UPANISHAD
Kaivalya Upanishad 11
Eleventh Discourse from the series of 19 discourses - Kaivalya Upanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during MAR 25 - APR 02 1972.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
पुनश्च जन्मान्तरकर्मयोगात् स एव जीव स्वपिति प्रबुद्धः।
पुरत्रये क्रीडति यश्च जीवस्तमस्तु जातं सकलं विचित्रम्।
आधारमानंदमखण्ड बोधं यस्मिन् लयं जाति पुरत्रयंच।।14।।
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथ्वी विश्वस्य धारिणी।।15।।
पिछले जन्मों के कार्यों से प्रेरित होकर वही मनुष्य सुषुप्तावस्था से पुनः स्वप्नावस्था व जाग्रतवस्था में आ जाता है। इस तरह से ज्ञात हुआ कि जीव जो तीन प्रकार के पुरों (शरीरों)--स्थूल, सूक्ष्म और कारण में रमण करता है, उसी से इस सारे मायिक प्रपंच की सृष्टि होती है। जब तीन प्रकार के शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म, कारण) का लय हो जाता है, तभी यह जीव मायिक प्रपंच से मुक्त होकर अखंडानंद का अनुभव करता है।।।।
इसी से प्राण, मन और समस्त इंद्रियों की उत्पत्ति होती है। इसी से पृथ्वी की सृष्टि होती है जो आकाश, वायु, अग्नि, जल और सारे संसार को धारण करती है।।।।
सुबह के सूत्र में मनुष्य का मन किस भांति सम्मोहित हुआ--जाग्रत में, स्वप्न में, और सुषुप्ति में, कल्पित सुखों और दुखों में घिरता है, कैसे सुख के आभास बनाता है और कैसे दुख के फल भोगता है--उस संबंध में बात हुई। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, इन तीन अवस्थाओं के संबंध में भारत ने बहुत तरह की खोज की है। और ये तीन शब्द, फिर आपको दिलाऊं याद, भारत के तीन की खोज का एक और पहलू उपस्थित करते हैं।
मनुष्य की तथाकथित जो दिखाई पड़ने वाली स्थिति है, वह इन तीन से ही मिल कर बनी है। मनुष्य का जीवन इन तीन से ही मिल कर निर्मित हुआ है। इस मनुष्य के जीवन के पीछे जो छिपा है सार, वह इन तीनों के पार है। इन तीन से संसार निर्मित हुआ है। इसलिए इस सूत्र को थोड़ा ठीक से और गहरे में समझ लेना जरूरी होगा। इसके अनेक आयाम हैं।
पहला तो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति हमारे मन की ही दशाएं नहीं, हमारे जीवन के भी आधार-स्तंभ हैं। इन तीन पर ही हम खड़े हैं। और हम चौथे हैं। इन तीन से हमारा भवन निर्मित होता है, लेकिन वह जो निवासी है, वह चौथा है। इसलिए भारत में उसे ‘तुरीय’ कहा है। तुरीय का अर्थ होता है: चौथा, दि फोर्थ। उसको कोई नाम नहीं दिया, सिर्फ चौथा कहा है। इन तीन को नाम दिए। उस चौथे को कोई नाम दिया नहीं जा सकता। उसके नाम का कोई पता भी नहीं है। और उसकी किसी से कोई तुलना नहीं हो सकती। इसलिए उसे सिर्फ चौथा कहा है।
ये तीन, रोज हम इन तीन में से गुजरते हैं। सुबह जब आप जागते हैं तो जाग्रत अवस्था में प्रवेश होता है। सांझ जब आप सोते हैं तो पहले स्वप्न में प्रवेश होता है, फिर जब स्वप्न भी खो जाते हैं तो सुषुप्ति में प्रवेश होता है। चौबीस घंटे में हम इन तीन अवस्थाओं में बार-बार घूमते रहते हैं, प्रतिदिन। और अगर और सूक्ष्म में देखें, तो हम प्रतिपल भी इन तीन अवस्थाओं में डोलते रहते हैं। लगता है ऊपर से आप जगे हुए हैं, भीतर स्वप्न शुरू हो जाता है। जिसको हम दिवास्वप्न कहते हैं। और कभी-कभी ऐसा लगता है कि क्षण भर को आप इस जगत में न रहे, होश ही खो गया। तो सुषुप्ति पकड़ जाती है। चौबीस घंटे तो हम बड़े पैमाने पर इन तीन अवस्थाओं में गुजरते ही हैं। प्रतिपल भी हम तीन अवस्थाओं में डोलते रहते हैं।
इन तीन अवस्थाओं में हम पूरे जीवन ही डोलते हैं और अनेक-अनेक जीवन में भी हम इन तीन अवस्थाओं में घूमते हैं। मृत्यु का क्षण सुषुप्ति में घटित होता है। मरता हुआ आदमी जाग्रत से पहले स्वप्न में प्रवेश करता है, फिर स्वप्न से सुषुप्ति में प्रवेश करता है। मृत्यु सुषुप्ति में ही घटित होती है। इसलिए पुराने लोग निद्रा को रोज आ गई मृत्यु का, मृत्यु की थोड़ी सी झलक मानते थे। निद्रा मृत्यु की झलक है।
जब आप सुषुप्ति में होते हैं तब आप उसी अवस्था में होते हैं जब मृत्यु घटित होती है, या घट सकती है। सुषुप्ति के बिना मृत्यु घटित नहीं होती। इसीलिए सुषुप्ति में आपको सारा बोध खो जाता है। इसलिए मृत्यु की पीड़ा भी अनुभव नहीं होती। अन्यथा मृत्यु बड़ा सर्जिकल काम है। इससे बड़ा और कोई सर्जिकल काम नहीं है।
डॉक्टर एक हड्डी निकालता होगा तो भी मार्फिया देता है। मार्फिया देकर वह आपको जबर्दस्ती सुषुप्ति में ले जाता है। तभी आपकी एक हड्डी निकाली जा सकती है, ऑपरेशन किया जा सकता है, अन्यथा असंभव है। सब आपरेशन सुषुप्ति में होते हैं। और जब तक सुषुप्ति न आ जाए तब तक ऑपरेशन करना खतरनाक है। भयंकर पीड़ा होगी। शायद आपरेशन मुश्किल ही हो जाएगा करना।
मृत्यु सदा से ही बड़े से बड़ा ऑपरेशन करती रही है। पूरे प्राणों को इस शरीर से बाहर निकालना है। तो गहन सुषुप्ति में मृत्यु घटित होती है। जन्म भी सुषुप्ति में ही होता है। इसलिए हमें याद नहीं रहती। पिछले जन्म की याद न रहने का कारण सिर्फ इतना ही है कि बीच में इतनी लंबी सुषुप्ति होती है कि दोनों ओर-छोर पर संबंध छूट जाते हैं। सुषुप्ति में ही मृत्यु होती है, सुषुप्ति में ही फिर पुनर्जन्म होता है। मां के पेट में बच्चा सुषुप्ति में ही होता है।
जो बच्चे मां के पेट में सुषुप्ति में नहीं होते हैं, वे मां के स्वप्नों को प्रभावित करने लगते हैं। कुछ बच्चे मां के पेट में स्वप्न में होते हैं। बहुत कुछ, बहुत थोड़ी संख्या में--कभी करोड़ में एकाध बच्चा--मां के पेट में स्वप्न की अवस्था में होता है। लेकिन यह वही बच्चा होता है जिसकी पिछली मृत्यु स्वप्न की अवस्था में हुई हो। तिब्बत में इस पर बड़े प्रयोग किए हैं। ‘बारदो’ इसका नाम है तिब्बत में, इसके प्रयोग का।
तिब्बत में मरते हुए आदमी को सुषुप्ति में न चला जाए, इसकी चेष्टा करते हैं। अगर सुषुप्ति में चला गया तो फिर उसको इस जन्म की स्मृति मिट जाएगी। तो उसको इस जन्म की स्मृति बनी रहे, तो मरते हुए आदमी के पास विशेष तरह के प्रयोग करते हैं। उन प्रयोगों में उस आदमी को चेष्टापूर्वक जगाए रखने की कोशिश की जाती है। न केवल जगाए रखने की बल्कि उस मनुष्य के भीतर स्वप्न को पैदा करने की भी चेष्टापूर्वक कोशिश की जाती है। ताकि स्वप्न चलता रहे, चलता रहे और उसकी मृत्यु स्वप्न की अवस्था में घटित हो जाए। यदि स्वप्न की अवस्था में मृत्यु घटित हो जाए, तो वह आदमी आनेवाले जन्म में अपने पिछले जन्म की सारी स्मृति लेकर पैदा होता है।
इसे हम ऐसा समझें तो आसानी पड़ जाएगी। आप रात भर सपने देखते हैं, यह जान कर आपको शायद भरोसा नहीं होगा। अनेक लोग कहते हैं कि वे सपने देखते ही नहीं। सिर्फ उनको पता नहीं है। अनेक लोग कहते हैं मुझे कभी-कभी सपना आता है। उन्हें सिर्फ स्मरण नहीं रहता। सपना आप रात भर देखते हैं। पूरी रात में करीब-करीब बारह स्वप्न औसत आदमी देखता है। इससे ज्यादा देखने वाले लोग हैं, इससे कम देखने वाले आदमी खोजने मुश्किल हैं। बारह स्वप्न रात्रि के करीब-करीब तीन चौथाई हिस्से को घेरते हैं। एक चौथाई हिस्से में सुषुप्ति होती है। बाकी तीन चौथाई में स्वप्न होते हैं। लेकिन आपको याद नहीं रहते हैं। क्योंकि एक स्वप्न गया, उसके बाद सुषुप्ति का अगर एक क्षण भी आ गया तो संबंध टूट जाता है स्मृति का।
आपको जो सपने याद रहते हैं, वे करीब-करीब भोर के सपने होते हैं, सुबह के सपने होते हैं। जिनके बाद सुषुप्ति नहीं आती, जागृति आ जाती है। जिस सपने के बाद सुषुप्ति नहीं आती और सीधे आप जाग जाते हैं, वही आपको याद रहता है। अगर किसी भी सपने और जागरण के बीच में सुषुप्ति का थोड़ा सा भी काल आ जाए, तो स्मृति का संबंध-विच्छेद हो जाता है। उसकी स्मृति तो बनती है लेकिन आपको साधारणतः याद नहीं रहती। स्मृति बनती नहीं, ऐसा नहीं है। स्मृति तो निर्मित होती है, लेकिन अचेतन हो जाती है। सुषुप्ति में भी स्मृति निर्मित होती है, लेकिन अचेतन हो जाती है। उसका आपको बोध नहीं होता है। चेष्टा की जाए तो अचेतन से उसको जगाया जा सकता है। लेकिन साधारणतः आपको खयाल में नहीं रहता। इसलिए सिर्फ सुबह के सपने याद रहते हैं।
इसलिए अधिक लोग तो ऐसा भी सोचते हैं कि मुझे सुबह ही सपना आता है। सपने रात भर आते हैं। अब तो इसके लिए वैज्ञानिक आधार उपलब्ध हो गए हैं। अब तो हमारे पास यंत्र भी उपलब्ध हो गए हैं, जो रात भर बताते रहते हैं कि कब आप सपना देख रहे हैं और कब आप नहीं देख रहे हैं। बड़े मजे की बात है कि सपना देखने में भी आपकी आंख गतिमान हो जाती है, उसी तरह जैसे आप वस्तुतः अगर जगत में घटना देख रहे होते हैं। उसी आंख से पता चल जाता है कि आप सपना देख रहे हैं। जैसे एक आदमी फिल्म देख रहा है तो जितनी तेजी से उसकी आंख चलती है--फिल्म के साथ चलानी पड़ती है--जब आदमी सपना देखता है तो उससे भी ज्यादा तेजी से उसकी आंख चलने लगती है पलक के भीतर। रेपिड आई मूवमेंट्स--उसको वे कहते हैं कि तब पता चल जाता है कि वह सपना देख रहा है।
तो आंख पर यंत्र लगा दिया जाता है। वह यंत्र बताता रहता है कि कब आंख की गति कितनी है। और जब आंख की गति तेज है, तब आपको जगाया जाए तो आप सपना पूरा बता देते हैं उसी वक्त कि क्या सपना देख रहे थे। और जब आंख की गति नहीं होती तेज तब आपको जगाया जाए, तो आप कहते हैं: मैं कोई सपना नहीं देख रहा था। तो अब इस पर निर्णय हो गया कि आदमी सपना देखता है तो आंख उसकी भीतर चलती है जोर से। जैसे वह फिल्म देख रहा हो।
तो रात भर प्रयोग करके हजारों लोगों पर जाना गया है। कोई दस हजार लोगों को--अमरीका ने इसके पीछे बहुत खर्च किया--रात भर सोने का प्रयोगशाला में पैसा दिया है लोगों को। क्योंकि वे अपनी नींद बेचते हैं। उनको बार-बार जगाना पड़ता है और रात भर वे बंधे हुए पड़े रहते हैं यंत्रो के बीच। दस हजार लोगों पर प्रयोग करके यह निर्णय लिया है कि कोई आदमी जो कहता है कि मैं सपने नहीं देखता, वह सच कहता है अपनी तरफ से, लेकिन झूठ कहता है। जो आदमी कहता है: मुझे कभी-कभी सपने आते हैं, वह भी गलत कहता है। जो लोग कहते हैं: हमें सुबह ही सपने आते हैं वे भी गलत कहते हैं। लेकिन फिर भी उनकी बातों में थोड़ी सच्चाई है। सुबह के सपने याद रहते हैं, क्योंकि जागृति हो जाती है।
यह मैंने इसलिए कहा ताकि तिब्बत का ‘बारदो’ का प्रयोग आपके खयाल में आ जाए। तिब्बत ने मनुष्य के स्वप्न पर महत्वपूर्ण काम किया है। शायद पृथ्वी पर किसी देश ने नहीं किया। और उन्होंने यह राज पा लिया कि अगर किसी आदमी को हम सपने की अवस्था में मरने का आयोजन करवा दें, तो वह अपनी इस जन्म की सारी स्मृतियों को लेकर अगले जन्म में प्रवेश कर जाएगा। और इस जन्म की स्मृतियां जिसको अगले जन्म में रहें, उसका अगला जन्म रूपांतरित हो जाएगा, बदल जाएगा। क्योंकि फिर वही मूढ़ताएं करने में उसे स्वयं ही बोध होने लगेगा, जो वह कर चुका पहले। फिर वही वासनाएं, फिर वही इच्छाएं, फिर वही दौड़ और फल तो कुछ भी नहीं था पूरे जीवन का। पिछला जीवन दौड़-दौड़ कर रिक्त हो गया, और अंत में मौत हाथ लगी। उन सारी वासनाओं के बाद कुछ हाथ लगा नहीं, सिर्फ मौत हाथ लगी।
यह अगर स्मृति में रह जाए, तो अगला जन्म दूसरे प्रकार का होगा। उसका गुणधर्म बदल जाएगा। क्योंकि फिर वह आदमी ठीक उन्हीं वासनाओं में नहीं दौड़ सकेगा, मृत्यु सदा सामने खड़ी मालूम पड़ेगी। और फिर उन्हीं वासनाओं में दौड़ने का अर्थ होगा कि वह फिर अपने हाथ रिक्त करने जा रहा है, फिर मरने जा रहा है। नहीं, इस बार अब वह कुछ और कर सकेगा। जिंदगी को बदलने की कोई चेष्टा सघन हो जाएगी। यह चेष्टा सघन हो सके, इसलिए ‘बारदो’ का प्रयोग है।
‘बारदो’ का प्रयोग वैज्ञानिक है। व्यक्ति मर रहा होता है तब उसे जगाए रखने के सब उपाय किए जाते हैं--सुगंध से, प्रकाश से, संगीत से, कीर्तन से, भजन से, उसे जगाए रखने के प्रयोग किए जाते हैं। उसे सोने नहीं दिया जाता। और जैसे ही उसको झपकी लगती है वैसे ही उसके कान के पास ‘बारदो’ के सूत्र कहे जाते हैं।
‘बारदो’ के सूत्र ऐसे हैं, जो स्वप्न को पैदा करने में सहयोगी हैं। जैसे उसे कहा जाएगा कि वह समझ ले कि शरीर से अलग हो रहा है। अभी वह झपकी खा गया है, उसे कहा जा रहा है कि वह शरीर से अलग हो गया है। मृत्यु घटित हो गई है और वह अपनी यात्रा पर निकल रहा है। यात्रा पर मार्ग कैसा है, यात्रा पर दोनों तरफ कैसे वृक्ष लगे हैं, यात्रा पर कैसे पक्षी उड़ रहे हैं, ये सारे प्रतीक उसके कान में कहे जाएंगे।
पहले तो समझा जाता था कि यह कान में कहने से क्या होगा? लेकिन अब यह नहीं समझा जा सकता है। क्योंकि रूस में बड़े पैमाने पर हिप्नोपीडिया के प्रयोग चल रहे हैं। और रूस के वैज्ञानिकों की धारणा है कि आने वाली सदी में बच्चे स्कूल पढ़ने दिन में नहीं जाएंगे। रात बच्चों की नींद में ही स्कूल उन्हें शिक्षा देगा। क्योंकि रूसी वैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चा जब सोया होता है तब उसके कान में एक विशेष ध्वनि पर और एक विशेष वेवलेंथ पर अगर कुछ बातें कहीं जाएंतो उसके अचेतन में प्रवेश कर जाती हैं। इस पर बहुत प्रयोग सफल हो गए हैं, और एक बच्चा जो गणित में कमजोर है और लाख उपाय करके गणित में ठीक नहीं होता, शिक्षक परेशान हो जाते हैं, वह बच्चा भी रात नींद में गणित की शिक्षा देने से कुशल हो जाता है। और उसे कभी पता भी नहीं चलता कि उसको यह शिक्षा दी गई है।
भाषा के संबंध में तो हैरानी के अनुभव हुए हैं, कि जो भाषा तीन साल में सीखी जा सके, वह रात में तीन महीने में सिखाई जा सकती है। और उसमें कोई समय का व्यय नहीं होगा। क्योंकि आपकी नींद में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। आप सोए ही रहेंगे। आपको पता ही नहीं चलेगा। सिर्फ सुबह आपको रोज परीक्षा देनी होगी कि रात भर क्या हुआ?
तो अब तो रूस में उन्होंने कुछ संस्थाएं बनाई हैं जो हजारों बच्चों को रात शिक्षा दे रही हैं। हर बच्चे के पास छोटा सा यंत्र उसके तकिए में लगा रहता है--वह सो जाता है। ठीक बारह बजे रात शिक्षा शुरू होती है। दो घंटे शिक्षा चलती है, फिर बच्चे को एक बार जगाया जाता है। वह सब यंत्र ही कर देता है। घंटी बजा कर बच्चे को जगा देता है। जगाया इसलिए जाता है ताकि जो सिखाया गया उसके बाद अगर सुषुप्ति आ जाए तो वह भूल जाएगा। इस सूत्र को समझाने के लिए मैं कह रहा हूं, नहीं तो यह सूत्र समझ में नहीं आएगा।
उसे जगाया जाएगा। दो घंटा शिक्षण चलेगा, फिर घंटी बजेगी। बच्चा जगाया जाएगा। जाग कर उसे हाथ-मुंह धोकर पुनः सो जाना है। कुछ और करना नहीं है। बस, वह जो शिक्षा दी गई है, उसके बाद सुषुप्ति की पर्त न आए। नहीं तो सुबह भूल जाएगा सब। फिर चार बजे उसकी शिक्षा शुरू होगी। फिर चार से छह बजे तक वही पाठ दोहराया जाएगा। छह बजे वह फिर उठ आएगा।
इस चार घंटे में इतना सिखाया जा पाता है कि जिसकी कल्पना करनी मुश्किल है। तो रूसी वैज्ञानिक तो यह कह रहे हैं कि अब हम बच्चों को स्कूल की कारागृह से जल्दी ही छुटकारा दिला देंगे। वह खतरनाक है कारागृह। छोटे बच्चे न खेल पाते हैं उसकी वजह से, न मौज कर पाते हैं। न नाच पाते हैं, न कूद पाते हैं। बचपन से ही उनको कारागृह में बिठा दिया जाता है। पांच-छह घंटे छोटे बच्चों को जबर्दस्ती स्कूलों में बिठाए रखना उनकी जिंदगी के लिए हमेशा के लिए पंगु कर देना है। लेकिन अभी तक कोई उपाय नहीं था। उनकी जिंदगी का सबसे कीमती और स्वर्ण अवसर व्यर्थ ही स्कूल की बेंचों पर बैठ कर नष्ट होता रहता है। अधिक लोगों की जिंदगी में दुख का कारण वही है। क्योंकि जब सर्वाधिक आनंदित होने के उपाय थे, जीवन ताजा था, प्रफुल्लता थी और जीवन से एक संबंध निर्मित हो सकता था, तब भूगोल, इतिहास और गणित, उनमें सारा समय गया। और उन सबसे जो मिलने वाला है, वह जीवन नहीं है, आजीविका है। इसका मतलब यह हुआ कि जीवन को गंवाया आजीविका के लिए।
लेकिन रूसी वैज्ञानिक अब कहता है कि यह ज्यादा दिन नहीं चलेगा। हम शीघ्र ही वह रास्ते खोज लिए हैं जिनसे बच्चे दिन भर खेल सकते हैं, मौज कर सकते हैं, भ्रमण पर जा सकते हैं। जो उन्हें करना होकर सकते हैं। और रात्रि, रात्रि उनको शिक्षा दी जा सकती है। इसको वे हिप्नोपीडिया कहते हैं, निद्रा-शिक्षण। लेकिन इसमें भी वह सूत्र है कि उनको जगाया जाए। और अगर हम शिक्षा दे सकते हैं भीतर, तो ‘बारदो’ ठीक कहता है कि कान में कह कर स्वप्न भी पैदा किए जा सकते हैं।
अगर स्वप्न में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो तो उसे दूसरा जन्म पिछले जन्म की याददाश्त के साथ मिलेगा। ऐसा बच्चा मां के पेट में भी स्वप्न की अवस्था में रहेगा। ऐसा बच्चा नया जन्म भी स्वप्न की अवस्था में लेगा। इस तरह के बच्चे में और सुषुप्ति में जन्म लिए हुए बच्चे में बुनियादी फर्क होगा। जन्म में फर्क होगा।
जो बच्चा मां के पेट में स्वप्न में रहेगा, उस बच्चे के कारण मां के मन में अनेक स्वप्न पैदा होंगे। बुद्ध और महावीर, विशेषकर जैनों के चौबीस तीर्थंकरों के संबंध में कथा है कि जब भी वे मां के पेट में आए तो मां ने विशेष सपने देखे। चौबीस तीर्थंकरों की मां ने एक से ही सपने देखे--सैकड़ों, हजारों साल के फासले पर। तो जैनों ने उसका पूरा विज्ञान ही निर्मित किया। तब उन्होंने निश्चित कर लिया कि इस तरह के सपने जब किसी मां को हों तो उसके पेट से तीर्थंकर पैदा होने वाला है। वे सपने निश्चित हो गए। जैसे शुभ्र हाथी दिखाई पड़े, जो साधारणतः नहीं दिखाई पड़ता--चेष्टा भी करें तो नहीं दिखाई पड़ता--तो तीर्थंकर जन्म लेने वाला है। तो ये सिंबालिक हो गए। ये तीर्थंकर के प्रतीक हो गए कि जब किसी मां के पेट में तीर्थंकर का व्यक्तित्व आएगा, तो वह इन सपनों को देखेगी।
तो जैनों ने तो उनकी शोध करके सपने तय कर दिए कि इतने सपने हैं। अगर ये आएं तो ही पैदा होने वाला बच्चा तीर्थंकर होगा। बुद्धों के सपने भी तय हैं कि जब बुद्ध की चेतना का व्यक्ति कहीं पैदा होगा, तो उसके सपने क्या होंगे? ये सपने तभी पैदा हो सकते हैं, जब भीतर आया हुआ व्यक्ति स्वप्न की अवस्था में मरा हो, स्वप्न की अवस्था में जन्मा हो और स्वप्न की अवस्था में मां के पेट में हो। तो मां के सपने उस बच्चे से तीव्रता से प्रभावित होंगे। सच तो यह है कि वह मां बिलकुल आच्छादित हो जाएगी उस बच्चे से; क्योंकि बच्चा मां से बड़ा व्यक्तित्व लेकर आया हुआ है। ऐसा जो बच्चा पैदा होगा--जो स्वप्न में पैदा हुआ है--ऐसा बच्चा चाहे तो एक जन्म में मुक्ति को उपलब्ध हो सकता है। चाहे तो! न चाहे तो और भी जन्म ले सकता है। लेकिन मुक्ति अब उसकी किसी भी क्षण घटित हो सकती है। जब चाहे, तब घटित हो सकती है।
जैसा सुषुप्ति में पैदा होता है, कोई जन्मता और मरता है; स्वप्न में जन्मता और मरता है, वैसे ही जाग्रत में भी जन्म और मरण के उपाय हैं। वह आखिरी बात है, जब कोई जाग्रत में मरता है। अगर जाग्रत में कोई मरता है, तो आने वाला जन्म अगर उसे लेना हो तो ही लेगा, अन्यथा जन्म नहीं होगा। क्योंकि अब चुनाव उसके हाथ में है। जो जाग्रत में मरता है, चुनाव उसके हाथ में है। वह चाहे तो ही, प्रयास करे तो ही जन्म होगा। अन्यथा उसका जन्म नहीं होगा। ऐसा व्यक्ति जागा ही गर्भ में प्रवेश करेगा। जागा ही गर्भ में रहेगा। जागा ही जन्मेगा। सुषुप्ति में जो बच्चा पैदा होता है, वह भी मां को प्रभावित करता है।
इसलिए मां... अक्सर ऐसा होता कि जब बच्चा मां के पेट में हो तो मां का गुणधर्म बदल जाता है। उसका व्यवहार बदल जाता है। बोलचाल बदल जाता है, अनेक बातें बदलाहट मालूम पड़ने लगती हैं। कई बार साधारण स्त्रियां अचानक गर्भ के साथ सुंदर हो जाती हैं। विचारशील हो जाती हैं। कई बार सुंदर स्त्रियां गर्भ के साथ कुरूप हो जाती हैं। विचारशील स्त्रियां विचारहीन हो जाती हैं। शांत स्त्रियां अशांत हो जाती हैं। अशांत स्त्रियां शांत हो जाती हैं। नौ महीने एक दूसरा जीवन भी भीतर होता है, वह प्रभावित करता है।
सुषुप्त बच्चा भी प्रभावित करता है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। स्वप्न वाला बच्चा बहुत प्रभावित करता है। मां के सारे स्वप्न, सारे विचार उससे आच्छादित हो जाते हैं। लेकिन अगर जाग्रत व्यक्ति पैदा हो, तो मां पूरी तरह रूपांतरित हो जाती है। यहीं जैनों के तीर्थंकर की और हिंदुओं के अवतार की धारणा का फर्क है। हिंदू मानते हैं कि अवतार वह व्यक्ति है, जो जागा हुआ ही पैदा होता है। जागा हुआ ही पैदा होता है, इसलिए उसे वे ईश्वर का अवतरण कहते हैं। क्योंकि वह व्यक्ति चाहता तो अभी ईश्वर से मिल सकता था।
इसको जरा ठीक से समझ लेना।
पिछली मृत्यु के बाद वह चाहता तो ईश्वर से मिल सकता था। कोई बाधा न थी, कोई जमीन की तरफ खिंचने का कारण न था। नये जन्म की कोई भी वजह न रही थी। वह ईश्वर से मिलने के ही करीब खड़ा था, मिल ही गया था, फिर लौट आया। इसको हिंदू अवतरण कहते हैं। इसको जन्म नहीं कहते हैं। क्योंकि वे कहते हैं: यह आदमी अब ऊपर से लौटा है। अवतार है। यह जाग्रत में घटेगा।
जीसस जैसे व्यक्ति का जन्म ईसाइयत में भी जाग्रत में है। पूरा जाग्रत में है। यहां एक और बात खयाल में लेनी चाहिए कि जब भी कोई जाग्रत व्यक्ति पैदा होता है, तो स्त्री-पुरुष का संभोग घटित नहीं होता। इसीलिए ईसाइयत बड़ी मुश्किल में पड़ गई है। क्योंकि वर्जिन से, कुंआरी लड़की से जन्म हुआ है जीसस का। और ईसाइयत के पास इसका पूरा विज्ञान नहीं है। इसका पूरा खयाल नहीं है कि यह कैसे घटित हो सकता है। कुंआरी लड़की से बच्चा कैसे पैदा हो सकता है?
सोया हुआ बच्चा कुंआरी लड़की से पैदा नहीं हो सकता। सोया हुआ बच्चा स्वभावतः बिलकुल ही पाशविक ढंग से, संभोग से पैदा होगा। स्वप्न में पैदा होने वाला बच्चा साधारण संभोग से पैदा नहीं होता, यौगिक संभोग से पैदा होता है। तांत्रिक संभोग से पैदा होता है। एक विशिष्ट संभोग से पैदा है। जिसमें ध्यान संयुक्त होता है, मूर्च्छा नहीं होती। जाग्रत पुरुष संभोग से पैदा ही नहीं होते हैं। संभोग से उसका कोई संबंध ही नहीं होता है। वह कुंआरी मां से ही पैदा होता है। इसे बहुत बार तो छिपा लिया गया है। छिपा इसलिए लिया गया है कि यह भरोसे का नहीं होगा, विश्वास नहीं किया जा सकेगा और अकारण परेशानी पैदा होगी।
जीसस के मामले में यह बात खुल गई। और खुल जाने का कारण यह था कि जीसस के पिता ने कहा कि उसने तो कोई संबंध ही नहीं किया है, उसका तो कोई संबंध ही नहीं है पत्नी से। पहली दफा जीसस के मामले में यह छिपा हुआ राज जाहिर हो गया। नहीं तो सचाई यह है कि जब भी कोई अवतार पैदा हुआ है, उसका संभोग से कोई संबंध नहीं है। भला संभोग होता रहा हो पति और पत्नी में, लेकिन उसके जन्म का संभोग से कोई संबंध नहीं है।
यह जो जाग्रत में पैदा हुआ व्यक्ति है, इसे मुक्ति के लिए कुछ भी नहीं करना होता, यह मुक्त ही पैदा होता है। ये तीन अवस्थाएं स्वप्न की, सुषुप्ति की, जाग्रत की हमारे जन्म और मृत्यु में भी गुंथी हैं।
एक दूसरी तरफ से भी इन तीनों अवस्थाओं का खयाल ले लें।
हिंदू-चिंतना स्वप्न, सुषुप्ति और जागृति में तीन शरीरों का भी निर्माण मानती है। वह बहुत कीमती है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण, ये तीन शरीर हिंदू चिंतन मानता है। स्थूल शरीर जाग्रत से संबंधित है। सूक्ष्म शरीर स्वप्न से संबंधित है। कारण शरीर सुषुप्ति से संबंधित है। जब आप जागे हुए होते हैं, तो आप स्थूल-शरीर में होते हैं। इसीलिए जब आपको अनस्थीसिया दे दिया जाता है, तो फिर इस शरीर को काटा जाता है और आपको पता नहीं चलता, क्योंकि आप दूसरे शरीर में होते हैं।
किसी न किसी दिन मेडिकल साइंस इन राजों को हिंदू-चिंतन से भी समझेगी तो उसे बड़ा उदघाटन होगा। किसी दिन चिकित्साशास्त्र अनुभव करेगा कि इन शास्त्रों में सिर्फ दर्शन नहीं है, बहुत कुछ और भी है। लेकिन वह इतना सूत्र में है कि जब तक उसे कोई खोले नहीं, तब तक वह कभी खयाल में आता नहीं। उसका खयाल में आने का कोई उपाय नहीं है। आपरेशन इसीलिए किया जा सकता है स्थूल शरीर का कि आप, आपकी चेतना बेहोशी में स्थूल शरीर से हट कर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाए। कारण शरीर में अगर चेतना प्रवेश कर जाए अर्थात सुषुप्ति में तो इस शरीर पर होने वाली किसी घटना का कोई पता नहीं चलेगा। अगर स्वप्न शरीर में प्रवेश कर जाए, तो धुंधला-धुंधला पता चलेगा। क्योंकि स्वप्न शरीर इसके बिलकुल करीब है। जैसे कि कभी कोई आदमी भंग खा लेता है तो वह स्वप्न शरीर में प्रवेश कर जाता है।
जितने ड्रग्स हैं--एल.एस.डी., मारिजुआना, मेस्कलीन, भांग, गांजा, अफीम, चरस, शराब, ये सबके सब स्थूल शरीर से आदमी को तोड़ कर स्वप्न-शरीर में प्रवेश करा देते हैं। इनकी कुल कला इतनी है। तो भांग खाया हुआ आदमी आपने देखा है? रास्ते पर डोलता हुआ चलता है। पैर ठीक रखना चाहता है, नहीं पड़ता है। हालांकि उसे लगता है कि मैं बिलकुल ठीक रखता हूं। और फिर भी उसे लगता है कि कुछ गलत पड़ता है। असल में इस शरीर में वह है नहीं अब। वह शराबी जो रास्ते पर डोलता हुआ चल रहा है, वह दूसरे शरीर में चल रहा है। और यह शरीर सिर्फ उसके साथ घसिट रहा है। वह सूक्ष्म शरीर में चल रहा है। लेकिन फिर भी उसे इसका बोध है। अगर आप उसको डंडा मारें, तो उसको चोट लगेगी। हालांकि चोट उतनी नहीं लगेगी, जितना जब वह स्थूल में होता तब लगती। इसलिए शराबी गिर पड़ता है रास्ते पर, आपने देखा? आप गिरकर देखें! रोज गिरता है रात नाली में, रोज घर घसिट कर पहुंचा दिया जाता है। दूसरे दिन सुबह फिर ताजा अपने दफ्तर की तरफ जा रहा है। इसको चोट वगैरह नहीं लगती?
आपने देखा, बच्चे! बच्चे गिर पड़ते हैं, उनको इतनी चोट नहीं लगती। आप इतने गिरें तो हड्डी-पसली तत्काल टूट जाए। बच्चे स्वप्न शरीर में हैं। अभी उनका जाग्रत शरीर में आने का उपाय धीरे-धीरे होगा। आपने देखा है, जब बच्चा पैदा होता है... मां के पेट में चौबीस घंटे सोता है, पैदा होकर तेईस घंटे सोता है। फिर बाईस घंटे सोता है। फिर बीस घंटे सोता है। फिर अठारह घंटे सोता है। यह उसके सुषुप्ति शरीर से वह बाहर आ रहा है। यह सुषुप्ति शरीर से वह बाहर आ रहा है क्रमशः। धीरे-धीरे-धीरे नींद कम होती जाएगी। लेकिन जब वह नींद के बाहर होगा तब वह अक्सर सपने में होगा।
आपने कभी खयाल है कि छोटे बच्चों को सपने में और वास्तविकता में फर्क पता नहीं चलता है। इसलिए रात अगर सपने में उसको किसी ने मार दिया है, तो वह सुबह भी रोता हुआ उठता है। और वह कहता है: किसी ने मुझे मारा है। या सपने में किसी ने उसकी गुड़िया छीन ली है तो वह सुबह रोता हुआ, सिसकता हुआ उठता है। अभी उसे स्वप्न और जाग्रत के बीच फासला नहीं है। अभी वह स्वप्न शरीर में ही जीता है। इसलिए बच्चों की आंखें उतनी सपनीली मालूम पड़ती और इतनी इनोसेंट, निर्दोष। उसका कुल कारण इतना है कि वे सपने में आंखें खोले हुए हैं। अभी उनकी दुनिया बड़ी रंग-बिरंगी है, सपनों की दुनिया है। अभी सब तरफ तितलियां उड़ रही हैं और सब तरफ फूल खिल रहे हैं। अभी जिंदगी के यथार्थ का कोई आभास उन्हें नहीं हुआ है।
उसका कारण?
उसका कारण कि अभी वह जिंदगी के जिस यथार्थ से संबंध होने का मार्ग, जो शरीर है स्थूल, उसमें उनका प्रवेश नहीं हुआ। और प्रकृति इसको जानकर ऐसा करती है। क्योंकि बच्चा अगर चौबीस घंटे सोता है मां के पेट में, तो ही उसका यह शरीर बढ़ सकता है। अगर वह इस शरीर में आ जाए तो शरीर का बढ़ना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि शरीर की बढ़ती के लिए उसकी मौजूदगी बिलकुल जरूरी नहीं है। उसकी मौजूदगी बाधा डालेगी। अभी शरीर में बड़ा आपरेशन चल रहा है। अभी चीजें बढ़ रही हैं, घट रही हैं, फैल रही हैं। अभी यह सब इतना बड़ा काम चल रहा है कि इस बीच उसका जागरण ठीक नहीं है। उसे सोया रहना ठीक है।
इसलिए जो बच्चा सात महीने का पैदा हो जाता है, उसका स्थूल शरीर सदा के लिए कमजोर रह जाएगा। क्योंकि वह सुषुप्ति से स्वप्न में आ गया और अब शरीर के बनने में बाधा पड़ेगी। और जो काम मां के पेट में महीने में हो सकता था, वह बाहर छह महीने में भी नहीं हो पाएगा। फिर बच्चे का स्वप्न शरीर चलेगा वर्षों तक। क्योंकि अभी भी उसका शरीर बड़ा हो रहा है।
ठीक स्वप्न शरीर से पूरा छुटकारा बच्चा जब सेक्सुअली मैच्योर होता है, चौदह साल का होता है तब होता है। और चौदह साल की उम्र में जैसे ही काम-प्रौढ़ता आती है, स्थूल शरीर में पूरा प्रवेश होता है। यह जानकर आप हैरान होंगे कि काम की ग्रंथि बच्चे जन्म से ही पूरी लेकर पैदा होते हैं, लेकिन स्थूल शरीर में प्रवेश न होने से काम की ग्रंथि ऐसे ही पड़ी रहती है। चौदह वर्ष में स्थूल शरीर में प्रवेश होगा और काम की ग्रंथि सक्रिय हो जाएगी। इस स्थूल शरीर में प्रवेश को रोका जा सकता है। कम-ज्यादा किया जा सकता है।
शायद आपको पता न हो कि हर दस-बीस वर्षों में, इधर पिछले पचास वर्षों में सेक्स मैच्योरिटी का समय नीचे गिरता जा रहा है। बच्चे--पंद्रह वर्ष में लड़के अगर प्रौढ़ होते थे कामवासना में, अब वे तेरह वर्ष में हो जाते हैं। लड़कियां अगर चौदह वर्ष में होती थीं, तो अब वे बारह वर्ष में हो जाती हैं। और अमरीका में वह संख्या और नीचे गिर गई है। अगर हिंदुस्तान में बारह वर्ष में होती हैं, तो अमरीका में ग्यारह वर्ष में होने लगीं। स्विटजरलैंड और स्वीडन में और भी कम, दस वर्ष में होने लगी हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं कि जितना स्वास्थ्य बढ़ेगा, भोजन अच्छा होगा, उतनी जल्दी सेक्सुअल मैच्योरिटी आ जाएगी। इतना ही नहीं, वैज्ञानिकों को इतना ही खयाल में है--लेकिन जगत में जितनी कामवासना की हवा होगी और जितना कामवासना का वातावरण होगा और जितनी कामुकता होगी, उतने जल्दी बच्चे अपने स्वप्न शरीर को छोड़ कर अपने स्थूल शरीर में आ जाएंगे।
इससे उलटा प्रयोग भारत ने किया था और हम पच्चीस वर्ष तक बच्चों को प्रौढ़ता से रोकने के अदभुत परिणामों को उपलब्ध हुए थे। आप यह मत समझना कि हिंदुस्तान के गुरुकुलों में बच्चे चौदह साल में प्रौढ़ हो जाते थे, और फिर पच्चीस साल तक उनको ब्रह्मचर्य रखा जा सकता था। वह असंभव है। अगर चौदह साल में बच्चा प्रौढ़ हो गया, तो फिर पच्चीस साल तक उसको ब्रह्मचारी रखना असंभव है। और अगर कोशिश की जाएगी, तो पागल होगा। कोशिश की जाएगी तो विकृत हो जाएगा। कोशिश की जाएगी तो विकृत काम-रूप उसमें प्रकट होने शुरू हो जाएंगे।
नहीं, जो प्रयोग था वह बहुत दूसरा था। वह प्रयोग यह था कि पच्चीस वर्ष तक उसको विशेष तरह का भोजन दिया जा रहा था, और विशेष तरह का वातावरण दिया जा रहा था, जहां कामुकता की कोई गंध और कोई खबर न थी। और भोजन उसे ऐसा दिया जा रहा था जो उसके स्वप्न शरीर से उसे पच्चीस वर्ष तक बाहर न आने दे। और यह मौका था, इस क्षण में उसे जो भी सिखाया जाता, वह उसके स्वप्न शरीर में प्रवेश कर जाता था।
मजे की बात है कि चौदह साल के बाद कोई भी चीज सिखाई जाए, वह गहरे प्रवेश नहीं करती। ऊपर-ऊपर रह जाती है। चौदह साल के पहले जो भी सिखाया जाए, वह गहरा प्रवेश करता है। सात साल के पहले जो सिखाया जाए वह और भी गहरा प्रवेश करता है। और अगर हमने किसी दिन कोई उपाय खोज लिया कि हम मां के पेट में बच्चे को कुछ सिखा सकें, तो उसकी गहराई का कोई हिसाब ही लगाना असंभव है। वह भी हम किसी न किसी दिन कर पाएंगे। क्योंकि उस दिशा में काम चलता है। उस दिशा में भारत में तो काम किया है। यह पच्चीस वर्ष तक उसकी अगर मैच्योरिटी रोकी जा सके, तो बच्चा स्वप्न की अवस्था में होगा। और स्वप्न की अवस्था बहुत ही ग्राहक अवस्था है।
आपने कभी खयाल किया कि स्वप्न में संदेह कभी नहीं उठता? स्वप्न में आप अचानक देखते हैं कि यह घोड़ा चला आ रहा है, अचानक पास आकर देखते हैं कि घोड़ा नहीं है आपका मित्र है। और थोड़ा पास आता है, आप देखते हैं मित्र नहीं, यह तो वृक्ष खड़ा हुआ है। लेकिन आपके मन में यह भी नहीं उठता कि यह क्या हो रहा है? ऐसा कैसे हो सकता है कि अभी घोड़ा था, अभी मित्र हो गया, अब वृक्ष हो गया। इतना संदेह भी नहीं उठता। स्वप्न शरीर आस्थावान है। स्वप्न शरीर पूर्ण श्रद्धा से भरा है। संदेह उठता ही नहीं। अगर स्वप्न शरीर में कुछ भी डाल दिया जाए तो वह निःसंदिग्ध गहरा उतर जाता है। स्थूल शरीर आस्थावान नहीं है। सब संदेह उठाता है। स्थूल शरीर का एक दफा बोध आ जाए, फिर शिक्षण मुश्किल हो जाता है।
कभी आपने खयाल किया कि अगर आपके बच्चे जैसे ही सेक्सुअली मैच्योर होते हैं, वैसे ही उनके जीवन में अस्त-व्यस्तता और परेशानी और उपद्रव और विरोध और विद्रोह और हर चीज में जिद और हर चीज से झगड़ा और हर चीज से छूटने की कोशिश और कुछ भी न मानने की वृत्ति खड़ी होनी शुरू होती है? किसी को न मानने की। किसी का आदर न करने की। वह स्थूल शरीर का स्वाभाविक परिणाम है।
ऐसे बूढ़ा भी तीन शरीरों को पुनः उपलब्ध होता है। मरने के पहले फिर बूढ़े का स्थूल शरीर सबसे पहले नष्ट होने लगता है। जवानी समाप्त होती है उसी दिन, जिस दिन हमें पता चलता है कि हमारा स्थूल शरीर क्षीण होने लगा। लेकिन, स्थूल शरीर क्षीण हो जाए, लेकिन वासना क्षीण नहीं होती, क्योंकि वासना सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है, स्वप्न शरीर का हिस्सा है। इसलिए बूढ़े की तकलीफ एक ही है। वह तकलीफ यह है कि उसके पास वासना वही होती है जो जवान के पास होती है और शरीर उसके पास जवान का नहीं होता। उसकी पीड़ा भारी हो जाती है। इसलिए बूढ़े अक्सर जो जवानों के प्रति इतना... इतनी निंदा से भरे रहते हैं और इतनी आलोचना से भरे रहते हैं और इतने सिद्धांत और तर्क और शिक्षाएं देते रहते हैं, उसका गहरा कारण उनकी बुद्धमत्ता नहीं है, उसका गहरा कारण सौ में निन्यानबे मौके पर उनकी ईर्ष्या है। वासना उनके मन में भी वही है, लेकिन शरीर क्षीण हो गया है। स्थूल शरीर साथ नहीं देता।
फिर इसके बाद उनका स्वप्न शरीर क्षीण होना शुरू होता है। जब बूढ़े का स्वप्न शरीर क्षीण होता है, तब उसकी स्मृति प्रभावित हो जाती है। तब उसे चीजें याद नहीं आतीं। असंगत हो जाता है, तर्क खो जाता है। अभी कुछ कहता है, घड़ी भर बाद कुछ कहने लगता है--संगति नहीं रह जाती। स्वप्न शरीर क्षीण होने लगा।
और जब स्वप्न शरीर क्षीण हो जाता है, तब फिर सुषुप्ति में मृत्यु घटित होती है। मृत्यु में सुषुप्त शरीर भी क्षीण होता है। लेकिन समाप्त नहीं होता। और इन तीनों शरीरों की वासना लेकर सुषुप्त शरीर, कारण शरीर नई यात्रा पर निकल जाता है। वह बीज की तरह है। फिर नया जन्म, फिर नई यात्रा, फिर वही खेल, फिर वही चक्कर।
अब इस सूत्र को हम समझें।
‘पिछले जन्मों के कर्मों से प्रेरित होकर वह मनुष्य सुषुप्त अवस्था से पुनः स्वप्न व जाग्रत अवस्था में आ जाता है।’
‘पिछले जन्मों के कर्मों से प्रेरित हुआ वह मनुष्य सुषुप्त अवस्था से पुनः स्वप्न और जाग्रत अवस्था में आ जाता है।’ जब भी कोई नया व्यक्ति पैदा होता है तो पिछले जन्मों के सारे कर्मों को, प्रभावों को, संस्कारों को लेकर सुषुप्त पैदा होता है। फिर स्वप्न में आता है, फिर जाग्रत में आ जाता है। नया जीवन शुरू हो जाता है।
‘इस तरह से ज्ञात हुआ कि जीव तीन प्रकार के शरीरों में--स्थूल, सूक्ष्म और कारण में--रमण करता है। उसी से सारे मायिक-प्रपंच की सृष्टि होती है।’
यह जीवन का सारा का सारा प्रपंच इन तीन शरीरों पर निर्भर है। इन तीन शरीरों को इस सूत्र में पुर कहा है। तीन पुर। और इसीलिए भारतीय जो शब्द है आत्मा के लिए, वह ‘पुरुष’ है। पुरुष का मतलब है: पुर के भीतर रहने वाला। और ये तीन उसके नगर हैं, ये तीन उसके पुर हैं: स्थूल, सूक्ष्म और कारण। इन तीनों में वह पुरुष रमण करता रहता है। यह तीन उसकी नगरियां हैं, जिनमें वह एक से दूसरे में यात्रा करता है। जब तीन प्रकार के शरीरों का लय हो जाता है, तभी यह जीव मायिक प्रपंच से मुक्त होकर अखंड आनंद का अनुभव करता है, जब ये तीनों शरीर लीन हो जाते हैं।
जब हमारी मृत्यु घटित होती है, तो हमारा स्थूल शरीर बीज-रूप में सूक्ष्म में समा जाता है। और सूक्ष्म बीज-रूप होकर सुषुप्त में समा जाता है, कारण में समा जाता है। स्थूल सूक्ष्म में, सूक्ष्म कारण में समा जाता है।
‘कारण’ शब्द बहुत अदभुत है। अगर हम पूछें, वृक्ष का कारण क्या? तो कहना पड़ेगा, बीज। कभी आपने खयाल किया कि एक वृक्ष में बीज लगता है, इस बीज को अगर आप तोड़ें तो आपको कुछ भी तो नहीं मिलेगा। लेकिन इसे आप जमीन में गाड़ दें। इसमें फिर अंकुर आएगा और जिस वृक्ष में यह लगा था, वही वृक्ष पुनः प्रकट हो जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि वह जिस वृक्ष में यह लगा था, वह वृक्ष अपने स्थूल, स्वप्न शरीरों को लीन करके इस बीज में समा गया था। कारण शरीर में लीन हो गया था। फिर ठीक अवसर आने पर वह प्रकट हो जाता है।
मैं अगर एक जीवन जीआ तो जो मैंने किया, जो मैं था, जो मैंने सोचा, जो मेरे जीवन में हुआ, जो मेरे जीवन का सार है, वह सब पहले जाग्रत में घटता है। फिर उसका सार निचोड़ कर स्वप्न में संगृहीत हो जाता है। फिर स्वप्न शरीर का भी सारा संगृहीत होकर कारण शरीर में बीज बन जाता है। वह बीज लेकर मैं नये जीवन की यात्रा पर निकल जाता हूं। वही बीज नये जन्म की शुरुआत बनेगा। फिर स्वप्न उठेंगे, फिर जाग्रत का वृक्ष फैलेगा। फिर जीवन का पूरा का पूरा वृक्ष खड़ा हो जाएगा।
जब तक ये तीनों शरीर नष्ट न हो जाएं, तो भारतीय मनीषा का अनुभव है, तब तक व्यक्ति उस चौथे को उपलब्ध नहीं होता, जो वह है। जब तक ये तीनों से मुक्त न हो जाए, छूट न जाए, तब तक आनंद का कोई अनुभव नहीं होता। क्योंकि ये तीनों कारागृह हैं और बार-बार पुनरुक्त होते चले जाते हैं। एक कारागृह से दूसरे में स्थानांतरण होता है, दूसरे से तीसरे में। और आदमी स्थानांतरित होता चला जाता है। एक कारागृह दूसरे कारागृह के जेलर के हाथ में सौंप देता है। दूसरा तीसरे के हाथ में सौंप देता है। और अनंत है यह परिभ्रमण इन तीनों का।
लीन हो जाएं ये तीनों शरीर... कैसे ये तीनों शरीर लीन होंगे? ये तीनों लीन हो जाएं तो फिर जो घटना घटती है, उसको मृत्यु नहीं कहते, उसको मुक्ति कहते हैं। साधारण आदमी जब मरता है, तो उसको हम मृत्यु कहते हैं। मृत्यु का अर्थ हुआ कि तीनों शरीर कारण में लीन हो गए--समाप्त नहीं हुए--और कारण नई यात्रा पर निकल गया।
मृत्यु का मतलब आप समझ लें।
बहुत हैरानी होगी जान कर कि मृत्यु का मतलब बहुत अजीब है। मृत्यु का मतलब है, उस आदमी की मृत्यु को मृत्यु कहते हैं जिसका दूसरा जन्म होने वाला है। कभी खयाल में न आया होगा कि इसको मृत्यु कहते हैं, जन्म के कारण। अगर आगे जन्म होने वाला है, तो यह मृत्यु है। और अगर आगे जन्म होने वाला नहीं है, तो यह मोक्ष है, मुक्ति है। इसलिए बुद्ध को हम नहीं कहते कि वे मर गए। कहते हैं: समाधिस्थ हुए। महावीर को नहीं कहते हैं कि वे मर गए। कहते हैं: समाधिस्थ हुए। समाधिस्थ का अर्थ है कि तीनों के तीनों शरीर लीन हो गए। समाप्त हो गए, शून्य हो गए। और यह व्यक्ति चौथी अवस्था में प्रवेश कर गया, जहां से कोई आवागमन नहीं है।
इसलिए बड़े मजे की बात है कि भारत में हम शरीर को जलाते हैं। सिर्फ संन्यासी के शरीर को नहीं जलाते हैं। कभी आपने खयाल किया हो, न किया हो, सबके शरीर को जलाते हैं, सिर्फ संन्यासी के शरीर को नहीं जलाते, और बच्चों के शरीर को नहीं जलाते हैं। बच्चों के शरीर को इसलिए नहीं जलाते हैं कि बच्चों के अभी तीनों शरीर प्रकट ही नहीं हो पाए थे। इसीलिए बच्चे के शरीर में अभी अपवित्रता नहीं आई। जब तक स्थूल शरीर प्रकट न हो गया हो, तब तक बच्चे का शरीर अपवित्र नहीं है। ऐसा हमारा इन सारे खयालों के पीछे अनुगमन जो हुआ, अनुसंधान जो हुआ, वह यह है कि जब तक बच्चा स्थूल शरीर में प्रवेश न कर गया हो--मतलब कामवासना सजग न हो गई हो--तब तक उसके शरीर को जलाने की कोई भी जरूरत नहीं है। तब तक उसका शरीर फूल जैसा पवित्र है। उसे हम सीधा ही सौंप देते हैं मिट्टी को। मिट्टी उसे सीधा ही आत्मसात कर लेगी।
लेकिन आप जान कर हैरान होंगे कि कामवासना के जग जाने के बाद पहले अग्नि से शुद्ध करेंगे, फिर मिट्टी को सौंपेंगे। अपवित्रता प्रवेश कर गई, इसलिए आग में जलाते हैं। आग में जलाने का प्रयोजन कुल इतना है कि अपवित्र हो गया शरीर, वासनाग्रस्त हो गया, स्थूल तक पहुंच गई चेतना। दूषित हो गई। तो आग उसे शुद्ध कर दे। आग उसे राख बना देगी, फिर राख को हम मिट्टी को, नदी को कहीं सौंप देंगे। फिर दिक्कत न रही।
बच्चे को हम नहीं जलाते हैं और संन्यासी को हम नहीं जलाते हैं।
संन्यासी को न जलाने का दूसरा कारण है। संन्यासी को न जलाने का कारण है कि जिसने अपने भीतर ही उन तीनों शरीरों को जला डाला, अब हम और शुद्ध करने का क्या उपाय करें! परमशुद्धि हो गई। इसलिए हमारी आग किसी काम की नहीं है। जिसकी भीतर की आग जग गई और जिसने भीतर ही तीनों शरीरों को समाप्त कर लिया, अब हमारी आग उसके किसी काम की नहीं है। उसे भी हम मिट्टी को सीधा सौंप देते हैं। वह सीधा ही ग्रहणीय है। मिट्टी उसे सीधा ही आत्मसात कर लेगी। वहां भी कुछ अशुद्ध नहीं है। बच्चे में अभी अशुद्ध हुआ नहीं था, संन्यासी में शुद्ध हो गया है। इसलिए हम संन्यासी और बच्चे को नहीं जलाते रहे हैं।
मृत्यु तब तक मृत्यु है, जब आगे जन्म होने को हो। मृत्यु कहते इसलिए हैं कि जन्म होने वाला है। यह उलटा लगेगा। बल्कि भारत कहता ऐसा है कि जन्म और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जन्म होता है, तो मृत्यु होती है। मृत्यु होती है तो फिर जन्म होगा। इसलिए हम महावीर या बुद्ध की मृत्यु को मृत्यु नहीं कहते हैं। क्योंकि दूसरा पहलू ही नहीं है। जन्म होने वाला नहीं है। यह मृत्यु नहीं है। यह समाधि है। यह मुक्ति है। यह किसी दूसरी ही यात्रा पर निकल गई चेतना--यह हमारे चक्कर के, हमारी जो पटरी थी उससे नीचे उतर गई, हमारी पटरी पर इसके लिए अब कोई जन्म नहीं है। तो इसको हम मृत्यु कैसे कहें? क्योंकि मृत्यु हम कह ही तब सकते हैं सार्थक रूप से, जब जन्म होने वाला हो। जन्म चूंकि नहीं होगा, इसलिए इसे मृत्यु भी नहीं कहते हैं। इसे कहते हैं: समाधि।
समाधि का अर्थ होता है: जिसकी आत्मा समाधान को उपलब्ध हो गई। अब यह बड़े मजे की बात है कि ध्यान की पूर्णता को भी हम समाधि कहते हैं और जीवन की पूर्णता को भी हम समाधि कहते हैं। समाधि हम दोनों को कहते हैं। संन्यासी की कब्र को भी हम समाधि कहते हैं। जीवन की पूर्णता को भी हम समाधि कहते हैं, ध्यान की पूर्णता को भी हम समाधि कहते हैं।
तीनों में कहीं कोई एक जोड़ है। तीनों शायद एक ही जगह ले जाते हैं। ध्यान पूर्ण होता है, तो जीवन पूर्ण होता है। जीवन पूर्ण होता है, तो ध्यान पूर्ण हो जाता है। और जहां पूर्णता है वहां फिर मृत्यु नहीं है। वहां समाधान है। वहां फिर समाधि है। यात्रा का पथ ही बदल गया। अब हम जन्म और मृत्यु वाले वर्तुलाकार चक्र में नहीं घूमेंगे। अब हम चके से नीचे उतर गए। हम किसी दूसरी यात्रा पर चले। इस यात्रा में जीवन ही जीवन है। न जन्म है, न मृत्यु। इस यात्रा में जीवन ही जीवन है। यह शाश्वत जीवन है।
लेकिन ये तीनों शरीर अंत कैसे हों? इन तीनों शरीरों की लीनता कैसे हो? संक्षिप्त में थोड़ी सी बातें खयाल में ले लें। फिर आगे के सूत्रों में और विस्तार से बात हो सकेगी।
ध्यान सूत्र है समाधि तक ले जाने वाला। तो ध्यान ही सूत्र बनेगा इन तीनों शरीरों से मुक्त होने के लिए। जाग्रत में ध्यान शुरू करें। हम जागे हुए भी ध्यानपूर्वक जागे हुए नहीं होते हैं। रास्ते पर आप चल रहे हैं, बिलकुल जागे हुए चल रहे हैं। लेकिन इसमें एक आयाम और जोड़ा जा सकता है। जागे हुए चल रहे हैं, ध्यानपूर्वक भी चलें। तो आप कहेंगे, जब जागे हुए ही चल रहे हैं, तो अब और ध्यानपूर्वक चलने का क्या मतलब होगा? जागे हुए आप जरूर चल रहे हैं, लेकिन ध्यानपूर्वक चलने का अर्थ है कि आपका एक पैर भी उठे, हाथ भी हिले, आंख भी उठे, पलक भी झपे, आप मुड़ कर देखें, तो यह सब ध्यानपूर्वक हो। यह ऐसे ही मूर्च्छित न हो जाए।
बुद्ध के सामने कोई बैठा हुआ है, बुद्ध बोल रहे हैं और वह आदमी अपना पैर का अंगूठा हिला रहा है। तो बुद्ध उसे रुक कर कहते हैं कि यह तुम्हारे पैर का अंगूठा क्यों हिल रहा है? तो उस आदमी ने कहा: आप भी कहां-कहां की बातें उठा लेते हैं! कहां आप ज्ञान की चर्चा कर रहे थे और कहां आपने मेरे अंगूठे...! लेकिन जैसे ही बुद्ध ने पूछा, वह अंगूठा रुक गया। उस आदमी ने कहा: मुझे पता ही नहीं था, मुझे खयाल ही नहीं था, ऐसे ही आदतवश हिल रहा होगा। तो बुद्ध ने कहा: देखो, इसका अंगूठा है यह खुद का, और यह हिल रहा है अंगूठा इसका और इसको पता नहीं है। और यह कहता है, ऐसे ही हिल रहा होगा। तो तू जागा हुआ है? यह तो ठीक है कि जागा हुआ है, क्योंकि मैं बोला तो तूने सुन लिया। लेकिन तू ध्यानपूर्वक जागा हुआ नहीं है। यह अंगूठा तेरा हिल रहा है और तेरे ध्यान में नहीं है।
जागने में ध्यान को जोड़ दें। जो भी कर रहे हैं, उसमें ध्यानपूर्वक हों। बुद्ध ने जो शब्द प्रयोग किया है ध्यान के लिए, वह कीमती है इस लिहाज से। बुद्ध ने उसके लिए कहा है: ‘सम्यक स्मृति, राइट माइंडफुलनेस।’ जो भी कर रहे हों, वह ठीक-ठीक सम्यक स्मृतिपूर्वक हो। बुद्ध कहते थे: बाएं घूमें तो बाएं घूमने के साथ चित्त को यह पता चले कि मैं बाएं घूम रहा हूं। एक आदमी गाली दे तो साथ में गाली सुनी भी जाए और यह भी जाना जाए कि इस आदमी ने गाली दी है और मैंने गाली सुनी है। भीतर क्रोध उठे तो यह भी जाना जाए कि इस आदमी की गाली से भीतर क्रोध हुआ है। और मेरे भीतर क्रोध उठ रहा है। और तब आप पाएंगे, सारी स्थिति बदल गई। क्योंकि जो आदमी देख रहा हो कि क्रोध उठ रहा है, उसका क्रोध उठ नहीं पाएगा। जो आदमी देख रहा हो कि क्रोध पकड़ रहा है, उसको क्रोध पकड़ नहीं पाएगा। जो आदमी जान रहा हो कि अब क्रोध आता ही है, उसको क्रोध आ नहीं पाएगा। होश चित्त को बदल देगा।
तो जाग्रत में ध्यान अगर संयुक्त हो जाए और आपकी जागरण की सारी क्रियाएं ध्यानपूर्वक होने लगें, तो आप एक शरीर से मुक्त हुए।
फिर इसी प्रक्रिया को स्वप्न में प्रवेश करना होता है। तब स्वप्न में जाग, स्वप्न में भी ध्यानपूर्वक, सोते में भी ध्यानपूर्वक। बुद्ध ने कहा है कि सोओ भी तो ध्यानपूर्वक सोना। करवट भी बदलो तो ध्यानपूर्वक बदलना। स्वप्न भी देखो तो ध्यानपूर्वक देखना। लेकिन यह एकदम से शुरू नहीं किया जा सकता। पहले जाग्रत में अगर ध्यान प्रवेश कर जाए, तो आप स्वप्न के दरवाजे पर खड़े हो जाते हैं। फिर दरवाजे से प्रवेश हो सकता है स्वप्न में भी। जो जागने में जाग गया हो ध्यानपूर्वक, वह फिर स्वप्न में भी धीरे से ध्यान के तीर को अंदर ले जा सकता है। फिर आप स्वप्न देखते हैं और जानते हैं कि यह स्वप्न चल रहा है।
फिर ज्यादा दिन स्वप्न नहीं चल सकते हैं। जो होशपूर्वक देख रहा है, वह हंसेगा। और पागलपन साफ होगा और स्वप्न ज्यादा दिन नहीं चल पाएंगे। और जाग गया जो भीतर, स्वप्न टूटने लगेगा, बिखरने लगेगा। स्वप्न के लिए निद्रा जरूरी है, बेहोशी जरूरी है। और जब स्वप्न समाप्त हो जाएं ध्यान से, तो फिर आप तीसरे दरवाजे पर खड़े हुए--सुषुप्ति के। अभी तो उसकी कल्पना ही करनी असंभव होगी। क्योंकि नींद में कैसे ध्यान करेंगे? जब बिलकुल ही सो गए, होश ही न रहा, तो कैसे ध्यान करेंगे? लेकिन स्वप्न में जिसने प्रयोग किया हो, वह फिर तीसरे में प्रवेश कर पाता है। और जिस दिन कोई नींद में जाग जाता है--स्वप्न में जागने से इस सूक्ष्म शरीर से छुटकारा हो जाता है, सुषुप्ति में जागने से कारण शरीर से छुटकारा हो जाता है।
कृष्ण ने जो कहा है कि योगी तब भी जागता है जब सब सोते हैं, सब की निद्रा भी योगी का जागरण है, वह इसी के लिए कहा है। तीसरे ध्यान के प्रयोग के लिए! सुषुप्ति में जब कोई होशपूर्वक हो जाता है, ध्यानपूर्वक, तो तीनों शरीरों से छुटकारा होगा। अब ऐसा व्यक्ति मरते वक्त जागा हुआ मरता है। होशपूर्वक मरता है। क्योंकि सुषुप्ति में वह जाग गया, सुषुप्ति में मृत्यु घटित होती है, अब वह जागा हुआ मरता है। होशपूर्वक मरता है।
बुद्ध की मृत्यु आई तो बुद्ध ने कहा कि आज अब मेरी मृत्यु आती है। अब आज मेरे भीतर मुझे साफ हो गया कि अब सब टूटने के करीब है। तो तुम्हें कुछ पूछना हो तो पूछ लो। यह सुन कर ही सबके हृदय बैठ गए, पूछने का तो सवाल न रहा। लोग छाती पीट कर रोने लगे। बुद्ध ने कहा: रोने में तुम समय मत गंवाओ, क्योंकि मैं ज्यादा देर नहीं रुक सकूंगा। बात मुझे भीतर साफ हुई जाती है। वह वैसी साफ हुई जाती है जैसे कि किसी दीये का तेल चुक रहा हो और आपके पास आंखें हों, अंधे न हों, तो साफ ही दिखाई पड़ेगा कि यह तेल चुका जा रहा है, ज्योति बुझने के करीब है। तुम रोओ-धोओ मत, चिल्लाओ मत। वह तो हम अंधे हैं, इसलिए दीया बुझता चला जा रहा है, हमको पता भी नहीं चलता है। तेल भी चुक जाता है और हम ऐसे बैठे हुए हैं जैसे कि सागर भरा हुआ है तेल का।
तो बुद्ध ने कहा: यह तेल बिलकुल चुकने के करीब है, यह घड़ी दो घड़ी की बात है कि मेरी यह ज्योति जलती रहेगी। तुम्हें कुछ पूछना हो, पूछ लो, रोने में समय मत गंवाओ। लेकिन वहां कौन सुनने को तैयार था? बुद्ध अगर जागे होंगे सुषुप्ति में तो वहां तो जागे हुए सोए लोग थे, वे छाती पीट रहे हैं, रो रहे हैं; वे सुन ही नहीं रहे हैं! वे तो न मालूम किन खयालों में पड़ गए हैं कि बुद्ध न रहेंगे तो क्या होगा, क्या नहीं होगा? वे अभी मौजूद हैं, अभी उनसे कुछ और भी सीखा जा सकता है!
तब बुद्ध ने तीन बार पूछा। उनकी सदा की आदत थी। बुद्ध की किताबें अभी जब छापी गई हैं, तो बड़ी तकलीफ पड़ती है। क्योंकि हर बात वे तीन बार पूछते थे। और हर बात वे तीन बार कहते थे। तो अब किताब छापने पर नाहक तीन गुना मालूम पड़ता है हमें। लेकिन बुद्ध का कारण था। वे कहते थे: लोग इतने सोए हुए हैं कि एक बार में सुनता कौन है! तीन बार में भी कोई सुन ले तो बहुत है। काफी जागा हुआ आदमी है। तीन बार बुद्ध ने पूछा कि मत रोओ, मैं जाने के करीब हूं, वक्त आ गया, नाव खुल गई है, किनारा छूटने को है, दीया बुझने को है, कुछ पूछना हो पूछ लो। पूछने का कोई सवाल न था। तो बुद्ध ने कहा: ठीक, तो अब मैं मरूं? दुनिया में ऐसा किसी आदमी ने कभी नहीं पूछा: तो अब मैं मरूं? तो अब मैं विलीन हो जाऊं?
तो वह आज्ञा लेकर वृक्ष के पीछे चले गए, जहां बैठे थे। वहां जाकर आंख बंद करके बैठ गए। एक शरीर से उन्होंने संबंध छोड़ कर दूसरे में प्रवेश किया। जब वे दूसरे ही शरीर में थे, तब गांव से भागा हुआ एक आदमी सुभद्र आया और उसने कहा कि बहुत मुश्किल हो गई है, मैंने सुना कि बुद्ध की मृत्यु करीब आ गई, गांव में खबर पहुंच गई, मुझे कुछ पूछना है। तो बुद्ध के भिक्षुओं ने कहा कि अब तो असंभव है। अब तो वे मृत्यु में लीन होने की तरफ जा भी चुके। और अब हम उन्हें खींचें, उचित न होगा। और खींच भी हम कैसे सकेंगे? हमें कोई उपाय भी पता नहीं है कि अब क्या होगा? उनकी श्वास शिथिल हो गई है, हृदय की धड़कन सुनाई नहीं पड़ती है, शरीर बिलकुल मृत होने के करीब हो गया है। नहीं, अब कुछ भी नहीं हो सकता। लेकिन सुभद्र ने कहा: कुछ तो करना ही पड़ेगा। भिक्षुओं ने कहा कि नासमझ, तेरे गांव से वे कितनी बार गुजरे? सुभद्र ने कहा: बहुत बार गुजरे, लेकिन कभी मेरी दुकान पर भीड़ थी, कभी घर में शादी थी, कभी तबीयत ठीक न थी। कभी निकल ही रहा था कि कोई मिलने वाला आ गया। ऐसे हर बार चूक गया। फिर मैंने सोचा फिर कभी मिल लूंगा। लेकिन आज तो मिलना ही होगा। क्योंकि अब तो न मालूम कितने कल्पों तक वैसा आदमी मिले, न मिले। चिल्लाने लगा सुभद्र!
तो बुद्ध उठ कर वापस आ गए। और बुद्ध ने कहा: तू ठीक वक्त पर आ गया। अगर मैं सूक्ष्म शरीर से भी नीचे उतर जाता, तो फिर तेरी बात भी मुझे सुनाई न पड़ती। अभी मैं स्वप्न में था। अभी उसको छोड़ ही रहा था। अगर मैं सुषुप्ति में पहुंच जाता, तो फिर बहुत मुश्किल पड़ती। बहुत कठिन हो जाता तेरी आवाज मुझ तक पहुंचनी।
लेकिन सुषुप्ति से भी किसी तरह वापस लौटा जा सकता है। लेकिन अगर सुषुप्ति भी टूट जाए, तब तो फिर लौटने की कोई बात ही नहीं रहती। तो बुद्ध ने कहा कि मत रोको उसे, वह कुछ पूछता है, पूछ लेने दो। नाहक मेरे ऊपर इल्जाम मत लगवाओ कि मैं जिंदा था और एक आदमी पूछने आया था और खाली हाथ वापस लौट गया।
बुद्ध पुनः चले गए हैं उसको उत्तर देकर। और उन्होंने फिर एक-एक शरीर को छोड़ दिया। फिर वे चौथे में लीन हो गए। खो गए।
ये तीन शरीर हैं और चौथी हमारी आत्मा है। वह शरीर नहीं है। वह चौथी हमारी स्वरूप-अवस्था है। ये तीन के खो जाने पर जो अनुभव होता है, वही आनंद है, वही अमृत है। वही निर्वाण है, वही मोक्ष है।
‘इसी से प्राण, मन और समस्त इंद्रियों की उत्पत्ति होती है। इसी से पृथ्वी की सृष्टि होती है जो आकाश, वायु, अग्नि, जल और सारे संसार को धारण करती है।’
यह जो चौथा है, यही सारे जगत का आधार है, परमात्मा है। इसी से सब पैदा होता है और इसी में सब लीन हो जाता है।
पुरत्रये क्रीडति यश्च जीवस्तमस्तु जातं सकलं विचित्रम्।
आधारमानंदमखण्ड बोधं यस्मिन् लयं जाति पुरत्रयंच।।14।।
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथ्वी विश्वस्य धारिणी।।15।।
पिछले जन्मों के कार्यों से प्रेरित होकर वही मनुष्य सुषुप्तावस्था से पुनः स्वप्नावस्था व जाग्रतवस्था में आ जाता है। इस तरह से ज्ञात हुआ कि जीव जो तीन प्रकार के पुरों (शरीरों)--स्थूल, सूक्ष्म और कारण में रमण करता है, उसी से इस सारे मायिक प्रपंच की सृष्टि होती है। जब तीन प्रकार के शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म, कारण) का लय हो जाता है, तभी यह जीव मायिक प्रपंच से मुक्त होकर अखंडानंद का अनुभव करता है।।।।
इसी से प्राण, मन और समस्त इंद्रियों की उत्पत्ति होती है। इसी से पृथ्वी की सृष्टि होती है जो आकाश, वायु, अग्नि, जल और सारे संसार को धारण करती है।।।।
सुबह के सूत्र में मनुष्य का मन किस भांति सम्मोहित हुआ--जाग्रत में, स्वप्न में, और सुषुप्ति में, कल्पित सुखों और दुखों में घिरता है, कैसे सुख के आभास बनाता है और कैसे दुख के फल भोगता है--उस संबंध में बात हुई। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, इन तीन अवस्थाओं के संबंध में भारत ने बहुत तरह की खोज की है। और ये तीन शब्द, फिर आपको दिलाऊं याद, भारत के तीन की खोज का एक और पहलू उपस्थित करते हैं।
मनुष्य की तथाकथित जो दिखाई पड़ने वाली स्थिति है, वह इन तीन से ही मिल कर बनी है। मनुष्य का जीवन इन तीन से ही मिल कर निर्मित हुआ है। इस मनुष्य के जीवन के पीछे जो छिपा है सार, वह इन तीनों के पार है। इन तीन से संसार निर्मित हुआ है। इसलिए इस सूत्र को थोड़ा ठीक से और गहरे में समझ लेना जरूरी होगा। इसके अनेक आयाम हैं।
पहला तो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति हमारे मन की ही दशाएं नहीं, हमारे जीवन के भी आधार-स्तंभ हैं। इन तीन पर ही हम खड़े हैं। और हम चौथे हैं। इन तीन से हमारा भवन निर्मित होता है, लेकिन वह जो निवासी है, वह चौथा है। इसलिए भारत में उसे ‘तुरीय’ कहा है। तुरीय का अर्थ होता है: चौथा, दि फोर्थ। उसको कोई नाम नहीं दिया, सिर्फ चौथा कहा है। इन तीन को नाम दिए। उस चौथे को कोई नाम दिया नहीं जा सकता। उसके नाम का कोई पता भी नहीं है। और उसकी किसी से कोई तुलना नहीं हो सकती। इसलिए उसे सिर्फ चौथा कहा है।
ये तीन, रोज हम इन तीन में से गुजरते हैं। सुबह जब आप जागते हैं तो जाग्रत अवस्था में प्रवेश होता है। सांझ जब आप सोते हैं तो पहले स्वप्न में प्रवेश होता है, फिर जब स्वप्न भी खो जाते हैं तो सुषुप्ति में प्रवेश होता है। चौबीस घंटे में हम इन तीन अवस्थाओं में बार-बार घूमते रहते हैं, प्रतिदिन। और अगर और सूक्ष्म में देखें, तो हम प्रतिपल भी इन तीन अवस्थाओं में डोलते रहते हैं। लगता है ऊपर से आप जगे हुए हैं, भीतर स्वप्न शुरू हो जाता है। जिसको हम दिवास्वप्न कहते हैं। और कभी-कभी ऐसा लगता है कि क्षण भर को आप इस जगत में न रहे, होश ही खो गया। तो सुषुप्ति पकड़ जाती है। चौबीस घंटे तो हम बड़े पैमाने पर इन तीन अवस्थाओं में गुजरते ही हैं। प्रतिपल भी हम तीन अवस्थाओं में डोलते रहते हैं।
इन तीन अवस्थाओं में हम पूरे जीवन ही डोलते हैं और अनेक-अनेक जीवन में भी हम इन तीन अवस्थाओं में घूमते हैं। मृत्यु का क्षण सुषुप्ति में घटित होता है। मरता हुआ आदमी जाग्रत से पहले स्वप्न में प्रवेश करता है, फिर स्वप्न से सुषुप्ति में प्रवेश करता है। मृत्यु सुषुप्ति में ही घटित होती है। इसलिए पुराने लोग निद्रा को रोज आ गई मृत्यु का, मृत्यु की थोड़ी सी झलक मानते थे। निद्रा मृत्यु की झलक है।
जब आप सुषुप्ति में होते हैं तब आप उसी अवस्था में होते हैं जब मृत्यु घटित होती है, या घट सकती है। सुषुप्ति के बिना मृत्यु घटित नहीं होती। इसीलिए सुषुप्ति में आपको सारा बोध खो जाता है। इसलिए मृत्यु की पीड़ा भी अनुभव नहीं होती। अन्यथा मृत्यु बड़ा सर्जिकल काम है। इससे बड़ा और कोई सर्जिकल काम नहीं है।
डॉक्टर एक हड्डी निकालता होगा तो भी मार्फिया देता है। मार्फिया देकर वह आपको जबर्दस्ती सुषुप्ति में ले जाता है। तभी आपकी एक हड्डी निकाली जा सकती है, ऑपरेशन किया जा सकता है, अन्यथा असंभव है। सब आपरेशन सुषुप्ति में होते हैं। और जब तक सुषुप्ति न आ जाए तब तक ऑपरेशन करना खतरनाक है। भयंकर पीड़ा होगी। शायद आपरेशन मुश्किल ही हो जाएगा करना।
मृत्यु सदा से ही बड़े से बड़ा ऑपरेशन करती रही है। पूरे प्राणों को इस शरीर से बाहर निकालना है। तो गहन सुषुप्ति में मृत्यु घटित होती है। जन्म भी सुषुप्ति में ही होता है। इसलिए हमें याद नहीं रहती। पिछले जन्म की याद न रहने का कारण सिर्फ इतना ही है कि बीच में इतनी लंबी सुषुप्ति होती है कि दोनों ओर-छोर पर संबंध छूट जाते हैं। सुषुप्ति में ही मृत्यु होती है, सुषुप्ति में ही फिर पुनर्जन्म होता है। मां के पेट में बच्चा सुषुप्ति में ही होता है।
जो बच्चे मां के पेट में सुषुप्ति में नहीं होते हैं, वे मां के स्वप्नों को प्रभावित करने लगते हैं। कुछ बच्चे मां के पेट में स्वप्न में होते हैं। बहुत कुछ, बहुत थोड़ी संख्या में--कभी करोड़ में एकाध बच्चा--मां के पेट में स्वप्न की अवस्था में होता है। लेकिन यह वही बच्चा होता है जिसकी पिछली मृत्यु स्वप्न की अवस्था में हुई हो। तिब्बत में इस पर बड़े प्रयोग किए हैं। ‘बारदो’ इसका नाम है तिब्बत में, इसके प्रयोग का।
तिब्बत में मरते हुए आदमी को सुषुप्ति में न चला जाए, इसकी चेष्टा करते हैं। अगर सुषुप्ति में चला गया तो फिर उसको इस जन्म की स्मृति मिट जाएगी। तो उसको इस जन्म की स्मृति बनी रहे, तो मरते हुए आदमी के पास विशेष तरह के प्रयोग करते हैं। उन प्रयोगों में उस आदमी को चेष्टापूर्वक जगाए रखने की कोशिश की जाती है। न केवल जगाए रखने की बल्कि उस मनुष्य के भीतर स्वप्न को पैदा करने की भी चेष्टापूर्वक कोशिश की जाती है। ताकि स्वप्न चलता रहे, चलता रहे और उसकी मृत्यु स्वप्न की अवस्था में घटित हो जाए। यदि स्वप्न की अवस्था में मृत्यु घटित हो जाए, तो वह आदमी आनेवाले जन्म में अपने पिछले जन्म की सारी स्मृति लेकर पैदा होता है।
इसे हम ऐसा समझें तो आसानी पड़ जाएगी। आप रात भर सपने देखते हैं, यह जान कर आपको शायद भरोसा नहीं होगा। अनेक लोग कहते हैं कि वे सपने देखते ही नहीं। सिर्फ उनको पता नहीं है। अनेक लोग कहते हैं मुझे कभी-कभी सपना आता है। उन्हें सिर्फ स्मरण नहीं रहता। सपना आप रात भर देखते हैं। पूरी रात में करीब-करीब बारह स्वप्न औसत आदमी देखता है। इससे ज्यादा देखने वाले लोग हैं, इससे कम देखने वाले आदमी खोजने मुश्किल हैं। बारह स्वप्न रात्रि के करीब-करीब तीन चौथाई हिस्से को घेरते हैं। एक चौथाई हिस्से में सुषुप्ति होती है। बाकी तीन चौथाई में स्वप्न होते हैं। लेकिन आपको याद नहीं रहते हैं। क्योंकि एक स्वप्न गया, उसके बाद सुषुप्ति का अगर एक क्षण भी आ गया तो संबंध टूट जाता है स्मृति का।
आपको जो सपने याद रहते हैं, वे करीब-करीब भोर के सपने होते हैं, सुबह के सपने होते हैं। जिनके बाद सुषुप्ति नहीं आती, जागृति आ जाती है। जिस सपने के बाद सुषुप्ति नहीं आती और सीधे आप जाग जाते हैं, वही आपको याद रहता है। अगर किसी भी सपने और जागरण के बीच में सुषुप्ति का थोड़ा सा भी काल आ जाए, तो स्मृति का संबंध-विच्छेद हो जाता है। उसकी स्मृति तो बनती है लेकिन आपको साधारणतः याद नहीं रहती। स्मृति बनती नहीं, ऐसा नहीं है। स्मृति तो निर्मित होती है, लेकिन अचेतन हो जाती है। सुषुप्ति में भी स्मृति निर्मित होती है, लेकिन अचेतन हो जाती है। उसका आपको बोध नहीं होता है। चेष्टा की जाए तो अचेतन से उसको जगाया जा सकता है। लेकिन साधारणतः आपको खयाल में नहीं रहता। इसलिए सिर्फ सुबह के सपने याद रहते हैं।
इसलिए अधिक लोग तो ऐसा भी सोचते हैं कि मुझे सुबह ही सपना आता है। सपने रात भर आते हैं। अब तो इसके लिए वैज्ञानिक आधार उपलब्ध हो गए हैं। अब तो हमारे पास यंत्र भी उपलब्ध हो गए हैं, जो रात भर बताते रहते हैं कि कब आप सपना देख रहे हैं और कब आप नहीं देख रहे हैं। बड़े मजे की बात है कि सपना देखने में भी आपकी आंख गतिमान हो जाती है, उसी तरह जैसे आप वस्तुतः अगर जगत में घटना देख रहे होते हैं। उसी आंख से पता चल जाता है कि आप सपना देख रहे हैं। जैसे एक आदमी फिल्म देख रहा है तो जितनी तेजी से उसकी आंख चलती है--फिल्म के साथ चलानी पड़ती है--जब आदमी सपना देखता है तो उससे भी ज्यादा तेजी से उसकी आंख चलने लगती है पलक के भीतर। रेपिड आई मूवमेंट्स--उसको वे कहते हैं कि तब पता चल जाता है कि वह सपना देख रहा है।
तो आंख पर यंत्र लगा दिया जाता है। वह यंत्र बताता रहता है कि कब आंख की गति कितनी है। और जब आंख की गति तेज है, तब आपको जगाया जाए तो आप सपना पूरा बता देते हैं उसी वक्त कि क्या सपना देख रहे थे। और जब आंख की गति नहीं होती तेज तब आपको जगाया जाए, तो आप कहते हैं: मैं कोई सपना नहीं देख रहा था। तो अब इस पर निर्णय हो गया कि आदमी सपना देखता है तो आंख उसकी भीतर चलती है जोर से। जैसे वह फिल्म देख रहा हो।
तो रात भर प्रयोग करके हजारों लोगों पर जाना गया है। कोई दस हजार लोगों को--अमरीका ने इसके पीछे बहुत खर्च किया--रात भर सोने का प्रयोगशाला में पैसा दिया है लोगों को। क्योंकि वे अपनी नींद बेचते हैं। उनको बार-बार जगाना पड़ता है और रात भर वे बंधे हुए पड़े रहते हैं यंत्रो के बीच। दस हजार लोगों पर प्रयोग करके यह निर्णय लिया है कि कोई आदमी जो कहता है कि मैं सपने नहीं देखता, वह सच कहता है अपनी तरफ से, लेकिन झूठ कहता है। जो आदमी कहता है: मुझे कभी-कभी सपने आते हैं, वह भी गलत कहता है। जो लोग कहते हैं: हमें सुबह ही सपने आते हैं वे भी गलत कहते हैं। लेकिन फिर भी उनकी बातों में थोड़ी सच्चाई है। सुबह के सपने याद रहते हैं, क्योंकि जागृति हो जाती है।
यह मैंने इसलिए कहा ताकि तिब्बत का ‘बारदो’ का प्रयोग आपके खयाल में आ जाए। तिब्बत ने मनुष्य के स्वप्न पर महत्वपूर्ण काम किया है। शायद पृथ्वी पर किसी देश ने नहीं किया। और उन्होंने यह राज पा लिया कि अगर किसी आदमी को हम सपने की अवस्था में मरने का आयोजन करवा दें, तो वह अपनी इस जन्म की सारी स्मृतियों को लेकर अगले जन्म में प्रवेश कर जाएगा। और इस जन्म की स्मृतियां जिसको अगले जन्म में रहें, उसका अगला जन्म रूपांतरित हो जाएगा, बदल जाएगा। क्योंकि फिर वही मूढ़ताएं करने में उसे स्वयं ही बोध होने लगेगा, जो वह कर चुका पहले। फिर वही वासनाएं, फिर वही इच्छाएं, फिर वही दौड़ और फल तो कुछ भी नहीं था पूरे जीवन का। पिछला जीवन दौड़-दौड़ कर रिक्त हो गया, और अंत में मौत हाथ लगी। उन सारी वासनाओं के बाद कुछ हाथ लगा नहीं, सिर्फ मौत हाथ लगी।
यह अगर स्मृति में रह जाए, तो अगला जन्म दूसरे प्रकार का होगा। उसका गुणधर्म बदल जाएगा। क्योंकि फिर वह आदमी ठीक उन्हीं वासनाओं में नहीं दौड़ सकेगा, मृत्यु सदा सामने खड़ी मालूम पड़ेगी। और फिर उन्हीं वासनाओं में दौड़ने का अर्थ होगा कि वह फिर अपने हाथ रिक्त करने जा रहा है, फिर मरने जा रहा है। नहीं, इस बार अब वह कुछ और कर सकेगा। जिंदगी को बदलने की कोई चेष्टा सघन हो जाएगी। यह चेष्टा सघन हो सके, इसलिए ‘बारदो’ का प्रयोग है।
‘बारदो’ का प्रयोग वैज्ञानिक है। व्यक्ति मर रहा होता है तब उसे जगाए रखने के सब उपाय किए जाते हैं--सुगंध से, प्रकाश से, संगीत से, कीर्तन से, भजन से, उसे जगाए रखने के प्रयोग किए जाते हैं। उसे सोने नहीं दिया जाता। और जैसे ही उसको झपकी लगती है वैसे ही उसके कान के पास ‘बारदो’ के सूत्र कहे जाते हैं।
‘बारदो’ के सूत्र ऐसे हैं, जो स्वप्न को पैदा करने में सहयोगी हैं। जैसे उसे कहा जाएगा कि वह समझ ले कि शरीर से अलग हो रहा है। अभी वह झपकी खा गया है, उसे कहा जा रहा है कि वह शरीर से अलग हो गया है। मृत्यु घटित हो गई है और वह अपनी यात्रा पर निकल रहा है। यात्रा पर मार्ग कैसा है, यात्रा पर दोनों तरफ कैसे वृक्ष लगे हैं, यात्रा पर कैसे पक्षी उड़ रहे हैं, ये सारे प्रतीक उसके कान में कहे जाएंगे।
पहले तो समझा जाता था कि यह कान में कहने से क्या होगा? लेकिन अब यह नहीं समझा जा सकता है। क्योंकि रूस में बड़े पैमाने पर हिप्नोपीडिया के प्रयोग चल रहे हैं। और रूस के वैज्ञानिकों की धारणा है कि आने वाली सदी में बच्चे स्कूल पढ़ने दिन में नहीं जाएंगे। रात बच्चों की नींद में ही स्कूल उन्हें शिक्षा देगा। क्योंकि रूसी वैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चा जब सोया होता है तब उसके कान में एक विशेष ध्वनि पर और एक विशेष वेवलेंथ पर अगर कुछ बातें कहीं जाएंतो उसके अचेतन में प्रवेश कर जाती हैं। इस पर बहुत प्रयोग सफल हो गए हैं, और एक बच्चा जो गणित में कमजोर है और लाख उपाय करके गणित में ठीक नहीं होता, शिक्षक परेशान हो जाते हैं, वह बच्चा भी रात नींद में गणित की शिक्षा देने से कुशल हो जाता है। और उसे कभी पता भी नहीं चलता कि उसको यह शिक्षा दी गई है।
भाषा के संबंध में तो हैरानी के अनुभव हुए हैं, कि जो भाषा तीन साल में सीखी जा सके, वह रात में तीन महीने में सिखाई जा सकती है। और उसमें कोई समय का व्यय नहीं होगा। क्योंकि आपकी नींद में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। आप सोए ही रहेंगे। आपको पता ही नहीं चलेगा। सिर्फ सुबह आपको रोज परीक्षा देनी होगी कि रात भर क्या हुआ?
तो अब तो रूस में उन्होंने कुछ संस्थाएं बनाई हैं जो हजारों बच्चों को रात शिक्षा दे रही हैं। हर बच्चे के पास छोटा सा यंत्र उसके तकिए में लगा रहता है--वह सो जाता है। ठीक बारह बजे रात शिक्षा शुरू होती है। दो घंटे शिक्षा चलती है, फिर बच्चे को एक बार जगाया जाता है। वह सब यंत्र ही कर देता है। घंटी बजा कर बच्चे को जगा देता है। जगाया इसलिए जाता है ताकि जो सिखाया गया उसके बाद अगर सुषुप्ति आ जाए तो वह भूल जाएगा। इस सूत्र को समझाने के लिए मैं कह रहा हूं, नहीं तो यह सूत्र समझ में नहीं आएगा।
उसे जगाया जाएगा। दो घंटा शिक्षण चलेगा, फिर घंटी बजेगी। बच्चा जगाया जाएगा। जाग कर उसे हाथ-मुंह धोकर पुनः सो जाना है। कुछ और करना नहीं है। बस, वह जो शिक्षा दी गई है, उसके बाद सुषुप्ति की पर्त न आए। नहीं तो सुबह भूल जाएगा सब। फिर चार बजे उसकी शिक्षा शुरू होगी। फिर चार से छह बजे तक वही पाठ दोहराया जाएगा। छह बजे वह फिर उठ आएगा।
इस चार घंटे में इतना सिखाया जा पाता है कि जिसकी कल्पना करनी मुश्किल है। तो रूसी वैज्ञानिक तो यह कह रहे हैं कि अब हम बच्चों को स्कूल की कारागृह से जल्दी ही छुटकारा दिला देंगे। वह खतरनाक है कारागृह। छोटे बच्चे न खेल पाते हैं उसकी वजह से, न मौज कर पाते हैं। न नाच पाते हैं, न कूद पाते हैं। बचपन से ही उनको कारागृह में बिठा दिया जाता है। पांच-छह घंटे छोटे बच्चों को जबर्दस्ती स्कूलों में बिठाए रखना उनकी जिंदगी के लिए हमेशा के लिए पंगु कर देना है। लेकिन अभी तक कोई उपाय नहीं था। उनकी जिंदगी का सबसे कीमती और स्वर्ण अवसर व्यर्थ ही स्कूल की बेंचों पर बैठ कर नष्ट होता रहता है। अधिक लोगों की जिंदगी में दुख का कारण वही है। क्योंकि जब सर्वाधिक आनंदित होने के उपाय थे, जीवन ताजा था, प्रफुल्लता थी और जीवन से एक संबंध निर्मित हो सकता था, तब भूगोल, इतिहास और गणित, उनमें सारा समय गया। और उन सबसे जो मिलने वाला है, वह जीवन नहीं है, आजीविका है। इसका मतलब यह हुआ कि जीवन को गंवाया आजीविका के लिए।
लेकिन रूसी वैज्ञानिक अब कहता है कि यह ज्यादा दिन नहीं चलेगा। हम शीघ्र ही वह रास्ते खोज लिए हैं जिनसे बच्चे दिन भर खेल सकते हैं, मौज कर सकते हैं, भ्रमण पर जा सकते हैं। जो उन्हें करना होकर सकते हैं। और रात्रि, रात्रि उनको शिक्षा दी जा सकती है। इसको वे हिप्नोपीडिया कहते हैं, निद्रा-शिक्षण। लेकिन इसमें भी वह सूत्र है कि उनको जगाया जाए। और अगर हम शिक्षा दे सकते हैं भीतर, तो ‘बारदो’ ठीक कहता है कि कान में कह कर स्वप्न भी पैदा किए जा सकते हैं।
अगर स्वप्न में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो तो उसे दूसरा जन्म पिछले जन्म की याददाश्त के साथ मिलेगा। ऐसा बच्चा मां के पेट में भी स्वप्न की अवस्था में रहेगा। ऐसा बच्चा नया जन्म भी स्वप्न की अवस्था में लेगा। इस तरह के बच्चे में और सुषुप्ति में जन्म लिए हुए बच्चे में बुनियादी फर्क होगा। जन्म में फर्क होगा।
जो बच्चा मां के पेट में स्वप्न में रहेगा, उस बच्चे के कारण मां के मन में अनेक स्वप्न पैदा होंगे। बुद्ध और महावीर, विशेषकर जैनों के चौबीस तीर्थंकरों के संबंध में कथा है कि जब भी वे मां के पेट में आए तो मां ने विशेष सपने देखे। चौबीस तीर्थंकरों की मां ने एक से ही सपने देखे--सैकड़ों, हजारों साल के फासले पर। तो जैनों ने उसका पूरा विज्ञान ही निर्मित किया। तब उन्होंने निश्चित कर लिया कि इस तरह के सपने जब किसी मां को हों तो उसके पेट से तीर्थंकर पैदा होने वाला है। वे सपने निश्चित हो गए। जैसे शुभ्र हाथी दिखाई पड़े, जो साधारणतः नहीं दिखाई पड़ता--चेष्टा भी करें तो नहीं दिखाई पड़ता--तो तीर्थंकर जन्म लेने वाला है। तो ये सिंबालिक हो गए। ये तीर्थंकर के प्रतीक हो गए कि जब किसी मां के पेट में तीर्थंकर का व्यक्तित्व आएगा, तो वह इन सपनों को देखेगी।
तो जैनों ने तो उनकी शोध करके सपने तय कर दिए कि इतने सपने हैं। अगर ये आएं तो ही पैदा होने वाला बच्चा तीर्थंकर होगा। बुद्धों के सपने भी तय हैं कि जब बुद्ध की चेतना का व्यक्ति कहीं पैदा होगा, तो उसके सपने क्या होंगे? ये सपने तभी पैदा हो सकते हैं, जब भीतर आया हुआ व्यक्ति स्वप्न की अवस्था में मरा हो, स्वप्न की अवस्था में जन्मा हो और स्वप्न की अवस्था में मां के पेट में हो। तो मां के सपने उस बच्चे से तीव्रता से प्रभावित होंगे। सच तो यह है कि वह मां बिलकुल आच्छादित हो जाएगी उस बच्चे से; क्योंकि बच्चा मां से बड़ा व्यक्तित्व लेकर आया हुआ है। ऐसा जो बच्चा पैदा होगा--जो स्वप्न में पैदा हुआ है--ऐसा बच्चा चाहे तो एक जन्म में मुक्ति को उपलब्ध हो सकता है। चाहे तो! न चाहे तो और भी जन्म ले सकता है। लेकिन मुक्ति अब उसकी किसी भी क्षण घटित हो सकती है। जब चाहे, तब घटित हो सकती है।
जैसा सुषुप्ति में पैदा होता है, कोई जन्मता और मरता है; स्वप्न में जन्मता और मरता है, वैसे ही जाग्रत में भी जन्म और मरण के उपाय हैं। वह आखिरी बात है, जब कोई जाग्रत में मरता है। अगर जाग्रत में कोई मरता है, तो आने वाला जन्म अगर उसे लेना हो तो ही लेगा, अन्यथा जन्म नहीं होगा। क्योंकि अब चुनाव उसके हाथ में है। जो जाग्रत में मरता है, चुनाव उसके हाथ में है। वह चाहे तो ही, प्रयास करे तो ही जन्म होगा। अन्यथा उसका जन्म नहीं होगा। ऐसा व्यक्ति जागा ही गर्भ में प्रवेश करेगा। जागा ही गर्भ में रहेगा। जागा ही जन्मेगा। सुषुप्ति में जो बच्चा पैदा होता है, वह भी मां को प्रभावित करता है।
इसलिए मां... अक्सर ऐसा होता कि जब बच्चा मां के पेट में हो तो मां का गुणधर्म बदल जाता है। उसका व्यवहार बदल जाता है। बोलचाल बदल जाता है, अनेक बातें बदलाहट मालूम पड़ने लगती हैं। कई बार साधारण स्त्रियां अचानक गर्भ के साथ सुंदर हो जाती हैं। विचारशील हो जाती हैं। कई बार सुंदर स्त्रियां गर्भ के साथ कुरूप हो जाती हैं। विचारशील स्त्रियां विचारहीन हो जाती हैं। शांत स्त्रियां अशांत हो जाती हैं। अशांत स्त्रियां शांत हो जाती हैं। नौ महीने एक दूसरा जीवन भी भीतर होता है, वह प्रभावित करता है।
सुषुप्त बच्चा भी प्रभावित करता है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। स्वप्न वाला बच्चा बहुत प्रभावित करता है। मां के सारे स्वप्न, सारे विचार उससे आच्छादित हो जाते हैं। लेकिन अगर जाग्रत व्यक्ति पैदा हो, तो मां पूरी तरह रूपांतरित हो जाती है। यहीं जैनों के तीर्थंकर की और हिंदुओं के अवतार की धारणा का फर्क है। हिंदू मानते हैं कि अवतार वह व्यक्ति है, जो जागा हुआ ही पैदा होता है। जागा हुआ ही पैदा होता है, इसलिए उसे वे ईश्वर का अवतरण कहते हैं। क्योंकि वह व्यक्ति चाहता तो अभी ईश्वर से मिल सकता था।
इसको जरा ठीक से समझ लेना।
पिछली मृत्यु के बाद वह चाहता तो ईश्वर से मिल सकता था। कोई बाधा न थी, कोई जमीन की तरफ खिंचने का कारण न था। नये जन्म की कोई भी वजह न रही थी। वह ईश्वर से मिलने के ही करीब खड़ा था, मिल ही गया था, फिर लौट आया। इसको हिंदू अवतरण कहते हैं। इसको जन्म नहीं कहते हैं। क्योंकि वे कहते हैं: यह आदमी अब ऊपर से लौटा है। अवतार है। यह जाग्रत में घटेगा।
जीसस जैसे व्यक्ति का जन्म ईसाइयत में भी जाग्रत में है। पूरा जाग्रत में है। यहां एक और बात खयाल में लेनी चाहिए कि जब भी कोई जाग्रत व्यक्ति पैदा होता है, तो स्त्री-पुरुष का संभोग घटित नहीं होता। इसीलिए ईसाइयत बड़ी मुश्किल में पड़ गई है। क्योंकि वर्जिन से, कुंआरी लड़की से जन्म हुआ है जीसस का। और ईसाइयत के पास इसका पूरा विज्ञान नहीं है। इसका पूरा खयाल नहीं है कि यह कैसे घटित हो सकता है। कुंआरी लड़की से बच्चा कैसे पैदा हो सकता है?
सोया हुआ बच्चा कुंआरी लड़की से पैदा नहीं हो सकता। सोया हुआ बच्चा स्वभावतः बिलकुल ही पाशविक ढंग से, संभोग से पैदा होगा। स्वप्न में पैदा होने वाला बच्चा साधारण संभोग से पैदा नहीं होता, यौगिक संभोग से पैदा होता है। तांत्रिक संभोग से पैदा होता है। एक विशिष्ट संभोग से पैदा है। जिसमें ध्यान संयुक्त होता है, मूर्च्छा नहीं होती। जाग्रत पुरुष संभोग से पैदा ही नहीं होते हैं। संभोग से उसका कोई संबंध ही नहीं होता है। वह कुंआरी मां से ही पैदा होता है। इसे बहुत बार तो छिपा लिया गया है। छिपा इसलिए लिया गया है कि यह भरोसे का नहीं होगा, विश्वास नहीं किया जा सकेगा और अकारण परेशानी पैदा होगी।
जीसस के मामले में यह बात खुल गई। और खुल जाने का कारण यह था कि जीसस के पिता ने कहा कि उसने तो कोई संबंध ही नहीं किया है, उसका तो कोई संबंध ही नहीं है पत्नी से। पहली दफा जीसस के मामले में यह छिपा हुआ राज जाहिर हो गया। नहीं तो सचाई यह है कि जब भी कोई अवतार पैदा हुआ है, उसका संभोग से कोई संबंध नहीं है। भला संभोग होता रहा हो पति और पत्नी में, लेकिन उसके जन्म का संभोग से कोई संबंध नहीं है।
यह जो जाग्रत में पैदा हुआ व्यक्ति है, इसे मुक्ति के लिए कुछ भी नहीं करना होता, यह मुक्त ही पैदा होता है। ये तीन अवस्थाएं स्वप्न की, सुषुप्ति की, जाग्रत की हमारे जन्म और मृत्यु में भी गुंथी हैं।
एक दूसरी तरफ से भी इन तीनों अवस्थाओं का खयाल ले लें।
हिंदू-चिंतना स्वप्न, सुषुप्ति और जागृति में तीन शरीरों का भी निर्माण मानती है। वह बहुत कीमती है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण, ये तीन शरीर हिंदू चिंतन मानता है। स्थूल शरीर जाग्रत से संबंधित है। सूक्ष्म शरीर स्वप्न से संबंधित है। कारण शरीर सुषुप्ति से संबंधित है। जब आप जागे हुए होते हैं, तो आप स्थूल-शरीर में होते हैं। इसीलिए जब आपको अनस्थीसिया दे दिया जाता है, तो फिर इस शरीर को काटा जाता है और आपको पता नहीं चलता, क्योंकि आप दूसरे शरीर में होते हैं।
किसी न किसी दिन मेडिकल साइंस इन राजों को हिंदू-चिंतन से भी समझेगी तो उसे बड़ा उदघाटन होगा। किसी दिन चिकित्साशास्त्र अनुभव करेगा कि इन शास्त्रों में सिर्फ दर्शन नहीं है, बहुत कुछ और भी है। लेकिन वह इतना सूत्र में है कि जब तक उसे कोई खोले नहीं, तब तक वह कभी खयाल में आता नहीं। उसका खयाल में आने का कोई उपाय नहीं है। आपरेशन इसीलिए किया जा सकता है स्थूल शरीर का कि आप, आपकी चेतना बेहोशी में स्थूल शरीर से हट कर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाए। कारण शरीर में अगर चेतना प्रवेश कर जाए अर्थात सुषुप्ति में तो इस शरीर पर होने वाली किसी घटना का कोई पता नहीं चलेगा। अगर स्वप्न शरीर में प्रवेश कर जाए, तो धुंधला-धुंधला पता चलेगा। क्योंकि स्वप्न शरीर इसके बिलकुल करीब है। जैसे कि कभी कोई आदमी भंग खा लेता है तो वह स्वप्न शरीर में प्रवेश कर जाता है।
जितने ड्रग्स हैं--एल.एस.डी., मारिजुआना, मेस्कलीन, भांग, गांजा, अफीम, चरस, शराब, ये सबके सब स्थूल शरीर से आदमी को तोड़ कर स्वप्न-शरीर में प्रवेश करा देते हैं। इनकी कुल कला इतनी है। तो भांग खाया हुआ आदमी आपने देखा है? रास्ते पर डोलता हुआ चलता है। पैर ठीक रखना चाहता है, नहीं पड़ता है। हालांकि उसे लगता है कि मैं बिलकुल ठीक रखता हूं। और फिर भी उसे लगता है कि कुछ गलत पड़ता है। असल में इस शरीर में वह है नहीं अब। वह शराबी जो रास्ते पर डोलता हुआ चल रहा है, वह दूसरे शरीर में चल रहा है। और यह शरीर सिर्फ उसके साथ घसिट रहा है। वह सूक्ष्म शरीर में चल रहा है। लेकिन फिर भी उसे इसका बोध है। अगर आप उसको डंडा मारें, तो उसको चोट लगेगी। हालांकि चोट उतनी नहीं लगेगी, जितना जब वह स्थूल में होता तब लगती। इसलिए शराबी गिर पड़ता है रास्ते पर, आपने देखा? आप गिरकर देखें! रोज गिरता है रात नाली में, रोज घर घसिट कर पहुंचा दिया जाता है। दूसरे दिन सुबह फिर ताजा अपने दफ्तर की तरफ जा रहा है। इसको चोट वगैरह नहीं लगती?
आपने देखा, बच्चे! बच्चे गिर पड़ते हैं, उनको इतनी चोट नहीं लगती। आप इतने गिरें तो हड्डी-पसली तत्काल टूट जाए। बच्चे स्वप्न शरीर में हैं। अभी उनका जाग्रत शरीर में आने का उपाय धीरे-धीरे होगा। आपने देखा है, जब बच्चा पैदा होता है... मां के पेट में चौबीस घंटे सोता है, पैदा होकर तेईस घंटे सोता है। फिर बाईस घंटे सोता है। फिर बीस घंटे सोता है। फिर अठारह घंटे सोता है। यह उसके सुषुप्ति शरीर से वह बाहर आ रहा है। यह सुषुप्ति शरीर से वह बाहर आ रहा है क्रमशः। धीरे-धीरे-धीरे नींद कम होती जाएगी। लेकिन जब वह नींद के बाहर होगा तब वह अक्सर सपने में होगा।
आपने कभी खयाल है कि छोटे बच्चों को सपने में और वास्तविकता में फर्क पता नहीं चलता है। इसलिए रात अगर सपने में उसको किसी ने मार दिया है, तो वह सुबह भी रोता हुआ उठता है। और वह कहता है: किसी ने मुझे मारा है। या सपने में किसी ने उसकी गुड़िया छीन ली है तो वह सुबह रोता हुआ, सिसकता हुआ उठता है। अभी उसे स्वप्न और जाग्रत के बीच फासला नहीं है। अभी वह स्वप्न शरीर में ही जीता है। इसलिए बच्चों की आंखें उतनी सपनीली मालूम पड़ती और इतनी इनोसेंट, निर्दोष। उसका कुल कारण इतना है कि वे सपने में आंखें खोले हुए हैं। अभी उनकी दुनिया बड़ी रंग-बिरंगी है, सपनों की दुनिया है। अभी सब तरफ तितलियां उड़ रही हैं और सब तरफ फूल खिल रहे हैं। अभी जिंदगी के यथार्थ का कोई आभास उन्हें नहीं हुआ है।
उसका कारण?
उसका कारण कि अभी वह जिंदगी के जिस यथार्थ से संबंध होने का मार्ग, जो शरीर है स्थूल, उसमें उनका प्रवेश नहीं हुआ। और प्रकृति इसको जानकर ऐसा करती है। क्योंकि बच्चा अगर चौबीस घंटे सोता है मां के पेट में, तो ही उसका यह शरीर बढ़ सकता है। अगर वह इस शरीर में आ जाए तो शरीर का बढ़ना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि शरीर की बढ़ती के लिए उसकी मौजूदगी बिलकुल जरूरी नहीं है। उसकी मौजूदगी बाधा डालेगी। अभी शरीर में बड़ा आपरेशन चल रहा है। अभी चीजें बढ़ रही हैं, घट रही हैं, फैल रही हैं। अभी यह सब इतना बड़ा काम चल रहा है कि इस बीच उसका जागरण ठीक नहीं है। उसे सोया रहना ठीक है।
इसलिए जो बच्चा सात महीने का पैदा हो जाता है, उसका स्थूल शरीर सदा के लिए कमजोर रह जाएगा। क्योंकि वह सुषुप्ति से स्वप्न में आ गया और अब शरीर के बनने में बाधा पड़ेगी। और जो काम मां के पेट में महीने में हो सकता था, वह बाहर छह महीने में भी नहीं हो पाएगा। फिर बच्चे का स्वप्न शरीर चलेगा वर्षों तक। क्योंकि अभी भी उसका शरीर बड़ा हो रहा है।
ठीक स्वप्न शरीर से पूरा छुटकारा बच्चा जब सेक्सुअली मैच्योर होता है, चौदह साल का होता है तब होता है। और चौदह साल की उम्र में जैसे ही काम-प्रौढ़ता आती है, स्थूल शरीर में पूरा प्रवेश होता है। यह जानकर आप हैरान होंगे कि काम की ग्रंथि बच्चे जन्म से ही पूरी लेकर पैदा होते हैं, लेकिन स्थूल शरीर में प्रवेश न होने से काम की ग्रंथि ऐसे ही पड़ी रहती है। चौदह वर्ष में स्थूल शरीर में प्रवेश होगा और काम की ग्रंथि सक्रिय हो जाएगी। इस स्थूल शरीर में प्रवेश को रोका जा सकता है। कम-ज्यादा किया जा सकता है।
शायद आपको पता न हो कि हर दस-बीस वर्षों में, इधर पिछले पचास वर्षों में सेक्स मैच्योरिटी का समय नीचे गिरता जा रहा है। बच्चे--पंद्रह वर्ष में लड़के अगर प्रौढ़ होते थे कामवासना में, अब वे तेरह वर्ष में हो जाते हैं। लड़कियां अगर चौदह वर्ष में होती थीं, तो अब वे बारह वर्ष में हो जाती हैं। और अमरीका में वह संख्या और नीचे गिर गई है। अगर हिंदुस्तान में बारह वर्ष में होती हैं, तो अमरीका में ग्यारह वर्ष में होने लगीं। स्विटजरलैंड और स्वीडन में और भी कम, दस वर्ष में होने लगी हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं कि जितना स्वास्थ्य बढ़ेगा, भोजन अच्छा होगा, उतनी जल्दी सेक्सुअल मैच्योरिटी आ जाएगी। इतना ही नहीं, वैज्ञानिकों को इतना ही खयाल में है--लेकिन जगत में जितनी कामवासना की हवा होगी और जितना कामवासना का वातावरण होगा और जितनी कामुकता होगी, उतने जल्दी बच्चे अपने स्वप्न शरीर को छोड़ कर अपने स्थूल शरीर में आ जाएंगे।
इससे उलटा प्रयोग भारत ने किया था और हम पच्चीस वर्ष तक बच्चों को प्रौढ़ता से रोकने के अदभुत परिणामों को उपलब्ध हुए थे। आप यह मत समझना कि हिंदुस्तान के गुरुकुलों में बच्चे चौदह साल में प्रौढ़ हो जाते थे, और फिर पच्चीस साल तक उनको ब्रह्मचर्य रखा जा सकता था। वह असंभव है। अगर चौदह साल में बच्चा प्रौढ़ हो गया, तो फिर पच्चीस साल तक उसको ब्रह्मचारी रखना असंभव है। और अगर कोशिश की जाएगी, तो पागल होगा। कोशिश की जाएगी तो विकृत हो जाएगा। कोशिश की जाएगी तो विकृत काम-रूप उसमें प्रकट होने शुरू हो जाएंगे।
नहीं, जो प्रयोग था वह बहुत दूसरा था। वह प्रयोग यह था कि पच्चीस वर्ष तक उसको विशेष तरह का भोजन दिया जा रहा था, और विशेष तरह का वातावरण दिया जा रहा था, जहां कामुकता की कोई गंध और कोई खबर न थी। और भोजन उसे ऐसा दिया जा रहा था जो उसके स्वप्न शरीर से उसे पच्चीस वर्ष तक बाहर न आने दे। और यह मौका था, इस क्षण में उसे जो भी सिखाया जाता, वह उसके स्वप्न शरीर में प्रवेश कर जाता था।
मजे की बात है कि चौदह साल के बाद कोई भी चीज सिखाई जाए, वह गहरे प्रवेश नहीं करती। ऊपर-ऊपर रह जाती है। चौदह साल के पहले जो भी सिखाया जाए, वह गहरा प्रवेश करता है। सात साल के पहले जो सिखाया जाए वह और भी गहरा प्रवेश करता है। और अगर हमने किसी दिन कोई उपाय खोज लिया कि हम मां के पेट में बच्चे को कुछ सिखा सकें, तो उसकी गहराई का कोई हिसाब ही लगाना असंभव है। वह भी हम किसी न किसी दिन कर पाएंगे। क्योंकि उस दिशा में काम चलता है। उस दिशा में भारत में तो काम किया है। यह पच्चीस वर्ष तक उसकी अगर मैच्योरिटी रोकी जा सके, तो बच्चा स्वप्न की अवस्था में होगा। और स्वप्न की अवस्था बहुत ही ग्राहक अवस्था है।
आपने कभी खयाल किया कि स्वप्न में संदेह कभी नहीं उठता? स्वप्न में आप अचानक देखते हैं कि यह घोड़ा चला आ रहा है, अचानक पास आकर देखते हैं कि घोड़ा नहीं है आपका मित्र है। और थोड़ा पास आता है, आप देखते हैं मित्र नहीं, यह तो वृक्ष खड़ा हुआ है। लेकिन आपके मन में यह भी नहीं उठता कि यह क्या हो रहा है? ऐसा कैसे हो सकता है कि अभी घोड़ा था, अभी मित्र हो गया, अब वृक्ष हो गया। इतना संदेह भी नहीं उठता। स्वप्न शरीर आस्थावान है। स्वप्न शरीर पूर्ण श्रद्धा से भरा है। संदेह उठता ही नहीं। अगर स्वप्न शरीर में कुछ भी डाल दिया जाए तो वह निःसंदिग्ध गहरा उतर जाता है। स्थूल शरीर आस्थावान नहीं है। सब संदेह उठाता है। स्थूल शरीर का एक दफा बोध आ जाए, फिर शिक्षण मुश्किल हो जाता है।
कभी आपने खयाल किया कि अगर आपके बच्चे जैसे ही सेक्सुअली मैच्योर होते हैं, वैसे ही उनके जीवन में अस्त-व्यस्तता और परेशानी और उपद्रव और विरोध और विद्रोह और हर चीज में जिद और हर चीज से झगड़ा और हर चीज से छूटने की कोशिश और कुछ भी न मानने की वृत्ति खड़ी होनी शुरू होती है? किसी को न मानने की। किसी का आदर न करने की। वह स्थूल शरीर का स्वाभाविक परिणाम है।
ऐसे बूढ़ा भी तीन शरीरों को पुनः उपलब्ध होता है। मरने के पहले फिर बूढ़े का स्थूल शरीर सबसे पहले नष्ट होने लगता है। जवानी समाप्त होती है उसी दिन, जिस दिन हमें पता चलता है कि हमारा स्थूल शरीर क्षीण होने लगा। लेकिन, स्थूल शरीर क्षीण हो जाए, लेकिन वासना क्षीण नहीं होती, क्योंकि वासना सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है, स्वप्न शरीर का हिस्सा है। इसलिए बूढ़े की तकलीफ एक ही है। वह तकलीफ यह है कि उसके पास वासना वही होती है जो जवान के पास होती है और शरीर उसके पास जवान का नहीं होता। उसकी पीड़ा भारी हो जाती है। इसलिए बूढ़े अक्सर जो जवानों के प्रति इतना... इतनी निंदा से भरे रहते हैं और इतनी आलोचना से भरे रहते हैं और इतने सिद्धांत और तर्क और शिक्षाएं देते रहते हैं, उसका गहरा कारण उनकी बुद्धमत्ता नहीं है, उसका गहरा कारण सौ में निन्यानबे मौके पर उनकी ईर्ष्या है। वासना उनके मन में भी वही है, लेकिन शरीर क्षीण हो गया है। स्थूल शरीर साथ नहीं देता।
फिर इसके बाद उनका स्वप्न शरीर क्षीण होना शुरू होता है। जब बूढ़े का स्वप्न शरीर क्षीण होता है, तब उसकी स्मृति प्रभावित हो जाती है। तब उसे चीजें याद नहीं आतीं। असंगत हो जाता है, तर्क खो जाता है। अभी कुछ कहता है, घड़ी भर बाद कुछ कहने लगता है--संगति नहीं रह जाती। स्वप्न शरीर क्षीण होने लगा।
और जब स्वप्न शरीर क्षीण हो जाता है, तब फिर सुषुप्ति में मृत्यु घटित होती है। मृत्यु में सुषुप्त शरीर भी क्षीण होता है। लेकिन समाप्त नहीं होता। और इन तीनों शरीरों की वासना लेकर सुषुप्त शरीर, कारण शरीर नई यात्रा पर निकल जाता है। वह बीज की तरह है। फिर नया जन्म, फिर नई यात्रा, फिर वही खेल, फिर वही चक्कर।
अब इस सूत्र को हम समझें।
‘पिछले जन्मों के कर्मों से प्रेरित होकर वह मनुष्य सुषुप्त अवस्था से पुनः स्वप्न व जाग्रत अवस्था में आ जाता है।’
‘पिछले जन्मों के कर्मों से प्रेरित हुआ वह मनुष्य सुषुप्त अवस्था से पुनः स्वप्न और जाग्रत अवस्था में आ जाता है।’ जब भी कोई नया व्यक्ति पैदा होता है तो पिछले जन्मों के सारे कर्मों को, प्रभावों को, संस्कारों को लेकर सुषुप्त पैदा होता है। फिर स्वप्न में आता है, फिर जाग्रत में आ जाता है। नया जीवन शुरू हो जाता है।
‘इस तरह से ज्ञात हुआ कि जीव तीन प्रकार के शरीरों में--स्थूल, सूक्ष्म और कारण में--रमण करता है। उसी से सारे मायिक-प्रपंच की सृष्टि होती है।’
यह जीवन का सारा का सारा प्रपंच इन तीन शरीरों पर निर्भर है। इन तीन शरीरों को इस सूत्र में पुर कहा है। तीन पुर। और इसीलिए भारतीय जो शब्द है आत्मा के लिए, वह ‘पुरुष’ है। पुरुष का मतलब है: पुर के भीतर रहने वाला। और ये तीन उसके नगर हैं, ये तीन उसके पुर हैं: स्थूल, सूक्ष्म और कारण। इन तीनों में वह पुरुष रमण करता रहता है। यह तीन उसकी नगरियां हैं, जिनमें वह एक से दूसरे में यात्रा करता है। जब तीन प्रकार के शरीरों का लय हो जाता है, तभी यह जीव मायिक प्रपंच से मुक्त होकर अखंड आनंद का अनुभव करता है, जब ये तीनों शरीर लीन हो जाते हैं।
जब हमारी मृत्यु घटित होती है, तो हमारा स्थूल शरीर बीज-रूप में सूक्ष्म में समा जाता है। और सूक्ष्म बीज-रूप होकर सुषुप्त में समा जाता है, कारण में समा जाता है। स्थूल सूक्ष्म में, सूक्ष्म कारण में समा जाता है।
‘कारण’ शब्द बहुत अदभुत है। अगर हम पूछें, वृक्ष का कारण क्या? तो कहना पड़ेगा, बीज। कभी आपने खयाल किया कि एक वृक्ष में बीज लगता है, इस बीज को अगर आप तोड़ें तो आपको कुछ भी तो नहीं मिलेगा। लेकिन इसे आप जमीन में गाड़ दें। इसमें फिर अंकुर आएगा और जिस वृक्ष में यह लगा था, वही वृक्ष पुनः प्रकट हो जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि वह जिस वृक्ष में यह लगा था, वह वृक्ष अपने स्थूल, स्वप्न शरीरों को लीन करके इस बीज में समा गया था। कारण शरीर में लीन हो गया था। फिर ठीक अवसर आने पर वह प्रकट हो जाता है।
मैं अगर एक जीवन जीआ तो जो मैंने किया, जो मैं था, जो मैंने सोचा, जो मेरे जीवन में हुआ, जो मेरे जीवन का सार है, वह सब पहले जाग्रत में घटता है। फिर उसका सार निचोड़ कर स्वप्न में संगृहीत हो जाता है। फिर स्वप्न शरीर का भी सारा संगृहीत होकर कारण शरीर में बीज बन जाता है। वह बीज लेकर मैं नये जीवन की यात्रा पर निकल जाता हूं। वही बीज नये जन्म की शुरुआत बनेगा। फिर स्वप्न उठेंगे, फिर जाग्रत का वृक्ष फैलेगा। फिर जीवन का पूरा का पूरा वृक्ष खड़ा हो जाएगा।
जब तक ये तीनों शरीर नष्ट न हो जाएं, तो भारतीय मनीषा का अनुभव है, तब तक व्यक्ति उस चौथे को उपलब्ध नहीं होता, जो वह है। जब तक ये तीनों से मुक्त न हो जाए, छूट न जाए, तब तक आनंद का कोई अनुभव नहीं होता। क्योंकि ये तीनों कारागृह हैं और बार-बार पुनरुक्त होते चले जाते हैं। एक कारागृह से दूसरे में स्थानांतरण होता है, दूसरे से तीसरे में। और आदमी स्थानांतरित होता चला जाता है। एक कारागृह दूसरे कारागृह के जेलर के हाथ में सौंप देता है। दूसरा तीसरे के हाथ में सौंप देता है। और अनंत है यह परिभ्रमण इन तीनों का।
लीन हो जाएं ये तीनों शरीर... कैसे ये तीनों शरीर लीन होंगे? ये तीनों लीन हो जाएं तो फिर जो घटना घटती है, उसको मृत्यु नहीं कहते, उसको मुक्ति कहते हैं। साधारण आदमी जब मरता है, तो उसको हम मृत्यु कहते हैं। मृत्यु का अर्थ हुआ कि तीनों शरीर कारण में लीन हो गए--समाप्त नहीं हुए--और कारण नई यात्रा पर निकल गया।
मृत्यु का मतलब आप समझ लें।
बहुत हैरानी होगी जान कर कि मृत्यु का मतलब बहुत अजीब है। मृत्यु का मतलब है, उस आदमी की मृत्यु को मृत्यु कहते हैं जिसका दूसरा जन्म होने वाला है। कभी खयाल में न आया होगा कि इसको मृत्यु कहते हैं, जन्म के कारण। अगर आगे जन्म होने वाला है, तो यह मृत्यु है। और अगर आगे जन्म होने वाला नहीं है, तो यह मोक्ष है, मुक्ति है। इसलिए बुद्ध को हम नहीं कहते कि वे मर गए। कहते हैं: समाधिस्थ हुए। महावीर को नहीं कहते हैं कि वे मर गए। कहते हैं: समाधिस्थ हुए। समाधिस्थ का अर्थ है कि तीनों के तीनों शरीर लीन हो गए। समाप्त हो गए, शून्य हो गए। और यह व्यक्ति चौथी अवस्था में प्रवेश कर गया, जहां से कोई आवागमन नहीं है।
इसलिए बड़े मजे की बात है कि भारत में हम शरीर को जलाते हैं। सिर्फ संन्यासी के शरीर को नहीं जलाते हैं। कभी आपने खयाल किया हो, न किया हो, सबके शरीर को जलाते हैं, सिर्फ संन्यासी के शरीर को नहीं जलाते, और बच्चों के शरीर को नहीं जलाते हैं। बच्चों के शरीर को इसलिए नहीं जलाते हैं कि बच्चों के अभी तीनों शरीर प्रकट ही नहीं हो पाए थे। इसीलिए बच्चे के शरीर में अभी अपवित्रता नहीं आई। जब तक स्थूल शरीर प्रकट न हो गया हो, तब तक बच्चे का शरीर अपवित्र नहीं है। ऐसा हमारा इन सारे खयालों के पीछे अनुगमन जो हुआ, अनुसंधान जो हुआ, वह यह है कि जब तक बच्चा स्थूल शरीर में प्रवेश न कर गया हो--मतलब कामवासना सजग न हो गई हो--तब तक उसके शरीर को जलाने की कोई भी जरूरत नहीं है। तब तक उसका शरीर फूल जैसा पवित्र है। उसे हम सीधा ही सौंप देते हैं मिट्टी को। मिट्टी उसे सीधा ही आत्मसात कर लेगी।
लेकिन आप जान कर हैरान होंगे कि कामवासना के जग जाने के बाद पहले अग्नि से शुद्ध करेंगे, फिर मिट्टी को सौंपेंगे। अपवित्रता प्रवेश कर गई, इसलिए आग में जलाते हैं। आग में जलाने का प्रयोजन कुल इतना है कि अपवित्र हो गया शरीर, वासनाग्रस्त हो गया, स्थूल तक पहुंच गई चेतना। दूषित हो गई। तो आग उसे शुद्ध कर दे। आग उसे राख बना देगी, फिर राख को हम मिट्टी को, नदी को कहीं सौंप देंगे। फिर दिक्कत न रही।
बच्चे को हम नहीं जलाते हैं और संन्यासी को हम नहीं जलाते हैं।
संन्यासी को न जलाने का दूसरा कारण है। संन्यासी को न जलाने का कारण है कि जिसने अपने भीतर ही उन तीनों शरीरों को जला डाला, अब हम और शुद्ध करने का क्या उपाय करें! परमशुद्धि हो गई। इसलिए हमारी आग किसी काम की नहीं है। जिसकी भीतर की आग जग गई और जिसने भीतर ही तीनों शरीरों को समाप्त कर लिया, अब हमारी आग उसके किसी काम की नहीं है। उसे भी हम मिट्टी को सीधा सौंप देते हैं। वह सीधा ही ग्रहणीय है। मिट्टी उसे सीधा ही आत्मसात कर लेगी। वहां भी कुछ अशुद्ध नहीं है। बच्चे में अभी अशुद्ध हुआ नहीं था, संन्यासी में शुद्ध हो गया है। इसलिए हम संन्यासी और बच्चे को नहीं जलाते रहे हैं।
मृत्यु तब तक मृत्यु है, जब आगे जन्म होने को हो। मृत्यु कहते इसलिए हैं कि जन्म होने वाला है। यह उलटा लगेगा। बल्कि भारत कहता ऐसा है कि जन्म और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जन्म होता है, तो मृत्यु होती है। मृत्यु होती है तो फिर जन्म होगा। इसलिए हम महावीर या बुद्ध की मृत्यु को मृत्यु नहीं कहते हैं। क्योंकि दूसरा पहलू ही नहीं है। जन्म होने वाला नहीं है। यह मृत्यु नहीं है। यह समाधि है। यह मुक्ति है। यह किसी दूसरी ही यात्रा पर निकल गई चेतना--यह हमारे चक्कर के, हमारी जो पटरी थी उससे नीचे उतर गई, हमारी पटरी पर इसके लिए अब कोई जन्म नहीं है। तो इसको हम मृत्यु कैसे कहें? क्योंकि मृत्यु हम कह ही तब सकते हैं सार्थक रूप से, जब जन्म होने वाला हो। जन्म चूंकि नहीं होगा, इसलिए इसे मृत्यु भी नहीं कहते हैं। इसे कहते हैं: समाधि।
समाधि का अर्थ होता है: जिसकी आत्मा समाधान को उपलब्ध हो गई। अब यह बड़े मजे की बात है कि ध्यान की पूर्णता को भी हम समाधि कहते हैं और जीवन की पूर्णता को भी हम समाधि कहते हैं। समाधि हम दोनों को कहते हैं। संन्यासी की कब्र को भी हम समाधि कहते हैं। जीवन की पूर्णता को भी हम समाधि कहते हैं, ध्यान की पूर्णता को भी हम समाधि कहते हैं।
तीनों में कहीं कोई एक जोड़ है। तीनों शायद एक ही जगह ले जाते हैं। ध्यान पूर्ण होता है, तो जीवन पूर्ण होता है। जीवन पूर्ण होता है, तो ध्यान पूर्ण हो जाता है। और जहां पूर्णता है वहां फिर मृत्यु नहीं है। वहां समाधान है। वहां फिर समाधि है। यात्रा का पथ ही बदल गया। अब हम जन्म और मृत्यु वाले वर्तुलाकार चक्र में नहीं घूमेंगे। अब हम चके से नीचे उतर गए। हम किसी दूसरी यात्रा पर चले। इस यात्रा में जीवन ही जीवन है। न जन्म है, न मृत्यु। इस यात्रा में जीवन ही जीवन है। यह शाश्वत जीवन है।
लेकिन ये तीनों शरीर अंत कैसे हों? इन तीनों शरीरों की लीनता कैसे हो? संक्षिप्त में थोड़ी सी बातें खयाल में ले लें। फिर आगे के सूत्रों में और विस्तार से बात हो सकेगी।
ध्यान सूत्र है समाधि तक ले जाने वाला। तो ध्यान ही सूत्र बनेगा इन तीनों शरीरों से मुक्त होने के लिए। जाग्रत में ध्यान शुरू करें। हम जागे हुए भी ध्यानपूर्वक जागे हुए नहीं होते हैं। रास्ते पर आप चल रहे हैं, बिलकुल जागे हुए चल रहे हैं। लेकिन इसमें एक आयाम और जोड़ा जा सकता है। जागे हुए चल रहे हैं, ध्यानपूर्वक भी चलें। तो आप कहेंगे, जब जागे हुए ही चल रहे हैं, तो अब और ध्यानपूर्वक चलने का क्या मतलब होगा? जागे हुए आप जरूर चल रहे हैं, लेकिन ध्यानपूर्वक चलने का अर्थ है कि आपका एक पैर भी उठे, हाथ भी हिले, आंख भी उठे, पलक भी झपे, आप मुड़ कर देखें, तो यह सब ध्यानपूर्वक हो। यह ऐसे ही मूर्च्छित न हो जाए।
बुद्ध के सामने कोई बैठा हुआ है, बुद्ध बोल रहे हैं और वह आदमी अपना पैर का अंगूठा हिला रहा है। तो बुद्ध उसे रुक कर कहते हैं कि यह तुम्हारे पैर का अंगूठा क्यों हिल रहा है? तो उस आदमी ने कहा: आप भी कहां-कहां की बातें उठा लेते हैं! कहां आप ज्ञान की चर्चा कर रहे थे और कहां आपने मेरे अंगूठे...! लेकिन जैसे ही बुद्ध ने पूछा, वह अंगूठा रुक गया। उस आदमी ने कहा: मुझे पता ही नहीं था, मुझे खयाल ही नहीं था, ऐसे ही आदतवश हिल रहा होगा। तो बुद्ध ने कहा: देखो, इसका अंगूठा है यह खुद का, और यह हिल रहा है अंगूठा इसका और इसको पता नहीं है। और यह कहता है, ऐसे ही हिल रहा होगा। तो तू जागा हुआ है? यह तो ठीक है कि जागा हुआ है, क्योंकि मैं बोला तो तूने सुन लिया। लेकिन तू ध्यानपूर्वक जागा हुआ नहीं है। यह अंगूठा तेरा हिल रहा है और तेरे ध्यान में नहीं है।
जागने में ध्यान को जोड़ दें। जो भी कर रहे हैं, उसमें ध्यानपूर्वक हों। बुद्ध ने जो शब्द प्रयोग किया है ध्यान के लिए, वह कीमती है इस लिहाज से। बुद्ध ने उसके लिए कहा है: ‘सम्यक स्मृति, राइट माइंडफुलनेस।’ जो भी कर रहे हों, वह ठीक-ठीक सम्यक स्मृतिपूर्वक हो। बुद्ध कहते थे: बाएं घूमें तो बाएं घूमने के साथ चित्त को यह पता चले कि मैं बाएं घूम रहा हूं। एक आदमी गाली दे तो साथ में गाली सुनी भी जाए और यह भी जाना जाए कि इस आदमी ने गाली दी है और मैंने गाली सुनी है। भीतर क्रोध उठे तो यह भी जाना जाए कि इस आदमी की गाली से भीतर क्रोध हुआ है। और मेरे भीतर क्रोध उठ रहा है। और तब आप पाएंगे, सारी स्थिति बदल गई। क्योंकि जो आदमी देख रहा हो कि क्रोध उठ रहा है, उसका क्रोध उठ नहीं पाएगा। जो आदमी देख रहा हो कि क्रोध पकड़ रहा है, उसको क्रोध पकड़ नहीं पाएगा। जो आदमी जान रहा हो कि अब क्रोध आता ही है, उसको क्रोध आ नहीं पाएगा। होश चित्त को बदल देगा।
तो जाग्रत में ध्यान अगर संयुक्त हो जाए और आपकी जागरण की सारी क्रियाएं ध्यानपूर्वक होने लगें, तो आप एक शरीर से मुक्त हुए।
फिर इसी प्रक्रिया को स्वप्न में प्रवेश करना होता है। तब स्वप्न में जाग, स्वप्न में भी ध्यानपूर्वक, सोते में भी ध्यानपूर्वक। बुद्ध ने कहा है कि सोओ भी तो ध्यानपूर्वक सोना। करवट भी बदलो तो ध्यानपूर्वक बदलना। स्वप्न भी देखो तो ध्यानपूर्वक देखना। लेकिन यह एकदम से शुरू नहीं किया जा सकता। पहले जाग्रत में अगर ध्यान प्रवेश कर जाए, तो आप स्वप्न के दरवाजे पर खड़े हो जाते हैं। फिर दरवाजे से प्रवेश हो सकता है स्वप्न में भी। जो जागने में जाग गया हो ध्यानपूर्वक, वह फिर स्वप्न में भी धीरे से ध्यान के तीर को अंदर ले जा सकता है। फिर आप स्वप्न देखते हैं और जानते हैं कि यह स्वप्न चल रहा है।
फिर ज्यादा दिन स्वप्न नहीं चल सकते हैं। जो होशपूर्वक देख रहा है, वह हंसेगा। और पागलपन साफ होगा और स्वप्न ज्यादा दिन नहीं चल पाएंगे। और जाग गया जो भीतर, स्वप्न टूटने लगेगा, बिखरने लगेगा। स्वप्न के लिए निद्रा जरूरी है, बेहोशी जरूरी है। और जब स्वप्न समाप्त हो जाएं ध्यान से, तो फिर आप तीसरे दरवाजे पर खड़े हुए--सुषुप्ति के। अभी तो उसकी कल्पना ही करनी असंभव होगी। क्योंकि नींद में कैसे ध्यान करेंगे? जब बिलकुल ही सो गए, होश ही न रहा, तो कैसे ध्यान करेंगे? लेकिन स्वप्न में जिसने प्रयोग किया हो, वह फिर तीसरे में प्रवेश कर पाता है। और जिस दिन कोई नींद में जाग जाता है--स्वप्न में जागने से इस सूक्ष्म शरीर से छुटकारा हो जाता है, सुषुप्ति में जागने से कारण शरीर से छुटकारा हो जाता है।
कृष्ण ने जो कहा है कि योगी तब भी जागता है जब सब सोते हैं, सब की निद्रा भी योगी का जागरण है, वह इसी के लिए कहा है। तीसरे ध्यान के प्रयोग के लिए! सुषुप्ति में जब कोई होशपूर्वक हो जाता है, ध्यानपूर्वक, तो तीनों शरीरों से छुटकारा होगा। अब ऐसा व्यक्ति मरते वक्त जागा हुआ मरता है। होशपूर्वक मरता है। क्योंकि सुषुप्ति में वह जाग गया, सुषुप्ति में मृत्यु घटित होती है, अब वह जागा हुआ मरता है। होशपूर्वक मरता है।
बुद्ध की मृत्यु आई तो बुद्ध ने कहा कि आज अब मेरी मृत्यु आती है। अब आज मेरे भीतर मुझे साफ हो गया कि अब सब टूटने के करीब है। तो तुम्हें कुछ पूछना हो तो पूछ लो। यह सुन कर ही सबके हृदय बैठ गए, पूछने का तो सवाल न रहा। लोग छाती पीट कर रोने लगे। बुद्ध ने कहा: रोने में तुम समय मत गंवाओ, क्योंकि मैं ज्यादा देर नहीं रुक सकूंगा। बात मुझे भीतर साफ हुई जाती है। वह वैसी साफ हुई जाती है जैसे कि किसी दीये का तेल चुक रहा हो और आपके पास आंखें हों, अंधे न हों, तो साफ ही दिखाई पड़ेगा कि यह तेल चुका जा रहा है, ज्योति बुझने के करीब है। तुम रोओ-धोओ मत, चिल्लाओ मत। वह तो हम अंधे हैं, इसलिए दीया बुझता चला जा रहा है, हमको पता भी नहीं चलता है। तेल भी चुक जाता है और हम ऐसे बैठे हुए हैं जैसे कि सागर भरा हुआ है तेल का।
तो बुद्ध ने कहा: यह तेल बिलकुल चुकने के करीब है, यह घड़ी दो घड़ी की बात है कि मेरी यह ज्योति जलती रहेगी। तुम्हें कुछ पूछना हो, पूछ लो, रोने में समय मत गंवाओ। लेकिन वहां कौन सुनने को तैयार था? बुद्ध अगर जागे होंगे सुषुप्ति में तो वहां तो जागे हुए सोए लोग थे, वे छाती पीट रहे हैं, रो रहे हैं; वे सुन ही नहीं रहे हैं! वे तो न मालूम किन खयालों में पड़ गए हैं कि बुद्ध न रहेंगे तो क्या होगा, क्या नहीं होगा? वे अभी मौजूद हैं, अभी उनसे कुछ और भी सीखा जा सकता है!
तब बुद्ध ने तीन बार पूछा। उनकी सदा की आदत थी। बुद्ध की किताबें अभी जब छापी गई हैं, तो बड़ी तकलीफ पड़ती है। क्योंकि हर बात वे तीन बार पूछते थे। और हर बात वे तीन बार कहते थे। तो अब किताब छापने पर नाहक तीन गुना मालूम पड़ता है हमें। लेकिन बुद्ध का कारण था। वे कहते थे: लोग इतने सोए हुए हैं कि एक बार में सुनता कौन है! तीन बार में भी कोई सुन ले तो बहुत है। काफी जागा हुआ आदमी है। तीन बार बुद्ध ने पूछा कि मत रोओ, मैं जाने के करीब हूं, वक्त आ गया, नाव खुल गई है, किनारा छूटने को है, दीया बुझने को है, कुछ पूछना हो पूछ लो। पूछने का कोई सवाल न था। तो बुद्ध ने कहा: ठीक, तो अब मैं मरूं? दुनिया में ऐसा किसी आदमी ने कभी नहीं पूछा: तो अब मैं मरूं? तो अब मैं विलीन हो जाऊं?
तो वह आज्ञा लेकर वृक्ष के पीछे चले गए, जहां बैठे थे। वहां जाकर आंख बंद करके बैठ गए। एक शरीर से उन्होंने संबंध छोड़ कर दूसरे में प्रवेश किया। जब वे दूसरे ही शरीर में थे, तब गांव से भागा हुआ एक आदमी सुभद्र आया और उसने कहा कि बहुत मुश्किल हो गई है, मैंने सुना कि बुद्ध की मृत्यु करीब आ गई, गांव में खबर पहुंच गई, मुझे कुछ पूछना है। तो बुद्ध के भिक्षुओं ने कहा कि अब तो असंभव है। अब तो वे मृत्यु में लीन होने की तरफ जा भी चुके। और अब हम उन्हें खींचें, उचित न होगा। और खींच भी हम कैसे सकेंगे? हमें कोई उपाय भी पता नहीं है कि अब क्या होगा? उनकी श्वास शिथिल हो गई है, हृदय की धड़कन सुनाई नहीं पड़ती है, शरीर बिलकुल मृत होने के करीब हो गया है। नहीं, अब कुछ भी नहीं हो सकता। लेकिन सुभद्र ने कहा: कुछ तो करना ही पड़ेगा। भिक्षुओं ने कहा कि नासमझ, तेरे गांव से वे कितनी बार गुजरे? सुभद्र ने कहा: बहुत बार गुजरे, लेकिन कभी मेरी दुकान पर भीड़ थी, कभी घर में शादी थी, कभी तबीयत ठीक न थी। कभी निकल ही रहा था कि कोई मिलने वाला आ गया। ऐसे हर बार चूक गया। फिर मैंने सोचा फिर कभी मिल लूंगा। लेकिन आज तो मिलना ही होगा। क्योंकि अब तो न मालूम कितने कल्पों तक वैसा आदमी मिले, न मिले। चिल्लाने लगा सुभद्र!
तो बुद्ध उठ कर वापस आ गए। और बुद्ध ने कहा: तू ठीक वक्त पर आ गया। अगर मैं सूक्ष्म शरीर से भी नीचे उतर जाता, तो फिर तेरी बात भी मुझे सुनाई न पड़ती। अभी मैं स्वप्न में था। अभी उसको छोड़ ही रहा था। अगर मैं सुषुप्ति में पहुंच जाता, तो फिर बहुत मुश्किल पड़ती। बहुत कठिन हो जाता तेरी आवाज मुझ तक पहुंचनी।
लेकिन सुषुप्ति से भी किसी तरह वापस लौटा जा सकता है। लेकिन अगर सुषुप्ति भी टूट जाए, तब तो फिर लौटने की कोई बात ही नहीं रहती। तो बुद्ध ने कहा कि मत रोको उसे, वह कुछ पूछता है, पूछ लेने दो। नाहक मेरे ऊपर इल्जाम मत लगवाओ कि मैं जिंदा था और एक आदमी पूछने आया था और खाली हाथ वापस लौट गया।
बुद्ध पुनः चले गए हैं उसको उत्तर देकर। और उन्होंने फिर एक-एक शरीर को छोड़ दिया। फिर वे चौथे में लीन हो गए। खो गए।
ये तीन शरीर हैं और चौथी हमारी आत्मा है। वह शरीर नहीं है। वह चौथी हमारी स्वरूप-अवस्था है। ये तीन के खो जाने पर जो अनुभव होता है, वही आनंद है, वही अमृत है। वही निर्वाण है, वही मोक्ष है।
‘इसी से प्राण, मन और समस्त इंद्रियों की उत्पत्ति होती है। इसी से पृथ्वी की सृष्टि होती है जो आकाश, वायु, अग्नि, जल और सारे संसार को धारण करती है।’
यह जो चौथा है, यही सारे जगत का आधार है, परमात्मा है। इसी से सब पैदा होता है और इसी में सब लीन हो जाता है।