DARIYADAS
Kano Suni So Juth Sab 01
First Discourse from the series of 10 discourses - Kano Suni So Juth Sab by Osho. These discourses were given during JUL 11-20 1977.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
जन दरिया हरि भक्ति की, गुरां बताई बाट।
भूला ऊजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।।
नहिं था राम रहीम का, मैं मतिहीन अजान।
दरिया सुध-बुध ग्यान दे, सत्गुरु किया सुजान।।
सत्गुरु सब्दां मिट गया, दरिया संसय सोग।
औषध दे हरिनाम का तन मन किया निरोग।।
रंजी सास्तर ग्यान की, अंग रही लिपटाय।
सत्गुरु एकहि सब्द से, दीन्हीं तुरत उड़ाय।।
जैसे सत्गुरु तुम करी, मुझसे कछू न होए।
विष-भांडे विष काढ़कर, दिया अमीरस मोए।।
सब्द गहा सुख ऊपजा, गया अंदेसा मोहि।
सत्गुरु ने किरपा करी, खिड़की दीन्हीं खोहि।।
पान बेल से बीछुड़ै, परदेसां रस देत।
जन दरिया हरिया रहै, उस हरी बेल के हेत।।
अथातो प्रेम जिज्ञासा! अब प्रेम की जिज्ञासा। अब पुनः प्रेम की बात। दो ही बातें हैं परमात्मा की--ध्यान की या प्रेम की। दो ही मार्ग हैं--या तो शून्य हो जाओ या प्रेम में पूर्ण हो जाओ। या तो मिट जाओ समस्तरूपेण, कोई अस्मिता न रह जाए, कोई विचार न रह जाए, कोई मन न बचे; या रंग लो अपने को सब भांति प्रेम में, रत्ती भी बिना रंगी न रह जाए।
तो या तो शून्य से कोई पहुंचता है सत्य तक, या प्रेम से। संत दरिया प्रेम की बात करेंगे। उन्होंने प्रेम से जाना। इसके पहले कि हम उनके वचनों में उतरें...अनूठे वचन हैं ये। और वचन हैं बिलकुल गैर-पढ़े लिखे आदमी के। दरिया को शब्द तो आता ही नहीं था; अति गरीब घर में पैदा हुए--धुनिया थे, मुसलमान थे। लेकिन बचपन से ही एक ही धुन थी कि कैसे प्रभु का रस बरसे, कैसे प्रार्थना पके।
बहुत द्वार खटखटाए, न मालूम कितने मौलवियों, न मालूम कितने पंडितों के द्वार पर गए लेकिन सबको छूंछे पाया। वहां बात तो बहुत थी, लेकिन दरिया जो खोज रहे थे, उसका कोई भी पता न था। वहां सिद्धांत बहुत थे, शास्त्र बहुत थे, लेकिन दरिया को शास्त्र और सिद्धांत से कुछ लेना न था। वे तो उन आंखों की तलाश में थे जो परमात्मा की बन गई हों। वे तो उस हृदय की खोज में थे, जिसमें परमात्मा का सागर लहराने लगा हो। वे तो उस आदमी की छाया में बैठना चाहते थे जिसके रोएं-रोएं में प्रेम का झरना बह रहा हो। सो, बहुत द्वार खटखटाए लेकिन खाली हाथ लौटे। पर एक जगह गुरु से मिलन हो ही गया।
जो खोजता है वह पा लेता है। देर-अबेर गुरु मिल ही जाता है। जो बैठे रहते हैं उन्हीं को नहीं मिलता है; जो खोज पर निकलते हैं उन्हें मिल ही जाता है। और खयाल रखो, ठीक द्वार पर आने के पहले बहुत से गलत द्वारों पर खटखटाना ही पड़ता है। ठीक की खोज के पहले गलत के बाजार में भटकना ही पड़ता है। यह भी अनिवार्य चरण है खोज का। जब तुम खोज लोगे तब तुम पाओगे कि जो गलत थे उन्होंने भी सहारा दिया। गलत को गलत की तरह पहचान लेना भी तो ठीक को ठीक की तरह पहचानने का कदम बन जाता है।
तो गए बहुत द्वार-दरवाजों पर। जहां जहां खबर मिली वहां गए। लेकिन बातें तो बहुत पाईं, सिद्धांत बहुत पाए, शास्त्र बहुत पाए; सत्य की कोई झलक न मिली। पर मिली, एक जगह मिली। और जिसके पास मिली, उस आदमी का क्या नाम था यह भी ठीक ठीक पक्का पता नहीं है। उस आदमी के तन-प्राण ऐसे प्रेम में पगे थे कि लोग उन्हें संत प्रेम जी महाराज ही कहने लगे थे। इसलिए उनके ठीक नाम का कोई पता नहीं है। पहुंचते ही बात हो गई।
क्षण भर भी देर नहीं होती। आंख खोजने वाली हो, आंख खोजी की हो तो जहां भी रोशनी होगी वहां जोड़ बैठ जाएगा, बिठाना नहीं पड़ता; बिठाए बिठाना पड़े तो फिर बैठा ही नहीं। बिठाए बिठाए कभी बैठता ही नहीं।
गुरु का मिलन तो प्रेम जैसा है। जैसे किसी को देखते ही अचानक प्रेम उमड़ आता है। अवश! तुम्हारा कुछ उपाय नहीं है; असहाय हो। कहते हो, बस हो गया प्रेम। ऐसी ही गुरु की भी दृष्टि है। यह आखिरी प्रेम है। और सब प्रेम तो संसार में ले आते हैं; यह प्रेम संसार के बाहर ले जाता है। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। और सब प्रेम तो अंततः शरीर पर ही उतार लाते हैं; यह प्रेम शरीर के पार ले जाता है। और सारे प्रेम तो स्थूल हैं; यह प्रेम सूक्ष्म का प्रेम है। इस एक संत को देख कर बात हो गई। एक क्षण में हो गई, बिजली कौंध गई।
यह प्रेम जी महाराज दादू दयाल के शिष्य थे--संत दादू के शिष्य थे। और संत दादू ने अपने मरते समय खाट पर आंखें खोली थीं। सौ साल पहले...दरिया से सौ साल पहले संत दादू हुए। मरते वक्त शिष्य इकट्ठे थे, दादू ने आंखें खोलीं और जो कहा वह बड़ी अजीब सी बात थी, भविष्यवाणी थी। मरते दादू ने कहा था:
देह पड़न्ता दादू कहे, सौ बरसां एक संत।
रैन नगर में परगटे, तारे जीव अनंत।।
दरिया का जन्म सौ साल बाद हुआ, रैन नगर में हुआ।
संत प्रेम जी महाराज दादू के शिष्य थे। इस बात की पूरी-पूरी संभावना है कि दादू ने जो घोषणा की थी वह दरिया के संबंध में ही थी। क्योंकि दादू के ही एक प्रेमी से फिर द्वार मिला। दादू-पंथी तो मानते हैं कि दरिया दादू के ही अवतार हैं। एक अर्थ में ठीक भी हैं क्योंकि जो दादू ने कहा, जिस प्रेम की महिमा दादू ने गाई है, उसी महिमा को दरिया ने भी गाया है। एक अर्थ में प्रेम के सभी अवतार एक के ही अवतार हैं। व्यक्तियों के थोड़े ही अवतरण होते हैं, सत्यों के अवतरण होते हैं।
देह पड़न्ता दादू कहे,...गिरती थी देह, जाती थी देह, आखिरी घड़ी आ गई थी, यमदूत द्वार पर खड़े थे, और दादू ने कहा: देह पड़न्ता दादू कहे,...।
गिरती है मेरी देह, मगर गिरते समय एक घोषणा किए जाता हूं--सौ बरसां एक संत। सौ बरस बाद आएगा एक संत। रैन नगर में परगटे, तारे जीव अनंत। बहुत लोगों का उससे उद्धार होगा। रोते हुए शिष्यों को कहा था कि घबड़ाओ मत मेरे जाने से कुछ जाना नहीं हो जाता, कोई और भी आने वाला है, प्रतीक्षा करना।
फिर दरिया का आगमन--एक धुनिया के घर में, एक मुसलमान धुनिया। लेकिन बचपन से एक ही रस, एक ही लगाव। न स्कूल गए, न भेजे गए स्कूल, न कुछ पढ़ा, न लिखा। हस्ताक्षर भी कर नहीं सकते थे। जैसा कबीर ने कहा है, मसी कागद छुओ नहीं--कभी कागज छुआ नहीं, स्याही छुई नहीं, ठीक वैसे ही, ठीक कबीर जैसे ही।
कहा है दरिया ने: जो धुनिया तो भी मैं राम तुम्हारा। माना कि धुनिया हूं, कुछ पढ़ा-लिखा नहीं, कुछ सूझ-बूझ नहीं है, अज्ञानी हूं--इससे क्या फर्क पड़ता है! जो धुनिया तो भी मैं राम तुम्हारा। लेकिन हूं तो तुम्हारा!
भक्त कहता है, मैं क्या हूं यह तो बात ही व्यर्थ है; तुम्हारी कृपा-दृष्टि मेरी तरफ है, बस सब हो गया। अहंकारी और भक्त का यही भेद है। अहंकारी कहता है मैं कुछ हूं, देखो पढ़ा-लिखा हूं, धनी हूं, पद प्रतिष्ठा है, चरित्रवान हूं, त्यागी हूं, ऐसा हूं, वैसा हूं। अहंकारी दावा करता है। भक्त कहता है, जो धुनिया...मैं तो धुनिया , मैं तो कुछ भी नहीं, मेरी तरफ तो कोई गुणवत्ता नहीं है, तो भी मैं राम तुम्हारा। लेकिन मेरी इतनी गुणवत्ता है, कि मैं तुम्हारा हूं। और यह बड़ी से बड़ी गुणवत्ता है, अब और क्या चाहिए? इससे ज्यादा मांगना भी क्या है, इससे ज्यादा होना भी क्या है? इतना ही हो जाए कि तुम राम की तरफ हो जाओ, तो तुम्हारे अंधेरे में रोशनी आ जाएगी। इतनी धारणा ही बनने से सब क्रांति घट जाती है, सारा पलड़ा बदल जाता है।
देखा प्रेम जी महाराज को और घटना घट गई: खोजते थे...
कोई दिल-सा दर्दआशना चाहता हूं
रहे इश्क में रहनुमा चाहता हूं
प्रेम के रास्ते पर कोई पथ-प्रदर्शक खोजते थे।
कोई दिल-सा दर्दआशना चाहता हूं
रहे इश्क में रहनुमा चाहता हूं
गए बहुत पंडितों के पास, लेकिन प्रेम के मार्ग पर पंडित से क्या रोशनी मिले! थोथे शब्दों का जाल! दीवानगी नहीं, मस्ती नहीं, मदिरा नहीं। और भक्त शराब की बातें करने में उत्सुक नहीं होता, भक्त शराब पीने में उत्सुक होता है। पंडित शराब की बातें करते हैं, विश्लेषण करते हैं, चर्चा करते हैं, पीते इत्यादि कभी नहीं। कंठ को कभी शराब ने छुआ ही नहीं, आंख से कभी आंसू नहीं ढलके और न कभी पैरों में घूंघर बंधे, न कभी नाचे मस्त होकर, न कभी गुनगुनाए, कभी अपने को डुबाया नहीं। सारा पांडित्य अहंकार की सजावट है, श्रृंगार है।
जैसे ही देखा प्रेम जी महाराज को, कोई कली खिल गई, बंद कली खिल गई।
ऐसा बहुत बार हुआ है मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन के इतिहास में। अगर कोई व्यक्ति बुद्ध के चरणों में बैठा हो और बुद्ध से कुछ सीखा हो, कुछ पाठ लिया हो, फिर बुद्ध विदा हो जाएं--तो यह व्यक्ति उस पाठ को अपने भीतर दबाए हुए, अपने अचेतन में सम्हाले हुए भटकता रहेगा, खोजता रहेगा; जब तक इसे फिर कोई बुद्ध जैसा व्यक्ति न मिल जाए, तब तक इसकी चिनगारी दबी रहेगी। बुद्ध जैसे व्यक्ति के पास आते ही लौ प्रकट हो जाएगी। पास आते ही! सन्निकट मात्र--और भभक कर जलने लगेगी रोशनी। कोई व्यक्ति अगर कृष्ण के पास रहा हो तो जन्मों-जन्मों तक वह फिर उन्हीं की तलाश करेगा--जाने-अनजाने, होश में बेहोशी में, जागते-सोते, वह कृष्ण को टटोलेगा। और जब तक कोई कृष्ण जैसा व्यक्ति फिर उसके पास न आ जाए तब तक उसका दिया बुझा रहेगा।
मेरे देखे दरिया दादू के शिष्यों में एक रहे होंगे। मैं ऐसा नहीं कहता कि दादू के ही अवतार हैं, क्योंकि दादू का क्या अवतार होगा! जो जाग गए वे गए, उनका फिर अवतार नहीं। फिर लौटना नहीं होता। तो मैं दादू-पंथियों से कहूंगा कि ऐसा मत कहो कि दादू का अवतार। इतना ही कहो कि उसी प्रेम का अवतार जिसके अवतार दादू थे। लेकिन दादू का ही अवतार मत कहो। क्योंकि दादू तो गए सो गए। गीत वही है, धुन वही है, सुर वही है। फूल ठीक वैसा ही है--वही गंध, वही रंग। लेकिन यह मत कहो कि वही फूल है, वैसा ही है। क्योंकि दादू तो गए।
यह दादू को उस दिन, उनकी मृत्युशय्या पर घेर कर जो शिष्य खड़े होंगे, उनमें से ही कोई है। ये उसी को चेताने के लिए वचन कहे होंगे:
देह पड़न्ता दादू कहे, सौ बरसां एक संत।
रैन नगर में परगटे, तारे जीव अनंत।।
यह बीज-मंत्र उस भीड़ में खड़े हुए किसी शिष्य के लिए कहा होगा।
बहुत बार तुमसे बातें कही गई हैं जो तुमने सुनी नहीं हैं। बहुत बार तुमसे बातें कही गई हैं जो तुमने समझी नहीं हैं। और वे बातें कभी पूरी होती रहेंगी। एक बार भी जो किसी सदगुरु के निकट आ गया, अब जन्मों-जन्मों की सारी यात्रा इसी निकटता में ही चलेगी। सदगुरु रहे कि जाए, देह में रहे कि देह से मुक्त हो जाए, लौटे; कि न लौटे; लेकिन जो एक बार किसी सदगुरु से जुड़ गया, यह नाता कुछ ऐसा है कि जन्म-जन्म का है। यह गांठ बंधती है तो फिर खुलती नहीं। यह गांठ खुलने वाली गांठ नहीं है। जुड़े ही न तो बात अलग लेकिन जुड़ जाए तो फिर जन्मों-जन्मों तक साथ चलता है।
घूमते रहे दरिया, बहुत लोगों के पास गए; लेकिन फिर दादू के ही एक भक्त, जहां दादू जैसी ही रोशनी थी, जहां दादू ही जैसे पुनः प्रकट हो रहे थे, वहां ज्योति जग गई। वहां बुझा दिया एकदम दमक उठा, दीप्ति आ गई।
खिली हो कितनी कोई खिले वीरान में जैसे
निकल आएं नई बालें कुंआरे धान में जैसे
--ऐसे कुछ खिल गया भीतर।
निकल आएं नई बालें कुंआरे धान में जैसे
हां याद है किसी की वो पहली निगाह-ए-लुत्फ
फिर खूं को यूं न देखा रगों में रवां कभी
वह आंख प्रेम जी महाराज की, आंख से जुड़ते ही क्रांति कर गई।
हां याद है किसी को वे पहली निगाह-ए-लुत्फ
फिर खूं को यूं न देखा रगों में रवां कभी
जल गया जो जलना था। मिट गया जो मिटना था। होना था जो हो गया। कभी-कभी एक क्षण में, एक पल में हो जाती है बात--ठीक-ठीक व्यक्ति से मिलन हो जाए।
अध्यात्म की खोज में, सदगुरु की खोज सबसे बड़ी है। परमात्मा से भी महत्वपूर्ण खोज है सदगुरु की खोज, क्योंकि परमात्मा से तो सीधे तुम जुड़ ही न पाओगे। कोई खिड़की, कोई द्वार चाहिए होगा। परमात्मा तो सब तरफ मौजूद है। मौजूद ही है, उसे क्या खोजना है? इसे थोड़ा समझना। परमात्मा तो मौजूद ही है, उसे क्या खोजना है? लेकिन मौजूद है, पर तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता, तो तुम्हारे लिए तो गैर-मौजूद है। तुम्हारे लिए तो मौजूद तभी होगा, जब तुम परमात्मा जैसे किसी व्यक्ति से मिल बैठोगे। जब दो दिल एक होंगे, किसी ऐसे व्यक्ति से--जिसके लिए परमात्मा मौजूद हो गया है, उस जोड़ में ही तुम्हारे लिए भी मौजूद होगा, उसके पहले नहीं मौजूद होगा। हां, एक बार दिख गया, एक बार खुल गई खिड़की, उठा पर्दा, फिर कोई अड़चन नहीं है। फिर तो गुरु और परमात्मा में भेद ही नहीं रह जाता। फिर तो परमात्मा और गुरु एक के ही दो नाम हो जाते हैं।
कबीर ने कहा है:
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांव।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए।।
किसके छुऊं पैर? अब दोनों सामने खड़े हैं। बड़ी दुविधा हो गई। पहले किसके पैर छुऊं? गुरु के छुऊं तो परमात्मा का कहीं असम्मान न हो जाए। परमात्मा के छुऊं यह भी बात जंचती नहीं, क्योंकि जिसके द्वारा परमात्मा तक आए, उसका असम्मान न हो जाए। वचन मधुर है: किसके पैर छुऊं? लेकिन कहा नहीं कबीर ने कि किसके पैर छुए, तो अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग अर्थ कर लिए। कुछ ने अर्थ किया कि गुरु ने इशारा कर दिया कि शंका मत कर, संदेह में मत पड़, परमात्मा के पैर छू। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए। निवारण हो गया शंका का।
ऐसा अधिक लोग अर्थ करते हैं। ऐसा मैं नहीं करता। मैं तो यह अर्थ करता हूं कि कबीर ने गुरु के ही चरण छुए। क्यों? इसलिए गुरु के चरण छुए कि गुरु ने परमात्मा बताया। बलिहारी में ही चरण छुए। वह जो बलिहारी शब्द है, वह खबर दे रहा है कि गुरु के ही चरण छुए हालांकि गुरु ने इशारा कर दिया परमात्मा की तरफ, इसलिए तो गुरु के चरण छुए। गुरु का तो सारा काम ही इशारा है। गुरु तो एक इंगित है।
मील के पत्थर देखे न, जिन पर तीर बना होता है--आगे की तरफ यात्रा की खबर! गुरु तो एक तीर का एक चिह्न है। गुरु तो कहता है: और आगे और आगे और आगे! गुरु तो तब तक कहता चला जाता है और आगे, जब तक कि परम से मिलन न हो जाए। बलिहारी गुरु आपकी...!
लेकिन फिर कबीर ने पैर किसके छुए? मेरे हिसाब से तो पैर गुरु के ही छुए। यह जो बलिहारी शब्द का उपयोग किया, इसी में ही बात आ गई।
मिलन प्रेम जी महाराज का--जिंदगी बदल गई दरिया की। खोज समाप्त हो गई, जैसे प्यासे को पानी मिल गया! एक छोटी सी नजर ने क्रांति उपस्थित कर दी।
गीत अपने अब नहीं कुंआरे रहे
मीत के स्वर से भंवर कर आ गए
फिर दरिया कुंआरे नहीं रहे, गांठ जुड़ गई, गुरु से मिलन हो गया। वह परम विवाह हो गया, जिसके बाद फिर एक ही मंजिल और रह जाती है--परमात्मा मिलन की।
गुरु द्वार है, परमात्मा मंदिर है।
इन वचनों को, दरिया के, बुद्धि से समझोगे तो चूकोगे। हृदय से समझना। तरंगित होना इनके साथ। एक गैर-पढ़े लिखे आदमी के, लेकिन बड़े प्यारे वचन हैं। उपनिषद और वेद भी स्पर्धा करें, ऐसे वचन हैं। क्योंकि पढ़े-लिखे होने से क्या संबंध है? हृदय में जब घटना घटती है तो टूटे-फूटे शब्द भी स्वर्णमंडित हो जाते हैं। जिसके पास कहने को कुछ है, वह किन्हीं भी शब्दों में कहे, वे शब्द स्वर्णमंडित हो जाते हैं। और जिसके पास कहने को कुछ भी नहीं है, वह कितने ही सुंदर शब्दों का आयोजन करे, वे सब मुर्दे के ऊपर लगाए गए आभूषण हैं। उनसे थोड़ी ही देर में दुर्गंध आएगी। तुम मुर्दों को कितने ही सुंदर वस्त्र पहना दो, इससे मुर्दे जीवित नहीं होते। और जीवंत तो अगर नग्न भी खड़ा हो तो भी सुंदर होता है।
सुनो इन वचनों को--
जन दरिया हरिभक्ति की, गुरां बताई बाट।
भूला ऊजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।।
जन दरिया हरि भक्ति की गुरां बताई बाट। गुरु ने हरि-प्रेम का रास्ता बता दिया। रास्ता बता दिया--इसका ऐसा अर्थ मत लेना कि गुरु ने बड़ा समझाया। समझाया तो जरा भी नहीं। यह बात समझने-समझाने की नहीं। यह तो गुरु के होने में ही इशारा है। यह तो गुरु के पास बैठने में ही घट जाता है। यह तो छूत की बीमारी है। यह तो सत्संग है। गुरु के पास बैठे कि घटने लगता है। गुरु के पास बैठ कर रोमांच जगने लगता है, रोआं-रोआं तरंगित होने लगता है, कंपित होने लगता है। किसी अदृश्य लोक की हवाएं तुम्हें चारों तरफ से घेर लेती हैं। कोई वसंत आ जाता है। जो हृदय सूना-सूना पड़ा था, जहां कोई स्वर नहीं उठता था, वहां हजार स्वर उठने लगते हैं। मगर यह बात है छूत की। यह लगने वाली बात है। यह लगने वाली बीमारी है।
इसलिए प्रेम के मार्ग के पर सत्संग का अर्थ है गुरु के पास होना, गुरु के पास बैठना। कभी कुछ कहे तो सुनना, कभी कुछ न कहे तो सुनना; मगर गुरु को पीना। पीते-पीते ही इशारा साफ होता है।
जन दरिया हरिभक्ति की, गुरां बताई बाट।
गुरु ने इशारा कर दिया, राह पर लगा दिया, नाव में बिठा दिया--हरि-भक्ति की!
दरिया मुसलमान हैं; लेकिन गीत न हिंदू का है न मुसलमान का; गीत न राम का है न रहीम का; या कि दोनों का है। दरिया जैसे संतों ने ही धर्म को प्रतिष्ठा दी है। जरा भी भेदभाव नहीं है, अब यह प्रेम जी महाराज को देख कर ऐसा नहीं सोचा कि हिंदू है यह आदमी, मैं मुसलमान हूं। यह बात ही न उठी। प्रेम कहीं हिंदू होता, कहीं मुसलमान होता! हरि की भक्ति का क्या लेना कुरान से और क्या लेना गीता से? हरि भक्ति कोई सिद्धांत तो नहीं है, कोई दर्शनशास्त्र तो नहीं है। यह तो डुबकी है एक ऐसे लोक में जहां हम तर्क और विचार और बुद्धि के सब विश्लेषण को छोड़ कर पहुंचते हैं। यह तो अपने ही अंतरतम में निवास है।
जन दरिया हरिभक्ति की,...
भक्ति प्रेम का परम रूप है। प्रेम के तीन रूप हैं--काम, प्रेम, भक्ति। काम निकृष्टतम रूप है--अधोमुखी; नीचे की तरफ जाता हुआ; शरीर से बंधा हुआ प्रेम। दूसरा रूप है--न ऊपर जाता हुआ, न नीचे जाता हुआ; समतल पर गतिमान; न अधोमुख, न ऊर्ध्वमुख; मध्य में। काम शरीर से बंधा है; प्रेम मन से। भक्ति तीसरा रूप है, आत्यंतिक रूप है--ऊर्ध्वमुखी, ऊपर की तरफ जाता हुआ; न शरीर से बंधा है, न मन से, आत्मा में अवगाहन।
मनुष्य के तीन तल हैं--शरीर, मन, आत्मा। वैसे ही मनुष्य के प्रेम के तीन तल हैं--काम, प्रेम, भक्ति। जब तक तुम्हारा काम प्रेम न बने तब तक तुम सुख न पाओगे। और जब तक तुम्हारा प्रेम भक्ति न बने तब तक तुम आनंद न पाओगे। तुम्हारा काम अगर काम ही बना रहे, तो तुम दुख ही दुख पाओगे। तुम्हारा काम अगर प्रेम बन जाए तो तुम कभी दुख और कभी सुख भी पाओगे। तुम्हारा काम अगर भक्ति बन जाए तो तुम सदा सुख पाओगे। तुम सुखरूप हो जाओगे। काम से बंधन है; भक्ति में मुक्ति है। प्रेम मध्य में है। इसलिए प्रेम में थोड़ा बंधन भी है और थोड़ी स्वतंत्रता भी। प्रेम समझौता है। इसलिए प्रेम में थोड़ी सी काम की भी छाया पड़ती है और थोड़ी भक्ति की भी। इसलिए तुम जिसे प्रेम करते हो उसमें तुम्हें थोड़ी-थोड़ी कभी-कभी प्रभु की झलक भी दिखाई पड़ती है। तुमने जिसे प्रेम किया है उसमें कभी न कभी प्रभु का आभास भी होता है। कभी-कभी तुम उसके साथ पशु जैसा व्यवहार भी करते हो और कभी-कभी प्रभु जैसा भी। प्रेम मध्य में है।
इसलिए प्रेम में एक तनाव भी है। कामी में ज्यादा तनाव नहीं होता। कामी अपने पशु-स्वभाव से बंधा है। उसके भीतर दुविधा नहीं है। इसलिए तो पशुओं में दुविधा नहीं है। और भक्त भी मुक्त है। उसमें भी दुविधा नहीं है। वह भी पूरा का पूरा परमात्मा से जुड़ा है। और कामी पूरा का पूरा देह में डूबा है। दुविधा होती है प्रेमी में। वह मध्य में खड़ा है। एक हाथ भक्ति की तरफ जा रहा है, एक हाथ काम की तरफ जा रहा है। डांवाडोल है। जैसे कोई रस्सी पर चलता है, ऐसा कंपता है पूरे वक्त।
प्रेम में एक चिंता है, क्योंकि प्रेम उड़ना तो चाहता है आकाश में और पैर उसके जमीन में गड़े हैं। काम तो जड़ों जैसा है और भक्ति पक्षियों जैसी है। और प्रेम बड़ी दुविधा में है, बड़ी अड़चन में है।
इस बात को खयाल में रखना। भक्ति के मार्ग पर प्रेम का विरोध नहीं है; प्रेम का रूपांतरण है। काम को प्रेम बनाना है, प्रेम को भक्ति बनानी है। विरोध कहीं भी नहीं है। इसलिए तुम जिससे प्रेम करते हो, अगर उसी में तुम परमात्मा को देखना शुरू कर दो तो तुम पाओगे, धीरे-धीरे हरि भक्ति का रस आने लगा। इसलिए तुम जिसके प्रति कामातुर हो उससे प्रेम करो कम से कम, थोड़े-थोड़े बढ़ो। जिसके प्रति कामातुर हो उसे प्रेम करो। जिसके प्रति प्रेम से भरे हो उसके प्रति थोड़ी भक्ति भी लाओ।
लड़ने की कोई जरूरत नहीं है, धीरे-धीरे आहिस्ता-आहिस्ता क्रांति हो जाती है। आहट भी नहीं होती और क्रांति हो जाती है।
जन दरिया हरिभक्ति की, गुरां बताई बाट।
भूला ऊजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।।
मैं तो भूला था। और मैं तो उस तरफ भागा जा रहा था--काम की तरफ, जो कि वस्तुतः ऊजड़ है; जो है तो रेगिस्तान लेकिन दूर-दूर मृग-मरीचिकाएं दिखाई पड़ती हैं। लगता है कि खूब जल के सरोवर हैं, हरे वृक्ष हैं और छायाएं हैं। और मन भागा जाता है। भागा जा रहा था काम की तरफ।
भूला ऊजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।
कामवासना ही नरक का घाट है। नरक जाना हो तो वही तीर्थ है; वहीं से उतरा जाता है। लेकिन गुरु ने राह बता दी। और बता दी--शब्दों से नहीं, अपने अस्तित्व से। गुरु ने अपने प्रेम के अस्तित्व से खबर दे दी कि जो काम है उसमें बड़ी महिमा छिपी है, उसे मुक्त कर लो।
ऐसा समझो, जलधार बहाओ तो नीचे की तरफ बहती है, अपने आप नीचे की तरफ जाती है। वह जल का स्वभाव है। फिर जल को जमा दो, बरफ बन जाए, तो फिर न नीचे जाता है न ऊपर; जाता ही नहीं, रुक जाता है। वह बरफ का स्वभाव है। फिर जल को वाष्पीभूत कर दो, गरम करो, उड़ा दो, तो जल ऊपर की तरफ जाने लगता है, जब भाप बन जाता है। जल ही है। जब नीचे की तरफ जाता था तब भी जल था; जब बरफ की तरह रुक गया था तब भी जल था, कहीं नहीं जाता था; और अब जब भाप की तरह आकाश की तरफ उठ रहा है, सूर्योन्मुख हो गया है, तब भी जल ही है। जैसे जल की तीन अवस्थाएं हैं ऐसी ही प्रेम की तीन अवस्थाएं हैं। काम में नीचे की तरफ जाता है। प्रेम में नीचे नहीं जाता, ऊपर नहीं जाता, ठहर जाता है। भक्ति में ऊपर की तरफ उठने लगता है। नीचे की तरफ नरक है, ऊपर की तरफ स्वर्ग है। और प्रेमी दोनों के बीच अटका रहता है--स्वर्ग और नरक। एक पैर स्वर्ग में, एक पैर नरक में। प्रेमी दो नावों पर सवार रहता है।
इसलिए दुनिया में प्रेमी या तो एक न एक दिन तय कर लेता है कि कामी हो जाए या तय करना पड़ता है कि भक्त हो जाए। ज्यादा दिन तक प्रेमी प्रेमी नहीं रह सकता। वह दुविधा की घड़ी है। इसलिए लोग एक ना एक दिन निर्णय ले लेते हैं कि या तो अब कामी हो जाओ और या फिर भक्त हो जाओ।
भौतिकवादी आदमी धीरे-धीरे प्रेम को तो भूल ही जाता है, काम में ही रुक जाता है। अध्यात्म का खोजी धीरे-धीरे प्रेम को तो भूल ही जाता है और भक्ति में डूब जाता है। मगर निर्णय लेना होता है, क्योंकि प्रेम बड़ी दुविधा की दशा है। अगर तुमने निर्णय न लिया तो तुम पीड़ा और बेचैनी में ही रहोगे। इसलिए प्रेमी से ज्यादा तुम और किसी को कष्ट में न पाओगे।
कुछ ना कुछ करना होगा। जीवन में एकरसता लानी होगी। या तो नीचे के तल पर लाओ एकरसता या ऊपर के तल पर। या तो पशु बन कर एकरस हो जाओ...।
देखा, पशु एकरस हैं! पशु पागल नहीं होते, विक्षिप्त नहीं होते, बेचैन नहीं होते, आत्मघात नहीं करते। एकरस हैं। जहां हैं वहां पूरी तरह से हैं। उन्हें पता ही नहीं कि इसके ऊपर होना भी कुछ हो सकता है।
और भक्त भी एकरस है। वह भी भूल गया है कि इससे नीचे भी कुछ हो सकता है। लेकिन जो दोनों के बीच में खड़ा है, उसका कष्ट बहुत है।
भूला ऊजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।
नहीं था राम रहीम का, मैं मतिहीन अजान।
दरिया सुधबुध ग्यान दे, सत्गुरु किया सुजान।।
नहिं था राम रहीम का,...
जब तक तुम राम के नहीं हो, रहीम के भी कैसे होओगे? और जब तक रहीम के नहीं हो तब तक राम के भी कैसे होओगे? तो लोग बातें कर रहे हैं राम और रहीम की; न कोई राम का है न कोई रहीम का है। क्योंकि जो एक का भी हो गया, वह सबका हो गया। जो ठीक से मुसलमान हो गया वह हिंदू भी हो गया और जैन भी हो गया और ईसाई भी हो गया। और जो ठीक से हिंदू हो गया वह ठीक से मुसलमान भी हो गया।
असल में धार्मिक आदमी होने की बात है; हिंदू-मुसलमान होने की बात ही नहीं है।
नहिं था राम रहीम का,...
दरिया कहते हैं, न तो राम का था न तो रहीम था, बातचीत थी। मंदिर जाता था तो भी कुछ अर्थ न था; वहां के राम से मेरी कोई पहचान न थी। और मस्जिद जाता था तो भी व्यर्थ था; वहां के रहीम से मेरी कोई पहचान न थी। अपने भीतर के ही भगवान से पहचान न हो तो मंदिर-मस्जिदों के भगवान से पहचान नहीं हो पाती। पहली पहचान तो आत्म-पहचान है।
जन दरिया हरि भक्ति की, गुरां बताई बाट।
लेकिन गुरु ने राह सुझा दी। गुरु ने आंख खोल दी। गुरु ने बुझी बाती जला दी।
दरिया सुध-बुध ग्यान दे, सत्गुरु किया सुजान।
--मैं तो मतिहीन था।
मन तो सबके पास है, मति बहुत कम लोगों के पास है।
मति का क्या अर्थ होता है? भाषाकोश में तो मति का अर्थ मन ही होता है, लेकिन जीवन के अस्तित्व में सोए हुए मन का नाम मन, जागे हुए मन का नाम मति, सुमति। जो मूर्च्छित है वह मन और जो जाग गया वह मति। यही मन जाग कर सुमति हो जाता है, सन्मति हो जाता है, मति हो जाता है।
नहिं था राम रहीम का, मैं मतिहीन अजान।
बुद्धि तो थी, सोच-विचार था, लेकिन मति नहीं थी। बुद्धि तो थी, लेकिन बुद्धि का भी ठीक उपयोग करने का बोध नहीं था। अधिक लोग बुद्धि का दुरुपयोग कर रहे हैं। अधिक लोग ऐसे हैं जैसे अपने ही हाथ से अपनी ही गरदन काट रहे हों। उनकी बुद्धि ही उनके जीवन की सबसे बड़ी कठिनाई हो गई है। अपनी बुद्धि से वे इतने ही उपाय करते हैं जिनसे उनका जीवन ऊपर नहीं उठ पाता। तो कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि सरल-चित्त लोग, जिनको तुम बुद्धू कहो, वे भी गतिमान हो जाते हैं ऊर्ध्व दिशा में; और जिनको तुम बुद्धिमान कहते हो--अति बुद्धिमान सोच-विचार से भरे हुए लोग, वे जरा भी गतिमान नहीं हो पाते। वे हजार तर्क करते हैं। और उनके सब तर्क उन्हीं को खंडित करते हैं।
तुम कभी खयाल करना: जब तुम ईश्वर के विरोध में कोई तर्क देते हो तो ध्यान रखना, इससे ईश्वर खंडित नहीं होता, सिर्फ तुम्हारा भविष्य खंडित होता है। ईश्वर क्या खंडित होगा? ईश्वर को क्या फर्क पड़ेगा? तुम मानो न मानो, इससे ईश्वर को तो कुछ भेद नहीं पड़ता; लेकिन न मानने से तुम्हारी संभावना का द्वार बंद हो गया। न मानने से जो बीज अंकुरित हो सकता था, तुमने कह दिया कि नहीं, अंकुरण होता ही नहीं। तो बीज पत्थर की तरह पड़ा रह जाएगा।
ईश्वर के विरोध में तुमने अगर कुछ भी कहा हो तो वह तुम्हारे ही विरोध में गया है। तुमने अगर सत्य को झुठलाने के लिए कुछ कोशिश की हो तो सत्य नहीं झुठलाया जाता; तुम्हीं झुठलाए जाते हो। यह सब ऐसा ही है जैसे कोई आकाश की तरफ मुंह उठाए और थूके, वह थूक अपने पर ही गिर जाता है।
मगर बुद्धिमान आदमी इस तरह की बातें करते हैं। मति नहीं है। मति होती तो अपने जीवन की सारी ऊर्जा का एक ही उपयोग करते, कि जान लूं उसे कि मैं कौन हूं। छोड़ो ईश्वर! ईश्वर शब्द से कुछ लेना-देना नहीं है। अगर बुद्धिमान हो तो इतना तो करो कि जान लो कि मैं कौन हूं। कहां से आता हूं, कहां जाता हूं, इस चौराहे पर कैसे आकर खड़ा हो गया हूं, कौन हूं, इतना तो जान लो!
नहिं था राम रहीम का, मैं मतिहीन अजान।
दरिया सुधबुध ग्यान दे, सत्गुरु किया सुजान।।
सुधबुध ग्यान दे,...
खयाल करना, गुरु ने कोई शास्त्र-ज्ञान नहीं दिया, सुध-बुध दी।
दो तरह के ज्ञान हैं। एक शास्त्रीय ज्ञान है, जो विद्यालय-विश्वविद्यालय में मिलता है। एक शास्त्रीय ज्ञान है, शब्द-ज्ञान है, उसका बड़ा जंगल है। उसमें भटके तो जन्मों-जन्मों लग जाएं तो भी बाहर न आ सको। जंगलों में भटका तो निकल आए, किताबों में भटका नहीं निकल पाता। क्योंकि जंगल की तो एक सीमा है, शब्दों की कोई सीमा नहीं है।
सुधबुध ग्यान दे,...
सुध का अर्थ है चेताया। चेताया कि तू कौन है। जगाया, झकझोरा। उस झकझोरने में ही बुध, बोध पैदा होता है। और इस सुध-बुध का नाम ही ज्ञान है। शेष तो सब व्यर्थ बकवास है। शेष तो ऐसा है जैसे लगी है भूख और पाकशास्त्र खोले हुए किताब पढ़ रहे हैं। पढ़ो, खूब, भूख मिटती नहीं। लगी तो है प्यास और फार्मूला लिए बैठे हैं कि जल कैसे निर्मित होता है--एच.टू.ओ.। रखे रहो इस फार्मूले को, इसका ताबीज बना लो, इसको गले में लटका लो, इसका मंत्र-जाप करो: एच.टू.ओ., एच.टू.ओ., एच.टू.ओ.! गुनगुनाओ। मगर प्यास नहीं बुझेगी। प्यास मंत्रों से नहीं बुझती। प्यास के लिए जल चाहिए। और आश्चर्यों का आश्चर्य यह है कि तुम एच.टू.ओ. का पाठ कर रहे हो और सामने नदी बह रही है। मगर तुम अपने पाठ में ऐसे तल्लीन हो कि नदी देखने कि सुविधा किसे!
दरिया सुधबुध ग्यान दे, सत्गुरु किया सुजान।
अजान था, सुजान किया।
सत्गुरु सब्दां मिट गया, दरिया संसय सोग।
औषध दे हरिनाम का, तन मन किया निरोग।।
सत्गुरु सब्दां मिट गया,...
सदगुरु के शब्दों को सुन कर, सब संशय मिट गए, सब संदेह मिट गया।
अब इसको थोड़ा समझना। ऐसा मत समझना कि जो भी दरिया के गुरु के पास गए थे, सभी के संशय मिट गए होंगे। सुनने की एक कला चाहिए। तुम बुद्ध के पास भी जाओ तो भी संशय ले आ सकते हो। सुनने की एक कला चाहिए। सुनने का एक अनूठा ढंग चाहिए। इस भांति सुनना है कि तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा तर्कजाल बीच में बाधा न दे। प्रेम से सुनना है, तर्क से नहीं। तर्क-शून्य होकर सुनना है। वही श्रद्धा का अर्थ है।
दरिया के तो मिट गए सारे शोक, सारे संशय, क्योंकि इस आदमी के प्रेम में पड़ गए। इस आदमी को देखा नहीं, इस आदमी की आंख में आंख पड़ी नहीं, कि सुध-बुध खो बैठे।
अब यह बड़े मजे की बात है! जिसके साथ तुम सुध-बुध खो बैठो उसी के पास सुध-बुध पैदा होती है। यह बड़ा विरोधाभास है।
कुछ तुम्हारी निगाह काफिर थी,
कुछ मुझे भी खराब होना था
देखी होंगी वे आंखें--रस से सरोबोर! देखी होंगी वे आंखें शांत झील की तरह, जिन पर कमल तिरते हों! देखी होंगी वे आंखें और डूब गए होंगे उनमें। उस प्रेम ने पकड़ लिया। पकड़े गए। बहुत बुद्धिमान होते, पढ़े-लिखे होते तो सोचते कि कहीं इस आदमी ने सम्मोहित तो नहीं कर लिया! कि मैं यह किस जाल में पड़ा जा रहा हूं! अपने को सम्हालते। अपने तर्क को निखारते। सुनते भी तो भी डूब कर न सुनते, दूर-दूर खड़े रह कर सुनते। सुनते तो ऐसे सुनते जैसे कि न्यायाधीश सुनता है अदालत में। सुनते तो ऐसे सुनते जैसे परीक्षक होकर आए हैं। सुनते तो ऐसे सुनते कि निर्णय मुझे करना है कि ठीक हो कि गलत
अब, काश तुम्हें ही पता होता कि क्या ठीक है और क्या गलत है तो आए ही क्यों थे?
सुनने वाले को ऐसे सुनना चाहिए कि मुझे तो पता नहीं है कि क्या ठीक और क्या गलत इसलिए मैं कैसे निर्णायक बनूंगा? निर्णय छोड़ कर सुनता हूं। मुझे तो पता नहीं है क्या ठीक है और गलत है, शायद इस आदमी को पता हो। एक मौका इसे दो। इस आदमी के सामने अपने हृदय को खोल दो। इस आदमी को उठाने दो संगीत हृदय में। इस आदमी को छेड़ने दो तार, इस आदमी को बजाने दो वीणा मेरे हृदय की।
लेकिन तर्कनिष्ठ आदमी प्रविष्ट ही नहीं होने देता किसी को हृदय तक। खुद तो जानता नहीं कैसे अपनी वीणा बजाए और जो जानते हैं उनके हाथ को भीतर नहीं जाने देता। कहता है, बाहर रखना हाथ, सम्मोहित मत कर लेना, कहीं मुझे उलझा मत देना, किसी झंझट में न पड़ जाऊं।
अब यह बड़े आश्चर्य की बात है कि तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नहीं, लेकिन तुम डरे बहुत रहते हो कि कहीं कुछ खो न जाए! है क्या तुम्हारे पास खोने को? सम्मोहित करके तुमसे लिया क्या जा सकता है? आत्मा तो तुम्हारी बिलकुल खाली है। डरते क्यों हो? भय क्या है? खोओगे क्या? तुम्हारे पास क्या है? लेकिन बड़ा डर है। बड़े होश से सुनते हो। होश का मतलब? होश नहीं। होश का मतलब इतना ही कि दूर-दूर रहते हो, भागे-भागे रहते हो। एक जगह तक जाते हो, वहां से आगे नहीं बढ़ते। खयाल रखते हो कि इतनी दूर खड़ा रहूं कि अगर भागने की नौबत आ जाए तो भाग सकूं, पकड़ा न जाऊं। बड़ी होशियारी से सुनते हो। बड़ी चालबाजी से सुनते हो। बड़ी चालाकी से सुनते हो। जिसने चालाकी से सुना वह चूक जाएगा। ये बातें चालाकों के लिए नहीं हैं। ये बातें दीवानों के लिए हैं।
सत्गुरु सब्दां मिट गया,...
क्या मिट गया? दरिया मिट गया। सुने वे शब्द, सुने वे प्यार भरे शब्द, सुने वे मिठास भरे शब्द, सुने वे मस्ती के शब्द! ऐसा नहीं है कि उन शब्दों में बड़ा तर्क था, इसलिए वे जंचे। उन शब्दों में बड़ा प्रेम था, इसलिए ये बड़े फर्क की बातें हैं। ऐसा नहीं है कि उन शब्दों में बड़ा सिद्धांत था। सिद्धांतियों के पास तो दरिया बहुत गए थे, पंडित और मौलवियों के द्वार खटखटाए थे। सिद्धांत वहां खूब था, सघन था। तर्क वहां काफी प्रतिष्ठित था। जो भी वे कहते थे, प्रत्येक बात के लिए शास्त्रों से प्रमाण देते थे। यहां न तो शास्त्र था न प्रमाण था, न कोई तर्क था; यहां तो बड़ी बेबूझ बातें हो रही थीं। यहां तो पियक्कड़ बैठे थे। यह तो मधुशाला थी। ये प्रेम जी महाराज की मधुशाला में डूब गए।
सत्गुरु सब्दां मिट गया,..
यहां तो कुछ ऐसी बातें कही जा रही थीं, जो कही ही नहीं जा सकतीं। यहां तो कुछ ऐसी बातें कही जा रही थीं कि अगर तुम शब्दों पर ही अटक जाओ तो समझ ही न सकोगे। शब्दों के बीज जो खाली जगह होती है, उसको सुनना पड़ता है। पंक्तियों के बीच में जो रिक्त स्थान होता है उसमें झांकना पड़ता है। यहां हर शब्द के साथ जुड़ा हुआ निःशब्द था। उस निःशब्द में झांकना होता है। जब कोई शब्द को बहुत श्रद्धा से सुनता है तो उसके हाथ में निःशब्द आ जाता है। जब शब्दों को कोई बहुत सहानुभूति और लगाव से सुनता है तो फिर शब्दों में जो छिपा हुआ शून्य है वह उसमें झलक देने लगता है। तुमने अगर बहुत ज्यादा चालाकी से सुना तो शब्द को तुम मार डालते हो, उसकी मृत्यु हो जाती है; मुर्दा शब्द तुम्हारे हाथ में रह जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा सिद्धांत तुम्हारे हाथ में आ जाएगा, लेकिन शून्य चूक जाएगा। और असली बात वही थी।
ऐेसा समझो कि मैंने तुम्हारे पास एक पत्र भेजा और तुमने लिफाफा रख लिया और भीतर जो पत्र था वह तुमने देखा ही नहीं, या भूल ही गए, या खो ही दिया, या खोला ही नहीं लिफाफा, लिफाफे में ही बहुत मोहित हो गए। शब्द तो लिफाफे हैं; उनके भीतर जो शून्य है छिपा हुआ, वहीं है संदेश। मगर शून्य को सुनना हो तो हृदय जरा भी सुरक्षा करता हो अपनी, तो नहीं सुन पाओगे। असुरक्षित होकर, सब भांति समर्पित होकर, निवेदित होकर...।
सत्गुरु सब्दां मिट गया, दरिया संसय सोग।
दरिया ही मिट गया फिर संशय कहां! संशय तो अहंकार की छाया है। तुम जब तक हो तब तक संशय है। तुम गए, संशय गया। और संशय गया तो सब शोक, सब दुख गए; क्योंकि संशय के कारण हम विभक्त हैं, खंड-खंड टूटे हैं।
बंटी है टूट कर यह जिंदगी इस भांति टुकड़ों में
दरारें जोड़ना इनकी नहीं इतना सरल कोई
बड़े टूटे हैं टुकड़ों में हम।
बंटी है टूट कर यह जिंदगी इस भांति टुकड़ों में
दरारें जोड़ना इनकी नहीं इतना सरल कोई
जब तक कि तुम किसी के प्रेम में बिलकुल न बह जाओ, तुम जुड़ न पाओगे।
जब तक कि तुम किसी के प्रेम में बिलकुल न बह जाओ, तुम जुड़ न पाओगे। जब तक कि तुम किसी के प्रेम में बेबस न हो जाओ, तुम जुड़ न पाओगे। प्रेम जोड़ता है, तर्क तोड़ता है। विचार खंडित करते हैं, निर्विचार अखंड बनाता है।
तुम मुझे सुन रहे हो, दो ढंग से सुन सकते हो। एक तो दरिया का ढंग--तो तुम सौभाग्यशाली। किसी दिन तुम कह सकोगे: सत्गुरु सब्दां मिट गया, दरिया संसय सोग। और एक ऐसे तुम सुन सकते हो जैसे विद्यार्थी सुनता है कि नोट लेने हैं, कि क्या ये कह रहे हैं ठीक है या नहीं, चलो सोच कर रख लेंगे, बाद विचार कर लेंगे। और जब तुम सुन रहे हो तब भी भीतर तुम्हारा अतीत, तुम्हारा जाना हुआ बोल रहा है कि हां ठीक है, यह रामायण से मेल खाता है, यह कुरान से मेल खाता है; यह बात नहीं जंचती, यह हमारे धर्म के खिलाफ है। ऐसा तुम पूरे वक्त कमेंट्री कर रहे भीतर। तुम चल रहे हो। इधर मैं बोल रहा हूं, उधर तुम बोल रहे हो। तब तो बड़ा मुश्किल होगा। कुछ का कुछ सुन लोगे। कुछ छूट जाएगा, कुछ जुड़ जाएगा। कुछ का कुछ हो जाएगा। फिर तुम उतने सौभाग्यशाली नहीं सिद्ध होओगे जैसे दरिया सौभाग्यशाली सिद्ध हुए।
सत्गुरु सब्दां मिट गया,...
जिसने प्रेम से किसी सदगुरु के शब्द सुन लिए वह मिट ही जाता है। उसी मिटने में होना है। उसी मृत्यु में नया जन्म है।
औषध दे हरिनाम का, तन मन किया निरोग।
और सब आरोग्य हो गया, सब निरोग हो गया, सब स्वस्थ हो गया। सब रोग गए, क्योंकि सारे रोग मन के हैं। सारे रोग अस्मिता के हैं।
औषध दे हरिनाम का,...
हरिनाम की औषधि उसे ही दी जा सकती है जो प्रेम से सुनने में तत्पर हो जाए।
सुनो, अपूर्व वचन है--
रंजी सास्तर ग्यान की, अंग रही लिपटाय।
सत्गुरु एक ही शब्द से, दीन्हीं तुरत उड़ाय।।
रंजी का अर्थ होता है: धूल।
रंजी सास्तर ग्यान की, अंग रही लिपटाय।
दरिया कहते हैं, मेरे अंग-अंग में धूल लगी थी शास्त्र-ज्ञान की। सुनी-सुनाई बातें, पढ़ी-पढ़ाई बातें--लिपटी थीं चारों तरफ। उधार बातें, बासी बातें।
रंजी सास्तर ग्यान की,...
शास्त्र-ज्ञान की धूल मुझे खूब लिपटी थी चारों तरफ। बकवास थी सब, मगर खूब लिपटी थी। उसी में मैं गंदा हो रहा था। स्नान की जरूरत थी। और उस धूल को मैं सब कुछ समझे बैठा था।
रंजी सास्तर ग्यान की, अंग रही लिपटाय।
सत्गुरु एक ही शब्द से, दीन्हीं तुरत उड़ाय।।
और सदगुरु के एक शब्द से स्नान हो गया, वह सारी धूल उड़ गई। सदगुरु वही जो तुमसे तुम्हारे शास्त्र छीन ले। जो तुम्हें शास्त्र देता हो वह सदगुरु नहीं--जो तुमसे तुम्हारे शास्त्र छीन ले। जो तुम्हें ज्ञान दे वह सदगुरु नहीं--जो तुम्हें बोध दे और तुम्हारा सारा ज्ञान छीन ले। सदगुरु वह नहीं जो तुम्हें बहुत ज्यादा सिद्धांती बना दे--सदगुरु वही जो तुम्हारे जीवन से सारे सिद्धांतों की धूल अलग कर दे; तुम्हें जीवंत, जाग्रत बना दे। शास्त्र न दे, तुम्हें शास्त्र बना दे--वही सदगुरु।
तुम्हारे भीतर भी वही तो छिपा है जो उपनिषद के ऋषियों में छिपा था। तुम उपनिषदों को कब तक पकड़े बठे रहोगे? कब भीतर के ऋषि को मौका दोगे कि गुनगुन हो, गीत उठे? तुम्हारे भीतर के ऋषि को कब अवसर दोगे? वेद में जिन्होंने गाए अपूर्व वचन, वैसा ही चैतन्य तुम भी लिए चल रहे हो। इसको कब मौका दोगे कि तुम्हारा वेद प्रकट हो?
जीसस और बुद्ध और महावीर तुम्हारे भीतर भी बोलने को आतुर हैं, क्योंकि तुम्हारी भी आत्यंतिक संभावना वही है। तुम भी बुद्ध होने को हो; उससे कम पर तुम्हारी भी यात्रा पूरी नहीं होगी। लेकिन जब तक तुम उधार को बांधे रहोगे, गठरी उधार की सिर पर लिए रहोगे तब तक तुम्हारी अपनी संपदा पैदा न होगी।
तो गुरु तो वही है जो तुम से शास्त्र छीन ले।
मैंने सुना, चीन में एक अदभुत झेन फकीर हुआ, हुईनेंग। निकल रहा है आश्रम में, बगीचे के पास से गुजर रहा है, और उसका एक शिष्य वृक्ष के नीचे बैठा बुद्ध-वचनों को कंठस्थ कर रहा है, रट रहा है। वह खड़े होकर सुनता है और उसे कहता है, सुन! खयाल रखना, कहीं ऐसा न हो कि शास्त्र तुझे गड़बड़ा दे, तू शास्त्र को गड़बड़ा देना!
अपूर्व वचन है कि तू शास्त्र को गड़बड़ा देना; कहीं ऐसा न हो कि शास्त्र तुझे गड़बड़ा दे। फिर तो झेन फकीरों ने इस पर काफी काम किया।
फिर तो दूसरे एक झेन फकीर ने अपने सारे शिष्यों को अपने मरते वक्त इकट्ठा किया और सारे शास्त्र इकट्ठे करके आग लगवा दी और कहा कि देखो यह मेरा आखिरी संदेश है। जब तक ऐसे ही तुम्हारे भीतर के सभी शास्त्र न जल जाएंगे तब तक तुम्हारे भीतर का शास्ता पैदा न होगा।
रंजी सास्तर ग्यान की, अंग रही लिपटाय।
सत्गुरु एकहि सब्द से, दीन्हीं तुरत उड़ाय।।
पर यह कैसे होता होगा? क्योंकि कितने ही तो लोग, कितने लोगों की बातें सुनते हैं, कुछ होता नहीं। एक ही शब्द से हो गया होगा?
प्रेम से सुना जाए तो एक शब्द भी काफी हो जाता है। प्रेम से न सुना जाए तो करोड़ों शब्द भी काफी नहीं होते। फिर समझदार को इशारा काफी होता है।
बुद्ध कहते थे: एक दिन एक आदमी आया और उसने बुद्ध को कहा कि आप तो संक्षिप्त में कह दें, मैं जल्दी में हूं। आप सार बात कह दें, बस उसी को पूरा कर लूंगा। और बुद्ध ने उससे कुछ भी न कहा, वे चुप ही बैठे रहे। वह आदमी आधा घड़ी चुप बैठा रहा, फिर बड़ा पुलकित होकर उठा, बुद्ध के चरण छुए और कहा: धन्यवाद! मिल गई बात। बुद्ध ने कही नहीं और उसको मिल गई। मिल गई बात!
जब वह चला गया तो आनंद ने बुद्ध से पूछा कि इसको क्या मिल गया? क्योंकि मैं इधर तीस साल से आपके साथ हूं--सुन-सुन कर थक गया हूं। और यह आदमी आधा घड़ी बैठा और आपने इससे कुछ कहा भी नहीं, इसको मिला कैसे? इसको मिला क्या? यह मामला क्या है? और आप भी प्रसन्न थे जब उसने कहा मिल गया और वह भी बड़ा अपूर्व आनंदित था! जरूर कुछ हुआ तो है, कुछ गुप चुप हो गया!
बुद्ध ने कहा: आनंद, मुझे याद है जब हम राजकुमार थे, आनंद बुद्ध का ही चचेरा भाई था। तो मुझे घोड़ों का बहुत शौंक था, घुड़सवारी में तू नंबर एक था। तुझे खयाल होगा, भूल नहीं गया होगा। घोड़े कई तरह के होते हैं। एक तो वह घोड़ा होता कि कि मारो मारो, फिर भी चलता नहीं। एक वह भी घोड़ा होता है कि जरा मारा कि चल पड़ता है। फिर एक वह भी घोड़ा होता है, मारने की जरूरत नहीं पड़ती, कोड़ा फटकारा कि चल पड़ता है। और फिर एक वह भी घोड़ा होता है आनंद, हमारे पास ऐसे घोड़े थे तुझे याद होगा कि उसको फटकारना भी नहीं पड़ता कोड़ा क्योंकि वह भी उसका अपमान हो जाएगा--बस कोड़ा हाथ मैं है, इतना काफी है। फटकारना भी नहीं पड़ता। और तुमने उस आखिरी परम घोड़े को भी देखा होगा जिसको, घोड़े को, कोड़े को भी नहीं रखना पड़ता जिसके साथ, क्योंकि वह उसका अपमान हो जाएगा। उसे तो कोड़े की छाया भी काफी है। दूर की छाया भी पर्याप्त है। ऐसा ही यह जो आदमी था--यह घोड़ा था--उसे कोड़े को छाया काफी थी।
आदमी-आदमी अलग अलग ढंग से सुनते हैं। दरिया ने बड़े डूब कर सुना होगा। एक शब्द तोड़ गया सारी कारा, सारा अंधकार। एक किरण जगा गई भीतर की रोशनी को।
जैसे सत्गुरु तुम करी, मुझसे कछू न होए।
विष-भांडे विष काढ़कर, दिया अमीरस मोए।।
और दरिया कहते हैं: गजब किया! खूब किया! चमत्कार किया! कैसे तुमने किया?--जैसे सत्गुरु तुम करी, मुझसे कछू न होए। क्योंकि मैं जानता हूं कि यह मेरे किए नहीं हुआ है। यह मेरे किए तो होता ही नहीं था, मैं तो कर-कर हार गया था। मैं तो थक रहा था। मैं तो विषाद से भर रहा था, मैं तो निराश होने लगा था। मुझे तो हताशा घेरने लगी थी। मेरे किए तो कुछ नहीं हो रहा था।
जैसे सत्गुरु तुम करी, मुझसे कुछू न होए।
अब मुझे पक्का पता है कि यह प्रसाद से हुआ है।
खयाल रखना, ध्यान के मार्ग पर प्रयास, और प्रेम के मार्ग पर प्रसाद, प्रभु-कृपा। प्रभु-कृपा की पहली किरण--गुरु-कृपा।
विष-भांड़े विष काढ़कर,...
चमत्कार तुमने किया कि मैं तो विष से भरा हुआ घड़ा था, तुमने विष भी निकाल दिया और कब मुझे अमृत से भर दिया मुझे पता भी न चला!
सत्गुरु एकहि शब्द से, दिया अमीरस मोए।
एक शब्द मात्र से! इशारे मात्र से! आंख में आंख डाल दी और सब कर दिया!
विष-भांड़े विष काढ़कर,...
कठिन था काम यह, मगर पलक मारते हो गया।
परमात्मा पलक मारते हो जाता है। यह काम कठिन है अगर तुम करना चाहो; अगर तुम होने दो तो यह काम कठिन नहीं है, बहुत सरल, बहुत सहज है। तुम बाधा न डालो बस।
तो फर्क समझना। ध्यान के मार्ग पर श्रम। इसलिए ध्यान का मार्ग अथक परिश्रम का मार्ग है। इसलिए तो बुद्ध और महावीर की संस्कृति ‘श्रमण संस्कृति’ कहलाती है--श्रम। वहां भक्ति का कोई उपाय नहीं है, कोई व्यवस्था नहीं है। वहां ध्यान ही एकमात्र मार्ग है। इसलिए बुद्ध और महावीर दोनों के मार्ग पर स्त्री थोड़ी परेशान रही है, क्योंकि भक्ति का वहां कोई उपाय नहीं है। महावीर के मानने वाले तो कहते हैं कि स्त्री-पर्याय से तो मोक्ष नहीं हो सकता।
स्त्री-पर्याय का क्या अर्थ होता है? स्त्री-पर्याय का अर्थ होता है--प्रेम की पर्याय। बुद्ध ने वर्षों तक स्त्रियों को दीक्षा नहीं दी, इनकार करते रहे। और जब दी भी तो बड़े संकोच से दी और देने के बाद कहा कि आनंद, तुम मानते नहीं तो देता हूं; लेकिन ध्यान रखना, मेरा धर्म जो पांच हजार साल चलता, अब पांच सौ साल से ज्यादा नहीं चलेगा।
यह बात क्या है? ऐसा क्या कारण है! धर्म से इसका कोई संबंध नहीं है--एक विशिष्ट दृष्टि से। ध्यान पुरुषगत है--श्रम, अथक श्रम, प्रयास, संकल्प, साधना। प्रेम स्त्रीगत है--प्रसाद, स्वीकार-भाव, अहोभाव, प्रतीक्षा, प्रार्थना। स्त्री ग्रहण करती है; पुरुष खोजता है। पुरुष यात्रा पर निकलता है; स्त्री बाट जोहती है।
और ऐसा मत समझना कि सभी पुरुष पुरुष हैं और सभी स्त्रियां स्त्रियां हैं। ऐसा मत समझना। कुछ स्त्रियां हैं जो ध्यान से उपलब्ध होंगी। और बहुत पुरुष हैं जो प्रेम से उपलब्ध होंगे। इसलिए स्त्री-पुरुष का विभाजन शरीरगत नहीं है सिर्फ, जैविक नहीं है; बहुत गहरा है। जैसे चैतन्य हैं; अगर चैतन्य को आध्यात्मिक दृष्टि से सोचना हो तो स्त्री कहना पड़ेगा, पुरुष नहीं। क्योंकि पाया भक्ति से। ठीक मीरा जैसे व्यक्ति हैं; जरा भी भेद नहीं। शरीर के भेद से क्या फर्क पड़ता है? थोड़े हार्मोन कम या ज्यादा इधर-इधर, इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। वह भेद तो शरीर का है। चैतन्य की जो चेतना है वह ठीक मीरा जैसी है।
कश्मीर में एक महिला हुई, लल्ला। वह महावीर जैसी है। वह नग्न रही। पुरुष का नग्न रहना इतना कठिन नहीं मालूम पड़ता, स्त्री का नग्न रहना बहुत कठिन मालूम पड़ता है। मगर लल्ला रही, जीवन भर नग्न रही। महावीर की भी हिम्मत नहीं पड़ी की अपनी दीक्षित संन्यासिनियों को कहें कि तुम नग्न हो जाओ। पुरुष तो नग्न हुए, लेकिन स्त्रियों को रोक दिया। शायद इसी कारण कहा कि एक दफा फिर तुमको जन्म लेना पड़ेगा; पुरुष बन कर जब तुम सब तरह से छोड़ कर दिगंबर हो जाओगी तभी पाओगी। मगर इस जन्म में तो कैसे होगा?
लेकिन लल्ला कश्मीर की नग्न रही। लल्ला को स्त्री कहना ठीक नहीं। लल्ला ठीक वैसी ही है जैसे महावीर।
तो इस भेद को ऐसे मत मान लेना कि यह शरीरगत ही है; यह ज्यादा आत्मगत है।
जैसे सत्गुरु तुम करी,...
दरिया के पास स्त्री का दिल है। सभी भक्तों के पास स्त्री का दिल है।
...मुझसे कछु न होय।
तुमने किया, हो गया। मेरे किए कुछ भी न होता।
सब्द गहा सुख ऊपजा, गया अंदेसा मोहि।
सत्गुरु ने किरपा करी, खिड़की दीन्हीं खोहि।।
सब्द गहा सुख ऊपजा,...
शब्द के गहते ही--शब्द को लेते ही भीतर, सुख उपजा। इधर तुमने शब्द दिया, इधर सुख उपजा। तुम्हारे शब्द से सुख की वर्षा हो गई।
सब्द गहा सुख ऊपजा, गया अंदेशा मोहि।
सारा भय मिट गया।
समझो। आमतौर से तुम सोचते हो कि प्रेम और घृणा विपरीत हैं। यह बात सच नहीं है। प्रेम और भय विपरीत हैं। प्रेम और घृणा विपरीत नहीं हैं--प्रेम के साथ घृणा चल सकती है। इसलिए विपरीत नहीं कह सकते। तुम जिसको प्रेम करते हो उसी को कई बार घृणा करते हो। सच तो यह है उसी को घृणा करोगे, और किसको घृणा करोगे? पति पत्नी को, पत्नी पति को--जिससे तुम प्रेम करते हो उसी से तो झगड़ोगे! उसी पर नाराज भी होओगे, उसी को घृणा भी करोगे। जिसके लिए जीते हो, कभी-कभी सोचने लगते हो मिट ही जाए, मर ही जाए! जिसके जीने के लिए जान दे सकते हो, कभी उसकी जान लेने का विचार भी मन में आ जाता है।
प्रेम के साथ घृणा चल सकती है, कुछ अड़चन नहीं है। लेकिन प्रेम के साथ भय कभी नहीं चलता; इसलिए असली विरोध तो प्रेम और भय में है। जहां प्रेम आया, भय गया। जहां भय आया वहां प्रेम गया।
मैंने सुना है, एक जापानी कथा है: एक युवक विवाह करके...एक योद्धा विवाह करके अपने घर लौट रहा है--अपनी नव-वधू को लेकर। नाव पर दोनों सवार हैं। तूफान आ गया है। नाव डांवाडोल हो रही है--अब गई, तब गई! लेकिन वह युवक निश्चिंत बैठा है। वह पत्नी उसकी घबड़ाने लगी। वह कंपने लगी। उसने उससे कहा, तुम इस तरह निश्चिंत बैठे हो जैसे कुछ भी नहीं हो रहा है! देखते नहीं कि नाव डूबी, अब बचना मुश्किल है। अभी हम विवाहित ही हुए थे, अभी विवाह का सुख भी न जाना था--और ये कैसे दुर्दिन आ गया! यह कैसी दुर्घटना हुई जा रही है। तुम बैठे क्यों हो? तुम ऐसे निश्चिंत बैठे हो जैसे घर में बैठे हो, जैसे कुछ भी नहीं हो रहा!
उस युवक ने अपने म्यान से तलवार निकाल ली--और तलवार उस युवती के, अपनी पत्नी के गले के पास ले गया। ठीक बिलकुल पास ले गया कि जरा बाल भर का फासला रह गया। जरा सी चोट की कि गरदन अलग हो जाए। वह युवती हंसने लगी। उस युवक ने कहा, तू हंसती है? घबराती नहीं? तलवार तेरी गरदन पर है--नंगी तलवार; जरा सा इशारा और तू गई। घबड़ाती नहीं?
उसने कहा: क्या घबड़ाना? तलवार जब तुम्हारे हाथ में है...।
उस युवक ने कहा: यही मेरा उत्तर है। जब तूफान परमात्मा के हाथ में है तो क्या घबड़ाना?
तलवार उसने वापस म्यान में रख ली। इधर वह तलवार म्यान में वापस रख रहा था कि उधर तूफान भी म्यान में वापस रख लिया गया।
प्रेम जहां है वहां भय नहीं। इसलिए भक्त से ज्यादा निर्भय कोई भी नहीं होता जिसको तुम ध्यानी कहते हो, वह भी डरा रहता है--बहुत डरा डरा रहता है कि कहीं यह न चूक जाए, कहीं यह भूल न हो जाए, कहीं यह पाप न हो जाए,कहीं यह नियम उल्लंघन न हो जाए!
बुद्ध के भिक्षु के लिए तैंतीस हजार नियम! सोचो, चिंता तो रहती होगी--तैंतीस हजार नियम! याद ही रखना मुश्किल है; कुछ न कुछ तो भूल होने ही वाली है। नरक निश्चित ही है। तैंतीस हजार नियम हों तो नरक से बचोगे कैसे?
लेकिन प्रेमी को कोई भय नहीं। वह कहता है, तुम जानो। अगर भूल करवानी हो भूल करवा लेना; अगर न करवानी हो मत करवाना।
भक्त का अभय पूरा है; समग्र है।
सब्द गहा सुख ऊपजा,...
तुम्हारे शब्द को गहा ही नहीं कि सुख उपज गया।
यह गहा शब्द भी खयाल रखना--जैसे स्त्री ग्रहण करती है। जब एक नया जीवन जन्मता है जगत में तो पुरुष देता है, स्त्री ग्रहण करती है। सिर्फ गहती है। ग्रहण करते ही उसके गर्भ में अंकुरण हो जाता है। जैसे पृथ्वी बीज को ग्रहण करती है, ग्रहण करते ही बीज में अंकुरण पैदा हो जाता है। जन्म शुरू हुआ, जीवन की यात्रा हुई, उत्सव का प्रारंभ हुआ।
कहते हैं दरिया: सब्द गहा सुख ऊपजा।
इधर मैंने तुम्हारा शब्द अपने भीतर लिया कि उधर मैंने पाया कि सुख की वर्षा हो गई; सुख ही सुख के फूल खिल गए।
...गया अंदेशा मोहि।
और बड़े चकित होने की बात है कि उस क्षण मैंने पाया कि सब भय मेरे विसर्जित हो गए। कोई भय नहीं बचा। प्रेम में भय कहां! जैसे रोशनी में अंधेरा नहीं, ऐसे प्रेम में भय नहीं। लाए दिया कि रोशनी आई नहीं कि अंधेरा गया नहीं। ऐसे ही जला दिया प्रेम का, कि भय समाप्त हो जाता है। और जिसके जीवन में भय न रहा, उसके जीवन में ही आनंद हो सकता है।
भक्त के जीवन में भय नहीं, क्योंकि यह जगत दुर्घटना नहीं है, यह जगत परमात्मा के हाथों में है। यह तूफान उसके हाथ में है। यह तलवार उसकी है।
भक्त मौत के सामने भी भयभीत नहीं होता, क्योंकि वह मौत भी उसकी ही सेविका है, उसके ही इशारे पर आई है। भक्त मौत को भी आलिंगन कर सकता है। करता है। मौत में भी मित्रता बांध लेता है। क्योंकि जो भी उसने भेजा है, सभी उसका है।
मैंने सुना है, महमूद गजनवी का एक दास था, जिससे उसका बड़ा लगाव था। लगाव के लायक था भी आदमी। कहते हैं कि महमूद अपनी पत्नियों को भी बहुत उसकी पत्नियां थी...उनको भी अपने कमरे में रात नहीं सोने देता था, डरा रहता था--कोई मार डाले, कोई दुश्मन से मिल जाए; कोई झगड़ा झंझट, कोई जहर पिला दे! लेकिन यह दास उसके कमरे में सोता था। इससे उसे कोई भय ही नहीं था। एक दिन दोनों जंगल में खो गए। शिकार करने गए थे, रास्ता भटक गए; साथी बिछुड़ गए। सिर्फ यह दास ही उसके साथ था। भूखे-प्यासे एक बगीचे में पहुंचे। एक वृक्ष में सिर्फ एक ही फल लगा है। पता नहीं किस जाति का फल है, कैसा फल है, कभी देखा भी नहीं! महमूद ने उसे तोड़ा। जैसी उसकी सदा की आदत थी, उसने चाकू निकाला, फल को काटा। वह पहली कली हमेशा अपने दास को देता था, उसने दास को दी। उसने कली ली। बड़ा प्रसन्न हुआ दास। उसने कहा: एक और। ऐसा सुस्वादु फल कभी चखा नहीं। तो महमूद ने एक कली और दे दी। अब आधा ही फल बचा। और दास बोला कि एक और। तो महमूद ने एक और दे दी--अब एक ही पंखुड़ी बची; चौथाई हिस्सा बचा। और दास कहने लगा, यह भी मुझे दे दो। महमूद ने कहा: यह जरा ज्यादती है। मैं भी भूखा हूं और एक ही फल है इस वृक्ष पर; तीन हिस्से तूने ले लिए, एक मुझे भी लेने दे। लेकिन यह दास बोला कि नहीं मालिक, दे दो मुझे। हाथ से छीनने लगा। महमूद ने कहा कि ठहर, यह जरा सीमा के बाहर बात हो गई। लेकिन दास कहता रहा कि मुझे दे दो, दे दो। कहते-कहते भी महमूद ने वह कली चख ली। वह कड़वा जहर थी। थूक दी, कली फेंक दी। कहा कि पागल, तूने कहा क्यों नहीं कि यह जहर है? और इसको भी तू मांग रहा था। और तीन टुकड़े तू इस तरह खा गया जैसे अमृत है!
उस दास ने कहा कि जिन हाथों से बहुत सी सुस्वादु चीजें मिली हों उनसे कभी एकाध अगर कड़वी भी चीज मिल जाए तो इसमें शिकायत की बात नहीं है। जिन हाथों ने इतना सुख दिया है, उन हाथों से अगर थोड़ा दुख भी मिल जाए तो वह भी सौभाग्य है। वह उन्हीं हाथों से आ रहा है। आपके हाथों ने छुआ, इतना ही काफी था।
महमूद ने अपने संस्मरणों में यह बात लिखी है। भक्त की यही दृष्टि है जगत के प्रति। इतना आनंद परमात्मा देता है कि अगर कभी एकाध कांटा कहीं रास्ते पर चुभ जाता है तो काई शिकायत की बात है? छिपा कर जल्दी से निकाल लेना कि उसको पता न चल जाए, कि कहीं अनजाने शिकायत न हो जाए, कि कहीं आह न निकल जाए! जिससे इतना मिलता हो उसके लिए हम जरा भी धन्यवाद नहीं देते; लेकिन जरा सी अड़चन आ जाए--जरा सी अड़चन, जरा सिरदर्द हो जाए, कि आदमी नास्तिक हो जाता है। काफी है सिरदर्द नास्तिक होने के लिए। सब आस्तिकता इत्यादि एक क्षण में खत्म हो जाती है, लड़के को नौकरी न मिले और नास्तिकता सिर उठाने लगती है। बेटा मर जाए और तुम मूर्ति इत्यादि फेंक देते हो घर से निकाल कर कि हो गया अब बहुत।
तुम्हारा भगवान दो कौड़ी का है। तुम्हारी भगवान से कोई पहचान नहीं है। तुमने कोई संबंध जोड़ा नहीं है।
सब्द गहा सुख ऊपजा, गया अंदेसा मोहि।
कहते हैं दरिया: सब भय मिट गया, अंदेशा मिट गया। कैसा तुमने गजब किया! कैसा तुमने चमत्कार किया! और मैंने कुछ किया नहीं--सिर्फ शब्द गहा! मेरी तरफ से कुछ करा-किया धरा नहीं। मेरी तरफ से तो सिर्फ ग्रहण हुआ। सिर्फ मैंने, तुमने जो दिया, वह ले लिया। मैं तो भूमि बन गया, तुम्हारा शब्द बीज बन गया। मैं तो स्त्री बन गया, तुम्हारा शब्द मेरे भीतर आकर गर्भ बन गया, अंकुरित होने लगा।
सत्गुरु ने किरपा करी, खिड़की दीन्हीं खोहि।
और तुम्हारी कृपा, कि खोल दिया द्वार जिसकी मैं तलाश कर रहा था--प्रेम का द्वार। क्योंकि प्रेम के द्वार से ही जाना जाता है परमात्मा। ध्यान के द्वार से जानी जाती है आत्मा। प्रेम के द्वार से जाना जाता है परमात्मा। आत्मा भी परमात्मा है, परमात्मा भी आत्मा है। लेकिन इसलिए ध्यानी आत्मा की बात करते हैं, परमात्मा की नहीं। महावीर परमात्मा की बात नहीं करते--आत्मा की।
ध्यान से खिड़की खुलती है अपने भीतर को; अंतर्मुखता पैदा होती है। और प्रेम से खिड़की खुलती है समस्त की; सब तरह वही दिखाई पड़ने लगता है। और प्रेमी को पहले दिखाई पड़ता है सब तरफ वही--और तब पता चलता है कि मैं भी वही। ज्ञानी को पहले दिखाई पड़ता है मैं वही और तब दिखाई पड़ता है सब वही। इतना फर्क होता है। अंतिम परिणाम एक है।
लेकिन प्रेम का मार्ग बड़ा रसपूर्ण है। रसो वै सः। बड़ा रस-भरा है!
सत्गुरु ने किरपा करी, खिड़की दीन्हीं खोहि।
और तुमने द्वार खोल दिए, तुम्हारी कृपा हो गई।
पान बेल से बीछुड़ै, परदेसां रस देत।
जन दरिया हरिया रहै, उस हरि बेल के हेत।।
और अब तो मैं तुमसे ही जुड़ा रहूंगा; जैसे पान का पत्ता बेल से जुड़ा रहे तो हरा रहता है।
जन दरिया हरिया रहै, उस हरि बेल के हेत।
अब तो मैं तुमसे जुड़ गया, तुमसे एक हो गया; अब मुझे कोई अलग न कर सकेगा।
गुरु से शिष्य को फिर अलग नहीं किया जा सकता। एक दफा घटना भर घट जाए, फिर यह गांठ खुलती नहीं। और सब तरह के प्रेम बनते हैं, मिट जाते हैं; यह प्रेम सिर्फ बनता है, मिटता नहीं। न बने और बात; बन जाए फिर मिटता नहीं।
पान बेल से बीछुड़ै, परदेसां रस देत।
पान का पत्ता होता है, बेल से टूट जाता है तो दूसरों को सुख देता फिरता है; किसी के मुंह में पड़ेगा, रस देगा; किसी के मुंह को लाली करेगा।
दरिया कहते हैं, अब मेरी कोई इच्छा नहीं कि कहीं जाऊं, परदेसों में भटकूं, किसी को रस दूं, किसी को प्रभावित करूं, किसी का मुंह रंगूं--इस सबकी मुझे कुछ इच्छा नहीं है। अब तो एक ही इच्छा है: जन दरिया हरिया रहै, उस हरि बेल के हेत। कि तुमसे जो लग गया लगाव वह लगा रहे और यह पत्ता हरा बना रहे।
मगर ऐसा होता ही है। एक बार जुड़ गया जो सदगुरु से, वह जुड़ गया। क्योंकि सदगुरु से जुड़ने का आत्यंतिक अर्थ इतना ही होता है कि वह परमात्मा से जुड़ गया है। सदगुरु तो कोई है ही नहीं। सदगुरु तो शून्य मात्र है। सदगुरु तो शून्य मात्र है। सदगुरु तो एक खिड़की है आकाश की। खिड़की खुल गई, तुम्हारा संबंध आकाश से हो गया। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए! अब इस खिड़की से छूटने का उपाय भी क्या है! जब तुम आकाश से ही छूटना चाहो तभी इस खिड़की से छूट सकोगे। और आकाश से कौन छूटना चाहता है! कौन होना चाहता है क्षुद्र! कौन नहीं विराट होना चाहता! कौन सीमा में बंधना चाहता है! जिसको असीम के दर्शन हुए वह क्यों सीमा में लौटना चाहे!
हमारी सारी खोज एक ही है कि कैसे असीम हो जाएं, कैसे अनंत हो जाएं, कैसे विराट और विभु हो जाएं।
सदगुरु शब्द पर थोड़ी सी बातें। सदगुरु का अर्थ होता है जिसने जाना; जिसने अनुभव किया; जिसकी ज्योति जली। अब अगर तुम्हारी ज्योति बुझी है। तो किसी जले हुए दीये के पास जाओ। और कोई उपाय नहीं है। निकट आओ किसी दीये जले हुए दीये के। आते जाओ निकट। निकटता की ही एक सीमा है, जब अचानक तुम पाओगे जले दीये की लपट बुझे दीये पर छलांग लगा गई। एक क्षण में क्रांति घट जाती है। जले दीये का कुछ नुकसान नहीं होता। जला दीया अब भी वैसा ही जलता है। बुझे दीये को मिल जाता है, जले दीये का कुछ खोता नहीं है। एक दीये से हजार दिए जला लो, तो भी जलता दीया जल ही रहा है, वैसा ही जल रहा है जैसा जलता था। उसने जरा भी नहीं खोया।
गुरु का कुछ खोता नहीं, शिष्य को बहुत कुछ मिल जाता है, अनंत मिल जाता है। ऐसा अपूर्व यह व्यवसाय है। यहां खोया कुछ जाता ही नहीं। तो गुरु यह भी नहीं सोचता एक क्षण को भी कि उसने तुम पर कोई कृपा की। सच तो यह है, गुरु तुम्हारा धन्यवादी होता है कि तुम करीब आए, तुमने इतनी हिम्मत की क्योंकि गुरु की ज्योति जितने-जितने दीयों में फैलने लगती है, उतना ही गुरु का आनंद गहन होने लगता है। जैसे माली को देख कर आनंद होता है जब उसके वृक्षों पर फूल खिल जाते हैं, ऐसे गुरु को परम आनंद होता है, जब उसके शिष्य खिल जाते हैं। गुरु अनुगृहीत होता है कि तुम इतने करीब आए, कि तुमने थोड़ा सा उसका बोझ बंटा लिया।
आनंद भी बंटना चाहता है। आनंद भी घनीभूत हो जाता है। जैसे बादल जब भर जाते हैं जल से तो बरसना चाहते हैं। तो तुम यह मत सोचना कि जब प्यासी धरती पर बादल बरसते हैं तो सिर्फ धरती ही धन्यवाद करती है। बादल भी धन्यवाद करते हैं। चूंकि बादल खाली हो गए, बोझ से मुक्त हो गए, धरती ने उन्हें मुक्त कर दिया बोझ से।
जब फूल सुगंध से भर जाता है तो खिलता है--खिलता ही है, खिलना ही पड़ता है। और हजार-हजार मार्गों से बिखरता है। अपनी सुगंध को बिखेरता है। रंग में और गंध में यात्रा करता है दूर-दूर हवाओं की, कि पहुंच जाए उन नासापुटों तक जो प्रफुल्लित होंगे और आनंदित होंगे।
यह अकारण ही तो नहीं है कि बुद्धपुरुष भटकते हैं गांव-गांव, द्वार-द्वार, आदमी-आदमी को खोजते हैं, दस्तक देते फिरते हैं। शिष्य जैसे गुरु को खोजते हैं वैसे ही गुरु शिष्य को भी खोजता है। और जब कभी किसी सदगुरु का सदशिष्य से मिलना हो जाता है तो सारा जगत आनंद से भरता है। क्योंकि वही घटना इस जगत में सबसे परम घटना है।
जन दरिया हरिभक्ति की, गुरां बताई बाट।
भूला ऊजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।।
दरिया के इन वचनों में डूबना। दरिया को तीर्थ बनाना। दरिया से कुछ सीखो। दरिया से मिटने की कला सीखो।
और मिटना आ गया तो सब आ गया।
आज इतना ही।
भूला ऊजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।।
नहिं था राम रहीम का, मैं मतिहीन अजान।
दरिया सुध-बुध ग्यान दे, सत्गुरु किया सुजान।।
सत्गुरु सब्दां मिट गया, दरिया संसय सोग।
औषध दे हरिनाम का तन मन किया निरोग।।
रंजी सास्तर ग्यान की, अंग रही लिपटाय।
सत्गुरु एकहि सब्द से, दीन्हीं तुरत उड़ाय।।
जैसे सत्गुरु तुम करी, मुझसे कछू न होए।
विष-भांडे विष काढ़कर, दिया अमीरस मोए।।
सब्द गहा सुख ऊपजा, गया अंदेसा मोहि।
सत्गुरु ने किरपा करी, खिड़की दीन्हीं खोहि।।
पान बेल से बीछुड़ै, परदेसां रस देत।
जन दरिया हरिया रहै, उस हरी बेल के हेत।।
अथातो प्रेम जिज्ञासा! अब प्रेम की जिज्ञासा। अब पुनः प्रेम की बात। दो ही बातें हैं परमात्मा की--ध्यान की या प्रेम की। दो ही मार्ग हैं--या तो शून्य हो जाओ या प्रेम में पूर्ण हो जाओ। या तो मिट जाओ समस्तरूपेण, कोई अस्मिता न रह जाए, कोई विचार न रह जाए, कोई मन न बचे; या रंग लो अपने को सब भांति प्रेम में, रत्ती भी बिना रंगी न रह जाए।
तो या तो शून्य से कोई पहुंचता है सत्य तक, या प्रेम से। संत दरिया प्रेम की बात करेंगे। उन्होंने प्रेम से जाना। इसके पहले कि हम उनके वचनों में उतरें...अनूठे वचन हैं ये। और वचन हैं बिलकुल गैर-पढ़े लिखे आदमी के। दरिया को शब्द तो आता ही नहीं था; अति गरीब घर में पैदा हुए--धुनिया थे, मुसलमान थे। लेकिन बचपन से ही एक ही धुन थी कि कैसे प्रभु का रस बरसे, कैसे प्रार्थना पके।
बहुत द्वार खटखटाए, न मालूम कितने मौलवियों, न मालूम कितने पंडितों के द्वार पर गए लेकिन सबको छूंछे पाया। वहां बात तो बहुत थी, लेकिन दरिया जो खोज रहे थे, उसका कोई भी पता न था। वहां सिद्धांत बहुत थे, शास्त्र बहुत थे, लेकिन दरिया को शास्त्र और सिद्धांत से कुछ लेना न था। वे तो उन आंखों की तलाश में थे जो परमात्मा की बन गई हों। वे तो उस हृदय की खोज में थे, जिसमें परमात्मा का सागर लहराने लगा हो। वे तो उस आदमी की छाया में बैठना चाहते थे जिसके रोएं-रोएं में प्रेम का झरना बह रहा हो। सो, बहुत द्वार खटखटाए लेकिन खाली हाथ लौटे। पर एक जगह गुरु से मिलन हो ही गया।
जो खोजता है वह पा लेता है। देर-अबेर गुरु मिल ही जाता है। जो बैठे रहते हैं उन्हीं को नहीं मिलता है; जो खोज पर निकलते हैं उन्हें मिल ही जाता है। और खयाल रखो, ठीक द्वार पर आने के पहले बहुत से गलत द्वारों पर खटखटाना ही पड़ता है। ठीक की खोज के पहले गलत के बाजार में भटकना ही पड़ता है। यह भी अनिवार्य चरण है खोज का। जब तुम खोज लोगे तब तुम पाओगे कि जो गलत थे उन्होंने भी सहारा दिया। गलत को गलत की तरह पहचान लेना भी तो ठीक को ठीक की तरह पहचानने का कदम बन जाता है।
तो गए बहुत द्वार-दरवाजों पर। जहां जहां खबर मिली वहां गए। लेकिन बातें तो बहुत पाईं, सिद्धांत बहुत पाए, शास्त्र बहुत पाए; सत्य की कोई झलक न मिली। पर मिली, एक जगह मिली। और जिसके पास मिली, उस आदमी का क्या नाम था यह भी ठीक ठीक पक्का पता नहीं है। उस आदमी के तन-प्राण ऐसे प्रेम में पगे थे कि लोग उन्हें संत प्रेम जी महाराज ही कहने लगे थे। इसलिए उनके ठीक नाम का कोई पता नहीं है। पहुंचते ही बात हो गई।
क्षण भर भी देर नहीं होती। आंख खोजने वाली हो, आंख खोजी की हो तो जहां भी रोशनी होगी वहां जोड़ बैठ जाएगा, बिठाना नहीं पड़ता; बिठाए बिठाना पड़े तो फिर बैठा ही नहीं। बिठाए बिठाए कभी बैठता ही नहीं।
गुरु का मिलन तो प्रेम जैसा है। जैसे किसी को देखते ही अचानक प्रेम उमड़ आता है। अवश! तुम्हारा कुछ उपाय नहीं है; असहाय हो। कहते हो, बस हो गया प्रेम। ऐसी ही गुरु की भी दृष्टि है। यह आखिरी प्रेम है। और सब प्रेम तो संसार में ले आते हैं; यह प्रेम संसार के बाहर ले जाता है। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। और सब प्रेम तो अंततः शरीर पर ही उतार लाते हैं; यह प्रेम शरीर के पार ले जाता है। और सारे प्रेम तो स्थूल हैं; यह प्रेम सूक्ष्म का प्रेम है। इस एक संत को देख कर बात हो गई। एक क्षण में हो गई, बिजली कौंध गई।
यह प्रेम जी महाराज दादू दयाल के शिष्य थे--संत दादू के शिष्य थे। और संत दादू ने अपने मरते समय खाट पर आंखें खोली थीं। सौ साल पहले...दरिया से सौ साल पहले संत दादू हुए। मरते वक्त शिष्य इकट्ठे थे, दादू ने आंखें खोलीं और जो कहा वह बड़ी अजीब सी बात थी, भविष्यवाणी थी। मरते दादू ने कहा था:
देह पड़न्ता दादू कहे, सौ बरसां एक संत।
रैन नगर में परगटे, तारे जीव अनंत।।
दरिया का जन्म सौ साल बाद हुआ, रैन नगर में हुआ।
संत प्रेम जी महाराज दादू के शिष्य थे। इस बात की पूरी-पूरी संभावना है कि दादू ने जो घोषणा की थी वह दरिया के संबंध में ही थी। क्योंकि दादू के ही एक प्रेमी से फिर द्वार मिला। दादू-पंथी तो मानते हैं कि दरिया दादू के ही अवतार हैं। एक अर्थ में ठीक भी हैं क्योंकि जो दादू ने कहा, जिस प्रेम की महिमा दादू ने गाई है, उसी महिमा को दरिया ने भी गाया है। एक अर्थ में प्रेम के सभी अवतार एक के ही अवतार हैं। व्यक्तियों के थोड़े ही अवतरण होते हैं, सत्यों के अवतरण होते हैं।
देह पड़न्ता दादू कहे,...गिरती थी देह, जाती थी देह, आखिरी घड़ी आ गई थी, यमदूत द्वार पर खड़े थे, और दादू ने कहा: देह पड़न्ता दादू कहे,...।
गिरती है मेरी देह, मगर गिरते समय एक घोषणा किए जाता हूं--सौ बरसां एक संत। सौ बरस बाद आएगा एक संत। रैन नगर में परगटे, तारे जीव अनंत। बहुत लोगों का उससे उद्धार होगा। रोते हुए शिष्यों को कहा था कि घबड़ाओ मत मेरे जाने से कुछ जाना नहीं हो जाता, कोई और भी आने वाला है, प्रतीक्षा करना।
फिर दरिया का आगमन--एक धुनिया के घर में, एक मुसलमान धुनिया। लेकिन बचपन से एक ही रस, एक ही लगाव। न स्कूल गए, न भेजे गए स्कूल, न कुछ पढ़ा, न लिखा। हस्ताक्षर भी कर नहीं सकते थे। जैसा कबीर ने कहा है, मसी कागद छुओ नहीं--कभी कागज छुआ नहीं, स्याही छुई नहीं, ठीक वैसे ही, ठीक कबीर जैसे ही।
कहा है दरिया ने: जो धुनिया तो भी मैं राम तुम्हारा। माना कि धुनिया हूं, कुछ पढ़ा-लिखा नहीं, कुछ सूझ-बूझ नहीं है, अज्ञानी हूं--इससे क्या फर्क पड़ता है! जो धुनिया तो भी मैं राम तुम्हारा। लेकिन हूं तो तुम्हारा!
भक्त कहता है, मैं क्या हूं यह तो बात ही व्यर्थ है; तुम्हारी कृपा-दृष्टि मेरी तरफ है, बस सब हो गया। अहंकारी और भक्त का यही भेद है। अहंकारी कहता है मैं कुछ हूं, देखो पढ़ा-लिखा हूं, धनी हूं, पद प्रतिष्ठा है, चरित्रवान हूं, त्यागी हूं, ऐसा हूं, वैसा हूं। अहंकारी दावा करता है। भक्त कहता है, जो धुनिया...मैं तो धुनिया , मैं तो कुछ भी नहीं, मेरी तरफ तो कोई गुणवत्ता नहीं है, तो भी मैं राम तुम्हारा। लेकिन मेरी इतनी गुणवत्ता है, कि मैं तुम्हारा हूं। और यह बड़ी से बड़ी गुणवत्ता है, अब और क्या चाहिए? इससे ज्यादा मांगना भी क्या है, इससे ज्यादा होना भी क्या है? इतना ही हो जाए कि तुम राम की तरफ हो जाओ, तो तुम्हारे अंधेरे में रोशनी आ जाएगी। इतनी धारणा ही बनने से सब क्रांति घट जाती है, सारा पलड़ा बदल जाता है।
देखा प्रेम जी महाराज को और घटना घट गई: खोजते थे...
कोई दिल-सा दर्दआशना चाहता हूं
रहे इश्क में रहनुमा चाहता हूं
प्रेम के रास्ते पर कोई पथ-प्रदर्शक खोजते थे।
कोई दिल-सा दर्दआशना चाहता हूं
रहे इश्क में रहनुमा चाहता हूं
गए बहुत पंडितों के पास, लेकिन प्रेम के मार्ग पर पंडित से क्या रोशनी मिले! थोथे शब्दों का जाल! दीवानगी नहीं, मस्ती नहीं, मदिरा नहीं। और भक्त शराब की बातें करने में उत्सुक नहीं होता, भक्त शराब पीने में उत्सुक होता है। पंडित शराब की बातें करते हैं, विश्लेषण करते हैं, चर्चा करते हैं, पीते इत्यादि कभी नहीं। कंठ को कभी शराब ने छुआ ही नहीं, आंख से कभी आंसू नहीं ढलके और न कभी पैरों में घूंघर बंधे, न कभी नाचे मस्त होकर, न कभी गुनगुनाए, कभी अपने को डुबाया नहीं। सारा पांडित्य अहंकार की सजावट है, श्रृंगार है।
जैसे ही देखा प्रेम जी महाराज को, कोई कली खिल गई, बंद कली खिल गई।
ऐसा बहुत बार हुआ है मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन के इतिहास में। अगर कोई व्यक्ति बुद्ध के चरणों में बैठा हो और बुद्ध से कुछ सीखा हो, कुछ पाठ लिया हो, फिर बुद्ध विदा हो जाएं--तो यह व्यक्ति उस पाठ को अपने भीतर दबाए हुए, अपने अचेतन में सम्हाले हुए भटकता रहेगा, खोजता रहेगा; जब तक इसे फिर कोई बुद्ध जैसा व्यक्ति न मिल जाए, तब तक इसकी चिनगारी दबी रहेगी। बुद्ध जैसे व्यक्ति के पास आते ही लौ प्रकट हो जाएगी। पास आते ही! सन्निकट मात्र--और भभक कर जलने लगेगी रोशनी। कोई व्यक्ति अगर कृष्ण के पास रहा हो तो जन्मों-जन्मों तक वह फिर उन्हीं की तलाश करेगा--जाने-अनजाने, होश में बेहोशी में, जागते-सोते, वह कृष्ण को टटोलेगा। और जब तक कोई कृष्ण जैसा व्यक्ति फिर उसके पास न आ जाए तब तक उसका दिया बुझा रहेगा।
मेरे देखे दरिया दादू के शिष्यों में एक रहे होंगे। मैं ऐसा नहीं कहता कि दादू के ही अवतार हैं, क्योंकि दादू का क्या अवतार होगा! जो जाग गए वे गए, उनका फिर अवतार नहीं। फिर लौटना नहीं होता। तो मैं दादू-पंथियों से कहूंगा कि ऐसा मत कहो कि दादू का अवतार। इतना ही कहो कि उसी प्रेम का अवतार जिसके अवतार दादू थे। लेकिन दादू का ही अवतार मत कहो। क्योंकि दादू तो गए सो गए। गीत वही है, धुन वही है, सुर वही है। फूल ठीक वैसा ही है--वही गंध, वही रंग। लेकिन यह मत कहो कि वही फूल है, वैसा ही है। क्योंकि दादू तो गए।
यह दादू को उस दिन, उनकी मृत्युशय्या पर घेर कर जो शिष्य खड़े होंगे, उनमें से ही कोई है। ये उसी को चेताने के लिए वचन कहे होंगे:
देह पड़न्ता दादू कहे, सौ बरसां एक संत।
रैन नगर में परगटे, तारे जीव अनंत।।
यह बीज-मंत्र उस भीड़ में खड़े हुए किसी शिष्य के लिए कहा होगा।
बहुत बार तुमसे बातें कही गई हैं जो तुमने सुनी नहीं हैं। बहुत बार तुमसे बातें कही गई हैं जो तुमने समझी नहीं हैं। और वे बातें कभी पूरी होती रहेंगी। एक बार भी जो किसी सदगुरु के निकट आ गया, अब जन्मों-जन्मों की सारी यात्रा इसी निकटता में ही चलेगी। सदगुरु रहे कि जाए, देह में रहे कि देह से मुक्त हो जाए, लौटे; कि न लौटे; लेकिन जो एक बार किसी सदगुरु से जुड़ गया, यह नाता कुछ ऐसा है कि जन्म-जन्म का है। यह गांठ बंधती है तो फिर खुलती नहीं। यह गांठ खुलने वाली गांठ नहीं है। जुड़े ही न तो बात अलग लेकिन जुड़ जाए तो फिर जन्मों-जन्मों तक साथ चलता है।
घूमते रहे दरिया, बहुत लोगों के पास गए; लेकिन फिर दादू के ही एक भक्त, जहां दादू जैसी ही रोशनी थी, जहां दादू ही जैसे पुनः प्रकट हो रहे थे, वहां ज्योति जग गई। वहां बुझा दिया एकदम दमक उठा, दीप्ति आ गई।
खिली हो कितनी कोई खिले वीरान में जैसे
निकल आएं नई बालें कुंआरे धान में जैसे
--ऐसे कुछ खिल गया भीतर।
निकल आएं नई बालें कुंआरे धान में जैसे
हां याद है किसी की वो पहली निगाह-ए-लुत्फ
फिर खूं को यूं न देखा रगों में रवां कभी
वह आंख प्रेम जी महाराज की, आंख से जुड़ते ही क्रांति कर गई।
हां याद है किसी को वे पहली निगाह-ए-लुत्फ
फिर खूं को यूं न देखा रगों में रवां कभी
जल गया जो जलना था। मिट गया जो मिटना था। होना था जो हो गया। कभी-कभी एक क्षण में, एक पल में हो जाती है बात--ठीक-ठीक व्यक्ति से मिलन हो जाए।
अध्यात्म की खोज में, सदगुरु की खोज सबसे बड़ी है। परमात्मा से भी महत्वपूर्ण खोज है सदगुरु की खोज, क्योंकि परमात्मा से तो सीधे तुम जुड़ ही न पाओगे। कोई खिड़की, कोई द्वार चाहिए होगा। परमात्मा तो सब तरफ मौजूद है। मौजूद ही है, उसे क्या खोजना है? इसे थोड़ा समझना। परमात्मा तो मौजूद ही है, उसे क्या खोजना है? लेकिन मौजूद है, पर तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता, तो तुम्हारे लिए तो गैर-मौजूद है। तुम्हारे लिए तो मौजूद तभी होगा, जब तुम परमात्मा जैसे किसी व्यक्ति से मिल बैठोगे। जब दो दिल एक होंगे, किसी ऐसे व्यक्ति से--जिसके लिए परमात्मा मौजूद हो गया है, उस जोड़ में ही तुम्हारे लिए भी मौजूद होगा, उसके पहले नहीं मौजूद होगा। हां, एक बार दिख गया, एक बार खुल गई खिड़की, उठा पर्दा, फिर कोई अड़चन नहीं है। फिर तो गुरु और परमात्मा में भेद ही नहीं रह जाता। फिर तो परमात्मा और गुरु एक के ही दो नाम हो जाते हैं।
कबीर ने कहा है:
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांव।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए।।
किसके छुऊं पैर? अब दोनों सामने खड़े हैं। बड़ी दुविधा हो गई। पहले किसके पैर छुऊं? गुरु के छुऊं तो परमात्मा का कहीं असम्मान न हो जाए। परमात्मा के छुऊं यह भी बात जंचती नहीं, क्योंकि जिसके द्वारा परमात्मा तक आए, उसका असम्मान न हो जाए। वचन मधुर है: किसके पैर छुऊं? लेकिन कहा नहीं कबीर ने कि किसके पैर छुए, तो अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग अर्थ कर लिए। कुछ ने अर्थ किया कि गुरु ने इशारा कर दिया कि शंका मत कर, संदेह में मत पड़, परमात्मा के पैर छू। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए। निवारण हो गया शंका का।
ऐसा अधिक लोग अर्थ करते हैं। ऐसा मैं नहीं करता। मैं तो यह अर्थ करता हूं कि कबीर ने गुरु के ही चरण छुए। क्यों? इसलिए गुरु के चरण छुए कि गुरु ने परमात्मा बताया। बलिहारी में ही चरण छुए। वह जो बलिहारी शब्द है, वह खबर दे रहा है कि गुरु के ही चरण छुए हालांकि गुरु ने इशारा कर दिया परमात्मा की तरफ, इसलिए तो गुरु के चरण छुए। गुरु का तो सारा काम ही इशारा है। गुरु तो एक इंगित है।
मील के पत्थर देखे न, जिन पर तीर बना होता है--आगे की तरफ यात्रा की खबर! गुरु तो एक तीर का एक चिह्न है। गुरु तो कहता है: और आगे और आगे और आगे! गुरु तो तब तक कहता चला जाता है और आगे, जब तक कि परम से मिलन न हो जाए। बलिहारी गुरु आपकी...!
लेकिन फिर कबीर ने पैर किसके छुए? मेरे हिसाब से तो पैर गुरु के ही छुए। यह जो बलिहारी शब्द का उपयोग किया, इसी में ही बात आ गई।
मिलन प्रेम जी महाराज का--जिंदगी बदल गई दरिया की। खोज समाप्त हो गई, जैसे प्यासे को पानी मिल गया! एक छोटी सी नजर ने क्रांति उपस्थित कर दी।
गीत अपने अब नहीं कुंआरे रहे
मीत के स्वर से भंवर कर आ गए
फिर दरिया कुंआरे नहीं रहे, गांठ जुड़ गई, गुरु से मिलन हो गया। वह परम विवाह हो गया, जिसके बाद फिर एक ही मंजिल और रह जाती है--परमात्मा मिलन की।
गुरु द्वार है, परमात्मा मंदिर है।
इन वचनों को, दरिया के, बुद्धि से समझोगे तो चूकोगे। हृदय से समझना। तरंगित होना इनके साथ। एक गैर-पढ़े लिखे आदमी के, लेकिन बड़े प्यारे वचन हैं। उपनिषद और वेद भी स्पर्धा करें, ऐसे वचन हैं। क्योंकि पढ़े-लिखे होने से क्या संबंध है? हृदय में जब घटना घटती है तो टूटे-फूटे शब्द भी स्वर्णमंडित हो जाते हैं। जिसके पास कहने को कुछ है, वह किन्हीं भी शब्दों में कहे, वे शब्द स्वर्णमंडित हो जाते हैं। और जिसके पास कहने को कुछ भी नहीं है, वह कितने ही सुंदर शब्दों का आयोजन करे, वे सब मुर्दे के ऊपर लगाए गए आभूषण हैं। उनसे थोड़ी ही देर में दुर्गंध आएगी। तुम मुर्दों को कितने ही सुंदर वस्त्र पहना दो, इससे मुर्दे जीवित नहीं होते। और जीवंत तो अगर नग्न भी खड़ा हो तो भी सुंदर होता है।
सुनो इन वचनों को--
जन दरिया हरिभक्ति की, गुरां बताई बाट।
भूला ऊजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।।
जन दरिया हरि भक्ति की गुरां बताई बाट। गुरु ने हरि-प्रेम का रास्ता बता दिया। रास्ता बता दिया--इसका ऐसा अर्थ मत लेना कि गुरु ने बड़ा समझाया। समझाया तो जरा भी नहीं। यह बात समझने-समझाने की नहीं। यह तो गुरु के होने में ही इशारा है। यह तो गुरु के पास बैठने में ही घट जाता है। यह तो छूत की बीमारी है। यह तो सत्संग है। गुरु के पास बैठे कि घटने लगता है। गुरु के पास बैठ कर रोमांच जगने लगता है, रोआं-रोआं तरंगित होने लगता है, कंपित होने लगता है। किसी अदृश्य लोक की हवाएं तुम्हें चारों तरफ से घेर लेती हैं। कोई वसंत आ जाता है। जो हृदय सूना-सूना पड़ा था, जहां कोई स्वर नहीं उठता था, वहां हजार स्वर उठने लगते हैं। मगर यह बात है छूत की। यह लगने वाली बात है। यह लगने वाली बीमारी है।
इसलिए प्रेम के मार्ग के पर सत्संग का अर्थ है गुरु के पास होना, गुरु के पास बैठना। कभी कुछ कहे तो सुनना, कभी कुछ न कहे तो सुनना; मगर गुरु को पीना। पीते-पीते ही इशारा साफ होता है।
जन दरिया हरिभक्ति की, गुरां बताई बाट।
गुरु ने इशारा कर दिया, राह पर लगा दिया, नाव में बिठा दिया--हरि-भक्ति की!
दरिया मुसलमान हैं; लेकिन गीत न हिंदू का है न मुसलमान का; गीत न राम का है न रहीम का; या कि दोनों का है। दरिया जैसे संतों ने ही धर्म को प्रतिष्ठा दी है। जरा भी भेदभाव नहीं है, अब यह प्रेम जी महाराज को देख कर ऐसा नहीं सोचा कि हिंदू है यह आदमी, मैं मुसलमान हूं। यह बात ही न उठी। प्रेम कहीं हिंदू होता, कहीं मुसलमान होता! हरि की भक्ति का क्या लेना कुरान से और क्या लेना गीता से? हरि भक्ति कोई सिद्धांत तो नहीं है, कोई दर्शनशास्त्र तो नहीं है। यह तो डुबकी है एक ऐसे लोक में जहां हम तर्क और विचार और बुद्धि के सब विश्लेषण को छोड़ कर पहुंचते हैं। यह तो अपने ही अंतरतम में निवास है।
जन दरिया हरिभक्ति की,...
भक्ति प्रेम का परम रूप है। प्रेम के तीन रूप हैं--काम, प्रेम, भक्ति। काम निकृष्टतम रूप है--अधोमुखी; नीचे की तरफ जाता हुआ; शरीर से बंधा हुआ प्रेम। दूसरा रूप है--न ऊपर जाता हुआ, न नीचे जाता हुआ; समतल पर गतिमान; न अधोमुख, न ऊर्ध्वमुख; मध्य में। काम शरीर से बंधा है; प्रेम मन से। भक्ति तीसरा रूप है, आत्यंतिक रूप है--ऊर्ध्वमुखी, ऊपर की तरफ जाता हुआ; न शरीर से बंधा है, न मन से, आत्मा में अवगाहन।
मनुष्य के तीन तल हैं--शरीर, मन, आत्मा। वैसे ही मनुष्य के प्रेम के तीन तल हैं--काम, प्रेम, भक्ति। जब तक तुम्हारा काम प्रेम न बने तब तक तुम सुख न पाओगे। और जब तक तुम्हारा प्रेम भक्ति न बने तब तक तुम आनंद न पाओगे। तुम्हारा काम अगर काम ही बना रहे, तो तुम दुख ही दुख पाओगे। तुम्हारा काम अगर प्रेम बन जाए तो तुम कभी दुख और कभी सुख भी पाओगे। तुम्हारा काम अगर भक्ति बन जाए तो तुम सदा सुख पाओगे। तुम सुखरूप हो जाओगे। काम से बंधन है; भक्ति में मुक्ति है। प्रेम मध्य में है। इसलिए प्रेम में थोड़ा बंधन भी है और थोड़ी स्वतंत्रता भी। प्रेम समझौता है। इसलिए प्रेम में थोड़ी सी काम की भी छाया पड़ती है और थोड़ी भक्ति की भी। इसलिए तुम जिसे प्रेम करते हो उसमें तुम्हें थोड़ी-थोड़ी कभी-कभी प्रभु की झलक भी दिखाई पड़ती है। तुमने जिसे प्रेम किया है उसमें कभी न कभी प्रभु का आभास भी होता है। कभी-कभी तुम उसके साथ पशु जैसा व्यवहार भी करते हो और कभी-कभी प्रभु जैसा भी। प्रेम मध्य में है।
इसलिए प्रेम में एक तनाव भी है। कामी में ज्यादा तनाव नहीं होता। कामी अपने पशु-स्वभाव से बंधा है। उसके भीतर दुविधा नहीं है। इसलिए तो पशुओं में दुविधा नहीं है। और भक्त भी मुक्त है। उसमें भी दुविधा नहीं है। वह भी पूरा का पूरा परमात्मा से जुड़ा है। और कामी पूरा का पूरा देह में डूबा है। दुविधा होती है प्रेमी में। वह मध्य में खड़ा है। एक हाथ भक्ति की तरफ जा रहा है, एक हाथ काम की तरफ जा रहा है। डांवाडोल है। जैसे कोई रस्सी पर चलता है, ऐसा कंपता है पूरे वक्त।
प्रेम में एक चिंता है, क्योंकि प्रेम उड़ना तो चाहता है आकाश में और पैर उसके जमीन में गड़े हैं। काम तो जड़ों जैसा है और भक्ति पक्षियों जैसी है। और प्रेम बड़ी दुविधा में है, बड़ी अड़चन में है।
इस बात को खयाल में रखना। भक्ति के मार्ग पर प्रेम का विरोध नहीं है; प्रेम का रूपांतरण है। काम को प्रेम बनाना है, प्रेम को भक्ति बनानी है। विरोध कहीं भी नहीं है। इसलिए तुम जिससे प्रेम करते हो, अगर उसी में तुम परमात्मा को देखना शुरू कर दो तो तुम पाओगे, धीरे-धीरे हरि भक्ति का रस आने लगा। इसलिए तुम जिसके प्रति कामातुर हो उससे प्रेम करो कम से कम, थोड़े-थोड़े बढ़ो। जिसके प्रति कामातुर हो उसे प्रेम करो। जिसके प्रति प्रेम से भरे हो उसके प्रति थोड़ी भक्ति भी लाओ।
लड़ने की कोई जरूरत नहीं है, धीरे-धीरे आहिस्ता-आहिस्ता क्रांति हो जाती है। आहट भी नहीं होती और क्रांति हो जाती है।
जन दरिया हरिभक्ति की, गुरां बताई बाट।
भूला ऊजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।।
मैं तो भूला था। और मैं तो उस तरफ भागा जा रहा था--काम की तरफ, जो कि वस्तुतः ऊजड़ है; जो है तो रेगिस्तान लेकिन दूर-दूर मृग-मरीचिकाएं दिखाई पड़ती हैं। लगता है कि खूब जल के सरोवर हैं, हरे वृक्ष हैं और छायाएं हैं। और मन भागा जाता है। भागा जा रहा था काम की तरफ।
भूला ऊजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।
कामवासना ही नरक का घाट है। नरक जाना हो तो वही तीर्थ है; वहीं से उतरा जाता है। लेकिन गुरु ने राह बता दी। और बता दी--शब्दों से नहीं, अपने अस्तित्व से। गुरु ने अपने प्रेम के अस्तित्व से खबर दे दी कि जो काम है उसमें बड़ी महिमा छिपी है, उसे मुक्त कर लो।
ऐसा समझो, जलधार बहाओ तो नीचे की तरफ बहती है, अपने आप नीचे की तरफ जाती है। वह जल का स्वभाव है। फिर जल को जमा दो, बरफ बन जाए, तो फिर न नीचे जाता है न ऊपर; जाता ही नहीं, रुक जाता है। वह बरफ का स्वभाव है। फिर जल को वाष्पीभूत कर दो, गरम करो, उड़ा दो, तो जल ऊपर की तरफ जाने लगता है, जब भाप बन जाता है। जल ही है। जब नीचे की तरफ जाता था तब भी जल था; जब बरफ की तरह रुक गया था तब भी जल था, कहीं नहीं जाता था; और अब जब भाप की तरह आकाश की तरफ उठ रहा है, सूर्योन्मुख हो गया है, तब भी जल ही है। जैसे जल की तीन अवस्थाएं हैं ऐसी ही प्रेम की तीन अवस्थाएं हैं। काम में नीचे की तरफ जाता है। प्रेम में नीचे नहीं जाता, ऊपर नहीं जाता, ठहर जाता है। भक्ति में ऊपर की तरफ उठने लगता है। नीचे की तरफ नरक है, ऊपर की तरफ स्वर्ग है। और प्रेमी दोनों के बीच अटका रहता है--स्वर्ग और नरक। एक पैर स्वर्ग में, एक पैर नरक में। प्रेमी दो नावों पर सवार रहता है।
इसलिए दुनिया में प्रेमी या तो एक न एक दिन तय कर लेता है कि कामी हो जाए या तय करना पड़ता है कि भक्त हो जाए। ज्यादा दिन तक प्रेमी प्रेमी नहीं रह सकता। वह दुविधा की घड़ी है। इसलिए लोग एक ना एक दिन निर्णय ले लेते हैं कि या तो अब कामी हो जाओ और या फिर भक्त हो जाओ।
भौतिकवादी आदमी धीरे-धीरे प्रेम को तो भूल ही जाता है, काम में ही रुक जाता है। अध्यात्म का खोजी धीरे-धीरे प्रेम को तो भूल ही जाता है और भक्ति में डूब जाता है। मगर निर्णय लेना होता है, क्योंकि प्रेम बड़ी दुविधा की दशा है। अगर तुमने निर्णय न लिया तो तुम पीड़ा और बेचैनी में ही रहोगे। इसलिए प्रेमी से ज्यादा तुम और किसी को कष्ट में न पाओगे।
कुछ ना कुछ करना होगा। जीवन में एकरसता लानी होगी। या तो नीचे के तल पर लाओ एकरसता या ऊपर के तल पर। या तो पशु बन कर एकरस हो जाओ...।
देखा, पशु एकरस हैं! पशु पागल नहीं होते, विक्षिप्त नहीं होते, बेचैन नहीं होते, आत्मघात नहीं करते। एकरस हैं। जहां हैं वहां पूरी तरह से हैं। उन्हें पता ही नहीं कि इसके ऊपर होना भी कुछ हो सकता है।
और भक्त भी एकरस है। वह भी भूल गया है कि इससे नीचे भी कुछ हो सकता है। लेकिन जो दोनों के बीच में खड़ा है, उसका कष्ट बहुत है।
भूला ऊजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।
नहीं था राम रहीम का, मैं मतिहीन अजान।
दरिया सुधबुध ग्यान दे, सत्गुरु किया सुजान।।
नहिं था राम रहीम का,...
जब तक तुम राम के नहीं हो, रहीम के भी कैसे होओगे? और जब तक रहीम के नहीं हो तब तक राम के भी कैसे होओगे? तो लोग बातें कर रहे हैं राम और रहीम की; न कोई राम का है न कोई रहीम का है। क्योंकि जो एक का भी हो गया, वह सबका हो गया। जो ठीक से मुसलमान हो गया वह हिंदू भी हो गया और जैन भी हो गया और ईसाई भी हो गया। और जो ठीक से हिंदू हो गया वह ठीक से मुसलमान भी हो गया।
असल में धार्मिक आदमी होने की बात है; हिंदू-मुसलमान होने की बात ही नहीं है।
नहिं था राम रहीम का,...
दरिया कहते हैं, न तो राम का था न तो रहीम था, बातचीत थी। मंदिर जाता था तो भी कुछ अर्थ न था; वहां के राम से मेरी कोई पहचान न थी। और मस्जिद जाता था तो भी व्यर्थ था; वहां के रहीम से मेरी कोई पहचान न थी। अपने भीतर के ही भगवान से पहचान न हो तो मंदिर-मस्जिदों के भगवान से पहचान नहीं हो पाती। पहली पहचान तो आत्म-पहचान है।
जन दरिया हरि भक्ति की, गुरां बताई बाट।
लेकिन गुरु ने राह सुझा दी। गुरु ने आंख खोल दी। गुरु ने बुझी बाती जला दी।
दरिया सुध-बुध ग्यान दे, सत्गुरु किया सुजान।
--मैं तो मतिहीन था।
मन तो सबके पास है, मति बहुत कम लोगों के पास है।
मति का क्या अर्थ होता है? भाषाकोश में तो मति का अर्थ मन ही होता है, लेकिन जीवन के अस्तित्व में सोए हुए मन का नाम मन, जागे हुए मन का नाम मति, सुमति। जो मूर्च्छित है वह मन और जो जाग गया वह मति। यही मन जाग कर सुमति हो जाता है, सन्मति हो जाता है, मति हो जाता है।
नहिं था राम रहीम का, मैं मतिहीन अजान।
बुद्धि तो थी, सोच-विचार था, लेकिन मति नहीं थी। बुद्धि तो थी, लेकिन बुद्धि का भी ठीक उपयोग करने का बोध नहीं था। अधिक लोग बुद्धि का दुरुपयोग कर रहे हैं। अधिक लोग ऐसे हैं जैसे अपने ही हाथ से अपनी ही गरदन काट रहे हों। उनकी बुद्धि ही उनके जीवन की सबसे बड़ी कठिनाई हो गई है। अपनी बुद्धि से वे इतने ही उपाय करते हैं जिनसे उनका जीवन ऊपर नहीं उठ पाता। तो कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि सरल-चित्त लोग, जिनको तुम बुद्धू कहो, वे भी गतिमान हो जाते हैं ऊर्ध्व दिशा में; और जिनको तुम बुद्धिमान कहते हो--अति बुद्धिमान सोच-विचार से भरे हुए लोग, वे जरा भी गतिमान नहीं हो पाते। वे हजार तर्क करते हैं। और उनके सब तर्क उन्हीं को खंडित करते हैं।
तुम कभी खयाल करना: जब तुम ईश्वर के विरोध में कोई तर्क देते हो तो ध्यान रखना, इससे ईश्वर खंडित नहीं होता, सिर्फ तुम्हारा भविष्य खंडित होता है। ईश्वर क्या खंडित होगा? ईश्वर को क्या फर्क पड़ेगा? तुम मानो न मानो, इससे ईश्वर को तो कुछ भेद नहीं पड़ता; लेकिन न मानने से तुम्हारी संभावना का द्वार बंद हो गया। न मानने से जो बीज अंकुरित हो सकता था, तुमने कह दिया कि नहीं, अंकुरण होता ही नहीं। तो बीज पत्थर की तरह पड़ा रह जाएगा।
ईश्वर के विरोध में तुमने अगर कुछ भी कहा हो तो वह तुम्हारे ही विरोध में गया है। तुमने अगर सत्य को झुठलाने के लिए कुछ कोशिश की हो तो सत्य नहीं झुठलाया जाता; तुम्हीं झुठलाए जाते हो। यह सब ऐसा ही है जैसे कोई आकाश की तरफ मुंह उठाए और थूके, वह थूक अपने पर ही गिर जाता है।
मगर बुद्धिमान आदमी इस तरह की बातें करते हैं। मति नहीं है। मति होती तो अपने जीवन की सारी ऊर्जा का एक ही उपयोग करते, कि जान लूं उसे कि मैं कौन हूं। छोड़ो ईश्वर! ईश्वर शब्द से कुछ लेना-देना नहीं है। अगर बुद्धिमान हो तो इतना तो करो कि जान लो कि मैं कौन हूं। कहां से आता हूं, कहां जाता हूं, इस चौराहे पर कैसे आकर खड़ा हो गया हूं, कौन हूं, इतना तो जान लो!
नहिं था राम रहीम का, मैं मतिहीन अजान।
दरिया सुधबुध ग्यान दे, सत्गुरु किया सुजान।।
सुधबुध ग्यान दे,...
खयाल करना, गुरु ने कोई शास्त्र-ज्ञान नहीं दिया, सुध-बुध दी।
दो तरह के ज्ञान हैं। एक शास्त्रीय ज्ञान है, जो विद्यालय-विश्वविद्यालय में मिलता है। एक शास्त्रीय ज्ञान है, शब्द-ज्ञान है, उसका बड़ा जंगल है। उसमें भटके तो जन्मों-जन्मों लग जाएं तो भी बाहर न आ सको। जंगलों में भटका तो निकल आए, किताबों में भटका नहीं निकल पाता। क्योंकि जंगल की तो एक सीमा है, शब्दों की कोई सीमा नहीं है।
सुधबुध ग्यान दे,...
सुध का अर्थ है चेताया। चेताया कि तू कौन है। जगाया, झकझोरा। उस झकझोरने में ही बुध, बोध पैदा होता है। और इस सुध-बुध का नाम ही ज्ञान है। शेष तो सब व्यर्थ बकवास है। शेष तो ऐसा है जैसे लगी है भूख और पाकशास्त्र खोले हुए किताब पढ़ रहे हैं। पढ़ो, खूब, भूख मिटती नहीं। लगी तो है प्यास और फार्मूला लिए बैठे हैं कि जल कैसे निर्मित होता है--एच.टू.ओ.। रखे रहो इस फार्मूले को, इसका ताबीज बना लो, इसको गले में लटका लो, इसका मंत्र-जाप करो: एच.टू.ओ., एच.टू.ओ., एच.टू.ओ.! गुनगुनाओ। मगर प्यास नहीं बुझेगी। प्यास मंत्रों से नहीं बुझती। प्यास के लिए जल चाहिए। और आश्चर्यों का आश्चर्य यह है कि तुम एच.टू.ओ. का पाठ कर रहे हो और सामने नदी बह रही है। मगर तुम अपने पाठ में ऐसे तल्लीन हो कि नदी देखने कि सुविधा किसे!
दरिया सुधबुध ग्यान दे, सत्गुरु किया सुजान।
अजान था, सुजान किया।
सत्गुरु सब्दां मिट गया, दरिया संसय सोग।
औषध दे हरिनाम का, तन मन किया निरोग।।
सत्गुरु सब्दां मिट गया,...
सदगुरु के शब्दों को सुन कर, सब संशय मिट गए, सब संदेह मिट गया।
अब इसको थोड़ा समझना। ऐसा मत समझना कि जो भी दरिया के गुरु के पास गए थे, सभी के संशय मिट गए होंगे। सुनने की एक कला चाहिए। तुम बुद्ध के पास भी जाओ तो भी संशय ले आ सकते हो। सुनने की एक कला चाहिए। सुनने का एक अनूठा ढंग चाहिए। इस भांति सुनना है कि तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा तर्कजाल बीच में बाधा न दे। प्रेम से सुनना है, तर्क से नहीं। तर्क-शून्य होकर सुनना है। वही श्रद्धा का अर्थ है।
दरिया के तो मिट गए सारे शोक, सारे संशय, क्योंकि इस आदमी के प्रेम में पड़ गए। इस आदमी को देखा नहीं, इस आदमी की आंख में आंख पड़ी नहीं, कि सुध-बुध खो बैठे।
अब यह बड़े मजे की बात है! जिसके साथ तुम सुध-बुध खो बैठो उसी के पास सुध-बुध पैदा होती है। यह बड़ा विरोधाभास है।
कुछ तुम्हारी निगाह काफिर थी,
कुछ मुझे भी खराब होना था
देखी होंगी वे आंखें--रस से सरोबोर! देखी होंगी वे आंखें शांत झील की तरह, जिन पर कमल तिरते हों! देखी होंगी वे आंखें और डूब गए होंगे उनमें। उस प्रेम ने पकड़ लिया। पकड़े गए। बहुत बुद्धिमान होते, पढ़े-लिखे होते तो सोचते कि कहीं इस आदमी ने सम्मोहित तो नहीं कर लिया! कि मैं यह किस जाल में पड़ा जा रहा हूं! अपने को सम्हालते। अपने तर्क को निखारते। सुनते भी तो भी डूब कर न सुनते, दूर-दूर खड़े रह कर सुनते। सुनते तो ऐसे सुनते जैसे कि न्यायाधीश सुनता है अदालत में। सुनते तो ऐसे सुनते जैसे परीक्षक होकर आए हैं। सुनते तो ऐसे सुनते कि निर्णय मुझे करना है कि ठीक हो कि गलत
अब, काश तुम्हें ही पता होता कि क्या ठीक है और क्या गलत है तो आए ही क्यों थे?
सुनने वाले को ऐसे सुनना चाहिए कि मुझे तो पता नहीं है कि क्या ठीक और क्या गलत इसलिए मैं कैसे निर्णायक बनूंगा? निर्णय छोड़ कर सुनता हूं। मुझे तो पता नहीं है क्या ठीक है और गलत है, शायद इस आदमी को पता हो। एक मौका इसे दो। इस आदमी के सामने अपने हृदय को खोल दो। इस आदमी को उठाने दो संगीत हृदय में। इस आदमी को छेड़ने दो तार, इस आदमी को बजाने दो वीणा मेरे हृदय की।
लेकिन तर्कनिष्ठ आदमी प्रविष्ट ही नहीं होने देता किसी को हृदय तक। खुद तो जानता नहीं कैसे अपनी वीणा बजाए और जो जानते हैं उनके हाथ को भीतर नहीं जाने देता। कहता है, बाहर रखना हाथ, सम्मोहित मत कर लेना, कहीं मुझे उलझा मत देना, किसी झंझट में न पड़ जाऊं।
अब यह बड़े आश्चर्य की बात है कि तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नहीं, लेकिन तुम डरे बहुत रहते हो कि कहीं कुछ खो न जाए! है क्या तुम्हारे पास खोने को? सम्मोहित करके तुमसे लिया क्या जा सकता है? आत्मा तो तुम्हारी बिलकुल खाली है। डरते क्यों हो? भय क्या है? खोओगे क्या? तुम्हारे पास क्या है? लेकिन बड़ा डर है। बड़े होश से सुनते हो। होश का मतलब? होश नहीं। होश का मतलब इतना ही कि दूर-दूर रहते हो, भागे-भागे रहते हो। एक जगह तक जाते हो, वहां से आगे नहीं बढ़ते। खयाल रखते हो कि इतनी दूर खड़ा रहूं कि अगर भागने की नौबत आ जाए तो भाग सकूं, पकड़ा न जाऊं। बड़ी होशियारी से सुनते हो। बड़ी चालबाजी से सुनते हो। बड़ी चालाकी से सुनते हो। जिसने चालाकी से सुना वह चूक जाएगा। ये बातें चालाकों के लिए नहीं हैं। ये बातें दीवानों के लिए हैं।
सत्गुरु सब्दां मिट गया,...
क्या मिट गया? दरिया मिट गया। सुने वे शब्द, सुने वे प्यार भरे शब्द, सुने वे मिठास भरे शब्द, सुने वे मस्ती के शब्द! ऐसा नहीं है कि उन शब्दों में बड़ा तर्क था, इसलिए वे जंचे। उन शब्दों में बड़ा प्रेम था, इसलिए ये बड़े फर्क की बातें हैं। ऐसा नहीं है कि उन शब्दों में बड़ा सिद्धांत था। सिद्धांतियों के पास तो दरिया बहुत गए थे, पंडित और मौलवियों के द्वार खटखटाए थे। सिद्धांत वहां खूब था, सघन था। तर्क वहां काफी प्रतिष्ठित था। जो भी वे कहते थे, प्रत्येक बात के लिए शास्त्रों से प्रमाण देते थे। यहां न तो शास्त्र था न प्रमाण था, न कोई तर्क था; यहां तो बड़ी बेबूझ बातें हो रही थीं। यहां तो पियक्कड़ बैठे थे। यह तो मधुशाला थी। ये प्रेम जी महाराज की मधुशाला में डूब गए।
सत्गुरु सब्दां मिट गया,..
यहां तो कुछ ऐसी बातें कही जा रही थीं, जो कही ही नहीं जा सकतीं। यहां तो कुछ ऐसी बातें कही जा रही थीं कि अगर तुम शब्दों पर ही अटक जाओ तो समझ ही न सकोगे। शब्दों के बीज जो खाली जगह होती है, उसको सुनना पड़ता है। पंक्तियों के बीच में जो रिक्त स्थान होता है उसमें झांकना पड़ता है। यहां हर शब्द के साथ जुड़ा हुआ निःशब्द था। उस निःशब्द में झांकना होता है। जब कोई शब्द को बहुत श्रद्धा से सुनता है तो उसके हाथ में निःशब्द आ जाता है। जब शब्दों को कोई बहुत सहानुभूति और लगाव से सुनता है तो फिर शब्दों में जो छिपा हुआ शून्य है वह उसमें झलक देने लगता है। तुमने अगर बहुत ज्यादा चालाकी से सुना तो शब्द को तुम मार डालते हो, उसकी मृत्यु हो जाती है; मुर्दा शब्द तुम्हारे हाथ में रह जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा सिद्धांत तुम्हारे हाथ में आ जाएगा, लेकिन शून्य चूक जाएगा। और असली बात वही थी।
ऐेसा समझो कि मैंने तुम्हारे पास एक पत्र भेजा और तुमने लिफाफा रख लिया और भीतर जो पत्र था वह तुमने देखा ही नहीं, या भूल ही गए, या खो ही दिया, या खोला ही नहीं लिफाफा, लिफाफे में ही बहुत मोहित हो गए। शब्द तो लिफाफे हैं; उनके भीतर जो शून्य है छिपा हुआ, वहीं है संदेश। मगर शून्य को सुनना हो तो हृदय जरा भी सुरक्षा करता हो अपनी, तो नहीं सुन पाओगे। असुरक्षित होकर, सब भांति समर्पित होकर, निवेदित होकर...।
सत्गुरु सब्दां मिट गया, दरिया संसय सोग।
दरिया ही मिट गया फिर संशय कहां! संशय तो अहंकार की छाया है। तुम जब तक हो तब तक संशय है। तुम गए, संशय गया। और संशय गया तो सब शोक, सब दुख गए; क्योंकि संशय के कारण हम विभक्त हैं, खंड-खंड टूटे हैं।
बंटी है टूट कर यह जिंदगी इस भांति टुकड़ों में
दरारें जोड़ना इनकी नहीं इतना सरल कोई
बड़े टूटे हैं टुकड़ों में हम।
बंटी है टूट कर यह जिंदगी इस भांति टुकड़ों में
दरारें जोड़ना इनकी नहीं इतना सरल कोई
जब तक कि तुम किसी के प्रेम में बिलकुल न बह जाओ, तुम जुड़ न पाओगे।
जब तक कि तुम किसी के प्रेम में बिलकुल न बह जाओ, तुम जुड़ न पाओगे। जब तक कि तुम किसी के प्रेम में बेबस न हो जाओ, तुम जुड़ न पाओगे। प्रेम जोड़ता है, तर्क तोड़ता है। विचार खंडित करते हैं, निर्विचार अखंड बनाता है।
तुम मुझे सुन रहे हो, दो ढंग से सुन सकते हो। एक तो दरिया का ढंग--तो तुम सौभाग्यशाली। किसी दिन तुम कह सकोगे: सत्गुरु सब्दां मिट गया, दरिया संसय सोग। और एक ऐसे तुम सुन सकते हो जैसे विद्यार्थी सुनता है कि नोट लेने हैं, कि क्या ये कह रहे हैं ठीक है या नहीं, चलो सोच कर रख लेंगे, बाद विचार कर लेंगे। और जब तुम सुन रहे हो तब भी भीतर तुम्हारा अतीत, तुम्हारा जाना हुआ बोल रहा है कि हां ठीक है, यह रामायण से मेल खाता है, यह कुरान से मेल खाता है; यह बात नहीं जंचती, यह हमारे धर्म के खिलाफ है। ऐसा तुम पूरे वक्त कमेंट्री कर रहे भीतर। तुम चल रहे हो। इधर मैं बोल रहा हूं, उधर तुम बोल रहे हो। तब तो बड़ा मुश्किल होगा। कुछ का कुछ सुन लोगे। कुछ छूट जाएगा, कुछ जुड़ जाएगा। कुछ का कुछ हो जाएगा। फिर तुम उतने सौभाग्यशाली नहीं सिद्ध होओगे जैसे दरिया सौभाग्यशाली सिद्ध हुए।
सत्गुरु सब्दां मिट गया,...
जिसने प्रेम से किसी सदगुरु के शब्द सुन लिए वह मिट ही जाता है। उसी मिटने में होना है। उसी मृत्यु में नया जन्म है।
औषध दे हरिनाम का, तन मन किया निरोग।
और सब आरोग्य हो गया, सब निरोग हो गया, सब स्वस्थ हो गया। सब रोग गए, क्योंकि सारे रोग मन के हैं। सारे रोग अस्मिता के हैं।
औषध दे हरिनाम का,...
हरिनाम की औषधि उसे ही दी जा सकती है जो प्रेम से सुनने में तत्पर हो जाए।
सुनो, अपूर्व वचन है--
रंजी सास्तर ग्यान की, अंग रही लिपटाय।
सत्गुरु एक ही शब्द से, दीन्हीं तुरत उड़ाय।।
रंजी का अर्थ होता है: धूल।
रंजी सास्तर ग्यान की, अंग रही लिपटाय।
दरिया कहते हैं, मेरे अंग-अंग में धूल लगी थी शास्त्र-ज्ञान की। सुनी-सुनाई बातें, पढ़ी-पढ़ाई बातें--लिपटी थीं चारों तरफ। उधार बातें, बासी बातें।
रंजी सास्तर ग्यान की,...
शास्त्र-ज्ञान की धूल मुझे खूब लिपटी थी चारों तरफ। बकवास थी सब, मगर खूब लिपटी थी। उसी में मैं गंदा हो रहा था। स्नान की जरूरत थी। और उस धूल को मैं सब कुछ समझे बैठा था।
रंजी सास्तर ग्यान की, अंग रही लिपटाय।
सत्गुरु एक ही शब्द से, दीन्हीं तुरत उड़ाय।।
और सदगुरु के एक शब्द से स्नान हो गया, वह सारी धूल उड़ गई। सदगुरु वही जो तुमसे तुम्हारे शास्त्र छीन ले। जो तुम्हें शास्त्र देता हो वह सदगुरु नहीं--जो तुमसे तुम्हारे शास्त्र छीन ले। जो तुम्हें ज्ञान दे वह सदगुरु नहीं--जो तुम्हें बोध दे और तुम्हारा सारा ज्ञान छीन ले। सदगुरु वह नहीं जो तुम्हें बहुत ज्यादा सिद्धांती बना दे--सदगुरु वही जो तुम्हारे जीवन से सारे सिद्धांतों की धूल अलग कर दे; तुम्हें जीवंत, जाग्रत बना दे। शास्त्र न दे, तुम्हें शास्त्र बना दे--वही सदगुरु।
तुम्हारे भीतर भी वही तो छिपा है जो उपनिषद के ऋषियों में छिपा था। तुम उपनिषदों को कब तक पकड़े बठे रहोगे? कब भीतर के ऋषि को मौका दोगे कि गुनगुन हो, गीत उठे? तुम्हारे भीतर के ऋषि को कब अवसर दोगे? वेद में जिन्होंने गाए अपूर्व वचन, वैसा ही चैतन्य तुम भी लिए चल रहे हो। इसको कब मौका दोगे कि तुम्हारा वेद प्रकट हो?
जीसस और बुद्ध और महावीर तुम्हारे भीतर भी बोलने को आतुर हैं, क्योंकि तुम्हारी भी आत्यंतिक संभावना वही है। तुम भी बुद्ध होने को हो; उससे कम पर तुम्हारी भी यात्रा पूरी नहीं होगी। लेकिन जब तक तुम उधार को बांधे रहोगे, गठरी उधार की सिर पर लिए रहोगे तब तक तुम्हारी अपनी संपदा पैदा न होगी।
तो गुरु तो वही है जो तुम से शास्त्र छीन ले।
मैंने सुना, चीन में एक अदभुत झेन फकीर हुआ, हुईनेंग। निकल रहा है आश्रम में, बगीचे के पास से गुजर रहा है, और उसका एक शिष्य वृक्ष के नीचे बैठा बुद्ध-वचनों को कंठस्थ कर रहा है, रट रहा है। वह खड़े होकर सुनता है और उसे कहता है, सुन! खयाल रखना, कहीं ऐसा न हो कि शास्त्र तुझे गड़बड़ा दे, तू शास्त्र को गड़बड़ा देना!
अपूर्व वचन है कि तू शास्त्र को गड़बड़ा देना; कहीं ऐसा न हो कि शास्त्र तुझे गड़बड़ा दे। फिर तो झेन फकीरों ने इस पर काफी काम किया।
फिर तो दूसरे एक झेन फकीर ने अपने सारे शिष्यों को अपने मरते वक्त इकट्ठा किया और सारे शास्त्र इकट्ठे करके आग लगवा दी और कहा कि देखो यह मेरा आखिरी संदेश है। जब तक ऐसे ही तुम्हारे भीतर के सभी शास्त्र न जल जाएंगे तब तक तुम्हारे भीतर का शास्ता पैदा न होगा।
रंजी सास्तर ग्यान की, अंग रही लिपटाय।
सत्गुरु एकहि सब्द से, दीन्हीं तुरत उड़ाय।।
पर यह कैसे होता होगा? क्योंकि कितने ही तो लोग, कितने लोगों की बातें सुनते हैं, कुछ होता नहीं। एक ही शब्द से हो गया होगा?
प्रेम से सुना जाए तो एक शब्द भी काफी हो जाता है। प्रेम से न सुना जाए तो करोड़ों शब्द भी काफी नहीं होते। फिर समझदार को इशारा काफी होता है।
बुद्ध कहते थे: एक दिन एक आदमी आया और उसने बुद्ध को कहा कि आप तो संक्षिप्त में कह दें, मैं जल्दी में हूं। आप सार बात कह दें, बस उसी को पूरा कर लूंगा। और बुद्ध ने उससे कुछ भी न कहा, वे चुप ही बैठे रहे। वह आदमी आधा घड़ी चुप बैठा रहा, फिर बड़ा पुलकित होकर उठा, बुद्ध के चरण छुए और कहा: धन्यवाद! मिल गई बात। बुद्ध ने कही नहीं और उसको मिल गई। मिल गई बात!
जब वह चला गया तो आनंद ने बुद्ध से पूछा कि इसको क्या मिल गया? क्योंकि मैं इधर तीस साल से आपके साथ हूं--सुन-सुन कर थक गया हूं। और यह आदमी आधा घड़ी बैठा और आपने इससे कुछ कहा भी नहीं, इसको मिला कैसे? इसको मिला क्या? यह मामला क्या है? और आप भी प्रसन्न थे जब उसने कहा मिल गया और वह भी बड़ा अपूर्व आनंदित था! जरूर कुछ हुआ तो है, कुछ गुप चुप हो गया!
बुद्ध ने कहा: आनंद, मुझे याद है जब हम राजकुमार थे, आनंद बुद्ध का ही चचेरा भाई था। तो मुझे घोड़ों का बहुत शौंक था, घुड़सवारी में तू नंबर एक था। तुझे खयाल होगा, भूल नहीं गया होगा। घोड़े कई तरह के होते हैं। एक तो वह घोड़ा होता कि कि मारो मारो, फिर भी चलता नहीं। एक वह भी घोड़ा होता है कि जरा मारा कि चल पड़ता है। फिर एक वह भी घोड़ा होता है, मारने की जरूरत नहीं पड़ती, कोड़ा फटकारा कि चल पड़ता है। और फिर एक वह भी घोड़ा होता है आनंद, हमारे पास ऐसे घोड़े थे तुझे याद होगा कि उसको फटकारना भी नहीं पड़ता कोड़ा क्योंकि वह भी उसका अपमान हो जाएगा--बस कोड़ा हाथ मैं है, इतना काफी है। फटकारना भी नहीं पड़ता। और तुमने उस आखिरी परम घोड़े को भी देखा होगा जिसको, घोड़े को, कोड़े को भी नहीं रखना पड़ता जिसके साथ, क्योंकि वह उसका अपमान हो जाएगा। उसे तो कोड़े की छाया भी काफी है। दूर की छाया भी पर्याप्त है। ऐसा ही यह जो आदमी था--यह घोड़ा था--उसे कोड़े को छाया काफी थी।
आदमी-आदमी अलग अलग ढंग से सुनते हैं। दरिया ने बड़े डूब कर सुना होगा। एक शब्द तोड़ गया सारी कारा, सारा अंधकार। एक किरण जगा गई भीतर की रोशनी को।
जैसे सत्गुरु तुम करी, मुझसे कछू न होए।
विष-भांडे विष काढ़कर, दिया अमीरस मोए।।
और दरिया कहते हैं: गजब किया! खूब किया! चमत्कार किया! कैसे तुमने किया?--जैसे सत्गुरु तुम करी, मुझसे कछू न होए। क्योंकि मैं जानता हूं कि यह मेरे किए नहीं हुआ है। यह मेरे किए तो होता ही नहीं था, मैं तो कर-कर हार गया था। मैं तो थक रहा था। मैं तो विषाद से भर रहा था, मैं तो निराश होने लगा था। मुझे तो हताशा घेरने लगी थी। मेरे किए तो कुछ नहीं हो रहा था।
जैसे सत्गुरु तुम करी, मुझसे कुछू न होए।
अब मुझे पक्का पता है कि यह प्रसाद से हुआ है।
खयाल रखना, ध्यान के मार्ग पर प्रयास, और प्रेम के मार्ग पर प्रसाद, प्रभु-कृपा। प्रभु-कृपा की पहली किरण--गुरु-कृपा।
विष-भांड़े विष काढ़कर,...
चमत्कार तुमने किया कि मैं तो विष से भरा हुआ घड़ा था, तुमने विष भी निकाल दिया और कब मुझे अमृत से भर दिया मुझे पता भी न चला!
सत्गुरु एकहि शब्द से, दिया अमीरस मोए।
एक शब्द मात्र से! इशारे मात्र से! आंख में आंख डाल दी और सब कर दिया!
विष-भांड़े विष काढ़कर,...
कठिन था काम यह, मगर पलक मारते हो गया।
परमात्मा पलक मारते हो जाता है। यह काम कठिन है अगर तुम करना चाहो; अगर तुम होने दो तो यह काम कठिन नहीं है, बहुत सरल, बहुत सहज है। तुम बाधा न डालो बस।
तो फर्क समझना। ध्यान के मार्ग पर श्रम। इसलिए ध्यान का मार्ग अथक परिश्रम का मार्ग है। इसलिए तो बुद्ध और महावीर की संस्कृति ‘श्रमण संस्कृति’ कहलाती है--श्रम। वहां भक्ति का कोई उपाय नहीं है, कोई व्यवस्था नहीं है। वहां ध्यान ही एकमात्र मार्ग है। इसलिए बुद्ध और महावीर दोनों के मार्ग पर स्त्री थोड़ी परेशान रही है, क्योंकि भक्ति का वहां कोई उपाय नहीं है। महावीर के मानने वाले तो कहते हैं कि स्त्री-पर्याय से तो मोक्ष नहीं हो सकता।
स्त्री-पर्याय का क्या अर्थ होता है? स्त्री-पर्याय का अर्थ होता है--प्रेम की पर्याय। बुद्ध ने वर्षों तक स्त्रियों को दीक्षा नहीं दी, इनकार करते रहे। और जब दी भी तो बड़े संकोच से दी और देने के बाद कहा कि आनंद, तुम मानते नहीं तो देता हूं; लेकिन ध्यान रखना, मेरा धर्म जो पांच हजार साल चलता, अब पांच सौ साल से ज्यादा नहीं चलेगा।
यह बात क्या है? ऐसा क्या कारण है! धर्म से इसका कोई संबंध नहीं है--एक विशिष्ट दृष्टि से। ध्यान पुरुषगत है--श्रम, अथक श्रम, प्रयास, संकल्प, साधना। प्रेम स्त्रीगत है--प्रसाद, स्वीकार-भाव, अहोभाव, प्रतीक्षा, प्रार्थना। स्त्री ग्रहण करती है; पुरुष खोजता है। पुरुष यात्रा पर निकलता है; स्त्री बाट जोहती है।
और ऐसा मत समझना कि सभी पुरुष पुरुष हैं और सभी स्त्रियां स्त्रियां हैं। ऐसा मत समझना। कुछ स्त्रियां हैं जो ध्यान से उपलब्ध होंगी। और बहुत पुरुष हैं जो प्रेम से उपलब्ध होंगे। इसलिए स्त्री-पुरुष का विभाजन शरीरगत नहीं है सिर्फ, जैविक नहीं है; बहुत गहरा है। जैसे चैतन्य हैं; अगर चैतन्य को आध्यात्मिक दृष्टि से सोचना हो तो स्त्री कहना पड़ेगा, पुरुष नहीं। क्योंकि पाया भक्ति से। ठीक मीरा जैसे व्यक्ति हैं; जरा भी भेद नहीं। शरीर के भेद से क्या फर्क पड़ता है? थोड़े हार्मोन कम या ज्यादा इधर-इधर, इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। वह भेद तो शरीर का है। चैतन्य की जो चेतना है वह ठीक मीरा जैसी है।
कश्मीर में एक महिला हुई, लल्ला। वह महावीर जैसी है। वह नग्न रही। पुरुष का नग्न रहना इतना कठिन नहीं मालूम पड़ता, स्त्री का नग्न रहना बहुत कठिन मालूम पड़ता है। मगर लल्ला रही, जीवन भर नग्न रही। महावीर की भी हिम्मत नहीं पड़ी की अपनी दीक्षित संन्यासिनियों को कहें कि तुम नग्न हो जाओ। पुरुष तो नग्न हुए, लेकिन स्त्रियों को रोक दिया। शायद इसी कारण कहा कि एक दफा फिर तुमको जन्म लेना पड़ेगा; पुरुष बन कर जब तुम सब तरह से छोड़ कर दिगंबर हो जाओगी तभी पाओगी। मगर इस जन्म में तो कैसे होगा?
लेकिन लल्ला कश्मीर की नग्न रही। लल्ला को स्त्री कहना ठीक नहीं। लल्ला ठीक वैसी ही है जैसे महावीर।
तो इस भेद को ऐसे मत मान लेना कि यह शरीरगत ही है; यह ज्यादा आत्मगत है।
जैसे सत्गुरु तुम करी,...
दरिया के पास स्त्री का दिल है। सभी भक्तों के पास स्त्री का दिल है।
...मुझसे कछु न होय।
तुमने किया, हो गया। मेरे किए कुछ भी न होता।
सब्द गहा सुख ऊपजा, गया अंदेसा मोहि।
सत्गुरु ने किरपा करी, खिड़की दीन्हीं खोहि।।
सब्द गहा सुख ऊपजा,...
शब्द के गहते ही--शब्द को लेते ही भीतर, सुख उपजा। इधर तुमने शब्द दिया, इधर सुख उपजा। तुम्हारे शब्द से सुख की वर्षा हो गई।
सब्द गहा सुख ऊपजा, गया अंदेशा मोहि।
सारा भय मिट गया।
समझो। आमतौर से तुम सोचते हो कि प्रेम और घृणा विपरीत हैं। यह बात सच नहीं है। प्रेम और भय विपरीत हैं। प्रेम और घृणा विपरीत नहीं हैं--प्रेम के साथ घृणा चल सकती है। इसलिए विपरीत नहीं कह सकते। तुम जिसको प्रेम करते हो उसी को कई बार घृणा करते हो। सच तो यह है उसी को घृणा करोगे, और किसको घृणा करोगे? पति पत्नी को, पत्नी पति को--जिससे तुम प्रेम करते हो उसी से तो झगड़ोगे! उसी पर नाराज भी होओगे, उसी को घृणा भी करोगे। जिसके लिए जीते हो, कभी-कभी सोचने लगते हो मिट ही जाए, मर ही जाए! जिसके जीने के लिए जान दे सकते हो, कभी उसकी जान लेने का विचार भी मन में आ जाता है।
प्रेम के साथ घृणा चल सकती है, कुछ अड़चन नहीं है। लेकिन प्रेम के साथ भय कभी नहीं चलता; इसलिए असली विरोध तो प्रेम और भय में है। जहां प्रेम आया, भय गया। जहां भय आया वहां प्रेम गया।
मैंने सुना है, एक जापानी कथा है: एक युवक विवाह करके...एक योद्धा विवाह करके अपने घर लौट रहा है--अपनी नव-वधू को लेकर। नाव पर दोनों सवार हैं। तूफान आ गया है। नाव डांवाडोल हो रही है--अब गई, तब गई! लेकिन वह युवक निश्चिंत बैठा है। वह पत्नी उसकी घबड़ाने लगी। वह कंपने लगी। उसने उससे कहा, तुम इस तरह निश्चिंत बैठे हो जैसे कुछ भी नहीं हो रहा है! देखते नहीं कि नाव डूबी, अब बचना मुश्किल है। अभी हम विवाहित ही हुए थे, अभी विवाह का सुख भी न जाना था--और ये कैसे दुर्दिन आ गया! यह कैसी दुर्घटना हुई जा रही है। तुम बैठे क्यों हो? तुम ऐसे निश्चिंत बैठे हो जैसे घर में बैठे हो, जैसे कुछ भी नहीं हो रहा!
उस युवक ने अपने म्यान से तलवार निकाल ली--और तलवार उस युवती के, अपनी पत्नी के गले के पास ले गया। ठीक बिलकुल पास ले गया कि जरा बाल भर का फासला रह गया। जरा सी चोट की कि गरदन अलग हो जाए। वह युवती हंसने लगी। उस युवक ने कहा, तू हंसती है? घबराती नहीं? तलवार तेरी गरदन पर है--नंगी तलवार; जरा सा इशारा और तू गई। घबड़ाती नहीं?
उसने कहा: क्या घबड़ाना? तलवार जब तुम्हारे हाथ में है...।
उस युवक ने कहा: यही मेरा उत्तर है। जब तूफान परमात्मा के हाथ में है तो क्या घबड़ाना?
तलवार उसने वापस म्यान में रख ली। इधर वह तलवार म्यान में वापस रख रहा था कि उधर तूफान भी म्यान में वापस रख लिया गया।
प्रेम जहां है वहां भय नहीं। इसलिए भक्त से ज्यादा निर्भय कोई भी नहीं होता जिसको तुम ध्यानी कहते हो, वह भी डरा रहता है--बहुत डरा डरा रहता है कि कहीं यह न चूक जाए, कहीं यह भूल न हो जाए, कहीं यह पाप न हो जाए,कहीं यह नियम उल्लंघन न हो जाए!
बुद्ध के भिक्षु के लिए तैंतीस हजार नियम! सोचो, चिंता तो रहती होगी--तैंतीस हजार नियम! याद ही रखना मुश्किल है; कुछ न कुछ तो भूल होने ही वाली है। नरक निश्चित ही है। तैंतीस हजार नियम हों तो नरक से बचोगे कैसे?
लेकिन प्रेमी को कोई भय नहीं। वह कहता है, तुम जानो। अगर भूल करवानी हो भूल करवा लेना; अगर न करवानी हो मत करवाना।
भक्त का अभय पूरा है; समग्र है।
सब्द गहा सुख ऊपजा,...
तुम्हारे शब्द को गहा ही नहीं कि सुख उपज गया।
यह गहा शब्द भी खयाल रखना--जैसे स्त्री ग्रहण करती है। जब एक नया जीवन जन्मता है जगत में तो पुरुष देता है, स्त्री ग्रहण करती है। सिर्फ गहती है। ग्रहण करते ही उसके गर्भ में अंकुरण हो जाता है। जैसे पृथ्वी बीज को ग्रहण करती है, ग्रहण करते ही बीज में अंकुरण पैदा हो जाता है। जन्म शुरू हुआ, जीवन की यात्रा हुई, उत्सव का प्रारंभ हुआ।
कहते हैं दरिया: सब्द गहा सुख ऊपजा।
इधर मैंने तुम्हारा शब्द अपने भीतर लिया कि उधर मैंने पाया कि सुख की वर्षा हो गई; सुख ही सुख के फूल खिल गए।
...गया अंदेशा मोहि।
और बड़े चकित होने की बात है कि उस क्षण मैंने पाया कि सब भय मेरे विसर्जित हो गए। कोई भय नहीं बचा। प्रेम में भय कहां! जैसे रोशनी में अंधेरा नहीं, ऐसे प्रेम में भय नहीं। लाए दिया कि रोशनी आई नहीं कि अंधेरा गया नहीं। ऐसे ही जला दिया प्रेम का, कि भय समाप्त हो जाता है। और जिसके जीवन में भय न रहा, उसके जीवन में ही आनंद हो सकता है।
भक्त के जीवन में भय नहीं, क्योंकि यह जगत दुर्घटना नहीं है, यह जगत परमात्मा के हाथों में है। यह तूफान उसके हाथ में है। यह तलवार उसकी है।
भक्त मौत के सामने भी भयभीत नहीं होता, क्योंकि वह मौत भी उसकी ही सेविका है, उसके ही इशारे पर आई है। भक्त मौत को भी आलिंगन कर सकता है। करता है। मौत में भी मित्रता बांध लेता है। क्योंकि जो भी उसने भेजा है, सभी उसका है।
मैंने सुना है, महमूद गजनवी का एक दास था, जिससे उसका बड़ा लगाव था। लगाव के लायक था भी आदमी। कहते हैं कि महमूद अपनी पत्नियों को भी बहुत उसकी पत्नियां थी...उनको भी अपने कमरे में रात नहीं सोने देता था, डरा रहता था--कोई मार डाले, कोई दुश्मन से मिल जाए; कोई झगड़ा झंझट, कोई जहर पिला दे! लेकिन यह दास उसके कमरे में सोता था। इससे उसे कोई भय ही नहीं था। एक दिन दोनों जंगल में खो गए। शिकार करने गए थे, रास्ता भटक गए; साथी बिछुड़ गए। सिर्फ यह दास ही उसके साथ था। भूखे-प्यासे एक बगीचे में पहुंचे। एक वृक्ष में सिर्फ एक ही फल लगा है। पता नहीं किस जाति का फल है, कैसा फल है, कभी देखा भी नहीं! महमूद ने उसे तोड़ा। जैसी उसकी सदा की आदत थी, उसने चाकू निकाला, फल को काटा। वह पहली कली हमेशा अपने दास को देता था, उसने दास को दी। उसने कली ली। बड़ा प्रसन्न हुआ दास। उसने कहा: एक और। ऐसा सुस्वादु फल कभी चखा नहीं। तो महमूद ने एक कली और दे दी। अब आधा ही फल बचा। और दास बोला कि एक और। तो महमूद ने एक और दे दी--अब एक ही पंखुड़ी बची; चौथाई हिस्सा बचा। और दास कहने लगा, यह भी मुझे दे दो। महमूद ने कहा: यह जरा ज्यादती है। मैं भी भूखा हूं और एक ही फल है इस वृक्ष पर; तीन हिस्से तूने ले लिए, एक मुझे भी लेने दे। लेकिन यह दास बोला कि नहीं मालिक, दे दो मुझे। हाथ से छीनने लगा। महमूद ने कहा कि ठहर, यह जरा सीमा के बाहर बात हो गई। लेकिन दास कहता रहा कि मुझे दे दो, दे दो। कहते-कहते भी महमूद ने वह कली चख ली। वह कड़वा जहर थी। थूक दी, कली फेंक दी। कहा कि पागल, तूने कहा क्यों नहीं कि यह जहर है? और इसको भी तू मांग रहा था। और तीन टुकड़े तू इस तरह खा गया जैसे अमृत है!
उस दास ने कहा कि जिन हाथों से बहुत सी सुस्वादु चीजें मिली हों उनसे कभी एकाध अगर कड़वी भी चीज मिल जाए तो इसमें शिकायत की बात नहीं है। जिन हाथों ने इतना सुख दिया है, उन हाथों से अगर थोड़ा दुख भी मिल जाए तो वह भी सौभाग्य है। वह उन्हीं हाथों से आ रहा है। आपके हाथों ने छुआ, इतना ही काफी था।
महमूद ने अपने संस्मरणों में यह बात लिखी है। भक्त की यही दृष्टि है जगत के प्रति। इतना आनंद परमात्मा देता है कि अगर कभी एकाध कांटा कहीं रास्ते पर चुभ जाता है तो काई शिकायत की बात है? छिपा कर जल्दी से निकाल लेना कि उसको पता न चल जाए, कि कहीं अनजाने शिकायत न हो जाए, कि कहीं आह न निकल जाए! जिससे इतना मिलता हो उसके लिए हम जरा भी धन्यवाद नहीं देते; लेकिन जरा सी अड़चन आ जाए--जरा सी अड़चन, जरा सिरदर्द हो जाए, कि आदमी नास्तिक हो जाता है। काफी है सिरदर्द नास्तिक होने के लिए। सब आस्तिकता इत्यादि एक क्षण में खत्म हो जाती है, लड़के को नौकरी न मिले और नास्तिकता सिर उठाने लगती है। बेटा मर जाए और तुम मूर्ति इत्यादि फेंक देते हो घर से निकाल कर कि हो गया अब बहुत।
तुम्हारा भगवान दो कौड़ी का है। तुम्हारी भगवान से कोई पहचान नहीं है। तुमने कोई संबंध जोड़ा नहीं है।
सब्द गहा सुख ऊपजा, गया अंदेसा मोहि।
कहते हैं दरिया: सब भय मिट गया, अंदेशा मिट गया। कैसा तुमने गजब किया! कैसा तुमने चमत्कार किया! और मैंने कुछ किया नहीं--सिर्फ शब्द गहा! मेरी तरफ से कुछ करा-किया धरा नहीं। मेरी तरफ से तो सिर्फ ग्रहण हुआ। सिर्फ मैंने, तुमने जो दिया, वह ले लिया। मैं तो भूमि बन गया, तुम्हारा शब्द बीज बन गया। मैं तो स्त्री बन गया, तुम्हारा शब्द मेरे भीतर आकर गर्भ बन गया, अंकुरित होने लगा।
सत्गुरु ने किरपा करी, खिड़की दीन्हीं खोहि।
और तुम्हारी कृपा, कि खोल दिया द्वार जिसकी मैं तलाश कर रहा था--प्रेम का द्वार। क्योंकि प्रेम के द्वार से ही जाना जाता है परमात्मा। ध्यान के द्वार से जानी जाती है आत्मा। प्रेम के द्वार से जाना जाता है परमात्मा। आत्मा भी परमात्मा है, परमात्मा भी आत्मा है। लेकिन इसलिए ध्यानी आत्मा की बात करते हैं, परमात्मा की नहीं। महावीर परमात्मा की बात नहीं करते--आत्मा की।
ध्यान से खिड़की खुलती है अपने भीतर को; अंतर्मुखता पैदा होती है। और प्रेम से खिड़की खुलती है समस्त की; सब तरह वही दिखाई पड़ने लगता है। और प्रेमी को पहले दिखाई पड़ता है सब तरफ वही--और तब पता चलता है कि मैं भी वही। ज्ञानी को पहले दिखाई पड़ता है मैं वही और तब दिखाई पड़ता है सब वही। इतना फर्क होता है। अंतिम परिणाम एक है।
लेकिन प्रेम का मार्ग बड़ा रसपूर्ण है। रसो वै सः। बड़ा रस-भरा है!
सत्गुरु ने किरपा करी, खिड़की दीन्हीं खोहि।
और तुमने द्वार खोल दिए, तुम्हारी कृपा हो गई।
पान बेल से बीछुड़ै, परदेसां रस देत।
जन दरिया हरिया रहै, उस हरि बेल के हेत।।
और अब तो मैं तुमसे ही जुड़ा रहूंगा; जैसे पान का पत्ता बेल से जुड़ा रहे तो हरा रहता है।
जन दरिया हरिया रहै, उस हरि बेल के हेत।
अब तो मैं तुमसे जुड़ गया, तुमसे एक हो गया; अब मुझे कोई अलग न कर सकेगा।
गुरु से शिष्य को फिर अलग नहीं किया जा सकता। एक दफा घटना भर घट जाए, फिर यह गांठ खुलती नहीं। और सब तरह के प्रेम बनते हैं, मिट जाते हैं; यह प्रेम सिर्फ बनता है, मिटता नहीं। न बने और बात; बन जाए फिर मिटता नहीं।
पान बेल से बीछुड़ै, परदेसां रस देत।
पान का पत्ता होता है, बेल से टूट जाता है तो दूसरों को सुख देता फिरता है; किसी के मुंह में पड़ेगा, रस देगा; किसी के मुंह को लाली करेगा।
दरिया कहते हैं, अब मेरी कोई इच्छा नहीं कि कहीं जाऊं, परदेसों में भटकूं, किसी को रस दूं, किसी को प्रभावित करूं, किसी का मुंह रंगूं--इस सबकी मुझे कुछ इच्छा नहीं है। अब तो एक ही इच्छा है: जन दरिया हरिया रहै, उस हरि बेल के हेत। कि तुमसे जो लग गया लगाव वह लगा रहे और यह पत्ता हरा बना रहे।
मगर ऐसा होता ही है। एक बार जुड़ गया जो सदगुरु से, वह जुड़ गया। क्योंकि सदगुरु से जुड़ने का आत्यंतिक अर्थ इतना ही होता है कि वह परमात्मा से जुड़ गया है। सदगुरु तो कोई है ही नहीं। सदगुरु तो शून्य मात्र है। सदगुरु तो शून्य मात्र है। सदगुरु तो एक खिड़की है आकाश की। खिड़की खुल गई, तुम्हारा संबंध आकाश से हो गया। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए! अब इस खिड़की से छूटने का उपाय भी क्या है! जब तुम आकाश से ही छूटना चाहो तभी इस खिड़की से छूट सकोगे। और आकाश से कौन छूटना चाहता है! कौन होना चाहता है क्षुद्र! कौन नहीं विराट होना चाहता! कौन सीमा में बंधना चाहता है! जिसको असीम के दर्शन हुए वह क्यों सीमा में लौटना चाहे!
हमारी सारी खोज एक ही है कि कैसे असीम हो जाएं, कैसे अनंत हो जाएं, कैसे विराट और विभु हो जाएं।
सदगुरु शब्द पर थोड़ी सी बातें। सदगुरु का अर्थ होता है जिसने जाना; जिसने अनुभव किया; जिसकी ज्योति जली। अब अगर तुम्हारी ज्योति बुझी है। तो किसी जले हुए दीये के पास जाओ। और कोई उपाय नहीं है। निकट आओ किसी दीये जले हुए दीये के। आते जाओ निकट। निकटता की ही एक सीमा है, जब अचानक तुम पाओगे जले दीये की लपट बुझे दीये पर छलांग लगा गई। एक क्षण में क्रांति घट जाती है। जले दीये का कुछ नुकसान नहीं होता। जला दीया अब भी वैसा ही जलता है। बुझे दीये को मिल जाता है, जले दीये का कुछ खोता नहीं है। एक दीये से हजार दिए जला लो, तो भी जलता दीया जल ही रहा है, वैसा ही जल रहा है जैसा जलता था। उसने जरा भी नहीं खोया।
गुरु का कुछ खोता नहीं, शिष्य को बहुत कुछ मिल जाता है, अनंत मिल जाता है। ऐसा अपूर्व यह व्यवसाय है। यहां खोया कुछ जाता ही नहीं। तो गुरु यह भी नहीं सोचता एक क्षण को भी कि उसने तुम पर कोई कृपा की। सच तो यह है, गुरु तुम्हारा धन्यवादी होता है कि तुम करीब आए, तुमने इतनी हिम्मत की क्योंकि गुरु की ज्योति जितने-जितने दीयों में फैलने लगती है, उतना ही गुरु का आनंद गहन होने लगता है। जैसे माली को देख कर आनंद होता है जब उसके वृक्षों पर फूल खिल जाते हैं, ऐसे गुरु को परम आनंद होता है, जब उसके शिष्य खिल जाते हैं। गुरु अनुगृहीत होता है कि तुम इतने करीब आए, कि तुमने थोड़ा सा उसका बोझ बंटा लिया।
आनंद भी बंटना चाहता है। आनंद भी घनीभूत हो जाता है। जैसे बादल जब भर जाते हैं जल से तो बरसना चाहते हैं। तो तुम यह मत सोचना कि जब प्यासी धरती पर बादल बरसते हैं तो सिर्फ धरती ही धन्यवाद करती है। बादल भी धन्यवाद करते हैं। चूंकि बादल खाली हो गए, बोझ से मुक्त हो गए, धरती ने उन्हें मुक्त कर दिया बोझ से।
जब फूल सुगंध से भर जाता है तो खिलता है--खिलता ही है, खिलना ही पड़ता है। और हजार-हजार मार्गों से बिखरता है। अपनी सुगंध को बिखेरता है। रंग में और गंध में यात्रा करता है दूर-दूर हवाओं की, कि पहुंच जाए उन नासापुटों तक जो प्रफुल्लित होंगे और आनंदित होंगे।
यह अकारण ही तो नहीं है कि बुद्धपुरुष भटकते हैं गांव-गांव, द्वार-द्वार, आदमी-आदमी को खोजते हैं, दस्तक देते फिरते हैं। शिष्य जैसे गुरु को खोजते हैं वैसे ही गुरु शिष्य को भी खोजता है। और जब कभी किसी सदगुरु का सदशिष्य से मिलना हो जाता है तो सारा जगत आनंद से भरता है। क्योंकि वही घटना इस जगत में सबसे परम घटना है।
जन दरिया हरिभक्ति की, गुरां बताई बाट।
भूला ऊजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।।
दरिया के इन वचनों में डूबना। दरिया को तीर्थ बनाना। दरिया से कुछ सीखो। दरिया से मिटने की कला सीखो।
और मिटना आ गया तो सब आ गया।
आज इतना ही।