिति को समझने के लिए पहले दो-तीन छोटे प्रयोग हम करेंगे, ताकि आपको भीतर से खयाल में आ सके कि ध्यान क्या है। फिर उसके बाद हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
और ध्यान को शब्द से समझाना कठिन है। कोई क्रिया होती, अभ्यास होता, शब्द से बताया जा सकता है। लेकिन ध्यान का थोड़ा सा अनुभव खयाल में ले आना आसान है। तो हम तीन छोटे से प्रयोग करेंगे, जिनसे खयाल आ सके कि ध्यान का भाव क्या है। फिर उसके बाद हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
पहला प्रयोग है, वह समझ लें। फिर पांच मिनट हम उस प्रयोग को करेंगे। फिर दूसरा; फिर तीसरा; और फिर चौथा प्रयोग हम ध्यान का करेंगे।
पहला प्रयोग है, उसे समझना ही है भीतर प्रयोग करके। तो मैं इधर कहूंगा, आप उधर प्रयोग करेंगे। एक तो थोड़े-थोड़े फासले पर बैठें, कोई किसी को छूता हुआ न हो। किसी को भी कोई छू न रहा हो। थोड़े आगे आ जाएं या थोड़े पीछे हट जाएं, थोड़े घास पर हट जाएं, लेकिन कोई किसी को स्पर्श न करता हो। फिर आंख आहिस्ता से बंद कर लें। जोर से बंद नहीं करनी है। आंख पर भी जोर न पड़े, बहुत धीमे से आंख बंद कर लें। जैसे पलक गिरा दी है, आंख बंद हो गई है। आंख पर भी जोर नहीं होना चाहिए। और अपने को बिलकुल ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें और ढीला छोड़ दें। किसी तरह की शरीर पर कोई स्ट्रेन न रह जाए।
अब भीतर सिर्फ मैं एक कल्पना करने को कहता हूं, ताकि खयाल आ सके कि ध्यान से क्या मतलब है। भीतर देखें कि एक बड़ी नदी बही जा रही है। पहाड़ों के बीच में एक बड़ी नदी बही जा रही है। जोर की लहरें हैं, जोर का बहाव है। पहाड़ी नदी है। भीतर देखें कि दो पहाड़ों के बीच में एक बड़ी नदी तेजी से बही जाती है। जोर का बहाव है, जोर की आवाज है, लहरें हैं, तेज गति है, और नदी बही जा रही है। देखें, उसे स्पष्ट देखें। नदी तेजी से बही जा रही है। वह साफ दिखाई पड़ने लगेगी।
इस नदी में आपको उतर जाना है, लेकिन तैरना नहीं है, बहना है, जस्ट फ्लोटिंग। इस नदी में आप उतर जाएं और बहना शुरू कर दें। हाथ-पैर न चलाएं, सिर्फ बहे जाएं, बहे जाएं, बहे जाएं। हाथ-पैर चलाएं ही मत। तैरना नहीं है, सिर्फ बह जाना है।
नदी में हमने अपने को छोड़ दिया है और नदी भागी चली जा रही है और हम उसमें बहे जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं...। कहीं पहुंचना नहीं है, किसी किनारे पर नहीं जाना है। कोई मंजिल नहीं है, इसलिए तैरने का कोई सवाल नहीं है। बस सिर्फ बहना है। छोड़ दें, और बहें। नदी में बहने की जो अनुभूति होगी, वह फिर ध्यान को समझने में सहयोगी होगी। एक पांच मिनट के लिए उस नदी में छोड़ दें और बहते जाएं। नदी का कोई अंत नहीं है, वह बही ही चली जा रही है। आप भी उसमें बहने लगे हैं। कुछ करना नहीं है, हाथ-पैर भी नहीं चलाना है, सिर्फ बहते जाना है, बहते जाना है। देखें, नदी बह रही है, आप भी उसके साथ बहने लगे हैं। जरा भी तैरते नहीं हैं, बस बहे जा रहे हैं...।
पांच मिनट मैं चुप हो जाता हूं--आप बहने का, फ्लोटिंग का अनुभव करें।
बहे जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं, नदी में छोड़ दिया है--जरा भी तैरना नहीं है। हाथ-पैर भी नहीं हिलाना है। बहे जा रहे हैं। जैसे एक सूखा पत्ता नदी में बहता चला जाता हो, ऐसे ही छोड़ दें। देखें, बहते चले जा रहे हैं, बहते चले जा रहे हैं, बहते चले जा रहे हैं...। और बहने के साथ ही साथ एक अनुभव होना शुरू हो जाएगा--समर्पण का, सरेंडर का। नदी के साथ छोड़ दें अपने को, लेट-गो का एक अनुभव होना शुरू हो जाएगा। बहें, बहते चले जाएं। नदी तेजी से बही जा रही है, लहरें तेजी से भागी जा रही हैं, आप भी नदी में छूट गए हैं और बहे जा रहे है। कुछ करना नहीं है, बहते चले जाना है...।
बिलकुल छोड़ दें, और बह जाएं। नदी और तेजी से बही जाती है, और आप बहे जा रहे हैं।
इसको ठीक से अनुभव कर लें--बहने की इस प्रतीति को। बहने के इस अनुभव को ठीक से समझ लें, क्या है। फिर ध्यान में वह सहयोगी होगा। ठीक से समझ लें कि यह बह जाने का अनुभव क्या है--जब हम हाथ-पैर भी नहीं चला रहे और नदी हमें लिए जा रही है, लिए जा रही है, लिए जा रही है। सब-कुछ नदी कर रही है, हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं। इसे ठीक से देख लें, ताकि यह खयाल में आ जाए। सब-कुछ नदी कर रही है, हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, हम सिर्फ बह रहे हैं--एक सूखे पत्ते की तरह।
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें और दूसरा प्रयोग पांच मिनट करें, जो मैं कहता हूं। धीरे-धीरे आंख खोल लें।
ध्यान है, समर्पण।
ध्यान है, अपने को खो देना।
ध्यान है, मिट जाना।
ध्यान है, सब भांति विसर्जित हो जाना।
हमारा गिरना जरूरी है, हमारा मिटना जरूरी है। हमारा होना बाधा है। जैसे एक वृक्ष को कोई काट दे और वृक्ष गिर जाए, जैसे एक बीज जमीन में पड़ा हो और टूटे और मिट जाए, ठीक ऐसे ही हमें भी भीतर से बिखर जाना और मिट जाना है।
दूसरा प्रयोग इस मिटने की दिशा में समझें। आंख बंद कर लें और अपने को ढीला छोड़ दें।
पहली बात हमने समझी बहने की। अब दूसरी बात मिटने की समझें कि बिलकुल मिट गए हैं। आंख बंद करें। बहुत आहिस्ता से आंख बंद कर लें और शरीर ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर ली है, शरीर ढीला छोड़ दिया है। देखें, सामने ही एक चिता जल रही है। लकड़ियां लगी हैं, जोर से आग की लपटें पकड़ गई हैं, चिता जोर से जल रही है। चिता को जलता हुआ देखें। लकड़ियों में आग पकड़ गई है, चिता का जलना शुरू हो गया है। ठीक से देखें चिता को। आग पकड़ गई है, लपटें जोर से ऊपर भाग रही हैं आकाश की तरफ, चिता जल रही है।
दूसरी बात खयाल से देखें कि इस चिता को आप देख नहीं रहे हैं, इस चिता पर आप चढ़े हुए हैं। आप ही इस चिता पर चढ़ा दिए गए हैं। सब मित्र, प्रियजन आपके चारों तरफ खड़े हैं। आग लगा दी गई है, इस चिता पर आप चढ़ा दिए गए हैं। लकड़ी ही नहीं जल रही है, आप भी जल रहे हैं। लकड़ियों में लपटें लगी हैं, आप भी जले जा रहे हैं।
थोड़ी देर में सब राख हो जाएगा--लकड़ियां भी और आप भी। अपने को ही अपनी चिता पर चढ़ा हुआ अनुभव करें। देखें, सामने अपना ही शरीर उस चिता पर चढ़ा है और आग में जला जा रहा है।
एक पांच मिनट इस अनुभव को करें, ताकि मिटने का बोध खयाल में आ सके। एक दिन तो चिता जलेगी ही कभी, एक दिन आप उस पर चढ़ेंगे ही। सभी को उस पर चढ़ जाना है। तो आज अपने मन के सामने ठीक से देख लें: चिता की जलती हुई लपटें, आकाश की तरफ भागती हुई अग्नि-शिखाएं, और आप चढ़े हैं। लकड़ियां ही नहीं जल रही हैं, आप भी जले जा रहे हैं। देखें, जोर से लपटें बढ़ती चली जाती हैं। आपका शरीर भी जला जा रहा है, सब मिटा जा रहा है, सब समाप्त हुआ जा रहा है। थोड़ी देर में आग भी बुझ जाएगी, राख रह जाएगी। लोग विदा हो जाएंगे, मरघट खाली, सुनसान हो जाएगा।
अब देखें, चिता पर चढ़े हुए हैं आप। मैं चुप हो जाता हूं...
लपटें जलती रहेंगी। आपको कुछ करना नहीं है। लपटें जलेंगी, जला देंगी, सब राख हो जाएगा। थोड़ी देर भीड़ खड़ी रहेगी मित्रों की, प्रियजनों की आस-पास, फिर वे भी विदा हो जाएंगे। फिर राख ही पड़ी रह जाएगी। मरघट सुनसान हो जाएगा।
देखें, शुरू करें; लपटें साफ देखें, उन पर आप भी चढ़ें हैं और जल रहे हैं। कुछ करना नहीं है। जलने में क्या करना है? जल जाना है। आग काम कर देगी, लपटें काम कर देंगी। आपको तो कुछ भी नहीं करना है, जल जाना है, मिट जाना है। पांच मिनट के लिए आग पर, चिता पर अपने को चढ़ा हुआ देखते रहें। फिर धीरे-धीरे लपटें बुझ जाएंगी, सब शांत हो जाएगा।
यह मिट जाने के अनुभव को ठीक से स्मरण रख लेना, वह ध्यान में काम पड़ सकेगा।
लपटें बढ़ती जा रही हैं, शरीर जलता जा रहा है, आप भी जलते चले जा रहे हैं। लपटें बढ़ती चली जा रही हैं, आप भी मिटते चले जा रहे हैं। सब धुआं हो जाएगा, सब राख हो जाएगी, मरघट शांत हो जाएगा। जरा भी अपने को बचाने की कोशिश मत करना, छोड़ देना लपटों में, ताकि सब जल जाए, सब मिट जाए, सब राख हो जाए।
देखें, लपटें बढ़ती चली जाती हैं, धुआं बढ़ता चला जाता है, सब जला जा रहा है। आप ही जले जा रहे हैं, मिटे जा रहे हैं।
इसे बहुत साफ देख लें, ताकि ध्यान में सहयोगी हो जाए, क्योंकि ध्यान भी एक तरह की मृत्यु है। देखें, साफ देखें--सब जल रहा है, सब मिट रहा है, सब समाप्त हो रहा है। और आपको कुछ भी नहीं करना है, बस जल जाना है, मिट जाना है। आग सब काम कर लेगी। आपको क्या करना है? आग सब काम कर रही है, जलाए दे रही है। लपटें भागी चली जा रही हैं, सब मिटता चला जा रहा है।
नदी में तो तैर भी सकते थे, यहां तो तैर भी नहीं सकते हैं। यहां तो तैरने का उपाय ही नहीं है। सब मिटा जा रहा है, लपटें सब समाप्त किए दे रही हैं! देखें, धुआं रह जाएगा, राख रह जाएगी, मरघट सुनसान हो जाएगा, लोग विदा हो जाएंगे।
हवाएं चल रही हैं, लपटें और जोर से बढ़ी जा रही हैं, हवाएं लपटों को बढ़ाए दे रही हैं। सब जला जा रहा है, सब जला जा रहा है, सब जला जा रहा है, थोड़ी देर में सब राख हो जाएगा। हवाओं ने लपटें और जोर से कर दी हैं।
देखें, सब जल गया है। लपटें बुझती जा रही हैं, राख पड़ी रह गई है, लोग विदा होने लगे हैं। मरघट पर सन्नाटा छा गया है। हवाएं फिर भी चलती रहेंगी, राख उड़ती रहेगी, मरघट पर कोई न होगा, लोग विदा होने लगे हैं। सब सन्नाटा हो गया है। आप मिट गए हैं, राख ही पड़ी रह गई है।
इसे ठीक से देख लें। यह ध्यान में देखना अत्यंत जरूरी है। ठीक से देख लें, सब पड़ा हुआ रह गया है। राख ही पड़ी रह गई है, बुझे हुए अंगारे रह गए हैं, लोग जा चुके हैं। अब मरघट पर कोई नहीं है, आग भी बुझ गई है, आप भी मिट गए हैं।
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें और तीसरे प्रयोग को समझें और फिर उसे करें। धीरे-धीरे आंख खोल लें और ठीक बैठ जाएं।
पहली बात है यह समझ लेना कि बहने का क्या अर्थ है। दूसरी बात है यह समझ लेना कि मिटने क्या अर्थ है। और अब तीसरी बात समझनी है, तीसरी बात का नाम है--तथाता, सचनेस।
यह तीसरी बात इन दोनों से ज्यादा आगे ले जाने वाली है। और ये तीन सीढ़ियां ठीक से समझ लेनी हैं।
तथाता या सचनेस का मतलब है: ‘चीजें ऐसी हैं।’ रास्ते पर आवाज आ रही है, क्योंकि रास्ते पर आवाज आएगी ही। पक्षी शोरगुल कर रहे हैं, क्योंकि पक्षी शोरगुल करेंगे ही। समुद्र की लहरें किनारे से टकरा रही हैं, आवाज आ रही है, क्योंकि समुद्र की लहरें और क्या कर सकती हैं। जो हो रहा है, वैसा हो रहा है, वैसा है! वैसा हो ही सकता है, अन्यथा कोई उपाय ही नहीं! तथाता का मतलब है कि कोई विरोध का कारण नहीं है। कुछ अन्य हो जाए इसकी अपेक्षा की जरूरत नहीं है। जैसा है, वैसा है। घास हरा है, आकाश नीला है, समुद्र की लहरें शोर कर रही हैं, पक्षी आवाज मचा रहे हैं, कौवे चिल्ला रहे हैं, सड़क पर लोग जा रहे हैं, कारों की आवाज हो रही है, हॉर्न बज रहे हैं--ऐसा है! इस होने की स्थिति में हमारा कोई विरोध नहीं है। इस होने की स्थिति से हम राजी हो गए हैं। हम पूरी तरह राजी हैं कि ऐसा है। न हम चाहते हैं कि कौवे आवाज बंद कर दें; न हम चाहते हैं कि सड़क पर लोग हॉर्न न बजाएं; न हम चाहते हैं कि समुद्र की लहरें शोरगुल न करें। ऐसा है, जगत ऐसा है!
जगत के संबंध में भी यह बात ध्यान रखनी है कि ऐसा है और हम इसके लिए पूरी तरह राजी हैं। हमारा कोई विरोध नहीं है। और अपने संबंध में भी ध्यान रखना है भीतर कि ऐसा है। पैर में चींटी काट रही है तो दर्द हो रहा है, ऐसा है। चींटी काट रही है और पैर में दर्द हो रहा है। इसमें कुछ विरोध नहीं है, ऐसा हो रहा है। ऊपर से धूप आ रही है और पसीने की बूंदें बह रही हैं। ठीक है, धूप आएगी तो पसीना बहेगा ही। इसमें कुछ विरोध नहीं है, इसमें कुछ करना नहीं है, इसे स्वीकार कर लेना है, ऐसा है!
और जैसे ही हम इसे स्वीकार करते हैं, हमारा विरोध चला जाता है, रेसिस्टेंस चला जाता है, वैसे ही भीतर कुछ शांत होना शुरू हो जाता है, जो सदा से अशांत रहा है। वह अशांत इसीलिए रहा है कि उसने चाहा है कि ऐसा हो। उसने कभी ऐसा नहीं माना है कि ऐसा है। सूरज पड़ रहा है, किरणें आ रही हैं, तो पसीना बहेगा, धूप लगेगी, ऐसा उसने स्वीकार नहीं किया है। कभी सूरज नहीं होना चाहिए, किरणें गरम नहीं होनी चाहिए, पसीना नहीं बहना चाहिए, ऐसा मन ने चाहा है। जिसे ध्यान में जाना है, उसे ऐसी आकांक्षा बड़ी बाधा बन जाएगी।
कैसा होना चाहिए, नहीं; जैसा है, है! शांत होने का एक ही अर्थ है कि जैसा है, है! और हम उसके लिए पूरी तरह राजी हो गए हैं। यह तीसरा बिंदु है--तथाता!
तो पांच मिनट, चीजें ऐसी हैं, हमें कुछ करना नहीं है। करने का कोई उपाय भी नहीं है। हम नहीं थे, तब भी चीजें ऐसी थीं। समुद्र तब भी इसी तरह शोर करता रहा, कौवे बोलते रहे, पक्षी चिल्लाते रहे, रास्ता चलता रहा। हम नहीं होंगे, तब भी चीजें ऐसी ही होंगी। तो जब हम हैं, तब भी चीजें ऐसी ही रहें तो अड़चन क्या है? कठिनाई क्या है? हमारे होने न होने से इस सारे होने का क्या संबंध है?
आंख बंद करें, आहिस्ता से आंखें ढीली छोड़ दें, शरीर को आराम में छोड़ दें, शरीर को ढीला, रिलैक्स छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। और अब तीसरे प्रयोग में उतरें--तथाता, चीजें ऐसी हैं!
हमें कुछ करना नहीं, चीजें ऐसी हैं ही। जगत ऐसा है ही। फिर कौन सी अशांति है? फिर कौन सी तकलीफ है? चीजें ऐसी हैं। बच्चा बच्चा है; बूढ़ा बूढ़ा है; स्वस्थ स्वस्थ है; बीमार बीमार है। पक्षी आवाज कर रहे हैं, घास हरी है, आकाश नीला है, कहीं धूप पड़ रही है, कहीं छाया है--ऐसा है!
अब खयाल करें, चीजें ऐसी हैं, हमारा कोई विरोध नहीं है। अविरोध, नो रेसिस्टेंस। हमारा कोई विरोध नहीं है। हम इन चीजों के बीच में, हम भी हैं। एक पांच मिनट ऐसा खयाल करें--कोई विरोध नहीं, कोई विरोध नहीं, कोई विरोध नहीं। जो है, जैसा है, हम उससे राजी हैं।
न हम कुछ बदलना चाहते हैं, न कुछ हम मिटाना चाहते हैं, न कुछ हम बनाना चाहते हैं। जैसा है, वैसा है, हम उससे राजी हैं।
एक पांच मिनट के लिए इस राजी होने की स्थिति में अपने को छोड़ दें। देखें, यह कौवे की आवाज और तरह की सुनाई पड़ेगी। जब हम राजी हो जाएंगे, तो यह कौवे की आवाज और तरह की सुनाई पड़ेगी। इससे कोई विरोध नहीं है। तो हमारे और इसके बीच की दीवाल टूट जाएगी। सुनें!
सड़क की आवाज और तरह की सुनाई पड़ेगी। अगर हमारा कोई विरोध नहीं है तो सड़क की आवाज और तरह की सुनाई पड़ेगी। सुनें!
समुद्र का शोर अब दुश्मन की तरह मालूम नहीं पड़ता है। एक डिस्टर्बेंस नहीं मालूम पड़ता है। सुनें! हमारा कोई विरोध नहीं है। जो है, जैसा है, है।
पांच मिनट के लिए जो है, उससे राजी होकर डूब जाएं।
देखें, धूप अब वैसी नहीं मालूम पड़ती है। जो है, है। अब कुछ भी वैसा नहीं मालूम पड़ता, हम शत्रु की तरह नहीं हैं, एक मित्र की तरह हैं, जो है उससे राजी हैं।
इस तीसरे सूत्र को भी ठीक से ध्यान में रख लेना--तथाता, सचनेस; चीजें ऐसी हैं। इसे ठीक से समझ लेना कि चीजें ऐसी हैं।
चीजें ऐसी हैं, कोई विरोध नहीं, कोई शत्रुता नहीं; कुछ अन्यथा हो, इसकी आकांक्षा नहीं; चीजें ऐसी हैं। धूप गरम है, छाया सर्द है, समुद्र अपने काम में लगा है, रास्ते पर चलने वाले लोग अपने काम में लगे हैं, जरा भी विरोध न रखें--बस ऐसा हो रहा है, हो रहा है, हो रहा है और हम जान रहे हैं, कुछ बदलना नहीं, कुछ मिटाना नहीं, कुछ परिवर्तन नहीं।
इस तीसरे सूत्र को ठीक से समझ लेना, क्योंकि ध्यान की गहराई में ले जाने के लिए अत्यंत जरूरी है। चीजें ऐसी हैं।
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें।
अब ध्यान के संबंध में दो-तीन बातें समझें, और फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
ये मैंने तीन सूत्र आपको समझाने की अलग-अलग कोशिश की, क्योंकि ये ध्यान में तीनों जरूरी होंगे।
एक तो बहना, तैरना नहीं।
हम जीवन भर तैरते हैं, बहते नहीं। कुछ चीजें हैं, जो तैरने से कभी भी नहीं मिल सकतीं, सिर्फ बहने से ही मिल सकती हैं। अस्तित्व, सत्य या परमात्मा कभी तैरने से नहीं मिल सकता। सिर्फ बहने से मिल सकता है। जो भी बहने को राजी है, वह सागर तक पहुंच जाएगा। नदी खुद ही ले जाती है। जो बहने को राजी है, जीवन उसे खुद ही ले जाता है, उसे कहीं जाना नहीं पड़ता है। जो तैरा, वह भटक जाएगा। तैरने वाला ज्यादा से ज्यादा इस किनारे से दूसरे किनारे पहुंच जाएगा, लेकिन सागर तक नहीं। सागर तक जिसको जाना है, उसे तैरने की जरूरत ही नहीं। उसे नदी से लड़ने की जरूरत ही नहीं। वह तो बह जाए। नदी तो खुद ही सागर की तरफ जा रही है।
जीवन स्वयं ही परमात्मा की तरफ जा रहा है, अगर हम न रोकें तो जीवन अपने आप परमात्मा तक पहुंचा देता है। हम रोक लेते हैं जगह-जगह और वह नहीं पहुंच पाता है।
इसलिए बहने का अनुभव पहला।
दूसरा मिटने का अनुभव।
हम जीवन भर अपने को बचाने की कोशिश में लगे हैं। किसी तरह अपने को बचा लें। इससे ज्यादा भ्रामक और कोई बात नहीं हो सकती। हम बचने वाले नहीं हैं। और जो बचने वाला है, उसे बचाने की कोई जरूरत नहीं है, वह बचा ही हुआ है। जिसे हम बचाने की कोशिश में लगे हैं, वह मिटने ही वाला है, इसीलिए हम बचाने की कोशिश में लगे हैं। और हमारी कोई कोशिश काम में न आएगी, वह मिट ही जाएगा। और जो बचने वाला है, वह हमारी कोशिश से न बचेगा। वह बचा ही हुआ है, उसके मिटने का उपाय ही नहीं है। हमारे भीतर जो बचने वाला है, वह सदा बचा हुआ है। और जो मिटने वाला है, वह मिटेगा ही। हमारी बचाने की कोशिश में सिर्फ हम परेशान हो जाएंगे, और कुछ भी नहीं हो सकता।
इसलिए दूसरा सूत्र मैंने आपसे कहा--मर जाने का, मिट जाने का, मिट जाने की तैयारी का।
और ध्यान रहे, जो मरने को तैयार है, वह पूरे जीवन का अधिकारी हो जाता है। क्योंकि जो मरने से भयभीत न रहा, उसके सब द्वार खुल जाते हैं। जीवन सब द्वारों से प्रवेश कर जाता है।
भय के कारण--मृत्यु न आ जाए, मिट न जाएं, हमने सब दरवाजे बंद कर लिए हैं और भीतर छिप कर बैठ गए हैं। जीवन भी नहीं आ पाता, क्योंकि दरवाजे वही हैं; जिनसे मृत्यु आती है, उन्हीं से जीवन भी आता है, उन्हें हमने बंद कर रखा है।
हमने दरवाजे बंद कर दिए हैं कि कोई शत्रु न आ जाए, लेकिन मित्र भी उन्हीं दरवाजों से आते हैं। वे दरवाजे बंद हो गए हैं, मित्रों का आना भी बंद हो गया है। हम भीतर हैं, अपने को बचाने में लगे हैं।
सब दरवाजे छोड़ दें। मिटने को राजी जो हो जाता है, वह सब दरवाजे छोड़ देता है खुले। जो ओपनिंग है, ओपननेस है, वह सिर्फ उसी को मिलती है जो मिटने को राजी है। उसको क्लोज करने का कोई सवाल ही न रहा। उसे बंद करने का कोई सवाल न रहा। वह मिटने तक को राजी है, अब और क्या डर है? वह खुद ही मिटने को राजी है, अब कौन उसे मिटा सकता है!
इसलिए दूसरा सूत्र मैंने कहा: मिटने को राजी हो जाएं, क्योंकि ध्यान की गहरी प्रक्रिया मरने की प्रक्रिया है। और जो मरना सीख जाता है, वह जीने की कला भी सीख जाता है।
और तीसरी चीज मैंने कही कि चीजें ऐसी हैं, आप लड़ें मत। जीवन को शत्रुता से न लें, एक दुश्मन की तरह खड़े न हो जाएं। हम सब दुश्मन की तरह खड़े हो गए हैं। हर चीज से लड़ रहे हैं। हर चीज ऐसी होनी चाहिए। जैसी है, वैसी हमें स्वीकार नहीं है। तब हम पूरे जीवन के साथ दुश्मनी में खड़े हो गए हैं। उससे कुछ जीवन बदल नहीं जाता है। उससे सिर्फ हम टूटते हैं और नष्ट हो जाते हैं।
तो ध्यान की गहराई तो तभी उपलब्ध होगी कि जीवन जैसा है, हम उसे परिपूर्णता से स्वीकार कर रहे हैं--ऐसा है। हमें कांटा भी स्वीकार है। अगर वह गड़ता है, तो हम कहते हैं, कांटा है, गड़ेगा ही। हमें फूल भी स्वीकार है। अगर वह नहीं गड़ता, तो हम कहते हैं, फूल है, गड़ेगा कैसे। कांटा है तो गड़ेगा, फूल है तो नहीं गड़ेगा। लेकिन हमें दोनों स्वीकार हैं, कांटे का कांटापन स्वीकार है, फूल का फूल होना स्वीकार है। न हमें कांटे से विरोध है, न हमें फूल की आकांक्षा है। जैसा है, वह हमें स्वीकार है। ऐसी स्वीकृति से ही कोई शांत हो सकता है। शांति अंततः परिपूर्ण स्वीकार का फल है। अगर आप अशांत हैं, तो अपनी अशांति को भी स्वीकार कर लें कि मैं अशांत हूं। और आप पाएंगे, यह स्वीकृति आपको शांति में ले जाती है।
एक फकीर के पास एक आदमी गया और उसने कहा कि आप तो बड़े शांत हैं और मैं बड़ा अशांत हूं। उस फकीर ने कहा: बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा है। मैं शांत हूं, तुम अशांत हो, बात खत्म हो गई। अब और क्या करना है। उस आदमी ने कहा: नहीं, बात खत्म नहीं हो गई। मुझे भी शांत होना है। उस फकीर ने कहा: यह बहुत मुश्किल है। क्योंकि जो अशांत है, वह शांत कैसे हो सकता है। तुम अशांत होने में राजी हो जाओ। तुम कहो कि मैं अशांत हूं, बात ठीक है। अशांत हूं, इसका विरोध छोड़ दो। उस आदमी ने कहा: लेकिन मुझे शांत होना है। उस फकीर ने कहा: फिर तुम जाओ, क्योंकि मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि अगर तुम्हें शांत होना है तो तुम अशांत होने की व्यवस्था कर रहे हो। क्योंकि जिसे कुछ भी होना है, वह अशांत हो जाएगा। तुम अशांत हो, तो राजी हो जाओ कि अशांत हो। फिर देखो कि शांति कैसे नहीं आती है। वह चली आएगी।
अगर कोई आदमी अशांत होने में भी राजी हो जाए, तो क्या शांति उसके द्वार से बहुत दिन तक दूर रह सकती है? कैसे रहेगी दूर? जो अशांत होने में भी राजी हो गया है, उससे शांति कैसे दूर रह सकती है। जो अशांति तक के लिए राजी हो गया है, उसके लिए शांति भागी चली आएगी, क्योंकि कोई उपाय न रहा रुकने का अब। इसलिए जो है, उसकी परिपूर्ण स्वीकृति से क्रांति आती है, जो सहज है। और सब सहज ही आता है।
ये तीन सूत्र मैंने कहे--इन तीन को ध्यान में रखना, क्योंकि अभी जब हम ध्यान में जाएंगे, तो इन तीनों का ही प्रयोग करके गहरे उतर जाना है।
अब हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
तो इसमें दो-तीन बातें समझ लेनी हैं। हो सकता है, ध्यान में जब कोई अपने को पूरी तरह छोड़े, तो गिर जाए। इसलिए जितना फासले पर हट सकें, थोड़ी भी जगह न छोड़ें, फासले पर हट जाएं। कोई गिर सकता है, वह आपके ऊपर गिर जाए तो आपको परेशानी होगी, उसको परेशानी होगी। थोड़े दूर हट जाएं। और या फिर किसी को पूरा खयाल रखना पड़े पूरे वक्त कि कहीं मैं गिर न जाऊं। क्योंकि अगर किसी ने अपने को सच में नदी में पूरी तरह छोड़ दिया है, तो वह यह भी कहां खयाल रख पाएगा कि शरीर आगे गिर गया कि पीछे गिर गया, गिर गया कि नहीं गिर गया। अगर इतना भी खयाल रखना पड़ा, तो वह फिर बह नहीं पाएगा। अब जिसकी चिता पर लाश चढ़ गई है, उसे अब कहां खयाल रह जाएगा कि कौन पड़ोस में बैठा हुआ है। अगर खयाल रहा, तो चिता पर लाश चढ़ नहीं पाएगी।
लेकिन अगर कोई आपके ऊपर भी गिर गया है, आप किसी के ऊपर गिर गए हैं, तो इसे भी स्वीकार कर लेना है। ठीक है कि कोई गिर गया है, अब इसमें इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। गिरा रहने देना है। जो गिर गया है, उसे भी गिरे रहना है। जिसके ऊपर गिर गया है, वह भी गिरा रह जाना है। इसकी भी क्या बात है, चीजें ऐसी हैं कि कोई गिर गया है। इसमें कुछ बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है।
तो थोड़े फासले पर हट जाएं, और फिर हम ध्यान के लिए बैठें।
इसलिए मैंने कहा: ध्यान यानी समर्पण। पूरी तरह छोड़ देना है, जो होगा, होगा। हमें न यह सोचना है कि क्या होगा, न हमें दिशा देनी है कि यह हो। न हमें चेष्टा करनी है, हमें तो छोड़ देना है, छोड़ देना है, छोड़ देना है, जो हो, हो।
अब आंख बंद कर लें। बहुत धीमे से आंख बंद कर लें। शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। जैसे शरीर में कोई प्राण ही न हो, ऐसा ढीला छोड़ दें। और तीन मिनट तक मैं सुझाव दूंगा, मेरे साथ अनुभव करें। तीन मिनट तक मैं सुझाव दूंगा, सजेशन दूंगा कि शरीर शिथिल हो रहा है, शिथिल हो रहा है, शिथिल हो रहा है, रिलैक्स हो रहा है, रिलैक्स हो रहा है। तो भीतर आपको अनुभव करते जाना है कि शरीर शिथिल हुआ, शिथिल हुआ, शिथिल हुआ, शिथिल हो रहा है। अनुभव ही नहीं करना, अनुभव के साथ शरीर को शिथिल छोड़ते चले जाना है। एक तीन मिनट में शरीर बिलकुल मिट्टी की तरह हो जाएगा, बिखर जाएगा, गिर जाएगा, झुक जाएगा। तो आपको कोई बाधा नहीं देनी है। जो हो, हो जाए।
अब मैं शुरू करता हूं--अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ें, छोड़ते जाएं और अनुभव करते जाएं--शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ते भी जाएं और साथ-साथ अनुभव करते जाएं--शरीर शिथिल हो रहा है। बिलकुल छोड़ दें, आप नहीं हैं मालिक। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें, शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...
अनुभव करें, शरीर का रग-रग, रेशा-रेशा शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल होता जा रहा है...बिलकुल छोड़ दें, जैसे शरीर है ही नहीं। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर का कण-कण शिथिल होता जा रहा है, रग-रग शिथिल होती जा रही है...छोड़ दें, शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...
छोड़ दें बिलकुल, और दूसरे पर ध्यान न दें। अपने को ढीला छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें। दूसरे पर ध्यान न दें, दूसरा कोई नहीं है। आप अकेले ही हैं। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है, जैसे हो ही नहीं। अपनी सारी पकड़ छोड़ दें। आप पकड़े हुए न रह जाएं। फिर शरीर का जो हो--गिरता हो, गिरे; न गिरता हो, न गिरे। आगे झुके, पीछे झुके, जो हो। आप पकड़े हुए न रह जाएं, इतना ध्यान रखें। आप शरीर को नहीं पकड़े हैं, आपने छोड़ दिया है। अब जो भी होगा, होगा। आप रोकें नहीं, जो भी हो, हो।
शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें, जैसे नदी में छोड़ दिया था, ऐसे ही छोड़ दें और बह जाएं। जैसे नदी में छोड़ दिया था और बह गए थे, ऐसे ही बह जाएं। छोड़ दें...छोड़ दें...छोड़ दें...जीवन की सरिता ले जाए, जहां ले जाए। छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें। शरीर शिथिल हो गया है...गिरता हो, गिर जाए, जरा भी रोकें नहीं। छोड़ दें, नदी ले जाएगी, बह जाएंगे। छोड़ दें, जीवन की सरिता में छोड़ दें सूखे पत्ते की भांति, और बह जाएं। बहें!
शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है, जैसे है ही नहीं। शरीर जैसे है ही नहीं। छोड़ दें!
श्र्वास शांत हो रही है...अनुभव करें, श्र्वास शांत होती जा रही है...श्र्वास शांत होती जा रही है...श्र्वास शांत होती जा रही है। रोकनी नहीं है, अपनी तरफ से ढीला छोड़ दें। श्र्वास शांत हो रही है...श्र्वास शांत हो रही है...श्वास शांत होती जा रही है...श्र्वास बिलकुल शांत होती जा रही है...श्र्वास शांत हो रही है...छोड़ दें, श्र्वास को भी छोड़ दें, श्र्वास शांत होती जा रही है...श्र्वास शांत हो रही है...श्र्वास शांत हो रही है...श्र्वास शांत हो रही है...श्र्वास शांत हो रही है...
जैसे-जैसे श्र्वास शांत होती चली जाएगी, वैसे-वैसे लगेगा कि हम तो मिट गए, मिटे, मिटे, मिटे...क्योंकि हमारा होना श्र्वास से जुड़ा है। श्र्वास शांत होती जा रही है...शांत होती जा रही है...शांत होती जा रही है...श्र्वास बिलकुल शांत होती चली जा रही है...ऐसा लगेगा कि गई, गई, गई--श्र्वास बिलकुल शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...
अनुभव करें, जैसा चिता पर चढ़ गए थे और जल गए थे और राख रह गई थी; सब मिट गया था, ऐसे ही श्र्वास विलीन होती जा रही है, विलीन होती जा रही है। धीरे-धीरे सब विदा हो जाएगा, कुछ भी न रह जाएगा, पीछे राख भी न छूट जाएगी। अनुभव करें, जैसे चिता पर चढ़ गए थे, ऐसे ही श्र्वास खोती जा रही है, खोती जा रही है...मरते जा रहे हैं, मरते जा रहे हैं...धीरे-धीरे सब मर जाएगा, पीछे कुछ भी शेष नहीं रह जाएगा। छोड़ दें...श्र्वास को भी छोड़ दें...
और अब तीसरी बात अनुभव करें--पक्षियों की आवाज है, सूरज की किरणें हैं, सड़कों पर गति है, शोरगुल है, सागर की लहरें हैं, सब सुनाई पड़ रहा है। साक्षी होकर चुपचाप सुनते रह जाएं, सुनते रह जाएं, सुनते रह जाएं--ऐसा है, ऐसा है, ऐसा है। चीजें ऐसी हैं। सिर्फ सुनते रहें, सुनते रहें, सुनते रहें--ऐसा है। जानते रहें, जानते रहें--ऐसा है। और कुछ भी न करें। बस जान रहे हैं, सुन रहे हैं; जान रहे हैं, सुन रहे हैं। कुछ भी करना नहीं है, जो है उसके साथ चुपचाप एक होकर जानते हुए रह जाना है।
अब दस मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं। शरीर शिथिल हो गया, श्र्वास शांत हो गई और आप तथाता में, साक्षीभाव में बैठे रह गए हैं। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे भीतर कुछ बदलता जाएगा, शांत हो जाएगा, शांत हो जाएगा। फिर भीतर कुछ शून्य हो जाएगा, भीतर कुछ मौन हो जाएगा। आप नहीं रह जाएंगे, कोई और उस शून्य में आ जाएगा।
अब मैं चुप हो जाता हूं। आप सुनते रहें, साक्षीभाव से देखते रहें, जानते रहें जो भी हो रहा है। कोई विरोध नहीं, ऐसा है। देखें, भीतर देखें; बाहर सुनें। और चुपचाप साक्षी बने रह जाएं, दस मिनट के लिए सिर्फ साक्षी बने रह जाएं।
(ओशो कुछ मिनट मौन रह कर फिर सुझाव देना शुरू करते हैं।)
मन शांत और शून्य हो गया है...सब मिट गया है...मन बिलकुल शून्य हो गया है...मन शून्य हो गया है...देखते रहें, जानते रहें मन शून्य हो गया है...मन बिलकुल शून्य हो गया है...मन बिलकुल शून्य हो गया है...
साक्षी बने रहें, देखते रहें, जानते रहें, अनुभव करते रहें--नदी बहा कर ले गई है, चिता ने जला दिया है--अब चुपचाप जान रहे हैं, जान रहे हैं। इसी शून्य में किसी क्षण उसका प्रवेश हो जाता है, जिसका नाम आनंद है। उसका प्रवेश हो जाता है, जिसका नाम सत्य है। उसका प्रवेश हो जाता है, जिसका नाम परमात्मा है। सब शून्य हो गया है...सब शून्य हो गया है...द्वार खुले हैं प्रतीक्षा में--सब शून्य हो गया है।
अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्र्वास लें...धीरे-धीरे गहरी श्र्वास लें...प्रत्येक श्र्वास के साथ बहुत ताजगी, बहुत शांति, बहुत आनंद मालूम पड़ेगा। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्र्वास लें...धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्र्वास लें...प्रत्येक श्र्वास के साथ बहुत ताजगी, बहुत शांति, बहुत आनंद मालूम पड़ेगा। धीरे-धीरे गहरी श्र्वास लें...
दो-चार गहरी श्र्वास लें...फिर धीरे-धीरे आंख खोलें...आंख न खुले तो जल्दी न करें, गहरी श्र्वास लें, फिर धीरे से आंख खोलें। हो सकता है किसी को आंख खोलने में तकलीफ हो, तो हाथ आंखों से लगा लें, फिर धीरे-धीरे आंख खोलें...धीरे-धीरे आंख खोलें...
जो लोग गिर गए हैं, वे पहले गहरी श्र्वास लें, फिर धीरे-धीरे उठें, फिर आंख खोलें।
जो प्रयोग मैंने ध्यान के लिए कहा है, इसे रात सोते समय करें।
ध्यान का अर्थ है: समर्पण, टोटल लेट-गो।
ध्यान का अर्थ है: अपने को पूरी तरह छोड़ देना।
और जैसे ही कोई व्यक्ति अपने को पूरी तरह छोड़ देता है, वह परमात्मा के हाथों में गिर जाता है। जब तक हम अपने को पकड़े हुए हैं, तब तक परम शक्ति से हमारा मिलन नहीं हो सकता। हमें अपने को छोड़ना ही पड़ेगा। हमें अपने को खो ही देना होगा। हमें मिटना ही होगा, तभी हम उसके साथ एक हो सकते हैं, जो सच में है। जैसे कोई लहर अपने को जोर से पकड़ ले, तो फिर सागर नहीं हो सकती है और लहर अपने को छोड़ दे, बिखर जाए, खो जाए, तो वह सागर है ही।
ध्यान कोई क्रिया नहीं है, जो आपको करनी है। ध्यान है सब क्रियाओं का छोड़ देना। ध्यान कोई अभ्यास नहीं है जो आप कर सकते हैं। ध्यान है सब अभ्यास का छोड़ देना। ध्यान है बस रह जाना--जैसे हम हैं, जो हम हैं। और कुछ भी न करना।
तो इस ध्यान की स्थिति को समझने के लिए पहले दो-तीन छोटे प्रयोग हम करेंगे, ताकि आपको भीतर से खयाल में आ सके कि ध्यान क्या है। फिर उसके बाद हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
और ध्यान को शब्द से समझाना कठिन है। कोई क्रिया होती, अभ्यास होता, शब्द से बताया जा सकता है। लेकिन ध्यान का थोड़ा सा अनुभव खयाल में ले आना आसान है। तो हम तीन छोटे से प्रयोग करेंगे, जिनसे खयाल आ सके कि ध्यान का भाव क्या है। फिर उसके बाद हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
पहला प्रयोग है, वह समझ लें। फिर पांच मिनट हम उस प्रयोग को करेंगे। फिर दूसरा; फिर तीसरा; और फिर चौथा प्रयोग हम ध्यान का करेंगे।
पहला प्रयोग है, उसे समझना ही है भीतर प्रयोग करके। तो मैं इधर कहूंगा, आप उधर प्रयोग करेंगे। एक तो थोड़े-थोड़े फासले पर बैठें, कोई किसी को छूता हुआ न हो। किसी को भी कोई छू न रहा हो। थोड़े आगे आ जाएं या थोड़े पीछे हट जाएं, थोड़े घास पर हट जाएं, लेकिन कोई किसी को स्पर्श न करता हो। फिर आंख आहिस्ता से बंद कर लें। जोर से बंद नहीं करनी है। आंख पर भी जोर न पड़े, बहुत धीमे से आंख बंद कर लें। जैसे पलक गिरा दी है, आंख बंद हो गई है। आंख पर भी जोर नहीं होना चाहिए। और अपने को बिलकुल ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें और ढीला छोड़ दें। किसी तरह की शरीर पर कोई स्ट्रेन न रह जाए।
अब भीतर सिर्फ मैं एक कल्पना करने को कहता हूं, ताकि खयाल आ सके कि ध्यान से क्या मतलब है। भीतर देखें कि एक बड़ी नदी बही जा रही है। पहाड़ों के बीच में एक बड़ी नदी बही जा रही है। जोर की लहरें हैं, जोर का बहाव है। पहाड़ी नदी है। भीतर देखें कि दो पहाड़ों के बीच में एक बड़ी नदी तेजी से बही जाती है। जोर का बहाव है, जोर की आवाज है, लहरें हैं, तेज गति है, और नदी बही जा रही है। देखें, उसे स्पष्ट देखें। नदी तेजी से बही जा रही है। वह साफ दिखाई पड़ने लगेगी।
इस नदी में आपको उतर जाना है, लेकिन तैरना नहीं है, बहना है, जस्ट फ्लोटिंग। इस नदी में आप उतर जाएं और बहना शुरू कर दें। हाथ-पैर न चलाएं, सिर्फ बहे जाएं, बहे जाएं, बहे जाएं। हाथ-पैर चलाएं ही मत। तैरना नहीं है, सिर्फ बह जाना है।
नदी में हमने अपने को छोड़ दिया है और नदी भागी चली जा रही है और हम उसमें बहे जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं...। कहीं पहुंचना नहीं है, किसी किनारे पर नहीं जाना है। कोई मंजिल नहीं है, इसलिए तैरने का कोई सवाल नहीं है। बस सिर्फ बहना है। छोड़ दें, और बहें। नदी में बहने की जो अनुभूति होगी, वह फिर ध्यान को समझने में सहयोगी होगी। एक पांच मिनट के लिए उस नदी में छोड़ दें और बहते जाएं। नदी का कोई अंत नहीं है, वह बही ही चली जा रही है। आप भी उसमें बहने लगे हैं। कुछ करना नहीं है, हाथ-पैर भी नहीं चलाना है, सिर्फ बहते जाना है, बहते जाना है। देखें, नदी बह रही है, आप भी उसके साथ बहने लगे हैं। जरा भी तैरते नहीं हैं, बस बहे जा रहे हैं...।
पांच मिनट मैं चुप हो जाता हूं--आप बहने का, फ्लोटिंग का अनुभव करें।
बहे जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं, नदी में छोड़ दिया है--जरा भी तैरना नहीं है। हाथ-पैर भी नहीं हिलाना है। बहे जा रहे हैं। जैसे एक सूखा पत्ता नदी में बहता चला जाता हो, ऐसे ही छोड़ दें। देखें, बहते चले जा रहे हैं, बहते चले जा रहे हैं, बहते चले जा रहे हैं...। और बहने के साथ ही साथ एक अनुभव होना शुरू हो जाएगा--समर्पण का, सरेंडर का। नदी के साथ छोड़ दें अपने को, लेट-गो का एक अनुभव होना शुरू हो जाएगा। बहें, बहते चले जाएं। नदी तेजी से बही जा रही है, लहरें तेजी से भागी जा रही हैं, आप भी नदी में छूट गए हैं और बहे जा रहे है। कुछ करना नहीं है, बहते चले जाना है...।
बिलकुल छोड़ दें, और बह जाएं। नदी और तेजी से बही जाती है, और आप बहे जा रहे हैं।
इसको ठीक से अनुभव कर लें--बहने की इस प्रतीति को। बहने के इस अनुभव को ठीक से समझ लें, क्या है। फिर ध्यान में वह सहयोगी होगा। ठीक से समझ लें कि यह बह जाने का अनुभव क्या है--जब हम हाथ-पैर भी नहीं चला रहे और नदी हमें लिए जा रही है, लिए जा रही है, लिए जा रही है। सब-कुछ नदी कर रही है, हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं। इसे ठीक से देख लें, ताकि यह खयाल में आ जाए। सब-कुछ नदी कर रही है, हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, हम सिर्फ बह रहे हैं--एक सूखे पत्ते की तरह।
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें और दूसरा प्रयोग पांच मिनट करें, जो मैं कहता हूं। धीरे-धीरे आंख खोल लें।
ध्यान है, समर्पण।
ध्यान है, अपने को खो देना।
ध्यान है, मिट जाना।
ध्यान है, सब भांति विसर्जित हो जाना।
हमारा गिरना जरूरी है, हमारा मिटना जरूरी है। हमारा होना बाधा है। जैसे एक वृक्ष को कोई काट दे और वृक्ष गिर जाए, जैसे एक बीज जमीन में पड़ा हो और टूटे और मिट जाए, ठीक ऐसे ही हमें भी भीतर से बिखर जाना और मिट जाना है।
दूसरा प्रयोग इस मिटने की दिशा में समझें। आंख बंद कर लें और अपने को ढीला छोड़ दें।
पहली बात हमने समझी बहने की। अब दूसरी बात मिटने की समझें कि बिलकुल मिट गए हैं। आंख बंद करें। बहुत आहिस्ता से आंख बंद कर लें और शरीर ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर ली है, शरीर ढीला छोड़ दिया है। देखें, सामने ही एक चिता जल रही है। लकड़ियां लगी हैं, जोर से आग की लपटें पकड़ गई हैं, चिता जोर से जल रही है। चिता को जलता हुआ देखें। लकड़ियों में आग पकड़ गई है, चिता का जलना शुरू हो गया है। ठीक से देखें चिता को। आग पकड़ गई है, लपटें जोर से ऊपर भाग रही हैं आकाश की तरफ, चिता जल रही है।
दूसरी बात खयाल से देखें कि इस चिता को आप देख नहीं रहे हैं, इस चिता पर आप चढ़े हुए हैं। आप ही इस चिता पर चढ़ा दिए गए हैं। सब मित्र, प्रियजन आपके चारों तरफ खड़े हैं। आग लगा दी गई है, इस चिता पर आप चढ़ा दिए गए हैं। लकड़ी ही नहीं जल रही है, आप भी जल रहे हैं। लकड़ियों में लपटें लगी हैं, आप भी जले जा रहे हैं।
थोड़ी देर में सब राख हो जाएगा--लकड़ियां भी और आप भी। अपने को ही अपनी चिता पर चढ़ा हुआ अनुभव करें। देखें, सामने अपना ही शरीर उस चिता पर चढ़ा है और आग में जला जा रहा है।
एक पांच मिनट इस अनुभव को करें, ताकि मिटने का बोध खयाल में आ सके। एक दिन तो चिता जलेगी ही कभी, एक दिन आप उस पर चढ़ेंगे ही। सभी को उस पर चढ़ जाना है। तो आज अपने मन के सामने ठीक से देख लें: चिता की जलती हुई लपटें, आकाश की तरफ भागती हुई अग्नि-शिखाएं, और आप चढ़े हैं। लकड़ियां ही नहीं जल रही हैं, आप भी जले जा रहे हैं। देखें, जोर से लपटें बढ़ती चली जाती हैं। आपका शरीर भी जला जा रहा है, सब मिटा जा रहा है, सब समाप्त हुआ जा रहा है। थोड़ी देर में आग भी बुझ जाएगी, राख रह जाएगी। लोग विदा हो जाएंगे, मरघट खाली, सुनसान हो जाएगा।
अब देखें, चिता पर चढ़े हुए हैं आप। मैं चुप हो जाता हूं...
लपटें जलती रहेंगी। आपको कुछ करना नहीं है। लपटें जलेंगी, जला देंगी, सब राख हो जाएगा। थोड़ी देर भीड़ खड़ी रहेगी मित्रों की, प्रियजनों की आस-पास, फिर वे भी विदा हो जाएंगे। फिर राख ही पड़ी रह जाएगी। मरघट सुनसान हो जाएगा।
देखें, शुरू करें; लपटें साफ देखें, उन पर आप भी चढ़ें हैं और जल रहे हैं। कुछ करना नहीं है। जलने में क्या करना है? जल जाना है। आग काम कर देगी, लपटें काम कर देंगी। आपको तो कुछ भी नहीं करना है, जल जाना है, मिट जाना है। पांच मिनट के लिए आग पर, चिता पर अपने को चढ़ा हुआ देखते रहें। फिर धीरे-धीरे लपटें बुझ जाएंगी, सब शांत हो जाएगा।
यह मिट जाने के अनुभव को ठीक से स्मरण रख लेना, वह ध्यान में काम पड़ सकेगा।
लपटें बढ़ती जा रही हैं, शरीर जलता जा रहा है, आप भी जलते चले जा रहे हैं। लपटें बढ़ती चली जा रही हैं, आप भी मिटते चले जा रहे हैं। सब धुआं हो जाएगा, सब राख हो जाएगी, मरघट शांत हो जाएगा। जरा भी अपने को बचाने की कोशिश मत करना, छोड़ देना लपटों में, ताकि सब जल जाए, सब मिट जाए, सब राख हो जाए।
देखें, लपटें बढ़ती चली जाती हैं, धुआं बढ़ता चला जाता है, सब जला जा रहा है। आप ही जले जा रहे हैं, मिटे जा रहे हैं।
इसे बहुत साफ देख लें, ताकि ध्यान में सहयोगी हो जाए, क्योंकि ध्यान भी एक तरह की मृत्यु है। देखें, साफ देखें--सब जल रहा है, सब मिट रहा है, सब समाप्त हो रहा है। और आपको कुछ भी नहीं करना है, बस जल जाना है, मिट जाना है। आग सब काम कर लेगी। आपको क्या करना है? आग सब काम कर रही है, जलाए दे रही है। लपटें भागी चली जा रही हैं, सब मिटता चला जा रहा है।
नदी में तो तैर भी सकते थे, यहां तो तैर भी नहीं सकते हैं। यहां तो तैरने का उपाय ही नहीं है। सब मिटा जा रहा है, लपटें सब समाप्त किए दे रही हैं! देखें, धुआं रह जाएगा, राख रह जाएगी, मरघट सुनसान हो जाएगा, लोग विदा हो जाएंगे।
हवाएं चल रही हैं, लपटें और जोर से बढ़ी जा रही हैं, हवाएं लपटों को बढ़ाए दे रही हैं। सब जला जा रहा है, सब जला जा रहा है, सब जला जा रहा है, थोड़ी देर में सब राख हो जाएगा। हवाओं ने लपटें और जोर से कर दी हैं।
देखें, सब जल गया है। लपटें बुझती जा रही हैं, राख पड़ी रह गई है, लोग विदा होने लगे हैं। मरघट पर सन्नाटा छा गया है। हवाएं फिर भी चलती रहेंगी, राख उड़ती रहेगी, मरघट पर कोई न होगा, लोग विदा होने लगे हैं। सब सन्नाटा हो गया है। आप मिट गए हैं, राख ही पड़ी रह गई है।
इसे ठीक से देख लें। यह ध्यान में देखना अत्यंत जरूरी है। ठीक से देख लें, सब पड़ा हुआ रह गया है। राख ही पड़ी रह गई है, बुझे हुए अंगारे रह गए हैं, लोग जा चुके हैं। अब मरघट पर कोई नहीं है, आग भी बुझ गई है, आप भी मिट गए हैं।
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें और तीसरे प्रयोग को समझें और फिर उसे करें। धीरे-धीरे आंख खोल लें और ठीक बैठ जाएं।
पहली बात है यह समझ लेना कि बहने का क्या अर्थ है। दूसरी बात है यह समझ लेना कि मिटने क्या अर्थ है। और अब तीसरी बात समझनी है, तीसरी बात का नाम है--तथाता, सचनेस।
यह तीसरी बात इन दोनों से ज्यादा आगे ले जाने वाली है। और ये तीन सीढ़ियां ठीक से समझ लेनी हैं।
तथाता या सचनेस का मतलब है: ‘चीजें ऐसी हैं।’ रास्ते पर आवाज आ रही है, क्योंकि रास्ते पर आवाज आएगी ही। पक्षी शोरगुल कर रहे हैं, क्योंकि पक्षी शोरगुल करेंगे ही। समुद्र की लहरें किनारे से टकरा रही हैं, आवाज आ रही है, क्योंकि समुद्र की लहरें और क्या कर सकती हैं। जो हो रहा है, वैसा हो रहा है, वैसा है! वैसा हो ही सकता है, अन्यथा कोई उपाय ही नहीं! तथाता का मतलब है कि कोई विरोध का कारण नहीं है। कुछ अन्य हो जाए इसकी अपेक्षा की जरूरत नहीं है। जैसा है, वैसा है। घास हरा है, आकाश नीला है, समुद्र की लहरें शोर कर रही हैं, पक्षी आवाज मचा रहे हैं, कौवे चिल्ला रहे हैं, सड़क पर लोग जा रहे हैं, कारों की आवाज हो रही है, हॉर्न बज रहे हैं--ऐसा है! इस होने की स्थिति में हमारा कोई विरोध नहीं है। इस होने की स्थिति से हम राजी हो गए हैं। हम पूरी तरह राजी हैं कि ऐसा है। न हम चाहते हैं कि कौवे आवाज बंद कर दें; न हम चाहते हैं कि सड़क पर लोग हॉर्न न बजाएं; न हम चाहते हैं कि समुद्र की लहरें शोरगुल न करें। ऐसा है, जगत ऐसा है!
जगत के संबंध में भी यह बात ध्यान रखनी है कि ऐसा है और हम इसके लिए पूरी तरह राजी हैं। हमारा कोई विरोध नहीं है। और अपने संबंध में भी ध्यान रखना है भीतर कि ऐसा है। पैर में चींटी काट रही है तो दर्द हो रहा है, ऐसा है। चींटी काट रही है और पैर में दर्द हो रहा है। इसमें कुछ विरोध नहीं है, ऐसा हो रहा है। ऊपर से धूप आ रही है और पसीने की बूंदें बह रही हैं। ठीक है, धूप आएगी तो पसीना बहेगा ही। इसमें कुछ विरोध नहीं है, इसमें कुछ करना नहीं है, इसे स्वीकार कर लेना है, ऐसा है!
और जैसे ही हम इसे स्वीकार करते हैं, हमारा विरोध चला जाता है, रेसिस्टेंस चला जाता है, वैसे ही भीतर कुछ शांत होना शुरू हो जाता है, जो सदा से अशांत रहा है। वह अशांत इसीलिए रहा है कि उसने चाहा है कि ऐसा हो। उसने कभी ऐसा नहीं माना है कि ऐसा है। सूरज पड़ रहा है, किरणें आ रही हैं, तो पसीना बहेगा, धूप लगेगी, ऐसा उसने स्वीकार नहीं किया है। कभी सूरज नहीं होना चाहिए, किरणें गरम नहीं होनी चाहिए, पसीना नहीं बहना चाहिए, ऐसा मन ने चाहा है। जिसे ध्यान में जाना है, उसे ऐसी आकांक्षा बड़ी बाधा बन जाएगी।
कैसा होना चाहिए, नहीं; जैसा है, है! शांत होने का एक ही अर्थ है कि जैसा है, है! और हम उसके लिए पूरी तरह राजी हो गए हैं। यह तीसरा बिंदु है--तथाता!
तो पांच मिनट, चीजें ऐसी हैं, हमें कुछ करना नहीं है। करने का कोई उपाय भी नहीं है। हम नहीं थे, तब भी चीजें ऐसी थीं। समुद्र तब भी इसी तरह शोर करता रहा, कौवे बोलते रहे, पक्षी चिल्लाते रहे, रास्ता चलता रहा। हम नहीं होंगे, तब भी चीजें ऐसी ही होंगी। तो जब हम हैं, तब भी चीजें ऐसी ही रहें तो अड़चन क्या है? कठिनाई क्या है? हमारे होने न होने से इस सारे होने का क्या संबंध है?
आंख बंद करें, आहिस्ता से आंखें ढीली छोड़ दें, शरीर को आराम में छोड़ दें, शरीर को ढीला, रिलैक्स छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। और अब तीसरे प्रयोग में उतरें--तथाता, चीजें ऐसी हैं!
हमें कुछ करना नहीं, चीजें ऐसी हैं ही। जगत ऐसा है ही। फिर कौन सी अशांति है? फिर कौन सी तकलीफ है? चीजें ऐसी हैं। बच्चा बच्चा है; बूढ़ा बूढ़ा है; स्वस्थ स्वस्थ है; बीमार बीमार है। पक्षी आवाज कर रहे हैं, घास हरी है, आकाश नीला है, कहीं धूप पड़ रही है, कहीं छाया है--ऐसा है!
अब खयाल करें, चीजें ऐसी हैं, हमारा कोई विरोध नहीं है। अविरोध, नो रेसिस्टेंस। हमारा कोई विरोध नहीं है। हम इन चीजों के बीच में, हम भी हैं। एक पांच मिनट ऐसा खयाल करें--कोई विरोध नहीं, कोई विरोध नहीं, कोई विरोध नहीं। जो है, जैसा है, हम उससे राजी हैं।
न हम कुछ बदलना चाहते हैं, न कुछ हम मिटाना चाहते हैं, न कुछ हम बनाना चाहते हैं। जैसा है, वैसा है, हम उससे राजी हैं।
एक पांच मिनट के लिए इस राजी होने की स्थिति में अपने को छोड़ दें। देखें, यह कौवे की आवाज और तरह की सुनाई पड़ेगी। जब हम राजी हो जाएंगे, तो यह कौवे की आवाज और तरह की सुनाई पड़ेगी। इससे कोई विरोध नहीं है। तो हमारे और इसके बीच की दीवाल टूट जाएगी। सुनें!
सड़क की आवाज और तरह की सुनाई पड़ेगी। अगर हमारा कोई विरोध नहीं है तो सड़क की आवाज और तरह की सुनाई पड़ेगी। सुनें!
समुद्र का शोर अब दुश्मन की तरह मालूम नहीं पड़ता है। एक डिस्टर्बेंस नहीं मालूम पड़ता है। सुनें! हमारा कोई विरोध नहीं है। जो है, जैसा है, है।
पांच मिनट के लिए जो है, उससे राजी होकर डूब जाएं।
देखें, धूप अब वैसी नहीं मालूम पड़ती है। जो है, है। अब कुछ भी वैसा नहीं मालूम पड़ता, हम शत्रु की तरह नहीं हैं, एक मित्र की तरह हैं, जो है उससे राजी हैं।
इस तीसरे सूत्र को भी ठीक से ध्यान में रख लेना--तथाता, सचनेस; चीजें ऐसी हैं। इसे ठीक से समझ लेना कि चीजें ऐसी हैं।
चीजें ऐसी हैं, कोई विरोध नहीं, कोई शत्रुता नहीं; कुछ अन्यथा हो, इसकी आकांक्षा नहीं; चीजें ऐसी हैं। धूप गरम है, छाया सर्द है, समुद्र अपने काम में लगा है, रास्ते पर चलने वाले लोग अपने काम में लगे हैं, जरा भी विरोध न रखें--बस ऐसा हो रहा है, हो रहा है, हो रहा है और हम जान रहे हैं, कुछ बदलना नहीं, कुछ मिटाना नहीं, कुछ परिवर्तन नहीं।
इस तीसरे सूत्र को ठीक से समझ लेना, क्योंकि ध्यान की गहराई में ले जाने के लिए अत्यंत जरूरी है। चीजें ऐसी हैं।
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें।
अब ध्यान के संबंध में दो-तीन बातें समझें, और फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
ये मैंने तीन सूत्र आपको समझाने की अलग-अलग कोशिश की, क्योंकि ये ध्यान में तीनों जरूरी होंगे।
एक तो बहना, तैरना नहीं।
हम जीवन भर तैरते हैं, बहते नहीं। कुछ चीजें हैं, जो तैरने से कभी भी नहीं मिल सकतीं, सिर्फ बहने से ही मिल सकती हैं। अस्तित्व, सत्य या परमात्मा कभी तैरने से नहीं मिल सकता। सिर्फ बहने से मिल सकता है। जो भी बहने को राजी है, वह सागर तक पहुंच जाएगा। नदी खुद ही ले जाती है। जो बहने को राजी है, जीवन उसे खुद ही ले जाता है, उसे कहीं जाना नहीं पड़ता है। जो तैरा, वह भटक जाएगा। तैरने वाला ज्यादा से ज्यादा इस किनारे से दूसरे किनारे पहुंच जाएगा, लेकिन सागर तक नहीं। सागर तक जिसको जाना है, उसे तैरने की जरूरत ही नहीं। उसे नदी से लड़ने की जरूरत ही नहीं। वह तो बह जाए। नदी तो खुद ही सागर की तरफ जा रही है।
जीवन स्वयं ही परमात्मा की तरफ जा रहा है, अगर हम न रोकें तो जीवन अपने आप परमात्मा तक पहुंचा देता है। हम रोक लेते हैं जगह-जगह और वह नहीं पहुंच पाता है।
इसलिए बहने का अनुभव पहला।
दूसरा मिटने का अनुभव।
हम जीवन भर अपने को बचाने की कोशिश में लगे हैं। किसी तरह अपने को बचा लें। इससे ज्यादा भ्रामक और कोई बात नहीं हो सकती। हम बचने वाले नहीं हैं। और जो बचने वाला है, उसे बचाने की कोई जरूरत नहीं है, वह बचा ही हुआ है। जिसे हम बचाने की कोशिश में लगे हैं, वह मिटने ही वाला है, इसीलिए हम बचाने की कोशिश में लगे हैं। और हमारी कोई कोशिश काम में न आएगी, वह मिट ही जाएगा। और जो बचने वाला है, वह हमारी कोशिश से न बचेगा। वह बचा ही हुआ है, उसके मिटने का उपाय ही नहीं है। हमारे भीतर जो बचने वाला है, वह सदा बचा हुआ है। और जो मिटने वाला है, वह मिटेगा ही। हमारी बचाने की कोशिश में सिर्फ हम परेशान हो जाएंगे, और कुछ भी नहीं हो सकता।
इसलिए दूसरा सूत्र मैंने आपसे कहा--मर जाने का, मिट जाने का, मिट जाने की तैयारी का।
और ध्यान रहे, जो मरने को तैयार है, वह पूरे जीवन का अधिकारी हो जाता है। क्योंकि जो मरने से भयभीत न रहा, उसके सब द्वार खुल जाते हैं। जीवन सब द्वारों से प्रवेश कर जाता है।
भय के कारण--मृत्यु न आ जाए, मिट न जाएं, हमने सब दरवाजे बंद कर लिए हैं और भीतर छिप कर बैठ गए हैं। जीवन भी नहीं आ पाता, क्योंकि दरवाजे वही हैं; जिनसे मृत्यु आती है, उन्हीं से जीवन भी आता है, उन्हें हमने बंद कर रखा है।
हमने दरवाजे बंद कर दिए हैं कि कोई शत्रु न आ जाए, लेकिन मित्र भी उन्हीं दरवाजों से आते हैं। वे दरवाजे बंद हो गए हैं, मित्रों का आना भी बंद हो गया है। हम भीतर हैं, अपने को बचाने में लगे हैं।
सब दरवाजे छोड़ दें। मिटने को राजी जो हो जाता है, वह सब दरवाजे छोड़ देता है खुले। जो ओपनिंग है, ओपननेस है, वह सिर्फ उसी को मिलती है जो मिटने को राजी है। उसको क्लोज करने का कोई सवाल ही न रहा। उसे बंद करने का कोई सवाल न रहा। वह मिटने तक को राजी है, अब और क्या डर है? वह खुद ही मिटने को राजी है, अब कौन उसे मिटा सकता है!
इसलिए दूसरा सूत्र मैंने कहा: मिटने को राजी हो जाएं, क्योंकि ध्यान की गहरी प्रक्रिया मरने की प्रक्रिया है। और जो मरना सीख जाता है, वह जीने की कला भी सीख जाता है।
और तीसरी चीज मैंने कही कि चीजें ऐसी हैं, आप लड़ें मत। जीवन को शत्रुता से न लें, एक दुश्मन की तरह खड़े न हो जाएं। हम सब दुश्मन की तरह खड़े हो गए हैं। हर चीज से लड़ रहे हैं। हर चीज ऐसी होनी चाहिए। जैसी है, वैसी हमें स्वीकार नहीं है। तब हम पूरे जीवन के साथ दुश्मनी में खड़े हो गए हैं। उससे कुछ जीवन बदल नहीं जाता है। उससे सिर्फ हम टूटते हैं और नष्ट हो जाते हैं।
तो ध्यान की गहराई तो तभी उपलब्ध होगी कि जीवन जैसा है, हम उसे परिपूर्णता से स्वीकार कर रहे हैं--ऐसा है। हमें कांटा भी स्वीकार है। अगर वह गड़ता है, तो हम कहते हैं, कांटा है, गड़ेगा ही। हमें फूल भी स्वीकार है। अगर वह नहीं गड़ता, तो हम कहते हैं, फूल है, गड़ेगा कैसे। कांटा है तो गड़ेगा, फूल है तो नहीं गड़ेगा। लेकिन हमें दोनों स्वीकार हैं, कांटे का कांटापन स्वीकार है, फूल का फूल होना स्वीकार है। न हमें कांटे से विरोध है, न हमें फूल की आकांक्षा है। जैसा है, वह हमें स्वीकार है। ऐसी स्वीकृति से ही कोई शांत हो सकता है। शांति अंततः परिपूर्ण स्वीकार का फल है। अगर आप अशांत हैं, तो अपनी अशांति को भी स्वीकार कर लें कि मैं अशांत हूं। और आप पाएंगे, यह स्वीकृति आपको शांति में ले जाती है।
एक फकीर के पास एक आदमी गया और उसने कहा कि आप तो बड़े शांत हैं और मैं बड़ा अशांत हूं। उस फकीर ने कहा: बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा है। मैं शांत हूं, तुम अशांत हो, बात खत्म हो गई। अब और क्या करना है। उस आदमी ने कहा: नहीं, बात खत्म नहीं हो गई। मुझे भी शांत होना है। उस फकीर ने कहा: यह बहुत मुश्किल है। क्योंकि जो अशांत है, वह शांत कैसे हो सकता है। तुम अशांत होने में राजी हो जाओ। तुम कहो कि मैं अशांत हूं, बात ठीक है। अशांत हूं, इसका विरोध छोड़ दो। उस आदमी ने कहा: लेकिन मुझे शांत होना है। उस फकीर ने कहा: फिर तुम जाओ, क्योंकि मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि अगर तुम्हें शांत होना है तो तुम अशांत होने की व्यवस्था कर रहे हो। क्योंकि जिसे कुछ भी होना है, वह अशांत हो जाएगा। तुम अशांत हो, तो राजी हो जाओ कि अशांत हो। फिर देखो कि शांति कैसे नहीं आती है। वह चली आएगी।
अगर कोई आदमी अशांत होने में भी राजी हो जाए, तो क्या शांति उसके द्वार से बहुत दिन तक दूर रह सकती है? कैसे रहेगी दूर? जो अशांत होने में भी राजी हो गया है, उससे शांति कैसे दूर रह सकती है। जो अशांति तक के लिए राजी हो गया है, उसके लिए शांति भागी चली आएगी, क्योंकि कोई उपाय न रहा रुकने का अब। इसलिए जो है, उसकी परिपूर्ण स्वीकृति से क्रांति आती है, जो सहज है। और सब सहज ही आता है।
ये तीन सूत्र मैंने कहे--इन तीन को ध्यान में रखना, क्योंकि अभी जब हम ध्यान में जाएंगे, तो इन तीनों का ही प्रयोग करके गहरे उतर जाना है।
अब हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
तो इसमें दो-तीन बातें समझ लेनी हैं। हो सकता है, ध्यान में जब कोई अपने को पूरी तरह छोड़े, तो गिर जाए। इसलिए जितना फासले पर हट सकें, थोड़ी भी जगह न छोड़ें, फासले पर हट जाएं। कोई गिर सकता है, वह आपके ऊपर गिर जाए तो आपको परेशानी होगी, उसको परेशानी होगी। थोड़े दूर हट जाएं। और या फिर किसी को पूरा खयाल रखना पड़े पूरे वक्त कि कहीं मैं गिर न जाऊं। क्योंकि अगर किसी ने अपने को सच में नदी में पूरी तरह छोड़ दिया है, तो वह यह भी कहां खयाल रख पाएगा कि शरीर आगे गिर गया कि पीछे गिर गया, गिर गया कि नहीं गिर गया। अगर इतना भी खयाल रखना पड़ा, तो वह फिर बह नहीं पाएगा। अब जिसकी चिता पर लाश चढ़ गई है, उसे अब कहां खयाल रह जाएगा कि कौन पड़ोस में बैठा हुआ है। अगर खयाल रहा, तो चिता पर लाश चढ़ नहीं पाएगी।
लेकिन अगर कोई आपके ऊपर भी गिर गया है, आप किसी के ऊपर गिर गए हैं, तो इसे भी स्वीकार कर लेना है। ठीक है कि कोई गिर गया है, अब इसमें इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। गिरा रहने देना है। जो गिर गया है, उसे भी गिरे रहना है। जिसके ऊपर गिर गया है, वह भी गिरा रह जाना है। इसकी भी क्या बात है, चीजें ऐसी हैं कि कोई गिर गया है। इसमें कुछ बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है।
तो थोड़े फासले पर हट जाएं, और फिर हम ध्यान के लिए बैठें।
इसलिए मैंने कहा: ध्यान यानी समर्पण। पूरी तरह छोड़ देना है, जो होगा, होगा। हमें न यह सोचना है कि क्या होगा, न हमें दिशा देनी है कि यह हो। न हमें चेष्टा करनी है, हमें तो छोड़ देना है, छोड़ देना है, छोड़ देना है, जो हो, हो।
अब आंख बंद कर लें। बहुत धीमे से आंख बंद कर लें। शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। जैसे शरीर में कोई प्राण ही न हो, ऐसा ढीला छोड़ दें। और तीन मिनट तक मैं सुझाव दूंगा, मेरे साथ अनुभव करें। तीन मिनट तक मैं सुझाव दूंगा, सजेशन दूंगा कि शरीर शिथिल हो रहा है, शिथिल हो रहा है, शिथिल हो रहा है, रिलैक्स हो रहा है, रिलैक्स हो रहा है। तो भीतर आपको अनुभव करते जाना है कि शरीर शिथिल हुआ, शिथिल हुआ, शिथिल हुआ, शिथिल हो रहा है। अनुभव ही नहीं करना, अनुभव के साथ शरीर को शिथिल छोड़ते चले जाना है। एक तीन मिनट में शरीर बिलकुल मिट्टी की तरह हो जाएगा, बिखर जाएगा, गिर जाएगा, झुक जाएगा। तो आपको कोई बाधा नहीं देनी है। जो हो, हो जाए।
अब मैं शुरू करता हूं--अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ें, छोड़ते जाएं और अनुभव करते जाएं--शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ते भी जाएं और साथ-साथ अनुभव करते जाएं--शरीर शिथिल हो रहा है। बिलकुल छोड़ दें, आप नहीं हैं मालिक। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें, शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...
अनुभव करें, शरीर का रग-रग, रेशा-रेशा शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल होता जा रहा है...बिलकुल छोड़ दें, जैसे शरीर है ही नहीं। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर का कण-कण शिथिल होता जा रहा है, रग-रग शिथिल होती जा रही है...छोड़ दें, शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...
छोड़ दें बिलकुल, और दूसरे पर ध्यान न दें। अपने को ढीला छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें। दूसरे पर ध्यान न दें, दूसरा कोई नहीं है। आप अकेले ही हैं। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है, जैसे हो ही नहीं। अपनी सारी पकड़ छोड़ दें। आप पकड़े हुए न रह जाएं। फिर शरीर का जो हो--गिरता हो, गिरे; न गिरता हो, न गिरे। आगे झुके, पीछे झुके, जो हो। आप पकड़े हुए न रह जाएं, इतना ध्यान रखें। आप शरीर को नहीं पकड़े हैं, आपने छोड़ दिया है। अब जो भी होगा, होगा। आप रोकें नहीं, जो भी हो, हो।
शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें, जैसे नदी में छोड़ दिया था, ऐसे ही छोड़ दें और बह जाएं। जैसे नदी में छोड़ दिया था और बह गए थे, ऐसे ही बह जाएं। छोड़ दें...छोड़ दें...छोड़ दें...जीवन की सरिता ले जाए, जहां ले जाए। छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें। शरीर शिथिल हो गया है...गिरता हो, गिर जाए, जरा भी रोकें नहीं। छोड़ दें, नदी ले जाएगी, बह जाएंगे। छोड़ दें, जीवन की सरिता में छोड़ दें सूखे पत्ते की भांति, और बह जाएं। बहें!
शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है, जैसे है ही नहीं। शरीर जैसे है ही नहीं। छोड़ दें!
श्र्वास शांत हो रही है...अनुभव करें, श्र्वास शांत होती जा रही है...श्र्वास शांत होती जा रही है...श्र्वास शांत होती जा रही है। रोकनी नहीं है, अपनी तरफ से ढीला छोड़ दें। श्र्वास शांत हो रही है...श्र्वास शांत हो रही है...श्वास शांत होती जा रही है...श्र्वास बिलकुल शांत होती जा रही है...श्र्वास शांत हो रही है...छोड़ दें, श्र्वास को भी छोड़ दें, श्र्वास शांत होती जा रही है...श्र्वास शांत हो रही है...श्र्वास शांत हो रही है...श्र्वास शांत हो रही है...श्र्वास शांत हो रही है...
जैसे-जैसे श्र्वास शांत होती चली जाएगी, वैसे-वैसे लगेगा कि हम तो मिट गए, मिटे, मिटे, मिटे...क्योंकि हमारा होना श्र्वास से जुड़ा है। श्र्वास शांत होती जा रही है...शांत होती जा रही है...शांत होती जा रही है...श्र्वास बिलकुल शांत होती चली जा रही है...ऐसा लगेगा कि गई, गई, गई--श्र्वास बिलकुल शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...श्र्वास शांत हो गई है...
अनुभव करें, जैसा चिता पर चढ़ गए थे और जल गए थे और राख रह गई थी; सब मिट गया था, ऐसे ही श्र्वास विलीन होती जा रही है, विलीन होती जा रही है। धीरे-धीरे सब विदा हो जाएगा, कुछ भी न रह जाएगा, पीछे राख भी न छूट जाएगी। अनुभव करें, जैसे चिता पर चढ़ गए थे, ऐसे ही श्र्वास खोती जा रही है, खोती जा रही है...मरते जा रहे हैं, मरते जा रहे हैं...धीरे-धीरे सब मर जाएगा, पीछे कुछ भी शेष नहीं रह जाएगा। छोड़ दें...श्र्वास को भी छोड़ दें...
और अब तीसरी बात अनुभव करें--पक्षियों की आवाज है, सूरज की किरणें हैं, सड़कों पर गति है, शोरगुल है, सागर की लहरें हैं, सब सुनाई पड़ रहा है। साक्षी होकर चुपचाप सुनते रह जाएं, सुनते रह जाएं, सुनते रह जाएं--ऐसा है, ऐसा है, ऐसा है। चीजें ऐसी हैं। सिर्फ सुनते रहें, सुनते रहें, सुनते रहें--ऐसा है। जानते रहें, जानते रहें--ऐसा है। और कुछ भी न करें। बस जान रहे हैं, सुन रहे हैं; जान रहे हैं, सुन रहे हैं। कुछ भी करना नहीं है, जो है उसके साथ चुपचाप एक होकर जानते हुए रह जाना है।
अब दस मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं। शरीर शिथिल हो गया, श्र्वास शांत हो गई और आप तथाता में, साक्षीभाव में बैठे रह गए हैं। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे भीतर कुछ बदलता जाएगा, शांत हो जाएगा, शांत हो जाएगा। फिर भीतर कुछ शून्य हो जाएगा, भीतर कुछ मौन हो जाएगा। आप नहीं रह जाएंगे, कोई और उस शून्य में आ जाएगा।
अब मैं चुप हो जाता हूं। आप सुनते रहें, साक्षीभाव से देखते रहें, जानते रहें जो भी हो रहा है। कोई विरोध नहीं, ऐसा है। देखें, भीतर देखें; बाहर सुनें। और चुपचाप साक्षी बने रह जाएं, दस मिनट के लिए सिर्फ साक्षी बने रह जाएं।
(ओशो कुछ मिनट मौन रह कर फिर सुझाव देना शुरू करते हैं।)
मन शांत और शून्य हो गया है...सब मिट गया है...मन बिलकुल शून्य हो गया है...मन शून्य हो गया है...देखते रहें, जानते रहें मन शून्य हो गया है...मन बिलकुल शून्य हो गया है...मन बिलकुल शून्य हो गया है...
साक्षी बने रहें, देखते रहें, जानते रहें, अनुभव करते रहें--नदी बहा कर ले गई है, चिता ने जला दिया है--अब चुपचाप जान रहे हैं, जान रहे हैं। इसी शून्य में किसी क्षण उसका प्रवेश हो जाता है, जिसका नाम आनंद है। उसका प्रवेश हो जाता है, जिसका नाम सत्य है। उसका प्रवेश हो जाता है, जिसका नाम परमात्मा है। सब शून्य हो गया है...सब शून्य हो गया है...द्वार खुले हैं प्रतीक्षा में--सब शून्य हो गया है।
अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्र्वास लें...धीरे-धीरे गहरी श्र्वास लें...प्रत्येक श्र्वास के साथ बहुत ताजगी, बहुत शांति, बहुत आनंद मालूम पड़ेगा। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्र्वास लें...धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्र्वास लें...प्रत्येक श्र्वास के साथ बहुत ताजगी, बहुत शांति, बहुत आनंद मालूम पड़ेगा। धीरे-धीरे गहरी श्र्वास लें...
दो-चार गहरी श्र्वास लें...फिर धीरे-धीरे आंख खोलें...आंख न खुले तो जल्दी न करें, गहरी श्र्वास लें, फिर धीरे से आंख खोलें। हो सकता है किसी को आंख खोलने में तकलीफ हो, तो हाथ आंखों से लगा लें, फिर धीरे-धीरे आंख खोलें...धीरे-धीरे आंख खोलें...
जो लोग गिर गए हैं, वे पहले गहरी श्र्वास लें, फिर धीरे-धीरे उठें, फिर आंख खोलें।
जो प्रयोग मैंने ध्यान के लिए कहा है, इसे रात सोते समय करें।