KABIR
Kahe Kabir Main Pura Paya 20
Twentieth Discourse from the series of 20 discourses - Kahe Kabir Main Pura Paya by Osho.
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पहला प्रश्न:
संत परमात्मा की खोज में परिवार और समाज को छोड़ कर जंगल में क्यों चले जाते हैं? कृपया समझाएं।
और जाएं भी तो कहां जाएं? और कोई स्थान भी नहीं है।
समाज और परिवार ने ही तुम्हें विकृत किया है; उससे ही मुक्त होना होगा। चाहे कोई वस्तुतः समाज को छोड़ कर चला जाए तो; या चाहे कोई मानसिक रूप से समाज को छोड़ दे तो, लेकिन समाज से मुक्त तो होना ही पड़ेगा। इसमें भेद हो सकता है।
चरणदास छोड़ कर चले गए संसार; और कबीरदास संसार में रहे; इससे यह मत समझना कि कबीरदास ने संसार नहीं छोड़ा। कबीरदास ने भी संसार छोड़ा; लेकिन संसार में रहते हुए छोड़ा।
संसार तो छोड़ना ही होगा। संसार की सीमा से तो मुक्त होना ही होगा। जो भीतर से मुक्त हो सके--हो जाए। उससे शुभ और कुछ भी नहीं। लेकिन जो पाए: अकेले भीतर से मुक्त होना असंभव है; बाहर से भी मुक्त होना पड़ेगा; अगर वैसा जरूरी मालूम पड़े, तो वह भी करना जरूरी है। लेकिन मुक्त तो होना ही होगा।
तुम्हारे मन पर ये अंधकार की जो पर्तें हैं, समाज ने रखी हैं। तुम जब पैदा हुए थे, तो यह अंधेरा लेकर न आए थे। तुम जब पैदा हुए थे, तो परमात्मा के साथ तुम्हारा रास चल रहा था। ये जो दीवालें उठाई हैं--समाज ने उठाई हैं, परिवार ने उठाई हैं, संस्कार ने उठाई हैं।
तुम जब आए थे, तो हिंदू की तरह नहीं आए थे। मुसलमान की तरह नहीं आए थे। जैन की तरह नहीं आए थे। तुम जब आए थे, तो कोई विचार लेकर नहीं आए थे; तुम जब आए थे, तो तुम्हारी कोई धारणा नहीं थी। तुम्हें यह भी पता नहीं था कि परमात्मा है या नहीं है। तुम न आस्तिक थे, न नास्तिक थे। तुम जब आए थे, कोरे कागज थे। फिर से कोरा कागज होना है। बिना कोरा कागज हुए तुम परमात्मा को न पा सकोगे। कोरा हो जाना ही परमात्मा को पाने का उपाय है। इसलिए तो कबीर शून्य की इतनी बात करते हैं: ‘गिरह हमारा सुन्न में।’
शून्य में घर बनाना है। उस शून्य को समाज, राज्य, राजनेता, धर्मगुरु, पंडित, पुरोहित, शिक्षा, इन सबने खूब भर दिया है। तुम्हारा कोरा हृदय बहुत गुद गया है। इस सबको धोकर साफ कर लेना है। इससे तुम मुक्त होओगे, तो ही जान पाओगे कि तुम कौन हो। नहीं तो तुम्हारी अपने से पहचान ही न होगी। ये हजार स्वर तुम्हारे भीतर बोलते रहेंगे कि तुम यह हो, कि तुम यह हो, कि तुम यह हो--और तुम्हारा मूल स्वर इस आवाज, शोरगुल में पड़ा ही रह जाएगा, उसका पता ही न चलेगा।
तो तुम पूछते हो कि ‘संत परमात्मा की खोज में परिवार, समाज छोड़ कर जंगल क्यों चले जाते हैं?’
और कहां जाएं?
दो ही उपाय हैं: या तो यहीं रहें, तो भी छोड़ना तो पड़ेगा ही। फिर जल में कमलवत होना पड़ेगा।
रहो समाज में, लेकिन इसे ज्यादा गंभीरता से मत लो; खेल समझो। जैसे आदमी शतरंज खेलता है, तो लकड़ी के खिलौनों को राजा-वजीर मान लेता है। जब खेलता है, तो राजा-वजीर मान कर ही खेलता है। ऐसे ही खेलो; खिलाड़ी बनो। तब कहीं जाने की जरूरत नहीं। क्योंकि तुमने यहीं से मुक्त होने का रास्ता खोज लिया।
समाज में रहो, लेकिन अपने भीतर जीओ। जब मौका मिले, जल्दी से भीतर सरक जाओ। असली जंगल वहीं है। बाहर का जंगल थोड़ा सा सहयोग दे सकता है भीतर के असली जंगल को खोज लेने में।
जंगल का क्या अर्थ होता है?--प्राकृतिक, स्वाभाविक, परमात्मा का बनाया हुआ; जैसा है वैसा। आदमी के हाथों का कोई निशान नहीं।
तो बाहर का जंगल और भीतर का जंगल--कहीं भी जाओ, लेकिन जंगल तो जाना ही पड़ेगा। और तुम मुझसे पूछते हो, तो मैं कहूंगा, भीतर के जंगल में ही जाना। क्योंकि अक्सर ऐसा भी हो गया कि बाहर के जंगल में लोग जाकर बैठ गए और भीतर के जंगल में नहीं जा पाए। बाहर से जंगल में चले गए और वहां समाज की ही याद आती रही--परिवार की, प्रियजनों की, पत्नी की, पति की, बच्चों की, दुकान की--वही याद आती रही। तो तुम गए भी और कहीं न गए।
जैसे संसार में रह कर भी लोग मुक्त हो सकते हैं, ऐसे ही जंगल में रह कर भी अमुक्त रह सकते हैं। जैसे संसार की भीड़ में खड़े होकर भी कोई चाहे तो अकेला हो सकता है; ऐसे ही जंगल के अकेलेपन में भी कोई चाहे तो संसार की पूरी भीड़ में घिरा रह सकता है। क्योंकि भीड़ मानसिक है।
मगर अगर तुम्हें लगे कि बाहर का जंगल भी सहयोग देगा भीतर के जंगल में, तो कुछ हर्ज नहीं है। परमात्मा को खोजना ही है।
पर ध्यान रखना: जिन्होंने जंगल में खोजा, वे भी एक दिन वापस लौट आते हैं। जंगल में ही अटके नहीं रह जाते। शायद प्रशिक्षण के लिए ठीक था। महावीर जंगल गए, बुद्ध जंगल गए, लेकिन लौट तो आए समाज में। जो पाया था, उसे बांटने तो यहीं आ गए। तो चाहे यहां रह कर पाओ और चाहे कहीं रह कर पाओ, लुटाना तो यहीं होगा।
जैन शास्त्र बहुत चर्चा करते हैं महावीर के जंगल जाने की। लेकिन इस बात की बिलकुल चर्चा नहीं करते कि फिर महावीर लौट क्यों आए? अगर जंगल में ही सब था, तो वहीं रह जाते!
नहीं, वह तो प्रयोगमात्र था। वह तो समाज से छूटने के लिए एक व्यवस्था, विधिमात्र थी। दूर हट गए, ताकि सब तरह अपने में रम जाएं। जब रम गए, जब कोई भय न रहा; जब यह पक्का हो गया कि अब दुनिया की कोई चीज डांवाडोल नहीं करेगी; धन सामने पड़ा रहेगा, तो भी लोभ मेरे भीतर नहीं उठेगा। कोई गाली भी देगा, तो मेरे भीतर अपमान नहीं जगेगा। और सुंदर से सुंदर व्यक्ति निकलेगा, तो मेरे भीतर वासना की तरंग न उठेगी। जब यह पक्का हो गया, तो अब क्या डर! लौट आए।
तुम अपने में सोच लेना। अगर यहीं रह कर कर सको, इससे बेहतर कुछ भी नहीं। क्यों व्यर्थ आना-जाना कहीं? न कर सको, तो नंबर दो की बात है। तो चाहे कुछ दिन के लिए हट जाना पड़े एकांत में, हट जाना। मगर ध्यान रखना कि वह कुछ दिन का ही हो हटना। वह तुम्हारी आदत न बन जाए। ऐसा न हो कि अभी तुम संसार पर निर्भर हो, कल जंगल पर निर्भर हो जाओ! क्योंकि जहां आदत है, वहीं बंधन है। जहां बंधन है, वहीं संसार है।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि बुरी आदतों में भी लोग बंद होते हैं! अच्छी आदतों में भी बंद हो जाते हैं! कोई आदमी सिगरेट पीता है, हम कहते हैं, बुरी आदत है। और कोई आदमी सिगरेट की तरह ही माला जपता है, न जपे तो तलब लगती है। जपता है माला, तो कुछ खास रस नहीं आता। सिगरेट पीने वाले को भी कुछ खास रस नहीं आता, नहीं जपता तो बेचैनी होती है। सिगरेट पीने वाले को भी, न पीए तो बेचैनी होती है।
हालांकि माला और सिगरेट बड़ी अलग-अलग बातें हैं। माला बहुत निर्दोष है, कोई नुकसान तुम्हें नहीं पहुंचाएगी। कितनी ही जपो, न तो क्षयरोग होगा, न कैंसर होगा। कोई माला इस तरह के उपद्रव नहीं कर सकती। लेकिन जहां तक गहरी बात का संबंध है, दोनों आदतें हो गईं। आदतें हो गईं, तो दोनों बंधन हो गईं।
जिसे मुक्त होना है, उसे किसी आदत का बंधन नहीं होना चाहिए। ऐसा न हो कि तुम संसार से तो भागो, फिर जंगल में जकड़ जाओ। फिर वहां से लौट न सको। फिर वादियों से, पहाड़ों से, वृक्षों से, पशु-पक्षियों से प्रेम लग जाए, तो वहीं परिवार बस गया।
परिवार के लिए आदमी ही होना जरूरी थोड़े ही है। एक कुत्ते से प्रेम बन सकता है और तब वही परिवार हो गया। यह भी हो सकता है कि जंगल के सन्नाटे से मोह लग जाए; तो जहां मोह है, वहां संसार है।
संसार से मुक्त होने का अर्थ क्या होता है? संसार से मुक्त होने का अर्थ होता है: मन से मुक्त होना। मन यानी मोह, लोभ, काम, क्रोध, इन सबका जोड़।
तुम जंगल में बैठे हो; सब सन्नाटा है; बड़े प्रसन्न हो। क्या यह प्रसन्नता बाजार में भी कायम रह सकेगी? रह सके, तो ही तुमने पाई। अगर बाजार जाकर खो जाए, तो पाई ही नहीं। यह पाना कुछ पाना हुआ? यह तो जंगल पर निर्भरता हुई। यह शांति और सन्नाटा जंगल का था, तुमने नाहक अपना समझ लिया। तुम्हारा जो है, तुम्हारे साथ रहेगा--जहां तुम रहो।
इसलिए पहली बात तो मैं सुझाऊंगा: कहीं जाना मत। क्योंकि यह सिर्फ आदत का बदलना हो जाएगा। यहीं पहले प्रयोग कर लो। और यहीं हो सकता है।
पत्नी नहीं छोड़नी है, पत्नी के प्रति पत्नी-भाव छोड़ना है। मेरी-तेरी का भाव छोड़ देना है। कौन किसका? चार दिन का संग-साथ है। अजनबी हैं हम सब यहां। राह पर मिल गए यात्री। साथ-साथ चल लिए थोड़ी देर। मगर इससे मोह मत बसा लेना। इससे ऐसा मत समझ लेना कि इस पत्नी के बिना जी न सकोगे; कि यह पत्नी तुम्हारे बिना न जी सकेगी। इस पत्नी पर कब्जा मत कर लेना। और न ही इस पत्नी को अपने पर कब्जा कर लेने देना। गुलाम मत बनना एक-दूसरे के। स्वतंत्र रहना। अपनी स्वतंत्रता को कायम रखना। और दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करना। तो पत्नी विदा हो गई। फिर तुम रहो पत्नी के साथ, फिर कोई बाधा नहीं है।
दुकान पर बैठो। इस दुकान को भी परमात्मा का दिया हुआ आदेश समझो। उसने तुम्हें भेजा; यही उसकी मर्जी होगी। यही करवाए, तो यही करेंगे। मगर करेंगे--मालिक न बनेंगे। मालिक वही है। जिस दिन हटा लेगा दुकान से, उस दिन हट जाएंगे। जिस दिन दिवाला निकाल देगा दुकान का, उस दिन खड़े होकर हंसेंगे कि दिवाला निकल गया!
इपिटेक्टस यूनान में एक बड़ा संत हुआ। वह गुलाम था--एक सम्राट का गुलाम था। उन दिनों गुलाम होते थे। सम्राट को पता लगा कि यह तो बड़ा पहुंचा हुआ फकीर है और यह कहता है कि मैं शरीर नहीं हूं। सम्राट ने कहा: परीक्षा करनी जरूरी है। उसे बुलाया। दो पहलवान लगा कर उसका पैर मरोड़ने को कहा।
जब उन्होंने पैर मरोड़ा, तो वह फकीर बोला कि देखो, मरोड़ तो रहे हो, लेकिन टूट जाएगा। जैसे कि अपने से कुछ लेना-देना नहीं। जैसे कि कोई और किसी चीज को मरोड़ता हो, और कोई कह दे कि भाई, टूट जाएगी। ज्यादा न मरोड़ो। ऐसे ही उसने कहा कि मरोड़ तो रहे हो, मजे से मरोड़ो; मगर कहे देता हूं, पीछे पछताओगे; टूट जाएगी। यह टांग टूट जाएगी इतना मरोड़ोगे तो।
लेकिन सम्राट ने कहा: मरोड़े जाओ। जब बिलकुल टांग टूटने के करीब आ गई, चटकने लगी; उसने कहा कि देखो, अभी भी समझ जाओ। अब जरा और आगे गए कि गई।
मगर अभी भी वह यह नहीं कह रहा है कि मेरी टांग मत तोड़ो! चिल्ला नहीं रहा है कि मुझे लंगड़ा कर दोगे! जब वे बिलकुल तोड़ने लगे, तो उसने सम्राट से कहा: सावधान, तुम्हारा गुलाम लंगड़ा हो जाएगा। तुम समझो। मेरा कुछ बिगड़ता नहीं है; नुकसान तुम्हारा है। फिर मुझसे मत कहना।
लेकिन सम्राट तो पूरी परीक्षा लेने को ही था। उसने टांग तुड़वा दी। जब टांग टूट गई, तो फकीर हंसने लगा। उसने कहा: हमने पहले ही कहा था। अब भोगो। मगर एक क्षण को भी तादात्म्य पैदा नहीं हुआ। यह नहीं कहा: मेरी टांग! बस, यही संसार में रहते हुए मुक्त होने का सूत्र है।
भूख है, तो उसकी। शरीर है, तो उसका। सब उसका। ऐसे अर्पण की भाव-दशा में जीओ, तो कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं।
यह भी बड़ा घना जंगल है। ये लोग भी चारों तरफ, वृक्षों ही जैसे हैं। यह भीड़-भाड़ भी, यह बाजार भी--यह भी बड़ा घना जंगल है। और जंगल क्या चाहिए! मगर अगर पाओ कि यह संभव नहीं है, इतने तुम समर्थ नहीं हो, इतने तुम बलशाली नहीं हो; समझो--पाओ कि कमजोर हो: यह तुमसे न हो सकेगा; इतनी उलझन में जागना तुमसे न हो सकेगा; तुम्हें थोड़ी निश्र्चिंतता चाहिए, तो हट जाओ जंगल कुछ दिन के लिए। कुछ हर्जा नहीं है।
समझदार आदमी को वर्ष में महीने, दो महीने के लिए, पंद्रह दिन के लिए, जितनी सुविधा हो, हट ही जाना चाहिए। दो-चार साल में मौका बना कर चार-छह महीने की छुट्टी लेकर जंगल हट ही जाना चाहिए। मगर जंगल की आदत मत बना लेना। जंगल पहुंच कर फिर यह मत कहना कि अब मैं वापस नहीं आ सकता। क्योंकि यहां बड़ी शांति है और वहां बड़ी अशांति है।
शांति न तो यहां होती है, न वहां होती है। शांति भीतर होती है। जंगल के गुलाम मत बन जाना। फिर मजे से जाओ।
तुम पूछते हो : ‘संत क्यों हट जाते हैं?’
और क्या करें?
समाज ने विकृत किया है; समाज की छाया से थोड़ा दूर हट जाना उपयोगी हो सकता है।
मैं इसको कोई और ज्यादा मूल्य नहीं दे रहा हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुमने कोई बहुत बड़ा चमत्कार कर दिया--कि तुम जंगल चले गए। अगर तुमने मेरी बात ठीक समझी, तो मैं यही कह रहा हूं कि तुम नंबर एक के बुद्धिमान आदमी नहीं हो; नंबर दो के हो--दोयम। नंबर एक तो मैं जनक को कहता हूं, जो सिंहासन पर बैठे-बैठे सिंहासन से मुक्त हो गया। बुद्ध को नंबर दो कहता हूं; सिंहासन से हटना पड़ा पहले। भौतिक रूप से हटना पड़ा, तब बोध का जन्म हुआ। जनक को वहीं हो गया। बात वहीं समझ में आ गई। कहां जाना; कहां आना? जहां थे, वहीं रहते-रहते दीया जला लिया।
लेकिन मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि जबर्दस्ती नंबर एक होने की कोशिश करना। नहीं हो सके, तो कोई अड़चन नहीं है। मुक्ति तो चाहिए ही; परमात्मा को तो पाना ही है। कैसे भी हो।
इसलिए जंगल जाने वाले का मेरे मन में कोई बहुत समादर नहीं है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मैं यह कहता हूं कि तुम संसार में ही रहना। चाहे परमात्मा से भी चूकना पड़े, मगर जंगल मत जाना; यह मेरा मतलब नहीं है। कोई उपाय न हो, तो करना।
जंगल जाना ऐसे है, जैसे सर्जरी। पहले डॉक्टर दवा देता है। दवा से ठीक हो जाए, तो ठीक। नहीं दवा से ठीक हो, तो फिर हाथ-पैर काटने पड़ते हैं। ऐसे ही अगर यहीं ठीक हो जाए, तो सबसे बेहतर। यहां ठीक न हो, तो फिर सर्जरी; तो फिर जंगल चले जाना।
दूसरा प्रश्न:
आपके आश्रम में यदि कोई एक ही साधना-पद्धति हो, तो क्या साधकों को ज्यादा सुविधा नहीं होगी?
एक तरह के साधकों को होगी, जिनको वह पद्धति अनुकूल पड़ेगी। लेकिन वह तो छोटा सा अल्प मत होगा। यह द्वार सबके लिए है। यहां भिन्न-भिन्न वृत्ति, भिन्न-भिन्न ढंग, भिन्न-भिन्न रंग के लोगों के लिए मार्ग है।
यही तो अड़चन अतीत में हो गई। इसी सुविधा के कारण तो दुनिया में इतने धर्म पैदा हो गए--इसी सुविधा के खयाल से।
तो जो भक्ति की विधि से चलेगा, वहां ज्ञान की चर्चा न होगी। जो ज्ञान की विधि से चलेगा, वहां भक्ति की चर्चा न होगी। चर्चा तो दूर, जो ज्ञान की विधि से चलेगा, वह भक्ति का खंडन करेगा। क्योंकि ज्ञान की विधि को पूरी तरह हृदय में बिठाने के लिए वह खंडन जरूरी हो जाएगा। और जो भक्ति का समर्थक है, वह ज्ञान का खंडन करेगा।
तो सारे शास्त्र खंडनों से भर गए। और प्रत्येक पद्धति थोड़े से लोगों के काम की है। इसलिए कोई धर्म सार्वलौकिक नहीं हो पाया। कोई धर्म सार्वभौम नहीं हो पाया। सबको जगह ही न बची उसमें।
अब जैसे जैन धर्म है। वह पुरुषार्थ का धर्म है; तो जिन लोगों को बहुत पुरुषार्थ में रस है, जिनके होने का ढंग पुरुष का ढंग है--आक्रमक--उनके लिए तो जमा। संकल्प का मार्ग है। लेकिन जिनका ढंग स्त्रैण है, जिनका ढंग समर्पण का है, जिनका रास्ता प्रेम का है, जिनके हृदय में बड़े भाव उद्भूत होते हैं, उनके लिए नहीं जमा।
तो जो भक्त जैन घर में पैदा हो जाए--अभागा। क्योंकि उसे वहां मार्ग नहीं मिलेगा। और दूसरी तरफ जाने की सुविधा भी नहीं मिलेगी। क्योंकि बचपन से सुनेगा: भक्ति गलत है। बचपन से सुनेगा कि भक्त की तो बात ही छोड़ो; भक्तों के जो भगवान हैं कृष्ण, वे भी नरक में पड़े हैं! जैनों ने उन्हें नरक में डाल रखा है। क्योंकि जैनों के हिसाब से यह तो बड़े राग की बात हो गई: मोरमुकुट बांधे, पितांबर पहने, बांसुरी हाथ में लिए, गहनों से सजे! यह कोई वीतराग का ढंग है? महावीर नग्न खड़े हैं। यह है ढंग मोक्ष जाने का।
कृष्ण और महावीर को सामने खड़ा करो, तो किसी के मन में महावीर के प्रति सदभाव उत्पन्न होगा कि यह है त्याग। सब छोड़ा। नग्न हुए। सब छोड़ा--घर-द्वार, धन-संपत्ति। यह है त्याग।
मगर किसी के मन में कृष्ण की मनमोहिनी सूरत बस जाएगी। कोई मस्त होने लगेगा, वे प्यारी आंखें देख कर। कोई डोलने लगेगा, वह बांसुरी का धुन सुन कर। वह कृष्ण के पैरों में बंधे घुंघरू किसी के हृदय में बजने लगेंगे। कोई ऐसे मस्त हो जाएगा, जैसे बिना पीए शराब पी गया हो। महावीर उसे रूखे-सूखे लगेंगे। वह यह सोचेगा: अगर महावीर जैसे लोग मोक्ष जाते हैं, तो मुझे मोक्ष जाना ही नहीं। ऐसे सज्जन वहां खड़े होंगे जगह-जगह--नंग-धड़ंग; ऐसा मोक्ष, मुझे जाना ही नहीं। ऐसा सूखा-साखा मोक्ष क्या करेंगे?--खाएंगे, पीएंगे, ओढ़ेंगे--क्या करेंगे ऐसे मोक्ष को? आप ही लोग सम्हालो।
जहां कृष्ण हों, वहीं जाएंगे। भक्त तो कहेगा: अगर नरक में पड़े हैं, तो नरक ही जाएंगे। क्योंकि यह संगीत की वर्षा, यह समारोह, यह आनंद का झरना, यह गीत; कृष्ण के साथ नरक भी किसी को प्यारा लगेगा। और किसी को महावीर के साथ स्वर्ग में बैठ कर भी ऐसा लगेगा कि कहां फंस गए। अब कैसे इन सज्जन से मुक्ति पाएं! छुटकारा अब मोक्ष से कैसे हो?
तुम जरा सोचना। और दोनों में कोई भी गलत नहीं है। अपनी-अपनी वृत्ति, अपने-अपने रुझान, अपने-अपने व्यक्तित्व की बात है।
जो बुद्धि से सोचेगा, उसे महावीर जमेंगे। जो हृदय से सोचेगा, उसे कृष्ण जमेंगे। मगर हृदय भी है और बुद्धि भी है। और किन्हीं में हृदय प्रबल है और किन्हीं में बुद्धि प्रबल है।
तुम्हारी बात मैं समझा। तुम्हारा प्रश्न समझा। तुम पूछ रहे हो कि जब आप अष्टवक्र पर बोलते हैं, तो फिर अष्टावक्र पर ही रुकें।
परसों ही किसी ने मुझसे कहा कि हम तो समझे थे कि महागीता में सब मिल गया। अब, जब हम संतों की बात सुनते हैं, तो हमें बड़ी बेचैनी होती है। अब हम क्या करें? हम तो समझे थे, अष्टावक्र की बात आपने कह दी--सब मिल गया। तो अपना साक्षीभाव सम्हालेंगे।
यह तो भक्त की बात तो साक्षी की है ही नहीं। भक्त तो कहता है: लीनभाव, तल्लीन-भाव। साक्षी--बात ही गलत है। साक्षी का मतलब: दूर खड़े होकर देखो। भक्त कहता है: डुबकी लगाओ। कहां दूर खड़े होकर देखोगे? भगवान को दूर खड़े होकर देखोगे? इससे ज्यादा और कुफ्र क्या होगा? भगवान में तो डूब जाओ; बचो ही मत, लीन हो जाओ।
तो तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। तुम्हारे प्रश्न का प्रसंग भी मैं समझता हूं। तुम्हें अड़चन होती है।
कभी मैं भक्त पर बोलता; कभी ज्ञानी पर बोलता। कभी ध्यानियों पर बात करता; कभी प्रेमियों की बात करता। फिर उनमें भी बहुत-बहुत रूप हैं। ध्यान के भी अनेक ढंग हैं। ऐसे ही भक्ति के भी अनेक ढंग हैं। मैं सारे ढंगों की बात करता।
तुम कहते हो: इस बगीचे में अगर एक ही तरह के वृक्ष होते तो ज्यादा सुविधा होती। मैं तुमसे कहता हूं: इस बगीचे में सब तरह के वृक्ष हैं। तुम्हें जो वृक्ष रुचे, उसके नीचे बैठ जाओ। लेकिन दूसरों के लिए भी यहां वृक्ष हैं। तुम्हें जो सुगंध रुचे, उसमें रम जाओ। किसी को बेले की सुगंध जंचती है, किसी को रजनीगंधा की। तुम जिससे मस्त हो जाओ। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें फूलों में उतना रस नहीं है, जितना पत्तों की हरियाली में है। तो यहां ऐसे पौधे भी हैं। जिनमें पत्तों का ही वैभव है; उनमें रम जाओ।
कुछ को छोटी-छोटी झाड़ियों में रस होता है। किन्हीं को उन वृक्षों में रस होता है, जो आकाश में बादलों से गुफ्तगू करते हैं, चांद-तारों से हाथ मिलाते हैं। तो जिनकी जैसी मौज; जिनको जैसा खोजना हो।
यहां सबके लिए द्वार है। इस मंदिर में उतने द्वार हैं, जितने तरह के लोग हैं। यह पहली दफा सार्वभौम मंदिर है।
तुम्हारी अड़चन तुम्हारे कारण पैदा हो रही है। तुम्हें जो रुच जाए, उसमें डुबकी लो। मगर तुम्हारी अड़चन मेरे कारण नहीं है। तुम्हारी अड़चन यह कि तुम लोभ में पड़ जाते हो। तुम देखते हो कि अष्टावक्र में मजा आ रहा है। फिर सोचते हो कि अब ये कबीर भी आ गए, अब थोड़ा रस इनका भी ले लें। थोड़ा इनका भी करके देखें। तुम लोभ में पड़ जाते हो।
अगर तुम्हें अष्टावक्र में रस आ रहा है, तो भूलो कबीर को। कबीर से क्या लेना-देना! बकने दो इस जुलाहे को, जो बके। तुम इसमें पड़ो मत। और मैं कुछ भी कहूं...। क्योंकि मैं सिर्फ तुमसे नहीं बोल रहा हूं, औरों से भी बोल रहा हूं--जिनके लिए यह जुलाहा ही द्वार बनने वाला है। कुछ हैं, जिनके हृदय कबीर से ही उमंग से भरेंगे। कुछ हैं, जिनके हृदय में कबीर का ही तानपूरा बजेगा। उनको अष्टावक्र नहीं जंचेगा। बहुत फीका मालूम पड़ेगा। कहां कबीर की तरंग, कहां कबीर की तरन्नुम, कहां कबीर का तेवर, कहां कबीर की क्रांति!
अष्टावक्र की बातें ऐसी लगेंगी: पोली-पोली; ठीक; दार्शनिक; लफ्फाजी मालूम पड़ेंगी। कबीर का सोंटा जब सिर पर पड़ेगा, तो पता चलेगा कि यह रहा कोई आदमी! किसी को जमेगा कबीर।
जिसको कबीर जम जाए, वह छोड़े फिकर अष्टावक्र की।
और ध्यान रखना: मैं जब किसी पर बोलता हूं, तो मैं भूल जाता बाकी को। फिर मेरा सारा ध्यान, सारे प्राण उसी से संलग्न हो जाते हैं।
जब कबीर पर बोल रहा हूं तो कबीर ही मेरे लिए सब-कुछ हैं। उस बीच अगर तुमने किसी और का नाम लिया: बुद्ध का, महावीर का, कृष्ण का, क्राइस्ट का, तो मैं उनको एकदम धक्के देकर बाहर निकाल देता हूं। उस समय फिर मेरे मन में कबीर के अतिरिक्त कोई भी नहीं है।
हां, जब बुद्ध पर बोलूंगा, तो कबीर को कहीं कोई जगह न मिलेगी। वे कितना ही दरवाजा खटखटाएं, दरवाजा उनके लिए नहीं खुलेगा। वे कहेंगे कि पहले हमें इतना प्यार से बुलाया था; अब हम आना चाहते हैं खुद। तो भी उनको कहा जाएगा--कि रुको; अपना समय आने दो।
तुम्हारी अड़चन मैं समझा। यह द्वार सबके लिए है। तुम लोभ में न पड़ोगे, तो कोई कठिनाई न होगी। तुम सब प्रक्रियाएं करके भी देख लो एक दफा, खासकर तो दो प्रक्रियाओं में डूब कर देख लो, क्योंकि वे मूल हैं--प्रेम और ध्यान; भक्ति और ज्ञान। आत्मा और परमात्मा।
या तो देख लो ध्यान करके; पूरी शक्ति लगा कर ध्यान करके देख लो। एक छह महीने ध्यान में डुबकी लो; भूल जाओ भक्ति को। और फिर छह महीने भक्ति में डुबकी लो; भूल जाओ ध्यान को। फिर निर्णय हो जाएगा। दोनों में जो रास आ जाए। जिससे तुम्हारी वीणा बजने लगे। जिससे तुम्हारा आकाश खुल जाए। जिससे तुम्हारे जीवन में पंख लग जाएं। फिर चुन लो। फिर बार-बार बदलने की कोई जरूरत नहीं है।
लोभ में पड़ने की भी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि भक्ति से पहुंचो तो वहीं पहुंचते हो; और ध्यान से पहुंचो तो वहीं पहुंचते हो। पहुंचना तो वहीं है, मंजिल तो एक है। मार्ग अनेक हैं।
और मेरा सम्मान सबके प्रति है--सब तरह के लोगों के प्रति; सब मार्गों के प्रति। क्योंकि जहां से मैं खड़े होकर देख रहा हूं, वहां से मुझे सभी मार्ग एक ही बिंदु पर अंत होते दिखाई पड़ते हैं। जिस शिखर से खड़े होकर मैं देख रहा हूं, वहां बाएं से आने वाली पगडंडियां भी आ गई हैं; दाएं से आने वाली पगडंडियां भी आ गई हैं; राजपथ भी आ गया है। हवाई जहाज से उड़ कर जो आए हैं, वे भी आ गए हैं। पैदल चलते जो आए हैं, वे भी आ गए हैं। घुड़सवार भी आ रहे हैं। सब तरह के लोग आ रहे हैं।
पहाड़ बड़ा है; चारों तरफ से मार्ग आते हैं। सब तरफ से यात्री चढ़ रहे हैं। और जो मार्गों पर हैं, उन्हें यह दिखाई नहीं पड़ सकता कि दूसरे मार्ग भी वहीं ले जा रहे हैं, जहां हम जा रहे हैं।
मार्ग पर चलने वाले को ऐसा ही लगता है कि मेरा मार्ग ही ठीक होगा। यह उसे मानना ही पड़ता है। नहीं तो वह चल ही न पाएगा। उसे मानना पड़ता है: मेरा ही मार्ग ठीक। इसी आग्रह को बताने के लिए वह दूसरों से कहने लगता है: तुम्हारा मार्ग गलत। इस्लाम गलत; हिंदू गलत; यह गलत, वह गलत। मेरा मार्ग ठीक।
वह असल में तुमसे झगड़ा नहीं कर रहा है। वह अपने मन को समझा रहा है। उसके भीतर लोभ पैदा होता है कि कौन जाने यह पड़ोस में जो आदमी जा रहा है, यह मुसलमान, कहीं इसका मार्ग ठीक न हो! यह जो कुरान की आयतें गा रहा है, कहीं यही ठीक न हों! और मैं यह क्या कर रहा हूं--राम-राम, राम-राम! पता नहीं...! उसे डर लगता है। डर लगता है तो अपनी आत्म-रक्षा के लिए वह चिल्लाता है कि बंद करो अल्लाह-अल्लाह चिल्लाना। इससे कुछ भी न होगा।
खयाल करना, यह वह आत्म-रक्षा के लिए कह रहा है। उसे पता नहीं कि इससे होगा कि नहीं। उसे यह भी पता नहीं कि मैं जो कर रहा हूं, इससे होगा। जब तक हुआ नहीं, तब तक कैसे पता होगा? और जब हो गया, फिर तो बात ही खत्म हो गई।
जब तक नहीं हुआ है, तब तक संदेह बना ही रहता है। इस संदेह के निवारण के लिए वह जोर से चिल्लाता है कि तुम गलत हो।
खयाल रखना: वह कहना यह चाहता है कि मैं सही हूं। वह यह नहीं कहना चाहता कि तुम गलत। तुम्हारे गलत होने का उसे क्या पता!
हिंदू--कुरान गलत है--यह कैसे जानेगा? इसे जानने के लिए पहले तो कुरान में खूब डुबकी लगानी चाहिए। कुरान की यात्रा करनी चाहिए। कुरान की मान कर चलना चाहिए, तभी पता चलेगा न कि गलत है।
तुम कभी बैठे नहीं हवाई जहाज में; तुम कहते हो: बैलगाड़ी सही है। हवाई जहाज वहां ले जा नहीं सकता; बैलगाड़ी ही ले जाती है; यह तुम कैसे कहोगे? एक दफा बैठो; एक दफा जाकर देखो।
जिन्होंने अनेक मार्गों से चल कर देखा, जैसे रामकृष्ण ने, तो लौट-लौट कर हर बार कहा: सभी मार्ग वहीं पहुंचा देते हैं।
जो पहुंचा है, उसने देखा है कि सभी मार्ग वहां पहुंचा देते हैं। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है िक तुम पर करुणा के कारण पहुंचा हुआ पुरुष भी नहीं कहता। क्योंकि तुम अजीब हो। तुम्हारी कमजोरी बड़ी अजीब है।
महावीर जब पहुंच गए, तो उनको दिखाई पड़ा होगा कि भक्त भी आ गए हैं। उन्होंने देखा होगा: यह कृष्ण भी आ गया है; यह बांसुरी बजा रहा है। उस शिखर पर उन्होंने कृष्ण को भी पाया होगा। उन्होंने देखा होगा: लाओत्सु भी विश्राम लगाए बैठा है। उन्होंने देखा होगा कि रामचंद्र जी भी अपना धनुषबाण लिए चले आ रहे हैं। यह मामला क्या है?
अगर महावीर यह कहें, अपने पीछे से आने वाले लोगों से, कि सब आ गए हैं, तो इस बात का बहुत डर है कि वे लोग जो महावीर के पीछे आ रहे हैं, वे लोभ में पड़ जाएं। वे कहने लगें कि जब सभी जा रहे हैं, तो फिर क्या फिकर।तो हम इस मार्ग चले जाएं, उस मार्ग चले जाएं। हो सकता है, वे इतनी दुविधा में पड़ जाएं--और इतने मार्ग हैं--कि चुनाव ही मुश्किल हो जाए। वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाएं।
उनकी कमजोरी को ध्यान में रख कर महावीर कहे चले जाते हैं कि यही मार्ग लाता है। और कोई नहीं आता।
कृष्ण भी कहे चले जाते हैं; राम भी कहे चले जाते हैं: आओ इसी मार्ग पर। कृष्ण कहते हैं: सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। सब छोड़, सब धर्म छोड़, मेरी शरण आ। बस, यही शरण ले जाती है।
जीसस कहते हैं: जो मुझसे जाएगा, वहीं पहुंचेगा। मैं हूं द्वार। जो मुझसे नहीं जाएगा, वह पछताएगा।
इसका यह मतलब नहीं है कि जीसस से जो नहीं गया है, वह नहीं पहुंचा। मगर जीसस...। जिन मित्र ने प्रश्न पूछा है, उसी तरह के लोगों के कारण ऐसा कह रहे हैं। लेकिन इसमें एक तो सुविधा है कि मार्ग पर जो लोग आते हैं, उनको निश्चिंतता रहती है। मगर एक दूसरा खतरा है। निश्चिंतता तो रहती है, मतांधता भी पैदा होती है।
और अब हम देख सकते हैं कि पांच हजार साल के इतिहास में फायदा तो कम हुआ इस बात से, नुकसान ज्यादा हुआ। चले तो लोग कम; दूसरे गलत हैं--यह सिद्ध करने में ज्यादा लगे। इसलिए मैंने पूरी प्रक्रिया बदली।
मैं तुमसे कहता हूं: सभी मार्ग सही हैं। अब खतरा पैदा होगा; कि तुम अगर लोभ में पड़े, तो खतरा पैदा होगा।
जब मैं कहता हूं, सभी मार्ग सही हैं, तो मैं कह रहा हूं: तुम जिस मार्ग पर हो, वह भी सही है। असल में मार्ग नहीं पहुंचते, चलने वाले पहुंचते हैं। मार्ग नहीं ले जाते, चलने वाले जाते हैं। चलो किसी भी मार्ग पर; चलते रहो; पहुंचोगे। मगर अगर चलने में दुविधा आ गई, तो कोई भी मार्ग नहीं ले जाता। मार्ग कैसे ले जाएगा? मार्ग कोई अपने आप थोड़े ही जाता है; तुम्हारे चलने से जाता है।
कभी-कभी ऐसा हो जाता है: चलने वाले हिम्मतवर लोग बिना मार्ग के भी पहुंच जाते हैं--खाई-खंदों, पहाड़ों को पार करके, जहां कोई कभी नहीं चला। और कमजोर लोग, काहिल लोग, सुस्त लोग राजपथों पर बैठे रहते हैं, वहीं डेरा लगा देते हैं, वहीं जम जाते हैं। मील के पत्थर के पास ही समझते हैं: दिल्ली आ गई; मंजिल आ गई। वहीं बैठ जाते हैं।
यहां सब तरह के लोगों के लिए सुविधा है। मैं चाहता हूं: कोई मतांधता जगत में न हो।
सलाम हो तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां
ये रस्म आम है कि जो चाहे सर उठा के चले।
कोई भी शर्त बजुज बजाय एतिहात नहीं
कोई सम्हल के चले, कोई लड़खड़ा के चले।
कोई शर्त नहीं है तुम पर: कोई सम्हल कर चले, कोई लड़खड़ा कर चले। कोई ध्यान से चले, होश से चले; कोई प्रेम की मदिरा पीकर चले।
यहां सबको सुविधा है।
तुम अपना मार्ग चुन लो। दूसरे को भूल कर गलत मत कहना। यह हक तुम्हारा नहीं है। अपना मार्ग चुन लो--और चलते चलो।
कोई लड़खड़ा कर चल रहा हो, तो यह मत कहना कि मैं ध्यान का पथिक हूं; सम्हल कर चलो। शर्त मत लगाना। क्योंकि लड़खड़ाने वाले भी पहुंच गए हैं। और कभी-कभी तो सम्हलने वालों से ज्यादा जल्दी पहुंच गए हैं। क्योंकि लड़खड़ाने वालों को भगवान सम्हालता है। सम्हलने वालों को भगवान नहीं सम्हालता। वे खुद ही सम्हले हैं!
इसलिए तो बुद्ध और महावीर के धर्म में भगवान की कोई जगह नहीं है। कोई जरूरत नहीं है। वे खुद ही सम्हले हैं।
जीसस ने कहा है: जैसे कोई गडरिया सांझ को लौटता है; आकर गिनती करता है। हजार भेड़ों में और तो सब हैं, नौ सौ निन्यानबे हैं, एक भेड़ कहीं रास्ते में खो गई। तो उन नौ सौ निन्यानबे भेड़ों को पहाड़ पर, खतरे में, एकांत में छोड़ कर उस एक भेड़ को खोजने चला जाता है!
अंधेरी रात, लालटेन लेकर खोजता है; जंगल-जंगल आवाज लगाता है। फिर जब भेड़ को पा लेता है, तो जीसस ने कहा--मालूम है क्या करता है? उसको कंधे पर रख कर लौटता है।
इन नौ सौ निन्यानबे भेड़ों को कभी पता ही नहीं चलेगा कि गडरिए के कंधे पर बैठने का मजा क्या है। ये कभी भटकी ही नहीं, तो इनको कंधे पर बैठने का मौका भी न मिलेगा।
वह जो होश से चलता है, वह भी पहुंचता है। मगर उसे परमात्मा के कंधे पर बैठने का मौका नहीं मिलता। वह मजा तो भक्त का है, वह जो लड़खड़ा कर चलता है; वह जो डगमगा कर चलता है, उसको तो भगवान को सहारा देना ही पड़ता है। देना ही पड़ेगा।
जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है, मां का सहारा कम होता जाता है। जितना बच्चा छोटा और असहाय होता है, उतना ज्यादा सहारा होता है।
ध्यानी प्रौढ़ है; प्रेमी असहाय है। अस्तित्व उसके लिए मां बन जाती है। भक्त तो बालक ही रहता है। वह अपने बालवत भाव को छोड़ता ही नहीं। इसलिए तो भक्त रोता रहता है। बच्चों जैसा पुकारता रहता है। कभी भगवान को पिता कहता है; कभी भगवान को मां कहता है। लेकिन उसकी पुकार समझो।
जब भक्तों ने भगवान को मां और पिता कहा है, तो क्या कहा है? इतना ही कहा है कि हम बालक हैं। हमारा अपना बल क्या! हम अपने पैर से तो चल न पाएंगे, गिर ही जाएंगे। हम तो उठते हैं और गिर जाते हैं। तू सम्हालेगा, तो सम्हलेंगे। तेरे सम्हाले ही सम्हलेंगे।
ये दोनों ढंग हैं: या तो तुम सम्हल जाओ। तुम सम्हल जाओ, तो जरूरत ही नहीं है। ठीक है। बात खत्म हो गई। सम्हलना ही था। तुम्हीं सम्हल गए।
तुमने खयाल किया: मां का प्रेम उस बच्चे के प्रति ज्यादा होता है जो सबसे ज्यादा कमजोर होता है। यह बिलकुल अर्थशास्त्र के विपरीत है बात। लेकिन अर्थशास्त्र और प्रेम के शास्त्र विपरीत हैं। होना तो प्रेम उसके प्रति चाहिए जो सबसे बलवान है, सबसे बुद्धिमान है, सबसे कुशल है। नहीं, लेकिन मां जानती है कि वह तो बुद्धिमान है, बलवान है, कुशल है, अपनी फिकर कर लेगा। उसको जरूरत नहीं है।
वह जो कमजोर है, वह उतना बुद्धिमान भी नहीं है; जिसके भटक जाने की ज्यादा संभावना है; जो कहीं गिर पड़ेगा; मां उसकी फिकर लेती है।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि बीमार बच्चे मां के लिए ज्यादा प्यारे हो जाते हैं--स्वस्थ बच्चों की बजाय।
परमात्मा का अनुभव उन्हीं को मिलेगा, जो असहाय होकर लड़खड़ाते हैं। इसलिए बुद्ध और महावीर के धर्म में परमात्मा की जगह नहीं, क्योंकि बुद्ध और महावीर को परमात्मा का अनुभव मिलने का मौका नहीं आया। जरूरत न थी। वे खुद ही परमात्मा हो गए। उन्होंने अपने भीतर की चेतना को इतना प्रज्वलित कर लिया कि किसी और अस्तित्व के सहारे का कोई कारण न रहा। आ गए आखिरी मंजिल पर; लेकिन परमात्मा घटा ही नहीं कहीं। वे स्वयं परमात्मा होकर आ गए।
परमात्मा का अनुभव तो भक्त को होता है। जैसे प्रेम का अनुभव प्रेमी को होता है। प्रेमी का अनुभव प्रेम में होता है। भक्ति में भगवान का अनुभव है।
और मैं तुमसे यह नहीं कहता कि इन दोनों अनुभवों में कौन सा चुनना चाहिए। नहीं, मैं तुमसे यह कहता हूं: जो तुम्हें रास पड़े; जो तुम्हें प्रीतिकर लगे।
सलाम हो तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां
ये रस्म आम है कि जो चाहे सर उठा के चले।
एक न एक दिन तुम समझोगे। इन जिन प्रक्रियाओं को मैं गतिमान कर रहा हूं, किसी दिन तुम इन प्रक्रियाओं को सलाम करोगे, किसी दिन कहोगे कि हमारा बड़ा समादर है इस बात के लिए।
कोई भी शर्त बजुज बजाय एतिहात नहीं
किसी पर कोई शर्त नहीं लादी जा रही है यहां। किसी पर जबर्दस्ती कोई ढांचा नहीं बिठाया जा रहा है। स्वतंत्रता यहां की हवा है। किन्हीं भी बहानों से किसी को परतंत्र नहीं बनाया जा रहा है। मोक्ष के मार्ग पर कैसी परतंत्रता? कैसे बहाने?
यहां कोई भी तुम्हारे लिए जंजीरें नहीं दी जा रही हैं; तुम्हारी जंजीरें तोड़ी जा रही हैं।
कोई भी शर्त बजुज बजाय एतिहात नहीं
कोई सम्हल के चले, कोई लड़खड़ा के चले।
और मैं मानता हूं, यही संभावना है भविष्य के धर्म की। गए पुराने दिन--हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध वाले, झगड़े वाले मतांध दिन गए। वे सब धर्म अब करीब-करीब मुर्दा हैं; अरथी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब एक बिलकुल और तरह की दुनिया पैदा हो रही है, एक और नये तरह के धर्म का सूत्रपात जगत में हो रहा है, जहां लोग धार्मिक होंगे--ईसाई, हिंदू, बौद्ध, मुसलमान नहीं। मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे रहेंगे, लेकिन पुरानी मतांधता चली जाएगी। जिसकी जहां मौज हो।
कोई सम्हल के चले, कोई लड़खड़ा के चले।
एक-एक घर में सभी धर्मों के लोग होने चाहिए, क्योंकि एक-एक घर में सभी वृत्तियों के लोग हैं। एक बाप और एक मां से पैदा हुए पांच बेटे भी एक जैसे नहीं होते। तो पांचों हिंदू कैसे हो सकते हैं? पांचों मुसलमान कैसे हो सकते हैं? पांचों इतने भिन्न हैं, हर बात में भिन्न हैं! एक गणित में कुशल है; एक काव्य में कुशल है; तब तुम जिद्द नहीं करते कि तुम पांचों बेटे एक ही बाप के हो; तुम्हारा बाप गणितज्ञ है, तुम पांचों को गणितज्ञ होना चाहिए।
नहीं, तुम इस तरह की मूढ़ता की बात नहीं कहते। तुम जानते हो कि यह बात मूढ़ता की है। बाप गणितज्ञ है, तो हो, मगर पांचों बेटों का गणितज्ञ होना कोई आवश्यक तो नहीं। गणितज्ञ होना खून में से तो आता नहीं। इनमें से कोई कवि है, कोई गणितज्ञ है, कोई संगीतज्ञ है, कोई नर्तक है--कोई कुछ और है। तुम इन सबको मौका देते हो। लेकिन धर्म के मामले में तुम्हारी जिद्द बड़ी जड़ता से भरी है। तुम कहते हो: तुम पांचों को मुसलमान, पांचों को हिंदू, पांचों को जैन होना पड़ेगा। क्योंकि तुम जैन घर में पैदा हुए, मुसलमान घर में पैदा हुए! यह बात बड़ी नासमझी की है।
तुम जीवन में इतनी स्वतंत्रता देते हो कि कोई गणितज्ञ हो सकता है, कोई कवि...। ये बड़ी विपरीत बातें हैं। क्योंकि कहां गणित और कहां कविता! इनका कोई मेल नहीं है, कोई तालमेल नहीं है। गणित की कोई कविता नहीं होती, कविता का कोई गणित नहीं होता। गणित चलता है तर्क से; कविता होती है अतर्क। गणित विरोधाभासों से बचता है; कविता विरोधाभास खोजती है। कविता का प्राण ही विरोधाभास है--पैराडाक्स है। कविता की वही पंक्ति काव्यपूर्ण हो जाती है, जहां विरोधाभास खड़ा हो जाता है।
कविता की आंख सौंदर्य की परख से है। कविता का प्राण प्रेम है। गणित का--हिसाब-किताब है। गणित में बुद्धि का पूरा फैलाव है, लेकिन हृदय के रस को जरा सी भी जगह नहीं।
अब ये दो व्यक्ति हैं; एक ही बाप से पैदा हुए हैं। इनमें से तुम कहते हो: दोनों हिंदू हो जाएं; दोनों जैन हो जाएं। बात गलत है। जिसके भीतर कविता उठी है, यह कबीर से राजी हो सकेगा या कि मीरा से राजी हो सकेगा। और जिसके भीतर गणित बहुत साफ है, यह बुद्ध और महावीर से राजी हो सकेगा।
एक नई हवा, एक नया माहौल, एक नया वातावरण चाहिए--जहां यह पुरानी जिद्द चली जाए; जहां धर्म जबर्दस्ती न थोपा जाता हो; जहां प्रत्येक व्यक्ति अपनी मौज से अपना धर्म चुने।
जिस दिन एक-एक घर में पांच-पांच सात-सात धर्मों के लोग होगें, उस दिन दुनिया जरूर सुंदर होगी। उस दिन दुनिया में बड़ा प्रेम पैदा होगा।
तुम्हारा एक बेटा मंदिर जाता है; एक बेटा मस्जिद जाता है। कभी तुम्हारा बेटा तुम्हें मस्जिद आने का निमंत्रण देता है, क्योंकि वहां कोई उत्सव है। और कभी तुम्हारा एक बेटा तुम्हें मंदिर आने का निमंत्रण देता है कि आज कृष्ण की जन्माष्टमी है, कि कुछ और है। तुम ज्यादा समृद्ध होओगे। तुम्हारे जीवन में ज्यादा आयाम होंगे, ज्यादा आकाश होगा, ज्यादा दिशाएं होंगी।
यह जड़ता है कि एक घर में गीता रखी है और एक घर में कुरान रखी है। दोनों अधूरे रह गए। कुरान और गीता साथ ही साथ होने चाहिए। हां, कोई कुरान पढ़े, कोई गीता पढ़े।
ऐसी मेरी दृष्टि है। और मुझे लगता है यही दृष्टि भविष्यवाणी है।
तीसरा प्रश्न:
एक मस्ती छा रही है, लेकिन भय लगता है कि कहीं यह खो तो न जाएगी!
भय स्वाभाविक है, क्योंकि अब तक तुमने जो मस्तियां जानीं, वे सब खो गईं। तुम्हारे जीवन का सार-निचोड़ यही है। कभी एक स्त्री के प्रेम में पड़े और क्षण भर को लगा: बड़ी मस्ती छा रही है। और जाग भी न पाए थे कि चली गई। कभी पद के पीछे दौड़े और लगा कि बड़ी मस्ती छा रही है। पद मिल भी न पाया था कि हाथ खाली हो गए।
ऐसे तुमने बहुत बार बहुत सी झूठी मस्तियां जानी हैं! इसलिए यह स्वाभाविक है। यह जो संन्यास की मस्ती तुम पर छा रही है, इसमें भी शक उठे कि कहीं यह भी तो न खो जाएगी! मगर यह खोने वाली मस्ती नहीं। और जो खो जाए, तो जानना कि यह संन्यास की मस्ती थी ही नहीं। इसमें कुछ और ही बात रही होगी। कुछ धोखा हो गया।
यूं दिल को छेड़ कर निगहे-नाज झुक गई
छुप जाए कोई जैसे किसी को पुकार के
क्या कीजिए, कशिश है कुछ ऐसी गुनाह में
मैं वरना यूं फरेब में आता बहार के!
हर बार तुम जानते हो कि वसंत आता है, बहार आती है। और हर बार तुम जानते हो कि पतझड़ आता होगा। फिर भी बार-बार धोखा खा जाते हो। कुछ कशिश है--गुनाह में भी, पाप में भी कुछ कशिश है। कितनी बार तुमने कहा नहीं, अपने मन से कि बस अब बहुत हो गया, अब और किसी स्त्री में रस न लूंगा; बात खत्म हो गई। कितनी बार तुमने नहीं सोचा कि अब और पुरुष में रस नहीं रहा; चुक गया। देख लिया सब। और फिर एक दिन घड़िया भी नहीं बीत पातीं और फिर रस जगता मालूम पड़ता है!
क्षणभंगुर है जान कर भी मन बार-बार जकड़ जाता है। उसके पीछे कारण है। कारण है कि यहां क्षणभंगुर ही तो मिलता है; शाश्र्वत की तो कभी झलक नहीं मिलती। तो करें क्या?
यहां दो ही विकल्प मालूम पड़ते हैं: या तो क्षणभंगुर सुख को भोगते रहो और बार-बार रोते रहो, पछताते रहो, विषाद में गिरते रहो। हर बार आए शिखर भोग का और हर बार आता है विषाद और एक खाई की तरह घेर लेता अंधकार। एक तो विकल्प यह है।
और दूसरा विकल्प यह है कि खाई में ही पड़े रहो; क्षण भर को भी छोड़ दो; क्षणभंगुर को भी छोड़ दो। वह बात भी जंचती नहीं; क्योंकि चलो, क्षणभंगुर ही सही; कुछ तो है। कभी तो वसंत आता है। कभी तो आंखों में सपना छाता है। कभी तो थोड़ी देर के लिए मस्त हो जाते हैं। माना कि थोड़ी देर ही टिकती है यह बात। लेकिन करें तो और क्या करें। यही है बस।
लेकिन अगर संन्यास की या ध्यान की या भक्ति की मस्ती छाने लगी, तो तुम पाओगे: इस जगत में जगत से कुछ ज्यादा है; और इस जगत में क्षणभंगुर ही नहीं है; इस जगत में कभी-कभी शाश्वत की किरण भी उतरती है। निश्चित उतरती है। क्योंकि कबीर ने जो पाया...। ‘कहै कबीर मैं पूरा पाया।’ वह फिर कभी खोया नहीं। बुद्ध ने जो पाया, फिर बयालीस साल जिंदा थे, लेकिन एक क्षण को नहीं खोया। मैं गवाह हूं। इधर पिछले पच्चीस वर्षों मे एक क्षण को नहीं खोया है--जो पाया है।
यह जो घट रहा है, यह बहुत नया है। भय लगता है, क्योंकि पुराने अनुभव क्षणभंगुर के हैं। और यह शाश्वत घट रहा है। और भय लगना स्वाभाविक है, इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि भय के कारण तुम अपने को अपराधी समझ लेना। बिलकुल स्वाभाविक है।
हर बार संपत्ति हाथ में आई और कचरा साबित हुआ। इस बार फिर संपत्ति हाथ में आई है। भय लगता है कि पता नहीं, यह भी तो कोरा ही साबित न होगा! एक सपना फिर।
नहीं, यह सपना सिद्ध नहीं होगा। अगर यह ध्यान से उत्पन्न हो रही है मस्ती या भक्ति से उत्पन्न हो रही है यह मस्ती, तो यह सपना सिद्ध नहीं होगा। अगर तुम ही कोशिश कर-कर के इसको पैदा कर रहे हो, तो यह मिट जाएगा।
तुम्हारा किया हुआ शाश्वत नहीं हो सकता। जो आता है, उतरता है ऊपर से--तुम्हें भर लेता है अंगपाश में, जो तुम्हारे किए से नहीं आता, वही शाश्वत है। जो तुम्हारे कृत्य से आता है, वह शाश्वत नहीं है।
तुम्हारा किया हुआ--तुम्हारे मिट्टी के हाथों से बनाया हुआ, कैसे शाश्वत हो सकता है? यह देह क्षणभंगुर है। सत्तर साल--तो भी क्षणभंगुर है। इस देह से तुम जो बनाओगे, वह क्षणभंगुर होगा। तुम एक पत्थर की मूर्ति बनाओ, मजबूत से मजबूत पत्थर लाओ--ग्रेनाइट लाओ, उसकी मूर्ति बनाओ, वह भी मिटेगी। हाथ ही बनाने वाले मिट्टी के थे; कर्ता ही मिट्टी का था, तो कृत्य कहां से शाश्वत हो सकता है!
तुम जो करोगे, वह तो क्षणभंगुर रहेगा।
मेरी शिक्षा का मूल यही है कि तुम मिटो--तुम करो मत; तुम खोओ; तुम जगह खाली करो।
यही तो कबीर ने कल कहा--कि तुम गरीब हो रहो। गरीब हो रहो मतलब--शून्य हो जाओ। तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है--ऐसे हो जाओ। ‘कर गुजरान गरीबी में।’
तुम बिलकुल शून्य हो जाओ। मेरे पास कुछ भी नहीं है; एक भिक्षापात्र मात्र--खाली--और वहीं तुम अचानक पाओगे: तुम्हारे शून्य को भरने कोई उतर रहा है। पूरा--पूर्ण उतर रहा है। यह अवतरण है। यह तुम्हारा कृत्य नहीं है। तुम सिर्फ गवाह होते हो इसके--कि तुममें उतरा। यह तुम्हारे मन से निर्मित नहीं होता। यह तुम्हारा मन जब नहीं होता, तभी होता है।
अगर यह मस्ती उतर रही है; इतना ही खयाल रखना। क्योंकि कई बार तुम ऐसे झूठे हो गए हो कि उतरती भी नहीं; तुम ढोंग करने लगते हो। ढोंग नहीं टिकेगा।
कई बार ऐसा हो जाता है कि लोग इतने ज्यादा अनुकरणशील हो गए हैं--बंदरों की तरह हो गए हैं--कि एक को होता है, तो उनको होने लगता है।
कई बार मैं देखता हूं: एक आदमी मस्ती में डोल रहा है; उसके पास बैठे-बैठे दूसरा ऐसे ही डोलने लगता है। क्योंकि उसे यह लगता है कि इधर लोग मस्ती में डोल रहे हैं। मैं नहीं डोला, तो लोग समझेंगे...।
एक मित्र के साथ मैं बंगालियों की एक संगत में गया। वहां बंगाली में भजन गाए जा रहे थे। और बंगालियों में बड़ा भक्ति का भाव है। मृदंग बज रही थी। और चैतन्य की मैंने चर्चा की थी; फिर चैतन्य के वे गीत गा रहे थे; और नाच रहे थे।
मेरे साथ जो सज्जन गए थे, वे बंगाली जानते नहीं। मैं बड़ा हैरान हुआ, क्योंकि वे भी डोलने लगे। और ओंठ भी हिलाने लगे! जैसे वे भी भजन में भाग ले रहे हैं।
मैंने जरा गौर से उनको सुनने...मेरे बगल में ही बैठे थे...गौर से सुनने की कोशिश की, तो वे अनर्गल बक रहे हैं। कुछ भी इससे मतलब नहीं है।
जब रास्ते में लौटते वक्त हम दोनों अकेले रह गए; मैंने उनसे पूछा कि यह मामला क्या था! आप ऐसी शुद्ध बंगाली बोल रहे थे! वे बोले: कहां की बंगाली और कहां का क्या? पगलों की जमात! और मैंने देखा: अपन ऐसे सम्हले बैठे रहे, तो लोग समझेंगे कि यह बुद्धू कहां से आ गया? और फिर लोग यह भी समझेंगे कि इसको बंगाली भी नहीं आती! और मस्ती भी नहीं आती! तो मैं तो ऐसे ही ढोंग कर रहा था। तो मैं ऐसे ही ओंठ हिला रहा था। कुछ भी बोल रहा था--धीरे-धीरे; तो कोई पकड़े भी नहीं। और वहां तो इतना शोरगुल मचा है, इतने पगले थे कि वहां कौन...पता चलने वाला कि कौन बंगाली बोल रहा है, कौन गुजराती बोल रहा है! वे सज्जन गुजराती थे!
कई बार ऐसा हो जाता है--कि तुम ऐसे नकलची हो गए हो, तुम्हें इतनी भी निष्ठा नहीं रही है कि जो न होता हो, तो न करो।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि छोटी-छोटी बातों में भी हम अपने से नहीं जीते।
एक आदमी को खांसी आ जाए, तुम पाओगे कि अनेक को खांसी आने लगी! एक आदमी उठ कर पेशाब करने चला जाए, दूसरे भी चले! ये अभी बैठे थे; अभी इनको पता ही नहीं था। इनको कुछ खयाल ही नहीं था। मगर तत्क्षण एक सज्जन ने इनको सुझाव दे दिया। सुझाव इन पर पकड़ जाता है।
इससे सावधान होना; इस वृत्ति से सावधान होना; नहीं तो कई बार तुम मस्ती झूठी भी कर सकते हो। वह न टिकेगी। कभी नहीं टिकेगी। आने दो मस्ती को। उतरने दो मस्ती को।
खिजां की खुश्क रगों में न रह सके जो जवां
जो आए और चली जाए वो बहार ही क्या
न होशियारी के लम्हों में रह सके कायम
जो सर पे चढ़ के उतर जाए वो खुमार ही क्या
जबाने खल्क तक आया न नाराए मंसूर
जबां पे अपनी जो रह जाए वो पुकार ही क्या
न पीना कैदे मकानो जमां से हो आजाद
तो मश्के शौक है इसमें भला खुमार ही क्या
जो मस्तियों के सहारे जीए वही हुशियार
जिसे होश का तकिया वो वादाख्वार ही क्या
न बालो पर ही जलाए न आरजूए चमन
वो आशियां पे हुई बर्क शोलाबार ही क्या
जो सैले अश्क में अपने बहा सका न गुनाह
हुआ वो आसिए कमजर्फ अश्कबार ही क्या
जो रोया--और अपने रोने में पाप न बहा सका, वह रोया--यह बात ही फिजूल।
जो सैले अश्क में अपने बहा सका न गुनाह
जब बाढ़ आ गई हो आंसुओं की; अपने से आ गई हो; आंख में कुछ मिर्च इत्यादि लगा कर ले आए, तो काम नहीं होगा। जो भाव से उठी हो बाढ़, प्रामाणिक हो, वस्तुतः हो, हृदय उमड़ आया हो, घुमड़ आया हो, हृदय के मेघ आंखों से बरसने लगे हों।...
जो सैले अश्क में अपने बहा सका न गुनाह
तो फिर पाप बचते नहीं। इसलिए भक्त को फिकर नहीं है कि मेरे पिछले जन्मों के पाप कैसे कटें। वह जानता है; रोना पर्याप्त है। ये आंसू सब बहा ले जाते हैं--सब गर्द-गुबार; सब पाप-गुनाह; सब भूलें-चूकें।जो हृदयपूर्वक रोया, वह शुद्ध हुआ।
जो सैले अश्क में अपने बहा सका न गुनाह
हुआ वो आसिए कमजर्फ अश्कबार ही क्या
वह पागल आंसुओं में डूबा ही नहीं। उसे आंसुओं की बाढ़ आई ही नहीं।
तो आंसुओं की कसौटी यही है, अगर वे सच्चे हों, तो तुम्हारे पीछे एक पुण्य की आभा छोड़ जाएंगे।
कभी किसी भक्त को अगर रोते देखा है, तो तुम पीछे देखोगे--उसके चेहरे पर एक दूसरी ही आभा। आया था कुछ, जाता कुछ और है।
यहां मैं रोज देखता हूं। जब कोई हृदयपूर्वक रो लेता है, तो ऐसी ताजगी, ऐसा कुंआरापन उस पर उतरता है, जो अनूठा है। वह परमात्मा में नहा जाता है।
तुम कहते भी हो कि हम कुर्बानी को तैयार हैं; तुम कहते भी हो कि हम पतंगे हैं, और हम जलना चाहते हैं; मगर उड़ते बड़े दूर-दूर हो। लपट के करीब नहीं आते।
न बालो पर ही जलाए न आरजूए चमन
वो आशियां पे हुई बर्क शोलाबार ही क्या
और न तो आशियां जला--न घर जला। न पैर जले, न पंख जले। कुछ भी न जला। और तुम कहते हो कि मेरे घोसले पर बिजली गिरी! जब बिजली गिरती है, तो तुम बचते ही नहीं। मस्ती ही बचती है, तुम नहीं बचते।
जब असली मस्ती आती है, तो सिर्फ मस्ती होती है, मस्त नहीं होता। वही कसौटी है।
जो मस्तियों के सहारे जीए वही हुशियार
जिसे होश का तकिया वो वादाख्वार ही क्या
जिसे इतनी भी याद रह जाए कि यह मस्ती है; कि मैं मस्त हो रहा हूं--जिसे इतना भी भेद रह जाए, वह अभी पूरा मस्त नहीं हुआ। अभी मस्ती बाहर-बाहर है। अभी मस्ती द्वार-दरवाजे तोड़ कर भीतर प्रविष्ट नहीं हुई।
जब मस्ती भीतर प्रविष्ट होती है, तो यह भी किसे याद रह जाती है कि मैं मस्त हूं। मस्ती इतनी होती है कि हिसाब-किताब कौन रखे!
न पीना कैदे मकानो जमां से हो आजाद
तो मश्के शौक है इसमें भला खुमार ही क्या
कई बार हम झूठी शराबें पी लेते हैं।
समझो। मुझे सुनते हो। मैं जो कह रहा हूं: कभी-कभी तो उस कहने के सौंदर्य के कारण तुम मस्त हो जाते हो। मगर वह असली मस्ती नहीं। कभी-कभी तो कहने का ढंग तुम्हें डुला देता है। वह असली मस्ती नहीं। जो मैं कह रहा हूं, वह जो सार है उसमें, जब वह तुम्हारे हृदय पर चोट करेगा...।
कहने के ढंग में क्या रखा है? कोई कितना ही लाख अच्छे ढंग से कहे; कितने ही अच्छे सुंदर शब्दों का उपयोग करे; शैली व्यवस्थित हो, काव्यपूर्ण हो; तो भी कुछ नहीं। अगर भीतर प्राण न हो, तो सजी हुई लाश है। और सजी हुई लाश, चाहे हीरे-जवाहरातों से सजी हो, तो भी एक गरीब जिंदा आदमी के सामने दो कौड़ी की है। जिंदगी असली बात है।
तो मेरे शब्दों से प्रभावित मत होना। शब्दों के भीतर जो संदेश है, वह जब तुम्हें छुए...।
जबाने खल्क तक आया न नाराए मंसूर
जबां पे अपनी जो रह जाए वो पुकार ही क्या
और जब मस्ती आती है, तो बांध तोड़ कर आती है, जैसे मंसूर को आई थी--कि चिल्लाने लगा: अनलहक--कि मैं परमात्मा हूं।
मंसूर के गुरु जुन्नैद ने कहा: पागल मंसूर, मुझे भी पता है। मेरे और शिष्यों को भी पता है। कुछ तुझे ही पता नहीं चल गया है पहली बार। लेकिन जुबान बंद रख। क्योंकि यह मुल्क पागलों का है; यहां खतरा हो जाएगा।
लेकिन मंसूर जब मस्ती में आता, तो भूल ही जाता कि गुरु ने क्या कहा। वह फिर चिल्लाने लगता: अनलहक।
गुरु ने कई बार समझाया। कहते हैं, सात बार समझाया। फिर गुरु ने कहा कि तू छोड़ दे यह जगह। तेरे साथ हम भी झंझट में पड़ेंगे।
अब इसमें जरा शक होता है कि जुन्नैद को इतना क्या डर है! जुन्नैद कहता है: मुझे भी पता है।
जबाने खल्क तक आया न नाराए मंसूर
जबां पे अपनी जो रह जाए वो पुकार ही क्या
कहता है: मुझे पता है, लेकिन यह आती नहीं जुबान के बाहर। जिसको यह पता है कि मैं ब्रह्म हूं; अब यह भी क्या डर कि मुसलमान नाराज हो जाएंगे; कि फांसी लगा देंगे; कि कौन क्या कहेगा; कि कोई झंझट आएगी। यह भी क्या डर!
मंसूर जब भी मस्त होता, तो वही आवाज निकलती। फिर तो गुरु ने निकाल दिया मंसूर को। मंसूर चरण छूकर विदा हो गया। गांव-गांव भटकता रहा। मगर वह आवाज तो गूंजती ही रही।
मंसूर भी जब होश-हवास में होता था, तो नहीं कहता था। लेकिन ऐसी भी घड़ी आती थी, जब बाढ़ आ जाती--कि मंसूर रह ही न जाता, परमात्मा ही बोलता। फिर मंसूर क्या करे! फिर मंसूर पकड़ा गया।
जब मंसूर पकड़ा गया, तो खलीफा ने मंसूर के गुरु को कहा कि तुम लिख कर दो प्रमाण-पत्र कि यह आदमी नास्तिक है, काफिर है, क्योंकि यह जो बातें कह रहा है वह कुफ्र की हैं।
कहते हैं जुन्नैद ने वह भी लिख कर दिया। फिर मंसूर को फांसी हुई। लेकिन मंसूर को तो इससे कुछ फर्क ही न था।
जिस दिन जेलखाने में मंसूर को लेने गए सिपाही, तो वह मस्ती में था। उस वक्त अनलहक का नाद उठ रहा था; ब्रह्मनाद गूंज रहा था। जो लेने गए थे, वे सुध-बुध खो गए। वहां वर्षा हो रही थी। वे भी ठिठके खड़े रह गए। घड़ियां बीत गईं। सम्राट तक खबर पहुंची कि जो लेने गए हैं, वे ठिठके खड़े हैं। वहां कुछ अपूर्व घट रहा है। वहां मंसूर कुछ ऐसी पुकार दे रहा है कि उनकी हिम्मत नहीं होती उसको पकड़ कर बाहर निकालने की कोठरी के।
और सिपाही भेजे गए, और जल्लाद भेजे गए। फिर उन्होंने खींचने की कोशिश की, मगर मंसूर मस्ती में था। जब कोई मस्ती में हो, तो परमात्मा होता है। वे नहीं खींच पाए उसे बाहर। फिर तो खलीफा घबड़ाया। उसने कहा: फिर जुन्नैद को ही लाओ। शायद वह ही कुछ कर सके।
जुन्नैद आया। जुन्नैद ने कहा: देख, मैं तेरा गुरु हूं। मेरी सुन। तू अपनी मस्ती के बाहर आ। तो मंसूर ने गुरु की आवाज सुन कर आंख खोली। जैसे ही मस्ती के बाहर आया, फिर खींचा जा सका।
मस्ती में तुम जब होते हो, तब तुम परमात्मा होते हो। तुम होते ही नहीं।
शुरू-शुरू में झरोखे आएंगे मस्ती के, फिर धीरे-धीरे मस्ती थिर होती जाती है। फिर धीरे-धीरे तुम्हारी श्वास बन जाती है, तुम्हारी धड़कन बन जाती है।
तुम जब तक हो, तब तक मस्ती अभी पूरी नहीं। और जो आए और चली जाए, वह सच्ची मस्ती नहीं।
खिजां की खुश्क रगों में न रह सके जो जवां
पतझड़ भी हो रहा हो, तो भी जिसको मस्ती आ गई, उसको वसंत ही होता है। मौत भी आ रही हो, तो जिसको मस्ती आ गई हो, उसको जीवन ही होता है। दुख की घटाएं छाएं तो भी जिसको मस्ती आ गई, उसको आनंद की बिजलियां ही चमकती हैं।
खिजां की खुश्क रगों में न रहे सके जो जवां
जो आए और चली जाए वो बहार ही क्या
ऐसा भी वसंत है, जो आता है, तो फिर जाता नहीं। मैं उसी वसंत की बात कर रहा हूं। शायद हवा का कोई झोंका उसी वसंत के फूलों की कुछ सुगंध को तुम तक ले आया है।
अतीत के अनुभवों की फिकर छोड़ो। इस सुगंध में डूबो। इस सुगंध से दोस्ती बनाओ। इस सुगंध के साथ श्रद्धापूर्वक चलो। इसका हाथ गहो--यह जहां ले जाए--जाओ। होशियारी मत करना।
न होशियारी के लम्हों में रह सके कायम
जो सर पे चढ़ के उतर जाए वो खुमार ही क्या
नहीं, यह उतरने वाला खुमार नहीं है। यह जादू उतरने वाला जादू नहीं है। मगर सब-कुछ तुम पर निर्भर है। यह तुम्हारे पार से आता है। तुम आने दोगे, तो आएगा। तुम अपने द्वार-दरवाजे बंद कर लोगे, तो क्या करेगा!
ऐसा ही समझो कि सूरज निकला है और तुम दरवाजे बंद किए अपने कमरे में बैठे हो। तो सूरज निकला है, निकला रहे; तुम अंधेरे में बैठे--सो अंधेरे में बैठे।
तुम और भी व्यवस्था कर सकते हो कि दरवाजा बंद करके बैठे हो; शायद किसी रंध्र से सूरज की कोई किरण भीतर आ जाए, तो तुम आंख भी बंद किए बैठे हो। तुम चाहो तो और उपाय कर सकते हो। आंख पर एक काली पट्टी भी बांध सकते हो। तो सूरज बरसता रहेगा चारों तरफ और तुम अंधेरे में रहोगे। तुम्हारी अमावस अमावस ही रहेगी।
परमात्मा जब उतरता है, तो द्वार-दरवाजे खोल देना। यही श्रद्धा का अर्थ है--कि जब वह आए, तो तुम स्वागत करना।
तुम्हारा अतीत तुम्हारे विपरीत जाएगा। तुम्हारा अतीत कहेगा: सावधान, तुम बहुत धोखे खा चुके हो। संदेह करवाएगा। तुम्हारा अतीत कहेगा कि पहले भी ऐसे बहुत मौके आए। लेकिन सच में ऐसा मौका कभी नहीं आया।
तुम जरा गौर से देखो: अतीत में तुमने कभी पहले ऐसी मस्ती जानी थी? अगर ऐसी ही मस्ती जानी थी और चली गई, तो यह मस्ती असली मस्ती नहीं है। यह वह मस्ती नहीं है, जिसकी मैं बात कर रहा हूं।
नहीं, तुमने अतीत में यह मस्ती कभी जानी नहीं। यह पहली दफा उतरी है। मस्तियां तुमने जानी थीं--कभी धन की, कभी पद की, कभी अहंकार की, लेकिन यह मस्ती तुमने कभी जानी नहीं थी। यह संन्यास की मस्ती है। यह पहली दफा आई है। यह अपूर्व है। यह तुम्हारे अनुभव में पहले कभी नहीं आई थी। इसलिए पुराने अनभुवों के संदेह इस पर मत लगाना, अन्यथा तुम विकृत कर दोगे।
चलो इसके साथ। डूबो इस मस्ती में। यह खुमार टिकने वाला है। यह रंग टिकेगा। यह रंग पक्का है।
कबीर ने कहा है: मेरे गुरु ने मेरी चदरिया पक्के रंग में रंग दी है। कबीर ने कहा है बाद में कि अब तो मैं भी रंगरेज हो गया हूं; लोगों की चदरिया पक्के रंग में रंगता हूं।
यह उतरने वाला रंग नहीं है; यह उतरने वाला खुमार नहीं है; यह उतरने वाली मस्ती नहीं है। मगर सब तुम पर निर्भर है। तुम तो आए हुए धन को भी खो सकते हो। यह धन शाश्वत का है, सनातन का है। मगर तुम इनकार करना चाहो, तो तुम मालिक हो इनकार करने को। तुम अपने दरवाजे बंद कर सकते हो।
दरवाजे खुले रखना। अतीत खींचेगा। अतीत कहेगा कि सावधान, कुछ भूल-चूक न हो जाए। लेकिन अतीत की बातें असंगत हैं, क्योंकि यह नया हो रहा है। यह पहले हुआ ही नहीं है। इसलिए अतीत से कोई संदर्भ इस नई स्थिति में काम का नहीं है।
यह प्रेम नया, यह शैली नई, यह सुबह नई, इसमें जाओ। यह बढ़ेगा। तुम मिटोगे--यह बढ़ेगा। तुम छोटे होते जाओगे, यह बड़ा होता जाएगा। एक दिन तुम पाओगे: तुम छोटे-छोटे होते-होते खो गए; सिर्फ मस्ती बची। उसी मस्ती का नाम परमात्मा है--या कहो समाधि।
चौथा प्रश्न:
आज की और भविष्य की नारी के लिए सती का क्या मूल्य है? आज की स्त्री भी सती की ऊंचाई को छू सके, इसके लिए क्या आवश्यक है?
पूछा है स्वामी योग चिन्मय ने!
किसी स्त्री को पूछने दो। पुरुष होकर ये प्रश्न तुम्हें उठे क्यों? पुरुष होकर तुम्हें प्रश्न उठना चाहिए कि स्त्रियां तो इतनी सती हुईं, पुरुष कैसे सती हो? इतनी स्त्रियां अपने प्रेमियों की याद में चिता पर चढ़ गईं, कोई पुरुष कैसे चढ़े?
नहीं, चिन्मय यह नहीं पूछते, क्योंकि उसमें झंझट है। उसमें चिन्मय को चढ़ना पड़े किसी चिता पर। स्त्रियां कैसे चढ़ें--इसमें रस है उनका। सभी पुरुषों का इसमें रस रहा है।
स्त्रियों का सती होना तो बड़ी महिमा की बात है, लेकिन पुरुषों का इसमें उत्सुकता लेना बड़ी हिंसा की बात है। जघन्य अपराध है।
यह तुम्हारे मन में सवाल क्यों उठता है? पुरुष क्यों स्त्री को चिता पर चढ़ाना चाहे?
अगर यह प्रश्न प्रेम को समझने के लिए उठा है, तो पुरुष की तरफ से तो पुरुष को यही पूछना चाहिए कि मैं भी कैसे चढ़ूं? इतनी स्त्रियां चढ़ गईं प्रेम में, कब वह घड़ी आएगी जब कभी पुरुष भी चढ़ेगा?
पुरुष ने बड़ी ज्यादती की है। पुरुष ने स्त्रियों के साथ ऐसा व्यवहार किया है जैसे वे संपत्ति हैं। कहते हैं इस देश में: स्त्री-संपत्ति। तो जब पुरुष मर गया तो उसको डर है कि मेरी संपत्ति को कोई और न भोग ले। तो वह चाहता है कि वह उसी के साथ जल मरे। यह पुरुष का अहंकार है और कुछ भी नहीं।
जीते-जी भी उसने बंधन बना कर रखा था कि उसकी स्त्री किसी और की तरफ कभी प्रेम की आंख से न देख ले। मर कर भी उसको बेचैनी है। वह मर कर भी डर रहा है कि अब मैं तो चला, कहीं मेरी स्त्री किसी के प्रेम में न पड़ जाए!
यह डर भी यही बता रहा है कि प्रेम तो हुआ ही नहीं था। प्रेम ही होता, तो भय कैसा? प्रेम ही होता, तो यह ईर्ष्या कैसी? प्रेम-व्रेम तो कुछ था नहीं; यह एक तरह का अधिकार था। स्त्री परिग्रह थी पुरुष का। अब मर कर भी कब्जा रखना चाहता है! यह तो हद्द हो गई! मुर्दा जिंदा पर कब्जा रखना चाहे!
लेकिन समाज पुरुषों का था। तो पुरुषों ने स्त्रियों को समझाया कि पति परमात्मा है। पुरुष ही समझा रहे हैं स्त्रियों को--कि पति परमात्मा है! और स्त्रियां मान कर बैठ गईं कि पति परमात्मा है। हालांकि पति में परमात्मा जैसा कुछ नहीं दिखाई पड़ता।
सच तो यह है कि अगर परमात्मा भी पति जैसा है, तो स्त्रियां उससे भी डरने लगेंगी। पति में तो परमात्मा जैसा कुछ नहीं दिखता; मगर घबड़ाहट हो सकती है कि कहीं परमात्मा में पति जैसा कुछ न हो।
पुरुषों ने बड़ी हिंसा की है। मनुष्य-जाति के प्रति पुरुषों के अपराध जघन्य हैं। उसमें सती एक जघन्य अपराध है।
मैंने सती की महिमा कही--स्त्री की तरफ से। पुरुष की तरफ से यह महिमा मैं नहीं कह सकता हूं।
तुम प्रसन्न हुए होगे; चिन्मय प्रसन्न हुए होंगे--कि यह बात ठीक! यह दिल को बड़ी राहत देती है कि कोई स्त्री जब हम मर जाएंगे और चिता पर चढ़ाए जाएंगे, तो कोई स्त्री हमारी चिता पर कूद कर मरेगी। यह दिल को बड़ी राहत देती है--कि अहा, हम भी कुछ पुरुष थे! कि क्या गजब के पुरुष थे--कि जिंदा भी स्त्री हमारी दीवानी रही और मरे, तब भी हमारे साथ मरी।
नहीं; मैं ‘सती-प्रथा’ के पक्ष में नहीं हूं। सती-भावना के जरूर पक्ष में हूं। कोई स्त्री को मौज आ जाए...वह अपने आनंद से, अपनी मस्ती से; उसको ऐसा लगे--उसके ही भीतर से लगे। न तो उस पर कोई सामाजिक दबाव होना चाहिए...। और सामाजिक दबाव बड़े सूक्ष्म होते हैं; बड़े परोक्ष होते हैं।
अगर समाज प्रशंसा भी करता है सती की, तो वह भी दबाव है। उसका मतलब है कि अगर यह मर जाएगी पति के साथ चिता पर चढ़ कर, तो समाज प्रशंसा करेगा। अगर नहीं मरेगी, तो प्रशंसा नहीं करेगा। तो सतियों के चौरे बनाए जाते हैं। सतियों की समाधियां बनाई जाती हैं। यह तरकीब है, यह प्रचार है; यह इस बात का प्रचार है कि और स्त्रियां, समझ लो। कि अगर चौरा बनवाना हो, तो यह करना पड़ता है। अगर समाधि बनवानी हो, फूल चढ़वाने हों, तो यह करना पड़ता है!
और जो स्त्रियां यह नहीं करतीं, उन पर किसी न किसी तरह के बदचलन होने का शक तो पैदा होता ही है--कि तुम्हारा पति मर गया, तुम यहां क्या कर रही हो? तुम किसके लिए बैठी हो? अगर अपने प्राण-प्यारे से प्रेम था, तो जाओ उसके साथ; अब तुम्हें यहां रहने का क्या अर्थ है? तुम्हारा अर्थ उसके साथ था। उसकी जिंदगी तुम्हारा अर्थ थी।
यह बात गलत है। यह प्रचार गलत है। और अगर यह प्रचार सही है, तो फिर दूसरी तरफ से भी यही बात होनी चाहिए। तो पुरुष को भी वही करना चाहिए, जो वह स्त्री से चाहता है। लेकिन पुरुष तो दूसरा ही काम करते हैं। स्त्री मरती भी नहीं है, तब से सोचते हैं कि कब मर जाए, कैसे मर जाए; इससे कैसे झंझट छूटे! मर ही रही होती है अस्पताल में, तब ही बैठ कर उसी के पास बैठ कर खाट पर, सोचते हैं कि अब किससे विवाह कर लें। मरघट पर जाते हैं--पत्नी को विदा करने--और वहीं चर्चा शुरू हो जाती है कि अब इनका विवाह कहां हो जाए! कैसे हो जाए!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी। मरते वक्त उसने कहा: नसरुद्दीन, एक बात पूछनी है। सिर्फ एक आश्वासन दे दो।
मुल्ला थोड़ा डरा कि यह मरने के वक्त कहीं ऐसा आश्वासन न ले-ले झंझट का। उसने कहा: पहले तू बता, कि क्या आश्वासन है? उसने कहा: बस छोटा सा आश्वासन है; कोई बड़ी बात तुमसे नहीं मांगती। इतना ही चाहती हूं कि...। यह तो मुझे पता है कि मेरे मरते ही तुम विवाह करोगे। उसका आश्वासन नहीं मांगती--कि मत करो, क्योंकि वह तो तुम्हारे लिए संभव नहीं होगा।...
स्त्रियां अपने पतियों को जानती हैं--इनसे क्या संभव होगा, क्या संभव नहीं होगा।
तो यह नहीं मांगती मैं। यह मांग ज्यादा हो जाएगी। सिर्फ इतना ही मांगती हूं कि मेरे कपड़े, मेरे गहने, तुम जो दूसरी स्त्री घर में लाओ, वह उपयोग न करे। उससे मेरी आत्मा को बड़ा दुख होगा।
मुल्ला ने कहा: तू बिलकुल बेफिकर रह। एक तो मैं शादी करने वाला नहीं; और दूसरा, रेहाना को तेरे कपड़े बैठेंगे भी नहीं।
एक तो मैं शादी करने वाला ही नहीं, और दूसरे रेहाना को तेरे कपड़े आएंगे भी नहीं।--ऐसा पुरुष-चित्त है। पुरुष ने स्त्रियों को देवी बनाना चाहा, ताकि देवियों का ठीक से शोषण किया जा सके।पुरुष ने स्त्रियों को कभी अपने समान नहीं माना।
या तो देवी...! ऊपर रख देता है आसमान में। यह भी तरकीब है शोषण की, क्योंकि जिसको तुम देवी बना लो, फिर उसको व्यवहार करना पड़ता है देवी की तरह। और या पशु।...
तो तुम तुलसीदास में दोनों तस्वीरें पा सकते हो: या तो देवी बना कर बिठाल दिया--सीता को बना दिया देवी। और या फिर शूद्रों, ढोलों, पशुओं के साथ गिनती करवा दी। ‘ये सब ताड़न के अधिकारी...।’
शूद्र गंवार ढोल पशु नारी,
ये सब ताड़न के अधिकारी।
इन सबकी कुटाई-पिटाई होनी चाहिए। एक तरफ यह--कि जैसे ढोल को पीटो तो बजता है, ऐसे ही पत्नी को पीटो तो ही ठीक रहता है। नहीं तो वह बस में नहीं रहती। जैसे पशुओं की पिटाई करनी चाहिए, तो ही कब्जे में रहते हैं। जैसे शूद्रों को...।
अब यह शूद्रों की इतनी पिटाई चलती है मुल्क में, इसमें तुम्हारे तुलसीदास जैसे लोगों का हाथ है। वह जो गांव का ग्रामीण ब्राह्मण किसी शूद्र के झोपड़े में आग लगा देता है, उसको तुम न रोक पाओगे, जब तक ये तुलसीदास हावी हैं। तुलसीदास की जब तक विदाई नहीं होती, तब तक तुम उसको नहीं रोक पाओगे। क्योंकि उसको यही तो जहर मिला है बचपन से, सुनने को। यही तुलसीदास का रामचरितमानस पढ़-पढ़ कर तो इस मुल्क का मानस भ्रष्ट हुआ है।
और दूसरी तरफ यह भी मजा है कि देवी भी...! तो बड़ी हैरानी होती है लोगों को कि यह मामला क्या है? एक तरफ स्त्री को देवी बना देते हैं; बड़ी ऊंचाई पर रख देते हैं। और एक तरफ बिलकुल नीचे, पैर की जूती बना देते हैं! मगर इन दोनों बातों का मतलब एक ही है। ये दोनों तरकीबें हैं शोषण की।
सीता को देवी बना कर जो व्यवहार राम से करवाया गया सीता के प्रति, वह सम्यक व्यवहार नहीं है।
वाल्मीकि ने जब राम युद्ध के बाद जीत जाते हैं और सीता अशोक वाटिका से मुक्त होती है, तो जो शब्द राम ने कहे हैं सीता के प्रति, बड़े अभद्र हैं। राम ने कहे या नहीं, यह सवाल नहीं है। वाल्मीकि ने जो कहलाए हैं; वे शब्द अभद्र हैं।
राम ने यह कहा है कि हे स्त्री, इस बात को खयाल में रख कि युद्ध मैं तेरे लिए नहीं लड़ा। तेरा मूल्य ही क्या है! यह युद्ध तो मैं रघुकुल की प्रतिष्ठा के लिए लड़ा हूं।
फिर अग्नि-परीक्षा...! लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि पुरुषों ने कभी यह न सोचा कि सीता उतने दिन राम से अलग रही; ठीक; चलो अग्नि-परीक्षा। राम भी उतने दिन अलग रहे। इनकी अग्नि-परीक्षा? इनकी अग्नि-परीक्षा की बात नहीं उठी कभी।
ये दोनों को एक ही साथ अग्नि में चढ़ जाना था। दोनों की परीक्षा हो जाती। मामला साफ हो जाता। लेकिन सीता को अग्नि-परीक्षा! और राम को?
नहीं; पुरुष हमेशा अपने को बाहर रखता है नियम के।सब नियम स्त्री के लिए हैं; सब स्वतंत्रता पुरुष के लिए है!
यह समाज पुरुषों ने बनाया; शास्त्र पुरुषों ने रचे; इसका सब ढांचा उनका है।
सीता यह भी नहीं कहती कि और महाराज, आप? आप इतने दिन अलग थे; न मालूम कहां के बंदरों इत्यादियों के साथ--किस-किस के साथ रहे? क्या किया, क्या नहीं किया? आपके बाबत क्या...? आप भी चढ़ो।
नहीं; मगर देवी यह कैसे कहे! देवियां ऐसे वचन नहीं बोल सकतीं। देवियां तो हमेशा वही करती हैं, जो बिलकुल ठीक है। रत्ती भर यहां-वहां चूक नहीं करतीं।
तो सीता का परम आदर...। लेकिन आदर भी तरकीब है शोषण की।--तो चढ़ो। तो चढ़ गई बेचारी।
मगर उससे भी कुछ हल नहीं हुआ। उससे भी कुछ हल नहीं हुआ! अग्नि-परीक्षा भी बहुत कुछ काम नहीं आई।
एक धोबी ने शक पैदा कर दिया! तुम सिर्फ इतना ही सोचते रहे हो कि अग्नि-परीक्षा ले ली। अब भी भरोसा नहीं था राम को? एक धोबी शक पैदा कर दे!
मगर ध्यान रखना: धोबी भी पुरुष है। यह धोबन ने नहीं किया है शक पैदा; यह पुरुष का जाल है।
तो सीता को फिर फिंकवा दिया। जैसे सीता तो दूध में पड़ी हुई मक्खी जैसी है। इसका कोई मूल्य ही नहीं; कोई कीमत ही नहीं; कोई गरिमा नहीं।
अगर राम को ऐसा ही लगता था कि प्रजा में मेरे प्रति संदेह पैदा नहीं होना चाहिए...। एक व्यक्ति में संदेह पैदा हुआ है, तो ठीक था, अपना राजपद छोड़ देते। चले जाते सीता को जंगल लेकर। कहते कि जहां मुझमें श्रद्धा नहीं है, मेरी पत्नी में श्रद्धा नहीं है, वहां मैं नहीं रहूंगा। यह तो बात समझ में आती थी।
लेकिन लोग इसका बड़ा गुनगान करते हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम! कि देखो, एक धोबी के कहने से सीता को छोड़ दिया!
सीता को छोड़ दिया, लेकिन राजपद नहीं छोड़ा। यह तो सीधी सी बात है कि राजपद छोड़ देते कि ठीक है; बात खत्म हो गई। जिस प्रजा में मुझ पर भरोसा नहीं है, मैं हट जाता हूं।
सीता को छोड़ने की तो बात ही क्यों उठती है! नहीं, लेकिन राजपद मूल्यवान है। सीता में क्या रखा है! स्त्री तो संपत्ति है। स्त्री की कुर्बानी दी जा सकती है--हर किसी चीज पर।
फिर भी सीता देवी है, इसलिए कुछ कह नहीं सकती, इसलिए जंगल चली जाती है।
गर्भस्थ नारी को जंगल भेजते हुए राम को जरा भी कठिनाई नहीं होती! यह पुरुषों का जाल है।
राम ने ऐसा किया या नहीं, यह मैं नहीं कह रहा हूं। राम ने क्या किया, मुझे पता नहीं। राम कभी हुए कि नहीं, इससे भी कुछ लेना-देना नहीं। मगर यह पुरुषों का जाल है।
ये सब शास्त्र पुरुष रचते हैं और अपने हिसाब से रचते हैं। इसमें राजनीति है।
तो या तो स्त्री को देवी बना कर रखो, ताकि वह ऐसा कोई काम कर ही न सके; सोच भी न सके।और पुरुष को बिलकुल मुक्त रखो।
हम कहते हैं: पुरुष पुरुष है। पुरुष पुरुष है--इसका क्या मतलब? इसका मतलब--पुरुष को सब सुविधा है।
पुरुष भूल करे, तो हम कहते हैं--आखिर पुरुष है। तुम देखते हो: वेश्याएं हैं दुनिया में; वेश्य नहीं हैं। क्यों? क्योंकि पुरुष को वेश्याओं की जरूरत है; स्त्री के लिए तो सवाल ही नहीं। पुरुष पत्नी भी रखे और गांव में वेश्या भी है। वह सुविधा उसको है--कि वह चला जाए दूसरी स्त्रियों को भोगने।
लेकिन वेश्य नहीं हैं दुनिया में; पुरुष नहीं हैं, जो कि वेश्या का काम कर रहे हों। क्योंकि यह तो हम मान ही नहीं सकते। स्त्री तो देवी है। उसको कहीं ऐसी जरूरतें पड़ती हैं। यह तो पुरुष को ही पड़ती हैं जरूरतें!
यह भी बड़ी मजे की बात है! स्त्री को हम सुविधा नहीं देते--किसी तरह की। जिंदा में नहीं देते; मरने पर भी नहीं देते।
तो मैंने जो सती की महिमा कही, वह स्त्री की तरफ से कही; पुरुष की तरफ से नहीं। मेरी बात को समझने में भूल मत कर लेना। मैं तुलसीदास का हामी नहीं हूं।
पूछते हैं योग चिन्मय: ‘आज की और भविष्य की नारी के लिए सती का क्या मूल्य है? आज की स्त्री भी सती की ऊंचाई को छू सके,...।’
क्यों? ऊंचाई स्त्री को ही छूनी है! तुम्हें ऊंचाई नहीं छूनी? तुम भी तो छूओ! स्त्रियां बहुत छू चुकीं ऊंचाई; अब उनको जरा नीचाई भी छूने दो। उनको आदमी बनने दो। अब यह मजा तुम भी तो लो ऊंचाई छूने का।
नहीं; यह प्रश्न गलत है; पुरुष की तरफ से गलत है। तुम फर्क समझ लेना।
यह किसी स्त्री ने पूछा होता, तो मैंने कुछ और कहा होता। यह किसी पुरुष ने पूछा है, इसलिए मेरी कोई सहानुभूति नहीं है इसमें।
सती की महिमा है; निश्चित महिमा है। इसलिए नहीं कि स्त्री पुरुष पर समर्पित होती है, बल्कि इसलिए कि प्रेम और समर्पण की महिमा है। काश, पुरुष भी ऐसा कर सके, तो महिमा और बढ़ जाएगी!
यह अभी एकंगा रहा; असंतुलित थी यह बात। स्त्रियों ने पुरुषों को बुरी तरह पराजित किया है इसमें। बड़े से बड़े पुरुष भी छोटे पड़ गए।
साधारण से साधारण स्त्री भी प्रेम के मामले में पुरुष को बहुत पीछे छोड़ जाती है।
लेकिन यह होना चाहिए सहज; न कोई सामाजिक दबाव, न कोई सामाजिक--परोक्ष--संस्कार। जो स्त्री अपने को समर्पित कर दे, वह धन्यभागी है। लेकिन जो समर्पित न करे, वह अपमानित नहीं होनी चाहिए।
जो समर्पित न करे, यह उसकी मौज है; अपमान विदा होना चाहिए।
जब से सती की प्रथा का सम्मान हुआ, तभी से विधवा अपमानित हो गई। विधवा का मतलब ही यह है: जो सती होने से रुक गई है।
अपमान क्या है विधवा का? विधवा का अपमान यही है कि जहां सौ स्त्रियां सती हो रही थीं, वहां कुछ स्त्रियां सती नहीं हुईं। फिर धीरे-धीरे नहीं सती होने वाली स्त्रियों की संख्या बढ़ती गई। उनका अपमान बढ़ता गया। सती होना ही चाहिए उन्हें; फिर तो यह नीति न रही। यह जबर्दस्ती हो गई। यह तो कोई पुलिस का कानून हो गया--कि सती होना ही चाहिए!
सती होना ही चाहिए--का सवाल नहीं है। यह तो प्रेम का आविर्भाव है। घटे, तो परम सौभाग्य। न घटे, तो अपमान कुछ भी नहीं।
मेरे नापने का ढंग यह है कि सती का होना न घटे, तो यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं है। कौन मरना चाहता है? किसलिए मरे? और इस पुरुष से प्रेम था; कल किसी और पुरुष से प्रेम हो सकता है; मरने की जरूरत क्या है?
बिलकुल स्वाभाविक है सती न होना; इसमें अपमान जरा भी नहीं है; प्राकृतिक है। यही प्राकृतिक है। तुम्हें एक भोजन का शौक था; फिर आज वह भोजन मिलना बंद हो गया, तो तुम मर थोड़े ही जाओगे। तुम दूसरा भोजन तलाशोगे। तुम्हें एक ढंग के कपड़ों में रस था; आज वे कपड़े नहीं मिलते; नहीं बनते; मिल बंद हो गई। तो तुम कोई नंगे थोड़े ही फिरने लगोगे! तुम कोई दूसरे कपड़े चुनोगे। यह भी हो सकता है कि उतने सुंदर कपड़े न हों वे, जितने बंद हो गई मिल से आते थे, मगर फिर भी क्या करोगे! नंबर दो के कपड़े स्वीकार करोगे। हो सकता है उनकी याद भी आती रहेगी। मगर फिर भी क्या करोगे!
अगर मरुस्थल में तुम मर रहे हो और शुद्ध पानी नहीं मिलेगा, तो तुम गंदा पानी भी पीने को राजी हो जाओगे। करोगे क्या? इसका यह मतलब नहीं कि तुम शुद्ध पानी के खिलाफ हो। तुम जानते हो कि यह मजबूरी है।
पति से तुम्हारा प्रेम था; वह चल बसा। यह बिलकुल स्वाभाविक है कि तुम दूसरा पति खोज लो। इसमें जरा भी अपमान नहीं है। यह मेरी दृष्टि है। लेकिन अगर कोई स्त्री या कोई पुरुष...(दूसरे के बाबत मुझे संदेह है।)...अगर समर्पित होना चाहे, तो यह बड़ी पारलौकिक बात है। इसका सम्मान तो होना चाहिए; लेकिन जो न करे, उसका अपमान नहीं होना चाहिए।
न करने में पाप नहीं है; करने में पुण्य है। करने में बड़ी महिमा है। मगर आए हृदय से; उठे भीतर से। प्रेम का ही कृत्य हो; संस्कार का नहीं--शास्त्र का नहीं, समाज का नहीं।
यह प्रेम ही तुम्हें कह दे कि अब मेरे होने में क्या अर्थ! जिसके साथ आनंद जाना था, जिसके साथ जीवन जाना था, जिसके साथ जीवन का श्रृंगार और सौंदर्य था, वह गया; मैं भी विदा लेता हूं। अब अकेले होने में कोई अर्थ नहीं रहे।
मगर ऐसा समझा-बुझा कर नहीं अपने को--कि अब क्या सार, अब क्या जीएंगे; अब कौन भोजन लाएगा, अब कौन रोटी का इंतजाम करेगा; अब कहां तलाशेंगे इस उम्र में किसी दूसरे आदमी को; लोग क्या कहेंगे! ये हेतु अगर उसमें हों, तो वह आत्महत्या है--सती होना नहीं। सती और आत्महत्या में फर्क है।
सती का अर्थ है: अब जीना तो आत्महत्या होगी; अब मरने में जीवन है। और आत्महत्या का अर्थ है कि अब जीने में बड़ी मुश्किल होगी, झंझटें आएंगी; कभी जिंदगी में कमाया नहीं। स्त्री कभी गई नहीं कमाने। नौकरी नहीं की; अब कहां नौकरी करूंगी! किसके दरवाजे भीख मांगूंगी? बच्चों को बड़ा करना है; कैसे होगा; क्या होगा? यह झंझट तो बहुत बड़ी है; इससे तो बेहतर मर जाओ। यह आत्महत्या है।
आत्महत्या की प्रशंसा नहीं हो सकती। आत्महत्या तो हिंसा है और पाप है।
न कोई सती हो--यह स्वाभाविक।कोई सती हो जाए--यह पारलौकिक। सती होने का आदर्श समझाया नहीं जाना चाहिए, सिखाया नहीं जाना चाहिए--अनसीखा आना चाहिए। और यह उतना ही पुरुष के लिए लागू है, जितना स्त्री के लिए लागू है। यह एकतरफा नहीं हो सकता। एकतरफा हो तो अन्याय है।
आखिरी प्रश्न :
जीवन का अर्थ क्या है?
जीवन में अपने आप अर्थ होता नहीं; अर्थ हमें डालना होता है। जीवन तो एक अवसर है; डालोगे, तो अर्थ हो जाएगा।
जीवन तो ऐसे है, जैसे कोरा कैनवास; उस पर चित्र रंगोगे, तो अर्थ आ जाएगा। तुम्हारी कुशलता पर अर्थ निर्भर होगा। एक पिकासो बनाएगा चित्र, तो लाखों का हो जाएगा। शायद तुम बनाओ, तो लाखों का न हो।
अर्थ जीवन में उतना होता है, जितना हम डालते हैं।
जीवन अपने में खाली है; जीवन कोरा अवसर है। संभावना सब है; यथार्थ कुछ भी नहीं है। इसलिए अक्सर लोग सोचते हैं: जीवन व्यर्थ है! क्या अर्थ?
मेरे पास आते हैं पूछने कि क्या है जीवन में अर्थ? वे इस तरह सोच रहे हैं कि अर्थ कोई रेडीमेड चीज है--कि यहां रखी है; आपको तैयार मिलनी चाहिए! पचा-पचाया भोजन है।
नहीं; अर्थ सृजनशीलता से उत्पन्न होता है। कुछ गीत रचो; कुछ मूर्ति बनाओ; कुछ नाचो। कुछ प्रेम करो; कुछ ध्यान करो। कुछ खोजो; कुछ जिज्ञासा में उतरो। और तुम पाओगे: अर्थ आना शुरू हुआ।
और जितना बहुआयामी तुम्हारा व्यक्तित्व हो, जितनी अनंत-अनंत खोजें तुम्हारे जीवन को घेर लें; जितना तुम्हारा दुस्साहस होगा--अभियान पर निकलने का, उतना ही अर्थ होगा।
इसी जीवन में कोई बुद्ध हो जाता है--कोई कबीर; और कोई ऐसे ही धक्के खाते-खाते मर जाता है।
अर्थ है नहीं; अर्थ पैदा करना है।
ठंडा हुआ ये जिस्म तो रह जाएगी बस खाक
उठ गर्मिए इन्फास को इक शोला बना ले।
तू मौत के सन्नाटे में कुछ सुन न सकेगा
आवाज को दिल की अभी इक नारा बना ले।
कुछ देख न पाएंगी जो बंद हो गईं आंखें
तू कसरते अनवार को इक जल्वा बना ले।
उठ जाएगा परदा तो यहां कुछ न रहेगा
नज्जारगिए शौक को इक परदा बना ले।
इक लम्हा है वो जिसमें अजल और अबद गुम
कुल उम्र का हासिल वही एक लम्हा बना ले।
इक नगमा है वो जिसमें समा जाते हैं सब सुर
हस्ती को तू अपनी वही इक नगमा बना ले।
इक नुक्ता है वो अरसाए कोनौन है जिसमें
तू वसअते दिल को वही इक नुक्ता बना ले।
इक शोला है वो नूरे अहद है जो सरापा
खूने रंगे जां को वही इक शोला बना ले।
कुछ करो!
ठंडा हुआ ये जिस्म तो रह जाएगी बस खाक
उठ गर्मिए इन्फास को इक शोला बना ले।
इन श्वासों का थोड़ा उपयोग कर लो! इन श्वासों में दौड़ती गर्मी का कुछ उपयोग कर लो! यह जो खून है दौड़ता हुआ तुम्हारे प्राणों में, इसका कुछ उपयोग कर लो! यह जो धड़कन है, इसका कुछ उपयोग कर लो! यह जो चेतना का दीया तुममें जल रहा है, इसका कुछ उपयोग कर लो! जल्दी ही सब खाक रह जाएगी। हां, जो उपयोग कर लेंगे, वे उड़ चलेंगे। खाक यहां पड़ी रह जाएगी और हंस चलेगा दूसरे देश।
ठंडा हुआ ये जिस्म तो रह जाएगी बस खाक
उठ गर्मिए इन्फास को इक शोला बना ले।
तू मौत के सन्नाटे में कुछ सुन न सकेगा...
अभी कान हैं; अभी कुछ कर लो! सुनने की कला सीख लो! श्रवण की कला सीख लो! अभी आंखें हैं; देखने की कला सीख लो!
तू मौत के सन्नाटे में कुछ सुन न सकेगा
आवाज को दिल की अभी इक नारा बना ले।
अभी दिल में कुछ है, भजन उठा लो इससे, या गाली उठा लो। तुम पर निर्भर है। अर्थ तुम पर निर्भर है। या तो गाली जगा लो; यही श्वासें गाली बन जाएंगी। और या भजन को उठने दो--हरिभजन को उठने दो; राम की याद आने दो।
कुछ देख न पाएंगी जो बंद हो गई आंखें
तू कसरते अनवार को इक जल्वा बना ले।
इसके पहले कि आंखें बंद हो जाएं, जो देखने योग्य है, उसे देख लो! वह देखने योग्य चारों तरफ मौजूद है। वह फूलों में छिपा है, पहाड़ों में छिपा है, दरियाओं में छिपा है, झरनों में छिपा है। वह सब तरफ मौजूद है। वह लोगों में छिपा है। इसके पहले कि आंखें बंद हो जाएं, अदृश्य को देख लो! फिर तुम्हारे जीवन में अर्थ होगा।
इक लम्हा है वो जिसमें अजल और अबद गुम
एक ऐसा क्षण है समाधि का, ध्यान का जहां न आदि है और न अंत है।
इक लम्हा है वो जिसमें अजल और अबद गुम
कुल उम्र का हासिल वही इक लम्हा बना ले।
बस, वही एक क्षण तुम्हारे जीवन का कुल हासिल होगा; वही जीवन की उपलब्धि है। उस क्षण को पा लेना, जहां प्रारंभ और अंत एक हो जाते हैं; जहां स्रोत और गंतव्य एक हो जाते हैं; जहां--जहां से हम आए हैं और जहां हम जा रहे हैं--दोनों एक साथ प्रकट हो जाते हैं, उस क्षण को ही पा लोगे, तो अर्थ है।
इक लम्हा है वो जिसमें अजल और अबद गुम
कुल उम्र की हासिल वही इक लम्हा बना ले।
इक नगमा है वो जिसमें समा जाते हैं सब सुर...
एक ऐसा गीत तुममें पड़ा है, छिपा पड़ा है; जैसे बीज में वृक्ष छिपा पड़ा होता है, ऐसा एक नगमा तुममें छिपा पड़ा है।
इक नगमा है वो जिसमें समा जाते हैं सब सुर
हस्ती को तू अपनी वही इक नगमा बना ले।
छेड़ो अपनी वीणा के तार। जगाओ। ऐसे बैठे-बैठे मत कहो कि जीवन में अर्थ क्या है?
ऐसे बैठे-बैठे कोई भी अर्थ नहीं है; अनर्थ ही अनर्थ है। कुछ करो! अभी जी रहे हो; इस जीवन की ऊर्जा का कोई सक्रिय उपयोग करो! बन सकते हो तुम नगमा।
इक नुक्ता है वो अरसाए कोनौन है जिसमें
एक छोटा सा बिंदु तुम्हारे भीतर है, जिसमें सारा जगत छिपा हुआ है।--पिंड में ब्रह्मांड; तुम्हारे अणु में विराट छिपा है।
तू वसअते दिल को वही इक नुक्ता बना ले
वही छोटा सा शून्य बिंदु तुम बन जाओ। तुम बिंदु बन जाओ, तो सिंधु बनने का उपाय शुरू हो जाता है।
ऐसे बाहर बैठे-बैठे राह मत देखते रहो भिखारी की तरह कि कोई आएगा और तुम्हारी झोली में जीवन का अर्थ डाल जाएगा।
कोई नहीं आया है, न आएगा। किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? उठो! कुछ करो! इस उठने और करने का नाम ही संन्यास है। उठो, तो पा लोगे। एक दिन तुम भी कह सकोगे: ‘कहै कबीर मैं पूरा पाया।’
मैं तुमसे कहता हूं: ‘कहै कबीर मैं पूरा पाया।’
एक दिन तुम भी कह सकोगे। यह तुम्हारी क्षमता है। यह तुम्हारे लिए चुनौती है।
जीवन में अर्थ भीख में नहीं मिलता; जीवन में अर्थ जगाना होता है। जन्म देना होता है अर्थ को।
अर्थ हो सकता है, मगर अपने आप नहीं होगा। राह मत देखो।
भिखमंगे खाली आते, खाली जाते। खाली तो तुम आए हो, लेकिन खाली जाना जरूरी नहीं है। भर कर जा सकते हो।
ये सारे सूत्र उसी अर्थ को जगाने के लिए हैं।
आज इतना ही।
संत परमात्मा की खोज में परिवार और समाज को छोड़ कर जंगल में क्यों चले जाते हैं? कृपया समझाएं।
और जाएं भी तो कहां जाएं? और कोई स्थान भी नहीं है।
समाज और परिवार ने ही तुम्हें विकृत किया है; उससे ही मुक्त होना होगा। चाहे कोई वस्तुतः समाज को छोड़ कर चला जाए तो; या चाहे कोई मानसिक रूप से समाज को छोड़ दे तो, लेकिन समाज से मुक्त तो होना ही पड़ेगा। इसमें भेद हो सकता है।
चरणदास छोड़ कर चले गए संसार; और कबीरदास संसार में रहे; इससे यह मत समझना कि कबीरदास ने संसार नहीं छोड़ा। कबीरदास ने भी संसार छोड़ा; लेकिन संसार में रहते हुए छोड़ा।
संसार तो छोड़ना ही होगा। संसार की सीमा से तो मुक्त होना ही होगा। जो भीतर से मुक्त हो सके--हो जाए। उससे शुभ और कुछ भी नहीं। लेकिन जो पाए: अकेले भीतर से मुक्त होना असंभव है; बाहर से भी मुक्त होना पड़ेगा; अगर वैसा जरूरी मालूम पड़े, तो वह भी करना जरूरी है। लेकिन मुक्त तो होना ही होगा।
तुम्हारे मन पर ये अंधकार की जो पर्तें हैं, समाज ने रखी हैं। तुम जब पैदा हुए थे, तो यह अंधेरा लेकर न आए थे। तुम जब पैदा हुए थे, तो परमात्मा के साथ तुम्हारा रास चल रहा था। ये जो दीवालें उठाई हैं--समाज ने उठाई हैं, परिवार ने उठाई हैं, संस्कार ने उठाई हैं।
तुम जब आए थे, तो हिंदू की तरह नहीं आए थे। मुसलमान की तरह नहीं आए थे। जैन की तरह नहीं आए थे। तुम जब आए थे, तो कोई विचार लेकर नहीं आए थे; तुम जब आए थे, तो तुम्हारी कोई धारणा नहीं थी। तुम्हें यह भी पता नहीं था कि परमात्मा है या नहीं है। तुम न आस्तिक थे, न नास्तिक थे। तुम जब आए थे, कोरे कागज थे। फिर से कोरा कागज होना है। बिना कोरा कागज हुए तुम परमात्मा को न पा सकोगे। कोरा हो जाना ही परमात्मा को पाने का उपाय है। इसलिए तो कबीर शून्य की इतनी बात करते हैं: ‘गिरह हमारा सुन्न में।’
शून्य में घर बनाना है। उस शून्य को समाज, राज्य, राजनेता, धर्मगुरु, पंडित, पुरोहित, शिक्षा, इन सबने खूब भर दिया है। तुम्हारा कोरा हृदय बहुत गुद गया है। इस सबको धोकर साफ कर लेना है। इससे तुम मुक्त होओगे, तो ही जान पाओगे कि तुम कौन हो। नहीं तो तुम्हारी अपने से पहचान ही न होगी। ये हजार स्वर तुम्हारे भीतर बोलते रहेंगे कि तुम यह हो, कि तुम यह हो, कि तुम यह हो--और तुम्हारा मूल स्वर इस आवाज, शोरगुल में पड़ा ही रह जाएगा, उसका पता ही न चलेगा।
तो तुम पूछते हो कि ‘संत परमात्मा की खोज में परिवार, समाज छोड़ कर जंगल क्यों चले जाते हैं?’
और कहां जाएं?
दो ही उपाय हैं: या तो यहीं रहें, तो भी छोड़ना तो पड़ेगा ही। फिर जल में कमलवत होना पड़ेगा।
रहो समाज में, लेकिन इसे ज्यादा गंभीरता से मत लो; खेल समझो। जैसे आदमी शतरंज खेलता है, तो लकड़ी के खिलौनों को राजा-वजीर मान लेता है। जब खेलता है, तो राजा-वजीर मान कर ही खेलता है। ऐसे ही खेलो; खिलाड़ी बनो। तब कहीं जाने की जरूरत नहीं। क्योंकि तुमने यहीं से मुक्त होने का रास्ता खोज लिया।
समाज में रहो, लेकिन अपने भीतर जीओ। जब मौका मिले, जल्दी से भीतर सरक जाओ। असली जंगल वहीं है। बाहर का जंगल थोड़ा सा सहयोग दे सकता है भीतर के असली जंगल को खोज लेने में।
जंगल का क्या अर्थ होता है?--प्राकृतिक, स्वाभाविक, परमात्मा का बनाया हुआ; जैसा है वैसा। आदमी के हाथों का कोई निशान नहीं।
तो बाहर का जंगल और भीतर का जंगल--कहीं भी जाओ, लेकिन जंगल तो जाना ही पड़ेगा। और तुम मुझसे पूछते हो, तो मैं कहूंगा, भीतर के जंगल में ही जाना। क्योंकि अक्सर ऐसा भी हो गया कि बाहर के जंगल में लोग जाकर बैठ गए और भीतर के जंगल में नहीं जा पाए। बाहर से जंगल में चले गए और वहां समाज की ही याद आती रही--परिवार की, प्रियजनों की, पत्नी की, पति की, बच्चों की, दुकान की--वही याद आती रही। तो तुम गए भी और कहीं न गए।
जैसे संसार में रह कर भी लोग मुक्त हो सकते हैं, ऐसे ही जंगल में रह कर भी अमुक्त रह सकते हैं। जैसे संसार की भीड़ में खड़े होकर भी कोई चाहे तो अकेला हो सकता है; ऐसे ही जंगल के अकेलेपन में भी कोई चाहे तो संसार की पूरी भीड़ में घिरा रह सकता है। क्योंकि भीड़ मानसिक है।
मगर अगर तुम्हें लगे कि बाहर का जंगल भी सहयोग देगा भीतर के जंगल में, तो कुछ हर्ज नहीं है। परमात्मा को खोजना ही है।
पर ध्यान रखना: जिन्होंने जंगल में खोजा, वे भी एक दिन वापस लौट आते हैं। जंगल में ही अटके नहीं रह जाते। शायद प्रशिक्षण के लिए ठीक था। महावीर जंगल गए, बुद्ध जंगल गए, लेकिन लौट तो आए समाज में। जो पाया था, उसे बांटने तो यहीं आ गए। तो चाहे यहां रह कर पाओ और चाहे कहीं रह कर पाओ, लुटाना तो यहीं होगा।
जैन शास्त्र बहुत चर्चा करते हैं महावीर के जंगल जाने की। लेकिन इस बात की बिलकुल चर्चा नहीं करते कि फिर महावीर लौट क्यों आए? अगर जंगल में ही सब था, तो वहीं रह जाते!
नहीं, वह तो प्रयोगमात्र था। वह तो समाज से छूटने के लिए एक व्यवस्था, विधिमात्र थी। दूर हट गए, ताकि सब तरह अपने में रम जाएं। जब रम गए, जब कोई भय न रहा; जब यह पक्का हो गया कि अब दुनिया की कोई चीज डांवाडोल नहीं करेगी; धन सामने पड़ा रहेगा, तो भी लोभ मेरे भीतर नहीं उठेगा। कोई गाली भी देगा, तो मेरे भीतर अपमान नहीं जगेगा। और सुंदर से सुंदर व्यक्ति निकलेगा, तो मेरे भीतर वासना की तरंग न उठेगी। जब यह पक्का हो गया, तो अब क्या डर! लौट आए।
तुम अपने में सोच लेना। अगर यहीं रह कर कर सको, इससे बेहतर कुछ भी नहीं। क्यों व्यर्थ आना-जाना कहीं? न कर सको, तो नंबर दो की बात है। तो चाहे कुछ दिन के लिए हट जाना पड़े एकांत में, हट जाना। मगर ध्यान रखना कि वह कुछ दिन का ही हो हटना। वह तुम्हारी आदत न बन जाए। ऐसा न हो कि अभी तुम संसार पर निर्भर हो, कल जंगल पर निर्भर हो जाओ! क्योंकि जहां आदत है, वहीं बंधन है। जहां बंधन है, वहीं संसार है।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि बुरी आदतों में भी लोग बंद होते हैं! अच्छी आदतों में भी बंद हो जाते हैं! कोई आदमी सिगरेट पीता है, हम कहते हैं, बुरी आदत है। और कोई आदमी सिगरेट की तरह ही माला जपता है, न जपे तो तलब लगती है। जपता है माला, तो कुछ खास रस नहीं आता। सिगरेट पीने वाले को भी कुछ खास रस नहीं आता, नहीं जपता तो बेचैनी होती है। सिगरेट पीने वाले को भी, न पीए तो बेचैनी होती है।
हालांकि माला और सिगरेट बड़ी अलग-अलग बातें हैं। माला बहुत निर्दोष है, कोई नुकसान तुम्हें नहीं पहुंचाएगी। कितनी ही जपो, न तो क्षयरोग होगा, न कैंसर होगा। कोई माला इस तरह के उपद्रव नहीं कर सकती। लेकिन जहां तक गहरी बात का संबंध है, दोनों आदतें हो गईं। आदतें हो गईं, तो दोनों बंधन हो गईं।
जिसे मुक्त होना है, उसे किसी आदत का बंधन नहीं होना चाहिए। ऐसा न हो कि तुम संसार से तो भागो, फिर जंगल में जकड़ जाओ। फिर वहां से लौट न सको। फिर वादियों से, पहाड़ों से, वृक्षों से, पशु-पक्षियों से प्रेम लग जाए, तो वहीं परिवार बस गया।
परिवार के लिए आदमी ही होना जरूरी थोड़े ही है। एक कुत्ते से प्रेम बन सकता है और तब वही परिवार हो गया। यह भी हो सकता है कि जंगल के सन्नाटे से मोह लग जाए; तो जहां मोह है, वहां संसार है।
संसार से मुक्त होने का अर्थ क्या होता है? संसार से मुक्त होने का अर्थ होता है: मन से मुक्त होना। मन यानी मोह, लोभ, काम, क्रोध, इन सबका जोड़।
तुम जंगल में बैठे हो; सब सन्नाटा है; बड़े प्रसन्न हो। क्या यह प्रसन्नता बाजार में भी कायम रह सकेगी? रह सके, तो ही तुमने पाई। अगर बाजार जाकर खो जाए, तो पाई ही नहीं। यह पाना कुछ पाना हुआ? यह तो जंगल पर निर्भरता हुई। यह शांति और सन्नाटा जंगल का था, तुमने नाहक अपना समझ लिया। तुम्हारा जो है, तुम्हारे साथ रहेगा--जहां तुम रहो।
इसलिए पहली बात तो मैं सुझाऊंगा: कहीं जाना मत। क्योंकि यह सिर्फ आदत का बदलना हो जाएगा। यहीं पहले प्रयोग कर लो। और यहीं हो सकता है।
पत्नी नहीं छोड़नी है, पत्नी के प्रति पत्नी-भाव छोड़ना है। मेरी-तेरी का भाव छोड़ देना है। कौन किसका? चार दिन का संग-साथ है। अजनबी हैं हम सब यहां। राह पर मिल गए यात्री। साथ-साथ चल लिए थोड़ी देर। मगर इससे मोह मत बसा लेना। इससे ऐसा मत समझ लेना कि इस पत्नी के बिना जी न सकोगे; कि यह पत्नी तुम्हारे बिना न जी सकेगी। इस पत्नी पर कब्जा मत कर लेना। और न ही इस पत्नी को अपने पर कब्जा कर लेने देना। गुलाम मत बनना एक-दूसरे के। स्वतंत्र रहना। अपनी स्वतंत्रता को कायम रखना। और दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करना। तो पत्नी विदा हो गई। फिर तुम रहो पत्नी के साथ, फिर कोई बाधा नहीं है।
दुकान पर बैठो। इस दुकान को भी परमात्मा का दिया हुआ आदेश समझो। उसने तुम्हें भेजा; यही उसकी मर्जी होगी। यही करवाए, तो यही करेंगे। मगर करेंगे--मालिक न बनेंगे। मालिक वही है। जिस दिन हटा लेगा दुकान से, उस दिन हट जाएंगे। जिस दिन दिवाला निकाल देगा दुकान का, उस दिन खड़े होकर हंसेंगे कि दिवाला निकल गया!
इपिटेक्टस यूनान में एक बड़ा संत हुआ। वह गुलाम था--एक सम्राट का गुलाम था। उन दिनों गुलाम होते थे। सम्राट को पता लगा कि यह तो बड़ा पहुंचा हुआ फकीर है और यह कहता है कि मैं शरीर नहीं हूं। सम्राट ने कहा: परीक्षा करनी जरूरी है। उसे बुलाया। दो पहलवान लगा कर उसका पैर मरोड़ने को कहा।
जब उन्होंने पैर मरोड़ा, तो वह फकीर बोला कि देखो, मरोड़ तो रहे हो, लेकिन टूट जाएगा। जैसे कि अपने से कुछ लेना-देना नहीं। जैसे कि कोई और किसी चीज को मरोड़ता हो, और कोई कह दे कि भाई, टूट जाएगी। ज्यादा न मरोड़ो। ऐसे ही उसने कहा कि मरोड़ तो रहे हो, मजे से मरोड़ो; मगर कहे देता हूं, पीछे पछताओगे; टूट जाएगी। यह टांग टूट जाएगी इतना मरोड़ोगे तो।
लेकिन सम्राट ने कहा: मरोड़े जाओ। जब बिलकुल टांग टूटने के करीब आ गई, चटकने लगी; उसने कहा कि देखो, अभी भी समझ जाओ। अब जरा और आगे गए कि गई।
मगर अभी भी वह यह नहीं कह रहा है कि मेरी टांग मत तोड़ो! चिल्ला नहीं रहा है कि मुझे लंगड़ा कर दोगे! जब वे बिलकुल तोड़ने लगे, तो उसने सम्राट से कहा: सावधान, तुम्हारा गुलाम लंगड़ा हो जाएगा। तुम समझो। मेरा कुछ बिगड़ता नहीं है; नुकसान तुम्हारा है। फिर मुझसे मत कहना।
लेकिन सम्राट तो पूरी परीक्षा लेने को ही था। उसने टांग तुड़वा दी। जब टांग टूट गई, तो फकीर हंसने लगा। उसने कहा: हमने पहले ही कहा था। अब भोगो। मगर एक क्षण को भी तादात्म्य पैदा नहीं हुआ। यह नहीं कहा: मेरी टांग! बस, यही संसार में रहते हुए मुक्त होने का सूत्र है।
भूख है, तो उसकी। शरीर है, तो उसका। सब उसका। ऐसे अर्पण की भाव-दशा में जीओ, तो कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं।
यह भी बड़ा घना जंगल है। ये लोग भी चारों तरफ, वृक्षों ही जैसे हैं। यह भीड़-भाड़ भी, यह बाजार भी--यह भी बड़ा घना जंगल है। और जंगल क्या चाहिए! मगर अगर पाओ कि यह संभव नहीं है, इतने तुम समर्थ नहीं हो, इतने तुम बलशाली नहीं हो; समझो--पाओ कि कमजोर हो: यह तुमसे न हो सकेगा; इतनी उलझन में जागना तुमसे न हो सकेगा; तुम्हें थोड़ी निश्र्चिंतता चाहिए, तो हट जाओ जंगल कुछ दिन के लिए। कुछ हर्जा नहीं है।
समझदार आदमी को वर्ष में महीने, दो महीने के लिए, पंद्रह दिन के लिए, जितनी सुविधा हो, हट ही जाना चाहिए। दो-चार साल में मौका बना कर चार-छह महीने की छुट्टी लेकर जंगल हट ही जाना चाहिए। मगर जंगल की आदत मत बना लेना। जंगल पहुंच कर फिर यह मत कहना कि अब मैं वापस नहीं आ सकता। क्योंकि यहां बड़ी शांति है और वहां बड़ी अशांति है।
शांति न तो यहां होती है, न वहां होती है। शांति भीतर होती है। जंगल के गुलाम मत बन जाना। फिर मजे से जाओ।
तुम पूछते हो : ‘संत क्यों हट जाते हैं?’
और क्या करें?
समाज ने विकृत किया है; समाज की छाया से थोड़ा दूर हट जाना उपयोगी हो सकता है।
मैं इसको कोई और ज्यादा मूल्य नहीं दे रहा हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुमने कोई बहुत बड़ा चमत्कार कर दिया--कि तुम जंगल चले गए। अगर तुमने मेरी बात ठीक समझी, तो मैं यही कह रहा हूं कि तुम नंबर एक के बुद्धिमान आदमी नहीं हो; नंबर दो के हो--दोयम। नंबर एक तो मैं जनक को कहता हूं, जो सिंहासन पर बैठे-बैठे सिंहासन से मुक्त हो गया। बुद्ध को नंबर दो कहता हूं; सिंहासन से हटना पड़ा पहले। भौतिक रूप से हटना पड़ा, तब बोध का जन्म हुआ। जनक को वहीं हो गया। बात वहीं समझ में आ गई। कहां जाना; कहां आना? जहां थे, वहीं रहते-रहते दीया जला लिया।
लेकिन मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि जबर्दस्ती नंबर एक होने की कोशिश करना। नहीं हो सके, तो कोई अड़चन नहीं है। मुक्ति तो चाहिए ही; परमात्मा को तो पाना ही है। कैसे भी हो।
इसलिए जंगल जाने वाले का मेरे मन में कोई बहुत समादर नहीं है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मैं यह कहता हूं कि तुम संसार में ही रहना। चाहे परमात्मा से भी चूकना पड़े, मगर जंगल मत जाना; यह मेरा मतलब नहीं है। कोई उपाय न हो, तो करना।
जंगल जाना ऐसे है, जैसे सर्जरी। पहले डॉक्टर दवा देता है। दवा से ठीक हो जाए, तो ठीक। नहीं दवा से ठीक हो, तो फिर हाथ-पैर काटने पड़ते हैं। ऐसे ही अगर यहीं ठीक हो जाए, तो सबसे बेहतर। यहां ठीक न हो, तो फिर सर्जरी; तो फिर जंगल चले जाना।
दूसरा प्रश्न:
आपके आश्रम में यदि कोई एक ही साधना-पद्धति हो, तो क्या साधकों को ज्यादा सुविधा नहीं होगी?
एक तरह के साधकों को होगी, जिनको वह पद्धति अनुकूल पड़ेगी। लेकिन वह तो छोटा सा अल्प मत होगा। यह द्वार सबके लिए है। यहां भिन्न-भिन्न वृत्ति, भिन्न-भिन्न ढंग, भिन्न-भिन्न रंग के लोगों के लिए मार्ग है।
यही तो अड़चन अतीत में हो गई। इसी सुविधा के कारण तो दुनिया में इतने धर्म पैदा हो गए--इसी सुविधा के खयाल से।
तो जो भक्ति की विधि से चलेगा, वहां ज्ञान की चर्चा न होगी। जो ज्ञान की विधि से चलेगा, वहां भक्ति की चर्चा न होगी। चर्चा तो दूर, जो ज्ञान की विधि से चलेगा, वह भक्ति का खंडन करेगा। क्योंकि ज्ञान की विधि को पूरी तरह हृदय में बिठाने के लिए वह खंडन जरूरी हो जाएगा। और जो भक्ति का समर्थक है, वह ज्ञान का खंडन करेगा।
तो सारे शास्त्र खंडनों से भर गए। और प्रत्येक पद्धति थोड़े से लोगों के काम की है। इसलिए कोई धर्म सार्वलौकिक नहीं हो पाया। कोई धर्म सार्वभौम नहीं हो पाया। सबको जगह ही न बची उसमें।
अब जैसे जैन धर्म है। वह पुरुषार्थ का धर्म है; तो जिन लोगों को बहुत पुरुषार्थ में रस है, जिनके होने का ढंग पुरुष का ढंग है--आक्रमक--उनके लिए तो जमा। संकल्प का मार्ग है। लेकिन जिनका ढंग स्त्रैण है, जिनका ढंग समर्पण का है, जिनका रास्ता प्रेम का है, जिनके हृदय में बड़े भाव उद्भूत होते हैं, उनके लिए नहीं जमा।
तो जो भक्त जैन घर में पैदा हो जाए--अभागा। क्योंकि उसे वहां मार्ग नहीं मिलेगा। और दूसरी तरफ जाने की सुविधा भी नहीं मिलेगी। क्योंकि बचपन से सुनेगा: भक्ति गलत है। बचपन से सुनेगा कि भक्त की तो बात ही छोड़ो; भक्तों के जो भगवान हैं कृष्ण, वे भी नरक में पड़े हैं! जैनों ने उन्हें नरक में डाल रखा है। क्योंकि जैनों के हिसाब से यह तो बड़े राग की बात हो गई: मोरमुकुट बांधे, पितांबर पहने, बांसुरी हाथ में लिए, गहनों से सजे! यह कोई वीतराग का ढंग है? महावीर नग्न खड़े हैं। यह है ढंग मोक्ष जाने का।
कृष्ण और महावीर को सामने खड़ा करो, तो किसी के मन में महावीर के प्रति सदभाव उत्पन्न होगा कि यह है त्याग। सब छोड़ा। नग्न हुए। सब छोड़ा--घर-द्वार, धन-संपत्ति। यह है त्याग।
मगर किसी के मन में कृष्ण की मनमोहिनी सूरत बस जाएगी। कोई मस्त होने लगेगा, वे प्यारी आंखें देख कर। कोई डोलने लगेगा, वह बांसुरी का धुन सुन कर। वह कृष्ण के पैरों में बंधे घुंघरू किसी के हृदय में बजने लगेंगे। कोई ऐसे मस्त हो जाएगा, जैसे बिना पीए शराब पी गया हो। महावीर उसे रूखे-सूखे लगेंगे। वह यह सोचेगा: अगर महावीर जैसे लोग मोक्ष जाते हैं, तो मुझे मोक्ष जाना ही नहीं। ऐसे सज्जन वहां खड़े होंगे जगह-जगह--नंग-धड़ंग; ऐसा मोक्ष, मुझे जाना ही नहीं। ऐसा सूखा-साखा मोक्ष क्या करेंगे?--खाएंगे, पीएंगे, ओढ़ेंगे--क्या करेंगे ऐसे मोक्ष को? आप ही लोग सम्हालो।
जहां कृष्ण हों, वहीं जाएंगे। भक्त तो कहेगा: अगर नरक में पड़े हैं, तो नरक ही जाएंगे। क्योंकि यह संगीत की वर्षा, यह समारोह, यह आनंद का झरना, यह गीत; कृष्ण के साथ नरक भी किसी को प्यारा लगेगा। और किसी को महावीर के साथ स्वर्ग में बैठ कर भी ऐसा लगेगा कि कहां फंस गए। अब कैसे इन सज्जन से मुक्ति पाएं! छुटकारा अब मोक्ष से कैसे हो?
तुम जरा सोचना। और दोनों में कोई भी गलत नहीं है। अपनी-अपनी वृत्ति, अपने-अपने रुझान, अपने-अपने व्यक्तित्व की बात है।
जो बुद्धि से सोचेगा, उसे महावीर जमेंगे। जो हृदय से सोचेगा, उसे कृष्ण जमेंगे। मगर हृदय भी है और बुद्धि भी है। और किन्हीं में हृदय प्रबल है और किन्हीं में बुद्धि प्रबल है।
तुम्हारी बात मैं समझा। तुम्हारा प्रश्न समझा। तुम पूछ रहे हो कि जब आप अष्टवक्र पर बोलते हैं, तो फिर अष्टावक्र पर ही रुकें।
परसों ही किसी ने मुझसे कहा कि हम तो समझे थे कि महागीता में सब मिल गया। अब, जब हम संतों की बात सुनते हैं, तो हमें बड़ी बेचैनी होती है। अब हम क्या करें? हम तो समझे थे, अष्टावक्र की बात आपने कह दी--सब मिल गया। तो अपना साक्षीभाव सम्हालेंगे।
यह तो भक्त की बात तो साक्षी की है ही नहीं। भक्त तो कहता है: लीनभाव, तल्लीन-भाव। साक्षी--बात ही गलत है। साक्षी का मतलब: दूर खड़े होकर देखो। भक्त कहता है: डुबकी लगाओ। कहां दूर खड़े होकर देखोगे? भगवान को दूर खड़े होकर देखोगे? इससे ज्यादा और कुफ्र क्या होगा? भगवान में तो डूब जाओ; बचो ही मत, लीन हो जाओ।
तो तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। तुम्हारे प्रश्न का प्रसंग भी मैं समझता हूं। तुम्हें अड़चन होती है।
कभी मैं भक्त पर बोलता; कभी ज्ञानी पर बोलता। कभी ध्यानियों पर बात करता; कभी प्रेमियों की बात करता। फिर उनमें भी बहुत-बहुत रूप हैं। ध्यान के भी अनेक ढंग हैं। ऐसे ही भक्ति के भी अनेक ढंग हैं। मैं सारे ढंगों की बात करता।
तुम कहते हो: इस बगीचे में अगर एक ही तरह के वृक्ष होते तो ज्यादा सुविधा होती। मैं तुमसे कहता हूं: इस बगीचे में सब तरह के वृक्ष हैं। तुम्हें जो वृक्ष रुचे, उसके नीचे बैठ जाओ। लेकिन दूसरों के लिए भी यहां वृक्ष हैं। तुम्हें जो सुगंध रुचे, उसमें रम जाओ। किसी को बेले की सुगंध जंचती है, किसी को रजनीगंधा की। तुम जिससे मस्त हो जाओ। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें फूलों में उतना रस नहीं है, जितना पत्तों की हरियाली में है। तो यहां ऐसे पौधे भी हैं। जिनमें पत्तों का ही वैभव है; उनमें रम जाओ।
कुछ को छोटी-छोटी झाड़ियों में रस होता है। किन्हीं को उन वृक्षों में रस होता है, जो आकाश में बादलों से गुफ्तगू करते हैं, चांद-तारों से हाथ मिलाते हैं। तो जिनकी जैसी मौज; जिनको जैसा खोजना हो।
यहां सबके लिए द्वार है। इस मंदिर में उतने द्वार हैं, जितने तरह के लोग हैं। यह पहली दफा सार्वभौम मंदिर है।
तुम्हारी अड़चन तुम्हारे कारण पैदा हो रही है। तुम्हें जो रुच जाए, उसमें डुबकी लो। मगर तुम्हारी अड़चन मेरे कारण नहीं है। तुम्हारी अड़चन यह कि तुम लोभ में पड़ जाते हो। तुम देखते हो कि अष्टावक्र में मजा आ रहा है। फिर सोचते हो कि अब ये कबीर भी आ गए, अब थोड़ा रस इनका भी ले लें। थोड़ा इनका भी करके देखें। तुम लोभ में पड़ जाते हो।
अगर तुम्हें अष्टावक्र में रस आ रहा है, तो भूलो कबीर को। कबीर से क्या लेना-देना! बकने दो इस जुलाहे को, जो बके। तुम इसमें पड़ो मत। और मैं कुछ भी कहूं...। क्योंकि मैं सिर्फ तुमसे नहीं बोल रहा हूं, औरों से भी बोल रहा हूं--जिनके लिए यह जुलाहा ही द्वार बनने वाला है। कुछ हैं, जिनके हृदय कबीर से ही उमंग से भरेंगे। कुछ हैं, जिनके हृदय में कबीर का ही तानपूरा बजेगा। उनको अष्टावक्र नहीं जंचेगा। बहुत फीका मालूम पड़ेगा। कहां कबीर की तरंग, कहां कबीर की तरन्नुम, कहां कबीर का तेवर, कहां कबीर की क्रांति!
अष्टावक्र की बातें ऐसी लगेंगी: पोली-पोली; ठीक; दार्शनिक; लफ्फाजी मालूम पड़ेंगी। कबीर का सोंटा जब सिर पर पड़ेगा, तो पता चलेगा कि यह रहा कोई आदमी! किसी को जमेगा कबीर।
जिसको कबीर जम जाए, वह छोड़े फिकर अष्टावक्र की।
और ध्यान रखना: मैं जब किसी पर बोलता हूं, तो मैं भूल जाता बाकी को। फिर मेरा सारा ध्यान, सारे प्राण उसी से संलग्न हो जाते हैं।
जब कबीर पर बोल रहा हूं तो कबीर ही मेरे लिए सब-कुछ हैं। उस बीच अगर तुमने किसी और का नाम लिया: बुद्ध का, महावीर का, कृष्ण का, क्राइस्ट का, तो मैं उनको एकदम धक्के देकर बाहर निकाल देता हूं। उस समय फिर मेरे मन में कबीर के अतिरिक्त कोई भी नहीं है।
हां, जब बुद्ध पर बोलूंगा, तो कबीर को कहीं कोई जगह न मिलेगी। वे कितना ही दरवाजा खटखटाएं, दरवाजा उनके लिए नहीं खुलेगा। वे कहेंगे कि पहले हमें इतना प्यार से बुलाया था; अब हम आना चाहते हैं खुद। तो भी उनको कहा जाएगा--कि रुको; अपना समय आने दो।
तुम्हारी अड़चन मैं समझा। यह द्वार सबके लिए है। तुम लोभ में न पड़ोगे, तो कोई कठिनाई न होगी। तुम सब प्रक्रियाएं करके भी देख लो एक दफा, खासकर तो दो प्रक्रियाओं में डूब कर देख लो, क्योंकि वे मूल हैं--प्रेम और ध्यान; भक्ति और ज्ञान। आत्मा और परमात्मा।
या तो देख लो ध्यान करके; पूरी शक्ति लगा कर ध्यान करके देख लो। एक छह महीने ध्यान में डुबकी लो; भूल जाओ भक्ति को। और फिर छह महीने भक्ति में डुबकी लो; भूल जाओ ध्यान को। फिर निर्णय हो जाएगा। दोनों में जो रास आ जाए। जिससे तुम्हारी वीणा बजने लगे। जिससे तुम्हारा आकाश खुल जाए। जिससे तुम्हारे जीवन में पंख लग जाएं। फिर चुन लो। फिर बार-बार बदलने की कोई जरूरत नहीं है।
लोभ में पड़ने की भी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि भक्ति से पहुंचो तो वहीं पहुंचते हो; और ध्यान से पहुंचो तो वहीं पहुंचते हो। पहुंचना तो वहीं है, मंजिल तो एक है। मार्ग अनेक हैं।
और मेरा सम्मान सबके प्रति है--सब तरह के लोगों के प्रति; सब मार्गों के प्रति। क्योंकि जहां से मैं खड़े होकर देख रहा हूं, वहां से मुझे सभी मार्ग एक ही बिंदु पर अंत होते दिखाई पड़ते हैं। जिस शिखर से खड़े होकर मैं देख रहा हूं, वहां बाएं से आने वाली पगडंडियां भी आ गई हैं; दाएं से आने वाली पगडंडियां भी आ गई हैं; राजपथ भी आ गया है। हवाई जहाज से उड़ कर जो आए हैं, वे भी आ गए हैं। पैदल चलते जो आए हैं, वे भी आ गए हैं। घुड़सवार भी आ रहे हैं। सब तरह के लोग आ रहे हैं।
पहाड़ बड़ा है; चारों तरफ से मार्ग आते हैं। सब तरफ से यात्री चढ़ रहे हैं। और जो मार्गों पर हैं, उन्हें यह दिखाई नहीं पड़ सकता कि दूसरे मार्ग भी वहीं ले जा रहे हैं, जहां हम जा रहे हैं।
मार्ग पर चलने वाले को ऐसा ही लगता है कि मेरा मार्ग ही ठीक होगा। यह उसे मानना ही पड़ता है। नहीं तो वह चल ही न पाएगा। उसे मानना पड़ता है: मेरा ही मार्ग ठीक। इसी आग्रह को बताने के लिए वह दूसरों से कहने लगता है: तुम्हारा मार्ग गलत। इस्लाम गलत; हिंदू गलत; यह गलत, वह गलत। मेरा मार्ग ठीक।
वह असल में तुमसे झगड़ा नहीं कर रहा है। वह अपने मन को समझा रहा है। उसके भीतर लोभ पैदा होता है कि कौन जाने यह पड़ोस में जो आदमी जा रहा है, यह मुसलमान, कहीं इसका मार्ग ठीक न हो! यह जो कुरान की आयतें गा रहा है, कहीं यही ठीक न हों! और मैं यह क्या कर रहा हूं--राम-राम, राम-राम! पता नहीं...! उसे डर लगता है। डर लगता है तो अपनी आत्म-रक्षा के लिए वह चिल्लाता है कि बंद करो अल्लाह-अल्लाह चिल्लाना। इससे कुछ भी न होगा।
खयाल करना, यह वह आत्म-रक्षा के लिए कह रहा है। उसे पता नहीं कि इससे होगा कि नहीं। उसे यह भी पता नहीं कि मैं जो कर रहा हूं, इससे होगा। जब तक हुआ नहीं, तब तक कैसे पता होगा? और जब हो गया, फिर तो बात ही खत्म हो गई।
जब तक नहीं हुआ है, तब तक संदेह बना ही रहता है। इस संदेह के निवारण के लिए वह जोर से चिल्लाता है कि तुम गलत हो।
खयाल रखना: वह कहना यह चाहता है कि मैं सही हूं। वह यह नहीं कहना चाहता कि तुम गलत। तुम्हारे गलत होने का उसे क्या पता!
हिंदू--कुरान गलत है--यह कैसे जानेगा? इसे जानने के लिए पहले तो कुरान में खूब डुबकी लगानी चाहिए। कुरान की यात्रा करनी चाहिए। कुरान की मान कर चलना चाहिए, तभी पता चलेगा न कि गलत है।
तुम कभी बैठे नहीं हवाई जहाज में; तुम कहते हो: बैलगाड़ी सही है। हवाई जहाज वहां ले जा नहीं सकता; बैलगाड़ी ही ले जाती है; यह तुम कैसे कहोगे? एक दफा बैठो; एक दफा जाकर देखो।
जिन्होंने अनेक मार्गों से चल कर देखा, जैसे रामकृष्ण ने, तो लौट-लौट कर हर बार कहा: सभी मार्ग वहीं पहुंचा देते हैं।
जो पहुंचा है, उसने देखा है कि सभी मार्ग वहां पहुंचा देते हैं। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है िक तुम पर करुणा के कारण पहुंचा हुआ पुरुष भी नहीं कहता। क्योंकि तुम अजीब हो। तुम्हारी कमजोरी बड़ी अजीब है।
महावीर जब पहुंच गए, तो उनको दिखाई पड़ा होगा कि भक्त भी आ गए हैं। उन्होंने देखा होगा: यह कृष्ण भी आ गया है; यह बांसुरी बजा रहा है। उस शिखर पर उन्होंने कृष्ण को भी पाया होगा। उन्होंने देखा होगा: लाओत्सु भी विश्राम लगाए बैठा है। उन्होंने देखा होगा कि रामचंद्र जी भी अपना धनुषबाण लिए चले आ रहे हैं। यह मामला क्या है?
अगर महावीर यह कहें, अपने पीछे से आने वाले लोगों से, कि सब आ गए हैं, तो इस बात का बहुत डर है कि वे लोग जो महावीर के पीछे आ रहे हैं, वे लोभ में पड़ जाएं। वे कहने लगें कि जब सभी जा रहे हैं, तो फिर क्या फिकर।तो हम इस मार्ग चले जाएं, उस मार्ग चले जाएं। हो सकता है, वे इतनी दुविधा में पड़ जाएं--और इतने मार्ग हैं--कि चुनाव ही मुश्किल हो जाए। वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाएं।
उनकी कमजोरी को ध्यान में रख कर महावीर कहे चले जाते हैं कि यही मार्ग लाता है। और कोई नहीं आता।
कृष्ण भी कहे चले जाते हैं; राम भी कहे चले जाते हैं: आओ इसी मार्ग पर। कृष्ण कहते हैं: सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। सब छोड़, सब धर्म छोड़, मेरी शरण आ। बस, यही शरण ले जाती है।
जीसस कहते हैं: जो मुझसे जाएगा, वहीं पहुंचेगा। मैं हूं द्वार। जो मुझसे नहीं जाएगा, वह पछताएगा।
इसका यह मतलब नहीं है कि जीसस से जो नहीं गया है, वह नहीं पहुंचा। मगर जीसस...। जिन मित्र ने प्रश्न पूछा है, उसी तरह के लोगों के कारण ऐसा कह रहे हैं। लेकिन इसमें एक तो सुविधा है कि मार्ग पर जो लोग आते हैं, उनको निश्चिंतता रहती है। मगर एक दूसरा खतरा है। निश्चिंतता तो रहती है, मतांधता भी पैदा होती है।
और अब हम देख सकते हैं कि पांच हजार साल के इतिहास में फायदा तो कम हुआ इस बात से, नुकसान ज्यादा हुआ। चले तो लोग कम; दूसरे गलत हैं--यह सिद्ध करने में ज्यादा लगे। इसलिए मैंने पूरी प्रक्रिया बदली।
मैं तुमसे कहता हूं: सभी मार्ग सही हैं। अब खतरा पैदा होगा; कि तुम अगर लोभ में पड़े, तो खतरा पैदा होगा।
जब मैं कहता हूं, सभी मार्ग सही हैं, तो मैं कह रहा हूं: तुम जिस मार्ग पर हो, वह भी सही है। असल में मार्ग नहीं पहुंचते, चलने वाले पहुंचते हैं। मार्ग नहीं ले जाते, चलने वाले जाते हैं। चलो किसी भी मार्ग पर; चलते रहो; पहुंचोगे। मगर अगर चलने में दुविधा आ गई, तो कोई भी मार्ग नहीं ले जाता। मार्ग कैसे ले जाएगा? मार्ग कोई अपने आप थोड़े ही जाता है; तुम्हारे चलने से जाता है।
कभी-कभी ऐसा हो जाता है: चलने वाले हिम्मतवर लोग बिना मार्ग के भी पहुंच जाते हैं--खाई-खंदों, पहाड़ों को पार करके, जहां कोई कभी नहीं चला। और कमजोर लोग, काहिल लोग, सुस्त लोग राजपथों पर बैठे रहते हैं, वहीं डेरा लगा देते हैं, वहीं जम जाते हैं। मील के पत्थर के पास ही समझते हैं: दिल्ली आ गई; मंजिल आ गई। वहीं बैठ जाते हैं।
यहां सब तरह के लोगों के लिए सुविधा है। मैं चाहता हूं: कोई मतांधता जगत में न हो।
सलाम हो तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां
ये रस्म आम है कि जो चाहे सर उठा के चले।
कोई भी शर्त बजुज बजाय एतिहात नहीं
कोई सम्हल के चले, कोई लड़खड़ा के चले।
कोई शर्त नहीं है तुम पर: कोई सम्हल कर चले, कोई लड़खड़ा कर चले। कोई ध्यान से चले, होश से चले; कोई प्रेम की मदिरा पीकर चले।
यहां सबको सुविधा है।
तुम अपना मार्ग चुन लो। दूसरे को भूल कर गलत मत कहना। यह हक तुम्हारा नहीं है। अपना मार्ग चुन लो--और चलते चलो।
कोई लड़खड़ा कर चल रहा हो, तो यह मत कहना कि मैं ध्यान का पथिक हूं; सम्हल कर चलो। शर्त मत लगाना। क्योंकि लड़खड़ाने वाले भी पहुंच गए हैं। और कभी-कभी तो सम्हलने वालों से ज्यादा जल्दी पहुंच गए हैं। क्योंकि लड़खड़ाने वालों को भगवान सम्हालता है। सम्हलने वालों को भगवान नहीं सम्हालता। वे खुद ही सम्हले हैं!
इसलिए तो बुद्ध और महावीर के धर्म में भगवान की कोई जगह नहीं है। कोई जरूरत नहीं है। वे खुद ही सम्हले हैं।
जीसस ने कहा है: जैसे कोई गडरिया सांझ को लौटता है; आकर गिनती करता है। हजार भेड़ों में और तो सब हैं, नौ सौ निन्यानबे हैं, एक भेड़ कहीं रास्ते में खो गई। तो उन नौ सौ निन्यानबे भेड़ों को पहाड़ पर, खतरे में, एकांत में छोड़ कर उस एक भेड़ को खोजने चला जाता है!
अंधेरी रात, लालटेन लेकर खोजता है; जंगल-जंगल आवाज लगाता है। फिर जब भेड़ को पा लेता है, तो जीसस ने कहा--मालूम है क्या करता है? उसको कंधे पर रख कर लौटता है।
इन नौ सौ निन्यानबे भेड़ों को कभी पता ही नहीं चलेगा कि गडरिए के कंधे पर बैठने का मजा क्या है। ये कभी भटकी ही नहीं, तो इनको कंधे पर बैठने का मौका भी न मिलेगा।
वह जो होश से चलता है, वह भी पहुंचता है। मगर उसे परमात्मा के कंधे पर बैठने का मौका नहीं मिलता। वह मजा तो भक्त का है, वह जो लड़खड़ा कर चलता है; वह जो डगमगा कर चलता है, उसको तो भगवान को सहारा देना ही पड़ता है। देना ही पड़ेगा।
जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है, मां का सहारा कम होता जाता है। जितना बच्चा छोटा और असहाय होता है, उतना ज्यादा सहारा होता है।
ध्यानी प्रौढ़ है; प्रेमी असहाय है। अस्तित्व उसके लिए मां बन जाती है। भक्त तो बालक ही रहता है। वह अपने बालवत भाव को छोड़ता ही नहीं। इसलिए तो भक्त रोता रहता है। बच्चों जैसा पुकारता रहता है। कभी भगवान को पिता कहता है; कभी भगवान को मां कहता है। लेकिन उसकी पुकार समझो।
जब भक्तों ने भगवान को मां और पिता कहा है, तो क्या कहा है? इतना ही कहा है कि हम बालक हैं। हमारा अपना बल क्या! हम अपने पैर से तो चल न पाएंगे, गिर ही जाएंगे। हम तो उठते हैं और गिर जाते हैं। तू सम्हालेगा, तो सम्हलेंगे। तेरे सम्हाले ही सम्हलेंगे।
ये दोनों ढंग हैं: या तो तुम सम्हल जाओ। तुम सम्हल जाओ, तो जरूरत ही नहीं है। ठीक है। बात खत्म हो गई। सम्हलना ही था। तुम्हीं सम्हल गए।
तुमने खयाल किया: मां का प्रेम उस बच्चे के प्रति ज्यादा होता है जो सबसे ज्यादा कमजोर होता है। यह बिलकुल अर्थशास्त्र के विपरीत है बात। लेकिन अर्थशास्त्र और प्रेम के शास्त्र विपरीत हैं। होना तो प्रेम उसके प्रति चाहिए जो सबसे बलवान है, सबसे बुद्धिमान है, सबसे कुशल है। नहीं, लेकिन मां जानती है कि वह तो बुद्धिमान है, बलवान है, कुशल है, अपनी फिकर कर लेगा। उसको जरूरत नहीं है।
वह जो कमजोर है, वह उतना बुद्धिमान भी नहीं है; जिसके भटक जाने की ज्यादा संभावना है; जो कहीं गिर पड़ेगा; मां उसकी फिकर लेती है।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि बीमार बच्चे मां के लिए ज्यादा प्यारे हो जाते हैं--स्वस्थ बच्चों की बजाय।
परमात्मा का अनुभव उन्हीं को मिलेगा, जो असहाय होकर लड़खड़ाते हैं। इसलिए बुद्ध और महावीर के धर्म में परमात्मा की जगह नहीं, क्योंकि बुद्ध और महावीर को परमात्मा का अनुभव मिलने का मौका नहीं आया। जरूरत न थी। वे खुद ही परमात्मा हो गए। उन्होंने अपने भीतर की चेतना को इतना प्रज्वलित कर लिया कि किसी और अस्तित्व के सहारे का कोई कारण न रहा। आ गए आखिरी मंजिल पर; लेकिन परमात्मा घटा ही नहीं कहीं। वे स्वयं परमात्मा होकर आ गए।
परमात्मा का अनुभव तो भक्त को होता है। जैसे प्रेम का अनुभव प्रेमी को होता है। प्रेमी का अनुभव प्रेम में होता है। भक्ति में भगवान का अनुभव है।
और मैं तुमसे यह नहीं कहता कि इन दोनों अनुभवों में कौन सा चुनना चाहिए। नहीं, मैं तुमसे यह कहता हूं: जो तुम्हें रास पड़े; जो तुम्हें प्रीतिकर लगे।
सलाम हो तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां
ये रस्म आम है कि जो चाहे सर उठा के चले।
एक न एक दिन तुम समझोगे। इन जिन प्रक्रियाओं को मैं गतिमान कर रहा हूं, किसी दिन तुम इन प्रक्रियाओं को सलाम करोगे, किसी दिन कहोगे कि हमारा बड़ा समादर है इस बात के लिए।
कोई भी शर्त बजुज बजाय एतिहात नहीं
किसी पर कोई शर्त नहीं लादी जा रही है यहां। किसी पर जबर्दस्ती कोई ढांचा नहीं बिठाया जा रहा है। स्वतंत्रता यहां की हवा है। किन्हीं भी बहानों से किसी को परतंत्र नहीं बनाया जा रहा है। मोक्ष के मार्ग पर कैसी परतंत्रता? कैसे बहाने?
यहां कोई भी तुम्हारे लिए जंजीरें नहीं दी जा रही हैं; तुम्हारी जंजीरें तोड़ी जा रही हैं।
कोई भी शर्त बजुज बजाय एतिहात नहीं
कोई सम्हल के चले, कोई लड़खड़ा के चले।
और मैं मानता हूं, यही संभावना है भविष्य के धर्म की। गए पुराने दिन--हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध वाले, झगड़े वाले मतांध दिन गए। वे सब धर्म अब करीब-करीब मुर्दा हैं; अरथी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब एक बिलकुल और तरह की दुनिया पैदा हो रही है, एक और नये तरह के धर्म का सूत्रपात जगत में हो रहा है, जहां लोग धार्मिक होंगे--ईसाई, हिंदू, बौद्ध, मुसलमान नहीं। मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे रहेंगे, लेकिन पुरानी मतांधता चली जाएगी। जिसकी जहां मौज हो।
कोई सम्हल के चले, कोई लड़खड़ा के चले।
एक-एक घर में सभी धर्मों के लोग होने चाहिए, क्योंकि एक-एक घर में सभी वृत्तियों के लोग हैं। एक बाप और एक मां से पैदा हुए पांच बेटे भी एक जैसे नहीं होते। तो पांचों हिंदू कैसे हो सकते हैं? पांचों मुसलमान कैसे हो सकते हैं? पांचों इतने भिन्न हैं, हर बात में भिन्न हैं! एक गणित में कुशल है; एक काव्य में कुशल है; तब तुम जिद्द नहीं करते कि तुम पांचों बेटे एक ही बाप के हो; तुम्हारा बाप गणितज्ञ है, तुम पांचों को गणितज्ञ होना चाहिए।
नहीं, तुम इस तरह की मूढ़ता की बात नहीं कहते। तुम जानते हो कि यह बात मूढ़ता की है। बाप गणितज्ञ है, तो हो, मगर पांचों बेटों का गणितज्ञ होना कोई आवश्यक तो नहीं। गणितज्ञ होना खून में से तो आता नहीं। इनमें से कोई कवि है, कोई गणितज्ञ है, कोई संगीतज्ञ है, कोई नर्तक है--कोई कुछ और है। तुम इन सबको मौका देते हो। लेकिन धर्म के मामले में तुम्हारी जिद्द बड़ी जड़ता से भरी है। तुम कहते हो: तुम पांचों को मुसलमान, पांचों को हिंदू, पांचों को जैन होना पड़ेगा। क्योंकि तुम जैन घर में पैदा हुए, मुसलमान घर में पैदा हुए! यह बात बड़ी नासमझी की है।
तुम जीवन में इतनी स्वतंत्रता देते हो कि कोई गणितज्ञ हो सकता है, कोई कवि...। ये बड़ी विपरीत बातें हैं। क्योंकि कहां गणित और कहां कविता! इनका कोई मेल नहीं है, कोई तालमेल नहीं है। गणित की कोई कविता नहीं होती, कविता का कोई गणित नहीं होता। गणित चलता है तर्क से; कविता होती है अतर्क। गणित विरोधाभासों से बचता है; कविता विरोधाभास खोजती है। कविता का प्राण ही विरोधाभास है--पैराडाक्स है। कविता की वही पंक्ति काव्यपूर्ण हो जाती है, जहां विरोधाभास खड़ा हो जाता है।
कविता की आंख सौंदर्य की परख से है। कविता का प्राण प्रेम है। गणित का--हिसाब-किताब है। गणित में बुद्धि का पूरा फैलाव है, लेकिन हृदय के रस को जरा सी भी जगह नहीं।
अब ये दो व्यक्ति हैं; एक ही बाप से पैदा हुए हैं। इनमें से तुम कहते हो: दोनों हिंदू हो जाएं; दोनों जैन हो जाएं। बात गलत है। जिसके भीतर कविता उठी है, यह कबीर से राजी हो सकेगा या कि मीरा से राजी हो सकेगा। और जिसके भीतर गणित बहुत साफ है, यह बुद्ध और महावीर से राजी हो सकेगा।
एक नई हवा, एक नया माहौल, एक नया वातावरण चाहिए--जहां यह पुरानी जिद्द चली जाए; जहां धर्म जबर्दस्ती न थोपा जाता हो; जहां प्रत्येक व्यक्ति अपनी मौज से अपना धर्म चुने।
जिस दिन एक-एक घर में पांच-पांच सात-सात धर्मों के लोग होगें, उस दिन दुनिया जरूर सुंदर होगी। उस दिन दुनिया में बड़ा प्रेम पैदा होगा।
तुम्हारा एक बेटा मंदिर जाता है; एक बेटा मस्जिद जाता है। कभी तुम्हारा बेटा तुम्हें मस्जिद आने का निमंत्रण देता है, क्योंकि वहां कोई उत्सव है। और कभी तुम्हारा एक बेटा तुम्हें मंदिर आने का निमंत्रण देता है कि आज कृष्ण की जन्माष्टमी है, कि कुछ और है। तुम ज्यादा समृद्ध होओगे। तुम्हारे जीवन में ज्यादा आयाम होंगे, ज्यादा आकाश होगा, ज्यादा दिशाएं होंगी।
यह जड़ता है कि एक घर में गीता रखी है और एक घर में कुरान रखी है। दोनों अधूरे रह गए। कुरान और गीता साथ ही साथ होने चाहिए। हां, कोई कुरान पढ़े, कोई गीता पढ़े।
ऐसी मेरी दृष्टि है। और मुझे लगता है यही दृष्टि भविष्यवाणी है।
तीसरा प्रश्न:
एक मस्ती छा रही है, लेकिन भय लगता है कि कहीं यह खो तो न जाएगी!
भय स्वाभाविक है, क्योंकि अब तक तुमने जो मस्तियां जानीं, वे सब खो गईं। तुम्हारे जीवन का सार-निचोड़ यही है। कभी एक स्त्री के प्रेम में पड़े और क्षण भर को लगा: बड़ी मस्ती छा रही है। और जाग भी न पाए थे कि चली गई। कभी पद के पीछे दौड़े और लगा कि बड़ी मस्ती छा रही है। पद मिल भी न पाया था कि हाथ खाली हो गए।
ऐसे तुमने बहुत बार बहुत सी झूठी मस्तियां जानी हैं! इसलिए यह स्वाभाविक है। यह जो संन्यास की मस्ती तुम पर छा रही है, इसमें भी शक उठे कि कहीं यह भी तो न खो जाएगी! मगर यह खोने वाली मस्ती नहीं। और जो खो जाए, तो जानना कि यह संन्यास की मस्ती थी ही नहीं। इसमें कुछ और ही बात रही होगी। कुछ धोखा हो गया।
यूं दिल को छेड़ कर निगहे-नाज झुक गई
छुप जाए कोई जैसे किसी को पुकार के
क्या कीजिए, कशिश है कुछ ऐसी गुनाह में
मैं वरना यूं फरेब में आता बहार के!
हर बार तुम जानते हो कि वसंत आता है, बहार आती है। और हर बार तुम जानते हो कि पतझड़ आता होगा। फिर भी बार-बार धोखा खा जाते हो। कुछ कशिश है--गुनाह में भी, पाप में भी कुछ कशिश है। कितनी बार तुमने कहा नहीं, अपने मन से कि बस अब बहुत हो गया, अब और किसी स्त्री में रस न लूंगा; बात खत्म हो गई। कितनी बार तुमने नहीं सोचा कि अब और पुरुष में रस नहीं रहा; चुक गया। देख लिया सब। और फिर एक दिन घड़िया भी नहीं बीत पातीं और फिर रस जगता मालूम पड़ता है!
क्षणभंगुर है जान कर भी मन बार-बार जकड़ जाता है। उसके पीछे कारण है। कारण है कि यहां क्षणभंगुर ही तो मिलता है; शाश्र्वत की तो कभी झलक नहीं मिलती। तो करें क्या?
यहां दो ही विकल्प मालूम पड़ते हैं: या तो क्षणभंगुर सुख को भोगते रहो और बार-बार रोते रहो, पछताते रहो, विषाद में गिरते रहो। हर बार आए शिखर भोग का और हर बार आता है विषाद और एक खाई की तरह घेर लेता अंधकार। एक तो विकल्प यह है।
और दूसरा विकल्प यह है कि खाई में ही पड़े रहो; क्षण भर को भी छोड़ दो; क्षणभंगुर को भी छोड़ दो। वह बात भी जंचती नहीं; क्योंकि चलो, क्षणभंगुर ही सही; कुछ तो है। कभी तो वसंत आता है। कभी तो आंखों में सपना छाता है। कभी तो थोड़ी देर के लिए मस्त हो जाते हैं। माना कि थोड़ी देर ही टिकती है यह बात। लेकिन करें तो और क्या करें। यही है बस।
लेकिन अगर संन्यास की या ध्यान की या भक्ति की मस्ती छाने लगी, तो तुम पाओगे: इस जगत में जगत से कुछ ज्यादा है; और इस जगत में क्षणभंगुर ही नहीं है; इस जगत में कभी-कभी शाश्वत की किरण भी उतरती है। निश्चित उतरती है। क्योंकि कबीर ने जो पाया...। ‘कहै कबीर मैं पूरा पाया।’ वह फिर कभी खोया नहीं। बुद्ध ने जो पाया, फिर बयालीस साल जिंदा थे, लेकिन एक क्षण को नहीं खोया। मैं गवाह हूं। इधर पिछले पच्चीस वर्षों मे एक क्षण को नहीं खोया है--जो पाया है।
यह जो घट रहा है, यह बहुत नया है। भय लगता है, क्योंकि पुराने अनुभव क्षणभंगुर के हैं। और यह शाश्वत घट रहा है। और भय लगना स्वाभाविक है, इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि भय के कारण तुम अपने को अपराधी समझ लेना। बिलकुल स्वाभाविक है।
हर बार संपत्ति हाथ में आई और कचरा साबित हुआ। इस बार फिर संपत्ति हाथ में आई है। भय लगता है कि पता नहीं, यह भी तो कोरा ही साबित न होगा! एक सपना फिर।
नहीं, यह सपना सिद्ध नहीं होगा। अगर यह ध्यान से उत्पन्न हो रही है मस्ती या भक्ति से उत्पन्न हो रही है यह मस्ती, तो यह सपना सिद्ध नहीं होगा। अगर तुम ही कोशिश कर-कर के इसको पैदा कर रहे हो, तो यह मिट जाएगा।
तुम्हारा किया हुआ शाश्वत नहीं हो सकता। जो आता है, उतरता है ऊपर से--तुम्हें भर लेता है अंगपाश में, जो तुम्हारे किए से नहीं आता, वही शाश्वत है। जो तुम्हारे कृत्य से आता है, वह शाश्वत नहीं है।
तुम्हारा किया हुआ--तुम्हारे मिट्टी के हाथों से बनाया हुआ, कैसे शाश्वत हो सकता है? यह देह क्षणभंगुर है। सत्तर साल--तो भी क्षणभंगुर है। इस देह से तुम जो बनाओगे, वह क्षणभंगुर होगा। तुम एक पत्थर की मूर्ति बनाओ, मजबूत से मजबूत पत्थर लाओ--ग्रेनाइट लाओ, उसकी मूर्ति बनाओ, वह भी मिटेगी। हाथ ही बनाने वाले मिट्टी के थे; कर्ता ही मिट्टी का था, तो कृत्य कहां से शाश्वत हो सकता है!
तुम जो करोगे, वह तो क्षणभंगुर रहेगा।
मेरी शिक्षा का मूल यही है कि तुम मिटो--तुम करो मत; तुम खोओ; तुम जगह खाली करो।
यही तो कबीर ने कल कहा--कि तुम गरीब हो रहो। गरीब हो रहो मतलब--शून्य हो जाओ। तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है--ऐसे हो जाओ। ‘कर गुजरान गरीबी में।’
तुम बिलकुल शून्य हो जाओ। मेरे पास कुछ भी नहीं है; एक भिक्षापात्र मात्र--खाली--और वहीं तुम अचानक पाओगे: तुम्हारे शून्य को भरने कोई उतर रहा है। पूरा--पूर्ण उतर रहा है। यह अवतरण है। यह तुम्हारा कृत्य नहीं है। तुम सिर्फ गवाह होते हो इसके--कि तुममें उतरा। यह तुम्हारे मन से निर्मित नहीं होता। यह तुम्हारा मन जब नहीं होता, तभी होता है।
अगर यह मस्ती उतर रही है; इतना ही खयाल रखना। क्योंकि कई बार तुम ऐसे झूठे हो गए हो कि उतरती भी नहीं; तुम ढोंग करने लगते हो। ढोंग नहीं टिकेगा।
कई बार ऐसा हो जाता है कि लोग इतने ज्यादा अनुकरणशील हो गए हैं--बंदरों की तरह हो गए हैं--कि एक को होता है, तो उनको होने लगता है।
कई बार मैं देखता हूं: एक आदमी मस्ती में डोल रहा है; उसके पास बैठे-बैठे दूसरा ऐसे ही डोलने लगता है। क्योंकि उसे यह लगता है कि इधर लोग मस्ती में डोल रहे हैं। मैं नहीं डोला, तो लोग समझेंगे...।
एक मित्र के साथ मैं बंगालियों की एक संगत में गया। वहां बंगाली में भजन गाए जा रहे थे। और बंगालियों में बड़ा भक्ति का भाव है। मृदंग बज रही थी। और चैतन्य की मैंने चर्चा की थी; फिर चैतन्य के वे गीत गा रहे थे; और नाच रहे थे।
मेरे साथ जो सज्जन गए थे, वे बंगाली जानते नहीं। मैं बड़ा हैरान हुआ, क्योंकि वे भी डोलने लगे। और ओंठ भी हिलाने लगे! जैसे वे भी भजन में भाग ले रहे हैं।
मैंने जरा गौर से उनको सुनने...मेरे बगल में ही बैठे थे...गौर से सुनने की कोशिश की, तो वे अनर्गल बक रहे हैं। कुछ भी इससे मतलब नहीं है।
जब रास्ते में लौटते वक्त हम दोनों अकेले रह गए; मैंने उनसे पूछा कि यह मामला क्या था! आप ऐसी शुद्ध बंगाली बोल रहे थे! वे बोले: कहां की बंगाली और कहां का क्या? पगलों की जमात! और मैंने देखा: अपन ऐसे सम्हले बैठे रहे, तो लोग समझेंगे कि यह बुद्धू कहां से आ गया? और फिर लोग यह भी समझेंगे कि इसको बंगाली भी नहीं आती! और मस्ती भी नहीं आती! तो मैं तो ऐसे ही ढोंग कर रहा था। तो मैं ऐसे ही ओंठ हिला रहा था। कुछ भी बोल रहा था--धीरे-धीरे; तो कोई पकड़े भी नहीं। और वहां तो इतना शोरगुल मचा है, इतने पगले थे कि वहां कौन...पता चलने वाला कि कौन बंगाली बोल रहा है, कौन गुजराती बोल रहा है! वे सज्जन गुजराती थे!
कई बार ऐसा हो जाता है--कि तुम ऐसे नकलची हो गए हो, तुम्हें इतनी भी निष्ठा नहीं रही है कि जो न होता हो, तो न करो।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि छोटी-छोटी बातों में भी हम अपने से नहीं जीते।
एक आदमी को खांसी आ जाए, तुम पाओगे कि अनेक को खांसी आने लगी! एक आदमी उठ कर पेशाब करने चला जाए, दूसरे भी चले! ये अभी बैठे थे; अभी इनको पता ही नहीं था। इनको कुछ खयाल ही नहीं था। मगर तत्क्षण एक सज्जन ने इनको सुझाव दे दिया। सुझाव इन पर पकड़ जाता है।
इससे सावधान होना; इस वृत्ति से सावधान होना; नहीं तो कई बार तुम मस्ती झूठी भी कर सकते हो। वह न टिकेगी। कभी नहीं टिकेगी। आने दो मस्ती को। उतरने दो मस्ती को।
खिजां की खुश्क रगों में न रह सके जो जवां
जो आए और चली जाए वो बहार ही क्या
न होशियारी के लम्हों में रह सके कायम
जो सर पे चढ़ के उतर जाए वो खुमार ही क्या
जबाने खल्क तक आया न नाराए मंसूर
जबां पे अपनी जो रह जाए वो पुकार ही क्या
न पीना कैदे मकानो जमां से हो आजाद
तो मश्के शौक है इसमें भला खुमार ही क्या
जो मस्तियों के सहारे जीए वही हुशियार
जिसे होश का तकिया वो वादाख्वार ही क्या
न बालो पर ही जलाए न आरजूए चमन
वो आशियां पे हुई बर्क शोलाबार ही क्या
जो सैले अश्क में अपने बहा सका न गुनाह
हुआ वो आसिए कमजर्फ अश्कबार ही क्या
जो रोया--और अपने रोने में पाप न बहा सका, वह रोया--यह बात ही फिजूल।
जो सैले अश्क में अपने बहा सका न गुनाह
जब बाढ़ आ गई हो आंसुओं की; अपने से आ गई हो; आंख में कुछ मिर्च इत्यादि लगा कर ले आए, तो काम नहीं होगा। जो भाव से उठी हो बाढ़, प्रामाणिक हो, वस्तुतः हो, हृदय उमड़ आया हो, घुमड़ आया हो, हृदय के मेघ आंखों से बरसने लगे हों।...
जो सैले अश्क में अपने बहा सका न गुनाह
तो फिर पाप बचते नहीं। इसलिए भक्त को फिकर नहीं है कि मेरे पिछले जन्मों के पाप कैसे कटें। वह जानता है; रोना पर्याप्त है। ये आंसू सब बहा ले जाते हैं--सब गर्द-गुबार; सब पाप-गुनाह; सब भूलें-चूकें।जो हृदयपूर्वक रोया, वह शुद्ध हुआ।
जो सैले अश्क में अपने बहा सका न गुनाह
हुआ वो आसिए कमजर्फ अश्कबार ही क्या
वह पागल आंसुओं में डूबा ही नहीं। उसे आंसुओं की बाढ़ आई ही नहीं।
तो आंसुओं की कसौटी यही है, अगर वे सच्चे हों, तो तुम्हारे पीछे एक पुण्य की आभा छोड़ जाएंगे।
कभी किसी भक्त को अगर रोते देखा है, तो तुम पीछे देखोगे--उसके चेहरे पर एक दूसरी ही आभा। आया था कुछ, जाता कुछ और है।
यहां मैं रोज देखता हूं। जब कोई हृदयपूर्वक रो लेता है, तो ऐसी ताजगी, ऐसा कुंआरापन उस पर उतरता है, जो अनूठा है। वह परमात्मा में नहा जाता है।
तुम कहते भी हो कि हम कुर्बानी को तैयार हैं; तुम कहते भी हो कि हम पतंगे हैं, और हम जलना चाहते हैं; मगर उड़ते बड़े दूर-दूर हो। लपट के करीब नहीं आते।
न बालो पर ही जलाए न आरजूए चमन
वो आशियां पे हुई बर्क शोलाबार ही क्या
और न तो आशियां जला--न घर जला। न पैर जले, न पंख जले। कुछ भी न जला। और तुम कहते हो कि मेरे घोसले पर बिजली गिरी! जब बिजली गिरती है, तो तुम बचते ही नहीं। मस्ती ही बचती है, तुम नहीं बचते।
जब असली मस्ती आती है, तो सिर्फ मस्ती होती है, मस्त नहीं होता। वही कसौटी है।
जो मस्तियों के सहारे जीए वही हुशियार
जिसे होश का तकिया वो वादाख्वार ही क्या
जिसे इतनी भी याद रह जाए कि यह मस्ती है; कि मैं मस्त हो रहा हूं--जिसे इतना भी भेद रह जाए, वह अभी पूरा मस्त नहीं हुआ। अभी मस्ती बाहर-बाहर है। अभी मस्ती द्वार-दरवाजे तोड़ कर भीतर प्रविष्ट नहीं हुई।
जब मस्ती भीतर प्रविष्ट होती है, तो यह भी किसे याद रह जाती है कि मैं मस्त हूं। मस्ती इतनी होती है कि हिसाब-किताब कौन रखे!
न पीना कैदे मकानो जमां से हो आजाद
तो मश्के शौक है इसमें भला खुमार ही क्या
कई बार हम झूठी शराबें पी लेते हैं।
समझो। मुझे सुनते हो। मैं जो कह रहा हूं: कभी-कभी तो उस कहने के सौंदर्य के कारण तुम मस्त हो जाते हो। मगर वह असली मस्ती नहीं। कभी-कभी तो कहने का ढंग तुम्हें डुला देता है। वह असली मस्ती नहीं। जो मैं कह रहा हूं, वह जो सार है उसमें, जब वह तुम्हारे हृदय पर चोट करेगा...।
कहने के ढंग में क्या रखा है? कोई कितना ही लाख अच्छे ढंग से कहे; कितने ही अच्छे सुंदर शब्दों का उपयोग करे; शैली व्यवस्थित हो, काव्यपूर्ण हो; तो भी कुछ नहीं। अगर भीतर प्राण न हो, तो सजी हुई लाश है। और सजी हुई लाश, चाहे हीरे-जवाहरातों से सजी हो, तो भी एक गरीब जिंदा आदमी के सामने दो कौड़ी की है। जिंदगी असली बात है।
तो मेरे शब्दों से प्रभावित मत होना। शब्दों के भीतर जो संदेश है, वह जब तुम्हें छुए...।
जबाने खल्क तक आया न नाराए मंसूर
जबां पे अपनी जो रह जाए वो पुकार ही क्या
और जब मस्ती आती है, तो बांध तोड़ कर आती है, जैसे मंसूर को आई थी--कि चिल्लाने लगा: अनलहक--कि मैं परमात्मा हूं।
मंसूर के गुरु जुन्नैद ने कहा: पागल मंसूर, मुझे भी पता है। मेरे और शिष्यों को भी पता है। कुछ तुझे ही पता नहीं चल गया है पहली बार। लेकिन जुबान बंद रख। क्योंकि यह मुल्क पागलों का है; यहां खतरा हो जाएगा।
लेकिन मंसूर जब मस्ती में आता, तो भूल ही जाता कि गुरु ने क्या कहा। वह फिर चिल्लाने लगता: अनलहक।
गुरु ने कई बार समझाया। कहते हैं, सात बार समझाया। फिर गुरु ने कहा कि तू छोड़ दे यह जगह। तेरे साथ हम भी झंझट में पड़ेंगे।
अब इसमें जरा शक होता है कि जुन्नैद को इतना क्या डर है! जुन्नैद कहता है: मुझे भी पता है।
जबाने खल्क तक आया न नाराए मंसूर
जबां पे अपनी जो रह जाए वो पुकार ही क्या
कहता है: मुझे पता है, लेकिन यह आती नहीं जुबान के बाहर। जिसको यह पता है कि मैं ब्रह्म हूं; अब यह भी क्या डर कि मुसलमान नाराज हो जाएंगे; कि फांसी लगा देंगे; कि कौन क्या कहेगा; कि कोई झंझट आएगी। यह भी क्या डर!
मंसूर जब भी मस्त होता, तो वही आवाज निकलती। फिर तो गुरु ने निकाल दिया मंसूर को। मंसूर चरण छूकर विदा हो गया। गांव-गांव भटकता रहा। मगर वह आवाज तो गूंजती ही रही।
मंसूर भी जब होश-हवास में होता था, तो नहीं कहता था। लेकिन ऐसी भी घड़ी आती थी, जब बाढ़ आ जाती--कि मंसूर रह ही न जाता, परमात्मा ही बोलता। फिर मंसूर क्या करे! फिर मंसूर पकड़ा गया।
जब मंसूर पकड़ा गया, तो खलीफा ने मंसूर के गुरु को कहा कि तुम लिख कर दो प्रमाण-पत्र कि यह आदमी नास्तिक है, काफिर है, क्योंकि यह जो बातें कह रहा है वह कुफ्र की हैं।
कहते हैं जुन्नैद ने वह भी लिख कर दिया। फिर मंसूर को फांसी हुई। लेकिन मंसूर को तो इससे कुछ फर्क ही न था।
जिस दिन जेलखाने में मंसूर को लेने गए सिपाही, तो वह मस्ती में था। उस वक्त अनलहक का नाद उठ रहा था; ब्रह्मनाद गूंज रहा था। जो लेने गए थे, वे सुध-बुध खो गए। वहां वर्षा हो रही थी। वे भी ठिठके खड़े रह गए। घड़ियां बीत गईं। सम्राट तक खबर पहुंची कि जो लेने गए हैं, वे ठिठके खड़े हैं। वहां कुछ अपूर्व घट रहा है। वहां मंसूर कुछ ऐसी पुकार दे रहा है कि उनकी हिम्मत नहीं होती उसको पकड़ कर बाहर निकालने की कोठरी के।
और सिपाही भेजे गए, और जल्लाद भेजे गए। फिर उन्होंने खींचने की कोशिश की, मगर मंसूर मस्ती में था। जब कोई मस्ती में हो, तो परमात्मा होता है। वे नहीं खींच पाए उसे बाहर। फिर तो खलीफा घबड़ाया। उसने कहा: फिर जुन्नैद को ही लाओ। शायद वह ही कुछ कर सके।
जुन्नैद आया। जुन्नैद ने कहा: देख, मैं तेरा गुरु हूं। मेरी सुन। तू अपनी मस्ती के बाहर आ। तो मंसूर ने गुरु की आवाज सुन कर आंख खोली। जैसे ही मस्ती के बाहर आया, फिर खींचा जा सका।
मस्ती में तुम जब होते हो, तब तुम परमात्मा होते हो। तुम होते ही नहीं।
शुरू-शुरू में झरोखे आएंगे मस्ती के, फिर धीरे-धीरे मस्ती थिर होती जाती है। फिर धीरे-धीरे तुम्हारी श्वास बन जाती है, तुम्हारी धड़कन बन जाती है।
तुम जब तक हो, तब तक मस्ती अभी पूरी नहीं। और जो आए और चली जाए, वह सच्ची मस्ती नहीं।
खिजां की खुश्क रगों में न रह सके जो जवां
पतझड़ भी हो रहा हो, तो भी जिसको मस्ती आ गई, उसको वसंत ही होता है। मौत भी आ रही हो, तो जिसको मस्ती आ गई हो, उसको जीवन ही होता है। दुख की घटाएं छाएं तो भी जिसको मस्ती आ गई, उसको आनंद की बिजलियां ही चमकती हैं।
खिजां की खुश्क रगों में न रहे सके जो जवां
जो आए और चली जाए वो बहार ही क्या
ऐसा भी वसंत है, जो आता है, तो फिर जाता नहीं। मैं उसी वसंत की बात कर रहा हूं। शायद हवा का कोई झोंका उसी वसंत के फूलों की कुछ सुगंध को तुम तक ले आया है।
अतीत के अनुभवों की फिकर छोड़ो। इस सुगंध में डूबो। इस सुगंध से दोस्ती बनाओ। इस सुगंध के साथ श्रद्धापूर्वक चलो। इसका हाथ गहो--यह जहां ले जाए--जाओ। होशियारी मत करना।
न होशियारी के लम्हों में रह सके कायम
जो सर पे चढ़ के उतर जाए वो खुमार ही क्या
नहीं, यह उतरने वाला खुमार नहीं है। यह जादू उतरने वाला जादू नहीं है। मगर सब-कुछ तुम पर निर्भर है। यह तुम्हारे पार से आता है। तुम आने दोगे, तो आएगा। तुम अपने द्वार-दरवाजे बंद कर लोगे, तो क्या करेगा!
ऐसा ही समझो कि सूरज निकला है और तुम दरवाजे बंद किए अपने कमरे में बैठे हो। तो सूरज निकला है, निकला रहे; तुम अंधेरे में बैठे--सो अंधेरे में बैठे।
तुम और भी व्यवस्था कर सकते हो कि दरवाजा बंद करके बैठे हो; शायद किसी रंध्र से सूरज की कोई किरण भीतर आ जाए, तो तुम आंख भी बंद किए बैठे हो। तुम चाहो तो और उपाय कर सकते हो। आंख पर एक काली पट्टी भी बांध सकते हो। तो सूरज बरसता रहेगा चारों तरफ और तुम अंधेरे में रहोगे। तुम्हारी अमावस अमावस ही रहेगी।
परमात्मा जब उतरता है, तो द्वार-दरवाजे खोल देना। यही श्रद्धा का अर्थ है--कि जब वह आए, तो तुम स्वागत करना।
तुम्हारा अतीत तुम्हारे विपरीत जाएगा। तुम्हारा अतीत कहेगा: सावधान, तुम बहुत धोखे खा चुके हो। संदेह करवाएगा। तुम्हारा अतीत कहेगा कि पहले भी ऐसे बहुत मौके आए। लेकिन सच में ऐसा मौका कभी नहीं आया।
तुम जरा गौर से देखो: अतीत में तुमने कभी पहले ऐसी मस्ती जानी थी? अगर ऐसी ही मस्ती जानी थी और चली गई, तो यह मस्ती असली मस्ती नहीं है। यह वह मस्ती नहीं है, जिसकी मैं बात कर रहा हूं।
नहीं, तुमने अतीत में यह मस्ती कभी जानी नहीं। यह पहली दफा उतरी है। मस्तियां तुमने जानी थीं--कभी धन की, कभी पद की, कभी अहंकार की, लेकिन यह मस्ती तुमने कभी जानी नहीं थी। यह संन्यास की मस्ती है। यह पहली दफा आई है। यह अपूर्व है। यह तुम्हारे अनुभव में पहले कभी नहीं आई थी। इसलिए पुराने अनभुवों के संदेह इस पर मत लगाना, अन्यथा तुम विकृत कर दोगे।
चलो इसके साथ। डूबो इस मस्ती में। यह खुमार टिकने वाला है। यह रंग टिकेगा। यह रंग पक्का है।
कबीर ने कहा है: मेरे गुरु ने मेरी चदरिया पक्के रंग में रंग दी है। कबीर ने कहा है बाद में कि अब तो मैं भी रंगरेज हो गया हूं; लोगों की चदरिया पक्के रंग में रंगता हूं।
यह उतरने वाला रंग नहीं है; यह उतरने वाला खुमार नहीं है; यह उतरने वाली मस्ती नहीं है। मगर सब तुम पर निर्भर है। तुम तो आए हुए धन को भी खो सकते हो। यह धन शाश्वत का है, सनातन का है। मगर तुम इनकार करना चाहो, तो तुम मालिक हो इनकार करने को। तुम अपने दरवाजे बंद कर सकते हो।
दरवाजे खुले रखना। अतीत खींचेगा। अतीत कहेगा कि सावधान, कुछ भूल-चूक न हो जाए। लेकिन अतीत की बातें असंगत हैं, क्योंकि यह नया हो रहा है। यह पहले हुआ ही नहीं है। इसलिए अतीत से कोई संदर्भ इस नई स्थिति में काम का नहीं है।
यह प्रेम नया, यह शैली नई, यह सुबह नई, इसमें जाओ। यह बढ़ेगा। तुम मिटोगे--यह बढ़ेगा। तुम छोटे होते जाओगे, यह बड़ा होता जाएगा। एक दिन तुम पाओगे: तुम छोटे-छोटे होते-होते खो गए; सिर्फ मस्ती बची। उसी मस्ती का नाम परमात्मा है--या कहो समाधि।
चौथा प्रश्न:
आज की और भविष्य की नारी के लिए सती का क्या मूल्य है? आज की स्त्री भी सती की ऊंचाई को छू सके, इसके लिए क्या आवश्यक है?
पूछा है स्वामी योग चिन्मय ने!
किसी स्त्री को पूछने दो। पुरुष होकर ये प्रश्न तुम्हें उठे क्यों? पुरुष होकर तुम्हें प्रश्न उठना चाहिए कि स्त्रियां तो इतनी सती हुईं, पुरुष कैसे सती हो? इतनी स्त्रियां अपने प्रेमियों की याद में चिता पर चढ़ गईं, कोई पुरुष कैसे चढ़े?
नहीं, चिन्मय यह नहीं पूछते, क्योंकि उसमें झंझट है। उसमें चिन्मय को चढ़ना पड़े किसी चिता पर। स्त्रियां कैसे चढ़ें--इसमें रस है उनका। सभी पुरुषों का इसमें रस रहा है।
स्त्रियों का सती होना तो बड़ी महिमा की बात है, लेकिन पुरुषों का इसमें उत्सुकता लेना बड़ी हिंसा की बात है। जघन्य अपराध है।
यह तुम्हारे मन में सवाल क्यों उठता है? पुरुष क्यों स्त्री को चिता पर चढ़ाना चाहे?
अगर यह प्रश्न प्रेम को समझने के लिए उठा है, तो पुरुष की तरफ से तो पुरुष को यही पूछना चाहिए कि मैं भी कैसे चढ़ूं? इतनी स्त्रियां चढ़ गईं प्रेम में, कब वह घड़ी आएगी जब कभी पुरुष भी चढ़ेगा?
पुरुष ने बड़ी ज्यादती की है। पुरुष ने स्त्रियों के साथ ऐसा व्यवहार किया है जैसे वे संपत्ति हैं। कहते हैं इस देश में: स्त्री-संपत्ति। तो जब पुरुष मर गया तो उसको डर है कि मेरी संपत्ति को कोई और न भोग ले। तो वह चाहता है कि वह उसी के साथ जल मरे। यह पुरुष का अहंकार है और कुछ भी नहीं।
जीते-जी भी उसने बंधन बना कर रखा था कि उसकी स्त्री किसी और की तरफ कभी प्रेम की आंख से न देख ले। मर कर भी उसको बेचैनी है। वह मर कर भी डर रहा है कि अब मैं तो चला, कहीं मेरी स्त्री किसी के प्रेम में न पड़ जाए!
यह डर भी यही बता रहा है कि प्रेम तो हुआ ही नहीं था। प्रेम ही होता, तो भय कैसा? प्रेम ही होता, तो यह ईर्ष्या कैसी? प्रेम-व्रेम तो कुछ था नहीं; यह एक तरह का अधिकार था। स्त्री परिग्रह थी पुरुष का। अब मर कर भी कब्जा रखना चाहता है! यह तो हद्द हो गई! मुर्दा जिंदा पर कब्जा रखना चाहे!
लेकिन समाज पुरुषों का था। तो पुरुषों ने स्त्रियों को समझाया कि पति परमात्मा है। पुरुष ही समझा रहे हैं स्त्रियों को--कि पति परमात्मा है! और स्त्रियां मान कर बैठ गईं कि पति परमात्मा है। हालांकि पति में परमात्मा जैसा कुछ नहीं दिखाई पड़ता।
सच तो यह है कि अगर परमात्मा भी पति जैसा है, तो स्त्रियां उससे भी डरने लगेंगी। पति में तो परमात्मा जैसा कुछ नहीं दिखता; मगर घबड़ाहट हो सकती है कि कहीं परमात्मा में पति जैसा कुछ न हो।
पुरुषों ने बड़ी हिंसा की है। मनुष्य-जाति के प्रति पुरुषों के अपराध जघन्य हैं। उसमें सती एक जघन्य अपराध है।
मैंने सती की महिमा कही--स्त्री की तरफ से। पुरुष की तरफ से यह महिमा मैं नहीं कह सकता हूं।
तुम प्रसन्न हुए होगे; चिन्मय प्रसन्न हुए होंगे--कि यह बात ठीक! यह दिल को बड़ी राहत देती है कि कोई स्त्री जब हम मर जाएंगे और चिता पर चढ़ाए जाएंगे, तो कोई स्त्री हमारी चिता पर कूद कर मरेगी। यह दिल को बड़ी राहत देती है--कि अहा, हम भी कुछ पुरुष थे! कि क्या गजब के पुरुष थे--कि जिंदा भी स्त्री हमारी दीवानी रही और मरे, तब भी हमारे साथ मरी।
नहीं; मैं ‘सती-प्रथा’ के पक्ष में नहीं हूं। सती-भावना के जरूर पक्ष में हूं। कोई स्त्री को मौज आ जाए...वह अपने आनंद से, अपनी मस्ती से; उसको ऐसा लगे--उसके ही भीतर से लगे। न तो उस पर कोई सामाजिक दबाव होना चाहिए...। और सामाजिक दबाव बड़े सूक्ष्म होते हैं; बड़े परोक्ष होते हैं।
अगर समाज प्रशंसा भी करता है सती की, तो वह भी दबाव है। उसका मतलब है कि अगर यह मर जाएगी पति के साथ चिता पर चढ़ कर, तो समाज प्रशंसा करेगा। अगर नहीं मरेगी, तो प्रशंसा नहीं करेगा। तो सतियों के चौरे बनाए जाते हैं। सतियों की समाधियां बनाई जाती हैं। यह तरकीब है, यह प्रचार है; यह इस बात का प्रचार है कि और स्त्रियां, समझ लो। कि अगर चौरा बनवाना हो, तो यह करना पड़ता है। अगर समाधि बनवानी हो, फूल चढ़वाने हों, तो यह करना पड़ता है!
और जो स्त्रियां यह नहीं करतीं, उन पर किसी न किसी तरह के बदचलन होने का शक तो पैदा होता ही है--कि तुम्हारा पति मर गया, तुम यहां क्या कर रही हो? तुम किसके लिए बैठी हो? अगर अपने प्राण-प्यारे से प्रेम था, तो जाओ उसके साथ; अब तुम्हें यहां रहने का क्या अर्थ है? तुम्हारा अर्थ उसके साथ था। उसकी जिंदगी तुम्हारा अर्थ थी।
यह बात गलत है। यह प्रचार गलत है। और अगर यह प्रचार सही है, तो फिर दूसरी तरफ से भी यही बात होनी चाहिए। तो पुरुष को भी वही करना चाहिए, जो वह स्त्री से चाहता है। लेकिन पुरुष तो दूसरा ही काम करते हैं। स्त्री मरती भी नहीं है, तब से सोचते हैं कि कब मर जाए, कैसे मर जाए; इससे कैसे झंझट छूटे! मर ही रही होती है अस्पताल में, तब ही बैठ कर उसी के पास बैठ कर खाट पर, सोचते हैं कि अब किससे विवाह कर लें। मरघट पर जाते हैं--पत्नी को विदा करने--और वहीं चर्चा शुरू हो जाती है कि अब इनका विवाह कहां हो जाए! कैसे हो जाए!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी। मरते वक्त उसने कहा: नसरुद्दीन, एक बात पूछनी है। सिर्फ एक आश्वासन दे दो।
मुल्ला थोड़ा डरा कि यह मरने के वक्त कहीं ऐसा आश्वासन न ले-ले झंझट का। उसने कहा: पहले तू बता, कि क्या आश्वासन है? उसने कहा: बस छोटा सा आश्वासन है; कोई बड़ी बात तुमसे नहीं मांगती। इतना ही चाहती हूं कि...। यह तो मुझे पता है कि मेरे मरते ही तुम विवाह करोगे। उसका आश्वासन नहीं मांगती--कि मत करो, क्योंकि वह तो तुम्हारे लिए संभव नहीं होगा।...
स्त्रियां अपने पतियों को जानती हैं--इनसे क्या संभव होगा, क्या संभव नहीं होगा।
तो यह नहीं मांगती मैं। यह मांग ज्यादा हो जाएगी। सिर्फ इतना ही मांगती हूं कि मेरे कपड़े, मेरे गहने, तुम जो दूसरी स्त्री घर में लाओ, वह उपयोग न करे। उससे मेरी आत्मा को बड़ा दुख होगा।
मुल्ला ने कहा: तू बिलकुल बेफिकर रह। एक तो मैं शादी करने वाला नहीं; और दूसरा, रेहाना को तेरे कपड़े बैठेंगे भी नहीं।
एक तो मैं शादी करने वाला ही नहीं, और दूसरे रेहाना को तेरे कपड़े आएंगे भी नहीं।--ऐसा पुरुष-चित्त है। पुरुष ने स्त्रियों को देवी बनाना चाहा, ताकि देवियों का ठीक से शोषण किया जा सके।पुरुष ने स्त्रियों को कभी अपने समान नहीं माना।
या तो देवी...! ऊपर रख देता है आसमान में। यह भी तरकीब है शोषण की, क्योंकि जिसको तुम देवी बना लो, फिर उसको व्यवहार करना पड़ता है देवी की तरह। और या पशु।...
तो तुम तुलसीदास में दोनों तस्वीरें पा सकते हो: या तो देवी बना कर बिठाल दिया--सीता को बना दिया देवी। और या फिर शूद्रों, ढोलों, पशुओं के साथ गिनती करवा दी। ‘ये सब ताड़न के अधिकारी...।’
शूद्र गंवार ढोल पशु नारी,
ये सब ताड़न के अधिकारी।
इन सबकी कुटाई-पिटाई होनी चाहिए। एक तरफ यह--कि जैसे ढोल को पीटो तो बजता है, ऐसे ही पत्नी को पीटो तो ही ठीक रहता है। नहीं तो वह बस में नहीं रहती। जैसे पशुओं की पिटाई करनी चाहिए, तो ही कब्जे में रहते हैं। जैसे शूद्रों को...।
अब यह शूद्रों की इतनी पिटाई चलती है मुल्क में, इसमें तुम्हारे तुलसीदास जैसे लोगों का हाथ है। वह जो गांव का ग्रामीण ब्राह्मण किसी शूद्र के झोपड़े में आग लगा देता है, उसको तुम न रोक पाओगे, जब तक ये तुलसीदास हावी हैं। तुलसीदास की जब तक विदाई नहीं होती, तब तक तुम उसको नहीं रोक पाओगे। क्योंकि उसको यही तो जहर मिला है बचपन से, सुनने को। यही तुलसीदास का रामचरितमानस पढ़-पढ़ कर तो इस मुल्क का मानस भ्रष्ट हुआ है।
और दूसरी तरफ यह भी मजा है कि देवी भी...! तो बड़ी हैरानी होती है लोगों को कि यह मामला क्या है? एक तरफ स्त्री को देवी बना देते हैं; बड़ी ऊंचाई पर रख देते हैं। और एक तरफ बिलकुल नीचे, पैर की जूती बना देते हैं! मगर इन दोनों बातों का मतलब एक ही है। ये दोनों तरकीबें हैं शोषण की।
सीता को देवी बना कर जो व्यवहार राम से करवाया गया सीता के प्रति, वह सम्यक व्यवहार नहीं है।
वाल्मीकि ने जब राम युद्ध के बाद जीत जाते हैं और सीता अशोक वाटिका से मुक्त होती है, तो जो शब्द राम ने कहे हैं सीता के प्रति, बड़े अभद्र हैं। राम ने कहे या नहीं, यह सवाल नहीं है। वाल्मीकि ने जो कहलाए हैं; वे शब्द अभद्र हैं।
राम ने यह कहा है कि हे स्त्री, इस बात को खयाल में रख कि युद्ध मैं तेरे लिए नहीं लड़ा। तेरा मूल्य ही क्या है! यह युद्ध तो मैं रघुकुल की प्रतिष्ठा के लिए लड़ा हूं।
फिर अग्नि-परीक्षा...! लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि पुरुषों ने कभी यह न सोचा कि सीता उतने दिन राम से अलग रही; ठीक; चलो अग्नि-परीक्षा। राम भी उतने दिन अलग रहे। इनकी अग्नि-परीक्षा? इनकी अग्नि-परीक्षा की बात नहीं उठी कभी।
ये दोनों को एक ही साथ अग्नि में चढ़ जाना था। दोनों की परीक्षा हो जाती। मामला साफ हो जाता। लेकिन सीता को अग्नि-परीक्षा! और राम को?
नहीं; पुरुष हमेशा अपने को बाहर रखता है नियम के।सब नियम स्त्री के लिए हैं; सब स्वतंत्रता पुरुष के लिए है!
यह समाज पुरुषों ने बनाया; शास्त्र पुरुषों ने रचे; इसका सब ढांचा उनका है।
सीता यह भी नहीं कहती कि और महाराज, आप? आप इतने दिन अलग थे; न मालूम कहां के बंदरों इत्यादियों के साथ--किस-किस के साथ रहे? क्या किया, क्या नहीं किया? आपके बाबत क्या...? आप भी चढ़ो।
नहीं; मगर देवी यह कैसे कहे! देवियां ऐसे वचन नहीं बोल सकतीं। देवियां तो हमेशा वही करती हैं, जो बिलकुल ठीक है। रत्ती भर यहां-वहां चूक नहीं करतीं।
तो सीता का परम आदर...। लेकिन आदर भी तरकीब है शोषण की।--तो चढ़ो। तो चढ़ गई बेचारी।
मगर उससे भी कुछ हल नहीं हुआ। उससे भी कुछ हल नहीं हुआ! अग्नि-परीक्षा भी बहुत कुछ काम नहीं आई।
एक धोबी ने शक पैदा कर दिया! तुम सिर्फ इतना ही सोचते रहे हो कि अग्नि-परीक्षा ले ली। अब भी भरोसा नहीं था राम को? एक धोबी शक पैदा कर दे!
मगर ध्यान रखना: धोबी भी पुरुष है। यह धोबन ने नहीं किया है शक पैदा; यह पुरुष का जाल है।
तो सीता को फिर फिंकवा दिया। जैसे सीता तो दूध में पड़ी हुई मक्खी जैसी है। इसका कोई मूल्य ही नहीं; कोई कीमत ही नहीं; कोई गरिमा नहीं।
अगर राम को ऐसा ही लगता था कि प्रजा में मेरे प्रति संदेह पैदा नहीं होना चाहिए...। एक व्यक्ति में संदेह पैदा हुआ है, तो ठीक था, अपना राजपद छोड़ देते। चले जाते सीता को जंगल लेकर। कहते कि जहां मुझमें श्रद्धा नहीं है, मेरी पत्नी में श्रद्धा नहीं है, वहां मैं नहीं रहूंगा। यह तो बात समझ में आती थी।
लेकिन लोग इसका बड़ा गुनगान करते हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम! कि देखो, एक धोबी के कहने से सीता को छोड़ दिया!
सीता को छोड़ दिया, लेकिन राजपद नहीं छोड़ा। यह तो सीधी सी बात है कि राजपद छोड़ देते कि ठीक है; बात खत्म हो गई। जिस प्रजा में मुझ पर भरोसा नहीं है, मैं हट जाता हूं।
सीता को छोड़ने की तो बात ही क्यों उठती है! नहीं, लेकिन राजपद मूल्यवान है। सीता में क्या रखा है! स्त्री तो संपत्ति है। स्त्री की कुर्बानी दी जा सकती है--हर किसी चीज पर।
फिर भी सीता देवी है, इसलिए कुछ कह नहीं सकती, इसलिए जंगल चली जाती है।
गर्भस्थ नारी को जंगल भेजते हुए राम को जरा भी कठिनाई नहीं होती! यह पुरुषों का जाल है।
राम ने ऐसा किया या नहीं, यह मैं नहीं कह रहा हूं। राम ने क्या किया, मुझे पता नहीं। राम कभी हुए कि नहीं, इससे भी कुछ लेना-देना नहीं। मगर यह पुरुषों का जाल है।
ये सब शास्त्र पुरुष रचते हैं और अपने हिसाब से रचते हैं। इसमें राजनीति है।
तो या तो स्त्री को देवी बना कर रखो, ताकि वह ऐसा कोई काम कर ही न सके; सोच भी न सके।और पुरुष को बिलकुल मुक्त रखो।
हम कहते हैं: पुरुष पुरुष है। पुरुष पुरुष है--इसका क्या मतलब? इसका मतलब--पुरुष को सब सुविधा है।
पुरुष भूल करे, तो हम कहते हैं--आखिर पुरुष है। तुम देखते हो: वेश्याएं हैं दुनिया में; वेश्य नहीं हैं। क्यों? क्योंकि पुरुष को वेश्याओं की जरूरत है; स्त्री के लिए तो सवाल ही नहीं। पुरुष पत्नी भी रखे और गांव में वेश्या भी है। वह सुविधा उसको है--कि वह चला जाए दूसरी स्त्रियों को भोगने।
लेकिन वेश्य नहीं हैं दुनिया में; पुरुष नहीं हैं, जो कि वेश्या का काम कर रहे हों। क्योंकि यह तो हम मान ही नहीं सकते। स्त्री तो देवी है। उसको कहीं ऐसी जरूरतें पड़ती हैं। यह तो पुरुष को ही पड़ती हैं जरूरतें!
यह भी बड़ी मजे की बात है! स्त्री को हम सुविधा नहीं देते--किसी तरह की। जिंदा में नहीं देते; मरने पर भी नहीं देते।
तो मैंने जो सती की महिमा कही, वह स्त्री की तरफ से कही; पुरुष की तरफ से नहीं। मेरी बात को समझने में भूल मत कर लेना। मैं तुलसीदास का हामी नहीं हूं।
पूछते हैं योग चिन्मय: ‘आज की और भविष्य की नारी के लिए सती का क्या मूल्य है? आज की स्त्री भी सती की ऊंचाई को छू सके,...।’
क्यों? ऊंचाई स्त्री को ही छूनी है! तुम्हें ऊंचाई नहीं छूनी? तुम भी तो छूओ! स्त्रियां बहुत छू चुकीं ऊंचाई; अब उनको जरा नीचाई भी छूने दो। उनको आदमी बनने दो। अब यह मजा तुम भी तो लो ऊंचाई छूने का।
नहीं; यह प्रश्न गलत है; पुरुष की तरफ से गलत है। तुम फर्क समझ लेना।
यह किसी स्त्री ने पूछा होता, तो मैंने कुछ और कहा होता। यह किसी पुरुष ने पूछा है, इसलिए मेरी कोई सहानुभूति नहीं है इसमें।
सती की महिमा है; निश्चित महिमा है। इसलिए नहीं कि स्त्री पुरुष पर समर्पित होती है, बल्कि इसलिए कि प्रेम और समर्पण की महिमा है। काश, पुरुष भी ऐसा कर सके, तो महिमा और बढ़ जाएगी!
यह अभी एकंगा रहा; असंतुलित थी यह बात। स्त्रियों ने पुरुषों को बुरी तरह पराजित किया है इसमें। बड़े से बड़े पुरुष भी छोटे पड़ गए।
साधारण से साधारण स्त्री भी प्रेम के मामले में पुरुष को बहुत पीछे छोड़ जाती है।
लेकिन यह होना चाहिए सहज; न कोई सामाजिक दबाव, न कोई सामाजिक--परोक्ष--संस्कार। जो स्त्री अपने को समर्पित कर दे, वह धन्यभागी है। लेकिन जो समर्पित न करे, वह अपमानित नहीं होनी चाहिए।
जो समर्पित न करे, यह उसकी मौज है; अपमान विदा होना चाहिए।
जब से सती की प्रथा का सम्मान हुआ, तभी से विधवा अपमानित हो गई। विधवा का मतलब ही यह है: जो सती होने से रुक गई है।
अपमान क्या है विधवा का? विधवा का अपमान यही है कि जहां सौ स्त्रियां सती हो रही थीं, वहां कुछ स्त्रियां सती नहीं हुईं। फिर धीरे-धीरे नहीं सती होने वाली स्त्रियों की संख्या बढ़ती गई। उनका अपमान बढ़ता गया। सती होना ही चाहिए उन्हें; फिर तो यह नीति न रही। यह जबर्दस्ती हो गई। यह तो कोई पुलिस का कानून हो गया--कि सती होना ही चाहिए!
सती होना ही चाहिए--का सवाल नहीं है। यह तो प्रेम का आविर्भाव है। घटे, तो परम सौभाग्य। न घटे, तो अपमान कुछ भी नहीं।
मेरे नापने का ढंग यह है कि सती का होना न घटे, तो यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं है। कौन मरना चाहता है? किसलिए मरे? और इस पुरुष से प्रेम था; कल किसी और पुरुष से प्रेम हो सकता है; मरने की जरूरत क्या है?
बिलकुल स्वाभाविक है सती न होना; इसमें अपमान जरा भी नहीं है; प्राकृतिक है। यही प्राकृतिक है। तुम्हें एक भोजन का शौक था; फिर आज वह भोजन मिलना बंद हो गया, तो तुम मर थोड़े ही जाओगे। तुम दूसरा भोजन तलाशोगे। तुम्हें एक ढंग के कपड़ों में रस था; आज वे कपड़े नहीं मिलते; नहीं बनते; मिल बंद हो गई। तो तुम कोई नंगे थोड़े ही फिरने लगोगे! तुम कोई दूसरे कपड़े चुनोगे। यह भी हो सकता है कि उतने सुंदर कपड़े न हों वे, जितने बंद हो गई मिल से आते थे, मगर फिर भी क्या करोगे! नंबर दो के कपड़े स्वीकार करोगे। हो सकता है उनकी याद भी आती रहेगी। मगर फिर भी क्या करोगे!
अगर मरुस्थल में तुम मर रहे हो और शुद्ध पानी नहीं मिलेगा, तो तुम गंदा पानी भी पीने को राजी हो जाओगे। करोगे क्या? इसका यह मतलब नहीं कि तुम शुद्ध पानी के खिलाफ हो। तुम जानते हो कि यह मजबूरी है।
पति से तुम्हारा प्रेम था; वह चल बसा। यह बिलकुल स्वाभाविक है कि तुम दूसरा पति खोज लो। इसमें जरा भी अपमान नहीं है। यह मेरी दृष्टि है। लेकिन अगर कोई स्त्री या कोई पुरुष...(दूसरे के बाबत मुझे संदेह है।)...अगर समर्पित होना चाहे, तो यह बड़ी पारलौकिक बात है। इसका सम्मान तो होना चाहिए; लेकिन जो न करे, उसका अपमान नहीं होना चाहिए।
न करने में पाप नहीं है; करने में पुण्य है। करने में बड़ी महिमा है। मगर आए हृदय से; उठे भीतर से। प्रेम का ही कृत्य हो; संस्कार का नहीं--शास्त्र का नहीं, समाज का नहीं।
यह प्रेम ही तुम्हें कह दे कि अब मेरे होने में क्या अर्थ! जिसके साथ आनंद जाना था, जिसके साथ जीवन जाना था, जिसके साथ जीवन का श्रृंगार और सौंदर्य था, वह गया; मैं भी विदा लेता हूं। अब अकेले होने में कोई अर्थ नहीं रहे।
मगर ऐसा समझा-बुझा कर नहीं अपने को--कि अब क्या सार, अब क्या जीएंगे; अब कौन भोजन लाएगा, अब कौन रोटी का इंतजाम करेगा; अब कहां तलाशेंगे इस उम्र में किसी दूसरे आदमी को; लोग क्या कहेंगे! ये हेतु अगर उसमें हों, तो वह आत्महत्या है--सती होना नहीं। सती और आत्महत्या में फर्क है।
सती का अर्थ है: अब जीना तो आत्महत्या होगी; अब मरने में जीवन है। और आत्महत्या का अर्थ है कि अब जीने में बड़ी मुश्किल होगी, झंझटें आएंगी; कभी जिंदगी में कमाया नहीं। स्त्री कभी गई नहीं कमाने। नौकरी नहीं की; अब कहां नौकरी करूंगी! किसके दरवाजे भीख मांगूंगी? बच्चों को बड़ा करना है; कैसे होगा; क्या होगा? यह झंझट तो बहुत बड़ी है; इससे तो बेहतर मर जाओ। यह आत्महत्या है।
आत्महत्या की प्रशंसा नहीं हो सकती। आत्महत्या तो हिंसा है और पाप है।
न कोई सती हो--यह स्वाभाविक।कोई सती हो जाए--यह पारलौकिक। सती होने का आदर्श समझाया नहीं जाना चाहिए, सिखाया नहीं जाना चाहिए--अनसीखा आना चाहिए। और यह उतना ही पुरुष के लिए लागू है, जितना स्त्री के लिए लागू है। यह एकतरफा नहीं हो सकता। एकतरफा हो तो अन्याय है।
आखिरी प्रश्न :
जीवन का अर्थ क्या है?
जीवन में अपने आप अर्थ होता नहीं; अर्थ हमें डालना होता है। जीवन तो एक अवसर है; डालोगे, तो अर्थ हो जाएगा।
जीवन तो ऐसे है, जैसे कोरा कैनवास; उस पर चित्र रंगोगे, तो अर्थ आ जाएगा। तुम्हारी कुशलता पर अर्थ निर्भर होगा। एक पिकासो बनाएगा चित्र, तो लाखों का हो जाएगा। शायद तुम बनाओ, तो लाखों का न हो।
अर्थ जीवन में उतना होता है, जितना हम डालते हैं।
जीवन अपने में खाली है; जीवन कोरा अवसर है। संभावना सब है; यथार्थ कुछ भी नहीं है। इसलिए अक्सर लोग सोचते हैं: जीवन व्यर्थ है! क्या अर्थ?
मेरे पास आते हैं पूछने कि क्या है जीवन में अर्थ? वे इस तरह सोच रहे हैं कि अर्थ कोई रेडीमेड चीज है--कि यहां रखी है; आपको तैयार मिलनी चाहिए! पचा-पचाया भोजन है।
नहीं; अर्थ सृजनशीलता से उत्पन्न होता है। कुछ गीत रचो; कुछ मूर्ति बनाओ; कुछ नाचो। कुछ प्रेम करो; कुछ ध्यान करो। कुछ खोजो; कुछ जिज्ञासा में उतरो। और तुम पाओगे: अर्थ आना शुरू हुआ।
और जितना बहुआयामी तुम्हारा व्यक्तित्व हो, जितनी अनंत-अनंत खोजें तुम्हारे जीवन को घेर लें; जितना तुम्हारा दुस्साहस होगा--अभियान पर निकलने का, उतना ही अर्थ होगा।
इसी जीवन में कोई बुद्ध हो जाता है--कोई कबीर; और कोई ऐसे ही धक्के खाते-खाते मर जाता है।
अर्थ है नहीं; अर्थ पैदा करना है।
ठंडा हुआ ये जिस्म तो रह जाएगी बस खाक
उठ गर्मिए इन्फास को इक शोला बना ले।
तू मौत के सन्नाटे में कुछ सुन न सकेगा
आवाज को दिल की अभी इक नारा बना ले।
कुछ देख न पाएंगी जो बंद हो गईं आंखें
तू कसरते अनवार को इक जल्वा बना ले।
उठ जाएगा परदा तो यहां कुछ न रहेगा
नज्जारगिए शौक को इक परदा बना ले।
इक लम्हा है वो जिसमें अजल और अबद गुम
कुल उम्र का हासिल वही एक लम्हा बना ले।
इक नगमा है वो जिसमें समा जाते हैं सब सुर
हस्ती को तू अपनी वही इक नगमा बना ले।
इक नुक्ता है वो अरसाए कोनौन है जिसमें
तू वसअते दिल को वही इक नुक्ता बना ले।
इक शोला है वो नूरे अहद है जो सरापा
खूने रंगे जां को वही इक शोला बना ले।
कुछ करो!
ठंडा हुआ ये जिस्म तो रह जाएगी बस खाक
उठ गर्मिए इन्फास को इक शोला बना ले।
इन श्वासों का थोड़ा उपयोग कर लो! इन श्वासों में दौड़ती गर्मी का कुछ उपयोग कर लो! यह जो खून है दौड़ता हुआ तुम्हारे प्राणों में, इसका कुछ उपयोग कर लो! यह जो धड़कन है, इसका कुछ उपयोग कर लो! यह जो चेतना का दीया तुममें जल रहा है, इसका कुछ उपयोग कर लो! जल्दी ही सब खाक रह जाएगी। हां, जो उपयोग कर लेंगे, वे उड़ चलेंगे। खाक यहां पड़ी रह जाएगी और हंस चलेगा दूसरे देश।
ठंडा हुआ ये जिस्म तो रह जाएगी बस खाक
उठ गर्मिए इन्फास को इक शोला बना ले।
तू मौत के सन्नाटे में कुछ सुन न सकेगा...
अभी कान हैं; अभी कुछ कर लो! सुनने की कला सीख लो! श्रवण की कला सीख लो! अभी आंखें हैं; देखने की कला सीख लो!
तू मौत के सन्नाटे में कुछ सुन न सकेगा
आवाज को दिल की अभी इक नारा बना ले।
अभी दिल में कुछ है, भजन उठा लो इससे, या गाली उठा लो। तुम पर निर्भर है। अर्थ तुम पर निर्भर है। या तो गाली जगा लो; यही श्वासें गाली बन जाएंगी। और या भजन को उठने दो--हरिभजन को उठने दो; राम की याद आने दो।
कुछ देख न पाएंगी जो बंद हो गई आंखें
तू कसरते अनवार को इक जल्वा बना ले।
इसके पहले कि आंखें बंद हो जाएं, जो देखने योग्य है, उसे देख लो! वह देखने योग्य चारों तरफ मौजूद है। वह फूलों में छिपा है, पहाड़ों में छिपा है, दरियाओं में छिपा है, झरनों में छिपा है। वह सब तरफ मौजूद है। वह लोगों में छिपा है। इसके पहले कि आंखें बंद हो जाएं, अदृश्य को देख लो! फिर तुम्हारे जीवन में अर्थ होगा।
इक लम्हा है वो जिसमें अजल और अबद गुम
एक ऐसा क्षण है समाधि का, ध्यान का जहां न आदि है और न अंत है।
इक लम्हा है वो जिसमें अजल और अबद गुम
कुल उम्र का हासिल वही इक लम्हा बना ले।
बस, वही एक क्षण तुम्हारे जीवन का कुल हासिल होगा; वही जीवन की उपलब्धि है। उस क्षण को पा लेना, जहां प्रारंभ और अंत एक हो जाते हैं; जहां स्रोत और गंतव्य एक हो जाते हैं; जहां--जहां से हम आए हैं और जहां हम जा रहे हैं--दोनों एक साथ प्रकट हो जाते हैं, उस क्षण को ही पा लोगे, तो अर्थ है।
इक लम्हा है वो जिसमें अजल और अबद गुम
कुल उम्र की हासिल वही इक लम्हा बना ले।
इक नगमा है वो जिसमें समा जाते हैं सब सुर...
एक ऐसा गीत तुममें पड़ा है, छिपा पड़ा है; जैसे बीज में वृक्ष छिपा पड़ा होता है, ऐसा एक नगमा तुममें छिपा पड़ा है।
इक नगमा है वो जिसमें समा जाते हैं सब सुर
हस्ती को तू अपनी वही इक नगमा बना ले।
छेड़ो अपनी वीणा के तार। जगाओ। ऐसे बैठे-बैठे मत कहो कि जीवन में अर्थ क्या है?
ऐसे बैठे-बैठे कोई भी अर्थ नहीं है; अनर्थ ही अनर्थ है। कुछ करो! अभी जी रहे हो; इस जीवन की ऊर्जा का कोई सक्रिय उपयोग करो! बन सकते हो तुम नगमा।
इक नुक्ता है वो अरसाए कोनौन है जिसमें
एक छोटा सा बिंदु तुम्हारे भीतर है, जिसमें सारा जगत छिपा हुआ है।--पिंड में ब्रह्मांड; तुम्हारे अणु में विराट छिपा है।
तू वसअते दिल को वही इक नुक्ता बना ले
वही छोटा सा शून्य बिंदु तुम बन जाओ। तुम बिंदु बन जाओ, तो सिंधु बनने का उपाय शुरू हो जाता है।
ऐसे बाहर बैठे-बैठे राह मत देखते रहो भिखारी की तरह कि कोई आएगा और तुम्हारी झोली में जीवन का अर्थ डाल जाएगा।
कोई नहीं आया है, न आएगा। किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? उठो! कुछ करो! इस उठने और करने का नाम ही संन्यास है। उठो, तो पा लोगे। एक दिन तुम भी कह सकोगे: ‘कहै कबीर मैं पूरा पाया।’
मैं तुमसे कहता हूं: ‘कहै कबीर मैं पूरा पाया।’
एक दिन तुम भी कह सकोगे। यह तुम्हारी क्षमता है। यह तुम्हारे लिए चुनौती है।
जीवन में अर्थ भीख में नहीं मिलता; जीवन में अर्थ जगाना होता है। जन्म देना होता है अर्थ को।
अर्थ हो सकता है, मगर अपने आप नहीं होगा। राह मत देखो।
भिखमंगे खाली आते, खाली जाते। खाली तो तुम आए हो, लेकिन खाली जाना जरूरी नहीं है। भर कर जा सकते हो।
ये सारे सूत्र उसी अर्थ को जगाने के लिए हैं।
आज इतना ही।