UPANISHAD
Kaivalya Upanishad 12
Twelth Discourse from the series of 19 discourses - Kaivalya Upanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during MAR 25 - APR 02 1972.
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यत्परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत्।
सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरं नित्यं तत्त्वमेव त्वमेव तत्।।16।।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तादि प्रपंचं यत्प्रकाशते।
तद् ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्वबन्धैः प्रमुच्यते।।17।।
जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जो सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म है, जो संसार के समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों का आत्मा है, वही तुम हो, तुम वही हो।।16।।
जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में जो मायिक-प्रपंच दिखाई देते हैं वे सब ब्रह्म द्वारा ही प्रकाशित होते हैं और वह ब्रह्म मैं ही हूं--ऐसा जो जान लेता है, वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।।17।।
साधना के दो भाग हैं। समस्त प्रयासों के ही दो भाग होते हैं। एक भाग, जिसमें जो असार है उसे छोड़ना होता, त्यागना होता, उससे तादात्म्य तोड़ना होता है। और दूसरा भाग, जो सार है उसके साथ एकात्म, उसके साथ तादात्म्य जोड़ना पड़ता है। पहला भाग निषेध है, दूसरा भाग विधेय है।
असत्य को असत्य की तरह जानना पड़ेगा, तभी हम सत्य को सत्य की तरह जान पाएंगे। प्रकाश को भी जानना हो तो पहले अंधेरे को जानना पड़ेगा, तो ही हम प्रकाश को जान पाएंगे। जीवन को पहचानना हो तो मौत की भी पहचान बनानी पड़ेगी, तो ही जीवन हमारे खयाल में आएगा। क्योंकि जो भी हमारे खयाल में आता है, उसे खयाल में आने के लिए विपरीत का भी हमारी दृष्टि में होना जरूरी है। अंधेरी रात होती है तो तारे चमकते हैं। दिन के प्रकाश में भी तारे होते हैं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ते। चमकना तो दूर, दिखाई भी नहीं पड़ते। तारे अभी भी आपके ऊपर आकाश में फैले हुए हैं। तारे तो कहीं चले नहीं जाते। कोई सुबह होते से तारे कहीं विलीन नहीं हो जाते हैं। लेकिन सूरज के प्रकाश की पर्त, फिर उन तारों की झलक असंभव हो जाती है। तारों को जानना हो तो रात का गहन अंधेरा चाहिए, तब वे दिखाई पड़ते हैं। और जितना हो गहन अंधेरा, उतने प्रकट होकर, स्पष्ट होकर दिखाई पड़ते हैं।
विपरीत में ही बोध है।
इससे एक बहुत मजेदार बात खयाल में ले लें, फिर हम सूत्र में चलें।
जिन चीजों को हम विपरीत कहते हैं, वे विपरीत फिर नहीं रह जाती हैं, सहयोगी हो जाती हैं। उनके भीतर एक आंतरिक मैत्री बन जाती है। रात का अंधेरा तारों का दुश्मन नहीं है, तारों का मित्र है। क्योंकि उस अंधेरे के बिना तारे प्रकट ही नहीं होते।
फिर तो मृत्यु भी जीवन की दुश्मन नहीं है। फिर तो मृत्यु भी जीवन की मित्र है। क्योंकि मृत्यु के बिना जीवन भी प्रकट नहीं होता। ऐसा अगर देखेंगे तो समझ में आएगा कि जिसे हम शत्रु कहते हैं, वह भी हमारी नासमझी का ही हिस्सा है। जिसे हम बुरा कहते हैं, वह भी हमारी नासमझी का ही हिस्सा है।
इस जगत में सभी विपरीत अंतस में सहयोगी हैं। रावण के बिना राम नहीं हो पाते और न राम के बिना रावण हो पाता। अगर राम को भी जानना हो तो यहीं से शुरू करना पड़ेगा कि रावण क्या है? क्योंकि जो-जो रावण है, वह राम नहीं है। इस सूत्र के पहले तक निषेध की प्रक्रिया की बात थी। मनुष्य का अंतस, अंतरात्मा, मनुष्य का आंतरिक यथार्थ क्या-क्या नहीं है। जाग्रत जो है, वह भी वह नहीं है। स्वप्न जो है, वह भी वह नहीं है। सुषुप्ति जो है, वह भी वह नहीं है। यह जो दिखाई पड़ता है प्रपंच, यह माया है, यह भी वह नहीं है। अभी तक हमने वह क्या नहीं है, इस संबंध में चर्चा की है। इस सूत्र के साथ विधायक बात शुरू होती है--वह क्या है?
और ध्यान रहे, निषेध की बात पहले करनी पड़ती है। निषेध की रेखाओं के बीच में ही विधेय उभरता है। अगर देखा हो कोई पर्वत-शिखर तो उन खाइयों को मत भूलना जो उसे चारों तरफ घेरे हुए हैं। क्योंकि उनके बीच ही वह उभरता है। अगर खाइयां मिटा दो, शिखर मिट जाएगा। खाइयां बड़ी करो, शिखर बड़ा होता चला जाएगा। वह जो खाई है, वह शिखर की दुश्मन नहीं है, उलटी दिखाई पड़ती है। वह सहयोगी है। वह चारों तरफ से उसकी रेखा निर्मित करती है। और जितनी होती है गहरी उतना ही शिखर ऊपर उठता जाता है।
निषेध खाई की तरह है। गड्ढा है। इनकार करना होता है पहले कि क्या-क्या मैं नहीं हूं। क्योंकि जब तक उससे भेद स्पष्ट न हो जाए जो-जो मैं नहीं हूं, तो बहुत मुश्किल होगा उसको पकड़ पाना जो मैं हूं। मेरा होना मेरे न होने से घिरा है। और न होना पहले मुझे मिलेगा। फिर होना मुझे मिलेगा। अगर मैं अपनी तरफ जाऊं अपनी यात्रा पर तो पहले तो मुझे मेरी खाइयां मिलेंगी। और फिर मुझे मेरा शिखर मिलेगा।
इसे बहुत आयामों में समझ लेना।
अगर मैं अपने भीतर जाऊंगा तो पहले तो मुझे मेरी बुराइयां मिलेंगी। और जो बुराई से डरता हो वह फिर कभी भीतर नहीं जा सकेगा। अगर मैं अपने भीतर जाऊंगा तो पहले तो मुझे सारी बुराइयां मिलेंगी। बड़ी ग्लानि होगी, बड़ी आत्मनिंदा जगेगी। लगेगा मुझसे पापी कौन है। सभी संतों ने जो बातें कही हैं, वे आप यह मत समझ लेना कि विनम्रता के कारण कहीं हैं। अक्सर यही समझा जाता है। कबीर ने कहा है: जब मैं खोजने गया तो मुझसे बुरा मैंने कोई भी न पाया। बच्चों को बूढ़े समझाते हैं, स्कूल में शिक्षक विद्यार्थियों को समझातें है कि यह कबीर की विनम्रता है। यह विनम्रता नहीं है। इसका विनम्रता से कोई लेना-देना नहीं है। यह कबीर की शोध है।
जब भी कोई व्यक्ति खोजने जाएगा तो पहले बुराइयों की खाइयां मिलेंगी। और जब बुराइयों की खाइयां पार होंगी, तभी भलाई का शिखर आंखों में आएगा। इसलिए जो अपने को भला मान कर बैठा है, वह भीतर जा ही न सकेगा। क्योंकि इसकी भले मानने ही मान्यता ही उसको डर पैदा करवा देगी कि यहां भीतर गए तो बुराई मिलती है। जो अपने को अहिंसक मान कर बैठा है, क्योंकि रात भोजन नहीं करता है, पानी छान कर पी लेता है, इतनी सस्ती अहिंसा में जिसने अपने को घेर रखा है, वह जरा ही भीतर झांकेगा तो हिंसा मिलेगी। तो घबड़ा जाएगा भीतर जाने से। फिर बाहर ही रहा आएगा।
हम सब अपने बाहर भटक रहे हैं, क्योंकि हम अपनी बुराई की खाई को पार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। साहसपूर्वक जो अपनी बुराई की खाई से गुजर जाता है, वही अपने भलाई के शिखर को उपलब्ध होता है। इसे ऐसा समझें कि जिसे संत होना है, उसे पहले पापी होना पड़ेगा। होना पड़ेगा का मतलब उसे पहले अपने पाप की खाइयों से गुजरना पड़ेगा। और जितना बड़ा होगा संत, उतनी बड़ी पाप की खाई उसके इर्द-गिर्द होगी क्योंकि वह संतत्व का शिखर पाप की खाई के बिना उभरता नहीं है। है ही नहीं कहीं।
अगर खाई से बचना है तो दो उपाय हैं। या तो खाई में प्रवेश ही मत करो और खाई के बाहर ही अपनी जिंदगी बिता दो। लेकिन तब शिखर पर भी कभी नहीं पहुंचोगे। और दूसरा उपाय यह है कि शिखर पर पहुंचो, तो फिर खाई से मुक्त हो जाओगे। लेकिन खाई से मुक्त होने के लिए खाई से गुजरना ही पड़ेगा। ईसाई रहस्यवादियों ने उसे ‘डार्क नाइट ऑफ दि सोल’ कहा है, कि जब भी कोई उस परम प्रकाश की तरफ जाता है तो पहले उसे महा अंधकारपूर्ण रात्रि से गुजरना पड़ता है।
पुण्य के सभी शिखर पाप की रेखाओं से घिरे हैं। उन रेखाओं से भयभीत मत हो जाना। जानना यह, खयाल रखना यह कि जितनी बड़ी खाई हो, उतना ही बड़ा शिखर निकट है। इसलिए न तो निंदा से भरना, न भयभीत होना। न आत्म-ग्लानि अनुभव करना, न ऐसा समझना कि अब क्या होगा! मैं तो पापी हूं! अगर पाप है तो कहीं छिपा पुण्य भी होगा, थोड़ी और यात्रा की बात है।
और यहां एक बात और समझ लें।
इस खाई में उतर कर आदमी दो काम कर सकता है। या तो इस खाई से लड़ने लग जाए, जो कि नैतिक आदमी करता है। और या, इस खाई को पार करने लग जाए, जो कि धार्मिक आदमी करता है। और नैतिक आदमी खाई से ही लड़ कर खाई में ही उलझ जाता है और शिखर तक कभी नहीं पहुंच पाता। धार्मिक आदमी खाई से लड़ता नहीं, सिर्फ खाई से गुजरता है। स्वभावतः अगर खाई से लड़िएगा तो खाई में ही रुकना पड़ेगा, शिखर पर कैसे जाइएगा! जो लड़ेगा, उसे वहीं रुकना पड़ेगा जिससे लड़ेगा। दुश्मन का तल ही हमारा तल हो जाता है। इसलिए बुरा दुश्मन अगर मिल जाए जिंदगी में तो आदमी बुरा हो जाता है। बुरा मित्र इतना नुकसान नहीं पहुंचा पाता, बुरा दुश्मन बहुत नुकसान पहुंचा देता है।
इसलिए मित्र तो कोई भी चुन लें तो चलेगा। दुश्मन बहुत सोच-समझ कर चुनना चाहिए। क्योंकि उससे लड़ना पड़ेगा, उसकी भूमि पर खड़े रहना पड़ेगा। धीरे-धीरे जो भी लोग लड़ते हैं उनका गुणधर्म एक सा हो जाता है। धीरे-धीरे, दोनों एक-दूसरे को बदल कर उस हालत में ला देते हैं कि दो मित्र भी इतने समान कभी नहीं होते, जितने दो दुश्मन समान हो जाते हैं।
नैतिक व्यक्ति का अर्थ है कि जैसे ही उसे भीतर बुराई दिखाई पड़ती है, जो पहला काम करता है, उससे लड़ने का करता है। बुराई से जब आप लड़िएगा तो आप हारिएगा। बुराई से ऊपर उठा जाता है, बुराई को जीता नहीं जाता। ये अलग बातें हैं। बुराई को जीता कभी नहीं जाता, बुराई से ऊपर उठा जाता है। और जो ऊपर उठ जाता है वह जीत भी जाता है। क्योंकि जो हमसे नीचे पड़ जाता है, हम उसके मालिक हो जाते हैं। लेकिन जो बुराई से लड़ता है, समतल भूमि पर खड़ा रहता है। और लड़ने वाला कभी नहीं जीतता। क्योंकि लड़ने वाले का तल ही वही होता है, जो बुराई का तल होता है। तल की बदलाहट क्रांति है।
तो मेरे भीतर हिंसा है। अगर मैं इससे लडूं तो मैं क्या करूंगा? मैं यही कर सकता हूं कि इसको दबाऊं। इसको भुलाऊं। मैं यही कर सकता हूं कि कुछ अहिंसा आरोपित करूं। और अहिंसा को बढ़ाऊं और हिंसा को दबाऊं। लेकिन दबी हुई हिंसा मिटती नहीं है। दबी हुई हिंसा कभी-कभी तो और भी प्रखर हो जाती है, और नये मार्गों से प्रकट होने लगती है।
नैतिक व्यक्ति का साधन जो है, वह है दमन। धार्मिक व्यक्ति का जो साधन है, वह है निरीक्षण, दमन नहीं। धार्मिक व्यक्ति सिर्फ निरीक्षण करता है, कि यह खाई है, यह बुराई है, और साक्षीभाव रखता है और आगे बढ़ा जाता है। और खयाल रखता है कि यहां किसी खाई की, किसी भी चीज से संघर्ष नहीं लेना है। लेना ही नहीं है। नहीं तो संघर्ष ही पड़ाव बन जाएगा। फिर यहीं डेरा डाल कर पड़ा रहना पड़ेगा। और खाई में रह कर खाई को जीतिएगा कैसे? इसलिए नैतिक व्यक्ति को धार्मिक होने में उतनी ही कठिनाई पड़ जाती है जितनी अनैतिक को।
अनैतिक और नैतिक में एक बात समान है। अनैतिक खाई को मान कर वहां रुक जाता है। और नैतिक खाई को न मानने की वजह से लड़ने के लिए वहीं रुक जाता है। लेकिन तल-भेद नहीं है। दोनों रुकते वहीं हैं। हिंसा में अनैतिक भी रुका होता है, उसे मान कर। हिंसा में तथाकथित अहिंसक भी रुका होता है, उसे न मान कर। धार्मिक व्यक्ति वह है जो इन दोनों किनारों के बीच कुछ भी चुनाव नहीं करता। जो न हिंसा को मानता है, न, न मानता है जो चुपचाप खाई को पार करता है और ध्यान शिखर का रखता है, कि शिखर तक मुझे पहुंचना है। खाई पर मुझे किसी तरह का रस पैदा नहीं करना है। राग का, या विराग का, मित्र का, या शत्रु का। खाई से मुझे सिर्फ गुजर जाना है। इसे अगर खयाल रखेंगे तो शिखर बहुत निकट है। और इसमें अगर जरा भी भूल हुई तो शिखर बहुत दूर है।
और इसलिए कई दफे एक बहुत अनूठी घटना घटती है। और वह यह कि इस खाई को मान कर जो अनैतिक व्यक्ति है कभी-कभी अचानक शिखर की तरफ दौड़ जाते हैं। और उनके दौड़ने का कारण यह होता है कि बुराई को मान कर वे इतना दुख पाते हैं कि वह दुख ही किसी क्षण में इतना सघन और तीव्र हो जाता है कि उस दुख के कारण ही वे अचानक खाई को छोड़ कर दौड़ शिखर की तरफ लगा देते हैं। लेकिन जो नैतिक आदमी है, वह बुराई से लड़ कर अपने अहंकार को इतना मजबूत कर लेता है। और उसके अहंकार के होने में वह बुराई ही कारण होती है, जिससे वह लड़ता है। इसलिए बुराई में उसका एक अनूठा रस पैदा हो जाता है। वह अनूठा रस यह है कि उसके अहंकार के होने का कारण ही वह बुराई का होना है, जिससे वह लड़ता है।
एक आदमी हिंसा से लड़ कर अहिंसक हो गया है। अब यह खाई छोड़ना उसे बहुत मुश्किल पड़ेगा। इसलिए मुश्किल पड़ेगा कि खाई छोड़ने का मतलब यह अहंकार भी छोड़ना होगा। यह जो भीतर अहंकार है कि मैं अहिंसक हूं, यह तभी तक तो है जब तक हिंसा से लड़ाई चल रही है। अगर यह हिंसा की लड़ाई छोड़ कर भागना है तोयह जो अहंकार इस लड़ाई से पैदा किया था, यह भी इसी खाई में छोड़ कर जाना पड़ेगा। यह साथ नहीं जा सकता। यह उसका ही अनिवार्य हिस्सा है।
इसलिए नैतिक आदमी को अक्सर धार्मिक होने में अनैतिक आदमी से भी ज्यादा कठिनाई पड़ जाती है। क्योंकि अनैतिक आदमी के पास बुराई से कोई अहंकार पैदा नहीं होता। सिर्फ दीनता, दुख, पीड़ा पैदा होती है। संताप पैदा होता है। सिवाय कष्ट के वह बुराई से कुछ पाता नहीं है। लेकिन नैतिक आदमी बुराई से कष्ट की जगह सुख भी पाता है। अस्मिता का, अहंकार का कि मैं अहिंसक हूं, मैं त्यागी हूं। मैं सच्चा हूं, मैं ईमानदार हूं। यह जो मैं है इन सबके पीछे छिपा, यह बुराई से उत्पन्न हुआ है। यह बुराई की उत्पत्ति है। यह बुराई के बिना पैदा नहीं हो सकता था। इसलिए यह आदमी एक दोहरी झंझट में होता है। जिससे लड़ता है, उसी से जीवन पाता है। जिसकी दुश्मनी बता रहा है, वही इसका अहंकार पैदा करने का आयोजन है। इसे इस खाई को छोड़ने में दोहरी कठिनाई होगी। एक तो यह खाई पकड़ने वाली है ही। और अब इसने खाई के अनुकूल अपने भीतर एक और भी उपद्रव पैदा कर लिया है, जो इसे यहां से जकड़ाए रखेगा। इसकी बुराई स्वर्णिम हो गई। इसके पाप में पुण्य का मजा आ रहा है।
इसलिए बहुत विचित्र मालूम पड़ता है, लेकिन ऐसा है कि बुरा आदमी कभी-कभी इस खाई से छलांग लगा कर निकल जाता है और भला आदमी इस खाई से छलांग लगा कर निकलने में बड़ी कठिनाई पाता है। मगर दोनों को ही इससे पार जाना पड़ेगा। दोनों को ही इससे पार जाना पड़ेगा। और पार जाने की जो मौलिक आधारशिला है, वह है--न तो इसके भोग में रस लेना, न इसके दमन में रस लेना--इसमें रस ही मत लेना। रस रखना शिखर की तरफ। और इतना ही खयाल रखना कि खाली खाई से गुजरना अनिवार्य है, तो गुजरेंगे। यहां किसी तरह का पड़ाव नहीं बनाना है। और इस खाई से किसी भी तरह का संबंध नहीं जोड़ना है। यह खाई शिखर का अनिवार्य हिस्सा है, इसलिए इससे गुजरना है।
चाहे बुराई का और भलाई का सवाल हो, चाहे पाप का और पुण्य का, चाहे ज्ञान और अज्ञान का; एक ही, एक ही कठिनाई से गुजरना होता है। अज्ञान की खाई हमारे चारों तरफ है--ज्ञान के शिखर के पास अनिवार्य है। उससे भी हम दो काम कर कर सकते हैं। उससे गुजर जाएं तो शिखर उपलब्ध हो जाए। उससे लड़ने लगें तो पांडित्य उपलब्ध होता है। अज्ञान से लड़ने लगें तो पांडित्य उपलब्ध होता है। सिद्धांत, शास्त्र, ये उपलब्ध हो जाते हैं। फिर वहीं डेरा डाल कर बैठ जाना पड़ता है। और सिद्धांत शास्त्र बड़ी वजनी चीजें हैं। इनके बोझ को लेकर कोई भी शिखर पर जा नहीं सकता। कभी-कभी अज्ञानी वहां पहुंच जाते हैं, लेकिन तथाकथित ज्ञानी नहीं पहुंच पाते हैं। क्योंकि अज्ञानी कम से कम निर्बोझ तो होता ही है। उसके पास कोई साज-सामान नहीं हाता, जिसको ढोना है शिखर की तरफ। सिर्फ यह खाई होती है अज्ञान की, इसको छोड़ कर वह कभी भी भाग सकता है। लेकिन पंडित के पास, तथाकथित ज्ञानी के पास खाई तो होती ही है, सिर पर शास्त्रों का, शब्दों का, सिद्धांतों का बड़ा बोझ भी होता है। खाई उतना नहीं पकड़ती जितना यह बोझ पकड़ लेता है। इस बोझ में छाती दबी जाती है। और इसको छोड़ कर वह भाग नहीं सकता, क्योंकि यह बोझ उसका अहंकार है।
ध्यान रहे, खाई ने किसी को कभी नहीं पकड़ा, लेकिन अहंकार ने बुरी तरह खाई में लोगों को रुकवा दिया है, खूंटियां गड़वा दी हैं। फिर वहां से हटना मुश्किल हो जाता है। एक बात पक्की है कि इस खाई में जो अपने को पापी जान कर चुपचाप आगे बढ़ता रहे, इस खाई में जो अपने को अज्ञानी जान कर चुपचाप आगे बढ़ता रहे, वह शीघ्र ही शिखर पर पहुंच जाता है। लेकिन पुण्यात्मा को अपने को पापी मानने में बड़ी पीड़ा है। और पंडित को अपने को अज्ञानी मानने में बड़ा कष्ट है। फिर रुकाव हो जाएगा। और उस शिखर पर तो वे ही पहुंचते हैं जो निर्भार होते हैं। इस खाई में भार पैदा मत करना। और भार तत्काल पैदा हो जाएगा अगर लड़ाई की तो।
इस खाई से लड़ना ही मत। इससे सिर्फ गुजरना। इससे सिर्फ गुजरना। क्रोध आ जाए तो उससे सिर्फ गुजरना, लड़ना ही मत। कामवासना पकड़े तो उससे सिर्फ गुजरना, लड़ना ही मत। सिर्फ गुजरने वाले का मतलब है, साक्षी; देखता रहेगा कि ठीक है, यह आया है और यह खाई है और इससे गुजरना है, इससे गुजरेंगे, इसमें कोई रस पैदा न करेंगे--इधर या उधर, इस पार या उस पार। कोई किनारा न पकड़ेंगे। मान कर चलेंगे कि अनिवार्य है। अगर मैं जा रहा हूं धूप की तरफ और बीच में छाया पड़ती है, तो मैं इससे गुजरता हूं। इसमें क्या लड़ना और नहीं लड़ना है! इस छाया से क्या करना है। मैं जानता हूं कि छाया के पास सूर्य का प्रखर प्रकाश है पार हो जाऊंगा। रास्ते पर डेरे नहीं डालने चाहिए।
जैसा पाप के संबंध में, जैसा अज्ञान के संबंध में, वैसा ही आत्यंतिक रूप से न होने के संबंध में; वह सबसे गहरी खाई है। क्या-क्या मैं नहीं हूं, उसमें से भी मुझे गुजरना पड़ता है। वह सबसे गहरी है। पाप उतना गहरा नहीं है। अज्ञान उतना गहरा नहीं है। लेकिन जो मैं नहीं हूं, उसकी भी खाई मेरे होने के चारों तरफ है। योग की गहतम प्रक्रियाएं, धर्म की आधारभूत प्रक्रियाएं उसी खाई से संबंधित हैं--जो-जो मैं नहीं हूं।
इसलिए क्या-क्या मैं नहीं हूं, उसका नियम इस ऋषि ने कहा कि जाग्रत में जो-जो हो रहा है वह-वह मैं नहीं हूं। दुकान चल रही है कि दफ्तर जाना हो रहा है, प्रेम हो रहा है, झगड़ा हो रहा है, शत्रुता बन रही है, मित्रता बन रही है, सुख मिल रहा है, दुख मिल रहा है, यह जाग्रत इस छोटे से शब्द में ऋषि ने यह सब कह दिया है--जाग्रत में जो-जो हो रहा है। विस्तार में जाने की कोई जरूरत नहीं मानी है। इस एक शब्द में सारा कह दिया है कि जागते में जो-जो हुआ है, वह मैं नहीं हूं। मगर हमारे पास और तो कोई संपदा नहीं है होने की। जागते में जो-जो हुआ है वही तो हमारी संपदा है। एक मकान बना लिया है, एक तिजोड़ी भर ली है, दस-पांच संगी-साथी खोज लिए हैं, दस-पांच दुश्मन खोज लिए हैं, कोई पद बना लिया है, कहीं अखबार में नाम छपवा लिया है, कहीं पहुंच गए मालूम होते हैं। यह हमारा सब जाग्रत में हुआ मामला है।
कभी आपने खयाल किया, बहुत दूर की तो छोड़ दें, स्वप्न में भी जो आपने जाग्रत में बनाया है वह आप नहीं रह जाते हैं। जागते में आप भिखारी थे और सपने में सम्राट हो जाते हैं। और खयाल भी नहीं आता यह सपने में कि अरे, मैं तो भिखारी था! तो यह जागने की ताकत कितनी? सपना पोंछ देता है। इस जाग्रत को क्या यथार्थ कहें जिसको सपना मिटा देता है। जागते में सम्राट थे, वे सपने में भीख मांग रहे हैं। और स्मरण भी नहीं आता इतना सा कि अरे, मैं अभी जागते में बारह घंटे बिलकुल ही सम्राट था!
अब यह थोड़ा सोचने जैसा है। जिस जागने को सपना पोंछ दे, उस जागने में जो जाना है वह यथार्थ है? और एक और मजे की बात है जो आपको कभी खयाल में न आई होगी, और इसीलिए भारतीय चिंतन स्वप्न को जाग्रत से गहरे में रखता है। स्वप्न को आमतौर से हम अगर तौलेंगे तो जाग्रत से गहरा नहीं मानेंगे। क्योंकि सपना तो सपना है। हम कहते हैं कि वह तो सपना है, यह जाग्रत है। लेकिन यह भारतीय चिंतन सपने को जाग्रत से गहरे में रखता है। कारण उसके हैं।
पहला कारण और मौलिक कारण तो यह है कि आप जागते में तो सपने को कभी-कभी थोड़ा याद रख पाते हैं, लेकिन सपने में जाग्रत को बिलकुल याद नहीं रख पाते हैं। तो मजबूत कौन है? सुबह कभी उठ कर यह तो याद भी रहता है कि सपने में क्या हुआ? लेकिन रात कभी सोकर याद रहा है कि जागते में क्या हुआ? इस मौलिक कठिनाई की वजह से भारतीय मनीषा ने स्वप्न को गहरे में रखा। क्योंकि जिसकी स्मृति जागते तक प्रवेश कर जाती है, वह गहरी अवस्था है। और जिसकी स्मृति सपने तक में नहीं टिकती उसको क्या गहरा कहना!
जागते में जो-जो हमने किया है वही तो हमारा जीवन है। ऋषि कहता है: वह तुम नहीं हो। लेकिन जागते में जो-जो हमने किया वह भला हमारा जीवन हो, लेकिन स्वप्न में जो-जो हमने किया है वह हमारी प्रतिमा है। वह हमारी इमेज है। इसीलिए तो कभी भी किसी आदमी को तृप्ति नहीं होती है कि उसके बाबत लोग ठीक समझते हैं। किसी को तृप्ति नहीं होती है। क्योंकि अपने बाबत वह जो समझता है वह उसकी स्वप्न-प्रतिमा है। और दूसरे उसके बाबत जो समझते है वह उसकी जाग्रत की प्रतिमा है।
इसे थोड़ा खयाल में ले लें।
आप अपने को एक बहुत अच्छा आदमी समझते हैं। लेकिन कोई मानने वाला नहीं मिलता जो आपको उतना अच्छा आदमी समझता हो। तो आप समझते हैं--नासमझ हैं ये लोग, अभी समझ नहीं पाए। वक्त मिलेगा तो समझेंगे। समय आएगा तो समझेंगे। कभी समय नहीं आता और कभी समझ नहीं आती। मामला क्या है? और हर आदमी के साथ यही दिक्कत है, उसको कोई समझने वाला नहीं मिलता। अभी तक मुझे ऐसा आदमी नहीं मिला जो कहे कि मुझे लोग ठीक वही समझते हैं जो मैं हूं। सब लोग गलत समझते हैं! मैं कहां प्रेम से भरा हुआ सागर, और लोग मुझे छोटी तलैया भी नहीं समझ सकते हैं। बल्कि उलटा मुझे समझते हैं कि यह आदमी क्रोधी, घृणा से भरा हुआ, ईर्ष्यालु, न मालूम क्या-क्या--जो मैं नहीं हूं।
इसमें मामला है। इसमें मामला यह है कि आपकी खुद की प्रतिमा आप अपने सपनों से बनाते हैं। और आपके सपनों का दूसरों को कोई पता नहीं है। और दूसरों को जो पता है वह आपकी जाग्रत की प्रतिमा है। और वह जाग्रत की प्रतिमा आपके मन, आपके मन की प्रतिमा नहीं है। तो आप जानते हैं कि कभी-कभी मैं क्रोध कर लेता हूं यह बात दूसरी है, ऐसे मैं आदमी शांत हूं। यह शांत होने की जो प्रतिमा है, यह आपके स्वप्न की प्रतिमा है। और दूसरे आदमी की जो प्रतिमा है वह जो आप कभी-कभी क्रोध में होते हैं, उसी का जोड़ है। इसलिए मेल नहीं पड़ता। और मेल कभी पड़ेगा नहीं, क्योंकि उसमें दूसरे की कोई गलती नहीं है। दूसरा क्या कर सकता है!
दूसरा आपके व्यवहार को जानता है, आपके स्वप्नों को नहीं। और दूसरा आपके व्यवहार को जोड़ कर आपकी प्रतिमा निर्मित करता है। आपके स्वप्नों की उसे कोई खबर भी नहीं है। आप अपनी प्रतिमा अपने व्यवहार से निर्मित नहीं करते। आप अपनी प्रतिमा अपने सपनों से निर्मित करते हैं। बुरा से बुरा आदमी भी अपनी आंखों में बड़ा भला होता है। और भला से भला आदमी भी दूसरों की आंखों में बड़ा बुरा होता है। इसमें कहीं कोई असंगति नहीं है, इसमें असंगति दो तलों की है। आप अपने को वैसा मानते हैं जैसा आप होना चाहते हैं। जो आपका स्वप्न है, वैसा आप मान ही लेते हैं। अगर आप अहिंसक होना चाहते हैं, यह आपका सपना है, तो आप अपने को अहिंसक मान ही लेते हैं। न आपके सपने की खबर है किसी को, न आपकी इस मान्यता की। आपने जो-जो हिंसा की है चारों तरफ--और जब भी आप करते हैं तो हिंसा करते हैं। आप अहिंसा भी करते हैं तो भी उसको दूसरे में... दूसरे को फौरन पता चल जाता है कि क्या-क्या हिंसा हो रही है।
बिड़ला ने मंदिर बनाए जगह-जगह। जहां-जहां उन्होंने मंदिर बनाए हैं वहां-वहां उन्होंने सोचा... और उन्होंने वहीं-वहीं मंदिर बनाए हैं जहां उनकी फैक्ट्री हैं, उनका कारोबार है। वहां जो लोग उनके नीचे काम करते हैं, उनमें एक अच्छी प्रतिमा बिड़ला की जाएगी। तो उन्होंने वहां-वहां मंदिर बनाए। लेकिन उन्हीं जगह पर लोगों ने मुझसे आकर कहा कि यह भी कोई मंदिर है! बिड़ला-मंदिर! कृष्ण का मंदिर हो, राम का मंदिर हो, बिड़ला-मंदिर! यह सब अहंकार है। बिड़ला को कभी सूझा भी नहीं होगा कि ये मंदिर केवल अहंकार के प्रतीक होंगे। सूझा होगा कि ये दान के, पुण्य के, शुभ के प्रतीक होंगे। इतना इन पर खर्च किया! बहुत खर्च किया है। लेकिन जिनके बीच मंदिर बनाए हैं, वे बिड़ला को उनके व्यवहार से जानते हैं कि एक तरफ यह शोषण की धारा चलती है, इसमें करोड़ों रुपये चूसे जाते हैं और इसमें से लाख रुपये का मंदिर खड़ा हो जाता है।
यह मंदिर भी शोषण का हिस्सा है देखने वाले को। यह मंदिर भी तरकीब है। यह मंदिर भी शोषण को चलाए रखने का आयोजन है। यह देखने वाले को इसका जोड़ है। वह जानता है कि यह सब पाप का मंदिर है। बिड़ला को यह खयाल भी नहीं हो सकता है कि यह मैं पाप का मंदिर बना रहा हूं। उनके स्वप्न का मंदिर है। पुण्य का मंदिर। जो उनके अपने मन में पुण्य का भाव है। जो उनको खयाल है कि मैं इतना-इतना पुण्य किया हूं। ऐसा अच्छा आदमी हूं। इन दोनों प्रतिमाओं में कहीं मेल नहीं पड़ेगा। इसलिए हर आदमी दुखी जीता है।
दूर की तो बात छोड़ दें, अपने निकटतम लोग भी राजी नहीं होते कि यह उसकी प्रतिमा है, जो वह समझता है। लोग एक-दूसरे से कहते हैं: तुमने मुझे क्या समझ रखा है! अड़चन आ रही है प्रतिमाओं में।
मेरे एक प्रिंसिपल थे, मुझे पढ़ाते थे। काली के भक्त थे। और पूरी युनिवर्सिटी में बदनामी थी कि दिमाग उनका थोड़ा ढीला है। उनका खयाल था कि वे परम भक्त हैं और सबका खयाल था कि उनका दिमाग ढीला है। मैं उनके घर पहली दफा गया था तो उस वक्त वे पूजा कर रहे थे। उनकी पत्नी ने दरवाजा खोला और मुझसे कहा कि आप चुपचाप बैठ जाएं। अगर उन्होंने देख लिया कि कोई मिलनेवाला आया है तो वे और जोर से पूजा करते हैं, और देर तक पूजा करते हैं। यह पत्नी के मन में प्रतिमा है! कि आप बिलकुल चुपचाप बैठ जाएं, अगर उनको पता चल गया कि कोई मिलने आया है तो फिर पूजा में बहुत देर लग जाती है।
मैं तो उनको जानता नहीं था तब तक। मगर उनकी पत्नी से पहले ही उनकी प्रतिमा की मुझे खबर मिली। तो मैंने सोचा कि चलो, प्रयोग करें। वे निकल कर बाहर आए तो मैंने उनसे कहा: आप जैसा भक्त मैंने कभी नहीं देखा। उन्होंने मुझे छाती से लगा लिया और कहा कि इस पूरी पृथ्वी पर तुम एक अकेले आदमी समझने वाले मुझे मिले। अकेले, तुम एक अकेले आदमी। आज तक मुझे कोई समझ ही नहीं सका। यह उनके स्वप्न की प्रतिमा से मेल खा गया।
उनकी पत्नी देख रही थी और जब मैं निकल रहा था बाहर उनसे मिल कर, क्योंकि उन्होंने मुझे घंटे-डेढ़ घंटे रोका, कई बार मैंने कहा: मैं जाऊं, लेकिन वह जो आदमी पृथ्वी पर अकेला हो उसको वे इतनी जल्दी छोड़ने वाले नहीं थे। मुझे खाना खिलाया और... और दो वर्ष तक युनिवर्सिटी में उन्होंने मेरी इतनी फिकर की जिसका कोई हिसाब नहीं। जब मैं बाहर निकल रहा था, तो उनकी पत्नी ने कहा कि अगर तुम जैसे व्यक्ति उन्हें मिल जाएं तो उनको पागलखाने जाना पड़ेगा। तुमने यह क्या कह दिया उनको? क्या उनसे ऐसी बात कहनी चाहिए थी? उनके भीतर वे यह जो भजन-कीर्तन कर रहे हैं रोज सुबह, एक और प्रतिमा है। जो देख रहे हैं उनको, उनके व्यवहार को, जो उनके व्यवहार से ही संबंधित हैं--और तो उनके भीतर का किसी से क्या संबंध हो सकता है--उनके मन में दूसरी प्रतिमा है। इन दोनों प्रतिमाओं में सदा कलह है।
मैं क्या नहीं हूं, इसे ठीक से जान लेना जरूरी है। बड़ा कठोर प्रयास है यह क्योंकि अपनी ही खाल को जैसे छीलना है। जो-जो मैंने अपने को मान रखा है, पाऊंगा कि वह-वह मैं नहीं हूं।
यह ऋषि कहता है: जाग्रत में जो भी तुमने किया है, जो भी तुम समझते हो, वह तुम नहीं हो। फिर वह कहता है: स्वप्न में भी तुमने जो-जो किया है और सपने तुमने जो-जो देखे हैं, वह भी तुम नहीं हो। जब जाग्रत ही तुम नहीं हो तो तुम्हारे स्वप्न क्या तुम होओगे! और गहरे में जाता है और कहता है सुषुप्ति में भी बीज-रूप में तुमने जो वासनाएं निर्मित की हैं, जिनका फैलाव स्वप्न में और जाग्रत में होता है--सुषुप्ति में जड़ें हैं, स्वप्न में वृक्ष हैं, जाग्रत में फूल आ जाते हैं--वह बीज भी, वे जड़ें भी तुम नहीं हो। ये तीनों तुम नहीं हो।
अगर हम इन तीनों को काट दें तो शून्य हाथ लगेगा। अगर मैं अपने जाग्रत के सब कर्मों को काट दूं, सब प्रतिमाएं तोड़ दूं, स्वप्न में सब विचारों को काट दूं, स्वप्न की सब प्रतिमाओं को तोड़ दूं, सुषुप्ति तक के सब बीज जो मुझे भी पता नहीं हैं, जिनका मुझे भी खयाल नहीं है कि कहां छिपे हैं, उनको भी इनकार कर दूं, तो मेरे पास क्या बच रहता है? एक शून्य। मैं फिर क्या हूं? फिर मैं एक शून्य रह जाता हूं। इस शून्य से गुजरना पड़े तब वह शिखर प्रकट होगा जो मैं हूं। उस शिखर की इसमें चर्चा है।
‘जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जो सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म है, जो संसार के समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों का आत्मा है, वही तुम हो। तुम वही हो।’
यह पहली विधायक घोषणा है। इस शून्य में जो प्रकट होगा, इस शून्य की अतल खाई में जो शिखर उभरेगा, इस गहन अंधकार के पार जो प्रकाश के सूर्य का उदय होगा, वह वही ब्रह्म है। वह वही मूल अस्तित्व है जो सदा से है, सदा रहेगा। वही मूल सागर है जिससे सब लहरें उठी हैं और गिरी हैं। आईं और गईं। अच्छा था और बुरा था। राम थे और रावण थे। साधु थे और असाधु थे। सुख थे और दुख थे। सफलताएं थीं, असफलाएं थीं, सिंहासन थे और सड़क पर भिखारियों के भिक्षापात्र थे, वे सब लहरें उठीं और गईं। लेकिन जिस सागर से वे लहरें उठी थीं, वही तुम हो। उस मूल का, उस अस्तित्व का, उस गहनतम आत्यंतिक का, आधारभूत का अनुभव हो।
अनुभव नहीं है तुम्हारा, तुम ही वही हो।
यही थोड़ा ठीक खयाल में लेना जरूरी है। जगत में बाकी सब चीजें हमारा अनुभव हैं। और जहां तक अनुभव है, वहां तक उसका पता नहीं चलेगा जिसको अनुभव हो रहा है। अनुभव और अनुभोक्ता अलग हैं। मैंने सुख जाना, सुख मैं नहीं हूं। क्योंकि सुख मैंने जाना। और जो जान रहा है, वह अलग हो गया। मैं जानने वाला हुआ। सुख कहीं मुझसे बाहर हुआ, जो मुझे मिला। मेरे हाथ में आपने संपत्ति दे दी, वह संपत्ति मैं नहीं हूं। हाथ है मेरा, जिसमें संपत्ति है। कल किसी ने भिक्षापात्र दे दिया। वह भिक्षापात्र मैं नहीं हूं। मैं तो वह हूं, जिसके हाथ में भिक्षापात्र है। कभी सुख मेरे हाथ में है, कभी दुख। कभी सफलता, कभी असफलता, कभी जागरण मेरे हाथ में है, कभी सुषुप्ति। कभी स्वप्नों से घिरा हूं मैं और कभी स्वप्नभंगों से। लेकिन कोई भी मैं नहीं हूं। अनुभव मैं नहीं हूं। इसमें थोड़ी कठिनाई होगी। कोई भी अनुभव मैं नहीं हूं। अगर परमात्मा का भी अनुभव हो कि परमात्मा अलग खड़ा है और मैं अलग खड़ा हूं, तो वह भी मैं नहीं हूं। क्योंकि मैं फिर भी पार रह जाता हूं।
यह ऋषि कहता है कि जो सब अनुभवों का कारणभूत है और जो सब अनुभवों का साक्षी है और जो सभी अनुभवों का अनुभोक्ता है, वही परब्रह्म तुम हो। परब्रह्म का अर्थ होता है: जो सदा ही पार है। जहां-जहां तुम कहोगे: यहां, वहां-वहां से पार हो जाएगा। जहां-जहां तुम हाथ रख कर कहोगे कि यह, वहीं से छिटक जाएगा। उसे कभी ऑब्जेक्टिव, वस्तु की तरह नहीं पकड़ा जा सकेगा। कभी तुम उस पर हाथ रख कर न कह सकोगे कि यह। क्योंकि वह सदा वही है जो हाथ रख रहा है। वह पार हो जाता है इसलिए उसे परब्रह्म कहा है।
इसलिए ध्यान रखना, भारतीय मनीषा बहुत सोच-समझ कर शब्दों का प्रयोग करती है। ब्रह्म उसे कहती है जो तुम्हारा अनुभव है। परब्रह्म उसे कहती है जो तुम हो। तो ब्रह्म भी तुम्हारा अनुभव है। तो अगर कोई आदमी ब्रह्मवादी है, तो अभी भी वादी है और अभी भी विचार के पार नहीं गया है। बहुत सूक्ष्म विचार में चला गया है, लेकिन पार नहीं गया है, बहुत गहन विचार में चला गया है, लेकिन अभी भी गहनमत में नहीं गया है। सूक्ष्म में चला गया है, लेकिन सूक्ष्म के भी पार...।
इसलिए सूत्र कहता है: ‘जो सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म।’
अब यह भाषा के लिहाज से बिलकुल गलत है। क्योंकि जब सूक्ष्मतम कह दिया तो अब उससे और सूक्ष्म क्या होगा? नहीं तो सूक्ष्मतम का कोई अर्थ न रहा। सूक्ष्मतम का मतलब ही है कि अब इससे ज्यादा सूक्ष्म नहीं होता। लेकिन ऋषि कहता है: ‘जिससे ज्यादा सूक्ष्म नहीं होता, वही हो।’ सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म का मतलब है कि जहां तुम्हारे सूक्ष्म का अनुभव भी चुक जाए। जहां तुम आखिरी जगह आ जाओ और कहो कि अब इसको न स्थूल कह सकते हैं, न सूक्ष्म। जहां बात इतने पार निकल जाए कि तुम अलग ही न रह जाओ अनुभव से। इसलिए उसे परब्रह्म कहा है। वही तुम हो।
लेकिन इसको दोहराया है, और बड़े, बड़े प्रयोजन से दोहराया है।
दो शब्द उपयोग किए हैं: ‘वही तुम हो, तुम वही हो।’ वही तुम हो का अर्थ हुआ: परब्रह्म तुम हो। दूसरे का अर्थ हुआ: तुम वही हो--तुम परब्रह्म हो। ऐसा दोहराने का प्रयोजन है और कारण है। हम कह सकते हैं लहर से कि सागर तुम हो। लहर में सागर है। लेकिन यह एक बात हुई, एक पहलू हुआ। और लहर से यह कहना कि तुम ही सागर हो, बड़ी दूसरी बात है।
कबीर के एक पद में यह साफ है। कबीर ने कहा है: खोजते-खोजते मैं खो गया। ‘हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ।’ खोजता था, खोजने निकला था और खो गया। ‘बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाय।’ बूंद सागर में गिर गई और बूंद सागर में खो गई, उसे अब वापस कैसे पाया जाए! यह कबीर का पहला सूत्र है। लेकिन कबीर ने दूसरे सूत्र में बात उलट दी। और तत्काल दूसरा सूत्र लिखा। और सूत्र में लिखा: ‘हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ। समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाइ।’ और बूंद सागर में गिर गई थी तो कभी खोजी भी जा सकती थी। अब तो और भी मुश्किल हो गई, यह तो सागर ही बूंद में गिर गया और अब तो खोजने का कोई उपाय ही न रहा।
बूंद अगर सागर में गिर गई हो तो खोजी भी जा सकती है। बड़ी छोटी चीज है, माना मुश्किल पड़ेगी, कठिनाई होगी, फिर भी, फिर भी खोजते-खोजते किसी दिन बूंद मिल सकती है कि यह रही। लेकिन, अगर बूंद में सागर गिर जाए, तो खोज का उपाय ही न रहा। कैसे खोजिएगा? सब कल्पना भूमिसात हो जाती है। सब विचार चकनाचूर हो जाते हैं। बूंद में सागर का गिरना विचार की सीमा के पार चला जाता है। बूंद का सागर में गिरना विचार की सीमा के पार नहीं जाता। बूंद तो सागर में रोज गिरती ही है। लेकिन ध्यान रहे, बूंद सागर में गिरती है और फिर वाष्पीभूत हो जाती है; फिर बनती है, फिर गिरती है। एक चक्र है। तो बूंद गिरती रहती है सागर में, बनती रहती है, पुनः-पुनः निर्मित होती रहती है, पुनः-पुनः गिरती रहती है। लेकिन बूंद अगर सागर में गिरे तो वापस लौट आती है। लेकिन कभी जब सागर बूंद में गिर जाता है... ऐसी कोई घटना भौतिक जगत में घटती नहीं, जब सागर बूंद में गिरता है, लेकिन इस आत्मिक जगत में घटती है। ऐसा नहीं है कि आप जाकर परमात्मा से मिल जाते हैं, बल्कि ऐसा है कि परमात्मा आकर आपसे मिल जाता है। सिर्फ बूंद तैयार भर होती है; तब तक बूंद रहती है। जिस दिन तैयार हो जाती है उस दिन सागर गिर पड़ता है। फिर बूंद को कहां खोजिएगा? सागर गिर पड़े बूंद पर, फिर बूंद को कहां खोजिएगा? इसलिए दोहरा सूत्र है।
‘वही तुम हो, तुम वही हो।’
इस दोहरे सूत्र के और आयाम भी हैं। जब हम कहते हैं: परमात्मा तुम हो, तो इसमें परमात्मा की स्वीकृति है, तुम्हारी नहीं। लेकिन जब कहते हैं: तुम परमात्मा हो, तब तुम्हारी भी पूरी की पूरी स्वीकृति है। यह तो बहुत आसान है कहना कि परमात्मा सबके भीतर है, यह कहना बहुत कठिन है कि सब परमात्मा है। इनके आयाम अलग हैं।
जब हम कहते हैं: परमात्मा सबके भीतर है, तो कोई एतराज नहीं होता। कोई एतराज नहीं होता कि ठीक है? लेकिन अगर हम यह कहें कि सब परमात्मा हैं, तो मन पच्चीस एतराज खड़े करने लगेगा कि वह आदमी भी परमात्मा है जो कल गाली दे रहा था! परसों पत्थर मार गया था! वह आदमी भी परमात्मा है! सबमें परमात्मा छिपा है, सबमें परमात्मा है, इसमें अड़चन नहीं होती। क्योंकि परमात्मा को हम अलग तत्व मान लेते हैं और व्यक्ति को अलग। तो सारी बुराइयां व्यक्ति पर डाल देते हैं और सारी भलाइयां परमात्मा पर। इसमें विभाजन का उपाय है।
हम कह सकते हैं कि बुरे से बुरे आदमी में भी परमात्मा है। और कोई अड़चन नहीं है इसमें। कोई हमारे मन को दुविधा नहीं घेरती, कोई शंका नहीं पकड़ती, कि ठीक है। बुरे से बुरे आदमी में परमात्मा है, छिपा पड़ा है और इससे बुराई का परमात्मा से संबंध नहीं जुड़ता; परमात्मा अलग रह जाता है, यह बुरा आदमी एक पर्त की तरह अलग रह जाता है। और हम यह जानते हैं कि जब यह अपनी बुराई की सारी पर्त काट डालेगा, तो ठीक है, परमात्मा प्रकट हो जाएगा।
लेकिन जब हम कहते हैं कि तुम परमात्मा हो, तो हम सर्व स्वीकार कर लेते हैं। यह बड़ी क्रांतिकारी घोषणा है। क्योंकि इसमें हम कुछ छोड़ते ही नहीं, बांटते ही नहीं। हम यह नहीं कहते कि बुरा आदमी अपने भीतरी किसी अंश में परमात्मा है। हम यह कहते हैं: वह जो भी है परमात्मा है। यहां हम बुराई को भी आत्मसात कर लेते हैं। और हमने कभी खयाल नहीं किया कि अगर एक आदमी के भीतर परमात्मा है और फिर भी वह बुरा है, तो यह परमात्मा की निर्वीर्यता सिद्ध होगी। हमने कभी इसका खयाल नहीं किया। तो हम कहते हैं: बुरा आदमी; फिर भी उसके भीतर परमात्मा है, हालांकि वह बुरा है। बुराई उसके बाहर है, भीतर परमात्मा छिपा है। लेकिन अगर भीतर परमात्मा है, किसी भी स्थिति में, तो यह बुराई बलशाली मालूम पड़ती है। परमात्मा से भी ज्यादा बलशाली मालूम पड़ती है। तो अच्छा यह हो कि कहो कि यह आदमी बुरा है और उसके भीतर कोई परमात्मा नहीं है। एक तो यह उपाय है, जो कि वस्तुतः हमारी स्थिति है।
यह हमारे कहने की ही बात है कि भीतर परमात्मा है। यह सिर्फ शब्द है। इसमें हमारी कोई प्रतीति नहीं है। क्योंकि जब आप अपने दुश्मन की हत्या करने जाओगे तो कहां छुरा मारोगे, परमात्मा को बचा कर? कि जब आप गाली दोगे एक बुरे आदमी को तो इस गाली में ऐसा कोई उपाय रखोगे कि परमात्मा को छोड़ कर, जो भीतर है? गाली पूरी जाएगी। वह भीतर-वीतर के परमात्मा को बिलकुल नहीं मानेगी। न कहीं अंग में स्वीकार करेगी। पूरे आदमी को गाली दी जाती है। पूरा आदमी दंडित किया जाता है। पूरा आदमी। और वह भीतर का परमात्मा केवल शाब्दिक औपचारिकता रह जाती है।
नैतिक आदमी इस तरह की बातें कहते रहते हैं। नैतिक आदमी कहते हैं बुराई को मिटाना है, बुरे आदमी को नहीं। आदमी तो अच्छा है भीतर, बुराई को मिटाना है। बुराई को दंडित करना है, बुरे आदमी को नहीं। लेकिन आदमी इकट्ठा है, समग्र है। दंडित होगा तो पूरा, पुरस्कृत होगा तो पूरा; मरेगा तो पूरा, जीएगा तो पूरा। विभाजन कहां है?
तो एक तो उपाय यह है कि हम मानें कि भीतर कोई परमात्मा नहीं है, बुराई ही बुराई का घर है आदमी। यही हम मानते हैं। वह परमात्मा भीतर है, वह केवल शाब्दिक है और झूठ है। वह हमारी प्रतीति नहीं है। जिस दिन हमें प्रतीति होगी, यह दूसरी प्रतीति होगी कि उस दिन हम कहेंगे वह पूरा आदमी ही परमात्मा है, उसकी सब बुराइयों समेत।
लेकिन ध्यान रहे, अगर मैं किसी आदमी को उसकी बुराइयों समेत परमात्मा देख लूं तो मेरे लिए उसकी बुराइयां तिरोहित हो जाती हैं। क्योंकि संभव ही नहीं रह जाता। यह संभव ही नहीं रह जाता। जैसे ही मुझे यह प्रतीति हो जाए कि वह पूरा का पूरा परमात्मा है, तब उसकी बुराई भी भलाई का रूप ले लेती है। तब उसकी बुराई भी आलोकित हो जाती है, आभामंडित हो जाती है। तब मैं जानता हूं कि वह जो भी कर रहा होगा, ठीक ही कर रहा होगा। क्योंकि ठीक भीतर है।
‘वही तुम हो, तुम वही हो।’
यह समग्रीभूत कोई चीज छूट न जाए, इसलिए ऋषि ने दोहराया है। दोनों तरफ से दोहराया है। सब भांति, सर्वभाव से तुम परमात्मा हो। ऐसा अगर कोई दूसरे में देख पाए तो उसका जीवन के प्रति सारा दृष्टिकोण बदल जाता है।
लेकिन ध्यान रहे, ऐसा लोग स्वयं में तो देखना चाहते हैं, दूसरे में नहीं देखना चाहते हैं। इसको मानने को कोई भी तैयार हो जाएगा कि मैं परमात्मा हूं; दूसरा परमात्मा है, इसे मानने को तैयार नहीं होगा। लेकिन यह ध्यान रहे, जो दूसरे को मानने को तैयार नहीं है, वह स्वयं को भी कितना ही कहे, मान नहीं सकता है। दूसरे को मानकर ही उसकी गहराई बढ़ती है स्वयं के प्रति।
कभी एकाध दिन ऐसा प्रयोग करें। चौबीस घंटे के लिए एक व्रत ले लें। बहुत तरह के व्रत लेते हैं लोग। चौबीस घंटे भूखे रहेंगे--फिर भूखे ही रह पाते हैं, और कुछ होता नहीं। कि चौबीस घंटे घी न खाएंगे--न भी खाया तो क्या फर्क पड़ता है? कि चौबीस घंटे यह न करेंगे, वह न करेंगे। मैं एक व्रत आपको कहता हूं। चौबीस घंटे एक व्रत ले लें कि चौबीस घंटे जो भी मिलेगा उसको पूरी तरह परमात्मा मान कर चलेंगे। जो भी होगा उसमें पूरा परमात्मा देखेंगे। कोई हिस्सा न काटेंगे। चौबीस घंटे। और आपकी जिंदगी दुबारा वही नहीं हो सकेगी। व्रत तो वही है जिसके पार जिंदगी फिर दुबारा वापस न हो सके। अन्यथा व्रत का क्या मतलब है!
चौबीस घंटे खाना न खाया। चौबीस घंटे के बाद दुगुना खा लिया। और आदमी वही का वही रहेगा। बल्कि बदतर हो सकता है। बदतर इसलिए हो सकता है कि अब यह और खयाल में आ गया कि व्रत भी कर बैठे। व्रत भी हो गया। अब यह और एक उपद्रव पीछे लग गया। भूखे क्या रहे, अहंकार का पेट भर गया। शरीर को भूखा मारा, अहंकार का पेट भर लिया।
चौबीस घंटे का एक व्रत लेकर देखें कि चौबीस घंटे में अस्वीकार करेंगे ही नहीं, किसी चीज को बुरा कहेंगे ही नहीं। परमात्मा ही देखे चले जाएंगे। बड़ी घबड़ाहट लगेगी कि इसमें तो लुट जाएंगे। पता नहीं कोई आदमी आकर मारपीट करने लगे, फिर क्या करेंगे? और डर लगेगा, क्योंकि कई को इस हालत में कर दिया है कि आपकी मार-पीट करें। कई को लूटा है। इसलिए डर लगेगा कि ऐसा मौका वे लोग न छोड़ेंगे। अगर किसी को ऐसा पता चल गया कि चौबीस घंटे के लिए व्रत लिया है इस आदमी ने कि परमात्मा ही देखेंगे, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
धर्म अभय में छलांग है। और व्रत अभय का प्रयोग है। भूखे मरने में कोई बड़ा अभय नहीं है। और जिनको ज्यादा खाने-पीने को मिला हुआ है, उनके लिए तो लाभ है, नुकसान जरा भी नहीं है। इसलिए यह मजे की बात है कि सिर्फ ज्यादा खाने-पीने वाले समाज ही उपवास को व्रत मानते हैं। गरीब लोगों के समाज कभी भी उपवास को व्रत नहीं मानते हैं। और अगर गरीब आदमी का समाज उपवास भी करता है तो उस दिन मिष्ठान्न खाता है। सिर्फ अमीरों के समाज उपवास में निराहार रहते हैं। गरीब आदमी का धार्मिक दिन आता है, तो उत्सव मनाता है खाकर। अमीर धार्मिक का दिन आता है, तो उत्सव मानता है भूखा रह कर। यह बिलकुल व्यवस्थित बातें हैं। ठीक अर्थशास्त्र से संबंधित। इनका धर्म से कोई लेना-देना नहीं। अमीर आदमी खा-खा कर परेशान है, उपवास उसको राहत देता है। गरीब आदमी भूखा रह-रह कर परेशान है, रोज तो ठीक से नहीं खा सकता, धार्मिक उत्सव के दिन ठीक से खा लेता है। इनका धर्म से कोई संबंध नहीं है, अर्थ से संबंध है।
इसलिए भारत में जैनों के पास एक समृद्ध समाज है तो भूखा रहना, उपवास रखना इत्यादि उनके धार्मिक कृत्य हैं। गरीब आदमी का समाज इनको धार्मिक कृत्य नहीं मान सकता। धर्म का दिन तो उत्सव का दिन है। क्योंकि पूरी जिंदगी तो गैर-उत्सव से भरी है। भूख से भरी है। अब धार्मिक दिन को और भूख से भरने में क्या प्रयोजन है! और फिर कोई भेद भी नहीं मालूम पड़ेगा। ऐसे ही भूखे हैं। ऐसे ही उपवास चल रहा है। ऐसे ही एकाशन में बैठे हुए हैं। अब और एकाशन क्या अर्थ लाएगा? इससे विपरीत चाहिए। स्वाद बदलने के लिए विपरीत अच्छा भी है। लेकिन धर्म से उसका कोई लेना-देना नहीं है।
ऐसा कुछ व्रत जिसके पार आप दुबारा वही आदमी न हो सकें। अगर चौबीस घंटे आपने परमात्मा देख लिया तो फिर आप दुबारा भूल न करेंगे कुछ और देखने की। क्योंकि इस चौबीस घंटे में जितने आनंद की वर्षा आपके जीवन पर हो जाएगी, वह फिर आपको खींचेगा। बूंद में सागर के गिरने का अर्थ यही है। मैं बूंद हूं, मेरे चारों तरफ जो मौजूद है वह सागर है। जिस दिन मैं उसमें परमात्मा देख पाऊंगा उस दिन मेरे हृदय के द्वार उसके लिए खुल जाएंगे। उस दिन सागर बूंद में गिर सकता है।
लेकिन धार्मिक आदमी अक्सर बूंद की तरह सागर की खोज पर निकलता है, जब कि सागर यहीं मौजूद है। धार्मिक आदमी कहता है कि ईश्वर की खोज पर जा रहे हैं। और ईश्वर यहीं मौजूद है। ज्यादा बेहतर होता कि ईश्वर की खोज पर न जाते, हृदय के द्वार खोलते, ताकि ईश्वर गिर सके। मगर हृदय के द्वार बंद हैं और हिमालय की यात्रा चल रही है। मक्का और मदीना और काशी की यात्रा चल रही है। और हृदय के द्वार बंद हैं। कहीं भी घूम आओ, बूंद अगर चारों तरफ से अपने को बंद किए है, तो सागर उसमें नहीं गिर सकता। और बूंद अगर अपने को चारों तरफ से बंद किए है तो सागर के पास भी पहुंच जाए तो भी गिरने की हिम्मत नहीं जुटा सकती।
इसलिए दोनों बातें ऋषि ने कही हैं: ‘वही तुम हो, तुम वही हो।’
‘जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में जो मायिक-प्रपंच दिखाई देते हैं, वे सब ब्रह्म द्वारा ही प्रकाशित होते हैं।’
मायिक-प्रपंच भी ब्रह्म द्वारा ही प्रकाशित होते हैं। वह जो एक आदमी चोरी करने चला जा रहा है, वह ब्रह्म द्वारा ही चोरी करने चला जा रहा है। वह जो एक आदमी हत्या कर रहा है, वह ब्रह्म द्वारा ही हत्या कर रहा है। बहुत कठिन है! बहुत मुश्किल है! धर्म के दुरूह होने का कारण धर्म नहीं है। धर्म के दुरूह होने का कारण हमारी नैतिक मान्यताएं हैं। उनकी वजह से धर्म बिलकुल ही बेबूझ हो जाता है। यह भी क्या बात हुई कि आदमी चोरी करने चला जा रहा है, ब्रह्म से ही आलोकित है! ब्रह्म ही चोरी करने चला जा रहा है!
और चोरी, तो हमारी नैतिक धारणा चोरी के संबंध में है कुछ, वह धारणा बाधा बनेगी। वह कहेगी: यह नहीं हो सकता। साधु में देख भी लें हम ब्रह्म को, चोर में कैसे देखेंगे? ईमानदार में देख भी लें, बेईमान में कैसे देखेंगे? मित्र में देख भी लें, प्रेमी में देख भी लें, शत्रु में कैसे देखेंगे? लेकिन जब तक शत्रु में न दिख जाए तब तक मित्र में भी औपचारिक है। और जब तक चोर में न दिख जाए, तब तक साधु में भी झूठा है। वह जो दिखाई पड़ रहा है साधु में, वह झूठा है। क्योंकि जब तक अंधेरे में भी प्रकाश दिखाई न पड़ने लगे, तब तक प्रकाश में जो दिखाई पड़ रहा है वह बाहरी है। जब अंधेरे में भी प्रकाश दिखाई पड़ने लगता है तो प्रकाश भीतरी हो जाता है। उसका मतलब प्रकाश अब मेरे भीतर है। अब जहां भी मैं देखूंगा वहां प्रकाश दिखाई पड़ेगा।
जिस दिन भीतर ब्रह्म का आवास हो जाता है, अनुभव हो जाता है, उस दिन जहां भी आंख डालूंगा वहां ब्रह्म दिखाई पड़ेगा। क्योंकि प्रकाश अब मेरे भीतर है। अगर अंधेरे पर भी मेरा प्रकाश पड़ेगा तो अंधेरे में ही मुझे प्रकाश दिखाई पड़ेगा। तो जब तक बुरे में भी ब्रह्म न दिखाई पड़ने लगे तब तक ब्रह्म भीतर दिखाई ही नहीं पड़ा है, ऐसा जानना। साधु में तो देखना बिलकुल आसान है। आसान है, क्योंकि कोई बाधा ही पैदा नहीं कर रहा है आपको देखने के लिए। हालांकि आप कोशिश जरूर करोगे कि कोई बाधा मिल जाए, पता चल जाए। पता चल जाए कुछ ऐसा कि मानना आसान हो जाए कि परमात्मा इसमें नहीं है। हम इतनी कोशिश में रहते हैं, इतनी कोशिश में रहते हैं इस बात को जानने की कि पता चल जाए कि साधु में असाधु है।
उसका कारण क्या है?
उसका कारण क्या है, उसका कारण एक है, ताकि परमात्मा देखने की झंझट से हम बच जाएं। इसलिए हर आदमी तलाश में लगा हुआ है कि पता चल जाए कि यह साधु कहीं कपड़ों में छिपाए एकाध रुपये का नोट तो नहीं रखे हुए है। रखे जरूर होगा, ऐसी हमारी भीतरी मान्यता है। कहीं न कहीं छिपा रखा होगा, कहीं न कहीं किसी बैंक में जमा कर रखा होगा। क्योंकि बिना रुपये के आदमी जीएगा कैसे! जिससे हम जीते हैं, उससे ही यह भी जीता होगा, पता नहीं है अभी। हमारे मन में धारणा रहती है कि साधु-असाधु में जो फर्क है, वह इतना ही है कि असाधु का खुल गया मामला और साधु का अभी खुला नहीं है। बस इतना ही फर्क है हमारे मन में। जब तक नहीं खुला है। तब तक मजबूरी में मानते चले जाएंगे कि ठीक है। लेकिन कभी तो खुलेगा, इसकी आशा भी रखेंगे। इसका उपाय भी करेंगे।
एक मित्र ने मुझे पत्र लिखा था, राजस्थान से, कि एक आदमी को मैंने दस वर्ष तक परमात्मा की तरह माना और फिर एक दिन देखा कि वह क्रोध में आ गए। तो मेरी सारी आस्था मिट गई। मिट्टी हो गई। और अब मेरी हालत ऐसी हो गई है कि अब मैं किसी को भी परमात्मा, किसी में भी परमात्मा नहीं देख सकता। क्योंकि मैं जानता हूं कि कभी न कभी, कुछ न कुछ गड़बड़ होगी। और फिर सब मामला खराब हो जाएगा।
मैंने उन मित्र को खबर पहुंचाई कि दस साल उस आदमी ने क्रोध नहीं किया, दस साल में एक बार उस आदमी ने क्रोध किया तो दस साल का अक्रोध एक क्षण के क्रोध से समाप्त, नष्ट हो गया। तुम जरूर क्रोध की तलाश में थे। दस साल का अक्रोध! हजार इंच परमात्मा था वह आदमी, एक इंच सिद्ध हो गया कि परमात्मा नहीं है, तो हजार इंच बेकार हो गया? तुमने यह भी लौट कर न सोचा कि जब किसी आदमी में हम क्रोध देखते हैं तो जरूरी नहीं है कि वह क्रोधित हो ही। हमारा देखना भी जिम्मेवार हो सकता है। वह तुम्हें खयाल न आया। तुम्हें यह भी खयाल न आया कि यह मेरी धारणा है कि परमात्मा क्रोध नहीं कर सकता। यह मेरी धारण टूटनी चाहिए थी। लेकिन परमात्मा टूट गया, धारणा न टूटी! धारणा यह थी कि परमात्मा क्रोध नहीं कर सकता; और परमात्मा ने क्रोध किया। तो धारणा न टूटी, परमात्मा टूट गया। धारणा ज्यादा कीमती चीज थी। मेरी धारणा थी! परमात्मा तुम थे, धारणा मेरी थी। तुम टूटोगे, मैं नहीं टूट सकता हूं।
मैंने खबर भिजवाई कि तुम एक बार फिर सोचना। तुमसे किसने कहा कि परमात्मा क्रोध नहीं कर सकेगा? किसने तय किया तुम्हारे लिए कि परमात्मा क्रोध नहीं कर सकेगा? कैसे तुमने जाना कि परमात्मा क्रोध नहीं कर सकेगा? धारणा है तुम्हारी। इतना जरूर है कि अगर तुम किसी में परमात्मा देखोगे तो उसका क्रोध तुम्हें क्रोध दिखाई नहीं पड़ेगा।
यह पक्का नहीं है कि महावीर ने क्रोध किया या नहीं किया, यह पक्का है कि जिन्होंने महावीर को परमात्मा जाना, उन्हें उनका क्रोध दिखाई नहीं पड़ा। किया या नहीं किया, इसका कोई पक्का नहीं है। क्योंकि दूसरों को दिखाई पड़ता है। गोशालक को दिखाई पड़ता है कि महावीर क्रोधी हैं। महावीर के भक्तों को दिखाई नहीं पड़ता। कृष्ण के भक्तों को नहीं दिखाई पड़ता कि कृष्ण क्रोधी हैं। लेकिन कृष्ण के विरोधियों को दिखाई पड़ता है कि वक्त पर यह आदमी सुदर्शन निकाल कर खड़ा हो गया था। तब सब असलियत पता चल गई कि यह आदमी क्रोधित होता है। खत्म हो गई बात! कैसा परमात्मा! लेकिन सुदर्शन निकाल कर खड़ा हुआ कृष्ण भी, जिसको उसमें परमात्मा दिखाई पड़ रहा था उसको कोई क्रोध नहीं दिखाई पड़ा। उसको लीला दिखाई पड़ी। उसको रहस्य दिखाई पड़ा।
बल्कि सच तो यह है कि कृष्ण अगर सुदर्शन निकाल कर खड़े न होते, तो जिसने कृष्ण को प्रेम किया है वह कृष्ण को कभी पूर्ण अवतार न कह पाता। वह पूर्ण कहा ही जा सका इसलिए कि यह आदमी इतना पूर्ण है कि इसमें दोनों चीजें मौजूद हैं। यह अधूरा, खंडित नहीं है। इसमें शुभ भी है तो अपने पूरे शिखर पर। इसमें बुराई भी है तो अपनी पूरी नीचाई में। ये दोनों एक-साथ हैं। इतना संतुलित है, इसलिए यह पूर्ण है।
इसलिए हिंदू मन को लगा कि कृष्ण पूर्ण अवतार हैं। राम भी उतने पूर्ण नहीं। क्योंकि राम भलाई की तरफ जरा ज्यादा झुके हुए हैं। संतुलन पूरा नहीं है। ज्यादा भले हैं। संतुलित नहीं हैं। राम का व्यक्तित्व संतुलित नहीं है। संयमी है, संतुलित नहीं है। क्योंकि संतुलन तो बुराई से होगा। कृष्ण का व्यक्तित्व बिलकुल संतुलित है। दोनों तराजू एक सीध में आ गए, दोनों पलड़े तराजू के एक सीध में खड़े हैं, कांटा खबर देता है कि पूर्ण है। बिलकुल संतुलित है। यह भक्त को दिखाई पड़ा। गैर-भक्त को यह दिखाई पड़ा कि वह जो सुदर्शन ले लिया, उसने एक पलड़े को जमीन से लगा दिया, बात सब नष्ट हो गई।
यह कहना मुश्किल है कि परमात्मा क्रोध करता है या नहीं करता है, यह कहना बिलकुल पक्का है कि जो परमात्मा कहीं भी देख ले, उसको क्रोध दिखाई नहीं पड़ता है। और मजा यह है कि यह सवाल ही महत्वपूर्ण नहीं है कि कृष्ण ने क्रोध किया या नहीं किया, महत्वपूर्ण यह है कि कोई आदमी देख पाया परमात्मा कृष्ण में। यह महत्वपूर्ण है। यह घटना महत्वपूर्ण है। यह घटना क्रांतिकारी है।
कृष्ण भगवान हैं या नहीं, यह दो कौड़ी की बात है। इसका हिसाब नासमझ लगाने बैठते हैं। लेकिन कोई देख पाया, वह रूपांतरित हो गया। वह देखने से रूपांतरित हो गया। कृष्ण के होने, न होने का सवाल ही गौण है। पत्थर को भी कोई देख पाए कि परमात्मा है, तो रूपांतरण हो जाता है।
‘सारा मायिक-प्रपंच, सारी माया भी उसी ब्रह्म से प्रकाशित है और वह ब्रह्म मैं ही हूं।’
यह बहुत मजेदार है बात। यह सारा मायिक-प्रपंच--यह चोर चोरी करने जा रहा है, यह कामी कामना के वश अंधा होकर दौड़ रहा, यह धन का लोभी धन के ढेर पर सांप बन कर बैठ गया, यह सब मायिक-प्रपंच ब्रह्म के ही द्वारा प्रकाशित है। और भी अदभुत बात सूत्र में है। ‘और वह ब्रह्म मैं ही हूं।’ यह मैं ही चोर में चोरी करने जा रहा हूं और यह मैं ही लोभी में लोभ हूं, और यह कामी की कामना मैं ही हूं। यह बहुत अदभुत सूत्र है। ऐसी प्रतीति धार्मिक आदमी की प्रतीति है। ऐसा आदमी धार्मिक है।
लेकिन हम जिनको धार्मिक देखते हैं, वे कह रहे हैं कि तुम चोर हो, नरक जाओगे। उनको कभी खयाल नहीं आता कि इसमें नरक मैं ही जाऊंगा। ऐसा खयाल आए तो इतनी निंदा से यह बात कही नहीं जा सकती। इतना रस भी नहीं लिया जा सकता फिर इसमें।
साधु-संन्यासी बैठे हैं, और वे लोगों को समझा रहे हैं कि पापी हो तुम, नरक में पड़ोगे। उन्हें खयाल भी नहीं आता कि उनके भीतर मैं ही पापी हूं। और इनके द्वारा मैं ही नरक में पडूंगा। ऐसा खयाल आए तो धार्मिक व्यक्तित्व पैदा होता है।
इस जगत में जो कुछ हो रहा है, उसमें मैं भागीदार हूं। क्योंकि मैं उसका हिस्सा हूं। अगर यहां रावण हुआ है, तो मैं उसके भीतर रावण था। रावण के भीतर मेरा होना अनिवार्य है, क्योंकि मैं जगत में भागीदार हूं, साझीदार हूं। अगर वियतनाम में युद्ध हो रहा तो मैं जिम्मेवार हूं। कहीं कोई दिखाई नहीं पड़ती मेरी जिम्मेवारी। लेकिन जिस दुनिया का मैं हिस्सा हूं उस दुनिया में अगर युद्ध घटित होते हैं, तो मैं जिम्मेवार हूं। अगर यहां हिंदू और मुसलमान के दंगे होते हैं, और हिंदू मुसलमान को काटते हैं, मुसलमान हिंदू को काटते हैं, तो मैं जिम्मेवार हूं। क्योंकि उनके भीतर मैं ही कट रहा हूं। और मैं ही काट रहा हूं।
यह भी समझ लेना आसान है कि ब्रह्म ही चोरी करने जा रहा है। यह समझना और भी मुश्किल है कि मैं ही उसमें चोरी करने जा रहा हूं। ऐसी प्रतीति अदभुत क्रांति ले आएगी। ऐसा खयाल ही आपकी जिंदगी को दूसरा कर जाएगा। यह दृष्टि ही, फिर आप और हो जाएंगे। फिर क्या है बुरा और क्या है भला। और किसकी निंदा और किसकी प्रशंसा। और किसको भेजें नरक और किसको भेजें स्वर्ग। क्या करें आयोजन। सब आयोजन गिर जाते हैं। सब व्यवस्थाएं गिर जाती हैं। और ऐसा व्यक्ति अशांत हो सकता है? और ऐसा व्यक्ति तनाव में हो सकता है? और ऐसे व्यक्ति का क्या संताप रहा! ऐसा व्यक्ति ही न रहा। यह अहंकार पर सघनतम चोट है। साधारणतः तो मेरी चोरी को भी मैं मेरी नहीं मान पाता, इसमें दूसरे की चोरी को भी मेरा मान लिया गया।
साधारणतः तो मैं खुद भी चोरी करता हूं तो भी मैं कहता हूं, परिस्थितिवश। मैं कोई चोर नहीं हूं, परिस्थिति ऐसी थी। पत्नी बीमार पड़ी थी, बच्चा भूखा मर रहा था, नहीं करता चोरी तो क्या करता? ऐसी परिस्थिति तुम्हारी भी होगी तो तुम भी चोरी करोगे। परिस्थिति ऐसी थी कि मैंने चोरी की। मैं चोर नहीं हूं। हम अपनी चोरी को भी अस्वीकार करते हैं। इस सूत्र में दूसरे की चोरी भी स्वीकार कर ली गई। और उसकी भी चोरी स्वीकार कर ली गई, जिससे सूझ-बूझ में कोई संबंध नजर नहीं आता। हो सकता है उसका मुझे पता भी न हो। हो सकता है उसकी मुझे खबर भी न हो।
फिर भी यह सूत्र कहता है कि ‘उन सबके भीतर मैं ही हूं। उस सारे मायिक-प्रपंच में जो हो रहा है, वह ब्रह्म का; और वह ब्रह्म मैं ही हूं।’
यह अहंकार पर सघनतम चोट है। और अगर इस चोट में भी अहंकार बच जाए तो फिर उसके मिटने का कोई उपाय नहीं है। मगर बच नहीं सकता। इस चोट के बाद बचने का कोई उपाय ही नहीं रह जाता। कभी आपने खयाल किया कि जब हम दूसरों को चोर कहते हैं तो हमारे अहंकार को बड़ा रस आता है। जब हम दूसरे को पापी कहते हैं, तो हम जाने-अनजाने पुण्यात्मा हो जाते हैं। जब हम दूसरे की निंदा करते हैं तो परोक्ष में हम अपनी प्रशंसा करते हैं। इसलिए तो निंदा का इतना रस है।
कवियों ने बहुत रसों की चर्चा की है, लेकिन निंदा के रस के मुकाबले में सब रस बिलकुल फीके और बेस्वाद हैं। इसलिए कवि भी कविता कितनी ही करते हों, लेकिन एक दूसरे कवि की निंदा में जितना रस लेते हैं उतना कविता में नहीं लेते हैं। निंदा ऐसा मौलिक रस है, आधारभूत मालूम पड़ता है। सब काव्य फीके हैं। सब रस साधारण हैं।
कभी आपने खयाल किया कि जब कोई किसी की निंदा करने लगता है तो आपके हृदय में कमल कैसे खिलने लगते हैं। और जब कोई किसी की प्रशंसा करने लगता है तो कमल कैसे सिकुड़ने लगते हैं। जब कोई किसी की प्रशंसा करता है तो आप तत्काल डिफेंस में, रक्षा में, खड़े हो जाते हैं। अपनी रक्षा में। आपकी रक्षा का रूप यह होता है कि आप कहते हैं कि कौन कहता है कि वह आदमी सच्चा है? क्या प्रमाण है कि वह आदमी साधु है? क्या सबूत है? आप तर्क करते हैं, विवाद करते हैं।
कोई कहता है: फलां आदमी चोर है। आपके हृदय कमल एकदम खिल जाते हैं। द्वार एकदम ग्राहक हो जाता है। रिसेप्टिविटी एकदम बढ़ जाती है। हृदय एकदम स्वीकार कर लेता है। श्रद्धा से आपूरित हो जाते हैं आप कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, वह तो मुझे पहले ही से पता था। न कोई प्रमाण पूछते हैं आप कि किसने कहा कि वह आदमी चोर है? कैसे सिद्ध हुआ? जिसने कहा वह झूठा तो नहीं था? इसका कोई पक्का प्रमाण है कि जिसने गवाही दी है वह आदमी ईमानदार था खुद? नहीं, अब यह पूछने की कोई भी जरूरत नहीं है। निंदा के साथ हमारी श्रद्धा ऐसी भरपूर हो जाती है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि आज के युग का आदमी अश्रद्धालु है, मैं इतना ही कहता हूं कि उसकी श्रद्धा के विषय बदल गए हैं, और कुछ नहीं। श्रद्धा पूरी है। कोई कहे कि फलां साधु है तो अश्रद्धा आती है। कोई कहे फलां पापी है, एकदम श्रद्धा आती है। श्रद्धा की कोई कमी नहीं है। श्रद्धा पूरी है।
गलत जगह पर श्रद्धा एकदम आती है। उसके कारण हैं, क्योंकि जैसे ही कोई किसी की निंदा करता है, जाने-अनजाने हमारी प्रशंसा करता है। इसलिए जो बहुत कुशल खुशामदखोर हैं, वे आपकी प्रशंसा करने के लिए सबसे अच्छा रास्ता निकालते हैं। आपके पास आकर उनकी निंदा करते हैं जिनके अहंकार के कारण आपके अहंकार को कभी भी कोई तरह की चोट पहुंचती है। यह कुशलतम खुश
ामद है। इसमें सीधा वह आपसे नहीं कहते हैं कि आप महान हैं। वे आपके चारों तरफ जितने हैं उन सबको कहते हैं, सब क्षुद्र हैं और आप अचानक महान हो जाते हैं।
जो आदमी सीधा आपसे आकर कहता है: आप महान हैं, उसे खुशामद का रहस्य पता नहीं है। और जो आदमी सीधा आपसे कहता है: आप महान हैं, आप थोड़ा उसके प्रति संदिग्ध हो जाएंगे कि यह आदमी कुछ गड़बड़ करेगा। लेकिन अगर वह कुशल है तो वह आपको महान नहीं कहेगा, सिर्फ दूसरों को छोटा कहेगा और आपको महान बनाएगा। वह ज्यादा कुशल है और अगर असली उपद्रव करना है तो वही कर सकेगा।
निंदा में इतना रस है। दूसरे को बुरा बताने में बड़ा रस है। दूसरे को गलत बताने में बड़ा रस है। दूसरा भूल में है, यह सिद्ध करने में बड़ा रस है। यह सारा रस समाप्त हो जाएगा। अगर यह सारा प्रपंच, यह सारी बुराई, यह सारा उपद्रव, यह सारा कोढ़ जो चारों तरफ फैला हुआ दिखाई पड़ता है, यह भी मैं ही हूं; यह सारी विक्षिप्तता, यह सारी बीमारियां, यह सारी विकृति, यह भी मैं ही हूं, फिर अहंकार बच नहीं सकता। फिर अहंकार को बचने के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह जाता। और जहां अहंकार नहीं, वहीं ब्रह्म का आवास है। जहां ब्रह्म का आवास है, वहीं अहंकार का विनाश है।
‘जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में जो भी मायिक-प्रपंच दिखाई देते हैं, वह सब ब्रह्म द्वारा ही प्रकाशित होते हैं। और वह ब्रह्म मैं ही हूं--ऐसा जो जान लेता है, वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।’
सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरं नित्यं तत्त्वमेव त्वमेव तत्।।16।।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तादि प्रपंचं यत्प्रकाशते।
तद् ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्वबन्धैः प्रमुच्यते।।17।।
जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जो सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म है, जो संसार के समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों का आत्मा है, वही तुम हो, तुम वही हो।।16।।
जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में जो मायिक-प्रपंच दिखाई देते हैं वे सब ब्रह्म द्वारा ही प्रकाशित होते हैं और वह ब्रह्म मैं ही हूं--ऐसा जो जान लेता है, वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।।17।।
साधना के दो भाग हैं। समस्त प्रयासों के ही दो भाग होते हैं। एक भाग, जिसमें जो असार है उसे छोड़ना होता, त्यागना होता, उससे तादात्म्य तोड़ना होता है। और दूसरा भाग, जो सार है उसके साथ एकात्म, उसके साथ तादात्म्य जोड़ना पड़ता है। पहला भाग निषेध है, दूसरा भाग विधेय है।
असत्य को असत्य की तरह जानना पड़ेगा, तभी हम सत्य को सत्य की तरह जान पाएंगे। प्रकाश को भी जानना हो तो पहले अंधेरे को जानना पड़ेगा, तो ही हम प्रकाश को जान पाएंगे। जीवन को पहचानना हो तो मौत की भी पहचान बनानी पड़ेगी, तो ही जीवन हमारे खयाल में आएगा। क्योंकि जो भी हमारे खयाल में आता है, उसे खयाल में आने के लिए विपरीत का भी हमारी दृष्टि में होना जरूरी है। अंधेरी रात होती है तो तारे चमकते हैं। दिन के प्रकाश में भी तारे होते हैं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ते। चमकना तो दूर, दिखाई भी नहीं पड़ते। तारे अभी भी आपके ऊपर आकाश में फैले हुए हैं। तारे तो कहीं चले नहीं जाते। कोई सुबह होते से तारे कहीं विलीन नहीं हो जाते हैं। लेकिन सूरज के प्रकाश की पर्त, फिर उन तारों की झलक असंभव हो जाती है। तारों को जानना हो तो रात का गहन अंधेरा चाहिए, तब वे दिखाई पड़ते हैं। और जितना हो गहन अंधेरा, उतने प्रकट होकर, स्पष्ट होकर दिखाई पड़ते हैं।
विपरीत में ही बोध है।
इससे एक बहुत मजेदार बात खयाल में ले लें, फिर हम सूत्र में चलें।
जिन चीजों को हम विपरीत कहते हैं, वे विपरीत फिर नहीं रह जाती हैं, सहयोगी हो जाती हैं। उनके भीतर एक आंतरिक मैत्री बन जाती है। रात का अंधेरा तारों का दुश्मन नहीं है, तारों का मित्र है। क्योंकि उस अंधेरे के बिना तारे प्रकट ही नहीं होते।
फिर तो मृत्यु भी जीवन की दुश्मन नहीं है। फिर तो मृत्यु भी जीवन की मित्र है। क्योंकि मृत्यु के बिना जीवन भी प्रकट नहीं होता। ऐसा अगर देखेंगे तो समझ में आएगा कि जिसे हम शत्रु कहते हैं, वह भी हमारी नासमझी का ही हिस्सा है। जिसे हम बुरा कहते हैं, वह भी हमारी नासमझी का ही हिस्सा है।
इस जगत में सभी विपरीत अंतस में सहयोगी हैं। रावण के बिना राम नहीं हो पाते और न राम के बिना रावण हो पाता। अगर राम को भी जानना हो तो यहीं से शुरू करना पड़ेगा कि रावण क्या है? क्योंकि जो-जो रावण है, वह राम नहीं है। इस सूत्र के पहले तक निषेध की प्रक्रिया की बात थी। मनुष्य का अंतस, अंतरात्मा, मनुष्य का आंतरिक यथार्थ क्या-क्या नहीं है। जाग्रत जो है, वह भी वह नहीं है। स्वप्न जो है, वह भी वह नहीं है। सुषुप्ति जो है, वह भी वह नहीं है। यह जो दिखाई पड़ता है प्रपंच, यह माया है, यह भी वह नहीं है। अभी तक हमने वह क्या नहीं है, इस संबंध में चर्चा की है। इस सूत्र के साथ विधायक बात शुरू होती है--वह क्या है?
और ध्यान रहे, निषेध की बात पहले करनी पड़ती है। निषेध की रेखाओं के बीच में ही विधेय उभरता है। अगर देखा हो कोई पर्वत-शिखर तो उन खाइयों को मत भूलना जो उसे चारों तरफ घेरे हुए हैं। क्योंकि उनके बीच ही वह उभरता है। अगर खाइयां मिटा दो, शिखर मिट जाएगा। खाइयां बड़ी करो, शिखर बड़ा होता चला जाएगा। वह जो खाई है, वह शिखर की दुश्मन नहीं है, उलटी दिखाई पड़ती है। वह सहयोगी है। वह चारों तरफ से उसकी रेखा निर्मित करती है। और जितनी होती है गहरी उतना ही शिखर ऊपर उठता जाता है।
निषेध खाई की तरह है। गड्ढा है। इनकार करना होता है पहले कि क्या-क्या मैं नहीं हूं। क्योंकि जब तक उससे भेद स्पष्ट न हो जाए जो-जो मैं नहीं हूं, तो बहुत मुश्किल होगा उसको पकड़ पाना जो मैं हूं। मेरा होना मेरे न होने से घिरा है। और न होना पहले मुझे मिलेगा। फिर होना मुझे मिलेगा। अगर मैं अपनी तरफ जाऊं अपनी यात्रा पर तो पहले तो मुझे मेरी खाइयां मिलेंगी। और फिर मुझे मेरा शिखर मिलेगा।
इसे बहुत आयामों में समझ लेना।
अगर मैं अपने भीतर जाऊंगा तो पहले तो मुझे मेरी बुराइयां मिलेंगी। और जो बुराई से डरता हो वह फिर कभी भीतर नहीं जा सकेगा। अगर मैं अपने भीतर जाऊंगा तो पहले तो मुझे सारी बुराइयां मिलेंगी। बड़ी ग्लानि होगी, बड़ी आत्मनिंदा जगेगी। लगेगा मुझसे पापी कौन है। सभी संतों ने जो बातें कही हैं, वे आप यह मत समझ लेना कि विनम्रता के कारण कहीं हैं। अक्सर यही समझा जाता है। कबीर ने कहा है: जब मैं खोजने गया तो मुझसे बुरा मैंने कोई भी न पाया। बच्चों को बूढ़े समझाते हैं, स्कूल में शिक्षक विद्यार्थियों को समझातें है कि यह कबीर की विनम्रता है। यह विनम्रता नहीं है। इसका विनम्रता से कोई लेना-देना नहीं है। यह कबीर की शोध है।
जब भी कोई व्यक्ति खोजने जाएगा तो पहले बुराइयों की खाइयां मिलेंगी। और जब बुराइयों की खाइयां पार होंगी, तभी भलाई का शिखर आंखों में आएगा। इसलिए जो अपने को भला मान कर बैठा है, वह भीतर जा ही न सकेगा। क्योंकि इसकी भले मानने ही मान्यता ही उसको डर पैदा करवा देगी कि यहां भीतर गए तो बुराई मिलती है। जो अपने को अहिंसक मान कर बैठा है, क्योंकि रात भोजन नहीं करता है, पानी छान कर पी लेता है, इतनी सस्ती अहिंसा में जिसने अपने को घेर रखा है, वह जरा ही भीतर झांकेगा तो हिंसा मिलेगी। तो घबड़ा जाएगा भीतर जाने से। फिर बाहर ही रहा आएगा।
हम सब अपने बाहर भटक रहे हैं, क्योंकि हम अपनी बुराई की खाई को पार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। साहसपूर्वक जो अपनी बुराई की खाई से गुजर जाता है, वही अपने भलाई के शिखर को उपलब्ध होता है। इसे ऐसा समझें कि जिसे संत होना है, उसे पहले पापी होना पड़ेगा। होना पड़ेगा का मतलब उसे पहले अपने पाप की खाइयों से गुजरना पड़ेगा। और जितना बड़ा होगा संत, उतनी बड़ी पाप की खाई उसके इर्द-गिर्द होगी क्योंकि वह संतत्व का शिखर पाप की खाई के बिना उभरता नहीं है। है ही नहीं कहीं।
अगर खाई से बचना है तो दो उपाय हैं। या तो खाई में प्रवेश ही मत करो और खाई के बाहर ही अपनी जिंदगी बिता दो। लेकिन तब शिखर पर भी कभी नहीं पहुंचोगे। और दूसरा उपाय यह है कि शिखर पर पहुंचो, तो फिर खाई से मुक्त हो जाओगे। लेकिन खाई से मुक्त होने के लिए खाई से गुजरना ही पड़ेगा। ईसाई रहस्यवादियों ने उसे ‘डार्क नाइट ऑफ दि सोल’ कहा है, कि जब भी कोई उस परम प्रकाश की तरफ जाता है तो पहले उसे महा अंधकारपूर्ण रात्रि से गुजरना पड़ता है।
पुण्य के सभी शिखर पाप की रेखाओं से घिरे हैं। उन रेखाओं से भयभीत मत हो जाना। जानना यह, खयाल रखना यह कि जितनी बड़ी खाई हो, उतना ही बड़ा शिखर निकट है। इसलिए न तो निंदा से भरना, न भयभीत होना। न आत्म-ग्लानि अनुभव करना, न ऐसा समझना कि अब क्या होगा! मैं तो पापी हूं! अगर पाप है तो कहीं छिपा पुण्य भी होगा, थोड़ी और यात्रा की बात है।
और यहां एक बात और समझ लें।
इस खाई में उतर कर आदमी दो काम कर सकता है। या तो इस खाई से लड़ने लग जाए, जो कि नैतिक आदमी करता है। और या, इस खाई को पार करने लग जाए, जो कि धार्मिक आदमी करता है। और नैतिक आदमी खाई से ही लड़ कर खाई में ही उलझ जाता है और शिखर तक कभी नहीं पहुंच पाता। धार्मिक आदमी खाई से लड़ता नहीं, सिर्फ खाई से गुजरता है। स्वभावतः अगर खाई से लड़िएगा तो खाई में ही रुकना पड़ेगा, शिखर पर कैसे जाइएगा! जो लड़ेगा, उसे वहीं रुकना पड़ेगा जिससे लड़ेगा। दुश्मन का तल ही हमारा तल हो जाता है। इसलिए बुरा दुश्मन अगर मिल जाए जिंदगी में तो आदमी बुरा हो जाता है। बुरा मित्र इतना नुकसान नहीं पहुंचा पाता, बुरा दुश्मन बहुत नुकसान पहुंचा देता है।
इसलिए मित्र तो कोई भी चुन लें तो चलेगा। दुश्मन बहुत सोच-समझ कर चुनना चाहिए। क्योंकि उससे लड़ना पड़ेगा, उसकी भूमि पर खड़े रहना पड़ेगा। धीरे-धीरे जो भी लोग लड़ते हैं उनका गुणधर्म एक सा हो जाता है। धीरे-धीरे, दोनों एक-दूसरे को बदल कर उस हालत में ला देते हैं कि दो मित्र भी इतने समान कभी नहीं होते, जितने दो दुश्मन समान हो जाते हैं।
नैतिक व्यक्ति का अर्थ है कि जैसे ही उसे भीतर बुराई दिखाई पड़ती है, जो पहला काम करता है, उससे लड़ने का करता है। बुराई से जब आप लड़िएगा तो आप हारिएगा। बुराई से ऊपर उठा जाता है, बुराई को जीता नहीं जाता। ये अलग बातें हैं। बुराई को जीता कभी नहीं जाता, बुराई से ऊपर उठा जाता है। और जो ऊपर उठ जाता है वह जीत भी जाता है। क्योंकि जो हमसे नीचे पड़ जाता है, हम उसके मालिक हो जाते हैं। लेकिन जो बुराई से लड़ता है, समतल भूमि पर खड़ा रहता है। और लड़ने वाला कभी नहीं जीतता। क्योंकि लड़ने वाले का तल ही वही होता है, जो बुराई का तल होता है। तल की बदलाहट क्रांति है।
तो मेरे भीतर हिंसा है। अगर मैं इससे लडूं तो मैं क्या करूंगा? मैं यही कर सकता हूं कि इसको दबाऊं। इसको भुलाऊं। मैं यही कर सकता हूं कि कुछ अहिंसा आरोपित करूं। और अहिंसा को बढ़ाऊं और हिंसा को दबाऊं। लेकिन दबी हुई हिंसा मिटती नहीं है। दबी हुई हिंसा कभी-कभी तो और भी प्रखर हो जाती है, और नये मार्गों से प्रकट होने लगती है।
नैतिक व्यक्ति का साधन जो है, वह है दमन। धार्मिक व्यक्ति का जो साधन है, वह है निरीक्षण, दमन नहीं। धार्मिक व्यक्ति सिर्फ निरीक्षण करता है, कि यह खाई है, यह बुराई है, और साक्षीभाव रखता है और आगे बढ़ा जाता है। और खयाल रखता है कि यहां किसी खाई की, किसी भी चीज से संघर्ष नहीं लेना है। लेना ही नहीं है। नहीं तो संघर्ष ही पड़ाव बन जाएगा। फिर यहीं डेरा डाल कर पड़ा रहना पड़ेगा। और खाई में रह कर खाई को जीतिएगा कैसे? इसलिए नैतिक व्यक्ति को धार्मिक होने में उतनी ही कठिनाई पड़ जाती है जितनी अनैतिक को।
अनैतिक और नैतिक में एक बात समान है। अनैतिक खाई को मान कर वहां रुक जाता है। और नैतिक खाई को न मानने की वजह से लड़ने के लिए वहीं रुक जाता है। लेकिन तल-भेद नहीं है। दोनों रुकते वहीं हैं। हिंसा में अनैतिक भी रुका होता है, उसे मान कर। हिंसा में तथाकथित अहिंसक भी रुका होता है, उसे न मान कर। धार्मिक व्यक्ति वह है जो इन दोनों किनारों के बीच कुछ भी चुनाव नहीं करता। जो न हिंसा को मानता है, न, न मानता है जो चुपचाप खाई को पार करता है और ध्यान शिखर का रखता है, कि शिखर तक मुझे पहुंचना है। खाई पर मुझे किसी तरह का रस पैदा नहीं करना है। राग का, या विराग का, मित्र का, या शत्रु का। खाई से मुझे सिर्फ गुजर जाना है। इसे अगर खयाल रखेंगे तो शिखर बहुत निकट है। और इसमें अगर जरा भी भूल हुई तो शिखर बहुत दूर है।
और इसलिए कई दफे एक बहुत अनूठी घटना घटती है। और वह यह कि इस खाई को मान कर जो अनैतिक व्यक्ति है कभी-कभी अचानक शिखर की तरफ दौड़ जाते हैं। और उनके दौड़ने का कारण यह होता है कि बुराई को मान कर वे इतना दुख पाते हैं कि वह दुख ही किसी क्षण में इतना सघन और तीव्र हो जाता है कि उस दुख के कारण ही वे अचानक खाई को छोड़ कर दौड़ शिखर की तरफ लगा देते हैं। लेकिन जो नैतिक आदमी है, वह बुराई से लड़ कर अपने अहंकार को इतना मजबूत कर लेता है। और उसके अहंकार के होने में वह बुराई ही कारण होती है, जिससे वह लड़ता है। इसलिए बुराई में उसका एक अनूठा रस पैदा हो जाता है। वह अनूठा रस यह है कि उसके अहंकार के होने का कारण ही वह बुराई का होना है, जिससे वह लड़ता है।
एक आदमी हिंसा से लड़ कर अहिंसक हो गया है। अब यह खाई छोड़ना उसे बहुत मुश्किल पड़ेगा। इसलिए मुश्किल पड़ेगा कि खाई छोड़ने का मतलब यह अहंकार भी छोड़ना होगा। यह जो भीतर अहंकार है कि मैं अहिंसक हूं, यह तभी तक तो है जब तक हिंसा से लड़ाई चल रही है। अगर यह हिंसा की लड़ाई छोड़ कर भागना है तोयह जो अहंकार इस लड़ाई से पैदा किया था, यह भी इसी खाई में छोड़ कर जाना पड़ेगा। यह साथ नहीं जा सकता। यह उसका ही अनिवार्य हिस्सा है।
इसलिए नैतिक आदमी को अक्सर धार्मिक होने में अनैतिक आदमी से भी ज्यादा कठिनाई पड़ जाती है। क्योंकि अनैतिक आदमी के पास बुराई से कोई अहंकार पैदा नहीं होता। सिर्फ दीनता, दुख, पीड़ा पैदा होती है। संताप पैदा होता है। सिवाय कष्ट के वह बुराई से कुछ पाता नहीं है। लेकिन नैतिक आदमी बुराई से कष्ट की जगह सुख भी पाता है। अस्मिता का, अहंकार का कि मैं अहिंसक हूं, मैं त्यागी हूं। मैं सच्चा हूं, मैं ईमानदार हूं। यह जो मैं है इन सबके पीछे छिपा, यह बुराई से उत्पन्न हुआ है। यह बुराई की उत्पत्ति है। यह बुराई के बिना पैदा नहीं हो सकता था। इसलिए यह आदमी एक दोहरी झंझट में होता है। जिससे लड़ता है, उसी से जीवन पाता है। जिसकी दुश्मनी बता रहा है, वही इसका अहंकार पैदा करने का आयोजन है। इसे इस खाई को छोड़ने में दोहरी कठिनाई होगी। एक तो यह खाई पकड़ने वाली है ही। और अब इसने खाई के अनुकूल अपने भीतर एक और भी उपद्रव पैदा कर लिया है, जो इसे यहां से जकड़ाए रखेगा। इसकी बुराई स्वर्णिम हो गई। इसके पाप में पुण्य का मजा आ रहा है।
इसलिए बहुत विचित्र मालूम पड़ता है, लेकिन ऐसा है कि बुरा आदमी कभी-कभी इस खाई से छलांग लगा कर निकल जाता है और भला आदमी इस खाई से छलांग लगा कर निकलने में बड़ी कठिनाई पाता है। मगर दोनों को ही इससे पार जाना पड़ेगा। दोनों को ही इससे पार जाना पड़ेगा। और पार जाने की जो मौलिक आधारशिला है, वह है--न तो इसके भोग में रस लेना, न इसके दमन में रस लेना--इसमें रस ही मत लेना। रस रखना शिखर की तरफ। और इतना ही खयाल रखना कि खाली खाई से गुजरना अनिवार्य है, तो गुजरेंगे। यहां किसी तरह का पड़ाव नहीं बनाना है। और इस खाई से किसी भी तरह का संबंध नहीं जोड़ना है। यह खाई शिखर का अनिवार्य हिस्सा है, इसलिए इससे गुजरना है।
चाहे बुराई का और भलाई का सवाल हो, चाहे पाप का और पुण्य का, चाहे ज्ञान और अज्ञान का; एक ही, एक ही कठिनाई से गुजरना होता है। अज्ञान की खाई हमारे चारों तरफ है--ज्ञान के शिखर के पास अनिवार्य है। उससे भी हम दो काम कर कर सकते हैं। उससे गुजर जाएं तो शिखर उपलब्ध हो जाए। उससे लड़ने लगें तो पांडित्य उपलब्ध होता है। अज्ञान से लड़ने लगें तो पांडित्य उपलब्ध होता है। सिद्धांत, शास्त्र, ये उपलब्ध हो जाते हैं। फिर वहीं डेरा डाल कर बैठ जाना पड़ता है। और सिद्धांत शास्त्र बड़ी वजनी चीजें हैं। इनके बोझ को लेकर कोई भी शिखर पर जा नहीं सकता। कभी-कभी अज्ञानी वहां पहुंच जाते हैं, लेकिन तथाकथित ज्ञानी नहीं पहुंच पाते हैं। क्योंकि अज्ञानी कम से कम निर्बोझ तो होता ही है। उसके पास कोई साज-सामान नहीं हाता, जिसको ढोना है शिखर की तरफ। सिर्फ यह खाई होती है अज्ञान की, इसको छोड़ कर वह कभी भी भाग सकता है। लेकिन पंडित के पास, तथाकथित ज्ञानी के पास खाई तो होती ही है, सिर पर शास्त्रों का, शब्दों का, सिद्धांतों का बड़ा बोझ भी होता है। खाई उतना नहीं पकड़ती जितना यह बोझ पकड़ लेता है। इस बोझ में छाती दबी जाती है। और इसको छोड़ कर वह भाग नहीं सकता, क्योंकि यह बोझ उसका अहंकार है।
ध्यान रहे, खाई ने किसी को कभी नहीं पकड़ा, लेकिन अहंकार ने बुरी तरह खाई में लोगों को रुकवा दिया है, खूंटियां गड़वा दी हैं। फिर वहां से हटना मुश्किल हो जाता है। एक बात पक्की है कि इस खाई में जो अपने को पापी जान कर चुपचाप आगे बढ़ता रहे, इस खाई में जो अपने को अज्ञानी जान कर चुपचाप आगे बढ़ता रहे, वह शीघ्र ही शिखर पर पहुंच जाता है। लेकिन पुण्यात्मा को अपने को पापी मानने में बड़ी पीड़ा है। और पंडित को अपने को अज्ञानी मानने में बड़ा कष्ट है। फिर रुकाव हो जाएगा। और उस शिखर पर तो वे ही पहुंचते हैं जो निर्भार होते हैं। इस खाई में भार पैदा मत करना। और भार तत्काल पैदा हो जाएगा अगर लड़ाई की तो।
इस खाई से लड़ना ही मत। इससे सिर्फ गुजरना। इससे सिर्फ गुजरना। क्रोध आ जाए तो उससे सिर्फ गुजरना, लड़ना ही मत। कामवासना पकड़े तो उससे सिर्फ गुजरना, लड़ना ही मत। सिर्फ गुजरने वाले का मतलब है, साक्षी; देखता रहेगा कि ठीक है, यह आया है और यह खाई है और इससे गुजरना है, इससे गुजरेंगे, इसमें कोई रस पैदा न करेंगे--इधर या उधर, इस पार या उस पार। कोई किनारा न पकड़ेंगे। मान कर चलेंगे कि अनिवार्य है। अगर मैं जा रहा हूं धूप की तरफ और बीच में छाया पड़ती है, तो मैं इससे गुजरता हूं। इसमें क्या लड़ना और नहीं लड़ना है! इस छाया से क्या करना है। मैं जानता हूं कि छाया के पास सूर्य का प्रखर प्रकाश है पार हो जाऊंगा। रास्ते पर डेरे नहीं डालने चाहिए।
जैसा पाप के संबंध में, जैसा अज्ञान के संबंध में, वैसा ही आत्यंतिक रूप से न होने के संबंध में; वह सबसे गहरी खाई है। क्या-क्या मैं नहीं हूं, उसमें से भी मुझे गुजरना पड़ता है। वह सबसे गहरी है। पाप उतना गहरा नहीं है। अज्ञान उतना गहरा नहीं है। लेकिन जो मैं नहीं हूं, उसकी भी खाई मेरे होने के चारों तरफ है। योग की गहतम प्रक्रियाएं, धर्म की आधारभूत प्रक्रियाएं उसी खाई से संबंधित हैं--जो-जो मैं नहीं हूं।
इसलिए क्या-क्या मैं नहीं हूं, उसका नियम इस ऋषि ने कहा कि जाग्रत में जो-जो हो रहा है वह-वह मैं नहीं हूं। दुकान चल रही है कि दफ्तर जाना हो रहा है, प्रेम हो रहा है, झगड़ा हो रहा है, शत्रुता बन रही है, मित्रता बन रही है, सुख मिल रहा है, दुख मिल रहा है, यह जाग्रत इस छोटे से शब्द में ऋषि ने यह सब कह दिया है--जाग्रत में जो-जो हो रहा है। विस्तार में जाने की कोई जरूरत नहीं मानी है। इस एक शब्द में सारा कह दिया है कि जागते में जो-जो हुआ है, वह मैं नहीं हूं। मगर हमारे पास और तो कोई संपदा नहीं है होने की। जागते में जो-जो हुआ है वही तो हमारी संपदा है। एक मकान बना लिया है, एक तिजोड़ी भर ली है, दस-पांच संगी-साथी खोज लिए हैं, दस-पांच दुश्मन खोज लिए हैं, कोई पद बना लिया है, कहीं अखबार में नाम छपवा लिया है, कहीं पहुंच गए मालूम होते हैं। यह हमारा सब जाग्रत में हुआ मामला है।
कभी आपने खयाल किया, बहुत दूर की तो छोड़ दें, स्वप्न में भी जो आपने जाग्रत में बनाया है वह आप नहीं रह जाते हैं। जागते में आप भिखारी थे और सपने में सम्राट हो जाते हैं। और खयाल भी नहीं आता यह सपने में कि अरे, मैं तो भिखारी था! तो यह जागने की ताकत कितनी? सपना पोंछ देता है। इस जाग्रत को क्या यथार्थ कहें जिसको सपना मिटा देता है। जागते में सम्राट थे, वे सपने में भीख मांग रहे हैं। और स्मरण भी नहीं आता इतना सा कि अरे, मैं अभी जागते में बारह घंटे बिलकुल ही सम्राट था!
अब यह थोड़ा सोचने जैसा है। जिस जागने को सपना पोंछ दे, उस जागने में जो जाना है वह यथार्थ है? और एक और मजे की बात है जो आपको कभी खयाल में न आई होगी, और इसीलिए भारतीय चिंतन स्वप्न को जाग्रत से गहरे में रखता है। स्वप्न को आमतौर से हम अगर तौलेंगे तो जाग्रत से गहरा नहीं मानेंगे। क्योंकि सपना तो सपना है। हम कहते हैं कि वह तो सपना है, यह जाग्रत है। लेकिन यह भारतीय चिंतन सपने को जाग्रत से गहरे में रखता है। कारण उसके हैं।
पहला कारण और मौलिक कारण तो यह है कि आप जागते में तो सपने को कभी-कभी थोड़ा याद रख पाते हैं, लेकिन सपने में जाग्रत को बिलकुल याद नहीं रख पाते हैं। तो मजबूत कौन है? सुबह कभी उठ कर यह तो याद भी रहता है कि सपने में क्या हुआ? लेकिन रात कभी सोकर याद रहा है कि जागते में क्या हुआ? इस मौलिक कठिनाई की वजह से भारतीय मनीषा ने स्वप्न को गहरे में रखा। क्योंकि जिसकी स्मृति जागते तक प्रवेश कर जाती है, वह गहरी अवस्था है। और जिसकी स्मृति सपने तक में नहीं टिकती उसको क्या गहरा कहना!
जागते में जो-जो हमने किया है वही तो हमारा जीवन है। ऋषि कहता है: वह तुम नहीं हो। लेकिन जागते में जो-जो हमने किया वह भला हमारा जीवन हो, लेकिन स्वप्न में जो-जो हमने किया है वह हमारी प्रतिमा है। वह हमारी इमेज है। इसीलिए तो कभी भी किसी आदमी को तृप्ति नहीं होती है कि उसके बाबत लोग ठीक समझते हैं। किसी को तृप्ति नहीं होती है। क्योंकि अपने बाबत वह जो समझता है वह उसकी स्वप्न-प्रतिमा है। और दूसरे उसके बाबत जो समझते है वह उसकी जाग्रत की प्रतिमा है।
इसे थोड़ा खयाल में ले लें।
आप अपने को एक बहुत अच्छा आदमी समझते हैं। लेकिन कोई मानने वाला नहीं मिलता जो आपको उतना अच्छा आदमी समझता हो। तो आप समझते हैं--नासमझ हैं ये लोग, अभी समझ नहीं पाए। वक्त मिलेगा तो समझेंगे। समय आएगा तो समझेंगे। कभी समय नहीं आता और कभी समझ नहीं आती। मामला क्या है? और हर आदमी के साथ यही दिक्कत है, उसको कोई समझने वाला नहीं मिलता। अभी तक मुझे ऐसा आदमी नहीं मिला जो कहे कि मुझे लोग ठीक वही समझते हैं जो मैं हूं। सब लोग गलत समझते हैं! मैं कहां प्रेम से भरा हुआ सागर, और लोग मुझे छोटी तलैया भी नहीं समझ सकते हैं। बल्कि उलटा मुझे समझते हैं कि यह आदमी क्रोधी, घृणा से भरा हुआ, ईर्ष्यालु, न मालूम क्या-क्या--जो मैं नहीं हूं।
इसमें मामला है। इसमें मामला यह है कि आपकी खुद की प्रतिमा आप अपने सपनों से बनाते हैं। और आपके सपनों का दूसरों को कोई पता नहीं है। और दूसरों को जो पता है वह आपकी जाग्रत की प्रतिमा है। और वह जाग्रत की प्रतिमा आपके मन, आपके मन की प्रतिमा नहीं है। तो आप जानते हैं कि कभी-कभी मैं क्रोध कर लेता हूं यह बात दूसरी है, ऐसे मैं आदमी शांत हूं। यह शांत होने की जो प्रतिमा है, यह आपके स्वप्न की प्रतिमा है। और दूसरे आदमी की जो प्रतिमा है वह जो आप कभी-कभी क्रोध में होते हैं, उसी का जोड़ है। इसलिए मेल नहीं पड़ता। और मेल कभी पड़ेगा नहीं, क्योंकि उसमें दूसरे की कोई गलती नहीं है। दूसरा क्या कर सकता है!
दूसरा आपके व्यवहार को जानता है, आपके स्वप्नों को नहीं। और दूसरा आपके व्यवहार को जोड़ कर आपकी प्रतिमा निर्मित करता है। आपके स्वप्नों की उसे कोई खबर भी नहीं है। आप अपनी प्रतिमा अपने व्यवहार से निर्मित नहीं करते। आप अपनी प्रतिमा अपने सपनों से निर्मित करते हैं। बुरा से बुरा आदमी भी अपनी आंखों में बड़ा भला होता है। और भला से भला आदमी भी दूसरों की आंखों में बड़ा बुरा होता है। इसमें कहीं कोई असंगति नहीं है, इसमें असंगति दो तलों की है। आप अपने को वैसा मानते हैं जैसा आप होना चाहते हैं। जो आपका स्वप्न है, वैसा आप मान ही लेते हैं। अगर आप अहिंसक होना चाहते हैं, यह आपका सपना है, तो आप अपने को अहिंसक मान ही लेते हैं। न आपके सपने की खबर है किसी को, न आपकी इस मान्यता की। आपने जो-जो हिंसा की है चारों तरफ--और जब भी आप करते हैं तो हिंसा करते हैं। आप अहिंसा भी करते हैं तो भी उसको दूसरे में... दूसरे को फौरन पता चल जाता है कि क्या-क्या हिंसा हो रही है।
बिड़ला ने मंदिर बनाए जगह-जगह। जहां-जहां उन्होंने मंदिर बनाए हैं वहां-वहां उन्होंने सोचा... और उन्होंने वहीं-वहीं मंदिर बनाए हैं जहां उनकी फैक्ट्री हैं, उनका कारोबार है। वहां जो लोग उनके नीचे काम करते हैं, उनमें एक अच्छी प्रतिमा बिड़ला की जाएगी। तो उन्होंने वहां-वहां मंदिर बनाए। लेकिन उन्हीं जगह पर लोगों ने मुझसे आकर कहा कि यह भी कोई मंदिर है! बिड़ला-मंदिर! कृष्ण का मंदिर हो, राम का मंदिर हो, बिड़ला-मंदिर! यह सब अहंकार है। बिड़ला को कभी सूझा भी नहीं होगा कि ये मंदिर केवल अहंकार के प्रतीक होंगे। सूझा होगा कि ये दान के, पुण्य के, शुभ के प्रतीक होंगे। इतना इन पर खर्च किया! बहुत खर्च किया है। लेकिन जिनके बीच मंदिर बनाए हैं, वे बिड़ला को उनके व्यवहार से जानते हैं कि एक तरफ यह शोषण की धारा चलती है, इसमें करोड़ों रुपये चूसे जाते हैं और इसमें से लाख रुपये का मंदिर खड़ा हो जाता है।
यह मंदिर भी शोषण का हिस्सा है देखने वाले को। यह मंदिर भी तरकीब है। यह मंदिर भी शोषण को चलाए रखने का आयोजन है। यह देखने वाले को इसका जोड़ है। वह जानता है कि यह सब पाप का मंदिर है। बिड़ला को यह खयाल भी नहीं हो सकता है कि यह मैं पाप का मंदिर बना रहा हूं। उनके स्वप्न का मंदिर है। पुण्य का मंदिर। जो उनके अपने मन में पुण्य का भाव है। जो उनको खयाल है कि मैं इतना-इतना पुण्य किया हूं। ऐसा अच्छा आदमी हूं। इन दोनों प्रतिमाओं में कहीं मेल नहीं पड़ेगा। इसलिए हर आदमी दुखी जीता है।
दूर की तो बात छोड़ दें, अपने निकटतम लोग भी राजी नहीं होते कि यह उसकी प्रतिमा है, जो वह समझता है। लोग एक-दूसरे से कहते हैं: तुमने मुझे क्या समझ रखा है! अड़चन आ रही है प्रतिमाओं में।
मेरे एक प्रिंसिपल थे, मुझे पढ़ाते थे। काली के भक्त थे। और पूरी युनिवर्सिटी में बदनामी थी कि दिमाग उनका थोड़ा ढीला है। उनका खयाल था कि वे परम भक्त हैं और सबका खयाल था कि उनका दिमाग ढीला है। मैं उनके घर पहली दफा गया था तो उस वक्त वे पूजा कर रहे थे। उनकी पत्नी ने दरवाजा खोला और मुझसे कहा कि आप चुपचाप बैठ जाएं। अगर उन्होंने देख लिया कि कोई मिलनेवाला आया है तो वे और जोर से पूजा करते हैं, और देर तक पूजा करते हैं। यह पत्नी के मन में प्रतिमा है! कि आप बिलकुल चुपचाप बैठ जाएं, अगर उनको पता चल गया कि कोई मिलने आया है तो फिर पूजा में बहुत देर लग जाती है।
मैं तो उनको जानता नहीं था तब तक। मगर उनकी पत्नी से पहले ही उनकी प्रतिमा की मुझे खबर मिली। तो मैंने सोचा कि चलो, प्रयोग करें। वे निकल कर बाहर आए तो मैंने उनसे कहा: आप जैसा भक्त मैंने कभी नहीं देखा। उन्होंने मुझे छाती से लगा लिया और कहा कि इस पूरी पृथ्वी पर तुम एक अकेले आदमी समझने वाले मुझे मिले। अकेले, तुम एक अकेले आदमी। आज तक मुझे कोई समझ ही नहीं सका। यह उनके स्वप्न की प्रतिमा से मेल खा गया।
उनकी पत्नी देख रही थी और जब मैं निकल रहा था बाहर उनसे मिल कर, क्योंकि उन्होंने मुझे घंटे-डेढ़ घंटे रोका, कई बार मैंने कहा: मैं जाऊं, लेकिन वह जो आदमी पृथ्वी पर अकेला हो उसको वे इतनी जल्दी छोड़ने वाले नहीं थे। मुझे खाना खिलाया और... और दो वर्ष तक युनिवर्सिटी में उन्होंने मेरी इतनी फिकर की जिसका कोई हिसाब नहीं। जब मैं बाहर निकल रहा था, तो उनकी पत्नी ने कहा कि अगर तुम जैसे व्यक्ति उन्हें मिल जाएं तो उनको पागलखाने जाना पड़ेगा। तुमने यह क्या कह दिया उनको? क्या उनसे ऐसी बात कहनी चाहिए थी? उनके भीतर वे यह जो भजन-कीर्तन कर रहे हैं रोज सुबह, एक और प्रतिमा है। जो देख रहे हैं उनको, उनके व्यवहार को, जो उनके व्यवहार से ही संबंधित हैं--और तो उनके भीतर का किसी से क्या संबंध हो सकता है--उनके मन में दूसरी प्रतिमा है। इन दोनों प्रतिमाओं में सदा कलह है।
मैं क्या नहीं हूं, इसे ठीक से जान लेना जरूरी है। बड़ा कठोर प्रयास है यह क्योंकि अपनी ही खाल को जैसे छीलना है। जो-जो मैंने अपने को मान रखा है, पाऊंगा कि वह-वह मैं नहीं हूं।
यह ऋषि कहता है: जाग्रत में जो भी तुमने किया है, जो भी तुम समझते हो, वह तुम नहीं हो। फिर वह कहता है: स्वप्न में भी तुमने जो-जो किया है और सपने तुमने जो-जो देखे हैं, वह भी तुम नहीं हो। जब जाग्रत ही तुम नहीं हो तो तुम्हारे स्वप्न क्या तुम होओगे! और गहरे में जाता है और कहता है सुषुप्ति में भी बीज-रूप में तुमने जो वासनाएं निर्मित की हैं, जिनका फैलाव स्वप्न में और जाग्रत में होता है--सुषुप्ति में जड़ें हैं, स्वप्न में वृक्ष हैं, जाग्रत में फूल आ जाते हैं--वह बीज भी, वे जड़ें भी तुम नहीं हो। ये तीनों तुम नहीं हो।
अगर हम इन तीनों को काट दें तो शून्य हाथ लगेगा। अगर मैं अपने जाग्रत के सब कर्मों को काट दूं, सब प्रतिमाएं तोड़ दूं, स्वप्न में सब विचारों को काट दूं, स्वप्न की सब प्रतिमाओं को तोड़ दूं, सुषुप्ति तक के सब बीज जो मुझे भी पता नहीं हैं, जिनका मुझे भी खयाल नहीं है कि कहां छिपे हैं, उनको भी इनकार कर दूं, तो मेरे पास क्या बच रहता है? एक शून्य। मैं फिर क्या हूं? फिर मैं एक शून्य रह जाता हूं। इस शून्य से गुजरना पड़े तब वह शिखर प्रकट होगा जो मैं हूं। उस शिखर की इसमें चर्चा है।
‘जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जो सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म है, जो संसार के समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों का आत्मा है, वही तुम हो। तुम वही हो।’
यह पहली विधायक घोषणा है। इस शून्य में जो प्रकट होगा, इस शून्य की अतल खाई में जो शिखर उभरेगा, इस गहन अंधकार के पार जो प्रकाश के सूर्य का उदय होगा, वह वही ब्रह्म है। वह वही मूल अस्तित्व है जो सदा से है, सदा रहेगा। वही मूल सागर है जिससे सब लहरें उठी हैं और गिरी हैं। आईं और गईं। अच्छा था और बुरा था। राम थे और रावण थे। साधु थे और असाधु थे। सुख थे और दुख थे। सफलताएं थीं, असफलाएं थीं, सिंहासन थे और सड़क पर भिखारियों के भिक्षापात्र थे, वे सब लहरें उठीं और गईं। लेकिन जिस सागर से वे लहरें उठी थीं, वही तुम हो। उस मूल का, उस अस्तित्व का, उस गहनतम आत्यंतिक का, आधारभूत का अनुभव हो।
अनुभव नहीं है तुम्हारा, तुम ही वही हो।
यही थोड़ा ठीक खयाल में लेना जरूरी है। जगत में बाकी सब चीजें हमारा अनुभव हैं। और जहां तक अनुभव है, वहां तक उसका पता नहीं चलेगा जिसको अनुभव हो रहा है। अनुभव और अनुभोक्ता अलग हैं। मैंने सुख जाना, सुख मैं नहीं हूं। क्योंकि सुख मैंने जाना। और जो जान रहा है, वह अलग हो गया। मैं जानने वाला हुआ। सुख कहीं मुझसे बाहर हुआ, जो मुझे मिला। मेरे हाथ में आपने संपत्ति दे दी, वह संपत्ति मैं नहीं हूं। हाथ है मेरा, जिसमें संपत्ति है। कल किसी ने भिक्षापात्र दे दिया। वह भिक्षापात्र मैं नहीं हूं। मैं तो वह हूं, जिसके हाथ में भिक्षापात्र है। कभी सुख मेरे हाथ में है, कभी दुख। कभी सफलता, कभी असफलता, कभी जागरण मेरे हाथ में है, कभी सुषुप्ति। कभी स्वप्नों से घिरा हूं मैं और कभी स्वप्नभंगों से। लेकिन कोई भी मैं नहीं हूं। अनुभव मैं नहीं हूं। इसमें थोड़ी कठिनाई होगी। कोई भी अनुभव मैं नहीं हूं। अगर परमात्मा का भी अनुभव हो कि परमात्मा अलग खड़ा है और मैं अलग खड़ा हूं, तो वह भी मैं नहीं हूं। क्योंकि मैं फिर भी पार रह जाता हूं।
यह ऋषि कहता है कि जो सब अनुभवों का कारणभूत है और जो सब अनुभवों का साक्षी है और जो सभी अनुभवों का अनुभोक्ता है, वही परब्रह्म तुम हो। परब्रह्म का अर्थ होता है: जो सदा ही पार है। जहां-जहां तुम कहोगे: यहां, वहां-वहां से पार हो जाएगा। जहां-जहां तुम हाथ रख कर कहोगे कि यह, वहीं से छिटक जाएगा। उसे कभी ऑब्जेक्टिव, वस्तु की तरह नहीं पकड़ा जा सकेगा। कभी तुम उस पर हाथ रख कर न कह सकोगे कि यह। क्योंकि वह सदा वही है जो हाथ रख रहा है। वह पार हो जाता है इसलिए उसे परब्रह्म कहा है।
इसलिए ध्यान रखना, भारतीय मनीषा बहुत सोच-समझ कर शब्दों का प्रयोग करती है। ब्रह्म उसे कहती है जो तुम्हारा अनुभव है। परब्रह्म उसे कहती है जो तुम हो। तो ब्रह्म भी तुम्हारा अनुभव है। तो अगर कोई आदमी ब्रह्मवादी है, तो अभी भी वादी है और अभी भी विचार के पार नहीं गया है। बहुत सूक्ष्म विचार में चला गया है, लेकिन पार नहीं गया है, बहुत गहन विचार में चला गया है, लेकिन अभी भी गहनमत में नहीं गया है। सूक्ष्म में चला गया है, लेकिन सूक्ष्म के भी पार...।
इसलिए सूत्र कहता है: ‘जो सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म।’
अब यह भाषा के लिहाज से बिलकुल गलत है। क्योंकि जब सूक्ष्मतम कह दिया तो अब उससे और सूक्ष्म क्या होगा? नहीं तो सूक्ष्मतम का कोई अर्थ न रहा। सूक्ष्मतम का मतलब ही है कि अब इससे ज्यादा सूक्ष्म नहीं होता। लेकिन ऋषि कहता है: ‘जिससे ज्यादा सूक्ष्म नहीं होता, वही हो।’ सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म का मतलब है कि जहां तुम्हारे सूक्ष्म का अनुभव भी चुक जाए। जहां तुम आखिरी जगह आ जाओ और कहो कि अब इसको न स्थूल कह सकते हैं, न सूक्ष्म। जहां बात इतने पार निकल जाए कि तुम अलग ही न रह जाओ अनुभव से। इसलिए उसे परब्रह्म कहा है। वही तुम हो।
लेकिन इसको दोहराया है, और बड़े, बड़े प्रयोजन से दोहराया है।
दो शब्द उपयोग किए हैं: ‘वही तुम हो, तुम वही हो।’ वही तुम हो का अर्थ हुआ: परब्रह्म तुम हो। दूसरे का अर्थ हुआ: तुम वही हो--तुम परब्रह्म हो। ऐसा दोहराने का प्रयोजन है और कारण है। हम कह सकते हैं लहर से कि सागर तुम हो। लहर में सागर है। लेकिन यह एक बात हुई, एक पहलू हुआ। और लहर से यह कहना कि तुम ही सागर हो, बड़ी दूसरी बात है।
कबीर के एक पद में यह साफ है। कबीर ने कहा है: खोजते-खोजते मैं खो गया। ‘हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ।’ खोजता था, खोजने निकला था और खो गया। ‘बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाय।’ बूंद सागर में गिर गई और बूंद सागर में खो गई, उसे अब वापस कैसे पाया जाए! यह कबीर का पहला सूत्र है। लेकिन कबीर ने दूसरे सूत्र में बात उलट दी। और तत्काल दूसरा सूत्र लिखा। और सूत्र में लिखा: ‘हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ। समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाइ।’ और बूंद सागर में गिर गई थी तो कभी खोजी भी जा सकती थी। अब तो और भी मुश्किल हो गई, यह तो सागर ही बूंद में गिर गया और अब तो खोजने का कोई उपाय ही न रहा।
बूंद अगर सागर में गिर गई हो तो खोजी भी जा सकती है। बड़ी छोटी चीज है, माना मुश्किल पड़ेगी, कठिनाई होगी, फिर भी, फिर भी खोजते-खोजते किसी दिन बूंद मिल सकती है कि यह रही। लेकिन, अगर बूंद में सागर गिर जाए, तो खोज का उपाय ही न रहा। कैसे खोजिएगा? सब कल्पना भूमिसात हो जाती है। सब विचार चकनाचूर हो जाते हैं। बूंद में सागर का गिरना विचार की सीमा के पार चला जाता है। बूंद का सागर में गिरना विचार की सीमा के पार नहीं जाता। बूंद तो सागर में रोज गिरती ही है। लेकिन ध्यान रहे, बूंद सागर में गिरती है और फिर वाष्पीभूत हो जाती है; फिर बनती है, फिर गिरती है। एक चक्र है। तो बूंद गिरती रहती है सागर में, बनती रहती है, पुनः-पुनः निर्मित होती रहती है, पुनः-पुनः गिरती रहती है। लेकिन बूंद अगर सागर में गिरे तो वापस लौट आती है। लेकिन कभी जब सागर बूंद में गिर जाता है... ऐसी कोई घटना भौतिक जगत में घटती नहीं, जब सागर बूंद में गिरता है, लेकिन इस आत्मिक जगत में घटती है। ऐसा नहीं है कि आप जाकर परमात्मा से मिल जाते हैं, बल्कि ऐसा है कि परमात्मा आकर आपसे मिल जाता है। सिर्फ बूंद तैयार भर होती है; तब तक बूंद रहती है। जिस दिन तैयार हो जाती है उस दिन सागर गिर पड़ता है। फिर बूंद को कहां खोजिएगा? सागर गिर पड़े बूंद पर, फिर बूंद को कहां खोजिएगा? इसलिए दोहरा सूत्र है।
‘वही तुम हो, तुम वही हो।’
इस दोहरे सूत्र के और आयाम भी हैं। जब हम कहते हैं: परमात्मा तुम हो, तो इसमें परमात्मा की स्वीकृति है, तुम्हारी नहीं। लेकिन जब कहते हैं: तुम परमात्मा हो, तब तुम्हारी भी पूरी की पूरी स्वीकृति है। यह तो बहुत आसान है कहना कि परमात्मा सबके भीतर है, यह कहना बहुत कठिन है कि सब परमात्मा है। इनके आयाम अलग हैं।
जब हम कहते हैं: परमात्मा सबके भीतर है, तो कोई एतराज नहीं होता। कोई एतराज नहीं होता कि ठीक है? लेकिन अगर हम यह कहें कि सब परमात्मा हैं, तो मन पच्चीस एतराज खड़े करने लगेगा कि वह आदमी भी परमात्मा है जो कल गाली दे रहा था! परसों पत्थर मार गया था! वह आदमी भी परमात्मा है! सबमें परमात्मा छिपा है, सबमें परमात्मा है, इसमें अड़चन नहीं होती। क्योंकि परमात्मा को हम अलग तत्व मान लेते हैं और व्यक्ति को अलग। तो सारी बुराइयां व्यक्ति पर डाल देते हैं और सारी भलाइयां परमात्मा पर। इसमें विभाजन का उपाय है।
हम कह सकते हैं कि बुरे से बुरे आदमी में भी परमात्मा है। और कोई अड़चन नहीं है इसमें। कोई हमारे मन को दुविधा नहीं घेरती, कोई शंका नहीं पकड़ती, कि ठीक है। बुरे से बुरे आदमी में परमात्मा है, छिपा पड़ा है और इससे बुराई का परमात्मा से संबंध नहीं जुड़ता; परमात्मा अलग रह जाता है, यह बुरा आदमी एक पर्त की तरह अलग रह जाता है। और हम यह जानते हैं कि जब यह अपनी बुराई की सारी पर्त काट डालेगा, तो ठीक है, परमात्मा प्रकट हो जाएगा।
लेकिन जब हम कहते हैं कि तुम परमात्मा हो, तो हम सर्व स्वीकार कर लेते हैं। यह बड़ी क्रांतिकारी घोषणा है। क्योंकि इसमें हम कुछ छोड़ते ही नहीं, बांटते ही नहीं। हम यह नहीं कहते कि बुरा आदमी अपने भीतरी किसी अंश में परमात्मा है। हम यह कहते हैं: वह जो भी है परमात्मा है। यहां हम बुराई को भी आत्मसात कर लेते हैं। और हमने कभी खयाल नहीं किया कि अगर एक आदमी के भीतर परमात्मा है और फिर भी वह बुरा है, तो यह परमात्मा की निर्वीर्यता सिद्ध होगी। हमने कभी इसका खयाल नहीं किया। तो हम कहते हैं: बुरा आदमी; फिर भी उसके भीतर परमात्मा है, हालांकि वह बुरा है। बुराई उसके बाहर है, भीतर परमात्मा छिपा है। लेकिन अगर भीतर परमात्मा है, किसी भी स्थिति में, तो यह बुराई बलशाली मालूम पड़ती है। परमात्मा से भी ज्यादा बलशाली मालूम पड़ती है। तो अच्छा यह हो कि कहो कि यह आदमी बुरा है और उसके भीतर कोई परमात्मा नहीं है। एक तो यह उपाय है, जो कि वस्तुतः हमारी स्थिति है।
यह हमारे कहने की ही बात है कि भीतर परमात्मा है। यह सिर्फ शब्द है। इसमें हमारी कोई प्रतीति नहीं है। क्योंकि जब आप अपने दुश्मन की हत्या करने जाओगे तो कहां छुरा मारोगे, परमात्मा को बचा कर? कि जब आप गाली दोगे एक बुरे आदमी को तो इस गाली में ऐसा कोई उपाय रखोगे कि परमात्मा को छोड़ कर, जो भीतर है? गाली पूरी जाएगी। वह भीतर-वीतर के परमात्मा को बिलकुल नहीं मानेगी। न कहीं अंग में स्वीकार करेगी। पूरे आदमी को गाली दी जाती है। पूरा आदमी दंडित किया जाता है। पूरा आदमी। और वह भीतर का परमात्मा केवल शाब्दिक औपचारिकता रह जाती है।
नैतिक आदमी इस तरह की बातें कहते रहते हैं। नैतिक आदमी कहते हैं बुराई को मिटाना है, बुरे आदमी को नहीं। आदमी तो अच्छा है भीतर, बुराई को मिटाना है। बुराई को दंडित करना है, बुरे आदमी को नहीं। लेकिन आदमी इकट्ठा है, समग्र है। दंडित होगा तो पूरा, पुरस्कृत होगा तो पूरा; मरेगा तो पूरा, जीएगा तो पूरा। विभाजन कहां है?
तो एक तो उपाय यह है कि हम मानें कि भीतर कोई परमात्मा नहीं है, बुराई ही बुराई का घर है आदमी। यही हम मानते हैं। वह परमात्मा भीतर है, वह केवल शाब्दिक है और झूठ है। वह हमारी प्रतीति नहीं है। जिस दिन हमें प्रतीति होगी, यह दूसरी प्रतीति होगी कि उस दिन हम कहेंगे वह पूरा आदमी ही परमात्मा है, उसकी सब बुराइयों समेत।
लेकिन ध्यान रहे, अगर मैं किसी आदमी को उसकी बुराइयों समेत परमात्मा देख लूं तो मेरे लिए उसकी बुराइयां तिरोहित हो जाती हैं। क्योंकि संभव ही नहीं रह जाता। यह संभव ही नहीं रह जाता। जैसे ही मुझे यह प्रतीति हो जाए कि वह पूरा का पूरा परमात्मा है, तब उसकी बुराई भी भलाई का रूप ले लेती है। तब उसकी बुराई भी आलोकित हो जाती है, आभामंडित हो जाती है। तब मैं जानता हूं कि वह जो भी कर रहा होगा, ठीक ही कर रहा होगा। क्योंकि ठीक भीतर है।
‘वही तुम हो, तुम वही हो।’
यह समग्रीभूत कोई चीज छूट न जाए, इसलिए ऋषि ने दोहराया है। दोनों तरफ से दोहराया है। सब भांति, सर्वभाव से तुम परमात्मा हो। ऐसा अगर कोई दूसरे में देख पाए तो उसका जीवन के प्रति सारा दृष्टिकोण बदल जाता है।
लेकिन ध्यान रहे, ऐसा लोग स्वयं में तो देखना चाहते हैं, दूसरे में नहीं देखना चाहते हैं। इसको मानने को कोई भी तैयार हो जाएगा कि मैं परमात्मा हूं; दूसरा परमात्मा है, इसे मानने को तैयार नहीं होगा। लेकिन यह ध्यान रहे, जो दूसरे को मानने को तैयार नहीं है, वह स्वयं को भी कितना ही कहे, मान नहीं सकता है। दूसरे को मानकर ही उसकी गहराई बढ़ती है स्वयं के प्रति।
कभी एकाध दिन ऐसा प्रयोग करें। चौबीस घंटे के लिए एक व्रत ले लें। बहुत तरह के व्रत लेते हैं लोग। चौबीस घंटे भूखे रहेंगे--फिर भूखे ही रह पाते हैं, और कुछ होता नहीं। कि चौबीस घंटे घी न खाएंगे--न भी खाया तो क्या फर्क पड़ता है? कि चौबीस घंटे यह न करेंगे, वह न करेंगे। मैं एक व्रत आपको कहता हूं। चौबीस घंटे एक व्रत ले लें कि चौबीस घंटे जो भी मिलेगा उसको पूरी तरह परमात्मा मान कर चलेंगे। जो भी होगा उसमें पूरा परमात्मा देखेंगे। कोई हिस्सा न काटेंगे। चौबीस घंटे। और आपकी जिंदगी दुबारा वही नहीं हो सकेगी। व्रत तो वही है जिसके पार जिंदगी फिर दुबारा वापस न हो सके। अन्यथा व्रत का क्या मतलब है!
चौबीस घंटे खाना न खाया। चौबीस घंटे के बाद दुगुना खा लिया। और आदमी वही का वही रहेगा। बल्कि बदतर हो सकता है। बदतर इसलिए हो सकता है कि अब यह और खयाल में आ गया कि व्रत भी कर बैठे। व्रत भी हो गया। अब यह और एक उपद्रव पीछे लग गया। भूखे क्या रहे, अहंकार का पेट भर गया। शरीर को भूखा मारा, अहंकार का पेट भर लिया।
चौबीस घंटे का एक व्रत लेकर देखें कि चौबीस घंटे में अस्वीकार करेंगे ही नहीं, किसी चीज को बुरा कहेंगे ही नहीं। परमात्मा ही देखे चले जाएंगे। बड़ी घबड़ाहट लगेगी कि इसमें तो लुट जाएंगे। पता नहीं कोई आदमी आकर मारपीट करने लगे, फिर क्या करेंगे? और डर लगेगा, क्योंकि कई को इस हालत में कर दिया है कि आपकी मार-पीट करें। कई को लूटा है। इसलिए डर लगेगा कि ऐसा मौका वे लोग न छोड़ेंगे। अगर किसी को ऐसा पता चल गया कि चौबीस घंटे के लिए व्रत लिया है इस आदमी ने कि परमात्मा ही देखेंगे, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
धर्म अभय में छलांग है। और व्रत अभय का प्रयोग है। भूखे मरने में कोई बड़ा अभय नहीं है। और जिनको ज्यादा खाने-पीने को मिला हुआ है, उनके लिए तो लाभ है, नुकसान जरा भी नहीं है। इसलिए यह मजे की बात है कि सिर्फ ज्यादा खाने-पीने वाले समाज ही उपवास को व्रत मानते हैं। गरीब लोगों के समाज कभी भी उपवास को व्रत नहीं मानते हैं। और अगर गरीब आदमी का समाज उपवास भी करता है तो उस दिन मिष्ठान्न खाता है। सिर्फ अमीरों के समाज उपवास में निराहार रहते हैं। गरीब आदमी का धार्मिक दिन आता है, तो उत्सव मनाता है खाकर। अमीर धार्मिक का दिन आता है, तो उत्सव मानता है भूखा रह कर। यह बिलकुल व्यवस्थित बातें हैं। ठीक अर्थशास्त्र से संबंधित। इनका धर्म से कोई लेना-देना नहीं। अमीर आदमी खा-खा कर परेशान है, उपवास उसको राहत देता है। गरीब आदमी भूखा रह-रह कर परेशान है, रोज तो ठीक से नहीं खा सकता, धार्मिक उत्सव के दिन ठीक से खा लेता है। इनका धर्म से कोई संबंध नहीं है, अर्थ से संबंध है।
इसलिए भारत में जैनों के पास एक समृद्ध समाज है तो भूखा रहना, उपवास रखना इत्यादि उनके धार्मिक कृत्य हैं। गरीब आदमी का समाज इनको धार्मिक कृत्य नहीं मान सकता। धर्म का दिन तो उत्सव का दिन है। क्योंकि पूरी जिंदगी तो गैर-उत्सव से भरी है। भूख से भरी है। अब धार्मिक दिन को और भूख से भरने में क्या प्रयोजन है! और फिर कोई भेद भी नहीं मालूम पड़ेगा। ऐसे ही भूखे हैं। ऐसे ही उपवास चल रहा है। ऐसे ही एकाशन में बैठे हुए हैं। अब और एकाशन क्या अर्थ लाएगा? इससे विपरीत चाहिए। स्वाद बदलने के लिए विपरीत अच्छा भी है। लेकिन धर्म से उसका कोई लेना-देना नहीं है।
ऐसा कुछ व्रत जिसके पार आप दुबारा वही आदमी न हो सकें। अगर चौबीस घंटे आपने परमात्मा देख लिया तो फिर आप दुबारा भूल न करेंगे कुछ और देखने की। क्योंकि इस चौबीस घंटे में जितने आनंद की वर्षा आपके जीवन पर हो जाएगी, वह फिर आपको खींचेगा। बूंद में सागर के गिरने का अर्थ यही है। मैं बूंद हूं, मेरे चारों तरफ जो मौजूद है वह सागर है। जिस दिन मैं उसमें परमात्मा देख पाऊंगा उस दिन मेरे हृदय के द्वार उसके लिए खुल जाएंगे। उस दिन सागर बूंद में गिर सकता है।
लेकिन धार्मिक आदमी अक्सर बूंद की तरह सागर की खोज पर निकलता है, जब कि सागर यहीं मौजूद है। धार्मिक आदमी कहता है कि ईश्वर की खोज पर जा रहे हैं। और ईश्वर यहीं मौजूद है। ज्यादा बेहतर होता कि ईश्वर की खोज पर न जाते, हृदय के द्वार खोलते, ताकि ईश्वर गिर सके। मगर हृदय के द्वार बंद हैं और हिमालय की यात्रा चल रही है। मक्का और मदीना और काशी की यात्रा चल रही है। और हृदय के द्वार बंद हैं। कहीं भी घूम आओ, बूंद अगर चारों तरफ से अपने को बंद किए है, तो सागर उसमें नहीं गिर सकता। और बूंद अगर अपने को चारों तरफ से बंद किए है तो सागर के पास भी पहुंच जाए तो भी गिरने की हिम्मत नहीं जुटा सकती।
इसलिए दोनों बातें ऋषि ने कही हैं: ‘वही तुम हो, तुम वही हो।’
‘जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में जो मायिक-प्रपंच दिखाई देते हैं, वे सब ब्रह्म द्वारा ही प्रकाशित होते हैं।’
मायिक-प्रपंच भी ब्रह्म द्वारा ही प्रकाशित होते हैं। वह जो एक आदमी चोरी करने चला जा रहा है, वह ब्रह्म द्वारा ही चोरी करने चला जा रहा है। वह जो एक आदमी हत्या कर रहा है, वह ब्रह्म द्वारा ही हत्या कर रहा है। बहुत कठिन है! बहुत मुश्किल है! धर्म के दुरूह होने का कारण धर्म नहीं है। धर्म के दुरूह होने का कारण हमारी नैतिक मान्यताएं हैं। उनकी वजह से धर्म बिलकुल ही बेबूझ हो जाता है। यह भी क्या बात हुई कि आदमी चोरी करने चला जा रहा है, ब्रह्म से ही आलोकित है! ब्रह्म ही चोरी करने चला जा रहा है!
और चोरी, तो हमारी नैतिक धारणा चोरी के संबंध में है कुछ, वह धारणा बाधा बनेगी। वह कहेगी: यह नहीं हो सकता। साधु में देख भी लें हम ब्रह्म को, चोर में कैसे देखेंगे? ईमानदार में देख भी लें, बेईमान में कैसे देखेंगे? मित्र में देख भी लें, प्रेमी में देख भी लें, शत्रु में कैसे देखेंगे? लेकिन जब तक शत्रु में न दिख जाए तब तक मित्र में भी औपचारिक है। और जब तक चोर में न दिख जाए, तब तक साधु में भी झूठा है। वह जो दिखाई पड़ रहा है साधु में, वह झूठा है। क्योंकि जब तक अंधेरे में भी प्रकाश दिखाई न पड़ने लगे, तब तक प्रकाश में जो दिखाई पड़ रहा है वह बाहरी है। जब अंधेरे में भी प्रकाश दिखाई पड़ने लगता है तो प्रकाश भीतरी हो जाता है। उसका मतलब प्रकाश अब मेरे भीतर है। अब जहां भी मैं देखूंगा वहां प्रकाश दिखाई पड़ेगा।
जिस दिन भीतर ब्रह्म का आवास हो जाता है, अनुभव हो जाता है, उस दिन जहां भी आंख डालूंगा वहां ब्रह्म दिखाई पड़ेगा। क्योंकि प्रकाश अब मेरे भीतर है। अगर अंधेरे पर भी मेरा प्रकाश पड़ेगा तो अंधेरे में ही मुझे प्रकाश दिखाई पड़ेगा। तो जब तक बुरे में भी ब्रह्म न दिखाई पड़ने लगे तब तक ब्रह्म भीतर दिखाई ही नहीं पड़ा है, ऐसा जानना। साधु में तो देखना बिलकुल आसान है। आसान है, क्योंकि कोई बाधा ही पैदा नहीं कर रहा है आपको देखने के लिए। हालांकि आप कोशिश जरूर करोगे कि कोई बाधा मिल जाए, पता चल जाए। पता चल जाए कुछ ऐसा कि मानना आसान हो जाए कि परमात्मा इसमें नहीं है। हम इतनी कोशिश में रहते हैं, इतनी कोशिश में रहते हैं इस बात को जानने की कि पता चल जाए कि साधु में असाधु है।
उसका कारण क्या है?
उसका कारण क्या है, उसका कारण एक है, ताकि परमात्मा देखने की झंझट से हम बच जाएं। इसलिए हर आदमी तलाश में लगा हुआ है कि पता चल जाए कि यह साधु कहीं कपड़ों में छिपाए एकाध रुपये का नोट तो नहीं रखे हुए है। रखे जरूर होगा, ऐसी हमारी भीतरी मान्यता है। कहीं न कहीं छिपा रखा होगा, कहीं न कहीं किसी बैंक में जमा कर रखा होगा। क्योंकि बिना रुपये के आदमी जीएगा कैसे! जिससे हम जीते हैं, उससे ही यह भी जीता होगा, पता नहीं है अभी। हमारे मन में धारणा रहती है कि साधु-असाधु में जो फर्क है, वह इतना ही है कि असाधु का खुल गया मामला और साधु का अभी खुला नहीं है। बस इतना ही फर्क है हमारे मन में। जब तक नहीं खुला है। तब तक मजबूरी में मानते चले जाएंगे कि ठीक है। लेकिन कभी तो खुलेगा, इसकी आशा भी रखेंगे। इसका उपाय भी करेंगे।
एक मित्र ने मुझे पत्र लिखा था, राजस्थान से, कि एक आदमी को मैंने दस वर्ष तक परमात्मा की तरह माना और फिर एक दिन देखा कि वह क्रोध में आ गए। तो मेरी सारी आस्था मिट गई। मिट्टी हो गई। और अब मेरी हालत ऐसी हो गई है कि अब मैं किसी को भी परमात्मा, किसी में भी परमात्मा नहीं देख सकता। क्योंकि मैं जानता हूं कि कभी न कभी, कुछ न कुछ गड़बड़ होगी। और फिर सब मामला खराब हो जाएगा।
मैंने उन मित्र को खबर पहुंचाई कि दस साल उस आदमी ने क्रोध नहीं किया, दस साल में एक बार उस आदमी ने क्रोध किया तो दस साल का अक्रोध एक क्षण के क्रोध से समाप्त, नष्ट हो गया। तुम जरूर क्रोध की तलाश में थे। दस साल का अक्रोध! हजार इंच परमात्मा था वह आदमी, एक इंच सिद्ध हो गया कि परमात्मा नहीं है, तो हजार इंच बेकार हो गया? तुमने यह भी लौट कर न सोचा कि जब किसी आदमी में हम क्रोध देखते हैं तो जरूरी नहीं है कि वह क्रोधित हो ही। हमारा देखना भी जिम्मेवार हो सकता है। वह तुम्हें खयाल न आया। तुम्हें यह भी खयाल न आया कि यह मेरी धारणा है कि परमात्मा क्रोध नहीं कर सकता। यह मेरी धारण टूटनी चाहिए थी। लेकिन परमात्मा टूट गया, धारणा न टूटी! धारणा यह थी कि परमात्मा क्रोध नहीं कर सकता; और परमात्मा ने क्रोध किया। तो धारणा न टूटी, परमात्मा टूट गया। धारणा ज्यादा कीमती चीज थी। मेरी धारणा थी! परमात्मा तुम थे, धारणा मेरी थी। तुम टूटोगे, मैं नहीं टूट सकता हूं।
मैंने खबर भिजवाई कि तुम एक बार फिर सोचना। तुमसे किसने कहा कि परमात्मा क्रोध नहीं कर सकेगा? किसने तय किया तुम्हारे लिए कि परमात्मा क्रोध नहीं कर सकेगा? कैसे तुमने जाना कि परमात्मा क्रोध नहीं कर सकेगा? धारणा है तुम्हारी। इतना जरूर है कि अगर तुम किसी में परमात्मा देखोगे तो उसका क्रोध तुम्हें क्रोध दिखाई नहीं पड़ेगा।
यह पक्का नहीं है कि महावीर ने क्रोध किया या नहीं किया, यह पक्का है कि जिन्होंने महावीर को परमात्मा जाना, उन्हें उनका क्रोध दिखाई नहीं पड़ा। किया या नहीं किया, इसका कोई पक्का नहीं है। क्योंकि दूसरों को दिखाई पड़ता है। गोशालक को दिखाई पड़ता है कि महावीर क्रोधी हैं। महावीर के भक्तों को दिखाई नहीं पड़ता। कृष्ण के भक्तों को नहीं दिखाई पड़ता कि कृष्ण क्रोधी हैं। लेकिन कृष्ण के विरोधियों को दिखाई पड़ता है कि वक्त पर यह आदमी सुदर्शन निकाल कर खड़ा हो गया था। तब सब असलियत पता चल गई कि यह आदमी क्रोधित होता है। खत्म हो गई बात! कैसा परमात्मा! लेकिन सुदर्शन निकाल कर खड़ा हुआ कृष्ण भी, जिसको उसमें परमात्मा दिखाई पड़ रहा था उसको कोई क्रोध नहीं दिखाई पड़ा। उसको लीला दिखाई पड़ी। उसको रहस्य दिखाई पड़ा।
बल्कि सच तो यह है कि कृष्ण अगर सुदर्शन निकाल कर खड़े न होते, तो जिसने कृष्ण को प्रेम किया है वह कृष्ण को कभी पूर्ण अवतार न कह पाता। वह पूर्ण कहा ही जा सका इसलिए कि यह आदमी इतना पूर्ण है कि इसमें दोनों चीजें मौजूद हैं। यह अधूरा, खंडित नहीं है। इसमें शुभ भी है तो अपने पूरे शिखर पर। इसमें बुराई भी है तो अपनी पूरी नीचाई में। ये दोनों एक-साथ हैं। इतना संतुलित है, इसलिए यह पूर्ण है।
इसलिए हिंदू मन को लगा कि कृष्ण पूर्ण अवतार हैं। राम भी उतने पूर्ण नहीं। क्योंकि राम भलाई की तरफ जरा ज्यादा झुके हुए हैं। संतुलन पूरा नहीं है। ज्यादा भले हैं। संतुलित नहीं हैं। राम का व्यक्तित्व संतुलित नहीं है। संयमी है, संतुलित नहीं है। क्योंकि संतुलन तो बुराई से होगा। कृष्ण का व्यक्तित्व बिलकुल संतुलित है। दोनों तराजू एक सीध में आ गए, दोनों पलड़े तराजू के एक सीध में खड़े हैं, कांटा खबर देता है कि पूर्ण है। बिलकुल संतुलित है। यह भक्त को दिखाई पड़ा। गैर-भक्त को यह दिखाई पड़ा कि वह जो सुदर्शन ले लिया, उसने एक पलड़े को जमीन से लगा दिया, बात सब नष्ट हो गई।
यह कहना मुश्किल है कि परमात्मा क्रोध करता है या नहीं करता है, यह कहना बिलकुल पक्का है कि जो परमात्मा कहीं भी देख ले, उसको क्रोध दिखाई नहीं पड़ता है। और मजा यह है कि यह सवाल ही महत्वपूर्ण नहीं है कि कृष्ण ने क्रोध किया या नहीं किया, महत्वपूर्ण यह है कि कोई आदमी देख पाया परमात्मा कृष्ण में। यह महत्वपूर्ण है। यह घटना महत्वपूर्ण है। यह घटना क्रांतिकारी है।
कृष्ण भगवान हैं या नहीं, यह दो कौड़ी की बात है। इसका हिसाब नासमझ लगाने बैठते हैं। लेकिन कोई देख पाया, वह रूपांतरित हो गया। वह देखने से रूपांतरित हो गया। कृष्ण के होने, न होने का सवाल ही गौण है। पत्थर को भी कोई देख पाए कि परमात्मा है, तो रूपांतरण हो जाता है।
‘सारा मायिक-प्रपंच, सारी माया भी उसी ब्रह्म से प्रकाशित है और वह ब्रह्म मैं ही हूं।’
यह बहुत मजेदार है बात। यह सारा मायिक-प्रपंच--यह चोर चोरी करने जा रहा है, यह कामी कामना के वश अंधा होकर दौड़ रहा, यह धन का लोभी धन के ढेर पर सांप बन कर बैठ गया, यह सब मायिक-प्रपंच ब्रह्म के ही द्वारा प्रकाशित है। और भी अदभुत बात सूत्र में है। ‘और वह ब्रह्म मैं ही हूं।’ यह मैं ही चोर में चोरी करने जा रहा हूं और यह मैं ही लोभी में लोभ हूं, और यह कामी की कामना मैं ही हूं। यह बहुत अदभुत सूत्र है। ऐसी प्रतीति धार्मिक आदमी की प्रतीति है। ऐसा आदमी धार्मिक है।
लेकिन हम जिनको धार्मिक देखते हैं, वे कह रहे हैं कि तुम चोर हो, नरक जाओगे। उनको कभी खयाल नहीं आता कि इसमें नरक मैं ही जाऊंगा। ऐसा खयाल आए तो इतनी निंदा से यह बात कही नहीं जा सकती। इतना रस भी नहीं लिया जा सकता फिर इसमें।
साधु-संन्यासी बैठे हैं, और वे लोगों को समझा रहे हैं कि पापी हो तुम, नरक में पड़ोगे। उन्हें खयाल भी नहीं आता कि उनके भीतर मैं ही पापी हूं। और इनके द्वारा मैं ही नरक में पडूंगा। ऐसा खयाल आए तो धार्मिक व्यक्तित्व पैदा होता है।
इस जगत में जो कुछ हो रहा है, उसमें मैं भागीदार हूं। क्योंकि मैं उसका हिस्सा हूं। अगर यहां रावण हुआ है, तो मैं उसके भीतर रावण था। रावण के भीतर मेरा होना अनिवार्य है, क्योंकि मैं जगत में भागीदार हूं, साझीदार हूं। अगर वियतनाम में युद्ध हो रहा तो मैं जिम्मेवार हूं। कहीं कोई दिखाई नहीं पड़ती मेरी जिम्मेवारी। लेकिन जिस दुनिया का मैं हिस्सा हूं उस दुनिया में अगर युद्ध घटित होते हैं, तो मैं जिम्मेवार हूं। अगर यहां हिंदू और मुसलमान के दंगे होते हैं, और हिंदू मुसलमान को काटते हैं, मुसलमान हिंदू को काटते हैं, तो मैं जिम्मेवार हूं। क्योंकि उनके भीतर मैं ही कट रहा हूं। और मैं ही काट रहा हूं।
यह भी समझ लेना आसान है कि ब्रह्म ही चोरी करने जा रहा है। यह समझना और भी मुश्किल है कि मैं ही उसमें चोरी करने जा रहा हूं। ऐसी प्रतीति अदभुत क्रांति ले आएगी। ऐसा खयाल ही आपकी जिंदगी को दूसरा कर जाएगा। यह दृष्टि ही, फिर आप और हो जाएंगे। फिर क्या है बुरा और क्या है भला। और किसकी निंदा और किसकी प्रशंसा। और किसको भेजें नरक और किसको भेजें स्वर्ग। क्या करें आयोजन। सब आयोजन गिर जाते हैं। सब व्यवस्थाएं गिर जाती हैं। और ऐसा व्यक्ति अशांत हो सकता है? और ऐसा व्यक्ति तनाव में हो सकता है? और ऐसे व्यक्ति का क्या संताप रहा! ऐसा व्यक्ति ही न रहा। यह अहंकार पर सघनतम चोट है। साधारणतः तो मेरी चोरी को भी मैं मेरी नहीं मान पाता, इसमें दूसरे की चोरी को भी मेरा मान लिया गया।
साधारणतः तो मैं खुद भी चोरी करता हूं तो भी मैं कहता हूं, परिस्थितिवश। मैं कोई चोर नहीं हूं, परिस्थिति ऐसी थी। पत्नी बीमार पड़ी थी, बच्चा भूखा मर रहा था, नहीं करता चोरी तो क्या करता? ऐसी परिस्थिति तुम्हारी भी होगी तो तुम भी चोरी करोगे। परिस्थिति ऐसी थी कि मैंने चोरी की। मैं चोर नहीं हूं। हम अपनी चोरी को भी अस्वीकार करते हैं। इस सूत्र में दूसरे की चोरी भी स्वीकार कर ली गई। और उसकी भी चोरी स्वीकार कर ली गई, जिससे सूझ-बूझ में कोई संबंध नजर नहीं आता। हो सकता है उसका मुझे पता भी न हो। हो सकता है उसकी मुझे खबर भी न हो।
फिर भी यह सूत्र कहता है कि ‘उन सबके भीतर मैं ही हूं। उस सारे मायिक-प्रपंच में जो हो रहा है, वह ब्रह्म का; और वह ब्रह्म मैं ही हूं।’
यह अहंकार पर सघनतम चोट है। और अगर इस चोट में भी अहंकार बच जाए तो फिर उसके मिटने का कोई उपाय नहीं है। मगर बच नहीं सकता। इस चोट के बाद बचने का कोई उपाय ही नहीं रह जाता। कभी आपने खयाल किया कि जब हम दूसरों को चोर कहते हैं तो हमारे अहंकार को बड़ा रस आता है। जब हम दूसरे को पापी कहते हैं, तो हम जाने-अनजाने पुण्यात्मा हो जाते हैं। जब हम दूसरे की निंदा करते हैं तो परोक्ष में हम अपनी प्रशंसा करते हैं। इसलिए तो निंदा का इतना रस है।
कवियों ने बहुत रसों की चर्चा की है, लेकिन निंदा के रस के मुकाबले में सब रस बिलकुल फीके और बेस्वाद हैं। इसलिए कवि भी कविता कितनी ही करते हों, लेकिन एक दूसरे कवि की निंदा में जितना रस लेते हैं उतना कविता में नहीं लेते हैं। निंदा ऐसा मौलिक रस है, आधारभूत मालूम पड़ता है। सब काव्य फीके हैं। सब रस साधारण हैं।
कभी आपने खयाल किया कि जब कोई किसी की निंदा करने लगता है तो आपके हृदय में कमल कैसे खिलने लगते हैं। और जब कोई किसी की प्रशंसा करने लगता है तो कमल कैसे सिकुड़ने लगते हैं। जब कोई किसी की प्रशंसा करता है तो आप तत्काल डिफेंस में, रक्षा में, खड़े हो जाते हैं। अपनी रक्षा में। आपकी रक्षा का रूप यह होता है कि आप कहते हैं कि कौन कहता है कि वह आदमी सच्चा है? क्या प्रमाण है कि वह आदमी साधु है? क्या सबूत है? आप तर्क करते हैं, विवाद करते हैं।
कोई कहता है: फलां आदमी चोर है। आपके हृदय कमल एकदम खिल जाते हैं। द्वार एकदम ग्राहक हो जाता है। रिसेप्टिविटी एकदम बढ़ जाती है। हृदय एकदम स्वीकार कर लेता है। श्रद्धा से आपूरित हो जाते हैं आप कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, वह तो मुझे पहले ही से पता था। न कोई प्रमाण पूछते हैं आप कि किसने कहा कि वह आदमी चोर है? कैसे सिद्ध हुआ? जिसने कहा वह झूठा तो नहीं था? इसका कोई पक्का प्रमाण है कि जिसने गवाही दी है वह आदमी ईमानदार था खुद? नहीं, अब यह पूछने की कोई भी जरूरत नहीं है। निंदा के साथ हमारी श्रद्धा ऐसी भरपूर हो जाती है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि आज के युग का आदमी अश्रद्धालु है, मैं इतना ही कहता हूं कि उसकी श्रद्धा के विषय बदल गए हैं, और कुछ नहीं। श्रद्धा पूरी है। कोई कहे कि फलां साधु है तो अश्रद्धा आती है। कोई कहे फलां पापी है, एकदम श्रद्धा आती है। श्रद्धा की कोई कमी नहीं है। श्रद्धा पूरी है।
गलत जगह पर श्रद्धा एकदम आती है। उसके कारण हैं, क्योंकि जैसे ही कोई किसी की निंदा करता है, जाने-अनजाने हमारी प्रशंसा करता है। इसलिए जो बहुत कुशल खुशामदखोर हैं, वे आपकी प्रशंसा करने के लिए सबसे अच्छा रास्ता निकालते हैं। आपके पास आकर उनकी निंदा करते हैं जिनके अहंकार के कारण आपके अहंकार को कभी भी कोई तरह की चोट पहुंचती है। यह कुशलतम खुश
ामद है। इसमें सीधा वह आपसे नहीं कहते हैं कि आप महान हैं। वे आपके चारों तरफ जितने हैं उन सबको कहते हैं, सब क्षुद्र हैं और आप अचानक महान हो जाते हैं।
जो आदमी सीधा आपसे आकर कहता है: आप महान हैं, उसे खुशामद का रहस्य पता नहीं है। और जो आदमी सीधा आपसे कहता है: आप महान हैं, आप थोड़ा उसके प्रति संदिग्ध हो जाएंगे कि यह आदमी कुछ गड़बड़ करेगा। लेकिन अगर वह कुशल है तो वह आपको महान नहीं कहेगा, सिर्फ दूसरों को छोटा कहेगा और आपको महान बनाएगा। वह ज्यादा कुशल है और अगर असली उपद्रव करना है तो वही कर सकेगा।
निंदा में इतना रस है। दूसरे को बुरा बताने में बड़ा रस है। दूसरे को गलत बताने में बड़ा रस है। दूसरा भूल में है, यह सिद्ध करने में बड़ा रस है। यह सारा रस समाप्त हो जाएगा। अगर यह सारा प्रपंच, यह सारी बुराई, यह सारा उपद्रव, यह सारा कोढ़ जो चारों तरफ फैला हुआ दिखाई पड़ता है, यह भी मैं ही हूं; यह सारी विक्षिप्तता, यह सारी बीमारियां, यह सारी विकृति, यह भी मैं ही हूं, फिर अहंकार बच नहीं सकता। फिर अहंकार को बचने के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह जाता। और जहां अहंकार नहीं, वहीं ब्रह्म का आवास है। जहां ब्रह्म का आवास है, वहीं अहंकार का विनाश है।
‘जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में जो भी मायिक-प्रपंच दिखाई देते हैं, वह सब ब्रह्म द्वारा ही प्रकाशित होते हैं। और वह ब्रह्म मैं ही हूं--ऐसा जो जान लेता है, वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।’