DHARAMDAS
Ka Sovai Din Rain 08
Eighth Discourse from the series of 11 discourses - Ka Sovai Din Rain by Osho. These discourses were given during MAR 31 - APR 10 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, श्री यू. जी. कृष्णमूर्ति समझाते हैं कि समस्त साधनाएं--योग, ध्यान, संन्यास, गुरु-शिष्य संबंध और आध्यात्मिक विकास इत्यादि मनुष्य के मन के संभ्रम, हेल्यूसिनेशंस हैं, मन के खेल मात्र हैं। और इन सबमें खूब-खूब भटक कर अंत में आदमी के हाथ में एक पूर्ण असहाय दशा भर आती है। इन श्री यू. जी. कृष्णमूर्ति के सत्संग में अनेकों के मन में साधना के प्रति तीखी अनास्था का जन्म हुआ है। अनेक मित्रों ने मुझसे कहा है कि वे इस स्थिति पर आपसे मार्ग-निर्देश चाहते हैं।
योग चिन्मय! जे. कृष्णमूर्ति तो एक सदगुरु हैं--उसी कोटि में जहां बुद्ध, महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट। यू. जी. कृष्णमूर्ति--सिर्फ एक झूठा सिक्का! यू. जी. का अर्थ करो: ‘उधार गुरु।’ लेकिन जहां असली सिक्के होते हैं, वहां नकली सिक्के भी चल पड़ते हैं। यह बिलकुल स्वाभाविक है।
यू. जी. कृष्णमूर्ति के शब्दों में एक शब्द भी उनका स्वयं का नहीं है, सब उधार है, सब बासा है। कृष्णमूर्ति के ओंठों पर तो वे शब्द जीवित हैं। शब्द वही हैं। इसलिए भ्रांति हो सकती है। कृष्णमूर्ति के ओंठों पर तो शब्द जीवंत हैं, क्योंकि उनके अनुभव से आते हैं। उन शब्दों की जड़ें हैं उनकी आत्मा में। यू. जी. कृष्णमूर्ति ने केवल सुना है। हृदय से नहीं आते वे शब्द, वे ओंठ पर ही हैं।
यू. जी. कृष्णमूर्ति एक तोता हैं। कृष्णमूर्ति के साथ कोई बीस-पच्चीस वर्षों से उनका संबंध रहा। कृष्णमूर्ति के शिष्य रहे बीस-पच्चीस वर्षों तक। सुनते रहे, सुनते रहे, उनके साथ यात्रा करते रहे। जो-जो सुना, जड़बुद्धि आदमी भी अगर बीस-पच्चीस वर्ष कृष्णमूर्ति के पास रहे, तो यंत्रवत दोहराने लगेगा। वही वमन चल रहा है। यू. जी. कृष्णमूर्ति के पास कुछ भी अपना नहीं है।
इसे कैसे पहचानोगे कि अपना नहीं है? एक मापदंड सदा याद रखो:
इस दुनिया में सत्य की एक अभिव्यक्ति बस एक ही बार होती है, दुबारा नहीं होती। वैसी अभिव्यक्ति फिर कभी नहीं होती। नानक जिस ढंग से बोले, बस नानक बोले। अगर कोई व्यक्ति बिलकुल नानक के ढंग से बोलता हो--बिलकुल वैसा का वैसा--तो समझ लेना कि झूठ है। अगर स्वानुभव से बोलेगा तो फर्क पड़ ही जाएंगे क्योंकि परमात्मा दो व्यक्ति एक जैसे बनाता ही नहीं; परमात्मा की आदत नहीं। परमात्मा मौलिक है। अपने को दोहराता नहीं। कृष्ण को एक बार बनाया। अब अगर तुमको बाजार में कोई मोर-मुकुटधारी और बांसुरी रखे हुए और पीतांबर पहने हुए कृष्ण खड़े मिल जाएं, तो समझ लेना कोई अभिनेता है, रास-लीला कर रहा है। कृष्ण फिर दुबारा नहीं हुए। बुद्ध दुबारा नहीं हुए।
दुबारा यहां कुछ होता ही नहीं। जैसी सुबह आज हुई, फिर कभी न होगी। जो इस क्षण हो रहा है, फिर कभी पुनरुक्त नहीं होगा। प्रत्येक क्षण अद्वितीय है, बेजोड़ है। और प्रत्येक व्यक्ति तो स्वभावतः बेजोड़ है। वैसी तरंग फिर कभी नहीं आती।
इसलिए इसको मापदंड समझो: अगर तुम्हें कोई व्यक्ति किसी दूसरे को रत्ती-रत्ती दोहराता मिल जाए, तो समझ लेना नकली है। और यह भी हो सकता है कि दोहराने वाला बड़ी कुशलता से दोहराए। दोहराने वाला बहुत कुशल हो सकता है, खूब रिहर्सल किया हो सकता है, उसकी भाव-भंगिमाएं बिलकुल परिपूर्ण हो सकती हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी हो जाता है कि असली से ज्यादा परिपूर्ण मालूम हो सकती हैं नकली की भाव-भंगिमाएं। क्योंकि असली ने उनका अभ्यास नहीं किया है, नकली ने उनका अभ्यास किया है।
ऐसा हुआ कि चार्ली चैप्लिन के एक जन्म-दिन पर उसके मित्रों ने सोचा: एक प्रतियोगिता की जाए, जिसमें सारी दुनिया के अभिनेता भाग ले सकें। अभिनय करना है चार्ली चैप्लिन का। लंदन में प्रतियोगिता आयोजित होगी। पहले अलग-अलग देशों में आयोजित होगी। वहां से जो प्रथम चुने जाएंगे, वे आकर लंदन में प्रतियोगिता करेंगे। सौ लोग चुने जाएंगे। इन सौ में से फिर एक चुना जाएगा, जो चार्ली चैप्लिन का अभिनय कर सके।
चार्ली चैप्लिन को मजाक सूझी। इंग्लैंड में होती प्रतियोगिता में वह भी पीछे से प्रवेश कर गया; किसी दूसरे नाम से प्रवेश कर गया। उसे तो पक्का भरोसा था कि प्रथम पुरस्कार मुझे मिलेगा ही। चार्ली चैप्लिन ही चार्ली चैप्लिन का अभिनय करे, तो फिर किसी दूसरे को प्रथम पुरस्कार कैसे मिल सकता है? उसकी गलती थी। जब निर्णय हुए तो वह बहुत हैरान हुआ। उसको नंबर दो का पुरस्कार मिला, प्रथम कोई और मार ले गया था। चार्ली चैप्लिन--नंबर दो!
यह असंभव मालूम होती है घटना, मगर घटी। यह मजाक खूब गहरा, अपने पर ही पड़ गया मजाक। जब पता चला तो आयोजकों को भी भरोसा नहीं आया कि हमने जिसको चुना है नंबर दो, वह चार्ली चैप्लिन है।
कारण साफ है। चार्ली चैप्लिन ने तो कोई अभ्यास किया नहीं। चार्ली चैप्लिन ही था, तो अभ्यास क्या करना है? जैसा था, वैसा चला गया। जो भी करेगा वही चार्ली चैप्लिन का अभिनय है। लेकिन जिसने अभिनय किया, उसने चार्ली चैप्लिन के सारे अभिनयों का अध्ययन किया, सारी फिल्में देखीं, एक-एक भाव-भंगिमा का ठीक-ठीक अभ्यास किया। वे भाव-भंगिमाएं चार्ली चैप्लिन की तो सहज स्फूर्त थीं, लेकिन जिसने अभ्यास किया उसने उनमें और-और कुशलता लायी, उनको और सजाया।
यू. जी. कृष्णमूर्ति, कृष्णमूर्ति की नकल हैं--पांखड हैं। कृष्णमूर्ति एक बार हो गए, अब दुबारा नहीं हो सकते। कृष्णमूर्ति के वक्तव्य दिए जा चुके, अब परमात्मा को उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है। वह गीत गाया जा चुका है। अब परमात्मा नये गीत गाएगा। परमात्मा हमेशा नये गीत गाता है।
तो एक तो खयाल रखना कि जब भी तुम्हें ऐसा लगे कि कोई आदमी किसी दूसरे को रत्ती-रत्ती दोहरा रहा है, तो झूठा है। मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं कि कृष्णमूर्ति के अनुभव से मिलता-जुलता अनुभव किसी का नहीं हो सकता। मगर मिलता-जुलता ही होगा; उसमें भेद सुनिश्चित है। और भेद गहरे होंगे, क्योंकि दो व्यक्तियों के अनुभव गहरे भेद को अनिवार्य रूप से अपने में लिए होते हैं।
अब यह बीस-पच्चीस वर्ष का साथ! जड़बुद्धि से जड़बुद्धि आदमी भी दोहराने में कुशल हो जाता है। तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं: यू. जी. कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं वह तो ठीक है, लेकिन यू. जी. कृष्णमूर्ति खुद ठीक नहीं हैं। वे जो कह रहे हैं, ठीक है--ठीक है कृष्णमूर्ति के संदर्भ में; उनके संदर्भ में ठीक नहीं है।
और सत्य अपने संदर्भ में ही ठीक होता है। जो फूल अभी गुलाब की झाड़ी पर खिला है, यह उस गुलाब की झाड़ी के संदर्भ में बिलकुल ठीक है। जीवंत है, इसमें रसधार बह रही है, यह वृक्ष से जुड़ा है; यह वृक्ष की जड़ों से जुड़ा है; जड़ों के माध्यम से पृथ्वी से जुड़ा है; पत्तों के माध्यम से आकाश से, सूरज-चांद-तारों से जुड़ा है। यह अभी जीवंत है। यह अस्तित्व का हिस्सा है। फिर तुम इसे तोड़ लो। और फिर तुम इसे अपनी जेब में लगा लो, तब यह संदर्भ के बाहर हो गया। यह अस्तित्व का हिस्सा नहीं रहा। यह मुर्दा है। यह एक लाश है।
जे. कृष्णमूर्ति एक जीवंत, जाग्रत, प्रबुद्ध पुरुष हैं। यू. जी. कृष्णमूर्ति--उधार गुरु। वही दोहरा रहे हैं जो कृष्णमूर्ति ने कहा है।
और ध्यान रखना, जो आदमी दोहराता है किसी को, वह अनिवार्य रूप से भीतर अपराधी अनुभव करता है। क्योंकि उसे यह तो बना ही रहता है शक कि आज नहीं कल पकड़ा जाऊंगा; जो जानते हैं वे पहचान लेंगे। इसलिए जिसको वह दोहराता है, उसके खिलाफ बोलता है। यह अनिवार्य है, ताकि वह अपनी सुरक्षा कर सके कि मैं तो कृष्णमूर्ति के खिलाफ बोल रहा हूं!
इस तर्क को ठीक से समझ लेना। अगर कोई व्यक्ति कृष्णमूर्ति को रत्ती-रत्ती दोहरा रहा है, तो वह तो जानता ही है, दुनिया जाने या न जाने कि मैं दोहरा रहा हूं। उसकी सबसे बड़ी दुश्मनी कृष्णमूर्ति से होगी। क्योंकि यही आदमी, इसी की वजह से मैं झूठा मालूम हो रहा हूं; नकली सिक्का मालूम हो रहा हूं। तो वह असली सिक्के को नकली कहने की कोशिश करेगा। यू. जी. कृष्णमूर्ति वह भी कर रहे हैं। वे कहना चाहते हैं कि मैं असली हूं और कृष्णमूर्ति नकली हैं।
पाखंड ही नहीं है, यह तो कृतघ्नता हो गई। यह तो बड़ा दगा हो गया। यह तो नमक-हरामी हो गई। जिस आदमी के साथ पच्चीस वर्षों तक रहे, जिसके चरणों में बैठे, आज उसको तुम कहो कि वह गलत है! अब वे लोगों को समझा रहे हैं कि कृष्णमूर्ति के पास कुछ भी नहीं है, सिर्फ बातचीत है। अनुभव मेरे पास है। कृष्णमूर्ति केवल एक दार्शनिक हैं, द्रष्टा मैं हूं।
कृष्णमूर्ति की खिलाफत इस बात की सूचना देती है कि भीतर उन्हें भय है: अगर मैंने खिलाफत न की, तो आज नहीं कल पकड़ा जाऊंगा। इसके पहले कि नकली पकड़ा जाए कि नकली है, वह असली को नकली सिद्ध करने की कोशिश करेगा।
फिर पच्चीस वर्ष तक कृष्णमूर्ति के साथ क्या कर रहे थे? किस प्रयोजन से जुड़े थे? पच्चीस वर्ष तक मूढ़ थे? तो अचानक मूढ़ता प्रबुद्धता कैसे हो गई? पच्चीस साल तक जो मूढ़ था, वह महामूढ़ हो जाएगा पच्चीस साल के बाद। पच्चीस साल का अभ्यास! पच्चीस साल तक धोखा खाया, फिर अचानक जाग कैसे गए? और जाग कर तुम जो कह रहे हो, वह बिलकुल तोता-रटंत है। उसमें एक शब्द भी तुम्हारा नहीं है, एक भाव भी तुम्हारा नहीं है।
लेकिन अब वे कृष्णमूर्ति का विरोध भी करते हैं, मजाक भी उड़ाते हैं। यह अनिवार्य है। यह करना ही पड़ेगा। यह आत्म-रक्षा का उपाय है।
यू. जी. कृष्णमूर्ति ने कहा है कि उनके बच्चे को कुछ बीमारी थी, बचपन से, जन्म से कुछ बीमारी थी। वे कृष्णमूर्ति के पास ले गए। ले ही किसलिए गए? और सात वर्षों तक कृष्णमूर्ति अपनी करुणा से उस बच्चे के सिर पर हाथ रखते रहे। और अब यू. जी. कृष्णमूर्ति कहते हैं कि मुझे तब भी पता था कि इससे कुछ भी होने वाला नहीं है। और कुछ भी नहीं हुआ। और मेरा बच्चा बीमार का बीमार रहा।
जब तुम्हें उसी समय पता था, तो तुम सात वर्ष तक बच्चे को ले किसलिए गए? थोड़ा सोचना! आज तुम यह दावा कर रहे हो कि मुझे पता था, कि इससे कुछ नहीं होना जाना है। तो फिर तुम ले किसलिए गए? और एकाध दफे की बात नहीं, सात वर्ष तक निरंतर! और कृष्णमूर्ति अपनी करुणा से हाथ रखते रहे। हुआ या नहीं, यह बात गौण है। और कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति आग्रह नहीं करते कि ऐसा होना ही चाहिए। कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति जब किसी के सिर पर हाथ रखते हैं, तो वे यह नहीं कहते कि ऐसा होना चाहिए, वैसा नहीं होना चाहिए। ये तो सिर्फ यह कहते हैं कि जो शुभ हो, वह हो। अगर परमात्मा की यही मर्जी है कि बच्चा बीमार रहे, तो बीमार रहे। कृष्णमूर्ति इसके विपरीत नहीं हाथ रखते हैं।
जिनकी अस्तित्व के साथ तथाता सध गई है, वे तो कहते हैं: जो शुभ है, वही हो। तुम मेरे पास ले आए हो, मैं अपना आशीर्वाद देता हूं, मैं बरसता हूं अपनी करुणा से। जो शुभ हो वही हो। अगर जीना शुभ हो तो जीना हो; अगर मृत्यु शुभ हो तो मृत्यु हो।
कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्तियों को जीवन में और मृत्यु में, बीमारी में और स्वास्थ्य में क्या भेद है? लेकिन इस आदमी की क्षुद्रता देखते हो! सात वर्षों तक कृष्णमूर्ति के पास बच्चे को ले जाना, और अब यह दावा करना कि मुझे तब भी पता था कि इससे कुछ भी नहीं होगा।
कृष्णमूर्ति को वर्षों तक सुनने के बाद, उनके पीछे दुनिया भर की यात्रा करने के बाद, आज यह आदमी कहता है कि ‘कृष्णमूर्ति की बातचीत में सिर्फ दर्शनशास्त्र है; लफ्फाजी है; बौद्धिकता है; अनुभव नहीं है। अनुभव मेरे पास है।’ और अनुभव से जो बातें निकलती हैं, वे वही की वही हैं जो कृष्णमूर्ति ने कहीं हैं। उसमें एक शब्द भी नया नहीं है। उसमें एक कण भी नहीं जोड़ा है--वही का वही है।
इतना ही नहीं, लोग कृष्णमूर्ति के पास न जाएं, इसकी चेष्टा यू. जी. की चलती है। क्योंकि जाएंगे असली के पास तो नकली की पहचान हो जाएगी। यू. जी. कृष्णमूर्ति ने लिखा है कि पेरिस में कृष्णमूर्ति के प्रवचन चलते थे। कुछ मित्र मुझे ले गए। लेकिन मैंने उन्हें रास्ते में समझाया कि कहां जाते हो बकवास में! मैंने काफी सुन ली यह बकवास। इसमें कुछ सार नहीं है। बेहतर हो हम किसी फिल्म में चलें। और मैंने उन्हें समझा लिया और फिल्म में ले गया।
कृष्णमूर्ति के पास लोग जाएंगे, तो यू. जी. की उधारी साफ हो जाएगी। अब लोग कृष्णमूर्ति के पास न जाएं, इसकी भी चेष्टा चलती है।
खयाल करना, यह नकली आदमी का सदा का व्यवहार रहा है। यही देवदत्त ने बुद्ध के साथ किया। वही बोलता था, जो बुद्ध बोलते थे। लेकिन लोगों को समझाता था: मैं असली बुद्ध हूं; यह गौतम सिद्धार्थ धोखा दे रहा है।
वही मक्खली गोशाल ने अपने गुरु, महावीर के साथ किया। लोगों को समझाता था: मैं असली तीर्थंकर हूं। चौबीसवां तीर्थंकर मैं हूं! यह महावीर लोगों को धोखा दे रहा है।
खयाल रखना, जो आदमी जिससे सीख कर जाएगा, उसे कभी क्षमा नहीं कर सकता। कैसे क्षमा करे? मक्खली गोशाल को तो बड़ी मुश्किल आई। वर्षों महावीर के साथ रहा, जैसे यू. जी. कृष्णमूर्ति, कृष्णमूर्ति के साथ रहे। वर्षों के समागम से, जो भी महावीर कहते थे, सुना, समझा, पचाया। बुद्धि ने ही पचाया। क्योंकि अंतर में उतर जाता तो महावीर को छोड़ने का सवाल क्या था? अंतर में तो उतरा नहीं। धीरे-धीरे मक्खली गोशाल भी पंडित हो गया। उसे लगा: अब तो मैं अपनी ही घोषणा कर सकता हूं। महावीर जो समझाते हैं, वह तो मैं भी समझा सकता हूं। तो फिर अब इनके पीछे क्या चलना?
उसने जाकर दूसरे गांव में घोषणा कर दी कि मैं असली तीर्थंकर हूं, महावीर धोखेबाज हैं। और कहता वह भी वही था, जो महावीर कहते थे। महावीर को जब पता चला, तो वे चकित हुए। वे उस दूसरे गांव गए। वे मक्खली गोशाल को मिले। उन्होंने कहा कि मेरे भाई! तू भूल गया? तू मेरे चरणों में, मेरे पास, मेरे सत्संग में वर्षों रहा, तू भूल गया?
मक्खली गोशाल ने पता है क्या कहा? मक्खली गोशाल ने कहा: इससे सिद्ध होता है कि तुम अज्ञानी हो, क्योंकि वह मक्खली गोशाल, जो तुम्हारे साथ रहता था, वह तो मर चुका। उसकी देह में यह चौबीसवां तीर्थंकर प्रविष्ट हुआ है।
अब धोखे की भी सीमाएं होती हैं!... ‘मैं वह नहीं हूं, जो तुम्हारे साथ रहता था। सिर्फ देह वह है। मैं तो मर चुका। जिसको तुम सोच रहे हो मैं हूं, वह तो जा चुका। यह तो चौबीसवें तीर्थंकर का अवतरण हुआ है मेरी देह में। इससे सिद्ध होता है कि तुम अज्ञानी हो। इतनी सी बात तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती? देह वही है, आत्मा तो बदल गई है--इतनी सी बात तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती?’
आदमी जब पाखंड पर उतरता है, तो कुछ भी करेगा।
यू. जी. कृष्णमूर्ति कहते हैं कि उनका आत्म-अनुभव, उनकी सिद्धि--स्वयं की है, उसका कृष्णमूर्ति से कुछ लेना-देना नहीं है। और हर सात वर्ष में उनकी सिद्धि बढ़ती रही है, क्योंकि हर सात वर्ष में एक चक्र खुलता रहा है। उनचासवें ही वर्ष में वे परम बोधि को उपलब्ध हो गए हैं।
जब हर सात वर्ष में चक्र खुलता रहा था, तो पच्चीस वर्ष तक कृष्णमूर्ति के साथ क्या करते रहे? क्योंकि तुम्हारे अनेक चक्र तो खुल ही चुके थे, और अनेक खुल रहे थे। तुम कृष्णमूर्ति के पीछे किसलिए घूम रहे थे? क्या प्रयोजन था? और आज तुम दोहराते हो यह।
मैं जानता हूं, मेरे दो-तीन संन्यासी उनके पास जाते हैं। वही उनके खास शिष्य हैं दो-तीन संन्यासी। वे भी ऐसे संन्यासी हैं, जिनकी कोई आंतरिक साधना नहीं है। जो यहां आते भी हैं तो बस आने-जाने के लिए। और उनकी तकलीफ यह है कि वे चाहते हैं मेरे साथ उनका विशेष संबंध हो। विशेष संबंध का मतलब?--जब वे आएं, आधी रात आएं तो मुझसे मिल सकें; जिस समय आएं, उस समय मिल सकें; मुझे अपने घर खाने पर बुला सकें; मुझे यहां-वहां ले जा सकें; जिसको मेरे पास लाएं, उसे मिला सकें। चूंकि यह यहां संभव नहीं है, उन्हें यू. जी. कृष्णमूर्ति जमते हैं। यू. जी. कृष्णमूर्ति उनके घर जाते हैं, उनके पास बैठते हैं, उनका खाना खाते हैं, उनके साथ कार में यात्रा करते हैं। वे जमते हैं। उनके अहंकार की तृप्ति यहां नहीं हो पाती है, वहां अहंकार की तृप्ति हो रही है। उन्होंने समझा ही नहीं है कुछ अभी। साधना तो की नहीं है, अभी वे यह कैसे समझेंगे कि साधना व्यर्थ है?
साधना निश्चित एक दिन व्यर्थ हो जाती है, मगर सदा व्यर्थ नहीं है। एक दिन व्यर्थ होती है। होनी ही चाहिए। रास्ता एक दिन व्यर्थ हो ही जाना चाहिए जब मंजिल आ जाए। सीढ़ी को पकड़ कर थोड़े ही बैठे रहोगे! सब साधना सीढ़ी है। सब विधियां उपाय हैं। एक न एक दिन उनको छोड़ ही देना है। लेकिन सावधान! किसी की बातचीत में आकर, सीढ़ी को मंजिल पर पहुंचने के पहले मत छोड़ देना। छोड़ना तो जरूर है। मैं भी कहता हूं, निरंतर कहता हूं: छोड़ना है। लेकिन मैं दो बातें कहता हूं, पकड़ना है इतना कि तुम आखिरी सोपान तक पहुंच जाओ फिर छोड़ना है।
पूछा है तुमने कि ‘श्री यू. जी. कृष्णमूर्ति समझाते हैं कि समस्त साधनाएं--योग, ध्यान, संन्यास, गुरु-शिष्य संबंध, आध्यात्मिक विकास इत्यादि मनुष्य के मन के संभ्रम हैं; मन के खेल मात्र हैं।’
फिर किसको समझाते हैं? समझाना संभ्रम नहीं है? और समझाना ही तो गुरु और शिष्य का संबंध है; और है क्या? जिनको समझा रहे हैं, वे कौन हैं? वे यू. जी. कृष्णमूर्ति के गुरु हैं या शिष्य हैं? जिनको वे समझा रहे हैं, वे क्यों समझा रहे हैं उनको? उन्हें कुछ पता नहीं है, जो कुछ यू. जी. कृष्णमूर्ति को पता है। यही तो फर्क है।
गुरु और शिष्य में संबंध क्या है?--कोई जानता है, कोई नहीं जानता है। जो जानता है, वह अपने जानने को न जानने वाले को सौंप रहा है। सत्संग का और क्या अर्थ होता है?--जानने वाले के पास बैठना।
अगर यह बात सच है, तो समझाना बंद कर देना चाहिए, क्योंकि समझाने में क्या सार है? सब मन का ही खेल है। समझाने में शब्द ही होंगे। अगर योग मन का खेल है, ध्यान मन का खेल है, साधना मन का खेल है--तो जो तुम समझा रहे हो, वह मन का खेल नहीं है?
ध्यान से तो कोई शून्य में उतरेगा, शब्दों से तो सिर्फ पांडित्य बढ़ेगा। अब यू. जी. कृष्णमूर्ति जो सीख लिए हैं--कृष्णमूर्ति को सुन-सुन कर, वही ये जो दो-तीन उनके आगे-पीछे घूमने वाले लोग हैं, ये उनसे सीख लेंगे और दोहराने लगेंगे। और उन्होंने दोहराना शुरू कर भी दिया।
एक या दो दिन पहले ही मैंने आनंद तीर्थ के प्रश्न का उत्तर दिया। आनंदतीर्थ ने कहा कि मुझे आपके चेहरे के पास प्रकाश की छाया दिखाई पड़ी। और मैंने कहा कि ठीक हुआ, शुभ हुआ। ऐसा ही सबके चेहरे के पास एक दिन दिखाई पड़े, इसकी चेष्टा में संलग्न रहो। क्योंकि असल में वह प्रकाश मेरी छाया नहीं है, मैं उस प्रकाश की छाया हूं। और तुम भी उसी प्रकाश की छाया हो। सारा खेल उसी प्रकाश का है। सारा अस्तित्व उसी प्रकाश की छाया है।
आनंदतीर्थ ने प्रश्न पूछा है कि ‘यहां से उठ कर गया, बड़ा आनंदित था। यू. जी. कृष्णमूर्ति को मानने वाले एक सज्जन दरवाजे पर ही मिल गए। (यहां से सुन रहे थे वे, यहां क्या कर रहे थे सुन कर?) और उन्होंने कहा: ये सब मन के खेल हैं--संभ्रम, हेल्यूसिनेशन।’
आनंदतीर्थ की भाव-दशा को उन्होंने खंडित कर दिया।
लेकिन यू. जी. कृष्णमूर्ति समझा क्या रहे हैं? समझाना ही तो गुरु का कृत्य है। और जो समझने जाते हैं वे शिष्य हो गए। फिर शिष्य कहो न कहो, गुरु-शिष्य शब्द का उपयोग करो या न करो--इससे क्या फर्क पड़ता है? फिर समझाना क्या है? अगर साधना भ्रम है, तो साधना भ्रम है, ऐसा समझना भी भ्रम ही होगा। फिर सभी कुछ भ्रम है। फिर यह यू. जी. कृष्णमूर्ति का दावा कि मुझे उपलब्धि हो गई है, संबोधि हो गई है--यह भ्रम नहीं है? यह भ्रांति नहीं है? मैं सिद्ध हो गया, यह भ्रांति नहीं है? ये सात-सात वर्ष में जो चक्र खुलते रहे हैं, ये भ्रांतियां नहीं हैं? ये हेल्यूसिनेशंस नहीं हैं? कहां के चक्र? कौन से चक्र? यह सात-सात साल में जो एक-एक चक्र खुलता रहा, ये चक्र असलियत हैं? और किसी के आभा-मंडल को देखना भ्रम है?
थोड़ा सोचना, थोड़ा विचार करना। ‘समस्त साधनाएं भ्रम हैं।’ कृष्णमूर्ति भी यही कहते हैं: समस्त साधनाएं भ्रम हैं। क्यों? क्योंकि यह भी एक साधना है। समस्त साधनाओं को भ्रम मान लिया जाए, समस्त उपायों को भ्रम मान लिया जाए, समस्त विधियों को भ्रम मान लिया जाए--तो आदमी निर्विधि हो जाता है, निरुपाय हो जाता है। और निर्विधि और निरुपाय हो जाने में ही ध्यान फलित होता है। यह भी साधना की एक विधि है--नकारात्मक विधि है। विधायक विधि नहीं है।
और दुनिया में सदा से दो प्रकार की विधियां रही हैं: नकारात्मक और विधायक। विधायक को सीखना हो, पंतजलि से सीखो। नकारात्मक को सीखना हो, अष्टावक्र से सीखो। हर चीज के दो पहलू होते हैं--या तो हां कहो या न कहो। ये दो ही उपाय हैं। लेकिन यह मत सोचना कि नकारात्मक विधि, विधि नहीं होती। नकारात्मक होने के कारण ही यह मत समझ लेना कि विधि नहीं होती।
कृष्णमूर्ति जब कह रहे हैं, तो ठीक कह रहे हैं। इसको मैं फिर दोहरा दूं कि मेरे लिए व्यक्तियों का ज्यादा मूल्य है, उनके वक्तव्यों से। वक्तव्य का कोई मूल्य नहीं होता। क्योंकि हो सकता है कि वक्तव्य उधार हो, सीखा गया हो। वक्तव्य अपना होना चाहिए, अनुभव से आना चाहिए। कृष्णमूर्ति ठीक कह रहे हैं कि सब साधनाएं भ्रम हैं। मगर मैं तुमसे यह बात कह देना चाहता हूं: यह साधना की नकारात्मक विधि है, और कुछ भी नहीं। यह भी एक विधि है। सारी विधियों को छोड़ देना--एक विधि है। और कोई आसान विधि नहीं है, खयाल रखना।
इसलिए कृष्णमूर्ति जिंदगी भर समझाते रहे। ज्यादा से ज्यादा इस तरह के लोग पैदा हुए--यू. जी. कृष्णमूर्ति जैसे! जो दोहराने लगे हैं। नकार की विधि तो बड़ी कठिन है। क्योंकि शून्य में उतरना--साहस की जरूरत है, दुस्साहस की जरूरत है। सब सहारे छोड़ देना। सब आलंबन त्याग देना। बड़े दुस्साहस की जरूरत है।
विधायक विधि में धीरे-धीरे आलंबन छुड़ाया जाता है; एक-एक करके छुड़ाया जाता है; एकदम नहीं छुड़ा लिया जाता। पहले कहा जाता है: यह देह मैं नहीं हूं, इसलिए फिर देह की विधियां छोड़ दो; शीर्षासन करना और सिद्धासन लगाना और सर्वांगासन करना, इनसे कुछ न होगा। फिर धीरे-धीरे मैं मन नहीं हूं, फिर मन की विधियां छोड़ो; मंत्र, जाप, इनसे कुछ न होगा। फिर मन की विधियां चली जाएं, तो फिर आत्मा की जो प्रतीतियां हैं--मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण--ये भी व्यर्थ हैं। इनको भी छोड़ दो। ऐसे छोड़ते-छोड़ते-छोड़ते, काटते-काटते-काटते--बचेगा क्या? सिर्फ एक शून्य बच रहेगा। वही शून्य मोक्ष है। वही शून्य निर्वाण है। यह नकारात्मक विधि है निर्वाण तक आने की। मगर विधि ही है। मैं तुमसे कह देना चाहता हूं कि विधि ही है। ‘नहीं’ का उपयोग करती है--‘मेथड ऑफ इलिमिनेशन।’ एक-एक को छोड़ते चले जाओ।
ऐसा समझो कि कोई मुझसे पूछे कि यहां इतने लोग बैठे हैं, इसमें तरु कौन है? तो दो उपाय हैं। या तो मैं सीधा तरु की तरफ इशारा कर दूं कि यह रही तरु। यह विधायक विधि है। और दूसरा उपाय यह है कि यहां बैठे पांच सौ लोगों को, एक-एक को मैं कहूं कि यह तरु नहीं है, यह तरु नहीं है, यह तरु नहीं है। और जब चार सौ निन्यानबे का निषेध हो जाए, तब मैं कहूं कि जो शेष बचा--वही। यह लंबा मार्ग है। कृष्णमूर्ति का मार्ग लंबे से लंबा मार्ग है।
विधेय सीधा संबंध जोड़ता है। नकार बड़े घूम कर कान को पकड़ता है। लेकिन जो लोग प्रतिभाशाली हैं, उन्हें नकार का रास्ता रुचता है। प्रतिभा को हमेशा इनकार का रास्ता रुचता है। जो लोग बुद्धि से भरे हैं, उनको इनकार का रास्ता आकर्षक मालूम होता है। जो लोग हृदय से भरे हैं, उन्हें विधेय का रास्ता आकर्षक मालूम होता है।
यही तो दो पुरानी विधियां हैं: एक का नाम ज्ञान-योग, एक का नाम भक्ति-योग। ज्ञान सदा निषेध करता है; और भक्ति सदा विधेय करती है। ज्ञान शून्य तक पहुंचा देता है; भक्ति पूर्ण तक पहुंचा देती है। यद्यपि अंतिम अर्थों में शून्य और पूर्ण एक ही अनुभव के दो नाम हैं। जरा भी भेद नहीं है। शून्य पूर्ण है; पूर्ण शून्य है।
लेकिन यू. जी. कृष्णमूर्ति के ओंठों से ये शब्द झूठे हैं। इस व्यक्तित्व में गरिमा ही नहीं है। अनुग्रह का भाव नहीं है। जिससे सीखा है, उसके प्रति सम्मान भी नहीं है। अगर सच में अनुभव घटा होता, तो अपूर्व सम्मान होता।
कहते हैं: ‘समस्त साधनाएं--योग, ध्यान, संन्यास, गुरु-शिष्य संबंध, आध्यात्मिक विकास इत्यादि मनुष्य के
संभ्रम हैं; मन के खेल मात्र हैं।’
मैं भी कहता हूं: मन के खेल हैं। लेकिन बिना खेले इनके पार कोई कभी जाता नहीं। खेल में बुरा क्या है? खेल में निंदा-योग्य क्या है? धन भी खेल है; ध्यान भी खेल है। धन बाहर का खेल है; ध्यान भीतर का खेल है। धन का खेल भी एक दिन टूटेगा, तब ध्यान का खेल शुरू होगा। और फिर ध्यान का खेल भी एक दिन टूटेगा, तब समाधि का अवतरण होगा। खेले बिना उपाय नहीं है खेल के पार जाने का।
इसलिए मैं तुम्हें इतनी विधियां देता हूं कि खेल ही लो, जब तक खेलने का मन है।
छोटा बच्चा अपने खिलौनों से खेल रहा है। हम कहते हैं: खिलौने, ये सब खेल हैं। लेकिन अभी छोटे बच्चे को इनमें रस है। तुम उससे खिलौने छीन लो, तुम हानि पहुंचा दोगे बच्चे को। अगर छोटे बच्चे से खिलौने छीन लिए गए, तो वह बड़ा होकर भी खिलौनों में उलझा रहेगा, क्योंकि खिलौनों से मन नहीं भर पाया। दौड़ा लेना था उसे रेलगाड़ियां, चला लेने थे हवाई-जहाज, मोटरकारें, गुड्डे-गुड्डियों का विवाह रचा लेना था--सब कर लेना था। जब समय था, तब सब कर लेना उचित था। अन्यथा बाद में वह यही सोचेगा। यहीं अटका रहेगा उसका मन। फिर हो सकता है छोटी कारों की जगह बड़ी कारें हों, लेकिन खेल जारी रहेगा।
तुमने देखा है, ऐसे लोग, जो अपनी कारों के दीवाने हैं, कैसा झाड़-पोंछ कर कार को रखते हैं। जरा सी खरोंच न लग जाए, निकालते भी नहीं। कार उपयोग की चीज है; उसे पोर्च से बाहर भी नहीं निकालते, उसे पोर्च में ही रखे रहते हैं। शोभा है। जरूर ये बच्चे, अधूरे बच्चे रह गए। इनके भीतर कुछ अटका रह गया है। ये बचपन में खिलौनों से खेल नहीं पाए। इनको अभी खिलौने चाहिए। अब छोटे-छोटे खिलौनों से खेलेंगे तो जरा भद्दा लगता है; तो बड़े खिलौने चाहिए; इनकी उम्र के योग्य खिलौने चाहिए। लेकिन ये खिलौने हैं, तुम जरा गौर कर लेना। छोटी कार हो कि बड़ी कार हो, क्या फर्क पड़ता है?
पश्चिम में जब किसी कार का कोई मॉडल बहुत प्रसिद्ध हो जाता है, तो उसके छोटे मॉडल बनाए जाते हैं। खिलौनों की तरह। कैडिलक और रॉल्स रॉयस और लिंकन के छोटे मॉडल मिलते हैं। उनकी भी कीमत काफी होती है। क्योंकि वे बिलकुल हू-ब-हू बड़े की नकल होते हैं। उनमें उतने ही पार्ट्स होते हैं, जितने बड़े में होते हैं। छोटे ही होते हैं, लेकिन सब वैसा का वैसा होता है। हजारों की उनकी कीमत होती है। मगर उनको भी लोग खरीदते हैं और उनको सजा कर संदूकचों में रखते हैं, या अपने बैठकखानों में सजाते हैं।
जो बचपन में हो जाना चाहिए, वह बचपन में कर लेना। कहीं सरकती हुई बात न रह जाए। कहीं कोई तार अटका न रह जाए।
मनोविज्ञान से पूछो। मनोविज्ञान कहता है: जो-जो बातें बचपन में अटकी रह गई हैं, वे कभी न कभी पूरी करनी पड़ती हैं। और जब तुम बाद में पूरी करोगे, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। बड़ी मुश्किल हो जाती है!
जैसे समझो, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिन बच्चों को मां का स्तन जल्दी छुड़ा लिया जाता है, वे जिंदगी भर स्त्रियों के स्तन में उत्सुक रहते हैं। रहेंगे ही। वह बचपन में जो स्तन छुड़ा लिया गया, वह झंझट की बात हो गई। मन स्तन से भर नहीं पाया। अब जो कवि सिर्फ स्तन ही स्तन की कविताएं लिखता है और जो चित्रकार स्तन ही स्तन के चित्र बनाता है, और जो मूर्तिकार स्तन ही स्तन खोदता है--जरूर कहीं अड़चन है, जरूर कहीं कोई बात अटकी रह गई है। उसे स्त्री दिखाई ही नहीं पड़ती, स्तन ही दिखाई पड़ते हैं। उसका सारा संसार स्तनों से भरा हुआ है। उसके सपनों में स्तन गुब्बारों की तरह तैरते हैं। यह रुग्ण है। इसे कहीं अटकी बात रह गई। इसकी मां ने स्तन जल्दी छुड़ा लिया। यह बच्चा पक नहीं पाया था।
अब तुम चकित होओगे जान कर: आदिवासी जातियों में--यहां अभी ऐसी जातियां मौजूद हैं, इस देश में भी मौजूद हैं--जिनमें स्त्रियां स्तन नहीं ढांकतीं। ढांकने की जरूरत नहीं है। यहां स्त्रियां, सभ्य समाजों में, स्तन क्यों ढांकती हैं? क्यों ढांक कर चलना पड़ता है उन्हें? क्योंकि चारों तरफ जिनके स्तन बचपन में छीन लिए गए हैं, वे चल रहे हैं; उनकी आंखें उनके स्तनों पर ही गड़ी हैं। कहीं पल्लू न सरक जाए, स्त्री घबड़ाई रहती है। क्योंकि चारों तरफ बच्चे हैं--कम उम्र के बच्चे! जिनके शरीर की उम्र बढ़ गई है, लेकिन मानसिक उम्र जिनकी बहुत छोटी है। उनकी नजर ही स्तन पर लगी है। वे और कुछ देखते ही नहीं।
आदिवासी जातियां स्तन को नहीं ढांकतीं। और कोई आदिवासी स्तन में उत्सुक नहीं है। कारण? बच्चे नौ साल और दस साल के हो जाते हैं, तब तक स्तन पीते रहते हैं। जब चुक ही जाते हैं बिलकुल, मां नहीं छुड़ाती स्तन, जब बच्चा ही भागने लगता है स्तन से कि अब नहीं, मुझे नहीं पीना, अब बहुत हो गया, अब मुझे छोड़ो--जब बच्चा ही भागने लगता है स्तन से, तो उसकी बात समाप्त हो गई। बात खत्म हो गई। अब उसका कोई रस न रहा। अब जिंदगी भर उसको स्तन में न कोई कविता दिखाई पड़ेगी, न काव्य, न सौंदर्य--कुछ भी नहीं। स्तन उसके लिए थन हो गए। अब उसको और कुछ नहीं रहा उनमें।
तुम जरा अपने मन की खोज-बीन करना। तुम किन बातों में अटके हो, जरा भीतर उनके पीछे जाना। जरा विश्लेषण करना, जरा अतीत में उतरना। और तुम चकित हो जाओगे: वे वही बातें हैं, जो बचपन में तुम करना चाहते थे और नहीं कर पाए। अब करना चाहते हो, लेकिन अब बेहूदी मालूम पड़ती हैं।
हर चीज एक उम्र में संगत मालूम होती है; एक उम्र के बाद असंगत हो जाती है।
पश्चिम में तुम देखते हो, नग्न क्लब बन रहे हैं। उनकी संख्या बढ़ती जा रही है। और उसका मौलिक मनोवैज्ञानिक कारण?--क्योंकि बच्चों को हम जबर्दस्ती कपड़े पहना देते हैं। जब वे नंगे होना चाहते थे, हमने कपड़े पहना दिए। बच्चा भाग रहा है, और मां उसको कपड़े पहना रही है। वह कह रहा है कि मुझे गर्मी लग रही है; मगर मां कह रही है: घर में मेहमान आए हुए हैं। बच्चे को समझ में नहीं आता कि मेहमानों से और कपड़ों का क्या लेना-देना है? वह कहता है: मुझे बगीचे में जाने दो। वह नंगा ही बगीचे में जाना चाहता है।
लेकिन छोटे-छोटे बच्चों को हम जबर्दस्ती कपड़े थोप देते हैं। फिर जिंदगी भर कपड़े उनको एक तरह का बोझ होते हैं। जहां भी उन्हें मौका मिल जाएगा, जब भी मौका मिल जाएगा, वे कपड़े उतार देना चाहेंगे। फिर इससे हजार विकृतियां पैदा होती हैं। हजार विकृतियां पैदा होती हैं! वे अपने भी कपड़े उतार देना चाहते हैं, वे दूसरों के कपड़ों के भीतर जो शरीर छिपा है, उसको देखना चाहते हैं। वे दूसरों के भीतर कपड़े उतारते रहते हैं--मानसिक रूप से।
तुमने देखा? जब तुम रास्ते से गुजरते हो, एक सुंदर स्त्री गई, तुम तत्क्षण उसके कपड़े उतार लेते हो भीतर! तुम्हारे दिमाग में, जल्दी से तुम सब कपड़े अलग कर देते हो। तुम उसे नग्न देखना चाहते हो। कैसा पागलपन है? इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है: जो बचपन में हो जाना था वह नहीं हो पाया।
और यही आध्यात्मिक विकास में भी स्मरण रखना। जीवन के नियम समान हैं। तल बदलते हैं, नियम नहीं बदलते। जब विधियों की जरूरत है, तब विधियां पूरी कर लेना, नहीं तो वे अटकी रह जाएंगी।
मेरे एक मित्र हैं। कृष्णमूर्ति के भक्त हैं। जब भी मेरे पास आते थे, वे कहते थे कि मैं आपकी बातें सुनने आता हूं, लेकिन आपका ध्यान नहीं कर सकता। ध्यान में क्या है? ध्यान से कुछ नहीं हो सकता। कृष्णमूर्ति तो कहते हैं कि ध्यान से कोई सार नहीं है। विधि इत्यादि, योग इत्यादि में कोई सार नहीं है। मैं न तो ध्यान करता हूं--वे कहते हैं--न जप करता हूं, न मंत्र करता हूं। ब्राह्मण हैं, निष्णात ब्राह्मण हैं; लेकिन बड़े हिम्मतवर हैं, सब छोड़ दिया।
एक दिन उनका बेटा मुझे बुलाने आया। उसने कहा कि आप जल्दी चलें, हार्ट-अटैक हो गया है पिता को। मैं गया। वे पड़े थे बिस्तर पर और राम-राम जप रहे थे। मैंने उनका सिर हिलाया। मैंने कहा: क्या करते हो? मरते वक्त काफिर हुए जा रहे हो! जिंदगी भर सम्हाला। क्रांति! मरते वक्त अब भ्रष्ट हुए जा रहे हो?
उन्होंने कहा: अब छोड़िए यह बातचीत। कौन जाने राम हो ही! फिर हर्जा क्या है? फिर अभी हार्ट-अटैक का मामला है, अभी मैं सिद्धांत की बात नहीं करना चाहता।
मैंने कहा: लेकिन कृष्णमूर्ति कहते हैं कि राम-राम जपने से कुछ नहीं होगा।
उन्होंने कहा: इस समय बात न करिए।
जब वे ठीक हो गए, फिर बात आ गई वापस। मैंने उनसे पूछा कि सोचो थोड़ा, तुम्हारे भीतर कहीं अटका है। कृष्णमूर्ति के कहने से क्या होगा? तुम्हारे भीतर अटकन है। तुम्हारे भीतर कृष्णमूर्ति के कहने से समाधि तो हो नहीं गई है। सुन ली बात, पकड़ ली बात; लेकिन तुम्हारे भीतर उससे कोई अनुभव तो नहीं आ गया है। जब मरने लगे, जब मौत ने द्वार पर दस्तक दी, तब सवाल था कि कृष्णमूर्ति को चुनना कि मौत को। तब तुमने कृष्णमूर्ति को छोड़ा। मौत जब सामने खड़ी है, कृष्णमूर्ति कहां साथ देंगे? अभी तो राम की याद कर लूं! तब तुम्हारा बचपन लौट आया होगा। बचपन में सुना होगा पिता को राम-राम दोहराते, मां को राम-राम दोहराते। जिंदगी भर समझा कि वे मूढ़ थे, लेकिन मरते वक्त एकदम वही सार्थक हो गए। यह बीच की सारी बौद्धिकता, यह सारा सिद्धांत-जाल दो कौड़ी का हो गया था।
तो मैं तुमसे कहता हूं: हर स्थिति की अपनी संयोजना है। उसका उपयोग कर लो। उसके पार निश्चित जाना है।
महर्षि महेश योगी कहते हैं कि मंत्र ही जपते रहना, और कृष्णमूर्ति कहते हैं कि मंत्र कभी मत जपना। और मैं कहता हूं: मंत्र जपना और मंत्र छोड़ना भी। जब तक तुम्हारा मन है, तब तक मंत्र जपना ही पड़ेगा।
‘मंत्र’ उसी शब्दों से बनता है, जिससे ‘मन’ बनता है। मन और मंत्र एक ही धातु से बनते हैं। मन मंत्र की विधि है। और अगर तुम राम-राम न जपोगे तो तुम कुछ और जपोगे। खयाल रखना। जपने से बच नहीं सकते। फिल्मी गाना दोहराओगे। कोई आदमी स्नान करता है बाथरूम में और राम-राम, राम-राम जपता है, और तुम कोई फिल्मी धुन दोहराते हो। फर्क क्या है? तुम दोनों मंत्र जप रहे हो। और राम-राम जपने वाला कम से कम तुमसे बेहतर मंत्र जप रहा है।
ठंडा पानी जब छूता है शरीर को तो मंत्र जपने की इच्छा अचानक होती है। मंत्र जप लेने से ठंडा पानी भूल जाता है। तुम मंत्र में लग गए हो, जल्दी से पानी ठंडा डाल लिया। लेकिन जब जपना ही है कुछ, तो फिल्मी गाने के बजाय अच्छा था कि राम का स्मरण हो जाता। कौन जाने आकस्मिक स्मरण में कभी-कभी द्वार भी खुल जाते हैं।
तो मैं तुमसे कहता हूं कि घबड़ाओ मत, विधियों का उपयोग कर लो। विधियों को सुंदरतर करते जाओ, श्रेष्ठतर करते जाओ। विधियों को शुभ और शिव होने दो। और एक दिन शुद्ध होते-होते, होते-होते वह घड़ी जरूर आ जाती है, जब तुम विधियों के पार चले जाओगे। जाना तो विधि के पार ही है। क्योंकि विधियों से मिलती है सविकल्प समाधि; विधियों के पार जाकर मिलती है निर्विकल्प समाधि।
विधियां कितने ही दूर ले जाएं, मंजिल थोड़े फासले पर रह जाती है। विधि का और मंजिल का फासला रह जाता है। विधि तुम्हारे और मंजिल के बीच में खड़ी रह जाती है।
ऐसा समझो कि राम-राम जपने का खूब अभ्यास हो गया। अब एक दिन राम के सामने पहुंच गए, तुम अपना राम-राम ही जपे जा रहे हो। रामचंद्रजी वहां खड़े हैं हाथ जोड़े तुम राम ही राम जपे जा रहे हो। वे कहते हैं: भई अब चुप भी हो, अब मैं आ गया। मगर अब तुम छोड़ो कैसे? तुम कहते हो: मंत्र तो मैं छोड़ नहीं सकता। तो तुम्हारा राम-राम जपना ही बाधा हो जाएगा। जब राम प्रकट हो जाएं, फिर क्या राम जपना! राम को पुकार लो, लेकिन जब घड़ी घटने लगे तो फिर पुकार बंद कर देना। कहीं ऐसा न हो कि पुकार विक्षिप्त हो जाए और तुम चिल्लाते ही रहो, चिल्लाते ही रहो। तुम्हा
रा चिल्लाना ही फिर बाधा बन जाएगा। फिर तुम्हारे मंत्र ही बाधा बन जाएंगे।
जो एक दिन साधक है, वही एक दिन बाधक बन जाता है। तो कोई चीज न तो सिर्फ साधक है और न सिर्फ बाधक है। हर चीज का उपयोग कर लेता है समझदार आदमी।
‘यू. जी. कृष्णमूर्ति कहते हैं कि समस्त साधनाएं--योग, ध्यान, संन्यास, गुरु-शिष्य संबंध आध्यात्मिक विकास इत्यादि मनुष्य के मन के संभ्रम हैं।’
आध्यात्मिक विकास भी! तो फिर वे किसलिए समझा रहे हैं लोगों को? आध्यात्मिक पतन करवाना है? आध्यात्मिक विकास भ्रम है, तो आध्यात्मिक पतन सत्य है? फिर यह फिजूल की परेशानी क्यों कर रहे हैं? इतनी मेहनत क्यों उठा रहे हैं? क्या समझा रहे हो? किसलिए समझा रहे हो? क्या प्रयोजन है? जरूर कुछ घट जाए; जिसको तुम समझा रहे हो उसमें कुछ घटे--वही तो विकास है।
लगता है ऐसा, यू. जी. को कृष्णमूर्ति समझ में तो नहीं आए: रट लिया है। और कुछ बुद्धू जरूर उनके चक्कर में पड़ेंगे और परेशान होंगे।
‘और इन सबमें खूब-खूब भटक कर अंत में आदमी के हाथ में एक पूर्ण असहाय दशा भर आती है।’
वही दशा तो बहुमूल्य दशा है। जिस दिन तुम सारी विधियों को करके भी पाते हो, अभी कुछ शेष रह गया... शेष रह गया... जिस दिन तुम पाते हो सब कर लिया, फिर भी कुछ अनकिया रह गया--उस दिन तुम्हें यह दृष्टि मिलती है कि कुछ ऐसा भी है जो करने से मिलता ही नहीं--न करने से मिलता है। बहुत कुछ करने से मिलता है; परमात्मा करने से नहीं मिलता।
करने से छोटी चीजें मिलती हैं। धन मिलता है, पद मिलता है, प्रतिष्ठा मिलती है। परमात्मा, मुक्ति बड़ी बातें हैं--तुमसे बहुत बड़ी हैं। तुम्हारी मुट्ठी में नहीं समा सकतीं। तुम्हारा कृत्य नहीं हो सकतीं। तुम जब अक्रिया में होते हो, जब तुम बिलकुल ही शांत होते हो, सारी क्रिया शून्य हो गई होती है--उस अक्रिया में घटती हैं। जब तुम अकर्ता होते हो, तब घटती हैं।
संसार घटता है कृत्य से, और परमात्मा घटता है अकृत्य से। मगर उस अकृत्य तक पहुंचने के लिए इन सारी विधियों से गुजरना जरूरी है--एकदम जरूरी है। गुजर-गुजर कर ही तुम पाओगे कि कुछ दूरी रह जाती है। पहुंचता हूं, और नहीं पहुंच पाता। पहुंचा-पहुंचा लगता हूं और फिर कुछ फासला रह जाता है। यह खुला द्वार, खुला द्वार--और नहीं खुलता। सीढ़ी चढ़ भी जाता हूं और मंदिर में प्रवेश नहीं हो पाता। तब अंततः बहुत बार भटक कर ही यह बात समझ में आती है कि अब असहाय होकर गिर पडूं; अब अपने पर सहारा छोड़ दूं; अब यह भ्रांति छोड़ दूं कि मेरे किए कुछ होगा। मैंने सब करके देख लिया।
और ध्यान रखना, अगर तुमने सब करके नहीं देखा तो यह भ्रांति मिट नहीं सकती। तुम्हें लगता ही रहेगा कि अभी मैंने पंतजलि-योग नहीं किया, अगर कर लेता तो शायद उससे हो जाता। कौन जाने, शीर्षासन में खड़े होने से समाधि लग जाती हो! कौन जाने! कौन जाने कि राम-राम जपने से अनुभूति हो जाती हो! कौन जाने, कौन सी विधि कारगर हो! मन में संदेह बना ही रहेगा।
लेकिन जिसने सारी विधियां कर लीं, जिसने सब उपाय कर लिए, एक दिन पाएगा: कोई उपाय, कोई विधि, उस परम तक नहीं पहुंचती। असहाय हो जाता है। यह असहाय अवस्था बड़ी बहुमूल्य अवस्था है। इसी असहाय अवस्था में परमात्मा घटता है। इसी को भक्तों ने निरालंब दशा कहा है, निराधार अवस्था कहा है, निराश्रय अवस्था कहा है। जब आदमी बिलकुल असहाय हो जाता है, तभी समर्पण घटता है। लेकिन असहाय वही होता है, जिसने सब तरह के सहारे खोज लिए और पाया है कि उनसे कुछ भी नहीं पाया जाता है।
अब तुम जरा चकित होओगे। मेरी प्रक्रिया समझ लेनी चाहिए ठीक से। मैं तुम्हें यहां विधियां दे रहा हूं सब प्रकार की। जितनी विधियां यहां तुम्हें उपलब्ध की जा रही हैं, उतनी दुनिया में न कभी की गई हैं और न की जा रही हैं। मेरा प्रयास यही है कि जब तुम खोजने चल ही पड़े हो, तो तुम जो भी खोजना चाहते हो, वह विधि तुम्हें यहां उपलब्ध होनी चाहिए। सारी विधियों से गुजर कर तुम्हें एक अपूर्व अनुभव होगा, कि विधियां ले जाती हैं--बहुत दूर ले जाती हैं--मगर मन के पार नहीं ले जातीं। मन की सूक्ष्मतम दशाओं में ले जाती हैं, मन के बड़े प्यारे अनुभवों में ले जाती हैं, बड़ी प्रीतिकर अनुभूतियों में ले जाती हैं; लेकिन मन के पार नहीं ले जातीं। दुख समाप्त हो जाता है, सुख ही सुख छा जाता है। सब धूप विलीन हो जाती है, सब गर्मी खो जाती है। एक शीतलता आ जाती है। मगर यह भी मन की है। क्रोध चला जाता है, करुणा आ जाती है--लेकिन यह भी मन की है। मन शुद्ध हो जाता है, लेकिन है तो मन ही! और तब आखिरी बात समझ में आती है: अब इस शुद्ध मन के पार कैसे जाऊं? इस साधु मन के पार कैसे जाऊं? मेरे किए तो सब हो चुका, अब मेरे किए कुछ भी नहीं होता।
यहीं असहाय अवस्था में आदमी झुकता है, समर्पित होता है। यहीं प्रार्थना पैदा होती है।
ध्यान रखना, जहां ध्यान हार जाते हैं, वहां प्रार्थना पैदा होती है। जहां योग, साधनाएं पराजित हो जाती हैं, वहां प्रार्थना पैदा होती है। प्रार्थना कोई विधि नहीं है--सब विधियों की पराजय है। झुक जाता है आदमी। ऐसा नहीं है कि चिल्लाता है कुछ। क्योंकि अगर कुछ कहे, चिल्लाए, तो अभी भी विधियां चल रही हैं। प्रार्थना का मतलब है, मौन में झुक जाता है; समर्पित हो जाता है। कह देता है: अब मेरे किए कुछ भी न होगा, अब तुझे जो करना हो...। ‘दाइ किंगडम कम, दाइ विल बी डन।’ तेरा राज्य आए! तेरी इच्छा पूरी हो! यही प्रार्थना है। जीसस ने सूली पर आखिरी क्षण यही प्रार्थना की।
विधियों के द्वारा तुम एक दिन इस अवस्था में आते हो। इसलिए मैं विधियों का निषेध नहीं करता। और मैं यह भी नहीं कहता कि विधियां पर्याप्त हैं।
‘यू. जी. कृष्णमूर्ति कहते हैं: और इन सब में खूब भटक कर अंत में आदमी के हाथ में एक पूर्ण असहाय दशा भर आती है।’
वही तो मूल्यवान बात है। वही तो संपदा है। उसी से तो भक्ति का आविर्भाव है। मगर जो पहले से ही छोड़ देगा, उसे यह नहीं हो पाएगा।
अब जैसे यू. जी. कृष्णमूर्ति के पास जा कौन रहे हैं?... हिम्मत भाई जा रहे हैं। हिम्मत भाई ने विधि ही कोई नहीं की। विधि छोड़ देंगे। पकड़ी थी ही नहीं कभी, छोड़ेंगे क्या खाक? छोड़ने के लिए, होना तो चाहिए! पहले करो तो, तब छोड़ देना! योग में कुछ नहीं है--मगर योग किया हो तो! ध्यान में कुछ नहीं है--ध्यान किया हो तो!
लेकिन ये बातें अपील करती हैं; इनका आकर्षण है। क्यों? क्योंकि इनसे लगता है: चलो झंझट मिटी; न ध्यान करना है, न योग करना है, न प्रार्थना करनी है, न पूजा करनी है। यही तो आदमी का आलसी मन सदा से चाहता है: कुछ न करना पड़े। यह अच्छा रहा! कुछ करना ही नहीं है। तो जो कर रहे हैं वही नासमझ हैं; हम समझदार हैं, क्योंकि हम कुछ कर ही नहीं रहे। खूब मजा आ गया! अहंकार को भी तृप्ति हुई कि करने वाले नासमझ हैं। और अभी तक तो यह अड़चन थी कि करने वाले कहीं पा न जाएं, मैं कर नहीं रहा हूं; वह अड़चन भी बदल गई। इस आदमी ने बड़ी राहत दे दी। इस आदमी ने कहा: इससे कुछ होता ही नहीं। असल बात तो यह है कि जो कर रहे हैं, वे गलत कर रहे हैं। वे गलत रास्ते पर हैं। तुम ठीक रास्ते पर हो, क्योंकि नहीं कर रहे हो। बड़ी सांत्वना मिली। बड़ा सहारा मिला। तुमने कहा कि गुरु हो तो ऐसा! यह आदमी पकड़ लेने जैसा है।
इसने तुम्हारे अहंकार को पुनरुज्जीवित कर दिया। किसी को ध्यान करते देख कर तुम्हारे अहंकार को चोट लगी थी, खयाल करना। तुम्हें लगा था, मैं नहीं कर रहा हूं। कहीं इसे मिल जाए और मुझे न मिले! किसी को प्रार्थना में डूबे हुए, आंसुओं से गद-गद देख कर, तुम्हारे भीतर पीड़ा नहीं उठी थी? तुम्हें यह नहीं लगा था कि कहीं ऐसा न हो कि मैं क्षुद्र को ही खोजता रहूं, और दूसरे परम को पा जाएं। ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, अहंकार--सबको चोट लगी थी। फिर किसी ने कहा कि नहीं, प्रार्थना से कुछ नहीं होता, ध्यान से कुछ नहीं होता, योग से कुछ नहीं होता--ये सब व्यर्थ हैं। तुम आश्वस्त हुए। तुमने कहा: यह बात जंचती है। यह तो मुझे पहले से ही जंचती थी, मगर किसी ने कही नहीं थी। अब कहने वाला आप्त व्यक्ति मिल गया। अब एक गवाह भी मिल गया।
क्योंकि हिम्मत भाई खुद ही कहें कि ध्यान में कुछ नहीं है, कौन मानेगा? लोग पूछेंगे, ध्यान किया? ‘यू. जी. कृष्णमूर्ति कहते हैं कि ध्यान में कुछ नहीं है।’ और यू. जी. कृष्णमूर्ति--प्रबुद्ध व्यक्ति! इनकी बात में बल है, प्रमाण है, अथॉरिटी है, आप्तता है! जंचती है बात।
जंचाना तुम सदा से चाहते थे, कोई जंचाने वाला नहीं मिला था। यह अच्छा समझौता हो गया! यू. जी. कृष्णमूर्ति को एक शिष्य मिल गया; तुमको ऐसे गुरु मिल गए, जो एकदम मीठे ही मीठे हैं। दोनों के बीच एक षडयंत्र चल गया। उन्हें शिष्य मिल गया, उनके अहंकार को तृप्ति हुई। तुम्हें गुरु मिल गए, तुम्हारे अहंकार को जो अड़चनें आ रही थीं, वे अलग हो गईं। यह दोस्ती गहरी बन गई।
मगर ऐसे ही मीठे जहरों में आदमी खो जाता है और नष्ट हो जाता है। सावधान!
ध्यान कर लो। मैं भी कहता हूं कि ध्यान एक दिन छोड़ना है। निरंतर तो कहता हूं तुमसे: संन्यासी बन लो, एक दिन संन्यास के पार जाना है। निरंतर तो कहता हूं तुमसे: शिष्य हो लो, ताकि शिष्यत्व से छुटकारा मिल जाए। छुटकारा मिलता ही अनुभव से है; और कोई उपाय नहीं है छुटकारे का। लेकिन काहिल लोग हैं; सुस्त लोग हैं; आलसी लोग हैं--कुछ करना नहीं चाहते। मुफ्त कुछ मिलता हो... उनको ये बातें जंच जाती हैं। और ये अहंकार को बड़ी तृप्तिदायी हैं। तब दूसरे को ध्यान करते देख कर वे मस्त अपनी अकड़ से चले जाते हैं कि ‘बेचारा! ध्यान कर रहा है, ध्यान से कहीं कुछ मिलता है? यह आनंद तीर्थ, इसको आभामंडल दिखाई पड़ रहे हैं! सब मन की बकवास है!’ और यू. जी. कृष्णमूर्ति को हर सात साल में जो चक्र खुल रहे हैं, वे मन की बकवास नहीं हैं? और यू. जी. कृष्णमूर्ति का दावा कि मैं प्रबुद्ध हो गया हूं, कि मैं सिद्ध हो गया हूं--वह मन की बकवास नहीं है? वे मन के विकार नहीं हैं?
थोड़ा सोचो। थोड़ा साहसपूर्वक सोचो। अपनी बेईमानियों पर थोड़ा विचार करो।
अब जो दो-तीन लोग यू. जी. कृष्णमूर्ति के आस-पास घूम रहे हैं, वे लोगों को कहते हैं कि यू. जी. कृष्णमूर्ति बड़े सरल हैं। घर बुलाओ तो घर आ जाते हैं।
उनको मेरे पास आने में अड़चन होती है। मैं उनके घर जाने वाला नहीं हूं। इसलिए नहीं कि उनके घर में कुछ खराबी है, बल्कि इसलिए कि उनके अहंकार को मैं किसी तरह का सहारा नहीं देना चाहता हूं। मुझे उनके अहंकार को मिटाना है, सहारे को बढ़ाना नहीं है। तो वे लोग, लोगों से कहते फिर रहे हैं कि बड़े मानवीय हैं यू. जी. कृष्णमूर्ति!
लेकिन तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिल रही है। तुम्हारा अहंकार बढ़ रहा है: मेरे घर फलां आदमी आया, फलां आदमी आया!
इधर मेरे पास भी लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं: एक बार हमारे घर चले चलो। तुम्हारे घर जाने से क्या होगा? तुम मेरे घर आओ। तुम्हारे घर मैं आऊं, इससे क्या होगा? तुम्हें वहां कुछ रह कर नहीं मिला है, मुझे लाकर और क्या करोगे? मेरे घर आओ, तुम्हें कुछ मिले।
और ध्यान रखना, झुकोगे नहीं तो कुछ न पाओगे।
लेकिन तब उन्हें अड़चन होती है। जहां उनके अहंकार को चोट लगती है, वहां उन्हें अड़चन होती है। जहां उनके अहंकार को मलहम लगती है, वहां उन्हें बड़ा सुख आता है।
‘इन श्री यू. जी. कृष्णमूर्ति के सत्संग में अनेकों के मन में साधना के प्रति तीखी अनास्था का जन्म हुआ है।’
न तो उन्होंने कभी साधना की है और न उन्हें साधना पर कोई कभी आस्था रही है। अनास्था कहां से हो जाएगी?
ध्यान रखना, आमतौर से लोग... कोई कहता है कि मुझे ईश्वर में अश्रद्धा है। वह गलत शब्द का उपयोग कर रहा है। श्रद्धा रही हो तो ही अश्रद्धा हो सकती है। और जिसको श्रद्धा रही है, कैसे अश्रद्धा होगी? श्रद्धा के बाद ही अश्रद्धा हो सकती है। किसी को मित्र बनाओ, तो ही शत्रुता हो सकती है। नहीं तो कैसे शत्रुता होगी? विधेय पहले आता है, नकार पीछे। नकार छाया है। किसी से विवाह करो तो तलाक हो सकता है। तुम कहने लगो किसी दूसरे की स्त्री को देख कर कि इससे मेरा तलाक हो गया--और विवाह कभी हुआ ही नहीं था--तो तुम्हें लोग पागल समझेंगे। जो कहता है मुझे ईश्वर पर अश्रद्धा है, वह सिर्फ इतना ही कह रहा है कि मुझे ईश्वर पर श्रद्धा नहीं है। अश्रद्धा तो हो ही नहीं सकती। अश्रद्धा तो तब होती है, जब श्रद्धा की जाए और श्रद्धा व्यर्थ जाए। और अनुभव से पाया जाए कि श्रद्धा काम की नहीं थी।
मगर ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं--पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में नहीं हुआ है। जिसने श्रद्धा की, उसकी श्रद्धा और बढ़ी। अश्रद्धा कभी आई नहीं। तुम श्रद्धा के अभाव को अश्रद्धा कह रहे हो, तो ठीक शब्द का उपयोग नहीं कर रहे हो। अश्रद्धा में श्रद्धा का निषेध है, अभाव नहीं है। इनकार है, विरोध है, आक्रमण है, हिंसा है। आदमी इतना ही कह सकता है कि मुझे अभी श्रद्धा नहीं है। यह बात ठीक है। इसमें अश्रद्धा का सवाल ही नहीं उठ रहा है। मैं जानता ही नहीं हूं, अश्रद्धा कैसे करूं? ईश्वर है ही नहीं मेरे लिए अभी, तो मैं अश्रद्धा कैसे करूं? अभी मैंने प्रेम ही नहीं किया तो घृणा कैसे करूं?
और जिसने प्रेम किया, कैसे घृणा करेगा? जिसने श्रद्धा की, कैसे अश्रद्धा करेगा? हां, अगर श्रद्धा की और अश्रद्धा कर ले, तो उसका एक ही अर्थ होता है कि श्रद्धा कहीं न कहीं झूठी थी, थोथी थी, ऊपरी थी वस्तुतः नहीं थी।
अब तुम कहते हो: ‘अनेकों के मन में साधना के प्रति तीखी अनास्था का जन्म हुआ है।’
साधना कोई करना नहीं चाहता। साधना कठोर है। साधना हिम्मतवरों का काम है, नपुंसकों का नहीं। साधना कोई करना नहीं चाहता। लोग सुविधा चाहते हैं--साधना नहीं। लोग चाहते हैं: कोई कह दे, साधना की जरूरत नहीं है।
इसलिए तो सदियों-सदियों में आदमी ने बड़े नपुंसक उपाय खोज लिए हैं। किसी ने कह दिया कि मरते वक्त राम-राम का जाप कर लोगे कि बस पहुंच जाओगे। जिंदगी भर क्या करना है! कहानियां गढ़ ली हैं कि अजामिल मर रहा था। उसने अपने बेटे को पुकारा। बेटे का नाम नारायण था। संयोग की बात कि नारायण था। उसने कहा कि नारायण, तू कहां है? और ऊपर के नारायण को धोखा हो गया। हद हो गई! कहां के बुद्धू नारायण को ऊपर बिठा रखा है, इतनी भी जिनमें अक्ल नहीं है कि वह किसको बुला रहा है! वह अपने बेटे को बुला रहा है। और जिंदगीभर का हत्यारा, बेईमान और चोर आदमी! वह बुला ही इसलिए रहा होगा कि चोरी का धन कहां गढ़ा दिया है, किस-किस की और हत्या करनी है; कौन-कौन से बदला मैं नहीं ले पाया हूं, तू बेटा ले लेना, अपनी परंपरा टूट न जाए। यह वसीयत तुझे दे जाता हूं। बुला रहा होगा किसी गलत काम के लिए ही। और बेटे को बुला रहा है, और ऊपर के नारायण धोखे में आ गए। और अजामिल मरा और स्वर्ग चला गया।
जिन्होंने यह कहानी गढ़ी है, हद के बेईमान रहे होंगे। मगर ये जंचती हैं कहानियां लोगों को। लोग कहते हैं कि अजामिल को पार कर दिया तो मुझे पार न करोगे?
तुम कुछ करना नहीं चाहते। फिर हालतें ऐसी आ जाती हैं कि मौत का पता तो होता नहीं, कब मरोगे, कब मौत आ जाएगी, कोई खबर तो देती नहीं। मौत तो अतिथि है, बिना तिथि बताए आती है। एकदम आ जाती है। मर गए, नारायण को भी न बुला पाए। और अब तो बेटों के नाम भी नारायण नहीं--पिंकी इत्यादि। अब तुम बुलाओगे भी कि हे पिंकी, कहां हो? तो परमात्मा को कोई धोखा भी नहीं होगा। कि हे डबलू, कहां हो?... मौत आई--और तुम गए!
तो दूसरे उपाय खोजने पड़े, कि मर तो गया आदमी, दूसरे उसके कान में मंत्र पढ़ रहे हैं। पुजारी, पंडित, पुरोहित गंगा-जल डाल रहे हैं। वह आदमी मर ही चुका है। अब वहां पीने वाला भी कोई नहीं है। अब उस मुर्दा लाश में गंगा-जल डाल रहे हैं। नमोकार कान में पढ़ा जा रहा है, कि गायत्री मंत्र दोहराया जा रहा है। ले चले मुर्दे को। कहने लगे: ‘राम-नाम सत्य है!’ अब किससे कह रहे हो? अब वहां कोई है नहीं। जिंदगी भर राम-नाम असत्य रहा; अब मुर्दे को कह रहे हो: राम-नाम सत्य है!
लोगों ने सस्ती तरकीबें सदा खोज लीं। इस सदी की सबसे सस्ती तरकीब यह है कि ‘साधना से क्या होगा? विधि से क्या होगा? उपाय से क्या होगा? कोई जरूरत नहीं है। आध्यात्मिक विकास मन का जाल है।’ फिर कौन सा विकास है, जो मन का जाल नहीं है? और कोई विकास भी है आध्यात्मिक विकास के अतिरिक्त?
और फिर ऐसे लोग जो कहते हैं, बड़ा मजा यह है कि सुनने वाले इन सब बातों को कैसे सुनते रहते हैं! सुनना ही चाहते होंगे, मानना ही चाहते होंगे। जरा भी बुद्धि हो, जरा भी विश्लेषण करें, तो कहना चाहिए: फिर तुम मेहनत किसलिए कर रहे हो? हे उधार गुरु, कृष्णमूर्ति! मेहनत क्यों कर रहे हो? किसलिए सिर पचा रहे हो? सब भ्रम है; और तुम्हारा आध्यात्मिक विकास भ्रम नहीं है? तुम्हारा दावा भ्रम नहीं है कि तुम सिद्ध हो गए?
इन थोथी बातों में मत पड़ना। ऐसे थोथे जाल सदा से रहे हैं और सदा रहेंगे। आदमी की मांग है, इसलिए इनकी पूर्ति होती रहती है।
इसके पहले कि इस प्रश्न का उत्तर मैं पूरा करूं, चित्त की आठ अवस्थाएं हैं, वे समझ लेना जरूरी हैं। बुद्ध ने चित्त की आठ अवस्थाओं की बात की है। वह बड़ी उपयोगी है। पांच चित्त की अवस्थाएं, पांच इंद्रियों से बंधी हैं। बुद्ध ने कहा: एक-एक इंद्रिय एक-एक मन है। और यह बात सच है। मनोविज्ञान भी इस बात के समर्थन में है। तुम्हारी जीभ का एक मन है, लेकिन वह मन केवल स्वाद की भाषा समझता है। तुम्हारे कान का भी एक मन है, लेकिन वह मन केवल ध्वनि की भाषा समझता है। तुम्हारा कान भी चुनाव करता है। सभी ध्वनियां नहीं ले लेता भीतर। सिर्फ दो प्रतिशत भीतर लेता है, अट्ठानबे प्रतिशत बाहर छोड़ देता है। अगर सारी ध्वनियों को भीतर ले-ले तो तुम विक्षिप्त हो जाओ।
तुम्हारी आंख भी सब नहीं देखती। सबको देखने लगे तो तुम मुश्किल में पड़ जाओ। चुनाव करती है। वही देखती है जो देखना चाहती है। वही देखती है जो देखने योग्य है। वही देखती है, जिसमें कोई प्रयोजन है।
और तुम इस बात को अनुभव कर सकते हो कि तुम्हारे अपने अनुभव से भी यह बात सिद्ध हो जाएगी। जिस दिन तुमने उपवास किया है, उस दिन भोजन ज्यादा दिखाई पड़ेगा। बाहर भी और भीतर भी। आंख बंद करो तो भी दिखाई पड़ेगा। आंख खोलो तो भी दिखाई पड़ेगा।
हेनरिख हेन ने कहा है कि मैं एक दफे जंगल में तीन दिन के लिए भटक गया और रास्ता न मिला। फिर पूर्णिमा का चंाद निकला, तो मैं चकित हुआ। जिंदगी में मैंने बहुत सी कविताएं लिखीं। चांद पर बहुत कविताएं लिखीं। (कवियों का चांद से पुराना संबंध रहा है।) तो सदा मैंने चांद में कभी अपनी प्रेयसी का बिंब देखा, कभी परमात्मा की छवि देखी, और क्या-क्या नहीं देखा। मगर उन तीन दिनों की भूख के बाद जब चांद निकला, तो मैंने देखा: एक सफेद रोटी आकाश में तैर रही है। मैं खुद भी चौंका कि यह कौन सा प्रतीक है! यह किस कविता में आता है? सफेट रोटी! आकाश में तैर रही है?
मगर तीन दिन का भूखा आदमी और क्या देखेगा? तीन दिन के भूखे आदमी की आंख सिर्फ रोटी की तलाश कर रही है। हर जगह उसे रोटी दिखाई पड़ेगी।
तुम वही देखते हो, जिसकी जरूरत है। छोटे बच्चे कुछ और देखते हैं; उनकी जरूरतें अलग हैं। जवान कुछ और देखते हैं; उनकी जरूरतें अलग हैं। बूढ़े कुछ और देखते हैं, उनकी जरूरतें अलग हैं।
आंख के पास एक मन है, जो पूरे वक्त अनुशासन देता रहता है। इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि बूढ़े और जवान आदमी में बातचीत नहीं हो पाती; बातचीत मुश्किल हो जाती है, क्योंकि जवान कुछ देखता है, बूढ़ा कुछ देखता है। जवान कहता है: आह, कितनी सुंदर स्त्री है! और बूढ़ा कहता है: क्या रखा है--हड्डी-मांस-मज्जा! दोनों की बात में मेल नहीं पड़ता। जवान कहता है: कहां की बात छेड़ दी, कहां की अभद्र बात छेड़ दी! इतनी सुंदर स्त्री, और तुम्हें मांस-मज्जा दिखाई पड़ रही है? और बूढ़ा कहता है: कुछ नहीं है सौंदर्य में! मल-मूत्र भरा है भीतर। चमड़ी पर है सौंदर्य। सब आकृति है, और कुछ भी नहीं है।
बूढ़े के देखने का ढंग बदल गया है। असल में बूढ़े की आंख ने एक नया मन विकसित कर लिया है, जो जवान के पास नहीं है।
पांच इंद्रियों के पास पांच मन हैं। और इन पांचों को जोड़ने वाला, संगृहीत रखने वाला--अन्यथा ये बिखर जाएं--छठवां मन है तुम्हारे भीतर। जिसको तुम मन कहते हो, वह छठवां मन है।
इसलिए बुद्ध ने छह मन की बात कही, कि छह मन हैं। ये मन की छह अवस्थाएं हैं। पांच के पार उठ कर, छठवें को जानना है। यही ध्यान की प्रक्रिया है। पांच के पार उठ कर छठवें को जानना है। जिसको पंतजलि ने धारणा कहा है।
पंतजलि के तीन सूत्र हैं: धारणा, ध्यान, समाधि। धारणा शुरू होती है--इंद्रियों से मुक्त होने से। छठवें को पहचाना है, जो सबका नियंता है। और जब तुम छठवें को पहचान लेते हो, जब तुम छठवें से जांच-पड़ताल कर लेते हो--बैठ कर शांत छठवें को देखते हो, उसकी भाव-भंगिमाओं को, तरंगों को, विचारों को, लहरों को, भावनाओं को, स्मृतियां, कल्पनाओं को, सपनों को--जब तुम छठवें को उघाड़ते हो पूरा, तो तुम्हें सातवें का पता चलना धीरे-धीरे शुरू होता है। सातवां है साक्षी। वह जो छठवें को भी देख रहा है, वह सातवां है। जब तुम्हारे भीतर क्रोध उठा, वह छठवें में उठ रहा है। क्रोध आंख में नहीं उठता, खयाल रखना। क्रोध कान में नहीं उठता, खयाल रखना।
तुम चकित होओगे जान कर, वासना भी कामेंद्रिय में नहीं उठती। उठती तो छठवें में है--फिर कामेंद्रिय में सक्रिय होती है। क्रोध उठता तो छठवें में है, फिर आंख तक लाली फैल जाती है, खून फैल जाता है। उठता तो छठवें में है सब, और फिर पांचों तक जाता है। बाहर से जो भी आता है, वह पांचों से होकर आकर छठवें में इकट्ठा होता है। और भीतर से जो भी आता है, वह छठवें से उठता है और पांचों से बाहर जाता है। तो ये पांच मन दोहरे काम करते हैं, दरवाजे का काम करते हैं: जो बाहर है उसे भीतर लाते हैं; जो भीतर है उसे बाहर ले जाते हैं। और छठवां इनका गवर्नर, इनका अनुशासक है।
अगर तुम छठवें का धीरे-धीरे-धीरे विश्लेषण करो, बैठ कर छठवें को देखो, तो सातवें का जन्म होता है--साक्षी। तब क्रोध उठा भीतर, एक क्रोध की बदली उठी, और तुम बैठे देख रहे हो। तो जो देख रहा है, वह सातवां है। और यह सातवां सर्वाधिक मूल्यवान है। इसी सातवें को पंतजलि ने ध्यान कहा है। इसी सातवें को बुद्ध ने सम्यक स्मृति कहा है। जागरण कहो, होश कहो, साक्षी कहो, कृष्णमूर्ति जिसको ‘अवेयरनेस’ कहते हैं, वह कहो! यह सातवां सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि सातवें के इस तरफ छह मनों का जाल है, जो कि संसार है; और सातवें के उस तरफ आठवां है, जो कि निर्वाण है। और ये आठों ही चित्त की दशाएं हैं। यह सातवें को जिसने समझ लिया, उसने सारी विधियों का राज समझ लिया। और सातवें के पार जो उठ गया, वह सारी विधियों के पार उठ गया।
लेकिन जब तक तुम सातवें मन तक नहीं पहुंचे हो, तब तक यू. जी. कृष्णमूर्ति या ऐसे और बकवासियों की बातों में मत पड़ जाना। सातवें तक पहुंचो, तब ये बातें सार्थक हैं। मैं भी तुमसे कहना चाहता हूं यही बातें। लेकिन सातवें तक पहुंचाऊं तो तुमसे कहूं। तुम्हें इतना प्रौढ़ करूं तो तुमसे कहूं। कच्चे मन में तुमसे कहूं तो शायद नुकसान ही हो, हानि हो; तुम कभी पहुंच ही न पाओ।
सातवें को समझने के लिए एक उदाहरण तुम्हारे काम आएगा। अमरीका में, डिजनीलैंड में, उन्होंने बहुत तरह के खेल ईजाद किए हैं। उसमें एक कमरा बहुत सुंदर है। अमरीका कभी जाओ, और कहीं जाना या न जाना, डिजनीलैंड जरूर जाना। और वह कमरा जरूर देखना जहां उन्होंने एक अदभुत ईजाद की है, जो भविष्य में काम आएगी सारी दुनिया के। वह ईजाद है एक गोल कमरा, बड़ा कमरा, जैसे इतना कक्ष गोल। और जैसे तुम फिल्म देखने जाते हो, तो फिल्म तो सामने पर्दे पर होती है। उस कमरे में सब तरफ प्रोजेक्टर लगे हैं। इसलिए फिल्म पूरी दीवालों पर होती है--चारों तरफ; सामने ही नहीं होती। पीछे लौट कर देखो तो वहां भी फिल्म होती है, बगल में देखो, तो वहां भी फिल्म होती है; इस तरफ देखो तो यहां भी फिल्म होती है। और व्यवस्था ऐसी की है कि कुछ घटनाओं के लिए उन्होंने फिल्म बनाई है।
जैसे तुम हवाई जहाज पर नियाग्रा जलप्रपात के पास उड़ रहे हो। तो तुम्हें बता दिया जाता है कि तुम हवाई जहाज में बैठे हो। और तुम चारों तरफ देखते हो, और तुम पाते हो हवाई जहाज का वातावरण। इस तरफ देखो तो यह खिड़की हवाई जहाज की। इस तरफ देखो तो एअर होस्टेस जा रही है। पीछे लौट कर देखो तो यात्री बैठे हुए हैं। आगे देखो तो पायलट है, और इंजिन की आवाज सुनाई पड़ रही है। चारों तरफ, एक क्षण को तुम्हें पूरी भ्रांति हो जाती है कि तुम हवाई जहाज में बैठे हुए हो। तुम जानते भी हो कि मैं अपनी कुर्सी में बैठा हुआ हूं। तुम टटोल कर भी देख लेते हो। मगर बगल में यह आदमी बैठा है, बगल में यह औरत बैठी है। यह एअर होस्टेस जा रही है। यह हवाई जहाज की आवाज, यह हवाई जहाज उ़ड़ा जा रहा हैं। फिर तुम खिड़की से झांक कर देखते हो, और तुम्हें इस तरफ के दृश्य दिखाई पड़ते हैं--सूरज उग रहा है, पहाड़ियां...। और तुम पीछे लौट कर देखते हो खिड़की से और खिड़की के पीछे जो दिखाई पड़ना चाहिए, जो छूटा जा रहा है पीछे हवाई जहाज से, वह दिखाई पड़ता है। और तुम आगे देखते हो, और आगे जो दिखाई पड़ना चाहिए हवाई जहाज से, वह दिखाई पड़ता है।
जिन लोगों ने इस कमरे में जाकर बैठ कर देखा है, उनकी प्रतीति यह है कि कई बार ऐसा मौका आ जाता है कि बिलकुल भूल हो जाती है, बिलकुल भूल हो जाती है! स्मरण ही भूल जाता है कि मैं सिर्फ खेल देख रहा हूं। बिलकुल वास्तविक हो जाता है। हालांकि किसी मन के कोने में यह याद भी बनी रहती है कि यह सब खेल है, सब दीवालों पर फिल्में चल रही हैं।
यह सातवीं दशा है, जहां नीचे छह मनों का खेल चल रहा है। और सातवीं दशा, जहां खेल चल रहा है यह भी दिखाई पड़ रहा है, और धीमी सी यह भी स्मृति बनी है कि यह सब खेल है--मैं देखने वाला हूं; मैं द्रष्टा हूं! जो व्यक्ति सातवें में प्रवेश करता है उसके सामने दो बातें हो जाती हैं: एक तरफ आठवां, साक्षी की परम अनुभूति, और दूसरी तरफ छह का जाल। संसार और निर्वाण के बीच में खड़ा हो जाता है--सातवें मन में जो खड़ा होता है। एक क्षण को यह भी याद आ जाती है कि हां, मैं अलग हूं।
तुम बैठो कभी शांत होकर। क्रोध आया, वासना उठी--देखो जरा गौर से! समझ लेना कि डिजनीलैंड में बैठे हो। मन के पर्दे पर सब सारे खेल चल रहे हैं। एक क्षण को ऐसा लगेगा कि हां, मैं देखने वाला। यह मैं नहीं हूं। यह क्रोध मैं नहीं हूं, मैं सिर्फ देखने वाला हूं। यह सिर्फ मेरा सपना है, जो मैं देख रहा हूं। लेकिन फिर भूल जाएगा, और क्रोध तुम्हें पकड़ लेगा। उसका धुआं तुम्हें जकड़ लेगा, और तुम भोक्ता हो जाओगे, कर्ता हो जाओगे। फिर सरकोगे, फिर हो जाओगे।
ध्यान की यही कशमकश है। ध्यान का यही संघर्ष है, कि ध्यान में याद भी बनी रहती है साक्षी की, और भूल-भूल जाती है। जब भूल जाते हो तब तादात्म्य हो जाता है नीचे लोक से। जब याद आ जाती है, तब तादात्म्य हो जाता है ऊपर के लोक से।
सातवीं अवस्था तक पहुंचाने का विधियों का उपयोग है। साधनाओं का, योग का, ध्यान का, पूजा-अर्चना का, मंत्र का, यंत्र का, तंत्र का, सबका उपयोग है--सातवें तक पहुंचाने में। और सातवें के बाद सब छोड़ देना है। आठवें पर ध्यान करना है। आठवें तक कोई विधि नहीं जाती; सातवें तक सब विधियां ले जाती हैं। अब तो सिर्फ साक्षी है, जिसको कृष्णमूर्ति ‘च्वाइसलेस अवेयरनेस’ कहते हैं--विकल्प-रहित साक्षी। कोई चुनाव नहीं! चुपचाप इस साक्षीभाव में प्रवेश हो जाना है।
जब तुम इतने साक्षीभाव में प्रविष्ट हो जाओ कि एक क्षण को भी भ्रांति पैदा न हो तादात्म्य की, तो तुम आठवीं अवस्था में पहुंच गए। यही निर्वाण है। यही मोक्ष है। यही कैवल्य है।
अगर इस आठवें तक जाना हो, तो विधियों का उपयोग करके सातवें तक पहुंचना। और फिर सातवें में विधियों को त्याग देना।
लेकिन जो लोग सुन लेते हैं किसी से, जैसे कृष्णमूर्ति से सुन लिया यू. जी. कृष्णमूर्ति ने, और आकर लोगों को समझाने लगे, उन्हें कुछ भी पता नहीं है वे क्या कर रहे हैं।
ध्यान रहे, इस जगत में जो लोग बिना जाने लोगों को समझाने लगते हैं, उनसे बड़ा अहित और कोई भी नहीं करता। हत्यारे भी नहीं करते! क्योंकि हत्यारे तुम्हारा शरीर काट सकते हैं, तुम्हें नहीं काट सकते। लेकिन इस तरह के लोग तुम्हारी आत्मा को विकृत कर सकते हैं। ये तुम्हें ऐसी भ्रांत धारणाएं दे सकते हैं कि तुम जहां हो वहीं के वहीं रह जाओ; जो हो वैसे के वैसे रह जाओ।
तुम अभी पांच इंद्रियों में भटके हो, छठवें पर भी नहीं पहुंचे। मंत्र तुम्हें छठवें पर पहुंचा सकता है। फिर छठवें पर पहुंच गए, तो सम्यक स्मृति, सम्मासति, तुम्हें सातवें पर पहुंचा सकती है। फिर सातवें पर पहुंच गए तो सबका विसर्जन। उसके आगे कोई विधि नहीं जाती। उसके आगे कोई उपाय नहीं जाता। उसके आगे कोई गुरु नहीं है, कोई शिष्य नहीं है। उसके आगे बस शुद्ध चैतन्य है। उसके आगे सब रूप खो जाते हैं; सब आकार खो जाते हैं--सिर्फ निराकार है।
सातवें तक उपयोग करना; सातवें पर छोड़ देना और आठवें में प्रवेश कर जाना।
दूसरा प्रश्न:
संत कबीर का एक पद है: ‘हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको बार-बार तू क्यों खोले।’ फिर अन्यत्र उनका दूसरा पद है: ‘दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम।’ भगवान, ये विरोधाभासी लगने वाले पद क्या साधना और सिद्धि के भिन्न-भिन्न तलों पर लागू होते हैं? इस पर प्रकाश डालने की कृपा करें।
ये दोनों वक्तव्य भिन्न-भिन्न तलों पर लागू नहीं होते, एक ही तल पर लागू होते हैं। और विरोधाभासी भी नहीं हैं। इनका प्रयोजन अलग-अलग है। एक ही तल पर लागू होते हैं, लेकिन प्रयोजन अलग-अलग है। समझना।
पहला पद: ‘हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको बार-बार तू क्यों खोले।’
जब पहली दफे किसी को आत्मिक अनुभूति का हीरा हाथ लगता है, तो उसे बार-बार खोल कर देखने की इच्छा होती है। ऐसा प्यारा अनुभव है, ऐसा अपूर्व अनुभव है कि बार-बार टटोलने का मन होता है, कि है न अभी, खो तो नहीं गया? फिर खोली गांठ, फिर देख लिया। फिर बांधी गांठ, फिर देख लिया।
कबीर कहते हैं: ऐसा बार-बार खोल कर देखना घातक है। घातक दो कारणों से है। एक: अगर तुम उसे बार-बार खोल कर देख रहे हो, तो उसका अर्थ हुआ तुम बार-बार उसकी आकांक्षा कर रहे हो। और अगर तुम बार-बार आकांक्षा कर रहे हो, तो बस वहीं अवरुद्ध हो जाओगे। और भी हीरे हैं अभी। अभी और बड़े हीरे हैं, उनका कोई अंत नहीं है। इसी पर मत रुक जाना। तुम्हारे अनुभव में यह सर्वाधिक मूल्यवान है। शायद तुम इसी पर रुक जाओ। तुम सोचो बस आ गए, पहुंच गए, बात खत्म हो गई। अब और कहां जाना है? और तुम इसी में अटक जाओ और इसी में रसलीन हो जाओ, तुम्हारी आसक्ति इतनी बढ़ जाए इससे कि यही बाधा बन जाए।
आत्मिक अनुभवों का कोई अंत नहीं है--विस्तीर्ण होते चले जाते हैं, विराट होते चले जाते हैं! इसकी तुम्हें याद रहे। तो इसलिए जो हो गया, हो गया; अब आगे की तलाश करो। अब उसी को लौट-लौट कर मत देखते रहो। उसको खोल-खोल कर देखने का मतलब है, अतीत में देखना।
ऐसा रोज हो जाता है। किसी को पहली दफा ध्यान का अनुभव होता है, बस फिर मुश्किल शुरू होती है। फिर वह मेरे पास आता है, रोता है; कहता है कि अब नहीं हो रहा। अब वह कहता है, फिर दिखा दें, वही होना चाहिए।
मैं उससे कहता हूं: उससे बड़ा होगा। अगर तुम उसी में अटके, तो दो खतरे हैं। अगर वह हो भी, तो भी उतना सुंदर नहीं होगा, जितना पहली दफे मालूम हुआ था। कोई चीज दुबारा उसी अनुभव में उतनी सुंदर नहीं होती।
तुमने एक गीत सुना। पहली दफे बड़ा प्यारा था। दुबारा सुना, थोड़ा कम हो जाएगा प्यारापन। अनिवार्य है। तीसरी दफे सुना, साधारण हो जाएगा। चौथी दफे सुना, ऊब आएगी, जम्हाई लोगे। पांचवीं दफे सुना, चीख निकल जाएगी, कि बंद करो यह बकवास! क्या मुझे पागल कर देना है?
मुल्ला नसरुद्दीन भोजन कर रहा था। एकदम उसने थाली देखी। थाली आकर रखी गई, और उसने थाली को उठा कर फेंक दिया और एकदम चिल्लाने लगा और सामान फेंकने लगा। उसकी पत्नी बोली: क्या मामला है? उसने कहा: क्या मुझे पागल करना है? भिंडी, भिंडी, भिंडी...!
उसकी पत्नी ने कहा: अरे, हद हो गई! जब मैंने सोमवार को भिंडी बनाई थी तो तुमने कहा था--बड़ी प्यारी, बड़ी अच्छी! जब मैंने मंगल को बनाई थी, तब भी तुमने कहा कि स्वादिष्ट। जब मैंने बुधवार को बनाई थी, तब भी तुम कुछ बोले नहीं; चुप रहे थे। जब मैंने बृहस्पतिवार को बनाई थी, तब यद्यपि तुम कुछ बोले नहीं थे, लेकिन तुम्हारा चेहरा कुछ उदास जरूर था। फिर मैंने शुक्रवार को भी बनाई थी, तुमने ठीक से खाई भी नहीं थी। आज शनिवार है। मैंने फिर भिंडी बनाई, तो तुम इतने चिल्ला क्यों रहे हो? इतने पागल क्यों हो रहे हो? और यह वही भिंडी है, जो सोमवार को बनाई थी। तुम इतना असंगत व्यवहार क्यों कर रहे हो?
यह असंगत व्यवहार नहीं है। हर चीज अगर दोहरती रहे तो व्यर्थ हो जाती है। तुम जब जाते हो कश्मीर--और हिमालय का सौंदर्य और डल झील, तुम्हें जैसी सुंदर मालूम होती है, तुम यह मत समझना कि डल झील में जो तुम्हारी नौका चला रहा है माझी, उसको भी इतनी सुंदर मालूम होती है। उसको कुछ पता ही नहीं चलता। कहां की डल झील! वह तो यह सोचता है कि ये बुद्धू, क्यों चले आते हैं?
मैं कश्मीर में था। मेरे साथ कोई बीस-पच्चीस मित्र थे कश्मीर में। बंबई के सारे मित्र थे। जिस बजरे पर हम रुके थे, उस बजरे का मल्लाह, जब आखिरी दिन हम चलने लगे, कहने लगा: बाबा! एक दफे बंबई दिखा दो। बंबई देखनी ही है। बस आपकी कृपा हो जाए, तो बंबई देख लूं।
मैंने कहा: तू बंबई देख कर क्या करेगा? ये बंबई के बीस-पच्चीस लोग, ये तो कश्मीर देखने आए हैं।
वह बोला कि हो गया कश्मीर बहुत, देख लिया बहुत। यहीं जन्मे हैं, क्या यहीं मरना है? और रखा क्या है यहां?
वह कहने लगा कि मैं तो कहता नहीं, लेकिन मुझे हैरानी तो होती है कि लोग बंबई से यहां किसलिए आते हैं?
जिस अनुभव को तुम रोज-रोज दोहराओगे, व्यर्थ हो जाएगा, असार हो जाएगा। इसलिए कबीर ने कहा है: ‘हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको बार-बार तू क्यों खोले?’ इसलिए पीछे लौट-लौट कर मत देखो। उसी अनुभव को बार-बार मत मांगो। अगर मिलेगा, तो भी खत्म हो जाएगा।
और दूसरी बात और महत्वपूर्ण है कि दुबारा मांगने से मिलता नहीं। ये अनुभव ऐसे हैं कि मांगने से नहीं मिलते। मांगने से अटकाव हो जाता है। यह पहली दफे जब तुम्हें ध्यान घटता है, तो तुमने मांगा थोड़े ही था। तुम्हें पता ही नहीं था, ध्यान क्या है? तुम निर्दोष थे; तुम बालक जैसे थे। उस निर्दोषता में ध्यान घट गया। अब तुम चालाक हो गए। अब तुम बालक नहीं हो। अब तुम मांग कर रहे हो कि वही अनुभव चाहिए। बस यही भेद अब रुकावट बन जाएगा। यह अनुभव दुबारा नहीं होगा। तुम अड़चन में पड़ जाओगे।
इसलिए कबीर कहते हैं: जो अनुभव में आ गया, उस पर गांठ बांधो और भूल जाओ। आगे बढ़ो, अभी बहुत यात्रा है।
मोहब्बत में कुछ कामरां और भी हैं
तेरे गम के कुछ राजदां और भी हैं
संभल कर जरा जल्वए-तूरे-मूसा
हरीफे रुखे कहकशां और भी हैं
कमर को हैं बेवजह क्यों नाजे बेजा
सबाबे गुलो-गुलसितां और भी हैं
और भी बगीचे हैं, और भी पर्वत-मालाएं हैं।
‘कमर को है बेवजह क्यों नाजे बेजा?’ इस चंद्रमा में ही मत अटक जाना। यह चंद्रमा व्यर्थ ही गुमान कर रहा है।
कमर को है बेवजह क्यों नाजे बेजा
सबाबे गुलो-गुलसितां और भी हैं
उद्यान और भी हैं, फूल और भी हैं।
अभी नामुकम्मल-सी बरबादियां हैं
निगाहों में कुछ बिजलियां और भी हैं
लबों पर ही रक्सां नहीं गीत उनके
निगाहों में राजे निहां और भी हैं
मयस्सर नहीं सर्फे-गम तुमको रैना
तुम्हारे सिवा कामरां और भी हैं
बहुत है अभी शेष। अभी और बड़ी मंजिलें हैं। अभी और बड़ी ज्योतियां हैं। अभी और सुंदर पर्वत-श्रृंखलाएं हैं। अभी और फूल खिलेंगे। अभी और कमल खिलने को हैं।
इसलिए जो छोटा सा फूल खिला है, उसी को पकड़ कर मत बैठ जाना। मंजिल का अंत मत समझ लेना। यह तो पहली बात का अर्थ है: ‘हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको बार-बार तू क्यों खोले?’ यह साधक को स्वयं के लिए कहा है कि तू अपने ही देखने के लिए हीरे को बार-बार मत टटोलना। उसी टटोलने में हीरा खो जाएगा। और इसी टटोलने में तू उलझ जाएगा। जो अनुभव हो जाए, उसे भूल जाना, उसकी दुबारा मांग मत करना। पुनरुक्ति की आकांक्षा मत करना।
और फिर दूसरा पद है: ‘दोनों हाथ उलीचिए, यही सज्जन को काम।’... यही सयानो काम!
यह दूसरे के लिए है। जिसको मिला हो, वह खुद अपने अतीत को तो बार-बार लौट कर न देखे; लेकिन जो मिला हो, उसको बांट दे। फर्क समझ लेना। इनमें विरोध नहीं है। ये भिन्न-भिन्न बातें हैं--एक ही तल पर काम की। जो तुम्हें मिला है, उसी-उसी को गुनगुनाते मत रहना उसी-उसी को मुट्ठी में बांध कर मत बैठ जाना। उसे मंजिल मत समझ लेना। अभी मंजिलें और भी हैं! लेकिन जो तुम्हें मिला है, उसे बांट देना। उसे दूसरों को दे देना। उसे लुटा देना। जो आनंद तुम्हें मिले, उसे साझी बना लेना किसी को।
जब तुम्हारे भीतर ध्यान की खुशबू फैले, तो तुम उसे अपने भीतर सम्हाल कर मत रख लेना। इस अर्थ में नहीं है पहला वाक्य कि तुम कंजूसी कर लेना, कि तुम कृपण हो जाना। यह मत समझ लेना इसका अर्थ--‘हीरा पायो गांठ गठियायो’--कि हो गए कंजूस, कि लगा लिया ताला, कि चले गए बैंक में और लाकर में बंद कर आए। यह मतलब नहीं है। इतना ही मतलब है कि तुम अपने लिए उस तरफ अब मत देखना। मगर जो मिला है, उसे बांट दो।
इसलिए दूसरा वचन भी कहा कि यही सज्जन का, सयाने का काम है कि जो हाथ आ जाए, उसे दोनों हाथ उलीचिए। क्यों? क्योंकि जितना उलीचोगे, उतना ज्यादा पाओगे। जैसे कुएं का पानी उलिचता चला जाए, तो नये झरने फूटते हैं; नये जल-स्रोत आते हैं। कुआं भरता चला जाता है। अगर कुएं का पानी न उलीचो, कृपण हो जाओ कि कहीं खर्चा न हो जाए कुएं का पानी, तो सड़ जाएगा पानी। पीने योग्य न रह जाएगा। विषाक्त हो जाएगा। तो कुएं का जल विषाक्त न हो जाए।
उलीचो! जो तुम्हारी अनुभव की संपदा है, बांट दो। चढ़ जाओ घरों की मुंडेरों पर और चिल्लाओ! जो तुम्हें मिला है, खबर कर दो औरों को कि तुम्हें भी मिल सकता है।
दस से कहोगे, शायद एकाध सुनेगा, समझेगा; नौ हंसेंगे। उनकी फिकर मत करना। वस्तुतः वे तुम पर नहीं हंस रहे हैं, वे हंस कर सिर्फ अपनी मूढ़ता जाहिर कर रहे हैं। जो एक समझेगा, उसके जीवन में क्रांति की किरण उतर जाएगी। और उतना पर्याप्त है। अगर दस को पुकारा और एक ने समझ लिया तो पर्याप्त है। इतना भी बहुत है।
और तुम्हें बड़ी धन्यता का अनुभव होगा। तुम्हारे द्वारा अगर किसी के जीवन में एक छोटी सी किरण भी आ जाए, तो तुम्हें इतनी धन्यता का अनुभव होगा, जितनी धन्यता का अनुभव जब तुम्हारे जीवन में वह किरण आती है तो नहीं होता। जब तुम्हें मिलती है तब एक बात, खूब आनंद होता है। मगर उस आनंद के मुकाबले कुछ भी नहीं, जब तुम दूसरे को बांट देते हो। वह आनंद और भी बड़ा है, और भी विशालतर है, और भी श्रेष्ठतर है।
देने का मजा, पाने के मजे से सदा से ज्यादा रहा है।
खयाल करो, जब तुम किसी से कुछ पाते हो तो एक सुख मिलता है। मगर तुमने देखा है, जब तुम किसी को कुछ देते हो, उसके मुकाबले? इसलिए तो लोग भेंट देते हैं। भेंट का एक सुख है। देने में एक मजा है। जिनको हमने प्रेम किया, उन्हें कुछ दिया। और परमात्मा से बड़ी भेंट और क्या होगी? अगर यह हीरा तुम बांट सको, तो तुम धन्यभागी हो।
ये एक ही तल पर दिए गए वक्तव्य हैं। ये अलग-अलग साधक को नहीं कहे गए हैं। अपने लिए भूल जाना। जो हुआ, हुआ। आगे बढ़ो। दूसरे के लिए बांट देना। और मेरे हिसाब से दोनों में एक संगति है। अगर तुम बांट दो, तो तुम लौट कर देखोगे नहीं। अगर रोक लो, तो ही लौट कर देखोगे।
रोकना क्या है? परमात्मा देने वाला है। श्रद्धा रखो, और देगा। और जितना पाएगा कि तुम देने में कुशल हो गए हो, उतना ज्यादा देगा। जितना पाएगा कि तुम बांटने में आनंद लेने लगे हो, उतनी तुम्हारी संपदा बढ़ती चली जाएगी। तुम परमात्मा के हाथ हो जाआगे। क्योंकि परमात्मा बांटना चाहता है। वह हाथों की तलाश में है। उसने सदियों से विज्ञापन दिए हैं, लेकिन बहुत मुश्किल से हाथ मिलते हैं। कभी कोई बुद्ध का हाथ, कृष्ण का हाथ, कभी किसी कृष्णमूर्ति का हाथ, कभी क्राइस्ट का हाथ--बड़ी मुश्किल से कोई हाथ मिलते हैं। तुम भी उसके हाथ बन जाओ।
तुमने परमात्मा की मूर्तियां देखी हैं हजार हाथों वाली? हजार हाथ कहां से लाएगा? उन मूर्तियों में एक सत्य छिपा है--हमारे हजारों हाथ उसके हाथ बन जाएं। और कहां से हाथ लाएगा? हम ही उसके हाथ हैं।
पिछले महायुद्ध में ऐसा हुआ: इंग्लैंड के एक नगर में, बीच चौरास्ते पर क्राइस्ट की एक मूर्ति थी। बम गिरा और वह मूर्ति खंड-खंड होकर गिर गई। बड़ी प्यारी मूर्ति थी। और गांव के लोगों ने सारे खंड इकट्ठे किए और फिर से मूर्ति को रचा, जोड़ा खंडों को। और सब तो टुकड़े मिल गए, दो हाथ मूर्ति के न मिले। शायद बिलकुल चकनाचूर हो गए होंगे। तो उन्होंने एक मूर्तिकार को कहा कि ये दो हाथ तू बना दे। मूर्तिकार ने बहुत सोचा। और उसने कहा: हाथ की बजाय, मैंने बहुत सोचा, बहुत खोजा, मैं ये पत्थर पर दो शब्द खोद लाया हूं। यह पत्थर वहां लगा दें।
और वह पत्थर वहां लगा दिया गया। वह हाथों से ज्यादा प्रीतिकर पत्थर है। उस पत्थर पर लिखा हुआ है: मेरे अपने हाथ नहीं हैं, तुम्हारे हाथों का ही मुझे भरोसा है।
परमात्मा के अपने हाथ नहीं हैं। तुम्हारे हाथ ही उसके हाथ बनते हैं।
इसलिए--‘दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम।’
ये दोनों वक्तव्य, दो अलग बातों को, एक ही साधना की अवस्था में समझाने के लिए हैं। अपने लिए बार-बार मत खोलना हीरे को। दूसरों के लिए--लुटा देना।
आज इतना ही।
भगवान, श्री यू. जी. कृष्णमूर्ति समझाते हैं कि समस्त साधनाएं--योग, ध्यान, संन्यास, गुरु-शिष्य संबंध और आध्यात्मिक विकास इत्यादि मनुष्य के मन के संभ्रम, हेल्यूसिनेशंस हैं, मन के खेल मात्र हैं। और इन सबमें खूब-खूब भटक कर अंत में आदमी के हाथ में एक पूर्ण असहाय दशा भर आती है। इन श्री यू. जी. कृष्णमूर्ति के सत्संग में अनेकों के मन में साधना के प्रति तीखी अनास्था का जन्म हुआ है। अनेक मित्रों ने मुझसे कहा है कि वे इस स्थिति पर आपसे मार्ग-निर्देश चाहते हैं।
योग चिन्मय! जे. कृष्णमूर्ति तो एक सदगुरु हैं--उसी कोटि में जहां बुद्ध, महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट। यू. जी. कृष्णमूर्ति--सिर्फ एक झूठा सिक्का! यू. जी. का अर्थ करो: ‘उधार गुरु।’ लेकिन जहां असली सिक्के होते हैं, वहां नकली सिक्के भी चल पड़ते हैं। यह बिलकुल स्वाभाविक है।
यू. जी. कृष्णमूर्ति के शब्दों में एक शब्द भी उनका स्वयं का नहीं है, सब उधार है, सब बासा है। कृष्णमूर्ति के ओंठों पर तो वे शब्द जीवित हैं। शब्द वही हैं। इसलिए भ्रांति हो सकती है। कृष्णमूर्ति के ओंठों पर तो शब्द जीवंत हैं, क्योंकि उनके अनुभव से आते हैं। उन शब्दों की जड़ें हैं उनकी आत्मा में। यू. जी. कृष्णमूर्ति ने केवल सुना है। हृदय से नहीं आते वे शब्द, वे ओंठ पर ही हैं।
यू. जी. कृष्णमूर्ति एक तोता हैं। कृष्णमूर्ति के साथ कोई बीस-पच्चीस वर्षों से उनका संबंध रहा। कृष्णमूर्ति के शिष्य रहे बीस-पच्चीस वर्षों तक। सुनते रहे, सुनते रहे, उनके साथ यात्रा करते रहे। जो-जो सुना, जड़बुद्धि आदमी भी अगर बीस-पच्चीस वर्ष कृष्णमूर्ति के पास रहे, तो यंत्रवत दोहराने लगेगा। वही वमन चल रहा है। यू. जी. कृष्णमूर्ति के पास कुछ भी अपना नहीं है।
इसे कैसे पहचानोगे कि अपना नहीं है? एक मापदंड सदा याद रखो:
इस दुनिया में सत्य की एक अभिव्यक्ति बस एक ही बार होती है, दुबारा नहीं होती। वैसी अभिव्यक्ति फिर कभी नहीं होती। नानक जिस ढंग से बोले, बस नानक बोले। अगर कोई व्यक्ति बिलकुल नानक के ढंग से बोलता हो--बिलकुल वैसा का वैसा--तो समझ लेना कि झूठ है। अगर स्वानुभव से बोलेगा तो फर्क पड़ ही जाएंगे क्योंकि परमात्मा दो व्यक्ति एक जैसे बनाता ही नहीं; परमात्मा की आदत नहीं। परमात्मा मौलिक है। अपने को दोहराता नहीं। कृष्ण को एक बार बनाया। अब अगर तुमको बाजार में कोई मोर-मुकुटधारी और बांसुरी रखे हुए और पीतांबर पहने हुए कृष्ण खड़े मिल जाएं, तो समझ लेना कोई अभिनेता है, रास-लीला कर रहा है। कृष्ण फिर दुबारा नहीं हुए। बुद्ध दुबारा नहीं हुए।
दुबारा यहां कुछ होता ही नहीं। जैसी सुबह आज हुई, फिर कभी न होगी। जो इस क्षण हो रहा है, फिर कभी पुनरुक्त नहीं होगा। प्रत्येक क्षण अद्वितीय है, बेजोड़ है। और प्रत्येक व्यक्ति तो स्वभावतः बेजोड़ है। वैसी तरंग फिर कभी नहीं आती।
इसलिए इसको मापदंड समझो: अगर तुम्हें कोई व्यक्ति किसी दूसरे को रत्ती-रत्ती दोहराता मिल जाए, तो समझ लेना नकली है। और यह भी हो सकता है कि दोहराने वाला बड़ी कुशलता से दोहराए। दोहराने वाला बहुत कुशल हो सकता है, खूब रिहर्सल किया हो सकता है, उसकी भाव-भंगिमाएं बिलकुल परिपूर्ण हो सकती हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी हो जाता है कि असली से ज्यादा परिपूर्ण मालूम हो सकती हैं नकली की भाव-भंगिमाएं। क्योंकि असली ने उनका अभ्यास नहीं किया है, नकली ने उनका अभ्यास किया है।
ऐसा हुआ कि चार्ली चैप्लिन के एक जन्म-दिन पर उसके मित्रों ने सोचा: एक प्रतियोगिता की जाए, जिसमें सारी दुनिया के अभिनेता भाग ले सकें। अभिनय करना है चार्ली चैप्लिन का। लंदन में प्रतियोगिता आयोजित होगी। पहले अलग-अलग देशों में आयोजित होगी। वहां से जो प्रथम चुने जाएंगे, वे आकर लंदन में प्रतियोगिता करेंगे। सौ लोग चुने जाएंगे। इन सौ में से फिर एक चुना जाएगा, जो चार्ली चैप्लिन का अभिनय कर सके।
चार्ली चैप्लिन को मजाक सूझी। इंग्लैंड में होती प्रतियोगिता में वह भी पीछे से प्रवेश कर गया; किसी दूसरे नाम से प्रवेश कर गया। उसे तो पक्का भरोसा था कि प्रथम पुरस्कार मुझे मिलेगा ही। चार्ली चैप्लिन ही चार्ली चैप्लिन का अभिनय करे, तो फिर किसी दूसरे को प्रथम पुरस्कार कैसे मिल सकता है? उसकी गलती थी। जब निर्णय हुए तो वह बहुत हैरान हुआ। उसको नंबर दो का पुरस्कार मिला, प्रथम कोई और मार ले गया था। चार्ली चैप्लिन--नंबर दो!
यह असंभव मालूम होती है घटना, मगर घटी। यह मजाक खूब गहरा, अपने पर ही पड़ गया मजाक। जब पता चला तो आयोजकों को भी भरोसा नहीं आया कि हमने जिसको चुना है नंबर दो, वह चार्ली चैप्लिन है।
कारण साफ है। चार्ली चैप्लिन ने तो कोई अभ्यास किया नहीं। चार्ली चैप्लिन ही था, तो अभ्यास क्या करना है? जैसा था, वैसा चला गया। जो भी करेगा वही चार्ली चैप्लिन का अभिनय है। लेकिन जिसने अभिनय किया, उसने चार्ली चैप्लिन के सारे अभिनयों का अध्ययन किया, सारी फिल्में देखीं, एक-एक भाव-भंगिमा का ठीक-ठीक अभ्यास किया। वे भाव-भंगिमाएं चार्ली चैप्लिन की तो सहज स्फूर्त थीं, लेकिन जिसने अभ्यास किया उसने उनमें और-और कुशलता लायी, उनको और सजाया।
यू. जी. कृष्णमूर्ति, कृष्णमूर्ति की नकल हैं--पांखड हैं। कृष्णमूर्ति एक बार हो गए, अब दुबारा नहीं हो सकते। कृष्णमूर्ति के वक्तव्य दिए जा चुके, अब परमात्मा को उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है। वह गीत गाया जा चुका है। अब परमात्मा नये गीत गाएगा। परमात्मा हमेशा नये गीत गाता है।
तो एक तो खयाल रखना कि जब भी तुम्हें ऐसा लगे कि कोई आदमी किसी दूसरे को रत्ती-रत्ती दोहरा रहा है, तो झूठा है। मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं कि कृष्णमूर्ति के अनुभव से मिलता-जुलता अनुभव किसी का नहीं हो सकता। मगर मिलता-जुलता ही होगा; उसमें भेद सुनिश्चित है। और भेद गहरे होंगे, क्योंकि दो व्यक्तियों के अनुभव गहरे भेद को अनिवार्य रूप से अपने में लिए होते हैं।
अब यह बीस-पच्चीस वर्ष का साथ! जड़बुद्धि से जड़बुद्धि आदमी भी दोहराने में कुशल हो जाता है। तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं: यू. जी. कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं वह तो ठीक है, लेकिन यू. जी. कृष्णमूर्ति खुद ठीक नहीं हैं। वे जो कह रहे हैं, ठीक है--ठीक है कृष्णमूर्ति के संदर्भ में; उनके संदर्भ में ठीक नहीं है।
और सत्य अपने संदर्भ में ही ठीक होता है। जो फूल अभी गुलाब की झाड़ी पर खिला है, यह उस गुलाब की झाड़ी के संदर्भ में बिलकुल ठीक है। जीवंत है, इसमें रसधार बह रही है, यह वृक्ष से जुड़ा है; यह वृक्ष की जड़ों से जुड़ा है; जड़ों के माध्यम से पृथ्वी से जुड़ा है; पत्तों के माध्यम से आकाश से, सूरज-चांद-तारों से जुड़ा है। यह अभी जीवंत है। यह अस्तित्व का हिस्सा है। फिर तुम इसे तोड़ लो। और फिर तुम इसे अपनी जेब में लगा लो, तब यह संदर्भ के बाहर हो गया। यह अस्तित्व का हिस्सा नहीं रहा। यह मुर्दा है। यह एक लाश है।
जे. कृष्णमूर्ति एक जीवंत, जाग्रत, प्रबुद्ध पुरुष हैं। यू. जी. कृष्णमूर्ति--उधार गुरु। वही दोहरा रहे हैं जो कृष्णमूर्ति ने कहा है।
और ध्यान रखना, जो आदमी दोहराता है किसी को, वह अनिवार्य रूप से भीतर अपराधी अनुभव करता है। क्योंकि उसे यह तो बना ही रहता है शक कि आज नहीं कल पकड़ा जाऊंगा; जो जानते हैं वे पहचान लेंगे। इसलिए जिसको वह दोहराता है, उसके खिलाफ बोलता है। यह अनिवार्य है, ताकि वह अपनी सुरक्षा कर सके कि मैं तो कृष्णमूर्ति के खिलाफ बोल रहा हूं!
इस तर्क को ठीक से समझ लेना। अगर कोई व्यक्ति कृष्णमूर्ति को रत्ती-रत्ती दोहरा रहा है, तो वह तो जानता ही है, दुनिया जाने या न जाने कि मैं दोहरा रहा हूं। उसकी सबसे बड़ी दुश्मनी कृष्णमूर्ति से होगी। क्योंकि यही आदमी, इसी की वजह से मैं झूठा मालूम हो रहा हूं; नकली सिक्का मालूम हो रहा हूं। तो वह असली सिक्के को नकली कहने की कोशिश करेगा। यू. जी. कृष्णमूर्ति वह भी कर रहे हैं। वे कहना चाहते हैं कि मैं असली हूं और कृष्णमूर्ति नकली हैं।
पाखंड ही नहीं है, यह तो कृतघ्नता हो गई। यह तो बड़ा दगा हो गया। यह तो नमक-हरामी हो गई। जिस आदमी के साथ पच्चीस वर्षों तक रहे, जिसके चरणों में बैठे, आज उसको तुम कहो कि वह गलत है! अब वे लोगों को समझा रहे हैं कि कृष्णमूर्ति के पास कुछ भी नहीं है, सिर्फ बातचीत है। अनुभव मेरे पास है। कृष्णमूर्ति केवल एक दार्शनिक हैं, द्रष्टा मैं हूं।
कृष्णमूर्ति की खिलाफत इस बात की सूचना देती है कि भीतर उन्हें भय है: अगर मैंने खिलाफत न की, तो आज नहीं कल पकड़ा जाऊंगा। इसके पहले कि नकली पकड़ा जाए कि नकली है, वह असली को नकली सिद्ध करने की कोशिश करेगा।
फिर पच्चीस वर्ष तक कृष्णमूर्ति के साथ क्या कर रहे थे? किस प्रयोजन से जुड़े थे? पच्चीस वर्ष तक मूढ़ थे? तो अचानक मूढ़ता प्रबुद्धता कैसे हो गई? पच्चीस साल तक जो मूढ़ था, वह महामूढ़ हो जाएगा पच्चीस साल के बाद। पच्चीस साल का अभ्यास! पच्चीस साल तक धोखा खाया, फिर अचानक जाग कैसे गए? और जाग कर तुम जो कह रहे हो, वह बिलकुल तोता-रटंत है। उसमें एक शब्द भी तुम्हारा नहीं है, एक भाव भी तुम्हारा नहीं है।
लेकिन अब वे कृष्णमूर्ति का विरोध भी करते हैं, मजाक भी उड़ाते हैं। यह अनिवार्य है। यह करना ही पड़ेगा। यह आत्म-रक्षा का उपाय है।
यू. जी. कृष्णमूर्ति ने कहा है कि उनके बच्चे को कुछ बीमारी थी, बचपन से, जन्म से कुछ बीमारी थी। वे कृष्णमूर्ति के पास ले गए। ले ही किसलिए गए? और सात वर्षों तक कृष्णमूर्ति अपनी करुणा से उस बच्चे के सिर पर हाथ रखते रहे। और अब यू. जी. कृष्णमूर्ति कहते हैं कि मुझे तब भी पता था कि इससे कुछ भी होने वाला नहीं है। और कुछ भी नहीं हुआ। और मेरा बच्चा बीमार का बीमार रहा।
जब तुम्हें उसी समय पता था, तो तुम सात वर्ष तक बच्चे को ले किसलिए गए? थोड़ा सोचना! आज तुम यह दावा कर रहे हो कि मुझे पता था, कि इससे कुछ नहीं होना जाना है। तो फिर तुम ले किसलिए गए? और एकाध दफे की बात नहीं, सात वर्ष तक निरंतर! और कृष्णमूर्ति अपनी करुणा से हाथ रखते रहे। हुआ या नहीं, यह बात गौण है। और कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति आग्रह नहीं करते कि ऐसा होना ही चाहिए। कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति जब किसी के सिर पर हाथ रखते हैं, तो वे यह नहीं कहते कि ऐसा होना चाहिए, वैसा नहीं होना चाहिए। ये तो सिर्फ यह कहते हैं कि जो शुभ हो, वह हो। अगर परमात्मा की यही मर्जी है कि बच्चा बीमार रहे, तो बीमार रहे। कृष्णमूर्ति इसके विपरीत नहीं हाथ रखते हैं।
जिनकी अस्तित्व के साथ तथाता सध गई है, वे तो कहते हैं: जो शुभ है, वही हो। तुम मेरे पास ले आए हो, मैं अपना आशीर्वाद देता हूं, मैं बरसता हूं अपनी करुणा से। जो शुभ हो वही हो। अगर जीना शुभ हो तो जीना हो; अगर मृत्यु शुभ हो तो मृत्यु हो।
कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्तियों को जीवन में और मृत्यु में, बीमारी में और स्वास्थ्य में क्या भेद है? लेकिन इस आदमी की क्षुद्रता देखते हो! सात वर्षों तक कृष्णमूर्ति के पास बच्चे को ले जाना, और अब यह दावा करना कि मुझे तब भी पता था कि इससे कुछ भी नहीं होगा।
कृष्णमूर्ति को वर्षों तक सुनने के बाद, उनके पीछे दुनिया भर की यात्रा करने के बाद, आज यह आदमी कहता है कि ‘कृष्णमूर्ति की बातचीत में सिर्फ दर्शनशास्त्र है; लफ्फाजी है; बौद्धिकता है; अनुभव नहीं है। अनुभव मेरे पास है।’ और अनुभव से जो बातें निकलती हैं, वे वही की वही हैं जो कृष्णमूर्ति ने कहीं हैं। उसमें एक शब्द भी नया नहीं है। उसमें एक कण भी नहीं जोड़ा है--वही का वही है।
इतना ही नहीं, लोग कृष्णमूर्ति के पास न जाएं, इसकी चेष्टा यू. जी. की चलती है। क्योंकि जाएंगे असली के पास तो नकली की पहचान हो जाएगी। यू. जी. कृष्णमूर्ति ने लिखा है कि पेरिस में कृष्णमूर्ति के प्रवचन चलते थे। कुछ मित्र मुझे ले गए। लेकिन मैंने उन्हें रास्ते में समझाया कि कहां जाते हो बकवास में! मैंने काफी सुन ली यह बकवास। इसमें कुछ सार नहीं है। बेहतर हो हम किसी फिल्म में चलें। और मैंने उन्हें समझा लिया और फिल्म में ले गया।
कृष्णमूर्ति के पास लोग जाएंगे, तो यू. जी. की उधारी साफ हो जाएगी। अब लोग कृष्णमूर्ति के पास न जाएं, इसकी भी चेष्टा चलती है।
खयाल करना, यह नकली आदमी का सदा का व्यवहार रहा है। यही देवदत्त ने बुद्ध के साथ किया। वही बोलता था, जो बुद्ध बोलते थे। लेकिन लोगों को समझाता था: मैं असली बुद्ध हूं; यह गौतम सिद्धार्थ धोखा दे रहा है।
वही मक्खली गोशाल ने अपने गुरु, महावीर के साथ किया। लोगों को समझाता था: मैं असली तीर्थंकर हूं। चौबीसवां तीर्थंकर मैं हूं! यह महावीर लोगों को धोखा दे रहा है।
खयाल रखना, जो आदमी जिससे सीख कर जाएगा, उसे कभी क्षमा नहीं कर सकता। कैसे क्षमा करे? मक्खली गोशाल को तो बड़ी मुश्किल आई। वर्षों महावीर के साथ रहा, जैसे यू. जी. कृष्णमूर्ति, कृष्णमूर्ति के साथ रहे। वर्षों के समागम से, जो भी महावीर कहते थे, सुना, समझा, पचाया। बुद्धि ने ही पचाया। क्योंकि अंतर में उतर जाता तो महावीर को छोड़ने का सवाल क्या था? अंतर में तो उतरा नहीं। धीरे-धीरे मक्खली गोशाल भी पंडित हो गया। उसे लगा: अब तो मैं अपनी ही घोषणा कर सकता हूं। महावीर जो समझाते हैं, वह तो मैं भी समझा सकता हूं। तो फिर अब इनके पीछे क्या चलना?
उसने जाकर दूसरे गांव में घोषणा कर दी कि मैं असली तीर्थंकर हूं, महावीर धोखेबाज हैं। और कहता वह भी वही था, जो महावीर कहते थे। महावीर को जब पता चला, तो वे चकित हुए। वे उस दूसरे गांव गए। वे मक्खली गोशाल को मिले। उन्होंने कहा कि मेरे भाई! तू भूल गया? तू मेरे चरणों में, मेरे पास, मेरे सत्संग में वर्षों रहा, तू भूल गया?
मक्खली गोशाल ने पता है क्या कहा? मक्खली गोशाल ने कहा: इससे सिद्ध होता है कि तुम अज्ञानी हो, क्योंकि वह मक्खली गोशाल, जो तुम्हारे साथ रहता था, वह तो मर चुका। उसकी देह में यह चौबीसवां तीर्थंकर प्रविष्ट हुआ है।
अब धोखे की भी सीमाएं होती हैं!... ‘मैं वह नहीं हूं, जो तुम्हारे साथ रहता था। सिर्फ देह वह है। मैं तो मर चुका। जिसको तुम सोच रहे हो मैं हूं, वह तो जा चुका। यह तो चौबीसवें तीर्थंकर का अवतरण हुआ है मेरी देह में। इससे सिद्ध होता है कि तुम अज्ञानी हो। इतनी सी बात तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती? देह वही है, आत्मा तो बदल गई है--इतनी सी बात तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती?’
आदमी जब पाखंड पर उतरता है, तो कुछ भी करेगा।
यू. जी. कृष्णमूर्ति कहते हैं कि उनका आत्म-अनुभव, उनकी सिद्धि--स्वयं की है, उसका कृष्णमूर्ति से कुछ लेना-देना नहीं है। और हर सात वर्ष में उनकी सिद्धि बढ़ती रही है, क्योंकि हर सात वर्ष में एक चक्र खुलता रहा है। उनचासवें ही वर्ष में वे परम बोधि को उपलब्ध हो गए हैं।
जब हर सात वर्ष में चक्र खुलता रहा था, तो पच्चीस वर्ष तक कृष्णमूर्ति के साथ क्या करते रहे? क्योंकि तुम्हारे अनेक चक्र तो खुल ही चुके थे, और अनेक खुल रहे थे। तुम कृष्णमूर्ति के पीछे किसलिए घूम रहे थे? क्या प्रयोजन था? और आज तुम दोहराते हो यह।
मैं जानता हूं, मेरे दो-तीन संन्यासी उनके पास जाते हैं। वही उनके खास शिष्य हैं दो-तीन संन्यासी। वे भी ऐसे संन्यासी हैं, जिनकी कोई आंतरिक साधना नहीं है। जो यहां आते भी हैं तो बस आने-जाने के लिए। और उनकी तकलीफ यह है कि वे चाहते हैं मेरे साथ उनका विशेष संबंध हो। विशेष संबंध का मतलब?--जब वे आएं, आधी रात आएं तो मुझसे मिल सकें; जिस समय आएं, उस समय मिल सकें; मुझे अपने घर खाने पर बुला सकें; मुझे यहां-वहां ले जा सकें; जिसको मेरे पास लाएं, उसे मिला सकें। चूंकि यह यहां संभव नहीं है, उन्हें यू. जी. कृष्णमूर्ति जमते हैं। यू. जी. कृष्णमूर्ति उनके घर जाते हैं, उनके पास बैठते हैं, उनका खाना खाते हैं, उनके साथ कार में यात्रा करते हैं। वे जमते हैं। उनके अहंकार की तृप्ति यहां नहीं हो पाती है, वहां अहंकार की तृप्ति हो रही है। उन्होंने समझा ही नहीं है कुछ अभी। साधना तो की नहीं है, अभी वे यह कैसे समझेंगे कि साधना व्यर्थ है?
साधना निश्चित एक दिन व्यर्थ हो जाती है, मगर सदा व्यर्थ नहीं है। एक दिन व्यर्थ होती है। होनी ही चाहिए। रास्ता एक दिन व्यर्थ हो ही जाना चाहिए जब मंजिल आ जाए। सीढ़ी को पकड़ कर थोड़े ही बैठे रहोगे! सब साधना सीढ़ी है। सब विधियां उपाय हैं। एक न एक दिन उनको छोड़ ही देना है। लेकिन सावधान! किसी की बातचीत में आकर, सीढ़ी को मंजिल पर पहुंचने के पहले मत छोड़ देना। छोड़ना तो जरूर है। मैं भी कहता हूं, निरंतर कहता हूं: छोड़ना है। लेकिन मैं दो बातें कहता हूं, पकड़ना है इतना कि तुम आखिरी सोपान तक पहुंच जाओ फिर छोड़ना है।
पूछा है तुमने कि ‘श्री यू. जी. कृष्णमूर्ति समझाते हैं कि समस्त साधनाएं--योग, ध्यान, संन्यास, गुरु-शिष्य संबंध, आध्यात्मिक विकास इत्यादि मनुष्य के मन के संभ्रम हैं; मन के खेल मात्र हैं।’
फिर किसको समझाते हैं? समझाना संभ्रम नहीं है? और समझाना ही तो गुरु और शिष्य का संबंध है; और है क्या? जिनको समझा रहे हैं, वे कौन हैं? वे यू. जी. कृष्णमूर्ति के गुरु हैं या शिष्य हैं? जिनको वे समझा रहे हैं, वे क्यों समझा रहे हैं उनको? उन्हें कुछ पता नहीं है, जो कुछ यू. जी. कृष्णमूर्ति को पता है। यही तो फर्क है।
गुरु और शिष्य में संबंध क्या है?--कोई जानता है, कोई नहीं जानता है। जो जानता है, वह अपने जानने को न जानने वाले को सौंप रहा है। सत्संग का और क्या अर्थ होता है?--जानने वाले के पास बैठना।
अगर यह बात सच है, तो समझाना बंद कर देना चाहिए, क्योंकि समझाने में क्या सार है? सब मन का ही खेल है। समझाने में शब्द ही होंगे। अगर योग मन का खेल है, ध्यान मन का खेल है, साधना मन का खेल है--तो जो तुम समझा रहे हो, वह मन का खेल नहीं है?
ध्यान से तो कोई शून्य में उतरेगा, शब्दों से तो सिर्फ पांडित्य बढ़ेगा। अब यू. जी. कृष्णमूर्ति जो सीख लिए हैं--कृष्णमूर्ति को सुन-सुन कर, वही ये जो दो-तीन उनके आगे-पीछे घूमने वाले लोग हैं, ये उनसे सीख लेंगे और दोहराने लगेंगे। और उन्होंने दोहराना शुरू कर भी दिया।
एक या दो दिन पहले ही मैंने आनंद तीर्थ के प्रश्न का उत्तर दिया। आनंदतीर्थ ने कहा कि मुझे आपके चेहरे के पास प्रकाश की छाया दिखाई पड़ी। और मैंने कहा कि ठीक हुआ, शुभ हुआ। ऐसा ही सबके चेहरे के पास एक दिन दिखाई पड़े, इसकी चेष्टा में संलग्न रहो। क्योंकि असल में वह प्रकाश मेरी छाया नहीं है, मैं उस प्रकाश की छाया हूं। और तुम भी उसी प्रकाश की छाया हो। सारा खेल उसी प्रकाश का है। सारा अस्तित्व उसी प्रकाश की छाया है।
आनंदतीर्थ ने प्रश्न पूछा है कि ‘यहां से उठ कर गया, बड़ा आनंदित था। यू. जी. कृष्णमूर्ति को मानने वाले एक सज्जन दरवाजे पर ही मिल गए। (यहां से सुन रहे थे वे, यहां क्या कर रहे थे सुन कर?) और उन्होंने कहा: ये सब मन के खेल हैं--संभ्रम, हेल्यूसिनेशन।’
आनंदतीर्थ की भाव-दशा को उन्होंने खंडित कर दिया।
लेकिन यू. जी. कृष्णमूर्ति समझा क्या रहे हैं? समझाना ही तो गुरु का कृत्य है। और जो समझने जाते हैं वे शिष्य हो गए। फिर शिष्य कहो न कहो, गुरु-शिष्य शब्द का उपयोग करो या न करो--इससे क्या फर्क पड़ता है? फिर समझाना क्या है? अगर साधना भ्रम है, तो साधना भ्रम है, ऐसा समझना भी भ्रम ही होगा। फिर सभी कुछ भ्रम है। फिर यह यू. जी. कृष्णमूर्ति का दावा कि मुझे उपलब्धि हो गई है, संबोधि हो गई है--यह भ्रम नहीं है? यह भ्रांति नहीं है? मैं सिद्ध हो गया, यह भ्रांति नहीं है? ये सात-सात वर्ष में जो चक्र खुलते रहे हैं, ये भ्रांतियां नहीं हैं? ये हेल्यूसिनेशंस नहीं हैं? कहां के चक्र? कौन से चक्र? यह सात-सात साल में जो एक-एक चक्र खुलता रहा, ये चक्र असलियत हैं? और किसी के आभा-मंडल को देखना भ्रम है?
थोड़ा सोचना, थोड़ा विचार करना। ‘समस्त साधनाएं भ्रम हैं।’ कृष्णमूर्ति भी यही कहते हैं: समस्त साधनाएं भ्रम हैं। क्यों? क्योंकि यह भी एक साधना है। समस्त साधनाओं को भ्रम मान लिया जाए, समस्त उपायों को भ्रम मान लिया जाए, समस्त विधियों को भ्रम मान लिया जाए--तो आदमी निर्विधि हो जाता है, निरुपाय हो जाता है। और निर्विधि और निरुपाय हो जाने में ही ध्यान फलित होता है। यह भी साधना की एक विधि है--नकारात्मक विधि है। विधायक विधि नहीं है।
और दुनिया में सदा से दो प्रकार की विधियां रही हैं: नकारात्मक और विधायक। विधायक को सीखना हो, पंतजलि से सीखो। नकारात्मक को सीखना हो, अष्टावक्र से सीखो। हर चीज के दो पहलू होते हैं--या तो हां कहो या न कहो। ये दो ही उपाय हैं। लेकिन यह मत सोचना कि नकारात्मक विधि, विधि नहीं होती। नकारात्मक होने के कारण ही यह मत समझ लेना कि विधि नहीं होती।
कृष्णमूर्ति जब कह रहे हैं, तो ठीक कह रहे हैं। इसको मैं फिर दोहरा दूं कि मेरे लिए व्यक्तियों का ज्यादा मूल्य है, उनके वक्तव्यों से। वक्तव्य का कोई मूल्य नहीं होता। क्योंकि हो सकता है कि वक्तव्य उधार हो, सीखा गया हो। वक्तव्य अपना होना चाहिए, अनुभव से आना चाहिए। कृष्णमूर्ति ठीक कह रहे हैं कि सब साधनाएं भ्रम हैं। मगर मैं तुमसे यह बात कह देना चाहता हूं: यह साधना की नकारात्मक विधि है, और कुछ भी नहीं। यह भी एक विधि है। सारी विधियों को छोड़ देना--एक विधि है। और कोई आसान विधि नहीं है, खयाल रखना।
इसलिए कृष्णमूर्ति जिंदगी भर समझाते रहे। ज्यादा से ज्यादा इस तरह के लोग पैदा हुए--यू. जी. कृष्णमूर्ति जैसे! जो दोहराने लगे हैं। नकार की विधि तो बड़ी कठिन है। क्योंकि शून्य में उतरना--साहस की जरूरत है, दुस्साहस की जरूरत है। सब सहारे छोड़ देना। सब आलंबन त्याग देना। बड़े दुस्साहस की जरूरत है।
विधायक विधि में धीरे-धीरे आलंबन छुड़ाया जाता है; एक-एक करके छुड़ाया जाता है; एकदम नहीं छुड़ा लिया जाता। पहले कहा जाता है: यह देह मैं नहीं हूं, इसलिए फिर देह की विधियां छोड़ दो; शीर्षासन करना और सिद्धासन लगाना और सर्वांगासन करना, इनसे कुछ न होगा। फिर धीरे-धीरे मैं मन नहीं हूं, फिर मन की विधियां छोड़ो; मंत्र, जाप, इनसे कुछ न होगा। फिर मन की विधियां चली जाएं, तो फिर आत्मा की जो प्रतीतियां हैं--मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण--ये भी व्यर्थ हैं। इनको भी छोड़ दो। ऐसे छोड़ते-छोड़ते-छोड़ते, काटते-काटते-काटते--बचेगा क्या? सिर्फ एक शून्य बच रहेगा। वही शून्य मोक्ष है। वही शून्य निर्वाण है। यह नकारात्मक विधि है निर्वाण तक आने की। मगर विधि ही है। मैं तुमसे कह देना चाहता हूं कि विधि ही है। ‘नहीं’ का उपयोग करती है--‘मेथड ऑफ इलिमिनेशन।’ एक-एक को छोड़ते चले जाओ।
ऐसा समझो कि कोई मुझसे पूछे कि यहां इतने लोग बैठे हैं, इसमें तरु कौन है? तो दो उपाय हैं। या तो मैं सीधा तरु की तरफ इशारा कर दूं कि यह रही तरु। यह विधायक विधि है। और दूसरा उपाय यह है कि यहां बैठे पांच सौ लोगों को, एक-एक को मैं कहूं कि यह तरु नहीं है, यह तरु नहीं है, यह तरु नहीं है। और जब चार सौ निन्यानबे का निषेध हो जाए, तब मैं कहूं कि जो शेष बचा--वही। यह लंबा मार्ग है। कृष्णमूर्ति का मार्ग लंबे से लंबा मार्ग है।
विधेय सीधा संबंध जोड़ता है। नकार बड़े घूम कर कान को पकड़ता है। लेकिन जो लोग प्रतिभाशाली हैं, उन्हें नकार का रास्ता रुचता है। प्रतिभा को हमेशा इनकार का रास्ता रुचता है। जो लोग बुद्धि से भरे हैं, उनको इनकार का रास्ता आकर्षक मालूम होता है। जो लोग हृदय से भरे हैं, उन्हें विधेय का रास्ता आकर्षक मालूम होता है।
यही तो दो पुरानी विधियां हैं: एक का नाम ज्ञान-योग, एक का नाम भक्ति-योग। ज्ञान सदा निषेध करता है; और भक्ति सदा विधेय करती है। ज्ञान शून्य तक पहुंचा देता है; भक्ति पूर्ण तक पहुंचा देती है। यद्यपि अंतिम अर्थों में शून्य और पूर्ण एक ही अनुभव के दो नाम हैं। जरा भी भेद नहीं है। शून्य पूर्ण है; पूर्ण शून्य है।
लेकिन यू. जी. कृष्णमूर्ति के ओंठों से ये शब्द झूठे हैं। इस व्यक्तित्व में गरिमा ही नहीं है। अनुग्रह का भाव नहीं है। जिससे सीखा है, उसके प्रति सम्मान भी नहीं है। अगर सच में अनुभव घटा होता, तो अपूर्व सम्मान होता।
कहते हैं: ‘समस्त साधनाएं--योग, ध्यान, संन्यास, गुरु-शिष्य संबंध, आध्यात्मिक विकास इत्यादि मनुष्य के
संभ्रम हैं; मन के खेल मात्र हैं।’
मैं भी कहता हूं: मन के खेल हैं। लेकिन बिना खेले इनके पार कोई कभी जाता नहीं। खेल में बुरा क्या है? खेल में निंदा-योग्य क्या है? धन भी खेल है; ध्यान भी खेल है। धन बाहर का खेल है; ध्यान भीतर का खेल है। धन का खेल भी एक दिन टूटेगा, तब ध्यान का खेल शुरू होगा। और फिर ध्यान का खेल भी एक दिन टूटेगा, तब समाधि का अवतरण होगा। खेले बिना उपाय नहीं है खेल के पार जाने का।
इसलिए मैं तुम्हें इतनी विधियां देता हूं कि खेल ही लो, जब तक खेलने का मन है।
छोटा बच्चा अपने खिलौनों से खेल रहा है। हम कहते हैं: खिलौने, ये सब खेल हैं। लेकिन अभी छोटे बच्चे को इनमें रस है। तुम उससे खिलौने छीन लो, तुम हानि पहुंचा दोगे बच्चे को। अगर छोटे बच्चे से खिलौने छीन लिए गए, तो वह बड़ा होकर भी खिलौनों में उलझा रहेगा, क्योंकि खिलौनों से मन नहीं भर पाया। दौड़ा लेना था उसे रेलगाड़ियां, चला लेने थे हवाई-जहाज, मोटरकारें, गुड्डे-गुड्डियों का विवाह रचा लेना था--सब कर लेना था। जब समय था, तब सब कर लेना उचित था। अन्यथा बाद में वह यही सोचेगा। यहीं अटका रहेगा उसका मन। फिर हो सकता है छोटी कारों की जगह बड़ी कारें हों, लेकिन खेल जारी रहेगा।
तुमने देखा है, ऐसे लोग, जो अपनी कारों के दीवाने हैं, कैसा झाड़-पोंछ कर कार को रखते हैं। जरा सी खरोंच न लग जाए, निकालते भी नहीं। कार उपयोग की चीज है; उसे पोर्च से बाहर भी नहीं निकालते, उसे पोर्च में ही रखे रहते हैं। शोभा है। जरूर ये बच्चे, अधूरे बच्चे रह गए। इनके भीतर कुछ अटका रह गया है। ये बचपन में खिलौनों से खेल नहीं पाए। इनको अभी खिलौने चाहिए। अब छोटे-छोटे खिलौनों से खेलेंगे तो जरा भद्दा लगता है; तो बड़े खिलौने चाहिए; इनकी उम्र के योग्य खिलौने चाहिए। लेकिन ये खिलौने हैं, तुम जरा गौर कर लेना। छोटी कार हो कि बड़ी कार हो, क्या फर्क पड़ता है?
पश्चिम में जब किसी कार का कोई मॉडल बहुत प्रसिद्ध हो जाता है, तो उसके छोटे मॉडल बनाए जाते हैं। खिलौनों की तरह। कैडिलक और रॉल्स रॉयस और लिंकन के छोटे मॉडल मिलते हैं। उनकी भी कीमत काफी होती है। क्योंकि वे बिलकुल हू-ब-हू बड़े की नकल होते हैं। उनमें उतने ही पार्ट्स होते हैं, जितने बड़े में होते हैं। छोटे ही होते हैं, लेकिन सब वैसा का वैसा होता है। हजारों की उनकी कीमत होती है। मगर उनको भी लोग खरीदते हैं और उनको सजा कर संदूकचों में रखते हैं, या अपने बैठकखानों में सजाते हैं।
जो बचपन में हो जाना चाहिए, वह बचपन में कर लेना। कहीं सरकती हुई बात न रह जाए। कहीं कोई तार अटका न रह जाए।
मनोविज्ञान से पूछो। मनोविज्ञान कहता है: जो-जो बातें बचपन में अटकी रह गई हैं, वे कभी न कभी पूरी करनी पड़ती हैं। और जब तुम बाद में पूरी करोगे, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। बड़ी मुश्किल हो जाती है!
जैसे समझो, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिन बच्चों को मां का स्तन जल्दी छुड़ा लिया जाता है, वे जिंदगी भर स्त्रियों के स्तन में उत्सुक रहते हैं। रहेंगे ही। वह बचपन में जो स्तन छुड़ा लिया गया, वह झंझट की बात हो गई। मन स्तन से भर नहीं पाया। अब जो कवि सिर्फ स्तन ही स्तन की कविताएं लिखता है और जो चित्रकार स्तन ही स्तन के चित्र बनाता है, और जो मूर्तिकार स्तन ही स्तन खोदता है--जरूर कहीं अड़चन है, जरूर कहीं कोई बात अटकी रह गई है। उसे स्त्री दिखाई ही नहीं पड़ती, स्तन ही दिखाई पड़ते हैं। उसका सारा संसार स्तनों से भरा हुआ है। उसके सपनों में स्तन गुब्बारों की तरह तैरते हैं। यह रुग्ण है। इसे कहीं अटकी बात रह गई। इसकी मां ने स्तन जल्दी छुड़ा लिया। यह बच्चा पक नहीं पाया था।
अब तुम चकित होओगे जान कर: आदिवासी जातियों में--यहां अभी ऐसी जातियां मौजूद हैं, इस देश में भी मौजूद हैं--जिनमें स्त्रियां स्तन नहीं ढांकतीं। ढांकने की जरूरत नहीं है। यहां स्त्रियां, सभ्य समाजों में, स्तन क्यों ढांकती हैं? क्यों ढांक कर चलना पड़ता है उन्हें? क्योंकि चारों तरफ जिनके स्तन बचपन में छीन लिए गए हैं, वे चल रहे हैं; उनकी आंखें उनके स्तनों पर ही गड़ी हैं। कहीं पल्लू न सरक जाए, स्त्री घबड़ाई रहती है। क्योंकि चारों तरफ बच्चे हैं--कम उम्र के बच्चे! जिनके शरीर की उम्र बढ़ गई है, लेकिन मानसिक उम्र जिनकी बहुत छोटी है। उनकी नजर ही स्तन पर लगी है। वे और कुछ देखते ही नहीं।
आदिवासी जातियां स्तन को नहीं ढांकतीं। और कोई आदिवासी स्तन में उत्सुक नहीं है। कारण? बच्चे नौ साल और दस साल के हो जाते हैं, तब तक स्तन पीते रहते हैं। जब चुक ही जाते हैं बिलकुल, मां नहीं छुड़ाती स्तन, जब बच्चा ही भागने लगता है स्तन से कि अब नहीं, मुझे नहीं पीना, अब बहुत हो गया, अब मुझे छोड़ो--जब बच्चा ही भागने लगता है स्तन से, तो उसकी बात समाप्त हो गई। बात खत्म हो गई। अब उसका कोई रस न रहा। अब जिंदगी भर उसको स्तन में न कोई कविता दिखाई पड़ेगी, न काव्य, न सौंदर्य--कुछ भी नहीं। स्तन उसके लिए थन हो गए। अब उसको और कुछ नहीं रहा उनमें।
तुम जरा अपने मन की खोज-बीन करना। तुम किन बातों में अटके हो, जरा भीतर उनके पीछे जाना। जरा विश्लेषण करना, जरा अतीत में उतरना। और तुम चकित हो जाओगे: वे वही बातें हैं, जो बचपन में तुम करना चाहते थे और नहीं कर पाए। अब करना चाहते हो, लेकिन अब बेहूदी मालूम पड़ती हैं।
हर चीज एक उम्र में संगत मालूम होती है; एक उम्र के बाद असंगत हो जाती है।
पश्चिम में तुम देखते हो, नग्न क्लब बन रहे हैं। उनकी संख्या बढ़ती जा रही है। और उसका मौलिक मनोवैज्ञानिक कारण?--क्योंकि बच्चों को हम जबर्दस्ती कपड़े पहना देते हैं। जब वे नंगे होना चाहते थे, हमने कपड़े पहना दिए। बच्चा भाग रहा है, और मां उसको कपड़े पहना रही है। वह कह रहा है कि मुझे गर्मी लग रही है; मगर मां कह रही है: घर में मेहमान आए हुए हैं। बच्चे को समझ में नहीं आता कि मेहमानों से और कपड़ों का क्या लेना-देना है? वह कहता है: मुझे बगीचे में जाने दो। वह नंगा ही बगीचे में जाना चाहता है।
लेकिन छोटे-छोटे बच्चों को हम जबर्दस्ती कपड़े थोप देते हैं। फिर जिंदगी भर कपड़े उनको एक तरह का बोझ होते हैं। जहां भी उन्हें मौका मिल जाएगा, जब भी मौका मिल जाएगा, वे कपड़े उतार देना चाहेंगे। फिर इससे हजार विकृतियां पैदा होती हैं। हजार विकृतियां पैदा होती हैं! वे अपने भी कपड़े उतार देना चाहते हैं, वे दूसरों के कपड़ों के भीतर जो शरीर छिपा है, उसको देखना चाहते हैं। वे दूसरों के भीतर कपड़े उतारते रहते हैं--मानसिक रूप से।
तुमने देखा? जब तुम रास्ते से गुजरते हो, एक सुंदर स्त्री गई, तुम तत्क्षण उसके कपड़े उतार लेते हो भीतर! तुम्हारे दिमाग में, जल्दी से तुम सब कपड़े अलग कर देते हो। तुम उसे नग्न देखना चाहते हो। कैसा पागलपन है? इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है: जो बचपन में हो जाना था वह नहीं हो पाया।
और यही आध्यात्मिक विकास में भी स्मरण रखना। जीवन के नियम समान हैं। तल बदलते हैं, नियम नहीं बदलते। जब विधियों की जरूरत है, तब विधियां पूरी कर लेना, नहीं तो वे अटकी रह जाएंगी।
मेरे एक मित्र हैं। कृष्णमूर्ति के भक्त हैं। जब भी मेरे पास आते थे, वे कहते थे कि मैं आपकी बातें सुनने आता हूं, लेकिन आपका ध्यान नहीं कर सकता। ध्यान में क्या है? ध्यान से कुछ नहीं हो सकता। कृष्णमूर्ति तो कहते हैं कि ध्यान से कोई सार नहीं है। विधि इत्यादि, योग इत्यादि में कोई सार नहीं है। मैं न तो ध्यान करता हूं--वे कहते हैं--न जप करता हूं, न मंत्र करता हूं। ब्राह्मण हैं, निष्णात ब्राह्मण हैं; लेकिन बड़े हिम्मतवर हैं, सब छोड़ दिया।
एक दिन उनका बेटा मुझे बुलाने आया। उसने कहा कि आप जल्दी चलें, हार्ट-अटैक हो गया है पिता को। मैं गया। वे पड़े थे बिस्तर पर और राम-राम जप रहे थे। मैंने उनका सिर हिलाया। मैंने कहा: क्या करते हो? मरते वक्त काफिर हुए जा रहे हो! जिंदगी भर सम्हाला। क्रांति! मरते वक्त अब भ्रष्ट हुए जा रहे हो?
उन्होंने कहा: अब छोड़िए यह बातचीत। कौन जाने राम हो ही! फिर हर्जा क्या है? फिर अभी हार्ट-अटैक का मामला है, अभी मैं सिद्धांत की बात नहीं करना चाहता।
मैंने कहा: लेकिन कृष्णमूर्ति कहते हैं कि राम-राम जपने से कुछ नहीं होगा।
उन्होंने कहा: इस समय बात न करिए।
जब वे ठीक हो गए, फिर बात आ गई वापस। मैंने उनसे पूछा कि सोचो थोड़ा, तुम्हारे भीतर कहीं अटका है। कृष्णमूर्ति के कहने से क्या होगा? तुम्हारे भीतर अटकन है। तुम्हारे भीतर कृष्णमूर्ति के कहने से समाधि तो हो नहीं गई है। सुन ली बात, पकड़ ली बात; लेकिन तुम्हारे भीतर उससे कोई अनुभव तो नहीं आ गया है। जब मरने लगे, जब मौत ने द्वार पर दस्तक दी, तब सवाल था कि कृष्णमूर्ति को चुनना कि मौत को। तब तुमने कृष्णमूर्ति को छोड़ा। मौत जब सामने खड़ी है, कृष्णमूर्ति कहां साथ देंगे? अभी तो राम की याद कर लूं! तब तुम्हारा बचपन लौट आया होगा। बचपन में सुना होगा पिता को राम-राम दोहराते, मां को राम-राम दोहराते। जिंदगी भर समझा कि वे मूढ़ थे, लेकिन मरते वक्त एकदम वही सार्थक हो गए। यह बीच की सारी बौद्धिकता, यह सारा सिद्धांत-जाल दो कौड़ी का हो गया था।
तो मैं तुमसे कहता हूं: हर स्थिति की अपनी संयोजना है। उसका उपयोग कर लो। उसके पार निश्चित जाना है।
महर्षि महेश योगी कहते हैं कि मंत्र ही जपते रहना, और कृष्णमूर्ति कहते हैं कि मंत्र कभी मत जपना। और मैं कहता हूं: मंत्र जपना और मंत्र छोड़ना भी। जब तक तुम्हारा मन है, तब तक मंत्र जपना ही पड़ेगा।
‘मंत्र’ उसी शब्दों से बनता है, जिससे ‘मन’ बनता है। मन और मंत्र एक ही धातु से बनते हैं। मन मंत्र की विधि है। और अगर तुम राम-राम न जपोगे तो तुम कुछ और जपोगे। खयाल रखना। जपने से बच नहीं सकते। फिल्मी गाना दोहराओगे। कोई आदमी स्नान करता है बाथरूम में और राम-राम, राम-राम जपता है, और तुम कोई फिल्मी धुन दोहराते हो। फर्क क्या है? तुम दोनों मंत्र जप रहे हो। और राम-राम जपने वाला कम से कम तुमसे बेहतर मंत्र जप रहा है।
ठंडा पानी जब छूता है शरीर को तो मंत्र जपने की इच्छा अचानक होती है। मंत्र जप लेने से ठंडा पानी भूल जाता है। तुम मंत्र में लग गए हो, जल्दी से पानी ठंडा डाल लिया। लेकिन जब जपना ही है कुछ, तो फिल्मी गाने के बजाय अच्छा था कि राम का स्मरण हो जाता। कौन जाने आकस्मिक स्मरण में कभी-कभी द्वार भी खुल जाते हैं।
तो मैं तुमसे कहता हूं कि घबड़ाओ मत, विधियों का उपयोग कर लो। विधियों को सुंदरतर करते जाओ, श्रेष्ठतर करते जाओ। विधियों को शुभ और शिव होने दो। और एक दिन शुद्ध होते-होते, होते-होते वह घड़ी जरूर आ जाती है, जब तुम विधियों के पार चले जाओगे। जाना तो विधि के पार ही है। क्योंकि विधियों से मिलती है सविकल्प समाधि; विधियों के पार जाकर मिलती है निर्विकल्प समाधि।
विधियां कितने ही दूर ले जाएं, मंजिल थोड़े फासले पर रह जाती है। विधि का और मंजिल का फासला रह जाता है। विधि तुम्हारे और मंजिल के बीच में खड़ी रह जाती है।
ऐसा समझो कि राम-राम जपने का खूब अभ्यास हो गया। अब एक दिन राम के सामने पहुंच गए, तुम अपना राम-राम ही जपे जा रहे हो। रामचंद्रजी वहां खड़े हैं हाथ जोड़े तुम राम ही राम जपे जा रहे हो। वे कहते हैं: भई अब चुप भी हो, अब मैं आ गया। मगर अब तुम छोड़ो कैसे? तुम कहते हो: मंत्र तो मैं छोड़ नहीं सकता। तो तुम्हारा राम-राम जपना ही बाधा हो जाएगा। जब राम प्रकट हो जाएं, फिर क्या राम जपना! राम को पुकार लो, लेकिन जब घड़ी घटने लगे तो फिर पुकार बंद कर देना। कहीं ऐसा न हो कि पुकार विक्षिप्त हो जाए और तुम चिल्लाते ही रहो, चिल्लाते ही रहो। तुम्हा
रा चिल्लाना ही फिर बाधा बन जाएगा। फिर तुम्हारे मंत्र ही बाधा बन जाएंगे।
जो एक दिन साधक है, वही एक दिन बाधक बन जाता है। तो कोई चीज न तो सिर्फ साधक है और न सिर्फ बाधक है। हर चीज का उपयोग कर लेता है समझदार आदमी।
‘यू. जी. कृष्णमूर्ति कहते हैं कि समस्त साधनाएं--योग, ध्यान, संन्यास, गुरु-शिष्य संबंध आध्यात्मिक विकास इत्यादि मनुष्य के मन के संभ्रम हैं।’
आध्यात्मिक विकास भी! तो फिर वे किसलिए समझा रहे हैं लोगों को? आध्यात्मिक पतन करवाना है? आध्यात्मिक विकास भ्रम है, तो आध्यात्मिक पतन सत्य है? फिर यह फिजूल की परेशानी क्यों कर रहे हैं? इतनी मेहनत क्यों उठा रहे हैं? क्या समझा रहे हो? किसलिए समझा रहे हो? क्या प्रयोजन है? जरूर कुछ घट जाए; जिसको तुम समझा रहे हो उसमें कुछ घटे--वही तो विकास है।
लगता है ऐसा, यू. जी. को कृष्णमूर्ति समझ में तो नहीं आए: रट लिया है। और कुछ बुद्धू जरूर उनके चक्कर में पड़ेंगे और परेशान होंगे।
‘और इन सबमें खूब-खूब भटक कर अंत में आदमी के हाथ में एक पूर्ण असहाय दशा भर आती है।’
वही दशा तो बहुमूल्य दशा है। जिस दिन तुम सारी विधियों को करके भी पाते हो, अभी कुछ शेष रह गया... शेष रह गया... जिस दिन तुम पाते हो सब कर लिया, फिर भी कुछ अनकिया रह गया--उस दिन तुम्हें यह दृष्टि मिलती है कि कुछ ऐसा भी है जो करने से मिलता ही नहीं--न करने से मिलता है। बहुत कुछ करने से मिलता है; परमात्मा करने से नहीं मिलता।
करने से छोटी चीजें मिलती हैं। धन मिलता है, पद मिलता है, प्रतिष्ठा मिलती है। परमात्मा, मुक्ति बड़ी बातें हैं--तुमसे बहुत बड़ी हैं। तुम्हारी मुट्ठी में नहीं समा सकतीं। तुम्हारा कृत्य नहीं हो सकतीं। तुम जब अक्रिया में होते हो, जब तुम बिलकुल ही शांत होते हो, सारी क्रिया शून्य हो गई होती है--उस अक्रिया में घटती हैं। जब तुम अकर्ता होते हो, तब घटती हैं।
संसार घटता है कृत्य से, और परमात्मा घटता है अकृत्य से। मगर उस अकृत्य तक पहुंचने के लिए इन सारी विधियों से गुजरना जरूरी है--एकदम जरूरी है। गुजर-गुजर कर ही तुम पाओगे कि कुछ दूरी रह जाती है। पहुंचता हूं, और नहीं पहुंच पाता। पहुंचा-पहुंचा लगता हूं और फिर कुछ फासला रह जाता है। यह खुला द्वार, खुला द्वार--और नहीं खुलता। सीढ़ी चढ़ भी जाता हूं और मंदिर में प्रवेश नहीं हो पाता। तब अंततः बहुत बार भटक कर ही यह बात समझ में आती है कि अब असहाय होकर गिर पडूं; अब अपने पर सहारा छोड़ दूं; अब यह भ्रांति छोड़ दूं कि मेरे किए कुछ होगा। मैंने सब करके देख लिया।
और ध्यान रखना, अगर तुमने सब करके नहीं देखा तो यह भ्रांति मिट नहीं सकती। तुम्हें लगता ही रहेगा कि अभी मैंने पंतजलि-योग नहीं किया, अगर कर लेता तो शायद उससे हो जाता। कौन जाने, शीर्षासन में खड़े होने से समाधि लग जाती हो! कौन जाने! कौन जाने कि राम-राम जपने से अनुभूति हो जाती हो! कौन जाने, कौन सी विधि कारगर हो! मन में संदेह बना ही रहेगा।
लेकिन जिसने सारी विधियां कर लीं, जिसने सब उपाय कर लिए, एक दिन पाएगा: कोई उपाय, कोई विधि, उस परम तक नहीं पहुंचती। असहाय हो जाता है। यह असहाय अवस्था बड़ी बहुमूल्य अवस्था है। इसी असहाय अवस्था में परमात्मा घटता है। इसी को भक्तों ने निरालंब दशा कहा है, निराधार अवस्था कहा है, निराश्रय अवस्था कहा है। जब आदमी बिलकुल असहाय हो जाता है, तभी समर्पण घटता है। लेकिन असहाय वही होता है, जिसने सब तरह के सहारे खोज लिए और पाया है कि उनसे कुछ भी नहीं पाया जाता है।
अब तुम जरा चकित होओगे। मेरी प्रक्रिया समझ लेनी चाहिए ठीक से। मैं तुम्हें यहां विधियां दे रहा हूं सब प्रकार की। जितनी विधियां यहां तुम्हें उपलब्ध की जा रही हैं, उतनी दुनिया में न कभी की गई हैं और न की जा रही हैं। मेरा प्रयास यही है कि जब तुम खोजने चल ही पड़े हो, तो तुम जो भी खोजना चाहते हो, वह विधि तुम्हें यहां उपलब्ध होनी चाहिए। सारी विधियों से गुजर कर तुम्हें एक अपूर्व अनुभव होगा, कि विधियां ले जाती हैं--बहुत दूर ले जाती हैं--मगर मन के पार नहीं ले जातीं। मन की सूक्ष्मतम दशाओं में ले जाती हैं, मन के बड़े प्यारे अनुभवों में ले जाती हैं, बड़ी प्रीतिकर अनुभूतियों में ले जाती हैं; लेकिन मन के पार नहीं ले जातीं। दुख समाप्त हो जाता है, सुख ही सुख छा जाता है। सब धूप विलीन हो जाती है, सब गर्मी खो जाती है। एक शीतलता आ जाती है। मगर यह भी मन की है। क्रोध चला जाता है, करुणा आ जाती है--लेकिन यह भी मन की है। मन शुद्ध हो जाता है, लेकिन है तो मन ही! और तब आखिरी बात समझ में आती है: अब इस शुद्ध मन के पार कैसे जाऊं? इस साधु मन के पार कैसे जाऊं? मेरे किए तो सब हो चुका, अब मेरे किए कुछ भी नहीं होता।
यहीं असहाय अवस्था में आदमी झुकता है, समर्पित होता है। यहीं प्रार्थना पैदा होती है।
ध्यान रखना, जहां ध्यान हार जाते हैं, वहां प्रार्थना पैदा होती है। जहां योग, साधनाएं पराजित हो जाती हैं, वहां प्रार्थना पैदा होती है। प्रार्थना कोई विधि नहीं है--सब विधियों की पराजय है। झुक जाता है आदमी। ऐसा नहीं है कि चिल्लाता है कुछ। क्योंकि अगर कुछ कहे, चिल्लाए, तो अभी भी विधियां चल रही हैं। प्रार्थना का मतलब है, मौन में झुक जाता है; समर्पित हो जाता है। कह देता है: अब मेरे किए कुछ भी न होगा, अब तुझे जो करना हो...। ‘दाइ किंगडम कम, दाइ विल बी डन।’ तेरा राज्य आए! तेरी इच्छा पूरी हो! यही प्रार्थना है। जीसस ने सूली पर आखिरी क्षण यही प्रार्थना की।
विधियों के द्वारा तुम एक दिन इस अवस्था में आते हो। इसलिए मैं विधियों का निषेध नहीं करता। और मैं यह भी नहीं कहता कि विधियां पर्याप्त हैं।
‘यू. जी. कृष्णमूर्ति कहते हैं: और इन सब में खूब भटक कर अंत में आदमी के हाथ में एक पूर्ण असहाय दशा भर आती है।’
वही तो मूल्यवान बात है। वही तो संपदा है। उसी से तो भक्ति का आविर्भाव है। मगर जो पहले से ही छोड़ देगा, उसे यह नहीं हो पाएगा।
अब जैसे यू. जी. कृष्णमूर्ति के पास जा कौन रहे हैं?... हिम्मत भाई जा रहे हैं। हिम्मत भाई ने विधि ही कोई नहीं की। विधि छोड़ देंगे। पकड़ी थी ही नहीं कभी, छोड़ेंगे क्या खाक? छोड़ने के लिए, होना तो चाहिए! पहले करो तो, तब छोड़ देना! योग में कुछ नहीं है--मगर योग किया हो तो! ध्यान में कुछ नहीं है--ध्यान किया हो तो!
लेकिन ये बातें अपील करती हैं; इनका आकर्षण है। क्यों? क्योंकि इनसे लगता है: चलो झंझट मिटी; न ध्यान करना है, न योग करना है, न प्रार्थना करनी है, न पूजा करनी है। यही तो आदमी का आलसी मन सदा से चाहता है: कुछ न करना पड़े। यह अच्छा रहा! कुछ करना ही नहीं है। तो जो कर रहे हैं वही नासमझ हैं; हम समझदार हैं, क्योंकि हम कुछ कर ही नहीं रहे। खूब मजा आ गया! अहंकार को भी तृप्ति हुई कि करने वाले नासमझ हैं। और अभी तक तो यह अड़चन थी कि करने वाले कहीं पा न जाएं, मैं कर नहीं रहा हूं; वह अड़चन भी बदल गई। इस आदमी ने बड़ी राहत दे दी। इस आदमी ने कहा: इससे कुछ होता ही नहीं। असल बात तो यह है कि जो कर रहे हैं, वे गलत कर रहे हैं। वे गलत रास्ते पर हैं। तुम ठीक रास्ते पर हो, क्योंकि नहीं कर रहे हो। बड़ी सांत्वना मिली। बड़ा सहारा मिला। तुमने कहा कि गुरु हो तो ऐसा! यह आदमी पकड़ लेने जैसा है।
इसने तुम्हारे अहंकार को पुनरुज्जीवित कर दिया। किसी को ध्यान करते देख कर तुम्हारे अहंकार को चोट लगी थी, खयाल करना। तुम्हें लगा था, मैं नहीं कर रहा हूं। कहीं इसे मिल जाए और मुझे न मिले! किसी को प्रार्थना में डूबे हुए, आंसुओं से गद-गद देख कर, तुम्हारे भीतर पीड़ा नहीं उठी थी? तुम्हें यह नहीं लगा था कि कहीं ऐसा न हो कि मैं क्षुद्र को ही खोजता रहूं, और दूसरे परम को पा जाएं। ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, अहंकार--सबको चोट लगी थी। फिर किसी ने कहा कि नहीं, प्रार्थना से कुछ नहीं होता, ध्यान से कुछ नहीं होता, योग से कुछ नहीं होता--ये सब व्यर्थ हैं। तुम आश्वस्त हुए। तुमने कहा: यह बात जंचती है। यह तो मुझे पहले से ही जंचती थी, मगर किसी ने कही नहीं थी। अब कहने वाला आप्त व्यक्ति मिल गया। अब एक गवाह भी मिल गया।
क्योंकि हिम्मत भाई खुद ही कहें कि ध्यान में कुछ नहीं है, कौन मानेगा? लोग पूछेंगे, ध्यान किया? ‘यू. जी. कृष्णमूर्ति कहते हैं कि ध्यान में कुछ नहीं है।’ और यू. जी. कृष्णमूर्ति--प्रबुद्ध व्यक्ति! इनकी बात में बल है, प्रमाण है, अथॉरिटी है, आप्तता है! जंचती है बात।
जंचाना तुम सदा से चाहते थे, कोई जंचाने वाला नहीं मिला था। यह अच्छा समझौता हो गया! यू. जी. कृष्णमूर्ति को एक शिष्य मिल गया; तुमको ऐसे गुरु मिल गए, जो एकदम मीठे ही मीठे हैं। दोनों के बीच एक षडयंत्र चल गया। उन्हें शिष्य मिल गया, उनके अहंकार को तृप्ति हुई। तुम्हें गुरु मिल गए, तुम्हारे अहंकार को जो अड़चनें आ रही थीं, वे अलग हो गईं। यह दोस्ती गहरी बन गई।
मगर ऐसे ही मीठे जहरों में आदमी खो जाता है और नष्ट हो जाता है। सावधान!
ध्यान कर लो। मैं भी कहता हूं कि ध्यान एक दिन छोड़ना है। निरंतर तो कहता हूं तुमसे: संन्यासी बन लो, एक दिन संन्यास के पार जाना है। निरंतर तो कहता हूं तुमसे: शिष्य हो लो, ताकि शिष्यत्व से छुटकारा मिल जाए। छुटकारा मिलता ही अनुभव से है; और कोई उपाय नहीं है छुटकारे का। लेकिन काहिल लोग हैं; सुस्त लोग हैं; आलसी लोग हैं--कुछ करना नहीं चाहते। मुफ्त कुछ मिलता हो... उनको ये बातें जंच जाती हैं। और ये अहंकार को बड़ी तृप्तिदायी हैं। तब दूसरे को ध्यान करते देख कर वे मस्त अपनी अकड़ से चले जाते हैं कि ‘बेचारा! ध्यान कर रहा है, ध्यान से कहीं कुछ मिलता है? यह आनंद तीर्थ, इसको आभामंडल दिखाई पड़ रहे हैं! सब मन की बकवास है!’ और यू. जी. कृष्णमूर्ति को हर सात साल में जो चक्र खुल रहे हैं, वे मन की बकवास नहीं हैं? और यू. जी. कृष्णमूर्ति का दावा कि मैं प्रबुद्ध हो गया हूं, कि मैं सिद्ध हो गया हूं--वह मन की बकवास नहीं है? वे मन के विकार नहीं हैं?
थोड़ा सोचो। थोड़ा साहसपूर्वक सोचो। अपनी बेईमानियों पर थोड़ा विचार करो।
अब जो दो-तीन लोग यू. जी. कृष्णमूर्ति के आस-पास घूम रहे हैं, वे लोगों को कहते हैं कि यू. जी. कृष्णमूर्ति बड़े सरल हैं। घर बुलाओ तो घर आ जाते हैं।
उनको मेरे पास आने में अड़चन होती है। मैं उनके घर जाने वाला नहीं हूं। इसलिए नहीं कि उनके घर में कुछ खराबी है, बल्कि इसलिए कि उनके अहंकार को मैं किसी तरह का सहारा नहीं देना चाहता हूं। मुझे उनके अहंकार को मिटाना है, सहारे को बढ़ाना नहीं है। तो वे लोग, लोगों से कहते फिर रहे हैं कि बड़े मानवीय हैं यू. जी. कृष्णमूर्ति!
लेकिन तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिल रही है। तुम्हारा अहंकार बढ़ रहा है: मेरे घर फलां आदमी आया, फलां आदमी आया!
इधर मेरे पास भी लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं: एक बार हमारे घर चले चलो। तुम्हारे घर जाने से क्या होगा? तुम मेरे घर आओ। तुम्हारे घर मैं आऊं, इससे क्या होगा? तुम्हें वहां कुछ रह कर नहीं मिला है, मुझे लाकर और क्या करोगे? मेरे घर आओ, तुम्हें कुछ मिले।
और ध्यान रखना, झुकोगे नहीं तो कुछ न पाओगे।
लेकिन तब उन्हें अड़चन होती है। जहां उनके अहंकार को चोट लगती है, वहां उन्हें अड़चन होती है। जहां उनके अहंकार को मलहम लगती है, वहां उन्हें बड़ा सुख आता है।
‘इन श्री यू. जी. कृष्णमूर्ति के सत्संग में अनेकों के मन में साधना के प्रति तीखी अनास्था का जन्म हुआ है।’
न तो उन्होंने कभी साधना की है और न उन्हें साधना पर कोई कभी आस्था रही है। अनास्था कहां से हो जाएगी?
ध्यान रखना, आमतौर से लोग... कोई कहता है कि मुझे ईश्वर में अश्रद्धा है। वह गलत शब्द का उपयोग कर रहा है। श्रद्धा रही हो तो ही अश्रद्धा हो सकती है। और जिसको श्रद्धा रही है, कैसे अश्रद्धा होगी? श्रद्धा के बाद ही अश्रद्धा हो सकती है। किसी को मित्र बनाओ, तो ही शत्रुता हो सकती है। नहीं तो कैसे शत्रुता होगी? विधेय पहले आता है, नकार पीछे। नकार छाया है। किसी से विवाह करो तो तलाक हो सकता है। तुम कहने लगो किसी दूसरे की स्त्री को देख कर कि इससे मेरा तलाक हो गया--और विवाह कभी हुआ ही नहीं था--तो तुम्हें लोग पागल समझेंगे। जो कहता है मुझे ईश्वर पर अश्रद्धा है, वह सिर्फ इतना ही कह रहा है कि मुझे ईश्वर पर श्रद्धा नहीं है। अश्रद्धा तो हो ही नहीं सकती। अश्रद्धा तो तब होती है, जब श्रद्धा की जाए और श्रद्धा व्यर्थ जाए। और अनुभव से पाया जाए कि श्रद्धा काम की नहीं थी।
मगर ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं--पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में नहीं हुआ है। जिसने श्रद्धा की, उसकी श्रद्धा और बढ़ी। अश्रद्धा कभी आई नहीं। तुम श्रद्धा के अभाव को अश्रद्धा कह रहे हो, तो ठीक शब्द का उपयोग नहीं कर रहे हो। अश्रद्धा में श्रद्धा का निषेध है, अभाव नहीं है। इनकार है, विरोध है, आक्रमण है, हिंसा है। आदमी इतना ही कह सकता है कि मुझे अभी श्रद्धा नहीं है। यह बात ठीक है। इसमें अश्रद्धा का सवाल ही नहीं उठ रहा है। मैं जानता ही नहीं हूं, अश्रद्धा कैसे करूं? ईश्वर है ही नहीं मेरे लिए अभी, तो मैं अश्रद्धा कैसे करूं? अभी मैंने प्रेम ही नहीं किया तो घृणा कैसे करूं?
और जिसने प्रेम किया, कैसे घृणा करेगा? जिसने श्रद्धा की, कैसे अश्रद्धा करेगा? हां, अगर श्रद्धा की और अश्रद्धा कर ले, तो उसका एक ही अर्थ होता है कि श्रद्धा कहीं न कहीं झूठी थी, थोथी थी, ऊपरी थी वस्तुतः नहीं थी।
अब तुम कहते हो: ‘अनेकों के मन में साधना के प्रति तीखी अनास्था का जन्म हुआ है।’
साधना कोई करना नहीं चाहता। साधना कठोर है। साधना हिम्मतवरों का काम है, नपुंसकों का नहीं। साधना कोई करना नहीं चाहता। लोग सुविधा चाहते हैं--साधना नहीं। लोग चाहते हैं: कोई कह दे, साधना की जरूरत नहीं है।
इसलिए तो सदियों-सदियों में आदमी ने बड़े नपुंसक उपाय खोज लिए हैं। किसी ने कह दिया कि मरते वक्त राम-राम का जाप कर लोगे कि बस पहुंच जाओगे। जिंदगी भर क्या करना है! कहानियां गढ़ ली हैं कि अजामिल मर रहा था। उसने अपने बेटे को पुकारा। बेटे का नाम नारायण था। संयोग की बात कि नारायण था। उसने कहा कि नारायण, तू कहां है? और ऊपर के नारायण को धोखा हो गया। हद हो गई! कहां के बुद्धू नारायण को ऊपर बिठा रखा है, इतनी भी जिनमें अक्ल नहीं है कि वह किसको बुला रहा है! वह अपने बेटे को बुला रहा है। और जिंदगीभर का हत्यारा, बेईमान और चोर आदमी! वह बुला ही इसलिए रहा होगा कि चोरी का धन कहां गढ़ा दिया है, किस-किस की और हत्या करनी है; कौन-कौन से बदला मैं नहीं ले पाया हूं, तू बेटा ले लेना, अपनी परंपरा टूट न जाए। यह वसीयत तुझे दे जाता हूं। बुला रहा होगा किसी गलत काम के लिए ही। और बेटे को बुला रहा है, और ऊपर के नारायण धोखे में आ गए। और अजामिल मरा और स्वर्ग चला गया।
जिन्होंने यह कहानी गढ़ी है, हद के बेईमान रहे होंगे। मगर ये जंचती हैं कहानियां लोगों को। लोग कहते हैं कि अजामिल को पार कर दिया तो मुझे पार न करोगे?
तुम कुछ करना नहीं चाहते। फिर हालतें ऐसी आ जाती हैं कि मौत का पता तो होता नहीं, कब मरोगे, कब मौत आ जाएगी, कोई खबर तो देती नहीं। मौत तो अतिथि है, बिना तिथि बताए आती है। एकदम आ जाती है। मर गए, नारायण को भी न बुला पाए। और अब तो बेटों के नाम भी नारायण नहीं--पिंकी इत्यादि। अब तुम बुलाओगे भी कि हे पिंकी, कहां हो? तो परमात्मा को कोई धोखा भी नहीं होगा। कि हे डबलू, कहां हो?... मौत आई--और तुम गए!
तो दूसरे उपाय खोजने पड़े, कि मर तो गया आदमी, दूसरे उसके कान में मंत्र पढ़ रहे हैं। पुजारी, पंडित, पुरोहित गंगा-जल डाल रहे हैं। वह आदमी मर ही चुका है। अब वहां पीने वाला भी कोई नहीं है। अब उस मुर्दा लाश में गंगा-जल डाल रहे हैं। नमोकार कान में पढ़ा जा रहा है, कि गायत्री मंत्र दोहराया जा रहा है। ले चले मुर्दे को। कहने लगे: ‘राम-नाम सत्य है!’ अब किससे कह रहे हो? अब वहां कोई है नहीं। जिंदगी भर राम-नाम असत्य रहा; अब मुर्दे को कह रहे हो: राम-नाम सत्य है!
लोगों ने सस्ती तरकीबें सदा खोज लीं। इस सदी की सबसे सस्ती तरकीब यह है कि ‘साधना से क्या होगा? विधि से क्या होगा? उपाय से क्या होगा? कोई जरूरत नहीं है। आध्यात्मिक विकास मन का जाल है।’ फिर कौन सा विकास है, जो मन का जाल नहीं है? और कोई विकास भी है आध्यात्मिक विकास के अतिरिक्त?
और फिर ऐसे लोग जो कहते हैं, बड़ा मजा यह है कि सुनने वाले इन सब बातों को कैसे सुनते रहते हैं! सुनना ही चाहते होंगे, मानना ही चाहते होंगे। जरा भी बुद्धि हो, जरा भी विश्लेषण करें, तो कहना चाहिए: फिर तुम मेहनत किसलिए कर रहे हो? हे उधार गुरु, कृष्णमूर्ति! मेहनत क्यों कर रहे हो? किसलिए सिर पचा रहे हो? सब भ्रम है; और तुम्हारा आध्यात्मिक विकास भ्रम नहीं है? तुम्हारा दावा भ्रम नहीं है कि तुम सिद्ध हो गए?
इन थोथी बातों में मत पड़ना। ऐसे थोथे जाल सदा से रहे हैं और सदा रहेंगे। आदमी की मांग है, इसलिए इनकी पूर्ति होती रहती है।
इसके पहले कि इस प्रश्न का उत्तर मैं पूरा करूं, चित्त की आठ अवस्थाएं हैं, वे समझ लेना जरूरी हैं। बुद्ध ने चित्त की आठ अवस्थाओं की बात की है। वह बड़ी उपयोगी है। पांच चित्त की अवस्थाएं, पांच इंद्रियों से बंधी हैं। बुद्ध ने कहा: एक-एक इंद्रिय एक-एक मन है। और यह बात सच है। मनोविज्ञान भी इस बात के समर्थन में है। तुम्हारी जीभ का एक मन है, लेकिन वह मन केवल स्वाद की भाषा समझता है। तुम्हारे कान का भी एक मन है, लेकिन वह मन केवल ध्वनि की भाषा समझता है। तुम्हारा कान भी चुनाव करता है। सभी ध्वनियां नहीं ले लेता भीतर। सिर्फ दो प्रतिशत भीतर लेता है, अट्ठानबे प्रतिशत बाहर छोड़ देता है। अगर सारी ध्वनियों को भीतर ले-ले तो तुम विक्षिप्त हो जाओ।
तुम्हारी आंख भी सब नहीं देखती। सबको देखने लगे तो तुम मुश्किल में पड़ जाओ। चुनाव करती है। वही देखती है जो देखना चाहती है। वही देखती है जो देखने योग्य है। वही देखती है, जिसमें कोई प्रयोजन है।
और तुम इस बात को अनुभव कर सकते हो कि तुम्हारे अपने अनुभव से भी यह बात सिद्ध हो जाएगी। जिस दिन तुमने उपवास किया है, उस दिन भोजन ज्यादा दिखाई पड़ेगा। बाहर भी और भीतर भी। आंख बंद करो तो भी दिखाई पड़ेगा। आंख खोलो तो भी दिखाई पड़ेगा।
हेनरिख हेन ने कहा है कि मैं एक दफे जंगल में तीन दिन के लिए भटक गया और रास्ता न मिला। फिर पूर्णिमा का चंाद निकला, तो मैं चकित हुआ। जिंदगी में मैंने बहुत सी कविताएं लिखीं। चांद पर बहुत कविताएं लिखीं। (कवियों का चांद से पुराना संबंध रहा है।) तो सदा मैंने चांद में कभी अपनी प्रेयसी का बिंब देखा, कभी परमात्मा की छवि देखी, और क्या-क्या नहीं देखा। मगर उन तीन दिनों की भूख के बाद जब चांद निकला, तो मैंने देखा: एक सफेद रोटी आकाश में तैर रही है। मैं खुद भी चौंका कि यह कौन सा प्रतीक है! यह किस कविता में आता है? सफेट रोटी! आकाश में तैर रही है?
मगर तीन दिन का भूखा आदमी और क्या देखेगा? तीन दिन के भूखे आदमी की आंख सिर्फ रोटी की तलाश कर रही है। हर जगह उसे रोटी दिखाई पड़ेगी।
तुम वही देखते हो, जिसकी जरूरत है। छोटे बच्चे कुछ और देखते हैं; उनकी जरूरतें अलग हैं। जवान कुछ और देखते हैं; उनकी जरूरतें अलग हैं। बूढ़े कुछ और देखते हैं, उनकी जरूरतें अलग हैं।
आंख के पास एक मन है, जो पूरे वक्त अनुशासन देता रहता है। इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि बूढ़े और जवान आदमी में बातचीत नहीं हो पाती; बातचीत मुश्किल हो जाती है, क्योंकि जवान कुछ देखता है, बूढ़ा कुछ देखता है। जवान कहता है: आह, कितनी सुंदर स्त्री है! और बूढ़ा कहता है: क्या रखा है--हड्डी-मांस-मज्जा! दोनों की बात में मेल नहीं पड़ता। जवान कहता है: कहां की बात छेड़ दी, कहां की अभद्र बात छेड़ दी! इतनी सुंदर स्त्री, और तुम्हें मांस-मज्जा दिखाई पड़ रही है? और बूढ़ा कहता है: कुछ नहीं है सौंदर्य में! मल-मूत्र भरा है भीतर। चमड़ी पर है सौंदर्य। सब आकृति है, और कुछ भी नहीं है।
बूढ़े के देखने का ढंग बदल गया है। असल में बूढ़े की आंख ने एक नया मन विकसित कर लिया है, जो जवान के पास नहीं है।
पांच इंद्रियों के पास पांच मन हैं। और इन पांचों को जोड़ने वाला, संगृहीत रखने वाला--अन्यथा ये बिखर जाएं--छठवां मन है तुम्हारे भीतर। जिसको तुम मन कहते हो, वह छठवां मन है।
इसलिए बुद्ध ने छह मन की बात कही, कि छह मन हैं। ये मन की छह अवस्थाएं हैं। पांच के पार उठ कर, छठवें को जानना है। यही ध्यान की प्रक्रिया है। पांच के पार उठ कर छठवें को जानना है। जिसको पंतजलि ने धारणा कहा है।
पंतजलि के तीन सूत्र हैं: धारणा, ध्यान, समाधि। धारणा शुरू होती है--इंद्रियों से मुक्त होने से। छठवें को पहचाना है, जो सबका नियंता है। और जब तुम छठवें को पहचान लेते हो, जब तुम छठवें से जांच-पड़ताल कर लेते हो--बैठ कर शांत छठवें को देखते हो, उसकी भाव-भंगिमाओं को, तरंगों को, विचारों को, लहरों को, भावनाओं को, स्मृतियां, कल्पनाओं को, सपनों को--जब तुम छठवें को उघाड़ते हो पूरा, तो तुम्हें सातवें का पता चलना धीरे-धीरे शुरू होता है। सातवां है साक्षी। वह जो छठवें को भी देख रहा है, वह सातवां है। जब तुम्हारे भीतर क्रोध उठा, वह छठवें में उठ रहा है। क्रोध आंख में नहीं उठता, खयाल रखना। क्रोध कान में नहीं उठता, खयाल रखना।
तुम चकित होओगे जान कर, वासना भी कामेंद्रिय में नहीं उठती। उठती तो छठवें में है--फिर कामेंद्रिय में सक्रिय होती है। क्रोध उठता तो छठवें में है, फिर आंख तक लाली फैल जाती है, खून फैल जाता है। उठता तो छठवें में है सब, और फिर पांचों तक जाता है। बाहर से जो भी आता है, वह पांचों से होकर आकर छठवें में इकट्ठा होता है। और भीतर से जो भी आता है, वह छठवें से उठता है और पांचों से बाहर जाता है। तो ये पांच मन दोहरे काम करते हैं, दरवाजे का काम करते हैं: जो बाहर है उसे भीतर लाते हैं; जो भीतर है उसे बाहर ले जाते हैं। और छठवां इनका गवर्नर, इनका अनुशासक है।
अगर तुम छठवें का धीरे-धीरे-धीरे विश्लेषण करो, बैठ कर छठवें को देखो, तो सातवें का जन्म होता है--साक्षी। तब क्रोध उठा भीतर, एक क्रोध की बदली उठी, और तुम बैठे देख रहे हो। तो जो देख रहा है, वह सातवां है। और यह सातवां सर्वाधिक मूल्यवान है। इसी सातवें को पंतजलि ने ध्यान कहा है। इसी सातवें को बुद्ध ने सम्यक स्मृति कहा है। जागरण कहो, होश कहो, साक्षी कहो, कृष्णमूर्ति जिसको ‘अवेयरनेस’ कहते हैं, वह कहो! यह सातवां सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि सातवें के इस तरफ छह मनों का जाल है, जो कि संसार है; और सातवें के उस तरफ आठवां है, जो कि निर्वाण है। और ये आठों ही चित्त की दशाएं हैं। यह सातवें को जिसने समझ लिया, उसने सारी विधियों का राज समझ लिया। और सातवें के पार जो उठ गया, वह सारी विधियों के पार उठ गया।
लेकिन जब तक तुम सातवें मन तक नहीं पहुंचे हो, तब तक यू. जी. कृष्णमूर्ति या ऐसे और बकवासियों की बातों में मत पड़ जाना। सातवें तक पहुंचो, तब ये बातें सार्थक हैं। मैं भी तुमसे कहना चाहता हूं यही बातें। लेकिन सातवें तक पहुंचाऊं तो तुमसे कहूं। तुम्हें इतना प्रौढ़ करूं तो तुमसे कहूं। कच्चे मन में तुमसे कहूं तो शायद नुकसान ही हो, हानि हो; तुम कभी पहुंच ही न पाओ।
सातवें को समझने के लिए एक उदाहरण तुम्हारे काम आएगा। अमरीका में, डिजनीलैंड में, उन्होंने बहुत तरह के खेल ईजाद किए हैं। उसमें एक कमरा बहुत सुंदर है। अमरीका कभी जाओ, और कहीं जाना या न जाना, डिजनीलैंड जरूर जाना। और वह कमरा जरूर देखना जहां उन्होंने एक अदभुत ईजाद की है, जो भविष्य में काम आएगी सारी दुनिया के। वह ईजाद है एक गोल कमरा, बड़ा कमरा, जैसे इतना कक्ष गोल। और जैसे तुम फिल्म देखने जाते हो, तो फिल्म तो सामने पर्दे पर होती है। उस कमरे में सब तरफ प्रोजेक्टर लगे हैं। इसलिए फिल्म पूरी दीवालों पर होती है--चारों तरफ; सामने ही नहीं होती। पीछे लौट कर देखो तो वहां भी फिल्म होती है, बगल में देखो, तो वहां भी फिल्म होती है; इस तरफ देखो तो यहां भी फिल्म होती है। और व्यवस्था ऐसी की है कि कुछ घटनाओं के लिए उन्होंने फिल्म बनाई है।
जैसे तुम हवाई जहाज पर नियाग्रा जलप्रपात के पास उड़ रहे हो। तो तुम्हें बता दिया जाता है कि तुम हवाई जहाज में बैठे हो। और तुम चारों तरफ देखते हो, और तुम पाते हो हवाई जहाज का वातावरण। इस तरफ देखो तो यह खिड़की हवाई जहाज की। इस तरफ देखो तो एअर होस्टेस जा रही है। पीछे लौट कर देखो तो यात्री बैठे हुए हैं। आगे देखो तो पायलट है, और इंजिन की आवाज सुनाई पड़ रही है। चारों तरफ, एक क्षण को तुम्हें पूरी भ्रांति हो जाती है कि तुम हवाई जहाज में बैठे हुए हो। तुम जानते भी हो कि मैं अपनी कुर्सी में बैठा हुआ हूं। तुम टटोल कर भी देख लेते हो। मगर बगल में यह आदमी बैठा है, बगल में यह औरत बैठी है। यह एअर होस्टेस जा रही है। यह हवाई जहाज की आवाज, यह हवाई जहाज उ़ड़ा जा रहा हैं। फिर तुम खिड़की से झांक कर देखते हो, और तुम्हें इस तरफ के दृश्य दिखाई पड़ते हैं--सूरज उग रहा है, पहाड़ियां...। और तुम पीछे लौट कर देखते हो खिड़की से और खिड़की के पीछे जो दिखाई पड़ना चाहिए, जो छूटा जा रहा है पीछे हवाई जहाज से, वह दिखाई पड़ता है। और तुम आगे देखते हो, और आगे जो दिखाई पड़ना चाहिए हवाई जहाज से, वह दिखाई पड़ता है।
जिन लोगों ने इस कमरे में जाकर बैठ कर देखा है, उनकी प्रतीति यह है कि कई बार ऐसा मौका आ जाता है कि बिलकुल भूल हो जाती है, बिलकुल भूल हो जाती है! स्मरण ही भूल जाता है कि मैं सिर्फ खेल देख रहा हूं। बिलकुल वास्तविक हो जाता है। हालांकि किसी मन के कोने में यह याद भी बनी रहती है कि यह सब खेल है, सब दीवालों पर फिल्में चल रही हैं।
यह सातवीं दशा है, जहां नीचे छह मनों का खेल चल रहा है। और सातवीं दशा, जहां खेल चल रहा है यह भी दिखाई पड़ रहा है, और धीमी सी यह भी स्मृति बनी है कि यह सब खेल है--मैं देखने वाला हूं; मैं द्रष्टा हूं! जो व्यक्ति सातवें में प्रवेश करता है उसके सामने दो बातें हो जाती हैं: एक तरफ आठवां, साक्षी की परम अनुभूति, और दूसरी तरफ छह का जाल। संसार और निर्वाण के बीच में खड़ा हो जाता है--सातवें मन में जो खड़ा होता है। एक क्षण को यह भी याद आ जाती है कि हां, मैं अलग हूं।
तुम बैठो कभी शांत होकर। क्रोध आया, वासना उठी--देखो जरा गौर से! समझ लेना कि डिजनीलैंड में बैठे हो। मन के पर्दे पर सब सारे खेल चल रहे हैं। एक क्षण को ऐसा लगेगा कि हां, मैं देखने वाला। यह मैं नहीं हूं। यह क्रोध मैं नहीं हूं, मैं सिर्फ देखने वाला हूं। यह सिर्फ मेरा सपना है, जो मैं देख रहा हूं। लेकिन फिर भूल जाएगा, और क्रोध तुम्हें पकड़ लेगा। उसका धुआं तुम्हें जकड़ लेगा, और तुम भोक्ता हो जाओगे, कर्ता हो जाओगे। फिर सरकोगे, फिर हो जाओगे।
ध्यान की यही कशमकश है। ध्यान का यही संघर्ष है, कि ध्यान में याद भी बनी रहती है साक्षी की, और भूल-भूल जाती है। जब भूल जाते हो तब तादात्म्य हो जाता है नीचे लोक से। जब याद आ जाती है, तब तादात्म्य हो जाता है ऊपर के लोक से।
सातवीं अवस्था तक पहुंचाने का विधियों का उपयोग है। साधनाओं का, योग का, ध्यान का, पूजा-अर्चना का, मंत्र का, यंत्र का, तंत्र का, सबका उपयोग है--सातवें तक पहुंचाने में। और सातवें के बाद सब छोड़ देना है। आठवें पर ध्यान करना है। आठवें तक कोई विधि नहीं जाती; सातवें तक सब विधियां ले जाती हैं। अब तो सिर्फ साक्षी है, जिसको कृष्णमूर्ति ‘च्वाइसलेस अवेयरनेस’ कहते हैं--विकल्प-रहित साक्षी। कोई चुनाव नहीं! चुपचाप इस साक्षीभाव में प्रवेश हो जाना है।
जब तुम इतने साक्षीभाव में प्रविष्ट हो जाओ कि एक क्षण को भी भ्रांति पैदा न हो तादात्म्य की, तो तुम आठवीं अवस्था में पहुंच गए। यही निर्वाण है। यही मोक्ष है। यही कैवल्य है।
अगर इस आठवें तक जाना हो, तो विधियों का उपयोग करके सातवें तक पहुंचना। और फिर सातवें में विधियों को त्याग देना।
लेकिन जो लोग सुन लेते हैं किसी से, जैसे कृष्णमूर्ति से सुन लिया यू. जी. कृष्णमूर्ति ने, और आकर लोगों को समझाने लगे, उन्हें कुछ भी पता नहीं है वे क्या कर रहे हैं।
ध्यान रहे, इस जगत में जो लोग बिना जाने लोगों को समझाने लगते हैं, उनसे बड़ा अहित और कोई भी नहीं करता। हत्यारे भी नहीं करते! क्योंकि हत्यारे तुम्हारा शरीर काट सकते हैं, तुम्हें नहीं काट सकते। लेकिन इस तरह के लोग तुम्हारी आत्मा को विकृत कर सकते हैं। ये तुम्हें ऐसी भ्रांत धारणाएं दे सकते हैं कि तुम जहां हो वहीं के वहीं रह जाओ; जो हो वैसे के वैसे रह जाओ।
तुम अभी पांच इंद्रियों में भटके हो, छठवें पर भी नहीं पहुंचे। मंत्र तुम्हें छठवें पर पहुंचा सकता है। फिर छठवें पर पहुंच गए, तो सम्यक स्मृति, सम्मासति, तुम्हें सातवें पर पहुंचा सकती है। फिर सातवें पर पहुंच गए तो सबका विसर्जन। उसके आगे कोई विधि नहीं जाती। उसके आगे कोई उपाय नहीं जाता। उसके आगे कोई गुरु नहीं है, कोई शिष्य नहीं है। उसके आगे बस शुद्ध चैतन्य है। उसके आगे सब रूप खो जाते हैं; सब आकार खो जाते हैं--सिर्फ निराकार है।
सातवें तक उपयोग करना; सातवें पर छोड़ देना और आठवें में प्रवेश कर जाना।
दूसरा प्रश्न:
संत कबीर का एक पद है: ‘हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको बार-बार तू क्यों खोले।’ फिर अन्यत्र उनका दूसरा पद है: ‘दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम।’ भगवान, ये विरोधाभासी लगने वाले पद क्या साधना और सिद्धि के भिन्न-भिन्न तलों पर लागू होते हैं? इस पर प्रकाश डालने की कृपा करें।
ये दोनों वक्तव्य भिन्न-भिन्न तलों पर लागू नहीं होते, एक ही तल पर लागू होते हैं। और विरोधाभासी भी नहीं हैं। इनका प्रयोजन अलग-अलग है। एक ही तल पर लागू होते हैं, लेकिन प्रयोजन अलग-अलग है। समझना।
पहला पद: ‘हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको बार-बार तू क्यों खोले।’
जब पहली दफे किसी को आत्मिक अनुभूति का हीरा हाथ लगता है, तो उसे बार-बार खोल कर देखने की इच्छा होती है। ऐसा प्यारा अनुभव है, ऐसा अपूर्व अनुभव है कि बार-बार टटोलने का मन होता है, कि है न अभी, खो तो नहीं गया? फिर खोली गांठ, फिर देख लिया। फिर बांधी गांठ, फिर देख लिया।
कबीर कहते हैं: ऐसा बार-बार खोल कर देखना घातक है। घातक दो कारणों से है। एक: अगर तुम उसे बार-बार खोल कर देख रहे हो, तो उसका अर्थ हुआ तुम बार-बार उसकी आकांक्षा कर रहे हो। और अगर तुम बार-बार आकांक्षा कर रहे हो, तो बस वहीं अवरुद्ध हो जाओगे। और भी हीरे हैं अभी। अभी और बड़े हीरे हैं, उनका कोई अंत नहीं है। इसी पर मत रुक जाना। तुम्हारे अनुभव में यह सर्वाधिक मूल्यवान है। शायद तुम इसी पर रुक जाओ। तुम सोचो बस आ गए, पहुंच गए, बात खत्म हो गई। अब और कहां जाना है? और तुम इसी में अटक जाओ और इसी में रसलीन हो जाओ, तुम्हारी आसक्ति इतनी बढ़ जाए इससे कि यही बाधा बन जाए।
आत्मिक अनुभवों का कोई अंत नहीं है--विस्तीर्ण होते चले जाते हैं, विराट होते चले जाते हैं! इसकी तुम्हें याद रहे। तो इसलिए जो हो गया, हो गया; अब आगे की तलाश करो। अब उसी को लौट-लौट कर मत देखते रहो। उसको खोल-खोल कर देखने का मतलब है, अतीत में देखना।
ऐसा रोज हो जाता है। किसी को पहली दफा ध्यान का अनुभव होता है, बस फिर मुश्किल शुरू होती है। फिर वह मेरे पास आता है, रोता है; कहता है कि अब नहीं हो रहा। अब वह कहता है, फिर दिखा दें, वही होना चाहिए।
मैं उससे कहता हूं: उससे बड़ा होगा। अगर तुम उसी में अटके, तो दो खतरे हैं। अगर वह हो भी, तो भी उतना सुंदर नहीं होगा, जितना पहली दफे मालूम हुआ था। कोई चीज दुबारा उसी अनुभव में उतनी सुंदर नहीं होती।
तुमने एक गीत सुना। पहली दफे बड़ा प्यारा था। दुबारा सुना, थोड़ा कम हो जाएगा प्यारापन। अनिवार्य है। तीसरी दफे सुना, साधारण हो जाएगा। चौथी दफे सुना, ऊब आएगी, जम्हाई लोगे। पांचवीं दफे सुना, चीख निकल जाएगी, कि बंद करो यह बकवास! क्या मुझे पागल कर देना है?
मुल्ला नसरुद्दीन भोजन कर रहा था। एकदम उसने थाली देखी। थाली आकर रखी गई, और उसने थाली को उठा कर फेंक दिया और एकदम चिल्लाने लगा और सामान फेंकने लगा। उसकी पत्नी बोली: क्या मामला है? उसने कहा: क्या मुझे पागल करना है? भिंडी, भिंडी, भिंडी...!
उसकी पत्नी ने कहा: अरे, हद हो गई! जब मैंने सोमवार को भिंडी बनाई थी तो तुमने कहा था--बड़ी प्यारी, बड़ी अच्छी! जब मैंने मंगल को बनाई थी, तब भी तुमने कहा कि स्वादिष्ट। जब मैंने बुधवार को बनाई थी, तब भी तुम कुछ बोले नहीं; चुप रहे थे। जब मैंने बृहस्पतिवार को बनाई थी, तब यद्यपि तुम कुछ बोले नहीं थे, लेकिन तुम्हारा चेहरा कुछ उदास जरूर था। फिर मैंने शुक्रवार को भी बनाई थी, तुमने ठीक से खाई भी नहीं थी। आज शनिवार है। मैंने फिर भिंडी बनाई, तो तुम इतने चिल्ला क्यों रहे हो? इतने पागल क्यों हो रहे हो? और यह वही भिंडी है, जो सोमवार को बनाई थी। तुम इतना असंगत व्यवहार क्यों कर रहे हो?
यह असंगत व्यवहार नहीं है। हर चीज अगर दोहरती रहे तो व्यर्थ हो जाती है। तुम जब जाते हो कश्मीर--और हिमालय का सौंदर्य और डल झील, तुम्हें जैसी सुंदर मालूम होती है, तुम यह मत समझना कि डल झील में जो तुम्हारी नौका चला रहा है माझी, उसको भी इतनी सुंदर मालूम होती है। उसको कुछ पता ही नहीं चलता। कहां की डल झील! वह तो यह सोचता है कि ये बुद्धू, क्यों चले आते हैं?
मैं कश्मीर में था। मेरे साथ कोई बीस-पच्चीस मित्र थे कश्मीर में। बंबई के सारे मित्र थे। जिस बजरे पर हम रुके थे, उस बजरे का मल्लाह, जब आखिरी दिन हम चलने लगे, कहने लगा: बाबा! एक दफे बंबई दिखा दो। बंबई देखनी ही है। बस आपकी कृपा हो जाए, तो बंबई देख लूं।
मैंने कहा: तू बंबई देख कर क्या करेगा? ये बंबई के बीस-पच्चीस लोग, ये तो कश्मीर देखने आए हैं।
वह बोला कि हो गया कश्मीर बहुत, देख लिया बहुत। यहीं जन्मे हैं, क्या यहीं मरना है? और रखा क्या है यहां?
वह कहने लगा कि मैं तो कहता नहीं, लेकिन मुझे हैरानी तो होती है कि लोग बंबई से यहां किसलिए आते हैं?
जिस अनुभव को तुम रोज-रोज दोहराओगे, व्यर्थ हो जाएगा, असार हो जाएगा। इसलिए कबीर ने कहा है: ‘हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको बार-बार तू क्यों खोले?’ इसलिए पीछे लौट-लौट कर मत देखो। उसी अनुभव को बार-बार मत मांगो। अगर मिलेगा, तो भी खत्म हो जाएगा।
और दूसरी बात और महत्वपूर्ण है कि दुबारा मांगने से मिलता नहीं। ये अनुभव ऐसे हैं कि मांगने से नहीं मिलते। मांगने से अटकाव हो जाता है। यह पहली दफे जब तुम्हें ध्यान घटता है, तो तुमने मांगा थोड़े ही था। तुम्हें पता ही नहीं था, ध्यान क्या है? तुम निर्दोष थे; तुम बालक जैसे थे। उस निर्दोषता में ध्यान घट गया। अब तुम चालाक हो गए। अब तुम बालक नहीं हो। अब तुम मांग कर रहे हो कि वही अनुभव चाहिए। बस यही भेद अब रुकावट बन जाएगा। यह अनुभव दुबारा नहीं होगा। तुम अड़चन में पड़ जाओगे।
इसलिए कबीर कहते हैं: जो अनुभव में आ गया, उस पर गांठ बांधो और भूल जाओ। आगे बढ़ो, अभी बहुत यात्रा है।
मोहब्बत में कुछ कामरां और भी हैं
तेरे गम के कुछ राजदां और भी हैं
संभल कर जरा जल्वए-तूरे-मूसा
हरीफे रुखे कहकशां और भी हैं
कमर को हैं बेवजह क्यों नाजे बेजा
सबाबे गुलो-गुलसितां और भी हैं
और भी बगीचे हैं, और भी पर्वत-मालाएं हैं।
‘कमर को है बेवजह क्यों नाजे बेजा?’ इस चंद्रमा में ही मत अटक जाना। यह चंद्रमा व्यर्थ ही गुमान कर रहा है।
कमर को है बेवजह क्यों नाजे बेजा
सबाबे गुलो-गुलसितां और भी हैं
उद्यान और भी हैं, फूल और भी हैं।
अभी नामुकम्मल-सी बरबादियां हैं
निगाहों में कुछ बिजलियां और भी हैं
लबों पर ही रक्सां नहीं गीत उनके
निगाहों में राजे निहां और भी हैं
मयस्सर नहीं सर्फे-गम तुमको रैना
तुम्हारे सिवा कामरां और भी हैं
बहुत है अभी शेष। अभी और बड़ी मंजिलें हैं। अभी और बड़ी ज्योतियां हैं। अभी और सुंदर पर्वत-श्रृंखलाएं हैं। अभी और फूल खिलेंगे। अभी और कमल खिलने को हैं।
इसलिए जो छोटा सा फूल खिला है, उसी को पकड़ कर मत बैठ जाना। मंजिल का अंत मत समझ लेना। यह तो पहली बात का अर्थ है: ‘हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको बार-बार तू क्यों खोले?’ यह साधक को स्वयं के लिए कहा है कि तू अपने ही देखने के लिए हीरे को बार-बार मत टटोलना। उसी टटोलने में हीरा खो जाएगा। और इसी टटोलने में तू उलझ जाएगा। जो अनुभव हो जाए, उसे भूल जाना, उसकी दुबारा मांग मत करना। पुनरुक्ति की आकांक्षा मत करना।
और फिर दूसरा पद है: ‘दोनों हाथ उलीचिए, यही सज्जन को काम।’... यही सयानो काम!
यह दूसरे के लिए है। जिसको मिला हो, वह खुद अपने अतीत को तो बार-बार लौट कर न देखे; लेकिन जो मिला हो, उसको बांट दे। फर्क समझ लेना। इनमें विरोध नहीं है। ये भिन्न-भिन्न बातें हैं--एक ही तल पर काम की। जो तुम्हें मिला है, उसी-उसी को गुनगुनाते मत रहना उसी-उसी को मुट्ठी में बांध कर मत बैठ जाना। उसे मंजिल मत समझ लेना। अभी मंजिलें और भी हैं! लेकिन जो तुम्हें मिला है, उसे बांट देना। उसे दूसरों को दे देना। उसे लुटा देना। जो आनंद तुम्हें मिले, उसे साझी बना लेना किसी को।
जब तुम्हारे भीतर ध्यान की खुशबू फैले, तो तुम उसे अपने भीतर सम्हाल कर मत रख लेना। इस अर्थ में नहीं है पहला वाक्य कि तुम कंजूसी कर लेना, कि तुम कृपण हो जाना। यह मत समझ लेना इसका अर्थ--‘हीरा पायो गांठ गठियायो’--कि हो गए कंजूस, कि लगा लिया ताला, कि चले गए बैंक में और लाकर में बंद कर आए। यह मतलब नहीं है। इतना ही मतलब है कि तुम अपने लिए उस तरफ अब मत देखना। मगर जो मिला है, उसे बांट दो।
इसलिए दूसरा वचन भी कहा कि यही सज्जन का, सयाने का काम है कि जो हाथ आ जाए, उसे दोनों हाथ उलीचिए। क्यों? क्योंकि जितना उलीचोगे, उतना ज्यादा पाओगे। जैसे कुएं का पानी उलिचता चला जाए, तो नये झरने फूटते हैं; नये जल-स्रोत आते हैं। कुआं भरता चला जाता है। अगर कुएं का पानी न उलीचो, कृपण हो जाओ कि कहीं खर्चा न हो जाए कुएं का पानी, तो सड़ जाएगा पानी। पीने योग्य न रह जाएगा। विषाक्त हो जाएगा। तो कुएं का जल विषाक्त न हो जाए।
उलीचो! जो तुम्हारी अनुभव की संपदा है, बांट दो। चढ़ जाओ घरों की मुंडेरों पर और चिल्लाओ! जो तुम्हें मिला है, खबर कर दो औरों को कि तुम्हें भी मिल सकता है।
दस से कहोगे, शायद एकाध सुनेगा, समझेगा; नौ हंसेंगे। उनकी फिकर मत करना। वस्तुतः वे तुम पर नहीं हंस रहे हैं, वे हंस कर सिर्फ अपनी मूढ़ता जाहिर कर रहे हैं। जो एक समझेगा, उसके जीवन में क्रांति की किरण उतर जाएगी। और उतना पर्याप्त है। अगर दस को पुकारा और एक ने समझ लिया तो पर्याप्त है। इतना भी बहुत है।
और तुम्हें बड़ी धन्यता का अनुभव होगा। तुम्हारे द्वारा अगर किसी के जीवन में एक छोटी सी किरण भी आ जाए, तो तुम्हें इतनी धन्यता का अनुभव होगा, जितनी धन्यता का अनुभव जब तुम्हारे जीवन में वह किरण आती है तो नहीं होता। जब तुम्हें मिलती है तब एक बात, खूब आनंद होता है। मगर उस आनंद के मुकाबले कुछ भी नहीं, जब तुम दूसरे को बांट देते हो। वह आनंद और भी बड़ा है, और भी विशालतर है, और भी श्रेष्ठतर है।
देने का मजा, पाने के मजे से सदा से ज्यादा रहा है।
खयाल करो, जब तुम किसी से कुछ पाते हो तो एक सुख मिलता है। मगर तुमने देखा है, जब तुम किसी को कुछ देते हो, उसके मुकाबले? इसलिए तो लोग भेंट देते हैं। भेंट का एक सुख है। देने में एक मजा है। जिनको हमने प्रेम किया, उन्हें कुछ दिया। और परमात्मा से बड़ी भेंट और क्या होगी? अगर यह हीरा तुम बांट सको, तो तुम धन्यभागी हो।
ये एक ही तल पर दिए गए वक्तव्य हैं। ये अलग-अलग साधक को नहीं कहे गए हैं। अपने लिए भूल जाना। जो हुआ, हुआ। आगे बढ़ो। दूसरे के लिए बांट देना। और मेरे हिसाब से दोनों में एक संगति है। अगर तुम बांट दो, तो तुम लौट कर देखोगे नहीं। अगर रोक लो, तो ही लौट कर देखोगे।
रोकना क्या है? परमात्मा देने वाला है। श्रद्धा रखो, और देगा। और जितना पाएगा कि तुम देने में कुशल हो गए हो, उतना ज्यादा देगा। जितना पाएगा कि तुम बांटने में आनंद लेने लगे हो, उतनी तुम्हारी संपदा बढ़ती चली जाएगी। तुम परमात्मा के हाथ हो जाआगे। क्योंकि परमात्मा बांटना चाहता है। वह हाथों की तलाश में है। उसने सदियों से विज्ञापन दिए हैं, लेकिन बहुत मुश्किल से हाथ मिलते हैं। कभी कोई बुद्ध का हाथ, कृष्ण का हाथ, कभी किसी कृष्णमूर्ति का हाथ, कभी क्राइस्ट का हाथ--बड़ी मुश्किल से कोई हाथ मिलते हैं। तुम भी उसके हाथ बन जाओ।
तुमने परमात्मा की मूर्तियां देखी हैं हजार हाथों वाली? हजार हाथ कहां से लाएगा? उन मूर्तियों में एक सत्य छिपा है--हमारे हजारों हाथ उसके हाथ बन जाएं। और कहां से हाथ लाएगा? हम ही उसके हाथ हैं।
पिछले महायुद्ध में ऐसा हुआ: इंग्लैंड के एक नगर में, बीच चौरास्ते पर क्राइस्ट की एक मूर्ति थी। बम गिरा और वह मूर्ति खंड-खंड होकर गिर गई। बड़ी प्यारी मूर्ति थी। और गांव के लोगों ने सारे खंड इकट्ठे किए और फिर से मूर्ति को रचा, जोड़ा खंडों को। और सब तो टुकड़े मिल गए, दो हाथ मूर्ति के न मिले। शायद बिलकुल चकनाचूर हो गए होंगे। तो उन्होंने एक मूर्तिकार को कहा कि ये दो हाथ तू बना दे। मूर्तिकार ने बहुत सोचा। और उसने कहा: हाथ की बजाय, मैंने बहुत सोचा, बहुत खोजा, मैं ये पत्थर पर दो शब्द खोद लाया हूं। यह पत्थर वहां लगा दें।
और वह पत्थर वहां लगा दिया गया। वह हाथों से ज्यादा प्रीतिकर पत्थर है। उस पत्थर पर लिखा हुआ है: मेरे अपने हाथ नहीं हैं, तुम्हारे हाथों का ही मुझे भरोसा है।
परमात्मा के अपने हाथ नहीं हैं। तुम्हारे हाथ ही उसके हाथ बनते हैं।
इसलिए--‘दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम।’
ये दोनों वक्तव्य, दो अलग बातों को, एक ही साधना की अवस्था में समझाने के लिए हैं। अपने लिए बार-बार मत खोलना हीरे को। दूसरों के लिए--लुटा देना।
आज इतना ही।