QUESTION & ANSWER

Karuna Aur Kranti 01

First Discourse from the series of 6 discourses - Karuna Aur Kranti by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
एक पहाड़ी रास्ते पर सुबह से ही बड़ी भीड़ है। सूरज बाद में निकला है, उस रास्ते पर लोग पहले से ही निकल पड़े हैं। भीड़ बहुत है--सारा गांव, आस-पास के छोटे गांव पहाड़ी की तरफ भागे चले जाते हैं। लेकिन भीड़ बड़ी उदास है। निश्चय ही कोई मेला भरने को नहीं है। कोई खुशी का त्यौहार भी नहीं मालूम पड़ता। लोग आंखें नीचे झुकाए हुए हैं और लोगों के प्राणों पर बड़े पत्थर रखे हों ऐसा मालूम पड़ता है। उस भीड़ में तीन लोग और हैं, जो अपने कंधों पर सूलियां लिए हुए हैं। वह भीड़ ऊपर पहुंच गई है।
यह बड़े व्यंग की बात है कि किसी को अपनी सूली खुद ही ढोनी पड़े। वे सूलियां खुद ही उन्हें गाड़नी भी पड़ी हैं। उन तीनों लोगों ने अपनी-अपनी सूलियां गाड़ ली हैं। और फिर उस उदास भीड़ में उन तीनों लोगों को सूली पर लटका दिया गया है। उनमें एक आदमी परिचित है, वह मरियम का बेटा है, जीसस। लेकिन दो आदमी बिलकुल अनाम हैं, उनका कोई नाम-पता नहीं चलता कि वे कौन हैं। कहते हैं कि वे दो चोर थे। दो चोरों और बीच में जीसस को--तीनों को सूली पर लटका दिया गया है। उनके हाथों में खीले ठोक दिए गए हैं। जीसस के सिर पर कांटों का ताज भी पहनाया हुआ है। और जीसस की आंखों में जो भी कोई झांकेगा, तो उसे पता चलेगा कि जैसे दुख और पीड़ा और उदासी साकार हो गई हो।
यह घटना घटे बहुत दिन हो गए हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि यह घटना बड़ी समसामयिक है, बड़ी कंटेम्प्रेरी है। कृष्ण को बांसुरी बजाते हुए, नाचते हुए--सोचने में भी कठिनाई होती है। और ऐसा लगता है कि ऐसा आदमी शायद कभी न हुआ हो। यह भी हो सकता है कि भविष्य में कभी हो, क्योंकि आदमी के ओंठ गीत गाना भूल चुके हैं। और बांसुरी बजाने की तो बात ही नहीं है। तो कृष्ण बहुत काल्पनिक और स्वप्निल मालूम पड़ते हैं। बुद्ध की शांत प्रतिमा भी ऐसी लगती है, जैसे हमारी आकांक्षा हो। लेकिन जीसस बहुत समसामयिक मालूम पड़ते हैं। ऐसा नहीं लगता कि दो हजार साल पहले इस आदमी को सूली लगी हो; ऐसा लगता है कि हमारे पड़ोस में यह आदमी अभी भी सूली पर लटका हुआ है।
कुछ कारण हैं। जीसस की निकटता के पीछे कुछ कारण हैं। बड़ा कारण तो यह है कि उस दिन एक आदमी सूली पर लटका था; आज पूरी मनुष्यता करीब-करीब धीरे-धीरे सूली पर लटक गई है। कुछ सूलियां दिखाई पड़ती हैं, कुछ दिखाई नहीं पड़ती हैं, अदृश्य हैं। दिखाई पड़ने वाली सूलियों से बचा भी जा सकता है, न दिखाई पड़ने वाली सूलियों से बचना भी बहुत मुश्किल है।
और उस दिन सुबह जो हुआ था, उससे कुछ और बातें भी मेरे खयाल में आती हैं। पहली तो बात मेरे खयाल में यह आती है कि जीसस खुद अपनी सूली को लेकर उस पहाड़ी पर चढ़े थे। हममें से हर आदमी अपनी सूली को खुद ही लेकर चल रहा है। हम सब खुद ही निर्माण करते हैं। फिर उन्हें खुद ढोते हैं जीवन भर, और अंत में अपनी-अपनी सूलियों पर लटक कर मर भी जाते हैं। ऐसा एकाध आदमी के साथ हो, तो बात समझ में भी आ सकती है, लेकिन ऐसा अगर पूरी मनुष्यता के साथ हो जाए तो बड़ा सवाल है।
आदमी इतना उदास और दुखी कभी भी नहीं था, जितना उदास और दुखी है। पक्षी भी हमें देख कर विचार करते होंगे कि आदमी मालूम होता है भटक गया। और पक्षी भी आकाश में उड़ कर हम पर दया करते होंगे, करुणा करते होंगे। निश्र्चित, पौधों में चर्चा होती होगी आदमी के बिगड़ जाने की, विकृत हो जाने की।
इस सारी पृथ्वी पर चांद-तारों से लेकर छोटे-छोटे नदी के किनारे पड़े हुए कंकड़-पत्थरों तक भी एक आनंद की धारा का प्रवाह मालूम होता है, सिर्फ आदमी के हृदय में मरुस्थल हो गया है। वहां कोई धारा आती नहीं कि सूख जाती है। आदमी अकेला विक्षिप्त प्राणी है। हम अकेले पागल हैं! और ऐसा नहीं है कि कुछ लोग पागल हैं। नहीं; हम सभी पागल हैं!
अपने पागलपन के हमने दो रूप बना रखे हैं। एक ऐसा पागलपन, जिसके रहते हुए भी जिंदगी के साथ हम किसी तरह का एडजेस्टमेंट, समायोजन कर लेते हैं। और एक ऐसा पागलपन कि जिसके रहते फिर जिंदगी के साथ समायोजन करना मुश्किल हो जाता है।
दो तरह के पागल हैं। एक जो समाज के पागलपन में किसी तरह अपने को बिठा लेते हैं और चल जाते हैं। और एक वे जो समाज के पागलपन में अपने को नहीं बिठा पाते और उनके लिए हमें अलग पागलखाने बनाने पड़ते हैं।
जमीन दो तरह के पागलखानों में बंट गई है। एक दीवालों के भीतर है पागलखाना--छोटा। एक दीवालों के बाहर है पागलखाना--बड़ा। वह सारी पृथ्वी पर फैल गया है।
एक-एक आदमी के भीतर अगर हम झांक कर देखें, तो हमें खयाल में आएगा कि कैसी कठिन और कैसी चिंता से भरी हुई जिंदगी हम जी रहे हैं! ऐसा नहीं है कि हम मुस्कुराते नहीं हैं। सुबह से सांझ तक बहुत बार मुस्कुराते हैं। लेकिन हमारी मुस्कुराहट अधिकतर हमारे आंसुओं को छिपाने के प्रयास के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होती है। और ऐसा भी नहीं है कि हम गीत नहीं गाते, लेकिन हमारे हर गीत के भीतर हमारे रोने की प्रतिध्वनि के दबाने का उपाय होता है। और ऐसा भी नहीं है कि हम बाहर प्रसन्न न दिखाई पड़ते हों, लेकिन हमारी सारी प्रसन्नता ऊपर सतह पर है और भीतर गहरे में बहुत उदास आत्मा बैठी हुई है।
एक-एक आदमी अपने भीतर झांक कर देखेगा, तो अपने ही प्रति करुणा से भर जाएगा। और जब तक हम अपने प्रति करुणा से न भर जाएं, तब तक पड़ोसी के प्रति हम कभी भी करुणा से नहीं भर सकते हैं। जब तक हमें अपनी सूली न दिखाई पड़ने लगे, तब तक चारों तरफ सारे लोग सूलियों पर लटके हुए हैं, यह भी हमें दिखाई नहीं पड़ सकता है। जिसे अपनी सूली दिखाई पड़ती है, उसे पड़ोसी भी सूली पर लटका हुआ है, यह दिखाई पड़ता है।
लेकिन हम सब अपनी सूली की तरफ देखते ही नहीं, इसलिए पड़ोसी की सूली को देखने का कोई उपाय नहीं है। हम दूसरे के प्रति कठोर हो पाते हैं, क्योंकि हम अपने प्रति ही अभी करुण नहीं हो पाए हैं। हम दूसरे के प्रति करुणा से नहीं भर पाते हैं, क्योंकि अभी हम अपने प्रति ही करुणा से नहीं भर पाए हैं। अभी हमने अपनी ही स्थिति को--जैसे हम हैं, जो हम हैं--उसे झांकने की हिम्मत नहीं जुटाई है। शायद हम डरते हैं। शायद हमें भय है कि अपने को देखें, तो शायद जीना और भी मुश्किल हो जाए। इसलिए अपने को भुलाने की कोशिश में रहते हैं।
और बहुत लोगों ने अपनी सूलियों पर सोने-चांदी के जेवर पहना रखे हैं, और बहुत लोगों ने अपनी सूलियों पर रंग-बिरंगे फूल चिपका लिए हैं, और बहुत लोगों ने अपनी सूलियों पर इत्र छिड़क दिए हैं कि सूलियां भी ऐसी मालूम पड़ती हैं कि बड़ी प्यारी हैं! हम सूलियों को--सूलियां हैं यह भुलाने की कोशिश में लगे रहते हैं! जंजीरों को आभूषण समझ लेते हैं। और सूलियों को जिंदगी समझ रखा है। और आंसुओं को धीरे-धीरे हमने अपने को ही धोखा देकर ऐसा बना लिया है कि लगता है कि वे भी मुस्कुराहटें हैं। अपनी सूली को भूलने के लिए हमने बहुत से आयोजन किए हैं। और जितनी सूली मजबूत होती जाती है, भारी होती जाती है और आदमी के हाथों में खीले ठुकते जाते हैं, उतने सूली को भुलाने के हमारे उपाय भी तीव्र होते चले जाते हैं।
मनुष्य जैसे-जैसे सभ्य होता है, वैसे-वैसे मनोरंजन के साधन खोजता है। जैसे-जैसे सभ्य होता है, वैसे-वैसे नये नशे के उपाय खोजता है। जैसे-जैसे सभ्य होता है, वैसे भूलने की नई व्यवस्थाएं, अपने आपको भुला देने के नये मार्ग तलाश करता है। तो रोज मनोरंजन के, भूलने के, शराबों के नये-नये उपाय बढ़ते चले जाते हैं, ताकि हमें अपनी सूली का पता न लगे। लेकिन सूली का पता लगे या न लगे, चाहे हम भूल जाएं, चाहे कोई सूली पर लटका हुआ आदमी शराब पीकर लटका हो, तो भी सूली के होने में कोई फर्क नहीं पड़ता है। सूली है और हम उस पर लटके हुए हैं।
जैसे-जैसे हम सभ्य होते हैं, वैसे-वैसे ऐसा लगता है कि हमारा पागलपन बॉइलिंग पॉइंट के करीब, उबलने के बिंदु के करीब पहुंचता चला जाता है। और बहुत आश्र्चर्य न होगा कि पूरी मनुष्य-जाति ऐसा अनुभव करे कि अपने को समाप्त ही कर ले। अनेक लोगों ने अनेक बार ऐसा अनुभव किया है। कुछ लोगों ने आत्महत्याएं की हैं। धीरे-धीरे आत्महत्याएं करने वाले लोगों की संख्या भी फैलती चली गई है, बढ़ती चली गई है। ऐसा भी हो सकता है कि एक दिन पूरी मनुष्य-जाति सामूहिक निर्णय करे कि हम अपने को समाप्त कर लें। वैसे हमारे पास... इंतजाम हमने कर लिया है, कभी भी हम निर्णय करें, तो उसे व्यावहारिक रूप में बदला जा सकता है। पूरी मनुष्यता को समाप्त करने की व्यवस्था हमारे पास है।
यह आदमी आत्मघात की तरफ इतनी आतुरता से उत्सुक हो रहा है--क्या कभी आप सोचते हैं कि जरूर कहीं जीवन से हमारा संबंध टूट गया होगा? जीवन से कहीं हमारे नाते-रिश्ते, संबंध विदा हो गए हैं? हम कहीं जीवन से टूट ही गए हैं। जीवन के स्रोत से हमारा संबंध विच्छिन्न हो गया है। और हम सिर्फ मरे हुए जी रहे हैं--उदास, सूखे हुए, जैसे किसी पौधे की जड़ों का संबंध जमीन से टूट जाए। तो पौधा रहे, उसकी पत्तियां कुम्हला जाएं, उसके फूल कुम्हला जाएं, उसकी कलियां फूल होना बंद हो जाएं। ऐसी ही मनुष्य की हालत हो गई है। हमारी जड़ें कहीं से हिल गई हैं।
किसने ये जड़ें हिला दी हैं? कौन है जिम्मेवार?
और अगर हम उसके कारणों को न खोज पाएं, तो शायद ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाए और आदमी को बचाना मुश्किल हो जाए।
इन तीन-चार दिनों में मैं उन जड़ों के संबंध में, उन मूल कारणों के संबंध में आपसे बात करना चाहता हूं, जिन्होंने मनुष्य की ऐसी दशा बना दी है--विपन्न, हारी हुई, पराजित, अर्थहीन। इसीलिए मित्रों ने कहा कि मैं ‘करुणा और क्रांति’ पर बात करूं।
‘करुणा और क्रांति’--ऐसा शब्दों का समूह मुझे अच्छा नहीं मालूम पड़ता है। मुझे तो लगता है--करुणा यानी क्रांति। करुणा अर्थात क्रांति। कम्पैशन एंड रेवोल्यूशन ऐसा नहीं, कम्पैशन मीन्स रेवोल्यूशन। ऐसा नहीं कि करुणा होगी--और क्रांति होगी। अगर करुणा आ जाए, तो क्रांति अनिवार्य है। क्रांति सिर्फ करुणा की पड़ी हुई छाया से ज्यादा नहीं है। और जो क्रांति करुणा के बिना आएगी, वह बहुत खतरनाक होगी। ऐसी बहुत क्रांतियां हो चुकी हैं। और वे जिन बीमारियों को दूर करती हैं, उनसे बड़ी बीमारियों को पीछे छोड़ जाती हैं।
अब तक की सारी क्रांतियां असफल हो गई हैं।
आदमी ने बड़े प्रयास किए हैं आनंद के समाज को निर्मित करने के, बहुत प्रयास किए हैं कि मनुष्य खुश हो सके। बहुत प्रयास किए हैं कि जीवन में फूल खिल जाएं। लेकिन अब तक वे सफल नहीं हो सके। क्योंकि क्रांतियां क्रोध से पैदा हुईं, करुणा से नहीं।
और जो भी क्रांतियां क्रोध से पैदा होंगी, वे क्रांतियां तोड़ सकती हैं, लेकिन निर्मित नहीं कर सकती हैं। और जो क्रांतियां क्रोध से पैदा होती हैं, वे विध्वंस में तो ले जाती हैं, लेकिन सृजन में नहीं ले जा पाती हैं। और जो क्रांतियां क्रोध से पैदा होती हैं, वे बहुत गहरे प्रवेश नहीं कर पातीं, जहां मनुष्य की बीमारी की जड़ें हैं। वे ऊपर से पत्तों को काट डालती हैं, वृक्षों को हिला देती हैं, शाखाओं को तोड़ देती हैं, लेकिन जड़ों तक उनकी पहुंच नहीं हो पाती। और वे क्रांतियां समाप्त भी नहीं हो पाती हैं कि नये पत्ते निकल आते हैं, नई शाखाएं निकल आती हैं--बल्कि हर क्रांति कलम साबित हुई है, पुराना वृक्ष और सघन होकर बड़ा हो गया है, क्योंकि जड़ें नीचे जमीन के भीतर बरकरार हैं, वे नहीं मिटती हैं।
हम धन बांट सकते हैं क्रोध में आकर। धन बंट भी सकता है। लेकिन लोगों ने धन इकट्ठा करने का पागलपन क्यों पैदा कर लिया? अगर इसकी गहरी जड़ों में न जा सकें, तो शायद धन तो बंट जाएगा, लेकिन आदमी वही होगा जो धन को इकट्ठा करने वाला था। वह धन से जो इकट्ठा कर रहा था, दूसरी चीजों से वही इकट्ठा करने लगेगा। रूस में वैसा हो गया। चीन में वैसा होगा। सारी दुनिया में जहां भी क्रांति के नाम से घटनाएं घटी हैं, वहां वैसा हो रहा है।
जो आदमी धन इकट्ठा करके अहंकार अर्जित करता था, उसकी मूल बीमारी धन में न थी, उसकी मूल बीमारी अहंकार में थी। धन होता था, तो वह कह पाता था कि ‘मैं कुछ हूं।’ उस आदमी ने नये रास्ते खोज लिए। अब वह धन इकट्ठा नहीं करता, अब वह राज्य पर अधिकार कर लेता है। और अब भी उसकी पुरानी बीमारी अपनी जगह खड़ी है। अब भी वह वही अकड़ है, वही बात है, वही अहंकार है कि ‘मैं कुछ हूं।’ अब वह धन नहीं छीनता, लेकिन सत्ता छीन लेता है। अब वह दूसरे आदमी को गरीब नहीं बनाता, लेकिन निर्बल बना देता है। और मामला वही है--गरीब-अमीर के बीच का फासला, निर्बल और सबल के बीच का फासला बन जाता है। और कोई भी फर्क नहीं हो पाता है।
पिछले पांच हजार वर्षों में बहुत क्रांतियां हुई हैं। लेकिन सारी क्रांतियां क्रोध से निकली हैं, इसलिए असफल हो गई हैं। असल में क्रोध बहुत गहरे नहीं जा सकता, क्योंकि क्रोध की स्थिति में गहरे जाना संभव ही नहीं है। करुणा ही गहरे जा सकती है। क्रोध बहुत ऊपर देखता है। ऊपर के कारणों को तोड़ देता है, लेकिन भीतर के कारण न उसे दिखाई पड़ते हैं, न उसकी सामर्थ्य होती है उतने गहरे उतरने की।
मेरी दृष्टि में करुणा ही क्रांति है। और करुणा पैदा हो सके, तो क्रांति आएगी अपने आप।
और बड़े आश्र्चर्य की बात है, वह यह है कि अगर करुणा हो, तो गरीब पर ही करुणा नहीं होगी, अमीर पर भी उतनी ही करुणा होगी। क्योंकि गरीब और अमीर एक ही बीमारी के दो रूप हैं। और अगर करुणा होगी, तो बुरे आदमी पर ही करुणा नहीं होगी, अच्छे आदमी पर भी करुणा होगी, क्योंकि अच्छे और बुरे एक ही बीमारी के दो रूप हैं। और यदि करुणा होगी, तो करुणा जाएगी गहरे मनुष्य के पूरे इतिहास में, मनुष्य की पूरी संस्कृति में, मनुष्य के पूरे अचेतन मन में और खोजेगी कि सारी बीमारियों की मूल जड़ें कहां से निकल आई हैं। और उनकी बदलाहट उसकी दृष्टि होगी। करुणा ऊपर से काटेगी नहीं, नीचे से जड़ों को बदलने की कोशिश करेगी। ‘करुणा और क्रांति’ इस भाषा में इसलिए मैं सोचना पसंद नहीं करता। करुणा ही क्रांति है।
एक बार कम्पैशन पैदा हो, तो हम वही नहीं हो सकते जो हम कल थे। और न हम जिंदगी को वही रहने दे सकते हैं जो वह कल थी। अगर मुझे दिखाई पड़ना शुरू हो जाए कि आपके पैर एक गड्ढे में जा रहे हैं, तो मैं सब कोशिश करूंगा कि आपके पैर उस गड्ढे में जाने से बच जाएं। और अगर मुझे यह भी पता चल जाए कि आप जब गड्ढे में गिरेंगे, तो आप ही नहीं गिरेंगे, मैं भी आपके साथ ही गिरता हूं, क्योंकि यह जिंदगी संग और साथ है। यहां कोई अकेला नहीं है।
यहां जब एक आदमी गड्ढे में गिरता है, तो हम सब ही उसके साथ किसी न किसी अर्थों में गड्ढे में गिरते हैं। और जब एक आदमी अंधा होता है, तो हम सब किसी न किसी अर्थों में अंधे हो जाते हैं। और जब एक आदमी कुरूप होता है, तो हम कुरूप हो जाते हैं। और जब एक आदमी निर्धन होता है, तो सारी मनुष्यता निर्धन हो जाती है। यह सारी जिंदगी इस पृथ्वी पर एक सहयोग है। यहां हम एक-दूसरे के हाथ में हाथ डाले हुए हैं। यहां हम अकेले-अकेले नहीं खड़े हुए हैं। यहां हम चाहें भी तो अकेले-अकेले खड़े नहीं हो सकते हैं। यहां जिंदगी एक सहयोग है। और यहां जो भी घटित होता है, वह सबके लिए घटित होता है।
तो अगर मैं समझ पाऊं कि जिंदगी के रोग कहां से पैदा होते हैं, जिंदगी महारोग कैसे बन गई है, और आदमी खुद एक महारोग कैसे बन गया है, तो यह बोध, यह समझ एक गहरी करुणा ले आएगी। और उस करुणा के पीछेक्रांति वैसे ही आती है, जैसे आदमी के पीछे छाया आती है। छाया को लाना नहीं पड़ता है।
और जिस क्रांति को लाना पड़े, वह गलत होगी। क्योंकि लाई हुई क्रांति जबर्दस्ती होगी। और लाई हुई क्रांति थोपनी पड़ेगी। और लाई हुई क्रांति के पीछे अनिवार्य रूप से हिंसा होगी। और लाई हुई क्रांति कौन लाएगा और किस पर लाएगा? क्रांति आनी चाहिए। लाई हुई क्रांतियां काफी लाई जा चुकी हैं। उनसे कुछ भी नहीं होता है। क्रांति आनी चाहिए। क्रांति एक हैपनिंग होनी चाहिए। क्रांति जिंदगी में विकसित होनी चाहिए।
वह कैसे होगी?
वह करुणा से विकसित हो सकती है। करुणा आए, तो क्रांति अपने आप आ जाती है। इसलिए करुणा पर पहले विचार कर लेना जरूरी है, फिर हम क्रांति पर भी सोच सकेंगे।
मनुष्य एक रोग क्यों हो गया है?
जरूर कहीं कोई भूल हो गई है। आदमी के संगठन में ही भूल हो गई है। समाज के संगठन में नहीं, आदमी के, मनुष्य के संगठन में ही भूल हो गई है। हमने मनुष्य को जिन आधारों पर खड़ा किया है, वे ही गलत हो गए हैं। एक-एक आदमी गलत हो गया है, इसलिए सारा जोड़ भी गलत हो गया है। और एक-एक आदमी जब तक गलत है, तब तक सारे जोड़ को ठीक करना असंभव है। आदमी ही गलत हो गया है। समाज और संस्कृति उस गलत हुए आदमी के परिणाम हैं।
आदमी कहां गलत हो गया है?
आज पहले एक सूत्र पर मैं बात करना चाहूंगा कि आदमी कहां गलत हो गया है।
पहला सूत्र मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि आदमी ने स्वाभाविक और प्राकृतिक होने की हिम्मत नहीं की है, यह उसकी बुनियादी गलती हो गई है। आदमी ने कुछ और होने की कोशिश की है--जो वह है उससे। पशु पशु हैं, पक्षी पक्षी हैं, पौधे पौधे हैं। अगर एक गुलाब में कांटे हैं, तो वह इस परेशानी में नहीं पड़ा रहता कि मैं बिना कांटों का कैसे हो जाऊं। वह अपने कांटों को भी स्वीकार करता है, अपने फूल को भी स्वीकार करता है। उसकी स्वीकृति में कांटों से विरोध और फूल से प्रेम नहीं है। उसकी स्वीकृति में कांटे और फूल दोनों समाविष्ट हैं। इसलिए गुलाब प्रसन्न है, क्योंकि उसे कोई अंग काटने नहीं हैं। कोई पक्षी अपने एक पंख को इनकार नहीं करता है और एक को स्वीकार नहीं करता है। और कोई पशु अपनी जिंदगी को आधा-आधा तोड़ कर स्वीकार नहीं करता है, पूरी ही स्वीकार कर लेता है।
आदमी ने जिंदगी को पूरा स्वीकार नहीं किया है, जैसी जिंदगी उसे मिली है। वह उस पर आरोपण करता है और कहता है: जिंदगी ऐसी होनी चाहिए, तो मैं स्वीकार करूंगा। आदमी कुछ और होना चाहने की पागल वासना से पीड़ित है। आदमी जो हो सकता है, वह होने को राजी नहीं है, कुछ और होना चाहता है। आदमी कहता है कि ये कांटे नहीं होने चाहिए मेरे भीतर। आदमी कहता है, यह बुराई नहीं होनी चाहिए मेरे भीतर। आदमी कहता है, क्रोध नहीं होना चाहिए। आदमी कहता है, काम नहीं होना चाहिए। आदमी कहता है, सेक्स नहीं होना चाहिए। आदमी कहता है, ये सब इतने हिस्से नहीं होने चाहिए। बस प्रेम होना चाहिए, क्षमा होनी चाहिए, श्रद्धा होनी चाहिए। बाकी गलत, जिसे हमने गलत ठहराया हुआ है, वह नहीं होना चाहिए।
लेकिन आदमी एक जोड़ है इकट्ठा, एक टोटेलिटी है। उसमें कांटे भी हैं और फूल भी हैं। और अगर हमने यह तय किया कि कांटे नहीं होना चाहिए, तो हमारा सारा श्रम कांटों को तोड़ने में लग जाएगा। और कांटों को तोड़ने में लगा हुआ व्यक्ति कांटों को मिटा नहीं सकता, क्योंकि कांटे नये पैदा होते रहे होंगे, वे उसके बीइंग से आते हैं, वे उसके अस्तित्व से आते हैं। वह ऊपर से तोड़ेगा, भीतर से आ जाएंगे। और कांटों में उलझ गए व्यक्ति की जो चेतना है, वह फूल पैदा करने में भी हो सकता है असमर्थ हो जाए।
आदमी ने अस्वाभाविक, अननैचुरल होने की कोशिश की है। हम स्वाभाविक होने को राजी नहीं हैं। हमारी पूरी संस्कृति और सभ्यता अस्वाभाविक होने का प्रयास है। हम जैसे हैं, वैसे नहीं--हमें कुछ और होना है! इस कुछ और होने की दौड़ ने हमारे सारे स्वभाव को, सारी सहजता को नष्ट कर दिया है। हम सब रुग्ण हो गए हैं, हम सब बीमार हो गए हैं।
इस रुग्णता को पहचानने की पहली तो जरूरत यह है कि क्या हम स्वाभाविक हुए बिना कभी भी शांत और आनंदित हो सकते हैं? क्या कोई भी आदमी कभी आनंदित हो सकता है, जब तक वह स्वाभाविक न हो जाए? जैसा सारे जीवन ने चाहा है कि वह हो, तब तक वह वैसा न हो जाए, तो क्या वह शांत हो सकता है, आनंदित हो सकता है?
एक युवती मेरे पास आई। अब तो युवती कहना मुश्किल है। प्रौढ़ है, चालीस वर्ष उसकी उम्र होती होगी। उसने विवाह नहीं किया है। नहीं किया है विवाह, क्योंकि उसकी धारणा है कि प्रेम सिर्फ आत्मा का आत्मा से होना चाहिए, शरीर बीच में नहीं आना चाहिए। शरीर पाप है। चालीस साल से उसने अपने को रोका है, शरीर को बीच में नहीं आने दिया। शरीर को बीच में नहीं आने दिया, तो प्रेम भी उसके द्वार पर नहीं आया। क्योंकि अगर प्रेम आएगा, तो शरीर के द्वार को ही कहीं से खटखटाएगा।
अगर कोई मेहमान आपके घर में आए और आप उससे कहें कि सीढ़ियां मत चढ़ना और मकान की दीवालों को पार मत करना। सीधे घर में आमंत्रित हैं आप, भीतर आमंत्रित हैं, लेकिन बाहर की दीवालों को स्पर्श मत करना और द्वार से प्रवेश मत करना। तो मेहमान कैसे आएगा? मेहमान नहीं आएगा।
चालीस वर्ष तक मेहमान नहीं आया, लेकिन अभी दुर्भाग्य से, या सौभाग्य से किसी व्यक्ति से उसका प्रेम हो गया है। लेकिन वह बहुत कठिनाई में पड़ गई। वह मेरे पास आई और उसने मुझसे कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में हूं। मैं आत्महत्या कर लूंगी। क्योंकि मैं तो मानती हूं कि प्रेम आत्मिक होना चाहिए, शरीर बीच में आना नहीं चाहिए। अब प्रेम आया है और शरीर बीच में आता है। और मैं प्रेमी को स्पर्श भी करना चाहती हूं। और यह तो इतना पाप है, जिसका कोई हिसाब नहीं।
मैंने उस स्त्री को पूछा कि तू भोजन आत्मिक रूप से करती है या शारीरिक रूप से?
उसने कहा: भोजन तो शारीरिक ही रूप से करना होता है।
तो मैंने कहा: आत्मिक भोजन शुरू करो, शारीरिक भोजन बंद कर दो, क्योंकि शरीर पाप है। और वस्त्र तू शरीर पर पहनती है कि आत्मा पर?
उसने कहा: वस्त्र तो शरीर पर पहनने पड़ते हैं।
मैंने कहा: व्यर्थ तू शरीर को बीच में लाती है, वस्त्र आत्मा पर ही पहनने चाहिए।
उसने कहा: लेकिन वस्त्र तो शरीर पर ही पहनने होंगे।
खाना शरीर खाएगा, श्वास शरीर लेगा, खून शरीर बनाएगा। जिंदगी शरीर के आधार पर खड़ी होगी। लेकिन नासमझी से भरे हुए सिद्धांत कहते हैं कि शरीर को प्रेम में स्वीकार मत करना।
अब उसकी, स्त्री की जिंदगी बहुत मुसीबत में पड़ गई, क्योंकि उसने अपने दो हिस्से कर लिए--एक हिस्सा जिसे इनकार करना है और एक हिस्सा जिसे स्वीकार करना है। और जिसको वह दो हिस्से कह रही है, वह एक ही व्यक्तित्व के दो हिस्से हैं। शरीर और आत्मा कोई दो ऐसी चीजें नहीं हैं कि एक-दूसरे की दुश्मन हों।
सच तो यह है कि आत्मा का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ में आ जाता है, वह शरीर है। और आत्मा का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ में नहीं आता है, वह आत्मा है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि आत्मा का जो हिस्सा दिखाई पड़ जाता है, वह शरीर है। और शरीर का जो हिस्सा अदृश्य है और दिखाई नहीं पड़ता, वह आत्मा है। लेकिन वे एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं।
लेकिन उस स्त्री की बड़ी परेशानी है। उसने कहा कि यह तो मैं स्वीकार ही नहीं कर सकती। शरीर को मैं बीच में नहीं ले सकती। शरीर पाप है। तो मैंने उससे कहा: फिर जीना भी पाप है, क्योंकि बिना शरीर के जीया नहीं जा सकता है। एक क्षण नहीं जीया जा सकता बिना शरीर के। उसे बहुत देर तक समझाया, उससे मैंने कहा कि दोनों जुड़े हैं, दोनों इकट्ठे हैं।
और जब कोई प्रेम से किसी के शरीर को स्पर्श करता है, तो शरीर को ही स्पर्श नहीं करता--जब कोई प्रेम से किसी के शरीर को स्पर्श करता है, तो शरीर को स्पर्श ही नहीं करता है; जब कोई प्रेम से किसी के शरीर को निकट लेता है, तो शरीर का पता ही नहीं चलता है। और अगर शरीर का पता चलता हो, तो उस व्यक्ति के मन में रोग है और उसने दो हिस्सों में तोड़ रखा है अपने को।
उसे मेरी बात समझ में आनी शुरू हुई। तो उसने मुझसे कहा कि यह भी मैं समझ सकती हूं कि शरीर और आत्मा एक है। लेकिन शरीर के ऊपर का हिस्सा शुद्ध है और शरीर के नीचे का हिस्सा अशुद्ध है। तो मैंने उससे कहा कि वह सीमा-रेखा कहां है जहां से शरीर का ऊपर का हिस्सा शुरू होता है और नीचे का? वह सीमा-रेखा कहां है? वह किस जगह से शरीर अलग होता है--शुद्ध शरीर अलग और अशुद्ध शरीर अलग? शरीर तो इकट्ठा है। खून फिकर नहीं करता, वह पूरे शरीर में दौड़ रहा है। श्र्वास फिकर नहीं करती, वह पूरे शरीर में दौड़ रही है। हाथ और पैर और सिर--शरीर के लिए सब बराबर हैं। वहां कोई शुचि और कोई अशुचि नहीं, कोई शुद्ध और अशुद्ध नहीं।
लेकिन उस स्त्री ने एक नया विभाजन किया। उसने कहा कि नीचे का हिस्सा तो अपवित्र है। अगर ज्यादा से ज्यादा मैं स्वीकार भी कर सकती हूं, तो ऊपर के हिस्से को शरीर के स्वीकार कर सकती हूं। अब उसने एक नया विभाजन किया। एक विभाजन था, शरीर और आत्मा अलग-अलग हैं। इसमें आत्मा को स्वीकार करना है, शरीर को अस्वीकार करना है। ये रुग्ण होने के लक्षण हैं, स्किजोफ्रेनिक होने के लक्षण हैं। ऐसा व्यक्ति धीरे-धीरे पागल हो जाएगा, दो हिस्सों में टूट जाएगा।
अब उसने--बामुश्किल किसी तरह राजी हुई है शरीर-आत्मा को एक स्वीकार करने को, तो शरीर को भी दो हिस्सों में तोड़ लेती है--नीचे का शरीर अलग है, ऊपर का शरीर अलग है! अब यह स्त्री अगर पागल न हो जाए तो और क्या होगा?
लेकिन हमने भी अपने पूरे व्यक्तित्व के साथ ऐसा ही किया हुआ है। हमने पूरे मनुष्य को स्वीकार नहीं किया है। जैसा नैसर्गिक मनुष्य है, उसे हमने स्वीकार नहीं किया है। इसका मतलब यह नहीं है कि अस्वीकार करने से हम कुछ बदल गए हैं। अस्वीकार करने से सिर्फ इतना हुआ है--कि वह जो नैसर्गिक मनुष्य है, भीतर छिप गया है और वह जो झूठा मनुष्य है, जिसे हमने स्वीकार किया है, वह ऊपर आ गया है। हम सब पाखंडी हो गए हैं। हमारे चेहरे पर वह बात आ गई है जो हमने थोप ली है। और हमारे अचेतन मन के कोनों में, अंधेरे में वह आदमी चला गया है, जो हम हैं। वह आदमी भीतर से धक्के दे रहा है--पूरे क्षण भीतर से वह कह रहा है, पूरे क्षण वह भीतर से संलग्न है काम में। पूरे समय, भीतर जिसको हमने दबा लिया है, वह काम कर रहा है। उससे छुटकारा मुश्किल है। वह नये-नये उपाय खोजता है, अपने काम जारी रखता है। क्योंकि नैसर्गिक को कभी तोड़ कर अलग नहीं किया जा सकता है।
जो स्वाभाविक है, उसे कभी नष्ट नहीं किया जा सकता है। वह रहेगा। उसका रहना अनिवार्यता है। सिर्फ छिप कर रहेगा। और छिप कर रहेगा तो आप दो हिस्सों में टूट जाएंगे। एक आपकी चेतन, कांशस दुनिया हो जाएगी। एक आपकी अनकांशस दुनिया हो जाएगी। बीच में एक बड़ी दीवाल खड़ी हो जाएगी। उस दीवाल के आर-पार हमारा जाना ही बंद हो जाएगा। हम पीछे कभी लौट कर देखेंगे भी नहीं कि हमने अपने ही कितने हिस्से पीछे दबा रखे हैं। और अगर मैंने अपना एक हाथ भीतर दबा रखा है और दूसरा हाथ बाहर रखा है, तो क्या आप समझते हैं कि मैं दबे हुए हाथ से कभी मुक्त हो सकता हूं? दबे हुए हाथ के साथ मेरा खुला हुआ हाथ भी बंधा रहेगा। मैं एक कारागृह में बंद हो जाऊंगा, जहां से निकलना बहुत मुश्किल हो जाएगा। और जिंदगी की इसीलिए सारी स्फुरणा और सारा आनंद, सारा ब्लिसफुल जो कुछ भी है, वह सब खो गया है। क्योंकि आदमी अपने को ही टुकड़ों में तोड़ लिया है।
आदमी पूरा हो तो आनंदित हो सकता है। आदमी टुकड़ों में हो तो उदास हो जाएगा। आदमी टुकड़ों में हो तो चिंतित हो जाएगा।
चिंता का मतलब क्या है? एंग्जाइटी का मतलब क्या है?
चिंता का एक ही मतलब है कि आपके भीतर ही आपने ऐसे टुकड़े बांट लिए हैं, जो आपस में लड़ रहे हैं। चिंता का और कोई मतलब नहीं है। चिंतित आदमी का मतलब है: खुद के भीतर विरोधी टुकड़ों में बंटा हुआ आदमी; जो अपने से ही लड़ रहा है। अब कोई आदमी अगर अपने से लड़ने लगेगा; अपने को ही खंडों में बांट कर अपने ही साथ शत्रुता करने लगेगा--मैं अगर अपने ही दोनों हाथ लड़ाने लगूं, तो कौन जीतेगा, कौन हारेगा? सिर्फ मैं टूटता जाऊंगा और नष्ट होता जाऊंगा।
हम सब चिंतित हो गए हैं, तनाव से भर गए हैं, क्योंकि पूरा मनुष्य हमने स्वीकार नहीं किया है। जैसा प्रकृति ने आदमी को बनाया है, जैसा परमात्मा ने आदमी को जन्म दिया है, हमने उसे स्वीकार नहीं किया है। हमने कुछ हिस्सों को इनकार कर दिया है, कुछ का विरोध किया है, कुछ को दबा दिया है, कुछ को रिप्रेस कर दिया है, कुछ को ऊपर कर लिया है। और हम अपने भीतर ही एक बड़ी बेचैन स्थिति में खड़े हो गए हैं। इससे हम उदास हैं, इससे हम विक्षिप्त हैं, इससे हम पागल हुए जा रहे हैं। इससे हमारे भीतर की ही दुनिया हमारे खिलाफ खड़ी है। और हम पूरे वक्त अपने ही भीतर की दुनिया के खिलाफ खड़े हैं। हम पूरे समय अपने से ही लड़ रहे हैं--उठने से लेकर सोने तक हम अपने से ही लड़ते चले जा रहे हैं।
एक आदमी अच्छी बातें बोल रहा है, उसे शराब पिला दें, वह आदमी गाली बकने लगता है। कोई पूछे कि शराब में ऐसी कौन सी केमिकल्स हैं, जो आदमी के भीतर गालियां पैदा कर देती हैं? शराब में ऐसी कोई ताकत नहीं है कि किसी आदमी में गालियां पैदा कर दे। लेकिन आदमी ऊपर से अच्छी बातें कर रहा था, भजन गा रहा था, और उसे शराब पिला दी, वह गालियां बकने लगा है। भीतर उसके गालियां भरी हैं। भजनों से गालियों को दबा रहा था। शराब ने भजन के मन को शिथिल कर दिया है, सुला दिया है। भीतर गाली वाला मन बाहर आ गया है और उसने बकवास शुरू कर दी है।
इसलिए सज्जन आदमी शराब पीने में बहुत डरता है। उसके डरने का एक कारण यह भी है। उसके भीतर जो दुर्जन छिपा बैठा है, वह प्रकट हो सकता है। सज्जन आदमी बहुत भयभीत है। सज्जन आदमी कभी रिलैक्स नहीं करता। क्योंकि वह जरा ही रिलैक्स करे, तो भीतर जो आदमी है, वह बाहर आता है। इसलिए सज्जन आदमी हमेशा तना हुआ रहता है। हमेशा डरा हुआ रहता है। हमेशा अपने को बचाए रखता है कि कोई ऐसा क्षण न आ जाए कि जहां मेरे भीतर का दबा हुआ कुछ निकल आए।
इसलिए सज्जन आदमियों को फिर दूसरी तरकीबें निकालनी पड़ती हैं। अगर उसको गालियां देनी हैं, तो वह होली की ईजाद करता है। उसको अगर गालियां बकनी हैं, तो वह होली की ईजाद करता है, होली को धार्मिक त्यौहार बनाता है, फिर वह गालियां बक सकता है। क्योंकि गालियों को भी उसने अब सैंकटिटी दे दी, अब गालियां भी पवित्र हो गई हैं! अब वह मजे से जाकर आपके दरवाजे पर गालियां बक रहा है। और आप कहते हैं, होली का त्यौहार है, कोई बुरा मानने की जरूरत नहीं है। सज्जन आदमी ने होली का त्यौहार ईजाद किया है। दुर्जन को उसकी कोई जरूरत नहीं है।
फिर सज्जन आदमी और-और नई तरकीबें ईजाद करता है, जहां कि वह अपने भीतर छिपे हुए रोगों को प्रकट करने के रास्ते खोजता है। वह मजाक करेगा, वह व्यंग करेगा। अगर दुनिया भर के सारे मजाकों का साहित्य उठा कर देखा जाए, तो सौ में से निन्यानबे मजाक सेक्स से संबंधित होंगे। और सज्जन आदमी मजाक करेगा, और सिवाय सेक्स के मजाक की कोई और बात नहीं होगी। लेकिन वह मजाक है, इसलिए उसे कोई गंभीरता से न लेगा।
लेकिन सेक्स की बात को मजाक में उठा कर चर्चा करनी भीतर की किसी बीमारी की खबर है। फिर सज्जन आदमी सेक्स से भरी हुई फिल्में देखेगा, मर्डर से भरी हुई, हत्याओं से भरी हुई फिल्में देखेगा, उपन्यास पढ़ेगा, डिटेक्टिव कहानियां पढ़ेगा। तब यह इनमें कोई कठिनाई नहीं होगी, क्योंकि इसमें कोई अड़चन नहीं मालूम पड़ती। लेकिन फिल्म में वह क्या देख रहा है? वह वही देख रहा है, जो वह देखना चाहता है। वह उसे पर्दों पर दिखाई पड़ रहा है। उसके भीतर उसे बड़ी राहत मिल रही है। वह यह जो राहत उसको भीतर से... खोजने के वह नये रास्ते खोज रहा है। इसलिए सज्जन आदमी का सारा साहित्य कामुकता से भरा हुआ होगा। सारी कविताएं घूम-फिर कर वहां लौट आएंगी, जिनसे सज्जन आदमी भागा है। सारे गीत वहां आ जाएंगे, जिनसे सज्जन आदमी ने इनकार किया है।
और सज्जन आदमी लड़ने के नये-नये उपाय खोजेगा--कभी हिंदू-मुस्लिम को लड़ाएगा, क्योंकि सज्जन आदमी को सीधा लड़ना बड़ा बुरा मालूम पड़ता है। वह सीधा नहीं लड़ सकता है कि वह आपसे कहे कि आओ, मेरा लड़ने का मन होता है, निपट लें। ऐसा वह नहीं कहेगा। वह कोई उपाय खोजेगा कि गऊ माता का अपमान हो गया है--तो सज्जन आदमी अब लड़ने आ सकता है, कि कुरान को किसी ने चोट पहुंचा दी है, कि रामायण को किसी का पैर लग गया है, कि मंदिर की कोई मूर्ति टूट गई है। सज्जन आदमी को लड़ने के लिए भी श्रेष्ठ और सज्जनोचित कारण चाहिए, तब वह लड़ने के लिए बाहर आएगा। फिर वह लड़ सकता है मजे से, क्योंकि अब उसने एक धार्मिक वजह ले ली, एक धार्मिक आड़ ले ली। सज्जन आदमी फिर अच्छी आड़ें खोजेगा अपने भीतर के व्यक्तित्व को प्रकट करने के लिए, और अगर न प्रकट कर पाया तो पागल हो जाएगा।
पागल होने का मतलब यह है कि जो प्रकट नहीं हो सका, और जिसने प्रकट होने की इतनी मांग की कि उस आदमी को सिवाय पागल होने के कोई रास्ता नहीं रह गया। फिर एक आदमी पागल हो जाता है, तो हम उस पर दया करते हैं। फिर हम यह नहीं कहते कि यह बुरा आदमी है। अगर एक आदमी पागल होकर सड़कों पर गालियां बकता है, तो हम कहते हैं, बेचारा पागल है। लेकिन यह आदमी पागल कैसे हो गया है? क्या हम सब भी उसी रास्ते से नहीं गुजर रहे हैं, जहां इसकी ही जगह पहुंच जाएं? क्या हम सबके भीतर भी यही सब रोग नहीं पाले जा रहे हैं?
और पांच हजार साल के ज्ञात इतिहास से शिक्षा दी जा रही है आदमी को अच्छा बनाने की। क्या आदमी अच्छा बन गया है? कौन सी अच्छाई आदमी में आ गई है? कारागृह कैदियों से भरे हुए हैं। पागलखाने पागलों से भरे हुए हैं। बीमार रोगियों से अस्पताल भरे हुए हैं। और एक-एक घर कलह और उपद्रव से भरा हुआ है। और अगर हम आदमी की पूरी जिंदगी को खोल कर देख सकें, जो कि बहुत मुश्किल हो गया है, क्योंकि हमने जिंदगी को बहुत-बहुत पर्दों में छिपाया हुआ है। अगर हम एक दिन के लिए भी तय कर लें कि सारे आदमी वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसा करना चाहते हैं, तो हमें दिखाई पड़ेगा कि यह तो जिंदगी बहुत और है, जो दिखाई पड़ती थी वह बात कुछ और है। हम सबने अपने को छिपा रखा है।
लेकिन यह छिपा हुआ आदमी भीतर से अपने काम जारी रखे हुए है, इसलिए हर दस-पंद्रह साल में एक युद्ध की जरूरत पड़ जाती है। और दो-चार-पांच साल में दंगा-फसाद चाहिए। और रोज कोई छोटा-मोटा उपद्रव होता रहना चाहिए, ताकि हमारे भीतर वह जो छिपा आदमी है, उसकी तृप्ति भी होती रहे--उसकी तृप्ति भी होती रहनी चाहिए।
अगर हम मनुष्य का पूरा इतिहास देखें, तो ऐसा लगता है कि हम कह सकते हैं कि आदमी एक लड़ने वाला जानवर है। कोई जानवर इतना नहीं लड़ता है। जानवर भी लड़ते हैं, लेकिन जानवर इस भांति नहीं लड़ते हैं। और लड़ते ही रहते हैं, ऐसा नहीं है। और कम से कम लड़ने की कोई पूर्व-तैयारी तो नहीं करते हैं। आदमी या तो लड़ता है या लड़ने की तैयारी करता है।
दो ही तरह के कालखंड हैं इतिहास में--युद्ध और युद्ध की तैयारी। शांति का कोई कालखंड नहीं है। पूरे मनुष्य के इतिहास में शांति का कोई समय ही नहीं है। या तो युद्ध चल रहा है, या युद्ध की तैयारी चल रही है। वह जब युद्ध की तैयारी चलती है, उसको हम कहते हैं कि अभी शांति का दिन चल रहा है। शांति का दिन नहीं है। क्योंकि पिछला युद्ध हमारी शक्ति को तोड़ जाता है, उसकी तैयारी करनी पड़ती है। तो जब हम शांति का समय बिता रहे हैं, उस वक्त युद्ध की तैयारी चल रही है, फिर नये युद्ध की तैयारी हो रही है।
सुबह पति नाराज होकर गया है, दोपहर को बड़ा शांत है। बहुत सावधान रहना, शांत वगैरह कुछ भी नहीं है। क्योंकि फिर वह तैयारी कर रहा है क्रोध की, सांझ फिर वह क्रोध करेगा। मां सुबह बेटे को डांटी है, दोपहर बड़ा प्रेम प्रकट कर रही है। यह सुबह का पश्र्चात्ताप हो रहा है, लेकिन वह फिर वापस लौट रही है अपनी जगह पर। सब पश्र्चात्ताप--हमने जो भूल की है, उसे पोंछने के उपाय होते हैं, ताकि हम फिर पुरानी जगह खड़े हो जाएं और फिर से वही कर सकें जो पश्र्चात्ताप के पहले करना संभव था। अगर मैं आपको गाली दे आया हूं, तो क्षमा मांगने आऊंगा। इसका यह मतलब है कि दोस्ती जारी रखिए, ताकि कल फिर गाली दे सकूं। क्योंकि दोस्ती टूट जाए, तो गाली देने का भी तो उपाय नहीं है। इसलिए क्षमा भी मांगूंगा, कल फिर वही करूंगा। पश्र्चात्ताप करूंगा, कल फिर वही क्रोध होगा, कल फिर वही घृणा होगी, कल फिर सब वही होगा!
यह आदमी की क्या स्थिति है, इसे सोचना और समझना जरूरी है। इसके पीछे क्या कारण है? यह आदमी इतना रुग्ण, इतना ड़िजीज्ड क्यों है? इसके प्रेम के पीछे घृणा खड़ी रहती है। यह जिसे प्रेम करता है, उसे ही घृणा भी करता है। यह जिसे प्रेम करता है, उसकी भी हत्या का विचार करता है और उसके भी मर जाने का विचार करता है!
एक स्त्री के पति की कुछ वर्ष हुए मृत्यु हुई। वह मेरे पास आई थी, बहुत रोने लगी। मैंने उन्हें कहा कि रोओ मत, क्योंकि तुम्हारे पति को मैं पहले से भी जानता हूं और तुम्हें भी जानता हूं। और मैं तुमसे एक बात पूछना चाहता हूं, जो बहुत कठोर मालूम पड़ेगी, लेकिन फिर भी मुझे पूछना जरूरी है। मैं तुमसे यह पूछना चाहता हूं कि जब तुम्हारा पति जिंदा था, तब तुम उसके जिंदा होने से खुश थी? और अगर उसके जिंदा होने से खुश नहीं थी, तो उसके मरने से रोने का क्या कारण?
उस पत्नी के आंसू एकदम सूख गए, जैसे उसे बहुत शॉक लगा। लगने की बात थी। क्योंकि उसका पति मर गया है और उससे मैं यह कहूंगा, यह तो वह सोच कर नहीं आई थी। वह सोच कर आई थी कि मैं सांत्वना दूंगा, समझाऊंगा-बुझाऊंगा, उसके मन को राहत दूंगा। कहूंगा बहुत बुरा हो गया। उसने यह सोचा भी नहीं था कि मैं उससे यह पूंछूंगा कि जब तेरा पति जिंदा था, तो तू उसके जिंदा होने से खुश थी? और अगर उसके जिंदा होने से खुश न थी, तो उसके मरने से रोने का क्या संबंध है?
उसके आंसू सूख गए हैं। उसने मुझे पहले बहुत क्रोध से देखा है, फिर वह विनम्र हो गई, और फिर दुबारा रोने लगी। अब उसका रोना बहुत दूसरा है। और उसने मुझसे कहा रोते हुए कि आप यह क्या पूछते हैं, यह तो मुझे खयाल भी नहीं था। लेकिन आप ठीक ही मेरे घाव को छू दिए। जब तक मेरे पति जिंदा थे, मैं जरा भी खुश न थी। और आप ठीक कहते हैं, ऐसे कई मौके रहे होंगे, तब मैंने सोचा होगा कि यह आदमी मर ही जाए तो बेहतर है, या मैं मर जाऊं तो बेहतर है। लेकिन अब मैं क्यों रो रही हूं? मैं आपसे पूछती हूं कि मैं क्यों रो रही हूं? कि अगर मैं जिंदा रहने में खुश न थी, तो मैं मरने से रो क्यों रही हूं?
यह स्त्री क्यों रो रही है पति के मर जाने से? यह पति के मरने का दुख है? यह तभी हो सकता था जब पति के जीने का कोई आनंद रहा हो। लेकिन वह नहीं था। तब क्या है? तब कौन सी कठिनाई इसे रुला रही है?
इसके भीतर कोई जगह खाली हो गई है। दुश्मन भी हमारे भीतर जगह भरे रहते हैं, और अगर एक दुश्मन भी मर जाता है तो आपके भीतर थोड़ी जगह खाली हो जाती है। मित्र के मरने से तो होती ही है, दुश्मन के मरने से भी आपकी दुनिया वही नहीं रह जाती है जो कल तक थी। सब रद्दोबदल हो जाता है।
पति के मरने से सब बदल गया। कल तक जो जिंदगी थी, अब आगे नहीं होगी। न, कल के दुख भी अब नहीं होंगे। सुख तो थे ही नहीं, कल के दुख भी अब नहीं होंगे। कल की चिंताएं भी अब नहीं होंगी। कल की परेशानियां भी अब नहीं होंगी। कल का सब टूट गया। पति के साथ कल की एक दुनिया गिर गई। और नई दुनिया बनाने की हमारी हिम्मत इतनी कम है कि हम रो रहे हैं। लेकिन यह किसी आनंद के खो जाने के आंसू नहीं हैं। आनंद तो था ही नहीं।
क्या आपको पता है कि आपको पहली दफा ही पता चलता है कि किसी आदमी की जिंदगी से हमें आनंद था--तभी पता चलता है, जब वह आदमी मर जाए। उसके पहले आपको कभी पता नहीं चलता है। जब तक वह आदमी जिंदा है, आपके साथ है, आपको पता नहीं चलता है। मित्र जब छूट जाता है, तब याद आती है। जब तक साथ होता है, तब तक आप कहीं और देखते रहते हैं। पत्नी जब तक साथ है, तब तक प्रीतिकर नहीं है। कल मर जाएगी, तो हो सकता है जिंदगी भर रोते रहें। पति जब तक साथ है, तब तक उसमें कोई अर्थ नहीं है। और हो सकता है कल जिंदगी भर उसकी मूर्ति रख कर पूजा करें।
यह आदमी को क्या है? आदमी जिसे प्रेम करता है, उसे ही घृणा भी कर रहा है! और आदमी जिसे बचाना चाहता है, उसे मारे भी डाल रहा है! लेकिन मारने की भी तरकीबें हैं और बचाने की भी तरकीबें हैं। एक मां अपने बेटे को बचाना चाहती है, एक मां अपने बेटे के लिए इतना काम कर रही है, इतना श्रम कर रही है, लेकिन साथ ही बेटे को मार भी रही है। बेटे की स्वतंत्रता उसे बर्दाश्त नहीं है। बेटे को बचाना चाहती है--उसको भोजन दे रही है, उसकी सेवा कर रही है। लेकिन उसकी स्वतंत्रता को बिलकुल मार डालना चाहती है। और जिंदगी भर चाहेगी कि बेटा उस पर निर्भर रहे और डिपेंडेंट रहे, और जब भी तकलीफ में आए तो उसकी गोद में सिर रख ले। कभी भी बेटा इतना बड़ा न हो जाए कि उसकी गोद बेकार मालूम पड़ने लगे। यह भी आकांक्षा साथ चल रही है।
अब ये दोनों आकांक्षाएं बड़ी विरोधी हैं। वह बेटे को बड़ा करना चाहती है, और बड़ा करने का अनिवार्य हिस्सा यह है कि बेटा उससे स्वतंत्र हो जाए। लेकिन साथ ही वह बेटे को छोटा भी बनाए रखना चाहती है, ताकि वह निर्भर भी रहे। और वह बेटे को मार भी रही है और बेटे को जिला भी रही है। वह बेटे को मिटा भी रही है और बेटे को बना भी रही है। और उसे खयाल भी नहीं है। और बेटा इसका बदला भी लेगा, क्योंकि बेटे को वह जो मिटाने की कोशिश चल रही है, वह भी उसे पता है। इसलिए बेटे में भी दोहरे भाव अपनी मां के प्रति पैदा हो रहे हैं एक साथ--वह उसको प्रेम भी करता है और घृणा भी करता है। वह उसे प्रेम भी करता है, क्योंकि वह उसे जिंदगी दे रही है, दूध दे रही है, उसे बड़ा कर रही है। और वह उसे घृणा भी करता है, क्योंकि उसकी सारी स्वतंत्रता छीन रही है। उसका व्यक्तित्व पोंछे डाल रही है। उसको वह अलग से खड़ा नहीं होने देना चाहती है। वह दोनों काम एक साथ उसके भीतर पैदा हो रहे हैं। वह उसे घृणा भी करेगा, वह उसे प्रेम भी करेगा। और बाद में उसकी घृणा भी प्रकट हो सकती है। आज उसका प्रेम है, कल बुढ़ापे में उसकी घृणा वापस प्रकट हो सकती है।
एक बाप अपने बेटे को बड़ा भी कर रहा है, और डर भी रहा है, क्योंकि बाप अपने बेटे में अपने पोटेंशियल एनिमी को भी देखता है, अपने बुनियादी दुश्मन को भी देखता है। क्योंकि आज नहीं कल, यही बेटा उसकी सब तिजोड़ियों और सब चाबियों का मालिक हो जाएगा। इसलिए बहुत गहरे में वह इससे डरा भी हुआ है। इसलिए वह पूरा निश्र्चित कर लेना चाहता है कि बेटा ठीक मेरी इच्छा के अनुसार चले। ताकि चाबियां भला इसके हाथ में हों, लेकिन इच्छाएं मेरी हों भीतर। तब चाबियों की तिजोड़ियां मेरी इच्छाओं से ही खुलें और तिजोड़ियां मेरी इच्छाओं से ही बंद हों। इसलिए बेटे को वह ओबीडिएंट और आज्ञाकारी बनाने की चेष्टा में लगा हुआ है। इसके पहले कि बेटे के हाथ में चाबी आ जाए, वह पूरा आज्ञाकारी हो जाना चाहिए। तब चाबी उसके हाथ में होगी, लेकिन हाथ हमारी ही आज्ञा से चलते होंगे। इसलिए वह पूरा इंतजाम कर लेना चाह रहा है। वह डरा भी हुआ है कि बेटा अगर बगावती हो जाए, तो कल सारी ताकत उसके हाथ में चली जाएगी! तो बाप बेटे से डरा भी हुआ है, प्रेम भी कर रहा है--एक ही साथ भयभीत भी है और प्रेम भी कर रहा है!
और प्रेम और भय दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं? बेटे को भी दोनों बातें पता चल रही हैं कि बाप प्रेम भी कर रहा है--इसलिए बेटा भी बाप को प्रेम करता है, और वह यह भी देख रहा है कि बाप भयभीत भी है। और भयभीत होने की वजह से बेटे को डरा रहा है, ताकि बेटे को भयभीत कर दे। इसके पहले कि बाप भयभीत किया जा सके, बाप बेटे को भयभीत कर देना चाहता है। ताकि बेटा डरा रहे जिंदगी भर और कभी ऐसा न हो कि बाप को डराने लगे। वह बेटे को डरा भी रहा है, तो बेटा घृणा भी कर रहा है। जो डराता है, उससे घृणा भी पैदा हो जाती है।
हमने सारी जिंदगी एक जाल बना रखी है। हम जिसे प्रेम कर रहे हैं, उसे मुट्ठी में बांध लेना चाहते हैं, उस पर बिलकुल पजेस कर लेना चाहते हैं, उसके मालिक बन जाना चाहते हैं। पति का मतलब ही होता है मालिक! इसलिए पत्नी उसको स्वामी कहती भी है। और जब उसको स्वामी लिखती है, तो वह बहुत प्रसन्न होता है। वह उसको दस्तखत में नीचे लिखती भी है--आपकी दासी।
हम जिसे प्रेम करते हैं, उसको गुलाम बना लेना चाहते हैं। और गुलामी में कभी प्रेम संभव है? जो हमारा गुलाम हो जाएगा, वह हमें प्रेम कर सकेगा? और जिसकी गर्दन मैं पकड़ लूंगा, वह मुझे प्रेम कर सकेगा?
प्रेम एक स्वतंत्रता का दान है। सिर्फ उन लोगों से मिल सकता है, जो स्वतंत्र हैं।
अगर मेरी गर्दन कोई दबाए और कहे कि मुझे प्रेम दो, तो मैं और सब दे सकता हूं, प्राण दे सकता हूं, लेकिन प्रेम देना असंभव हो जाएगा। क्योंकि प्रेम छीना नहीं जा सकता। लेकिन पति पत्नियों से छीन रहे हैं, पत्नियां पतियों से छीन रही हैं; मां बेटों से छीन रही हैं, बेटे मां से छीन रहे हैं; बाप बेटों से छीन रहे हैं; मित्र मित्रों से छीन रहे हैं।
हम सब प्रेम छीन रहे हैं। और इसलिए हरेक आदमी एक-दूसरे पर कब्जा किए हुए है कि कोई और न छीन ले, इसलिए मैं पूरा का पूरा निचोड़ लूं। जब हम एक-दूसरे को इस बुरी तरह दबाए हुए हों, पजेस करते हों, मालिक बन गए हों, तो क्या आपको पता है कि जिसके हम मालिक बनने की कोशिश करते हैं, वह आदमी नहीं रह जाता है, वस्तु हो जाता है। सिर्फ वस्तुएं पजेस की जा सकती हैं। मैं एक कुर्सी का मालिक हो सकता हूं, एक आदमी का मालिक नहीं हो सकता। मैं एक मकान का मालिक हो सकता हूं, लेकिन एक स्त्री का मालिक नहीं हो सकता।
लेकिन अगर मैंने स्त्री का मालिक होने की कोशिश की, तो ध्यान रहे, स्त्री संपत्ति हो जाएगी। स्त्री फिर आदमी नहीं रह जाएगी। और इसलिए स्त्रियां संपत्ति हो गई हैं। हम तो अपने मुल्क में कहते भी हैं: स्त्री-संपत्ति। हमने उसे संपत्ति का हिस्सा बना दिया है। हमने उसे संपत्ति मान रखा है। हम जिसको भी दबा कर कब्जा कर लेंगे, वह संपत्ति हो जाएगी, उसकी आत्मा खो जाएगी। क्योंकि जहां आत्मा है, वहां स्वतंत्रता है। तो हम कैसा पागलपन कर रहे हैं! अगर हम प्रेम चाहते हैं, तो पजेशन की बात छोड़ देनी चाहिए। अगर हम प्रेम चाहते हैं, तो कभी किसी के मालिक मत बनना। अगर प्रेम चाहते हैं, तो कभी किसी को वस्तु और सामग्री मत बना देना, चीजें मत बना देना। व्यक्ति को आत्मा देना।
लेकिन हम जिसको प्रेम करते हैं, उसी को कस कर पकड़ लेते हैं। बल्कि हम प्रेम पीछे करते हैं, कस कर पकड़ लेने का इंतजाम पहले कर लेते हैं। इसलिए प्रेम पीछे आता है, विवाह पहले आ जाता है। विवाह है कस कर पकड़ लेने का पहले इंतजाम--पीछे प्रेम; पहले विवाह। विवाह इस बात की खबर है कि अब भाग नहीं सकते हो। अब कब्जा पूरा है और कानूनन है। और अगर कोई भागेगा तो कानून और समाज गवाह होगा। इसलिए इतना शोरगुल मचाना पड़ता है, इतने बैंड-बाजे बजाने पड़ते हैं, ताकि पूरे गांव को पता चल जाए। इतने इन्वीटेशन छापने पड़ते हैं। यह खबर है इस बात की कि अब हम बंध गए हैं, पूरे गांव को पता है। भाग नहीं सकते हो। पूरी दुनिया को पता है। अब भाग नहीं सकते हो। रजिस्टर पर लिखवाना पड़ता है दफ्तर में, या पंडित-पुजारी शोरगुल मचा कर सारे गांव में खबर कर देते हैं। सारे समाज को इकट्ठा कर लेना पड़ता है। सारे मित्र, प्रियजन इकट्ठे हो जाते हैं, ताकि सब जान लें कि ये दो व्यक्ति बंध गए हैं, अब ये भाग नहीं सकते हैं।
दुनिया अच्छी होगी तो यह शोरगुल बहुत पागलपन मालूम पड़ेगा। दुनिया अच्छी होगी तो प्रेम दो आदमियों के बीच की बात है, इसमें समाज को शोरगुल मचाने की जरूरत नहीं है। इसमें बैंड-बाजे बहुत बेहूदा हैं। इनका कोई मतलब नहीं है। इनकी क्या जरूरत है? लेकिन इनकी जरूरत अब तक रही है, क्योंकि बंधन को सोशल कांट्रेक्ट बनाना है, उसको सामाजिक इकरारनामा बनाना है कि समाज उसकी गवाही दे दे कि हां यह बात पूरी हो गई है, अब भाग नहीं सकोगे, अब तुम दोनों बंध गए हो--कसम खिलवा ले समाज अपने सामने।
हम प्रेम के लिए उतने उत्सुक नहीं, जितने विवाह के लिए उत्सुक हैं। क्योंकि विवाह में हम एक-दूसरे के मालिक बन जाते हैं। और प्रेम में कोई किसी का मालिक नहीं बनता है।
प्रेम में दो व्यक्ति स्वतंत्र होते हैं।
स्वतंत्रता में ही प्रेम के फूल खिल सकते हैं।
आदमी का समाज प्रेम से क्षीण और हीन हो गया है, क्योंकि हमने प्रेम को जबर्दस्ती छीन कर पैदा करना चाहा है, वह पैदा नहीं हो सका है। और जब तक आदमी की जिंदगी में प्रेम का फूल न खिले, तब तक आदमी स्वस्थ नहीं हो सकता, और न आनंदित हो सकता है, और न प्रसन्न हो सकता है। इसलिए छोटे बच्चों में थोड़ी-बहुत प्रसन्नता दिखाई पड़ती है। लेकिन धीरे-धीरे जिंदगी जैसे आगे बढ़ती है, प्रसन्नता खोती चली जाती है। धीरे-धीरे बूढ़ा होता-होता आदमी करीब-करीब बहुत पहले मर चुका होता है। हमारा बहुत सा अस्तित्व तो पोस्टमार्टम के बाद का है। मर चुके हैं। उसके बाद लाश चलती चली जाती है।
ऐसी यह जो रुग्ण-चित्त दशा है आदमी की, इसके पीछे एक कारण जो मैं आज आपको कहना चाहता हूं, वह यह है कि हमने जीवन की सहजता को, वह जो नैचुरल, वह जो स्वाभाविक प्रकृतिगत मनुष्य है, उसको अस्वीकार किया है, उसे हमने स्वीकृति नहीं दी है। और मैं आस्तिक आदमी का पहला लक्षण मानता हूं कि वह जो प्रकृति ने दिया है, उसे पूरी तरह स्वीकार करता है। स्वीकृति उसका पहला लक्षण है। टोटल एक्सेप्टिबिलिटी, वह जो मेरे भीतर है, उसका पूर्ण स्वीकार!
इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि आपको हत्या करनी है तो आप हत्या करें। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि किसी के मकान में आग लगाना है तो आप आग लगाएं। सच तो यह है कि आपने चूंकि अपने भीतर के कुछ हिस्सों को अस्वीकार किया है, इसलिए आप हत्या भी करते हैं और आग भी लगाते हैं। अगर आपने अपने भीतर के कोई हिस्से अस्वीकार न किए होते, तो आप उस लयबद्धता को उपलब्ध हो जाते, जिसके लिए आग लगाना और हत्या करना असंभव है। उस हार्मनी को, उस संगीत को आप उपलब्ध हो सकते थे, जिसको आप उपलब्ध नहीं हो पाए हैं।
कोई आदमी आग लगा रहा है, यह इस बात की खबर है कि यह आदमी विक्षिप्त है। और कोई आदमी किसी की हत्या कर रहा है, यह इस बात की खबर है कि यह आदमी होश में नहीं है। इसके कोई ऐसे हिस्से यह काम कर रहे हैं, जिनका इसे खुद ही नहीं पता रहा है, जिनकी इसकी मालकियत नहीं रही है। इसने अपने ही कुछ हिस्सों को इतने भीतर दबा दिया है कि वे ही किसी दिन इसके ऊपर हावी हो जाएंगे, आग लगवा देंगे, हत्या करवा देंगे।
अदालतों में न मालूम कितने हत्यारे यह कहते हैं कि हमें पता नहीं हमने यह कैसे किया। हमें याद ही नहीं आता है कि हमने यह किया हो। पहले तो मजिस्ट्रेट सोचते थे कि ये झूठी बातें हैं, लेकिन अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह झूठ नहीं है। कुछ हत्यारे हत्या करने के बाद भूल ही जाते हैं कि उन्होंने यह हत्या की है। क्योंकि उनका वह हिस्सा हत्या करता है, जिससे उन्होंने अपने संबंध ही बहुत पहले तोड़ लिए हैं। उनकी आइडेंटिटी ही टूट गई है। उनके भीतर के उस हत्यारे से उन्होंने बहुत पहले संबंध ही तोड़ लिया है, इसलिए उन्हें याद भी नहीं आता कि यह हत्या हमने की है। यह हत्या न मालूम कैसे हो गई है। यह हत्या हमने नहीं की है। जब वे होश में आते हैं, जब आप रात सपने में किसी की हत्या कर दें, तो सुबह आप यह थोड़े ही कहेंगे कि मैंने हत्या की है। आप कहते हैं, सपना था। सपने में हो गई है यह बात।
अगर आपने भीतर ऐसे हिस्से दबाए रखे हैं, वे हिस्से कभी भी प्रकट हो सकते हैं।
अभी अहमदाबाद में वे हिस्से प्रकट हुए हैं। नाम और बहाने कुछ भी हो सकते हैं। मेरे एक मित्र ने कहा कि उन्होंने अपनी आंख के सामने पांच-छह लोगों को इकट्ठे जलाए जाते देखा। उनमें एक छोटा बच्चा भी है। वह बच्चा आधा जल गया है और भाग रहा है और भीड़ ने उस बच्चे को वापस धक्के देकर उस आग में डाल दिया। वे पांच-छह लोग जिंदा जलाए गए हैं। और भीड़ यह देखती रही कि कोई भाग न जाए, कोई अधूरा जला हुआ बाहर न निकल आए। फिर भीड़ भाग गई। वे अधजली लाशें तड़फती, चिल्लाती, हाथ-पैर पटकती वहीं पड़ी रह गईं। उनको कोई देखने को भी वहां नहीं रह गया!
यह जो लोग कर रहे हैं--आप ऐसा मत सोचना कि आपसे अलग कोई और हैं या मुझसे अलग कोई और हैं। जब तक हम इस भाषा में सोचेंगे कि ये कोई और लोग हैं--ये कोई गुंडे और बदमाश हैं, तब तक हम गलत नतीजे पर पहुंचते रहेंगे। यह हम ही हैं, और हमारे ही भीतर का कोई हिस्सा यह कर सकता है। जरा अपने भीतर सोचना कि कभी ऐसा करने का मन अपने भीतर भी आ सकता है। किसी मौके पर भीतर से यह बात उभर सकती है। हो सकता है, आपको पता भी न चले और आप कहें, मैं ऐसा कभी भी नहीं कर सकता हूं। जिन लोगों ने यह किया है--करने के पहले वे भी यही कहते हैं,और करने के बाद भी अगर आज कोई उनसे पूछेगा, तो वे कहेंगे, हमारी समझ में नहीं आता, भीड़-भड़क्के में हम कैसे साथ हो गए, यह हमारी समझ में नहीं आता। लेकिन हम सिर्फ साथ थे, हमने खुद कुछ भी नहीं किया है।
मैं भी साथ हो सकता हूं, आप भी साथ हो सकते हैं। हम भी यह कर सकते हैं। हमारे भीतर अधूरा, कटा हुआ आदमी पड़ा है--बिलकुल अपरिष्कृत, बिलकुल ही आदिम, बिलकुल ही जंगली आदमी हमारे भीतर पड़ा है और उसको हमने अंधी दीवालें बना कर पीछे छोड़ दिया है। और उसको बदलने का उपाय भी नहीं आया, उसको बनाने का उपाय भी नहीं आया, उसको संवारने का उपाय भी नहीं आया, क्योंकि हमने इनकार ही कर दिया है कि वह हमारा हिस्सा है।
जब आप किसी से कहते हैं कि मुझे क्रोध आ गया, माफ कर दें, भूल हो गई। तब आप ऐसे कहते हैं, जैसे क्रोध कोई बाहर से चीज थी, जो आ गई। आप कहते हैं, मुझे क्रोध आ गया। लेकिन कभी आपने खयाल किया है कि क्रोध बाहर से कभी भी नहीं आया है। कोई ऐसी चीज नहीं है जो आसमान से आपके पास आ गई हो और आप भूल से उसके चक्कर में पड़ गए हों। लेकिन कहते हम ऐसे ही हैं कि मुझे क्रोध आ गया, माफ कर दें।
नहीं, जब क्रोध आता है तो बाहर से नहीं, भीतर से ही आता है। और अगर और गहरे उतर कर देखेंगे, तो यह वाक्य ही गलत है कि मुझे क्रोध आता है--चाहे भीतर से चाहे बाहर से। जब आप क्रोध में होते हैं, तब सच्चाई यह है कि आप क्रोध ही होते हैं। ऐसा नहीं कि आप क्रोध करते हैं। हम क्रोध ही हो जाते हैं। वह हमारा भीतर कोई पड़ा हुआ हिस्सा पूरी तरह फैल कर हमें घेर लेता है और हम क्रोध ही हो जाते हैं। जब घृणा पकड़ती है, तो हम घृणा ही हो जाते हैं। जब हत्या पकड़ती है, तब हम हत्या ही हो जाते हैं। यह हम हो सकते हैं, हममें से कोई भी हो सकता है।
सारी मनुष्यता इस खंड-खंड बंटे हुए आदमी से पीड़ित है।
इसलिए पहला सूत्र, इस पर हम निरंतर बात करेंगे कि कैसे मनुष्य अखंड हो सके।
खंड-खंड मनुष्य रुग्ण मनुष्य है। अखंड मनुष्य स्वस्थ हो सकता है। टुकड़े-टुकड़े में टूटा हुआ आदमी चिंतित रहेगा। सब टुकड़े इकट्ठे हो जाएं, समग्र हो जाएं तो आदमी चिंता के बाहर हो सकता है। बंटा हुआ आदमी उदास, बीमार, परेशान रहेगा। अनबंटा आदमी, इंटिग्रेटेड, समग्र आदमी आनंदित, प्रफुल्लित, प्रसन्न हो सकता है। और ध्यान रहे, अखंड आदमी ही प्रभु के द्वार पर दस्तक भी दे सकता है। क्योंकि जो पूरा है, वही उस पूरे से मिल भी सकता है। जो अधूरा है, वह उस पूरे से मिलने की यात्रा पर भी नहीं जा सकता है। यह पहला सूत्र है।
इस संबंध में जो भी प्रश्र्न हों, वह आप लिख कर दे देंगे।
और कल सुबह के संबंध में दो-तीन सूचनाएं हैं। क्योंकि कल सुबह आठ से नौ, बिड़ला क्रीड़ा केंद्र में ध्यान के लिए मित्र इकट्ठे हो रहे हैं। वहां ध्यान का कुछ प्रयोग करेंगे कि ध्यान घटित हो जाए। तो वहां वे ही लोग आएंगे जो सुनने में उत्सुक नहीं हैं, कहीं जाने में उत्सुक हैं। वहां कोई बात नहीं होगी ज्यादा। कुछ प्रयोगही होगा।
तो सुनने के लिए उत्सुक लोग वहां नहीं आएंगे। वहां कहीं जाने की आतुरता जिनकी हो, केवल वे ही लोग आएं। बिना स्नान किए न आएं, स्नान करके ही आएं, ताकि सुबह ताजे हो जाएं। ताजे कपड़े पहन कर आएं। और घर से निकलते ही करीब-करीब मौन साध लें। थोड़ा-बहुत बोलना पड़े तो बोलें, अन्यथा चुप ही आएं। ताकि वहां आते-आते तक मौन का एक भाव बन जाए। आंखों का भी बहुत उपयोग न करें। घर से आते वक्त बन सके उतनी देर आंखें बंद करते हुए आएं, नहीं तो थोड़ी आंख खोले हुए आएं, पूरी आंख न खोलें। और रास्ते के किनारे लगे हुए सब तरह के पोस्टर पढ़ते हुए मत आएं। आंख धीमी कर लें, आंख बंद ही रखें तो बहुत अच्छा, थोड़ा-बहुत खोलें तो अच्छा। आंख बंद किए हुए, ओंठ बंद किए हुए, न बोलें तो अच्छा है। ऐसे चुपचाप आएं। और वहां आकर कोई बात न करें, चुपचाप बैठ जाएं। जो सूचनाएं मैं दूंगा, उसके अनुसार सुबह हम प्रयोग करेंगे।
आपके जो भी प्रश्र्न होंगे, वह लिख कर दे देंगे। ध्यान के संबंध में जो प्रश्र्न होंगे, वह सुबह लिख कर देंगे। सांझ की चर्चाओं के संबंध में जो प्रश्र्न होंगे, वह सांझ लिख कर दे देंगे।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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