KABIR
Kahe Kabir Main Pura Paya 15
Fifteenth Discourse from the series of 20 discourses - Kahe Kabir Main Pura Paya by Osho.
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सूत्र
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।।
चारि पहर निसि भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा।
जैसे बनिए हाट पसारा, सब जग कासो सिरजनहारा।।
ये ले जारे वे ले गाड़े, इन दुखिइनि दोऊ घर छाड़े।
कहत कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम्ह विनसि रहेगा सोई।।
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
आगे पंथी पंथ न कोई, कूच-मुकाम न पैहों।।
नहिं तहं नीर नाव नहिं खेवट, ना गुन खैंचनहारा।
धरती-गगन-कल्प कछु नाहीं, ना कछु वार न पारा।।
नहिं तन नहिं मन, नहीं अपनपौं, सुन्न में सुद्ध न पैहौ।
बलीवान होए पैठो घट में, वाहीं ठौंरें होइहौ।।
बार हि बार विचार देख मन, अंत कहूं मत जैहो।
कहै कबीर सब छाड़ि कल्पना, ज्यों के त्यों ठहरैहौ।।
ज्यूं मन मेरा तुज्झ सौं, यों जे तेरा होइ।
ताता लोहा यौं मिलै, संधि न लखई कोइ।।
कबीर जाको खोजते, पायो सोई ठौर।
सोई फिरि कै तूं भया, जाको कहता और।।
मारे बहुत पुकारिया, पीर पुकारे और।
लागी चोट मरम्म की, रह्यो कबीरा ठौर।।
दोस्तो! तुम इसे महसूस करो या न करो
रोशनी जहर की लपटों में सिमट आई है
चुपके ही चुपके पिए जाती है शबनम का लहू
आओ वो देखो सबे-माह का कातिल सूरज
अपनी किरणों का कमन्द फैंक रहा है हर सू
कौन है कौन नहीं जद में ये सोचा न करो
ख्वाब की लहर सिमट आई है आंसू बन कर
हासिले-शब है यही, इसको बचा कर रख लो
अपनी गुम-गश्ता सहर की ये मता-ए-आखिर
हो सके तो इसे दामन में छुपा कर रख लो
हसरते दीदा-ए-नमनाक को रुसवा न करो।
आदमी की जिंदगी का हासिल क्या है? अंतिम पूंजी क्या है?
ख्वाब की लहर सिमट आई है आंसू बन कर
हासिले-शब है यही, इसको बचा कर रख लो
इस जिंदगी की पूरी अंधेरी रात का एक ही परिणाम है--दुख। बस एक ही संपत्ति है--आंसू। यहां कुछ आदमी पाता नहीं, कुछ गंवाता जरूर है। हम जितने खाली हाथ आते हैं संसार में, उससे कहीं ज्यादा खाली हाथ जाते हैं। हम कुछ गंवा कर जाते हैं। आते तो खाली हैं ही, लेकिन कम से कम मुट्ठी बंद होती है। बच्चा पैदा होता है, तो मुट्ठी बंद होती है--हालांकि खाली--पर कम से कम बंद होती है। और जब जाता है, तब भी खाली होती है। लेकिन अब खुली होती है। सब लुट गया।
जिंदगी लूटती है--देती कुछ भी नहीं। और जिंदगी लूट लेती है इस तरकीब से कि पता भी नहीं चलता। और तुम तो इसी खयाल में रहते हो कि कमा रहे हो; तुम तो इसी भ्रम में रहते हो कि कमा लिया है। और कमाए जा रहे हो। यह अपना हो गया, वह अपना हो गया; इतनी जमीन, इतनी जायदाद; इतना नाम, इतनी प्रतिष्ठा! इसी कमाने के धोखे में तुम सब गंवा देते हो।
धनी से ज्यादा गरीब आदमी खोजना कठिन है। और जो बड़े पदों पर बैठे हैं, उनसे ज्यादा रिक्त आत्माएं खोजनी कठिन हैं। भिखमंगे हैं; भ्रांति भर है कि भिखमंगे नहीं हैं। सौभाग्यशाली है वह, जिसे यह समझ में आ जाए कि जिंदगी लूटती है; जिंदगी लुटेरा है।
दोस्तो! तुम इसे महसूस करो या न करो
रोशनी जहर की लपटों में सिमट आई है
जिस दिन से तुम पैदा हुए हो, उस दिन से मरने के सिवाय कुछ और तुमने किया नहीं है। उस दिन से मर रहे हो। जहर करीब आता जा रहा है: मौत करीब आती जा रही है। और जिसको तुम रोशनी कहते हो, वह सदा जहर में घिरी हुई है।
जिसको तुम जिंदगी कहते हो, वह चारों तरफ मौत से लिपटी हुई है। मौत का कफन तुम्हें लपेटे हुए है। एक दिन बीतता है, एक दिन और मर गए। जिंदगी और कम हुई; तुम और अशक्त हुए। ऐसे बूंद-बूंद करके यह गागर चुक जाएगी।
और मजा यह है कि तुम इसी खयाल में हो कि गागर भर रहे हो। तुम इसी खयाल में हो कि गागर भर रही है रोज। थोड़ी दूर और है सपना; और पूरा होने के करीब है। जरा और मेहनत; और तुम पहुंच जाओगे मंजिल पर।
दोस्तो! तुम इसे महसूस करो या न करो
रोशनी जहर की लपटों में सिमट आई है
चुपके ही चुपके पिए जाती है शबनम का लहू
तुम्हारा खून मौत पीए जा रही है। ऐसा नहीं है कि सत्तर साल बाद एक दिन अचानक मौत आ जाती है। मौत प्रतिपल आ रही है; तुम रोज ही मर रहे हो। सत्तर साल में मौत का काम पूरा होता है; मौत सत्तर साल के बाद अचानक नहीं आती। धीरे-धीरे आती है, आहिस्ता-आहिस्ता आती है। तुम्हें पता भी नहीं चलता और आती चली जाती है। पगध्वनि भी सुनाई नहीं पड़ती, इतने चुपचाप आती है। फुसफुसाहट भी नहीं होती; शोरगुल भी नहीं होता; द्वार-दरवाजे पर दस्तक भी नहीं होती।
चुपके ही चुपके पिए जाती है शबनम का लहू
आओ वो देखो शबे-माह का कातिल सूरज
अपनी किरणों का कमन्द फैंक रहा है हर सू
हर तरफ जाल है।
कौन है कौन नहीं जद में ये सोचा न करो
इस विचार में मत पड़ा करो कि कौन आज मर गया, कौन कल मर गया; कौन आज फंस गया जाल में, कौन कल फंस गया--यह मत सोचा करो।
कौन है कौन नहीं जद में ये सोचा न करो
जब भी कोई मरता है, तब याद किया करो कि तुम मर गए; जिंदगी और कम हो गई। जब भी कोई मरता है, तुम्हीं मरते हो। हर मौत तुम्हारी मौत की खबर है।
दोस्तो! तुम इसे महसूस करो या न करो
यह तुम्हारी मर्जी। महसूस कर लो, तो जीवन में धर्म की शुरुआत होती है। महसूस न करो, तो जिंदगी व्यर्थ की बातों में उलझे-उलझे ही समाप्त हो जाती है। आखिर में पाओगे: आंसुओं के अतिरिक्त हाथों में कुछ भी नहीं है। जिंदगी भर दौड़े और आंसुओं के अतिरिक्त और कोई संपदा नहीं है।
ख्वाब की लहर सिमट आई है आंसू बन कर
हासिले-शब है यही,...
जिंदगी की पूरी रात का यही हासिल है।
हासिले-शब है यही, इसको बचा कर रख लो
अपनी गुम-गश्ता सहर की ये मता-ए-आखिर
वह जो जिंदगी की सुबह खो गई, वह जो जिंदगी का सारा का सारा समय, अवसर खो गया...।
अपनी गुम-गश्ता सहर की ये मता-ए-आखिर
उसी खोई हुई सुबह की बस यह आखिरी पूंजी है--यह आंसू।
मरते वक्त आदमी की आंख से जो आंसू गिर जाते हैं दो, यह जिंदगी का हासिल है। जो इसे देख लेता है, समय रहते जाग जाता है। मौत के पहले जाग जाओ, तो ही जिंदा थे। मौत के पहले न जागे, तो नाममात्र की जिंदगी थी--ऐसे तुम मुर्दा थे।
श्वास चलने का नाम जिंदगी नहीं है। और न हृदय के धड़कने का नाम जिंदगी है। जिंदगी जागरण है, क्योंकि जागरण में ही बुद्धत्व की संपदा है। बुद्ध हुए बिना चले गए, तो सब गंवा कर चले गए।
बुद्ध होकर जाओ। कस्त करो, कसम खाओ कि बुद्ध होकर जाएंगे, जाग कर जाएंगे। ऐसे सोए-सोए जीए और सोए-सोए मर न जाएंगे। एक दीया जलाएंगे रोशनी का भीतर। प्राणों की आहुति देंगे। प्राणों को जलाएंगे, मगर रोशनी करेंगे। और एक बार भीतर रोशनी हो जाए, तो फिर रोशनी कभी बुझती नहीं। फिर कोई अंधड़-तूफान उसे छीन नहीं सकता। उसको ही ज्ञानियों ने संपत्ति कहा है, जो छीनी न जा सके। जो छिन जाए, उसे संपत्ति नासमझ कहते हैं।
समझदार उसे संपत्ति कहते हैं, जो तुम्हारा स्वभाव है। तुम्हारे पास ऐसा कुछ है, जो तुमसे न छीना जा सके। सोचना; खोजना; विचार करना। तुम्हारे पास कुछ है, जो तुमसे छीना न जा सके?
तुम्हारा धन छीना जा सकता है। तुम्हारा पद छीना जा सकता है। तुम्हारी पत्नी छीनी जा सकती है। तुम्हारा पति छीना जा सकता है। कोई न भी छीनेगा, तो मौत छीन लेगी। तुम्हारी देह भी छिन जाएगी, और तुम्हारा मन भी छिन जाएगा।
तुम्हारे पास कुछ है जो लूटा न जा सके, जिसे लूटने का उपाय ही न हो।
महावीर के पास उस समय का एक सम्राट प्रसेनजित गया, और उसने महावीर से कहा कि आपकी बातें सुनीं और मुझे साफ दिखाई पड़ने लगा कि मैं बिलकुल दरिद्र हूं। सब है मेरे पास और कुछ भी नहीं मेरे पास! तुमने मुझे चौंका दिया, तुमने मेरी नींद तोड़ दी! मैं एक ख्वाब देखता था, एक सपना देखता था--सम्राट होने का। मगर मेरे पास कुछ भी नहीं है। लेकिन तुमने मुझे पीड़ा से भी भर दिया है। बड़ा संताप मेरे हृदय में पैदा हो गया है। मैं निर्धन हूं। तुम जिस धन की बात कर रहे हो, वह मैं कहां पाऊं? कैसे पाऊं?
महावीर ने कहा: मैं तो ध्यान को ही धन कहता हूं। कोई और धन नहीं है। कहीं और पाने जाना नहीं है।
लेकिन प्रसेनजित तो प्रसेनजित! जिंदगी में बाहर ही बाहर की दौड़ की थी; बड़ी यात्राएं की थीं; बड़ा राज्य बनाया था; दूर दूर तक जीता था, पताका फहराई थी। उसने कहा: तुम फिकर न करो, कोई भी हो, कैसा भी धन हो, तुम मुझे बता दो, कहां है? मैं जीत लाऊंगा।
महावीर हंसे। उन्होंने कहा: यह जीतने की बात नहीं है। और यह बाहर नहीं है। फौज-फांटा काम नहीं पड़ेगा।
प्रसेनजित ने कहा: आप इसकी फिकर ही न करें। दुनिया में मैंने ऐसी कोई चीज नहीं देखी, जिसको मैंने चाहा हो और न पा लिया हो। मैं सब तरह की कीमत चुकाने को तैयार हूं। जो भी मूल्य हो, दे दूंगा। सारा राज्य भी देना पड़े, तो दे दूंगा, मगर ध्यान लेकर रहूंगा।
महावीर ने कहा: कुछ भी देने से ध्यान नहीं मिलता। यह लेने-देने की बात ही नहीं है। लेकिन उसकी कुछ समझ में न आए। उसने सब चीजें खरीदी थीं दुनिया में; सब तरह की जीत की थी। सोचता था, ध्यान भी जीत लेंगे, ध्यान भी खरीद लेंगे। और ऐसा प्रसेनजित ही सोचता हो, ऐसा नहीं है, तुम भी इसी तरह सोचते हो। सभी इसी तरह सोचते हैं।
उसको महावीर की बात समझ न पड़ी, तो महावीर ने कहा: ऐसा करो, तुम्हारे गांव में ही एक गरीब आदमी है, उसको ध्यान मिल गया है। वह मेरा शिष्य है; गरीब है; उसके पास कुछ नहीं है। तुम उससे खरीद लो। वह शायद बेचने को राजी हो जाए! यह महावीर ने मजाक किया।
प्रसेनजित अपना रथ लेकर उस गरीब के दरवाजे पर रुका। गरीब तो चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा: आपके आने की जरूरत क्या थी? आप मुझे बुला भेजते? आज्ञा दे देते!
प्रसेनजित ने कहा: आना पड़ा। मैं ध्यान लेने आया हूं। महावीर ने कहा: तुझे ध्यान मिल गया है। तू धन्यभागी है। ध्यान मुझे दे दे और धन तुझे जितना चाहिए, वह तू ले ले।
वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा: मालूम होता है, महावीर ने मजाक की है। मैं अपने प्राण दे सकता हूं, लेकिन ध्यान कैसे दे सकता हूं? और ऐसा नहीं है कि मैं देना नहीं चाहता। मगर ध्यान दिया ही नहीं जा सकता। ध्यान तो आंतरिक संपदा है; आविष्कार करना होता है। बाहर जाने से नहीं मिलता; भीतर जाने से मिलता है। ध्यान तो प्रत्येक लेकर ही पैदा हुआ है।
दो धन हैं इस दुनिया में। एक धन है: ध्यान, जिसे तुम लेकर पैदा हुए हो, जो तुम्हारी गुदड़ी में ही छिपा है; जो हीरा तुम्हारे भीतर ही पड़ा है। और एक है: धन, उसके बहुत रूप हैं, उसे तुम लेकर पैदा नहीं हुए हो। जिसे तुम लेकर पैदा नहीं हुए हो, उसको तुम जिंदगी भर दौड़ते हो पाने को--और मौत उसे छीन लेगी। क्योंकि जिसे तुम जिंदगी के साथ नहीं लाए, उसे तुम मौत के पार न ले जा सकोगे। जिसे तुम जन्म के पहले से ही लाए हो, वही तुम मौत के पार भी ले जा सकोगे।
इसलिए झेन फकीर अपने शिष्यों को कहते हैं: आंख बंद करो, और उस जगह पहुंचो जहां तुम जन्म के पहले थे। अगर तुमने वह जगह अपने भीतर पा ली, तो फिर तुमसे कुछ छीना न जा सकेगा।
मौत वही छीन सकती है, जो जन्म ने दिया। उसके पार जो है, वह मौत के बाहर है। और जो मौत के बाहर है, वही अमृत है। और जो मौत के बाहर है, वही परमात्मा है।
एक धन है, जो बाहर खोजने से मिलता है। एक तो बड़ी मुश्किल से मिलता है; खोजे-खोजे मिलता है; हजार खोजने निकलते हैं, तो नौ सौ निन्यानबे को नहीं मिलता; एकाध को मिलता है। और बड़ी आश्र्चर्य की बात यह है कि जिनको नहीं मिलता, उनको तो नहीं मिलता। जिनको मिलता है, उनसे भी मौत वापस ले लेती है।
जो इसके प्रति जाग जाए, समझ जाए, यह होश जिसे आ जाए, उसके जीवन में एक क्रांति पैदा होती है। उसके जीवन में एक नई यात्रा शुरू होती है। उस नई यात्रा का नाम ही धर्म है। उसी को हम खोजते भटकते फिर रहे हैं।
है नसीमे-सुबह आवारा उसी के नाम पर
बू-ए-गुल ठहरी हुई है जिस कली के नाम पर
कुछ न निकला दिल में दागे-हसरते-दिल के सिवा
हाय क्या-क्या तोहमते थीं आदमी के नाम पर
फिर रहा हूं कू-ब-कूं जंजीरे-रुसवाई लिए
है तमाशा सा तमाशा जिंदगी के नाम पर
अब ये आलम है कि हर पत्थर से टकराता हूं सर
मार डाला एक बुत ने बंदगी के नाम पर
कुछ इलाज उनका भी सोचा है तुमने ऐ चारागरों
वो जो दिल तोड़े गए हैं दिलबरी के नाम पर
कोई पूछे मेरे गमख्वारों से तुमने क्या किया
खैर उसने दुश्मनी की दोस्ती के नाम पर
कोई पाबंदी से हंसने पर न रोना जुर्म है
इतनी आजादी तो है दीवानगी के नाम पर
आप ही के नाम से पाई है दिल ने जिंदगी
खत्म होगा अब ये किस्सा आप ही के नाम पर
कारवाने-सुबह यारों कौन सी मंजिल में है
मैं भटकता फिर रहा हूं रौशनी के नाम पर।
हम टटोल रहे हैं...।
कारवाने-सुबह यारों कौन सी मंजिल में है
कहां मिलेगी रोशनी? कहां मिलेगा वह प्रभात का कारवां? कहां होंगे दर्शन सूरज के? कहां मिलेगा ऐसा आलोक जो हमें रूपांतरित कर जाएगा? जो हमें ऐसा जीवन दे जाएगा जिस का कोई अंत नहीं? जो हमें समय के बाहर ले जाएगा? जो हमें जन्म-मृत्यु की उधेड़बुन से बचा लेगा?
कारवाने-सुबह यारों कौन सी मंजिल में है
कहां है वह ठिकाना, वह मंजिल कहां है?
मैं भटकता फिर रहा हूं रौशनी के नाम पर।
हम अंधे हैं और अंधेरे में हैं।
यह असली जन्म नहीं है, जो तुम्हारा मां के गर्भ से हुआ है। एक गर्भ से निकले हो, एक अंधेरे से निकले हो और दूसरे अंधेरे में गिर गए हो। यह तो खाई से बचे, तो कुएं में गिर गए!
मां के पेट में बच्चा गहरे अंधेरे में जीता है। न कुछ सूझता, न कुछ दिखाई पड़ता। फिर पैदा होता है। दिखाई भी पड़ने लगता है, सूझने भी लगता है, लेकिन बाहर। भीतर अब भी अंधेरा रहता है। भीतर घना अंधेरा रहता है। एक तारा भी नहीं टिमटिमाता। एक मद्धिम सी रोशनी भी नहीं जलती।
यह जन्म कोई असली जन्म नहीं है। इसलिए इस देश में हमने असली जन्म को कहा है--दूसरा जन्म।
दूसरा जन्म, जैसे मां के पेट से निकल कर बाहर रोशनी हो गई, ऐसे ही बाहर से निकल कर भीतर चले जाओ--दूसरा जन्म हो जाए--तो भीतर भी रोशनी हो जाए।
इस दूसरे जन्म को ही, जिसको मिल जाए, उसको हमने ब्राह्मण कहा है। इसलिए ब्राह्मण को द्विज कहते हैं। द्विज का अर्थ है: दुबारा जन्मा। एक जन्म तो मां से मिल गया और एक जन्म स्वयं को दिया।
इसलिए सदगुरु को हम मां और पिता से भी ज्यादा आदर देते हैं। कहते हैं: मां और पिता का ऋण तो चुकाया जा सकता है। लेकिन सदगुरु का ऋण नहीं चुकाया जा सकता। क्योंकि मां और पिता ने तो जन्म दिया, बाहर आंखें खोलीं। सदगुरु एक और जन्म देता है; भीतर आंखें खुल जाती हैं। और भीतर सब है। रोशनियों की रोशनी, सूरजों का सूरज--भीतर सब है।
कबीर के ये पद समझना; बड़े बहुमूल्य हैं।
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
कबीर कहते हैं: इस संसार में मेरा क्या है, तेरा क्या है! हम व्यर्थ की आपा-धापी में, व्यर्थ के संघर्ष में पड़े हैं।
लोग लड़ रहे हैं: यह मेरा, वह तेरा! सीमाएं खींच रहे हैं। परिभाषाएं बना रहे हैं। अदालतें चला रहे हैं। युद्ध कर रहे हैं। व्यक्ति लड़ते हैं। समूह लड़ते हैं। राष्ट्र लड़ते हैं। और सारी लड़ाई इस बात की है कि क्या मेरा!
‘मेरा’ ज्यादा हो जाए; ‘तेरा’ कम हो जाए--यह हमारे जीवन की कथा है। और यहां कुछ मेरा नहीं और कुछ तेरा नहीं। न हम कुछ लेकर आए हैं, न कोई और कुछ लेकर आया है। खाली हाथ आए और खाली हाथ जाएंगे।
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।।
कबीर कहते हैं: तुझे शर्म भी नहीं आती है! यहां सब परमात्मा का है। इसमें मेरा-तेरा करने में तुझे शर्म नहीं आती? तुझे संकोच भी नहीं होता? रात भर किसी के घर में मेहमान हो गए, तो सुबह उठ कर घोषणा करने लगते हैं कि यह घर मेरा! रात भर किसी घर में मेहमान हो गए, धन्यवाद दो और विदा हो जाओ।
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
थोड़ी देर के लिए हम यहां अतिथि हैं। मगर हम बड़े झगड़े खड़े कर देते हैं। हमारी जिंदगी झगड़ों में बीत जाती है।
थोड़ी देर को यहां है, बसेरा है थोड़ी देर का, फिर विदा हो जाएंगे। कब विदा हो जाएंगे, यह भी पक्का नहीं है। सुबह भी होगी कि नहीं! आधी रात भी विदा हो सकते हैं। अभी हम बैठे हैं और क्षण भर बाद न हों। जहां क्षण भर का भरोसा नहीं है, वहां हम कितने जोर से लड़े जाते हैं! कैसा संघर्ष किए जाते हैं! खून बहाते हैं। मरने-मारने को तत्पर होते हैं। कबीर कहते हैं: तुम्हें लाज भी नहीं आती? थोड़ा संकोच तो करो?
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।
यहां मेरा कुछ भी नहीं है। जिस दिन यह बात दिखाई पड़ जाती है कि यहां मेरा कुछ भी नहीं हैं--उस दिन एक बड़ी अपूर्व घटना घटती है। जैसे ही मेरा कुछ भी नहीं है--यह दिखाई पड़ जाता है, वैसे ही ‘मैं’ का भाव मर जाता है।
लोग पूछते हैं मुझसे: अहंकार कैसे छूटे? अहंकार छूट नहीं सकता, जब तक ‘मेरा’ न छूट जाए। क्योंकि ‘मेरा’ ही ‘मैं’ को जन्म देता है। इसलिए तो जितना तुम्हारे पास ‘मेरा’ कहने को बढ़ता जाता है, उतना ‘मैं’ बड़ा होता जाता है।
एक छोटा सा मकान है, तो तुम्हारा ‘मैं’ भी छोटा सा होता है। फिर तुमने एक महल बना लिया, तो तुम्हारा ‘मैं’ भी बड़ा हो गया। तुम्हारे पास एक छोटी सी कार है, तो तुम्हारा ‘मैं’ भी छोटा है। फिर एक बड़ी कार ले आए, तो ‘मैं’ बड़ा हो गया। तुम्हारे पास छोटी सी तिजोरी थी; बड़ी हो गई, तो ‘मैं’ बड़ा हो गया। तुम दस-पच्चीस आदमियों पर मालकियत करते थे, फिर प्रधानमंत्री हो गए और करोड़ों लोगों की मालकियत करने लगे, तो उतना ‘मैं’ बड़ा हो गया।
‘मैं’ तुम्हारा बढ़ता जाता है ‘मेरे’ के फैलाव से। जिसके पास ‘मेरा’ कहने को कुछ भी नहीं है, उसके पास ‘मैं’ कैसे हो सकता है? इसलिए गरीब की असली पीड़ा गरीबी नहीं है। गरीब की असली पीड़ा है कि वह अपने ‘मैं’ की घोषणा नहीं कर पाता।
पदहीन की असली पीड़ा पदहीनता नहीं है। पदहीन की असली पीड़ा यह है कि दूसरे उसको रौंदते चले जा रहे हैं। वह प्रतिरोध भी नहीं कर सकता। वह जोर से आवाज भी नहीं उठा सकता। जिसके पास ‘मेरा’ कहने को कुछ नहीं है, वह किसी से यह नहीं कह सकता: जानते हो मैं कौन हूं? यह कहने का उपाय नहीं है। पहले ‘मेरा’ होना चाहिए।
मेरे के साम्राज्य के भीतर ही मैं खड़ा होता है। ऐसा समझो कि मैं को मेरे से सहारा मिलता है। चारों तरफ से सहारा मिल जाता है, तो मैं खड़ा हो जाता है। इतना धन, इतना पद, इतनी प्रतिष्ठा, इतना पुण्य, इतने व्रत-उपवास, इतना त्याग--कुछ भी जो गणना में आ सके, और जिस पर तुम अपने मेरे की छाप लगा सको कि मेरा, तो मैं बड़ा हो जाता है। अहंकार का भोजन है--मेरा।
कबीर कहते हैं:
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
अगर यह समझ में आ जाए कि यहां मेरा कुछ भी नहीं है, तो मैं गिर जाएगा। निर-अहंकार भाव अपने से पैदा हो जाएगा।
लोग उलटा काम करते हैं। मेरे को तो गिराते नहीं, निर-अहंकार भाव को साधने की कोशिश करते हैं। विनम्र बनने की कोशिश करते हैं। सिर झुका कर चलते हैं। पैर छूते हैं, कहते हैं: हम तो आपके पैर की धूल। लेकिन उनकी आंख में देखो। उनकी विनम्रता भी उनके अहंकार का आभूषण बन जाती है।
विनम्र आदमी भी बड़ा अहंकार से भरा होता है कि मुझसे ज्यादा विनम्र और कोई भी नहीं है। सिर उठा कर चलता है।
जब कोई तुमसे कहे कि मैं आपके पैरों की धूल, तो भूल कर यह मत कहना कि आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं; ऐसा तो मैं भी मानता था। तो वह नाराज हो जाएगा; तो शायद गर्दन पर चढ़ बैठेगा। वह यह नहीं कह रहा है कि पैर की धूल है। वह यह कह रहा है कि तुम स्वीकार करो कि मैं कितना विनम्र! मेरी विनम्रता कितनी बड़ी!
उसकी बात मान मत लेना। यह मत कह देना कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप; बिलकुल सच कह रहे हैं। यही तो हम भी मानते हैं; सभी यही मानते हैं कि आप बिलकुल पैरों की धूल! वह आदमी कभी क्षमा नहीं करेगा। उसने यह कहा भी नहीं था कि मैं पैरों की धूल हूं। वह तो केवल शिष्टाचार था। वह तो अपने अहंकार को प्रकट करने का एक उपाय था। और बड़ा चालबाजी का उपाय खोजा था उसने। उसने बड़ा सूक्ष्म उपाय खोजा था कि मैं ना-कुछ हूं। लेकिन ना-कुछ हूं--इसकी घोषणा वह करता रहेगा।
विनम्र होने की चेष्टा मत करना अन्यथा अहंकार विनम्रता में छिप जाएगा। अहंकार को गिराने का एक ही उपाय है, कि जान लेना: यहां न मेरा है कुछ, न तेरा है।
लेकिन लोग यह भी करते हैं--कि कहते हैं कि जब यहां मेरा-तेरा कुछ भी नहीं, तो घर छोड़ दिया, धन छोड़ दिया, दुकान छोड़ दिया, संन्यासी हो गए। सब त्याग कर जंगल चले गए। मगर तब उनको दूसरे तरह का मेरा पकड़ लेता है। वे कहते हैं: मैं लाखों रुपये छोड़ आया। त्याग पर ‘मेरा’ भाव बैठ जाता है!
मेरे एक परिचित हैं। कई वर्षों पहले उन्होंने घर छोड़ दिया था। मगर वे अभी भी कहते नहीं थकते...। जब भी बात करते हैं, तो उसको ले आते हैं बीच-बीच में--कि मैंने लाखों रुपये पर लात मार दी।
मैंने उनसे पूछा: यह लात मारे भी तीस साल हो गए, मगर यह लात अभी तक लगी नहीं! तुम इसे याद क्यों करते हो? इसे बार-बार क्यों कहते हो? इसका हिसाब-किताब क्यों रखा है? लाखों पर लात मार दी; बात खत्म हो गई। कोई बड़ा काम तो किया नहीं!
नहीं, लेकिन उन्होंने बड़ा काम किया है। उन लाखों के कारण जितने नहीं अकड़ कर चलते थे, उतने अकड़ कर अब चल रहे हैं, क्योंकि लाखों पर लात मार दी है! लाखों तो बहुतों के पास है, लेकिन लाखों पर लात मारने वाले बहुत कम हैं।
इससे अहंकार और मजबूत हुआ।
और मैंने उनसे कहा: जहां तक मुझे पता है, लाख इत्यादि थे भी नहीं। क्योंकि मैंने इस पर बड़ी तुम्हारी शोध-बीन की है, तो मुझे पता चला कि कोई तीन सौ साठ रुपये--पोस्ट आफिस में जमा थे!
पहले वे सैकड़ों कहते थे; फिर हिम्मत बढ़ गई, तो हजारों कहने लगे। फिर हिम्मत बढ़ गई, तो लाखों कहने लगे। अब तीस साल पुरानी बात हो गई, किसी को मतलब भी नहीं। और त्यागियों के संबंध में शोध-बीन कौन करता!
धीरे-धीरे हिम्मत बढ़ती चली गई, वे लाखों कहने लगे। मैंने कहा: तुम जल्दी ही मरने के पहले करोड़ों कहने लगोगे!
यह अहंकार बड़ा हो रहा है। त्याग से भी अहंकार निर्मित हो जाता है।
तो खयाल रखना: अगर धन तुम्हारा नहीं है, तो छोड़ने की बात ही कहां उठती है। जो तुम्हारा था ही नहीं, उसे छोड़ोगे कैसे? छोड़ने में भी ‘मेरा है’ यह भाव बना है। छोड़ने का मतलब ही यह है। तुम कहते हो: मैंने छोड़ दिया। जो तुम्हारा नहीं था, उसको छोड़ते हो? क्या तुम ऐसा कहते हो कि मैंने सूरज का त्याग कर दिया? कि मैंने आज आकाश को मुक्ति दे दी? कि अब चांद-तारों को मैं बंधन में नहीं रखता? तो किसी से तुम कहोगे, तो वह समझेगा कि तुम पागल हो गए हो!
चांद-तारे तुम्हारे बंधन में कब थे? आकाश को तुमने मुक्ति दे दी, तो तुम क्या कह रहे हो! सूरज को तुमने स्वतंत्रता दे दी! तुम्हारा दिमाग ठीक है? वे तो मुक्त थे ही!
जब तुम कहते हो: मैंने छोड़ दिया धन, तो तुम इसी बात की घोषणा कर रहे हो, फिर परोक्ष, कि धन मेरा था, मैंने छोड़ दिया। जो मेरा नहीं था, उसे छोड़ोगे कैसे?
असली ज्ञान वस्तु का त्याग नहीं है। असली ज्ञान ममत्व से जाग जाना है। बस।
मेरा यहां कुछ है नहीं; त्यागी बनूं कैसे? जो है, उसका है। जो है, अस्तित्व का है। मेरा यहां कुछ भी नहीं है।
सुबह जब तुम धर्मशाला से उठ कर अपनी यात्रा पर निकलते हो, तो तुम यह नहीं कहते कि मैंने धर्मशाला का त्याग कर दिया। तुम त्यागी नहीं बनते। लेकिन जब तुम अपना घर छोड़ कर जंगल चले जाते हो, तुम कहते हो: मैंने त्याग कर दिया! जब तुम कहते हो: मैंने अपनी पत्नी छोड़ दी...।
एक जैन मुनि थे, गणेशवर्णी। जैनों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। उनकी जीवन-कथा मैं पढ़ता था, तो एक बड़े अनूठे प्रसंग पर आया। जीवन-कथा तो भक्तों ने लिखी है, तो भाव से लिखी है। और जो उल्लेख किया है, वह भी इसी खयाल से किया है कि लोग प्रभावित होंगे।
गणेशवर्णी हिंदू थे जन्म से, फिर धर्म रूपांतरित किया और जैन हो गए। इसलिए जैनों में उनकी प्रतिष्ठा खूब थी। हिंदुओं में अनादर था, जैनों में प्रतिष्ठा थी।
जब कोई हिंदू मुसलमान हो जाता है, तो मुसलमानों में आदर होता है, हिंदुओं में अनादर हो जाता है। कोई मुसलमान अगर हिंदू हो जाए, तो हिंदू बड़ा शोरगुल मचा कर स्वागत करते हैं। क्योंकि उससे सिद्ध होता है--हमारा धर्म ठीक; दूसरे का गलत। नहीं तो यह आदमी छोड़ कर क्यों आता? इसलिए तो एक धर्म से दूसरे धर्म में लोगों को खींचने की इतनी कोशिश चलती है।
गणेशवर्णी की बड़ी प्रतिष्ठा थी। कोई पच्चीस साल बाद घर छोड़ने के, उनकी पत्नी की मृत्यु हुई, तब वे काशी में थे। पत्र पहुंचा--कि पत्नी की मृत्यु हो गई, तो पत्र पढ़ कर जो उनके पास लोग बैठे थे, उन्होंने उनसे कहा: चलो झंझट मिटी। तो जिसने उनकी आत्म-कथा में यह उल्लेख किया है, कि गणेशवर्णी ने कहा कि चलो झंझट मिटी...। कैसे त्यागी थे! कैसे महात्यागी? पत्नी मर गई, आंसू न गिरा! ऐसी मोह से मुक्ति। उलटे यह कहा कि चलो झंझट मिटी!
जिस आदमी ने वह किताब लिखी है, वह मेरे पास किताब भेंट करने आए थे। मैंने उनसे कहा कि रुको, मुझे थोड़ी बात करनी है। पच्चीस साल पहले जिस पत्नी को छोड़ कर चले गए थे, उसकी झंझट बाकी थी? जरूर मन में कहीं चल रही होगी। जब छोड़ ही चुके थे पत्नी को, पच्चीस साल हो गए, तो झंझट बाकी रही? और इससे कुछ त्याग का पता नहीं चलता, केवल हिंसात्मक मन का पता चलता है। मन में कहीं कुछ लगा था; कुछ सिलसिला जारी रहा होगा--मोह का, माया का, वासना का, या डर रहा होगा कि कहीं पत्नी आ न जाए? पत्नी से भय रहा होगा। भय रहा होगा कि कहीं मैं फिर उसमें उत्सुक न हो जाऊं? कहीं मेरा मन डांवाडोल न हो जाए? पत्नी कहां दूर; गरीब; चक्की पीस-पीस कर किसी तरह अपना भोजन जुटाती रही। उसकी झंझट थी?
झंझट बताती है कि मन में कुछ रोग जारी रहा, जहर जारी रहा। और पत्नी के मरने पर यह कहना कि झंझट मिटी, यह भी बताता है कि कहीं न कहीं मन में यह खयाल रहा होगा कि मर जाए तो अच्छा। कहीं न कहीं हिंसा की भावना मन में रही होगी।
पति अक्सर सोचते हैं कि मर जाए यह स्त्री तो अच्छा; झंझट मिटे। पत्नियां भी कभी-कभी सोच लेती हैं, उतना ज्यादा नहीं, लेकिन कभी-कभी सोच लेती हैं कि खत्म हो यह आदमी तो झंझट मिटे। और तो कोई उपाय नहीं दिखता। मौत आ जाए तो झंझट सुलझ जाए। अपने को झंझट भी न करनी पड़े और मामला खत्म हो जाए!
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरी, तो उसका ताबूत निकाला गया। जब ताबूत निकाल रहे थे, तो आंगन में एक नीम का झाड़ था, उससे ताबूत टकरा गया। संयोग की बात--ताबूत क्या टकराया, पत्नी ढक्कन खोल कर बैठ गई! मरी नहीं थी। शायद जल्दी...! मुल्ला ने जरा जल्दी कर दी। पत्नियां मर जाएं, तो लोग जल्दी करते हैं, कि अब कहीं खतरा और कुछ न हो जाए; विदा करो!
शायद अभी श्र्वास अटकी थी। मरी नहीं थी; शायद बेहोश ही थी। धक्का नीम के झाड़ से लग गया, तो जग गई। फिर तीन साल और जिंदा रही। फिर तीन साल बाद मरी। और जब ताबूत निकाला जाने लगा, तो मुल्ला ने कहा: भाइयो, जरा सम्हाल कर; फिर नीम से मत टकरा देना। जो एक दफा भूल हो गई हो गई!
गणेशवर्णी का यह कहना कि झंझट मिटी, कहीं मन में हिंसा के भाव की खबर देता है! मन के किसी कोने में यह भाव रहा होगा कि यह मर जाए। मर जाती, तो अच्छा था। पहले तो यह सोचना कि हम त्याग कर आ गए पत्नी को--नासमझी है। पत्नी तुम्हारी है? यहां क्या मेरा, क्या तेरा?
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।
कबीर बड़ी ठीक बात कहते हैं कि तुझे लाज भी नहीं आती? तुझे संकोच भी नहीं लगता? यहां घड़ी भर को मेहमान है और घर मेरा कहने लगा?
सम्यक ज्ञानी, ठीक-ठीक समझने वाला व्यक्ति न तो कुछ छोड़ता है, न कुछ पकड़ता है। सिर्फ इतना जानता है: यहां न कुछ पकड़ने को है, यहां न कुछ छोड़ने को है। सम्यक ज्ञानी जल में कमलवत रहता है।
जो है, है। छोड़ना-पकड़ना कहां है! छोड़ना-पकड़ना दोनों ही भ्रांतियां हैं। इसलिए दुनिया में दो तरह के भ्रांत हैं। एक, जिसको तुम संसारी कहते हो। उसको भ्रांति है कि मैं पकड़ लूंगा, कि पकड़े हुए हूं, कि और पकड़ लूंगा, कि मेरी मुट्ठी बड़ी होती जा रही है, और ज्यादा मेरी मुट्ठी में संसार समाया जा रहा है।
दूसरी भ्रांति है, त्यागी; वह कहता है: मैंने छोड़ दिया। ये दोनों भ्रांतियां हैं। फिर मैं किसको संन्यास कहता हूं? इन दोनों भ्रांतियों से जागने को संन्यास कहता हूं।
संन्यास का अर्थ केवल इतना ही: सम्यक बोध। इस बात की समझ कि यहां कुछ मेरा नहीं, तेरा नहीं, तो पकडूं कैसे? छोडूं कैसे? जो है, है। इससे गुजर जाना है। इससे बिना लिप्त हुए और बिना अलिप्त होने की चेष्टा किए गुजर जाना है।
अलिप्त होने की चेष्टा में तो समाहित हो गई बात कि तुम लिप्त हो चुके हो। इस द्वंद्व से जो बच जाए--त्याग और भोग के--वह संन्यस्त है। इन दो में से कोई भी उसे न पकड़े, वही संन्यस्त है।
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।।
बस, अब गुजरेंगे राहे जिंदगी से बेनिया जाना
अगर तेरे करम पर मुनस्सिर है जिंदगी अपनी
यह होगा समझदार का वक्तव्य।
बस, अब गुजरेंगे राहे जिंदगी से बेनिया जाना
अब जिंदगी से अजनबी होकर गुजरेंगे; अपरिचित होकर गुजरेंगे।
बस, अब गुजरेंगे राहे जिंदगी से बेनिया जाना
अगर तेरे करम पर मुनस्सिर है जिंदगी अपनी
अगर तेरे ही ऊपर सब-कुछ निर्भर है, तो हम चिंता क्यों लें--पकड़ने और छोड़ने की? परमात्मा का सब खेल है, तो जैसा खिलाए, खेल लेंगे।
नाटक है यह पृथ्वी; बड़ा नाटक का मंच है। जो कहेगा, वही कर देंगे। राम बनाएगा, तो राम बन जाएंगे; रावण बनाएगा, तो रावण बन जाएंगे। भला-बुरा जो करवाएगा, कर लेंगे।
अगर तेरे करम पर मुनस्सिर है जिंदगी अपनी
अगर तेरे ही ऊपर सब निर्भर है, तो हम बीच में क्यों दखलंदाजी दें। हम क्यों आग्रह करें कि ऐसा होना चाहिए। ऐसा होगा, तो मैं सुखी होऊंगा; ऐसा न होगा, तो मैं दुखी हो जाऊंगा। हम ऐसी अपेक्षाएं क्यों करें? हम चुपचाप इस खेल को देखते हुए गुजर जाएं; साक्षी की तरह गुजर जाएं; अजनबी की तरह गुजर जाएं।
बस, अब गुजरेंगे राहे जिंदगी से बेनिया जाना
अब नहीं यहां घर बनाएंगे और न ही घर को छोड़ने का भ्रम बनाएंगे। मूल को ही काट देंगे।
भोगी पत्तों में उलझा होता है, त्यागी भी पत्तों में उलझा होता है। भोगी पत्तों पर पानी सींचता है कि और बड़े हो जाएं। और त्यागी पत्तों को काटता फिरता है कि पत्ते कहीं बढ़ न जाएं। मगर जड़ की किसी को भी खबर नहीं है। ज्ञानी जड़ को काट देता है। जड़ कहां है? मेरे-तेरे के भाव में जड़ है। मालकियत में जड़ है।
चारि पहर निसि भोरा,...
यह चार ही पहर की रात है, फिर सुबह हो जाने वाली है। यह थोड़ी देर की रात है यह संसार, फिर सुबह हो जाएगी और यात्री चल पड़ेंगे।
यह बड़ा प्यारा शब्द है। मृत्यु को कबीर कह रहे हैं--सुबह, और जिंदगी को कह रहे हैं--रात।
चारि पहर निसि भोरा,...
यह जिंदगी तो रात है; गुजार देनी है। इस जिंदगी की रात में, नींद में जो सपने चल रहे हैं, वे देख लेने हैं। ठीक है। साक्षी बने देखते रहो।
तुम जो जिंदगी को साक्षी बन कर कैसे देखोगे? तुम सपने तक को साक्षी बन कर नहीं देख पाते। सपने तक में लीन हो जाते हो! सपने तक में ऐसा मान लेते हो कि यही हो रहा है; यही सच है।
एक सम्राट का बेटा मर रहा था। एक ही बेटा। बुढ़ापे का एकमात्र सहारा; वही मालिक सारी संपदा का। सम्राट बड़ा बेचैन था। इलाज हो नहीं पा रहा था, चिकित्सक थक गए थे। कोई संभावना बचने की न थी। आखिरी रात करीब आ गई। चिकित्सकों ने कहा: सुबह हो जाए तो गनीमत। रात ही समाप्त हो जाने की संभावना है। तो सम्राट रात भर जाग कर बैठा रहा अपने बेटे के पास।
कोई चार बजे के करीब झपकी लग गई। सुबह की ठंडी हवा; रात भर का थका-मांदा, झपकी लग गई। झपकी लगी, तो एक सपना देखा। सपने में देखा कि बड़ा विशाल महल है। यह जो महल जाग कर देखा था, यह कुछ भी नहीं। सोने का बना महल है। हीरे-जवाहरात जड़े हैं महल की सीढ़ियों पर। और उसके बारह बेटे हैं; उनकी बड़ी सुंदर काया है। वे बड़े स्वस्थ, बड़े बुद्धिमान, बड़े अनूठे। ऐसे सुंदर और ऐसे प्यारे और ऐसे बुद्धिमान युवक न तो कभी देखे, न सुने गए। शायद यह सपना उसी स्थिति के कारण पैदा हुआ।
एक ही बेटा, मर रहा है। एक था, वह भी जा रहा है। यह सारा मकान, ये सारे महल, यह राज्य पड़ा रह जाएगा। जिंदगी भर सम्राट ने मेहनत करके बनाया; खुद तो जाएगा ही अब, लेकिन कम से कम यही राहत रहती है कि बेटा भोगेगा, वह भी जा रहा है। लुट जाएगा यह सब। जिंदगी भर की मेहनत अजनबियों के हाथ पड़ जाएगी, परायों के हाथ पड़ जाएगी। जिनसे छीन-छीन कर ली थी, उन्हीं के पास लौट जाएगी। यह सब महल खंडहर हो जाएगा। यही कामना, यही वासना--यह मन में जाल चलता रहा होगा, इसी से सपना पैदा हुआ।
सपना पैदा हुआ, तृप्ति के लिए सपना पैदा होता है। जो जिंदगी में तृप्त नहीं होता, उसे हम सपने में पूरा करते हैं। दिन में उपवास कर लिया, रात तुम भोजन करोगे सपने में। दिन में एक सुंदर स्त्री राह से चलती देखी, आंख बचा कर निकल गए; डरे, घबड़ाए, कि कहीं यह सुंदर स्त्री खींच ही न ले, आकर्षित ही न कर ले! कोई उपद्रव न खड़ा हो जाए! तुम चरित्रवान आदमी, घर-द्वार वाले; बाल-बच्चे, प्रतिष्ठा। आंख बचा कर निकल गए। लेकिन ऐसे निकलने से क्या होगा! रात सपने में वह स्त्री आ जाएगी। वह रात और सुंदर होकर आ जाएगी। वह तुम्हारे सपने को चारों तरफ से घेर लेगी।
जो तुम दिन में अतृप्त छोड़ देते हो या दबा लेते हो, वही रात उभर आता है। तो सपना तो...सपना बड़ा दिलफेंक होता है, कंजूस नहीं होता सपना। अब एक लड़का क्या देना; बारह दे दिए सपने में। सपने ही की बात है, तो लेना-देना क्या है? जब मकान ही देना है, तो क्या छोटा सा साधारण मकान दे दिया! सोने का दे दिया। हीरे-जवाहरात जड़े हैं सीढ़ियों पर। बड़ा साम्राज्य है। दूर-दूर तक सारी पृथ्वी...। चक्रवर्ती सम्राट है। बड़ा खुश है राजा। जितना दुखी था, उतना ही खुश हो गया। यह सपने में है, यह भूल गया, लगा कि यही सच है।
हंसना मत, ऐसे ही रोज तुम भी सपने में भूल जाते हो। सम्राट तो तुम्हारा प्रतीक है।
और तभी बाहर का बेटा मर गया। जब वह भीतर के बेटों के साथ मजा कर रहा था, प्रसन्न हो रहा था, बाहर का बेटा मर गया। पत्नी दहाड़ मार कर चिल्लाई। उसकी आवाज से सम्राट की नींद खुली। नींद खुलते ही सोने का महल गायब, बारह लड़के गायब, सारा राज्य गायब! सम्राट एक क्षण को ठगा रह गया!
ऐसा कभी-कभी तुम्हें भी होता है, कि कोई जल्दी जगा दे, जबर्दस्ती जगा दे, झकझोर कर जगा दे आधी रात में, तो एक क्षण को तुम्हें समझ में नहीं आता कि क्या सच और क्या झूठ! एक क्षण को पक्का नहीं होता कि तुम कहां हो, कौन हो; क्योंकि अभी-अभी कुछ और थे, और एकदम से कुछ और हो गए! थोड़ा समय चाहिए। सपने से जागरण में आने में, जागरण से सपने में जाने में थोड़ी सीढ़ियां पार करनी होती हैं।
पत्नी ने दहाड़ मार कर चिल्ला दिया, तो सम्राट की अचानक टूट गई नींद। चौंक कर, कुछ समझ में नहीं आया। सामने लड़का मरा पड़ा है--यह भी खयाल और अभी-अभी जो बारह लड़के थे, उनका भी खयाल; दोनों के बीच में खड़ा हो गया। रोया नहीं। हंसने लगा उलटा।
पत्नी तो समझी कि पागल हो गया। उसे डर था यही कि इतना प्यार है इसका बेटे से और बेटा मर रहा है।
जब सम्राट खिलखिला कर हंसा, तो पत्नी समझी कि पागल हो गया है। उसने कहा कि मुझे डर था, वही हो गया। आप पागल तो नहीं हो गए हैं? बेटा मर गया--आप हंस रहे हैं? उसने कहा कि मैं इसलिए हंस रहा हूं कि किसके लिए रोऊं? उन बारह के लिए रोऊं, जो अभी-अभी थे और बड़े सच थे? या इस एक के लिए रोऊं, जो अभी-अभी था और बड़ा सच था, और अब नहीं है? दोनों ही सपने टूट गए हैं। किसके लिए रोऊं? उन महलों के लिए, जो सोने के थे?
पत्नी ने कहा: कहां की बातें कर रहे हो? कहां के सोने के महल? कहां के बारह बेटे?
सम्राट ने तब अपना सपना कहा--कि इस सपने में मैं खोया था; और बड़ा मस्त था। ऐसे ही यह भी एक सपना है। इस बेटे को मैं बिलकुल भूल गया था, जब भीतर के सपने में था। अब भीतर के बेटों को बिलकुल भूल गया हूं, जब यह बाहर मरे बेटे को देख रहा हूं!
तुम बार-बार रोज-रोज जागने से सोने में जाते हो, लेकिन सोने में रोज-रोज सपना देखते हो, सुबह जाग कर पाते हो कि झूठा था। लेकिन रात फिर जब दुबारा सोओगे, फिर सच हो जाता है। आदमी की भ्रांति कितनी गहन है!
गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था कि तुम संसार में तब तक न जाग सकोगे, जब तक सपने में न जाग जाओ। उसने बड़े अदभुत, अनूठे मार्ग खोजे थे सपने में जगाने के। मैं तुमसे भी कहना चाहूंगा। वे मार्ग सच हैं और बड़े काम के हैं।
अगर तुम सपने में जागना सीख जाओ, तो तुम एक दिन अचानक पाओगे कि जागना भी एक बड़ा सपना है और कुछ भी नहीं। जब तक सपने में तादात्म्य नहीं टूटता, तब तक इस बड़े सपने में तो कैसे टूटेगा? बहुत मुश्किल है। इसलिए हिंदू इसको माया कहते हैं--इस बड़े सपने को माया कहते हैं।
माया यानी सपना। दिखाई पड़ता है, है नहीं। जैसा दिखाई पड़ता है, कम से कम वैसा तो नहीं है। और जैसा है, वैसा तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता; सिर्फ बुद्धपुरुषों को दिखाई पड़ता है। तुम्हें तो जो दिखाई पड़ता है, वह तुम्हारी वासनाओं के पर्दों में से झिन कर आते हैं; छन-छन कर आती है तुम्हारी कामना, इच्छाएं--उन्हीं का रूप तुम्हें दिखाई पड़ता है।
यह संसार तुम्हारे लिए तो एक पर्दा है, जिस पर तुम अपने सपने दौड़ाते हो। चल-चित्र की तरह सपने दौड़ते रहते हैं। जिस दिन तुम्हारे भीतर से चल-चित्र की तरह सपने नहीं उठते, पर्दा खाली रह जाता है; उस खाली पर्दे का नाम ब्रह्मभाव है। तब वृक्ष में वृक्ष नहीं दिखाई पड़ता; स्त्री में स्त्री नहीं दिखाई पड़ती; पत्थर में पत्थर नहीं दिखाई पड़ता। पत्थर में, स्त्री में, वृक्ष में सभी में परमात्मा दिखाई पड़ता है। तब खो गई तस्वीरें; कोरा पर्दा रह गया। उस कोरे पर्दे का नाम ब्रह्म है।
लेकिन अभी तो कैसे जागोगे? यह सपना तो बड़ा मजबूत है। रात जो सपना देखते हो--झीना, बहुत कमजोर--उसमें भी नहीं जाग पाते।
गुरजिएफ कहता था: पहले रात के सपने में जागना शुरू करो। रोज रात सोते वक्त स्मरण रख कर सोओ कि जब सपना आएगा, तो मुझे याद रहेगी कि यह सपना है। एक-दो दिन में याद नहीं रहेगी; कम से कम तीन से छह महीने लग जाएंगे। सतत अगर रोज रात सोते वक्त, एक ही खयाल रख कर सोए कि जब सपना मुझे आए, तो मुझे याद रहे कि मैं द्रष्टा हूं, यह सपना है। किसी दिन यह घटना घटती है। तीन से छह महीने के बीच अगर सतत प्रयास किया, अगर रोज यही सोच-सोच कर सोए, कि सपने को देख लूंगा और पहचान लूंगा कि सपना है। सपने में पहचान लूंगा कि सपना है।...
जाग कर तो सभी पहचानते हैं; सुबह उठ कर तो सभी पहचान लेते हैं। फिर कुछ मजा नहीं है। वह तो बड़ी साधारण सी बात है। जब सपना चल रहा होगा रात, तभी बीच में अपने को झटका देकर याद कर लूंगा कि यह सपना है। जिस दिन यह घटना घटती है, उस दिन तुम चकित हो जाओगे: एक क्रांति हो गई।
घटती है यह घटना। रोज-रोज, रोज-रोज स्मरण करके सोने से यह स्मरण धीरे-धीरे तुम्हारी नींद में प्रविष्ट हो जाता है। जब तुम नींद में गिरने के करीब हो, सोचते रहो, सोचते रहो, स्मरण करते रहो। राम-राम जपने से यह ज्यादा बेहतर है। माला फेरने से यह ज्यादा बेहतर है। क्योंकि माला फेरने से क्या होगा? राम-राम जपने से क्या होगा? तोते की तरह जप लोगे। माला फेरने से क्या होने का है? माला फेरने से कुछ ज्ञान उत्पन्न नहीं होने वाला है।
लेकिन अगर यह स्मरण करते सोए कि जो भी मुझे रात दिखाई पड़ेगा, वह मैं पहचान लूंगा कि सपना है, मैं साक्षी बन जाऊंगा। इसी भाव में रगे-पगे, नींद में डूब गए, तो तुम सुबह एक दिन पाओगे कि और ढंग से उठे, जैसे तुम कभी न उठे थे। एक रात तुम पाओगे कि सपना था और तुम्हें दिखाई पड़ गया कि सपना है। और तब बड़ी मजेदार घटना घटती है।
दिखाई पड़ते से सपना खो जाता है। जैसे ही दिखाई पड़ा कि सपना है, जैसे ही पहचाना कि सपना है, कि सपना खो जाता है।
जब तुम साक्षी की तरह देखते हो--सपना नहीं होता है। या सपना हो सकता है या साक्षी हो सकता है; दोनों साथ-साथ नहीं होते। दोनों साथ-साथ हो ही नहीं सकते। इसलिए साक्षीभाव की दशा में जो दिखाई पड़े, वही सत्य है। क्योंकि साक्षी और सपना कभी साथ-साथ नहीं होते हैं। जब तक साक्षीभाव पैदा नहीं हुआ, तब तक तुम जो भी देख रहे हो, वह सब सपना है, उसमें कुछ भी सत्य नहीं है। सत्य होने की कसौटी साक्षीभाव है।
इस साक्षीभाव की तरफ जाना हो, तो एक-एक कदम उठाना पड़ता है।
कबीर कहते हैं:
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।।
यह मेरे-तेरे का सपना छोड़ो।
चारि पहर निसि भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा।
रात पक्षी आ जाते हैं, सांझ होते-होते, वृक्षों पर बैठ जाते हैं, सो जाते हैं; सुबह उड़ जाते हैं।
...जैसे तरवर पंखि बसेरा।
ठीक वैसी ही बात है। इस पृथ्वी पर हमने रात भर के लिए बसेरा कर लिया है; सुबह फिर पता नहीं किस ग्रह-नक्षत्र पर उड़ जाएंगे।
तुम्हें पता है, वैज्ञानिक कहते हैं: कम से कम पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन है। यह अकेली पृथ्वी नहीं है, जहां जीवन है। कम से कम पचास हजार पृथ्वियां हैं...। यह कम से कम बात है; ज्यादा से ज्यादा का हिसाब अभी लगाया नहीं गया है। इतनी तो होनी ही चाहिए गणित के हिसाब से। मगर बड़ी दूर हैं।
पचास हजार पृथ्वियां हैं, उन सब पर जीवन है। इस पृथ्वी पर हम रात भर के लिए बसे हैं। रात सत्तर साल की हो, इससे क्या फर्क पड़ता है; कि सात घंटे की हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। और जीवन की अनंत यात्रा में सत्तर साल भी सात पल से ज्यादा नहीं हैं।
चारि पहर निसि भोरा,...
सुबह जल्दी आ जाएगी। सुबह यानी मौत। मौत को कबीर सुबह कह रहे हैं। क्योंकि मौत में जाग कर पता चलेगा कि वह जो देख रहे थे, सब सपना था।
चारि पहर निसि भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा।
जैसे बनिए हाट पसारा, सब जग कासो सिरजनहारा।।
यह परमात्मा ने सारा जगत ऐसे फैलाया है, जैसे बनिया जाता है मेले में और दुकान फैला देता है। फिर सांझ हो गई, दुकान बांध लेता सब और चल पड़ता है वापस। ऐसे परमात्मा रोज यह पसारा करता है, रोज समेट लेता है। यह परमात्मा का विस्तार है। यह उसका खेल है--लीला। इसमें मेरा-तेरा मत करो। लेकिन हो जाता है; मेरे-तेरे की भूल हो जाती है।
मैंने सुना है, एक गांव में रामलीला हो रही थी। उसमें जो स्त्री सीता बनी थी--सच में ही--रावण जो बना था, वह उसके प्रेम में पड़ गया। सच में ही। अब बड़ी झंझट खड़ी हो गई, क्योंकि लीला मुश्किल में पड़ गई।
जब सीता का स्वयंवर रचा गया, तो रावण भी गया है, राम भी गए हैं, और सारे राजा-महाराजा गए हैं। वे सब बैठे हैं।
नाटक को चलाने के लिए यह जरूरी है कि रावण लंका की तरफ भागे। तो खबर आती है लंका से, दूत आते हैं भागे हुए--कि रावण, तेरी लंका में आग लग गई। और रावण लंका चला जाता है। इसी बीच राम धनुषबाण तोड़ देते हैं।
मगर यह रावण जो था, असली प्रेम में पड़ गया था। उसने कहा: लगी रहने दो आग; आज तो सीता को वर के ही जाऊंगा। अब बड़ी घबड़ाहट फैल गई! जनता जो देखने आई थी, वह भी कुछ समझी नहीं कि अब मामला क्या है! ऐसा तो कभी हुआ नहीं!
नाटक का जो मैनेजर था, वह छाती पीटने लगा कि बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। और वह दमदार आदमी तो था ही, तभी तो रावण बनाया था उसको। वह रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी को ऐसे हिला कर फेंक देता! असली में ही फेंक देता वह। रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी तो छोकरे थे; वह रावण तो गांव का पहलवान था। वह तो जितने राजा-महाराजा आए थे, सभी इकट्ठे भी जूझते उससे, तो उससे जीत नहीं सकते थे।
जनक जी भी घबड़ाए। बैठे थे सिंहासन पर, उनका सिंहासन कंप गया कि मारे गए! अब यह होगा क्या? यह कथा कैसे चलेगी! फिर-फिर राजदूत भिजवाया कि लंका में आग लगी है! उसने कहा: कह दिया एक दफे कि लगी रहने दे। और न केवल इतना, वह उठा और उसने उठ कर धनुषबाण तोड़ दिया। धनुषबाण भी क्या, रामलीला का धनुषबाण था! ऐसे ही बांस का बना था। उसने तोड़-ताड़ कर ऐसा फेंक दिया। उसने कहा: कहां है सीता?--निकाल! वह तो सीता का हाथ पकड़ कर ले जाने ही लगा। यह तो लीला ही खत्म कर दी इसने!
तो जनक बूढ़ा आदमी था। कई दिन से जिंदगी भर उसने जनक का पार्ट किया था, उसे कुछ सूझ आई। उसने जल्दी से चिल्ला कर कहा अपने नौकरों को कि तुमसे कुछ भूल हो गई मालूम होती है। यह मेरे बच्चों के खेलने का धनुषबाण ले आए! शंकर जी का धनुष लाओ।
पर्दा गिरा कर किसी तरह धक्का-मुक्की करके रावण को बाहर किया; दूसरे रावण को लाए, तब लीला आगे चली।
इस जगत में तुम अगर धर्म के रहस्य को समझना चाहो, तो ‘लीला’ शब्द को समझ लेना। यह एक खेल है, इससे ज्यादा नहीं। इसमें गंभीर होने की जरूरत नहीं है। यहां न कुछ मेरा है, न कुछ तेरा है। न कुछ हार है, न कुछ जीत है। न कुछ सफलता, न कुछ असफलता। सब मन की ही धारणाएं हैं।
चारि पहर निसि भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा।
जैसे बनिए हाट पसारा, सब जग का सो सिरजनहारा।।
ये ले जारे वे ले गाड़े, इन दुखिइनि दोऊ घर छाड़े।
कहत कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम विनसि रहेगा सोई।।
यह अपनी पत्नी ‘लोई’ को संबोधित करके कहे गए वचन हैं। पत्नियों का बहुत लगाव होता है--मेरे-तेरे में--इसलिए। पुरुषों से ज्यादा होता है। पत्नियों का बड़ा ममत्व होता है--मेरे-तेरे में। पत्नियों को बड़ी इर्ष्या होती है--मेरे-तेरे की।
इस फर्क को थोड़ा समझना।
पुरुषों को रस होता है ‘मैं’ में, और पत्नियों को रस होता है, स्त्रियों को रस होता है ‘मेरे’ में। पुरुष को अकड़ होती है ‘मैं’ की। स्त्री को अकड़ होती है ‘मेरे’ की। तो स्त्री जब किसी से प्रेम करती है, तो पहले देख लेती है कि क्या है इसके पास, कितना है इसके पास।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे से कह रहा था कि तू जिस लड़की के साथ घूम-फिर रहा है, वह इस गांव की सबसे बदशक्ल लड़की है। उससे तू बच। कोई और नहीं तुझे मिलती? उसके बेटे ने कहा: पिताजी, अपने पास जो सड़ियल फोर्ड गाड़ी है--उन्नीस सौ तीस की, उसको देखते हुए इस लड़की के सिवाय और कोई लड़की मुझसे राजी हो भी नहीं सकती।
स्त्रियां देखती हैं: क्या तुम्हारे पास है। बैंक-बैलेंस कितना है? प्रतिष्ठा कितनी है? धन-दौलत कितनी है?
स्त्री का रस ‘मेरे’ में है। पुरुष का रस ‘मैं’ में है। पुरुष देखता है: स्त्री कितनी सुंदर है। साथ लेकर घूमूंगा, तो सारे लोगों की ईर्ष्या को जगा पाऊंगा कि नहीं? लोग देखेंगे, तो जल-भुन कर रह जाएंगे कि नहीं? कहेंगे कि हां, कोई स्त्री है तो इसके पास है!
लोग अपनी स्त्रियों को ऐसे ही लेकर तमाशा बनाए रखते हैं। पुरुष चाहे कुछ भी न पहने...। आमतौर से नहीं पहनता। न हीरे की अंगूठी, न कुछ हार, न कुछ; लेकिन अपनी स्त्री को सजाए रहता है। वही स्त्री को दिखाता फिरता है--कि देखो, मेरी स्त्री के पास कितना है! उसकी स्त्री के पास है, इससे उसके मैं को रस है। मैंने दिया है! मैं का मजा है।
स्त्री को मैं का उतना रस नहीं है, जितना मेरे का रस है। कितनी साड़ियां उसके पास हैं; कितने गहने उसके पास हैं--वही उसका हिसाब-किताब है।
स्त्री-पुरुष के मन में इतना फर्क है। हालांकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मेरे से मैं बनता है; मैं से मेरा बनता है। लेकिन यह वचन कबीर ने अपनी पत्नी को संबोधित करके कहे हैं, यह बात प्रासंगिक रूप से याद रखनी जरूरी है।
कहत कबीर सुनहु रे लोई,...
‘लोई’ उनकी पत्नी का नाम था...।
...हम तुम्ह विनसि रहेगा सोई।
जब हम और तुम दोनों विनष्ट हो जाएंगे, तब जो शेष रह जाएगा--वही है; वही सत्य है। जहां ‘मैं’ और ‘तू’ विदा हो जाते हैं, तब जो शेष रह जाता है, वही सत्य है।
...हम तुम विनसि रहेगा सोई।
मौत आएगी, मुझे भी डुबा देगी, तुझे भी डुबा देगी। फिर हममें जो अनडूबा रह जाएगा...। सब छीन लेगी, फिर भी हममें कुछ शेष रह जाएगा; हममें कुछ अविनाशी तत्व है, हममें कुछ अनंत तत्व है, वही रह जाएगा; बाकी सब तो चला जाएगा!
कोई सूरज की किरण हममें है, वह बचेगी, बाकी सब तो गिर जाएगा। फिर बाकी गिर जाने का तुम क्या करते हो--कुछ फर्क नहीं पड़ता।
ये ले जारे वे ले गाड़े,...
हिंदू ले जाकर जला देते हैं, मुसलमान गड़ा देते हैं। बाकी सब फर्क फिजूल हैं। चाहे गड़ाओ, चाहे जलाओ, क्या फर्क पड़ता है? क्योंकि जो था असली, वह गया। अब तो लाश पड़ी रह गई; मिट्टी पड़ी रह गई।
ये ले जारे वे ले गाड़े,...
फिर फिजूल की झंझटें मचा रहे हो। कोई जला देता है, कोई गड़ा देता है, क्या फर्क पड़ता है?
...इन दुखिइनि दोऊ घर छाड़े।
लेकिन जो मर गया है, वह भी घर छोड़ कर उड़ गया। जो गाड़ रहे हैं, जला रहे हैं, वे भी आज नहीं कल घर छोड़ कर उड़ जाएंगे। यह घर घर नहीं है।
जैसे तरवर पंखि बसेरा, चारि पहर निसि भोरा।
यह केवल थोड़ी देर के लिए हम रुक गए हैं, विश्राम के लिए। थक गए हैं और रुक गए हैं। यह पड़ाव है, मंजिल नहीं।
इनमें खिजां का रंग भी शामिल जरूर है
गहरी नजर से नक्शो निगारे बहार देख
सारे संतों ने यही कहा है। अगर तुम बहार को भी बहुत गौर से देखो, गहरी नजर से, तो उसमें पतझड़ को छिपा हुआ पाओगे।
इनमें खिजां का रंग भी शामिल जरूर है
गहरी नजर से नक्शो निगारे बहार देख
अगर तुम जीवन को गहरी नजर से देखोगे, तो उसमें मौत को छिपा हुआ पाओगे। अगर सुख को तुम गहरी नजर से देखोगे, तो दुख उसके पीछे छाया की तरह आता हुआ दिखाई पड़ जाएगा। अगर सफलता को गौर से देखोगे, तो तुम पाओगे: उसका ही दूसरा पहलू असफलता है। यश के पीछे अपयश लगा है। नाम के पीछे बदनामी लगी है। इस जगत में सभी चीजें द्वंद्व से भरी हैं।
तो बहार में उलझ मत जाना, गौर से देखना: बहार के पीछे पतझड़ आती ही है। आ ही रही है; आ ही गई है। बहार उसी का रास्ता साफ कर रही है। फिर यहां क्या मेरा और क्या तेरा?
सौंदर्य दो क्षण का है; जीवन दो क्षण का है। यह चहल-पहल दो क्षण की है। फिर सब सन्नाटा हो जाता है। यह जो दो क्षण का जगत है, यह जो पानी का बुलबुला जगत है, इसमें बहुत रस न लगाओ। इस बुलबुले से अपने को बांधो मत, अन्यथा टूटेगा तो पीड़ा होगी। इसलिए ज्ञानी शांति से मर पाता है।
अज्ञानी तो शांति से जी भी नहीं पाता; मरने की तो बात ही दूर। ज्ञानी शांति से मर पाता है, क्योंकि उसने जीवन में ही मृत्यु को छिपे देख लिया था। और जिसने जीवन और मृत्यु दोनों को देख लिया--वह दोनों के पार हो गया, वह साक्षी बन गया। वही बचता है।...‘हम तुम्ह विनसि रहेगा सोई।’
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
और मन दौड़ाए रखता है। मन कहता है: चलो यहां, चलो वहां। इसे पा लो, उसे पा लो। मन कितनी-कितनी उत्तेजनाएं देता है। मन उत्तेजनाओं को जन्माए चला जाता है। एक वासना पूरी नहीं हो पाती कि दस उठा देता है। तुम्हें दौड़ाए ही रखता है। कभी ऐसा क्षण नहीं आने देता कि तुम थोड़ी देर विश्राम कर लो, कि थोड़ी देर आराम से बैठ जाओ। मन कहता है: अभी कहां विश्राम का क्षण। अभी तो इतना पाने को पड़ा है। थोड़ा और दौड़ लो।
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
कबीर कहते हैं: मन तू जाना कहां चाहता है? और जाएगा भी कहां?
फिर बड़े मजे की बात मन के संबंध में यह है कि इस संसार में तो मन दौड़ता ही है, फिर एक दिन संसार से थक जाता है, तो परमात्मा में दौड़ने लगता है। लेकिन दौड़ जारी रहती है!
कुछ लोग धन कमा रहे हैं, जब ऊब जाते हैं...। ऊब ही जाएंगे। अगर जरा भी बुद्धि होगी, तो ऊब जाएंगे। सिर्फ बुद्धू ही जिंदगी भर धन कमाते रह सकते हैं। जिसमें थोड़ी भी समझ है, वह एक न एक दिन देख लेगा: इन चांदी के ठीकरों में क्या है! अब तो चांदी के भी नहीं हैं! इन ठीकरों में क्या है?
लेकिन तब मन नई दौड़ें शुरू कर देता है। मन कहता है: ठीक है, इनमें नहीं है; कोई बात नहीं। पुण्य के सिक्के कमाओ। अभी दुकान बनाई, अब धर्मशाला बनाओ। अभी दुकान बनाई, अब मंदिर बना दो। अब पुण्य के ठीकरे कमाओ। अब परमात्मा की उस दुनिया में जाना है, वहां की तैयारी करो। स्वर्ग में अच्छी जगह मिले, परमात्मा के ठीक मकान के बगल में स्थान मिले, अब कुछ उसका इंतजाम कर लो। यहां का तो देख लिया; व्यर्थ है; अब वहां की सम्हालो।
तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी तुम्हें यही समझाते हैं कि यहां कुछ नहीं रखा है। अब वहां की सम्हालो। जैसे वहां रखा है!
कबीर कहते हैं: न यहां रखा है, न वहां रखा है। ये तो दौड़ने के ही ढंग हैं। न यहां मिला, न वहां मिलेगा। ये तो मन की वासना की तरकीबें हैं। वह नई वासना उठा देता है। पुरानी थक गई, वह कहता है: कोई हर्जा नहीं, यह नई लो। वह नये संस्करण निकाल देता है वासना के।
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
कबीर कहते हैं: न तो यहां, न वहां। तू जाएगा कहां मन? पार उतर कर कहां जाना चाहता है? यह दौड़-धाप किसलिए है?
आगे पंथी पंथ न कोई,...
न तो कोई पंथी है, न कोई पंथ है।
...कूच-मुकाम न पैहों।
न तो कोई यात्रा का प्रारंभ है, और न यात्रा का कोई अंत है। दौड़ते रहो, दौड़ते रहो, दौड़ते रहो।
नहिं तहं नीर नाव नहिं खेवट,...
न तो वहां कोई जल है, न कोई नाव है, न कोई खेवट है।
...ना गुन खैंचनहारा।
और न नाव में रस्सी बांध कर कोई खींचने वाला है।
धरनी-गगन-कल्प कछु नाहीं,...
न तो वहां धरती है, न आकाश है, न समय है। वहां न काल है, न क्षेत्र है।
धरनी-गगन-कल्प कछु नाहीं, ना कछु वार न पारा।
और न कोई आर-पार है इस अस्तित्व का। तू जाएगा कहां? तू जाना कहां चाहता है? दूसरा किनारा है ही नहीं। क्योंकि इस जगत की कोई सीमा नहीं है। तू चलता रहेगा, चलता रहेगा; और सदा आगे आकाश दिखाई पड़ता रहेगा। क्योंकि अंत यहां कहीं आता नहीं।
किसी भी चीज का तुमने अंत आते देखा? रुपये कमाओ, हजार हों, लाख हों, करोड़ हों, अंत आते देखा? करोड़ आ जाते हैं, मगर अंत तो नहीं आता! संख्या का फैलाव आगे मौजूद है।
इस पद पर हो जाओ, उस पद पर हो जाओ; अंत आता है? किसी पद पर हो जाओ, अंत नहीं आता। आगे कुछ कायम है!
और फिर एक ही वासना होती तो भी ठीक था। वासनाएं अनेक हैं। तुम एक चीज में आगे हो जाते हो, तो दूसरी चीजों में पीछे हो।
नेपोलियन की ऊंचाई कम थी, इससे वह बड़ी तकलीफ पाता। सम्राट हो गया, बड़ा शक्तिशाली सम्राट। दुनिया में दस-पांच नाम ही उसके मुकाबले खड़े हो सकते हैं। लेकिन यह पीड़ा हमेशा उसे पकड़े रहती। जब भी रास्ते पर किसी छह फीट के आदमी को देखता, एकदम घबड़ा जाता; एकदम आंख बचा लेता। उसे बड़ी पीड़ा होती थी इस बात की कि मैं केवल पांच फीट दो इंच!
पांच फीट दो इंच! कोई भी उसे झेंपा देता। उसके सिपाही लंबे थे, और उसके पहरेदार लंबे थे।
एक दिन घड़ी लगा रहा था ठीक जगह पर, लेकिन हाथ उसका पहुंच नहीं रहा था। दीवाल ऊंची थी, जहां लगाना चाहता था। तो उसके बॉडीगार्ड ने, अंगरक्षक ने कहा कि मालिक, आप रुकें; मैं आपसे ऊंचा हूं, मैं लगाए देता हूं। उसने कहा कि चुप, नासमझ! दुबारा यह शब्द उपयोग मत करना! मुझसे ऊंचा? मुझसे लंबा भला हो, ऊंचा नहीं। लंबाई-ऊंचाई में फर्क है!
अहंकार बड़ी पीड़ाएं लेता है--मन बड़ी पीड़ाएं लेता है। तुम्हारे पास धन हो जाता है, सब हो जाता है, लेकिन धन को कमाने में स्वास्थ्य खो जाता है। फिर एक दिन तुम देखते एक फकीर को--अलमस्त फकीरा--चला जा रहा है अपनी बांसुरी बजाते। छाती जल-भुन कर रह जाती है।
तुम प्रधानमंत्री हो गए, लेकिन जिंदगी उसी में गंवा दी दौड़ते-दौड़ते। फिर देखते एक दिन, एक आदमी को: उसका स्वर मीठा है; उसके काव्य में जीवन है, और तुम उदास हो गए। या देखते किसी आदमी की आंखों को: और वहां शांति की गहरी झील है। और तुम्हारे भीतर सिवाय पागलपन के कुछ भी नहीं। पागलपन न होता, तो राजनीति में क्यों होते? दौड़ते क्यों? तुम्हारी आंखों में सिर्फ विक्षिप्तता है। और देखते किसी की आंखों में शांति की झील: मन एकदम तृष्णा से भर जाता है, लोभ से भर जाता है।
कोई तुमसे ज्यादा सुंदर है, कोई तुमसे ज्यादा ज्ञानी है। किसी के पास तुमसे ज्यादा धन है। किसी के पास तुमसे ज्यादा स्वास्थ्य है। किसी के पास कुछ, किसी के पास कुछ! क्या-क्या करोगे? कहां-कहां दौड़ोगे? पार कहां पाओगे?
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
कोई न कोई आगे होगा। किसी न किसी दिशा में आगे होगा। पीड़ा होती रहेगी। मन सभी दिशाओं में सबसे आगे होना चाहता है। यह असंभव है। यह असंभव इसलिए है कि दिशाएं एक-दूसरे के विपरीत हैं।
समझो: अगर तुम सबसे बड़े राजनेता होना चाहते हो, तो तुम सबसे बड़े संन्यासी नहीं हो सकते। वे विपरीत हैं। एक पूरा होगा, तो दूसरा नहीं हो सकता। जो पूरब जाना चाहता है, वह पश्र्चिम नहीं जा सकता--एक ही साथ। दो घोड़ों पर कौन सवार हो सकता है! और यहां दो घोड़े नहीं हैं, यहां हजार घोड़े हैं। और हजार घोड़ों पर इकट्ठे सवार होने का मन है!
तुम्हें एक को तो चुनना ही पड़ेगा। जीवन में विकल्प है। अगर तुमने राजनीति चुनी, तो धर्म से तुम चूक जाओगे। क्योंकि धर्म और राजनीति विपरीत दिशाएं हैं। राजनीति में दूसरे को जीतना है; धर्म में स्वयं को जीतना है।
राजनीति में धोखा-धड़ी है, बेईमानी है। बिना बेईमानी के, धोखा-धड़ी के वहां कोई नहीं जीतता। कोई नहीं जीतता! वहां चालबाजियां हैं, कूटनीतियां हैं।
धर्म में धोखा-धड़ी कभी नहीं जीतती! परमात्मा के साथ कैसी धोखा-धड़ी? वहां सरल-चित्त, सीधे-सादे लोग जीतते हैं। वहां जिनके पास बाल-हृदय है, वे जीतते हैं। वहां निष्कलुष लोग जीतते हैं। वहां ध्यानस्थ लोग जीतते हैं।
राजनीति में ध्यानस्थ तो हार ही जाएगा। क्योंकि राजनीति में तो बड़ा विचार चाहिए; दूर का विचार चाहिए। राजनीति तो शतरंज का खेल है। कहते हैं: शतरंज का खिलाड़ी तभी जीत सकता है ठीक से, जब आगे की पांच चालों का हिसाब उसके भीतर हो; कम से कम पांच चाल का! मैं यह चलूंगा, दूसरा क्या चलेगा; फिर मैं क्या चलूंगा, दूसरा क्या चलेगा; फिर मैं क्या चलूंगा, फिर दूसरा क्या चलेगा--ऐसी कम से कम पांच चाल का जिसे पहले से हिसाब हो, वही शतरंज में जीत पाता है। तो शतरंज तो पागल कर ही देगी।
मैंने सुना है, इजिप्त में ऐसा हुआ। एक सम्राट शतरंज का बड़ा शौकीन था, खिलाड़ी था, वह पागल हो गया। वह शतरंज खेलते ही खेलते पागल हुआ। शतरंज भी राजनीति का ही खेल है। राजा, हाथी, घोड़े--वे सब प्रतीक हैं। शतरंज यानी दिल्ली! इसको गिराओ, उसको उठाओ; इसको चलाओ, उसको भुलाओ। यह सब चलता रहता है। राम आए, राम गए! यह चलता रहता है। इधर आए, उधर गए; इस पार्टी से उस पार्टी में खिसक गए। यह सब चलता रहता है। अपना घोड़ा दूसरे का हो गया; वह दूसरा उस पर सवार हो गया। यह उठा-पटक--सारा खेल है।
तो सम्राट बड़ा शौकीन था। जिंदगी भर तो युद्धों में उलझा रहा, अब बूढ़ा हो गया था, युद्धों में जाने की सामर्थ्य न थी, तो वह शतरंज खेलता था। फिर पागल हो गया। मनोचिकित्सकों ने कहा कि कोई इलाज नहीं है इसका। इलाज एक ही है कि कोई इसके साथ शतरंज खेलता रहे। कौन उसके साथ शतरंज खेले--पागल आदमी के साथ? एक तो सम्राट और फिर पागल! तो करेला और नीम चढ़ा! एक तो सम्राट, इसके साथ वैसे ही लोग खेलने में डरते थे। क्योंकि वह कभी भी तलवार निकाल ले या फांसी लगवा दे। अगर न जीते, तो मुसीबत में डाल दे। और अब पागल हो गया था; इसके साथ खेले कौन?
लेकिन काफी रुपये देने का वायदा किया गया, तो एक खिलाड़ी आ गया। कहते हैं, साल भर वह खिलाड़ी उसके साथ खेलता था। सम्राट ठीक हो गया, खिलाड़ी पागल हो गया।
अब पागल के साथ शतरंज खेलोगे, तो कितने दिन होशियार रह सकते हो? ज्यादा दिन होशियार नहीं रह सकते। पागल की चालों को समझोगे; पागल का हिसाब-किताब रखोगे; पागल क्या चल रहा है, क्या कर रहा है, तुमको उसके जवाब खोजने पड़ेंगे। धीरे-धीरे तुम भी पागल हो जाओगे। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि दो राजनैतिक पार्टियां लड़ते-लड़ते, बिलकुल एक जैसी हो जाती हैं; उनमें कोई फर्क नहीं रहता।
अभी तुम देखते हो: जनता पार्टी में कांग्रेस से कोई फर्क नहीं है। हो नहीं सकता फर्क। एक-दूसरे से लड़ते-लड़ते, एक-दूसरे की चाल सीखते-सीखते बात एक सी हो जाती है। वही हालत अमरीका में है। वही हालत इंग्लैंड में है। दो विरोधी पार्टियां होती हैं, मगर उनमें भेद कुछ नहीं रह जाता। कोई नीति का भेद नहीं है। कोई लक्ष्य का भेद नहीं है। इतना ही भेद होता है कि हम ताकत में हों, कि तुम ताकत में हो। बस, इतना ही भेद होता है। और जनता को धोखा खाने में आसानी रहती है।
दो पार्टियां रहती हैं, तो जनता को सुविधा रहती है। एक आदमी को कंधे पर बिठाए-बिठाए पांच साल में थक गए; कहा कि देवी उतरो, अब भाई को बिठाएंगे! पांच साल में भाई से थक जाओगे; फिर भाई को उतार देना। जनता को मूढ़ बने रहने में इससे सुविधा मिलती है।
जो दो पार्टियों की राजनैतिक व्यवस्था है, वह जनता को मूढ़ बनाए रखने का उपाय है। उसमें वह कभी थक नहीं पाती है। एक से थक गए, पांच साल...।
और जनता की स्मृति बड़ी कमजोर होती है। अगर पांच साल जनता पार्टी सत्ता में रह गई, तो जीत नहीं सकेगी। अभी भी चुनाव लड़े तो उतनी बड़ी जीत नहीं होगी, जितनी पांच महीने पहले हुई थी। जनता थकने लगी! पांच साल में थक जाएगी। जनता पार्टी की सारी बुराइयां दिखाई पड़ने लगेंगी। और कांग्रेस की सारी बुराइयां पांच साल में भूल जाएंगी। स्मृति बड़ी कमजोर है जनता की। तब तक कांग्रेस का फिर सितारा चमकने लगेगा। यह राजनीतिज्ञों की मिली-जुली भगत है। यह षडयंत्र है।
ये दुश्मन नहीं होते एक-दूसरे के।ये दोनों ही मिल कर जनता के दुश्मन हैं! इनका दोनों का काम जनता का शोषण है।
जिससे तुम लड़ते हो, उस जैसे हो जाओगे। धीरे-धीरे तुम्हारा रंग-ढंग, तुम्हारी व्यवस्था तुम्हारी शैली उस जैसी हो जाएगी।
जो आदमी धन ही धन के लिए दौड़ता रहता है, और धन ही पाने के युद्ध में लगा रहता है, तुमने कभी खयाल किया, उसके चेहेरे पर घिसे-पिटे रुपये जैसा भाव आ जाता है। गंदे नोट जैसी शक्ल हो जाती है। कई हाथों में चलते-चलते नोट गंदा हो ही जाता है। दाग लग जाते हैं, वैसी उसकी शक्ल हो जाती है। रुपये में जैसी घिनौनी सी चमक आ जाती है--चलते-चलते-चलते--ऐसी उसकी शक्ल हो जाती है।
जो आदमी जो करेगा, स्वभावतः वैसा हो जाएगा।
कामी की आंख में वासना की गंदगी दिखाई पड़ने लगती है। प्रार्थना करने वाले की आंख में परमात्मा की झलक आने लगती है।
और यहां इतनी चीजें हैं पाने को, कि आदमी इधर दौड़ता है। फिर सोचता है: उधर भी दौड़ लूं। फिर सोचता है: इधर भी दौड़ लूं। यहां हजार रास्ते हैं। यह चौराहा हजार रास्तों का चौराहा है। इसमें यहां जाऊं, वहां जाऊं...पगलाया जाता है आदमी।
कबीर कहते हैं:
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
जाएगा कहां तू? जाने को है कहां! मंजिल कहां है!
आगे पंथी पंथ न कोई, कूच-मुकाम न पैहों।
न कोई मुकाम है आगे। चलता जाएगा, चलता जाएगा, थकेगा-हारेगा; नई-नई वासनाएं खोज लेगा। मगर कभी कोई मुकाम पर नहीं पहुंचा। मन की मान कर कोई कभी सिद्धि को नहीं पहुंचा; उस जगह नहीं पहुंचा, जहां सब आनंद हो जाए। उस जगह नहीं पहुंचा, जहां आगे चलने का कोई उपाय न रह जाए।
मुकाम का अर्थ है: ऐसी जगह, जिसके आगे फिर और कोई जगह जाने को न बची। आ गए अपने घर। पहुंच गए, जहां पहुंचना था। फिर विश्राम है। उसको हम मोक्ष कहते हैं।
और मन भाग-दौड़ करता है, लेकिन मन तो बदलता नहीं है। मन वही का वही है। यहां जाए, वहां जाए--मन वही है।
नगमे से अगर महरूम है दिल, माहौल को मत बदनाम करो।
कितना ही जुनूजा हो मौसम, कब काग गजल ख्वां होते हैं।
चाहे वसंत आ गया हो, तो भी कौवे गजलें नहीं गा सकते हैं।
नगमे से अगर महरूम है दिल,...
अगर गीत तुम्हारे दिल में नहीं है,...
...माहौल को मत बदनाम करो।
तो वातावरण को गालियां मत दो।
कितना ही जुनूजा हो मौसम,...
मधुशाला खोल दी हो परमात्मा ने, सब तरफ वसंत छाया हो, फूल खिले हों, सब तरफ मस्ती हो, फिर भी...
कितना ही जुनूजा हो मौसम, कब काग गजल ख्वां होते हैं।
कौवे कब मीठे गीत गा सकते हैं?
तुमने कहानी सुनी होगी ईसप की: एक कौआ उड़ा जा रहा था; कोयल ने उससे पूछा कि चाचा, कहां जा रहे हैं? कौवे ने कहा कि पूरब की तरफ जा रहा हूं। क्योंकि यहां के लोग मेरे गीतों को पसंद नहीं करते हैं!
कोयल ने कहा: चाचा, पूरब के लोग भी पसंद नहीं करेंगे। खराबी पूरब और पश्र्चिम में नहीं है। आपके गीत ही ऐसे अनूठे हैं!
यह मन जो है, यहां दुखी है, वहां भी दुखी होगा। इस मन का ढंग दुख है।
यह मन दुख पैदा करता है। तुम्हारे पास हजार रुपये हैं, तुम दुखी हो। दस हजार होंगे, तो दस गुने दुखी हो जाओगे, बस। और कुछ भी न होगा। तुम्हारी क्षमता दुख की दस गुनी हो जाएगी। मन तो यही का यही है। करोड़ हो जाएंगे, तो और दुखी हो जाओगे।
यह आकस्मिक नहीं है कि अमरीका में सर्वाधिक दुख है। यह आकस्मिक नहीं है कि जितना धन बढ़ता जाता है, उतना उसके साथ दुख बढ़ता जाता है। होना तो नहीं चाहिए। गणित के बाहर है यह बात। तर्क के विपरीत है। सुख बढ़ना चाहिए धन के साथ। लेकिन धन के साथ दुख बढ़ता है। क्योंकि मन तो वही का वही है।
मन वही है और धन मिल जाने से, मन को बल मिल जाता है। मन का आधार वही है।
यही समझो कि कौवे को लाउडस्पीकर मिल गया। गीत तो वही का वही है, लेकिन अब हजार गुना होकर फैलने लगा।
एक आदमी को लॉटरी मिली। गरीब आदमी था; दर्जी था। रूसी कहानी है। लॉटरी मिली एक लाख रुपये की। भरोसा ही नहीं आया उसे। वह तो आदतवश हर महीने एक रुपये की टिकट खरीद लेता था। ऐसा कोई बीस साल से कर रहा था। न कभी मिली थी, न मिलने की कोई आशा थी। आदत थी। एक शौक था। एक रुपये में कुछ जाता भी नहीं था। मिल गई तो मिल गई; नहीं मिली तो...। अब तो कुछ आशा भी छोड़ दी थी। बीस साल बहुत आशा की; फिर धीरे-धीरे आदत में शुमार हो गया था कि एक तारीख को जाकर एक टिकट खरीद लेता था। मगर मिल गई!
लॉटरी आई, तो उसे भरोसा नहीं आया। एकदम दीवाना हो गया। ताला लगा कर दुकान पर, उसने चाबी जो थी कुएं में फेंक दी। अब करना क्या है? लाख रुपये पास! जिंदगी के लिए बहुत हैं। अपनी जिंदगी के लिए नहीं, बच्चों की जिंदगी के लिए भी बहुत हैं। सस्ते जमाने की बात। तब लाख रुपये का बहुत मूल्य होता था।
लेकिन वह साल भर में लाख रुपये उड़ गए। न केवल लाख रुपये उड़ गए, साथ ही स्वास्थ्य भी उड़ गया। क्योंकि खूब शराब पी; वेश्यागमन किया; जुआ खेला। रात-रात जागे। इतना दुख कभी नहीं भोगा था, जितना इस साल में भोगा।
वह बड़ा सोचता भी था कि बात क्या है? लोग तो कहते हैं: धन हो, तो सुख होता है! मैं पहले ही सुखी था। अपना दिन भर काम कर लेता था। रुपये, दो रुपये कमा लेता था, सब मौज थी। रात अपने घर जाकर शांति से सो जाता था। रुपये ही नहीं थे, तो शराबघर कैसे जाता? रुपये ही नहीं थे, तो वेश्या कहां खोजता? रुपये ही नहीं थे, तो जुआ कहां खेलता?
कुछ बातों का उसे पता ही नहीं था--कि जुआ घर भी होते हैं; वेश्याएं भी गांव में हैं; शराब भी चलती है--यह उसे पता भी नहीं था। यह पता भी कैसे होता? इसकी सुविधा नहीं थी।
मगर जब लाख रुपये पास आए, तो न केवल सुविधाएं खुल गईं। जिन लोगों की, इसके लाख रुपये पर नजर थी, वे भी आने लगे। कोई इसको जुआघर ले गया--कि पागल, यह मौका न चूक। लाख से और ज्यादा कमा सकता है। कोई इसे वेश्यालय ले गया--कि अब तेरे पास पैसे हैं, तो भोग ले। चार दिन की जिंदगी है, फिर अंधेरी रात!
देखते हैं: भोगी कहता है: चार दिन की जिंदगी है, फिर अंधेरी रात!
कबीर कहते हैं: ‘चारि पहर निसि भोरा’--यह चार दिन की अंधेरी रात है, फिर सुबह है।
भोगा। साल भर में बिलकुल मुर्दे जैसा हो गया। रुपया भी चला गया। उलटी उधारी चढ़ गई। कभी जिंदगी में उधारी न रही थी। उधार करने की कभी हिम्मत ही न की थी। सामर्थ्य ही नहीं थी। सदा शान से चला था। अब लोगों से बच कर निकलने लगा।
साल भर बाद जब वह आकर अपनी दुकान पर खड़ा हुआ, तो ऐसा जैसा कि बीस साल जिंदगी खराब गई हो; जैसे बीस साल बीमार रहा हो; खाट से लगा रहा हो। हड्डी-हड्डी हो गया था। आंखें धंस गई थीं। कुएं में उतर कर किसी तरह चाबी खोजी; फिर अपनी दुकान करने लगा। और भगवान को कहा कि अब दुबारा भूल कर भी यह लॉटरी मत खुलवाना।
मगर पुरानी आदत जारी रही; वह एक रुपये के टिकट खरीदता रहा। और संयोग की बात: साल भर बाद फिर लॉटरी आ गई! जब दरवाजे पर लॉटरी के रुपये लेकर आदमी आकर खड़े हुए, तो उसने छाती पीट ली। उसने कहा: हे प्रभु! फिर से...!
हालांकि चाहता नहीं है अब, मगर छोड़ भी नहीं सकता। वह मन कहता है कि पागल, अब फिर एक मौका मिला! और पता है सब, कि वह पहला मौका जो मिला था, सिर्फ दुख दे गया; हड्डी-हड्डी कर गया; ़जार-़जार कर गया; सीने में छेद ही छेद कर गया। घाव ही घाव छोड़ गया। कभी पति-पत्नी में झगड़ा न हुआ था, वह साल झगड़े में बीता। कभी बच्चों ने गालियां न दी थीं, बच्चों ने पिटाई की। कभी पड़ोसियों ने अनादर न किया था; जहां जाए वहां अनादर होने लगा। सड़कों पर पड़ा रहा। गलियों में, नालियों में पड़ा रहा रात पीकर। सब तरह से सब खराब हो गया। और अब जानता है। लेकिन फिर उठ कर खड़ा हो गया!
आदमी इतना बेहोश है! मन ऐसा है! फिर द्वार पर ताला लगा दिया। हालांकि उतने बल से नहीं, जितना पहली बार; लेकिन फिर भी लगा दिया। अब सोचता है कि चाबी न फेंकूं, फिर खोजना पड़ेगी। लेकिन कुछ आदत, कुछ पुराना, कि अब करना क्या है? सोचते-सोचते भी चाबी कुएं में फेंक दी। लेकिन उस साल वह बच न सका, मर गया। इसलिए कहानी आगे बढ़ी नहीं।
आदमी का मन ऐसा है!
कबीर कहते हैं:
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
धरनी-गगन-कल्प कछु नाहीं, ना कछु वार न पारा।।
नहिं तहं नीर नाव नहिं खेवट, ना गुन खैंचनहारा।
आगे पंथी पंथ न कोई, कूच-मुकाम न पैहौं।।
शायद मन कहे कि ठीक है, इस संसार में नहीं जाना है कबीर, न जाओ। परलोक तो खोजो! परमात्मा को तो खोजो! तो कबीर उसको भी चेताते हैं:
नहिं तन नहिं मन, नहिं अपनपौं, सुन्न में सुद्ध न पैहौ।
मन तो जहां भी ले जाएगा, शून्य में ही ले जाएगा। यह तो कभी पूर्ण से मिला नहीं सकता।
नहिं तन नहिं मन, नहीं अपनपौं, सुन्न में सुद्ध न पैहौ।
वहां तन भी खो जाए, मन भी खो जाए, अपनापन भी खो जाए, तो भी मन के द्वारा जो स्थिति आएगी वह रिक्त, शून्य की होगी। उसमें पूर्ण नहीं हो सकता।
मन शून्य से पार नहीं ले जा सकता। और कबीर तो पूर्ण के प्रेमी हैं।
बलीवान होए पैठो घट में, वाहीं ठौरें होइहौ।
कबीर कहते हैं: कहीं जाने की जरूरत नहीं है पागल! अपने घर में बैठ जा; अपने भीतर बैठ जा।
बलीवान होए पैठो घट में,...
यही ध्यान का अर्थ है, समाधि का अर्थ है: जब जम कर अपने भीतर बैठ जाओ; हिलो मत। कंपन छोड़ो, निष्कंप हो जाओ।
बलीवान होय पैठो घट में, वाहीं ठौरें होइहौ।
और वहीं से ठौर मिलेगी; वहीं से मुकाम मिलेगा।
बाहर नहीं है मंजिल, मंजिल भीतर है। जिस हीरे को तुम खोज रहे, वह बाहर नहीं पड़ा है। उसे तुम लेकर आए हो। वह जन्म के पहले भी तुम्हारे साथ था। वह तुम्हारा स्वरूप है। सच्चिदानंदरूप हो तुम। इसलिए उपनिषद कहते हैं: तत्वमसि। वह तुम ही हो, जिसको तुम खोज रहे। खोजी में ही खोज का सारा अर्थ छिपा है। खोजने वाले में ही मंजिल छिपी है।
बलीवान होय पैठो घट में, वाहीं ठौरें होइहौ।
अपने ही घट में बैठ जाओ, और वहीं से मंजिल मिल जाएगी।
बार हि बार विचार देख मन, अंत कहूं मत जैहौ।
कहते हैं कबीर: तू खूब सोच ले, कितना ही विचार करना हो कर ले, लेकिन एक बात अंततः निर्णय में ले ले, कि कहीं जाने से कुछ भी नहीं होना है; जाने से कुछ भी नहीं होना है!
आना है; जाना नहीं है। भीतर आना है; बाहर जाना नहीं है। दूर तो हम वैसे ही अपने से बहुत निकल गए हैं--न मालूम क्या-क्या खोजते। अब हमें अपने घर लौट आना है।
कहै कबीर सब छाड़ि कल्पना,...
ये सब कल्पनाएं हैं: धन की, पद की, प्रतिष्ठा की, पुण्य की, स्वर्ग की--ये सब कल्पनाएं हैं।
कहै कबीर सब छाड़ि कल्पना, ज्यों के त्यों ठहरैहौ।
और अगर सारी कल्पना छूट जाए, तो तुम जो हो, वही हो जाओगे, इसी क्षण हो जाओगे। कल्पना से ही बाधा पड़ रही है।
...ज्यों के त्यों ठहरैहौ।
और तब तुम अपने स्वरूप में ठहर जाओगे। वह स्वरूप-स्थिति ही मुक्ति है। वही पूर्ण का अनुभव है। और उस अनुभव के अतिरिक्त कोई आनंद नहीं, कोई शांति नहीं, कोई उत्सव नहीं।
ज्यूं मन मेरा तुज्झ सौं, यों जे तेरा होइ।
कबीर कहते हैं: जैसा मेरा मन परमात्मा में लगा, ऐसा परमात्मा भी मुझमें लग जाए।
ज्यूं मन मेरा तुज्झ सौं,...
जैसा मेरा मन तेरी तरफ दौड़ रहा है, ऐसी ही जब तेरी कृपा होगी और तू मेरी तरफ दौड़ेगा, तेरा प्रसाद बरसेगा।
...यों जे तेरा होइ।
ताता लोहा यौं मिलै, संधि न लखई कोइ।
मैं तो तुझे चाह रहा हूं, मैं तो तुझे पुकार रहा हूं। मेरी तो एक ही प्रार्थना है कि तू मिल जाए, लेकिन तेरे बिना प्रसाद के क्या होगा! मेरा प्रयास और तेरा प्रसाद; जब दोनों मिलेंगे, तब मिलन होगा।
ताता लोहा यौं मिलै,...
मैं तो गर्म हुआ जा रहा हूं; मैं तो पुकार-पुकार कर उत्तप्त हुआ जा रहा हूं; मैं तो प्यासा हूं--विरह में। आग जल रही है मेरे भीतर विरह की।
ताता लोहा यौं मिलै, संधि न लखई कोइ।
और जब दो गर्म लोहे मिल जाते हैं, तो बीच में कोई संधि नहीं छूटती।
कबीर कहते हैं: लेकिन जब तेरा प्रसाद भी इतना ही उत्तप्त होकर मेरी तरफ बहेगा, जितनी उत्तप्तता से मैं बह रहा हूं, तभी मिलन होगा।
भक्त की यह बड़ी गहरी सूझ है कि आदमी के प्रयास से आधा ही काम होता है। आधा काम तो अनुकंपा से, उसकी कृपा से...। इस सूझ के कारण भक्त को अहंकार कभी खड़ा नहीं होता। नहीं तो यही अहंकार आ जाता है कि मेरे प्रयास से पा रहा हूं! मैंने परमात्मा को पाया!
भक्त ऐसा कभी नहीं कह सकता कि मैंने परमात्मा को पाया। भक्त इतना ही कहता है: परमात्मा ने मुझे पाया। मैंने पुकारा, मैंने खोजा, लेकिन मुझसे क्या होगा, मेरे छोटे हाथ उस विराट को कैसे खोज पाएंगे!
कबीर जाको खोजते, पायो सोई ठौर।
सोई फिरि कै तूं भया, जाको कहता और।।
कबीर जाको खोजते,...
परमात्मा को खोजते-खोजते, खोजते-खोजते एक दिन ठौर मिल जाता है। अपने में ही खोजना है, कहीं बाहर जाना नहीं है। यह अंतरगति है।
कबीर जाको खोजते, पायो सोई ठौर।
और जिस दिन वह मिल जाता है, उस दिन ठौर मिल गई।
सोई फिरि कै तूं भया,...
और तब, हम फिर वही हो जाते हैं, जो हम हैं। हम फिर वही हो जाते हैं, जो हमारा असली होना है।
सोई फिरि कै तूं भया, जाको कहता और।
अब तो परमात्मा को दूसरा कहना भी संभव नहीं। भक्त उस घड़ी भगवान हो जाता है, उस घड़ी बूंद सागर में मिल जाती है। बूंद सागर हो जाती है।
मारे बहुत पुकारिया, पीर पुकारे और।
लागी चोट मरम्म की, रह्यो कबीरा ठौर।।
कबीर कहते हैं: कुछ लोग परमात्मा को पीड़ा के कारण पुकारते हैं, दुख के कारण पुकारते हैं, क्योंकि जिंदगी में बड़ी मार पड़ती है।
मारे बहुत पुकारिया,...
कोई हार गया--परमात्मा को याद करता है। किसी का दिवाला निकल गया--परमात्मा को याद करता है। किसी की पत्नी मर गई, पति मर गया--परमात्मा को याद करता है। यह याद ऐसी ही है, जैसे...
मारे बहुत पुकारिया,...
जैसे किसी की पिटाई पड़े और वह याद करने लगे परमात्मा की। यह याद बहुत सच्ची नहीं। जब दुख चला जाएगा, फिर भूल जाएगी।
दुख में तो सभी परमात्मा को याद करते हैं, मगर दुख में याद किया परमात्मा ज्यादा देर टिकता नहीं; सुख आया कि गया। सुख में कौन याद करता है? सुख में तुम बिलकुल भूल जाते हो। जब सब ठीक चलता होता है, परमात्मा का क्या प्रयोजन? जब चीजें गलत होती हैं, मुश्किल में होती हैं, तब तुम याद कर लेते हो। तुम मतलब से याद करते हो। इसलिए दुख में जिसने याद की, उसने परमात्मा को कभी नहीं पाया। जिसने सुख में याद की, उसने पाया।
मारे बहुत पुकारिया, पीर पुकारे और।
तो जो पिट-पिट कर पुकारते हैं, यह एक बात है। और पीर से पुकारना बिलकुल दूसरी बात है। पीर यानी प्यार की पीड़ा।
मारे पुकारिया,...
यह एक बात है। तुम पर डंडे पड़े, और तुम झुक गए, यह झुकना असली नहीं। प्रेम से झुके। यह झुकना और है।
...पीर पुकारे और।
पीर का मतलब होता है: मीठी पीड़ा। जहां मिठास है, प्यास है, प्रेम है। इसलिए नहीं पुकार रहे हैं कि हम दुख में हैं, कि हमारी दुकान ठीक से चला दे; कि पत्नी बीमार है, इसकी बीमारी ठीक कर दे; कि लड़के की नौकरी नहीं रह गई, नौकरी लगवा दे, इसलिए नहीं। बल्कि इसलिए--कि तेरे बिना--तेरे बिना कुछ भी नहीं है। दुकान भी ठीक चल रही है, पत्नी भी स्वस्थ है, लड़के की भी नौकरी लग गई--मगर तेरे बिना कुछ भी नहीं। तुझे पाने के लिए पुकारते हैं।
खयाल रखना: परमात्मा से कुछ और मांगा, तो तुमने परमात्मा का अपमान किया। परमात्मा से बस, परमात्मा को ही मांगना। उससे अन्यथा मांगना अत्यंत अपमानजनक है। अन्यथा मांगने का अर्थ है: तुम परमात्मा से भी मूल्यवान कोई चीज मानते हो।
एक सम्राट युद्ध पर गया। जब लौटता था, उसने अपनी पत्नियों को खबर भेजी: क्या ले आऊं तुम्हारे लिए? सौ पत्नियां थीं उसकी। निन्यानबे ने बड़ी लंबी-लंबी फेहरिस्तें भेजीं। किसी को हीरे चाहिए, किसी को मोती चाहिए। किसी को कुछ, किसी को कुछ। सिर्फ एक पत्नी ने उसे लिखा: आप आ जाओ, सब आ गया।
निन्यानबे के लिए चीजें आईं, लेकिन सम्राट उस सौवीं पत्नी के लिए आया। और उसने कहा: एक तेरा ही प्रेम मेरे प्रति मालूम होता है। बाकी किसी को फिकर नहीं है मेरी। मैं आऊं कि न आऊं; हीरे आने चाहिए, जवाहरात आने चाहिए। एक तूने मुझे पुकारा। तेरे लिए मैं अपना हृदय लाया हूं।
परमात्मा भी उसी के हृदय में आएगा, जिसने अकारण पुकारा है; पीर से पुकारा है--कुछ और मांगने के लिए नहीं। धन मत मांगना, पद मत मांगना। उन्हीं मांगों के कारण तो तुम्हारी प्रार्थना गंदी हो जाती है; पंख कट जाते हैं प्रार्थना के। जमीन पर गिर जाती है। परमात्मा तक नहीं पहुंच पाती।
मारे बहुत पुकारिया, पीर पुकारे और।
लागी चोट मरम्म की, रह्यो कबीरा ठौर।।
और कबीर कहते हैं: जिसने पीर से पुकारा, वह आज नहीं कल किसी सदगुरु को खोज लेगा। क्योंकि जिसने पीर से पुकारा--धन के लिए नहीं पुकारा, पद के लिए नहीं पुकारा--पीर से पुकारा, प्रेम से पुकारा, वह आज नहीं कल, किसी सदगुरु को खोजने में समर्थ हो जाएगा।
परमात्मा सीधा नहीं मिलता। जैसे तुम तैरना सीखते हो, तो पहले उथले में सीखते हो, फिर गहरे में जाते हो। ऐसे जब तुम परमात्मा से मिलते हो, तो पहले पर्दे में मिलते हो।
परमात्मा की रोशनी बहुत ज्यादा होगी। तुम उसे न झेल पाओगे। किसी बुद्ध की रोशनी; किसी कृष्ण की रोशनी; किसी क्राइस्ट की रोशनी--पहले इसे झेलो। पहले क्राइस्ट से आंख में आंख मिलाओ, फिर धीरे-धीरे तुम इस योग्य हो जाओगे। क्राइस्ट की आंखों में तैरते-तैरते तुम इस योग्य हो जाओगे कि परमात्मा के गहरे सागर में उतर जाओ।
लागी चोट मरम्म की,...
सदगुरु की वाणी की ही चोट लगती है, तब मरम्म की चोट लगती है। पहले तो पीर चाहिए। धन न हो, पद न हो, कुछ और मांग न हो, परमात्मा की मांग हो। जिसने परमात्मा को मांगा, उसको सदगुरु मिलता है। जिसने परमात्मा को मांगा, उसको निश्र्चित सदगुरु मिलता है। परमात्मा भेज देता है। तुम्हें खोजता सदगुरु आ जाता है। अनायास आ जाता है। अंधेरे में तुम्हारे हाथ को पकड़ लेता है।
तुमने सूरज मांगा; सूरज एकदम नहीं आता, किरण आती है। किरण यानी सदगुरु। किरण को पचा लेना आसान होगा। सूरज को अभी तुम न पचा पाओगे। सूरज एकदम आ जाए, तो शायद अंधे हो जाओ। शायद जल कर खाक हो जाओ। वह बहुत ज्यादा होगा।
और जब सदगुरु की वाणी तुम्हारे पीर, तुम्हारी पीड़ा को, तुम्हारे प्रेम को उकसाने लगती है; सदगुरु जब तुम्हारी पीर के साथ अपनी अंगुलियों का खेल खेलने लगता है; सदगुरु जब तुम्हें और उकसाने लगता है...।
लागी चोट मरम्म की,...
जब सदगुरु मर्म की बातें कहने लगता है, तब बीज बोए जाने लगे। जब सदगुरु मर्म की बातें कहता है, तो तुम्हारी प्यास में बड़ी अग्नि प्रज्वलित होती है। तुम प्यास ही प्यास हो जाते हो। वह जो प्यास धीमी-धीमी सी थी अकेले में, सदगुरु के पास आकर प्रज्वलित होकर जलने लगती है। उसकी लपटें उठने लगती हैं।
लागी चोट मरम्म की, रह्यो कबीरा ठौर।
और जब चोट की ऐसी गहराई लगती है कि आर-पार हो जाए, हृदय को छेद दे, तुम्हारे केंद्र में तीर लग जाए, बस वहीं तुम ठिठक कर रह जाते हो। जब हृदय में तीर छिद जाता है सदगुरु का, तुम वहीं के वहीं ठिठक कर रह जाते हो।
...रह्यो कबीरा ठौर।
तब कबीर जहां का तहां रह गया। और उसी जहां के तहां रह जाने में परमात्मा की पहली झलक मिलती है; मन ठिठक जाता है।
सदगुरु के पास ही मन अवाक हो जाता है, ठिठक जाता है। एक क्षण को भी ठिठक जाए, उस संस्पर्श में, उस संपर्क में, उस सत्संग में--एक क्षण को भी ठिठक जाए--तो तत्क्षण तुम पाते हो: अरे, मैं कहां खोजने जाता था, परमात्मा मेरे भीतर रहा! मैं किन मंदिर-मस्जिदों के दरवाजे खटकाता था! मैं उसका मंदिर हूं। यह सारा अस्तित्व उससे भरा है! मैं भी उससे भरा हूं।
इसलिए सबसे निकटतम अपने ही भीतर उसे पाना है, और जिसने अपने भीतर पा लिया...‘रह्यो कबीरा ठौर’...जिसने अपने भीतर उसे पा लिया, वह जब आंख खोल कर देखता है, तो सबके भीतर उसे पाता है। तब यह सारा जगत वही है। संसार विलुप्त हो जाता है, सिर्फ परमात्मा ही अनंत-अनंत रंग और रूपों में, अनंत-अनंत इंद्रधनुषों में, अनंत-अनंत फूलों में प्रकट होता दिखाई पड़ता है। तब एक ही अनेक में छिपा है।
मगर पहली पहचान अपने भीतर, अपने घट के भीतर...।
कबीर जाको खोजते, पायो सोई ठौर।
सोई फिरि कै तूं भया, जाको कहता और।।
मारे बहुत पुकारिया, पीर पुकारे और।
लागी चोट मरम्म की, रह्यो कबीरा ठौर।।
तो अगर प्यास हो, तो हृदय खोलो और मर्म की चोट खाओ। तुम भी ठहर जाओगे।
मन के दौड़ने में संसार है; मन के ठहर जाने में परमात्मा है।
आज इतना ही।
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।।
चारि पहर निसि भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा।
जैसे बनिए हाट पसारा, सब जग कासो सिरजनहारा।।
ये ले जारे वे ले गाड़े, इन दुखिइनि दोऊ घर छाड़े।
कहत कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम्ह विनसि रहेगा सोई।।
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
आगे पंथी पंथ न कोई, कूच-मुकाम न पैहों।।
नहिं तहं नीर नाव नहिं खेवट, ना गुन खैंचनहारा।
धरती-गगन-कल्प कछु नाहीं, ना कछु वार न पारा।।
नहिं तन नहिं मन, नहीं अपनपौं, सुन्न में सुद्ध न पैहौ।
बलीवान होए पैठो घट में, वाहीं ठौंरें होइहौ।।
बार हि बार विचार देख मन, अंत कहूं मत जैहो।
कहै कबीर सब छाड़ि कल्पना, ज्यों के त्यों ठहरैहौ।।
ज्यूं मन मेरा तुज्झ सौं, यों जे तेरा होइ।
ताता लोहा यौं मिलै, संधि न लखई कोइ।।
कबीर जाको खोजते, पायो सोई ठौर।
सोई फिरि कै तूं भया, जाको कहता और।।
मारे बहुत पुकारिया, पीर पुकारे और।
लागी चोट मरम्म की, रह्यो कबीरा ठौर।।
दोस्तो! तुम इसे महसूस करो या न करो
रोशनी जहर की लपटों में सिमट आई है
चुपके ही चुपके पिए जाती है शबनम का लहू
आओ वो देखो सबे-माह का कातिल सूरज
अपनी किरणों का कमन्द फैंक रहा है हर सू
कौन है कौन नहीं जद में ये सोचा न करो
ख्वाब की लहर सिमट आई है आंसू बन कर
हासिले-शब है यही, इसको बचा कर रख लो
अपनी गुम-गश्ता सहर की ये मता-ए-आखिर
हो सके तो इसे दामन में छुपा कर रख लो
हसरते दीदा-ए-नमनाक को रुसवा न करो।
आदमी की जिंदगी का हासिल क्या है? अंतिम पूंजी क्या है?
ख्वाब की लहर सिमट आई है आंसू बन कर
हासिले-शब है यही, इसको बचा कर रख लो
इस जिंदगी की पूरी अंधेरी रात का एक ही परिणाम है--दुख। बस एक ही संपत्ति है--आंसू। यहां कुछ आदमी पाता नहीं, कुछ गंवाता जरूर है। हम जितने खाली हाथ आते हैं संसार में, उससे कहीं ज्यादा खाली हाथ जाते हैं। हम कुछ गंवा कर जाते हैं। आते तो खाली हैं ही, लेकिन कम से कम मुट्ठी बंद होती है। बच्चा पैदा होता है, तो मुट्ठी बंद होती है--हालांकि खाली--पर कम से कम बंद होती है। और जब जाता है, तब भी खाली होती है। लेकिन अब खुली होती है। सब लुट गया।
जिंदगी लूटती है--देती कुछ भी नहीं। और जिंदगी लूट लेती है इस तरकीब से कि पता भी नहीं चलता। और तुम तो इसी खयाल में रहते हो कि कमा रहे हो; तुम तो इसी भ्रम में रहते हो कि कमा लिया है। और कमाए जा रहे हो। यह अपना हो गया, वह अपना हो गया; इतनी जमीन, इतनी जायदाद; इतना नाम, इतनी प्रतिष्ठा! इसी कमाने के धोखे में तुम सब गंवा देते हो।
धनी से ज्यादा गरीब आदमी खोजना कठिन है। और जो बड़े पदों पर बैठे हैं, उनसे ज्यादा रिक्त आत्माएं खोजनी कठिन हैं। भिखमंगे हैं; भ्रांति भर है कि भिखमंगे नहीं हैं। सौभाग्यशाली है वह, जिसे यह समझ में आ जाए कि जिंदगी लूटती है; जिंदगी लुटेरा है।
दोस्तो! तुम इसे महसूस करो या न करो
रोशनी जहर की लपटों में सिमट आई है
जिस दिन से तुम पैदा हुए हो, उस दिन से मरने के सिवाय कुछ और तुमने किया नहीं है। उस दिन से मर रहे हो। जहर करीब आता जा रहा है: मौत करीब आती जा रही है। और जिसको तुम रोशनी कहते हो, वह सदा जहर में घिरी हुई है।
जिसको तुम जिंदगी कहते हो, वह चारों तरफ मौत से लिपटी हुई है। मौत का कफन तुम्हें लपेटे हुए है। एक दिन बीतता है, एक दिन और मर गए। जिंदगी और कम हुई; तुम और अशक्त हुए। ऐसे बूंद-बूंद करके यह गागर चुक जाएगी।
और मजा यह है कि तुम इसी खयाल में हो कि गागर भर रहे हो। तुम इसी खयाल में हो कि गागर भर रही है रोज। थोड़ी दूर और है सपना; और पूरा होने के करीब है। जरा और मेहनत; और तुम पहुंच जाओगे मंजिल पर।
दोस्तो! तुम इसे महसूस करो या न करो
रोशनी जहर की लपटों में सिमट आई है
चुपके ही चुपके पिए जाती है शबनम का लहू
तुम्हारा खून मौत पीए जा रही है। ऐसा नहीं है कि सत्तर साल बाद एक दिन अचानक मौत आ जाती है। मौत प्रतिपल आ रही है; तुम रोज ही मर रहे हो। सत्तर साल में मौत का काम पूरा होता है; मौत सत्तर साल के बाद अचानक नहीं आती। धीरे-धीरे आती है, आहिस्ता-आहिस्ता आती है। तुम्हें पता भी नहीं चलता और आती चली जाती है। पगध्वनि भी सुनाई नहीं पड़ती, इतने चुपचाप आती है। फुसफुसाहट भी नहीं होती; शोरगुल भी नहीं होता; द्वार-दरवाजे पर दस्तक भी नहीं होती।
चुपके ही चुपके पिए जाती है शबनम का लहू
आओ वो देखो शबे-माह का कातिल सूरज
अपनी किरणों का कमन्द फैंक रहा है हर सू
हर तरफ जाल है।
कौन है कौन नहीं जद में ये सोचा न करो
इस विचार में मत पड़ा करो कि कौन आज मर गया, कौन कल मर गया; कौन आज फंस गया जाल में, कौन कल फंस गया--यह मत सोचा करो।
कौन है कौन नहीं जद में ये सोचा न करो
जब भी कोई मरता है, तब याद किया करो कि तुम मर गए; जिंदगी और कम हो गई। जब भी कोई मरता है, तुम्हीं मरते हो। हर मौत तुम्हारी मौत की खबर है।
दोस्तो! तुम इसे महसूस करो या न करो
यह तुम्हारी मर्जी। महसूस कर लो, तो जीवन में धर्म की शुरुआत होती है। महसूस न करो, तो जिंदगी व्यर्थ की बातों में उलझे-उलझे ही समाप्त हो जाती है। आखिर में पाओगे: आंसुओं के अतिरिक्त हाथों में कुछ भी नहीं है। जिंदगी भर दौड़े और आंसुओं के अतिरिक्त और कोई संपदा नहीं है।
ख्वाब की लहर सिमट आई है आंसू बन कर
हासिले-शब है यही,...
जिंदगी की पूरी रात का यही हासिल है।
हासिले-शब है यही, इसको बचा कर रख लो
अपनी गुम-गश्ता सहर की ये मता-ए-आखिर
वह जो जिंदगी की सुबह खो गई, वह जो जिंदगी का सारा का सारा समय, अवसर खो गया...।
अपनी गुम-गश्ता सहर की ये मता-ए-आखिर
उसी खोई हुई सुबह की बस यह आखिरी पूंजी है--यह आंसू।
मरते वक्त आदमी की आंख से जो आंसू गिर जाते हैं दो, यह जिंदगी का हासिल है। जो इसे देख लेता है, समय रहते जाग जाता है। मौत के पहले जाग जाओ, तो ही जिंदा थे। मौत के पहले न जागे, तो नाममात्र की जिंदगी थी--ऐसे तुम मुर्दा थे।
श्वास चलने का नाम जिंदगी नहीं है। और न हृदय के धड़कने का नाम जिंदगी है। जिंदगी जागरण है, क्योंकि जागरण में ही बुद्धत्व की संपदा है। बुद्ध हुए बिना चले गए, तो सब गंवा कर चले गए।
बुद्ध होकर जाओ। कस्त करो, कसम खाओ कि बुद्ध होकर जाएंगे, जाग कर जाएंगे। ऐसे सोए-सोए जीए और सोए-सोए मर न जाएंगे। एक दीया जलाएंगे रोशनी का भीतर। प्राणों की आहुति देंगे। प्राणों को जलाएंगे, मगर रोशनी करेंगे। और एक बार भीतर रोशनी हो जाए, तो फिर रोशनी कभी बुझती नहीं। फिर कोई अंधड़-तूफान उसे छीन नहीं सकता। उसको ही ज्ञानियों ने संपत्ति कहा है, जो छीनी न जा सके। जो छिन जाए, उसे संपत्ति नासमझ कहते हैं।
समझदार उसे संपत्ति कहते हैं, जो तुम्हारा स्वभाव है। तुम्हारे पास ऐसा कुछ है, जो तुमसे न छीना जा सके। सोचना; खोजना; विचार करना। तुम्हारे पास कुछ है, जो तुमसे छीना न जा सके?
तुम्हारा धन छीना जा सकता है। तुम्हारा पद छीना जा सकता है। तुम्हारी पत्नी छीनी जा सकती है। तुम्हारा पति छीना जा सकता है। कोई न भी छीनेगा, तो मौत छीन लेगी। तुम्हारी देह भी छिन जाएगी, और तुम्हारा मन भी छिन जाएगा।
तुम्हारे पास कुछ है जो लूटा न जा सके, जिसे लूटने का उपाय ही न हो।
महावीर के पास उस समय का एक सम्राट प्रसेनजित गया, और उसने महावीर से कहा कि आपकी बातें सुनीं और मुझे साफ दिखाई पड़ने लगा कि मैं बिलकुल दरिद्र हूं। सब है मेरे पास और कुछ भी नहीं मेरे पास! तुमने मुझे चौंका दिया, तुमने मेरी नींद तोड़ दी! मैं एक ख्वाब देखता था, एक सपना देखता था--सम्राट होने का। मगर मेरे पास कुछ भी नहीं है। लेकिन तुमने मुझे पीड़ा से भी भर दिया है। बड़ा संताप मेरे हृदय में पैदा हो गया है। मैं निर्धन हूं। तुम जिस धन की बात कर रहे हो, वह मैं कहां पाऊं? कैसे पाऊं?
महावीर ने कहा: मैं तो ध्यान को ही धन कहता हूं। कोई और धन नहीं है। कहीं और पाने जाना नहीं है।
लेकिन प्रसेनजित तो प्रसेनजित! जिंदगी में बाहर ही बाहर की दौड़ की थी; बड़ी यात्राएं की थीं; बड़ा राज्य बनाया था; दूर दूर तक जीता था, पताका फहराई थी। उसने कहा: तुम फिकर न करो, कोई भी हो, कैसा भी धन हो, तुम मुझे बता दो, कहां है? मैं जीत लाऊंगा।
महावीर हंसे। उन्होंने कहा: यह जीतने की बात नहीं है। और यह बाहर नहीं है। फौज-फांटा काम नहीं पड़ेगा।
प्रसेनजित ने कहा: आप इसकी फिकर ही न करें। दुनिया में मैंने ऐसी कोई चीज नहीं देखी, जिसको मैंने चाहा हो और न पा लिया हो। मैं सब तरह की कीमत चुकाने को तैयार हूं। जो भी मूल्य हो, दे दूंगा। सारा राज्य भी देना पड़े, तो दे दूंगा, मगर ध्यान लेकर रहूंगा।
महावीर ने कहा: कुछ भी देने से ध्यान नहीं मिलता। यह लेने-देने की बात ही नहीं है। लेकिन उसकी कुछ समझ में न आए। उसने सब चीजें खरीदी थीं दुनिया में; सब तरह की जीत की थी। सोचता था, ध्यान भी जीत लेंगे, ध्यान भी खरीद लेंगे। और ऐसा प्रसेनजित ही सोचता हो, ऐसा नहीं है, तुम भी इसी तरह सोचते हो। सभी इसी तरह सोचते हैं।
उसको महावीर की बात समझ न पड़ी, तो महावीर ने कहा: ऐसा करो, तुम्हारे गांव में ही एक गरीब आदमी है, उसको ध्यान मिल गया है। वह मेरा शिष्य है; गरीब है; उसके पास कुछ नहीं है। तुम उससे खरीद लो। वह शायद बेचने को राजी हो जाए! यह महावीर ने मजाक किया।
प्रसेनजित अपना रथ लेकर उस गरीब के दरवाजे पर रुका। गरीब तो चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा: आपके आने की जरूरत क्या थी? आप मुझे बुला भेजते? आज्ञा दे देते!
प्रसेनजित ने कहा: आना पड़ा। मैं ध्यान लेने आया हूं। महावीर ने कहा: तुझे ध्यान मिल गया है। तू धन्यभागी है। ध्यान मुझे दे दे और धन तुझे जितना चाहिए, वह तू ले ले।
वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा: मालूम होता है, महावीर ने मजाक की है। मैं अपने प्राण दे सकता हूं, लेकिन ध्यान कैसे दे सकता हूं? और ऐसा नहीं है कि मैं देना नहीं चाहता। मगर ध्यान दिया ही नहीं जा सकता। ध्यान तो आंतरिक संपदा है; आविष्कार करना होता है। बाहर जाने से नहीं मिलता; भीतर जाने से मिलता है। ध्यान तो प्रत्येक लेकर ही पैदा हुआ है।
दो धन हैं इस दुनिया में। एक धन है: ध्यान, जिसे तुम लेकर पैदा हुए हो, जो तुम्हारी गुदड़ी में ही छिपा है; जो हीरा तुम्हारे भीतर ही पड़ा है। और एक है: धन, उसके बहुत रूप हैं, उसे तुम लेकर पैदा नहीं हुए हो। जिसे तुम लेकर पैदा नहीं हुए हो, उसको तुम जिंदगी भर दौड़ते हो पाने को--और मौत उसे छीन लेगी। क्योंकि जिसे तुम जिंदगी के साथ नहीं लाए, उसे तुम मौत के पार न ले जा सकोगे। जिसे तुम जन्म के पहले से ही लाए हो, वही तुम मौत के पार भी ले जा सकोगे।
इसलिए झेन फकीर अपने शिष्यों को कहते हैं: आंख बंद करो, और उस जगह पहुंचो जहां तुम जन्म के पहले थे। अगर तुमने वह जगह अपने भीतर पा ली, तो फिर तुमसे कुछ छीना न जा सकेगा।
मौत वही छीन सकती है, जो जन्म ने दिया। उसके पार जो है, वह मौत के बाहर है। और जो मौत के बाहर है, वही अमृत है। और जो मौत के बाहर है, वही परमात्मा है।
एक धन है, जो बाहर खोजने से मिलता है। एक तो बड़ी मुश्किल से मिलता है; खोजे-खोजे मिलता है; हजार खोजने निकलते हैं, तो नौ सौ निन्यानबे को नहीं मिलता; एकाध को मिलता है। और बड़ी आश्र्चर्य की बात यह है कि जिनको नहीं मिलता, उनको तो नहीं मिलता। जिनको मिलता है, उनसे भी मौत वापस ले लेती है।
जो इसके प्रति जाग जाए, समझ जाए, यह होश जिसे आ जाए, उसके जीवन में एक क्रांति पैदा होती है। उसके जीवन में एक नई यात्रा शुरू होती है। उस नई यात्रा का नाम ही धर्म है। उसी को हम खोजते भटकते फिर रहे हैं।
है नसीमे-सुबह आवारा उसी के नाम पर
बू-ए-गुल ठहरी हुई है जिस कली के नाम पर
कुछ न निकला दिल में दागे-हसरते-दिल के सिवा
हाय क्या-क्या तोहमते थीं आदमी के नाम पर
फिर रहा हूं कू-ब-कूं जंजीरे-रुसवाई लिए
है तमाशा सा तमाशा जिंदगी के नाम पर
अब ये आलम है कि हर पत्थर से टकराता हूं सर
मार डाला एक बुत ने बंदगी के नाम पर
कुछ इलाज उनका भी सोचा है तुमने ऐ चारागरों
वो जो दिल तोड़े गए हैं दिलबरी के नाम पर
कोई पूछे मेरे गमख्वारों से तुमने क्या किया
खैर उसने दुश्मनी की दोस्ती के नाम पर
कोई पाबंदी से हंसने पर न रोना जुर्म है
इतनी आजादी तो है दीवानगी के नाम पर
आप ही के नाम से पाई है दिल ने जिंदगी
खत्म होगा अब ये किस्सा आप ही के नाम पर
कारवाने-सुबह यारों कौन सी मंजिल में है
मैं भटकता फिर रहा हूं रौशनी के नाम पर।
हम टटोल रहे हैं...।
कारवाने-सुबह यारों कौन सी मंजिल में है
कहां मिलेगी रोशनी? कहां मिलेगा वह प्रभात का कारवां? कहां होंगे दर्शन सूरज के? कहां मिलेगा ऐसा आलोक जो हमें रूपांतरित कर जाएगा? जो हमें ऐसा जीवन दे जाएगा जिस का कोई अंत नहीं? जो हमें समय के बाहर ले जाएगा? जो हमें जन्म-मृत्यु की उधेड़बुन से बचा लेगा?
कारवाने-सुबह यारों कौन सी मंजिल में है
कहां है वह ठिकाना, वह मंजिल कहां है?
मैं भटकता फिर रहा हूं रौशनी के नाम पर।
हम अंधे हैं और अंधेरे में हैं।
यह असली जन्म नहीं है, जो तुम्हारा मां के गर्भ से हुआ है। एक गर्भ से निकले हो, एक अंधेरे से निकले हो और दूसरे अंधेरे में गिर गए हो। यह तो खाई से बचे, तो कुएं में गिर गए!
मां के पेट में बच्चा गहरे अंधेरे में जीता है। न कुछ सूझता, न कुछ दिखाई पड़ता। फिर पैदा होता है। दिखाई भी पड़ने लगता है, सूझने भी लगता है, लेकिन बाहर। भीतर अब भी अंधेरा रहता है। भीतर घना अंधेरा रहता है। एक तारा भी नहीं टिमटिमाता। एक मद्धिम सी रोशनी भी नहीं जलती।
यह जन्म कोई असली जन्म नहीं है। इसलिए इस देश में हमने असली जन्म को कहा है--दूसरा जन्म।
दूसरा जन्म, जैसे मां के पेट से निकल कर बाहर रोशनी हो गई, ऐसे ही बाहर से निकल कर भीतर चले जाओ--दूसरा जन्म हो जाए--तो भीतर भी रोशनी हो जाए।
इस दूसरे जन्म को ही, जिसको मिल जाए, उसको हमने ब्राह्मण कहा है। इसलिए ब्राह्मण को द्विज कहते हैं। द्विज का अर्थ है: दुबारा जन्मा। एक जन्म तो मां से मिल गया और एक जन्म स्वयं को दिया।
इसलिए सदगुरु को हम मां और पिता से भी ज्यादा आदर देते हैं। कहते हैं: मां और पिता का ऋण तो चुकाया जा सकता है। लेकिन सदगुरु का ऋण नहीं चुकाया जा सकता। क्योंकि मां और पिता ने तो जन्म दिया, बाहर आंखें खोलीं। सदगुरु एक और जन्म देता है; भीतर आंखें खुल जाती हैं। और भीतर सब है। रोशनियों की रोशनी, सूरजों का सूरज--भीतर सब है।
कबीर के ये पद समझना; बड़े बहुमूल्य हैं।
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
कबीर कहते हैं: इस संसार में मेरा क्या है, तेरा क्या है! हम व्यर्थ की आपा-धापी में, व्यर्थ के संघर्ष में पड़े हैं।
लोग लड़ रहे हैं: यह मेरा, वह तेरा! सीमाएं खींच रहे हैं। परिभाषाएं बना रहे हैं। अदालतें चला रहे हैं। युद्ध कर रहे हैं। व्यक्ति लड़ते हैं। समूह लड़ते हैं। राष्ट्र लड़ते हैं। और सारी लड़ाई इस बात की है कि क्या मेरा!
‘मेरा’ ज्यादा हो जाए; ‘तेरा’ कम हो जाए--यह हमारे जीवन की कथा है। और यहां कुछ मेरा नहीं और कुछ तेरा नहीं। न हम कुछ लेकर आए हैं, न कोई और कुछ लेकर आया है। खाली हाथ आए और खाली हाथ जाएंगे।
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।।
कबीर कहते हैं: तुझे शर्म भी नहीं आती है! यहां सब परमात्मा का है। इसमें मेरा-तेरा करने में तुझे शर्म नहीं आती? तुझे संकोच भी नहीं होता? रात भर किसी के घर में मेहमान हो गए, तो सुबह उठ कर घोषणा करने लगते हैं कि यह घर मेरा! रात भर किसी घर में मेहमान हो गए, धन्यवाद दो और विदा हो जाओ।
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
थोड़ी देर के लिए हम यहां अतिथि हैं। मगर हम बड़े झगड़े खड़े कर देते हैं। हमारी जिंदगी झगड़ों में बीत जाती है।
थोड़ी देर को यहां है, बसेरा है थोड़ी देर का, फिर विदा हो जाएंगे। कब विदा हो जाएंगे, यह भी पक्का नहीं है। सुबह भी होगी कि नहीं! आधी रात भी विदा हो सकते हैं। अभी हम बैठे हैं और क्षण भर बाद न हों। जहां क्षण भर का भरोसा नहीं है, वहां हम कितने जोर से लड़े जाते हैं! कैसा संघर्ष किए जाते हैं! खून बहाते हैं। मरने-मारने को तत्पर होते हैं। कबीर कहते हैं: तुम्हें लाज भी नहीं आती? थोड़ा संकोच तो करो?
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।
यहां मेरा कुछ भी नहीं है। जिस दिन यह बात दिखाई पड़ जाती है कि यहां मेरा कुछ भी नहीं हैं--उस दिन एक बड़ी अपूर्व घटना घटती है। जैसे ही मेरा कुछ भी नहीं है--यह दिखाई पड़ जाता है, वैसे ही ‘मैं’ का भाव मर जाता है।
लोग पूछते हैं मुझसे: अहंकार कैसे छूटे? अहंकार छूट नहीं सकता, जब तक ‘मेरा’ न छूट जाए। क्योंकि ‘मेरा’ ही ‘मैं’ को जन्म देता है। इसलिए तो जितना तुम्हारे पास ‘मेरा’ कहने को बढ़ता जाता है, उतना ‘मैं’ बड़ा होता जाता है।
एक छोटा सा मकान है, तो तुम्हारा ‘मैं’ भी छोटा सा होता है। फिर तुमने एक महल बना लिया, तो तुम्हारा ‘मैं’ भी बड़ा हो गया। तुम्हारे पास एक छोटी सी कार है, तो तुम्हारा ‘मैं’ भी छोटा है। फिर एक बड़ी कार ले आए, तो ‘मैं’ बड़ा हो गया। तुम्हारे पास छोटी सी तिजोरी थी; बड़ी हो गई, तो ‘मैं’ बड़ा हो गया। तुम दस-पच्चीस आदमियों पर मालकियत करते थे, फिर प्रधानमंत्री हो गए और करोड़ों लोगों की मालकियत करने लगे, तो उतना ‘मैं’ बड़ा हो गया।
‘मैं’ तुम्हारा बढ़ता जाता है ‘मेरे’ के फैलाव से। जिसके पास ‘मेरा’ कहने को कुछ भी नहीं है, उसके पास ‘मैं’ कैसे हो सकता है? इसलिए गरीब की असली पीड़ा गरीबी नहीं है। गरीब की असली पीड़ा है कि वह अपने ‘मैं’ की घोषणा नहीं कर पाता।
पदहीन की असली पीड़ा पदहीनता नहीं है। पदहीन की असली पीड़ा यह है कि दूसरे उसको रौंदते चले जा रहे हैं। वह प्रतिरोध भी नहीं कर सकता। वह जोर से आवाज भी नहीं उठा सकता। जिसके पास ‘मेरा’ कहने को कुछ नहीं है, वह किसी से यह नहीं कह सकता: जानते हो मैं कौन हूं? यह कहने का उपाय नहीं है। पहले ‘मेरा’ होना चाहिए।
मेरे के साम्राज्य के भीतर ही मैं खड़ा होता है। ऐसा समझो कि मैं को मेरे से सहारा मिलता है। चारों तरफ से सहारा मिल जाता है, तो मैं खड़ा हो जाता है। इतना धन, इतना पद, इतनी प्रतिष्ठा, इतना पुण्य, इतने व्रत-उपवास, इतना त्याग--कुछ भी जो गणना में आ सके, और जिस पर तुम अपने मेरे की छाप लगा सको कि मेरा, तो मैं बड़ा हो जाता है। अहंकार का भोजन है--मेरा।
कबीर कहते हैं:
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
अगर यह समझ में आ जाए कि यहां मेरा कुछ भी नहीं है, तो मैं गिर जाएगा। निर-अहंकार भाव अपने से पैदा हो जाएगा।
लोग उलटा काम करते हैं। मेरे को तो गिराते नहीं, निर-अहंकार भाव को साधने की कोशिश करते हैं। विनम्र बनने की कोशिश करते हैं। सिर झुका कर चलते हैं। पैर छूते हैं, कहते हैं: हम तो आपके पैर की धूल। लेकिन उनकी आंख में देखो। उनकी विनम्रता भी उनके अहंकार का आभूषण बन जाती है।
विनम्र आदमी भी बड़ा अहंकार से भरा होता है कि मुझसे ज्यादा विनम्र और कोई भी नहीं है। सिर उठा कर चलता है।
जब कोई तुमसे कहे कि मैं आपके पैरों की धूल, तो भूल कर यह मत कहना कि आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं; ऐसा तो मैं भी मानता था। तो वह नाराज हो जाएगा; तो शायद गर्दन पर चढ़ बैठेगा। वह यह नहीं कह रहा है कि पैर की धूल है। वह यह कह रहा है कि तुम स्वीकार करो कि मैं कितना विनम्र! मेरी विनम्रता कितनी बड़ी!
उसकी बात मान मत लेना। यह मत कह देना कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप; बिलकुल सच कह रहे हैं। यही तो हम भी मानते हैं; सभी यही मानते हैं कि आप बिलकुल पैरों की धूल! वह आदमी कभी क्षमा नहीं करेगा। उसने यह कहा भी नहीं था कि मैं पैरों की धूल हूं। वह तो केवल शिष्टाचार था। वह तो अपने अहंकार को प्रकट करने का एक उपाय था। और बड़ा चालबाजी का उपाय खोजा था उसने। उसने बड़ा सूक्ष्म उपाय खोजा था कि मैं ना-कुछ हूं। लेकिन ना-कुछ हूं--इसकी घोषणा वह करता रहेगा।
विनम्र होने की चेष्टा मत करना अन्यथा अहंकार विनम्रता में छिप जाएगा। अहंकार को गिराने का एक ही उपाय है, कि जान लेना: यहां न मेरा है कुछ, न तेरा है।
लेकिन लोग यह भी करते हैं--कि कहते हैं कि जब यहां मेरा-तेरा कुछ भी नहीं, तो घर छोड़ दिया, धन छोड़ दिया, दुकान छोड़ दिया, संन्यासी हो गए। सब त्याग कर जंगल चले गए। मगर तब उनको दूसरे तरह का मेरा पकड़ लेता है। वे कहते हैं: मैं लाखों रुपये छोड़ आया। त्याग पर ‘मेरा’ भाव बैठ जाता है!
मेरे एक परिचित हैं। कई वर्षों पहले उन्होंने घर छोड़ दिया था। मगर वे अभी भी कहते नहीं थकते...। जब भी बात करते हैं, तो उसको ले आते हैं बीच-बीच में--कि मैंने लाखों रुपये पर लात मार दी।
मैंने उनसे पूछा: यह लात मारे भी तीस साल हो गए, मगर यह लात अभी तक लगी नहीं! तुम इसे याद क्यों करते हो? इसे बार-बार क्यों कहते हो? इसका हिसाब-किताब क्यों रखा है? लाखों पर लात मार दी; बात खत्म हो गई। कोई बड़ा काम तो किया नहीं!
नहीं, लेकिन उन्होंने बड़ा काम किया है। उन लाखों के कारण जितने नहीं अकड़ कर चलते थे, उतने अकड़ कर अब चल रहे हैं, क्योंकि लाखों पर लात मार दी है! लाखों तो बहुतों के पास है, लेकिन लाखों पर लात मारने वाले बहुत कम हैं।
इससे अहंकार और मजबूत हुआ।
और मैंने उनसे कहा: जहां तक मुझे पता है, लाख इत्यादि थे भी नहीं। क्योंकि मैंने इस पर बड़ी तुम्हारी शोध-बीन की है, तो मुझे पता चला कि कोई तीन सौ साठ रुपये--पोस्ट आफिस में जमा थे!
पहले वे सैकड़ों कहते थे; फिर हिम्मत बढ़ गई, तो हजारों कहने लगे। फिर हिम्मत बढ़ गई, तो लाखों कहने लगे। अब तीस साल पुरानी बात हो गई, किसी को मतलब भी नहीं। और त्यागियों के संबंध में शोध-बीन कौन करता!
धीरे-धीरे हिम्मत बढ़ती चली गई, वे लाखों कहने लगे। मैंने कहा: तुम जल्दी ही मरने के पहले करोड़ों कहने लगोगे!
यह अहंकार बड़ा हो रहा है। त्याग से भी अहंकार निर्मित हो जाता है।
तो खयाल रखना: अगर धन तुम्हारा नहीं है, तो छोड़ने की बात ही कहां उठती है। जो तुम्हारा था ही नहीं, उसे छोड़ोगे कैसे? छोड़ने में भी ‘मेरा है’ यह भाव बना है। छोड़ने का मतलब ही यह है। तुम कहते हो: मैंने छोड़ दिया। जो तुम्हारा नहीं था, उसको छोड़ते हो? क्या तुम ऐसा कहते हो कि मैंने सूरज का त्याग कर दिया? कि मैंने आज आकाश को मुक्ति दे दी? कि अब चांद-तारों को मैं बंधन में नहीं रखता? तो किसी से तुम कहोगे, तो वह समझेगा कि तुम पागल हो गए हो!
चांद-तारे तुम्हारे बंधन में कब थे? आकाश को तुमने मुक्ति दे दी, तो तुम क्या कह रहे हो! सूरज को तुमने स्वतंत्रता दे दी! तुम्हारा दिमाग ठीक है? वे तो मुक्त थे ही!
जब तुम कहते हो: मैंने छोड़ दिया धन, तो तुम इसी बात की घोषणा कर रहे हो, फिर परोक्ष, कि धन मेरा था, मैंने छोड़ दिया। जो मेरा नहीं था, उसे छोड़ोगे कैसे?
असली ज्ञान वस्तु का त्याग नहीं है। असली ज्ञान ममत्व से जाग जाना है। बस।
मेरा यहां कुछ है नहीं; त्यागी बनूं कैसे? जो है, उसका है। जो है, अस्तित्व का है। मेरा यहां कुछ भी नहीं है।
सुबह जब तुम धर्मशाला से उठ कर अपनी यात्रा पर निकलते हो, तो तुम यह नहीं कहते कि मैंने धर्मशाला का त्याग कर दिया। तुम त्यागी नहीं बनते। लेकिन जब तुम अपना घर छोड़ कर जंगल चले जाते हो, तुम कहते हो: मैंने त्याग कर दिया! जब तुम कहते हो: मैंने अपनी पत्नी छोड़ दी...।
एक जैन मुनि थे, गणेशवर्णी। जैनों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। उनकी जीवन-कथा मैं पढ़ता था, तो एक बड़े अनूठे प्रसंग पर आया। जीवन-कथा तो भक्तों ने लिखी है, तो भाव से लिखी है। और जो उल्लेख किया है, वह भी इसी खयाल से किया है कि लोग प्रभावित होंगे।
गणेशवर्णी हिंदू थे जन्म से, फिर धर्म रूपांतरित किया और जैन हो गए। इसलिए जैनों में उनकी प्रतिष्ठा खूब थी। हिंदुओं में अनादर था, जैनों में प्रतिष्ठा थी।
जब कोई हिंदू मुसलमान हो जाता है, तो मुसलमानों में आदर होता है, हिंदुओं में अनादर हो जाता है। कोई मुसलमान अगर हिंदू हो जाए, तो हिंदू बड़ा शोरगुल मचा कर स्वागत करते हैं। क्योंकि उससे सिद्ध होता है--हमारा धर्म ठीक; दूसरे का गलत। नहीं तो यह आदमी छोड़ कर क्यों आता? इसलिए तो एक धर्म से दूसरे धर्म में लोगों को खींचने की इतनी कोशिश चलती है।
गणेशवर्णी की बड़ी प्रतिष्ठा थी। कोई पच्चीस साल बाद घर छोड़ने के, उनकी पत्नी की मृत्यु हुई, तब वे काशी में थे। पत्र पहुंचा--कि पत्नी की मृत्यु हो गई, तो पत्र पढ़ कर जो उनके पास लोग बैठे थे, उन्होंने उनसे कहा: चलो झंझट मिटी। तो जिसने उनकी आत्म-कथा में यह उल्लेख किया है, कि गणेशवर्णी ने कहा कि चलो झंझट मिटी...। कैसे त्यागी थे! कैसे महात्यागी? पत्नी मर गई, आंसू न गिरा! ऐसी मोह से मुक्ति। उलटे यह कहा कि चलो झंझट मिटी!
जिस आदमी ने वह किताब लिखी है, वह मेरे पास किताब भेंट करने आए थे। मैंने उनसे कहा कि रुको, मुझे थोड़ी बात करनी है। पच्चीस साल पहले जिस पत्नी को छोड़ कर चले गए थे, उसकी झंझट बाकी थी? जरूर मन में कहीं चल रही होगी। जब छोड़ ही चुके थे पत्नी को, पच्चीस साल हो गए, तो झंझट बाकी रही? और इससे कुछ त्याग का पता नहीं चलता, केवल हिंसात्मक मन का पता चलता है। मन में कहीं कुछ लगा था; कुछ सिलसिला जारी रहा होगा--मोह का, माया का, वासना का, या डर रहा होगा कि कहीं पत्नी आ न जाए? पत्नी से भय रहा होगा। भय रहा होगा कि कहीं मैं फिर उसमें उत्सुक न हो जाऊं? कहीं मेरा मन डांवाडोल न हो जाए? पत्नी कहां दूर; गरीब; चक्की पीस-पीस कर किसी तरह अपना भोजन जुटाती रही। उसकी झंझट थी?
झंझट बताती है कि मन में कुछ रोग जारी रहा, जहर जारी रहा। और पत्नी के मरने पर यह कहना कि झंझट मिटी, यह भी बताता है कि कहीं न कहीं मन में यह खयाल रहा होगा कि मर जाए तो अच्छा। कहीं न कहीं हिंसा की भावना मन में रही होगी।
पति अक्सर सोचते हैं कि मर जाए यह स्त्री तो अच्छा; झंझट मिटे। पत्नियां भी कभी-कभी सोच लेती हैं, उतना ज्यादा नहीं, लेकिन कभी-कभी सोच लेती हैं कि खत्म हो यह आदमी तो झंझट मिटे। और तो कोई उपाय नहीं दिखता। मौत आ जाए तो झंझट सुलझ जाए। अपने को झंझट भी न करनी पड़े और मामला खत्म हो जाए!
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरी, तो उसका ताबूत निकाला गया। जब ताबूत निकाल रहे थे, तो आंगन में एक नीम का झाड़ था, उससे ताबूत टकरा गया। संयोग की बात--ताबूत क्या टकराया, पत्नी ढक्कन खोल कर बैठ गई! मरी नहीं थी। शायद जल्दी...! मुल्ला ने जरा जल्दी कर दी। पत्नियां मर जाएं, तो लोग जल्दी करते हैं, कि अब कहीं खतरा और कुछ न हो जाए; विदा करो!
शायद अभी श्र्वास अटकी थी। मरी नहीं थी; शायद बेहोश ही थी। धक्का नीम के झाड़ से लग गया, तो जग गई। फिर तीन साल और जिंदा रही। फिर तीन साल बाद मरी। और जब ताबूत निकाला जाने लगा, तो मुल्ला ने कहा: भाइयो, जरा सम्हाल कर; फिर नीम से मत टकरा देना। जो एक दफा भूल हो गई हो गई!
गणेशवर्णी का यह कहना कि झंझट मिटी, कहीं मन में हिंसा के भाव की खबर देता है! मन के किसी कोने में यह भाव रहा होगा कि यह मर जाए। मर जाती, तो अच्छा था। पहले तो यह सोचना कि हम त्याग कर आ गए पत्नी को--नासमझी है। पत्नी तुम्हारी है? यहां क्या मेरा, क्या तेरा?
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।
कबीर बड़ी ठीक बात कहते हैं कि तुझे लाज भी नहीं आती? तुझे संकोच भी नहीं लगता? यहां घड़ी भर को मेहमान है और घर मेरा कहने लगा?
सम्यक ज्ञानी, ठीक-ठीक समझने वाला व्यक्ति न तो कुछ छोड़ता है, न कुछ पकड़ता है। सिर्फ इतना जानता है: यहां न कुछ पकड़ने को है, यहां न कुछ छोड़ने को है। सम्यक ज्ञानी जल में कमलवत रहता है।
जो है, है। छोड़ना-पकड़ना कहां है! छोड़ना-पकड़ना दोनों ही भ्रांतियां हैं। इसलिए दुनिया में दो तरह के भ्रांत हैं। एक, जिसको तुम संसारी कहते हो। उसको भ्रांति है कि मैं पकड़ लूंगा, कि पकड़े हुए हूं, कि और पकड़ लूंगा, कि मेरी मुट्ठी बड़ी होती जा रही है, और ज्यादा मेरी मुट्ठी में संसार समाया जा रहा है।
दूसरी भ्रांति है, त्यागी; वह कहता है: मैंने छोड़ दिया। ये दोनों भ्रांतियां हैं। फिर मैं किसको संन्यास कहता हूं? इन दोनों भ्रांतियों से जागने को संन्यास कहता हूं।
संन्यास का अर्थ केवल इतना ही: सम्यक बोध। इस बात की समझ कि यहां कुछ मेरा नहीं, तेरा नहीं, तो पकडूं कैसे? छोडूं कैसे? जो है, है। इससे गुजर जाना है। इससे बिना लिप्त हुए और बिना अलिप्त होने की चेष्टा किए गुजर जाना है।
अलिप्त होने की चेष्टा में तो समाहित हो गई बात कि तुम लिप्त हो चुके हो। इस द्वंद्व से जो बच जाए--त्याग और भोग के--वह संन्यस्त है। इन दो में से कोई भी उसे न पकड़े, वही संन्यस्त है।
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।।
बस, अब गुजरेंगे राहे जिंदगी से बेनिया जाना
अगर तेरे करम पर मुनस्सिर है जिंदगी अपनी
यह होगा समझदार का वक्तव्य।
बस, अब गुजरेंगे राहे जिंदगी से बेनिया जाना
अब जिंदगी से अजनबी होकर गुजरेंगे; अपरिचित होकर गुजरेंगे।
बस, अब गुजरेंगे राहे जिंदगी से बेनिया जाना
अगर तेरे करम पर मुनस्सिर है जिंदगी अपनी
अगर तेरे ही ऊपर सब-कुछ निर्भर है, तो हम चिंता क्यों लें--पकड़ने और छोड़ने की? परमात्मा का सब खेल है, तो जैसा खिलाए, खेल लेंगे।
नाटक है यह पृथ्वी; बड़ा नाटक का मंच है। जो कहेगा, वही कर देंगे। राम बनाएगा, तो राम बन जाएंगे; रावण बनाएगा, तो रावण बन जाएंगे। भला-बुरा जो करवाएगा, कर लेंगे।
अगर तेरे करम पर मुनस्सिर है जिंदगी अपनी
अगर तेरे ही ऊपर सब निर्भर है, तो हम बीच में क्यों दखलंदाजी दें। हम क्यों आग्रह करें कि ऐसा होना चाहिए। ऐसा होगा, तो मैं सुखी होऊंगा; ऐसा न होगा, तो मैं दुखी हो जाऊंगा। हम ऐसी अपेक्षाएं क्यों करें? हम चुपचाप इस खेल को देखते हुए गुजर जाएं; साक्षी की तरह गुजर जाएं; अजनबी की तरह गुजर जाएं।
बस, अब गुजरेंगे राहे जिंदगी से बेनिया जाना
अब नहीं यहां घर बनाएंगे और न ही घर को छोड़ने का भ्रम बनाएंगे। मूल को ही काट देंगे।
भोगी पत्तों में उलझा होता है, त्यागी भी पत्तों में उलझा होता है। भोगी पत्तों पर पानी सींचता है कि और बड़े हो जाएं। और त्यागी पत्तों को काटता फिरता है कि पत्ते कहीं बढ़ न जाएं। मगर जड़ की किसी को भी खबर नहीं है। ज्ञानी जड़ को काट देता है। जड़ कहां है? मेरे-तेरे के भाव में जड़ है। मालकियत में जड़ है।
चारि पहर निसि भोरा,...
यह चार ही पहर की रात है, फिर सुबह हो जाने वाली है। यह थोड़ी देर की रात है यह संसार, फिर सुबह हो जाएगी और यात्री चल पड़ेंगे।
यह बड़ा प्यारा शब्द है। मृत्यु को कबीर कह रहे हैं--सुबह, और जिंदगी को कह रहे हैं--रात।
चारि पहर निसि भोरा,...
यह जिंदगी तो रात है; गुजार देनी है। इस जिंदगी की रात में, नींद में जो सपने चल रहे हैं, वे देख लेने हैं। ठीक है। साक्षी बने देखते रहो।
तुम जो जिंदगी को साक्षी बन कर कैसे देखोगे? तुम सपने तक को साक्षी बन कर नहीं देख पाते। सपने तक में लीन हो जाते हो! सपने तक में ऐसा मान लेते हो कि यही हो रहा है; यही सच है।
एक सम्राट का बेटा मर रहा था। एक ही बेटा। बुढ़ापे का एकमात्र सहारा; वही मालिक सारी संपदा का। सम्राट बड़ा बेचैन था। इलाज हो नहीं पा रहा था, चिकित्सक थक गए थे। कोई संभावना बचने की न थी। आखिरी रात करीब आ गई। चिकित्सकों ने कहा: सुबह हो जाए तो गनीमत। रात ही समाप्त हो जाने की संभावना है। तो सम्राट रात भर जाग कर बैठा रहा अपने बेटे के पास।
कोई चार बजे के करीब झपकी लग गई। सुबह की ठंडी हवा; रात भर का थका-मांदा, झपकी लग गई। झपकी लगी, तो एक सपना देखा। सपने में देखा कि बड़ा विशाल महल है। यह जो महल जाग कर देखा था, यह कुछ भी नहीं। सोने का बना महल है। हीरे-जवाहरात जड़े हैं महल की सीढ़ियों पर। और उसके बारह बेटे हैं; उनकी बड़ी सुंदर काया है। वे बड़े स्वस्थ, बड़े बुद्धिमान, बड़े अनूठे। ऐसे सुंदर और ऐसे प्यारे और ऐसे बुद्धिमान युवक न तो कभी देखे, न सुने गए। शायद यह सपना उसी स्थिति के कारण पैदा हुआ।
एक ही बेटा, मर रहा है। एक था, वह भी जा रहा है। यह सारा मकान, ये सारे महल, यह राज्य पड़ा रह जाएगा। जिंदगी भर सम्राट ने मेहनत करके बनाया; खुद तो जाएगा ही अब, लेकिन कम से कम यही राहत रहती है कि बेटा भोगेगा, वह भी जा रहा है। लुट जाएगा यह सब। जिंदगी भर की मेहनत अजनबियों के हाथ पड़ जाएगी, परायों के हाथ पड़ जाएगी। जिनसे छीन-छीन कर ली थी, उन्हीं के पास लौट जाएगी। यह सब महल खंडहर हो जाएगा। यही कामना, यही वासना--यह मन में जाल चलता रहा होगा, इसी से सपना पैदा हुआ।
सपना पैदा हुआ, तृप्ति के लिए सपना पैदा होता है। जो जिंदगी में तृप्त नहीं होता, उसे हम सपने में पूरा करते हैं। दिन में उपवास कर लिया, रात तुम भोजन करोगे सपने में। दिन में एक सुंदर स्त्री राह से चलती देखी, आंख बचा कर निकल गए; डरे, घबड़ाए, कि कहीं यह सुंदर स्त्री खींच ही न ले, आकर्षित ही न कर ले! कोई उपद्रव न खड़ा हो जाए! तुम चरित्रवान आदमी, घर-द्वार वाले; बाल-बच्चे, प्रतिष्ठा। आंख बचा कर निकल गए। लेकिन ऐसे निकलने से क्या होगा! रात सपने में वह स्त्री आ जाएगी। वह रात और सुंदर होकर आ जाएगी। वह तुम्हारे सपने को चारों तरफ से घेर लेगी।
जो तुम दिन में अतृप्त छोड़ देते हो या दबा लेते हो, वही रात उभर आता है। तो सपना तो...सपना बड़ा दिलफेंक होता है, कंजूस नहीं होता सपना। अब एक लड़का क्या देना; बारह दे दिए सपने में। सपने ही की बात है, तो लेना-देना क्या है? जब मकान ही देना है, तो क्या छोटा सा साधारण मकान दे दिया! सोने का दे दिया। हीरे-जवाहरात जड़े हैं सीढ़ियों पर। बड़ा साम्राज्य है। दूर-दूर तक सारी पृथ्वी...। चक्रवर्ती सम्राट है। बड़ा खुश है राजा। जितना दुखी था, उतना ही खुश हो गया। यह सपने में है, यह भूल गया, लगा कि यही सच है।
हंसना मत, ऐसे ही रोज तुम भी सपने में भूल जाते हो। सम्राट तो तुम्हारा प्रतीक है।
और तभी बाहर का बेटा मर गया। जब वह भीतर के बेटों के साथ मजा कर रहा था, प्रसन्न हो रहा था, बाहर का बेटा मर गया। पत्नी दहाड़ मार कर चिल्लाई। उसकी आवाज से सम्राट की नींद खुली। नींद खुलते ही सोने का महल गायब, बारह लड़के गायब, सारा राज्य गायब! सम्राट एक क्षण को ठगा रह गया!
ऐसा कभी-कभी तुम्हें भी होता है, कि कोई जल्दी जगा दे, जबर्दस्ती जगा दे, झकझोर कर जगा दे आधी रात में, तो एक क्षण को तुम्हें समझ में नहीं आता कि क्या सच और क्या झूठ! एक क्षण को पक्का नहीं होता कि तुम कहां हो, कौन हो; क्योंकि अभी-अभी कुछ और थे, और एकदम से कुछ और हो गए! थोड़ा समय चाहिए। सपने से जागरण में आने में, जागरण से सपने में जाने में थोड़ी सीढ़ियां पार करनी होती हैं।
पत्नी ने दहाड़ मार कर चिल्ला दिया, तो सम्राट की अचानक टूट गई नींद। चौंक कर, कुछ समझ में नहीं आया। सामने लड़का मरा पड़ा है--यह भी खयाल और अभी-अभी जो बारह लड़के थे, उनका भी खयाल; दोनों के बीच में खड़ा हो गया। रोया नहीं। हंसने लगा उलटा।
पत्नी तो समझी कि पागल हो गया। उसे डर था यही कि इतना प्यार है इसका बेटे से और बेटा मर रहा है।
जब सम्राट खिलखिला कर हंसा, तो पत्नी समझी कि पागल हो गया है। उसने कहा कि मुझे डर था, वही हो गया। आप पागल तो नहीं हो गए हैं? बेटा मर गया--आप हंस रहे हैं? उसने कहा कि मैं इसलिए हंस रहा हूं कि किसके लिए रोऊं? उन बारह के लिए रोऊं, जो अभी-अभी थे और बड़े सच थे? या इस एक के लिए रोऊं, जो अभी-अभी था और बड़ा सच था, और अब नहीं है? दोनों ही सपने टूट गए हैं। किसके लिए रोऊं? उन महलों के लिए, जो सोने के थे?
पत्नी ने कहा: कहां की बातें कर रहे हो? कहां के सोने के महल? कहां के बारह बेटे?
सम्राट ने तब अपना सपना कहा--कि इस सपने में मैं खोया था; और बड़ा मस्त था। ऐसे ही यह भी एक सपना है। इस बेटे को मैं बिलकुल भूल गया था, जब भीतर के सपने में था। अब भीतर के बेटों को बिलकुल भूल गया हूं, जब यह बाहर मरे बेटे को देख रहा हूं!
तुम बार-बार रोज-रोज जागने से सोने में जाते हो, लेकिन सोने में रोज-रोज सपना देखते हो, सुबह जाग कर पाते हो कि झूठा था। लेकिन रात फिर जब दुबारा सोओगे, फिर सच हो जाता है। आदमी की भ्रांति कितनी गहन है!
गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था कि तुम संसार में तब तक न जाग सकोगे, जब तक सपने में न जाग जाओ। उसने बड़े अदभुत, अनूठे मार्ग खोजे थे सपने में जगाने के। मैं तुमसे भी कहना चाहूंगा। वे मार्ग सच हैं और बड़े काम के हैं।
अगर तुम सपने में जागना सीख जाओ, तो तुम एक दिन अचानक पाओगे कि जागना भी एक बड़ा सपना है और कुछ भी नहीं। जब तक सपने में तादात्म्य नहीं टूटता, तब तक इस बड़े सपने में तो कैसे टूटेगा? बहुत मुश्किल है। इसलिए हिंदू इसको माया कहते हैं--इस बड़े सपने को माया कहते हैं।
माया यानी सपना। दिखाई पड़ता है, है नहीं। जैसा दिखाई पड़ता है, कम से कम वैसा तो नहीं है। और जैसा है, वैसा तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता; सिर्फ बुद्धपुरुषों को दिखाई पड़ता है। तुम्हें तो जो दिखाई पड़ता है, वह तुम्हारी वासनाओं के पर्दों में से झिन कर आते हैं; छन-छन कर आती है तुम्हारी कामना, इच्छाएं--उन्हीं का रूप तुम्हें दिखाई पड़ता है।
यह संसार तुम्हारे लिए तो एक पर्दा है, जिस पर तुम अपने सपने दौड़ाते हो। चल-चित्र की तरह सपने दौड़ते रहते हैं। जिस दिन तुम्हारे भीतर से चल-चित्र की तरह सपने नहीं उठते, पर्दा खाली रह जाता है; उस खाली पर्दे का नाम ब्रह्मभाव है। तब वृक्ष में वृक्ष नहीं दिखाई पड़ता; स्त्री में स्त्री नहीं दिखाई पड़ती; पत्थर में पत्थर नहीं दिखाई पड़ता। पत्थर में, स्त्री में, वृक्ष में सभी में परमात्मा दिखाई पड़ता है। तब खो गई तस्वीरें; कोरा पर्दा रह गया। उस कोरे पर्दे का नाम ब्रह्म है।
लेकिन अभी तो कैसे जागोगे? यह सपना तो बड़ा मजबूत है। रात जो सपना देखते हो--झीना, बहुत कमजोर--उसमें भी नहीं जाग पाते।
गुरजिएफ कहता था: पहले रात के सपने में जागना शुरू करो। रोज रात सोते वक्त स्मरण रख कर सोओ कि जब सपना आएगा, तो मुझे याद रहेगी कि यह सपना है। एक-दो दिन में याद नहीं रहेगी; कम से कम तीन से छह महीने लग जाएंगे। सतत अगर रोज रात सोते वक्त, एक ही खयाल रख कर सोए कि जब सपना मुझे आए, तो मुझे याद रहे कि मैं द्रष्टा हूं, यह सपना है। किसी दिन यह घटना घटती है। तीन से छह महीने के बीच अगर सतत प्रयास किया, अगर रोज यही सोच-सोच कर सोए, कि सपने को देख लूंगा और पहचान लूंगा कि सपना है। सपने में पहचान लूंगा कि सपना है।...
जाग कर तो सभी पहचानते हैं; सुबह उठ कर तो सभी पहचान लेते हैं। फिर कुछ मजा नहीं है। वह तो बड़ी साधारण सी बात है। जब सपना चल रहा होगा रात, तभी बीच में अपने को झटका देकर याद कर लूंगा कि यह सपना है। जिस दिन यह घटना घटती है, उस दिन तुम चकित हो जाओगे: एक क्रांति हो गई।
घटती है यह घटना। रोज-रोज, रोज-रोज स्मरण करके सोने से यह स्मरण धीरे-धीरे तुम्हारी नींद में प्रविष्ट हो जाता है। जब तुम नींद में गिरने के करीब हो, सोचते रहो, सोचते रहो, स्मरण करते रहो। राम-राम जपने से यह ज्यादा बेहतर है। माला फेरने से यह ज्यादा बेहतर है। क्योंकि माला फेरने से क्या होगा? राम-राम जपने से क्या होगा? तोते की तरह जप लोगे। माला फेरने से क्या होने का है? माला फेरने से कुछ ज्ञान उत्पन्न नहीं होने वाला है।
लेकिन अगर यह स्मरण करते सोए कि जो भी मुझे रात दिखाई पड़ेगा, वह मैं पहचान लूंगा कि सपना है, मैं साक्षी बन जाऊंगा। इसी भाव में रगे-पगे, नींद में डूब गए, तो तुम सुबह एक दिन पाओगे कि और ढंग से उठे, जैसे तुम कभी न उठे थे। एक रात तुम पाओगे कि सपना था और तुम्हें दिखाई पड़ गया कि सपना है। और तब बड़ी मजेदार घटना घटती है।
दिखाई पड़ते से सपना खो जाता है। जैसे ही दिखाई पड़ा कि सपना है, जैसे ही पहचाना कि सपना है, कि सपना खो जाता है।
जब तुम साक्षी की तरह देखते हो--सपना नहीं होता है। या सपना हो सकता है या साक्षी हो सकता है; दोनों साथ-साथ नहीं होते। दोनों साथ-साथ हो ही नहीं सकते। इसलिए साक्षीभाव की दशा में जो दिखाई पड़े, वही सत्य है। क्योंकि साक्षी और सपना कभी साथ-साथ नहीं होते हैं। जब तक साक्षीभाव पैदा नहीं हुआ, तब तक तुम जो भी देख रहे हो, वह सब सपना है, उसमें कुछ भी सत्य नहीं है। सत्य होने की कसौटी साक्षीभाव है।
इस साक्षीभाव की तरफ जाना हो, तो एक-एक कदम उठाना पड़ता है।
कबीर कहते हैं:
रे यामैं क्या मेरा क्या तेरा।
लाज न मरहिं कहत घर मेरा।।
यह मेरे-तेरे का सपना छोड़ो।
चारि पहर निसि भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा।
रात पक्षी आ जाते हैं, सांझ होते-होते, वृक्षों पर बैठ जाते हैं, सो जाते हैं; सुबह उड़ जाते हैं।
...जैसे तरवर पंखि बसेरा।
ठीक वैसी ही बात है। इस पृथ्वी पर हमने रात भर के लिए बसेरा कर लिया है; सुबह फिर पता नहीं किस ग्रह-नक्षत्र पर उड़ जाएंगे।
तुम्हें पता है, वैज्ञानिक कहते हैं: कम से कम पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन है। यह अकेली पृथ्वी नहीं है, जहां जीवन है। कम से कम पचास हजार पृथ्वियां हैं...। यह कम से कम बात है; ज्यादा से ज्यादा का हिसाब अभी लगाया नहीं गया है। इतनी तो होनी ही चाहिए गणित के हिसाब से। मगर बड़ी दूर हैं।
पचास हजार पृथ्वियां हैं, उन सब पर जीवन है। इस पृथ्वी पर हम रात भर के लिए बसे हैं। रात सत्तर साल की हो, इससे क्या फर्क पड़ता है; कि सात घंटे की हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। और जीवन की अनंत यात्रा में सत्तर साल भी सात पल से ज्यादा नहीं हैं।
चारि पहर निसि भोरा,...
सुबह जल्दी आ जाएगी। सुबह यानी मौत। मौत को कबीर सुबह कह रहे हैं। क्योंकि मौत में जाग कर पता चलेगा कि वह जो देख रहे थे, सब सपना था।
चारि पहर निसि भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा।
जैसे बनिए हाट पसारा, सब जग कासो सिरजनहारा।।
यह परमात्मा ने सारा जगत ऐसे फैलाया है, जैसे बनिया जाता है मेले में और दुकान फैला देता है। फिर सांझ हो गई, दुकान बांध लेता सब और चल पड़ता है वापस। ऐसे परमात्मा रोज यह पसारा करता है, रोज समेट लेता है। यह परमात्मा का विस्तार है। यह उसका खेल है--लीला। इसमें मेरा-तेरा मत करो। लेकिन हो जाता है; मेरे-तेरे की भूल हो जाती है।
मैंने सुना है, एक गांव में रामलीला हो रही थी। उसमें जो स्त्री सीता बनी थी--सच में ही--रावण जो बना था, वह उसके प्रेम में पड़ गया। सच में ही। अब बड़ी झंझट खड़ी हो गई, क्योंकि लीला मुश्किल में पड़ गई।
जब सीता का स्वयंवर रचा गया, तो रावण भी गया है, राम भी गए हैं, और सारे राजा-महाराजा गए हैं। वे सब बैठे हैं।
नाटक को चलाने के लिए यह जरूरी है कि रावण लंका की तरफ भागे। तो खबर आती है लंका से, दूत आते हैं भागे हुए--कि रावण, तेरी लंका में आग लग गई। और रावण लंका चला जाता है। इसी बीच राम धनुषबाण तोड़ देते हैं।
मगर यह रावण जो था, असली प्रेम में पड़ गया था। उसने कहा: लगी रहने दो आग; आज तो सीता को वर के ही जाऊंगा। अब बड़ी घबड़ाहट फैल गई! जनता जो देखने आई थी, वह भी कुछ समझी नहीं कि अब मामला क्या है! ऐसा तो कभी हुआ नहीं!
नाटक का जो मैनेजर था, वह छाती पीटने लगा कि बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। और वह दमदार आदमी तो था ही, तभी तो रावण बनाया था उसको। वह रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी को ऐसे हिला कर फेंक देता! असली में ही फेंक देता वह। रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी तो छोकरे थे; वह रावण तो गांव का पहलवान था। वह तो जितने राजा-महाराजा आए थे, सभी इकट्ठे भी जूझते उससे, तो उससे जीत नहीं सकते थे।
जनक जी भी घबड़ाए। बैठे थे सिंहासन पर, उनका सिंहासन कंप गया कि मारे गए! अब यह होगा क्या? यह कथा कैसे चलेगी! फिर-फिर राजदूत भिजवाया कि लंका में आग लगी है! उसने कहा: कह दिया एक दफे कि लगी रहने दे। और न केवल इतना, वह उठा और उसने उठ कर धनुषबाण तोड़ दिया। धनुषबाण भी क्या, रामलीला का धनुषबाण था! ऐसे ही बांस का बना था। उसने तोड़-ताड़ कर ऐसा फेंक दिया। उसने कहा: कहां है सीता?--निकाल! वह तो सीता का हाथ पकड़ कर ले जाने ही लगा। यह तो लीला ही खत्म कर दी इसने!
तो जनक बूढ़ा आदमी था। कई दिन से जिंदगी भर उसने जनक का पार्ट किया था, उसे कुछ सूझ आई। उसने जल्दी से चिल्ला कर कहा अपने नौकरों को कि तुमसे कुछ भूल हो गई मालूम होती है। यह मेरे बच्चों के खेलने का धनुषबाण ले आए! शंकर जी का धनुष लाओ।
पर्दा गिरा कर किसी तरह धक्का-मुक्की करके रावण को बाहर किया; दूसरे रावण को लाए, तब लीला आगे चली।
इस जगत में तुम अगर धर्म के रहस्य को समझना चाहो, तो ‘लीला’ शब्द को समझ लेना। यह एक खेल है, इससे ज्यादा नहीं। इसमें गंभीर होने की जरूरत नहीं है। यहां न कुछ मेरा है, न कुछ तेरा है। न कुछ हार है, न कुछ जीत है। न कुछ सफलता, न कुछ असफलता। सब मन की ही धारणाएं हैं।
चारि पहर निसि भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा।
जैसे बनिए हाट पसारा, सब जग का सो सिरजनहारा।।
ये ले जारे वे ले गाड़े, इन दुखिइनि दोऊ घर छाड़े।
कहत कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम विनसि रहेगा सोई।।
यह अपनी पत्नी ‘लोई’ को संबोधित करके कहे गए वचन हैं। पत्नियों का बहुत लगाव होता है--मेरे-तेरे में--इसलिए। पुरुषों से ज्यादा होता है। पत्नियों का बड़ा ममत्व होता है--मेरे-तेरे में। पत्नियों को बड़ी इर्ष्या होती है--मेरे-तेरे की।
इस फर्क को थोड़ा समझना।
पुरुषों को रस होता है ‘मैं’ में, और पत्नियों को रस होता है, स्त्रियों को रस होता है ‘मेरे’ में। पुरुष को अकड़ होती है ‘मैं’ की। स्त्री को अकड़ होती है ‘मेरे’ की। तो स्त्री जब किसी से प्रेम करती है, तो पहले देख लेती है कि क्या है इसके पास, कितना है इसके पास।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे से कह रहा था कि तू जिस लड़की के साथ घूम-फिर रहा है, वह इस गांव की सबसे बदशक्ल लड़की है। उससे तू बच। कोई और नहीं तुझे मिलती? उसके बेटे ने कहा: पिताजी, अपने पास जो सड़ियल फोर्ड गाड़ी है--उन्नीस सौ तीस की, उसको देखते हुए इस लड़की के सिवाय और कोई लड़की मुझसे राजी हो भी नहीं सकती।
स्त्रियां देखती हैं: क्या तुम्हारे पास है। बैंक-बैलेंस कितना है? प्रतिष्ठा कितनी है? धन-दौलत कितनी है?
स्त्री का रस ‘मेरे’ में है। पुरुष का रस ‘मैं’ में है। पुरुष देखता है: स्त्री कितनी सुंदर है। साथ लेकर घूमूंगा, तो सारे लोगों की ईर्ष्या को जगा पाऊंगा कि नहीं? लोग देखेंगे, तो जल-भुन कर रह जाएंगे कि नहीं? कहेंगे कि हां, कोई स्त्री है तो इसके पास है!
लोग अपनी स्त्रियों को ऐसे ही लेकर तमाशा बनाए रखते हैं। पुरुष चाहे कुछ भी न पहने...। आमतौर से नहीं पहनता। न हीरे की अंगूठी, न कुछ हार, न कुछ; लेकिन अपनी स्त्री को सजाए रहता है। वही स्त्री को दिखाता फिरता है--कि देखो, मेरी स्त्री के पास कितना है! उसकी स्त्री के पास है, इससे उसके मैं को रस है। मैंने दिया है! मैं का मजा है।
स्त्री को मैं का उतना रस नहीं है, जितना मेरे का रस है। कितनी साड़ियां उसके पास हैं; कितने गहने उसके पास हैं--वही उसका हिसाब-किताब है।
स्त्री-पुरुष के मन में इतना फर्क है। हालांकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मेरे से मैं बनता है; मैं से मेरा बनता है। लेकिन यह वचन कबीर ने अपनी पत्नी को संबोधित करके कहे हैं, यह बात प्रासंगिक रूप से याद रखनी जरूरी है।
कहत कबीर सुनहु रे लोई,...
‘लोई’ उनकी पत्नी का नाम था...।
...हम तुम्ह विनसि रहेगा सोई।
जब हम और तुम दोनों विनष्ट हो जाएंगे, तब जो शेष रह जाएगा--वही है; वही सत्य है। जहां ‘मैं’ और ‘तू’ विदा हो जाते हैं, तब जो शेष रह जाता है, वही सत्य है।
...हम तुम विनसि रहेगा सोई।
मौत आएगी, मुझे भी डुबा देगी, तुझे भी डुबा देगी। फिर हममें जो अनडूबा रह जाएगा...। सब छीन लेगी, फिर भी हममें कुछ शेष रह जाएगा; हममें कुछ अविनाशी तत्व है, हममें कुछ अनंत तत्व है, वही रह जाएगा; बाकी सब तो चला जाएगा!
कोई सूरज की किरण हममें है, वह बचेगी, बाकी सब तो गिर जाएगा। फिर बाकी गिर जाने का तुम क्या करते हो--कुछ फर्क नहीं पड़ता।
ये ले जारे वे ले गाड़े,...
हिंदू ले जाकर जला देते हैं, मुसलमान गड़ा देते हैं। बाकी सब फर्क फिजूल हैं। चाहे गड़ाओ, चाहे जलाओ, क्या फर्क पड़ता है? क्योंकि जो था असली, वह गया। अब तो लाश पड़ी रह गई; मिट्टी पड़ी रह गई।
ये ले जारे वे ले गाड़े,...
फिर फिजूल की झंझटें मचा रहे हो। कोई जला देता है, कोई गड़ा देता है, क्या फर्क पड़ता है?
...इन दुखिइनि दोऊ घर छाड़े।
लेकिन जो मर गया है, वह भी घर छोड़ कर उड़ गया। जो गाड़ रहे हैं, जला रहे हैं, वे भी आज नहीं कल घर छोड़ कर उड़ जाएंगे। यह घर घर नहीं है।
जैसे तरवर पंखि बसेरा, चारि पहर निसि भोरा।
यह केवल थोड़ी देर के लिए हम रुक गए हैं, विश्राम के लिए। थक गए हैं और रुक गए हैं। यह पड़ाव है, मंजिल नहीं।
इनमें खिजां का रंग भी शामिल जरूर है
गहरी नजर से नक्शो निगारे बहार देख
सारे संतों ने यही कहा है। अगर तुम बहार को भी बहुत गौर से देखो, गहरी नजर से, तो उसमें पतझड़ को छिपा हुआ पाओगे।
इनमें खिजां का रंग भी शामिल जरूर है
गहरी नजर से नक्शो निगारे बहार देख
अगर तुम जीवन को गहरी नजर से देखोगे, तो उसमें मौत को छिपा हुआ पाओगे। अगर सुख को तुम गहरी नजर से देखोगे, तो दुख उसके पीछे छाया की तरह आता हुआ दिखाई पड़ जाएगा। अगर सफलता को गौर से देखोगे, तो तुम पाओगे: उसका ही दूसरा पहलू असफलता है। यश के पीछे अपयश लगा है। नाम के पीछे बदनामी लगी है। इस जगत में सभी चीजें द्वंद्व से भरी हैं।
तो बहार में उलझ मत जाना, गौर से देखना: बहार के पीछे पतझड़ आती ही है। आ ही रही है; आ ही गई है। बहार उसी का रास्ता साफ कर रही है। फिर यहां क्या मेरा और क्या तेरा?
सौंदर्य दो क्षण का है; जीवन दो क्षण का है। यह चहल-पहल दो क्षण की है। फिर सब सन्नाटा हो जाता है। यह जो दो क्षण का जगत है, यह जो पानी का बुलबुला जगत है, इसमें बहुत रस न लगाओ। इस बुलबुले से अपने को बांधो मत, अन्यथा टूटेगा तो पीड़ा होगी। इसलिए ज्ञानी शांति से मर पाता है।
अज्ञानी तो शांति से जी भी नहीं पाता; मरने की तो बात ही दूर। ज्ञानी शांति से मर पाता है, क्योंकि उसने जीवन में ही मृत्यु को छिपे देख लिया था। और जिसने जीवन और मृत्यु दोनों को देख लिया--वह दोनों के पार हो गया, वह साक्षी बन गया। वही बचता है।...‘हम तुम्ह विनसि रहेगा सोई।’
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
और मन दौड़ाए रखता है। मन कहता है: चलो यहां, चलो वहां। इसे पा लो, उसे पा लो। मन कितनी-कितनी उत्तेजनाएं देता है। मन उत्तेजनाओं को जन्माए चला जाता है। एक वासना पूरी नहीं हो पाती कि दस उठा देता है। तुम्हें दौड़ाए ही रखता है। कभी ऐसा क्षण नहीं आने देता कि तुम थोड़ी देर विश्राम कर लो, कि थोड़ी देर आराम से बैठ जाओ। मन कहता है: अभी कहां विश्राम का क्षण। अभी तो इतना पाने को पड़ा है। थोड़ा और दौड़ लो।
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
कबीर कहते हैं: मन तू जाना कहां चाहता है? और जाएगा भी कहां?
फिर बड़े मजे की बात मन के संबंध में यह है कि इस संसार में तो मन दौड़ता ही है, फिर एक दिन संसार से थक जाता है, तो परमात्मा में दौड़ने लगता है। लेकिन दौड़ जारी रहती है!
कुछ लोग धन कमा रहे हैं, जब ऊब जाते हैं...। ऊब ही जाएंगे। अगर जरा भी बुद्धि होगी, तो ऊब जाएंगे। सिर्फ बुद्धू ही जिंदगी भर धन कमाते रह सकते हैं। जिसमें थोड़ी भी समझ है, वह एक न एक दिन देख लेगा: इन चांदी के ठीकरों में क्या है! अब तो चांदी के भी नहीं हैं! इन ठीकरों में क्या है?
लेकिन तब मन नई दौड़ें शुरू कर देता है। मन कहता है: ठीक है, इनमें नहीं है; कोई बात नहीं। पुण्य के सिक्के कमाओ। अभी दुकान बनाई, अब धर्मशाला बनाओ। अभी दुकान बनाई, अब मंदिर बना दो। अब पुण्य के ठीकरे कमाओ। अब परमात्मा की उस दुनिया में जाना है, वहां की तैयारी करो। स्वर्ग में अच्छी जगह मिले, परमात्मा के ठीक मकान के बगल में स्थान मिले, अब कुछ उसका इंतजाम कर लो। यहां का तो देख लिया; व्यर्थ है; अब वहां की सम्हालो।
तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी तुम्हें यही समझाते हैं कि यहां कुछ नहीं रखा है। अब वहां की सम्हालो। जैसे वहां रखा है!
कबीर कहते हैं: न यहां रखा है, न वहां रखा है। ये तो दौड़ने के ही ढंग हैं। न यहां मिला, न वहां मिलेगा। ये तो मन की वासना की तरकीबें हैं। वह नई वासना उठा देता है। पुरानी थक गई, वह कहता है: कोई हर्जा नहीं, यह नई लो। वह नये संस्करण निकाल देता है वासना के।
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
कबीर कहते हैं: न तो यहां, न वहां। तू जाएगा कहां मन? पार उतर कर कहां जाना चाहता है? यह दौड़-धाप किसलिए है?
आगे पंथी पंथ न कोई,...
न तो कोई पंथी है, न कोई पंथ है।
...कूच-मुकाम न पैहों।
न तो कोई यात्रा का प्रारंभ है, और न यात्रा का कोई अंत है। दौड़ते रहो, दौड़ते रहो, दौड़ते रहो।
नहिं तहं नीर नाव नहिं खेवट,...
न तो वहां कोई जल है, न कोई नाव है, न कोई खेवट है।
...ना गुन खैंचनहारा।
और न नाव में रस्सी बांध कर कोई खींचने वाला है।
धरनी-गगन-कल्प कछु नाहीं,...
न तो वहां धरती है, न आकाश है, न समय है। वहां न काल है, न क्षेत्र है।
धरनी-गगन-कल्प कछु नाहीं, ना कछु वार न पारा।
और न कोई आर-पार है इस अस्तित्व का। तू जाएगा कहां? तू जाना कहां चाहता है? दूसरा किनारा है ही नहीं। क्योंकि इस जगत की कोई सीमा नहीं है। तू चलता रहेगा, चलता रहेगा; और सदा आगे आकाश दिखाई पड़ता रहेगा। क्योंकि अंत यहां कहीं आता नहीं।
किसी भी चीज का तुमने अंत आते देखा? रुपये कमाओ, हजार हों, लाख हों, करोड़ हों, अंत आते देखा? करोड़ आ जाते हैं, मगर अंत तो नहीं आता! संख्या का फैलाव आगे मौजूद है।
इस पद पर हो जाओ, उस पद पर हो जाओ; अंत आता है? किसी पद पर हो जाओ, अंत नहीं आता। आगे कुछ कायम है!
और फिर एक ही वासना होती तो भी ठीक था। वासनाएं अनेक हैं। तुम एक चीज में आगे हो जाते हो, तो दूसरी चीजों में पीछे हो।
नेपोलियन की ऊंचाई कम थी, इससे वह बड़ी तकलीफ पाता। सम्राट हो गया, बड़ा शक्तिशाली सम्राट। दुनिया में दस-पांच नाम ही उसके मुकाबले खड़े हो सकते हैं। लेकिन यह पीड़ा हमेशा उसे पकड़े रहती। जब भी रास्ते पर किसी छह फीट के आदमी को देखता, एकदम घबड़ा जाता; एकदम आंख बचा लेता। उसे बड़ी पीड़ा होती थी इस बात की कि मैं केवल पांच फीट दो इंच!
पांच फीट दो इंच! कोई भी उसे झेंपा देता। उसके सिपाही लंबे थे, और उसके पहरेदार लंबे थे।
एक दिन घड़ी लगा रहा था ठीक जगह पर, लेकिन हाथ उसका पहुंच नहीं रहा था। दीवाल ऊंची थी, जहां लगाना चाहता था। तो उसके बॉडीगार्ड ने, अंगरक्षक ने कहा कि मालिक, आप रुकें; मैं आपसे ऊंचा हूं, मैं लगाए देता हूं। उसने कहा कि चुप, नासमझ! दुबारा यह शब्द उपयोग मत करना! मुझसे ऊंचा? मुझसे लंबा भला हो, ऊंचा नहीं। लंबाई-ऊंचाई में फर्क है!
अहंकार बड़ी पीड़ाएं लेता है--मन बड़ी पीड़ाएं लेता है। तुम्हारे पास धन हो जाता है, सब हो जाता है, लेकिन धन को कमाने में स्वास्थ्य खो जाता है। फिर एक दिन तुम देखते एक फकीर को--अलमस्त फकीरा--चला जा रहा है अपनी बांसुरी बजाते। छाती जल-भुन कर रह जाती है।
तुम प्रधानमंत्री हो गए, लेकिन जिंदगी उसी में गंवा दी दौड़ते-दौड़ते। फिर देखते एक दिन, एक आदमी को: उसका स्वर मीठा है; उसके काव्य में जीवन है, और तुम उदास हो गए। या देखते किसी आदमी की आंखों को: और वहां शांति की गहरी झील है। और तुम्हारे भीतर सिवाय पागलपन के कुछ भी नहीं। पागलपन न होता, तो राजनीति में क्यों होते? दौड़ते क्यों? तुम्हारी आंखों में सिर्फ विक्षिप्तता है। और देखते किसी की आंखों में शांति की झील: मन एकदम तृष्णा से भर जाता है, लोभ से भर जाता है।
कोई तुमसे ज्यादा सुंदर है, कोई तुमसे ज्यादा ज्ञानी है। किसी के पास तुमसे ज्यादा धन है। किसी के पास तुमसे ज्यादा स्वास्थ्य है। किसी के पास कुछ, किसी के पास कुछ! क्या-क्या करोगे? कहां-कहां दौड़ोगे? पार कहां पाओगे?
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
कोई न कोई आगे होगा। किसी न किसी दिशा में आगे होगा। पीड़ा होती रहेगी। मन सभी दिशाओं में सबसे आगे होना चाहता है। यह असंभव है। यह असंभव इसलिए है कि दिशाएं एक-दूसरे के विपरीत हैं।
समझो: अगर तुम सबसे बड़े राजनेता होना चाहते हो, तो तुम सबसे बड़े संन्यासी नहीं हो सकते। वे विपरीत हैं। एक पूरा होगा, तो दूसरा नहीं हो सकता। जो पूरब जाना चाहता है, वह पश्र्चिम नहीं जा सकता--एक ही साथ। दो घोड़ों पर कौन सवार हो सकता है! और यहां दो घोड़े नहीं हैं, यहां हजार घोड़े हैं। और हजार घोड़ों पर इकट्ठे सवार होने का मन है!
तुम्हें एक को तो चुनना ही पड़ेगा। जीवन में विकल्प है। अगर तुमने राजनीति चुनी, तो धर्म से तुम चूक जाओगे। क्योंकि धर्म और राजनीति विपरीत दिशाएं हैं। राजनीति में दूसरे को जीतना है; धर्म में स्वयं को जीतना है।
राजनीति में धोखा-धड़ी है, बेईमानी है। बिना बेईमानी के, धोखा-धड़ी के वहां कोई नहीं जीतता। कोई नहीं जीतता! वहां चालबाजियां हैं, कूटनीतियां हैं।
धर्म में धोखा-धड़ी कभी नहीं जीतती! परमात्मा के साथ कैसी धोखा-धड़ी? वहां सरल-चित्त, सीधे-सादे लोग जीतते हैं। वहां जिनके पास बाल-हृदय है, वे जीतते हैं। वहां निष्कलुष लोग जीतते हैं। वहां ध्यानस्थ लोग जीतते हैं।
राजनीति में ध्यानस्थ तो हार ही जाएगा। क्योंकि राजनीति में तो बड़ा विचार चाहिए; दूर का विचार चाहिए। राजनीति तो शतरंज का खेल है। कहते हैं: शतरंज का खिलाड़ी तभी जीत सकता है ठीक से, जब आगे की पांच चालों का हिसाब उसके भीतर हो; कम से कम पांच चाल का! मैं यह चलूंगा, दूसरा क्या चलेगा; फिर मैं क्या चलूंगा, दूसरा क्या चलेगा; फिर मैं क्या चलूंगा, फिर दूसरा क्या चलेगा--ऐसी कम से कम पांच चाल का जिसे पहले से हिसाब हो, वही शतरंज में जीत पाता है। तो शतरंज तो पागल कर ही देगी।
मैंने सुना है, इजिप्त में ऐसा हुआ। एक सम्राट शतरंज का बड़ा शौकीन था, खिलाड़ी था, वह पागल हो गया। वह शतरंज खेलते ही खेलते पागल हुआ। शतरंज भी राजनीति का ही खेल है। राजा, हाथी, घोड़े--वे सब प्रतीक हैं। शतरंज यानी दिल्ली! इसको गिराओ, उसको उठाओ; इसको चलाओ, उसको भुलाओ। यह सब चलता रहता है। राम आए, राम गए! यह चलता रहता है। इधर आए, उधर गए; इस पार्टी से उस पार्टी में खिसक गए। यह सब चलता रहता है। अपना घोड़ा दूसरे का हो गया; वह दूसरा उस पर सवार हो गया। यह उठा-पटक--सारा खेल है।
तो सम्राट बड़ा शौकीन था। जिंदगी भर तो युद्धों में उलझा रहा, अब बूढ़ा हो गया था, युद्धों में जाने की सामर्थ्य न थी, तो वह शतरंज खेलता था। फिर पागल हो गया। मनोचिकित्सकों ने कहा कि कोई इलाज नहीं है इसका। इलाज एक ही है कि कोई इसके साथ शतरंज खेलता रहे। कौन उसके साथ शतरंज खेले--पागल आदमी के साथ? एक तो सम्राट और फिर पागल! तो करेला और नीम चढ़ा! एक तो सम्राट, इसके साथ वैसे ही लोग खेलने में डरते थे। क्योंकि वह कभी भी तलवार निकाल ले या फांसी लगवा दे। अगर न जीते, तो मुसीबत में डाल दे। और अब पागल हो गया था; इसके साथ खेले कौन?
लेकिन काफी रुपये देने का वायदा किया गया, तो एक खिलाड़ी आ गया। कहते हैं, साल भर वह खिलाड़ी उसके साथ खेलता था। सम्राट ठीक हो गया, खिलाड़ी पागल हो गया।
अब पागल के साथ शतरंज खेलोगे, तो कितने दिन होशियार रह सकते हो? ज्यादा दिन होशियार नहीं रह सकते। पागल की चालों को समझोगे; पागल का हिसाब-किताब रखोगे; पागल क्या चल रहा है, क्या कर रहा है, तुमको उसके जवाब खोजने पड़ेंगे। धीरे-धीरे तुम भी पागल हो जाओगे। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि दो राजनैतिक पार्टियां लड़ते-लड़ते, बिलकुल एक जैसी हो जाती हैं; उनमें कोई फर्क नहीं रहता।
अभी तुम देखते हो: जनता पार्टी में कांग्रेस से कोई फर्क नहीं है। हो नहीं सकता फर्क। एक-दूसरे से लड़ते-लड़ते, एक-दूसरे की चाल सीखते-सीखते बात एक सी हो जाती है। वही हालत अमरीका में है। वही हालत इंग्लैंड में है। दो विरोधी पार्टियां होती हैं, मगर उनमें भेद कुछ नहीं रह जाता। कोई नीति का भेद नहीं है। कोई लक्ष्य का भेद नहीं है। इतना ही भेद होता है कि हम ताकत में हों, कि तुम ताकत में हो। बस, इतना ही भेद होता है। और जनता को धोखा खाने में आसानी रहती है।
दो पार्टियां रहती हैं, तो जनता को सुविधा रहती है। एक आदमी को कंधे पर बिठाए-बिठाए पांच साल में थक गए; कहा कि देवी उतरो, अब भाई को बिठाएंगे! पांच साल में भाई से थक जाओगे; फिर भाई को उतार देना। जनता को मूढ़ बने रहने में इससे सुविधा मिलती है।
जो दो पार्टियों की राजनैतिक व्यवस्था है, वह जनता को मूढ़ बनाए रखने का उपाय है। उसमें वह कभी थक नहीं पाती है। एक से थक गए, पांच साल...।
और जनता की स्मृति बड़ी कमजोर होती है। अगर पांच साल जनता पार्टी सत्ता में रह गई, तो जीत नहीं सकेगी। अभी भी चुनाव लड़े तो उतनी बड़ी जीत नहीं होगी, जितनी पांच महीने पहले हुई थी। जनता थकने लगी! पांच साल में थक जाएगी। जनता पार्टी की सारी बुराइयां दिखाई पड़ने लगेंगी। और कांग्रेस की सारी बुराइयां पांच साल में भूल जाएंगी। स्मृति बड़ी कमजोर है जनता की। तब तक कांग्रेस का फिर सितारा चमकने लगेगा। यह राजनीतिज्ञों की मिली-जुली भगत है। यह षडयंत्र है।
ये दुश्मन नहीं होते एक-दूसरे के।ये दोनों ही मिल कर जनता के दुश्मन हैं! इनका दोनों का काम जनता का शोषण है।
जिससे तुम लड़ते हो, उस जैसे हो जाओगे। धीरे-धीरे तुम्हारा रंग-ढंग, तुम्हारी व्यवस्था तुम्हारी शैली उस जैसी हो जाएगी।
जो आदमी धन ही धन के लिए दौड़ता रहता है, और धन ही पाने के युद्ध में लगा रहता है, तुमने कभी खयाल किया, उसके चेहेरे पर घिसे-पिटे रुपये जैसा भाव आ जाता है। गंदे नोट जैसी शक्ल हो जाती है। कई हाथों में चलते-चलते नोट गंदा हो ही जाता है। दाग लग जाते हैं, वैसी उसकी शक्ल हो जाती है। रुपये में जैसी घिनौनी सी चमक आ जाती है--चलते-चलते-चलते--ऐसी उसकी शक्ल हो जाती है।
जो आदमी जो करेगा, स्वभावतः वैसा हो जाएगा।
कामी की आंख में वासना की गंदगी दिखाई पड़ने लगती है। प्रार्थना करने वाले की आंख में परमात्मा की झलक आने लगती है।
और यहां इतनी चीजें हैं पाने को, कि आदमी इधर दौड़ता है। फिर सोचता है: उधर भी दौड़ लूं। फिर सोचता है: इधर भी दौड़ लूं। यहां हजार रास्ते हैं। यह चौराहा हजार रास्तों का चौराहा है। इसमें यहां जाऊं, वहां जाऊं...पगलाया जाता है आदमी।
कबीर कहते हैं:
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
जाएगा कहां तू? जाने को है कहां! मंजिल कहां है!
आगे पंथी पंथ न कोई, कूच-मुकाम न पैहों।
न कोई मुकाम है आगे। चलता जाएगा, चलता जाएगा, थकेगा-हारेगा; नई-नई वासनाएं खोज लेगा। मगर कभी कोई मुकाम पर नहीं पहुंचा। मन की मान कर कोई कभी सिद्धि को नहीं पहुंचा; उस जगह नहीं पहुंचा, जहां सब आनंद हो जाए। उस जगह नहीं पहुंचा, जहां आगे चलने का कोई उपाय न रह जाए।
मुकाम का अर्थ है: ऐसी जगह, जिसके आगे फिर और कोई जगह जाने को न बची। आ गए अपने घर। पहुंच गए, जहां पहुंचना था। फिर विश्राम है। उसको हम मोक्ष कहते हैं।
और मन भाग-दौड़ करता है, लेकिन मन तो बदलता नहीं है। मन वही का वही है। यहां जाए, वहां जाए--मन वही है।
नगमे से अगर महरूम है दिल, माहौल को मत बदनाम करो।
कितना ही जुनूजा हो मौसम, कब काग गजल ख्वां होते हैं।
चाहे वसंत आ गया हो, तो भी कौवे गजलें नहीं गा सकते हैं।
नगमे से अगर महरूम है दिल,...
अगर गीत तुम्हारे दिल में नहीं है,...
...माहौल को मत बदनाम करो।
तो वातावरण को गालियां मत दो।
कितना ही जुनूजा हो मौसम,...
मधुशाला खोल दी हो परमात्मा ने, सब तरफ वसंत छाया हो, फूल खिले हों, सब तरफ मस्ती हो, फिर भी...
कितना ही जुनूजा हो मौसम, कब काग गजल ख्वां होते हैं।
कौवे कब मीठे गीत गा सकते हैं?
तुमने कहानी सुनी होगी ईसप की: एक कौआ उड़ा जा रहा था; कोयल ने उससे पूछा कि चाचा, कहां जा रहे हैं? कौवे ने कहा कि पूरब की तरफ जा रहा हूं। क्योंकि यहां के लोग मेरे गीतों को पसंद नहीं करते हैं!
कोयल ने कहा: चाचा, पूरब के लोग भी पसंद नहीं करेंगे। खराबी पूरब और पश्र्चिम में नहीं है। आपके गीत ही ऐसे अनूठे हैं!
यह मन जो है, यहां दुखी है, वहां भी दुखी होगा। इस मन का ढंग दुख है।
यह मन दुख पैदा करता है। तुम्हारे पास हजार रुपये हैं, तुम दुखी हो। दस हजार होंगे, तो दस गुने दुखी हो जाओगे, बस। और कुछ भी न होगा। तुम्हारी क्षमता दुख की दस गुनी हो जाएगी। मन तो यही का यही है। करोड़ हो जाएंगे, तो और दुखी हो जाओगे।
यह आकस्मिक नहीं है कि अमरीका में सर्वाधिक दुख है। यह आकस्मिक नहीं है कि जितना धन बढ़ता जाता है, उतना उसके साथ दुख बढ़ता जाता है। होना तो नहीं चाहिए। गणित के बाहर है यह बात। तर्क के विपरीत है। सुख बढ़ना चाहिए धन के साथ। लेकिन धन के साथ दुख बढ़ता है। क्योंकि मन तो वही का वही है।
मन वही है और धन मिल जाने से, मन को बल मिल जाता है। मन का आधार वही है।
यही समझो कि कौवे को लाउडस्पीकर मिल गया। गीत तो वही का वही है, लेकिन अब हजार गुना होकर फैलने लगा।
एक आदमी को लॉटरी मिली। गरीब आदमी था; दर्जी था। रूसी कहानी है। लॉटरी मिली एक लाख रुपये की। भरोसा ही नहीं आया उसे। वह तो आदतवश हर महीने एक रुपये की टिकट खरीद लेता था। ऐसा कोई बीस साल से कर रहा था। न कभी मिली थी, न मिलने की कोई आशा थी। आदत थी। एक शौक था। एक रुपये में कुछ जाता भी नहीं था। मिल गई तो मिल गई; नहीं मिली तो...। अब तो कुछ आशा भी छोड़ दी थी। बीस साल बहुत आशा की; फिर धीरे-धीरे आदत में शुमार हो गया था कि एक तारीख को जाकर एक टिकट खरीद लेता था। मगर मिल गई!
लॉटरी आई, तो उसे भरोसा नहीं आया। एकदम दीवाना हो गया। ताला लगा कर दुकान पर, उसने चाबी जो थी कुएं में फेंक दी। अब करना क्या है? लाख रुपये पास! जिंदगी के लिए बहुत हैं। अपनी जिंदगी के लिए नहीं, बच्चों की जिंदगी के लिए भी बहुत हैं। सस्ते जमाने की बात। तब लाख रुपये का बहुत मूल्य होता था।
लेकिन वह साल भर में लाख रुपये उड़ गए। न केवल लाख रुपये उड़ गए, साथ ही स्वास्थ्य भी उड़ गया। क्योंकि खूब शराब पी; वेश्यागमन किया; जुआ खेला। रात-रात जागे। इतना दुख कभी नहीं भोगा था, जितना इस साल में भोगा।
वह बड़ा सोचता भी था कि बात क्या है? लोग तो कहते हैं: धन हो, तो सुख होता है! मैं पहले ही सुखी था। अपना दिन भर काम कर लेता था। रुपये, दो रुपये कमा लेता था, सब मौज थी। रात अपने घर जाकर शांति से सो जाता था। रुपये ही नहीं थे, तो शराबघर कैसे जाता? रुपये ही नहीं थे, तो वेश्या कहां खोजता? रुपये ही नहीं थे, तो जुआ कहां खेलता?
कुछ बातों का उसे पता ही नहीं था--कि जुआ घर भी होते हैं; वेश्याएं भी गांव में हैं; शराब भी चलती है--यह उसे पता भी नहीं था। यह पता भी कैसे होता? इसकी सुविधा नहीं थी।
मगर जब लाख रुपये पास आए, तो न केवल सुविधाएं खुल गईं। जिन लोगों की, इसके लाख रुपये पर नजर थी, वे भी आने लगे। कोई इसको जुआघर ले गया--कि पागल, यह मौका न चूक। लाख से और ज्यादा कमा सकता है। कोई इसे वेश्यालय ले गया--कि अब तेरे पास पैसे हैं, तो भोग ले। चार दिन की जिंदगी है, फिर अंधेरी रात!
देखते हैं: भोगी कहता है: चार दिन की जिंदगी है, फिर अंधेरी रात!
कबीर कहते हैं: ‘चारि पहर निसि भोरा’--यह चार दिन की अंधेरी रात है, फिर सुबह है।
भोगा। साल भर में बिलकुल मुर्दे जैसा हो गया। रुपया भी चला गया। उलटी उधारी चढ़ गई। कभी जिंदगी में उधारी न रही थी। उधार करने की कभी हिम्मत ही न की थी। सामर्थ्य ही नहीं थी। सदा शान से चला था। अब लोगों से बच कर निकलने लगा।
साल भर बाद जब वह आकर अपनी दुकान पर खड़ा हुआ, तो ऐसा जैसा कि बीस साल जिंदगी खराब गई हो; जैसे बीस साल बीमार रहा हो; खाट से लगा रहा हो। हड्डी-हड्डी हो गया था। आंखें धंस गई थीं। कुएं में उतर कर किसी तरह चाबी खोजी; फिर अपनी दुकान करने लगा। और भगवान को कहा कि अब दुबारा भूल कर भी यह लॉटरी मत खुलवाना।
मगर पुरानी आदत जारी रही; वह एक रुपये के टिकट खरीदता रहा। और संयोग की बात: साल भर बाद फिर लॉटरी आ गई! जब दरवाजे पर लॉटरी के रुपये लेकर आदमी आकर खड़े हुए, तो उसने छाती पीट ली। उसने कहा: हे प्रभु! फिर से...!
हालांकि चाहता नहीं है अब, मगर छोड़ भी नहीं सकता। वह मन कहता है कि पागल, अब फिर एक मौका मिला! और पता है सब, कि वह पहला मौका जो मिला था, सिर्फ दुख दे गया; हड्डी-हड्डी कर गया; ़जार-़जार कर गया; सीने में छेद ही छेद कर गया। घाव ही घाव छोड़ गया। कभी पति-पत्नी में झगड़ा न हुआ था, वह साल झगड़े में बीता। कभी बच्चों ने गालियां न दी थीं, बच्चों ने पिटाई की। कभी पड़ोसियों ने अनादर न किया था; जहां जाए वहां अनादर होने लगा। सड़कों पर पड़ा रहा। गलियों में, नालियों में पड़ा रहा रात पीकर। सब तरह से सब खराब हो गया। और अब जानता है। लेकिन फिर उठ कर खड़ा हो गया!
आदमी इतना बेहोश है! मन ऐसा है! फिर द्वार पर ताला लगा दिया। हालांकि उतने बल से नहीं, जितना पहली बार; लेकिन फिर भी लगा दिया। अब सोचता है कि चाबी न फेंकूं, फिर खोजना पड़ेगी। लेकिन कुछ आदत, कुछ पुराना, कि अब करना क्या है? सोचते-सोचते भी चाबी कुएं में फेंक दी। लेकिन उस साल वह बच न सका, मर गया। इसलिए कहानी आगे बढ़ी नहीं।
आदमी का मन ऐसा है!
कबीर कहते हैं:
मन तू पार उतर कहं जैहौं।
धरनी-गगन-कल्प कछु नाहीं, ना कछु वार न पारा।।
नहिं तहं नीर नाव नहिं खेवट, ना गुन खैंचनहारा।
आगे पंथी पंथ न कोई, कूच-मुकाम न पैहौं।।
शायद मन कहे कि ठीक है, इस संसार में नहीं जाना है कबीर, न जाओ। परलोक तो खोजो! परमात्मा को तो खोजो! तो कबीर उसको भी चेताते हैं:
नहिं तन नहिं मन, नहिं अपनपौं, सुन्न में सुद्ध न पैहौ।
मन तो जहां भी ले जाएगा, शून्य में ही ले जाएगा। यह तो कभी पूर्ण से मिला नहीं सकता।
नहिं तन नहिं मन, नहीं अपनपौं, सुन्न में सुद्ध न पैहौ।
वहां तन भी खो जाए, मन भी खो जाए, अपनापन भी खो जाए, तो भी मन के द्वारा जो स्थिति आएगी वह रिक्त, शून्य की होगी। उसमें पूर्ण नहीं हो सकता।
मन शून्य से पार नहीं ले जा सकता। और कबीर तो पूर्ण के प्रेमी हैं।
बलीवान होए पैठो घट में, वाहीं ठौरें होइहौ।
कबीर कहते हैं: कहीं जाने की जरूरत नहीं है पागल! अपने घर में बैठ जा; अपने भीतर बैठ जा।
बलीवान होए पैठो घट में,...
यही ध्यान का अर्थ है, समाधि का अर्थ है: जब जम कर अपने भीतर बैठ जाओ; हिलो मत। कंपन छोड़ो, निष्कंप हो जाओ।
बलीवान होय पैठो घट में, वाहीं ठौरें होइहौ।
और वहीं से ठौर मिलेगी; वहीं से मुकाम मिलेगा।
बाहर नहीं है मंजिल, मंजिल भीतर है। जिस हीरे को तुम खोज रहे, वह बाहर नहीं पड़ा है। उसे तुम लेकर आए हो। वह जन्म के पहले भी तुम्हारे साथ था। वह तुम्हारा स्वरूप है। सच्चिदानंदरूप हो तुम। इसलिए उपनिषद कहते हैं: तत्वमसि। वह तुम ही हो, जिसको तुम खोज रहे। खोजी में ही खोज का सारा अर्थ छिपा है। खोजने वाले में ही मंजिल छिपी है।
बलीवान होय पैठो घट में, वाहीं ठौरें होइहौ।
अपने ही घट में बैठ जाओ, और वहीं से मंजिल मिल जाएगी।
बार हि बार विचार देख मन, अंत कहूं मत जैहौ।
कहते हैं कबीर: तू खूब सोच ले, कितना ही विचार करना हो कर ले, लेकिन एक बात अंततः निर्णय में ले ले, कि कहीं जाने से कुछ भी नहीं होना है; जाने से कुछ भी नहीं होना है!
आना है; जाना नहीं है। भीतर आना है; बाहर जाना नहीं है। दूर तो हम वैसे ही अपने से बहुत निकल गए हैं--न मालूम क्या-क्या खोजते। अब हमें अपने घर लौट आना है।
कहै कबीर सब छाड़ि कल्पना,...
ये सब कल्पनाएं हैं: धन की, पद की, प्रतिष्ठा की, पुण्य की, स्वर्ग की--ये सब कल्पनाएं हैं।
कहै कबीर सब छाड़ि कल्पना, ज्यों के त्यों ठहरैहौ।
और अगर सारी कल्पना छूट जाए, तो तुम जो हो, वही हो जाओगे, इसी क्षण हो जाओगे। कल्पना से ही बाधा पड़ रही है।
...ज्यों के त्यों ठहरैहौ।
और तब तुम अपने स्वरूप में ठहर जाओगे। वह स्वरूप-स्थिति ही मुक्ति है। वही पूर्ण का अनुभव है। और उस अनुभव के अतिरिक्त कोई आनंद नहीं, कोई शांति नहीं, कोई उत्सव नहीं।
ज्यूं मन मेरा तुज्झ सौं, यों जे तेरा होइ।
कबीर कहते हैं: जैसा मेरा मन परमात्मा में लगा, ऐसा परमात्मा भी मुझमें लग जाए।
ज्यूं मन मेरा तुज्झ सौं,...
जैसा मेरा मन तेरी तरफ दौड़ रहा है, ऐसी ही जब तेरी कृपा होगी और तू मेरी तरफ दौड़ेगा, तेरा प्रसाद बरसेगा।
...यों जे तेरा होइ।
ताता लोहा यौं मिलै, संधि न लखई कोइ।
मैं तो तुझे चाह रहा हूं, मैं तो तुझे पुकार रहा हूं। मेरी तो एक ही प्रार्थना है कि तू मिल जाए, लेकिन तेरे बिना प्रसाद के क्या होगा! मेरा प्रयास और तेरा प्रसाद; जब दोनों मिलेंगे, तब मिलन होगा।
ताता लोहा यौं मिलै,...
मैं तो गर्म हुआ जा रहा हूं; मैं तो पुकार-पुकार कर उत्तप्त हुआ जा रहा हूं; मैं तो प्यासा हूं--विरह में। आग जल रही है मेरे भीतर विरह की।
ताता लोहा यौं मिलै, संधि न लखई कोइ।
और जब दो गर्म लोहे मिल जाते हैं, तो बीच में कोई संधि नहीं छूटती।
कबीर कहते हैं: लेकिन जब तेरा प्रसाद भी इतना ही उत्तप्त होकर मेरी तरफ बहेगा, जितनी उत्तप्तता से मैं बह रहा हूं, तभी मिलन होगा।
भक्त की यह बड़ी गहरी सूझ है कि आदमी के प्रयास से आधा ही काम होता है। आधा काम तो अनुकंपा से, उसकी कृपा से...। इस सूझ के कारण भक्त को अहंकार कभी खड़ा नहीं होता। नहीं तो यही अहंकार आ जाता है कि मेरे प्रयास से पा रहा हूं! मैंने परमात्मा को पाया!
भक्त ऐसा कभी नहीं कह सकता कि मैंने परमात्मा को पाया। भक्त इतना ही कहता है: परमात्मा ने मुझे पाया। मैंने पुकारा, मैंने खोजा, लेकिन मुझसे क्या होगा, मेरे छोटे हाथ उस विराट को कैसे खोज पाएंगे!
कबीर जाको खोजते, पायो सोई ठौर।
सोई फिरि कै तूं भया, जाको कहता और।।
कबीर जाको खोजते,...
परमात्मा को खोजते-खोजते, खोजते-खोजते एक दिन ठौर मिल जाता है। अपने में ही खोजना है, कहीं बाहर जाना नहीं है। यह अंतरगति है।
कबीर जाको खोजते, पायो सोई ठौर।
और जिस दिन वह मिल जाता है, उस दिन ठौर मिल गई।
सोई फिरि कै तूं भया,...
और तब, हम फिर वही हो जाते हैं, जो हम हैं। हम फिर वही हो जाते हैं, जो हमारा असली होना है।
सोई फिरि कै तूं भया, जाको कहता और।
अब तो परमात्मा को दूसरा कहना भी संभव नहीं। भक्त उस घड़ी भगवान हो जाता है, उस घड़ी बूंद सागर में मिल जाती है। बूंद सागर हो जाती है।
मारे बहुत पुकारिया, पीर पुकारे और।
लागी चोट मरम्म की, रह्यो कबीरा ठौर।।
कबीर कहते हैं: कुछ लोग परमात्मा को पीड़ा के कारण पुकारते हैं, दुख के कारण पुकारते हैं, क्योंकि जिंदगी में बड़ी मार पड़ती है।
मारे बहुत पुकारिया,...
कोई हार गया--परमात्मा को याद करता है। किसी का दिवाला निकल गया--परमात्मा को याद करता है। किसी की पत्नी मर गई, पति मर गया--परमात्मा को याद करता है। यह याद ऐसी ही है, जैसे...
मारे बहुत पुकारिया,...
जैसे किसी की पिटाई पड़े और वह याद करने लगे परमात्मा की। यह याद बहुत सच्ची नहीं। जब दुख चला जाएगा, फिर भूल जाएगी।
दुख में तो सभी परमात्मा को याद करते हैं, मगर दुख में याद किया परमात्मा ज्यादा देर टिकता नहीं; सुख आया कि गया। सुख में कौन याद करता है? सुख में तुम बिलकुल भूल जाते हो। जब सब ठीक चलता होता है, परमात्मा का क्या प्रयोजन? जब चीजें गलत होती हैं, मुश्किल में होती हैं, तब तुम याद कर लेते हो। तुम मतलब से याद करते हो। इसलिए दुख में जिसने याद की, उसने परमात्मा को कभी नहीं पाया। जिसने सुख में याद की, उसने पाया।
मारे बहुत पुकारिया, पीर पुकारे और।
तो जो पिट-पिट कर पुकारते हैं, यह एक बात है। और पीर से पुकारना बिलकुल दूसरी बात है। पीर यानी प्यार की पीड़ा।
मारे पुकारिया,...
यह एक बात है। तुम पर डंडे पड़े, और तुम झुक गए, यह झुकना असली नहीं। प्रेम से झुके। यह झुकना और है।
...पीर पुकारे और।
पीर का मतलब होता है: मीठी पीड़ा। जहां मिठास है, प्यास है, प्रेम है। इसलिए नहीं पुकार रहे हैं कि हम दुख में हैं, कि हमारी दुकान ठीक से चला दे; कि पत्नी बीमार है, इसकी बीमारी ठीक कर दे; कि लड़के की नौकरी नहीं रह गई, नौकरी लगवा दे, इसलिए नहीं। बल्कि इसलिए--कि तेरे बिना--तेरे बिना कुछ भी नहीं है। दुकान भी ठीक चल रही है, पत्नी भी स्वस्थ है, लड़के की भी नौकरी लग गई--मगर तेरे बिना कुछ भी नहीं। तुझे पाने के लिए पुकारते हैं।
खयाल रखना: परमात्मा से कुछ और मांगा, तो तुमने परमात्मा का अपमान किया। परमात्मा से बस, परमात्मा को ही मांगना। उससे अन्यथा मांगना अत्यंत अपमानजनक है। अन्यथा मांगने का अर्थ है: तुम परमात्मा से भी मूल्यवान कोई चीज मानते हो।
एक सम्राट युद्ध पर गया। जब लौटता था, उसने अपनी पत्नियों को खबर भेजी: क्या ले आऊं तुम्हारे लिए? सौ पत्नियां थीं उसकी। निन्यानबे ने बड़ी लंबी-लंबी फेहरिस्तें भेजीं। किसी को हीरे चाहिए, किसी को मोती चाहिए। किसी को कुछ, किसी को कुछ। सिर्फ एक पत्नी ने उसे लिखा: आप आ जाओ, सब आ गया।
निन्यानबे के लिए चीजें आईं, लेकिन सम्राट उस सौवीं पत्नी के लिए आया। और उसने कहा: एक तेरा ही प्रेम मेरे प्रति मालूम होता है। बाकी किसी को फिकर नहीं है मेरी। मैं आऊं कि न आऊं; हीरे आने चाहिए, जवाहरात आने चाहिए। एक तूने मुझे पुकारा। तेरे लिए मैं अपना हृदय लाया हूं।
परमात्मा भी उसी के हृदय में आएगा, जिसने अकारण पुकारा है; पीर से पुकारा है--कुछ और मांगने के लिए नहीं। धन मत मांगना, पद मत मांगना। उन्हीं मांगों के कारण तो तुम्हारी प्रार्थना गंदी हो जाती है; पंख कट जाते हैं प्रार्थना के। जमीन पर गिर जाती है। परमात्मा तक नहीं पहुंच पाती।
मारे बहुत पुकारिया, पीर पुकारे और।
लागी चोट मरम्म की, रह्यो कबीरा ठौर।।
और कबीर कहते हैं: जिसने पीर से पुकारा, वह आज नहीं कल किसी सदगुरु को खोज लेगा। क्योंकि जिसने पीर से पुकारा--धन के लिए नहीं पुकारा, पद के लिए नहीं पुकारा--पीर से पुकारा, प्रेम से पुकारा, वह आज नहीं कल, किसी सदगुरु को खोजने में समर्थ हो जाएगा।
परमात्मा सीधा नहीं मिलता। जैसे तुम तैरना सीखते हो, तो पहले उथले में सीखते हो, फिर गहरे में जाते हो। ऐसे जब तुम परमात्मा से मिलते हो, तो पहले पर्दे में मिलते हो।
परमात्मा की रोशनी बहुत ज्यादा होगी। तुम उसे न झेल पाओगे। किसी बुद्ध की रोशनी; किसी कृष्ण की रोशनी; किसी क्राइस्ट की रोशनी--पहले इसे झेलो। पहले क्राइस्ट से आंख में आंख मिलाओ, फिर धीरे-धीरे तुम इस योग्य हो जाओगे। क्राइस्ट की आंखों में तैरते-तैरते तुम इस योग्य हो जाओगे कि परमात्मा के गहरे सागर में उतर जाओ।
लागी चोट मरम्म की,...
सदगुरु की वाणी की ही चोट लगती है, तब मरम्म की चोट लगती है। पहले तो पीर चाहिए। धन न हो, पद न हो, कुछ और मांग न हो, परमात्मा की मांग हो। जिसने परमात्मा को मांगा, उसको सदगुरु मिलता है। जिसने परमात्मा को मांगा, उसको निश्र्चित सदगुरु मिलता है। परमात्मा भेज देता है। तुम्हें खोजता सदगुरु आ जाता है। अनायास आ जाता है। अंधेरे में तुम्हारे हाथ को पकड़ लेता है।
तुमने सूरज मांगा; सूरज एकदम नहीं आता, किरण आती है। किरण यानी सदगुरु। किरण को पचा लेना आसान होगा। सूरज को अभी तुम न पचा पाओगे। सूरज एकदम आ जाए, तो शायद अंधे हो जाओ। शायद जल कर खाक हो जाओ। वह बहुत ज्यादा होगा।
और जब सदगुरु की वाणी तुम्हारे पीर, तुम्हारी पीड़ा को, तुम्हारे प्रेम को उकसाने लगती है; सदगुरु जब तुम्हारी पीर के साथ अपनी अंगुलियों का खेल खेलने लगता है; सदगुरु जब तुम्हें और उकसाने लगता है...।
लागी चोट मरम्म की,...
जब सदगुरु मर्म की बातें कहने लगता है, तब बीज बोए जाने लगे। जब सदगुरु मर्म की बातें कहता है, तो तुम्हारी प्यास में बड़ी अग्नि प्रज्वलित होती है। तुम प्यास ही प्यास हो जाते हो। वह जो प्यास धीमी-धीमी सी थी अकेले में, सदगुरु के पास आकर प्रज्वलित होकर जलने लगती है। उसकी लपटें उठने लगती हैं।
लागी चोट मरम्म की, रह्यो कबीरा ठौर।
और जब चोट की ऐसी गहराई लगती है कि आर-पार हो जाए, हृदय को छेद दे, तुम्हारे केंद्र में तीर लग जाए, बस वहीं तुम ठिठक कर रह जाते हो। जब हृदय में तीर छिद जाता है सदगुरु का, तुम वहीं के वहीं ठिठक कर रह जाते हो।
...रह्यो कबीरा ठौर।
तब कबीर जहां का तहां रह गया। और उसी जहां के तहां रह जाने में परमात्मा की पहली झलक मिलती है; मन ठिठक जाता है।
सदगुरु के पास ही मन अवाक हो जाता है, ठिठक जाता है। एक क्षण को भी ठिठक जाए, उस संस्पर्श में, उस संपर्क में, उस सत्संग में--एक क्षण को भी ठिठक जाए--तो तत्क्षण तुम पाते हो: अरे, मैं कहां खोजने जाता था, परमात्मा मेरे भीतर रहा! मैं किन मंदिर-मस्जिदों के दरवाजे खटकाता था! मैं उसका मंदिर हूं। यह सारा अस्तित्व उससे भरा है! मैं भी उससे भरा हूं।
इसलिए सबसे निकटतम अपने ही भीतर उसे पाना है, और जिसने अपने भीतर पा लिया...‘रह्यो कबीरा ठौर’...जिसने अपने भीतर उसे पा लिया, वह जब आंख खोल कर देखता है, तो सबके भीतर उसे पाता है। तब यह सारा जगत वही है। संसार विलुप्त हो जाता है, सिर्फ परमात्मा ही अनंत-अनंत रंग और रूपों में, अनंत-अनंत इंद्रधनुषों में, अनंत-अनंत फूलों में प्रकट होता दिखाई पड़ता है। तब एक ही अनेक में छिपा है।
मगर पहली पहचान अपने भीतर, अपने घट के भीतर...।
कबीर जाको खोजते, पायो सोई ठौर।
सोई फिरि कै तूं भया, जाको कहता और।।
मारे बहुत पुकारिया, पीर पुकारे और।
लागी चोट मरम्म की, रह्यो कबीरा ठौर।।
तो अगर प्यास हो, तो हृदय खोलो और मर्म की चोट खाओ। तुम भी ठहर जाओगे।
मन के दौड़ने में संसार है; मन के ठहर जाने में परमात्मा है।
आज इतना ही।