DHARAMDAS
Ka Sovai Din Rain 11
Eleventh Discourse from the series of 11 discourses - Ka Sovai Din Rain by Osho. These discourses were given during MAR 31 - APR 10 1978.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
माया रंग कुसुम्म महा देखन को नीको।
मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।।
कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल।
ज्यों पतंग उड़ि जायगो, ज्यों माया काफूर।।
नाम के रंग मजीठ, लगै छूटै नहिं भाई।
लचपच रह्यो समाय, सार ता में अधिकाई।।
केती बार धुलाइये, दे दे करड़ा धोय।
ज्यों ज्यों भट्ठी पर दिये, त्यों त्यों उज्ज्वल होय।।
सोवत हौ केहि नींद, मूढ़ मूरख अग्यानी।
भोर भये परभात, अबहिं तुम करो पयानी।।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
छुटि जैहो या दुक्ख ते, तन सरवर के पार।।
नाम झांझरी साजि, बांधि बैठो बैपारी।
बोझ लद्यो पाषान, मोहि डर लागै भारी।।
मांझ धार भव तखत में, आइ परैगी भीर।
एक नाम केवटिया करि ले, सोई लावै तीर।।
सौ भइया की बांह, तपै दुर्जोधन राना।
परे नरायन बीच, भूमि देते गरबाना।।
जुद्ध रचो कुरुक्षेत्र में, बानन बरसे मेह।
तिनहीं के अभिमान तें, गिधहुं न खायो देह।।
जोधा आगे उलट-पुलट, यह पुहमी करते।
बस नहिं रहते सोय, छिने इक में बल रहते।।
सौ जोजन मरजाद सिंध के, करते एकै फाल।
हाथन पर्वत तौलते, तिन धरि खायो काल।।
ऐसा यह संसार, रहट के जैसे घरियां।
इक रीती फिरि जाय, एक आवै फिरि भरियां।।
उपजि-उपजि विनसत करैं, फिरि फिरि जमै गिरास।
यही तमासा देखिकै, मनुवा भयो उदास।।
जैसे कलपि कलपि के, भये हैं गुड़ की माखी।
चाखन लागी बैठि, लपट गई दोनों पांखी।।
पंख लपेटे सिर धुनै, मन ही मन पछिताय।
वह मलयागिरि छांड़ि के, यहां कौन विधि आय।।
खेत बिरानो देखि, मृगा एक बन को रीझेव।
नित प्रति चुनि चुनि खाय, बान में इन दिन बीधेव।।
उचकन चाहै बल करै, मन ही मन पछिताय।
अब सो उचकि न पाइहौं, धनी पहूंचो आय।।
कल भी थीं जहनीयतें मजरूह ओहामो-गुमां
कुश्तए-ईहाम है दुनियाए इंसा आज भी
कल भी था चश्मे-बसीरत पर हिजाबे-इफ्तदार
हुर्रियत की रूह है मरहूने-जिंदा आज भी
कल भी थे जोशो-अनाके वास्ते दारो-रसन
अहले-हक के वास्ते है तेग-बुर्रां आज भी
सीनए-गेती से कल भी उठ रहा था इक धुआं
जर्राहाए-दहर है शोला बदामां आज भी
कल भी ऐसा था--ऐसा ही दुख, ऐसी ही पीड़ा, ऐसा ही संताप। वैसा ही आज भी है। और कुछ तुमने न किया तो कल भी ऐसा ही होगा। कल भी अंधविश्वास थे और आदमी उनकी जंजीरों में बंधा था--आज भी बंधा है। और अगर सजग न हुए और जंजीरें तोड़ी नहीं, तो कल भी बंधे रहोगे।
कल भी जो सत्य के मार्ग पर चले उन्हें सूली थी, आज भी है। लेकिन धन्यभागी हैं वे जो सत्य के मार्ग पर चल कर सूली पर चढ़ जाते हैं, क्योंकि उन्हीं का असली सिंहासन है।
जो प्रभु के मार्ग पर मिटना जानते हैं, वही जीवन की वास्तविक संपदा के मालिक हो पाते हैं। जो अपने को बचाते हैं, वे अपने को नष्ट कर लेते हैं। जो अपनी सुरक्षा कर रहा है, वह परमात्मा से दूर और दूर पड़ता चला जाएगा। जो साहस करता है, दुस्साहस करता है, छलांग लगाता है, वही परमात्मा के पास पहुंच पाता है।
धर्म कायरों की बात नहीं है। और ऐसा मजा हुआ है कि धर्म कायरों की बात ही हो गया है। मंदिर-मस्जिदों में मिलता कौन है?--कायर और डरे हुए लोग और भयभीत लोग। और धर्म कायरों का मामला ही नहीं है। वह उसका अभियान नहीं है, दुस्साहसी का अभियान है, जो सब दांव पर लगाने को तत्पर है, उसका अभियान है।
कल भी थीं जहनीयतें मजरूह ओहामो-गुमां
अंधविश्वासों से कल भी बुद्धि घायल थी। शकों और संदेहों, अनास्थाओं से, कल भी मनुष्य की आत्मा पर घाव थे।
कुश्तए-ईहाम है दुनियाए इंसा आज भी
और आज भी अंधविश्वासों से बर्बाद है।
तुमने जिसे धर्म समझा है, धर्म नहीं है, सिर्फ अंधविश्वास है। अंधविश्वास का अर्थ होता है--जाना नहीं और मान लिया; देखा नहीं और मान लिया। देखने में श्रम करना पड़ता है। देखने के लिए आंख मांजनी पड़ती है। देखने के लिए आंख की धूल झाड़नी पड़ती है। देखने के लिए आंख पर नया काजल चढ़ाना होता है। आंख खोलने की झंझट कौन करे! आंख साफ करने का उपद्रव कौन ले! इसलिए लोग आंख बंद किए-किए ही मान लेते हैं कि प्रकाश है। उनका मानना सिर्फ झंझट से बचना है। प्रकाश की खोज में कौन जाए? क्योंकि वहां तो कीमत चुकानी पड़ती है।
इसलिए अक्सर ऐसे लोगों की बातें, जो कहते हैं--कुछ करने की जरूरत नहीं है, बस राम-राम जप लो और सब हो जाएगा; कि रोज जाकर मंदिर में सिर झुका लो और सब हो जाएगा; कि सुबह एक प्रार्थना दोहरा लो तोतों की तरह यंत्रवत और सब हो जाएगा। ऐसे लोगों की बातें लोगों को रुच जाती हैं। मनुष्य के अकर्मण्य स्वभाव से इनका मेल बैठ जाता है।
फिर ये बातें बड़े तार्किक रूप भी ले सकती हैं। ये बातें इतने तार्किक रूप ले सकती हैं कि तुम पहचान भी न पाओ कि इनमें और पुरानी बातों में कोई संबंध है। तर्क यह भी समझा सकता है: ‘साधना से क्या होगा? साधना की जरूरत नहीं है। विधि की कोई जरूरत नहीं है। जीवन को अनुशासन देने की कोई जरूरत नहीं है।’ तर्क यह भी समझा सकता है: ‘सदगुरु की कोई जरूरत नहीं है।’ मनुष्य का अहंकार इस तरह की बातें सुनना चाहता है। सुनना चाहता है, तो सुनाने वाले लोग मिल जाते हैं। तुम जो मांगते हो, मिल ही जाएगा।
अर्थशास्त्र का एक सीधा सा नियम है कि जिस बात की मांग होगी उसकी पूर्ति होगी। मांगो भर, कोई न कोई उसे उत्पादन करने के लिए तत्पर हो जाएगा। हर तरह की चीज के उत्पादन हो जाते हैं। बाजार में मांग होनी चाहिए, फिर उत्पादक मिल जाता है।
मनुष्य की सबसे बड़ी मांग यह है कि हमें कुछ करना न पड़े, परमात्मा मुफ्त हो। मोक्ष बस कुछ न किए मिल जाए। इंच भर सरकना न पड़े। एक कदम उठाना न पड़े, जीवन के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलना न पड़े, और सत्य मिल जाए। सत्य मुफ्त मिल जाए।
जब तुम कहते हो, सत्य मुफ्त मिल जाए, तो सत्य मुफ्त देने वाले लोग तुम्हें मिल जाते हैं। पंडित और पुजारी तुम्हें धोखा दे पाए हैं--तुम्हारे ही कारण। नहीं तो कौन तुम्हें धोखा दे पाएगा? तुम आंख बंद किए प्रकाश देखना चाहते हो, दिखाने वाले मिल जाते हैं। फिर तुम जो देखते हो वह सिर्फ सपना है; वह सिर्फ तुम्हारी कल्पना है। तुमने जो परमात्मा देखा है, तुमने जो आत्मा देखी है--बस कल्पना का जाल है। यथार्थ को देखने के लिए तो सारे अंधविश्वासों की परिधियां तोड़नी पड़ेंगी, सारे विश्वास छोड़ देने पड़ेंगे। और अथक श्रम करना होगा, ताकि तुम्हारे भीतर पड़ी हुई चेतना सजग हो।
‘का सोवै दिन-रैन, विरहिनी जाग रे।’... खूब सो लिए। बहुत सो लिए। जागने में श्रम तो होगा ही। क्योंकि नींद की आदतें पुरानी हैं, लंबी हैं, अति प्राचीन हैं। नींद ही तुम्हारा अतीत है--जन्मों-जन्मों का अतीत। तो नींद बड़ी वजनी है, और जागरण की किरण तो बड़ी छोटी होगी। नींद तो तूफान की तरह है, और जागरण तो छोटे से दीये की तरह होगा। अगर तुमने सहारा नहीं दिया जागरण को, तो दीया बुझ जाएगा, कभी भी बुझ जाएगा, जल भी न पाएगा।
और आदमी का अहंकार ऐसा है कि यह मानने का मन नहीं होता कि मेरा दीया जला नहीं है। इसलिए तुम्हें धोखा देने वाले लोग मिल जाते हैं, जो तुमसे कहते हैं: तुम्हारा दीया जला ही हुआ है। तुम्हें कुछ करना नहीं है। तुम्हें कहीं जाना नहीं है। तुम्हें कुछ होना नहीं है। तुम तो बस इस जीवन-दृष्टि को पकड़ लो, इस शास्त्र को पकड़ लो, इस सिद्धांत को पकड़ लो--शेष सब हो जाएगा।
तुम करना नहीं चाहते, इसलिए तुम बदले नहीं। कल भी तुम बंधे थे, आज भी तुम बंधे हो, कल भी तुम बंधे होओगे। सत्य की कीमत चुकानी ही पड़ती है। इस जगत में कुछ भी मुफ्त नहीं है। इस बात को खयाल में रखो तो आज के अंतिम सूत्र तुम्हारी समझ में आ सकेंगे!
माया रंग कुसुम्म महा देखन को नीको।
इस जगत में तुमने जो भी पाया है, जो भी मिला है या जिसको भी मिलने की तुमने आशा बना रखी है--सब फूल के कच्चे रंग जैसा है। देखने में सुंदर लगता है, दूर से सुहावना मालूम पड़ता है। दूर के ढोल सुहावने हैं। जैसे-जैसे पास आओगे, वैसे-वैसे ही सब व्यर्थ हो जाता है। धन चाहा था, धन मिल गया और पाते ही पाया कि व्यर्थ हो गया। पद चाहा था, पद मिल गया। प्रेम चाहा था, प्रेम मिल गया। घर बसाना था, घर बसा लिया। मिला क्या? सार-निचोड़ क्या है? हाथ में क्या लगा? हाथ खाली के खाली हैं। एक धोखे से दूसरा धोखा, दूसरे धोखे से तीसरा धोखा। धोखे बदलते रहे हो, लेकिन हाथ खाली के खाली हैं। और ऐसा मत सोचना कि तुम असफल हो, इसलिए हाथ खाली हैं। जो सफल हैं उनके हाथ भी खाली हैं। सिकंदरों के हाथ भी खाली हैं।
माया रंग कुसुम्म महा देखन को नीको।
देखने में बड़ा प्यारा लगता है--इंद्रधनुष जैसा! कितना प्यारा, सतरंगा! आकाश में जैसे सेतु बना हो! लेकिन पास जाओ, मुट्ठी बांधो, तो कुछ भी हाथ न लगेगा। कोई रंग हाथ न लगेगा। कुछ भी हाथ न लगेगा; हाथ खाली का खाली रह जाएगा। इंद्रधनुष सिर्फ दिखाई पड़ता है, है नहीं। देखने में ही है जैसे रात के सपने हैं, देखने में ही हैं। देखने के बाहर उनकी कोई और सच्चाई नहीं है। जिसकी सच्चाई सिर्फ देखने में ही है, उसे माया समझना। और जिसकी सच्चाई तुम्हारे देखने के पार है; तुम चाहे देखो और चाहे न देखो, जो है; तुम चाहे मानो और चाहे न मानो, जो है; तुम चाहे जानो या न जानो, जो है--जिसकी सच्चाई, जिसका यथार्थ, तुम्हारे जानने पर निर्भर नहीं है, वही सत्य है।
तो माया और सत्य की परिभाषा खयाल रखो। माया उसे कहते हैं, जो तुम्हें दिखाई पड़ता है बस, उतना ही है जितना दिखाई पड़ता है और जब दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा, तो नहीं है। तुम्हारे देखने के बाहर कोई समानांतर यथार्थ नहीं है। बस तुम्हारी मान्यता में है। तुम्हारी धारणा में है। तुमने निर्मित किया है। तुम्हारे मन का ही सृजन है।
तुम्हें किसी चीज में सौंदर्य दिखाई पड़ता है, किसी दूसरे को वहां कोई सौंदर्य नहीं दिखाई पड़ता। तुम जिस स्त्री के प्रेम में पड़ गए हो, दूसरे लोग हंसते हैं। लोगों को भरोसा ही नहीं आता कि तुम इस प्रेम में कैसे पड़ गए! लेकिन कुछ तुम्हें दिखाई पड़ता है। वह तुम्हें ही दिखाई पड़ता है। वह तुम्हारा प्रक्षेपण है। जैसे रात तुम सिनेमागृह में बैठ जाते हो जाकर। जो तुम देखते हो, वह पर्दे पर घट नहीं रहा है, मगर तुम्हें दिखाई पड़ रहा है। और कभी-कभी जानते हुए, भलीभांति जानते हुए कि जो पर्दे पर हो रहा है, हो नहीं रहा है--तुम प्रभावित हो जाते हो, उससे आच्छादित हो जाते हो। कई बार तुम फिल्म को देखते हुए रो लिए हो या नहीं? असली आंसू बहा दिए हैं या नहीं? एक नकली पर्दे पर चलते खेल को देख कर! न वहां कोई मरता है, न वहां कोई जीता है। वहां कोरा पर्दा है, उस पर केवल छायाएं घूम रही हैं। लेकिन तुम रो दिए हो कई बार या नहीं? तुमने आंसू से अपनी आंखें भर ली हैं या नहीं? कई बार तुम हंस दिए हो। कई बार तुम उत्तेजित हो गए हो। कई बार तुम क्रुद्ध हो गए हो। कई बार तुम कामुकता से भर गए हो, कई बार करुणा से। और तुम भलीभांति जानते हो कि वहां कुछ भी नहीं है।
माया का अर्थ होता है, हमने अपना ही एक जगत बना लिया है--मनोनिर्मित। प्यारा लगता है, लेकिन यथार्थ उसमें कुछ भी नहीं है। और जिसमें यथार्थ नहीं है, उसके साथ जितना समय गया, गंवाया।
यथार्थ को खोजो। सत्य को खोजो। जो है, उसे खोजो।
माया रंग कुसुम महा देखन को नीको।
मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।।
कितनी बार तो तुमने यह जाना! कोई धनी धरमदास को कहने की जरूरत है? यह तुम्हारा भी तो अनुभव है। यह सारी मनुष्य-जाति का अनुभव है। इस अनुभव से ज्यादा बड़ा कोई अनुभव नहीं है। मगर आदमी अदभुत धोखेबाज है! इस अनुभव को भी झुठलाए चला जाता है। कितनी बार तुमने जाना नहीं कि दूर से सुंदर लगा था; पास आए, सब फीका हो गया! जब तक अपना नहीं था, सुंदर लगा था; जब अपना हुआ, सब फीका हो गया। जब तक मिला नहीं था, तब तक बड़े सपने जगे थे और जब मिल गया तो सब सपने मर गए।
मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।
और जो अंत में फीका लगता था, वह प्रथम से ही फीका था। अंत में प्रकट हो रहा है वही, जो प्रथम से था। लेकिन प्रथम से तुमने कुछ और मान रखा था। फीका जो लग रहा है अंत में, वह फीका ही था। मिठास तुम्हारी मान्यता थी। तुमने डाल दी थी मिठास। तुमने कल्पना कर ली थी। और स्वभावतः तुम्हारी कल्पना यथार्थ को पराजित नहीं कर सकती। आज नहीं कल, यथार्थ से हारेगी। आज नहीं कल, यथार्थ की टक्कर में कल्पना को टूटना ही पड़ेगा। तुम कितना ही अपनी कल्पना को बल दो और कितनी ही ऊर्जा उसमें डालो, कल्पना टूटेगी ही, टूटेगी ही टूटेगी। कल्पना कल्पना है, कितनी देर तक झुठलाओगे?
और जब टूटती है कल्पना तो विषाद घेर लेता है। उसी विषाद से दो संभावनाएं निकलती हैं। एक संभावना तो यह है कि तुम जल्दी ही, जब तुम्हारा एक कल्पना का जाल टूटने लगे, एक आशा निरस्त हो, एक सपना गिरे, तुम जल्दी से दूसरा सपना बना लेना। वही आम आदमी करता है। सच तो यह है, एक गिर भी नहीं पाता और वह नया बनाने लगता है; ताकि गिरने के पहले ही नया बन जाए। पुराना मकान गिरे, इसके पहले नया बना लेता है; कहीं ऐसा न हो कि छप्पर के बिना छूट जाऊं। इधर एक सपना तिरोहित होने लगता है, उधर वह प्राण अपने दूसरे सपने में डालने लगता है। जब तक एक गिरता है, दूसरा निर्मित हो जाता है। इसलिए तो एक वासना समाप्त नहीं होती कि तुम दूसरी वासना की जकड़ में आ जाते हो। ऐसे वासना से वासना, सपने से सपना, आदमी बदलता चलता है। और इसी बहाने आदमी जीता है। यह जीना बिलकुल झूठा है। क्योंकि तुम कितने ही सपने बदलो, सब सपने टूट जाएंगे, अंत में फीके हो जाएंगे।
एक और जीवन का ढंग है, जो कभी-कभी सौभाग्यशालियों को उपलब्ध होता है। बार-बार सपनों को टूटते देख कर आदमी यह निर्णय करता है कि अब और नहीं, अब बस काफी है।... का सोवै दिन रैन! बहुत सो लिए और बहुत सपना देख लिए, अब जागने की घड़ी आ गई, अब जागेंगे! अब और सपना नहीं बनाएंगे! और सपना न बनाना ही धर्म है। नई वासना निर्मित न करना ही धर्म है। यही धर्म में दीक्षा है--अब बिना सपने के जीएंगे।
कठिन है बिना सपने के जीना; बहुत कठिन है। वही कीमत है, जो सत्य को पाने के लिए चुकानी पड़ती है। अब बिना आशा के जीएंगे। अब बिना भविष्य के जीएंगे। अब कल की बात ही नहीं सोचेंगे--आज ही जीएंगे, अभी जीएंगे। अब जो परमात्मा करवाएगा वह करेंगे और जो परमात्मा दिखाएगा वह देखेंगे। हम अपनी कोई मंशा न रखेंगे। हम भीतर कोई छिपी आकांक्षा न रखेंगे कि ऐसा हो। जैसा होगा, जैसा है, उसको ही जानेंगे, उसको ही जीएंगे। हम अपनी तरफ से कोई प्रक्षेपण न करेंगे। हम फिल्म को हटा लेंगे। अब हम सूने पर्दे को देखेंगे, सफेद पर्दे को देखेंगे। सफेद पर्दा है, उस पर्दे पर चलती हुई रंगीन छायाएं नहीं हैं।
उस सफेद पर्दे के अनुभव का नाम समाधि है।
जो अपने चित्त से वासनाओं और सपनों की फिल्मों को हटा लेता है और जो उन फिल्मों के निर्मित करने वाले मूल-स्रोत को तोड़ देता है--जो कह देता है कि अब और नहीं, अब मैं बिना सपने के जीऊंगा, अब मेरी आंख सपने से खाली होगी, अब मैं और सपनों को अपनी आंख में नहीं बसाऊंगा, अपनी आंख में डेरा न करने दूंगा, अब मैं सपनों को मेहमानदारी अपने भीतर न करने दूंगा, नमस्कार! सपनों को जो नमस्कार कर लेता है, और आखिरी विदा दे देता है--और आंखें खाली हो जाती हैं, मन भी खाली हो जाता है। क्योंकि मन सपनों से ही भरा है। मन में और भराव क्या है? मन की और संपदा क्या है?--सपने, कल्पनाएं, आकांक्षाएं, वासनाएं, तृष्णाएं। एक शब्द में वे सब सपने का ही नाम हैं।
जैसे ही मन खाली होता है, पर्दा सफेद हो जाता है, चित्र खो जाते हैं। फिर न रोना है न हंसना है, न सुख है न दुख है। क्योंकि सुख और दुख उन चित्रों के कारण होते थे। न फिर द्वेष है न राग है। द्वंद्व गया। वे द्वंद्व भी उन चित्रों के कारण होते थे। सफेद पर्दा रह गया। और सफेद पर्दे के साथ ही शांति का अनुभव शुरू होता है। एक अपूर्व शांति भीतर सघन हो जाती है! अब सफेद पर्दा है, न कुछ हिलता है न कुछ डुलता है। पहले भी नहीं हिला था।
तुमने खयाल किया, जब सफेद पर्दे पर कोई फिल्म चल रही हो... तूफान आया है, भारी तूफान आया है, फिल्म में। झाड़-झंखाड़ गिरे जा रहे हैं, पहाड़ कंप रहे हैं, भूकंप आया है, नावें डूब रही हैं, जहाज पानी में नष्ट हुए जा रहे हैं, भवन गिर रहे हैं--तब भी तुम सोचते हो, पर्दा कंप रहा होगा इस तूफान के कारण? पर्दा कंप भी नहीं रहा है। यह सारा तूफान, यह इतने बड़े मकानों का गिरना, यह महलों का भूमिसात हो जाना, यह पहाड़ों का कंपना, ये बड़े-बड़े दरख्त, इनकी जड़ें उखड़ जानीं, यह लोगों का मरना, यह जहाजों का डूबना--यह सब हो रहा है। लेकिन क्या तुम सोचते हो जिस पर्दे पर यह हो रहा है, वह पर्दा जरा भी कंप रहा है? उसमें कंपन भी हो रहा है? उसमें कोई कंपन भी नहीं है। उसे पता ही नहीं है इस तूफान का। यह तूफान सिर्फ तुम्हारी कल्पना में हो रहा है। पर्दे के लिए हुआ ही नहीं।
ऐसा ही एक पर्दा तुम्हारे भीतर है, जिसको ज्ञानियों ने ‘साक्षी’ कहा है। सफेद है पर्दा। उस पर कुछ कभी नहीं हुआ, न कभी वहां कुछ हो सकता है। वहां सदा से शांति है। वहां सदा से शून्य विराजमान है। उसको अनुभव कर लेना, सत्य को अनुभव करना है। उसको जानना, ब्रह्म को जानना है। उसको जानते ही, व्यक्ति ब्राह्मण हो जाता है। सपनों में खोए रहना--शूद्र। सत्य के प्रति जाग जाना--ब्राह्मण। जो सपने में खोए हैं, वे सब शूद्र हैं। वे ब्राह्मण घर में पैदा हुए हों, इससे फर्क नहीं पड़ता। और जो जाग गए हैं, वे चाहे शूद्र घर में पैदा हुए हैं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, वे ब्राह्मण हैं।
माया रंग कुसुम्म महा देखन को नीको।
मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।।
कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल।
और लाख उपाय करो...
कोटिन जतन रह्यो नहीं,...
लाख उपाय करो, इस माया में किसी चीज को तुम ठहरा नहीं सकते। यहां सब प्रवाह है--आया और गया! यहां एक क्षण को भी तुम किसी चीज को ठहरा नहीं सकते। हैराक्लितु ठीक है, जिसने कहा है कि एक ही नदी में दुबारा नहीं उतरा जा सकता। एक ही चीज को दुबारा नहीं जाना जा सकता। दुबारा जानने लायक समय कहां है? चीज बह गई। हर चीज बही जा रही है।
लेकिन हमारी पूरी चेष्टा जीवन भर यही होती है कि पकड़ लें, रोक लें। जवानी है तो जवानी को नहीं जाने देते, कि कहीं बुढ़ापा न आ जाए! किस-किस भांति हम रोकने की कोशिश करते हैं, रुकती है जवानी? जीवन है तो जीवन को पकड़े रखना चाहते हैं, मौत न आ जाए! रुकता है जीवन? मौत आती ही चली जाती है। हमारे सब उपाय हार जाते हैं। हम हर चीज को रोके रखना चाहते हैं और हमें इस बात का खयाल ही नहीं है कि जिसे हम रोके रखना चाहते हैं, वह रुक नहीं सकती। माया का स्वभाव रुकना नहीं है। सपने का स्वभाव रुकना नहीं है। सपने का स्वभाव बहाव है।
सत्य ठहरा हुआ है। सत्य शाश्वत है। वहां कोई बहाव नहीं है। वह सदा एक रस है। सपने को तो बहता ही रहना पड़ता है। बहने में ही उसका जीवन है।
ऐसा समझो कि तुम फिल्म देखते हो, प्रभावित होते हो, आंदोलित हो जाते हो, दुखी-सुखी हो जाते हो; मगर अगर एक ही चित्र तुम्हारे सामने बना रहे पर्दे पर, तो क्या तुम सुखी-दुखी होओगे? एक ही चित्र बना रहे, चित्र बदले न, तो तुम कितनी देर तक समझोगे कि यह चित्र सही है? ज्यादा देर नहीं समझ पाओगे कि चित्र सही है। थोड़ी देर में ही समझ जाओगे, ऊब जाओगे कि अब बस उठूं, अब घर जाऊं। अब यह एक ही चित्र है, कुछ हो ही नहीं रहा है।
वह जो कुछ हो रहा है, वही तुम्हें उलझाए रखता है। वह जो परिवर्तन है, वही तुम्हें उलझाए रखता है। अगर जगत एक क्षण को भी ठहर जाए, तो तुम जगत से मुक्त हो जाओ। जगत बदलता रहता है--नये नृत्य, नये रंग, नये ढंग, नये परिधान हैं।
तुम देखते हो न, हर चीज की फैशन बदलती रहती है। वह जगत का हिस्सा है। लोग कपड़े बदल लेते हैं, गहने बदल लेते हैं, मकान बदल लेते हैं, नौकरियां बदल लेते हैं, पत्नियां बदल लेते हैं, पति बदल लेते हैं, बदलाहट, बदलाहट... मन कहता है बदलो। मन डरता है किसी चीज से, अगर ज्यादा देर साथ रह गए, तो कहीं भ्रम न टूट जाए। तो मन कहता है, बदलते रहो। मन सतत बदलने के लिए प्रेरणा देता रहता है, क्योंकि मन जी ही सकता है बदलाहट में। और माया भी जी सकती है बदलाहट में।
माया यानी मन का विस्तार। मन, जिसको हम भीतर कहते हैं--वह। और माया, मन का ही बाहर जो विस्तार है--वह। मन--भीतर की माया; माया--बाहर का मन। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। परिवर्तन में सारा खेल है।
इस देश ने एक अनूठा प्रयोग किया था। उस प्रयोग का शायद तुम्हें खयाल भी न रहा हो। सदियों तक हमने एक प्रयोग किया था। वह प्रयोग यह था कि जिंदगी को इस तरह रखा था कि उसमें ज्यादा बदलाहट न हो। इसलिए हमने एक स्त्री से विवाह किया, तो उस पर जोर दिया कि बस अब एक ही स्त्री के साथ रहना है। जीवन भर... एक पत्नी, एक पति। लोग एक तरह के कपड़े पहनते थे तो सदियां बीत जाती थीं उसी तरह के कपड़े पहनते थे। लोग अपने गांव में रहते थे, तो अपने गांव में ही रहे आते थे।
लाओत्सु ने लिखा है कि मैं जब बच्चा था तो नदी के उस पार दूसरा गांव था। वहां के कुत्ते भौंकते थे तो हमें सुनाई पड़ते थे। और वहां सांझ को भोजन पकाया जाता था तो मकानों के ऊपर से उठता हुआ धुआं भी हमें दिखाई पड़ता था। लेकिन किसी को उत्सुकता नहीं थी कि जाकर देखें कि कौन वहां रहता है। हम अपने गांव में मस्त थे, वे अपने गांव में मस्त थे। लोग एक गांव में पैदा होते, वहीं मर जाते थे, वहीं जीते थे।
यह एक अनूठा प्रयोग था। इस प्रयोग के पीछे बुनियादी कारण क्या था? बुनियादी कारण यह था: अगर जगत में कम से कम परिवर्तन हों तो तुम जल्दी ही जगत से मुक्त होने की आकांक्षा से भर जाते हो। अगर एक ही पत्नी के साथ तुम्हें जिंदगी भर रहना पड़े तो तुम कितनी देर तक चूकोगे, यह बात समझने से--‘मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।’ कैसे बचोगे? तुम चकित होओगे जान कर कि इसके पीछे एक आध्यात्मिक प्रक्रिया थी। अमरीका में बहुत मुश्किल है यह जानना। क्योंकि चार दिन में तो पत्नी बदल जाती है। दो-चार दिन के बाद ही लगेगा न फीका। लेकिन दो-चार दिन फीका लगने के पहले ही पत्नी बदल ली। तो हनीमून चलता ही रहता है। एक हनीमून से दूसरा हनीमून, दूसरे से तीसरा हनीमून। बदलाहट इतनी तेजी से होती रहती है कि भ्रांति टूटती नहीं।
अमरीका में लोग औसत रूप से तीन साल से ज्यादा एक धंधे में नहीं रहते। एक ही धंधे में रहोगे, ऊब ही जाओगे। ऊब बिलकुल स्वाभाविक है। और जब ऊब होती है तो पता चलना शुरू होता है कि सब फीका है, सब व्यर्थ है। लेकिन धंधा हर तीन साल में बदल लिया। तीन साल ही अमरीका में धंधे बदलने का औसत है और तीन साल ही मकान बदलने का औसत है और तीन साल ही पत्नी-पति बदलने का औसत है। तीन साल से कुछ संबंध दिखता है मन का। तीन साल के बाद दिखता है, ऊब सघन हो जाती है और सपना टूटने के करीब आ जाता है। इसके पहले कि सपना टूटे, बदल लो; नया सपना देखना शुरू करो।
वही फिल्म रोज-रोज देखोगे, कितने दिन तक रोओगे?--यह मुझे कहो। पहले दिन रो लोगे, दूसरे दिन रो लोगे, तीसरे दिन रो लोगे--कब तक रोओगे, यह मुझे कहो। दो-चार दिन के बाद तुम कहोगे: ‘बहुत हो गया। अब क्या रोना है? फिल्म है, कहानी है, ठीक है।’ वही उपन्यास पढ़ोगे, कितने दिन तक उत्सुकता रहेगी?
हमने जीवन के हर पहलू पर यह प्रयोग किया था। हमने सदियों तक एक ही फिल्म देखी--‘रामलीला।’ सदियां आईं और गईं--और वही राम, और वही सीता और वही रावण, और फिर वही कहानी, और फिर वही कहानी। और हर वर्ष लोग देखते ही रहे, देखते ही रहे, देखते ही रहे। इसके पीछे कुछ कारण था। हमने चाहा था कि चीजें थोड़ी थिर हो जाएं, ताकि थिरता से भ्रांति साफ हो जाए।
कभी-कभी फिल्म में इंजिन बिगड़ जाए या प्रोजेक्टर खराब हो जाए, और फिल्म रुक जाती है। उसी वक्त तुम्हारी भाव-दशा भी रुक जाएगी। इधर फिल्म रुकी, उधर भाव-दशा रुकी।
बदलाहट के साथ ही मन जी सकता है।
यह आकस्मिक नहीं है कि बुद्ध और महावीर, और बहुत-बहुत ज्ञानी जंगलों में चले गए, पहाड़ों में चले गए। कारण था। जंगल और पहाड़ सदा वैसे के वैसे हैं। आदमी बदलाहटें कर लेता है, जंगल और पहाड़ तो सदा वैसे के वैसे हैं। वही एकरसता है। महावीर ने तो और हद कर दी! तुमने देखा है, जैनों के जो तीर्थस्थान हैं वे जंगलों में नहीं हैं, पहाड़ों पर हैं। और उन पहाड़ों पर हैं, जो बिलकुल सूखे हैं, जहां वृक्ष नहीं हैं। सुंदर पहाड़ नहीं चुने। क्योंकि जहां वृक्ष हैं, वृक्षों के साथ थोड़ी बदलाहट होती ही रहती है। पतझड़ आएगा, पत्ते गिरेंगे। फिर बसंत आएगा, फूल खिलेंगे। लेकिन खाली पत्थर, सूखे पत्थर--वहां कुछ नहीं बदलता, सब थिर है। कितनी देर तुम बाहर में उत्सुकता रखोगे? देखते रहे चट्टान को, देखते रहे चट्टान को। वहां न कुछ बदलता है कभी, न कभी बदला है, न कभी बदलेगा--तुम समाप्त हो जाओगे, चट्टान जैसी थी वैसी की वैसी है, वैसी की वैसी रहेगी। कितने दिन तक उत्सुकता रहेगी? जल्दी ही उत्सुकता खो जाएगी। बाहर से आंखें भीतर की तरफ मुड़ने लगेंगी। ऊब पैदा हो जाएगी।
मीठो दिन दुई चार,...
दो-चार दिन जल्दी ही विदा हो जाएंगे।...
...अंत लागत है फीको।
सब फीका लगने लगेगा। और जब यह संसार फीका लगता है, तो परमात्मा की तलाश शुरू होती है। कोई खोजे क्यों परमात्मा को, जब संसार ही फीका न लगता हो? जब यहां काफी रस ही आ रहा हो, कोई खोजे क्यों! जब रस आ रहा हो तो यहीं परमात्मा मिल रहा है, कोई खोजे क्यों? संसार के फीके अनुभव से आदमी उस तरफ चलना शुरू होता है, जहां वस्तुतः रस होगा।... रसो वै सः! तब असली रस की तलाश शुरू होती है।
कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल।
माया तो बदलती ही रहती है, बदलने में ही जीती है। बदलना उसका सार-सूत्र है, जीवन की आधारशिला है। और तुम लाख उपाय करो, बचा न सकोगे। तुम्हारा किसी से प्रेम हो गया। तुम कितना उपाय करते हो कि अब यह प्रेम बना ही रहे, मगर यह बना नहीं रह सकता। यहां कोई चीज बनी नहीं रह सकती। यहां सब बनता है--मिटने को। यहां सब बसता है--उजड़ने को। कितने हमने उपाय किए हैं कि पत्थरों के महल बनाएं जो कभी न गिरें; वे भी गिर जाते हैं; वे भी समाप्त हो जाते हैं; वे भी एक दिन धूल हो जाते हैं, रेत हो जाते हैं। हमारा यहां बनाया हुआ कुछ भी टिक नहीं सकता। टिकना यहां स्वभाव नहीं है।
कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल।
यह हो ही नहीं सकता; क्योंकि माया का स्वभाव ही एक नहीं है, अनेक है। उसके मूल में एक है ही नहीं, अनेकता है। अगर थिर को पाना हो, शाश्वत को पाना हो, तो एक को खोजना पड़ेगा, मूल को खोजना पड़ेगा। उस मूल में ही विश्राम है। जो कभी न बदले, उसी में मुक्ति है। क्योंकि फिर निश्चिंतता है, फिर सुरक्षा है। फिर घर आ गया।
ज्यों पतंग उड़ि जायगो, ज्यों माया काफूर।
यह माया तो ऐसे उड़ जाएगी जैसे कपूर उड़ जाता है। इसलिए कपूर को मंदिरों में प्रार्थना और पूजा के लिए चुना था। वह प्रतीक था माया का। वह खबर देता था कि यहां सब चीजें उड़ जाने वाली हैं। कपूर... आरती उतारते हैं कपूर रख कर। क्षण भर को भभक उठती है और सुगंध फैलती है। क्षण भर को लपट और फिर सब सन्नाटा। धुआं भी खो गया, ज्योति भी खो गई, गंध भी खो गई।
इसमें प्रतीक देखते हो? पत्थर की प्रतिमा बनाते हैं, कपूर की आरती उतारते हैं। सूचना इस बात की है कि पत्थर की प्रतिमा--आरती बनी तब भी थी; आरती उतारी तब भी थी; कपूर जला तब भी थी; कपूर भभका तब भी थी; कपूर शांत हो गया तब भी है; कपूर का अब कोई नामोनिशान न रहा तब भी है। ऐसा ही सत्य और माया है। माया कपूर जैसी है।
ज्यों पतंग उड़ि जायगो, ज्यों माया काफूर।
नाम के रंग मजीठ, लगै छूटै नहिं भाई।
एक ही चीज इस जगत में है, उस प्रभु का नाम। उस प्रभु का रंग--जो पक्का है; लग जाए तो फिर छूटता नहीं। जब तक नहीं लगा, तब तक तुम्हें इस बात का पता भी नहीं होता; जब लग जाता है तभी पता होता है।
नाम के रंग मजीठ, लगै छूटै नहिं भाई।
लचपच रह्यो समाय, सार ता में अधिकाई।।
और अगर कहीं उस प्रभु की स्मृति उठने लगे, अगर किसी सत्संग में उसकी याद आने लगे, उसका भाव जगने लगे, तो फिर कंजूसी मत करना, कृपणता मत करना।...
लचपच रह्यो समाय,...
अगर कहीं यह भाव उठता हो तो डुबकी मार जाना। फिर खड़े मत रहना किनारे पर। अगर कहीं यह गंगा बहती हो, तो चूक मत जाना। मुश्किल से कभी यह संयोग होता है कि कहीं गंगा बहती है उसके नाम की। और कहीं तुम खड़े ही रहे किनारे और चूक गए और चूक सकते हो।
लचपच रह्यो समाय,...
धनी धरमदास कहते हैं: फिर चूकना मत। छलांग मार जाना। फिर तो एकरस हो जाना। जहां उसके प्रेम की चर्चा होती हो, जहां उसके नाम का गीत-गायन होता हो, जहां उसकी स्मृति में नृत्य चलता हो, जहां लोग प्रार्थना में लीन हों, जहां लोग परम का उच्चार कर रहे हों, जहां बैठ कर प्रभु की प्रशंसा की जा रही हो--वहां लचपच हो जाना। ऐसे दूर-दूर मत खड़े रहना, बचाए-बचाए मत खड़े रहना। वहां अछूत बने मत खड़े रहना। सम्मिलित हो जाना नृत्य में! डूब जाना संगीत में।
मगर बड़ा कठिन है। लोग हजार बहाने खोज लेते हैं दूर खड़े रहने के। जो लचपच हो गए हैं, उन्हें तो वे पागल समझते हैं। वे सोचते हैं: इनको क्या हो गया? अच्छा-भला आदमी, इसको क्या हो गया? यह कहां की बातों में पड़ गया! अभी कुछ धन कमाता, अभी कुछ पद बनाता। अभी तो मौके हाथ लगने को थे। अभी तो बाजार की किस्मत बदलने को थी। अभी कहां भागा जा रहा है। अभी तो सौदा कर लेने का समय था। इसे कहां की राम की बात पकड़ गई? इसे कौन से प्रभु का स्मरण आ गया? सब भ्रांति है। अपने को बचाओ। आदमी पहले तो ऐसी जगह जाता नहीं। ऐसी जगह खतरनाक है। लोग सत्संग से ऐसे बचते हैं, जैसे लोग प्लेग से भी नहीं बचते।
जॉर्ज गुरजिएफ के संबंध में, उसके एक विरोधी ने यह वक्तव्य फ्रांस में फैला रखा था कि गुरजिएफ से इस तरह बचो जैसे कोई प्लेग से बचता है। और इसमें सच्चाई है; क्योंकि प्लेग का मारा तो शायद बच भी जाए, गुरजिएफ का मारा नहीं बचेगा। सत्संग में जो मारा गया, मारा गया, सदा के लिए मारा गया; फिर वहां से जिंदा लौटने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए लोग बचते हैं। या अगर चले भी जाते हैं तो बहरे हो जाते हैं, कठोर हो जाते हैं, पाषाण की तरह हो जाते हैं। अगर चले भी जाते हैं तो हजार तरह की शंकाओं को भीतर उठाते रहते हैं, हजार तरह से मन डांवाडोल करते रहते हैं। अगर कहीं सम्मिलित भी हो जाते हैं, तो भी अधूरे-अधूरे सम्मिलित होते हैं, पूरे नहीं सम्मिलित होते। और जब तक तुम सौ प्रतिशत सम्मिलित नहीं हो, सम्मिलित नहीं हो। क्योंकि सौ प्रतिशत से कम में कोई सम्मिलन होता ही नहीं।
देखा न, पानी जब गरम होता है तो सौ डिग्री पर भाप बनता है। तुम यह मत सोचना कि अट्ठानबे डिग्री पर बनना चाहिए, कुछ तो बनना चाहिए, अट्ठानबे प्रतिशत भाप बनना चाहिए। नहीं, एक प्रतिशत भी नहीं बनता। निन्यानबे डिग्री पर भी नहीं बनता। जरा सी भी कमी रह जाए सौ डिग्री में तो पानी भाप नहीं बनता। भाप तो बनता है ठीक सौ डिग्री पर।
और ऐसे ही उसका रंग लगता है ठीक सौ डिग्री पर। कभी-कभी आदमी बचता है, आता ही नहीं; आ जाता है तो बहरा हो जाता है। ऐसे सुनता है जैसे बिलकुल वज्र-बहरे! जीसस ने बार-बार अपने शिष्यों से कहा है: ‘कान हों तो सुन लो। आंख हो तो देख लो।’ उनके पास तुम जैसे ही कान थे, और तुम जैसी ही आंखें थीं। वे अंधों से और बहरों से नहीं बोल रहे थे। वे कोई अंधे-बहरों के स्कूल में नहीं चले गए थे। फिर क्यों बार-बार जीसस कहते हैं, ‘आंख हों तो देख लो। कान हों तो सुन लो’, क्योंकि आंखें भी हैं, लेकिन लोग बंद किए होते हैं; जीसस को देखने में डर लगता है। कहीं यह आदमी दिख जाए, तो फिर हमारी जिंदगी वही की वही नहीं रह जाएगी जैसी थी। एक भूचाल आएगा। एक क्रांति घटेगी। इसका रंग चढ़ जाएगा। कान हैं तो बंद कर लेते हैं। सुनते मालूम पड़ते हैं और सुनते नहीं। फिर सुन भी लें तो भीतर हजार तरह के विवाद करते हैं। सुन भी लें तो कुछ का कुछ अर्थ कर लेते हैं। सुन भी लें, बात कुछ खयाल में भी आ जाए, तो पूरा नहीं उतरते। होशियारी से चलते हैं। होशियारों का यह काम नहीं। चालाकी से चलते हैं।
यहां मेरे पास लोग हैं; सब तरह के लोग हैं। ऐसे लोग भी हैं जो संन्यस्त हो गए हैं और फिर भी होशियार हैं। संन्यस्त होकर और होशियार! फिर तुम संन्यस्त हुए ही नहीं। होशियारी! अभी भी तुम अपना हिसाब लगाए रखते हो। मुझे भी धोखा देते रहते हैं। कोई धोखा देने का मौका आ जाए तो नहीं चूकते। फिर यह भी उपाय करते रहते हैं कि धोखा नहीं दिया, इसका पता भी न चल पाए। फिर पकड़े जाते हैं तो क्षमायाचना कर लेते हैं। मगर वह क्षमायाचना भी झूठ होती है। वह झूठ इसलिए होती है कि फिर दुबारा वही करते हैं। वह क्षमायाचना सच कैसे हो सकती है? इस तरह की चालबाजियां! तो फिर यहां रहो ही मत। फिर तुम्हें जहां ठीक लगे वहां जाओ। लेकिन जहां जाओ, वहां सौ प्रतिशत डूबो। कहीं भी डूबो तो!
असली बात डूबने की है; कहां डूबे, यह सवाल नहीं है। किस सत्संग में तुम्हें रंग चढ़ेगा, यह बड़ा महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि रंगरेज तो एक ही है, उसके हाथ अनेक होंगे। मगर रंग चढ़ने दोगे, तब न! दूर-दूर खड़े रहे, बचाव करते रहे, छाता लगाए रहे कि रंग पड़ न जाए कहीं ऊपर...।
तुम्हारी हालत वैसी ही है जैसी कि होली के दिनों में होती है लोगों की। लोग रंग डालने निकलते हैं, डलवाने निकलते हैं; फिर भी उपाय करके निकलते हैं। एक तो साल भर लोग कपड़े बचा कर रखते हैं फाग के लिए; गंदे-पुराने कपड़े बचा कर रखते हैं। धुलवा कर रखते हैं कि जंचें ऐसे कि बिलकुल साफ-सुथरे कपड़े पहने हुए हैं; मगर खराब हो जाएं तो कुछ हर्जा नहीं, कुछ खोता नहीं। तो फिर जरूरत क्या थी रंग डलवाने की और रंग डालने की? किसको धोखा दे रहे हो?
मुझे बचपन की याद है। मेरे घर में भी वही होता था। कोई फटा-पुराना कपड़ा होता, वे सम्हाल कर रख देते कि इसको रख दो, होली पर काम आएगा। मैं उनसे कहता: फिर होली में जाने की जरूरत क्या है? होली के लिए तो तुम अगर ताजे नये कपड़े बनाते हो तो ही मैं जाने वाला हूं, नहीं तो नहीं जाने वाला हूं। फिर गए किसलिए? उनका रंग खराब करवाने को? अपने कपड़े खराब हैं ही, उनका रंग और खराब करवाया। और कपड़े फेंक दिए, झंझट मिटी।
तो मैं तो होली पर जब जाता था तो ताजे कपड़े ही लेकर जाता था। नहीं तो मैं कहता था कि मैं निकलूंगा ही नहीं घर से, क्योंकि इसका कोई सार ही नहीं है। उनको क्यों धोखा देना? वे बेचारे बड़ी तैयारी किए होंगे। रंग घोल कर रखे होंगे, पिचकारी सजाई होगी। और ये कपड़े तुमने धुलवा कर रख दिए हैं, कलफ चढ़वा कर रख दिए हैं। ये बड़े साफ-सुथरे मालूम हो रहे हैं। मगर मुझे पता है। उनको पता नहीं है, यह ठीक है। मगर उनको भी पता होगा, क्योंकि वे भी ऐसे ही कपड़े पहने हुए हैं।
तुम संन्यस्त भी हो जाते हो, तो भी रंगते नहीं। तुम्हारी चालबाजियां जारी रहती हैं। तुम अपना गणित बिठाए रखते हो। अपना ही गणित बिठाना है, तो फिर मुझसे संबंध नहीं जुड़ा। अपना गणित नहीं जीता है, इसीलिए तो आदमी संबंध जोड़ता है कि अपने सोचने से नहीं हो सका, अब किसी के साथ संबंध जोड़ लें; अब किसी का हाथ पकड़ लें और अब चल पड़ें अज्ञात की दिशा में। मगर सौ प्रतिशत होना चाहिए।...
लचपच रह्यो समाय,...
यह सौ प्रतिशत का अर्थ है: ‘लचपच रह्यो समाय।’ ऐसा नहीं, ऊपर-ऊपर नहीं। रंग ही जाओ--बाहर-भीतर! शरीर भी रंगे और आत्मा भी रंग जाए। फिर यहां-वहां जाने की जरूरत नहीं रह जाती, कोई कारण नहीं रह जाता। जो रंग गया वह रंग गया।और अगर तुम यहां-वहां जाते रहे तो खयाल रखना: जिस मात्रा में तुमने मुझे धोखे दिए हैं, उसी मात्रा में तुम मुझे चूक जाओगे। फिर मुझसे मत कहना पीछे। क्योंकि जिम्मेवारी तुम्हारी है। तुम अगर मेरे साथ पूरे नहीं हो तो तुम मुझे अपने साथ कैसे पूरा पाओगे? मैं तुम्हारे साथ उतना ही हो सकता हूं जितना तुम मेरे साथ हो। और उतनी ही तुम्हारी उपलब्धि होगी।
संग-साथ या तो सौ प्रतिशत हो तो बदलाहट लाता है, नहीं तो व्यर्थ चला जाता है। नाहक की मेहनत हो जाती है।
लचपच रह्यो समाय, सार ता में अधिकाई।
धनी धरमदास कहते हैं: उसमें बहुत सार है, अगर पूरी डुबकी लगा लो, अगर लचपच हो जाओ।
केती बार धुलाइये, दे-दे करड़ा धोय।
सौ प्रतिशत डूबो तो फिर कितनी ही धुलाई की जाए और कितने ही कड़ेपन से धुलाई की जाए...
ज्यों ज्यों भट्ठी पर दिये, त्यों त्यों उज्ज्वल होय।
और फिर तो जैसे-जैसे भट्टी पर चढ़ाए जाओगे, वैसे-वैसे रंग और निखरेगा और सजेगा, संवरेगा।
जीवन की चुनौतियां सत्संग को नष्ट नहीं करतीं। सत्संग हो तो जीवन की चुनौतियां सत्संग को गहराती हैं। भट्टी बन जाती है जिंदगी। वहां हर घटना रंग को और गहन करती है। संसार फिर परमात्मा से छुड़ाता नहीं जब तक परमात्मा से जुड़े नहीं हो, तब तक संसार परमात्मा से छुड़ा सकता है। एक बार जुड़े, एक किरण उतरी, एक आभास हुआ, एक प्रतीति हुई कि फिर संसार परमात्मा से तुड़वाता नहीं, जुड़वाने लगता है। फिर तो संसार का हर अनुभव उसी की याद दिलाने लगता है। संसार का हर कांटा फिर उस फूल की स्मृति दिलाता है। संसार का सुख उस महासुख की याद दिलाता है। संसार का दुख भी उस महासुख की याद दिलाता है। फिर तो संसार के सब सुख-दुख उसी की याद दिलाते हैं। फिर उसकी याद ही तुम्हारी जीवन-विधि हो जाती है, व्यवस्था हो जाती है। फिर तो कुछ भी हो, उसी की याद आती है। सुबह देखा आकाश में शुभ्र घूमते हुए बादलों को--और उसी की याद आ जाएगी। सूरज निकला--और उसी की याद आ जाएगी! वर्षा हुई--और उसी की याद आ जाएगी! पक्षी उड़े--और उसी की याद आ जाएगी! कोई बच्चा हंसा--और उसी की याद आ जाएगी!
यह मस्त फजाएं किसने अनोखी खुशबू से महकाई हैं?
यह कैसी बहिश्तें उल्फत की हर नख्लो-शजर पर छाई हैं?
क्यों आज बहारों की परियां पैगामे-मसर्रत लाई हैं?
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
फिर तो हर तरफ से उसी की खबर आने लगती है। यह स्वर्ग क्यों उतर रहा है आज! ये आनंद के संदेश आज क्यों आ रहे हैं, कहां से आ रहे हैं !
पहले भी तुमने देखा था सौंदर्य, तब तुमने समझा था, फूल का है। अब फूल गया; अब सब सौंदर्य परमात्मा का है। पहले भी तुमने सौंदर्य देखा था; सोचा था, स्त्री का है, पुरुष का है। अब गए स्त्री-पुरुष; अब सब सौंदर्य उसी का है।
दुनिया पै है तारी रंग नया आलम ने भी बदले हैं चोले
यह किसने अदाए-खास से फिर रुखसारे-महो-अंजुम खोले
और एक हसीन अंगड़ाई की हर जुंबिश से मोती रोले
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
कुछ दर्द-सा है दिल वालों में, कुछ सोज भी है अफसानों में
एहसासे-गमे-महरूमी लो बेदार हुआ दीवानों में
इक लगजिशे-पैहम होने लगी फिकरत के हंसी इवानों में
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
हर जर्रए-आलम रक्सां है, मुशातिए फितरत जोश में है
इक होश की दुनियां मुजतर-सी हस्ती के दिले-बदहोश में है
थी जिसकी तमन्ना मुद्दत से जैसे कि वही आगोश में है
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
है चाक गरेबां-गुंच-ओ-गुल खंदां है गुलिस्तां एक तरफ
आकाश तले हैं शैखो-बरहमन खुल्दे-बदामा एक तरफ
और आलमे-सरशारी में ‘हया’ है आज गज़ल ख्वां एक तरफ
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
फिर सब गीत उसके हैं। सब सौंदर्य उसका, सब सुगंध उसकी, सब रूप उसका। फिर हर रूप में अरूप है और हर आकार में निराकार है। फिर हर आंख में वही झांकता है। वही खोजने वाला है, वही देखने वाला है, वही दृश्य है। वही गंतव्य है, वही गंता, वही गति।
एक बार रंग लगे, संसार विलीन हो जाता है। संसार परमात्मा में लीन हो जाता है। एक बार तुम लचपच हो जाओ परमात्मा में, तो तुम पाओगे परमात्मा संसार में लचपच है। लेकिन यह पहचान जब तक तुम्हारी अपनी न हो, तब तक किसी काम नहीं आती।
लचपच रह्यो समाय, सार ता में अधिकाई।
केती बार धुलाइये, दे दे करड़ा धोय।
ज्यों ज्यों भट्ठी पर दिये, त्यों त्यों उज्ज्वल होय।।
सोवत हौ केहि नींद, मूढ़ मूरख अग्यानी।
अब क्यों सो रहे हो? किसलिए सो रहे हो? यह पीड़ा सदा उनको रही है जिन्होंने जाना। उनकी समझ में यह नहीं आता कि सोने की अब जरूरत क्या है, कारण क्या है? काफी सो लिए हो। और सो कर बहुत दुख-स्वप्न देख लिए हैं, बहुत नरक भोग लिए हैं। सोने में सार भी कुछ नहीं पाया, फिर भी सोए हो?
और अगर धनी धरमदास जैसे व्यक्तियों को इस तरह के कठोर शब्द बोलने पड़े--मूढ़, मूरख, अग्यानी--तो सिर्फ करुणा के कारण। ये तीनों शब्द समझने जैसे हैं।
सोवत हौ केहि नींद, मूढ़ मूरख अग्यानी।
‘मूढ़’ सबसे खतरनाक होता है; ‘मूरख’ उससे थोड़ा कम; ‘अज्ञानी’ उससे थोड़ा कम। अज्ञानी का अर्थ होता है: ज्ञान का अभाव। मूरख का अर्थ होता है: अज्ञान की आदतें। मूढ़ का अर्थ होता है: अज्ञान की जिद। इस भेद को समझ लेना। अज्ञानी का अर्थ होता है: बच्चे जैसा; उसे अभी पता नहीं है; भोलाभाला। पता हो जाए तो यात्रा पर निकल पड़ेगा। जब यहां कोई अज्ञानी आ जाता है तो ज्यादा देर नहीं लगती उसके लचपच होने में; हो जाता है। क्योंकि उसे कोई अज्ञान की आदत नहीं है; सिर्फ अभाव है ज्ञान का। उसे रोशनी दिखाई नहीं पड़ी कभी; दिखाई पड़ती तो वह पहचान लेता। उसकी कोई ऐसी भीतरी आग्रह की दशा नहीं है, ऐसा कोई पक्षपात नहीं है कि मैं रोशनी को देखूंगा ही नहीं।
इसलिए कभी-कभी तुम हैरान होओगे, अज्ञानी ज्ञान के सर्वाधिक करीब होता है--तुम्हारे पंडितों से भी ज्यादा करीब होता है! पंडित की गिनती मूरख में करनी चाहिए। उसे भ्रांति होती है कि मैं जानता हूं, और जानता नहीं। और जब भ्रांति होती है कि मैं जानता हूं, तो उसके पास आग्रह होता है कि मेरा जानना ठीक होगा। होना ही चाहिए। वह अपनी आदतों को पकड़ता है। अपनी आदतों को सिद्ध करना चाहता है।
अज्ञानी तो छोटे बच्चे की भांति है। धन्यभागी है अज्ञानी, क्योंकि वह सबसे कम अज्ञानी है इन तीन में। फिर मूरख है। मूरख का मतलब यह होता है कि उसने आदतें बना ली हैं, उन आदतों को नहीं छोड़ सकता। उसने अज्ञान की आदतें बना ली हैं। वह उनका आग्रह रखता है। कभी-कभी मान भी लेता है कि छोड़ूंगा, मगर छोड़ नहीं पाता; उनकी पुनरुक्ति करता रहता है। मूर्च्छित है, बेहोश है। जब कोई मूरख आ जाता है, उसके साथ ज्यादा सिर फोड़ना पड़ता है।
फिर मूढ़ भी हैं। वे तो अंतिम शिखर हैं अज्ञान के। मूढ़ का मतलब होता है, वह तो स्वीकार ही नहीं करता कि मैं और अज्ञानी! कभी नहीं! मैं तो ज्ञानी हूं! मूरख तो थोड़ा डांवाडोल होता है कि पता नहीं, मुझे मालूम हो, न हो। अज्ञानी स्पष्ट होता है कि मुझे मालूम नहीं। मूढ़ कहता है: मुझे मालूम है और जो मुझे मालूम है, वही सही है। और इससे अन्यथा सत्य हो ही नहीं सकता। वह जिद्दी होता है, आग्रही होता है। फिर चाहे वह अपने आग्रह को सत्याग्रह का नाम ही क्यों न दे; मगर सब आग्रह असत्य के होते हैं, सत्य का कोई आग्रह नहीं होता। सत्य तो अनाग्रही होता है। उसमें जिद होती ही नहीं, निवेदन होता है।
मूढ़ सबसे ज्यादा खतरनाक है। वह राजी ही नहीं होता। वह मानता ही नहीं। वह स्वीकार ही नहीं करता। वह अपने अज्ञान को ही ज्ञान सिद्ध करने की चेष्टा में संलग्न रहता है। उसका अहंकार बड़ा प्रबल है।
इसलिए तीन अलग-अलग शब्दों का उपयोग किया गया है।
सोवत हौ केहि नींद, मूढ़ मूरख अग्यानी।
खोजना इन तीन में तुम कहां हो। और बड़ी ईमानदारी से खोजना, क्योंकि वह खोज बड़े काम की होगी।
गुरजिएफ के पास जब भी कोई शिष्य जाता था, तो गुरजिएफ कहता था कि पहली बात खोजने की यही है कि तुम्हारे चरित्र का ढांचा क्या है? तुम्हारे जीवन की सबसे बड़ी कमजोरी क्या है? तुम्हारी जिंदगी की सबसे बड़ी जिद क्या है? तुम्हारी जिंदगी की बुनियादी भूल क्या है, जिसके आस-पास सारी भूलें घूमती हैं, परिभ्रमण करती हैं, परिक्रमा करती हैं। वह कहता था कि महीने दो महीने तुम सिर्फ इसी बात पर सोचो, काम उसके बाद शुरू होगा।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो तुम्हारी बीमारी नहीं है वह तुम बताते हो मेरी बीमारी है। लोग बीमारी भी बड़ी सोच-समझ कर बताते हैं कि जिस बीमारी में प्रशंसा हो वह बीमारी बताते हैं। लोग हद के हैं! बीमारी से उनको इसकी फिकर नहीं कि बीमारी का इलाज करवाना है। इलाज करवाना हो तो बीमारी को ही पकड़े हैं। उनको तो प्रशंसा करवानी है।
मैंने सुना है, एक महिला अस्पताल में ऑपरेशन करवाने गई थी। कई दिन से जिद में पड़ी थी। पहले आती थी कि मेरा टांसिल निकाल दो। फिर डॉक्टर ने कहा कि टांसिल की निकालने की कोई जरूरत नहीं है, तेरे टांसिल बिलकुल ठीक हैं। फिर आने लगी कि मेरी अपेंडिक्स निकाल दो। डॉक्टर ने कहा कि भई, हमें लगे तो निकालें, तेरे मानने से नहीं निकाल सकते। उसने कहा: तो कुछ भी निकाल दो। क्योंकि जब भी मैं क्लब में जाती हूं तो कोई स्त्री कहती है कि मेरी अपेंडिक्स निकली है, कोई कहती है कि मेरे टांसिल निकले हैं। मेरे पास बात करने तक को कुछ नहीं है।
मैंने एक और स्त्री के संबंध में सुना है कि जब आपरेशन की टेबल पर उसे लिटाया गया तो उसने डाक्टर से कहा कि चीरा जरा लंबा मारना। अपेंडिक्स निकाली जा रही थी।
उसने कहा: लेकिन चीरा लंबा क्यों मारना? लोग तो कहते हैं कि चीरा जरा छोटा मारना कि पीछे उसका दिखावा न रह जाए, भद्दा न लगे।
उसने कहा कि नहीं, तुम तो जितना बड़ा मार सको उतना मारना। क्योंकि मेरे पति को भी चीरा लगा है, उससे बड़ा होना चाहिए। क्योंकि वह हमेशा अकड़ बताते हैं कि देखो, कितना बड़ा चीरा लगा है! यह अकड़ मुझसे नहीं सही जाती।
आदमी के अहंकार अजीब हैं !
एक महिला मेरे पास आती थी। उसके पति ने मुझे फोन किया कि आप इसकी बातों का भरोसा मत करना। यह बढ़ा-चढ़ा कर बातें करती है। इसको फुंसी हो जाए तो यह बताती है कैंसर हो गया। इसकी बातों का आप भरोसा मत करना। मैं इसके साथ तीस साल से रह रहा हूं।
लोग बीमारियां बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं! फिर बीमारियां भी वे जिनकी प्रशंसा होती हो।
लोगों को चिंता नहीं है कि जीवन के असली सवाल क्या हैं।
गुरजिएफ कहता था: पहले अपनी ठीक-ठीक व्यवस्था पकड़ो। तुम्हारे जीवन की चिंता क्या है? असली सवाल क्या है? और अगर तुम न पकड़ पाओ, तो फिर मुझे कहना।
बड़ा कठिन है पकड़ना कि हमारी बुनियादी भूल क्या है। तुम सोचते हो क्रोध। अक्सर क्रोध बुनियादी भूल नहीं होती, क्योंकि क्रोध तो केवल छाया है अहंकार की।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम क्रोध से कैसे मुक्त हों। मैं उनसे पूछता हूं: यह तुम्हारी असली बीमारी है कि लक्षण? वे कहते हैं: यही हमारी बीमारी है। इसी से हम परेशान हैं। बहुत दुख होता है और बड़ी बेइज्जती भी होती है। और क्रोध आ जाता है तो लोग समझते हैं कि क्रोधी हैं।
तो मैंने कहा, तुम क्रोध से परेशान नहीं हो। एक तो क्रोध होता ही है अहंकार के कारण; फिर यह तुम जो पूछने मुझसे आए हो कि क्रोध न हो, यह भी अहंकार के लिए है ताकि लोगों में प्रतिष्ठा रहे, कि यह आदमी बड़ा विनम्र है, बड़ा शांत है, अक्रोधी है, साधु है! जिस अहंकार के कारण क्रोध पैदा हो रहा है उसी अहंकार के कारण तुम मेरे पास क्रोध का इलाज खोजने आए हो। और बीमारी दोनों के पीछे एक है। तो बीमारी हल कैसे होगी?
एक सज्जन मेरे पास आए। वे कहने लगे: बहुत चिंता मन में रहती है, नींद भी नहीं आती। किसी तरह मेरी चिंता से मुझे छुटकारा दिलवा दें। मैंने तो सुना है कि ध्यान से चिंताएं मिट जाती हैं।
मैंने उनसे पूछा कि जहां तक मैं समझता हूं, चिंता असली बात नहीं हो सकती। चिंता कभी असली बात नहीं होती। चिंता किस बात की होती है, वह मुझे कहो। चिंता अपने आप तो नहीं होती, कोई चिंता ऐसे आकाश से तो नहीं उतरती। किस बात की है?
उन्होंने कहा: अब आपसे क्या छिपाना! पहले डिप्टी मिनिस्टर था, फिर मिनिस्टर हो गया। आज दस साल से मिनिस्टर हूं। चीफ मिनिस्टर... मेरे पीछे के लोग चीफ मिनिस्टर हो गए हैं। और मैं चीफ मिनिस्टर होने के पीछे पड़ा हूं, वह हल नहीं हो रहा है। वही मेरी चिंता है। आप मुझे चिंता से छुड़ा दें। एक दफे मेरी चिंता छूट जाए, तो मैं इन सबको दिखा दूं करके। क्योंकि इसी चिंता की वजह से मैं बीमार भी रहता हूं, अस्वस्थ भी रहता हूं। और जितनी ताकत लगानी चाहिए प्रतिस्पर्धा में, उतनी नहीं लगा पाता। दूसरे जो मेरे पीछे आए, वे आगे निकलते जा रहे हैं। और मैं जेल भी गया, बयालीस में भी गया, और उसके पहले भी गया। और डंडे भी खाए और सब तरह का कष्ट सहा। और अभी तक चीफ मिनिस्टर नहीं हुआ। और पीछे से लफंगे आए, जो न कभी जेल गए, न कभी डंडे खाए, न कोई कष्ट झेला, वे चीफ मिनिस्टर हो गए हैं। तो मैं क्या करूं?
मैंने उनसे कहा कि देखो, तुम कहीं और जाओ। क्योंकि जो मैं कहूंगा वह तुम झेल न सकोगे। महत्वाकांक्षा न छोड़ोगे तो चिंता नहीं छूट सकती। चिंता महत्वाकांक्षा का हिस्सा है। और महत्वाकांक्षा भी बहुत गहरे में बुनियादी नहीं है, अहंकार ही बुनियादी है।
अपने रोगों को जरा पकड़ना, खोजना। तुम बड़े हैरान हो जाओगे कि तुम्हारे रोग वे नहीं हैं जैसे दिखाई पड़ते हैं। रोग के पीछे रोग हैं। उनके पीछे और रोग हैं। और जब तक बुनियाद न पकड़ ली जाए, तब तक कोई रूपांतरण नहीं होता।
ठीक से सोचना कि तुम मूढ़ हो, मूरख हो, अज्ञानी हो--क्या हो? और जहां हो फिर वहां से सरकने की कोशिश करना। अगर मूढ़ हो तो कम से कम मूरख बनो। अगर मूरख हो तो कम से कम अज्ञानी बनो। अगर अज्ञानी हो तो फिर देर क्या कर रहे हो? ज्ञानी बनो। फिर जागो!
सोवत हौ केहि नींद,...
भोर भये परभात, अबहिं तुम करो पयानी।
अब तो सुबह भी हो गई, जागने का समय भी हो गया। अब तो यात्रा की तैयारी करो!
किस यात्रा की बात कर रहे हैं धनी धरमदास? उसी यात्रा की, जिसकी मैं तुमसे रोज बात कर रहा हूं। और प्रभात कब की हो गई है! प्रभात सदा से ही है। रात कभी हुई नहीं। तुम्हारी नींद के कारण रात है। तुम सोए हो तो रात है। जो जागा है उसके लिए दिन है। तुम्हारे पास ही जो जाग कर बैठा है उसके लिए दिन है, और तुम सोए हो तो रात है। कुछ ऐसा नहीं है कि सूरज अभी निकला है। सूरज निकला ही हुआ है। परमात्मा का सूरज न तो कभी उगता और न कभी डूबता है। उसका कोई सूर्योदय नहीं है और न कोई सूर्यास्त है। जाग गए, सवेरा। सो गए, रात।
ऐसा समझो कि साधारण जीवन में जैसा है, उससे उलटा आध्यात्मिक जीवन में है। साधारण जीवन में क्या है? जब रात होती है जब तुम सोते हो। जब सुबह होती है तब तुम जागते हो। आध्यात्मिक जीवन में ऐसा है: जब तुम सो जाते हो, रात हो जाती है। जब तुम जाग जाते हो, सुबह हो जाती है।
भोर भये परभात, अबहिं तुम करो पयानी।
अब समय आ गया है यात्रा पर निकल जाने का। तीर्थयात्रा का समय आ गया है। अब परमात्मा को खोजने का वक्त आ गया है। आया ही हुआ है। बहुत तुमने गंवाया है, अब और समय गंवाने को नहीं है। जितने जल्दी जाग जाओ और चल पड़ो, उतना ही अच्छा है, क्योंकि उतने जल्दी सुख का सागर मिले।
डबरे बन गए हैं लोग। उनके जीवन में यात्रा नहीं है।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
सुनते हो यह वचन!
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
पंख खोलो और उड़ो! पंख तुम्हारे पास हैं। तुम भूल ही गए हो कि तुम्हारे पास पंख हैं। तुम्हें याद ही नहीं रही पंखों की। रहे भी कैसे? जन्मों-जन्मों से उड़े नहीं, खुले आकाश में पंख फैलाए नहीं। कारागृहों में रहने के आदी हो गए हो। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, शूद्र, ब्राह्मण... न मालूम कितने कारागृहों के भीतर तुम रहने के आदी हो गए हो! पंख फड़फड़ाने की भी जगह नहीं है। सींकचे ही सींकचे हैं। और धीरे-धीरे तुम भूल गए हो। भूलना ही पड़ा है। नहीं तो अहंकार को बड़ी चोट लगती है कि मैं कारागृह में पड़ा हूं! अहंकार के लिए यही सुविधापूर्ण है कि पंख ही नहीं हैं मेरे पास, मैं उडूं भी तो कैसे उडूं?
और तुम बातें भी करते रहते हो कि मैं उड़ना चाहता हूं। तुम मुक्ति की चर्चा भी चलाते हो। वह भी धोखा है, वह सिर्फ बातचीत है। वह असलियत से बचने का उपाय है।
इसलिए कहते हैं धनी धरमदास: ‘अब हम सांची कहत हैं।’
धनी धरमदास कहते हैं कि तुम्हें भली लगे चाहे बुरी लगे, अब हम सांची ही कह रहे हैं कि पंख तुम्हारे पास हैं। पूछो मत कि हमारे पास पंख कैसे उग आएं, पंख तुम्हारे पास हैं। आकाश मौजूद है, पैर तुम्हारे पास हैं, सुबह हो गई है। आंखें तुम्हारे पास हैं, खोलो तो प्रकाश है। परमात्मा एक क्षण को दूर नहीं है, तुम ही पीठ किए खड़े हो।
अब हम सांची कहत हैं,...
सांची बात ठीक नहीं लगती। आदमी चाहता है कुछ ऐसी बात कहो जिससे मैं यह समझ पाऊं कि जो मुझसे भूल हुई, होनी ही थी, मजबूरी थी। अब भी हो रही है तो आवश्यक है, अनिवार्य है। कहावतें लोगों ने बना ली हैं: ‘टु इर्र इ़ज ह्यूमन। भूल करना आदमी का स्वभाव है।’ इससे राहत मिलती है। तो हमसे भूल हो रही है, तो बिलकुल स्वभाव हो रहा है, स्वाभाविक हो रहा है।
जब भी कोई तुमसे सांची बात कहेगा, चोट लगेगी। सांच में आंच है। जलाएगी आंच, भभकाएगी अग्नि तुम्हारे भीतर। झूठे आदमी अच्छे लगते हैं। क्योंकि झूठे आदमी तुम जैसे हो वैसे ही रहो, इसका तुम्हें आश्वासन देते हैं। वे कहते हैं, तुम बिलकुल भले हो। वे तुम्हें सांत्वना देते हैं। झूठे आदमी लौरी गाते हैं तुम्हारे आस-पास। वे तुम्हारी नींद को और गहरा करवाते हैं। वे कहते हैं: भइया, करवट बदल लो, और कंबल हम ओढ़ाए देते हैं। और अभी तो बड़ा अंधेरा है, मजे से सोओ।
तुम उनके पास जाते हो जो तुम्हें सोने की विधियां देते हैं, जो तुम्हें नींद के उपाय बताते हैं; जो तुमसे कहते हैं कि अच्छे सपने कैसे देखो। हजारों किताबें लिखी जाती हैं इस संबंध में। डेल कारनेगी की बड़ी प्रसिद्ध किताब है: ‘हाउ टू विन फ्रेंड्स एंड इनफ्लूएंस पीपल? मित्रता कैसे बढ़े, लोग कैसे जीते जाएं?’ अभी अपने को जीता नहीं है, लोगों को जीतने चले! मगर लोग पढ़ते हैं। कहते हैं बाइबिल के बाद सबसे ज्यादा दुनिया में जो किताब बिकी है, वह यही है--डेल कारनेगी की किताब। बाइबिल के बाद! मतलब साफ है कि बाइबिल से ज्यादा बिक गई, क्योंकि बाइबिल खरीदता कौन है, मुफ्त बांटी जाती है। लोग बांटते ही रहते हैं बाइबिल। फिर हर ईसाई को रखनी ही पड़ती है घर में। न तो कोई कभी पढ़ता है, न कोई कभी पन्ने उलटता है। कौन पढ़ता है?
एक छोटे बच्चे से उसके पादरी ने पूछा कि तुमने अपना पाठ पूरा किया? बाइबिल पढ़ कर आए हो? क्या है बाइबिल में?
उस बच्चे ने कहा: सब मुझे मालूम है कि बाइबिल में क्या है!
उस पादरी ने कहा: सब तुम्हें मालूम है! सब तो मुझे भी नहीं मालूम।
क्या तुम्हें मालूम है?
उसने कहा कि मेरे पिताजी की लाटरी की टिकट है उसमें। मेरे छोटे भाई के बालों का गुच्छा है उसमें। मेरी मां ने एक ताबीज भी रखा हुआ है उसमें किसी हिमालय से आए हुए महात्मा ने दिया है। मुझे सब चीजें पता हैं कि उसमें क्या-क्या है।
कौन बाइबिल को देखता है! कौन बाइबिल को पढ़ता है! कौन खरीदता है! इस तरह की किताबें बिकती हैं: जीवन में सफल कैसे हों? सम्मान कैसे पाएं? धन कैसे पाएं?... नेपोलियन हिल की प्रसिद्ध किताब है: हाउ टु ग्रो रिच। लाखों प्रतियां बिकी हैं।
ये सारे के सारे लोग तुम्हें विधियां दे रहे हैं कि और गहरी नींद कैसे सोओ, और मजे से कैसे सोओ, सेज फूलों की कैसे बने, सपने मधुर कैसे आएं, सपने रंगीन और टेक्नीकलर कैसे हों? अब ब्लैक और व्हाइट सपने बहुत देख चुके, अब सपनों में थोड़ा रंग डालो! थोड़े सपनों की कुशलता और कला सीखो। ये लौरियां गाने वाले लोग हैं।
इसलिए धनी धरमदास कहते हैं: अब हम सांची कहत हैं। अब तुम्हें भला लगे या बुरा, हम सच बात ही कह देते हैं कि तुम चाहो तो इसी वक्त, इसी क्षण... उड़ियो पंख पसार! पंख तुम्हारे पास हैं। कारागृह किसी और की बनाई हुई नहीं है! तुम्हारी अपनी बनाई हुई है। कोई पहरेदार नहीं है। तुम्हीं कैदी हो, और तुम्हीं पहरेदार हो। तुम जब तक अपने को गुलाम रखना चाहते हो, रहोगे। जब तक अंधे रहना चाहते हो, रहोगे। जिस दिन निर्णय करोगे कि अब नहीं अंधे रहना है, उसी क्षण क्रांति शुरू हो जाएगी। सिर्फ तुम्हारे निर्णय की देर है। सिर्फ तुम्हारे संकल्प के जगने की देर है। और किसी चीज की कमी नहीं है।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
छुटि जैहो या दुक्ख ते, तन सरवर के पार।।
और अगर उड़ सको, पंख फैला सको, अगर उसके आकाश को स्वीकार कर सको, अगर उसमें लचपच हो सको, अगर उसके रंग में पूरे सौ प्रतिशत रंगने का साहस हो, तो...‘छुटि जैहो या दुक्ख ते’... तो सारे दुखों से मुक्त हो जाओगे।... ‘तन सरवर के पार।’ तन के पार, सीमाओं के पार, देह के पार, मिट्टी के पार, मृण्मय के पार--चिंमय की उपलब्धि हो जाएगी!
नाम झांझरी साजि, बांधि बैठो बैपारी
बोझ लद्यो पाषान, मोहि डर लागै भारी।।
और तुम इतने डर क्यों रहे हो? बैठ क्यों नहीं जाते, नाव तो किनारे आ लगी है।
जब भी कोई सदगुरु, कबीर, नानक, दादू या धनी धरमदास जैसा सदगुरु जब खड़ा होता है तुम्हारे किनारे पर, तो वह यही कह रहा है कि अब तुम रुके क्यों हो? अब डर क्यों रहे हो? नाव तो किनारे पर लग गई है।
नाम झांझरी साजि,...
नाम की नाव किनारे लगी है। नानक ने कहा है: नानक नाम जहाज। नाम जहाज है। यह किनारे आ लगा है।
नाम झांझरी साजि,...
और सब सज कर तैयार हो गई है।
...बांधि बैठो बैपारी।
जल्दी बंाधो अपनी गठरी और बैठ जाओ। क्या घबड़ा रहे हो? घबड़ाहट है: बोझ लद्यो पाषान, मोहि डर लागै भारी। लेकिन डर है, क्योंकि तुम्हारी गठरी में सिर्फ पत्थर हैं; बोझ है। कहीं नाव डूब न जाए! और इन पत्थरों को तुम छोड़ने को राजी नहीं हो। उस पार भी जाना चाहते हो और पत्थर भी साथ ले जाना चाहते हो!
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि अगर हम एक घंटा रोज ध्यान करते रहें तो सब ठीक हो जाएगा? मैं उनसे कहता हूं: सब गड़बड़ हो जाएगा। क्योंकि एक घंटा ध्यान, और तेईस घंटे क्या करोगे। तेईस घंटे ध्यान के विपरीत करोगे, जो भी करोगे। और एक घंटा ध्यान करोगे। सब गड़बड़ हो जाएगा। सब अस्त-व्यस्त हो जाएगा। यह तो ऐसे ही हुआ कि एक घंटे वृक्ष को उखाड़ लिया जमीन से, फिर तेईस घंटे गड़ाया। सब जड़ें टूट जाएंगी।
अगर ध्यान ही करना हो तो घंटों में नहीं किया जाता, अनुपात से नहीं किया जाता, तराजुओं पर तौल कर नहीं किया जाता। बिना तौले किया जाता है। घंटों से नहीं होता हिसाब। ध्यान का रस चौबीस घंटे पर फैलना चाहिए। दुकान पर बैठे तो भी ध्यान। बाजार में चले तो भी ध्यान। भोजन किया तो भी ध्यान। रात सोए तो भी ध्यान, उठे तो भी ध्यान। ध्यान तुम्हारी श्वास बन जानी चाहिए।
आदमी चाहता है ध्यान भी सम्हाल लूं और इस संसार में जो मिलता है वह भी सम्हाल लूं। पद भी मिल जाए, धन भी मिल जाए, प्रतिष्ठा भी मिल जाए, ध्यान भी मिल जाए--कुछ मेरे हाथ से चूक न जाए। दोनों दुनियाओं को सम्हाल लूं। फिर अड़चन खड़ी होती है।
बोझ लद्यो पाषान, मोहि डर लागै भारी।
डर लगता है फिर, क्योंकि बोझ भारी है। ये पत्थरों को लेकर बैठे तो तुम तो डूबोगे ही, नाव भी डूबेगी। तुम पार न हो पाओगे। ये पत्थर छोड़ने होंगे।
और पत्थर को पकड़े क्यों हो? निश्चित ही तुम्हें अब भी पत्थरों में हीरे दिखाई पड़ते हैं, इसलिए पकड़े हो। पत्थर को कोई पत्थर सोच कर थोड़े ही पकड़ता है; पत्थर जान कर थोड़े ही पकड़ता है! पत्थर को हीरा जानता है, तो पकड़ता है।
मांझ धार भव तखत में, आइ परैगी भीर।
बड़ी मुश्किल में पड़ोगे। मझधार में जब नाव डूबने लगेगी और पानी भरेगा नाव में, तब बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। इसलिए डर लगता है।
एक नाम केवटिया करि ले, सोई लावै तीर।
इन पत्थरों की गठरी को छोड़। एक नाम को केवटिया कर ले। बस एक उसके नाम को मांझी बना ले।
एक नाम केवटिया करि ले, सोई लावै तीर।
उतना पर्याप्त है। प्रवास के लिए उतना पाथेय पूरा है। उसका एक नाम ही भोजन बन जाता है, वही माझी हो जाता है, वही नाव हो जाता है, वही पहुंचा देता है। सच तो यह है: जिसने उसके नाम को समग्रता से पकड़ लिया, कहीं जाना ही नहीं होता; इसी किनारे पर वह किनारा मिल जाता है। ये तो सब प्रतीक हैं। जहां बैठे हो वहीं बैठे-बैठे मोक्ष उतर आता है। बीच बाजार में सन्नाटा हो जाता है।
सौ भइया की बांह, तपै दुर्जोधन राना।
परे नरायन बीच, भूमि देते गरबाना।।
जुद्ध रचो कुरुक्षेत्र में, बानन बरसे मेह।
तिनहीं के अभिमान तें, गिधहुं न खायो देह।।
कहते हैं: जरा सोचो, जरा देखो! लौट कर पीछे देखो, क्या-क्या गुजरती रही? दुर्योधन ने कृष्ण के बीच में पड़ने पर भी, जरा सी जमीन न दी, पांच डग जमीन न दी! ऐसा मोह पत्थरों का कि परमात्मा सामने खड़ा हो तो भी लोग पत्थर चुनते हैं, परमात्मा नहीं चुनते !
सौ भइया की बांह, तपै दुर्जोधन राना।
परे नरायन बीच, भूमि देते गरबाना।।
लेकिन भूमि देने में अहंकार आ गया। उसने कहा कि एक इंच जमीन नहीं दूंगा। एक सुई की नोक भर जमीन नहीं दूंगा।
तुम भी क्या कर रहे हो? किसकी जमीन? कहां से लाए? कहां ले जाओगे? क्यों इतने लड़े-मरे जा रहे हो?
ये कथाएं ऐतिहासिक नहीं हैं। इन कथाओं का मौलिक आधार मनोवैज्ञानिक है। इन सारी कथाओं के पीछे मनोविज्ञान के आधार हैं। यही तो हम कर रहे हैं। यही तो सारी दुनिया कर रही है: कैसे हमारी जमीन बढ़े, कैसे धन बढ़े, कैसे बैंक में बैलेंस बढ़े! और अगर राम भी बीच में आकर खड़ा हो जाए, और कहे कि भई इतना नहीं, इतना ज्यादा न करो, इतना मत चूसो, इतने अहंकार से मत भरो, इस पद-प्रतिष्ठा में कुछ सार नहीं है, यह सब पड़ा रह जाएगा, जब बांध चलेगा बंजारा! सब पड़ा रह जाएगा!... मगर कौन सुनता है, कब सुनता है? बुद्ध आए और कहते रहे, महावीर आए और कहते रहे। कौन सुनता है? हम अपनी धुन में लगे रहते हैं। हम पत्थर ही इकट्ठे करते रहते हैं। यही पत्थर हमें बार-बार डुबाते हैं।
जुद्ध रचो कुरुक्षेत्र में, बानन बरसे मेह।
जरा सी जमीन के ऊपर... पांडव पांच गांव लेने को राजी थे... जरा सी जमीन के ऊपर भयंकर युद्ध हुआ। आकाश से जैसे वर्षा होती है जल की, ऐसे बाण बरसे, ऐसी मृत्यु बरसी।
तिनहीं के अभिमान तें, गिधहुं न खायो देह।
और वे जो इतनी अकड़ से भरे थे, जब गिरे जमीन पर, तो इतनी लाशें पट गई थीं महाभारत के युद्ध में कि गिद्धों को भी खाने में रस नहीं रहा था, उत्सुकता नहीं रही थी।
तिनहीं के अभिमान तें, गिधहुं न खायो देह।
जो इतने अहंकारी थे, ऐसा सिर उठा कर चले थे, गिद्धों ने भी उनके सिर को खाने योग्य न समझा।
यही पत्थर हम इकट्ठे कर रहे हैं।
नाम झांझरी साजि, बांधि बैठो बैपारी।
बोझ लद्यो पाषान, मोहि डर लागै भारी।।
एक नाम केवटिया करि ले, सोई लावै तीर।
मांझ धार भव-तखत में, आइ परैगी भीर।।
जोधा आगे उलट-पुलट, यह पुहमी करते।
देखते हो, युद्ध चलते हैं! युद्ध हैं क्या? बस उन्हीं पत्थरों के लिए संघर्ष चल रहा है।
जोधा आगे उलट-पुलट, यह पुहमी करते।
ऐसे बड़े योद्धा, जो पृथ्वी को उलट-पुलट देते हैं।
बस नहिं रहते सोय, छिने इक में बल रहते।
और जब मौत आती है, तो सारा वश खो जाता है, सारी सामर्थ्य खो जाती है।
मैंने सुना है, नेपोलियन जब हार गया तो सेंट हेलेना के द्वीप में उसे कैदी किया गया। पहले ही दिन सुबह नेपोलियन अपने डॉक्टर को लेकर घूमने निकला है, और एक घसियारिन औरत अपना बड़ा घास का गट्ठर लिए पगडंडी पर चली आ रही है। डॉक्टर ने चिल्ला कर कहा कि ऐ स्त्री, हट जा रास्ते से! देखती नहीं, कौन आ रहा है! सम्राट नेपोलियन आ रहे हैं !
नेपोलियन ने डॉक्टर का हाथ खींच कर रास्ते से नीचे उतर गया। और कहा: तुम भूलते हो। तुम चूकते। अब वे दिन गए, जब नेपोलियन पहाड़ से कहता कि हट जा रास्ते से, तो पहाड़ हटता। अब तो घसियारिन भी हमसे कह सकती है--हट जाओ रास्ते से!... वक्त आ ही जाता है।
जोधा आगे उलट-पुलट, यह पुहमी करते।
बस नहिं रहते सोय, छिने इक में बल रहते।।
सौ जोजन मरजाद सिंध के, करते एकै फाल।
और जो समुद्रों को एक छलांग में लांघ जाते हैं, ऐसे बलशाली!
हाथन पर्वत तौलते,...
हाथ पर जो पर्वतों को तौल लेते हैं...।
...तिन धरि खायो काल।
मौत जब आती है, तो पता नहीं चलता कि मौत के दांतों में कहां खो जाते हैं!
मत इकट्ठे करो पत्थर।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
छुटि जैहो या दुक्ख ते, तन सरवर के पार।।
ऐसा यह संसार, रहट के जैसे घरियां।
कुएं पर चलती रहट देखी है--घरियों से बनी रहट!
ऐसा यह संसार, रहट के जैसे घरियां।
इक रीती फिरि जाय, एक आवै फिरि भरियां।।
एक खाली होती है, दूसरी भरी आ जाती है। फिर एक खाली होती है, दूसरी भरी आ जाती है।
ऐसा यह संसार,...
एक वासना चुकी कि दूसरी आई। एक जन्म चुका कि दूसरा जन्म आया। एक संबंध टूटा कि दूसरा संबंध बना। एक मूढ़ता से बचे कि दूसरी मूढ़ता आई।
ऐसा यह संसार, रहट के जैसे घरियां।
इक रीती फिरि जाय, एक आवै फिरि भरियां।।
उपजि-उपजि विनसत करैं, फिरि फिरि जमै गिरास।
और कितनी बार तुम उठ चुके और कितनी बार तुम गिर चुके! अंत है कुछ? गणना की जा सकती है कुछ? कितनी बार तुम जन्मे और कितनी बार तुम मरे! हिसाब तो करो! लौट कर थोड़ा सोचो तो!
उपजि-उपजि विनसत करैं, फिरि फिरि जमै गिरास।
बार-बार जन्म और बार-बार मृत्यु! सार क्या पाया? हाथ क्या लगा?
यही तमासा देखि कै, मनुवा भयो उदास।
धनी धरमदास कहते हैं: यह तमाशा देख कर ही तो हम जीवन से उदास हुए। यह देख कर ही, यह तमाशा देख कर ही तो हम दूर हुए जीवन से और हमने उसकी तलाश करनी शुरू की जो अमृत है--जहां न जन्म है, न मृत्यु है, जो आवागमन के पार है!
जैसे कलपि कलपि के, भये हैं गुड़ की माखी।
चाखन लागी बैठि, लपट गई दोनों पांखी।।
देखते हैं, स्वाद के लोभ में मक्खी गुड़ पर बैठ जाती है!
जैसे कलपि कलपि के, भये हैं गुड़ की माखी।
चाखन लागी बैठि, लपट गई दोनों पांखी।।
बैठी थी चखने, गुड़ लग जाता है दोनों पंखों में, फिर उड़ना मुश्किल हो जाता है। जकड़ गई, फंस गई। लोभ ही फंदा बन गया। स्वाद ही कारागृह है। वासना ही पकड़े है हमें।
पंख लपेटे सिर धुनै,...
अब सिर धुनती है।
पंख लपेटे सिर धुनै, मन ही मन पछिताय।
वह मलयागिरि छांड़ि के, यहां कौन विधि आय।
कैसी मूढ़ता की! वह मलयगिरि, वह पवित्रता, वह शांति, वह आनंद, वे हवाएं, वह सूरज, वे फूल, वे सुगंधें--उनको छोड़ कर मैं इस गंदे गुड़ के चक्कर में पड़ी!
ऐसे ही तुम भी आए हो किसी और देश से। यह देश तुम्हारा नहीं। यह परदेश है। तुम आए हो किसी दूर आकाश से! यह पृथ्वी पड़ाव है, मंजिल नहीं। यहां से उठ ही जाना है।
जाने के पहले जो जाग जाएगा, उसे फिर लौटना नहीं होगा। जो जाने के पहले नहीं जागेगा, फिर-फिर लौटेगा, फिर-फिर इस गुड़ की ढेली पर गिरेगा, फिर-फिर पंखों में गुड़ चिपटेगा, फिर-फिर बंधन होगा।
खेत बिरानो देखि, मृगा एक बन को रीझेव।
नित प्रति चुनि चुनि खाय, बान में इक दिन बीधेव।।
उचकन चाहै बल करै, मन ही मन पछिताय।
अब सो उचकि न पाइहौं, धनी पहूंचो आय।।
जैसे हिरन रोज-रोज आकर किसी जंगल में फल खा जाता है, कि किसी खेत में; फिर एक दिन बिंध गया। अब बहुत उचकना चाहता है, बल करना चाहता है कि निकल जाए, अब बहुत पछताता है कि मैं कहां फंस गया! छोटे से लोभ में अपनी स्वतंत्रता खोई, अपना जीवन खोया!
अब सो उचकि न पाइहौं, धनी पहूंचो आय।
लेकिन अब खेत का मालिक आ गया है, अब भाग न पाऊंगा।
मौत ऐसे ही आती है--खेत के मालिक की तरह। इस पृथ्वी पर मौत मालिक है, यह उसी का खेत है। इसमें दो-चार दिन तुम मजा ले सकते हो।
माया रंग कुसुम महा देखन को नीको।
मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।।
आखिर में तो मौत का ही स्वाद जीभ पर रह जाता है, सब स्वाद खो जाते हैं, सब विनष्ट हो जाता है। अंत में तो मौत ही मुंह में रह जाती है। यह पृथ्वी तो मृत्यु का खेत है। वही धनी है यहां। इसलिए कोई लाख उपाय करे, उससे बच नहीं पाता।
जाग जाओ इसके पहले कि धनी आ जाए। जाग जाओ--उस बड़े धनी के प्रति, जो जीवन का धनी है, जो शाश्वत है, जो सनातन है, जो नित्य है। और उससे ही हम आए हैं और उसमें ही हमें वापस जाना है। मूल-स्रोत ही गंतव्य है।
सोवत हौ केहि नींद, मूढ़ मूरख अग्यानी।
भोर भये परभात, अबहिं तुम करो पयानी।।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
छुटि जैहो या दुक्ख ते, तन सरवर के पार।।
संभावना है अनंत तुम्हारी। अपनी संभावनाओं को सत्य बनाया जा सकता है। संकल्प करो! इस अभीप्सा को उठने दो! इस अभीप्सा पर सब निछावर करो, तो देर नहीं लगेगी। और एक बार स्वाद आ जाए उस मलय-गिरि की सुगंध का, उस पवन का, तब तुम हैरान होओगे कि कैसे इतने दिन उलझे रहे! कैसे इतने दिन छोटे-छोटे खेल-खिलौनों में पड़े रहे! कैसे पत्थर इकट्ठे करते रहे! तुम्हें हैरानी होगी--अपने पर हैरानी होगी, अपने अतीत पर हैरानी होगी। और तुम्हें चारों तरफ लोगों को देख कर हैरानी होगी कि लोग क्यों उलझे हैं!
ज्ञानियों को यही सबसे बड़ी हैरानी रही है। खुद अपना अतीत बेबूझ हो गया कि हम इतने दिन तक कैसे चूके! और फिर चारों तरफ लोगों को चूकते देखते हैं, उन्हें भरोसा ही नहीं आता! समझ में नहीं पड़ता कि लोग कैसे चूके जा रहे हैं! जिसको खोजते हैं, उसी को चूक रहे हैं--और अपने ही कारण चूक रहे हैं!
कौन है ऐसा इस जगत में जो आनंद नहीं चाहता? और कौन है ऐसा इस जगत में जो आनंद उपलब्ध कर पाता है? बड़ी मुश्किल से कभी एकाध--करोड़ में। क्या हो जाता है? आनंद सब चाहते हैं, मगर जो करते हैं वह आनंद के विपरीत है। पश्चिम जाना चाहते हैं और पूरब जाते हैं। दिन को लाना चाहते हैं और रात को बनाते हैं।
ऐसा कौन है इस जगत में जो अमृत नहीं पाना चाहता है? अमृत बनाना चाहते हैं; और जहर ढालते हैं, जहर निचोड़ते हैं। कौन है इस जगत में जो शाश्वत शांति में डूब नहीं जाना चाहता? मगर सारी चेष्टा अशांति और अशांति को पैदा करती है।
जरा अपने जीवन के विरोधाभास को देखो--तुम जो चाहते हो वही कर रहे हो? तुम जो चाहते हो उससे विपरीत कर रहे हो। यह विपरीत ही माया है। जिस दिन तुम जो चाहते हो वही करने लगो, उसी दिन जीवन में धर्म का प्रवेश हुआ; तुम संन्यस्त हुए; तुम दीक्षित हुए।...सोचना!
धनी धरमदास के पद बड़े प्यारे हैं। और प्यारे ऐसे नहीं हैं जैसे लौरी होती है, जो नींद में डुबा दे। प्यारे ऐसे हैं कि कांटों की तरह चुभेंगे और जगाएंगे।
का सोवै दिन रैन, विरहिनी जाग रे!
आज इतना ही।
मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।।
कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल।
ज्यों पतंग उड़ि जायगो, ज्यों माया काफूर।।
नाम के रंग मजीठ, लगै छूटै नहिं भाई।
लचपच रह्यो समाय, सार ता में अधिकाई।।
केती बार धुलाइये, दे दे करड़ा धोय।
ज्यों ज्यों भट्ठी पर दिये, त्यों त्यों उज्ज्वल होय।।
सोवत हौ केहि नींद, मूढ़ मूरख अग्यानी।
भोर भये परभात, अबहिं तुम करो पयानी।।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
छुटि जैहो या दुक्ख ते, तन सरवर के पार।।
नाम झांझरी साजि, बांधि बैठो बैपारी।
बोझ लद्यो पाषान, मोहि डर लागै भारी।।
मांझ धार भव तखत में, आइ परैगी भीर।
एक नाम केवटिया करि ले, सोई लावै तीर।।
सौ भइया की बांह, तपै दुर्जोधन राना।
परे नरायन बीच, भूमि देते गरबाना।।
जुद्ध रचो कुरुक्षेत्र में, बानन बरसे मेह।
तिनहीं के अभिमान तें, गिधहुं न खायो देह।।
जोधा आगे उलट-पुलट, यह पुहमी करते।
बस नहिं रहते सोय, छिने इक में बल रहते।।
सौ जोजन मरजाद सिंध के, करते एकै फाल।
हाथन पर्वत तौलते, तिन धरि खायो काल।।
ऐसा यह संसार, रहट के जैसे घरियां।
इक रीती फिरि जाय, एक आवै फिरि भरियां।।
उपजि-उपजि विनसत करैं, फिरि फिरि जमै गिरास।
यही तमासा देखिकै, मनुवा भयो उदास।।
जैसे कलपि कलपि के, भये हैं गुड़ की माखी।
चाखन लागी बैठि, लपट गई दोनों पांखी।।
पंख लपेटे सिर धुनै, मन ही मन पछिताय।
वह मलयागिरि छांड़ि के, यहां कौन विधि आय।।
खेत बिरानो देखि, मृगा एक बन को रीझेव।
नित प्रति चुनि चुनि खाय, बान में इन दिन बीधेव।।
उचकन चाहै बल करै, मन ही मन पछिताय।
अब सो उचकि न पाइहौं, धनी पहूंचो आय।।
कल भी थीं जहनीयतें मजरूह ओहामो-गुमां
कुश्तए-ईहाम है दुनियाए इंसा आज भी
कल भी था चश्मे-बसीरत पर हिजाबे-इफ्तदार
हुर्रियत की रूह है मरहूने-जिंदा आज भी
कल भी थे जोशो-अनाके वास्ते दारो-रसन
अहले-हक के वास्ते है तेग-बुर्रां आज भी
सीनए-गेती से कल भी उठ रहा था इक धुआं
जर्राहाए-दहर है शोला बदामां आज भी
कल भी ऐसा था--ऐसा ही दुख, ऐसी ही पीड़ा, ऐसा ही संताप। वैसा ही आज भी है। और कुछ तुमने न किया तो कल भी ऐसा ही होगा। कल भी अंधविश्वास थे और आदमी उनकी जंजीरों में बंधा था--आज भी बंधा है। और अगर सजग न हुए और जंजीरें तोड़ी नहीं, तो कल भी बंधे रहोगे।
कल भी जो सत्य के मार्ग पर चले उन्हें सूली थी, आज भी है। लेकिन धन्यभागी हैं वे जो सत्य के मार्ग पर चल कर सूली पर चढ़ जाते हैं, क्योंकि उन्हीं का असली सिंहासन है।
जो प्रभु के मार्ग पर मिटना जानते हैं, वही जीवन की वास्तविक संपदा के मालिक हो पाते हैं। जो अपने को बचाते हैं, वे अपने को नष्ट कर लेते हैं। जो अपनी सुरक्षा कर रहा है, वह परमात्मा से दूर और दूर पड़ता चला जाएगा। जो साहस करता है, दुस्साहस करता है, छलांग लगाता है, वही परमात्मा के पास पहुंच पाता है।
धर्म कायरों की बात नहीं है। और ऐसा मजा हुआ है कि धर्म कायरों की बात ही हो गया है। मंदिर-मस्जिदों में मिलता कौन है?--कायर और डरे हुए लोग और भयभीत लोग। और धर्म कायरों का मामला ही नहीं है। वह उसका अभियान नहीं है, दुस्साहसी का अभियान है, जो सब दांव पर लगाने को तत्पर है, उसका अभियान है।
कल भी थीं जहनीयतें मजरूह ओहामो-गुमां
अंधविश्वासों से कल भी बुद्धि घायल थी। शकों और संदेहों, अनास्थाओं से, कल भी मनुष्य की आत्मा पर घाव थे।
कुश्तए-ईहाम है दुनियाए इंसा आज भी
और आज भी अंधविश्वासों से बर्बाद है।
तुमने जिसे धर्म समझा है, धर्म नहीं है, सिर्फ अंधविश्वास है। अंधविश्वास का अर्थ होता है--जाना नहीं और मान लिया; देखा नहीं और मान लिया। देखने में श्रम करना पड़ता है। देखने के लिए आंख मांजनी पड़ती है। देखने के लिए आंख की धूल झाड़नी पड़ती है। देखने के लिए आंख पर नया काजल चढ़ाना होता है। आंख खोलने की झंझट कौन करे! आंख साफ करने का उपद्रव कौन ले! इसलिए लोग आंख बंद किए-किए ही मान लेते हैं कि प्रकाश है। उनका मानना सिर्फ झंझट से बचना है। प्रकाश की खोज में कौन जाए? क्योंकि वहां तो कीमत चुकानी पड़ती है।
इसलिए अक्सर ऐसे लोगों की बातें, जो कहते हैं--कुछ करने की जरूरत नहीं है, बस राम-राम जप लो और सब हो जाएगा; कि रोज जाकर मंदिर में सिर झुका लो और सब हो जाएगा; कि सुबह एक प्रार्थना दोहरा लो तोतों की तरह यंत्रवत और सब हो जाएगा। ऐसे लोगों की बातें लोगों को रुच जाती हैं। मनुष्य के अकर्मण्य स्वभाव से इनका मेल बैठ जाता है।
फिर ये बातें बड़े तार्किक रूप भी ले सकती हैं। ये बातें इतने तार्किक रूप ले सकती हैं कि तुम पहचान भी न पाओ कि इनमें और पुरानी बातों में कोई संबंध है। तर्क यह भी समझा सकता है: ‘साधना से क्या होगा? साधना की जरूरत नहीं है। विधि की कोई जरूरत नहीं है। जीवन को अनुशासन देने की कोई जरूरत नहीं है।’ तर्क यह भी समझा सकता है: ‘सदगुरु की कोई जरूरत नहीं है।’ मनुष्य का अहंकार इस तरह की बातें सुनना चाहता है। सुनना चाहता है, तो सुनाने वाले लोग मिल जाते हैं। तुम जो मांगते हो, मिल ही जाएगा।
अर्थशास्त्र का एक सीधा सा नियम है कि जिस बात की मांग होगी उसकी पूर्ति होगी। मांगो भर, कोई न कोई उसे उत्पादन करने के लिए तत्पर हो जाएगा। हर तरह की चीज के उत्पादन हो जाते हैं। बाजार में मांग होनी चाहिए, फिर उत्पादक मिल जाता है।
मनुष्य की सबसे बड़ी मांग यह है कि हमें कुछ करना न पड़े, परमात्मा मुफ्त हो। मोक्ष बस कुछ न किए मिल जाए। इंच भर सरकना न पड़े। एक कदम उठाना न पड़े, जीवन के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलना न पड़े, और सत्य मिल जाए। सत्य मुफ्त मिल जाए।
जब तुम कहते हो, सत्य मुफ्त मिल जाए, तो सत्य मुफ्त देने वाले लोग तुम्हें मिल जाते हैं। पंडित और पुजारी तुम्हें धोखा दे पाए हैं--तुम्हारे ही कारण। नहीं तो कौन तुम्हें धोखा दे पाएगा? तुम आंख बंद किए प्रकाश देखना चाहते हो, दिखाने वाले मिल जाते हैं। फिर तुम जो देखते हो वह सिर्फ सपना है; वह सिर्फ तुम्हारी कल्पना है। तुमने जो परमात्मा देखा है, तुमने जो आत्मा देखी है--बस कल्पना का जाल है। यथार्थ को देखने के लिए तो सारे अंधविश्वासों की परिधियां तोड़नी पड़ेंगी, सारे विश्वास छोड़ देने पड़ेंगे। और अथक श्रम करना होगा, ताकि तुम्हारे भीतर पड़ी हुई चेतना सजग हो।
‘का सोवै दिन-रैन, विरहिनी जाग रे।’... खूब सो लिए। बहुत सो लिए। जागने में श्रम तो होगा ही। क्योंकि नींद की आदतें पुरानी हैं, लंबी हैं, अति प्राचीन हैं। नींद ही तुम्हारा अतीत है--जन्मों-जन्मों का अतीत। तो नींद बड़ी वजनी है, और जागरण की किरण तो बड़ी छोटी होगी। नींद तो तूफान की तरह है, और जागरण तो छोटे से दीये की तरह होगा। अगर तुमने सहारा नहीं दिया जागरण को, तो दीया बुझ जाएगा, कभी भी बुझ जाएगा, जल भी न पाएगा।
और आदमी का अहंकार ऐसा है कि यह मानने का मन नहीं होता कि मेरा दीया जला नहीं है। इसलिए तुम्हें धोखा देने वाले लोग मिल जाते हैं, जो तुमसे कहते हैं: तुम्हारा दीया जला ही हुआ है। तुम्हें कुछ करना नहीं है। तुम्हें कहीं जाना नहीं है। तुम्हें कुछ होना नहीं है। तुम तो बस इस जीवन-दृष्टि को पकड़ लो, इस शास्त्र को पकड़ लो, इस सिद्धांत को पकड़ लो--शेष सब हो जाएगा।
तुम करना नहीं चाहते, इसलिए तुम बदले नहीं। कल भी तुम बंधे थे, आज भी तुम बंधे हो, कल भी तुम बंधे होओगे। सत्य की कीमत चुकानी ही पड़ती है। इस जगत में कुछ भी मुफ्त नहीं है। इस बात को खयाल में रखो तो आज के अंतिम सूत्र तुम्हारी समझ में आ सकेंगे!
माया रंग कुसुम्म महा देखन को नीको।
इस जगत में तुमने जो भी पाया है, जो भी मिला है या जिसको भी मिलने की तुमने आशा बना रखी है--सब फूल के कच्चे रंग जैसा है। देखने में सुंदर लगता है, दूर से सुहावना मालूम पड़ता है। दूर के ढोल सुहावने हैं। जैसे-जैसे पास आओगे, वैसे-वैसे ही सब व्यर्थ हो जाता है। धन चाहा था, धन मिल गया और पाते ही पाया कि व्यर्थ हो गया। पद चाहा था, पद मिल गया। प्रेम चाहा था, प्रेम मिल गया। घर बसाना था, घर बसा लिया। मिला क्या? सार-निचोड़ क्या है? हाथ में क्या लगा? हाथ खाली के खाली हैं। एक धोखे से दूसरा धोखा, दूसरे धोखे से तीसरा धोखा। धोखे बदलते रहे हो, लेकिन हाथ खाली के खाली हैं। और ऐसा मत सोचना कि तुम असफल हो, इसलिए हाथ खाली हैं। जो सफल हैं उनके हाथ भी खाली हैं। सिकंदरों के हाथ भी खाली हैं।
माया रंग कुसुम्म महा देखन को नीको।
देखने में बड़ा प्यारा लगता है--इंद्रधनुष जैसा! कितना प्यारा, सतरंगा! आकाश में जैसे सेतु बना हो! लेकिन पास जाओ, मुट्ठी बांधो, तो कुछ भी हाथ न लगेगा। कोई रंग हाथ न लगेगा। कुछ भी हाथ न लगेगा; हाथ खाली का खाली रह जाएगा। इंद्रधनुष सिर्फ दिखाई पड़ता है, है नहीं। देखने में ही है जैसे रात के सपने हैं, देखने में ही हैं। देखने के बाहर उनकी कोई और सच्चाई नहीं है। जिसकी सच्चाई सिर्फ देखने में ही है, उसे माया समझना। और जिसकी सच्चाई तुम्हारे देखने के पार है; तुम चाहे देखो और चाहे न देखो, जो है; तुम चाहे मानो और चाहे न मानो, जो है; तुम चाहे जानो या न जानो, जो है--जिसकी सच्चाई, जिसका यथार्थ, तुम्हारे जानने पर निर्भर नहीं है, वही सत्य है।
तो माया और सत्य की परिभाषा खयाल रखो। माया उसे कहते हैं, जो तुम्हें दिखाई पड़ता है बस, उतना ही है जितना दिखाई पड़ता है और जब दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा, तो नहीं है। तुम्हारे देखने के बाहर कोई समानांतर यथार्थ नहीं है। बस तुम्हारी मान्यता में है। तुम्हारी धारणा में है। तुमने निर्मित किया है। तुम्हारे मन का ही सृजन है।
तुम्हें किसी चीज में सौंदर्य दिखाई पड़ता है, किसी दूसरे को वहां कोई सौंदर्य नहीं दिखाई पड़ता। तुम जिस स्त्री के प्रेम में पड़ गए हो, दूसरे लोग हंसते हैं। लोगों को भरोसा ही नहीं आता कि तुम इस प्रेम में कैसे पड़ गए! लेकिन कुछ तुम्हें दिखाई पड़ता है। वह तुम्हें ही दिखाई पड़ता है। वह तुम्हारा प्रक्षेपण है। जैसे रात तुम सिनेमागृह में बैठ जाते हो जाकर। जो तुम देखते हो, वह पर्दे पर घट नहीं रहा है, मगर तुम्हें दिखाई पड़ रहा है। और कभी-कभी जानते हुए, भलीभांति जानते हुए कि जो पर्दे पर हो रहा है, हो नहीं रहा है--तुम प्रभावित हो जाते हो, उससे आच्छादित हो जाते हो। कई बार तुम फिल्म को देखते हुए रो लिए हो या नहीं? असली आंसू बहा दिए हैं या नहीं? एक नकली पर्दे पर चलते खेल को देख कर! न वहां कोई मरता है, न वहां कोई जीता है। वहां कोरा पर्दा है, उस पर केवल छायाएं घूम रही हैं। लेकिन तुम रो दिए हो कई बार या नहीं? तुमने आंसू से अपनी आंखें भर ली हैं या नहीं? कई बार तुम हंस दिए हो। कई बार तुम उत्तेजित हो गए हो। कई बार तुम क्रुद्ध हो गए हो। कई बार तुम कामुकता से भर गए हो, कई बार करुणा से। और तुम भलीभांति जानते हो कि वहां कुछ भी नहीं है।
माया का अर्थ होता है, हमने अपना ही एक जगत बना लिया है--मनोनिर्मित। प्यारा लगता है, लेकिन यथार्थ उसमें कुछ भी नहीं है। और जिसमें यथार्थ नहीं है, उसके साथ जितना समय गया, गंवाया।
यथार्थ को खोजो। सत्य को खोजो। जो है, उसे खोजो।
माया रंग कुसुम महा देखन को नीको।
मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।।
कितनी बार तो तुमने यह जाना! कोई धनी धरमदास को कहने की जरूरत है? यह तुम्हारा भी तो अनुभव है। यह सारी मनुष्य-जाति का अनुभव है। इस अनुभव से ज्यादा बड़ा कोई अनुभव नहीं है। मगर आदमी अदभुत धोखेबाज है! इस अनुभव को भी झुठलाए चला जाता है। कितनी बार तुमने जाना नहीं कि दूर से सुंदर लगा था; पास आए, सब फीका हो गया! जब तक अपना नहीं था, सुंदर लगा था; जब अपना हुआ, सब फीका हो गया। जब तक मिला नहीं था, तब तक बड़े सपने जगे थे और जब मिल गया तो सब सपने मर गए।
मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।
और जो अंत में फीका लगता था, वह प्रथम से ही फीका था। अंत में प्रकट हो रहा है वही, जो प्रथम से था। लेकिन प्रथम से तुमने कुछ और मान रखा था। फीका जो लग रहा है अंत में, वह फीका ही था। मिठास तुम्हारी मान्यता थी। तुमने डाल दी थी मिठास। तुमने कल्पना कर ली थी। और स्वभावतः तुम्हारी कल्पना यथार्थ को पराजित नहीं कर सकती। आज नहीं कल, यथार्थ से हारेगी। आज नहीं कल, यथार्थ की टक्कर में कल्पना को टूटना ही पड़ेगा। तुम कितना ही अपनी कल्पना को बल दो और कितनी ही ऊर्जा उसमें डालो, कल्पना टूटेगी ही, टूटेगी ही टूटेगी। कल्पना कल्पना है, कितनी देर तक झुठलाओगे?
और जब टूटती है कल्पना तो विषाद घेर लेता है। उसी विषाद से दो संभावनाएं निकलती हैं। एक संभावना तो यह है कि तुम जल्दी ही, जब तुम्हारा एक कल्पना का जाल टूटने लगे, एक आशा निरस्त हो, एक सपना गिरे, तुम जल्दी से दूसरा सपना बना लेना। वही आम आदमी करता है। सच तो यह है, एक गिर भी नहीं पाता और वह नया बनाने लगता है; ताकि गिरने के पहले ही नया बन जाए। पुराना मकान गिरे, इसके पहले नया बना लेता है; कहीं ऐसा न हो कि छप्पर के बिना छूट जाऊं। इधर एक सपना तिरोहित होने लगता है, उधर वह प्राण अपने दूसरे सपने में डालने लगता है। जब तक एक गिरता है, दूसरा निर्मित हो जाता है। इसलिए तो एक वासना समाप्त नहीं होती कि तुम दूसरी वासना की जकड़ में आ जाते हो। ऐसे वासना से वासना, सपने से सपना, आदमी बदलता चलता है। और इसी बहाने आदमी जीता है। यह जीना बिलकुल झूठा है। क्योंकि तुम कितने ही सपने बदलो, सब सपने टूट जाएंगे, अंत में फीके हो जाएंगे।
एक और जीवन का ढंग है, जो कभी-कभी सौभाग्यशालियों को उपलब्ध होता है। बार-बार सपनों को टूटते देख कर आदमी यह निर्णय करता है कि अब और नहीं, अब बस काफी है।... का सोवै दिन रैन! बहुत सो लिए और बहुत सपना देख लिए, अब जागने की घड़ी आ गई, अब जागेंगे! अब और सपना नहीं बनाएंगे! और सपना न बनाना ही धर्म है। नई वासना निर्मित न करना ही धर्म है। यही धर्म में दीक्षा है--अब बिना सपने के जीएंगे।
कठिन है बिना सपने के जीना; बहुत कठिन है। वही कीमत है, जो सत्य को पाने के लिए चुकानी पड़ती है। अब बिना आशा के जीएंगे। अब बिना भविष्य के जीएंगे। अब कल की बात ही नहीं सोचेंगे--आज ही जीएंगे, अभी जीएंगे। अब जो परमात्मा करवाएगा वह करेंगे और जो परमात्मा दिखाएगा वह देखेंगे। हम अपनी कोई मंशा न रखेंगे। हम भीतर कोई छिपी आकांक्षा न रखेंगे कि ऐसा हो। जैसा होगा, जैसा है, उसको ही जानेंगे, उसको ही जीएंगे। हम अपनी तरफ से कोई प्रक्षेपण न करेंगे। हम फिल्म को हटा लेंगे। अब हम सूने पर्दे को देखेंगे, सफेद पर्दे को देखेंगे। सफेद पर्दा है, उस पर्दे पर चलती हुई रंगीन छायाएं नहीं हैं।
उस सफेद पर्दे के अनुभव का नाम समाधि है।
जो अपने चित्त से वासनाओं और सपनों की फिल्मों को हटा लेता है और जो उन फिल्मों के निर्मित करने वाले मूल-स्रोत को तोड़ देता है--जो कह देता है कि अब और नहीं, अब मैं बिना सपने के जीऊंगा, अब मेरी आंख सपने से खाली होगी, अब मैं और सपनों को अपनी आंख में नहीं बसाऊंगा, अपनी आंख में डेरा न करने दूंगा, अब मैं सपनों को मेहमानदारी अपने भीतर न करने दूंगा, नमस्कार! सपनों को जो नमस्कार कर लेता है, और आखिरी विदा दे देता है--और आंखें खाली हो जाती हैं, मन भी खाली हो जाता है। क्योंकि मन सपनों से ही भरा है। मन में और भराव क्या है? मन की और संपदा क्या है?--सपने, कल्पनाएं, आकांक्षाएं, वासनाएं, तृष्णाएं। एक शब्द में वे सब सपने का ही नाम हैं।
जैसे ही मन खाली होता है, पर्दा सफेद हो जाता है, चित्र खो जाते हैं। फिर न रोना है न हंसना है, न सुख है न दुख है। क्योंकि सुख और दुख उन चित्रों के कारण होते थे। न फिर द्वेष है न राग है। द्वंद्व गया। वे द्वंद्व भी उन चित्रों के कारण होते थे। सफेद पर्दा रह गया। और सफेद पर्दे के साथ ही शांति का अनुभव शुरू होता है। एक अपूर्व शांति भीतर सघन हो जाती है! अब सफेद पर्दा है, न कुछ हिलता है न कुछ डुलता है। पहले भी नहीं हिला था।
तुमने खयाल किया, जब सफेद पर्दे पर कोई फिल्म चल रही हो... तूफान आया है, भारी तूफान आया है, फिल्म में। झाड़-झंखाड़ गिरे जा रहे हैं, पहाड़ कंप रहे हैं, भूकंप आया है, नावें डूब रही हैं, जहाज पानी में नष्ट हुए जा रहे हैं, भवन गिर रहे हैं--तब भी तुम सोचते हो, पर्दा कंप रहा होगा इस तूफान के कारण? पर्दा कंप भी नहीं रहा है। यह सारा तूफान, यह इतने बड़े मकानों का गिरना, यह महलों का भूमिसात हो जाना, यह पहाड़ों का कंपना, ये बड़े-बड़े दरख्त, इनकी जड़ें उखड़ जानीं, यह लोगों का मरना, यह जहाजों का डूबना--यह सब हो रहा है। लेकिन क्या तुम सोचते हो जिस पर्दे पर यह हो रहा है, वह पर्दा जरा भी कंप रहा है? उसमें कंपन भी हो रहा है? उसमें कोई कंपन भी नहीं है। उसे पता ही नहीं है इस तूफान का। यह तूफान सिर्फ तुम्हारी कल्पना में हो रहा है। पर्दे के लिए हुआ ही नहीं।
ऐसा ही एक पर्दा तुम्हारे भीतर है, जिसको ज्ञानियों ने ‘साक्षी’ कहा है। सफेद है पर्दा। उस पर कुछ कभी नहीं हुआ, न कभी वहां कुछ हो सकता है। वहां सदा से शांति है। वहां सदा से शून्य विराजमान है। उसको अनुभव कर लेना, सत्य को अनुभव करना है। उसको जानना, ब्रह्म को जानना है। उसको जानते ही, व्यक्ति ब्राह्मण हो जाता है। सपनों में खोए रहना--शूद्र। सत्य के प्रति जाग जाना--ब्राह्मण। जो सपने में खोए हैं, वे सब शूद्र हैं। वे ब्राह्मण घर में पैदा हुए हों, इससे फर्क नहीं पड़ता। और जो जाग गए हैं, वे चाहे शूद्र घर में पैदा हुए हैं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, वे ब्राह्मण हैं।
माया रंग कुसुम्म महा देखन को नीको।
मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।।
कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल।
और लाख उपाय करो...
कोटिन जतन रह्यो नहीं,...
लाख उपाय करो, इस माया में किसी चीज को तुम ठहरा नहीं सकते। यहां सब प्रवाह है--आया और गया! यहां एक क्षण को भी तुम किसी चीज को ठहरा नहीं सकते। हैराक्लितु ठीक है, जिसने कहा है कि एक ही नदी में दुबारा नहीं उतरा जा सकता। एक ही चीज को दुबारा नहीं जाना जा सकता। दुबारा जानने लायक समय कहां है? चीज बह गई। हर चीज बही जा रही है।
लेकिन हमारी पूरी चेष्टा जीवन भर यही होती है कि पकड़ लें, रोक लें। जवानी है तो जवानी को नहीं जाने देते, कि कहीं बुढ़ापा न आ जाए! किस-किस भांति हम रोकने की कोशिश करते हैं, रुकती है जवानी? जीवन है तो जीवन को पकड़े रखना चाहते हैं, मौत न आ जाए! रुकता है जीवन? मौत आती ही चली जाती है। हमारे सब उपाय हार जाते हैं। हम हर चीज को रोके रखना चाहते हैं और हमें इस बात का खयाल ही नहीं है कि जिसे हम रोके रखना चाहते हैं, वह रुक नहीं सकती। माया का स्वभाव रुकना नहीं है। सपने का स्वभाव रुकना नहीं है। सपने का स्वभाव बहाव है।
सत्य ठहरा हुआ है। सत्य शाश्वत है। वहां कोई बहाव नहीं है। वह सदा एक रस है। सपने को तो बहता ही रहना पड़ता है। बहने में ही उसका जीवन है।
ऐसा समझो कि तुम फिल्म देखते हो, प्रभावित होते हो, आंदोलित हो जाते हो, दुखी-सुखी हो जाते हो; मगर अगर एक ही चित्र तुम्हारे सामने बना रहे पर्दे पर, तो क्या तुम सुखी-दुखी होओगे? एक ही चित्र बना रहे, चित्र बदले न, तो तुम कितनी देर तक समझोगे कि यह चित्र सही है? ज्यादा देर नहीं समझ पाओगे कि चित्र सही है। थोड़ी देर में ही समझ जाओगे, ऊब जाओगे कि अब बस उठूं, अब घर जाऊं। अब यह एक ही चित्र है, कुछ हो ही नहीं रहा है।
वह जो कुछ हो रहा है, वही तुम्हें उलझाए रखता है। वह जो परिवर्तन है, वही तुम्हें उलझाए रखता है। अगर जगत एक क्षण को भी ठहर जाए, तो तुम जगत से मुक्त हो जाओ। जगत बदलता रहता है--नये नृत्य, नये रंग, नये ढंग, नये परिधान हैं।
तुम देखते हो न, हर चीज की फैशन बदलती रहती है। वह जगत का हिस्सा है। लोग कपड़े बदल लेते हैं, गहने बदल लेते हैं, मकान बदल लेते हैं, नौकरियां बदल लेते हैं, पत्नियां बदल लेते हैं, पति बदल लेते हैं, बदलाहट, बदलाहट... मन कहता है बदलो। मन डरता है किसी चीज से, अगर ज्यादा देर साथ रह गए, तो कहीं भ्रम न टूट जाए। तो मन कहता है, बदलते रहो। मन सतत बदलने के लिए प्रेरणा देता रहता है, क्योंकि मन जी ही सकता है बदलाहट में। और माया भी जी सकती है बदलाहट में।
माया यानी मन का विस्तार। मन, जिसको हम भीतर कहते हैं--वह। और माया, मन का ही बाहर जो विस्तार है--वह। मन--भीतर की माया; माया--बाहर का मन। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। परिवर्तन में सारा खेल है।
इस देश ने एक अनूठा प्रयोग किया था। उस प्रयोग का शायद तुम्हें खयाल भी न रहा हो। सदियों तक हमने एक प्रयोग किया था। वह प्रयोग यह था कि जिंदगी को इस तरह रखा था कि उसमें ज्यादा बदलाहट न हो। इसलिए हमने एक स्त्री से विवाह किया, तो उस पर जोर दिया कि बस अब एक ही स्त्री के साथ रहना है। जीवन भर... एक पत्नी, एक पति। लोग एक तरह के कपड़े पहनते थे तो सदियां बीत जाती थीं उसी तरह के कपड़े पहनते थे। लोग अपने गांव में रहते थे, तो अपने गांव में ही रहे आते थे।
लाओत्सु ने लिखा है कि मैं जब बच्चा था तो नदी के उस पार दूसरा गांव था। वहां के कुत्ते भौंकते थे तो हमें सुनाई पड़ते थे। और वहां सांझ को भोजन पकाया जाता था तो मकानों के ऊपर से उठता हुआ धुआं भी हमें दिखाई पड़ता था। लेकिन किसी को उत्सुकता नहीं थी कि जाकर देखें कि कौन वहां रहता है। हम अपने गांव में मस्त थे, वे अपने गांव में मस्त थे। लोग एक गांव में पैदा होते, वहीं मर जाते थे, वहीं जीते थे।
यह एक अनूठा प्रयोग था। इस प्रयोग के पीछे बुनियादी कारण क्या था? बुनियादी कारण यह था: अगर जगत में कम से कम परिवर्तन हों तो तुम जल्दी ही जगत से मुक्त होने की आकांक्षा से भर जाते हो। अगर एक ही पत्नी के साथ तुम्हें जिंदगी भर रहना पड़े तो तुम कितनी देर तक चूकोगे, यह बात समझने से--‘मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।’ कैसे बचोगे? तुम चकित होओगे जान कर कि इसके पीछे एक आध्यात्मिक प्रक्रिया थी। अमरीका में बहुत मुश्किल है यह जानना। क्योंकि चार दिन में तो पत्नी बदल जाती है। दो-चार दिन के बाद ही लगेगा न फीका। लेकिन दो-चार दिन फीका लगने के पहले ही पत्नी बदल ली। तो हनीमून चलता ही रहता है। एक हनीमून से दूसरा हनीमून, दूसरे से तीसरा हनीमून। बदलाहट इतनी तेजी से होती रहती है कि भ्रांति टूटती नहीं।
अमरीका में लोग औसत रूप से तीन साल से ज्यादा एक धंधे में नहीं रहते। एक ही धंधे में रहोगे, ऊब ही जाओगे। ऊब बिलकुल स्वाभाविक है। और जब ऊब होती है तो पता चलना शुरू होता है कि सब फीका है, सब व्यर्थ है। लेकिन धंधा हर तीन साल में बदल लिया। तीन साल ही अमरीका में धंधे बदलने का औसत है और तीन साल ही मकान बदलने का औसत है और तीन साल ही पत्नी-पति बदलने का औसत है। तीन साल से कुछ संबंध दिखता है मन का। तीन साल के बाद दिखता है, ऊब सघन हो जाती है और सपना टूटने के करीब आ जाता है। इसके पहले कि सपना टूटे, बदल लो; नया सपना देखना शुरू करो।
वही फिल्म रोज-रोज देखोगे, कितने दिन तक रोओगे?--यह मुझे कहो। पहले दिन रो लोगे, दूसरे दिन रो लोगे, तीसरे दिन रो लोगे--कब तक रोओगे, यह मुझे कहो। दो-चार दिन के बाद तुम कहोगे: ‘बहुत हो गया। अब क्या रोना है? फिल्म है, कहानी है, ठीक है।’ वही उपन्यास पढ़ोगे, कितने दिन तक उत्सुकता रहेगी?
हमने जीवन के हर पहलू पर यह प्रयोग किया था। हमने सदियों तक एक ही फिल्म देखी--‘रामलीला।’ सदियां आईं और गईं--और वही राम, और वही सीता और वही रावण, और फिर वही कहानी, और फिर वही कहानी। और हर वर्ष लोग देखते ही रहे, देखते ही रहे, देखते ही रहे। इसके पीछे कुछ कारण था। हमने चाहा था कि चीजें थोड़ी थिर हो जाएं, ताकि थिरता से भ्रांति साफ हो जाए।
कभी-कभी फिल्म में इंजिन बिगड़ जाए या प्रोजेक्टर खराब हो जाए, और फिल्म रुक जाती है। उसी वक्त तुम्हारी भाव-दशा भी रुक जाएगी। इधर फिल्म रुकी, उधर भाव-दशा रुकी।
बदलाहट के साथ ही मन जी सकता है।
यह आकस्मिक नहीं है कि बुद्ध और महावीर, और बहुत-बहुत ज्ञानी जंगलों में चले गए, पहाड़ों में चले गए। कारण था। जंगल और पहाड़ सदा वैसे के वैसे हैं। आदमी बदलाहटें कर लेता है, जंगल और पहाड़ तो सदा वैसे के वैसे हैं। वही एकरसता है। महावीर ने तो और हद कर दी! तुमने देखा है, जैनों के जो तीर्थस्थान हैं वे जंगलों में नहीं हैं, पहाड़ों पर हैं। और उन पहाड़ों पर हैं, जो बिलकुल सूखे हैं, जहां वृक्ष नहीं हैं। सुंदर पहाड़ नहीं चुने। क्योंकि जहां वृक्ष हैं, वृक्षों के साथ थोड़ी बदलाहट होती ही रहती है। पतझड़ आएगा, पत्ते गिरेंगे। फिर बसंत आएगा, फूल खिलेंगे। लेकिन खाली पत्थर, सूखे पत्थर--वहां कुछ नहीं बदलता, सब थिर है। कितनी देर तुम बाहर में उत्सुकता रखोगे? देखते रहे चट्टान को, देखते रहे चट्टान को। वहां न कुछ बदलता है कभी, न कभी बदला है, न कभी बदलेगा--तुम समाप्त हो जाओगे, चट्टान जैसी थी वैसी की वैसी है, वैसी की वैसी रहेगी। कितने दिन तक उत्सुकता रहेगी? जल्दी ही उत्सुकता खो जाएगी। बाहर से आंखें भीतर की तरफ मुड़ने लगेंगी। ऊब पैदा हो जाएगी।
मीठो दिन दुई चार,...
दो-चार दिन जल्दी ही विदा हो जाएंगे।...
...अंत लागत है फीको।
सब फीका लगने लगेगा। और जब यह संसार फीका लगता है, तो परमात्मा की तलाश शुरू होती है। कोई खोजे क्यों परमात्मा को, जब संसार ही फीका न लगता हो? जब यहां काफी रस ही आ रहा हो, कोई खोजे क्यों! जब रस आ रहा हो तो यहीं परमात्मा मिल रहा है, कोई खोजे क्यों? संसार के फीके अनुभव से आदमी उस तरफ चलना शुरू होता है, जहां वस्तुतः रस होगा।... रसो वै सः! तब असली रस की तलाश शुरू होती है।
कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल।
माया तो बदलती ही रहती है, बदलने में ही जीती है। बदलना उसका सार-सूत्र है, जीवन की आधारशिला है। और तुम लाख उपाय करो, बचा न सकोगे। तुम्हारा किसी से प्रेम हो गया। तुम कितना उपाय करते हो कि अब यह प्रेम बना ही रहे, मगर यह बना नहीं रह सकता। यहां कोई चीज बनी नहीं रह सकती। यहां सब बनता है--मिटने को। यहां सब बसता है--उजड़ने को। कितने हमने उपाय किए हैं कि पत्थरों के महल बनाएं जो कभी न गिरें; वे भी गिर जाते हैं; वे भी समाप्त हो जाते हैं; वे भी एक दिन धूल हो जाते हैं, रेत हो जाते हैं। हमारा यहां बनाया हुआ कुछ भी टिक नहीं सकता। टिकना यहां स्वभाव नहीं है।
कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल।
यह हो ही नहीं सकता; क्योंकि माया का स्वभाव ही एक नहीं है, अनेक है। उसके मूल में एक है ही नहीं, अनेकता है। अगर थिर को पाना हो, शाश्वत को पाना हो, तो एक को खोजना पड़ेगा, मूल को खोजना पड़ेगा। उस मूल में ही विश्राम है। जो कभी न बदले, उसी में मुक्ति है। क्योंकि फिर निश्चिंतता है, फिर सुरक्षा है। फिर घर आ गया।
ज्यों पतंग उड़ि जायगो, ज्यों माया काफूर।
यह माया तो ऐसे उड़ जाएगी जैसे कपूर उड़ जाता है। इसलिए कपूर को मंदिरों में प्रार्थना और पूजा के लिए चुना था। वह प्रतीक था माया का। वह खबर देता था कि यहां सब चीजें उड़ जाने वाली हैं। कपूर... आरती उतारते हैं कपूर रख कर। क्षण भर को भभक उठती है और सुगंध फैलती है। क्षण भर को लपट और फिर सब सन्नाटा। धुआं भी खो गया, ज्योति भी खो गई, गंध भी खो गई।
इसमें प्रतीक देखते हो? पत्थर की प्रतिमा बनाते हैं, कपूर की आरती उतारते हैं। सूचना इस बात की है कि पत्थर की प्रतिमा--आरती बनी तब भी थी; आरती उतारी तब भी थी; कपूर जला तब भी थी; कपूर भभका तब भी थी; कपूर शांत हो गया तब भी है; कपूर का अब कोई नामोनिशान न रहा तब भी है। ऐसा ही सत्य और माया है। माया कपूर जैसी है।
ज्यों पतंग उड़ि जायगो, ज्यों माया काफूर।
नाम के रंग मजीठ, लगै छूटै नहिं भाई।
एक ही चीज इस जगत में है, उस प्रभु का नाम। उस प्रभु का रंग--जो पक्का है; लग जाए तो फिर छूटता नहीं। जब तक नहीं लगा, तब तक तुम्हें इस बात का पता भी नहीं होता; जब लग जाता है तभी पता होता है।
नाम के रंग मजीठ, लगै छूटै नहिं भाई।
लचपच रह्यो समाय, सार ता में अधिकाई।।
और अगर कहीं उस प्रभु की स्मृति उठने लगे, अगर किसी सत्संग में उसकी याद आने लगे, उसका भाव जगने लगे, तो फिर कंजूसी मत करना, कृपणता मत करना।...
लचपच रह्यो समाय,...
अगर कहीं यह भाव उठता हो तो डुबकी मार जाना। फिर खड़े मत रहना किनारे पर। अगर कहीं यह गंगा बहती हो, तो चूक मत जाना। मुश्किल से कभी यह संयोग होता है कि कहीं गंगा बहती है उसके नाम की। और कहीं तुम खड़े ही रहे किनारे और चूक गए और चूक सकते हो।
लचपच रह्यो समाय,...
धनी धरमदास कहते हैं: फिर चूकना मत। छलांग मार जाना। फिर तो एकरस हो जाना। जहां उसके प्रेम की चर्चा होती हो, जहां उसके नाम का गीत-गायन होता हो, जहां उसकी स्मृति में नृत्य चलता हो, जहां लोग प्रार्थना में लीन हों, जहां लोग परम का उच्चार कर रहे हों, जहां बैठ कर प्रभु की प्रशंसा की जा रही हो--वहां लचपच हो जाना। ऐसे दूर-दूर मत खड़े रहना, बचाए-बचाए मत खड़े रहना। वहां अछूत बने मत खड़े रहना। सम्मिलित हो जाना नृत्य में! डूब जाना संगीत में।
मगर बड़ा कठिन है। लोग हजार बहाने खोज लेते हैं दूर खड़े रहने के। जो लचपच हो गए हैं, उन्हें तो वे पागल समझते हैं। वे सोचते हैं: इनको क्या हो गया? अच्छा-भला आदमी, इसको क्या हो गया? यह कहां की बातों में पड़ गया! अभी कुछ धन कमाता, अभी कुछ पद बनाता। अभी तो मौके हाथ लगने को थे। अभी तो बाजार की किस्मत बदलने को थी। अभी कहां भागा जा रहा है। अभी तो सौदा कर लेने का समय था। इसे कहां की राम की बात पकड़ गई? इसे कौन से प्रभु का स्मरण आ गया? सब भ्रांति है। अपने को बचाओ। आदमी पहले तो ऐसी जगह जाता नहीं। ऐसी जगह खतरनाक है। लोग सत्संग से ऐसे बचते हैं, जैसे लोग प्लेग से भी नहीं बचते।
जॉर्ज गुरजिएफ के संबंध में, उसके एक विरोधी ने यह वक्तव्य फ्रांस में फैला रखा था कि गुरजिएफ से इस तरह बचो जैसे कोई प्लेग से बचता है। और इसमें सच्चाई है; क्योंकि प्लेग का मारा तो शायद बच भी जाए, गुरजिएफ का मारा नहीं बचेगा। सत्संग में जो मारा गया, मारा गया, सदा के लिए मारा गया; फिर वहां से जिंदा लौटने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए लोग बचते हैं। या अगर चले भी जाते हैं तो बहरे हो जाते हैं, कठोर हो जाते हैं, पाषाण की तरह हो जाते हैं। अगर चले भी जाते हैं तो हजार तरह की शंकाओं को भीतर उठाते रहते हैं, हजार तरह से मन डांवाडोल करते रहते हैं। अगर कहीं सम्मिलित भी हो जाते हैं, तो भी अधूरे-अधूरे सम्मिलित होते हैं, पूरे नहीं सम्मिलित होते। और जब तक तुम सौ प्रतिशत सम्मिलित नहीं हो, सम्मिलित नहीं हो। क्योंकि सौ प्रतिशत से कम में कोई सम्मिलन होता ही नहीं।
देखा न, पानी जब गरम होता है तो सौ डिग्री पर भाप बनता है। तुम यह मत सोचना कि अट्ठानबे डिग्री पर बनना चाहिए, कुछ तो बनना चाहिए, अट्ठानबे प्रतिशत भाप बनना चाहिए। नहीं, एक प्रतिशत भी नहीं बनता। निन्यानबे डिग्री पर भी नहीं बनता। जरा सी भी कमी रह जाए सौ डिग्री में तो पानी भाप नहीं बनता। भाप तो बनता है ठीक सौ डिग्री पर।
और ऐसे ही उसका रंग लगता है ठीक सौ डिग्री पर। कभी-कभी आदमी बचता है, आता ही नहीं; आ जाता है तो बहरा हो जाता है। ऐसे सुनता है जैसे बिलकुल वज्र-बहरे! जीसस ने बार-बार अपने शिष्यों से कहा है: ‘कान हों तो सुन लो। आंख हो तो देख लो।’ उनके पास तुम जैसे ही कान थे, और तुम जैसी ही आंखें थीं। वे अंधों से और बहरों से नहीं बोल रहे थे। वे कोई अंधे-बहरों के स्कूल में नहीं चले गए थे। फिर क्यों बार-बार जीसस कहते हैं, ‘आंख हों तो देख लो। कान हों तो सुन लो’, क्योंकि आंखें भी हैं, लेकिन लोग बंद किए होते हैं; जीसस को देखने में डर लगता है। कहीं यह आदमी दिख जाए, तो फिर हमारी जिंदगी वही की वही नहीं रह जाएगी जैसी थी। एक भूचाल आएगा। एक क्रांति घटेगी। इसका रंग चढ़ जाएगा। कान हैं तो बंद कर लेते हैं। सुनते मालूम पड़ते हैं और सुनते नहीं। फिर सुन भी लें तो भीतर हजार तरह के विवाद करते हैं। सुन भी लें तो कुछ का कुछ अर्थ कर लेते हैं। सुन भी लें, बात कुछ खयाल में भी आ जाए, तो पूरा नहीं उतरते। होशियारी से चलते हैं। होशियारों का यह काम नहीं। चालाकी से चलते हैं।
यहां मेरे पास लोग हैं; सब तरह के लोग हैं। ऐसे लोग भी हैं जो संन्यस्त हो गए हैं और फिर भी होशियार हैं। संन्यस्त होकर और होशियार! फिर तुम संन्यस्त हुए ही नहीं। होशियारी! अभी भी तुम अपना हिसाब लगाए रखते हो। मुझे भी धोखा देते रहते हैं। कोई धोखा देने का मौका आ जाए तो नहीं चूकते। फिर यह भी उपाय करते रहते हैं कि धोखा नहीं दिया, इसका पता भी न चल पाए। फिर पकड़े जाते हैं तो क्षमायाचना कर लेते हैं। मगर वह क्षमायाचना भी झूठ होती है। वह झूठ इसलिए होती है कि फिर दुबारा वही करते हैं। वह क्षमायाचना सच कैसे हो सकती है? इस तरह की चालबाजियां! तो फिर यहां रहो ही मत। फिर तुम्हें जहां ठीक लगे वहां जाओ। लेकिन जहां जाओ, वहां सौ प्रतिशत डूबो। कहीं भी डूबो तो!
असली बात डूबने की है; कहां डूबे, यह सवाल नहीं है। किस सत्संग में तुम्हें रंग चढ़ेगा, यह बड़ा महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि रंगरेज तो एक ही है, उसके हाथ अनेक होंगे। मगर रंग चढ़ने दोगे, तब न! दूर-दूर खड़े रहे, बचाव करते रहे, छाता लगाए रहे कि रंग पड़ न जाए कहीं ऊपर...।
तुम्हारी हालत वैसी ही है जैसी कि होली के दिनों में होती है लोगों की। लोग रंग डालने निकलते हैं, डलवाने निकलते हैं; फिर भी उपाय करके निकलते हैं। एक तो साल भर लोग कपड़े बचा कर रखते हैं फाग के लिए; गंदे-पुराने कपड़े बचा कर रखते हैं। धुलवा कर रखते हैं कि जंचें ऐसे कि बिलकुल साफ-सुथरे कपड़े पहने हुए हैं; मगर खराब हो जाएं तो कुछ हर्जा नहीं, कुछ खोता नहीं। तो फिर जरूरत क्या थी रंग डलवाने की और रंग डालने की? किसको धोखा दे रहे हो?
मुझे बचपन की याद है। मेरे घर में भी वही होता था। कोई फटा-पुराना कपड़ा होता, वे सम्हाल कर रख देते कि इसको रख दो, होली पर काम आएगा। मैं उनसे कहता: फिर होली में जाने की जरूरत क्या है? होली के लिए तो तुम अगर ताजे नये कपड़े बनाते हो तो ही मैं जाने वाला हूं, नहीं तो नहीं जाने वाला हूं। फिर गए किसलिए? उनका रंग खराब करवाने को? अपने कपड़े खराब हैं ही, उनका रंग और खराब करवाया। और कपड़े फेंक दिए, झंझट मिटी।
तो मैं तो होली पर जब जाता था तो ताजे कपड़े ही लेकर जाता था। नहीं तो मैं कहता था कि मैं निकलूंगा ही नहीं घर से, क्योंकि इसका कोई सार ही नहीं है। उनको क्यों धोखा देना? वे बेचारे बड़ी तैयारी किए होंगे। रंग घोल कर रखे होंगे, पिचकारी सजाई होगी। और ये कपड़े तुमने धुलवा कर रख दिए हैं, कलफ चढ़वा कर रख दिए हैं। ये बड़े साफ-सुथरे मालूम हो रहे हैं। मगर मुझे पता है। उनको पता नहीं है, यह ठीक है। मगर उनको भी पता होगा, क्योंकि वे भी ऐसे ही कपड़े पहने हुए हैं।
तुम संन्यस्त भी हो जाते हो, तो भी रंगते नहीं। तुम्हारी चालबाजियां जारी रहती हैं। तुम अपना गणित बिठाए रखते हो। अपना ही गणित बिठाना है, तो फिर मुझसे संबंध नहीं जुड़ा। अपना गणित नहीं जीता है, इसीलिए तो आदमी संबंध जोड़ता है कि अपने सोचने से नहीं हो सका, अब किसी के साथ संबंध जोड़ लें; अब किसी का हाथ पकड़ लें और अब चल पड़ें अज्ञात की दिशा में। मगर सौ प्रतिशत होना चाहिए।...
लचपच रह्यो समाय,...
यह सौ प्रतिशत का अर्थ है: ‘लचपच रह्यो समाय।’ ऐसा नहीं, ऊपर-ऊपर नहीं। रंग ही जाओ--बाहर-भीतर! शरीर भी रंगे और आत्मा भी रंग जाए। फिर यहां-वहां जाने की जरूरत नहीं रह जाती, कोई कारण नहीं रह जाता। जो रंग गया वह रंग गया।और अगर तुम यहां-वहां जाते रहे तो खयाल रखना: जिस मात्रा में तुमने मुझे धोखे दिए हैं, उसी मात्रा में तुम मुझे चूक जाओगे। फिर मुझसे मत कहना पीछे। क्योंकि जिम्मेवारी तुम्हारी है। तुम अगर मेरे साथ पूरे नहीं हो तो तुम मुझे अपने साथ कैसे पूरा पाओगे? मैं तुम्हारे साथ उतना ही हो सकता हूं जितना तुम मेरे साथ हो। और उतनी ही तुम्हारी उपलब्धि होगी।
संग-साथ या तो सौ प्रतिशत हो तो बदलाहट लाता है, नहीं तो व्यर्थ चला जाता है। नाहक की मेहनत हो जाती है।
लचपच रह्यो समाय, सार ता में अधिकाई।
धनी धरमदास कहते हैं: उसमें बहुत सार है, अगर पूरी डुबकी लगा लो, अगर लचपच हो जाओ।
केती बार धुलाइये, दे-दे करड़ा धोय।
सौ प्रतिशत डूबो तो फिर कितनी ही धुलाई की जाए और कितने ही कड़ेपन से धुलाई की जाए...
ज्यों ज्यों भट्ठी पर दिये, त्यों त्यों उज्ज्वल होय।
और फिर तो जैसे-जैसे भट्टी पर चढ़ाए जाओगे, वैसे-वैसे रंग और निखरेगा और सजेगा, संवरेगा।
जीवन की चुनौतियां सत्संग को नष्ट नहीं करतीं। सत्संग हो तो जीवन की चुनौतियां सत्संग को गहराती हैं। भट्टी बन जाती है जिंदगी। वहां हर घटना रंग को और गहन करती है। संसार फिर परमात्मा से छुड़ाता नहीं जब तक परमात्मा से जुड़े नहीं हो, तब तक संसार परमात्मा से छुड़ा सकता है। एक बार जुड़े, एक किरण उतरी, एक आभास हुआ, एक प्रतीति हुई कि फिर संसार परमात्मा से तुड़वाता नहीं, जुड़वाने लगता है। फिर तो संसार का हर अनुभव उसी की याद दिलाने लगता है। संसार का हर कांटा फिर उस फूल की स्मृति दिलाता है। संसार का सुख उस महासुख की याद दिलाता है। संसार का दुख भी उस महासुख की याद दिलाता है। फिर तो संसार के सब सुख-दुख उसी की याद दिलाते हैं। फिर उसकी याद ही तुम्हारी जीवन-विधि हो जाती है, व्यवस्था हो जाती है। फिर तो कुछ भी हो, उसी की याद आती है। सुबह देखा आकाश में शुभ्र घूमते हुए बादलों को--और उसी की याद आ जाएगी। सूरज निकला--और उसी की याद आ जाएगी! वर्षा हुई--और उसी की याद आ जाएगी! पक्षी उड़े--और उसी की याद आ जाएगी! कोई बच्चा हंसा--और उसी की याद आ जाएगी!
यह मस्त फजाएं किसने अनोखी खुशबू से महकाई हैं?
यह कैसी बहिश्तें उल्फत की हर नख्लो-शजर पर छाई हैं?
क्यों आज बहारों की परियां पैगामे-मसर्रत लाई हैं?
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
फिर तो हर तरफ से उसी की खबर आने लगती है। यह स्वर्ग क्यों उतर रहा है आज! ये आनंद के संदेश आज क्यों आ रहे हैं, कहां से आ रहे हैं !
पहले भी तुमने देखा था सौंदर्य, तब तुमने समझा था, फूल का है। अब फूल गया; अब सब सौंदर्य परमात्मा का है। पहले भी तुमने सौंदर्य देखा था; सोचा था, स्त्री का है, पुरुष का है। अब गए स्त्री-पुरुष; अब सब सौंदर्य उसी का है।
दुनिया पै है तारी रंग नया आलम ने भी बदले हैं चोले
यह किसने अदाए-खास से फिर रुखसारे-महो-अंजुम खोले
और एक हसीन अंगड़ाई की हर जुंबिश से मोती रोले
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
कुछ दर्द-सा है दिल वालों में, कुछ सोज भी है अफसानों में
एहसासे-गमे-महरूमी लो बेदार हुआ दीवानों में
इक लगजिशे-पैहम होने लगी फिकरत के हंसी इवानों में
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
हर जर्रए-आलम रक्सां है, मुशातिए फितरत जोश में है
इक होश की दुनियां मुजतर-सी हस्ती के दिले-बदहोश में है
थी जिसकी तमन्ना मुद्दत से जैसे कि वही आगोश में है
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
है चाक गरेबां-गुंच-ओ-गुल खंदां है गुलिस्तां एक तरफ
आकाश तले हैं शैखो-बरहमन खुल्दे-बदामा एक तरफ
और आलमे-सरशारी में ‘हया’ है आज गज़ल ख्वां एक तरफ
फिर आज तुम्हें शायद छूकर यह मस्त हवाएं आई हैं।
फिर सब गीत उसके हैं। सब सौंदर्य उसका, सब सुगंध उसकी, सब रूप उसका। फिर हर रूप में अरूप है और हर आकार में निराकार है। फिर हर आंख में वही झांकता है। वही खोजने वाला है, वही देखने वाला है, वही दृश्य है। वही गंतव्य है, वही गंता, वही गति।
एक बार रंग लगे, संसार विलीन हो जाता है। संसार परमात्मा में लीन हो जाता है। एक बार तुम लचपच हो जाओ परमात्मा में, तो तुम पाओगे परमात्मा संसार में लचपच है। लेकिन यह पहचान जब तक तुम्हारी अपनी न हो, तब तक किसी काम नहीं आती।
लचपच रह्यो समाय, सार ता में अधिकाई।
केती बार धुलाइये, दे दे करड़ा धोय।
ज्यों ज्यों भट्ठी पर दिये, त्यों त्यों उज्ज्वल होय।।
सोवत हौ केहि नींद, मूढ़ मूरख अग्यानी।
अब क्यों सो रहे हो? किसलिए सो रहे हो? यह पीड़ा सदा उनको रही है जिन्होंने जाना। उनकी समझ में यह नहीं आता कि सोने की अब जरूरत क्या है, कारण क्या है? काफी सो लिए हो। और सो कर बहुत दुख-स्वप्न देख लिए हैं, बहुत नरक भोग लिए हैं। सोने में सार भी कुछ नहीं पाया, फिर भी सोए हो?
और अगर धनी धरमदास जैसे व्यक्तियों को इस तरह के कठोर शब्द बोलने पड़े--मूढ़, मूरख, अग्यानी--तो सिर्फ करुणा के कारण। ये तीनों शब्द समझने जैसे हैं।
सोवत हौ केहि नींद, मूढ़ मूरख अग्यानी।
‘मूढ़’ सबसे खतरनाक होता है; ‘मूरख’ उससे थोड़ा कम; ‘अज्ञानी’ उससे थोड़ा कम। अज्ञानी का अर्थ होता है: ज्ञान का अभाव। मूरख का अर्थ होता है: अज्ञान की आदतें। मूढ़ का अर्थ होता है: अज्ञान की जिद। इस भेद को समझ लेना। अज्ञानी का अर्थ होता है: बच्चे जैसा; उसे अभी पता नहीं है; भोलाभाला। पता हो जाए तो यात्रा पर निकल पड़ेगा। जब यहां कोई अज्ञानी आ जाता है तो ज्यादा देर नहीं लगती उसके लचपच होने में; हो जाता है। क्योंकि उसे कोई अज्ञान की आदत नहीं है; सिर्फ अभाव है ज्ञान का। उसे रोशनी दिखाई नहीं पड़ी कभी; दिखाई पड़ती तो वह पहचान लेता। उसकी कोई ऐसी भीतरी आग्रह की दशा नहीं है, ऐसा कोई पक्षपात नहीं है कि मैं रोशनी को देखूंगा ही नहीं।
इसलिए कभी-कभी तुम हैरान होओगे, अज्ञानी ज्ञान के सर्वाधिक करीब होता है--तुम्हारे पंडितों से भी ज्यादा करीब होता है! पंडित की गिनती मूरख में करनी चाहिए। उसे भ्रांति होती है कि मैं जानता हूं, और जानता नहीं। और जब भ्रांति होती है कि मैं जानता हूं, तो उसके पास आग्रह होता है कि मेरा जानना ठीक होगा। होना ही चाहिए। वह अपनी आदतों को पकड़ता है। अपनी आदतों को सिद्ध करना चाहता है।
अज्ञानी तो छोटे बच्चे की भांति है। धन्यभागी है अज्ञानी, क्योंकि वह सबसे कम अज्ञानी है इन तीन में। फिर मूरख है। मूरख का मतलब यह होता है कि उसने आदतें बना ली हैं, उन आदतों को नहीं छोड़ सकता। उसने अज्ञान की आदतें बना ली हैं। वह उनका आग्रह रखता है। कभी-कभी मान भी लेता है कि छोड़ूंगा, मगर छोड़ नहीं पाता; उनकी पुनरुक्ति करता रहता है। मूर्च्छित है, बेहोश है। जब कोई मूरख आ जाता है, उसके साथ ज्यादा सिर फोड़ना पड़ता है।
फिर मूढ़ भी हैं। वे तो अंतिम शिखर हैं अज्ञान के। मूढ़ का मतलब होता है, वह तो स्वीकार ही नहीं करता कि मैं और अज्ञानी! कभी नहीं! मैं तो ज्ञानी हूं! मूरख तो थोड़ा डांवाडोल होता है कि पता नहीं, मुझे मालूम हो, न हो। अज्ञानी स्पष्ट होता है कि मुझे मालूम नहीं। मूढ़ कहता है: मुझे मालूम है और जो मुझे मालूम है, वही सही है। और इससे अन्यथा सत्य हो ही नहीं सकता। वह जिद्दी होता है, आग्रही होता है। फिर चाहे वह अपने आग्रह को सत्याग्रह का नाम ही क्यों न दे; मगर सब आग्रह असत्य के होते हैं, सत्य का कोई आग्रह नहीं होता। सत्य तो अनाग्रही होता है। उसमें जिद होती ही नहीं, निवेदन होता है।
मूढ़ सबसे ज्यादा खतरनाक है। वह राजी ही नहीं होता। वह मानता ही नहीं। वह स्वीकार ही नहीं करता। वह अपने अज्ञान को ही ज्ञान सिद्ध करने की चेष्टा में संलग्न रहता है। उसका अहंकार बड़ा प्रबल है।
इसलिए तीन अलग-अलग शब्दों का उपयोग किया गया है।
सोवत हौ केहि नींद, मूढ़ मूरख अग्यानी।
खोजना इन तीन में तुम कहां हो। और बड़ी ईमानदारी से खोजना, क्योंकि वह खोज बड़े काम की होगी।
गुरजिएफ के पास जब भी कोई शिष्य जाता था, तो गुरजिएफ कहता था कि पहली बात खोजने की यही है कि तुम्हारे चरित्र का ढांचा क्या है? तुम्हारे जीवन की सबसे बड़ी कमजोरी क्या है? तुम्हारी जिंदगी की सबसे बड़ी जिद क्या है? तुम्हारी जिंदगी की बुनियादी भूल क्या है, जिसके आस-पास सारी भूलें घूमती हैं, परिभ्रमण करती हैं, परिक्रमा करती हैं। वह कहता था कि महीने दो महीने तुम सिर्फ इसी बात पर सोचो, काम उसके बाद शुरू होगा।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो तुम्हारी बीमारी नहीं है वह तुम बताते हो मेरी बीमारी है। लोग बीमारी भी बड़ी सोच-समझ कर बताते हैं कि जिस बीमारी में प्रशंसा हो वह बीमारी बताते हैं। लोग हद के हैं! बीमारी से उनको इसकी फिकर नहीं कि बीमारी का इलाज करवाना है। इलाज करवाना हो तो बीमारी को ही पकड़े हैं। उनको तो प्रशंसा करवानी है।
मैंने सुना है, एक महिला अस्पताल में ऑपरेशन करवाने गई थी। कई दिन से जिद में पड़ी थी। पहले आती थी कि मेरा टांसिल निकाल दो। फिर डॉक्टर ने कहा कि टांसिल की निकालने की कोई जरूरत नहीं है, तेरे टांसिल बिलकुल ठीक हैं। फिर आने लगी कि मेरी अपेंडिक्स निकाल दो। डॉक्टर ने कहा कि भई, हमें लगे तो निकालें, तेरे मानने से नहीं निकाल सकते। उसने कहा: तो कुछ भी निकाल दो। क्योंकि जब भी मैं क्लब में जाती हूं तो कोई स्त्री कहती है कि मेरी अपेंडिक्स निकली है, कोई कहती है कि मेरे टांसिल निकले हैं। मेरे पास बात करने तक को कुछ नहीं है।
मैंने एक और स्त्री के संबंध में सुना है कि जब आपरेशन की टेबल पर उसे लिटाया गया तो उसने डाक्टर से कहा कि चीरा जरा लंबा मारना। अपेंडिक्स निकाली जा रही थी।
उसने कहा: लेकिन चीरा लंबा क्यों मारना? लोग तो कहते हैं कि चीरा जरा छोटा मारना कि पीछे उसका दिखावा न रह जाए, भद्दा न लगे।
उसने कहा कि नहीं, तुम तो जितना बड़ा मार सको उतना मारना। क्योंकि मेरे पति को भी चीरा लगा है, उससे बड़ा होना चाहिए। क्योंकि वह हमेशा अकड़ बताते हैं कि देखो, कितना बड़ा चीरा लगा है! यह अकड़ मुझसे नहीं सही जाती।
आदमी के अहंकार अजीब हैं !
एक महिला मेरे पास आती थी। उसके पति ने मुझे फोन किया कि आप इसकी बातों का भरोसा मत करना। यह बढ़ा-चढ़ा कर बातें करती है। इसको फुंसी हो जाए तो यह बताती है कैंसर हो गया। इसकी बातों का आप भरोसा मत करना। मैं इसके साथ तीस साल से रह रहा हूं।
लोग बीमारियां बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं! फिर बीमारियां भी वे जिनकी प्रशंसा होती हो।
लोगों को चिंता नहीं है कि जीवन के असली सवाल क्या हैं।
गुरजिएफ कहता था: पहले अपनी ठीक-ठीक व्यवस्था पकड़ो। तुम्हारे जीवन की चिंता क्या है? असली सवाल क्या है? और अगर तुम न पकड़ पाओ, तो फिर मुझे कहना।
बड़ा कठिन है पकड़ना कि हमारी बुनियादी भूल क्या है। तुम सोचते हो क्रोध। अक्सर क्रोध बुनियादी भूल नहीं होती, क्योंकि क्रोध तो केवल छाया है अहंकार की।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम क्रोध से कैसे मुक्त हों। मैं उनसे पूछता हूं: यह तुम्हारी असली बीमारी है कि लक्षण? वे कहते हैं: यही हमारी बीमारी है। इसी से हम परेशान हैं। बहुत दुख होता है और बड़ी बेइज्जती भी होती है। और क्रोध आ जाता है तो लोग समझते हैं कि क्रोधी हैं।
तो मैंने कहा, तुम क्रोध से परेशान नहीं हो। एक तो क्रोध होता ही है अहंकार के कारण; फिर यह तुम जो पूछने मुझसे आए हो कि क्रोध न हो, यह भी अहंकार के लिए है ताकि लोगों में प्रतिष्ठा रहे, कि यह आदमी बड़ा विनम्र है, बड़ा शांत है, अक्रोधी है, साधु है! जिस अहंकार के कारण क्रोध पैदा हो रहा है उसी अहंकार के कारण तुम मेरे पास क्रोध का इलाज खोजने आए हो। और बीमारी दोनों के पीछे एक है। तो बीमारी हल कैसे होगी?
एक सज्जन मेरे पास आए। वे कहने लगे: बहुत चिंता मन में रहती है, नींद भी नहीं आती। किसी तरह मेरी चिंता से मुझे छुटकारा दिलवा दें। मैंने तो सुना है कि ध्यान से चिंताएं मिट जाती हैं।
मैंने उनसे पूछा कि जहां तक मैं समझता हूं, चिंता असली बात नहीं हो सकती। चिंता कभी असली बात नहीं होती। चिंता किस बात की होती है, वह मुझे कहो। चिंता अपने आप तो नहीं होती, कोई चिंता ऐसे आकाश से तो नहीं उतरती। किस बात की है?
उन्होंने कहा: अब आपसे क्या छिपाना! पहले डिप्टी मिनिस्टर था, फिर मिनिस्टर हो गया। आज दस साल से मिनिस्टर हूं। चीफ मिनिस्टर... मेरे पीछे के लोग चीफ मिनिस्टर हो गए हैं। और मैं चीफ मिनिस्टर होने के पीछे पड़ा हूं, वह हल नहीं हो रहा है। वही मेरी चिंता है। आप मुझे चिंता से छुड़ा दें। एक दफे मेरी चिंता छूट जाए, तो मैं इन सबको दिखा दूं करके। क्योंकि इसी चिंता की वजह से मैं बीमार भी रहता हूं, अस्वस्थ भी रहता हूं। और जितनी ताकत लगानी चाहिए प्रतिस्पर्धा में, उतनी नहीं लगा पाता। दूसरे जो मेरे पीछे आए, वे आगे निकलते जा रहे हैं। और मैं जेल भी गया, बयालीस में भी गया, और उसके पहले भी गया। और डंडे भी खाए और सब तरह का कष्ट सहा। और अभी तक चीफ मिनिस्टर नहीं हुआ। और पीछे से लफंगे आए, जो न कभी जेल गए, न कभी डंडे खाए, न कोई कष्ट झेला, वे चीफ मिनिस्टर हो गए हैं। तो मैं क्या करूं?
मैंने उनसे कहा कि देखो, तुम कहीं और जाओ। क्योंकि जो मैं कहूंगा वह तुम झेल न सकोगे। महत्वाकांक्षा न छोड़ोगे तो चिंता नहीं छूट सकती। चिंता महत्वाकांक्षा का हिस्सा है। और महत्वाकांक्षा भी बहुत गहरे में बुनियादी नहीं है, अहंकार ही बुनियादी है।
अपने रोगों को जरा पकड़ना, खोजना। तुम बड़े हैरान हो जाओगे कि तुम्हारे रोग वे नहीं हैं जैसे दिखाई पड़ते हैं। रोग के पीछे रोग हैं। उनके पीछे और रोग हैं। और जब तक बुनियाद न पकड़ ली जाए, तब तक कोई रूपांतरण नहीं होता।
ठीक से सोचना कि तुम मूढ़ हो, मूरख हो, अज्ञानी हो--क्या हो? और जहां हो फिर वहां से सरकने की कोशिश करना। अगर मूढ़ हो तो कम से कम मूरख बनो। अगर मूरख हो तो कम से कम अज्ञानी बनो। अगर अज्ञानी हो तो फिर देर क्या कर रहे हो? ज्ञानी बनो। फिर जागो!
सोवत हौ केहि नींद,...
भोर भये परभात, अबहिं तुम करो पयानी।
अब तो सुबह भी हो गई, जागने का समय भी हो गया। अब तो यात्रा की तैयारी करो!
किस यात्रा की बात कर रहे हैं धनी धरमदास? उसी यात्रा की, जिसकी मैं तुमसे रोज बात कर रहा हूं। और प्रभात कब की हो गई है! प्रभात सदा से ही है। रात कभी हुई नहीं। तुम्हारी नींद के कारण रात है। तुम सोए हो तो रात है। जो जागा है उसके लिए दिन है। तुम्हारे पास ही जो जाग कर बैठा है उसके लिए दिन है, और तुम सोए हो तो रात है। कुछ ऐसा नहीं है कि सूरज अभी निकला है। सूरज निकला ही हुआ है। परमात्मा का सूरज न तो कभी उगता और न कभी डूबता है। उसका कोई सूर्योदय नहीं है और न कोई सूर्यास्त है। जाग गए, सवेरा। सो गए, रात।
ऐसा समझो कि साधारण जीवन में जैसा है, उससे उलटा आध्यात्मिक जीवन में है। साधारण जीवन में क्या है? जब रात होती है जब तुम सोते हो। जब सुबह होती है तब तुम जागते हो। आध्यात्मिक जीवन में ऐसा है: जब तुम सो जाते हो, रात हो जाती है। जब तुम जाग जाते हो, सुबह हो जाती है।
भोर भये परभात, अबहिं तुम करो पयानी।
अब समय आ गया है यात्रा पर निकल जाने का। तीर्थयात्रा का समय आ गया है। अब परमात्मा को खोजने का वक्त आ गया है। आया ही हुआ है। बहुत तुमने गंवाया है, अब और समय गंवाने को नहीं है। जितने जल्दी जाग जाओ और चल पड़ो, उतना ही अच्छा है, क्योंकि उतने जल्दी सुख का सागर मिले।
डबरे बन गए हैं लोग। उनके जीवन में यात्रा नहीं है।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
सुनते हो यह वचन!
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
पंख खोलो और उड़ो! पंख तुम्हारे पास हैं। तुम भूल ही गए हो कि तुम्हारे पास पंख हैं। तुम्हें याद ही नहीं रही पंखों की। रहे भी कैसे? जन्मों-जन्मों से उड़े नहीं, खुले आकाश में पंख फैलाए नहीं। कारागृहों में रहने के आदी हो गए हो। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, शूद्र, ब्राह्मण... न मालूम कितने कारागृहों के भीतर तुम रहने के आदी हो गए हो! पंख फड़फड़ाने की भी जगह नहीं है। सींकचे ही सींकचे हैं। और धीरे-धीरे तुम भूल गए हो। भूलना ही पड़ा है। नहीं तो अहंकार को बड़ी चोट लगती है कि मैं कारागृह में पड़ा हूं! अहंकार के लिए यही सुविधापूर्ण है कि पंख ही नहीं हैं मेरे पास, मैं उडूं भी तो कैसे उडूं?
और तुम बातें भी करते रहते हो कि मैं उड़ना चाहता हूं। तुम मुक्ति की चर्चा भी चलाते हो। वह भी धोखा है, वह सिर्फ बातचीत है। वह असलियत से बचने का उपाय है।
इसलिए कहते हैं धनी धरमदास: ‘अब हम सांची कहत हैं।’
धनी धरमदास कहते हैं कि तुम्हें भली लगे चाहे बुरी लगे, अब हम सांची ही कह रहे हैं कि पंख तुम्हारे पास हैं। पूछो मत कि हमारे पास पंख कैसे उग आएं, पंख तुम्हारे पास हैं। आकाश मौजूद है, पैर तुम्हारे पास हैं, सुबह हो गई है। आंखें तुम्हारे पास हैं, खोलो तो प्रकाश है। परमात्मा एक क्षण को दूर नहीं है, तुम ही पीठ किए खड़े हो।
अब हम सांची कहत हैं,...
सांची बात ठीक नहीं लगती। आदमी चाहता है कुछ ऐसी बात कहो जिससे मैं यह समझ पाऊं कि जो मुझसे भूल हुई, होनी ही थी, मजबूरी थी। अब भी हो रही है तो आवश्यक है, अनिवार्य है। कहावतें लोगों ने बना ली हैं: ‘टु इर्र इ़ज ह्यूमन। भूल करना आदमी का स्वभाव है।’ इससे राहत मिलती है। तो हमसे भूल हो रही है, तो बिलकुल स्वभाव हो रहा है, स्वाभाविक हो रहा है।
जब भी कोई तुमसे सांची बात कहेगा, चोट लगेगी। सांच में आंच है। जलाएगी आंच, भभकाएगी अग्नि तुम्हारे भीतर। झूठे आदमी अच्छे लगते हैं। क्योंकि झूठे आदमी तुम जैसे हो वैसे ही रहो, इसका तुम्हें आश्वासन देते हैं। वे कहते हैं, तुम बिलकुल भले हो। वे तुम्हें सांत्वना देते हैं। झूठे आदमी लौरी गाते हैं तुम्हारे आस-पास। वे तुम्हारी नींद को और गहरा करवाते हैं। वे कहते हैं: भइया, करवट बदल लो, और कंबल हम ओढ़ाए देते हैं। और अभी तो बड़ा अंधेरा है, मजे से सोओ।
तुम उनके पास जाते हो जो तुम्हें सोने की विधियां देते हैं, जो तुम्हें नींद के उपाय बताते हैं; जो तुमसे कहते हैं कि अच्छे सपने कैसे देखो। हजारों किताबें लिखी जाती हैं इस संबंध में। डेल कारनेगी की बड़ी प्रसिद्ध किताब है: ‘हाउ टू विन फ्रेंड्स एंड इनफ्लूएंस पीपल? मित्रता कैसे बढ़े, लोग कैसे जीते जाएं?’ अभी अपने को जीता नहीं है, लोगों को जीतने चले! मगर लोग पढ़ते हैं। कहते हैं बाइबिल के बाद सबसे ज्यादा दुनिया में जो किताब बिकी है, वह यही है--डेल कारनेगी की किताब। बाइबिल के बाद! मतलब साफ है कि बाइबिल से ज्यादा बिक गई, क्योंकि बाइबिल खरीदता कौन है, मुफ्त बांटी जाती है। लोग बांटते ही रहते हैं बाइबिल। फिर हर ईसाई को रखनी ही पड़ती है घर में। न तो कोई कभी पढ़ता है, न कोई कभी पन्ने उलटता है। कौन पढ़ता है?
एक छोटे बच्चे से उसके पादरी ने पूछा कि तुमने अपना पाठ पूरा किया? बाइबिल पढ़ कर आए हो? क्या है बाइबिल में?
उस बच्चे ने कहा: सब मुझे मालूम है कि बाइबिल में क्या है!
उस पादरी ने कहा: सब तुम्हें मालूम है! सब तो मुझे भी नहीं मालूम।
क्या तुम्हें मालूम है?
उसने कहा कि मेरे पिताजी की लाटरी की टिकट है उसमें। मेरे छोटे भाई के बालों का गुच्छा है उसमें। मेरी मां ने एक ताबीज भी रखा हुआ है उसमें किसी हिमालय से आए हुए महात्मा ने दिया है। मुझे सब चीजें पता हैं कि उसमें क्या-क्या है।
कौन बाइबिल को देखता है! कौन बाइबिल को पढ़ता है! कौन खरीदता है! इस तरह की किताबें बिकती हैं: जीवन में सफल कैसे हों? सम्मान कैसे पाएं? धन कैसे पाएं?... नेपोलियन हिल की प्रसिद्ध किताब है: हाउ टु ग्रो रिच। लाखों प्रतियां बिकी हैं।
ये सारे के सारे लोग तुम्हें विधियां दे रहे हैं कि और गहरी नींद कैसे सोओ, और मजे से कैसे सोओ, सेज फूलों की कैसे बने, सपने मधुर कैसे आएं, सपने रंगीन और टेक्नीकलर कैसे हों? अब ब्लैक और व्हाइट सपने बहुत देख चुके, अब सपनों में थोड़ा रंग डालो! थोड़े सपनों की कुशलता और कला सीखो। ये लौरियां गाने वाले लोग हैं।
इसलिए धनी धरमदास कहते हैं: अब हम सांची कहत हैं। अब तुम्हें भला लगे या बुरा, हम सच बात ही कह देते हैं कि तुम चाहो तो इसी वक्त, इसी क्षण... उड़ियो पंख पसार! पंख तुम्हारे पास हैं। कारागृह किसी और की बनाई हुई नहीं है! तुम्हारी अपनी बनाई हुई है। कोई पहरेदार नहीं है। तुम्हीं कैदी हो, और तुम्हीं पहरेदार हो। तुम जब तक अपने को गुलाम रखना चाहते हो, रहोगे। जब तक अंधे रहना चाहते हो, रहोगे। जिस दिन निर्णय करोगे कि अब नहीं अंधे रहना है, उसी क्षण क्रांति शुरू हो जाएगी। सिर्फ तुम्हारे निर्णय की देर है। सिर्फ तुम्हारे संकल्प के जगने की देर है। और किसी चीज की कमी नहीं है।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
छुटि जैहो या दुक्ख ते, तन सरवर के पार।।
और अगर उड़ सको, पंख फैला सको, अगर उसके आकाश को स्वीकार कर सको, अगर उसमें लचपच हो सको, अगर उसके रंग में पूरे सौ प्रतिशत रंगने का साहस हो, तो...‘छुटि जैहो या दुक्ख ते’... तो सारे दुखों से मुक्त हो जाओगे।... ‘तन सरवर के पार।’ तन के पार, सीमाओं के पार, देह के पार, मिट्टी के पार, मृण्मय के पार--चिंमय की उपलब्धि हो जाएगी!
नाम झांझरी साजि, बांधि बैठो बैपारी
बोझ लद्यो पाषान, मोहि डर लागै भारी।।
और तुम इतने डर क्यों रहे हो? बैठ क्यों नहीं जाते, नाव तो किनारे आ लगी है।
जब भी कोई सदगुरु, कबीर, नानक, दादू या धनी धरमदास जैसा सदगुरु जब खड़ा होता है तुम्हारे किनारे पर, तो वह यही कह रहा है कि अब तुम रुके क्यों हो? अब डर क्यों रहे हो? नाव तो किनारे पर लग गई है।
नाम झांझरी साजि,...
नाम की नाव किनारे लगी है। नानक ने कहा है: नानक नाम जहाज। नाम जहाज है। यह किनारे आ लगा है।
नाम झांझरी साजि,...
और सब सज कर तैयार हो गई है।
...बांधि बैठो बैपारी।
जल्दी बंाधो अपनी गठरी और बैठ जाओ। क्या घबड़ा रहे हो? घबड़ाहट है: बोझ लद्यो पाषान, मोहि डर लागै भारी। लेकिन डर है, क्योंकि तुम्हारी गठरी में सिर्फ पत्थर हैं; बोझ है। कहीं नाव डूब न जाए! और इन पत्थरों को तुम छोड़ने को राजी नहीं हो। उस पार भी जाना चाहते हो और पत्थर भी साथ ले जाना चाहते हो!
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि अगर हम एक घंटा रोज ध्यान करते रहें तो सब ठीक हो जाएगा? मैं उनसे कहता हूं: सब गड़बड़ हो जाएगा। क्योंकि एक घंटा ध्यान, और तेईस घंटे क्या करोगे। तेईस घंटे ध्यान के विपरीत करोगे, जो भी करोगे। और एक घंटा ध्यान करोगे। सब गड़बड़ हो जाएगा। सब अस्त-व्यस्त हो जाएगा। यह तो ऐसे ही हुआ कि एक घंटे वृक्ष को उखाड़ लिया जमीन से, फिर तेईस घंटे गड़ाया। सब जड़ें टूट जाएंगी।
अगर ध्यान ही करना हो तो घंटों में नहीं किया जाता, अनुपात से नहीं किया जाता, तराजुओं पर तौल कर नहीं किया जाता। बिना तौले किया जाता है। घंटों से नहीं होता हिसाब। ध्यान का रस चौबीस घंटे पर फैलना चाहिए। दुकान पर बैठे तो भी ध्यान। बाजार में चले तो भी ध्यान। भोजन किया तो भी ध्यान। रात सोए तो भी ध्यान, उठे तो भी ध्यान। ध्यान तुम्हारी श्वास बन जानी चाहिए।
आदमी चाहता है ध्यान भी सम्हाल लूं और इस संसार में जो मिलता है वह भी सम्हाल लूं। पद भी मिल जाए, धन भी मिल जाए, प्रतिष्ठा भी मिल जाए, ध्यान भी मिल जाए--कुछ मेरे हाथ से चूक न जाए। दोनों दुनियाओं को सम्हाल लूं। फिर अड़चन खड़ी होती है।
बोझ लद्यो पाषान, मोहि डर लागै भारी।
डर लगता है फिर, क्योंकि बोझ भारी है। ये पत्थरों को लेकर बैठे तो तुम तो डूबोगे ही, नाव भी डूबेगी। तुम पार न हो पाओगे। ये पत्थर छोड़ने होंगे।
और पत्थर को पकड़े क्यों हो? निश्चित ही तुम्हें अब भी पत्थरों में हीरे दिखाई पड़ते हैं, इसलिए पकड़े हो। पत्थर को कोई पत्थर सोच कर थोड़े ही पकड़ता है; पत्थर जान कर थोड़े ही पकड़ता है! पत्थर को हीरा जानता है, तो पकड़ता है।
मांझ धार भव तखत में, आइ परैगी भीर।
बड़ी मुश्किल में पड़ोगे। मझधार में जब नाव डूबने लगेगी और पानी भरेगा नाव में, तब बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। इसलिए डर लगता है।
एक नाम केवटिया करि ले, सोई लावै तीर।
इन पत्थरों की गठरी को छोड़। एक नाम को केवटिया कर ले। बस एक उसके नाम को मांझी बना ले।
एक नाम केवटिया करि ले, सोई लावै तीर।
उतना पर्याप्त है। प्रवास के लिए उतना पाथेय पूरा है। उसका एक नाम ही भोजन बन जाता है, वही माझी हो जाता है, वही नाव हो जाता है, वही पहुंचा देता है। सच तो यह है: जिसने उसके नाम को समग्रता से पकड़ लिया, कहीं जाना ही नहीं होता; इसी किनारे पर वह किनारा मिल जाता है। ये तो सब प्रतीक हैं। जहां बैठे हो वहीं बैठे-बैठे मोक्ष उतर आता है। बीच बाजार में सन्नाटा हो जाता है।
सौ भइया की बांह, तपै दुर्जोधन राना।
परे नरायन बीच, भूमि देते गरबाना।।
जुद्ध रचो कुरुक्षेत्र में, बानन बरसे मेह।
तिनहीं के अभिमान तें, गिधहुं न खायो देह।।
कहते हैं: जरा सोचो, जरा देखो! लौट कर पीछे देखो, क्या-क्या गुजरती रही? दुर्योधन ने कृष्ण के बीच में पड़ने पर भी, जरा सी जमीन न दी, पांच डग जमीन न दी! ऐसा मोह पत्थरों का कि परमात्मा सामने खड़ा हो तो भी लोग पत्थर चुनते हैं, परमात्मा नहीं चुनते !
सौ भइया की बांह, तपै दुर्जोधन राना।
परे नरायन बीच, भूमि देते गरबाना।।
लेकिन भूमि देने में अहंकार आ गया। उसने कहा कि एक इंच जमीन नहीं दूंगा। एक सुई की नोक भर जमीन नहीं दूंगा।
तुम भी क्या कर रहे हो? किसकी जमीन? कहां से लाए? कहां ले जाओगे? क्यों इतने लड़े-मरे जा रहे हो?
ये कथाएं ऐतिहासिक नहीं हैं। इन कथाओं का मौलिक आधार मनोवैज्ञानिक है। इन सारी कथाओं के पीछे मनोविज्ञान के आधार हैं। यही तो हम कर रहे हैं। यही तो सारी दुनिया कर रही है: कैसे हमारी जमीन बढ़े, कैसे धन बढ़े, कैसे बैंक में बैलेंस बढ़े! और अगर राम भी बीच में आकर खड़ा हो जाए, और कहे कि भई इतना नहीं, इतना ज्यादा न करो, इतना मत चूसो, इतने अहंकार से मत भरो, इस पद-प्रतिष्ठा में कुछ सार नहीं है, यह सब पड़ा रह जाएगा, जब बांध चलेगा बंजारा! सब पड़ा रह जाएगा!... मगर कौन सुनता है, कब सुनता है? बुद्ध आए और कहते रहे, महावीर आए और कहते रहे। कौन सुनता है? हम अपनी धुन में लगे रहते हैं। हम पत्थर ही इकट्ठे करते रहते हैं। यही पत्थर हमें बार-बार डुबाते हैं।
जुद्ध रचो कुरुक्षेत्र में, बानन बरसे मेह।
जरा सी जमीन के ऊपर... पांडव पांच गांव लेने को राजी थे... जरा सी जमीन के ऊपर भयंकर युद्ध हुआ। आकाश से जैसे वर्षा होती है जल की, ऐसे बाण बरसे, ऐसी मृत्यु बरसी।
तिनहीं के अभिमान तें, गिधहुं न खायो देह।
और वे जो इतनी अकड़ से भरे थे, जब गिरे जमीन पर, तो इतनी लाशें पट गई थीं महाभारत के युद्ध में कि गिद्धों को भी खाने में रस नहीं रहा था, उत्सुकता नहीं रही थी।
तिनहीं के अभिमान तें, गिधहुं न खायो देह।
जो इतने अहंकारी थे, ऐसा सिर उठा कर चले थे, गिद्धों ने भी उनके सिर को खाने योग्य न समझा।
यही पत्थर हम इकट्ठे कर रहे हैं।
नाम झांझरी साजि, बांधि बैठो बैपारी।
बोझ लद्यो पाषान, मोहि डर लागै भारी।।
एक नाम केवटिया करि ले, सोई लावै तीर।
मांझ धार भव-तखत में, आइ परैगी भीर।।
जोधा आगे उलट-पुलट, यह पुहमी करते।
देखते हो, युद्ध चलते हैं! युद्ध हैं क्या? बस उन्हीं पत्थरों के लिए संघर्ष चल रहा है।
जोधा आगे उलट-पुलट, यह पुहमी करते।
ऐसे बड़े योद्धा, जो पृथ्वी को उलट-पुलट देते हैं।
बस नहिं रहते सोय, छिने इक में बल रहते।
और जब मौत आती है, तो सारा वश खो जाता है, सारी सामर्थ्य खो जाती है।
मैंने सुना है, नेपोलियन जब हार गया तो सेंट हेलेना के द्वीप में उसे कैदी किया गया। पहले ही दिन सुबह नेपोलियन अपने डॉक्टर को लेकर घूमने निकला है, और एक घसियारिन औरत अपना बड़ा घास का गट्ठर लिए पगडंडी पर चली आ रही है। डॉक्टर ने चिल्ला कर कहा कि ऐ स्त्री, हट जा रास्ते से! देखती नहीं, कौन आ रहा है! सम्राट नेपोलियन आ रहे हैं !
नेपोलियन ने डॉक्टर का हाथ खींच कर रास्ते से नीचे उतर गया। और कहा: तुम भूलते हो। तुम चूकते। अब वे दिन गए, जब नेपोलियन पहाड़ से कहता कि हट जा रास्ते से, तो पहाड़ हटता। अब तो घसियारिन भी हमसे कह सकती है--हट जाओ रास्ते से!... वक्त आ ही जाता है।
जोधा आगे उलट-पुलट, यह पुहमी करते।
बस नहिं रहते सोय, छिने इक में बल रहते।।
सौ जोजन मरजाद सिंध के, करते एकै फाल।
और जो समुद्रों को एक छलांग में लांघ जाते हैं, ऐसे बलशाली!
हाथन पर्वत तौलते,...
हाथ पर जो पर्वतों को तौल लेते हैं...।
...तिन धरि खायो काल।
मौत जब आती है, तो पता नहीं चलता कि मौत के दांतों में कहां खो जाते हैं!
मत इकट्ठे करो पत्थर।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
छुटि जैहो या दुक्ख ते, तन सरवर के पार।।
ऐसा यह संसार, रहट के जैसे घरियां।
कुएं पर चलती रहट देखी है--घरियों से बनी रहट!
ऐसा यह संसार, रहट के जैसे घरियां।
इक रीती फिरि जाय, एक आवै फिरि भरियां।।
एक खाली होती है, दूसरी भरी आ जाती है। फिर एक खाली होती है, दूसरी भरी आ जाती है।
ऐसा यह संसार,...
एक वासना चुकी कि दूसरी आई। एक जन्म चुका कि दूसरा जन्म आया। एक संबंध टूटा कि दूसरा संबंध बना। एक मूढ़ता से बचे कि दूसरी मूढ़ता आई।
ऐसा यह संसार, रहट के जैसे घरियां।
इक रीती फिरि जाय, एक आवै फिरि भरियां।।
उपजि-उपजि विनसत करैं, फिरि फिरि जमै गिरास।
और कितनी बार तुम उठ चुके और कितनी बार तुम गिर चुके! अंत है कुछ? गणना की जा सकती है कुछ? कितनी बार तुम जन्मे और कितनी बार तुम मरे! हिसाब तो करो! लौट कर थोड़ा सोचो तो!
उपजि-उपजि विनसत करैं, फिरि फिरि जमै गिरास।
बार-बार जन्म और बार-बार मृत्यु! सार क्या पाया? हाथ क्या लगा?
यही तमासा देखि कै, मनुवा भयो उदास।
धनी धरमदास कहते हैं: यह तमाशा देख कर ही तो हम जीवन से उदास हुए। यह देख कर ही, यह तमाशा देख कर ही तो हम दूर हुए जीवन से और हमने उसकी तलाश करनी शुरू की जो अमृत है--जहां न जन्म है, न मृत्यु है, जो आवागमन के पार है!
जैसे कलपि कलपि के, भये हैं गुड़ की माखी।
चाखन लागी बैठि, लपट गई दोनों पांखी।।
देखते हैं, स्वाद के लोभ में मक्खी गुड़ पर बैठ जाती है!
जैसे कलपि कलपि के, भये हैं गुड़ की माखी।
चाखन लागी बैठि, लपट गई दोनों पांखी।।
बैठी थी चखने, गुड़ लग जाता है दोनों पंखों में, फिर उड़ना मुश्किल हो जाता है। जकड़ गई, फंस गई। लोभ ही फंदा बन गया। स्वाद ही कारागृह है। वासना ही पकड़े है हमें।
पंख लपेटे सिर धुनै,...
अब सिर धुनती है।
पंख लपेटे सिर धुनै, मन ही मन पछिताय।
वह मलयागिरि छांड़ि के, यहां कौन विधि आय।
कैसी मूढ़ता की! वह मलयगिरि, वह पवित्रता, वह शांति, वह आनंद, वे हवाएं, वह सूरज, वे फूल, वे सुगंधें--उनको छोड़ कर मैं इस गंदे गुड़ के चक्कर में पड़ी!
ऐसे ही तुम भी आए हो किसी और देश से। यह देश तुम्हारा नहीं। यह परदेश है। तुम आए हो किसी दूर आकाश से! यह पृथ्वी पड़ाव है, मंजिल नहीं। यहां से उठ ही जाना है।
जाने के पहले जो जाग जाएगा, उसे फिर लौटना नहीं होगा। जो जाने के पहले नहीं जागेगा, फिर-फिर लौटेगा, फिर-फिर इस गुड़ की ढेली पर गिरेगा, फिर-फिर पंखों में गुड़ चिपटेगा, फिर-फिर बंधन होगा।
खेत बिरानो देखि, मृगा एक बन को रीझेव।
नित प्रति चुनि चुनि खाय, बान में इक दिन बीधेव।।
उचकन चाहै बल करै, मन ही मन पछिताय।
अब सो उचकि न पाइहौं, धनी पहूंचो आय।।
जैसे हिरन रोज-रोज आकर किसी जंगल में फल खा जाता है, कि किसी खेत में; फिर एक दिन बिंध गया। अब बहुत उचकना चाहता है, बल करना चाहता है कि निकल जाए, अब बहुत पछताता है कि मैं कहां फंस गया! छोटे से लोभ में अपनी स्वतंत्रता खोई, अपना जीवन खोया!
अब सो उचकि न पाइहौं, धनी पहूंचो आय।
लेकिन अब खेत का मालिक आ गया है, अब भाग न पाऊंगा।
मौत ऐसे ही आती है--खेत के मालिक की तरह। इस पृथ्वी पर मौत मालिक है, यह उसी का खेत है। इसमें दो-चार दिन तुम मजा ले सकते हो।
माया रंग कुसुम महा देखन को नीको।
मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको।।
आखिर में तो मौत का ही स्वाद जीभ पर रह जाता है, सब स्वाद खो जाते हैं, सब विनष्ट हो जाता है। अंत में तो मौत ही मुंह में रह जाती है। यह पृथ्वी तो मृत्यु का खेत है। वही धनी है यहां। इसलिए कोई लाख उपाय करे, उससे बच नहीं पाता।
जाग जाओ इसके पहले कि धनी आ जाए। जाग जाओ--उस बड़े धनी के प्रति, जो जीवन का धनी है, जो शाश्वत है, जो सनातन है, जो नित्य है। और उससे ही हम आए हैं और उसमें ही हमें वापस जाना है। मूल-स्रोत ही गंतव्य है।
सोवत हौ केहि नींद, मूढ़ मूरख अग्यानी।
भोर भये परभात, अबहिं तुम करो पयानी।।
अब हम सांची कहत हैं, उड़ियो पंख पसार।
छुटि जैहो या दुक्ख ते, तन सरवर के पार।।
संभावना है अनंत तुम्हारी। अपनी संभावनाओं को सत्य बनाया जा सकता है। संकल्प करो! इस अभीप्सा को उठने दो! इस अभीप्सा पर सब निछावर करो, तो देर नहीं लगेगी। और एक बार स्वाद आ जाए उस मलय-गिरि की सुगंध का, उस पवन का, तब तुम हैरान होओगे कि कैसे इतने दिन उलझे रहे! कैसे इतने दिन छोटे-छोटे खेल-खिलौनों में पड़े रहे! कैसे पत्थर इकट्ठे करते रहे! तुम्हें हैरानी होगी--अपने पर हैरानी होगी, अपने अतीत पर हैरानी होगी। और तुम्हें चारों तरफ लोगों को देख कर हैरानी होगी कि लोग क्यों उलझे हैं!
ज्ञानियों को यही सबसे बड़ी हैरानी रही है। खुद अपना अतीत बेबूझ हो गया कि हम इतने दिन तक कैसे चूके! और फिर चारों तरफ लोगों को चूकते देखते हैं, उन्हें भरोसा ही नहीं आता! समझ में नहीं पड़ता कि लोग कैसे चूके जा रहे हैं! जिसको खोजते हैं, उसी को चूक रहे हैं--और अपने ही कारण चूक रहे हैं!
कौन है ऐसा इस जगत में जो आनंद नहीं चाहता? और कौन है ऐसा इस जगत में जो आनंद उपलब्ध कर पाता है? बड़ी मुश्किल से कभी एकाध--करोड़ में। क्या हो जाता है? आनंद सब चाहते हैं, मगर जो करते हैं वह आनंद के विपरीत है। पश्चिम जाना चाहते हैं और पूरब जाते हैं। दिन को लाना चाहते हैं और रात को बनाते हैं।
ऐसा कौन है इस जगत में जो अमृत नहीं पाना चाहता है? अमृत बनाना चाहते हैं; और जहर ढालते हैं, जहर निचोड़ते हैं। कौन है इस जगत में जो शाश्वत शांति में डूब नहीं जाना चाहता? मगर सारी चेष्टा अशांति और अशांति को पैदा करती है।
जरा अपने जीवन के विरोधाभास को देखो--तुम जो चाहते हो वही कर रहे हो? तुम जो चाहते हो उससे विपरीत कर रहे हो। यह विपरीत ही माया है। जिस दिन तुम जो चाहते हो वही करने लगो, उसी दिन जीवन में धर्म का प्रवेश हुआ; तुम संन्यस्त हुए; तुम दीक्षित हुए।...सोचना!
धनी धरमदास के पद बड़े प्यारे हैं। और प्यारे ऐसे नहीं हैं जैसे लौरी होती है, जो नींद में डुबा दे। प्यारे ऐसे हैं कि कांटों की तरह चुभेंगे और जगाएंगे।
का सोवै दिन रैन, विरहिनी जाग रे!
आज इतना ही।