UPANISHAD
Kaivalya Upanishad 14
Fourteenth Discourse from the series of 19 discourses - Kaivalya Upanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during MAR 25 - APR 02 1972.
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अणोरणीयानहमेव तद्वन्महानहं विश्वमहं विचित्रम्।
पुरातनोऽहं पुरुषोऽहमीशो हिरण्मयोऽहं शिवरूपमस्मि।।20।।
मैं छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हूं। इस विचित्र संसार को मेरा ही रूप मानना चाहिए। मैं ही पुरातन पुरुष हूं, जो सबका आधार है। मैं ही शिव का रूप हूं और मैं ही हिरण्यमय हूं।।20।।
जीवन खंडों में विभजित नहीं है, अखंड है। खंडों में विभाजित दिखाई पड़ता है तो भी अखंड है। बहुत तरह के खंड दिखाई पड़ते हैं, लेकिन सभी खंड मूल आधार में संयुक्त हैं और इकट्ठे हैं। अन्यथा जगत के होने की संभावना ही नहीं है, अस्तित्व के होने की संभावना ही नहीं है। अस्तित्व बिखर जाए, अगर खंडों में हो। अस्तित्व बिखरता नहीं क्योंकि खंडों में बंटा हुआ नहीं है, अखंड है।
इसे हम ऐसा समझें। मेरा हाथ है, एक खंड है; मेरी आंख है, एक खंड है; मेरे पैर हैं, एक खंड है; लेकिन मैं अखंड हूं। और मेरी आंख और मेरा हाथ गहरे में जुड़े हैं, संयुक्त हैं। मेरी आंख देखती है और मेरा हाथ चीज को उठाने को बढ़ जाता है। मेरी आंख देखती है सड़क पर सांप को और मेरा पैर छलांग लगा लेता है। फिर भी पैर अलग हैं, पैर देख नहीं सकते, आंख छलांग नहीं लगा सकती। हाथ छू सकते हैं, कान सुन सकते हैं। हृदय धड़कता है, मस्तिष्क सोचता है। खून बहता है, हड्डी-मांस-मज्जा बनती है, ये सब खंड हैं। और एक-एक खंड अलग से समझने की हम कोशिश करें तो अलग दिखाई पड़ता है।
लेकिन गहरे में उतरें तो सभी खंडों के भीतर कोई एक भी छाया हुआ है, जो सभी को घेरे हुए है। अन्यथा आंख देखे और पैर छलांग लगा जाएं, यह कैसे हो? कहीं न कहीं आंख और पैर जुड़े होने चाहिए। कहीं न कहीं आंख और पैर एक ही चीज के दो रूप होने चाहिए। कहीं गहरे में जहां हृदय धड़कता है, वहीं मस्तिष्क का विचार भी जुड़ा होना चाहिए। क्योंकि मस्तिष्क में विचार का फर्क होता है, हृदय की धड़कन बदल जाती है। मस्तिष्क में विचार का फर्क होता है, खून की चाल बदल जाती है। मस्तिष्क में क्रोध होता है, रक्तचाप बढ़ जाता है। मस्तिष्क में वासना जगती है, सारा शरीर प्रभावित हो जाता है, आंदोलित हो जाता है। पैर में कांटा गड़ता है, आंख में आंसू आ जाते हैं। कहीं न कहीं पैर और आंख, कहीं न कहीं हृदय और मस्तिष्क, कहीं न कहीं इस शरीर का अणु-अणु संयुक्त होना चाहिए।
वह संयुक्तता दिखाई नहीं पड़ती। दिखाई तो ये खंड पड़ते हैं। वह संयुक्तता ओझल है आंख से। होगी ही। गहन में, गहरे में छिपी है। ठीक ऐसे ही, जैसे यह व्यक्ति, हमारा व्यक्ति संयुक्त है ऐसे ही यह पूरा विराट भी संयुक्त है।
इसे हम एक तरफ से समझें तो शायद खयाल में आ जाए।
एक-एक आदमी के शरीर में कोई सात करोड़ जीवकोश हैं, अर्थ होता है कि एक व्यक्ति के शरीर को बनाने में सात करोड़ जीवंत कोश काम करते हैं। मतलब सात करोड़ जीवन आपके भीतर बसे हैं। आप एक बड़ी बस्ती हैं। इसलिए भारतीयों ने आपके शरीर को पुर कहा है और आपको पुरुष कहा है। आप एक बड़ी बस्ती हैं। सात करोड़ व्यक्ति आपके भीतर हैं। प्रत्येक सेल अपने-अपने में अपनी नियति रखता है, अपना व्यक्तित्व रखता है। आपके शरीर का एक-एक सेल एक-एक व्यक्ति है, अपनी हैसियत से। आपकी हैसियत से नहीं, अपनी ही हैसियत से एक-एक व्यक्ति है। आपके सेल को बाहर निकाल लिया जाए, तो वह जिंदा रहेगा, आपके बिना भी, और करोड़ों वर्ष तक जिंदा रह सकता है। आप तो सत्तर वर्ष में समाप्त हो जाएंगे, वह करोड़ों वर्ष तक जिंदा रह सकता है, अपनी हैसियत से। उसका अपना छोटा सा हृदय है और अपना छोटा सा मस्तिष्क है। और वैज्ञानिक कहते हैं: आज नहीं कल शायद हमें पता चले कि उसका अपना अनुभव, उसके अपने विचार, उसका अपना अहंकार है। क्यों? क्योंकि वह अपनी आत्मरक्षा करता है। वह अपने जीवन को बचाने की चेष्टा करता है। हमले में सिकुड़ जाता है, प्रेम में फैल जाता है। वह भी प्रेम करता है।
और उस जीवकोश को आपका कोई भी पता नहीं है कि आप भी हैं! ये जो सात करोड़ जीवकोश हैं आपके शरीर में, इनको बिलकुल भी पता नहीं है कि इनका जुड़ कर भी कोई एक व्यक्ति है। इन सबके जोड़ से भी कोई एक समग्र व्यक्तित्व निर्मित हो रहा है, इसका इन्हें कोई भी पता नहीं है।
उपनिषद मानते हैं, रहस्यवादी मानते हैं--कहना ठीक नहीं कि मानते हैं, वे जानते ही हैं--कि ठीक हम भी इस विराट जगत में छोटे-छोटे जीवकोश हैं। और हम सबसे मिल कर भी जो निर्मित हो रहा है, उसका हमें पता नहीं है। जिस दिन पता चल जाता है उसी दिन उसका नाम परमात्मा है। हम सब भी इस विराट में जीवकोश हैं। हम अपनी हैसियत से जीते हैं। जैसे हमारे शरीर का जीवकोश अपनी हैसियत से जीता है। शायद किसी दिन सूक्ष्म निरीक्षण से पता चलेगा कि उस जीवकोश के भीतर भी छोटे जीवकोश हैं, जो अपनी हैसियत से जीते हैं।
जैसे अणु हैं भौतिकविद के लिए, परमाणु हैं, इलेक्ट्रान हैं, इनसे मिल कर सारा पदार्थ बना है। ठीक ऐसे ही चैतन्य के भी कण हैं, जीवकोश हैं, उनसे मिल कर समस्त जीवन बना है। इस विराट जीवन को खंड-खंड में देखना ही विज्ञान है, इसको अखंड देख पाना धर्म है।
अगर आपके शरीर को भी वैज्ञानिक छुएगा तो वह खंड-खंड कर लेगा। तोड़ लेगा टुकड़ों में। एक-एक सेल को अलग करके समझने की कोशिश करेगा। निश्चित ही। क्योंकि आपके शरीर के किसी सेल को आपका पता नहीं है, आपके शरीर का कोई भी सेल आपकी खबर नहीं दे सकता है। इसलिए वैज्ञानिक कहेगा: आदमी के भीतर कोई आत्मा नहीं है। आदमी करोड़ों सेलों का एक जोड़-मात्र है--इकाई नहीं, सिर्फ जोड़। आदमी अलग से कुछ भी नहीं है। आत्मा अलग से कुछ भी नहीं है। इन सात करोड़ जीवनकोशों का जोड़ है। फिर वह एक जीवनकोश को भी काटेगा तो पाएगा, उसमें कुछ रासायनिक तत्व हैं, पाएगा कि कुछ धातुएं हैं, पाएगा कि कुछ रस हैं, पाएगा कि कुछ पदार्थ हैं। वे पदार्थ के कण भी उसे खबर नहीं देंगे कि हमसे मिलकर जो बनता था, वह एक जीवन था। वे भी सिर्फ अपनी ही खबर देंगे, उन्हें भी उस जीवन का कोई पता नहीं है।
तो अंततः वैज्ञानिक कहेगा कि जीवकोश रासायनिक पदार्थों का जोड़ है और व्यक्ति की आत्मा इन जीवकोशों का जोड़ है। जोड़ है! इसको ठीक से समझ लेना। अलग कोई व्यक्तित्व नहीं है जीवन में, सिर्फ जोड़ है! खंडों का जोड़ है, अखंड है।
धर्म इसकी ठीक विपरीत मान्यता है। धर्म कहता है: खंड का जोड़ नहीं है अखंड। खंड अखंड का भाग है। अखंड खंडों का जोड़ नहीं है। खंड अखंड का भाग है। खंडों के जोड़ से अखंड नहीं बनता, अखंड अपनी हैसियत से है। वह कोई गाणितिक जोड़ नहीं है, सावयव एकता है। अखंड अपनी हैसियत से है, खंडों को उसका पता नहीं है। क्योंकि खंड को अखंड का पता इसलिए नहीं होता कि खंड अपने भीतर ही बंध कर जीता है। उसे पता नहीं होता। जब खंड अपने से बाहर निकलता है, अपने से ऊपर उठता है, जाग कर अपने से पार देखता है, तब उसे अखंड की प्रतीति शुरू होती है।
इस अपने से ऊपर उठने का ही सूत्र साक्षी है। इस अपने से पार उठने का सूत्र साक्षी है। जब भी कोई अपने प्रति भी साक्षी होकर देखता है, तो उसके भीतर अखंड का स्मरण शुरू हो जाता है। क्योंकि यह सब जोड़ तो उसे दिखाई पड़ता है--हाथ दिखाई पड़ता है, पैर दिखाई पड़ते हैं, आंख दिखाई पड़ती हैं, इन सबको वह देखने वाला कौन है? वह अलग हो जाता है। अलग होते से ही खंड के ऊपर अखंड की छाया पड़नी शुरू हो जाती है, या खंड के भीतर अखंड का अंकुरण शुरू हो जाता है। या खंड के भीतर जो सोया हुआ भाव था वह टूट जाता है, जागरण पकड़ता है और अपने से पार आंख उठती है।
ऐसा हम समझें कि मां के पेट में एक बच्चा है गर्भ में, उसे इस जगत का कोई भी तो पता नहीं है। क्यों पता नहीं है? क्योंकि मां के पेट में जो बच्चा है, वह अपनी ही हैसियत से एक इकाई है। और उसका जगत से कोई भी सीधा संबंध नहीं है। उसे पता भी नहीं है कि सूरज निकलता है, चांद-तारे हैं; उसे पता भी नहीं कि लोग हैं, विराट जगत है, उसे कुछ भी पता नहीं है। और गर्भ के भीतर बच्चा इतना सुनिश्चित इकाई में बंधा हुआ है कि वह अपने को ही जगत मान ले तो कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि न उसे खाने के लिए आयोजन करना पड़ता है, न उसे पीने के लिए आयोजन करना पड़ता है, न उसे आत्म-रक्षा के लिए आयोजन करना पड़ता है, उसे कुछ करना ही नहीं पड़ता है, वह सिर्फ होता है। और परिपूर्ण होता है। उसको कहीं कोई कमी नहीं होती। उसे खयाल भी नहीं आ सकता कि मुझसे अलग भी कुछ है। लेकिन गर्भ के बाहर आएगा, अपनी सीमाओं को तोड़ेगा तो जगत का प्रारंभ होगा।
इसलिए वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे का जन्म जो है, बहुत ट्रामैटिक है, उसे बड़ा धक्का लगता है। एकदम एक सीमा में बंधा हुआ अस्तित्व था, एकदम से टूट जाता है और एक असीम जगत में खड़ा हो जाता है, जहां कुछ भी सूझता नहीं है। पहली बार पता चलता है, मैं ही नहीं हूं और भी बहुत कुछ है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह धक्का इतना गहरा है कि जिंदगी भर इस धक्के से आदमी सम्हल नहीं पाता। और मनोवैज्ञानिक तो यह भी कहते हैं--इसमें थोड़ी सचाई है--कि आदमी जो शांति की खोज करता है, आनंद की खोज करता है, स्वतंत्रता की खोज करता है, आत्मा की खोज करता है, परमात्मा की खोज करता है, यह उसके गर्भ के अनुभव के कारण करता है। क्योंकि गर्भ में वह परम स्वतंत्र था, परम आनंदित था, परम शांत था, कोई तनाव न था, कोई सीमा न थी, जीवन पूरा का पूरा उपलब्ध था। उसमें कहीं कोई बाधा न थी; कोई जिम्मेवारी न थी, कोई बोझ न था, कोई चिंता न थी।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह जो मोक्ष की खोज है, यह उस गर्भ में जो अनुभव हुई है शांति, उसके ही कारण है। इसमें थोड़ी दूर तक सच्चाई है... इसमें थोड़ी दूर तक सच्चाई है, क्योंकि वह अनुभव गहरा है और फिर इसके बाद जगत का धक्का गहरा है। अभी किसी मनोवैज्ञानिक ने इस बात को और भारतीय चिंतन को जोड़ा नहीं, नहीं तो उन्हें बड़ी हैरानी होगी। अगर वे उस चिंतन को जोड़ेंगे तो भारतीय मन की यह आकांक्षा कि जन्म से कैसे छुटकारा हो, मरण से कैसे छुटकारा हो, तत्काल उनको खयाल में आ जाएगी कि यह जन्म से छुटकारे का मतलब है कि गर्भ से जो धक्का लगा है, उससे कैसे छुटकारा हो? जन्म लेने से जो धक्का लगा है, उससे कैसे छुटकारा हो?
मोक्ष की जो हमारी धारणा है, वह एक विराट गर्भ की है। उसे हमने हिरण्यमय गर्भ कहा भी है: दि वूंब ऑफ दि डिवाइन। वह जो परमात्मा का गर्भ है, उसमें मैं ऐसे लीन हो जाऊं जैसे मां के गर्भ में था। न कोई चिंता, न कोई पीड़ा, न पराए का पता। लेकिन बच्चा बाहर आता है तो उसे जगत दिखाई पड़ता है।
बीज टूटता है, अंकुरित होता है तो उसे सूरज के दर्शन होते हैं। जहां तक हमारी स्थिति है, जैसे हम हैं, अभी हम अहंकार की खोल में बंद हैं। उसके पार हमें कुछ नहीं दिखाई पड़ता। मैं ही मैं दिखाई पड़ता हूं। अगर कभी थोड़ी बहुत झलक किसी की मिलती भी है तो वह भी मेरे होने के कारण मिलती है। ‘मेरा’ मित्र है, ‘मेरा’ भाई है, ‘मेरी’ पत्नी है, ‘मेरा’ पति है। तो ‘मेरे’ से कहीं थोड़ा सा संबंध जुड़ता है तो थोड़ी सी झलक मुझे मिलती है। बस यही मेरा जगत है। इसके पार जो विराट फैला हुआ है, उसका मुझे कोई पता नहीं है।
धर्म एक पुनर्जन्म है, एक री-बर्थ। एक और गर्भ को तोड़ना है। यह अहंकार को भी तोड़ देना है। लेकिन यह अहंकार तभी टूटे, जब मेरे खंडों का जो जोड़ है उसके पार मुझमें कोई अंकुरण शुरू हो जाए। कुछ भिन्न मेरे भीतर जागने लगे, मेरे जोड़ से ज्यादा। जिस दिन व्यक्ति को खंडों के बीच अखंड की प्रतीति शुरू होती है, उसी दिन ब्रह्म की यात्रा पर हम निकले, ऐसा जानना।
पहली बात कि अखंड खंडों का जोड़ नहीं है। इसे हम और थोड़ा इस तरह से समझ लें तो शायद खयाल में आ जाए। क्योंकि बात तो कठिन है। और अनुभव की न होने से और कठिन हो जाती है समझना।
एक से दस तक की गिनती है, यह सिर्फ जोड़ है। एक-एक को दस बार जोड़ देने से दस हो गया। अगर एक-एक को दस बार निकाल देंगे तो पीछे शून्य हो जाएगा, कुछ बचेगा नहीं। तो दस खंडों का जोड़ है। जोड़ से ज्यादा कुछ भी नहीं है दस में।
लेकिन एक कविता है, उसमें जितने शब्द हैं उनका जोड़ ही नहीं है वह, उनसे थोड़ी ज्यादा है। वह जो थोड़ी ज्यादा है, वही गणित और काव्य का फर्क है। अगर कोई कहे कि यह सिर्फ शब्दों का जोड़ है तो वह गलत कह रहा है। जब एक कविता को आप पढ़ते हैं, उसके शब्द भूल भी जाएं तो भी कुछ भनक आपके भीतर शेष रह जाती है। शब्द याद भी न रह जाएं तो भी उस काव्य का जिस भांति से हृदय में स्पर्श हुआ था, वह पीछे छूट जाता है। अगर कविता के सारे शब्दों को अलग निकाल कर रख लें, एक कागज पर क्रमवार लिख दें, तो उनको पढ़ने से कुछ भी भाव पैदा नहीं होता। वह कविता के उन्हीं शब्दों को दूसरे ढंग से जमा दें, सब काव्य बिखर जाता है, विसर्जित हो जाता है। कविता को पढ़ते वक्त जो आपके भीतर अनुभूति होती है वह शब्दों का जोड़ नहीं है, जोड़ से कुछ ज्यादा है। शायद इसे भी समझना थोड़ा कठिन हो।
तो ऐसा समझें, एक चित्रकार एक केनवास पर चित्र बनाता है, रंगों से बनता है, लेकिन चित्र रंगों का जोड़ नहीं है। वे ही रंग पिकासो के हाथ में कुछ और हो जाते हैं। वे ही रंग वानगॉग के हाथ में कुछ और हो जाते हैं। वे ही रंग आप भी पोत डालें तो कुछ भी नहीं होते हैं। यह भी हो सकता है कि आप ज्यादा कीमती रंग और ज्यादा रंग केनवास पर पोत डालें, और पिकासो साधारण से रंग को उठा कर केनवास पर फेंक दे तो भी केनवास कुछ और हो जाता है। निश्चित ही रंगों का जोड़ नहीं है चित्र, जोड़ से कुछ ज्यादा है। रंग से प्रकट होता है, लेकिन रंग ही नहीं है। कविता शब्द से प्रकट होती है, लेकिन वह शब्द ही नहीं है।
एक वीणावादक वीणा पर चोट कर रहा है, यह सिर्फ तार पर की गई चोट नहीं है। यह चोट कोई भी कर सकता है, संगीत उससे पैदा नहीं होता। इस चोट में भी एक भीतरी समन्वय है। इस चोट में भी चोट से ज्यादा एक गुण है। यह संगीत जो संगीत सुनाई पड़ रहा है, इस सुनाई पड़ने वाले संगीत में एक छिपा हुआ संगीत भी है। वह छिपा हुआ संगीत प्रकट हो रहा है इस संगीत से, लेकिन इसका जोड़ नहीं है।
जोड़ का मतलब होता है: खंडों में जितना है, जोड़ में भी उतना ही होगा। जोड़ से ज्यादा का अर्थ होता है: खंडों में जो नहीं दिखाई पड़ता था, वह जोड़ में प्रकट होता है। जोड़ खंडों के जोड़ से ज्यादा अगर हो तो सावयव, ऑर्गनिक यूनिटी पैदा हो जाती है।
कई बार ऐसा होता है कि इन दोनों में हम फर्क नहीं कर पाते हैं। और अगर फर्क न कर पाएं तो जीवन का एक बहुमूल्य आयाम खो जाता है। हम फर्क नहीं कर पाते हैं। पहली बात तो हमारी समझ में आ जाती है, दूसरी बात हमारी समझ में नहीं आती।
इसे ऐसा समझें।
मेरे शरीर को काट डाला जाए, सब खंड अलग रख लिए जाएं, और फिर सारे खंडों को जोड़ कर मुझे खड़ा कर दिया जाए। मेरे सारे खंड अलग कर दिए जाएं और फिर मेरे सारे खंडों को जोड़ कर खड़ा कर दिया जाए। फिर इस मोटर का इंजिन है, उसको खोल कर एक-एक टुकड़ा अलग कर दिया जाए और फिर सारे टुकड़े जोड़ दिए जाएं। तो फर्क पता चलेगा कि मोटर का इंजिन अंगों का एक जोड़मात्र था। तोड़ दो, फिर जोड़ दो। फिर इंजिन शुरू हो जाता है। लेकिन आदमी के शरीर को तोड़ दो, फिर बिलकुल वैसा ही जोड़ दो, कुछ भी शुरू नहीं होता। कोई चीज खो गई। जो जोड़ से ज्यादा थी वह खो गई।
इसका मतलब यह हुआ कि जो जोड़मात्र है, उसको हम विश्लेषण से समझ सकते हैं। जो जोड़ से ज्यादा है, उसे हम विश्लेषण से कभी नहीं समझ सकते। इसलिए अनेक बार ऐसा हो जाता है कि व्याकरण में जो बहुत गहरा निष्णात है वह काव्य को समझने में असमर्थ हो जाता है। क्योंकि वह केवल जोड़ जानता है, भाषा के नियम जानता है, भाषा का गणित जानता है, सब जानता है, लेकिन भाषा में कुछ ऐसा भी प्रकट होता है जो नियम के पार है, जो गणित से दूर है, जो व्यवस्था का हिस्सा नहीं है--व्यवस्था में भीतर प्रकट जरूर होता है लेकिन व्यवस्था के बाहर से आता है, उतरता है--वह चूक जाता है। इसलिए भाषाशास्त्री जितना ज्यादा भाषा को जानता है, उतना ही मुश्किल होता जाता है उसे काव्य को समझना। क्योंकि काव्य की समझ एक दूसरे ही आयाम की मांग करती है। वह आयाम है कि जीवन-इकाई खंड का जोड़ नहीं होती, जोड़ से ज्यादा होती है। और वह जो ज्यादा है वह सिर्फ प्रकट होता है। अगर आपने तोड़ दिया तो वह अप्रकट हो जाता है, वह खो जाता है।
इस सूत्र में इस गहन सत्य की उदघोषणा की गई है।
ऋषि ने कहा है: ‘मैं छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हूं।’
दोनों ‘मैं’ ही हूं। ऐसा मत सोचना कि मैं छोटे से छोटा हूं तो मैं बड़े से बड़ा कैसे हो सकूंगा? इस सूत्र में ऋषि कह रहा है कि खंड भी मैं ही हूं और अखंड भी मैं ही हूं। क्षुद्रतम में भी मैं ही हूं और विराटतम में भी मैं हूं। इसका मतलब हुआ कि क्षुद्र और विराट दो चीजें नहीं हैं, संयुक्त हैं। नहीं तो मैं दोनों में कैसे हो सकूंगा? इस अंगुली में मैं ही हूं और इस पूरे शरीर में भी मैं ही हूं। असल में मेरा होना एक विस्तार है, जो क्षुद्र से लेकर विराट तक फैला हुआ है। या ऐसा कहें कि क्षुद्र और विराट मेरे ही दो छोर हैं--सूक्ष्म से सूक्ष्म, जहां दर्शन समाप्त हो जाता है और दिखाई नहीं पड़ता, वहां भी मैं हूं और विराट से विराट, जहां दर्शन को सीमा नहीं मिलती, अनंत हो जाता है, वहां भी मैं ही हूं। यहां ‘मैं’ से अर्थ ऋषि का नहीं है। यहां ‘मैं’ से अर्थ अहंकार का नहीं है। यहां ‘मैं’ से अर्थ उस साक्षी का है, जिसकी पिछले सूत्र में चर्चा की गई है। उस साक्षी का है। उस साक्षी का अनुभव होते ही क्षुद्र और विराट दोनों मेरे छोर हैं।
और यह क्षुद्र और विराट अनेक-अनेक दिशाओं में फैला हुआ है। जिसे जीसस ने कहा है: बिफोर अब्राहम आइ वा़ज--अब्राहम था, उसके पहले भी मैं था। अब्राहम को हुए हजारों वर्ष हो चुके थे जीसस के वक्त में। अब्राहम के पहले मैं था, इसका क्या मतलब है? अर्जुन से कृष्ण ने कहा है कि इसी गीता को जो मैं तुझ से कहता हूं, मैंने पहले फलां ऋषि को कहा था। उसके पहले फलां ऋषि को कहा था। उसके पहले फलां ऋषि को कहा था। और इन ऋषियों को हुए हजारों वर्ष हो चुके थे।
ये कृष्ण और जीसस क्या कह रहे हैं? ये यह कह रहे हैं कि समय के आयाम में जो प्रथम है वह भी मैं हूं, और समय के आयाम में जो अंतिम होगा वह भी मैं ही हूं। यह जो समय की धारा है, इसमें प्रथम और अंतिम जुड़े हैं। यह समय की पूरी धारा मेरी ही धारा है। क्षुद्रतम कण है, उसमें भी मैं हूं। और एक विराट सूर्य है, उसमें भी मैं हूं। यह क्षेत्र, स्पेस के दो छोर हैं--छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा। पहला, अंतिम--ये समय के छोर हैं। हर आयाम में एक का ही विस्तार है।
ऊपर से देखने से बहुत कठिन होगा मालूम कि एक क्षुद्र कण पड़ा है आपके आंगन में, वह भी वही है, और यह विराट जगत भी वही है। गणित मुश्किल में पड़ेगा। क्योंकि गणित कैसे मान सकता है कि यह छोटा सा कण और यह विराट जगत, दोनों एक हैं। गणित कहेगा: यह छोटा सा कण है, कहां यह विराट जगत! कहां यह विराट जगत, कहां यह छोटा सा कण! कहां यह घास की दूब और कहां यह विराट जीवन! लेकिन घास के एक छोटे से तिनके में भी वही जीवन प्रकट हो रहा है जो एक महासूर्य में जल रहा है।
इसे अगर हम वैज्ञानिक ढंग से भी समझना चाहें, तो समझ सकते हैं। थोड़ी सहायता मिलेगी।
कभी आपने खयाल न किया होगा कि अगर वैज्ञानिक गणनाओं को भी हम थोड़ी सी गहराई में खोजना शुरू करें और विज्ञान को सीमा में न बांधें और वैज्ञानिक बुद्धि को एक मतांधता न बनाएं, तो विज्ञान से भी झलकें धर्म की ही मिलना शुरू हो जाती हैं। क्योंकि अंततः विज्ञान भी उसी जगह तो काम कर रहा है, उसी जीवन पर जिस पर धर्म। कहीं न कहीं उसकी प्रतीतियां भी धर्म की अनुभूतियों से कुछ न कुछ संबंध तो बनाएंगी ही। क्योंकि दोनों का काम तो एक ही जगह चल रहा है, एक ही जीवन पर। एक छोटा सा घास का तिनका है, उसके भीतर जीवन का विज्ञान में क्या अर्थ है? उसके भीतर भी जीवन का अर्थ वही है जो आपके भीतर है, एक महासूर्य के भीतर है।
महासूर्य के भीतर क्या हो रहा है? बड़े पैमाने पर हो रहा है। हमारी पृथ्वी जितनी बड़ी है, हमारा सूर्य उससे साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन यह बहुत छोटा, मीडियाकर सूर्य है। यह कोई बहुत बड़ा सूर्य नहीं है। इससे बहुत बड़े-बड़े सूर्य जगत में हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई दो अरब सूर्य सारे जगत में हैं। जिनको आप रात में तारे कहते हैं वे महासूर्य हैं। सिर्फ फासला इतना ज्यादा है कि वे छोटे तारे दिखाई पड़ते हैं। यह हमारा सूर्य उनके सामने बहुत छोटा है। इसकी कोई गणना नहीं है। इस विराट जगत में अगर इस सूर्य का आप पता पूछने जाएं तो पता लगाना बहुत मुश्किल होगा कि आप किस सूर्य की बात कर रहे हैं।
जिस दिन हम अंतरिक्ष यात्रा में सफल हो जाएंगे और दूर की यात्रा पर आदमी निकलेगा, उस दिन अगर हमें कहीं किन्हीं दूसरी पृथ्वियों पर--और वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम पचास हजार ग्रहों पर जीवन है, कम से कम होना चाहिए--तो उन ग्रहों पर अगर हम कभी पहुंचेंगे, तब उनको पहली दफा पता चलेगा कि एक सूरज और भी है जिसके पास एक छोटी सी पृथ्वी पर जीवन है। यह जो दो-तीन अरब सूर्यों का विस्तार है, इनमें भी जीवन का जो सूत्र है वह वही है जो एक छोटे से घास के तिनके में है। वैज्ञानिक उसे कहते हैं: ऑक्सीडाइजेशन। वे कहते हैं कि छोटा सा तिनका भी हवा से ऑक्सीजन को पीता है और अपने भीतर जलाता है। उसके जलने से ही जीवन चलता है। जैसे दीया आपका जल रहा है। आपने कभी खयाल किया कि तूफानी हवा चल रही हो और दीया जल रहा है, तो यह हो सकता है कि तूफानी हवा में दीया बच जाए, लेकिन बचाने के लिए अगर आप एक बर्तन उस पर ढांक दें, तो वह जल्दी बुझ जाएगा। क्योंकि बर्तन के भीतर की ऑक्सीजन जैसे ही दीया पी लेगा, जला लेगा, फिर मरेगा, फिर बच नहीं सकता। दीया पूरे वक्त हवा की ऑक्सीजन को लेकर जला रहा है।
आप भी वही कर रहे हैं। पूरे वक्त जो श्वास चल रह रही है, वह ऑक्सीजन लेने के लिए चल रही है, और आप के भीतर एक अग्नि है जो उस ऑक्सीजन को जला रही है। इसलिए आपकी श्वास बंद कर दें और प्राण छूट गए। जब आप दीये पर बर्तन ढांक देते हैं, आपने उसकी श्वास बंद कर दी, प्राण छूट गए। एक घास के ऊपर बर्तन को ढांक दें, आपने उसकी श्वास बंद कर दी। प्राण छूट जाएंगे।
एक खूबसूरत पौधे को घर के भीतर लगा कर रख लें, दो दिन में पाएंगे कि उसका प्राण जाने लगा। क्योंकि उसे जो जीवंत, जो प्रक्रिया थी उसके भीतर विज्ञान के हिसाब से वह इतनी थी कि वह अपने भीतर हवा को ले जाकर उसमें से ऑक्सीजन जला रहा है। और जब ऑक्सीजन जल जाती है, तब जो कार्बन बच जाता है उसको बाहर फेंक रहा है। हम भी फेंक रहे हैं, पूरे वक्त। इसलिए अगर एक भीड़ भरे कमरे में आप सो जाएं और सब तरफ से कमरा बंद हो, तो रात भर में सारे लोग मर सकते हैं। क्योंकि अगर कमरे की ऑक्सीजन चुक जाए और सब कार्बन को फेंकते चले जाएं और फिर मजबूरी में कार्बन ही पीना पड़े, तो आप मर जाएंगे।
चाहे महासूर्य जल रहा हो और चाहे एक घास का तिनका जी रहा हो, और चाहे एक बुद्ध जी रहे हों, जीने का नियम एक ही है। सब अपने-अपने पैमाने पर प्राणव
ायु को जला रहे हैं, विज्ञान के हिसाब से। तो अगर हम यह भी समझें तो भी पता लगेगा कि क्षुद्र से क्षुद्र में और विराट से विराट में एक ही जीवन है।
कुछ वैज्ञानिकों को संदेह है कि पृथ्वी भी श्वास लेती है। पृथ्वी भी श्वास लेती है; रोएं-रोएं, छिद्र-छिद्र से। और इसलिए कोई भी पृथ्वी जीवित नहीं हो सकती अगर उसके पास कम से कम दो सौ मील का वायु का घेरा न हो। यह हमारी पृथ्वी भी, दो सौ मील तक वायु का घेरा है इसके चारों तरफ। इसलिए अब तो वैज्ञानिकों को सूत्र मिल गया है कि जिस ग्रह के पास भी वायु का घेरा है, अगर उसमें कार्बन और ऑक्सीजन की एक निश्चित मात्रा है, तो वहां जीवन होगा। क्योंकि वह पृथ्वी जीवित है। इसका मतलब हुआ कि कुछ पृथ्वियां जीवित हैं और कुछ पृथ्वियां मृत हैं। लेकिन जो आज मृत हैं, वे कभी जीवित थीं। और आज जो जीवित हैं, वे कभी मृत हो जाएंगी। इनकी जीवन-प्रक्रिया लंबी है, यह दूसरी बात है कि हम कई बार मरते हैं और जीते हैं--अनेक-अनेक बार--और पृथ्वी जीती रहती है।
पहाड़ भी श्वास लेते हैं। पहाड़ों में भी मुर्दा पहाड़ हैं और जिंदा पहाड़ हैं। जिस पहाड़ी पर हम बैठे हुए हैं, यह एक मरी हुई पहाड़ी है। यह कभी जीवित थी। यह जगत की पुरानी से पुरानी पहाड़ी है। हिमालय इस पहाड़ी के सामने बच्चा है। लेकिन हिमालय अभी जीवित है। यह जान कर आप हैरान होंगे कि हिमालय पर भागने का संन्यासी का आकर्षण गहरे में कुछ और है। हिमालय इस पृथ्वी पर थोड़े से जीवित पर्वतों में से एक है। अभी जीवित है, अभी बढ़ रहा है, अभी श्वास ले रहा है। हिमालय रोज बढ़ रहा है। ऊंचा होता जा रहा है। अभी उसमें गति है, ‘ग्रोथ’ है, बढ़ाव है। जो पर्वत जीवित होता है, उस पर साधना बहुत आसान हो जाती है। लेकिन साधना की पद्धति पर निर्भर करेगा। साधना की पद्धति पर निर्भर करेगा कि कौन सा पहाड़? कुछ साधना की पद्धतियां ऐसी हैं कि मुर्दा पहाड़ सहयोगी होता है।
जैनों ने जहां-जहां अपने तीर्थ चुने हैं, वे सब मुर्दा पहाड़ हैं। जान कर चुने हैं। जैनों की जो साधना की पद्धति है, वह मुर्दा पहाड़ पर सहयोगी है। इसलिए जैनों ने हिमालय को बिलकुल छोड़ दिया। हैरानी की बात मालूम पड़ती है। हिमालय जैसा पर्वत जिस देश में हो, उसमें एक धर्म उसको बिलकुल छोड़ दे, कहीं उससे संपर्क ही न बनाए, जरूर कुछ गहरा कारण होगा। कारण है। हिमालय जिंदा पहाड़ है। जैनों की जो पद्धति है, वह गहरे में तप पर निर्भर है। जितनी मुर्दा जगह हो, तप उतना गहन हो जाता है।
हिंदुओं की जो जीवन-पद्धति है, वह जीवन को घटाने की तरफ नहीं है, बढ़ाने की तरफ है। दोनों एक अंत पर पहुंच जाते हैं। अगर जीवन बिलकुल घट कर शून्य हो जाए, तो आदमी विराट में प्रवेश कर जाता है। या जीवन बढ़ कर बिलकुल पूर्ण हो जाए, तो भी आदमी विराट में प्रवेश कर जाता है। तो हिंदुओं ने जितने भी तीर्थ चुने हैं, जितने स्थान बनाए साधना के, वे जीवित पहाड़ चुने हैं। और अगर जीवित पहाड़ नहीं मिला तो नदी चुनी है। यह मजे की बात है कि कोई मुर्दा नदी नहीं होती। सभी नदियां जिंदा होती हैं। क्योंकि मुर्दा नदी का मतलब होता है कि सिर्फ नदी का रास्ता रह जाता है, पानी तो सूख जाता है। तो मुर्दा नदी का मतलब होता है कि वह खो गई, वह नहीं है।
जहां जीवन मिल सकता था, हिंदुओं ने वहां, वहां-वहां अपने साधना के स्थल चुने। जहां जीवन खो गया था, वहां-वहां जैनों ने अपने साधना के स्थल चुने, ताकि वहां तप में और गहनता हो सके, तप में और गहरा उतरा जा सके।
जैन-पद्धति पूर्ण मृत्यु को उपलब्ध करने की पद्धति है। इसलिए ‘संथारा’ की आज्ञा दी जा सकी। हिंदू-पद्धति पूर्ण जीवन को पाने की पद्धति है। परिणाम एक है। क्योंकि चाहे जीवन शून्य हो जाए और चाहे जीवन पूर्ण हो जाए--दो छोर हैं--उनसे आप बाहर गिर जाते हैं। पूर्णता के छोर से गिरते हैं तो भी, शून्यता के छोर से गिरते हैं तो भी, बाहर गिर जाते हैं।
पृथ्वी भी श्वास ले रही है, पहाड़ भी श्वास ले रहे हैं, उनकी प्रक्रिया भी वही है। उनकी प्रक्रिया भी वही है। जमीन के भीतर कोयले की खदाने हैं। विज्ञान कहता है कि वह जमीन के द्वारा जो कार्बन इकट्ठा होता है, वही है। आपके भीतर भी कोयला इकट्ठा होता है। वही कोयला इकट्ठा हो-हो कर आपको बूढ़ा करता है। जितना कार्बन इकट्ठा होता जाता है, उतने आप बूढ़े होते चले जाते हैं। जिस दिन कार्बन की मात्रा इतनी हो जाती है कि वह आपके जीवन से ज्यादा हो जाता है, उस दिन आप मरने के करीब पहुंच जाते हैं। जिस दिन आप मरते हैं, विज्ञान की भाषा में, उस दिन आप कार्बन हो गए। उस दिन आप में ऑक्सीजन न रही, बात समाप्त हो गई। आपका यंत्र टूट गया। अगर हम इसे जीवन की प्रक्रिया मान लें, है यह जीवन की प्रक्रिया--कम से कम जीवन के प्रकट होने की; जीवन यही नहीं है, लेकिन जीवन के प्रकट होने का अवसर यही है कि वहां एक विशेष संतुलन ऑक्सीडाइजेशन का, ऑक्सीकरण का एक विशेष संतुलन चाहिए--तो सारा विराट जगत इसी एक ही प्रक्रिया से जीता है। और सारा विराट जगत एक ही आंदोलन से जीता है। पृथ्वी श्वास लेती है, यह तो ठीक ही है।
इधर कुछ रूसी वैज्ञानिकों का खयाल बनना शुरू हुआ है कि जैसे हमारी छाती फूलती है और सिकुड़ती है श्वास लेने में, ऐसे पृथ्वी प्रतिपल थोड़ी बड़ी और छोटी होती है। बहुत बार शायद पृथ्वी के इसी हड़कंप से बहुत से हलन-चलन पैदा हो जाते हैं। आज नहीं कल यह बात शायद साफ हो जाएगी कि पृथ्वी पर भी हृदय के दौरे पड़ जाते हैं। न केवल पृथ्वी बल्कि पूरा विश्व भी, पूरा यूनिवर्स भी श्वास लेता है। और पूरा विश्व भी छोटा और बड़ा होता है। जैसे हमारी छाती फूलती और...। निश्चित ही उसके छोटे-बड़े होने का समय बड़ा लंबा होगा। क्योंकि उसकी श्वास बड़ी गहरी होगी।
हिंदुओं ने इसको प्रतीक में कहा है कि जो हमारे लिए एक कल्प है, वह ब्रह्मा के लिए एक दिन है। तो जो हमारे लिए करोड़ों श्वास होंगी, वह ब्रह्मा के लिए शायद एक श्वास हो। शायद वह श्वास इतनी लंबी होगी कि हम उस श्वास में अनेक बार जन्मेंगे और मरेंगे। इसलिए हमें उसका पता भी नहीं चलेगा।
जब हम श्वास ले रहे हैं तब उसमें भी जीवाणु मर रहे हैं, उनको कभी पता नहीं चलेगा। हमारी एक श्वास भीतर जाती है, उस बीच हमारी श्वास में न मालूम कितने करोड़ जीवाणु जी लेते हैं--जन्म लेते हैं और मर जाते हैं। हमारा ओंठ एक बार दूसरे ओंठ से मिलता है, उस मिलने के क्षण में न मालूम कितने करोड़ जीवाणु जी लेते हैं--जन्म लेते हैं, मर जाते हैं। उन्हें पता भी नहीं चलेगा कि यह ओंठ वापस खुलेगा। जो हमारी श्वास में जन्मा, जीया, जन्म दे गया दूसरों को, मर गया, उसे कैसे पता चलेगा कि यह श्वास अब बाहर भी लौटेगी?
पूरा विश्व श्वास ले रहा है। इसी को हिंदुओं ने कहा है कि जो अंड में है, जो पिंड में है, वही ब्रह्मांड में है। विस्तार है। जो अणु में है, वही विराट में है। विस्तार का फर्क है।
लेकिन ऋषि कहता है: ‘मैं छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हूं। इस विचित्र संसार को मेरा ही रूप मानना चाहिए। इस विचित्र संसार को मेरा ही रूप मानना चाहिए! मैं ही पुरातन पुरुष हूं, जो सबका आधार है। मैं ही शिव का रूप हूं और मैं ही हिरण्यमय हूं।’
इस विचित्र संसार को मेरा ही रूप मानना। विचित्र जान कर कहा है। विचित्र इसलिए कहा है कि गणित इसे समझा न पाएगा। तर्क इसे हल न कर पाएगा। यही इसकी विचित्रता है। और जो इसे तर्क से हल करने चलेगा, वह भटक जाएगा। वह इसे कभी हल न कर पाएगा। तर्क जिसे हल कर लेता है, वह विचित्र नहीं है। गणित जिसे निबटा लेता है, वह विचित्र नहीं है। विचित्र का मतलब ही होता है कि गणित जहां असमर्थ है, तर्क जहां व्यर्थ है, जहां हिसाब-किताब से कुछ पकड़ में नहीं आता है--बल्कि उसकी पकड़ में आ जाता है जो सब हिसाब-किताब छोड़ कर छलांग लगा जाता है। यह संसार विचित्र इसलिए है कि कभी-कभी पागल इसे समझ लेते हैं और बुद्धिमान इसे चूक जाते हैं।
शायद हमारी सभी की पीड़ा ही यही है कि अति बुद्धिमत्ता है। शायद हमारी पीड़ा ही यही है कि हमने सब नियम खोज लिए हैं कि ठीक क्या है, सत्य क्या है, सही क्या है, और जो उसमें नहीं बैठता तो हम मुश्किल में पड़ जाते हैं।
यूनान ने तर्क को जन्म दिया और दो-ढाई हजार वर्षों में उसकी काफी प्रक्रिया को विकसित किया। लेकिन मजे की घटना यूरोप में घटी। और वह घटना यह घटी कि यूनान ने तर्क के आधार से सत्य को खोजने की जो चेष्टा की थी, सत्य तो नहीं मिला दो हजार वर्षों की चेष्टा में, मिला कुछ और। और पश्चिम में यूनान की जड़ों पर बढ़े हुए पौधे का जो आज फूल खिला है, वह कहता है: जीवन में कोई सत्य है ही नहीं; जीवन अर्थहीन है, मीनिंगलेस है। जीवन एब्सर्ड है, बेमानी है। सत्य तो मिला नहीं, अर्थ तो मिला नहीं, जीवन का अभिप्राय तो मिला नहीं, जीवन का प्रयोजन तो मिला नहीं, जीवन किसलिए है इसका उत्तर तो मिला नहीं, लेकिन तर्क जैसे-जैसे बढ़ता चला गया वैसे-वैसे निष्पत्ति हाथ में यह आई कि सत्य है ही नहीं, और सत्य की सारी बातचीत केवल शब्दों का खेल है।
इसलिए पश्चिम में अनुभव किया जा रहा है कि दर्शन मर गया है। ऑक्सफोर्ड हो, या कैंब्रिज हो, या हावर्ड हो, वहां जो आज पढ़ाया जा रहा है दर्शन के नाम पर, वह दर्शन बिलकुल नहीं है। वहां आज यह पढ़ाया जा रहा है कि दर्शन का जन्म ही भाषागत भूल से हुआ है। लिंग्विस्टिक है मामला, भाषा का मामला है। यह गलती भाषा की हो गई है। यह भाषा की वजह से आदमी ऐसे-ऐसे सवाल उठा लेता है, फिर उनके प्रश्न पूछने लगता है। कोई सत्य नहीं है। सत्य केवल भाषागत खेल है। और कोई अर्थ नहीं है जीवन में, अर्थ सब कल्पित है। और जीवन में कोई श्रृंखलाबद्ध सूत्र नहीं है, जीवन एक अराजकता है।
तर्क यहां ले जाएगा। उसका कारण है, क्योंकि जीवन विचित्र है। जीवन एक रहस्य है। और रहस्य को समझने जब भी कोई तर्क से चलेगा तो असल में वह नहीं समझने का तय करके चला। मैं कहता हूं कि मुझे किसी से प्रेम है। अब प्रेम एक विचित्रता है। आप कहेंगे: कहां है? मुझे दिखा दें, तब मैं मुश्किल में पडूंगा। अगर मैं दिखाने की भी कोशिश करूं तो क्या करूंगा? यही कर सकता हूं कि प्रेमपूर्ण व्यवहार करूं। आप कह सकते हैं: यह नाटक नहीं होगा, इसका क्या भरोसा है? यह नाटक हो सकता है। और हम प्रेम के इतने नाटक देख रहे हैं कि संभावना यही है कि नाटक हो। इसमें भीतर कोई ऑथेंटिक, कोई प्रामाणिकता है, इसका क्या सबूत है?
हनुमान से कोई पूछता है तो अपनी छाती फाड़ कर बता देते हैं। मगर अगर अभी इस वक्त बताएंगे तो हम पकड़ कर उनको अस्पताल में ले जाकर जांच करवाएंगे कि जरूर कोई चालबाजी है। इसमें राम जो अंदर दिखाई पड़ते हैं, पहले से कुछ इंतजाम किया हुआ है। प्रि-अरेंज्ड होना चाहिए। अन्यथा हृदय में कहां राम होने वाले हैं। क्या प्रमाण है कि प्रेम है? अब तक तो कोई प्रमाण दिया नहीं जा सका। यह भी मजे की बात है कि आप सब विचार करते हैं--भला सब प्रेम न करते हों, विचार तो करते ही हैं--लेकिन इसे अब तक भी सिद्ध नहीं किया जा सकता कि आप विचार करते हैं। क्योंकि क्या प्रमाण है? आपके मस्तिष्क को काटा-पीटा जाए, वहां कोई विचार नहीं मिलते। आपके हृदय को काटा-पीटा जाए, वहां कोई प्रेम नहीं मिलता। आपके हृदय में फुफ्फस मिलता है जो श्वास को चलाने का यंत्र है। आपके मस्तिष्क में बहुत-बहुत सूक्ष्म स्नायुओं का जाल मिलता है, विचार तो कोई मिलते नहीं। इन स्नायुओं के जाल में विचार कहां होते होंगे, यह भी साफ नहीं हो पाता। कैसे होते होंगे, यह भी कठिनाई मालूम पड़ती है। क्योंकि विचार और स्नायु, इनका कोई तालमेल नहीं दिखता।
यह बिजली का तार फैला हुआ है। इस तार को अगर कोई काट कर जांच करे तो बिजल
ी नहीं मिलेगी। तार की जांच से तार ही मिलेगा, बिजली नहीं मिलेगी। बिजली थी जरूर, बल्ब जलता था जरूर, लेकिन तार के काटने से नहीं मिलती है। तार से कुछ भिन्न उसमें प्रवाहित होता है। काटते से ही प्रवाह बंद हो जाता है। जैसे ही मस्तिष्क को काटते हैं, प्रवाह बंद हो जाता है।
एक नई चिकित्सा की दिशा पैदा होनी शुरू हुई है, जो कहती है कि आदमी के संबंध में जितने भी अभी तक के निदान हैं, डाइग्नोसिस का ढंग है, वह सब गलत है। जैसे समझ लें कि आप बीमार हैं और आपके खून को निकाल कर जांच की जाती है, तो नये विचारक यह कह रहे हैं कि जो खून भीतर बहता है वह जीवित था, और आपने बाहर निकाल लिया, वह मर गया। मरे की जांच करके जीवित के संबंध में जो निर्णय लिया जा रहा है, वह ठीक नहीं है। शरीर के भीतर वह खून जिंदा था, उसका गुणधर्म और था, वह जीवन की धारा में प्रवाहित था, उसमें एक बिजली दौड़ रही थी जो जीवन था; आपने उसे शरीर के बाहर निकाल लिया, वह बिजली तो पीछे छूट गई, तार हाथ में आया। बिजली पीछे छूट गई, अब तार की जांच करके आप जो निर्णय ले रहे हैं, उस निर्णय से आप बिजली को प्रवाहित करने की कोशिश करेंगे। यह सब भ्रांत है।
शायद आज नहीं कल हमें आदमी के भीतर ही शरीर को जांचने के उपाय खोजने पड़ेंगे। बाहर मुर्दा हो जाता है। उसका गुणधर्म ही बदल गया।
जीवन विचित्र है, क्योंकि तर्क से समझ में नहीं आता। और तर्क से जो समझ में आता है, उसमें से जीवन चूक जाता है, छूट जाता है, छिटक जाता है। जैसे पारे पर कोई मुट्ठी बांधे और पारा छिटक जाए, ऐसा ही जीवन छिटक जाता है। तर्क की मुट्ठी बांधी और जीवन छिटक जाता है। मगर अगर हम जिद करते जाएं कि चाहे जीवन छिटके, लेकिन हम तर्क को तो पूरा करके ही रहेंगे, तो आखिर में हम पाएंगे की जीवन व्यर्थ है। जीवन है ही नहीं। सब धोखा है। सब असत्य है।
फिर भी इससे कोई मर तो नहीं जाता है। सार्त्र कितना ही कहता हो कि जीवन अर्थहीन है, फिर भी जीएगा। और मार्क्सियन कितना ही कहे कि जीवन बेबूझ है, व्यर्थ है, जीएगा। और कोई कुछ भी कहे, बेबूझ होने से, व्यर्थ होने से, अकारण होने से, अराजक होने से कोई मर तो जाता नहीं। लेकिन तब उदासी से जीता है और तब जीवन एक संताप बन जाता है। तब जीवन एक बोझ है, जिसे खींचना पड़ता है।
यूनान में एक विचारक हुआ, पिरहो। वह कहता था: जीवन इतना व्यर्थ है कि आत्महत्या के सिवाय कोई सार्थकता नहीं है। लेकिन पिरहो नब्बे वर्ष तक जीया, और जब नब्बे वर्ष का बूढ़ा हो गया था, तब किसी ने पिरहो से पूछा कि तुम जिंदगी भर समझाते रहे कि जीवन व्यर्थ है और आत्महत्या के सिवाय कोई मार्ग नहीं दिखाई पड़ता इससे छूटने का, तुम अब तक मरे क्यों नहीं? तो पिरहो ने कहा मामला ऐसा है कि लोगों को समझाने के लिए मुझे जीना पड़ा। कई लोग मर गए, ऐसी कथा है कि पिरहो की मान कर कई लोगों ने आत्महत्या कर ली, कई शिष्य आत्महत्या कर लिए, लेकिन पिरहो को मजबूरी में, लोगों को समझाने के निमित्त जीना पड़ा। लेकिन लोगों को समझाने की जरूरत ही क्या है कि अगर जीवन व्यर्थ है? और समझा कर भी क्या समझ में आएगा?
कम से कम पिरहो का जीवन तो सार्थक मालूम पड़ता है। समझा रहे हैं। सफल हो रहे हैं, कोई मर रहा है और वे बेचारे इस सबके लिए जी रहे हैं! उनका जीवन कम से कम सार्थक मालूम होता है, भला दूसरों को उन्होंने समझा दिया हो कि व्यर्थ है! और पिरहो प्रसन्नता से जी रहे हैं, क्योंकि कन्वर्ट उन्हें मिलते हैं, शिष्य मिलते हैं। वे प्रसन्नता से जी रहे हैं।
अगर सार्त्र भी जी रहा है, और जीवन व्यर्थ है, तो फिर जीना भारी हो जाएगा।
अलबर्ट कामू ने अपनी एक बहुत महत्वपूर्ण किताब इस वक्तव्य से शुरू की है कि एक ही दार्शनिक प्रश्न है मनुष्य के सामने, वह है आत्मघात। दि ओनली मैटाफिजिकल प्रॉब्लम बिफोर मैनकाइंड इ़ज सुसाइड। जीवन नहीं है सवाल, आत्मघात है सवाल। और यह यूनान के तर्क की दो हजार साल की निष्पत्ति, यह भूल है।
भारत एक दूसरी दिशा से काम करता रहा है। भारत की दिशा है जीवन के रहस्य को, उसकी विचित्रता को तर्क से हल करने की नहीं, अनुभूति से प्रवेश करने की। विचार करके कोई उपाय नहीं है विचित्र को समझने का। विचार दुश्मनी है, उपाय नहीं है। चिंतन से कोई द्वार नहीं खुलता। रहस्य के समक्ष चिंतन मूढ़ता है। चिंतन का अपना मार्ग है।
जहां रहस्य न हो, वहां चिंतन का उपाय है। लेकिन जहां रहस्य हो, वहां चिंतन के कपड़े बाहर ही उतार कर नग्न प्रवेश करना उचित है। जहां चिंतन का क्षेत्र न हो--कहां है वह क्षेत्र जो चिंतन का नहीं है? खंड को जानना हो तो विचार उपयोगी है, अखंड को जानना हो तो निर्विचार उपयोगी है। टुकड़े को समझना हो तो तर्क उपयोगी है; विराट को, समग्र को समझना हो, तर्क उपयोगी नहीं है।
क्यों?
क्योंकि तर्क काट कर ही समझता है, विश्लेषण करके ही समझता है। तर्क की पद्धति ही तोड़ना है। इसलिए अगर जोड़ को समझना है तो तर्क से समझना एकदम बेमानी है। अगर तलवार का काम काटना है, तो किसी चीज को जोड़ने के लिए तलवार का उपयोग करना मूढ़ता है। क्योंकि उसमें तलवार का कोई कसूर नहीं है। तलवार का काम ही काटना है। वह है ही काटने के लिए। उठाई तलवार और चले कोई चीज जोड़ने, तो आखिर में जोड़ और मुश्किल हो जाएगा। जो जुड़ा था वह और टूट जाएगा।
तर्क तलवार है, किसी भी तथ्य को तोड़ने के लिए। निश्चित तोड़ने से भी बहुत बातें समझ में आती हैं। विज्ञान उस प्रक्रिया का उपयोग करता है। विज्ञान है विश्लेषण, एनालिसिस तोड़ना, इसलिए तर्क है उपाय। धर्म है संश्लेषण, सिंथेसिस, जोड़ना--इसलिए तर्क नहीं है उपाय। और अगर तर्क उपाय नहीं है तो फिर यह सूत्र ठीक कहता है: इस विचित्र संसार को मेरा ही रूप मानना चाहिए। विचित्र है संसार। अतर्क्य है। इल्लॉजिकल है, इररेशनल है। बुद्धि की जिद करें तो बाहर ही खड़े रह जाते हैं। बुद्धि को छोड़ें, तो ही भीतर प्रवेश है। इसलिए मैंने कहा कि कभी-कभी पागल पहुंच जाते हैं और बुद्धिमान अटक जाते हैं। इसलिए बुद्धिमानों की नजरों में जीसस पागल ही हैं। कुछ लोगों ने पश्चिम में ऐसी किताबें लिखी हैं, जिनमें सिद्ध करने की कोशिश की है कि जीसस विक्षिप्त थे। क्योंकि कोई आदमी अपने होश में यह कैसे कह सकता है कि मैं ईश्वर का पुत्र हूं! क्या मतलब इसका?
हिंदुस्तान इतना हिम्मतवर नहीं है, नहीं तो हम कृष्ण को भी कहेंगे कि इस आदमी का दिमाग खराब था। क्योंकि कोई आदमी कैसे कह सकता है कि सब छोड़ कर मेरी शरण में आ! यह तो निपट अहंकार मालूम पड़ता है, यह तो पागलपन की आखिरी ऊंचाई है कि एक आदमी कहे कि सब छोड़ कर मेरी शरण में आ; मैं ही सब-कुछ हूं।
अगर यह सूत्र भी हम फ्रायडियन मनस्विद से पूछेंगे: इसका अर्थ क्या है? तो वह कहेगा: मैं, छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा भी मैं ही हूं--यह दिमाग खराब हो गया है! न्यूरोसिस है। या तो छोटे हो सकते हो या बड़े हो सकते हो। दोनों तो एक साथ होने की बात ही अलग है। और अगर वह सुने कि यह भी कह रहा है ऋषि कि इस विचित्र संसार को मेरा ही रूप मानना; और मैं ही पुरातन पुरुष हूं; जिससे यह सब जन्मा, वह मैं ही हूं; और जिसमें यह सब लीन होगा वह अंतिम भी मैं ही हूं; तो वह कहेगा कि यह आखिरी बात हो गई। इस आदमी ने सब होश खो दिए। यह जो ‘ईगो’ है, इतनी बड़ी हो गई कि पुरातन को भी घेर रही है। यह अहंकार इतना बड़ा गुब्बारा हो गया कि इसने सब घेर लिया।
फ्रायडिन मनस्विद ‘अहं ब्रह्मास्मि’--मैं ब्रह्म हूं--इस घोषणा को अहंकार की आखिरी विक्षिप्तता कहेगा। इसके आगे कुछ भी नहीं मान सकता। और अगर तर्क से चलें, तो वह ठीक कहता है। अगर हम यह मान लें कि तर्क ही चलने का एक उपाय है, तो वह बिलकुल ठीक कहता है। लेकिन बड़े मजे कि बात है कि जो ऐसा कह पाता है, उसके जीवन में ऐसे फूल खिलते हैं--जो कह पाता है, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, उसके जीवन में ऐसे फूल खिलते हैं, उसके जीवन से ऐसा संगीत बहता है, उसके जीवन से ऐसी आनंद की किरणें फूटने लगती हैं, उसके जीवन में चारों तरफ शीतल हवाएं बहने लगती हैं, न केवल वह आनंद से भर जाता है, उसको जो छू लेता है निकट से, उसके पास जो आ जाता है, वह भी किसी अपूर्व प्रसाद का भागीदार हो जाता है। लेकिन फ्रायड, जो कहता है कि ये सब पागल हैं, वह रात अंधेरे में बिना बिजली जलाए नहीं सो सकता। सदा भयभीत है। जरा सा कोई उसके खिलाफ बोल दे तो वह इतना क्रोधित हो जाता है कि उस क्रोध में कुछ भी कर सकता है। बुद्ध को वह समझेगा कि वे एब्नार्मल हैं, तो वे थोड़े चूक गए। खुद को वह समझता है नार्मल।
अगर बुद्ध एब्नार्मल हैं, तो फिर एब्नार्मल होना ही उचित है। अगर बुद्ध पागल हैं, तो फिर पागल होना ही उचित है। अगर फ्रायड बुद्धिमान है, तो फिर ऐसी बुद्धिमानी सिर्फ बुद्धिहीन ही चुनेंगे।
लेकिन तर्क! फ्रायड का कसूर नहीं है। फ्रायड वैज्ञानिक है। बुद्धि उसके पास विश्लेषण की है। संश्लेषण का उसके पास कोई उपाय नहीं है। हाथ में उसके तलवार है। चीजों को काटता है। काट कर खंड हाथ लगते हैं, अखंड खो जाता है। फूल के टुकड़े हाथ लगते हैं, फूल का सौंदर्य खो जाता है; कविता के शब्द हाथ लगते हैं, काव्य खो जाता है। चित्र के टुकड़े हाथ लगते हैं, रंग, केनवास हाथ लगता है, चित्र की समग्रता खो जाती है। वह भी क्या करे! उसकी टेबल पर, जिस प्रयोगशाला की टेबल पर वह बैठा है, वहां काटने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। काट-काट कर टुकड़े हाथ लगते हैं। एक सुंदरतम चित्र भी टुकड़ों में कुरूप हो जाता है, बेमानी हो जाता है।
मेरी अपनी दृष्टि यह है कि सार्त्र और उस तरह के सारे विचारक, जो कहते हैं, जीवन मीनिंगलेस है, उसका कारण यही है कि टुकड़े उनके हाथ में हैं जीवन के। एक कविता के पच्चीस टुकड़े करके बांट दें लोगों को, अर्थहीन हो जाएगी। अर्थ तो जोड़ में था।
एक मजेदार घटना घटी है वानगॉग के जीवन में--एक डच पेंटर था, अदभुत। किसी स्त्री ने उसको कभी प्रेम नहीं किया, चेहरा उसका कुरूप था। एक वेश्या ने सिर्फ दयावश--चेहरे में और तो कोई ऐसी चीज उसको दिखाई नहीं पड़ी जिसकी प्रशंसा करे--वानगॉग के कान की प्रशंसा कर दी कि तुम्हारे कान बड़े सुंदर हैं। यह पहला मौका था जीवन में कि वानगॉग के किसी हिस्से की किसी ने प्रशंसा की, किसी सुंदर स्त्री ने। किसी सुंदर स्त्री ने प्रशंसा की हो, तो वानगॉग ऐसा अभिभूत हो गया कि घर गया, कान काटा, कपड़े में लपेटा और वेश्या को भेंट कर आया। वेश्या तो घबड़ा गई! उसने कहा: यह तुमने क्या किया? उसने कहा कि किसी ने कभी मेरी किसी भी चीज की तो प्रशंसा नहीं की। तुम्हें कान इतना पसंद आ गया तो मैंने सोचा भेंट ही कर आऊं।
लेकिन कटा हुआ कान बेमानी है, अर्थहीन है। उसमें अगर कोई अर्थ था भी तो सारे शरीर की संयुक्तता में था। यह वेश्या इसे फेंकने के सिवाय और क्या कर सकती है?
करीब-करीब पूरे जीवन के साथ वैज्ञानिक के प्रभाव में, तर्कशास्त्री के प्रभाव में हमने यही किया है। सब चीजें काट डाली हैं। कट कर सब चीजें व्यर्थ हो गई हैं। किसी चीज में कोई अर्थ और किसी चीज में कोई अभिप्राय नहीं रहा है। और किसी चीज में कोई रस नहीं रह गया है, क्योंकि जीवन की धार ही कट गई है और सूख गई है। सब मुर्दा-मुर्दा हो गया है।
मृत्यु हो सकती है खंडों में, जीवन सदा अखंड में है। और यह अखंडता समस्त आयामों में है। इसलिए सूत्र कहता है: पुरातन पुरुष मैं ही हूं। सबसे पहले जो था, वह मैं ही हूं। सबसे अंत में जो होगा, वह भी मैं ही हूं। जिसने सबको आच्छादित किया है, वह भी मैं ही हूं। जो सबसे आच्छादित होकर भीतर छिपा है, वह भी मैं ही हूं।
ये ‘मैं’ की घोषणाएं नहीं हैं। इनका ‘मैं’ से कोई भी संबंध नहीं है। ये केवल अनुभूत तथ्य हैं। जो उन्होंने जाने जिन्होंने तर्क को फेंका और रहस्य को अंगीकार किया। और जिन्होंने बुद्धि को, बहुत बुद्धि के साथ प्रयोग करके देखा और पाया कि बुद्धि जीवन को छीन लेती है, मृत्यु को हाथ में दे देती है। अगर बुद्धि के हाथ में सब-कुछ रहा तो जगत एक मरघट के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता। जीवन बुद्धि से बड़ा है। और जीवन बुद्धि के पार है। और बुद्धि का कोई तालमेल जीवन से नहीं हो पाता।
असल बात यह है कि बुद्धि केवल जीवन का एक उपकरण है, उपादेय। सीमाओं में, मर्यादाओं में। जीवन बड़ा है और विराट है। क्षुद्र से जब भी हम विराट को समझने चलेंगे तो क्षुद्र अपनी सीमाएं विराट पर भी थोप देता है। जीवन को जीकर जाना जा सकता है, सोच कर नहीं। जीवन को जीवन होकर जाना जा सकता है, विचार कर नहीं। और जीवन जैसा है, उसे वैसा ही जानने की हिम्मत हो तो ही जाना जा सकता है। अगर पहले से ही हम तय कर के चले कि जीवन ऐसा होना चाहिए तो ही स्वीकार करेंगे, तो फिर कभी नहीं जाना जा सकता। बुद्धि पहले ही तय करके चलती है। बुद्धि निर्णय पहले ले लेती है। बुद्धि कहती है: जो संगत है, वही सत्य होगा। और सत्य बिलकुल असंगत मालूम होता है। तब मुश्किल खड़ी हो जाती है।
बुद्धि कहती है: दो और दो मिल कर चार होने ही चाहिए। और जिंदगी बड़ी विचित्र है, यहां कभी दो और दो मिल कर पांच भी हो जाते हैं, और कभी दो और दो मिल कर तीन भी रह जाते हैं। जिंदगी जीवंत है। मुर्दा चीजों को अगर जोड़ो तो दो और दो मिल कर चार ही होती हैं। लेकिन जिंदा चीजों को जोड़ो तो कुछ भी हो सकता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। कुछ कहा नहीं जा सकता!
अगर हम दो प्रेमियों को अलग-अलग नापें, और फिर वह प्रेम में पड़ जाएं तब नापें, तो क्या आप समझते हैं कि दो मिल कर वह सिर्फ दो ही होंगे। वे हजार गुना बढ़ जाते हैं, दो ही नहीं होते। अगर कभी आपने प्रेम का क्षण जाना है, तो आप पाएंगे कि प्रेम के क्षण में आपकी न मालूम कितनी ऊर्जाएं जग जाती हैं जो कभी जगी नहीं थीं। तो जब दो प्रेमी मिलते हैं तब दो व्यक्ति नहीं मिलते हैं, दो जगत मिल जाते हैं। और जोड़ दो नहीं होता, जोड़ कुछ भी हो सकता है। और प्रतिपल जोड़ बदलता रहेगा। सुबह कुछ होगा, दोपहर कुछ होगा, सांझ कुछ होगा। आज कुछ होगा, कल कुछ होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।
जिंदगी बेबूझ है, तर्क की पकड़ के बाहर है। तर्क मुर्दा ढांचे हैं। जिंदगी किसी ढांचे को मानती नहीं। जिंदगी सब ढांचों को तोड़ कर बहती है। जिंदगी बहती चली जाती है, कोई नियम नहीं मानती। लेकिन अराजक नहीं है। यह नियम न मानना उसकी गहन स्वतंत्रता है, अराजकता नहीं। इस गैर-नियम में भी एक गहरी संगति है। लेकिन वह संगति उन्हीं को दिखाई पड़ेगी जो तर्क की संगति का ढांचा जबरदस्ती बिठाने की कोशिश न करें।
मैंने सुना है, एक यूनानी लोककथा है कि एक आदमी के पास एक बहुत बहुमूल्य बिस्तर था। एक बहुमूल्य चारपाई थी, स्वर्ण की, हीरे जवाहरातों से जड़ी। इतनी महंगी थी चारपाई, बिस्तर इतना महंगा था कि उसे तो छोटा-बड़ा नहीं किया जा सकता था, तो जब कोई मेहमान उसके घर आता, उस पर वह उसे सुलाता, वह मेहमान को छोटा-बड़ा कर देता था। अगर मेहमान की टांग बाहर निकलती तो रात काट देता। चारपाई बहुत कीमती थी और चारपाई को छोटा-बड़ा नहीं किया जा सकता था। और मेहमान की सेवा की दृष्टि से कि मेहमान को तकलीफ न हो, अगर पैर लंबे होते तो पैर छांट देता; अगर गर्दन बाहर जाती तो गर्दन छांट देता। अगर पैर छोटे होते, तो दो पहलवान लगा कर खिंचाई करवा देता, ताकि ठीक से बिस्तर पर वह आदमी आ जाए।
यह आदमी बिलकुल तर्कयुक्त था। यह आदमी बुद्धिमानी की आखिरी सीमा था। वही कर रहा था जो सभी बुद्धिमान करते हैं। वही कर रहा था जो सभी तर्कशास्त्री करते हैं। ढांचा तय है, आपको हम छोटा-बड़ा कर लेंगे। आपके साथ ढांचा बदलने वाला नहीं है।
धर्म का यही भेद है। धर्म कहता है कि हम जीवन जैसा है उसे स्वीकार करते हैं। और जैसा है जीवन वैसा ही उसे जानेंगे। जैसा है जीवन वैसा ही उसे जीएंगे। हम... कोई बुद्धि को ऊपर से आरोपित करने का आग्रह हमारा नहीं है। तभी अखंड जाना जा सकता है। और तभी रहस्य में प्रवेश है।
पुरातनोऽहं पुरुषोऽहमीशो हिरण्मयोऽहं शिवरूपमस्मि।।20।।
मैं छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हूं। इस विचित्र संसार को मेरा ही रूप मानना चाहिए। मैं ही पुरातन पुरुष हूं, जो सबका आधार है। मैं ही शिव का रूप हूं और मैं ही हिरण्यमय हूं।।20।।
जीवन खंडों में विभजित नहीं है, अखंड है। खंडों में विभाजित दिखाई पड़ता है तो भी अखंड है। बहुत तरह के खंड दिखाई पड़ते हैं, लेकिन सभी खंड मूल आधार में संयुक्त हैं और इकट्ठे हैं। अन्यथा जगत के होने की संभावना ही नहीं है, अस्तित्व के होने की संभावना ही नहीं है। अस्तित्व बिखर जाए, अगर खंडों में हो। अस्तित्व बिखरता नहीं क्योंकि खंडों में बंटा हुआ नहीं है, अखंड है।
इसे हम ऐसा समझें। मेरा हाथ है, एक खंड है; मेरी आंख है, एक खंड है; मेरे पैर हैं, एक खंड है; लेकिन मैं अखंड हूं। और मेरी आंख और मेरा हाथ गहरे में जुड़े हैं, संयुक्त हैं। मेरी आंख देखती है और मेरा हाथ चीज को उठाने को बढ़ जाता है। मेरी आंख देखती है सड़क पर सांप को और मेरा पैर छलांग लगा लेता है। फिर भी पैर अलग हैं, पैर देख नहीं सकते, आंख छलांग नहीं लगा सकती। हाथ छू सकते हैं, कान सुन सकते हैं। हृदय धड़कता है, मस्तिष्क सोचता है। खून बहता है, हड्डी-मांस-मज्जा बनती है, ये सब खंड हैं। और एक-एक खंड अलग से समझने की हम कोशिश करें तो अलग दिखाई पड़ता है।
लेकिन गहरे में उतरें तो सभी खंडों के भीतर कोई एक भी छाया हुआ है, जो सभी को घेरे हुए है। अन्यथा आंख देखे और पैर छलांग लगा जाएं, यह कैसे हो? कहीं न कहीं आंख और पैर जुड़े होने चाहिए। कहीं न कहीं आंख और पैर एक ही चीज के दो रूप होने चाहिए। कहीं गहरे में जहां हृदय धड़कता है, वहीं मस्तिष्क का विचार भी जुड़ा होना चाहिए। क्योंकि मस्तिष्क में विचार का फर्क होता है, हृदय की धड़कन बदल जाती है। मस्तिष्क में विचार का फर्क होता है, खून की चाल बदल जाती है। मस्तिष्क में क्रोध होता है, रक्तचाप बढ़ जाता है। मस्तिष्क में वासना जगती है, सारा शरीर प्रभावित हो जाता है, आंदोलित हो जाता है। पैर में कांटा गड़ता है, आंख में आंसू आ जाते हैं। कहीं न कहीं पैर और आंख, कहीं न कहीं हृदय और मस्तिष्क, कहीं न कहीं इस शरीर का अणु-अणु संयुक्त होना चाहिए।
वह संयुक्तता दिखाई नहीं पड़ती। दिखाई तो ये खंड पड़ते हैं। वह संयुक्तता ओझल है आंख से। होगी ही। गहन में, गहरे में छिपी है। ठीक ऐसे ही, जैसे यह व्यक्ति, हमारा व्यक्ति संयुक्त है ऐसे ही यह पूरा विराट भी संयुक्त है।
इसे हम एक तरफ से समझें तो शायद खयाल में आ जाए।
एक-एक आदमी के शरीर में कोई सात करोड़ जीवकोश हैं, अर्थ होता है कि एक व्यक्ति के शरीर को बनाने में सात करोड़ जीवंत कोश काम करते हैं। मतलब सात करोड़ जीवन आपके भीतर बसे हैं। आप एक बड़ी बस्ती हैं। इसलिए भारतीयों ने आपके शरीर को पुर कहा है और आपको पुरुष कहा है। आप एक बड़ी बस्ती हैं। सात करोड़ व्यक्ति आपके भीतर हैं। प्रत्येक सेल अपने-अपने में अपनी नियति रखता है, अपना व्यक्तित्व रखता है। आपके शरीर का एक-एक सेल एक-एक व्यक्ति है, अपनी हैसियत से। आपकी हैसियत से नहीं, अपनी ही हैसियत से एक-एक व्यक्ति है। आपके सेल को बाहर निकाल लिया जाए, तो वह जिंदा रहेगा, आपके बिना भी, और करोड़ों वर्ष तक जिंदा रह सकता है। आप तो सत्तर वर्ष में समाप्त हो जाएंगे, वह करोड़ों वर्ष तक जिंदा रह सकता है, अपनी हैसियत से। उसका अपना छोटा सा हृदय है और अपना छोटा सा मस्तिष्क है। और वैज्ञानिक कहते हैं: आज नहीं कल शायद हमें पता चले कि उसका अपना अनुभव, उसके अपने विचार, उसका अपना अहंकार है। क्यों? क्योंकि वह अपनी आत्मरक्षा करता है। वह अपने जीवन को बचाने की चेष्टा करता है। हमले में सिकुड़ जाता है, प्रेम में फैल जाता है। वह भी प्रेम करता है।
और उस जीवकोश को आपका कोई भी पता नहीं है कि आप भी हैं! ये जो सात करोड़ जीवकोश हैं आपके शरीर में, इनको बिलकुल भी पता नहीं है कि इनका जुड़ कर भी कोई एक व्यक्ति है। इन सबके जोड़ से भी कोई एक समग्र व्यक्तित्व निर्मित हो रहा है, इसका इन्हें कोई भी पता नहीं है।
उपनिषद मानते हैं, रहस्यवादी मानते हैं--कहना ठीक नहीं कि मानते हैं, वे जानते ही हैं--कि ठीक हम भी इस विराट जगत में छोटे-छोटे जीवकोश हैं। और हम सबसे मिल कर भी जो निर्मित हो रहा है, उसका हमें पता नहीं है। जिस दिन पता चल जाता है उसी दिन उसका नाम परमात्मा है। हम सब भी इस विराट में जीवकोश हैं। हम अपनी हैसियत से जीते हैं। जैसे हमारे शरीर का जीवकोश अपनी हैसियत से जीता है। शायद किसी दिन सूक्ष्म निरीक्षण से पता चलेगा कि उस जीवकोश के भीतर भी छोटे जीवकोश हैं, जो अपनी हैसियत से जीते हैं।
जैसे अणु हैं भौतिकविद के लिए, परमाणु हैं, इलेक्ट्रान हैं, इनसे मिल कर सारा पदार्थ बना है। ठीक ऐसे ही चैतन्य के भी कण हैं, जीवकोश हैं, उनसे मिल कर समस्त जीवन बना है। इस विराट जीवन को खंड-खंड में देखना ही विज्ञान है, इसको अखंड देख पाना धर्म है।
अगर आपके शरीर को भी वैज्ञानिक छुएगा तो वह खंड-खंड कर लेगा। तोड़ लेगा टुकड़ों में। एक-एक सेल को अलग करके समझने की कोशिश करेगा। निश्चित ही। क्योंकि आपके शरीर के किसी सेल को आपका पता नहीं है, आपके शरीर का कोई भी सेल आपकी खबर नहीं दे सकता है। इसलिए वैज्ञानिक कहेगा: आदमी के भीतर कोई आत्मा नहीं है। आदमी करोड़ों सेलों का एक जोड़-मात्र है--इकाई नहीं, सिर्फ जोड़। आदमी अलग से कुछ भी नहीं है। आत्मा अलग से कुछ भी नहीं है। इन सात करोड़ जीवनकोशों का जोड़ है। फिर वह एक जीवनकोश को भी काटेगा तो पाएगा, उसमें कुछ रासायनिक तत्व हैं, पाएगा कि कुछ धातुएं हैं, पाएगा कि कुछ रस हैं, पाएगा कि कुछ पदार्थ हैं। वे पदार्थ के कण भी उसे खबर नहीं देंगे कि हमसे मिलकर जो बनता था, वह एक जीवन था। वे भी सिर्फ अपनी ही खबर देंगे, उन्हें भी उस जीवन का कोई पता नहीं है।
तो अंततः वैज्ञानिक कहेगा कि जीवकोश रासायनिक पदार्थों का जोड़ है और व्यक्ति की आत्मा इन जीवकोशों का जोड़ है। जोड़ है! इसको ठीक से समझ लेना। अलग कोई व्यक्तित्व नहीं है जीवन में, सिर्फ जोड़ है! खंडों का जोड़ है, अखंड है।
धर्म इसकी ठीक विपरीत मान्यता है। धर्म कहता है: खंड का जोड़ नहीं है अखंड। खंड अखंड का भाग है। अखंड खंडों का जोड़ नहीं है। खंड अखंड का भाग है। खंडों के जोड़ से अखंड नहीं बनता, अखंड अपनी हैसियत से है। वह कोई गाणितिक जोड़ नहीं है, सावयव एकता है। अखंड अपनी हैसियत से है, खंडों को उसका पता नहीं है। क्योंकि खंड को अखंड का पता इसलिए नहीं होता कि खंड अपने भीतर ही बंध कर जीता है। उसे पता नहीं होता। जब खंड अपने से बाहर निकलता है, अपने से ऊपर उठता है, जाग कर अपने से पार देखता है, तब उसे अखंड की प्रतीति शुरू होती है।
इस अपने से ऊपर उठने का ही सूत्र साक्षी है। इस अपने से पार उठने का सूत्र साक्षी है। जब भी कोई अपने प्रति भी साक्षी होकर देखता है, तो उसके भीतर अखंड का स्मरण शुरू हो जाता है। क्योंकि यह सब जोड़ तो उसे दिखाई पड़ता है--हाथ दिखाई पड़ता है, पैर दिखाई पड़ते हैं, आंख दिखाई पड़ती हैं, इन सबको वह देखने वाला कौन है? वह अलग हो जाता है। अलग होते से ही खंड के ऊपर अखंड की छाया पड़नी शुरू हो जाती है, या खंड के भीतर अखंड का अंकुरण शुरू हो जाता है। या खंड के भीतर जो सोया हुआ भाव था वह टूट जाता है, जागरण पकड़ता है और अपने से पार आंख उठती है।
ऐसा हम समझें कि मां के पेट में एक बच्चा है गर्भ में, उसे इस जगत का कोई भी तो पता नहीं है। क्यों पता नहीं है? क्योंकि मां के पेट में जो बच्चा है, वह अपनी ही हैसियत से एक इकाई है। और उसका जगत से कोई भी सीधा संबंध नहीं है। उसे पता भी नहीं है कि सूरज निकलता है, चांद-तारे हैं; उसे पता भी नहीं कि लोग हैं, विराट जगत है, उसे कुछ भी पता नहीं है। और गर्भ के भीतर बच्चा इतना सुनिश्चित इकाई में बंधा हुआ है कि वह अपने को ही जगत मान ले तो कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि न उसे खाने के लिए आयोजन करना पड़ता है, न उसे पीने के लिए आयोजन करना पड़ता है, न उसे आत्म-रक्षा के लिए आयोजन करना पड़ता है, उसे कुछ करना ही नहीं पड़ता है, वह सिर्फ होता है। और परिपूर्ण होता है। उसको कहीं कोई कमी नहीं होती। उसे खयाल भी नहीं आ सकता कि मुझसे अलग भी कुछ है। लेकिन गर्भ के बाहर आएगा, अपनी सीमाओं को तोड़ेगा तो जगत का प्रारंभ होगा।
इसलिए वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे का जन्म जो है, बहुत ट्रामैटिक है, उसे बड़ा धक्का लगता है। एकदम एक सीमा में बंधा हुआ अस्तित्व था, एकदम से टूट जाता है और एक असीम जगत में खड़ा हो जाता है, जहां कुछ भी सूझता नहीं है। पहली बार पता चलता है, मैं ही नहीं हूं और भी बहुत कुछ है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह धक्का इतना गहरा है कि जिंदगी भर इस धक्के से आदमी सम्हल नहीं पाता। और मनोवैज्ञानिक तो यह भी कहते हैं--इसमें थोड़ी सचाई है--कि आदमी जो शांति की खोज करता है, आनंद की खोज करता है, स्वतंत्रता की खोज करता है, आत्मा की खोज करता है, परमात्मा की खोज करता है, यह उसके गर्भ के अनुभव के कारण करता है। क्योंकि गर्भ में वह परम स्वतंत्र था, परम आनंदित था, परम शांत था, कोई तनाव न था, कोई सीमा न थी, जीवन पूरा का पूरा उपलब्ध था। उसमें कहीं कोई बाधा न थी; कोई जिम्मेवारी न थी, कोई बोझ न था, कोई चिंता न थी।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह जो मोक्ष की खोज है, यह उस गर्भ में जो अनुभव हुई है शांति, उसके ही कारण है। इसमें थोड़ी दूर तक सच्चाई है... इसमें थोड़ी दूर तक सच्चाई है, क्योंकि वह अनुभव गहरा है और फिर इसके बाद जगत का धक्का गहरा है। अभी किसी मनोवैज्ञानिक ने इस बात को और भारतीय चिंतन को जोड़ा नहीं, नहीं तो उन्हें बड़ी हैरानी होगी। अगर वे उस चिंतन को जोड़ेंगे तो भारतीय मन की यह आकांक्षा कि जन्म से कैसे छुटकारा हो, मरण से कैसे छुटकारा हो, तत्काल उनको खयाल में आ जाएगी कि यह जन्म से छुटकारे का मतलब है कि गर्भ से जो धक्का लगा है, उससे कैसे छुटकारा हो? जन्म लेने से जो धक्का लगा है, उससे कैसे छुटकारा हो?
मोक्ष की जो हमारी धारणा है, वह एक विराट गर्भ की है। उसे हमने हिरण्यमय गर्भ कहा भी है: दि वूंब ऑफ दि डिवाइन। वह जो परमात्मा का गर्भ है, उसमें मैं ऐसे लीन हो जाऊं जैसे मां के गर्भ में था। न कोई चिंता, न कोई पीड़ा, न पराए का पता। लेकिन बच्चा बाहर आता है तो उसे जगत दिखाई पड़ता है।
बीज टूटता है, अंकुरित होता है तो उसे सूरज के दर्शन होते हैं। जहां तक हमारी स्थिति है, जैसे हम हैं, अभी हम अहंकार की खोल में बंद हैं। उसके पार हमें कुछ नहीं दिखाई पड़ता। मैं ही मैं दिखाई पड़ता हूं। अगर कभी थोड़ी बहुत झलक किसी की मिलती भी है तो वह भी मेरे होने के कारण मिलती है। ‘मेरा’ मित्र है, ‘मेरा’ भाई है, ‘मेरी’ पत्नी है, ‘मेरा’ पति है। तो ‘मेरे’ से कहीं थोड़ा सा संबंध जुड़ता है तो थोड़ी सी झलक मुझे मिलती है। बस यही मेरा जगत है। इसके पार जो विराट फैला हुआ है, उसका मुझे कोई पता नहीं है।
धर्म एक पुनर्जन्म है, एक री-बर्थ। एक और गर्भ को तोड़ना है। यह अहंकार को भी तोड़ देना है। लेकिन यह अहंकार तभी टूटे, जब मेरे खंडों का जो जोड़ है उसके पार मुझमें कोई अंकुरण शुरू हो जाए। कुछ भिन्न मेरे भीतर जागने लगे, मेरे जोड़ से ज्यादा। जिस दिन व्यक्ति को खंडों के बीच अखंड की प्रतीति शुरू होती है, उसी दिन ब्रह्म की यात्रा पर हम निकले, ऐसा जानना।
पहली बात कि अखंड खंडों का जोड़ नहीं है। इसे हम और थोड़ा इस तरह से समझ लें तो शायद खयाल में आ जाए। क्योंकि बात तो कठिन है। और अनुभव की न होने से और कठिन हो जाती है समझना।
एक से दस तक की गिनती है, यह सिर्फ जोड़ है। एक-एक को दस बार जोड़ देने से दस हो गया। अगर एक-एक को दस बार निकाल देंगे तो पीछे शून्य हो जाएगा, कुछ बचेगा नहीं। तो दस खंडों का जोड़ है। जोड़ से ज्यादा कुछ भी नहीं है दस में।
लेकिन एक कविता है, उसमें जितने शब्द हैं उनका जोड़ ही नहीं है वह, उनसे थोड़ी ज्यादा है। वह जो थोड़ी ज्यादा है, वही गणित और काव्य का फर्क है। अगर कोई कहे कि यह सिर्फ शब्दों का जोड़ है तो वह गलत कह रहा है। जब एक कविता को आप पढ़ते हैं, उसके शब्द भूल भी जाएं तो भी कुछ भनक आपके भीतर शेष रह जाती है। शब्द याद भी न रह जाएं तो भी उस काव्य का जिस भांति से हृदय में स्पर्श हुआ था, वह पीछे छूट जाता है। अगर कविता के सारे शब्दों को अलग निकाल कर रख लें, एक कागज पर क्रमवार लिख दें, तो उनको पढ़ने से कुछ भी भाव पैदा नहीं होता। वह कविता के उन्हीं शब्दों को दूसरे ढंग से जमा दें, सब काव्य बिखर जाता है, विसर्जित हो जाता है। कविता को पढ़ते वक्त जो आपके भीतर अनुभूति होती है वह शब्दों का जोड़ नहीं है, जोड़ से कुछ ज्यादा है। शायद इसे भी समझना थोड़ा कठिन हो।
तो ऐसा समझें, एक चित्रकार एक केनवास पर चित्र बनाता है, रंगों से बनता है, लेकिन चित्र रंगों का जोड़ नहीं है। वे ही रंग पिकासो के हाथ में कुछ और हो जाते हैं। वे ही रंग वानगॉग के हाथ में कुछ और हो जाते हैं। वे ही रंग आप भी पोत डालें तो कुछ भी नहीं होते हैं। यह भी हो सकता है कि आप ज्यादा कीमती रंग और ज्यादा रंग केनवास पर पोत डालें, और पिकासो साधारण से रंग को उठा कर केनवास पर फेंक दे तो भी केनवास कुछ और हो जाता है। निश्चित ही रंगों का जोड़ नहीं है चित्र, जोड़ से कुछ ज्यादा है। रंग से प्रकट होता है, लेकिन रंग ही नहीं है। कविता शब्द से प्रकट होती है, लेकिन वह शब्द ही नहीं है।
एक वीणावादक वीणा पर चोट कर रहा है, यह सिर्फ तार पर की गई चोट नहीं है। यह चोट कोई भी कर सकता है, संगीत उससे पैदा नहीं होता। इस चोट में भी एक भीतरी समन्वय है। इस चोट में भी चोट से ज्यादा एक गुण है। यह संगीत जो संगीत सुनाई पड़ रहा है, इस सुनाई पड़ने वाले संगीत में एक छिपा हुआ संगीत भी है। वह छिपा हुआ संगीत प्रकट हो रहा है इस संगीत से, लेकिन इसका जोड़ नहीं है।
जोड़ का मतलब होता है: खंडों में जितना है, जोड़ में भी उतना ही होगा। जोड़ से ज्यादा का अर्थ होता है: खंडों में जो नहीं दिखाई पड़ता था, वह जोड़ में प्रकट होता है। जोड़ खंडों के जोड़ से ज्यादा अगर हो तो सावयव, ऑर्गनिक यूनिटी पैदा हो जाती है।
कई बार ऐसा होता है कि इन दोनों में हम फर्क नहीं कर पाते हैं। और अगर फर्क न कर पाएं तो जीवन का एक बहुमूल्य आयाम खो जाता है। हम फर्क नहीं कर पाते हैं। पहली बात तो हमारी समझ में आ जाती है, दूसरी बात हमारी समझ में नहीं आती।
इसे ऐसा समझें।
मेरे शरीर को काट डाला जाए, सब खंड अलग रख लिए जाएं, और फिर सारे खंडों को जोड़ कर मुझे खड़ा कर दिया जाए। मेरे सारे खंड अलग कर दिए जाएं और फिर मेरे सारे खंडों को जोड़ कर खड़ा कर दिया जाए। फिर इस मोटर का इंजिन है, उसको खोल कर एक-एक टुकड़ा अलग कर दिया जाए और फिर सारे टुकड़े जोड़ दिए जाएं। तो फर्क पता चलेगा कि मोटर का इंजिन अंगों का एक जोड़मात्र था। तोड़ दो, फिर जोड़ दो। फिर इंजिन शुरू हो जाता है। लेकिन आदमी के शरीर को तोड़ दो, फिर बिलकुल वैसा ही जोड़ दो, कुछ भी शुरू नहीं होता। कोई चीज खो गई। जो जोड़ से ज्यादा थी वह खो गई।
इसका मतलब यह हुआ कि जो जोड़मात्र है, उसको हम विश्लेषण से समझ सकते हैं। जो जोड़ से ज्यादा है, उसे हम विश्लेषण से कभी नहीं समझ सकते। इसलिए अनेक बार ऐसा हो जाता है कि व्याकरण में जो बहुत गहरा निष्णात है वह काव्य को समझने में असमर्थ हो जाता है। क्योंकि वह केवल जोड़ जानता है, भाषा के नियम जानता है, भाषा का गणित जानता है, सब जानता है, लेकिन भाषा में कुछ ऐसा भी प्रकट होता है जो नियम के पार है, जो गणित से दूर है, जो व्यवस्था का हिस्सा नहीं है--व्यवस्था में भीतर प्रकट जरूर होता है लेकिन व्यवस्था के बाहर से आता है, उतरता है--वह चूक जाता है। इसलिए भाषाशास्त्री जितना ज्यादा भाषा को जानता है, उतना ही मुश्किल होता जाता है उसे काव्य को समझना। क्योंकि काव्य की समझ एक दूसरे ही आयाम की मांग करती है। वह आयाम है कि जीवन-इकाई खंड का जोड़ नहीं होती, जोड़ से ज्यादा होती है। और वह जो ज्यादा है वह सिर्फ प्रकट होता है। अगर आपने तोड़ दिया तो वह अप्रकट हो जाता है, वह खो जाता है।
इस सूत्र में इस गहन सत्य की उदघोषणा की गई है।
ऋषि ने कहा है: ‘मैं छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हूं।’
दोनों ‘मैं’ ही हूं। ऐसा मत सोचना कि मैं छोटे से छोटा हूं तो मैं बड़े से बड़ा कैसे हो सकूंगा? इस सूत्र में ऋषि कह रहा है कि खंड भी मैं ही हूं और अखंड भी मैं ही हूं। क्षुद्रतम में भी मैं ही हूं और विराटतम में भी मैं हूं। इसका मतलब हुआ कि क्षुद्र और विराट दो चीजें नहीं हैं, संयुक्त हैं। नहीं तो मैं दोनों में कैसे हो सकूंगा? इस अंगुली में मैं ही हूं और इस पूरे शरीर में भी मैं ही हूं। असल में मेरा होना एक विस्तार है, जो क्षुद्र से लेकर विराट तक फैला हुआ है। या ऐसा कहें कि क्षुद्र और विराट मेरे ही दो छोर हैं--सूक्ष्म से सूक्ष्म, जहां दर्शन समाप्त हो जाता है और दिखाई नहीं पड़ता, वहां भी मैं हूं और विराट से विराट, जहां दर्शन को सीमा नहीं मिलती, अनंत हो जाता है, वहां भी मैं ही हूं। यहां ‘मैं’ से अर्थ ऋषि का नहीं है। यहां ‘मैं’ से अर्थ अहंकार का नहीं है। यहां ‘मैं’ से अर्थ उस साक्षी का है, जिसकी पिछले सूत्र में चर्चा की गई है। उस साक्षी का है। उस साक्षी का अनुभव होते ही क्षुद्र और विराट दोनों मेरे छोर हैं।
और यह क्षुद्र और विराट अनेक-अनेक दिशाओं में फैला हुआ है। जिसे जीसस ने कहा है: बिफोर अब्राहम आइ वा़ज--अब्राहम था, उसके पहले भी मैं था। अब्राहम को हुए हजारों वर्ष हो चुके थे जीसस के वक्त में। अब्राहम के पहले मैं था, इसका क्या मतलब है? अर्जुन से कृष्ण ने कहा है कि इसी गीता को जो मैं तुझ से कहता हूं, मैंने पहले फलां ऋषि को कहा था। उसके पहले फलां ऋषि को कहा था। उसके पहले फलां ऋषि को कहा था। और इन ऋषियों को हुए हजारों वर्ष हो चुके थे।
ये कृष्ण और जीसस क्या कह रहे हैं? ये यह कह रहे हैं कि समय के आयाम में जो प्रथम है वह भी मैं हूं, और समय के आयाम में जो अंतिम होगा वह भी मैं ही हूं। यह जो समय की धारा है, इसमें प्रथम और अंतिम जुड़े हैं। यह समय की पूरी धारा मेरी ही धारा है। क्षुद्रतम कण है, उसमें भी मैं हूं। और एक विराट सूर्य है, उसमें भी मैं हूं। यह क्षेत्र, स्पेस के दो छोर हैं--छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा। पहला, अंतिम--ये समय के छोर हैं। हर आयाम में एक का ही विस्तार है।
ऊपर से देखने से बहुत कठिन होगा मालूम कि एक क्षुद्र कण पड़ा है आपके आंगन में, वह भी वही है, और यह विराट जगत भी वही है। गणित मुश्किल में पड़ेगा। क्योंकि गणित कैसे मान सकता है कि यह छोटा सा कण और यह विराट जगत, दोनों एक हैं। गणित कहेगा: यह छोटा सा कण है, कहां यह विराट जगत! कहां यह विराट जगत, कहां यह छोटा सा कण! कहां यह घास की दूब और कहां यह विराट जीवन! लेकिन घास के एक छोटे से तिनके में भी वही जीवन प्रकट हो रहा है जो एक महासूर्य में जल रहा है।
इसे अगर हम वैज्ञानिक ढंग से भी समझना चाहें, तो समझ सकते हैं। थोड़ी सहायता मिलेगी।
कभी आपने खयाल न किया होगा कि अगर वैज्ञानिक गणनाओं को भी हम थोड़ी सी गहराई में खोजना शुरू करें और विज्ञान को सीमा में न बांधें और वैज्ञानिक बुद्धि को एक मतांधता न बनाएं, तो विज्ञान से भी झलकें धर्म की ही मिलना शुरू हो जाती हैं। क्योंकि अंततः विज्ञान भी उसी जगह तो काम कर रहा है, उसी जीवन पर जिस पर धर्म। कहीं न कहीं उसकी प्रतीतियां भी धर्म की अनुभूतियों से कुछ न कुछ संबंध तो बनाएंगी ही। क्योंकि दोनों का काम तो एक ही जगह चल रहा है, एक ही जीवन पर। एक छोटा सा घास का तिनका है, उसके भीतर जीवन का विज्ञान में क्या अर्थ है? उसके भीतर भी जीवन का अर्थ वही है जो आपके भीतर है, एक महासूर्य के भीतर है।
महासूर्य के भीतर क्या हो रहा है? बड़े पैमाने पर हो रहा है। हमारी पृथ्वी जितनी बड़ी है, हमारा सूर्य उससे साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन यह बहुत छोटा, मीडियाकर सूर्य है। यह कोई बहुत बड़ा सूर्य नहीं है। इससे बहुत बड़े-बड़े सूर्य जगत में हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई दो अरब सूर्य सारे जगत में हैं। जिनको आप रात में तारे कहते हैं वे महासूर्य हैं। सिर्फ फासला इतना ज्यादा है कि वे छोटे तारे दिखाई पड़ते हैं। यह हमारा सूर्य उनके सामने बहुत छोटा है। इसकी कोई गणना नहीं है। इस विराट जगत में अगर इस सूर्य का आप पता पूछने जाएं तो पता लगाना बहुत मुश्किल होगा कि आप किस सूर्य की बात कर रहे हैं।
जिस दिन हम अंतरिक्ष यात्रा में सफल हो जाएंगे और दूर की यात्रा पर आदमी निकलेगा, उस दिन अगर हमें कहीं किन्हीं दूसरी पृथ्वियों पर--और वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम पचास हजार ग्रहों पर जीवन है, कम से कम होना चाहिए--तो उन ग्रहों पर अगर हम कभी पहुंचेंगे, तब उनको पहली दफा पता चलेगा कि एक सूरज और भी है जिसके पास एक छोटी सी पृथ्वी पर जीवन है। यह जो दो-तीन अरब सूर्यों का विस्तार है, इनमें भी जीवन का जो सूत्र है वह वही है जो एक छोटे से घास के तिनके में है। वैज्ञानिक उसे कहते हैं: ऑक्सीडाइजेशन। वे कहते हैं कि छोटा सा तिनका भी हवा से ऑक्सीजन को पीता है और अपने भीतर जलाता है। उसके जलने से ही जीवन चलता है। जैसे दीया आपका जल रहा है। आपने कभी खयाल किया कि तूफानी हवा चल रही हो और दीया जल रहा है, तो यह हो सकता है कि तूफानी हवा में दीया बच जाए, लेकिन बचाने के लिए अगर आप एक बर्तन उस पर ढांक दें, तो वह जल्दी बुझ जाएगा। क्योंकि बर्तन के भीतर की ऑक्सीजन जैसे ही दीया पी लेगा, जला लेगा, फिर मरेगा, फिर बच नहीं सकता। दीया पूरे वक्त हवा की ऑक्सीजन को लेकर जला रहा है।
आप भी वही कर रहे हैं। पूरे वक्त जो श्वास चल रह रही है, वह ऑक्सीजन लेने के लिए चल रही है, और आप के भीतर एक अग्नि है जो उस ऑक्सीजन को जला रही है। इसलिए आपकी श्वास बंद कर दें और प्राण छूट गए। जब आप दीये पर बर्तन ढांक देते हैं, आपने उसकी श्वास बंद कर दी, प्राण छूट गए। एक घास के ऊपर बर्तन को ढांक दें, आपने उसकी श्वास बंद कर दी। प्राण छूट जाएंगे।
एक खूबसूरत पौधे को घर के भीतर लगा कर रख लें, दो दिन में पाएंगे कि उसका प्राण जाने लगा। क्योंकि उसे जो जीवंत, जो प्रक्रिया थी उसके भीतर विज्ञान के हिसाब से वह इतनी थी कि वह अपने भीतर हवा को ले जाकर उसमें से ऑक्सीजन जला रहा है। और जब ऑक्सीजन जल जाती है, तब जो कार्बन बच जाता है उसको बाहर फेंक रहा है। हम भी फेंक रहे हैं, पूरे वक्त। इसलिए अगर एक भीड़ भरे कमरे में आप सो जाएं और सब तरफ से कमरा बंद हो, तो रात भर में सारे लोग मर सकते हैं। क्योंकि अगर कमरे की ऑक्सीजन चुक जाए और सब कार्बन को फेंकते चले जाएं और फिर मजबूरी में कार्बन ही पीना पड़े, तो आप मर जाएंगे।
चाहे महासूर्य जल रहा हो और चाहे एक घास का तिनका जी रहा हो, और चाहे एक बुद्ध जी रहे हों, जीने का नियम एक ही है। सब अपने-अपने पैमाने पर प्राणव
ायु को जला रहे हैं, विज्ञान के हिसाब से। तो अगर हम यह भी समझें तो भी पता लगेगा कि क्षुद्र से क्षुद्र में और विराट से विराट में एक ही जीवन है।
कुछ वैज्ञानिकों को संदेह है कि पृथ्वी भी श्वास लेती है। पृथ्वी भी श्वास लेती है; रोएं-रोएं, छिद्र-छिद्र से। और इसलिए कोई भी पृथ्वी जीवित नहीं हो सकती अगर उसके पास कम से कम दो सौ मील का वायु का घेरा न हो। यह हमारी पृथ्वी भी, दो सौ मील तक वायु का घेरा है इसके चारों तरफ। इसलिए अब तो वैज्ञानिकों को सूत्र मिल गया है कि जिस ग्रह के पास भी वायु का घेरा है, अगर उसमें कार्बन और ऑक्सीजन की एक निश्चित मात्रा है, तो वहां जीवन होगा। क्योंकि वह पृथ्वी जीवित है। इसका मतलब हुआ कि कुछ पृथ्वियां जीवित हैं और कुछ पृथ्वियां मृत हैं। लेकिन जो आज मृत हैं, वे कभी जीवित थीं। और आज जो जीवित हैं, वे कभी मृत हो जाएंगी। इनकी जीवन-प्रक्रिया लंबी है, यह दूसरी बात है कि हम कई बार मरते हैं और जीते हैं--अनेक-अनेक बार--और पृथ्वी जीती रहती है।
पहाड़ भी श्वास लेते हैं। पहाड़ों में भी मुर्दा पहाड़ हैं और जिंदा पहाड़ हैं। जिस पहाड़ी पर हम बैठे हुए हैं, यह एक मरी हुई पहाड़ी है। यह कभी जीवित थी। यह जगत की पुरानी से पुरानी पहाड़ी है। हिमालय इस पहाड़ी के सामने बच्चा है। लेकिन हिमालय अभी जीवित है। यह जान कर आप हैरान होंगे कि हिमालय पर भागने का संन्यासी का आकर्षण गहरे में कुछ और है। हिमालय इस पृथ्वी पर थोड़े से जीवित पर्वतों में से एक है। अभी जीवित है, अभी बढ़ रहा है, अभी श्वास ले रहा है। हिमालय रोज बढ़ रहा है। ऊंचा होता जा रहा है। अभी उसमें गति है, ‘ग्रोथ’ है, बढ़ाव है। जो पर्वत जीवित होता है, उस पर साधना बहुत आसान हो जाती है। लेकिन साधना की पद्धति पर निर्भर करेगा। साधना की पद्धति पर निर्भर करेगा कि कौन सा पहाड़? कुछ साधना की पद्धतियां ऐसी हैं कि मुर्दा पहाड़ सहयोगी होता है।
जैनों ने जहां-जहां अपने तीर्थ चुने हैं, वे सब मुर्दा पहाड़ हैं। जान कर चुने हैं। जैनों की जो साधना की पद्धति है, वह मुर्दा पहाड़ पर सहयोगी है। इसलिए जैनों ने हिमालय को बिलकुल छोड़ दिया। हैरानी की बात मालूम पड़ती है। हिमालय जैसा पर्वत जिस देश में हो, उसमें एक धर्म उसको बिलकुल छोड़ दे, कहीं उससे संपर्क ही न बनाए, जरूर कुछ गहरा कारण होगा। कारण है। हिमालय जिंदा पहाड़ है। जैनों की जो पद्धति है, वह गहरे में तप पर निर्भर है। जितनी मुर्दा जगह हो, तप उतना गहन हो जाता है।
हिंदुओं की जो जीवन-पद्धति है, वह जीवन को घटाने की तरफ नहीं है, बढ़ाने की तरफ है। दोनों एक अंत पर पहुंच जाते हैं। अगर जीवन बिलकुल घट कर शून्य हो जाए, तो आदमी विराट में प्रवेश कर जाता है। या जीवन बढ़ कर बिलकुल पूर्ण हो जाए, तो भी आदमी विराट में प्रवेश कर जाता है। तो हिंदुओं ने जितने भी तीर्थ चुने हैं, जितने स्थान बनाए साधना के, वे जीवित पहाड़ चुने हैं। और अगर जीवित पहाड़ नहीं मिला तो नदी चुनी है। यह मजे की बात है कि कोई मुर्दा नदी नहीं होती। सभी नदियां जिंदा होती हैं। क्योंकि मुर्दा नदी का मतलब होता है कि सिर्फ नदी का रास्ता रह जाता है, पानी तो सूख जाता है। तो मुर्दा नदी का मतलब होता है कि वह खो गई, वह नहीं है।
जहां जीवन मिल सकता था, हिंदुओं ने वहां, वहां-वहां अपने साधना के स्थल चुने। जहां जीवन खो गया था, वहां-वहां जैनों ने अपने साधना के स्थल चुने, ताकि वहां तप में और गहनता हो सके, तप में और गहरा उतरा जा सके।
जैन-पद्धति पूर्ण मृत्यु को उपलब्ध करने की पद्धति है। इसलिए ‘संथारा’ की आज्ञा दी जा सकी। हिंदू-पद्धति पूर्ण जीवन को पाने की पद्धति है। परिणाम एक है। क्योंकि चाहे जीवन शून्य हो जाए और चाहे जीवन पूर्ण हो जाए--दो छोर हैं--उनसे आप बाहर गिर जाते हैं। पूर्णता के छोर से गिरते हैं तो भी, शून्यता के छोर से गिरते हैं तो भी, बाहर गिर जाते हैं।
पृथ्वी भी श्वास ले रही है, पहाड़ भी श्वास ले रहे हैं, उनकी प्रक्रिया भी वही है। उनकी प्रक्रिया भी वही है। जमीन के भीतर कोयले की खदाने हैं। विज्ञान कहता है कि वह जमीन के द्वारा जो कार्बन इकट्ठा होता है, वही है। आपके भीतर भी कोयला इकट्ठा होता है। वही कोयला इकट्ठा हो-हो कर आपको बूढ़ा करता है। जितना कार्बन इकट्ठा होता जाता है, उतने आप बूढ़े होते चले जाते हैं। जिस दिन कार्बन की मात्रा इतनी हो जाती है कि वह आपके जीवन से ज्यादा हो जाता है, उस दिन आप मरने के करीब पहुंच जाते हैं। जिस दिन आप मरते हैं, विज्ञान की भाषा में, उस दिन आप कार्बन हो गए। उस दिन आप में ऑक्सीजन न रही, बात समाप्त हो गई। आपका यंत्र टूट गया। अगर हम इसे जीवन की प्रक्रिया मान लें, है यह जीवन की प्रक्रिया--कम से कम जीवन के प्रकट होने की; जीवन यही नहीं है, लेकिन जीवन के प्रकट होने का अवसर यही है कि वहां एक विशेष संतुलन ऑक्सीडाइजेशन का, ऑक्सीकरण का एक विशेष संतुलन चाहिए--तो सारा विराट जगत इसी एक ही प्रक्रिया से जीता है। और सारा विराट जगत एक ही आंदोलन से जीता है। पृथ्वी श्वास लेती है, यह तो ठीक ही है।
इधर कुछ रूसी वैज्ञानिकों का खयाल बनना शुरू हुआ है कि जैसे हमारी छाती फूलती है और सिकुड़ती है श्वास लेने में, ऐसे पृथ्वी प्रतिपल थोड़ी बड़ी और छोटी होती है। बहुत बार शायद पृथ्वी के इसी हड़कंप से बहुत से हलन-चलन पैदा हो जाते हैं। आज नहीं कल यह बात शायद साफ हो जाएगी कि पृथ्वी पर भी हृदय के दौरे पड़ जाते हैं। न केवल पृथ्वी बल्कि पूरा विश्व भी, पूरा यूनिवर्स भी श्वास लेता है। और पूरा विश्व भी छोटा और बड़ा होता है। जैसे हमारी छाती फूलती और...। निश्चित ही उसके छोटे-बड़े होने का समय बड़ा लंबा होगा। क्योंकि उसकी श्वास बड़ी गहरी होगी।
हिंदुओं ने इसको प्रतीक में कहा है कि जो हमारे लिए एक कल्प है, वह ब्रह्मा के लिए एक दिन है। तो जो हमारे लिए करोड़ों श्वास होंगी, वह ब्रह्मा के लिए शायद एक श्वास हो। शायद वह श्वास इतनी लंबी होगी कि हम उस श्वास में अनेक बार जन्मेंगे और मरेंगे। इसलिए हमें उसका पता भी नहीं चलेगा।
जब हम श्वास ले रहे हैं तब उसमें भी जीवाणु मर रहे हैं, उनको कभी पता नहीं चलेगा। हमारी एक श्वास भीतर जाती है, उस बीच हमारी श्वास में न मालूम कितने करोड़ जीवाणु जी लेते हैं--जन्म लेते हैं और मर जाते हैं। हमारा ओंठ एक बार दूसरे ओंठ से मिलता है, उस मिलने के क्षण में न मालूम कितने करोड़ जीवाणु जी लेते हैं--जन्म लेते हैं, मर जाते हैं। उन्हें पता भी नहीं चलेगा कि यह ओंठ वापस खुलेगा। जो हमारी श्वास में जन्मा, जीया, जन्म दे गया दूसरों को, मर गया, उसे कैसे पता चलेगा कि यह श्वास अब बाहर भी लौटेगी?
पूरा विश्व श्वास ले रहा है। इसी को हिंदुओं ने कहा है कि जो अंड में है, जो पिंड में है, वही ब्रह्मांड में है। विस्तार है। जो अणु में है, वही विराट में है। विस्तार का फर्क है।
लेकिन ऋषि कहता है: ‘मैं छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हूं। इस विचित्र संसार को मेरा ही रूप मानना चाहिए। इस विचित्र संसार को मेरा ही रूप मानना चाहिए! मैं ही पुरातन पुरुष हूं, जो सबका आधार है। मैं ही शिव का रूप हूं और मैं ही हिरण्यमय हूं।’
इस विचित्र संसार को मेरा ही रूप मानना। विचित्र जान कर कहा है। विचित्र इसलिए कहा है कि गणित इसे समझा न पाएगा। तर्क इसे हल न कर पाएगा। यही इसकी विचित्रता है। और जो इसे तर्क से हल करने चलेगा, वह भटक जाएगा। वह इसे कभी हल न कर पाएगा। तर्क जिसे हल कर लेता है, वह विचित्र नहीं है। गणित जिसे निबटा लेता है, वह विचित्र नहीं है। विचित्र का मतलब ही होता है कि गणित जहां असमर्थ है, तर्क जहां व्यर्थ है, जहां हिसाब-किताब से कुछ पकड़ में नहीं आता है--बल्कि उसकी पकड़ में आ जाता है जो सब हिसाब-किताब छोड़ कर छलांग लगा जाता है। यह संसार विचित्र इसलिए है कि कभी-कभी पागल इसे समझ लेते हैं और बुद्धिमान इसे चूक जाते हैं।
शायद हमारी सभी की पीड़ा ही यही है कि अति बुद्धिमत्ता है। शायद हमारी पीड़ा ही यही है कि हमने सब नियम खोज लिए हैं कि ठीक क्या है, सत्य क्या है, सही क्या है, और जो उसमें नहीं बैठता तो हम मुश्किल में पड़ जाते हैं।
यूनान ने तर्क को जन्म दिया और दो-ढाई हजार वर्षों में उसकी काफी प्रक्रिया को विकसित किया। लेकिन मजे की घटना यूरोप में घटी। और वह घटना यह घटी कि यूनान ने तर्क के आधार से सत्य को खोजने की जो चेष्टा की थी, सत्य तो नहीं मिला दो हजार वर्षों की चेष्टा में, मिला कुछ और। और पश्चिम में यूनान की जड़ों पर बढ़े हुए पौधे का जो आज फूल खिला है, वह कहता है: जीवन में कोई सत्य है ही नहीं; जीवन अर्थहीन है, मीनिंगलेस है। जीवन एब्सर्ड है, बेमानी है। सत्य तो मिला नहीं, अर्थ तो मिला नहीं, जीवन का अभिप्राय तो मिला नहीं, जीवन का प्रयोजन तो मिला नहीं, जीवन किसलिए है इसका उत्तर तो मिला नहीं, लेकिन तर्क जैसे-जैसे बढ़ता चला गया वैसे-वैसे निष्पत्ति हाथ में यह आई कि सत्य है ही नहीं, और सत्य की सारी बातचीत केवल शब्दों का खेल है।
इसलिए पश्चिम में अनुभव किया जा रहा है कि दर्शन मर गया है। ऑक्सफोर्ड हो, या कैंब्रिज हो, या हावर्ड हो, वहां जो आज पढ़ाया जा रहा है दर्शन के नाम पर, वह दर्शन बिलकुल नहीं है। वहां आज यह पढ़ाया जा रहा है कि दर्शन का जन्म ही भाषागत भूल से हुआ है। लिंग्विस्टिक है मामला, भाषा का मामला है। यह गलती भाषा की हो गई है। यह भाषा की वजह से आदमी ऐसे-ऐसे सवाल उठा लेता है, फिर उनके प्रश्न पूछने लगता है। कोई सत्य नहीं है। सत्य केवल भाषागत खेल है। और कोई अर्थ नहीं है जीवन में, अर्थ सब कल्पित है। और जीवन में कोई श्रृंखलाबद्ध सूत्र नहीं है, जीवन एक अराजकता है।
तर्क यहां ले जाएगा। उसका कारण है, क्योंकि जीवन विचित्र है। जीवन एक रहस्य है। और रहस्य को समझने जब भी कोई तर्क से चलेगा तो असल में वह नहीं समझने का तय करके चला। मैं कहता हूं कि मुझे किसी से प्रेम है। अब प्रेम एक विचित्रता है। आप कहेंगे: कहां है? मुझे दिखा दें, तब मैं मुश्किल में पडूंगा। अगर मैं दिखाने की भी कोशिश करूं तो क्या करूंगा? यही कर सकता हूं कि प्रेमपूर्ण व्यवहार करूं। आप कह सकते हैं: यह नाटक नहीं होगा, इसका क्या भरोसा है? यह नाटक हो सकता है। और हम प्रेम के इतने नाटक देख रहे हैं कि संभावना यही है कि नाटक हो। इसमें भीतर कोई ऑथेंटिक, कोई प्रामाणिकता है, इसका क्या सबूत है?
हनुमान से कोई पूछता है तो अपनी छाती फाड़ कर बता देते हैं। मगर अगर अभी इस वक्त बताएंगे तो हम पकड़ कर उनको अस्पताल में ले जाकर जांच करवाएंगे कि जरूर कोई चालबाजी है। इसमें राम जो अंदर दिखाई पड़ते हैं, पहले से कुछ इंतजाम किया हुआ है। प्रि-अरेंज्ड होना चाहिए। अन्यथा हृदय में कहां राम होने वाले हैं। क्या प्रमाण है कि प्रेम है? अब तक तो कोई प्रमाण दिया नहीं जा सका। यह भी मजे की बात है कि आप सब विचार करते हैं--भला सब प्रेम न करते हों, विचार तो करते ही हैं--लेकिन इसे अब तक भी सिद्ध नहीं किया जा सकता कि आप विचार करते हैं। क्योंकि क्या प्रमाण है? आपके मस्तिष्क को काटा-पीटा जाए, वहां कोई विचार नहीं मिलते। आपके हृदय को काटा-पीटा जाए, वहां कोई प्रेम नहीं मिलता। आपके हृदय में फुफ्फस मिलता है जो श्वास को चलाने का यंत्र है। आपके मस्तिष्क में बहुत-बहुत सूक्ष्म स्नायुओं का जाल मिलता है, विचार तो कोई मिलते नहीं। इन स्नायुओं के जाल में विचार कहां होते होंगे, यह भी साफ नहीं हो पाता। कैसे होते होंगे, यह भी कठिनाई मालूम पड़ती है। क्योंकि विचार और स्नायु, इनका कोई तालमेल नहीं दिखता।
यह बिजली का तार फैला हुआ है। इस तार को अगर कोई काट कर जांच करे तो बिजल
ी नहीं मिलेगी। तार की जांच से तार ही मिलेगा, बिजली नहीं मिलेगी। बिजली थी जरूर, बल्ब जलता था जरूर, लेकिन तार के काटने से नहीं मिलती है। तार से कुछ भिन्न उसमें प्रवाहित होता है। काटते से ही प्रवाह बंद हो जाता है। जैसे ही मस्तिष्क को काटते हैं, प्रवाह बंद हो जाता है।
एक नई चिकित्सा की दिशा पैदा होनी शुरू हुई है, जो कहती है कि आदमी के संबंध में जितने भी अभी तक के निदान हैं, डाइग्नोसिस का ढंग है, वह सब गलत है। जैसे समझ लें कि आप बीमार हैं और आपके खून को निकाल कर जांच की जाती है, तो नये विचारक यह कह रहे हैं कि जो खून भीतर बहता है वह जीवित था, और आपने बाहर निकाल लिया, वह मर गया। मरे की जांच करके जीवित के संबंध में जो निर्णय लिया जा रहा है, वह ठीक नहीं है। शरीर के भीतर वह खून जिंदा था, उसका गुणधर्म और था, वह जीवन की धारा में प्रवाहित था, उसमें एक बिजली दौड़ रही थी जो जीवन था; आपने उसे शरीर के बाहर निकाल लिया, वह बिजली तो पीछे छूट गई, तार हाथ में आया। बिजली पीछे छूट गई, अब तार की जांच करके आप जो निर्णय ले रहे हैं, उस निर्णय से आप बिजली को प्रवाहित करने की कोशिश करेंगे। यह सब भ्रांत है।
शायद आज नहीं कल हमें आदमी के भीतर ही शरीर को जांचने के उपाय खोजने पड़ेंगे। बाहर मुर्दा हो जाता है। उसका गुणधर्म ही बदल गया।
जीवन विचित्र है, क्योंकि तर्क से समझ में नहीं आता। और तर्क से जो समझ में आता है, उसमें से जीवन चूक जाता है, छूट जाता है, छिटक जाता है। जैसे पारे पर कोई मुट्ठी बांधे और पारा छिटक जाए, ऐसा ही जीवन छिटक जाता है। तर्क की मुट्ठी बांधी और जीवन छिटक जाता है। मगर अगर हम जिद करते जाएं कि चाहे जीवन छिटके, लेकिन हम तर्क को तो पूरा करके ही रहेंगे, तो आखिर में हम पाएंगे की जीवन व्यर्थ है। जीवन है ही नहीं। सब धोखा है। सब असत्य है।
फिर भी इससे कोई मर तो नहीं जाता है। सार्त्र कितना ही कहता हो कि जीवन अर्थहीन है, फिर भी जीएगा। और मार्क्सियन कितना ही कहे कि जीवन बेबूझ है, व्यर्थ है, जीएगा। और कोई कुछ भी कहे, बेबूझ होने से, व्यर्थ होने से, अकारण होने से, अराजक होने से कोई मर तो जाता नहीं। लेकिन तब उदासी से जीता है और तब जीवन एक संताप बन जाता है। तब जीवन एक बोझ है, जिसे खींचना पड़ता है।
यूनान में एक विचारक हुआ, पिरहो। वह कहता था: जीवन इतना व्यर्थ है कि आत्महत्या के सिवाय कोई सार्थकता नहीं है। लेकिन पिरहो नब्बे वर्ष तक जीया, और जब नब्बे वर्ष का बूढ़ा हो गया था, तब किसी ने पिरहो से पूछा कि तुम जिंदगी भर समझाते रहे कि जीवन व्यर्थ है और आत्महत्या के सिवाय कोई मार्ग नहीं दिखाई पड़ता इससे छूटने का, तुम अब तक मरे क्यों नहीं? तो पिरहो ने कहा मामला ऐसा है कि लोगों को समझाने के लिए मुझे जीना पड़ा। कई लोग मर गए, ऐसी कथा है कि पिरहो की मान कर कई लोगों ने आत्महत्या कर ली, कई शिष्य आत्महत्या कर लिए, लेकिन पिरहो को मजबूरी में, लोगों को समझाने के निमित्त जीना पड़ा। लेकिन लोगों को समझाने की जरूरत ही क्या है कि अगर जीवन व्यर्थ है? और समझा कर भी क्या समझ में आएगा?
कम से कम पिरहो का जीवन तो सार्थक मालूम पड़ता है। समझा रहे हैं। सफल हो रहे हैं, कोई मर रहा है और वे बेचारे इस सबके लिए जी रहे हैं! उनका जीवन कम से कम सार्थक मालूम होता है, भला दूसरों को उन्होंने समझा दिया हो कि व्यर्थ है! और पिरहो प्रसन्नता से जी रहे हैं, क्योंकि कन्वर्ट उन्हें मिलते हैं, शिष्य मिलते हैं। वे प्रसन्नता से जी रहे हैं।
अगर सार्त्र भी जी रहा है, और जीवन व्यर्थ है, तो फिर जीना भारी हो जाएगा।
अलबर्ट कामू ने अपनी एक बहुत महत्वपूर्ण किताब इस वक्तव्य से शुरू की है कि एक ही दार्शनिक प्रश्न है मनुष्य के सामने, वह है आत्मघात। दि ओनली मैटाफिजिकल प्रॉब्लम बिफोर मैनकाइंड इ़ज सुसाइड। जीवन नहीं है सवाल, आत्मघात है सवाल। और यह यूनान के तर्क की दो हजार साल की निष्पत्ति, यह भूल है।
भारत एक दूसरी दिशा से काम करता रहा है। भारत की दिशा है जीवन के रहस्य को, उसकी विचित्रता को तर्क से हल करने की नहीं, अनुभूति से प्रवेश करने की। विचार करके कोई उपाय नहीं है विचित्र को समझने का। विचार दुश्मनी है, उपाय नहीं है। चिंतन से कोई द्वार नहीं खुलता। रहस्य के समक्ष चिंतन मूढ़ता है। चिंतन का अपना मार्ग है।
जहां रहस्य न हो, वहां चिंतन का उपाय है। लेकिन जहां रहस्य हो, वहां चिंतन के कपड़े बाहर ही उतार कर नग्न प्रवेश करना उचित है। जहां चिंतन का क्षेत्र न हो--कहां है वह क्षेत्र जो चिंतन का नहीं है? खंड को जानना हो तो विचार उपयोगी है, अखंड को जानना हो तो निर्विचार उपयोगी है। टुकड़े को समझना हो तो तर्क उपयोगी है; विराट को, समग्र को समझना हो, तर्क उपयोगी नहीं है।
क्यों?
क्योंकि तर्क काट कर ही समझता है, विश्लेषण करके ही समझता है। तर्क की पद्धति ही तोड़ना है। इसलिए अगर जोड़ को समझना है तो तर्क से समझना एकदम बेमानी है। अगर तलवार का काम काटना है, तो किसी चीज को जोड़ने के लिए तलवार का उपयोग करना मूढ़ता है। क्योंकि उसमें तलवार का कोई कसूर नहीं है। तलवार का काम ही काटना है। वह है ही काटने के लिए। उठाई तलवार और चले कोई चीज जोड़ने, तो आखिर में जोड़ और मुश्किल हो जाएगा। जो जुड़ा था वह और टूट जाएगा।
तर्क तलवार है, किसी भी तथ्य को तोड़ने के लिए। निश्चित तोड़ने से भी बहुत बातें समझ में आती हैं। विज्ञान उस प्रक्रिया का उपयोग करता है। विज्ञान है विश्लेषण, एनालिसिस तोड़ना, इसलिए तर्क है उपाय। धर्म है संश्लेषण, सिंथेसिस, जोड़ना--इसलिए तर्क नहीं है उपाय। और अगर तर्क उपाय नहीं है तो फिर यह सूत्र ठीक कहता है: इस विचित्र संसार को मेरा ही रूप मानना चाहिए। विचित्र है संसार। अतर्क्य है। इल्लॉजिकल है, इररेशनल है। बुद्धि की जिद करें तो बाहर ही खड़े रह जाते हैं। बुद्धि को छोड़ें, तो ही भीतर प्रवेश है। इसलिए मैंने कहा कि कभी-कभी पागल पहुंच जाते हैं और बुद्धिमान अटक जाते हैं। इसलिए बुद्धिमानों की नजरों में जीसस पागल ही हैं। कुछ लोगों ने पश्चिम में ऐसी किताबें लिखी हैं, जिनमें सिद्ध करने की कोशिश की है कि जीसस विक्षिप्त थे। क्योंकि कोई आदमी अपने होश में यह कैसे कह सकता है कि मैं ईश्वर का पुत्र हूं! क्या मतलब इसका?
हिंदुस्तान इतना हिम्मतवर नहीं है, नहीं तो हम कृष्ण को भी कहेंगे कि इस आदमी का दिमाग खराब था। क्योंकि कोई आदमी कैसे कह सकता है कि सब छोड़ कर मेरी शरण में आ! यह तो निपट अहंकार मालूम पड़ता है, यह तो पागलपन की आखिरी ऊंचाई है कि एक आदमी कहे कि सब छोड़ कर मेरी शरण में आ; मैं ही सब-कुछ हूं।
अगर यह सूत्र भी हम फ्रायडियन मनस्विद से पूछेंगे: इसका अर्थ क्या है? तो वह कहेगा: मैं, छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा भी मैं ही हूं--यह दिमाग खराब हो गया है! न्यूरोसिस है। या तो छोटे हो सकते हो या बड़े हो सकते हो। दोनों तो एक साथ होने की बात ही अलग है। और अगर वह सुने कि यह भी कह रहा है ऋषि कि इस विचित्र संसार को मेरा ही रूप मानना; और मैं ही पुरातन पुरुष हूं; जिससे यह सब जन्मा, वह मैं ही हूं; और जिसमें यह सब लीन होगा वह अंतिम भी मैं ही हूं; तो वह कहेगा कि यह आखिरी बात हो गई। इस आदमी ने सब होश खो दिए। यह जो ‘ईगो’ है, इतनी बड़ी हो गई कि पुरातन को भी घेर रही है। यह अहंकार इतना बड़ा गुब्बारा हो गया कि इसने सब घेर लिया।
फ्रायडिन मनस्विद ‘अहं ब्रह्मास्मि’--मैं ब्रह्म हूं--इस घोषणा को अहंकार की आखिरी विक्षिप्तता कहेगा। इसके आगे कुछ भी नहीं मान सकता। और अगर तर्क से चलें, तो वह ठीक कहता है। अगर हम यह मान लें कि तर्क ही चलने का एक उपाय है, तो वह बिलकुल ठीक कहता है। लेकिन बड़े मजे कि बात है कि जो ऐसा कह पाता है, उसके जीवन में ऐसे फूल खिलते हैं--जो कह पाता है, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, उसके जीवन में ऐसे फूल खिलते हैं, उसके जीवन से ऐसा संगीत बहता है, उसके जीवन से ऐसी आनंद की किरणें फूटने लगती हैं, उसके जीवन में चारों तरफ शीतल हवाएं बहने लगती हैं, न केवल वह आनंद से भर जाता है, उसको जो छू लेता है निकट से, उसके पास जो आ जाता है, वह भी किसी अपूर्व प्रसाद का भागीदार हो जाता है। लेकिन फ्रायड, जो कहता है कि ये सब पागल हैं, वह रात अंधेरे में बिना बिजली जलाए नहीं सो सकता। सदा भयभीत है। जरा सा कोई उसके खिलाफ बोल दे तो वह इतना क्रोधित हो जाता है कि उस क्रोध में कुछ भी कर सकता है। बुद्ध को वह समझेगा कि वे एब्नार्मल हैं, तो वे थोड़े चूक गए। खुद को वह समझता है नार्मल।
अगर बुद्ध एब्नार्मल हैं, तो फिर एब्नार्मल होना ही उचित है। अगर बुद्ध पागल हैं, तो फिर पागल होना ही उचित है। अगर फ्रायड बुद्धिमान है, तो फिर ऐसी बुद्धिमानी सिर्फ बुद्धिहीन ही चुनेंगे।
लेकिन तर्क! फ्रायड का कसूर नहीं है। फ्रायड वैज्ञानिक है। बुद्धि उसके पास विश्लेषण की है। संश्लेषण का उसके पास कोई उपाय नहीं है। हाथ में उसके तलवार है। चीजों को काटता है। काट कर खंड हाथ लगते हैं, अखंड खो जाता है। फूल के टुकड़े हाथ लगते हैं, फूल का सौंदर्य खो जाता है; कविता के शब्द हाथ लगते हैं, काव्य खो जाता है। चित्र के टुकड़े हाथ लगते हैं, रंग, केनवास हाथ लगता है, चित्र की समग्रता खो जाती है। वह भी क्या करे! उसकी टेबल पर, जिस प्रयोगशाला की टेबल पर वह बैठा है, वहां काटने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। काट-काट कर टुकड़े हाथ लगते हैं। एक सुंदरतम चित्र भी टुकड़ों में कुरूप हो जाता है, बेमानी हो जाता है।
मेरी अपनी दृष्टि यह है कि सार्त्र और उस तरह के सारे विचारक, जो कहते हैं, जीवन मीनिंगलेस है, उसका कारण यही है कि टुकड़े उनके हाथ में हैं जीवन के। एक कविता के पच्चीस टुकड़े करके बांट दें लोगों को, अर्थहीन हो जाएगी। अर्थ तो जोड़ में था।
एक मजेदार घटना घटी है वानगॉग के जीवन में--एक डच पेंटर था, अदभुत। किसी स्त्री ने उसको कभी प्रेम नहीं किया, चेहरा उसका कुरूप था। एक वेश्या ने सिर्फ दयावश--चेहरे में और तो कोई ऐसी चीज उसको दिखाई नहीं पड़ी जिसकी प्रशंसा करे--वानगॉग के कान की प्रशंसा कर दी कि तुम्हारे कान बड़े सुंदर हैं। यह पहला मौका था जीवन में कि वानगॉग के किसी हिस्से की किसी ने प्रशंसा की, किसी सुंदर स्त्री ने। किसी सुंदर स्त्री ने प्रशंसा की हो, तो वानगॉग ऐसा अभिभूत हो गया कि घर गया, कान काटा, कपड़े में लपेटा और वेश्या को भेंट कर आया। वेश्या तो घबड़ा गई! उसने कहा: यह तुमने क्या किया? उसने कहा कि किसी ने कभी मेरी किसी भी चीज की तो प्रशंसा नहीं की। तुम्हें कान इतना पसंद आ गया तो मैंने सोचा भेंट ही कर आऊं।
लेकिन कटा हुआ कान बेमानी है, अर्थहीन है। उसमें अगर कोई अर्थ था भी तो सारे शरीर की संयुक्तता में था। यह वेश्या इसे फेंकने के सिवाय और क्या कर सकती है?
करीब-करीब पूरे जीवन के साथ वैज्ञानिक के प्रभाव में, तर्कशास्त्री के प्रभाव में हमने यही किया है। सब चीजें काट डाली हैं। कट कर सब चीजें व्यर्थ हो गई हैं। किसी चीज में कोई अर्थ और किसी चीज में कोई अभिप्राय नहीं रहा है। और किसी चीज में कोई रस नहीं रह गया है, क्योंकि जीवन की धार ही कट गई है और सूख गई है। सब मुर्दा-मुर्दा हो गया है।
मृत्यु हो सकती है खंडों में, जीवन सदा अखंड में है। और यह अखंडता समस्त आयामों में है। इसलिए सूत्र कहता है: पुरातन पुरुष मैं ही हूं। सबसे पहले जो था, वह मैं ही हूं। सबसे अंत में जो होगा, वह भी मैं ही हूं। जिसने सबको आच्छादित किया है, वह भी मैं ही हूं। जो सबसे आच्छादित होकर भीतर छिपा है, वह भी मैं ही हूं।
ये ‘मैं’ की घोषणाएं नहीं हैं। इनका ‘मैं’ से कोई भी संबंध नहीं है। ये केवल अनुभूत तथ्य हैं। जो उन्होंने जाने जिन्होंने तर्क को फेंका और रहस्य को अंगीकार किया। और जिन्होंने बुद्धि को, बहुत बुद्धि के साथ प्रयोग करके देखा और पाया कि बुद्धि जीवन को छीन लेती है, मृत्यु को हाथ में दे देती है। अगर बुद्धि के हाथ में सब-कुछ रहा तो जगत एक मरघट के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता। जीवन बुद्धि से बड़ा है। और जीवन बुद्धि के पार है। और बुद्धि का कोई तालमेल जीवन से नहीं हो पाता।
असल बात यह है कि बुद्धि केवल जीवन का एक उपकरण है, उपादेय। सीमाओं में, मर्यादाओं में। जीवन बड़ा है और विराट है। क्षुद्र से जब भी हम विराट को समझने चलेंगे तो क्षुद्र अपनी सीमाएं विराट पर भी थोप देता है। जीवन को जीकर जाना जा सकता है, सोच कर नहीं। जीवन को जीवन होकर जाना जा सकता है, विचार कर नहीं। और जीवन जैसा है, उसे वैसा ही जानने की हिम्मत हो तो ही जाना जा सकता है। अगर पहले से ही हम तय कर के चले कि जीवन ऐसा होना चाहिए तो ही स्वीकार करेंगे, तो फिर कभी नहीं जाना जा सकता। बुद्धि पहले ही तय करके चलती है। बुद्धि निर्णय पहले ले लेती है। बुद्धि कहती है: जो संगत है, वही सत्य होगा। और सत्य बिलकुल असंगत मालूम होता है। तब मुश्किल खड़ी हो जाती है।
बुद्धि कहती है: दो और दो मिल कर चार होने ही चाहिए। और जिंदगी बड़ी विचित्र है, यहां कभी दो और दो मिल कर पांच भी हो जाते हैं, और कभी दो और दो मिल कर तीन भी रह जाते हैं। जिंदगी जीवंत है। मुर्दा चीजों को अगर जोड़ो तो दो और दो मिल कर चार ही होती हैं। लेकिन जिंदा चीजों को जोड़ो तो कुछ भी हो सकता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। कुछ कहा नहीं जा सकता!
अगर हम दो प्रेमियों को अलग-अलग नापें, और फिर वह प्रेम में पड़ जाएं तब नापें, तो क्या आप समझते हैं कि दो मिल कर वह सिर्फ दो ही होंगे। वे हजार गुना बढ़ जाते हैं, दो ही नहीं होते। अगर कभी आपने प्रेम का क्षण जाना है, तो आप पाएंगे कि प्रेम के क्षण में आपकी न मालूम कितनी ऊर्जाएं जग जाती हैं जो कभी जगी नहीं थीं। तो जब दो प्रेमी मिलते हैं तब दो व्यक्ति नहीं मिलते हैं, दो जगत मिल जाते हैं। और जोड़ दो नहीं होता, जोड़ कुछ भी हो सकता है। और प्रतिपल जोड़ बदलता रहेगा। सुबह कुछ होगा, दोपहर कुछ होगा, सांझ कुछ होगा। आज कुछ होगा, कल कुछ होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।
जिंदगी बेबूझ है, तर्क की पकड़ के बाहर है। तर्क मुर्दा ढांचे हैं। जिंदगी किसी ढांचे को मानती नहीं। जिंदगी सब ढांचों को तोड़ कर बहती है। जिंदगी बहती चली जाती है, कोई नियम नहीं मानती। लेकिन अराजक नहीं है। यह नियम न मानना उसकी गहन स्वतंत्रता है, अराजकता नहीं। इस गैर-नियम में भी एक गहरी संगति है। लेकिन वह संगति उन्हीं को दिखाई पड़ेगी जो तर्क की संगति का ढांचा जबरदस्ती बिठाने की कोशिश न करें।
मैंने सुना है, एक यूनानी लोककथा है कि एक आदमी के पास एक बहुत बहुमूल्य बिस्तर था। एक बहुमूल्य चारपाई थी, स्वर्ण की, हीरे जवाहरातों से जड़ी। इतनी महंगी थी चारपाई, बिस्तर इतना महंगा था कि उसे तो छोटा-बड़ा नहीं किया जा सकता था, तो जब कोई मेहमान उसके घर आता, उस पर वह उसे सुलाता, वह मेहमान को छोटा-बड़ा कर देता था। अगर मेहमान की टांग बाहर निकलती तो रात काट देता। चारपाई बहुत कीमती थी और चारपाई को छोटा-बड़ा नहीं किया जा सकता था। और मेहमान की सेवा की दृष्टि से कि मेहमान को तकलीफ न हो, अगर पैर लंबे होते तो पैर छांट देता; अगर गर्दन बाहर जाती तो गर्दन छांट देता। अगर पैर छोटे होते, तो दो पहलवान लगा कर खिंचाई करवा देता, ताकि ठीक से बिस्तर पर वह आदमी आ जाए।
यह आदमी बिलकुल तर्कयुक्त था। यह आदमी बुद्धिमानी की आखिरी सीमा था। वही कर रहा था जो सभी बुद्धिमान करते हैं। वही कर रहा था जो सभी तर्कशास्त्री करते हैं। ढांचा तय है, आपको हम छोटा-बड़ा कर लेंगे। आपके साथ ढांचा बदलने वाला नहीं है।
धर्म का यही भेद है। धर्म कहता है कि हम जीवन जैसा है उसे स्वीकार करते हैं। और जैसा है जीवन वैसा ही उसे जानेंगे। जैसा है जीवन वैसा ही उसे जीएंगे। हम... कोई बुद्धि को ऊपर से आरोपित करने का आग्रह हमारा नहीं है। तभी अखंड जाना जा सकता है। और तभी रहस्य में प्रवेश है।