UPANISHAD
Kaivalya Upanishad 09
Ninth Discourse from the series of 19 discourses - Kaivalya Upanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during MAR 25 - APR 02 1972.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
आत्मानं अरणि कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणीम्।
ज्ञान निर्मथनास्यासात् पाशं दहति पण्डितः।।11।।
ज्ञानी लोग अंतःकरण को नीचे की अरणि बनाते हैं और प्रणव को ऊपर की। और इन दोनों से ज्ञान के मंथन का अभ्यास करते हैं। इससे जो ज्ञानाग्नि उत्पन्न होती है, उसमें अपने समस्त दोषों को जला कर संसार-बंधन से छूट जाते हैं।।11।।
सूत्र में प्रवेश के पहले सूत्र के कुछ आधारभूत शब्दों को समझ लें।
पहला आधारभूत शब्द इस सूत्र में है: ‘अंतःकरण।’ अंतःकरण के साथ थोड़ी कठिनाई है। क्योंकि जिसे हम अंतःकरण कहते हैं, वह अंतःकरण नहीं है। और जो अंतःकरण है, उसका साधारणतः हमें कभी पता ही नहीं चलता।
हम किसे अंतःकरण कहते हैं?
एक आदमी चोरी को जाता है। कदम उठाता है चोरी के लिए, भीतर कोई कहता है: चोरी मत करो, चोरी पाप है। एक आदमी मांस खाने जाता है, भीतर कोई कहता है: मांस मत खाओ, मांस खाना बुरा है। कोई शराबघर में जाता है, भीतर कोई कहता है: शराब मत पीओ। इस आवाज को हम अंतःकरण कहते हैं, कांशियंस कहते हैं। पर यह अंतःकरण नहीं है। यह तो समाज की आवाज है हमारे भीतर, हमारी अपनी आवाज नहीं। यह हमारी आत्मा की आवाज नहीं है। यह तो समाज की सिखावन है। यह तो समाज की शिक्षा है। तो यदि गैर-मांसाहारी घर में आप पैदा हुए हैं, शाकाहारी घर में पैदा हुए हैं, और बचपन से ही सुना है कि मांसाहार पाप है, मांसाहार बुरा है, तो ही मांसाहार करते समय आपका अंतःकरण कहेगा: बुरा है, पाप है, मत करो। यह आपकी आवाज नहीं है, क्योंकि मांसाहारी के घर में जो बड़ा होता है, उसमें यह आवाज सुनाई नहीं पड़ती।
अगर इसे हम अंतःकरण कहें तो हमें मानना पड़ेगा कि दुनिया में कई तरह के अंतःकरण हैं। तब तो हमें मानना पड़ेगा कि परमात्मा की जो आंतरिक आवाज है, वह भी बहुत तरह से बोलती है। किसी को कहती है कि मांसाहार करो, किसी को कहती है: मांसाहार मत करो।
समाज के नियम की भिन्नता के कारण यह भिन्नता है, यह अंतःकरण की आवाज नहीं है। जिस दिन अंतःकरण की आवाज सुनाई पड़ती है और अंतःकरण उपलब्ध हो जाता है, उस दिन जगत के कोने-कोने में वह आवाज एक ही है। वे दो आवाजें नहीं होतीं। हिंदू का अंतःकरण और मुसलमान का अंतःकरण और ईसाई और जैन का अंतःकरण, ऐसे कोई अंतःकरण नहीं होते। लेकिन जिसे हम अंतःकरण कहते हैं, वह हिंदू का अलग होता है, जैन का अलग होता है, बौद्ध का अलग होता है। हिंदू में भी ब्राह्मण का अलग होता है, क्षत्रिय का अलग होता है, शूद्र का अलग होता है।
समाज ने बड़ी होशियारी की है। इसके पहले कि हमें पता चले कि हमारी भीतर की आवाज क्या है, समाज एक आवाज को भीतर बिठा देता है, और हमें समझा देता है कि यही हमारे भीतर की आवाज है। समाज की मजबूरी है। समाज को करने का कारण है। तो समाज को दोष देना व्यर्थ है, क्योंकि समाज की अपनी मुसीबत है। वह जो भीतर का अंतःकरण है, वह सभी लोग खोज ही नहीं पाते और अगर समाज कोई भी अंतःकरण पैदा न करे, तो आदमी पशु जैसा हो जाएगा। तो समाज आप पर छोड़ नहीं सकता कि जब आप खोजेंगे अंतःकरण, तब तक आपको छोड़ा नहीं जा सकता। क्योंकि भय है इस बात का कि आप बिलकुल पशु जैसे न हो जाएं। खोजना तो दूर रहा, कहीं ऐसा न हो कि समय बीत जाए तो फिर समाज भी आपको अंतःकरण देने में असमर्थ हो जाए।
इसलिए जिन-जिन समाजों में धर्म का प्रभाव शिथिल हुआ है, जिन-जिन समाजों में पारिवारिक शिक्षण कम हुआ है, जिन-जिन समाजों में शिक्षा का काम निरपेक्ष सरकारों ने ले लिया है, वहां असली अंतःकरण की आवाज तो पैदा ही नहीं होती, नकली अंतःकरण की आवाज भी समाप्त हो जाती है। और आदमी करीब-करीब मनुष्य से नीचे के तल की स्वच्छंदता में जीना शुरू कर देता है। समाज की मजबूरी है। आप पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसलिए समाज इसके पहले कि आप अपने अंतःकरण को खोजें, एक सब्स्टीट्यूट कांशियंस, एक परिपूरक अंतःकरण आपके भीतर निर्मित करता है।
तो हर समाज अलग करेगा, क्योंकि हर समाज की समझ, मान्यता, परंपरा, संस्कृति भिन्न है। एक समाज सोच भी नहीं सकता कि चचेरी बहन से शादी हो सकती है। सोच ही नहीं सकता। लेकिन दूसरा समाज सुविधापूर्ण रूप से कर सकता है। न केवल सुविधापूर्ण रूप से, बल्कि जब तक चचेरी बहन मिले तक तक किसी और से शादी करना व्यर्थ ही माने। अड़चन जरा भी नहीं है। समाज की मान्यता के ऊपर निर्भर है। और समाज की मान्यता हजारों साल के विशेष भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है।
ऐसे लोग हैं--हिंदुस्तान में ऐसे लोग हैं, राजस्थान में ऐसे लोग हैं--जिनमें यह परंपरा रही है कि जब तक लड़का चोरी करने में कुशल न हो, उसका विवाह न हो सके। लड़की वाला पूछेगा कि लड़के ने कितनी चोरियां कीं, कितने डाके डाले? कभी जेल भी गया है या नहीं? अगर लड़के ने चोरी ही नहीं की, डाका ही नहीं डाला, जेल भी नहीं गया, तो ऐसे निकम्मे लड़के के साथ शादी कौन करेगा!
चोरों के समाज हैं। तो वहां चोरी नियम है। वहां चोरी में कुशलता योग्यता है। पख्तून हैं, पाकिस्तान की सीमा पर... मेरे एक मित्र पख्तूनिस्तान की यात्रा पर थे। उन्होंने लौट कर मुझे कहा कि जब हम यात्रा पर भीतर प्रवेश किए पख्तूनों के इलाकों में, तो हमें कहा गया कि सांझ के बाद कभी भी जीप में मत चलना, क्योंकि पख्तून लड़के अक्सर ही ड्राइवरों को निशाना बना लेते हैं। तो उन्होंने कहा: लेकिन हमारा किसी से झगड़ा नहीं है, कोई निशाना क्यों बनाएगा? उन्होंने कहा: झगड़े का सवाल नहीं है, निशाना सीखने के लिए; जवान लड़के हैं, निशाना सीख रहे हैं, तो एक ड्राइवर जा रहा है, गाड़ी जा रही है, वे गोली मार देंगे। अगर आप चिड़िया को निशाना बना कर सीखने के लिए मार सकते हैं, तो हर्ज क्या है; आदमी को भी निशाना बनाया जा सकता है, सीखने के लिए। और फिर जब अंत में आदमियों को ही मारना है, तो चिड़ियों को बीच में क्यों फंसाएं; निशाना ठीक ही जगह लगाना सीखना चाहिए। मगर पख्तून लड़के को कोई अंतःकरण में ऐसा भाव पैदा नहीं होगा कि मैं यह क्या कर रहा हूं! क्योंकि उसके समाज में यह कोई सवाल नहीं है।
जापान में आत्महत्या बड़ा गौरवपूर्ण कृत्य है। अगर कोई भी व्यक्ति अपने किसी कर्तव्य से च्युत हो जाता है, तो यह शालीनता की बात है कि वह तत्काल अपनी आत्महत्या कर ले। यह इज्जत की बात है। नैतिक बात है। और जापानी आदमी का अंतःकरण कहता है कि इसी वक्त आत्महत्या कर लो। अगर नहीं करोगे तो यह अपराध है। इसलिए जापान में ‘हाराकिरी’ बड़ा सम्मान्य कृत्य है। दुनिया में कहीं नहीं है। हमको कठिन लगेगा। लेकिन यहां हमारे मुल्क में भी जैनों ने ‘संथारा’ को सम्मान्य कृत्य माना है। अगर कोई व्यक्ति उपवास करके नियमपूर्वक, धर्मपूर्वक, ध्यान करता हुआ अपने शरीर को विसर्जित कर दे, तो इसे आत्महत्या जैन नहीं कहते। यह ‘संथारा’ है। और इसका बड़ा सम्मान होगा। क्योंकि इस व्यक्ति ने शरीर का ठीक से त्याग किया है। लेकिन किसी भी दूसरे मुल्क में यह आत्महत्या समझी जाएगी। और यह आदमी कानून के सामने अपराधी हो जाएगा।
अगर हम दुनिया के रीति-नियमों का खयाल करें, तो हमें पता चलेगा कि करोड़ों अंतःकरण हैं। ये अंतःकरण नहीं हैं। अंतःकरण तो हर आदमी के भीतर एक सा है। वह आवाज तो बिलकुल एक सी है। वह स्वर तो बिलकुल एक सा है। ये समाज के स्वर हैं। लेकिन बच्चे को पता भी नहीं होता तब से हम उसे समाज का स्वर उसके भीतर डालना शुरू कर देते हैं। हम उसे जो सिखा देते हैं, वह सीख जाता है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि सात वर्ष के पहले आदमी अपना पचहत्तर प्रतिशत ज्ञान सीख जाता है। पचहत्तर प्रतिशत जिससे जीवन चलेगा। तो अंतःकरण तो करीब-करीब सात साल के भीतर निर्मित हो जाता है। और यह अंतःकरण फिर बदलना बहुत कठिन है। क्योंकि यह आधार बन जाता है। इसके ऊपर ही व्यक्ति खड़ा होता है। और इसी के आधार पर उसके जीवन का सारा का सारा भवन निर्मित होता है और जब भी वह कोई काम करने जाता है तो इसी अंतःकरण से आवाज आती है। अगर इस अंतःकरण के विपरीत है, तो आवाज आती है कि यह मत करो। समाज इस अंतःकरण को दोहरा इंतजाम करने के लिए बनाता है।
समाज बाहर कानून बनाता है, ताकि कोई आदमी गलत न कर सके। लेकिन बाहर का कानून कितना ही कुशलता से बनाया जाए उससे भी ज्यादा कुशल अपराधी सदा उपलब्ध हो जाते हैं। क्योंकि आखिर आदमी ही कानून बनाता है, तो आदमी ही उससे ज्यादा कुशलता से कानून से बच कर अपराध करने की क्षमता भी खोज लेता है। फिर कितना ही सख्त इंतजाम हो बाहर, बाहर का इंतजाम अपराधों से मुक्ति दिला नहीं सकता। तो समाज एक दूसरी व्यवस्था करता है, भीतर अंतःकरण निर्मित करता है। ताकि बाहर अपराध का भय रोके और भीतर खुद की अंतरात्मा रोके कि मत करो, यह पाप है।
और कानून से तो कोई बच भी सकता है, लेकिन अपने अंतःकरण के सामने निंदा से बचना बहुत मुश्किल है। इसलिए जो आदमी अंतःकरण की मानकर चलता है, समाज उसको आदर देता है। जो नहीं मान कर चलता, उसको अनादर देता है। जो आदमी मान कर चलता है, उसे पुण्य की संपदा मिलती है। जो नहीं मान कर चलता है, उसे पाप मिलता है। जो मान कर चलता है, उसे स्वर्ग का प्रलोभन समाज देता है। जो नहीं मान कर चलता, उसको नरक में डालने का दंड देता है। यह सारी भीतरी व्यवस्था है।
तो एक तो अदालत बाहर है, जो बाहर से रोकती रहेगी। और एक अदालत भीतर है समाज की, जो भीतर से रोकती रहेगी। इन दोनों के बीच में व्यक्ति कसा जाता है, ताकि वह गलत न हो जाए। यह हो सकता है कि वह गलत होने से बच सके, लेकिन गलत होने से बच जाना अच्छा होना नहीं है। यह हो सकता है कि वह अनैतिक न हो पाए इन दोनों व्यवस्थाओं के बीच में, लेकिन अनैतिक न होना नैतिक होना नहीं है। यह हो सकता है वह अपराधी न हो, असामाजिक न हो, लेकिन असामाजिक और अपराधी न होना धार्मिक होना नहीं है। यह सिर्फ निषेध की व्यवस्था है।
जो आदमी बुरा नहीं करता है, ऐसा समझने का कोई कारण नहीं है कि वह अच्छा करता है। और सच्चाई तो यह है कि जो आदमी बुरा करना चाहता है और इस व्यवस्था के कारण--बाहर की और भीतर की, दोनों सामाजिक व्यवस्थाएं हैं--इस व्यवस्था के कारण नहीं कर पाता है, तो एक तरफ से नहीं कर पाता तो दूसरी तरफ से करने के उपाय खोजता है। एक दरवाजे से चूकता है तो दूसरा दरवाजा खोलता है। घूम-फिर कर मार्ग खोजता है और बुराई कर लेता है। हां, बुराई की शक्ल बदल जा सकती है। बुराई का ढंग बदल जा सकता है। बुराई का नाम बदल जा सकता है।
लेकिन जिस बुराई को व्यक्ति ने जबर्दस्ती दबाया है, वह कहीं न कहीं से विस्फोट होने का मार्ग खोजती रहती है। वह विष की तरह भीतर हो जाती है और कहीं से भी फोड़ा बन कर निकलती है। इस कारण से सारी की सारी मनुष्य-जाति बहुत गहरे में रुग्ण हो गई है। अनैतिक दुख पाता है। समाज उसको दंड देता है। अगर समाज दंड नहीं दे पाता तो उसका खुद का समाज द्वारा निर्मित अंतःकरण आत्मनिंदा, आत्मग्लानि, आत्म-अपराध, हीनता से भर जाता है। वह भी दंड हो जाता है। लेकिन जिसको हम नैतिक कहते हैं, जो अपराध से भी बच जाता है, अदालत से बच जाता है, आत्मनिंदा से बच जाता है, वह भीतर न मालूम कितने मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है।
इस सदी के और समस्त मनुष्य-जाति के इतिहास के सबसे बड़े मनस्विद और मनस-रोगों के ज्ञाता सिग्मंड फ्रायड ने कहा है कि जब तक आदमी को नैतिक बनाने की कोशिश चलेगी, तब तक मानसिक रोगों से छुटकारा नहीं हो सकता। खतरनाक वक्तव्य है। लेकिन एक जानकार का वक्तव्य है, जिसने लाखों मानसिक मरीजों को देख कर, अध्ययन करके, विश्लेषण करके, मनोचिकित्सा करके यह नतीजा दिया है कि जब तक आदमी को नैतिक बनाने की चेष्टा चलती है, तब तक मानसिक रोगों से छुटकारे का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि हम एक तरफ से बुराई को दबा देते हैं, वह बुराई दूसरी तरफ से निकलना शुरू होती है। और ध्यान रहे, जब वह दूसरी तरफ से निकलती है तो ज्यादा विकृत होकर निकलती है, परवर्टेड होकर निकलती है। उसका स्वाभाविक मार्ग छिन जाता है। और कई बार ऐसा होता है कि एक बीमारी रोकते हैं, तो वह दस होकर निकलती है। जैसे एक झरने को रोक दें तो दस धाराओं में फूटकर बह जाए।
फ्रायड से भी लोग पूछते थे कि फिर उपाय क्या है? क्या आदमी को नैतिक बनाना बंद कर दें? तो फ्रायड कहता है, नैतिक बनाना बंद किया कि सारी सभ्यता और सारी संस्कृति खो जाएगी। और अगर संस्कृति और सभ्यता बनाए रखनी है तो नैतिक बनाना पड़ेगा, लेकिन परिणाम में आदमी मानसिक रूप से ग्रस्त होता रहेगा, बीमार होता रहेगा। इसलिए जितना सभ्य समाज हो, उतनी ज्यादा मानसिक बीमारी हो जाती है। मात्रा सभ्यता के साथ बढ़ती है। तो फ्रायड ने कहा है कि सभ्यता को अगर रखना है, तो उसका यह अनिवार्य फल है, भोगना ही पड़ेगा।
मगर यह बड़ी दुखद बात है और अवसाद से भरती है मन को। ये दोनों ही बातें चुनने योग्य नहीं मालूम पड़तीं कि आदमी असभ्य हो जाए, असंस्कृत हो जाए, पशुओं जैसा हो जाए। यह भी मन मानने को नहीं करता। और यह भी मानने को नहीं करता कि पूरी जमीन एक पागलखाना होती चली जाए। और धीरे-धीरे लोग इतने मानसिक रोगों से भर जाएं, जैसा कि आज हो गया है। आज जो बहुत सभ्य मुल्क हैं, वहां आज सामान्य चिकित्सक की बजाय मानसिक चिकित्सक की मांग बढ़ती चली जाती है। और सामान्य बीमारियां सामान्य हो गई हैं। उनके इलाज की कोई दिक्कत नहीं रही है, उनका इलाज हो जाता है, चिकित्सा खोज ली गई है। मन की बीमारियां असामान्य रूप से भारी होती जा रही हैं। उनका इलाज मुश्किल मालूम होता जा रहा है। और इलाज करने, खोजने जाते हैं तो जितनी जटिलताएं दिखाई पड़ती हैं वे घबड़ाने वाली हैं।
पिछले पच्चीस वर्षों के मनस्विदों की खोज का यह परिणाम है कि अगर एक पागल आदमी को ठीक करना हो, तो पहले वे उसी आदमी को ठीक करते थे; अब वे कहते हैं कि इस पागल आदमी को हम तब ही ठीक कर सकते हैं जब इसके पूरे परिवार को ठीक करें, क्योंकि यह परिवार के ही कारण पागल है। और अब मनोवैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि परिवार को भी ठीक करने से क्या होगा, इसका परिवार भी एक समूह का हिस्सा है। और वह समूह पूरा का पूरा कुछ पागलपन से भरा है, इसलिए यह परिवार पागल हो जाता है, इसलिए इस परिवार का एक आदमी पागल हो जाता है। और मजे की जो बात है वह यह है कि वे कहते हैं: अगर बीस परिवारों का एक समूह हो तो जो परिवार सबसे ज्यादा संवेदनशील होगा, ईमानदार होगा, वह सबसे पहले पागल हो जाएगा। उस परिवार में जो आदमी सबसे ज्यादा संवेदनशील होगा और ईमानदार होगा, वह सबसे पहले पागल हो जाएगा। क्योंकि बेईमान आदमी पागल होने से बचने का रास्ता निकाल लेता है। वह कहता कुछ है, करता कुछ है, पागल नहीं होता वह। लेकिन अगर बहुत ईमानदारी से, वह जो कहता है वही करे, तो मुसीबत में पड़ जाता है। यह बड़ी मुश्किल बात है।
सारी नीति कहती है कि आचार और विचार एक सा होना चाहिए। लेकिन हमें आदमी मिलते नहीं जिनके आचार और विचार एक से हों। जिनको हम कहते हैं कि इनके आचार और विचार एक से हैं उनका भी परीक्षण वैज्ञानिक हमें पता नहीं है करना, नहीं तो पता चले कि एक से नहीं हैं। अगर बिलकुल एक से हों, तो वह आदमी पागल हो जाएगा, अगर समाज के अंतःकरण को मान कर चला है तो। अगर वह पागल नहीं है, तो वह कहीं न कहीं इंतजाम कर रहा है। उसके जीवन के पीछे के दरवाजे भी हैं। जिनसे निकल कर वह अपने पागलपन का निकास कर लेता है।
यह अंतःकरण इस सूत्र का अंतःकरण नहीं है, यह पहली बात खयाल में ले लें। इस सूत्र में जिस अंतःकरण की बात है, वह वह अंतःकरण है जब व्यक्ति इस अंतःकरण को बिलकुल ही हटा कर अपने भीतर झांकता है। समाज की समस्त पर्तों को हटा कर, समाज को सब तरह से अलग करके; समाज ने जो-जो डाला है भीतर, समाज ने जो-जो आरोपित किया है, समाज ने जो-जो संस्कार निर्मित किए हैं, उनकी परछाईं भी न पड़े, उन सबको दूर हटा कर, एक तरफ रख कर जब कोई अपने भीतर झांकता है, तब उसे पहली बार उस अंतःकरण का पता चलता है जो हमारे शरीर में हमें वैसे ही मिला है जैसे आंखें मिली हैं, हृदय मिला है, बुद्धि मिली है। वह हमारे जीवन का अनिवार्य अंग है। उस अंतःकरण की जब शुद्धि हमारे खयाल में आ जाए और उसकी आवाज सुनने की कला हमें आ जाए तब फिर इस जीवन में विचार और आचरण में कोई फर्क नहीं होता। तब इस जीवन में विचार और आचरण में कोई भी फर्क नहीं होता और तब इस जीवन में आदमी कभी भी ऐसा नहीं कहेगा कि मुझे ठीक तो कुछ और लगता है, लेकिन करता मैं कुछ और हूं। तब जो ठीक लगता है, वही होता है।
सुकरात ने कहा है, ज्ञान ही आचरण है। वह उसी ज्ञान की बात कर रहा है, जो अंतःकरण से होता है। ज्ञान और आचरण में फिर कोई फर्क नहीं है। अगर फर्क है तो समझना कि आप जिस अंतःकरण की बात कर रहे हैं, वह आपका अंतःकरण नहीं है। उस आंतरिक अंतःकरण का अनुभव ठीक वैसा ही हो जाता है, जैसा कोई आग में जानते हुए कि हाथ जल जाता है और हाथ नहीं डालता। क्योंकि जानता है कि हाथ जल जाता है। और कभी ऐसा नहीं कहता कि मैं जानता तो हूं कि हाथ जल जाता है, फिर भी क्या करूं, डालता हूं। उस अंतःकरण की आवाज पर आदमी वैसे ही चलता है जैसे आदमी को मकान के बाहर निकलना हो तो दरवाजे से निकलता है। और वह यह नहीं कहता कि मुझे मालूम तो है कि दरवाजा कहां है, लेकिन क्या करूं, कमजोरी कि दीवाल से निकल जाता हूं, सिर फूट जाता है। मालूम तो है कि दरवाजा कहां है!
नहीं, वैसा आदमी कभी नहीं कहता कि मुझे मालूम है कि ठीक क्या है, फिर भी मैं गलत करता हूं। क्योंकि वैसी अंतःकरण की स्थिति में जानना और होना, जानना और करना सम-अर्थी हो जाता है। फिर आदमी वैसा नहीं कहता कि मुझे पता तो है कि क्रोध बुरा है, लेकिन क्या करूं, हो जाता है। मुझे पता तो है कि गाली नहीं देनी थी, बुरी है, पीछे पछताता भी हूं, लेकिन क्या करूं, हो जाता है। ध्यान रहे, यह जो हमारे चित्त की दशा है, यह बता रही है कि हमारा करना कहीं और से आ रहा है और हमारी समझ उतनी गहरी नहीं जहां से करना आ रहा है।
तो मेरा ऊपर का अंतःकरण समाज ने मुझे सिखाया है, क्रोध बुरा है तो मैं जानता हूं क्रोध बुरा है, लेकिन गहरे में मेरा जो व्यक्तित्व है, वह इससे ज्यादा गहरा है। वह क्रोध करता है और मैं अवश हो जाता हूं, मेरा कोई उस पर वश नहीं चलता। हां, एक ही काम मैं कर सकता हूं--जो कि थोथे अंतःकरण वाले लोगों को निरंतर करना पड़ता है--वह है; पश्र्चात्ताप। कर लूंगा, फिर पछता लूंगा। और मजे की बात यह है कि कितना ही पश्र्चात्ताप करो, इससे जो किया है उसमें बदलाहट नहीं आती। आज क्रोध करूंगा, सांझ पछताऊंगा, कल सुबह फिर क्रोध करूंगा, कल सांझ फिर पछताऊंगा। और तब पछतावा क्रोध का एक अनिवार्य हिस्सा मात्र हो जाएगा।
और यह भी आप जान कर हैरान होंगे, आमतौर से हम सोचते हैं कि पछताने वाला आदमी अच्छा आदमी है, कम से कम बेचारा क्रोध करता है तो प्रायश्चित तो करता है। कोई बात नहीं, आज क्रोध होता है, प्रायश्चित्त होता है, धीरे-धीरे प्रायश्चित्त की समझ बढ़ेगी तो क्रोध बंद हो जाएगा। बात बिलकुल उलटी है। आदमी प्रायश्चित्त इसलिए नहीं करता कि वह क्रोध को बंद करने वाला है, प्रायश्चित्त इसलिए करता है कि क्रोध से उसके भीतर स्वयं के अहंकार को जो चोट लगती है; प्रायश्चित्त से उसको वह पोंछ डालता है। फिर पुरानी जगह खड़ा हो जाता है, जहां क्रोध करने के पहले खड़ा था। अब वह फिर क्रोध करने में समर्थ है।
अगर मैं सोचता हूं कि मैं अच्छा आदमी हूं--और सभी लोग सोचते हैं कि हम अच्छे आदमी हैं--मैं सोचता हूं कि मैं अच्छा आदमी हूं, मैं सोचता हूं कि मैं कभी क्रोध नहीं करता, और अगर कभी करता भी हूं तो वह दूसरे लोग ऐसी स्थिति बना देते हैं, इसलिए करता हूं। या दूसरों में सुधार करने के लिए करता हूं। ऐसे हम न मालूम कितने रेशनेलाइजेशन अपने आप को समझाने के लिए करते रहते हैं। फिर मैं क्रोध करता हूं, तो फिर मुझे चोट लगती है। मेरे ही सामने मेरा अहंकार दीन हो जाता है। मुझे लगता है, कहां गया वह अच्छा आदमी! तो क्या मैं अच्छा आदमी नहीं हूं? क्रोध तो मैंने किया। तो अब मेरे अच्छे आदमी की जो प्रतिमा खंडित हो गई, उसे पूरा करने का उपाय पश्चात्ताप है। अब मैं पछताता हूं। बुरा किया, बहुत बुरा किया, ऐसा नहीं करना चाहिए था। हो गया। अघट था, घट गया। नियति थी, भाग्य था, मूर्छा आ गई, खयाल न रहा, स्थिति ऐसी हो गई, हजार बहाने खोज कर मैं पछता लेता हूं। मान लेता हूं कि बुरा किया।
इसका मतलब आप समझते हैं?
इसका मतलब यह है कि आदमी तो मैं अच्छा ही हूं। बुरा हो गया, आदमी बुरा नहीं हूं। आदमी का बुरा होना और बुरे कर्म के हो जाने में बड़ा फर्क है। एक वृक्ष है, उसमें एक पत्ता सूखा हुआ है, इससे कोई वृक्ष सूखा हुआ नहीं होता। आदमी तो मैं अच्छा ही हूं। करोड़ कृत्य में एक कृत्य बुरा हो जाता है, तो उससे आदमी तो बुरा नहीं हो जाऊंगा। पश्र्चात्ताप करके सूखे पत्ते को काट कर गिरा देता है, वृक्ष फिर हरा हो जाता है। फिर मैं मान लेता हूं कि आदमी तो अच्छा ही हूं, एक बात बुरी हो गई, इससे कोई मैं बुरा नहीं हो जाता हूं। किससे बुरा नहीं हो जाता! फिर पश्र्चात्ताप भी मैंने कर लिया। बुरे आदमी कहीं पश्र्चात्ताप करते हैं! माफी भी मांग सकता हूं, क्षमा भी मांग सकता हूं। लेकिन यह मैं सिर्फ पुनः स्थिति वही की वही पाने की कोशिश कर रहा हूं, जो क्रोध के पहले मेरी थी। उसे जिस क्षण मैं पा लूंगा, मैं फिर उसी जगह आ गया जब मैं पुनः क्रोध कर सकता हूं। मैं पुनः क्रोध करूंगा। जिस अंतःकरण को हम अंतःकरण समझते हैं, वह हमें सिर्फ इसी दमन, पश्र्चात्ताप, विकृति में ले जाता है। लेकिन समाज को उपादेयता है। समाज थोड़ा नियंत्रण करने में समर्थ हो जाता है।
इस सूत्र में जिस अंतःकरण की बात है वह वह अंतःकरण है, जिसे हम कहें समाज से अस्पर्शित, मेरी ही भीतर की मेरी ही चेतना की जो आवाज है, सहजस्फूर्त मेरा ही जो स्वर है, उसकी तलाश। धर्म अंतःकरण की तलाश है।
क्या है मेरा अंतःकरण?
जीसस एक गांव के बाहर ठहरे हुए हैं। गांव के लोग एक स्त्री को पकड़ कर लाते हैं और कहते हैं कि व्यभिचारिणी है। और हमारे शास्त्र में लिखा है कि व्यभिचारिणी को पत्थरों से मार कर मार डालना चाहिए, आप क्या कहते हैं? उस शास्त्र का जीसस को भी पता था। जीसस ने भी बचपन से उसी शास्त्र को पढ़ा-सुना था। जीसस भी उसी समूह के अंग थे। और वे गांव के लोग जान कर ही यह मामला लाए थे। क्योंकि वे जानना चाहते थे कि अगर जीसस कहें कि नहीं, वह शास्त्र गलत है, तो फिर हम जीसस को ही पत्थरों से मार डालें; और अगर जीसस कहें कि शास्त्र सही है, तो हम जीसस के सामने ही इस स्त्री की हत्या करें और फिर जीसस से पूछें कि तुम्हारी शिक्षाओं का क्या हुआ! जिनमें तुम कहते हो कि अगर कोई एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा उसके सामने कर देना। और जिनमें तुम कहते हो कि शत्रु को भी प्रेम करना। और जिनमें तुम कहते हो कि बुराई का भी प्रतिरोध न करना--रेसिस्ट नॉट इविल, ऐसा तुम कहते हो, उसका क्या हुआ? तो उन्होंने एक पहेली में जीसस को फंसाना चाहा।
जीसस ने आंख बंद कर लीं, फिर जीसस ने आंख खोलीं--यह क्षण भर का आंख बंद करना और खोलना जीसस का अपने अंतःकरण में उतरना था--और जीसस ने कहा कि शास्त्र बिलकुल ठीक कहता है कि जो व्यभिचार करे, उसे पत्थरों से मार डालो। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि शास्त्र में एक बात छूट गई है। और वह यह है कि पत्थर मारने का अधिकारी वही है जिसने कभी व्यभिचार न किया हो, या व्यभिचार का विचार न किया हो। तो अब तुम पत्थर उठा लो। तब तो भीड़ में जो समाज के नेता थे, आगे खड़े थे, वे धीरे-धीरे पीछे सरकने लगे। जीसस ने कहा कोई भाग न पाए, क्योंकि आज इस स्त्री की हत्या करनी ही है, और सामने आए वह आदमी पत्थर उठा कर जो कह सकता हो कि मैंने व्यभिचार का विचार नहीं किया, व्यभिचार नहीं किया। भीड़ छंट गई।
थोड़ी ही देर में उस निर्जन जगह में जीसस और उस स्त्री के सिवाय कोई भी न बचा। उस स्त्री ने जीसस के चरणों पर सिर रख दिया और कहा कि मुझे दंड दो। क्योंकि उनसे तो मैं कह सकती थी कि मैं व्यभिचारिणी नहीं हूं, लेकिन तुमसे कैसे कहूं! उनसे मैं लड़ सकती थी कि वे मेरे ऊपर अन्याय कर रहे हैं, लेकिन तुमसे मैं कैसे कहूं! मुझे दंड दो। जीसस ने कहा, मैं तुझे दंड देने वाला कौन? जीसस ने फिर क्षण भर को आंख बंद कीं, आंख खोलीं, उस स्त्री को कहा कि तू जा। क्योंकि उस परम शक्ति के सामने ही तेरा निर्णय हो सकता है। मैं निर्णय करने वाला कौन?
यह अंतःकरण की आवाज है।
यह जीसस का बार-बार भीतर झांकना, निश्चित ही जीसस के अंतःकरण ने कुछ बात कही जो दुनिया में जिसके पास भी अंतःकरण होगा, यही बात कहेगा। क्या हक है उसे, जो खुद व्यभिचारी रहा हो, किसी को व्यभिचारी कहने का भी क्या हक है? लेकिन जीसस तो व्यभिचारी भी नहीं थे, उन्हें तो हक था पत्थर मार देने का। लेकिन जीसस ने फिर अपने अंतःकरण में झांका और कहा कि मैं कौन हूं तेरा निर्णय करने वाला? न मैंने तुझे बनाया, न मैंने तुझे जीवन दिया, न मैं तेरे जीवन का नियंता हूं, तो मैं निर्णायक कैसे हो सकता हूं? तो मैं इतना ही कहता हूं तुझसे कि दूसरों के निर्णायक मत बनना। तू जा सकती है।
यह किसी समाज की आवाज नहीं है। ऐसा किसी शास्त्र में लिखा नहीं है। ऐसा किसी समाज ने किसी को सिखाया नहीं है। यह अनसीखी, अनलर्न्ड सहज-स्फुरणा है। अगर बुद्ध से पूछेंगे, तो यही आवाज निकलेगी। अगर महावीर से पूछेंगे, तो यही आवाज निकलेगी। यह आवाज व्यक्तियों की आवाज नहीं है, व्यक्तियों के भीतर जो छिपा है सर्वात्मा, निर्व्यक्ति; व्यक्तियों के भीतर जो छिपी है चैतन्य की ऊर्जा, उसकी आवाज है। इसका नाम है अंतःकरण। इसकी तलाश करनी पड़े। हमारे पास है तो, लेकिन छिपा है। प्रकट बिलकुल नहीं है। है तो, क्योंकि हम हैं; चेतना है, तो चेतना की अपनी वाणी है, अपनी आवाज है। लेकिन छिपी है। और जो आवाजें हमसे निकलती रहती हैं, वे दूसरों की आवाजें हैं, जो हममें डाली गई हैं। वे आवाजें ग्रामोफोन रिकॉर्ड की आवाजें हैं, वे हमारे अंतःकरण की आवाजें नहीं हैं। ग्रामोफोन रिकॉर्ड की तरह हमारे भीतर ग्रूव्ज बनाए हैं समाज ने, उन पर सुई घूमती है बुद्धि की, आवाज आ जाती है, लगता है यह बुरा, वह भला।
यह भला और बुरा एक तरफ जो करने की क्षमता रखता हो और भीतर उतरने का साहस जुटाता हो कि मैं देखूं उस जगह को, जिस दिन मैं पैदा नहीं हुआ था उस दिन भी जो जगह मेरी थी; जब मैं गहन अंधेरी रात में सो जाता हूं, सुषुप्त हो जाता हूं, सपने भी खो जाते हैं, तब भी जो जगह मेरी है; जब मैं मरूंगा, शरीर गलेगा, टूटेगा, नष्ट हो जाएगा, तब भी जो जगह मेरी होगी, उस जगह को खोजूं, वही है अंतःकरण।
खोजने की एक प्रक्रिया आपको कहूं। जब भी आपके भीतर लगे कि यह बुरा, वह भला; यह ठीक, वह गैर-ठीक; तब जरा निरीक्षण करें, यह जिस समाज में आप पैदा हुए हैं उसका प्रतिफलन है, कि आपका विवेक है?
शंकर ने छोटी उम्र में संन्यास लिया। बूढ़ी मां थी--बड़ी उम्र में शंकर पैदा हुए थे। पिता चल बसे थे। तो बूढ़ी मां हिम्मत नहीं जुटा पाती थी कि शंकर संन्यास ले लें। नदी में तैरते थे तो मगर ने शंकर का पैर पकड़ लिया, तो सारा गांव बचाने को इकट्ठा हो गया, मां भी भागी हुई आई। तो शंकर ने चिल्ला कर पूछा कि मैं मगर से प्रार्थना कर सकता हूं और आशा है मुझे कि पैर छूट जाए, लेकिन संन्यास के बाबत क्या? अगर संन्यास के लिए तू राजी हो, तो मुझे लगता है कि मगर पैर छोड़ देगा। मां ने यह देख कर कि मरने से तो संन्यास ही बेहतर--और इससे कम में कोई राजी नहीं होता--कह दिया कि मैं वायदा करती हूं, तू संन्यास ले लेना, मगर बच। पता नहीं मैत्री रही होगी गहरी शंकर और उस मगर में, किन्हीं जन्मों के संबंध रहे होंगे, मगर ने पैर छोड़ दिया। शंकर बच गए, संन्यास लिया।
लेकिन मां ने जाते वक्त कहा कि एक वायदा कि मेरा अंतिम दाह-संस्कार तू ही करना। यह उलझन की बात थी उन दिनों। शंकर कहां होंगे, कहां भटकते होंगे--पैदल थी यात्रा, सारे मुल्क में भटकना था! भिखारी होंगे। फिर भी वायदा उन्होंने किया। फिर मां बीमार पड़ी, खबर मिली, शंकर भागने लगे। शिष्यों ने, साथियों ने समझाया कि कौन मां, कौन पिता! संन्यासी का कोई माता-पिता होता है! और दिए थे वायदे अज्ञान में। माया है सारा संसार, तुम्हीं कहते हो। कैसा वायदा, कैसा वचन! कौन पूरा करने वाला है! सब सपना है। तुम ही कहते हो। शंकर आंख बंद करके बैठ गए और फिर उठ कर उन्होंने कहा कि नहीं, जाना ही पड़ेगा। होगा संसार माया, होंगे सब संबंध झूठे, लेकिन मेरे भीतर जो छिपा है वह कहता है: जाना ही पड़ेगा।
लेकिन शक हो सकता है, शक हो सकता है हमें कि यह असली अंतःकरण हो, न हो। क्योंकि आखिर मां, दिया वचन, यह संस्कार की ही छाप हो सकती है। समाज की ही छाप हो सकती है कि दिया हुआ वचन है, मां को दिया है, मां मरती होगी, आखिरी क्षण है, यह समाज की छाप हो सकती है। लेकिन शीघ्र ही पता चल गया साथियों को, शिष्यों को कि वह समाज की आवाज नहीं थी।
शंकर गांव में पहुंचे, नंबूद्रीपाद ब्राह्मण का परिवार था। श्रेष्ठतम दक्षिण के ब्राह्मण। गांव ने इनकार कर दिया कि संन्यासी बेटा कैसे दाह संस्कार कर सकता है? ब्राह्मणों का गांव था--संन्यासी जो हो गया उसका कौन मां और कौन पिता, कैसे संन्यासी बेटा दाह संस्कार कर सकता है! यह नहीं हो सकता। यह तो संन्यास भ्रष्ट हो जाएगा।
शंकर ने कहा कि दाह-संस्कार तो मैं करूंगा ही। कोई गांव में अर्थी में सम्मिलित होने न आया। मां वजनी थी, शरीर भारी था, शंकर दुबले-पतले। बड़ी मुश्किल पड़ गई, इसको मरघट तक ले जाना मुश्किल हो गया। तो शंकर ने आंख बंद की, उठाई तलवार, तीन टुकड़े मां के शरीर के किए, एक-एक टुकड़े को एक-एक बार ले जाकर मरघट पहुंचे। इस आदमी के पास समाजवाला अंतःकरण नहीं हो सकता! यह जो मां के शरीर के तीन टुकड़े कर सके। मित्र भी घबड़ाए, शिष्य भी घबड़ाए, उन्होंने कहा हद्द कर दी! वचन क्या पूरा करना है, कोई सीमा भी होती है! तुम क्या कर रहे? तो शंकर ने कहा: जगत माया है। और शरीर तो मर ही गया। और शरीर को काटने में क्या दिक्कत है! मैंने पूछ लिया अपने भीतर से।
समाज जो संस्कार देते हैं--समाज, सभी समाज देते हैं--उन्हें एक तरफ हटाएं... हटाना पड़े, और फिर धीरे-धीरे भीतर निरीक्षण करना पड़े, एक घड़ी ऐसी आ जाती है भीतर जब साफ-साफ दिखाई पड़ने लगता है, क्या समाज का है और क्या मेरा है। क्योंकि जब स्वयं की आवाज आती है तो उसके विपरीत कोई आवाज नहीं आती। वह एक-स्वर होती है। समाज की कैसी ही आवाज हो, उसके विपरीत आवाज सदा मौजूद होती है। चाहे कितना ही अंतःकरण कहता हो--तथाकथित अंतःकरण--कि चोरी बुरी है, एक हिस्सा कहता है: करो भी, कौन देख रहा है! एक हिस्सा कहता है: मांसाहार बुरा है; दूसरा हिस्सा कहता है: सारी दुनिया कर रही है। तो तुम्हीं भले होने के लिए किसलिए पीछे पड़े हो? कोई तुमने भले होने का ठेका लिया है? कि शराब बुरी है। सारी दुनिया पी रही है। तुम क्यों अपना जीवन नष्ट कर रहे हो, पीओ!
अंतःकरण की आवाज का एक लक्षण आपसे कहूं, उसका विरोधी स्वर सदा मौजूद होता है। तथाकथित अंतःकरण में। असली अंतःकरण का विरोधी स्वर मौजूद नहीं होता। एक ही स्वर होता है। उसके विरोध की कोई आवाज नहीं होती। तो जब तक आपको विरोधी स्वर की खनक मिलती रहे, तब तक जानना कि यह समाज के द्वारा दिया गया अंतःकरण है। यह परमात्मा के द्वारा दिया गया अंतःकरण नहीं है। जिस दिन एक स्वर उपलब्ध हो जाए... शंकर ने कहा कि काटेंगे, उठाई तलवार और काट ही डाला। एक क्षण को भी शंकर के मन में न हुआ कि जरा सोच तो लूं, मां के शरीर को काटना! यह कहीं हिंसा न हो जाए, यह मातृहत्या न हो जाए! यह मैं क्या कर रहा हूं, यह कभी नहीं किया गया! किसी बेटे ने नहीं काटा। और फिर शंकर जैसे बेटे ने तो कभी नहीं काटा। मगर नहीं, वह काटकर और जाकर जला आए और बड़े प्रसन्न थे। काम निपट गया था। एक स्वर है।
फिर जिंदगी में, पूरी जिंदगी किसी ने कभी नहीं सुना कि शंकर को एक दफे भी ऐसा खयाल भी आया हो कि मैंने कुछ गलत किया। आप अपने अंतःकरण--जिसको आप अंतःकरण कहते हैं, तथाकथित--उसकी अगर मानें तो भी पछताना पड़ेगा, न मानें तो भी पछताना पड़ेगा। यह दूसरा लक्षण आपको कहता हूं। मानें तो भी पछताना पड़ेगा। न करें चोरी, मान लें, पछताएंगे जिंदगी भर कि चूक गए। सारे लोग कर गुजरे, समय था, अवसर हाथ में आया था, खो गए। फलाने ने की, नहीं पकड़ा गया; फलाने ने की, वह मंत्री हो गया; फलाने ने की, उसने यह कर लिया। और हम भूखे मर रहे हैं। कहां की बात में पड़ गए! कर लें, तो भी पछताएंगे। क्योंकि कर लें तो दीनता पकड़ेगी, ग्लानि पकड़ेगी, अपराध पकड़ेगा कि न करते तो अच्छा होता।
अंतःकरण समाज के द्वारा दिया गया हर हालत में पश्र्चात्ताप लाता है। हर हालत में। क्योंकि दो स्वर हैं। आप एक की ही मान सकते हैं, दूसरे का क्या होगा? दूसरा हिस्सा प्रतीक्षा करेगा, आपको पश्र्चात्ताप करवाएगा। उसकी मानेंगे तो पहला प्रतीक्षा करेगा, वह आपको पश्र्चात्ताप करवाएगा। लेकिन जिस अंतःकरण का इस सूत्र में संकेत है, उसकी आवाज मान कर कभी कोई पश्र्चात्ताप नहीं होता। कभी!
तीसरा लक्षण आपसे कहूं। जिस अंतःकरण में हम जीते हैं, इसकी स्मृति बनती है। क्योंकि कोई भी कृत्य पूरा तो होता नहीं, अधूरा रह जाता है। क्योंकि आधा हिस्सा तो खिलाफ रहता है, अधूरा रहता है। चोरी भी करते हैं तो आधे-आधे मन से होती है। पूरा चोर आपने देखा? ऐसा एकाध आदमी खोज सकते हैं आप जो पूरा बेईमान हो? पूरा बेईमान का मतलब है कि जिसके भीतर जरा भी कहीं खयाल न उठता हो कि गलत कर रहा हूं, बुरा कर रहा हूं, नहीं करना चाहिए। कहीं कोई दबी आवाज न कहती हो कि यह बेईमानी है। नहीं, पूरा बेईमान खोजना मुश्किल है। और इन बेईमानों की दुनिया में पूरा ईमानदार आदमी भी खोजना मुश्किल है। जिसके मन में ऐसा न उठता हो कि कर ही लेते तो क्या बिगड़ जाता था। वह उठता ही रहता है। इस अंतःकरण की अगर मान कर चलिएगा तो इसकी स्मृति बनती है। क्योंकि अधूरा कृत्य रहता है, अटका रह जाता है मन में। लगता है पूरा कर लेते। जिस अंतःकरण की इस सूत्र में चर्चा है, उसकी कोई स्मृति नहीं बनती। पूर्ण कृत्य की कोई स्मृति नहीं होती। वह होता है और खो जाता है।
इसलिए चौथी आपसे आखिरी लक्षणा कहूं। इस अंतःकरण को मान कर आप चलेंगे तो कर्म का बंध होता है, क्योंकि कर्म अधूरा होता है, और उसके साथ स्मृति बनती है और चिपट जाती है मन में और छूटती नहीं, छूटती नहीं। अगर कर्म पूरा हो, टोटल एक्ट हो, कोई स्मृति नहीं बनती, कर्म का कोई बंधन नहीं बनता, चित्त सदा मुक्त रहता है। आपने जो किया है पूर्ण हृदय से, वह आपके हृदय पर बोझ नहीं होता। इसलिए अगर मुझसे पूछें तो मैं कहूंगा, अधूरे मन से जो किया जाता है वही पाप है; और पूरे मन से जो किया जाता है वही पुण्य है। अगर मुझसे पूछें तो पाप और पुण्य की ऐसी परिभाषा है। जो अधूरे मन से किया जाता है वह पाप है, चाहे आपने मंदिर बनाया हो अधूरे मन से। और जो पूरे मन से किया जाता है, वह पुण्य है, चाहे आपने चोरी ही क्यों न की हो। हालांकि पूरे मन से चोरी नहीं की जा सकती, यद्यपि अधूरे मन से मंदिर बनाया जा सकता है।
इस अंतःकरण का, इस शब्द अंतःकरण का पहला खयाल ले लें।
दूसरा शब्द है: ‘प्रणव। ओंकार, ओम्।’
भारतीय साधना के बहुत-बहुत रूप हैं। बड़े भेद हैं उनमें। बड़ी विपरीतताएं हैं। बड़े विवाद हैं। जैसे तीन बड़े भारतीय स्वर हैं साधना के--जैन, बौद्ध, हिंदू। तीनों में बड़े सैद्धांतिक विवाद हैं। कहीं कोई तालमेल नहीं दिखाई पड़ता। हिंदू मानते हैं ईश्र्वर को भी, आत्मा को भी। जैन मानते हैं सिर्फ आत्मा को। ईश्र्वर को नहीं मानते। बौद्ध न मानते ईश्र्वर को, न आत्मा को। बड़े मौलिक भेद हैं। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि ओम् के संबंध में तीनों एक साथ राजी हैं। प्रणव के संबंध में जरा भी विवाद नहीं। छोटी-छोटी चीज पर विवाद हैं और कहीं कोई तालमेल नहीं है, लेकिन यह ओम् शब्द के संबंध में कोई विवाद नहीं है। तो लगता है कि ओम् जो है, वह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है, वैज्ञानिक बात है।
और न केवल भारत में, भारत के बाहर जो तीन बड़े धर्म हैं--यहूदी, इस्लाम और ईसाइयत--ओम् के संबंध में उनका भी कोई विवाद नहीं है, यद्यपि वे उसको ‘अमीन’ कहते हैं। बस इतना ही फर्क है। और ‘ओम्’ जो है और ‘अमीन’ जो है, भाषा शास्त्री कहते हैं, वह एक ही चीज है। उनमें कोई फर्क नहीं है। वह सिर्फ भाषा में उस ध्वनि को पकड़ने में फर्क हुआ है।
इसलिए आपसे यह बात कहना चाहता हूं, ओम् एक शब्द है पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में जिसमें दुनिया के छह महत्वपूर्ण धर्म राजी हैं। जिसे वे स्वीकार करते हैं कि इसमें कुछ है।
इस शब्द में क्या है?
इसे हम दो-तीन प्रकार से खयाल में लें। एक, मनुष्य का मन जो है, वह शब्दों का समूह है। आपके मन में क्या है सिवाय शब्दों के? अगर आपसे हम सारे शब्द बाहर निकाल लें, तो आपका मन नहीं बचेगा। आपका मन करीब-करीब ऐसा है जैसे कि प्याज होती है--सब छिलके बाहर निकाल लें तो प्याज में पीछे कुछ बचता नहीं। ऐसा ही आपका मन है। शब्दों के छिलके। सब शब्द बाहर निकाल लें तो पीछे क्या बचेगा? मन तो नहीं बचेगा, शून्य बचेगा। सोचें थोड़ा आप कि आपके पास कोई शब्द न बचे, तो आपके पास कौन सा मन बचेगा? क्या बचेगा? शब्दों का समूह है मन। और इसी मन से हम सब कुछ कर रहे हैं। बुरा या भला, दुख या सुख, संसार या मोक्ष, जो भी हम कर रहे हैं इस मन से कर रहे हैं।
यह ओम् एक शब्द है--शब्द कहना ठीक नहीं है, एक ध्वनि है, क्योंकि इसका कोई अर्थ नहीं है। शब्द उस ध्वनि को कहते हैं जिसमें कुछ अर्थ हो--ओम् एक ऐसा शब्द है जिसका कोई अर्थ नहीं है, सिर्फ ध्वनि, लेकिन इस ध्वनि में समस्त मूल ध्वनियों का सार है। अ उ म ये तीन मूल ध्वनियां हैं। जैसा मैंने कल आपको कहा कि भारतीय मनीषा को तीन का बड़ा बोध है; और जैसा मैंने आपको कहा--ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ये जीवन के तीन अंग हैं; जैसा मैंने आपको कहा कि इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान फिजिक्स की दृष्टि में पदार्थ के तीन आधार हैं, ऐसे ही भारतीय मनीषा की दृष्टि में अ उ म समस्त भाषा, समस्त वाणी, समस्त शब्दों के तीन आधार हैं। सब ध्वनियां इन तीन ध्वनियों के जोड़ हैं। तो मौलिक तीन ध्वनियां ओम् में हैं। हम ऐसा कह सकते हैं कि ओम् जो है, ध्वनि की दृष्टि से एटम है। ध्वनि की दृष्टि से अणु है। इलेक्ट्रान, पाजिट्रान, न्यूट्रान तीन विद्युत कणों से मिल कर परमाणु निर्मित होता है--पदार्थ का। अ उ म तीन से निर्मित होकर जो परमाणु बनता है, वह है मन का।
ओम् मन का परमाणु है। और सूक्ष्मतम परमाणु है। इससे सूक्ष्म कोई परमाणु नहीं हो सकता। इसको हम तोड़ दें, जैसा कि वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर हम इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और पाजिट्रान को तोड़ दें तो फिर हमारे हाथ से परमाणु खो जाता है शून्य में, फिर पीछे कुछ मिलता नहीं, फिर पीछे कुछ पकड़ में नहीं आता, सब निराकार हो जाता है; लेकिन उसके टूटते ही विराट ऊर्जा पैदा होती है, जिसको हम अणु-विस्फोट कहते हैं। वह अणु-विस्फोट इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और पाजिट्रान, इन तीनों के अलग हो जाने से, इन तीनों के बीच जो ऊर्जा छिपी थी, जो अनंत शक्ति छिपी थी, इन तीनों के हटते ही रिलीज होती है। छूटती है। एक परमाणु बम हमने गिरा कर देखा हिरोशिमा पर। पांच मिनट के भीतर एक लाख बीस हजार आदमी राख हो गए। एक छोटा सा परमाणु--जो आंख से दिखाई नहीं पड़ता--उसका विस्फोट है। उन तीनों के जुड़े रहने से उतनी शक्ति उसके भीतर छिपी है। छूटते ही इतनी शक्ति बाहर विसर्जित होती है।
ठीक भारतीय मेधा ने भी--क्योंकि भारतीय मेधा ने पदार्थ पर बहुत मेहनत नहीं की; क्योंकि उसे लगा कि पदार्थ की मेहनत कहीं ले नहीं जाती; पदार्थ पर मेहनत करके भी देख ली तो भी आदमी को कुछ उपलब्ध नहीं होता; सिर्फ वहम होता है कि मिल रहा है, मिल रहा है, मिल रहा है और हाथ खाली रह जाते हैं--तो भारतीय मेधा ने पदार्थ पर मेहनत छोड़ कर मन पर मेहनत शुरू की। क्योंकि जिस मन को ही सुख-दुख होते हैं, उसे ही क्यों न बदल डालें। जिन वस्तुओं से सुख-दुख होते हैं उन्हें इकट्ठा करने के बजाय, जिस मन को सुख-दुख होते हैं उसे ही क्यों न बदल डालें, यह भारतीय दृष्टि निर्मित हुई। यह बहुत अनुभव से हुई।
उन सब चीजों को इकट्ठा कर लिया जिनसे सुख मिलता है, फिर भी पाया कि इकट्ठे होते ही उनसे सुख नहीं मिलता। जिनसे दुख मिलता है उनको अलग करके भी देख लिया, अलग हट जाने पर दुख किसी और से मिलना शुरू हो जाता है लेकिन समाप्त नहीं होता। अंततः पाया कि वस्तुओं से सुख-दुख का कोई सीधा संबंध नहीं है। सुख और दुख के लिए वस्तुएं सिर्फ खूंटियों का काम करती हैं। घर में हम जाते हैं, खूंटी पर कोट टांग देते हैं। अगर खूंटी न मिली तो दरवाजे पर टांग देते हैं। दरवाजा न मिला, खिड़की पर टांग देते हैं। कोट कहीं न कहीं टंगता ही है, खूंटी से कोई बहुत प्रयोजन नहीं है। इसलिए खूंटी तोड़ दो, बड़ी कर लो, कुछ फर्क नहीं पड़ता, कोट टंग ही जाता है।
भारतीय मन ने जाना कि वस्तुएं केवल खूटियों का काम करती हैं और मन उन पर टंगता है, कोट की तरह। तो अगर दुखी मन है, तो हर खूंटी पर दुखी हो जाता है। सुखी मन है, हर खूंटी पर सुखी हो जाता है। शांत मन है, हर खूंटी पर शांत रहता है। अशांत मन है, हर खूंटी पर अशांत हो जाता है। इसलिए सवाल खूंटियां बदलने का नहीं, इस मन को ही बदल लेने का है। तो मन की खोज शुरू की। और मन की खोज में जो विश्लेषण उन्हें लगा, उसमें उन्होंने पाया कि ओम् जो है, प्रणव जो है, वह मन का परमाणु है। क्या इस परमाणु का भी विस्फोट हो सकता है? अगर हो सके, तो इस परमाणु से भी ऊर्जा पैदा होगी। क्या इस परमाणु का भी एक्सप्लोजन हो सकता है? योग कहता है--हो सकता है। और इसका अगर विसर्जन हो जाए, अगर यह टूट जाए तो भीतर ऊर्जा पैदा होगी। भीतर अग्नि पैदा होगी। और वही अग्नि व्यक्ति को, उसके अहंकार को, उसके कर्मों को, उसके पापों को, उसके पुण्यों को, उसने जो भी किया है--उसके अतीत को, उसके समस्त बोझ को, उसके समस्त भार को राख कर देती है। यही अग्नि।
अब इस सूत्र को हम पढ़ें।
‘ज्ञानी लोग अंतःकरण को नीचे की अरणि बनाते हैं और प्रणव को ऊपर की, और इन दोनों से ज्ञान के मंथन का अभ्यास करते हैं। इससे जो ज्ञानाग्नि पैदा होती है, उसमें अपने समस्त दोषों को जला कर संसार-बंधन से छूट जाते हैं।’
आपने शायद अरणि देखी हो? दो लकड़ियों को रगड़ कर आग पैदा हो जाती है। दो सूखी लकड़ियों को रगड़ कर आग पैदा हो जाती है। उन पुराने दिनों में, जब यह उपनिषद लिखा गया, तब आग को पैदा करने का वही सर्वसुलभ उपाय था। या तो चकमक का पत्थर होता है, उनको दो को रगड़ो; या अरणि विशेष तरह की लकड़ी होती है, उन दोनों को रगड़ो, तो अग्नि पैदा हो जाती है।
तो यह सिर्फ प्रतीक है। इस प्रतीक में ऋषि ने कहा है कि अंतःकरण को नीचे की अरणि, नीचे की लकड़ी और ओम् को ऊपर की लकड़ी, ऊपर की अरणि, और इन दोनों की रगड़ से जो अग्नि पैदा होती है वह अग्नि व्यक्ति के समस्त अतीत को, समस्त कर्मों को, समस्त अज्ञान को जला कर राख कर देती है और व्यक्ति मुक्त हो जाता है।
ओम् एक अरणि। इस ओम् का आंतरिक-उच्चार--उसकी मैं तुमसे बात करूंगा। पहली बात, अंतःकरण की खोज। क्योंकि आपका जो थोथा सामाजिक अंतःकरण है, उसमें आग-वाग बिलकुल पैदा नहीं हो सकती। उसमें कुछ पैदा नहीं हो सकता। वह अरणि नहीं बन सकता। इसलिए मैंने अंतःकरण की इतनी बात आपसे की। पहले इस अंतःकरण की खोज, फिर ओम् का आंतरिक-उच्चार।
तो ओम् को हम तीन तरह से उच्चार कर सकते हैं। एक तो जोर से, ओंठों के द्वारा। वह बहिर-उच्चार है। फिर हम ओंठों को बंद कर लें, जीभ का भी उपयोग न करें, लेकिन भीतर मन में ही उच्चार करें। वह नंबर दो का उच्चार है। वह मध्य का उच्चार है। फिर एक तीसरा और आंतरिक-उच्चार है, जब हम न तो ओठों का उपयोग करें, न कंठ का उपयोग करें, न मन का उपयोग करें, और सिर्फ ओम् गूंजता रह जाए। जब यह तीसरा उच्चार संभव हो जाता है, तो ओम् की जो परम आणविक स्थिति है वह हमारे हाथ में आ जाती है। और नीचे का अंतःकरण हमारे पास हो और यह ओम् की परम आण्विक सूक्ष्मतम मात्रा हमारे साथ हो, तो इन दोनों की रगड़ से जो अग्नि पैदा होती है, वही ज्ञानाग्नि है।
तो पहले तो उच्चार करके बाहर ही ओम् का अभ्यास करना होता है। पहले तो ओंठ से ही, वाणी से ही ओम् का उच्चार करके अभ्यास करना होता है। फिर ओंठ बंद कर लें, फिर मन से ही उच्चार करें।
प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग समय लगता है। इंटेसिटी पर, त्वरा पर निर्भर है। कितनी तीव्रता से, तो जल्दी भी हो जाता है। कितनी सघनता से, कितनी प्यास से, तो जल्दी भी हो जाता है।
फिर जब मन का उच्चार इतना सहज हो जाए कि आप कोई भी काम करते रहें और मन का उच्चार चलता रहे, आप भूल जाएं तो भी चलता रहे--हो जाता है--आप रास्ते पर चल रहे हैं, उच्चार चल रहा है; आप काम कर रहे हैं, उच्चार चल रहा है; भोजन कर रहे हैं; उच्चार चल रहा है; फिर तो धीरे-धीरे ऐसी हालत हो जाती है कि आप बात भी कर रहे हैं तो उच्चार चल रहा है। जब उच्चार इतना स्वाभाविक हो जाए कि आप सो भी रहे हैं, उच्चार चल रहा है; सोते हैं तो भी उच्चार चलता रहता है, सुबह नींद खुलती है तो जो पहली बात स्मरण में आती है, वह उच्चार का अनुभव आता है कि उच्चार चल रहा है, और सुबह पता चलता है कि रात वह चलता ही रहा।
स्वामी राम अमरीका से वापस लौटे, तो सरदार पूर्णसिंह उनके पास थे, हिमालय में। एक रात, आधी रात है, दोनों एक कमरे में सोए हैं, पूर्णसिंह की नींद टूट गई--अचानक रामऽऽ रामऽऽ की आवाज कमरे में सुनाई पड़ी। तो वे बहुत हैरान हुए कि क्या रामतीर्थ जग रहे हैं, राम का उच्चार कर रहे हैं? गए। रामतीर्थ तो सो रहे हैं, उनकी नाक से घर्राटे की आवाज आ रही है। वे तो गहरी नींद में हैं, पर आवाज आ रही है। क्या कोई मकान के आस-पास आवाज कर रहा है? डरे हुए बाहर गए। टॉर्च जला कर सब तरफ देख आए। एकांत वन है, कहीं कोई नहीं है। बरांडा खाली है, दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन बरांडे में जाने पर पता चला कि आवाज थोड़ी कम हो गई।
भीतर आए तो आवाज बढ़ गई। तो समझ में आया कि आवाज तो कमरे के भीतर ही हो रही है, लेकिन कमरा तो एक ही है। बिस्तर के दोनों के नीचे झांक कर देखा, कहीं कोई नहीं है। झांक कर जब देख रहे थे, तो राम की खाट के पास गए तो वहां आवाज और ज्यादा मालूम पड़ी। तो राम के हृदय पर कान रख कर देखा तो पता चला वहां आवाज आ रही है। पैर के पास रख कर देखा तो पता चला आवाज आ रही है। हाथ के पास रख कर देखा तो पता चला आवाज आ रही है। राम की यह आवाज पूरे शरीर में ध्वनित हो रही है। घबड़ा गए। चौंक कर राम को उठाया कि यह क्या हो रहा है? तो राम ने कहा: इसमें क्या बात है। यह बहुत दिनों से चल रहा है। पहले मैं भी चौंक जाता था, खुद ही चौंक जाता था कि यह कोई दूसरा तो नहीं कर रहा है, क्या हो रहा है। लेकिन अब यह सहज हो गया है। यह भीतर चलता ही रहता है, चलता ही रहता है। तू थोड़ा शांत रहा होगा, इसलिए तुझे सुनाई पड़ गया, शांति से सो जा।
जब ऐसी अवस्था बन जाती है, तब तीसरी संभावना खुल सकती है। तब फिर करना ही नहीं पड़ता। तब मन को भी अलग किया जा सकता है कि मैं करूंगा ही नहीं अपनी तरफ से। शांत बैठ जाऊंगा, मैं करूंगा ही नहीं; न ओंठ से, न मन से, न कोई संकल्प से, कुछ करूंगा ही नहीं। तब अचानक पता चलता है कि आवाज तो हो रही है। मैं सुन रहा हूं, कर नहीं रहा हूं। जब मेरे ही भीतर मैं सुनने वाला हो जाता हूं, करने वाला नहीं, तब परम आण्विक स्थिति ओम् की उपलब्ध होती है। तब अरणि बन जाता है ओम्। और तब इस ओम् का जो विस्फोट है, नीचे की अंतःकरण की अरणि से टकरा कर जो विस्फोट होता है, वह विस्फोट व्यक्ति के भीतर सब, सब जो व्यर्थ है, सबको जला जाता है। उसके बाद व्यक्ति वही नहीं है जो था। दूसरा हो गया। यह दूसरा ही जन्म है। पुराना आदमी समाप्त ही हो गया। इसका उससे कोई लेना-देना ही नहीं। इन दोनों के बीच कोई कंटिन्यूटी, कोई सातत्य भी नहीं है। वह गया, यह दूसरा ही आदमी है।
और जब तक ऐसी अंतर-अग्नि न जल जाए, तब तक व्यक्ति संसार के बंधन से मुक्त नहीं होता है।
अंतिम बात, हमारे भीतर अस्तित्व ने वह कुंजी रख दी है, जिसका हम कभी भी उपयोग करें तो मुक्त हो सकते हैं। न उपयोग करें, वह हमारी जिम्मेवारी है।
इतना ही।
ज्ञान निर्मथनास्यासात् पाशं दहति पण्डितः।।11।।
ज्ञानी लोग अंतःकरण को नीचे की अरणि बनाते हैं और प्रणव को ऊपर की। और इन दोनों से ज्ञान के मंथन का अभ्यास करते हैं। इससे जो ज्ञानाग्नि उत्पन्न होती है, उसमें अपने समस्त दोषों को जला कर संसार-बंधन से छूट जाते हैं।।11।।
सूत्र में प्रवेश के पहले सूत्र के कुछ आधारभूत शब्दों को समझ लें।
पहला आधारभूत शब्द इस सूत्र में है: ‘अंतःकरण।’ अंतःकरण के साथ थोड़ी कठिनाई है। क्योंकि जिसे हम अंतःकरण कहते हैं, वह अंतःकरण नहीं है। और जो अंतःकरण है, उसका साधारणतः हमें कभी पता ही नहीं चलता।
हम किसे अंतःकरण कहते हैं?
एक आदमी चोरी को जाता है। कदम उठाता है चोरी के लिए, भीतर कोई कहता है: चोरी मत करो, चोरी पाप है। एक आदमी मांस खाने जाता है, भीतर कोई कहता है: मांस मत खाओ, मांस खाना बुरा है। कोई शराबघर में जाता है, भीतर कोई कहता है: शराब मत पीओ। इस आवाज को हम अंतःकरण कहते हैं, कांशियंस कहते हैं। पर यह अंतःकरण नहीं है। यह तो समाज की आवाज है हमारे भीतर, हमारी अपनी आवाज नहीं। यह हमारी आत्मा की आवाज नहीं है। यह तो समाज की सिखावन है। यह तो समाज की शिक्षा है। तो यदि गैर-मांसाहारी घर में आप पैदा हुए हैं, शाकाहारी घर में पैदा हुए हैं, और बचपन से ही सुना है कि मांसाहार पाप है, मांसाहार बुरा है, तो ही मांसाहार करते समय आपका अंतःकरण कहेगा: बुरा है, पाप है, मत करो। यह आपकी आवाज नहीं है, क्योंकि मांसाहारी के घर में जो बड़ा होता है, उसमें यह आवाज सुनाई नहीं पड़ती।
अगर इसे हम अंतःकरण कहें तो हमें मानना पड़ेगा कि दुनिया में कई तरह के अंतःकरण हैं। तब तो हमें मानना पड़ेगा कि परमात्मा की जो आंतरिक आवाज है, वह भी बहुत तरह से बोलती है। किसी को कहती है कि मांसाहार करो, किसी को कहती है: मांसाहार मत करो।
समाज के नियम की भिन्नता के कारण यह भिन्नता है, यह अंतःकरण की आवाज नहीं है। जिस दिन अंतःकरण की आवाज सुनाई पड़ती है और अंतःकरण उपलब्ध हो जाता है, उस दिन जगत के कोने-कोने में वह आवाज एक ही है। वे दो आवाजें नहीं होतीं। हिंदू का अंतःकरण और मुसलमान का अंतःकरण और ईसाई और जैन का अंतःकरण, ऐसे कोई अंतःकरण नहीं होते। लेकिन जिसे हम अंतःकरण कहते हैं, वह हिंदू का अलग होता है, जैन का अलग होता है, बौद्ध का अलग होता है। हिंदू में भी ब्राह्मण का अलग होता है, क्षत्रिय का अलग होता है, शूद्र का अलग होता है।
समाज ने बड़ी होशियारी की है। इसके पहले कि हमें पता चले कि हमारी भीतर की आवाज क्या है, समाज एक आवाज को भीतर बिठा देता है, और हमें समझा देता है कि यही हमारे भीतर की आवाज है। समाज की मजबूरी है। समाज को करने का कारण है। तो समाज को दोष देना व्यर्थ है, क्योंकि समाज की अपनी मुसीबत है। वह जो भीतर का अंतःकरण है, वह सभी लोग खोज ही नहीं पाते और अगर समाज कोई भी अंतःकरण पैदा न करे, तो आदमी पशु जैसा हो जाएगा। तो समाज आप पर छोड़ नहीं सकता कि जब आप खोजेंगे अंतःकरण, तब तक आपको छोड़ा नहीं जा सकता। क्योंकि भय है इस बात का कि आप बिलकुल पशु जैसे न हो जाएं। खोजना तो दूर रहा, कहीं ऐसा न हो कि समय बीत जाए तो फिर समाज भी आपको अंतःकरण देने में असमर्थ हो जाए।
इसलिए जिन-जिन समाजों में धर्म का प्रभाव शिथिल हुआ है, जिन-जिन समाजों में पारिवारिक शिक्षण कम हुआ है, जिन-जिन समाजों में शिक्षा का काम निरपेक्ष सरकारों ने ले लिया है, वहां असली अंतःकरण की आवाज तो पैदा ही नहीं होती, नकली अंतःकरण की आवाज भी समाप्त हो जाती है। और आदमी करीब-करीब मनुष्य से नीचे के तल की स्वच्छंदता में जीना शुरू कर देता है। समाज की मजबूरी है। आप पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसलिए समाज इसके पहले कि आप अपने अंतःकरण को खोजें, एक सब्स्टीट्यूट कांशियंस, एक परिपूरक अंतःकरण आपके भीतर निर्मित करता है।
तो हर समाज अलग करेगा, क्योंकि हर समाज की समझ, मान्यता, परंपरा, संस्कृति भिन्न है। एक समाज सोच भी नहीं सकता कि चचेरी बहन से शादी हो सकती है। सोच ही नहीं सकता। लेकिन दूसरा समाज सुविधापूर्ण रूप से कर सकता है। न केवल सुविधापूर्ण रूप से, बल्कि जब तक चचेरी बहन मिले तक तक किसी और से शादी करना व्यर्थ ही माने। अड़चन जरा भी नहीं है। समाज की मान्यता के ऊपर निर्भर है। और समाज की मान्यता हजारों साल के विशेष भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है।
ऐसे लोग हैं--हिंदुस्तान में ऐसे लोग हैं, राजस्थान में ऐसे लोग हैं--जिनमें यह परंपरा रही है कि जब तक लड़का चोरी करने में कुशल न हो, उसका विवाह न हो सके। लड़की वाला पूछेगा कि लड़के ने कितनी चोरियां कीं, कितने डाके डाले? कभी जेल भी गया है या नहीं? अगर लड़के ने चोरी ही नहीं की, डाका ही नहीं डाला, जेल भी नहीं गया, तो ऐसे निकम्मे लड़के के साथ शादी कौन करेगा!
चोरों के समाज हैं। तो वहां चोरी नियम है। वहां चोरी में कुशलता योग्यता है। पख्तून हैं, पाकिस्तान की सीमा पर... मेरे एक मित्र पख्तूनिस्तान की यात्रा पर थे। उन्होंने लौट कर मुझे कहा कि जब हम यात्रा पर भीतर प्रवेश किए पख्तूनों के इलाकों में, तो हमें कहा गया कि सांझ के बाद कभी भी जीप में मत चलना, क्योंकि पख्तून लड़के अक्सर ही ड्राइवरों को निशाना बना लेते हैं। तो उन्होंने कहा: लेकिन हमारा किसी से झगड़ा नहीं है, कोई निशाना क्यों बनाएगा? उन्होंने कहा: झगड़े का सवाल नहीं है, निशाना सीखने के लिए; जवान लड़के हैं, निशाना सीख रहे हैं, तो एक ड्राइवर जा रहा है, गाड़ी जा रही है, वे गोली मार देंगे। अगर आप चिड़िया को निशाना बना कर सीखने के लिए मार सकते हैं, तो हर्ज क्या है; आदमी को भी निशाना बनाया जा सकता है, सीखने के लिए। और फिर जब अंत में आदमियों को ही मारना है, तो चिड़ियों को बीच में क्यों फंसाएं; निशाना ठीक ही जगह लगाना सीखना चाहिए। मगर पख्तून लड़के को कोई अंतःकरण में ऐसा भाव पैदा नहीं होगा कि मैं यह क्या कर रहा हूं! क्योंकि उसके समाज में यह कोई सवाल नहीं है।
जापान में आत्महत्या बड़ा गौरवपूर्ण कृत्य है। अगर कोई भी व्यक्ति अपने किसी कर्तव्य से च्युत हो जाता है, तो यह शालीनता की बात है कि वह तत्काल अपनी आत्महत्या कर ले। यह इज्जत की बात है। नैतिक बात है। और जापानी आदमी का अंतःकरण कहता है कि इसी वक्त आत्महत्या कर लो। अगर नहीं करोगे तो यह अपराध है। इसलिए जापान में ‘हाराकिरी’ बड़ा सम्मान्य कृत्य है। दुनिया में कहीं नहीं है। हमको कठिन लगेगा। लेकिन यहां हमारे मुल्क में भी जैनों ने ‘संथारा’ को सम्मान्य कृत्य माना है। अगर कोई व्यक्ति उपवास करके नियमपूर्वक, धर्मपूर्वक, ध्यान करता हुआ अपने शरीर को विसर्जित कर दे, तो इसे आत्महत्या जैन नहीं कहते। यह ‘संथारा’ है। और इसका बड़ा सम्मान होगा। क्योंकि इस व्यक्ति ने शरीर का ठीक से त्याग किया है। लेकिन किसी भी दूसरे मुल्क में यह आत्महत्या समझी जाएगी। और यह आदमी कानून के सामने अपराधी हो जाएगा।
अगर हम दुनिया के रीति-नियमों का खयाल करें, तो हमें पता चलेगा कि करोड़ों अंतःकरण हैं। ये अंतःकरण नहीं हैं। अंतःकरण तो हर आदमी के भीतर एक सा है। वह आवाज तो बिलकुल एक सी है। वह स्वर तो बिलकुल एक सा है। ये समाज के स्वर हैं। लेकिन बच्चे को पता भी नहीं होता तब से हम उसे समाज का स्वर उसके भीतर डालना शुरू कर देते हैं। हम उसे जो सिखा देते हैं, वह सीख जाता है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि सात वर्ष के पहले आदमी अपना पचहत्तर प्रतिशत ज्ञान सीख जाता है। पचहत्तर प्रतिशत जिससे जीवन चलेगा। तो अंतःकरण तो करीब-करीब सात साल के भीतर निर्मित हो जाता है। और यह अंतःकरण फिर बदलना बहुत कठिन है। क्योंकि यह आधार बन जाता है। इसके ऊपर ही व्यक्ति खड़ा होता है। और इसी के आधार पर उसके जीवन का सारा का सारा भवन निर्मित होता है और जब भी वह कोई काम करने जाता है तो इसी अंतःकरण से आवाज आती है। अगर इस अंतःकरण के विपरीत है, तो आवाज आती है कि यह मत करो। समाज इस अंतःकरण को दोहरा इंतजाम करने के लिए बनाता है।
समाज बाहर कानून बनाता है, ताकि कोई आदमी गलत न कर सके। लेकिन बाहर का कानून कितना ही कुशलता से बनाया जाए उससे भी ज्यादा कुशल अपराधी सदा उपलब्ध हो जाते हैं। क्योंकि आखिर आदमी ही कानून बनाता है, तो आदमी ही उससे ज्यादा कुशलता से कानून से बच कर अपराध करने की क्षमता भी खोज लेता है। फिर कितना ही सख्त इंतजाम हो बाहर, बाहर का इंतजाम अपराधों से मुक्ति दिला नहीं सकता। तो समाज एक दूसरी व्यवस्था करता है, भीतर अंतःकरण निर्मित करता है। ताकि बाहर अपराध का भय रोके और भीतर खुद की अंतरात्मा रोके कि मत करो, यह पाप है।
और कानून से तो कोई बच भी सकता है, लेकिन अपने अंतःकरण के सामने निंदा से बचना बहुत मुश्किल है। इसलिए जो आदमी अंतःकरण की मानकर चलता है, समाज उसको आदर देता है। जो नहीं मान कर चलता, उसको अनादर देता है। जो आदमी मान कर चलता है, उसे पुण्य की संपदा मिलती है। जो नहीं मान कर चलता है, उसे पाप मिलता है। जो मान कर चलता है, उसे स्वर्ग का प्रलोभन समाज देता है। जो नहीं मान कर चलता, उसको नरक में डालने का दंड देता है। यह सारी भीतरी व्यवस्था है।
तो एक तो अदालत बाहर है, जो बाहर से रोकती रहेगी। और एक अदालत भीतर है समाज की, जो भीतर से रोकती रहेगी। इन दोनों के बीच में व्यक्ति कसा जाता है, ताकि वह गलत न हो जाए। यह हो सकता है कि वह गलत होने से बच सके, लेकिन गलत होने से बच जाना अच्छा होना नहीं है। यह हो सकता है कि वह अनैतिक न हो पाए इन दोनों व्यवस्थाओं के बीच में, लेकिन अनैतिक न होना नैतिक होना नहीं है। यह हो सकता है वह अपराधी न हो, असामाजिक न हो, लेकिन असामाजिक और अपराधी न होना धार्मिक होना नहीं है। यह सिर्फ निषेध की व्यवस्था है।
जो आदमी बुरा नहीं करता है, ऐसा समझने का कोई कारण नहीं है कि वह अच्छा करता है। और सच्चाई तो यह है कि जो आदमी बुरा करना चाहता है और इस व्यवस्था के कारण--बाहर की और भीतर की, दोनों सामाजिक व्यवस्थाएं हैं--इस व्यवस्था के कारण नहीं कर पाता है, तो एक तरफ से नहीं कर पाता तो दूसरी तरफ से करने के उपाय खोजता है। एक दरवाजे से चूकता है तो दूसरा दरवाजा खोलता है। घूम-फिर कर मार्ग खोजता है और बुराई कर लेता है। हां, बुराई की शक्ल बदल जा सकती है। बुराई का ढंग बदल जा सकता है। बुराई का नाम बदल जा सकता है।
लेकिन जिस बुराई को व्यक्ति ने जबर्दस्ती दबाया है, वह कहीं न कहीं से विस्फोट होने का मार्ग खोजती रहती है। वह विष की तरह भीतर हो जाती है और कहीं से भी फोड़ा बन कर निकलती है। इस कारण से सारी की सारी मनुष्य-जाति बहुत गहरे में रुग्ण हो गई है। अनैतिक दुख पाता है। समाज उसको दंड देता है। अगर समाज दंड नहीं दे पाता तो उसका खुद का समाज द्वारा निर्मित अंतःकरण आत्मनिंदा, आत्मग्लानि, आत्म-अपराध, हीनता से भर जाता है। वह भी दंड हो जाता है। लेकिन जिसको हम नैतिक कहते हैं, जो अपराध से भी बच जाता है, अदालत से बच जाता है, आत्मनिंदा से बच जाता है, वह भीतर न मालूम कितने मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है।
इस सदी के और समस्त मनुष्य-जाति के इतिहास के सबसे बड़े मनस्विद और मनस-रोगों के ज्ञाता सिग्मंड फ्रायड ने कहा है कि जब तक आदमी को नैतिक बनाने की कोशिश चलेगी, तब तक मानसिक रोगों से छुटकारा नहीं हो सकता। खतरनाक वक्तव्य है। लेकिन एक जानकार का वक्तव्य है, जिसने लाखों मानसिक मरीजों को देख कर, अध्ययन करके, विश्लेषण करके, मनोचिकित्सा करके यह नतीजा दिया है कि जब तक आदमी को नैतिक बनाने की चेष्टा चलती है, तब तक मानसिक रोगों से छुटकारे का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि हम एक तरफ से बुराई को दबा देते हैं, वह बुराई दूसरी तरफ से निकलना शुरू होती है। और ध्यान रहे, जब वह दूसरी तरफ से निकलती है तो ज्यादा विकृत होकर निकलती है, परवर्टेड होकर निकलती है। उसका स्वाभाविक मार्ग छिन जाता है। और कई बार ऐसा होता है कि एक बीमारी रोकते हैं, तो वह दस होकर निकलती है। जैसे एक झरने को रोक दें तो दस धाराओं में फूटकर बह जाए।
फ्रायड से भी लोग पूछते थे कि फिर उपाय क्या है? क्या आदमी को नैतिक बनाना बंद कर दें? तो फ्रायड कहता है, नैतिक बनाना बंद किया कि सारी सभ्यता और सारी संस्कृति खो जाएगी। और अगर संस्कृति और सभ्यता बनाए रखनी है तो नैतिक बनाना पड़ेगा, लेकिन परिणाम में आदमी मानसिक रूप से ग्रस्त होता रहेगा, बीमार होता रहेगा। इसलिए जितना सभ्य समाज हो, उतनी ज्यादा मानसिक बीमारी हो जाती है। मात्रा सभ्यता के साथ बढ़ती है। तो फ्रायड ने कहा है कि सभ्यता को अगर रखना है, तो उसका यह अनिवार्य फल है, भोगना ही पड़ेगा।
मगर यह बड़ी दुखद बात है और अवसाद से भरती है मन को। ये दोनों ही बातें चुनने योग्य नहीं मालूम पड़तीं कि आदमी असभ्य हो जाए, असंस्कृत हो जाए, पशुओं जैसा हो जाए। यह भी मन मानने को नहीं करता। और यह भी मानने को नहीं करता कि पूरी जमीन एक पागलखाना होती चली जाए। और धीरे-धीरे लोग इतने मानसिक रोगों से भर जाएं, जैसा कि आज हो गया है। आज जो बहुत सभ्य मुल्क हैं, वहां आज सामान्य चिकित्सक की बजाय मानसिक चिकित्सक की मांग बढ़ती चली जाती है। और सामान्य बीमारियां सामान्य हो गई हैं। उनके इलाज की कोई दिक्कत नहीं रही है, उनका इलाज हो जाता है, चिकित्सा खोज ली गई है। मन की बीमारियां असामान्य रूप से भारी होती जा रही हैं। उनका इलाज मुश्किल मालूम होता जा रहा है। और इलाज करने, खोजने जाते हैं तो जितनी जटिलताएं दिखाई पड़ती हैं वे घबड़ाने वाली हैं।
पिछले पच्चीस वर्षों के मनस्विदों की खोज का यह परिणाम है कि अगर एक पागल आदमी को ठीक करना हो, तो पहले वे उसी आदमी को ठीक करते थे; अब वे कहते हैं कि इस पागल आदमी को हम तब ही ठीक कर सकते हैं जब इसके पूरे परिवार को ठीक करें, क्योंकि यह परिवार के ही कारण पागल है। और अब मनोवैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि परिवार को भी ठीक करने से क्या होगा, इसका परिवार भी एक समूह का हिस्सा है। और वह समूह पूरा का पूरा कुछ पागलपन से भरा है, इसलिए यह परिवार पागल हो जाता है, इसलिए इस परिवार का एक आदमी पागल हो जाता है। और मजे की जो बात है वह यह है कि वे कहते हैं: अगर बीस परिवारों का एक समूह हो तो जो परिवार सबसे ज्यादा संवेदनशील होगा, ईमानदार होगा, वह सबसे पहले पागल हो जाएगा। उस परिवार में जो आदमी सबसे ज्यादा संवेदनशील होगा और ईमानदार होगा, वह सबसे पहले पागल हो जाएगा। क्योंकि बेईमान आदमी पागल होने से बचने का रास्ता निकाल लेता है। वह कहता कुछ है, करता कुछ है, पागल नहीं होता वह। लेकिन अगर बहुत ईमानदारी से, वह जो कहता है वही करे, तो मुसीबत में पड़ जाता है। यह बड़ी मुश्किल बात है।
सारी नीति कहती है कि आचार और विचार एक सा होना चाहिए। लेकिन हमें आदमी मिलते नहीं जिनके आचार और विचार एक से हों। जिनको हम कहते हैं कि इनके आचार और विचार एक से हैं उनका भी परीक्षण वैज्ञानिक हमें पता नहीं है करना, नहीं तो पता चले कि एक से नहीं हैं। अगर बिलकुल एक से हों, तो वह आदमी पागल हो जाएगा, अगर समाज के अंतःकरण को मान कर चला है तो। अगर वह पागल नहीं है, तो वह कहीं न कहीं इंतजाम कर रहा है। उसके जीवन के पीछे के दरवाजे भी हैं। जिनसे निकल कर वह अपने पागलपन का निकास कर लेता है।
यह अंतःकरण इस सूत्र का अंतःकरण नहीं है, यह पहली बात खयाल में ले लें। इस सूत्र में जिस अंतःकरण की बात है, वह वह अंतःकरण है जब व्यक्ति इस अंतःकरण को बिलकुल ही हटा कर अपने भीतर झांकता है। समाज की समस्त पर्तों को हटा कर, समाज को सब तरह से अलग करके; समाज ने जो-जो डाला है भीतर, समाज ने जो-जो आरोपित किया है, समाज ने जो-जो संस्कार निर्मित किए हैं, उनकी परछाईं भी न पड़े, उन सबको दूर हटा कर, एक तरफ रख कर जब कोई अपने भीतर झांकता है, तब उसे पहली बार उस अंतःकरण का पता चलता है जो हमारे शरीर में हमें वैसे ही मिला है जैसे आंखें मिली हैं, हृदय मिला है, बुद्धि मिली है। वह हमारे जीवन का अनिवार्य अंग है। उस अंतःकरण की जब शुद्धि हमारे खयाल में आ जाए और उसकी आवाज सुनने की कला हमें आ जाए तब फिर इस जीवन में विचार और आचरण में कोई फर्क नहीं होता। तब इस जीवन में विचार और आचरण में कोई भी फर्क नहीं होता और तब इस जीवन में आदमी कभी भी ऐसा नहीं कहेगा कि मुझे ठीक तो कुछ और लगता है, लेकिन करता मैं कुछ और हूं। तब जो ठीक लगता है, वही होता है।
सुकरात ने कहा है, ज्ञान ही आचरण है। वह उसी ज्ञान की बात कर रहा है, जो अंतःकरण से होता है। ज्ञान और आचरण में फिर कोई फर्क नहीं है। अगर फर्क है तो समझना कि आप जिस अंतःकरण की बात कर रहे हैं, वह आपका अंतःकरण नहीं है। उस आंतरिक अंतःकरण का अनुभव ठीक वैसा ही हो जाता है, जैसा कोई आग में जानते हुए कि हाथ जल जाता है और हाथ नहीं डालता। क्योंकि जानता है कि हाथ जल जाता है। और कभी ऐसा नहीं कहता कि मैं जानता तो हूं कि हाथ जल जाता है, फिर भी क्या करूं, डालता हूं। उस अंतःकरण की आवाज पर आदमी वैसे ही चलता है जैसे आदमी को मकान के बाहर निकलना हो तो दरवाजे से निकलता है। और वह यह नहीं कहता कि मुझे मालूम तो है कि दरवाजा कहां है, लेकिन क्या करूं, कमजोरी कि दीवाल से निकल जाता हूं, सिर फूट जाता है। मालूम तो है कि दरवाजा कहां है!
नहीं, वैसा आदमी कभी नहीं कहता कि मुझे मालूम है कि ठीक क्या है, फिर भी मैं गलत करता हूं। क्योंकि वैसी अंतःकरण की स्थिति में जानना और होना, जानना और करना सम-अर्थी हो जाता है। फिर आदमी वैसा नहीं कहता कि मुझे पता तो है कि क्रोध बुरा है, लेकिन क्या करूं, हो जाता है। मुझे पता तो है कि गाली नहीं देनी थी, बुरी है, पीछे पछताता भी हूं, लेकिन क्या करूं, हो जाता है। ध्यान रहे, यह जो हमारे चित्त की दशा है, यह बता रही है कि हमारा करना कहीं और से आ रहा है और हमारी समझ उतनी गहरी नहीं जहां से करना आ रहा है।
तो मेरा ऊपर का अंतःकरण समाज ने मुझे सिखाया है, क्रोध बुरा है तो मैं जानता हूं क्रोध बुरा है, लेकिन गहरे में मेरा जो व्यक्तित्व है, वह इससे ज्यादा गहरा है। वह क्रोध करता है और मैं अवश हो जाता हूं, मेरा कोई उस पर वश नहीं चलता। हां, एक ही काम मैं कर सकता हूं--जो कि थोथे अंतःकरण वाले लोगों को निरंतर करना पड़ता है--वह है; पश्र्चात्ताप। कर लूंगा, फिर पछता लूंगा। और मजे की बात यह है कि कितना ही पश्र्चात्ताप करो, इससे जो किया है उसमें बदलाहट नहीं आती। आज क्रोध करूंगा, सांझ पछताऊंगा, कल सुबह फिर क्रोध करूंगा, कल सांझ फिर पछताऊंगा। और तब पछतावा क्रोध का एक अनिवार्य हिस्सा मात्र हो जाएगा।
और यह भी आप जान कर हैरान होंगे, आमतौर से हम सोचते हैं कि पछताने वाला आदमी अच्छा आदमी है, कम से कम बेचारा क्रोध करता है तो प्रायश्चित तो करता है। कोई बात नहीं, आज क्रोध होता है, प्रायश्चित्त होता है, धीरे-धीरे प्रायश्चित्त की समझ बढ़ेगी तो क्रोध बंद हो जाएगा। बात बिलकुल उलटी है। आदमी प्रायश्चित्त इसलिए नहीं करता कि वह क्रोध को बंद करने वाला है, प्रायश्चित्त इसलिए करता है कि क्रोध से उसके भीतर स्वयं के अहंकार को जो चोट लगती है; प्रायश्चित्त से उसको वह पोंछ डालता है। फिर पुरानी जगह खड़ा हो जाता है, जहां क्रोध करने के पहले खड़ा था। अब वह फिर क्रोध करने में समर्थ है।
अगर मैं सोचता हूं कि मैं अच्छा आदमी हूं--और सभी लोग सोचते हैं कि हम अच्छे आदमी हैं--मैं सोचता हूं कि मैं अच्छा आदमी हूं, मैं सोचता हूं कि मैं कभी क्रोध नहीं करता, और अगर कभी करता भी हूं तो वह दूसरे लोग ऐसी स्थिति बना देते हैं, इसलिए करता हूं। या दूसरों में सुधार करने के लिए करता हूं। ऐसे हम न मालूम कितने रेशनेलाइजेशन अपने आप को समझाने के लिए करते रहते हैं। फिर मैं क्रोध करता हूं, तो फिर मुझे चोट लगती है। मेरे ही सामने मेरा अहंकार दीन हो जाता है। मुझे लगता है, कहां गया वह अच्छा आदमी! तो क्या मैं अच्छा आदमी नहीं हूं? क्रोध तो मैंने किया। तो अब मेरे अच्छे आदमी की जो प्रतिमा खंडित हो गई, उसे पूरा करने का उपाय पश्चात्ताप है। अब मैं पछताता हूं। बुरा किया, बहुत बुरा किया, ऐसा नहीं करना चाहिए था। हो गया। अघट था, घट गया। नियति थी, भाग्य था, मूर्छा आ गई, खयाल न रहा, स्थिति ऐसी हो गई, हजार बहाने खोज कर मैं पछता लेता हूं। मान लेता हूं कि बुरा किया।
इसका मतलब आप समझते हैं?
इसका मतलब यह है कि आदमी तो मैं अच्छा ही हूं। बुरा हो गया, आदमी बुरा नहीं हूं। आदमी का बुरा होना और बुरे कर्म के हो जाने में बड़ा फर्क है। एक वृक्ष है, उसमें एक पत्ता सूखा हुआ है, इससे कोई वृक्ष सूखा हुआ नहीं होता। आदमी तो मैं अच्छा ही हूं। करोड़ कृत्य में एक कृत्य बुरा हो जाता है, तो उससे आदमी तो बुरा नहीं हो जाऊंगा। पश्र्चात्ताप करके सूखे पत्ते को काट कर गिरा देता है, वृक्ष फिर हरा हो जाता है। फिर मैं मान लेता हूं कि आदमी तो अच्छा ही हूं, एक बात बुरी हो गई, इससे कोई मैं बुरा नहीं हो जाता हूं। किससे बुरा नहीं हो जाता! फिर पश्र्चात्ताप भी मैंने कर लिया। बुरे आदमी कहीं पश्र्चात्ताप करते हैं! माफी भी मांग सकता हूं, क्षमा भी मांग सकता हूं। लेकिन यह मैं सिर्फ पुनः स्थिति वही की वही पाने की कोशिश कर रहा हूं, जो क्रोध के पहले मेरी थी। उसे जिस क्षण मैं पा लूंगा, मैं फिर उसी जगह आ गया जब मैं पुनः क्रोध कर सकता हूं। मैं पुनः क्रोध करूंगा। जिस अंतःकरण को हम अंतःकरण समझते हैं, वह हमें सिर्फ इसी दमन, पश्र्चात्ताप, विकृति में ले जाता है। लेकिन समाज को उपादेयता है। समाज थोड़ा नियंत्रण करने में समर्थ हो जाता है।
इस सूत्र में जिस अंतःकरण की बात है वह वह अंतःकरण है, जिसे हम कहें समाज से अस्पर्शित, मेरी ही भीतर की मेरी ही चेतना की जो आवाज है, सहजस्फूर्त मेरा ही जो स्वर है, उसकी तलाश। धर्म अंतःकरण की तलाश है।
क्या है मेरा अंतःकरण?
जीसस एक गांव के बाहर ठहरे हुए हैं। गांव के लोग एक स्त्री को पकड़ कर लाते हैं और कहते हैं कि व्यभिचारिणी है। और हमारे शास्त्र में लिखा है कि व्यभिचारिणी को पत्थरों से मार कर मार डालना चाहिए, आप क्या कहते हैं? उस शास्त्र का जीसस को भी पता था। जीसस ने भी बचपन से उसी शास्त्र को पढ़ा-सुना था। जीसस भी उसी समूह के अंग थे। और वे गांव के लोग जान कर ही यह मामला लाए थे। क्योंकि वे जानना चाहते थे कि अगर जीसस कहें कि नहीं, वह शास्त्र गलत है, तो फिर हम जीसस को ही पत्थरों से मार डालें; और अगर जीसस कहें कि शास्त्र सही है, तो हम जीसस के सामने ही इस स्त्री की हत्या करें और फिर जीसस से पूछें कि तुम्हारी शिक्षाओं का क्या हुआ! जिनमें तुम कहते हो कि अगर कोई एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा उसके सामने कर देना। और जिनमें तुम कहते हो कि शत्रु को भी प्रेम करना। और जिनमें तुम कहते हो कि बुराई का भी प्रतिरोध न करना--रेसिस्ट नॉट इविल, ऐसा तुम कहते हो, उसका क्या हुआ? तो उन्होंने एक पहेली में जीसस को फंसाना चाहा।
जीसस ने आंख बंद कर लीं, फिर जीसस ने आंख खोलीं--यह क्षण भर का आंख बंद करना और खोलना जीसस का अपने अंतःकरण में उतरना था--और जीसस ने कहा कि शास्त्र बिलकुल ठीक कहता है कि जो व्यभिचार करे, उसे पत्थरों से मार डालो। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि शास्त्र में एक बात छूट गई है। और वह यह है कि पत्थर मारने का अधिकारी वही है जिसने कभी व्यभिचार न किया हो, या व्यभिचार का विचार न किया हो। तो अब तुम पत्थर उठा लो। तब तो भीड़ में जो समाज के नेता थे, आगे खड़े थे, वे धीरे-धीरे पीछे सरकने लगे। जीसस ने कहा कोई भाग न पाए, क्योंकि आज इस स्त्री की हत्या करनी ही है, और सामने आए वह आदमी पत्थर उठा कर जो कह सकता हो कि मैंने व्यभिचार का विचार नहीं किया, व्यभिचार नहीं किया। भीड़ छंट गई।
थोड़ी ही देर में उस निर्जन जगह में जीसस और उस स्त्री के सिवाय कोई भी न बचा। उस स्त्री ने जीसस के चरणों पर सिर रख दिया और कहा कि मुझे दंड दो। क्योंकि उनसे तो मैं कह सकती थी कि मैं व्यभिचारिणी नहीं हूं, लेकिन तुमसे कैसे कहूं! उनसे मैं लड़ सकती थी कि वे मेरे ऊपर अन्याय कर रहे हैं, लेकिन तुमसे मैं कैसे कहूं! मुझे दंड दो। जीसस ने कहा, मैं तुझे दंड देने वाला कौन? जीसस ने फिर क्षण भर को आंख बंद कीं, आंख खोलीं, उस स्त्री को कहा कि तू जा। क्योंकि उस परम शक्ति के सामने ही तेरा निर्णय हो सकता है। मैं निर्णय करने वाला कौन?
यह अंतःकरण की आवाज है।
यह जीसस का बार-बार भीतर झांकना, निश्चित ही जीसस के अंतःकरण ने कुछ बात कही जो दुनिया में जिसके पास भी अंतःकरण होगा, यही बात कहेगा। क्या हक है उसे, जो खुद व्यभिचारी रहा हो, किसी को व्यभिचारी कहने का भी क्या हक है? लेकिन जीसस तो व्यभिचारी भी नहीं थे, उन्हें तो हक था पत्थर मार देने का। लेकिन जीसस ने फिर अपने अंतःकरण में झांका और कहा कि मैं कौन हूं तेरा निर्णय करने वाला? न मैंने तुझे बनाया, न मैंने तुझे जीवन दिया, न मैं तेरे जीवन का नियंता हूं, तो मैं निर्णायक कैसे हो सकता हूं? तो मैं इतना ही कहता हूं तुझसे कि दूसरों के निर्णायक मत बनना। तू जा सकती है।
यह किसी समाज की आवाज नहीं है। ऐसा किसी शास्त्र में लिखा नहीं है। ऐसा किसी समाज ने किसी को सिखाया नहीं है। यह अनसीखी, अनलर्न्ड सहज-स्फुरणा है। अगर बुद्ध से पूछेंगे, तो यही आवाज निकलेगी। अगर महावीर से पूछेंगे, तो यही आवाज निकलेगी। यह आवाज व्यक्तियों की आवाज नहीं है, व्यक्तियों के भीतर जो छिपा है सर्वात्मा, निर्व्यक्ति; व्यक्तियों के भीतर जो छिपी है चैतन्य की ऊर्जा, उसकी आवाज है। इसका नाम है अंतःकरण। इसकी तलाश करनी पड़े। हमारे पास है तो, लेकिन छिपा है। प्रकट बिलकुल नहीं है। है तो, क्योंकि हम हैं; चेतना है, तो चेतना की अपनी वाणी है, अपनी आवाज है। लेकिन छिपी है। और जो आवाजें हमसे निकलती रहती हैं, वे दूसरों की आवाजें हैं, जो हममें डाली गई हैं। वे आवाजें ग्रामोफोन रिकॉर्ड की आवाजें हैं, वे हमारे अंतःकरण की आवाजें नहीं हैं। ग्रामोफोन रिकॉर्ड की तरह हमारे भीतर ग्रूव्ज बनाए हैं समाज ने, उन पर सुई घूमती है बुद्धि की, आवाज आ जाती है, लगता है यह बुरा, वह भला।
यह भला और बुरा एक तरफ जो करने की क्षमता रखता हो और भीतर उतरने का साहस जुटाता हो कि मैं देखूं उस जगह को, जिस दिन मैं पैदा नहीं हुआ था उस दिन भी जो जगह मेरी थी; जब मैं गहन अंधेरी रात में सो जाता हूं, सुषुप्त हो जाता हूं, सपने भी खो जाते हैं, तब भी जो जगह मेरी है; जब मैं मरूंगा, शरीर गलेगा, टूटेगा, नष्ट हो जाएगा, तब भी जो जगह मेरी होगी, उस जगह को खोजूं, वही है अंतःकरण।
खोजने की एक प्रक्रिया आपको कहूं। जब भी आपके भीतर लगे कि यह बुरा, वह भला; यह ठीक, वह गैर-ठीक; तब जरा निरीक्षण करें, यह जिस समाज में आप पैदा हुए हैं उसका प्रतिफलन है, कि आपका विवेक है?
शंकर ने छोटी उम्र में संन्यास लिया। बूढ़ी मां थी--बड़ी उम्र में शंकर पैदा हुए थे। पिता चल बसे थे। तो बूढ़ी मां हिम्मत नहीं जुटा पाती थी कि शंकर संन्यास ले लें। नदी में तैरते थे तो मगर ने शंकर का पैर पकड़ लिया, तो सारा गांव बचाने को इकट्ठा हो गया, मां भी भागी हुई आई। तो शंकर ने चिल्ला कर पूछा कि मैं मगर से प्रार्थना कर सकता हूं और आशा है मुझे कि पैर छूट जाए, लेकिन संन्यास के बाबत क्या? अगर संन्यास के लिए तू राजी हो, तो मुझे लगता है कि मगर पैर छोड़ देगा। मां ने यह देख कर कि मरने से तो संन्यास ही बेहतर--और इससे कम में कोई राजी नहीं होता--कह दिया कि मैं वायदा करती हूं, तू संन्यास ले लेना, मगर बच। पता नहीं मैत्री रही होगी गहरी शंकर और उस मगर में, किन्हीं जन्मों के संबंध रहे होंगे, मगर ने पैर छोड़ दिया। शंकर बच गए, संन्यास लिया।
लेकिन मां ने जाते वक्त कहा कि एक वायदा कि मेरा अंतिम दाह-संस्कार तू ही करना। यह उलझन की बात थी उन दिनों। शंकर कहां होंगे, कहां भटकते होंगे--पैदल थी यात्रा, सारे मुल्क में भटकना था! भिखारी होंगे। फिर भी वायदा उन्होंने किया। फिर मां बीमार पड़ी, खबर मिली, शंकर भागने लगे। शिष्यों ने, साथियों ने समझाया कि कौन मां, कौन पिता! संन्यासी का कोई माता-पिता होता है! और दिए थे वायदे अज्ञान में। माया है सारा संसार, तुम्हीं कहते हो। कैसा वायदा, कैसा वचन! कौन पूरा करने वाला है! सब सपना है। तुम ही कहते हो। शंकर आंख बंद करके बैठ गए और फिर उठ कर उन्होंने कहा कि नहीं, जाना ही पड़ेगा। होगा संसार माया, होंगे सब संबंध झूठे, लेकिन मेरे भीतर जो छिपा है वह कहता है: जाना ही पड़ेगा।
लेकिन शक हो सकता है, शक हो सकता है हमें कि यह असली अंतःकरण हो, न हो। क्योंकि आखिर मां, दिया वचन, यह संस्कार की ही छाप हो सकती है। समाज की ही छाप हो सकती है कि दिया हुआ वचन है, मां को दिया है, मां मरती होगी, आखिरी क्षण है, यह समाज की छाप हो सकती है। लेकिन शीघ्र ही पता चल गया साथियों को, शिष्यों को कि वह समाज की आवाज नहीं थी।
शंकर गांव में पहुंचे, नंबूद्रीपाद ब्राह्मण का परिवार था। श्रेष्ठतम दक्षिण के ब्राह्मण। गांव ने इनकार कर दिया कि संन्यासी बेटा कैसे दाह संस्कार कर सकता है? ब्राह्मणों का गांव था--संन्यासी जो हो गया उसका कौन मां और कौन पिता, कैसे संन्यासी बेटा दाह संस्कार कर सकता है! यह नहीं हो सकता। यह तो संन्यास भ्रष्ट हो जाएगा।
शंकर ने कहा कि दाह-संस्कार तो मैं करूंगा ही। कोई गांव में अर्थी में सम्मिलित होने न आया। मां वजनी थी, शरीर भारी था, शंकर दुबले-पतले। बड़ी मुश्किल पड़ गई, इसको मरघट तक ले जाना मुश्किल हो गया। तो शंकर ने आंख बंद की, उठाई तलवार, तीन टुकड़े मां के शरीर के किए, एक-एक टुकड़े को एक-एक बार ले जाकर मरघट पहुंचे। इस आदमी के पास समाजवाला अंतःकरण नहीं हो सकता! यह जो मां के शरीर के तीन टुकड़े कर सके। मित्र भी घबड़ाए, शिष्य भी घबड़ाए, उन्होंने कहा हद्द कर दी! वचन क्या पूरा करना है, कोई सीमा भी होती है! तुम क्या कर रहे? तो शंकर ने कहा: जगत माया है। और शरीर तो मर ही गया। और शरीर को काटने में क्या दिक्कत है! मैंने पूछ लिया अपने भीतर से।
समाज जो संस्कार देते हैं--समाज, सभी समाज देते हैं--उन्हें एक तरफ हटाएं... हटाना पड़े, और फिर धीरे-धीरे भीतर निरीक्षण करना पड़े, एक घड़ी ऐसी आ जाती है भीतर जब साफ-साफ दिखाई पड़ने लगता है, क्या समाज का है और क्या मेरा है। क्योंकि जब स्वयं की आवाज आती है तो उसके विपरीत कोई आवाज नहीं आती। वह एक-स्वर होती है। समाज की कैसी ही आवाज हो, उसके विपरीत आवाज सदा मौजूद होती है। चाहे कितना ही अंतःकरण कहता हो--तथाकथित अंतःकरण--कि चोरी बुरी है, एक हिस्सा कहता है: करो भी, कौन देख रहा है! एक हिस्सा कहता है: मांसाहार बुरा है; दूसरा हिस्सा कहता है: सारी दुनिया कर रही है। तो तुम्हीं भले होने के लिए किसलिए पीछे पड़े हो? कोई तुमने भले होने का ठेका लिया है? कि शराब बुरी है। सारी दुनिया पी रही है। तुम क्यों अपना जीवन नष्ट कर रहे हो, पीओ!
अंतःकरण की आवाज का एक लक्षण आपसे कहूं, उसका विरोधी स्वर सदा मौजूद होता है। तथाकथित अंतःकरण में। असली अंतःकरण का विरोधी स्वर मौजूद नहीं होता। एक ही स्वर होता है। उसके विरोध की कोई आवाज नहीं होती। तो जब तक आपको विरोधी स्वर की खनक मिलती रहे, तब तक जानना कि यह समाज के द्वारा दिया गया अंतःकरण है। यह परमात्मा के द्वारा दिया गया अंतःकरण नहीं है। जिस दिन एक स्वर उपलब्ध हो जाए... शंकर ने कहा कि काटेंगे, उठाई तलवार और काट ही डाला। एक क्षण को भी शंकर के मन में न हुआ कि जरा सोच तो लूं, मां के शरीर को काटना! यह कहीं हिंसा न हो जाए, यह मातृहत्या न हो जाए! यह मैं क्या कर रहा हूं, यह कभी नहीं किया गया! किसी बेटे ने नहीं काटा। और फिर शंकर जैसे बेटे ने तो कभी नहीं काटा। मगर नहीं, वह काटकर और जाकर जला आए और बड़े प्रसन्न थे। काम निपट गया था। एक स्वर है।
फिर जिंदगी में, पूरी जिंदगी किसी ने कभी नहीं सुना कि शंकर को एक दफे भी ऐसा खयाल भी आया हो कि मैंने कुछ गलत किया। आप अपने अंतःकरण--जिसको आप अंतःकरण कहते हैं, तथाकथित--उसकी अगर मानें तो भी पछताना पड़ेगा, न मानें तो भी पछताना पड़ेगा। यह दूसरा लक्षण आपको कहता हूं। मानें तो भी पछताना पड़ेगा। न करें चोरी, मान लें, पछताएंगे जिंदगी भर कि चूक गए। सारे लोग कर गुजरे, समय था, अवसर हाथ में आया था, खो गए। फलाने ने की, नहीं पकड़ा गया; फलाने ने की, वह मंत्री हो गया; फलाने ने की, उसने यह कर लिया। और हम भूखे मर रहे हैं। कहां की बात में पड़ गए! कर लें, तो भी पछताएंगे। क्योंकि कर लें तो दीनता पकड़ेगी, ग्लानि पकड़ेगी, अपराध पकड़ेगा कि न करते तो अच्छा होता।
अंतःकरण समाज के द्वारा दिया गया हर हालत में पश्र्चात्ताप लाता है। हर हालत में। क्योंकि दो स्वर हैं। आप एक की ही मान सकते हैं, दूसरे का क्या होगा? दूसरा हिस्सा प्रतीक्षा करेगा, आपको पश्र्चात्ताप करवाएगा। उसकी मानेंगे तो पहला प्रतीक्षा करेगा, वह आपको पश्र्चात्ताप करवाएगा। लेकिन जिस अंतःकरण का इस सूत्र में संकेत है, उसकी आवाज मान कर कभी कोई पश्र्चात्ताप नहीं होता। कभी!
तीसरा लक्षण आपसे कहूं। जिस अंतःकरण में हम जीते हैं, इसकी स्मृति बनती है। क्योंकि कोई भी कृत्य पूरा तो होता नहीं, अधूरा रह जाता है। क्योंकि आधा हिस्सा तो खिलाफ रहता है, अधूरा रहता है। चोरी भी करते हैं तो आधे-आधे मन से होती है। पूरा चोर आपने देखा? ऐसा एकाध आदमी खोज सकते हैं आप जो पूरा बेईमान हो? पूरा बेईमान का मतलब है कि जिसके भीतर जरा भी कहीं खयाल न उठता हो कि गलत कर रहा हूं, बुरा कर रहा हूं, नहीं करना चाहिए। कहीं कोई दबी आवाज न कहती हो कि यह बेईमानी है। नहीं, पूरा बेईमान खोजना मुश्किल है। और इन बेईमानों की दुनिया में पूरा ईमानदार आदमी भी खोजना मुश्किल है। जिसके मन में ऐसा न उठता हो कि कर ही लेते तो क्या बिगड़ जाता था। वह उठता ही रहता है। इस अंतःकरण की अगर मान कर चलिएगा तो इसकी स्मृति बनती है। क्योंकि अधूरा कृत्य रहता है, अटका रह जाता है मन में। लगता है पूरा कर लेते। जिस अंतःकरण की इस सूत्र में चर्चा है, उसकी कोई स्मृति नहीं बनती। पूर्ण कृत्य की कोई स्मृति नहीं होती। वह होता है और खो जाता है।
इसलिए चौथी आपसे आखिरी लक्षणा कहूं। इस अंतःकरण को मान कर आप चलेंगे तो कर्म का बंध होता है, क्योंकि कर्म अधूरा होता है, और उसके साथ स्मृति बनती है और चिपट जाती है मन में और छूटती नहीं, छूटती नहीं। अगर कर्म पूरा हो, टोटल एक्ट हो, कोई स्मृति नहीं बनती, कर्म का कोई बंधन नहीं बनता, चित्त सदा मुक्त रहता है। आपने जो किया है पूर्ण हृदय से, वह आपके हृदय पर बोझ नहीं होता। इसलिए अगर मुझसे पूछें तो मैं कहूंगा, अधूरे मन से जो किया जाता है वही पाप है; और पूरे मन से जो किया जाता है वही पुण्य है। अगर मुझसे पूछें तो पाप और पुण्य की ऐसी परिभाषा है। जो अधूरे मन से किया जाता है वह पाप है, चाहे आपने मंदिर बनाया हो अधूरे मन से। और जो पूरे मन से किया जाता है, वह पुण्य है, चाहे आपने चोरी ही क्यों न की हो। हालांकि पूरे मन से चोरी नहीं की जा सकती, यद्यपि अधूरे मन से मंदिर बनाया जा सकता है।
इस अंतःकरण का, इस शब्द अंतःकरण का पहला खयाल ले लें।
दूसरा शब्द है: ‘प्रणव। ओंकार, ओम्।’
भारतीय साधना के बहुत-बहुत रूप हैं। बड़े भेद हैं उनमें। बड़ी विपरीतताएं हैं। बड़े विवाद हैं। जैसे तीन बड़े भारतीय स्वर हैं साधना के--जैन, बौद्ध, हिंदू। तीनों में बड़े सैद्धांतिक विवाद हैं। कहीं कोई तालमेल नहीं दिखाई पड़ता। हिंदू मानते हैं ईश्र्वर को भी, आत्मा को भी। जैन मानते हैं सिर्फ आत्मा को। ईश्र्वर को नहीं मानते। बौद्ध न मानते ईश्र्वर को, न आत्मा को। बड़े मौलिक भेद हैं। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि ओम् के संबंध में तीनों एक साथ राजी हैं। प्रणव के संबंध में जरा भी विवाद नहीं। छोटी-छोटी चीज पर विवाद हैं और कहीं कोई तालमेल नहीं है, लेकिन यह ओम् शब्द के संबंध में कोई विवाद नहीं है। तो लगता है कि ओम् जो है, वह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है, वैज्ञानिक बात है।
और न केवल भारत में, भारत के बाहर जो तीन बड़े धर्म हैं--यहूदी, इस्लाम और ईसाइयत--ओम् के संबंध में उनका भी कोई विवाद नहीं है, यद्यपि वे उसको ‘अमीन’ कहते हैं। बस इतना ही फर्क है। और ‘ओम्’ जो है और ‘अमीन’ जो है, भाषा शास्त्री कहते हैं, वह एक ही चीज है। उनमें कोई फर्क नहीं है। वह सिर्फ भाषा में उस ध्वनि को पकड़ने में फर्क हुआ है।
इसलिए आपसे यह बात कहना चाहता हूं, ओम् एक शब्द है पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में जिसमें दुनिया के छह महत्वपूर्ण धर्म राजी हैं। जिसे वे स्वीकार करते हैं कि इसमें कुछ है।
इस शब्द में क्या है?
इसे हम दो-तीन प्रकार से खयाल में लें। एक, मनुष्य का मन जो है, वह शब्दों का समूह है। आपके मन में क्या है सिवाय शब्दों के? अगर आपसे हम सारे शब्द बाहर निकाल लें, तो आपका मन नहीं बचेगा। आपका मन करीब-करीब ऐसा है जैसे कि प्याज होती है--सब छिलके बाहर निकाल लें तो प्याज में पीछे कुछ बचता नहीं। ऐसा ही आपका मन है। शब्दों के छिलके। सब शब्द बाहर निकाल लें तो पीछे क्या बचेगा? मन तो नहीं बचेगा, शून्य बचेगा। सोचें थोड़ा आप कि आपके पास कोई शब्द न बचे, तो आपके पास कौन सा मन बचेगा? क्या बचेगा? शब्दों का समूह है मन। और इसी मन से हम सब कुछ कर रहे हैं। बुरा या भला, दुख या सुख, संसार या मोक्ष, जो भी हम कर रहे हैं इस मन से कर रहे हैं।
यह ओम् एक शब्द है--शब्द कहना ठीक नहीं है, एक ध्वनि है, क्योंकि इसका कोई अर्थ नहीं है। शब्द उस ध्वनि को कहते हैं जिसमें कुछ अर्थ हो--ओम् एक ऐसा शब्द है जिसका कोई अर्थ नहीं है, सिर्फ ध्वनि, लेकिन इस ध्वनि में समस्त मूल ध्वनियों का सार है। अ उ म ये तीन मूल ध्वनियां हैं। जैसा मैंने कल आपको कहा कि भारतीय मनीषा को तीन का बड़ा बोध है; और जैसा मैंने आपको कहा--ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ये जीवन के तीन अंग हैं; जैसा मैंने आपको कहा कि इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान फिजिक्स की दृष्टि में पदार्थ के तीन आधार हैं, ऐसे ही भारतीय मनीषा की दृष्टि में अ उ म समस्त भाषा, समस्त वाणी, समस्त शब्दों के तीन आधार हैं। सब ध्वनियां इन तीन ध्वनियों के जोड़ हैं। तो मौलिक तीन ध्वनियां ओम् में हैं। हम ऐसा कह सकते हैं कि ओम् जो है, ध्वनि की दृष्टि से एटम है। ध्वनि की दृष्टि से अणु है। इलेक्ट्रान, पाजिट्रान, न्यूट्रान तीन विद्युत कणों से मिल कर परमाणु निर्मित होता है--पदार्थ का। अ उ म तीन से निर्मित होकर जो परमाणु बनता है, वह है मन का।
ओम् मन का परमाणु है। और सूक्ष्मतम परमाणु है। इससे सूक्ष्म कोई परमाणु नहीं हो सकता। इसको हम तोड़ दें, जैसा कि वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर हम इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और पाजिट्रान को तोड़ दें तो फिर हमारे हाथ से परमाणु खो जाता है शून्य में, फिर पीछे कुछ मिलता नहीं, फिर पीछे कुछ पकड़ में नहीं आता, सब निराकार हो जाता है; लेकिन उसके टूटते ही विराट ऊर्जा पैदा होती है, जिसको हम अणु-विस्फोट कहते हैं। वह अणु-विस्फोट इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और पाजिट्रान, इन तीनों के अलग हो जाने से, इन तीनों के बीच जो ऊर्जा छिपी थी, जो अनंत शक्ति छिपी थी, इन तीनों के हटते ही रिलीज होती है। छूटती है। एक परमाणु बम हमने गिरा कर देखा हिरोशिमा पर। पांच मिनट के भीतर एक लाख बीस हजार आदमी राख हो गए। एक छोटा सा परमाणु--जो आंख से दिखाई नहीं पड़ता--उसका विस्फोट है। उन तीनों के जुड़े रहने से उतनी शक्ति उसके भीतर छिपी है। छूटते ही इतनी शक्ति बाहर विसर्जित होती है।
ठीक भारतीय मेधा ने भी--क्योंकि भारतीय मेधा ने पदार्थ पर बहुत मेहनत नहीं की; क्योंकि उसे लगा कि पदार्थ की मेहनत कहीं ले नहीं जाती; पदार्थ पर मेहनत करके भी देख ली तो भी आदमी को कुछ उपलब्ध नहीं होता; सिर्फ वहम होता है कि मिल रहा है, मिल रहा है, मिल रहा है और हाथ खाली रह जाते हैं--तो भारतीय मेधा ने पदार्थ पर मेहनत छोड़ कर मन पर मेहनत शुरू की। क्योंकि जिस मन को ही सुख-दुख होते हैं, उसे ही क्यों न बदल डालें। जिन वस्तुओं से सुख-दुख होते हैं उन्हें इकट्ठा करने के बजाय, जिस मन को सुख-दुख होते हैं उसे ही क्यों न बदल डालें, यह भारतीय दृष्टि निर्मित हुई। यह बहुत अनुभव से हुई।
उन सब चीजों को इकट्ठा कर लिया जिनसे सुख मिलता है, फिर भी पाया कि इकट्ठे होते ही उनसे सुख नहीं मिलता। जिनसे दुख मिलता है उनको अलग करके भी देख लिया, अलग हट जाने पर दुख किसी और से मिलना शुरू हो जाता है लेकिन समाप्त नहीं होता। अंततः पाया कि वस्तुओं से सुख-दुख का कोई सीधा संबंध नहीं है। सुख और दुख के लिए वस्तुएं सिर्फ खूंटियों का काम करती हैं। घर में हम जाते हैं, खूंटी पर कोट टांग देते हैं। अगर खूंटी न मिली तो दरवाजे पर टांग देते हैं। दरवाजा न मिला, खिड़की पर टांग देते हैं। कोट कहीं न कहीं टंगता ही है, खूंटी से कोई बहुत प्रयोजन नहीं है। इसलिए खूंटी तोड़ दो, बड़ी कर लो, कुछ फर्क नहीं पड़ता, कोट टंग ही जाता है।
भारतीय मन ने जाना कि वस्तुएं केवल खूटियों का काम करती हैं और मन उन पर टंगता है, कोट की तरह। तो अगर दुखी मन है, तो हर खूंटी पर दुखी हो जाता है। सुखी मन है, हर खूंटी पर सुखी हो जाता है। शांत मन है, हर खूंटी पर शांत रहता है। अशांत मन है, हर खूंटी पर अशांत हो जाता है। इसलिए सवाल खूंटियां बदलने का नहीं, इस मन को ही बदल लेने का है। तो मन की खोज शुरू की। और मन की खोज में जो विश्लेषण उन्हें लगा, उसमें उन्होंने पाया कि ओम् जो है, प्रणव जो है, वह मन का परमाणु है। क्या इस परमाणु का भी विस्फोट हो सकता है? अगर हो सके, तो इस परमाणु से भी ऊर्जा पैदा होगी। क्या इस परमाणु का भी एक्सप्लोजन हो सकता है? योग कहता है--हो सकता है। और इसका अगर विसर्जन हो जाए, अगर यह टूट जाए तो भीतर ऊर्जा पैदा होगी। भीतर अग्नि पैदा होगी। और वही अग्नि व्यक्ति को, उसके अहंकार को, उसके कर्मों को, उसके पापों को, उसके पुण्यों को, उसने जो भी किया है--उसके अतीत को, उसके समस्त बोझ को, उसके समस्त भार को राख कर देती है। यही अग्नि।
अब इस सूत्र को हम पढ़ें।
‘ज्ञानी लोग अंतःकरण को नीचे की अरणि बनाते हैं और प्रणव को ऊपर की, और इन दोनों से ज्ञान के मंथन का अभ्यास करते हैं। इससे जो ज्ञानाग्नि पैदा होती है, उसमें अपने समस्त दोषों को जला कर संसार-बंधन से छूट जाते हैं।’
आपने शायद अरणि देखी हो? दो लकड़ियों को रगड़ कर आग पैदा हो जाती है। दो सूखी लकड़ियों को रगड़ कर आग पैदा हो जाती है। उन पुराने दिनों में, जब यह उपनिषद लिखा गया, तब आग को पैदा करने का वही सर्वसुलभ उपाय था। या तो चकमक का पत्थर होता है, उनको दो को रगड़ो; या अरणि विशेष तरह की लकड़ी होती है, उन दोनों को रगड़ो, तो अग्नि पैदा हो जाती है।
तो यह सिर्फ प्रतीक है। इस प्रतीक में ऋषि ने कहा है कि अंतःकरण को नीचे की अरणि, नीचे की लकड़ी और ओम् को ऊपर की लकड़ी, ऊपर की अरणि, और इन दोनों की रगड़ से जो अग्नि पैदा होती है वह अग्नि व्यक्ति के समस्त अतीत को, समस्त कर्मों को, समस्त अज्ञान को जला कर राख कर देती है और व्यक्ति मुक्त हो जाता है।
ओम् एक अरणि। इस ओम् का आंतरिक-उच्चार--उसकी मैं तुमसे बात करूंगा। पहली बात, अंतःकरण की खोज। क्योंकि आपका जो थोथा सामाजिक अंतःकरण है, उसमें आग-वाग बिलकुल पैदा नहीं हो सकती। उसमें कुछ पैदा नहीं हो सकता। वह अरणि नहीं बन सकता। इसलिए मैंने अंतःकरण की इतनी बात आपसे की। पहले इस अंतःकरण की खोज, फिर ओम् का आंतरिक-उच्चार।
तो ओम् को हम तीन तरह से उच्चार कर सकते हैं। एक तो जोर से, ओंठों के द्वारा। वह बहिर-उच्चार है। फिर हम ओंठों को बंद कर लें, जीभ का भी उपयोग न करें, लेकिन भीतर मन में ही उच्चार करें। वह नंबर दो का उच्चार है। वह मध्य का उच्चार है। फिर एक तीसरा और आंतरिक-उच्चार है, जब हम न तो ओठों का उपयोग करें, न कंठ का उपयोग करें, न मन का उपयोग करें, और सिर्फ ओम् गूंजता रह जाए। जब यह तीसरा उच्चार संभव हो जाता है, तो ओम् की जो परम आणविक स्थिति है वह हमारे हाथ में आ जाती है। और नीचे का अंतःकरण हमारे पास हो और यह ओम् की परम आण्विक सूक्ष्मतम मात्रा हमारे साथ हो, तो इन दोनों की रगड़ से जो अग्नि पैदा होती है, वही ज्ञानाग्नि है।
तो पहले तो उच्चार करके बाहर ही ओम् का अभ्यास करना होता है। पहले तो ओंठ से ही, वाणी से ही ओम् का उच्चार करके अभ्यास करना होता है। फिर ओंठ बंद कर लें, फिर मन से ही उच्चार करें।
प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग समय लगता है। इंटेसिटी पर, त्वरा पर निर्भर है। कितनी तीव्रता से, तो जल्दी भी हो जाता है। कितनी सघनता से, कितनी प्यास से, तो जल्दी भी हो जाता है।
फिर जब मन का उच्चार इतना सहज हो जाए कि आप कोई भी काम करते रहें और मन का उच्चार चलता रहे, आप भूल जाएं तो भी चलता रहे--हो जाता है--आप रास्ते पर चल रहे हैं, उच्चार चल रहा है; आप काम कर रहे हैं, उच्चार चल रहा है; भोजन कर रहे हैं; उच्चार चल रहा है; फिर तो धीरे-धीरे ऐसी हालत हो जाती है कि आप बात भी कर रहे हैं तो उच्चार चल रहा है। जब उच्चार इतना स्वाभाविक हो जाए कि आप सो भी रहे हैं, उच्चार चल रहा है; सोते हैं तो भी उच्चार चलता रहता है, सुबह नींद खुलती है तो जो पहली बात स्मरण में आती है, वह उच्चार का अनुभव आता है कि उच्चार चल रहा है, और सुबह पता चलता है कि रात वह चलता ही रहा।
स्वामी राम अमरीका से वापस लौटे, तो सरदार पूर्णसिंह उनके पास थे, हिमालय में। एक रात, आधी रात है, दोनों एक कमरे में सोए हैं, पूर्णसिंह की नींद टूट गई--अचानक रामऽऽ रामऽऽ की आवाज कमरे में सुनाई पड़ी। तो वे बहुत हैरान हुए कि क्या रामतीर्थ जग रहे हैं, राम का उच्चार कर रहे हैं? गए। रामतीर्थ तो सो रहे हैं, उनकी नाक से घर्राटे की आवाज आ रही है। वे तो गहरी नींद में हैं, पर आवाज आ रही है। क्या कोई मकान के आस-पास आवाज कर रहा है? डरे हुए बाहर गए। टॉर्च जला कर सब तरफ देख आए। एकांत वन है, कहीं कोई नहीं है। बरांडा खाली है, दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन बरांडे में जाने पर पता चला कि आवाज थोड़ी कम हो गई।
भीतर आए तो आवाज बढ़ गई। तो समझ में आया कि आवाज तो कमरे के भीतर ही हो रही है, लेकिन कमरा तो एक ही है। बिस्तर के दोनों के नीचे झांक कर देखा, कहीं कोई नहीं है। झांक कर जब देख रहे थे, तो राम की खाट के पास गए तो वहां आवाज और ज्यादा मालूम पड़ी। तो राम के हृदय पर कान रख कर देखा तो पता चला वहां आवाज आ रही है। पैर के पास रख कर देखा तो पता चला आवाज आ रही है। हाथ के पास रख कर देखा तो पता चला आवाज आ रही है। राम की यह आवाज पूरे शरीर में ध्वनित हो रही है। घबड़ा गए। चौंक कर राम को उठाया कि यह क्या हो रहा है? तो राम ने कहा: इसमें क्या बात है। यह बहुत दिनों से चल रहा है। पहले मैं भी चौंक जाता था, खुद ही चौंक जाता था कि यह कोई दूसरा तो नहीं कर रहा है, क्या हो रहा है। लेकिन अब यह सहज हो गया है। यह भीतर चलता ही रहता है, चलता ही रहता है। तू थोड़ा शांत रहा होगा, इसलिए तुझे सुनाई पड़ गया, शांति से सो जा।
जब ऐसी अवस्था बन जाती है, तब तीसरी संभावना खुल सकती है। तब फिर करना ही नहीं पड़ता। तब मन को भी अलग किया जा सकता है कि मैं करूंगा ही नहीं अपनी तरफ से। शांत बैठ जाऊंगा, मैं करूंगा ही नहीं; न ओंठ से, न मन से, न कोई संकल्प से, कुछ करूंगा ही नहीं। तब अचानक पता चलता है कि आवाज तो हो रही है। मैं सुन रहा हूं, कर नहीं रहा हूं। जब मेरे ही भीतर मैं सुनने वाला हो जाता हूं, करने वाला नहीं, तब परम आण्विक स्थिति ओम् की उपलब्ध होती है। तब अरणि बन जाता है ओम्। और तब इस ओम् का जो विस्फोट है, नीचे की अंतःकरण की अरणि से टकरा कर जो विस्फोट होता है, वह विस्फोट व्यक्ति के भीतर सब, सब जो व्यर्थ है, सबको जला जाता है। उसके बाद व्यक्ति वही नहीं है जो था। दूसरा हो गया। यह दूसरा ही जन्म है। पुराना आदमी समाप्त ही हो गया। इसका उससे कोई लेना-देना ही नहीं। इन दोनों के बीच कोई कंटिन्यूटी, कोई सातत्य भी नहीं है। वह गया, यह दूसरा ही आदमी है।
और जब तक ऐसी अंतर-अग्नि न जल जाए, तब तक व्यक्ति संसार के बंधन से मुक्त नहीं होता है।
अंतिम बात, हमारे भीतर अस्तित्व ने वह कुंजी रख दी है, जिसका हम कभी भी उपयोग करें तो मुक्त हो सकते हैं। न उपयोग करें, वह हमारी जिम्मेवारी है।
इतना ही।