DHARAMDAS

Ka Sovai Din Rain 09

Ninth Discourse from the series of 11 discourses - Ka Sovai Din Rain by Osho. These discourses were given during MAR 31 - APR 10 1978.
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कहंवां से जीव आइल, कहंवां समाइल हो।
कहंवां कइल मुकाम, कहां लपटाइल हो।।
निरगुन से जीव आइल, सरगुन समाइल हो।
कायागढ़ कइल मुकाम, माया लपटाइल हो।।
एक बुंद से काया-महल उठावल हो।
बुंद पड़े गलि जाय, पाछे पछतावल हो।।
हंस कहै, भाई सरवर, हम उड़ि जाइब हो।
मोर तोर एतन दिदार, बहुरि नहिं पाइब हो।।
इहवां कोइ नहिं आपन, केहि संग बोलै हो।
बिच तरवर मैदान, अकेला हंस डोलै हो।।
लख चौरासी भरनि, मनुष-तन पाइल हो।
मानुष जनम अमोल, अपन सों खोइल हो।।
साहेब कबीर सोहर सुगावल, गाइ सुनावल हो।
सुनहु हो धरमदास, रही चित चेतहु हो।।

सत्तनामै जपु, जग लड़ने दे।।
यह संसार कांट की बारी, अरुझि-अरुझि के मरने दे।
हाथी चाल चलै मोर साहेब, कुतिया भुंकै तो भुंकने दे।।
यह संसार भादों की नदिया, डूबि मरै तेहि मरने दे।
धरमदास के साहेब कबीरा, पत्थर पूजै तो पुजने दे।।
यह मैकदा है मगर अब वह लुत्फे-आम कहां?
वह रक्शे-जाम वह रिंन्दाने-तिश्नाकाम कहां?
गुदाजे-सीनए-मुतरिब न सोजे-नग्मए-नै
वह बेकरारिए-महफिल का एहतमाम कहां?
इधर तही है सुबू, उस तरफ तही सागर!
वह बादा-रेजिए-महफिल की सुबहो-शाम कहां?
मिटे हुए-से हैं कुछ नक्शे-पा जरूर मगर
रहे तलब में वह याराने-तेजगाम कहां?
नवाए-वक्त बहुत गुलफिशां सही लेकिन
वह जां नवाज मोहब्बत अदा पयाम कहां?
शमीमे-शामे-मोहब्बत को क्या करूं ‘अख्तर!’
नसीमे-सुबहे-तमन्ना का वह खराम कहां?
सत्संग की मधुशालाएं थीं। सत्य की शराब ढलती थी। लोग पीते थे--जागते थे। बेहोश होते थे--और होश में आते थे। वे दिन चले गए।
यह मैकदा है मगर अब वह लुत्फे-आम कहां?
मधुशालाएं पड़ी रह गई हैं, लेकिन खाली हैं अब। अब मंदिरों में जाता कौन है! अब मस्जिदों से रिश्ता किसका रहा! गुरुद्वारे-गिरजे उजड़ गए हैं। और जाते भी हैं जो, वे भी कहां जाते हैं! जाते हैं और आ जाते हैं।
कुछ एक सूक्ष्म तंतु टूट गया है। कोई एक खोज जो सदियों से मनुष्य के प्राणों को आंदोलित किए रही थी, अचानक खो गई है। आदमी व्यर्थ में उलझ गया है। सार्थक की तलाश, सार्थक की तरफ नजरें उठाने का साहस खो गया है। आदमी ज्ञात में जकड़ गया है। अज्ञात का अभियान उसके प्राणों को अब चुनौती नहीं देता।
यह मैकदा है मगर अब वह लुत्फे-आम कहां?
मधुशाला है जरूर, मगर अब वे सारे पीने वाले लोग कहां!
वह रक्शे-जाम...
वह हाथों से हाथों में शराब की प्यालियों का जाना।
वह रक्शे-जाम वह रिंन्दाने-तिश्नाकाम कहां?
और अब वे पियक्कड़ और वे पीने वाले और वे प्यासे लोग कहां!
गुदाजे-सीनए-मुतरिब...
न तो गायक के गले में अब वह दर्द है।
गुदाजे-सीनए मुतरिब न सोजे-नग्मए-नै।
और न वाद्य में वह तड़प है।
वह बेकरारिए-महफिल का एहतमाम कहां?
और वह पियक्कड़ों की बैठक और उस बैठक का नशा और उस बैठक में खिलते हुए फूल, उस बैठक का वातावरण कहां! कुछ खो गया है पृथ्वी से। मंदिर खो गए हैं। मस्जिदें खो गई हैं। मस्जिदें हैं और मंदिर हैं, मगर वे सब घर रह गए हैं; उनके भीतर अब शराब नहीं ढलती, शराब नहीं बनती। शराब बनाने की कला खो गई है।
इधर तही है सुबू,...
इधर मदिरा का घड़ा खाली पड़ा है।
...उस तरफ तही सागर!
उधर मदिरा का प्याला खाली पड़ा है। ऐसे ही तुम्हारे मंदिर और मस्जिद हैं अब।
इधर तही है सुबू, उस तरफ तही सागर!
वह बादा-रेजिए-महफिल की सुबहो-शाम कहां?
वह मदिरा से परिपूर्ण, मदिरा की गंध से भरी हुई परिपूर्ण न तो अब सुबह है, न अब सांझ है। वे महफिलें न रहीं।
कुछ बड़ा बहुमूल्य इस पृथ्वी से टूट गया है, जिसे फिर से बनाना जरूरी है। मंदिर को फिर से उठाना जरूरी है। मंदिर के बिना मनुष्य मनुष्य हो ही नहीं पाता। और परमात्मा का रस जब तक न बहे जीवन में, तब तक हम जीए भी--और जीए भी नहीं। यूं ही जीए। व्यर्थ ही जीए। धूल-धवांस में जीए। आनंद और उल्लास में नहीं। तब तक जीए हम जरूर, क्योंकि श्वासें चलती थीं, छाती धड़कती थी, भोजन करते थे, सोते थे, उठते-बैठते थे। लेकिन ऐसे ही जैसे वृक्ष हो, पत्ते भी आएं, शाखाएं भी निकलें, लेकिन फूल कभी न खिलें।
मिटे हुए-से हैं कुछ नक्शे-पा जरूर मगर
लेकिन मधुशालाएं उजड़ गई हों, मंदिर समाप्त हो गए हों, पुरोहितों ने हत्या कर दी हो मंदिरों की और पंडितों ने मनुष्य से सत्य की खोज छीन ली हो... क्योंकि पंडितों ने इतना व्यर्थ का ज्ञान दे दिया है कि अब प्रत्येक को ऐसा लगता है: सत्य की खोज की जरूरत क्या? किताब से ही मिल जाता है, तो जीवन में कौन उतरे! उतनी झंझट कौन ले!... तो पंडित और पुरोहितों ने धर्म को मार डाला हो भला, लेकिन चरण-चिह्न नहीं खो गए हैं। जहां बुद्धपुरुष चले, जहां कबीर उठे-बैठे, वहां कुछ नक्शे-पा हैं।
मिटे हुए-से हैं कुछ नक्शे-पा जरूर मगर
कुछ चरण-चिह्न मिटे हुए जरूर हैं, मगर हैं। और गौर से कोई खोजे तो मिल जाते हैं।
रहे तलब में वह याराने-तेजगाम कहां?
हालांकि अब उस प्यारे के खोजने के रास्ते पर, प्रेम-मार्ग में तेज चलने वाले लोग नहीं रह गए हैं, मगर कुछ चरण-चिह्न अब भी समय की रेत पर हैं।
संतों के वचनों पर बोलने का मेरा प्रयोजन यही है कि ये नक्शे-पा, ये चरण-चिह्न तुम्हें थोड़े स्पष्ट हो जाएं; तुम्हें याद आ जाए कि और भी रास्ता है कुछ चलने का और भी रास्ता है कुछ जीने का, और भी ढंग है, और भी शैली है। यही जिंदगी नहीं है, जिसे तुमने जिंदगी समझ रखा है। यह तो जिंदगी की केवल एक सुविधा है, अवसर है। यहां असली जिंदगी निचोड़नी है।
अंगूर शराब नहीं हैं। अंगूर केवल शराब की सुविधा है। अंगूर के बिना शराब नहीं हो सकती, यह सच है; लेकिन अंगूर ही शराब नहीं है। शराब बनानी पड़ेगी। अंगूर से शराब बनाने की प्रक्रिया का नाम साधना है।
इन सूत्रों को समझना।
कहंवां से जीव आइल, कहंवां समाइल हो।
धनी धरमदास कहते हैं: कहां से आना हुआ तुम्हारा? किस लोक से आए हो? याद करो उस स्रोत को, क्योंकि स्रोत ही अंतिम लक्ष्य है। जहां से हम आए हैं वहीं हमें पहुंचना है--तभी वर्तुल पूरा होता है, यात्रा समाप्त होती है। प्रथम चरण और अंतिम चरण एक है। बीज से वृक्ष होता है, फिर वृक्ष में बीज लगते हैं। फिर वृक्ष से बीज पृथ्वी में गिर जाते हैं, जहां से आए थे। गंगोत्री से गंगा निकलती है, सागर में उतरती है, फिर बादलों पर चढ़ती है, फिर वर्षा होती है हिमालय पर, फिर गंगोत्री में प्रवेश हो जाता है। जहां वर्तुल पूरा होता है।
वर्तुल कहां पूरा होगा? जहां से हम आए हैं वहीं हमें पहुंच जाना होगा। वहीं हमारा घर है। उसके अतिरिक्त सब भटकाव है। और हमें भूल ही गया है कि हम कहां से आए हैं।
कहंवां से जीव आइल,...
यह बुनियादी प्रश्न है कि हम कहां से आए हैं? हमारा मूल उद्गम क्या है? हमारा स्रोत क्या है? यह जीवन-वृक्ष किस बीज से पैदा हुआ है?
ऊपर-ऊपर खोजें, जैसा कि भौतिकवादी करता है, पदार्थवादी करता है, शरीरवादी करता है--तो यात्रा बस वहां तक हो सकती है जहां मां के पेट में तुम्हारे मां और पिता के जीवाणु मिले थे। लेकिन वहां से तो देह बनी, तुम्हारा चैतन्य कहां से आया है? देह ही तो तुम नहीं हो। काश, तुम देह ही होते तो फिर चिंता क्या थी! फिर परेशानी क्या थी! फिर मृत्यु का भय क्या था! मरता ही कौन! काश तुम देह ही होते, तो यंत्र होते! फिर यह बोध कहां होता! फिर यह वेदना कहां होती! काश देह ही तुम होते, तब तो सब झंझट मिट गई होती!
लेकिन तुम देह नहीं हो। देह तो तुम्हारा आवरण है। तुम देह में बसे हो। वह जो बसा है, कहां से आया है, कौन है? जिस आदमी ने इस प्रश्न को नहीं पूछा, वह आदमी अभी आदमी नहीं है। और इस प्रश्न को पूछने में डर लगता है जरूर। इस प्रश्न से आदमी बचना चाहता है जरूर। कारण है, क्योंकि प्रश्न बड़ा खतरनाक है। इसे पूछने में विक्षिप्त हो जाने का डर है। इसे उठाने का मतलब है--तहलका। इसे उठाने का मतलब है: एक भूचाल। इस प्रश्न को उठाने का मतलब है: एक तूफान, एक आंधी। फिर जब तक उत्तर न मिलेगा, तब तक आंधी और आंधी...। फिर तुम एक तिनके की तरह आंधी में हो जाओगे।
इसलिए लोग बुनियादी प्रश्न नहीं उठाते। लोग फिजूल के प्रश्न उठाते हैं। फिजूल के प्रश्न इसलिए उठाते हैं कि उनके उत्तर हैं। सार्थक प्रश्न का उत्तर नहीं होता। यही फिजूल और सार्थक का भेद है। सार्थक प्रश्न का अनुभव होता है, उत्तर नहीं होता। अनुभव ही उत्तर होता है। फिजूल प्रश्न के उत्तर होते हैं।
लोग न मालूम कैसे-कैसे प्रश्नों में उलझे रहते हैं! क्रॉसवर्ड, पहेलियां भरते रहते हैं। इस जिंदगी की पहेली उलझी पड़ी है, किसी अखबार में छपी पहेली को सुलझा रहे हैं! अभी भीतर जो पहेली है वह भी सुलझी नहीं। खुद सुलझे नहीं हैं, लोग दूसरों को सुलझाने चल पड़ते हैं। दूसरे को सुलझाने में झंझट नहीं है। अपना क्या बिगड़ता-बनता है! दूसरे को सुलझाने में तुम बाहर ही रहते हो प्रश्नों के।
एक चमत्कार की घटना रोज यहां घट रही है। पश्चिम से मनोवैज्ञानिक आ रहे हैं, मनोविश्लेषक आ रहे हैं, मनोचिकित्सक आ रहे हैं--जिन्होंने जिंदगी भर दूसरों को, दूसरों की समस्याएं सुलझाने का काम किया है। जब वे मेरे पास आते हैं तो मैं उनसे पूछता हूं: तुम करते क्या रहे? तुम ख्यातिनाम हो। तुमने हजारों मरीजों की मानसिक चिकित्सा की है। तब उनकी आंखें झुक जाती हैं। वे कहते हैं: हम दूसरों के प्रश्न तो सुलझाते रहे, लेकिन अपना प्रश्न उलझा पड़ा है।
मगर यह हो कैसे सकता है कि तुम्हारा प्रश्न उलझा पड़ा हो और तुम दूसरे का सुलझाओ? और तुम्हारा सुलझाना किस काम का होगा ? तुम्हारे सुलझाने से और बात उलझेगी, गांठ और लग जाएगी, धागे और उलझ जाएंगे। और यही हो रहा है, धागे आदमी के उलझते जा रहे हैं। क्योंकि जिनके खुद नहीं सुलझे हैं, वे दूसरों को सुलझाने चले गए।
लेकिन आदमी दूसरे के प्रश्नों के सुलझाने में इतनी उत्सुकता क्यों लेता है? कारण यही है: दूसरे का प्रश्न सुलझाने में अपने प्रश्न से बचने की सुविधा है, उपाय है। भूल ही गए अपने प्रश्न।
धार्मिक व्यक्ति वही है, जो यह झंझट लेता है; जो इस उपद्रव में उतरता है; जो कहता है: पहले मैं अपने प्रश्न को सुलझा लूं।
और प्रश्न क्या है--‘कहंवां से जीव आइल?’ आए तुम कहां से? यह बात ही डराती है। मैं कौन हूं? हमारा मन होता है नाम बता दें--अ ब स । गांव बता दें, पता-ठिकाना बता दें। सस्ता कोई उत्तर दे दें--स्त्री हूं, पुरुष हूं; जवान हूं, बूढ़ा हूं; प्रसिद्ध हूं, अप्रसिद्ध हूं; नाम है, बदनाम है। कुछ... ऐसा कुछ उत्तर दे कर हम निपट लेना चाहते हैं।
तुम्हारा नाम तुम हो? तुम्हारा गांव तुम हो? तुम्हारा पता-ठिकाना तुम हो? किसे धोखा दे रहे हो? ये ऊपर से चिपका ली गई बातें हैं। तुम्हारे जीवन की समस्या को हल करेंगी, समाधान देंगी? इनसे समाधि फलेगी? हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं, जैन हूं; भारतीय हूं, चीनी हूं, जापानी हूं--क्या उत्तर दे रहे हो तुम? इनसे क्या पता चलता है? कुछ भी पता नहीं चलता।
जब बच्चा पैदा होता है, न हिंदू होता है, न मुसलमान होता है। कोई बच्चा जनेऊ लेकर तो आता नहीं और न किसी बच्चे का खतना भगवान करता है। बच्चा भारतीय भी नहीं होता, पाकिस्तानी भी नहीं होता। बच्चे के पास कोई भाषा भी नहीं होती--न हिंदी, न अंग्रेजी, न मराठी, न गुजराती। यह कौन है? यह चैतन्य क्या है? यह निर्मल दर्पण क्या है? यह कहां से आ रहा है? यह बिना लिखी किताब क्या है? इस पर अभी कुछ नहीं लिखा गया है; जल्दी ही आइडेंटिटी कार्ड बनेगा, पासपोर्ट बनेगा। जल्दी नाम-पता-ठिकाना लिखा जाएगा। जल्दी इस आदमी को हम एक कोटि में रख देंगे कि यह कौन है। यह डॉक्टर हो जाएगा, इंजीनियर हो जाएगा, दुकानदार हो जाएगा, इस राजनैतिक पार्टी में सम्मिलित हो जाएगा, उस राजनैतिक पार्टी में सम्मिलित हो जाएगा। कम्युनिस्ट हो जाएगा, सोशलिस्ट हो जाएगा। यह हजार चीजें हो जाएगा। इस क्लब का मेम्बर हो जाएगा, रोटेरियन हो जाएगा, लॉयन हो जाएगा--और न मालूम क्या-क्या हो जाएगा! और इसके चारों तरफ पर्त-दर-पर्त झूठी बातें जुड़ती चली जाएंगी और उन्हीं में यह खो जाएगा। और कभी यह प्रश्न भी नहीं उठेगा इसके भीतर कि आखिर मैं हूं कौन!
लोग इस प्रश्न को पूछते डरते हैं। और यह प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस प्रश्न से महत्वपूर्ण और कोई प्रश्न नहीं है। और जिसने यह नहीं पूछा, उसने अपनी मनुष्यता की चुनौती स्वीकार नहीं की। पशु नहीं पूछ सकते हैं, क्षम्य हैं। वृक्ष नहीं पूछ सकते हैं, क्षम्य हैं! आदमी पूछ सकता है और नहीं पूछता, यही उसका अक्षम्य अपराध है, यही उसका पाप है।
ईसाई मूल पाप की चर्चा करते हैं। मैं इसी को मूल पाप कहता हूं--ओरिजिनल सिन। जो तुम हो सकते हो, नहीं हो पाते। जो तुम पूछ सकते हो, पूछना ही था, जिसके पूछने में ही तुम्हारी नियति छिपी थी, वह भी नहीं पूछते! और सस्ते उत्तर, बड़े सस्ते उत्तर, दो कौड़ी के उत्तर सम्हाल कर रख लेते हो। फिर उन पर लड़ते भी हो। मैं हिंदू हूं, इस पर झगड़े हो जाते हैं। मैं ईसाई हूं, इस पर तलवारें खिंच जाती हैं। मैं भारतीय हूं, मैं पाकिस्तानी हूं--इस पर लाखों लोग मर जाते हैं। तुम्हें पता ही नहीं तुम कौन हो। लेकिन इन बातों पर लोग बड़ा आग्रह रखते हैं, क्योंकि घबड़ाहट है। अगर ये बातें ढीली पड़ जाएं तो शंका उठेगी भीतर कि मुझे मेरा अब तक पता नहीं है! तब भीतर एक ज्वालामुखी धधकेगा। और उससे बचना है। उससे बचने का सरल उपाय है--झंडा ऊंचा रहे हमारा! झंडे पर नजर रखो, नीचे देखो ही मत! झंडों झंडों में झगड़ा होने दो। पूछो ही मत कि यह झंडे को कौन पकड़े हुए है?
ये सब झंडे हैं--भारतीय, हिंदू, मुसलमान, ईसाई। ये सब झंडे हैं। और इन्हीं के झंडों के झगड़ों में तुम खो गए हो।
कहंवां से जीव आइल, कहंवां समाइल हो।
कहां से आना हुआ है और किसमें समा गए हो? यह पक्षी कहां से आया है? यह जो आज पिंजड़े में बैठा है, यह हंस कहां से आया है? इसका यात्रा-पथ क्या है? यह कैसे प्रविष्ट हो गया है देह में? इसने देह की संकीर्णता कैसे स्वीकार कर ली है? यह देह के कारागृह में कैसे पड़ा? इसके हाथ-पैर में जंजीरें कैसे पड़ गईं? यह पक्षी आकाश का है। यह होमा पक्षी है, जो दूर आकाश का ही निवासी है, जो अनंत का निवासी है। आकाश में ही इसका घर है।
आकाश यानी निराकार। आकाश यानी असीम। आकाश यानी जिसकी कोई मृत्यु नहीं, न कोई प्रारंभ, न कोई अंत। पृथ्वियां बनती हैं, बिगड़ जाती हैं--आकाश सदा है। चांद-तारे आते हैं, मिट जाते हैं--आकाश सदा है। आदमी आते हैं, जाते हैं; संस्कृतियां उठती हैं, बिखरती हैं, सब होता रहता है--आकाश सबका साक्षी है। आकाश ने सब देखा है जो हुआ है और सब देखेगा जो होगा। और जब नहीं था देखने को कुछ, तब भी आकाश था और जब नहीं देखने को कुछ होगा तब भी आकाश होगा। सृष्टि भी देखता है आकाश, और प्रलय भी देखता है आकाश। उसी आकाश से हमारा आना हुआ है। हम उसी आकाश के हिस्से हैं।
लेकिन मेरे कहने से इसका तुम्हें पता नहीं चलेगा, न धनी धरमदास के कहने से, न कबीर के कहने से, न नानक के कहने से। तुम्हें अपने भीतर के आकाश में उतरना पड़ेगा, तो ही तुम जान सकोगे।
जैसे तुमने अपने आंगन में दीवाल उठा ली है और आकाश को कैद कर लिया है, ऐसे ही प्रत्येक देह के भीतर छोटे-छोटे आंगन में आकाश कैद हो गया है। जैसे बाहर एक आकाश है, वैसा भीतर भी एक आकाश है। उस अंतराकाश का नाम ही आत्मा है या जो भी नाम देना तुम पसंद करो।
कहंवां से जीव आइल,...
किस दूर लोक से आना हुआ है?
यह प्रश्न क्यों उठता है? यह प्रश्न इसलिए उठता है... और जो भी ईमानदार हैं उनके लिए उठेगा ही। यही प्रश्न उठता है, तो ही पता चलता है कि आदमी ईमानदार है। मैं तुम्हारी दो कौड़ी की ईमानदारी की परिभाषाएं नहीं मानता कि किसी आदमी ने तुमसे दो पैसे लिए थे और लौटा दिए, तुम कहते हो बड़ा ईमानदार है! ईमानदार जैसा बड़ा शब्द... ईमान का अर्थ होता है: धर्म। ईमानदार का अर्थ होता है: जिसे धर्म का पता है। ईमानदार बड़ा शब्द है! तुम्हारे दो पैसे लेने-देने से क्या लेना-देना है? ईमान बड़ा कीमती शब्द है।
मैं किसे ईमानदार कहता हूं? मैं उस आदमी को ईमानदार कहता हूं, जो जीवन के अस्तित्वगत प्रश्नों को उठाता है, उनसे जूझता है, टक्कर लेता है, समाधान खोजता है। ईमानदार आदमी सबसे पहला प्रश्न उठाता है: मैं कौन हूं? फिर सारी बातें नंबर दो हैं।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं: ईश्वर कहां है? मैं उनसे पूछता हूं: तुमने पहला प्रश्न पूछा या नहीं? वे कहते हैं; पहला प्रश्न और कौन सा है?
तुम ईश्वर को खोजने चल पड़े, तुमने अभी यह भी नहीं पूछा कि यह खोजने वाला कौन है! तुम दूर की यात्रा पर निकल पड़े, तुमने पास की तलाश नहीं की। और जिसने स्वयं को नहीं जाना वह कभी परमात्मा को नहीं जान पाएगा, क्योंकि परमात्मा स्वयं का ही विराट रूप है। जो अपने आंगन में छोटे से आकाश से भी परिचित न हो सका, वह विराट आकाश से परिचित हो सकेगा? जो अपने छोटे से पिंजड़े में भी पर नहीं फड़फड़ाता है, वह आकाश में कैसे उड़ेगा? इसलिए पहली उड़ान तो अपने पिंजड़े में ही पर फड़फड़ाने से करनी होती है।
मैं कौन हूं, यह प्रश्न पर का फड़फड़ाना है। यह उठता क्यों है? और जो ईमानदार है, मैंने कहा, उसे उठेगा ही। यह उठता इसलिए है कि यहां जो भी आदमी थोड़ा सोच-विचार करेगा, उसे एक बात समझ में आती है कि मैं यहां विदेशी हूं। यहां कुछ भी ऐसा नहीं लगता जिससे तृप्ति मिलती हो। ऐसा लगता है कि मैं किन्हीं और जल-स्रोतों को पीने का आदी रहा हूं, यहां का कोई जल तृप्त करता नहीं मालूम होता। ऐसा लगता है मैंने कुछ प्रेम के और रूप जाने हैं, यहां का कोई प्रेम संतुष्टि देता नहीं मालूम पड़ता। ऐसा लगता है मैंने कुछ और फूल देखे हैं, यहां के सब फूल फीके मालूम पड़ते हैं, रंगहीन मालूम पड़ते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि मैंने कुछ शाश्वत का कभी अनुभव किया है। यहां हर चीज क्षणभंगुर मालूम होती है, पानी का बबूला मालूम होती है। चाहे याद न रह गई हो मुझे, चाहे उस लोक को खोए बहुत दिन हो गए हों; होमा पक्षी गिरते-गिरते आकाश से बहुत नीचे आ गया हो, जमीन पर आ गया हो...।
ऐसा ही समझो कि मानसरोवर का हंस उड़ कर आ गया है और एक गंदी तलैया में बैठ गया है। उसे कुछ भी रुचेगा नहीं। पानी भी पीएगा, क्योंकि प्यास लगेगी तो पानी पीना ही पड़ेगा, लेकिन नाक-भौं सिकोड़ेगा। चाहे मानसरोवर भूल ही क्यों न गया हो, लेकिन फिर भी एक बात उसे खटकती रहेगी कि कुछ गड़बड़ है। जैसा होना चाहिए वैसा नहीं है। जैसा है, इससे तृप्ति नहीं होती। एक बेचैनी, एक संताप उसे पकड़ा रहेगा। मानसरोवर का स्वच्छ जल जिसने पीया है, आज गंदी तलैया में बैठा है, जिसमें गांवभर की गंदगी आकर पड़ती है--बास भी आएगी उसे, गंदगी भी दिखाई पड़ेगी उसे, उसे बेचैनी भी अनुभव होगी। प्यास लगेगी तो पानी पीना भी पड़ेगा, यह भी सच है। आज तो मानसरोवर नहीं है तो पानी जो है वही पीना पड़ेगा। प्यास हो तो आदमी गंदी नाली का भी पानी पी लेगा। मरने से तो वही बेहतर है। अगर और कहीं रहने का कोई उपाय नहीं है तो कीचड़ में भी जी लेगा। मरने से तो वही बेहतर है। लेकिन कहीं न कहीं कोई न कोई स्वर कहता रहेगा: यह मेरा घर नहीं है। मैं यहां अजनबी हूं।
तुम्हारे मन में यह सवाल नहीं उठता रहा है? एक स्त्री को प्रेम किया और पाया कि कुछ कम है। एक पुरुष को प्रेम किया और पाया कि कुछ कम है। कौन पुरुष किस स्त्री को तृप्त कर पाया है? कौन स्त्री किस पुरुष को तृप्त कर पाई है? इसका मतलब क्या है? इसका इतना ही मतलब है: हमारे प्रेम का मापदंड कुछ बहुत बड़ा है, जिसकी वजह से कोई तृप्ति नहीं हो पाती। और क्या अर्थ है? हम किसी ऐसे बड़े सौंदर्य की अपेक्षा कर रहे हैं, जो यहां स्त्री-पुरुषों में होता ही नहीं। इसमें कुछ स्त्री-पुरुषों का कसूर नहीं। तलैया का क्या कसूर है, अगर गंदी है? तलैया तलैया है। तलैया ने कहा कब कि मैं मानसरोवर हूं? लेकिन हंस का भी क्या कसूर है, अगर तलैया से मन नहीं भरता? समझाता होगा अपने को। देखता होगा आस-पास बतखों को--मजे से घूमते हुए, फिरते हुए, कीचड़ में आनंद मनाते हुए। और तड़पता भी होगा कि मुझमें कुछ गड़बड़ है। मैं ही कुछ गड़बड़ हूं। देखो बतखें कितना मजा कर रही हैं।
तुम देखते हो, यहां वृक्ष बेचैन नहीं हैं। यहां पशु-पक्षी बेचैन नहीं हैं। यहां सिर्फ मनुष्य बेचैन है। यहां चट्टानें बेचैन नहीं हैं। मनुष्य को छोड़ कर सारी प्रकृति शांत है। सब ठीक है। जैसा होना था वैसा है। मनुष्य भर में एक तनाव है--एक गहरा तनाव है! जैसा होना चाहिए वैसा नहीं है। और इस तनाव से दो रास्ते निकलते हैं--एक रास्ता राजनीति का और एक धर्म का। जैसा है वैसा नहीं है, तो मनुष्य सोचता है: वैसा करके दिखा दूं! उससे राजनीति पैदा होती है। तो तलैया को मानसरोवर बना लें, और क्या करें, कीचड़ छांटें, तलैया को स्वच्छ करें। यही तो है सोशलिज्म, कम्युनिज्म और दुनिया के सारे राजनीतिक सिद्धांत। आशा क्या है? आशा यह है कि किसी तरह हम ठीक कर लेंगे; वैसा कर लेंगे जैसी हमारी आकांक्षा है।
लेकिन तलैया तलैया है--और मानसरोवर नहीं हो सकती। इसलिए राजनीति हमेशा असफल होती है। यद्यपि अनंत-अनंत लोगों को प्रभावित करती है, लेकिन सदा असफल होती है। उसकी असफलता सुनिश्चित है।
कुछ भी उपाय करो, पृथ्वी आकाश नहीं हो सकती। और कुछ भी उपाय करो, आंगन की दीवालें मुक्ति का रस नहीं दे सकतीं। कुछ भी करो, पिंजड़े को कितना ही सजाओ, सोने से मढ़ो, हीरे-जवाहरात लगाओ, पिंजड़ा पिंजड़ा है। ज्यादा से ज्यादा पंख फड़फड़ा सकते हो। और ज्यादा फड़फड़ाए तो पंख तोड़ लोगे। खुले आकाश का आनंद कहां?
जिस मनुष्य में थोड़ी भी ईमानदारी है, ईमानदार चिंतन है, उसे यह बात समझ में आए ज्यादा देर नहीं लगती कि मैं जो भी करता हूं उसी में अतृप्ति हाथ लगती है। धन की दौड़ में गया, धन पा लिया और फिर पाया कि कुछ नहीं मिला। धन की दौड़ भी स्वतंत्रता की दौड़ है।
समझना। धन पाकर आदमी स्वतंत्रता पाना चाहता है, मोक्ष पाना चाहता है। उसे ऐसी भ्रांति है कि धन होगा तो मेरे पास स्वतंत्रता होगी; जो चाहूंगा खरीदूंगा; जो चाहूंगा पहनूंगा; जिस स्त्री से प्रेम होगा, विवाह करूंगा; जिस मकान में रहना है, वह मकान लूंगा; जिस कार में चलना है, वह कार लूंगा। धन होगा तो स्वतंत्रता होगी, चुनाव की सुविधा होगी।
निर्धन की तकलीफ क्या है?--चुनाव की सुविधा नहीं है। उसे इसी झोपड़े में रहना होगा। वह लाख चाहे कि इस झोपड़े को बदल लूं, नहीं बदल सकता। धन ही नहीं है पास में। उसे यही कपड़े पहने जिंदगी गुजारनी होगी। इससे बेहतर कपड़े नहीं हो सकते। उसे यही भोजन करना होगा सदा और एक बार ही भोजन करके दूसरी बार पेट को मार कर सो जाना पड़ेगा। सुविधा नहीं है, स्वतंत्रता नहीं है।
धन की आशा में आदमी सोचता है स्वतंत्रता हो जाएगी; जैसा करना है वैसा करूंगा। धन की दौड़ स्वतंत्रता की ही खोज है; यद्यपि भ्रांत खोज है। धन मिल जाता है, स्वतंत्रता नहीं मिलती। धन मिल कर यह पता चलता है: एक तरह की स्वतंत्रता मिली कि मैं चाहूं तो यह दुख उठाऊं और चाहे तो वह दुख उठाऊं। दुख में चुनाव करने की स्वतंत्रता मिली। गरीब का दुख बंधा-बंधाया होता है। वह वही-वही दुख उठाता है रोज। अमीर नये-नये दुख उठाता है, बस इतना ही फर्क होता है। गरीब उन्हीं कपड़ों में परेशान होता है, अमीर रोज-रोज नये कपड़ों में परेशान होता है। बस इतना ही फर्क होता है। गरीब उसी स्त्री के साथ सिर फोड़ता है, उसी पति के साथ सिर तोड़ती है स्त्री; अमीर नई-नई स्त्रियों के साथ सिर फोड़ता है। बस इतना ही फर्क होता है। स्वतंत्रता मिलती है एक तरह की--एक नकारात्मक तरह की स्वतंत्रता! अब दुख चुनने का उपाय है। इस बोतल से जहर पीओ या उस बोतल से जहर पीओ, स्वतंत्रता है। हजार तरह की बोतलें रख सकते हो, रंग-बिरंगी बोतलें, मगर जहर वही है।
गरीब-अमीर का फर्क क्या है? बस इतना ही फर्क है। न तो गरीब सुखी है न अमीर सुखी है। दोनों दुखी हैं। इस पृथ्वी पर कोई सुखी नहीं है। इससे ही सबूत मिलता है कि यह पृथ्वी हमारा घर नहीं है। हम कहीं और से आते हैं। हम कहीं दूर से आते हैं। हमें भूल ही गया होगा अपना घर शायद। लेकिन कहीं दूर अचेतन की पर्तों में याददाश्त है! कहीं दूर हमारे भीतर छिपी हुई किसी तलहटी में अब भी पुरानी स्मृति जगती है, कोई दीया जलता है। उसी दीये से हम तौल रहे हैं।
जब भी कोई आदमी किसी के प्रेम में पड़ता है तो उसे प्रेयसी परमात्मा दिखाई पड़ती है, अपना प्रेमी परमात्मा दिखाई पड़ता है। जैसे-जैसे करीब आते हैं, बात गड़बड़ होने लगती है। जब बहुत करीब आ जाते हैं, तब पता चलता है कि साधारण से मनुष्य हैं। वही सब चूकें, वही सब भूलें वही कमियां, वही सीमाएं, वही उपद्रव! एक प्रेम फिर असफल हुआ। मगर तुम्हारी यह आकांक्षा कैसी है? यह असंभव की आकांक्षा तुममें कहां से है? इसी आकांक्षा को जो समझ लेता है, वह ईमानदार है। उसकी दुनिया में क्रांति होनी शुरू हो जाती है।
राजनीति दुनिया को बदलने में लग जाती है और धार्मिक व्यक्ति अपने भीतर तलाश करने लगता है कि मैं उस मापदंड को खोजूं जो मेरे भीतर पड़ा है। उसी मापदंड में मेरी सारी कथा है और मेरे सारी कथा का राज है। मेरी असली आत्म-कथा वहीं है। अगर मैं अपने भीतर उतर-उतर कर कुएं में सीढ़ी-सीढ़ी गहरे तक पहुंच कर उस जगह को पा लूं, जहां मेरा मापदंड पड़ा है कि सौंदर्य कैसा होना चाहिए, कि प्रेम कैसा होना चाहिए, कि मैं आनंद किसको कहूंगा, कि जीवन क्या है, मैं किस बात से तृप्त हो सकूंगा, उसका आधार क्या है मेरे भीतर, मापदंड क्या है, मूल्यांकन क्या है, तराजू कहां है--जो व्यक्ति अपने भीतर उस तराजू को खोज लेता है, वह चकित हो जाता है। उस तराजू को खोजते ही उसे याद अपने घर की आनी शुरू हो जाती है।
कहंवां से जीव आइल, कहंवां समाइल हो।
कहंवां कइल मुकाम, कहां लपटाइल हो।।
कहां रुक गया है जीव? कहां ठहर गया है? कहां मुकाम कर लिया है? इस जिंदगी में किसी को भी तो नहीं लगता कि हम मंजिल पर आ गए । बस ऐसे ही लगता है कि फिर एक पड़ाव, कल सुबह चलना होगा।
तुम्हें कभी लगा मंजिल पर आ गए? धन भी मिल गया, पद भी मिल गया, प्रतिष्ठा भी मिल गई--तुम्हें यह लगा, मंजिल पर आ गए? सब मिल जाता है, मंजिल कहां मिलती है? बस यही भाव बना रहता है कि कल सुबह फिर चलना होगा। एक रातभर का पड़ाव। एक सराय में रुक गए, सुबह फिर यात्रा करनी होगी। यात्रा जारी रहती है। सब मिलता जाता है, मगर यात्रा का अंत नहीं होता।
धरमदास कहते हैं: सोचो, कहां से आए, कहां उलझ गए, कहां पड़ाव बना लिया...‘कहां लपटाइल हो?’ किस चीज से अपने बंधन निर्मित कर लिए हैं? कहां अपनी जड़ें जमा ली हैं? किसी ताल-तलैया में तो नहीं अटक गए हो? ताल-तलैया के कारण ही तो मानसरोवर नहीं भूल गया है? याद करो! स्मरण करो! अपनी स्मृति में तलाशो! अपने भीतर उतरो। जरा गौर से देखोगे तो समझ में आएगा।
मुझे खुद भी खबर नहीं ‘अख्तर’
जी रहा हूं कि मर रहा हूं मैं।
पता ही नहीं चलता कि वस्तुतः तुम जी रहे हो कि मर रहे हो। क्या कर रहे हो? डर के कारण आदमी यह सवाल नहीं उठाता। यह सवाल कभी अपने-आप सिर उठाने लगता है, तो आदमी भाग कर कहीं छिप जाना चाहता है। सिनेमा-घर में चला जाता है। शराब पी लेता है। असली शराब से बचने के लिए नकली शराब पी लेता है। नाच-गाने में बैठ जाता है। रेडियो खोल लेता है। अखबार पढ़ने लगता है। मित्रों के पास जाकर गपशप करने लगता है--वही गपशप जो हजार बार हो चुकी है। फिर उन्हीं बातों में हंसता है, जिनमें पहले भी हंस चुका है और अब हंसने जैसा कुछ भी नहीं रहा। वही बातें सुनता है, वही बातें दोहराता है। किसी तरह अपने को उलझाता है। थका-मांदा रात सो जाता है, सुबह उठ कर फिर बाजार की तरफ निकल जाता है।
करना ही ऐसा पड़ेगा, नहीं तो यह सवाल उठेगा कि मैं जी रहा हूं या मर रहा हूं? और घबड़ाहट यह लगती है कि अगर मैंने गौर से देखा तो जो-जो मैंने सपने बनाए हैं, कहीं उखड़ न जाएं!
चमन अपना न गुल अपना न कोई बागबां अपना
तबीयत बुझ गई उजड़ा खुशी का गुलसितां अपना।
कहीं यह पता न चल जाए कि यह पत्नी मेरी नहीं है, कि ये बच्चे मेरे नहीं हैं, कि यह मकान मेरा नहीं है, कि यह सब चला जाएगा! यह मैंने नाहक सोच रखा है मेरा है! डरता है कि अगर ऐसे विचार उठे तो फिर बड़ी उदासी घेर लेगी। अच्छा है ऐसे प्रश्न न उठाओ।
इसलिए लोग सदगुरु के पास जाने से डरते हैं!
महावीर के जीवन में उल्लेख है। महावीर जिस नगर में वर्षाकाल बिता रहे थे उस वर्ष उस नगर में एक बड़ा चोर था, बड़ा प्रसिद्ध चोर था! अब स्वभावतः चोर था, इसलिए अपने बेटे को उसने कहा कि एक बात खयाल रखना--यह महावीर आया हुआ है, इसके विचार सुनने मत जाना। अपना और इसके धंधे में पुश्तैनी झगड़ा है। और अगर कभी भूल-चूक से तू उस रास्ते से भी निकलता हो जहां महावीर बोलते हों, तो जल्दी से अपने कान बंद कर लेना। भाग जाना वहां से, क्योंकि यह खतरनाक आदमी है। इसकी बातें ऐसी हैं कि आदमी उदास हो जाते हैं। इसकी बातें ऐसी हैं कि लोग जीवन में रस खो देते हैं। इसकी बातें ऐसी हैं कि जिसने सुन ली, उसकी जिंदगी डगमगा जाती है। कई की डगमगा गई है। तू इस झंझट में मत पड़ना।
और बाप ठीक ही कह रहा था, क्योंकि कई जवान महावीर में उत्सुक हो गए थे, संन्यस्त हो गए थे। चल पड़े थे उस अनूठी खोज पर।
और खयाल रखना, जब भी धर्म जीवित होता है--महावीर या बुद्ध या कृष्ण--तो जो लोग सबसे पहले उनमें उत्सुक होते हैं वे जवान होते हैं। स्वाभाविक है, क्योंकि जवान ही हिम्मत कर सकता है उतनी जोखिम लेने की। या जो वृद्ध भी उत्सुक होते हैं वे भी किसी गहरे अर्थ में जवान होते हैं, तभी उत्सुक होते हैं, नहीं तो नहीं उत्सुक होते। और जब धर्म मर जाता है तब वहां सिर्फ बूढ़े ही बूढ़े इकट्ठे होते हैं; वहां कोई जवान दिखाई नहीं पड़ता। तुम्हारे मंदिरों में देखो, जो मर गए हैं, वहां तुम्हें बुढ़ियां और बूढ़े बैठे हुए मिलेंगे। शरीर से ही नहीं, आत्मा से भी जरा-जीर्ण। वहां जवान नहीं फटकते। क्यों? जवान को वहां चुनौती नहीं है।
महावीर के पास जाना मत--इतना तो कहा ही बाप ने; इतना भी कहा कि कभी भूल-चूक से, संयोगवशात, तू निकलता हो और महावीर बोलते हों और कोई बात कान में पड़ जाए तो जल्दी से कान बंद कर लेना। मगर एक छोटी सी बात पड़ गई और जिंदगी बदल गई। निकलता था, महावीर के कहीं प्रवचन होते थे गांव में और वह निकलता था। महावीर समझा रहे थे, योनियों की बातें समझा रहे थे कि कितनी योनियां होती हैं, उसमें प्रेत-योनि की भी बात कर रहे थे। देव-योनि की भी बात कर रहे थे। जब यह निकला चोर का बेटा, तो वे समझा रहे थे कि देवताओं की छाया नहीं पड़ती।
यह बड़ा प्यारा अर्थ है इसका। छाया तो जो ठोसपन है, उससे ही पैदा होती है न। पत्थर की छाया होती है, कांच की छाया नहीं होती। पत्थर ठोस है, अपारदर्शी है; इसलिए उसकी छाया बनती है। उसमें से किरणें पार नहीं हो सकतीं, इसलिए छाया बनती है। छाया बनने का और क्या अर्थ होता है कि किरणें पार नहीं हो सकीं; किरणें अटक गईं तो पीछे अंधेरा हो जाता है। कांच... कांच की छाया नहीं बनती। और जितना शुद्ध कांच हो उतनी ही छाया नहीं बनेगी। अगर कांच बिलकुल पूरा शुद्ध है तो कोई छाया नहीं बनती, क्योंकि किरणें पार ही हो जाती हैं, पीछे अंधेरा बनेगा कैसे?
यह सिद्धांत बड़ा महत्वपूर्ण है। देवता होते हैं कि नहीं, यह सवाल नहीं है; मगर जब भी कहीं कोई देवता होता है तो छाया नहीं बनती। क्योंकि देवता का अर्थ है--चेतना का पारदर्शी हो जाना, ट्रांसपेरेंट हो जाना।
यह राह से गुजर रहा था, इसने इतना ही भर सुना कि देवता की छाया नहीं बनती, इसने जल्दी से अपने कान बंद कर लिए कि बाप ने कहा था। और भागा वहां से। मगर घटना ऐसी घटी कि सम्राट बहुत परेशान था इस बाप और बेटे से। बाप तो अब बूढ़ा हो गया था, ज्यादा चोरी इत्यादि करने नहीं जाता था; लेकिन बेटे को निष्णात कर रहा था। बेटे को पकड़ने के बहुत उपाय किए गए थे, लेकिन पकड़ा नहीं जा सका था। वजीरों ने सलाह दी कि थोड़ा मनोवैज्ञानिक उपाय करें। हम पकड़ तो पाए नहीं, हमारे पास इसके खिलाफ एक भी सबूत नहीं है। इसलिए हम इसे अदालत में ले जा भी नहीं सकते हैं। और यह इतना कुशल है और इसका बाप तो महा कारीगर है और उसी की दीक्षा ले रहा है यह। बाप से तो जल्दी छुटकारा हो जाएगा, वह मरने के करीब है; मगर वह बेटा किए जा रहा है पैदा, जो उससे भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध होगा। इसको जल्दी ही हमें फांस लेना चाहिए।
तो उन्होंने एक तरकीब की। किसी के घर उसको भोजन पर बुलाया और वहां खूब शराब पिलाई। इतनी पिला दी शराब कि वह बिलकुल बेहोश हो गया। उसको बेहोशी की हालत में वे राजमहल ले आए। एक विशेष कमरे में उसे रखा गया, जैसा कमरा उसने न कभी देखा था न सोचा था। सुंदर से सुंदर स्त्रियां, फूलों से सजीं, उसकी सेवा कर रही हैं। जब उसकी थोड़ी नींद उखड़ी, आधा-आधा नशा, थोड़ा सा दिखाई भी पड़ने लगा, थोड़ा दिखाई भी नहीं पड़ रहा, सब धुंधला-धुंधला, उसने देखा: अपूर्व सुंदर स्त्रियां, फूलों से सजीं, बड़ी सुगंध, बड़ी प्यारी रोशनी, बड़ा प्यारा भवन! समझ ही नहीं सका कि क्या हो रहा है! उसने पास खड़ी एक युवती से पूछा कि मैं कहां हूं? उसने कहा: आप देख कर ही समझ सकते हैं कि कहां हैं? आप स्वर्ग आ गए।
वह तरकीब थी उसे फांसने की कि आप स्वर्ग आ गए हैं। और दूसरी स्त्री ने कहा: लेकिन अभी स्वर्ग के बाहर ही आपको रखा गया है, दरवाजे पर। जब तक आप अपने कर्मों का पूरा लेखा-जोखा न दे दें, जो भी अच्छा-बुरा किया है...। सब क्षमा हो जाएगा, क्योंकि परमात्मा महा करुणावान है। जल्दी से अपना सब लेखा-जोखा लिखवा दें, तो आपको भीतर प्रवेश हो जाए।
लिखवाने ही जा रहा था चोर कि उसे याद आया महावीर का वचन कि देवताओं की छाया नहीं पड़ती। और उन देवियों की छाया पड़ रही थी। वह एकदम उचक कर बैठ गया, सम्हल गया, होश पकड़ लिया, नशा उतर गया। हंसने लगा। समझ गया चाल। और उसने अपने पुण्यों की लंबी कथाएं लिखवाईं कि लिखो--इतना दान किया, इतनी धर्मशालाएं बनवाईं--जो उसने कभी नहीं बनवाई थीं, न कभी दान किया था। और जैसे ही वहां से छूटा, बाप को जाकर कहा कि बस क्षमा करो, अब आप से कुछ संबंध न रहा। अब मैं उस आदमी के पास जाता हूं, जिनके एक वचन ने मुझे बचा लिया। सिर्फ एक वचन ने, जो कि अकस्मात सुना था!
वह दीक्षित हो गया। वह महावीर के बड़े संन्यासियों में एक संन्यासी हुआ।
डरते हैं चोर। डरते हैं बेईमान। डरते हैं वे जिन्होंने रेत पर अपने भवन बना रखे हैं--उनकी बातें सुनने से, जिनकी बातें सुन कर याद आ ही जाएगी कि यह भवन रेत पर बनाया है और गिरेगा; जिनकी बात सुनने से यह समझ आते देर न लगेगी कि जिस नाव में हम बैठे हैं वह कागज की है और डूबी, और अब डूबी तब डूबी, डूबने ही वाली है!
चमन अपना न गुल अपना न कोई बागबां अपना
तबीयत बुझ गई उजड़ा खुशी का गुलसितां अपना।
सदगुरु के वचन सुनोगे तो यह तो याद आ ही जाएगा कि जिसे तुम अपना समझते हो, अपना नहीं है। जिसे तुम मेरा समझते हो, मेरा नहीं है। अभी तुम्हें यही पता नहीं है कि तुम कौन हो, तो तुम्हें यह कैसे पता हो सकता है कि मेरा क्या है? मेरा है परमात्मा। और तुमने समझ रखा है मेरा है संसार। और भूल कहां है? भूल इसमें है कि तुम्हें अभी मैं का ठीक-ठीक पता नहीं है। इसलिए तुमने मेरे की भ्रांति खड़ी कर रखी है।
गलत धर्म तुम्हें सिखाएगा: छोड़ दो संन्यास, भाग जाओ पहाड़ों में। वह कहता है: मेरे को छोड़ दो।
ठीक धर्म तुम्हें सिखाता है: मैं को जान लो, फिर मेरे की क्या फिकर है? मैं को जानते ही जो असली मेरा है, वह दिखाई पड़ता है--आकाश, मोक्ष, परमात्मा! जो असली मेरा है। और उसके दिखाई पड़ने से जो नकली मेरा है, वह मेरा नहीं रह जाता। मगर इसीलिए लोग डरते भी हैं। लोग भयभीत भी होते हैं। लोग नाराज भी होते हैं। जो भी तुम्हारी नींद तोड़े, उससे तुम नाराज होओगे ही। जो तुम्हारे सपने तोड़ दे... और तुम्हारे पास सपनों के सिवाय है क्या?
चांदनी, मौसमे-गुल, सहने-चमन, खिलवते-नाज
ख्वाब देखा था कि कुछ याद है कुछ याद नहीं।
एक दिन समझ में आएगा। सभी को समझ में आता है। लेकिन कुछ हैं नासमझ, जिनको इतनी देर से समझ में आता है कि फिर करने का कोई उपाय नहीं बचता, समय नहीं बचता। मौत की घड़ी में सबको समझ में आता है।
चांदनी, मौसमे-गुल, सहने-चमन, खिलवते-नाज
ख्वाब देखा था कि कुछ याद है कुछ याद नहीं।
जो, जब ऊर्जा है बलवती और जीवन हाथ में है, समय हाथ में है, तब जाग जाता है, वह कुछ कर लेता है, रूपांतरण कर लेता है।
निरगुन से जीव आइल, सरगुन समाइल हो।
काया गढ़ कइल मुकाम, माया लपटाइल हो।।
सीधे-सीधे वचन हैं--एक सीधे-साधे आदमी के! मगर बड़े गहरे भी। सच्चाइयां सदा सीधी होती हैं और गहरी भी। सत्य सदा सुगम होते हैं, सरल होते हैं--और गहरे भी! झूठ ही जटिल होते हैं--और उलझे हुए होते हैं।
निरगुन से जीव आइल,...
उस विराट स्रोत से हमारा आना हुआ है--जहां न रूप है न रंग है, न गंध है, न स्वाद है; जहां कोई गुण नहीं है--न रज है, न तम है, न सत्व है; जहां रोशनी नहीं, अंधेरा नहीं; जहां दिन नहीं, रात नहीं; जहां कोई सीमा नहीं; जहां कोई विशेषण नहीं; जहां कोई परिभाषा नहीं। हम उस अपरिभाष्य से आए हैं। हमारा आना उस जगह से हो रहा है--जहां रूप अभी उठे नहीं थे; जहां लहरें अभी जगी नहीं थीं। हम उस शांत सागर से आए हैं, जिस पर कोई तरंग न थी। हम उस क्षीरसागर से आए हैं।
निरगुन से जीव आइल,...
हम आए तो परमात्मा से हैं।
...सरगुन समाइल हो।
और समा गए हैं छोटी सी देह में। किरण उतरी है सूरज से और समा गई है एक छोटी सी गुफा में। नाच रही है वहीं गुफा में।
तुमने देखा? कभी तुम्हारे घर में खपड़ों में थोड़ी रंध्र रह जाती है, सूरज की एक किरण भीतर आ जाती है, अंधेरे कमरे में नाचती रहती है। ऐसी हमारी दशा है। आए हैं सूरज से, महासूर्य से। समा गए हैं एक अंधेरी गुफा में। और बहुत दिन हो गए उस अंधेरी गुफा में रहते, बहुत जन्म हो गए। धीरे-धीरे भूल ही गए हैं कि कहां से आए हैं, कहां हमारा घर है, कहां हमारा मूल निवास स्थान है? अब तो इसी अंधेरी कोठरी को अपना घर समझ लिया है।
निरगुन से जीव आइल, सरगुन समाइल हो।
कायागढ़ कइल मुकाम,...
और इसी काया को, इसी सराय को, इसी देह को मुकाम बना लिया है, पड़ाव बना लिया है। सोचते हैं कि बस पहुंच गए। अब कहां जाना है और? अब इसी काया को पकड़े हुए हैं। अब इसी काया को सजाने-संवारने में जीवन गंवा रहे हैं। अब इस काया को ही सब कुछ मान लिया है, यही हमारा सर्वस्व हो गई है। और यह कोठरी है। और इससे सिवाय दुख के हमें सुख कभी मिलता नहीं। दुख मिलता है, बीमारी मिलती है, जरा मिलती है, मृत्यु मिलती है--बस यही मिलता है। इस शरीर के साथ हमें मिला क्या है?
कायागढ़ कइल मुकाम, माया लपटाइल हो।
और शरीर में रुक गए हैं, शरीर को अपना समझ लिया है, शरीर को ही अपना होना समझ लिया है। और फिर ‘मेरे’ का बड़ा, ‘ममत्व’ का बड़ा जाल फैला लिया है--वही माया है। जिसे ‘मैं’ का पता नहीं है, उसे माया का जाल पैदा होता है। वह ‘मेरे’ में जीने लगता है। मेरी पत्नी, मेरा बच्चा, मेरा मकान, मेरा धन, मेरा पद--वह मेरा-मेरा करता रहता है। वह मेरा-मेरा करते ही मर जाता है।
यह जो ‘माया’ है शब्द, बड़ा अर्थपूर्ण है। इसका अर्थ है: जादू। अंग्रेजी में जो ‘मैजिक’ शब्द है, वह माया से ही आया है। माया का अर्थ है: जहां नहीं है कुछ, वहां कुछ दिखाई पड़ जाना।
जादू का खेल देखा है! जादू के खेल का मतलब क्या होता है? वहां कुछ है नहीं, मगर दिखाई पड़ता है। जादूगर आम की गुही रोप देता है एक गमले में, कपड़ा ढांक देता है, जमूरे से दो-चार बातें करता है, डमरू बजाता है कि जमूरा आम खाएगा...। बातचीत थोड़ी चली। चादर उठाता है, आम का पौधा हो गया है! ऐसे आम के पौधे बढ़ते नहीं। फिर कुछ थोड़ी बात चलती है, जमूरे से फिर कुछ वार्तालाप होता है। लोगों को फिर थोड़ी बातचीत में उलझाए रखता है। फिर चादर उठाता है: आम लग गया!
जादू का अर्थ होता है: जो नहीं होता, जो नहीं हो सकता है, वह दिखाई पड़ रहा है। उसका आभास हो रहा है।
माया का अर्थ है: जो नहीं है, नहीं हो सकता है, लेकिन जिसका आभास होता है। और आभास का हम रोज-रोज पोषण करते हैं।
एक स्त्री के तुम प्रेम में पड़ गए। फिर विवाह का संयोजन किया। चला, जादू शुरू हुआ! विवाह का आयोजन जादू की शुरुआत है। अब एक भ्रांति पैदा करनी है। यह स्त्री तुम्हारी नहीं है, यह तुम्हें पता है अभी। अब एक भ्रांति पैदा करनी है कि मेरी है, तो बैंड-बाजे बजाए, बरात चली, घोड़े पर तुम्हें दूल्हा बना कर बिठाया। अब ऐसे कोई घोड़े पर बैठता भी नहीं। अब तो सिर्फ दूल्हा जब बनते हैं, तभी घोड़े पर बैठते हैं। छुरी इत्यादि लटका दी, चाहे छुरी निकालना भी न आता हो, चाहे छुरी से साग-सब्जी भी न कट सकती हो; मगर छुरी लटका दी। मोरमुकुट बांध दिए। बड़े बैंड-बाजे, बड़ा शोरगुल--चली बरात! यह भ्रांति पैदा करने का उपाय है। यह एक मनोवैज्ञानिक उपाय है। तुम्हें यह विश्वास दिलाया जा रहा है: कोई बड़ी महत्वपूर्ण घटना घट रही है! भारी घटना घट रही है! फिर मंत्र, यज्ञ-हवन, पूजा-पाठ... चलती है प्रक्रिया लंबी। वह प्रक्रिया सिर्फ मनोवैज्ञानिक है, हिप्नोटिक है। उसका पूरा उपाय इतना है कि यह सम्मोहन गहरा बैठ जाए, कि घटना ऐसी घट गई कि अब टूट नहीं सकती। गांठ ऐसी बंध गई कि अब खुल नहीं सकती। फिर कस कर गांठ बांध दी गई है। फिर वेदी के सात चक्कर लगवाए गए हैं और मंत्र पढ़े जा रहे हैं और पंडित-पुरोहित भ्रम पैदा कर रहे हैं कि कोई भारी घटना घट रही है। और सारे समाज के सामने घट रही है। तुम्हारे भीतर विश्वास बिठाया जा रहा है धीरे-धीरे। यह सुझाव की प्रक्रिया है, जिसको मनोवैज्ञानिक ‘सजेशन’ कहते हैं। यह मंत्र डाला जा रहा है तुम्हारे भीतर कि अब तुम दोनों एक-दूसरे के हो गए सदा के लिए। अब मृत्यु ही तुम्हें अलग कर सकती है।
इकट्ठे तुम कभी थे ही नहीं, अब मृत्यु अलग कर सकती है--और कोई अलग नहीं कर सकता! फिर तुम घर आ गए। अब तुम इस भ्रांति में पड़ गए कि तुम पति हो गए हो और तुमने यह मान लिया है कि यह मेरी पत्नी हो गई है। अब तुम इस भ्रांति में जीओगे। यह जादू!... जमूरा आम खाएगा?... चादर उठाई, आम हो गया। अब यह सारा समाज इसका समर्थन करेगा। अब तुम सेाच भी नहीं सकते अलग होने की। अब तो बंध गए--सुख में, दुख में। अब तो हर हाल में बंध गए। अब छूटने का कोई उपाय ही नहीं है।
वह प्रतीति इतनी गहरी बिठाई जाती है कि पत्नी मेरी हो गई, पति मेरा हो गया। कौन किसका है!
फिर एक दिन तुम्हारा बच्चा पैदा होता है। न पत्नी तुम्हारी थी न पति तुम्हारा था। दो झूठों पर एक तीसरा झूठ चला कि यह बच्चा मेरा है, हमारा है। सब परमात्मा का है। तुम्हारा कैसे हो सकता है? बच्चे तुमसे आते हैं, तुम्हारे नहीं हैं। तुम केवल मार्ग हो उनके आने के। भेजने वाला कोई और है। तुम बनाने वाले नहीं हो, बनाने वाला कोई और है। मगर भ्रांतियां चलती चली जाती हैं: मेरा बेटा! फिर मेरे बेटे की प्रतिष्ठा, मेरी प्रतिष्ठा; मेरे बेटे का अपमान, मेरा अपमान। फिर चले तुम। फिर लगे तुम चेष्टा में। अब बेटे को बनाना है ऐसा कि तुम्हारा अहंकार भरे इससे। तुम तो चले जाओ, लेकिन लोग याद करें कि एक बेटा छोड़ गए। उल्लू मर गए, औलाद छोड़ गए!
एक भ्रांति से दूसरी भ्रांति, तीसरी भ्रांति हम खड़ी करते चले जाते हैं। हम एक महल खड़ा कर देते हैं भ्रांतियों का। इस भ्रांति का नाम माया है।
कायागढ़ कइल मुकाम, माया लपटाइल हो।
एक बुंद से काया-महल उठावल हो।
एक छोटी सी बूंद--रज और वीर्य का मिलन--उस छोटी सी बूंद पर कितना बड़ा विस्तार हो गया है!
बुंद पड़े गलि जाय, पाछे पछतावल हो।
और जैसे यह खड़ा हो गया है माया का जाल, ऐसे ही एक दिन खो भी जाएगा। आम विदा हो जाएंगे, पौधा पता नहीं चलेगा कहां गया। था ही नहीं। एक भ्रांति थी, एक गहरी भ्रांति थी--जिसको सबने मिल कर पोसा था; जिसको सबने मिल कर सहारा दिया था, पानी डाला था।
कैसी-कैसी भ्रांतियां हैं!--मेरा देश! लोग मर जाते हैं देश के लिए, क्योंकि मेरा देश! जो मर जाते हैं, उनकी हम पूजा करते हैं सदियों तक। वह भ्रांति का पोषण करना है। कहते हैं: शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले! भ्रांति को कैसा खींचते हैं! पहले हम लोगों को मरने के लिए राजी करते हैं कि शहीद हो जाओ; फिर यह भ्रांति पैदा करते हैं कि घबड़ाना मत, अगर मर भी गए तो मेला जुड़ेगा, तुम्हारी चिता पूजा का स्थल हो जाएगी।... मेरा देश! मेरी जाति! मेरा धर्म! जरा खबर कर दो कि इस्लाम खतरे में है कि बस चले लोग; कि हिंदू धर्म खतरे में है कि चले लोग।
कहीं धर्म खतरे में होते हैं? धर्म कोई चीज है, जिसको तलवार से काट सकोगे? धर्म कोई चीज है, जिसको आग से जला सकोगे? याद नहीं, कृष्ण ने क्या कहा है? नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। कौन मुझे जलाएगा, कौन मुझे शस्त्रों से बीधेगा! धर्म कहीं खतरे में होता है? लेकिन बस उकसा दो आग लोगों में कि धर्म खतरे में है, कि चले झगड़ा शुरू हो अब।
धर्म तो खतरे में नहीं, लोगों की जिंदगी खतरे में हो जाती है। मगर लोग अपनी जिंदगी गंवाने को बिलकुल तैयार हैं। कारण है उसके पीछे। जिंदगी में कुछ सार नहीं है; कोई भी बहाना मिल जाए गंवाने का तो देर नहीं करते लोग।
मैंने सुना है, एक अंग्रेज राजनीतिज्ञ दूसरे महायुद्ध के पहले हिटलर से मिलने गया। तीसरी मंजिल पर हिटलर का दफ्तर था, वहां खड़े होकर दोनों बातें कर रहे थे। हिटलर ने अपना रोब दिखाने के लिए और अंग्रेज राजनीतिज्ञ को घबड़ाने के लिए कहा कि ‘तुम्हें पता नहीं, तुम किससे झंझट ले रहो हो! दो दिन में घुटने टिक जाएंगे तुम्हारे।’ ऐसा कह कर उसने पीछे की तरफ देखा। ड्रामैटिक आदमी था। थोड़ा नाटकीय ढंग का आदमी था। पीछे एक उसका बॉडीगार्ड खड़ा है! उसने उसको आज्ञा दी कि इसी समय कूद जा छत से! ‘हेल हिटलर’ कह कर वह बॉडीगार्ड छत से कूद गया। नीचे जाकर पत्थर पर बिखर गई उसकी हड्डी-मांस-मज्जा। अंग्रेज राजनीतिज्ञ थोड़ा घबड़ा गया कि यह क्या किया! इसकी क्या जरूरत थी?
और तभी हिटलर ने और रोब बांधने के लिए दूसरे बॉडीगार्ड को कहा, तू भी कूद जा। वह भी कूद गया। अंग्रेज राजनीतिज्ञ को तो पसीना आ गया कि ऐसे आदमियों से उलझना जरूर खतरनाक है, जब इस तरह मरने को लोग तत्पर हैं! और तभी हिटलर ने तीसरे को भी कहा। अंग्रेज राजनीतिज्ञ ने तब तक भाग कर उस तीसरे का हाथ पकड़ लिया। कहा: भाई, इतनी मरने की जल्दी क्या? उसने कहा: हिटलर के राज में जीने से मरना बेहतर। जीने में रखा क्या है?
यहां लोग मरने को तत्पर बैठे हैं, कोई बहाना मिल जाए। हिंदू धर्म खतरे में है, मुसलमान धर्म खतरे में है कि भारत-पाकिस्तान का झगड़ा, कि भारत-चीन का झगड़ा--कोई बहाना मिल जाए, चले। जिंदगी में कुछ नहीं है, कोरी-कोरी है। ऐसे ही ऊबे हुए हैं लोग। क्षुद्र सी बातों पर मरने को तैयार हैं। ऐसी विराट संपदा जीवन की, ऐसे क्षुद्र गंवाने को तैयार हैं--एक ही कारण होगा, इन्हें संपदा का पता नहीं। और जिसे इन्होंने संपदा समझ रखा है वह केवल भ्रांति है; उससे कुछ मिलता नहीं।
विपत्ति आती है तुम्हारी संपत्ति से। तुम्हारी संपदा विपदा बन जाती है, और क्या?
बुंद पड़े गलि जाय, पाछे पछतावल हो।
और फिर बहुत पछताओगे, जब यह बूंद के ऊपर खड़ा हुआ महल, सपने जैसा महल सब गिर जाएगा। गिरेगा ही। मौत क्या करती है? मौत तुमसे वह नहीं छीनती जो तुम हो। वह तो छीना ही नहीं जा सकता। उसे कौन छीनेगा जो तुम हो? वह तो शाश्वत है। मौत तुमसे वही छीनती है जो तुम नहीं हो। जो भ्रांतियां तुमने खड़ी कर रखी थीं, मौत उन्हीं को छीन सकती है। जो जादू तुमने अपने आस-पास बना रखा था, जो भ्रांतियां तुमने आरोपित और पोषित कर रखी थीं--मौत उन्हीं को छीनती है।
मौत तुम्हारा अहंकार छीनेगी, तुम्हारी आत्मा नहीं। मौत तुम्हारी देह छीनेगी, तुम्हारी देह में बसे हुए को नहीं। मौत तुम्हारी पद-प्रतिष्ठा छीनेगी, तुम्हें नहीं। मौत तुम्हारी धन-दौलत छीन लेगी, तुम्हें नहीं। मौत तुम्हारा मेरा-तेरा छीन लेगी, तुम्हें नहीं। पछताओगे बहुत जब मौत आकर सब छीनने लगेगी और एक-एक भवन गिरने लगेगा--जिस पर तुमने जीवन लगा दिया था, जिस पर तुमने सब गंवाया था--तब तुम बहुत पछताओगे। लेकिन तब बहुत देर हो गई होगी। जो पहले ही जाग जाता है, वह भ्रांतियां नहीं खड़ी करता है। जो भ्रांतियां खड़ी नहीं करता, उसके पास कुछ होता ही नहीं जिसको मौत छीन ले। उसी आदमी को हम ज्ञानी कहते हैं जिसके पास ऐसा कुछ है जो मौत नहीं छीन सकती।
बुंद पड़े गलि जाय, पाछे पछतावल हो।
लेकिन बस हम भ्रांतियों में बड़ा रस लेते हैं।
हमारे भीतर वासनाओं का जाल है। उन वासनाओं के कारण हम चीजों में अर्थ डाल देते हैं, जो वहां नहीं हैं।
एक तूफाने-सबाब और इस पर यह तूफाने-इश्क
बहरे उल्फत का नजर आता नहीं साहिल मुझे।
एक से एक पागलपन हैं।
एक तूफाने-सबाब...
एक तो जवानी का तूफान, एक तो जवानी का नशा... जवान जितने सपने देखते हैं, कोई नहीं देखता। नशा चाहिए न देखने को सपने!
एक तूफाने-सबाब और इस पर यह तूफाने-इश्क
और फिर इस पागलपन में सौंदर्य दिखाई पड़ता है। और फिर एक तूफान सौंदर्य का।
बहरे-उल्फत का नजर आता नहीं साहिल मुझे।
फिर प्रेम के, इस तथाकथित प्रेम के सागर का कोई किनारा नहीं दिखाई पड़ता। फिर तैरते रहो, तैरते रहो, मर जाओ, डूब जाओ। और फिर मिलता क्या है? इस सारी दौड़-धूप के बाद मिलता क्या है?
वस्ल का दिन और इतना मुख्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए।
क्षण आते हैं, पाते क्या हो? और कितनी गिनती की थी, कितनी प्रतीक्षा की थी!
वस्ल का दिन और इतना मुख्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए।
कितनी प्रतीक्षा, कितनी प्रार्थना, कितना आयोजन! हाथ क्या लगता है? बूंद भी तो नहीं लगती। लेकिन आदमी यह भी स्वीकार नहीं करना चाहता है कि हाथ कुछ नहीं लगता, क्योंकि उससे भी बड़ी चोट लगती है। उससे भी बड़ी चोट लगती है, क्योंकि उससे लगता है: तो फिर मेरी जिंदगी मूर्खता में गई? इसलिए तुम्हारे प्रधानमंत्री, तुम्हारे राष्ट्रपति कह नहीं पाते लोगों से कि हमें कुछ मिला नहीं।
उनकी हालत वैसी ही है जैसी तुमने कहानी में सुनी होगी, कि एक आदमी चोर था। एक रात किसी के घर में चोरी कर रहा था। लोग जाग गए। हत्या करने नहीं आया था, लेकिन पकड़े जाने के डर से उसने हत्या कर दी। बाहर निकला तो पुलिस पीछे पड़ गई। कोई और उपाय दिखाई नहीं पड़ा, भागते-भागते नदी के किनारे आया। पीछे पुलिस चली आ रही थी। भारी नदी थी। वर्षा के दिन थे। उतरना संभव नहीं था। चोर तैरना भी जानता नहीं था। उसे कुछ न सूझा। उसने सारे कपड़े नदी में फेंक दिए। पास ही एक संन्यासी बैठा हुआ था अपनी धूनी रमाए, वह तो अपनी आंख बंद किए बैठा था, इसने भी जल्दी से अपने शरीर पर भभूत रमा ली और उसी के पास आंख बंद करके बैठ गया। पुलिस वाले आए, दोनों महात्माओं के चरण छुए। पूछा कि यहां कोई आया तो नहीं? तो जो पहला महात्मा था वह तो अपने ध्यान में था, वह तो कुछ बोला नहीं; दूसरा महात्मा बोला कि यहां कौन आया, यहां कोई नहीं आया।
‘कब से आप यहां बैठे हैं?’
उसने कहा: हम तो यहां वर्षों से रहते हैं।
उन्होंने कहा: एक चोर यहां भागता हुआ आया था, पता नहीं क्या हुआ! नदी में कूद गया या मर गया!
नदी में इतनी बाढ़ थी कि पुलिसवालों ने उस अंधेरी रात में उस बाढ़ में उतरना ठीक भी नहीं समझा। वे वापस चले गए। उन्होंने फिर महात्मा के पैर छुए। चोर बड़ा हैरान हुआ कि मैं एक झूठा महात्मा हूं, लेकिन लोग मेरे पैर छू रहे हैं! तो मैं असली ही महात्मा क्यों न हो जाऊं। जब नकली को इस तरह पूजा जा रहा है तो असली होकर कितनी पूजा न मिलेगी!
धीरे-धीरे और लोग आने लगे। खुद सम्राट भी आया। सम्राट ने भी उसके चरण छुए। चोर के मित्रों को भी खबर लगी; वे तो जानते थे कि चोर है। वे भी आए। उन्होंने कहा: यह हो क्या गया? अब चोर यह नहीं कह सकता कि क्या हो गया। कुछ हुआ भी नहीं है; चोर का चोर है, वैसे का वैसा है। अब भी नजर जब कोई उसके पैर छूता है तो उसकी जेब पर लगी रहती है उसकी, अब भी जब कोई उसके पैर छूता है तो वह पैर छूने का ध्यान नहीं रखता; कितने नोट चढ़ा रहा है, उसका ध्यान रखता है, उसकी गिनती कर लेता है। इधर आदमी गया कि जल्दी से रुपये अपनी चटाई के नीचे सरका लेता है। जब कोई नहीं होता तो रुपयों की गिनती करता रहता है। चोर का चोर है। कुछ फर्क नहीं हुआ। लेकिन अब चोरों के सामने यह तो कैसे स्वीकार करेगा! वह कहने लगा कि बड़ी शांति है, बड़ा आनंद! समाधि का मजा ही कुछ और है! क्या रखा है चोरी में! सब व्यर्थ, सब असार है।
और चोर भी उसकी बातों में आकर धीरे-धीरे धूनी रमाने लगे और उनको भी ऐसे ही रस आने लगा। वे भी लोगों को कहने लगे। एक जमात खड़ी होती जाती है और कोई यह स्वीकार करने को राजी नहीं होता कि मुझे कुछ मिला नहीं, कि मैं कुछ बदला नहीं। क्योंकि अब सार क्या कहने से! अब अर्थ क्या!
दुनिया के राजनीतिज्ञ अगर ईमानदारी से अपने वक्तव्य दे दें, जो कि वे दे ही नहीं सकते, नहीं तो वे कभी राजनीतिज्ञ ही कैसे होते! जिंदगी भर तो बेईमानी के वक्तव्य दिए, उससे तो वे सीढ़ियां चढ़े। सबसे आखिरी वक्तव्य, अगर वे एक भी सच वक्तव्य दे दें, तो वह यही होगा कि उन्होंने कुछ पाया नहीं। लेकिन तब प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का लगेगा। दिखाए जाते हैं। भीतर चिंताओं से जलते रहते हैं। भीतर ईर्ष्याओं से जलते रहते हैं। भीतर मार-काट करते रहते हैं। भीतर सब तरह की चोरियां ओर बेईमानियां चलती रहती हैं। और बाहर एक महात्मा का वेश बनाए रखते हैं।
तुम देखते हो, जो राजनेता ताकत में नहीं रह जाते, वे पार्लियामेंट में गुंडों जैसा व्यवहार करने लगते हैं। और जब वे राजनेता ताकत में होते हैं, तब वे एक दिन दूसरों को समझाने लगते हैं कि अनुशासन होना चाहिए; लोगों को सम्यक-व्यवहार करना चाहिए। जो सत्ता में पहुंच जाता है वही दुनिया को समझाने लगता है कि अनुशासन चाहिए। और जो सत्ता के बाहर गया वही अनुशासन को बिगाड़ने लगता है। वही घेराव, हड़ताल, उपद्रव, दंगा-फसाद; क्योंकि सत्ता में पहुंचने का उपाय ही यही है कि तुम इतने उपद्रव कर दो कि लोग तुम्हें सत्ता में बिठाने को मजबूर हो जाएं। क्योंकि तुमसे बचने का फिर एक ही उपाय है कि तुम्हें सत्ता दे दी जाए।
जो शिक्षक होशियार होते हैं, वे अपनी कक्षा में जो सबसे ज्यादा बदमाश लड़के होते हैं उनको कप्तान और इत्यादि बना देते हैं; बस फिर शांति हो जाती है कक्षा में। क्योंकि जिनको शरारत करनी थी, वही जब कप्तान हो गए, तो वे किसी को शरारत नहीं करने देते; उन्हें शरारतों का सब राज भी मालूम होता है। फिर वे सबसे ज्यादा उपद्रवी भी होते हैं, दुष्ट भी होते हैं।
जब राजनेता इतना उपद्रव मचा देते हैं कि मार-काट, गोली और सब तरफ हिंसा फैल जाती है--मजबूरी में जनता को कहना पड़ता है कि भाई, अब तुम्हीं राज्य करो। तुम्हीं बैठो! अब तुमसे ही सम्हल सकता है। अब किसी और से नहीं सम्हल सकता।
पहली आजादी आई थी, दूसरी आ गई, अब तीसरी लाओ। आजादी पर आजादी आने दो। और आजादी कुछ नहीं होती। एक तरह के उपद्रवी दूसरी तरह के उपद्रवियों से बदल दिए जाते हैं।
जिन्होंने धन पा लिया है, वे भी कभी नहीं कहते ईमानदारी से कि हमें कुछ मिला या नहीं मिला? कहें तो ऐसा लगता है जिंदगी भर हम मूढ़ रहे। अहंकार को चोट लगती है। इसलिए अब जो बात चल गई, चल गई। लोग मानते हैं कि इन्हें बहुत कुछ मिला, इसी में सार है कि चुप रहो और कहते चले जाओ कि हां मिला; हां में हां भरे चले जाओ।
बुंद पड़े गलि जाय, पाछे पछतावल हो।।
हंस कहै, भाई सरवर, हम उड़ि जाइब हो।
जिसको यह समझ में आ जाता है कि यह घर हमारा घर नहीं और यह गंदी तलैया हमारा निवास नहीं; जिसे मानसरोवर की याद आ जाती है--वही हंस है। जब तक मानसरोवर की याद नहीं आई, तब तक तुम कुछ और हो--बगुले हो सकते हो, हंस नहीं। बगुले और हंस का इतना ही अर्थ है। बगुला ऐसा हंस है जो भूल गया है मानसरोवर को। हंस ऐसा बगुला है जिसे अपने घर की ठीक-ठीक याद आ गई। क्रांति घट जाती है, क्योंकि दिशा बदल जाती है।
हंस कहै, भाई सरवर,...
और जिसको यह हंस-पन पैदा होता है, जिसको मानसरोवर की याद आ गई और जो कहता है बस अब चले--तो वह इस तलैया से कहता है: भाई सरवर!
खयाल रखना, यह ‘भाई’ शब्द प्यारा है। इस पृथ्वी से कोई दुश्मनी नहीं है--सिर्फ यह हमारा घर नहीं है। इस संसार से कोई दुश्मनी नहीं है--सिर्फ यह कि यह हमारी तृप्ति नहीं है। इसके और हमारे बीच कोई शत्रुता नहीं है।
हंस कहै, भाई सरवर, हम उड़ि जाइब हो।
अब हमारे उड़ने का समय आ गया। अब हम उड़ जाएंगे।
मोर तोर एतन दिदार,...
और अब मेरे-तेरे मिलने की कोई संभावना आगे नहीं है।
...बहुरि नहिं पाइब हो।
अब दुबारा मेरा आना नहीं होगा। मुझे अपने घर की याद आ गई। मैंने अपने घर को पहचान लिया। मैंने अपने स्वभाव को परख लिया। मैं कौन हूं, कहां से हूं और कहां मुझे तृप्ति मिल सकती है, कहां मेरा परम संतोष है--अब मैं उसी झील में जाकर बैठूंगा।
हंस कहै, भाई सरवर, हम उड़ि जाइब हो।
मोर तोर एतन दिदार, बहुरि नहिं पाइब हो।।
इहवां कोइ नहिं आपन, केहि संग बोलै हो।
और जिसको मानसरोवर की याद आती है उसे पहली दफा पता चलता है कि इस पृथ्वी पर वह विदेशी है। यह अपना देश नहीं, स्वदेश नहीं।
इहवां कोइ नहिं आपन,...
यहां कोई अपना नहीं है। यहां अपना हो ही नहीं सकता। यहां अपना तो सब सपना है। अपना तो सिर्फ परमात्मा है। परमात्मा में होकर तुम भी अपने हो। मगर परमात्मा से अलग होकर कोई अपना नहीं।
सेंट पॉल--ईसाइयों का एक विचारशील मनीषी--जब दस्तखत करता था अपने पत्रों में, तो दस्तखत में नीचे लिखता था: ‘योर्स इन दि क्राइस्ट!’ जीसस में तुम्हारा! यह प्यारा संबोधन मालूम पड़ता है। अलग से तुम्हारा नहीं है--जीसस में तुम्हारा है! तुम्हारी पत्नी तुम्हारी नहीं है और न पति तुम्हारा है। लेकिन परमात्मा के तुम दोनों हो, परमात्मा में तुम दोनों एक हो। अगर परमात्मा के माध्यम से पत्नी को देखो तो तुम्हारी है और तुम पत्नी के हो। और परमात्मा को छोड़ कर देखो तो यहां कोई अपना नहीं है। परमात्मा ही अपना है और उसके माध्यम से सब अपना हो जाता है। और हमने सबको तो अपना बना लिया है, परमात्मा भर को अपना नहीं बनाया है।
इहवां कोइ नहिं आपन, केहि संग बोलै हो।
किसके साथ बोलें? किससे बतियाएं? यहां भाषा ही अपनी नहीं है। हंस की भाषा यहां कोई बोलता नहीं है। बगुलों की भाषा है। कौवों की कांव-कांव है। यहां किससे बोलो?
बुद्ध को ज्ञान हुआ, चुप रह जाना चाहते थे। सवाल उठा था: किससे बोलूं? कौन समझेगा? लोग हंसेंगे। सभी ज्ञानियों को यह घड़ी आती है। जब उन्हें ज्ञान होता है, जब पहली दफे उन्हें स्मरण आता है, तब उन्हें यह भी समझ में आता है कि अब चुप ही रहना, किसी से कहना मत, कौन समझेगा! लोग नासमझी करेंगे। लोग हंसेंगे। लोग भरोसा न करेंगे। लोग विरोध करेंगे, उपेक्षा करेंगे; पूजा भी करेंगे, मगर सुनेगा कोई भी नहीं। समझेगा कोई भी नहीं। मानेगा कोई भी नहीं। संवाद हो ही नहीं पाता। विवाद करेंगे लोग।
लेकिन फिर भी बुद्ध बोले। सभी बुद्ध बोले। क्योंकि फिर यह भी खयाल आता है कि शायद किसी को थोड़ी सी समझ आ जाए; शायद थोड़ी सी स्मृति आ जाए। एक कण भी अगर आ जाए तो उसी कण के सहारे यात्रा शुरू हो जाएगी। सौ से कहेंगे, शायद एकाध समझ ले। सौ समझेंगे, शायद एकाध चल पड़े। सौ चलेंगे शायद एकाध पहुंच जाए। इतना भी क्या कम है?
इहवां कोइ नहिं आपन, केहि संग बोलै हो।
बिच तरवर मैदान, अकेला हंस डोलै हो।।
जैसे ही कोई हंस हो गया, जैसे ही मानसरोवर की याद आई और बगुलापन गया, झूठापन गया, माया गई, आत्म-बोध हुआ--वैसे ही इस भरे बाजार में आदमी अकेला हो जाता है। भीड़ में अकेला हो जाता है।
बिच तरवर मैदान,...
जैसे पूरे बड़े मैदान में एक वृक्ष अकेला खड़ा हो...
...अकेला हंस डोलै हो।
लख चौरासी भरनि, मनुष-तन पाइल हो।
कितनी-कितनी यात्रा की है मानसरोवर से इस डबरे तक आने में! चौरासी लाख योनियों से आदमी गुजरा है। इसलिए तो भूल गया। बड़ी पुरानी बात हो गई।
...मनुष-तन पाइल हो।
इन चौरासी लाख योनियों में कभी यह अवसर नहीं था कि मानसरोवर की याद आ सके। मनुष्य को ही यह अवसर है।
मनुष्य, ऐसा समझो कि परमात्मा से सर्वाधिक दूरी है। और चूंकि सर्वाधिक दूरी है, इसलिए सर्वाधिक पीड़ा मनुष्य अनुभव करता है परमात्मा की। मनुष्य उस जगह है जहां से लौटना संभव है, क्योंकि पीड़ा इतनी सघन है कि लौटना ही पड़ेगा। बीमारी इतनी सघन हो जाती है कि औषधि खोजनी ही पड़ेगी। बिना इलाज किए कोई उपाय नहीं है।
मानुष जनम अमोल,...
इसलिए मनुष्य के जन्म को अमोल कहा है।
पशु हैं, पक्षी हैं, पौधे हैं--प्यारे हैं, मगर एक कमी है: बोध नहीं है। और बोध ही न हो तो लौटोगे कैसे? ऐसा समझो कि गहरी नींद में पड़े हैं। सभी मनुष्य जाग गए हैं, ऐसा नहीं कह रहा हूं; लेकिन मनुष्य जाग सकता है। पौधे चाहें तो भी जाग नहीं सकते। यह नहीं कह रहा हूं कि सभी मनुष्य जाग ही जाएंगे। ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। चाहें तो जग सकते हैं, और न चाहें तो सोए रह सकते हैं। इसलिए बहुत से मनुष्य पौधों जैसे जीते हैं, बहुत से मनुष्य पशुओं जैसे जीते हैं, बहुत-से मनुष्य पत्थरों जैसे जीते हैं। मनुष्य जब मनुष्य जैसा जीता है, तभी उसको हम, भगवत्ता उपलब्ध हो गई, इसकी घोषणा करते हैं।
मानुष जनम अमोल, अपन सों खोइल हो।
और अपने ही हाथ से आदमी खोता चला जाता है। इस अमूल्य अवसर को। और एक बार खो जाए यह अवसर, तो फिर कौन जाने कब मिले! एक बार खो जाए, फिर बड़ी लंबी यात्रा हो; फिर कुछ पक्का नहीं कि दुबारा कब हाथ आए! और एक बार खो जाए तो दुबारा भी खो जाने की आदत हो जाएगी, तिबारा भी खो जाने की आदत हो जाएगी। बहुत हैं, जो कई बार खो चुके हैं; अब खोने की भी उनकी आदत हो गई है, लत हो गई है।
बुद्ध एक उल्लेख करते थे कि एक महल है जिसमें एक हजार दरवाजे हैं। और एक अंधा आदमी उस महल में बंद है। और एक ही दरवाजा खुला है और अंधा आदमी टटोलता है, टटोलता है। नौ सौ निन्यानबे दरवाजे बंद हैं; उसकी आशा क्षीण होती चली जाती है कि कोई दरवाजा खुला होगा। और तब वह खुले दरवाजे के करीब आता है, एक मक्खी उसके सिर पर बैठ जाती है। वह मक्खी को खुजलाता हुआ आगे निकल जाता है। वह खुला दरवाजा था। फिर नौ सौ निन्यानबे दरवाजे हैं। फिर टटोलता है। फिर न मालूम कब उस हजारवें दरवाजे के करीब आएगा! और फिर कौन जाने कौन सा बहाना मिल जाए! बहानों का कोई हिसाब है?
एक सूफी कहानी है। उस राजधानी में एक ही गरीब आदमी था, एक ही भिखमंगा था। और राजधानी के वज़ीर ने अपने सम्राट को कहा कि एक ही भिखमंगा है, वह हमारी बदनामी है। इसको धन दे दें।
एक फकीर बैठा था दरबार में, वह हंसने लगा। उसने कहा: देने से कुछ भी न होगा।
सम्राट ने कहा: क्यों नहीं होगा।
फकीर ने कहा: एक उपाय करें। यह आदमी रोज निकलता है जिस रास्ते से, उस पर ठीक हंडा भर कर अशर्फियां रख दी जाएं और देखें क्या होता है! एक पुल से वह आदमी रोज गुजरता था। अपने भीख मांग कर वहीं बैठता था पुल के पास, दिन भर भीख मांगता, सांझ सूरज ढलने को होता, तब अपने घर की तरफ जाता। उस पुल पर बीच में एक बड़ी गागर सोने की अशर्फियों से भर कर रख दी गई। काफी था उस भिखारी के लिए जन्मों-जन्मों के लिए, इतना धन था। राजा, फकीर, वजीर सब दूसरे किनारे खड़े होकर देख रहे हैं। वे बड़े चकित हुए। जब वह भिखारी वहां से निकला तो आंखें बंद किए निकला! आंखें बंद किए टटोलते-टटोलते! भला-चंगा था, आंखें ठीक थीं उसकी।
जब वह इस किनारे आया तो राजा ने पूछा कि भई भिखारी, हद हो गई, तुम आंख बंद करके क्यों आए?
उसने कहा कि मेरे मन में यह खयाल कई दिन से उठता था कि एक दफे पुल पर से आंख बंद करके गुजरा जाए। मेरा एक मित्र अंधा है, वह कैसे गुजरता होगा--यह जानने के लिए, यह अनुभव करने के लिए मैं कई दफे सोच चुका था कि एक दफा इस पुल से मैं भी आंख बंद करके गुजरूंगा। आज मैंने कहा, आज गुजर ही लिया जाए।
फकीर ने कहा: आप देखते हैं? सोने का घड़ा भरा रखा था आज, आज इसको यह खयाल आ गया। यह संयोगवशात नहीं है। इस आदमी की गरीब होने की आदत हो गई है, गहरी आदत हो गई है, लत हो गई है। यह अवसर गंवाता रहा है।
लतें हो जाती हैं। तुम फिर से हजारों दरवाजे के पार आओगे, कौन जाने कौन सा तुम्हारे दिमाग में खयाल आ जाए! या यही खयाल आ जाए कि ‘नौ सौ निन्यानबे दरवाजे बंद थे, अब हजारवां क्या खुला होगा? चलो कौन टटोले, ऐसे ही निकल चलो।’ कोई भी बहाना आ सकता है।
स्मरण रखना, जो अवसर अभी हाथ में है उसे किसी भी कारण गंवाना नहीं है।
मानुष जनम अमोल, अपन सों खोइल हो।
अपने ही हाथ से लोग खोते रहे हैं।
साहेब कबीर सोहर सुगावल, गाइ सुनावल हो।
धनी धरमदास कहते हैं: मैं तो बच गया गंवाने से, क्योंकि साहिब कबीर ने ऐसा प्यारा गीत सुनाया उस मानसरोवर का, कि मेरी स्मृति जगा दी!
सदगुरु का काम यही है कि गीत गाए, गीत गाए मानसरोवर के! उनके कानों में फुसफुसाए, जो डबरों से राजी हो गए हैं। उन्हें असली संपदा की याद दिलाए, जो कूड़ा-करकट बटोर रहे हैं। उन्हें उनके साम्राज्य की सुधि दिलाए, जो भिखमंगे हो गए हैं।
साहेब कबीर सोहर सुगावल,...
ऐसी प्यारी स्मृति जगा दी है कबीर ने! ऐसा गीत गाया है, ऐसी धुन बजा दी है, हृदय-तंत्री छेड़ दी है!
...गाइ सुनावल हो।
सुनहु हो धरमदास, एहि चित चेतहु हो।
इसी बार चेतना है, अभी चेतना है! इसी जनम में चेतना है! इसी जीवन को रूपांतरण करना है! आज ही पहुंचना है मानसरोवर! कल पर नहीं टालना है। बहुत टाल चुके।
सुनहु हो धरमदास, ऐहि चित चेतहु हो।
इसी मन में, इसी तन में, चेत जाना है। जो आज चेतेगा वही चेतेगा। कल पर मत टालना। और टालने के बहुत बहाने आते हैं। कई बार तो बहुत अच्छे बहाने आते हैं।
सत्तनामै जपु, जग लड़ने दे।।
अच्छे बहाने ऐसे आते हैं कि आदमी सोचता है कि दुनिया में इतना दुख है, और मैं ध्यान करूं?
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं: आप ध्यान सिखाते हैं! और संसार में इतना दुख है! लोग इतने पीड़ित और परेशान हैं! इतनी गरीबी, इतना अकाल, इतनी बाढ़, इतने युद्ध--और आप ध्यान सिखाते हैं! आप लोगों को स्वार्थी बनना सिखाते हैं!
जैसे कि तुम्हारे ध्यान न करने से दुख कम हो जाएंगे! कैसा तर्क है! जरा सोचना। जैसे तुमने ध्यान नहीं किया तो दुनिया में गरीबी कम हो जाएगी। जैसे तुमने ध्यान नहीं किया तो दुनिया में हिंसा कम हो जाएगी! हिंसा बढ़ेगी, तुम्हारे ध्यान न करने से। घटेगी कैसे? दुनिया में दुख है, क्योंकि लोग ध्यान में नहीं हैं। और दुनिया में युद्ध है, क्योंकि लोग ध्यान में नहीं हैं। लेकिन इसको लोग बहाना बनाते हैं। वे कहते हैं: ध्यान हम कर कैसे सकते हैं?
अभी जापान से एक महिला आई, कम्युनिस्ट है। उसने कहा: आपकी बातें तो अच्छी लगती हैं, लेकिन मैं कम्युनिस्ट हूं। मैं संन्यास नहीं ले सकती हूं और मैं ध्यान भी नहीं कर सकती हूं। दुनिया में इतना दुख है! जब तक दुनिया से गरीबी नहीं मिटेगी तब तक कैसा ध्यान, तब तक कैसा संन्यास!
जैसे उसके ध्यान न करने से गरीबी मिट जाएगी! आदमी अच्छे बहाने खोज लेता है।
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं: सेवा सिखाइए, ध्यान क्यों सिखाते हैं? कोढ़ियों के पैर दबवाइए। अंधे, लूले-लंगड़े हैं। अनाथालय खुलवाइए। ध्यान क्यों सिखाते हैं?
ध्यान नहीं है, इसलिए अंधे, लूले-लंगड़े हैं। तुम्हें यह बात चौंकाने वाली लगेगी। क्योंकि वह जो अंधा है, काश उसने कभी ध्यान किया होता! भीतर की आंखें तो फोड़ ही लीं, अब बाहर की भी फोड़ लीं! वह उसके कृत्यों का फल है। वह उसके ध्यान-शून्य कृत्यों और कर्मों का फल है। अकारण नहीं हो गया है--इस जगत में कुछ भी अकारण नहीं हो रहा है।
और तुम अगर बिना ध्यान किए पैर दबाओगे, पैर दबाते-दबाते कब गर्दन तक पहुंच जाओगे, कहना मुश्किल है। जो ध्यान न जानता हो, उससे पैर मत दबवाना। दबाते-दबाते गर्दन दबा देगा। सभी सेवक अंत में गर्दन दबाते हैं। पहले सर्वोदय का काम करते हैं, फिर गर्दन दबाते हैं। पहले कहते हैं: हम सेवा करेंगे। हमसे सेवा करवानी ही पड़ेगी।
अब सेवा ऐसी चीज है कि इनकार भी नहीं कर सकते। कोई कहता है: हम सेवा करेंगे। फिर वह कहता है: अब तो हम प्रधानमंत्री बनेंगे। अब तो हम बिना प्रधानमंत्री बने सेवा कर ही नहीं सकते। और जब इतने दिन तक सेवा करवाई है तो अब यह मौका भी हमें दो, हमें भी सेवा करने का मौका दो।
मैंने सुना, एक चुनाव की सभा में एक राजनेता बोल रहा था कि हमसे पहले जो सत्ता में थे, सब भ्रष्टाचारी हैं, सब चोर, सब बेईमान। इनसे देश का मुक्त होना जरूरी है। और हमें भी एक सेवा का अवसर दीजिए।
सेवा का अवसर पहले उनको दिया था। अब वह कह रहा है: हमें भी अब सेवा का अवसर दीजिए।
सेवा, ध्यान-रहित की, खतरनाक है। खुद को भी धोखा दे रहा है और दूसरे को भी धोखा देगा। मगर ये बातें तर्कयुक्त मालूम होती हैं।
सत्तनामै जपु,...
सत्य के नाम को जपो, ध्यान में उतरो, मानसरोवर का स्मरण करो।
...जग लड़ने दे।
यह जगत तो लड़ता ही रहा है।
यह वचन बहुत कठोर लगेगा, लेकिन बड़ा सार्थक है। जगत तो लड़ता ही रहा है। अगर बुद्ध भी कोढ़ियों के पैर दबाते रहते और महावीर भी अगर अनाथालय खोल कर बैठ गए होते और जीसस भी एक स्कूल चला सकते थे और कबीर और नानक को क्या पड़ी थी, प्याऊ खोल लेते, हजार काम थे सदा--दुनिया और भी बदतर होती। दुनिया इससे भी ज्यादा बदतर होती। क्योंकि बुद्ध के बिना दुनिया इससे बदतर निश्चित होती। ये तर्क तुम्हारे सामने भी उठेंगे, खयाल रखना।
सत्तनामै जपु, जग लड़ने दे।।
यह संसार कांट की बारी,...
यह संसार तो कांटों की बाड़ी है।
...अरुझि-अरुझि के मरने दे।
अब जो मरना ही चाहते हैं इन कांटों में उलझ कर, उनको मरने दो। उनको मर-मर कर सीखने दो। उनको कांटों में चुभ-चुभ कर ही याद आएगी, और कोई शायद उपाय नहीं है। शायद कांटों में चुभ-चुभ कर ही उनको कभी बोध होगा कि हम क्या कर रहे हैं, तो शायद फूलों की तलाश करें। तुम उन्हें चाह कर भी कांटों में जाने से रोक नहीं सकते। तुम रोकोगे तो वे और उत्सुक हो जाएंगे। तुम बाधा डालोगे तो उनको चुनौती मिलेगी। तुम उन्हें जाने दो। जिसे जो करना है, उसे करने दो। जिसे दुखी होना है वह दुखी होगा। वह उपाय खोज ही लेगा। तुम किसी को सुखी नहीं कर सकते हो, यह स्मरण रखना। और भूल कर इस भ्रांति में मत पड़ना कि किसी को सुखी करने लगो। अपने को ही सुखी कर लो तो पर्याप्त है। और तुम्हारे भीतर सुख हो तो तुमसे जरूर एक सुवास उठेगी। वह सुवास औरों के नासापुटों में भी जाएगी और शायद उनको भी सुगंध दे और शायद सुगंध के स्रोत को खोजने की सुधि दे।
हाथी चाल चलै मोर साहेब, कुतिया भुंकै तो भुंकने दे।
और यह भी खयाल रखना कि जब तुम हाथी की चाल चलोगे तो हाथी की चाल है। संन्यास यानी हाथी की चाल। यह तो चांद-तारों की चाल है। यह तो मस्ती की चाल है। यह तो मदमस्त जो है उसकी चाल है।
तो खयाल रखना, दूसरे भौंकेंगे भी। उनको भौंकने देना। हंसेंगे, विरोध करेंगे, उपेक्षा करेंगे--उनको करने देना। उनकी चिंता मत लेना, लौट कर भी मत देखना।
यह संसार भादों की नदिया, डूबि मरै तेहि मरने दे।
कठोर लगते हैं ये वचन, लेकिन बड़े सच हैं। हमें लगता है ऐसा कि नहीं, सदगुरु को ऐसा नहीं कहना चाहिए। लेकिन सदगुरु को क्या कहना चाहिए, वही सदगुरु कहता है। कठोर तो कठोर।
सर्जरी है सदगुरु के वचनों में। काटता है। जो अंग व्यर्थ है, काट कर फेंक देना है।
यह संसार भादों की नदिया,...
अब जिनको इसी में डूबना है, मरना है, पुकार दो, कह दो, मगर इसी में मत उलझे रह जाना। तुम यहीं मत बैठे रहना कि कोई डूबे तो हमें उतर कर उसको बचाना है। तुम अपने को बचा लो तो सबको बचा लिया।
धरमदास के साहेब कबीरा, पत्थर पूजै तो पुजने दे।
और धरमदास कहते हैं: हमें तो मिल गया चिन्मय। अब जो मृण्मय को पूजते हैं, उनको पूजने दो। हमें तो साहिब मिल गया। हमें तो कबीर मिल गए! हमें तो सदगुरु मिल गया। हमने तो देख ली झलक परमात्मा की। अब जिनको पत्थर पूजना है, मंदिर जाना है, मस्जिद जाना है, जाने दो। हमें तो दिखाई पड़ गया मार्ग अब हम किसको समझाते रहें! हम किस-किस को बुलाते रहें! हम किस-किस को जाकर कहते रहें कि मंदिर मत जाओ, मस्जिद मत जाओ; यहां कबीर का आगमन हुआ है, आ जाओ। इसमें समय गंवाना भी व्यर्थ है। और इन्हीं के पीछे पड़ जाने में लाभ नहीं है, हानि है।
इसलिए मैं तुमसे निरंतर कहता हूं--अपने संन्यासी को--तुम्हें जो आनंद मिला है, बांटना। तुम्हें जो शांति मिली है, बांटना। मगर भूल कर भी मिशनरी मत बन जाना। किसी को ध्यान में लगाने के पीछे मत पड़ जाना, नहीं तो तुम्हारा ध्यान खो जाएगा। उसका होगा कि नहीं, वह तो दूर बात है। तुम किसी को संन्यासी बनाने के पीछे मत पड़ जाना। तुम्हारा मन भी करेगा, क्योंकि तुम्हें जो सुख मिला है, औरों को भी मिल जाए; खास कर जिन्हें तुम प्रेम करते हो उनको भी मिल जाए।
कल ही एक युवती पूछ रही थी मुझसे कि बड़ी मुश्किल हो गई है। संन्यस्त हुई। यूरोप से आई। ध्यान में डूबी और रसमग्न है। और जैसा कभी नहीं हुआ था वैसा कुछ हुआ है। स्वाभाविक भाव उठता है कि उसका पति भी इस रस में डूब जाए, उसके बच्चे भी डूब जाएं। पति को लिखा होगा। पति ने समझा कि पागल हो गई। पति को समझ में ही नहीं आया कि गैरिक वस्त्र का क्या मतलब, नये नाम का क्या मतलब! पति ने क्रोध में पत्र लिखा है कि मैं इस झंझट में नहीं पड़ना चाहता और मैं भूल कर भी तुझे कभी तेरे नये नाम से नहीं पुकारूंगा। तेरा पुराना नाम ही मेरे लिए रहेगा। और मैं तुझे संन्यासी मानने को भी तैयार नहीं हूं। मेरे लिए तो तू जैसी थी वैसी ही है।
वह कल महिला रोती थी कि मैं तो सोचती थी कि उन्हें भी ले आऊंगी आपके पास तक, मगर यह तो मुश्किल हो गई। मैंने उससे कहा: तू चिंता न ले। और कनवर्शन की, किसी को बदलने की कभी आकांक्षा मत करना। जाना लौट कर, जितना आनंद दे सके--देना; जितना प्रेम दे सके--देना। इतना प्रेम देना कि पति ने कभी जाना ही न हो और इतना आनंद देना जितना पति ने कभी जाना ही न हो। घर में एक नई सुगंध और एक नये गीत का वातावरण बनाना। मगर भूल कर मेरी चर्चा मत करना। संन्यास की बात मत उठाना। ध्यान की बात मत करना। ध्यान करना, ध्यान की तरंगें पैदा करना घर में। लेकिन पति को ध्यान के संबंध में समझाना मत; नहीं तो पुरुष के अहंकार की बड़ी जकड़ होती है। जब तक पति स्वयं न पूछने लगे कि तुझे क्या हो गया है; जब तक पति को यह आकांक्षा पैदा न हो जाए कि तुझे कुछ हुआ है, जो मुझे भी होना चाहिए--तब तक चुप रहना।
स्वाभाविक है कि जिसे हम प्रेम करते हैं, उसको भी हम उसकी तरफ ले जाएं, जहां से हमें परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हुई हो।
धरमदास के साहेब कबीरा, पत्थर पूजै तो पुजने दे।
जो जैसे काम में लगा है, उसे लगा रहने दो। तुम अपनी मस्ती से गाओ-नाचो। तुम हाथी की चाल चलो। तुम्हारा आनंद किसी को खींच ले तो ठीक। तुम्हारे गीतों में बंधा कोई आ जाए तो ठीक। तर्क मत करना। विवाद मत करना। क्योंकि विवाद में लोग काफी कुशल हैं। तर्क में लोग काफी निष्णात हैं।
और कुछ बातें ऐसी हैं जो अनुभव में तो आती हैं, लेकिन तर्क में नहीं लाई जा सकतीं। अब तुम लाख उनको कहो कि हमें कुछ मिल गया, वे कहेंगे कि हमें दिखाओ, हाथ में रखो हमारे। क्या हाथ में रखोगे? रोशनियां हाथ में नहीं रखी जा सकतीं। समाधियां हाथ में नहीं रखी जा सकतीं। और अगर कहोगे ध्यान का अनुभव हुआ है, प्रकाश का अनुभव हुआ है, आनंद हुआ--वे कहेंगे: यह सब सम्मोहन है। हेल्यूसिनेशन! संभ्रम हो गया है तुम्हें। तुमने सपना देखना शुरू कर दिया है।
तुम कहोगे: बहुत प्रेम का अनुभव हो रहा है! वे कहेंगे कि ये इन सब बातों से कुछ सार नहीं है। कुछ प्रत्यक्ष दिखलाओ। ये तो सब कविताएं हैं।
कविताओं को कोई मानता है! कविता में कोई तर्क होता है!
तो अक्सर ऐसा हो जाएगा कि अगर तुम दूसरे को समझाने गए हो तो उसको तो शायद ही समझा पाओ, वह शायद तुम्हारे भीतर उठते गीत की कड़ियों को तोड़ डाले; तुम्हारे भीतर बनते संगीत में विघ्न डाल दे; तुम्हें शक पैदा करवा दे। किसी में श्रद्धा पैदा करवाना बहुत कठिन मामला है और किसी में संदेह पैदा करवाना बहुत सरल मामला है। इसलिए ऐसे कठोर वचन कहे हैं।
सत्तनामै जपु, जग लड़ने दे।।
जबाने-शौक पै उनका ही नाम रहता है
उन्हीं की याद से हर लहजा काम रहता है
नजर को सागरे-गम में डुबोए रहती हूं
तसव्वुरात की दुनिया में खोए रहती हूं
न होशे-हाल न एहसासे-हाल रहता है
बस एक सिर्फ उन्हीं का खयाल रहता है
हजार दिल से हम उनको भुलाए जाते हैं
न जाने क्यों वह हमें याद आए जाते हैं
अंधेरी रात में भी मंजरे-दरख्शां हैं
जिधर निगाह उठाती हूं वोह नुमायां हैं
सबा के दोश पै उनके सलाम आते हैं
सितारे लेके नया इक पयाम आते हैं
सत्तनामै जपु, जग लड़ने दे।।

आज इतना ही।

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