UPANISHAD

Kaivalya Upanishad 05

Fifth Discourse from the series of 19 discourses - Kaivalya Upanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during MAR 25 - APR 02 1972.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


विविक्त देशे च सुखासनस्थः शुचिः समग्रीवशिरः शरीरः।
अत्याश्रमस्थः सकलेन्द्रियाणि निरुध्य भक्त्या स्वगुरुं, प्रणम्य।
हृतपुण्डरीकं विरजं विशुद्धं विचिन्त्य मध्ये विशदं विशोकम्‌।।।।
ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा वाले संन्यास आश्रम में स्थित, स्नानादि से अपने शरीर को शुद्ध करके, एकांत स्थान में अपना आसन लगा कर, सिर, गले व शरीर को एक सीध में रख कर, समस्त इंद्रियों को एकाग्र करके, श्रद्धा व भक्ति से अपने गुरु को प्रणाम करके, अपने हृदय-कमल से सब दोषों को निकाल कर दुख व शोक से परे उस विशुद्ध भक्ति-तत्व का सम्यक चिंतन करते हैं।।5।।
ध्यान के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं इस सूत्र में हैं। एक-एक सूचना को पहले हम अलग-अलग समझ लें, फिर पूरे सूत्र को पढ़ेंगे तो समझ में आ जाएगा।
पहली सूचना है: एकांत स्थान। लगेगा कि हम जानते ही हैं। लेकिन जिसे हम एकांत स्थान कहते हैं, ध्यान का उससे कोई भी संबंध नहीं। एकांत स्थान कहते हैं हम उस जगह को जहां कोई दूसरा मौजूद न हो, निर्जन हो, अकेले हों। कोई पहाड़ पर चला जाए, कि हिमालय की किसी गुफा में बैठ जाए, तो एकांत स्थान मिल गया। लेकिन इस एकांत स्थान का ध्यान से कोई भी गहरा संबंध नहीं है। उस एकांत में बैठ कर भी व्यक्ति ध्यान में जा सकेगा, ऐसा नहीं है। बाहर से दूसरे छूट जाएं तो भी भीतर दूसरे बने रहते हैं।
भीड़ से हम हट जाएं, तो भी भीड़ हमारे भीतर छिपी है। ऐसा भी हो सकता है कि भीड़ में भी हम बैठे हों और एकांत में हों, और ऐसा भी हो सकता है कि एकांत में हों और भीड़ में बैठे हों। इस भीड़ में भी कोई अगर शांत होकर बैठ जाए और अपना स्मरण करे तो दूसरे भूल जाएंगे। इस भीड़ में भी बैठ कर कोई अगर अपने स्मरण से भर जाए, तो दूसरों का स्मरण खो जाएगा। क्योंकि मन की एक अनिवार्य क्षमता यह भी है कि मन के समक्ष एक ही मौजूद हो सकता है एक क्षण में। अगर मैं अपने मन को अपनी ही मौजूदगी से भर दूं, तो दूसरे गैर-मौजूद हो जाएंगे। चूंकि मैं अपने मन में मौजूद नहीं होता, इसलिए दूसरों की मौजूदगी बनी रहती है।
तो एकांत स्थान का जो अर्थ हम लेते हैं, वह बहुत गौण है। एकांत स्थान का अर्थ है: एक ऐसी जगह बैठ जाना--यह जगह बाहर की कम और भीतर की ज्यादा है--एक ऐसे स्थान में बैठ जाना--यह स्थान, यह स्पेस बाहर की कम, भीतर की ज्यादा है--जहां दूसरा मौजूद न हो। बाजार में भी कोई बैठा हो और अगर उसके मन में दूसरा मौजूद न हो, तो वह एकांत में है। और ध्यान रखना भलीभांति कि अगर बाजार में बैठ कर एकांत नहीं हो सकता, तो एकांत में भी एकांत नहीं हो सकेगा। क्योंकि मन का एक दूसरा नियम आपसे कह दूं--
जो मौजूद नहीं होता, उसकी याद आती है। जहां हम नहीं होते, वहां होने की आकांक्षा होती है। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि बाजार में बैठा हुआ आदमी सोचता है, एकांत में होते तो कितना अच्छा होता। और एकांत में बैठा हुआ आदमी अक्सर बाजार की वासना से भर जाता है। मन, जहां हम होते हैं वहां से ऊब जाता है और जहां हम नहीं होते वहां रस लेने लगता है।
मनस्विद पश्चिम में सलाह देते हैं कि पति-पत्नी को बहुत निकट नहीं रहना चाहिए, अन्यथा उनका प्रेम समाप्त हो जाएगा। उनकी सलाह एक अर्थ में सही है। और पूरब के लोग इस सलाह को बिना मनोविज्ञान से समझे बहुत दिन तक प्रयोग किए। पति-पत्नी का मिलना इतना मुश्किल था जितना अब प्रेमी और प्रेयसी का मिलना भी नहीं है--पूरब में। दिन भर तो मिल नहीं सकते थे; रात के अंधेरे में, वह भी चोरी-छिपे, तो प्रेम लंबा चलता था। उस लंबे चलने का कारण यह था कि जो चौबीस घंटे उपलब्ध नहीं है, उसके प्रति रस मन का बना रहता है। जो चौबीस घंटे उपलब्ध है, उसके प्रति रस क्षीण हो जाता है। इसीलिए जब हमें कोई चीज मिल जाती है, तो मिलते ही बेकार हो जाती है।
सोचते थे बहुत दिन से कि एक बड़ा मकान बन जाए, वह बन गया। फिर दो-चार-आठ दिन बाद पाएंगे कि वह व्यर्थ हो गया। उतनी भी सार्थकता न निकली उसकी जितनी कि सपनों में थी। सपनों में जितना रस दिया था उस बड़े मकान ने, वह बन कर भी नहीं दे पाता। महीने-दो महीने बाद तो वह भूल ही जाएगा कि है भी--उसी में रहेंगे, उसी में आएंगे और जाएंगे; दो-चार साल बाद दूसरों को तो दिखता रहेगा, आपको दिखना बंद हो जाएगा।
मन जिसको पा लेता है, वह बेकार हो जाता है। क्योंकि मन का सारा रस अनुपलब्ध में है; जो नहीं मिला है, उसमें है। मन की सारी वासना उसके लिए है, जो यहां नहीं है, दूर है। मन दूर में रस लेता है। हम कहते हैं कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं। वह दूरी की वजह से नहीं होते हैं, मन की वजह से होते हैं। दूरी जितनी होती है और किसी चीज को पाना जितना मुश्किल होता है, जितना कठिन होता है, मन का रस उतना ही बढ़ जाता है।
यह मन का नियम ठीक से समझ लें। क्योंकि यह बाजार में होंगे तो एकांत चाहेगा और एकांत में होंगे, तो बाजार चाहेगा। मंदिर में बैठे होंगे तो वेश्यालय की याद आएगी। और वेश्यालय में बैठे हुए आदमी को भी मंदिर की याद आती है। यह जीवन इतना सीधा नहीं है जैसा हम समझते हैं, बहुत जटिल है। और उसकी जटिलता को कोई ठीक से न समझे, तो ध्यान में जाना मुश्किल हो जाता है।
एकांत स्थान का अर्थ--यह तो अच्छा ही है कि बाहर एकांत हो, लेकिन वह काफी नहीं है--भीतर एकांत हो। भीतर हमारे सदा भीड़ मौजूद है। ठीक होगा यह कहना कि हम आदमी कम हैं, भीड़ ही ज्यादा हैं। हमारे भीतर एक कम है, भीड़ इकट्ठी है। एक-एक आदमी एक बड़ी भीड़ है।
इसीलिए सुबह आदमी कुछ है, दोपहर कुछ है, सांझ कुछ है। बेचैनी होती है खुद को भी कि मैं सुबह तो बहुत प्रसन्न था, दोपहर क्यों उदास हो गया हूं? सांझ क्यों क्रोध से भर गया हूं? सुबह तो लगता था सारी दुनिया को आशीर्वाद दूं, सांझ लगता है कि सारी दुनिया की हत्या कर दूं। यह मेरे भीतर क्या हो रहा है? यह हमारी भीड़ है। हमारे भीतर बहुत चेहरे हैं। सुबह एक चेहरा था, दोपहर दूसरा चेहरा है, सांझ तीसरा चेहरा है। हमारे भीतर बहुत लोग हैं। सुबह एक आदमी बोला, दोपहर दूसरा आदमी बोला, रात तीसरा आदमी बोल रहा है। और इसलिए बड़ी कठिनाई है। सुबह जब हम दुनिया को आशीर्वाद देने को आतुर थे तब हमने जो बातें कही हैं, वह सांझ को हम पूरा न कर पाएंगे। क्योंकि सांझ को हम जो हैं, उसने सुबह वचन ही न दिया था, वह मौजूद ही न था।
अब मनस्विद कहते हैं कि आदमी के भीतर हम अब तक मानते थे एक मन है, वह गलत था। आदमी के भीतर बहुमन हैं। मल्टी-साइकिक है आदमी। और इसलिए आदमी सांझ को तय करता है कि सुबह पांच बजे उठना है, चाहे कुछ भी हो जाए कल तो उठना ही है, और सुबह पांच बजे वही आदमी कहता है: छोड़ो भी, इन बातों में क्या रखा है, रात बहुत सर्द है! और एक दिन न उठे तो हर्ज क्या है? करवट बदल कर सो जाता है। सुबह आठ बजे उठ कर वही आदमी पछताता है और कहता है: यह कैसे हुआ, क्योंकि मैंने तो तय किया था कि सुबह उठूंगा।
कठिनाई तब हमें मालूम पड़ती है, अगर हम मान लें कि आदमी के भीतर एक ही मन है, तो बड़ी मुश्किल है। लेकिन मनस्विद कहते हैं कि जिस मन ने तय किया था, वह और था। जिस मन ने सुबह सलाह दी कि सोए रहो, यह और है। और जिस मन ने सुबह पश्चात्ताप किया, यह और है। यह मन के अलग-अलग खंड हैं। इनकी एक-दूसरे से मुलाकात भी न हो, यह भी हो सकता है। इनको एक-दूसरे का पता ही न हो, यह भी हो सकता है।
महावीर ने भी आज से ढाई हजार साल पहले एक शब्द का प्रयोग किया है--मनस्विद चौकेंगे--वह है: बहुचित्तवान। उसका ठीक वही मतलब है, जो मल्टी-साइकिक का है। महावीर ने कहा है: आदमी बहुचित्तवान है। उसके भीतर बहुत चित्त हैं, एक चित्त नहीं है।
और इन अनेक चित्तों के बीच एकांत असंभव है।
इसलिए एकांत का जो गहन अर्थ है, वह है: बहुचित्तता की जगह एकचित्तता हो। मेरे भीतर बहुत चित्त न रह जाएं, एक ही चित्त हो। यह एक अर्थ है एकांत का।
दूसरा और एक अर्थ समझ लेना जरूरी है। और वह यह है कि मेरे भीतर चौबीस घंटे जो भीड़ खड़ी है, वह मेरे चित्तों की तो है ही, मेरे परिचितों की, मेरे मित्रों की, मेरे संबंधियों की, मेरे शत्रुओं की, उन सबकी भीड़ भी मेरे चारों तरफ घिरी हुई है। आदमी बाहर की दुनिया में बहुत कम जीता है, भीतर की दुनिया में बहुत ज्यादा जीता है।
आदमियों के मन के बाहर हम दो तरह की दुनियाएं समझें। एक उसके मन की दुनिया है, जिसमें वह चौबीस घंटे जीता है। उस मन के बाहर एक जगत है। उस जगत में भी थोड़ा-बहुत जीता है। लेकिन, ज्यादा वह अपने मन के जगत में ही जीता है। आप अपने मित्र से जो बातें करते हैं, वह आप अपने मन में बहुत पहले कर चुके होते हैं।
मार्क ट्‌वेन से कोई पूछता था--मार्क ट्‌वेन एक जगह सभा में बोल कर लौट रहा था। मार्क ट्‌वेन का मित्र साथ में था, उसने मार्क ट्‌वेन से पूछा कि आज का तुम्हारा व्याख्यान बहुत अच्छा रहा। तो मार्क ट्‌वेन ने कहा: कौन सा व्याख्यान? एक ही व्याख्यान देकर आ रहा था। तो मार्क ट्‌वेन ने पूछा: कौन सा व्याख्यान? तो उस मित्र ने कहा: कौन सा! जो तुम अभी देकर आ रहे हो। मार्क ट्‌वेन ने कहा कि मैं कम से कम तीन व्याख्यान दे चुका हूं। एक जो मैंने व्याख्यान देने के पहले भीतर दिया कि यह-यह बोलूंगा। और एक, जो मैंने वहां दिया। और एक जो मैं अभी दे रहा हूं कि यह-यह बोलना चाहिए था। तुम कौन से व्याख्यान की बात कर रहे हो?
आप बाहर के जगत में बहुत कम जीते हैं, उससे तीन गुना भीतर के जगत में जीते हैं। एक शब्द बाहर निकलता है, तो हजार बार भीतर घूम चुका होता है, तब बाहर निकलता है। एक कृत्य बाहर होता है, तो हजार बार भीतर किया जा चुका होता है।
एक आदमी को अगर किसी की हत्या करनी हो तो आज तक दुनिया में एक भी ऐसा हत्यारा नहीं हुआ, जो यह कह सके कि भीतर उसने बहुत बार यह हत्या नहीं की थी। और इसीलिए अगर भीतर की हत्या का हिसाब रखें, तो आदमी खोजना मुश्किल होगा जो हत्यारा न हो। क्योंकि भीतर तो हम सभी हत्याएं करते रहते हैं। यह दूसरी बात है कि हम बाहर तक नहीं पहुंचते, कोई बाहर तक पहुंच जाता है।
मनस्विद कहते हैं कि हत्याएं तो दूर, ऐसा आदमी भी खोजना मुश्किल है जिसने मन में अपने भीतर आत्महत्या न कर ली हो। कई बार, कई बार अपने को खत्म ही न कर लिया हो--कि खत्म कर ही दो। यह दूसरी बात है कि अभी कृत्य नहीं बना, लेकिन कभी भी बन सकता है। क्योंकि विचार बीज है। और मजबूत होता जाए तो कभी भी कृत्य बन सकता है।
मन के भीतर हम एक जगत को बनाए हुए हैं, वही भीड़ है। वासनाएं पहले मन में निर्मित होती हैं, जड़ें फैलाती हैं, अंकुरित होती हैं। बहुत बाद में कहीं उनके पत्ते और शाखाएं बाहर के जगत में पहुंचते हैं। और हजार वासनाएं भीतर निर्मित होती हैं, तो एक ही बाहर तक पहुंच पाती है। कितनी योजनाएं मन के भीतर निर्मित होती हैं, जिनमें से शायद सौ में से एक भी पूरी नहीं हो पाती।
अगर हम जीने का हिसाब समझें ठीक से, तो अगर एक आदमी सौ साल जीता हो, तो कम से कम अस्सी साल तो वह भीतर जीता है, बीस साल बाहर। यह जो भीतर जीने की प्रक्रिया है, यह हमारी भीड़ है। इसलिए हम कहीं भी चले जाएं, हम तो कम से कम वहां होंगे ही। सबको छोड़ कर चले जाएं जंगल में, तो भी मैं अपने को कहां छोड़ जाऊंगा? मैं तो वहां भी पहुंच ही जाऊंगा। मेरा वहां पहुंच जाना तो अनिवार्य है। मैं अपने को तो पीछे नहीं छोड़ पाऊंगा। और जब मैं अपने साथ पहुंच जाऊंगा तो अनिवार्य रूप से मेरे मन की सारी कल्पनाएं, मेरे मन की सारी वासनाएं, मेरी सारी योजनाएं, मेरे मन के सारे संबंध, सब मेरे साथ इकट्ठे हो जाएंगे। और वे सब मेरी भीड़ हैं।
इस आंतरिक भीड़ को मिटाने का नाम एकांत है।
तो एकांत स्थान तो है ही, स्थिति ज्यादा है। अच्छा है एकांत स्थान में बैठ जाएं, लेकिन यह मत समझना कि एकांत इतने से हो जाएगा। उपयोगी हो सकता है एकांत, पर्याप्त नहीं है। एकांत स्थिति भी चाहिए। और यह स्थिति बन जाए तो फिर स्थान का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता, आदमी कहीं भी एकांत में हो सकता है। कहीं भी! एक बार भीतर मन एक हो और यह जो मन का जगत है इसकी पकड़ ढीली हो जाए और हम इसके जाल के बाहर हो जाएं, तो आदमी एकांत स्थान को उपलब्ध हो जाता है। एकांत स्थिति को भी। स्थिति भीतरी बात है, स्थान बाहरी बात है। स्थान गौण है, स्थिति मूल्यवान है।
यह पहले शब्द को ठीक से समझ लें।
फिर दूसरा शब्द सूत्र में प्रयुक्त हुआ है: ‘सुख-आसन। सुखासन।’ एकांत हो स्थान और सुख-आसन में बैठ कर। इसके भी दो हिस्से हैं।
सुखासन से हम परिचित हैं। सुखासन योग में उस आसन को कहते हैं, जिसमें शरीर का सबसे कम से कम उपयोग हो। और शरीर का सबसे कम उपयोग तब होता है, जब आप... जैसे बुद्ध की प्रतिमा आपने देखी है, या महावीर की प्रतिमा आपने देखी है, वैसे पालथी मार कर, रीढ़ को बिलकुल सीधा करके, दोनों हाथों को एक-दूसरे पर रख कर अपनी गोदी में, अचल होकर बैठ जाते हैं, हिलते नहीं। इस अवस्था में शरीर का, शरीर की ऊर्जा का कम-से-कम उपयोग होता है।
कम से कम उपयोग होने का कारण बहुत वैज्ञानिक है। अगर आपकी शरीर की रीढ़ बिलकुल सीधी है, तो जमीन के ग्रेविटेशन का आप पर सबसे कम असर होता है। अगर आपकी रीढ़ जरा भी झुकी है, तो जमीन का ज्यादा हिस्सा आपकी रीढ़ को अपनी तरफ खींचता है। अगर रीढ़ आपकी बिलकुल सीधी है तो रीढ़ का सिर्फ नीचे का जो बिंदु है, उस पर ही जमीन के गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव पड़ता है। अगर आपकी रीढ़ आड़ी है, आगे झुकी है, पीछे झुकी है, तो पूरी रीढ़ पर जमीन के गुरुत्वार्कण का भार पड़ता है। जितना ज्यादा जमीन आपकी रीढ़ को अपनी तरफ खींचती है, उतना आपके शरीर पर श्रम पड़ता है। यह वैज्ञानिक है। इस श्रम को नापा जा सकता है।
आपके शरीर को जो सर्वाधिक पीड़ा होती है वह ग्रेवीटेशन से होती है। इसलिए वैज्ञानिक तो यह भी कहते हैं कि अगर आदमी चांद पर रहने लगा, तो उसकी उम्र चार गुना ज्यादा हो जाएगी। क्योंकि चांद पर वह गुरुत्वाकर्षण चार गुना कम है। तो अगर आदमी चांद पर रहने लगे, तो उसकी उम्र चार गुना ज्यादा हो जाएगी, क्योंकि यही शरीर कम थकेगा।
और वैज्ञानिक तो यह भी कहते हैं--आइंस्टीन की बहुत अदभुत धारणा थी, अविश्र्वसनीय मालूम पड़ती है; लेकिन आइंस्टीन कहता है, तो ठीक ही कहता होगा। आइंस्टीन कहता है कि अगर हम किसी व्यक्ति को अंतिरिक्ष की यात्रा पर भेजें, एक ऐसे यान में जिसकी गति उतनी ही हो जितनी की प्रकाश की किरण की गति होती है--प्रकाश की किरण की गति होती है एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील--अगर इतनी ही गति के यान में हम किसी व्यक्ति को यात्रा पर भेजें, तो उसकी उम्र बढ़ेगी नहीं। वह कितने ही वर्षों बाद पृथ्वी पर वापस लौटे, उसकी उम्र उतनी ही होगी जितनी उम्र में उसने पृथ्वी छोड़ी थी। यहां उसके बेटे बूढ़े हो गए होंगे, वह जवान वापस पृथ्वी पर उतरेगा।
यह जब पहली दफा आइंस्टीन ने कहा था तो बहुत हैरानी का था, लेकिन जब कारण साफ समझ में आ जाएं तो हैरानी का नहीं है। क्योंकि इतनी तीव्र यान की गति में उस पर किसी तरह के गुरुत्वाकर्षण का कहीं भी कोई परिणाम नहीं होगा और अंतरिक्ष के शून्य में वह यात्रा करेगा। आपका शरीर बूढ़ा आपके शरीर की वजह से नहीं होता। आपका शरीर बूढ़ा होता है शरीर की जमीन के साथ जो कशिश का संबंध है, उससे।
जमीन खींच रही है शरीर को नीचे की तरफ। उसका जो खिंचाव है, वही आपका बोझ है। जिसको आप वजन कहते हैं तराजू पर खड़े होकर, वह वजन वस्तु का नहीं है, वह वजन जमीन की कशिश का है। जितना जोर से जमीन खींचती है--वस्तु जितनी बड़ी होती है उतना ज्यादा जोर से खींचती है। तराजू नीचे झुक जाता है। अगर हम गुरुत्वाकर्षण को काट दें, तो आप तराजू पर कितना ही वजन रखें वह नीचे नहीं झुक सकेगा। वह झुकता गुरुत्वाकर्षण के कारण है। शरीर का सर्वाधिक श्रम बिना श्रम किए भी हो रहा है। इसलिए आप कुछ भी करें, सत्तर-अस्सी साल में शरीर बूढ़ा हो जाएगा। चाहे आप बैठे रहें, चाहे आप बिलकुल लेटे रहें, तो भी शरीर बूढ़ा हो जाएगा। क्योंकि जमीन पूरे वक्त उससे काम ले ही रही है। आप जब सो रहे हैं, तब भी शरीर बूढ़ा हो रहा है, क्योंकि जमीन उसे खींच रही है। यह हो सकता है, इसके पीछे बहुत कारण हैं।
वैज्ञानिकों की एक धारणा है कि हर चीज अपनी पूर्व स्थिति में लौट जाना चाहती है। हर चीज अपनी पूर्व स्थिति में लौट जाना चाहती है, क्योंकि अपनी पूर्व स्थिति में विश्राम होता है और कोई भी नई स्थिति में श्रम होता है। जैसे एक लहर सागर से उठी, बहुत जल्दी गिरेगी और वापस लौट जाएगी। क्योंकि सागर से उठने में लहर के लिए भारी श्रम है, तनाव है, परेशानी है। वापस गिर जाने में फिर विश्राम है। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा शरीर तो मिट्टी से बनता है, पानी से बनता है, वस्तुओं से बनता है, वह पूरा का पूरा शरीर हमारा वापस लौट जाना चाहता है। और उसके वापस लौटने की जो व्यवस्था है, वह जमीन का गुरुत्वाकर्षण है। जमीन अपनी मिट्टी को वापस बुला रही है। पूरे वक्त खींच रही है।
वैज्ञानिकों को तो यह बात अभी-अभी खयाल में आनी शुरू हुई, लेकिन योग को यह बात बहुत पहले से खयाल में है। इसलिए अगर योगी अपनी रीढ़ को सीधा करके ज्यादा समय व्यतीत करे तो उसकी उम्र बढ़ जाएगी। वह सुख का आसन है, कोई भी ऐसा आसन जिसमें रीढ़ बिलकुल सीधी हो--नब्बे का कोण बनाती हो जमीन से--शरीर के लिए सबसे कम कष्टपूर्ण है। एक बात।
दूसरे कारण से भी वह सुखासन है, क्योंकि शरीर को अब... अब शरीरविद मानते हैं कि शरीर के भीतर जो शक्ति काम कर रही है, वह भी बायोइलेक्ट्रिसिटी है। वह भी एक दैहिक-विद्युत है। और शरीर के भीतर विद्युत का संचार, विद्युत का संचालन, उसकी गति पूरे समय हो रही है।
योग को यह खयाल सदा से रहा है कि शरीर के भीतर विद्युत काम कर रही है। इस विद्युत को योग ने प्राण कहा है। यह नाम का फर्क है। यह जो शरीर के भीतर प्राण काम कर रहा है, वह विद्युत के नियम से ही चलता है। जैसे विद्युत अगर वर्तुल में घूम रही हो तो उसका ह्रास नहीं होगा। अगर उसका वर्तुल टूट जाए तो विद्युत का ह्रास होगा। विद्युत अगर अपने वर्तुल में घूमती रहे तो वह अपने को संवर्धित करती है।
शरीर के भीतर भी जो विद्युत का प्रवाह है, उसका भी वर्तुल निर्मित हो जाता है सुख-आसन में। दोनों पैर, दोनों पैरों के पंजे जांघों से जुड़ जाते हैं। दोनों हाथ एक-दूसरे के ऊपर रख लिए जाते हैं। रीढ़ सीधी हो जाती है। हाथों और पैरों की अंगुलियों से शरीर की विद्युत का प्रवाह बाहर की तरफ होता है। अगर ये दोनों एक-दूसरे से हाथ जुड़ जाएं और दोनों पैर दोनों जांघों से जुड़ जाएं, तो जो शरीर की विद्युत बाहर जाती है, बाहर न जाकर शरीर में ही वर्तुलाकार घूमने लगती है।
अगर शरीर की विद्युत बिलकुल बाहर न जाए--और इसके लिए और भी उपाय योगियों ने किए; लकड़ी के तख्त पर बैठते थे, वह नॉन-कंडक्टर है, उससे बिजली बाहर नहीं जाती। या सिंह के चर्म पर बैठते, या मृग-चर्म पर बैठते, वह सब नॉन-कंडक्टर हैं। या ऊन के कंबल को बिछा कर उस पर बैठते, वह भी नॉन-कंडक्टर है। योग ने जितनी चीजों पर बैठने की सलाह दी कि इन पर बैठ कर ध्यान करना चाहिए, वे सब नॉन-कंडक्टर हैं। उनसे बिजली बाहर नहीं जाती। इसलिए शरीर की सारी बिजली शरीर में रहेगी। बाहर जाने के सब उपाय बंद हो जाते हैं। और शरीर के भीतर वर्तुल निर्मित होता है। सर्किट निर्मित होता है। इस सर्किट की स्थिति में शरीर का सबसे कम, कम से कम ह्रास होता है।
शरीर की शक्ति का सबसे ज्यादा ह्रास संभोग में होता है। क्योंकि संभोग में आपके शरीर की बिजली को फेंकने वाला जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है, वह दूसरे व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाता है। और दूसरे व्यक्ति की, विशेषकर स्त्री के व्यक्तित्व में बिजली को खींचने की जो क्षमता है, वहां पूरी तरह से बिजली खींच ली जाती है।
सुखासन में सबसे कम शरीर की विद्युत बाहर जाती है, संभोग में सर्वाधिक।
मनुष्य के जो जननेंद्रिय के केंद्र हैं, वे विद्युत के बड़े संग्रह के केंद्र हैं--रिजरवायर्स हैं--वहां से सर्वाधिक विद्युत फेंकी जाती है। इसलिए कामातुर मन--चाहे कामवासना में न भी उतरे--चौबीस घंटे अपने शरीर की विद्युत को बाहर फेंकता रहता है। इसलिए कामातुर व्यक्ति भीतर से क्षीणता को, दीनता को, ग्लानि को, और धीरे-धीरे भीतर एक आत्मिक-दुर्बलता को उपलब्ध हो जाता है।
यह सारी की सारी व्यवस्था सुखासन की शरीर की विद्युत को भीतर एक वर्तुलाकार में घुमाने की है। एक और मजे की बात है कि जब शरीर की विद्युत बाहर नहीं जाती और वर्तुलाकार घूमती है, तो शरीर को शुद्ध करती है। एक-एक नस और नाड़ी को शुद्ध करती है--उसकी हम पीछे बात करेंगे।
सुखासन का पहला तो प्रयोजन है कि रीढ़ इतनी सीध में हो कि शरीर पर सबसे कम कष्ट पड़े।
दूसरा प्रयोजन है: शरीर की विद्युत वर्तुलाकार निर्मित हो जाए ताकि शरीर की शक्ति का कोई भी ह्रास बाहर न हो। इस अवस्था में शरीर सर्वाधिक सुख की अवस्था को अनुभव करता है, सर्वाधिक सुख में होता है।
ध्यान रहे, इस सुख से शायद आप समझ न पाएं, यह योगियों का शब्द है। जिस चीज को आप सुख समझते हैं, उसमें एक तरह की उत्तेजना और एक्साइटमेंट जरूरी है। जिसे हम सुख समझते हैं--हम कहते हैं: एक आदमी को लॉटरी मिल गई, बहुत सुख में है इस समय। सुख का मतलब यह है कि इतना उत्तेजित है कि रात सो नहीं सकता। हृदय की धड़कन बढ़ गई गई है, खून की चाल तेज हो गई है। रक्तचाप बढ़ गया है, हम कहते हैं--बड़े सुख में है--रात नींद नहीं आती। चौबीस घंटे कंप रहा है भीतर कुछ। बड़े सुख में है। हम जिसे सुख कहते हैं वह भी उत्तेजना है और हम जिसे दुख कहते हैं वह भी उत्तेजना है। हम उत्तेजना को ही सुख कहते हैं, उत्तेजना को ही दुख कहते हैं।
फिर फर्क क्या है?
जो उत्तेजना हमें प्रीतिकर लगती है, उसे हम सुख कहते हैं। जो उत्तेजना अप्रीतिकर लगती है, उसे दुख कहते हैं। और इसीलिए ऐसा भी हो जाता है कि आज जो सुख है, वह कल दुख हो जाता है। और आज जो दुख है, वह कल सुख हो सकता है। उत्तेजना वही रहेगी, सिर्फ प्रीति और अप्रीति की बदलने की जरूरत है।
कभी, आपको खयाल न हो, जिनको आप सुख कहते हैं, वे भी आपको बुरी तरह थका जाते हैं। इसलिए कोई आदमी सतत सुख में नहीं रह सकता। उसका कारण यह नहीं है कि सतत सुख के रहने की कोई असंभावना है। उसका कारण कुल इतना है कि सतत सुख में आप इतनी बुरी तरह टूट जाएंगे जिसका हिसाब नहीं है। बीच में अनिवार्य गैप आने जरूरी हैं।
पश्चिम के एक बहुत अदभुत मिस्टिक जैकब वोहमे ने कहा है कि मैंने प्रेम करके भी यह पाया कि प्रेम भी एक बीमारी है। और बीमारी इसलिए कहता हूं कि बीमारी में जितना मैं नहीं टूटा, उतना प्रेम में टूटा। और बीमारी में जितना नहीं थका, उतना प्रेम में थका। और बीमारी का तो इलाज भी है, इस प्रेम का कोई इलाज नहीं। और बीमारी में अगर रात नहीं सो पाता था, तो लोग कहते थे: अनिद्रा हो गई। और प्रेम में भी नहीं सो पाता था रात, लेकिन तब मैं सोचता था सुख है। अब मैं जानता हूं, वह भी अनिद्रा थी।
जिन्हें हम सुख कहते हैं, वह हम, हमारी मान्यता के अनुसार प्रीतिकर उत्तेजनाएं हैं। योग उनको सुख नहीं कहता। इस बात को ठीक से समझ लें। इसलिए कह रहा हूं कि सुख शब्द का उपयोग किया है, इसलिए कहीं आपको और कुछ भ्रांति न हो जाए। सुख हमारे लिए उत्तेजना का एक रूप है, योग उसे सुख कहता है जहां शरीर में कोई उत्तेजना नहीं। अनुत्तेजित, अनएक्साइटेड शरीर की अवस्था को योग सुख कहता है। इसलिए जिसे हम दुख कहते हैं, उसे तो योग दुख कहता ही है, जिसे हम सुख कहते हैं उसे भी दुख कहता है। सुख उस आंतरिक समन्वय को कहता है जहां कोई उत्तेजना नहीं, कोई तनाव नहीं, कोई लहर नहीं । झील बिलकुल शांत है। शरीर की ऊर्जा बिलकुल शांत, मौन अपने में घूम रही है। कहीं कोई बाहर जाने का खयाल भी नहीं है। अपने में तृप्त, शांत ठहरी हुई है। सुखासन से ऐसा प्रयोजन है।
तीसरा शब्द है: ‘सिर, गले व शरीर को एक सीध में रख कर...।’
सिर, गला और रीढ़ एक सीध में रख कर। अगर आप शरीर-शास्त्र से परिचित हैं, तो आप जानते होंगे कि शरीर-शास्त्री कहते हैं कि आपकी रीढ़ का ही आखिरी हिस्सा विकसित होकर मस्तिष्क बना है। मस्तिष्क के भीतर जो भी ग्रंथियां हैं, मस्तिष्क का जो भी फैलाव और विस्तार है, वह रीढ़ का ही अंग है। हम कह सकते हैं कि मस्तिष्क रीढ़ का ही एक छोर है। या उलटा भी कह सकते हैं कि रीढ़ मास्तिष्क की ही फैली हुई एक जड़ है, जो हमें पसंद हो। लेकिन एक बात तय है कि रीढ़ और मस्तिष्क गहरे में संबंधित हैं। इतने गहरे में संबंधित हैं उसका हमें भी पता है, लेकिन सचेतन पता नहीं है।
रात आप सोते हैं, बिना तकिए के सोएं तो नींद नहीं आती। कभी आपने सोचा ही न होगा कि तकिए और नींद का क्या लेना-देना? सभी जानवर बिना तकिए के सोते हैं और उन्हें नींद आती है। बच्चे भी बिना तकिए के सो जाते हैं और उन्हें नींद आती है। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बड़ी होती है, वैसे मुश्किल होता जाता है। और एक मजे की बात है कि जैसे-जैसे सभ्यता बड़ी होती है, शिक्षा बड़ी होती है, उतने ज्यादा तकियों की जरूरत पड़ती है।
क्यों?
उसका शारीरिक कारण है भीतर। जितना मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है, उतना संवेदनशील हो जाता है। और इसलिए रात को अगर सोना है, तो मस्तिष्क में खून कम से कम जाए, इसका खयाल रखना जरूरी है। जरा सा खून मस्तिष्क में जाएगा, मस्तिष्क सक्रिय हो जाएगा, नींद मुश्किल हो जाएगी। इसलिए तकिए ऊंचे रख लेते हैं आप, मस्तिष्क ऊंचा हो जाता है, रीढ़ नीची हो जाती है, तो सारा मस्तिष्क का खून रीढ़ की तरफ बहने लगता है। अगर मस्तिष्क नीचा हो और रीढ़ ऊंची हो, या समान दोनों हों, तो खून मस्तिष्क की तरफ बहता रहेगा और नींद असंभव हो जाएगी। इसलिए शीर्षासन में नींद आना बिलकुल असंभव है। और जो शीर्षासन करता है, उसकी नींद कम हो जाती है। कम हो जाएगी। शीर्षासन करने वाला पांच घंटे, चार घंटे में पर्याप्त नींद ले लेगा। इससे ज्यादा उसे जरूरत नहीं रह जाएगी।
लेकिन अगर शीर्षासन ज्यादा किया जाए तो बुद्धि को नुकसान पहुंचेगा। इसलिए शीर्षासन करने वाले बहुत बुद्धिमान देखे नहीं जाते। बुद्धिमान कभी-कभी शीर्षासन करते हों, यह दूसरी बात है। लेकिन शीर्षासन करने वाले बुद्धिमान नहीं देखे जाते। क्योंकि बहुत शीर्षासन करने का अर्थ होगा कि खून इतनी ज्यादा तीव्रता से मस्तिष्क में बहेगा कि मस्तिष्क के जो बहुत सूक्ष्म तंतु हैं, वे टूट जाएंगे। और जितने ज्यादा सूक्ष्म तंतु मस्तिष्क में हों, बुद्धि उतनी विकसित होती है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी के भीतर बुद्धि के विकास का कुल एक ही कारण है कि आदमी दो पैरों पर खड़ा हो गया है। और सब जानवर चार पर खड़े हैं। चार पर खड़े होने की वजह से उनके मस्तिष्क में खून बहुत बह रहा है, सूक्ष्म तंतु विकसित नहीं हो पाते। आदमी दो पैर से खड़ा हो गया, उसके मस्तिष्क में खून सबसे कम जाने लगा--क्योंकि इतने ऊपर तक पंप करना मुश्किल है खून को, कम से कम खून पहुंच पाता है, इसलिए आदमी के मस्तिष्क ने सूक्ष्म तंतु विकसित कर लिए हैं। ठीक ऐसे ही जैसे कि अगर कोई धीमी सी धारा बह रही हो, तो उसमें आप पौधे लगा सकते हैं। कोई बड़ी प्रगाढ़ धारा बहने लगे, पौधे उखड़ जाएंगे। और मस्तिष्क के तंतु बहुत सूक्ष्म हैं। छोटे से हमारे मस्तिष्क में सात करोड़ सेल हैं। एक बड़ी बस्ती है। सात करोड़ जीवंत सेल हैं। जरा सा झटका इनको तोड़ देता है। तो आदमी का सारा का सारा विकास रीढ़ के बल दो पैर से खड़े हो जाने पर हुआ है।
अगर आप विकासवादियों से पूछें, तो वे कहेंगे कि मनुष्य के जीवन में जो सबसे बड़ी क्रांति हुई, वह उस बंदर ने की जो वृक्ष से नीचे उतर कर दो पैरों से खड़ा हो गया, और दो पैर मुक्त हो गए, रीढ़ सीधी हो गई और मस्तिष्क तक खून की धारा कम हो गई। जब यह कहा जाता है कि रीढ़, गला और सिर एक सीध में हों, तो यह एक दूसरी और बड़ी क्रांति के लिए सूचना है। अगर जानवरों से किसी ने कहा होता कि तुम अगर दो पैरों से खड़े हो जाओ, तो तुम्हारे भीतर बुद्ध और आइंस्टीन और सुकरात जैसे लोग पैदा हो सकते हैं, तो जानवरों ने भी हंसी उड़ाई होती कि क्या मजाक करते हो! सिर्फ दो पैर से खड़े होने से बुद्ध, आइंस्टीन और सुकरात पैदा हो सकते हैं! यह जानवरों को बात जंची न होती। यह हमको भी नहीं जंचती कि रीढ़, गले और सिर को एक सीध में रखने से ध्यान कैसे पैदा हो जाएगा, समाधि कैसे लग जाएगी?
यह और आगे का एक कदम है। अगर रीढ़, गला और मस्तिष्क बिलकुल एक सीध में रख कर आप बैठे हों, तो उनके भीतर जो विद्युत-धारा प्रवाहित होती है, उस विद्युत धारा को प्रवाहित होने के लिए सब बाधाएं टूट जाती हैं। सीध की वजह से सीधी बह पाती हैं। लेकिन बैठे हों। अगर लेट कर किया हो, तो खून भी साथ में ऊपर बढ़ेगा। बैठे होना चाहिए। तो खून तो ऊपर नहीं जाएगा, सिर्फ शरीर की विद्युत ऊपर जाएगी। अगर खून कम जाए और विद्युत ज्यादा जाए तो मस्तिष्क के जो केंद्र अभी निष्क्रिय पड़े हैं, वे सक्रिय होना शुरू हो जाते हैं। मस्तिष्क के बहुत से केंद्र निष्क्रिय हैं। अगर मनस्विद से पूछेंगे, तो वह कहता है कि अब तक हमने अपने मस्तिष्क का दस प्रतिशत से ज्यादा उपयोग नहीं किया है। नब्बे प्रतिशत बिना उपयोग किए पड़ा है। उस नब्बे प्रतिशत की क्या संभावनाएं हैं, कहना कठिन है।
योग कहता है: सारी सिद्धियां--जिनकी योग ने चर्चा की है--उस नब्बे प्रतिशत से संबंधित हैं, अगर उनको भी हम प्राण दे सकें और प्राण-ऊर्जा उनमें भी प्रवाहित हो सके, तो वे केंद्र भी सक्रिय हो सकते हैं। और अभी तो वैज्ञानिकों का एक समूह जो साइकिक रिसर्च में लगा है, मन की गहन खोज में लगा है, वह चकित हुआ यह जान कर कि जिन लोगों के भी पास किसी तरह कि सिद्धि होती है--किसी तरह की; सिद्धि से मतलब है, कुछ ऐसी शक्ति जो सामान्य नहीं है। कोई चमत्कार नहीं है, कोई सोई हुई शक्ति जो सामान्य नहीं है।
जैसे टेड सीरियो अमरीका में एक आदमी है, वह किसी भी चीज का विचार करे, तो विचार के साथ ही उसकी आंखों में उस का चित्र भी आ जाता है। और चित्र आखों में ही नहीं आ जाता, उस चित्र का कैमरे से फोटो भी लिया जा सकता है। उसकी आंखों में आए चित्र का। जैसे टेड सीरियो न्यूयार्क में बैठ कर ताजमहल के संबंध में सोचे--उसने सोचा है ताजमहल के संबंध में--आंख बंद करके सोचता रहेगा, सोचता रहेगा, फिर वह कहेगा कैमरा तैयार कर लो, मैं आंख खोलता हूं, ताजमहल आ गया है। फिर आंख खोलता है और आंख से तस्वीर ली जाती है, तो आंख में ताजमहल आ जाता है, तस्वीर में ताजमहल आ जाता है। और ऐसी चीजों के भी चित्र आ जाते हैं जो उसने देखी नहीं हैं। जो और कठिन बात है।
ताजमहल अगर देखा हो, तो आदमी कल्पना भी कर सकता है, फिर भी यह असंभव है। कल्पना आंख में प्रोजेक्ट नहीं होती। और कल्पना करने से आंख से चित्र नहीं लिए जा सकते हैं। लेकिन टेड सीरियो ने जिन चीजों को देखा ही नहीं, उन चीजों के बाबत कहने पर भी वह विचार करता है सिर्फ कि वह चीज आंख में आ जाए, और वह आंख में आ जाती है। और उसकी तस्वीरें आ जाती हैं।
टेड सीरियो के मस्तिष्क की जांच से पता चला कि सामान्य आदमी के मस्तिष्क के जो हिस्से बेकार पड़े रहते हैं, वे उसके बेकार नहीं हैं, वे काम कर रहे हैं, उनमें विद्युत दौड़ रही है।
अब तो हमारी खोपड़ी पर इलेक्ट्रोड लगा कर जांच की जा सकती है कि किस हिस्से में विद्युत दौड़ रही है और किसमें नहीं दौड़ रही है। इलेक्ट्रोड लगाते से, जहां विद्युत दौड़ रही है, इलेक्ट्रोड का जो बल्ब है वह जल जाता है। और जहां नहीं दौड़ रही है वहां बल्ब नहीं जलता है। जैसे कि इलेक्ट्रिसियन जांच करता है कि बिजली चल रही है या नहीं चल रही है। ठीक वैसे ही हमारी खोपड़ी में भी बिजली दौड़ रही है, कि नहीं दौड़ रही है, अब जांच की जा सकती है। बहुत बारीक, बहुत सूक्ष्म और नाजुक बिजली दौड़ रही है। लेकिन फिर भी एक मस्तिष्क में जितनी बिजली दौड़ रही है, सामान्य हालत में उससे पांच कैंडिल का बल्ब जलाया जा सकता है, कभी भी। बहुत नाजुक है, लेकिन फिर भी पांच कैंडिल का बल्ब आपकी खोपड़ी में लटका कर जलाया जा सकता है। वह जल जाएगा। इस बिजली को जांचा जा सकता है। टेड सीरियो के जिन हिस्सों में बिजली दौड़ रही है, उन हिस्सों में सामान्य आदमी के नहीं दौड़ती।
योग कहता है कि यह जो तीनों को अगर सीधा रखा जाए तो जो ऊर्जा है वह ऊपर उठती है और मास्तिष्क के दूसरे हिस्सों में दौड़ना शुरू हो जाती है। उस दौड़ने के ही परिणाम में अष्ट-सिद्धियां हो जाती हैं। अनेक नई घटनाएं मस्तिष्क में घटनी शुरू हो जाती हैं। इन तीनों को सीध में रखने का कारण वैज्ञानिक है--शरीर की ऊर्जा, शरीर की विद्युत, मस्तिष्क के आखिरी छोर तक चली जाए।
दो बातें और समझ लें।
मैंने कहा कि मस्तिष्क जो है, वह रीढ़ का ही एक हिस्सा है। और आपकी जननेंद्रिय जो है, वह भी रीढ़ का दूसरा हिस्सा है। आपके जनन का जो यंत्र है, वह रीढ़ के एक छोर पर है और आपके चिंतन का जो यंत्र है, वह रीढ़ के दूसरे हिस्से पर है। और इन दोनों के बीच एक ही ऊर्जा का प्रवाह है। जिसको हम काम-ऊर्जा कहें, सेक्स-एनर्जी कहें, वह वही एनर्जी है।
अगर वह रीढ़ के नीचे के हिस्से से जगत में प्रवेश करती है, तो हम उसे काम-ऊर्जा कहते हैं। यौन कहते हैं। और अगर वही मस्तिष्क के आखिरी हिस्से से जगत में प्रवेश करे, तो कुंडलिनी हो जाती है। इस काम-ऊर्जा को ऊपर ले जाने के लिए इन तीनों का एकदम सीध में होना जरूरी है। यह बिलकुल सीधी रेखा में, मस्तिष्क, गला और रीढ़ बिलकुल एक सीधी रेखा में आ जाना चाहिए।
चौथा शब्द है--
‘एकांत स्थान हो; सुख-आसन हो; सिर, गले व शरीर को एक सीध में रखा हो; ‘सब भांति शरीर को शुद्ध करके।’
शरीर की शुद्धि से हमारे मन में खयाल उठता है स्नान इत्यादि करके। वह ठीक है, लेकिन बहुत कम है। शरीर की शुद्धि बड़ी घटना है। स्नान से शरीर पर जो बाहर से धूलकण या और कुछ आ गया हो, वह धुल जाता है। शरीर के रंध्र शुद्ध हो जाते हैं। शरीर के रंध्र-रंध्र से श्र्वास ली जाती है, वह श्वास की क्रिया शुरू हो जाती है। शायद आपको खयाल न हो कि आप नाक से ही श्र्वास नहीं लेते, पूरे शरीर से श्र्वास लेते हैं। इसलिए अगर आपकी नाक छोड़ दी जाए कि आप नाक से श्र्वास लें और सारे शरीर को ठीक से पेंट कर दिया जाए कि कोई भी आपका रोआं श्र्वास न ले सके, तो आप तीन घंटे से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकते। नाक से आप श्वास लेते रहें, मुंह से ही श्र्वास लेते रहें। सब शरीर के रंध्र बंद कर दिए जाएं, तो आप तीन घंटे से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकते। तो इस भ्रांति में आप मत रहना कि आप नाक से ही श्र्वास ले रहे हैं। आपका रोआं-रोआं श्वास ले रहा है। शरीर के छिद्र-छिद्र से श्वास जा रही है। तो स्नान से इतनी शुद्धि हो जाती है कि सब छिद्रों के धूलकण हट जाते हैं। धूल कण हट जाने से आपका पूरा शरीर प्राणवायु को लेने लगता है। तो रोएं-रोएं में प्राणवायु के पहुंचने से एक ताजगी अनुभव होनी शुरू होती है। यह जो शुद्धि है--जरूरी है, काफी नहीं।
शरीर-शुद्धि बड़ा शब्द है। शरीर-शुद्धि के दो-तीन अंग हमें समझ लेने चाहिए। एक, जो आपको कभी भी खयाल न आया होगा।
अभी-अभी अमरीका में एक मनस्विद की मृत्यु हुई। विलहम रेक उसका नाम है। इस सदी में जिन लोगों ने बहुत महत्वपूर्ण काम किया है मनुष्य के ऊपर, उनमें एक आदमी था। जो भी महत्वपूर्ण काम करते हैं, वे मुसीबत में पड़ते हैं। विलहम रेक जेलखाने में मरा। क्योंकि आदमी कुछ ऐसा अजीब है कि उसके लिए अगर कोई भी महत्वपूर्ण काम किया जाए तो वह ठीक से बदला लेगा।
बदला लेने का कारण होता है। क्योंकि अगर ठीक से आदमी पर काम हो, तो उसकी जड़, मानी हुई मान्यताओं में से बहुत सी मान्यताएं गलत सिद्ध होती हैं। गलत सिद्ध होते ही आदमी को तकलीफ शुरू हो जाती है। आदमी मानने को तैयार नहीं कि उसकी कोई मान्यता गलत है। और मजा यह है कि अपनी ही मान्यताओं के कारण वह सब तरह के दुख में पड़ा है। पूछने जाता है कि मेरा दुख कैसे मिटे? लेकिन अगर उससे कहो कि तुम्हारी मान्यताएं ही तुम्हें दुख दे रही हैं, तुम्हीं अपने दुख के निर्माता हो, तो मान्यताओं को बदलने को तैयार नहीं है।
आदमी ऐसा है कि खुद ही अपना कारागृह बना कर, उसमें ताला लगा कर, चाबी को फेंक देता है बाहर। और फिर चिल्लाता है कि मैं बहुत दुख में हूं, बहुत बंधन में पड़ा हूं, मुझे छुड़ाओ। और अगर कोई आदमी यह कहे कि यह तेरी ही मूढ़ता का फल है, तो फिर क्रोध आता है।
विलहम रेक ने बहुत सी बातें आदमी के संबंध में कीमती कहीं। उसने कहा कि आदमी के शरीर में आदमी की दबाई हुई सभी वासनाएं संगृहीत हो जाती हैं। शरीर में, मन में नहीं। दबाई गई सभी वासनाएं शरीर में संगृहीत हो जाती हैं और ये वासनाएं शरीर में संगृहीत होकर शरीर को अशुद्ध कर देती हैं, रुग्ण कर देती हैं, विकृत कर देती हैं।
योग इस बात को बहुत पहले से जानता है। जैसे मेरा अपना अनुभव यह है कि अगर आप अपने क्रोध को दबा लें, तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे कि आपके दांतों में आपका क्रोध संगृहीत हो जाएगा। उसके कारण हैं। इसलिए क्रोध जब होता है, तो आदमी दांत पीसने लगता है। क्रोध जब होता है, तो मुट्ठियां बांध लेता है। क्रोध में आदमी इतनी जोर से मुट्ठियां बांध सकता है कि अपने ही नाखून अपनी ही मांस में चुभ जाएं। अगर आपने क्रोध को दबा लिया, तो आपकी अंगुलियों में और आपके दांतों में क्रोध संगृहीत हो जाएगा।
विलहम रेक तो इस नतीजे पर पहुंचा कि क्रोधी आदमियों के दांत जल्दी गिर जाते हैं। हजारों प्रयोगों से इस नतीजे पर पहुंचा। और विलहम रेक ने हजारों क्रोधियों के दांतों को दबा कर उनके क्रोध को जगाने का अनूठा प्रयोग किया। जब क्रोधी अगर उसके पास आएगा तो वह सारा अध्ययन करके उसको लिटा देगा। और कुछ नहीं करेगा, चारों तरफ से उसके मसूढ़ों को दबाएगा। और उनके मसूढ़ों को दबाते से ही वह आदमी इतने क्रोध में आ जाएगा--अभी क्रोध का कोई कारण नहीं था--कि अनेक बार विलहम रेक को पुलिस को बुला कर अपने मरीजों से खुद को बचाना पड़ा। फिर तो बाद में उसे बॉडी गार्ड रखना पड़ता था, क्योंकि कभी भी कोई मरीज उस पर हमला कर देगा। उसके दबाए हुए क्रोध को छूना, उसको उकसाना खतरनाक है।
जानवर और आदमी के बीच का फासला कितना ही हो, बहुत फासला नहीं है। तो जानवर अपना सारा क्रोध दांतों से प्रकट करते हैं। वही उनके पास--या नाखून, या दांत, ये दो चीजें उनकी हिंसा के साधन हैं। आदमी ने हिंसा के बहुत साधन विकसित कर लिए। और जो खोज करते हैं वे कहते हैं, इसीलिए विकसित कर लिए कि आदमी के दांत और नाखून जानवरों से बहुत कमजोर हैं, इसलिए सब्स्टीट्यूट की जरूरत पड़ना जरूरी हो गई। तो हमारे खंजर, हमारी तलवारें, हमारी छुरियां--ये हमारे दांतों का विस्तार हैं। हमारे नाखूनों का विस्तार हैं। दूसरे जानवर हमसे मजबूत थे। हमें कुछ खोजना पड़ा जिससे हम उनसे ज्यादा मजबूत दांत और नाखून बना लें। उससे हम जीते भी।
लेकिन एक मजेदार घटना घट गई कि जब आप छुरी से किसी को मारते हैं तो आपके नाखूनों में जो हिंसा उठ गई थी, वह छुरी से नहीं निकलती। वह आपके नाखून में ही रह जाती है। नाखून से छुरी तक हिंसा को जाने के लिए कोई ‘पैसेज’ नहीं है। अगर आप किसी आदमी को गाली देते हैं और बड़बड़ाते हैं और दांत पीसते हैं तो भी बिना काटे आपके दांतों में जो ऊर्जा आ जाती है, वह नहीं निकलती । और दांतों की ऊर्जा आ जाने की जो व्यवस्था है, वह करोड़ों वर्ष के अनुभव से आई है।
तो दांत में हिंसा इकट्ठी हो जाती है। हिंसक आदमी सिगरेट पीने में रस पाएगा। दांतों का उपयोग होता है। हिंसक आदमी ज्यादा बातचीत करने में रस पाएगा। दांतों का उपयोग होता है। हिंसक आदमी कुछ नहीं मिलेगा तो गाद को मुंह में डाल कर चबाता रहेगा, पान को मुंह में डाल कर चबाता रहेगा, यह सब हिंसक आदमी के लक्षण हैं। दांत चलता रहना चाहिए। तो दांतों से थोड़ी ऊर्जा निकलती है। थोड़ी राहत मिलती है, थोड़ा हलकापन आता है। वह किसी तरह चले। एक लिहाज से अच्छा भी है कि आप दूसरे को नहीं काटते, कम से कम पान ही चबाते हैं। अहिंसक उपाय है हिंसा को निकालने का।
लेकिन, यह मैंने उदाहरण के लिए कहा। हमारे शरीर की सारी वासनाएं जिनको हम दबा लेते हैं--और आदमी दबा रहा है, बुरी तरह दबा रहा है--आदमी कुछ भी नहीं निकालता; हमारी सारी सभ्यताएं और सारी संस्कृतियां और तथाकथित सारे धर्म दमन पर खड़े हैं। दबाओ सब। उसको दबा कर रोक लो। लेकिन वह दबेगा तो भीतर भर जाएगा और शरीर अशुद्ध हो जाएगा। शरीर की शुद्धि का स्नान से ज्यादा गहरा परिणाम आपके शरीर के भीतर जो दबा है, उसे निकालने से होगा।
हम जो प्रयोग कर रहे हैं ध्यान का, वह इससे जुड़ा हुआ है। उसमें आपके भीतर जो भी दबा है--क्रोध है, हिंसा है, दुख, सुख है, रोना है, हंसना है, पागलपन है, सब दबा है--उसे फेंक देना है, उसे निकाल देना है। और ध्यान रहे, जब आप किसी पर निकालते हैं, तो आप एक चक्कर में पड़ रहे हैं जिससे छुटकारा नहीं होगा। उसे शून्य में निकाल देना है। जो आदमी अपने क्रोध को शून्य में निकालने में समर्थ हो गया--किसी पर नहीं--क्योंकि जब आप किसी पर निकालेंगे, तो फिर क्रोध की श्रृंखला का कोई अंत नहीं है। मैंने आपको गाली दी, फिर आपने मुझे गाली दी, फिर मैं आपको गाली दूंगा। और इसका कोई अंत नहीं है। और हर बार, हर बार क्रोध का यह प्रयोग करना अभ्यास भी बनेगा। तो क्रोध तो निकलेगा, लेकिन अभ्यास भी निर्मित होगा। और तब एक, एक दुष्टचक्र है, जिसमें आदमी फंस जाता है।
अगर मैं प्रकट करता रहूं, हर किसी को गाली दूं, हर किसी पर क्रोध करूं, वक्त-बेवक्त हंसता रहूं, वक्त-बेवक्त रोने लगूं, जो भी मेरे भीतर है वह प्रकट करता रहूं, तो भी जीना असंभव हो जाएगा। जहां दूसरों के साथ जीना है, वहां बहुत बार बहुत सी बातें दबा ही लेनी पड़ेंगी। इसलिए दमन समाज के साथ अनिवार्य है। और शायद ही हम कभी कोई ऐसा समाज बना पाएं, जो पूरे दमन से छुटकारा करवा दे। अच्छा समाज कम से कम दबाएगा, बुरा समाज ज्यादा से ज्यादा दबाएगा, लेकिन अच्छे से अच्छे समाज में जीने में भी दमन अनिवार्य है।
फ्रायड ने जिंदगी भर दमन का अध्ययन करने के बाद, बड़ी निराशा में उसने कहा है कि मुझे मनुष्य का कोई भविष्य नहीं मालूम पड़ता। कभी भी आदमी कैसा भी हो, जब तक समाज में रहेगा, दुखी रहेगा। और समाज के बिना रह नहीं सकता। समाज के बिना रहेगा ही कैसे? उसने लिखा है--आदमी वैज्ञानिक था, इसलिए जो सीधा उसे लगा उसने लिखा है--उसने लिखा है कि मुझे कोई हल नहीं सूझता कि आदमी सुखी कैसे हो सकता है? समाज में रहेगा तो दमन करेगा। दमन करेगा तो अनेक तरह के आंतरिक दुख और रोग और विकृतियां पैदा करेगा। अगर दमन नहीं करेगा, तो समाज में जी नहीं सकेगा, जीना असंभव हो जाएगा। और इन दोनों के अतिरिक्त मार्ग नहीं सूझता है।
फ्रायड को नहीं सूझता है, लेकिन योग के पास मार्ग है। योग कहता है: दूसरे पर प्रकट करने की कोई भी जरूरत नहीं है, शून्य में प्रकट करो। खाली आकाश में क्रोध को प्रकट करो। और आकाश की छाती बहुत बड़ी है, लौटाएगा नहीं क्रोध को। अगर हम अपने सब दमित वेगों को प्रकट कर सकें, तो निर्जरा हो जाती है, तो कैथार्सिस हो जाती है। तो शरीर शुद्ध हो जाता है।
और जब शरीर शुद्ध होता है, तो ध्यान में पंख लग जाते हैं। आदमी उड़ने लगता है ध्यान में, चलना नहीं पड़ता, उड़ान शुरू हो जाती है। वे सारे पत्थर की तरह जो हमारे भीतर दबे हुए वेग थे, वही हमें नीचे खीचे रहे हैं। वही हमें नीचे खींच रहे हैं। यह जो आपने सुना होगा बहुत बार कि अनेक लोगों को ध्यान में अनुभव होता है कि वे जमीन से ऊपर उठ गए, सौ में निन्यानबे मौके पर जमीन से वे उठते नहीं हैं, लेकिन शरीर के भीतर के वेग विसर्जित हो जाने से इतना हलकापन लगता है कि ऐसी प्रतीति होती है कि शरीर जमीन से ऊपर उठ गया। आंख खोल कर देखते हैं तो जमीन पर पाते हैं। आंख बंद करते हैं, तो लगता है कि शरीर जमीन से ऊपर है। यह लगना इतना स्पष्ट होता है कि वे यह मान भी नहीं सकते कि नहीं उठ गए हैं। यह प्रतीति इतनी साफ होती है।
इस प्रतीति का कुल कारण इतना है कि अगर शरीर के सब दमित वेग हट जाएं, शरीर बिलकुल शुद्ध हो जाए, तो तत्काल ऊपर उठने का बोध होता है। और यह शुद्धि अगर और भी कुछ आयामों में प्रयोग की जाए, तो गुरुत्वाकर्षण छोड़ कर सौ में एक आदमी तो ऊपर उठ ही सकता है। वस्तुतः ऊपर उठ सकता है। लेकिन उसके प्रयोग अलग हैं। ध्यान से उसका कोई सीधा संबंध नहीं है। पर ध्यान में यह घटना तो घटती है कि आदमी को अनुभव होता है कि मैं ऊपर उठ गया, मैं दूर हट गया, जमीन से पार हो गया, शरीर मेरा ऊपर हवा में तैर रहा है। यह प्रतीति बहुत आंतरिक है। यह शरीर की शुद्धि की प्रतीति है।
तो शरीर की शुद्धि का लक्षण आपको बताए देता हूं। जब तक आपको ऐसा प्रतीत न होने लगे ध्यान में कि आप जमीन से ऊपर उठ गए, तब तक आप समझना कि शरीर में वेग अभी तक दबाए हुए हैं। अभी तक वेग पूरे आप निकाल नहीं रहे हैं। वेग निकालने में भी हम कंजूसी करते हैं। अगर मैं आपसे कहूं कि दिल खोल कर रो लो, तो दिल खोल कर रो भी नहीं सकते हैं। रो भी नहीं सकते हैं दिल खोल कर। दबा हुआ है। लेकिन भरा हुआ है भीतर। और इसलिए अक्सर होता है कि कभी आप रो लेते हैं, तो आपको हलकापन लगता है। वह रोने की वजह से नहीं लगता। वह लगता ही इसलिए है कि रोने में जो वेग आपके भीतर दबा था, वह निकल जाता है।
कभी आपने खयाल किया, जब आपके आंसू बह जाते हैं तो भीतर एक हलकापन छोड़ जाते हैं। लेकिन आंसुओं का दुख से कोई भी संबंध नहीं है। आसूं खुशी में भी आ जाते हैं। आंसू हर्ष का अतिरेक हो जाए तो भी आ जाते हैं। आंसू प्रेम घना हो जाए तो भी आ जाते हैं। दुख घना हो जाए तो भी आ जाते हैं। आंसू आंखों का अपने दमन को हटाने का उपाय हैं। आंखों के भीतर जो भी दब जाता है, उसे फेंकने का उपाय हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि आंसू आंख का स्नान है। तो आंख में जो धूलकण इकट्ठे हो जाते हैं, आंसू उन्हें साफ कर देते हैं। लेकिन सालों लगते हैं आंसू आने में। तो कभी कोई आदमी साल भर नहीं रोया, तो साल भर तक आंखों का कोई फिर स्नान नहीं होता। नहीं, आंसू बहते हैं तो आंख की धूल तो साफ कर ही जाते हैं, लेकिन वह गौण है बात। वह आंख की आत्मा को भी भीतर शुद्ध कर जाते हैं। वह आंख के आंतरिक हिस्सों को भी शुद्ध कर जाते हैं। आंख पर जो भी तनाव हैं--और सुख हो या दुख हो, आंख पर भारी तनाव पड़ते हैं; क्रोध हो, प्रेम हो, आंख पर भारी तनाव पड़ते हैं--वह तनाव हलका हो जाता है। आंख रिलैक्स हो जाती है। आंसू के बहाने उसका वेग बह जाता है। हमारे शरीर में जितने दबे हुए वेग हैं, उनको निकालना ही शरीर की शुद्धि है। स्नान ठीक, और गहरा स्नान भी चाहिए। और एक दूसरी ब
ात जो इससे भी गहरी है शरीर-शुद्धि के लिए, वह भी समझ लेना चाहिए। जब भी हम अपने को शरीर के भीतर अनुभव करते हैं, तो जिस भांति हम शरीर के भीतर अपने को अनुभव करते हैं, उसका परिणाम शरीर की पूरी संरचना पर होता है। एक आदमी समझता है, मैं शरीर हूं। इस आदमी के पास सर्वाधिक अशुद्ध शरीर हो जाएगा। एक आदमी समझता है, मैं शरीर नहीं हूं, शरीर के भीतर हूं, इस आदमी के पास पहले आदमी से ज्यादा शुद्ध शरीर हो जाएगा। एक आदमी सोचता है कि मैं शरीर नहीं हूं, न ही शरीर के भीतर हूं, बल्कि शरीर के पार हूं; इस आदमी के पास शुद्धतम शरीर हो जाएगा।
इसका अर्थ यह हुआ कि शरीर के साथ हम जितना तादात्म्य कर लेते हैं, उतना शरीर बोझिल हो जाता है। और शरीर और हमारे बीच जितना अवकाश होता है, जितनी जगह होती है, शरीर उतना हल्का हो जाता है। हमारी चेतना और हमारे शरीर के बीच जितना फासला होता है, उस फासले में ही शरीर शुद्ध होता है। और जितना फासला कम होता है, उतना ही अशुद्ध हो जाता है। शरीर और चेतना के बीच फासला हो, यह शरीर की शुद्धि के लिए बहुत अनिवार्य बात है।
लेकिन हम सब इस भांति जीते हैं कि अपने को शरीर ही मान कर जीते हैं। जैसे शरीर ही हैं। अगर मेरा हाथ टूट जाए, तो मुझे ऐसा नहीं लगेगा मेरा हाथ टूट गया, ऐसा ही लगेगा कि मैं टूट गया। मेरे पैर टूट जाएं तो मुझे ऐसा नहीं लगेगा कि मेरे पैर टूट गए, मुझे लगेगा, मैं लंगड़ा हो गया। अगर मेरा शरीर बूढ़ा हो जाए, तो मुझे ऐसा नहीं लगेगा कि मेरा शरीर बूढ़ा हो गया, मुझे लगेगा मैं बूढ़ा हो गया। यह जो तादात्म्य है शरीर के साथ, यह शरीर को अशुद्ध करता है।
क्यों करता है लेकिन अशुद्ध?
जितना ज्यादा मैं अपने को शरीर से जोड़ लेता हूं, उतना ही शरीर को विश्राम नहीं मिलता। जितना ही ज्यादा मैं शरीर से जोड़ लेता हूं, शरीर को विश्राम नहीं मिलता। शरीर को विश्राम तभी मिल सकता है जब शरीर सिर्फ मेरा एक उपकरण है, उपयोग करता हूं, शांत छोड़ देता हूं। रात आप सो गए, शरीर आपका उपकरण नहीं है, आप शरीर ही हैं, तो आप सो नहीं सकते। शरीर सो नहीं सकता। आपका भीतरी गोरखधंधा जारी है। वह गोरखधंधा शरीर को प्रभावित कर रहा है।
अगर आप कभी किसी सोते हुए आदमी के पास रात भर बैठ कर देखें, तो बहुत हैरान होंगे। कभी किसी ने देखा नहीं था, अभी लेकिन अमरीका में उन्होंने दस प्रयोगशालाएं बनाईं। सोते हुए आदमी के अध्ययन के लिए, निद्रा के अध्ययन के लिए। स्लीप लैब बनाए। बहुत हैरानी की बात मालूम हुई। कभी किसी ने सोचा नहीं था कि आदमी नींद में यह-यह करता है। आदमी नींद में सोता कम है, ऐसा लगता है जैसे रात भर व्यायाम करता है। कभी करवट बदलता है, कभी हाथ फेंकता है, कभी मुंह बिचकाता है, कभी माथे की नसें खींचता है, कभी जीभ बाहर निकालता है, कभी बड़बड़ाता है, कभी दांत पीसता है--कितने काम आदमी रात भर करता है! ये जब स्लीप लैब बने, तब उनको पता चला कि हद हो गई, क्योंकि कभी आदमी की नींद का ठीक से अध्ययन नहीं किया गया। कौन किसका अध्ययन करे! सभी लोग सो जाते हैं। फिर आदमी क्या करता रहता है रात भर और रात छोटी घटना नहीं है। आदमी अगर साठ साल जीए तो बीस साल सोता है। बीस साल इस उपद्रव में उसको गुजारने पड़ते हैं। और वह जो रात में कर रहा है, वह उसके दिन की सब खबर है। वह दिन में भी यह करता रहा होगा। या करना चाहता रहा होगा, दबा लिया होगा। रात में सब छूट कर हो रहा है। यह जो आदमी का आंतरिक लगाव है कि मैं शरीर हूं, उसका परिणाम है।
बुद्ध के लिए आनंद ने कहा है... आनंद जब दीक्षित हुआ बुद्ध से, तो आनंद बुद्ध का बड़ा भाई था, चचेरा भाई था। बड़ा था, दीक्षा के पहले उसने बुद्ध से कहा कि मैं बड़ा भाई हूं, दीक्षा के बाद तो तुम्हारा शिष्य हो जाऊंगा, इसलिए कुछ बातें मैं पहले ही तय कर लेना चाहता हूं। अभी मैं बड़ा भाई हूं। फिर पीछे तो तुम जो कहोगे वह मुझे मानना ही पड़ेगा। अभी पहले मना लेता हूं, छोटे भाई हो अभी तुम, तो तीन बातों की मुझे अभी तुम स्वीकृति दे दो।
एक, कि चाहे तुम कहीं भी जाओ, मैं तुम्हारे साथ ही रहूंगा; तुम मुझसे कह न सकोगे कि जाओ, फलां जगह विहार पर चले जाओ। मैं साथ ही रहूंगा। तुम कहीं भी सोओ, कोई प्रवेश न कर सके, लेकिन मैं उसी कमरे में सोऊंगा। मुझे कह न सकोगे कि बाहर सो जाओ। और आधी रात को भी मैं किसी को मिलाना चाहूं, तो सब नियम छोड़ कर मैं मिलाने का हकदार रहूंगा। यह जब तक मैं बड़ा भाई हूं तब तक ये तीन की आज्ञा दे दो! तुम छोटे भाई हो, तुम्हें मैं आज्ञा देता हूं। फिर दीक्षा ले ली उसने, फिर तो शिष्य हो गया। लेकिन ये तीन आज्ञाएं बुद्ध ने उसकी मानी, जीवन के अंत तक।
तो वह उनके पास ही सोता था। बीस वर्ष बुद्ध के पास सोने के बाद उसने एक दिन कहा कि मैं बड़ा हैरान हूं, तुम जिस करवट सोते हो, जहां हाथ रखते हो, जहां पैर रखते हो, रात भर वहीं रखे रहते हो। क्या रात भर इसका भी संयम रखना चाहिए? क्या करते हो? हाथ जहां रखते हो, रात भर वहीं रखे रहते हो। पैर जहां रखते हो, जिस पैर पर पैर रखते हो, वहीं सुबह पाता हूं कि रखे उठे हो। फिर तो मैंने कई रात जाग कर भी बार-बार देखा, लेकिन पाया कि तुम ठीक वैसे ही पड़े हो। जरा हिलते-डुलते नहीं।
बुद्ध ने कहा: एक बार, एक बार रात में मैंने करवट बदली थी, इसके बाद नहीं बदली। लेकिन उस करवट बदलने का कारण भी यही था कि तब तक शरीर से मेरा थोड़ा लगाव रह गया था। अब शरीर वैसा ही पड़ा रहता है। मुझे करवट बदलनी है, तो भीतर बदल लेता हूं। शरीर को क्यों बार-बार हिलाना-डुलाना?
यह जान कर बहुत हैरानी होगी कि यह बिलकुल आसान है। कठिन मालूम पड़ेगा, क्योंकि हमारी तो कोई, हमारी तो कोई भिन्नता ही नहीं है शरीर से। तो यह हमें बहुत अजीब लगेगा कि हम करवट बदल लें, शरीर वैसे ही पड़ा रहे। लेकिन जैसे-जैसे हमारी चेतना शरीर से अलग मालूम होने लगती है, कोई भी तो अड़चन नहीं है। कोई भी तो अड़चन नहीं है। चेतना बदल सकती है, चेतना शरीर के बाहर आ सकती है, शरीर वहीं पड़ा रहे। चेतना शरीर के बाहर यात्रा भी कर सकती है, शरीर वहीं पड़ा रहे। तो करवट क्यों नहीं बदल सकती? कोई अड़चन नहीं है।
अड़चन एक ही है कि हम शरीर से इस बुरी तरह जुड़े हैं कि हम यह सोच ही नहीं सकते कि शरीर के बिना करवट बदलें। हम कैसे करवट बदलेंगे? शरीर को कोई कठिनाई नहीं है, कठिनाई हमको है। जब तक शरीर करवट न ले, हम कैसे करवट लेंगे? हम हैं ही शरीर की एक छाया की भांति। शरीर जो करे वही हम करते हैं।
यह तीसरी बात खयाल में ले लें। शरीर हूं, शरीर के भीतर हूं, शरीर के पार हूं, अगर शरीर को पूरा शुद्ध करना है, तो यह स्मरण निरंतर रखना पड़ेगा कि मैं शरीर के पार हूं। भीतर भी नहीं, पार। अलग ही, दूर। तो शरीर भीतरी रूप से शुद्ध हो जाता है।
‘समस्त इंद्रियों को एकाग्र करके।’
इंद्रियां हैं हमारे पास। प्रत्येक इंद्रिय का अलग-अलग काम है और अलग-अलग आयाम है। आंख देखती है, कान सुनते हैं। न कान देख सकते, न आंख सुन सकती। हाथ छूते हैं, नाक गंध लेती है। नाक छू नहीं सकती, हाथ गंध नहीं ले सकते। हर इंद्रिय स्पेशलाइज्ड है, उसका एक विशेष काम है। ध्यान में जिसे गहरे जाना है, उसे इन सभी इंद्रियों को एकाग्र करना सीखना पड़ता है।
एकाग्र का क्या अर्थ है?
एकाग्र का अर्थ है कि भीतर अगर मैं... समझ लें कि भीतर अगर मैं अपने हृदय के केंद्र को खोज रहा हूं, तो मैं सारी इंद्रियों का उपयोग इसमें एक साथ करूं। आंख बंद करके उस केंद्र को देखने की भी कोशिश करूं, और कान बंद करके उस केंद्र को सुनने की भी कोशिश करूं। नाक को अंतर्मुखी करके उस केंद्र की गंध लेने की भी कोशिश करूं। यह हमें मुश्किल मालूम पड़ेगा, क्योंकि आदमी जैसा अभी है जमीन पर, वह आंख-केंद्रित है।
तो अगर मैं आपसे कहूं कि परमात्मा का दर्शन, तो आपको कोई कठिनाई नहीं पड़ेगी इस शब्द के प्रयोग में। क्योंकि यह दर्शन आंख से जुड़ा है। अगर मैं कहूं परमात्मा की गंध, तो आपको थोड़ी अड़चन मालूम पड़ेगी, क्योंकि गंध की तरफ से हमने परमात्मा को कभी नहीं सोचा। हम परमात्मा की तरफ आंख से ही सोचते हैं। इसलिए सारी दुनिया की भाषाओं में उस अनुभूति के लिए जिन शब्दों का हम प्रयोग करते हैं, वह आंख से बने हैं। हिंदी में हम उसे कहते हैं--द्रष्टा। वह आंख से बना है। जब कोई आदमी उसका दर्शन करता है, तो ‘दर्शन’ कहते हैं। जब कोई दर्शन कर लेता है, तो उसको ‘द्रष्टा’ कहते हैं। अंग्रेजी में, जब कोई उसका दर्शन कर लेता है तो उसको ‘सीअर’ कहते हैं। जब किसी को उसका दर्शन उपलब्ध होता है, तो उसको ‘व़िजन’ कहते हैं। लेकिन ये सब आंख से बंधे हुए शब्द हैं।
पूरी मनुष्य-जाति आई ओरिएंटेड है। आंख से बंधी हुई है। लेकिन आंख तो सिर्फ एक इंद्रिय है। जैसी और इंद्रियां हैं। इसलिए अंधे आदमी को कभी-कभी दिक्कत होती होगी कि मुझे कैसे दर्शन होगा उसका? कि मेरे पास तो आंख ही नहीं है! कोई बाधा नहीं है।
‘सभी इंद्रियों को एकाग्र करके।’
इसका अर्थ यह है कि एक-एक इंद्रिय की तरफ से कोशिश मत करो। एक इंद्रिय की कोशिश से हो सकता है बहुत देर लगे, और यह भी हो सकता है कि आपकी वह इंद्रिय इतनी सक्रिय न हो--सभी की आंखें एक बराबर सक्रिय नहीं हैं।
एक चित्रकार जब देखता है तो उसकी आंख बहुत सक्रिय होती है। और हम करीब-करीब अंधे की तरह देखते हैं उन चीजों को, जिनको चित्रकार आंख वाले की तरह देखता है। एक फूल के पास से हम रोज गुजर जा सकते हैं और हमको कुछ भी दिखाई न पड़े, और एक चित्रकार पागल होकर नाचने लगे। सूरज हमारे सामने भी ऊगता है...
वानगॉन, एक डच पेंटर अपने एक मित्र के साथ सूर्यास्त देख रहा है। वानगॉग उससे कहता है कि देख सूर्यास्त! तो उसका मित्र कहता है कि हां, ठीक है, फिर अपनी चर्चा शुरू कर देता है। मित्र उसे हिलाता है, वानगॉग को कहता है कि तुम मेरी बातें नहीं सुन रहे हो मालूम पड़ता है। वानगॉन बोला कि जब सूर्यास्त हो रहा हो तब मेरी सभी इंद्रियां उसी की तरफ चली जाती हैं। अभी मैं सुन भी नहीं सकता, अभी मैं सूर्यास्त को सुन रहा हूं। अभी मैं देख भी नहीं सकता कुछ, अभी मैं सूर्यास्त को देख रहा हूं। अभी तुम इत्र भी छिड़क दो यहां तो मुझे गंध न आएगी। अभी मैं सूर्यास्त की गंध ले रहा हूं। अभी मेरे सारे प्राण सब तरफ से सूर्य की तरफ चले गए हैं।
सब, समस्त इंद्रियों को एकाग्र करने का अर्थ है कि वह जो ध्यान का अंतर-प्रयोग हो रहा है, उसको किसी एक इंद्रिय की तरफ से कोशिश मत करें, सभी इंद्रियों की तरफ से कोशिश करें। सभी इंद्रियों का अंतर्भाग उसकी तरफ झुका दें।
इंद्रियों के दो भाग हैं। एक बहिर्भाग है। आंख का एक हिस्सा, जिससे हम बाहर देखते हैं। आंख का एक दूसरा हिस्सा, जिससे हम भीतर देख सकते हैं। कान का एक हिस्सा, जिससे हम बाहर सुनते हैं, कान का दूसरा हिस्सा, जिससे हम भीतर सुन सकते हैं।
योग ने इंद्रियों को दो हिस्सों में बांटा है। एक को बहिर-इंद्रिय कहा है और एक को अंतर-इंद्रिय कहा है। जितनी बहिर-इंद्रियां हैं, उतनी ही अंतर-इंद्रियां हैं। वह जो अंतर-इंद्रियों का भाग है, समस्त इंद्रियों का एक साथ उसी केंद्र की तरफ प्रवाह कर देने का नाम इंद्रियों को एकाग्र करना है। और जब इंद्रियां एकाग्र होती हैं, तो परिणाम बड़े अदभुत होते हैं।
दो परिणामों का फर्क पड़ता है। एक तो आपको पता भी नहीं होगा कि आपकी कौन सी इंद्रिय सर्वाधिक शक्तिशाली है। जब आप सबको जोड़ देते हैं, तो जो सर्वाधिक शक्तिशाली है, उसकी तरफ से आपको अनुभव होना तत्काल शुरू हो जाता है। अब यह हो सकता है कि जिसकी आंख कमजोर हो, अंतर-इंद्रिय भी कमजोर हो आंख की, वह बैठ कर भीतर कोशिश करता रहे कि प्रकाश दिखाई पड़े, वह दिखाई न पड़ेगा।
मेरे पास लोग आकर कहते हैं, वे कहते हैं कि हमें प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता, अंधेरा ही दिखाई पड़ता है। उसका कारण कुल इतना है कि उनका अंतर-चक्षु ठीक से काम नहीं कर रहा। छोड़ें, देखने से क्या लेना-देना है, सुनना शुरू करें।
इसलिए जिन लोगों के कान का अंतर-हिस्सा महत्वपूर्ण होता है, उनके लिए मंत्र बड़े सहयोगी होते हैं। जिनका आंख का अंतर-हिस्सा महत्वपूर्ण होता है उनके लिए मंत्र बिलकुल बेकार होते हैं। क्योंकि अंतर-हिस्सा आंख का जिसका मजबूत है, वह कितना ही मंत्र रटता रहे, उससे कुछ भी न होगा। क्योंकि मंत्र से आंख का कोई संबंध नहीं जुड़ता। लेकिन अगर कान का हिस्सा भीतर का मजबूत है, तो फिर मंत्र से तत्काल संबंध जुड़ जाता है। और इसीलिए जो मंत्र से अनुभव को उपलब्ध होते हैं, वे खबर देते हैं कि उनका कान...।
सुगंध से भी हो सकता है। मोहम्मद को सुगंध से बड़ा रस था। इसलिए मुसलमान अभी भी नकल में बिचारे इत्र वगैरह लगाते रहते हैं। इत्र वगैरह लगाने से कुछ भी न होगा! लेकिन मोहम्मद को परमात्मा की जो प्रतीति हुई, वह गंध के मार्ग से हुई। और मोहम्मद का कान निश्चित ही कमजोर रहा। इसलिए संगीत से उन्हें कोई अर्थ कभी मालूम नहीं हुआ। मस्जिद के सामने अब भी संगीत बजाना बंद है। मोहम्मद को संगीत से कुछ भी रस नहीं आया कभी। कोई हर्ज की बात नहीं है। इसलिए संगीत को तो वर्जित ही कर दिया। लेकिन, तब खतरा हो सकता है। तब खतरा हो जाता है, क्योंकि हम व्यक्तियों के आधार पर अगर सबके लिए नियम बनाते हैं तो खतरे हो जाते हैं। किसी को सुगंध से हो सकता है, किसी को संगीत से हो सकता है, किसी को दृश्य से हो सकता है, किसी को रंग से हो सकता है। कहा नहीं जा सकता! एक-एक आदमी एक अनूठा विश्व है। एक-एक आदमी! तब सभी इंद्रियों को जोड़ दो।
इसलिए योग कहता है: किसी एक इंद्रिय का जोर क्यों देना! पता नहीं कौन सी इंद्रिय तुम्हारी सक्रिय हो सके, तीव्र हो सके। पता नहीं जन्मों-जन्मों में तुमने किस इंद्रिय का सर्वाधिक प्रयोग किया हो! पता नहीं किन कारणों से, अनंत-अनंत कारणों के कारण तुम्हारा कौन सा अंतर-इंद्रिय का भाग बिलकुल तैयार हो छलांग लगाने को। इसलिए तुम चिंता मत करो, चुनाव मत करो, सभी इंद्रियों को इकट्ठा संगृहीत कर दो।
‘सब इंद्रियों को एकाग्र करके, श्रद्धा और भक्ति से अपने गुरु को प्रणाम करके।’
श्रद्धा और भक्ति के संबंध में बहुत बात मैंने की है, उसे हम अभी बात न करें।
‘अपने गुरु को प्रणाम करके।’
इस संबंध में जरूर कुछ बात समझ लेनी चाहिए। पश्र्चिम में गुरु को समझना बहुत मुश्किल पड़ा है। पश्र्चिम के पास ‘गुरु’ जैसा कोई शब्द नहीं है। पश्र्चिम की किसी भाषा में गुरु जैसा शब्द नहीं है। क्योंकि गुरु की धारणा ही नहीं है। टीचर है, मास्टर है, पर उनका गुरु से कोई लेना-देना नहीं है।
गुरु का ठीक अर्थ होता है: परमात्मा का तो हमें कोई भी पता नहीं है, लेकिन अगर किसी भी दिशा से, किसी भी व्यक्ति से, कहीं से भी हमें परमात्मा की झलक भी मिलती हो, तो वह गुरु हो गया। गुरु का मतलब है: जिससे हमें परमात्मा की पहली झलक मिली हो। जिससे। इससे कोई संबंध नहीं वह कौन है! हो सकता है उसे भी पता न हो। उसे भी पता न हो! लेकिन जिससे भी हमें परमात्मा की पहली झलक मिली हो, वह गुरु। गुरु का कुल मतलब ही इतना है कि जिसके माध्यम से हम पहली दफे होश से भरे कि जगत में परमात्मा भी हो सकता है।
तो गुरु का अर्थ शिक्षक नहीं है। गुरु का अर्थ उदबोधक है। गुरु का अर्थ समझाने वाला नहीं है, बताने वाला नहीं है। गुरु का अर्थ है: जिसके द्वारा बता दिया गया। उसे भी पता न हो, उसके होने मात्र से हमें कुछ अहसास हुआ। उसके होने मात्र से हमें कोई गंध मिली। हमें कोई झलक आई, हमें कोई स्पर्श हुआ। और हमारा सारा जीवन का कोण, जीवन को देखने का ढंग बदल गया उस दिन के बाद।
बुद्ध के पास सारिपुत्र गया है। सारिपुत्र परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया। सारिपुत्र को धर्म के प्रचार के लिए यात्राओं पर भेज दिया गया। सारिपुत्र स्वयं बुद्ध हो गया है, लेकिन रोज वह डायरी रखता है कि बुद्ध इस समय किस गांव में होंगे। नक्शा रखता है। बुद्ध किस दिशा में होंगे। रोज सुबह-सांझ उस दिशा में वह लेट जाता है, बुद्ध के चरणों में सिर रखता है। हजारों मील दूर से, सैकड़ों मील दूर से। उसके शिष्य उससे पूछते हैं कि यह आप क्या करते हो? यह आप किसको नमस्कार करते हो? कोई हमें दिखाई नहीं पड़ता।
तो सारिपुत्र ने कहा है कि जब मुझे भी कुछ दिखाई नहीं पड़ता था, तब जिस आदमी में मुझे पहली दफा दिखाई पड़ा, उसको नमस्कार किए जाता हूं। पर शिष्यों ने कहा: अब तो आप भी परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए! सारिपुत्र ने कहा कि जिस अवस्था को मैं आज उपलब्ध हुआ हूं, इसकी पहली झलक उस आदमी में मुझे मिली थी। और मैं जानता हूं कि अगर वह झलक मुझे न मिली होती तो जो मैं आज हूं, वह नहीं हो सकता था। मैं तब बीज था और बुद्ध में मैंने वृक्ष को देखा। और तब पहली दफे मेरे प्राणों में, आकंठ मेरे प्राणों में भर गई वह अभीप्सा कि मैं भी यह वृक्ष हो जाऊं।
यह सूत्र कहता है: ‘अपने गुरु को प्रणाम करके।’
वह जिस व्यक्ति में भी, जिस शक्ति में भी, जहां भी परमात्मा के होने की पहली झलक मिली हो, परमात्मा पहली दफा अर्थपूर्ण मालूम पड़ा हो, परमात्मा के अस्तित्व की तरफ पहली दफा दृष्टि गई हो, उसको स्मरण करके। हृदय के अंतर्प्रवेश के लिए यह स्मरण महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिए है कि वह गुरु आपके भविष्य की घोषणा है। जो आप हो सकेंगे, वह उसकी घोषणा है। वह अभी है। जो कल आपको होगा, वह उसके लिए आज है। जो आपका भविष्य है, वह उसका वर्तमान है। आपको अपने भविष्य की भी रूप-रेखा का कुछ पता नहीं, लेकिन उस गुरु का स्मरण आपके भविष्य को दिशा देगा। आपकी जीवन-ऊर्जा को बहने का मार्ग बनाएगा। उसके स्मरण का कुल मतलब ही इतना है कि मेरी सारी जीवन-ऊर्जा अब एक दिशा में बहेगी।
अगर बुद्ध को सारिपुत्र ने स्मरण किया है, तो स्मरण का मतलब यह है, स्मरण ध्यान के पहले--यह ध्यान में उतरने के पूरे प्रयोग की बात हो रही है--ध्यान में उतरने के पहले यह स्मरण, क्योंकि ध्यान में उतर जाने के बाद जो शक्ति जाग्रत होगी, वह इस स्मरण की रेखा को पकड़ कर बहना शुरू होगी। वह जो बीज टूटेगा और अंकुर बनेगा, वह इसी वृक्ष की धारणा को लेकर बड़ा होगा।
‘गुरु को स्मरण करके अपने हृदय-कमल से सब दोषों को निकाल कर, दुख व शोक से परे हुए उस विशुद्ध भक्ति-तत्व का सम्यक चिंतन करना ही ध्यान है।’
‘अपने हृदय-कमल से सब दोषों को निकाल कर।’
शरीर के दोष हमने निकाल दिए, हृदय के दोष भी निकाल देने चाहिए। हृदय भी शुद्ध कर लेना चाहिए। हृदय के क्या दोष हैं? बुद्ध ने चार ब्रह्म-विहार कहे हैं। वे हृदय के दोष निकालने के उपाय हैं। और अलग-अलग धर्मों ने अलग-अलग शब्दों का प्रयोग किया है। लेकिन बातें मौलिक हैं और वे करीब-करीब एक हैं। हृदय के दोष क्या हैं?
जैसे बुद्ध ने कहा है: करुणा के भाव से हृदय को भर लेना; तो हिंसा, क्रोध, दूसरे को दुख पहुंचाने की वृत्ति, ईर्ष्या, वे सब दोष हैं, वे बाहर निकल जाएंगे। तो बुद्ध अपने भिक्षु से कहते थे कि पहले ध्यान में जाने से पहले करुणा का भाव कर लेना, समस्त जगत के प्रति बेशर्त।
एक बहुत मजेदार घटना घटी।
बुद्ध एक गांव में रुके हैं और एक आदमी को उन्होंने ध्यान की दीक्षा दी है। उससे कहा कि ‘करुणा’ का पहला सूत्र कि ध्यान के लिए बैठे तो समस्त जगत के प्रति मेरे मन में करुणा का भाव भर जाए, इससे शुरू करना। उसने कहा: और तो सब तो ठीक है, सिर्फ मेरे पड़ोसी को छुड़वा दें, उसके प्रति करुणा करना बुहत मुश्किल है। बहुत दुष्ट है। और बहुत सता रखा है उसने। और मुकदमा भी चल रहा है। और झगड़ा-झांसा भी है। और गुंडे भी उसने इकट्ठे लगा रखे हैं, मुझे भी लगाने पड़े हैं। सारे जगत के प्रति करुणा में मुझे जरा भी दिक्कत नहीं है, यह पड़ोसी भर को छोड़ दें। क्या इतने से कोई दिक्कत आएगी ध्यान में? सिर्फ एक पड़ोसी!
बुद्ध ने कहा: सारे जगत को छोड़, सिर्फ एक पड़ोसी पर ही करुणा करना काफी होगा। क्योंकि दोष जो भरा है वह उस पड़ोसी के लिए है, सारे जगत से कोई लेना-देना नहीं है। करुणा, वह दोष का परिहार करेगी जो हमारे चित्त में इकट्ठे होते हैं।
दूसरा बुद्ध ने कहा: ‘मैत्री।’ समस्त जगत के प्रति मैत्री का भाव। समस्त जगत में आदमी ही नहीं, सब-कुछ।
तीसरा बुद्ध ने कहा है: ‘मुदिता।’ प्रफुल्लता का भाव, प्रसन्नता का भाव। ध्यान रखना कि जब हम प्रफुल्लित होते हैं तब जगत के प्रति हमारे भीतर से कोई भी दोष नहीं बहता। और जब हम दुखी होते हैं, तो हम सारे जगत को दुखी करने का आयोजन सोचने लगते हैं। दुखी आदमी सारे जगत को दुखी देखना चाहता है। उससे ही उसको सुख मिलता है। और कोई सुख नहीं है उनका। जब तक आप उनसे ज्यादा दुखी न हों, तब तक वह सुखी नहीं हो पाते।
दुखी आदमी को जब चारों तरफ दुख दिखाई पड़ता है, तब वह बड़ी निश्र्चिंतता से बैठ जाता है। बुद्ध ने कहा है तीसरा: मुदिता। प्रफुल्लता से बैठना। हृदय को प्रफुल्लता से भर लेना।
और चौथा बुद्ध ने कहा है: ‘उपेक्षा।’ कुछ भी हो जाए--अच्छा हो कि बुरा, फल मिले कि न मिले, ध्यान लगे कि न लगे, ईश्र्वर से मिलन हो कि न हो; असफलता आए, सफलता आए; श्रेय, अश्रेय, कुछ भी हो, उपेक्षा रखना। दोनों में समतुल रहना। दोनों में चुनाव मत करना। ये चार को बुद्ध ने कहा है।
करीब-करीब सभी धर्मों ने इन चार के आस-पास कुछ बातें कही हैं। लेकिन बुद्ध ने इन चार में समस्त धर्मों के सार को इकट्ठा कर दिया। इनसे हृदय के दोष अलग हो जाएंगे। ध्यान इनके बाद सुगम बात होगी, सहज बात होगी।
‘दुख व शोक से परे उस विशुद्ध भक्ति-तत्व का चिंतन-मनन ध्यान।’
भक्ति-तत्व के संबंध में मैंने बात की है। इस हृदय में, इस... शरीर हो शुद्ध, आसन हो, एकांत हो, हृदय के सारे विकार हट गए हों, तब इस हृदय में समस्त अस्तित्व के प्रति जो आत्मीयता, एकता, एकत्व का भाव है, वही भक्ति है। इस क्षण में मैं इस जगत के साथ एक हूं, अस्तित्व के साथ एक हूं, इसका ध्यान ही ध्यान है।
अब इस पूरे सूत्र को मैं पढ़ देता हूं:
‘ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा से भरे, संन्यास के भाव में ठहरे हुए, स्नान आदि से अपने शरीर को शुद्ध करके सुखासन लगा कर, सिर, गले व शरीर को एक सीध में रख कर, समस्त इंद्रियों को एकाग्र करके, श्रद्धा व भक्ति से अपने गुरु को प्रणाम करके, हृदय-कमल से सब दोषों को निकाल कर, दुख व शोक से परे उस विशुद्ध भक्ति-तत्त्व का चिंतन करना ही ध्यान है।’ उसकी चिंतना में डूब जाना ही ध्यान है।
इतना ही।
अब हम ध्यान में प्रवेश करें। दो-तीन बातें। जो लोग तेजी से करें, वे मेरे करीब तीनों ओर आ जाएं। और जो लोग धीरे करने को हों, वे पीछे हट जाएं।

Spread the love