DHARAMDAS

Ka Sovai Din Rain 01

First Discourse from the series of 11 discourses - Ka Sovai Din Rain by Osho. These discourses were given during MAR 31 - APR 10 1978.
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काम क्रोध मद लोभ, छांड़ सब दुंद रे।
का सोवै दिन रैन, विरहिनी जाग रे।।
भवसागर की आस, छांड़ सब फंद रे।
फिरि चलु आपन देस, यही भल रंग रे।।
सुन सखि पिय कै रूप, तो बरनत ना बने।
अजर अमर तो देस, सुगंध सागर भरे।।
फूलन सेज संवार, पुरुष बैठे जहां।
ढुरै अग्र के चंवर, हंस राजै जहां।।
कोटिन भानु अंजोर, रोम एक में कहां।
उगे चंद्र अपार, भूमि सोभा जहां।।
सेत बरन वह देस, सिंहासन सेत है।
सेत छत्र सिर धरे, अभय पद देत है।।
करो अजपा कै जाप, प्रेम उर लाइए।
मिलो सखी सत पीव, तो मंगल गाइए।।
जुगन जुगन अहिवात, अखंड सो राज है।
पिय मिले प्रेमानंद, तो हंस समाज है।।
कहै कबीर पुकार, सुनो धरमदास हो।
हंस चले सतलोक, पुरुष के पास हो।।
धनुषबाण लिए ठाढ़, योगिनी एक माया हो।
छिनहिं में करत विगार, तनिक नहिं दाया हो।।
झिरि-झिरि बहै बयार, प्रेम-रस डोलै हो।
चढ़ि नौरंगिया की डार, कोइलिया बोलै हो।।
पिया पिया करत पुकार, पिया नहिं आया हो।
पिय बिन सून मंदिलवा, बोलन लागे कागा हो।।
कागा हो तुम कारे, कियो बटवारा हो।
पिया मिलन की आस, बहुरि न छूटहि हो।।
कहै कबीर धरमदास, गुरु संग चेला हो।
हिलिमिलि करो सतसंग, उतरि चलो पारा हो।।
उठो कि शब में जमाले-सहर तलाश करें
हुजूमे-खार में गुलहाए-तर तलाश करें
लवाए-अब्र में ढूंढें फरोगे-माहो-नजूम
रिदाए-खाक में लालो-गुहर तलाश करें
हरीमे-जहन के सब झिलमिला रहे हैं चिराग
चलो तजल्लिए-शम्मो-कमर तलाश करें
रबाबे-वक्त पै छेड़ें तरानए-अबदी
दयारे-मर्ग में उम्र्रे-खिजर तलाश करें
फिर आओ तनतनै-खुसरवी की डालें तरह
फिर आओ ताविशे-ताजो-कमर तलाश करें
तवहम्मात की अफसुर्दा वादियों में ‘शमीम’
दमागे-गर्मों-दिले मअतबर तलाश करें।
उठो कि शब में जमाले-सहर तलाश करें
जागो! रात में सुबह छिपी है, उसकी खोज करें।
हुजूमे-खार में गुलहाए-तर तलाश करें
जागो! कांटो की झाड़ी में फूल छिपा है, उसकी तलाश करें।
लवाए-अब्र में ढूंढें फरोगे-माहो-नजूम
बादलों की अंधेरी घटाओं में चांद नक्षत्र छिपे हैं। उठो! उनकी तलाश करें।
रिदाए-खाक में लालो-गुहर तलाश करें
धूल में हीरे दबे हैं। उठो! उनकी तलाश करें।
हरीमे-जहन के सब झिलमिला रहे हैं चिराग
बुद्धि तो बड़ा छोटा सा चिराग है। वह भी झिलमिलाता-झिलमिलाता सा, अब बुझा तब बुझा। उसका बहुत भरोसा मत करो। उस पर ही जो भरोसा करके बैठ गए, भटक गए।
हरीमे-जहन के सब झिलमिला रहे हैं चिराग
चलो तजल्लिए-शम्मो-कमर तलाश करें
इस विराट अस्तित्व में चांद-सूरज छिपे हैं। वे तुम्हारे लिए हैं, उनकी रोशनी तुम्हारे लिए है। वे तुम्हारे रास्ते को रोशन कर सकते हैं, पर खोज करोगे तो मिलेंगे। जागोगे तो मिलेंगे। सोया आदमी बस अपनी छोटी सी बुद्धि की टिमटिमाती रोशनी में जीता है। उस रोशनी से कुछ दिखाई भी नहीं पड़ता। उस रोशनी का कोई विस्तार भी नहीं है। उस रोशनी से बस दो-चार कदम जिंदगी के उठ जाते हैं, लेकिन सत्य तक कोई पहुंचना नहीं हो पाता। और यहां चांद-सूरज भी छिपे हैं।
मनुष्य के भीतर बड़े प्रकाश की संभावनाएं छिपी हैं। अनंत प्रकाश के स्रोत से तुम आए हो। जरा चोट करने की बात है, और झरने फूट पड़ेंगे। जरा चोट करने की बात है और वीणा तरंगित हो उठेगी, स्पंदित हो उठेगी।
रबाबे-वक्त पै छेड़ें तरानए-अबदी
यह जो समय का वाद्य है, यह जो समय की वीणा है, इस पर अमरत्व का गीत छेड़ें।
यहां समय के नीचे ही छिपा है अमरत्व। काल के पीछे ही अकाल छिपा है।
दयारे-मर्ग में उर्मे्र-खिजर तलाश करें
मृत्यु के इस जीवन-पथ पर जो खोजते हैं, उन्हें अमृत के स्रोत भी मिल जाते हैं।
उठो कि शब में जमाले-सहर तलाश करें
हुजूमे-खार में गुलहाए-तर तलाश करें
तलाश की बात है। और जो जगे, जो उठे, जो नींद को तोड़े, वही तलाश कर पाएगा। धर्म का इतना ही अर्थ है।
जिंदगी मिलती है--अवसर की तरह, चुनौती की तरह। जो उस चुनौती को स्वीकार कर लेता है, जो उस अवसर का उपयोग कर लेता है, उसे परम जीवन मिल जाता है।
यह जिंदगी तो उस परम जीवन का द्वार है। इस पर ही मत अटक जाना। यह तो उस राजमहल का द्वार है। इस द्वार पर ही मत बैठे रह जाना, नहीं तो भिखमंगे ही रह जाओगे। तुम सम्राट होने को पैदा हुए हो, उससे कम पर राजी मत होना। लेकिन सम्राट होने के लिए बड़ी धूल-धवांस चित्त से झाड़नी होगी। नींद और सपने छोड़ देने होंगे।
मैं भी तुमसे कुछ छोड़ने को कहता हूं। संसार छोड़ने को नहीं कहता, स्वप्न छोड़ने को कहता हूं। मैं भी तुमसे कुछ छोड़ने को कहता हूं। पत्नी, बच्चे, परिवार छोड़ने को नहीं कहता। यह मन के पास, मन के दर्पण के पास जो गर्द-गुबार जम गई है, जो स्वभावतः जम जाती है...। यात्रा कर रहे हैं हम जन्मों-जन्मों से, सदियों-सदियों से। यात्रा में यात्री के कपड़ों पर धूल जम ही जाएगी। यह स्वाभाविक है। इस धूल-धवांस को झाड़ दो। और तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर छिपा है कोहिनूर। तुम्हारे भीतर मालिक छिपा है। जिसको तुम खोज रहे हो, तुम्हारे भीतर छिपा है। खोजने वाले में छिपा है। और तुम भागे चले जाते हो। और तुमने कभी आंख खोल कर अपने भीतर जरा भी टटोला नहीं।
इसके पहले कि तुम जगत में खोजने निकलो, एक बार अपने भीतर तो झांक कर देख लो। धर्म उस झांकने की कला का नाम है। इसलिए धर्म का प्रारंभ श्रद्धा से होता है, और अंत भी श्रद्धा पर।
श्रद्धा का क्या अर्थ है? श्रद्धा का अर्थ है: जो दिखाई नहीं पड़ता, उसकी खोज की हिम्मत। श्रद्धा का अर्थ है: बीज को बोने की हिम्मत। बीज में अभी फूल तो दिखाई पड़ते नहीं। श्रद्धा का अर्थ है: भरोसा, कि बीज टूटेगा, कि बीज कंकड़ नहीं है। मगर ऐसे तो बीज और कंकड़ में क्या फर्क दिखाई पड़ता है? फर्क तो भविष्य में तय होगा। भविष्य अभी आया नहीं है।
बीज को जब कोई बोता है तो भरोसे की सूचना देता है। श्रद्धा का इशारा हो रहा है। श्रद्धा की भाव भंगिमा है, बीज को बोने में बड़ी श्रद्धा है। इस बात की श्रद्धा है कि बीज टूटेगा, कंकड़ नहीं है। इस बात की श्रद्धा है कि बीज में फूल छिपे हैं, जो प्रकट होंगे। अभी दिखाई नहीं पड़ते कोई फिकर नहीं। कभी दिखाई पड़ेंगे। जो अभी अदृश्य है, वह दृश्य होगा।
फिर बीज को पानी देता है माली। अब तो बीज दिखाई भी नहीं पड़ता। फूल तो दूर, फूल का दिखाई पड़ना तो दूर, अब तो बीज भी जमीन में खो गया है और बीज भी दिखाई नहीं पड़ता। बड़ी श्रद्धा चाहिए। बीज भी गया, फूलों का कुछ पता नहीं है। देता है पानी, देता है खाद--और प्रतीक्षा करता है, और प्रार्थना करता है।
श्रद्धा का अर्थ होता है: शून्य से वार्तालाप। आकाश शून्य है। जब कोई श्रद्धालु हाथ उठा कर आकाश की तरफ प्रार्थना करता है, श्रद्धा की खबर दे रहा है। शून्य उत्तर देगा भी? वहां कोई है जो उत्तर देगा? उत्तर कभी आएगा? लेकिन प्रश्न का बीज डाल रहा है--इस भरोसे में, कि उत्तर का फूल आएगा। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, देर हो सकती है, अंधेर नहीं होगा। धीरज रखेगा, भरोसा रखेगा। आता होगा। आना ही चाहिए।
श्रद्धा कभी निष्फल नहीं गई है। और अगर निष्फल गई हो, तो जानना, नपुंसक थी। रही ही न होगी। ऊपर-ऊपर थी, झूठी थी, थोथी थी। विश्वास रहा होगा, श्रद्धा न रही होगी। विश्वास और श्रद्धा का वही भेद है। विश्वास का अर्थ होता है--मान लिया। कौन झंझट करे न मानने की, इसलिए मान लिया। लोग कहते हैं, ईश्वर है। अब कौन विवाद करे, किसको फुर्सत पड़ी है विवाद करने की? समय किसके पास है? व्यर्थ की बातों में पड़ने के लिए और व्यर्थ की बातों में समय गंवाने के लिए सुविधा किसके पास है? चलो लोग कहते हैं कि ईश्वर है, तो होगा; हम भी विश्वास कर लेते हैं। जब इतने लोग कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे।
विश्वास उधार है, झूठा है, बेईमान है।
श्रद्धा का अर्थ होता है, दुनिया कहती हो कि ईश्वर नहीं है, सारी दुनिया कहती हो कि ईश्वर न कभी था न कभी होगा, सब झूठ है, सब कल्पना है, सब अफीम का नशा है, सब मनगढ़ंत है, सब चालबाजों की ईजाद है, सब धोखाधड़ी है, सब पाखंड है--सारी दुनिया कहती हो, तब भी श्रद्धा नहीं कंपती। श्रद्धा कहती है: मैं तलाशूं, मैं खोजूं।
उठो कि शब में जमाले-सहर तलाश करें
रात दिखाई पड़ रही है, सुबह का कुछ पता नहीं है। और तुमने देखा, सुबह जैसे-जैसे करीब आती है, रात और गहन और घनी होती जाती है। सुबह होने के ठीक पहले रात सबसे ज्यादा अंधेरी हो जाती है।
उठो कि शब में जमाले-सहर तलाश करें
हुजूमे-खार में गुलहाए-तर तलाश करें
कांटों की झाड़ी में खोजने जाओगे, चुभेंगे कांटे, हाथ लहूलुहान भी होंगे। फूल इतनी आसानी से न तो दिखाई पड़ते हैं और न मिलते हैं। फूल उनके हैं, जो खोजते हैं। फूल कीमत मांगते हैं और सबसे बड़ी कीमत श्रद्धा है। श्रद्धा का अर्थ होता है: जो मुझे नहीं दिखाई पड़ता, उस पर भी मेरे भीतर, कोई अंतर्तम में कह रहा है कि है, खोजो, मिलेगा। यहीं कहीं होगा। होना ही चाहिए।
श्रद्धा का अर्थ है: प्यास है तो जलधार होनी ही चाहिए। जब मेरे भीतर परमात्मा को पाने की आकांक्षा है तो परमात्मा होना ही चाहिए। क्योंकि बिना परमात्मा के हुए, इस आकांक्षा का कोई स्रोत नहीं हो सकता था।
इस अस्तित्व में ऐसा है ही नहीं कि प्यास हो और पानी न हो; भूख हो और भोजन न हो। भूख के पहले भोजन निर्मित हो जाता है। देखते हैं, मां के गर्भ में बच्चा आता है, और स्तन दूध से भर जाते हैं। अभी बच्चा आया भी नहीं है। अभी बच्चे के आने में देर है। लेकिन स्तन तैयार होने लगे, दूध से भरने लगे। कोई अपूर्व शक्ति, कोई छिपे हाथ, स्तन तैयार करने लगे--बच्चा आएगा! अभी बच्चा ही नहीं आया, अभी बच्चे की भूख का तो सवाल ही नहीं है। लेकिन भूख के बहुत पहले, दूध की धार निर्मित होने लगी।
पक्षियों को घोसला बनाते देखा है? वह श्रद्धा है। पक्षियों को कुछ पता भी नहीं है कि अब समय आ गया अंडे रखने का। बस घोसले बनने लगे। वैज्ञानिक भी चकित हैं, क्योंकि घोसला बनाना इन पक्षियों को कोई सिखाता नहीं। वैज्ञानिकों ने प्रयोग किए हैं कि जैसे ही अंडे से बच्चा निकला, उसको उसके माता-पिता से अलग कर लिया और उसे अलग ही बड़ा किया, ताकि कोई सिखाने का अवसर ही न रहे। लेकिन जब मादा गर्भवती होगी, तत्क्षण घोसला बनाना शुरू कर देगी। बच्चे आते होंगे। उनके लिए घर तो बनाना ही होगा। उनके लिए नीड़ तो बसाना ही होगा। अभी बच्चे आए नहीं हैं। आएंगे भी या नहीं, कुछ पता नहीं है। लेकिन नीड़ बनने लगा।
अगर तुम जीवन को गौर से देखोगे, तो तुम हर जगह श्रद्धा के प्रमाण पाओगे। ऐसे ही मनुष्य के हृदय में परमात्मा की प्यास है।
मुझसे कभी लोग आकर पूछ लेते हैं कि परमात्मा का प्रमाण क्या है? मैं उनसे कहता हूं, तुम्हारे भीतर अगर परमात्मा को पाने की प्यास है तो पर्याप्त प्रमाण है। प्यास प्रमाण है। प्यास को प्रमाण मान लेना श्रद्धा है। अंधेरी रात में सुबह की जो अभीप्सा है, वही प्रमाण है कि सुबह होगी। जरा हम तलाश करें।
उठो कि शब में जमाले-सहर तलाश करें
हुजूमें-खार में गुलहाए-तर तलाश करें
लवाए-अब्र में ढूंढें फरोगे-माहो-नजूम
रिदाए-खाक में लालो-गुहर तलाश करें
यहीं-कहीं धूल में ही हीरे-जवाहरात पड़े हैं। अगर हीरे-जवाहरात को खोजने की आकांक्षा पैदा हो गई है तो हीरे-जवाहरात होने ही चाहिए। इस भरोसे का नाम श्रद्धा है।
यहां जो भी हो रहा है, उसमें एक अपूर्व संगति है। कोई विराट आयोजन है। असंबद्ध नहीं हैं घटनाएं। अस्तित्व असंगत नहीं है। अस्तित्व के भीतर चलता हुआ एक तारतम्य है, एक लयबद्धता है। अराजक नहीं है अस्तित्व, अनुशासित है। इसके अनुशासन को देख कर जिसे यह खयाल आ जाता है कि कहीं वे अदृश्य हाथ जरूर छिपे होंगे--जो इन पत्तों को रंग जाते हैं, फूलों को रस से भर जाते हैं, गंध से भर जाते हैं, चांद-तारों में रोशनी डाल देते हैं।
बच्चा पैदा होता है, एक चमत्कार घटता है। कुछ सेकेंड तक मां-बाप, चिकित्सक, दाई, एक ही आकांक्षा से भरे रहते हैं--बच्चा किसी तरह रो दे, क्योंकि रो दे तो श्वास चल जाए। मां के पेट से पैदा होने के बाद वे दो-चार-दस क्षण, सर्वाधिक मूल्यवान क्षण हैं। उन्हीं पर निर्भर है--जीवन आएगा कि नहीं, बच्चा जागेगा कि नहीं, जीएगा कि नहीं। और कोई हमारे बस में, हाथ में हमारे बात नहीं है कि हम बच्चे को समझा सकें कि श्वास ले पागल, रुक मत! कोई उपाय नहीं है। लेगा तो लेगा, नहीं लेगा तो नहीं लेगा। और बच्चे ने कभी पहले श्वास ली नहीं है। मां के पेट में मां ही बच्चे के लिए श्वास लेने का काम कर रही थी। मां के पेट से बच्चा अलग हो गया है। उसकी नाल भी काट दी गई है। अब बच्चा बिलकुल स्वतंत्र है। अब उसे श्वास लेना है। और किसी पाठशाला में उसे सिखाया नहीं गया, वह कैसे श्वास ले? लेकिन श्वास आ जाती है। कौन डाल देता है इस श्वास को?
बाइबिल कहती है कि अदम को बनाया मिट्टी से परमात्मा ने, फिर उसके नासापुटों में श्वास डाली, श्वास फूंकी। यह कहानी सच है। कहानी की तरह सच नहीं है, अस्तित्वगत रूप से सच है। हर बच्चे में कोई श्वास डालता है। पता नहीं कौन! जीवन की कोई महत ऊर्जा छुपे-छुपे बच्चे में श्वास डाल देती है। यह चमत्कार रोज घटता है, फिर भी हम अंधे हैं। हम श्वास को चलते देख लेते हैं, और जिसने श्वास फूंकी उसकी तलाश नहीं करते।
देखो चारों तरफ, सब कितना संगीतपूर्ण है! इस संगीत के पीछे तुम सोचते हो कोई कुशल अंगुलियां नहीं होंगी?
आकाश की तरफ आंख उठा कर शून्य से जो वार्तालाप करे, वह प्रार्थना है। और आंख बंद करके भीतर के शून्य में जो ठहर जाए, वह ध्यान है। मगर दोनों की शुरुआत श्रद्धा में है।
श्रद्धा का अर्थ होता है: जो दिखाई नहीं पड़ता: जिसके होने का कोई कारण नहीं, कोई प्रमाण नहीं; लेकिन होना चाहिए, ऐसी अपूर्व भाव-दशा।
देखते हो तुम, रोज लोग मरते हैं। रोज तुम लाश उठते देखते हो, अरथी निकलते देखते हो। लेकिन फिर भी तुम्हें कभी यह खयाल नहीं आता कि मैं मरूंगा।
क्या मामला है? इतने लोग मरते हैं, लेकिन तुम्हें यह खयाल नहीं आता कि मैं मरूंगा। जरूर कुछ राज है। इतने लोगों की मृत्यु भी यह सिद्ध नहीं कर पाती तुम्हारे सामने कि मैं मरणधर्मा हूं। तुम्हारे भीतर कहीं कोई श्रद्धा है अमरत्व की।
प्रत्येक व्यक्ति अपने अंतर्तम में जानता ही है कि जीवन अमर है। इसका कोई अंत नहीं। तुम खोजते नहीं, तलाश नहीं करते, अन्यथा यही श्रद्धा तुम्हारे जीवन का साक्षात्कार बन जाए।
रबाबे-वक्त पै छेड़ें तरानए-अबदी
यह जो समय की वीणा है, इस पर छेड़ो संगीत! इन श्वासों के भीतर श्वास लेने वाला छिपा है। इस मरणधर्मा देह में अमृत विराजा है।
दयारे-मर्ग में उम्रे-खिजर तलाश करें
यह जो मृत्यु का पथ है--जन्म से लेकर अरथी तक, झूले से लेकर कब्र तक--यह जो जीवन का पथ है, यह तो मृत्यु का पथ है। मगर इस पर चलने वाला जो यात्री है, वह अमृत है। देहें गिरती हैं, उठती हैं, यात्री चलता रहता है। वस्त्र बदलते हैं, जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, बदल लिए जाते हैं, मगर जो भीतर छिपा है, चलता जाता है।
रबाबे-वक्त पै छेड़ें तरानए-अबदी
दयारे-मर्ग में उम्रे-खिजर तलाश करें
ऐसी तलाश के लिए किसी धनी का साथ चाहिए। और कबीर ने ठीक किया कि अपने इस अपूर्व शिष्य को, धरमदास को, धनी कहा, धनी धरमदास कहा। धनी वे थे, संन्यस्त होने के पहले। खूब धन था। संन्यस्त होते ही सारा धन लुटा दिया। जब तक संन्यस्त न हुए थे, तब तक कबीर ने कभी उनको धनी नहीं कहा था। जिस दिन सब धन लुटा दिया, उस दिन कबीर ने कहा कि धरमदास! अब तू धनी हो गया। आज से तुझे धनी धरमदास कहूंगा। क्योंकि अब तूने उस धन को पा लिया है जो तुझसे कोई भी छीन न सकेगा। अब तूने उस धन को पा लिया है कि तू बांट कितना ही, चुकेगा नहीं। अब तूने उस धन को पा लिया, जो शाश्वत है।
जागने के लिए, किसी जागने वाला का साथ चाहिए। संगीत सीखते हो तो किसी संगीतज्ञ से सीखते हो न! जिसके हाथ सध गए हों, उसके हाथों को देख कर, तुम्हारे हाथ भी सधने लगते हैं। श्रद्धा भी सीखनी हो तो किसी सत्संग में ही सीखनी होगी; जहां श्रद्धा को कोई उपलब्ध हो गया हो; जहां फूल खिल गए हों। चाहे फूल तुम्हें न भी दिखाई पड़ें, सुवास तो तुम्हें भी पता चलेगी। स्पष्ट-स्पष्ट कुछ पकड़ में न भी आए, तो भी अस्पष्ट तुम्हें अदृश्य की पदचाप सुनाई पड़ने लगेगी।
धनी धरमदास के साथ आने वाले कुछ दिनों में हम यात्रा करेंगे। धनी धरमदास अपूर्व व्यक्तियों में एक हैं।
कहा है धरमदास ने:
हम सतनाम के बैपारी।
कोई-कोई लादे कांसा-पीतल, कोई-कोई लौंग-सुपारी।
हम तो लादा नाम धनी का, पूरन खेप हमारी।
मोती-बिंदु घटहि में उपजै, सुकृत भरत कोठारी।
नाम-पदारथ लादि चला है, धरमदास बैपारी।
पहले भी व्यापार करते थे, फिर भी व्यापार किया। पहले क्षुद्र का व्यापार करते थे, फिर विराट का व्यापार किया, सतनाम का व्यापार किया।
ये वचन तुम्हें याद दिलाएंगे कि दिल खोल कर लुटाया है धनी धरमदास ने। दिल खोल कर लेना भी, तो सत्संग जम जाएगा। तो प्रीति उमगेगी। तो रस बहेगा। तो रात सुबह में बदलेगी।
मृत्यु को अमृत में बदलने की कला धर्म है।
ये सारे वचन धर्म के संबंध में, अलग-अलग दिशाओं से इशारे होंगे।
काम क्रोध मद लोभ, छांड़ सब दुंद रे।
का सोवै दिन रैन, विरहिनी जाग रे।।
का सोवै दिन रैन,...
हम सोए ही हुए हैं। हमारी नींद आध्यात्मिक है। शारीरिक नींद तो दिन में टूट जाती है, लेकिन आध्यात्मिक नींद दिन में भी जारी रहती है। रात तुम आंख बंद करके सोते हो, दिन तुम आंख खोल कर सोते हो। मगर नींद जारी है। रात तुम सपने देखते हो, दिन तुम इच्छाएं; लेकिन स्वप्न और इच्छाएं एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। स्वप्न नींद की इच्छाएं हैं, इच्छाएं तुम्हारे तथाकथित जागरण के स्वप्न हैं।
इच्छा का अर्थ है: भविष्य; जो नहीं है, उसमें तुम खो गए। जो नहीं है, उसमें खो जाने का ही नाम तो सपना है। जो नहीं है, उसमें खो गए, तो जो है, उससे चूक गए।
का सोवै दिन रैन,...
धरमदास कहते हैं: कब तक सोओगे? कितना सोओगे? रात भी सोए रहते हो, दिन भी सोए रहते हो। जन्म-जन्म बीत गए सोए-सोए। जाग कर कब देखोगे? और सोए-सोए जिसे तलाश रहे हो, वह जाग कर अभी मिल सकता है, तत्क्षण, यहीं। और सोए-सोए कभी न मिलेगा।
सोए हुए आदमी और परमात्मा का मिलन नहीं हो सकता। इसलिए नहीं कि परमात्मा सोए हुए आदमी से नहीं मिलता। सोए हुए आदमी से भी मिलता है। मगर सोया हुआ आदमी पहचाने कैसे? तुम नींद में पड़े हो, कोई तुम्हारे पास भी आकर बैठा रहे, तो बैठा रहे। उसकी तरफ से तो मिलन हो रहा है, तुम्हारी तरफ से कुछ मिलन नहीं हो रहा है।
मैं एक घर में मेहमान हुआ। वहां एक महिला कोमा में गिर गई है। कोई नौ महीने से कोमा में पड़ी है। पति अब भी फूल लाकर उसके तकिए पर रखते हैं। बच्चे अब भी उसके पैर दबाते हैं। मगर उसे कुछ पता नहीं। चिकित्सक आकर अब भी उसकी नाड़ी देख जाते हैं, मगर उसे कुछ पता नहीं।
ऐसा ही कोमा है तुम्हारा। जब तक परमात्मा नहीं जाना गया है, तब तक समझना कि तुम नींद में हो। जागरण का एक ही सबूत है कि परमात्मा का अनुभव हो जाए, और कोई सबूत नहीं है। इसलिए अगर तुम्हें परमात्मा का अनुभव नहीं हुआ हो, तो समझ लेना कि अभी सोए हो। और किसी जाग्रत व्यक्ति का सत्संग करो। किसी जागे हुए से जुड़ जाओ। क्योंकि जागा हुआ ही सोए को जगा सकता है।
का सोवै दिन रैन,...
कोई जागा हुआ ही तुमसे कह सकता है। कोई जागा ही तुम्हें हिला सकता है, झकझोर सकता है।
काम क्रोध मद लोभ, छांड़ सब दुंद रे।
यही द्वंद्व है। और द्वंद्व ही नींद का आधार है। हम दो में बंटे हैं, इसलिए सो गए हैं। बंटने के कारण हमारी शक्ति बिखर गई है। जुड़ जाए, इकट्ठी हो जाए, केंद्र पर आ जाए, हम एक हो जाएं--जागरण हो जाए। हम खंड-खंड हो गए हैं। और हमें खंड-खंड किसने किया है? हमने ही कर लिया है। काम, क्रोध, मद, लोभ--इन्होंने ही हमें द्वंद्व से भर दिया है।
मनुष्य सदा ही, यह मिल जाए, वह मिल जाए, ऐसा हो जाऊं, वैसा हो जाऊं, इसकी दौड़ में लगा है। उस दौड़ का नाम काम है। और अगर तुम्हारी इस दौड़ में कोई बाधा डालता है, तो क्रोध उठता है। तुम धन पाना चाहते हो और कोई प्रतियोगिता करता है बाजार में तुमसे। तुम पद पाना चाहते हो, कोई चुनाव में तुम्हारे खिलाफ खड़ा हो जाता है, तो क्रोध पैदा होता है। तुम जो पाना चाहते हो, उसमें कोई बाधा डाल रहा है, तो शत्रुता पैदा होती है।
काम मूल है--हमारी सारी निद्रा का। फिर काम से और-और चीजें पैदा होती हैं। जो बाधा पड़ेगी, तो क्रोध पैदा होगा। और बाधा तो पड़ेगी ही, क्योंकि यहां अनंत लोग हमारे जैसे ही कामी हैं। वे भी उन्हीं चीजों को पाने चले हैं जिनको तुम पाने चले हो।
हर व्यक्ति राष्ट्रपति हो जाना चाहता है। हर व्यक्ति प्रधानमंत्री हो जाना चाहता है। अब साठ करोड़ के देश में एक आदमी प्रधानमंत्री होगा। एक को छोड़ कर बाकी तो दुखी होने वाले हैं। और बाकी बदला भी लेने वाले हैं। इसलिए जो व्यक्ति पद पर पहुंच जाता है, उसे जनता कभी क्षमा नहीं करती। कर नहीं सकती। पद पर जब तक रहता है, तब तक जी-हजूरी करती है, क्योंकि करना पड़ता है। पद से उतरते ही जूते फिंकने शुरू हो जाते हैं।
और तुम मजा देखना, ऐसे व्यक्तियों पर जूते फिंक जाते हैं जिनकी तुम सोच भी नहीं सकते थे। जो कल तक दूसरों पर जूते फिंकवाते रहे थे, जो कल तक जूता फेंकने वालों के सरदार थे--उन पर जूते फिंक जाते हैं। जैसे ही तुम्हारे हाथ में सत्ता आती है, तुम्हारे साथ जितने लोग चल रहे थे सत्ता की तलाश में, वे सब नाराज हो जाते हैं। जब तक तुम्हारे हाथ में सत्ता रहेगी तब तक झुक-झुक कर नमस्कार करेंगे। करना पड़ेगा--जिसकी लाठी उसकी भैंस। लेकिन जिस दिन तुम्हारी लाठी छिन जाएगी, उस दिन तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारा कोई मित्र नहीं। उस दिन जिन्होंने तुम्हें सहारा दिया था कल तक, तुम्हें पद-प्रतिष्ठा तक पहुंचाया था, वे ही तुम्हारे शत्रु हो जाएंगे। जो तुम्हारी स्तुति करते थे, वे ही तुम्हें गालियां देने लगेंगे।
क्या है कारण इसके पीछे? कारण साफ है। पद थोड़े हैं। अब कोई यह पूछ सकता है: तो पद ज्यादा क्यों नहीं हैं? पद ज्यादा हो सकते हैं, लेकिन तब उनमें मजा चला जाता है। जैसे घोषणा कर दी जाए कि हिंदुस्तान में सभी लोग राष्ट्रपति हैं। मगर तब उसका मजा चला गया। उसका मजा ही इसमें है कि जितना थोड़ा हो, जितना न्यून हो, उतना ही मजा है।
समझो कि कोहिनूर हीरे रास्तों पर पड़े हों, कंकड़-पत्थरों की तरह, तो बस व्यर्थ हो गए। फिर इंग्लैंड की महारानी के राजमुकुट में लगाए रखने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। फिर तो कोई भी राह के किनारे से उठा ले। कंकड़-पत्थरों का मूल्य क्यों नहीं है? जरा सोचो, दुनिया में अगर एक ही कंकड़ होता, कितना ही कुरूप, तो किसी राजमुकुट में जड़ा जाता। हीरे भी कंकड़ ही हैं, बस वे न्यून हैं। यही उनकी खूबी है। सोने और पीतल में और कुछ भेद नहीं है: पीतल ज्यादा है, सोना न्यून है। जो चीज न्यून है, वह अहंकार को बलवती बनाती है: मेरे पास है, और किसी के पास नहीं है! जितनी न्यून होती जाती है चीजें, उतना ज्यादा अहंकार को मजा आने लगता है। जब तुम आखिरी शिखर पर पहुंच जाते हो, जहां तुम अकेले हो और कोई भी नहीं, तब अहंकार को बड़ा रस आता है।
अहंकार का रस है: काम। फिर काम के बहुत रूप हैं। काम को तुम सिर्फ सेक्स ही और यौन मत समझ लेना। वह तो एक रूप है। काम के अनंत रूप हैं। जीवन का सारा विस्तार, जीवन का सारा द्वंद्व, जीवन का सारा संघर्ष, हिंसा, उपद्रव--काम ही है। जो बाधा बन जाएगा, वह दुश्मन। उस पर क्रोध पैदा होगा। और अगर तुमने सारे दुश्मनों को समाप्त करके पा लिया, जिसको तुम पाने निकले थे, तुमने अपने काम की पूर्ति कर ली, तो मद पैदा होगा। तीसरा उपद्रव शुरू हुआ।
मद का मतलब है: काम सफल हो गया। तुम राष्ट्रपति होना चाहते थे और हो गए, तो मद पैदा होगा। मद का मतलब होता है कि देखो, तुमको किसी को भी नहीं मिल पाया, और मुझे मिल गया! तुम्हारी छाती फैल जाती है। तुम्हारी चाल बदल जाती है। तुम्हारे रंग-ढंग बदल जाते हैं।
सफल राजनीतिज्ञ ज्यादा जीते हैं, असफल जल्दी मर जाते हैं। सफल होते से ही उनकी उम्र दस साल बढ़ जाती है। एक नशा पैदा होता है। अब जीने में मजा आता है। अब जीने का कुछ अर्थ मालूम होता है। यह जान कर तुम चकित होओगे कि अलग-अलग समाजों में अलग-अलग तरह के लोग ज्यादा जीते हैं। इस पर बड़ा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण हुआ है। यूनान में दार्शनिक लंबे जीते थे, क्योंकि यूनान में दार्शनिकों की बड़ी प्रतिष्ठा थी। सुकरात और प्लेटो और अरस्तू और हेराक्लाइटस और पार्मिनिडीज और पाइथागोरस, यूनान में दार्शनिक लंबा जीता था। उसकी प्रतिष्ठा थी। कवि भी लंबे जीते थे। उनकी भी बड़ी प्रतिष्ठा थी। हिंदुस्तान में ऋषि-मुनि लंबे जीते रहे। उनकी प्रतिष्ठा थी। तुम यह मत सोचना कि ऋषि-मुनियों के पास कुछ यौगिक विद्या थी, जिससे वे ज्यादा जीते थे। नासमझी की बकवास है। प्रतिष्ठा थी, सम्मान था। राजा भी आकर ऋषि-मुनि के चरणों में झुकता था। योग इत्यादि का इसमें कुछ हाथ नहीं है। क्योंकि यूनान में दार्शनिक कोई योग नहीं करते थे, वे ज्यादा जीते थे। उसी तरह ज्यादा जीते थे जैसे हिंदुस्तान में ऋषि-मुनि ज्यादा जीते थे।
अमरीका में व्यवसायी सबसे ज्यादा जीते हैं। धनी आदमी हैं। अमरीका में कवि चालीस साल के आस-पास टांय-टांय फिस हो जाता है। इस पर मनोवैज्ञानिक शोधें हुई हैं और बड़ा चमत्कार अनुभव होता है कि ऐसा क्यों हो जाता है? अमरीका में कहानीकार, कवि, लेखक, दार्शनिक नहीं ज्यादा जी पाते। अमरीका में क्या प्रतिष्ठा है दार्शनिक की? धन एकमात्र दर्शन है। तो जिसके पास धन है, वह लंबा जीता है।
तुम देखते हो, हिंदुस्तान में फिल्म अभिनेता देर तक जवान रहते हैं। कोई योग साध रहे हैं? कोई योग नहीं साध रहे हैं। लेकिन फिल्म अभिनेता की प्रतिष्ठा है, सम्मान है। वह ज्यादा देर तक जवान रहता है। पचास साल, पचपन साल का हो जाता है, और फिल्मों में पच्चीस साल के जवान का काम करता है--कॉलेज का विद्यार्थी! फिर भी जंचता है।
सारी दुनिया में ऐसा हो रहा है। अभिनेता लंबे जीने लगे हैं। राजनेता भी लंबे जीते हैं। जिनके पास काम की प्रतिष्ठा हो जाती है, संपन्नता हो जाती है, जो पहुंच जाते हैं, वांछित लक्ष्य को पा लेते हैं, उनमें मद पैदा होता है। अहंकार जिलाने वाली संजीवनी है। इसलिए तो जो व्यक्ति परम निर-अहंकारिता को प्राप्त हो जाता है, उसकी शरीर से विदाई शुरू हो जाती है। उसका मद टूट गया। शरीर से उसके संबंध उखड़ जाते हैं, जैसे भूमि से वृक्ष उखड़ गया। और फिर दुबारा उसका आगमन नहीं होता। क्योंकि आने के लिए मद चाहिए। मद ही न रहा। इसलिए बुद्ध फिर दुबारा नहीं जन्मते। जन्म नहीं सकते।
और जो मद की अवस्था में पहुंच गया, जिसका अहंकार तृप्त हो गया, उसे लोभ पैदा होता है। लोभ का मतलब होता है: जो मुझे मिल गया वह तो मेरे पास रहे ही, और ज्यादा मुझे मिल जाए। जो मंत्री हो गया वह मंत्री से नीचे नहीं उतरना चाहता, मुख्यमंत्री हो जाना चाहता है। जो कैबिनेट में पहुंच गया--केंद्रीय, वह अब वहां से नहीं हटना चाहता। उसके दो काम हैं अब, दो ही जीवन के लक्ष्य हैं: जहां पहुंच गया वहां पैर जमा कर अड़ा रहे। अगर आगे जा सके, तो ही उस पद को छोड़ सकता है, पीछे न जाना पड़े। तो उसके दो काम हैं। जहां बैठा है वहां तो पकड़ कर बैठा रहे। और आगे कोई बैठा हो तो उसको धक्के देता रहे कि कोई जगह खाली हो जाए तो वह आगे पहुंच जाए।
लोभ का अर्थ होता है: जो है उसे जोर से पकड़ो कि कुछ छूट न जाए। जितना मिल गया है, उसमें से छूटे न। और जितना अभी आगे और पड़ा है, वह भी मिल जाए। लोभ का कोई अंत नहीं है। क्योंकि ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां तुम्हारी कल्पना तृप्त हो सके।
तुम कहोगे: क्यों? किसी आदमी के पास दुनिया की सबसे ज्यादा संपत्ति हो जाए, फिर तृप्त नहीं होगा?
नहीं होगा। क्योंकि अगर एक ही वासना होती तो मामला हल हो गया होता। वासनाएं अनेक हैं।
जैसे समझो, नेपोलियन की ऊंचाई जरा कम थी--पांच फीट, दो इंच। बड़ा सम्राट, बड़ा साम्राज्य; मगर यही पीड़ा उसकी थी। जब भी किसी आदमी को जरा लंबा देख लेता, उसको घाव लग जाते। उसको बड़ी चोट लग जाती थी। अब वह इसी से परेशान रहा जिंदगी भर। उसकी जीवन-कथा लिखने वाले लेखक लिखते हैं कि यह उसका ऑब्सेशन था। यह बस उसका एकमात्र रोग था कि कोई उससे लंबा आदमी न दिखाई पड़ जाए। उसने अपने जनरल ऐसे चुने थे जिनकी ऊंचाई कम थी। कोई लंबा जनरल उसके बर्दाश्त के बाहर हो जाता था, क्योंकि उसके पास अगर खड़ा हो जाए तो वह छोटा मालूम पड़ता था।
अब देखते हो, साम्राज्य हो, संपदा हो, सब हो, तो भी एक छोटी सी बात छोटा कर सकती है! धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो, और एक भिखारी मस्त चाल से चलता हुआ रास्ते से निकल जाए और ईर्ष्या पैदा हो जाएगी। या तुम किसी को गहरी नींद में सोया हुआ देख लो, एक मजदूर, जो अपनी ठेला-गाड़ी को रोक कर, भरी दुपहरी में उसी के नीचे पड़ा सो गया है। और मजे से सो रहा है और रास्ता चल रहा है, कारें निकल रही हैं, और भोंपू बज रहे हैं , शोरगुल मच रहा है, मजे से सो रहा है। और तुम रात भर अपने बिस्तर पर करवटें बदलते हो, और नींद नहीं आती। बेचैनी हो गई, ईर्ष्या जग गई।
अमीर आदमी गरीब से ईर्ष्या करते हैं, यह जान कर तुम्हें हैरानी नहीं होनी चाहिए। अमीर आदमी सदा ही सोचते हैं: गरीब बड़े मजे में हैं, बड़े सुख-चैन में हैं। गरीब अमीर से ईर्ष्या करते हैं। वे सोचते हैं: अमीर बड़े मजे में हैं। मजे में यहां कोई भी नहीं है। देहात का आदमी सोचता है: शहर में लोग मजा लूट रहे हैं। मजा बंबई में है। बंबई में जो रहता है वह सोचता है: गांव में कैसी शांति! कैसा स्वाभाविक सौंदर्य! जो गांव में रहता है उसे कोई स्वाभाविक सौंदर्य नहीं दिखाई पड़ता। कीचड़-कबाड़ और गोबर और मक्खियां और मच्छर, बस यही दिखाई पड़ते हैं। शहरों में रहने वाले कवि जब गांव के संबंध में कविता लिखते हैं, उनमें न मच्छर आते हैं, न गर्द-गुबार, न गर्मी, न गोबर, न रास्तों पर मल-मूत्र, कीचड़, कुछ भी नहीं आता। उसमें सिर्फ फूल दुल्हन की तरह सजे खड़े होते हैं। हरियाली फैली होती है। सुख-शांति छाई होती है।
यहां किसी भी व्यक्ति को तृप्ति मिलनी संभव नहीं है। क्योंकि जो तुम्हारे पास होगा, उससे बहुत कुछ शेष रह गया है। सच तो यह है: तुम जब एक चीज को पाने में लग जाते हो, तो तुम्हारी सारी ऊर्जा उसमें लग जाती है। और सारे अन्य जीवन के अंग अपंग रह जाते हैं। जो आदमी धन पाने जाता है, अक्सर मूढ़ होता है। क्योंकि सारी ऊर्जा तो धन पाने में लग गई, बुद्धिमत्ता कमाने का अवसर कहां रहा? जो आदमी बुद्धिमान होने में लग जाता है, अक्सर अव्यावहारिक हो जाता है। क्योंकि सारी ऊर्जा तो बुद्धिमान होने में लग गई, व्यावहारिकता कहां सीखता? समय कहां मिला?
जिंदगी में जब हम चुनाव कर लेते हैं, तो बाकी चीजें जो छूट गई हैं, एक न एक दिन उनकी पीड़ा सताएगी। और इससे द्वंद्व पैदा होता है। पहले तो कोई वासना पूरी नहीं होती, और सदा आगे कुछ शेष रहता है। फिर पूरी कोई वासना हो भी जाए तो अनंत वासनाएं अधूरी रह गईं हैं। जो पूरी हो गईं, वे तो भूल जाती हैं; जो अधूरी रह गईं वे कांटे की तरह चुभती हैं।
काम क्रोध मद लोभ, छांड़ सब दुंद रे।
का सोवै दिन रैन, विरहिनी जाग रे।।
धरमदास कहते हैं: जागो! कब तक द्वंद्व झेलते रहोगे? कब से तुम विक्षिप्तता झेल रहे हो! कितने दिनों से दौड़ते-दौड़ते थक गए हो, टूट गए हो! जीवन तुम्हारा कितना अर्थहीन हो गया है! अब जागो!
दास्ताने-हयात कुछ तो हो
सूरते-वाकियात कुछ तो हो
गलत अंदाज ही सही लेकिन
निगहे-इल्तफात कुछ तो हो
न सही इशरते-हयात मगर
फर्के-मौतो-हयात कुछ तो हो
हस्तीए-बेसबात कुछ भी नहीं
हस्तीए-बेसबात कुछ तो हो
मेहर्बानी ही मेहर्बानी क्या
मेहर्बानी में बात कुछ तो हो
दौलते-दर्द मिल गई ‘शम्सी’
हासिले-कायनात कुछ तो हो
यहां कुछ हाथ आता कभी लगता नहीं। ‘दास्ताने-हयात कुछ तो हो।’ जीवन कथा यहां है क्या?
दास्ताने-हयात कुछ तो हो
सूरते-वाकियात कुछ तो हो
यहां कुछ कभी घटता ही नहीं। सपनों में कहीं कुछ घट सकता है? समय ही जाया होता है। तुम्हारा सारा जीवन एक रिक्त मरुस्थल है।
भवसागर की आस, छांड़ सब फंद रे।
इस संसार से आशा बना रखी है, तो फिर तुम सोए रहोगे। वही आशा नींद है। भवसागर की आस--यहां कुछ मिल जाएगा, यहां कुछ मिल सकता है! कभी किसी को नहीं मिला। सिकंदर भी खाली हाथ जाते हैं। धनपति भी दरिद्र मरते हैं। सम्राट भी भिखमंगे ही रह जाते हैं। यहां कभी किसी को कुछ नहीं मिला। लेकिन एक आशा है, जो जलती रहती है भीतर। किसी को न मिला हो, मुझे शायद मिल जाए।
भवसागर की आस, छांड़ सब फंद रे।
इसी आशा का फंदा है, जो आदमियों की गर्दन में अटका है और सूली लगी हुई है। इस आशा से जो मुक्त हो गया, वह संसार से मुक्त हो जाता है।
मैं तुमसे संसार से भागने को नहीं कहता। इस आशा को छोड़ दो, इस आशा को गिरा दो। और ध्यान रखना, एक भूल अक्सर हो जाती है। लोग आशा छोड़ देते हैं, तो निराशा पकड़ लेते हैं। निराशा आशा का ही उलटा रूप है। निराशा आशा ही है--शीर्षासन करती हुई, सिर के बल खड़ी हुई। अगर आशा सच में ही छूट गई तो निराशा भी उसी के साथ छूट जाती है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम एक पहलू नहीं बचा सकते और एक पहलू नहीं छोड़ सकते। या तो दोनों बचते हैं, या दोनों छूटते हैं। अगर तुम्हें कोई धार्मिक आदमी निराश मालूम पड़े तो समझ लेना वह धार्मिक नहीं है। वह सांसारिक आदमी ही है। आस उसने छोड़ी नहीं है; सिर्फ आस के पहलू को छिपा लिया है और निराशा के पहलू को ऊपर कर लिया है। सिक्का उलटा कर लिया, बस।
असली धार्मिक आदमी न तो जगत से आशा रखता है और न निराशा। आशा-निराशा से जो मुक्त हो गया, वही द्वंद्व के बाहर है। वहीं जागरण फलता है।
भवसागर की आस, छांड़ सब फंद रे।
फिरि चलु आपन देस, यही भल रंग रे।।
और जब यहां की आशा-निराशा छूट जाएगी, तो जड़ें उखड़ जाएंगी। संसार में हमारी जड़ें, हमारी आशा-निराशाएं हैं। जड़ उखड़ते ही...‘फिरि चलु आपन देस’...फिर अपने देश की यात्रा शुरू हो। उसकी याद जग जाए तुम में, तो विरह का जन्म हुआ। इसलिए धनी धरमदास कहते हैं: ‘विरहिनी जाग रे।’
किस कदर दूर हूं
सख्त मजबूर हूं
जज्बए-इश्क से
शोलाए-तूर हूं
कोई पर्दा नहीं
फिर भी मस्तूर हूं
हंस रही हूं मगर
रंज से चूर हूं
तेरा शिकवा नहीं
खुद ही मजबूर हूं
हम अपने ही हाथ से अपने पैर काट लिए हैं। अपने ही हाथ से अपने पंख तोड़ लिए हैं। हम अपने ही हाथ से मजबूर हो गए हैं। हम अपने ही हाथ से दूर हो गए हैं।
आशा को जाने दो। क्या इतना काफी नहीं है, जितना तुमने देखा? हर बार आशा हारती है, मगर फिर तुम उसे पुनरुज्जीवित कर लेते हो। धन पाना चाहा था, पा लिया--और कुछ नहीं पाया। और दिखता है, कुछ नहीं पाया। मगर तब तुम नई आशा बना लेते हो कि शायद पद पाने से कुछ हो जाए। पद पा लेते हो, और देखते हो कुछ नहीं पाया। मगर फिर सोचते हो, शायद यश पाने से कुछ हो जाए। ऐसे तुम आशाएं बदलते रहते हो; करवटें बदलते रहते हो, मगर आशा मात्र जाती नहीं है; किसी न किसी रूप में जीवित रहती है; किसी न किसी रूप में जलती रहती है। तुम उसमें तेल डालते ही रहते हो।
सुन सखि पिय कै रूप, तो बरनत ना बने।
अजर अमर तो देस, सुगंध सागर भरे।।
फिरि चलु आपन देस,...
धनी धरमदास कहते हैं: चलो! अपने देश वापस चलें। यह हमारा घर नहीं। यह हमारा देश नहीं। हम कहीं और से आते हैं। हम हंस हैं किसी मानसरोवर के और यहां तलैयों में बैठ गए हैं--कीचड़-भरी तलैयों में! हम हंस हैं, जो मोती चुगें। हंसा तो मोती चुगे!
और यहां कंकड़-पत्थरों पर चोंचें मार रहे हैं। हम हंस हैं, जो मानसरोवर के स्वच्छ जल में तैरें। हम यहां कीचड़ों में बैठे हैं। हम बगुलों के साथ बैठे हैं।
सुन सखि पिय कै रूप,...
धनी धरमदास कहते हैं कि मैं अपना देश देख कर आया। मैं अपने देश में पहुंच गया हूं। और प्यारे का रूप तुम से कहना चाहता हूं। तुम किस में उलझे हो? तुम किन रूपों में उलझे हो? तुम्हें पता ही नहीं कि कौन विराट प्रीतम तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है! तुम कंकड़-पत्थर बीन रहे हो? सारा साम्राज्य तुम्हारा है। तुम क्षुद्र आकांक्षाएं कर रहे हो! विराट तुम पर बरसने को आतुर है।
सुन सखि पिय कै रूप,...
तो कहते हैं, मैं तुझसे कहता हूं कि सुन, उस प्यारे का रूप सुन! लेकिन बड़ी तकलीफ है: ‘तो बरनत ना बने।’ देखा तो है, स्वाद तो लिया है, आंखें तो भरी हैं उसके रूप से; लेकिन वर्णन करते नहीं बनता, शब्दों में नहीं आता, शब्दों में नहीं अटता।
वे तसव्वुर में यकायक आ गए
हिज्र की सूरत बदल कर रह गई
ध्यान में एक झलक आ जाती है उनकी कि जहां नरक था वहां स्वर्ग हो जाता है।
वे तसव्वुर में यकायक आ गए
हिज्र की सूरत बदल कर रह गई
नरक एकदम स्वर्ग हो जाता है। कहते नहीं बनता। हमारी भाषा नरक की है। और अचानक स्वर्ग हो जाता है! हम रहे अंधेरी रात में और अचानक सुबह हो गई। कैसे कहें? हम तो अंधेरा ही जानते हैं। अंधेरे की हमारी भाषा है। अंधेरे से हम परिचित हैं। इस रोशनी को कैसे प्रकट करें? भूखे को तृप्ति हो गई, कैसे कहें? प्यासे को जल मिला, कैसे कहें? पहले तो कभी जल मिला न था, पहले तो कभी तृप्ति हुई न थी। अतृप्ति की भाषा तो हमारे पास है।
इसलिए तुमने एक बात देखी? लोगों को अगर झगड़े के लिए उकसाना हो तो भाषा बड़ी कुशल है। अगर लोगों को कहना हो कि चलो घेराव करो, हड़ताल करो, पत्थर फेंको, मस्जिद में आग लगा दो कि मंदिर मिटा दो, कि हिंदू मार डालो कि मुसलमान काट डालो--भाषा बड़ी कुशल है। लोग एकदम तैयार हो जाते हैं। वे कहते हैं: कहां है मस्जिद? कहां है मंदिर? लोग तो उबल रहे हैं घृणा से। उनको कोई भी निमित्त, कोई भी बहाना चाहिए। और जब लोग नारे लगाने वाले लोगों के पीछे चले जाते हैं तो नारे लगाने वाले लोग समझते हैं कि कोई बड़ी क्रांति हो रही है।
कोई क्रांति यहां कभी नहीं होती। यहां तो सिर्फ घृणा की भाषा लोग समझते हैं; इसलिए घृणा की भाषा बोलो, साथ हो जाते हैं। लोगों को ध्यान समझाओ, हजारों को समझाओ, एकाध साथ होता है। लोगों को घृणा भड़काओ, एक को समझाओ, हजार चले आते हैं। लोगों को उकसाना हो, भड़काना हो, तो भाषा बड़ी कारगर है।
तुम देखते हो, राजनेताओं को कितने लोग सुनने जाते हैं! लाखों लोग सुनने जाते हैं! वहां भाषा हिंसा की है, भड़काने की है। राजनेता बड़े प्रसन्न भी हो जाते हैं, जब लोग भड़क जाते हैं। सोचते हैं कि शायद उन्होंने कोई बहुत बड़ा काम कर दिया मनुष्य-जाति के हित में। उनको पता नहीं है कि लोग तो भड़कने को तैयार बैठे हैं। लोग लड़ने को तैयार हैं। लोग मरने-मारने को तैयार हैं। उनको बहाने चाहिए, निमित्त चाहिए! कोई भी निमित्त हो, कहीं भी लड़ा दो, वे लड़ेंगे। और भाषा बड़ी कुशल है।
लेकिन जब शांति की बात करो तो भाषा एकदम नपुंसक है। और जब प्रेम की बात करो तो भाषा एकदम व्यर्थ होने लगती है। और जब परमात्मा की भाषा में लाने की कोशिश करो, परमात्मा आता ही नहीं है।
सुन सखि पिय कै रूप, तो बरनत ना बने।
फिर भी धनी धरमदास कहते हैं: कहूंगा। कुछ तो कहूंगा। कुछ इशारा सही। कुछ भनक पड़ जाए।
अजर अमर तो देस,...
वह देश ऐसा है जहां न कोई बूढ़ा होता है, न कोई मृत्यु कभी घटती है।
अब खयाल रखना, इसमें हमें नकार शब्दों का उपयोग करना पड़ रहा है। सारे परम ज्ञानियों को नकारात्मक भाषा बोलनी पड़ती है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि परमात्मा कैसा है, लेकिन यह कहा जा सकता है कि कैसा नहीं है। सुबह हो गई। सूरज निकल आया। जो सदा रात ही रात रहा था, जो रात का चमगादड़ है, या रात का उल्लू है, वह अगर खबर दे तो क्या खबर दे! वह यही कहेगा: वहां रात नहीं है, वहां अंधेरा नहीं है। यही तो सारी भाषा है। अब तक सारे शास्त्रों ने इसका उपयोग किया है।
‘अजर’--वहां जरा नहीं है। ‘अमर’--वहां मृत्यु नहीं है। नकार।
इसलिए तुम देखोगे, शास्त्रों में सदा नकारात्मक भाषा है। परमात्मा कैसा है, पूछो; और शास्त्र बताते हैं, कैसा नहीं है। तुम कुछ पूछते हो, शास्त्र कुछ कहते हैं। कारण?
कारण यही है। हमारी भाषा संसार के लिए बनी है, सांसारिकों ने बनाई है। इसमें उस अलौकिक को पकड़ लेने का उपाय नहीं है। यह क्षुद्र को पकड़ पाती है, विराट इससे छूट जाता है। और अगर विराट को जबर्दस्ती इसमें समाने की कोशिश करो तो विराट मुर्दा हो जाता है।
...सुगंध सागर भरे।
दूसरा उपाय यह है कि जो छोटे-मोटे सुख के अनुभव यहां हुए हैं उनको हम बहुत बड़ा करके कहें। यहां सुगंध तो सागर भर नहीं होती; बूंद भर सुगंध मिल जाए तो बहुत है। वहां सागर भरे हैं। एक दूसरा उपाय यह है कहने का, कि जो यहां छोटा-मोटा है, वह वहां बहुत है। संभोग में थोड़ा सुख मिलता है, तो वहां अनंतगुना संभोग का सुख! प्रेम में यहां थोड़ा-बहुत सुख मिलता है, वहां अनंत गुना प्रेम का सुख।
...सुगंध सागर भरे।
फूलन सेज संवार, पुरुष बैठे जहां।
फूलों की सेज है। फूल इस जगत में सबसे ज्यादा अपार्थिव वस्तु हैं। इसलिए फूल को हमने प्रार्थना में पूजा के लिए चुना है। इस जगत में फूल सबसे ज्यादा अपार्थिव है, अपौदगलिक, इम्मैटीरियल वस्तु है। फूल को देख कर लगता है न, कितना नाजुक। सपना लगता है जैसे साकार हुआ। छुओ तो कुम्हला जाए। तोड़ो कि मुरझा जाए। सुबह था और सांझ पंखुड़ियां झर जाएंगी और खो जाएगा। फूल ऐसा लगता है कि कुछ ऐसा हो रहा है जो होना नहीं चाहिए। पत्थर बिलकुल ठीक मालूम पड़ते हैं इस दुनिया में। मौजू लगते हैं। उनकी संगति दिखाई पड़ती है। फूल ऐसा लगता है अजनबी है, किसी और देश से आया है। क्षण भर को आ गया है, भटक गया है जैसे राह से, फिर विदा हो जाएगा! पत्थर यहीं के यहीं पड़े रहते हैं--शाश्वत हैं। फूल क्षणभंगुर हैं। फूल की खिलावट, फूल का रंग--सब अलौकिक मालूम होता है। फूल की गंध, फूल का कुंआरापन!
फूलन सेज संवार, पुरुष बैठे जहां।
वहां मालिक... पुरुष यानी परमात्मा, फूलों की सेज पर बैठा हुआ है।
ढुरै अग्र के चंवर, हंस राजै जहां।
हंस पहुंच गया है वापस मानसरोवर में। भूल गया वे सब दुख-स्वप्न ताल-तलैयों के। छोड़ दिया संग-साथ बगुलों का, जाग्रत हो गया है।
कोटिन भानु अंजोर,...
और जैसे करोड़ों सूरज एक साथ जल उठे हों। देखना, वही... इस एक सूरज से कैसे कहें उस प्रकाश को! तो या तो कहते हैं अंधेरा नहीं है वहां और या फिर कहते हैं कि वहां करोडों सूरज एक साथ जल उठे हैं।
कोटिन भानु अंजोर, रोम एक में कहां।
एक रोएं भर जगह नहीं खोज सकते जहां अंधेरा हो। रोशनी ही रोशनी है।
उगे चंद्र अपार,...
और गिनती नहीं हो सकती, इतने चांद उगे हैं।
...भूमि सोभा जहां।
जहां शोभा की ही भूमि है, जहां सौंदर्य की ही भूमि है।
सेत बरन वह देस,...
शुभ्र है वर्ण, सफेद है वह देश।
समझना। शुभ्र रंग वस्तुतः एकमात्र रंग है। शेष सब रंग उसी के अंग हैं, खंड हैं।
इसलिए तुमने कभी देखा, वर्षा के दिनों में सूरज निकल आए और वर्षा होती हो, तो इंद्रधनुष बन जाता है। इंद्रधनुष क्या है? सूरज की किरणें हवा में झूलती हुई पानी की बूंदों में से टूट जाती हैं सात रंगों में। अगर तुम सात रंग का एक पंखा बनाओ, जिसमें सात पंखुड़ियां हों सात रंग की और उस पंखे को बिजली से जोर से चलाओ तो सातों रंग खो जाएंगे और सफेद रंग प्रकट हो जाएगा।
सफेद रंग एकता का प्रतीक है, अद्वैत का प्रतीक है। यह जगत सतरंगा है। यहां सब चीजें खंड-खंड हो गई हैं। वहां सब चीजें फिर पुनः इकट्ठी हो गई हैं।
सेत बरन वह देस,...
वह देश श्वेत है।
...सिंहासन सेत है।
वहां का सिंहासन भी सफेद है।
सेत छत्र सिर धरे,...
और वहां शुभ्रता ही मुकुट भी है।
...अभय पद देत है।
और वहां पहुंचते ही भय विलीन हो जाता है। भय है ही क्या--सिवाय मृत्यु के? मृत्यु ही जहां नहीं वहां भय भी नहीं।
करो अजपा कै जाप, प्रेम उर लाइए।
उस देश में कैसे पहुंचोगे? उस प्यारे को कैसे पाओगे?
करो अजपा कै जाप,...
ऐसा जाप सीखो जिसमें शब्द नहीं होते। ऐसा जाप सीखो, जिसमें वाणी सो जाती है। जहां वाणी सो जाती है, वहां चैतन्य जागता है। जहां शब्द खो जाते हैं, वहां शून्य झंकृत होता है। प्रार्थना तभी परिपूर्ण होती है, जब सब शब्द खो जाते हैं। प्रार्थना जब पूर्ण होती है तो परिपूर्ण होती है। प्रार्थना जब शून्य होती है तो परिपूर्ण होती है। प्रार्थना का शून्य होना ही पूर्ण होना है। तुमने अगर कुछ कहा प्रार्थना में, उतनी ही दखल डाल दी प्रार्थना में। कुछ कहने की जरूरत नहीं है। उससे कहना क्या है? जो है, वह जानता है। शिकायत क्या करनी है? शिकवा क्या है? मांगना क्या है? जितना दिया है, उसको ही तो जी लो। जितना दिया है, उसे ही तो भोग लो। जितना दिया है, उसका ही तो भजन कर लो। जितना दिया है, वही अपार है। वही तुम्हारे पात्र में कहां समा रहा है? वही तो तुम्हारे पात्र से बिखरा जा रहा है।
मांगो मत, कहो मत। चुप झुक जाओ। गहन चुप्पी में झुक जाओ। उस झुकने में ही अजपा-जाप है।
करो अजपा कै जाप, प्रेम उर लाइए।
बस इतनी ही बात रहे: शब्द तो न हों, प्रेम हो हृदय में। प्रेम की झनकार हो।
बेखबर मंजिले-मकसूद नहीं दूर
मगर आलमे होश से हस्ती को गुजर जाने दो
यह जो तुमने समझदारी बना रखी है अपनी, जिसको तुम होश कहते हो, जिसको तुम बुद्धिमानी कहते हो, ये जो तुमने गणित बिठा रखे हैं--यह जो तुमने हिसाब-किताब जिंदगी का कर रखा है--इस सबको जाने दो। प्रेम का मतलब होता है: गया हिसाब-किताब, गए गणित, गए तर्क। प्रेम है अतर्क।
प्रेम देना जानता है, मांगना नहीं जानता। तर्क मांगना जानता है, देना नहीं जानता। तर्क कंजूस है। प्रेम दाता है। जब तुम परमात्मा से कुछ मांगते हो, तब प्रेम की बात नहीं है यह। प्रेम मांगता ही नहीं। प्रेम मांगना जानता ही नहीं।
करो अजपा कै जाप, प्रेम उर लाइए।
मिलो सखी सत पीव, तो मंगल गाइए।।
और तभी मंगल होगा, तभी उत्सव होगा। उसके पहले सब उत्सव झूठे हैं। विवाह हो रहा है, तुम बैंड-बाजे बजा रहे हो। क्या कर रहे हो? उसके पहले सब विवाह झूठे हैं। उसके साथ ही भांवर पड़े तो भांवर पड़ी। क्षुद्र बातों के उत्सव मना रहे हो, उत्सव जैसा यहां क्या है? मन को समझा लेते हो। शोरगुल मचा लेते हो। सोचते हो, बड़ा आनंद आ रहा है। न तो आनंद आ रहा है, न पहले कभी आया है, न आगे इसी ढंग से जीए तो कोई आशा है।
मगर फिर भी आदमी को उत्सव मनाने पड़ते हैं--दीवाली है, होली है। थोड़ा समझा लेता है अपने को। ये उत्सव धोखे हैं। घर पर दीये जला लिए, दीपमालाएं सजा लीं, फटाखे फोड़ लिए। ऐसे अपने को भ्रांति पैदा कर रहे हो उत्सव की? भीतर दिवाला निकला हुआ है, बाहर दीवाली मना रहे हो। किसको धोखा दे रहे हो, इसलिए एकाध दिन मना लेते हो, फिर दूसरे दिन वही मातम, फिर वही मुहर्रमी चेहरा! चले!... यह तुम्हारा उत्सव तुम्हें बदलता कहां है? यह उत्सव ही झूठा है।
मगर आदमी की मजबूरी मैं समझता हूं। जिंदगी बिलकुल बिना उत्सव के हो तो जीना दूभर हो जाए। तो हमने झूठे उत्सव बना लिए हैं। चलो बहाना सही। असली नहीं तो नकली सही।
धरमदास कहते हैं:
करो अजपा कै जाप, प्रेम उर लाइए।
प्रेम हो हृदय में और झुकना हो जाए--शांत, मौन, बिना शब्द के, बिना मांग के समर्पण हो जाए...।
मिलो सखी सत पीव,...
तो उस प्यारे से अभी मिलन हो जाए, इसी क्षण मिलन हो जाए। और वह मिलन हो, तो मंगल गाइए। फिर उत्सव है। फिर जीवन महोत्सव है। फिर यहां आनंद ही आनंद है और रस की धार ही धार है। फिर नाचो और गाओ और गुनगुनाओ। फिर फूल खिलेंगे तुम्हारे व्यक्तित्व में। फिर सुगंध बिखरेगी। फिर दीये जलेंगे। फिर आई दीवाली। फिर खेलो रंग से। फिर आई होली। झूठी होलियों में मत उलझो और झूठी दीवालियों में मत उलझो।
झुठलाओ मत अपने को। तुम्हारी जिंदगी मरुस्थल है। इसमें तुम जितने मरूद्यान बना लिए हो, वे सब कल्पित हैं। मरूद्यान तो एक ही है। परमात्मा से मिलन। उस प्यारे से साथ हो जाए।
मिलो सखी सत पीव, तो मंगल गाइए।
जुगन जुगन अहिवात, अखंड सो राज है।
उससे हो जाए जोड़ तो सुहाग सदा के लिए हो जाता है। यहां तो तुम्हारा सुहाग क्या है? तुम्हारी सधवा और विधवा में क्या कोई बहुत फर्क है? जरा भी फर्क नहीं है। विधवा पति के साथ विधवा है और सधवा पति के बिना विधवा है, बस इतना ही फर्क है। यहां की दोस्ती दो कौड़ी की है। यहां के सब नाते-रिश्ते झूठे हैं।
जुगन जुगन अहिवात,...
अहिवात यानी सुहाग। सदा रहे सुहाग, ऐसा कुछ खोज लो।
...अखंड सो राज है।
फिर जो कभी खंडित न होता हो, ऐसा साम्राज्य खोज लो।
पिय मिले प्रेमानंद, तो हंस समाज है।
और उस प्यारे से मिलना हो जाए तो सब मिल गया, क्योंकि प्रेमानंद मिल गया। और उससे मिलन के बाद ही तुम हंसों के समाज के हिस्से हुए, नहीं तो तुम बगुलों के साथ बैठे हो। और हंसों ने बगुलों के साथ रह-रह कर समझ लिया है कि वे भी बगुले हैं। जिनके साथ रहोगे वैसे ही हो जाओगे।
तुमने सुनी है कहानी? एक सिंहनी छलांग लगाती थी एक पहाड़ी से। गर्भवती थी, बीच में ही बच्चा हो गया। वह बच्चा नीचे गिर गया। नीचे से भेड़ों का एक झुंड निकल रहा था, वह बच्चा भेड़ों के साथ हो लिया। उसने बचपन से ही अपने को भेड़ों के बीच पाया, उसने अपने को भेड़ ही जाना। और तो जानने का उपाय ही क्या था?
इसी तरह तो तुमने अपने को हिंदू जाना है, मुसलमान जाना है, जैन जाना है। और तुम्हारे जानने का उपाय क्या है? जिन भेड़ों के बीच पड़ गए, वही तुमने अपने को जान लिया है। इसी तरह तुम गीता पकड़े हो, कुरान पकड़े हो, बाइबिल पकड़े हो। जिन भेड़ों के बीच पड़ गए, वे जो किताब पकड़े थीं, वही तुमने भी पकड़ ली हैं। तुम्हारे व्यक्तित्व का अभी जन्म कहां हुआ?
वह सिंह का बच्चा भेड़ होकर रह गया। भेड़ों जैसा मिमियाता। भेड़ों के साथ घसर-पसर चलता। भेड़ों के साथ भागता। और भेड़ों ने भी उसे अपने बीच स्वीकार कर लिया। उन्हीं के बीच बड़ा हुआ। उन्हें कभी उससे भय भी नहीं लगा। कोई कारण भी नहीं था भय का। वह सिंह शाकाहारी रहा। जिनके साथ था, भेड़ें भागतीं तो वह भी भागता।
एक दिन ऐसा हुआ कि एक सिंह ने भेड़ों के इस झुंड पर हमला किया। वह सिंह तो चौंक गया। वह यह देख कर चकित हो गया कि यह हो क्या रहा है। उसे अपनी आंखों पर भरोसा न आया। सिंह भाग रहा है भेड़ों के बीच में! और भेड़ों को उससे भय भी नहीं है; घसर-पसर उसके साथ भागी जा रही हैं। और सिंह क्यों भाग रहा है? उस बूढ़े सिंह को तो कुछ समझ में नहीं आया। उसका तो जिंदगी भर का सारा ज्ञान गड़बड़ा गया। उसने कहा: यह हुआ क्या? ऐसा तो न देखा न सुना। न कानों सुना, न आंखों देखा। उसने पीछा किया। और भेड़ें तो और भागीं। और भेड़ों के बीच जो सिंह छिपा था, वह भी भागा। और बड़ा मिमियाना मचा और बड़ी घबड़ाहट फैली। मगर उस बूढ़े सिंह ने आखिर उस जवान सिंह को पकड़ ही लिया। वह तो मिमियाने लगा, रोने लगा। कहने लगा: छोड़ दो, मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो। मेरे सब संगी-साथी जा रहे हैं, मुझे जाने दो।
मगर वह बूढ़ा सिंह उसे घसीट कर उसे नदी के किनारे ले गया। उसने कहा, मूर्ख! तू पहले देख पानी में अपना चेहरा। मेरा चेहरा देख और पानी में अपना चेहरा देख, हम दोनों के चेहरे पानी में देख।
जैसे ही घबड़ाते हुए, रोते हुए... आंखें आंसुओं से भरी हुईं, और मिमिया रहा है, लेकिन अब मजबूरी थी, अब यह सिंह दबा रहा है तो देखना पड़ा... नीचे देखा, बस देखते ही एक हुंकार निकल गई। एक क्षण में सब बदल गया।
वे तसव्वुर में यकायक आ गए
हिज्र की सूरत बदल कर रह गई
एक क्षण में क्रांति हो गई। भेड़ गई। सिंह जो था, वही हो गया।
ऐसे ही तुम हो। तुम्हें भूल ही गया है तुम कौन हो। तुमने दोस्ती बगुलों से बना ली है। तुमने दोस्ती झूठ से कर ली है। तुमने झूठ के खूब घर बना लिए हैं। और झूठ के घर जब तक तुम्हें घर मालूम होते हैं, असली घर की तलाश नहीं हो सकती।
पिय मिले प्रेमानंद, तो हंस समाज है।
तब फिर एक-दूसरे ही जगत में तुम्हारा प्रवेश होगा--हंसों का समाज, सिद्धों का समाज। उसका नाम ही मोक्ष है। लेकिन सारी बात का सार-सूत्र है--मौन प्रेम।
कुछ भी नहीं इस जिंदगी में खिदमत के सिवा
सोजे दिलो-दर्द आदमीयत के सिवा
औ’ रंगो, निशानो, चतरो, मुहरो, दिहीन
सब हेच हैं, सब हेच हैं, मोहब्बत के सिवा
राज्य-सिंहासन, राज्य-पताकाएं, छत्र, स्वर्ण-छत्र, राज-मोहरें, मुकुट--सब तुच्छ हैं, एक प्रेम के सिवाय। इस जगत में अगर कोई चीज समझने जैसी है तो प्रेम है। अगर इस जगत में कोई चीज जीने जैसी है तो प्रेम है।
कुछ भी नहीं जिंदगी में खिदमत के सिवा
सोजे दिलो-दर्द आदमीयत के सिवा
औ’ रंगो, निशानो, चतरो, मुहरो, दिहीन
सब हेच हैं, सब हेच हैं, मोहब्बत के सिवा
प्रेमानंद! प्रेम हो और शून्य हो--अजपा-जाप। बस जहां प्रेम और तुम्हारे शांत मन का मिलन होता है, वहां अजपा-जाप पैदा होता है। तुम्हें करना नहीं होता, अपने से ओंकार का नाद उठता है। अपने से ओंकार की ध्वनि तुम्हारे भीतर उठती है। तुम्हारी पैदा की हुई नहीं होती। तुम्हारे मूल अस्तित्व से आती है। तुम सिर्फ साक्षी होते हो। उसी दिन तुम हंसों के समाज के हिस्सेदार हो गए। उसी दिन से तुम कीड़े-कचरे के न रहे, कूड़े के न रहे। उसी दिन से तुम्हें पंख लग गए।
कहै कबीर पुकार, सुनो धरमदास हो।
हंस चले सतलोक, पुरुष के पास हो।।
धरमदास कहते हैं कि मेरे गुरु ने ऐसी ही किसी घड़ी में, जब मैं मौन था और प्रेम से भरा था, मुझे पुकार कर कहा था:
कहै कबीर पुकार, सुनो धरमदास हो।
हंस चले सतलोक, पुरुष के पास हो।।
यही घड़ी है, धरमदास चूक मत जाना। चलो अब।
हंस चले सतलोक,...
लेकिन अपूर्व प्रेम चाहिए, तो ही गुरु पुकार सकता है कि बस आ गई घड़ी, आंख खोल!
उठाना मेरा साजे-हस्ती उठाना
बहुत देर से मुन्तजिर है जमाना
कभी मुस्कुराहट कभी चश्मे-पुरनम
बस इतना-सा है जिंदगी का फसाना
तेरे इक न होने से हैं बे-हकीकत
यह रंगी फजाएं, यह मौसम सुहाना
शबे-गम सितारे भी बुझने लगे हैं
मेरे दिल के दागो! कोई लौ बढ़ाना
कोई छेड़ दे नग्महाए-मोहब्बत
बहुत गौर से सुन रहा है जमाना
तेरी याद ही वजहे-तस्कीने-दिल है
बड़ा ही करम है, तेरा याद आना
प्रभु याद आ जाए तो भक्त कहता है: प्रभु की ही कृपा है। बड़ा ही करम है तेरा याद आना! तू याद भी आता है तो तेरी ही कृपा है, तो याद आ गया है, अन्यथा हमारे किए तो यह भी नहीं हो सकता था।
तुम यहां आ गए हो मेरे पास, उसे धन्यवाद देना! उसके लाए ही आ गए हो। तुम्हारी चलती तो तुम आते ही नहीं। आदमी की चले तो आदमी सत्संग में कभी जाए ही नहीं। जो चला लेते हैं अपनी, वे कभी जाते ही नहीं। धन्यभागी हैं वे जिनके भीतर एक प्रबल आकांक्षा उठती है बाढ़ की तरह और उन्हें ले जाती है सत्संग की तरफ। थोड़े से लोग ही तो इस जगत में जाग पाते हैं, जब कि सबका हक था जागना। मगर हक को ही लोग कहां स्वीकार करते हैं!
धनुषबाण लिए ठाढ़, योगिनी एक माया हो।
इस जगत के हजार-हजार माया, प्रलोभन धनुषबाण लिए खड़े हैं तुम्हारी प्रतीक्षा में। तुम्हें शिकार बनाने के लिए यहां बहुत शिकारी हैं। तुम्हें आखेट बनाने के लिए यहां बहुत शिकारी हैं। सावधान रहना!
छिनहिं में करत विगार,...
एक क्षण में बिगाड़ हो जाता है।
...तनिक नहिं दाया हो।
और इनमें, यह जो माया-मोह, मद-मत्सर, काम-क्रोध-लोभ का यह जो विस्तार है, इनको किसी को तुम पर दया नहीं है।
छिनहिं में करत विगार,...
एक क्षण में सब अस्तव्यस्त हो जाता है। जो सतत सजग है, वही इनसे बच पाएगा।
झिरि-झिरि बहै बयार, प्रेम-रस डोलै हो।
जो बच गया, जिसने अपने को इन बाणों से बचा लिया--और बचाने का एक ही उपाय है, कुछ और करना नहीं है--एक ही ढाल है: सावधानी, सजगता।
का सोवै दिन रैन, विरहिनी जाग रे।
अगर कोई जागा रहे तो ये चोर नहीं आते।
बुद्ध ने कहा है: अगर घर में कोई जागा हो तो चोर दूर रहते हैं। घर में दीया जलता हो तो चोर दूर रहते हैं। पहरेदार सजग हो तो चोर दूर रहते हैं। ऐसी ही जीवन की दशा है। तुम्हारे भीतर चेतना थोड़ी जागती रहे, पहरे पर हो, तो न तो काम आता है, न क्रोध आता है।
मुझसे लोग पूछते हैं: काम को कैसे जीतें? मैं कहता हूं: तुमने बात ही बिगाड़ ली। जीतने का सवाल ही नहीं है। जीतने का मतलब है: काम घुस आया, अब तुम लड़ने की कोशिश कर रहे हो। कैसे घुस आया है, इस प्रक्रिया को समझ लो। तुम मूर्च्छित थे तो घुस आया। तुम जाग जाओ। तुम्हारे जागते ही तिरोहित हो जाएगा। घर में लोग जाग जाते हैं, चोर भाग जाते हैं।
और जो जागा है...‘झिरि झिरि बहै बयार’...उसके जीवन में बड़ी शीतल हवाएं, स्वर्ग की, बहने लगती हैं।
झिरि-झिरि बहै बयार, प्रेम-रस डोलै हो।
मस्ती आने लगती है प्रेम की। प्रेम की मधुशाला खुल जाती है। सोए-सोए तो पता भी नहीं चलता। स्वर्ग की हवाएं आती हैं, तुम्हें छू कर भी निकल जाती हैं; मगर पता नहीं चलता। परमात्मा आता है, तुम्हारा आलिंगन भी कर लेता है, तो भी पता नहीं चलता।
कुछ खबर हो सकी न तेरे बगैर
कब बहार आई, कब खिजां आई
पता ही नहीं चलता। सब होता रहता है, आदमी सोया रहता है। पतझड़ भी आ जाता है, बसंत भी आ जाता है, कोयलें कूक लेती हैं, पपीहे पुकार लेते हैं, सब होता रहता है। बुद्धपुरुष जगते हैं, चलते हैं, विदा हो जाते हैं--सोए लोग सोए ही रहते हैं। तुम कब से सोए हो। कितने बुद्धपुरुष तुम्हारे पास से गुजर गए! कितने कृष्ण, कितने क्राइस्ट, कितने मोहम्मद पुकारते रहे और गुजर गए! कितने धनी धरमदास! तुम सोए ही रहे।
कुछ खबर हो सकी न तेरे बगैर
कब बहार आई, कब खिजां आई
और प्रतिक्षण घटना घट रही है। स्वर्ग प्रतिक्षण पृथ्वी पर उतरता है। परमात्मा प्रतिपल अपना जाल फेंकता है।
झिरि-झिरि बहै बयार, प्रेम-रस डोलै हो।
चढ़ि नौरंगिया की डार, कोइलिया बोलै हो।।
जिसको थोड़ा सा स्वर्ग की हवा का स्वाद लग गया, उसे यहां हर तरफ से परमात्मा का इशारा मिलने लगेगा। कोयल बोलेगी तो उसके स्वर में परमात्मा के स्वर की झलक मिलने लगेगी। फूल खिलेगा तो उसके रंग में परमात्मा खिला मालूम होगा। धूप निकलेगी, चटकेगी, तो परमात्मा निखरेगा और चटकेगा। चांद उगेगा तो परमात्मा उगेगा। किसी की शांत आंखों में, किसी के प्रेम-भरे हुए आंसुओं में, बस उसी की झलकें दिखाई पड़नी शुरू हो जाएंगी।
झिरि-झिरि बहै बयार, प्रेम-रस डोलै हो।
चढ़ि नौरंगिया की डार, कोयलिया बोलै हो।।
पिया पिया करत पुकार, पिया नहिं आया हो।
पिय बिन सून मंदिलवा, बोलन लागे कागा हो।।
इस जगत में तो तुमने पिया-पिया बहुत पुकारा, मगर पिया आया नहीं। तुम्हारी दिशा पुकार की गलत थी। मंदिर सूना ही पड़ा रहा। कौवे बस गए और कौवे बोलने लगे। तुम्हारी जिंदगी में कोयल बोली कहां, कौवे बोले हैं। तुम्हारी जिंदगी मंदिर है कहां? खंडहर हो गई, कब की खंडहर हो गई!
बदलो रुख! थोड़ा जागो! अंधेरे में थोड़ी सुबह की तलाश करो। कांटों में थोड़े फूलों को खोजो। बदलियों में थोड़े चांद-नक्षत्रों की खोज करो। ठीक दिशा में बहो। तुम ठीक दिशा में बहो तो अभी, इसी क्षण--
झिरि-झिरि बहै बयार, प्रेम रस डोलै हो।
चढ़ि नौरंगिया की डार, कोयलिया बोलै हो।।
सब अभी हो रहा है। ऐसा नहीं है कि परमात्मा पहले कभी आया था पृथ्वी पर, अब नहीं आता। परमात्मा सदा आता रहा है--आता ही रहा है। जिन्होंने ने भी जाग कर देख लिया, उन्होंने पहचान लिया। जो सोए रहे, वे सोए रहे।
कागा हो तुम कारे, कियो बटवारा हो।
कौओं ने बेठिकाना कर दिया है।
पिया मिलन की आस, बहुरि न छूटहि हो।
यह सारा जगत एक खंडहर जैसा है, जहां कोयलें तो हट गई हैं और कौवे बैठ गए हैं; जहां ठीक अस्वीकृत हो गया है और गलत स्वीकृत हो गया है; जहां धर्म तिरोहित हो गया है और जहां अधर्म जीवन की शैली बन गया है।
जागो तो खंडहर फिर मंदिर हो जाता है। शायद खंडहर कभी हुआ ही नहीं था, खंडहर मालूम होने लगा था। हमारी आंखों में ही कुछ भूल-चूक हो गई थी। शायद कौए कभी बसे ही नहीं थे; हमारे कान ही खराब हो गए थे, विकृत हो गए थे। और कोयल की आवाज हमें कौओं की आवाज मालूम होने लगी थी। जागते ही क्रांति घटती है।
ये किसके अश्क थे जो बन गए तबस्सुमे-गुल
ये किसके दिल की तमन्ना, बहार हो के रही
और तब भरोसा भी नहीं आता कि यह कैसे हुआ! आंसू फूल बन जाते हैं। दिल के भीतर की अभीप्सा बसंत हो जाती है।
कहै कबीर धरमदास, गुरु संग चेला हो।
यह क्रांति घटती है, जब गुरु और चेले का साथ हो जाता है; जब गुरु और शिष्य का साथ हो जाता है; जब गुरु और शिष्य का मिलन हो जाता है। और मिलन बाहर-बाहर का नहीं, बाहर का हो तो मिलन नहीं।
हिलमिल करो सतसंग,...
‘हिल-मिल’ शब्द बड़ा प्यारा है। इसका मतलब है: गुरु कुछ तुममें प्रवेश कर जाए, तुम कुछ गुरु में प्रवेश कर जाओ।
हिलमिल करो सतसंग,...
ऐसा गुरु दूर रहे, तुम दूर रहो, ऐसा बीच में फासला रहे, तो सत्संग नहीं होता। सत्संग में तो सीमा टूट जाती है। सत्संग वहीं है, जहां सीमा नहीं है; जहां शिष्य भूल ही जाता है कि मैं शिष्य हूं। गुरु तो जानता ही नहीं कि गुरु है, इसीलिए गुरु है। जब शिष्य भी नहीं जानता कि मैं शिष्य हूं। दोनों हिल-मिल जाते हैं। जहां दोनों के बीच की सब दीवालें गिर जाती हैं। दोनों का रस एक-दूसरे में उतर जाता है।
यह जीवन की अपूर्व घटना है। इससे महान और कोई आलिंगन नहीं। और इससे गहरा कोई संभोग नहीं है!
कहै कबीर धरमदास, गुरु संग चेला हो।
हिलमिल करो सतसंग, उतरि चलो पारा हो।।
हिल-मिल सत्संग हो जाए, तो बस पार उतरना हो जाए। इस भवसागर से पार उतरना हो जाए।
साजे-उम्मीद बजा
नग्मए-शौक सुना
तीर इक और लगा
दर्दे-दिल और बढ़ा
देख ले आज फजा
सागरे-शौक उठा
कलियां उम्मीद की चुन
दामने दिल को सजा
मेरा गम कुछ भी न कर
अपना अफसाना सुना
आज गमगीन है दिल
मेरे जख्मों को हंसा
कुछ बता भी तो मुझे
क्यों हुआ मुझसे खफा?
तीर एक और लगा! दर्दे-दिल और बढ़ा! शिष्य यही मांगता है: तीर इक और लगा! दर्दे-दिल और बढ़ा! करो चोट! शिष्य कहता है: मारो मुझे! मिटाओ मुझे! अपना बनाओ मुझे! उतरो मेरे भीतर, मैं बाधा न दूंगा। और मैं बाधा भी दूं, तो सुनना मत। तुम मेरी सुनना ही मत। तुम मुझसे खफा मत हो जाना। मेरी गलत आदतें हैं, गलत संस्कार हैं। कई बार मैं नाराज हो जाऊंगा, प्रतिरोध करूंगा, विरोध करूंगा--चिंता मत करना। तुम चोट किए ही जाना। तुम मुझे पुकारे ही जाना। मैं करवट लेकर सो जाऊं तो पुकार बंद मत कर देना। मेरी भूलों का हिसाब मत करना। मेरे बावजूद मुझे जगाना।
कहै कबीर धरमदास, गुरु संग चेला हो।
हिलमिल करो सतसंग, उतरि चलो पारा हो।।
सत्संग पारस-पत्थर है, जिसके छूते लोहा सोना हो जाता है। गुरु तो उपलब्ध है, राजी है। लूट लो जितना उसे लूटना हो! मगर लोग इतने कंजूस हो गए हैं कि देने में ही कंजूस नहीं हो गए हैं, लेने तक में कंजूस हो गए हैं।
ऐसा हो जाता है, जिसने देना छोड़ दिया वह लेने में भी कृपण हो जाता है। वह लेने में भी डरने लगता है कि कहीं लेने में कुछ देना न पड़े! कहीं लेकर कुछ देना न पड़े! ले लूं आज तो कहीं फिर देना न पड़े!
गुरु को कुछ भी चाहिए नहीं। तुम ले लो--और गुरु आभारी है। सत्संग घट जाए तो तुम पार हो जाओ। सत्संग घटे तो बहार आए।
चमन में जश्ने-उरूसे-बहार है, आ जा
उरूसे-नग्मा सरे-आबशार है, आ जा
हर-एक जुम्बिशे गुल में हजार नग्मे हैं
हर-इक नसीम का झोंका बहार है, आ जा
सरूरबख्श घटाओं के मस्त साए में
जमाले-लाल-ओ-गुल ताबदार है, आ जा
रविश-रविश पै छिड़ी है हदीसे-लाल-ओ-गुल
कली-कली को तेरा इंतजार है, आ जा
तुझे खबर भी है इस मौसमें-बहार में भी
‘शमीम’ नाविके-गम का शिकार है आ जा।
शिष्य पुकारता है। शिष्य रोता है। शिष्य झुकता है। गुरु भी पुकारता है। गुरु भी बहता है। गुरु भी झुकता है।
जीसस की विदाई के क्षण, उन्होंने अपने शिष्यों के चरण छुए। एक शिष्य ने पूछा: यह आप क्या करते हैं? हम आपके चरण छुएं, ठीक; आप हमारे चरण छुएं, यह आप क्या करते हैं?
जीसस ने कहा: ताकि तुम्हें याद रहे कि जब शिष्य और गुरु दोनों एक-दूसरे में झुक जाते हैं, तब मिलन है। तब सत्संग है। सत्संग में नाव है। यह नाव उस पार ले जा सकती है।
का सोवै दिन रैन, विरहिनी जाग रे।

आज इतना ही।

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