DHARAMDAS
Ka Sovai Din Rain 06
Sixth Discourse from the series of 11 discourses - Ka Sovai Din Rain by Osho. These discourses were given during MAR 31 - APR 10 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, क्या यह सच नहीं है कि ज्ञानोपलब्ध लोगों की अनुपस्थिति में--और वे दुर्लभ लोग सदा नहीं होते--पंडित और पुरोहित ही धर्म की मशाल जलाए रखते हैं?
धर्म कोई मशाल नहीं। जिसे जलाए रखना पड़े, वह धर्म नहीं। जिसे हम सम्हालें, वह धर्म नहीं। जो हमें सम्हालता है, वही धर्म है।
बिन बाती बिन तेल! न तो धर्म की कोई बाती है, न कोई तेल है। धर्म शुद्ध प्रकाश है। उसके लिए किसी ईंधन की कोई जरूरत नहीं। धर्म का ही विस्तार है। धर्म साधे हुए है सारे अस्तित्व को। पंडित-पुरोहित धर्म को साधेगा? फिर वह धर्म न रह जाएगा। हिंदू धर्म को पंडित-पुरोहित सम्हाल कर रखता है। इस्लाम धर्म को पंडित-पुरोहित सम्हाल कर रखता है। धर्म को नहीं।
धर्म तो तब तुम्हें उपलब्ध होता है जब तुम अपने को सम्हाल लेते हो--बस तत्क्षण धर्म का दीया जल उठता है। धर्म का दीया तो जला ही हुआ था, सिर्फ तुम आंखें बंद किए थे। अपने को सम्हाल लेते हो, आंख खुल जाती है।
तुम चेतो। तुम्हारे चेतते ही, तुम्हारे चैतन्य होते ही, तुम चकित हो जाते हो कि मैं जिसे खोज रहा था वह मेरे भीतर सदा से मौजूद था; जिसे मैं दूर खोज रहा था वह मेरे पास था। और जिसे मैं बाहर तलाशता था वह मेरे भीतर था।
धर्म तुम्हारा स्वभाव है। धर्म मशाल नहीं। मशाल में तो तेल भी डालना होगा। कभी बुझने लगे मशाल तो सम्हालना भी होगा। किन्हीं हाथों की जरूरत पड़ेगी। धर्म तो वह है जो सब हाथों को सम्हाले हुए है। तुम श्वास धर्म के कारण ले रहे हो। तुम जी धर्म के कारण रहे हो। चांद-तारे धर्म के कारण चलते हैं। पृथ्वी सम्हली है धर्म के कारण। धर्म इस जगत को सम्हालने वाले नियम का नाम है।
धर्म को पंडित-पुरोहित कैसे सम्हालेंगे! और अगर पंडित-पुरोहित धर्म को सम्हालेंगे, तो पंडित-पुरोहितों को कौन सम्हालेगा? इसे एकबारगी ठीक से समझ लो। पंडित-पुरोहित जिसे सम्हालते हैं, वह धर्म नहीं है और धर्म नहीं हो सकता है। इसीलिए धर्म नहीं हो सकता क्योंकि पंडित-पुरोहितों के द्वारा सम्हाला गया है।
पंडित-पुरोहित खुद अंधे हैं। इन्हें रोशनी दिखी नहीं। जो इन्हें दिखा नहीं, उसे ये सम्हालेंगे? हां, शास्त्र को सम्हाल लेंगे। शास्त्र में थोड़े ही धर्म है। धर्म शून्य के अनुभव में है। शब्द में धर्म नहीं है, निःशब्द में धर्म है। निःशब्द का इन्हें कुछ पता नहीं है। धर्म मंदिर-मस्जिद में होता तो ये सम्हाल लेते। मगर धर्म मस्जिद-मंदिर में नहीं है। धर्म बहुत विराट है। सब मंदिर-मस्जिद धर्म के भीतर हैं। धर्म किसी के भीतर नहीं है।
धर्म का अर्थ होता है: हमारे पहले जो था, हमारे बाद भी जो होगा। हम आते हैं, हम जाते हैं--धर्म रहता है। लेकिन निश्चित ही वह धर्म न तो हिंदू हो सकता है, न मुसलमान हो सकता है, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध। वह तो शुद्ध धर्म है। उस धर्म को, जब भी तुम जाग कर आंख खोलते हो, तुम सदा अपने पास पाते हो, अपने प्राणों में पाते हो, अपनी श्वासों में, अपने हृदय की धड़कनों में। उसे खोजने कहीं भी नहीं जाना पड़ता।
फिर पंडित-पुरोहित क्या सम्हाल रहे हैं। वे धर्म की लाश सम्हालते हैं, मशाल नहीं। बुद्ध से धर्म बोला, क्योंकि शून्य बोला। बुद्ध के हृदय की वीणा पर वह संगीत उठा जिसको हम अनाहत कहते हैं; वह नाद उठा। धर्म बोला बुद्ध से। बौद्ध धर्म नहीं बोला, खयाल रखना। बुद्ध बौद्ध नहीं थे और न ईसा ईसाई थे और न कृष्ण हिंदू थे। बुद्ध से धर्म बोला। कृष्ण से धर्म बोला। क्राइस्ट से धर्म बोला। पंडित-पुरोहितों ने शब्द पकड़े, इकट्ठे किए, सम्हाले। जो बोला गया था, उसे सम्हाल कर गठरियां बांध लीं। वेद बने, बाइबिल बनी, कुरान बनी, धम्मपद बना। फिर उन गठरियों को वे सम्हाल रहे हैं और ढो रहे हैं। और उन पर कचरा जमता जाता है, धूल बैठती जाती है। सदियां उन पर जमती जाती हैं। धूल की पर्तें पर घनी होती जाती हैं। अब तो शब्द भी कहां खो गए, उनका भी पता नहीं है। अब तो शब्द भी बड़ी धूल-धवांस में खो गए हैं। एक-एक शास्त्र पर इतनी व्याख्याएं लद गई हैं... गीता की एक हजार व्याख्याएं हैं! उन एक हजार व्याख्याओं के जंगल से पता लगाना एकदम असंभव है कि कृष्ण ने कहा क्या था। अगर कृष्ण ने हजार बातें कही थीं तो या तो कृष्ण पागल थे या अर्जुन सुन-सुन कर पागल हो गया होगा। कृष्ण ने तो एक ही बात कही होगी। मगर वह क्या है? कैसे जानोगे?
पंडित-पुरोहितों के पास बड़ी व्याख्याएं हैं, तुम कैसे तय करोगे कि क्या कृष्ण ने कहा? एक ही उपाय है: अपने भीतर जाओ। कृष्ण वहां अब भी बोलते हैं। अर्जुन बनो, कृष्ण अब भी बोलते हैं। आनंद बनो और बुद्ध अब भी कहेंगे। अब भी वही कहेंगे जो तब कहा था। बुद्ध और कृष्ण का सवाल नहीं--धर्म बोलता है। बुद्ध एक ढंग हैं धर्म के बोलने के; कृष्ण एक और ढंग हैं। वही बात बोली जाती है जो बुद्ध ने बोली। वही! भाषा अलग होगी, भाव वही है। अभिव्यंजना के रंग-ढंग अलग होंगे, मगर अभिव्यंजित वही है। एक ही कहा गया है। सदा एक ही दोहराया गया है। समय जाता है, भाषाएं बदल जाती हैं, प्रतीक बदल जाते हैं, कथाएं बदल जाती हैं, दृष्टांत बदल जाते हैं। मगर जिस तरफ इशारे हो रहे हैं, वह नहीं बदलता। अंगुलियां बदल जाती हैं इशारा करने वाली, मगर जिस चांद की तरफ अंगुलियां उठी हैं वह चांद वही है। इसे कोई नहीं सम्हालता।
लेकिन पंडित-पुरोहित कुछ तो सम्हालते हैं निश्चित। लाश सम्हालते हैं। बुद्ध चले, उनके चरण-चिह्न बने समय की रेत पर। वे उन चरण-चिह्नों को सम्हालते हैं; वे उन्हीं चरण-चिह्नों की पूजा करते हैं, उन्हीं पर फूल चढ़ाते रहते हैं। बुद्ध के चरण-चिह्नों में बुद्ध नहीं हैं। वह तो गया जो चला था। और जो चला था वह समय की रेत पर पकड़ा नहीं जा सकता। वह शाश्वत है। समय में केवल भनक सुनाई पड़ती है, प्रतिध्वनि आती है। समय में असली चीज पकड़ में नहीं आती।
मैं रास्ते पर चलूं, धूल में मेरे पैर के निशान बन जाएं, तुम उन्हीं निशानों को पकड़ कर बैठ जाओ--चूक हो जाएगी, बड़ी भूल हो जाएगी। उन चरण-चिह्नों की पूजा करने से तुम्हें कुछ भी न मिलेगा। उन्हें भूलो! उसकी तरफ देखो, जो चला। उसे खोजो, जो चला। उसके कोई चरण-चिह्न नहीं हैं, क्योंकि जो चला है वह देह नहीं है। जो चला है वह आकार नहीं है। जो चला है वह शब्द नहीं है। उसकी तरफ खयाल करो। जरा बुद्ध की आंखों में झांको।
मेरी आंखों में झांको! मेरी देह को भूलो! मैं जो कहता हूं, उसमें बहुत मत उलझ जाना। मैं जो हूं, उसमें उलझ जाओ तो पार हो जाओ।
लाश रह जाती है। लेकिन लाशों को रख कर क्या करोगे? तुम्हारी मां चल बसी, बड़ी प्यारी थी--और कौन चाहता है कि मां चली जाए! लेकिन जब चल बसी तो लाश को ले जाते हो न मरघट? इसी देह में तो थी, यह भी सच है; मगर अब नहीं है, यह और भी ज्यादा सच है। जो इस देह में था वह पक्षी तो उड़ गया; वह हंस अब इस पिंजड़े में नहीं है। पिंजड़ा पड़ा रह गया है, हंस उड़ चुका है। हंस उड़ चुका, अब इस पिंजड़े का क्या करोगे? बांधो अरथी, ले चलो मरघट। रखो आग में, भस्मीभूत हो जाने दो। राख भी बचे, उसे भी गंगा में डुबा आना। सब स्वाहा कर दो। करना ही पड़ता है।
प्रत्येक शास्ता के बाद यही अड़चन खड़ी होती है। शास्ता तो चला जाता है। हंसा तो उड़ गया! शब्द पड़े रह जाते हैं। समय की धूल पर पैर के निशान रह जाते हैं! स्मृतियां रह जाती हैं। लोगों ने जो देखा था, जो सुना था, उसकी याददाश्तें मन में रह जाती हैं; उन्हीं को लोग संजो कर रख लेते हैं; उन्हीं की पूजा चलने लगती है। उसी को तुम धर्म कहते हो? वह लाश है। उससे छुटकारा होना चाहिए। उससे छुटकारा हो जाए तो तुम असली की तलाश करने लगो। पिंजड़े से मुक्त हो जाओ तो हंस की तरफ आंख उठे। पिंजड़े को ही पूजते रहते हो तो हंस की तरफ देखेगा कौन? तुम्हारी आंखें पिंजड़े से भर जाती हैं। तुम पिंजड़े में ही उलझ जाते हो। तुम पिंजड़े के क्रियाकांड में ही पड़ जाते हो। वही हो रहा है--मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में, गिरजे में, वही हो रहा है। पिंजड़े पूजे जा रहे हैं।
मशाल नहीं है धर्म। धर्म आविर्भाव है--शाश्वत का समय में; निराकार का आकार में; शून्य का शब्द में। और जब शास्ता जीवित होता है बस तभी पकड़ लेना तो पकड़ लिया; तब चूके तो चूके। फिर लकीरें पीटते रहो जीवन भर जन्मों-जन्मों तक, कुछ भी न होगा।
पंडित-पुजारी, पुरोहित, मौलवी, पादरी लकीरें पीटते रहते हैं। लकीरों पर लकीरें पीटते रहते हैं। लकीरों को सजाते रहते हैं, संवारते रहते हैं। लकीरों का शृंगार करते रहते हैं। और बड़ी कुशलता से। सदियों-सदियों में वे बड़े कुशल हो गए हैं। बाल की खाल निकालते रहते हैं और कुछ भी नहीं है। और लाश पड़ी रह गई है, उसमें से बदबू उठ रही है।
देखते नहीं तुम, सभी धर्मों से बदबू उठती हुई? नहीं तो हिंदू-मुसलमान लड़ता क्यों, अगर बदबू न उठती होती? धर्म के नाम पर जितना खून हुआ है, किसी और चीज के नाम पर हुआ है? धर्म के नाम पर जितना अनाचार हुआ है, किसी और चीज के नाम पर हुआ है? धर्म के नाम पर आदमी लड़ता ही तो रहा है। प्रेम की बातें चलती रहीं और तलवारों पर धार रखी जाती रही। प्रेम के गीत गाए जाते रहे और गर्दनें काटी जाती रहीं। धर्म के नाम पर कितना पाखंड हुआ है! अब भी जारी है। इस पाखंड के कारण ही मनुष्यता धार्मिक नहीं हो पा रही है।
जब तक झूठ को तुम झूठ की तरह न जानो, सच को तुम सच की तरह देखने में समर्थ न हो पाओेगे।
पंडित-पुरोहित से मुक्त होना जरूरी है। उससे मुक्त होकर ही तुम्हें धर्म की पहली दफा थोड़ी-थोड़ी प्रतीति होना शुरू होगी। छोड़ो पंडित-पुजारी को, चांद-तारों से दोस्ती करो! फूलों से मुलाकात लो! नदियों-सागरों से पूछो! यह आकाश ज्यादा जानता है। इस आकाश के नीचे पड़ जाओ शांत होकर। इस आकाश को अपने भीतर उतरने दो। यह कोयल की आवाज, ये पक्षियों के गीत--इनमें कहीं धर्म ज्यादा जीवंत है!
दूसरा प्रश्न:
भगवान, गुरु की निंदा सुनने का हमेशा निषेध किया गया है। ऐसा भी कहा गया है कि यदि कोई गुरु की निंदा कर रहा हो तो कान भी धो डालना चाहिए। आपका प्रेमी तो कभी ही मिलता है; पर आपके निंदक हर जगह पर मिल जाते हैं। हमारी सामर्थ्य भी नहीं है कि हम उनको कुछ समझाएं। ऐसे बहुधा उपलब्ध मौकों पर हमें क्या करना चाहिए? कृपा करके मार्ग स्पष्ट करें।
देवानंद! जिन्होंने कहा है, गुरु की निंदा नहीं सुननी चाहिए वे गुरु न रहे होंगे, बड़े कमजोर लोग रहे होंगे। यह तो असंभव ही है कि गुरु हो और उसकी निंदा न हो। ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं।
बुद्ध की कितनी निंदा हुई, इसका तुम्हें कुछ पता है? निंदा इतनी भयंकर रूप से हुई कि इस देश से बुद्ध-धर्म को उखड़ ही जाना पड़ा। बुद्ध इस देश में पैदा हुए, इस देश का धन्यभाग होना था कि बुद्ध इस देश में पैदा हुए, क्योंकि मनुष्य-जाति ने इतना ज्वलंत धर्म का आविर्भाव न पहले कभी देखा था, न पीछे कभी देखा। मगर अभागा यह देश! इतनी निंदा की बुद्ध की, कि इस देश से बुद्ध-धर्म को तिरोहित हो जाना पड़ा।
तुम सोचते हो, जीसस को लोगों ने सम्मान दिया था, फूलमालाएं पहनाई थीं? तो फिर सूली किसको लगी? वही सम्मान था। वही फूलमाला थी।
जीसस अपने गांव गए एक बार। गांव के सिनागॉग में उन्हें बुलाया गया। क्योंकि खबरें पहुंच गई थीं कि जीसस एक तरह के गुरु हैं। और उनसे कहा गया कि बाइबिल से कुछ वचन पढ़ कर हमें सुनाओ। जो वचन जीसस ने पढ़ कर सुनाए, वे बहुत बार पढ़े थे लोगों ने, जन्मों से लोग दोहराते रहे थे, सदियों से लोग दोहराते रहे थे। पुराने वचन थे। ईज़िया नाम के एक पैगंबर के वचन थे। लेकिन जिस ढंग से जीसस ने पढ़े, उस ढंग से किसी ने भी नहीं पढ़े थे। सिवाय ईजिया के उस ढंग से कोई कभी बोला नहीं था।
वचन हैं: ‘मैं आ गया। पहचानो मुझे! मेरी तरफ देखो! तुम जिसकी राह देखते थे, वह आ गया है। यह मैं रहा!’ इसको अगर जीसस ने ऐसा कहा होता कि ईज़िया ने कहा है, तो कोई अड़चन न हुई होती। लेकिन जीसस ने कहा कि जो ईजिया ने कहा है, वही मैं भी तुमसे कहता हूं: मैं आ गया जिसकी तुम प्रतीक्षा करते थे! मेरी आंखों में देखो!
और गांव के लोग एकदम पागल हो गए। यह तो कुफ्र हो गया। यह आदमी अपने को पैगंबर कह रहा है! कहां ईजिया और कहां यह गांव के बढ़ई जोसेफ का बेटा! लोगों ने उन्हें खदेड़ दिया चर्च से। उन्हें मारने के लिए पहाड़ी पर ले गए। बामुश्किल जीसस के शिष्य उन्हें बचा सके, नहीं तो वे पहाड़ी से उन्हें फेंक कर उनके ऊपर चट्टान गिरा देना चाहते थे, क्योंकि कुफ्र हो गया। उसी दिन जीसस ने कहा था: किसी तीर्थंकर, किसी पैगंबर का सम्मान उसके अपने ही गांव में नहीं होता।
फिर दुबारा वे अपने गांव नहीं गए। और उसके दो साल के भीतर ही उनको सूली लग गई। जिस दिन उन्हें सूली लगी, लोगों ने सब तरह का दुर्व्यवहार किया। पहाड़ी पर उस बड़े क्रास को कंधे पर रखवा कर जीसस को खुद क्रास को पहाड़ी पर ढोना पड़ा। बीच में वे गिर पड़े तो उनको कोड़े मार कर उठाया गया कि ढोओ। चढ़ाई थी। भरी धूप थी। भारी क्रॉस था। उसी दिन जीसस ने अपने शिष्यों की तरफ पीछे फिर कर भीड़ से कहा: जिसे मुझ तक आना है, उसे अपना क्रास अपने कंधे पर ढोना होगा।
जब उन्हें सूली पर लटकाया गया और उनके हाथों में खीले ठोके गए और पैरों में खीले ठोके गए, तो उन्हें बड़े जोर की प्यास लगी। धूप थी, दिन भर से कोई पानी नहीं मिला था, भोजन नहीं मिला था। यह पहाड़ी की चढ़ाई, यह क्रॉस का ले आना! उन्होंने पानी मांगा, लेकिन कोई पानी देने को नहीं था। किसी ने एक चीथड़े में, गंदी नाली पास में बहती थी, उसमें चीथड़े को डुबा कर, उसे बांस में उठा कर जीसस के मुंह के पास कर दिया कि इस पानी के अतिरिक्त तुम्हारे लिए हमारे पास और कोई पानी नहीं। लोग पत्थर मार रहे थे, गालियां दे रहे थे। यह सम्मान था!
यही तुमने सुकरात के साथ किया। यही तुमने मंसूर के साथ किया। यह तुम्हारी पुरानी आदत है। यह आदमियत का सदा का व्यवहार है सदगुरु के साथ।
तो तुम पूछते हो कि ‘गुरु की निंदा सुनने का हमेशा निषेध किया गया है।’
जिन्होंने कहा होगा, वे गुरु न रहे होंगे। क्योंकि गुरु के साथ अगर तुम जुड़े तो निंदा सुननी ही पड़ेगी। निंदा सुनने से ही काम चल जाए तो बहुत। पत्थर भी खाने पड़ सकते हैं। जीवन भी गंवाना पड़ सकता है। यह सब होगा। यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह कीमत चुकानी पड़ती है प्रभु के मार्ग पर।
इसलिए मैं तुमसे यह नहीं कह सकता कि कोई मेरी निंदा करे तो सुनना मत। प्रेम से सुनना! आनंद से सुनना! चलो, कम से कम इस बहाने मेरी याद तो कर रहा है कोई! उसे धन्यवाद देना कि चलो इस बहाने तुमने चर्चा तो छेड़ी! कौन जाने, आज जो निंदा कर रहा है, कल प्रेम भी करने लगे! उसके प्रति दुर्भाव मत लेना।
खयाल रखना, प्रेम और घृणा में बड़ा फासला नहीं है। प्रेम घृणा बन सकता है; घृणा प्रेम बन सकती है। वे रूपांतरित हो सकते हैं। तुमने देखा नहीं है, दोस्त ही तो दुश्मन बन जाते हैं! तो प्रेम कब घृणा बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। तुम प्रेमियों को नहीं देखते? पति-पत्नी सुबह बैठे थे कितने मग्न और सांझ झगड़ा हो गया और एक-दूसरे को मिटा डालने को तत्पर हो गए हैं। और कल सुबह फिर आनंदित हैं और फिर साथ बैठे हैं। तुम प्रेम और घृणा का यह खेल नहीं देखते? धूप-छांव की तरह यह खेल चलता है।
तो जो आदमी मेरी निंदा कर रहा है, एक बात तो पक्की है कि वह मुझमें उत्सुक हो गया है। यह तो अच्छी बात है। मुझमें रस जगा है। मेरी उपेक्षा तो नहीं कर रहा है, इतनी बात पक्की हो गई। इसको सौभाग्य समझो। आनंद से सुनना। शांति से सुनना। तुम्हारी शांति और तुम्हारा आनंद ही शायद उस आदमी की घृणा को प्रेम में बदलने का कारण हो जाए। उससे झगड़ना भी मत। उसे समझाने की, उसे बदलने की चेष्टा में भी मत लग जाना, क्योंकि ऐसी चेष्टाएं सफल नहीं होतीं। लेकिन अगर तुम शांत रह सको, अगर तुम प्रसादपूर्ण रह सको, अगर तुम उसे धन्यवाद दे सको और कह सको कि चलो इस बहाने याद तो की, मुझे याद तो करवाई! कांटा ही चुभाया, लेकिन मुझे तो याद आई! फूल से भी याद आती है, कांटे से भी याद आती है! मैं तुम्हारा धन्यवादी हूं!... तो शायद तुम्हारा ऐसा शांत व्यवहार उसे चौंकाए, उसे झकझोर जाए। उससे इतना ही कहना कि निंदा जितनी करनी है उतनी करो, मगर कभी पास आकर देखने की कोशिश भी करो! कभी दो क्षण वहां बैठो भी! हो सकता है तुम्हीं ठीक हो, तो तुम्हारी धारणा और भी मजबूत हो जाएगी चलने से। और कौन जाने तुम गलत हो तो एक गलती से छुटकारा हो जाएगा।
जब भी कोई निंदा करे, तुम समझाने की कोशिश मत करना। तुम नहीं समझा पाओगे। यह तर्क-वितर्क का काम नहीं है। यह मामला प्रेम का है। उसे पास ले आओ। यह बीमारी संक्रामक है। उसे निमंत्रण दे दो। उससे कहना कि आओ मेरे साथ, तुम भी चलो। तुम ठीक होओगे तो मैं भी तुम्हारे साथ हो लूंगा कल। कौन जाने तुम गलत होओ! मगर निर्णय के पहले निकट आना तो जरूरी है।
और एक बात खयाल रखना, जो मेरी निंदा कर रहा है वह उत्सुक तो हो गया है। वह निंदा ही इसलिए कर रहा है कि अब अपनी उत्सुकता से घबड़ा रहा है। निंदा एक मनोवैज्ञानिक बचाव का उपाय है। अब वह डर रहा है कि अगर उसने निंदा न की तो कहीं मेरे पास न चला जाए। निंदा के द्वारा वह बीच में दीवालें खड़ी कर रहा है, ताकि जाने के उपाय बंद हो जाएं। मेरे देखे तो शुभ हो रहा है।
तो मैं तुमसे न कहूंगा कि निंदा का निषेध करो और मैं तुमसे यह भी न कहूंगा कि अपने कान भी धो डालना। ऐसे तो दिन भर कान ही धोते-धोते तुम्हारा समय ़जाया होगा। इन फिजूल की बातों में मत पड़ो। जिन्होंने कहा होगा, दो कौड़ी के लोग रहे होंगे। उन्हें खुद भी अपने होने पर भरोसा न रहा होगा। मुझे भरोसा अपने पर है। तुम चिंता ही न करो। तुम किसी भांति उन्हें मेरे पास ले आओ। और वे आना चाह रहे हैं, इसलिए तो निंदा कर रहे हैं।
एक ही बात खयाल करो: प्रशंसा करने वाला भी मुझसे जुड़ गया, निंदा करने वाला भी मुझसे जुड़ गया। मुझसे वंचित वही रह सकता है जिसको उपेक्षा है। जो कहे--हमें कोई लेना-देना नहीं, न प्रशंसा, न निंदा--हमें कुछ लेना-देना नहीं, उसका जुड़ना बहुत मुश्किल है। वही दया योग्य है। अगर समझाना हो तो उसको समझाना--उपेक्षा वाले को। चाहे तुम्हारे समझाने से उसे निंदा ही पैदा हो जाए तो भी शुभ है; कम से कम निंदा तो होगी, कुछ तो होगा, मेरे खिलाफ तो होगा! मुझसे जुड़ तो गया, मुझसे संबंध तो बन गया।
शत्रुता भी एक तरह की मित्रता है, एक तरह का संबंध है। अब कभी-कभी रात में मैं उसे याद आऊंगा। एकांत बिस्तर पर पड़ा हुआ होगा, कभी सपने में उतरूंगा। कभी सोचेगा भी कि मैंने यह कहा, यह ठीक है या गलत है? तुम उसे सोचने दो, विचारने दो। तुम्हें भयभीत होने का कोई कारण नहीं।
जिन गुरुओं ने तुमसे कहा है कि कान धो डालना, उन्हें दो तरह के डर थे। बड़ा डर तो उन्हें यह था कि कहीं कोई निंदा करता हो तो तुम सुन-सुन कर उससे राजी न हो जाओ। उन्हें डर यह था। मुझे तुम पर भरोसा है। तुम मेरे पास आ ही सके हो उन सब निंदाओं को सुनने के बाद। वे कसौटियां तुम पूरी कर चुके हो। जितनी गालियां तुम सुन सकते थे, वे तुम सुन ही सके हो, अब नई गाली कोई शायद ही खोज पाए। कोई निंदा करता हो तो उससे कहना: कुछ नई निंदा करो, यह तो मैं सुन चुका हूं, यह तो बहुत बार सुन चुका हूं; इसके बावजूद भी उनसे जुड़ा हूं। कुछ नई निंदा करो, कुछ खोजो, कुछ आविष्कार करो। ये क्या पुरानी पिटी-पिटाई बातें दोहरा रहे हो!
जिन्होंने कहा है, निंदा का निषेध, बचना... और ऐसे शास्त्रों में उल्लेख हैं, वे शास्त्र कमजोरों के लिखे हुए हैं। ऐसे शास्त्र हैं भारत में जिनमें लिखा है... हिंदुओं के पास ऐसे शास्त्र हैं, जैनों के पास ऐसे शास्त्र हैं। हिंदुओं के शास्त्रों में लिखा है: अगर पागल हाथी भी तुम्हारा पीछा कर रहा हो और जैन मंदिर में शरण मिल सकती हो तो भी भीतर मत जाना। क्योंकि जैन निंदक हैं हिंदुओं के, कहीं निंदा का कोई शब्द तुम्हारे कान में पड़ जाए। और ठीक यही बात जैन-शास्त्रों में भी लिखी है, इसका उत्तर--ठीक यही कि अगर पागल हाथी तुम्हारे पीछे-पीछे चल रहा हो और तुम खतरे में हो, जीवन गंवाने का खतरा आ गया हो और हिंदू मंदिर में जाकर शरण मिल सकती हो, जीवन बच सकता हो, तो पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना उचित है, मगर हिंदू मंदिर में मत जाना, क्योंकि वहां कोई जैन धर्म की निंदा का विचार तुम्हारे कान में पड़ जाए!
ये बड़े कमजोर लोग रहे होंगे। यह भी कोई बात हुई? ऐसे बच-बच कर कैसे बचोगे? और इतने बचने का कारण क्या है? क्या तुम्हें भरोसा नहीं है? तुम्हारी श्रद्धा इतनी अधूरी है, इतनी नपुंसक है?
जिसने मुझे चाहा है, जिसने मुझे प्रेम किया है, सब निंदाएं उसके प्रेम की कसौटी होंगी, चुनौतियां होंगी कि क्या इन सारी निंदाओं के बाद भी प्रेम बच सकता है? बचे तो ही बचाने योग्य था। न बचे तो अच्छा हुआ, झंझट मिटी--तुम भी मुक्त हुए, मैं भी मुक्त हुआ।
मैं कमजोरों से जुड़ा रहना भी नहीं चाहता। और ऐसे लचर-पचर लोगों को मैं चाहता भी नहीं कि मेरे पास हों। उनका कोई मूल्य नहीं है। व्यर्थ भीड़ थोड़े ही बढ़ानी है यहां। यहां कुछ वस्तुतः काम करना है, भीड़ नहीं बढ़ानी है। यहां वस्तुतः जीवन रूपांतरित करना है, यह प्रयोगशाला है। यहां रसायन खोजी जा रही है तुम्हारे रूपांतरण की। यह कोई बाजार नहीं है। यहां हमारी उत्सुकता इसमें नहीं है कि कितने लोग आते हैं। मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं कि भीड़ में मेरी उत्सुकता हो। भीड़ में मेरी उत्सुकता ही नहीं है। मेरी उत्सुकता व्यक्तियों में है। और व्यक्ति का मतलब होता है विद्रोही। और व्यक्ति का मतलब होता है जो अपने ढंग से सोचता, अपने ढंग से जीता; जो अपनी श्रद्धा के अनुकूल चलता।
और हर निंदा कसौटी होगी। तुम घबड़ाओ मत। और निंदा तो बढ़ेगी। जैसे-जैसे लोगों को मैं बदलूंगा, वैसे-वैसे निंदा बढ़ेगी। कठिनाइयां रोज बढ़ती जाने वाली हैं, कम होने वाली नहीं हैं।
जो मेरे साथ जुड़े हैं, वे यह बात सोच कर ही जुड़ें: तुम्हें अपनी सूली अपने कंधे पर ढोनी ही होगी। मगर जो जानेंगे, वे आनंदित होंगे कि फिर सूली ढोने का एक मौका आया। क्योंकि वही तो परमात्मा के निकट जाने का उपाय है। मृत्यु ही तो पुनर्जीवन का द्वार है।
तुम धन्यभागी हो कि किसी ऐसे आदमी से तुम जुड़े हो, जिसकी बहुत निंदा होगी, हुई है और बहुत होनी है। कठिनाइयां रोज सख्त होती चली जाएंगी, क्योंकि जितना लोगों को दिखाई पड़ेगा कि मुझमें लोग आकर्षित हो रहे हैं उतनी ही उनकी अड़चनें बढ़ती जाएंगी। और ये अड़चनें एक दिशा से नहीं आएंगी, सब दिशाओं से आएंगी। क्योंकि यहां हिंदू हैं मेरे पास, मुसलमान हैं मेरे पास, ईसाई हैं, यहूदी हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, सिक्ख हैं, पारसी हैं। यहां सब धर्मों के लोग मेरे पास हैं, तो सब धर्मों के गुरु मेरे खिलाफ हो जाने वाले हैं। हैं ही। सब मंदिरों से और सब मस्जिदों से मेरे खिलाफ स्वर उठने ही वाला है। यह स्वाभाविक है। कोई एकाध मेरे खिलाफ नहीं होगा। जीसस के खिलाफ तो सिर्फ यहूदी थे और बुद्ध के खिलाफ सिर्फ हिंदू थे। मेरे खिलाफ सारे धर्म होने वाले हैं, क्योंकि सारे धर्मों को चिंता पैदा होने वाली है।
यहां मेरे पास पत्र आने शुरू हो गए हैं, सारी दुनिया से पत्र आते हैं। किसी का बेटा आकर संन्यासी हो गया है; वे ईसाई हैं, मां-बाप नाराज हैं। वे धमकियां भेजते हैं कि आपने हमारे बेटे को विकृत कर दिया, विक्षिप्त कर दिया, सम्मोहित कर लिया। किसी की बेटी आकर संन्यस्त हो गई है; परिवार यहूदी है; वह नाराज है। सारी दुनिया से लोग आ रहे हैं यहां। सारी दुनिया में यह निंदा होने वाली है। बुद्ध की निंदा तो सिर्फ बिहार में हुई थी; सीमित थी। जीसस की निंदा तो सिर्फ जेरुसलम के आस-पास के छोटे से इलाके में हुई थी; बड़ी सीमित थी। मेरी निंदा तो असीम होने वाली है, वह एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक दुनिया में होने वाली है। उसके लिए तुम्हें तैयार होना चाहिए।
तो मैं तुमसे नहीं कह सकता कि निंदा मत सुनना। सुननी ही पड़ेगी। आनंद से सुनना, यही कह सकता हूं। और कान वगैरह धोना मत। कान क्या खराब करना है दिन भर धो-धो कर? इतना पानी कान में डालोगे, धीरे-धीरे सुनने इत्यादि की क्षमता खो जाएगी। इस फिकर में ही मत पड़ना। मौज से सुनना। आनंद से सुनना। नाचते हुए सुनना। हंसते हुए सुनना। तुम्हारा हंसना, तुम्हारा मुस्कराना, तुम्हारा नाच--बदलाहट का कारण बनेगा। दूसरा सोचेगा, आखिर तुम प्रश्न-चिह्न बन कर खड़े हो जाओगे न! दूसरा सोचेगा, कि मैं निंदा कर रहा हूं, और यह आदमी उद्विग्न भी नहीं है, जरूर कुछ हो गया है, जरूर कुछ हुआ है। इसे कुछ मिल गया है, जिसका मुझे पता नहीं है। मैं भी जाऊं और एक बार देखूं।
बस तुम इतना ही कर सको कि तुम्हारा व्यक्तित्व निमंत्रण बन जाए, काफी है; शेष मैं कर लूंगा। तुम ले आओ यहां, शेष तुम मुझ पर छोड़ो। तुम्हें सम्मोहित कर लिया तो उन्हें भी सम्मोहित कर लूंगा। आदमी सब आदमी जैसे हैं।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपके सत्संग में रह कर बड़े ही आनंद का अनुभव हो रहा है और जीवन एक उत्सव नजर आ रहा है। लेकिन क्या इस क्षणभंगुर जीवन का आनंद भी क्षणभंगुर नहीं है?
मन बड़ा लोभी है। मन लोभ के कारण ही बहुत कुछ गंवाता है। मन ‘लेकिन, किंतु, परंतु’ उठाता है।
पूछते हो: ‘आपके सत्संग में रह कर बड़े आनंद का अनुभव हो रहा है।’
लेकिन मन बेचैन हो रहा होगा भीतर। वह कह रहा है: इतना आनंद अनुभव नहीं होने दूंगा! क्या समझ रखा है? मन हमेशा, दुखी होओ, तो प्रसन्न होता है। इसको समझ लेना। इस सूत्र को खयाल में ले लेना। जब भी तुम दुखी होते हो, मन प्रसन्न होता है; क्योंकि तुम्हारे दुखी क्षणों में मन मालिक हो जाता है। तुम मन से सलाह लेने लगते हो। तुम पूछते हो: मैं क्या करूं, क्या न करूं? मन दिशा देने लगता है।
दुखी अवस्था में मन की मालकियत कस जाती है तुम्हारे ऊपर। जब तुम आनंदित होते हो तो मन को एक तरफ रख देते हो। कौन फिकर करता है मन की! अब तुम आनंदित हो तो मन से कुछ पूछना नहीं है। आनंदित चित्त-अवस्था मन के पार ले जाने लगती है। मन चिंतित हो उठता है। मन पीछे खींच लेना चाहता है। मन सवाल उठाता है कि क्या समझ रखा है तुमने, यह आनंद है भी? पहली बात, थोड़ा सोचो तो, कहीं कल्पना ही न हो!
मेरे पास लोग आते हैं। मैं उस आदमी की तलाश में हूं जो कभी मेरे पास आकर कहे कि मैं बहुत दुखी हूं, कहीं यह मेरे मन की कल्पना न हो! आज तक किसी ने कहा नहीं। लेकिन रोज कोई न कोई आकर कहता है कि बड़ी हैरानी हो रही है, मैं आनंदित तो हूं, लेकिन सवाल यह उठता है: ‘कहीं यह कल्पना न हो?’ दुख पर यह सवाल क्यों नहीं उठता? नरक होता है तो तुम मानते हो कि यथार्थ है और जब स्वर्ग की थोड़ी सी झलक आती है, तत्क्षण मन सवाल उठाता है कि यह कल्पना होगी, यह सपना होगा। सुख ही हो नहीं सकता। आनंद कहीं होता है? दुख ही यथार्थ है।
कांटे को ही मानता है मन, फूल को स्वीकार नहीं करता। घावों को ही मानता है मन, फूल को अंगीकार नहीं करता। और जब कभी भूल-चूक से एक फूल तुम्हारे भीतर उतर आता है और एक सुवास तुम्हारे भीतर लहराती है, तो मन संदिग्ध होकर ‘किंतु-परंतु’ पूछने लगता है। वह कहता है: कल्पना होगी, सपना होगा, तुम किसी भ्रांति में पड़े हो, तुम किसी भूल में उलझ गए हो। यह वातावरण का प्रभाव है। या तुम सम्मोहित कर लिए गए हो। ठीक से सोच लो, फिर कदम आगे बढ़ाना। यहां खतरा है। तुम किसी भ्रम में तो नहीं पड़े जा रहे हो? तुम किसी माया-जाल में तो नहीं उलझ गए हो? किसी जादूगर के हाथों में तो नहीं पड़ गए हो?
मन आनंद पर सदा प्रश्न उठाता है। अब यह प्रश्न उठाया मन ने: ‘लेकिन क्या इस क्षणभंगुर जीवन का आनंद भी क्षणभंगुर नहीं है?’ दुख पर नहीं पूछते कभी। जब दुख होता है तब तुम यह नहीं कहते कि क्षणभंगुर दुख, क्या चिंता करनी! इतना कहो तो मुक्त हो जाओ। इतना जान लो तो मुक्ति हो जाए। और है क्या मुक्ति?
क्षणभंगुर है। अभी है, अभी चला जाएगा। क्या फिकर करनी!
नहीं; तब तुम बड़े उद्विग्न हो जाते हो। अब आनंद घट रहा है तो मन कह रहा है: क्षणभंगुर है। मन बड़ा ज्ञानी हो गया है। मन बड़ा महात्मा हो गया है। मन कह रहा है क्षणभंगुर है, इसमें उलझ मत जाना! जैसे कि मन के पास किसी शाश्वत आनंद को देने का उपाय है!
अगर क्षणभंगुर दुख में और क्षणभंगुर सुख में चुनना हो तो क्या चुनोगे? चलो मान लो कि क्षणभंगुर है, दुख तुम्हारे शाश्वत हैं? क्षणभंगुर आनंद और क्षणभंगुर दुख में अगर चुनाव करना हो तो क्या चुनोगे? तो भी क्षणभंगुर आनंद ही चुनना। क्षण भर को ही सही, है तो आनंद!
फिर और बात समझ लो: जो क्षण में उतर रहा है, वह शाश्वत का हिस्सा हो सकता है। जो झील में बन रहा है चांद, झील में तो क्षणभंगुर है, जरा एक कंकड़ी फेंक दो और कंप जाएगी झील और चांद का प्रतिबिंब टूट जाएगा, बिखर जाएगा, खंड-खंड हो जाएगा। लेकिन जिसका यह प्रतिबिंब है, वह कंकड़ी फेंकने से खंडित नहीं होगा।
तुम्हारे मन में जो छायाएं बनती हैं शाश्वत की, वे क्षणभंगुर होती हैं, क्योंकि मन में सिर्फ क्षणभंगुर ही कुछ हो सकता है। मन तरंगित वस्तु है। उसमें तरंगें उठ रही हैं। लेकिन जिसकी छाया बन रही है, वह शाश्वत है।
सुख और आनंद का यही भेद है। सुख शाश्वत की छाया नहीं है। सुख किसी की छाया नहीं है। सुख लहरों का नाम है। जैसे दुख लहरों का नाम है। जिन लहरों को तुम पसंद करते हो, वे सुख; और जिन लहरों को तुम नापसंद करते हो, वे दुख। और तुमने देखा, तुम्हारे सुख और दुख में कोई ज्यादा फासला नहीं होता! दुख सुख हो सकते हैं, सुख दुख हो सकते हैं।
एक सम्राट एक गरीब स्त्री के प्रेम में पड़ गया। सम्राट था! स्त्री तो इतनी गरीब थी कि खरीदी जा सकती थी, कोई दिक्कत न थी। उसने स्त्री को बुलाया और उसके बाप को बुलाया और कहा: जो तुझे चाहिए ले-ले खजाने से, लेकिन यह लड़की मुझे दे-दे। मैं इसके प्रेम में पड़ गया हूं। कल मैं घोड़े पर सवार निकलता था, तब मैंने इसे कुएं पर पानी भरते देखा। बस, तबसे मैं सो नहीं सका हूं।
बाप तो बहुत प्रसन्न हुआ, लेकिन बेटी एकदम उदास हो गई। उसने कहा, मुझे क्षमा करें! आप कहेंगे तो आपके राजमहल में आ जाऊंगी, लेकिन मेरा किसी से प्रेम है। मैं आपकी पत्नी भी हो जाऊंगी, लेकिन यह प्रेम बाधा रहेगा। मैं आपको प्रेम न कर पाऊंगी।
सम्राट विचारशील व्यक्ति था। उसने सोचा कि यह तो कुछ सार न होगा। कैसे प्रेम हो मुझसे इसका? किससे इसका प्रेम है, पता लगवाया गया। एक साधारण आदमी। सम्राट बड़ा हैरान हुआ कि मुझे छोड़ कर उससे इसका प्रेम है! लेकिन प्रेम तो हमेशा बेबूझ होता है। उसने अपने वजीरों को पूछा कि मैं क्या करूं कि यह प्रेम टूट जाए?
तुम चकित होओगे, वजीरों ने जो सलाह दी, वह बड़ी अदभुत थी। तुम मान ही न सकोगे कि यह सलाह कभी दी गई होगी। क्योंकि यह सलाह... यह कहानी पुरानी है, फ्रायड से कोई हजार साल पुरानी। फ्रायड यह सलाह दे सकता था। मनोविज्ञान यह सलाह दे सकता है अब। और मनोविज्ञान भी सलाह देने में थोड़ा झिझकेगा। सलाह वजीरों ने यह दी कि इन दोनों को नग्न करके एक खंभे से बांध दिया जाए, दोनों को एक-दूसरे से बांध दिया जाए और खंभे से बांध दिया जाए।
सम्राट ने कहा: इससे क्या होगा? यही तो उनकी आकांक्षा है कि एक-दूसरे की बांहों में बंध जाएं।
उन्होंने कहा: आप फिकर न करें। बस फिर उनको छोड़ा न जाए, बंधे रहने दिया जाए।
उनको आलिंगन में बांध कर नग्न एक खंभे से बांध दिया गया।
अब तुम जरा सोचो, जिस स्त्री से तुम्हारा प्रेम है, फिर वह कोई भी क्यों न हो, वह इस जगत की सबसे सुंदरी क्यों न हो; या किसी पुरुष से तुम्हारा प्रेम है, वह मिस्टर यूनिवर्स क्यों न हों, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, कितनी देर आलिंगन कर सकोगे? पहले तो दोनों बड़े खुश हुए, क्योंकि समाज की बाधाओं के कारण मिल भी नहीं पाते थे। जातियां अलग थीं, धर्म अलग थे, चोरी-छिपे कभी यहां-वहां थोड़ी देर को गुफ्तगू कर लेते थे थोड़ी-बहुत। एक-दूसरे के आलिंगन में नग्न! पहले तो बड़े आनंदित हुए, दौड़ कर एक-दूसरे के आलिंगन में बंध गए। लेकिन जब रस्सियों से उन्हें एक खंभे से बांध दिया गया तो कितनी देर सुख सुख रहता है! कुछ ही मिनट बीते होंगे कि वे घबड़ाने लगे कि अब अलग कैसे हों, अब भिन्न कैसे हों, अब छूटें कैसे? मगर वे बंधे ही रहे।
कुछ घंटे बीते और तब और उपद्रव शुरू हो गया। मल-मूत्र का विसर्जन भी हो गया। गंदगी फैल गई। एक-दूसरे के मुंह से बदबू भी आने लगी। एक-दूसरे का पसीना भी। ऐसी घबड़ाहट हो गई। और चौबीस घंटे बंधे रहना पड़ा। फिर जैसे ही उनको छोड़ा, कहानी कहती है फिर वे ऐसे भागे एक-दूसरे से, फिर दुबारा कभी एक-दूसरे का दर्शन नहीं किया। वह युवक तो वह गांव ही छोड़ कर चला गया।
यह प्रेम का अंत करने का बड़ा अदभुत उपाय हुआ, लेकिन बड़ा मनोवैज्ञानिक।
तुम देखते हो, पश्चिम में प्रेम उखड़ता जा रहा है, टूटता जा रहा है! कारण? स्त्री और पुरुष के बीच कोई व्यवधान नहीं रहा है, इसलिए प्रेम टूट रहा है। स्त्री और पुरुष इतनी सरलता से उपलब्ध हो गए हैं एक-दूसरे को कि प्रेम बच ही नहीं सकता, प्रेम टूटेगा ही। संयुक्त परिवार नहीं रहा पश्चिम में, तो पति और पत्नी दोनों रह गए हैं एक मकान में अकेले। जब मिलना हो मिलें; जो कहना हो कहें; जितनी देर बैठना हो पास बैठें--कोई रुकावट नहीं, कोई बाधा नहीं। जल्दी ही चुक जाते हैं। जल्दी ही सुख दुख हो जाता है।
तुमने देखा, वही संगीत तुम पहली दफा सुनते हो, सुख; दुबारा सुनते हो, उतना सुख नहीं रह जाता। तीसरी बार सुनते हो, सुख और कम हो गया। चौथी बार ऊब पैदा होने लगती है। पांचवीं बार फिर कोई रिकॉर्ड चढ़ाए तो तुम सोचते हो कि मेरा सिर घूम जाएगा। तुम कहते हो: अब बंद करो! अब बहुत हो गया।
यही वही संगीत पहली दफा सुख दिया, दूसरी दफा कम, तीसरी दफा और कम। अर्थशास्त्री एक नियम की बात करते हैं: ‘लॉ ऑफ डिमिनिशिंग रिटर्नस्।’ हर बार उसी चीज को दोहराओगे तो सुख की मात्रा कम होती जाती है।
पुराना ढंग प्रेम को बचाने का ढंग था। पति-पत्नी मिल ही नहीं सकते थे। दिन में तो मिल ही नहीं सकते थे। पति-पत्नी भी नहीं मिल सकते, दूसरे की पत्नी से मिलना तो मामला दूर। पश्चिम में तो दूसरे की पत्नी से मिलना भी इतना सरल हो गया है, जितना पहले अपनी पत्नी से भी मिलना सरल नहीं था। दिन भर तो मिल ही नहीं सकते थे। परिवार में बड़े-बूढ़े थे, बुजुर्ग थे, उनके सामने कैसे मिल सकते थे! रात में भी मिलना बड़ा चोरी-छिपे था। अपनी पत्नी से चोरी-छिपे मिलना! क्योंकि जोर से बोल नहीं सकते थे। छोटे-छोटे घर, जिनमें पचास लोग सोए हुए हैं। चोरी-छिपे, रात के अंधेरे में। ठीक-ठीक पति अपनी पत्नी के चेहरे को जानता भी नहीं था कि वह कैसा है। अंधेरे में जानेगा भी कैसे? कभी घूंघट उठा कर रोशनी में ठीक से देखा भी नहीं था। प्रेम अगर लंबा जिंदा रह जाता था तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि प्रेम को, सुख को क्षीण होने का मौका ही नहीं था। दिन भर अपने काम-धंधे में रहते दोनों, और याद जारी रहती।
अभी हालतें उलटी हो गई हैं। चौबीस घंटे एक-दूसरे के सामने बैठे हैं, वही खंभा, बंधे हैं। एक-दूसरे से चिढ़ पैदा होती है। पत्नी चाहती है कि उठो, कहीं जाओ, कुछ करो, यहीं क्यों बैठे हो?
जीवन के बड़े अदभुत नियम हैं! सुख और दुख में बहुत फर्क नहीं है। वही उत्तेजना सुख है, वही उत्तेजना दुख है। पसंद की तो सुख है, ना पसंद की तो दुख है। बस नापसंद-पसंद का फर्क है। दोनों तरंगें हैं। दोनों समय के भीतर घट रही हैं। दोनों समय की झील की तरंगें हैं।
आनंद का अर्थ है: समय के पार से कोई चीज आ रही है; समय में उसकी छाया बन रही है। छाया तो क्षणभंगुर होगी। सत्संग में जो आनंद घटता है, वह आनंद क्षणभंगुर छाया में है; लेकिन अगर छाया का इशारा समझ लोगे और मूल की तरफ चल पड़ोगे तो शाश्वत मिल जाएगा।
लेकिन लोभी मन है! वह कहता है: क्षणभंगुर!
फिर और भी एक बात समझ लेना: अगर क्षण भर को तुम्हें आनंदित रहने की कला आ गई तो तुम पूरे जीवन आनंदित रह सकते हो, क्योंकि एक बार एक ही क्षण तो मिलता है, दो क्षण एक साथ तो मिलते नहीं। अगर एक क्षण को तुम आनंद में रंग लेने की कला जानते हो तो एक ही क्षण मिलता है एक बार, उसको रंग लेना, रंगते जाना, उसमें धुन गुंजाए जाना। कला तो तुम्हारे हाथ में आ गई।
एक बार में एक ही कदम उठता है। और एक बार में एक ही क्षण मिलता है। एक क्षण को आनंदित होने का जिसने राज सीख लिया उसके हाथ में कुंजी मिल गई; वह कुंजी सारे स्वर्गों के द्वार खोल देगी।
लेकिन पूछने वाले के मन में लोभ है। और जहां लोभ है वहां संदेह भी होगा।
फिर से प्रश्न को पढ़ें तो खयाल में आ जाएगा कहां चूके हैं: ‘आपके सत्संग में रह कर बड़े ही आनंदका अनुभव हो रहा है...।’
अनुभव नहीं हो रहा होगा।
‘...और जीवन एक उत्सव नजर आ रहा है।’
‘नजर’ आ रहा होगा। मान लिया होगा कि होना चाहिए आनंद, हो रहा है आनंद। सत्संग में बैठे हैं तो आनंद होना ही चाहिए; नहीं तो यहां बैठे ही किसलिए हैं? मान लिया होगा। या और लोग तुम्हारे आस-पास आनंदित होंगे, उनके आनंद की तरंग तुम्हें छू रही होगी। अब उनके बीच तुम गैर-आनंदित बैठे रहो तो बुद्धू मालूम पड़ोगे, जड़ मालूम पड़ोगे। जहां लोग मस्त हो रहे हैं वहां तुम भी मस्ती में पड़ जाते हो। लेकिन वह सिर्फ भीड़ का संग-साथ होगा, तुम्हारा अपना अनुभव नहीं।
खयाल रखना, हम भीड़ की भावनाओं से बड़ी जल्दी प्रभावित हो जाते हैं। तुमने देखा, अगर लोग तेजी से चल रहे हों, उनके साथ तुम चलो तो तुम भी तेजी से चलने लगते हो! भीड़ अगर जोश में हो तो तुम भी जोश में आ जाते हो। भीड़ जो करती है वही तुम करने लगते हो। चार हंसते हुए आदमियों के बीच बैठ जाओ, तुम अपनी उदासी भूल जाते हो। और चार उदास लोगों के बीच बैठ जाओ तो तुम अपनी हंसी भूल जाते हो। तुम भीड़ से बड़ी जल्दी प्रभावित हो जाते हो।
यहां सत्संगियों की एक भीड़ है। उसमें यह भी हो सकता है कि तुम्हें कुछ खास आनंद न आ रहा हो; लेकिन दूसरे लोग आनंदित हैं, उनकी तरंग तुम्हें छू जाए, उनकी तरंग तुम्हारी हृदय-वीणा को बजा दे और तुम्हें नजर आने लगे कि आनंद आ रहा है। तभी ‘किंतु-परंतु’ उठ सकते हैं, नहीं तो नहीं उठ सकते। अगर तुम्हें सच ही आनंद आ रहा है, कौन फिकर करता है कि क्षणभंगुर है! आनंद क्षणभंगुर भी हो तो शाश्वत दुखों से बेहतर है। शाश्वत का ही क्या करोगे? खाओगे कि पीओगे, अगर दुख हुआ शाश्वत। शाश्वत नरक को चुनोगे कि क्षणभंगुर स्वर्ग को चुनोगे? और क्षणभंगुर का भी अगर चुनाव कर लिया, ठीक चुनाव हुआ, तो उसी से धीरे-धीरे यात्रा आगे की खुलती है। एक-एक कदम चल कर आदमी हजारों मील की यात्रा पूरी कर लेता है।
नहीं; लेकिन सवाल उठता है: ‘लेकिन क्या इस क्षणभंगुर जीवन का आनंद भी क्षणभंगुर नहीं है?’
यह जीवन क्षणभंगुर नहीं है। यह जीवन शाश्वत है। बाहर का जीवन होगा क्षणभंगुर, भीतर का जीवन शाश्वत है। देह का जीवन होगा क्षणभंगुर, आत्मा का जीवन शाश्वत है। तुम बच्चे थे, अब जवान हो, कल बूढ़े हो जाओगे--लेकिन कुछ तुम्हारे भीतर है जो न तो कभी बच्चा था, न जवान हुआ और न बूढ़ा होगा। वही तुम हो। वही तुम्हारा असली जीवन है। सत्संग में उसी की याद दिलाई जाती है, बार-बार उसी की याद दिलाई जाती है। उसकी याद से ही आनंद उमगने लगता है। उसकी याद से ही सुगंध फैलने लगती है।
लेकिन लोभ बड़ा कमजोर होता है।
दरिया की जिंदगी पर सदके हजार जानें
मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना
लेकिन भयभीत और लोभी किनारे की मौत ही मरना चाहते हैं, तूफान में जाने से घबड़ाते हैं। और आनंद तूफान है। तुम्हारी साधारण जिंदगी स्थिर हो गई है, सुरक्षित है। घर है, द्वार है, परिवार है--सब सुरक्षित है। जिस जीवन की तरफ मैं तुम्हें ले चल रहा हूं, वह किनारा छोड़ने का जीवन है; वह मझधार में डूबने का जीवन है।
दरिया की जिंदगी पर सदके हजार जानें
मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना
जो किनारे पर नहीं मरना चाहते, वही मेरे साथ आएं। जिन्हें मौज में उतरना है, जिन्हें दरिया के तूफान में उतरना है, जिन्हें जीवन की चुनौतियों में उतरना है, जो असुरक्षा में जाने को तत्पर हैं, जिन्हें अज्ञात की खोज करनी है--वे ही मेरे साथ आएं। खतरनाक रास्ता है यह।
जीवन मुफ्त नहीं मिलता, खतरों से कीमत चुकानी पड़ती है। और जो मेरे साथ आते हैं, वे पीछे लौट-लौट कर न देखें।
रहे हयात में मुड़-मुड़ के नक्शे-पा को न देख
मह औ सितारे की शाने खिराम पैदा कर।
चंद्र-नक्षत्रों की चाल देखी है? वैसी चाल चाहिए!
मुड़-मुड़ के नक्शे-पा को न देख
पीछे जो चिह्न छूट गए हैं पैरों के, उनको लौट-लौट कर क्या देखना! आंख आगे रखो। और चांद-तारों के प्रसाद से चलो।
मह औ सितारे की शाने खिराम पैदा कर।
यह जगत उन्हीं का है जो उस अनंत जीवन के साथ अपने को जोड़ लेने में समर्थ हैं। और अनंत जीवन कोई दूसरा जीवन नहीं है--यही जीवन है, ठीक से देखा गया। क्षणभंगुर ही शाश्वत है, ठीक से देखा जाए तो। और शाश्वत ही क्षणभंगुर मालूम होता है--ठीक से न देखा जाए तो। छाया को पकड़ो तो क्षणभंगुर, मूल को पकड़ लो तो शाश्वत। क्षणभंगुर सही, चलो, इस क्षणभंगुर आनंद के स्वाद को कंठ में उतरने दो। इस क्षणभंगुर आनंद पर श्रद्धा करो। इससे द्वार खुलेगा।
तुम देखते नहीं, दरवाजा खोलते हैं हम, बड़े से बड़ा किले का दरवाजा भी खोलें तो छोटी सी चाबी से खुलता है। और चाबी जिस छेद में जाती है, वह जरा सा होता है। मगर विराट दरवाजा खुल जाता है! शुरू में तो आनंद बूंद-बूंद आता है लेकिन बूंद-बूंद से ही तो सागर बन जाता है। बूंद और सागर में कुछ भेद थोड़े ही है। मात्रा का ही भेद है। श्रद्धा रखो।
खिजां की लूट से बरबादि-ए-चमन तो हुई
यकीन आमदे फस्ले-बहार कम न हुआ
बहुत बार आता है पतझड़, लेकिन इससे वसंत पर भरोसा थोड़े ही खो देते हैं। बहुत बार उजड़ जाता है चमन, इससे कुछ आशियां बनाना थोड़े ही छोड़ देते हैं।
श्रद्धा रखो! शाश्वत यहां कहीं छिपा है--कुंजी की तलाश! वही कुंजी जहां मिल जाए, उसी का नाम सत्संग है। और जिसने शाश्वत की थोड़ी पहचान कर ली, फिर ऐसा मत समझना कि वह क्षणभंगुर को छोड़ कर भाग जाता है। भाग कर कहां जाओगे? सिर्फ क्षणभंगुर को देखने का उसका ढंग बदल जाता है। होता तो यहीं है--इसी जीवन में, इन्हीं लोगों के साथ, इन्ही वृक्षों में, इन्हीं पहाड़ों में, इन्हीं चांद-तारों में। होता तो यहीं है। सब ऐसा ही होता है। बाहर से तो कोई भेद पड़ता नहीं, लेकिन भीतर एक क्रांति हो गई होती है। फिर खेलता रहता है इन्हीं क्षणभंगुर तरंगों से लेकिन अब जानता है कि तरंगें अपने आप में कुछ भी नहीं हैं--विराट सागर के अंग हैं। देखते हो:
चमन में छेड़ती है किस मजे से गुंच-ओ-गुल को
मगर मौजे-सबा की पाक दामानी नहीं जाती
सुबह की हवा को देखा है? और किस मौज से छेड़ती है--फूलों को, पत्तियों को! कैसे खिलवाड़ करती है! लेकिन इससे कुछ सुबह की हवा की पवित्रता नष्ट तो नहीं हो जाती।
जो व्यक्ति एक बार उस परम का अनुभव कर लेता है, फिर सब ऐसा ही चलता है। नहीं तो कृष्ण के रास का अर्थ क्या होगा? कृष्ण की बजती बांसुरी का अर्थ क्या होगा? तुम जैसा कोई व्यक्ति अगर वहां होता कृष्ण की गोपियों में और गोपों में, तो पूछता कि ठीक है, मगर बांसुरी का स्वर, आखिर है तो बांसुरी का ही सुर, क्षणभंगुर! क्या बजा रहे हो? नाच में क्या रखा है? है तो क्षणभंगुर! इस तुम्हारे आलिंगन में भी क्या रखा है? है तो क्षणभंगुर! नहीं, अगर तुम पहचानते हो तो क्षणभंगुर नहीं रह जाता। पहचान के साथ ही सब शाश्वत हो जाता है। फिर जीवन एक अपूर्व अभिनय है, लीला है।
मुझको दिल सोज नजारों का खयाल आता है
उजड़े गुलशन की बहारों का खयाल आता है
जब कोई गीत मचलता है मेरे ओंठों पर
दिल के टूटे हुए तारों का खयाल आता है
डूब जाते हैं वही जोरे-तलातुम में नदीम!
जिनको तूफां में किनारों का खयाल आता है
उनको ऐ ‘साहिरा’ मिलती नहीं मंजिल अपनी
जिनको तूफां में सहारों का खयाल आता है।
सुरक्षा छोड़ो! सहारे छोड़ो! किनारे छोड़ो!
डूब जाते हैं वही जोरे-तलातुम में नदीम!
तूफान में केवल वे ही डूबते हैं, सिर्फ वे ही--
डूब जाते हैं वही जोरे-तलातुम में नदीम
जिनको तूफां में किनारों का खयाल आता है
तूफान में क्या किनारों की याद! तूफान में जूझो और तूफान किनारे हो जाते हैं। और जब तक मझधार किनारा न हो जाए, तब तक समझना तुमने अभी जीवन का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझा, अभिप्राय नहीं समझा। जब तक डूबना, उबरना न हो जाए, तब तक समझना परमात्मा से तुम्हारी पहचान नहीं हुई।
उनको ऐ ‘साहिरा’ मिलती नहीं मंजिल अपनी
जिनको तूफां में सहारों का खयाल आता है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, तन्मयता से किया गया प्रत्येक कार्य साधना है। तो क्या जरूरी है कि परमात्मा की साधना के लिए संन्यास लिया जाए?
तन्मयता कहां सीखोगे? कैसे सीखोगे? संन्यास और क्या है?
तन्मयता सीखने की एक विधि, एक उपाय। तन्मय होने का एक ढंग, एक शैली। नाम उसे तुम कुछ भी दो।
संन्यास क्या है? जिसे मैं संन्यास कहता हूं, वह क्या है?
मेरे साथ तन्मय होने की एक व्यवस्था।
तुम्हारी तरफ से यह घोषणा कि अब मैं तुम्हारे साथ चलने को राजी हूं जहां ले चलो--तूफान में तो तूफान में, मझधार में तो मझधार में। तुम डुबो तो तुम्हारे साथ डूबने को राजी हूं।
संन्यास का और क्या अर्थ है?
यह खतरा लेना खतरा ही है। क्योंकि पता नहीं, मैं तुम्हें कहां ले जाऊं! तुम्हें कुछ पता नहीं है कि मैं तुम्हें किस तरफ ले जा रहा हूं। यह नाव कहां जाकर लगेगी, तुम्हें कुछ पता नहीं है। यह नाव मैं बीच में डुबा दूंगा या दूसरे किनारे पर पहुंचाऊंगा, तुम्हें कुछ पता नहीं है। तुम मेरे पास आए, तुमने मेरे हाथ में हाथ थामा और तुम्हारे भीतर एक श्रद्धा का जन्म हुआ--कि चलूंगा, यह खतरा लेने जैसा है। डूबे तो भी खतरा लेने जैसा है।
संन्यास का इतना ही अर्थ होता है कि तुमने अपने अस्त्र-शस्त्र डाल दिए, कि तुम मेरे खिलाफ किसी तरह का सुरक्षा का उपाय अब न करोगे।
संन्यास का वही अर्थ होता है कि जब तुम अस्पताल जाते हो और ऑपरेशन की टेबल पर लेटते हो और सर्जन के हाथ में छोड़ देते हो कि अब जो हो हो, क्योंकि क्या पता, क्या होगा। ये सर्जन नशे में हो सकता है, शराब ज्यादा पी गया हो, कुछ का कुछ काट-पीट कर दे। पत्नी से झगड़ कर आया हो। क्रोध में हो। दो इंच की जगह चार इंच काट दे।
मैंने सुना है ऐसा कि एक सर्जन ऑपरेशन कर रहा था। अपेंडिक्स निकाली। बड़ा कुशल कारीगर था। उसके विद्यार्थी, उसके शिष्य, उसके मित्र सब किनारे खड़े होकर देख रहे थे। उसकी कुशलता की जगत में ख्याति थी, वह जिस ढंग से निकालता था। उनकी श्वासें रुकी रह गईं--जिस कुशलता से, जिस कारीगरी से उसने अपेंडिक्स निकाली। जब अपेंडिक्स निकल गई, उनके हाथों से बेतहाशा तालियां बज गईं। सर्जन को इतना जोश आ गया कि जोश में उसने टेबल पर पड़े हुए आदमी के टांसिल भी निकाल दिए। जोश की वजह से! जैसा तुम कह देते हो न कभी, कोई संगीतज्ञ गा रहा हो, कह देते हो ‘वन्स मोर!’ ताली बजा दी तो वह फिर दोहरा देता है।
अब क्या पता! लेकिन सर्जन के हाथ में जब तुम लेट जाते हो, छोड़ देते हो सब। यह तो उससे भी बड़ी सर्जरी है। यहां शरीर के ही काटने की बात नहीं, यहां तो मन को काटने की बात है। यहां तो मन कटेगा तो ही तुम कुछ पा सकोगे। यहां तो तुम्हारे अहंकार को काट डालने की बात है।
तुम कहते हो: ‘तन्मयता से किया गया प्रत्येक कार्य साधना है।’
निश्चित। तन्मयता का तुम्हें पता है क्या अर्थ होता है? अगर तुम सत्य की खोज में लगे हो तो तन्मयता से लगने का अर्थ होगा: किसी सदगुरु के साथ एकरूप हो जाना। अगर तुम यहां सुनने बैठे हो तो तन्मयता का अर्थ होगा कि मेरे और तुम्हारे बीच कोई तर्क और कोई विवाद न रह जाए। तुम्हारे-मेरे बीच एक स्वीकार हो। तुम्हारे-मेरे बीच ‘नहीं’ गिर जाए, ‘हां’ का भाव उठे। वही संन्यास है।
संन्यास एक क्रांति है। इसलिए तो देखते हो न--लाल रंग क्रांति का रंग है, संन्यास का रंग है! यह आत्मक्रांति है।
सुर्ख कलियां सुर्ख पत्ते सुर्ख फूल
सुर्ख तूफां सुर्ख आंधी सुर्ख धूल
और हर सुर्खी में सुर्खिए-शराब
इंकिलाबो इंकिलाबो इंकिलाब!
यह एक क्रांति है। यह शराब की सुर्खी है। यह लाल रंग इस बात की सूचना है कि मैं मिटने को तैयार हूं; मैं नया होने को तैयार हूं; कि मैं अपना क्रॉस अपने कंधे पर रखने को तैयार हूं; कि मुश्किलें आएं, कि कठिनाइयां आएं, तो भी मैं इस यात्रा को करने को आतुर हूं; कोई भी कीमत चुकानी हो, मैं तैयार हूं।
संन्यास का भाव तो तुम्हारे भीतर उठ आया होगा, इसलिए सवाल उठा है। पूछा है तुमुल पांडे ने! जरूर कहीं भीतर भाव उठता होगा, कहीं प्यास जगती होगी; अन्यथा प्रश्न कैसे बनता? अब अगर तुम डरते हो, भागते हो, घबड़ाते हो... हजार कारण होते हैं डरने, भागने, घबड़ाने के... तो फिर तुम पछताओगे। तो फिर एक मौका आया था, जो तुम चूके। फिर किसी न किसी दिन तुम कहोगे आंसुओं से भरी हुई आंखों से:
दिल में सोजे-गम की इक दुनिया लिए जाता हूं मैं
आह तेरे मैकदे से बेपिए जाता हूं मैं
जाते-जाते लेकिन इक पैमा किए जाता हूं मैं
अपने अज्मे-सरफरोशी की कसम खाता हूं मैं
फिर तेरी बज्मे-हसीं में लौट कर आऊंगा मैं
आऊंगा मैं और ब-अंदाजे-दिगर आऊंगा मैं
आह! वे चक्कर दिए हैं, गर्दिशे-ऐयाम ने
खोल कर रख दी हैं आंखें तल्खिए-आलाम ने
फितरते-दिल दुश्मने-नग्मा हुई जाती है अब
जिंदगी इक बर्क इक शोला हुई जाती है अब
सर से पा तक एक खूनी आग बन कर आऊंगा
लाल जारे रंगो-बू में आग बन कर आऊंगा
जा तो सकते हो, लेकिन खाली हाथ जाओगे। या तो भरे हाथ जाना और या फिर कम से कम इस प्यास को लेकर जाना कि ‘जाते-जाते लेकिन इक पैमा किए जाता हूं’...मैं एक वादा किए जाता हूं।’
अपने अज्मे-सरफरोशी की कसम खाता हूं मैं
फिर तेरी बज्मे-हसीं में लौट कर आऊंगा मैं
आऊंगा मैं और ब-अंदाजे-दिगर आऊंगा मैं
आना ही पड़ेगा।
तुम्हारे भाव को मैं समझा। तुम्हारी आकांक्षा को मैं समझा। तुम्हारे भय को भी समझा। यह सभी का भय है, यह कुछ तुम्हारा ही नहीं। यहां जो संन्यस्त हो गए हैं, उनका भी कभी यही भय था: क्या लोग कहेंगे? लोग हंसेंगे कि पागल समझेंगे? क्या कैसे काम चलेगा? कपड़े पहन कर गैरिक, दुकान कैसे चलेगी? गैरिक कपड़े पहन कर दफ्तर काम कैसे करने जाऊंगा? पिता क्या कहेंगे, मां क्या कहेगी, पत्नी क्या कहेगी, बेटे-बेटियां क्या कहेंगे? नाते-रिश्ते... हजार-हजार बातें। हजार-हजार चिंताएं।
लेकिन कभी ऐसी घड़ी आ जाती है आदमी की जिंदगी में, जब ये सब बातों का कोई मूल्य नहीं रह जाता; जब यह दिखाई पड़ता है कि ये सब बातें ऐसी ही चलती रहेंगी और एक दिन मौत आ जाएगी।
और तुम देखते हो, जब मुर्दे को उठाते हैं तो उसको लाल कपड़ा ओढ़ा देते हैं! मगर तब बहुत देर हो चुकी। अब कुछ सार नहीं कि अब लाल कपड़ा ओढ़ाओ। और जब मुर्दे को ले जाते हैं तो राम-नाम सत्य! अब बहुत देर हो चुकी, अब यहां सुनने वाला कोई भी नहीं रहा। मैं तुम्हें जिंदगी में लाल कपड़ा ओढ़ा देता हूं, अरथी पर चढ़ा देता हूं, राम-नाम सत्य करा देता हूं।
संन्यास का अर्थ है: जीते जी मर जाना। संन्यास का अर्थ है: ऐसा जो अब तक का जीवन था, वह व्यर्थ था, ऐसा जान कर अब एक नये जीवन की तलाश शुरू होती है।
और जो आज हो सकता हो, उसको कल पर मत छोड़ना। जो अभी हो सकता हो, उसे स्थगित मत करना। न हो सकता हो, मजबूरी है। जबर्दस्ती संन्यास लेना, ऐसा नहीं कह रहा हूं। जोर लगा कर संन्यास लेना, ऐसा नहीं कह रहा हूं। ऐसा लिया हुआ संन्यास दो कौड़ी का होगा। सहज भाव उठता हो तो फिर भय की चिंता नहीं लेना। भाव उठता हो तो फिर भाव के साथ बह जाना।
जबर्दस्ती भाव मत उठा लेना। भाव उठता ही न हो; औरों ने संन्यास लिया है, यह देख कर संन्यास मत ले लेना। अन्यथा वह झूठ होगा, अभिनय होगा, पाखंड होगा। लेकिन तुम्हारे भीतर भाव उठता हो तो फिर दुनिया भी इनकार करती हो तो चिंता मत करना।
जलाले-आतिशो-बर्को-सहाब पैदा कर
अजल भी कांप उठे वह शबाब पैदा कर
तेरे खराम में हैं जलजलों का राज निहां
हर-एक गाम पर इक इंकिलाब पैदा कर
बहुत लतीफ है ऐ दोस्त! तेग का बोसा
यही है जाने-जहां इसमें आब पैदा कर
तेरा शबाब अमानत है सारी दुनिया की
तू खार-जारे-जहां में गुलाब पैदा कर
तू इंकिलाब की आमद का इंतजार न कर
जो हो सके तो अभी इंकिलाब पैदा कर
तुम प्रतीक्षा मत करो कि क्रांति आएगी। क्रांति कभी नहीं आती। क्रांति में जाना होता है।
तू इंकिलाब की आमद का इंतजार न कर
जो हो सके तो अभी इंकिलाब पैदा कर
और मैं जिस क्रांति की बात कर रहा हूं वह कोई सामाजिक-राजनीतिक क्रांति नहीं है। वह क्रांति है--व्यक्ति की क्रांति, आत्मिक क्रांति।
तन्मयता से ही जीवन जीया जाए, यही राज है। लेकिन तन्मयता कहां सीखोगे? तन्मयता सीखने के लिए, कोई जो तन्मय हो गया हो, उसके साथ जुड़ जाना होगा। किसी की वीणा बज उठी हो, उसकी वीणा के पास तुम अपनी गैर-बजती वीणा रख दो। पास रखे-रखे ही गैर-बजती वीणा के तार भी कंपने लगते हैं बजती वीणा की चोट से। कोई दीया जल गया हो, उसके पास अपने बुझे दीये को रख दो; कभी निकटता की ऐसी घड़ी आएगी कि जलते दीये से ज्योति लपकेगी और बुझे दीये को पकड़ जाएगी।
मेरा कुछ भी नहीं खोता है, तुम्हें बहुत कुछ मिल जाता है। जलता दीया अब भी जल रहा है। हजार दीये जला लिए हों तो कुछ ऐसा मत सोचना कि जलते दीये की कुछ रोशनी कम हो गई। यही तो मजा है आत्मिक अनुभव का कि बांटो, लुटाओ--न लुटता है, न बंटता है, बढ़ता ही चला जाता है, कुछ खर्च नहीं होता।
उपनिषद का वचन तुम्हें याद है? ईशावास्य उस वचन से शुरू होता है: पूर्ण से पूर्ण भी निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। तुम्हें जितना मुझसे निकालना हो निकाल लो, तुम जरा भी संकोच मत करना। संन्यास का इतना ही अर्थ है। लेकिन वे ही निकाल पाएंगे जो मेरे करीब आएंगे। करीब आना यानी संन्यास।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, इस बार संध्या-दर्शन में लगातार दो दिन प्रभु-पास का सुयोग मिला। पहले दिन कुछ देर आपको देखते रहने के बाद घबड़ाहट होने लगी, धड़कन तेज हो गई, सिर में चक्कर, नशा जैसा और बेचैनी अनुभव हुई। दर्शन के बाद देर तक यही स्थिति रही। दूसरे दिन आपके पास आने पर आपको प्रणाम कर आंखें बंद कर लीं और ध्यान में डूब गया। पहली बार आपका अदभुत सान्निध्य पाया--इतना निकट कि खुली आंखों से आपको कभी नहीं देख पाया था। भीतर शीतलता, गहन मौन और शांति बहुत देर तक छाई रही। यह क्या है?
यही सत्संग है। जो मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूं वह खुली आंखों से नहीं देखा जा सकता; उसे देखने के लिए बंद आंख चाहिए। जो मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूं वह अदृश्य है। इन आंखों के लिए अदृश्य है। बाहर की दो आंखों के लिए अदृश्य है। लेकिन भीतर की आंखों के लिए अदृश्य नहीं है।
पहली दफा, धर्मशरणदास, तुम्हें सत्संग का स्वाद आया। अब यह बढ़ता जाएगा। अब इसमें रमो। अब इसको जितना पुकार सको पुकारो। और जल्दी ही तुम अनुभव करोगे कि इसके लिए मेरे पास ही आकर बैठने की कोई जरूरत नहीं है। जब भी तुम मुझे याद करो, कितने ही दूर हजार मील दूर से, तुम्हारी याद पर निर्भर है। अगर याद तुम्हारी पूरी हो जाए और आंख तुम्हारी सच में बंद हो जाए, तो तुम फिर यही पाओगे, सब जगह पाओगे। तुम्हारी असली दीक्षा अब हुई। एक संन्यास था, जो तुमने पहले लिया था; वह तो केवल शुरुआत थी। अब असली संन्यास घटा। अब तुम मुझसे भीतर से जुड़े।
शुभ हुआ। अब इस पर पानी सींचो। इस पौधे को कुम्हला जाने मत देना।
छठवां प्रश्न:
भगवान, कल प्रवचन के आधे घंटे पहले जब मैंने आपकी ओर गौर से देखा, तब आपके सिर के आस-पास शुभ्र प्रकाश की छाया जैसी कुछ चीज महसूस हुई। पहले इस बात पर मुझे शक हुआ, मगर फिर-फिर देखने की कोशिश की, तब भी वही दिखाई दिया। और अब तक कैसे चूका, यह खयाल आते ही रोया। कृपया स्पष्ट करें कि यह क्या हुआ?
आनंदतीर्थ! तुम धन्यभागी हो कि जल्दी ही तुम्हें ऐसा दिखाई पड़ा। वही मैं हूं! जो तुम्हें प्रकाश की छाया की भांति मालूम पड़ा है, वही मैं हूं! यह देह उसकी छाया है। यह देह मूल नहीं है, मूल वही है। वह जो रोशनी तुम्हें दिखाई पड़ी, वही मूल है। यह देह उसके पीछे चलने वाली छाया है।
मगर हम देह से इतने बंधे हैं कि हमने देह को मूल मान लिया है। इसलिए जब पहली दफा मूल दिखाई पड़ता है तो छाया जैसा मालूम होता है। और जो तुम्हें मेरे भीतर दिखाई पड़ा है, वही तुम्हें जल्दी ही सबके भीतर दिखाई पड़ने लगेगा। इसका कोई संबंध उपलब्ध और गैर-उपलब्ध से नहीं है।
यह आभामंडल प्रत्येक के पास है--सिर्फ आंख चाहिए देखने की! यह आभामंडल मनुष्यों के पास ही नहीं है, पशु-पक्षियों के पास भी है, और वृक्षों के पास भी है। यह आभामंडल हमारी आत्मा है।
जो तुम्हें हुआ, अब उसका बार-बार स्मरण करना। और मेरे ही साथ नहीं, कभी-कभी राह चलते अजनबी के पास भी अनुभव होगा। धीरे-धीरे अनुभव फैलता जाएगा। सभी के भीतर परमात्मा मौजूद है--उतना ही जितना बुद्ध के, जितना कृष्ण के, जितना क्राइस्ट के भीतर। लोगों को पता न हो, यह दूसरी बात है। खजाना तो भीतर है ही। भूल गए हों, यह दूसरी बात है। उस खजाने से यह रोशनी उठती ही रहती है।
मगर पहली बार देखने में आमतौर से सुविधा हो जाती है, अगर तुम्हारा किसी से बहुत गहरा लगाव और श्रद्धा का संबंध हो। नहीं तो यह देखना मुश्किल हो जाता है। पहली दफा गुरु में दिखता है, फिर धीरे-धीरे सबमें दिखाई पड़ने लगता है।
ठीक हुआ आनंदतीर्थ! और जब पहली दफा होता है तो शक भी होता है, संदेह भी होता है--भ्रांति तो नहीं हो रही? मन हजार प्रश्न खड़े करता है। और जब पहली दफे होता है, तब यह भी होता है कि अब तक कैसे चूका? और वह खयाल आते हर एक रोता है। क्योंकि जो इतनी सुगमता से उपलब्ध था, उससे भी हम चूक रहे थे। हम जैसा अभागा कौन!
लेकिन फिकर न करो, जब भी घर लौट आए तभी जल्दी है। क्योंकि अनंत हैं जो अनंतकाल तक लौटने वाले नहीं हैं, ऐसी जिद किए बैठे हैं। जब हो जाए तभी जल्दी है। पछताने की चिंता छोड़ो। अब हुआ है, आभारी होओ! धन्यभागी होओ! अहोभाव से भरो! क्योंकि अहोभाव से भरोगे तो और-और होगा।
सातवां प्रश्न:
भगवान, प्रवचन के समय जब आपको देखती हूं, आपका दर्शन करती हूं, तब आपकी आवाज सुनाई पड़ती है; लेकिन आप क्या कह रहे हैं उसका ध्यान नहीं रहता। तो क्या यह मेरी मूर्च्छा है, बेहोशी है? कृपा कर मेरा मार्ग-दर्शन करें।
नहीं समाधि! बेहोशी नहीं है। अब पहली दफा जैसा मुझे सुनना चाहिए वैसा तुमने सुनना शुरू किया। जो मैं कह रहा हूं वह तो बहाना है--तुम्हें उलझाए रखने का; तुम्हें यहां बिठाए रखने का। जो मैं हूं, उससे ही जुड़ना है। जो शब्द में कहा जा रहा है, वह तो ना-कुछ है। जो शब्दों के बीच में बहा जा रहा है, वही सब-कुछ है। दो शब्दों के बीच में जो अंतराल है, जब कभी-कभी मैं क्षण भर को चुप हो जाता हूं, तब सुनोगे--तभी सुना।
मैं क्या कहता हूं वह भूल जाए, उसकी फिकर मत करना। मैं क्या हूं, वह न भूले।
मूर्च्छा नहीं है। मूर्च्छा जैसी ही है बात, लेकिन मूर्च्छा नहीं है। मूर्च्छा जैसी लगेगी। बेखुदी है। आत्म-तल्लीनता है। लेकिन आत्म-तल्लीनता भी मूर्च्छा जैसी लगती है। एक नशा छा रहा है।
जाम गिर पड़ता है साकी थर-थरा जाते हैं हाथ
तेरी आंखें देख कर नश्शा में आ जाती हूं मैं
नशा तो बढ़ना चाहिए। पियक्कड़ बढ़ें, यही तो मेरी चेष्टा है। इस मधुशाला में ज्यादा से ज्यादा लोग पी कर बेखुद हो जाएं, यही तो उपाय है। सुधि खो जाएगी तुम्हें अपनी, और तभी तो परमात्मा की सुधि आएगी।
जब जब वै सुधि कीजिए, तब-तब सब सुधि जाहिं
आंखिन आंख लगी रहैं, आंखैं लगत नाहिं।।
मतिराम का प्रसिद्ध वचन है: ‘जब-जब वै सुधि कीजिए’...जब-जब उसकी याद आती है, जब-जब उसका स्मरण होता है,...‘तब-तब सब सुधि जाहिं’...तब-तब सब याद खो जाती है, सब स्मरण खो जाता है। एक बेखुदी छा जाती है, एक नशा उतर आता है। ‘आंखिन आंखि लगी रहैं’... और तब उसकी आंखों से आंख जुड़ जाती हैं। ‘आंखिन आंखि लगी रहैं, आंखैं लगत नाहिं। फिर आंख बंद नहीं होती। फिर नींद नहीं आती। फिर आंखें थिर हो जाती हैं, अपलक हो जाती हैं।
ऐसा ही कुछ होता होगा। और फिर बड़ा मुश्किल हो जाता है। मतिराम का दूसरा प्रसिद्ध वचन है:
कौन बसत है कौन में, यों कछु कही परै न।
पिय नैनन तिय नैन हैं, तिय नैनन पिय नैन।।
कौन किसमें बसता है, कौन किसमें बस गया है--कहना मुश्किल हो जाता है! प्यारे के आंख में प्रेयसी बस गई है, कि प्रेयसी की आंख में प्यारा बस गया है--तय करना मुश्किल हो जाता है।
कौन बसत है कौन में, यों कछु कही परै न।
--कहते नहीं बनता।
पिय नैनन तिय नैन हैं, तिय नैनन पिय नैन।
फिर धीरे-धीरे तो कौन प्यारा है और कौन प्रेयसी, यह भी तय करना मुश्किल हो जाता है। फिर तो दोनों डूब जाते हैं--एक बचता है। उसी एक की तरफ चलना है।
शब्द भी खो जाएंगे। मेरा रूप-रंग, आकार भी खो जाएगा। तुम्हारे शब्द भी खो जाएंगे। तुम्हारा रूप-रंग, आकार भी खो जाएगा। और तब निराकार तुम्हें सब तरफ से घेर लेगा। बाहर भी वही, भीतर भी वही!
आखिरी प्रश्न:
भगवान, ‘साहिब एहि विधि ना मिलै’ की बात ने आज ऐसी चोट मारी कि मैं खलबला गई, धड़कनें बढ़ गईं और मैं आंसू की धार में नहा गई। मेरा भय बह गया। अब कोई आशंका नहीं, कोई भय नहीं। प्रभु, मैं आपकी नाव में बैठ गई। मुझे सम्हालना, मैं गिर न जाऊं! मेरा स्वीकार करो!
पूछा है गुणा ने!
यही तो सत्संग का प्रयोजन है--बैठे रहो, सुनते रहो; बैठे रहो, सुनते रहो। कब चोट पड़ जाए, कौन जानता है!
‘साहिब एहि विधि ना मिलै।’
औरों ने भी सुना, गुणा को चोट पड़ी। चोट पड़ने का भी समय होता है। कभी-कभी मन उस पकी हुई अवस्था में होता है, जब चोट पड़ जाती है। तब इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, किससे चोट पड़ी। अब यह वचन तो मैंने बहुत बार दोहराया था--‘साहिब एहि विधि ना मिलै’--अभी भी दोहरा रहा हूं। इस वचन में कुछ नहीं है। गुणा का चित्त उस समय मेरी तरंग में बंध गया होगा, मेरे साथ जुड़ गया होगा। एक क्षण को भेद टूट गया। फिर मैं क्या कह रहा था उस क्षण में, यह सवाल नहीं है। कुछ भी कह रहा होता, जो कहता, उसी से चोट पड़ जाती।
झेन फकीरों की तुमने कहानियां सुनी हैं न। शिष्य ध्यान कर रहा है और गुरु ने सिर्फ पास आकर जोर से ताली बजा दी है। अब ताली तो कोई शब्द भी नहीं है। और एक चौंक और एक सन्नाटा छा गया। और शिष्य ने आंखें खोलीं। पुराना गया, नये का जन्म हो गया। अब शिष्य कहेगा कि ‘आपने ताली क्या बजा दी, यह ताली अमृत थी!’ यह ताली बस ताली जैसी ताली थी। यह घड़ी अमृत की थी। इसमें कुछ भी हो जाता।
झेन फकीर अपने शिष्यों के सिर पर डंडा भी मार देते हैं। और डंडे मारने से कभी-कभी समाधि फल गई है। कहां से समाधि फल जाएगी, कहना कठिन है। कब तार मिल जाएगा, कहना कठिन है। इसलिए प्रतीक्षा चाहिए।
इक निगाह कर के उसने मोल लिया
बिक गए आह! हम भी क्या सस्ते
कभी-कभी एक निगाह, जरा सी एक निगाह--और सब बिक जाता है, सब दांव पर लग जाता है! मगर कब? उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। इसलिए कहा है कि बैठो गुरु के पास, उठो गुरु के पास, चलने दो यह धारा, यह सत्संग बने रहने दो। कब हो जाएगा, किस शुभ घड़ी में--कोई भी नहीं जानता। उसकी कोई भविष्यवाणी भी नहीं हो सकती। ज्योतिषी भी उसके संबंध में कुछ नहीं कह सकते। सिर्फ एक ही चीज है इस जगत में जो ज्योतिष के बाहर है। क्यों ज्योतिष के बाहर है? क्योंकि एक ही चीज है इस जगत में जो कर्म-जाल के बाहर है। एक ही चीज है इस जगत में--समाधि--जिसकी कोई घोषणा नहीं हो सकती। क्योंकि समाधि इस जगत की बात ही नहीं है, उस जगत से आती है। इस जगत में तो हम केवल ग्राहक होते हैं।
‘साहिब एहि विधि ना मिलै’ की बात ने आज ऐसी चोट मारी कि मैं खलबला गई।’
चोट तो रोज ही कर रहा हूं कि तुम खलबलाओ, कि तुम्हारी धड़कनें बढ़ें, कि कभी तुम्हारी धड़कनें रुक जाएं, कि कभी तुम्हारी श्वास भीतर जाए और बाहर न आए, और कभी बाहर जाए तो भीतर न आए। कभी एक अंतराल पैदा हो जाए, श्रृंखला टूट जाए, सिलसिला उखड़ जाए। तुम अतीत से बिलकुल टूट जाओ और नये हो जाओ।
‘और मैं आंसू की धार में नहा गई।’
आंसुओं में असली गंगा है। जो आंसुओं में नहाना जान लेता है, उसे गंगा मिल गई। वह जानता है कि पवित्र होने का क्या उपाय है। आंसू चमत्कार है। अगर आंसू ठीक से बह जाएं, आंखों की जन्मों-जन्मों की धूल बहा ले जाते हैं और हृदय का जन्मों-जन्मों का अंधेरा और तमस कट जाता है। रोना जिसने जान लिया उसने प्रार्थना जान ली। अभागे हैं वे, जिन्हें रोने का पता नहीं और जिनकी प्रार्थना कोरे शब्दों की है।
‘मेरा भय बह गया।’
जी खोल कर कुछ आज तो रोने दे हमनशीं
मुद्दत हुई है दर्द का दरमां किए हुए
कितने जन्मों से तो रोके बैठे हो आंसुओं को! कितना तो दर्द छिपाए बैठे हो! कहा नहीं, बताया नहीं। बताते भी क्या, कहते भी किससे? कहते भी तो समझता कौन? यहां समझने को कौन है? रोते भी तो लोग हंसते। रोते तो लोग दया करते। इसलिए तो लोगों ने रोक रखा है दर्द, रोक रखे हैं आंसू।
जी खोल कर कुछ आज तो रोने दे हमनशीं
मुद्दत हुई है दर्द का दरमां किए हुए
वह बह गई होगी धारा, फूट गया होगा बांध।
‘मेरा भय बह गया। मैं आंसुओं में नहा गई। अब कोई आशंका नहीं, कोई भय नहीं।’
यही तो पुण्य का अनुभव है। कल ही तो हम बात करते थे धनी धरमदास की--पुण्य का अनुभव! यही पुण्य का अनुभव है। पवित्रता का अनुभव, पुण्य का अनुभव है। पवित्रता में कहां भय, कहां क्रोध, कहां लोभ, कुछ भी नहीं, सब बह जाता है। मगर ध्यान रखना, लौट-लौट कर आ जाता है।
इसलिए जो हुआ है, उस पर ही रुक नहीं जाना है। लौट-लौट कर आ जाता है। वे जाल इतने पुराने हैं कि क्षण भर को आकाश खुलता है, मगर फिर बादल घिर जाते हैं, घटाटोप! फिर अंधकार छा जाता है। फिर सूरज छिप जाता है। फिर भरोसा नहीं आता कि सूरज दिखाई पड़ा था या मैंने कल्पना की थी। क्योंकि हमारा बादलों का अनुभव तो बहुत पुराना है और सूरज तो कभी क्षण भर को दिखाई पड़ता है।
तो गुणा भूलना मत! वह जो हुआ वह सत्य था। फिर बादल घिरेंगे, फिर भय आएगा, फिर आशंका आएगी, फिर संदेह उठेंगे। फिर सारे रोग खड़े होंगे मगर उसे याद रखना: जो हुआ है, वह सच था। मेरी गवाही है कि जो हुआ है, वह सच था। और उस सच को फिर-फिर खोजना है। बादलों को फिर-फिर छांटना है।
और इसीलिए प्रश्न का अंतिम हिस्सा तुम्हारी समझ में आएगा: ‘प्रभु, मैं आपकी नाव में बैठ गई। मुझे सम्हालना!’
कहीं दूर से भय की धुन आने लगी--सम्हालना! कहीं से भय ने सिर उठाया। एकदम चला नहीं गया; यहीं खड़ा है दरवाजे के पास। वह कह रहा है: ‘गुणा! इतनी निर्भीक मत हो जाओ, मैं अभी चला नहीं गया, अभी यहीं हूं, पास ही हूं, फिर लौट आऊंगा। इतनी जल्दी दोस्ती छोड़ नहीं सकता। पुराना नाता-रिश्ता है, जन्म-जन्म का संबंध है। ये फेरे बहुत पुराने हैं।’
‘प्रभु, मैं आपकी नाव में बैठ गई, मुझे सम्हालना!’
सम्हालने का भाव--आ गया भय! नहीं तो क्या सम्हालना है? क्या सम्हलना है? ‘मैं गिर न जाऊं’--आ गया भय। गया सूरज, बादल लौट आए। आंसुओं ने जो क्षण भर को आंखें साफ कर दी थीं, धूल-धवांस फिर लौट आई।
ऐसा बार-बार होगा। इसके पहले कि आंख सदा के लिए खुल जाए और धूल सदा के लिए बह जाए, बहुत बार होगा।
समाधि के पूर्व बहुत बार समाधि की झलकें आती हैं। यह समाधि की एक झलक थी, सुंदर थी। कहना भी कठिन है कि किस तरह की थी। लेकिन कहने की जरूरत नहीं। जब तुम्हारे भीतर घटती है तो जो मुझसे जुड़े हैं, मुझे उनकी खबर हो जाती है। जो तुम्हें कह जाता है वही मुझसे भी कह जाता है।
कागद पर लिखत न बनत कहत संदेश लजात।
कहिहै सब तेरो हियो, मेरे हिय की बात।।
कहने की तो बात भी नहीं है। लेकिन जब तुम्हारे हृदय में कुछ घटता है तो मेरे हृदय में भी घट जाता है। वही संबंध है गुरु और शिष्य का। जिनसे मेरा वैसा संबंध नहीं है, उनके भीतर क्या घटता है, मुझे पता नहीं चलेगा। उनसे मेरे तार नहीं जुड़े हैं। हिम्मत हो तो तार जोड़ लो, पीछे बहुत पछताना होगा।
उठें फिर फस्ले-गुल में आरजुओं को जवां कर दें
चलें फिर बुलबुलों को आशना-ए-गुलसितां कर दें
बसा लो यह बगिया! खिल जाने दो यह फूल! थोड़ी हिम्मत चाहिए।
और ऐसे भी जिंदगी तो जा ही रही है, चली ही जाएगी, मौत सब छीन ही लेगी, उसके पहले दांव पर लगा लो।
चश्मेतर! देख गमे-दिल न नुमायां हो जाए
इश्क के सामने और हुस्न पशेमां हो जाए
जानता हूं मैं तमन्ना को गुनाहे-उल्फत
इश्क वह है जो निहां रह के नुमायां हो जाए
प्रेम तो चुपचाप विलीन हो जाता है।
इश्क वह है जो निहां रह के नुमायां हो जाए
जो बोले भी न, कहे भी न, चुपचाप झुके और लीन हो जाए।
अपनी मजबूरी-ए-उल्फत का फसाना कह कर
डर रहा हूं कि कहीं वह न पशेमां हो जाए
दागे-उल्फत की तज्जली जो नुमायां हो जाए
शोलए-तूर भी इक बार पशेमां हो जाए
जब्ते-गम से नहीं यारा-ए-खामोशी मुझको
तुम जो कुछ पूछो तो मुश्किल मेरी आसां हो जाए
शिष्य तो पूछ भी नहीं सकता। पूछता है तो जानता है कि जो पूछना था वह चूक गया, वह शब्द में नहीं आया। लेकिन शिष्य पूछे या न पूछे, गुरु उत्तर देता ही है। तुम्हारे बहुत से न पूछे गए प्रश्नों के उत्तर भी रोज मैं देता हूं। जिन्होंने नहीं पूछे हैं, उनके उत्तर भी मैं देता हूं। जो मुझसे जुड़े हैं उनकी खबर तो हो जाती है; उनकी जरूरत मुझे पता चल जाती है।
जब्ते-गम से नहीं यारा-ए-खामोशी मुझको
तुम जो कुछ पूछो तो मुश्किल मेरी आसां हो जाए
काश यूं बर्क गिरे खिरमने-दिल पर मख्फी
़जर्रा-़जर्रा मेरी हस्ती का फरोजां हो जाए
‘काश यूं बर्क गिरे खिरमने-दिल पर’...यह जो दिल की खलिहान है, इस पर कोई बिजली गिरे--ऐसी गिरे, ऐसी गिरे--‘़जर्रा-़जर्रा मेरी हस्ती का फरोजां हो जाए’... कि मेरा कण-कण रोशन हो उठे।
शिष्य होने में यही आकांक्षा छिपी है--प्रेम का निवेदन और यह आकांक्षा--कि बिजली गिरे मुझ पर ऐसी कि ़‘जर्रा-़जर्रा फरोजां हो जाए’... कि एक-एक कण रोशन हो उठे।
थोड़ी सी चोट गुणा को हुई। अब इस चोट की प्रतीक्षा करना और इस चोट की प्रार्थना करना और इस चोट की अभीप्सा करना। यह चोट बार-बार पड़ेगी। एक बार पड़ गई तो पहचान हो जाती है। पहचान हो गई तो फिर बार-बार पड़ने लगती है।
तुमने कभी खयाल किया? एक दिन पैर में चोट लग जाती है, फिर दिन भर उसी जगह चोट लगती है--यह तुमने खयाल किया? लगती तो रोज थी चोट, लेकिन पता नहीं चलती थी, अब पता चलती है। पैर में चोट लग गई, कुर्सी के पास से निकलते हैं, कुर्सी का पैर भी उसमें लग जाता है, फिर चोट मालूम होती है। दरवाजा लग जाता है। बच्चा आकर तो उसी पैर पर खड़ा हो जाता है। दिन भर चोट लगती है। चोट तो रोज लगती थी, मगर एक बार लग गई तो घाव हो गया। घाव हो गया तो संवेदनशीलता उस स्थल की बढ़ गई। अब जरा सा भी लगेगा तो चोट हो जाएगी। धीरे-धीरे संवेदनशीलता गहन होती जाती है।
शिष्य धीरे-धीरे संवेदनशीलता ही हो जाता है। वही संन्यास है।
आज इतना ही।
भगवान, क्या यह सच नहीं है कि ज्ञानोपलब्ध लोगों की अनुपस्थिति में--और वे दुर्लभ लोग सदा नहीं होते--पंडित और पुरोहित ही धर्म की मशाल जलाए रखते हैं?
धर्म कोई मशाल नहीं। जिसे जलाए रखना पड़े, वह धर्म नहीं। जिसे हम सम्हालें, वह धर्म नहीं। जो हमें सम्हालता है, वही धर्म है।
बिन बाती बिन तेल! न तो धर्म की कोई बाती है, न कोई तेल है। धर्म शुद्ध प्रकाश है। उसके लिए किसी ईंधन की कोई जरूरत नहीं। धर्म का ही विस्तार है। धर्म साधे हुए है सारे अस्तित्व को। पंडित-पुरोहित धर्म को साधेगा? फिर वह धर्म न रह जाएगा। हिंदू धर्म को पंडित-पुरोहित सम्हाल कर रखता है। इस्लाम धर्म को पंडित-पुरोहित सम्हाल कर रखता है। धर्म को नहीं।
धर्म तो तब तुम्हें उपलब्ध होता है जब तुम अपने को सम्हाल लेते हो--बस तत्क्षण धर्म का दीया जल उठता है। धर्म का दीया तो जला ही हुआ था, सिर्फ तुम आंखें बंद किए थे। अपने को सम्हाल लेते हो, आंख खुल जाती है।
तुम चेतो। तुम्हारे चेतते ही, तुम्हारे चैतन्य होते ही, तुम चकित हो जाते हो कि मैं जिसे खोज रहा था वह मेरे भीतर सदा से मौजूद था; जिसे मैं दूर खोज रहा था वह मेरे पास था। और जिसे मैं बाहर तलाशता था वह मेरे भीतर था।
धर्म तुम्हारा स्वभाव है। धर्म मशाल नहीं। मशाल में तो तेल भी डालना होगा। कभी बुझने लगे मशाल तो सम्हालना भी होगा। किन्हीं हाथों की जरूरत पड़ेगी। धर्म तो वह है जो सब हाथों को सम्हाले हुए है। तुम श्वास धर्म के कारण ले रहे हो। तुम जी धर्म के कारण रहे हो। चांद-तारे धर्म के कारण चलते हैं। पृथ्वी सम्हली है धर्म के कारण। धर्म इस जगत को सम्हालने वाले नियम का नाम है।
धर्म को पंडित-पुरोहित कैसे सम्हालेंगे! और अगर पंडित-पुरोहित धर्म को सम्हालेंगे, तो पंडित-पुरोहितों को कौन सम्हालेगा? इसे एकबारगी ठीक से समझ लो। पंडित-पुरोहित जिसे सम्हालते हैं, वह धर्म नहीं है और धर्म नहीं हो सकता है। इसीलिए धर्म नहीं हो सकता क्योंकि पंडित-पुरोहितों के द्वारा सम्हाला गया है।
पंडित-पुरोहित खुद अंधे हैं। इन्हें रोशनी दिखी नहीं। जो इन्हें दिखा नहीं, उसे ये सम्हालेंगे? हां, शास्त्र को सम्हाल लेंगे। शास्त्र में थोड़े ही धर्म है। धर्म शून्य के अनुभव में है। शब्द में धर्म नहीं है, निःशब्द में धर्म है। निःशब्द का इन्हें कुछ पता नहीं है। धर्म मंदिर-मस्जिद में होता तो ये सम्हाल लेते। मगर धर्म मस्जिद-मंदिर में नहीं है। धर्म बहुत विराट है। सब मंदिर-मस्जिद धर्म के भीतर हैं। धर्म किसी के भीतर नहीं है।
धर्म का अर्थ होता है: हमारे पहले जो था, हमारे बाद भी जो होगा। हम आते हैं, हम जाते हैं--धर्म रहता है। लेकिन निश्चित ही वह धर्म न तो हिंदू हो सकता है, न मुसलमान हो सकता है, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध। वह तो शुद्ध धर्म है। उस धर्म को, जब भी तुम जाग कर आंख खोलते हो, तुम सदा अपने पास पाते हो, अपने प्राणों में पाते हो, अपनी श्वासों में, अपने हृदय की धड़कनों में। उसे खोजने कहीं भी नहीं जाना पड़ता।
फिर पंडित-पुरोहित क्या सम्हाल रहे हैं। वे धर्म की लाश सम्हालते हैं, मशाल नहीं। बुद्ध से धर्म बोला, क्योंकि शून्य बोला। बुद्ध के हृदय की वीणा पर वह संगीत उठा जिसको हम अनाहत कहते हैं; वह नाद उठा। धर्म बोला बुद्ध से। बौद्ध धर्म नहीं बोला, खयाल रखना। बुद्ध बौद्ध नहीं थे और न ईसा ईसाई थे और न कृष्ण हिंदू थे। बुद्ध से धर्म बोला। कृष्ण से धर्म बोला। क्राइस्ट से धर्म बोला। पंडित-पुरोहितों ने शब्द पकड़े, इकट्ठे किए, सम्हाले। जो बोला गया था, उसे सम्हाल कर गठरियां बांध लीं। वेद बने, बाइबिल बनी, कुरान बनी, धम्मपद बना। फिर उन गठरियों को वे सम्हाल रहे हैं और ढो रहे हैं। और उन पर कचरा जमता जाता है, धूल बैठती जाती है। सदियां उन पर जमती जाती हैं। धूल की पर्तें पर घनी होती जाती हैं। अब तो शब्द भी कहां खो गए, उनका भी पता नहीं है। अब तो शब्द भी बड़ी धूल-धवांस में खो गए हैं। एक-एक शास्त्र पर इतनी व्याख्याएं लद गई हैं... गीता की एक हजार व्याख्याएं हैं! उन एक हजार व्याख्याओं के जंगल से पता लगाना एकदम असंभव है कि कृष्ण ने कहा क्या था। अगर कृष्ण ने हजार बातें कही थीं तो या तो कृष्ण पागल थे या अर्जुन सुन-सुन कर पागल हो गया होगा। कृष्ण ने तो एक ही बात कही होगी। मगर वह क्या है? कैसे जानोगे?
पंडित-पुरोहितों के पास बड़ी व्याख्याएं हैं, तुम कैसे तय करोगे कि क्या कृष्ण ने कहा? एक ही उपाय है: अपने भीतर जाओ। कृष्ण वहां अब भी बोलते हैं। अर्जुन बनो, कृष्ण अब भी बोलते हैं। आनंद बनो और बुद्ध अब भी कहेंगे। अब भी वही कहेंगे जो तब कहा था। बुद्ध और कृष्ण का सवाल नहीं--धर्म बोलता है। बुद्ध एक ढंग हैं धर्म के बोलने के; कृष्ण एक और ढंग हैं। वही बात बोली जाती है जो बुद्ध ने बोली। वही! भाषा अलग होगी, भाव वही है। अभिव्यंजना के रंग-ढंग अलग होंगे, मगर अभिव्यंजित वही है। एक ही कहा गया है। सदा एक ही दोहराया गया है। समय जाता है, भाषाएं बदल जाती हैं, प्रतीक बदल जाते हैं, कथाएं बदल जाती हैं, दृष्टांत बदल जाते हैं। मगर जिस तरफ इशारे हो रहे हैं, वह नहीं बदलता। अंगुलियां बदल जाती हैं इशारा करने वाली, मगर जिस चांद की तरफ अंगुलियां उठी हैं वह चांद वही है। इसे कोई नहीं सम्हालता।
लेकिन पंडित-पुरोहित कुछ तो सम्हालते हैं निश्चित। लाश सम्हालते हैं। बुद्ध चले, उनके चरण-चिह्न बने समय की रेत पर। वे उन चरण-चिह्नों को सम्हालते हैं; वे उन्हीं चरण-चिह्नों की पूजा करते हैं, उन्हीं पर फूल चढ़ाते रहते हैं। बुद्ध के चरण-चिह्नों में बुद्ध नहीं हैं। वह तो गया जो चला था। और जो चला था वह समय की रेत पर पकड़ा नहीं जा सकता। वह शाश्वत है। समय में केवल भनक सुनाई पड़ती है, प्रतिध्वनि आती है। समय में असली चीज पकड़ में नहीं आती।
मैं रास्ते पर चलूं, धूल में मेरे पैर के निशान बन जाएं, तुम उन्हीं निशानों को पकड़ कर बैठ जाओ--चूक हो जाएगी, बड़ी भूल हो जाएगी। उन चरण-चिह्नों की पूजा करने से तुम्हें कुछ भी न मिलेगा। उन्हें भूलो! उसकी तरफ देखो, जो चला। उसे खोजो, जो चला। उसके कोई चरण-चिह्न नहीं हैं, क्योंकि जो चला है वह देह नहीं है। जो चला है वह आकार नहीं है। जो चला है वह शब्द नहीं है। उसकी तरफ खयाल करो। जरा बुद्ध की आंखों में झांको।
मेरी आंखों में झांको! मेरी देह को भूलो! मैं जो कहता हूं, उसमें बहुत मत उलझ जाना। मैं जो हूं, उसमें उलझ जाओ तो पार हो जाओ।
लाश रह जाती है। लेकिन लाशों को रख कर क्या करोगे? तुम्हारी मां चल बसी, बड़ी प्यारी थी--और कौन चाहता है कि मां चली जाए! लेकिन जब चल बसी तो लाश को ले जाते हो न मरघट? इसी देह में तो थी, यह भी सच है; मगर अब नहीं है, यह और भी ज्यादा सच है। जो इस देह में था वह पक्षी तो उड़ गया; वह हंस अब इस पिंजड़े में नहीं है। पिंजड़ा पड़ा रह गया है, हंस उड़ चुका है। हंस उड़ चुका, अब इस पिंजड़े का क्या करोगे? बांधो अरथी, ले चलो मरघट। रखो आग में, भस्मीभूत हो जाने दो। राख भी बचे, उसे भी गंगा में डुबा आना। सब स्वाहा कर दो। करना ही पड़ता है।
प्रत्येक शास्ता के बाद यही अड़चन खड़ी होती है। शास्ता तो चला जाता है। हंसा तो उड़ गया! शब्द पड़े रह जाते हैं। समय की धूल पर पैर के निशान रह जाते हैं! स्मृतियां रह जाती हैं। लोगों ने जो देखा था, जो सुना था, उसकी याददाश्तें मन में रह जाती हैं; उन्हीं को लोग संजो कर रख लेते हैं; उन्हीं की पूजा चलने लगती है। उसी को तुम धर्म कहते हो? वह लाश है। उससे छुटकारा होना चाहिए। उससे छुटकारा हो जाए तो तुम असली की तलाश करने लगो। पिंजड़े से मुक्त हो जाओ तो हंस की तरफ आंख उठे। पिंजड़े को ही पूजते रहते हो तो हंस की तरफ देखेगा कौन? तुम्हारी आंखें पिंजड़े से भर जाती हैं। तुम पिंजड़े में ही उलझ जाते हो। तुम पिंजड़े के क्रियाकांड में ही पड़ जाते हो। वही हो रहा है--मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में, गिरजे में, वही हो रहा है। पिंजड़े पूजे जा रहे हैं।
मशाल नहीं है धर्म। धर्म आविर्भाव है--शाश्वत का समय में; निराकार का आकार में; शून्य का शब्द में। और जब शास्ता जीवित होता है बस तभी पकड़ लेना तो पकड़ लिया; तब चूके तो चूके। फिर लकीरें पीटते रहो जीवन भर जन्मों-जन्मों तक, कुछ भी न होगा।
पंडित-पुजारी, पुरोहित, मौलवी, पादरी लकीरें पीटते रहते हैं। लकीरों पर लकीरें पीटते रहते हैं। लकीरों को सजाते रहते हैं, संवारते रहते हैं। लकीरों का शृंगार करते रहते हैं। और बड़ी कुशलता से। सदियों-सदियों में वे बड़े कुशल हो गए हैं। बाल की खाल निकालते रहते हैं और कुछ भी नहीं है। और लाश पड़ी रह गई है, उसमें से बदबू उठ रही है।
देखते नहीं तुम, सभी धर्मों से बदबू उठती हुई? नहीं तो हिंदू-मुसलमान लड़ता क्यों, अगर बदबू न उठती होती? धर्म के नाम पर जितना खून हुआ है, किसी और चीज के नाम पर हुआ है? धर्म के नाम पर जितना अनाचार हुआ है, किसी और चीज के नाम पर हुआ है? धर्म के नाम पर आदमी लड़ता ही तो रहा है। प्रेम की बातें चलती रहीं और तलवारों पर धार रखी जाती रही। प्रेम के गीत गाए जाते रहे और गर्दनें काटी जाती रहीं। धर्म के नाम पर कितना पाखंड हुआ है! अब भी जारी है। इस पाखंड के कारण ही मनुष्यता धार्मिक नहीं हो पा रही है।
जब तक झूठ को तुम झूठ की तरह न जानो, सच को तुम सच की तरह देखने में समर्थ न हो पाओेगे।
पंडित-पुरोहित से मुक्त होना जरूरी है। उससे मुक्त होकर ही तुम्हें धर्म की पहली दफा थोड़ी-थोड़ी प्रतीति होना शुरू होगी। छोड़ो पंडित-पुजारी को, चांद-तारों से दोस्ती करो! फूलों से मुलाकात लो! नदियों-सागरों से पूछो! यह आकाश ज्यादा जानता है। इस आकाश के नीचे पड़ जाओ शांत होकर। इस आकाश को अपने भीतर उतरने दो। यह कोयल की आवाज, ये पक्षियों के गीत--इनमें कहीं धर्म ज्यादा जीवंत है!
दूसरा प्रश्न:
भगवान, गुरु की निंदा सुनने का हमेशा निषेध किया गया है। ऐसा भी कहा गया है कि यदि कोई गुरु की निंदा कर रहा हो तो कान भी धो डालना चाहिए। आपका प्रेमी तो कभी ही मिलता है; पर आपके निंदक हर जगह पर मिल जाते हैं। हमारी सामर्थ्य भी नहीं है कि हम उनको कुछ समझाएं। ऐसे बहुधा उपलब्ध मौकों पर हमें क्या करना चाहिए? कृपा करके मार्ग स्पष्ट करें।
देवानंद! जिन्होंने कहा है, गुरु की निंदा नहीं सुननी चाहिए वे गुरु न रहे होंगे, बड़े कमजोर लोग रहे होंगे। यह तो असंभव ही है कि गुरु हो और उसकी निंदा न हो। ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं।
बुद्ध की कितनी निंदा हुई, इसका तुम्हें कुछ पता है? निंदा इतनी भयंकर रूप से हुई कि इस देश से बुद्ध-धर्म को उखड़ ही जाना पड़ा। बुद्ध इस देश में पैदा हुए, इस देश का धन्यभाग होना था कि बुद्ध इस देश में पैदा हुए, क्योंकि मनुष्य-जाति ने इतना ज्वलंत धर्म का आविर्भाव न पहले कभी देखा था, न पीछे कभी देखा। मगर अभागा यह देश! इतनी निंदा की बुद्ध की, कि इस देश से बुद्ध-धर्म को तिरोहित हो जाना पड़ा।
तुम सोचते हो, जीसस को लोगों ने सम्मान दिया था, फूलमालाएं पहनाई थीं? तो फिर सूली किसको लगी? वही सम्मान था। वही फूलमाला थी।
जीसस अपने गांव गए एक बार। गांव के सिनागॉग में उन्हें बुलाया गया। क्योंकि खबरें पहुंच गई थीं कि जीसस एक तरह के गुरु हैं। और उनसे कहा गया कि बाइबिल से कुछ वचन पढ़ कर हमें सुनाओ। जो वचन जीसस ने पढ़ कर सुनाए, वे बहुत बार पढ़े थे लोगों ने, जन्मों से लोग दोहराते रहे थे, सदियों से लोग दोहराते रहे थे। पुराने वचन थे। ईज़िया नाम के एक पैगंबर के वचन थे। लेकिन जिस ढंग से जीसस ने पढ़े, उस ढंग से किसी ने भी नहीं पढ़े थे। सिवाय ईजिया के उस ढंग से कोई कभी बोला नहीं था।
वचन हैं: ‘मैं आ गया। पहचानो मुझे! मेरी तरफ देखो! तुम जिसकी राह देखते थे, वह आ गया है। यह मैं रहा!’ इसको अगर जीसस ने ऐसा कहा होता कि ईज़िया ने कहा है, तो कोई अड़चन न हुई होती। लेकिन जीसस ने कहा कि जो ईजिया ने कहा है, वही मैं भी तुमसे कहता हूं: मैं आ गया जिसकी तुम प्रतीक्षा करते थे! मेरी आंखों में देखो!
और गांव के लोग एकदम पागल हो गए। यह तो कुफ्र हो गया। यह आदमी अपने को पैगंबर कह रहा है! कहां ईजिया और कहां यह गांव के बढ़ई जोसेफ का बेटा! लोगों ने उन्हें खदेड़ दिया चर्च से। उन्हें मारने के लिए पहाड़ी पर ले गए। बामुश्किल जीसस के शिष्य उन्हें बचा सके, नहीं तो वे पहाड़ी से उन्हें फेंक कर उनके ऊपर चट्टान गिरा देना चाहते थे, क्योंकि कुफ्र हो गया। उसी दिन जीसस ने कहा था: किसी तीर्थंकर, किसी पैगंबर का सम्मान उसके अपने ही गांव में नहीं होता।
फिर दुबारा वे अपने गांव नहीं गए। और उसके दो साल के भीतर ही उनको सूली लग गई। जिस दिन उन्हें सूली लगी, लोगों ने सब तरह का दुर्व्यवहार किया। पहाड़ी पर उस बड़े क्रास को कंधे पर रखवा कर जीसस को खुद क्रास को पहाड़ी पर ढोना पड़ा। बीच में वे गिर पड़े तो उनको कोड़े मार कर उठाया गया कि ढोओ। चढ़ाई थी। भरी धूप थी। भारी क्रॉस था। उसी दिन जीसस ने अपने शिष्यों की तरफ पीछे फिर कर भीड़ से कहा: जिसे मुझ तक आना है, उसे अपना क्रास अपने कंधे पर ढोना होगा।
जब उन्हें सूली पर लटकाया गया और उनके हाथों में खीले ठोके गए और पैरों में खीले ठोके गए, तो उन्हें बड़े जोर की प्यास लगी। धूप थी, दिन भर से कोई पानी नहीं मिला था, भोजन नहीं मिला था। यह पहाड़ी की चढ़ाई, यह क्रॉस का ले आना! उन्होंने पानी मांगा, लेकिन कोई पानी देने को नहीं था। किसी ने एक चीथड़े में, गंदी नाली पास में बहती थी, उसमें चीथड़े को डुबा कर, उसे बांस में उठा कर जीसस के मुंह के पास कर दिया कि इस पानी के अतिरिक्त तुम्हारे लिए हमारे पास और कोई पानी नहीं। लोग पत्थर मार रहे थे, गालियां दे रहे थे। यह सम्मान था!
यही तुमने सुकरात के साथ किया। यही तुमने मंसूर के साथ किया। यह तुम्हारी पुरानी आदत है। यह आदमियत का सदा का व्यवहार है सदगुरु के साथ।
तो तुम पूछते हो कि ‘गुरु की निंदा सुनने का हमेशा निषेध किया गया है।’
जिन्होंने कहा होगा, वे गुरु न रहे होंगे। क्योंकि गुरु के साथ अगर तुम जुड़े तो निंदा सुननी ही पड़ेगी। निंदा सुनने से ही काम चल जाए तो बहुत। पत्थर भी खाने पड़ सकते हैं। जीवन भी गंवाना पड़ सकता है। यह सब होगा। यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह कीमत चुकानी पड़ती है प्रभु के मार्ग पर।
इसलिए मैं तुमसे यह नहीं कह सकता कि कोई मेरी निंदा करे तो सुनना मत। प्रेम से सुनना! आनंद से सुनना! चलो, कम से कम इस बहाने मेरी याद तो कर रहा है कोई! उसे धन्यवाद देना कि चलो इस बहाने तुमने चर्चा तो छेड़ी! कौन जाने, आज जो निंदा कर रहा है, कल प्रेम भी करने लगे! उसके प्रति दुर्भाव मत लेना।
खयाल रखना, प्रेम और घृणा में बड़ा फासला नहीं है। प्रेम घृणा बन सकता है; घृणा प्रेम बन सकती है। वे रूपांतरित हो सकते हैं। तुमने देखा नहीं है, दोस्त ही तो दुश्मन बन जाते हैं! तो प्रेम कब घृणा बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। तुम प्रेमियों को नहीं देखते? पति-पत्नी सुबह बैठे थे कितने मग्न और सांझ झगड़ा हो गया और एक-दूसरे को मिटा डालने को तत्पर हो गए हैं। और कल सुबह फिर आनंदित हैं और फिर साथ बैठे हैं। तुम प्रेम और घृणा का यह खेल नहीं देखते? धूप-छांव की तरह यह खेल चलता है।
तो जो आदमी मेरी निंदा कर रहा है, एक बात तो पक्की है कि वह मुझमें उत्सुक हो गया है। यह तो अच्छी बात है। मुझमें रस जगा है। मेरी उपेक्षा तो नहीं कर रहा है, इतनी बात पक्की हो गई। इसको सौभाग्य समझो। आनंद से सुनना। शांति से सुनना। तुम्हारी शांति और तुम्हारा आनंद ही शायद उस आदमी की घृणा को प्रेम में बदलने का कारण हो जाए। उससे झगड़ना भी मत। उसे समझाने की, उसे बदलने की चेष्टा में भी मत लग जाना, क्योंकि ऐसी चेष्टाएं सफल नहीं होतीं। लेकिन अगर तुम शांत रह सको, अगर तुम प्रसादपूर्ण रह सको, अगर तुम उसे धन्यवाद दे सको और कह सको कि चलो इस बहाने याद तो की, मुझे याद तो करवाई! कांटा ही चुभाया, लेकिन मुझे तो याद आई! फूल से भी याद आती है, कांटे से भी याद आती है! मैं तुम्हारा धन्यवादी हूं!... तो शायद तुम्हारा ऐसा शांत व्यवहार उसे चौंकाए, उसे झकझोर जाए। उससे इतना ही कहना कि निंदा जितनी करनी है उतनी करो, मगर कभी पास आकर देखने की कोशिश भी करो! कभी दो क्षण वहां बैठो भी! हो सकता है तुम्हीं ठीक हो, तो तुम्हारी धारणा और भी मजबूत हो जाएगी चलने से। और कौन जाने तुम गलत हो तो एक गलती से छुटकारा हो जाएगा।
जब भी कोई निंदा करे, तुम समझाने की कोशिश मत करना। तुम नहीं समझा पाओगे। यह तर्क-वितर्क का काम नहीं है। यह मामला प्रेम का है। उसे पास ले आओ। यह बीमारी संक्रामक है। उसे निमंत्रण दे दो। उससे कहना कि आओ मेरे साथ, तुम भी चलो। तुम ठीक होओगे तो मैं भी तुम्हारे साथ हो लूंगा कल। कौन जाने तुम गलत होओ! मगर निर्णय के पहले निकट आना तो जरूरी है।
और एक बात खयाल रखना, जो मेरी निंदा कर रहा है वह उत्सुक तो हो गया है। वह निंदा ही इसलिए कर रहा है कि अब अपनी उत्सुकता से घबड़ा रहा है। निंदा एक मनोवैज्ञानिक बचाव का उपाय है। अब वह डर रहा है कि अगर उसने निंदा न की तो कहीं मेरे पास न चला जाए। निंदा के द्वारा वह बीच में दीवालें खड़ी कर रहा है, ताकि जाने के उपाय बंद हो जाएं। मेरे देखे तो शुभ हो रहा है।
तो मैं तुमसे न कहूंगा कि निंदा का निषेध करो और मैं तुमसे यह भी न कहूंगा कि अपने कान भी धो डालना। ऐसे तो दिन भर कान ही धोते-धोते तुम्हारा समय ़जाया होगा। इन फिजूल की बातों में मत पड़ो। जिन्होंने कहा होगा, दो कौड़ी के लोग रहे होंगे। उन्हें खुद भी अपने होने पर भरोसा न रहा होगा। मुझे भरोसा अपने पर है। तुम चिंता ही न करो। तुम किसी भांति उन्हें मेरे पास ले आओ। और वे आना चाह रहे हैं, इसलिए तो निंदा कर रहे हैं।
एक ही बात खयाल करो: प्रशंसा करने वाला भी मुझसे जुड़ गया, निंदा करने वाला भी मुझसे जुड़ गया। मुझसे वंचित वही रह सकता है जिसको उपेक्षा है। जो कहे--हमें कोई लेना-देना नहीं, न प्रशंसा, न निंदा--हमें कुछ लेना-देना नहीं, उसका जुड़ना बहुत मुश्किल है। वही दया योग्य है। अगर समझाना हो तो उसको समझाना--उपेक्षा वाले को। चाहे तुम्हारे समझाने से उसे निंदा ही पैदा हो जाए तो भी शुभ है; कम से कम निंदा तो होगी, कुछ तो होगा, मेरे खिलाफ तो होगा! मुझसे जुड़ तो गया, मुझसे संबंध तो बन गया।
शत्रुता भी एक तरह की मित्रता है, एक तरह का संबंध है। अब कभी-कभी रात में मैं उसे याद आऊंगा। एकांत बिस्तर पर पड़ा हुआ होगा, कभी सपने में उतरूंगा। कभी सोचेगा भी कि मैंने यह कहा, यह ठीक है या गलत है? तुम उसे सोचने दो, विचारने दो। तुम्हें भयभीत होने का कोई कारण नहीं।
जिन गुरुओं ने तुमसे कहा है कि कान धो डालना, उन्हें दो तरह के डर थे। बड़ा डर तो उन्हें यह था कि कहीं कोई निंदा करता हो तो तुम सुन-सुन कर उससे राजी न हो जाओ। उन्हें डर यह था। मुझे तुम पर भरोसा है। तुम मेरे पास आ ही सके हो उन सब निंदाओं को सुनने के बाद। वे कसौटियां तुम पूरी कर चुके हो। जितनी गालियां तुम सुन सकते थे, वे तुम सुन ही सके हो, अब नई गाली कोई शायद ही खोज पाए। कोई निंदा करता हो तो उससे कहना: कुछ नई निंदा करो, यह तो मैं सुन चुका हूं, यह तो बहुत बार सुन चुका हूं; इसके बावजूद भी उनसे जुड़ा हूं। कुछ नई निंदा करो, कुछ खोजो, कुछ आविष्कार करो। ये क्या पुरानी पिटी-पिटाई बातें दोहरा रहे हो!
जिन्होंने कहा है, निंदा का निषेध, बचना... और ऐसे शास्त्रों में उल्लेख हैं, वे शास्त्र कमजोरों के लिखे हुए हैं। ऐसे शास्त्र हैं भारत में जिनमें लिखा है... हिंदुओं के पास ऐसे शास्त्र हैं, जैनों के पास ऐसे शास्त्र हैं। हिंदुओं के शास्त्रों में लिखा है: अगर पागल हाथी भी तुम्हारा पीछा कर रहा हो और जैन मंदिर में शरण मिल सकती हो तो भी भीतर मत जाना। क्योंकि जैन निंदक हैं हिंदुओं के, कहीं निंदा का कोई शब्द तुम्हारे कान में पड़ जाए। और ठीक यही बात जैन-शास्त्रों में भी लिखी है, इसका उत्तर--ठीक यही कि अगर पागल हाथी तुम्हारे पीछे-पीछे चल रहा हो और तुम खतरे में हो, जीवन गंवाने का खतरा आ गया हो और हिंदू मंदिर में जाकर शरण मिल सकती हो, जीवन बच सकता हो, तो पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना उचित है, मगर हिंदू मंदिर में मत जाना, क्योंकि वहां कोई जैन धर्म की निंदा का विचार तुम्हारे कान में पड़ जाए!
ये बड़े कमजोर लोग रहे होंगे। यह भी कोई बात हुई? ऐसे बच-बच कर कैसे बचोगे? और इतने बचने का कारण क्या है? क्या तुम्हें भरोसा नहीं है? तुम्हारी श्रद्धा इतनी अधूरी है, इतनी नपुंसक है?
जिसने मुझे चाहा है, जिसने मुझे प्रेम किया है, सब निंदाएं उसके प्रेम की कसौटी होंगी, चुनौतियां होंगी कि क्या इन सारी निंदाओं के बाद भी प्रेम बच सकता है? बचे तो ही बचाने योग्य था। न बचे तो अच्छा हुआ, झंझट मिटी--तुम भी मुक्त हुए, मैं भी मुक्त हुआ।
मैं कमजोरों से जुड़ा रहना भी नहीं चाहता। और ऐसे लचर-पचर लोगों को मैं चाहता भी नहीं कि मेरे पास हों। उनका कोई मूल्य नहीं है। व्यर्थ भीड़ थोड़े ही बढ़ानी है यहां। यहां कुछ वस्तुतः काम करना है, भीड़ नहीं बढ़ानी है। यहां वस्तुतः जीवन रूपांतरित करना है, यह प्रयोगशाला है। यहां रसायन खोजी जा रही है तुम्हारे रूपांतरण की। यह कोई बाजार नहीं है। यहां हमारी उत्सुकता इसमें नहीं है कि कितने लोग आते हैं। मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं कि भीड़ में मेरी उत्सुकता हो। भीड़ में मेरी उत्सुकता ही नहीं है। मेरी उत्सुकता व्यक्तियों में है। और व्यक्ति का मतलब होता है विद्रोही। और व्यक्ति का मतलब होता है जो अपने ढंग से सोचता, अपने ढंग से जीता; जो अपनी श्रद्धा के अनुकूल चलता।
और हर निंदा कसौटी होगी। तुम घबड़ाओ मत। और निंदा तो बढ़ेगी। जैसे-जैसे लोगों को मैं बदलूंगा, वैसे-वैसे निंदा बढ़ेगी। कठिनाइयां रोज बढ़ती जाने वाली हैं, कम होने वाली नहीं हैं।
जो मेरे साथ जुड़े हैं, वे यह बात सोच कर ही जुड़ें: तुम्हें अपनी सूली अपने कंधे पर ढोनी ही होगी। मगर जो जानेंगे, वे आनंदित होंगे कि फिर सूली ढोने का एक मौका आया। क्योंकि वही तो परमात्मा के निकट जाने का उपाय है। मृत्यु ही तो पुनर्जीवन का द्वार है।
तुम धन्यभागी हो कि किसी ऐसे आदमी से तुम जुड़े हो, जिसकी बहुत निंदा होगी, हुई है और बहुत होनी है। कठिनाइयां रोज सख्त होती चली जाएंगी, क्योंकि जितना लोगों को दिखाई पड़ेगा कि मुझमें लोग आकर्षित हो रहे हैं उतनी ही उनकी अड़चनें बढ़ती जाएंगी। और ये अड़चनें एक दिशा से नहीं आएंगी, सब दिशाओं से आएंगी। क्योंकि यहां हिंदू हैं मेरे पास, मुसलमान हैं मेरे पास, ईसाई हैं, यहूदी हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, सिक्ख हैं, पारसी हैं। यहां सब धर्मों के लोग मेरे पास हैं, तो सब धर्मों के गुरु मेरे खिलाफ हो जाने वाले हैं। हैं ही। सब मंदिरों से और सब मस्जिदों से मेरे खिलाफ स्वर उठने ही वाला है। यह स्वाभाविक है। कोई एकाध मेरे खिलाफ नहीं होगा। जीसस के खिलाफ तो सिर्फ यहूदी थे और बुद्ध के खिलाफ सिर्फ हिंदू थे। मेरे खिलाफ सारे धर्म होने वाले हैं, क्योंकि सारे धर्मों को चिंता पैदा होने वाली है।
यहां मेरे पास पत्र आने शुरू हो गए हैं, सारी दुनिया से पत्र आते हैं। किसी का बेटा आकर संन्यासी हो गया है; वे ईसाई हैं, मां-बाप नाराज हैं। वे धमकियां भेजते हैं कि आपने हमारे बेटे को विकृत कर दिया, विक्षिप्त कर दिया, सम्मोहित कर लिया। किसी की बेटी आकर संन्यस्त हो गई है; परिवार यहूदी है; वह नाराज है। सारी दुनिया से लोग आ रहे हैं यहां। सारी दुनिया में यह निंदा होने वाली है। बुद्ध की निंदा तो सिर्फ बिहार में हुई थी; सीमित थी। जीसस की निंदा तो सिर्फ जेरुसलम के आस-पास के छोटे से इलाके में हुई थी; बड़ी सीमित थी। मेरी निंदा तो असीम होने वाली है, वह एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक दुनिया में होने वाली है। उसके लिए तुम्हें तैयार होना चाहिए।
तो मैं तुमसे नहीं कह सकता कि निंदा मत सुनना। सुननी ही पड़ेगी। आनंद से सुनना, यही कह सकता हूं। और कान वगैरह धोना मत। कान क्या खराब करना है दिन भर धो-धो कर? इतना पानी कान में डालोगे, धीरे-धीरे सुनने इत्यादि की क्षमता खो जाएगी। इस फिकर में ही मत पड़ना। मौज से सुनना। आनंद से सुनना। नाचते हुए सुनना। हंसते हुए सुनना। तुम्हारा हंसना, तुम्हारा मुस्कराना, तुम्हारा नाच--बदलाहट का कारण बनेगा। दूसरा सोचेगा, आखिर तुम प्रश्न-चिह्न बन कर खड़े हो जाओगे न! दूसरा सोचेगा, कि मैं निंदा कर रहा हूं, और यह आदमी उद्विग्न भी नहीं है, जरूर कुछ हो गया है, जरूर कुछ हुआ है। इसे कुछ मिल गया है, जिसका मुझे पता नहीं है। मैं भी जाऊं और एक बार देखूं।
बस तुम इतना ही कर सको कि तुम्हारा व्यक्तित्व निमंत्रण बन जाए, काफी है; शेष मैं कर लूंगा। तुम ले आओ यहां, शेष तुम मुझ पर छोड़ो। तुम्हें सम्मोहित कर लिया तो उन्हें भी सम्मोहित कर लूंगा। आदमी सब आदमी जैसे हैं।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपके सत्संग में रह कर बड़े ही आनंद का अनुभव हो रहा है और जीवन एक उत्सव नजर आ रहा है। लेकिन क्या इस क्षणभंगुर जीवन का आनंद भी क्षणभंगुर नहीं है?
मन बड़ा लोभी है। मन लोभ के कारण ही बहुत कुछ गंवाता है। मन ‘लेकिन, किंतु, परंतु’ उठाता है।
पूछते हो: ‘आपके सत्संग में रह कर बड़े आनंद का अनुभव हो रहा है।’
लेकिन मन बेचैन हो रहा होगा भीतर। वह कह रहा है: इतना आनंद अनुभव नहीं होने दूंगा! क्या समझ रखा है? मन हमेशा, दुखी होओ, तो प्रसन्न होता है। इसको समझ लेना। इस सूत्र को खयाल में ले लेना। जब भी तुम दुखी होते हो, मन प्रसन्न होता है; क्योंकि तुम्हारे दुखी क्षणों में मन मालिक हो जाता है। तुम मन से सलाह लेने लगते हो। तुम पूछते हो: मैं क्या करूं, क्या न करूं? मन दिशा देने लगता है।
दुखी अवस्था में मन की मालकियत कस जाती है तुम्हारे ऊपर। जब तुम आनंदित होते हो तो मन को एक तरफ रख देते हो। कौन फिकर करता है मन की! अब तुम आनंदित हो तो मन से कुछ पूछना नहीं है। आनंदित चित्त-अवस्था मन के पार ले जाने लगती है। मन चिंतित हो उठता है। मन पीछे खींच लेना चाहता है। मन सवाल उठाता है कि क्या समझ रखा है तुमने, यह आनंद है भी? पहली बात, थोड़ा सोचो तो, कहीं कल्पना ही न हो!
मेरे पास लोग आते हैं। मैं उस आदमी की तलाश में हूं जो कभी मेरे पास आकर कहे कि मैं बहुत दुखी हूं, कहीं यह मेरे मन की कल्पना न हो! आज तक किसी ने कहा नहीं। लेकिन रोज कोई न कोई आकर कहता है कि बड़ी हैरानी हो रही है, मैं आनंदित तो हूं, लेकिन सवाल यह उठता है: ‘कहीं यह कल्पना न हो?’ दुख पर यह सवाल क्यों नहीं उठता? नरक होता है तो तुम मानते हो कि यथार्थ है और जब स्वर्ग की थोड़ी सी झलक आती है, तत्क्षण मन सवाल उठाता है कि यह कल्पना होगी, यह सपना होगा। सुख ही हो नहीं सकता। आनंद कहीं होता है? दुख ही यथार्थ है।
कांटे को ही मानता है मन, फूल को स्वीकार नहीं करता। घावों को ही मानता है मन, फूल को अंगीकार नहीं करता। और जब कभी भूल-चूक से एक फूल तुम्हारे भीतर उतर आता है और एक सुवास तुम्हारे भीतर लहराती है, तो मन संदिग्ध होकर ‘किंतु-परंतु’ पूछने लगता है। वह कहता है: कल्पना होगी, सपना होगा, तुम किसी भ्रांति में पड़े हो, तुम किसी भूल में उलझ गए हो। यह वातावरण का प्रभाव है। या तुम सम्मोहित कर लिए गए हो। ठीक से सोच लो, फिर कदम आगे बढ़ाना। यहां खतरा है। तुम किसी भ्रम में तो नहीं पड़े जा रहे हो? तुम किसी माया-जाल में तो नहीं उलझ गए हो? किसी जादूगर के हाथों में तो नहीं पड़ गए हो?
मन आनंद पर सदा प्रश्न उठाता है। अब यह प्रश्न उठाया मन ने: ‘लेकिन क्या इस क्षणभंगुर जीवन का आनंद भी क्षणभंगुर नहीं है?’ दुख पर नहीं पूछते कभी। जब दुख होता है तब तुम यह नहीं कहते कि क्षणभंगुर दुख, क्या चिंता करनी! इतना कहो तो मुक्त हो जाओ। इतना जान लो तो मुक्ति हो जाए। और है क्या मुक्ति?
क्षणभंगुर है। अभी है, अभी चला जाएगा। क्या फिकर करनी!
नहीं; तब तुम बड़े उद्विग्न हो जाते हो। अब आनंद घट रहा है तो मन कह रहा है: क्षणभंगुर है। मन बड़ा ज्ञानी हो गया है। मन बड़ा महात्मा हो गया है। मन कह रहा है क्षणभंगुर है, इसमें उलझ मत जाना! जैसे कि मन के पास किसी शाश्वत आनंद को देने का उपाय है!
अगर क्षणभंगुर दुख में और क्षणभंगुर सुख में चुनना हो तो क्या चुनोगे? चलो मान लो कि क्षणभंगुर है, दुख तुम्हारे शाश्वत हैं? क्षणभंगुर आनंद और क्षणभंगुर दुख में अगर चुनाव करना हो तो क्या चुनोगे? तो भी क्षणभंगुर आनंद ही चुनना। क्षण भर को ही सही, है तो आनंद!
फिर और बात समझ लो: जो क्षण में उतर रहा है, वह शाश्वत का हिस्सा हो सकता है। जो झील में बन रहा है चांद, झील में तो क्षणभंगुर है, जरा एक कंकड़ी फेंक दो और कंप जाएगी झील और चांद का प्रतिबिंब टूट जाएगा, बिखर जाएगा, खंड-खंड हो जाएगा। लेकिन जिसका यह प्रतिबिंब है, वह कंकड़ी फेंकने से खंडित नहीं होगा।
तुम्हारे मन में जो छायाएं बनती हैं शाश्वत की, वे क्षणभंगुर होती हैं, क्योंकि मन में सिर्फ क्षणभंगुर ही कुछ हो सकता है। मन तरंगित वस्तु है। उसमें तरंगें उठ रही हैं। लेकिन जिसकी छाया बन रही है, वह शाश्वत है।
सुख और आनंद का यही भेद है। सुख शाश्वत की छाया नहीं है। सुख किसी की छाया नहीं है। सुख लहरों का नाम है। जैसे दुख लहरों का नाम है। जिन लहरों को तुम पसंद करते हो, वे सुख; और जिन लहरों को तुम नापसंद करते हो, वे दुख। और तुमने देखा, तुम्हारे सुख और दुख में कोई ज्यादा फासला नहीं होता! दुख सुख हो सकते हैं, सुख दुख हो सकते हैं।
एक सम्राट एक गरीब स्त्री के प्रेम में पड़ गया। सम्राट था! स्त्री तो इतनी गरीब थी कि खरीदी जा सकती थी, कोई दिक्कत न थी। उसने स्त्री को बुलाया और उसके बाप को बुलाया और कहा: जो तुझे चाहिए ले-ले खजाने से, लेकिन यह लड़की मुझे दे-दे। मैं इसके प्रेम में पड़ गया हूं। कल मैं घोड़े पर सवार निकलता था, तब मैंने इसे कुएं पर पानी भरते देखा। बस, तबसे मैं सो नहीं सका हूं।
बाप तो बहुत प्रसन्न हुआ, लेकिन बेटी एकदम उदास हो गई। उसने कहा, मुझे क्षमा करें! आप कहेंगे तो आपके राजमहल में आ जाऊंगी, लेकिन मेरा किसी से प्रेम है। मैं आपकी पत्नी भी हो जाऊंगी, लेकिन यह प्रेम बाधा रहेगा। मैं आपको प्रेम न कर पाऊंगी।
सम्राट विचारशील व्यक्ति था। उसने सोचा कि यह तो कुछ सार न होगा। कैसे प्रेम हो मुझसे इसका? किससे इसका प्रेम है, पता लगवाया गया। एक साधारण आदमी। सम्राट बड़ा हैरान हुआ कि मुझे छोड़ कर उससे इसका प्रेम है! लेकिन प्रेम तो हमेशा बेबूझ होता है। उसने अपने वजीरों को पूछा कि मैं क्या करूं कि यह प्रेम टूट जाए?
तुम चकित होओगे, वजीरों ने जो सलाह दी, वह बड़ी अदभुत थी। तुम मान ही न सकोगे कि यह सलाह कभी दी गई होगी। क्योंकि यह सलाह... यह कहानी पुरानी है, फ्रायड से कोई हजार साल पुरानी। फ्रायड यह सलाह दे सकता था। मनोविज्ञान यह सलाह दे सकता है अब। और मनोविज्ञान भी सलाह देने में थोड़ा झिझकेगा। सलाह वजीरों ने यह दी कि इन दोनों को नग्न करके एक खंभे से बांध दिया जाए, दोनों को एक-दूसरे से बांध दिया जाए और खंभे से बांध दिया जाए।
सम्राट ने कहा: इससे क्या होगा? यही तो उनकी आकांक्षा है कि एक-दूसरे की बांहों में बंध जाएं।
उन्होंने कहा: आप फिकर न करें। बस फिर उनको छोड़ा न जाए, बंधे रहने दिया जाए।
उनको आलिंगन में बांध कर नग्न एक खंभे से बांध दिया गया।
अब तुम जरा सोचो, जिस स्त्री से तुम्हारा प्रेम है, फिर वह कोई भी क्यों न हो, वह इस जगत की सबसे सुंदरी क्यों न हो; या किसी पुरुष से तुम्हारा प्रेम है, वह मिस्टर यूनिवर्स क्यों न हों, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, कितनी देर आलिंगन कर सकोगे? पहले तो दोनों बड़े खुश हुए, क्योंकि समाज की बाधाओं के कारण मिल भी नहीं पाते थे। जातियां अलग थीं, धर्म अलग थे, चोरी-छिपे कभी यहां-वहां थोड़ी देर को गुफ्तगू कर लेते थे थोड़ी-बहुत। एक-दूसरे के आलिंगन में नग्न! पहले तो बड़े आनंदित हुए, दौड़ कर एक-दूसरे के आलिंगन में बंध गए। लेकिन जब रस्सियों से उन्हें एक खंभे से बांध दिया गया तो कितनी देर सुख सुख रहता है! कुछ ही मिनट बीते होंगे कि वे घबड़ाने लगे कि अब अलग कैसे हों, अब भिन्न कैसे हों, अब छूटें कैसे? मगर वे बंधे ही रहे।
कुछ घंटे बीते और तब और उपद्रव शुरू हो गया। मल-मूत्र का विसर्जन भी हो गया। गंदगी फैल गई। एक-दूसरे के मुंह से बदबू भी आने लगी। एक-दूसरे का पसीना भी। ऐसी घबड़ाहट हो गई। और चौबीस घंटे बंधे रहना पड़ा। फिर जैसे ही उनको छोड़ा, कहानी कहती है फिर वे ऐसे भागे एक-दूसरे से, फिर दुबारा कभी एक-दूसरे का दर्शन नहीं किया। वह युवक तो वह गांव ही छोड़ कर चला गया।
यह प्रेम का अंत करने का बड़ा अदभुत उपाय हुआ, लेकिन बड़ा मनोवैज्ञानिक।
तुम देखते हो, पश्चिम में प्रेम उखड़ता जा रहा है, टूटता जा रहा है! कारण? स्त्री और पुरुष के बीच कोई व्यवधान नहीं रहा है, इसलिए प्रेम टूट रहा है। स्त्री और पुरुष इतनी सरलता से उपलब्ध हो गए हैं एक-दूसरे को कि प्रेम बच ही नहीं सकता, प्रेम टूटेगा ही। संयुक्त परिवार नहीं रहा पश्चिम में, तो पति और पत्नी दोनों रह गए हैं एक मकान में अकेले। जब मिलना हो मिलें; जो कहना हो कहें; जितनी देर बैठना हो पास बैठें--कोई रुकावट नहीं, कोई बाधा नहीं। जल्दी ही चुक जाते हैं। जल्दी ही सुख दुख हो जाता है।
तुमने देखा, वही संगीत तुम पहली दफा सुनते हो, सुख; दुबारा सुनते हो, उतना सुख नहीं रह जाता। तीसरी बार सुनते हो, सुख और कम हो गया। चौथी बार ऊब पैदा होने लगती है। पांचवीं बार फिर कोई रिकॉर्ड चढ़ाए तो तुम सोचते हो कि मेरा सिर घूम जाएगा। तुम कहते हो: अब बंद करो! अब बहुत हो गया।
यही वही संगीत पहली दफा सुख दिया, दूसरी दफा कम, तीसरी दफा और कम। अर्थशास्त्री एक नियम की बात करते हैं: ‘लॉ ऑफ डिमिनिशिंग रिटर्नस्।’ हर बार उसी चीज को दोहराओगे तो सुख की मात्रा कम होती जाती है।
पुराना ढंग प्रेम को बचाने का ढंग था। पति-पत्नी मिल ही नहीं सकते थे। दिन में तो मिल ही नहीं सकते थे। पति-पत्नी भी नहीं मिल सकते, दूसरे की पत्नी से मिलना तो मामला दूर। पश्चिम में तो दूसरे की पत्नी से मिलना भी इतना सरल हो गया है, जितना पहले अपनी पत्नी से भी मिलना सरल नहीं था। दिन भर तो मिल ही नहीं सकते थे। परिवार में बड़े-बूढ़े थे, बुजुर्ग थे, उनके सामने कैसे मिल सकते थे! रात में भी मिलना बड़ा चोरी-छिपे था। अपनी पत्नी से चोरी-छिपे मिलना! क्योंकि जोर से बोल नहीं सकते थे। छोटे-छोटे घर, जिनमें पचास लोग सोए हुए हैं। चोरी-छिपे, रात के अंधेरे में। ठीक-ठीक पति अपनी पत्नी के चेहरे को जानता भी नहीं था कि वह कैसा है। अंधेरे में जानेगा भी कैसे? कभी घूंघट उठा कर रोशनी में ठीक से देखा भी नहीं था। प्रेम अगर लंबा जिंदा रह जाता था तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि प्रेम को, सुख को क्षीण होने का मौका ही नहीं था। दिन भर अपने काम-धंधे में रहते दोनों, और याद जारी रहती।
अभी हालतें उलटी हो गई हैं। चौबीस घंटे एक-दूसरे के सामने बैठे हैं, वही खंभा, बंधे हैं। एक-दूसरे से चिढ़ पैदा होती है। पत्नी चाहती है कि उठो, कहीं जाओ, कुछ करो, यहीं क्यों बैठे हो?
जीवन के बड़े अदभुत नियम हैं! सुख और दुख में बहुत फर्क नहीं है। वही उत्तेजना सुख है, वही उत्तेजना दुख है। पसंद की तो सुख है, ना पसंद की तो दुख है। बस नापसंद-पसंद का फर्क है। दोनों तरंगें हैं। दोनों समय के भीतर घट रही हैं। दोनों समय की झील की तरंगें हैं।
आनंद का अर्थ है: समय के पार से कोई चीज आ रही है; समय में उसकी छाया बन रही है। छाया तो क्षणभंगुर होगी। सत्संग में जो आनंद घटता है, वह आनंद क्षणभंगुर छाया में है; लेकिन अगर छाया का इशारा समझ लोगे और मूल की तरफ चल पड़ोगे तो शाश्वत मिल जाएगा।
लेकिन लोभी मन है! वह कहता है: क्षणभंगुर!
फिर और भी एक बात समझ लेना: अगर क्षण भर को तुम्हें आनंदित रहने की कला आ गई तो तुम पूरे जीवन आनंदित रह सकते हो, क्योंकि एक बार एक ही क्षण तो मिलता है, दो क्षण एक साथ तो मिलते नहीं। अगर एक क्षण को तुम आनंद में रंग लेने की कला जानते हो तो एक ही क्षण मिलता है एक बार, उसको रंग लेना, रंगते जाना, उसमें धुन गुंजाए जाना। कला तो तुम्हारे हाथ में आ गई।
एक बार में एक ही कदम उठता है। और एक बार में एक ही क्षण मिलता है। एक क्षण को आनंदित होने का जिसने राज सीख लिया उसके हाथ में कुंजी मिल गई; वह कुंजी सारे स्वर्गों के द्वार खोल देगी।
लेकिन पूछने वाले के मन में लोभ है। और जहां लोभ है वहां संदेह भी होगा।
फिर से प्रश्न को पढ़ें तो खयाल में आ जाएगा कहां चूके हैं: ‘आपके सत्संग में रह कर बड़े ही आनंदका अनुभव हो रहा है...।’
अनुभव नहीं हो रहा होगा।
‘...और जीवन एक उत्सव नजर आ रहा है।’
‘नजर’ आ रहा होगा। मान लिया होगा कि होना चाहिए आनंद, हो रहा है आनंद। सत्संग में बैठे हैं तो आनंद होना ही चाहिए; नहीं तो यहां बैठे ही किसलिए हैं? मान लिया होगा। या और लोग तुम्हारे आस-पास आनंदित होंगे, उनके आनंद की तरंग तुम्हें छू रही होगी। अब उनके बीच तुम गैर-आनंदित बैठे रहो तो बुद्धू मालूम पड़ोगे, जड़ मालूम पड़ोगे। जहां लोग मस्त हो रहे हैं वहां तुम भी मस्ती में पड़ जाते हो। लेकिन वह सिर्फ भीड़ का संग-साथ होगा, तुम्हारा अपना अनुभव नहीं।
खयाल रखना, हम भीड़ की भावनाओं से बड़ी जल्दी प्रभावित हो जाते हैं। तुमने देखा, अगर लोग तेजी से चल रहे हों, उनके साथ तुम चलो तो तुम भी तेजी से चलने लगते हो! भीड़ अगर जोश में हो तो तुम भी जोश में आ जाते हो। भीड़ जो करती है वही तुम करने लगते हो। चार हंसते हुए आदमियों के बीच बैठ जाओ, तुम अपनी उदासी भूल जाते हो। और चार उदास लोगों के बीच बैठ जाओ तो तुम अपनी हंसी भूल जाते हो। तुम भीड़ से बड़ी जल्दी प्रभावित हो जाते हो।
यहां सत्संगियों की एक भीड़ है। उसमें यह भी हो सकता है कि तुम्हें कुछ खास आनंद न आ रहा हो; लेकिन दूसरे लोग आनंदित हैं, उनकी तरंग तुम्हें छू जाए, उनकी तरंग तुम्हारी हृदय-वीणा को बजा दे और तुम्हें नजर आने लगे कि आनंद आ रहा है। तभी ‘किंतु-परंतु’ उठ सकते हैं, नहीं तो नहीं उठ सकते। अगर तुम्हें सच ही आनंद आ रहा है, कौन फिकर करता है कि क्षणभंगुर है! आनंद क्षणभंगुर भी हो तो शाश्वत दुखों से बेहतर है। शाश्वत का ही क्या करोगे? खाओगे कि पीओगे, अगर दुख हुआ शाश्वत। शाश्वत नरक को चुनोगे कि क्षणभंगुर स्वर्ग को चुनोगे? और क्षणभंगुर का भी अगर चुनाव कर लिया, ठीक चुनाव हुआ, तो उसी से धीरे-धीरे यात्रा आगे की खुलती है। एक-एक कदम चल कर आदमी हजारों मील की यात्रा पूरी कर लेता है।
नहीं; लेकिन सवाल उठता है: ‘लेकिन क्या इस क्षणभंगुर जीवन का आनंद भी क्षणभंगुर नहीं है?’
यह जीवन क्षणभंगुर नहीं है। यह जीवन शाश्वत है। बाहर का जीवन होगा क्षणभंगुर, भीतर का जीवन शाश्वत है। देह का जीवन होगा क्षणभंगुर, आत्मा का जीवन शाश्वत है। तुम बच्चे थे, अब जवान हो, कल बूढ़े हो जाओगे--लेकिन कुछ तुम्हारे भीतर है जो न तो कभी बच्चा था, न जवान हुआ और न बूढ़ा होगा। वही तुम हो। वही तुम्हारा असली जीवन है। सत्संग में उसी की याद दिलाई जाती है, बार-बार उसी की याद दिलाई जाती है। उसकी याद से ही आनंद उमगने लगता है। उसकी याद से ही सुगंध फैलने लगती है।
लेकिन लोभ बड़ा कमजोर होता है।
दरिया की जिंदगी पर सदके हजार जानें
मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना
लेकिन भयभीत और लोभी किनारे की मौत ही मरना चाहते हैं, तूफान में जाने से घबड़ाते हैं। और आनंद तूफान है। तुम्हारी साधारण जिंदगी स्थिर हो गई है, सुरक्षित है। घर है, द्वार है, परिवार है--सब सुरक्षित है। जिस जीवन की तरफ मैं तुम्हें ले चल रहा हूं, वह किनारा छोड़ने का जीवन है; वह मझधार में डूबने का जीवन है।
दरिया की जिंदगी पर सदके हजार जानें
मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना
जो किनारे पर नहीं मरना चाहते, वही मेरे साथ आएं। जिन्हें मौज में उतरना है, जिन्हें दरिया के तूफान में उतरना है, जिन्हें जीवन की चुनौतियों में उतरना है, जो असुरक्षा में जाने को तत्पर हैं, जिन्हें अज्ञात की खोज करनी है--वे ही मेरे साथ आएं। खतरनाक रास्ता है यह।
जीवन मुफ्त नहीं मिलता, खतरों से कीमत चुकानी पड़ती है। और जो मेरे साथ आते हैं, वे पीछे लौट-लौट कर न देखें।
रहे हयात में मुड़-मुड़ के नक्शे-पा को न देख
मह औ सितारे की शाने खिराम पैदा कर।
चंद्र-नक्षत्रों की चाल देखी है? वैसी चाल चाहिए!
मुड़-मुड़ के नक्शे-पा को न देख
पीछे जो चिह्न छूट गए हैं पैरों के, उनको लौट-लौट कर क्या देखना! आंख आगे रखो। और चांद-तारों के प्रसाद से चलो।
मह औ सितारे की शाने खिराम पैदा कर।
यह जगत उन्हीं का है जो उस अनंत जीवन के साथ अपने को जोड़ लेने में समर्थ हैं। और अनंत जीवन कोई दूसरा जीवन नहीं है--यही जीवन है, ठीक से देखा गया। क्षणभंगुर ही शाश्वत है, ठीक से देखा जाए तो। और शाश्वत ही क्षणभंगुर मालूम होता है--ठीक से न देखा जाए तो। छाया को पकड़ो तो क्षणभंगुर, मूल को पकड़ लो तो शाश्वत। क्षणभंगुर सही, चलो, इस क्षणभंगुर आनंद के स्वाद को कंठ में उतरने दो। इस क्षणभंगुर आनंद पर श्रद्धा करो। इससे द्वार खुलेगा।
तुम देखते नहीं, दरवाजा खोलते हैं हम, बड़े से बड़ा किले का दरवाजा भी खोलें तो छोटी सी चाबी से खुलता है। और चाबी जिस छेद में जाती है, वह जरा सा होता है। मगर विराट दरवाजा खुल जाता है! शुरू में तो आनंद बूंद-बूंद आता है लेकिन बूंद-बूंद से ही तो सागर बन जाता है। बूंद और सागर में कुछ भेद थोड़े ही है। मात्रा का ही भेद है। श्रद्धा रखो।
खिजां की लूट से बरबादि-ए-चमन तो हुई
यकीन आमदे फस्ले-बहार कम न हुआ
बहुत बार आता है पतझड़, लेकिन इससे वसंत पर भरोसा थोड़े ही खो देते हैं। बहुत बार उजड़ जाता है चमन, इससे कुछ आशियां बनाना थोड़े ही छोड़ देते हैं।
श्रद्धा रखो! शाश्वत यहां कहीं छिपा है--कुंजी की तलाश! वही कुंजी जहां मिल जाए, उसी का नाम सत्संग है। और जिसने शाश्वत की थोड़ी पहचान कर ली, फिर ऐसा मत समझना कि वह क्षणभंगुर को छोड़ कर भाग जाता है। भाग कर कहां जाओगे? सिर्फ क्षणभंगुर को देखने का उसका ढंग बदल जाता है। होता तो यहीं है--इसी जीवन में, इन्हीं लोगों के साथ, इन्ही वृक्षों में, इन्हीं पहाड़ों में, इन्हीं चांद-तारों में। होता तो यहीं है। सब ऐसा ही होता है। बाहर से तो कोई भेद पड़ता नहीं, लेकिन भीतर एक क्रांति हो गई होती है। फिर खेलता रहता है इन्हीं क्षणभंगुर तरंगों से लेकिन अब जानता है कि तरंगें अपने आप में कुछ भी नहीं हैं--विराट सागर के अंग हैं। देखते हो:
चमन में छेड़ती है किस मजे से गुंच-ओ-गुल को
मगर मौजे-सबा की पाक दामानी नहीं जाती
सुबह की हवा को देखा है? और किस मौज से छेड़ती है--फूलों को, पत्तियों को! कैसे खिलवाड़ करती है! लेकिन इससे कुछ सुबह की हवा की पवित्रता नष्ट तो नहीं हो जाती।
जो व्यक्ति एक बार उस परम का अनुभव कर लेता है, फिर सब ऐसा ही चलता है। नहीं तो कृष्ण के रास का अर्थ क्या होगा? कृष्ण की बजती बांसुरी का अर्थ क्या होगा? तुम जैसा कोई व्यक्ति अगर वहां होता कृष्ण की गोपियों में और गोपों में, तो पूछता कि ठीक है, मगर बांसुरी का स्वर, आखिर है तो बांसुरी का ही सुर, क्षणभंगुर! क्या बजा रहे हो? नाच में क्या रखा है? है तो क्षणभंगुर! इस तुम्हारे आलिंगन में भी क्या रखा है? है तो क्षणभंगुर! नहीं, अगर तुम पहचानते हो तो क्षणभंगुर नहीं रह जाता। पहचान के साथ ही सब शाश्वत हो जाता है। फिर जीवन एक अपूर्व अभिनय है, लीला है।
मुझको दिल सोज नजारों का खयाल आता है
उजड़े गुलशन की बहारों का खयाल आता है
जब कोई गीत मचलता है मेरे ओंठों पर
दिल के टूटे हुए तारों का खयाल आता है
डूब जाते हैं वही जोरे-तलातुम में नदीम!
जिनको तूफां में किनारों का खयाल आता है
उनको ऐ ‘साहिरा’ मिलती नहीं मंजिल अपनी
जिनको तूफां में सहारों का खयाल आता है।
सुरक्षा छोड़ो! सहारे छोड़ो! किनारे छोड़ो!
डूब जाते हैं वही जोरे-तलातुम में नदीम!
तूफान में केवल वे ही डूबते हैं, सिर्फ वे ही--
डूब जाते हैं वही जोरे-तलातुम में नदीम
जिनको तूफां में किनारों का खयाल आता है
तूफान में क्या किनारों की याद! तूफान में जूझो और तूफान किनारे हो जाते हैं। और जब तक मझधार किनारा न हो जाए, तब तक समझना तुमने अभी जीवन का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझा, अभिप्राय नहीं समझा। जब तक डूबना, उबरना न हो जाए, तब तक समझना परमात्मा से तुम्हारी पहचान नहीं हुई।
उनको ऐ ‘साहिरा’ मिलती नहीं मंजिल अपनी
जिनको तूफां में सहारों का खयाल आता है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, तन्मयता से किया गया प्रत्येक कार्य साधना है। तो क्या जरूरी है कि परमात्मा की साधना के लिए संन्यास लिया जाए?
तन्मयता कहां सीखोगे? कैसे सीखोगे? संन्यास और क्या है?
तन्मयता सीखने की एक विधि, एक उपाय। तन्मय होने का एक ढंग, एक शैली। नाम उसे तुम कुछ भी दो।
संन्यास क्या है? जिसे मैं संन्यास कहता हूं, वह क्या है?
मेरे साथ तन्मय होने की एक व्यवस्था।
तुम्हारी तरफ से यह घोषणा कि अब मैं तुम्हारे साथ चलने को राजी हूं जहां ले चलो--तूफान में तो तूफान में, मझधार में तो मझधार में। तुम डुबो तो तुम्हारे साथ डूबने को राजी हूं।
संन्यास का और क्या अर्थ है?
यह खतरा लेना खतरा ही है। क्योंकि पता नहीं, मैं तुम्हें कहां ले जाऊं! तुम्हें कुछ पता नहीं है कि मैं तुम्हें किस तरफ ले जा रहा हूं। यह नाव कहां जाकर लगेगी, तुम्हें कुछ पता नहीं है। यह नाव मैं बीच में डुबा दूंगा या दूसरे किनारे पर पहुंचाऊंगा, तुम्हें कुछ पता नहीं है। तुम मेरे पास आए, तुमने मेरे हाथ में हाथ थामा और तुम्हारे भीतर एक श्रद्धा का जन्म हुआ--कि चलूंगा, यह खतरा लेने जैसा है। डूबे तो भी खतरा लेने जैसा है।
संन्यास का इतना ही अर्थ होता है कि तुमने अपने अस्त्र-शस्त्र डाल दिए, कि तुम मेरे खिलाफ किसी तरह का सुरक्षा का उपाय अब न करोगे।
संन्यास का वही अर्थ होता है कि जब तुम अस्पताल जाते हो और ऑपरेशन की टेबल पर लेटते हो और सर्जन के हाथ में छोड़ देते हो कि अब जो हो हो, क्योंकि क्या पता, क्या होगा। ये सर्जन नशे में हो सकता है, शराब ज्यादा पी गया हो, कुछ का कुछ काट-पीट कर दे। पत्नी से झगड़ कर आया हो। क्रोध में हो। दो इंच की जगह चार इंच काट दे।
मैंने सुना है ऐसा कि एक सर्जन ऑपरेशन कर रहा था। अपेंडिक्स निकाली। बड़ा कुशल कारीगर था। उसके विद्यार्थी, उसके शिष्य, उसके मित्र सब किनारे खड़े होकर देख रहे थे। उसकी कुशलता की जगत में ख्याति थी, वह जिस ढंग से निकालता था। उनकी श्वासें रुकी रह गईं--जिस कुशलता से, जिस कारीगरी से उसने अपेंडिक्स निकाली। जब अपेंडिक्स निकल गई, उनके हाथों से बेतहाशा तालियां बज गईं। सर्जन को इतना जोश आ गया कि जोश में उसने टेबल पर पड़े हुए आदमी के टांसिल भी निकाल दिए। जोश की वजह से! जैसा तुम कह देते हो न कभी, कोई संगीतज्ञ गा रहा हो, कह देते हो ‘वन्स मोर!’ ताली बजा दी तो वह फिर दोहरा देता है।
अब क्या पता! लेकिन सर्जन के हाथ में जब तुम लेट जाते हो, छोड़ देते हो सब। यह तो उससे भी बड़ी सर्जरी है। यहां शरीर के ही काटने की बात नहीं, यहां तो मन को काटने की बात है। यहां तो मन कटेगा तो ही तुम कुछ पा सकोगे। यहां तो तुम्हारे अहंकार को काट डालने की बात है।
तुम कहते हो: ‘तन्मयता से किया गया प्रत्येक कार्य साधना है।’
निश्चित। तन्मयता का तुम्हें पता है क्या अर्थ होता है? अगर तुम सत्य की खोज में लगे हो तो तन्मयता से लगने का अर्थ होगा: किसी सदगुरु के साथ एकरूप हो जाना। अगर तुम यहां सुनने बैठे हो तो तन्मयता का अर्थ होगा कि मेरे और तुम्हारे बीच कोई तर्क और कोई विवाद न रह जाए। तुम्हारे-मेरे बीच एक स्वीकार हो। तुम्हारे-मेरे बीच ‘नहीं’ गिर जाए, ‘हां’ का भाव उठे। वही संन्यास है।
संन्यास एक क्रांति है। इसलिए तो देखते हो न--लाल रंग क्रांति का रंग है, संन्यास का रंग है! यह आत्मक्रांति है।
सुर्ख कलियां सुर्ख पत्ते सुर्ख फूल
सुर्ख तूफां सुर्ख आंधी सुर्ख धूल
और हर सुर्खी में सुर्खिए-शराब
इंकिलाबो इंकिलाबो इंकिलाब!
यह एक क्रांति है। यह शराब की सुर्खी है। यह लाल रंग इस बात की सूचना है कि मैं मिटने को तैयार हूं; मैं नया होने को तैयार हूं; कि मैं अपना क्रॉस अपने कंधे पर रखने को तैयार हूं; कि मुश्किलें आएं, कि कठिनाइयां आएं, तो भी मैं इस यात्रा को करने को आतुर हूं; कोई भी कीमत चुकानी हो, मैं तैयार हूं।
संन्यास का भाव तो तुम्हारे भीतर उठ आया होगा, इसलिए सवाल उठा है। पूछा है तुमुल पांडे ने! जरूर कहीं भीतर भाव उठता होगा, कहीं प्यास जगती होगी; अन्यथा प्रश्न कैसे बनता? अब अगर तुम डरते हो, भागते हो, घबड़ाते हो... हजार कारण होते हैं डरने, भागने, घबड़ाने के... तो फिर तुम पछताओगे। तो फिर एक मौका आया था, जो तुम चूके। फिर किसी न किसी दिन तुम कहोगे आंसुओं से भरी हुई आंखों से:
दिल में सोजे-गम की इक दुनिया लिए जाता हूं मैं
आह तेरे मैकदे से बेपिए जाता हूं मैं
जाते-जाते लेकिन इक पैमा किए जाता हूं मैं
अपने अज्मे-सरफरोशी की कसम खाता हूं मैं
फिर तेरी बज्मे-हसीं में लौट कर आऊंगा मैं
आऊंगा मैं और ब-अंदाजे-दिगर आऊंगा मैं
आह! वे चक्कर दिए हैं, गर्दिशे-ऐयाम ने
खोल कर रख दी हैं आंखें तल्खिए-आलाम ने
फितरते-दिल दुश्मने-नग्मा हुई जाती है अब
जिंदगी इक बर्क इक शोला हुई जाती है अब
सर से पा तक एक खूनी आग बन कर आऊंगा
लाल जारे रंगो-बू में आग बन कर आऊंगा
जा तो सकते हो, लेकिन खाली हाथ जाओगे। या तो भरे हाथ जाना और या फिर कम से कम इस प्यास को लेकर जाना कि ‘जाते-जाते लेकिन इक पैमा किए जाता हूं’...मैं एक वादा किए जाता हूं।’
अपने अज्मे-सरफरोशी की कसम खाता हूं मैं
फिर तेरी बज्मे-हसीं में लौट कर आऊंगा मैं
आऊंगा मैं और ब-अंदाजे-दिगर आऊंगा मैं
आना ही पड़ेगा।
तुम्हारे भाव को मैं समझा। तुम्हारी आकांक्षा को मैं समझा। तुम्हारे भय को भी समझा। यह सभी का भय है, यह कुछ तुम्हारा ही नहीं। यहां जो संन्यस्त हो गए हैं, उनका भी कभी यही भय था: क्या लोग कहेंगे? लोग हंसेंगे कि पागल समझेंगे? क्या कैसे काम चलेगा? कपड़े पहन कर गैरिक, दुकान कैसे चलेगी? गैरिक कपड़े पहन कर दफ्तर काम कैसे करने जाऊंगा? पिता क्या कहेंगे, मां क्या कहेगी, पत्नी क्या कहेगी, बेटे-बेटियां क्या कहेंगे? नाते-रिश्ते... हजार-हजार बातें। हजार-हजार चिंताएं।
लेकिन कभी ऐसी घड़ी आ जाती है आदमी की जिंदगी में, जब ये सब बातों का कोई मूल्य नहीं रह जाता; जब यह दिखाई पड़ता है कि ये सब बातें ऐसी ही चलती रहेंगी और एक दिन मौत आ जाएगी।
और तुम देखते हो, जब मुर्दे को उठाते हैं तो उसको लाल कपड़ा ओढ़ा देते हैं! मगर तब बहुत देर हो चुकी। अब कुछ सार नहीं कि अब लाल कपड़ा ओढ़ाओ। और जब मुर्दे को ले जाते हैं तो राम-नाम सत्य! अब बहुत देर हो चुकी, अब यहां सुनने वाला कोई भी नहीं रहा। मैं तुम्हें जिंदगी में लाल कपड़ा ओढ़ा देता हूं, अरथी पर चढ़ा देता हूं, राम-नाम सत्य करा देता हूं।
संन्यास का अर्थ है: जीते जी मर जाना। संन्यास का अर्थ है: ऐसा जो अब तक का जीवन था, वह व्यर्थ था, ऐसा जान कर अब एक नये जीवन की तलाश शुरू होती है।
और जो आज हो सकता हो, उसको कल पर मत छोड़ना। जो अभी हो सकता हो, उसे स्थगित मत करना। न हो सकता हो, मजबूरी है। जबर्दस्ती संन्यास लेना, ऐसा नहीं कह रहा हूं। जोर लगा कर संन्यास लेना, ऐसा नहीं कह रहा हूं। ऐसा लिया हुआ संन्यास दो कौड़ी का होगा। सहज भाव उठता हो तो फिर भय की चिंता नहीं लेना। भाव उठता हो तो फिर भाव के साथ बह जाना।
जबर्दस्ती भाव मत उठा लेना। भाव उठता ही न हो; औरों ने संन्यास लिया है, यह देख कर संन्यास मत ले लेना। अन्यथा वह झूठ होगा, अभिनय होगा, पाखंड होगा। लेकिन तुम्हारे भीतर भाव उठता हो तो फिर दुनिया भी इनकार करती हो तो चिंता मत करना।
जलाले-आतिशो-बर्को-सहाब पैदा कर
अजल भी कांप उठे वह शबाब पैदा कर
तेरे खराम में हैं जलजलों का राज निहां
हर-एक गाम पर इक इंकिलाब पैदा कर
बहुत लतीफ है ऐ दोस्त! तेग का बोसा
यही है जाने-जहां इसमें आब पैदा कर
तेरा शबाब अमानत है सारी दुनिया की
तू खार-जारे-जहां में गुलाब पैदा कर
तू इंकिलाब की आमद का इंतजार न कर
जो हो सके तो अभी इंकिलाब पैदा कर
तुम प्रतीक्षा मत करो कि क्रांति आएगी। क्रांति कभी नहीं आती। क्रांति में जाना होता है।
तू इंकिलाब की आमद का इंतजार न कर
जो हो सके तो अभी इंकिलाब पैदा कर
और मैं जिस क्रांति की बात कर रहा हूं वह कोई सामाजिक-राजनीतिक क्रांति नहीं है। वह क्रांति है--व्यक्ति की क्रांति, आत्मिक क्रांति।
तन्मयता से ही जीवन जीया जाए, यही राज है। लेकिन तन्मयता कहां सीखोगे? तन्मयता सीखने के लिए, कोई जो तन्मय हो गया हो, उसके साथ जुड़ जाना होगा। किसी की वीणा बज उठी हो, उसकी वीणा के पास तुम अपनी गैर-बजती वीणा रख दो। पास रखे-रखे ही गैर-बजती वीणा के तार भी कंपने लगते हैं बजती वीणा की चोट से। कोई दीया जल गया हो, उसके पास अपने बुझे दीये को रख दो; कभी निकटता की ऐसी घड़ी आएगी कि जलते दीये से ज्योति लपकेगी और बुझे दीये को पकड़ जाएगी।
मेरा कुछ भी नहीं खोता है, तुम्हें बहुत कुछ मिल जाता है। जलता दीया अब भी जल रहा है। हजार दीये जला लिए हों तो कुछ ऐसा मत सोचना कि जलते दीये की कुछ रोशनी कम हो गई। यही तो मजा है आत्मिक अनुभव का कि बांटो, लुटाओ--न लुटता है, न बंटता है, बढ़ता ही चला जाता है, कुछ खर्च नहीं होता।
उपनिषद का वचन तुम्हें याद है? ईशावास्य उस वचन से शुरू होता है: पूर्ण से पूर्ण भी निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। तुम्हें जितना मुझसे निकालना हो निकाल लो, तुम जरा भी संकोच मत करना। संन्यास का इतना ही अर्थ है। लेकिन वे ही निकाल पाएंगे जो मेरे करीब आएंगे। करीब आना यानी संन्यास।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, इस बार संध्या-दर्शन में लगातार दो दिन प्रभु-पास का सुयोग मिला। पहले दिन कुछ देर आपको देखते रहने के बाद घबड़ाहट होने लगी, धड़कन तेज हो गई, सिर में चक्कर, नशा जैसा और बेचैनी अनुभव हुई। दर्शन के बाद देर तक यही स्थिति रही। दूसरे दिन आपके पास आने पर आपको प्रणाम कर आंखें बंद कर लीं और ध्यान में डूब गया। पहली बार आपका अदभुत सान्निध्य पाया--इतना निकट कि खुली आंखों से आपको कभी नहीं देख पाया था। भीतर शीतलता, गहन मौन और शांति बहुत देर तक छाई रही। यह क्या है?
यही सत्संग है। जो मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूं वह खुली आंखों से नहीं देखा जा सकता; उसे देखने के लिए बंद आंख चाहिए। जो मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूं वह अदृश्य है। इन आंखों के लिए अदृश्य है। बाहर की दो आंखों के लिए अदृश्य है। लेकिन भीतर की आंखों के लिए अदृश्य नहीं है।
पहली दफा, धर्मशरणदास, तुम्हें सत्संग का स्वाद आया। अब यह बढ़ता जाएगा। अब इसमें रमो। अब इसको जितना पुकार सको पुकारो। और जल्दी ही तुम अनुभव करोगे कि इसके लिए मेरे पास ही आकर बैठने की कोई जरूरत नहीं है। जब भी तुम मुझे याद करो, कितने ही दूर हजार मील दूर से, तुम्हारी याद पर निर्भर है। अगर याद तुम्हारी पूरी हो जाए और आंख तुम्हारी सच में बंद हो जाए, तो तुम फिर यही पाओगे, सब जगह पाओगे। तुम्हारी असली दीक्षा अब हुई। एक संन्यास था, जो तुमने पहले लिया था; वह तो केवल शुरुआत थी। अब असली संन्यास घटा। अब तुम मुझसे भीतर से जुड़े।
शुभ हुआ। अब इस पर पानी सींचो। इस पौधे को कुम्हला जाने मत देना।
छठवां प्रश्न:
भगवान, कल प्रवचन के आधे घंटे पहले जब मैंने आपकी ओर गौर से देखा, तब आपके सिर के आस-पास शुभ्र प्रकाश की छाया जैसी कुछ चीज महसूस हुई। पहले इस बात पर मुझे शक हुआ, मगर फिर-फिर देखने की कोशिश की, तब भी वही दिखाई दिया। और अब तक कैसे चूका, यह खयाल आते ही रोया। कृपया स्पष्ट करें कि यह क्या हुआ?
आनंदतीर्थ! तुम धन्यभागी हो कि जल्दी ही तुम्हें ऐसा दिखाई पड़ा। वही मैं हूं! जो तुम्हें प्रकाश की छाया की भांति मालूम पड़ा है, वही मैं हूं! यह देह उसकी छाया है। यह देह मूल नहीं है, मूल वही है। वह जो रोशनी तुम्हें दिखाई पड़ी, वही मूल है। यह देह उसके पीछे चलने वाली छाया है।
मगर हम देह से इतने बंधे हैं कि हमने देह को मूल मान लिया है। इसलिए जब पहली दफा मूल दिखाई पड़ता है तो छाया जैसा मालूम होता है। और जो तुम्हें मेरे भीतर दिखाई पड़ा है, वही तुम्हें जल्दी ही सबके भीतर दिखाई पड़ने लगेगा। इसका कोई संबंध उपलब्ध और गैर-उपलब्ध से नहीं है।
यह आभामंडल प्रत्येक के पास है--सिर्फ आंख चाहिए देखने की! यह आभामंडल मनुष्यों के पास ही नहीं है, पशु-पक्षियों के पास भी है, और वृक्षों के पास भी है। यह आभामंडल हमारी आत्मा है।
जो तुम्हें हुआ, अब उसका बार-बार स्मरण करना। और मेरे ही साथ नहीं, कभी-कभी राह चलते अजनबी के पास भी अनुभव होगा। धीरे-धीरे अनुभव फैलता जाएगा। सभी के भीतर परमात्मा मौजूद है--उतना ही जितना बुद्ध के, जितना कृष्ण के, जितना क्राइस्ट के भीतर। लोगों को पता न हो, यह दूसरी बात है। खजाना तो भीतर है ही। भूल गए हों, यह दूसरी बात है। उस खजाने से यह रोशनी उठती ही रहती है।
मगर पहली बार देखने में आमतौर से सुविधा हो जाती है, अगर तुम्हारा किसी से बहुत गहरा लगाव और श्रद्धा का संबंध हो। नहीं तो यह देखना मुश्किल हो जाता है। पहली दफा गुरु में दिखता है, फिर धीरे-धीरे सबमें दिखाई पड़ने लगता है।
ठीक हुआ आनंदतीर्थ! और जब पहली दफा होता है तो शक भी होता है, संदेह भी होता है--भ्रांति तो नहीं हो रही? मन हजार प्रश्न खड़े करता है। और जब पहली दफे होता है, तब यह भी होता है कि अब तक कैसे चूका? और वह खयाल आते हर एक रोता है। क्योंकि जो इतनी सुगमता से उपलब्ध था, उससे भी हम चूक रहे थे। हम जैसा अभागा कौन!
लेकिन फिकर न करो, जब भी घर लौट आए तभी जल्दी है। क्योंकि अनंत हैं जो अनंतकाल तक लौटने वाले नहीं हैं, ऐसी जिद किए बैठे हैं। जब हो जाए तभी जल्दी है। पछताने की चिंता छोड़ो। अब हुआ है, आभारी होओ! धन्यभागी होओ! अहोभाव से भरो! क्योंकि अहोभाव से भरोगे तो और-और होगा।
सातवां प्रश्न:
भगवान, प्रवचन के समय जब आपको देखती हूं, आपका दर्शन करती हूं, तब आपकी आवाज सुनाई पड़ती है; लेकिन आप क्या कह रहे हैं उसका ध्यान नहीं रहता। तो क्या यह मेरी मूर्च्छा है, बेहोशी है? कृपा कर मेरा मार्ग-दर्शन करें।
नहीं समाधि! बेहोशी नहीं है। अब पहली दफा जैसा मुझे सुनना चाहिए वैसा तुमने सुनना शुरू किया। जो मैं कह रहा हूं वह तो बहाना है--तुम्हें उलझाए रखने का; तुम्हें यहां बिठाए रखने का। जो मैं हूं, उससे ही जुड़ना है। जो शब्द में कहा जा रहा है, वह तो ना-कुछ है। जो शब्दों के बीच में बहा जा रहा है, वही सब-कुछ है। दो शब्दों के बीच में जो अंतराल है, जब कभी-कभी मैं क्षण भर को चुप हो जाता हूं, तब सुनोगे--तभी सुना।
मैं क्या कहता हूं वह भूल जाए, उसकी फिकर मत करना। मैं क्या हूं, वह न भूले।
मूर्च्छा नहीं है। मूर्च्छा जैसी ही है बात, लेकिन मूर्च्छा नहीं है। मूर्च्छा जैसी लगेगी। बेखुदी है। आत्म-तल्लीनता है। लेकिन आत्म-तल्लीनता भी मूर्च्छा जैसी लगती है। एक नशा छा रहा है।
जाम गिर पड़ता है साकी थर-थरा जाते हैं हाथ
तेरी आंखें देख कर नश्शा में आ जाती हूं मैं
नशा तो बढ़ना चाहिए। पियक्कड़ बढ़ें, यही तो मेरी चेष्टा है। इस मधुशाला में ज्यादा से ज्यादा लोग पी कर बेखुद हो जाएं, यही तो उपाय है। सुधि खो जाएगी तुम्हें अपनी, और तभी तो परमात्मा की सुधि आएगी।
जब जब वै सुधि कीजिए, तब-तब सब सुधि जाहिं
आंखिन आंख लगी रहैं, आंखैं लगत नाहिं।।
मतिराम का प्रसिद्ध वचन है: ‘जब-जब वै सुधि कीजिए’...जब-जब उसकी याद आती है, जब-जब उसका स्मरण होता है,...‘तब-तब सब सुधि जाहिं’...तब-तब सब याद खो जाती है, सब स्मरण खो जाता है। एक बेखुदी छा जाती है, एक नशा उतर आता है। ‘आंखिन आंखि लगी रहैं’... और तब उसकी आंखों से आंख जुड़ जाती हैं। ‘आंखिन आंखि लगी रहैं, आंखैं लगत नाहिं। फिर आंख बंद नहीं होती। फिर नींद नहीं आती। फिर आंखें थिर हो जाती हैं, अपलक हो जाती हैं।
ऐसा ही कुछ होता होगा। और फिर बड़ा मुश्किल हो जाता है। मतिराम का दूसरा प्रसिद्ध वचन है:
कौन बसत है कौन में, यों कछु कही परै न।
पिय नैनन तिय नैन हैं, तिय नैनन पिय नैन।।
कौन किसमें बसता है, कौन किसमें बस गया है--कहना मुश्किल हो जाता है! प्यारे के आंख में प्रेयसी बस गई है, कि प्रेयसी की आंख में प्यारा बस गया है--तय करना मुश्किल हो जाता है।
कौन बसत है कौन में, यों कछु कही परै न।
--कहते नहीं बनता।
पिय नैनन तिय नैन हैं, तिय नैनन पिय नैन।
फिर धीरे-धीरे तो कौन प्यारा है और कौन प्रेयसी, यह भी तय करना मुश्किल हो जाता है। फिर तो दोनों डूब जाते हैं--एक बचता है। उसी एक की तरफ चलना है।
शब्द भी खो जाएंगे। मेरा रूप-रंग, आकार भी खो जाएगा। तुम्हारे शब्द भी खो जाएंगे। तुम्हारा रूप-रंग, आकार भी खो जाएगा। और तब निराकार तुम्हें सब तरफ से घेर लेगा। बाहर भी वही, भीतर भी वही!
आखिरी प्रश्न:
भगवान, ‘साहिब एहि विधि ना मिलै’ की बात ने आज ऐसी चोट मारी कि मैं खलबला गई, धड़कनें बढ़ गईं और मैं आंसू की धार में नहा गई। मेरा भय बह गया। अब कोई आशंका नहीं, कोई भय नहीं। प्रभु, मैं आपकी नाव में बैठ गई। मुझे सम्हालना, मैं गिर न जाऊं! मेरा स्वीकार करो!
पूछा है गुणा ने!
यही तो सत्संग का प्रयोजन है--बैठे रहो, सुनते रहो; बैठे रहो, सुनते रहो। कब चोट पड़ जाए, कौन जानता है!
‘साहिब एहि विधि ना मिलै।’
औरों ने भी सुना, गुणा को चोट पड़ी। चोट पड़ने का भी समय होता है। कभी-कभी मन उस पकी हुई अवस्था में होता है, जब चोट पड़ जाती है। तब इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, किससे चोट पड़ी। अब यह वचन तो मैंने बहुत बार दोहराया था--‘साहिब एहि विधि ना मिलै’--अभी भी दोहरा रहा हूं। इस वचन में कुछ नहीं है। गुणा का चित्त उस समय मेरी तरंग में बंध गया होगा, मेरे साथ जुड़ गया होगा। एक क्षण को भेद टूट गया। फिर मैं क्या कह रहा था उस क्षण में, यह सवाल नहीं है। कुछ भी कह रहा होता, जो कहता, उसी से चोट पड़ जाती।
झेन फकीरों की तुमने कहानियां सुनी हैं न। शिष्य ध्यान कर रहा है और गुरु ने सिर्फ पास आकर जोर से ताली बजा दी है। अब ताली तो कोई शब्द भी नहीं है। और एक चौंक और एक सन्नाटा छा गया। और शिष्य ने आंखें खोलीं। पुराना गया, नये का जन्म हो गया। अब शिष्य कहेगा कि ‘आपने ताली क्या बजा दी, यह ताली अमृत थी!’ यह ताली बस ताली जैसी ताली थी। यह घड़ी अमृत की थी। इसमें कुछ भी हो जाता।
झेन फकीर अपने शिष्यों के सिर पर डंडा भी मार देते हैं। और डंडे मारने से कभी-कभी समाधि फल गई है। कहां से समाधि फल जाएगी, कहना कठिन है। कब तार मिल जाएगा, कहना कठिन है। इसलिए प्रतीक्षा चाहिए।
इक निगाह कर के उसने मोल लिया
बिक गए आह! हम भी क्या सस्ते
कभी-कभी एक निगाह, जरा सी एक निगाह--और सब बिक जाता है, सब दांव पर लग जाता है! मगर कब? उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। इसलिए कहा है कि बैठो गुरु के पास, उठो गुरु के पास, चलने दो यह धारा, यह सत्संग बने रहने दो। कब हो जाएगा, किस शुभ घड़ी में--कोई भी नहीं जानता। उसकी कोई भविष्यवाणी भी नहीं हो सकती। ज्योतिषी भी उसके संबंध में कुछ नहीं कह सकते। सिर्फ एक ही चीज है इस जगत में जो ज्योतिष के बाहर है। क्यों ज्योतिष के बाहर है? क्योंकि एक ही चीज है इस जगत में जो कर्म-जाल के बाहर है। एक ही चीज है इस जगत में--समाधि--जिसकी कोई घोषणा नहीं हो सकती। क्योंकि समाधि इस जगत की बात ही नहीं है, उस जगत से आती है। इस जगत में तो हम केवल ग्राहक होते हैं।
‘साहिब एहि विधि ना मिलै’ की बात ने आज ऐसी चोट मारी कि मैं खलबला गई।’
चोट तो रोज ही कर रहा हूं कि तुम खलबलाओ, कि तुम्हारी धड़कनें बढ़ें, कि कभी तुम्हारी धड़कनें रुक जाएं, कि कभी तुम्हारी श्वास भीतर जाए और बाहर न आए, और कभी बाहर जाए तो भीतर न आए। कभी एक अंतराल पैदा हो जाए, श्रृंखला टूट जाए, सिलसिला उखड़ जाए। तुम अतीत से बिलकुल टूट जाओ और नये हो जाओ।
‘और मैं आंसू की धार में नहा गई।’
आंसुओं में असली गंगा है। जो आंसुओं में नहाना जान लेता है, उसे गंगा मिल गई। वह जानता है कि पवित्र होने का क्या उपाय है। आंसू चमत्कार है। अगर आंसू ठीक से बह जाएं, आंखों की जन्मों-जन्मों की धूल बहा ले जाते हैं और हृदय का जन्मों-जन्मों का अंधेरा और तमस कट जाता है। रोना जिसने जान लिया उसने प्रार्थना जान ली। अभागे हैं वे, जिन्हें रोने का पता नहीं और जिनकी प्रार्थना कोरे शब्दों की है।
‘मेरा भय बह गया।’
जी खोल कर कुछ आज तो रोने दे हमनशीं
मुद्दत हुई है दर्द का दरमां किए हुए
कितने जन्मों से तो रोके बैठे हो आंसुओं को! कितना तो दर्द छिपाए बैठे हो! कहा नहीं, बताया नहीं। बताते भी क्या, कहते भी किससे? कहते भी तो समझता कौन? यहां समझने को कौन है? रोते भी तो लोग हंसते। रोते तो लोग दया करते। इसलिए तो लोगों ने रोक रखा है दर्द, रोक रखे हैं आंसू।
जी खोल कर कुछ आज तो रोने दे हमनशीं
मुद्दत हुई है दर्द का दरमां किए हुए
वह बह गई होगी धारा, फूट गया होगा बांध।
‘मेरा भय बह गया। मैं आंसुओं में नहा गई। अब कोई आशंका नहीं, कोई भय नहीं।’
यही तो पुण्य का अनुभव है। कल ही तो हम बात करते थे धनी धरमदास की--पुण्य का अनुभव! यही पुण्य का अनुभव है। पवित्रता का अनुभव, पुण्य का अनुभव है। पवित्रता में कहां भय, कहां क्रोध, कहां लोभ, कुछ भी नहीं, सब बह जाता है। मगर ध्यान रखना, लौट-लौट कर आ जाता है।
इसलिए जो हुआ है, उस पर ही रुक नहीं जाना है। लौट-लौट कर आ जाता है। वे जाल इतने पुराने हैं कि क्षण भर को आकाश खुलता है, मगर फिर बादल घिर जाते हैं, घटाटोप! फिर अंधकार छा जाता है। फिर सूरज छिप जाता है। फिर भरोसा नहीं आता कि सूरज दिखाई पड़ा था या मैंने कल्पना की थी। क्योंकि हमारा बादलों का अनुभव तो बहुत पुराना है और सूरज तो कभी क्षण भर को दिखाई पड़ता है।
तो गुणा भूलना मत! वह जो हुआ वह सत्य था। फिर बादल घिरेंगे, फिर भय आएगा, फिर आशंका आएगी, फिर संदेह उठेंगे। फिर सारे रोग खड़े होंगे मगर उसे याद रखना: जो हुआ है, वह सच था। मेरी गवाही है कि जो हुआ है, वह सच था। और उस सच को फिर-फिर खोजना है। बादलों को फिर-फिर छांटना है।
और इसीलिए प्रश्न का अंतिम हिस्सा तुम्हारी समझ में आएगा: ‘प्रभु, मैं आपकी नाव में बैठ गई। मुझे सम्हालना!’
कहीं दूर से भय की धुन आने लगी--सम्हालना! कहीं से भय ने सिर उठाया। एकदम चला नहीं गया; यहीं खड़ा है दरवाजे के पास। वह कह रहा है: ‘गुणा! इतनी निर्भीक मत हो जाओ, मैं अभी चला नहीं गया, अभी यहीं हूं, पास ही हूं, फिर लौट आऊंगा। इतनी जल्दी दोस्ती छोड़ नहीं सकता। पुराना नाता-रिश्ता है, जन्म-जन्म का संबंध है। ये फेरे बहुत पुराने हैं।’
‘प्रभु, मैं आपकी नाव में बैठ गई, मुझे सम्हालना!’
सम्हालने का भाव--आ गया भय! नहीं तो क्या सम्हालना है? क्या सम्हलना है? ‘मैं गिर न जाऊं’--आ गया भय। गया सूरज, बादल लौट आए। आंसुओं ने जो क्षण भर को आंखें साफ कर दी थीं, धूल-धवांस फिर लौट आई।
ऐसा बार-बार होगा। इसके पहले कि आंख सदा के लिए खुल जाए और धूल सदा के लिए बह जाए, बहुत बार होगा।
समाधि के पूर्व बहुत बार समाधि की झलकें आती हैं। यह समाधि की एक झलक थी, सुंदर थी। कहना भी कठिन है कि किस तरह की थी। लेकिन कहने की जरूरत नहीं। जब तुम्हारे भीतर घटती है तो जो मुझसे जुड़े हैं, मुझे उनकी खबर हो जाती है। जो तुम्हें कह जाता है वही मुझसे भी कह जाता है।
कागद पर लिखत न बनत कहत संदेश लजात।
कहिहै सब तेरो हियो, मेरे हिय की बात।।
कहने की तो बात भी नहीं है। लेकिन जब तुम्हारे हृदय में कुछ घटता है तो मेरे हृदय में भी घट जाता है। वही संबंध है गुरु और शिष्य का। जिनसे मेरा वैसा संबंध नहीं है, उनके भीतर क्या घटता है, मुझे पता नहीं चलेगा। उनसे मेरे तार नहीं जुड़े हैं। हिम्मत हो तो तार जोड़ लो, पीछे बहुत पछताना होगा।
उठें फिर फस्ले-गुल में आरजुओं को जवां कर दें
चलें फिर बुलबुलों को आशना-ए-गुलसितां कर दें
बसा लो यह बगिया! खिल जाने दो यह फूल! थोड़ी हिम्मत चाहिए।
और ऐसे भी जिंदगी तो जा ही रही है, चली ही जाएगी, मौत सब छीन ही लेगी, उसके पहले दांव पर लगा लो।
चश्मेतर! देख गमे-दिल न नुमायां हो जाए
इश्क के सामने और हुस्न पशेमां हो जाए
जानता हूं मैं तमन्ना को गुनाहे-उल्फत
इश्क वह है जो निहां रह के नुमायां हो जाए
प्रेम तो चुपचाप विलीन हो जाता है।
इश्क वह है जो निहां रह के नुमायां हो जाए
जो बोले भी न, कहे भी न, चुपचाप झुके और लीन हो जाए।
अपनी मजबूरी-ए-उल्फत का फसाना कह कर
डर रहा हूं कि कहीं वह न पशेमां हो जाए
दागे-उल्फत की तज्जली जो नुमायां हो जाए
शोलए-तूर भी इक बार पशेमां हो जाए
जब्ते-गम से नहीं यारा-ए-खामोशी मुझको
तुम जो कुछ पूछो तो मुश्किल मेरी आसां हो जाए
शिष्य तो पूछ भी नहीं सकता। पूछता है तो जानता है कि जो पूछना था वह चूक गया, वह शब्द में नहीं आया। लेकिन शिष्य पूछे या न पूछे, गुरु उत्तर देता ही है। तुम्हारे बहुत से न पूछे गए प्रश्नों के उत्तर भी रोज मैं देता हूं। जिन्होंने नहीं पूछे हैं, उनके उत्तर भी मैं देता हूं। जो मुझसे जुड़े हैं उनकी खबर तो हो जाती है; उनकी जरूरत मुझे पता चल जाती है।
जब्ते-गम से नहीं यारा-ए-खामोशी मुझको
तुम जो कुछ पूछो तो मुश्किल मेरी आसां हो जाए
काश यूं बर्क गिरे खिरमने-दिल पर मख्फी
़जर्रा-़जर्रा मेरी हस्ती का फरोजां हो जाए
‘काश यूं बर्क गिरे खिरमने-दिल पर’...यह जो दिल की खलिहान है, इस पर कोई बिजली गिरे--ऐसी गिरे, ऐसी गिरे--‘़जर्रा-़जर्रा मेरी हस्ती का फरोजां हो जाए’... कि मेरा कण-कण रोशन हो उठे।
शिष्य होने में यही आकांक्षा छिपी है--प्रेम का निवेदन और यह आकांक्षा--कि बिजली गिरे मुझ पर ऐसी कि ़‘जर्रा-़जर्रा फरोजां हो जाए’... कि एक-एक कण रोशन हो उठे।
थोड़ी सी चोट गुणा को हुई। अब इस चोट की प्रतीक्षा करना और इस चोट की प्रार्थना करना और इस चोट की अभीप्सा करना। यह चोट बार-बार पड़ेगी। एक बार पड़ गई तो पहचान हो जाती है। पहचान हो गई तो फिर बार-बार पड़ने लगती है।
तुमने कभी खयाल किया? एक दिन पैर में चोट लग जाती है, फिर दिन भर उसी जगह चोट लगती है--यह तुमने खयाल किया? लगती तो रोज थी चोट, लेकिन पता नहीं चलती थी, अब पता चलती है। पैर में चोट लग गई, कुर्सी के पास से निकलते हैं, कुर्सी का पैर भी उसमें लग जाता है, फिर चोट मालूम होती है। दरवाजा लग जाता है। बच्चा आकर तो उसी पैर पर खड़ा हो जाता है। दिन भर चोट लगती है। चोट तो रोज लगती थी, मगर एक बार लग गई तो घाव हो गया। घाव हो गया तो संवेदनशीलता उस स्थल की बढ़ गई। अब जरा सा भी लगेगा तो चोट हो जाएगी। धीरे-धीरे संवेदनशीलता गहन होती जाती है।
शिष्य धीरे-धीरे संवेदनशीलता ही हो जाता है। वही संन्यास है।
आज इतना ही।