KABIR
Kahe Kabir Main Pura Paya 11
Eleventh Discourse from the series of 20 discourses - Kahe Kabir Main Pura Paya by Osho.
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सूत्र
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
राम कह्या दुनिया गति पावे, खांड कह्या मुख मीठा।।
पावक कह्या पांव ते दाझै, जल कहि तृषा बुझाई।
भोजन कह्या भूख जे भाजै, तो सब कोई तिरि जाई।।
नर के संग सुवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
जो कबहुं उड़ि जाए जंगल में, बहुरि न सुरतैं आनै।।
बिनु देखे बिनु अरस परस बिनु, नाम लिए का होई।
धन के कहे धनिक जो हो तो, निरधन रहत न कोई।।
सांची प्रीति विषय माया सूं, हरि भगतन सूं हांसी।
कहै कबीर प्रेम नहिं उपज्यौ, बांध्यो जमपुर जासी।।
चलन चलन सबको कहत है, ना जानै बैकुंठ कहां है।
जोजन परमिति परमनु जानै। बातनि ही बैकुंठ बखानै।।
जब लगि है बैकुंठ की आसा। तब लगि नहिं हरि चरण निवासा।।
कहै सुनै कैसे पतइइए। जब लगि तहां आप नहिं जइए।।
कहै कबीर यहु कहिए काहि। साध संगत बैकुंठहि आहि।।
मथुरा जावै द्वारिका, भावै जावै जगनाथ।
साध संगति हरिभजन बिन, कछू न आवै हाथ।।
मेरो संगी दोइ जन, एक वैष्णो एक राम।
यो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम।।
हरि सेती हरिजन बड़े, समझि देखु मन मांहि।
कह कबीर जग हरि विषे, सो हरि हरिजन मांहि।।
कठोर राहें
जो उलझे धागों का एक गुफ्फा सा बन गई हैं
न इनको रंगों की तेज बरखा से कुछ गरज है
वो तेज बरखा जो मुंह-अंधेरे
किसी पुजारिन के कंपकंपाते सफेद ओंठों पे नाचती है
न इनकी मंजिल वो शामे-गम है जो एक मैला-सा तश्त लेकर
मुसाफिरों से लहू के कतरे की भीख रो-रो के मांगती है
दहकते तारे, हजीं दुआएं, लरजते हाथों से बांटती हैं
कठोर राहें जो आगे बढ़ कर, अदा दिखा कर पलट गई हैं
पलट के पहलू बदल गई हैं
घनेरी शब अपनी काली कमली में गुम खड़ी है
ये सोचती है
भंवर की बेनूर चश्मेतर जमीं
कोई-सा सीधा सफेद रस्ता उभर के चमके
तो शब का राही उधर को लपके
ये शब का राही
समय के धारे पे बहते-बहते भंवर की सूरत उभर गया है
हजार राहों में घिर गया है!
रात है--और अंधेरी रात है। और रास्ते सब बुरी तरह उलझ गए हैं।
इस उलझन में फंसा है आदमी। न पता है कहां से आता है; न पता है कहां जाता है। न पता है कि किस राह को चुने, कैसे चुने। कोई कसौटी भी हाथ नहीं। कोई उजाला और रोशनी भी साथ नहीं।
कठोर राहें जो आगे बढ़ कर, अदा दिखा कर पलट गई हैं
पलट कर पहलू बदल गई हैं
और कभी राह ठीक भी लगती है; थोड़ी ही दूर जाकर बदल जाती है, पलट जाती है; पहलू बदल जाता है। कुछ का कुछ हो जाता है।
कठोर राहें
जो उलझे धागों का एक गुफ्फा सा बन गई हैं
जैसे सुलझाओ और उलझता है गुफ्फा; सुलझने का कोई उपाय नहीं मालूम होता। और बड़ी अंधेरी रात है।
घनेरी शब अपनी काली कमली में गुम खड़ी है
ये सोचती है
भंवर की बेनूर चश्मेतर जमीं
रोशनी जरा भी नहीं है। खोजते, टकराते राही की आंखें आंसुओं से भर गई हैं।
भंवर की बेनूर चश्मेतर जमीं
कोई-सा सीधा सफेद रास्ता उभर के चमके
तो शब का राही उधर को लपके
कोई सफेद सीधा रास्ता दिखाई पड़ जाए। कोई सीधी-सीधी गैल मिल जाए तो राही लपके।
ये शब का राही
समय के धारे पे बहते-बहते भंवर की सूरत उभर गया है
हजार राहों में घिर गया है!
और ऐसा नहीं कि यह राही आज ही चल रहा है--चल रहा है जन्मों-जन्मों से। न मालूम कितने जन्मों से! अनंतकाल से चल रहा है। चलते-चलते ही उलझ गया है। इतना चल चुका है, इतनी राहों पर चल चुका है, कि इसकी सब राहों का इकठ्ठा परिणाम इसके भीतर उलझे धागों का एक गुफ्फा बन गया है।
यह सच है: रात अंधेरी है और रास्ते उलझे हुए हैं। लेकिन दूसरी बात भी सच है: जमीन कितनी ही अंधेरी हो, कितनी ही अंधी हो, अगर आकाश की तरफ आंखें उठाओ, तो तारे सदा मौजूद हैं। आदमी के हाथ में चाहे रोशनी न हो, लेकिन आकाश में सदा रोशनी है। आंख ऊपर उठानी चाहिए।
तो ऐसा कभी नहीं हुआ, ऐसा कभी होता नहीं है, ऐसी जगत की व्यवस्था नहीं है। परमात्मा कितना ही छिपा हो, लेकिन इशारे भेजता है। और परमात्मा कितना ही दिखाई न पड़ता हो, फिर भी जो देखना ही चाहते हैं, उन्हें निश्र्चित दिखाई पड़ता है। जिन्होंने खोजने का तय ही कर लिया है, वे खोज ही लेते हैं।
जो एक बार समग्र श्रद्धा और संकल्प और समर्पण से यात्रा शुरू करता है--भटकता नहीं। रास्ता मिल ही जाता है। ऐसे रास्तों के उतरने का नाम ही संतपुरुष है, सदगुरु है।
एक परम सदगुरु के साथ अब हम कुछ दिन यात्रा करेंगे--कबीर के साथ। बड़ा सीधा-साफ रास्ता है कबीर का। बहुत कम लोगों का रास्ता इतना सीधा-साफ है। टेढ़ी-मेंढ़ी बात कबीर को पसंद नहीं। इसलिए उनके रास्ते का नाम है: सहज योग। इतना सरल है कि भोलाभाला बच्चा भी चल जाए। वस्तुतः इतना सहज है कि भोलाभाला बच्चा ही चल सकता है। पंडित न चल पाएगा। तथाकथित ज्ञानी न चल पाएगा। निर्दोष चित्त होगा, कोरा कागज होगा, तो चल पाएगा।
यह कबीर के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है। वहां पांडित्य का कोई अर्थ नहीं है। कबीर खुद भी पंडित नहीं हैं। कहा है कबीर ने: ‘मसि कागद छूयौ नहीं, कलम नहीं गही हाथ।’ कागज-कलम से उनकी कोई पहचान नहीं है। ‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात’--कहा है कबीर ने। देखा है, वही कहा है। जो चखा है, वही कहा है। उधार नहीं है।
कबीर के वचन अनूठे हैं; जूठे जरा भी नहीं। और कबीर जैसा जगमगाता तारा मुश्किल से मिलता है।
संतों में कबीर के मुकाबले कोई और नहीं। सभी संत प्यारे और सुंदर हैं। सभी संत अदभुत हैं; मगर कबीर अदभुतों में भी अदभुत हैं; बेजोड़ हैं।
कबीर की सबसे बड़ी अद्वितीयता तो यही है कि जरा भी उधार नहीं है। अपने ही स्वानुभव से कहा है। इसलिए रास्ता सीधा-साफ है, सुथरा है। और चूंकि कबीर पंडित नहीं हैं, इसलिए सिद्धांतों में उलझने का कोई उपाय भी नहीं था।
बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग कबीर नहीं करते। छोटे-छोटे शब्द हैं जीवन के--सबकी समझ में आ सकें।लेकिन उन छोटे-छोटे शब्दों से ऐसा मंदिर चुना है कबीर ने, कि ताजमहल फीका है।
जो एक बार कबीर के प्रेम में पड़ गया, फिर उसे और कोई संत न जंचेगा। और अगर जंचेगा भी तो इसलिए कि कबीर की ही भनक सुनाई पड़ेगी। कबीर को जिसने पहचाना, फिर वह शक्ल भूलेगी नहीं।
हजारों संत हुए हैं, लेकिन वे सब ऐसे लगते हैं, जैसे कबीर के प्रतिबिंब। कबीर ऐसे लगते हैं, जैसे मूल। उन्होंने भी जान कर ही कहा है, औरों ने भी जान कर ही कहा है; लेकिन कबीर के कहने का अंदाजे बयां, कहने का ढंग, कहने की मस्ती बड़ी बेजोड़ है। ऐसा अभय और ऐसा साहस और ऐसा बगावती स्वर, किसी और का नहीं है।
कबीर क्रांतिकारी हैं। कबीर क्रांति की जगमगाती प्रतिमा हैं। ये कुछ दिन अब हम कबीर के साथ चलेंगे--फिर कबीर के साथ चलेंगे। कबीर को चुकाया भी नहीं जा सकता। कितना ही बोलो, कबीर पर बोलने को बाकी रह जाता है। उलझी बात नहीं कही है; सीधी-सरल बात कही है। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि सीधी-सरल बात ही समझनी कठिन होती है। कठिन बातें समझने में तो हम बड़े कुशल हो गए हैं, क्योंकि हम सब शब्दों के धनी हैं, शास्त्रों के धनी हैं। सीधी-सरल बात को ही समझना मुश्किल हो जाता है। सीधी-सरल बात से ही हम चूक जाते हैं। इसलिए चूक जाते हैं कि सीधी-सरल बात को समझने के लिए पहली शर्त हम पूरी नहीं कर पाते। वह शर्त है: हमारा सीधा-सरल होना।
जटिल बात समझ में आ जाती है, क्योंकि हम जटिल हैं। सरल बात चूक जाती है, क्योंकि हम सरल नहीं हैं। वही तो समझोगे न जो हो? अन्यथा कैसे समझोगे?
इसलिए कबीर पर मैं बार-बार बोलता हूं; फिर-फिर कबीर को चुन लेता हूं। चुनता रहूंगा आगे भी। कबीर सागर की तरह हैं; कितना ही उलीचो, कुछ भेद नहीं पड़ता।
कुछ बातें कबीर के संबंध में समझ लो, वे उपयोगी होंगी।
एक, कि कबीर के संबध में पक्का नहीं है कि हिंदू थे कि मुसलमान थे। यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है। संत के संबंध में पक्का हो ही नहीं सकता कि हिंदू है कि मुसलमान है। पक्का हो जाए, तो संत संत नहीं; दो कौड़ी का हो गया।
जब तुम कहते हो: गांव में जैन संत आए हैं; जब तुम कहते हो: गांव में हिंदू संत आए हैं--तब तुम अपमान कर रहे हो संतत्व का। और अगर जैन संत भी मानता है कि जैन संत है, तो अभी संत नहीं। संत और विशेषण में! जैन और हिंदू और मुसलमान! संत होकर भी ये क्षुद्र विशेषण लगे रहेंगे तुम्हारे पीछे? कभी सीमाओं से बाहर आओगे कि नहीं? घर छोड़ दिया, समाज छोड़ दिया; लेकिन समाज ने जो संस्कार दिए थे, वे नहीं छोड़े। जिस घर में पैदा हुए थे, वह जैन था, उसको छोड़ दिया; मगर जैन तुम अभी भी हो--संत होकर भी! तो कहीं कुछ बात चूक गई। तीर निशाने पर लगा नहीं; मेहनत तुम्हारी व्यर्थ गई।
संत होने का अर्थ ही है कि अब न कोई हिंदू रहा, न कोई मुसलमान रहा, न कोई ईसाई रहा। संत का अर्थ है: सत्य के हो गए; अब संप्रदाय के कैसे हो सकते हो? संत का अर्थ है: धर्म के हो गए; अब पंथों के कैसे हो सकते हो?
पर कबीर के संबंध में तो बात बहुत साफ है। कुछ पक्का नहीं बैठता--हिंदू थे कि मुसलमान। हिंदुओं का दावा है: हिंदू थे; मुसलमानों का दावा है: मुसलमान थे। यह बात प्रीतिकर है।
जब भी संत होगा, तो ऐसा ही होगा। हिंदू दावा करेंगे--हमारे; मुसलमान दावा करेंगे--हमारे; ईसाई दावा करेंगे--हमारे। ईसाइयों को जीसस दिखाई पड़ जाएंगे कबीर में, और मुसलमानों को मोहम्मद दिखाई पड़ जाएंगे, और हिंदुओं को कृष्ण मिल जाएंगे, और बौद्धों को बुद्ध का दर्शन हो जाएगा।
संत तो दर्पण है; तुम अपनी जो भाव-दशा लेकर आओगे, उसी को झलका देगा। ऐसा तो सभी संतों के साथ होता है, होना चाहिए। लेकिन कबीर का जन्म भी कुछ रहस्यमय है। मीठी कहानियां हैं। मनगढंत भी हो सकती हैं, मगर फिर भी महत्वपूर्ण हैं।
हिंदू कहते हैं: एक विधवा ने संत रामानंद के चरण छूए। रामानंद अपनी मस्ती में होंगे। उन्होंने खयाल ही न किया कि कौन चरण छू रहा है। स्त्री थी, चरण छूती थी, घूंघट डाले होगी या...चेहरा भी नहीं देखा, कपड़े भी नहीं देखे, और आशीर्वाद दे दिया। संत तो बिन देखे ही आशीर्वाद दे देते हैं। देख-देख कर जो आशीर्वाद दे, वह कोई संत थोड़े ही है। तुम मांगो तब दे, वह कोई संत थोड़े ही है। संत तो आशीर्वाद है। संत का तो होना ही आशीर्वाद है। उसके चारों तरफ तो आशीर्वाद बरसते ही रहते हैं। आशीर्वाद दे दिया कि पुत्रवती हो। और वह थी विधवा। अब बड़ी मुश्किल हो गई।
यह कहानी बड़ी मधुर है। ऐसा हुआ हो या न हुआ हो, यह सवाल ही नहीं है। इतिहास का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है। मेरे लिए तो मूल्य है शाश्र्वत, चिरंतन सत्यों का।
तो एक शाश्र्वत सत्य कि संत, मांगो तो आशीर्वाद दे, ऐसा नहीं। संत देख-देख कर आशीर्वाद दे, ऐसा भी नहीं। संत तो आशीर्वाद देता ही चला जाता है। आशीर्वाद के अतिरिक्त उसके पास कुछ देने को है भी नहीं। आशीर्वाद उसकी रोशनी है। आशीर्वाद उसकी सुगंध है। और आशीर्वाद ही उसकी श्र्वास-प्रश्र्वास है।
तो यह विधवा को आशीर्वाद दे दिया कि पुत्रवती हो। यह आशीर्वाद भी अर्थपूर्ण है। स्त्री जब तक मां न बन जाए, तब तक कुछ अधूरा रह जाता है। पुरुष के पिता बनने से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता।
पुरुष का पिता बनना बहुत औपचारिक है; संस्थागत है। स्त्री का मां बनना औपचारिक नहीं है; प्राणगत है। पुरुष का काम तो बच्चे के जन्म में बड़े दूर का है; कुछ खास नहीं है; न के बराबर है। लेकिन स्त्री का काम न के बराबर नहीं है। स्त्री अपने गर्भ में बच्चे को पालती है; अपना प्राण उंड़ेलती है। फिर बच्चे को बड़ा करती है। लंबी साधना है।
तो जो स्त्री मां नही बन पाती, कुछ अधूरा रह जाता है; कुछ कमी रह जाती है; कुछ खाली-खाली रह जाता है; कुछ भराव कम रहता है। इसलिए इस देश में संत आशीर्वाद देते रहे: पुत्रवती हो!
दे दिया आशीर्वाद, देखा भी नहीं कि विधवा है, सफेद कपड़े पहने हुए है, हाथ में चूड़ियां नहीं हैं, माथे पर तिलक-टीका नहीं है। इतना तो देख लेते!
फिर कहानी यह कहती है कि जब संत आशीर्वाद दे दे, तो आशीर्वाद तो पूरा होना ही चाहिए। संत का आशीर्वाद खाली तो नहीं जा सकता। यह बात भी समझने जैसी है।
सत्य से जो स्वर उठेगा, वह खाली नहीं जा सकता। सत्य से जो तीर निकलेगा, वह निशाने पर लगेगा ही। और संत कह दे, तो अस्तित्व को उसे पूरा करना ही होगा। क्योंकि संत अपने से तो कुछ कहता नहीं; किसी अहंकार-अस्मिता से तो कहता नहीं। निर-अहंकार भाव से कहता है। संत खुद तो कहता ही नहीं; परमात्मा ही उससे जो कहता है, वही कहता है। परमात्मा के हाथ बांसुरी की भांति है संत।
विधवा थी, विवाह तो कर न सकती थी; संत ने आशीर्वाद दे दिया था, तो बच्चा हुआ। इसलिए ‘कबीर’ नाम। हिंदू कहते हैं कबीर नाम, क्योंकि उस विधवा के हाथ से, कर से कबीर का जन्म हुआ--तो ‘करवीर’; उससे कबीर बना। यह तो केवल प्रतीक-घटना है। इसको इतिहास मत मानना। हाथों से बच्चे पैदा होते नहीं।
जैसे जीसस की कहानी है कि कुंआरी मरियम से पैदा हुए; कुंआरी स्त्री से कोई पैदा नहीं होता। लेकिन यह हो सकता है कि मरियम इतनी पवित्र रही हो, इतनी निर्दोष रही हो, कि उसका कुंआरापन आत्मिक है। उसकी ही सूचना है कुंआरापन। कुंआरापन यानी अकलुषित भाव, निर्दोष भाव।
और जीसस जैसा व्यक्ति पैदा हो, तो साधारण स्त्री से हो भी नहीं सकता। कोई असाधारण स्त्री चाहिए। फल से ही तो हम वृक्ष का पता लगाते हैं। जीसस से पता लगता है कि मरियम भी अनूठी रही होगी।
इसलिए सभी संतपुरुषों के साथ अनूठी कहानियां जुड़ जाती हैं। कहानियां मूल्य की नहीं हैं। लेकिन संत इतना अनूठा पुरुष है कि हम यह स्वीकार नहीं कर पाते कि वह वैसे ही जन्मता होगा, जैसे और सब जन्मते हैं।
इन कहानियों में हमारी इसी पीड़ा की सूचना है।
हम यह स्वीकार नहीं कर पाते कि जीसस ऐसे ही पैदा होते हैं, जैसे और सब लोग पैदा होते हैं; या कबीर ऐसे ही पैदा होते हैं, जैसे और सब लोग पैदा होते हैं। कबीर को कुछ भिन्न ढंग से आना चाहिए। कबीर इतने अनूठे हैं कि अनूठे ढंग से आना चाहिए। हम स्वीकार कर नहीं पाते कि कबीर और उन्हीं चले-चलाए रास्तों से आएंगे, जिनसे और लोग आते हैं। इसलिए कहानियां हैं।
लेकिन मुसलमानों की अपनी कहानी है। और ‘कबीर’ शब्द वहां ज्यादा सार्थक मालूम होता है, बजाय इस हिंदू-कथा के--‘करवीर’ से। यह तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने ईजाद कर लिया--कबीर में से। लेकिन कुरान में कबीर अल्लाह का एक नाम है। इसलिए मुसलमान कहते हैं कि कबीर अल्लाह का नाम है; करवीर नहीं। यह आदमी अल्लाह की जीती-जागती प्रतिमा है--इसलिए कबीर।
कुछ भी हो, कबीर का जन्म रहस्य में छिपा है।
नीरू जुलाहा और उसकी पत्नी नीमा ने...दोनों लौट रहे थे। नीरू जुलाह गौना करा कर लौट रहा था, काशी की तरफ आ रहा था, अपने घर की तरफ आ रहा था, और काशी के पास लहरतारा तालाब में हाथ-पैर धोने को रुका था कि वहीं उसने रोने की आवाज सुनी, पास की झाड़ी में, तो भागा; देखा, तो यह बच्चा पड़ा था।
इतना प्यारा बच्चा नीरू जुलाहे ने कभी देखा नहीं था। उसकी आंखें ऐसी थीं, जैसे मणि--ऐसी रोशनी थी उसकी आंखों में; और उसके चारों तरफ प्रकाश था। और वह साधारण सी झाड़ी एक अपूर्व आनंद से भरी मालूम पड़ती थी। एक गहन शांति और एक आनंद!
नीमा तो डरी कि कुछ झंझट होगी, लोग क्या कहेंगे; अपवाद होगा; मगर उसने भी जब बच्चे को देखा, तो उसका भी दिल डोल गया। वे उठा कर कबीर को घर ले आए। शायद यहां दोनों कहानियां जुड़ जाती हैं; शायद कबीर विधवा से पैदा हुए थे, विधवा उन्हें छोड़ गई थी तालाब के पास। और नीरू जुलाहा और नीमा उसकी पत्नी, ये तो मुसलमान थे, इन्होंने कबीर को पाला।
कबीर, ऐसा लगता है कि हिंदू घर में पैदा हुए और मुसलमान घर में पले। इससे एक अपूर्व संगम हुआ। इससे एक अपूर्व समन्वय हुआ।
कबीर में हिंदू और मुसलमान संस्कृतियां जिस तरह तालमेल खा गईं, इतना तालमेल तुम्हें गंगा और यमुना में भी प्रयाग में नहीं मिलेगा; दोनों का जल अलग-अलग मालूम होता है। कबीर में जल जरा भी अलग-अलग नहीं मालूम होता।
कबीर का संगम प्रयाग के संगम से ज्यादा गहरा मालूम होता है। वहां कुरान और वेद ऐसे खो गए कि रेखा भी नहीं छूटी।
लेकिन कथा रहस्यपूर्ण है और उसमें और भी हिस्से जुड़े हैं। जरूर रामानंद का कुछ न कुछ हाथ रहा होगा। या तो उनके आशीर्वाद से इस विधवा को यह बच्चा उत्पन्न हुआ है या इस विधवा को बच्चा उत्पन्न हुआ है और रामानंद की करुणा है इस विधवा पर, इस बच्चे पर। यद्यपि इसे छुड़वा दिया है या छोड़ दिया है; मगर रामानंद उस बच्चे की चिंता लेते रहे। तो नीरू जुलाहे ने मुसलमान की पूरी संस्कृति दी, और रामानंद के रस ने हिंदू-भाव को कायम रखा। दोनों बातें मिल गईं और एक हो गईं।
कबीर युवा हुए, तो स्वभावतः वे रामानंद के शिष्य होना चाहते थे, लेकिन यह अड़चन की बात थी, क्योंकि दुनिया तो जानती थी कि वे मुसलमान हैं। रामानंद मुसलमान को कैसे दीक्षा देंगे। रामानंद के शिष्यों में बड़ा विरोध था। तो मीठी घटना है कि कबीर ने एक उपाय चुना।
अगर गुरु को खोजना ही हो शिष्य को, तो शिष्य खोज ही लेगा। सारी व्यवस्थाएं, औपचारिकताएं, शिष्टाचार, समाज के नियम इत्यादि पड़े रह जाएंगे।
तो कबीर जाकर नदी के तट पर कंबल ओढ़ कर सो रहे। सुबह-सुबह पांच बजे, अंधेरे में आते हैं रामानंद स्नान करने, उनके रास्ते में सो रहे। रामानंद का पैर लग गया अंधेरे में किसी को, चोट खा गया कोई; तो रामानंद के मुंह से निकला: राम-राम। और कबीर ने उनके पैर पकड़ लिए और कहा कि ‘मंत्र दे दिया फिर!’ ऐसे मंत्र लिया! इसको कहते हैं: खोजी! इसको कहते हैं: मुमुक्षु!
गुरु टाल रहा था, व्यवस्था अनुकूल नहीं पड़ रही थी, समाज विरोध में था; लेकिन मंत्र-दीक्षा तो लेनी थी। गुरु का वचन तो लेना था। गुरु का आशीर्वाद तो लेना था।
इजिप्त में एक पुरानी कहावत है कि जब तक शिष्य, गुरु से चुराने को तैयार न हो, तब तक कुछ भी नहीं मिलता। यह कबीर के संबंध में तो बड़ी लागू होती है। गुरु से चुरा लिया। गुरु ने तो राम-राम कहा था ऐसे ही; पैर की किसी को चोट लग गई, पता नहीं कौन है, राम-राम निकल गया होगा; लेकिन कबीर ने पैर पकड़ लिए और कहा कि अब आशीर्वाद दो, मंत्र तो दे ही दिया! ऐसे कबीर दीक्षित हुए।
कबीर ने कहा है: ‘काशी में हम प्रकट भए हैं, रामानंद चेताए।’
इतना ही मंत्र और कबीर कहते हैं: चेता दिया! फिर कोई फिकर भी नहीं है। कहा: इतना बहुत है--राम-राम। एक ‘राम’ से काम चल जाता, दो बार राम-राम कह दिया, अब और क्या चाहिए? चेता दिया! ‘काशी में हम प्रकट भए हैं, रामानंद चेताए।’
यह झगड़ा कबीर के जीवन में चलता रहा--कि वे हिंदू हैं कि मुसलमान। मुसलमान भी पूजते रहे; हिंदू भी पूजते रहे। लेकिन बुद्धि तो छोटी होती है, वह झगड़ा चलता रहा, चलता रहा। वह मरने तक चला!
कबीर जब मरे, तो लाश पड़ी है, कफन डाल दिया गया है। हिंदू कहते हैं: हम जलाएंगे; और मुसलमान कहते हैं: हम गड़ाएंगे। सोचो, कबीर जैसे व्यक्ति के पास रह कर भी लोग चूक जाते हैं! अंधेपन की भी एक सीमा होती है! लेकिन अंधेपन की सीमा को भी तोड़ कर लोग अंधे बने रहते हैं। कबीर के पास रहे, कबीर को चाहा, और इतना भी न समझ पाए! जिंदगी भर कबीर के संगम में नहाए, और कुछ भी मल न धुला। मरते वक्त भी झगड़ा खड़ा हो गया। लाश पड़ी है और शिष्य झगड़ रहे हैं कि जलाएं कि गड़ाएं! और जब चादर उघाड़ कर देखी, तो पाया कि कबीर वहां नहीं हैं; कुछ फूल पड़े हैं।
यह भी प्रतीक-कथा है। ऐसा हुआ हो, मैं नहीं कहता। चमत्कारों में मेरा कोई आग्रह नहीं है। मगर कथाओं में अर्थ है; वे चमत्कारों से ज्यादा मूल्यवान हैं। चमत्कार से कुछ तुम्हारी प्रज्ञा निखरती भी नहीं। चमत्कार से तो तुम्हारी प्रज्ञा और धूमिल हो जाती है। इसलिए चमत्कारों की बकवास में मत पड़ना कि ऐसा हुआ। लेकिन इतनी बात समझ लेना कि संत का जीवन तो फूलों जैसा है। वह अपने पीछे कुछ फूल ही छोड़ जाता है; कुछ सुगंध ही छोड़ जाता है। बस, इतना ही समझना।
संत का जीवन स्थूल नहीं है; सूक्ष्म है। संत का जीवन पत्थरों जैसा नहीं है, फूलों जैसा है; अभी है, अभी उड़ जाएगा।
और संत को समझना हो, तो फूल की अवस्था समझनी चाहिए। कितना कोमल! फिर भी कितना जीवंत! क्षण भर को टिकता है, लेकिन क्षण भर में भी शाश्र्वत की झलक दे जाता है। क्षण भर को है; अभी है, अभी समाप्त हो जाएगा; सुबह है, सांझ नहीं होगा--लेकिन इस थोड़ी सी देर में परमात्मा का प्रतीक बन जाता है; परमात्मा का सौंदर्य झलका जाता है।
कुछ फूल पड़े रह गए। सभी संतों के पीछे कुछ फूल पड़े रह जाते हैं। फूलों पर झगड़ना मत। फूलों पर झगड़ा क्या है? जितना अपनी नासापुटों में भर सको, उस गंध को भर लेना। उन फूलों को जितना अपने प्राणों में ले जा सको, ले जाना। क्योंकि जो फूल प्राणों में ले जाएगा, उसके भीतर का फूल खिल जाएगा। थोथी बातों में मत पड़ना। थोथे झगड़ों में मत पड़ना।
लेकिन आदमी तो आदमी है। उन्होंने फूल ही बांट लिए। उन्होंने कहा: कोई फिकर नहीं, बांट कर तो रहेंगे; बंटवारा तो होगा। फूल बांट लिए। अब आधे फूल जलाए गए और आधे फूल गाड़े गए। अब फूल न तो जलाने चाहिए और न गाड़ने चाहिए। फूल के साथ यह दुर्व्यवहार होगा। मगर यही हुआ।
ये आदमी के अंधेपन की और नासमझी की कहानियां हैं। उस जगह पर आज आधे में कब्र है और आधे में समाधि। एक ही छोटा सा मकान है मगहर में, जिसमें आधे में मुसलमानों ने कब्र बना रखी है, क्योंकि वहां उन्होंने फूल गड़ाए थे; और हिंदुओं ने समाधि बना रखी है; बीच में बड़ी दीवाल उठा रखी है।
कबीर ने जिंदगी भर जोड़ा और शिष्यों ने फिर तोड़ दिया! कबीर ने गंगा-यमुना को मिलाया, शिष्यों ने फिर अलग-अलग बांट लिया!
कबीर जैसे व्यक्ति को समझना हो, तो उसके साथ जितनी कहानियां जुड़ी हैं, उन सभी का मनोवैज्ञानिक अर्थ खोजने की कोशिश करनी चाहिए। मनोवैज्ञानिक अर्थ--ऐतिहासिक नहीं। उनके भीतर क्या तत्व हो सकता है, यह खोजने की कोशिश करनी चाहिए।
काशी के पंडित उनसे नाराज थे। अब पंडितों को कहोगे--‘पंडित वाद बदन्ते झूठा’--तो नाराज न होंगे तो और क्या होंगे? कि पंडित बकवासी हैं, कि व्यर्थ के वाद-विवाद में लगे हैं, व्यर्थ की मारा-मारी में, शब्दों की झूठी खींच-तान में, बाल की खाल निकालने में। पंडित नाराज थे। हिंदू पंडित नाराज थे, मुसलमान मौलवी नाराज थे।
मौलवी और पंडितों दोनों ने मिल कर, सिकंदर लोधी उस समय बादशाह था, उससे प्रार्थना की कि कबीर को दंडित किया जाना चाहिए। और कसूर वही, जो सदा से संतों का रहा है। सिकंदर लोधी ने पूछा: कसूर क्या है इस आदमी का? इसे दंडित क्यों किया जाना चाहिए? तो उन्होंने कहा कि इसका दावा है कि यह भगवान है। ‘कहै कबीर मैं पूरा पाया!’ पूरा भगवान पा लिया है! रत्ती भर बाहर नहीं छूटा है। यह कबीर वैसी ही घोषणा कर रहा है, जैसे उपनिषद कहते हैं: अहं ब्रह्मास्मि! यह कबीर वैसी ही घोषणा कर रहा है, जैसा मंसूर ने की थी: अनलहक! कि मैं सत्य हूं!
सिकंदर लोधी को भड़काया। और तुम यह जान कर आश्र्चर्यचकित होओगे कि पंडित में और राजनीतिज्ञ में सदा से संबंध रहा है। वह जो पंडित है, मौलवी है, पुरोहित है, वह--और जो राजनेता है, उन दोनों में सदा की सांठ-गांठ है। वे दोनों एक ही षडयंत्र में लागू रहे हैं, एक ही षडयंत्र में सम्मिलित रहे हैं। और वह षडयंत्र है: किसी तरह धर्म न जम पाए पृथ्वी पर। क्योंकि धर्म पंडित को भी मिटा देगा और राजनेता को भी; क्योंकि धर्म सारे अहंकारों को जला डालता है। इसके पहले कि धर्म उन्हें जला दे, स्वभावतः वे धर्म को जलाने को तत्पर हो जाते हैं।
तो कहानी है कि कबीर को आग में फेंका गया। सिकंदर लोधी राजी हो गया और कबीर को आग में फिंकवाया। आग उन्हें जला नहीं पाई। सत्य को आग में जलाने का उपाय नहीं है, इतना ही जानना। जैसा कृष्ण ने गीता में कहा है: ‘नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।’ न तो मुझे शस्त्र छेद सकते हैं और न आग मुझे जला सकती है। इतना ही समझना। ऐसा मत सोचना कि कबीर ने कोई मदारीगिरी की।...प्रतीक हैं ये तो।
आग में जलाने का मतलब ऐसा नहीं है कि सच में ही आग में जलाया। आग में जलाने का मतलब है: गालियां दी होंगी, अपमान किए होंगे, झूठी अफवाहें उड़ाई होंगी, सब तरह की लपटें फैलाई होंगी। उन सब लपटों के बीच में कबीर को घिरा दिया होगा। और सभी नाराज थे।
और मजा यही है कि संतों के साथ सभी नाराज हो जाते हैं। जिनके साथ होना चाहिए, जिनके साथ राजी होना चाहिए, उनसे नाराज हो जाते हैं! और ऐसे अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं।
आग का मतलब यह मत समझना कि लकड़ियां लाए, और तेल डाला, और आग लगाई। आग का मतलब यही है कि जलाने का सब तरह उपाय किया। किसी तरह कबीर उद्विग्न हो जाएं, जल-भुन उठें। किसी तरह फफोले उठ आएं उनकी आत्मा में। किसी तरह क्रोधित हो जाएं। किसी तरह गालियों का उत्तर गाली से देने लगें, तो जीत हो जाए। लेकिन कबीर की शांति अखंडित रही, उनका मौन अविच्छिन्न रहा। उनके प्रेम की धारा वैसी ही बहती रही। उनकी प्रार्थना में कोई खलल न पड़ा।
कहते हैं: एक पागल हाथी को उनके ऊपर छोड़ा। लेकिन पागल हाथी उनके सामने आकर ठिठक कर खड़ा हो गया; झुक कर उसने प्रणाम किया। पागल हाथी तुम्हारे तथाकथित समझदार आदमियों से कम पागल होते हैं। इतना ही समझना।
और यह कहानी कुछ नई नहीं है; कोई कबीर के साथ ही जुड़ी है, ऐसा नहीं है। औरों के साथ भी जुड़ी है। बुद्ध के साथ भी। मतलब इतना ही है कि पागल हाथी भी तुम्हारे तथाकथित समझदार पंडित-पुराहितों से, मुल्लाओं से, राजनेताओं से, राजाओं से, तुमसे कहीं ज्यादा समझदार होता है।
पागल हाथी को छोड़ा और पागल हाथी ठिठक कर खड़ा हो गया। उसने देखा होगा कबीर को। उसने देखा होगा इस रोशन व्यक्तित्व को। उसने देखी होगी यह लपट, यह रोशनी, यह प्रकाश! उसने देखी होगी यह गंध। उसने देखा होगा यह परम सौंदर्य, यह खिला हुआ कमल! ठिठक गया होगा।
ऐसा सौंदर्य कभी-कभी होता है। आदमी नहीं देख पाता, क्योंकि आदमी हिंदू है, मुसलमान है; आदमी ईसाई है, जैन है। आदमी की आंखों पर हजार धारणाओं के पर्दे हैं। हाथी बेचारा न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है। कोई शास्त्र नहीं है हाथी के सिर पर; कोई शब्दों का जाल नहीं है। निर्दोष आंखें हैं। इसलिए देख लिया होगा। इसलिए पहचान गया होगा।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि पशु भी पहचान लेते हैं और आदमी नहीं पहचान पाते!
संत फ्रांसिस के संबंध में बहुत सी कहानियां हैं कि पशु पहचान लिए और आदमी नहीं पहचाना। क्योंकि पशु का अर्थ है: सरलता। आदमी का अर्थ है: जटिलता। आदमी पागल न दिखाई पड़े तो भी पागल है; और पशु पागल भी हो तो भी इतना पागल नहीं होता है; फिर भी कुछ होश कायम रह जाता है।
इन कहानियों पर ध्यान करना। इन कहानियों को सिर्फ कहानियां मत मान लेना।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक तो कहेंगे कि हां, ऐसा हुआ। नासमझ हैं वे। कहेंगे: ऐतिहासिक है यह बात; सच में ही पागल हाथी छोड़ा, और सच में ही पागल हाथी ठिठक गया।
मैं इस तरह के लोगों से राजी नहीं हूं। क्योंकि इस तरह के लोग संतों की गरिमा को नहीं समझ पाते और व्यर्थ की बातों में उलझ जाते हैं। फिर इनके ही कारण दूसरा वर्ग पैदा हो जाता है। वह कहता है: ऐसा हो ही कैसे सकता है? पागल हाथी पागल हाथी है। फिर व्यर्थ का विवाद चलता है।
मैं इस विवाद के बाहर तुम्हें निकाल लेना चाहता हूं। मैं तुमसे इतना ही कहना चाहता हूं कि ये कहानियां सूचक हैं। ये बोध-कथाएं हैं। बड़े प्रतीक इनमें छिपे हैं, इनको खोलो तो खूब रस मिलेगा। वह रस इतना ही है कि आदमी पागल हाथियों से भी ज्यादा पागल है।
और मतलब ही इतना है कि पागल आदमियों को छोड़ा होगा। आदमियों को पागल किया होगा। पंडितों ने, पुरोहितों ने भड़काया होगा, जलाया होगा लोगों को, लोगों को उकसाया होगा कि हिंदू धर्म खतरे में है; कि इस्लाम धर्म खतरे में है; कि शास्त्र को डुबा देगा यह आदमी! और यह आदमी होकर दावा करता है कि मैं परमात्मा हूं! यह बात बर्दाश्त नहीं की जा सकती। इस आदमी को दंड देना होगा। ऐसे लोगों को पगलाया होगा। भीड़ को पागल किया होगा। भीड़ उत्तप्त हो गई होगी।...इतना ही अर्थ है।
और इतना भी अर्थ है कि पागल पशु भी, तथाकथित बुद्धिमानों से ज्यादा बुद्धिमान होता है।
सोचना इस पर, और शर्म खाना इस पर। सोचना इस पर, और दुखी होना इस पर। और देखना कि कहीं ऐसा तुम्हारे साथ भी तो नहीं हो रहा है? क्योंकि ये शाश्र्वत कथाएं हैं। इसलिए हर संत के जीवन में घटती हैं।
पश्र्चिम के लोग जब कबीर, बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट, इन सबके ऊपर अध्ययन करते हैं, तो वे बड़े हैरान होते हैं कि वही-वही कहानी सबके जीवन में कैसे घट सकती है! यह कहानी तो झूठी मालूम पड़ती है, मनगढंत मालूम पड़ती है; संतों के साथ लोग इसे जोड़ देते हैं।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: हर संत के साथ वही घटता है। कहानी की मैं नहीं कर रहा हूं; लेकिन हर संत के साथ वही घटता है। क्योंकि आदमी वैसा का वैसा है; आदमी में कुछ फर्क नहीं हुआ है।
बैलगाड़ी चली गई, बैलगाड़ी की जगह जेट हवाई जहाज आ गए; लेकिन आदमी वैसा का वैसा है। आदमी जमीन पर से चलना छोड़ कर चांद पर चलने लगा है; लेकिन आदमी वैसा का वैसा है।
अगर बुद्ध आएंगे, तुम फिर गाली दोगे। और जीसस आएंगे, तुम फिर सूली लगाओगे। और सुकरात आएगा, तो तुम फिर जहर पिलाओगे। तुम वैसे के वैसे हो। तुम्हारी चेतना में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ। तुम्हारे आस-पास का सामान बदल गया है, लेकिन तुम नहीं बदले। वस्तुएं बदल गई हैं, लेकिन तुम्हारी चैतन्य की दिशा में कोई क्रांति घटित नहीं हुई है। इसलिए कहानी वही की वही है, क्योंकि आदमी वही का वही है।
कबीर के इन वचनों को समझो--
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
कहते हैं: वाद-विवाद झूठ है।
साधारणतः हम कहते हैं, अगर दो आदमी विवाद कर रहे हों, तो हम कहते हैं: उसमें एक सच है, एक झूठ है। जो तुमसे मेल खाता है, वह सच है; जो तुमसे मेल नहीं खाता, वह झूठ है। तुम सत्य की कसौटी हो जैसे! अगर हिंदू और मुसलमान विवाद करते हों और तुम हिंदू हो, तो कहोगे: हिंदू ठीक हैं, मुसलमान गलत हैं; मुसलमान हो, तो कहोगे: मुसलमान ठीक हैं, हिंदू गलत हैं।
लेकिन कबीर कहते हैं: वाद-विवाद झूठा है। जब दो व्यक्ति विवाद कर रहे हों, तो विवादी में कोई भी ठीक नहीं होता। विवाद ही गलत है। विवाद ही अंधे और नासमझ करते हैं। विवाद का अर्थ होता है: शब्दों की खींच-तान; तर्कजाल। विवाद का अर्थ होता है कि जैसे शब्दों के ही आयोजन से, तर्क के प्रमाण से हम सत्य का निर्णय कर लेंगे।
सत्य का अनुभव होता है; निर्णय नहीं होता। सत्य कोई गणित की पहेली नहीं है। सत्य तो जीवन का अनुभव है, जैसे प्रेम जीवन का अनुभव है।
प्रेम के संबंध में क्या विवाद करते हो? अगर किसी आदमी ने कहा कि मैं इस स्त्री को प्रेम करता हूं, इस स्त्री से सुंदर स्त्री दुनिया में कोई भी नहीं, तो तुम विवाद करते हो? तुम कहते हो कि रुको जी, मेरी पत्नी के होते हुए तुम ऐसा कैसे कह रहे हो? नहीं, तुम विवाद नहीं करते। तुम समझते हो कि यह आदमी क्या कह रहा है। यह असल में यह कह ही नहीं रहा है कि दुनिया में इस जैसी सुंदर कोई स्त्री नहीं है। यह इतना ही कह रहा है कि मुझे दुनिया में इससे ज्यादा सुंदर कोई स्त्री मालूम नहीं पड़ती। यह अपनी बात कह रहा है। यह अपना अनुभव कह रहा है। यह कोई वैज्ञानिक सत्य की उदघोषणा नहीं कर रहा है। यह केवल एक काव्यात्मक सत्य की उदघोषणा कर रहा है। यह अपनी पसंद दिखला रहा है।
अगर कोई आदमी कहता है कि गुलाब का फूल मुझे सबसे ज्यादा सुंदर मालूम पड़ता है, तो तुम विवाद नहीं करते। तुम यह नहीं कहते कि सुनो, कमल भी है, और कमल के रहते तुम यह किस तरह की बात कर रहे हो? और मैं इस तरह का झूठ न चलने दूंगा। तुम कहते हो: ठीक है, पसंद-पसंद की बात है। तुम्हें जो पसंद है...। जिसे जो रुचे।
लेकिन जब कोई आदमी कहता है कि कृष्ण से प्यारा कोई आदमी नहीं, तो तुम झगड़ा करने खड़े हो जाते हो! तुम कहते हो: मैं मुसलमान, मैं जैन, मैं बौद्ध। तुम कृष्ण की चर्चा कर रहे हो, कृष्ण में रखा क्या है? अरे, देखो महावीर को! कृष्ण में रखा क्या है? देखो बुद्ध को!
वहां तुम वही भूल कर रहे हो। कबीर कहते हैं: वाद-विवाद से निर्णय होने वाला नहीं है। इसलिए समझदार वाद-विवाद नहीं करता।
जितनी शक्ति वाद-विवाद में लगाते हो, उतनी शक्ति से तो सत्य को जाना ही जा सकता है। जितनी मेहनत से पंडित बनते हो, उतनी मेहनत से तो प्रज्ञा का जन्म हो सकता है। जितनी मेहनत से यह कूड़ा-करकट इकट्ठा करते हो शास्त्रों का, उतनी मेहनत से तो परमात्मा ही तुम्हारे द्वार आ जाए; शायद उससे कम मेहनत से द्वार आ जाए।
पांडित्य नहीं, प्रार्थना चाहिए। तर्क-वितर्क नहीं, अनुभूति चाहिए।
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
राम कह्या दुनिया गति पावे,...
अगर राम-राम कहने से मोक्ष मिलता होता; सिर्फ राम-राम दोहराने से अगर मोक्ष मिलता होता...
...खांड कह्या मुख मीठा।
तब तो शक्कर कह देते और मुंह मीठा हो जाता।
पावक कह्या पांव ते दाझै,...
तब तो आग कह देते और पैर जल जाता। और--
...जल कहि तृषा बुझाई।
और जल कह देते और प्यास बुझ जाती। हम सब जानते हैं: जल कहने से प्यास नहीं बुझती। सच तो यह है: जल कहने से प्यास दबी पड़ी हो, तो उभर कर प्रकट हो जाती है।
तुम मुझे बैठे-बैठे सुन रहे हो, शायद तुम्हें याद भी न आए प्यास की। और फिर कोई कह दे: ‘ठंडा जल’--तो प्यास बुझेगी नहीं; वह जिसकी याद नहीं आ रही थी, उसकी याद आ जाएगी।
राम-राम कहने से राम मिलता नहीं। राम-राम कहने से इतना ही हो सकता है कि राम मुझे अब तक नहीं मिला, अब मैं क्या करूं? कैसे पा लूं? प्यास जग सकती है; प्यास बुझ नहीं सकती।
लेकिन लोग हैं, जो सोचते हैं: राम-राम, राम-राम की रट लगा देने से पहुंच जाएंगे।
राम कह्या दुनिया गति-पावे,...
तब तो सारी दुनिया मोक्ष चली जाए। क्योंकि राम-राम कहने में लगता क्या है? खर्च भी कुछ नहीं होता। कभी भी बैठे राम-राम कह लिया।
लोग माला रख लेते हैं, दुकान चलाते जाते हैं, माला भी चलाते जाते हैं! थैली में माला छिपाए रखते हैं; किसी को दिखाई भी न पड़े, नहीं तो किसी की नजर लग जाए! अपनी माला घुमाते रहते हैं! एक हाथ से लोगों की जेब काटते रहते हैं, दूसरे हाथ से माला घुमाते रहते हैं--मुख में राम, बगल में छुरी! राम कहने में हर्ज भी कहां है; मेहनत भी कहां है; श्रम भी क्या लगता है! यंत्रवत आदत हो जाती है!
भोजन कह्या भूख जे भाजै,...
और अगर भोजन कहने से भूख बुझ जाती होती...
...तो सब कोई तिरि जाई।
तो सभी तिर जाएं। फिर तो कोई अड़चन नहीं। फिर राम-राम कह दिया और तिर गए। फिर तो बड़ी सस्ती हो गई बात। फिर तो कदम भी न उठाना पड़ा। जीवन को बदलना भी न पड़ा। जीवन को सुंदर भी न बनाना पड़ा। जीवन को शुद्ध भी न बनाना पड़ा। कुछ साधना भी न करनी पड़ी।
कबीर कहते हैं: ऐसी झूठी बातें मत फैलाओ, पंडितो! लोगों को मत समझाओ कि बस राम-राम जपते रहो, सब हो जाएगा। बड़ी झूठी कहानियां गढ़ रखी हैं। ऐसी तक कहानियां गढ़ रखी हैं कि अजामिल मर रहा था, तो उसने अपने बेटे नारायण को बुलाया। नाम था बेटे का नारायण। और ऊपर के नारायण समझे कि मुझे बुला रहा है! ऐसे बेटे को बुलाते हुए मर गया। मोक्ष चला गया। यह तो हद हो गई!
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
झूठ की भी सीमा होती है! थोड़ा लाज करो, थोड़ा संकोच करो। यह तो बहुत ज्यादा बात हो गई। तुमने परमात्मा तक को धोखा दे दिया! और यह अजामिल पापी था, चोर था, हत्यारा था--सब धुल गया मामला। और मजा यह है कि इसने राम को पुकारा भी न था, बुला रहा था अपने बेटे को; और किसी को पता नहीं, किसलिए बुला रहा था। जहां तक संभावना तो यही है कि बेटे को बुला रहा होगा कि चोरी की, हत्या की तरकीबें बता जाए। मरते वक्त बाप वही बताता है जो जानता है। और तो क्या बताएगा?
जिंदगी भर पाप किए थे, तो कुछ कुंजी दे जाए बेटे को। इसलिए बुलाया होगा नारायण को। क्योंकि जिंदगी भर की पूंजी उसकी यही थी। शायद कुछ गुर दे जाए कि देख बेटा, मैं कभी पकड़ा गया था, इस तरह की भूल दुबारा मत करना। चोरी-चारी को जाए तो इस-इस बात की सावधानी रखना। किसी की हत्या करे, तो हाथ-पैर के निशान मत छोड़ आना। मैं फंस गया था या फंसते-फंसते बच गया था। तू जरा ध्यान रखना। कुछ तरकीबें होंगी। कुछ जो उसने कभी अपने बेटे को नहीं कहीं, अब मरते वक्त कह जाना चाहता है। मरते वक्त लोग वही कहते हैं, जो जिंदगी भर छिपाए रखा।
अब तो जाने का वक्त आ गया। शायद बता जाए कि धन कहां गड़ा रखा है; वह जो राजा कि तिजोरी गायब हो गई थी, वह अपने घर के आंगन में कहां गड़ी है। कुछ कह जाए। या कह जाए कि कौन-कौन दुश्मन मेरे बचे रह गए हैं; जिनको मैं नहीं मार पाया, बेटा, तू मारना। मेरी आकांक्षा पूरी करना।
मैंने सुना है, एक आदमी ऐसा मर रहा था। बड़ा उपद्रवी था। जिंदगी भर अदालत, अदालतबाजी, इसके सिवा उसे कोई काम नहीं था। अदालत उसकी मंदिर, उसकी मस्जिद। अदालत उसकी पूजा, उसकी प्रार्थना। बस, उठता सुबह और चला अदालत! गांव भर को परेशान कर रखा था। हर किसी पर मुकदमा चला देता था। किसी भी बहाने मुकदमा चला देता था। बस, मुकदमा चलाने में उसको रस था।
तो जब मरने लगा, तो उसने अपने बेटों को पास बुलाया। जरा बेटे डरे हुए थे, क्योंकि बाप की आदतों से परिचित थे। कहा कि मेरी एक इच्छा है, उसे पूरी कर देना; अब मैं तो जा रहा हूं। बड़े बेटे तो तीन थे, वे तो दूर ही खड़े रहे। उन्होंने कहा कि पता नहीं, कहां की खतरनाक इच्छा में आखिरी वक्त फंसा जाए! छोटा बेटा जरा छोटा था, नासमझ था, वह पास आ गया--उसने कहा: आप कहिए, आपकी आखिरी इच्छा हम जरूर पूरी करेंगे।
उसने कहा: बेटा पास आ। कान में कहा कि ये तीन तो लफंगे हैं। मैं मर रहा हूं...दगाबाज! मेरा खून इनकी हड्डी-मांस में बह रहा है और ये झुके नहीं; मेरे पास आए नहीं। तू आया, तू मेरा असली बेटा है। एक काम करना। जब मैं मर जाऊं, तो मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े काट कर पड़ोसियों के घर में फेंक देना। मेरी आत्मा बड़ी प्रसन्न होगी, अगर ये लोग जंजीरों में बंधे अदालत की तरफ जा रहे होंगे। इनके घर में फेंक देना। मैं तो मर ही गया, अब तो काम ही खत्म हो गया, तो आखिरी मजा क्यों न ले लिया जाए! और मेरे हाथ-पैर काट कर पड़ोसियों के घर में फेंक देना; पुलिस में रिपोर्ट लिखा देना कि मेरे बाप की हत्या हो गई। सब बंधे चले जाएंगे, तो मेरी आत्मा बैकुंठ की तरफ जाती हुई बड़ी प्रसन्न होगी कि देखो, चले!
तो अजामिल भी कुछ ऐसा ही कहना चाहता होगा। इससे ज्यादा की आशा उससे नहीं हो सकती। लेकिन पंडितों ने खूब कहानी गढ़ी है! इन्हीं कहानियों के आधार पर आदमी को धोखा दिया गया है। आदमी को खिलौने दे दिए गए हैं।
असली बातें तो देने को पंडित के पास नहीं हैं। सत्य तो नहीं दे सकता। राम तो नहीं दे सकता, लेकिन ‘राम’ शब्द दे सकता है। राम तो वही दे सकता है, जिसने खुद जाना हो।
कबीर के संबंध में भक्तमाल में नाभा जी ने लिखा है: ‘आरूढ़ दसा ह्वै जगत परमुख देखी नहीं भनी।’ कि कबीर ने उस स्थिति में बैठ कर ही जो कहा--वही कहा। ‘परमुख देखी नहीं भनी।’ दूसरों के मुख से कही हुई बातों को नहीं दोहराया; और दूसरों के द्वारा देखी गई बातों को नहीं दोहराया। उस दशा में स्वयं आरूढ़ हो गए, तब कुछ कहा।
पंडित खुद भी नहीं उस दशा में आरूढ़ हुआ है। पंडित उतना ही दूर है, जितना पापी--और कभी-कभी पापी से भी ज्यादा दूर। इसलिए मैं बहुत खोजता रहा कि अजामिल, चलो मान भी लो कि यह पापी था और किसी तरह कुछ बात हो गई, जम गई बात किसी तरह; चला गया होगा!
मगर पंडित भी यह कथा नहीं गढ़ पाए अब तक कि कोई पंडित चला गया हो अजामिल जैसा। पापी था, चला गया; चलो जाने दो--चलेगा; लेकिन पंडित भी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाए कि उन्होंने ऐसी कोई कथा गढ़ ली हो कि कोई महापंडित था, जिंदगी भर शास्त्रों में उलझा रहा, शब्दों में उलझा रहा, वाद-विवाद में पड़ा रहा और मरते वक्त अपने बेटे को बुलाया ‘नारायण’ और भगवान समझे कि मुझे बुला रहा है--और मोक्ष चला गया हो। पंडित भी इतनी हिम्मत नहीं कर पाए। पापी को तो भिजवा दिया किसी तरह कहानी में, लेकिन पंडित नहीं।
मेरे देखे भी पापी शायद कभी पहुंच भी जाए, पंडित कभी नही पहुंचता। क्योंकि पापी शायद किसी दिन पछताए। यह बहुत असंभव है कि पापी न पछताए। क्योंकि जब तुम पाप करते हो, तब तुम्हारी पूरी अंतरात्मा कहती है: मत करो, मत करो, मत करो!
जब तुम पाप करते हो, तब तुम कभी पूरे-पूरे उसमें नहीं होते; तुम्हारा अंतर्तम तो बाहर ही रहता है। वह तो कहता है, बचो, अभी भी बच जाओ; रुक जाओ! पुकारता जाता है। हालांकि उसकी आवाज धीमी है और तुम्हारी आवाजों का तुम्हारा शोरगुल बहुत है। हालांकि अंतर्तम की आवाज बहुत-बहुत धीमी है और तुम्हारी आदतों की आवाजें बड़ी गहरी हैं। शायद तुम सुनो न सुनो, यह दूसरी बात है। तुम गुनो न गुनो, यह दूसरी बात है। लेकिन तुम्हारा अंतर्तम सदा कहता है: रुको, ठहर जाओ, मत करो; पीछे पछताओगे।
पापी भी इतना पापी नहीं होता कि उसके भीतर आवाज न उठती हो। ऐसा कोई पापी नहीं होता, क्योंकि परमात्मा, तुम चाहे कितना ही पाप करो, तुम्हारे भीतर अपनी आशा लगाए रखता है कि आज नहीं कल जागोगे; आज नहीं कल पहुंचोगे। तुम्हारे भीतर पुकारे चला जाता है।
लेकिन पंडित को पछतावा नहीं होता। पंडित को पछतावा क्यों हो? उसने कुछ पाप तो किया नहीं। वह तो सोचता है, उसने बड़े पुण्य का कार्य किया। पंडित तो सोचता है कि मैं तो शास्त्रों में ही रमा रहा; उसकी ही याद में लगा रहा; राम-राम जपता रहा।
तो पंडित कैसे पछताएगा! और जो पछताएगा नहीं, वह पहुंचेगा नहीं। क्योंकि जो पछताएगा नहीं, वह झुकेगा नहीं। क्योंकि जो पछताएगा नहीं, वह समर्पित नहीं होगा।
पंडित अहंकार से भरा रहेगा। पापी का क्या अहंकार हो सकता है! अहंकार कहने योग्य क्या है उसके पास? मंदिर नहीं बनवाए, मस्जिदें नहीं बनवाईं, धर्मशालाएं नहीं खुलवाईं; लोगों को लूटा-खसूटा मारा! क्या उसके पास है अहंकार को सजाने के लिए? अहंकार पर घाव ही घाव हैं; श्रृंगार तो बिलकुल नहीं।
पंडित के पास तो बड़ा श्रृंगार है। तपस्वी के पास बड़ा श्रृंगार है। साधु के पास बड़ा श्रृंगार है। अहंकार सजा हुआ है। सजे हुए अहंकार से छुटकारा पाना बहुत मुश्किल है।
चलो इसलिए मैं मान भी लेता हूं कि अजामिल पहुंच गया हो; लेकिन पंडित? पंडित कभी नहीं पहुंचा।
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
भोजन कह्या भूख जे भाजै, तो सब कोई तिरि जाई।।
नर के संग सुवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
और तुमने देखा कि आदमी के साथ रहते-रहते तोता भी ‘हरि-हरि’ बोलने लगता है। तुम जो बोलते हो, वही बोलने लगता है। लेकिन हरि-हरि दोहराने से तोते को कुछ हरि का प्रताप तो पता नहीं चलता; हरि की कुछ महिमा तो पता नहीं चलती। तोता लाख जपता रहे: हरि-हरि, तोता संत तो नहीं हो जाता! सुना नहीं कभी कि कोई तोता बुद्ध हो गया हो?
और पंडित तोता है। तोते से ज्यादा नहीं। उसे भी हरि के प्रताप का कोई पता नहीं। प्रताप का तो पता तभी होता है, जब तुम उसके प्रताप में प्रविष्ट हो जाओ। प्रताप का तो पता तभी होता है, जब तुम उस दशा में आरूढ़ हो जाओ। प्रताप का पता तो तभी होता है, जब तुम समाधिस्थ हो जाओ। प्रताप तो स्वाद से पता चलता है। फिर महिमा बढ़ती ही जाती है। फिर महिमा इतनी सघन हो जाती है कि कितना ही नाचो, और कितना ही गाओ, चुकती नहीं। कहना चाहो, कही नहीं जाती; अभिव्यंजना नहीं हो पाती। अपूर्व वर्षा होती है अमृत की। लेकिन वह तो तभी पता होगा, जब तुम हरि में प्रविष्ट हो जाओ और हरि तुममें प्रविष्ट हो जाए। तोते बने रहने से यह न होगा।
नर के संग सुवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
जो कबहुं उड़ि जाए जंगल में, बहुरि न सुरतैं आनै।।
और अगर कभी मौका मिल जाए तो तोते को, खुला छूट जाए पिंजरा, निकल भागे, तो फिर जंगल में भूल कर भी हरि-हरि नहीं दोहराएगा। किसलिए? हरि से लेना-देना क्या?
...बहुरि न सुरतैं आनै।
फिर सुरति न करेगा। फिर स्मरण न करेगा। फिर जंगल में बैठ कर नहीं कहेगा: हरि-हरि-हरि! क्या लेना-देना हरि से? बात खत्म हो गई है। वह तो आदमी के साथ फंस गया था झंझट में, तो हरि-हरि दोहराने लगा था।
ऐसे ही पंडित शास्त्रों की झंझट में हरि-हरि दोहराने लगता है। पढ़ता है, प्रभाव पड़ता है, दोहराने लगता है। लेकिन ऐसे प्रभाव का कोई मूल्य नहीं है जो तुम्हारी प्रभा न बन जाए। जो तुम्हारे ऊपर संस्कार की तरह ही रहे, उससे तुम्हारी मुक्ति नहीं होगी।
बिनु देखे बिनु अरस परस बिनु, नाम लिए का होई।
यह शब्द बड़ा प्यारा है। ‘बिनु देखे’...जब तक देखोगे न हरि को, कैसे उसका प्रताप अनुभव होगा? आंखें भरें उससे, हृदय भरे उससे, स्पर्श हो उसका! ‘बिनु देखे’...बिना दर्शन के कुछ भी न होगा। विश्र्वास किए मत बैठे रहना; विश्र्वास धोखा है। ‘पंडित वाद बदन्ते झूठा।’ अनुभव करना। विश्र्वास किए मत बैठे रहना। विश्र्वास करके गंवाया, तो बहुत पछताओगे।
और ऐसे ही लोग गंवा रहे हैं, लोग विश्र्वास किए बैठे हैं कि ईश्र्वर है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम मानते हैं कि ईश्र्वर है। मानने से क्या होगा? तुम मानते हो, इससे ही जाहिर होता है कि जानते नहीं। हम उन्हीं बातों को मानते हैं, जिनको जानते नहीं। जिनको जानते हैं, उनको तो कोई नहीं कहता कि हम मानते हैं। तुम यह तो नहीं कहोगे कि ये हरे वृक्ष जो यहां खड़े हैं, हम इनको मानते हैं! तुम जानते हो, मानने का सवाल नहीं है। सूरज उगा हुआ है, तुम यह तो नहीं कहोगे कि हम मानते हैं कि सूरज उगा हुआ है। तुम कहोगे कि हम जानते हैं कि सूरज उगा हुआ है। लेकिन अंधा आदमी होगा तो कहेगा कि हम मानते हैं कि सूरज उगा हुआ है। अंधा कैसे कहे कि हम जानते हैं कि सूरज उगा हुआ है?
मानना तो उसी का होता है, जिसको तुमने जाना नहीं। मानना दो कौड़ी का है; असली सवाल जानना है। मानने से क्या होगा? और मानने का कारण क्या होगा तुम्हारे भीतर? क्यों मानते हो कि ईश्र्वर है?
अक्सर तो लोग डर के कारण मानते हैं; भय के कारण मानते हैं; मृत्यु के कारण मानते हैं। असहाय हैं, इसलिए मानते हैं। ये कोई बातें मानने की हुईं? कहीं भय से प्रेम का जन्म हुआ है? कहीं भय से प्रार्थना उठी है? भय से तो वासना उठती है। और जिससे हमारा भय का संबंध है, उससे हमारा संबंध ही नहीं। भय से कहीं सेतु बनता है?
मंदिरों और मस्जिदों में लोग प्रार्थना कर रहे हैं, पूजा कर रहे हैं--घुटनों पर झुके हुए हैं; सिर नवाए हुए हैं। मगर जरा गौर से इनके भीतर देखो: शरीर ही झुका है; अहंकार जरा भी नहीं झुका है। और यह भी हो सकता है कि वहां सिर झुकाए-झुकाए देख रहे हों कि लोग देख रहे हैं कि नहीं मुझे, कि कितनी प्रार्थना कर रहा हूं; कितनी नमाज पढ़ रहा हूं! दिन में पांच नमाज पढ़ता हूं। यह पापी कोई एकाध पढ़ लेता है; तो समझता है कुछ हो गया। मैं पांच पढ़ता हूं। वर्षों से नहीं चूका हूं। भीड़-भाड़ देख ले कि मैं कितनी पूजा कर रहा हूं, कितनी प्रार्थना कर रहा हूं!
यह भी अहंकार हो गया।
‘तुम्हारी महक मन को मोह लेती है। बड़ी प्यारी व मीठी गंध है तुम्हारे पास। दुनिया में तुमसे अधिक सुवासित कोई भी नहीं होगा’--फूल से किसी ने कहा।
फूल ने उत्तर दिया: ‘नहीं, ऐसी बात नहीं है; धरती की सुगंध मुझसे बहुत श्रेष्ठतर है। मैं तो कुछ भी नहीं। यह छोटी सी सुगंध मुझमें है, यह भी धरती से आती है, और धरती में अनंत गंध भरी है।
जब धरती से यह प्रश्र्न पूछा गया, तो उसने कहा कि--‘मैं क्या! मैं कुछ भी नहीं। असली गंध तो मेघ में होती है। जब मेघ बरसता है, तो उसी की गंध मुझमें समा जाती है। मेघ के बिना तो मैं बिलकुल रूखी-सूखी हूं, मरुस्थल हूं। वे जो आकाश में मेघ घिरते हैं आषाढ़ के, गंध देखनी है, उनकी देखो! मुझमें क्या रखा है?’
इस प्रकार पूछे जाने पर मेघ ने इंद्र को इशारा किया कि--‘मेरा क्या, उसकी आज्ञा! सब उसके इशारे से होता है! उसकी अंगुली में इतनी गंध है कि उसका इशारा आया कि गंध फैल जाती है।’
इंद्र से पूछा, तो इंद्र ने विष्णु को बताया कि--‘वही सम्हाले है सबको; मुझको भी वही सम्हाले है। जो भी गंध है, उसकी है। जो भी महिमा है, उसकी है।’
विष्णु ने ब्रह्मा को बताया। उसने कहा: ‘मैं सम्हालता क्या, अगर ब्रह्मा न बनाते? उन्होंने बनाया सब! सब सुगंध उनकी!’
और जब ब्रह्मा से पूछा गया, तो ब्रह्मा ने कहा: ‘सर्वाधिक सुवासयुक्त तो मानव ही हो सकता है, क्योंकि मेरी महिमा इतनी ही है कि मैंने मनुष्य बनाया। और मेरी महिमा क्या है?’
स्वभावतः चित्रकार की महिमा यही है कि उसने चित्र बनाया। और कवि की महिमा यही है कि उसने काव्य रचा। और मूर्तिकार की महिमा और क्या है?--उसकी मूर्ति।
तो ब्रह्मा ने कहा: ‘मनुष्य को देख लो, बस! मनुष्य में है सारी गंध का वास!’
और जब मनुष्य से यह प्रश्र्न पूछा गया, तो वह अहंकार में अकड़ कर बोला: ‘अरे मूर्ख! भला मुझसे भी अधिक कोई सुवासित हो सकता है? मैं परम सुगंधमय हूं!’
और अब तुम जान सकते हो कि सुगंध कहां है। सुगंध हमेशा निर-अहंकार में है। फूल में भी सुगंध थी; और धरती में भी सुगंध थी; और मेघ में भी; और इंद्र में भी; और विष्णु में भी; और ब्रह्मा में भी। मनुष्य सुगंधहीन हो गया। यह अहंकार कि मैं परम सुगंधमय हूं! और चिल्ला कर बोला: ‘अरे मूर्ख, यह भी कोई पूछने की बात है? तुझे दिखाई नहीं पड़ता कि मैं मनुष्य हूं? भला मुझसे भी अधिक कोई सुवासित हो सकता है?’
अहंकार से दुर्गंध उठती है। निर-अहंकार से सुगंध उठती है। तो तुम्हारी पूजा, प्रार्थनाएं, तपश्र्चर्याएं अगर तुम्हारे अहंकार को ही सजाती हैं, तो थोथी हैं।
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
बिनु देखे बिनु अरस परस बिनु,...
देखना होगा प्रभु को। आंखों में आंखें डाल कर देखना होगा प्रभु को। उसकी सूरत समा जाए भीतर। रोएं-रोएं में समा जाए। धड़कन-धड़कन में समा जाए। तुम कह सको कि मैंने जाना है, मैंने देखा है। मैंने देखा--अपनी आंख से देखा है। ‘बिनु अरस परस बिनु,...।’ अरस-परस हो, स्पर्श हो। अनुभव हो। उसके संग नाचो। उसके साथ रास हो। उसके साथ गीत गुनगुनाओ। उसके साथ बैठो--तो जाना। और जाना--तो कुछ होगा।
...नाम लिए का होई।
ऐसा राम-राम जपने से कहीं कुछ होता है?
राम कह्या दुनिया गति पावे, खांड कह्या मुख मीठा।।
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
व्यर्थ की बकवासें हैं। राम-राम कहने से कुछ न होगा--राम को जानने से कुछ होगा। तुम कितना ही राम-राम चिल्लाते रहो, तुम्हारा हृदय कुछ और ही चिल्ला रहा है। तुम अगर धन के प्रेमी हो, तो ऊपर तुम राम-राम कह रहे हो और भीतर धन की गुहार चल रही है; धन से अरस-परस हो रहा है। यह राम की तो फिजूल बकवास लगा रखी है। शायद इसी आशा में कि राम-राम कहते रहो, तो ज्यादा धन मिल जाए। राम की प्रार्थना भी धन के लिए! राम की प्रार्थना भी यश के लिए! जिस दिन तुम राम की प्रार्थना राम के लिए ही करोगे, उस दिन सार्थक होगी।
एक आदमी मर कर स्वर्ग के लोहे के फाटक के पास पहुंचा। उसने दरवाजा खटखटाया। दरवाजे पर एक देवदूत प्रकट हुआ। देवदूत ने उस आदमी से नाम पूछा।
उस आदमी ने कहा: मुल्ला नसरुद्दीन!
देवदूत ने कहा: हमें तुम्हारे यहां आगमन की कोई सूचना नहीं मिली। कहीं कुछ भूल-चूक हो गई!
फिर भी, उसने कहा कि जब धरती पर थे, तो तुम काम क्या करते थे? अपने बाबत ब्योरा दो, ताकि मैं रजिस्टर में जाकर देखूं कि मामला क्या है; भूल-चूक कहां हो गई है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: कबाड़ी था साहब, कबाड़ी। पुराना लोहा खरीदा और बेचा करता था।
तुम यहीं ठहरो, देवदूत बोला। मैं भीतर से तुम्हारा खाता देख कर अभी आता हूं।
थोड़ी देर बाद देवदूत वापस आया, तो मुल्ला नसरुद्दीन गायब था और साथ में लोहे का फाटक भी।
कबाड़ी तो कबाड़ी! जिंदगी भर पुराना लोहा खरीदना-बेचना! देवदूत भीतर गया और उसने देखा: यह मौका छोड़ने जैसा! स्वर्ग छोड़ दिया; ले भागे लोहे का फाटक!
तुम्हारा अंतर्तम क्या है, वही निर्णायक है। तुम्हारे अंतर्तम में जो है, वही तुम हो; ऊपर-ऊपर के धोखे में मत पड़ना। ऊपर-ऊपर कहो, राम-राम और भीतर चलता हो कुछ, तो ध्यान रखना कि जो भीतर है, वही निर्णय करेगा तुम्हारे जीवन का।
बिनु देखे बिनु अरस-परस बिनु, नाम लिए का होई।
धन के कहै धनिक जो हो तो, निरधन रहत न कोई।।
अगर धन ही कहने से धनिक हो जाते, तो सभी धनिक हो गए होते। धन ही धन तो लोग कह रहे हैं। लेकिन धन कमाना पड़ता है, तब कोई धनिक होता है। राम भी कमाना पड़ता है, तब कोई राम का होता है।
सांची प्रीति विषय माया सूं, हरि भगतन सूं हांसी।
कहै कबीर प्रेम नहिं उपज्यौ, बांध्यो जमपुर जासी।।
सांची प्रीति विषतु माया सूं,...
और ये तथाकथित जो पंडित हैं, जो राम-राम की बकवास लगा रखे हैं और बड़ा विवाद और तर्क फैला रखे हैं, और प्रमाणित करते हैं कि ईश्र्वर है, या नहीं है; ऐसा है, वैसा है; उसका रूप, उसका रंग, उसका ढंग सब ब्योरे से समझाते हैं--इनको अगर गौर से देखो:
सांची प्रीति विषय माया सूं,...
इनकी सच्ची लगन तो विषय और माया में है! इन पंडितों को खरीद लेना बड़ा आसान है। ये पंडित तुम जो चाहो, वही कहने लगेंगे; इनकी आकांक्षा पूरी कर दो। ये तुम्हारे घर सौ रुपये महीने पर आकर प्रार्थना कर जाते हैं; पूजा कर जाते हैं। तुम सोचते हो, तुम किसको धोखा दे रहे हो! पूजा भी किसी और से करवा रहे हो!
यह तो ऐसे ही हुआ कि तुम्हें प्रेम करना हो अपने बेटे से, और एक नौकर रख लो; कि मुझे तो फुर्सत रहती नहीं, तो तू आकर कभी-कभी इसका सिर थपथपा दिया कर; कभी इसको गले लगा लिया कर--मेरी तरफ से! यह बात बेहूदी लगती है। लेकिन परमात्मा के साथ लोग यही करते हैं। आदमी रख लेते हैं किराए का कि तू पूजा कर जाया कर रोज। मैं तो, इतना समय नहीं है कि घंटी बजाऊं, कि थाली सजाऊं, कि आरती उतारूं--तू उतार दिया कर; यह काम तू कर दिया कर, फल मैं ले लूंगा; तू अपने रुपये ले लेना।
तुम किसको धोखा दे रहे हो? पंडित को कुछ लेना नहीं; उसे रुपये लेना है। कल अगर उसे कोई और ज्यादा रुपये देने वाला मिल जाएगा, तो तुम्हें छोड़ जाएगा। कल अगर उसे कोई और धन देने वाला मिल जाएगा, तो वह हिंदू छोड़ कर मुसलमान हो सकता है; मुसलमान छोड़ कर ईसाई हो सकता है।
तुम देखते हो: ईसाइयों ने इतने लोग ईसाई बनाए हैं--सब प्रलोभन के आधार पर! रोटी-रोजी! नौकरी मिल जाती है, शिक्षा मिल जाती है, अच्छा मकान मिल जाता है। ठीक है; आदमी ईसाई हो जाता है।
मुसलमानों ने कितने लोग मुसलमान बना लिए--तलवार के बल पर! यह बड़े मजे की बात है, तलवार के बल पर आदमी धार्मिक हो गया, मुसलमान हो गया! घबड़ा गया मरने से; सोचा, चलो ठीक है, जान बचाओ। ‘लौट कर बुद्धू घर को आए, जान बची और लाखों पाए।’ चलो, जान बचाओ, मुसलमान हो जाओ, इसमें रखा क्या है? वह मुसलमान हो गया!
तुम्हारा हिंदू, मुसलमान, ईसाई--वास्तविक तुम्हारे हृदय के अनुभव से निकला है, कि ऐसी ही कुछ बाहरी बातों से तय हो गया है? और न तुम तलवार से झुके हो, न तुम रोटी-रोजी से झुके हो--फिर भी तुम्हारा हिंदू-मुसलमान होना कितने मूल्य का है! हिंदू घर में पैदा हो गए तो हिंदू; क्योंकि मां-बाप ने दिमाग में हिंदू धर्म घुसा दिया। न उनके पास हिंदू धर्म था, न उनके मां-बाप के पास था। उधार उनका था, उधार तुम्हें बना दिया। यह सब थोथा है।
इसलिए कबीर कहते हैं:
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
सांची प्रीति विषय माया सूं,...
पंडित से कहते हैं: तेरी प्रीति हमें राम में नहीं लगती। तेरी प्रीति तो हमें लगती है--धन, पद, प्रतिष्ठा--इसमें ही।
देखते हो तुम: इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक मुकदमा चल रहा है वर्षों से। शंकराचार्य की एक गद्दी पर दो आदमियों का दावा है कि असली शंकराचार्य कौन! अब यह बड़े मजे की बात है कि शंकराचार्य होने का निर्णय भी अदालत करेगी कि असली शंकराचार्य कौन! और ये जो दो आदमी अदालत में मुकदमा लड़ रहे हैं शंकराचार्य होने का, इनको शंकराचार्य से कुछ भी लेना-देना है? इनको पद की फिकर है। उस गद्दी पर करोड़ों रुपये हैं, पद-प्रतिष्ठा है। उस गद्दी पर जाना है। ये राजनीतिज्ञ हैं। इनका धर्म से क्या लेना-देना?
इनको अगर कोई कल और ज्यादा बड़ी गद्दी देने को मिल जाए, कोई कहे कि आओ, चलो, पोप हो जाओ वेटिकन के, कहां तुम यह छोटी-मोटी बात में पड़े हो, इसमें रखा क्या है! शंकराचार्य की गद्दी का मूल्य कितना है? आ जाओ, पोप हो जाओ। पोप की तो बड़ी महिमा है। आधी पृथ्वी ईसाई है। अरबों-खरबों रुपयों का फैलाव है। सम्राट है पोप। तो ये वहां चले जाएंगे। इनको क्या लेना-देना है?
मैंने सुना है, एक पादरी रोज प्रवचन देता था, तो गांव का सबसे बूढ़ा आदमी सामने ही बैठता था--बड़ा प्रतिष्ठित धनी आदमी। और न केवल सामने बैठता था...उम्र भी कोई अस्सी-बयासी साल की हो गई--थका-मांदा है जिंदगी भर का। मगर वह दानी भी था। चर्च को उसने दान भी दिया था। और सबसे बड़ा प्रतिष्ठित नागरिक भी था, मेयर भी रह चुका था। और कई बातें थीं। तो वह सामने ही बैठता। और पुरोहित को बहुत अखरता, क्योंकि वह दो-तीन मिनट में ही सो जाता, सिर हिलाने लगता। न केवल इतना, घुर्राता भी! सामने ही घुर्राता--बैठ कर। तो वह पुरोहित बड़ा परेशान होता। उसको बड़ी बाधा पड़ती। उस बूढ़े के साथ उसका छोटा नाती भी आता था एक--सात-आठ साल का लड़का।
उसने तरकीब निकाली। पुरोहित ने उसके नाती को एक दिन अलग से बुलाया और कहा कि देख, तू अपने दादा को जगा दिया कर, मैं तुझे चार आने दिया करूंगा। जब भी वे सोएं, जगा दिया। जरा सा धक्का मार दिया।
चार आने के लोभ में उसने कहा: अच्छा, कर देंगे। तो जैसे ही बुड्ढा सोता, वह लड़का उसको जगा देता। ऐसा तीन सप्ताह तक तो बिलकुल ठीक चला। वह पुरोहित बड़ा प्रसन्न था। लेकिन चौथे सप्ताह देखा कि बूढ़ा सो रहा है, घुर्रा रहा है; लड़का बैठा है और जगा नहीं रहा। उसे बड़ी हैरानी हुई। उसने एक-दो दफे इशारा भी किया; लड़का इधर-उधर देखे। उसने उसको फिर इशारा किया कि...उस लड़के ने इशारा कर दिया कि नहीं! पीछे उसको बुला कर पूछा कि बात क्या है? हम तेरे को चार आने देते हैं, काहे का देते हैं? चार आने रोज हम तेरे को देते हैं। तू जगाता क्यों नहीं?
उसने कहा: दादा आठ आने देने लगे हैं। उन्होंने कहा है: मुझे जगाना भर नहीं, आठ आना ले लिया कर। अब मैं नहीं जगा सकता। अब आप सोच लो। अगर रुपये का इरादा हो...!
तुम्हारी चाहत क्या है, उससे सब निर्भर होगा।
सांची प्रीति विषय माया सूं, हरि भगतन सूं हांसी।
और ये पंडित-पुरोहित--धन के पीछे दीवाने, पद के पीछे दीवाने, प्रतिष्ठा के पीछे दीवाने, घने अहंकार से भरे हुए लोग--और भक्तों के लिए हंसते हैं।
...हरि भगतन सूं हांसी।
कबीर अनुभव से कह रहे हैं। कबीर काशी में रहे--पंडितों के घर में रहे। कबीर की खूब हंसी उड़ाई होगी उन्होंने कि कबीर पागल है, कि कबीर के वंश का कुछ ठिकाना नहीं है कि हिंदू है कि मुसलमान, कुछ पक्का नहीं है; भ्रष्ट है; जुलाहे के घर में पला है, शूद्र है। कबीर की खूब हंसी उड़ाई होगी उन्होंने। कबीर के भक्तों की हंसी उड़ाई होगी कि कहां जाते हो, किसके पास जाते हो?
तो कबीर कहते हैं कि खुद का तो मन विषय-माया में लगा है...‘हरि भगतन सूं हांसी’...और जो हरि के भगत हैं, उनके प्रति हंसते हो!
भक्तों के प्रति हमेशा पंडित हंसा है। भक्त को पंडित बर्दाश्त नहीं कर सकता। क्योंकि भक्त होता है हृदय से; और पंडित जीता है खोपड़ी में। खोपड़ी सदा हृदय पर हंसती है।
इसलिए तो लोग कहते हैं: प्रेम अंधा होता है। कौन कहता है यह? यह खोपड़ी कहती है कि प्रेम अंधा होता है। प्रेम आता हृदय से। खोपड़ी कहती है: हृदय की बकवास में मत पड़ना, नहीं तो झंझट में आओगे। मेरी सुनो, मेरी मानो, अगर होशियारी से जीना हो, अगर दुनिया में कुछ कर जाना हो। धन कमाना हो, पद कमाना हो--मेरी सुनो। हृदय की सुनी कि गए। न घर के रहोगे, न घाट के। हृदय की बात में पड़ना ही मत, यह भावनाओं का मामला है; भावनाएं तो अंधी होती हैं। यह दुनिया कहीं भावना से चलती है? यहां हिसाब-किताब चाहिए, तर्क-बुद्धि चाहिए। यहां होशियारी चाहिए, चालाकी चाहिए, कपट-कुशलता चाहिए। यहां राजनीति-कूटनीति चाहिए। यह प्रेम-व्रेम से नहीं होगा। यह प्रेम-व्रेम को हटा कर रखो, अलग करो, बीच में मत आने दो। अगर प्रेम को बीच में लाए, तो मुश्किल पड़ेगी!
प्रेम मुश्किल लाता है। इसलिए तो लोगों ने प्रेम को बिलकुल ही बांध कर रख दिया है। प्रेम मुश्किल लाता है, सच है; लेकिन प्रेम आनंद भी लाता है। और इसलिए तो लोग निरानंद हो गए हैं। प्रेम को बांध कर रख दिया है; मुश्किल से डर गए हैं। तो जीवन से सारा सुख, सारा संगीत खो गया है। जी रहे हैं--मरुस्थल की तरह। मरूद्यान भी नहीं। एक जरा सा जल का झरना भी नहीं। सूखे-साखे लोग, जिनके जीवन में कोई रसधार नहीं बहती!
सांची प्रीति विषय माया सूं, हरि भगतन सूं हांसी।
कहै कबीर प्रेम नहिं उपज्यौ, बांध्यो जमपुर जासी।।
और कबीर कहते हैं: समझ लो इस बात को। यह खोपड़ी के खेल से कुछ भी न होगा, तर्क से कुछ भी न होगा, विचार से कुछ न होगा, ज्ञान से कुछ न होगा। होगा, तो प्रेम से होगा।
कहै कबीर प्रेम नहिं उपज्यौ,...
अगर प्रेम नहीं उपजा, अगर भावना नहीं जगी, अगर भाव नहीं उठा, तो याद रखो,...
...बांध्यो जमपुर जासी।
जल्दी ही यम के दूत आएंगे और ले जाएंगे नरक।क्योंकि प्रेम ही केवल स्वर्ग ले जाता है। क्योंकि प्रेम ही प्रार्थना बन सकता है। और प्रार्थना ही परमात्मा के चरणों तक ले जा सकती है।
धन्यभागी हैं वे, जो प्रेम कर पाते हैं। मृत्यु से वे ही बच सकेंगे, जो प्रेम कर पाते हैं।
प्रेम ही एकमात्र अमृत की झलक है--इस मृत्यु के लोक में। इस अंधेरी रात में, जहां सब रास्ते उलझ गए हैं--प्रेम ही एक रोशनी है, एक दीया है।
प्रेम की सुनो। प्रेम की मानो। और प्रेम जो गंवाने को कहे, गंवा दो। प्रेम के साथ जो भी गंवाया, वह कमाना है। और बुद्धि के साथ जो भी कमाया, वह एक दिन गंवाना सिद्ध होगा।
होशियारी छोड़ो। समझदारी छोड़ो। नासमझी में बड़ा रस है। अज्ञानी हो रहो, क्योंकि अज्ञान निर्दोष है। ज्ञान की अकड़ डुबाएगी। यह ज्ञान का पत्थर तुम्हारी छाती से बंधा रहा, तो डूबोगे।
...बांध्यो जमपुर जासी।
चलन चलन सबको कहत है, ना जानै बैकुंठ कहां है।
और यह पंडित लोगों से कहता है कि चलो, चलो, उठो, परमात्मा को पाने चलो; स्वर्ग को खोजो; मोक्ष की यात्रा करो।
चलन चलन सबको कहत है, ना जानै बैकुंठ कहां है।
और इसको खुद भी पता नहीं कि बैकुंठ है कहां! इसने खुद देखा नहीं आंख से! इसने परमात्मा की तस्वीर देखी नहीं; क्योंकि परमात्मा की तस्वीर देखी होती, तो इसका जीवन और होता। इसका जीवन तो गवाही नहीं देता, इसका जीवन तो प्रमाण नहीं देता कि इसने परमात्मा को देखा।
जिसने एक बार देख लिया परमात्मा को, एक झलक भी, एक बार कौंध गई उसकी बिजली, फिर वह आदमी कुछ और ही ढंग का आदमी हो जाता है। वह आदमी इस जगत में बिलकुल अजनबी हो जाता है। इस जगत में वह इस जगत का नहीं होता--इस जगत के पार का प्रतीक हो जाता है। और वह एक दफे झलक जाए, तो भूलती नहीं याद; सतत बनी रहती है।
साधारण प्रेम में ऐसा हो जाता है, तो परमात्मा के प्रेम का तो कहना ही क्या?
यह गीत सुनो--
कुछ दिनों से, करीबे-दिल है वो दिन
जब अचानक, इसी जगह, इक शक्ल
मेरी आंखों में मुस्कुराई थी
एक पल के लिए तो--एक वो शक्ल
जाने क्या कुछ थी, झूठ भी, सच भी
शायद इक भूल--शायद इक पहचान
कुछ दिनों से तो, जान-बूझ के, अब
ये समझने लगा हूं , मैं ही तो हूं
जिसकी खातिर ये अक्स उभरा है
कुछ दिनों से तो, अब मैं दानिस्ता
इस गुमां का फरेब खाता हूं
रोज, एक शक्ल, इस दोराहे पर
अब मेरा इंतिजार करती है
एक दीवार से लगी, हर सुबह
टिकटिकी बांध, नीमरुख, यकसूं
अब मेरा इंतिजार करती है
मैं गुजरता हूं--मुझको देखती है
मैं नहीं देखता--वो देखती है
उसके चेहरे की साख्त, साऊते-दीद
जर्द ओंठों की पतड़ियां, पीतल
सुर्ख आंखों की टुकड़ियां कुरमज!
रोगनी धूप में, धंसते हुए पांव
मुंतिजर-मुंतिजर, उदास-उदास
एक यही चेहरा--एक पल के लिए
जाने क्या कुछ था--लेकिन अब तो मुझे
अपनी ये भूल भूलती ही नहीं!
एक दिन ये शबीह देखी थी
कुछ दिनों से, करीबे-दिल है वो दिन
कुछ दिनों से तो बीतते हुए दिन
इसी एक दिन में ढलते जाते हैं
दिन गुजरते हैं अब तो यूं जैसे
उम्र इसी दिन का एक हिस्सा है
उम्र गुजरी--ये दिन नहीं गुजरा
जिस तरफ जाऊं--जिस तरफ देखूं
मुझसे ओझल भी--मेरे सामने भी
शक्ल एक--टीम के वर्क पे वही
शक्ल एक--दिल के चौखटे में वही!
यह गीत तो साधारण प्रेम का है। अगर तुमने किसी के चेहरे को चाहा--एक क्षण को; एक क्षण को किसी के चेहरे का सौंदर्य तुम्हें भावाभिभूत कर गया; एक क्षण को कोई चेहरा तुम्हारी आंखों में उतर गया; एक क्षण को--जब विचार बंद हो जाते हैं; एक क्षण को--जब मन में कोई तरंग नहीं होती; एक क्षण को--जब हृदय के द्वार खुले होते हैं; एक क्षण को--जब यह अक्स, यह प्रतिबिंब तुम्हारे हृदय में उतर जाता है और बैठ जाता है--फिर भूले नहीं भूलता।
एक यही चेहरा--एक पल के लिए
जाने क्या कुछ था--लेकिन अब तो मुझे
अपनी ये भूल भूलती ही नहीं!
एक दिन ये शबीह देखी थी
कुछ दिनों से करीबे-दिल है वो दिन
कुछ दिनों से तो बीतते हुए दिन
इसी एक दिन में ढलते जाते हैं
दिन गुजरते हैं अब तो यूं जैसे
उम्र इसी दिन का एक हिस्सा है
उम्र गुजरी--ये दिन नहीं गुजरा
जिस तरफ जाऊं--जिस तरफ देखूं
मुझसे ओझल भी--मेरे सामने भी
शक्ल एक--टीम के वर्क पे वही
शक्ल एक--दिल के चौखटे में वही!
तो परमात्मा का तो कहना ही क्या! एक बार दरस-परस हो जाए।
बिनु देखे बिनु अरस परस बिनु, नाम लिए का होई।
एक बार क्षण भर को, पल भर को दर्शन हो जाए तो तुम चकित हो जाओगे। जन्मों-जन्मों चिल्लाने से जो नहीं हुआ, वह हो जाता है।
चलन चलन सबको कहत है, ना जानै बैकुंठ कहां है।
जोजन परमिति परमनु जानै। बातनि ही बैकुंठ बखानै।।
हालांकि पंडितों से पूछो, तो वे नक्शा रख कर बता देते हैं कि बैकुंठ यहां है। यहां से यहां जाना पड़ेगा, यहां से यहां जाना पड़ेगा; यहां स्वर्ग है, यहां नरक है; यहां सात नरक हैं, यहां सात स्वर्ग हैं--सारा नक्शा बता देते हैं! गए कहीं नहीं। अनुभव कुछ भी नहीं किया है। नक्शे खोल कर रख देते हैं। सीमा बता देते हैं--कि ये सीमाएं हैं। और यह सब बातचीत है।
बातनि ही बैकुंठ बखानै।
क्योंकि बैकुंठ बाहर नहीं है, भूगोल का हिस्सा नहीं है। इसलिए बैकुंठ का कोई नक्शा नहीं हो सकता है। बैकुंठ तो भीतर की दशा है--अंतर-दशा है। बैकुंठ तो अपने भीतर डूब जाने का नाम है।
मोक्ष बाहर नहीं है। मोक्ष तुम्हारा स्वभाव है। उसका नक्शा नहीं हो सकता है। ये सब नक्शे झूठे हैं।
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
जब लगि है बैकुंठ की आसा। तब लगि नहिं हरि चरण निवासा।।
और कबीर कहते है: यह भी तू समझ ले पंडित, कि जब तक बैकुंठ की आशा लगाए रखे है, तब तक हरि के चरण न मिलेंगे; क्योंकि यह आशा ही बाधा बन जाएगी।
प्रभु-चरण की मांग एक बात है; बैकुंठ की आशा दूसरी। यह तो फिर सुख की ही इच्छा है। यहां धन चाहते थे, वहां भी धन चाहते हो। यहां पद चाहते थे, वहां भी पद चाहते हो। यहां महल चाहते थे, वहां भी महल चाहते हो। जो यहां नहीं मिला, वह सब वहां चाहते हो।
जब लगि है बैकुंठ की आसा। तब लगि नहिं हरि चरण निवासा।।
जब तक तुम कुछ और मांगते हो, तब तक परमात्मा न मिलेगा। परमात्मा उसे मिलता है, जो कहता है: सब छिन जाए, बस मैं तुझे चाहता हूं, तेरे चरण चाहता हूं।
इसलिए भक्तों ने कहा: छोड़ो बैकुंठ, हमें बैकुंठ नहीं चाहिए। मोक्ष, रखो तुम अपना, हमें नहीं चाहिए। हमें तुम्हारे चरण की रज बन जाने दो। हम तुम्हारे पैरों के पास पड़ जाएं, बस इतना बहुत है। और क्या चाहिए! मगर उस पड़ जाने में ही मोक्ष है!
जिसने मोक्ष की वासना की, वह मोक्ष से वंचित रह जाएगा। क्योंकि मोक्ष का अर्थ ही होता है: निर्वासना में मिलता है जो। मोक्ष की वासना भी वासना है। मोक्ष तो तभी है, जब कोई वासना न रही। मोक्ष वासना का अभाव है।
कहै सुनै कैसे पतइइए। जब लगि तहां आप नहिं जइए।
और कहते हैं कबीर कि पंडित, जब तक तू वहां नहीं गया,...
कहै सुनै कैसे पतइइए।
कहने-सुनने से कहीं प्रतीति होती है? अंधे को लाख कहो कि रोशनी है, क्या प्रतीति होगी? और बहरे को लाख कहो कि संगीत है, क्या प्रतीति होगी?
कहै सुनै कैसे पतइइए।
प्रतीति ही नहीं होगी।
जब लगि तहां आप नहिं जइए।
जब तक वहां स्वयं नहीं पहुंच जाओगे, तब तक कुछ भी न होगा।
कहै कबीर यहु कहिए काहि।
कबीर कहते है: यह मैं किससे कहूं? यह मैं किसको समझाऊं? पंडितों ने लोगों के चित्त विकृत कर दिए हैं।
कहै कबीर यहु कहिए काहि। साध संगत बैकुंठहि आहि।।
कबीर कहते हैं: शास्त्रों की संगति नहीं--साध-संगत। शब्दों की व्यवस्था नहीं--साधु-संघ। वहीं बैकुंठ है।
परमात्मा तो दूर है। हमें उसका कोई अनुभव नहीं। और कबीर कहते हैं: जब तक उसका अनुभव न हो, तब तक कुछ हो नहीं सकता। फिर हम करें क्या? हम जाएं कैसे उसके पास? शास्त्र से जा नहीं सकते; राम-राम रटने से जा नहीं सकते। वह तोता-रंटत हो जाएगी। वाद-विवाद से जा नहीं सकते। पुण्य करें, तो अहंकार बनता है। तप-तपश्र्चर्या करें, तो अहंकार बनता है। मंदिर-मस्जिद सब आदमी के बनाए हुए हैं। तो फिर हम करें क्या? तो कबीर रास्ता बताते हैं।
कबीर कहते हैं: रास्ता है। रास्ता है:
साध संगत बैकुंठहि आहि।
साधु की संगत करो। सदगुरु की संगत करो। खोजो। जरूर कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाएगा, जिसमें तुम्हें झलक मिलेगी पार की। फिर उसका हाथ पकड़ लो, फिर उसकी छाया बन जाओ। फिर उससे कहो:
सखा ओ,
छाया दो!
मन की तपन को
देखा-अनदेखा मत करो
अपनी ही मरजी रेखा मत करो
चित्त के इस तट पर
किरनें ही किरनें
कहां तक सहूं
ध्यान दो--थोड़ा ही सही
छाया-छाया की मेरी
इस रट पर
सखा ओ, छाया दो!
छाया भी चाहिए
विरक्ति का प्रकाश पड़ चुका
अनुरक्ति की माया भी चाहिए!
सखा ओ, छाया दो!
फिर किसी साधु का, किसी सदगुरु का संग करो। फिर उसकी छाया मांगो। उससे कहो: बस पास बैठ जाने दो। उससे कहो: तुम बरसो और मेरे खाली घड़े को पास रहने दो।
साधु तो बरस ही रहे हैं। तुम्हारा खाली घड़ा रख कर पास बैठ जाओ। साध-संगत! तो यहीं से तुम्हें धीरे-धीरे अनुभव मिलेगा।
तुमने तो नहीं जाना, लेकिन किसी ने जाना है। तुमने देखा, तुम तो बगीचे नहीं गए, कोई और बगीचा गया था। लेकिन जब बगीचे से कोई घूम कर आता है, तो उसके वस्त्रो में फूलों की थोड़ी सुगंध आ जाती है। तुम तो बगीचा नहीं गए, लेकिन कोई बगीचा घूम कर आया है--सुबह की ताजी हवा में; फूलों की गंध उस पर पड़ी है; पक्षियों के गीत उस पर पड़े हैं; चला है घास पर, जहां रात भर की ठंडी जमी हुई ओस थी--जब यह आदमी बगीचे से लौटता है, तब कुछ बगीचा अपने साथ ले आता है। अगर तुम गौर से देखो, तो इस आदमी में थोड़ी हरियाली पाओगे; थोड़ी फूलों की लरजती हुई गंध पाओगे; थोड़ी ताजगी पाओगे। सुबह की ताजगी इसकी आंखों में दिखाई पड़ेगी। यह साध-संगत! इसके संग हो लो। इसे बगीचे का पता है। कभी इसके संग लगे-लगे तुम भी पहुंच जाओगे।
साधु का अर्थ है: जो परमात्मा में होकर आता है; या परमात्मा में जीने लगा है। इसके पास बैठो। इसका एक हाथ परमात्मा में है। इसका दूसरा हाथ तुम पकड़ लो। हालांकि परमात्मा से तुम अभी सीधे नहीं जुड़े, लेकिन फिर भी संपर्क हो गया। यही संपर्क बढ़ते-बढ़ते एक दिन परमात्मा से संबंध बन जाता है।
मथुरा जावै द्वारिका, भावै जावै जगनाथ।
चाहे मथुरा जाओ, चाहे द्वारिका, और चाहे जगन्नाथ।
साध संगति हरिभजन बिन, कछू न आवै हाथ।
साध-संगत के बिना कुछ भी हाथ न आएगा; और साध-संगत में ही जो स्मृति आती है प्रभु की, वह तोता-रटंत नहीं होती; वह हरिभजन बन जाता है।
पंडित से सीखा--तो तोता-रटंत। उसके पास ही नहीं है खुद; वह खुद ही उस बगीचे में नहीं गया। साधु से सीखा--तो हरिभजन। बड़ा फर्क है। ऊपर से देखने में एक जैसा ही लगेगा।
साध संगति हरिभजन बिन, कछू न आवै हाथ।
पहले साधु की संगत करो, फिर तुम्हारे भीतर अपने आप भजन उठने लगेगा। उसके संग-संग रहते-रहते उसका रोग तुम्हें भी लगेगा, यह रोग संक्रामक है। उसकी तरंग तुम्हें भी पकड़ लेगी। उसकी लहर तुमको भी लहराने लगेगी। उसकी मत्तता तुम्हारे भीतर भी शराब की तरह उतरने लगेगी; तुम भी डोलने लगोगे; तुम भी मस्त होने लगोगे; तुम भी नाचने लगोगे।
साध संगति हरिभजन बिन, कछू न आवै हाथ।।
मेरो संगी दोइ जन, एक वैष्णो एक राम।
यो है दाता मुकति का, वह सुमिरावै नाम।।
बड़ा प्यारा वचन है। बड़ा बहुमूल्य।
कबीर कहते हैं:
मेरो संगी दोई जन,...
दो से मेरी दोस्ती है; बस दो ही से मेरा संग-साथ है। बस दो ही साथ योग्य भी हैं। ‘एक वैष्णो, एक राम।’ एक तो राम और एक राम को जिसने अनुभव कर लिया, वह है वैष्णव। वैष्णव का अर्थ होता है: विष्णु को जिसने अनुभव कर लिया। तो दो ही संगी-साथी हैं इस जगत में--एक तो सत्य और एक सत्य को अनुभव कर लिया, सदगुरु।
मेरो संगी दोइ जन, एक वैष्णो एक राम।
यो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम।।
राम से तो मिलती है मुक्ति; वह तो दान देने वाला है मुक्ति का। लेकिन राम को कौन याद दिलाएगा?
...वो सुमिरावै नाम।
वह जो वैष्णव है। वह जिसने सुमर लिया है। वह जिसने जान लिया है।
ये दो ही दोस्तियां करने जैसी हैं। और तुमने न मालूम कितनी दोस्तियां की हैं, और ये दो से तुम बचे हो। और स्वभावतः राम से तो दोस्ती बाद में होगी, पहले दोस्ती तो राम के किसी प्यारे से होगी। राम के पास जाना हो, तो हनुमान को पकड़ो; राम के किसी प्यारे को पकड़ो। कृष्ण के पास जाना हो, तो राधा के पीछे लग जाओ; कृष्ण के किसी प्यारे को पकड़ो।
यो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम।
तो पहले तो जो तुम्हें उसका नाम सुमिरा दे...। और पंडित से बचना, नहीं तो तोता बन जाओगे; राम-राम जपने लगोगे। न उसके पास राम था, न तुम्हें मिल सकता है। जिसे मिल गया हो, उससे लेना हरिभजन। मंत्र उससे लेना, जो पहुंच गया हो; उससे लेना दीक्षा, जो पहुंच गया हो। जो बैकुंठ में निवास कर रहा हो, वही तुम्हें स्मरण दिला सकेगा बैकुंठ का। दिलाने की जरूरत भी नहीं पड़ती; तुम उसके पास ही बैठते-बैठते धीरे-धीरे स्मरण से भर जाओगे।
हरि सेती हरिजन बड़े,...
यह वचन खूब गांठ बांध कर रख लेना। हीरों में तौला जाए, तो भी वजनी सिद्ध होगा।
हरि सेती हरिजन बड़े,...
कबीर कहते हैं: हरि से भी बड़े हैं हरिजन। जिन्होंने हरि को पा लिया, वे हरि से बड़े हैं।
क्यों?
हरि सेती हरिजन बड़े, समझि देखु मन मांहि।
खूब समझ लो इस बात को।
कबीर कहते हैं:
कह कबीर जग हरि विषे, सो हरि हरिजन मांहि।
जगत हरि में है, अस्तित्व हरि के भीतर है। सारा जगत, अस्तित्व हरि के भीतर है। जगत हरि में है और हरि हरिजन में है। तो स्वभावतः कौन बड़ा? यह जगत तो हरि के भीतर है; जैसे हरि के हृदय में यह जगत धड़क रहा है। उसके बिना यह नहीं हो सकेगा। यह जगत हरि के हृदय में बैठा है; और हरि? भगत के हृदय में बैठे हैं। तो भगत तो बड़ा हो गया; भगवान से बड़ा हो गया।
तुम उसी दिन भगवत्ता को उपलब्ध हो जाते हो--भगवत्ता से भी ऊपर ऊठ जाते हो--जिस दिन तुम्हारे हृदय में राम बैठ जाते हैं। राम में सारा जगत समाया है--और राम के भगत में राम समाए हैं।
हरि सेति हरिजन बड़े, समझि देखु मन मांहि।
कह कबीर जग हरि विषे, सो हरि हरिजन मांहि।।
जैसे जगत हरि में समाया है, ऐसे हरि हरि के भगत में समाए हैं। वैष्णवजन!
नरसी मेहता का वचन है: ‘वैष्णवजन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाणे रे।’ उसको कहते हैं वैष्णवजन, जो दूसरे की पीड़ा जानने लगा। दूसरे की पीड़ा तुम तभी जानोगे, जब राम से मिलन हो जाए। तब तुम पाओगे कि सारा जगत राम को बिना पाए तड़प रहा है। तब तुम पाओगे, तुम्हारा तो उत्सव का क्षण आ गया, तुम्हारा तो महोत्सव आ गया, और सारा जगत पीड़ा में सड़ रहा है। और अकारण! जब कि राम सभी को मिल सकते हैं। सब हकदार हैं। यह हमारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है। लेकिन अपने हृदय में टटोलोगे, तो ही राम को पा सकोगे। वहां राम बसे हैं। और राम में सारा जगत है।
ऐसे हरिजन की बड़ी महिमा कबीर ने गाई है--सभी संतों ने गाई है।
सार-सूत्र उससे सीखना, जो जानता हो; उससे नहीं, जो मानता हो। उसके पास बैठना, जो परमात्मा के पास बैठा हो; उसके पास नहीं, जिसके पास केवल शब्द हों। उसे खोजना, जिसके प्रेम में डूब सको; जिसकी भाषा में नहीं--जिसके प्रेम में पग सको। किसी वैष्णवजन को खोजना। किसी हरिजन को खोजना। उसके ही साथ बैठते-बैठते हरि हरिभजन उठेगा।
साध संगति हरिभजन बिन, कछू न आवै हाथ।।
मथुरा जावै द्वारिका, भावै जावै जगनाथ।
जाओ कहीं--जगन्नाथ, कि मथुरा, कि द्वारिका, कि काशी, कि कैलाश, कि काबा; जाओ जहां जाना है--कुछ भी हाथ नहीं आएगा।
साध संगति हरिभजन बिन, कुछ न आवै हाथ।।
मेरो संगी दोइ जन, एक वैष्णो एक राम।
यो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम।।
हरि सेती हरिजन बड़े, समझि देखु मन मांहि।
कह कबीर जग हरि विषे, सो हरि हरिजन मांहि।।
सावधान पांडित्य से! और अगर मिल जाए कोई साधुजन, तो पागल होने में संकोच मत करना। मिल जाए कोई हरि का प्यारा, तो फिर सब दांव पर लगा देना। फिर जुआरी बन जाना। इस जुआरीपन का नाम ही दीक्षा है। और जो दीक्षित हुआ, वही पहुंच सकता है।
आज इतना ही।
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
राम कह्या दुनिया गति पावे, खांड कह्या मुख मीठा।।
पावक कह्या पांव ते दाझै, जल कहि तृषा बुझाई।
भोजन कह्या भूख जे भाजै, तो सब कोई तिरि जाई।।
नर के संग सुवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
जो कबहुं उड़ि जाए जंगल में, बहुरि न सुरतैं आनै।।
बिनु देखे बिनु अरस परस बिनु, नाम लिए का होई।
धन के कहे धनिक जो हो तो, निरधन रहत न कोई।।
सांची प्रीति विषय माया सूं, हरि भगतन सूं हांसी।
कहै कबीर प्रेम नहिं उपज्यौ, बांध्यो जमपुर जासी।।
चलन चलन सबको कहत है, ना जानै बैकुंठ कहां है।
जोजन परमिति परमनु जानै। बातनि ही बैकुंठ बखानै।।
जब लगि है बैकुंठ की आसा। तब लगि नहिं हरि चरण निवासा।।
कहै सुनै कैसे पतइइए। जब लगि तहां आप नहिं जइए।।
कहै कबीर यहु कहिए काहि। साध संगत बैकुंठहि आहि।।
मथुरा जावै द्वारिका, भावै जावै जगनाथ।
साध संगति हरिभजन बिन, कछू न आवै हाथ।।
मेरो संगी दोइ जन, एक वैष्णो एक राम।
यो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम।।
हरि सेती हरिजन बड़े, समझि देखु मन मांहि।
कह कबीर जग हरि विषे, सो हरि हरिजन मांहि।।
कठोर राहें
जो उलझे धागों का एक गुफ्फा सा बन गई हैं
न इनको रंगों की तेज बरखा से कुछ गरज है
वो तेज बरखा जो मुंह-अंधेरे
किसी पुजारिन के कंपकंपाते सफेद ओंठों पे नाचती है
न इनकी मंजिल वो शामे-गम है जो एक मैला-सा तश्त लेकर
मुसाफिरों से लहू के कतरे की भीख रो-रो के मांगती है
दहकते तारे, हजीं दुआएं, लरजते हाथों से बांटती हैं
कठोर राहें जो आगे बढ़ कर, अदा दिखा कर पलट गई हैं
पलट के पहलू बदल गई हैं
घनेरी शब अपनी काली कमली में गुम खड़ी है
ये सोचती है
भंवर की बेनूर चश्मेतर जमीं
कोई-सा सीधा सफेद रस्ता उभर के चमके
तो शब का राही उधर को लपके
ये शब का राही
समय के धारे पे बहते-बहते भंवर की सूरत उभर गया है
हजार राहों में घिर गया है!
रात है--और अंधेरी रात है। और रास्ते सब बुरी तरह उलझ गए हैं।
इस उलझन में फंसा है आदमी। न पता है कहां से आता है; न पता है कहां जाता है। न पता है कि किस राह को चुने, कैसे चुने। कोई कसौटी भी हाथ नहीं। कोई उजाला और रोशनी भी साथ नहीं।
कठोर राहें जो आगे बढ़ कर, अदा दिखा कर पलट गई हैं
पलट कर पहलू बदल गई हैं
और कभी राह ठीक भी लगती है; थोड़ी ही दूर जाकर बदल जाती है, पलट जाती है; पहलू बदल जाता है। कुछ का कुछ हो जाता है।
कठोर राहें
जो उलझे धागों का एक गुफ्फा सा बन गई हैं
जैसे सुलझाओ और उलझता है गुफ्फा; सुलझने का कोई उपाय नहीं मालूम होता। और बड़ी अंधेरी रात है।
घनेरी शब अपनी काली कमली में गुम खड़ी है
ये सोचती है
भंवर की बेनूर चश्मेतर जमीं
रोशनी जरा भी नहीं है। खोजते, टकराते राही की आंखें आंसुओं से भर गई हैं।
भंवर की बेनूर चश्मेतर जमीं
कोई-सा सीधा सफेद रास्ता उभर के चमके
तो शब का राही उधर को लपके
कोई सफेद सीधा रास्ता दिखाई पड़ जाए। कोई सीधी-सीधी गैल मिल जाए तो राही लपके।
ये शब का राही
समय के धारे पे बहते-बहते भंवर की सूरत उभर गया है
हजार राहों में घिर गया है!
और ऐसा नहीं कि यह राही आज ही चल रहा है--चल रहा है जन्मों-जन्मों से। न मालूम कितने जन्मों से! अनंतकाल से चल रहा है। चलते-चलते ही उलझ गया है। इतना चल चुका है, इतनी राहों पर चल चुका है, कि इसकी सब राहों का इकठ्ठा परिणाम इसके भीतर उलझे धागों का एक गुफ्फा बन गया है।
यह सच है: रात अंधेरी है और रास्ते उलझे हुए हैं। लेकिन दूसरी बात भी सच है: जमीन कितनी ही अंधेरी हो, कितनी ही अंधी हो, अगर आकाश की तरफ आंखें उठाओ, तो तारे सदा मौजूद हैं। आदमी के हाथ में चाहे रोशनी न हो, लेकिन आकाश में सदा रोशनी है। आंख ऊपर उठानी चाहिए।
तो ऐसा कभी नहीं हुआ, ऐसा कभी होता नहीं है, ऐसी जगत की व्यवस्था नहीं है। परमात्मा कितना ही छिपा हो, लेकिन इशारे भेजता है। और परमात्मा कितना ही दिखाई न पड़ता हो, फिर भी जो देखना ही चाहते हैं, उन्हें निश्र्चित दिखाई पड़ता है। जिन्होंने खोजने का तय ही कर लिया है, वे खोज ही लेते हैं।
जो एक बार समग्र श्रद्धा और संकल्प और समर्पण से यात्रा शुरू करता है--भटकता नहीं। रास्ता मिल ही जाता है। ऐसे रास्तों के उतरने का नाम ही संतपुरुष है, सदगुरु है।
एक परम सदगुरु के साथ अब हम कुछ दिन यात्रा करेंगे--कबीर के साथ। बड़ा सीधा-साफ रास्ता है कबीर का। बहुत कम लोगों का रास्ता इतना सीधा-साफ है। टेढ़ी-मेंढ़ी बात कबीर को पसंद नहीं। इसलिए उनके रास्ते का नाम है: सहज योग। इतना सरल है कि भोलाभाला बच्चा भी चल जाए। वस्तुतः इतना सहज है कि भोलाभाला बच्चा ही चल सकता है। पंडित न चल पाएगा। तथाकथित ज्ञानी न चल पाएगा। निर्दोष चित्त होगा, कोरा कागज होगा, तो चल पाएगा।
यह कबीर के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है। वहां पांडित्य का कोई अर्थ नहीं है। कबीर खुद भी पंडित नहीं हैं। कहा है कबीर ने: ‘मसि कागद छूयौ नहीं, कलम नहीं गही हाथ।’ कागज-कलम से उनकी कोई पहचान नहीं है। ‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात’--कहा है कबीर ने। देखा है, वही कहा है। जो चखा है, वही कहा है। उधार नहीं है।
कबीर के वचन अनूठे हैं; जूठे जरा भी नहीं। और कबीर जैसा जगमगाता तारा मुश्किल से मिलता है।
संतों में कबीर के मुकाबले कोई और नहीं। सभी संत प्यारे और सुंदर हैं। सभी संत अदभुत हैं; मगर कबीर अदभुतों में भी अदभुत हैं; बेजोड़ हैं।
कबीर की सबसे बड़ी अद्वितीयता तो यही है कि जरा भी उधार नहीं है। अपने ही स्वानुभव से कहा है। इसलिए रास्ता सीधा-साफ है, सुथरा है। और चूंकि कबीर पंडित नहीं हैं, इसलिए सिद्धांतों में उलझने का कोई उपाय भी नहीं था।
बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग कबीर नहीं करते। छोटे-छोटे शब्द हैं जीवन के--सबकी समझ में आ सकें।लेकिन उन छोटे-छोटे शब्दों से ऐसा मंदिर चुना है कबीर ने, कि ताजमहल फीका है।
जो एक बार कबीर के प्रेम में पड़ गया, फिर उसे और कोई संत न जंचेगा। और अगर जंचेगा भी तो इसलिए कि कबीर की ही भनक सुनाई पड़ेगी। कबीर को जिसने पहचाना, फिर वह शक्ल भूलेगी नहीं।
हजारों संत हुए हैं, लेकिन वे सब ऐसे लगते हैं, जैसे कबीर के प्रतिबिंब। कबीर ऐसे लगते हैं, जैसे मूल। उन्होंने भी जान कर ही कहा है, औरों ने भी जान कर ही कहा है; लेकिन कबीर के कहने का अंदाजे बयां, कहने का ढंग, कहने की मस्ती बड़ी बेजोड़ है। ऐसा अभय और ऐसा साहस और ऐसा बगावती स्वर, किसी और का नहीं है।
कबीर क्रांतिकारी हैं। कबीर क्रांति की जगमगाती प्रतिमा हैं। ये कुछ दिन अब हम कबीर के साथ चलेंगे--फिर कबीर के साथ चलेंगे। कबीर को चुकाया भी नहीं जा सकता। कितना ही बोलो, कबीर पर बोलने को बाकी रह जाता है। उलझी बात नहीं कही है; सीधी-सरल बात कही है। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि सीधी-सरल बात ही समझनी कठिन होती है। कठिन बातें समझने में तो हम बड़े कुशल हो गए हैं, क्योंकि हम सब शब्दों के धनी हैं, शास्त्रों के धनी हैं। सीधी-सरल बात को ही समझना मुश्किल हो जाता है। सीधी-सरल बात से ही हम चूक जाते हैं। इसलिए चूक जाते हैं कि सीधी-सरल बात को समझने के लिए पहली शर्त हम पूरी नहीं कर पाते। वह शर्त है: हमारा सीधा-सरल होना।
जटिल बात समझ में आ जाती है, क्योंकि हम जटिल हैं। सरल बात चूक जाती है, क्योंकि हम सरल नहीं हैं। वही तो समझोगे न जो हो? अन्यथा कैसे समझोगे?
इसलिए कबीर पर मैं बार-बार बोलता हूं; फिर-फिर कबीर को चुन लेता हूं। चुनता रहूंगा आगे भी। कबीर सागर की तरह हैं; कितना ही उलीचो, कुछ भेद नहीं पड़ता।
कुछ बातें कबीर के संबंध में समझ लो, वे उपयोगी होंगी।
एक, कि कबीर के संबध में पक्का नहीं है कि हिंदू थे कि मुसलमान थे। यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है। संत के संबंध में पक्का हो ही नहीं सकता कि हिंदू है कि मुसलमान है। पक्का हो जाए, तो संत संत नहीं; दो कौड़ी का हो गया।
जब तुम कहते हो: गांव में जैन संत आए हैं; जब तुम कहते हो: गांव में हिंदू संत आए हैं--तब तुम अपमान कर रहे हो संतत्व का। और अगर जैन संत भी मानता है कि जैन संत है, तो अभी संत नहीं। संत और विशेषण में! जैन और हिंदू और मुसलमान! संत होकर भी ये क्षुद्र विशेषण लगे रहेंगे तुम्हारे पीछे? कभी सीमाओं से बाहर आओगे कि नहीं? घर छोड़ दिया, समाज छोड़ दिया; लेकिन समाज ने जो संस्कार दिए थे, वे नहीं छोड़े। जिस घर में पैदा हुए थे, वह जैन था, उसको छोड़ दिया; मगर जैन तुम अभी भी हो--संत होकर भी! तो कहीं कुछ बात चूक गई। तीर निशाने पर लगा नहीं; मेहनत तुम्हारी व्यर्थ गई।
संत होने का अर्थ ही है कि अब न कोई हिंदू रहा, न कोई मुसलमान रहा, न कोई ईसाई रहा। संत का अर्थ है: सत्य के हो गए; अब संप्रदाय के कैसे हो सकते हो? संत का अर्थ है: धर्म के हो गए; अब पंथों के कैसे हो सकते हो?
पर कबीर के संबंध में तो बात बहुत साफ है। कुछ पक्का नहीं बैठता--हिंदू थे कि मुसलमान। हिंदुओं का दावा है: हिंदू थे; मुसलमानों का दावा है: मुसलमान थे। यह बात प्रीतिकर है।
जब भी संत होगा, तो ऐसा ही होगा। हिंदू दावा करेंगे--हमारे; मुसलमान दावा करेंगे--हमारे; ईसाई दावा करेंगे--हमारे। ईसाइयों को जीसस दिखाई पड़ जाएंगे कबीर में, और मुसलमानों को मोहम्मद दिखाई पड़ जाएंगे, और हिंदुओं को कृष्ण मिल जाएंगे, और बौद्धों को बुद्ध का दर्शन हो जाएगा।
संत तो दर्पण है; तुम अपनी जो भाव-दशा लेकर आओगे, उसी को झलका देगा। ऐसा तो सभी संतों के साथ होता है, होना चाहिए। लेकिन कबीर का जन्म भी कुछ रहस्यमय है। मीठी कहानियां हैं। मनगढंत भी हो सकती हैं, मगर फिर भी महत्वपूर्ण हैं।
हिंदू कहते हैं: एक विधवा ने संत रामानंद के चरण छूए। रामानंद अपनी मस्ती में होंगे। उन्होंने खयाल ही न किया कि कौन चरण छू रहा है। स्त्री थी, चरण छूती थी, घूंघट डाले होगी या...चेहरा भी नहीं देखा, कपड़े भी नहीं देखे, और आशीर्वाद दे दिया। संत तो बिन देखे ही आशीर्वाद दे देते हैं। देख-देख कर जो आशीर्वाद दे, वह कोई संत थोड़े ही है। तुम मांगो तब दे, वह कोई संत थोड़े ही है। संत तो आशीर्वाद है। संत का तो होना ही आशीर्वाद है। उसके चारों तरफ तो आशीर्वाद बरसते ही रहते हैं। आशीर्वाद दे दिया कि पुत्रवती हो। और वह थी विधवा। अब बड़ी मुश्किल हो गई।
यह कहानी बड़ी मधुर है। ऐसा हुआ हो या न हुआ हो, यह सवाल ही नहीं है। इतिहास का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है। मेरे लिए तो मूल्य है शाश्र्वत, चिरंतन सत्यों का।
तो एक शाश्र्वत सत्य कि संत, मांगो तो आशीर्वाद दे, ऐसा नहीं। संत देख-देख कर आशीर्वाद दे, ऐसा भी नहीं। संत तो आशीर्वाद देता ही चला जाता है। आशीर्वाद के अतिरिक्त उसके पास कुछ देने को है भी नहीं। आशीर्वाद उसकी रोशनी है। आशीर्वाद उसकी सुगंध है। और आशीर्वाद ही उसकी श्र्वास-प्रश्र्वास है।
तो यह विधवा को आशीर्वाद दे दिया कि पुत्रवती हो। यह आशीर्वाद भी अर्थपूर्ण है। स्त्री जब तक मां न बन जाए, तब तक कुछ अधूरा रह जाता है। पुरुष के पिता बनने से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता।
पुरुष का पिता बनना बहुत औपचारिक है; संस्थागत है। स्त्री का मां बनना औपचारिक नहीं है; प्राणगत है। पुरुष का काम तो बच्चे के जन्म में बड़े दूर का है; कुछ खास नहीं है; न के बराबर है। लेकिन स्त्री का काम न के बराबर नहीं है। स्त्री अपने गर्भ में बच्चे को पालती है; अपना प्राण उंड़ेलती है। फिर बच्चे को बड़ा करती है। लंबी साधना है।
तो जो स्त्री मां नही बन पाती, कुछ अधूरा रह जाता है; कुछ कमी रह जाती है; कुछ खाली-खाली रह जाता है; कुछ भराव कम रहता है। इसलिए इस देश में संत आशीर्वाद देते रहे: पुत्रवती हो!
दे दिया आशीर्वाद, देखा भी नहीं कि विधवा है, सफेद कपड़े पहने हुए है, हाथ में चूड़ियां नहीं हैं, माथे पर तिलक-टीका नहीं है। इतना तो देख लेते!
फिर कहानी यह कहती है कि जब संत आशीर्वाद दे दे, तो आशीर्वाद तो पूरा होना ही चाहिए। संत का आशीर्वाद खाली तो नहीं जा सकता। यह बात भी समझने जैसी है।
सत्य से जो स्वर उठेगा, वह खाली नहीं जा सकता। सत्य से जो तीर निकलेगा, वह निशाने पर लगेगा ही। और संत कह दे, तो अस्तित्व को उसे पूरा करना ही होगा। क्योंकि संत अपने से तो कुछ कहता नहीं; किसी अहंकार-अस्मिता से तो कहता नहीं। निर-अहंकार भाव से कहता है। संत खुद तो कहता ही नहीं; परमात्मा ही उससे जो कहता है, वही कहता है। परमात्मा के हाथ बांसुरी की भांति है संत।
विधवा थी, विवाह तो कर न सकती थी; संत ने आशीर्वाद दे दिया था, तो बच्चा हुआ। इसलिए ‘कबीर’ नाम। हिंदू कहते हैं कबीर नाम, क्योंकि उस विधवा के हाथ से, कर से कबीर का जन्म हुआ--तो ‘करवीर’; उससे कबीर बना। यह तो केवल प्रतीक-घटना है। इसको इतिहास मत मानना। हाथों से बच्चे पैदा होते नहीं।
जैसे जीसस की कहानी है कि कुंआरी मरियम से पैदा हुए; कुंआरी स्त्री से कोई पैदा नहीं होता। लेकिन यह हो सकता है कि मरियम इतनी पवित्र रही हो, इतनी निर्दोष रही हो, कि उसका कुंआरापन आत्मिक है। उसकी ही सूचना है कुंआरापन। कुंआरापन यानी अकलुषित भाव, निर्दोष भाव।
और जीसस जैसा व्यक्ति पैदा हो, तो साधारण स्त्री से हो भी नहीं सकता। कोई असाधारण स्त्री चाहिए। फल से ही तो हम वृक्ष का पता लगाते हैं। जीसस से पता लगता है कि मरियम भी अनूठी रही होगी।
इसलिए सभी संतपुरुषों के साथ अनूठी कहानियां जुड़ जाती हैं। कहानियां मूल्य की नहीं हैं। लेकिन संत इतना अनूठा पुरुष है कि हम यह स्वीकार नहीं कर पाते कि वह वैसे ही जन्मता होगा, जैसे और सब जन्मते हैं।
इन कहानियों में हमारी इसी पीड़ा की सूचना है।
हम यह स्वीकार नहीं कर पाते कि जीसस ऐसे ही पैदा होते हैं, जैसे और सब लोग पैदा होते हैं; या कबीर ऐसे ही पैदा होते हैं, जैसे और सब लोग पैदा होते हैं। कबीर को कुछ भिन्न ढंग से आना चाहिए। कबीर इतने अनूठे हैं कि अनूठे ढंग से आना चाहिए। हम स्वीकार कर नहीं पाते कि कबीर और उन्हीं चले-चलाए रास्तों से आएंगे, जिनसे और लोग आते हैं। इसलिए कहानियां हैं।
लेकिन मुसलमानों की अपनी कहानी है। और ‘कबीर’ शब्द वहां ज्यादा सार्थक मालूम होता है, बजाय इस हिंदू-कथा के--‘करवीर’ से। यह तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने ईजाद कर लिया--कबीर में से। लेकिन कुरान में कबीर अल्लाह का एक नाम है। इसलिए मुसलमान कहते हैं कि कबीर अल्लाह का नाम है; करवीर नहीं। यह आदमी अल्लाह की जीती-जागती प्रतिमा है--इसलिए कबीर।
कुछ भी हो, कबीर का जन्म रहस्य में छिपा है।
नीरू जुलाहा और उसकी पत्नी नीमा ने...दोनों लौट रहे थे। नीरू जुलाह गौना करा कर लौट रहा था, काशी की तरफ आ रहा था, अपने घर की तरफ आ रहा था, और काशी के पास लहरतारा तालाब में हाथ-पैर धोने को रुका था कि वहीं उसने रोने की आवाज सुनी, पास की झाड़ी में, तो भागा; देखा, तो यह बच्चा पड़ा था।
इतना प्यारा बच्चा नीरू जुलाहे ने कभी देखा नहीं था। उसकी आंखें ऐसी थीं, जैसे मणि--ऐसी रोशनी थी उसकी आंखों में; और उसके चारों तरफ प्रकाश था। और वह साधारण सी झाड़ी एक अपूर्व आनंद से भरी मालूम पड़ती थी। एक गहन शांति और एक आनंद!
नीमा तो डरी कि कुछ झंझट होगी, लोग क्या कहेंगे; अपवाद होगा; मगर उसने भी जब बच्चे को देखा, तो उसका भी दिल डोल गया। वे उठा कर कबीर को घर ले आए। शायद यहां दोनों कहानियां जुड़ जाती हैं; शायद कबीर विधवा से पैदा हुए थे, विधवा उन्हें छोड़ गई थी तालाब के पास। और नीरू जुलाहा और नीमा उसकी पत्नी, ये तो मुसलमान थे, इन्होंने कबीर को पाला।
कबीर, ऐसा लगता है कि हिंदू घर में पैदा हुए और मुसलमान घर में पले। इससे एक अपूर्व संगम हुआ। इससे एक अपूर्व समन्वय हुआ।
कबीर में हिंदू और मुसलमान संस्कृतियां जिस तरह तालमेल खा गईं, इतना तालमेल तुम्हें गंगा और यमुना में भी प्रयाग में नहीं मिलेगा; दोनों का जल अलग-अलग मालूम होता है। कबीर में जल जरा भी अलग-अलग नहीं मालूम होता।
कबीर का संगम प्रयाग के संगम से ज्यादा गहरा मालूम होता है। वहां कुरान और वेद ऐसे खो गए कि रेखा भी नहीं छूटी।
लेकिन कथा रहस्यपूर्ण है और उसमें और भी हिस्से जुड़े हैं। जरूर रामानंद का कुछ न कुछ हाथ रहा होगा। या तो उनके आशीर्वाद से इस विधवा को यह बच्चा उत्पन्न हुआ है या इस विधवा को बच्चा उत्पन्न हुआ है और रामानंद की करुणा है इस विधवा पर, इस बच्चे पर। यद्यपि इसे छुड़वा दिया है या छोड़ दिया है; मगर रामानंद उस बच्चे की चिंता लेते रहे। तो नीरू जुलाहे ने मुसलमान की पूरी संस्कृति दी, और रामानंद के रस ने हिंदू-भाव को कायम रखा। दोनों बातें मिल गईं और एक हो गईं।
कबीर युवा हुए, तो स्वभावतः वे रामानंद के शिष्य होना चाहते थे, लेकिन यह अड़चन की बात थी, क्योंकि दुनिया तो जानती थी कि वे मुसलमान हैं। रामानंद मुसलमान को कैसे दीक्षा देंगे। रामानंद के शिष्यों में बड़ा विरोध था। तो मीठी घटना है कि कबीर ने एक उपाय चुना।
अगर गुरु को खोजना ही हो शिष्य को, तो शिष्य खोज ही लेगा। सारी व्यवस्थाएं, औपचारिकताएं, शिष्टाचार, समाज के नियम इत्यादि पड़े रह जाएंगे।
तो कबीर जाकर नदी के तट पर कंबल ओढ़ कर सो रहे। सुबह-सुबह पांच बजे, अंधेरे में आते हैं रामानंद स्नान करने, उनके रास्ते में सो रहे। रामानंद का पैर लग गया अंधेरे में किसी को, चोट खा गया कोई; तो रामानंद के मुंह से निकला: राम-राम। और कबीर ने उनके पैर पकड़ लिए और कहा कि ‘मंत्र दे दिया फिर!’ ऐसे मंत्र लिया! इसको कहते हैं: खोजी! इसको कहते हैं: मुमुक्षु!
गुरु टाल रहा था, व्यवस्था अनुकूल नहीं पड़ रही थी, समाज विरोध में था; लेकिन मंत्र-दीक्षा तो लेनी थी। गुरु का वचन तो लेना था। गुरु का आशीर्वाद तो लेना था।
इजिप्त में एक पुरानी कहावत है कि जब तक शिष्य, गुरु से चुराने को तैयार न हो, तब तक कुछ भी नहीं मिलता। यह कबीर के संबंध में तो बड़ी लागू होती है। गुरु से चुरा लिया। गुरु ने तो राम-राम कहा था ऐसे ही; पैर की किसी को चोट लग गई, पता नहीं कौन है, राम-राम निकल गया होगा; लेकिन कबीर ने पैर पकड़ लिए और कहा कि अब आशीर्वाद दो, मंत्र तो दे ही दिया! ऐसे कबीर दीक्षित हुए।
कबीर ने कहा है: ‘काशी में हम प्रकट भए हैं, रामानंद चेताए।’
इतना ही मंत्र और कबीर कहते हैं: चेता दिया! फिर कोई फिकर भी नहीं है। कहा: इतना बहुत है--राम-राम। एक ‘राम’ से काम चल जाता, दो बार राम-राम कह दिया, अब और क्या चाहिए? चेता दिया! ‘काशी में हम प्रकट भए हैं, रामानंद चेताए।’
यह झगड़ा कबीर के जीवन में चलता रहा--कि वे हिंदू हैं कि मुसलमान। मुसलमान भी पूजते रहे; हिंदू भी पूजते रहे। लेकिन बुद्धि तो छोटी होती है, वह झगड़ा चलता रहा, चलता रहा। वह मरने तक चला!
कबीर जब मरे, तो लाश पड़ी है, कफन डाल दिया गया है। हिंदू कहते हैं: हम जलाएंगे; और मुसलमान कहते हैं: हम गड़ाएंगे। सोचो, कबीर जैसे व्यक्ति के पास रह कर भी लोग चूक जाते हैं! अंधेपन की भी एक सीमा होती है! लेकिन अंधेपन की सीमा को भी तोड़ कर लोग अंधे बने रहते हैं। कबीर के पास रहे, कबीर को चाहा, और इतना भी न समझ पाए! जिंदगी भर कबीर के संगम में नहाए, और कुछ भी मल न धुला। मरते वक्त भी झगड़ा खड़ा हो गया। लाश पड़ी है और शिष्य झगड़ रहे हैं कि जलाएं कि गड़ाएं! और जब चादर उघाड़ कर देखी, तो पाया कि कबीर वहां नहीं हैं; कुछ फूल पड़े हैं।
यह भी प्रतीक-कथा है। ऐसा हुआ हो, मैं नहीं कहता। चमत्कारों में मेरा कोई आग्रह नहीं है। मगर कथाओं में अर्थ है; वे चमत्कारों से ज्यादा मूल्यवान हैं। चमत्कार से कुछ तुम्हारी प्रज्ञा निखरती भी नहीं। चमत्कार से तो तुम्हारी प्रज्ञा और धूमिल हो जाती है। इसलिए चमत्कारों की बकवास में मत पड़ना कि ऐसा हुआ। लेकिन इतनी बात समझ लेना कि संत का जीवन तो फूलों जैसा है। वह अपने पीछे कुछ फूल ही छोड़ जाता है; कुछ सुगंध ही छोड़ जाता है। बस, इतना ही समझना।
संत का जीवन स्थूल नहीं है; सूक्ष्म है। संत का जीवन पत्थरों जैसा नहीं है, फूलों जैसा है; अभी है, अभी उड़ जाएगा।
और संत को समझना हो, तो फूल की अवस्था समझनी चाहिए। कितना कोमल! फिर भी कितना जीवंत! क्षण भर को टिकता है, लेकिन क्षण भर में भी शाश्र्वत की झलक दे जाता है। क्षण भर को है; अभी है, अभी समाप्त हो जाएगा; सुबह है, सांझ नहीं होगा--लेकिन इस थोड़ी सी देर में परमात्मा का प्रतीक बन जाता है; परमात्मा का सौंदर्य झलका जाता है।
कुछ फूल पड़े रह गए। सभी संतों के पीछे कुछ फूल पड़े रह जाते हैं। फूलों पर झगड़ना मत। फूलों पर झगड़ा क्या है? जितना अपनी नासापुटों में भर सको, उस गंध को भर लेना। उन फूलों को जितना अपने प्राणों में ले जा सको, ले जाना। क्योंकि जो फूल प्राणों में ले जाएगा, उसके भीतर का फूल खिल जाएगा। थोथी बातों में मत पड़ना। थोथे झगड़ों में मत पड़ना।
लेकिन आदमी तो आदमी है। उन्होंने फूल ही बांट लिए। उन्होंने कहा: कोई फिकर नहीं, बांट कर तो रहेंगे; बंटवारा तो होगा। फूल बांट लिए। अब आधे फूल जलाए गए और आधे फूल गाड़े गए। अब फूल न तो जलाने चाहिए और न गाड़ने चाहिए। फूल के साथ यह दुर्व्यवहार होगा। मगर यही हुआ।
ये आदमी के अंधेपन की और नासमझी की कहानियां हैं। उस जगह पर आज आधे में कब्र है और आधे में समाधि। एक ही छोटा सा मकान है मगहर में, जिसमें आधे में मुसलमानों ने कब्र बना रखी है, क्योंकि वहां उन्होंने फूल गड़ाए थे; और हिंदुओं ने समाधि बना रखी है; बीच में बड़ी दीवाल उठा रखी है।
कबीर ने जिंदगी भर जोड़ा और शिष्यों ने फिर तोड़ दिया! कबीर ने गंगा-यमुना को मिलाया, शिष्यों ने फिर अलग-अलग बांट लिया!
कबीर जैसे व्यक्ति को समझना हो, तो उसके साथ जितनी कहानियां जुड़ी हैं, उन सभी का मनोवैज्ञानिक अर्थ खोजने की कोशिश करनी चाहिए। मनोवैज्ञानिक अर्थ--ऐतिहासिक नहीं। उनके भीतर क्या तत्व हो सकता है, यह खोजने की कोशिश करनी चाहिए।
काशी के पंडित उनसे नाराज थे। अब पंडितों को कहोगे--‘पंडित वाद बदन्ते झूठा’--तो नाराज न होंगे तो और क्या होंगे? कि पंडित बकवासी हैं, कि व्यर्थ के वाद-विवाद में लगे हैं, व्यर्थ की मारा-मारी में, शब्दों की झूठी खींच-तान में, बाल की खाल निकालने में। पंडित नाराज थे। हिंदू पंडित नाराज थे, मुसलमान मौलवी नाराज थे।
मौलवी और पंडितों दोनों ने मिल कर, सिकंदर लोधी उस समय बादशाह था, उससे प्रार्थना की कि कबीर को दंडित किया जाना चाहिए। और कसूर वही, जो सदा से संतों का रहा है। सिकंदर लोधी ने पूछा: कसूर क्या है इस आदमी का? इसे दंडित क्यों किया जाना चाहिए? तो उन्होंने कहा कि इसका दावा है कि यह भगवान है। ‘कहै कबीर मैं पूरा पाया!’ पूरा भगवान पा लिया है! रत्ती भर बाहर नहीं छूटा है। यह कबीर वैसी ही घोषणा कर रहा है, जैसे उपनिषद कहते हैं: अहं ब्रह्मास्मि! यह कबीर वैसी ही घोषणा कर रहा है, जैसा मंसूर ने की थी: अनलहक! कि मैं सत्य हूं!
सिकंदर लोधी को भड़काया। और तुम यह जान कर आश्र्चर्यचकित होओगे कि पंडित में और राजनीतिज्ञ में सदा से संबंध रहा है। वह जो पंडित है, मौलवी है, पुरोहित है, वह--और जो राजनेता है, उन दोनों में सदा की सांठ-गांठ है। वे दोनों एक ही षडयंत्र में लागू रहे हैं, एक ही षडयंत्र में सम्मिलित रहे हैं। और वह षडयंत्र है: किसी तरह धर्म न जम पाए पृथ्वी पर। क्योंकि धर्म पंडित को भी मिटा देगा और राजनेता को भी; क्योंकि धर्म सारे अहंकारों को जला डालता है। इसके पहले कि धर्म उन्हें जला दे, स्वभावतः वे धर्म को जलाने को तत्पर हो जाते हैं।
तो कहानी है कि कबीर को आग में फेंका गया। सिकंदर लोधी राजी हो गया और कबीर को आग में फिंकवाया। आग उन्हें जला नहीं पाई। सत्य को आग में जलाने का उपाय नहीं है, इतना ही जानना। जैसा कृष्ण ने गीता में कहा है: ‘नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।’ न तो मुझे शस्त्र छेद सकते हैं और न आग मुझे जला सकती है। इतना ही समझना। ऐसा मत सोचना कि कबीर ने कोई मदारीगिरी की।...प्रतीक हैं ये तो।
आग में जलाने का मतलब ऐसा नहीं है कि सच में ही आग में जलाया। आग में जलाने का मतलब है: गालियां दी होंगी, अपमान किए होंगे, झूठी अफवाहें उड़ाई होंगी, सब तरह की लपटें फैलाई होंगी। उन सब लपटों के बीच में कबीर को घिरा दिया होगा। और सभी नाराज थे।
और मजा यही है कि संतों के साथ सभी नाराज हो जाते हैं। जिनके साथ होना चाहिए, जिनके साथ राजी होना चाहिए, उनसे नाराज हो जाते हैं! और ऐसे अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं।
आग का मतलब यह मत समझना कि लकड़ियां लाए, और तेल डाला, और आग लगाई। आग का मतलब यही है कि जलाने का सब तरह उपाय किया। किसी तरह कबीर उद्विग्न हो जाएं, जल-भुन उठें। किसी तरह फफोले उठ आएं उनकी आत्मा में। किसी तरह क्रोधित हो जाएं। किसी तरह गालियों का उत्तर गाली से देने लगें, तो जीत हो जाए। लेकिन कबीर की शांति अखंडित रही, उनका मौन अविच्छिन्न रहा। उनके प्रेम की धारा वैसी ही बहती रही। उनकी प्रार्थना में कोई खलल न पड़ा।
कहते हैं: एक पागल हाथी को उनके ऊपर छोड़ा। लेकिन पागल हाथी उनके सामने आकर ठिठक कर खड़ा हो गया; झुक कर उसने प्रणाम किया। पागल हाथी तुम्हारे तथाकथित समझदार आदमियों से कम पागल होते हैं। इतना ही समझना।
और यह कहानी कुछ नई नहीं है; कोई कबीर के साथ ही जुड़ी है, ऐसा नहीं है। औरों के साथ भी जुड़ी है। बुद्ध के साथ भी। मतलब इतना ही है कि पागल हाथी भी तुम्हारे तथाकथित समझदार पंडित-पुराहितों से, मुल्लाओं से, राजनेताओं से, राजाओं से, तुमसे कहीं ज्यादा समझदार होता है।
पागल हाथी को छोड़ा और पागल हाथी ठिठक कर खड़ा हो गया। उसने देखा होगा कबीर को। उसने देखा होगा इस रोशन व्यक्तित्व को। उसने देखी होगी यह लपट, यह रोशनी, यह प्रकाश! उसने देखी होगी यह गंध। उसने देखा होगा यह परम सौंदर्य, यह खिला हुआ कमल! ठिठक गया होगा।
ऐसा सौंदर्य कभी-कभी होता है। आदमी नहीं देख पाता, क्योंकि आदमी हिंदू है, मुसलमान है; आदमी ईसाई है, जैन है। आदमी की आंखों पर हजार धारणाओं के पर्दे हैं। हाथी बेचारा न तो हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है। कोई शास्त्र नहीं है हाथी के सिर पर; कोई शब्दों का जाल नहीं है। निर्दोष आंखें हैं। इसलिए देख लिया होगा। इसलिए पहचान गया होगा।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि पशु भी पहचान लेते हैं और आदमी नहीं पहचान पाते!
संत फ्रांसिस के संबंध में बहुत सी कहानियां हैं कि पशु पहचान लिए और आदमी नहीं पहचाना। क्योंकि पशु का अर्थ है: सरलता। आदमी का अर्थ है: जटिलता। आदमी पागल न दिखाई पड़े तो भी पागल है; और पशु पागल भी हो तो भी इतना पागल नहीं होता है; फिर भी कुछ होश कायम रह जाता है।
इन कहानियों पर ध्यान करना। इन कहानियों को सिर्फ कहानियां मत मान लेना।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक तो कहेंगे कि हां, ऐसा हुआ। नासमझ हैं वे। कहेंगे: ऐतिहासिक है यह बात; सच में ही पागल हाथी छोड़ा, और सच में ही पागल हाथी ठिठक गया।
मैं इस तरह के लोगों से राजी नहीं हूं। क्योंकि इस तरह के लोग संतों की गरिमा को नहीं समझ पाते और व्यर्थ की बातों में उलझ जाते हैं। फिर इनके ही कारण दूसरा वर्ग पैदा हो जाता है। वह कहता है: ऐसा हो ही कैसे सकता है? पागल हाथी पागल हाथी है। फिर व्यर्थ का विवाद चलता है।
मैं इस विवाद के बाहर तुम्हें निकाल लेना चाहता हूं। मैं तुमसे इतना ही कहना चाहता हूं कि ये कहानियां सूचक हैं। ये बोध-कथाएं हैं। बड़े प्रतीक इनमें छिपे हैं, इनको खोलो तो खूब रस मिलेगा। वह रस इतना ही है कि आदमी पागल हाथियों से भी ज्यादा पागल है।
और मतलब ही इतना है कि पागल आदमियों को छोड़ा होगा। आदमियों को पागल किया होगा। पंडितों ने, पुरोहितों ने भड़काया होगा, जलाया होगा लोगों को, लोगों को उकसाया होगा कि हिंदू धर्म खतरे में है; कि इस्लाम धर्म खतरे में है; कि शास्त्र को डुबा देगा यह आदमी! और यह आदमी होकर दावा करता है कि मैं परमात्मा हूं! यह बात बर्दाश्त नहीं की जा सकती। इस आदमी को दंड देना होगा। ऐसे लोगों को पगलाया होगा। भीड़ को पागल किया होगा। भीड़ उत्तप्त हो गई होगी।...इतना ही अर्थ है।
और इतना भी अर्थ है कि पागल पशु भी, तथाकथित बुद्धिमानों से ज्यादा बुद्धिमान होता है।
सोचना इस पर, और शर्म खाना इस पर। सोचना इस पर, और दुखी होना इस पर। और देखना कि कहीं ऐसा तुम्हारे साथ भी तो नहीं हो रहा है? क्योंकि ये शाश्र्वत कथाएं हैं। इसलिए हर संत के जीवन में घटती हैं।
पश्र्चिम के लोग जब कबीर, बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट, इन सबके ऊपर अध्ययन करते हैं, तो वे बड़े हैरान होते हैं कि वही-वही कहानी सबके जीवन में कैसे घट सकती है! यह कहानी तो झूठी मालूम पड़ती है, मनगढंत मालूम पड़ती है; संतों के साथ लोग इसे जोड़ देते हैं।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: हर संत के साथ वही घटता है। कहानी की मैं नहीं कर रहा हूं; लेकिन हर संत के साथ वही घटता है। क्योंकि आदमी वैसा का वैसा है; आदमी में कुछ फर्क नहीं हुआ है।
बैलगाड़ी चली गई, बैलगाड़ी की जगह जेट हवाई जहाज आ गए; लेकिन आदमी वैसा का वैसा है। आदमी जमीन पर से चलना छोड़ कर चांद पर चलने लगा है; लेकिन आदमी वैसा का वैसा है।
अगर बुद्ध आएंगे, तुम फिर गाली दोगे। और जीसस आएंगे, तुम फिर सूली लगाओगे। और सुकरात आएगा, तो तुम फिर जहर पिलाओगे। तुम वैसे के वैसे हो। तुम्हारी चेतना में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ। तुम्हारे आस-पास का सामान बदल गया है, लेकिन तुम नहीं बदले। वस्तुएं बदल गई हैं, लेकिन तुम्हारी चैतन्य की दिशा में कोई क्रांति घटित नहीं हुई है। इसलिए कहानी वही की वही है, क्योंकि आदमी वही का वही है।
कबीर के इन वचनों को समझो--
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
कहते हैं: वाद-विवाद झूठ है।
साधारणतः हम कहते हैं, अगर दो आदमी विवाद कर रहे हों, तो हम कहते हैं: उसमें एक सच है, एक झूठ है। जो तुमसे मेल खाता है, वह सच है; जो तुमसे मेल नहीं खाता, वह झूठ है। तुम सत्य की कसौटी हो जैसे! अगर हिंदू और मुसलमान विवाद करते हों और तुम हिंदू हो, तो कहोगे: हिंदू ठीक हैं, मुसलमान गलत हैं; मुसलमान हो, तो कहोगे: मुसलमान ठीक हैं, हिंदू गलत हैं।
लेकिन कबीर कहते हैं: वाद-विवाद झूठा है। जब दो व्यक्ति विवाद कर रहे हों, तो विवादी में कोई भी ठीक नहीं होता। विवाद ही गलत है। विवाद ही अंधे और नासमझ करते हैं। विवाद का अर्थ होता है: शब्दों की खींच-तान; तर्कजाल। विवाद का अर्थ होता है कि जैसे शब्दों के ही आयोजन से, तर्क के प्रमाण से हम सत्य का निर्णय कर लेंगे।
सत्य का अनुभव होता है; निर्णय नहीं होता। सत्य कोई गणित की पहेली नहीं है। सत्य तो जीवन का अनुभव है, जैसे प्रेम जीवन का अनुभव है।
प्रेम के संबंध में क्या विवाद करते हो? अगर किसी आदमी ने कहा कि मैं इस स्त्री को प्रेम करता हूं, इस स्त्री से सुंदर स्त्री दुनिया में कोई भी नहीं, तो तुम विवाद करते हो? तुम कहते हो कि रुको जी, मेरी पत्नी के होते हुए तुम ऐसा कैसे कह रहे हो? नहीं, तुम विवाद नहीं करते। तुम समझते हो कि यह आदमी क्या कह रहा है। यह असल में यह कह ही नहीं रहा है कि दुनिया में इस जैसी सुंदर कोई स्त्री नहीं है। यह इतना ही कह रहा है कि मुझे दुनिया में इससे ज्यादा सुंदर कोई स्त्री मालूम नहीं पड़ती। यह अपनी बात कह रहा है। यह अपना अनुभव कह रहा है। यह कोई वैज्ञानिक सत्य की उदघोषणा नहीं कर रहा है। यह केवल एक काव्यात्मक सत्य की उदघोषणा कर रहा है। यह अपनी पसंद दिखला रहा है।
अगर कोई आदमी कहता है कि गुलाब का फूल मुझे सबसे ज्यादा सुंदर मालूम पड़ता है, तो तुम विवाद नहीं करते। तुम यह नहीं कहते कि सुनो, कमल भी है, और कमल के रहते तुम यह किस तरह की बात कर रहे हो? और मैं इस तरह का झूठ न चलने दूंगा। तुम कहते हो: ठीक है, पसंद-पसंद की बात है। तुम्हें जो पसंद है...। जिसे जो रुचे।
लेकिन जब कोई आदमी कहता है कि कृष्ण से प्यारा कोई आदमी नहीं, तो तुम झगड़ा करने खड़े हो जाते हो! तुम कहते हो: मैं मुसलमान, मैं जैन, मैं बौद्ध। तुम कृष्ण की चर्चा कर रहे हो, कृष्ण में रखा क्या है? अरे, देखो महावीर को! कृष्ण में रखा क्या है? देखो बुद्ध को!
वहां तुम वही भूल कर रहे हो। कबीर कहते हैं: वाद-विवाद से निर्णय होने वाला नहीं है। इसलिए समझदार वाद-विवाद नहीं करता।
जितनी शक्ति वाद-विवाद में लगाते हो, उतनी शक्ति से तो सत्य को जाना ही जा सकता है। जितनी मेहनत से पंडित बनते हो, उतनी मेहनत से तो प्रज्ञा का जन्म हो सकता है। जितनी मेहनत से यह कूड़ा-करकट इकट्ठा करते हो शास्त्रों का, उतनी मेहनत से तो परमात्मा ही तुम्हारे द्वार आ जाए; शायद उससे कम मेहनत से द्वार आ जाए।
पांडित्य नहीं, प्रार्थना चाहिए। तर्क-वितर्क नहीं, अनुभूति चाहिए।
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
राम कह्या दुनिया गति पावे,...
अगर राम-राम कहने से मोक्ष मिलता होता; सिर्फ राम-राम दोहराने से अगर मोक्ष मिलता होता...
...खांड कह्या मुख मीठा।
तब तो शक्कर कह देते और मुंह मीठा हो जाता।
पावक कह्या पांव ते दाझै,...
तब तो आग कह देते और पैर जल जाता। और--
...जल कहि तृषा बुझाई।
और जल कह देते और प्यास बुझ जाती। हम सब जानते हैं: जल कहने से प्यास नहीं बुझती। सच तो यह है: जल कहने से प्यास दबी पड़ी हो, तो उभर कर प्रकट हो जाती है।
तुम मुझे बैठे-बैठे सुन रहे हो, शायद तुम्हें याद भी न आए प्यास की। और फिर कोई कह दे: ‘ठंडा जल’--तो प्यास बुझेगी नहीं; वह जिसकी याद नहीं आ रही थी, उसकी याद आ जाएगी।
राम-राम कहने से राम मिलता नहीं। राम-राम कहने से इतना ही हो सकता है कि राम मुझे अब तक नहीं मिला, अब मैं क्या करूं? कैसे पा लूं? प्यास जग सकती है; प्यास बुझ नहीं सकती।
लेकिन लोग हैं, जो सोचते हैं: राम-राम, राम-राम की रट लगा देने से पहुंच जाएंगे।
राम कह्या दुनिया गति-पावे,...
तब तो सारी दुनिया मोक्ष चली जाए। क्योंकि राम-राम कहने में लगता क्या है? खर्च भी कुछ नहीं होता। कभी भी बैठे राम-राम कह लिया।
लोग माला रख लेते हैं, दुकान चलाते जाते हैं, माला भी चलाते जाते हैं! थैली में माला छिपाए रखते हैं; किसी को दिखाई भी न पड़े, नहीं तो किसी की नजर लग जाए! अपनी माला घुमाते रहते हैं! एक हाथ से लोगों की जेब काटते रहते हैं, दूसरे हाथ से माला घुमाते रहते हैं--मुख में राम, बगल में छुरी! राम कहने में हर्ज भी कहां है; मेहनत भी कहां है; श्रम भी क्या लगता है! यंत्रवत आदत हो जाती है!
भोजन कह्या भूख जे भाजै,...
और अगर भोजन कहने से भूख बुझ जाती होती...
...तो सब कोई तिरि जाई।
तो सभी तिर जाएं। फिर तो कोई अड़चन नहीं। फिर राम-राम कह दिया और तिर गए। फिर तो बड़ी सस्ती हो गई बात। फिर तो कदम भी न उठाना पड़ा। जीवन को बदलना भी न पड़ा। जीवन को सुंदर भी न बनाना पड़ा। जीवन को शुद्ध भी न बनाना पड़ा। कुछ साधना भी न करनी पड़ी।
कबीर कहते हैं: ऐसी झूठी बातें मत फैलाओ, पंडितो! लोगों को मत समझाओ कि बस राम-राम जपते रहो, सब हो जाएगा। बड़ी झूठी कहानियां गढ़ रखी हैं। ऐसी तक कहानियां गढ़ रखी हैं कि अजामिल मर रहा था, तो उसने अपने बेटे नारायण को बुलाया। नाम था बेटे का नारायण। और ऊपर के नारायण समझे कि मुझे बुला रहा है! ऐसे बेटे को बुलाते हुए मर गया। मोक्ष चला गया। यह तो हद हो गई!
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
झूठ की भी सीमा होती है! थोड़ा लाज करो, थोड़ा संकोच करो। यह तो बहुत ज्यादा बात हो गई। तुमने परमात्मा तक को धोखा दे दिया! और यह अजामिल पापी था, चोर था, हत्यारा था--सब धुल गया मामला। और मजा यह है कि इसने राम को पुकारा भी न था, बुला रहा था अपने बेटे को; और किसी को पता नहीं, किसलिए बुला रहा था। जहां तक संभावना तो यही है कि बेटे को बुला रहा होगा कि चोरी की, हत्या की तरकीबें बता जाए। मरते वक्त बाप वही बताता है जो जानता है। और तो क्या बताएगा?
जिंदगी भर पाप किए थे, तो कुछ कुंजी दे जाए बेटे को। इसलिए बुलाया होगा नारायण को। क्योंकि जिंदगी भर की पूंजी उसकी यही थी। शायद कुछ गुर दे जाए कि देख बेटा, मैं कभी पकड़ा गया था, इस तरह की भूल दुबारा मत करना। चोरी-चारी को जाए तो इस-इस बात की सावधानी रखना। किसी की हत्या करे, तो हाथ-पैर के निशान मत छोड़ आना। मैं फंस गया था या फंसते-फंसते बच गया था। तू जरा ध्यान रखना। कुछ तरकीबें होंगी। कुछ जो उसने कभी अपने बेटे को नहीं कहीं, अब मरते वक्त कह जाना चाहता है। मरते वक्त लोग वही कहते हैं, जो जिंदगी भर छिपाए रखा।
अब तो जाने का वक्त आ गया। शायद बता जाए कि धन कहां गड़ा रखा है; वह जो राजा कि तिजोरी गायब हो गई थी, वह अपने घर के आंगन में कहां गड़ी है। कुछ कह जाए। या कह जाए कि कौन-कौन दुश्मन मेरे बचे रह गए हैं; जिनको मैं नहीं मार पाया, बेटा, तू मारना। मेरी आकांक्षा पूरी करना।
मैंने सुना है, एक आदमी ऐसा मर रहा था। बड़ा उपद्रवी था। जिंदगी भर अदालत, अदालतबाजी, इसके सिवा उसे कोई काम नहीं था। अदालत उसकी मंदिर, उसकी मस्जिद। अदालत उसकी पूजा, उसकी प्रार्थना। बस, उठता सुबह और चला अदालत! गांव भर को परेशान कर रखा था। हर किसी पर मुकदमा चला देता था। किसी भी बहाने मुकदमा चला देता था। बस, मुकदमा चलाने में उसको रस था।
तो जब मरने लगा, तो उसने अपने बेटों को पास बुलाया। जरा बेटे डरे हुए थे, क्योंकि बाप की आदतों से परिचित थे। कहा कि मेरी एक इच्छा है, उसे पूरी कर देना; अब मैं तो जा रहा हूं। बड़े बेटे तो तीन थे, वे तो दूर ही खड़े रहे। उन्होंने कहा कि पता नहीं, कहां की खतरनाक इच्छा में आखिरी वक्त फंसा जाए! छोटा बेटा जरा छोटा था, नासमझ था, वह पास आ गया--उसने कहा: आप कहिए, आपकी आखिरी इच्छा हम जरूर पूरी करेंगे।
उसने कहा: बेटा पास आ। कान में कहा कि ये तीन तो लफंगे हैं। मैं मर रहा हूं...दगाबाज! मेरा खून इनकी हड्डी-मांस में बह रहा है और ये झुके नहीं; मेरे पास आए नहीं। तू आया, तू मेरा असली बेटा है। एक काम करना। जब मैं मर जाऊं, तो मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े काट कर पड़ोसियों के घर में फेंक देना। मेरी आत्मा बड़ी प्रसन्न होगी, अगर ये लोग जंजीरों में बंधे अदालत की तरफ जा रहे होंगे। इनके घर में फेंक देना। मैं तो मर ही गया, अब तो काम ही खत्म हो गया, तो आखिरी मजा क्यों न ले लिया जाए! और मेरे हाथ-पैर काट कर पड़ोसियों के घर में फेंक देना; पुलिस में रिपोर्ट लिखा देना कि मेरे बाप की हत्या हो गई। सब बंधे चले जाएंगे, तो मेरी आत्मा बैकुंठ की तरफ जाती हुई बड़ी प्रसन्न होगी कि देखो, चले!
तो अजामिल भी कुछ ऐसा ही कहना चाहता होगा। इससे ज्यादा की आशा उससे नहीं हो सकती। लेकिन पंडितों ने खूब कहानी गढ़ी है! इन्हीं कहानियों के आधार पर आदमी को धोखा दिया गया है। आदमी को खिलौने दे दिए गए हैं।
असली बातें तो देने को पंडित के पास नहीं हैं। सत्य तो नहीं दे सकता। राम तो नहीं दे सकता, लेकिन ‘राम’ शब्द दे सकता है। राम तो वही दे सकता है, जिसने खुद जाना हो।
कबीर के संबंध में भक्तमाल में नाभा जी ने लिखा है: ‘आरूढ़ दसा ह्वै जगत परमुख देखी नहीं भनी।’ कि कबीर ने उस स्थिति में बैठ कर ही जो कहा--वही कहा। ‘परमुख देखी नहीं भनी।’ दूसरों के मुख से कही हुई बातों को नहीं दोहराया; और दूसरों के द्वारा देखी गई बातों को नहीं दोहराया। उस दशा में स्वयं आरूढ़ हो गए, तब कुछ कहा।
पंडित खुद भी नहीं उस दशा में आरूढ़ हुआ है। पंडित उतना ही दूर है, जितना पापी--और कभी-कभी पापी से भी ज्यादा दूर। इसलिए मैं बहुत खोजता रहा कि अजामिल, चलो मान भी लो कि यह पापी था और किसी तरह कुछ बात हो गई, जम गई बात किसी तरह; चला गया होगा!
मगर पंडित भी यह कथा नहीं गढ़ पाए अब तक कि कोई पंडित चला गया हो अजामिल जैसा। पापी था, चला गया; चलो जाने दो--चलेगा; लेकिन पंडित भी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाए कि उन्होंने ऐसी कोई कथा गढ़ ली हो कि कोई महापंडित था, जिंदगी भर शास्त्रों में उलझा रहा, शब्दों में उलझा रहा, वाद-विवाद में पड़ा रहा और मरते वक्त अपने बेटे को बुलाया ‘नारायण’ और भगवान समझे कि मुझे बुला रहा है--और मोक्ष चला गया हो। पंडित भी इतनी हिम्मत नहीं कर पाए। पापी को तो भिजवा दिया किसी तरह कहानी में, लेकिन पंडित नहीं।
मेरे देखे भी पापी शायद कभी पहुंच भी जाए, पंडित कभी नही पहुंचता। क्योंकि पापी शायद किसी दिन पछताए। यह बहुत असंभव है कि पापी न पछताए। क्योंकि जब तुम पाप करते हो, तब तुम्हारी पूरी अंतरात्मा कहती है: मत करो, मत करो, मत करो!
जब तुम पाप करते हो, तब तुम कभी पूरे-पूरे उसमें नहीं होते; तुम्हारा अंतर्तम तो बाहर ही रहता है। वह तो कहता है, बचो, अभी भी बच जाओ; रुक जाओ! पुकारता जाता है। हालांकि उसकी आवाज धीमी है और तुम्हारी आवाजों का तुम्हारा शोरगुल बहुत है। हालांकि अंतर्तम की आवाज बहुत-बहुत धीमी है और तुम्हारी आदतों की आवाजें बड़ी गहरी हैं। शायद तुम सुनो न सुनो, यह दूसरी बात है। तुम गुनो न गुनो, यह दूसरी बात है। लेकिन तुम्हारा अंतर्तम सदा कहता है: रुको, ठहर जाओ, मत करो; पीछे पछताओगे।
पापी भी इतना पापी नहीं होता कि उसके भीतर आवाज न उठती हो। ऐसा कोई पापी नहीं होता, क्योंकि परमात्मा, तुम चाहे कितना ही पाप करो, तुम्हारे भीतर अपनी आशा लगाए रखता है कि आज नहीं कल जागोगे; आज नहीं कल पहुंचोगे। तुम्हारे भीतर पुकारे चला जाता है।
लेकिन पंडित को पछतावा नहीं होता। पंडित को पछतावा क्यों हो? उसने कुछ पाप तो किया नहीं। वह तो सोचता है, उसने बड़े पुण्य का कार्य किया। पंडित तो सोचता है कि मैं तो शास्त्रों में ही रमा रहा; उसकी ही याद में लगा रहा; राम-राम जपता रहा।
तो पंडित कैसे पछताएगा! और जो पछताएगा नहीं, वह पहुंचेगा नहीं। क्योंकि जो पछताएगा नहीं, वह झुकेगा नहीं। क्योंकि जो पछताएगा नहीं, वह समर्पित नहीं होगा।
पंडित अहंकार से भरा रहेगा। पापी का क्या अहंकार हो सकता है! अहंकार कहने योग्य क्या है उसके पास? मंदिर नहीं बनवाए, मस्जिदें नहीं बनवाईं, धर्मशालाएं नहीं खुलवाईं; लोगों को लूटा-खसूटा मारा! क्या उसके पास है अहंकार को सजाने के लिए? अहंकार पर घाव ही घाव हैं; श्रृंगार तो बिलकुल नहीं।
पंडित के पास तो बड़ा श्रृंगार है। तपस्वी के पास बड़ा श्रृंगार है। साधु के पास बड़ा श्रृंगार है। अहंकार सजा हुआ है। सजे हुए अहंकार से छुटकारा पाना बहुत मुश्किल है।
चलो इसलिए मैं मान भी लेता हूं कि अजामिल पहुंच गया हो; लेकिन पंडित? पंडित कभी नहीं पहुंचा।
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
भोजन कह्या भूख जे भाजै, तो सब कोई तिरि जाई।।
नर के संग सुवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
और तुमने देखा कि आदमी के साथ रहते-रहते तोता भी ‘हरि-हरि’ बोलने लगता है। तुम जो बोलते हो, वही बोलने लगता है। लेकिन हरि-हरि दोहराने से तोते को कुछ हरि का प्रताप तो पता नहीं चलता; हरि की कुछ महिमा तो पता नहीं चलती। तोता लाख जपता रहे: हरि-हरि, तोता संत तो नहीं हो जाता! सुना नहीं कभी कि कोई तोता बुद्ध हो गया हो?
और पंडित तोता है। तोते से ज्यादा नहीं। उसे भी हरि के प्रताप का कोई पता नहीं। प्रताप का तो पता तभी होता है, जब तुम उसके प्रताप में प्रविष्ट हो जाओ। प्रताप का तो पता तभी होता है, जब तुम उस दशा में आरूढ़ हो जाओ। प्रताप का पता तो तभी होता है, जब तुम समाधिस्थ हो जाओ। प्रताप तो स्वाद से पता चलता है। फिर महिमा बढ़ती ही जाती है। फिर महिमा इतनी सघन हो जाती है कि कितना ही नाचो, और कितना ही गाओ, चुकती नहीं। कहना चाहो, कही नहीं जाती; अभिव्यंजना नहीं हो पाती। अपूर्व वर्षा होती है अमृत की। लेकिन वह तो तभी पता होगा, जब तुम हरि में प्रविष्ट हो जाओ और हरि तुममें प्रविष्ट हो जाए। तोते बने रहने से यह न होगा।
नर के संग सुवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
जो कबहुं उड़ि जाए जंगल में, बहुरि न सुरतैं आनै।।
और अगर कभी मौका मिल जाए तो तोते को, खुला छूट जाए पिंजरा, निकल भागे, तो फिर जंगल में भूल कर भी हरि-हरि नहीं दोहराएगा। किसलिए? हरि से लेना-देना क्या?
...बहुरि न सुरतैं आनै।
फिर सुरति न करेगा। फिर स्मरण न करेगा। फिर जंगल में बैठ कर नहीं कहेगा: हरि-हरि-हरि! क्या लेना-देना हरि से? बात खत्म हो गई है। वह तो आदमी के साथ फंस गया था झंझट में, तो हरि-हरि दोहराने लगा था।
ऐसे ही पंडित शास्त्रों की झंझट में हरि-हरि दोहराने लगता है। पढ़ता है, प्रभाव पड़ता है, दोहराने लगता है। लेकिन ऐसे प्रभाव का कोई मूल्य नहीं है जो तुम्हारी प्रभा न बन जाए। जो तुम्हारे ऊपर संस्कार की तरह ही रहे, उससे तुम्हारी मुक्ति नहीं होगी।
बिनु देखे बिनु अरस परस बिनु, नाम लिए का होई।
यह शब्द बड़ा प्यारा है। ‘बिनु देखे’...जब तक देखोगे न हरि को, कैसे उसका प्रताप अनुभव होगा? आंखें भरें उससे, हृदय भरे उससे, स्पर्श हो उसका! ‘बिनु देखे’...बिना दर्शन के कुछ भी न होगा। विश्र्वास किए मत बैठे रहना; विश्र्वास धोखा है। ‘पंडित वाद बदन्ते झूठा।’ अनुभव करना। विश्र्वास किए मत बैठे रहना। विश्र्वास करके गंवाया, तो बहुत पछताओगे।
और ऐसे ही लोग गंवा रहे हैं, लोग विश्र्वास किए बैठे हैं कि ईश्र्वर है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम मानते हैं कि ईश्र्वर है। मानने से क्या होगा? तुम मानते हो, इससे ही जाहिर होता है कि जानते नहीं। हम उन्हीं बातों को मानते हैं, जिनको जानते नहीं। जिनको जानते हैं, उनको तो कोई नहीं कहता कि हम मानते हैं। तुम यह तो नहीं कहोगे कि ये हरे वृक्ष जो यहां खड़े हैं, हम इनको मानते हैं! तुम जानते हो, मानने का सवाल नहीं है। सूरज उगा हुआ है, तुम यह तो नहीं कहोगे कि हम मानते हैं कि सूरज उगा हुआ है। तुम कहोगे कि हम जानते हैं कि सूरज उगा हुआ है। लेकिन अंधा आदमी होगा तो कहेगा कि हम मानते हैं कि सूरज उगा हुआ है। अंधा कैसे कहे कि हम जानते हैं कि सूरज उगा हुआ है?
मानना तो उसी का होता है, जिसको तुमने जाना नहीं। मानना दो कौड़ी का है; असली सवाल जानना है। मानने से क्या होगा? और मानने का कारण क्या होगा तुम्हारे भीतर? क्यों मानते हो कि ईश्र्वर है?
अक्सर तो लोग डर के कारण मानते हैं; भय के कारण मानते हैं; मृत्यु के कारण मानते हैं। असहाय हैं, इसलिए मानते हैं। ये कोई बातें मानने की हुईं? कहीं भय से प्रेम का जन्म हुआ है? कहीं भय से प्रार्थना उठी है? भय से तो वासना उठती है। और जिससे हमारा भय का संबंध है, उससे हमारा संबंध ही नहीं। भय से कहीं सेतु बनता है?
मंदिरों और मस्जिदों में लोग प्रार्थना कर रहे हैं, पूजा कर रहे हैं--घुटनों पर झुके हुए हैं; सिर नवाए हुए हैं। मगर जरा गौर से इनके भीतर देखो: शरीर ही झुका है; अहंकार जरा भी नहीं झुका है। और यह भी हो सकता है कि वहां सिर झुकाए-झुकाए देख रहे हों कि लोग देख रहे हैं कि नहीं मुझे, कि कितनी प्रार्थना कर रहा हूं; कितनी नमाज पढ़ रहा हूं! दिन में पांच नमाज पढ़ता हूं। यह पापी कोई एकाध पढ़ लेता है; तो समझता है कुछ हो गया। मैं पांच पढ़ता हूं। वर्षों से नहीं चूका हूं। भीड़-भाड़ देख ले कि मैं कितनी पूजा कर रहा हूं, कितनी प्रार्थना कर रहा हूं!
यह भी अहंकार हो गया।
‘तुम्हारी महक मन को मोह लेती है। बड़ी प्यारी व मीठी गंध है तुम्हारे पास। दुनिया में तुमसे अधिक सुवासित कोई भी नहीं होगा’--फूल से किसी ने कहा।
फूल ने उत्तर दिया: ‘नहीं, ऐसी बात नहीं है; धरती की सुगंध मुझसे बहुत श्रेष्ठतर है। मैं तो कुछ भी नहीं। यह छोटी सी सुगंध मुझमें है, यह भी धरती से आती है, और धरती में अनंत गंध भरी है।
जब धरती से यह प्रश्र्न पूछा गया, तो उसने कहा कि--‘मैं क्या! मैं कुछ भी नहीं। असली गंध तो मेघ में होती है। जब मेघ बरसता है, तो उसी की गंध मुझमें समा जाती है। मेघ के बिना तो मैं बिलकुल रूखी-सूखी हूं, मरुस्थल हूं। वे जो आकाश में मेघ घिरते हैं आषाढ़ के, गंध देखनी है, उनकी देखो! मुझमें क्या रखा है?’
इस प्रकार पूछे जाने पर मेघ ने इंद्र को इशारा किया कि--‘मेरा क्या, उसकी आज्ञा! सब उसके इशारे से होता है! उसकी अंगुली में इतनी गंध है कि उसका इशारा आया कि गंध फैल जाती है।’
इंद्र से पूछा, तो इंद्र ने विष्णु को बताया कि--‘वही सम्हाले है सबको; मुझको भी वही सम्हाले है। जो भी गंध है, उसकी है। जो भी महिमा है, उसकी है।’
विष्णु ने ब्रह्मा को बताया। उसने कहा: ‘मैं सम्हालता क्या, अगर ब्रह्मा न बनाते? उन्होंने बनाया सब! सब सुगंध उनकी!’
और जब ब्रह्मा से पूछा गया, तो ब्रह्मा ने कहा: ‘सर्वाधिक सुवासयुक्त तो मानव ही हो सकता है, क्योंकि मेरी महिमा इतनी ही है कि मैंने मनुष्य बनाया। और मेरी महिमा क्या है?’
स्वभावतः चित्रकार की महिमा यही है कि उसने चित्र बनाया। और कवि की महिमा यही है कि उसने काव्य रचा। और मूर्तिकार की महिमा और क्या है?--उसकी मूर्ति।
तो ब्रह्मा ने कहा: ‘मनुष्य को देख लो, बस! मनुष्य में है सारी गंध का वास!’
और जब मनुष्य से यह प्रश्र्न पूछा गया, तो वह अहंकार में अकड़ कर बोला: ‘अरे मूर्ख! भला मुझसे भी अधिक कोई सुवासित हो सकता है? मैं परम सुगंधमय हूं!’
और अब तुम जान सकते हो कि सुगंध कहां है। सुगंध हमेशा निर-अहंकार में है। फूल में भी सुगंध थी; और धरती में भी सुगंध थी; और मेघ में भी; और इंद्र में भी; और विष्णु में भी; और ब्रह्मा में भी। मनुष्य सुगंधहीन हो गया। यह अहंकार कि मैं परम सुगंधमय हूं! और चिल्ला कर बोला: ‘अरे मूर्ख, यह भी कोई पूछने की बात है? तुझे दिखाई नहीं पड़ता कि मैं मनुष्य हूं? भला मुझसे भी अधिक कोई सुवासित हो सकता है?’
अहंकार से दुर्गंध उठती है। निर-अहंकार से सुगंध उठती है। तो तुम्हारी पूजा, प्रार्थनाएं, तपश्र्चर्याएं अगर तुम्हारे अहंकार को ही सजाती हैं, तो थोथी हैं।
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
बिनु देखे बिनु अरस परस बिनु,...
देखना होगा प्रभु को। आंखों में आंखें डाल कर देखना होगा प्रभु को। उसकी सूरत समा जाए भीतर। रोएं-रोएं में समा जाए। धड़कन-धड़कन में समा जाए। तुम कह सको कि मैंने जाना है, मैंने देखा है। मैंने देखा--अपनी आंख से देखा है। ‘बिनु अरस परस बिनु,...।’ अरस-परस हो, स्पर्श हो। अनुभव हो। उसके संग नाचो। उसके साथ रास हो। उसके साथ गीत गुनगुनाओ। उसके साथ बैठो--तो जाना। और जाना--तो कुछ होगा।
...नाम लिए का होई।
ऐसा राम-राम जपने से कहीं कुछ होता है?
राम कह्या दुनिया गति पावे, खांड कह्या मुख मीठा।।
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
व्यर्थ की बकवासें हैं। राम-राम कहने से कुछ न होगा--राम को जानने से कुछ होगा। तुम कितना ही राम-राम चिल्लाते रहो, तुम्हारा हृदय कुछ और ही चिल्ला रहा है। तुम अगर धन के प्रेमी हो, तो ऊपर तुम राम-राम कह रहे हो और भीतर धन की गुहार चल रही है; धन से अरस-परस हो रहा है। यह राम की तो फिजूल बकवास लगा रखी है। शायद इसी आशा में कि राम-राम कहते रहो, तो ज्यादा धन मिल जाए। राम की प्रार्थना भी धन के लिए! राम की प्रार्थना भी यश के लिए! जिस दिन तुम राम की प्रार्थना राम के लिए ही करोगे, उस दिन सार्थक होगी।
एक आदमी मर कर स्वर्ग के लोहे के फाटक के पास पहुंचा। उसने दरवाजा खटखटाया। दरवाजे पर एक देवदूत प्रकट हुआ। देवदूत ने उस आदमी से नाम पूछा।
उस आदमी ने कहा: मुल्ला नसरुद्दीन!
देवदूत ने कहा: हमें तुम्हारे यहां आगमन की कोई सूचना नहीं मिली। कहीं कुछ भूल-चूक हो गई!
फिर भी, उसने कहा कि जब धरती पर थे, तो तुम काम क्या करते थे? अपने बाबत ब्योरा दो, ताकि मैं रजिस्टर में जाकर देखूं कि मामला क्या है; भूल-चूक कहां हो गई है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: कबाड़ी था साहब, कबाड़ी। पुराना लोहा खरीदा और बेचा करता था।
तुम यहीं ठहरो, देवदूत बोला। मैं भीतर से तुम्हारा खाता देख कर अभी आता हूं।
थोड़ी देर बाद देवदूत वापस आया, तो मुल्ला नसरुद्दीन गायब था और साथ में लोहे का फाटक भी।
कबाड़ी तो कबाड़ी! जिंदगी भर पुराना लोहा खरीदना-बेचना! देवदूत भीतर गया और उसने देखा: यह मौका छोड़ने जैसा! स्वर्ग छोड़ दिया; ले भागे लोहे का फाटक!
तुम्हारा अंतर्तम क्या है, वही निर्णायक है। तुम्हारे अंतर्तम में जो है, वही तुम हो; ऊपर-ऊपर के धोखे में मत पड़ना। ऊपर-ऊपर कहो, राम-राम और भीतर चलता हो कुछ, तो ध्यान रखना कि जो भीतर है, वही निर्णय करेगा तुम्हारे जीवन का।
बिनु देखे बिनु अरस-परस बिनु, नाम लिए का होई।
धन के कहै धनिक जो हो तो, निरधन रहत न कोई।।
अगर धन ही कहने से धनिक हो जाते, तो सभी धनिक हो गए होते। धन ही धन तो लोग कह रहे हैं। लेकिन धन कमाना पड़ता है, तब कोई धनिक होता है। राम भी कमाना पड़ता है, तब कोई राम का होता है।
सांची प्रीति विषय माया सूं, हरि भगतन सूं हांसी।
कहै कबीर प्रेम नहिं उपज्यौ, बांध्यो जमपुर जासी।।
सांची प्रीति विषतु माया सूं,...
और ये तथाकथित जो पंडित हैं, जो राम-राम की बकवास लगा रखे हैं और बड़ा विवाद और तर्क फैला रखे हैं, और प्रमाणित करते हैं कि ईश्र्वर है, या नहीं है; ऐसा है, वैसा है; उसका रूप, उसका रंग, उसका ढंग सब ब्योरे से समझाते हैं--इनको अगर गौर से देखो:
सांची प्रीति विषय माया सूं,...
इनकी सच्ची लगन तो विषय और माया में है! इन पंडितों को खरीद लेना बड़ा आसान है। ये पंडित तुम जो चाहो, वही कहने लगेंगे; इनकी आकांक्षा पूरी कर दो। ये तुम्हारे घर सौ रुपये महीने पर आकर प्रार्थना कर जाते हैं; पूजा कर जाते हैं। तुम सोचते हो, तुम किसको धोखा दे रहे हो! पूजा भी किसी और से करवा रहे हो!
यह तो ऐसे ही हुआ कि तुम्हें प्रेम करना हो अपने बेटे से, और एक नौकर रख लो; कि मुझे तो फुर्सत रहती नहीं, तो तू आकर कभी-कभी इसका सिर थपथपा दिया कर; कभी इसको गले लगा लिया कर--मेरी तरफ से! यह बात बेहूदी लगती है। लेकिन परमात्मा के साथ लोग यही करते हैं। आदमी रख लेते हैं किराए का कि तू पूजा कर जाया कर रोज। मैं तो, इतना समय नहीं है कि घंटी बजाऊं, कि थाली सजाऊं, कि आरती उतारूं--तू उतार दिया कर; यह काम तू कर दिया कर, फल मैं ले लूंगा; तू अपने रुपये ले लेना।
तुम किसको धोखा दे रहे हो? पंडित को कुछ लेना नहीं; उसे रुपये लेना है। कल अगर उसे कोई और ज्यादा रुपये देने वाला मिल जाएगा, तो तुम्हें छोड़ जाएगा। कल अगर उसे कोई और धन देने वाला मिल जाएगा, तो वह हिंदू छोड़ कर मुसलमान हो सकता है; मुसलमान छोड़ कर ईसाई हो सकता है।
तुम देखते हो: ईसाइयों ने इतने लोग ईसाई बनाए हैं--सब प्रलोभन के आधार पर! रोटी-रोजी! नौकरी मिल जाती है, शिक्षा मिल जाती है, अच्छा मकान मिल जाता है। ठीक है; आदमी ईसाई हो जाता है।
मुसलमानों ने कितने लोग मुसलमान बना लिए--तलवार के बल पर! यह बड़े मजे की बात है, तलवार के बल पर आदमी धार्मिक हो गया, मुसलमान हो गया! घबड़ा गया मरने से; सोचा, चलो ठीक है, जान बचाओ। ‘लौट कर बुद्धू घर को आए, जान बची और लाखों पाए।’ चलो, जान बचाओ, मुसलमान हो जाओ, इसमें रखा क्या है? वह मुसलमान हो गया!
तुम्हारा हिंदू, मुसलमान, ईसाई--वास्तविक तुम्हारे हृदय के अनुभव से निकला है, कि ऐसी ही कुछ बाहरी बातों से तय हो गया है? और न तुम तलवार से झुके हो, न तुम रोटी-रोजी से झुके हो--फिर भी तुम्हारा हिंदू-मुसलमान होना कितने मूल्य का है! हिंदू घर में पैदा हो गए तो हिंदू; क्योंकि मां-बाप ने दिमाग में हिंदू धर्म घुसा दिया। न उनके पास हिंदू धर्म था, न उनके मां-बाप के पास था। उधार उनका था, उधार तुम्हें बना दिया। यह सब थोथा है।
इसलिए कबीर कहते हैं:
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
सांची प्रीति विषय माया सूं,...
पंडित से कहते हैं: तेरी प्रीति हमें राम में नहीं लगती। तेरी प्रीति तो हमें लगती है--धन, पद, प्रतिष्ठा--इसमें ही।
देखते हो तुम: इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक मुकदमा चल रहा है वर्षों से। शंकराचार्य की एक गद्दी पर दो आदमियों का दावा है कि असली शंकराचार्य कौन! अब यह बड़े मजे की बात है कि शंकराचार्य होने का निर्णय भी अदालत करेगी कि असली शंकराचार्य कौन! और ये जो दो आदमी अदालत में मुकदमा लड़ रहे हैं शंकराचार्य होने का, इनको शंकराचार्य से कुछ भी लेना-देना है? इनको पद की फिकर है। उस गद्दी पर करोड़ों रुपये हैं, पद-प्रतिष्ठा है। उस गद्दी पर जाना है। ये राजनीतिज्ञ हैं। इनका धर्म से क्या लेना-देना?
इनको अगर कोई कल और ज्यादा बड़ी गद्दी देने को मिल जाए, कोई कहे कि आओ, चलो, पोप हो जाओ वेटिकन के, कहां तुम यह छोटी-मोटी बात में पड़े हो, इसमें रखा क्या है! शंकराचार्य की गद्दी का मूल्य कितना है? आ जाओ, पोप हो जाओ। पोप की तो बड़ी महिमा है। आधी पृथ्वी ईसाई है। अरबों-खरबों रुपयों का फैलाव है। सम्राट है पोप। तो ये वहां चले जाएंगे। इनको क्या लेना-देना है?
मैंने सुना है, एक पादरी रोज प्रवचन देता था, तो गांव का सबसे बूढ़ा आदमी सामने ही बैठता था--बड़ा प्रतिष्ठित धनी आदमी। और न केवल सामने बैठता था...उम्र भी कोई अस्सी-बयासी साल की हो गई--थका-मांदा है जिंदगी भर का। मगर वह दानी भी था। चर्च को उसने दान भी दिया था। और सबसे बड़ा प्रतिष्ठित नागरिक भी था, मेयर भी रह चुका था। और कई बातें थीं। तो वह सामने ही बैठता। और पुरोहित को बहुत अखरता, क्योंकि वह दो-तीन मिनट में ही सो जाता, सिर हिलाने लगता। न केवल इतना, घुर्राता भी! सामने ही घुर्राता--बैठ कर। तो वह पुरोहित बड़ा परेशान होता। उसको बड़ी बाधा पड़ती। उस बूढ़े के साथ उसका छोटा नाती भी आता था एक--सात-आठ साल का लड़का।
उसने तरकीब निकाली। पुरोहित ने उसके नाती को एक दिन अलग से बुलाया और कहा कि देख, तू अपने दादा को जगा दिया कर, मैं तुझे चार आने दिया करूंगा। जब भी वे सोएं, जगा दिया। जरा सा धक्का मार दिया।
चार आने के लोभ में उसने कहा: अच्छा, कर देंगे। तो जैसे ही बुड्ढा सोता, वह लड़का उसको जगा देता। ऐसा तीन सप्ताह तक तो बिलकुल ठीक चला। वह पुरोहित बड़ा प्रसन्न था। लेकिन चौथे सप्ताह देखा कि बूढ़ा सो रहा है, घुर्रा रहा है; लड़का बैठा है और जगा नहीं रहा। उसे बड़ी हैरानी हुई। उसने एक-दो दफे इशारा भी किया; लड़का इधर-उधर देखे। उसने उसको फिर इशारा किया कि...उस लड़के ने इशारा कर दिया कि नहीं! पीछे उसको बुला कर पूछा कि बात क्या है? हम तेरे को चार आने देते हैं, काहे का देते हैं? चार आने रोज हम तेरे को देते हैं। तू जगाता क्यों नहीं?
उसने कहा: दादा आठ आने देने लगे हैं। उन्होंने कहा है: मुझे जगाना भर नहीं, आठ आना ले लिया कर। अब मैं नहीं जगा सकता। अब आप सोच लो। अगर रुपये का इरादा हो...!
तुम्हारी चाहत क्या है, उससे सब निर्भर होगा।
सांची प्रीति विषय माया सूं, हरि भगतन सूं हांसी।
और ये पंडित-पुरोहित--धन के पीछे दीवाने, पद के पीछे दीवाने, प्रतिष्ठा के पीछे दीवाने, घने अहंकार से भरे हुए लोग--और भक्तों के लिए हंसते हैं।
...हरि भगतन सूं हांसी।
कबीर अनुभव से कह रहे हैं। कबीर काशी में रहे--पंडितों के घर में रहे। कबीर की खूब हंसी उड़ाई होगी उन्होंने कि कबीर पागल है, कि कबीर के वंश का कुछ ठिकाना नहीं है कि हिंदू है कि मुसलमान, कुछ पक्का नहीं है; भ्रष्ट है; जुलाहे के घर में पला है, शूद्र है। कबीर की खूब हंसी उड़ाई होगी उन्होंने। कबीर के भक्तों की हंसी उड़ाई होगी कि कहां जाते हो, किसके पास जाते हो?
तो कबीर कहते हैं कि खुद का तो मन विषय-माया में लगा है...‘हरि भगतन सूं हांसी’...और जो हरि के भगत हैं, उनके प्रति हंसते हो!
भक्तों के प्रति हमेशा पंडित हंसा है। भक्त को पंडित बर्दाश्त नहीं कर सकता। क्योंकि भक्त होता है हृदय से; और पंडित जीता है खोपड़ी में। खोपड़ी सदा हृदय पर हंसती है।
इसलिए तो लोग कहते हैं: प्रेम अंधा होता है। कौन कहता है यह? यह खोपड़ी कहती है कि प्रेम अंधा होता है। प्रेम आता हृदय से। खोपड़ी कहती है: हृदय की बकवास में मत पड़ना, नहीं तो झंझट में आओगे। मेरी सुनो, मेरी मानो, अगर होशियारी से जीना हो, अगर दुनिया में कुछ कर जाना हो। धन कमाना हो, पद कमाना हो--मेरी सुनो। हृदय की सुनी कि गए। न घर के रहोगे, न घाट के। हृदय की बात में पड़ना ही मत, यह भावनाओं का मामला है; भावनाएं तो अंधी होती हैं। यह दुनिया कहीं भावना से चलती है? यहां हिसाब-किताब चाहिए, तर्क-बुद्धि चाहिए। यहां होशियारी चाहिए, चालाकी चाहिए, कपट-कुशलता चाहिए। यहां राजनीति-कूटनीति चाहिए। यह प्रेम-व्रेम से नहीं होगा। यह प्रेम-व्रेम को हटा कर रखो, अलग करो, बीच में मत आने दो। अगर प्रेम को बीच में लाए, तो मुश्किल पड़ेगी!
प्रेम मुश्किल लाता है। इसलिए तो लोगों ने प्रेम को बिलकुल ही बांध कर रख दिया है। प्रेम मुश्किल लाता है, सच है; लेकिन प्रेम आनंद भी लाता है। और इसलिए तो लोग निरानंद हो गए हैं। प्रेम को बांध कर रख दिया है; मुश्किल से डर गए हैं। तो जीवन से सारा सुख, सारा संगीत खो गया है। जी रहे हैं--मरुस्थल की तरह। मरूद्यान भी नहीं। एक जरा सा जल का झरना भी नहीं। सूखे-साखे लोग, जिनके जीवन में कोई रसधार नहीं बहती!
सांची प्रीति विषय माया सूं, हरि भगतन सूं हांसी।
कहै कबीर प्रेम नहिं उपज्यौ, बांध्यो जमपुर जासी।।
और कबीर कहते हैं: समझ लो इस बात को। यह खोपड़ी के खेल से कुछ भी न होगा, तर्क से कुछ भी न होगा, विचार से कुछ न होगा, ज्ञान से कुछ न होगा। होगा, तो प्रेम से होगा।
कहै कबीर प्रेम नहिं उपज्यौ,...
अगर प्रेम नहीं उपजा, अगर भावना नहीं जगी, अगर भाव नहीं उठा, तो याद रखो,...
...बांध्यो जमपुर जासी।
जल्दी ही यम के दूत आएंगे और ले जाएंगे नरक।क्योंकि प्रेम ही केवल स्वर्ग ले जाता है। क्योंकि प्रेम ही प्रार्थना बन सकता है। और प्रार्थना ही परमात्मा के चरणों तक ले जा सकती है।
धन्यभागी हैं वे, जो प्रेम कर पाते हैं। मृत्यु से वे ही बच सकेंगे, जो प्रेम कर पाते हैं।
प्रेम ही एकमात्र अमृत की झलक है--इस मृत्यु के लोक में। इस अंधेरी रात में, जहां सब रास्ते उलझ गए हैं--प्रेम ही एक रोशनी है, एक दीया है।
प्रेम की सुनो। प्रेम की मानो। और प्रेम जो गंवाने को कहे, गंवा दो। प्रेम के साथ जो भी गंवाया, वह कमाना है। और बुद्धि के साथ जो भी कमाया, वह एक दिन गंवाना सिद्ध होगा।
होशियारी छोड़ो। समझदारी छोड़ो। नासमझी में बड़ा रस है। अज्ञानी हो रहो, क्योंकि अज्ञान निर्दोष है। ज्ञान की अकड़ डुबाएगी। यह ज्ञान का पत्थर तुम्हारी छाती से बंधा रहा, तो डूबोगे।
...बांध्यो जमपुर जासी।
चलन चलन सबको कहत है, ना जानै बैकुंठ कहां है।
और यह पंडित लोगों से कहता है कि चलो, चलो, उठो, परमात्मा को पाने चलो; स्वर्ग को खोजो; मोक्ष की यात्रा करो।
चलन चलन सबको कहत है, ना जानै बैकुंठ कहां है।
और इसको खुद भी पता नहीं कि बैकुंठ है कहां! इसने खुद देखा नहीं आंख से! इसने परमात्मा की तस्वीर देखी नहीं; क्योंकि परमात्मा की तस्वीर देखी होती, तो इसका जीवन और होता। इसका जीवन तो गवाही नहीं देता, इसका जीवन तो प्रमाण नहीं देता कि इसने परमात्मा को देखा।
जिसने एक बार देख लिया परमात्मा को, एक झलक भी, एक बार कौंध गई उसकी बिजली, फिर वह आदमी कुछ और ही ढंग का आदमी हो जाता है। वह आदमी इस जगत में बिलकुल अजनबी हो जाता है। इस जगत में वह इस जगत का नहीं होता--इस जगत के पार का प्रतीक हो जाता है। और वह एक दफे झलक जाए, तो भूलती नहीं याद; सतत बनी रहती है।
साधारण प्रेम में ऐसा हो जाता है, तो परमात्मा के प्रेम का तो कहना ही क्या?
यह गीत सुनो--
कुछ दिनों से, करीबे-दिल है वो दिन
जब अचानक, इसी जगह, इक शक्ल
मेरी आंखों में मुस्कुराई थी
एक पल के लिए तो--एक वो शक्ल
जाने क्या कुछ थी, झूठ भी, सच भी
शायद इक भूल--शायद इक पहचान
कुछ दिनों से तो, जान-बूझ के, अब
ये समझने लगा हूं , मैं ही तो हूं
जिसकी खातिर ये अक्स उभरा है
कुछ दिनों से तो, अब मैं दानिस्ता
इस गुमां का फरेब खाता हूं
रोज, एक शक्ल, इस दोराहे पर
अब मेरा इंतिजार करती है
एक दीवार से लगी, हर सुबह
टिकटिकी बांध, नीमरुख, यकसूं
अब मेरा इंतिजार करती है
मैं गुजरता हूं--मुझको देखती है
मैं नहीं देखता--वो देखती है
उसके चेहरे की साख्त, साऊते-दीद
जर्द ओंठों की पतड़ियां, पीतल
सुर्ख आंखों की टुकड़ियां कुरमज!
रोगनी धूप में, धंसते हुए पांव
मुंतिजर-मुंतिजर, उदास-उदास
एक यही चेहरा--एक पल के लिए
जाने क्या कुछ था--लेकिन अब तो मुझे
अपनी ये भूल भूलती ही नहीं!
एक दिन ये शबीह देखी थी
कुछ दिनों से, करीबे-दिल है वो दिन
कुछ दिनों से तो बीतते हुए दिन
इसी एक दिन में ढलते जाते हैं
दिन गुजरते हैं अब तो यूं जैसे
उम्र इसी दिन का एक हिस्सा है
उम्र गुजरी--ये दिन नहीं गुजरा
जिस तरफ जाऊं--जिस तरफ देखूं
मुझसे ओझल भी--मेरे सामने भी
शक्ल एक--टीम के वर्क पे वही
शक्ल एक--दिल के चौखटे में वही!
यह गीत तो साधारण प्रेम का है। अगर तुमने किसी के चेहरे को चाहा--एक क्षण को; एक क्षण को किसी के चेहरे का सौंदर्य तुम्हें भावाभिभूत कर गया; एक क्षण को कोई चेहरा तुम्हारी आंखों में उतर गया; एक क्षण को--जब विचार बंद हो जाते हैं; एक क्षण को--जब मन में कोई तरंग नहीं होती; एक क्षण को--जब हृदय के द्वार खुले होते हैं; एक क्षण को--जब यह अक्स, यह प्रतिबिंब तुम्हारे हृदय में उतर जाता है और बैठ जाता है--फिर भूले नहीं भूलता।
एक यही चेहरा--एक पल के लिए
जाने क्या कुछ था--लेकिन अब तो मुझे
अपनी ये भूल भूलती ही नहीं!
एक दिन ये शबीह देखी थी
कुछ दिनों से करीबे-दिल है वो दिन
कुछ दिनों से तो बीतते हुए दिन
इसी एक दिन में ढलते जाते हैं
दिन गुजरते हैं अब तो यूं जैसे
उम्र इसी दिन का एक हिस्सा है
उम्र गुजरी--ये दिन नहीं गुजरा
जिस तरफ जाऊं--जिस तरफ देखूं
मुझसे ओझल भी--मेरे सामने भी
शक्ल एक--टीम के वर्क पे वही
शक्ल एक--दिल के चौखटे में वही!
तो परमात्मा का तो कहना ही क्या! एक बार दरस-परस हो जाए।
बिनु देखे बिनु अरस परस बिनु, नाम लिए का होई।
एक बार क्षण भर को, पल भर को दर्शन हो जाए तो तुम चकित हो जाओगे। जन्मों-जन्मों चिल्लाने से जो नहीं हुआ, वह हो जाता है।
चलन चलन सबको कहत है, ना जानै बैकुंठ कहां है।
जोजन परमिति परमनु जानै। बातनि ही बैकुंठ बखानै।।
हालांकि पंडितों से पूछो, तो वे नक्शा रख कर बता देते हैं कि बैकुंठ यहां है। यहां से यहां जाना पड़ेगा, यहां से यहां जाना पड़ेगा; यहां स्वर्ग है, यहां नरक है; यहां सात नरक हैं, यहां सात स्वर्ग हैं--सारा नक्शा बता देते हैं! गए कहीं नहीं। अनुभव कुछ भी नहीं किया है। नक्शे खोल कर रख देते हैं। सीमा बता देते हैं--कि ये सीमाएं हैं। और यह सब बातचीत है।
बातनि ही बैकुंठ बखानै।
क्योंकि बैकुंठ बाहर नहीं है, भूगोल का हिस्सा नहीं है। इसलिए बैकुंठ का कोई नक्शा नहीं हो सकता है। बैकुंठ तो भीतर की दशा है--अंतर-दशा है। बैकुंठ तो अपने भीतर डूब जाने का नाम है।
मोक्ष बाहर नहीं है। मोक्ष तुम्हारा स्वभाव है। उसका नक्शा नहीं हो सकता है। ये सब नक्शे झूठे हैं।
पंडित वाद बदन्ते झूठा।
जब लगि है बैकुंठ की आसा। तब लगि नहिं हरि चरण निवासा।।
और कबीर कहते है: यह भी तू समझ ले पंडित, कि जब तक बैकुंठ की आशा लगाए रखे है, तब तक हरि के चरण न मिलेंगे; क्योंकि यह आशा ही बाधा बन जाएगी।
प्रभु-चरण की मांग एक बात है; बैकुंठ की आशा दूसरी। यह तो फिर सुख की ही इच्छा है। यहां धन चाहते थे, वहां भी धन चाहते हो। यहां पद चाहते थे, वहां भी पद चाहते हो। यहां महल चाहते थे, वहां भी महल चाहते हो। जो यहां नहीं मिला, वह सब वहां चाहते हो।
जब लगि है बैकुंठ की आसा। तब लगि नहिं हरि चरण निवासा।।
जब तक तुम कुछ और मांगते हो, तब तक परमात्मा न मिलेगा। परमात्मा उसे मिलता है, जो कहता है: सब छिन जाए, बस मैं तुझे चाहता हूं, तेरे चरण चाहता हूं।
इसलिए भक्तों ने कहा: छोड़ो बैकुंठ, हमें बैकुंठ नहीं चाहिए। मोक्ष, रखो तुम अपना, हमें नहीं चाहिए। हमें तुम्हारे चरण की रज बन जाने दो। हम तुम्हारे पैरों के पास पड़ जाएं, बस इतना बहुत है। और क्या चाहिए! मगर उस पड़ जाने में ही मोक्ष है!
जिसने मोक्ष की वासना की, वह मोक्ष से वंचित रह जाएगा। क्योंकि मोक्ष का अर्थ ही होता है: निर्वासना में मिलता है जो। मोक्ष की वासना भी वासना है। मोक्ष तो तभी है, जब कोई वासना न रही। मोक्ष वासना का अभाव है।
कहै सुनै कैसे पतइइए। जब लगि तहां आप नहिं जइए।
और कहते हैं कबीर कि पंडित, जब तक तू वहां नहीं गया,...
कहै सुनै कैसे पतइइए।
कहने-सुनने से कहीं प्रतीति होती है? अंधे को लाख कहो कि रोशनी है, क्या प्रतीति होगी? और बहरे को लाख कहो कि संगीत है, क्या प्रतीति होगी?
कहै सुनै कैसे पतइइए।
प्रतीति ही नहीं होगी।
जब लगि तहां आप नहिं जइए।
जब तक वहां स्वयं नहीं पहुंच जाओगे, तब तक कुछ भी न होगा।
कहै कबीर यहु कहिए काहि।
कबीर कहते है: यह मैं किससे कहूं? यह मैं किसको समझाऊं? पंडितों ने लोगों के चित्त विकृत कर दिए हैं।
कहै कबीर यहु कहिए काहि। साध संगत बैकुंठहि आहि।।
कबीर कहते हैं: शास्त्रों की संगति नहीं--साध-संगत। शब्दों की व्यवस्था नहीं--साधु-संघ। वहीं बैकुंठ है।
परमात्मा तो दूर है। हमें उसका कोई अनुभव नहीं। और कबीर कहते हैं: जब तक उसका अनुभव न हो, तब तक कुछ हो नहीं सकता। फिर हम करें क्या? हम जाएं कैसे उसके पास? शास्त्र से जा नहीं सकते; राम-राम रटने से जा नहीं सकते। वह तोता-रंटत हो जाएगी। वाद-विवाद से जा नहीं सकते। पुण्य करें, तो अहंकार बनता है। तप-तपश्र्चर्या करें, तो अहंकार बनता है। मंदिर-मस्जिद सब आदमी के बनाए हुए हैं। तो फिर हम करें क्या? तो कबीर रास्ता बताते हैं।
कबीर कहते हैं: रास्ता है। रास्ता है:
साध संगत बैकुंठहि आहि।
साधु की संगत करो। सदगुरु की संगत करो। खोजो। जरूर कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाएगा, जिसमें तुम्हें झलक मिलेगी पार की। फिर उसका हाथ पकड़ लो, फिर उसकी छाया बन जाओ। फिर उससे कहो:
सखा ओ,
छाया दो!
मन की तपन को
देखा-अनदेखा मत करो
अपनी ही मरजी रेखा मत करो
चित्त के इस तट पर
किरनें ही किरनें
कहां तक सहूं
ध्यान दो--थोड़ा ही सही
छाया-छाया की मेरी
इस रट पर
सखा ओ, छाया दो!
छाया भी चाहिए
विरक्ति का प्रकाश पड़ चुका
अनुरक्ति की माया भी चाहिए!
सखा ओ, छाया दो!
फिर किसी साधु का, किसी सदगुरु का संग करो। फिर उसकी छाया मांगो। उससे कहो: बस पास बैठ जाने दो। उससे कहो: तुम बरसो और मेरे खाली घड़े को पास रहने दो।
साधु तो बरस ही रहे हैं। तुम्हारा खाली घड़ा रख कर पास बैठ जाओ। साध-संगत! तो यहीं से तुम्हें धीरे-धीरे अनुभव मिलेगा।
तुमने तो नहीं जाना, लेकिन किसी ने जाना है। तुमने देखा, तुम तो बगीचे नहीं गए, कोई और बगीचा गया था। लेकिन जब बगीचे से कोई घूम कर आता है, तो उसके वस्त्रो में फूलों की थोड़ी सुगंध आ जाती है। तुम तो बगीचा नहीं गए, लेकिन कोई बगीचा घूम कर आया है--सुबह की ताजी हवा में; फूलों की गंध उस पर पड़ी है; पक्षियों के गीत उस पर पड़े हैं; चला है घास पर, जहां रात भर की ठंडी जमी हुई ओस थी--जब यह आदमी बगीचे से लौटता है, तब कुछ बगीचा अपने साथ ले आता है। अगर तुम गौर से देखो, तो इस आदमी में थोड़ी हरियाली पाओगे; थोड़ी फूलों की लरजती हुई गंध पाओगे; थोड़ी ताजगी पाओगे। सुबह की ताजगी इसकी आंखों में दिखाई पड़ेगी। यह साध-संगत! इसके संग हो लो। इसे बगीचे का पता है। कभी इसके संग लगे-लगे तुम भी पहुंच जाओगे।
साधु का अर्थ है: जो परमात्मा में होकर आता है; या परमात्मा में जीने लगा है। इसके पास बैठो। इसका एक हाथ परमात्मा में है। इसका दूसरा हाथ तुम पकड़ लो। हालांकि परमात्मा से तुम अभी सीधे नहीं जुड़े, लेकिन फिर भी संपर्क हो गया। यही संपर्क बढ़ते-बढ़ते एक दिन परमात्मा से संबंध बन जाता है।
मथुरा जावै द्वारिका, भावै जावै जगनाथ।
चाहे मथुरा जाओ, चाहे द्वारिका, और चाहे जगन्नाथ।
साध संगति हरिभजन बिन, कछू न आवै हाथ।
साध-संगत के बिना कुछ भी हाथ न आएगा; और साध-संगत में ही जो स्मृति आती है प्रभु की, वह तोता-रटंत नहीं होती; वह हरिभजन बन जाता है।
पंडित से सीखा--तो तोता-रटंत। उसके पास ही नहीं है खुद; वह खुद ही उस बगीचे में नहीं गया। साधु से सीखा--तो हरिभजन। बड़ा फर्क है। ऊपर से देखने में एक जैसा ही लगेगा।
साध संगति हरिभजन बिन, कछू न आवै हाथ।
पहले साधु की संगत करो, फिर तुम्हारे भीतर अपने आप भजन उठने लगेगा। उसके संग-संग रहते-रहते उसका रोग तुम्हें भी लगेगा, यह रोग संक्रामक है। उसकी तरंग तुम्हें भी पकड़ लेगी। उसकी लहर तुमको भी लहराने लगेगी। उसकी मत्तता तुम्हारे भीतर भी शराब की तरह उतरने लगेगी; तुम भी डोलने लगोगे; तुम भी मस्त होने लगोगे; तुम भी नाचने लगोगे।
साध संगति हरिभजन बिन, कछू न आवै हाथ।।
मेरो संगी दोइ जन, एक वैष्णो एक राम।
यो है दाता मुकति का, वह सुमिरावै नाम।।
बड़ा प्यारा वचन है। बड़ा बहुमूल्य।
कबीर कहते हैं:
मेरो संगी दोई जन,...
दो से मेरी दोस्ती है; बस दो ही से मेरा संग-साथ है। बस दो ही साथ योग्य भी हैं। ‘एक वैष्णो, एक राम।’ एक तो राम और एक राम को जिसने अनुभव कर लिया, वह है वैष्णव। वैष्णव का अर्थ होता है: विष्णु को जिसने अनुभव कर लिया। तो दो ही संगी-साथी हैं इस जगत में--एक तो सत्य और एक सत्य को अनुभव कर लिया, सदगुरु।
मेरो संगी दोइ जन, एक वैष्णो एक राम।
यो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम।।
राम से तो मिलती है मुक्ति; वह तो दान देने वाला है मुक्ति का। लेकिन राम को कौन याद दिलाएगा?
...वो सुमिरावै नाम।
वह जो वैष्णव है। वह जिसने सुमर लिया है। वह जिसने जान लिया है।
ये दो ही दोस्तियां करने जैसी हैं। और तुमने न मालूम कितनी दोस्तियां की हैं, और ये दो से तुम बचे हो। और स्वभावतः राम से तो दोस्ती बाद में होगी, पहले दोस्ती तो राम के किसी प्यारे से होगी। राम के पास जाना हो, तो हनुमान को पकड़ो; राम के किसी प्यारे को पकड़ो। कृष्ण के पास जाना हो, तो राधा के पीछे लग जाओ; कृष्ण के किसी प्यारे को पकड़ो।
यो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम।
तो पहले तो जो तुम्हें उसका नाम सुमिरा दे...। और पंडित से बचना, नहीं तो तोता बन जाओगे; राम-राम जपने लगोगे। न उसके पास राम था, न तुम्हें मिल सकता है। जिसे मिल गया हो, उससे लेना हरिभजन। मंत्र उससे लेना, जो पहुंच गया हो; उससे लेना दीक्षा, जो पहुंच गया हो। जो बैकुंठ में निवास कर रहा हो, वही तुम्हें स्मरण दिला सकेगा बैकुंठ का। दिलाने की जरूरत भी नहीं पड़ती; तुम उसके पास ही बैठते-बैठते धीरे-धीरे स्मरण से भर जाओगे।
हरि सेती हरिजन बड़े,...
यह वचन खूब गांठ बांध कर रख लेना। हीरों में तौला जाए, तो भी वजनी सिद्ध होगा।
हरि सेती हरिजन बड़े,...
कबीर कहते हैं: हरि से भी बड़े हैं हरिजन। जिन्होंने हरि को पा लिया, वे हरि से बड़े हैं।
क्यों?
हरि सेती हरिजन बड़े, समझि देखु मन मांहि।
खूब समझ लो इस बात को।
कबीर कहते हैं:
कह कबीर जग हरि विषे, सो हरि हरिजन मांहि।
जगत हरि में है, अस्तित्व हरि के भीतर है। सारा जगत, अस्तित्व हरि के भीतर है। जगत हरि में है और हरि हरिजन में है। तो स्वभावतः कौन बड़ा? यह जगत तो हरि के भीतर है; जैसे हरि के हृदय में यह जगत धड़क रहा है। उसके बिना यह नहीं हो सकेगा। यह जगत हरि के हृदय में बैठा है; और हरि? भगत के हृदय में बैठे हैं। तो भगत तो बड़ा हो गया; भगवान से बड़ा हो गया।
तुम उसी दिन भगवत्ता को उपलब्ध हो जाते हो--भगवत्ता से भी ऊपर ऊठ जाते हो--जिस दिन तुम्हारे हृदय में राम बैठ जाते हैं। राम में सारा जगत समाया है--और राम के भगत में राम समाए हैं।
हरि सेति हरिजन बड़े, समझि देखु मन मांहि।
कह कबीर जग हरि विषे, सो हरि हरिजन मांहि।।
जैसे जगत हरि में समाया है, ऐसे हरि हरि के भगत में समाए हैं। वैष्णवजन!
नरसी मेहता का वचन है: ‘वैष्णवजन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाणे रे।’ उसको कहते हैं वैष्णवजन, जो दूसरे की पीड़ा जानने लगा। दूसरे की पीड़ा तुम तभी जानोगे, जब राम से मिलन हो जाए। तब तुम पाओगे कि सारा जगत राम को बिना पाए तड़प रहा है। तब तुम पाओगे, तुम्हारा तो उत्सव का क्षण आ गया, तुम्हारा तो महोत्सव आ गया, और सारा जगत पीड़ा में सड़ रहा है। और अकारण! जब कि राम सभी को मिल सकते हैं। सब हकदार हैं। यह हमारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है। लेकिन अपने हृदय में टटोलोगे, तो ही राम को पा सकोगे। वहां राम बसे हैं। और राम में सारा जगत है।
ऐसे हरिजन की बड़ी महिमा कबीर ने गाई है--सभी संतों ने गाई है।
सार-सूत्र उससे सीखना, जो जानता हो; उससे नहीं, जो मानता हो। उसके पास बैठना, जो परमात्मा के पास बैठा हो; उसके पास नहीं, जिसके पास केवल शब्द हों। उसे खोजना, जिसके प्रेम में डूब सको; जिसकी भाषा में नहीं--जिसके प्रेम में पग सको। किसी वैष्णवजन को खोजना। किसी हरिजन को खोजना। उसके ही साथ बैठते-बैठते हरि हरिभजन उठेगा।
साध संगति हरिभजन बिन, कछू न आवै हाथ।।
मथुरा जावै द्वारिका, भावै जावै जगनाथ।
जाओ कहीं--जगन्नाथ, कि मथुरा, कि द्वारिका, कि काशी, कि कैलाश, कि काबा; जाओ जहां जाना है--कुछ भी हाथ नहीं आएगा।
साध संगति हरिभजन बिन, कुछ न आवै हाथ।।
मेरो संगी दोइ जन, एक वैष्णो एक राम।
यो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम।।
हरि सेती हरिजन बड़े, समझि देखु मन मांहि।
कह कबीर जग हरि विषे, सो हरि हरिजन मांहि।।
सावधान पांडित्य से! और अगर मिल जाए कोई साधुजन, तो पागल होने में संकोच मत करना। मिल जाए कोई हरि का प्यारा, तो फिर सब दांव पर लगा देना। फिर जुआरी बन जाना। इस जुआरीपन का नाम ही दीक्षा है। और जो दीक्षित हुआ, वही पहुंच सकता है।
आज इतना ही।