QUESTION & ANSWER

Jyun Tha Tyun Thaharaya 03

Third Discourse from the series of 10 discourses - Jyun Tha Tyun Thaharaya by Osho. These discourses were given during SEP 11-20 1980.
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पहला प्रश्न:
भगवान, संत सफियान, अब्दुल वहीद आमरी और हसन बसरी राबिया को मिलने गए। उन्होंने कहा: ‘आप साहिबे-इल्म हैं। कृपा कर हमें कोई सीख दें।’ राबिया ने सफियान को एक मोमबत्ती, अब्दुल वहीद आमरी को एक सुई और हसन को अपने सिर का एक बाल दिया और वे बोलीं: ‘लो, समझो!’ भगवान, इस पर सूफी लोग अपना मंतव्य प्रकट करते हैं। प्रभु जी, आप इस पर कुछ कहें कि राबिया ने वे चीजें देकर उन तीनों को क्या सीख दी?
दिनेश भारती! राबिया बहुत इने-गिने रहस्यवादियों में एक है; गौरीशंकर के शिखर की भांति। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट, लाओत्सु, जरथुस्त्र--उस कोटि में थोड़ी सी ही स्त्रियों को रखा जा सकता है। राबिया उनमें अग्रगण्य है।
और राबिया की सबसे बड़ी खूबी की बात यह है कि उसने अंधेरे की घाटियों में भटकते हुए लोगों से किसी तल पर कोई समझौता नहीं किया। वह अपने शिखर से ही बोली; शिखर की भाषा में ही बोली। इसलिए उसका जीवन बड़ा बेबूझ है। बुद्धि और तर्क से पकड़ में आने वाला नहीं है।
ऐसी ही यह घटना है। कुछ बातें खयाल में ले लो।
दो तरह के बुद्धपुरुष हुए हैं, बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति--फिर स्त्री हों या पुरुष। एक तो वे, जिन्होंने करुणावश आम आदमी की भाषा में कुछ कहा है। लेकिन तब अनिवार्यता उन्हें सत्य के शिखर से नीचे उतर कर आना पड़ा है। और जितना आम आदमी के करीब आओगे, उतना ही सत्य को न कह सकोगे।
आम आदमी की भाषा में सत्य को बिठाना अर्थात सत्य को काटना, सत्य के ऊपर झूठ की परतें चढ़ानी होंगी। जैसे कड़वी दवा की गोली पर हम शक्कर की पर्त चढ़ा देते हैं। कड़वी दवा शायद, कड़वी गोली शायद गटकी न जा सके। जरा सी शक्कर की पर्त! कंठ के नीचे उतर जाए, फिर तो कुछ स्वाद आता नहीं।
सत्य भी बहुत कड़वा है। बुद्ध ने कहा है: ‘झूठ पहले मीठा, फिर कड़वा; सत्य पहले कड़वा, फिर मीठा।’ सत्य कड़वा इसलिए है कि हम झूठ के आदी हो गए हैं। झूठ की मिठास हमें भा गई। झूठ की माया हमें भा गई।
झूठ बड़ा सम्मोहक है, बड़ा सांत्वनादायी। सत्य झकझोर देता है, जैसे तूफान आए, अंधड़ आए। सत्य बहुत बेरहम है।
तो एक तो वे बुद्धपुरुष हुए, जिन्होंने शक्कर की पर्त चढ़ाई--करुणावश। इस ढंग से बात कही कि तुम्हारे कंठ में उतर जाए। मगर उनके कहने के ढंग के कारण ही तुमने शक्कर-शक्कर तो चुन ली और वह जो कड़वा सत्य था, वह फेंक दिया।
तुम भी बड़े होशियार हो! जब तक शक्कर रही, तब तक तुम गोली को मुंह में रखे रहे; कंठ के नीचे नहीं उतरने दिया। और जैसे ही कड़वाहट आई--थूक दिया। चढ़ाई थी शक्कर की पर्त समझदारों ने कि कंठ के नीचे उतर जाए। मगर तुम्हारी नासमझी कुछ उनसे कम नहीं। उनकी समझदारी होगी बड़ी; तुम्हारी नासमझी बड़ी है! उनका ज्ञान होगा अनंत, तुम्हारा अज्ञान अनंत है! तुम कुछ पीछे नहीं! तुम भी बड़े चालबाज हो।
तो तुम शक्कर शक्कर तो पी गए! ‘मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू।’ यह तुम्हारा तर्क है। सो उनकी मेहनत व्यर्थ गई। उनकी मेहनत को व्यर्थ जाता देख कुछ बुद्धों ने सत्य को वैसा ही कहा; बिना कोई पर्त चढ़ाए--कि पीना हो तो पी लो। यह रहा। कड़वा है। फिर मत कहना। थूकने का सवाल नहीं उठता। कड़वा है--यह जान कर ही पी लो।
मैं भी ऐसी ही भाषा बोल रहा हूं, जो कड़वी है, कि पीछे तुम यह न कहो कि मिठास का धोखा दे दिया; कि पीछे कोई यह न कह सके कि हमें बातों में भरमा लिया। मैं सत्य को वैसा ही खालिस, बिना किसी मिठास के... कड़वा है, तो कड़वा; तुम्हें जगा कर कह देना चाहता हूं कि कड़वा है, पीना हो तो कड़वेपन से राजी हो जाओ। आग है। जलाएगी, भस्म कर देगी। तुम्हें सचेत करके, सावधान करके दे रहा हूं। इसलिए जिन्हें लेना है, वही मेरे पास आएंगे। यहां भीड़-भाड़ इकट्ठी नहीं हो सकती। यहां कोई प्रसाद नहीं बंट रहा है! यहां क्रांति बंट रही है।
राबिया उन्हीं थोड़े से लोगों में से है, जिसने शक्कर की पर्त नहीं चढ़ाई।
एक दृष्टि से तो दिखाई पड़ेगा कि वे करुणावान हैं, जिन्होंने पर्त चढ़ाई। और वे करुणावान थे, इसलिए पर्त चढ़ाई। मगर तुमसे हार गए। मैं तो मानता हूं कि वे ही ज्यादा करुणावान सिद्ध हुए, जिन्होंने पर्त नहीं चढ़ाई। वे सत्य के प्रति भी झूठे न हुए; उन्होंने सत्य में कोई समझौता न किया। हालांकि उनके पास बहुत लोग नहीं आए; नहीं आ सकते।
यह बहुत लोगों के बस की बात नहीं। यह बहुत लोगों का साहस नहीं। छाती चाहिए। थोड़े लोग आए, लेकिन जो आए सो आए। जो डूबे सो डूबे। और जब जान कर ही आए कि कड़वा है सत्य, आग है, अंगारे निगलने हैं--जान कर निगले। थूकने का सवाल न उठा। ये थोड़े से लोग ही क्रांति को उपलब्ध हुए। ये थोड़े से ही लोग अहंकार को जला कर राख कर पाए।
मैं राबिया से राजी हूं।
यह कहानी मधुर है; लेकिन मधुर तुम्हारे लिए, क्योंकि तुम्हारे लिए सिर्फ कहानी है। जिनको राबिया ने एक मोमबत्ती, एक सुई और सिर का बाल थमा दिया था, उनके लिए बड़ी कड़वी रही होगी। समझो। तो लो, तुम भी समझो! जैसा राबिया ने कहा कि ‘लो, समझो!’ ऐसा ही मैं भी कहता हूं कि लो, समझो!
संत सफियान संत तो नहीं हो सकता। वही राबिया ने कह दिया। एक मोमबत्ती देकर कह दिया कि पंडित हो, अभी संत वगैरह की भ्रांति में न पड़ो। अभी भीतर का दीया जला ही नहीं और संत हो गए! संत हो गए, तो यह बात ही फिजूल है कि पूछो मुझसे कि ‘आप साहिबे-इल्म हैं। कृपा कर हमें कोई सीख दें!’ संत को क्या बचा? संत वह जो सत्य को उपलब्ध हो गया, पी गया, पचा गया। सत्य जिसकी मांस-मज्जा बन गया।
संत सफियान ऐसे ही संत होंगे, जैसे तुम्हारे तथाकथित संत होते हैं। किन-किन को तुम संत कहते हो? किन आधारों पर संत कहते हो? तुम्हारी मान्यताएं जो पूरी कर देते हैं, वे संत। जैनों की जो मान्यताएं पूरी कर देते हैं, वे जैनों के संत। और मान्यताएं भी क्या-क्या मजे की हैं। कोई मुंह-पट्टी बांधे हुए है, तो वह संत हो गया! क्योंकि देखो, मुंह-पट्टी बांधे हुए हैं! कोई एक बार भोजन करता है, तो संत हो गया। क्योंकि देखो, एक बार भोजन करता है! कोई नग्न खड़ा है, तो संत हो गया!
मैंने सुना है, पता नहीं कहां तक सच है, कि टार्जन अफ्रीका के जंगलों में बहुत दिनों तक लंगूरों को पछाड़ता रहा; बंदरों को ठिकाने लगाता रहा। फिर किसी ने उसे खबर दी कि यहीं जिंदगी गंवा दोगे! अरे, भारत के जंगलों में इससे भी पहुंचे हुए लंगूर हैं। ये बंदर क्या--वहां हनुमान के शिष्य हैं; हनुमान की संतान हैं! वहां बंदर हैं, जिन्होंने रावण जैसे महाबली को हरा दिया। अगर टक्कर लेनी है, तो वहां जाओ। यहां क्या छोटे-मोटे बंदरों से उलझे हो! न इनकी कोई कथा, न कोई परंपरा; न कोई सभ्यता, न कोई संस्कृति।
ऐसे-ऐसे बंदर हो गए हैं कि आदमी उनकी पूजा कर रहे हैं! हनुमान के जितने मंदिर हैं, किसके होंगे? और हनुमान के जितने भक्त हैं--किसके होंगे? जहां देखो, वहां हनुमान-चालीसा पढ़ा जा रहा है! ऐसे-ऐसे बंदर हो गए हैं कि जिन्होंने लंका में आग लगा दी। रावण को पराजित कर दिया। राम जिनके सहारे जीते; जिनके कंधे पर रख कर राम ने अपनी बंदूक चला ली।
यहां क्या कर रहे हो?
टार्जन को जोश चढ़ा। उसने कहा: फिर भारत जाऊंगा! चोट खा गया उसका अहंकार। एक जहाज पर सवार हुआ। टिकट वगैरह लेना तो उसे कोई जरूरत थी नहीं। कैप्टेन भी घबड़ाया। पूरे जहाज के यात्री भी घबड़ाए। क्योंकि वह दहाड़ दे, तो प्राण निकल जाएं! और जब कैप्टेन उसके पास टिकट की पूछने के लिए गया, तो उसने सिर्फ छाती खोल कर उसे दिखा दी! उसने कहा कि ‘बिलकुल ठीक है। विराजिए, भोजन इत्यादि करिए। और जो भी सेवा हो--आज्ञा दीजिए।’ ऐसा खतरनाक आदमी!
उतरा, बंबई के बंदरगाह पर। और जब उसने सुना कि नाम बंदरगाह है, घबड़ाया कि है बंदरों का देश! किससे पूछूं? कि तभी उसे दिखाई पड़ा कि चौपाटी पर मुनि थोथूमल चले जा रहे हैं--मुंह पर पट्टी बांधे हुए, हाथ में पिच्छी लिए हुए! उसने सोचा कि यह अजीब किस्म का बंदर है! सुना था--ठीक ही सुना था--कि लंगूर एक से एक अदभुत भारत में हैं। अरे, पूंछ पीछे नहीं लगाई है, बगल में दबाए हुए हैं! अलग ही है पूंछ।
बंदर बहुत देखे थे, मगर यूं पूंछ (पिच्छी) बगल में दबाए हुए बंदर उसने नहीं देखा था। और मुंह पर पता नहीं क्यों पट्टी बांधे हुए है! डरते-डरते उसने सोचा कि अपनी पुरानी तरकीब आजमाई जाए, जो वह अफ्रीका के जंगलों में आजमाता रहा था। कमीज खोल कर उसने अपनी छाती दिखाई; भुजाएं फड़काईं; और कहा कि ‘मैं टार्जन हूं।’ मुनि थोथूमल ने भी अपनी मुंह-पट्टी निकाली और कहा कि ‘मैं मुनि थोथूमल हूं!’ उसने बंदर बहुत देखे थे, लेकिन बोलने वाला बंदर नहीं देखा था। कहते हैं, टार्जन उसी समय समुद्र में कूद पड़ा। वह पहला आदमी है, जिसने तैर कर भारत से अफ्रीका का सागर पार किया, चौबीस घंटे में! फिर उसने पीछे लौट कर भी नहीं देखा कि यहां टिकना ठीक नहीं, जहां बंदर बोलते हैं! और अभी तो यह पहला ही बंदर है। अभी जंगल में पहुंचे ही नहीं। बस्तियों में घूमते बंदर जहां बोल रहे हैं, वहां जंगलों में क्या हालत होगी?
कहते हैं, टार्जन अकेला आदमी है पूरे इतिहास में, जिसने चौबीस घंटे के भीतर...। घबड़ाहट देखते हो उसकी! भारत से अफ्रीका तक का समुद्र पार कर लिया। अरे, प्राण संकट में हों, तो आदमी क्या न कर ले!
संत तुम किस-किस को कहते हो? कैसे-कैसे थोथे लोग, कैसे-कैसे झूठे लोग, कैसे-कैसे नकली लोग!
अक्सर तो शास्त्रों को दोहराने वाले जो तोते हैं, उनको तुम संत कह देते हो! ये सब चोर हैं। ये बेईमान हैं। जो इनका नहीं है, ये उसे अपना बता कर कहते रहते हैं!
कल किसी मित्र ने पूछा था कि वह गुरु महाराज जी के बड़े भाई सतपाल जी महाराज को सुनने गया था। वह चकित हुआ कि वे मेरी किताबों में से पन्नों के पन्ने दोहरा रहे हैं! फिर उसने उनका साहित्य देखा, तो वह और हैरान हुआ कि वहां तो पन्ने के पन्ने कहानियां, लतीफे--सब वैसे के वैसे। उनमें एक शब्द भी नहीं बदला है। तो उसने पूछा है कि यह मामला क्या है? और अब ये सतपाल महाराज इतना ही नहीं कर रहे हैं। अब वे लंदन में जमे हुए हैं और सक्रिय-ध्यान करवाने में सक्रिय हैं! यह लंदन से संन्यासियों ने खबर दी है कि एक सज्जन यहां सतपाल महाराज जमे हुए हैं। वे सक्रिय-ध्यान करवा रहे हैं और नाम आपका लेते नहीं! और लोग समझ रहे हैं कि सक्रिय-ध्यान इनकी खोज है!
मराठी में इसी तरह के एक तोताराम पंडित ने, शांताराम वी. थाते ने अभी-अभी एक किताब लिखी है अष्टावक्र गीता पर। उसमें अष्टावक्र गीता पर मेरा जो पहला प्रवचन है, पूरा का पूरा, शब्दशः एक मात्रा भी नहीं छोड़ी। पूरा का पूरा प्रवचन चुरा लिया है। उसकी भूमिका बना कर दे दी! नाम का उल्लेख नहीं है! और उनकी पुस्तक की मराठी पत्रों में बड़ी प्रशंसा की जा रही है कि अष्टावक्र गीता पर ऐसी कोई किताब नहीं लिखी गई!
लक्ष्मी ने उन्हें रजिस्टर्ड पोस्ट से पत्र लिखा कि आप जवाब दें--उसका भी डेढ़ महीना हो गया, कोई जवाब नहीं है! चोर! हर तरह के चोर!
करपात्री महाराज हिंदुओं के बड़े संत हैं। उन्होंने मेरी पुस्तक ‘संभोग से समाधि की ओर’ उसके खिलाफ एक पूरी किताब लिखी है। मेरे एक भी तर्क का जवाब नहीं है। शास्त्रों से उल्लेख है, और मुझसे पूछा है कि ‘शास्त्रों में मेरी बात का समर्थन कहां है?’
मैं कब कहता हूं कि शास्त्रों में मेरी बात का समर्थन होना चाहिए! शास्त्रों ने कोई ठेका लिया है? सत्य चुक गया शास्त्रों में! शास्त्रों में नहीं है उल्लेख मेरी बात का, इससे इतना ही सिद्ध होता है कि जो मैं कह रहा हूं, वह मौलिक है। क्यों हो शास्त्रों में उल्लेख? और तो कोई तर्क नहीं, बस, शास्त्रों का ही उल्लेख किया हुआ है कि इस शास्त्र में भी नहीं। इस शास्त्र में भी नहीं। इस शास्त्र में भी नहीं। और शास्त्रों में मेरे विपरीत उनको जो-जो वचन मिल गए हैं, वे सब उल्लेख कर दिए हैं। मेरे पास किताब पहुंचाई है कि मैं इसका जवाब दूं।
मैं जवाब क्या दूं! मेरी संन्यासिनी है, प्रज्ञा, उससे पूछो जवाब! वह संन्यासिनी नहीं थी, तब अहमदाबाद में करपात्री महाराज आए थे, तो वह दर्शन करने चली गई। एकांत पाकर बस, उन्होंने फिर अवसर नहीं खोया। एकदम से उसके स्तन पकड़ लिए! यह जवाब देगी--मैं क्या जवाब दूं! प्रज्ञा जवाब दे सकती है। वह इतनी घबड़ा गई...!
तब तो उसकी उम्र भी कम थी। इतनी बेचैन हो गई कि रोती हुई अपनी मां के पास आकर कहा कि क्या करना! मां-पिता भी घबड़ाए कि अब इतने बड़े संत के लिए क्या कहना! बूढ़े हैं, सत्तर साल के हैं और अभी यह खुजलाहट नहीं गई! ‘संभोग से समाधि की ओर’ मेरी किताब को जवाब दे रहे हैं! अब मैं इनको क्या जवाब दूं?
थोथे लोग! मगर तुम किस-किस को संत कहते हो, कहना बड़ा मुश्किल है।
कोई चरखा चला रहा है, तो संत? महात्मा? तुम्हारी धारणाओं के अनुकूल हो जाना चाहिए, बस। और तुम्हारी धारणाएं तुम्हारी धारणाएं हैं--अज्ञान में पकड़ी गईं।
अब यह संत सफियान संत तो नहीं है। संत को क्या जरूरत है कि किसी से पूछे जाकर कि कोई सीख दें! उसे तो मिल गया सब। जिसे मिल गया, वही तो संत है।
राबिया ने सीख दे दी। राबिया ने कहा: ‘यह लो मोमबत्ती।’ राबिया ने इतना कहा कि ‘दूसरों की रोशनी से कब तक जीओगे! अरे, अपनी मोमबत्ती जला लो। वह दूसरों के सूरज से ज्यादा बेहतर है। अपनी है।’ उसने साफ कह दिया कि तुम पंडित हो, थोथे पंडित। तुम्हें कुछ पता नहीं अभी और संत बने बैठे हो? और लोग तुम्हें संत की तरह पूजते हैं, तो इनकार भी नहीं करते। अभी भीतर का दीया जला भी नहीं।
यूं सचोट उत्तर दिया! मैं नहीं समझता कि सफियान समझ पाए होंगे। मोमबत्ती लेकर उन्होंने भी देखा होगा कि बात क्या है? मोमबत्ती में कोई राज तो नहीं? उलट-पलट कर देखा होगा। कुछ लिखावट तो नहीं? उनकी भी बुद्धि में आया होगा, यह मैं मानता नहीं। आ गया होता, तो वे कह गए होते। तो सूफियों को फिर सोचने-विचारने की जरूरत न रह जाती।
और अब्दुल वहीद दार्शनिक रहे होंगे, तर्कशास्त्री रहे होंगे, इसलिए उनको एक सुई थमा दी। सुई बड़ी प्रतीकात्मक है। राबिया के अपने बोलने के अनूठे ढंग थे। कहने के अपने इशारे थे। उसका एक-एक इशारा कीमती है।
इस संबंध में एक संत फकीर फरीद के जीवन में उल्लेख है, वह खयाल में लो, तो सुई की बात समझ में आ जाएगी।
एक सम्राट फरीद को मिलने गया। सोचा, कुछ ले चलूं भेंट के लिए। क्या ले चलूं! किसी ने उसे सोने की एक कैंची हीरे-जवाहरातों से जड़ी हुई उसी दिन भेंट की थी। बड़ी सुंदर थी। बड़ी कलात्मक थी। उसने सोचा, यही ले चलूं। और उसने यह भी सुना था कि फरीद अक्सर कपड़े सीते रहते हैं; गरीबों के कपड़े सीते रहते हैं। तो उनके काम भी आ जाएगी।
सो वह कैंची लेकर फरीद के चरणों में गया। सिर झुकाया। कैंची फरीद को भेंट की। फरीद ने कहा: धन्यवाद! लेकिन कैंची मेरे क्या काम की? कैंची तो तुम ले जाओ। मेरा काम कैंची का नहीं है--सुई का है! सम्राट ने कहा: मैं समझा नहीं! फरीद ने कहा: मैं काटता नहीं--जोड़ता हूं।
तर्क काटता है। तर्क कैंची है। सुई जोड़ती है। सुई प्रेम है।
तुम पूछते हो दिनेश भारती कि ‘क्या है राज राबिया के इस अदभुत उत्तर का?’
अब्दुल वहीद आमरी तर्कशास्त्री थे, निश्चित रहे होंगे। सुई प्रतीक है कि मियां, जोड़ो। कब तक काटोगे? काट कर किसने पाया? तर्क करता है विश्लेषण। वह काटता है। संश्लेषण करना तर्क को नहीं आता। तर्क कैंची है। तर्क का काम ही यह है कि चीजों को तोड़े। इसलिए विज्ञान जो तर्क पर आधारित है, आत्मा को नहीं पहचान पाता, न परमात्मा को जान पाता है। कभी नहीं पहचान पाएगा। कभी नहीं जान पाएगा। क्योंकि विज्ञान की सारी प्रक्रिया विश्लेषण है--काटो। आत्मा को जानने के लिए एक ही उपाय है उसके पास--पोस्टमार्टम। आदमी जब मर जाए, तो उसके शरीर को काटो। जिंदा को भी काटोगे, तो मर जाएगा।
मेडिकल कॉलेजों में मेढक काटे जाते हैं, और पशु-पक्षी काटे जाते हैं। काट-काट कर समझने की कोशिश की जाती! निश्चित ही आत्मा हाथ नहीं लगती। क्योंकि जैसे ही तुमने काटा, प्राण उड़ जाते हैं! पिंजड़ा पड़ा रह जाता है; पक्षी उड़ जाता है। तो आत्मा मिले कैसे?
यह ऐसा ही पागलपन है, जैसे किसी फूल को तुम ले जाओ किसी वैज्ञानिक के पास और कहो कि यह सुंदर है, बहुत सुंदर है! गुलाब का फूल है! वह कहे, मुझे दो थोड़ा अवसर, मैं विश्लेषण करके देखूंगा कि सौंदर्य है या नहीं! वह फूल को काटेगा। काटना उसकी प्रक्रिया है। वह फूल को काट कर, फूल को गला कर, फूल को जला कर राख कर देगा, और छांट कर रख देगा कि किन-किन रासायनिक द्रव्यों से मिल कर फूल बना है। मिट्टी यह रही, पानी यह रहा; रंग ये रहे; खुशबू यह रही। और तुमसे कहेगा कि भई, और सब तो मिला--रंग मिला, खुशबू मिली, पानी मिला, मिट्टी मिली, मगर सौंदर्य नहीं मिला! सौंदर्य था ही नहीं। तुम्हारी भ्रांति रही होगी!
सौंदर्य होता है समग्रता में। जैसे ही काटा, वैसे ही उड़ जाता है; सौंदर्य अदृश्य हो जाता है। तुमने काटा कि अदृश्य हुआ। फूल अपनी समग्रता में सुंदर है। खंड हुआ--कि सौंदर्य गया।
सौंदर्य अखंड में है। सत्य भी अखंड में है। इसलिए तर्क कभी सत्य को नहीं पा सकता। तर्क जो भी पाएगा, वह मरा हुआ होगा। सत्य जीवंत है। सत्य जीवन का ही दूसरा नाम है।
राबिया ने कहा: मियां, अब्दुल वहीद आमरी, कब तक कैंची की तरह काटते रहोगे! ऐसे कुछ पाओगे नहीं। यह लो सीख! सुई की तरह जोड़ो। जोड़ो--तोड़ो मत। जोड़ने से पा सकोगे।
विज्ञान तोड़ता है, धर्म जोड़ता है। और जो धर्म तोड़ता हो, वह धर्म नहीं। और तुम्हारा तथाकथित धर्म तोड़ता है। हिंदू को मुसलमान से अलग कर देता है; मुसलमान को ईसाई से अलग कर देता है। ईसाई को जैन से अलग कर देता है। फिर जैन को भी काटता है। काटता ही चला जाता है! कैंची का काम काटना है। फिर श्वेतांबर को दिगंबर से अलग कर देता है। फिर शिया को सुन्नी से अलग कर देता है। ईसाइयों में प्रोटेस्टेंट को कैथोलिक से अलग कर देता है। काटता ही चला जाता है! खंड-खंड करता चला जाता है। यह धर्म नहीं है। यह जीवन का शाश्वत नियम नहीं, जिसको धर्म कहें।
धर्म तो वह है, जो सबको ही धारण किए हुए है। धर्म तो वह, जो सबके भीतर अनास्यूत है। जिस धागे में हम सब पिरोए हुए हैं; जो हमें एक करता है।
धर्म तो एक हो सकता है; अधर्म अनेक हो सकते हैं। ये सब अधर्म हैं--हिंदू, ईसाई, मुसलमान, जैन, बौद्ध--ये सब अधर्म हैं। बुद्ध को धर्म का पता था; वे तोड़ते नहीं। जीसस को पता था; वे तोड़ते नहीं--वे जोड़ते हैं। मगर पोपों को, तुम्हारे तथाकथित शंकराचार्यों को--इनको धर्म का कुछ भी पता नहीं है। ये तो अधर्म को धर्म मान कर बैठे हुए हैं। और अधर्म यानी छिपी हुई राजनीति। अधर्म यानी छिपा हुआ तर्क। यह तर्कजाल है। इस तर्कजाल में जो उलझ गया, वह जंगल में भटक गया। उसे कूल-किनारा न मिलेगा।
राबिया ने कहा कि मियां, यह सुई सम्हालो। इशारा समझो। क्या अंदाज है! क्या अदा है उसकी! जरा सी सुई, मगर काफी है--तर्कशास्त्री के घमंड का जो गुब्बारा है, उसको फोड़ देने के लिए। कहा कि प्रेम सीखो--तर्क छोड़ो। कहा कि ध्यान सीखो--ज्ञान छोड़ो। ज्ञान तोड़ता है--ध्यान जोड़ता है। ध्यान मनुष्य और परमात्मा के बीच सेतु है, और ज्ञान बाधा है, दीवाल है।
और हसन को सिर का एक बाल दिया। बाल की एक खूबी है, तुमने खयाल किया होगा, बाल काटते हो तुम, तो दर्द नहीं होता। शरीर का अंग है; काटते हो, लेकिन दर्द नहीं होता। नाखून काटते हो, लेकिन दर्द नहीं होता। तो नाखून और बाल माना कि तुम्हारे शरीर के अंग हैं; लेकिन जीवित नहीं हैं। जीवित होते, तो दर्द होता। जीवन होता, तो पीड़ा होती। मुर्दा हैं। मरे हुए हैं। इसलिए बाल को काटा जा सकता है। कोई पीड़ा नहीं, कोई दर्द नहीं। कोई और अंग तो काटो शरीर का! जहां जीवन है, वहां पीड़ा होगी। बालों का तो काटे जाने पर पता ही नहीं चलता।
जो व्यक्ति शरीर को ही सब-कुछ माने बैठा है, उसने मुर्दे को ही जीवन समझ लिया है।
हसन बसरी को राबिया ने कहा: भीतर झांको। परिधि में मत उलझे रहो। परिधि तो मृत्यु की है, और भीतर अमृत बसा है। बालों में मत खो जाओ। ये तो सब मुर्दा हैं। जैसे ये मुर्दा हैं, ऐसे ही तुम्हारा पूरा शरीर भी सिर्फ आत्मा की आभा से मंडित होने के कारण जीवित दिखाई पड़ रहा है। लेकिन यह आभा अपनी नहीं है।
एक और सूफी कहानी है।
एक फकीर अंधेरी रात में लालटेन लिए एक रास्ते से गुजर रहा है। जंगल का रास्ता है। सन्नाटा है। एकांत है। बीहड़ वन है। जंगली जानवरों का खतरा है। एक और आदमी को भी उसी रास्ते से यात्रा करनी है, वह भी फकीर के साथ हो लिया। फकीर के हाथ में लालटेन है। रोशनी पड़ रही है। फकीर की रोशनी में वह आदमी भी चलने लगा।
निश्चित ही, लालटेन किसी के हाथ में हो, इससे क्या फर्क पड़ता है! रोशनी तो रास्ते पर पड़ रही थी। फकीर को भी दिखाई पड़ रहा था, उस आदमी को भी दिखाई पड़ रहा था। दोनों आधी रात तक साथ चलते रहे। फिर विदा का क्षण आ गया। दोनों के रास्ते फिर अलग होने लगे।
जब रास्ते अलग हुए, तब उस आदमी को पता चला कि वह रोशनी भी अलग हो गई। वह रोशनी अपनी न थी। वह उस फकीर के हाथ की थी। उसके हाथ में थी लालटेन। आधी रात तक तो यह यात्री भूल ही गया था कि रोशनी अपनी नहीं है; रोशनी पराई है।
ऐसी ही रोशनी हमारे शरीर की है। दो यात्री साथ-साथ चल रहे हैं--अमृत और मृत्यु। अमृत भीतर है। रोशनी उसकी है। जीवन उसका है। आनंद उसका है। रस उसका है। शरीर तो सिर्फ मंडित है--उसके रस से, उसके आलोक से। जब तक साथ रहेगा, तब तक शरीर को यह भ्रांति रहेगी कि मैं भी जिंदा हूं।
उस यात्री को जैसे भ्रांति रही। भूल ही गया था कि हाथ में मेरे लालटेन नहीं है। लालटेन किसी और की है। चलता रहा रोशनी में मस्त--गीत गुनगुनाता हुआ। और जब विदा होने का क्षण आया, और फकीर दूसरे रास्ते पर मुड़ा--घनघोर अंधेरा हो गया।
जिस दिन आत्मा छोड़ देती है शरीर को, उस दिन क्या रह जाता है? मिट्टी पड़ी रह जाती है। लाश पड़ी रह जाती है।
हसन को राबिया ने कहा: शरीर में मत उलझे रहो। जीवन शरीर का नहीं है। शरीर का मालूम पड़ता है, क्योंकि अभी चलता है, उठता है, बैठता है, बोलता है, खाता है, पीता है। मगर फिर भी याद रखो जीवन तो भीतर छिपी आत्मा का है। लेकिन आत्मा इतनी जीवंत है कि उसके साथ भी जो हो लेगा, वह भी जीवित हो जाएगा। मगर यह साथ ज्यादा देर चलने वाला नहीं है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, रास्ते अलग हो जाएंगे; आत्मा अपने रास्ते पर चल पड़ेगी; उसकी यात्रा और है--और शरीर पड़ा रह जाएगा। एक क्षण में क्या से क्या हो जाता है!
मुट्ठियों में खाक लेकर दोस्त आए बादे दफ्न
जिंदगी भर की मोहब्बत का सिला देने लगे!
क्या सिला दिया! मुट्ठियों में खाक ले कर आए थे। मुर्दे को जब गड़ाते हैं, तो हर मित्र उस पर एक मुट्ठी खाक डाल देता है। यह सिला दिया!
मुट्ठियों में खाक लेकर दोस्त आए बादे दफ्न
जिंदगी भर की मोहब्बत का सिला देने लगे!
क्या सिला दिया! दोस्ती का क्या परिणाम आया? ये सारे प्रेम का--जीवन भर के प्रेम का--क्या निष्कर्ष, क्या निचोड़ निकला?
और किसी के मुंह से भी न निकला
कि इन पर खाक न डालो
ये हैं आज ही नहाए हुए!
मुर्दे को नहला कर ले जाते हैं; नये कपड़े पहना कर ले जाते हैं!
और किसी के मुंह से यह न निकला
कि आज ही बदले हैं इन्होंने कपड़े
और आज ही हैं ये नहाए हुए!
‘जिंदगी भर की मोहब्बत का सिला देने लगे!’ और यह सिला दिया कि खाक फेंकने लगे! इनसे यह आशा न थी! दोस्त? दुश्मन यह करते तो ठीक थे। लेकिन दोस्त भी क्या करें। मिट्टी मिट्टी में गिर गई; अब और क्या भेंट दें! मिट्टी ही भेंट देने को रही।
क्षण में क्या हो जाता है! क्षण में हो जाता है। अभी सब ठीक था। अभी क्षण में सब बिगड़ जाता है।
मैंने परसों ही श्री रेखचंद्र पारेख का नाम उल्लेख किया था। अभी कुछ दिन पहले चल बसे। ‘साधु’ की दीक्षा ली थी उन्होंने, और कहते थे: जल्दी ही आता हूं! जल्दी आता हूं। अब गैरिक में दीक्षा लेनी है; संन्यासी होना है। और जल्दी-जल्दी में उन्होंने आठ साल बिता दिए! आठ साल हो गए उनको मुझसे नहीं मिले! आठ साल से खबरें आती रहीं कि ‘अब आया; अब आया! आता हूं। जरा काम-धाम सुलझ जाए। यह उलझन, वह उलझन!’ और मरे भी तो क्या मरे! कैसे मरे!
खेत पर थे। रात सोए-सोए प्राण निकल गए! धनाड्य थे। उन्होंने मेरे काम को बहुत सहायता दी। लेकिन खेत पर थे। बीस मील दूर थे चांदा से। सुबह मजदूर जब आए काम करने, तो देखा कि आज सेठ नहीं! तो जाकर जो उन्होंने खेत पर बंगला बना लिया था, दरवाजा खटखटाया। कोई खोलता नहीं; भीतर से बंद है। दरवाजा तोड़ा तो वहां तो सब मिट्टी थी। सांझ विदा लेकर गए थे, तब सब ठीक था। सुबह आए तो मिट्टी थी।
घर का कोई मौजूद भी न था वहां। और वर्षा इतनी तेज थी कि बीच में एक नाला आया हुआ था कि दो दिन तक लाश वहां पड़ी सड़ती रही! कोई खबर भी नहीं पहुंचा सका जाकर चांदा। क्योंकि वह नाला इतना भयंकर और पहाड़ी, कि उसको पार करना मुश्किल! और लाश को लाया तो जा नहीं सकता था। तो खबर करने का भी कोई प्रयोजन न था। दो दिन लाश सड़ती रही।
रेखचंद्र पारेख कीमती आदमी थे। मुझे पहचानने वाले उन थोड़े से लोगों में थे, जिन्होंने सबसे पहले मुझे पहचाना। मगर फिर भी देर कर दी! समझ न पाए कि यह जिंदगी हमेशा चलने वाली नहीं। कब रास्ता अलग हो जाएगा, कहां अलग हो जाएगा--कुछ पता नहीं! अभी है, अभी नहीं! एक क्षण में बात हो जाती।...
मुझे पहली दफा देखा, तो पहचान गए। और यूं पहचाना कि सारे चांदा के लोग चकित थे। क्योंकि रेखचंद्र पारेख चांदा में प्रसिद्ध थे कि उनसे बड़ा कंजूस वहां कोई नहीं है। उनके द्वार पर कोई भिखारी भीख नहीं मांगता था। रेखचंद्र पारेख का मकान है! वहां भीख मांगने से कोई सार नहीं। मिलने वाली नहीं। दुतकारे जाओगे। कोई भिखारी अगर मांगने खड़ा हो जाता, तो उसका मतलब यह था कि नया-नया है; गांव में पहली दफा आया है। गांव के लोग कह देते सड़क चलते, कि भैया, तू बेकार खड़ा है! यह जगह नहीं है जहां कुछ मिलेगा! और जब मुझे देखा और पहचान गए...।
उनकी पत्नी मुझे ले गई थीं। उनकी पत्नी और भी संतों के पास उन्हें ले जाती रहीं। क्योंकि पत्नी का खयाल था कि पति को मार्ग पर लाया जाए। यह क्या धन-पैसे के पीछे ये पड़े हैं! ये धार्मिक नहीं हैं।
पत्नी को धर्म में रस था। साधु-संतों में रस था। मगर रेखचंद्र पारेख को कोई साधु-संत जमा नहीं। आंख थी उस आदमी के पास पहचानने वाली। तो धोखा नहीं खाया। कोई संत सफियान जैसा आदमी धोखा नहीं दे सका। कोई करपात्री महाराज जैसा व्यक्ति धोखा नहीं दे सका। कोई पुरी के शंकराचार्य को रेखचंद्र मानने वाले नहीं थे।
उनकी पत्नी मुझे ले गई थीं अपने घर, इसी आशा में कि शायद और तो कोई जमा नहीं, मैं जम जाऊं! मुझे देख कर ही रेखचंद्र पारेख ने कहा कि अब मजा आ गया! मगर मैं कहे देता हूं, उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि यह मस्जिद मुसलमान पर गिरेगी; मुझ पर नहीं। तू दब कर मरेगी इस मस्जिद में। तू लाई है मुझे दबाने; तू मुझे बहुत जगह ले गई कि किसी को मेरे सिर पर चढ़ा दे। मगर यह मस्जिद तेरे सिर पर गिरेगी। मेरा तो तालमेल हो गया; मुश्किल तेरी होगी; तेरा धर्म अड़चन में पड़ेगा। मैं अधार्मिक हूं। मैं नास्तिक हूं। और यह पहला आदमी है, जो ऐसी भाषा बोलता है कि नास्तिक भी आस्तिक हो जाए! और सच ही उन्होंने मुझसे कभी तर्क न किया। जो सबसे तर्क करते रहे, कभी मेरे विरोध में एक शब्द न कहा।
मैं वर्षों तक उनके घर ठहरता रहा। वर्ष में कम से कम दो बार निश्चित रूप से चांदा उनके घर मेहमान होता रहा। तीन-चार दिन; वर्ष में दो बार। एक सप्ताह उन्हें हर वर्ष देता रहा।
और वे ऐसे डूबे कि सारे चांदा में लोग चकित थे, क्योंकि उन्होंने बुनियाद रखी मेरे काम की। और मैंने कभी उनसे तो कहा नहीं। लेकिन जब उन्हें लगा कि जो मुझे जरूरत है, वह उन्होंने तत्क्षण पूरी की। उन्हें लगा कि मुझे एक टाइपिस्ट की और टाइपराइटर की जरूरत है, तो एक टाइपिस्ट और टाइपराइटर भेज दिया। मैंने पूछा: तुम कैसे आए! उन्होंने कहा कि रेखचंद्र पारेख ने भेजा। मैंने कहा: यह भी खूब हुआ। जरूरत मुझे थी। कब तक हाथ से पत्र लिखता रहूं! मुल्क में हजारों प्रेम करने वाले लोग हो गए, मुश्किल खड़ी हो गई।
वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने...। अब तो इस आश्रम में हजारों टाइपराइटर हैं। मगर पहला टाइपराइटर उनका था। वे बुनियाद रख गए। अब तो इस आश्रम में सैकड़ों टेप-रिकॉर्डर हैं। पहला टेप-रिकॉर्डर उनका था; वे बुनियाद रख गए! अब तो इस आश्रम में शायद भारत का सबसे सुंदर डार्करूम है। और सबसे कीमती और बहुमूल्य कैमरे हैं। मगर पहला कैमरा उनका था। अब तो इस आश्रम के पास दर्जनों कारें हैं। मगर पहली कार उन्होंने मुझे दी थी--पहली कार! वे सब मामले में पहले रहे।
चकित था चांदा कि यह आदमी, जिसने कभी किसी को एक पैसा भेंट नहीं किया, इसको हो क्या गया! इसका दिमाग खराब हो गया! और मैंने कभी उनसे एक पैसा मांगा नहीं। और उन्होंने हजारों रुपये बहाए!
मुझसे सिर्फ एक बात उन्होंने पूछी--सिर्फ एक--कि मैं कब काम-धंधा छोड़ दूं? मैंने कहा: आपकी उम्र कितनी हुई? उन्होंने कहा: पचास। तब वे पचास के थे। तो मैंने कहा: बस, छोड़ दें। उन्होंने कहा: छोड़ा। छोड़ ही दिया! बड़ा काम-धंधा था। सब यूं का यूं छोड़ दिया।
फिर फुर्सत थी, इसलिए ये खेत...। अब कुछ काम न बचा, तो दूर जंगल में एक जमीन ले ली और बगीचा लगाने में लग गए कि अब काम-धंधा छोड़ दिया, अब कुछ पौधों के साथ जीना हो जाए।
आठ साल पहले माउंट आबू शिविर में साधु होकर गए। कह कर गए कि आता हूं जल्दी। संन्यस्त होना है। लेकिन आठ साल लग गए। टालते-टालते रहे। कल पर टालते रहे--और अब विदा हो गए। अब विदाई के इस क्षण में रोशनी खो जाएगी। वे जो सोचते थे, विचारते थे, वे जो सोचते थे--उन्हें दिखाई पड़ने लगा है, वह उन्हें नहीं दिखाई पड़ रहा था। वह मेरे हाथ की लालटेन थी। अब इस अंधेरे में उनको अकेले जाना पड़ा। रास्ते अलग हो गए। काश वे संन्यस्त हो जाते! काश वे समाधिस्थ हो जाते! तो रोशनी उनकी अपनी होती।
हसन को राबिया ने कहा: यह जैसे सिर का बाल मुर्दा है, माना कि शरीर का हिस्सा है--ऐसा ही पूरा शरीर मुर्दा है--पहचानो या न पहचानो। और जब तक तुम्हें यह समझ में न आ जाए कि पूरा शरीर मुर्दा है, तब तक तुम समझोगे नहीं; तब तक तुम तिलमिलाओगे नहीं; तब तक तुम्हारे जीवन में वह आंधी न आएगी, जो इस खोज पर ले जाए--अमृत की खोज पर।
अथर्ववेद का यह प्यारा सूत्र है: ‘आरोह तमसो ज्योतिः। उठो अंधकार से, चढ़ो ज्योति-रथ पर।’ ‘आहि रोहेन अमृतं सुखं रक्षं। अरे क्या देर कर रहे हो! सुख में अमृत-रथ पर आरूढ़ हो जाओ। वहीं सुरक्षा है।’
तुम्हारे भीतर अमृत है। तुम अमृत पुत्र हो। अमृतस्य पुत्राः! लेकिन मृत्यु में भटक गए हो। मृत्यु यानी अंधकार। अमृत अर्थात आलोक।
‘उठो अंधकार से, चढ़ो ज्योति रथ पर। उठो मृत्यु से--अमृत में डूबो।’ ऐसा इशारा किया राबिया ने। पता नहीं, जिनको इशारा किया था, वे समझ पाए या नहीं।
और इतना तो निश्चित है कि सूफियों ने इस पर बहुत टीकाएं की हैं। मगर जिन्होंने टीकाएं की हैं, वे कोई भी नहीं समझते। मैंने टीकाएं देखी हैं। लोग अनुमान लगाते हैं कि ‘शायद!’ मैं ‘शायद’ की बात नहीं कर रहा हूं। मैं अनुमान में भरोसा नहीं करता। राबिया मेरी बात से इनकार करे, तो झंझट हो जाए। मैं राबिया की गर्दन पकड़ लूं! क्योंकि मैं कुछ राबिया से भिन्न नहीं।
उसने सुई पकड़ा दी; मोमबत्ती पकड़ा दी; बाल पकड़ा दिए। मैं उसकी गर्दन दबा दूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि इनका क्या अर्थ है। यह मैं अपने अनुभव से जानता हूं।
मैं भी यही कर रहा हूं। रोज यही कर रहा हूं। तुम्हें दे क्या रहा हूं? यही इशारे: छोड़ो मृत्यु को। तुम पकड़े हो। जोर से पकड़े हो। मृत्यु ने तुम्हें नहीं पकड़ा है। छोड़ो मृत्यु को। जागो। नींद में हो।
और तुम तर्कजाल में पड़े हो! तुम व्यर्थ के ऊहापोह में उलझे हो। तुम कैंची बन गए हो। सुई बनो--जोड़ो।
यहां देखते हो: कैसे लोग जुड़ गए हैं! किन-किन धर्मों के, किन-किन देशों के, किन-किन जातियों के, किन-किन रंगों के! करीब-करीब सारी दुनिया से लोग यहां आ गए हैं। सिर्फ रूस से नहीं आ पाए थे, तो दो व्यक्ति--पति और पत्नी--जिन्होंने चुपके-चुपके यहां से संन्यास ले लिया है। संन्यास भी चोरी से भेजना पड़ा है! माला भेजता हूं किसी और देश। और वहां के राजदूत की डाक में वह माला पहुंचती है रूस। वह राजदूत मुझमें उत्सुक है। नाम तो नहीं बता सकूंगा उनका! और वहां से रूस के संन्यासी...।
अब कोई रूस में पचास संन्यासी हैं। नहीं पहन सकते गैरिक वस्त्र। नहीं माला टांग सकते। छिप कर मिलते हैं। ध्यान करते हैं। रूसी में अनुवादित कर ली हैं उन्होंने किताबें। टाइप कर-कर के एक-दूसरे को बांटते हैं। कोई चार किताबें--न मालूम कितने लोग पढ़ रहे हैं! टेप रूसी में अनुवाद कर-कर के चुपचाप एक हाथ से दूसरे हाथ में जा रहे हैं!
लेकिन एक जोड़ा बड़ी मुश्किल से, बड़ी मेहनत के बाद निकल भागा है। वह लंदन पहुंच गया है। कल ही खबर आई है कि ‘हम खुश हैं कि हम रूस के बाहर आ गए हैं। निकलना तो बहुत मुश्किल था, मगर निकल आए। अब हम जल्दी ही पहुंच जाएंगे।’
लोग कहां-कहां से आ रहे हैं!
जो बर्लिन का हिस्सा रूसियों के हाथ में है पूर्वी बर्लिन--वहां से निकल भागना बहुत मुश्किल है। लेकिन एक संन्यासी वहां से भाग निकला। कार की डिग्गी में छिप कर आना पड़ा। खतरा मोल लिया। जीवन के लिए खतरा था। पकड़ जाता, अगर डिग्गी खोली जाती, जोखम उठाई...। डिग्गी खुल जाती, तो फंस जाता--बुरी तरह फंसता। शायद दस-पच्चीस साल की सजा काटता। शायद सारी जिंदगी जेलखाने में बीतती। क्योंकि कम्युनिस्ट फिर कोई कंजूसी नहीं करते सजा देने में।
मगर जोखम उठा ली। कार की डिग्गी में बैठ कर भाग निकला। अकेला ही नहीं भागा। अपने बच्चे को, पत्नी को--तीनों एक बड़ी कार की डिग्गी में किस तरह समाए! किस तरह छिपे रहे! किस तरह यात्रा की! अनूठी कहानी है। रोमांचक है। आ गया यहां।
लोग आ रहे हैं दूर-दूर से। और यहां आकर अनस्यूत हो जाते हैं। यहां एक धागे में जुड़ जाते हैं। एक प्रेम का धागा!
लोग चकित होते हैं बाहर से आकर कि कैसे इस कम्यून का काम चलता है। क्योंकि मैं तो कभी देखता नहीं जाकर। मैं तो कुछ भी नहीं देखता जाकर। कहां क्या हो रहा है--मुझे पता नहीं। इस कम्यून के ऑफिस में मैं आज तक नहीं गया हूं। छह साल में एक बार भी नहीं गया हूं। आश्रम में भी कभी पूरा नहीं घूमा हूं। अपने कमरे से इस स्थल तक, और इस स्थल से अपने कमरे तक!
लेकिन प्रेम का एक धागा--और लोग काम में सक्रिय हैं। न कोई उनको काम में लगा रहा है, न कोई उनकी छाती पर बैठा हुआ है; न कोई उन्हें धक्के मार रहा है कि काम करो--लोग काम में लगे हैं, सृजन में लगे हैं। एक प्रेम ने सबको जोड़ दिया है।
कोई किसी से पूछता नहीं कि हिंदू हो, कि मुसलमान हो, कि ईसाई हो, कि जैन हो, कि बौद्ध हो, क्या हो कि क्या नहीं हो! नीग्रो हो, अमरीकन हो, भारतीय हो, किसी को चिंता नहीं पड़ी। किसी को लेना-देना नहीं है। सारा कचरा हो गया। ये सब व्यर्थ की बातें लोग बाहर कचराघर में फेंक आए।
इसे मैं कहता हूं, ‘सुई।’ सुई जोड़ना जानती है, तोड़ना नहीं। और ध्यान में लीन हो रहे हैं। इसे मैं कहता हूं, ‘मोमबत्ती।’ अपने भीतर की ज्योति जलाने में लगे हैं। इसे मैं कहता हूं, अमृत की खोज। कैसे हम मृत्यु के जो पार है, उसे जान लें--इसका अन्वेषण चल रहा है। और तो यहां कोई दूसरा काम नहीं हो रहा है।
दिनेश भारती, ये तीनों काम यहां हो रहे हैं--मोमबत्ती का, सुई का और राबिया ने यह जो बाल दिया कि हसन कब तक मुर्दे में उलझे रहोगे; अब जागो; सुबह हो गई--उठो।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
हर ओर सुनाती अपना स्वर, मैं ढूंढूं तुमको किधर किधर! पाया न देख बैठी थक कर, तुम गए जीत मैं गई हार!
वीणा भारती! प्रेम के रास्ते पर हार जाना जीत जाना है। प्रेम के रास्ते पर जिसने जीतने की कोशिश की, वह हारा। बुरी तरह हारा! प्रेम के रास्ते पर जो हारने को राजी हुआ, वह जीता।
यह प्रेम का विरोधाभास है। यह प्रेम का तर्क बड़ा बेबूझ है। यह प्रेम का गणित बड़ा उलटा है!
साधारण बाहर के जगत में जो जीतने की कोशिश करता है, वह जीतता है। जो हारता है, वह हारता है; जो जीतता है, वह जीतता है। इस भीतर के लोक में, इस परलोक में जो हारता है, वह जीतता है; जो जीतता है, वह हार जाता है।
जिसने अहंकार रख दिया एक तरफ...। पहले तो लगता है: हार गया। हारता है कोई, तभी अहंकार रखता है। थक जाता है।
तू कहती है: ‘हर ओर सुनाती अपना स्वर,...।’
वह अपना स्वर जो था--अपना--वह जो ‘मैं’ का भाव, वही बाधा। तो फिर तू सुनाती फिर। अपना स्वर जब तक सुनाएगी, तब तक तू मुझे न देख पाएगी।
‘हर ओर सुनाती अपना स्वर,..।’
वह अपनापन पीछे छिपा रहेगा, तो बड़ी सूक्ष्म दीवाल बनी रहती है।
तो तू कहती है: ‘मैं ढूंढूं तुमको किधर-किधर!’
फिर तू किधर-किधर भी ढूंढ, नहीं पाएगी; क्योंकि मैं इधर हूं--किधर-किधर नहीं। इधर देख। और इधर देखना हो, तो चुप हो, अपना स्वर बंद कर।
अब कहती है: ‘पाया न देख बैठी थक कर!’
उस घड़ी ही पाया जाता है, जब कोई थक कर बैठ जाता है। जब तक देखने की आकांक्षा भी बनी रहती है, तब तक आंखों में धुआं समाया रहता है। देखने की आकांक्षा भी आकांक्षा है। लोग कहते, ‘दीदार करना है परमात्मा का। परमात्मा को पाना है।’ यह भी तृष्णा है, यह भी वासना है।
इसलिए तो बुद्ध ने कहा: छोड़ो परमात्मा को। है ही नहीं परमात्मा। इसीलिए कहा कि है ही नहीं परमात्मा, क्योंकि जब तक है, तब तक तुम तृष्णा करोगे; तब तक तुम्हारे मन में आकांक्षा जगेगी--सुगबुगाएगी। बुद्ध ने तोड़ ही दी जड़ से बात। है ही नहीं--क्या खोज रहे हो--खाक? छोड़ो। बैठ जाओ। आंख बंद करो।
जब तक दीदार की तमन्ना है, तब तक आंखें खोले देखोगे--किधर-किधर; सब तरफ खोजोगे। और वह भीतर विराजमान है। वह ‘इधर’ विराजमान है। और तुम ‘उधर’ देखो, तो कैसे पाओगे?
आंखें तो बाहर देखती हैं। आंखें भीतर नहीं देख सकतीं। आंखें बनी बाहर को देखने के लिए हैं। आंखों का प्रयोजन बाहर है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात एकदम अपनी पत्नी को झकझोरा और कहा: मेरा चश्मा ले आ। जल्दी कर! पत्नी ने कहा: आधी रात चश्मे का क्या करना है?’ पत्नियां भी कुछ ऐसे मान तो लेती नहीं जल्दी से! और आधी रात उसकी नींद खराब कर दी।
और क्या करना है तुमको चश्मे का आधी रात! कोई खाते-बही करनी है! कोई कुरान शरीफ पढ़नी है?
मुल्ला ने कहा: तू देर मत कर। बकवास मत कर। जल्दी चश्मा ले आ। अरे, एक बड़ा सुंदर सपना देख रहा था! मगर धुंधला-धुंधला था। सो मैंने सोचा, चश्मा चढ़ा लूं!
मगर सपने चश्मे चढ़ा कर नहीं देखे जाते। और चश्मा भी चढ़ा लो, तो भी धुंधलापन अगर है सपने में, तो मिट नहीं जाएगा। सपना तक नहीं देखा जा सकता चश्मे से! आंखें भी बाहर, चश्मा भी बाहर। आंख को कहते हैं ‘चश्म’, और उस पर चढ़े हुए को कहते हैं ‘चश्मा।’ दोनों बाहर।
भीतर जब कोई बिलकुल हार जाता है, ढूंढ-ढूंढ के हार जाता है, थक जाता है, सर्वहारा हो जाता है, तब आंख बंद होती है।
कुछ है जो आंख बंद करके दिखाई पड़ता है। लेकिन जब तक तृष्णा है, तब तक आंख बंद नहीं होती, खुल-खुल आती है। यह भी इच्छा बनी रहे कि ‘देखना है सत्य को, परमात्मा को’--यह भी महत्वाकांक्षा बनी रहे, तो पर्याप्त है भटकाने के लिए।
तू कहती है:
‘हर ओर सुनाती अपना स्वर,
मैं ढूंढूं तुमको किधर-किधर!
पाया न देख बैठी थक कर,...’
यह अच्छा हुआ कि नहीं देख पाई और थक गई।
‘पाया न देख बैठी थक कर,
तुम गए जीत मैं गई हार!’
बस, यहीं से शिष्यत्व शुरू होता है।
वीणा, यहीं से असली यात्रा का प्रारंभ है, जब शिष्य थक जाता, हार जाता, और कह देता है कि लो, तुम सम्हालो। यह रही मेरी डोर। यह रही पतवार अब तुम्हीं मांझी। मैं तो थका। मैं तो हारा। मैं तो बैठ रहा। अब पार लगाओ तो ठीक, डुबाओ तो ठीक।
और यह रास्ता ऐसा अनूठा है कि यहां जो डूबते हैं, वही उबर पाते हैं।
यह मयकदा है, यहां रिंद हैं। यहां सबका साकी इमाम है। यह मयकदा है। पीने वाला तो जब डूब जाता है, बिलकुल डूब जाता है, मदमस्त हो जाता है; भूल ही जाता है कि मैं कौन हूं; याद ही नहीं रहती कि मैं कौन हूं--तभी यह अपूर्व घटना घटती है।
मुझको तो होश नहीं तुमको शायद खबर हो
लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बरबाद किया!
यहां होश वाले चूक जाएंगे। यहां समझदार चूक जाएंगे। यह रास्ता दीवानों का है। यह रास्ता परवानों का है। यहां मिटने वाले पा जाते हैं। यहां डूबने वाले उबर जाते हैं।
कोई समझाए यह क्या रंग है मैखाने का
आंख साकी की उठे नाम हो पैमाने का
गर्म ए शम्मा का अफसाना सुनाने वालो
रस्क देखा नहीं तुमने अभी परवाने का
किसको मालूम थी पहले से खिरद की कीमत
आलमे होश पे अहसान है दीवाने का
चश्मे साकी मुझे हर गाम पै याद आती है
रास्ता भूल न जाऊं कहीं मैखाने का
अब तो हर शाम गुजरती है उसी कूचे में
ए नतीजा हुआ नासेह तेरे समझाने का
मंजिले गम से तो गुजरना है आसां एक बार
इश्क है नाम अपने से गुजर जाने का
वीणा, तू अपना स्वर सुनाती रही, इसी से चूकती रही। जो भी यहां अपना स्वर सुनाने में लगा है, वह चूकता चला जाएगा।
मंजिले गम से तो गुजरना है आसां एक बार
दुख की मंजिल से गुजरना इतना कठिन नहीं। दुख की मंजिल से तो हम गुजरते ही रहे हैं। जन्मों-जन्मों गुजरते रहे हैं। उसके तो हम आदी हैं, परिचित हैं।
मंजिले गम से तो गुजरना है आसां एक बार
इश्क है नाम अपने से गुजर जाने का
जो अपने से पार हो जाता है, जो अपने के पार हो जाता है, जो मैं के पार हो जाता है, जो मैं से गुजर जाता है, मैं से आगे निकल जाता है...। मैं पर अटके हैं हम, तो फिर पहचान न हो पाएगी। ‘मैं’ के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है।
परवाने का नाच देखा शम्मा के पास! कौन समझदार राजी होगा। परवाने को पागल ही कहोगे। मरने चला है! मिटने चला है! शम्मा के पास जाकर मिलेगा क्या?--मौत मिलेगी।
पुराने शास्त्रों में सूत्र है: ‘आचार्यो मृत्युः।’ गुरु के पास जाकर क्या मिलेगा? मौत मिलेगी। क्योंकि गुरु मृत्यु है। उसके पास अहंकार मरेगा। और अभी तो तुम यही जानते हो कि तुम यानी अहंकार। अहंकार मरते-मरते तक बचने की कोशिश करता है। कई तरह की तरकीबें खोजता है।
आनंद किरण ने यह प्रश्न पूछा है। इसमें देखो, तरकीब कहां से आ गई। किरण को पता भी न होगा कि तरकीब इसमें आ गई। प्रश्न बड़ा प्यारा है, भाव भरा है, लेकिन कहीं पीछे से स्वर आ गया।
ये गर्व भरा मस्तक मेरा
प्रभु, चरण-धूल तक झुकने दे
झुकने का भाव है, प्यारा है। मगर मस्तक मेरा है!
ये गर्व भरा मस्तक मेरा
प्रभु चरण-धूल तक झुकने दे
मैं ज्ञान की बातों में खोया
और कर्महीन पड़ कर सोया
जब आंख खुली तो मन रोया
जग सोए, मुझको जगने दे
मैं मन के मैल को धो न सका
ये जीवन तेरा हो न सका
मैं प्रेमी हूं, इतना न झुका
देखते हैं!
मैं प्रेमी हूं, इतना न झुका
गिर भी जो पडूं तो उठने दे
यह गर्व भरा मस्तक मेरा
प्रभु चरण-धूल तक झुकने दे।
बात प्यारी कही। फूल ही फूल हैं। मगर एक कांटा भी आ गया। और वह कांटा पर्याप्त है बाधा के लिए। जरा सा, इंच भर का फासला पर्याप्त है।
शायद किरण ने जब यह प्रश्न लिखा, तो सोचा भी नहीं होगा कि ‘मैं प्रेमी हूं, इतना न झुका!’ उसमें भी शर्त है कि इतना मत झुकाओ; इतना मत मिटाओ। कुछ तो बचने दो! मैं प्रेमी हूं, कुछ तो बचने दो! बिलकुल न डुबाओ। कम से कम सिर तो बचने दो। गले तक डुबाओ, आकंठ डुबाओ। मगर सिर तो मेरा बचने दो!
मैं प्रेमी हूं, इतना न झुका
गिर भी जो पडूं तो उठने दे
और अगर गिर जाऊं तो कम से कम उठने तो दो।
फिर-फिर उठ आता है मन। फिर-फिर उठ आता है अहंकार। झुक-झुक कर उठ आता है! अहंकार के रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं। इधर से जाता है, उधर से आ जाता है। बाहर के दरवाजे से निकाल कर फेंक दो, वह पीछे के दरवाजे से लौट आता है। दरवाजे से न आने दो, खिड़कियों से आ जाता है। खिड़कियों से न आने दो, रंध्रों से आ जाएगा। कहीं न कहीं से रास्ता खोज लेगा। जरा सी भी रंध्र मिल जाएगी, खपड़ों में जरा सी संध मिल जाएगी--वह जो चाबी के लिए ताले में छेद होता है, उतना भी पर्याप्त है। उतने में से ही सरक आएगा। बड़ा सूक्ष्म है!
नसरुद्दीन को एक शराबघर में शराबघर के मालिक को भी इतनी दया आ गई कि उसने धक्के देकर निकाल दिया--इतना पी गया था, और फिर भी मांग रहा था। जाता ही न था। और दो, और दो। मांग चुकती ही न थी। मन मानता ही नहीं। और, और। शराबघर के मालिक तक को दया आ गई। उसकी तो शराब बिकती थी। मगर उसको भी दया आ गई कि अब यह इतनी पी चुका है कि घर भी न पहुंच सकेगा। धक्के देकर बाहर निकाल दिया। वह दूसरे दरवाजे से भीतर आ गया। शराबघर के कई दरवाजे थे। वह दूसरे दरवाजे से भीतर आ गया और फिर उसने आकर मांग की। मालिक ने उसे फिर धक्के देकर निकाला! वह तीसरे दरवाजे से भीतर आ गया। उसे फिर धक्के देकर निकाला! वह पीछे के दरवाजे से आ गया! और जब उसे धक्का दिया जाने लगा, तो वह बोला कि मामला क्या है! क्या तुमने गांव भर के सभी शराबखाने खरीद लिए हैं? जिस शराबघर में जाता हूं, वहीं से धक्के देकर निकालते हो। तुम ही सभी जगह बैठे मिल जाते हो! मामला क्या है? वह सोच रहा है--अलग-अलग शराबघरों में जा रहा है। बेहोश! दरवाजे बदल लेता है। मगर बात वही होकर रहेगी। वही मिलेगा भीतर।
किरण, तुमने बात तो प्यारी पूछी:
यह गर्व भरा मस्तक मेरा
प्रभु, चरण-धूल तक झुकने दे
मगर कहीं शर्त लगा रखी है। उतनी शर्त भी नहीं झुकने देगी।
तुम कहते हो: ‘मैं प्रेमी हूं, इतना न झुका!’
‘इतना!’ झुकने में भी शर्त लगाओगे? फिर चूक हो जाएगी!
गिर भी जो पडूं तो उठने दे
उठने की बात ही छोड़ो। गिरे तो गिरे। फिर उठना क्या। झुके तो झुके। फिर उठना क्या! फिर बार-बार क्या उठना। डूबे तो डूबे। फिर निकलना क्या! हारो। अब हारो। समर्पण संन्यास है।
वीणा, अच्छा हुआ। कहती है तू:
‘पाया न देख बैठी थक कर,
तुम गए जीत मैं गई हार!’
बस, पहला कदम उठा। और पहला कदम ही कठिन है। फिर तो सब आसान हो जाता है।
परवाने की भाषा समझनी होती है संन्यासी को, शिष्य को।
गर्म ए शम्मा का अफसाना सुनाने वालो
रस्क देखा नहीं तुमने अभी परवाने का
जब नाचता है परवाना शमा के चारों तरफ, देखी उसकी मौज! देखी उसकी मस्ती! ऐसा नहीं कहता, ‘इतना न जला, मैं प्रेमी हूं।’ जल ही जाता है। पूरा ही जल जाता है। दग्ध हो जाता है।
किसको मालूम थी पहले से खिरद की कीमत
आलमे होश पे अहसान है दीवाने का
यह जो परम सत्य है, किसको इसकी कीमत मालूम है? पहले से कीमत मालूम होती, तो समझदार भी खरीद लेते। मगर इसकी कोई कीमत नहीं है। कीमत की भाषा में यह आता नहीं है। नहीं तो सब समझदार, तथाकथित चालबाज, होशियार, तर्कशास्त्री, गणितज्ञ सत्य को पा लेते।
किसको मालूम थी पहले से खिरद की कीमत
आलमे होश पे अहसान है दीवाने का।
वह तो दीवानों ने बिना कीमत पूछे, बिना फिकर किए कि क्या होगा परिणाम, क्या होगा अंजाम--कूद पड़े आग में। जल गए--और पा लिया। मिट गए--और पा लिया! इसलिए जो तथाकथित समझदार हैं, उन पर बड़ा अहसान है दीवानों का।
पहला कदम है समर्पण और दूसरा कदम है उपलब्धि। दो कदम में यात्रा पूरी हो जाती है। या यूं कहो: एक ही सिक्के के दो पहलू हैं--समर्पण और उपलब्धि। इधर खोया--इधर पाया। क्षण की भी देर नहीं होती।
वीणा, उठ मत आना। थक कर बैठ गई, अब फिर इधर-उधर मत देखने लगना। फिर किधर-किधर न भटकने लगना।
यह उपलब्धि कुछ ऐसी नहीं है, जो प्रयास से होती है। यह हार से होती है। जब तक प्रयास है, तब तक अहंकार है। जब तक चेष्टा है, तब तक मन है।
यही धन्यभाग है कि एक दिन आदमी थक जाता है। मन थक जाता है। बैठ रहता है। बुद्ध ने छह वर्ष तक सतत चेष्टा की। किधर-किधर न खोजा। मगर किधर-किधर में भटके रहे। फिर जब थक गए और एक सांझ थक कर बैठ गए और कहा कि फिजूल है सब खोज। कुछ मिलना नहीं है। न संसार में कुछ है, न मोक्ष में कुछ है। है ही नहीं कुछ। सब व्यर्थ है।
स्वभावतः संसार भी देख चुके थे; सम्राट का जीवन भी देख चुके थे। और छह वर्षों में तपस्वी का, योगी का जीवन भी देख लिया। न भोग में कुछ है, न योग में कुछ है। न भोग से मिला, न योग से मिला। है ही नहीं। तो जब है ही नहीं, तो करना क्या! और उसी रात घटना घटी। उस रात गहन विश्राम में सो गए। अब कोई खोज न थी। कुछ पाना न था। विश्राम ही विश्राम था। कोई तनाव न था। कोई चिंता न थी।
सुबह जब उठे, और रात का आखिरी तारा डूबता हुआ देखा। बस, उस तारे को डूबते हुए देखना--उसकी आखिरी झिलमिलाहट! यह गया, यह गया, यह गया! ऐसे ही भीतर अहंकार चला गया। क्योंकि जब कुछ खोज ही न रही, जब कुछ पाने की आकांक्षा न रही, जब कुछ पाने को ही न बचा; जब हार परिपूर्ण हो गई--तो यह गया, यह गया, यह गया! जैसे तारा डूबता है सुबह--आखिरी तारा। वह जो थोड़ी बहुत रेख भी रह गई होगी अहंकार की, वह चली गई। उसी क्षण बोध को उपलब्ध हो गए।
खोज-खोज कर जो न मिला था, वह बिन खोजे मिला। प्रयास से जो न मिला था, वह विश्राम से मिला। चेष्टा से, श्रम से जो न मिला था, वह विराम से मिला। दौड़ कर जो न मिला था, वह बैठ कर मिला। आपा-धापी से न मिला था। किधर-किधर न भटके थे! वह ‘इधर’ मिला! वे जब सब छोड़ कर बैठ गए, तो होगा क्या? जीवन-चेतना, जीवन-ऊर्जा जो सब जगह बिखरी थी, सिमट आई। सब न्यस्त स्वार्थ गिर गए। संसार भी गिर गया। मोक्ष भी गिर गया। कोई आकांक्षा न रही--इस संसार की या उस संसार की। महत्वाकांक्षा मात्र समाप्त हो गई। तो अब जीवन-ऊर्जा कहां भटके! लौट आई अपने पर। बैठ रही भीतर। केंद्र पर समाहित हो गई। किरणें लौट आईं सूरज की वापस। विस्तार सिकुड़ आया। सब केंद्र पर बैठ रहा। वहीं उपलब्धि है। हार में जीत है।

आखिरी प्रश्न: भगवान,
सांसों की सरगम पे नाचूं मैं छमछम मौजों की लहरों पे बरसूं मैं रिमझिम। गाती हूं मैं गुनगुनाती हूं मैं सब-कुछ सुहाना लगता है मधुबन मधुबन लगता है! शाम और सबेरा, दीप और अंधेरा उदासी का मेला, खुशियों का डेरा बहती हूं मैं गुनगुनाती हूं मैं सब-कुछ प्यारा लगता है यह जग न्यारा लगता है! सन्नाटे में डूबना, हंसना और रोना कभी महावीर को ध्याना, कभी मीरा को गाना वहां तुम्हें पाती हूं मैं, खिलखिलाती हूं मैं सब-कुछ प्यारा लगता है अपना अपना लगता है! भगवान, आपकी कृपा से आज मैं भाग्यवान हूं। हे करुणावान!
गुणा! जैसा तुझे हो रहा है, ऐसा ही सभी को हो--ऐसा ही आशीष देता हूं।

आज इतना ही।

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