KABIR

Kahe Kabir Main Pura Paya 14

Fourteenth Discourse from the series of 20 discourses - Kahe Kabir Main Pura Paya by Osho.
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पहला प्रश्न:
मुझ पर आनंद की वर्षा हो रही है, उसके लिए आपको धन्यवाद देने की इच्छा होती है। लेकिन पता नहीं है कि सच में आनंद बरसता है या मैं कल्पना कर रहा हूं या अतिशयोक्ति कर रहा हूं!
मनुष्य का मन बड़ा उपद्रवी है। दुख हो तो भरोसा करता है और आनंद हो तो संदेह करता है। दुख पर कभी संदेह नहीं आता कि कहीं यह कल्पना तो नहीं है! दुख को तो तुम एकदम मान लेते हो--बड़ी निष्ठा और बड़ी श्रद्धा से। मैंने आदमी ही नहीं देखा जो दुख पर संदेह करता आता हो कि मैं बहुत दुखी हूं, मुझे संदेह होता है कि सच में मैं दुखी हूं कि मैं कल्पना कर रहा हूं! कोई ऐसा कहता नहीं कि कहीं मैं दुख के संबंध में अतिशयोक्ति तो नहीं कर रहा!
दुख को हम मान लेते हैं। दुख में हमारी बड़ी आस्था है। लेकिन जब आनंद की लहर आती है तो संदेह उठने शुरू होते हैं कि कहीं कल्पना न हो, कि कहीं सपना न हो, कि कहीं आत्म-सम्मोहन न कर लिया हो। किसी भ्रांति में तो नहीं पड़ गया हूं! अतिशयोक्ति तो नहीं हो रही! पागल तो नहीं हो गया हूं! ऐसे हजार प्रश्र्न खड़े हो जाते हैं। इसमें झांकने की जरूरत है।
दुख को तुम मान लेते हो, क्योंकि दुख मन का स्वभाव है। आनंद को तुम नहीं मान पाते, क्योंकि आनंद मन का स्वभाव नहीं है। आनंद मन के पार है। दुख मन के भीतर है। दुख मन है। और आनंद अ-मन की दशा है। मन कैसे माने!
अंधेरा अंधेरे को मान लेता है, लेकिन रोशनी को कैसे माने! रोशनी बहुत बेबूझ है; किसी अज्ञात से आती है--कहां से आती है, पता नहीं। इतना तो तय है कि अंधेरे के भीतर से नहीं आती।
जो तुम्हारे मन में से पैदा होता है, जो पत्ते तुम्हारे मन में लगते हैं, वे तो स्वाभाविक मालूम होते हैं; क्योंकि मन से तुम्हारा तादात्म्य है और आत्मा से तुम्हारा तादात्म्य नहीं।
आनंद है आत्मा का स्वभाव। दुख है मन का स्वभाव।
तुम मन में रहने के आदी हो। आत्मा से तुम्हारी पहचान ही छूट गई! तो जब कभी अज्ञात से--अज्ञात कहता हूं इसलिए, क्योंकि तुम्हें आत्मा का कोई बोध नहीं--जब किसी इस अनजान रास्ते से कोई किरण उतरती है--नाचती, घूंघर बजाती--मन चौंक कर कहता है कि यह कल्पना होनी चाहिए! क्योंकि मन ने जब भी सुख पाया है, तो सिर्फ कल्पना में ही पाया है। वस्तुतः तो कभी पाया नहीं।
यह बड़ा मकान दिखाई पड़ता है, यह मुझे मिल जाए, तो बड़ा सुख होगा--ऐसी कल्पना में मन ने सुख पाया है। यह सुंदर स्त्री मुझे मिल जाए, यह सुंदर पुरुष मुझे मिल जाए, यह सुंदर बेटा मेरा हो, ये फूल मेरे बगीचे में खिलें, ऐसी मेरी प्रतिष्ठा हो, ऐसा मेरा नाम हो, यह पद मुझे मिले--ऐसी कल्पना में मन ने खूब सुख पाया--बस कल्पना में; आशा में; वासना में। जब वह मकान तुम्हें मिल जाएगा, तब मन को कोई सुख नहीं मिलता। जब उस स्त्री को तुम पा लोगे, तो मन को कोई सुख नहीं मिलता। मन सुख लेना जानता ही नहीं। मन सुख की भाषा से अपरिचित है।
तो मन ने केवल कल्पना में सुख पाया है; वस्तुतः यथार्थ में दुख पाया है।
इसलिए जब तुम्हारे जीवन में पहली आत्मा की किरण उतरेगी--नाचती, गुनगुनाती, आह्लाद से भरती, सुगंध को जगाती, हजार फूलों को खिलाती--जब तुम पर वसंत आएगा आनंद का, तो मन कहेगा: फिर कोई कल्पना हो रही है! जन्मों-जन्मों का यही अनुभव है मन का। मन कहेगा: मैं अतिशयोक्ति करे ले रहा हूं! मन कहेगा: यह हो नहीं सकता! ऐसा कभी हुआ है? यह कैसे हो सकता है?
दुख होता है, हुआ है; अनुभूत है, जाना-माना है, इतिहास है हमारा। और यह जो आनंद आ रहा है, इससे उस इतिहास का कोई संबंध नहीं जुड़ता। यह तुम्हारी आत्म-कथा के बाहर से आ रही है बात। तुम्हारी आत्म-कथा तो दुख और पीड़ा की है, संताप की है। तुम्हारी आत्म-कथा तो नरक की है। और यह स्वर्ग उतरने लगा! जरूर तुम किसी सपने में खो गए हो, किसी नशे में पड़ गए हो, किसी दीवानेपन में उलझ गए हो।
मन की इस स्थिति को समझना।
और अगर तुमने मन की बात मान ली, तो जो आनंद उतर रहा है, वह सपना हो जाएगा, क्योंकि तुम उसे स्वीकार न करोगे। द्वार आए मेहमान को वापस लौटा दोगे। जो आंनद उतर रहा था, वास्तविक था, वास्तविक हो सकता था--तुम्हारे जीवन की संपदा बन जाता। लेकिन तुम्हारा मन कहता है: कल्पना है; मैं नहीं मान सकता! ऐसा, और मुझे हो! नहीं-नहीं! असंभाव्य है। ऐसा अगर तुमने कहा और अगर तुमने इसमें ही अपने पैर रोके रखे, तो तुम द्वार न खोलोगे। अतिथि द्वार आया, लौट जाएगा। और फिर निश्र्चित ही सपना हो जाएगा। तब मन कहेगा: देखो, मैंने पहले ही कहा था! इसलिए मैं कहता हूं कि मन का बड़ा उपद्रव है। मन कहेगा: देखो, मैंने पहले ही कहा था सपना है; अब देखा? सपना हो गया।
मन ने कह कर ही सपना करवा दिया।
मन को तो सुख के साथ जीना आता नहीं। मन की मौज तो दुख है।
यह वक्तव्य विरोधाभासी लगे तो लगे, लेकिन ऐसा है, कि मन सुखी होता है, जब दुखी होता है। और मन दुखी हो जाता है, जब सुख होता है।
मुझे अब जिंदगी बेकार-सी मालूम होती है
कयामत हो गया है नशा-ए-गम का उतर जाना।
और जब दुख का नशा उतर जाता है तो मन मरने लगता है।
मुझे अब जिंदगी बेकार-सी मालूम होती है
फिर जिंदगी में कुछ काम नहीं मालूम होता, अर्थ नहीं मालूम होता।
इसलिए तुम यह जान कर चकित होओगे कि जिनके पास जीवन में कुछ भी नहीं है, वे लोग धर्म की तरफ उत्सुक नहीं होते; क्योंकि अभी उनके मन को फैलने के काफी उपाय हैं। मकान नहीं है, मकान की कल्पना कर सकते हैं। पत्नी नहीं है, पत्नी की कल्पना कर सकते हैं। बच्चे नहीं है, बच्चे की कल्पना कर सकते हैं। जितना नहीं है, उतनी कल्पना को सुविधा है। मन आशाएं बनाए रख सकता है।
लेकिन अगर यह सब तुम्हें मिल जाए जो तुम्हारा मन मांगता है, तब क्या करोगे? तब तो और आशा को जगह न रही, स्थान न रहा फैलने को। सब आशाएं पूरी हो गईं, फिर क्या करोगे? सब दुख कट गए, फिर क्या करोगे?
मुझे अब जिंदगी बेकार-सी मालूम होती है
कयामत हो गया है नशा-ए-गम का उतर जाना।
दुख का भी एक नशा है। जब वह उतर जाता है, तो एकदम ऐसा लगेगा: अब जीने में क्या सार? इसलिए लोग दुख को पकड़ते हैं। इधर कहे भी चले जाते हैं कि दुख से मुक्त होना है, उधर दुख को छोड़ते भी नहीं। इधर कहे चले जाते हैं: कैसे दुख से छूटूं, और उधर नीचे जड़ें दुख में फैलाए चले जाते हैं। कहते हैं: क्रोध बुरा है, लेकिन छोड़ते नहीं। कहते हैं: मोह बुरा है, लेकिन छोड़ते नहीं। कहते हैं: ईर्ष्या जलाती है आग की तरह--और क्या लपटें होंगी नरक की!--लेकिन छोड़ते नहीं। ये सब कहने की बातें हैं। तुम्हारे कहने पर कोई भरोसा कर ले, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा; क्योंकि तुम जो कहते हो, उससे उलटा करते हो।
सुख के सूत्र बहुत सीधे-साफ हैं। लेकिन अड़चन यहां है कि दुख को पकड़ कर तुम रखना चाहते हो। यह भी एक काम है तुम्हारे मन के लिए कि दुख है, दुख से छुटकारा पाना है। तुम डरते हो कि कहीं छुटकारा हो ही न जाए, अन्यथा फिर क्या करूंगा! ऐसी तुम्हारी दशा है अभी।
पूछते हो: ‘आनंद की वर्षा हो रही है, उसके लिए आपको धन्यवाद देने की इच्छा होती है।’
उसमें भी कंजूसी! इच्छा होती है; अभी दिया नहीं है धन्यवाद। सोच रहे हो! इच्छा होती है, दबा रहे होओगे। धन्यवाद देने में भी इतनी कृपणता!
मन धन्यवाद देना भी नहीं जानता। वह भी उसकी भाषा नहीं है। मन शिकायत करना जानता है। मन शिकायती है। क्योंकि शिकायत से भी दुख होता है। शिकायत से भी पीड़ा होती है। शिकायत से भी कांटा चुभता है। और जितनी तुम शिकायत करते हो, उतना दुख बढ़ता जाता है। जितना तुम धन्यवाद दोगे, उतना सुख बढ़ता जाएगा।
धन्यवाद का अर्थ है: तुमने सुख को अंगीकार किया। तभी तो धन्यवाद दोगे न! अभी तो तुमने स्वीकार ही नहीं किया, धन्यवाद किस बात का! अभी तो तुम्हें शक ही है कि यह जो हो रहा है, सच भी है? अगर कल्पना ही है, तो फिर धन्यवाद क्या देना! अभी तो तय करना है कि सच है, तो फिर सोचेंगे।
सच भी हो, तब भी लोग धन्यवाद देने में बड़ी कृपणता करते हैं।
मैंने सुना है, अमरीका में एक बड़ी जौहरी की दुकान, सबसे बड़ी दुकान; उस दुकान के सौ वर्ष पूरे हो गए। तो उस दुकान के मालिकों ने तय किया था कि जो व्यक्ति भी कल सुबह पहला ग्राहक दुकान में प्रवेश करेगा, उसको लाख रुपये का हार भेंट करेंगे। सौ वर्ष दुकान के पूरे हो गए हैं; यह उन्होंने सौ वर्ष की पूर्ति पर समारोह मनाने का आयोजन किया, इससे समारोह शुरू होगा। जो भी पहला ग्राहक प्रविष्ट होगा...।
और दुकान के दरवाजे खुले और एक स्त्री बड़ी तेजी से भीतर प्रविष्ट हुई। उन्होंने बैंड-बाजे बजाए, सबने उसे घेर लिया, दुकान के सभी कार्यकर्ताओं ने। मालिक आया; उसके गले में लाख रुपये का हार पहनाया। मगर वह स्त्री वैसे ही खड़ी रही। समझाया उसे कि हमने यह तय किया था कि एक लाख रुपये का हार भेंट करेंगे, जो भी पहला ग्राहक आएगा; तुम धन्यभागी हो।
तब उन्होंने पूछा कि किसलिए आई हो? तो उसने कहा: शिकायत दर्ज करने।...अमरीका की बड़ी दुकानों पर शिकायत का रजिस्टर रखा रहता है।...शिकायत दर्ज करने! और वह स्त्री लाख रुपये का हार पाकर भी शिकायत दर्ज करना न भूली। वह लाख रुपये का हार कुछ भी नहीं है!
जैसे ही वह उत्सव-समारोह पूरा हुआ, वह भागी और गई दफ्तर के अंदर और शिकायत के रजिस्टर में, उसे जो शिकायत लिखनी थी, वह लिखी। यह लाख रुपये की भेंट भी उसे प्रसन्न न कर सकी! यह लाख रुपये की भेंट भी उसे धन्यवाद देने के लिए तैयार न कर सकी। शिकायत तो करनी ही है। शिकायत होगी कोई छोटी-मोटी। कभी कुछ गहना खरीदा होगा या कुछ होगा, कुछ शिकायत की बात होगी।
मन शिकायत में पटु है। मन बड़ा वाचाल है शिकायत में।
जब तुम शिकायतें करने लगते हो, तब तुमने देखा कि तुम कितनी कुशलता से बोलते हो! लोगों के दुख सुनो। दुख की बात करते वक्त हर व्यक्ति वक्ता होता है; बड़ी कुशलता से बोलता है। दुख की चर्चा करते वक्त हर व्यक्ति कवि हो जाता है। बड़ी ठीक-ठीक उपमाएं खोजता है।
तुम लोगों का जरा दुख सुनो। घंटों लगा देते हैं! सुनाए ही चले जाते हैं; अंत नहीं आता। सुख में जबान एकदम लड़खड़ा जाती है।
अब तुम पूछते हो कि ‘धन्यवाद देने की इच्छा होती है!’
दबा रहे हो उसको क्या? धन्यवाद देने में इतनी कृपणता क्यों? धन्यवाद तुम्हारा क्या ले जाएगा? धन्यवाद में खोता क्या है? खोता कुछ भी नहीं, मिलता बहुत है। और शिकायत में खोता बहुत है, मिलता कुछ भी नहीं।
मगर तुम अपने दुश्मन हो। तुम काम ही ऐसा करते हो, जो अपने ही साथ घात है--आत्मघात है। इसमें पूछना क्या है? धन्यवाद दे दो! और चौंक कर तुम पाओगे कि जैसे ही धन्यवाद दिया, और आनंद उतरा। क्योंकि धन्यवाद देने का मतलब ही यह होता है कि तुमने, आनंद जो उतरा था, उसे स्वीकार किया--उसके सत्य को स्वीकार किया, उसकी प्रामाणिकता को अंगीकार किया। तभी तो धन्यवाद दे सके।
‘इच्छा होती है कि धन्यवाद दूं, लेकिन पता नहीं कि सच में आनंद बरसता है या कि कल्पना है या कि अतिशयोक्ति!’
अब इसका कैसे पता करोगे? आनंद बरस रहा है।
यह हवाई जहाज गुजर रहा है, यह आवाज सुनाई पड़ रही है...(प्रवचन में इसी क्षण ऊपर से हवाई जहाज गुजरा)...अब कैसे और पता करोगे कि यह कल्पना तो नहीं है? ये सूरज की किरणें वृक्षों को पार करके तुम तक आ रही हैं, अब कैसे और पता करोगे कि यह कल्पना तो नहीं है? ये पक्षियों के गीत तुम्हें सुनाई पड़ रहे हैं, अब और कैसे पता करोगे कि यह कल्पना तो नहीं है? और क्या उपाय है? हां, यह हो सकता है कि तुम इसी सोच-विचार में...
सिर में दर्द होता है, तो तुम जानते हो कि सिर में दर्द है। नासापुटों में फूलों की गंध भर जाती है, तो तुम जानते हो कि सुगंध ने तुम्हें घेरा है। देखते हो, आंख चांद-तारों से भर जाती है, तो जानते हो कि चांद-तारे हैं! और क्या उपाय है?
आनंद के साथ तुम और अतिरिक्त शर्तें क्यों बांधना चाहते हो? इतना काफी नहीं है कि आनंद बरस रहा है, ऐसा तुम्हें अनुभव हो रहा है? इस बरसते आनंद में डूबो। इस बरसते आनंद में पिघलो; खो जाओ। उठने दो अहोभाव को। नहीं तो कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि पहुंचते-पहुंचते आदमी चूक जाता है; करीब आते-आते रुक जाता है। कभी-कभी मंजिल पर एक कदम और, और मंजिल मिल जाती--और आदमी लौट पड़ता है।
मुखालिफ वक्त हो तो काम बन-बन कर बिगड़ता है
सफीना जा पड़ा मझधार में टकरा के साहिल से।
कभी-कभी ऐसा हो जाता है, नाव किनारे से टकरा कर दूर निकल जाती है किनारे से और मझधार में जाकर डूब जाती है। किनारे से टकरा कर मझधार में पहुंच जाती है!
सफीना जा पड़ा मझधार में टकरा के साहिल से।
किनारे पर हो, हिम्मत करो! मैं कहता हूं: हिम्मत करो आनंद को स्वीकार कर लेने की! बड़ी हिम्मत की जरूरत है, तो ही स्वीकार कर सकोगे।
दुख को तो कोई भी स्वीकार कर लेता है। दुख को स्वीकार करने में किसी हिम्मत की कोई जरूरत नहीं। आनंद को स्वीकार करना बड़ी हिम्मत की बात है, बड़े साहस की। क्योंकि आनंद तुम्हारे अहंकार को मिटा देगा। क्योंकि आनंद तुम्हारी अब तक की चली आई पुरानी धारा को तोड़ देगा। क्योंकि आनंद तुम्हारे अतीत को पोंछ देगा और एक नये जन्म और एक नये भविष्य की शुरुआत होगी। क्योंकि आनंद में मृत्यु है और पुनर्जन्म है।
हिम्मत करो। स्वीकार करो। आनंद ही बरस रहा है। और तुम धन्यभागी हो कि तुम पर प्रभु का प्रसाद हुआ है। अब इसे इन बातों में मत खो देना। नहीं तो पीछे पछताओगे।
मुखालिफ वक्त हो तो काम बन-बन कर बिगड़ता है
सफीना जा पड़ा मझधार में टकरा के साहिल से।
फिर बहुत पछताओगे, क्योंकि यह किनारा दुबारा मिले, न मिले! तुम कितने दूर निकल जाओ किनारे से, कौन जाने! आज तुम यहां मेरे साथ हो, आज तुम इस हवा में हो, आज ये चारों तरफ नाचते हुए प्रसन्न लोगों का समूह तुम्हें मिला है--फिर दुबारा मिले, न मिले! आज ध्यान का सरगम तुम्हारे भीतर बैठने लगा है; कौन जाने, कल भी ऐसा सौभाग्य हो, न हो! कल की प्रतीक्षा न करो; आज जो हो रहा है, इसे हृदय में भर लो। आलिंगन कर लो! मस्त हो उठो!
खोएगा क्या! समझ लो यही कि कल्पना थी।
कभी-कभी मैं हैरान होता हूं कि अगर यही बात मान ली जाए कि कल्पना है, तो भी कल्पना में सुखी होना ज्यादा बेहतर है, बजाय यथार्थ में दुखी होने के। हालांकि यह कल्पना नहीं है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि चलो यही मान लो कि कल्पना है, तो हर्ज क्या? थोड़ी देर को सुखी अगर कल्पना में भी हो लिए...इतना सा विश्राम भी नहीं देना चाहते अपने को! दुखी होने की ऐसी जिद कर रखी है!
चलो कल्पना ही सही, तो थोड़ी देर कल्पना में ही रस ले लो। आज जो कल्पना में है, शायद कल यथार्थ बन जाए। यद्यपि दोहरा दूं कि कल्पना नहीं है। और तुमसे यह भी कह दूं कि तुम्हारे सब दुख कल्पना हैं; और आनंद कल्पना नहीं है।
इसीलिए ज्ञानियों ने आनंद को स्वभाव कहा है। स्वभाव का मतलब होता है: जो तुम्हारे भीतर पड़ा ही है। और दुख पर-भाव है। है नहीं तुम्हारे भीतर, माना हुआ है; तुम्हारी मान्यता है। किसी आदमी ने कुछ कहा, तुमने समझा कि अपमान हो गया और तुम दुखी हो गए। कोई रास्ते पर खड़ा हंस रहा था और हो सकता है किसी और बात पर हंसता हो, तुम समझे कि तुम पर हंस रहा है और तुम दुखी हो गए।
दुख बाहर से आता है। आनंद भीतर से आता है। दुख दूसरों की तरफ से आता है। दुख संसार से आता है। और आनंद स्वयं से। दुख कल्पना है, क्योंकि जो भी तुम बाहर से ले लेते हो, वह वस्तुतः तुम्हारा नहीं है। ये बाहर की दी गई गालियां भी पड़ी रह जाएंगी, सम्मान भी पड़े रह जाएंगे। बाहर का कोई बहुत मूल्य नहीं है। बाहर ज्यादा से ज्यादा तुम्हारी सतह को छूता है।
जैसे सागर पर लहरें उठती हैं, हवा के उत्तुंग वेग आते हैं और सागर में लहरें फैल जाती हैं--लेकिन सतह पर ही फैलती हैं लहरें। सागर गहराई में तो शून्य है, मौन है; वहां कोई तरंग नहीं है; वहां कोई हलचल नहीं है; वहां कोई परिवर्तन नहीं है। वहां शाश्र्वत का वास है। वहां समाधि की दशा है।
ऐसी ही तुम्हारी हालत है। तुम्हारी आत्यंतिक गहराई में सब शांत है, सब मौन है, सब आनंद से भरा है। सिर्फ तुम्हारी सतह पर...। उस सतह का नाम ही मन है। वहीं बाहर के झंझावात आ जाते हैं, आंधियां आ जाती हैं और तुम्हें आंदोलित कर जाती हैं।
दुख उधार है। आनंद स्वयं का है।
आनंदित अगर कोई होना चाहे, तो अकेले में भी हो सकता है; दुखी होना चाहे, तो दूसरे की जरूरत है। इस बात को तुमने कभी खोजा कि दूसरे के बिना आदमी दुखी नहीं हो सकता। दूसरा चाहिए ही दुख के लिए।
तुम अपने दुखों की तलाश करना। तुम पाओगे: सब दुख दूसरे से जुड़े हैं। ऐसा कोई दुख नहीं है, जो दूसरे से न जुड़ा हो। कोई धोखा दे गया; किसी ने गाली दे दी; कोई तुम्हारे मन के अनुकूल न पड़ा; किसी ने ऐसा व्यवहार किया, जैसी अपेक्षा न थी--सब दुख दूसरे से जुड़े हैं। और आनंद का दूसरे से कोई संबंध नहीं है। आनंद स्वस्फूर्त है। इसलिए हिमालय की गुफा में बैठा हुआ आदमी भी आनंदित हो सकता है। दुखी होना हो, तो बाजार में आना जरूरी है। वहां बैठे-बैठे दुखी नहीं हो सकता।
इसलिए लोग अगर जंगल में भागने लगे, तो अकारण नहीं। वह इसीलिए कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी; दूसरे को छोड़ कर भाग जाओ। दूसरा बचेगा ही नहीं, तो फिर कैसा दुख!
लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि दूसरे को छोड़ कर तुम भाग गए तो शायद दुखी तो तुम न होओ, यह तो हो सकता है; लेकिन आनंदित भी तुम न हो पाओगे। क्योंकि दूसरे को छोड़ कर भागे हो, तो दूसरे का डर तो बना ही हुआ है। और जिसको छोड़ कर भागे हो, उसकी तंरगें मन में घूमती रहेंगी। जिसको छोड़ कर आ गए हो, वह मन में खड़ा रहेगा।
तो अक्सर ऐसा हो जाएगा, जंगल में भाग गए आदमी को...
आज न कोई दूर न कोई पास है
फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?

आज न सूनापन भी मुझसे बोलता
पात न पीपल पर भी कोई डोलता
ठिठकी-सी है वायु, थका-सा नीर है
सहमी-सहमी रात, चांद गंभीर है
गुप-चुप धरती, गुम-सुम सब आकाश है
फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?

आज शाम को झरी नहीं कोई कली
आज अंधेरी नहीं रही कोई गली
आज न कोई पंथी भटका राह में
जला पपीहा आज न प्रिय की चाह में
आज नहीं पतझार, नहीं मधुमास है।
फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?

आज अधूरा गीत न कोई रह गया
चुभने वाली बात न कोई कह गया
मिल कर कोई मीत आज छूटा नहीं
जुड़ कर कोई स्वप्न आज टूटा नहीं
आज न कोई दर्द न कोई प्यास है
फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?
तो दुखी तो न रह जाओगे, अगर संसार से भाग गए--उदासी हो जाओगे।
संसार छोड़ कर भागने का प्रश्न नहीं है। वह तो नकारात्मक बात हुई। विधायक बात है: परमात्मा को अपने में निमंत्रित कर लेना। इसकी बजाय कि तुम हिमालय की गुफा में जाओ, हिमालय की गुफाओं को अपने हृदय में बसाओ। इसकी बजाय कि तुम हिमालय की शांति और शीतलता खोजो, हिमालय की शांति और शीतलता को अपने भीतर आमंत्रित करो, बुलाओ। वह तुम्हारे भीतर बसे। हिमालय तुम्हारे भीतर बस जाए--फिर तुम बाजार में रहो, व्यवसाय में रहो, भीड़-भाड़ में रहो--कोई अंतर न पड़ेगा।
आनंद निश्र्चित बरस रहा है, लेकिन इतना नया है कि तुम जो भी जानते हो, उससे उसका कोई तालमेल नहीं बैठता। तो चलो यही मान लो कि अभी कल्पना है। कल्पना भी मानो, मगर स्वीकार करो। कल्पना भी क्या बुरी! आनंद की कल्पना है। शायद यही आनंद की पदचाप हो, जो अभी पदचाप की तरह दूर सुनाई पड़ती है, वह धीरे-धीरे पास आती जाएगी। जो अभी स्वप्न है, कल सत्य हो सकता है। मगर सत्य करने के मार्ग पर पहली जरूरत है कि उसे तुम स्वीकार करो, अंगीकार करो। तो ही तुम्हारे भीतर बीजारोपण होगा। तो ही तुम बदलोगे।
लेकिन हमारी पुरानी समझ हमें गलत व्याख्याओं में ले जाती है।
मैंने सुना है, प्रेमिका बार-बार मुल्ला नसरुद्दीन से कह रही थी: तुम डैडी से कहना कि तुम मुझसे विवाह करोगे। पर मुल्ला था कि चुप। ऐसा चुप कि जैसे न सुन सकता है, या कि बोल नहीं सकता, गूंगा है; बहरा है कि गूंगा है। अंत में प्रेमिका ने झल्ला कर कहा: कहो न, डैडी से कहोगे, बेवकूफ! इस पर मुल्ला खूब खुश हो गया और खुश होकर बोला: कहूंगा, जरूर कहूंगा! क्या कहोगे?--प्रेमिका उल्लसित होकर बोली।
बेवकूफ!--मुल्ला ने कहा।
अपनी व्याख्या है। अपने चुनाव हैं।
आनंद बरस रहा है, उसे तो तुम नहीं स्वीकार कर रहे; तुम एक नई चिंता पैदा कर रहे हो कि कहीं यह कल्पना तो नहीं है! तुम संदेह उठा रहे हो। संदेह के धुंए में खो जाएगा। संदेह का बादल जोर से घिर गया, तो यह रोशनी की किरण फिर दिखाई न पड़ेगी। सूरज ढंक जाता है बादलों में, तो यह तो चांद अभी बहुत छोटा सा है, तुम्हारे भीतर जो उगा है आनंद का; संदेह के बादलों में छिप जाएगा। भरोसा करो।
और हर्ज क्या है? खो क्या जाएगा? आनंद पर भरोसा करने में खो क्या सकते हो? हर्ज क्या हो सकता है? दुख पर भरोसा मत करो। दुख पर भरोसा करने में सदा कुछ खोता है।
लेकिन दुख पर भरोसा करने को तुम सदा तैयार हो और आनंद पर भरोसा करने को कभी तैयार नहीं!
इधर यह बात रोज घटती है। यह प्रश्र्न तुम्हारा ही नहीं है, अनेकों का है।
कोई न कोई रोज आकर कहता है कि बड़ी शांति मिल रही है; मगर शक होता है कि यह सच है! कोई कभी आकर कहता है: बड़ी मस्ती छा रही है; मगर शक होता है कि कहीं मैं अपने को भुलावा तो नहीं दे रहा!
तुमने इतने भुलावे दिए हैं अब तक कि तुम्हें लगता है कि तुम शायद यह भुलावा भी अपने को दे लोगे। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं: कोई आज तक अपने को आनंद का भुलावा नहीं दे सका। यह असंभव है।
आनंद का भुलावा हो ही नहीं सकता। क्योंकि जो भुलावा देने वाला मन है, उसमें आनंद होता ही नहीं। भुलावा देने वाला मन केवल नये-नये दुख खोजता है। भुलावा दुखों को खोजने की व्यवस्था है।
इसलिए डरो मत। भयभीत न होओ। पुराने मन को बीच में न आने दो। नया अतिथि आया है, उसे अंगीकार करो। उसे भीतर ले जाओ। उसे हृदय के सिंहासन पर विराजमान करो।
दूसरा प्रश्न भी पहले से थोड़ा जुड़ा है, इसलिए साथ-साथ ले लें।

पूछा है:
मैं अत्यंत उदास क्यों हूं, यद्यपि उदासी का कोई भी कारण नहीं है?
शायद इसीलिए।
उदासी का कारण भी हो तो आदमी को समझ में आता है कि चलो कारण तो है; कम से कम कारण तो है, इसलिए उदास हूं। बहाना तो है। कोई पागल तो न कह सकेगा। बता सकता हूं कि पत्नी मर गई, कि बेटा जेल चला गया, कि दुकान डूब गई, दिवाला निकल गया।
तो उदासी में तर्क है। तर्क है तो तुम सुरक्षित हो। तुम यह कह सकते हो कि उदास होना बिलकुल स्वाभाविक है। कर भी क्या सकता हूं? तुम्हारी पत्नी मरती, तो तुम भी उदास होते। और तुम्हारी दुकान का दिवाला निकलता, तो तुम भी रोते। तो कोई मैं ही रो रहा हूं, ऐसा नहीं है।
तो तुम्हारे आंसुओं के लिए तुम तर्क दे सकते हो। सबसे बड़ी उदासी तो तब होती है, जब उदास होने का कोई कारण भी नहीं होता। तब बड़ी बेबूझ बात हो जाती है। तब तुम कह भी नहीं सकते कि क्यों उदास हूं। अपनी उदासी की रक्षा भी नहीं कर सकते। अपनी उदासी के लिए तर्क भी नहीं जुटा सकते। तब तुम बिलकुल असहाय हो जाते हो। ऐसा भी होता है।
ऐसे होने के पीछे कई कारण हैं। एक: तो हो सकता है कारण आज न हो, लेकिन जिंदगी भर तुम उदास ही उदास रहे, तो उदास होना तुम्हारी आदत हो गई। ऐसा बहुत बार हो जाता है कि क्रोधी आदमी को क्रोध की आदत हो जाती है। फिर क्रोध का कारण न हो, तो भी उसको तो क्रोध करना ही है। वह तो बिना क्रोध किए नहीं रह सकता। वह तो कोई न कोई उपाय खोजेगा।
तुम सब ऐसे आदमियों को जानते हो, जो क्रोध के लिए उपाय खोजते रहते हैं। क्रोध भीतर है। अकारण करेंगे, तो पागल समझे जाएंगे। कोई कारण खोज लेना होता है। कोई भी कारण! तुम भी पीछे लौट कर सोचते हो, तो पाते हो: कारण पर्याप्त नहीं था--इतने क्रोध के लिए पर्याप्त नहीं था। कारण में और क्रोध में कोई अनुपात नहीं था। तुम भी पीछे पछताते हो कि बात बड़ी छोटी थी!
मेरे पास आ जाता है कभी कोई व्यक्ति और कहता है: बड़ा क्रोध हो गया। पत्नी की पिटाई कर दी; कि अपने बच्चे को पीट दिया। हालांकि इतना क्रोध करने का कोई कारण न था।
कारण पूछता हूं, तो कहता है: कारण न पूछिए। कहता है: कारण तो क्षुद्र था। ऐसा ही था, बेकार था; उसका कोई मतलब भी न था। बात-बात में से बात निकल गई।
आदत...अगर तुम रोज-रोज क्रोध करते रहे हो, तो तुम्हें आज भी क्रोध की तलाश करनी पड़ेगी। क्रोध की भी तलफ लगती है। जैसे कोई सिगरेट पीता है, हुक्का पीता है, चुरूट पीता है, शराब पीता है--उसकी तलफ लगती है। एक घड़ी आ जाती है, जब उसे पीने के लिए मजबूर होना पड़ता है। हालांकि बात बिलकुल फिजूल है: धुएं को भीतर ले जाता है, बाहर ले जाता है; किसी मतलब की नहीं है। लेकिन आदत हो गई है, छूटती नहीं।
ऐसे ही क्रोध की आदत हो जाती है। ऐसे ही उदास होने की आदत हो जाती है। थिर हो जाता है एक भाव। स्थायी भाव बन जाता है।
कभी-कभी उदास हो जाने को क्षमा किया जा सकता है। जिंदगी में हजार अड़चने हैं। आदमी कमजोर है। आदमी की सीमाएं हैं। समझ में आती है बात: कभी उदासी भी आ जाती है। कोई मर गया, तो उदास न होओगे तो क्या करोगे? जिस पर बड़ा भरोसा था, वह धोखा दे गया--उदासी स्वाभाविक है। जिसके साथ सोचा था कि जिंदगी भर साथ-साथ रह लेंगे, वह अचानक बीच में विदा हो गया--उदासी स्वाभाविक है। क्षमा की जा सकती है।
क्षणभुंगर भाव क्षमा किए जा सकते हैं। लेकिन धीरे-धीरे होता यह है कि जो क्षणभंगुर भाव हैं, वे स्थायी भाव बन जाते हैं। आदमी उदास ही रहने लगता है। उदासी उसको स्वाभाविक हो जाती है। उसको हंसते देखना बहुत कठिन है। वह हसंता भी है, तो उसकी हंसी में भी उदासी ही झरती है।
ऐसा ही कुछ हुआ होगा। तुम्हें उदासी का कारण दिखाई नहीं पड़ता: इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि जितने तुम अतीत के दिनों में उदास रहे हो, वे सब उदासियां इकट्ठी होती गई हैं। आज उनका ढेर लग गया है। उस ढेर का कोई भी कारण नहीं दिखाई पड़ता। एक-एक बूंद इकट्ठा करते-करते गागर भर गई है। तुमने तो एक-एक बूंद भरी थी, इसलिए गागर कैसे भर गई? गागर के भरे होने का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन कारण तो रहा होगा, क्योंकि इस जगत में अकारण कुछ भी नहीं--चाहे प्रत्यक्ष न हो।
ये दिल अब खराब है
ऐसा खराब कि बर्गे-मुर्सरत तो क्या इसमें खारे-अलम तक नहीं है
न जश्न-ए-बहारां,
न मातम खिजां का
ये दिल अब खराब है लेकिन हमेशा खराब नहीं था
खिले थे यहां फूल भी आरजू के
चुभे थे यहां खार भी जुस्तजू के
ये दिल अब खराब है लेकिन सदा बेनियाजे-बहारो-खिजां तो नहीं था
मैं वो आशिके-रंगो-बू हूं कि जिसने
लहू अपना सर्फे-बहारां किया था।

ये दिल अब खराब है
अब यह दिल बड़ा खराब हो गया, खंडहर हो गया, उदास हो गया, मरघट हो गया है।
ऐसा खराब कि बर्गे-मुर्सरत तो क्या...
खुशी का पत्ता तो क्या।
...इसमें खारे-अलम तक नहीं है
दुख का कांटा भी नहीं है--ऐसा खाली हो गया।
दुख भी हो, तो आदमी इतना उदास नहीं होता। कम से कम कुछ तो रहता है करने को; व्यस्त रहने को कुछ तो रहता है हाथ में; उलझन तो रहती है, उपाय तो रहता है--उलझे रहो कहीं, अपने को भुलाए रहो। कभी ऐसी घड़ी आ जाती है कि उदास होने का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। सुखी होने की कोई नजर मिलती नहीं मालूम होती। सुख का कोई द्वार नहीं खुलता। दुख का कोई कारण नहीं दिखता। आदमी बिलकुल बीच में लटक कर रह जाता है--न घर का, न घाट का।
न जश्न-ए-बहारां,
अब न तो वसंत का कोई उत्सव है।
न मातम खिजां का
और न पतझड़ का रोना है।
ये दिल अब खराब है लेकिन हमेशा खराब नहीं था
खिले थे यहां फूल भी आरजू के
कभी यहां वासनाओं के, इच्छाओं के, कामनाओं के फूल भी खिले थे।
चुभे थे यहां खार भी जुस्तजू के
और जीवन के कांटे भी चुभे थे।
यह दिल अब खराब है लेकिन सदा बेनियाजे-बहारों-खिजां तो नहीं था
आज ऐसा है, लेकिन सदा ऐसा नहीं था।
मैं वो आशिके-रंगो-बू हूं कि जिसने
लहू अपना सर्फे-बहारां किया था
और मैं वह प्रेमी हूं, जिसने कभी वसंत पर अपने खून को न्योछावर किया था।
अतीत में झांकना होगा। तुम आज उदास हो, तो अतीत में देखना होगा। तुम्हारा अतीत उदासी को सघन करता गया है। बूंद-बूंद गागर ही नहीं भर्ती, सागर भी भर जाता है। तुम्हारा अतीत तुम्हारी रात को अंधेरा करता चला गया है। सब तारे छिप गए हैं। आज अचानक कारण नहीं दिखाई पड़ता है, लेकिन कारण पीछे होंगे। तुम्हारी असफल वासनाएं--तुम्हारे वसंतों का पतझारों में बदल जाना; तुम्हारे प्रेम का घृणा में बदल जाना; मित्रों का शत्रु हो जाना--तुम्हारी आशाओं पर सब पानी फिर गया है।
लेकिन यह तुम्हारा ही नहीं है; जिसने पूछा है, उसका ही नहीं है यह मामला--सभी का यही है। एक न एक दिन सभी को ऐसी उदासी आती है। सिकंदरों को भी आती है। जो सब पा लेते हैं, उनको भी आती है। जो हारते हैं, उनको भी आती है। जो जीतते हैं, उनको भी आती है। क्योंकि जीतने पर पता चलता है कि जीतने में कुछ सार नहीं था। व्यर्थ ही मेहनत की। व्यर्थ दौड़े-धूपे। व्यर्थ आपा-धापी की। सब पाकर भी पता चलता है कि कुछ हाथ न लगा, हाथ खाली हैं! हाथ ही खाली नहीं हैं, हृदय भी खाली है। सारा जीवन ऐसे ही मरुस्थल में खो गया। तब एक उदासी घेरती है।
वैसी ही उदासी ने तुम्हें घेरा है। इस उदासी में एक तो तुम्हारा अतीत है। एक कारण खोजना जरूरी नहीं है। तुम्हारा सारा अतीत का इकट्ठा संस्कार उदास तुम्हें कर गया है।
और दूसरी बात, इस उदासी में अभी भी कहीं छिपी हुई भविष्य की आशा है। नहीं तो उदासी टूट जाए। यह तुम्हें समझना थोड़ा कठिन होगा। जब किसी आदमी को तुम निराश देखो, तो यह मत समझना कि उसने आशा छोड़ दी है।
निराश होने का मतलब ही यही होता है कि आशा अभी भी कायम है। हालांकि जिंदगी ने आशा के सब उपाय तोड़ दिए हैं; लेकिन आशा अभी भी कहीं कायम है; नहीं तो बिना आशा के निराश भी कैसे होओगे। जितनी बड़ी आशा होगी, उतनी बड़ी निराशा होती है--उसी अनुपात में होती है। अगर किसी आदमी की सारी आशाएं ही छूट गईं, तो फिर निराशा भी नहीं हो सकती; फिर निराशा क्या!
उसी व्यक्ति को हम संन्यस्त कहते हैं, जिसने आशा करना ही छोड़ दिया। और आशा करना छोड़ा, तो आशा की जो छाया है निराशा, वह भी विदा हो जाती है।
साधारण तर्क तो कहता है कि जब आशा टूटेगी, तो आदमी निराश हो जाएगा। लेकिन वह सच नहीं है। जीवन का अनुभव कुछ और कहता है। अगर आशा सच में ही टूट जाए, आशा का कोई एक धागा भी शेष न रह जाए--अखंड, अविच्छिन्न--तो तुम पाओगे निराशा भी उसी के साथ चली गई।
तुम कहते हो: ‘मन उदास है, कारण दिखाई नहीं पड़ता।’
तो तुम्हारे मन में अभी भी सुख को पाने की आशा है। अभी भी तुम इस संसार में कुछ बना लेना चाहते हो, कर लेना चाहते हो। हालांकि जिंदगी कहती है: हो न पाएगा। तुम कर चुके बहुत बार। जो भी घर तुमने बनाए, गिर गए। जो भी मनसूबे तुमने बांधे, असफल हुए। जो भी नाव तुमने चलाई, वह तुमने डूबते देखी।
तुम्हारे जीवन भर का, अतीत भर का अनुभव कहता है: कुछ हो नहीं सकता। लेकिन तुम्हारे हृदय में छिपी हुई वासना का बीज कहता है: कौन जाने इस बार करो, और हो जाए! निन्यानबे दफा हार गए हो, लेकिन सौवीं बार आदमी जीत जा सकता है।
कहीं अभी भी वासना कुलबुला रही है। बहुत गहरे में दबी होगी, क्योंकि अतीत के अनुभव का ढेर लग गया है उदासी का। लेकिन उस उदासी की राख में कहीं अभी भी वासना का अंगारा है।
रात आई है तो दिलेजार ने सोचा अक्सर
कौन आंखों में सिमट आएगा आंसू बन कर
किसकी जुल्फों के दरीचे से किरन फूटेगी
कब ये जंजीरें-गरां टूटेगी
जाने कब तक इस शबे-तन्हाई से जां छूटेगी
आज की रात भी शायद न मुझे नींद आए
किसकी आहट है कि बढ़ने लगी दिल की धड़कन
कौन हमदर्द है कि तन्हाई के वीराने में
कौन महबूब है इस शब के सियह-खाने में
किसका पैकर है तसव्वुर के सनम-खाने में
जाने-जां तुम हो कि अहसास का बहलावा है
नर्म झोंका है कि आहट है कि खामोशी है
हां, वही हसरत-ओ-मायूसी है।

रात आई है तो दिलेजार ने सोचा अक्सर
रात आती है, तो रोता हुआ दिल सोचने लगता; हारा हुआ दिल फिर भरोसे जगाने लगता; थका-मांदा दिल फिर सपने देखने लगता। सोचता है: कल सुबह होगी; कल फिर यात्रा पर निकलेंगे।
रोज सांझ, दिन भर की हार के बाद, तुम फिर अपने को जुड़ाने लगते हो, फिर इकट्ठा करने लगते हो। दिन तोड़ जाता है, रात तुम फिर अपने को जोड़ लेते हो। सुबह तुम उठ कर फिर चले बाजार।
रात आई है तो दिलेजार ने सोचा अक्सर
कौन आंखों में सिमट आएगा आंसू बन कर
किसकी जुल्फों के दरीचे से किरन फूटेगी
और अगर दिन में नहीं मिल सका प्रेमी, नहीं मिल सकी प्रेयसी, नहीं मिल सका जो चाहा था--तो आदमी सोचता है: सपने में मिलना हो जाएगा।
कौन आखों में सिमट आएगा आंसू बन कर
किसकी जुल्फों के दरीचे से किरन फूटेगी
कब ये जंजीरें-गरां टूटेगी
जाने कब इस शबे-तन्हाई से जां छूटेगी
सोचने लगता है, हर हारा-थका आदमी: यह बोझिल जंजीर कब टूटेगी दुख की? और यह एकाकी रात कब तक एकाकी रहेगी? कब प्यारा मिलेगा? कब प्रिय से मिलन होगा?
और फिर जब तुम इस तरह की कामनाओं से भरते हो, तो मन में सपने उठने शुरू हो जाते हैं।
आज की रात भी शायद न मुझे नींद आए
किसकी आहट है कि बढ़ने लगी दिल की धड़कन
किसी की आहट नहीं है। कोई न आया है, न कोई आएगा। कोई कभी आता नहीं। तुम अकेले हो। तुम्हारा अकेलापन आत्यंतिक है। दूसरे की तलाश व्यर्थ है। दूसरा न मिलता है, न मिल सकता है।
कुछ भी जो पाया जा सकता है, वह तुम्हारे भीतर है। तुम अपने को ही पा लो, तो सब पा लिया।
किसकी आहट है कि बढ़ने लगी दिल की धड़कन
किसी की आहट से दिल की धड़कन नहीं बढ़ती है। दिल की धड़कन बढ़ती है, तो तुम आहट को सोचने लगते हो कि कोई आता होगा। कोई मिलने की उम्मीद बनती है।
कौन हमदर्द है कि तन्हाई के वीराने में
कौन महबूब है इस शब के सियह-खाने में
कौन प्यारा चला आ रहा है इस अंधेरी रात में?...अंधेरा ही अंधेरा है, कोई प्यारा नहीं है।
लेकिन कभी-कभी जब तुम प्रतीक्षा में रत होते हो, तो राहगीर के पैरों की आवाज भी तुम्हें लगती है: शायद प्यारा आ गया! हवा का झोंका द्वार को हिला जाता है, तुम सोचते हो: शायद किसी ने थपकी दी, किसी ने द्वार खटखटाया! सूखे पत्ते रास्ते पर उड़ते हैं हवा में और खड़खड़ की आवाज होती है, तुम चौंक कर बैठ जाते हो कि शायद प्रेमी आ गया!
इंतजार, वासना से भरा इंतजार, उम्मीदों से भरा इंतजार--बड़ी कल्पनाएं, बड़ी कामनाएं करने लगता है।
कौन महबूब है इस शब के सियह-खाने में
किसका पैकर है तसव्वुर के सनम-खाने में
जाने-जां, (हे प्रेयसी!) तुम हो कि अहसास का बहलावा है
तुम हो कि यह भी मन को बहलाने का एक ढंग है।
नर्म झोंका है कि आहट है कि खामोशी है
यह क्या है? हवा का झोंका है? तेरे पैरों की आवाज? यह तेरे आने की आहट है कि या सिर्फ रात का सन्नाटा है, रात की खामोशी है?
हां, वही हसरत-ओ-मायूसी है।
फिर वही आशा है मन में और फिर वही उदासी है। वही हसरत और मायूसी है।
आशा और निराशा साथ चलते हैं--एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; एक ही पक्षी के दो पंख। एक पंख गिर जाए, तो दूसरा भी व्यर्थ हो जाता है।
तुम उदास हो, तो निश्र्चित ही तुम्हारे भीतर कहीं अभी आशा का अंगारा दबा पड़ा है। अभी तुम सोचते हो: इस जिंदगी से कुछ मिल सकता है, अनुभव कहता है: नहीं मिल सकता, लेकिन अनुभव पर अभिलाषा की जीत होती चली जाती है।
अतीत उदास बना रहा है और भविष्य में अभी भी सोचते हो: शायद...शायद ऐसा हो जाए! असंभव भी तो होता है! चमत्कार भी तो घटते हैं।
इस आशा को जाने दो।
इस संसार में कोई चमत्कार नहीं होता। इस संसार में कभी कोई विजय नहीं मिलती। हार यहां भाग्य है। पराजय यहां नियति है। हारते हैं, वे हारते ही हैं; जीतते हैं, वे भी हारते हैं। असफल तो असफल होते ही हैं; सफल भी असफल होते हैं। इस संसार में हम जो भी करें, वह पानी पर किए गए हस्ताक्षरों से ज्यादा नहीं हैं; बन भी नहीं पाते और मिट जाते हैं।
आशा को पूरा विदा कर दो। और तुम अचानक पाओगे: उसी विदाई में उदासी भी गई, निराशा भी गई। और तुम पाओगे: एक शांति उतरने लगी; कोलाहल मिटने लगा; दूसरे की इच्छा न रही। उसी में तुम अंतर्यात्रा शुरू करते हो। अपने भीतर आना हो, तो बाहर से सब आशा-निराशा छूट जानी चाहिए; नहीं तो आंखें भीतर कैसे मुड़ें? कान भीतर कैसे सुनें?
जब तक तुम्हारा मन कहता है: बाहर चलो, कहीं चलो; शायद यहां नहीं मिला राज्य, वहां मिल जाए; शायद यहां सुख नहीं मिला, तो वहां मिल जाए--तब तक तुम भटकते ही रहोगे।
संसार का इतना ही अर्थ है: बाहर की भटकन। और ध्यान का इतना ही अर्थ है: बाहर की भटकन गई, तुम अपने भीतर आ गए; अपने घर में विराजे, विश्राम किया। उस विश्राम में ही तुम पाओगे आनंद।

तीसरा प्रश्न:
कई बार सोचती हूं कि आपसे कुछ पूछूं, आपसे कुछ कहूं। सवाल उठते भी हैं, प्रश्न बनते भी हैं; लेकिन फिर सोचती हूं: ‘यह पूछूं कि वह पूछूं? आज पूछूं कि कल पूछूं? आंखों-आंखों से कुछ पूछूं कि कोरा कागज ही भेजूं?’ फिर बात टल जाती है। घड़ी निकल जाती है। और मन की जिज्ञासा मौन प्रतीक्षा में बदल जाती है। अचानक आपके किसी प्रवचन में, किसी मीठी कथा के कथन में, कोई भूला प्रश्न याद आ जाता है, जो उत्तर बन कर मुस्कुराता है।
पहली बात: पूछो या न पूछो, उत्तर दिए जा रहे हैं। उत्तर मैं दे ही रहा हूं। अगर तुमने धैर्य रखा और न पूछा, तो भी उत्तर मिल जाएगा। अधैर्य किया, पूछा, तो भी उत्तर मिल जाएगा।
और मजे की बात यह है कि जब तुम प्रश्न पूछते हो, तो जो उत्तर मैं देता हूं, उससे दूसरों को तो शायद उत्तर मिल जाए, तुम्हें शायद ही मिले। क्योंकि पूछने वाले का मन बड़ा तनाव से भरा होता है कि ‘मेरे प्रश्न का उत्तर दिया जा रहा है!’ वही अड़चन हो जाती है। वह डरा रहता है, घबड़ाया रहता है--मैं क्या कहूंगा? मैं चोट करूंगा? हिलाऊंगा-डुलाऊंगा? जगाऊंगा?--क्या करूंगा? फूल की तरह मेरा उत्तर आएगा कि पत्थर की तरह मेरा उत्तर आएगा?
जो पूछता है, वह बेचैन हो जाता है। वह तनाव से भर जाता है। ‘उसका’ उत्तर दिया जा रहा है! और अक्सर वह चूक जाता है। दूसरे शांति से सुन लेते हैं। उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है। प्रश्न तो उनका भी यही है। आदमियों के प्रश्नों में भेद क्या हैं? वही तो समस्याएं हैं। वही प्रश्न हैं। आदमी-आदमी में कहां बड़े फर्क हैं? अगर फर्क भी होते हैं, तो बहुत से बहुत अनुपात के होते हैं। किसी को क्रोध ज्यादा है; किसी को काम ज्यादा है; किसी को लोभ ज्यादा है; किसी को मोह ज्यादा है। बस, अनुपात के भेद होते हैं। मात्रा के भेद होते हैं। मूलतः तो प्रश्न वही के वही हैं, क्योंकि आदमी एक जैसे हैं। अज्ञान एक जैसा है। अंधेरा एक जैसा है। भटकन एक जैसी है।
और उत्तर भी कहां अलग-अलग हो सकते हैं! उत्तर भी एक ही है। प्रश्न तो बहुत होंगे; उत्तर एक ही है। सारे उत्तरों में एक ही आकांक्षा है कि तुम भीतर लौट आओ; अपने भीतर आ जाओ। अपने को देख लो। अपने को पहचान लो।
यह ‘सुषमा’ ने पूछा: ‘कई बार सोचती हूं आपसे कुछ पूछूं, आपसे कुछ कहूं। सवाल उठते भी, प्रश्न बनते भी; फिर सोचती हूं: यह पूछूं, वह पूछूं? आज पूछूं, कल पूछूं? आंखों-आंखों से पूछूं कि कोरा कागज ही भेजूं?’
इसी में समय निकल जाता होगा। कोई चिंता न करो। उत्तर तो आ ही जाएगा। तुमने नहीं पूछा, तो भी आ जाएगा। मैं उत्तर दे ही रहा हूं। कोई और पूछ लेगा। किसी बहाने उत्तर आ जाएगा।
लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि मन की यह दशा कि इतना भी तय न कर पाए कि पूछूं कि न पूछूं--शुभ नहीं है। पूछना तो पूछना। नहीं पूछना तो नहीं पूछना। लेकिन मन की यह डांवाडोल स्थिति को सहारा नहीं देना चाहिए। मन हर चीज में डांवाडोल होता है; छोटी-छोटी चीज में डांवाडोल होता है।
अब क्या हर्जा है पूछ लिया तो? इसमें इतना सोचना क्या है? इतना समय सोचने में खराब क्यों करना? मन की एक गलत आदत को इस तरह साथ मिलता है, सहयोग मिलता है। फिर मन धीरे-धीरे सोचने में असमर्थ ही हो जाता है। हर बात में विकल्प खड़े हो जाते हैं; ऐसा करूं, ऐसा करूं!
अब यह ‘सुषमा’ ने पूछा है; उसको विकल्प खड़ा हो जाता होगा: आज यह साड़ी पहननी है, कि यह साड़ी पहननी! आज यह खाना बनाना, कि यह खाना बनाना! ऐसे छोटे-छोटे विकल्प खड़े हो जाते होंगे। और उन छोटे-छोटे विकल्पों में बहुत समय जाया होता है।
जिंदगी को सरल करो। और सरल करना हो, तो मन के विकल्पों को बहुत सहारा मत दो। और धीरे-धीरे मन के विकल्प गिरते चले जाएं, तो निर्विकल्प की दशा करीब आएगी। ये सब विकल्प हैं: ऐसा करूं, वैसा करूं! जो लगे करने जैसा, कर लेना। फिर उस पर और ज्यादा ऊहापोह मत करना।
फिर यह तो प्रश्न की ही बात है। कुछ हर्ज हुआ नहीं जा रहा है पूछा तो; नहीं पूछा तो कुछ खोया नहीं जा रहा है। पूछना हो, पूछ लेना; नहीं पूछना हो, नहीं पूछ लेना। लेकिन यह डांवाडोल होते मन को सहारा मत देना। नहीं तो यह मन की जड़ आदत हो जाएगी।
लोग मेरे पास आ जाते हैं, वे कहते हैं: संन्यास लें कि न लें? मैं उनसे कहता हूं: अगर मैं तुमसे कहूं--कुछ भी कहूं--तो तुम्हारा मन सोचेगा: इनकी मानें कि न मानें? यही तो मन है--यह जो विकल्प खड़ा कर रहा है। यह फिर भी विकल्प खड़ा कर देगा--आज लें, कल लें?
आज जो भाव उठा हो, उसमें गुजरो, उसमें जाओ।
एक ही सूत्र मैं देना चाहता हूं, वह यह है: अगर किसी को हानि न होती हो, तो उसे कर ही लो। उसमें क्या विचार करना है? शुभ करना हो, तो तत्क्षण कर लो। अशुभ करना हो, तो कल पर टालो। पाप को कल पर टालो, पुण्य आज कर लो।
लेकिन आदमी खूब उलटी खोपड़ी है। पाप करना हो, तो अभी कर लेता है! पुण्य करना हो तो कल; सोचता है: कल कर लेंगे, परसों कर लेंगे। कोई तुम्हें गाली देता है, तो तुम यह नहीं सोचते कि इसको गाली का उत्तर दें कि न दें; कि आज दें कि कल दें। तुम तत्क्षण दे देते हो। तुम एक क्षण नहीं चूकते।
गलत को करने में हम बड़ी तत्परता दिखलाते हैं। दुनिया में निन्यानबे प्रतिशत गलत समाप्त हो जाए, अगर हम जरा सा भी रुक जाएं।
डेल कारनेगी ने अपना एक संस्मरण लिखा है कि उसे एक पत्र मिला। डेल कारनेगी ने लिंकन के ऊपर एक व्याख्यान दिया था रेडियो पर और उसमें कुछ तारीख की भूल हो गई। तो लिंकन की भक्त किसी महिला ने उसे पत्र लिखा, खूब गालियां दीं: कि तुम्हें जब तारीखों तक का पता नहीं है, तो तुमने यह जुर्रत कैसे की कि तुम रेडियो पर व्याख्यान करने जाओ? पहले अपनी तारीखें ठीक करो। यह तो छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं। इतना भी तुम्हें पता नहीं है! तुम इसके लिए क्षमा मांगो--सामूहिक। यह लिंकन का अपमान है।
ऐसा उसने कुछ-कुछ लिखा होगा। डेल कारनेगी भी गुस्से में आ गया पत्र को पढ़ कर। खून खौल गया। उसने भी उत्तर लिखा--उतना ही जहरीला। लेकिन रात हो गई थी। और उस वक्त तो नौकर भी जा चुका था, तो उसने सोचा: सुबह डाल देंगे। चिट्ठी रख कर टेबल पर सो गया। गाली-गालौज जितनी देनी थी, वे उसने भी दे डालीं। निश्चिंत, हलका मन होकर सो गया। सुबह उठा, लिफाफे में बंद करते वक्त उसने फिर पत्र को पढ़ा। लगा: यह जरा ज्यादती है। बात तो स्त्री की ठीक ही है कि मुझसे भूल तो हुई है। बजाय क्षमा मांगने के मैं और उलटा नाराज हो रहा हूं!
पत्र उसने सरका कर रख दिया, दूसरा पत्र लिखा। दूसरा पत्र लिखते वक्त उसे खयाल आया कि अगर मैंने रात ही यह पत्र पोस्ट करवा दिया होता, अगर नौकर न गया होता, तो...? सुबह में इतना फर्क हो गया। उसने दोनों पत्र देखे: वह जमीन-आसमान का भेद है! तो उसने सोचा: यह दूसरा पत्र भी अभी नहीं डालूंगा। जल्दी तो कुछ है नहीं, सांझ को फिर एक दफा देखूंगा।
सांझ को देखा, तो तीसरा पत्र लिखा। अब तो बहुत फर्क हो गया। फिर तो उसे लगा कि अभी जल्दी क्या है; वह स्त्री कोई पागल नहीं हुई जा रही है मेरे पत्र के लिए! सात दिन रुका। रोज सुबह पढ़ता--बदलता; रोज शाम पढ़ता--बदलता। सातवें दिन जब वह निश्चिंत हो गया कि अब कुछ बदलने को नहीं बचा, लेकिन पत्र का पूरा रूप बदल गया। कहां वह घृणा और जहर से भरा पत्र था; कहां यह मैत्री और प्रेम से भरा पत्र हो गया।
इस पत्र में उसने लिखा था कि मैं अनुगृहीत हूं। और कभी अगर इस गांव आओ, मेरे गांव आओ, तो मेरे घर ठहरना। मिल कर मुझे खुशी होगी। मेरे ज्ञान में वर्धन होगा। लिंकन के संबंध में मैं ज्यादा नहीं जानता; और जानना चाहता हूं। और क्षमा मांगता हूं, जो भूल हो गई।
छह महीने बाद वह स्त्री उसके गांव आई। इस बीच पत्र-व्यवहार होता रहा। उसके घर ठहरी। और तुम हैरान होओगे कि हालत क्या हुई! वह उसकी पत्नी हो गई! ऐसे वह प्रेम में पड़ा। वह पहला पत्र...तो सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती थीं दो आदमियों के बीच की।
जब बुरा करना हो, तो थोड़ा ठहरना। कल कर लेना, परसों कर लेना। जल्दी क्या है!
गुरजिएफ का दादा मरा, तो उसने कहा गुरजिएफ से--वह छोटा ही था, नौ साल का था--कि तुझसे मेरी एक ही प्रार्थना और एक ही मेरी आज्ञा है; यही मेरी वसीयत है; मेरे पास देने को कुछ भी नहीं; लेकिन मेरे पिता जब मरे थे, मुझे दे गए थे, और उसने मुझे जीवन में बड़े सुख दिए और बड़े आनंद मैंने जीवन में पाए। तू भी याद रखना। तू अभी छोटा है, खूब याद कर ले, ताकि भूल न जाए।
तो गुरजिएफ ने याद कर लिया। दादा इतना ही कह गया था कि अगर कभी क्रोध आए तो जिस पर भी क्रोध आ जाए, उससे इतना कहना की मैं चौबीस घंटे बाद आकर जबाब दूंगा। फिर चौबीस घंटे विचार कर लेना, फिर जबाब दे देना--जैसा भी देना हो।
गुरजिएफ ने लिखा है कि इस एक बात ने मेरी जिंदगी में क्रांति ला दी। क्योंकि चौबीस घंटे बाद जवाब देने जैसा ही न लगा। या तो ऐसा लगा कि उस आदमी ने ठीक ही कहा है, तो मैं जाकर क्षमा मांग आया; या ऐसा लगा कि उस आदमी ने बिलकुल झूठ कहा है, तो झूठ के खिलाफ जबाब देने की जरूरत भी क्या है! चौबीस घंटे में वह जरूरत भी न रह गई।
शुभ करना हो, तो तत्क्षण कर लेना। ऐसा कुछ करना हो जिससे किसी की कोई हानि नहीं हो रही, तो एक क्षण भी सोचने की कोई जरूरत नहीं है।
अब तुम्हें प्रश्न पूछना हो, तो पूछ ही लेना। किसी की कोई हानि नहीं होगी; किसी को लाभ ही हो सकता है। तुम्हारे प्रश्न से शायद किसी को उत्तर मिल जाए। जब किसी दूसरे के प्रश्नों के उत्तर से तुम्हें उत्तर मिलता है, तो तुम्हारे प्रश्न के उत्तर से भी किसी को उत्तर मिल सकता है। कंजूसी क्या? पूछ ही लेना।
‘यह पूछूं कि वह पूछूं? आज पूछूं कि कल पूछूं?’
कोई रुकावट तो है नहीं। यह भी पूछो, वह भी पूछो। और आज भी पूछो और कल भी पूछो। कुछ ऐसा थोड़े ही है कि आज पूछ लिया, तो फिर कल नहीं पूछ सकते; यह पूछ लिया, तो वह नहीं पूछ सकते! पूछने की तुम्हें जैसी सुविधा है, दुनिया में शायद किसी को हो। तुम्हारे सारे प्रश्नों का स्वागत है। तुम्हें कुछ पूछना हो, तो पूछो। तुम्हें कुछ कहना हो, तो कहो।
मेरे-तुम्हारे बीच संवाद चल रहा है। यह कोई विवाद नहीं है। इसलिए चिंता ही नहीं है।
तुम पूछते हो जिज्ञासा से, मुमुक्षा से। जब भी मैं देखता हूं कि किसी ने विवाद की दृष्टि से पूछा है, उसका मैं उत्तर ही नहीं देता हूं, क्योंकि विवादियों में मेरा कोई रस नहीं है।
जब मैं देखता हूं: किसी ने ज्ञान के कारण पूछा है, कि उसको ज्यादा ज्ञान सिर पर चढ़ा है--किसी ने जब इस तरह पूछा कि उसका प्रश्न ‘ज्ञान’ से आ रहा है, तो मैं उत्तर नहीं देता। उसके पास तो ज्ञान है ही, उसे उत्तर की और क्या जरूरत है? उसके पास उत्तर खुद ही है।
जब कोई इस तरह पूछता है कि उसे मालूम ही है, तब मैं उत्तर नहीं देता। लेकिन जब भी कोई इस तरह पूछता है कि उसे मालूम नहीं है, जानने की आतुरता है, प्यास है--तो फिर प्रश्न कैसा भी हो, मैं जरूर उत्तर देता हूं। आज उत्तर न दूं, तो कल दूंगा; कल न दूं, तो परसों दूंगा। क्योंकि मैं प्रतीक्षा करता हूं ठीक क्षण की। जब भी ठीक क्षण आ जाएगा, तुम्हारा प्रश्न उत्तर पाएगा।
पूछ लो, फिर मुझ पर छोड़ दो, फिर जल्दी भी मत करना। कुछ लोग पूछ लेते हैं, फिर वे दूसरे दिन से ही राह देखने लगते हैं। फिर उनको कुछ और सुनाई नहीं पड़ता। उनको अपने प्रश्न की फिकर लगी रहती है कि हमारे प्रश्न का उत्तर अभी तक नहीं दिया!
एक संन्यासिनी है, मुक्ता। नैरोबी से आई है। काफी पूछती है। और उसको मैं उत्तर देता नहीं। तो अब तो वह लिख-लिख कर पत्र भेजने लगी है कि आप सबके उत्तर देते हैं, मेरे उत्तर क्यों नहीं देते? ‘मेरे’ प्रश्न का क्या?
धैर्य रखो। या तो समय अनुकूल न होगा, या तुम्हारी पात्रता न होगी; या तुमने जो पूछा है, उसका उत्तर पाने की अभी तुम्हें जरूरत न होगी; जब जरूरत होगी, तब मिल जाएगा।
‘आंखों-आंखों से कुछ पूछूं कि कोरा कागज ही भेजूं?’
कुछ भी तो करो। आंखों-आंखों से पूछना है, तो आंखों-आंखों से पूछो। कोरा कागज भेजना है, तो कोरा कागज भेजो। कुछ तो करो। ऐसे बैठे ही बैठे सोच-विचार में ही मत पड़े रहो। कुछ लोग होते हैं, ऐसे ही सोच-विचार में जीवन गंवा देते हैं।
मैंने सुना है, एक गणितज्ञ को दूसरे महायुद्ध में युद्ध पर जाना पड़ा। सभी लोग सेना में भर्ती किए जा रहे थे, उसे भी जाना पड़ा। वह बड़ा विचारक था, दार्शनिक था। जो जनरल उसकी कवायद देखने गया, वह हैरान हुआ। जो कैप्टन उसे कवायद करवाता था, वह भी परेशान था, क्योंकि कहा जाए: लैफ्ट टर्न, बाएं घूम--वह खड़ा ही रहे। सारी दुनिया बाएं घूम जाए, सारी रेजीमेंट बाएं घूम गई, वह वहीं खड़े हैं! उसका कैप्टन पूछे: आप क्यों खड़े हैं? वह कहे: मैं सोच रहा हूं कि बाएं घूमूं कि नहीं? या घूमने से फायदा क्या? या फिर अभी थोड़ी देर में दाएं घूमना पड़ेगा, तो ये लोग घूम कर फिर दाएं आ जाएंगे; मैं वहीं खड़ा रहूं; इसमें हर्जा भी क्या है?
कैप्टन बहुत परेशान हुआ। लेकिन वह प्रसिद्ध दार्शनिक था और गणितज्ञ था। एकदम उसको ऐसा कहा भी नहीं जा सकता था। उसका नाम था; ख्यातिलब्ध आदमी था। उसने जनरल को कहा कि आप आकर देख लें, अब मैं क्या करूं इस आदमी के साथ! यह तो कोई छोटी आज्ञा भी मानने को राजी नहीं है! यह कहता है कि सोचता हूं, संगत होगी तो मानूंगा। और फिर मैं देखता हूं कि तुम थोड़ी देर में बाएं घूम कह देते हो, तो फायदा ही क्या है? हम अपनी ही जगह खड़े रहे; लोग फिर अपने वापस उसी जगह आ गए। तो यह बाएं-दाएं घूमने में कुछ सार भी नहीं है। इस आदमी की वजह से दूसरे लोग भी कम सुनते हैं मेरी। वे कहते हैं: उससे कहिए! और यह आदमी प्रतिष्ठित है; मैं इसका अपमान भी नहीं करना चाहता।
जनरल ने देखा। उसने कहा कि इसको ऐसा करो कि मैस में भेज दो। चौके में काम करे कुछ; यह काम का नहीं है मिलिटरी में। क्योंकि यह दाएं-बाएं नहीं घूमता। कल इससे कहें: बंदूक चलाओ; यह कहे: क्यों चलाएं? इसने हमारा क्या बिगाड़ा है? इस आदमी को हम क्यों मारें? इसकी पत्नी होगी, बच्चे होंगे। यह हम नहीं करने वाले। यह जब दाएं-बाएं घूमने में झंझट है इसको, तो और तो आगे जाएगा कहां!
इसीलिए तो मिलिटरी में दाएं-बाएं घुमाते हैं। वह परीक्षा है और प्रशिक्षण है--जड़ बनाने का। तुम्हारा सोच-विचार खत्म हो जाए। बाएं घूम, दाएं घूम--घुमाते-घुमाते-घुमाते एक दिन कहा कि बंदूक चलाओ, तो तब तक आदमी खुद ही हो जाता है--मरने-मारने को तैयार! इतना बाएं-दाएं घुमाते हैं कि उस आदमी की खोपड़ी में एकदम आग जलने लगती है। वह कहता है कि ठीक, अब कुछ भी कर दो। एक मौका मिला है, अब चूको मत। और धीरे-धीरे उसकी बुद्धि और संवेदना क्षीण हो जाती है। फिर वह गोली चला देता है, बम गिरा देता है।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर बम गिराया, उससे जब दूसरे दिन सुबह पूछा, तो उसने कहा: मैं रात निश्चिंतता से सोया, क्योंकि मैंने आज्ञा का पालन किया। एक लाख आदमी मर गए और यह आदमी रात निश्चिंतता से सोया। तो इसकी बुद्धि बिलकुल क्षीण हो गई। इसने एक भी बार रात यह नहीं सोचा कि एक लाख आदमी! मेरे बम गिराने से राख हो गए!
अपार पीड़ा झेली उन्होंने। नरक भी फीका है उस पीड़ा के सामने। छोटे बच्चे थे, निरीह बच्चे थे। गर्भ में थे बच्चे, वे भी जल कर राख हो गए! स्त्रियां थीं, जिन्होंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। नागरिक थे। क्योंकि हिरोशिमा कोई मिलिटरी कैंप नहीं था, आम आदमियों की बस्ती थी। लेकिन इस आदमी को निश्चिंतता रही; रात आराम से सोया; काम पूरा कर आया! जो आज्ञा मिली थी, पूरी कर दी।
इस आदमी के साथ जो दूसरा आदमी बैठा था, जिसका जिम्मा था कि वह बताएगा, कब बम गिराया जाए, जो सिग्नल देगा बम गिराने का--वह आदमी नहीं सो सका रात भर। रात भर क्या, वह तीन महीने तक नहीं सो सका। वे जो लपटें उसने देखी थीं, वह जो चीख-पुकार सुनी थी!...उसने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। उसके मन में यह घाव इतना गहरा लगा...और उसे पता नहीं था कि यह जो आज्ञा दे रहा है, यह एटम बम गिरेगा इससे। यह तो उसे कुछ पता नहीं था। वह तो हमेशा ही साथ होता था, बम गिराने के लिए आज्ञा देता था। जैसे साधारण बम थे, उसने सोचा यह भी साधारण बम है। उसे कुछ पता ही नहीं था। उसे तो सिर्फ सिग्नल देना था कि यह ठीक जगह आ गई, अब बम गिरा दो।
बम में क्या है--साधारण बम है कि एटम बम है--इसे कुछ पता नहीं था। यह तो दूसरे दिन से उसे पता चला कि जो भयानक कांड हो गया है, उसमें मेरा भी हाथ है। वह बड़ा उद्विग्न हो गया। उसने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। और अमरीका में प्रचार करने लगा जा-जा कर, गांव-गांव--अणु बम के विरोध में--अणु बम पर पांबदी लगनी चाहिए। और उसकी बात का बल था, क्योंकि उस आदमी ने हिरोशिमा अपनी आंख से देखा था। नीचे उठती लपटें और चीख-पुकार और वह नरक! वह तांडव नृत्य मृत्यु का! उसकी बात में बल था। सरकार थोड़ी भयभीत हुई। उसकी बात लोग सुनते थे, गौर से सुनते थे। सरकार ने एक आयोग नियुक्त किया बीस मनोवैज्ञानिकों का। और उन मनोवैज्ञानिकों के आयोग ने उस आदमी को पागल करार देकर पागलखाने में रख दिया।
अब यह बड़ी अजीब बात हुई! पहला आदमी पागल मालूम होता है, जिसने एक लाख लोग मार डाले और रात, कहता है, मैं निश्चिंतता से सोया, क्योंकि आज्ञा पूरी कर दी। यह दूसरा आदमी पागल नहीं है, मगर सरकार इसको पागल घोषित करवाती है।
इस दुनिया में अगर तुम्हारे पास हृदय है, तो तुम पागल समझे जाओगे। अगर तुम्हारे पास संवेदनशीलता है, तो तुम पागल समझे जाओगे। यह दुनिया बड़ी अजीब है। यहां पागल राजनेता बने बैठे हैं! यहां पागलों के गिरोह राजधानियों में अड्डा जमाए बैठे हैं!
तो वह दार्शनिक आदमी था। ‘बाएं घूम, दाएं घूम’--सुनता नहीं था। कहता: सोचूंगा, विचारूंगा, फिर करूंगा। बिना सोचे-विचारे तो कोई कृत्य कैसे किया जाए!
उसे भेज दिया गया किचन में। जनरल उसके पीछे आया और उसने कहा: तुम एक छोटा सा काम करो। ये देखते हो मटर के दाने; बड़े-बड़े एक तरफ कर दो, छोटे-छोटे एक तरफ कर दो। दो ढेरी लगा दो।
दो घंटे बाद लौट कर आया देखा कि वह आदमी वहीं बैठा है सिर पर हाथ लगाए। मटर के दाने वैसे ही एक ढेरी में पड़े हैं। जनरल ने पूछा: अब यह क्या कर रहे हो? अभी तक कुछ शुरू नहीं किया! काम बहुत कठिन है?
उसने कहा: बहुत कठिन है। क्योंकि कुछ बड़े हैं, कुछ छोटे हैं, कुछ मझोल हैं। और मझोल को कहां करना! इस तरफ कि उस तरफ?
ऐसे ही ‘सुषमा’ का प्रश्न है: ‘आंखों-आंखों से पूछूं कि कोरा कागज भेजूं? यह पूछूं कि वह पूछूं? आज पूछूं कि कल पूछूं?’
अगर किसी का अहित न होता हो, तो देर की कोई भी जरूरत नहीं है। और किसी का अहित होता हो, तो जितनी देर कर सको, उतनी जरूरत है। अगर बम गिराना हो, तो खूब सोचना कि गिराऊं कि न गिराऊं।मटर के दाने ही अगर करने हैं अलग, क्या फर्क पड़ता है कि एकाध मझोल इस तरफ चला गया कि उस तरफ चला गया!
निर्दोष कुछ कृत्य हो, तो देर की जरूरत नहीं है। निर्दोष कृत्य में चिंतन को लाने से देर होगी। दोषी कृत्य में चिंतन को ले आओ। दोष को करने के पहले खूब सोचो; और तुम दोष से मुक्त हो जाओगे, क्योंकि कभी न कर पाओगे। और अगर तुमने पुण्य को करने के लिए बहुत सोचा-विचारा, तो तुम पुण्य से छूट जाओगे, तुम पुण्य कभी न कर पाओगे।
शबनमी पलकें उठा लूं या झुका लूं!

रश्मियों में चांद की किसका निमंत्रण मिल रहा है
कौन है जो दूर होकर भी किसी को छल रहा है
अनमिले वरदान की कुछ चाह ऐसी आ गई है
प्यार से तुमको बुला लूं या सजा लूं
शबनमी पलकें उठा लूं या झुका लूं!

कल्पनाओं में पले अरमान मन के छटपटाते
चीर नभ का तम, सजीले मेघ रह-रह मुस्कुराते
याद धुंधली पड़ गई है, आज फिर भी कसमसाती
दीप आशा का बुझा लूं या जला लूं
शबनमी पलकें उठा लूं या झुका लूं!

जानती मैं भी नहीं, पर चाहती तुमको बताना
भोर की पलकें उनींदी देखती सपना सुहाना
मांग में सिंदूर भर उषा चली रवि को रिझाने
स्वप्न की हर बात कह दूं या छिपा लूं
शबनमी पलकें उठा लूं या झुका लूं!
नहीं; इसी सोच-विचार में ‘सुषमा’ उलझी खड़ी मत रहो। समय के ये क्षण बहुमूल्य हैं, जो तुमने मेरे पास बिताए। इनको व्यर्थ के विकल्पों में नष्ट मत करो। मेरे साथ निर्विकल्प होकर रहो।
और निर्विकल्प होने का एक ही उपाय है: शुभ हो--करने में देरी मत करना।
मन की यह डांवाडोलपन स्थिति को समाप्त करना है। और जिस दिन मन का डांवाडोलपन समाप्त हो जाता है, उसी दिन मन भी समाप्त हो जाता है। क्योंकि मन यानी डांवाडोलपन।
तुमने देखा, सागर में लहरें उठ रही हैं! बवंडर है, तूफान है। फिर लहरें खो गईं, शांत हो गईं। फिर तुमसे कोई पूछे कि अब तूफान कहां है, तो क्या कहोगे? क्या तुम ऐसा कहोगे कि तूफान अब शांत हो गया है? यह बात ठीक नहीं होगी। तूफान अब नहीं ही है; शांत क्या हो गया है? तब था, अब नहीं है।
ऐसा ही मन है: डांवाडोलपन, तरंगें, यह-वह, विकल्प, हजार-हजार विकल्प, हजार-हजार रास्ते! और आदमी ठिठका खड़ा है; कंप रहा है--यह करूं, वह करूं! ऐसा ही मन है। जिस दिन तुम पाओगे: यह करने का डांवाडोलपन समाप्त हो गया, उसी दिन मन भी समाप्त हो गया। फिर सागर है--तरंग-रहित।
ऐसा समझो: मन तुम्हारी डांवाडोल दशा का नाम है; और आत्मा तुम्हारी शांत दशा का नाम है। तुम वही हो। जब डांवाडोल हो जाते हो, तो मन बन जाते हो। जब डांवाडोलपन चला जाता है, तो आत्मा बन जाते हो।
आत्मा और मन एक ही ऊर्जा की दो दशाएं हैं।
लेकिन प्रश्न प्यारा है। चलो, इतना तो पूछा! यह भी पहली बार ही पूछा है। इस बार तो हिम्मत की। कुछ खास इसमें पूछा नहीं है, लेकिन पूछा तो! यह प्रश्न लिख कर तो भेजा!
प्रश्न प्रेमपूर्ण है।
अक्सर ऐसा होता है कि जिनकी बुद्धि बहुत-बहुत विचारों से भरी है, उन्हें प्रश्न पूछना आसान होते हैं। लेकिन जब प्रश्न हृदय से उठते हैं, तो कठिन होते हैं। पहले तो वे बनते ही नहीं, ठीक-ठीक शब्दों में अंटते नहीं।
शायद इसीलिए ‘सुषमा’ सोचती होगी: ‘आंख ही आंख से पूछूं कि कोरा कागज भेज दूं?’
क्योंकि हृदय के प्रश्न भाषा में आते नहीं। प्रेम भाषा में नहीं आता। आता है, तो ऐसा लगता है, बहुत अधूरा आया। अंग-भंग हो जाता है। खंडित हो जाता है। किसी तरह भाषा में समा भी दो, तो ऐसा लगता है: जो समाने चले थे, वह तो नहीं समाया; यह कुछ और हो गया। रूप बदल जाता है।
ऐसे ही जैसे तुम, अभी सूरज की रोशनी बरसती है, पक्षियों के गीत हैं, हवाओं में गंध है--इस सबको एक पेटी में बंद कर लो और घर ले जाओ और घर जाकर पेटी खोलो, वहां कुछ भी नहीं मिलेगा: न सूरज की किरणें, न पक्षियों के गीत, न हवा की सुवास, कुछ भी नहीं--खाली पेटी! हालांकि तुमने जब पेटी बंद की थी, तो सूरज की किरणें पड़ रही थीं पेटी पर; हवा की गंध उड़ रही थी; पक्षियों के गीत हवा में थे; सब था; लेकिन जब पेटी बंद करके ले गए, तो पेटी में कुछ भी न आया।
शब्द ऐसे ही हैं; उनमें प्रेम नहीं बंध पाता। प्रेम बड़ा सूक्ष्म; शब्द बड़े स्थूल।
इसलिए भक्त रोता है; कह नहीं पाता। आंसू से कहता है। इसलिए भक्त नाचता है; कह नहीं पाता। नृत्य से कहता है। इसलिए भक्त बोलता नहीं; मौन हो जाता है। मौन से कहता है।
जो प्रेमी की पीड़ा है, वही भक्त की पीड़ा है--हजार गुनी होकर।
तुमको बांध चुकी हूं मन में!

संध्या की बेला यह सूनी
आकुलता बढ़ जाती दूनी
रवि भी बंधा हुआ है देखो
अपनी किरणों के बंधन में
तुमको बांध चुकी हूं मन में!

बैठ नीड़ में चोंच मिला कर
अपने उर में स्वर्ग बसा कर
पक्षी कहते: जान गए हम
सुख से रहना इस जीवन में
तुमको बांध चुकी हूं मन में!

बांध तुम्हें क्या, मुक्त बनी मैं
पीड़ाओं की बनी धनी मैं
समझोगे तब, खो जाऊंगी
जब मैं अपने सूनेपन में
तुमको बांध चुकी हूं मन में!
प्रेम बांधता है--मनुष्य को मनुष्य से; सीमा को सीमा से। तब भी भाषा असमर्थ हो जाती है--उस मिलन को भी प्रकट करने में असमर्थ हो जाती है। लेकिन जब कोई परमात्मा के प्रेम में पड़ता है, तब तो सीमा का असीमा से मिलन होता है; स-अंत का अनंत से मिलन होता है। तब तो बात और भी मुश्किल हो जाती है।
तो कुछ हर्ज नहीं है, अगर कभी कोरा कागज भी भेज दो। मैं समझूंगा; मैं पढ़ लूंगा। और कुछ हर्ज नहीं है, अगर कभी आंखों-आंखों से कह दो। कुछ हर्ज नहीं है--कभी रो कर, कभी नाच कर, कभी गुनगुना कर कह दो। कुछ हर्ज नहीं है--कभी चुप रह कर कहो। मगर कहो। डांवाडोल मत होते रहो। निर्णायक बनो। निर्णय लेते-लेते, थिर होते-होते, मन एक दिन विसर्जित हो जाता है।

आखिरी प्रश्न:
आपकी बातें सुनता हूं, तो प्रभु-खोज के विचार उठते हैं। लेकिन समझ नहीं पड़ता कि कहां से शुरू करूं!
कहीं से भी शुरू करो--शुरू करो। परमात्मा सब तरफ है। जहां से भी शुरू करोगे, उसी में शुरू होगा। ‘कहां से शुरू करूं’--इस प्रश्न में मत उलझो। क्योंकि परमात्मा तो एक तरह का वर्तुल है। इसलिए तो दुनिया में इतने धर्म हैं, क्योंकि इतनी शुरुआतें हो सकती हैं। दुनिया में तीन सौ धर्म हैं। दुनिया में तीन हजार भी धर्म हो सकते हैं, तीन लाख भी हो सकते हैं, तीन करोड़ भी हो सकते हैं। दुनिया में असल में उतने ही धर्म हो सकते हैं, जितने लोग हैं। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की शुरुआत दूसरे से थोड़ी भिन्न होगी। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से थोड़ा भिन्न है।
कहीं से भी शुरू करो। इस प्रश्न को बहुत मूल्य मत दो। मूल्य दो शुरू करने को। शुरू करो। और ध्यान रखो कि जब भी कोई शुरू करता है, तो भूल-चूक होती है! ‘कहां से शुरू करूं’--यह बहुत गणित का सवाल है। इसमें भय यही है कि कहीं गलत शुरुआत न हो जाए; कि कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए! कहां से शुरू करूं!
अगर बच्चा चलने के पहले यही पूछे कि कहां से शुरू करूं, कैसे शुरू करूं, कहीं गिर न जाऊं, घुटने में चोट न आ जाए, तो फिर बच्चा कभी चल नहीं पाएगा। उसे तो शुरू करना पड़ता है। सब खतरे मोल ले लेने पड़ते हैं। सब भय के बावजूद शुरू करना पड़ता है। एक दिन बच्चा उठ कर जब खड़ा होता है पहले दिन, तो असंभव लगता है कि चल पाएगा। अभी तक घसिटता रहा था, आज अचानक खड़ा हो गया।
मां कितनी खुश हो जाती है, जब बच्चा खड़ा होता है! हालांकि खतरे का दिन आया। अब गिरेगा। अब घुटने तोड़ेगा। अब लहूलुहान होगा। सीढ़ियों से गिरेगा। अब खतरे की शुरुआत होती है। जब तक घसिटता था, खतरा कम था, सुरक्षा थी। मगर सुरक्षा में ही कब तक कैद रहोगे!
बच्चे को चलना पड़ेगा। खतरा मोल लेना पड़ेगा; अन्यथा लंगड़ा ही रह जाएगा। और कई बार गिरेगा।...
जब बच्चा पहली दफा बोलना शुरू करता है, तो तुतलाता ही है; कोई एकदम से सारी भाषा का मालिक तो नहीं हो जाएगा! कौन कब हुआ है! तुतलाएगा। भूले होंगी। कुछ का कुछ कहेगा; कुछ कहना चाहेगा, कुछ निकल जाएगा। लेकिन बच्चे हिम्मत करते हैं तुतलाने की। इसलिए एक दिन बोल पाते हैं। तुतलाने की हिम्मत करते हैं, इसलिए एक दिन कालिदास और शेक्सपीयर भी पैदा हो पाते हैं। तुतलाने की कोशिश करते हैं, इसलिए एक दिन बुद्ध और क्राइस्ट भी पैदा हो पाते हैं।
तो तुम जब शुरू करोगे, तो यह तो तुतलाने जैसा होगा। इसमें तुम पूर्णता की अपेक्षा मत करना। यह तो अभी घसिटते थे, अब उठ कर खड़े हुए--खतरनाक है। भूल-चूक होने ही वाली है। भूल-चूक होगी ही। जो भूल-चूक से बचना चाहेगा, वह कभी चल न सकेगा, बोल न सकेगा। वह जी ही न सकेगा।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि भूल-चूक से बचने वाले लोग वंचित ही रह जाते हैं जीवन की संपदा से। दुनिया में एक ही भूल-चूक है और वह भूल-चूक है: भूल-चूक से बचने कि अतिशय चेष्टा।
तुम पूछते हो: ‘आपकी बातें सुनता हूं, तो प्रभु-खोज के विचार उठते हैं। लेकिन समझ नहीं पड़ता कि कहां से शुरू करूं!’
कहीं से भी शुरू करो। मस्जिद से शुरू करो, मंदिर से शुरू करो, गुरुद्वारे से शुरू करो, मूर्ति से शुरू करो। कुरान-गीता, वेद-पुराण, कहीं से शुरू करो। नदी-पहाड़-पत्थर, किसी की भी पूजा से शुरू करो। मगर शुरू करो। अगर तुम मेरी सलाह मानना चाहते हो तो मैं कहूंगा: प्रकृति से शुरू करो। क्योंकि प्रकृति में ही परमात्मा छिपा है। वृक्षों को देखो; फूलों को देखो; चांद-तारों को देखो; नदी-सागरों को देखो। परमात्मा इन सबमें छिपा है। यहीं तलाशो।
तो पहला परमात्मा का कदम प्रकृति से उठाओ। प्रकृति में दिख जाए, तो फिर सब जगह दिखाई पड़ने लगेगा।
अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि टेनीसन ने कहा है...एक फूल को देखा खिला हुआ और एक आश्र्चर्यजनक स्थिति में देखा खिला हुआ। एक पत्थरों की दीवाल में, जरा सी पत्थरों के बीच में संध थी, उसमें से फूल निकल आया था। चौंक कर खड़े हो गए टेनीसन और उन्होंने अपनी डायरी में लिखा: अगर मैं इस एक फूल को समझ लूं पूरा-पूरा, तो मुझे सारा अस्तित्व समझ में आ जाएगा। और परमात्मा की सारी लीला भी। एक फूल में सब छिपा है। एक फूल में!
सरेशाम फिर बाग में आ गया हूं
इसी मखजने-रंगों-बू की लगन में
की जिसने कभी रूह को ताजगी
कैफो-मस्ती की दौलत अता की
फजां को दिलावेजी-ए-जाविदां दी
निगाहों को हुस्ने-तलब के नये जाविए
दिल को तहजीबे-जजबात दे कर
रिवायत से प्यार करना सिखाया
यहां कासनी ऊदे-ऊदे, गुलाबी, शहाबी
सभी फूल हैं
सब्जाजारों में जाएं तो बेले की खुशबू
फरावां-फरावां
कहीं मोतिए और चमेली की महकार राहत-बदामां
गुलाबों के तख्तों में हरदीदा-ओ-दील की तसकीं का सामा
यहां ढाक है
जिसके फूलों से मुगलों ने अपनी तस्वीर के रंग उभारे
उसी ढाक के रंग की दिलकशी से
‘बसावन’ ने, ‘दसवंत’ ने मुगल-ए-आजम के दरबार में दाद पाई
यहां एक बूढ़ा शजर भी है
जो जीस्त के खारजारों से तंग आ के गौतम बना
ज्ञान में महब है
सुबक गाम वादे-मुअत्तर के झोंकों से फरहां व शादां
हुजूमे गुलो-रंग पर तब्सिरे कर रहे हैं

सरेशाम फिर बाग में आ गया हूं
शाम से ही, संध्या से ही बगीचे में आ गया हूं।
इसी मखजने-रंगों-बू की लगन में
यह रंग और सुंगध का खजाना मुझे खींच लाया है।
कि जिसने कभी रूह को ताजगी
कैफो-मस्ती की दौलत अता की
क्योंकि इसी से कभी-कभी जीवन में मस्ती आई; और इसी से कभी-कभी आनंद का स्वाद मिला; और इसी से कभी-कभी आत्मा की झलक मिली।
कि जिसने कभी रूह को ताजगी
कैफो-मस्ती की दौलत अता की
इसलिए तो कभी सागर को देखते-देखते ध्यान की झलक आ जाती है। कभी हिमालय पर शांत हरियाली को देखते-देखते तुम्हारे भीतर कुछ हरा हो जाता है। कभी गुलाब की पंखुड़ियों को खुलते देखते-देखते तुम्हारे भीतर कुछ खुल जाता है।
हम इस प्रकृति के हिस्से हैं। हम भी एक पौधे हैं। हमारी भी यहां जड़ें हैं। यह जमीन जितनी वृक्षों की है, उतनी हमारी है। ये वृक्ष जैसे जमीन से पैदा हुए, हम भी पैदा हुए हैं। सागर में जो जल लहरें ले रहा है, वही जल हमारे भीतर भी लहरें ले रहा है। वृक्षों में जो हरियाली है, वही हमारा जीवन भी है।
कि जिसने कभी रूह को ताजगी
कैफो-मस्ती की दौलत अता की
फजां को दिलावेजी-ए-जाविदां दी
और इस सौंदर्य को देखते हो--इसने प्रकृति को कैसी अमरता दी है। वृक्ष आते हैं, चले जाते हैं--हरियाली बनी रहती है; हरियाली अमर है। फूल आते हैं, चले जाते हैं--फुलवारी बनी रहती है; फुलवारी अमर है। आज एक पौधा है, कल दूसरा होगा, परसों तीसरा होगा, लेकिन तीनों किसी एक ही जीवन के अंग हैं। एक ही सिलसिला है। एक ही सातत्य है।
फजां को दिलावेजी-ए-जाविदां दी
निगाहों को हुस्ने-तलब के नये जाविए
और जिसने प्रकृति को देखा, उसी को देखने के नये कोण, नई दृष्टियां, नये दर्शन उपलब्ध होते हैं।
निगाहों को हुस्ने-तलब के नये जाविए
उसी को सौंदर्य को परखने की नई आंख मिलती है, नई कसौटियां मिलती हैं।
दिल को तहजीबे-जजबात दे कर
और उसी प्रकृति के माध्यम से भावना को सभ्यता मिलती है। जो लोग प्रकृति से अपरिचित हैं, उनकी भावना असभ्य होती है। जिसने कभी फूल खिलते नहीं देखा, वह आदमी अभी पूरा आदमी नहीं। और जिसने कभी पक्षियों के गीत शांति से बैठ कर नहीं सुने, और जो आदमियों की आवाज ही सुनता रहा है, वह आदमी पूरा आदमी नहीं। और जिसने कभी रात के चांद-तारों से गुफ्तगू न की, वह आदमी आदमी नहीं; वह आदमी बहुत अधूरा है।
लंदन में कुछ वर्षों पहले एक गणना की गई--लंदन के बच्चों की। उनसे कुछ प्रश्न पूछे गए। जब मैंने गणना देखी, तो मेरा हृदय आंसुओं से भर गया। लंदन के दस लाख बच्चों ने यह कहा है कि उन्होंने गाय नहीं देखी, खेत नहीं देखे।
सीमेंट से पटी सड़कें जिंदगी की खबर नहीं देती, मौत की खबर देती हैं। सीमेंट के खड़े हुए आकाश छूते मकान, जहां से वृक्ष विदा हो गए हैं, वहां से परमात्मा भी विदा हो गया है।
मशीनें और आदमी की बनाई हुई चीजें कैसे तुम्हें परमात्मा की खबर दें! आदमी की बनाई चीजें आदमी की खबर देती हैं। कारें हैं, ट्रेनें हैं, हवाई जहाज हैं, बड़े कल-कारखाने हैं, धुआं फेंकती हुई उनकी बड़ी चिमनियां हैं, बड़े ऊंचे मकान हैं, चौड़े सपाट सीमेंट के रास्ते हैं--इसमें तुम परमात्मा को कहां खोजोगे! इससे तुम्हें अगर परमात्मा के संबंध में शक होने लगे, तो आश्र्चर्य क्या!
परमात्मा को खोजना हो, तो वहां खोजो, जहां चीजें बढ़ती हैं। बड़े से बड़ा मकान भी अपने आप नहीं बढ़ता। उसमें जीवन नहीं है। और लंबे से लंबा रास्ता भी अपने आप नहीं बढ़ता। उसमें जीवन नहीं है। एक बीज में ज्यादा छिपा है; जितना लंदन में, न्यूयार्क या बंबई में छिपा है, उससे ज्यादा एक छोटे से बीज में छिपा है, क्योंकि बीज बढ़ता है। बीज में जीवन छिपा है और जीवन में परमात्मा छिपा है।
दिल को तहजीबे-जजबात दे कर
और जिस आदमी ने आदमी की बनाई चीजें देखीं, वह आदमी कठोर हो जाएगा। जिसने परमात्मा की कोमल बनाई चीजें देखीं, वह आदमी भावनाओं की दृष्टि से सभ्य हो जाएगा।
दिल को तहजीबे-जजबात दे कर
रिवायत से प्यार करना सिखाया
और जिसने प्रकृति को देखा, वही शाश्र्वतता को प्रेम कर पाएगा, क्योंकि वह देखेगा: यहां सब शाश्र्वत है। गुलाबों के फूल बहुत हुए और गए, लेकिन गुलाब का फूल बना है। कुछ फर्क नहीं पड़ता--एक फूल जाता है, दूसरा उसकी जगह भर देता है। परमात्मा का सृजन अनंत है।
यहां कासनी ऊदे-ऊदे गुलाबी, शहाबी
सभी फूल हैं
और इस प्रकृति को तुम देखोगे, तो तुम्हें समझ में आएगा: यहां कितने-कितने ढंग के फूल हैं! कितने रंग, कितने ढंग! कितने अद्वितीय! कहां गुलाब, कहां गेंदा, कहां कमल, कहां चंपा, कहां चमेली! सब कितने अलग! और सबमें एक का ही वास है। और सबमें एक की ही है सुवास है।
ऐसे ही लोग भी अलग-अलग हैं! ऐसे ही लोग भी भिन्न-भिन्न हैं। उनकी प्रार्थनाएं भी भिन्न-भिन्न होंगी। उनकी भावनाएं भी भिन्न-भिन्न होंगी।
प्रकृति को देखोगे, तो तुम्हें भिन्नता में एकता दिखाई पड़ेगी। और जिसको भिन्नता में एकता दिखाई पड़ गई, उसको मनुष्य का अंतःस्तल दिखाई पड़ गया।
यहां कासनी ऊदे-ऊदे, गुलाबी, शहाबी
सभी फूल हैं
सब्जाजारों में जाएं तो बेले की खुशबू
और अगर जरा भीतर घुसें तो बेले की महक, बेले की खुशबू!
फरावां-फरावां
और जैसे-जैसे पास जाओ वैसे-वैसे बढ़ती जाती है।
फरावां-फरावां
कहीं मोतिए और चमेली की महकार राहत-बदामां
कहीं मोतिए, कहीं चमेली की महकार, आनंददायी महकार!
गुलाबों के तख्तों में हरदीदा-ओ-दिल की तस्कीं का सामां
और हर फूल में, अगर तुम्हारे पास देखने की आंख हो, तो तुम्हारे दुखों को छीन लेने की सामर्थ्य है; तुम्हारी बेचैनी को छीन लेने की सामर्थ्य है।
गुलाबों के तख्तों में हरदीदा-ओ-दिल की तस्कीं का सामां
नजर और दिल को संतुष्ट कर दे, ऐसा रहस्य, ऐसा जादू चारों तरफ छाया हुआ है।
यहां ढाक है
जिसके फूलों से मुगलों ने अपनी तस्वीर के रंग उभारे
यहां ढाक नाम का वृक्ष है, जिसके रंग मुगल-चित्रकला में दिखाई पड़ेंगे।
उसी ढाक के रंग की दिलकशी से
‘बसावन’ ने, ‘दसवंत’ ने मुगले-ए-आजम के दरबार में दाद पाई
ये दो चित्रकार थे अकबर के जमाने में--बसावन और दसवंत। उन्होंने ढाक के रंगों से ही चित्र रंगे हैं और बड़ी दाद पाई, बड़ी इज्जत पाई।
यहां एक बूढ़ा शजर भी है
यहां एक बूढ़ा वृक्ष भी है।
यहां एक बूढ़ा शजर भी है
जो जीस्त के खारजारों से तंग आ के गौतम बना
जो जिंदगी के दुखों, पीड़ाओं, कष्टों, जो जिंदगी के कांटों से बहुत परेशान होकर गौतम बन गया है।
यहां एक बूढ़ा शजर भी है
जो जीस्त के खारजारों से तंग आ के गौतम बना
ज्ञान में महब है
जो अपने ध्यान में बैठा है। जो शांत हो गया है। जिसने बाहर से आंख बंद कर ली है। जो अपने भीतर डूब गया है।
यहां एक बूढ़ा शजर भी है
जो जीस्त के खारजारों से तंग आ के गौतम बना
ज्ञान में महब है
सुबह गाम वादे-मुअत्तर के झोंकों से फरहां व शादां
हुजूमे गुलो-रंग पर तब्सिरे कर रहे हैं
और मंद गति से सुगंधित हवा आ रही है, प्रसन्न हवा आ रही है। और हवा फूलों के रंगों पर विचार-विमर्श कर रही है। हर फूल के पास थोड़ी देर ठहरती है, देखती है, रस लेती है; आगे बढ़ जाती है, सोचती है।
प्रकृति के पास जाओ।
तुम पूछते हो: ‘कहां से शुरू करें?’
मैं कहता हूं: प्रकृति से शुरू करो। प्रकृति में डूबने लगो। एक घंटा तो कम से कम खोज ही लो, जो आदमियों से दूर, एक दूसरी भाषा में, एक दूसरे जगत में तुम्हें ले जाए।
आदमी जरूरत से ज्यादा आदमी से भर गया है। उससे छुटकारा चाहिए।
थोड़ा दरवाजा खोलो। और प्रकृति श्रेष्ठतम है, जहां से राह बन सकती है। और जब प्रकृति को देखने की तुममें सामर्थ्य आ जाएगी, तो तुम अचानक पाओगे--परमात्मा दूर नहीं, यहीं छिपा है। यह सारा राग-रंग उसी का है। इस सबके पीछे उसी का हाथ है और इस सबके पीछे उसी के प्राण की धड़कन है। उसी का हृदय धड़क रहा है।
आदमी में ही रहे, आदमी में ही उलझे रहे, तो चूकते चले जाओगे। आदमी को भूलो--बिसारो।
मैं तुमसे यह नहीं कहता हूं कि तुम सदा के लिए जंगल भाग जाओ। मैं तुमसे यह भी नहीं कहता हूं कि तुम सदा के लिए वृक्षों और पौधों के हो जाओ। वह भी गलती होगी। क्योंकि ऐसे तो जिस दिन तुम्हें समझ आएगी, तुम पाओगे: आदमी भी उसी की अभिव्यक्ति है। उसकी सबसे बड़ी अभिव्यक्ति आदमी है। फूलों में कुछ भी नहीं फूला है--आदमी में चैतन्य फूला है।
मगर शुरुआत करो--अ ब स से। आदमी को शायद तुम अभी समझ भी न पाओ। शुरुआत करो--तुतलाने से। फिर यह आदमी नाम के महाकाव्य को भी समझ पाओगे।
जिस दिन फूल में तुम्हें परमात्मा की छवि दिख जाएगी, उस दिन क्या तुम्हें लोगों की आंखों में परमात्मा नहीं दिखाई पड़ेगा? कौन फूल लोगों की आंखों से मुकाबला कर सकता है? जिस दिन तुम्हें फूलों में परमात्मा दिखाई पड़ेगा, उस दिन मुस्कुराहट में किसी के ओंठों पर तुम्हें परमात्मा नहीं दिखाई पड़ेगा? कौन फूल आदमी की मुस्कुराहट का मुकाबला कर सकता है? हां, फूल चटखते हैं और उनकी आवाजें होती हैं; लेकिन जब कोई हंसता है और जब फुलझड़ी झरती है हंसी की, तो कौन फूल उसका मुकाबला कर सकता है?
माना कि वृक्ष हरे हैं, और माना कि वृक्ष बड़े शांत हैं; मगर कौन आदमी की मस्ती, और आदमी के जीवन, और आदमी की उमंग, और आदमी के उत्साह का मुकाबला कर सकता है?
यह सच है कि कभी तुम्हें एक बूढ़ा वृक्ष मिल जाए, जो अपने भीतर शांत बैठा है, मौन बैठा है, ध्यान में डूबा है। लेकिन गौतम बुद्ध का मुकाबला तो कोई भी वृक्ष न कर पाएगा--वह वृक्ष भी नहीं, जिसके नीचे बैठ कर गौतम बुद्ध बुद्ध बने।
मनुष्य की चेतना तो आत्यंतिक, आखिरी फूल है जगत के अस्तित्व का। इसलिए मैं यह नहीं कहता कि आदमी से सदा के लिए भाग जाओ। मैं यह कहता हूं: आदमी को जानना हो तो थोड़ी देर के लिए आदमी से मुक्त हो जाओ; थोड़ी दूरी बनाओ; थोड़े वृक्षों से दोस्ती करो; पशु, पौधों, पक्षियों से दोस्ती करो। और तब तुम एक दिन जब आदमी पर लौट कर आओगे; और ये पक्षियों, पौधों, वृक्षों से जो तुम पाठ लेकर आओगे और तुम्हारा हृदय, तुम्हारी भावनाएं सभ्य हो गई होंगी; तुम किसी काव्य से, अभिनव काव्य से भरे जब आदमी को फिर से देखोगे, तब तुम पहचानोगे कि आदमी परमात्मा की प्रतिलिपि है।
प्रकृति से शुरू करो।

आज इतना ही।

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