UPANISHAD
Kaivalya Upanishad 04
Fourth Discourse from the series of 19 discourses - Kaivalya Upanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during MAR 25 - APR 02 1972.
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वेदान्तविज्ञान सुनिश्र्चितार्थाः संन्यास योगाद्यतयः शुद्धसत्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृतात्परिमुच्यन्ति सर्वे।।।।
अंततः वे ही योगी लोग परमतत्व को प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं, जो वेदांत में निहित विज्ञान का सुनिश्र्चित अर्थ जानते हैं और संन्यास व योगाभ्यास से अंतःकरण को परिशुद्ध करके ब्रह्मलोक में जाने का प्रयत्न करते हैं।।4।।
कुछ शब्दों के अर्थ समझने से इस सूत्र को शुरू करें।
पहला शब्द है: ‘वेदांत।’ वेदांत से सदा ही ऐसा समझा जाता रहा है कि वेद जिन उपनिषदों में पूरे होते हैं, वे उपनिषद; वेद जहां अपने शिखर को पाते हैं, वे उपनिषद वेदांत हैं। पर वैसा अर्थ बहुत गहरा नहीं है और सही भी नहीं।
वेदांत का अर्थ है... वेद का अर्थ है: ज्ञान... जहां समस्त ज्ञान का अंत हो जाता है, जहां समस्त ज्ञान समाप्त हो जाता है। जहां जानना भी छूट जाता है, सिर्फ होना ही रह जाता है। वेदांत का ठीक-ठीक अर्थ है: जहां जानने की भी अशांति नहीं रह जाती। जहां सिर्फ होना ही रह जाता है।
जानना भी एक तनाव है। आप खड़े हैं एक वृक्ष के पास और फूल को जानते हैं, तो जानना एक तनाव है। जानना भी एक अशांति है। जानने में भी आप थक जाएंगे। जानने से भी आप ऊब जाएंगे। थोड़ी देर में आप जानने से भी बचना चाहेंगे। क्योंकि जानना एक क्रिया है, चेष्टा है। और जानने में आप दूसरे से संबंधित होते हैं--जानने का अर्थ ही यह होता है। ज्ञाता और ज्ञेय के बीच जो संबंध निर्मित होता है, ज्ञाता और ज्ञेय के बीच जो सेतु बनता है, उसी का नाम जानना है। यह जानना भी आखिरी अशांति है। यह आखिरी तनाव है। यह जानना भी जहां छूट जाता है, सिर्फ होना ही रह जाता है, उस होने में जहां जानने की तरंग भी नहीं उठती, जहां कुछ जाना भी नहीं जाता, जहां कोई जानने की आकांक्षा भी नहीं है, उस परम विश्राम के क्षण में ही वेदांत उपलब्ध होता है।
वेदांत का अर्थ है: ज्ञान का जहां अंत हो जाए। ज्ञान से भी जहां छुटकारा हो। ज्ञान भी गहरे में एक बंधन है।
इसे हम दो-चार मार्गों से समझें, तो खयाल आ सकेगा।
दूसरे भी द्वंद्व हमारे पास हैं, उनमें समझना ज्यादा आसान है। जैसे मैंने कल आपको कहा: दुख छूटे, सुख भी छूटे, तभी हम स्वयं में प्रवेश करते हैं। और मैंने आपसे कहा: जब तक सुख न छूटे, तब तक दुख नहीं छूट सकता। यह हमारी समझ में आ जाता है। अब ठीक इसको हम इस दूसरे द्वंद्व पर भी समझें। अज्ञान छूटे, ज्ञान भी छूटे, तो ही परम अनुभव शुरू होता है। और जब तक ज्ञान न छूटे, तब तक अज्ञान भी नहीं छूटता। सुख और दुख एक द्वंद्व है। ज्ञान और अज्ञान भी एक द्वंद्व है। दुनिया में ज्ञानी हुए हैं, जिन्होंने कहा: अज्ञान छूटे। लेकिन सिर्फ इस भूमि पर ऐसे परम ज्ञानी हुए हैं जिन्होंने कहा: ज्ञान भी छूटे।
वेदांत का अर्थ है: जहां ज्ञान भी छूट जाता है। जहां ऐसा नहीं कि कुछ जानने को शेष रह जाता है; अज्ञान तो छूट ही जाता है, लेकिन मैं कुछ जानता हूं, यह भाव भी छूट जाता है।
अब इसे हम एक और तरह से समझें।
अज्ञान का अर्थ होता है: कोई चीज जिसे मैं नहीं जानता हूं। अज्ञान मिट जाए तो एक स्थिति बनेगी, जब मैं कह सकता हूं मैं सब जानता हूं। अज्ञान दूसरे से संबंधित था। कोई चीज अनजानी थी, इसलिए अज्ञान था। अज्ञान अहंकार को निर्मित नहीं करता। क्योंकि मैं नहीं जानता हूं, तो अहंकार कैसे निर्मित होगा? ज्ञान अहंकार को निर्मित करता है। मैं जानता हूं, तो ‘मैं’ मजबूत होता हूं। अज्ञान वस्तुओं से संबधित है, ज्ञान अहंकार से। तो जब मैं कहता हूं: मैं जानता हूं, तो ‘मैं’ मजबूत होता है। जोर ‘मैं’ पर पड़ता है। और जब मैं कहता हूं: मैं नहीं जानता हूं, तो मैं इतना ही कहता हूं कि कोई चीज अनजानी है, अपरिचित है, नहीं जानता हूं। अहंकार अज्ञान से मजबूत नहीं होता।
अज्ञान में भूलें होती हैं। अज्ञान में नासमझियां होती हैं। बहुत-बहुत नासमझियां होती हैं, बहुत-बहुत भूलें होती हैं। ज्ञान में एक ही भूल होती है, और एक ही नासमझी होती है, वह अहंकार है। अज्ञान में अनेक बीमारियां घेरती हैं, ज्ञान में एक ही बीमारी घेरती है--वह अहंकार है। मगर ध्यान रहे, सब बीमारियों का जोड़ भी अहंकार से छोटा पड़ता है।
तो प्रक्रिया है, ज्ञान से अहंकार को मिटाएं, लेकिन फिर ज्ञान को पकड़ कर न बैठ जाएं। पैर में मेरे कांटा गड़ जाए, तो एक दूसरे कांटे से उस कांटे को निकालना पड़ता है। लेकिन ध्यान रहे, दूसरा कांटा भी कांटा ही है। और अगर आपने ऐसा सोचा--जो कि बिलकुल तर्कयुक्त होगा--कि इस कांटे ने इतनी सहायता दी कांटा निकालने में, तो इसे कांटा न समझें, तो आप भूल में पड़ जाएंगे। यह निकाल ही इसलिए पाया पहले कांटे को क्योंकि यह भी कांटा है। और संभावना तो यह है कि यह पहले कांटे से ज्यादा मजबूत कांटा है, इसलिए निकाल पाया। अगर आपने सोचा कि इसने इतनी कृपा की कि पहले कांटे से छुटकारा दिलाया, तो अब जिस घाव में पहला कांटा था उसमें इस कांटे को रख लें तो यह तर्कयुक्त तो होगा--क्योंकि इसने इतनी सहायता की, वक्त पर काम दिया, और अब इसको छोड़ दें, यह अच्छा मालूम होता नहीं--तो आप कांटे से छूटे जरूर लेकिन और बड़े कांटे से बिंध गए। और अगर यह तर्क आपके मन में फंस जाए, तो आप कांटे से फिर कभी छुटकारा न पा सकेंगे।
अज्ञान में थोड़े ही दुख था! अज्ञान चुभता था, घाव करता था, उसमें ही दुख था। अब घाव यह दूसरा कांटा करेगा, और दुख जारी रहेगा। इस कांटे को फेंक दें, सधन्यवाद! धन्यवाद जरूर दे दें, सेवा उसने की है, पर फेंक दें। वह भी कांटा ही है। अज्ञान को निकाल दें ज्ञान से, लेकिन ज्ञान को रख कर मत बैठ जाएं, यही वेदांत का निहित अर्थ है। फेंक दें ज्ञान को भी। ज्ञान की उपादेयता तभी तक है जब तक अज्ञान का कांटा नहीं निकला है। निकलते ही अज्ञान का कांटा, ज्ञान व्यर्थ है।
एक आदमी बीमार है। तो औषधि की जरूरत तभी तक है जब तक वह बीमार है। ठीक से समझें तो आदमी को औषधि की जरूरत नहीं है, बीमारी को औषधि की जरूरत है। आदमी औषधि नहीं खाता, बीमारी औषधि खाती है। तो जैसे ही बीमारी समाप्त हो जाती है, औषधि व्यर्थ हो जाती है।
ज्ञान आपको नहीं चाहिए, आपके अज्ञान की बीमारी को काटने की औषधि मात्र है। लेकिन अनेक ऐसे बीमार हैं कि बीमारी तो छूट जाती है, औषधि पकड़ जाती है। और ध्यान रहे, बीमारी से छुड़ाना आसान है, औषधि से छुड़ाना बड़ा मुश्किल है। अगर औषधि पकड़ जाए तो छुड़ाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि औषधि दुश्मन नहीं मालूम होती, मित्र मालूम होती है। जो बीमारी शत्रु मालूम होती है, कठिन नहीं छूटना उससे। जो बीमारी मित्र मालूम होने लगी, उससे छूटना बुहत कठिन हो जाएगा। शत्रु से बचा जा सकता है, मित्र से बचना बहुत मुश्किल है। और ज्ञान ऐसा ही शत्रु है जो मित्र की तरह दिखाई पड़ता है। क्योंकि अज्ञान के शत्रु को हटाता है, तोड़ता है।
वेदांत का अर्थ है: ज्ञान के प्रति सचेत रहना, उसे भी पकड़ नहीं लेना है। अज्ञान छूटता है तो आदमी ज्ञानी होता है। और जब ज्ञान भी छूटता है तब आदमी अनुभवी होता है। ज्ञानी तो अश्र्वलायन भी था। महर्षि था, अनुभवी नहीं था। अज्ञान की जगह उसने ज्ञान को पकड़ लिया था। अनुभव से उतना ही वंचित था जितना अज्ञानी वंचित होता है। इसीलिए तो पूछने आना पड़ा है उसे गुरु के पास।
तो गुरु जो कह रहा है, उसमें पहली बात कही है उन्होंने: ‘परम तत्व को प्राप्त करने के अंततः वे ही अधिकारी होते हैं जो वेदांत में निहित विज्ञान का सुनिश्र्चित अर्थ जानते हैं।’
तो पहला शब्द तो ‘वेदांत’ हम समझें। ज्ञान से मुक्ति।
दूसरी बात हम समझें: ‘वेदांत में निहित विज्ञान का सुनिश्चित अर्थ।’
जब तक कोई अनुभव को उपलब्ध नहीं होता है तब तक सभी अर्थ अनिश्चित होते हैं। कितना ही आप जान लें, जानना आपको अनिश्चय के ऊपर नहीं ले जाता। बल्कि सच तो यह है कि जितना ज्यादा आप जानते हैं, उतना अनिश्चय बढ़ जाता है। पंडितों की कठिनाई यही है, वे इतना जानते हैं कि निश्चय खो जाता है। अज्ञानी बड़े निश्चित होते हैं।
इसलिए दुनिया में अज्ञानी जितना उपद्रव करवाते हैं, उतने ज्ञानी नहीं करवा पाते। क्योंकि अज्ञानी इतना सुनिश्चित मालूम पड़ता है खुद के भीतर कि वह किसी भी चीज में जी-जान लगा देता है। अज्ञानी की बीमारी यह है कि वह किसी भी चीज में जी-जान लगा सकता है, सुनिश्चित होता है। सुनिश्र्चितता उसकी बिलकुल भ्रांत है। न जानने के कारण है।
ज्ञानी एकदम अनिश्र्चित हो जाता है। कुछ भी करने जाए तो हजार विकल्प उसे दिखाई पड़ते हैं। एक-एक शब्द में हजार अर्थों की झलक मिलने लगती है। एक-एक सूत्र में हजार-हजार दिशाएं प्रकट होने लगती हैं। कहां जाए, कैसे जाए, क्या चुने, जाना ही बंद हो जाता है, खड़ा हो जाता है। अज्ञानी जाने में बड़े तीव्र होते हैं। कहीं भी चले जाते हैं। क्योंकि उन्हें ज्यादा दिखाई नहीं पड़ता। एक ही मार्ग दिख जाता है थोड़ा तो उतनी झलक उनको ले जाने के लिए काफी है। लेकिन ज्ञानी चलने में असमर्थ हो जाते हैं। वे खड़े रह जाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं: जब तक अर्थ ही तय न हो जाए...।
बुद्ध ने कहा है: एक पंडित को तीर लग गया। बुद्ध पास से गुजरते हैं, तो उन्होंने कहा: मैं यह तीर खींच दूं। उस पंडित ने कहा: पहले यह साफ हो कि तीर किसने मारा? क्यों मारा? मारने वाला मित्र है या शत्रु है? प्रयोजन क्या है? अगर मैं मर जाऊंगा तो यह बुरा होगा या मैं बच जाऊंगा तो वह बुरा होगा? मेरा बचना सुनिश्चित रूप से हितकर है या मेरा मर जाना? जब तक यह तय न हो जाए तब तक तीर को कैसे निकालें? फिर यह तीर जहर-बुझा है कि नहीं बुझा है? यह नियति है या संयोग है? यह मेरा भाग्य है या सिर्फ एक दुर्घटना है? यह सब साफ हो जाए, फिर तीर को खींचें।
तो बुद्ध ने कहा: यह साफ तो शायद कभी न हो पाएगा। एक बात साफ है कि इसे साफ करने में तुम मिट जाओगे, मर जाओगे। लेकिन उस पंडित ने कहा: बिना सुनिश्चित किए कुछ कार्य करना उचित भी तो नहीं है।
अज्ञानी तीव्रता से चला जाता है अंधकार में भी। ज्ञानी को अगर प्रकाश भी दिखाई पड़े तो इतने रूपों में दिखाई पड़ता है कि खड़ा रह जाता है, चल नहीं पाता।
इसलिए दूसरा अर्थ हम समझ लें सुनिश्र्चित, सुनिश्र्चितता का।
एक सुनिश्चय है अज्ञान का, अनिश्चय है ज्ञान का। फिर एक और सुनिश्चय है अनुभव का। और अनुभवी जब सुनिश्चित होता है, तब एक अर्थ में वह पुनः अज्ञानी जैसा सुनिश्चित हो जाता है।
रामकृष्ण के पास विवेकानंद जाते हैं तो रामकृष्ण बिलकुल सुनिश्चित हैं। विवेकानंद पूछते हैं कि ईश्र्वर है? तो रामकृष्ण कहते हैं: यह बेकार की बात क्यों करनी, तुझे मिलना है? यह उत्तर ज्ञानी के पास नहीं मिल सकता था। विवेकानंद ज्ञानी के पास भी गए थे। महर्षि देवेंद्रनाथ के पास भी गए थे। महर्षि थे। आश्वलायन जैसे ही महर्षि थे।
विवेकानंद देवेंद्रनाथ के पास जाकर भी यही पूछे थे: ईश्वर है? मगर पूछने का ढंग ऐसा था कि ज्ञानी घबड़ा गया। विवेकानंद ने कोट का कालर पकड़ कर, हिला कर पूछा: ईश्र्वर है? झिझक गए देवेंद्रनाथ। कहा कि बैठो। आहिस्ता से बैठो। फिर मैं बताऊं। पर विवेकानंद ने कहा: आपकी झिझक ने सब-कुछ कह दिया। आप झिझक गए, आपका उत्तर एक झिझक से आ रहा है। आपको भी पता नहीं है। जानते होंगे आप बहुत कुछ उसके संबंध में, उसे नहीं जाना है।
ठीक यही की यही बात रामकृष्ण से पूछी। लेकिन रामकृष्ण! रामकृष्ण ने उलटी हालत पैदा कर दी। रामकृष्ण ने कहा कि यह फिजूल की बातचीत मत कर! तुझे मिलना हो तो बोल! यह प्रश्र्न के उत्तर में दूसरा प्रश्र्न था। और इसने विवेकानंद को झिझका दिया। और विवेकानंद ने कहा: यह तो मैं अभी सोच कर नहीं आया था। अभी तो सिर्फ पूछने आया था। मुझे थोड़ा मौका दें तो मैं सोचूं कि मुझे मिलना है या नहीं।
जब भी किसी अनुभवी के पास आप जाएंगे, तो उसकी सुनिश्चतता प्रगाढ़ है। उसकी प्रगाढ़ता को अगर हम ठीक से समझें, तो कहना होगा--उसकी प्रगाढ़ता में विरोधी स्वर ही नहीं है।
सुना है मैंने, झेन फकीर हुआ, बोकोजू। उसके पास एक नास्तिक मिलने गया। और उस नास्तिक ने कहा कि मैं तो ईश्वर को नहीं मानता हूं। तो बोकोजू के शिष्यों ने समझा कि अब बोकोजू उसे समझाएगा कि ईश्वर है। लेकिन बोकोजू ने कहा: तो मत मानो। तो उस नास्तिक ने कहा: आप मुझे समझाएंगे नहीं? तो बोकोजू ने कहा कि तुम्हारे न मानने से अगर उसके होने में जरा भी बाधा पड़ती, तो मैं समझाता। मत मानो! लेकिन नास्तिक आग्रहशील था और बोकोजू को विवाद में खींचना चाहता था। तो उसने कहा कि नहीं, इतने से मैं लौट जाने वाला नहीं हूं। या तो तुम कहो कि वह है, तो सिद्ध करो। और अगर सिद्ध नहीं करते हो, तो कहो कि वह नहीं है। तो ही मैं जा सकता हूं।
तो बोकोजू ने कहा इसमें कोई कठिनाई नहीं है। मैं कहता हूं कि ईश्र्वर नहीं है। नास्तिक थोड़ा घबड़ाया और उसने कहा कि तुम कहते हो कि नहीं है! बोकोजू, तुम कहते हो कि नहीं है! बोकोजू ने कहा कि मेरे यह कहने से भी उसके होने में कोई फर्क नहीं पड़ा। और मैं उसके संबंध में इतना आश्र्वस्त हूं कि इनकार भी कर सकता हूं। उसके होने में इतना आश्वस्त हूं कि मुझे उसको इनकार करने में भी डर नहीं लगता। वह है ही। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बोकोजू क्या कहता है। मेरी बातें बेकार हैं। हां कहूं, ना कहूं, उसके होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। और फिर मैं इतना आश्र्वस्त हूं। मैं कोई डरा हुआ आस्तिक नहीं हूं कि मुझे भय लगे कि मैंने कह दिया नहीं है। सारा जगत नहीं कह दे, खुद ईश्वर मेरे सामने खड़ा होकर कह दे कि मैं नहीं हूं, तो भी मैं हंस कर टाल सकता हूं। वह है।
यह जो सुनिश्चय है, यह सुनिश्चय ज्ञान से नहीं आता। ज्ञान से अनिश्र्चय आता है। अज्ञान में सुनिश्चय है, पर वह अंधेरे का सुनिश्चय है। क्योंकि हम कुछ भी नहीं जानते, इसलिए निश्र्चित मालूम पड़ते हैं। वह निश्चय काम का नहीं है, खतरे का है। खतरनाक है। अंधे का निश्चय है, जो दीवाल में भी दरवाजा मान सकता है। इसलिए नहीं कि दरवाजा दिखाई पड़ता है, इसलिए कि दरवाजा दिखाई ही नहीं पड़ता है। इसलिए कहीं भी माने, मानना ही पड़ेगा। मानना ही उसके लिए उसका जानना है। अंधे को भी चलना तो पड़ेगा और चलना है तो दरवाजा मान कर चलना पड़ेगा। टकराएगा सिर, तो भी कल किसी दूसरी दीवाल में दरवाजा मान लेगा और सुनिश्चित रहेगा, नहीं तो फिर पैर उठ नहीं सकते।
ज्ञानी खड़ा हो जाता है, ठिठक जाता है। अनेक दरवाजे दिखाई पड़ने लगते हैं। कौन सा दरवाजा सही है? कौन सा मार्ग उचित है? कौन सी साधना से चलूं? कौन सा पथ चुनूं? इस सब चुनाव और विचार में इतनी शक्ति व्यय होती है कि चलने योग्य कुछ बचता नहीं। और यह निर्णय करना अति कठिन है। यह निर्णय करना ऐसा ही कठिन है जैसे कोई आदमी कहे कि तैरना तो मुझे सीखना है, लेकिन जब तक मैं तैरना न सीख लूं तब तक पानी में कैसे उतरूं? और ठीक कहता है। क्योंकि पानी में उतर जाए बिना तैरना सीखे, तो खतरा है। तो पहले तैरना सीख लें, फिर पानी में उतरें।
संगत है उसकी बात, लेकिन वह कभी पानी में अब उतर न पाएगा। क्योंकि तैरना सीखने के लिए भी पानी में ही उतरना पड़ता है। असल में जिसे भी तैरना सीखना है, उसे बिना तैरना जाने ही पानी में उतरने का साहस जुटाना पड़ता है। तभी तो वह तैरना सीख पाता है।
ज्ञानी तट पर खड़ा हो जाता है और सोचने लगता है मार्गों के, द्वारों के, विचारों के, सिद्धांतों के बीच किसको चुनूं? कौन सी नाव मुझे पार ले जाए? पार जाना इतना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है, जितना नावें महत्वपूर्ण दिखाई पड़ने लगती हैं--कि कोई नाव डुबा तो न देगी? कहीं नाव गलत तो न ले जाएगी? दिशा कहीं भ्रांत तो न हो जाएगी? खेवैया जो चुन रहा हूं, वह पहुंचा पाएगा या नहीं पहुंचा पाएगा? ज्ञानी दिग्भ्रांत हो जाता है। अज्ञानी अंधा होता है। ज्ञानी दिग्भ्रांत हो जाता है। अज्ञानी कुछ भी पागलपन करने में उतर जाता है, ज्ञानी के सामने मार्ग भी आ जाए तो भी सोच-विचार में चूक जाता है।
तो सुनिश्चित अर्थ का अर्थ है: अनुभव के अतिरिक्त वेदांत का जो सुनिश्चित अर्थ है वह प्रकट नहीं होगा। तो जिन्हें जानना है, अनुभव करना है--जानना नहीं, अनुभव करना है--पहचानना है, प्रत्यभिज्ञा करनी है उस अर्थ की जो वेदांत में छिपा है, उन्हें अनुभव से चलना पड़े।
और ध्यान रहे, अगर कोई गलत मार्ग पर भी चला जाए, साहसपूर्वक, बोधपूर्वक, समझपूर्वक, तो गलत मार्ग पर जाकर भी अनुभव के द्वार खुलते हैं। खड़े रहने की बजाय तो गलत मार्ग पर चला जाना भी बेहतर है। क्योंकि खड़ा हुआ आदमी सही तो दूर, गलत भी नहीं कर पाता। खड़ा हुआ आदमी कहीं पहुंचता ही नहीं। और गलत भी कोई चला जाए तो भी यह जानना, यह पहचानना, यह यात्रा अनुभव बनती है, प्रौढ़ता लाती है। कोई चीज बढ़ती है भीतर। एक तो कम से कम पक्का हो जाता है कि इस तरह के गलत मार्ग पर यह आदमी दुबारा न जाए। यह भी कम नहीं है। और हम गलत कर-कर के ही तो सही की तरफ जाना सीखते हैं। और कोई उपाय भी तो नहीं है।
भूल करना बुरा नहीं है, एक ही भूल बार-बार दोहराना बुरा है। भूल करना जरा भी बुरा नहीं है। जिस आदमी ने ऐसा समझा कि भूल करना बुरा है, वह कुछ कर ही न पाएगा। और जो लोग सही तक पहुंचते हैं, वे वे ही लोग हैं जो अदम्य साहस से भूलें करने की हिम्मत रखते हैं।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि कोई एक ही भूल को बार-बार किया जाए। जो एक ही भूल को बार-बार करता है, वह भी कहीं नहीं पहुंचेगा। रोज नई भूल करने की हिम्मत चाहिए। वही खोजी का लक्षण है। जब भूल समझ में आ जाए, तो कुछ आपके हाथ लगा। कुछ बारीक, सूक्ष्म चीज आपके हाथ में आ गई। आप आगे बढ़े, आप वही न रहे। जिसने भूल की थी, अब आप वही आदमी नहीं हैं। आप दूसरे हो गए।
असत्य को असत्य की भांति जान लेना सत्य की पहचान बन जाती है। भूल को भूल की तरह देख लेना ठीक की तरफ यात्रा का प्रारंभ हो जाता है।
अनुभव पर जोर वेदांत का है। सिर्फ जानकारी पर जोर नहीं है। जानकारी ज्ञान दे देती है और आदमी ठिठक कर खड़ा हो जाता है और चलने की क्षमता खो देता है। चलने की क्षमता तो वैसी ही होनी चाहिए जैसी अज्ञानी में होती है, और ज्ञान की प्रगाढ़ता वैसी होनी चाहिए जैसी ज्ञानी में होती है। अगर ज्ञानी का ज्ञान और अज्ञानी का साहस संयुक्त हो जाएं, तो अनुभव का जन्म होता है। ज्ञानी का बोध, जागरूकता और अज्ञानी का साहस, ये संयुक्त हो जाएं तो अनुभव शुरू होता है। लेकिन यह कठिन पड़ता है। जब तक अज्ञानी होते हैं तब तक बड़ा साहस होता है। और जब ज्ञानी हो जाते हैं, तो बोध तो आता है, लेकिन साहस खो जाता है। जब आंखें मिलती हैं, तब पैर लंगड़े हो जाते हैं और जब पैर ठीक होते हैं, तो आंखें नहीं होतीं।
हमने सुनी है पंचतंत्र की सभी ने कथा कि एक अंधे और लंगड़े को, जंगल में आग लग गई तो निकलना मुश्किल हो गया। वह कथा बच्चों की कथा नहीं है। वह कथा वेदांत की कथा है। हम बच्चों को पढ़ाते हैं, वह बूढ़ों को पढ़ानी चाहिए। वह कथा यह कहती है कि हर आदमी ऐसी स्थिति में है कि या तो वह अंधा है, तो देख नहीं सकता और जंगल में आग है! और या वह लंगड़ा है, देख सकता है तो भाग नहीं सकता; जंगल में आग है! और इस अंधे और लंगड़े के बीच अगर कोई संबंध न हो जाए, तो वह जलेगा इस जंगल में ही। वह निकल नहीं सकता बाहर। वह जन्मों-जन्मों तक जलेगा।
यह अंधा और लंगड़ा हमारे भीतर की घटनाएं हैं। अज्ञानी अंधा है, ज्ञानी लंगड़ा है। और किसी न किसी तरह इस लंगड़े को कंधे पर बिठाना पड़े, क्योंकि यह देख सकता है। और किसी न किसी तरह इस अंधे को राजी होना पड़े चलने के लिए, क्योंकि यह चल सकता है। जिस दिन अज्ञानी के पैर और ज्ञानी की आंखों का मिलन होता है, अनुभव की यात्रा शुरू होती है। और अनुभव से सुनिश्चितता मिलती है।
मेरे पास न मालूम कितने लोग आते हैं। किसी की तकलीफ अंधापन है और किसी की तकलीफ लंगड़ापन है। और एक दफा अंधे को तो राजी करना आसान भी हो जाए, लंगड़ों को राजी करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उनको वहम है कि उनको दिखाई पड़ता है। उनको वहम है कि उनको दिखाई पड़ता है। और वे यह भूल ही गए हैं कि चलने की टांगें उनकी बिलकुल टूट गई हैं। उन्होंने यह देखना चलने की कीमत पर पाया है। तो देखने तो वे लगे हैं, लेकिन पैरों की सारी ऊर्जा आंखों में आ गई है। अब पैर चलते नहीं, अब देख कर भी क्या होगा? इसलिए अज्ञानी उतना दुखी नहीं होता--दुखी तो होगा ही, क्योंकि अज्ञानी है--ज्ञानी बहुत दुखी हो जाता है, क्योंकि उसे अब दिखाई भी पड़ता है और चल भी नहीं पाता।
ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं हमें मालूम है कि ठीक क्या है, लेकिन कर नहीं पाते। हमें पता है कि शुभ क्या है, लेकिन आचरण में नहीं आता। हमें पता है कि क्या होना चाहिए, वही नहीं हो पाता। और हमें पता है कि क्या नहीं होना चाहिए, वही हमसे रोज होता है। इसकी पीड़ा बढ़ ही जाएगी। ज्ञानी की जो पीड़ा है, संताप है, वह गहन हो जाएगा। दिखाई पड़ता है, पास ही दिखाई पड़ता है, कि सरोवर है, प्यास भी मालूम पड़ती है, लेकिन पैर उठते नहीं। अंधे की भी पीड़ा है। लेकिन वह पीड़ा एक जगह ठहरे होने की नहीं है। उसे दिखाई नहीं पड़ता कि कहां सरोवर है। प्यास का उसे पता है, पैरों में ताकत है, वह भागता रहता है--टकराता है, गिरता है, दुख पाता है। उसका दुख जो है वह टकराने से, भटकने से, गिरने से, चोट खाने से होता है। ज्ञानी का दुख जो है, सरोवर दिखाई पड़ता है, प्यास मालूम पड़ती है, लगता है अभी प्यास और सरोवर का मिलन हो जाए, लेकिन पैर नहीं चलते।
किसी न किसी तरह आपको अपने भीतर के अंधे और अपने भीतर के लंगड़े को संयुक्त करना पड़े। साहस अंधा है। इसलिए जितना मूढ़ आदमी हो उतना साहसी होता है। इसलिए जिनमें हमें साहस की जरूरत रखनी पड़ती है, उनको मूढ़ बनाना पड़ता है। जैसे मिलिट्री में हमें जरूरत होती है कि आदमी में साहस रहे, तो उसे हमें मूढ़ बनाना होता है--सब चेष्टा करके; उसमें बुद्धि पैदा न हो पाए। क्योंकि सैनिक में अगर बुद्धि हो, तो वही खतरा होगा। वह खड़ा हो जाएगा। तो बंदूक चलाने के पहले पूछेगा कि चलाना कि नहीं चलाना? अमरीका उस भूल में पड़ रहा है। वह अपने सैनिकों को काफी सुशिक्षित कर रहा है। वह हारेगा जगह-जगह। क्योंकि सुशिक्षित सैनिक अशिक्षित सैनिक के सामने कभी नहीं जीत सकता।
यह दुनिया की बड़ी अनूठी घटना है कि इतिहास में सदा ऐसा हुआ है कि सुशिक्षित कौमें अशिक्षित कौमों से हमेशा हारती हैं। भारत में यह हजार बार हुआ है। भारत की बड़ी से बड़ी हारों का कारण यह था कि हमारा सैनिक ज्यादा सुशिक्षित था और जो बर्बर हमला कर रहे थे, वे बिलकुल अशिक्षित थे। उनमें साहस ज्यादा था। इनमें बुद्धि ज्यादा थी। ये बिलकुल लंगड़े थे। उनसे नहीं टिक सके।
दुनिया में जब भी कोई सभ्यता ऊंचाई पर पहुंचती है, तो हार के करीब पहुंच जाती है। क्योंकि कोई भी नीची सभ्यता उसको मिटा डालेगी, क्योंकि उसके पास ज्यादा मूढ़ सैनिक होते हैं। मूढ़ता में एक अदम्य साहस होता है। समझदारी में झिझक आ जाती है। और ये दोनों का मेल हो, तो ही वेदांत का सुनिश्र्चित अर्थ खुल पाता है।
तीसरे, इस ‘संन्यास’ शब्द का हम अर्थ समझ लें, फिर सूत्र को लेंगे।
‘वेदांत में निहित विज्ञान का जो सुनिश्चित अर्थ जानते हैं और संन्यास व योगाभ्यास से अंतःकरण को परिशुद्ध कर लेते हैं, वे ही अंततः उस ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं, उसे पाने के अधिकारी होते हैं।’
‘संन्यास और योग...।’
यहां संन्यास और योग का जो अभिप्राय है, वह एक प्रक्रिया के निषेध और विधेय का है। संन्यास शब्द निगेटिव है। उसका अर्थ है: सम्यक त्याग। छोड़ना। ‘योग’ शब्द विधायक है, पाजिटिव है। उसका अर्थ है: अभ्यास, पाना। संन्यास का अर्थ है: छोड़ना गलत का। और योग का अर्थ है: पाना सही का। संन्यास का अर्थ है: जो व्यर्थ है, उसे छोड़ो। और योग का अर्थ है: जो सार्थक है, उसे खोजो। संन्यास और योग एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं।
जैसे एक आदमी बीमार है और चिकित्सक उसे कहता है: यह औषधि लो और यह व्यायाम करो। तो औषधि संन्यास है और व्यायाम योग है। औषधि बीमारी को काटेगी, स्वास्थ्य नहीं दे सकती। औषधि निषेधात्मक है। बीमारी को काटेगी, बीमारी को हटाएगी। व्यायाम विधायक है, स्वास्थ्य को जन्माएगा। और ये दोनों एक ही प्रक्रिया के हिस्से हैं। शायद अकेला व्यायाम कारगर न हो। अगर बीमारी बैठी हो, तो यह भी हो सकता है कि व्यायाम बीमारी का व्यायाम बन जाए और बीमारी और मजबूत हो जाए। या व्यायाम शरीर को और क्षीण कर दे, और बीमारी की शक्ति और बढ़ जाए। अकेली औषधि भी काफी न होगी क्योंकि औषधि केवल बीमारी को काट देगी, लेकिन विधायक स्वास्थ्य को नहीं जन्माएगी। विधायक स्वास्थ्य तो जीवंत श्रम से पैदा होगा। स्वास्थ्य तो स्वयं पैदा करना पड़ेगा। औषधि केवल उस चीज को हटा देगी, जिससे स्वास्थ्य के पैदा करने में बाधा पड़ती थी।
औषधि जैसा है संन्यास। और व्यायाम जैसा है योग। जो गलत है, उस छोड़ो; और जो सही है, उसे करने में लगो। और तभी अंतःकरण शुद्ध होगा।
आमतौर से, आमतौर से योग में लगे हुए लोग सोचते हैं--योग पर्याप्त है, संन्यास की कोई जरूरत नहीं। और ऐसी ही दुर्घटना तब भी दुबारा भी घटती है कि संन्यासी हो गए लोग सोचते हैं--संन्यास काफी है, योग की क्या जरूरत रही! छोड़ दिया सब जो गलत था, संसार छोड़ दिया, सब त्याग कर दिया, अब और क्या पाने को रहा! जैसे त्याग ही पर्याप्त है! त्याग तो केवल उस जगह को खाली करना है, जहां गलत बैठा था। उस सिंहासन से हमने गलत को हटा दिया, लेकिन अभी सही को निमंत्रण भी देना पड़ेगा। अभी उस राजा को भी बुलाना पड़ेगा, आमंत्रण भेजना पड़ेगा, जो उसका मालिक है और उस सिंहासन पर होना चाहिए। योग के बिना यह न हो पाएगा।
बहुत बार हमारे इस मुल्क में भी, इस मुल्क के बाहर भी यह दुर्घटना घटी है। जिन-जिन धर्मों ने संन्यास पर जोर दिया, उन-उन धर्मों में योग धीरे-धीरे खो गया। जैसे जैन धर्म। महावीर महायोगी हैं, लेकिन जैन धर्म का अधिकतम जोर त्याग पर रहा, तो आज जैन साधु योग से बिलकुल अपरिचित हैं। जैन साधु को योग से कोई संबंध ही नहीं रहा। योग से, ध्यान से, विधायक अभ्यास से उसके संबंध टूट गए, क्योंकि सोचा कि त्याग काफी है। गलत खाता नहीं, गलत सोता नहीं, गलत बोलता नहीं, कुछ गलत करता नहीं हूं; तो गलत बिलकुल छोड़ दिया तो खयाल में भ्रांति आती है कि सही हो गया। गलत छोड़ देने से सही नहीं हो जाता। गलत छोड़ देने से सही के होने की संभावना भर पैदा होती है। सही को भी जन्माना पड़ता है। सही को विधायक चेष्टा से जन्माना पड़ता है।
या जैसे हिंदू धर्म के साथ घटित हुआ। योग पर बहुत जोर हुआ, तो हिंदू, जिसे हम साधु कहें, वह योग तो साधता है, आसन साधता है, सब-कुछ करता है, लेकिन त्याग उसका बिलकुल क्षीण हो गया। इसलिए अगर हिंदू-साधु को और जैन-मुनि को सामने रखें तो जैन-मुनि के त्याग की प्रखरता अलग दिखाई पड़ेगी--हिंदू-साधु के त्याग में कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा; कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन हिंदू-साधु के पास योग की व्यवस्था दिखाई पड़ेगी और जैन-साधु के पास योग की कोई व्यवस्था नहीं दिखाई पड़ेगी। ये दोनों ही अपंग हैं फिर। अगर ये दोनों साथ नहीं तो अपंग हो जाएंगे।
निषेध और विधेय की सम्यक प्रक्रिया से अनुभव का जन्म होता है। उस परम को पाने के लिए निषेध और विधेय दो पैर हैं। न तो दाएं पैर से चलेगा, न बाएं पैर से चलेगा, दोनों पैर से चलना होता है।
चलना एक बहुत सूक्ष्म क्रिया है--और बहुत मजेदार।
उसे थोड़ा समझ लेना चाहिए।
अगर आपसे पूछा जाए कि आप बाएं पैर से चलते हैं कि दाएं पैर से; तो न तो कोई दाएं पैर से चल सकता है, न कोई बाएं पैर से चल सकता है। और चलने की पूरी प्रक्रिया यह है कि जब मेरा बायां पैर पृथ्वी पर रखा होता है तब मेरा दायां पैर उठ पाता है। सिर्फ बाएं पैर के जमीन पर रखे होने के कारण ही दायां पैर जमीन छोड़ पाता है। और जब दायां पैर जमीन पर रुक जाता है, तब बायां पैर जमीन छोड़ पाता है। एक पैर रुका होता है, एक पैर चला होता है। रुका हुआ पैर चले हुए पैर का आधार है। चला हुआ पैर रुके हुए पैर के लिए आगे का निमंत्रण है। इन दोनों के बीच वह घटना घटती है जिसे हम गति कहते हैं, चलना कहते हैं।
निषेध और विधेय साधक के लिए दो पैर हैं। विधेय का पैर जमीन पर मजबूती से न रखा हो, तो निषेध का पैर हिलता रहे आकाश में, गति नहीं होगी। संन्यास कितना ही हो, योग के बिना गति नहीं होगी। और योग कितना ही हो, संन्यास के बिना गति नहीं होगी। संन्यास और योग के बीच एक सामंजस्य खोज लेना अनुभव बनता है।
‘संन्यास व योगाभ्यास से अंतःकरण को परिशुद्ध करके ब्रह्मलोक में प्रवेश के अधिकारी होते हैं।’
अंतःकरण की परिशुद्धि, अंतःकरण का पूर्ण शुद्ध हो जाना ही ब्रह्मलोक में प्रवेश है। वह जो हमारे भीतर छिपा है, वह जिस दिन अपने पूरे परिशुद्ध रूप में आ जाता है, अपने पूरे स्वभाव में, अपने स्वधर्म में, वही हो जाता है जैसा वह है।
इस आखिरी शब्द को और समझ लें।
अशुद्ध का अर्थ क्या होता है? हम कहते हैं: पानी और दूध को मिला दिया तो दूध अशुद्ध हो गया। यह बहुत मजे की बात है। अगर पानी भी बिलकुल शुद्ध था और दूध भी बिलकुल शुद्ध था, तो दोनों मिल कर अशुद्ध क्यों हो गए? दोहरे शुद्ध हो जाने चाहिए। पानी बिलकुल शुद्ध था, दूध बिलकुल शुद्ध था, दोनों को मिला दिया तो हम कहते हैं: अशुद्ध हो गए। कौन अशुद्ध हुआ? पानी अशुद्ध हुआ कि दूध अशुद्ध हुआ? और क्यों? क्योंकि दोनों शुद्ध थे तो दो शुद्ध मिल कर दो दोहरी शुद्धि हो जानी चाहिए। महाशुद्ध हो जाने चाहिए। लेकिन अशुद्ध हो गए।
तो अशुद्ध का मतलब क्या है? अशुद्ध का मतलब केवल इतना ही है कि जो पानी का स्वभाव नहीं है वह पानी में आ गया और जो दूध का स्वभाव नहीं है वह दूध में आ गया। दूध के शुद्ध होने का इतना ही मतलब है कि दूध में सिर्फ दूध का स्वभाव था, तो वह शुद्ध था। और पानी में सिर्फ पानी का स्वभाव था, तो वह शुद्ध था।
शुद्ध का एक ही अर्थ होता है: विजातीय मौजूद न हो। मेरा जो स्वभाव है, निपट वही रह जाए, उसमें कोई विजातीय मौजूद न हो।
तो अंतःकरण के शुद्ध होने का क्या अर्थ है? अंतःकरण के शुद्ध होने का यह अर्थ नहीं कि एक आदमी चोरी नहीं करता, तो अंतःकरण शुद्ध हो गया; कि एक आदमी बेईमान नहीं है, तो अंतःकरण शुद्ध हो गया; कि एक आदमी पैसा नहीं छूता, तो अंतःकरण शुद्ध हो गया। नहीं, अंतःकरण का शुद्ध होने का अर्थ है: एक आदमी के भीतर अब उसकी स्वयं की अंतरात्मा के अतिरिक्त और कोई चीज प्रवेश नहीं करती। उसके भीतर वह अकेला ही रह गया। अब कोई उसके भीतर जाता नहीं। कोई चोरी नहीं, अचोरी भी नहीं जाती। हिंसा नहीं, अहिंसा भी भीतर नहीं जाती। अज्ञान नहीं, ज्ञान भी भीतर नहीं जाता। अमृत भी भीतर नहीं जाता, जहर तो भीतर जाता ही नहीं। नहीं, कुछ भीतर नहीं जाता। मैं भीतर वही रह गया जो मैं हूं। उससे अन्यथा मेरे भीतर कुछ न रहा तो मैं शुद्ध हो गया। यह शुद्धता ही ब्रह्मज्ञान बन जाती है। इस शुद्धता के लिए अब और कुछ करने की जरूरत नहीं रह जाती।
स्वभाव को उपलब्ध कर लेना की धर्म है। वैसे हो जाना जैसा कि होना मेरी आंतरिक नियति है, धर्म है।
इसलिए कृष्ण ने बहुत जोर देकर स्वधर्म की बात कही है। लेकिन लोग समझते हैं शायद स्वधर्म से भी कोई हिंदू है, तो हिंदू बना रहे; कोई मुसलमान है, तो मुसलमान बना रहे। इन धर्मों से स्वधर्म का कोई लेना-देना नहीं है। स्वधर्म का मतलब ही इतना है कि जो भी भीतर है, जो स्वयं का धर्म है, जो ‘स्व’ का धर्म है, जो स्वभाव है मेरा, मैं उससे विचलित न होऊं, उसी में ठहर जाऊं।
इसलिए कृष्ण ने कहा कि अपने धर्म में नष्ट हो जाना भी ठीक। अपने धर्म में असफल हो जाना उचित, बजाय दूसरे के धर्म में प्रवेश करने के। लेकिन यह दूसरे के धर्म का मतलब ऐसा नहीं कि मंदिर वाला मस्जिद में प्रवेश न करे; कि कुरान वाला गीता में प्रवेश न करे। दूसरे का धर्म का मतलब यह है कि मेरे अतिरिक्त सभी दूसरे हैं।
अगर कृष्ण ठीक से समझा पाएं--जो कि बहुत कठिन है, क्योंकि समझाना सिर्फ समझानेवाले पर निर्भर नहीं है, समझने वाले पर आधा निर्भर है--अगर कृष्ण ठीक से समझा पाएं और अर्जुन ठीक से समझ ले, तो अर्जुन को कृष्ण से सब संबंध विच्छिन्न कर लेने चाहिए, तो वह स्वधर्म को उपलब्ध होगा। कृष्ण को भूल ही जाना चाहिए। अगर अर्जुन ठीक से समझ ले, तो गीता के अंत में उसे कृष्ण को कहना चाहिए कि तुम्हारी मैं बात बिलकुल समझ गया, मेरे सब संशय नष्ट हो गए, अब तुम मुझे क्षमा करो, मैं तुम्हें भूलता हूं। अब तुमसे न पूछूंगा। अब मैं उसकी तलाश में लगता हूं, जो स्वधर्म है।
चीन में हुई हाई एक फकीर हुआ। वह जब अपने गुरु के पास गया, तो उसके गुरु ने गुरु बनने से इनकार कर दिया। हुई हाई ने जितना गुरु ने इनकार किया उतने ही हाथ-पैर जोड़े, उतना ही सिर पटका उसके द्वार पर, लेकिन उसके गुरु ने कहा कि नहीं, गुरु मैं तेरा न बनूंगा, शिष्य चाहे तो तू मेरा बन सकता है। क्योंकि शिष्य बनना तेरे ऊपर निर्भर है, उसको मैं कैसे रोकूं? लेकिन गुरु बनना मुझ पर निर्भर है, मैं वह न बनूंगा। क्योंकि मेरी सारी शिक्षा ही यही है कि स्वधर्म में प्रवेश करना ही एकमात्र उपाय है। तो मैं तेरा गुरु बनूं तो कहीं तुझे स्वधर्म से बाहर न खींच लूं। तू शिष्य बन, वह तेरा काम है, वह तू जान। और जिस दिन तेरा शिष्य भी विलीन हो जाएगा, उस दिन समझना कि तूने मेरी बात पूरी समझ ली।
नहीं राजी हुआ तो हुई हाई शिष्य ही बन कर उसके पास रहा, बिना गुरु के। गुरु तो गुरु बनने को राजी नहीं हुआ। फिर वर्षों बाद--गुरु तो मर चुका है, बहुत समय हो गया--वर्षों बाद हुई हाई एक उत्सव मना रहा है। वह उत्सव चीन में गुरु पूर्णिमा जैसा उत्सव है। वह गुरु की स्मृति में मनाया जाता है। तो लोग हुई हाई से पूछते हैं कि तुम उत्सव मना रहे हो, लेकिन तुम्हारा गुरु कौन था? तुमने कभी बताया नहीं। नाम भी तो बताओ कि तुम किस गुरु की स्मृति में उत्सव मना रहे हो? तो हुई हाई कहता है कि वह एक ऐसा गुरु था, जिसने मुझे सब सिखाया लेकिन मेरा गुरु बनने को राजी नहीं हुआ। और आज मैं कह सकता हूं कि अगर वह मेरा गुरु बन जाता, तो जो वह मुझे सिखाना चाहता था वह मैं नहीं सीख सकता था।
उसने गुरु न बन कर ही मेरे गुरु होने का काम पूरा किया है। इसलिए उसकी याद में यह उत्सव मना रहा हूं। उसने गुरु न बन कर ही गुरु होने का काम पूरा किया है, इसलिए यह उत्सव मना रहा हूं! उसने मुझे स्वयं में प्रतिष्ठित किया है। उसने मुझे स्वयं के बाहर जाने से सब तरफ से रोका। और एक आकर्षण तो मुझमें भारी था कि अगर वह मुझे स्वीकार कर लेता, तो मैं उसके चरणों में पूरी तरह लग जाता। और मेरी सारी धारा बर्हिमुखी हो जाती। उसने उस धागे को भी तोड़ दिया। पत्नी से मैं छूट गया था, पिता से मैं छूट गया था, भाइयों से छूट गया था, मित्रों से छूट गया था, संसार से छूट गया था, एक और मेरे लिए बहिर्गमन का मार्ग बचा था--वह गुरु--उसने उससे भी मुझे छुड़ा दिया। वह मेरे गुरु थे, क्योंकि उन्होंने मुझे मुझमें ही स्थापित कर दिया।
परिशुद्ध होने का अर्थ है: स्वयं की शुद्धता में जरा भी ‘पर’ मौजूद न रह जाए वहां, ‘स्व’ ही शेष रहे; ‘स्व’ ही शेष रहे, एक ही स्वर रह जाए, मेरा ही, तो ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध होते हैं।
अब इस पूरे सूत्र को मैं पढ़ देता हूं। अंत में--
‘अंततः वे योगी ही परम तत्व को प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं, जो वेदांत में निहित विज्ञान का सुनिश्चित अर्थ जान पाते हैं, संन्यास और
योगाभ्यास से अंतःकरण को परिशुद्ध कर लेते हैं और निरंतर ब्रह्म में जाने का प्रयत्न करते रहते हैं।’
आज इतना ही।
अब हम ध्यान की तैयारी करें।
दिस मच फॉर टुडेज मॉर्निंग टॉक। नाव वी विल गो फॉर मेडिटेशन। यू हैव टु डू इट सो टोटली दैट नथिंग इ़ज लेफ्ट बिहाइंड। नो एनर्जी अनटच्ड, एवरी एनर्जी मस्ट बी ब्राट टु इट टोटली।
दूर-दूर फैल जाएं। आंख पर पट्टियां बांध लेनी हैं। कोई भी व्यक्ति आंखें खोले हुए प्रयोग न करे। अगर आपके पास पट्टी न हो, तो भी आंख बंद रखनी है, एक।
दूसरा, अपनी जगह को छोड़ कर न भागें। अपनी जगह को छोड़ कर न भागें, अपनी जगह पर नाचें, कूदें, आनंदित हों--जो भी करना है।
तीसरी बात, आपको जो भी करना है आपको करना है, दूसरे के शरीर को जरा स्पर्श न करें। न दूसरे के शरीर को धक्का दें। अपनी जगह खुद ही अपना प्रयोग करें।
तैयार हो जाएं। थोड़े दूर-दूर फैल जाएं। भीड़ ज्यादा न करें एक जगह, अन्यथा फिर धक्के-मुक्के लगते हैं। थोड़े दूर-दूर फैल जाएं।
क्रिएट ए स्पेस अराउंड यू... फील दैट यू कैन मूव ई़िजली... इफ समवन फील्स लाइक गोइंग नेकेड, वन कैन गो। किसी को भी नग्न होना हो, वस्त्र अलग कर देने हों, अलग कर सकते हैं। आपको लगे कि वस्त्र अलग करने से आप ज्यादा स्वतंत्रता से अपनी अभिव्यक्ति कर सकते हैं, वस्त्र अलग कर सकते हैं। जो मित्र देखने आ गए हों, वे कृपा करके चुपचाप खड़े रहेंगे, या चुपचाप बैठ जाएंगे। बीच में बातचीत नहीं करेंगे।
ठीक, आंख पर पट्टियां बांध लें। नाव क्लोज योर आइज... क्लोज योर आइज एंड स्टार्ट दि फर्स्ट स्टेप... डीप, फास्ट ब्रीदिंग... हैमरिंग बाई ब्रीदिंग। जोर से श्र्वास... श्र्वास ही श्र्वास रह जाए... जोर से... जोर से... जोर से... पूरी शक्ति श्वास पर लगा देनी है।
सात मिनट...। जोर से... जोर से... तीन मिनट और बचे हैं... पूरी ताकत लगाएं। थ्री मिनटस मोर टु फर्स्ट स्टेप... ब्रिंग योर टोटल एनर्जी टु इट... जस्ट ब्रीदिंग... फास्ट ब्रीदिंग... ब्रीदिंग... ब्रीदिंग... यूज ब्रीदिंग एज ए हैमरिंग इनसाइड... फास्ट... फास्ट...
दो मिनट... जोर से... एक मिनट के लिए पूरी ताकत लगाएं--फार वन मिनट जस्ट गो मैड एंड ब्रीदिंग... ब्रीदिंग... जोर से... फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करें...
नाव इंटर दि सेकेंड स्टेप... दूसरे चरण में प्रवेश करें...
नौ मिनट... एक मिनट और... पूरे ताकत से, पागल हो जाएं... वन मिनट... गो मैड कंप्लीटली...
तीसरे चरण में प्रवेश करें... नाचें... हू... हू... हू... हू... हू... हू... हू... हू... हू...
पांच मिनट...। जोर से... जोर से... हू-हू... हू-हू... हू-हू... जोर से... जोर से...। चार मिनट और हैं... पूरी ताकत लगाएं... चोट करें... चोट करें... हू-हू... तीन मिनट...
एक मिनट और... बिलकुल पागल हो जाएं... हू-हू...जस्ट गो मैड... जोर से... जोर से... जोर से पूरी ताकत लगा दें... जोर से... हू-हू... हू-हू-हू...
बस, अब चौथे चरण में प्रवेश करें... शांत हो जाएं... चौथे चरण में प्रवेश करें... शांत चरण में प्रवेश करें... शांत हो जाएं... चौथे चरण में प्रवेश करें... शांत हो जाएं... शांत हो जाएं... बैठ जाएं... लेट जाएं... मुर्दे की भांति पड़ जाएं... शांत हो जाएं... सब गति बंद कर दें... छोड़ दें... शांत हो जाएं... सब मिट गया... शांत... कोई आवाज नहीं, कोई गति नहीं... शक्ति का कोई उपयोग न करें... शक्ति का कोई भी उपयोग न करें... शांत हो जाएं... शक्ति जाग गई, उसे भीतर काम करने दें, उसका उपयोग न करें... शरीर में बिलकुल उसका उपयोग न करें...
अपने दाएं हाथ को माथे पर रख कर आहिस्ता से रगड़ लें... तीसरे नेत्र की जगह, दोनों भवों के बीच में, आहिस्ता से... धीरे-धीरे रगड़ें... और भीतर उस केंद्र पर बहुत कुछ होगा... अचानक जैसे कोई द्वार खुल जाए और प्रकाश ही प्रकाश फैल जाए... नहीं आवाज नहीं... कुछ नहीं... भीतर काम करने दें... सिर्फ रगड़ें... प्रकाश ही प्रकाश...
बस रगड़ना बंद कर दें... चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है... इसके साथ एक हो जाएं... प्रकाश ही प्रकाश... प्रकाश के सागर में डूब जाएं... डूब जाएं... खो दें अपने को, विसर्जित कर दें... प्रकाश... प्रकाश... और प्रकाश की सघनता ही आनंद का प्रारंभ हो जाती है... प्रकाश के साथ एक होते ही आनंद के झरने फूटने शुरू हो जाते हैं... रोआं-रोआं, हृदय की धड़कन, श्र्वास-श्र्वास आनंद से भर जाएं... अनुभव करें आनंद को, अनुभव करें... चारों ओर आनंद है... बाहर-भीतर आनंद है... आनंद में डूब गए... चारों ओर आनंद है... बाहर भीतर आनंद है... आनंद में डूब गए... एक हो गए...
दो मिनट...। आनंद... आनंद... आनंद... रोआं-रोआं आनंद से भर गया है... आनंद... आनंद... आनंद... आनंद की सघनता ही परमात्मा की उपस्थिति बन जाती है... आनंद में गहरे जाने से ही प्रभु का अनुभव शुरू हो जाता है... वह मौजूद है चारों ओर, अभी और यहीं... अनुभव करें... आनंद के साथ एक हो जाएं और उसकी उपस्थिति शुरू हो जाए... अनुभव करें परमात्मा मौजूद है... चारों ओर, अभी और यहीं... अनुभव करें परमात्मा मौजूद है... चारों ओर वही है... बाहर-भीतर वही है... अनुभव करें प्रभु मौजूद है, चारों ओर वही घेरे हुए है... उसके ही सागर में डूब गए हैं और एक हो गए हैं...
अब पुनः अपनी दाएं हाथ की हथेली को माथे पर रख कर आहिस्ता से रगड़ें... अचानक भीतर एक क्रांति घटित हो जाती, ऊर्जा ऊपर के लोक में प्रवेश करती है... अब दोनों हाथ आकाश की ओर उठा लें और आंख खोल कर आकाश में झांकें... आकाश में देखें, दोनों हाथ फैला लें... आकाश के आलिंगन के लिए... और आकाश को देखने दें भीतर, और हृदय में जो भी भाव हो, दो मिनट के लिए उसे प्रकट कर सकते हैं... संकोच न करें... छोड़ दें... जो भी भाव प्रकट हो उसे छोड़ दें... दो मिनट...
अब दोनों हाथ जोड़ लें और परमात्मा के चरणों में सिर रख लें--और एक ही भाव हृदय में रह जाए: प्रभु की अनुकंपा अपार है, प्रभु की अनुकंपा अपार है, प्रभु की अनुकंपा अपार है।
अब वापस लौट आएं ध्यान से... वापस लौट आएं...
सुबह का ध्यान पूरा हुआ।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृतात्परिमुच्यन्ति सर्वे।।।।
अंततः वे ही योगी लोग परमतत्व को प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं, जो वेदांत में निहित विज्ञान का सुनिश्र्चित अर्थ जानते हैं और संन्यास व योगाभ्यास से अंतःकरण को परिशुद्ध करके ब्रह्मलोक में जाने का प्रयत्न करते हैं।।4।।
कुछ शब्दों के अर्थ समझने से इस सूत्र को शुरू करें।
पहला शब्द है: ‘वेदांत।’ वेदांत से सदा ही ऐसा समझा जाता रहा है कि वेद जिन उपनिषदों में पूरे होते हैं, वे उपनिषद; वेद जहां अपने शिखर को पाते हैं, वे उपनिषद वेदांत हैं। पर वैसा अर्थ बहुत गहरा नहीं है और सही भी नहीं।
वेदांत का अर्थ है... वेद का अर्थ है: ज्ञान... जहां समस्त ज्ञान का अंत हो जाता है, जहां समस्त ज्ञान समाप्त हो जाता है। जहां जानना भी छूट जाता है, सिर्फ होना ही रह जाता है। वेदांत का ठीक-ठीक अर्थ है: जहां जानने की भी अशांति नहीं रह जाती। जहां सिर्फ होना ही रह जाता है।
जानना भी एक तनाव है। आप खड़े हैं एक वृक्ष के पास और फूल को जानते हैं, तो जानना एक तनाव है। जानना भी एक अशांति है। जानने में भी आप थक जाएंगे। जानने से भी आप ऊब जाएंगे। थोड़ी देर में आप जानने से भी बचना चाहेंगे। क्योंकि जानना एक क्रिया है, चेष्टा है। और जानने में आप दूसरे से संबंधित होते हैं--जानने का अर्थ ही यह होता है। ज्ञाता और ज्ञेय के बीच जो संबंध निर्मित होता है, ज्ञाता और ज्ञेय के बीच जो सेतु बनता है, उसी का नाम जानना है। यह जानना भी आखिरी अशांति है। यह आखिरी तनाव है। यह जानना भी जहां छूट जाता है, सिर्फ होना ही रह जाता है, उस होने में जहां जानने की तरंग भी नहीं उठती, जहां कुछ जाना भी नहीं जाता, जहां कोई जानने की आकांक्षा भी नहीं है, उस परम विश्राम के क्षण में ही वेदांत उपलब्ध होता है।
वेदांत का अर्थ है: ज्ञान का जहां अंत हो जाए। ज्ञान से भी जहां छुटकारा हो। ज्ञान भी गहरे में एक बंधन है।
इसे हम दो-चार मार्गों से समझें, तो खयाल आ सकेगा।
दूसरे भी द्वंद्व हमारे पास हैं, उनमें समझना ज्यादा आसान है। जैसे मैंने कल आपको कहा: दुख छूटे, सुख भी छूटे, तभी हम स्वयं में प्रवेश करते हैं। और मैंने आपसे कहा: जब तक सुख न छूटे, तब तक दुख नहीं छूट सकता। यह हमारी समझ में आ जाता है। अब ठीक इसको हम इस दूसरे द्वंद्व पर भी समझें। अज्ञान छूटे, ज्ञान भी छूटे, तो ही परम अनुभव शुरू होता है। और जब तक ज्ञान न छूटे, तब तक अज्ञान भी नहीं छूटता। सुख और दुख एक द्वंद्व है। ज्ञान और अज्ञान भी एक द्वंद्व है। दुनिया में ज्ञानी हुए हैं, जिन्होंने कहा: अज्ञान छूटे। लेकिन सिर्फ इस भूमि पर ऐसे परम ज्ञानी हुए हैं जिन्होंने कहा: ज्ञान भी छूटे।
वेदांत का अर्थ है: जहां ज्ञान भी छूट जाता है। जहां ऐसा नहीं कि कुछ जानने को शेष रह जाता है; अज्ञान तो छूट ही जाता है, लेकिन मैं कुछ जानता हूं, यह भाव भी छूट जाता है।
अब इसे हम एक और तरह से समझें।
अज्ञान का अर्थ होता है: कोई चीज जिसे मैं नहीं जानता हूं। अज्ञान मिट जाए तो एक स्थिति बनेगी, जब मैं कह सकता हूं मैं सब जानता हूं। अज्ञान दूसरे से संबंधित था। कोई चीज अनजानी थी, इसलिए अज्ञान था। अज्ञान अहंकार को निर्मित नहीं करता। क्योंकि मैं नहीं जानता हूं, तो अहंकार कैसे निर्मित होगा? ज्ञान अहंकार को निर्मित करता है। मैं जानता हूं, तो ‘मैं’ मजबूत होता हूं। अज्ञान वस्तुओं से संबधित है, ज्ञान अहंकार से। तो जब मैं कहता हूं: मैं जानता हूं, तो ‘मैं’ मजबूत होता है। जोर ‘मैं’ पर पड़ता है। और जब मैं कहता हूं: मैं नहीं जानता हूं, तो मैं इतना ही कहता हूं कि कोई चीज अनजानी है, अपरिचित है, नहीं जानता हूं। अहंकार अज्ञान से मजबूत नहीं होता।
अज्ञान में भूलें होती हैं। अज्ञान में नासमझियां होती हैं। बहुत-बहुत नासमझियां होती हैं, बहुत-बहुत भूलें होती हैं। ज्ञान में एक ही भूल होती है, और एक ही नासमझी होती है, वह अहंकार है। अज्ञान में अनेक बीमारियां घेरती हैं, ज्ञान में एक ही बीमारी घेरती है--वह अहंकार है। मगर ध्यान रहे, सब बीमारियों का जोड़ भी अहंकार से छोटा पड़ता है।
तो प्रक्रिया है, ज्ञान से अहंकार को मिटाएं, लेकिन फिर ज्ञान को पकड़ कर न बैठ जाएं। पैर में मेरे कांटा गड़ जाए, तो एक दूसरे कांटे से उस कांटे को निकालना पड़ता है। लेकिन ध्यान रहे, दूसरा कांटा भी कांटा ही है। और अगर आपने ऐसा सोचा--जो कि बिलकुल तर्कयुक्त होगा--कि इस कांटे ने इतनी सहायता दी कांटा निकालने में, तो इसे कांटा न समझें, तो आप भूल में पड़ जाएंगे। यह निकाल ही इसलिए पाया पहले कांटे को क्योंकि यह भी कांटा है। और संभावना तो यह है कि यह पहले कांटे से ज्यादा मजबूत कांटा है, इसलिए निकाल पाया। अगर आपने सोचा कि इसने इतनी कृपा की कि पहले कांटे से छुटकारा दिलाया, तो अब जिस घाव में पहला कांटा था उसमें इस कांटे को रख लें तो यह तर्कयुक्त तो होगा--क्योंकि इसने इतनी सहायता की, वक्त पर काम दिया, और अब इसको छोड़ दें, यह अच्छा मालूम होता नहीं--तो आप कांटे से छूटे जरूर लेकिन और बड़े कांटे से बिंध गए। और अगर यह तर्क आपके मन में फंस जाए, तो आप कांटे से फिर कभी छुटकारा न पा सकेंगे।
अज्ञान में थोड़े ही दुख था! अज्ञान चुभता था, घाव करता था, उसमें ही दुख था। अब घाव यह दूसरा कांटा करेगा, और दुख जारी रहेगा। इस कांटे को फेंक दें, सधन्यवाद! धन्यवाद जरूर दे दें, सेवा उसने की है, पर फेंक दें। वह भी कांटा ही है। अज्ञान को निकाल दें ज्ञान से, लेकिन ज्ञान को रख कर मत बैठ जाएं, यही वेदांत का निहित अर्थ है। फेंक दें ज्ञान को भी। ज्ञान की उपादेयता तभी तक है जब तक अज्ञान का कांटा नहीं निकला है। निकलते ही अज्ञान का कांटा, ज्ञान व्यर्थ है।
एक आदमी बीमार है। तो औषधि की जरूरत तभी तक है जब तक वह बीमार है। ठीक से समझें तो आदमी को औषधि की जरूरत नहीं है, बीमारी को औषधि की जरूरत है। आदमी औषधि नहीं खाता, बीमारी औषधि खाती है। तो जैसे ही बीमारी समाप्त हो जाती है, औषधि व्यर्थ हो जाती है।
ज्ञान आपको नहीं चाहिए, आपके अज्ञान की बीमारी को काटने की औषधि मात्र है। लेकिन अनेक ऐसे बीमार हैं कि बीमारी तो छूट जाती है, औषधि पकड़ जाती है। और ध्यान रहे, बीमारी से छुड़ाना आसान है, औषधि से छुड़ाना बड़ा मुश्किल है। अगर औषधि पकड़ जाए तो छुड़ाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि औषधि दुश्मन नहीं मालूम होती, मित्र मालूम होती है। जो बीमारी शत्रु मालूम होती है, कठिन नहीं छूटना उससे। जो बीमारी मित्र मालूम होने लगी, उससे छूटना बुहत कठिन हो जाएगा। शत्रु से बचा जा सकता है, मित्र से बचना बहुत मुश्किल है। और ज्ञान ऐसा ही शत्रु है जो मित्र की तरह दिखाई पड़ता है। क्योंकि अज्ञान के शत्रु को हटाता है, तोड़ता है।
वेदांत का अर्थ है: ज्ञान के प्रति सचेत रहना, उसे भी पकड़ नहीं लेना है। अज्ञान छूटता है तो आदमी ज्ञानी होता है। और जब ज्ञान भी छूटता है तब आदमी अनुभवी होता है। ज्ञानी तो अश्र्वलायन भी था। महर्षि था, अनुभवी नहीं था। अज्ञान की जगह उसने ज्ञान को पकड़ लिया था। अनुभव से उतना ही वंचित था जितना अज्ञानी वंचित होता है। इसीलिए तो पूछने आना पड़ा है उसे गुरु के पास।
तो गुरु जो कह रहा है, उसमें पहली बात कही है उन्होंने: ‘परम तत्व को प्राप्त करने के अंततः वे ही अधिकारी होते हैं जो वेदांत में निहित विज्ञान का सुनिश्र्चित अर्थ जानते हैं।’
तो पहला शब्द तो ‘वेदांत’ हम समझें। ज्ञान से मुक्ति।
दूसरी बात हम समझें: ‘वेदांत में निहित विज्ञान का सुनिश्चित अर्थ।’
जब तक कोई अनुभव को उपलब्ध नहीं होता है तब तक सभी अर्थ अनिश्चित होते हैं। कितना ही आप जान लें, जानना आपको अनिश्चय के ऊपर नहीं ले जाता। बल्कि सच तो यह है कि जितना ज्यादा आप जानते हैं, उतना अनिश्चय बढ़ जाता है। पंडितों की कठिनाई यही है, वे इतना जानते हैं कि निश्चय खो जाता है। अज्ञानी बड़े निश्चित होते हैं।
इसलिए दुनिया में अज्ञानी जितना उपद्रव करवाते हैं, उतने ज्ञानी नहीं करवा पाते। क्योंकि अज्ञानी इतना सुनिश्चित मालूम पड़ता है खुद के भीतर कि वह किसी भी चीज में जी-जान लगा देता है। अज्ञानी की बीमारी यह है कि वह किसी भी चीज में जी-जान लगा सकता है, सुनिश्चित होता है। सुनिश्र्चितता उसकी बिलकुल भ्रांत है। न जानने के कारण है।
ज्ञानी एकदम अनिश्र्चित हो जाता है। कुछ भी करने जाए तो हजार विकल्प उसे दिखाई पड़ते हैं। एक-एक शब्द में हजार अर्थों की झलक मिलने लगती है। एक-एक सूत्र में हजार-हजार दिशाएं प्रकट होने लगती हैं। कहां जाए, कैसे जाए, क्या चुने, जाना ही बंद हो जाता है, खड़ा हो जाता है। अज्ञानी जाने में बड़े तीव्र होते हैं। कहीं भी चले जाते हैं। क्योंकि उन्हें ज्यादा दिखाई नहीं पड़ता। एक ही मार्ग दिख जाता है थोड़ा तो उतनी झलक उनको ले जाने के लिए काफी है। लेकिन ज्ञानी चलने में असमर्थ हो जाते हैं। वे खड़े रह जाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं: जब तक अर्थ ही तय न हो जाए...।
बुद्ध ने कहा है: एक पंडित को तीर लग गया। बुद्ध पास से गुजरते हैं, तो उन्होंने कहा: मैं यह तीर खींच दूं। उस पंडित ने कहा: पहले यह साफ हो कि तीर किसने मारा? क्यों मारा? मारने वाला मित्र है या शत्रु है? प्रयोजन क्या है? अगर मैं मर जाऊंगा तो यह बुरा होगा या मैं बच जाऊंगा तो वह बुरा होगा? मेरा बचना सुनिश्चित रूप से हितकर है या मेरा मर जाना? जब तक यह तय न हो जाए तब तक तीर को कैसे निकालें? फिर यह तीर जहर-बुझा है कि नहीं बुझा है? यह नियति है या संयोग है? यह मेरा भाग्य है या सिर्फ एक दुर्घटना है? यह सब साफ हो जाए, फिर तीर को खींचें।
तो बुद्ध ने कहा: यह साफ तो शायद कभी न हो पाएगा। एक बात साफ है कि इसे साफ करने में तुम मिट जाओगे, मर जाओगे। लेकिन उस पंडित ने कहा: बिना सुनिश्चित किए कुछ कार्य करना उचित भी तो नहीं है।
अज्ञानी तीव्रता से चला जाता है अंधकार में भी। ज्ञानी को अगर प्रकाश भी दिखाई पड़े तो इतने रूपों में दिखाई पड़ता है कि खड़ा रह जाता है, चल नहीं पाता।
इसलिए दूसरा अर्थ हम समझ लें सुनिश्र्चित, सुनिश्र्चितता का।
एक सुनिश्चय है अज्ञान का, अनिश्चय है ज्ञान का। फिर एक और सुनिश्चय है अनुभव का। और अनुभवी जब सुनिश्चित होता है, तब एक अर्थ में वह पुनः अज्ञानी जैसा सुनिश्चित हो जाता है।
रामकृष्ण के पास विवेकानंद जाते हैं तो रामकृष्ण बिलकुल सुनिश्चित हैं। विवेकानंद पूछते हैं कि ईश्र्वर है? तो रामकृष्ण कहते हैं: यह बेकार की बात क्यों करनी, तुझे मिलना है? यह उत्तर ज्ञानी के पास नहीं मिल सकता था। विवेकानंद ज्ञानी के पास भी गए थे। महर्षि देवेंद्रनाथ के पास भी गए थे। महर्षि थे। आश्वलायन जैसे ही महर्षि थे।
विवेकानंद देवेंद्रनाथ के पास जाकर भी यही पूछे थे: ईश्वर है? मगर पूछने का ढंग ऐसा था कि ज्ञानी घबड़ा गया। विवेकानंद ने कोट का कालर पकड़ कर, हिला कर पूछा: ईश्र्वर है? झिझक गए देवेंद्रनाथ। कहा कि बैठो। आहिस्ता से बैठो। फिर मैं बताऊं। पर विवेकानंद ने कहा: आपकी झिझक ने सब-कुछ कह दिया। आप झिझक गए, आपका उत्तर एक झिझक से आ रहा है। आपको भी पता नहीं है। जानते होंगे आप बहुत कुछ उसके संबंध में, उसे नहीं जाना है।
ठीक यही की यही बात रामकृष्ण से पूछी। लेकिन रामकृष्ण! रामकृष्ण ने उलटी हालत पैदा कर दी। रामकृष्ण ने कहा कि यह फिजूल की बातचीत मत कर! तुझे मिलना हो तो बोल! यह प्रश्र्न के उत्तर में दूसरा प्रश्र्न था। और इसने विवेकानंद को झिझका दिया। और विवेकानंद ने कहा: यह तो मैं अभी सोच कर नहीं आया था। अभी तो सिर्फ पूछने आया था। मुझे थोड़ा मौका दें तो मैं सोचूं कि मुझे मिलना है या नहीं।
जब भी किसी अनुभवी के पास आप जाएंगे, तो उसकी सुनिश्चतता प्रगाढ़ है। उसकी प्रगाढ़ता को अगर हम ठीक से समझें, तो कहना होगा--उसकी प्रगाढ़ता में विरोधी स्वर ही नहीं है।
सुना है मैंने, झेन फकीर हुआ, बोकोजू। उसके पास एक नास्तिक मिलने गया। और उस नास्तिक ने कहा कि मैं तो ईश्वर को नहीं मानता हूं। तो बोकोजू के शिष्यों ने समझा कि अब बोकोजू उसे समझाएगा कि ईश्वर है। लेकिन बोकोजू ने कहा: तो मत मानो। तो उस नास्तिक ने कहा: आप मुझे समझाएंगे नहीं? तो बोकोजू ने कहा कि तुम्हारे न मानने से अगर उसके होने में जरा भी बाधा पड़ती, तो मैं समझाता। मत मानो! लेकिन नास्तिक आग्रहशील था और बोकोजू को विवाद में खींचना चाहता था। तो उसने कहा कि नहीं, इतने से मैं लौट जाने वाला नहीं हूं। या तो तुम कहो कि वह है, तो सिद्ध करो। और अगर सिद्ध नहीं करते हो, तो कहो कि वह नहीं है। तो ही मैं जा सकता हूं।
तो बोकोजू ने कहा इसमें कोई कठिनाई नहीं है। मैं कहता हूं कि ईश्र्वर नहीं है। नास्तिक थोड़ा घबड़ाया और उसने कहा कि तुम कहते हो कि नहीं है! बोकोजू, तुम कहते हो कि नहीं है! बोकोजू ने कहा कि मेरे यह कहने से भी उसके होने में कोई फर्क नहीं पड़ा। और मैं उसके संबंध में इतना आश्र्वस्त हूं कि इनकार भी कर सकता हूं। उसके होने में इतना आश्वस्त हूं कि मुझे उसको इनकार करने में भी डर नहीं लगता। वह है ही। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बोकोजू क्या कहता है। मेरी बातें बेकार हैं। हां कहूं, ना कहूं, उसके होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। और फिर मैं इतना आश्र्वस्त हूं। मैं कोई डरा हुआ आस्तिक नहीं हूं कि मुझे भय लगे कि मैंने कह दिया नहीं है। सारा जगत नहीं कह दे, खुद ईश्वर मेरे सामने खड़ा होकर कह दे कि मैं नहीं हूं, तो भी मैं हंस कर टाल सकता हूं। वह है।
यह जो सुनिश्चय है, यह सुनिश्चय ज्ञान से नहीं आता। ज्ञान से अनिश्र्चय आता है। अज्ञान में सुनिश्चय है, पर वह अंधेरे का सुनिश्चय है। क्योंकि हम कुछ भी नहीं जानते, इसलिए निश्र्चित मालूम पड़ते हैं। वह निश्चय काम का नहीं है, खतरे का है। खतरनाक है। अंधे का निश्चय है, जो दीवाल में भी दरवाजा मान सकता है। इसलिए नहीं कि दरवाजा दिखाई पड़ता है, इसलिए कि दरवाजा दिखाई ही नहीं पड़ता है। इसलिए कहीं भी माने, मानना ही पड़ेगा। मानना ही उसके लिए उसका जानना है। अंधे को भी चलना तो पड़ेगा और चलना है तो दरवाजा मान कर चलना पड़ेगा। टकराएगा सिर, तो भी कल किसी दूसरी दीवाल में दरवाजा मान लेगा और सुनिश्चित रहेगा, नहीं तो फिर पैर उठ नहीं सकते।
ज्ञानी खड़ा हो जाता है, ठिठक जाता है। अनेक दरवाजे दिखाई पड़ने लगते हैं। कौन सा दरवाजा सही है? कौन सा मार्ग उचित है? कौन सी साधना से चलूं? कौन सा पथ चुनूं? इस सब चुनाव और विचार में इतनी शक्ति व्यय होती है कि चलने योग्य कुछ बचता नहीं। और यह निर्णय करना अति कठिन है। यह निर्णय करना ऐसा ही कठिन है जैसे कोई आदमी कहे कि तैरना तो मुझे सीखना है, लेकिन जब तक मैं तैरना न सीख लूं तब तक पानी में कैसे उतरूं? और ठीक कहता है। क्योंकि पानी में उतर जाए बिना तैरना सीखे, तो खतरा है। तो पहले तैरना सीख लें, फिर पानी में उतरें।
संगत है उसकी बात, लेकिन वह कभी पानी में अब उतर न पाएगा। क्योंकि तैरना सीखने के लिए भी पानी में ही उतरना पड़ता है। असल में जिसे भी तैरना सीखना है, उसे बिना तैरना जाने ही पानी में उतरने का साहस जुटाना पड़ता है। तभी तो वह तैरना सीख पाता है।
ज्ञानी तट पर खड़ा हो जाता है और सोचने लगता है मार्गों के, द्वारों के, विचारों के, सिद्धांतों के बीच किसको चुनूं? कौन सी नाव मुझे पार ले जाए? पार जाना इतना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है, जितना नावें महत्वपूर्ण दिखाई पड़ने लगती हैं--कि कोई नाव डुबा तो न देगी? कहीं नाव गलत तो न ले जाएगी? दिशा कहीं भ्रांत तो न हो जाएगी? खेवैया जो चुन रहा हूं, वह पहुंचा पाएगा या नहीं पहुंचा पाएगा? ज्ञानी दिग्भ्रांत हो जाता है। अज्ञानी अंधा होता है। ज्ञानी दिग्भ्रांत हो जाता है। अज्ञानी कुछ भी पागलपन करने में उतर जाता है, ज्ञानी के सामने मार्ग भी आ जाए तो भी सोच-विचार में चूक जाता है।
तो सुनिश्चित अर्थ का अर्थ है: अनुभव के अतिरिक्त वेदांत का जो सुनिश्चित अर्थ है वह प्रकट नहीं होगा। तो जिन्हें जानना है, अनुभव करना है--जानना नहीं, अनुभव करना है--पहचानना है, प्रत्यभिज्ञा करनी है उस अर्थ की जो वेदांत में छिपा है, उन्हें अनुभव से चलना पड़े।
और ध्यान रहे, अगर कोई गलत मार्ग पर भी चला जाए, साहसपूर्वक, बोधपूर्वक, समझपूर्वक, तो गलत मार्ग पर जाकर भी अनुभव के द्वार खुलते हैं। खड़े रहने की बजाय तो गलत मार्ग पर चला जाना भी बेहतर है। क्योंकि खड़ा हुआ आदमी सही तो दूर, गलत भी नहीं कर पाता। खड़ा हुआ आदमी कहीं पहुंचता ही नहीं। और गलत भी कोई चला जाए तो भी यह जानना, यह पहचानना, यह यात्रा अनुभव बनती है, प्रौढ़ता लाती है। कोई चीज बढ़ती है भीतर। एक तो कम से कम पक्का हो जाता है कि इस तरह के गलत मार्ग पर यह आदमी दुबारा न जाए। यह भी कम नहीं है। और हम गलत कर-कर के ही तो सही की तरफ जाना सीखते हैं। और कोई उपाय भी तो नहीं है।
भूल करना बुरा नहीं है, एक ही भूल बार-बार दोहराना बुरा है। भूल करना जरा भी बुरा नहीं है। जिस आदमी ने ऐसा समझा कि भूल करना बुरा है, वह कुछ कर ही न पाएगा। और जो लोग सही तक पहुंचते हैं, वे वे ही लोग हैं जो अदम्य साहस से भूलें करने की हिम्मत रखते हैं।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि कोई एक ही भूल को बार-बार किया जाए। जो एक ही भूल को बार-बार करता है, वह भी कहीं नहीं पहुंचेगा। रोज नई भूल करने की हिम्मत चाहिए। वही खोजी का लक्षण है। जब भूल समझ में आ जाए, तो कुछ आपके हाथ लगा। कुछ बारीक, सूक्ष्म चीज आपके हाथ में आ गई। आप आगे बढ़े, आप वही न रहे। जिसने भूल की थी, अब आप वही आदमी नहीं हैं। आप दूसरे हो गए।
असत्य को असत्य की भांति जान लेना सत्य की पहचान बन जाती है। भूल को भूल की तरह देख लेना ठीक की तरफ यात्रा का प्रारंभ हो जाता है।
अनुभव पर जोर वेदांत का है। सिर्फ जानकारी पर जोर नहीं है। जानकारी ज्ञान दे देती है और आदमी ठिठक कर खड़ा हो जाता है और चलने की क्षमता खो देता है। चलने की क्षमता तो वैसी ही होनी चाहिए जैसी अज्ञानी में होती है, और ज्ञान की प्रगाढ़ता वैसी होनी चाहिए जैसी ज्ञानी में होती है। अगर ज्ञानी का ज्ञान और अज्ञानी का साहस संयुक्त हो जाएं, तो अनुभव का जन्म होता है। ज्ञानी का बोध, जागरूकता और अज्ञानी का साहस, ये संयुक्त हो जाएं तो अनुभव शुरू होता है। लेकिन यह कठिन पड़ता है। जब तक अज्ञानी होते हैं तब तक बड़ा साहस होता है। और जब ज्ञानी हो जाते हैं, तो बोध तो आता है, लेकिन साहस खो जाता है। जब आंखें मिलती हैं, तब पैर लंगड़े हो जाते हैं और जब पैर ठीक होते हैं, तो आंखें नहीं होतीं।
हमने सुनी है पंचतंत्र की सभी ने कथा कि एक अंधे और लंगड़े को, जंगल में आग लग गई तो निकलना मुश्किल हो गया। वह कथा बच्चों की कथा नहीं है। वह कथा वेदांत की कथा है। हम बच्चों को पढ़ाते हैं, वह बूढ़ों को पढ़ानी चाहिए। वह कथा यह कहती है कि हर आदमी ऐसी स्थिति में है कि या तो वह अंधा है, तो देख नहीं सकता और जंगल में आग है! और या वह लंगड़ा है, देख सकता है तो भाग नहीं सकता; जंगल में आग है! और इस अंधे और लंगड़े के बीच अगर कोई संबंध न हो जाए, तो वह जलेगा इस जंगल में ही। वह निकल नहीं सकता बाहर। वह जन्मों-जन्मों तक जलेगा।
यह अंधा और लंगड़ा हमारे भीतर की घटनाएं हैं। अज्ञानी अंधा है, ज्ञानी लंगड़ा है। और किसी न किसी तरह इस लंगड़े को कंधे पर बिठाना पड़े, क्योंकि यह देख सकता है। और किसी न किसी तरह इस अंधे को राजी होना पड़े चलने के लिए, क्योंकि यह चल सकता है। जिस दिन अज्ञानी के पैर और ज्ञानी की आंखों का मिलन होता है, अनुभव की यात्रा शुरू होती है। और अनुभव से सुनिश्चितता मिलती है।
मेरे पास न मालूम कितने लोग आते हैं। किसी की तकलीफ अंधापन है और किसी की तकलीफ लंगड़ापन है। और एक दफा अंधे को तो राजी करना आसान भी हो जाए, लंगड़ों को राजी करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उनको वहम है कि उनको दिखाई पड़ता है। उनको वहम है कि उनको दिखाई पड़ता है। और वे यह भूल ही गए हैं कि चलने की टांगें उनकी बिलकुल टूट गई हैं। उन्होंने यह देखना चलने की कीमत पर पाया है। तो देखने तो वे लगे हैं, लेकिन पैरों की सारी ऊर्जा आंखों में आ गई है। अब पैर चलते नहीं, अब देख कर भी क्या होगा? इसलिए अज्ञानी उतना दुखी नहीं होता--दुखी तो होगा ही, क्योंकि अज्ञानी है--ज्ञानी बहुत दुखी हो जाता है, क्योंकि उसे अब दिखाई भी पड़ता है और चल भी नहीं पाता।
ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं हमें मालूम है कि ठीक क्या है, लेकिन कर नहीं पाते। हमें पता है कि शुभ क्या है, लेकिन आचरण में नहीं आता। हमें पता है कि क्या होना चाहिए, वही नहीं हो पाता। और हमें पता है कि क्या नहीं होना चाहिए, वही हमसे रोज होता है। इसकी पीड़ा बढ़ ही जाएगी। ज्ञानी की जो पीड़ा है, संताप है, वह गहन हो जाएगा। दिखाई पड़ता है, पास ही दिखाई पड़ता है, कि सरोवर है, प्यास भी मालूम पड़ती है, लेकिन पैर उठते नहीं। अंधे की भी पीड़ा है। लेकिन वह पीड़ा एक जगह ठहरे होने की नहीं है। उसे दिखाई नहीं पड़ता कि कहां सरोवर है। प्यास का उसे पता है, पैरों में ताकत है, वह भागता रहता है--टकराता है, गिरता है, दुख पाता है। उसका दुख जो है वह टकराने से, भटकने से, गिरने से, चोट खाने से होता है। ज्ञानी का दुख जो है, सरोवर दिखाई पड़ता है, प्यास मालूम पड़ती है, लगता है अभी प्यास और सरोवर का मिलन हो जाए, लेकिन पैर नहीं चलते।
किसी न किसी तरह आपको अपने भीतर के अंधे और अपने भीतर के लंगड़े को संयुक्त करना पड़े। साहस अंधा है। इसलिए जितना मूढ़ आदमी हो उतना साहसी होता है। इसलिए जिनमें हमें साहस की जरूरत रखनी पड़ती है, उनको मूढ़ बनाना पड़ता है। जैसे मिलिट्री में हमें जरूरत होती है कि आदमी में साहस रहे, तो उसे हमें मूढ़ बनाना होता है--सब चेष्टा करके; उसमें बुद्धि पैदा न हो पाए। क्योंकि सैनिक में अगर बुद्धि हो, तो वही खतरा होगा। वह खड़ा हो जाएगा। तो बंदूक चलाने के पहले पूछेगा कि चलाना कि नहीं चलाना? अमरीका उस भूल में पड़ रहा है। वह अपने सैनिकों को काफी सुशिक्षित कर रहा है। वह हारेगा जगह-जगह। क्योंकि सुशिक्षित सैनिक अशिक्षित सैनिक के सामने कभी नहीं जीत सकता।
यह दुनिया की बड़ी अनूठी घटना है कि इतिहास में सदा ऐसा हुआ है कि सुशिक्षित कौमें अशिक्षित कौमों से हमेशा हारती हैं। भारत में यह हजार बार हुआ है। भारत की बड़ी से बड़ी हारों का कारण यह था कि हमारा सैनिक ज्यादा सुशिक्षित था और जो बर्बर हमला कर रहे थे, वे बिलकुल अशिक्षित थे। उनमें साहस ज्यादा था। इनमें बुद्धि ज्यादा थी। ये बिलकुल लंगड़े थे। उनसे नहीं टिक सके।
दुनिया में जब भी कोई सभ्यता ऊंचाई पर पहुंचती है, तो हार के करीब पहुंच जाती है। क्योंकि कोई भी नीची सभ्यता उसको मिटा डालेगी, क्योंकि उसके पास ज्यादा मूढ़ सैनिक होते हैं। मूढ़ता में एक अदम्य साहस होता है। समझदारी में झिझक आ जाती है। और ये दोनों का मेल हो, तो ही वेदांत का सुनिश्र्चित अर्थ खुल पाता है।
तीसरे, इस ‘संन्यास’ शब्द का हम अर्थ समझ लें, फिर सूत्र को लेंगे।
‘वेदांत में निहित विज्ञान का जो सुनिश्चित अर्थ जानते हैं और संन्यास व योगाभ्यास से अंतःकरण को परिशुद्ध कर लेते हैं, वे ही अंततः उस ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं, उसे पाने के अधिकारी होते हैं।’
‘संन्यास और योग...।’
यहां संन्यास और योग का जो अभिप्राय है, वह एक प्रक्रिया के निषेध और विधेय का है। संन्यास शब्द निगेटिव है। उसका अर्थ है: सम्यक त्याग। छोड़ना। ‘योग’ शब्द विधायक है, पाजिटिव है। उसका अर्थ है: अभ्यास, पाना। संन्यास का अर्थ है: छोड़ना गलत का। और योग का अर्थ है: पाना सही का। संन्यास का अर्थ है: जो व्यर्थ है, उसे छोड़ो। और योग का अर्थ है: जो सार्थक है, उसे खोजो। संन्यास और योग एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं।
जैसे एक आदमी बीमार है और चिकित्सक उसे कहता है: यह औषधि लो और यह व्यायाम करो। तो औषधि संन्यास है और व्यायाम योग है। औषधि बीमारी को काटेगी, स्वास्थ्य नहीं दे सकती। औषधि निषेधात्मक है। बीमारी को काटेगी, बीमारी को हटाएगी। व्यायाम विधायक है, स्वास्थ्य को जन्माएगा। और ये दोनों एक ही प्रक्रिया के हिस्से हैं। शायद अकेला व्यायाम कारगर न हो। अगर बीमारी बैठी हो, तो यह भी हो सकता है कि व्यायाम बीमारी का व्यायाम बन जाए और बीमारी और मजबूत हो जाए। या व्यायाम शरीर को और क्षीण कर दे, और बीमारी की शक्ति और बढ़ जाए। अकेली औषधि भी काफी न होगी क्योंकि औषधि केवल बीमारी को काट देगी, लेकिन विधायक स्वास्थ्य को नहीं जन्माएगी। विधायक स्वास्थ्य तो जीवंत श्रम से पैदा होगा। स्वास्थ्य तो स्वयं पैदा करना पड़ेगा। औषधि केवल उस चीज को हटा देगी, जिससे स्वास्थ्य के पैदा करने में बाधा पड़ती थी।
औषधि जैसा है संन्यास। और व्यायाम जैसा है योग। जो गलत है, उस छोड़ो; और जो सही है, उसे करने में लगो। और तभी अंतःकरण शुद्ध होगा।
आमतौर से, आमतौर से योग में लगे हुए लोग सोचते हैं--योग पर्याप्त है, संन्यास की कोई जरूरत नहीं। और ऐसी ही दुर्घटना तब भी दुबारा भी घटती है कि संन्यासी हो गए लोग सोचते हैं--संन्यास काफी है, योग की क्या जरूरत रही! छोड़ दिया सब जो गलत था, संसार छोड़ दिया, सब त्याग कर दिया, अब और क्या पाने को रहा! जैसे त्याग ही पर्याप्त है! त्याग तो केवल उस जगह को खाली करना है, जहां गलत बैठा था। उस सिंहासन से हमने गलत को हटा दिया, लेकिन अभी सही को निमंत्रण भी देना पड़ेगा। अभी उस राजा को भी बुलाना पड़ेगा, आमंत्रण भेजना पड़ेगा, जो उसका मालिक है और उस सिंहासन पर होना चाहिए। योग के बिना यह न हो पाएगा।
बहुत बार हमारे इस मुल्क में भी, इस मुल्क के बाहर भी यह दुर्घटना घटी है। जिन-जिन धर्मों ने संन्यास पर जोर दिया, उन-उन धर्मों में योग धीरे-धीरे खो गया। जैसे जैन धर्म। महावीर महायोगी हैं, लेकिन जैन धर्म का अधिकतम जोर त्याग पर रहा, तो आज जैन साधु योग से बिलकुल अपरिचित हैं। जैन साधु को योग से कोई संबंध ही नहीं रहा। योग से, ध्यान से, विधायक अभ्यास से उसके संबंध टूट गए, क्योंकि सोचा कि त्याग काफी है। गलत खाता नहीं, गलत सोता नहीं, गलत बोलता नहीं, कुछ गलत करता नहीं हूं; तो गलत बिलकुल छोड़ दिया तो खयाल में भ्रांति आती है कि सही हो गया। गलत छोड़ देने से सही नहीं हो जाता। गलत छोड़ देने से सही के होने की संभावना भर पैदा होती है। सही को भी जन्माना पड़ता है। सही को विधायक चेष्टा से जन्माना पड़ता है।
या जैसे हिंदू धर्म के साथ घटित हुआ। योग पर बहुत जोर हुआ, तो हिंदू, जिसे हम साधु कहें, वह योग तो साधता है, आसन साधता है, सब-कुछ करता है, लेकिन त्याग उसका बिलकुल क्षीण हो गया। इसलिए अगर हिंदू-साधु को और जैन-मुनि को सामने रखें तो जैन-मुनि के त्याग की प्रखरता अलग दिखाई पड़ेगी--हिंदू-साधु के त्याग में कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा; कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा, लेकिन हिंदू-साधु के पास योग की व्यवस्था दिखाई पड़ेगी और जैन-साधु के पास योग की कोई व्यवस्था नहीं दिखाई पड़ेगी। ये दोनों ही अपंग हैं फिर। अगर ये दोनों साथ नहीं तो अपंग हो जाएंगे।
निषेध और विधेय की सम्यक प्रक्रिया से अनुभव का जन्म होता है। उस परम को पाने के लिए निषेध और विधेय दो पैर हैं। न तो दाएं पैर से चलेगा, न बाएं पैर से चलेगा, दोनों पैर से चलना होता है।
चलना एक बहुत सूक्ष्म क्रिया है--और बहुत मजेदार।
उसे थोड़ा समझ लेना चाहिए।
अगर आपसे पूछा जाए कि आप बाएं पैर से चलते हैं कि दाएं पैर से; तो न तो कोई दाएं पैर से चल सकता है, न कोई बाएं पैर से चल सकता है। और चलने की पूरी प्रक्रिया यह है कि जब मेरा बायां पैर पृथ्वी पर रखा होता है तब मेरा दायां पैर उठ पाता है। सिर्फ बाएं पैर के जमीन पर रखे होने के कारण ही दायां पैर जमीन छोड़ पाता है। और जब दायां पैर जमीन पर रुक जाता है, तब बायां पैर जमीन छोड़ पाता है। एक पैर रुका होता है, एक पैर चला होता है। रुका हुआ पैर चले हुए पैर का आधार है। चला हुआ पैर रुके हुए पैर के लिए आगे का निमंत्रण है। इन दोनों के बीच वह घटना घटती है जिसे हम गति कहते हैं, चलना कहते हैं।
निषेध और विधेय साधक के लिए दो पैर हैं। विधेय का पैर जमीन पर मजबूती से न रखा हो, तो निषेध का पैर हिलता रहे आकाश में, गति नहीं होगी। संन्यास कितना ही हो, योग के बिना गति नहीं होगी। और योग कितना ही हो, संन्यास के बिना गति नहीं होगी। संन्यास और योग के बीच एक सामंजस्य खोज लेना अनुभव बनता है।
‘संन्यास व योगाभ्यास से अंतःकरण को परिशुद्ध करके ब्रह्मलोक में प्रवेश के अधिकारी होते हैं।’
अंतःकरण की परिशुद्धि, अंतःकरण का पूर्ण शुद्ध हो जाना ही ब्रह्मलोक में प्रवेश है। वह जो हमारे भीतर छिपा है, वह जिस दिन अपने पूरे परिशुद्ध रूप में आ जाता है, अपने पूरे स्वभाव में, अपने स्वधर्म में, वही हो जाता है जैसा वह है।
इस आखिरी शब्द को और समझ लें।
अशुद्ध का अर्थ क्या होता है? हम कहते हैं: पानी और दूध को मिला दिया तो दूध अशुद्ध हो गया। यह बहुत मजे की बात है। अगर पानी भी बिलकुल शुद्ध था और दूध भी बिलकुल शुद्ध था, तो दोनों मिल कर अशुद्ध क्यों हो गए? दोहरे शुद्ध हो जाने चाहिए। पानी बिलकुल शुद्ध था, दूध बिलकुल शुद्ध था, दोनों को मिला दिया तो हम कहते हैं: अशुद्ध हो गए। कौन अशुद्ध हुआ? पानी अशुद्ध हुआ कि दूध अशुद्ध हुआ? और क्यों? क्योंकि दोनों शुद्ध थे तो दो शुद्ध मिल कर दो दोहरी शुद्धि हो जानी चाहिए। महाशुद्ध हो जाने चाहिए। लेकिन अशुद्ध हो गए।
तो अशुद्ध का मतलब क्या है? अशुद्ध का मतलब केवल इतना ही है कि जो पानी का स्वभाव नहीं है वह पानी में आ गया और जो दूध का स्वभाव नहीं है वह दूध में आ गया। दूध के शुद्ध होने का इतना ही मतलब है कि दूध में सिर्फ दूध का स्वभाव था, तो वह शुद्ध था। और पानी में सिर्फ पानी का स्वभाव था, तो वह शुद्ध था।
शुद्ध का एक ही अर्थ होता है: विजातीय मौजूद न हो। मेरा जो स्वभाव है, निपट वही रह जाए, उसमें कोई विजातीय मौजूद न हो।
तो अंतःकरण के शुद्ध होने का क्या अर्थ है? अंतःकरण के शुद्ध होने का यह अर्थ नहीं कि एक आदमी चोरी नहीं करता, तो अंतःकरण शुद्ध हो गया; कि एक आदमी बेईमान नहीं है, तो अंतःकरण शुद्ध हो गया; कि एक आदमी पैसा नहीं छूता, तो अंतःकरण शुद्ध हो गया। नहीं, अंतःकरण का शुद्ध होने का अर्थ है: एक आदमी के भीतर अब उसकी स्वयं की अंतरात्मा के अतिरिक्त और कोई चीज प्रवेश नहीं करती। उसके भीतर वह अकेला ही रह गया। अब कोई उसके भीतर जाता नहीं। कोई चोरी नहीं, अचोरी भी नहीं जाती। हिंसा नहीं, अहिंसा भी भीतर नहीं जाती। अज्ञान नहीं, ज्ञान भी भीतर नहीं जाता। अमृत भी भीतर नहीं जाता, जहर तो भीतर जाता ही नहीं। नहीं, कुछ भीतर नहीं जाता। मैं भीतर वही रह गया जो मैं हूं। उससे अन्यथा मेरे भीतर कुछ न रहा तो मैं शुद्ध हो गया। यह शुद्धता ही ब्रह्मज्ञान बन जाती है। इस शुद्धता के लिए अब और कुछ करने की जरूरत नहीं रह जाती।
स्वभाव को उपलब्ध कर लेना की धर्म है। वैसे हो जाना जैसा कि होना मेरी आंतरिक नियति है, धर्म है।
इसलिए कृष्ण ने बहुत जोर देकर स्वधर्म की बात कही है। लेकिन लोग समझते हैं शायद स्वधर्म से भी कोई हिंदू है, तो हिंदू बना रहे; कोई मुसलमान है, तो मुसलमान बना रहे। इन धर्मों से स्वधर्म का कोई लेना-देना नहीं है। स्वधर्म का मतलब ही इतना है कि जो भी भीतर है, जो स्वयं का धर्म है, जो ‘स्व’ का धर्म है, जो स्वभाव है मेरा, मैं उससे विचलित न होऊं, उसी में ठहर जाऊं।
इसलिए कृष्ण ने कहा कि अपने धर्म में नष्ट हो जाना भी ठीक। अपने धर्म में असफल हो जाना उचित, बजाय दूसरे के धर्म में प्रवेश करने के। लेकिन यह दूसरे के धर्म का मतलब ऐसा नहीं कि मंदिर वाला मस्जिद में प्रवेश न करे; कि कुरान वाला गीता में प्रवेश न करे। दूसरे का धर्म का मतलब यह है कि मेरे अतिरिक्त सभी दूसरे हैं।
अगर कृष्ण ठीक से समझा पाएं--जो कि बहुत कठिन है, क्योंकि समझाना सिर्फ समझानेवाले पर निर्भर नहीं है, समझने वाले पर आधा निर्भर है--अगर कृष्ण ठीक से समझा पाएं और अर्जुन ठीक से समझ ले, तो अर्जुन को कृष्ण से सब संबंध विच्छिन्न कर लेने चाहिए, तो वह स्वधर्म को उपलब्ध होगा। कृष्ण को भूल ही जाना चाहिए। अगर अर्जुन ठीक से समझ ले, तो गीता के अंत में उसे कृष्ण को कहना चाहिए कि तुम्हारी मैं बात बिलकुल समझ गया, मेरे सब संशय नष्ट हो गए, अब तुम मुझे क्षमा करो, मैं तुम्हें भूलता हूं। अब तुमसे न पूछूंगा। अब मैं उसकी तलाश में लगता हूं, जो स्वधर्म है।
चीन में हुई हाई एक फकीर हुआ। वह जब अपने गुरु के पास गया, तो उसके गुरु ने गुरु बनने से इनकार कर दिया। हुई हाई ने जितना गुरु ने इनकार किया उतने ही हाथ-पैर जोड़े, उतना ही सिर पटका उसके द्वार पर, लेकिन उसके गुरु ने कहा कि नहीं, गुरु मैं तेरा न बनूंगा, शिष्य चाहे तो तू मेरा बन सकता है। क्योंकि शिष्य बनना तेरे ऊपर निर्भर है, उसको मैं कैसे रोकूं? लेकिन गुरु बनना मुझ पर निर्भर है, मैं वह न बनूंगा। क्योंकि मेरी सारी शिक्षा ही यही है कि स्वधर्म में प्रवेश करना ही एकमात्र उपाय है। तो मैं तेरा गुरु बनूं तो कहीं तुझे स्वधर्म से बाहर न खींच लूं। तू शिष्य बन, वह तेरा काम है, वह तू जान। और जिस दिन तेरा शिष्य भी विलीन हो जाएगा, उस दिन समझना कि तूने मेरी बात पूरी समझ ली।
नहीं राजी हुआ तो हुई हाई शिष्य ही बन कर उसके पास रहा, बिना गुरु के। गुरु तो गुरु बनने को राजी नहीं हुआ। फिर वर्षों बाद--गुरु तो मर चुका है, बहुत समय हो गया--वर्षों बाद हुई हाई एक उत्सव मना रहा है। वह उत्सव चीन में गुरु पूर्णिमा जैसा उत्सव है। वह गुरु की स्मृति में मनाया जाता है। तो लोग हुई हाई से पूछते हैं कि तुम उत्सव मना रहे हो, लेकिन तुम्हारा गुरु कौन था? तुमने कभी बताया नहीं। नाम भी तो बताओ कि तुम किस गुरु की स्मृति में उत्सव मना रहे हो? तो हुई हाई कहता है कि वह एक ऐसा गुरु था, जिसने मुझे सब सिखाया लेकिन मेरा गुरु बनने को राजी नहीं हुआ। और आज मैं कह सकता हूं कि अगर वह मेरा गुरु बन जाता, तो जो वह मुझे सिखाना चाहता था वह मैं नहीं सीख सकता था।
उसने गुरु न बन कर ही मेरे गुरु होने का काम पूरा किया है। इसलिए उसकी याद में यह उत्सव मना रहा हूं। उसने गुरु न बन कर ही गुरु होने का काम पूरा किया है, इसलिए यह उत्सव मना रहा हूं! उसने मुझे स्वयं में प्रतिष्ठित किया है। उसने मुझे स्वयं के बाहर जाने से सब तरफ से रोका। और एक आकर्षण तो मुझमें भारी था कि अगर वह मुझे स्वीकार कर लेता, तो मैं उसके चरणों में पूरी तरह लग जाता। और मेरी सारी धारा बर्हिमुखी हो जाती। उसने उस धागे को भी तोड़ दिया। पत्नी से मैं छूट गया था, पिता से मैं छूट गया था, भाइयों से छूट गया था, मित्रों से छूट गया था, संसार से छूट गया था, एक और मेरे लिए बहिर्गमन का मार्ग बचा था--वह गुरु--उसने उससे भी मुझे छुड़ा दिया। वह मेरे गुरु थे, क्योंकि उन्होंने मुझे मुझमें ही स्थापित कर दिया।
परिशुद्ध होने का अर्थ है: स्वयं की शुद्धता में जरा भी ‘पर’ मौजूद न रह जाए वहां, ‘स्व’ ही शेष रहे; ‘स्व’ ही शेष रहे, एक ही स्वर रह जाए, मेरा ही, तो ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध होते हैं।
अब इस पूरे सूत्र को मैं पढ़ देता हूं। अंत में--
‘अंततः वे योगी ही परम तत्व को प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं, जो वेदांत में निहित विज्ञान का सुनिश्चित अर्थ जान पाते हैं, संन्यास और
योगाभ्यास से अंतःकरण को परिशुद्ध कर लेते हैं और निरंतर ब्रह्म में जाने का प्रयत्न करते रहते हैं।’
आज इतना ही।
अब हम ध्यान की तैयारी करें।
दिस मच फॉर टुडेज मॉर्निंग टॉक। नाव वी विल गो फॉर मेडिटेशन। यू हैव टु डू इट सो टोटली दैट नथिंग इ़ज लेफ्ट बिहाइंड। नो एनर्जी अनटच्ड, एवरी एनर्जी मस्ट बी ब्राट टु इट टोटली।
दूर-दूर फैल जाएं। आंख पर पट्टियां बांध लेनी हैं। कोई भी व्यक्ति आंखें खोले हुए प्रयोग न करे। अगर आपके पास पट्टी न हो, तो भी आंख बंद रखनी है, एक।
दूसरा, अपनी जगह को छोड़ कर न भागें। अपनी जगह को छोड़ कर न भागें, अपनी जगह पर नाचें, कूदें, आनंदित हों--जो भी करना है।
तीसरी बात, आपको जो भी करना है आपको करना है, दूसरे के शरीर को जरा स्पर्श न करें। न दूसरे के शरीर को धक्का दें। अपनी जगह खुद ही अपना प्रयोग करें।
तैयार हो जाएं। थोड़े दूर-दूर फैल जाएं। भीड़ ज्यादा न करें एक जगह, अन्यथा फिर धक्के-मुक्के लगते हैं। थोड़े दूर-दूर फैल जाएं।
क्रिएट ए स्पेस अराउंड यू... फील दैट यू कैन मूव ई़िजली... इफ समवन फील्स लाइक गोइंग नेकेड, वन कैन गो। किसी को भी नग्न होना हो, वस्त्र अलग कर देने हों, अलग कर सकते हैं। आपको लगे कि वस्त्र अलग करने से आप ज्यादा स्वतंत्रता से अपनी अभिव्यक्ति कर सकते हैं, वस्त्र अलग कर सकते हैं। जो मित्र देखने आ गए हों, वे कृपा करके चुपचाप खड़े रहेंगे, या चुपचाप बैठ जाएंगे। बीच में बातचीत नहीं करेंगे।
ठीक, आंख पर पट्टियां बांध लें। नाव क्लोज योर आइज... क्लोज योर आइज एंड स्टार्ट दि फर्स्ट स्टेप... डीप, फास्ट ब्रीदिंग... हैमरिंग बाई ब्रीदिंग। जोर से श्र्वास... श्र्वास ही श्र्वास रह जाए... जोर से... जोर से... जोर से... पूरी शक्ति श्वास पर लगा देनी है।
सात मिनट...। जोर से... जोर से... तीन मिनट और बचे हैं... पूरी ताकत लगाएं। थ्री मिनटस मोर टु फर्स्ट स्टेप... ब्रिंग योर टोटल एनर्जी टु इट... जस्ट ब्रीदिंग... फास्ट ब्रीदिंग... ब्रीदिंग... ब्रीदिंग... यूज ब्रीदिंग एज ए हैमरिंग इनसाइड... फास्ट... फास्ट...
दो मिनट... जोर से... एक मिनट के लिए पूरी ताकत लगाएं--फार वन मिनट जस्ट गो मैड एंड ब्रीदिंग... ब्रीदिंग... जोर से... फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करें...
नाव इंटर दि सेकेंड स्टेप... दूसरे चरण में प्रवेश करें...
नौ मिनट... एक मिनट और... पूरे ताकत से, पागल हो जाएं... वन मिनट... गो मैड कंप्लीटली...
तीसरे चरण में प्रवेश करें... नाचें... हू... हू... हू... हू... हू... हू... हू... हू... हू...
पांच मिनट...। जोर से... जोर से... हू-हू... हू-हू... हू-हू... जोर से... जोर से...। चार मिनट और हैं... पूरी ताकत लगाएं... चोट करें... चोट करें... हू-हू... तीन मिनट...
एक मिनट और... बिलकुल पागल हो जाएं... हू-हू...जस्ट गो मैड... जोर से... जोर से... जोर से पूरी ताकत लगा दें... जोर से... हू-हू... हू-हू-हू...
बस, अब चौथे चरण में प्रवेश करें... शांत हो जाएं... चौथे चरण में प्रवेश करें... शांत चरण में प्रवेश करें... शांत हो जाएं... चौथे चरण में प्रवेश करें... शांत हो जाएं... शांत हो जाएं... बैठ जाएं... लेट जाएं... मुर्दे की भांति पड़ जाएं... शांत हो जाएं... सब गति बंद कर दें... छोड़ दें... शांत हो जाएं... सब मिट गया... शांत... कोई आवाज नहीं, कोई गति नहीं... शक्ति का कोई उपयोग न करें... शक्ति का कोई भी उपयोग न करें... शांत हो जाएं... शक्ति जाग गई, उसे भीतर काम करने दें, उसका उपयोग न करें... शरीर में बिलकुल उसका उपयोग न करें...
अपने दाएं हाथ को माथे पर रख कर आहिस्ता से रगड़ लें... तीसरे नेत्र की जगह, दोनों भवों के बीच में, आहिस्ता से... धीरे-धीरे रगड़ें... और भीतर उस केंद्र पर बहुत कुछ होगा... अचानक जैसे कोई द्वार खुल जाए और प्रकाश ही प्रकाश फैल जाए... नहीं आवाज नहीं... कुछ नहीं... भीतर काम करने दें... सिर्फ रगड़ें... प्रकाश ही प्रकाश...
बस रगड़ना बंद कर दें... चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है... इसके साथ एक हो जाएं... प्रकाश ही प्रकाश... प्रकाश के सागर में डूब जाएं... डूब जाएं... खो दें अपने को, विसर्जित कर दें... प्रकाश... प्रकाश... और प्रकाश की सघनता ही आनंद का प्रारंभ हो जाती है... प्रकाश के साथ एक होते ही आनंद के झरने फूटने शुरू हो जाते हैं... रोआं-रोआं, हृदय की धड़कन, श्र्वास-श्र्वास आनंद से भर जाएं... अनुभव करें आनंद को, अनुभव करें... चारों ओर आनंद है... बाहर-भीतर आनंद है... आनंद में डूब गए... चारों ओर आनंद है... बाहर भीतर आनंद है... आनंद में डूब गए... एक हो गए...
दो मिनट...। आनंद... आनंद... आनंद... रोआं-रोआं आनंद से भर गया है... आनंद... आनंद... आनंद... आनंद की सघनता ही परमात्मा की उपस्थिति बन जाती है... आनंद में गहरे जाने से ही प्रभु का अनुभव शुरू हो जाता है... वह मौजूद है चारों ओर, अभी और यहीं... अनुभव करें... आनंद के साथ एक हो जाएं और उसकी उपस्थिति शुरू हो जाए... अनुभव करें परमात्मा मौजूद है... चारों ओर, अभी और यहीं... अनुभव करें परमात्मा मौजूद है... चारों ओर वही है... बाहर-भीतर वही है... अनुभव करें प्रभु मौजूद है, चारों ओर वही घेरे हुए है... उसके ही सागर में डूब गए हैं और एक हो गए हैं...
अब पुनः अपनी दाएं हाथ की हथेली को माथे पर रख कर आहिस्ता से रगड़ें... अचानक भीतर एक क्रांति घटित हो जाती, ऊर्जा ऊपर के लोक में प्रवेश करती है... अब दोनों हाथ आकाश की ओर उठा लें और आंख खोल कर आकाश में झांकें... आकाश में देखें, दोनों हाथ फैला लें... आकाश के आलिंगन के लिए... और आकाश को देखने दें भीतर, और हृदय में जो भी भाव हो, दो मिनट के लिए उसे प्रकट कर सकते हैं... संकोच न करें... छोड़ दें... जो भी भाव प्रकट हो उसे छोड़ दें... दो मिनट...
अब दोनों हाथ जोड़ लें और परमात्मा के चरणों में सिर रख लें--और एक ही भाव हृदय में रह जाए: प्रभु की अनुकंपा अपार है, प्रभु की अनुकंपा अपार है, प्रभु की अनुकंपा अपार है।
अब वापस लौट आएं ध्यान से... वापस लौट आएं...
सुबह का ध्यान पूरा हुआ।