KABIR
Kahe Kabir Diwana 06
Sixth Discourse from the series of 20 discourses - Kahe Kabir Diwana by Osho.
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अवधू जोगी जग थैं न्यारा।
मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा।।
बसै गगन मैं दुनि न देखै, चेतनि चौकी बैठा।
चढ़ि आकास आसण नहिं छाड़ै, पीवै महारस मीठा।।
परगट कंथा माहै जोगी, दिल मैं दरपन जोवै।
सहंस इकीस छह सै धागा, निश्चला नाकै पोवै।।
ब्रह्म अगनि में काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।
कहै कबीर सोई जोगेस्वर, सहज सुंनि लौ लागै।।
जीवन मिट्टी का एक दीया है; लेकिन ज्योति उसमें मृण्मय की नहीं, चिन्मय की है। दीया पृथ्वी का, ज्योति आकाश की; दीया पदार्थ का, ज्योति परमात्मा की। दीया एक अपूर्व संगम है।
इसे ठीक से समझ लेना, क्योंकि तुम भी मिट्टी के एक दीये हो। लेकिन वही तुम्हारी परिसमाप्ति नहीं। और अगर तुमने ऐसा जाना कि तुम बस मिट्टी के ही दीये हो, तो तुम जीवन की सार्थकता और सत्य से वंचित रह जाओगे।
दीया जरूरी है, लेकिन ज्योति के होने के लिए जरूरी है; ज्योति के बिना दीये का क्या अर्थ? ज्योति खो जाए, दीये का क्या मूल्य है? ज्योति न हो तो दीये का क्या करोगे?
ज्योति की स्मृति बनी रहे, ज्योति निरंतर आकाश की तरफ उठती रहे, तो दीया सीढ़ी है, और तब तुम दीये को धन्यवाद दे सकोगे। जिन्होंने भी आत्मा को जाना, वे शरीर को धन्यवाद देने में समर्थ हो सके। जिन्होंने आत्मा को नहीं जाना, वे या तो शरीर की मान कर चलते रहे, ज्योति दीये का अनुसरण करती रही और निरंतर गहन से गहन अचेतना और मूर्च्छा में गिरते गए। या, जिन्होंने आत्मा को नहीं जाना, उन्होंने व्यर्थ ही शरीर से, दीये से संघर्ष मोल ले लिया। जो साथी हो सकता था, उसे शत्रु बना लिया।
जिन्हें तुम संसारी कहते हो, वे पहले तरह के लोग हैं--जिनके भीतर का परमात्मा जिनके बाहर की खोल का अनुसरण कर रहा है; जिन्होंने गाड़ी के पीछे बैल जोत दिए हैं, और बैल, गाड़ी के साथ घिसट रहे हैं। जिन्होंने क्षुद्र को आगे कर लिया है और विराट को पीछे, उनके जीवन में अगर दुख ही दुख हो तो आश्चर्य नहीं।
ये संसारी लोग हैं जिन्हें तुम भोगी कहते हो। फिर इनके ठीक विपरीत खड़े तथाकथित योगी हैं, धार्मिक लोग हैं। स्मरण रखें, उन्हें मैं तथाकथित कहता हूं, क्योंकि वे नाममात्र के ही योगी हैं। उन्होंने गाड़ी और बैल के बीच संघर्ष कर रखा है, उन्होंने दीये और ज्योति के बीच शत्रुता बांध रखी है; उन्होंने आत्मा और शरीर के बीच एक कलह निर्मित कर रखी है, एक संघर्ष रच रखा है।
भोगी तो भ्रांत है ही; तुम्हारा तथाकथित योगी भी भोगी से भिन्न नहीं। वास्तविक योगी कौन है?
वास्तविक योगी वही है जिसने दीये के सहयोग का उपयोग कर लिया ज्योति को प्रज्वलित करने में; जिसने दीये से शत्रुता न बांधी और न ही दीये का अनुसरण किया; न ही बैल गाड़ी के पीछे बांधे और न ही गाड़ी और बैल के बीच किसी तरह की कलह पैदा की; वरन सामंजस्य साधा, एक सहयोग निर्मित किया।
निश्चित ही सहयोग अति कठिन है क्योंकि ज्योति जाती है आकाश की तरफ। वह आकाश की है, आकाश की तरफ जाती है। दीया मिट्टी का है, मिट्टी में ही पड़ा रह जाता है। दोनों के आयाम बड़े भिन्न हैं, यात्रा बड़ी अलग है। फिर भी दीये और ज्योति में एक संगम है। वैसा ही संगम साध लेना योग है; शरीर और स्वयं में, मृण्मय और चिन्मय में।
कीचड़ से कमल पैदा होता है। तुम्हारे शरीर की कीचड़ से तुम्हारी आत्मा का कमल पैदा होगा। कीचड़ की दुश्मनी मत करना, अन्यथा कमल पैदा ही न होगा। कीचड़ और कमल में कितना ही विरोध दिखाई पड़े; भीतर गहरा सहयोग है। कीचड़ कितनी ही कीचड़ लगे; कहां संबंध भी तो नहीं मालूम पड़ता! कमल--सुंदर, अपूर्व सुंदर, अद्वितीय, रेशम सा कोमल! कहां कीचड़ गंदी दुर्गंध भरी! कहां कमल की सुवास! दोनों में कोई तो नाता दिखाई नहीं पड़ता।
और अगर तुम जानते न होओ और कोई कीचड़ का ढेर लगा दे और कमल के फूलों का ढेर, और तुमसे कहे कि इन दोनों में कोई संबंध दिखाई पड़ता है? तो तुम भी कहोगे कि इन दोनों में कैसा संबंध? कहां कीचड़, कहां कमल! लेकिन तुम जानते हो, कीचड़ से कमल पैदा होता है। मृण्मय में चिन्मय का जागरण होता है।
कीचड़ से कमल पैदा होता है, इसका अर्थ ही यह हुआ कि कीचड़ के गहरे में कमल छिपा है, अन्यथा पैदा कैसे होगा? इसका अर्थ यही हुआ कि कीचड़ ऊपर-ऊपर से गंदी दिखाई पड़ती है, भीतर तो कमल जैसी ही होगी। इसका अर्थ हुआ कि दुर्गंध ऊपर का परिचय है; सुगंध भीतर का परिचय है।
शरीर को ही तुमने अगर देखा तो तुम कीचड़ पर रुक गए और कमल से अपरिचित रह गए। अगर तुमने शरीर से शत्रुता की और शरीर को दबाने और गलाने में लग गए, तो भी तुम वंचित रह जाओगे, क्योंकि उस संघर्ष से कमल पैदा न होगा। कमल तो पैदा होता है कीचड़ के सहयोग से।
इस सहयोग का नाम ही योग की कला है। योग अस्तित्व की दुई के बीच एक को खोज लेने की कला है। जहां दो दिखाई पड़ें--अत्यंत, विपरीत, वहां भी एक के ही सेतु को देख लेना, एक के ही जोड़ को देख लेना, वही योग की परम दृष्टि है।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, तुम्हारे भीतर छिपा हुआ काम ही तुम्हारे भीतर का राम बन जाएगा। तुम्हारे भीतर संभोग की वासना ही तुम्हारे आत्यंतिक खिलावट के क्षण में तुम्हारी समाधि बन जाएगी। तुम्हारी कीचड़ तुम्हारा कमल होने को है।
लड़ो मत; सम्हालो। अन्यथा तुम काटने-पीटने में लग जाओगे। काटना-पीटना एक तरह की हिंसा है। और काटना-पीटना एक तरह का गहन अज्ञान है। क्योंकि अस्तित्व व्यर्थ को पैदा ही नहीं करता। कितना ही तुम्हें व्यर्थ मालूम पड़ती हो कोई चीज; अस्तित्व ने व्यर्थ को पैदा करना जाना ही नहीं है। इसलिए तो हम अस्तित्व को परमात्मा कहते हैं। क्योंकि अस्तित्व कोई अंधा संयोग नहीं; एक सुनियोजित यात्रा है। अस्तित्व कोई अंधी दौड़ नहीं; एक नियति है। एक परम रित, एक परम नियम काम कर रहा है। यहां कुछ भी व्यर्थ नहीं है।
तुम्हारा काम, तुम्हारी कामवासना व्यर्थ नहीं है। जिन्होंने तुमसे कहा है, वे नासमझ हैं। तुम्हारी कामवासना ही तुम्हारा परम जीवन भी नहीं है; उस पर ही रुके तो भी मर जाओगे; उससे लड़े तो भी मिट जाओगे। उससे ऊपर जाना है; और उसको ही सीढ़ी बना कर जाना है। उससे ऊपर जाना है। उसका ही सहयोग लेना है। उसके ही कंधे पर हाथ रखना है! निश्चित ऊपर जाना है, पार जाना है, अतिक्रमण करना है; लेकिन संघर्ष से नहीं, अत्यंत प्रेमपूर्ण, अत्यंत कलात्मक विधियों से।
लेकिन तुम्हारी समझ में बहुत बार तुम्हें ऐसा लगेगा: क्रोध का क्या उपयोग है? काट डालो!
अगर तुम शरीर-शास्त्रियों से पूछो तो वे भी कहते हैं कि शरीर में बहुत सी चीजें हैं जिनका कोई उपयोग नहीं है। उन्हें भी पता नहीं है। डॉक्टर कितनी सरलता से अपेंडिक्स का ऑपरेशन करता है! टांसिल तो यूं निकाल देता है जैसे कि उनकी कोई जरूरत ही नहीं है और चिकित्साशास्त्र अभी तक भी खोज नहीं पाया कि इनकी जरूरत क्या है। लेकिन वे हैं तो उनकी जरूरत तो होनी ही चाहिए, अन्यथा अस्तित्व एक दुर्घटना मात्र हो जाएगी। और डॉक्टर काटते रहते हैं टांसिल, जिसके टांसिल काट दिए, उसके बेटे को फिर टांसिल परमात्मा पैदा कर देता है। डॉक्टर काटते रहते हैं अपेंडिक्स, लेकिन फिर उसके बेटे में अपेंडिक्स आ जाती है।
इतनी व्यर्थ चीज पुनरुक्त हो नहीं सकती थी। जरूर कोई रहस्य होगा जो हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है। जहां तक हमारी समझ है वहां तक व्यर्थ ही मालूम पड़ता है। डॉक्टर के पास जाओ, वह पहले यही देखता है कि अपेंडिक्स निकाल दें, कि टांसिल निकाल दें, कि दांत निकाल दें--कुछ न कुछ निकालने पर लगा है।
जो डॉक्टर की मनोदशा है, वही तुम्हारे धर्मगुरु की मनोदशा है। तुम जाओ उसके पास, वह फौरन बताने को तैयार है कि क्रोध अलग करो, कामवासना का त्याग करो, लोभ छोड़ो, हिंसा छोड़ो--वह भी काटने को लगा है। सर्जरी शरीर पर भी चल रही है और आत्मा पर भी चल रही है। लेकिन जिन्होने गहरे जाना है, वे इसके विरोध में हैं। इस्लाम शरीर के किसी भी अंग को काटने के विरोध में है, क्योंकि इस्लाम में एक बड़ी महत्वपूर्ण धारणा है--वह योग की भी धारणा है, शायद इस्लाम तक योग से ही पहुंची होगी, क्योंकि इस्लाम तो नया है; योग अति प्राचीन है।
इस्लाम की धारणा है कि परमात्मा के पास जब तुम जाओगे तो वह तुमसे पूछेगा कि तुम पूरे वापस लौटे हो? अगर तुम अधूरे वापस लौटे तो तुम दंडित किए जाओगे। परमात्मा ने जितना तुम्हें दिया था, कम से कम उतने तो वापस लौटना; ज्यादा न कर सको तो क्षमा मांग सकते हो, लेकिन कम होकर तो मत लौटना।
इसके अनेक आयाम हैं, इस बात के। निश्चित ही परमात्मा ने जितना तुम्हें दिया है, उतना तो कम से कम लौटा ले जाना। उसको काट मत लेना। उसे बढ़ा सको तो ठीक। बीज दिया था, अगर फूल हो सके तो ठीक; लेकिन कम से कम बीज तो लौटा देना।
जीसस की बड़ी प्राचीन कथा है। जीसस निरंतर उसे दोहराते थे कि एक बाप अपने तीन बेटों में संपत्ति बांटना चाहता था, लेकिन निश्चय न कर पाता था कि कौन योग्य और कौन सुपात्र है। तीनों ही जुड़वां पैदा हुए थे, इसलिए उम्र से तय न किया जा सकता था। तीनों एक से बुद्धिमान थे। तो उसने एक फकीर से सलाह ली। फकीर ने उसे एक गुर बताया।
उसने कहा बेटों से कि मैं तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं। और बेटों को उसने कुछ बीज दिए--फूलों के बीज--और कहा कि सम्हाल कर रखना; जब मैं लौट कर आऊं तब मैं तुमसे वापस मांगूंगा।
पहले बेटे ने सोचा कि इन बीजों को कोई बच्चे उठा लिए, कोई जानवर चर गया--तिजोड़ी में बंद कर दें। तिजोड़ी में बंद करके रख दिए। निश्चिंत हो गया। लोहे की तिजोड़ी! चोरों का भी क्या डर! और कौन चोर लोहे की तिजोड़ी तोड़ कर बीज चुराने आएगा! वह निश्चिंत रहा। बाप आएगा, लौटा देंगे।
दूसरे ने सोचा कि तिजोड़ी में रखूं, बीज सड़ सकते हैं; और बाप ने ताजा जीवित बीज दिए और मैं सड़े लौटाऊं--यह तो लौटाना न हुआ। क्या करूं? बीज जीवित कैसे रहें? उसने सोचा बाजार में बेच दूं, तिजोड़ी में रुपये रख दूं। बाप जब वापस आएगा, बाजार से बीज खरीद कर लौटा देंगे।
तीसरे ने सोचा कि बीज का अर्थ ही होता है, होने की संभावना। बीज का अर्थ ही होता है जो होने को तत्पर है, जिसके भीतर कुछ होने को मचल रहा है। तो बाप ने बीज दिए हैं, मतलब साफ है कि इन्हें इतना ही जिसने रखा, वह नासमझ है। ये तो बढ़ने को राजी थे, ये तो फूल बनने को राजी थे, और एक बीज से करोड़ बीज पैदा होने को राजी थे। पता नहीं, बाप कब लौटे, तीर्थ लंबा है, यात्रा वर्षों लेगी--उसने बीज बो दिए।
तीन बरस बाद वापस लौटा पिता। पहले बेटे को उसने कहा, उसने तिजोड़ी की चाबी दे दी, खोली गई तिजोड़ी, करीब-करीब सभी बीज सड़ चुके थे। न हवा लगी, न सूरज की रोशनी लगी और किसी ने उन पर ध्यान ही न दिया तीन वर्ष तक तिजोड़ी में लोहे की।
बीज कोई लोहे की तिजोड़ियों में बंद करने को थोड़े ही हैं! उन्हें खुला आकाश चाहिए, हवा की पुलक चाहिए, रोशनी चाहिए, तो वे जिंदा रह सकते हैं। वे सब सड़ गए थे। और जिन बीजों से फूलों की अपूर्व सुवास पैदा हो सकती थी, उनकी जगह उस तिजोड़ी से सिर्फ दुर्गंध निकली--सड़े हुए बीजों की दुर्गंध!
बाप ने कहा: तुमने सम्हाला तो, लेकिन सम्हाल न पाए। तुम मेरी संपत्ति के अधिकारी न हो सकोगे। तुम नासमझ हो। जितना मैं तुम्हें दे गया था, उतने भी तुम वापस न कर पाए। ये बीज तो समाप्त हो गए। इनमें अब एक भी जीवित नहीं है। अब इनको बोओगे तो कुछ भी पैदा न होगा। ये तो राख हैं और मैं तुम्हें बीज दे गया था। बीज थे जीवंत, उनमें संभावना थी बहुत होने की। इनकी सारी संभावना खो गई है, ये सिर्फ राख हैं, इनसे कुछ भी नहीं हो सकता। ये कब्रें हैं!
दूसरे बेटे से कहा। दूसरा बेटा भागा बाजार रुपये लेकर, बीज खरीद कर ले आया--ठीक उतने ही बीज जितने बाप दे गया था। बाप ने कहा कि तुम थोड़े कुशल हो, लेकिन तुम भी काफी नहीं; क्योंकि जितना दिया था उतना ही लौटाना भी कोई लौटाना है! यह तो जड़ बुद्धि भी कर लेता। इसमें तुमने कुछ बुद्धिमत्ता न दिखाई और बीज का तुम राज न समझे। बीज का मतलब ही यह है कि जो ज्यादा हो सकता था। उसे तुमने रोका और ज्यादा न होने दिया। तुम पहले से योग्य हो, लेकिन पर्याप्त नहीं।
तीसरे बेटे से पूछा कि बीज कहां हैं? तीसरा बेटा बाप को भवन के पीछे ले गया जहां सारा बगीचा फूलों और बीजों से भरा था। उसके बेटे ने कहा; ये रहे बीज! आप दे गए थे; मैंने कहा इन्हें बचा कर रखने में मौत हो सकती है। इन्हें बाजार में बेचना उचित न मालूम पड़ा, क्योंकि आप सुरक्षित रखने को कह गए थे। और फिर आपने चाहा था कि यही बीज वापस लौटाए जाएं। बाजार से तो दूसरे बीज वापस लौटेंगे, वे वही न होंगे। फिर वे उतने ही होंगे जितने आप दे गए थे। तो मैंने तो बीज बो दिए थे। अब ये वृक्ष हो गए हैं। इनमें बहुत बीज लग गए हैं, बहुत फूल लग गए हैं। हजार गुने करके आपको वापस लौटाता हूं।
स्वभावतः तीसरा बेटा बाप की संपत्ति का मालिक हो गया।
इस्लाम कहता है: परमात्मा ने तुम्हें जितना दिया है कम से कम उतना तो लौटाना। अगर बढ़ा न सको... बढ़ा सको तब तो बहुत...! और इस आधार पर इस्लाम सर्जरी पसंद नहीं करता।
एक बड़ी अनूठी कहानी मैंने सुनी है; सच न भी हो, फिर भी बड़ी गहराई से सचाई को छूती है। ब्रिटिश राज्य के जमाने में लाहौर में एक बहुत बड़ा सर्जन था--अंग्रेज। और पठान तो ऑपरेशन के बिलकुल खिलाफ है। अंगुली भी कट जाए तो वे सम्हाल कर रखते हैं उसे। जब आदमी मर जाता है। तो उसकी अंगुली को उसकी अंगुली में जोड़ कर लाश में रखते हैं, क्योंकि परमात्मा कहेगा: पूरा! अंगुली कटी है, अंगुली कहां गई? जितना दिया था उतना वापस नहीं लाए। अपंग, अधूरे, खंडित--तुम किस मुंह से आए हो? अखंड आओ तो ही परमात्मा के द्वार पर स्वीकृति होगी!
पठान तो सीधे-सादे गैर-पढ़े लिखे लोग हैं। उन्होंने इसका बिलकुल स्थूल अर्थ पकड़ा है। तो वे अंगुली भी कट जाए, उसको भी सम्हाल कर रखते हैं।
एक पठान का पैर सड़ गया किसी भयंकर बीमारी में और अगर पैर न काटा जाए तो वह पठान पूरा सड़ जाएगा। सर्जन ने बहुत समझाया, लेकिन पठान ने कहा कि नहीं; मैं मरूंगा फिर अधूरा जाऊंगा, लंगड़ा, तो परमात्मा क्या कहेगा? और बड़ी हंसी होगी। और भी पठान वहां मौजूद होंगे कयामत के दिन और वे सब कहेंगे, अरे! पठान होकर और आधा पैर कहां।
सर्जन ने समझाने को क्योंकि यह पठान तो नासमझ है, इसकी कुछ अक्ल में नहीं है; यह मरेगा पूरा--उसने कहा कि तुम ऐसा करो, घबड़ाओ मत, मैं तुम्हारे पैर को सम्हाल कर रखूंगा। उसने जाकर अपनी प्रयोगशाला में बताया, कई अंग उसने सम्हाल कर रखे थे। पठान को भरोसा आ गया। और पठान ने कहा कि जब मैं मरूं तो कृपा करके यह मेरा पैर वापस लौटा दिया जाए। मेरे घर के लोग आएंगे, यह पैर उन्हें दे दिया जाए, क्योंकि मैं अधूरा न जाना चाहूंगा।
सीधे-सादे पठान! बड़े महत्वपूर्ण विचार को भी उन्होंने अपनी सादगी के ढंग से पकड़ा है। खैर, ऑपरेशन हो गया। पठान हर वर्ष आता रहा देखने कि पैर सम्हाल कर रखा गया है या नहीं। पैर सम्हाल कर रखा गया था। और धीरे-धीरे उसकी सरलता पर उस चिकित्सक को भी बड़ा प्रेम और करुणा आ गई थी। पहले तो उसने ऐसे ही कहा था बात-बात में, लेकिन फिर उसने सम्हाल कर ही रखा था।
लेकिन संयोग की बात, उसकी प्रयोगशाला में आग लग गई और सब जल गया। उसने बहुत कोशिश की कम से कम पठान का पैर बच जाए, क्योंकि वह नासमझ किसी भी दिन खड़ा हो जाएगा तो मुसीबत खड़ी होगी। लेकिन वह नहीं बच सका। पैर भी नहीं बच सका, पूरी प्रयोगशाला जल गई।
उसकी रिटायरमेंट का वक्त आ गया, वह रिटायर भी हो गया और लंदन वापस चला गया। पठान की बात आई गई हो गई, भूल गया। लेकिन, अगर कभी किसी पठान को रास्ते पर देख लेता तो उसे याद आ जाती। न केवल याद आती, बल्कि उसके मन में एक पीड़ा भी होती कि पता नहीं, पठान ही सही हो और परमात्मा पूरे आदमी को मांगता हो तो मैं कसूरवार हो गया।
वैज्ञानिक आदमी था; इस पर कुछ भरोसा नहीं था। लेकिन फिर भी अंतःकरण, कितने ही तुम वैज्ञानिक हो जाओ अंतःकरण तो मनुष्य का ही होता है। कितना ही तर्क का जाल फैल जाए, भीतर हृदय तो वैसा ही अनुभव करता रहता है जैसा छोटे बच्चों का। उसे चिंता पकड़ती थी। कभी-कभी किसी पठान को देख कर उसे लगता था कि मैंने एक अच्छा काम किया या बुरा काम किया, संदिग्ध है।
एक रात वह सोया था, कोई दो बजे रात अचानक किसी ने उसे हिला कर जगाया। उसने आंख खोली, वह पठान खड़ा है। घबड़ा गया। दरवाजा बंद है! ताले पड़े हैं! यह पठान कहां से अंदर घुस आया! और पठान बहुत नाराज है और उसने इशारा किया कि मेरा पैर! और अपना कटा हुआ पैर बताया।
चिकित्सक को कुछ सूझा नहीं। तभी उसे याद आया कि एक पैर उसकी प्रयोगशाला में जो उसने अभी नई बनाई है, कुछ आठ-दस दिन पहले ही किसी का कटा है, वह वहां है, उससे काम चल जाएगा। उसने पठान का हाथ पकड़ा, वह अपनी प्रयोगशाला में ले गया। उसने जाकर उसको पैर के पास खड़ा कर दिया। पठान का चेहरा प्रसन्न हो गया, वह मुस्कुराया। पैर के पास गया। लेकिन भूल हो गई। उसका दांया पैर कटा था और यह बांया था। जिस कांच के बर्तन में सम्हाल कर रखा था, उसने उठा कर कांच का बर्तन नीचे पटक दिया और नाराजगी से वह घर के बाहर हो गया।
यह डॉक्टर तो इतना घबड़ा गया। सुबह इसकी नींद खुली तो इसने सोचा सपना होगा। यह कहीं हो सकता है! लेकिन जब प्रयोगशाला में जाकर देखा और टूटा हुआ जार देखा और नीचे पड़ा हुआ पैर देखा, तब तो यह मुश्किल हो गया तय करना कि यह सपना हो सकता है।
यह संभव है कि सपने में उसी ने जार पटका हो। यह संभव है। इसलिए मैं कहता हूं कि पक्का नहीं कि कहानी कहां तक सच होगी, कहां तक झूठ होगी। सपने में खुद ही ने जार पटका हो, यह भी हो सकता है। और यह दुनिया बड़ी अनूठी है, यह भी को सकता है कि पठान आया हो।
फिर उसने खोज-बीन करवाई तो पता चला कि जिस रात उसने पठान को देखा, उसी रात पठान की मृत्यु हुई। तो इस बात की पूरी संभावना है कि पठान की चेतना इतनी विवल रही हो अपने पैर को पाने के लिए कि वह मौजूद हो गई हो, उसने जाकर जगा दिया हो चिकित्सक को।
एक बात साफ है कि परमात्मा ने तुम्हारे भीतर कुछ भी अकारण पैदा नहीं किया है। जैसे मेरे अनुभव में कुछ बातें हैं जो मैं तुम्हें कहूं। वे शायद कभी चिकित्सकों के काम पड़ जाएं। क्योंकि, कभी न कभी चिकित्साशास्त्र, सर्जरी, मनुष्य के अंतर्तमों का भी स्पर्श करेगी।
जहां तक बोलने का और साधारण आदमी की चेतना का संबंध है, टांसिल्स का कोई उपयोग नहीं मालूम होता। लेकिन जहां तक मौन का संबंध है, टांसिल्स का उपयोग है। और जिस व्यक्ति के टांसिल्स निकल गए हैं, उसे मौन होना मुश्किल हो जाता है, यह मेरा अनुभव है। वह चुप नहीं हो सकता। शायद बोल ज्यादा अच्छी तरह से सकता हो, क्योंकि टांसिल्स के अवरोध बोलने में बाधा बनते हैं। सर्दी-जुकाम पकड़ता है, टांसिल करीब आ जाते हैं, एक-दूसरे से रगड़ खाते हैं, सूजन हो जाती है, बोलने में कष्ट होता है।
लेकिन ठीक इसके विपरीत जब कोई व्यक्ति मौन में उतरता है तो जिसके टांसिल नहीं हैं उसको मैंने मौन में उतरते नहीं देखा। जरूर कहीं कुछ गहरे संबंध हैं कि टांसिल मौन में सहायता देते हैं। और जो व्यक्ति वर्षों तक मौन रहते हैं, उनके टांसिल बिलकुल करीब आ जाते हैं। इतने करीब आ जाते हैं कि अगर वे बोलते होते तो बोलना मुश्किल हो जाता--जैसे मेहरबाबा।
कोई व्यक्ति तीन वर्ष तक अगर मौन रह जाए, बिलकुल मौन, तो टांसिल्स बिलकुल करीब आ जाते हैं। और जो बोलने की ऊर्जा है, जो विचार का प्रवाह है, फिर ऊपर की तरफ नहीं जाता, वही बोलने की ऊर्जा हृदय की तरफ गिरने लगती है और टांसिल उसके गिरने में सहयोगी होते हैं। किसी दिन शायद सर्जरी जान सके।
जिन लोगों की अपेंडिक्स निकल गई है... और डॉक्टर तो बड़े तत्पर रहते हैं निकालने में।
मैंने सुना है कि एक सर्जन की, बड़े प्रख्यात सर्जन की पत्नी ने एक दिन सुबह उठ कर देखा कि उसकी अंग्रेजी की किताब के पन्ने किसी ने फाड़ लिए हैं। तो उसने अपने पति को पूछा कि यहां कोई आया भी नहीं, किसने ये पन्ने फाड़े? उसने कहा: अरे, मुझे क्षमा करना! मैंने देखा, उन पर लिखा है अपेंडिक्स। मैंने जल्दी से बाहर निकाल लिए। खयाल ही न रहा।
डॉक्टर तो एकदम तत्पर हैं!
जो लोग, जिनकी अपेंडिक्स निकाल ली गई है, कुछ बातों में उनको कठिनाई शुरू होती है। एक: उनकी आत्मा को शरीर के बाहर ले जाना बड़ा कठिन हो जाता है, जिसको आध्यात्मिक लोग एस्ट्रल-प्रोजेक्शन कहते हैं--शरीर के बाहर निकल कर यात्रा करना। वह अपेंडिक्स जिसकी निकल गई, उसको मुश्किल हो जाता है। वह शरीर के बाहर नहीं निकल पाता। जिसकी अपेंडिक्स स्वस्थ है, वह शरीर के बाहर सुविधा से निकल पाता है। जैसे अपेंडिक्स सूक्ष्म शरीर को बाहर-भीतर ले जाने में सहयोगी होती है।
ये सिर्फ संकेत दे रहा हूं, क्योंकि इस संबंध में कुछ बहुत खोज-बीन कभी की नहीं गई है। लेकिन मेरे अनुभव में जिनकी अपेंडिक्स निकल गई है, हजारों लोगों ने मेरे करीब ध्यान किया है, उनमें से अनेक लोगों को शरीर के बाहर जाने का अनुभव होता है। जब भी किसी को शरीर के बाहर जाने का अनुभव होता है तब मैं निश्चित पूछता हूं कि उसकी अपेंडिक्स की क्या हालत है? तो मैंने सदा पाया, जिनकी निकल गई, उनको बाहर जाने का अनुभव कभी नहीं होता; जिनकी नहीं निकली है और स्वस्थ है, उनको ही बाहर जाने का अनुभव होता है।
और यह एक बड़ा मूल्यवान अनुभव है। शरीर के बाहर जाकर जो अपने शरीर को पड़ा हुआ देख लेता है, उसकी शरीर-मूर्च्छा सदा के लिए टूट जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपेंडिक्स सेतु है, जोड़ है, और उस जोड़ के गिर जाने पर सूक्ष्म शरीर का बाहर निकलना, भीतर आना कठिन हो जाता है। इसलिए योग भी शरीर के किसी अंग को काटने के पक्ष में नहीं है।
और जो बात सच है शरीर के संबंध में, उससे भी ज्यादा सच वही बात है मन के संबंध में।
तुमने कभी सुना है कि कोई नपुंसक आदमी ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हुआ हो? मनुष्य-जाति का इतिहास लंबा है। कम से कम पांच हजार साल का तो बिलकुल सुनिश्चित ज्ञात है। इन पांच हजार सालों में एक भी इंपोटेंट, नपुंसक आदमी परमात्मा को उपलब्ध नहीं हुआ। इसका क्या अर्थ है, इसका अर्थ है कि काम और वीर्य ऊर्जा परमात्मा की उपलब्धि में अनिवार्य है। उसके बिना नहीं हो सकेगा?
इसलिए नपुंसक से ज्यादा दीन कोई आदमी नहीं है। उसकी दीनता इतनी ही नहीं है कि वह संभोग न कर सकेगा, उसकी गहरी दीनता यह है कि वो समाधि को उपलब्ध न हो सकेगा। लेकिन सौभाग्य की बात है कि नपुंसक साधारणतया होते ही नहीं। अगर हजार आदमियों को खयाल हो कि वे नपुंसक हैं तो उनमें से सिर्फ एक नपुंसक होता है, बाकी को सिर्फ खयाल होता है, वहम होता है।
मगर फिर भी नपुंसक होते हैं और वे उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। ऊर्जा ही नहीं है जिसके सहारे यात्रा हो सके। कीचड़ ही नहीं है, कमल कैसे पैदा हो? दीया ही नहीं है, ज्योति कहां टिके, कहां ठहरे, कहां आवास करे, कहां घर बनाए?
और मैं तुमसे कहता हूं कि जिन लोगों ने ब्रह्मचर्य को एक तरह की नपुंसकता मान लिया है, वे भी परमात्मा को उपलब्ध नहीं होते। ऊर्जा का गहन प्रवाह चाहिए, उद्दाम वेग चाहिए, नदी जैसे बाढ़ में हो ऐसे वीर्य की संपदा चाहिए--तभी तुम ऊपर उठ सकोगे। जो नीचे तक
नहीं जा सकता, वह ऊपर कैसे जाएगा, थोड़ा सोचो।
नीचे जाने में बहुत शक्ति की जरूरत नहीं है। जैसे पहाड़ से पत्थर को छोड़ दो वह अपने आप गिरता चला आता है जमीन की तरफ। कोई नीचे आने के लिए शक्ति लगाने की जरूरत नहीं पड़ती है। जो नीचे तक जाने में समर्थ नहीं है, नपुंसक है, वह ऊपर कैसे जा सकेगा? नीचे तक जाने में उसे कठिनाई मालूम पड़ती है, उतनी ऊर्जा भी नहीं है तो प्रगाढ़ और उद्दाम वेग, उत्तुंग लहरें कामवासना की, जिन पर सवार होकर ऊपर जाना है, वह कैसे जा सकेगा?
इसलिए अगर तुम मेरी बात समझ सको, तो ब्रह्मचर्य बड़ी विपरीत बात है नपुंसकता से। परम वीर्य की उपलब्धि से ब्रह्मचर्य फलित होता है। काटने-दबाने से, शरीर को मिटाने से कोई कहीं नहीं पहुंचता। शरीर को जितना तुम स्वस्थ, सम्यक, संतुलित, शांत, ओजपूर्ण, ऊर्जा से भरा हुआ, परिपूर्ण बना सको, उतनी ही सुगमता होगी। उतने ही तुम ऊपर जा सकोगे।
जैसा मैंने कल तुमसे कहा कि जब भी कामवासना उठे, तब जोर से श्वास को बाहर फेंकना, पेट को भीतर जाने देना--मूलबंध लग जाएगा, मूलाधार सिकुड़ जाएगा। मूलाधार के ऊपर शून्य होने से ऊर्जा शून्य में उठ जाएगी। इसे अगर तुम निरंतर करते रहे, अगर इसे तुमने एक सतत साधना बना ली--और इसका कोई पता किसी को नहीं चलता; तुम इसे बाजार में खड़े हुए कर सकते हो, किसी को पता भी नहीं चलेगा; तुम दुकान पर बैठे हुए कर सकते हो, किसी को पता भी न चलेगा।
अगर एक व्यक्ति दिन में कम से कम तीन सौ बार, क्षण भर को भी मूलबंध लगा ले, कुछ ही महीनों के बाद पाएगा, कामवासना तिरोहित हो गई। काम-ऊर्जा रह गई, वासना तिरोहित हो गई। और तीन सौ बार करना बहुत कठिन नहीं है। यह मैं सुगमतम मार्ग कह रहा हूं, जो ब्रह्मचर्य की उपलब्धि का हो सकता है।
फिर और कठिन मार्ग हैं जिनके लिए सारा जीवन छोड़ कर जाना पड़ेगा। पर कोई जरूरत नहीं है। यह किसी को पता भी नहीं चलेगा कि कब तुमने श्वास बाहर फेंक दी--अपने बाजार में अपनी दुकान पर, कुर्सी पर दफ्तर में बैठे हुए, कब तुमने चुपचाप अपने पेट को भीतर खींच लिया। एक क्षण में ऊर्जा ऊपर की तरफ स्फुरण कर जाती है। और तुम पाओगे कि उसके बाद घड़ी, आधा घड़ी के लिए तुम एकदम शांत हो गए, हलके हो गए, एक नई ताजगी आ गई।
योग कोई आत्महत्या नहीं है; योग एक बड़ी गहन प्रक्रिया है, एक कला है और कदम-कदम अगर तुम चलते रहो तो तुम्हारे भीतर सब छिपा है। तुम सब लेकर ही आए हो; प्रकट करने की बात है। तुम अप्रकट परमात्मा हो; बस जरा प्रकट करने की बात है। सब साज मौजूद है; सिर्फ अंगुलियां थोड़ी साधनी हैं और वीणा से स्वर उठने शुरू हो जाएंगे। जैसे-जैसे अंगुलियां सधेंगी वैसे-वैसे गहनतम संगीत पैदा होगा।
और एक ऐसी घड़ी आती है कि जब वीणा की जरूरत भी नहीं रह जाती; अंगुलियों की भी जरूरत नहीं रह जाती--तब परम संगीत सुनाई पड़ने लगता है जो चारों तरफ मौजूद है। सिर्फ तुम्हारे पास सुनने की क्षमता नहीं है। पूरा अस्तित्व उसकी गूंज से भरा है। उस गूंज को ही हमने ‘ओंकार’ कहा है।
‘ओम’ अस्तित्व की गूंज है। वह कोई शब्द नहीं है, न कोई ध्वनि है; वह अनाहत नाद है। उसे कोई पैदा नहीं कर रहा है; वह अस्तित्व के होने का ढंग है। जैसे पहाड़ से नदी बहती है तो कलकल का नाद होता है; जैसे पक्षी गीत गा रहे हैं; हवाएं निकलती हैं वृक्षों से, सरसराहट पैदा होती है--ऐसा अस्तित्व के होने का ढंग ओंकार है। उसको कोई पैदा नहीं कर रहा है। उसके पैदा होने के लिए दो चीजों के आघात की जरूरत नहीं है, इसलिए अनाहत! वह आहत नाद नहीं है। ताली बजाओ--आहत नाद है। दो चीजें टकराती हैं--ध्वनि पैदा हो जाती है। ओंकार कोई टकराहट से पैदा नहीं हो रहा है। इसलिए ओंकार अद्वैत है। जो टकराहट से पैदा होगा उसमें तो दो की जरूरत है; एक हाथ से ताली नहीं बजती। ओंकार एक हाथ की ताली है।
झेन फकीर जापान में अपने शिष्यों को कहते हैं कि जाओ और खोजो कि एक हाथ की ताली कैसे बजती है? वे ओंकार की खोज के लिए कह रहे हैं। कि जाओ, ओंकार का नाद खोजो। उनके कहने का ढंग है, एक हाथ की ताली कैसे बजती है। ताली तो सदा दो हाथ से बजती है।
बड़ी मीठी कथा है झेन में, एक छोटा बच्चा एक सदगुरु की सेवा में आया करता था। और भी बड़े साधक आते थे। वह बैठ कर चुपचाप सुनता था।
यहां भी तुमने देखा होगा, एक छोटा सा सिद्धार्थ है, वह ऐसा ही साधक रहा होगा। वह भी छोटा सिद्धार्थ नियुक्तियां मांगता है। आकर ठीक व्यवस्था से मुझे नमस्कार करता है, अपनी चटाई बिछा कर बैठ जाता है। जब तक उसका बल रहता है, जागा रहता है फिर सो जाता है; लेकिन आता है दर्शन करने।
छोटे बच्चों को पिछले कैंप में बाहर कर दिया गया था, तो उसने बड़ा विरोध किया। आखिर उसने विरोध मेरे पास भेजा कि यह हमारा घर है और यहां से हमें अलग कोई भी नहीं कर सकता। मजबूरी! उसको भीतर आने की आज्ञा देनी पड़ी। स्वभावतः उसके पीछे और बच्चे भी फिर प्रवेश किए।
वैसा, सिद्धार्थ जैसा वह साधक छोटा सा बच्चा गुरु के पास आता था। वह बैठता था अपनी चटाई बिछा कर, सुनता था गुरु की बातें--दूसरों से जो गुरु कहता था।
एक दिन वह आया, उसने चटाई बिछाई, गुरु के चरणों में सिर झुका कर कहा कि मुझे भी ध्यान की विधि दें। गुरु थोड़ा हंसा होगा। उस जगत में बड़े-बड़े छोटे बच्चों जैसे हैं। छोटा बच्चा! लेकिन जब इतनी सरलता से पूछा गया है तो इनकार नहीं किया जा सकता। गुरु ने कहा कि तो तू ऐसा कर, एक हाथ की ताली को सुनने की कोशिश कर।
उसने झुक कर नमस्कार किया विधिवत। वह गया, वह बड़ी चिंता में पड़ गया। वह बैठा। उसने सब तरफ से सुनने की कोशिश की। सांझ का सन्नाटा था, कौए वापस लौटे थे दिन भर की यात्रा और थकान से और कांव-कांव कर रहे थे। उसने कहा कि हो न हो, यही एक हाथ की आवाज है।
वह भागा, दूसरे दिन सुबह गुरु के पास आया। उसने कहा पा ली! कौओं की आवाज?
गुरु ने कहा कि नहीं, यह भी नहीं है। और खोजो।
वह गया रात के सन्नाटे में मौन बैठा रहा, झींगुर बोलते थे, उसने कहा, हो न हो सन्नाटे की आवाज--यही वह आवाज है। दूसरे दिन सुबह वह मौजूद हुआ। उसने कहा: झींगुर की आवाज? गुरु ने कहा कि नहीं, और खोजो। तुम करीब आ रहे हो। मगर थोड़ा और खोजो।
कुछ दिन तक वह नहीं लौटा। बड़ी खोज की, तब एक दिन उसे पता चला, प्राचीन आश्रम के वृक्षों से निकलती हुई हवा, एक जरा सी सरसराहट कि पकड़ में न आए, पहचान में न आए। उसने कहा: हो न हो यही है। वह आया। उसने कहा कि वृक्षों से निकलती हुई हवा की आवाज, सरसराहट? गुरु ने कहा कि नहीं। करीब तुम आ रहे हो, लेकिन अभी भी बहुत दूर हो। खोजो।
फिर कुछ महीने तक बच्चा न आया। गुरु चिंतित हुआ, क्या हुआ? गुरु उसकी तलाश में गया। वह एक वटवृक्ष के नीचे ध्यानमग्न बैठा था। उसके चेहरे पर ही साफ था कि उसने आवाज सुन ली। सारा तनाव जा चुका था। वह बुद्धवत था। जैसे हो ही न।
तो गुरु ने उसे उठाया और कहा: क्या हुआ? उस आवाज का?
उस छोटे से बच्चे ने कहा: जब सुन ही ली तो कहना मुश्किल हो गया, बताना मुश्किल हो गया। अब मैं यह सोच रहा हूं, बहुत दिन से कि कैसे बताऊं, कैसे कहूं!
गुरु ने कहा: अब कोई जरूरत नहीं!
वह छोटा बच्चा भी बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया।
ओंकार है वह आवाज। जब तुम बिलकुल शांत हो जाते हो, जब तुम होते ही नहीं, मिट जाते हो, जब तुम्हारा आवास शून्य गगन मंडल में हो जाता है, तब सुनाई पड़ती है वह आवाज, तब ओंकार का नाद सब तरफ हो रहा है। वही मूल अस्तित्व है। सभी कुछ उसी मूल से निर्मित हुआ है।
ओंकार की ही पर्त-पर्त जम कर चट्टान बनती है। ओंकार की ही पर्त-पर्त जम कर वृक्ष बनते हैं। ओंकार की ही पर्त-पर्त पक्षियों के कंठ में गीत गाती है। ओंकार की ही पर्त-पर्त तुम हो, वह मूल है! वह मूल धातु है।
जैसे वैज्ञानिक कहते हैं कि विद्युत ऊर्जा से सारा जगत बना, वैसा हम पूरब में कहते हैं कि विद्युत-ऊर्जा सिर्फ ओंकार की ही एक शैली है। वह भी ओंकार का ही एक आघात है।
अस्तित्व विद्युत से नहीं बना है, अनाहत नाद से बना है। विद्युत भी अनाहत नाद का एक ढंग, एक शैली है, एक रूप है। और इस बात की बहुत संभावना है कि वैज्ञानिक आज नहीं कल योगियों से राजी हों। उन्हें होना पड़ेगा, क्योंकि उनकी खोज बाहर-बाहर है, योगी की खोज भीतर है। वे परिधि पर खोजते हैं, योगी केंद्र पर खोजता है। उन्हें राजी होना ही पड़ेगा। आज नहीं कल विज्ञान योग के सामने नतमस्तक होगा। कोई दूसरा उपाय नहीं है।
ये कबीर के वचन समझने की कोशिश करें।
अवधू जोगी जग थैं न्यारा।
योगी जग से बड़ा न्यारा है।
जग में दो तरह के लोग हैं: भोगी, त्यागी।
जोगी जग थैं न्यारा।
वह भोगी से अलग है, क्योंकि वह शरीर को सब-कुछ नहीं मानता; वह त्यागी से अलग है, क्योंकि वह शरीर को इतना मूल्य का भी नहीं मानता कि उसका त्याग करना भी सार्थक हो सके। जिसका मूल्य ही न हो, उसका तुम कभी त्याग करते हो? क्या तुम रोज कहते हो, घर के बाहर जोर से चिल्ला कर कि आज फिर घर के कचरे का त्याग कर दिया। देखो, कैसा महादानी हूं! घर के कचरे का त्याग करते वक्त कोई भी तो घोषणा नहीं करता। तुम घोषणा करोगे तो लोग पागल समझेंगे।
लेकिन जब कोई त्यागी घोषणा करता है कि मैंने लाखों पर लात मार दी तो वह भोगी ही है। अभी भी लाखों का मूल्य है। अभी भी समझता है इसका कुछ सार है। पहले भोग के लिए पकड़ा था, अब छोड़ा है; लेकिन मूल्य की पकड़ तो नहीं छूटी। लाखों को लात मार दी, जब कोई आदमी कहता है लाखों को लात मार दी तो समझ लेना कि लात ठीक से लग नहीं पाई, चूक गई। लग ही जाती तो लाखों का हिसाब रखता?
न तो योगी भोगी है और न त्यागी--‘अवधू जोगी जग थैं न्यारा’--वह इन दोनों से अलग है। वह एक अनूठा ही व्यक्तित्व है। वह कुछ-कुछ भोगी जैसा है, कुछ-कुछ त्यागी जैसा है। उसने भोग और त्याग के बीच सांमजस्य खोज लिया। उसने भोग और त्याग के बीच संगीत खोज लिया। क्योंकि परमात्मा भोग में भी है और त्याग में भी! परमात्मा भोगी में भी छिपा है और त्यागी में भी। उसने यह राज खोज लिया; उसने देख लिया कि भोग एक किनारा है और त्याग दूसरा किनारा है, और परमात्मा तो बीच में बहती हुई नदी की धारा है।
अवधू जोगी जग थैं न्यारा।
वह दोनों किनारों से अलग है; वह बीच की धार है; वह मध्य में खड़ा है; उसने संतुलन पा लिया। संतुलन यानी संयम।
भोगी असंयमी है। और मैं तुमसे कहता हूं कि त्यागी भी असंयमी है। असंयम का मतलब है: जो अति पर चला गया; उसके जीवन का संतुलन खो जाता है। संयम का अर्थ है: जो मध्य में खड़ा है; जो बीच की धार है, जो दोनों तरफ देखता है; लेकिन जिसने शुद्ध मध्य-बिंदु खोज लिया। न यहां झुकता है, न वहां झुकता है; न तो शरीर की मान कर चलता है और न शरीर की हत्या करने में लग जाता है: न तो स्वाद के लिए जीता है और न शरीर के ऊपर अस्वाद को थोपता है; वरन स्वाद में ब्रह्म को खोज लेता है और तब स्वाद और अस्वाद एक ही चीज के दो नाम हो जाते हैं।
योगी जानता है किनारों का कैसे उपयोग करना है। भोगी एक किनारे को पकड़ता है, त्यागी दूसरे किनारे को पकड़ता है। दोनों की नदी धार अवरुद्ध होती है। कहीं एक किनारे से धारा चली? परमात्मा भी एक के किनारे से नहीं चल सकता; उसको भी द्वैत की धारा के बीच चलना पड़ा है। तो तुम कैसे चल सकोगे? परमात्मा को भी द्वैत पैदा करना पड़ा है; उन्हीं के बीच अद्वैत की धारा बह रही है।
योगी भी गलती करता है, त्यागी भी गलती करता है। दोनों की चेष्टा यह है कि हम एक किनारे से जी लेंगे। यह अहंकार है।
अवधू जोगी जग थैं न्यारा।
मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा।
वह क्या करता है योगी? क्या है उसकी कला? कबीर यहां सार कह देते हैं: ‘मुद्रा निरति।’ निरति का अर्थ है: जो अति पर नहीं जाता। ‘मुद्रा निरति।’ निर अति--जो मध्य में खड़ा है, जिसको बुद्ध ने मज्झिम-निकाय कहा है, जिसको कनफ्यूशियस ने दि गोल्डन-मीन--स्वर्ण-मध्य कहा है, जो ठीक बीच में खड़ा है--निरति!
‘मुद्रा निरति’--मध्य में खड़ा होना ही उसकी मुद्रा है। और सब मुद्राएं तो बच्चों के खेल हैं। और किन्हीं मुद्राओं का बड़ा मूल्य नहीं है। निरति गहरी से गहरी मुद्रा है। वह चुनता नहीं, जिसको कृष्णमूर्ति च्वाइसलेसनेस कहते हैं--निरति! वह चुनाव नहीं करता। वह न तो कहता है इस तरफ, न कहता है उस तरफ। वह कहता है मध्य में--नेति-नेति। वह कहता है, न यह, न वह। या तो दोनों, या दोनों नहीं, मैं मध्य में। यही उसका न्यारापन है।
‘मुद्रा निरति’--वह कभी भी अति पर नहीं जाता। न तो वह ज्यादा भोजन करता है और न कम भोजन; वह सम्यक भोजन करता है।
भोगी ज्यादा करता है। जितनी शरीर को जरूरत है उससे ज्यादा खा जाता है। फिर बीमारियां पैदा होती हैं, फिर बीमारियों का इलाज करवाता है। भोगी सम्यक आहार नहीं करता। त्यागी भी सम्यक आहार नहीं करता। वह कम खाने के पीछे पड़ जाता है। वह कहता है, एक ही बार भोजन करेंगे। अब एक ही बार भोजन करना शरीर की प्रकृति के अनुकूल नहीं है। और अगर एक ही बार भोजन करना हो तो बड़ी जटिलताएं हैं, वे समझनी चाहिए।
एक ही बार भोजन करने वाले पशु मांसाहारी हैं; जैसे शेर, सिंह, वे एक ही बार भोजन करते हैं चौबीस घंटे में--वे मांसाहारी हैं। अगर बंदर एक ही बार भोजन करे, मरे! बंदर शुद्ध शाकाहारी है!
शाकाहार का मतलब है कि तुम्हें थोड़े से शाकाहार से काम न चलेगा, क्योंकि उससे उतनी ऊर्जा ही न मिलेगी शरीर को।
इसलिए बंदर दिन भर चबाता ही रहता है। तुम भी जब पान चबाते हो तो तुम डार्विन के सिद्धांत को सिद्ध कर रहे हो कि आदमी बंदर से पैदा हुआ है। तंबाकू चबा रहे हो! कुछ न हो तो बातचीत ही कर रहे हो। वह भी बंदर की आदत है।
लेकिन आदमी शाकाहारी है; जैसा बंदर शाकाहारी है। और डार्विन की बात में सचाई है। अब तो शरीरशास्त्री भी राजी होते हैं कि मनुष्य कभी भी मांसाहारी नहीं रहा, क्योंकि उसकी जो अंतड़ियां हैं, वे मांसाहारी पशुओं जैसी नहीं हैं। मांसाहारी पशु की बड़ी छोटी अंतड़ी होती हैं। इसलिए तो तुम सिंह का पेट देखते हो कितना छोटा सा! मांसाहारी है, खाता डट कर है, लेकिन पेट छोटा सा! उसकी अंतड़ियां बहुत छोटी हैं।
पहलवान कोशिश करते हैं सिंह जैसा पेट बनाने की। तो वे जबर्दस्ती छाती को फुलाए जाते हैं और पेट को भीतर खींचे जाते हैं। वह एक तरह की हिंसा है, क्योंकि शाकाहारी उतने छोटे पेट का हो ही नहीं सकता। अंतड़ियां बहुत बड़ी हैं शाकाहारी की। होनी चाहिए, क्योंकि उसे बहुत आहार करना पड़ेगा। उतना आहार सम्हाल सकें, इतनी लंबी अंतड़ियां चाहिए। कई फीट लंबी अंतड़ियां हैं भीतर, गुत्थी हुई पड़ी हैं।
इसलिए बंदर धीरे-धीरे खाता रहता है। गाय शाकाहारी है, चरती रहती है। भैंस परम शाकाहारी है! वह जुगाली करती रहती है। जो चबा लिया उसको भी निकाल कर फिर चबाती रहती है!
अगर आदमी शाकाहारी है तो एक बार भोजन अति है। आदमी अगर शाकाहारी है तो उसे दो-तीन बार, थोड़ा-थोड़ा भोजन करना चाहिए, ज्यादा नहीं।
इसलिए तुम बड़ी हैरानी की बात देखोगे, जैन दिगंबर मुनि हैं, वे एक बार भोजन करते हैं। उनके पेट तुम हमेशा बड़े देखोगे। अब यह बड़ी हैरानी की बात है, जब भी मैं उनकी तस्वीरें देखता हूं, मैं बहुत हैरान होता हूं कि एक बार भोजन करने वाले आदमी का पेट इतना बड़ा क्यों है? वह ज्यादा खा रहा है, जरूरत से ज्यादा खा रहा है। क्योंकि उसे चौबीस घंटे के भोजन की पूरी चेष्टा एक ही बार में कर लेनी है। तो वह अतिशय बोझ डाल रहा है अंतड़ियों पर। अंतड़ियां बाहर आ गई हैं।
जैन दिगंबर मुनि सुंदर नहीं मालूम पड़ते, बेहूदे मालूम पड़ते हैं; जैसे पेट के किसी रोग से ग्रसित हों, या गर्भवती स्त्रियां हों। शरीर में अनुपात नहीं मालूम पड़ता; एक अति कर रहे हैं।
नियम तो यह है शाकाहारी के लिए कि दो या तीन बार या अगर और थोड़ा-थोड़ा भोजन ले सके तो चार या पांच बार। थोड़ा-थोड़ा! जरा सा ले लिया, एक फल खा लिया, बात खत्म! तब तक उतना पच जाए, फिर दो घंटे बाद एक फल ले लिया। पेट पर बोझ न पड़े और पेट पर अति न हो, तो सम्यक आहार होगा।
एक बार भोजन तो स्वभावतः तुम इतना खा लोगे जो चौबीस घंटे काम दे सके। मांसाहार तो ठीक है, क्योंकि थोड़े मांस में काम चल जाता है। मांस का मतलब है पका हुआ, तैयार भोजन, पचा हुआ भोजन। दूसरे जानवर ने तुम्हारे लिए पचा कर तैयार कर दिया।
तुम फल खाओगे, फिर फल को पचाओगे, तब उस पचे हुए फल में से मांस बनेगा। किसी जानवर ने फल खाकर पचा लिया, मांस तैयार कर दिया, तुमने मांस खा लिया। मांस का मतलब है पचा हुआ भोजन। तुम्हें अब ज्यादा करने की जरूरत नहीं। इसलिए छोटी अंतड़ी काफी है। काम दूसरे कर चुके तुम्हारे लिए, इसलिए मांसाहार शोषण है। क्योंकि दूसरों से काम लेने का क्या हक? जहां तक बने अपना काम खुद कर लेना चाहिए। पचाने का काम भी दूसरे से लेना शोषण है! इसलिए मांसाहार उचित नहीं है। तुम खुद ही कर सकते हो।
मांसाहार भी अति है, क्योंकि तुम्हारी अंतड़ियां बनी नहीं हैं मांसाहार के लिए और तुम्हारा शरीर बना नहीं मांसाहार के लिए और अगर तुम मांसाहार करोगे तो तुम मिट्टी से बंधे रह जाओगे, क्योंकि मांसाहार इतनी बोझिलता देगा कि तुम आकाश में उड़ने की क्षमता खो दोगे। इसलिए समस्त ज्ञानी मांसाहार के विपरीत हो गए, किसी और कारण से नहीं। कोई ऐसा नहीं है कि तुमने मांसाहार कर लिया तो कोई बहुत महापाप हो गया। आत्मा तो मरती नहीं; तुमने किसी का शरीर ही छीन लिया, वो तो जरा-जीर्ण वस्त्र थे, इससे कोई बड़ा भारी महापातक नहीं हो गया। लेकिन विरोध का कारण दूसरा है।
कारण यह है कि तुम न उड़ पाओगे आकाश में; फिर तुम्हें ‘अवधू गगन मंडल घर कीजै’ संभव न होगा, फिर अवधू चारों खाने चित जमीन पर पड़े रहेंगे। इतने वजनी हो जाएंगे अवधू कि उड़ न सकेंगे, पंख न लग सकेंगे। शाकाहार पंख देता है। वह किसी दूसरे पर कृपा नहीं है, अपने पर ही कृपा है।
मैं भी पक्ष में हूं कि तुम शाकाहारी होना, लेकिन तुम्हारे कारण! इसलिए नहीं कि पशुओं को बचाना है, कि पक्षियों को बचाना है। तुम कौन हो बचाने वाले? जो बनाता है वह बचाएगा; जो बनाता है वह मिटाएगा। तुम कौन हो अकारण का अहंकार बीच में खड़ा करने वाले? नहीं, उस वजह से नहीं।
मैं भी शाकाहार के पक्ष में हूं, तुम्हारी वजह से! नहीं तो तुम कभी आकाश में न उड़ सकोगे। तुम्हारे उड़ने की क्षमता टूट जाएगी। शाकाहार तुम्हें हलका करेगा। सम्यक आहार तुम्हें बिलकुल हलका कर देगा, शरीर का बोझ ही न लगेगा। जैसे अभी पंख मिल जाएं तो तुम अभी उड़ जाओ। जमीन तुम्हें खींचेंगी नहीं, आकाश तुम्हें उठाएगा।
‘मुद्रा निरति’--इसलिए कबीर कहते हैं: मुद्रा तो एक है और वह है निरति। अन-अतिशय, अन-अति, निरति, मध्य में खड़े हो जाना।
न तो ज्यादा भोजन करना, क्योंकि वह भी झुकाएगा एक तरफ; न कम भोजन करना, क्योंकि भूख सताएगी दूसरी तरफ। भोजन भी मारता है, भूख भी मारती है; ठीक मध्य में तृप्ति है। उस तृप्ति पर तुम रुक जाना।
और अपनी तृप्तियों को जो पहचानने लगता है, वही आदमी होश में है; नहीं तो तुम भोजन कर रहे हो, तुम्हें समझ में भी नहीं आता कि कहां रुकें। तुमने होश ही खो दिया; यही पता नहीं चलता, कहां रुकें। जानवर रुक जाते हैं; तुम नहीं रुक पाते। जानवर का पेट भर गया, फिर तुम कितना ही भोजन रख दो, तुम लाख बैंड-बाजे बजाओ, इश्तहार चिपकाओ, कितना ही प्रलोभित करो कि वह भोजन बड़ा पुष्टिदायी है, फिल्म अभिनेत्रियों को लिवा लाओ और उनसे प्रचार करवाओ, भैंस न सुनेंगी। बात खत्म हो गई। भैंस भी ज्यादा तुमसे होशपूर्ण मालूम पड़ती है।
तुमने देखा, भैंस को अगर छोड़ दो तो वह सभी घास न खाएगी। उसकी अपनी घास है, वही खाएगी, बाकी घास छोड़ती जाएगी। जो उसका भोजन नहीं है, वह नहीं करेगी। सिर्फ मनुष्य ऐसा है जो सभी चीजें खाता है। कोई पशु सभी चीजें नहीं खाता, क्योंकि पशुओं के सब शरीरों के अपने आयोजन हैं, कौन सी चीज ठीक बैठती है। सिर्फ आदमी सब खाता है, सब।
ऐसी कोई चीज मैंने नहीं देखी, मैं इसकी खोज-बीन करता रहा हूं कि क्या कोई ऐसी चीज है दुनिया में जिसको आदमी नहीं खाता? नहीं; सब चीजें, चींटी खाने वाले लोग हैं, चींटा खाने वाले लोग हैं, सांप-बिच्छू खाने वाले लोग हैं, कुत्ता खाने वाले लोग हैं। मैं अभी तक पा ही नहीं सका ऐसी कोई चीज, जिसको कहीं न कहीं, कोई न कोई मनुष्य-जाति का अंग न खाता हो; हालांकि दूसरे उस पर हंसते हैं।
चीनी सांप खाते हैं। और चीन में स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजनों में सांप एक है। अफ्रीका में दीमक, चींटी; चींटे लोग इकट्ठे करके रखते हैं, बोरे भर-भर कर, फिर उसको तलते हैं और खाते हैं। बिच्छू खाने वाले लोग हैं; छछूंदर को भी नहीं छोड़ते। कोई ऐसा प्राणी नहीं है जिसको आदमी न खाता हो। कोई ऐसा फल नहीं है जिसको आदमी न खाता हो। कोई ऐसा जहर नहीं है जिसका सेवन आदमी न करता हो। सांपों को पाल कर रखते रहे हैं लोग। उसको जीभ पर कटाते हैं, घड़ी दो घड़ी को मस्ती आ जाती है।
आदमी खतरनाक जानवर है। उससे ज्यादा खतरनाक कोई भी नहीं है। और असंयमी है; उसने सारा संतुलन खो दिया है। उसे कुछ पता ही नहीं कि क्या भोज्य है, क्या खाद्य है, क्या अखाद्य है। छोटे-छोटे जानवर भी अपनी चीज खाते हैं; आदमी सब खाता है। ऐसा लगता है कि हमें कुछ प्राकृतिक जांच-परख नहीं है। लेकिन वैज्ञानिक इसकी खोज करते रहे हैं कि ऐसा क्यों हुआ; क्योंकि किसी जानवर में ऐसा नहीं हुआ, आदमी में क्यों हुआ? और उन्होंने बड़ी गहरी बात खोजी है, और वह यह है कि हम छोटे बच्चों के साथ जबर्दस्ती करते हैं। उनको कुछ भी खिलाने के लिए मजबूर करते हैं, इसलिए यह उपद्रव पैदा हुआ है।
अमरीका में एक युनिवर्सिटी में, हार्वर्ड में, उन्होंने प्रयोग किया छोटे बच्चों पर कि सब भोजन रख दिया और छोटे बच्चों को छोड़ दिया--बिलकुल छोटे बच्चे! कि वे खाएं जो उनको खाना है। यह प्रयोग कोई छह महीने तक चलता था। वे बड़े चकित हुए। बच्चे वही खाते हैं जो खाने योग्य है। तुम हैरान होओगे, क्योंकि कोई स्त्री राजी न होगी कि यह बात सच है, क्योंकि बच्चे आइस्क्रीम मांगते हैं जो खाने योग्य नहीं है; मिठाई मांगते हैं जो खाने योग्य नहीं है। लेकिन यह बच्चे तुम्हारे इनकार करने की वजह से मांगते हैं। यह बच्चे नहीं मांगते।
हार्वर्ड में जो प्रयोग हुआ वह बड़ा क्रांतिकारी है। छह महीने का अनुभव यह हुआ कि बच्चे वही खाते हैं जो जरूरी है, जो शरीर के लिए उपयोगी है। और यह भी बड़ी अनूठी बात पता चली कि अगर बच्चा बीमार है तो वह खाता नहीं। मां-बाप जबर्दस्ती करते हैं कि खाओ।
कोई जानवर बीमारी में नहीं खाता, क्योंकि बीमारी में उपवास उपयोगी है। शरीर वैसे ही रुग्ण है, उस पर और भोजन का बोझ डालना और पचाने की प्रक्रिया को थोपना अनुचित है, अन्यायपूर्ण है। वह बीमार आदमी के सिर पर और पत्थर रख कर, उसको ढोने के लिए कहना है।
बीमार आदमी स्वभावतः भोजन न लेगा। अगर बच्चों की सुनी जाए तो बच्चे भोजन न करेंगे। बच्चे को सर्दी-जुकाम है, वह खाना नहीं चाहता; मां-बाप कहते हैं कि खाना पड़ेगा नहीं तो कमजोर हो जाओगे। एक दो दिन नहीं खाने से कोई दुनिया में कमजोर नहीं हुआ। आदमी तीन महीने बिना खाए जी सकता है, मरता नहीं। तीन महीने के बाद मौत की संभावना है। तीन महीने लायक सुरक्षित भोजन शरीर में रहता है। कोई जल्दी नहीं है। दो-चार दिन बच्चा भोजन न करे, कोई हर्जा नहीं है। उसके स्वभाव से चलने दो।
तो एक तो उन्होंने यह अनुभव किया कि बच्चे बीमारी में भोजन नहीं करेंगे। दूसरी और भी गहरी बात उन्होंने खोजी, जिसका किसी को कभी सपने में भी अनुमान न था, और वह यह थी कि बच्चे को अगर सर्दी-जुकाम है तो वह वही भोजन करेगा जिससे सर्दी-जुकाम मिटता है। या बच्चे को अगर मलेरिया है तो मलेरिया में वही भोजन करेगा जिससे मलेरिया का विरोध है।
अब यह बच्चा कैसे जानता है? क्योंकि न तो बच्चे को पता है मलेरिया का, न पता है उसे भोजन-शास्त्र का; सिर्फ उसकी शुद्ध प्रकृति, जो ठीक है, सम्यक है, उसकी तरफ ले जाती है।
बच्चे शक्कर की तरफ उत्सुक होते हैं, क्योंकि उनके शरीर को शक्कर की जरूरत है, बहुत जरूरत है। उनकी हड्डियां अभी बन रही हैं। और बच्चे दिन में इतनी दौड़-धूप करते हैं, इतना श्रम उठाते हैं कि कोई आदमी कभी नहीं उठाएगा जिंदगी में फिर, उतनी शक्कर वे पचा डालते हैं। इसलिए तुम्हें समझ में नहीं आता कि इतनी शक्कर बच्चे क्यों मांग रहे हैं।
तुमने कभी खयाल किया, हिंदुस्तान के जैसे तुम एक छोटे गांव में जाओगे उतनी मीठी मिठाई मिलेगी। बंबई में मिठाई में कम से कम शक्कर होगी, कलकत्ते में कम से कम होगी; फिर छोटे गांव की तरफ बढ़ो, मिठाई में शक्कर की मात्रा बढ़ने लगेगी। ठेठ देहात में शक्कर ही रह जाती है, बाकी तो दूसरी चीज बहाना है। यह क्यों होता है? ग्रामीण के लिए ज्यादा शक्कर की जरूरत है। उतना श्रम कर रहा है, उतनी शक्कर पचा लेता है। तुम उतनी शक्कर खाओगे तो डाइबीटीज होगी। ग्रामीण उतनी खाता है तो सिर्फ स्वस्थ रहता है, कोई डायबीटीज नहीं होती। किसी जानवर को डायबीटीज नहीं होती; हो नहीं सकती, क्योंकि वह जितना खाता है उतनी पचा डालता है।
छोटे बच्चे शक्कर खाएंगे; उनको जरूरत है। तुम उनको रोकोगे; तुम रोकोगे, उससे उनका आकर्षण बढ़ेगा। बच्चों को बड़ा क्रोध आता है कि भगवान कुछ उलटी खोपड़ी का मालूम पड़ता है; सब अच्छी चीजें खतरनाक हैं--आइस्क्रीम, रसगुल्ला--सब अच्छी चीजें जो बच्चे को जंचती हैं; डॉक्टर को नहीं जंचती, बाप को नहीं जंचती, मां को नहीं जंचती उनमें कुछ खराबी है। और सब बुरी चीजें--साग-भाजी--अच्छी हैं, उनमें विटामिन हैं। भगवान रसगुल्ले में भी विटामिन रख सकता था, मगर उलटी खोपड़ी! आइस्क्रीम में विटामिन रखने में क्या हर्जा था?
बच्चों की समझ में नहीं आता; लेकिन बूढ़े जब बच्चों को नियोजित करते हैं, तो बूढ़े अपने ढंग से नियोजित करते हैं। जिससे उनको खतरा है, वे समझते हैं, उससे बच्चे को खतरा है। यह बात गलत है।
हार्वर्ड के प्रयोग ने एक बात सिद्ध कर दी अगर बच्चों को उनकी नियति पर, प्रकृति पर छोड़ दिया जाए, तो मनुष्य-जाति पुनः स्वस्थ आहार करने लगेगी। हम उनको डगमगा देते हैं। जो वे खाना चाहते हैं, खाने नहीं देते। जो वे नहीं खाना चाहते, जबर्दस्ती मां डंडा लिए बैठी है कि खाओ। क्योंकि मां ने किताब पढ़ी है पाकशास्त्र, जिसमें लिखा है कि किस सब्जी में कितने विटामिन हैं; वह उस हिसाब से चल रही है! आदमी भोजन भी पाकशास्त्र के हिसाब से कर रहा है। आदमी प्रेम भी कामशास्त्र के हिसाब से कर रहा है। आदमी की अपनी बुद्धि खो गई है। किताब ही उसकी जैसे बुद्धि है। उसके भीतर की क्षमता देखने की, समझने की, सब मंदी और धुंधली हो गई है।
‘मुद्रा निरति।’ इसलिए योगी की मुद्रा, कबीर कहते हैं, अति से मुक्त हो जाना है। वह न कम भोजन करता, न ज्यादा। वह सम्यक आहार करता है। वह न तो कम सोता, न ज्यादा; वह सम्यक निद्रा लेता है। वह न तो कम बोलता है न ज्यादा; वह सम्यक बोलता है। वह न तो कम श्रम करता है, न ज्यादा, वह सम्यक श्रम करता है।
बुद्ध ने आठ नियम कहे हैं, जिनसे सम्यक जीवन पैदा होता है। वे सारे आठ नियम ‘सम्यक’ शब्द से शुरू होते हैं। सम्यक का अर्थ है: निरति। बुद्ध कहते हैं: सम्यक व्यायाम, सम्यक आहार, सम्यक ध्यान; ध्यान पर भी सम्यक लगाते हैं। क्योंकि कुछ पगले ऐसे हैं कि वे ध्यान ही ध्यान करने लगे हैं, तो पागल हो जाएंगे। तुम कितना सह सकते हो?
अभी चार-छह दिन पहले ही एक सज्जन आए कि ध्यान करते हैं, तो पैर सुन्न हो जाते हैं।
कितनी देर ध्यान करते हो?
सात-आठ घंटे।
पैर सुन्न नहीं होंगे तो क्या होगा? सात-आठ घंटे तुम एक ही मुद्रा में बैठोगे तो पैरों का कसूर है? पैर सात-आठ घंटे एक ही मुद्रा में बैठने को बने नहीं। तो अवधू तो नहीं पहुंच पाते सुन्न गगन में, पैर पहुंच जाते हैं।
‘सम्यक’ शब्द को मंत्र बना लो। जो भी करो, हमेशा ध्यान रखो कि वह अति पर न चला जाए। मन कहेगा, अति पर ले जाओ, क्योंकि मन अति में जीता है। मन अति है। इसलिए मन तुम्हें हमेशा धकाएगा कि अब क्या बैठे हो घंटे भर, अब दो घंटे बैठो।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने एक गधा खरीदा। जिससे खरीदा, उससे पूछा कि भाई इसको कितना खाना-पीना देना है? उसने बताया; लेकिन मुल्ला को जरा ज्यादा लगा। उसने कहा कि इतना खाना-पीना गधे के लिए? इतना तो हम अपने लिए भी नहीं...। यह तो बहुत महंगा है। यह आदमी थोड़ा ज्यादा बता रहा है, बढ़-चढ़ कर बता रहा है, गप्प हांक रहा है। गधे को और इतना खाना-पीना? इतना तो मैं अपनी पत्नी को भी नहीं देता।
तो उसने कहा कि पहले इसे अपन थोड़ा प्रयोग करके जांच कर लें कि गधा कितने में जी सकता है। तो उसने आधा, जितना बताया था, आधा दिया। गधा जी गया। उसने कहा कि यह आदमी धोखा दे रहा था। और आधा कर दिया, आधे में से आधा कर दिया। गधा फिर भी जी गया। उसने कहा कि हद हो गई! वह आदमी बिलकुल बेईमान था! अब उसने आधे में से आधे में से आधा कर दिया, यानी अब दो ही आने बचा। उसमें भी गधा जी गया। उसने कहा: हद हो गई। यह तो आदमी मेरा दिवाला निकलवा देता। उसने और आधा कर दिया--एक ही आना! गधा फिर भी जी गया। उसने दूसरे दिन दो पैसा कर दिया। फिर एक पैसा कर दिया। जिस दिन उसने एक पैसा किया, गधा अचानक मर गया। नसरुद्दीन ने कहा: हद हो गई। इतनी जल्दी भी क्या थी? अगर एक दिन और जी जाता तो बिना भोजन के रहने की कला सीख जाता!
बस एक दिन की कमी रह गई थी कि एक महान घटना घट जाती, नसरुद्दीन ने कहा कि गधा बिना भोजन के जी जाता। वह पहले ही मर गया, प्रयोग पूरा न हो पाया।
नसरुद्दीन जो गधे के साथ कर रहा है, बहुत से लोग अपने साथ कर रहे हैं। लोग न मालूम क्या-क्या उलटा-सीधा करते रहते हैं।
प्रकृति की सुनो, शरीर की सुनो; शरीर फौरन खबर देता है। शरीर बहुत बुद्धिमान है, तुम्हारे मन से ज्यादा। क्योंकि तुम्हारा मन क्या जानता है? शरीर न मालूम कितने-कितने रूपों में रहा है; उसने बड़ी प्रज्ञा इकट्ठी कर ली है, उसके रोएं-रोएं में प्रज्ञा छिपी है। तुम शरीर की सुनो।
जब भी शरीर और मन में द्वंद्व हो, तुम शरीर की सुनना। क्योंकि मन तो समाज के द्वारा आरोपित है; शरीर प्रकृति से आया है। तुमने मन की सुनी, तुम अति पर चले जाओगे। तुमने शरीर की सुनी... शरीर फौरन कहता है। भोजन तुम कर रहे हो, शरीर फौरन कहता है कि बस, रुको। आवाज कितनी ही धीमी हो, पर बराबर आती है कि बस रुको। लेकिन जीभ कहती है, मन कहता है, थोड़ा स्वादपूर्ण है भोजन, आज थोड़ा ज्यादा कर लिया, क्या हर्ज है?
तुम मन की सुनते हो। मन की सुनोगे, गड्ढे में पड़ोगे। और जब मन तुम्हें ज्यादा खिला-खिला कर ज्यादा भर देगा, स्थूल कर देगा, चर्बी बढ़ जाएगी, चल न सकोगे, उठ न सकोगे, तब मन कहेगा, अब उपवास कर लो, उरली कांचन चले जाओ; प्राकृतिक चिकित्सा की जरूरत है। प्राकृतिक बुद्धि की जरूरत है, प्राकृतिक चिकित्सा की नहीं। जिन के पास बुद्धि नहीं उनको फिर प्राकृतिक चिकित्सा की जरूरत पड़ती है।
लेकिन कोई चिकित्सक तुम्हें बुद्धि नहीं दे सकता। तुम्हें वापस ला सकता है--उपवास करवा देगा, वाष्प-स्नान करवा देगा, शरीर से पसीना बहा देगा, भूखा मारेगा, कुछ दिन सताएगा, थोड़ा-बहुत रास्ते पर ला देगा। घर पहुंचोगे, चार छह दिन में फिर वापस! क्योंकि बुद्धि कोई प्राकृतिक चिकित्सा तुम्हें नहीं दे सकती। फिर तुम वही हो जाओगे।
प्राकृतिक बुद्धि चाहिए! प्राकृतिक बुद्धि का अर्थ है: शरीर की सुनने की क्षमता चाहिए। जब शरीर कहे रुक जाओ, तब लाख मन कहे कि स्वादिष्ट भोजन है, थोड़ा और कर लो, मत सुनना। अन्यथा यही मन किसी दिन तुम्हें जैन मुनि बनवा कर रहेगा। फिर कहेगा, अब उपवास करो। पहले भी तुमने इसकी मान कर भूल की, तब तुम भोगी बन गए, अब तुम फिर इसकी मान कर भूल करोगे, त्यागी बन जाओगे।
अवधू जोगी जग थैं न्यारा।
मुद्रा निरति सुरति करि सींगी,...
दो सूत्र कबीर कह रहे हैं: मध्य में ठहर जाना तुम्हारी मुद्रा हो, और सुरति तुम्हारा वाद्य।
सुरति यानी स्मृति। सुरति यानी होश, जागरण, अमूर्च्छा, अवेयरनेस। मध्य में ठहर जाना तुम्हारी मुद्रा और होश सम्हाले रखना तुम्हारा वाद्य। फिर जो नाद पैदा होता है, वह जो एक हाथ की ताली बजती है--‘नाद न षंडै धारा’--फिर उसमें खंड नहीं पड़ते; फिर नाद अखंड बहता है! फिर वह धारा अजस्र बहती है। फिर उसमें खाली जगह नहीं आती! फिर संगीत टूटता नहीं! फिर लय बिखरती नहीं! फिर छंद बंधा ही रहता है! फिर तारी लग जाती है! फिर तुम परम आनंद में सदा-सदा को प्रविष्ट हो जाते हो--जहां से कोई लौटना नहीं है।
मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा।
बसै गगन मैं दुनि न देखै, चेतनि चौकी बैठा।
और तब तुम चेतन, चैतन्य में विराजमान हो जाते हो। ‘चेतनि चौकी बैठा, बसै गगन मैं’--और तब तुम शून्य में प्रविष्ट हो जाते हो, आकाश में! ‘दुनि न देखै’--फिर कोई दुई नहीं दिखाई पड़ती। फिर तो दोनों किनारे भी नदी के ही अंग हो जाते हैं। फिर तो अतियां भी मध्य में ही समा जाती हैं। फिर तो विपरीत भी एक के ही दो रूप हो जाते हैं।
मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा।
बसै गगन मैं दुनि न देखै, चेतनि चौकी बैठा।
चढ़ि आकास आसण नहिं छाड़ै, पीवै महारस मीठा।।
और भीतर चेतना आकाश में चढ़ती जाती है और शरीर आसन में जमा रहता है। दीया पृथ्वी पर और चेतना आकाश में। दीया जैसे जमा रहता है पृथ्वी पर ऐसा ही शरीर का आसन पृथ्वी पर--सब अर्थों में। शरीर जमा रहता है पृथ्वी पर--सम्यक भोजन करता है, सम्यक निद्रा लेता है, सम्यक श्रम करता है, जम जाता है पृथ्वी पर आसन। चेतना होश से भरती है, और चैतन्य होती जाती है, ज्योति ऊपर उठने लगती है। तुम एक दीया बन जाते हो। पृथ्वी तुम्हारा आधार, आकाश तुम्हारी आत्मा हो जाती है।
चढ़ि आकास आसण नहिं छाड़ै, पीवै महारस मीठा।
परगट कंथा माहै जोगी, दिल मैं दरपन जोवै।
सहंस इकीस छह सै धागा, निश्चला नाकै पोवै।।
और फिर ऊपर से चाहे गुदड़ी हो, भीतर हीरा होता है; ऊपर से चाहे फिर कुछ भी न हो--‘परगट कंथा माहै जोगी’--फिर चाहे योगी बाहर से गुदड़ी में लिपटा हुआ जीए; ‘दिल मैं दरपन जोवै’--लेकिन भीतर हृदय का दर्पण स्वच्छ हो जाता है; उसमें परमात्मा की झांई पड़ने लगती है।
सहंस इकीस छह सै धागा,...
इक्कीस हजार छह सौ नाड़ियां हैं शरीर में। कैसे योगियों ने जाना, यह एक अनूठा रहस्य है। क्योंकि अब विज्ञान कहता है, हां इतनी ही नाड़ियां हैं। और योगियों के पास विज्ञान की कोई भी सुविधा न थी, कोई प्रयोगशाला न थी, जांचने के लिए कोई एक्सरे की मशीन न थी। सिर्फ भीतर की दृष्टि थी, पर वह एक्सरे से गहरी जाती मालूम पड़ती है। उन्होंने बाहर से किसी की लाश को रख कर नहीं काटा था, कोई डिस्सेक्शन, कोई विच्छेद करके नहीं पहचाना था कि कितनी नाड़ियां हैं। उन्होंने भीतर अपनी ही आंख बंद करके, ऊर्जा जब उनके तृतीय नेत्र में पहुंच गई थी और जब भीतर परम प्रकाश प्रकट हुआ था, उस प्रकाश में ही उन्होंने गिनती की थी। उस प्रकाश में ही उन्होंने भीतर से देखा था।
वैज्ञानिक घर के बाहर से जांच रहा है। उसकी पहचान अजनबी की है, बहुत गहरी नहीं है। योगी ने घर के मालिक की तरह देखा था, भीतर से देखा था। फर्क है। तुम कमरे के बाहर घूम सकते हो, दीवाल की जांच कर सकते हो; लेकिन जो कमरे के भीतर रहता है, वह भीतर की दीवालों को देखता है। योगी ने भीतर के प्रकाश में, भीतर जब ज्योति जली, तो भीतर की नाड़ी-नाड़ी को गिन लिया था।
इक्कीस हजार छह सौ नाड़ियां हैं। अभी सब अलग-अलग हैं। अभी तुम ऐसे हो जैसे मनकों का ढेर। अभी तुम्हारे मनके माला नहीं बने, किसी ने धागा नहीं पिरोया है; अभी तुम मनकों का ढेर हो। धागा भी रखा है, मनके भी रखे हैं; माला नहीं हैं। इसलिए तो तुम भीड़ हो! तुम एक नहीं हो, अनेक हो। तुम्हारे भीतर पूरा बाजार है; हजारों तरह के लोग तुम्हारे भीतर बैठे हैं। कोई कुछ कहता, कोई कुछ कहता।
एक कहता है चलो मंदिर की तरफ, दूसरा वेश्यालय ले जाता है। जब तुम वेश्या के घर बैठे हो तब भी मन के भीतर कोई राम-राम जपता है। मंदिर के भीतर बैठे हो, राम-राम जप रहे हो; भीतर वेश्या की मूरत बनती रहती है। ऐसे तुम खंड-खंड हो, टुकड़े-टुकड़े हो। हजार तरफ तुम बह रहे हो। तुम एक धारा नहीं हो जो सीधी सागर की तरफ जा रही हो। तुम मरुस्थल में बिखरे हुए हो, छितरे हुए हो।
तुम्हारी इक्कीस हजार छह सौ नाड़ियां अभी माला के धागे नहीं बनीं, अभी माला नहीं बनीं, क्योंकि किसी ने धागा नहीं पिरोया है। वह धागा क्या है? उस धागे का नाम ही ‘सुरति’ है। जिस दिन तुम सारी नाड़ियों को बोधपूर्वक देख लोगे...
सहंस इकीस छह सै धागा, निश्चला नाकै पोवै।
और जिसकी मुद्रा हो गई निरति की और जिसका वाद्य बज गया सुरति का, वह धागे से पिरो देता है सारी नाड़ियों को; वह अखंड, एक हो जाता है; उसके भीतर एक का जन्म होता है।
ब्रह्म अगनि में काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।
तब उसकी काया, तब उसकी देह ब्रह्म की अग्नि में जल कर भस्मभूत हो जाती है। प्रकृति की अग्नि में तो तुम बहुत बार जल कर भस्मीभूत हुए हो, अनेक बार मरे हो, और देह को चिता पर चढ़ाया गया है। योगी भी एक चिता पर चढ़ता है, लेकिन वह चिता साधारण अग्नि की नहीं, वह ब्रह्म-अग्नि की है!
ब्रह्म अगनि में काया जारै,...
और ब्रह्म की अग्नि में सब काया, काया की सारी संभावना, बीज, सब जल जाते हैं।
...त्रिकुटी संगम जागै।
यहां काया खोती जाती है, पृथ्वी से संबंध छूटता जाता है, ज्योति उठ जाती है, दीये को छोड़ देती है और भीतर--यह तो बाहर की घटना है; भीतर--‘त्रिकुटी संगम जागै।’
‘त्रिकुटी’ योगियों का बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है। त्रिकुटी का अर्थ होता है: द्रष्टा, दृश्य और दर्शन--इन तीन धाराओं का मिल जाना। इन्हीं तीन के आधार पर प्रयाग को हमने संगम कहा है, उसको तीर्थ बनाया है। उसको तीर्थ बनाने का कुल कारण इतना है कि वह ठीक इन तीन की तरह की सूचना देता है। सरस्वती दिखाई नहीं पड़ती; गंगा यमुना दिखाई पड़ती हैं। सरस्वती अदृश्य है! ऐसे ही दृश्य और द्रष्टा दिखाई पड़ते हैं; दर्शन अदृश्य है, वह दिखाई नहीं पड़ता, वह दोनों के बीच में बह रहा है। मैं तुम्हें देखता हूं, तुम भी दिखाई पड़ रहे हो, मैं भी दिखाई पड़ रहा हूं, लेकिन हम दोनों के बीच जो दर्शन की घटना घट रही है, वह नहीं दिखाई पड़ती--वह सरस्वती है। वह अदृश्य धारा है।
और जब इन तीन का मिलन होता है--‘त्रिकुटी संगम जागै।’ जब दृश्य, दर्शन और द्रष्टा तीनों एक हो जाते हैं, तब महाजागरण होता है, वही महापरिनिर्वाण है। फिर कोई लौटना नहीं। काया जल जाती है ब्रह्म-अग्नि में। उसका उपयोग पूरा हो गया। अब कोई नया घर न बनाना पड़ेगा, अब कोई नई देह लेनी न पड़ेगी, अब कोई नये गर्भ में गिरना न पड़ेगा, अब पृथ्वी की तरफ गिरना बंद हुआ, अब ज्योति मुक्त हो गई दीये से; अब कमल कीचड़ में रहने को राजी नहीं है, अब कमल को कीचड़ में रहने की जरूरत भी नहीं है, अब कमल उठ गया। अब कमल यात्रा पर निकल गया, उसको पंख लग गए!
ब्रह्म अगनि में काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।
कहै कबीर सोई जोगेस्वर, सहज सुंनि लौ लागै।।
अब तो सिर्फ सहज शून्य में ही लौ लग जाती है, अब तो शून्य में ही विलीन होता जाता है!
कहै कबीर सोई जोगेस्वर,...
वही योगी है!
अवधू जोगी जग थैं न्यारा।
योग महानतम कला है--जीवन की भी और मरण की भी। योग पहले सिखाता है, कैसे जीओ, फिर योग सिखाता है, कैसे मरो।
ब्रह्म अगनि में काया जारै,...
पहले योग सिखाता है कैसे शरीर का सहारा लो, फिर योग सिखाता है, कैसे शरीर से मुक्त हो जाओ। पहले योग सिखाता है, कैसे जमीन पर आसन को जमाओ, ताकि ज्योति निश्चल उठने लगे, फिर योग सिखाता है, कैसे जमीन को छोड़ दो शून्य गगन में, महाशून्य में कैसे खो जाओ!
वह खो जाना ही पा लेना है। वह मिट जाना ही हो जाना है। इधर तुम मिटे उधर परमात्मा हुआ। इधर तुम न रहे, उधर उसके मंदिर का द्वार खुला। तुम ही बाधा हो, झीनी सी बाधा, पतला सा घूंघट!
घूंघट के पट खोल, तोहे पिया मिलेंगे।
आज इतना ही।
मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा।।
बसै गगन मैं दुनि न देखै, चेतनि चौकी बैठा।
चढ़ि आकास आसण नहिं छाड़ै, पीवै महारस मीठा।।
परगट कंथा माहै जोगी, दिल मैं दरपन जोवै।
सहंस इकीस छह सै धागा, निश्चला नाकै पोवै।।
ब्रह्म अगनि में काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।
कहै कबीर सोई जोगेस्वर, सहज सुंनि लौ लागै।।
जीवन मिट्टी का एक दीया है; लेकिन ज्योति उसमें मृण्मय की नहीं, चिन्मय की है। दीया पृथ्वी का, ज्योति आकाश की; दीया पदार्थ का, ज्योति परमात्मा की। दीया एक अपूर्व संगम है।
इसे ठीक से समझ लेना, क्योंकि तुम भी मिट्टी के एक दीये हो। लेकिन वही तुम्हारी परिसमाप्ति नहीं। और अगर तुमने ऐसा जाना कि तुम बस मिट्टी के ही दीये हो, तो तुम जीवन की सार्थकता और सत्य से वंचित रह जाओगे।
दीया जरूरी है, लेकिन ज्योति के होने के लिए जरूरी है; ज्योति के बिना दीये का क्या अर्थ? ज्योति खो जाए, दीये का क्या मूल्य है? ज्योति न हो तो दीये का क्या करोगे?
ज्योति की स्मृति बनी रहे, ज्योति निरंतर आकाश की तरफ उठती रहे, तो दीया सीढ़ी है, और तब तुम दीये को धन्यवाद दे सकोगे। जिन्होंने भी आत्मा को जाना, वे शरीर को धन्यवाद देने में समर्थ हो सके। जिन्होंने आत्मा को नहीं जाना, वे या तो शरीर की मान कर चलते रहे, ज्योति दीये का अनुसरण करती रही और निरंतर गहन से गहन अचेतना और मूर्च्छा में गिरते गए। या, जिन्होंने आत्मा को नहीं जाना, उन्होंने व्यर्थ ही शरीर से, दीये से संघर्ष मोल ले लिया। जो साथी हो सकता था, उसे शत्रु बना लिया।
जिन्हें तुम संसारी कहते हो, वे पहले तरह के लोग हैं--जिनके भीतर का परमात्मा जिनके बाहर की खोल का अनुसरण कर रहा है; जिन्होंने गाड़ी के पीछे बैल जोत दिए हैं, और बैल, गाड़ी के साथ घिसट रहे हैं। जिन्होंने क्षुद्र को आगे कर लिया है और विराट को पीछे, उनके जीवन में अगर दुख ही दुख हो तो आश्चर्य नहीं।
ये संसारी लोग हैं जिन्हें तुम भोगी कहते हो। फिर इनके ठीक विपरीत खड़े तथाकथित योगी हैं, धार्मिक लोग हैं। स्मरण रखें, उन्हें मैं तथाकथित कहता हूं, क्योंकि वे नाममात्र के ही योगी हैं। उन्होंने गाड़ी और बैल के बीच संघर्ष कर रखा है, उन्होंने दीये और ज्योति के बीच शत्रुता बांध रखी है; उन्होंने आत्मा और शरीर के बीच एक कलह निर्मित कर रखी है, एक संघर्ष रच रखा है।
भोगी तो भ्रांत है ही; तुम्हारा तथाकथित योगी भी भोगी से भिन्न नहीं। वास्तविक योगी कौन है?
वास्तविक योगी वही है जिसने दीये के सहयोग का उपयोग कर लिया ज्योति को प्रज्वलित करने में; जिसने दीये से शत्रुता न बांधी और न ही दीये का अनुसरण किया; न ही बैल गाड़ी के पीछे बांधे और न ही गाड़ी और बैल के बीच किसी तरह की कलह पैदा की; वरन सामंजस्य साधा, एक सहयोग निर्मित किया।
निश्चित ही सहयोग अति कठिन है क्योंकि ज्योति जाती है आकाश की तरफ। वह आकाश की है, आकाश की तरफ जाती है। दीया मिट्टी का है, मिट्टी में ही पड़ा रह जाता है। दोनों के आयाम बड़े भिन्न हैं, यात्रा बड़ी अलग है। फिर भी दीये और ज्योति में एक संगम है। वैसा ही संगम साध लेना योग है; शरीर और स्वयं में, मृण्मय और चिन्मय में।
कीचड़ से कमल पैदा होता है। तुम्हारे शरीर की कीचड़ से तुम्हारी आत्मा का कमल पैदा होगा। कीचड़ की दुश्मनी मत करना, अन्यथा कमल पैदा ही न होगा। कीचड़ और कमल में कितना ही विरोध दिखाई पड़े; भीतर गहरा सहयोग है। कीचड़ कितनी ही कीचड़ लगे; कहां संबंध भी तो नहीं मालूम पड़ता! कमल--सुंदर, अपूर्व सुंदर, अद्वितीय, रेशम सा कोमल! कहां कीचड़ गंदी दुर्गंध भरी! कहां कमल की सुवास! दोनों में कोई तो नाता दिखाई नहीं पड़ता।
और अगर तुम जानते न होओ और कोई कीचड़ का ढेर लगा दे और कमल के फूलों का ढेर, और तुमसे कहे कि इन दोनों में कोई संबंध दिखाई पड़ता है? तो तुम भी कहोगे कि इन दोनों में कैसा संबंध? कहां कीचड़, कहां कमल! लेकिन तुम जानते हो, कीचड़ से कमल पैदा होता है। मृण्मय में चिन्मय का जागरण होता है।
कीचड़ से कमल पैदा होता है, इसका अर्थ ही यह हुआ कि कीचड़ के गहरे में कमल छिपा है, अन्यथा पैदा कैसे होगा? इसका अर्थ यही हुआ कि कीचड़ ऊपर-ऊपर से गंदी दिखाई पड़ती है, भीतर तो कमल जैसी ही होगी। इसका अर्थ हुआ कि दुर्गंध ऊपर का परिचय है; सुगंध भीतर का परिचय है।
शरीर को ही तुमने अगर देखा तो तुम कीचड़ पर रुक गए और कमल से अपरिचित रह गए। अगर तुमने शरीर से शत्रुता की और शरीर को दबाने और गलाने में लग गए, तो भी तुम वंचित रह जाओगे, क्योंकि उस संघर्ष से कमल पैदा न होगा। कमल तो पैदा होता है कीचड़ के सहयोग से।
इस सहयोग का नाम ही योग की कला है। योग अस्तित्व की दुई के बीच एक को खोज लेने की कला है। जहां दो दिखाई पड़ें--अत्यंत, विपरीत, वहां भी एक के ही सेतु को देख लेना, एक के ही जोड़ को देख लेना, वही योग की परम दृष्टि है।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, तुम्हारे भीतर छिपा हुआ काम ही तुम्हारे भीतर का राम बन जाएगा। तुम्हारे भीतर संभोग की वासना ही तुम्हारे आत्यंतिक खिलावट के क्षण में तुम्हारी समाधि बन जाएगी। तुम्हारी कीचड़ तुम्हारा कमल होने को है।
लड़ो मत; सम्हालो। अन्यथा तुम काटने-पीटने में लग जाओगे। काटना-पीटना एक तरह की हिंसा है। और काटना-पीटना एक तरह का गहन अज्ञान है। क्योंकि अस्तित्व व्यर्थ को पैदा ही नहीं करता। कितना ही तुम्हें व्यर्थ मालूम पड़ती हो कोई चीज; अस्तित्व ने व्यर्थ को पैदा करना जाना ही नहीं है। इसलिए तो हम अस्तित्व को परमात्मा कहते हैं। क्योंकि अस्तित्व कोई अंधा संयोग नहीं; एक सुनियोजित यात्रा है। अस्तित्व कोई अंधी दौड़ नहीं; एक नियति है। एक परम रित, एक परम नियम काम कर रहा है। यहां कुछ भी व्यर्थ नहीं है।
तुम्हारा काम, तुम्हारी कामवासना व्यर्थ नहीं है। जिन्होंने तुमसे कहा है, वे नासमझ हैं। तुम्हारी कामवासना ही तुम्हारा परम जीवन भी नहीं है; उस पर ही रुके तो भी मर जाओगे; उससे लड़े तो भी मिट जाओगे। उससे ऊपर जाना है; और उसको ही सीढ़ी बना कर जाना है। उससे ऊपर जाना है। उसका ही सहयोग लेना है। उसके ही कंधे पर हाथ रखना है! निश्चित ऊपर जाना है, पार जाना है, अतिक्रमण करना है; लेकिन संघर्ष से नहीं, अत्यंत प्रेमपूर्ण, अत्यंत कलात्मक विधियों से।
लेकिन तुम्हारी समझ में बहुत बार तुम्हें ऐसा लगेगा: क्रोध का क्या उपयोग है? काट डालो!
अगर तुम शरीर-शास्त्रियों से पूछो तो वे भी कहते हैं कि शरीर में बहुत सी चीजें हैं जिनका कोई उपयोग नहीं है। उन्हें भी पता नहीं है। डॉक्टर कितनी सरलता से अपेंडिक्स का ऑपरेशन करता है! टांसिल तो यूं निकाल देता है जैसे कि उनकी कोई जरूरत ही नहीं है और चिकित्साशास्त्र अभी तक भी खोज नहीं पाया कि इनकी जरूरत क्या है। लेकिन वे हैं तो उनकी जरूरत तो होनी ही चाहिए, अन्यथा अस्तित्व एक दुर्घटना मात्र हो जाएगी। और डॉक्टर काटते रहते हैं टांसिल, जिसके टांसिल काट दिए, उसके बेटे को फिर टांसिल परमात्मा पैदा कर देता है। डॉक्टर काटते रहते हैं अपेंडिक्स, लेकिन फिर उसके बेटे में अपेंडिक्स आ जाती है।
इतनी व्यर्थ चीज पुनरुक्त हो नहीं सकती थी। जरूर कोई रहस्य होगा जो हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है। जहां तक हमारी समझ है वहां तक व्यर्थ ही मालूम पड़ता है। डॉक्टर के पास जाओ, वह पहले यही देखता है कि अपेंडिक्स निकाल दें, कि टांसिल निकाल दें, कि दांत निकाल दें--कुछ न कुछ निकालने पर लगा है।
जो डॉक्टर की मनोदशा है, वही तुम्हारे धर्मगुरु की मनोदशा है। तुम जाओ उसके पास, वह फौरन बताने को तैयार है कि क्रोध अलग करो, कामवासना का त्याग करो, लोभ छोड़ो, हिंसा छोड़ो--वह भी काटने को लगा है। सर्जरी शरीर पर भी चल रही है और आत्मा पर भी चल रही है। लेकिन जिन्होने गहरे जाना है, वे इसके विरोध में हैं। इस्लाम शरीर के किसी भी अंग को काटने के विरोध में है, क्योंकि इस्लाम में एक बड़ी महत्वपूर्ण धारणा है--वह योग की भी धारणा है, शायद इस्लाम तक योग से ही पहुंची होगी, क्योंकि इस्लाम तो नया है; योग अति प्राचीन है।
इस्लाम की धारणा है कि परमात्मा के पास जब तुम जाओगे तो वह तुमसे पूछेगा कि तुम पूरे वापस लौटे हो? अगर तुम अधूरे वापस लौटे तो तुम दंडित किए जाओगे। परमात्मा ने जितना तुम्हें दिया था, कम से कम उतने तो वापस लौटना; ज्यादा न कर सको तो क्षमा मांग सकते हो, लेकिन कम होकर तो मत लौटना।
इसके अनेक आयाम हैं, इस बात के। निश्चित ही परमात्मा ने जितना तुम्हें दिया है, उतना तो कम से कम लौटा ले जाना। उसको काट मत लेना। उसे बढ़ा सको तो ठीक। बीज दिया था, अगर फूल हो सके तो ठीक; लेकिन कम से कम बीज तो लौटा देना।
जीसस की बड़ी प्राचीन कथा है। जीसस निरंतर उसे दोहराते थे कि एक बाप अपने तीन बेटों में संपत्ति बांटना चाहता था, लेकिन निश्चय न कर पाता था कि कौन योग्य और कौन सुपात्र है। तीनों ही जुड़वां पैदा हुए थे, इसलिए उम्र से तय न किया जा सकता था। तीनों एक से बुद्धिमान थे। तो उसने एक फकीर से सलाह ली। फकीर ने उसे एक गुर बताया।
उसने कहा बेटों से कि मैं तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं। और बेटों को उसने कुछ बीज दिए--फूलों के बीज--और कहा कि सम्हाल कर रखना; जब मैं लौट कर आऊं तब मैं तुमसे वापस मांगूंगा।
पहले बेटे ने सोचा कि इन बीजों को कोई बच्चे उठा लिए, कोई जानवर चर गया--तिजोड़ी में बंद कर दें। तिजोड़ी में बंद करके रख दिए। निश्चिंत हो गया। लोहे की तिजोड़ी! चोरों का भी क्या डर! और कौन चोर लोहे की तिजोड़ी तोड़ कर बीज चुराने आएगा! वह निश्चिंत रहा। बाप आएगा, लौटा देंगे।
दूसरे ने सोचा कि तिजोड़ी में रखूं, बीज सड़ सकते हैं; और बाप ने ताजा जीवित बीज दिए और मैं सड़े लौटाऊं--यह तो लौटाना न हुआ। क्या करूं? बीज जीवित कैसे रहें? उसने सोचा बाजार में बेच दूं, तिजोड़ी में रुपये रख दूं। बाप जब वापस आएगा, बाजार से बीज खरीद कर लौटा देंगे।
तीसरे ने सोचा कि बीज का अर्थ ही होता है, होने की संभावना। बीज का अर्थ ही होता है जो होने को तत्पर है, जिसके भीतर कुछ होने को मचल रहा है। तो बाप ने बीज दिए हैं, मतलब साफ है कि इन्हें इतना ही जिसने रखा, वह नासमझ है। ये तो बढ़ने को राजी थे, ये तो फूल बनने को राजी थे, और एक बीज से करोड़ बीज पैदा होने को राजी थे। पता नहीं, बाप कब लौटे, तीर्थ लंबा है, यात्रा वर्षों लेगी--उसने बीज बो दिए।
तीन बरस बाद वापस लौटा पिता। पहले बेटे को उसने कहा, उसने तिजोड़ी की चाबी दे दी, खोली गई तिजोड़ी, करीब-करीब सभी बीज सड़ चुके थे। न हवा लगी, न सूरज की रोशनी लगी और किसी ने उन पर ध्यान ही न दिया तीन वर्ष तक तिजोड़ी में लोहे की।
बीज कोई लोहे की तिजोड़ियों में बंद करने को थोड़े ही हैं! उन्हें खुला आकाश चाहिए, हवा की पुलक चाहिए, रोशनी चाहिए, तो वे जिंदा रह सकते हैं। वे सब सड़ गए थे। और जिन बीजों से फूलों की अपूर्व सुवास पैदा हो सकती थी, उनकी जगह उस तिजोड़ी से सिर्फ दुर्गंध निकली--सड़े हुए बीजों की दुर्गंध!
बाप ने कहा: तुमने सम्हाला तो, लेकिन सम्हाल न पाए। तुम मेरी संपत्ति के अधिकारी न हो सकोगे। तुम नासमझ हो। जितना मैं तुम्हें दे गया था, उतने भी तुम वापस न कर पाए। ये बीज तो समाप्त हो गए। इनमें अब एक भी जीवित नहीं है। अब इनको बोओगे तो कुछ भी पैदा न होगा। ये तो राख हैं और मैं तुम्हें बीज दे गया था। बीज थे जीवंत, उनमें संभावना थी बहुत होने की। इनकी सारी संभावना खो गई है, ये सिर्फ राख हैं, इनसे कुछ भी नहीं हो सकता। ये कब्रें हैं!
दूसरे बेटे से कहा। दूसरा बेटा भागा बाजार रुपये लेकर, बीज खरीद कर ले आया--ठीक उतने ही बीज जितने बाप दे गया था। बाप ने कहा कि तुम थोड़े कुशल हो, लेकिन तुम भी काफी नहीं; क्योंकि जितना दिया था उतना ही लौटाना भी कोई लौटाना है! यह तो जड़ बुद्धि भी कर लेता। इसमें तुमने कुछ बुद्धिमत्ता न दिखाई और बीज का तुम राज न समझे। बीज का मतलब ही यह है कि जो ज्यादा हो सकता था। उसे तुमने रोका और ज्यादा न होने दिया। तुम पहले से योग्य हो, लेकिन पर्याप्त नहीं।
तीसरे बेटे से पूछा कि बीज कहां हैं? तीसरा बेटा बाप को भवन के पीछे ले गया जहां सारा बगीचा फूलों और बीजों से भरा था। उसके बेटे ने कहा; ये रहे बीज! आप दे गए थे; मैंने कहा इन्हें बचा कर रखने में मौत हो सकती है। इन्हें बाजार में बेचना उचित न मालूम पड़ा, क्योंकि आप सुरक्षित रखने को कह गए थे। और फिर आपने चाहा था कि यही बीज वापस लौटाए जाएं। बाजार से तो दूसरे बीज वापस लौटेंगे, वे वही न होंगे। फिर वे उतने ही होंगे जितने आप दे गए थे। तो मैंने तो बीज बो दिए थे। अब ये वृक्ष हो गए हैं। इनमें बहुत बीज लग गए हैं, बहुत फूल लग गए हैं। हजार गुने करके आपको वापस लौटाता हूं।
स्वभावतः तीसरा बेटा बाप की संपत्ति का मालिक हो गया।
इस्लाम कहता है: परमात्मा ने तुम्हें जितना दिया है कम से कम उतना तो लौटाना। अगर बढ़ा न सको... बढ़ा सको तब तो बहुत...! और इस आधार पर इस्लाम सर्जरी पसंद नहीं करता।
एक बड़ी अनूठी कहानी मैंने सुनी है; सच न भी हो, फिर भी बड़ी गहराई से सचाई को छूती है। ब्रिटिश राज्य के जमाने में लाहौर में एक बहुत बड़ा सर्जन था--अंग्रेज। और पठान तो ऑपरेशन के बिलकुल खिलाफ है। अंगुली भी कट जाए तो वे सम्हाल कर रखते हैं उसे। जब आदमी मर जाता है। तो उसकी अंगुली को उसकी अंगुली में जोड़ कर लाश में रखते हैं, क्योंकि परमात्मा कहेगा: पूरा! अंगुली कटी है, अंगुली कहां गई? जितना दिया था उतना वापस नहीं लाए। अपंग, अधूरे, खंडित--तुम किस मुंह से आए हो? अखंड आओ तो ही परमात्मा के द्वार पर स्वीकृति होगी!
पठान तो सीधे-सादे गैर-पढ़े लिखे लोग हैं। उन्होंने इसका बिलकुल स्थूल अर्थ पकड़ा है। तो वे अंगुली भी कट जाए, उसको भी सम्हाल कर रखते हैं।
एक पठान का पैर सड़ गया किसी भयंकर बीमारी में और अगर पैर न काटा जाए तो वह पठान पूरा सड़ जाएगा। सर्जन ने बहुत समझाया, लेकिन पठान ने कहा कि नहीं; मैं मरूंगा फिर अधूरा जाऊंगा, लंगड़ा, तो परमात्मा क्या कहेगा? और बड़ी हंसी होगी। और भी पठान वहां मौजूद होंगे कयामत के दिन और वे सब कहेंगे, अरे! पठान होकर और आधा पैर कहां।
सर्जन ने समझाने को क्योंकि यह पठान तो नासमझ है, इसकी कुछ अक्ल में नहीं है; यह मरेगा पूरा--उसने कहा कि तुम ऐसा करो, घबड़ाओ मत, मैं तुम्हारे पैर को सम्हाल कर रखूंगा। उसने जाकर अपनी प्रयोगशाला में बताया, कई अंग उसने सम्हाल कर रखे थे। पठान को भरोसा आ गया। और पठान ने कहा कि जब मैं मरूं तो कृपा करके यह मेरा पैर वापस लौटा दिया जाए। मेरे घर के लोग आएंगे, यह पैर उन्हें दे दिया जाए, क्योंकि मैं अधूरा न जाना चाहूंगा।
सीधे-सादे पठान! बड़े महत्वपूर्ण विचार को भी उन्होंने अपनी सादगी के ढंग से पकड़ा है। खैर, ऑपरेशन हो गया। पठान हर वर्ष आता रहा देखने कि पैर सम्हाल कर रखा गया है या नहीं। पैर सम्हाल कर रखा गया था। और धीरे-धीरे उसकी सरलता पर उस चिकित्सक को भी बड़ा प्रेम और करुणा आ गई थी। पहले तो उसने ऐसे ही कहा था बात-बात में, लेकिन फिर उसने सम्हाल कर ही रखा था।
लेकिन संयोग की बात, उसकी प्रयोगशाला में आग लग गई और सब जल गया। उसने बहुत कोशिश की कम से कम पठान का पैर बच जाए, क्योंकि वह नासमझ किसी भी दिन खड़ा हो जाएगा तो मुसीबत खड़ी होगी। लेकिन वह नहीं बच सका। पैर भी नहीं बच सका, पूरी प्रयोगशाला जल गई।
उसकी रिटायरमेंट का वक्त आ गया, वह रिटायर भी हो गया और लंदन वापस चला गया। पठान की बात आई गई हो गई, भूल गया। लेकिन, अगर कभी किसी पठान को रास्ते पर देख लेता तो उसे याद आ जाती। न केवल याद आती, बल्कि उसके मन में एक पीड़ा भी होती कि पता नहीं, पठान ही सही हो और परमात्मा पूरे आदमी को मांगता हो तो मैं कसूरवार हो गया।
वैज्ञानिक आदमी था; इस पर कुछ भरोसा नहीं था। लेकिन फिर भी अंतःकरण, कितने ही तुम वैज्ञानिक हो जाओ अंतःकरण तो मनुष्य का ही होता है। कितना ही तर्क का जाल फैल जाए, भीतर हृदय तो वैसा ही अनुभव करता रहता है जैसा छोटे बच्चों का। उसे चिंता पकड़ती थी। कभी-कभी किसी पठान को देख कर उसे लगता था कि मैंने एक अच्छा काम किया या बुरा काम किया, संदिग्ध है।
एक रात वह सोया था, कोई दो बजे रात अचानक किसी ने उसे हिला कर जगाया। उसने आंख खोली, वह पठान खड़ा है। घबड़ा गया। दरवाजा बंद है! ताले पड़े हैं! यह पठान कहां से अंदर घुस आया! और पठान बहुत नाराज है और उसने इशारा किया कि मेरा पैर! और अपना कटा हुआ पैर बताया।
चिकित्सक को कुछ सूझा नहीं। तभी उसे याद आया कि एक पैर उसकी प्रयोगशाला में जो उसने अभी नई बनाई है, कुछ आठ-दस दिन पहले ही किसी का कटा है, वह वहां है, उससे काम चल जाएगा। उसने पठान का हाथ पकड़ा, वह अपनी प्रयोगशाला में ले गया। उसने जाकर उसको पैर के पास खड़ा कर दिया। पठान का चेहरा प्रसन्न हो गया, वह मुस्कुराया। पैर के पास गया। लेकिन भूल हो गई। उसका दांया पैर कटा था और यह बांया था। जिस कांच के बर्तन में सम्हाल कर रखा था, उसने उठा कर कांच का बर्तन नीचे पटक दिया और नाराजगी से वह घर के बाहर हो गया।
यह डॉक्टर तो इतना घबड़ा गया। सुबह इसकी नींद खुली तो इसने सोचा सपना होगा। यह कहीं हो सकता है! लेकिन जब प्रयोगशाला में जाकर देखा और टूटा हुआ जार देखा और नीचे पड़ा हुआ पैर देखा, तब तो यह मुश्किल हो गया तय करना कि यह सपना हो सकता है।
यह संभव है कि सपने में उसी ने जार पटका हो। यह संभव है। इसलिए मैं कहता हूं कि पक्का नहीं कि कहानी कहां तक सच होगी, कहां तक झूठ होगी। सपने में खुद ही ने जार पटका हो, यह भी हो सकता है। और यह दुनिया बड़ी अनूठी है, यह भी को सकता है कि पठान आया हो।
फिर उसने खोज-बीन करवाई तो पता चला कि जिस रात उसने पठान को देखा, उसी रात पठान की मृत्यु हुई। तो इस बात की पूरी संभावना है कि पठान की चेतना इतनी विवल रही हो अपने पैर को पाने के लिए कि वह मौजूद हो गई हो, उसने जाकर जगा दिया हो चिकित्सक को।
एक बात साफ है कि परमात्मा ने तुम्हारे भीतर कुछ भी अकारण पैदा नहीं किया है। जैसे मेरे अनुभव में कुछ बातें हैं जो मैं तुम्हें कहूं। वे शायद कभी चिकित्सकों के काम पड़ जाएं। क्योंकि, कभी न कभी चिकित्साशास्त्र, सर्जरी, मनुष्य के अंतर्तमों का भी स्पर्श करेगी।
जहां तक बोलने का और साधारण आदमी की चेतना का संबंध है, टांसिल्स का कोई उपयोग नहीं मालूम होता। लेकिन जहां तक मौन का संबंध है, टांसिल्स का उपयोग है। और जिस व्यक्ति के टांसिल्स निकल गए हैं, उसे मौन होना मुश्किल हो जाता है, यह मेरा अनुभव है। वह चुप नहीं हो सकता। शायद बोल ज्यादा अच्छी तरह से सकता हो, क्योंकि टांसिल्स के अवरोध बोलने में बाधा बनते हैं। सर्दी-जुकाम पकड़ता है, टांसिल करीब आ जाते हैं, एक-दूसरे से रगड़ खाते हैं, सूजन हो जाती है, बोलने में कष्ट होता है।
लेकिन ठीक इसके विपरीत जब कोई व्यक्ति मौन में उतरता है तो जिसके टांसिल नहीं हैं उसको मैंने मौन में उतरते नहीं देखा। जरूर कहीं कुछ गहरे संबंध हैं कि टांसिल मौन में सहायता देते हैं। और जो व्यक्ति वर्षों तक मौन रहते हैं, उनके टांसिल बिलकुल करीब आ जाते हैं। इतने करीब आ जाते हैं कि अगर वे बोलते होते तो बोलना मुश्किल हो जाता--जैसे मेहरबाबा।
कोई व्यक्ति तीन वर्ष तक अगर मौन रह जाए, बिलकुल मौन, तो टांसिल्स बिलकुल करीब आ जाते हैं। और जो बोलने की ऊर्जा है, जो विचार का प्रवाह है, फिर ऊपर की तरफ नहीं जाता, वही बोलने की ऊर्जा हृदय की तरफ गिरने लगती है और टांसिल उसके गिरने में सहयोगी होते हैं। किसी दिन शायद सर्जरी जान सके।
जिन लोगों की अपेंडिक्स निकल गई है... और डॉक्टर तो बड़े तत्पर रहते हैं निकालने में।
मैंने सुना है कि एक सर्जन की, बड़े प्रख्यात सर्जन की पत्नी ने एक दिन सुबह उठ कर देखा कि उसकी अंग्रेजी की किताब के पन्ने किसी ने फाड़ लिए हैं। तो उसने अपने पति को पूछा कि यहां कोई आया भी नहीं, किसने ये पन्ने फाड़े? उसने कहा: अरे, मुझे क्षमा करना! मैंने देखा, उन पर लिखा है अपेंडिक्स। मैंने जल्दी से बाहर निकाल लिए। खयाल ही न रहा।
डॉक्टर तो एकदम तत्पर हैं!
जो लोग, जिनकी अपेंडिक्स निकाल ली गई है, कुछ बातों में उनको कठिनाई शुरू होती है। एक: उनकी आत्मा को शरीर के बाहर ले जाना बड़ा कठिन हो जाता है, जिसको आध्यात्मिक लोग एस्ट्रल-प्रोजेक्शन कहते हैं--शरीर के बाहर निकल कर यात्रा करना। वह अपेंडिक्स जिसकी निकल गई, उसको मुश्किल हो जाता है। वह शरीर के बाहर नहीं निकल पाता। जिसकी अपेंडिक्स स्वस्थ है, वह शरीर के बाहर सुविधा से निकल पाता है। जैसे अपेंडिक्स सूक्ष्म शरीर को बाहर-भीतर ले जाने में सहयोगी होती है।
ये सिर्फ संकेत दे रहा हूं, क्योंकि इस संबंध में कुछ बहुत खोज-बीन कभी की नहीं गई है। लेकिन मेरे अनुभव में जिनकी अपेंडिक्स निकल गई है, हजारों लोगों ने मेरे करीब ध्यान किया है, उनमें से अनेक लोगों को शरीर के बाहर जाने का अनुभव होता है। जब भी किसी को शरीर के बाहर जाने का अनुभव होता है तब मैं निश्चित पूछता हूं कि उसकी अपेंडिक्स की क्या हालत है? तो मैंने सदा पाया, जिनकी निकल गई, उनको बाहर जाने का अनुभव कभी नहीं होता; जिनकी नहीं निकली है और स्वस्थ है, उनको ही बाहर जाने का अनुभव होता है।
और यह एक बड़ा मूल्यवान अनुभव है। शरीर के बाहर जाकर जो अपने शरीर को पड़ा हुआ देख लेता है, उसकी शरीर-मूर्च्छा सदा के लिए टूट जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपेंडिक्स सेतु है, जोड़ है, और उस जोड़ के गिर जाने पर सूक्ष्म शरीर का बाहर निकलना, भीतर आना कठिन हो जाता है। इसलिए योग भी शरीर के किसी अंग को काटने के पक्ष में नहीं है।
और जो बात सच है शरीर के संबंध में, उससे भी ज्यादा सच वही बात है मन के संबंध में।
तुमने कभी सुना है कि कोई नपुंसक आदमी ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हुआ हो? मनुष्य-जाति का इतिहास लंबा है। कम से कम पांच हजार साल का तो बिलकुल सुनिश्चित ज्ञात है। इन पांच हजार सालों में एक भी इंपोटेंट, नपुंसक आदमी परमात्मा को उपलब्ध नहीं हुआ। इसका क्या अर्थ है, इसका अर्थ है कि काम और वीर्य ऊर्जा परमात्मा की उपलब्धि में अनिवार्य है। उसके बिना नहीं हो सकेगा?
इसलिए नपुंसक से ज्यादा दीन कोई आदमी नहीं है। उसकी दीनता इतनी ही नहीं है कि वह संभोग न कर सकेगा, उसकी गहरी दीनता यह है कि वो समाधि को उपलब्ध न हो सकेगा। लेकिन सौभाग्य की बात है कि नपुंसक साधारणतया होते ही नहीं। अगर हजार आदमियों को खयाल हो कि वे नपुंसक हैं तो उनमें से सिर्फ एक नपुंसक होता है, बाकी को सिर्फ खयाल होता है, वहम होता है।
मगर फिर भी नपुंसक होते हैं और वे उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। ऊर्जा ही नहीं है जिसके सहारे यात्रा हो सके। कीचड़ ही नहीं है, कमल कैसे पैदा हो? दीया ही नहीं है, ज्योति कहां टिके, कहां ठहरे, कहां आवास करे, कहां घर बनाए?
और मैं तुमसे कहता हूं कि जिन लोगों ने ब्रह्मचर्य को एक तरह की नपुंसकता मान लिया है, वे भी परमात्मा को उपलब्ध नहीं होते। ऊर्जा का गहन प्रवाह चाहिए, उद्दाम वेग चाहिए, नदी जैसे बाढ़ में हो ऐसे वीर्य की संपदा चाहिए--तभी तुम ऊपर उठ सकोगे। जो नीचे तक
नहीं जा सकता, वह ऊपर कैसे जाएगा, थोड़ा सोचो।
नीचे जाने में बहुत शक्ति की जरूरत नहीं है। जैसे पहाड़ से पत्थर को छोड़ दो वह अपने आप गिरता चला आता है जमीन की तरफ। कोई नीचे आने के लिए शक्ति लगाने की जरूरत नहीं पड़ती है। जो नीचे तक जाने में समर्थ नहीं है, नपुंसक है, वह ऊपर कैसे जा सकेगा? नीचे तक जाने में उसे कठिनाई मालूम पड़ती है, उतनी ऊर्जा भी नहीं है तो प्रगाढ़ और उद्दाम वेग, उत्तुंग लहरें कामवासना की, जिन पर सवार होकर ऊपर जाना है, वह कैसे जा सकेगा?
इसलिए अगर तुम मेरी बात समझ सको, तो ब्रह्मचर्य बड़ी विपरीत बात है नपुंसकता से। परम वीर्य की उपलब्धि से ब्रह्मचर्य फलित होता है। काटने-दबाने से, शरीर को मिटाने से कोई कहीं नहीं पहुंचता। शरीर को जितना तुम स्वस्थ, सम्यक, संतुलित, शांत, ओजपूर्ण, ऊर्जा से भरा हुआ, परिपूर्ण बना सको, उतनी ही सुगमता होगी। उतने ही तुम ऊपर जा सकोगे।
जैसा मैंने कल तुमसे कहा कि जब भी कामवासना उठे, तब जोर से श्वास को बाहर फेंकना, पेट को भीतर जाने देना--मूलबंध लग जाएगा, मूलाधार सिकुड़ जाएगा। मूलाधार के ऊपर शून्य होने से ऊर्जा शून्य में उठ जाएगी। इसे अगर तुम निरंतर करते रहे, अगर इसे तुमने एक सतत साधना बना ली--और इसका कोई पता किसी को नहीं चलता; तुम इसे बाजार में खड़े हुए कर सकते हो, किसी को पता भी नहीं चलेगा; तुम दुकान पर बैठे हुए कर सकते हो, किसी को पता भी न चलेगा।
अगर एक व्यक्ति दिन में कम से कम तीन सौ बार, क्षण भर को भी मूलबंध लगा ले, कुछ ही महीनों के बाद पाएगा, कामवासना तिरोहित हो गई। काम-ऊर्जा रह गई, वासना तिरोहित हो गई। और तीन सौ बार करना बहुत कठिन नहीं है। यह मैं सुगमतम मार्ग कह रहा हूं, जो ब्रह्मचर्य की उपलब्धि का हो सकता है।
फिर और कठिन मार्ग हैं जिनके लिए सारा जीवन छोड़ कर जाना पड़ेगा। पर कोई जरूरत नहीं है। यह किसी को पता भी नहीं चलेगा कि कब तुमने श्वास बाहर फेंक दी--अपने बाजार में अपनी दुकान पर, कुर्सी पर दफ्तर में बैठे हुए, कब तुमने चुपचाप अपने पेट को भीतर खींच लिया। एक क्षण में ऊर्जा ऊपर की तरफ स्फुरण कर जाती है। और तुम पाओगे कि उसके बाद घड़ी, आधा घड़ी के लिए तुम एकदम शांत हो गए, हलके हो गए, एक नई ताजगी आ गई।
योग कोई आत्महत्या नहीं है; योग एक बड़ी गहन प्रक्रिया है, एक कला है और कदम-कदम अगर तुम चलते रहो तो तुम्हारे भीतर सब छिपा है। तुम सब लेकर ही आए हो; प्रकट करने की बात है। तुम अप्रकट परमात्मा हो; बस जरा प्रकट करने की बात है। सब साज मौजूद है; सिर्फ अंगुलियां थोड़ी साधनी हैं और वीणा से स्वर उठने शुरू हो जाएंगे। जैसे-जैसे अंगुलियां सधेंगी वैसे-वैसे गहनतम संगीत पैदा होगा।
और एक ऐसी घड़ी आती है कि जब वीणा की जरूरत भी नहीं रह जाती; अंगुलियों की भी जरूरत नहीं रह जाती--तब परम संगीत सुनाई पड़ने लगता है जो चारों तरफ मौजूद है। सिर्फ तुम्हारे पास सुनने की क्षमता नहीं है। पूरा अस्तित्व उसकी गूंज से भरा है। उस गूंज को ही हमने ‘ओंकार’ कहा है।
‘ओम’ अस्तित्व की गूंज है। वह कोई शब्द नहीं है, न कोई ध्वनि है; वह अनाहत नाद है। उसे कोई पैदा नहीं कर रहा है; वह अस्तित्व के होने का ढंग है। जैसे पहाड़ से नदी बहती है तो कलकल का नाद होता है; जैसे पक्षी गीत गा रहे हैं; हवाएं निकलती हैं वृक्षों से, सरसराहट पैदा होती है--ऐसा अस्तित्व के होने का ढंग ओंकार है। उसको कोई पैदा नहीं कर रहा है। उसके पैदा होने के लिए दो चीजों के आघात की जरूरत नहीं है, इसलिए अनाहत! वह आहत नाद नहीं है। ताली बजाओ--आहत नाद है। दो चीजें टकराती हैं--ध्वनि पैदा हो जाती है। ओंकार कोई टकराहट से पैदा नहीं हो रहा है। इसलिए ओंकार अद्वैत है। जो टकराहट से पैदा होगा उसमें तो दो की जरूरत है; एक हाथ से ताली नहीं बजती। ओंकार एक हाथ की ताली है।
झेन फकीर जापान में अपने शिष्यों को कहते हैं कि जाओ और खोजो कि एक हाथ की ताली कैसे बजती है? वे ओंकार की खोज के लिए कह रहे हैं। कि जाओ, ओंकार का नाद खोजो। उनके कहने का ढंग है, एक हाथ की ताली कैसे बजती है। ताली तो सदा दो हाथ से बजती है।
बड़ी मीठी कथा है झेन में, एक छोटा बच्चा एक सदगुरु की सेवा में आया करता था। और भी बड़े साधक आते थे। वह बैठ कर चुपचाप सुनता था।
यहां भी तुमने देखा होगा, एक छोटा सा सिद्धार्थ है, वह ऐसा ही साधक रहा होगा। वह भी छोटा सिद्धार्थ नियुक्तियां मांगता है। आकर ठीक व्यवस्था से मुझे नमस्कार करता है, अपनी चटाई बिछा कर बैठ जाता है। जब तक उसका बल रहता है, जागा रहता है फिर सो जाता है; लेकिन आता है दर्शन करने।
छोटे बच्चों को पिछले कैंप में बाहर कर दिया गया था, तो उसने बड़ा विरोध किया। आखिर उसने विरोध मेरे पास भेजा कि यह हमारा घर है और यहां से हमें अलग कोई भी नहीं कर सकता। मजबूरी! उसको भीतर आने की आज्ञा देनी पड़ी। स्वभावतः उसके पीछे और बच्चे भी फिर प्रवेश किए।
वैसा, सिद्धार्थ जैसा वह साधक छोटा सा बच्चा गुरु के पास आता था। वह बैठता था अपनी चटाई बिछा कर, सुनता था गुरु की बातें--दूसरों से जो गुरु कहता था।
एक दिन वह आया, उसने चटाई बिछाई, गुरु के चरणों में सिर झुका कर कहा कि मुझे भी ध्यान की विधि दें। गुरु थोड़ा हंसा होगा। उस जगत में बड़े-बड़े छोटे बच्चों जैसे हैं। छोटा बच्चा! लेकिन जब इतनी सरलता से पूछा गया है तो इनकार नहीं किया जा सकता। गुरु ने कहा कि तो तू ऐसा कर, एक हाथ की ताली को सुनने की कोशिश कर।
उसने झुक कर नमस्कार किया विधिवत। वह गया, वह बड़ी चिंता में पड़ गया। वह बैठा। उसने सब तरफ से सुनने की कोशिश की। सांझ का सन्नाटा था, कौए वापस लौटे थे दिन भर की यात्रा और थकान से और कांव-कांव कर रहे थे। उसने कहा कि हो न हो, यही एक हाथ की आवाज है।
वह भागा, दूसरे दिन सुबह गुरु के पास आया। उसने कहा पा ली! कौओं की आवाज?
गुरु ने कहा कि नहीं, यह भी नहीं है। और खोजो।
वह गया रात के सन्नाटे में मौन बैठा रहा, झींगुर बोलते थे, उसने कहा, हो न हो सन्नाटे की आवाज--यही वह आवाज है। दूसरे दिन सुबह वह मौजूद हुआ। उसने कहा: झींगुर की आवाज? गुरु ने कहा कि नहीं, और खोजो। तुम करीब आ रहे हो। मगर थोड़ा और खोजो।
कुछ दिन तक वह नहीं लौटा। बड़ी खोज की, तब एक दिन उसे पता चला, प्राचीन आश्रम के वृक्षों से निकलती हुई हवा, एक जरा सी सरसराहट कि पकड़ में न आए, पहचान में न आए। उसने कहा: हो न हो यही है। वह आया। उसने कहा कि वृक्षों से निकलती हुई हवा की आवाज, सरसराहट? गुरु ने कहा कि नहीं। करीब तुम आ रहे हो, लेकिन अभी भी बहुत दूर हो। खोजो।
फिर कुछ महीने तक बच्चा न आया। गुरु चिंतित हुआ, क्या हुआ? गुरु उसकी तलाश में गया। वह एक वटवृक्ष के नीचे ध्यानमग्न बैठा था। उसके चेहरे पर ही साफ था कि उसने आवाज सुन ली। सारा तनाव जा चुका था। वह बुद्धवत था। जैसे हो ही न।
तो गुरु ने उसे उठाया और कहा: क्या हुआ? उस आवाज का?
उस छोटे से बच्चे ने कहा: जब सुन ही ली तो कहना मुश्किल हो गया, बताना मुश्किल हो गया। अब मैं यह सोच रहा हूं, बहुत दिन से कि कैसे बताऊं, कैसे कहूं!
गुरु ने कहा: अब कोई जरूरत नहीं!
वह छोटा बच्चा भी बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया।
ओंकार है वह आवाज। जब तुम बिलकुल शांत हो जाते हो, जब तुम होते ही नहीं, मिट जाते हो, जब तुम्हारा आवास शून्य गगन मंडल में हो जाता है, तब सुनाई पड़ती है वह आवाज, तब ओंकार का नाद सब तरफ हो रहा है। वही मूल अस्तित्व है। सभी कुछ उसी मूल से निर्मित हुआ है।
ओंकार की ही पर्त-पर्त जम कर चट्टान बनती है। ओंकार की ही पर्त-पर्त जम कर वृक्ष बनते हैं। ओंकार की ही पर्त-पर्त पक्षियों के कंठ में गीत गाती है। ओंकार की ही पर्त-पर्त तुम हो, वह मूल है! वह मूल धातु है।
जैसे वैज्ञानिक कहते हैं कि विद्युत ऊर्जा से सारा जगत बना, वैसा हम पूरब में कहते हैं कि विद्युत-ऊर्जा सिर्फ ओंकार की ही एक शैली है। वह भी ओंकार का ही एक आघात है।
अस्तित्व विद्युत से नहीं बना है, अनाहत नाद से बना है। विद्युत भी अनाहत नाद का एक ढंग, एक शैली है, एक रूप है। और इस बात की बहुत संभावना है कि वैज्ञानिक आज नहीं कल योगियों से राजी हों। उन्हें होना पड़ेगा, क्योंकि उनकी खोज बाहर-बाहर है, योगी की खोज भीतर है। वे परिधि पर खोजते हैं, योगी केंद्र पर खोजता है। उन्हें राजी होना ही पड़ेगा। आज नहीं कल विज्ञान योग के सामने नतमस्तक होगा। कोई दूसरा उपाय नहीं है।
ये कबीर के वचन समझने की कोशिश करें।
अवधू जोगी जग थैं न्यारा।
योगी जग से बड़ा न्यारा है।
जग में दो तरह के लोग हैं: भोगी, त्यागी।
जोगी जग थैं न्यारा।
वह भोगी से अलग है, क्योंकि वह शरीर को सब-कुछ नहीं मानता; वह त्यागी से अलग है, क्योंकि वह शरीर को इतना मूल्य का भी नहीं मानता कि उसका त्याग करना भी सार्थक हो सके। जिसका मूल्य ही न हो, उसका तुम कभी त्याग करते हो? क्या तुम रोज कहते हो, घर के बाहर जोर से चिल्ला कर कि आज फिर घर के कचरे का त्याग कर दिया। देखो, कैसा महादानी हूं! घर के कचरे का त्याग करते वक्त कोई भी तो घोषणा नहीं करता। तुम घोषणा करोगे तो लोग पागल समझेंगे।
लेकिन जब कोई त्यागी घोषणा करता है कि मैंने लाखों पर लात मार दी तो वह भोगी ही है। अभी भी लाखों का मूल्य है। अभी भी समझता है इसका कुछ सार है। पहले भोग के लिए पकड़ा था, अब छोड़ा है; लेकिन मूल्य की पकड़ तो नहीं छूटी। लाखों को लात मार दी, जब कोई आदमी कहता है लाखों को लात मार दी तो समझ लेना कि लात ठीक से लग नहीं पाई, चूक गई। लग ही जाती तो लाखों का हिसाब रखता?
न तो योगी भोगी है और न त्यागी--‘अवधू जोगी जग थैं न्यारा’--वह इन दोनों से अलग है। वह एक अनूठा ही व्यक्तित्व है। वह कुछ-कुछ भोगी जैसा है, कुछ-कुछ त्यागी जैसा है। उसने भोग और त्याग के बीच सांमजस्य खोज लिया। उसने भोग और त्याग के बीच संगीत खोज लिया। क्योंकि परमात्मा भोग में भी है और त्याग में भी! परमात्मा भोगी में भी छिपा है और त्यागी में भी। उसने यह राज खोज लिया; उसने देख लिया कि भोग एक किनारा है और त्याग दूसरा किनारा है, और परमात्मा तो बीच में बहती हुई नदी की धारा है।
अवधू जोगी जग थैं न्यारा।
वह दोनों किनारों से अलग है; वह बीच की धार है; वह मध्य में खड़ा है; उसने संतुलन पा लिया। संतुलन यानी संयम।
भोगी असंयमी है। और मैं तुमसे कहता हूं कि त्यागी भी असंयमी है। असंयम का मतलब है: जो अति पर चला गया; उसके जीवन का संतुलन खो जाता है। संयम का अर्थ है: जो मध्य में खड़ा है; जो बीच की धार है, जो दोनों तरफ देखता है; लेकिन जिसने शुद्ध मध्य-बिंदु खोज लिया। न यहां झुकता है, न वहां झुकता है; न तो शरीर की मान कर चलता है और न शरीर की हत्या करने में लग जाता है: न तो स्वाद के लिए जीता है और न शरीर के ऊपर अस्वाद को थोपता है; वरन स्वाद में ब्रह्म को खोज लेता है और तब स्वाद और अस्वाद एक ही चीज के दो नाम हो जाते हैं।
योगी जानता है किनारों का कैसे उपयोग करना है। भोगी एक किनारे को पकड़ता है, त्यागी दूसरे किनारे को पकड़ता है। दोनों की नदी धार अवरुद्ध होती है। कहीं एक किनारे से धारा चली? परमात्मा भी एक के किनारे से नहीं चल सकता; उसको भी द्वैत की धारा के बीच चलना पड़ा है। तो तुम कैसे चल सकोगे? परमात्मा को भी द्वैत पैदा करना पड़ा है; उन्हीं के बीच अद्वैत की धारा बह रही है।
योगी भी गलती करता है, त्यागी भी गलती करता है। दोनों की चेष्टा यह है कि हम एक किनारे से जी लेंगे। यह अहंकार है।
अवधू जोगी जग थैं न्यारा।
मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा।
वह क्या करता है योगी? क्या है उसकी कला? कबीर यहां सार कह देते हैं: ‘मुद्रा निरति।’ निरति का अर्थ है: जो अति पर नहीं जाता। ‘मुद्रा निरति।’ निर अति--जो मध्य में खड़ा है, जिसको बुद्ध ने मज्झिम-निकाय कहा है, जिसको कनफ्यूशियस ने दि गोल्डन-मीन--स्वर्ण-मध्य कहा है, जो ठीक बीच में खड़ा है--निरति!
‘मुद्रा निरति’--मध्य में खड़ा होना ही उसकी मुद्रा है। और सब मुद्राएं तो बच्चों के खेल हैं। और किन्हीं मुद्राओं का बड़ा मूल्य नहीं है। निरति गहरी से गहरी मुद्रा है। वह चुनता नहीं, जिसको कृष्णमूर्ति च्वाइसलेसनेस कहते हैं--निरति! वह चुनाव नहीं करता। वह न तो कहता है इस तरफ, न कहता है उस तरफ। वह कहता है मध्य में--नेति-नेति। वह कहता है, न यह, न वह। या तो दोनों, या दोनों नहीं, मैं मध्य में। यही उसका न्यारापन है।
‘मुद्रा निरति’--वह कभी भी अति पर नहीं जाता। न तो वह ज्यादा भोजन करता है और न कम भोजन; वह सम्यक भोजन करता है।
भोगी ज्यादा करता है। जितनी शरीर को जरूरत है उससे ज्यादा खा जाता है। फिर बीमारियां पैदा होती हैं, फिर बीमारियों का इलाज करवाता है। भोगी सम्यक आहार नहीं करता। त्यागी भी सम्यक आहार नहीं करता। वह कम खाने के पीछे पड़ जाता है। वह कहता है, एक ही बार भोजन करेंगे। अब एक ही बार भोजन करना शरीर की प्रकृति के अनुकूल नहीं है। और अगर एक ही बार भोजन करना हो तो बड़ी जटिलताएं हैं, वे समझनी चाहिए।
एक ही बार भोजन करने वाले पशु मांसाहारी हैं; जैसे शेर, सिंह, वे एक ही बार भोजन करते हैं चौबीस घंटे में--वे मांसाहारी हैं। अगर बंदर एक ही बार भोजन करे, मरे! बंदर शुद्ध शाकाहारी है!
शाकाहार का मतलब है कि तुम्हें थोड़े से शाकाहार से काम न चलेगा, क्योंकि उससे उतनी ऊर्जा ही न मिलेगी शरीर को।
इसलिए बंदर दिन भर चबाता ही रहता है। तुम भी जब पान चबाते हो तो तुम डार्विन के सिद्धांत को सिद्ध कर रहे हो कि आदमी बंदर से पैदा हुआ है। तंबाकू चबा रहे हो! कुछ न हो तो बातचीत ही कर रहे हो। वह भी बंदर की आदत है।
लेकिन आदमी शाकाहारी है; जैसा बंदर शाकाहारी है। और डार्विन की बात में सचाई है। अब तो शरीरशास्त्री भी राजी होते हैं कि मनुष्य कभी भी मांसाहारी नहीं रहा, क्योंकि उसकी जो अंतड़ियां हैं, वे मांसाहारी पशुओं जैसी नहीं हैं। मांसाहारी पशु की बड़ी छोटी अंतड़ी होती हैं। इसलिए तो तुम सिंह का पेट देखते हो कितना छोटा सा! मांसाहारी है, खाता डट कर है, लेकिन पेट छोटा सा! उसकी अंतड़ियां बहुत छोटी हैं।
पहलवान कोशिश करते हैं सिंह जैसा पेट बनाने की। तो वे जबर्दस्ती छाती को फुलाए जाते हैं और पेट को भीतर खींचे जाते हैं। वह एक तरह की हिंसा है, क्योंकि शाकाहारी उतने छोटे पेट का हो ही नहीं सकता। अंतड़ियां बहुत बड़ी हैं शाकाहारी की। होनी चाहिए, क्योंकि उसे बहुत आहार करना पड़ेगा। उतना आहार सम्हाल सकें, इतनी लंबी अंतड़ियां चाहिए। कई फीट लंबी अंतड़ियां हैं भीतर, गुत्थी हुई पड़ी हैं।
इसलिए बंदर धीरे-धीरे खाता रहता है। गाय शाकाहारी है, चरती रहती है। भैंस परम शाकाहारी है! वह जुगाली करती रहती है। जो चबा लिया उसको भी निकाल कर फिर चबाती रहती है!
अगर आदमी शाकाहारी है तो एक बार भोजन अति है। आदमी अगर शाकाहारी है तो उसे दो-तीन बार, थोड़ा-थोड़ा भोजन करना चाहिए, ज्यादा नहीं।
इसलिए तुम बड़ी हैरानी की बात देखोगे, जैन दिगंबर मुनि हैं, वे एक बार भोजन करते हैं। उनके पेट तुम हमेशा बड़े देखोगे। अब यह बड़ी हैरानी की बात है, जब भी मैं उनकी तस्वीरें देखता हूं, मैं बहुत हैरान होता हूं कि एक बार भोजन करने वाले आदमी का पेट इतना बड़ा क्यों है? वह ज्यादा खा रहा है, जरूरत से ज्यादा खा रहा है। क्योंकि उसे चौबीस घंटे के भोजन की पूरी चेष्टा एक ही बार में कर लेनी है। तो वह अतिशय बोझ डाल रहा है अंतड़ियों पर। अंतड़ियां बाहर आ गई हैं।
जैन दिगंबर मुनि सुंदर नहीं मालूम पड़ते, बेहूदे मालूम पड़ते हैं; जैसे पेट के किसी रोग से ग्रसित हों, या गर्भवती स्त्रियां हों। शरीर में अनुपात नहीं मालूम पड़ता; एक अति कर रहे हैं।
नियम तो यह है शाकाहारी के लिए कि दो या तीन बार या अगर और थोड़ा-थोड़ा भोजन ले सके तो चार या पांच बार। थोड़ा-थोड़ा! जरा सा ले लिया, एक फल खा लिया, बात खत्म! तब तक उतना पच जाए, फिर दो घंटे बाद एक फल ले लिया। पेट पर बोझ न पड़े और पेट पर अति न हो, तो सम्यक आहार होगा।
एक बार भोजन तो स्वभावतः तुम इतना खा लोगे जो चौबीस घंटे काम दे सके। मांसाहार तो ठीक है, क्योंकि थोड़े मांस में काम चल जाता है। मांस का मतलब है पका हुआ, तैयार भोजन, पचा हुआ भोजन। दूसरे जानवर ने तुम्हारे लिए पचा कर तैयार कर दिया।
तुम फल खाओगे, फिर फल को पचाओगे, तब उस पचे हुए फल में से मांस बनेगा। किसी जानवर ने फल खाकर पचा लिया, मांस तैयार कर दिया, तुमने मांस खा लिया। मांस का मतलब है पचा हुआ भोजन। तुम्हें अब ज्यादा करने की जरूरत नहीं। इसलिए छोटी अंतड़ी काफी है। काम दूसरे कर चुके तुम्हारे लिए, इसलिए मांसाहार शोषण है। क्योंकि दूसरों से काम लेने का क्या हक? जहां तक बने अपना काम खुद कर लेना चाहिए। पचाने का काम भी दूसरे से लेना शोषण है! इसलिए मांसाहार उचित नहीं है। तुम खुद ही कर सकते हो।
मांसाहार भी अति है, क्योंकि तुम्हारी अंतड़ियां बनी नहीं हैं मांसाहार के लिए और तुम्हारा शरीर बना नहीं मांसाहार के लिए और अगर तुम मांसाहार करोगे तो तुम मिट्टी से बंधे रह जाओगे, क्योंकि मांसाहार इतनी बोझिलता देगा कि तुम आकाश में उड़ने की क्षमता खो दोगे। इसलिए समस्त ज्ञानी मांसाहार के विपरीत हो गए, किसी और कारण से नहीं। कोई ऐसा नहीं है कि तुमने मांसाहार कर लिया तो कोई बहुत महापाप हो गया। आत्मा तो मरती नहीं; तुमने किसी का शरीर ही छीन लिया, वो तो जरा-जीर्ण वस्त्र थे, इससे कोई बड़ा भारी महापातक नहीं हो गया। लेकिन विरोध का कारण दूसरा है।
कारण यह है कि तुम न उड़ पाओगे आकाश में; फिर तुम्हें ‘अवधू गगन मंडल घर कीजै’ संभव न होगा, फिर अवधू चारों खाने चित जमीन पर पड़े रहेंगे। इतने वजनी हो जाएंगे अवधू कि उड़ न सकेंगे, पंख न लग सकेंगे। शाकाहार पंख देता है। वह किसी दूसरे पर कृपा नहीं है, अपने पर ही कृपा है।
मैं भी पक्ष में हूं कि तुम शाकाहारी होना, लेकिन तुम्हारे कारण! इसलिए नहीं कि पशुओं को बचाना है, कि पक्षियों को बचाना है। तुम कौन हो बचाने वाले? जो बनाता है वह बचाएगा; जो बनाता है वह मिटाएगा। तुम कौन हो अकारण का अहंकार बीच में खड़ा करने वाले? नहीं, उस वजह से नहीं।
मैं भी शाकाहार के पक्ष में हूं, तुम्हारी वजह से! नहीं तो तुम कभी आकाश में न उड़ सकोगे। तुम्हारे उड़ने की क्षमता टूट जाएगी। शाकाहार तुम्हें हलका करेगा। सम्यक आहार तुम्हें बिलकुल हलका कर देगा, शरीर का बोझ ही न लगेगा। जैसे अभी पंख मिल जाएं तो तुम अभी उड़ जाओ। जमीन तुम्हें खींचेंगी नहीं, आकाश तुम्हें उठाएगा।
‘मुद्रा निरति’--इसलिए कबीर कहते हैं: मुद्रा तो एक है और वह है निरति। अन-अतिशय, अन-अति, निरति, मध्य में खड़े हो जाना।
न तो ज्यादा भोजन करना, क्योंकि वह भी झुकाएगा एक तरफ; न कम भोजन करना, क्योंकि भूख सताएगी दूसरी तरफ। भोजन भी मारता है, भूख भी मारती है; ठीक मध्य में तृप्ति है। उस तृप्ति पर तुम रुक जाना।
और अपनी तृप्तियों को जो पहचानने लगता है, वही आदमी होश में है; नहीं तो तुम भोजन कर रहे हो, तुम्हें समझ में भी नहीं आता कि कहां रुकें। तुमने होश ही खो दिया; यही पता नहीं चलता, कहां रुकें। जानवर रुक जाते हैं; तुम नहीं रुक पाते। जानवर का पेट भर गया, फिर तुम कितना ही भोजन रख दो, तुम लाख बैंड-बाजे बजाओ, इश्तहार चिपकाओ, कितना ही प्रलोभित करो कि वह भोजन बड़ा पुष्टिदायी है, फिल्म अभिनेत्रियों को लिवा लाओ और उनसे प्रचार करवाओ, भैंस न सुनेंगी। बात खत्म हो गई। भैंस भी ज्यादा तुमसे होशपूर्ण मालूम पड़ती है।
तुमने देखा, भैंस को अगर छोड़ दो तो वह सभी घास न खाएगी। उसकी अपनी घास है, वही खाएगी, बाकी घास छोड़ती जाएगी। जो उसका भोजन नहीं है, वह नहीं करेगी। सिर्फ मनुष्य ऐसा है जो सभी चीजें खाता है। कोई पशु सभी चीजें नहीं खाता, क्योंकि पशुओं के सब शरीरों के अपने आयोजन हैं, कौन सी चीज ठीक बैठती है। सिर्फ आदमी सब खाता है, सब।
ऐसी कोई चीज मैंने नहीं देखी, मैं इसकी खोज-बीन करता रहा हूं कि क्या कोई ऐसी चीज है दुनिया में जिसको आदमी नहीं खाता? नहीं; सब चीजें, चींटी खाने वाले लोग हैं, चींटा खाने वाले लोग हैं, सांप-बिच्छू खाने वाले लोग हैं, कुत्ता खाने वाले लोग हैं। मैं अभी तक पा ही नहीं सका ऐसी कोई चीज, जिसको कहीं न कहीं, कोई न कोई मनुष्य-जाति का अंग न खाता हो; हालांकि दूसरे उस पर हंसते हैं।
चीनी सांप खाते हैं। और चीन में स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजनों में सांप एक है। अफ्रीका में दीमक, चींटी; चींटे लोग इकट्ठे करके रखते हैं, बोरे भर-भर कर, फिर उसको तलते हैं और खाते हैं। बिच्छू खाने वाले लोग हैं; छछूंदर को भी नहीं छोड़ते। कोई ऐसा प्राणी नहीं है जिसको आदमी न खाता हो। कोई ऐसा फल नहीं है जिसको आदमी न खाता हो। कोई ऐसा जहर नहीं है जिसका सेवन आदमी न करता हो। सांपों को पाल कर रखते रहे हैं लोग। उसको जीभ पर कटाते हैं, घड़ी दो घड़ी को मस्ती आ जाती है।
आदमी खतरनाक जानवर है। उससे ज्यादा खतरनाक कोई भी नहीं है। और असंयमी है; उसने सारा संतुलन खो दिया है। उसे कुछ पता ही नहीं कि क्या भोज्य है, क्या खाद्य है, क्या अखाद्य है। छोटे-छोटे जानवर भी अपनी चीज खाते हैं; आदमी सब खाता है। ऐसा लगता है कि हमें कुछ प्राकृतिक जांच-परख नहीं है। लेकिन वैज्ञानिक इसकी खोज करते रहे हैं कि ऐसा क्यों हुआ; क्योंकि किसी जानवर में ऐसा नहीं हुआ, आदमी में क्यों हुआ? और उन्होंने बड़ी गहरी बात खोजी है, और वह यह है कि हम छोटे बच्चों के साथ जबर्दस्ती करते हैं। उनको कुछ भी खिलाने के लिए मजबूर करते हैं, इसलिए यह उपद्रव पैदा हुआ है।
अमरीका में एक युनिवर्सिटी में, हार्वर्ड में, उन्होंने प्रयोग किया छोटे बच्चों पर कि सब भोजन रख दिया और छोटे बच्चों को छोड़ दिया--बिलकुल छोटे बच्चे! कि वे खाएं जो उनको खाना है। यह प्रयोग कोई छह महीने तक चलता था। वे बड़े चकित हुए। बच्चे वही खाते हैं जो खाने योग्य है। तुम हैरान होओगे, क्योंकि कोई स्त्री राजी न होगी कि यह बात सच है, क्योंकि बच्चे आइस्क्रीम मांगते हैं जो खाने योग्य नहीं है; मिठाई मांगते हैं जो खाने योग्य नहीं है। लेकिन यह बच्चे तुम्हारे इनकार करने की वजह से मांगते हैं। यह बच्चे नहीं मांगते।
हार्वर्ड में जो प्रयोग हुआ वह बड़ा क्रांतिकारी है। छह महीने का अनुभव यह हुआ कि बच्चे वही खाते हैं जो जरूरी है, जो शरीर के लिए उपयोगी है। और यह भी बड़ी अनूठी बात पता चली कि अगर बच्चा बीमार है तो वह खाता नहीं। मां-बाप जबर्दस्ती करते हैं कि खाओ।
कोई जानवर बीमारी में नहीं खाता, क्योंकि बीमारी में उपवास उपयोगी है। शरीर वैसे ही रुग्ण है, उस पर और भोजन का बोझ डालना और पचाने की प्रक्रिया को थोपना अनुचित है, अन्यायपूर्ण है। वह बीमार आदमी के सिर पर और पत्थर रख कर, उसको ढोने के लिए कहना है।
बीमार आदमी स्वभावतः भोजन न लेगा। अगर बच्चों की सुनी जाए तो बच्चे भोजन न करेंगे। बच्चे को सर्दी-जुकाम है, वह खाना नहीं चाहता; मां-बाप कहते हैं कि खाना पड़ेगा नहीं तो कमजोर हो जाओगे। एक दो दिन नहीं खाने से कोई दुनिया में कमजोर नहीं हुआ। आदमी तीन महीने बिना खाए जी सकता है, मरता नहीं। तीन महीने के बाद मौत की संभावना है। तीन महीने लायक सुरक्षित भोजन शरीर में रहता है। कोई जल्दी नहीं है। दो-चार दिन बच्चा भोजन न करे, कोई हर्जा नहीं है। उसके स्वभाव से चलने दो।
तो एक तो उन्होंने यह अनुभव किया कि बच्चे बीमारी में भोजन नहीं करेंगे। दूसरी और भी गहरी बात उन्होंने खोजी, जिसका किसी को कभी सपने में भी अनुमान न था, और वह यह थी कि बच्चे को अगर सर्दी-जुकाम है तो वह वही भोजन करेगा जिससे सर्दी-जुकाम मिटता है। या बच्चे को अगर मलेरिया है तो मलेरिया में वही भोजन करेगा जिससे मलेरिया का विरोध है।
अब यह बच्चा कैसे जानता है? क्योंकि न तो बच्चे को पता है मलेरिया का, न पता है उसे भोजन-शास्त्र का; सिर्फ उसकी शुद्ध प्रकृति, जो ठीक है, सम्यक है, उसकी तरफ ले जाती है।
बच्चे शक्कर की तरफ उत्सुक होते हैं, क्योंकि उनके शरीर को शक्कर की जरूरत है, बहुत जरूरत है। उनकी हड्डियां अभी बन रही हैं। और बच्चे दिन में इतनी दौड़-धूप करते हैं, इतना श्रम उठाते हैं कि कोई आदमी कभी नहीं उठाएगा जिंदगी में फिर, उतनी शक्कर वे पचा डालते हैं। इसलिए तुम्हें समझ में नहीं आता कि इतनी शक्कर बच्चे क्यों मांग रहे हैं।
तुमने कभी खयाल किया, हिंदुस्तान के जैसे तुम एक छोटे गांव में जाओगे उतनी मीठी मिठाई मिलेगी। बंबई में मिठाई में कम से कम शक्कर होगी, कलकत्ते में कम से कम होगी; फिर छोटे गांव की तरफ बढ़ो, मिठाई में शक्कर की मात्रा बढ़ने लगेगी। ठेठ देहात में शक्कर ही रह जाती है, बाकी तो दूसरी चीज बहाना है। यह क्यों होता है? ग्रामीण के लिए ज्यादा शक्कर की जरूरत है। उतना श्रम कर रहा है, उतनी शक्कर पचा लेता है। तुम उतनी शक्कर खाओगे तो डाइबीटीज होगी। ग्रामीण उतनी खाता है तो सिर्फ स्वस्थ रहता है, कोई डायबीटीज नहीं होती। किसी जानवर को डायबीटीज नहीं होती; हो नहीं सकती, क्योंकि वह जितना खाता है उतनी पचा डालता है।
छोटे बच्चे शक्कर खाएंगे; उनको जरूरत है। तुम उनको रोकोगे; तुम रोकोगे, उससे उनका आकर्षण बढ़ेगा। बच्चों को बड़ा क्रोध आता है कि भगवान कुछ उलटी खोपड़ी का मालूम पड़ता है; सब अच्छी चीजें खतरनाक हैं--आइस्क्रीम, रसगुल्ला--सब अच्छी चीजें जो बच्चे को जंचती हैं; डॉक्टर को नहीं जंचती, बाप को नहीं जंचती, मां को नहीं जंचती उनमें कुछ खराबी है। और सब बुरी चीजें--साग-भाजी--अच्छी हैं, उनमें विटामिन हैं। भगवान रसगुल्ले में भी विटामिन रख सकता था, मगर उलटी खोपड़ी! आइस्क्रीम में विटामिन रखने में क्या हर्जा था?
बच्चों की समझ में नहीं आता; लेकिन बूढ़े जब बच्चों को नियोजित करते हैं, तो बूढ़े अपने ढंग से नियोजित करते हैं। जिससे उनको खतरा है, वे समझते हैं, उससे बच्चे को खतरा है। यह बात गलत है।
हार्वर्ड के प्रयोग ने एक बात सिद्ध कर दी अगर बच्चों को उनकी नियति पर, प्रकृति पर छोड़ दिया जाए, तो मनुष्य-जाति पुनः स्वस्थ आहार करने लगेगी। हम उनको डगमगा देते हैं। जो वे खाना चाहते हैं, खाने नहीं देते। जो वे नहीं खाना चाहते, जबर्दस्ती मां डंडा लिए बैठी है कि खाओ। क्योंकि मां ने किताब पढ़ी है पाकशास्त्र, जिसमें लिखा है कि किस सब्जी में कितने विटामिन हैं; वह उस हिसाब से चल रही है! आदमी भोजन भी पाकशास्त्र के हिसाब से कर रहा है। आदमी प्रेम भी कामशास्त्र के हिसाब से कर रहा है। आदमी की अपनी बुद्धि खो गई है। किताब ही उसकी जैसे बुद्धि है। उसके भीतर की क्षमता देखने की, समझने की, सब मंदी और धुंधली हो गई है।
‘मुद्रा निरति।’ इसलिए योगी की मुद्रा, कबीर कहते हैं, अति से मुक्त हो जाना है। वह न कम भोजन करता, न ज्यादा। वह सम्यक आहार करता है। वह न तो कम सोता, न ज्यादा; वह सम्यक निद्रा लेता है। वह न तो कम बोलता है न ज्यादा; वह सम्यक बोलता है। वह न तो कम श्रम करता है, न ज्यादा, वह सम्यक श्रम करता है।
बुद्ध ने आठ नियम कहे हैं, जिनसे सम्यक जीवन पैदा होता है। वे सारे आठ नियम ‘सम्यक’ शब्द से शुरू होते हैं। सम्यक का अर्थ है: निरति। बुद्ध कहते हैं: सम्यक व्यायाम, सम्यक आहार, सम्यक ध्यान; ध्यान पर भी सम्यक लगाते हैं। क्योंकि कुछ पगले ऐसे हैं कि वे ध्यान ही ध्यान करने लगे हैं, तो पागल हो जाएंगे। तुम कितना सह सकते हो?
अभी चार-छह दिन पहले ही एक सज्जन आए कि ध्यान करते हैं, तो पैर सुन्न हो जाते हैं।
कितनी देर ध्यान करते हो?
सात-आठ घंटे।
पैर सुन्न नहीं होंगे तो क्या होगा? सात-आठ घंटे तुम एक ही मुद्रा में बैठोगे तो पैरों का कसूर है? पैर सात-आठ घंटे एक ही मुद्रा में बैठने को बने नहीं। तो अवधू तो नहीं पहुंच पाते सुन्न गगन में, पैर पहुंच जाते हैं।
‘सम्यक’ शब्द को मंत्र बना लो। जो भी करो, हमेशा ध्यान रखो कि वह अति पर न चला जाए। मन कहेगा, अति पर ले जाओ, क्योंकि मन अति में जीता है। मन अति है। इसलिए मन तुम्हें हमेशा धकाएगा कि अब क्या बैठे हो घंटे भर, अब दो घंटे बैठो।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने एक गधा खरीदा। जिससे खरीदा, उससे पूछा कि भाई इसको कितना खाना-पीना देना है? उसने बताया; लेकिन मुल्ला को जरा ज्यादा लगा। उसने कहा कि इतना खाना-पीना गधे के लिए? इतना तो हम अपने लिए भी नहीं...। यह तो बहुत महंगा है। यह आदमी थोड़ा ज्यादा बता रहा है, बढ़-चढ़ कर बता रहा है, गप्प हांक रहा है। गधे को और इतना खाना-पीना? इतना तो मैं अपनी पत्नी को भी नहीं देता।
तो उसने कहा कि पहले इसे अपन थोड़ा प्रयोग करके जांच कर लें कि गधा कितने में जी सकता है। तो उसने आधा, जितना बताया था, आधा दिया। गधा जी गया। उसने कहा कि यह आदमी धोखा दे रहा था। और आधा कर दिया, आधे में से आधा कर दिया। गधा फिर भी जी गया। उसने कहा कि हद हो गई! वह आदमी बिलकुल बेईमान था! अब उसने आधे में से आधे में से आधा कर दिया, यानी अब दो ही आने बचा। उसमें भी गधा जी गया। उसने कहा: हद हो गई। यह तो आदमी मेरा दिवाला निकलवा देता। उसने और आधा कर दिया--एक ही आना! गधा फिर भी जी गया। उसने दूसरे दिन दो पैसा कर दिया। फिर एक पैसा कर दिया। जिस दिन उसने एक पैसा किया, गधा अचानक मर गया। नसरुद्दीन ने कहा: हद हो गई। इतनी जल्दी भी क्या थी? अगर एक दिन और जी जाता तो बिना भोजन के रहने की कला सीख जाता!
बस एक दिन की कमी रह गई थी कि एक महान घटना घट जाती, नसरुद्दीन ने कहा कि गधा बिना भोजन के जी जाता। वह पहले ही मर गया, प्रयोग पूरा न हो पाया।
नसरुद्दीन जो गधे के साथ कर रहा है, बहुत से लोग अपने साथ कर रहे हैं। लोग न मालूम क्या-क्या उलटा-सीधा करते रहते हैं।
प्रकृति की सुनो, शरीर की सुनो; शरीर फौरन खबर देता है। शरीर बहुत बुद्धिमान है, तुम्हारे मन से ज्यादा। क्योंकि तुम्हारा मन क्या जानता है? शरीर न मालूम कितने-कितने रूपों में रहा है; उसने बड़ी प्रज्ञा इकट्ठी कर ली है, उसके रोएं-रोएं में प्रज्ञा छिपी है। तुम शरीर की सुनो।
जब भी शरीर और मन में द्वंद्व हो, तुम शरीर की सुनना। क्योंकि मन तो समाज के द्वारा आरोपित है; शरीर प्रकृति से आया है। तुमने मन की सुनी, तुम अति पर चले जाओगे। तुमने शरीर की सुनी... शरीर फौरन कहता है। भोजन तुम कर रहे हो, शरीर फौरन कहता है कि बस, रुको। आवाज कितनी ही धीमी हो, पर बराबर आती है कि बस रुको। लेकिन जीभ कहती है, मन कहता है, थोड़ा स्वादपूर्ण है भोजन, आज थोड़ा ज्यादा कर लिया, क्या हर्ज है?
तुम मन की सुनते हो। मन की सुनोगे, गड्ढे में पड़ोगे। और जब मन तुम्हें ज्यादा खिला-खिला कर ज्यादा भर देगा, स्थूल कर देगा, चर्बी बढ़ जाएगी, चल न सकोगे, उठ न सकोगे, तब मन कहेगा, अब उपवास कर लो, उरली कांचन चले जाओ; प्राकृतिक चिकित्सा की जरूरत है। प्राकृतिक बुद्धि की जरूरत है, प्राकृतिक चिकित्सा की नहीं। जिन के पास बुद्धि नहीं उनको फिर प्राकृतिक चिकित्सा की जरूरत पड़ती है।
लेकिन कोई चिकित्सक तुम्हें बुद्धि नहीं दे सकता। तुम्हें वापस ला सकता है--उपवास करवा देगा, वाष्प-स्नान करवा देगा, शरीर से पसीना बहा देगा, भूखा मारेगा, कुछ दिन सताएगा, थोड़ा-बहुत रास्ते पर ला देगा। घर पहुंचोगे, चार छह दिन में फिर वापस! क्योंकि बुद्धि कोई प्राकृतिक चिकित्सा तुम्हें नहीं दे सकती। फिर तुम वही हो जाओगे।
प्राकृतिक बुद्धि चाहिए! प्राकृतिक बुद्धि का अर्थ है: शरीर की सुनने की क्षमता चाहिए। जब शरीर कहे रुक जाओ, तब लाख मन कहे कि स्वादिष्ट भोजन है, थोड़ा और कर लो, मत सुनना। अन्यथा यही मन किसी दिन तुम्हें जैन मुनि बनवा कर रहेगा। फिर कहेगा, अब उपवास करो। पहले भी तुमने इसकी मान कर भूल की, तब तुम भोगी बन गए, अब तुम फिर इसकी मान कर भूल करोगे, त्यागी बन जाओगे।
अवधू जोगी जग थैं न्यारा।
मुद्रा निरति सुरति करि सींगी,...
दो सूत्र कबीर कह रहे हैं: मध्य में ठहर जाना तुम्हारी मुद्रा हो, और सुरति तुम्हारा वाद्य।
सुरति यानी स्मृति। सुरति यानी होश, जागरण, अमूर्च्छा, अवेयरनेस। मध्य में ठहर जाना तुम्हारी मुद्रा और होश सम्हाले रखना तुम्हारा वाद्य। फिर जो नाद पैदा होता है, वह जो एक हाथ की ताली बजती है--‘नाद न षंडै धारा’--फिर उसमें खंड नहीं पड़ते; फिर नाद अखंड बहता है! फिर वह धारा अजस्र बहती है। फिर उसमें खाली जगह नहीं आती! फिर संगीत टूटता नहीं! फिर लय बिखरती नहीं! फिर छंद बंधा ही रहता है! फिर तारी लग जाती है! फिर तुम परम आनंद में सदा-सदा को प्रविष्ट हो जाते हो--जहां से कोई लौटना नहीं है।
मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा।
बसै गगन मैं दुनि न देखै, चेतनि चौकी बैठा।
और तब तुम चेतन, चैतन्य में विराजमान हो जाते हो। ‘चेतनि चौकी बैठा, बसै गगन मैं’--और तब तुम शून्य में प्रविष्ट हो जाते हो, आकाश में! ‘दुनि न देखै’--फिर कोई दुई नहीं दिखाई पड़ती। फिर तो दोनों किनारे भी नदी के ही अंग हो जाते हैं। फिर तो अतियां भी मध्य में ही समा जाती हैं। फिर तो विपरीत भी एक के ही दो रूप हो जाते हैं।
मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा।
बसै गगन मैं दुनि न देखै, चेतनि चौकी बैठा।
चढ़ि आकास आसण नहिं छाड़ै, पीवै महारस मीठा।।
और भीतर चेतना आकाश में चढ़ती जाती है और शरीर आसन में जमा रहता है। दीया पृथ्वी पर और चेतना आकाश में। दीया जैसे जमा रहता है पृथ्वी पर ऐसा ही शरीर का आसन पृथ्वी पर--सब अर्थों में। शरीर जमा रहता है पृथ्वी पर--सम्यक भोजन करता है, सम्यक निद्रा लेता है, सम्यक श्रम करता है, जम जाता है पृथ्वी पर आसन। चेतना होश से भरती है, और चैतन्य होती जाती है, ज्योति ऊपर उठने लगती है। तुम एक दीया बन जाते हो। पृथ्वी तुम्हारा आधार, आकाश तुम्हारी आत्मा हो जाती है।
चढ़ि आकास आसण नहिं छाड़ै, पीवै महारस मीठा।
परगट कंथा माहै जोगी, दिल मैं दरपन जोवै।
सहंस इकीस छह सै धागा, निश्चला नाकै पोवै।।
और फिर ऊपर से चाहे गुदड़ी हो, भीतर हीरा होता है; ऊपर से चाहे फिर कुछ भी न हो--‘परगट कंथा माहै जोगी’--फिर चाहे योगी बाहर से गुदड़ी में लिपटा हुआ जीए; ‘दिल मैं दरपन जोवै’--लेकिन भीतर हृदय का दर्पण स्वच्छ हो जाता है; उसमें परमात्मा की झांई पड़ने लगती है।
सहंस इकीस छह सै धागा,...
इक्कीस हजार छह सौ नाड़ियां हैं शरीर में। कैसे योगियों ने जाना, यह एक अनूठा रहस्य है। क्योंकि अब विज्ञान कहता है, हां इतनी ही नाड़ियां हैं। और योगियों के पास विज्ञान की कोई भी सुविधा न थी, कोई प्रयोगशाला न थी, जांचने के लिए कोई एक्सरे की मशीन न थी। सिर्फ भीतर की दृष्टि थी, पर वह एक्सरे से गहरी जाती मालूम पड़ती है। उन्होंने बाहर से किसी की लाश को रख कर नहीं काटा था, कोई डिस्सेक्शन, कोई विच्छेद करके नहीं पहचाना था कि कितनी नाड़ियां हैं। उन्होंने भीतर अपनी ही आंख बंद करके, ऊर्जा जब उनके तृतीय नेत्र में पहुंच गई थी और जब भीतर परम प्रकाश प्रकट हुआ था, उस प्रकाश में ही उन्होंने गिनती की थी। उस प्रकाश में ही उन्होंने भीतर से देखा था।
वैज्ञानिक घर के बाहर से जांच रहा है। उसकी पहचान अजनबी की है, बहुत गहरी नहीं है। योगी ने घर के मालिक की तरह देखा था, भीतर से देखा था। फर्क है। तुम कमरे के बाहर घूम सकते हो, दीवाल की जांच कर सकते हो; लेकिन जो कमरे के भीतर रहता है, वह भीतर की दीवालों को देखता है। योगी ने भीतर के प्रकाश में, भीतर जब ज्योति जली, तो भीतर की नाड़ी-नाड़ी को गिन लिया था।
इक्कीस हजार छह सौ नाड़ियां हैं। अभी सब अलग-अलग हैं। अभी तुम ऐसे हो जैसे मनकों का ढेर। अभी तुम्हारे मनके माला नहीं बने, किसी ने धागा नहीं पिरोया है; अभी तुम मनकों का ढेर हो। धागा भी रखा है, मनके भी रखे हैं; माला नहीं हैं। इसलिए तो तुम भीड़ हो! तुम एक नहीं हो, अनेक हो। तुम्हारे भीतर पूरा बाजार है; हजारों तरह के लोग तुम्हारे भीतर बैठे हैं। कोई कुछ कहता, कोई कुछ कहता।
एक कहता है चलो मंदिर की तरफ, दूसरा वेश्यालय ले जाता है। जब तुम वेश्या के घर बैठे हो तब भी मन के भीतर कोई राम-राम जपता है। मंदिर के भीतर बैठे हो, राम-राम जप रहे हो; भीतर वेश्या की मूरत बनती रहती है। ऐसे तुम खंड-खंड हो, टुकड़े-टुकड़े हो। हजार तरफ तुम बह रहे हो। तुम एक धारा नहीं हो जो सीधी सागर की तरफ जा रही हो। तुम मरुस्थल में बिखरे हुए हो, छितरे हुए हो।
तुम्हारी इक्कीस हजार छह सौ नाड़ियां अभी माला के धागे नहीं बनीं, अभी माला नहीं बनीं, क्योंकि किसी ने धागा नहीं पिरोया है। वह धागा क्या है? उस धागे का नाम ही ‘सुरति’ है। जिस दिन तुम सारी नाड़ियों को बोधपूर्वक देख लोगे...
सहंस इकीस छह सै धागा, निश्चला नाकै पोवै।
और जिसकी मुद्रा हो गई निरति की और जिसका वाद्य बज गया सुरति का, वह धागे से पिरो देता है सारी नाड़ियों को; वह अखंड, एक हो जाता है; उसके भीतर एक का जन्म होता है।
ब्रह्म अगनि में काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।
तब उसकी काया, तब उसकी देह ब्रह्म की अग्नि में जल कर भस्मभूत हो जाती है। प्रकृति की अग्नि में तो तुम बहुत बार जल कर भस्मीभूत हुए हो, अनेक बार मरे हो, और देह को चिता पर चढ़ाया गया है। योगी भी एक चिता पर चढ़ता है, लेकिन वह चिता साधारण अग्नि की नहीं, वह ब्रह्म-अग्नि की है!
ब्रह्म अगनि में काया जारै,...
और ब्रह्म की अग्नि में सब काया, काया की सारी संभावना, बीज, सब जल जाते हैं।
...त्रिकुटी संगम जागै।
यहां काया खोती जाती है, पृथ्वी से संबंध छूटता जाता है, ज्योति उठ जाती है, दीये को छोड़ देती है और भीतर--यह तो बाहर की घटना है; भीतर--‘त्रिकुटी संगम जागै।’
‘त्रिकुटी’ योगियों का बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है। त्रिकुटी का अर्थ होता है: द्रष्टा, दृश्य और दर्शन--इन तीन धाराओं का मिल जाना। इन्हीं तीन के आधार पर प्रयाग को हमने संगम कहा है, उसको तीर्थ बनाया है। उसको तीर्थ बनाने का कुल कारण इतना है कि वह ठीक इन तीन की तरह की सूचना देता है। सरस्वती दिखाई नहीं पड़ती; गंगा यमुना दिखाई पड़ती हैं। सरस्वती अदृश्य है! ऐसे ही दृश्य और द्रष्टा दिखाई पड़ते हैं; दर्शन अदृश्य है, वह दिखाई नहीं पड़ता, वह दोनों के बीच में बह रहा है। मैं तुम्हें देखता हूं, तुम भी दिखाई पड़ रहे हो, मैं भी दिखाई पड़ रहा हूं, लेकिन हम दोनों के बीच जो दर्शन की घटना घट रही है, वह नहीं दिखाई पड़ती--वह सरस्वती है। वह अदृश्य धारा है।
और जब इन तीन का मिलन होता है--‘त्रिकुटी संगम जागै।’ जब दृश्य, दर्शन और द्रष्टा तीनों एक हो जाते हैं, तब महाजागरण होता है, वही महापरिनिर्वाण है। फिर कोई लौटना नहीं। काया जल जाती है ब्रह्म-अग्नि में। उसका उपयोग पूरा हो गया। अब कोई नया घर न बनाना पड़ेगा, अब कोई नई देह लेनी न पड़ेगी, अब कोई नये गर्भ में गिरना न पड़ेगा, अब पृथ्वी की तरफ गिरना बंद हुआ, अब ज्योति मुक्त हो गई दीये से; अब कमल कीचड़ में रहने को राजी नहीं है, अब कमल को कीचड़ में रहने की जरूरत भी नहीं है, अब कमल उठ गया। अब कमल यात्रा पर निकल गया, उसको पंख लग गए!
ब्रह्म अगनि में काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।
कहै कबीर सोई जोगेस्वर, सहज सुंनि लौ लागै।।
अब तो सिर्फ सहज शून्य में ही लौ लग जाती है, अब तो शून्य में ही विलीन होता जाता है!
कहै कबीर सोई जोगेस्वर,...
वही योगी है!
अवधू जोगी जग थैं न्यारा।
योग महानतम कला है--जीवन की भी और मरण की भी। योग पहले सिखाता है, कैसे जीओ, फिर योग सिखाता है, कैसे मरो।
ब्रह्म अगनि में काया जारै,...
पहले योग सिखाता है कैसे शरीर का सहारा लो, फिर योग सिखाता है, कैसे शरीर से मुक्त हो जाओ। पहले योग सिखाता है, कैसे जमीन पर आसन को जमाओ, ताकि ज्योति निश्चल उठने लगे, फिर योग सिखाता है, कैसे जमीन को छोड़ दो शून्य गगन में, महाशून्य में कैसे खो जाओ!
वह खो जाना ही पा लेना है। वह मिट जाना ही हो जाना है। इधर तुम मिटे उधर परमात्मा हुआ। इधर तुम न रहे, उधर उसके मंदिर का द्वार खुला। तुम ही बाधा हो, झीनी सी बाधा, पतला सा घूंघट!
घूंघट के पट खोल, तोहे पिया मिलेंगे।
आज इतना ही।