QUESTION & ANSWER
Jyun Macchali Bin Neer 05
Fifth Discourse from the series of 10 discourses - Jyun Macchali Bin Neer by Osho. These discourses were given during SEP 21-30 1980.
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पहला प्रश्न: भगवान,
मनुस्मृति का यह बहुत लोकप्रिय श्लोक है: सत्यं ब्रूयात्ंप्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं बू्रयादेष धर्मः सनातनः।। अर्थात मनुष्य सत्य बोले, प्रिय बोले; अप्रिय सत्य को न बोले और असत्य प्रिय को भी न बोले। यह सनातन धर्म है। भगवान, इस पर कुछ कहने की कृपा करें।
शरणानंद! मनुस्मृति इतने असत्यों से भरी है कि मनु हिम्मत भी कर सके हैं इस सूत्र को कहने की, यह भी आश्चर्य की बात है। मनुस्मृति से ज्यादा पाखंडी कोई शास्त्र नहीं है। भारत की दुर्दशा में मनुस्मृति का जितना हाथ है, किसी और का नहीं। मनुस्मृति ने ही भारत को वर्ण दिए हैं। शूद्रों का यह जो महापाप भारत में घटित हुआ है, जैसा पृथ्वी में कहीं घटित नहीं हुआ, उसके लिए कोई जिम्मेवार है तो मनु जिम्मेवार हैं। यह मनुस्मृति की ही शिक्षा का परिणाम है, क्योंकि मनुस्मृति है हिंदू धर्म का विधान। वह हिंदू धर्म की आधारशिला है।
इन पांच हजार वर्षों में शूद्रों के साथ जैसा अनाचार हुआ है, बलात्कार हुआ है, वह अकल्पनीय है। उस सबके पाप के भागीदार मनु हैं। शूद्र की स्त्री के साथ कोई ब्राह्मण अगर बलात्कार करे तो कुछ रुपयों के दंड की व्यवस्था है। और कोई शूद्र अगर ब्राह्मण की स्त्री के साथ बलात्कार करे तो उसे मृत्यु-दंड की व्यवस्था है। कैसा सत्य है यह! शूद्र की स्त्री की कीमत कुछ रुपये है और ब्राह्मण की स्त्री की कीमत--शूद्र का जीवन। बलात्कार भी ब्राह्मण करे तो यूं समझो कि धन्यभागी हो तुम कि तुम्हारे साथ बलात्कार किया। बड़ी कृपा है मनु की कि उन्होंने यह नहीं कहा कि उसको कुछ रुपयों का पुरस्कार दो। देना तो यही था पुरस्कार, कि कितनी कृपा की ब्राह्मण महाराज ने! धन्यभागी है शूद्र की पत्नी! उसकी देह को इस योग्य माना!
ऐसे असत्यों का प्रचार करने वाले लोग भी सुंदर-सुंदर सुभाषित कह गए हैं। यह सुंदर सुभाषितों की आड़ में बहुत पाप छिपा हुआ है। शूद्र को उन रास्तों पर चलने की आज्ञा नहीं जहां ब्राह्मण रहते हों। उन कुओं से पानी भरने की आज्ञा नहीं, जहां से दूसरे उच्च वर्णों के लोग पानी भरते हों। शूद्र मनुष्य है या मनुष्य नहीं? पशु भी चल सकते हैं उन रास्तों पर, जहां ब्राह्मण रहते हैं, क्योंकि गऊ तो माता है! और गऊ माता है, सो बैल पिता हुए ही। इससे कैसे बचोगे? वह तो स्वाभाविक तर्क होगा फिर। भैंसें भी चल सकती हैं, ये भी चाचियां समझो, न सही मां। भैंसे चल सकते हैं, इनको चाचा समझो। गधे चल सकते हैं, इनको मौसेरे भाई-बंधु समझो। मगर शूद्र नहीं चल सकता। शूद्र चले तो उसे जीवन-दंड भी दिया जा सकता है।
शूद्र अगर वेद पढ़े, तो मनु ने विधान किया: उसके कान में सीसा पिघला कर भर दो। अगर वेद-वचन बोले, उसकी जबान काट दो। शूद्र अगर ब्राह्मण का मजाक उड़ाए, तो उसकी जबान काट देने का विधान है। व्यंग्य करे, तो जबान काट देने का विधान है। गाली दे दे, तो उसकी जबान काट देने का विधान है। अगर शूद्र कोई अपने हाथ से ब्राह्मण को छू दे, तो उसका हाथ काट देने का विधान है।
इस तरह की अनाचार से भरी हुई बातें और इस तरह के लोग सनातन धर्म की व्याख्या कर रहे हैं! इनसे व्याख्या हो नहीं सकती। होगी भी तो उसमें बुनियादी भूलें हो जाएंगी। स्वाभाविक है कि भूलें हों। अब जैसे यह सूत्र माना कि बहुत प्रसिद्ध है और प्रसिद्ध होने के कारण बहुत पुनरुक्त होता है, और बहुत पुनरुक्त होने के कारण तुम यह भूल ही जाते हो कि इस पर विचार भी करें। इसे आदमी स्वीकार करने लगता है। पुनरुक्ति एक तरह का सम्मोहन पैदा करती है, सोच-विचार को समाप्त कर देती है।
सोचो थोड़ा, मनु कहते हैं: ‘मनुष्य सत्य बोले।’
लेकिन अगर मनुष्य ने सत्य अनुभव नहीं किया है, तो बोलेगा कैसे? अनुभव की तो कोई बात ही नहीं की जा रही है, बोलने का सवाल है। सत्य का अनुभव बुनियादी बात है। सत्य का अनुभव तुम्हें सत्य बनाएगा। और तुम जब सत्यरूप हो जाओगे, तो तुम उठोगे भी तो सत्य होगा, बोलोगे तो भी सत्य होगा, न बोलोगे तो भी सत्य होगा। तुम्हारे मौन में भी सत्य की आभा होगी। तुम्हारे वचनों में भी सत्य की सुगंध होगी। उठने और बैठने में भी सत्य की ही मुद्राएं होंगी। तुम्हारा हर पल सत्य में भिगोया हुआ होगा। फिर अलग से सत्य बोलने के लिए कोई आयोजन न करना होगा। आयोजन करना पड़ता है इसलिए कि सत्य तुम्हारा जीवन नहीं है। और जब जीवन नहीं है तो सत्य बोलोगे तो वह सत्य उधार होगा। वह तुम्हारा तो नहीं हो सकता। और जो तुम्हारा नहीं है वह सत्य ही कैसा? जो तुम्हारा नहीं है वह तो असत्य ही है। रहा होगा किसी के लिए सत्य, जिसका था, मगर तुम्हारे लिए नहीं।
मेरा सत्य तुम्हारा सत्य नहीं है। मेरा सत्य सत्य इसीलिए है कि मेरा अनुभव है। और जब तक तुम्हारा भी अनुभव न बन जाए तब तक तुम्हारे लिए तो झूठ ही है, झूठ के ही बराबर है। हां, तुम तोते की तरह दोहरा सकते हो।
सो मनु ने तोतों की जमात पैदा कर दी। यह जो पंडितों का इतना बड़ा वर्ग इस देश की छाती पर दाल घोंट रहा है, मूंग दल रहा है, यह मनु खड़ा कर गए। ये सब सत्य बोल रहे हैं। सत्य से इनका मतलब--वेद का उद्धरण दे रहे हैं, गीता दोहरा रहे हैं, रामचरितमानस दोहरा रहे हैं। इसमें से कोई भी इनका अनुभव नहीं, कोई भी निज की प्रतीति नहीं, स्वयं का साक्षात नहीं।
लाओत्सु कहता है कि सत्य तुमने कहा नहीं, दूसरे ने सुना नहीं कि झूठ हो जाता है। क्योंकि जब तुम कहते हो, तुम्हारा तो अनुभव होगा, लेकिन जिसने सुना उसका अनुभव नहीं है। वह सत्य नहीं सुनता, वह तो केवल शब्द सुनता है।
तुम भी ईश्वर को मानते हो, मगर ईश्वर तुम्हारा सत्य है? तुम छाती पर हाथ रख कर कह सकते हो, तुमने जाना? इतना ही कह सकते हो कि मैं मानता हूं। लेकिन मानना और जानना, जमीन-आसमान का भेद है। मानता वही है जो जानता नहीं। जो जानता है वह मानेगा क्यों? मानने की जरूरत क्या है? जब जानता ही है तो मानने का सवाल ही नहीं उठता।
तुम्हारे सत्य विश्वास हैं, अनुभूतियां नहीं। और विश्वास सब झूठ होते हैं। कैसे तुम सत्य बोलोगे?
मनु कहते हैं: ‘मनुष्य सत्य बोले।’
पाखंडी बन जाएगा मनुष्य सत्य बोलने की चेष्टा में। सत्य हो। मैं तुमसे कहता हूं: मनुष्य सत्य बने, सत्य हो! सत्य उसका साक्षात्कार हो। सत्य उसका जीवन हो। फिर उस जीवन से जो भी निकलेगा वह सत्य होगा ही। गुलाब के पौधे पर गुलाब के पत्ते लगेंगे और गुलाब के फूल खिलेंगे। कुछ गुलाब की झाड़ी को यह कहने की जरूरत नहीं है कि देख, तुझमें गुलाब के फूल खिलने चाहिए। खिलेंगे ही। हां, गेंदे के पौधे से कहो तो बात जमती है कि देख, गेंदा मत खिला देना, गुलाब खिला। अब गेंदे का पौधा बेचारा क्या करे! बाजार से प्लास्टिक के गुलाब के फूल खरीद लाए, लटका ले प्लास्टिक के फूल, अपने गेंदों को छिपा ले घूंघट में और घूंघट के बाहर लटका दे गुलाब के फूल--इतना ही हो सकता है। पाखंड ही हो सकता है।
इस तरह के सूत्र पाखंड के जन्मदाता हैं।
मनु कोई बुद्धपुरुष नहीं हैं। मनु ने स्वयं जाना नहीं है, नहीं तो इस तरह की बात नहीं कहते। बुद्ध तो कुछ और कहते हैं। बुद्ध कहते हैं: अप्प दीपो भव! अपने दीये बनो। ज्योति जलाओ। अपनी ज्योति, अपना दीया।
बुद्ध ने कहा है: मैं कुछ कहता हूं, इसलिए मत समझ लेना कि सत्य है। शास्त्र कहते हैं, इसलिए मत मान लेना कि सत्य है। शास्त्र गलत हो सकते हैं, फिर? मैं गलत हो सकता हूं, फिर? मैं धोखा दे सकता हूं, फिर? मैं धोखा न भी दूं, मैं खुद ही धोखे में हो सकता हूं, फिर?
तो बुद्ध ने कहा है: मेरी बात मत मान लेना। प्रयोग करना। जानना। और जब जानो, जब स्वयं की ज्योति जले, उस ज्योति में जो अनुभव हो, जो प्रकाशित हो, वह तुम्हारा होगा।
सत्य सदा स्वयं का होता है। और फिर उस सत्य के अनुभव में जो पत्ते लगेंगे, फूल लगेंगे, फल लगेंगे, वे सब सत्य के होंगे। यह सिखाने की जरूरत नहीं है कि मनुष्य सत्य बोले। ध्यान सिखाने की जरूरत है, सत्य सिखाने की जरूरत नहीं है। सत्य तो हम सबके भीतर पड़ा है। वह हमारा स्वभाव है।
महावीर का सूत्र ज्यादा कीमती है: ‘वत्थू सहावो धम्म।’ वस्तु का स्वभाव धर्म है। हमारा स्वभाव हमारा धर्म है। हम अपने स्वभाव को पहचान लें और हमने सत्य जान लिया। फिर उसके बाद हम जो भी करें, वह सभी सत्य होगा। लेकिन अगर तुमने सत्य बोलने की चेष्टा की, तो तुम बड़ी झंझट में पड़ोगे।
क्या है सत्य फिर? बाइबिल सत्य है? कुरान सत्य है? गीता सत्य है? धम्मपद सत्य है? ताओ तेह किंग सत्य है? क्या सत्य है? और इन सबकी बातों में बड़ा विरोध है। खुद बाइबिल में दो हिस्से हैं--पुरानी बाइबिल और नई बाइबिल। पुरानी बाइबिल यहूदियों की किताब है और नई बाइबिल ईसाइयों की किताब है। यहूदी तो सिर्फ पुरानी बाइबिल को मानते हैं; नई बाइबिल तो जीसस के वचन हैं, उसको तुमने इनकार कर दिया। जीसस को तो सूली पर लटका दिया। लेकिन ईसाई दोनों बाइबिल मानते हैं और ईसाइयों के पास कोई उत्तर नहीं है इस बात का।
पुरानी बाइबिल में ईश्वर कहता है: मैं बहुत ईर्ष्यालु ईश्वर हूं। जो मेरे साथ नहीं है वह मेरा दुश्मन है। यह तो एडोल्फ हिटलर की भाषा है। एडोल्फ हिटलर ने यह लिखा ही है ‘मैनकैम्फ’ में कि जो मेरे साथ नहीं वह मेरा दुश्मन है। या तो मेरे साथ हो, या मेरे दुश्मन हो। बस दो ही कोटियों में आदमी को बांटा है।
और स्पष्ट कहता है पुरानी बाइबिल का ईश्वर कि मैं ईर्ष्यालु हूं। ईश्वर और ईर्ष्यालु! तो फिर ईश्वर को पाकर भी क्या करोगे? यही ईर्ष्या, यही लोभ, यही मोह, यही उपद्रव अगर वहां भी जारी रहना है तो यहां ही क्या बुराई है? फिर आदमी होने में क्या बुरा है?
और जीसस कहते हैं: ईश्वर प्रेम है। और ईसाई दोनों किताबों को पूजता है बिना इसकी फिकर के कि जरा देखे इस विरोधाभास को: ईर्ष्या और प्रेम! जहां प्रेम है वहां ईर्ष्या नहीं है और जहां ईर्ष्या है वहां प्रेम नहीं है। ईर्ष्या और प्रेम तो यूं हैं जैसे प्रकाश और अंधकार। इनका कोई तालमेल कहीं नहीं होता। फिर भी दोनों की पूजा जारी है।
अंधे हैं लोग। इन अंधे लोगों से कहो कि सत्य बोलो, क्या सत्य बोलेंगे? सत्य का पता ही नहीं है। हां, दोहरा सकते हैं तोतों की तरह, यंत्रों की तरह। और सत्य जब दोहराया जाता है तो मुर्दा होता है। मुर्दा सत्य सड़ी हुई लाश होती है। उससे दुर्गंध उठती है। उससे जीवन मुक्त नहीं होता, बंधन में पड़ता है।
मैं नहीं कहता कि सत्य बोलो। इसका यह अर्थ नहीं कि मैं कहता हूं कि सत्य मत बोलो। मेरी बात को समझने की कोशिश करना। मैं कहता हूं: सत्य हो जाओ। अप्प दीपो भव! दीये बनो। फिर उस रोशनी में तुम जो बोलोगे वह सत्य ही होगा। वह असत्य नहीं हो सकता। फिर तुम्हें बोलना न पड़ेगा। अभी बोलना पड़ेगा। और जब बोलना पड़ता है उसका अर्थ है--जहां श्रम है, चेष्टा है, उसका अर्थ है: तुम दो हिस्सों में बंट गए। तुम्हारे भीतर तो कुछ था और बाहर तुमने कुछ दिखाया। भीतर तो झूठों की कतार लगी थी और बाहर सत्य बोलने की चेष्टा की। भीतर तो गालियां चल रही थीं और बाहर गीत गाया।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने मित्र चंदूलाल को एक रात निमंत्रित किया। दोनों ने डट कर पी। मुल्ला की पत्नी गई थी मायके, सो कोई अड़चन थी नहीं। सो दिल खोल कर पी। और जब दोनों विदा होने लगे, तो द्वार पर जो बात हुई, वह जरा समझने जैसी है। आमतौर से मेहमान से हम कहते हैं कि आपकी बड़ी कृपा, बड़ी अनुकंपा कि आप पधारे! हम धन्य हुए! गरीबखाने पर आप आए, गरीब की कुटिया को पवित्र कर दिया। और मेहमान कहता है कि नहीं-नहीं ऐसी बात न करें। आपकी बड़ी कृपा कि आपने निमंत्रण दिया, मुझे इस योग्य माना कि अपना अतिथि बनाया! इतना सत्कार किया, इतनी सेवा की! मगर वह जो बात वहां हुई, बिलकुल सच्ची हो गई, क्योंकि दोनों पीए थे। मुल्ला ने कहा: मैं भी धन्य हूं। मेरी भी कृपा देखो कि मैंने तुम्हें निमंत्रण दिया।
और चंदूलाल ने कहा: अरे नहीं-नहीं, मैं धन्य हूं! मेरी कृपा देखो कि मैंने तुम्हारे जैसे का भी निमंत्रण स्वीकार किया!
यही पड़ा होता है भीतर तो। बाहर हम कहते हैं, बड़ी कृपा, आप पधारे! और भीतर यह होता है, यह दुष्ट कहां से आ गया! रास्ते पर मिल जाते हो तो भीतर कहते हो: हे भगवान, कहां से इस दुष्ट की शक्ल सुबह-सुबह दिखाई पड़ गई, दिन भर न बिगड़ जाए! ऐसे उससे यह कहते हो कि बड़ा सौभाग्य, बड़े दिनों में दर्शन हुए! अहोभाग्य, सुबह-सुबह दर्शन हो गए! मगर भीतर कुछ और चल रहा है, बाहर कुछ और चल रहा है।
इस तरह के वचनों ने ही, इस तरह के नैतिक वचनों ने ही तुम्हें खंड-खंड कर दिया है। तुम्हें खंड-खंड करके ही तो पाखंडी बना दिया है। पाखंड का मतलब ही यह होता है कि जो व्यक्ति खंड-खंड है वह पाखंडी है। पाखंड यानी खंड-खंड हो जाना। अखंड होने में पाखंड नहीं होता। अखंड का मतलब होता है: जैसा भीतर है वैसा बाहर है।
मुझसे लोग नाराज इसलिए हैं कि मैं पाखंड में जरा भी भरोसा नहीं करता। जो मेरे भीतर है वही मैं कहता हूं। जैसा है वैसा ही कहता हूं--बुरा लगे बुरा लगे, भला लगे भला लगे। जो मेरे लिए सत्य है वही कहता हूं, जो परिणाम हो। परिणाम की चिंता करके जो बोलता है वह तो सत्य बोल ही नहीं सकता। वह तो परिणाम के हिसाब से बोलेगा। वह तो दुकानदार है। वह तो यह देखता है कि लाभ किससे होगा, क्या कहूं जिससे लाभ हो? वह अगर सत्य भी बोलेगा तो तभी बोलेगा जब लाभ होता हो। उसने तो सत्य को भी लाभ का ही साधन बना लिया है। और सत्य किसी चीज का साधन नहीं है, परम साध्य है। सब-कुछ सत्य पर समर्पित है, लेकिन सत्य किसी के लिए समर्पित नहीं है। सत्य से ऊपर कोई धर्म नहीं। सत्य से ऊपर कोई परमात्मा नहीं। सत्य ही परम धर्म है और सत्य ही भगवत्ता है। मगर यह अनुभव से हो।
मैं नहीं कहूंगा कि सत्य बोलो। मैं कहूंगा: सत्य हो जाओ। बोलना तो बड़ा आसान है, होने का सवाल है।
लेकिन मनु कहेंगे: प्रेम बोलो। मैं कहूंगा: प्रेमपूर्ण हो जाओ। वे तुम्हें पाखंड सिखा रहे हैं। वे कह रहे हैं: जरा जबान का अभ्यास कर लो--मृदु, सुंदर, प्रीतिकर सत्य हो, बोलो। इसलिए कहते हैं: सत्य बोलो, प्रिय बोलो।
लेकिन प्रेम भीतर न हो तो प्रिय कैसे बोलोगे? कहां से लाओगे प्रियता? वह माधुर्य कहां से लाओगे? भीतर प्रेम लहरा रहा हो तो उसमें जब डुबकी लगा कर शब्द आते हैं तो मीठे हो जाते हैं, नहाए होते हैं, स्वच्छ होते हैं, ताजे होते हैं, जीवंत होते हैं। मगर भीतर मृदुता नहीं है। भीतर तो कटुता भरी है। जहर हो भीतर। भीतर जहर रहे आओ और ऊपर मीठा बोलना, तो तुम दो हो गए--बोलने में कुछ, होने में कुछ। और ध्यान रखना, करोगे तो तुम वही जो तुम हो। बोलो तुम लाख कुछ और, होगा तो वही जो तुम हो। और जरा सी खरोंच में निकल आएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन बीमार था, बहुत बीमार था। सर्द रात, बड़ी बर्फीली रात, पानी जमा जा रहा है ऐसी सर्दी। आधी रात को डॉक्टर को मुल्ला की पत्नी ने खबर की। डॉक्टर की भी छाती दहले बाहर निकलने में। लेकिन मजबूरी है, बीमार मरणासन्न है। पत्नी ने कहा: आना ही होगा। इसी वक्त आना होगा। शायद यह आखिरी ही क्षण हों, आ जाओ तो शायद बच जाएं।
झिझकता हुआ डॉक्टर, गालियां देता हुआ, कि मर ही क्यों न गया यह आदमी शाम को और रात तक किसलिए जिंदा है, और हमको भी मारने के पीछे लगा है. मगर मजबूरी डॉक्टर की, गालियां कितनी ही दो। गया। पत्नी को कहा कि तुम नाहक परेशान हो रही हो, बचने की कोई उम्मीद नहीं है। मैं दोपहर को ही तो देख कर गया था, बचने की कोई उम्मीद नहीं है। सुबह हो जाए तो बहुत। अब काहे को रात गई मुझे बुलाया? कुछ किया नहीं जा सकता।
भीतर तो क्रोध से आगबबूला हो रहा था। लेकिन पत्नी ने कहा कि आखिरी घड़ी है। सोचा एक बार और आप देख लो, शायद कुछ उपाय हो सके तो और कर लो। कहने को न रह जाए। यह मन में बात न रह जाए कि आखिरी क्षण में चिकित्सक को नहीं बुलाया। मगर एक बात की प्रार्थना है कि यह जो आप कह रहे हो कि अब बचने की उम्मीद नहीं है, मुल्ला के सामने न कहना। उनको दुख न लगे। विदा कम से कम हो ही रहे हैं तो मौन से और शांति से विदा हो जाएं।
डॉक्टर ने कहा: ठीक। भीतर गया, नब्ज देखी, तापमान लिया और मुस्कुरा कर कहा कि अरे नसरुद्दीन, दोपहर को देख कर गया था तो मुझे लगता था पता नहीं बचोगे कि नहीं, मगर अब तो बिलकुल हालत ठीक है। दिन-दो दिन में उठ आओगे, चलने-फिरने लगोगे। चमत्कार हो गया मालूम होता है। सब ठीक है, बिलकुल स्वास्थ्य जैसा होना चाहिए हो गया। दवा असर कर गई मालूम होता है। और भाग्यशाली हो, अभी तुम्हारी किस्मत में जाना नहीं लिखा है। अभी जीओगे दस-पचास वर्ष।
और तभी मुल्ला की पत्नी दरवाजा खोल कर भीतर आई। दरवाजा खोला तो हवा का सर्द झोंका भीतर आया। और मुल्ला की पत्नी दरवाजा खुला ही छोड़ कर पास आकर खड़ी हो गई। डॉक्टर एकदम चिल्लाया कि बाई, कम से कम दरवाजा तो बंद कर दे। क्या नसरुद्दीन के साथ हमको भी मारना है? वह खरोंच जरा ही सी, हवा का झोंका और बात निकल आई जो दबी पड़ी थी। ऊपर से तो कह रहा था कि अब तुम काफी जीओगे। लेकिन हमारी भी अरथी उठवाना है क्या सुबह ही? इनकी तो उठी ही है, इनकी तो खाट खड़ी ही है, हमारी भी खड़ी करवा देना है क्या? बंद कर दरवाजा!
कैसे छिपाओगे? कब तक छिपाओगे? यहां-वहां से बह कर बात निकल आएगी। बच नहीं सकती।
‘प्रिय बोले--मनु कहते हैं--और अप्रिय सत्य को न बोले।’
यह बात तो और भी गलत है, बुनियादी रूप से गलत है। सत्य तो जब भी बोला जाएगा, अप्रिय होगा। क्योंकि तुम झूठ में जी रहे हो, झूठ ही तुम्हारी सांत्वना है। अगर अप्रिय सत्य न बोलना हो तो न जीसस बोल सकते हैं, न बुद्ध बोल सकते हैं। फिर तो मनु ही बोल सकते हैं--मनु, जिनको कि सत्य का कोई पता नहीं है। फिर न तो लाओत्सु बोल सकते हैं, न जरथुस्त्र बोल सकते हैं। फिर तो इस जगत में जिन लोगों ने सत्य बोला है, वे कोई नहीं बोल सकते, क्योंकि जब भी कोई सत्य बोलेगा वह अप्रिय होने वाला है। अप्रिय इसलिए नहीं कि सत्य अप्रिय होता है; अप्रिय इसलिए कि तुम झूठ में रगे-पगे हो और जब सत्य बोला जाता है, तुम्हारे झूठों पर चोट पड़ती है। और तुमने झूठों को सत्य मान रखा है। तो जब कोई सत्य बोलेगा, तुम्हारे झूठ गिरेंगे। तुम्हें यूं लगेगा कि जैसे किसी ने तलवार उठा ली और तुम्हारे झूठों को जड़ों से काट डाला। जैसे कोई कुल्हाड़ी लेकर तुम्हारे ऊपर टूट पड़ा है। सत्य तो जब भी होगा, अप्रिय ही होगा।
बुद्ध का वचन है कि झूठ पहले मीठा, बाद में कड़वा होता है; सत्य पहले कड़वा बाद में मीठा होता है। और बुद्ध ज्यादा ठीक बात कह रहे हैं। सत्य तो पहले कड़वा लगेगा ही, जहर जैसा लगेगा। क्योंकि तुम्हारी सारी सांत्वनाएं छीन लेता है, तुम्हारी नींद उखड़ जाती है, तुम्हारी बेहोशी टूट जाती है। तुम्हें कोई जगा दे नींद में से तो कोई प्रिय थोड़े ही लगता है। भला तुमने ही कहा हो कि सुबह-सुबह उठा देना.।
जर्मनी का प्रसिद्ध विचारक हुआ, इमैनुअल कांट। वह घड़ी के कांटे से चलता था। कहते हैं जब वह विश्वविद्यालय पढ़ाने जाता था, लोग अपनी घड़ियां ठीक कर लेते थे। क्योंकि नियम से, मिनट, सेकेंड, ऐसा घड़ी का पाबंद था कि मशीन की तरह चलता था। एक दफा जा रहा था विश्वविद्यालय, कीचड़ थी और एक जूता कीचड़ में फंस गया, तो उसने लौट कर जूता नहीं उठाया, क्योंकि उतने में तो देर लग जाएगी। कुछ सेकेंड तो देर हो ही जाती, जूता निकलता कीचड़ से, साफ करता, पहनता, पैर में डालता। इतनी देर से वह नहीं पहुंचेगा। वह एक जूता वहीं छोड़ गया। एक ही जूता पहने हुए वह विश्वविद्यालय पहुंचा। जब उसके विद्यार्थियों ने पूछा कि आपके एक जूते का क्या हुआ? उसने कहा कि वह लौटते में कीचड़ में से निकालूंगा। अभी निकालता तो पांच-दस सेकेंड लेट हो सकता था।
उसको देख कर लोग घड़ियां सुधार लेते थे। उसने एक गांव छोड़ा नहीं, जिस गांव में रहा पूरी जिंदगी वहीं रहा। इसलिए नहीं छोड़ा कि दूसरे गांव में जाए तो कहीं जीवन के क्रम में कोई व्याघात न पड़ जाए। अरे ट्रेन लेट हो जाए, भोजन समय पर न मिले, नींद वक्त पर न ले पाए.। ठीक सो जाता था नौ बजे। अगर नौ बजे उसके मेहमान भी बैठे हों तो उनसे भी यह नहीं कहता था कि अब मेरा सोने का वक्त हो गया, क्योंकि इतना भी समय खोना क्यों। जैसे ही घड़ी में नौ बजे वह छलांग लगा कर अपने बिस्तर में होकर कंबल ओढ़ लेता था। वह जो बैठा आदमी एकदम चौंका ही रह जाए कि क्या हुआ। नौकर आकर उससे कहता था कि भैया अब घर जाओ, वे तो सो गए। नौ बज गए। नौ बज जाएं तो वे एक शब्द नहीं बोलते, क्योंकि उतनी देर.। ऐसा बिलकुल पाबंद था। सुबह तीन बजे उठना नियम था। हिंदुस्तान में ब्रह्ममुहूर्त ठीक है, गर्म देश है। और तुम सोना भी चाहो तो मच्छर कहां सोने देंगे! और सुबह-सुबह मच्छर और भनभनाते हैं।
सच तो यह है अभी-अभी वैज्ञानिकों ने खोज की है कि सुबह आधा घंटा सूर्योदय के पहले और सांझ सूर्यास्त के बाद आधा घंटा, बस ये दो ही समय में मच्छर योग्य होते हैं लोगों में बीमारी फैलाने में, और बाकी समय में उनकी योग्यता नहीं होती। ब्रह्ममुहूर्त में सावधान रहना मच्छरों से। वही वक्त है जब मच्छर बीमारी डाल सकता है--सिर्फ आधा घंटा सुबह और आधा घंटा शाम। अगर ये दो वक्त तुम बचा लो, मच्छर तुम्हें कोई बीमारी नहीं दे सकता। उसी समय उसकी संभावना है।
तो यहां तो मच्छर वैसे ही किसी को ब्रह्ममुहूर्त में सोने नहीं देते। और गर्म देश है। मगर ठंडे देश में तीन बजे रात उठना कठिन काम है।
उसने कभी विवाह नहीं किया--इसीलिए कि स्त्री आए, कौन झंझट करे! माने न माने, सुने न सुने। वक्त पर काम हो या न हो। नौकर ठीक। नौकर है तो मान कर चलेगा। नौकर का काम यह था कि वह तीन बजे उठाए। और एक ही नौकर टिका, क्योंकि कोई भी नौकर दो-चार दिन में कह दे कि बस माफ करिए, अब मैं जाता हूं, मुझे नहीं करना यह काम। क्योंकि काम क्या था, चौबीस घंटे घड़ी की सुई की तरह चलना। और सबसे कठिन काम था सुबह तीन बजे। कांट को उठाना बहुत मुश्किल था, हालांकि वह कहता था कि तीन बजे उठाओ, मगर उठना नहीं चाहता था। छीन-छीन कर अपना कंबल अंदर घुस जाता था। शाम को कहता था कि चाहे कुछ भी हो जाए, उठाना। और सुबह गालियां बकता था, कि नौकर तू है कि मैं हूं? छोड़ कंबल, निकल बाहर! और फिर अपने बिस्तर में घुस जाए। और दूसरे दिन सुबह फिर डांटे कि जब मैंने कहा था कि उठाना.। एक ही पहलवान छाप नौकर था, वह रुका। वह उठा देता था। यहां तक नौबत आ जाती थी कि मार-पीट हो जाती थी। कहा जाता है कि वह नौकर भी ऐसा था कि जमा देता था दो-चार; अगर उसके साथ छीना-झपटी करे तो वह कहता था: मालिक, आपने ही कहा। फिर अब बाद में मत कहना। लगा देता दो-चार उठा-पटक उनको। पटक देता उठा कर नीचे फर्श पर। मगर उठा कर रहता। बिस्तर उठा लेता, निकाल बाहर कर देता कमरे के। वही नौकर टिका और उससे कांट बहुत खुश था। हालांकि सुबह बहुत गालियां बकता था, झूमा-झटकी होती थी, कपड़े फट जाते; मगर वह नौकर भी एक था! उसको क्या पड़ी थी! उसको मजा आने लगा था कि ठीक है, इनको उठा कर वह अपना सो जाता था जाकर कि अब तुम अपना करो ब्रह्ममुहूर्त में जो तुम्हें करना है। वही एक नौकर टिका। एक दफा वह छोड़ कर चला गया तो उसको वापस दुगनी तनख्वाह पर लाना पड़ा, क्योंकि उसके बिना कांट का जीना मुश्किल हो गया। कौन उठाए तीन बजे उसे!
जब कोई तुम्हें नींद से उठाएगा, तो छीना-झपटी होने वाली है। सत्य तो अप्रिय होगा ही।
और मनु कहते हैं: ‘अप्रिय सत्य को न बोले।’
तब तो फिर सत्य बोला ही नहीं जा सकता।
और यह भी कहते हैं कि ‘असत्य प्रि
य को भी न बोले।’
तब तो बिलकुल बोला नहीं जा सकता। बोलना ही खत्म। अप्रिय सत्य को न बोले, यह एक शर्त लगा दी। और असत्य प्रिय को न बोले। और असत्य ही प्रिय होता है, क्योंकि असत्य तुम्हें सांत्वना देता है। असत्य की ईजाद क्यों करता है आदमी? संतोष के लिए, सांत्वना के लिए। तुम्हारी पत्नी मर जाती है, मोहल्ले-पड़ोस के लोग आकर समझाते हैं कि मत रोओ, अरे आत्मा तो अमर है! जैसे इनको पता है!
एक सज्जन की पत्नी मर गई, तो मैं भी गया। वहां मैंने देखा कि मोहल्ले के लोग उन्हें समझा रहे हैं कि आत्मा तो अमर है। एक सज्जन बहुत ही समझा रहे थे। बड़े श्लोक वगैरह उद्धरण दे रहे थे और बड़ी प्रामाणिकता से सिद्ध कर रहे थे कि आत्मा तो अमर है। अरे गीता में लिखा हुआ है: न हन्यते हन्यमाने शरीरे! नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। आग जलाती नहीं, शस्त्र छेदते नहीं। शरीर कट जाए, शरीर मर जाए, मिट जाए, आत्मा नहीं मरती।
तो मैंने कहा कि इनको तो ज्ञान उपलब्ध हो गया मालूम होता है। संयोग की बात, दो साल बाद उनकी पत्नी मरी, तो मैं उनके घर गया। वे रो रहे थे। मैंने कहा: अरे, तुम और रो रहे!. न हन्यते हन्यमाने शरीरे! भूल गए? दूसरे की पत्नी मरी तो क्या ज्ञान बघार रहे थे, अपनी मरी तो सब भूल गए! तो क्यों बकवास लगा रखी थी उस दिन?
वे मुझसे कहने लगे: भई, अभी विवाद न छेड़ो, अभी मैं मुसीबत में पड़ा हूं, तुम विवाद खड़ा कर रहे।
मैं विवाद खड़ा नहीं कर रहा, विवाद तुमने खड़ा करवाया। दूसरे की पत्नी मरी तो आत्मा अमर है। अपना जाता क्या! अपनी मरी, तब पता चलना चाहिए। अभी सबूत दो। रोओ मत। आत्मा मरी ही नहीं। और शरीर तो मरा ही हुआ है। इसके लिए क्या रोना? अरे मिट्टी मिट्टी में मिल गई, बात खत्म! यही बातें तुम समझा रहे थे, यही मैं तुम्हें दोहरा रहा हूं, सिर्फ याद दिला रहा हूं।
उन्होंने मुझे बड़े गुस्से से देखा। मैंने कहा: गुस्से से देखने का कोई सवाल नहीं है। अगर तुम्हें पता नहीं तो क्यों बकवास छेड़ रखी थी? क्यों उस बेचारे को बकवास सुना रहे थे अपनी?
और थोड़ी देर में, मैं वहां बैठा ही था कि वे सज्जन आए जिनकी पत्नी पहले मर चुकी थी। वे भी समझाने लगे कि भैया, क्यों रो रहे हो? अरे देह तो आती-जाती है। आत्मा का न कोई जन्म, न कोई मृत्यु।
मैंने कहा: मालूम होता है आपकी पत्नी जब से मरी, आपको ज्ञान उपलब्ध हो गया। तब तो आपकी हालत खराब थी, ये ज्ञानी थे। अब इनकी हालत खराब है, आप ज्ञानी हैं।
मगर कसौटी तब आएगी. मैंने कहा: आपके पिताजी बहुत बीमार हैं, जल्दी ही मरेंगे, तब मैं आऊंगा। तब देखूंगा।
अरे, उन्होंने कहा: तुम कैसी बातें करते हो! पिताजी बीमार हैं, इसका मतलब है कि मरेंगे? तुम इस तरह की कठिन बातें और कठोर वचन बोलते हो! क्यों मरेगे?
अरे, मैंने कहा: तुम अभी तो कह रहे थे, कोई मरता ही नहीं! अभी मरे भी नहीं, मैंने सिर्फ कहा ही है, उतने से ही तुम नाराज हो रहे हो! जब मरते ही नहीं तो मेरे कहने से क्या मर जाएंगे? क्या तुम सोचते हो मेरे कहने से मर जाएंगे? इनकी पत्नी मर गई तो भी नहीं मरी और तुम्हारे पिता मेरे कहने से मरे जा रहे हैं! अरे कोई मरता नहीं भैया! आत्मा अमर है!
दोनों मुझ पर नाराज।
यहां सांत्वना के खेल चल रहे हैं। यहां एक-दूसरे के घाव पर मलहम-पट्टी की जाती है। यहां कोई सत्य बोलेगा तो अप्रिय होने वाला है, क्योंकि तुम प्रिय असत्यों में डूबे हुए हो। तुम्हारी जिंदगी प्रिय असत्यों के सिवाय और है क्या? इन्हीं प्रिय असत्यों की ईंटों से तो तुमने चुनी है अपनी इमारत। और सत्य तो इस पूरी इमारत को गिरा देगा--ऐसे, जैसे कोई ताशों के पत्तों से घर बनाए और हवा का झोंका गिरा जाए। सत्य आया, एक झोंका और तुम्हारे सारे ताश के महल नीचे गिर जाएंगे।
मैं मनु से राजी नहीं हूं। प्रिय होगा--असत्य होगा। सत्य होगा--अप्रिय होगा। फिर तुम्हें याद दिला दूं, लेकिन यह कोई सत्य का स्वभाव नहीं है अप्रिय होना, यह तुम्हारे कारण है। और असत्य का प्रिय होना भी तुम्हारे कारण है। तुम सत्य को खोजना नहीं चाहते। तुम सस्ता सत्य चाहते हो, वह झूठा ही होने वाला है। तुम ऐसा सत्य चाहते हो जो मिल जाए मुफ्त, कुछ करना न पड़े। न कोई ध्यान, न कोई प्रार्थना, न कोई योग--कुछ करना न पड़े, कोई दे दे मुफ्त। वह असत्य ही होने वाला है। हां, प्रिय हो सकता है, मगर होगा असत्य। और जब इस असत्य पर चोट करेगा कोई, तो कड़वा लगेगा, दुश्मन लगेगा।
जीसस को लोगों ने सूली क्यों दी? अगर जीसस प्रिय सत्य ही बोल सकते थे तो जरूर बोले होते। लेकिन मजबूरी थी। महावीर को लोगों ने मारा, पीटा। क्यों? बुद्ध पर लोगों ने पागल हाथी छोड़े, पत्थर सरकाए, चट्टानें गिराईं। क्यों? किस कारण? अगर ये सारे लोग प्रिय सत्य बोल सकते थे तो क्यों नहीं बोले? इन्हें कुछ अप्रिय सत्य बोलने की सनक सवार थी?
सुकरात को क्यों जहर देकर मारा गया? सत्य बोल रहा था बेचारा, और तो कुछ कर नहीं रहा था। सिर्फ सत्य बोल रहा था। लेकिन नग्न सत्य हमेशा, नींद में जो पड़े हैं, असत्यों को ओढ़े जो बैठे हैं, उनको बहुत तिलमिला जाता है। सुकरात का एक ही कसूर था कि वह लोगों को याद दिला रहा था कि तुम असत्य में जी रहे हो। और यह याद कोई बर्दाश्त नहीं करना चाहता। उसने तो कुछ किसी को कहा नहीं, चोट नहीं पहुंचाई, कुछ नहीं किया। लेकिन उस पर अदालत में मुकदमा चला। अदालत में जो प्रधान न्यायाधीश था, उसको भी थोड़ी तो ग्लानि हो रही थी, अपराध अनुभव हो रहा था। क्योंकि सुकरात जैसा अदभुत व्यक्ति इसको सजा देनी पड़ रही है! लेकिन जूरी में से अधिक लोग सजा के पक्ष में थे, मृत्यु-दंड के पक्ष में थे। लेकिन न्यायाधीश ने फिर भी एक अवसर खोजा। उसने कहा कि तुमसे मैं यह प्रार्थना करता हूं सुकरात, तुम अगर एथेंस छोड़ कर चले जाओ तो हम तुम्हें कोई दंड न देंगे। एथेंस के लोग भी राजी हो जाएंगे कि तुमने एथेंस छोड़ दिया और फिर तुम्हें जो करना हो करो।
सुकरात ने कहा: मैं जहां जाऊंगा वहीं मुकदमा चलेगा। इससे क्या फर्क पड़ता है? एथेंस छोडूंगा तो जहां जाऊंगा वहीं झंझट होने वाली है। इसलिए झंझट से यहीं निपट लेना ठीक है। सत्य तो जहां जाऊंगा वहीं चोट करेगा। और जब एथेंस जैसे सुसंस्कृत नगर में चोट कर रहा है, तो अब कहां जाऊंगा जहां चोट नहीं करेगा?
एथेंस उस समय दुनिया की सबसे सुसंस्कृत नगरी थी। सच तो यह है कि उस तरह की सुसंस्कृत नगरी दुनिया में न कभी थी, न फिर कभी हुई।
सुकरात ने कहा: एथेंस छोड़ कर कहां जाऊं? कहीं नहीं जाऊंगा। यहीं रहूंगा। जीऊंगा तो यहीं रहूंगा। मौत की सजा देनी हो तो सजा दे दो।
न्यायाधीश ने फिर उसे एक मौका दिया और कहा कि तो फिर तुम यह करो। रहो तुम एथेंस में, हम तुम्हें बुढ़ापे में एथेंस से निकालना भी नहीं चाहते। मगर सत्य बोलना बंद कर दो।
सुकरात ने कहा: यह तो और भी असंभव है। यह तो मेरा धंधा है। ‘धंधा’ शब्द का उपयोग किया--यह मेरा धंधा है। सत्य बोलना मेरा धंधा है। इसके बिना तो मैं रह नहीं सकता। यह मेरा श्वास है। जैसे मैं श्वास के बिना जी नहीं सकता, सत्य बोले बिना नहीं जी सकता। मैं तो बोलूंगा तो सत्य। चलूंगा तो सत्य। उठूंगा तो सत्य। जीवन रहे कि जाए, उसका कोई मूल्य नहीं। तुम बेहतर हो, मृत्यु-दंड दे दो। कम से कम कहने को बात रह जाएगी कि मैं मरा तो सत्य के लिए मरा और मैंने कोई समझौता न किया।
मनु कहते हैं: ‘अप्रिय सत्य को न बोले।’
तब तो सत्य बोला ही नहीं जा सकता। सुकरात जैसा कलाविद नहीं बोल सका, फिर कौन बोल सकेगा? बुद्ध जैसा व्यक्ति नहीं बोल सका, फिर कौन बोल सकेगा?
और कहते हैं: ‘असत्य प्रिय को भी न बोले।’
और पूरी मनुस्मृति असत्य प्रियों से भरी हुई है। ब्राह्मणों की खुशामद और ब्राह्मणों को सबकी छाती पर बिठा देने की चेष्टा, षडयंत्र। सब असत्य। यह झूठी बात है कि ब्राह्मण परमात्मा के मुंह से पैदा हुए और शूद्र परमात्मा के पैरों से पैदा हुए और क्षत्रिय बाहुओं से पैदा हुए और वैश्य जंघाओं से पैदा हुए। बकवास है। कहीं मुंह से कोई पैदा होता है, कि पैरों से कोई पैदा होता है? यह परमात्मा क्या हुआ, ये तो पूरे शरीर पर योनियां ही योनियां हो गईं! यह तो परमात्मा क्या हुए, गर्भ ही गर्भ हो गए! मुंह भी गर्भ, बांहें भी गर्भ, जंधाएं भी गर्भ, पैर भी गर्भ। ये तो सारी स्त्रियों को मात कर दिए। ये तो शुद्ध स्त्री हो गए। और चार-चार स्त्रियों का काम अकेले कर रहे हैं। और पुरुष कहां है? चलो यह भी मान लो कि परमात्मा के मुंह से पैदा हुआ ब्राह्मण और पैर से पैदा हुए शूद्र। मगर वह पुरुष कहां है, जिसने यह गर्भाधारण करवा दिया? वह पुरुष कौन है? और क्या गजब के गर्भाधारण हुए--किसी का मुंह में हुआ, किसी का पैर में हुआ, किसी का जंघाओं में हुआ! जहां होता है गर्भाधारण, पेट में, वहां तो किसी का भी न हुआ।
तुम गजब देखते हो! झूठों के भी कोई अंत होते हैं। कपोल-कल्पनाओं के भी कोई अंत होते हैं! और शर्म भी नहीं है मनु को यह कहने में कि ‘असत्य प्रिय को भी न बोले।’ यह ब्राह्मणों की खुशामद है। ब्राह्मणों को प्रसन्न करने की चेष्टा है। खुद भी ब्राह्मण हैं, इसलिए खुद के अहंकार को भी मजा आ रहा है, कि हम श्रेष्ठतम हैं, मुंह से पैदा हुए। लेकिन परमात्मा का मुंह हो कि परमात्मा का पैर, दोनों दिव्य हैं। कोई पैर अलग थोड़े ही हैं, सब संयुक्त है। रक्त जो तुम्हारे सिर में घूम रहा है, थोड़ी देर में पैर में घूमता है, थोड़ी देर में फिर सिर में आ जाता है। रक्त का वर्तुल घूम रहा है। तुम बिलकुल संयुक्त हो। हर चीज जुड़ी है। नस-नस से गुथी है। कुछ ऐसे भेद हैं क्या? कहां जांघें खत्म होती हैं, कहां पैर शुरू होते हैं, कहां मुंह खत्म होता है और कहां हाथ शुरू होते हैं, कहीं कोई सीमा है? कोई सीमा-रेखा है? मनुष्य का व्यक्तित्व, पूरा शरीर एक है। जब मनुष्य का व्यक्तित्व एक है, परमात्मा का तो और भी एक होगा।
और परमात्मा कोई व्यक्ति थोड़े ही है कि उसका मुंह है, हाथ हैं, पैर हैं। परमात्मा तो इस समस्त अस्तित्व का, इस समष्टि का नाम है। इसमें कहां मुंह, कहां हाथ, कहां पैर, लेकिन शूद्रों को अपमानित करना था। शूद्रों को पद-दलित करना था। शूद्रों का शोषण करना था। उनके शोषण का उपाय खोजना था।
शोषण की सबसे पुरानी परंपरा भारत की है। इसी शोषण का यह परिणाम हुआ। क्योंकि शूद्रों की संख्या बड़ी, वैश्यों की भी संख्या बड़ी। ये दोनों ही निम्न हैं, क्योंकि दोनों ही नाभि के नीचे से पैदा हुए हैं। मनु के हिसाब के नाभि के ऊपर से जो पैदा हो, वह उच्च वर्ण और नाभि के नीचे जो पैदा हो वह निम्न वर्ण। क्षत्रियों को थोड़ा खुश करना जरूरी था, क्योंकि क्षत्रियों के हाथ में तलवार थी। क्षत्रिय यानी राजनीति। ब्राह्मण यानी धर्म-पुरोहित, पंडित। इन दोनों की सांठ-गांठ है। क्षत्रिय को तो प्रसन्न रखना पड़ेगा, नहीं तो वह तलवार खींच ले। वह गर्दन उतार दे। आखिर उसी ने तलवार खींची भी।
यह जो जैन धर्म और बौद्ध धर्म की बगावत हुई, यह क्षत्रियों की बगावत थी ब्राह्मणों के खिलाफ। इसलिए जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, बुद्ध भी क्षत्रिय हैं। यह क्षत्रियों की बगावत है। यह क्षत्रियों के बर्दाश्त से बाहर हो गया--यह ब्राह्मणों का छाती पर बैठे रहना। ये जो दो धर्म पैदा हुए भारत में, ये क्षत्रियों से पैदा हुए। वैश्यों और शूद्रों और क्षत्रियों, इन तीनों को ब्राह्मण ने नीचा रखने की कोशिश की; क्षत्रिय को अपने से नंबर दो, क्योंकि उसके हाथ में तलवार थी। उसको थोड़ा प्रसन्न करना जरूरी था। उसको शूद्र के और वैश्य के ऊपर रख दिया।
यह एक बड़ी साजिश मनुस्मृति की है। यह सरासर झूठ है। यहां कोई न ऊंचा है, न कोई नीचा है।
सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं और सब ब्रह्म का साक्षात करने की क्षमता लेकर पैदा होते हैं। मेरे हिसाब में सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं और सब ब्राह्मण हो सकते हैं। यह सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। जन्म से न कोई ब्राह्मण होता है, न कोई वैश्य होता है, न कोई क्षत्रिय होता है। जन्म से सभी शूद्र होते हैं, क्योंकि जन्म से सभी बीज होते हैं--सिर्फ संभावनाएं मात्र। फिर तुम्हारे हाथ में है कि तुम क्या बन जाओगे। अगर धन इकट्ठा करोगे तो वैश्य बन जाओगे। अगर धन के लिए लोलुप रहे तो वैश्य बन जाओगे। अगर पद के लोलुप रहे--और ये दो ही तो उपद्रव हैं--तो राजनीति में पड़ जाओगे, तो क्षत्रिय बन जाओगे।
चीन का एक सम्राट अपने महल की छत पर खड़ा था और सागर में चलते हुए सैकड़ों जहाजों को देख रहा था। उसका बूढ़ा वजीर भी उसके पास था। सम्राट ने कहा कि देखते हैं, आज आकाश खुला है, सागर भी शांत है, तूफान नहीं, आंधी नहीं, कितने सैकड़ों जहाज चल रहे हैं, कितना सुंदर दृश्य है!
उस वजीर ने कहा: महाराज, गलती हो तो क्षमा करें। जहाज सिर्फ दो हैं, ज्यादा नहीं।
सम्राट ने पूछा: दो! क्या कहते हो तुम? अनेक स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं और तुम कहते हो दो!
उसने कहा: मैं फिर कहता हूं दो हैं। या तो धन के जहाज चल रहे हैं या पद के जहाज चल रहे हैं। बस जहाज तो दो ही हैं, दिखाई कितने ही पड़ते हों। बस दो ही दौड़ें हैं आदमी की, दो ही गतियां हैं--धन की या पद की।
तो जिनकी धन की दौड़ थी, वे वैश्य हो जाते हैं; जिनकी पद की दौड़ है, वे क्षत्रिय हो जाते हैं। और जो सब दौड़ छोड़ देते हैं, जो अपने स्वरूप में समा रहते हैं, जो अपने भीतर अंतर-गर्भ में प्रवेश कर जाते हैं, वे बह्म को उपलब्ध हो जाते हैं, वे ब्राह्मण हो जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति शूद्र की तरह पैदा होता है। फिर ये तीन संभावनाएं हैं--या तो वैश्य हो जाए, धन के पीछे दीवाना या क्षत्रिय हो जाए, पद के पीछे दीवाना और या फिर ब्राह्मण हो जाए, स्वयं की भगवत्ता को जान कर।
जन्म से कोई भेद नहीं होता। कर्म से भेद होता है। अनुभव से भेद होता है। कृत्य से भेद पड़ता है।
असत्य तो बहुत बोले हैं मनु। जितनी मनुस्मृति असत्य से भरी है, उतना कोई शास्त्र नहीं। मगर वे सब असत्य प्रिय हैं, क्योंकि जो पद पर थे उनकी खुशामद है। इसका ही स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि भारत में जब भी कोई बाहर से हमला हुआ तो आम जनता ने उस हमले का कोई विरोध नहीं किया। क्या जरूरत थी विरोध करने की? उसको तो चूसा ही जाना था--अपने चूसें की पराए चूसें, भेद ही क्या पड़ता था! किसको ढोना है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था। हूण आएं, मुगल आएं, तुर्क आएं, अंग्रेज आएं, पुर्तगाली आएं, कोई भी आए, क्या फर्क पड़ता था आम जनता को? शूद्र को क्या भेद पड़ता था?
यह मनु की वजह से यह भारत दो हजार साल गुलाम रहा है, क्योंकि तुमने जब शूद्र को पद-दलित कर दिया, उसको तो पैरों के नीचे दबना ही है, फिर किसके बूटों के नीचे दबता है, क्या फर्क पड़ता है? बूट सफेद चमड़ी ने पहने हैं कि काली चमड़ी ने पहने हैं, क्या फर्क पड़ता है? उसे तो बूटों के नीचे ही दबना है। और सच तो यह है कि सफेद चमड़ी के बूटों के नीचे वह कम दबा.। क्योंकि मुसलमानों में कोई वर्ण नहीं होते। जब मुसलमानों की सत्ता आई तो शूद्र में थोड़ा बल आया, वैश्य में थोड़ा बल आया। क्योंकि ब्राह्मणों की पुरानी ताकत कम हो गई। ब्राह्मणों का बोझ छाती पर से थोड़ा कम हो गया। ब्राह्मणों का बल कम हो गया। इसलिए आम जनता ने कोई विरोध नहीं किया गुलामी का, क्योंकि आम जनता को तो गुलामी ऐसे लगी कि बोझ कम हो रहा है। और जब अंग्रेज भारत में आए तो आम जनता को बहुत सुखद प्रतीत हुआ, क्योंकि सदियों की गुलामी से यह गुलामी ज्यादा बेहतर मालूम पड़ी।
कल विद्याधर वाचस्पति ने जो पूछा था प्रश्न कि ‘अंग्रेजों ने हमें चूसा, हमारा खून चूसा, और इन्हीं फिरंगियों ने हमारा सदियों तक शोषण किया--और आप फिर भी पाश्चात्य सभ्यता की प्रशंसा में बोल देते हैं।’
मैं उनसे यह पूछना चाहता हूं कि भारत में दोनों ही राज्य थे--ब्रिटिश राज्य था और देशी राज्य भी थे। अगर अंग्रेजों के चूसने के कारण तुम बर्बाद हुए तो देशी राज्यों में तो बर्बादी नहीं होनी चाहिए थी। मगर देशी राज्य की जनता और प्रजा ज्यादा बदतर हालत में थी, बजाय ब्रिटिश राज के। यह थोड़ा सोचने जैसा है। शोषण कहां ज्यादा चल रहा था? नेपाल तो स्वतंत्र था, उस पर तो कोई ब्रिटिश हुकूमत नहीं थी। लेकिन नेपाल ने कौन सी गरिमा पा ली स्वतंत्रता में, कौन सा गौरव पा लिया? वही गरीबी। तुमसे भी ज्यादा गरीब। देशी रियासतें--निजाम और ग्वालियर, और कितने रजवाड़े थे--इनकी हालत बदतर थी।
अंग्रेज ने चूसा हो भला, लेकिन चूसने के साथ-साथ उसने तुम्हें विज्ञान भी दिया, टेक्नालॉजी भी दी, उद्योग भी दिया। उसने चूसा हो भला, लेकिन तुम्हारे हित के लिए भी बहुत कुछ किया। उस हित को तुम भुला मत देना। तुम्हें शिक्षा भी दी। तुम्हें लोकतंत्र और स्वतंत्रता और समाजवाद का पाठ भी पढ़ाया।
तुम्हारे सारे नेता पश्चिम से ही स्वतंत्रता का स्वाद लेकर आए। भारत को तो स्वतंत्रता का कोई स्वाद ही नहीं था। भारत में तो सिर्फ ब्राह्मण स्वतंत्र था, बाकी सब गुलाम थे। थोड़ी स्वतंत्रता क्षत्रिय की भी थी। लेकिन वह भी तभी तक थी जब तक वह ब्राह्मण के पैर छुए। कितना ही बड़ा सम्राट हो, छूना तो ब्राह्मण के पैर ही पड़ेंगे उसको। असली राज्य तो ब्राह्मण का था। पुरोहितों ने इतना बड़ा राज्य कभी नहीं किया जितना इस देश में चला। और सबकी जड़ में मनु महाराज हैं।
इसलिए मैं कहता हूं कि मनु से तो छुटकारा इस देश का चाहिए। मगर मनु इस देश के खून, हड्डी-मांस-मज्जा में घुस गए हैं। अभी भी तुम शूद्र के साथ बैठ कर भोजन नहीं कर सकते। भीतर से ग्लानि उठने लगेगी, उबकाई आने लगेगी, कै हो जाए ऐसा लगने लगेगा। चाहे शूद्र कितना ही नहाया-धोया हो। और गंदे से गंदे ब्राह्मण के पास बैठ कर तुम भोजन कर सकते हो। गंदे से गंदा ब्राह्मण तुम्हारा भोजन बना सकता है। नाक साफ करता रहे उसी हाथ से, तुम्हारी चपाती भी बनाता रहे उसी हाथ से, कोई फिकर नहीं। ब्राह्मण महाराज है! इनकी तो नाक भी है तो सनातन धर्म समझो! इसका स्वाद तो बात ही और है। शूद्र तुम्हारे पास बैठ जाए तो बेचैनी मालूम होने लगती है। हालांकि तुम चाहे बुद्धि से यह समझते भी होओ कि यह बात मूर्खतापूर्ण है, मगर बुद्धि का वश नहीं है। अचेतन में घुस गई बात, गहरे में उतर गई बात। सदियों-सदियों का संस्कार हो गया है।
यह पूरा सूत्र ही गलत है। सत्य बनो, बोलना अपने से आएगा। बोलने पर मेरा जोर नहीं है। आचरण पर मेरा जोर नहीं है। प्रिय बनो। प्रेम से लबालब हो जाओ, तुम्हारे जीवन में प्रेम ही धर्म हो--सनातन धर्म। तो तुम्हारे जीवन से जो भी निकलेगा वह प्रिय होगा। और सत्य बोलो, चाहे अप्रिय ही क्यों न हो। अप्रिय ही होगा। और असत्य कभी न बोलो, चाहे कितना ही प्रिय हो।
ये कहते तो हैं मनु लेकिन खुद पूरी मनुस्मृति में वे इसी तरह के असत्य बोले हैं जो प्रिय हैं। जब भी तुम इन सूत्रों को समझना चाहो तो इनकी पूरी पृष्ठभूमि को समझने की कोशिश करना। इनको संदर्भ के बाहर निकाल कर पढ़ोगे तो शायद तुम्हें साफ नहीं हो पाएगा। संदर्भ के बाहर न निकालो। इनके पूरे संदर्भ में पढ़ो। और इन सूत्रों की जांच ही करनी हो तो उनका पूरा शास्त्र उठा कर देखो, तब तुम्हें पता चलेगा कि वे खुद भी इन सूत्रों को मानते हैं या नहीं मानते हैं। और अगर खुद ही न मानते हों तो दो कौड़ी के सूत्र हैं ये। खुद मानते हों, तो ही इनकी कोई मूल्यवत्ता है। तो ही इनमें कोई अर्थ है। तो ही इनमें कोई यथार्थ है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, पत्र-पत्रिकाओं में आपके चित्रों सहित आपके विचारों का व्यापक प्रचार-प्रसार देख कर लोगों की ऐसी धारणा बन गई है कि आप विज्ञापन एवं प्रसिद्धि पाने के लिए लालायित हैं, जो कि भारत की संत-परंपरा के साथ सुसंगत नहीं है। हमारे साधु-संत भीड़-भाड़ तथा दिखावे से दूर एकांत में सादा जीवन बिताते थे। भगवान, निवेदन है कि इस विषय में कुछ कहें।
सत्य वेदांत! पहली तो बात यह कि मुझे भारत या किसी की परंपरा से कोई लेना-देना नहीं। मैं किसी की परंपरा का हिस्सा नहीं हूं। इसे एक बार और आखिरी बार समझ लो कि मैं किसी परंपरा का कोई हिस्सा नहीं हूं। मैं किसी परंपरा की अपेक्षाएं पूरा करने के लिए कोई बंधा हुआ नहीं हूं। मैं तुम्हारे तथाकथित संतों में अपनी गिनती करवाना भी नहीं चाहता हूं। मुझे तो तुम्हारे तथाकथित संतों में मूढ़ों की जमात दिखाई पड़ती है।
इसलिए अच्छा ही है कि लोग साफ समझ लें कि मैं तुम्हारा संत, तुम्हारा महात्मा, तुम्हारे ऋषि-मुनि इनमें से नहीं हूं। मेरी अपनी कोटि है। मैं किसी की कोटि में सम्मिलित नहीं हूं। मैं एक नई कोटि की शुरुआत हूं। मुझसे जो राजी होंगे वे मेरी कोटि में होंगे। मैं किसी पुरानी कोटि का हिस्सा नहीं हूं। मैं किसी श्रृंखला का अंग नहीं हूं। मैं किसी श्रृंखला की कड़ी नहीं हूं--एक नई श्रृंखला की शुरुआत हूं। इसलिए मैं कुछ तुम्हारे साधु-संतों की क्या परंपरा थी, उसका अनुगमन करने को आबद्ध नहीं हूं।
और यह बात बिलकुल झूठ है कि तुम्हारे साधु-संत प्रचार-प्रसार नहीं करते थे। तो महावीर चालीस साल तक क्या करते रहे घूम-घूम कर? भाड़ झोंक रहे थे? पूरे बिहार को रौंद डाला! उनके ही कारण ‘बिहार’ नाम पड़ा प्रदेश का--बुद्ध और महावीर के कारण। बिहार का मतलब होता है भ्रमण। चूंकि बुद्ध और महावीर ने पूरी जमीन रौंद डाली बिहार की, इसलिए इसका, प्रदेश का नाम ही बिहार हो गया--जहां बुद्ध और महावीर विहार करते हैं, विचरण करते हैं। जहां तक उन्होंने विचरण किया वही सीमा बनी बिहार की। चालीस साल तक महावीर ने, बयालीस साल तक बुद्ध ने, आखिर क्या किया? मैं तो अपने कमरे से बाहर जाता नहीं। ये क्या कर रहे थे, प्रचार-प्रसार नहीं कर रहे थे तो क्या कर रहे थे? पागल थे?
और अगर तुम्हारे साधु-संत प्रचार-प्रसार नहीं करते तो उन्होंने शास्त्र क्यों लिखे? क्या जरूरत थी शास्त्र लिखने की? वेद क्यों रचे? उपनिषद क्यों रचे? कृष्ण ने गीता क्यों कही? अर्जुन को समझाने की पूरी चेष्टा की। अर्जुन भागा-भागा हो रहा था, उसको खींच-खींच कर लाए। हजार तर्क दिए। उन दिनों जो साधन थे, उन्होंने उनका उपयोग किया। आज जो साधन हैं, उनका मैं उपयोग कर रहा हूं। हां, यह जरूर सच है कि वे लाउडस्पीकर पर नहीं बोलते थे, क्योंकि लाउडस्पीकर नहीं था। यह सच है कि वे जो बोलते थे वह टेप-रिकॉर्ड नहीं होता था। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि टेप-रिकॉर्ड होता और बुद्ध टेप-रिकॉर्ड न करवाते। आखिर उनके शिष्य लिख तो रहे थे, नोट ले रहे थे। वह पुराना ढंग था, ढर्रा पुराना था। उसमें भूल-चूक की संभावना है। उसमें भूल-चूक हुई। बुद्ध के मरते ही बुद्ध के शिष्य छत्तीस संप्रदायों में बंट गए, क्योंकि अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग तरह के नोट लिए थे। किसी ने कुछ छोड़ दिया था, किसी ने कुछ जोड़ दिया था। अपने-अपने हिसाब से लोगों ने नोट लिए थे। जो जिसको पसंद पड़ा था वह उसने लिख लिया था; जो पसंद नहीं पड़ा था वह अलग कर दिया था। मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू! छत्तीस संप्रदाय हो गए!
मैं वैज्ञानिक साधनों का उपयोग कर रहा हूं, जो ज्यादा तर्कयुक्त हैं और जिनमें भूल-चूक की संभावना कम है। और मुझे कुछ उसमें एतराज नहीं है। निश्चित ही मैं अपनी बात का प्रसार करना चाहता हूं, प्रचार करना चाहता हूं। सारे बुद्धों ने सदा यही किया। और जिन्होंने नहीं किया वे बुद्धू रहे होंगे। उन बुद्धुओं में मैं अपनी गिनती करवाना भी नहीं चाहता। वे भगोड़े थे, जो बैठ गए जंगलों में जाकर। उन भगोड़ों से फायदा क्या हुआ तुम्हें? और उन भगोड़ों का उपयोग क्या है, उनका दान क्या है जगत को? दान तो इनका है--बुद्ध का, महावीर का, जीसस का, मोहम्मद का, जरथुस्त्र का, लाओत्सु का--दान इनका है। मगर इनका दान कैसे संभव हो पाया? क्योंकि इन्होंने प्रचार-प्रसार किया।
मैं विज्ञापन का विरोधी नहीं हूं, क्योंकि जब दुनिया में असत्य का विज्ञापन होता हो तो सत्य का विज्ञापन क्यों न हो? जोर-शोर से होना चाहिए। असत्य से अगर लड़ना हो, तो असत्य जिन-जिन साधनों का उपयोग करता है, वे सारे साधन सत्य को भी उपयोग करने पड़ेंगे। अगर असत्य रेडियो से प्रचारित होता है, टेलीविजन पर प्रसारित होता है, फिल्म बनती है असत्य की, तो सत्य की भी बननी चाहिए और सत्य भी रेडियो से बोला जाना चाहिए और टेलीविजन पर होना चाहिए। मैं तो सारी चेष्टा करूंगा। सत्य के लिए कुछ भी उठा नहीं छोड़ना है, कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ना है।
लेकिन इस देश में यह मूढ़ता है कि हम ढर्रे में बांधे हुए हैं हर चीज को, उस ढर्रे में किसी को बैठना चाहिए। उस ढर्रे में मैं कैसे बैठूंगा? महावीर नग्न थे। जैन मुझसे पूछ सकता है कि आप जब तक नग्न नहीं होंगे, तब तक हम आपको कैसे तीर्थंकर मानें? तो क्या मैं इसलिए नग्न फिरूं कि महावीर नग्न थे? यह महावीर की मौज थी कि वे नग्न थे। वे अपने ढंग से जीए। यह उनका रुझान था। बुद्ध तो नग्न नहीं थे। बुद्ध तो कपड़े पहनते थे। महावीर के समसायिक थे, मगर बुद्ध ने कपड़े पहने। हालांकि जैनों को यही एतराज रहा बुद्ध पर कि अगर वे कपड़े छोड़ दें तो तीर्थंकर। मगर कपड़े पहने हुए हैं तो तीर्थंकर नहीं, थोड़े नीचे--महात्मा, अभी तीर्थंकर होने में थोड़ी देर है। तो कोई जैन बुद्ध को भगवान नहीं लिखता। महावीर को भगवान लिखता है, बुद्ध को महात्मा लिखता है। और कोई बौद्ध महावीर को भगवान नहीं लिखता, महात्मा लिखता है और बुद्ध को भगवान लिखता है। क्योंकि बौद्धों की अपनी धारणाएं हैं। वे कहते हैं कि व्यक्ति को नग्न होकर नाहक प्रचार नहीं करना चाहिए। यह प्रचार का ढंग है नग्न होना। यह तो बात सच है। तुम नंगे खड़े हो जाओ जाकर चौरस्ते पर, देखो फौरन भीड़ लग जाएगी। और कपड़े पहने खड़े रहो, कोई नहीं आएगा। कोई पूछेगा ही नहीं, जयराम जी भी नहीं करेगा। जरा नंगे खड़े हो जाओ और फिर देखो, पुलिसवाला भी आ गया, इंस्पेक्टर भी आ गया, भीड़ भी लग गई और शोरगुल भी मचने लगा कि यह माजरा क्या है! तुम खड़े ही रहो सिर्फ, तुम कुछ कर ही नहीं रहे, मगर प्रचार हो रहा है। महावीर ने नग्नता को अगर प्रचार का साधन बनाया हो तो कुछ आश्चर्य नहीं।
और मजा यह है कि तुम्हारी जब कोई धारणा पक्की हो गई होती है, तो उस धारणा का शोषण करने वाले लोग पैदा हो जाते हैं। कोई इसीलिए जंगल में जाकर बैठ जाता है कि तुम्हारी धारणा है कि जब तक जंगल में न बैठे तब तक संत नहीं। संत जिसको होना हो वह जंगल में बैठ जाता है। और जब वह जंगल में बैठ जाता है, संत हो जाता है--यह उसके प्रचार का ढंग है--तुम पहुंचने लगते हो खोजते हुए। चाहे संत के पास कुछ और न भी हो, कुछ भी न हो, लेकिन बैठा है जंगल में बस इतना काफी है, चली फिर कतार! और ये संत भी जंगल से निकल आते हैं जब कुंभ का मेला भरता है, तब इनसे भी नहीं रुका जाता कि अब अपनी जगह बैठे रहें। कुंभ के मेले में एक करोड़ आदमी इकट्ठे होंगे, वहां तो अड्डा जमा देंगे, सारे संत आ जाएंगे हिमालय से उतर-उतर कर। ये कुंभ के मेले में किसलिए आ जाते हैं? तुम किन संतों की बातें कर रहे हो? अगर तुम यही पूछते हो कि एकांत में सादा जीवन, तो मुझसे ज्यादा एकांतमय, मुझसे ज्यादा सादा जीवन बिताने वाला आदमी नहीं है। चौबीस घंटे अपने कमरे में हूं, इससे ज्यादा एकांत कहां और होगा? और सादे जीवन की बात करते हो तो मेरे कमरे में कुछ भी नहीं है सिवाय मेरे। बिलकुल अकेला हूं। सामान भी नहीं है। लेकिन मेरे अपने ढंग हैं और मैं किसी के ढंग की नकल करने में उत्सुक नहीं हूं। मैं चाहता भी नहीं कि मेरा नाम किसी के साथ जोड़ा जाए। लेकिन इतना मैं तुमसे कह देना चाहता हूं कि जीसस ने भी घूम-घूम कर प्रचार किया, नहीं तो सूली न लगती। अगर चुप ही बैठे रहते तो सूली कोई लगाता? काहे के लिए सूली लगाता? इसलिए कि क्यों चुप बैठे हो? तो सुकरात को कोई जहर किसलिए पिलाता? इसलिए कि चुप क्यों बैठे हो, जहर पिलाएंगे, बोलो! सुकरात प्रचार कर रहा था।
सत्य जब प्रकट होगा तो उसका प्रचार रोका नहीं जा सकता। और जो चुप बैठे रहे जंगलों में, जाहिर है बुद्धू थे, कुछ सत्य वगैरह उपलब्ध नहीं हुआ था, नहीं तो जिनको सत्य उपलब्ध हुआ है वे जंगल से वापस बस्ती में लौट आए हैं। आखिर उनसे कहना होगा जिनको नहीं उपलब्ध हुआ है। उनको खबर देनी होगी। जब फूल खिलेगा तो गंध उड़ेगी ही। यह भी प्रचार ही है फूल का। अगर यूं समझो तो प्रचार है, क्योंकि फूल खबर दे रहा है कि मैं खिल चुका, मधुमक्खियो, आओ! यह फूल कह रहा है: तितलियो, यह मेरा संदेश रहा, यह मैं खबर भेजे दे रहा हूं। और मधुमक्खियों को दूर खबर लग जाती है, तीन-तीन मील दूर फूल की गंध पकड़ जाती है। सूरज निकलता है सुबह तो कोई ऐसे कंबल ओढ़ कर नहीं निकलता, काली कमली वाले बाबा! सारी किरणें दूर-दूर तक फैल जाती हैं। यह सब प्रचार-प्रसार है। एक-एक फूल को जाकर गुदगुदाती हैं कि खिल! एक-एक पक्षी के कंठ में गुदगुदाती हैं कि बोल, गा! द्वार दरवाजों पर दस्तक देती हैं कि उठो, जागो, सुबह हो गई! तुम तो सूरज से ही कहने लगो कि भैया, तुम कंबल ओढ़ कर क्यों नहीं निकलते? इतने प्रचार-प्रसार की क्या जरूरत है? फूल-फूल को जगाए दे रहे हो, पक्षी-पक्षी को गवाए दे रहे हो, मोरों को नचाए दे रहे हो। लोगों को सोने नहीं दे रहे, उठाए दे रहे हो। अपना कंबल ओढ़ कर आओ-जाओ चुपचाप, सादा जीवन ऊंचे विचार! यह क्या कर रहे हो?
मैं हूं तो मेरी किरणें भी लोगों तक पहुंचेंगी, उनके द्वारों पर दस्तक भी देंगी। और मैं हूं तो लोगों के गीत भी गूजेंगे। और मैं हूं तो मेरी गंध भी जाएगी। परवानों तक जानी ही चाहिए खबर शमा की। शमा भी खबर भेजती है, बिना खबर नहीं पहुंचती परवानों तक बात। वे किरणें पहुंच जाती हैं शमा की। उसकी नाचती हुई लौ परवानों के भीतर नाच को जगा देती है। वह जो नाचती हुई लौ परमात्मा की जब किसी व्यक्ति में प्रकट होती है तो परवाने आएंगे, दूर-दूर से आएंगे। और खबर पहुंचनी चाहिए, ताकि किसी को यह कहने को न रह जाए कि मुझे खबर न मिली। ताकि कोई यह शिकायत न कर सके कि मुझे खबर न मिली। तो मैं तो जोर से प्रचार करने में तैयार हूं। मुझे इसमें कोई अड़चन नहीं है।
और इसको एकबारगी मेरे संन्यासियों को सारी दुनिया को साफ कर देना चाहिए कि मैं प्रचार के अत्याधुनिक साधन उपयोग करूंगा, कर रहा हूं! क्या कारण कि थोड़े से लोगों को लाभ हो? क्या कंजूसी? जब बांटना ही है तो जितने ज्यादा लोगों को बंट सके उतना अच्छा। मगर कुछ भोंदू हैं जिनको अड़चन होती है। उन भोंदुओं की बंधी हुई धारणाएं हैं। मैं किसी की धारणा में बंधने को मजबूर नहीं हूं। मैंने ठेका लिया किसी की धारणाएं पूरी करने का? न तुम्हारे साधु-संतों से मैं कहता हूं कि मेरे अनुसार जीओ। वे जीते रहे एकांत में, पहाड़ियों में, तो मैंने तो उनसे नहीं कहा था। तुम्हारे साधु-संत अपने ढंग से जीए, मैं अपने ढंग से जी रहा हूं। और मुझे साधु-संत होने की उत्सुकता नहीं है, मैं अपना होकर काफी हूं, जैसा हूं वैसा काफी हूं। अब और क्या ये छोटी-मोटी बातें--साधु-संत, महंत, महात्मा! टुच्ची बातों में मुझे रस नहीं है। ये तुम अपने सम्हालो ये शब्द। तुम तो मुझे तीर्थंकर भी कहो तो मुझे रस नहीं है। तुम मुझे अवतार कहो तो मुझे रस नहीं है। रखो अपने शब्द अपने पास। मैं काफी हूं बिना शब्दों के, बिना लेबिल के। कुछ मुझे अड़चन नहीं है। लेकिन प्रचार मैं पूरा करूंगा। बात पहुंचानी होगी। जीसस ने कहा है अपने शिष्यों से: चढ़ जाओ मकानों की मुंडेरों पर, क्योंकि लोग बहरे हैं। जोर से चिल्लाओ तब शायद सुनें तो सुनें।
अब मुंडेरों पर भी चिल्लाओगे चढ़ कर. उस जमाने में और इससे ज्यादा सुविधापूर्ण कोई चीज नहीं थी। अब मैं अपने शिष्यों से नहीं कहता मुंडेरों पर चढ़ जाओ। मैं कहता हूं: चढ़ जाओ टेलीविजनों पर! चढ़ जाओ रेडियो पर! चढ़ जाओ अखबारों पर! क्या मुंडेरों पर चढ़ना! वह गोरखधंधा है। मुंडेरों पर चढ़े भी तो दस-पांच आस-पास के लोगों को शोरगुल होगा, और क्या होने वाला है? जब शोरगुल पूरी पृथ्वी पर हो सकता हो, फिर क्या छोटे-मोटे काम करना? एकाध मोहल्ले को जगाने में जिंदगी खराब कर देना? हिला देंगे पूरी पृथ्वी को। मुझे कुछ इसमें एतराज नहीं है।
मैं तो यह स्वीकार करता हूं कि मैं पूरा प्रयास करूंगा बात को दूर-दूर तक पहुंचाने के लिए। पृथ्वी के कोने-कोने तक यह बात पहुंचानी है। अगर बात में सच्चाई है तो पहुंचनी चाहिए। लोगों को लाभ होना चाहिए। और अगर सच्चाई नहीं है तो भी लोगों को पता चल जाना चाहिए, ताकि वे जांच लें कि सच्चाई है या नहीं। इसको छिपा कर क्या रखना है! इसको उघाड़ना है।
मुझे अपने सत्य पर भरोसा है। जो चुपचाप बैठे रहे हैं, उनको भरोसा नहीं रहा होगा। डरपोक रहे होंगे, कायर रहे होंगे, भयभीत रहे होंगे कि किससे कहें, कोई माने न माने। और कौन कह कर झंझट में पड़े! कोई तर्क करने लगे, कोई विवाद करने लगे। मेरी चुनौती है, जिसको तर्क करना हो तर्क करे, विवाद करना हो विवाद करे। मुझे सबमें रस है। मैं विवाद करने को तैयार हूं, तर्क करने को तैयार हूं। मेरे लिए खेल से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जिसको पीना है उसको पिलाने को तैयार हूं। जिसको मुठभेड़ करनी है उससे मुठभेड़ करने के लिए भी तैयार हूं। मुझे कोई अड़चन नहीं है। इतना तय है कि मैंने जो जाना है वह मेरे लिए इतना प्रगाढ़ सत्य है कि मुझे कोई संकोच नहीं कि उसका प्रचार हो। ढोल पीट कर, दुंदुभी बजा कर उसका प्रचार करना है।
इसलिए तो तुम्हें गैरिक वस्त्र दिए हैं। तुम क्या सोचते हो गैरिक वस्त्रों से कोई मुक्ति होती है? गलती में हो! गैरिक वस्त्र सिर्फ प्रचार का साधन हैं, और कुछ भी नहीं। गैरिक वस्त्र ऐसे हैं कि तुम जहां भी पहुंचे वहीं लोगों को चौंकाओगे कि यह चला आ रहा है, एक आदमी और पागल हुआ! तुम्हें देख कर वे मेरे संबंध में पूछना शुरू कर देंगे। उसे मेरी बात करनी ही पड़ेगी। मैं उसको मजबूर कर रहा हूं। उसको पता नहीं कि मैं उसको मजबूर कर रहा हूं कि उसे मेरे संबंध में चर्चा करनी पड़ेगी। उसे पता नहीं कि मैंने किस तरकीब से उसकी गर्दन पकड़ ली। वह समझ रहा है कि बड़ी होशियारी की बातें कर रहा है। जैसे बैल को लाल झंडी दिखा देते हैं न, वैसे मैंने तुम्हें कपड़े दे दिए हैं कि जहां-जहां बैल होंगे, एकदम चौंकेगे, एकदम फनफनाने लगेंगे, एकदम गुर्राने लगेंगे। और मेरे संन्यासियों को कोई अड़चन नहीं, वे तत्क्षण उछल कर बैल के ऊपर सवार हो जाएंगे। वे सवारी गांठ देंगे। ऐसा मौका वे छोड़ते ही नहीं। हर बैल पर चढ़ जाओ, जहां मिले चढ़ जाओ। जी खोल कर प्रचार करो। लोग सोचते हैं इस तरह की आलोचनाएं करके वे कोई मेरी निंदा कर सकते हैं। मैं इनको आलोचना मानता ही नहीं, मैं तो इसको अपना काम मानता हूं। सच तो यह है कि जो लोग मेरे खिलाफ इस तरह की बातें करते हैं वे सब मेरे प्रचार में लगे हुए हैं, उनको पता नहीं। मेरे अपने काम के ढंग हैं। मैं किस तरकीब से किससे काम लेता हूं, यह मैं जानता हूं। जो मेरे खिलाफ काम में लगे हैं वे भी मेरा प्रचार कर रहे हैं।
जर्मनी से एक सज्जन ने मेरी खिलाफत में--ईसाई पादरी हैं वे, उन्हें ऐसा गुस्सा चढ़ा, गुस्सा इस बात से चढ़ा कि मैंने जीसस पर जो कहा है उसका ईसाइयों पर बहुत प्रभाव पड़ रहा है। इतना प्रभाव पड़ रहा है कि ईसाई पादरियों को भी यह स्वीकार करना पड़ा है कि सदियों में कोई ईसाई भी ईसा पर इस तरह नहीं बोला है। तो बैचेनी तो फैल ही गई कि एक गैर-ईसाई ईसा पर ऐसी बात कह सका, इतनी साफ-सुथरी, और हम क्या करते रहे! तो उस ईसाई पादरी को इतना गुस्सा आया कि उसने अपना मकान बेच दिया। अपना मकान बेच कर अपने बेटे को सारा पैसा दिया कि एक फिल्म बनाओ आश्रम की--इस तरह की फिल्म बनाओ कि जो-जो नकारात्मक हो, जो-जो गलत हो, उसी-उसी को उभार कर दिखाओ। ऐसी वीभत्स फिल्म बनाओ, उसको जर्मनी में जगह-जगह प्रचारित करो, ताकि लोग पूना जाना बंद कर दें।
वह आया। उसके पहले खबर भी आ गई मुझे, संन्यासियों ने खबर भेजी कि ये सज्जन एक आ रहे हैं, इनके पिता ने मकान बेच दिया है, ऐसी कुर्बानी दी उन्होंने, अपना मकान ही बेच दिया है और ये फिल्म बनाने आ रहे हैं, इनको फिल्म न बनाने दी जाए। मैंने कहा कि इसकी फिकर ही मत करो, इनको फिल्म बनानी दी जाए और जैसी बनानी हो ये बनाएं। उसने गलत ही फिल्म बनाई, गलत ही बनाने के लिए वह आया था। मगर हमारी तरफ से उसको पूरा सहयोग मिला! वह भी थोड़ा चौंकता था कि बात क्या है। पता भी चल गया, उसको भी पता था कि पता चल गया है, डरा हुआ था। फिल्म भी बना कर गया। फिल्म पूरी जर्मनी में दिखाई जा रही है। सोचा था कुछ, हुआ कुछ। लोग उस फिल्म को देख कर आ रहे हैं। मेरे पास रोज पत्र आते हैं कि हमने वह फिल्म क्या देखी, हमारा दिल एकदम पूना आने के लिए आतुर हो उठा है!
अभी निरंजना--मेरी एक संन्यासिनी--वापस लौटी स्विटजरलैंड से। उसने कहा कि मैं एक होटल में खाना खा रही थी, दो महिलाएं मेरे पास आईं। गैरिक वस्त्र देखे, माला देखी और कहा कि ठीक, हम तलाश में थे किसी संन्यासी की, हम अपने उदगार प्रकट करना चाहते हैं। हमने वह फिल्म देखी, जो आश्रम के खिलाफ बनाई गई थी। मगर हमारा हृदय आंदोलित हो गया है। हम जल्दी ही आना चाहते हैं। जिस आदमी की हमें प्रतीक्षा थी, लगता है वह आ गया। और जिस आंदोलन की हम आशा करते थे, लगता है वह शुरू हो गया।
निरंजना तो बहुत चौंकी, क्योंकि उसने सुन रखा था कि फिल्म गलत बनाई गई है, विपरीत बनाई गई है, दुश्मनों ने बनाई है। उसने पूछा कि आप उस फिल्म को देख कर इतनी प्रभावित हैं? उन्होंने कहा कि माना कि फिल्म बनाई गई है नकारात्मक दृष्टि से, वह साफ है कि कोई आदमी जान कर पूरा का पूरा गलत उपस्थित कर रहा है। वह बात इतनी साफ है कि अंधे को भी दिखाई पड़ जाएगी। मगर जिस व्यक्ति के संबंध में गलत प्रदर्शित करने के लिए कोई मकान बेचता हो, फिल्म को गांव-गांव घुमाया जाता हो, वहां कुछ तो होना ही चाहिए। हम अपनी आंख से आकर देखना चाहते हैं।
न मालूम कितने लोग उस फिल्म के कारण आ रहे हैं। और तुम चकित होओगे, जर्मन सरकार की भी सहायता थी उस पादरी को। अब जर्मन सरकार भी चिंतित हो गई है कि फिल्म को बैन करना चाहिए या नहीं। जर्मन पार्लियामेंट में यह सवाल उठा है कि फिल्म को बैन कर दो, उसको रोक लगा दो, क्योंकि परिणाम उलटा हो रहा है।
सत्य का तुम विरोध भी करोगे तो प्रचार ही होता है। और असत्य का तुम समर्थन भी करो तो भी तुम उसे खड़ा नहीं कर सकते। असत्य में कोई बल ही नहीं होता। उसको किसी तरह खड़ा भी कर दो, वह गिर-गिर जाएगा। उसमें पैर ही नहीं होते। उसमें प्राण ही नहीं होते। लाश को कब तक चलाओगे, कैसे चलाओगे? और जहां जीवन है वहां तुम रुकावटें भी डालो, तो हर रुकावट सीढ़ी बन जाती है। सत्य और एक कदम ऊपर उठ जाता है। हर रुकावट को सीढ़ी बना लेंगे। और प्रचार जोर से करना है।
सत्य वेदांत, मेरी दृष्टि को ठीक से समझ लो। सारे संन्यासियों को मेरी दृष्टि ठीक से समझ लेनी चाहिए। मैं बिलकुल ही प्रचार के पक्ष में हूं, विज्ञापन के पक्ष में हूं। और सारे आधुनिक साधनों का उपयोग करना है। मैं कोई दकियानूसी परंपरागत आदमी नहीं हूं। कितनी बार इस देश के मूढ़ों को समझाओ कि मैं दकियानूसी नहीं हूं, परंपरागत नहीं हूं। वे हमेशा अपनी परंपरा से ही तौलते रहते हैं।
तुमसे कहता कौन है कि तुम मुझे संत मानो? तुम्हारे संतों की भीड़-भाड़ में मैं खड़ा भी नहीं होना चाहता। कौन उस कचरे में खड़ा होगा! उन मुर्दों में मुझे क्या मरना है? तुम्हारे साधु-संत अगर स्वर्ग जाते हैं तो मैं नरक जाना पसंद करूंगा, मगर स्वर्ग नहीं। तुम्हारे साधु-संतों के साथ मैं बैठना भी पसंद नहीं करता। वह कोई संग-साथ है? उससे तो शराबी बेहतर, जुआरी बेहतर। कम से कम आदमियों में कुछ बल तो होता है। यह नपुंसकों की भीड़, इसमें मुझे कोई रस नहीं है। इसलिए तुम सोचते हो कि शायद यह मेरी निंदा हो रही है, कि कोई कह देता है कि हमारे साधु-संत, भारत की संत-परंपरा! भाड़ में जाए भारत और भारत की संत-परंपरा! मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। मैं भौगोलिक सीमाओं में विश्वास नहीं करता। मैं सारी मनुष्यता को एक मानता हूं। कैसा भारत और कैसा चीन! मैं किसी सीमा में भरोसा नहीं करता। सब सीमाएं तोड़ देने को आबद्ध हूं।
परंपरा का सत्य से कोई संबंध नहीं है। सत्य हमेशा वर्तमान का होता है। परंपरा हमेशा मुर्दा होती है, अतीत की होती है।
इसलिए मुझे तुम किसी भीड़-भाड़ में सम्मिलित मत करो।
तुम कहते हो कि ‘हमारे साधु-संत भीड़-भाड़ और दिखावे से दूर एकांत में सादा जीवन बिताते थे।’
मैं भी भीड़-भाड़ से--साधु-संतों की भीड़-भाड़ से--दूर जीवन बिताता हूं। और मैंने जो साधु-संत पैदा किए हैं, ये मस्त लोग हैं, परवाने लोग हैं। यह रिंदों की जमात है। यह मयकदा है--यह कोई मंदिर नहीं, यह कोई मस्जिद नहीं।
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
ताकि मैखाने की मिट्टी रहे मैखाने में
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
मैं कोई रिंद नहीं इसलिए पीता हूं शराब
उनकी तसवीर नजर आती है पैमाने में
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
जाम थर्राने लगे उड़ गई बोतल से शराब
बेवजु आ गया शायद कोई मैखाने में
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
मैं तुम्हें ध्यान दे रहा हूं, ताकि तुम उस परम शराब को पीने के योग्य हो सको। उसके लिए पवित्रता चाहिए, एक मौन चाहिए, एक शून्य चाहिए।
जाम थर्राने लगे उड़ गई बोतल से शराब
बेवजु शायद आ गया कोई मैखाने में
तुम जो चाहो तो बदल दो मेरे गम की दुनिया
तुमको तो खुद ही मजा आता है तड़फाने में
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
इस कदर फूंक दिया सोजे-मोहब्बत ने कमर
आह करने की भी ताकत नहीं दीवाने में
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
ताकि मैखाने की मिट्टी रहे मैखाने में
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
यहां तो दीवाने इकट्ठे हुए हैं, परवाने इकट्ठे हुए हैं। यह कोई साधारण अर्थों का मंदिर-मस्जिद नहीं है। यह तीर्थ है। और तीर्थ भी ऐसा नहीं कि जो सड़ चुका हो, अतीत का हो। अभी जन्म रहा है, अभी पैदा हो रहा है। यह नया काबा पैदा हो रहा है। यह नया कैलाश उठ रहा है। इसको तुम पुराने से मत तौलो। तुम्हारा कोई तराजू काम न आएगा। तुम्हारे सब तराजू टूट जाएंगे मुझे तौलने में। तुम्हारे कोई मापदंड मेरे काम नहीं आएंगे। तुम्हारी कोई कोटियों में तुम मुझे बिठा नहीं सकते। तुम सीधे-सीधे मुझे देखो, हटाओ तराजू, हटाओ कोटियां, हटाओ तुम्हारे गणित! मैं अपने ढंग का आदमी हूं। मुझे किसी से क्या लेना-देना है?
हाले-दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
उनको अहसास दिला कर मुझे क्या लेना है
हाले दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
एते मामात की खातिर से किया है मैंने
वरना बज्म अपनी सजा कर मुझे क्या लेना है
हाले-दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
कोई मकहूमे-दुआ हो तो कोई बात भी हो
बेसबब हाथ उठा कर मुझे क्या लेना है
हाले-दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
तेरे कदमों में पड़ा हूं मैं रहने दे मुझे
साकिया होश में आकर मुझे क्या लेना है
हाले-दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
जर्रे-जर्रे में नजर आता है उनका जलवा
फिर भला तूर पर जाकर मुझे क्या लेना है
हाले-दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
उनको अहसास दिला कर मुझे क्या लेना है
हाले दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
मुझे क्या प्रयोजन है? कौन क्या सोचता है मेरे संबंध में, क्या पड़ी मुझे? सारी दुनिया से रोज अखबारों की कटिंग आती हैं। मैं तो पढ़ता भी नहीं, देखता भी नहीं। कौन समय खराब करे! शीला आ जाती है और बता जाती है कि इस अखबार में यह है, इस अखबार में वह है। मैं कहता हूं: ठीक, गलत है तो ठीक और ठीक है तो ठीक। किसको क्या लेना है? और इन मूढ़ों से तो क्या बात करनी?
कोई मकहूमे दुआ हो तो कोई बात भी हो
बेसबब हाथ उठा कर मुझे क्या लेना है
मैं तो उस जगह पहुंच गया, जहां से अब मुझे होश में आने की भी कोई जरूरत नहीं है। अब तो बेहोशी होश है।
तेरे कदमों में पड़ा हूं मैं रहने दे मुझे
साकिया, होश में आकर मुझे क्या लेना है
जर्रे-जर्रे में नजर आता है उनका जलवा
फिर भला तूर पर जाकर मुझे क्या लेना है
मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। मैं अपने ही ढंग से जीए जाऊंगा। जिनको मेरे साथ जुड़ना हो, उन्हें मेरा ढंग सीखना होगा। जो मेरा ढंग नहीं सीख सकते, उनकी वे जानें। मुझे उनकी कुछ पड़ी नहीं है। उनको विरोध करना हो, आलोचना करनी हो, जो उनको करना हो करें।
लेकिन दीवाने भी इस दुनिया में कुछ कम नहीं हैं। कल गुजरात की असेम्बली में मेरे कच्छ जाने का सवाल पुनः उठा। और अब तो गुजरात के मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी को कहना पड़ा कि हम सौ प्रतिशत आश्रम के लिए जगह देने को कटिबद्ध हैं। कहना पड़ा क्यों? कहना पड़ा इसलिए कि पैंसठ संस्थाओं ने मेरा विरोध किया है और तीन सौ पचास संस्थाओं ने मेरा समर्थन किया है! और मैं कभी कच्छ गया नहीं। अब तुम सोच सकते हो कि पैंसठ संस्थाओं का विरोध और तीन सौ पचास संस्थाओं का समर्थन! और मैं कभी गया नहीं, कच्छ से मेरा कोई नाता नहीं रहा है। लेकिन गंध पहुंचने लगी। जहां मैं गया नहीं, वहां भी पहुंचने लगी है। तीन सौ पचास संस्थाओं ने अपने आप. न तो हमने संन्यासी भेजे वहां, न कोई प्रचार किया गया है, न कोई उपाय किया गया है। लेकिन सत्य के समर्थन करने वाले दीवाने भी हमेशा उपलब्ध हो जाते हैं। अब मुंह की खानी पड़ी।
वे जो पैंसठ संस्थाएं हैं, वे भी संस्थाएं नहीं हैं। उनमें भी पच्चीस-तीस तो एक-एक व्यक्तियों के कार्ड हैं। उनमें भी ऐसे कार्ड हैं कि जिनके लिखने वालों से पूछा गया तो पता चला है उन्हें पता ही नहीं है कि उनके दस्तखत किसने किए! अठारह संस्थाएं हैं; वे सब जैनियों की। और जैनियों के छोटे-छोटे पंथ हैं, हर पंथ के नाम से एक-एक दरखास्त लगा दी है। एक दरखास्त इस पंथ की, एक दरखास्त उस पंथ की। और वे चार-पांच आदमी हैं जो सारी दरखास्त लगवा दिए हैं। वे पैंसठ भी अगर खोज-बीन की जाए तो पांच भी उनमें से सत्य निकलने वाले नहीं हैं।
और अगर मैं एक बार कच्छ जाऊं तो वह जो तीन सौ पचास की संख्या है, वह तीन हजार पांच सौ हो जाएगी।
मेरे बिना गए कोई बात पहुंच गई है, यह कैसे पहुंच गई? मैं बैठ जाऊं किसी गुफा में, पहुंच जाएगी? सुगंध को उड़ाना होगा फूल को। और सूरज को अपनी किरणें पहुंचानी होंगी। जरूरी नहीं कि सूरज तुम्हारे घर में आए; घर में आएगा तो तुम जल कर खाक हो जाओगे। किरणें ही आ जाएं इतना भी काफी है। मैं तो अत्याधुनिक व्यक्ति हूं। सच तो यह है कि इक्कीसवीं सदी का व्यक्ति हूं। यह बीसवीं सदी चल रही है, अभी सौ साल का वक्त है मेरे ठीक-ठीक समझे जाने के लिए। लेकिन सौ साल पहले आना पड़ता है, ताकि तैयारी शुरू हो जाए। लोग इतने धीरे-धीरे चलते हैं, घसिटते-घसिटते कि सौ साल लग जाएंगे उनको समझने में। हरेक को अपने समय के पहले आना पड़ता है।
और मैं किसी साधन को छोडूंगा नहीं, सारे साधनों का उपयोग करूंगा। मैं बीसवीं सदी में जो उपलब्ध है, उसका उपयोग करूंगा। साधारण रेडियो इत्यादि का ही उपयोग नहीं हो रहा है, अब सेटेलाइट का भी मैंने उपयोग शुरू किया है। अभी एक प्रवचन सेटेलाइट से उन्होंने, एक वीडियो टेप प्रसारित किया, जो सारी दुनिया में देखा जा सका। नया कम्यून बन जाए, हम अपना सेटेलाइट बना लेंगे, क्या दूसरों पर निर्भर रहना! जब प्रचार ही करना हो. जो भी करना हो उसको मैं फिर पूरी-पूरी तरह करना चाहता हूं, अधूरा-अधूरा क्या करना! बिहार ही बिहार के क्या चक्कर लगाते रहना, इतनी बड़ी दुनिया पड़ी है! और जब कमरे में बैठ कर सारी दुनिया को प्रभावित किया जा सकता हो तो जाना ही क्यों? नहीं जाता हूं उसका कारण यह है कि कमरे में बैठ कर ही अब सब-कुछ किया जा सकता है, अब सारे साधन उपलब्ध हैं। ये महावीर, बुद्ध को, बेचारों को बहुत कष्ट झेलना पड़ा! पैंतालीस साल, पचास साल भागते फिरे। बुढ़ापे में, बयासी साल के बुद्ध हो गए हैं, फिर भी चले जा रहे हैं। आखिरी दिन, मरे उस दिन भी यात्रा जारी थी। इसकी कोई जरूरत नहीं है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं एक आधुनिक कथा-लेखक और कवि हूं। अकहानी लिखता हूं और अकविता लिखता हूं। पर सफलता हाथ नहीं लगती है। आपका आशीष चाहता हूं।
धन्य कुमार कमल! जब अकविता लिखोगे और अकहानी लिखोगे, असफलता हाथ लगेगी। यह तो सीधा तर्क है। पहली तो बात, कविता लिखने वालों को ही कहां सफलता मिलती है! और तुम अकविता लिख कर सफल होना चाह रहे!
मगर तुम आधुनिक नहीं मालूम होते। नहीं तो सफलता के लिए आशीष मांगते? यह परंपरागत ढंग है। और अगर सफलता नहीं मिल रही तो इससे कुछ समझो, कि तुम्हारी कविता लोगों का सिर खा रही होगी; अक्सर कवियों की खाती है। तुम क्षमा करो लोगों को। मुझसे आशीष मांगने की बजाय तुम लोगों को क्षमा कर दो। तुम भैया कुछ और करो। तुम्हारी बड़ी कृपा होगी। कवि वैसे ही इस मुल्क में बहुत हैं, मोहल्ले-मोहल्ले में हैं। बरसात में जैसे मेढक टर्राने लगते हैं, वैसे ही कवि यहां टर्राते रहते हैं। कौन सुनने वाला है?
एक कवि को निमंत्रित किया गया। निमंत्रण भी इसलिए करना पड़ा, क्योंकि वे राजनेता भी थे और कवि भी। जब वे पहुंचे तो बड़े हैरान हुए, हाल खाली था, वहां कोई था ही नहीं। सिर्फ आमों का एक ढेर लगा था। तो उन्होंने संयोजक से पूछा कि यह मामला क्या है?
उसने कहा: मैं भी क्या करूं! आपसे कह चुका था, निमंत्रण दे चुका था कि आप आइए। जनता आई नहीं। सो फिर मैंने एक तरकीब सोची, कि आपसे मैंने कहा है, आम सभा होने वाली है, सो मैंने ये आम के ढेर लगा दिए। पढ़ो कविता! आम सभा! अब मैं भी क्या करूं, कोई जबर्दस्ती मार-पीट कर लोगों को लाया जाए? लोग कविता की बात सुन कर ही भाग खड़े होते हैं।
एक कवि-सम्मेलन में श्रीमान पोपटलाल गीत सुना रहे थे--या दिल की सुनो दुनिया वालो, या मुझको अभी चुप रहने दो।
श्रोताओं में से एक स्वर उभरा--चुप ही हो जा भैया!
बाजार में महाकवि भोलानाथ एक आदमी के पीछे बड़ी तेजी से चिल्लाते हुए भाग रहे थे कि पकड़ लो इस हरामजादे को, बच कर न जाने पाए! अरे बड़ा बेईमान है, बड़ा धोखेबाज है!
आखिर जब एक पुलिसवाले ने यह सब सुना तो पूछा कि भैया, आखिर बात क्या है? भोलानाथ बोले: इसने अपनी कविता तो हमें सुना दी, लेकिन जब मेरी बारी आई तो भाग खड़ा हुआ!
भोलानाथ मरणशय्या पर पड़े थे। डॉक्टरों ने कह दिया था कि अब इनके बचने की कोई उम्मीद नहीं है। सब जगह यह खबर भेजी जा चुकी थी कि भोलानाथ जी की हालत चिंतनीय है और जिन्हें अंतिम दर्शन करना हो वे कर लें। सो उनके गुरु स्वामी मटकानाथ ब्रह्मचारी उन्हें देखने आए। और हाल-चाल पूछने के बाद भूल से उनसे पूछ बैठे कि कोई कविता बनाई क्या?
आग्रह सुन कर भोलानाथ की आंखें चमक उठीं। उन्होंने झट से मटकानाथ के लिए चाय-नाश्ता बुलवाया और तकिए के नीचे से अपनी कविताओं का बंडल निकाल लिया और शुरू हो गए। जब तीन-चार घंटे हो गए तो भोलानाथ के पुत्रों ने सोचा मामला क्या है! मटकानाथ अभी तक जमे हुए हैं। अंदर जाकर देखा तो बात उलटी ही थी: मटकानाथ तो खत्म हो चुके थे, भोलानाथ बिलकुल ठीक-ठाक कविता पाठ कर रहे थे।
तुम भैया, क्षमा करो!
आज इतना ही।
मनुस्मृति का यह बहुत लोकप्रिय श्लोक है: सत्यं ब्रूयात्ंप्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं बू्रयादेष धर्मः सनातनः।। अर्थात मनुष्य सत्य बोले, प्रिय बोले; अप्रिय सत्य को न बोले और असत्य प्रिय को भी न बोले। यह सनातन धर्म है। भगवान, इस पर कुछ कहने की कृपा करें।
शरणानंद! मनुस्मृति इतने असत्यों से भरी है कि मनु हिम्मत भी कर सके हैं इस सूत्र को कहने की, यह भी आश्चर्य की बात है। मनुस्मृति से ज्यादा पाखंडी कोई शास्त्र नहीं है। भारत की दुर्दशा में मनुस्मृति का जितना हाथ है, किसी और का नहीं। मनुस्मृति ने ही भारत को वर्ण दिए हैं। शूद्रों का यह जो महापाप भारत में घटित हुआ है, जैसा पृथ्वी में कहीं घटित नहीं हुआ, उसके लिए कोई जिम्मेवार है तो मनु जिम्मेवार हैं। यह मनुस्मृति की ही शिक्षा का परिणाम है, क्योंकि मनुस्मृति है हिंदू धर्म का विधान। वह हिंदू धर्म की आधारशिला है।
इन पांच हजार वर्षों में शूद्रों के साथ जैसा अनाचार हुआ है, बलात्कार हुआ है, वह अकल्पनीय है। उस सबके पाप के भागीदार मनु हैं। शूद्र की स्त्री के साथ कोई ब्राह्मण अगर बलात्कार करे तो कुछ रुपयों के दंड की व्यवस्था है। और कोई शूद्र अगर ब्राह्मण की स्त्री के साथ बलात्कार करे तो उसे मृत्यु-दंड की व्यवस्था है। कैसा सत्य है यह! शूद्र की स्त्री की कीमत कुछ रुपये है और ब्राह्मण की स्त्री की कीमत--शूद्र का जीवन। बलात्कार भी ब्राह्मण करे तो यूं समझो कि धन्यभागी हो तुम कि तुम्हारे साथ बलात्कार किया। बड़ी कृपा है मनु की कि उन्होंने यह नहीं कहा कि उसको कुछ रुपयों का पुरस्कार दो। देना तो यही था पुरस्कार, कि कितनी कृपा की ब्राह्मण महाराज ने! धन्यभागी है शूद्र की पत्नी! उसकी देह को इस योग्य माना!
ऐसे असत्यों का प्रचार करने वाले लोग भी सुंदर-सुंदर सुभाषित कह गए हैं। यह सुंदर सुभाषितों की आड़ में बहुत पाप छिपा हुआ है। शूद्र को उन रास्तों पर चलने की आज्ञा नहीं जहां ब्राह्मण रहते हों। उन कुओं से पानी भरने की आज्ञा नहीं, जहां से दूसरे उच्च वर्णों के लोग पानी भरते हों। शूद्र मनुष्य है या मनुष्य नहीं? पशु भी चल सकते हैं उन रास्तों पर, जहां ब्राह्मण रहते हैं, क्योंकि गऊ तो माता है! और गऊ माता है, सो बैल पिता हुए ही। इससे कैसे बचोगे? वह तो स्वाभाविक तर्क होगा फिर। भैंसें भी चल सकती हैं, ये भी चाचियां समझो, न सही मां। भैंसे चल सकते हैं, इनको चाचा समझो। गधे चल सकते हैं, इनको मौसेरे भाई-बंधु समझो। मगर शूद्र नहीं चल सकता। शूद्र चले तो उसे जीवन-दंड भी दिया जा सकता है।
शूद्र अगर वेद पढ़े, तो मनु ने विधान किया: उसके कान में सीसा पिघला कर भर दो। अगर वेद-वचन बोले, उसकी जबान काट दो। शूद्र अगर ब्राह्मण का मजाक उड़ाए, तो उसकी जबान काट देने का विधान है। व्यंग्य करे, तो जबान काट देने का विधान है। गाली दे दे, तो उसकी जबान काट देने का विधान है। अगर शूद्र कोई अपने हाथ से ब्राह्मण को छू दे, तो उसका हाथ काट देने का विधान है।
इस तरह की अनाचार से भरी हुई बातें और इस तरह के लोग सनातन धर्म की व्याख्या कर रहे हैं! इनसे व्याख्या हो नहीं सकती। होगी भी तो उसमें बुनियादी भूलें हो जाएंगी। स्वाभाविक है कि भूलें हों। अब जैसे यह सूत्र माना कि बहुत प्रसिद्ध है और प्रसिद्ध होने के कारण बहुत पुनरुक्त होता है, और बहुत पुनरुक्त होने के कारण तुम यह भूल ही जाते हो कि इस पर विचार भी करें। इसे आदमी स्वीकार करने लगता है। पुनरुक्ति एक तरह का सम्मोहन पैदा करती है, सोच-विचार को समाप्त कर देती है।
सोचो थोड़ा, मनु कहते हैं: ‘मनुष्य सत्य बोले।’
लेकिन अगर मनुष्य ने सत्य अनुभव नहीं किया है, तो बोलेगा कैसे? अनुभव की तो कोई बात ही नहीं की जा रही है, बोलने का सवाल है। सत्य का अनुभव बुनियादी बात है। सत्य का अनुभव तुम्हें सत्य बनाएगा। और तुम जब सत्यरूप हो जाओगे, तो तुम उठोगे भी तो सत्य होगा, बोलोगे तो भी सत्य होगा, न बोलोगे तो भी सत्य होगा। तुम्हारे मौन में भी सत्य की आभा होगी। तुम्हारे वचनों में भी सत्य की सुगंध होगी। उठने और बैठने में भी सत्य की ही मुद्राएं होंगी। तुम्हारा हर पल सत्य में भिगोया हुआ होगा। फिर अलग से सत्य बोलने के लिए कोई आयोजन न करना होगा। आयोजन करना पड़ता है इसलिए कि सत्य तुम्हारा जीवन नहीं है। और जब जीवन नहीं है तो सत्य बोलोगे तो वह सत्य उधार होगा। वह तुम्हारा तो नहीं हो सकता। और जो तुम्हारा नहीं है वह सत्य ही कैसा? जो तुम्हारा नहीं है वह तो असत्य ही है। रहा होगा किसी के लिए सत्य, जिसका था, मगर तुम्हारे लिए नहीं।
मेरा सत्य तुम्हारा सत्य नहीं है। मेरा सत्य सत्य इसीलिए है कि मेरा अनुभव है। और जब तक तुम्हारा भी अनुभव न बन जाए तब तक तुम्हारे लिए तो झूठ ही है, झूठ के ही बराबर है। हां, तुम तोते की तरह दोहरा सकते हो।
सो मनु ने तोतों की जमात पैदा कर दी। यह जो पंडितों का इतना बड़ा वर्ग इस देश की छाती पर दाल घोंट रहा है, मूंग दल रहा है, यह मनु खड़ा कर गए। ये सब सत्य बोल रहे हैं। सत्य से इनका मतलब--वेद का उद्धरण दे रहे हैं, गीता दोहरा रहे हैं, रामचरितमानस दोहरा रहे हैं। इसमें से कोई भी इनका अनुभव नहीं, कोई भी निज की प्रतीति नहीं, स्वयं का साक्षात नहीं।
लाओत्सु कहता है कि सत्य तुमने कहा नहीं, दूसरे ने सुना नहीं कि झूठ हो जाता है। क्योंकि जब तुम कहते हो, तुम्हारा तो अनुभव होगा, लेकिन जिसने सुना उसका अनुभव नहीं है। वह सत्य नहीं सुनता, वह तो केवल शब्द सुनता है।
तुम भी ईश्वर को मानते हो, मगर ईश्वर तुम्हारा सत्य है? तुम छाती पर हाथ रख कर कह सकते हो, तुमने जाना? इतना ही कह सकते हो कि मैं मानता हूं। लेकिन मानना और जानना, जमीन-आसमान का भेद है। मानता वही है जो जानता नहीं। जो जानता है वह मानेगा क्यों? मानने की जरूरत क्या है? जब जानता ही है तो मानने का सवाल ही नहीं उठता।
तुम्हारे सत्य विश्वास हैं, अनुभूतियां नहीं। और विश्वास सब झूठ होते हैं। कैसे तुम सत्य बोलोगे?
मनु कहते हैं: ‘मनुष्य सत्य बोले।’
पाखंडी बन जाएगा मनुष्य सत्य बोलने की चेष्टा में। सत्य हो। मैं तुमसे कहता हूं: मनुष्य सत्य बने, सत्य हो! सत्य उसका साक्षात्कार हो। सत्य उसका जीवन हो। फिर उस जीवन से जो भी निकलेगा वह सत्य होगा ही। गुलाब के पौधे पर गुलाब के पत्ते लगेंगे और गुलाब के फूल खिलेंगे। कुछ गुलाब की झाड़ी को यह कहने की जरूरत नहीं है कि देख, तुझमें गुलाब के फूल खिलने चाहिए। खिलेंगे ही। हां, गेंदे के पौधे से कहो तो बात जमती है कि देख, गेंदा मत खिला देना, गुलाब खिला। अब गेंदे का पौधा बेचारा क्या करे! बाजार से प्लास्टिक के गुलाब के फूल खरीद लाए, लटका ले प्लास्टिक के फूल, अपने गेंदों को छिपा ले घूंघट में और घूंघट के बाहर लटका दे गुलाब के फूल--इतना ही हो सकता है। पाखंड ही हो सकता है।
इस तरह के सूत्र पाखंड के जन्मदाता हैं।
मनु कोई बुद्धपुरुष नहीं हैं। मनु ने स्वयं जाना नहीं है, नहीं तो इस तरह की बात नहीं कहते। बुद्ध तो कुछ और कहते हैं। बुद्ध कहते हैं: अप्प दीपो भव! अपने दीये बनो। ज्योति जलाओ। अपनी ज्योति, अपना दीया।
बुद्ध ने कहा है: मैं कुछ कहता हूं, इसलिए मत समझ लेना कि सत्य है। शास्त्र कहते हैं, इसलिए मत मान लेना कि सत्य है। शास्त्र गलत हो सकते हैं, फिर? मैं गलत हो सकता हूं, फिर? मैं धोखा दे सकता हूं, फिर? मैं धोखा न भी दूं, मैं खुद ही धोखे में हो सकता हूं, फिर?
तो बुद्ध ने कहा है: मेरी बात मत मान लेना। प्रयोग करना। जानना। और जब जानो, जब स्वयं की ज्योति जले, उस ज्योति में जो अनुभव हो, जो प्रकाशित हो, वह तुम्हारा होगा।
सत्य सदा स्वयं का होता है। और फिर उस सत्य के अनुभव में जो पत्ते लगेंगे, फूल लगेंगे, फल लगेंगे, वे सब सत्य के होंगे। यह सिखाने की जरूरत नहीं है कि मनुष्य सत्य बोले। ध्यान सिखाने की जरूरत है, सत्य सिखाने की जरूरत नहीं है। सत्य तो हम सबके भीतर पड़ा है। वह हमारा स्वभाव है।
महावीर का सूत्र ज्यादा कीमती है: ‘वत्थू सहावो धम्म।’ वस्तु का स्वभाव धर्म है। हमारा स्वभाव हमारा धर्म है। हम अपने स्वभाव को पहचान लें और हमने सत्य जान लिया। फिर उसके बाद हम जो भी करें, वह सभी सत्य होगा। लेकिन अगर तुमने सत्य बोलने की चेष्टा की, तो तुम बड़ी झंझट में पड़ोगे।
क्या है सत्य फिर? बाइबिल सत्य है? कुरान सत्य है? गीता सत्य है? धम्मपद सत्य है? ताओ तेह किंग सत्य है? क्या सत्य है? और इन सबकी बातों में बड़ा विरोध है। खुद बाइबिल में दो हिस्से हैं--पुरानी बाइबिल और नई बाइबिल। पुरानी बाइबिल यहूदियों की किताब है और नई बाइबिल ईसाइयों की किताब है। यहूदी तो सिर्फ पुरानी बाइबिल को मानते हैं; नई बाइबिल तो जीसस के वचन हैं, उसको तुमने इनकार कर दिया। जीसस को तो सूली पर लटका दिया। लेकिन ईसाई दोनों बाइबिल मानते हैं और ईसाइयों के पास कोई उत्तर नहीं है इस बात का।
पुरानी बाइबिल में ईश्वर कहता है: मैं बहुत ईर्ष्यालु ईश्वर हूं। जो मेरे साथ नहीं है वह मेरा दुश्मन है। यह तो एडोल्फ हिटलर की भाषा है। एडोल्फ हिटलर ने यह लिखा ही है ‘मैनकैम्फ’ में कि जो मेरे साथ नहीं वह मेरा दुश्मन है। या तो मेरे साथ हो, या मेरे दुश्मन हो। बस दो ही कोटियों में आदमी को बांटा है।
और स्पष्ट कहता है पुरानी बाइबिल का ईश्वर कि मैं ईर्ष्यालु हूं। ईश्वर और ईर्ष्यालु! तो फिर ईश्वर को पाकर भी क्या करोगे? यही ईर्ष्या, यही लोभ, यही मोह, यही उपद्रव अगर वहां भी जारी रहना है तो यहां ही क्या बुराई है? फिर आदमी होने में क्या बुरा है?
और जीसस कहते हैं: ईश्वर प्रेम है। और ईसाई दोनों किताबों को पूजता है बिना इसकी फिकर के कि जरा देखे इस विरोधाभास को: ईर्ष्या और प्रेम! जहां प्रेम है वहां ईर्ष्या नहीं है और जहां ईर्ष्या है वहां प्रेम नहीं है। ईर्ष्या और प्रेम तो यूं हैं जैसे प्रकाश और अंधकार। इनका कोई तालमेल कहीं नहीं होता। फिर भी दोनों की पूजा जारी है।
अंधे हैं लोग। इन अंधे लोगों से कहो कि सत्य बोलो, क्या सत्य बोलेंगे? सत्य का पता ही नहीं है। हां, दोहरा सकते हैं तोतों की तरह, यंत्रों की तरह। और सत्य जब दोहराया जाता है तो मुर्दा होता है। मुर्दा सत्य सड़ी हुई लाश होती है। उससे दुर्गंध उठती है। उससे जीवन मुक्त नहीं होता, बंधन में पड़ता है।
मैं नहीं कहता कि सत्य बोलो। इसका यह अर्थ नहीं कि मैं कहता हूं कि सत्य मत बोलो। मेरी बात को समझने की कोशिश करना। मैं कहता हूं: सत्य हो जाओ। अप्प दीपो भव! दीये बनो। फिर उस रोशनी में तुम जो बोलोगे वह सत्य ही होगा। वह असत्य नहीं हो सकता। फिर तुम्हें बोलना न पड़ेगा। अभी बोलना पड़ेगा। और जब बोलना पड़ता है उसका अर्थ है--जहां श्रम है, चेष्टा है, उसका अर्थ है: तुम दो हिस्सों में बंट गए। तुम्हारे भीतर तो कुछ था और बाहर तुमने कुछ दिखाया। भीतर तो झूठों की कतार लगी थी और बाहर सत्य बोलने की चेष्टा की। भीतर तो गालियां चल रही थीं और बाहर गीत गाया।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने मित्र चंदूलाल को एक रात निमंत्रित किया। दोनों ने डट कर पी। मुल्ला की पत्नी गई थी मायके, सो कोई अड़चन थी नहीं। सो दिल खोल कर पी। और जब दोनों विदा होने लगे, तो द्वार पर जो बात हुई, वह जरा समझने जैसी है। आमतौर से मेहमान से हम कहते हैं कि आपकी बड़ी कृपा, बड़ी अनुकंपा कि आप पधारे! हम धन्य हुए! गरीबखाने पर आप आए, गरीब की कुटिया को पवित्र कर दिया। और मेहमान कहता है कि नहीं-नहीं ऐसी बात न करें। आपकी बड़ी कृपा कि आपने निमंत्रण दिया, मुझे इस योग्य माना कि अपना अतिथि बनाया! इतना सत्कार किया, इतनी सेवा की! मगर वह जो बात वहां हुई, बिलकुल सच्ची हो गई, क्योंकि दोनों पीए थे। मुल्ला ने कहा: मैं भी धन्य हूं। मेरी भी कृपा देखो कि मैंने तुम्हें निमंत्रण दिया।
और चंदूलाल ने कहा: अरे नहीं-नहीं, मैं धन्य हूं! मेरी कृपा देखो कि मैंने तुम्हारे जैसे का भी निमंत्रण स्वीकार किया!
यही पड़ा होता है भीतर तो। बाहर हम कहते हैं, बड़ी कृपा, आप पधारे! और भीतर यह होता है, यह दुष्ट कहां से आ गया! रास्ते पर मिल जाते हो तो भीतर कहते हो: हे भगवान, कहां से इस दुष्ट की शक्ल सुबह-सुबह दिखाई पड़ गई, दिन भर न बिगड़ जाए! ऐसे उससे यह कहते हो कि बड़ा सौभाग्य, बड़े दिनों में दर्शन हुए! अहोभाग्य, सुबह-सुबह दर्शन हो गए! मगर भीतर कुछ और चल रहा है, बाहर कुछ और चल रहा है।
इस तरह के वचनों ने ही, इस तरह के नैतिक वचनों ने ही तुम्हें खंड-खंड कर दिया है। तुम्हें खंड-खंड करके ही तो पाखंडी बना दिया है। पाखंड का मतलब ही यह होता है कि जो व्यक्ति खंड-खंड है वह पाखंडी है। पाखंड यानी खंड-खंड हो जाना। अखंड होने में पाखंड नहीं होता। अखंड का मतलब होता है: जैसा भीतर है वैसा बाहर है।
मुझसे लोग नाराज इसलिए हैं कि मैं पाखंड में जरा भी भरोसा नहीं करता। जो मेरे भीतर है वही मैं कहता हूं। जैसा है वैसा ही कहता हूं--बुरा लगे बुरा लगे, भला लगे भला लगे। जो मेरे लिए सत्य है वही कहता हूं, जो परिणाम हो। परिणाम की चिंता करके जो बोलता है वह तो सत्य बोल ही नहीं सकता। वह तो परिणाम के हिसाब से बोलेगा। वह तो दुकानदार है। वह तो यह देखता है कि लाभ किससे होगा, क्या कहूं जिससे लाभ हो? वह अगर सत्य भी बोलेगा तो तभी बोलेगा जब लाभ होता हो। उसने तो सत्य को भी लाभ का ही साधन बना लिया है। और सत्य किसी चीज का साधन नहीं है, परम साध्य है। सब-कुछ सत्य पर समर्पित है, लेकिन सत्य किसी के लिए समर्पित नहीं है। सत्य से ऊपर कोई धर्म नहीं। सत्य से ऊपर कोई परमात्मा नहीं। सत्य ही परम धर्म है और सत्य ही भगवत्ता है। मगर यह अनुभव से हो।
मैं नहीं कहूंगा कि सत्य बोलो। मैं कहूंगा: सत्य हो जाओ। बोलना तो बड़ा आसान है, होने का सवाल है।
लेकिन मनु कहेंगे: प्रेम बोलो। मैं कहूंगा: प्रेमपूर्ण हो जाओ। वे तुम्हें पाखंड सिखा रहे हैं। वे कह रहे हैं: जरा जबान का अभ्यास कर लो--मृदु, सुंदर, प्रीतिकर सत्य हो, बोलो। इसलिए कहते हैं: सत्य बोलो, प्रिय बोलो।
लेकिन प्रेम भीतर न हो तो प्रिय कैसे बोलोगे? कहां से लाओगे प्रियता? वह माधुर्य कहां से लाओगे? भीतर प्रेम लहरा रहा हो तो उसमें जब डुबकी लगा कर शब्द आते हैं तो मीठे हो जाते हैं, नहाए होते हैं, स्वच्छ होते हैं, ताजे होते हैं, जीवंत होते हैं। मगर भीतर मृदुता नहीं है। भीतर तो कटुता भरी है। जहर हो भीतर। भीतर जहर रहे आओ और ऊपर मीठा बोलना, तो तुम दो हो गए--बोलने में कुछ, होने में कुछ। और ध्यान रखना, करोगे तो तुम वही जो तुम हो। बोलो तुम लाख कुछ और, होगा तो वही जो तुम हो। और जरा सी खरोंच में निकल आएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन बीमार था, बहुत बीमार था। सर्द रात, बड़ी बर्फीली रात, पानी जमा जा रहा है ऐसी सर्दी। आधी रात को डॉक्टर को मुल्ला की पत्नी ने खबर की। डॉक्टर की भी छाती दहले बाहर निकलने में। लेकिन मजबूरी है, बीमार मरणासन्न है। पत्नी ने कहा: आना ही होगा। इसी वक्त आना होगा। शायद यह आखिरी ही क्षण हों, आ जाओ तो शायद बच जाएं।
झिझकता हुआ डॉक्टर, गालियां देता हुआ, कि मर ही क्यों न गया यह आदमी शाम को और रात तक किसलिए जिंदा है, और हमको भी मारने के पीछे लगा है. मगर मजबूरी डॉक्टर की, गालियां कितनी ही दो। गया। पत्नी को कहा कि तुम नाहक परेशान हो रही हो, बचने की कोई उम्मीद नहीं है। मैं दोपहर को ही तो देख कर गया था, बचने की कोई उम्मीद नहीं है। सुबह हो जाए तो बहुत। अब काहे को रात गई मुझे बुलाया? कुछ किया नहीं जा सकता।
भीतर तो क्रोध से आगबबूला हो रहा था। लेकिन पत्नी ने कहा कि आखिरी घड़ी है। सोचा एक बार और आप देख लो, शायद कुछ उपाय हो सके तो और कर लो। कहने को न रह जाए। यह मन में बात न रह जाए कि आखिरी क्षण में चिकित्सक को नहीं बुलाया। मगर एक बात की प्रार्थना है कि यह जो आप कह रहे हो कि अब बचने की उम्मीद नहीं है, मुल्ला के सामने न कहना। उनको दुख न लगे। विदा कम से कम हो ही रहे हैं तो मौन से और शांति से विदा हो जाएं।
डॉक्टर ने कहा: ठीक। भीतर गया, नब्ज देखी, तापमान लिया और मुस्कुरा कर कहा कि अरे नसरुद्दीन, दोपहर को देख कर गया था तो मुझे लगता था पता नहीं बचोगे कि नहीं, मगर अब तो बिलकुल हालत ठीक है। दिन-दो दिन में उठ आओगे, चलने-फिरने लगोगे। चमत्कार हो गया मालूम होता है। सब ठीक है, बिलकुल स्वास्थ्य जैसा होना चाहिए हो गया। दवा असर कर गई मालूम होता है। और भाग्यशाली हो, अभी तुम्हारी किस्मत में जाना नहीं लिखा है। अभी जीओगे दस-पचास वर्ष।
और तभी मुल्ला की पत्नी दरवाजा खोल कर भीतर आई। दरवाजा खोला तो हवा का सर्द झोंका भीतर आया। और मुल्ला की पत्नी दरवाजा खुला ही छोड़ कर पास आकर खड़ी हो गई। डॉक्टर एकदम चिल्लाया कि बाई, कम से कम दरवाजा तो बंद कर दे। क्या नसरुद्दीन के साथ हमको भी मारना है? वह खरोंच जरा ही सी, हवा का झोंका और बात निकल आई जो दबी पड़ी थी। ऊपर से तो कह रहा था कि अब तुम काफी जीओगे। लेकिन हमारी भी अरथी उठवाना है क्या सुबह ही? इनकी तो उठी ही है, इनकी तो खाट खड़ी ही है, हमारी भी खड़ी करवा देना है क्या? बंद कर दरवाजा!
कैसे छिपाओगे? कब तक छिपाओगे? यहां-वहां से बह कर बात निकल आएगी। बच नहीं सकती।
‘प्रिय बोले--मनु कहते हैं--और अप्रिय सत्य को न बोले।’
यह बात तो और भी गलत है, बुनियादी रूप से गलत है। सत्य तो जब भी बोला जाएगा, अप्रिय होगा। क्योंकि तुम झूठ में जी रहे हो, झूठ ही तुम्हारी सांत्वना है। अगर अप्रिय सत्य न बोलना हो तो न जीसस बोल सकते हैं, न बुद्ध बोल सकते हैं। फिर तो मनु ही बोल सकते हैं--मनु, जिनको कि सत्य का कोई पता नहीं है। फिर न तो लाओत्सु बोल सकते हैं, न जरथुस्त्र बोल सकते हैं। फिर तो इस जगत में जिन लोगों ने सत्य बोला है, वे कोई नहीं बोल सकते, क्योंकि जब भी कोई सत्य बोलेगा वह अप्रिय होने वाला है। अप्रिय इसलिए नहीं कि सत्य अप्रिय होता है; अप्रिय इसलिए कि तुम झूठ में रगे-पगे हो और जब सत्य बोला जाता है, तुम्हारे झूठों पर चोट पड़ती है। और तुमने झूठों को सत्य मान रखा है। तो जब कोई सत्य बोलेगा, तुम्हारे झूठ गिरेंगे। तुम्हें यूं लगेगा कि जैसे किसी ने तलवार उठा ली और तुम्हारे झूठों को जड़ों से काट डाला। जैसे कोई कुल्हाड़ी लेकर तुम्हारे ऊपर टूट पड़ा है। सत्य तो जब भी होगा, अप्रिय ही होगा।
बुद्ध का वचन है कि झूठ पहले मीठा, बाद में कड़वा होता है; सत्य पहले कड़वा बाद में मीठा होता है। और बुद्ध ज्यादा ठीक बात कह रहे हैं। सत्य तो पहले कड़वा लगेगा ही, जहर जैसा लगेगा। क्योंकि तुम्हारी सारी सांत्वनाएं छीन लेता है, तुम्हारी नींद उखड़ जाती है, तुम्हारी बेहोशी टूट जाती है। तुम्हें कोई जगा दे नींद में से तो कोई प्रिय थोड़े ही लगता है। भला तुमने ही कहा हो कि सुबह-सुबह उठा देना.।
जर्मनी का प्रसिद्ध विचारक हुआ, इमैनुअल कांट। वह घड़ी के कांटे से चलता था। कहते हैं जब वह विश्वविद्यालय पढ़ाने जाता था, लोग अपनी घड़ियां ठीक कर लेते थे। क्योंकि नियम से, मिनट, सेकेंड, ऐसा घड़ी का पाबंद था कि मशीन की तरह चलता था। एक दफा जा रहा था विश्वविद्यालय, कीचड़ थी और एक जूता कीचड़ में फंस गया, तो उसने लौट कर जूता नहीं उठाया, क्योंकि उतने में तो देर लग जाएगी। कुछ सेकेंड तो देर हो ही जाती, जूता निकलता कीचड़ से, साफ करता, पहनता, पैर में डालता। इतनी देर से वह नहीं पहुंचेगा। वह एक जूता वहीं छोड़ गया। एक ही जूता पहने हुए वह विश्वविद्यालय पहुंचा। जब उसके विद्यार्थियों ने पूछा कि आपके एक जूते का क्या हुआ? उसने कहा कि वह लौटते में कीचड़ में से निकालूंगा। अभी निकालता तो पांच-दस सेकेंड लेट हो सकता था।
उसको देख कर लोग घड़ियां सुधार लेते थे। उसने एक गांव छोड़ा नहीं, जिस गांव में रहा पूरी जिंदगी वहीं रहा। इसलिए नहीं छोड़ा कि दूसरे गांव में जाए तो कहीं जीवन के क्रम में कोई व्याघात न पड़ जाए। अरे ट्रेन लेट हो जाए, भोजन समय पर न मिले, नींद वक्त पर न ले पाए.। ठीक सो जाता था नौ बजे। अगर नौ बजे उसके मेहमान भी बैठे हों तो उनसे भी यह नहीं कहता था कि अब मेरा सोने का वक्त हो गया, क्योंकि इतना भी समय खोना क्यों। जैसे ही घड़ी में नौ बजे वह छलांग लगा कर अपने बिस्तर में होकर कंबल ओढ़ लेता था। वह जो बैठा आदमी एकदम चौंका ही रह जाए कि क्या हुआ। नौकर आकर उससे कहता था कि भैया अब घर जाओ, वे तो सो गए। नौ बज गए। नौ बज जाएं तो वे एक शब्द नहीं बोलते, क्योंकि उतनी देर.। ऐसा बिलकुल पाबंद था। सुबह तीन बजे उठना नियम था। हिंदुस्तान में ब्रह्ममुहूर्त ठीक है, गर्म देश है। और तुम सोना भी चाहो तो मच्छर कहां सोने देंगे! और सुबह-सुबह मच्छर और भनभनाते हैं।
सच तो यह है अभी-अभी वैज्ञानिकों ने खोज की है कि सुबह आधा घंटा सूर्योदय के पहले और सांझ सूर्यास्त के बाद आधा घंटा, बस ये दो ही समय में मच्छर योग्य होते हैं लोगों में बीमारी फैलाने में, और बाकी समय में उनकी योग्यता नहीं होती। ब्रह्ममुहूर्त में सावधान रहना मच्छरों से। वही वक्त है जब मच्छर बीमारी डाल सकता है--सिर्फ आधा घंटा सुबह और आधा घंटा शाम। अगर ये दो वक्त तुम बचा लो, मच्छर तुम्हें कोई बीमारी नहीं दे सकता। उसी समय उसकी संभावना है।
तो यहां तो मच्छर वैसे ही किसी को ब्रह्ममुहूर्त में सोने नहीं देते। और गर्म देश है। मगर ठंडे देश में तीन बजे रात उठना कठिन काम है।
उसने कभी विवाह नहीं किया--इसीलिए कि स्त्री आए, कौन झंझट करे! माने न माने, सुने न सुने। वक्त पर काम हो या न हो। नौकर ठीक। नौकर है तो मान कर चलेगा। नौकर का काम यह था कि वह तीन बजे उठाए। और एक ही नौकर टिका, क्योंकि कोई भी नौकर दो-चार दिन में कह दे कि बस माफ करिए, अब मैं जाता हूं, मुझे नहीं करना यह काम। क्योंकि काम क्या था, चौबीस घंटे घड़ी की सुई की तरह चलना। और सबसे कठिन काम था सुबह तीन बजे। कांट को उठाना बहुत मुश्किल था, हालांकि वह कहता था कि तीन बजे उठाओ, मगर उठना नहीं चाहता था। छीन-छीन कर अपना कंबल अंदर घुस जाता था। शाम को कहता था कि चाहे कुछ भी हो जाए, उठाना। और सुबह गालियां बकता था, कि नौकर तू है कि मैं हूं? छोड़ कंबल, निकल बाहर! और फिर अपने बिस्तर में घुस जाए। और दूसरे दिन सुबह फिर डांटे कि जब मैंने कहा था कि उठाना.। एक ही पहलवान छाप नौकर था, वह रुका। वह उठा देता था। यहां तक नौबत आ जाती थी कि मार-पीट हो जाती थी। कहा जाता है कि वह नौकर भी ऐसा था कि जमा देता था दो-चार; अगर उसके साथ छीना-झपटी करे तो वह कहता था: मालिक, आपने ही कहा। फिर अब बाद में मत कहना। लगा देता दो-चार उठा-पटक उनको। पटक देता उठा कर नीचे फर्श पर। मगर उठा कर रहता। बिस्तर उठा लेता, निकाल बाहर कर देता कमरे के। वही नौकर टिका और उससे कांट बहुत खुश था। हालांकि सुबह बहुत गालियां बकता था, झूमा-झटकी होती थी, कपड़े फट जाते; मगर वह नौकर भी एक था! उसको क्या पड़ी थी! उसको मजा आने लगा था कि ठीक है, इनको उठा कर वह अपना सो जाता था जाकर कि अब तुम अपना करो ब्रह्ममुहूर्त में जो तुम्हें करना है। वही एक नौकर टिका। एक दफा वह छोड़ कर चला गया तो उसको वापस दुगनी तनख्वाह पर लाना पड़ा, क्योंकि उसके बिना कांट का जीना मुश्किल हो गया। कौन उठाए तीन बजे उसे!
जब कोई तुम्हें नींद से उठाएगा, तो छीना-झपटी होने वाली है। सत्य तो अप्रिय होगा ही।
और मनु कहते हैं: ‘अप्रिय सत्य को न बोले।’
तब तो फिर सत्य बोला ही नहीं जा सकता।
और यह भी कहते हैं कि ‘असत्य प्रि
य को भी न बोले।’
तब तो बिलकुल बोला नहीं जा सकता। बोलना ही खत्म। अप्रिय सत्य को न बोले, यह एक शर्त लगा दी। और असत्य प्रिय को न बोले। और असत्य ही प्रिय होता है, क्योंकि असत्य तुम्हें सांत्वना देता है। असत्य की ईजाद क्यों करता है आदमी? संतोष के लिए, सांत्वना के लिए। तुम्हारी पत्नी मर जाती है, मोहल्ले-पड़ोस के लोग आकर समझाते हैं कि मत रोओ, अरे आत्मा तो अमर है! जैसे इनको पता है!
एक सज्जन की पत्नी मर गई, तो मैं भी गया। वहां मैंने देखा कि मोहल्ले के लोग उन्हें समझा रहे हैं कि आत्मा तो अमर है। एक सज्जन बहुत ही समझा रहे थे। बड़े श्लोक वगैरह उद्धरण दे रहे थे और बड़ी प्रामाणिकता से सिद्ध कर रहे थे कि आत्मा तो अमर है। अरे गीता में लिखा हुआ है: न हन्यते हन्यमाने शरीरे! नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। आग जलाती नहीं, शस्त्र छेदते नहीं। शरीर कट जाए, शरीर मर जाए, मिट जाए, आत्मा नहीं मरती।
तो मैंने कहा कि इनको तो ज्ञान उपलब्ध हो गया मालूम होता है। संयोग की बात, दो साल बाद उनकी पत्नी मरी, तो मैं उनके घर गया। वे रो रहे थे। मैंने कहा: अरे, तुम और रो रहे!. न हन्यते हन्यमाने शरीरे! भूल गए? दूसरे की पत्नी मरी तो क्या ज्ञान बघार रहे थे, अपनी मरी तो सब भूल गए! तो क्यों बकवास लगा रखी थी उस दिन?
वे मुझसे कहने लगे: भई, अभी विवाद न छेड़ो, अभी मैं मुसीबत में पड़ा हूं, तुम विवाद खड़ा कर रहे।
मैं विवाद खड़ा नहीं कर रहा, विवाद तुमने खड़ा करवाया। दूसरे की पत्नी मरी तो आत्मा अमर है। अपना जाता क्या! अपनी मरी, तब पता चलना चाहिए। अभी सबूत दो। रोओ मत। आत्मा मरी ही नहीं। और शरीर तो मरा ही हुआ है। इसके लिए क्या रोना? अरे मिट्टी मिट्टी में मिल गई, बात खत्म! यही बातें तुम समझा रहे थे, यही मैं तुम्हें दोहरा रहा हूं, सिर्फ याद दिला रहा हूं।
उन्होंने मुझे बड़े गुस्से से देखा। मैंने कहा: गुस्से से देखने का कोई सवाल नहीं है। अगर तुम्हें पता नहीं तो क्यों बकवास छेड़ रखी थी? क्यों उस बेचारे को बकवास सुना रहे थे अपनी?
और थोड़ी देर में, मैं वहां बैठा ही था कि वे सज्जन आए जिनकी पत्नी पहले मर चुकी थी। वे भी समझाने लगे कि भैया, क्यों रो रहे हो? अरे देह तो आती-जाती है। आत्मा का न कोई जन्म, न कोई मृत्यु।
मैंने कहा: मालूम होता है आपकी पत्नी जब से मरी, आपको ज्ञान उपलब्ध हो गया। तब तो आपकी हालत खराब थी, ये ज्ञानी थे। अब इनकी हालत खराब है, आप ज्ञानी हैं।
मगर कसौटी तब आएगी. मैंने कहा: आपके पिताजी बहुत बीमार हैं, जल्दी ही मरेंगे, तब मैं आऊंगा। तब देखूंगा।
अरे, उन्होंने कहा: तुम कैसी बातें करते हो! पिताजी बीमार हैं, इसका मतलब है कि मरेंगे? तुम इस तरह की कठिन बातें और कठोर वचन बोलते हो! क्यों मरेगे?
अरे, मैंने कहा: तुम अभी तो कह रहे थे, कोई मरता ही नहीं! अभी मरे भी नहीं, मैंने सिर्फ कहा ही है, उतने से ही तुम नाराज हो रहे हो! जब मरते ही नहीं तो मेरे कहने से क्या मर जाएंगे? क्या तुम सोचते हो मेरे कहने से मर जाएंगे? इनकी पत्नी मर गई तो भी नहीं मरी और तुम्हारे पिता मेरे कहने से मरे जा रहे हैं! अरे कोई मरता नहीं भैया! आत्मा अमर है!
दोनों मुझ पर नाराज।
यहां सांत्वना के खेल चल रहे हैं। यहां एक-दूसरे के घाव पर मलहम-पट्टी की जाती है। यहां कोई सत्य बोलेगा तो अप्रिय होने वाला है, क्योंकि तुम प्रिय असत्यों में डूबे हुए हो। तुम्हारी जिंदगी प्रिय असत्यों के सिवाय और है क्या? इन्हीं प्रिय असत्यों की ईंटों से तो तुमने चुनी है अपनी इमारत। और सत्य तो इस पूरी इमारत को गिरा देगा--ऐसे, जैसे कोई ताशों के पत्तों से घर बनाए और हवा का झोंका गिरा जाए। सत्य आया, एक झोंका और तुम्हारे सारे ताश के महल नीचे गिर जाएंगे।
मैं मनु से राजी नहीं हूं। प्रिय होगा--असत्य होगा। सत्य होगा--अप्रिय होगा। फिर तुम्हें याद दिला दूं, लेकिन यह कोई सत्य का स्वभाव नहीं है अप्रिय होना, यह तुम्हारे कारण है। और असत्य का प्रिय होना भी तुम्हारे कारण है। तुम सत्य को खोजना नहीं चाहते। तुम सस्ता सत्य चाहते हो, वह झूठा ही होने वाला है। तुम ऐसा सत्य चाहते हो जो मिल जाए मुफ्त, कुछ करना न पड़े। न कोई ध्यान, न कोई प्रार्थना, न कोई योग--कुछ करना न पड़े, कोई दे दे मुफ्त। वह असत्य ही होने वाला है। हां, प्रिय हो सकता है, मगर होगा असत्य। और जब इस असत्य पर चोट करेगा कोई, तो कड़वा लगेगा, दुश्मन लगेगा।
जीसस को लोगों ने सूली क्यों दी? अगर जीसस प्रिय सत्य ही बोल सकते थे तो जरूर बोले होते। लेकिन मजबूरी थी। महावीर को लोगों ने मारा, पीटा। क्यों? बुद्ध पर लोगों ने पागल हाथी छोड़े, पत्थर सरकाए, चट्टानें गिराईं। क्यों? किस कारण? अगर ये सारे लोग प्रिय सत्य बोल सकते थे तो क्यों नहीं बोले? इन्हें कुछ अप्रिय सत्य बोलने की सनक सवार थी?
सुकरात को क्यों जहर देकर मारा गया? सत्य बोल रहा था बेचारा, और तो कुछ कर नहीं रहा था। सिर्फ सत्य बोल रहा था। लेकिन नग्न सत्य हमेशा, नींद में जो पड़े हैं, असत्यों को ओढ़े जो बैठे हैं, उनको बहुत तिलमिला जाता है। सुकरात का एक ही कसूर था कि वह लोगों को याद दिला रहा था कि तुम असत्य में जी रहे हो। और यह याद कोई बर्दाश्त नहीं करना चाहता। उसने तो कुछ किसी को कहा नहीं, चोट नहीं पहुंचाई, कुछ नहीं किया। लेकिन उस पर अदालत में मुकदमा चला। अदालत में जो प्रधान न्यायाधीश था, उसको भी थोड़ी तो ग्लानि हो रही थी, अपराध अनुभव हो रहा था। क्योंकि सुकरात जैसा अदभुत व्यक्ति इसको सजा देनी पड़ रही है! लेकिन जूरी में से अधिक लोग सजा के पक्ष में थे, मृत्यु-दंड के पक्ष में थे। लेकिन न्यायाधीश ने फिर भी एक अवसर खोजा। उसने कहा कि तुमसे मैं यह प्रार्थना करता हूं सुकरात, तुम अगर एथेंस छोड़ कर चले जाओ तो हम तुम्हें कोई दंड न देंगे। एथेंस के लोग भी राजी हो जाएंगे कि तुमने एथेंस छोड़ दिया और फिर तुम्हें जो करना हो करो।
सुकरात ने कहा: मैं जहां जाऊंगा वहीं मुकदमा चलेगा। इससे क्या फर्क पड़ता है? एथेंस छोडूंगा तो जहां जाऊंगा वहीं झंझट होने वाली है। इसलिए झंझट से यहीं निपट लेना ठीक है। सत्य तो जहां जाऊंगा वहीं चोट करेगा। और जब एथेंस जैसे सुसंस्कृत नगर में चोट कर रहा है, तो अब कहां जाऊंगा जहां चोट नहीं करेगा?
एथेंस उस समय दुनिया की सबसे सुसंस्कृत नगरी थी। सच तो यह है कि उस तरह की सुसंस्कृत नगरी दुनिया में न कभी थी, न फिर कभी हुई।
सुकरात ने कहा: एथेंस छोड़ कर कहां जाऊं? कहीं नहीं जाऊंगा। यहीं रहूंगा। जीऊंगा तो यहीं रहूंगा। मौत की सजा देनी हो तो सजा दे दो।
न्यायाधीश ने फिर उसे एक मौका दिया और कहा कि तो फिर तुम यह करो। रहो तुम एथेंस में, हम तुम्हें बुढ़ापे में एथेंस से निकालना भी नहीं चाहते। मगर सत्य बोलना बंद कर दो।
सुकरात ने कहा: यह तो और भी असंभव है। यह तो मेरा धंधा है। ‘धंधा’ शब्द का उपयोग किया--यह मेरा धंधा है। सत्य बोलना मेरा धंधा है। इसके बिना तो मैं रह नहीं सकता। यह मेरा श्वास है। जैसे मैं श्वास के बिना जी नहीं सकता, सत्य बोले बिना नहीं जी सकता। मैं तो बोलूंगा तो सत्य। चलूंगा तो सत्य। उठूंगा तो सत्य। जीवन रहे कि जाए, उसका कोई मूल्य नहीं। तुम बेहतर हो, मृत्यु-दंड दे दो। कम से कम कहने को बात रह जाएगी कि मैं मरा तो सत्य के लिए मरा और मैंने कोई समझौता न किया।
मनु कहते हैं: ‘अप्रिय सत्य को न बोले।’
तब तो सत्य बोला ही नहीं जा सकता। सुकरात जैसा कलाविद नहीं बोल सका, फिर कौन बोल सकेगा? बुद्ध जैसा व्यक्ति नहीं बोल सका, फिर कौन बोल सकेगा?
और कहते हैं: ‘असत्य प्रिय को भी न बोले।’
और पूरी मनुस्मृति असत्य प्रियों से भरी हुई है। ब्राह्मणों की खुशामद और ब्राह्मणों को सबकी छाती पर बिठा देने की चेष्टा, षडयंत्र। सब असत्य। यह झूठी बात है कि ब्राह्मण परमात्मा के मुंह से पैदा हुए और शूद्र परमात्मा के पैरों से पैदा हुए और क्षत्रिय बाहुओं से पैदा हुए और वैश्य जंघाओं से पैदा हुए। बकवास है। कहीं मुंह से कोई पैदा होता है, कि पैरों से कोई पैदा होता है? यह परमात्मा क्या हुआ, ये तो पूरे शरीर पर योनियां ही योनियां हो गईं! यह तो परमात्मा क्या हुए, गर्भ ही गर्भ हो गए! मुंह भी गर्भ, बांहें भी गर्भ, जंधाएं भी गर्भ, पैर भी गर्भ। ये तो सारी स्त्रियों को मात कर दिए। ये तो शुद्ध स्त्री हो गए। और चार-चार स्त्रियों का काम अकेले कर रहे हैं। और पुरुष कहां है? चलो यह भी मान लो कि परमात्मा के मुंह से पैदा हुआ ब्राह्मण और पैर से पैदा हुए शूद्र। मगर वह पुरुष कहां है, जिसने यह गर्भाधारण करवा दिया? वह पुरुष कौन है? और क्या गजब के गर्भाधारण हुए--किसी का मुंह में हुआ, किसी का पैर में हुआ, किसी का जंघाओं में हुआ! जहां होता है गर्भाधारण, पेट में, वहां तो किसी का भी न हुआ।
तुम गजब देखते हो! झूठों के भी कोई अंत होते हैं। कपोल-कल्पनाओं के भी कोई अंत होते हैं! और शर्म भी नहीं है मनु को यह कहने में कि ‘असत्य प्रिय को भी न बोले।’ यह ब्राह्मणों की खुशामद है। ब्राह्मणों को प्रसन्न करने की चेष्टा है। खुद भी ब्राह्मण हैं, इसलिए खुद के अहंकार को भी मजा आ रहा है, कि हम श्रेष्ठतम हैं, मुंह से पैदा हुए। लेकिन परमात्मा का मुंह हो कि परमात्मा का पैर, दोनों दिव्य हैं। कोई पैर अलग थोड़े ही हैं, सब संयुक्त है। रक्त जो तुम्हारे सिर में घूम रहा है, थोड़ी देर में पैर में घूमता है, थोड़ी देर में फिर सिर में आ जाता है। रक्त का वर्तुल घूम रहा है। तुम बिलकुल संयुक्त हो। हर चीज जुड़ी है। नस-नस से गुथी है। कुछ ऐसे भेद हैं क्या? कहां जांघें खत्म होती हैं, कहां पैर शुरू होते हैं, कहां मुंह खत्म होता है और कहां हाथ शुरू होते हैं, कहीं कोई सीमा है? कोई सीमा-रेखा है? मनुष्य का व्यक्तित्व, पूरा शरीर एक है। जब मनुष्य का व्यक्तित्व एक है, परमात्मा का तो और भी एक होगा।
और परमात्मा कोई व्यक्ति थोड़े ही है कि उसका मुंह है, हाथ हैं, पैर हैं। परमात्मा तो इस समस्त अस्तित्व का, इस समष्टि का नाम है। इसमें कहां मुंह, कहां हाथ, कहां पैर, लेकिन शूद्रों को अपमानित करना था। शूद्रों को पद-दलित करना था। शूद्रों का शोषण करना था। उनके शोषण का उपाय खोजना था।
शोषण की सबसे पुरानी परंपरा भारत की है। इसी शोषण का यह परिणाम हुआ। क्योंकि शूद्रों की संख्या बड़ी, वैश्यों की भी संख्या बड़ी। ये दोनों ही निम्न हैं, क्योंकि दोनों ही नाभि के नीचे से पैदा हुए हैं। मनु के हिसाब के नाभि के ऊपर से जो पैदा हो, वह उच्च वर्ण और नाभि के नीचे जो पैदा हो वह निम्न वर्ण। क्षत्रियों को थोड़ा खुश करना जरूरी था, क्योंकि क्षत्रियों के हाथ में तलवार थी। क्षत्रिय यानी राजनीति। ब्राह्मण यानी धर्म-पुरोहित, पंडित। इन दोनों की सांठ-गांठ है। क्षत्रिय को तो प्रसन्न रखना पड़ेगा, नहीं तो वह तलवार खींच ले। वह गर्दन उतार दे। आखिर उसी ने तलवार खींची भी।
यह जो जैन धर्म और बौद्ध धर्म की बगावत हुई, यह क्षत्रियों की बगावत थी ब्राह्मणों के खिलाफ। इसलिए जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, बुद्ध भी क्षत्रिय हैं। यह क्षत्रियों की बगावत है। यह क्षत्रियों के बर्दाश्त से बाहर हो गया--यह ब्राह्मणों का छाती पर बैठे रहना। ये जो दो धर्म पैदा हुए भारत में, ये क्षत्रियों से पैदा हुए। वैश्यों और शूद्रों और क्षत्रियों, इन तीनों को ब्राह्मण ने नीचा रखने की कोशिश की; क्षत्रिय को अपने से नंबर दो, क्योंकि उसके हाथ में तलवार थी। उसको थोड़ा प्रसन्न करना जरूरी था। उसको शूद्र के और वैश्य के ऊपर रख दिया।
यह एक बड़ी साजिश मनुस्मृति की है। यह सरासर झूठ है। यहां कोई न ऊंचा है, न कोई नीचा है।
सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं और सब ब्रह्म का साक्षात करने की क्षमता लेकर पैदा होते हैं। मेरे हिसाब में सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं और सब ब्राह्मण हो सकते हैं। यह सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। जन्म से न कोई ब्राह्मण होता है, न कोई वैश्य होता है, न कोई क्षत्रिय होता है। जन्म से सभी शूद्र होते हैं, क्योंकि जन्म से सभी बीज होते हैं--सिर्फ संभावनाएं मात्र। फिर तुम्हारे हाथ में है कि तुम क्या बन जाओगे। अगर धन इकट्ठा करोगे तो वैश्य बन जाओगे। अगर धन के लिए लोलुप रहे तो वैश्य बन जाओगे। अगर पद के लोलुप रहे--और ये दो ही तो उपद्रव हैं--तो राजनीति में पड़ जाओगे, तो क्षत्रिय बन जाओगे।
चीन का एक सम्राट अपने महल की छत पर खड़ा था और सागर में चलते हुए सैकड़ों जहाजों को देख रहा था। उसका बूढ़ा वजीर भी उसके पास था। सम्राट ने कहा कि देखते हैं, आज आकाश खुला है, सागर भी शांत है, तूफान नहीं, आंधी नहीं, कितने सैकड़ों जहाज चल रहे हैं, कितना सुंदर दृश्य है!
उस वजीर ने कहा: महाराज, गलती हो तो क्षमा करें। जहाज सिर्फ दो हैं, ज्यादा नहीं।
सम्राट ने पूछा: दो! क्या कहते हो तुम? अनेक स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं और तुम कहते हो दो!
उसने कहा: मैं फिर कहता हूं दो हैं। या तो धन के जहाज चल रहे हैं या पद के जहाज चल रहे हैं। बस जहाज तो दो ही हैं, दिखाई कितने ही पड़ते हों। बस दो ही दौड़ें हैं आदमी की, दो ही गतियां हैं--धन की या पद की।
तो जिनकी धन की दौड़ थी, वे वैश्य हो जाते हैं; जिनकी पद की दौड़ है, वे क्षत्रिय हो जाते हैं। और जो सब दौड़ छोड़ देते हैं, जो अपने स्वरूप में समा रहते हैं, जो अपने भीतर अंतर-गर्भ में प्रवेश कर जाते हैं, वे बह्म को उपलब्ध हो जाते हैं, वे ब्राह्मण हो जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति शूद्र की तरह पैदा होता है। फिर ये तीन संभावनाएं हैं--या तो वैश्य हो जाए, धन के पीछे दीवाना या क्षत्रिय हो जाए, पद के पीछे दीवाना और या फिर ब्राह्मण हो जाए, स्वयं की भगवत्ता को जान कर।
जन्म से कोई भेद नहीं होता। कर्म से भेद होता है। अनुभव से भेद होता है। कृत्य से भेद पड़ता है।
असत्य तो बहुत बोले हैं मनु। जितनी मनुस्मृति असत्य से भरी है, उतना कोई शास्त्र नहीं। मगर वे सब असत्य प्रिय हैं, क्योंकि जो पद पर थे उनकी खुशामद है। इसका ही स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि भारत में जब भी कोई बाहर से हमला हुआ तो आम जनता ने उस हमले का कोई विरोध नहीं किया। क्या जरूरत थी विरोध करने की? उसको तो चूसा ही जाना था--अपने चूसें की पराए चूसें, भेद ही क्या पड़ता था! किसको ढोना है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था। हूण आएं, मुगल आएं, तुर्क आएं, अंग्रेज आएं, पुर्तगाली आएं, कोई भी आए, क्या फर्क पड़ता था आम जनता को? शूद्र को क्या भेद पड़ता था?
यह मनु की वजह से यह भारत दो हजार साल गुलाम रहा है, क्योंकि तुमने जब शूद्र को पद-दलित कर दिया, उसको तो पैरों के नीचे दबना ही है, फिर किसके बूटों के नीचे दबता है, क्या फर्क पड़ता है? बूट सफेद चमड़ी ने पहने हैं कि काली चमड़ी ने पहने हैं, क्या फर्क पड़ता है? उसे तो बूटों के नीचे ही दबना है। और सच तो यह है कि सफेद चमड़ी के बूटों के नीचे वह कम दबा.। क्योंकि मुसलमानों में कोई वर्ण नहीं होते। जब मुसलमानों की सत्ता आई तो शूद्र में थोड़ा बल आया, वैश्य में थोड़ा बल आया। क्योंकि ब्राह्मणों की पुरानी ताकत कम हो गई। ब्राह्मणों का बोझ छाती पर से थोड़ा कम हो गया। ब्राह्मणों का बल कम हो गया। इसलिए आम जनता ने कोई विरोध नहीं किया गुलामी का, क्योंकि आम जनता को तो गुलामी ऐसे लगी कि बोझ कम हो रहा है। और जब अंग्रेज भारत में आए तो आम जनता को बहुत सुखद प्रतीत हुआ, क्योंकि सदियों की गुलामी से यह गुलामी ज्यादा बेहतर मालूम पड़ी।
कल विद्याधर वाचस्पति ने जो पूछा था प्रश्न कि ‘अंग्रेजों ने हमें चूसा, हमारा खून चूसा, और इन्हीं फिरंगियों ने हमारा सदियों तक शोषण किया--और आप फिर भी पाश्चात्य सभ्यता की प्रशंसा में बोल देते हैं।’
मैं उनसे यह पूछना चाहता हूं कि भारत में दोनों ही राज्य थे--ब्रिटिश राज्य था और देशी राज्य भी थे। अगर अंग्रेजों के चूसने के कारण तुम बर्बाद हुए तो देशी राज्यों में तो बर्बादी नहीं होनी चाहिए थी। मगर देशी राज्य की जनता और प्रजा ज्यादा बदतर हालत में थी, बजाय ब्रिटिश राज के। यह थोड़ा सोचने जैसा है। शोषण कहां ज्यादा चल रहा था? नेपाल तो स्वतंत्र था, उस पर तो कोई ब्रिटिश हुकूमत नहीं थी। लेकिन नेपाल ने कौन सी गरिमा पा ली स्वतंत्रता में, कौन सा गौरव पा लिया? वही गरीबी। तुमसे भी ज्यादा गरीब। देशी रियासतें--निजाम और ग्वालियर, और कितने रजवाड़े थे--इनकी हालत बदतर थी।
अंग्रेज ने चूसा हो भला, लेकिन चूसने के साथ-साथ उसने तुम्हें विज्ञान भी दिया, टेक्नालॉजी भी दी, उद्योग भी दिया। उसने चूसा हो भला, लेकिन तुम्हारे हित के लिए भी बहुत कुछ किया। उस हित को तुम भुला मत देना। तुम्हें शिक्षा भी दी। तुम्हें लोकतंत्र और स्वतंत्रता और समाजवाद का पाठ भी पढ़ाया।
तुम्हारे सारे नेता पश्चिम से ही स्वतंत्रता का स्वाद लेकर आए। भारत को तो स्वतंत्रता का कोई स्वाद ही नहीं था। भारत में तो सिर्फ ब्राह्मण स्वतंत्र था, बाकी सब गुलाम थे। थोड़ी स्वतंत्रता क्षत्रिय की भी थी। लेकिन वह भी तभी तक थी जब तक वह ब्राह्मण के पैर छुए। कितना ही बड़ा सम्राट हो, छूना तो ब्राह्मण के पैर ही पड़ेंगे उसको। असली राज्य तो ब्राह्मण का था। पुरोहितों ने इतना बड़ा राज्य कभी नहीं किया जितना इस देश में चला। और सबकी जड़ में मनु महाराज हैं।
इसलिए मैं कहता हूं कि मनु से तो छुटकारा इस देश का चाहिए। मगर मनु इस देश के खून, हड्डी-मांस-मज्जा में घुस गए हैं। अभी भी तुम शूद्र के साथ बैठ कर भोजन नहीं कर सकते। भीतर से ग्लानि उठने लगेगी, उबकाई आने लगेगी, कै हो जाए ऐसा लगने लगेगा। चाहे शूद्र कितना ही नहाया-धोया हो। और गंदे से गंदे ब्राह्मण के पास बैठ कर तुम भोजन कर सकते हो। गंदे से गंदा ब्राह्मण तुम्हारा भोजन बना सकता है। नाक साफ करता रहे उसी हाथ से, तुम्हारी चपाती भी बनाता रहे उसी हाथ से, कोई फिकर नहीं। ब्राह्मण महाराज है! इनकी तो नाक भी है तो सनातन धर्म समझो! इसका स्वाद तो बात ही और है। शूद्र तुम्हारे पास बैठ जाए तो बेचैनी मालूम होने लगती है। हालांकि तुम चाहे बुद्धि से यह समझते भी होओ कि यह बात मूर्खतापूर्ण है, मगर बुद्धि का वश नहीं है। अचेतन में घुस गई बात, गहरे में उतर गई बात। सदियों-सदियों का संस्कार हो गया है।
यह पूरा सूत्र ही गलत है। सत्य बनो, बोलना अपने से आएगा। बोलने पर मेरा जोर नहीं है। आचरण पर मेरा जोर नहीं है। प्रिय बनो। प्रेम से लबालब हो जाओ, तुम्हारे जीवन में प्रेम ही धर्म हो--सनातन धर्म। तो तुम्हारे जीवन से जो भी निकलेगा वह प्रिय होगा। और सत्य बोलो, चाहे अप्रिय ही क्यों न हो। अप्रिय ही होगा। और असत्य कभी न बोलो, चाहे कितना ही प्रिय हो।
ये कहते तो हैं मनु लेकिन खुद पूरी मनुस्मृति में वे इसी तरह के असत्य बोले हैं जो प्रिय हैं। जब भी तुम इन सूत्रों को समझना चाहो तो इनकी पूरी पृष्ठभूमि को समझने की कोशिश करना। इनको संदर्भ के बाहर निकाल कर पढ़ोगे तो शायद तुम्हें साफ नहीं हो पाएगा। संदर्भ के बाहर न निकालो। इनके पूरे संदर्भ में पढ़ो। और इन सूत्रों की जांच ही करनी हो तो उनका पूरा शास्त्र उठा कर देखो, तब तुम्हें पता चलेगा कि वे खुद भी इन सूत्रों को मानते हैं या नहीं मानते हैं। और अगर खुद ही न मानते हों तो दो कौड़ी के सूत्र हैं ये। खुद मानते हों, तो ही इनकी कोई मूल्यवत्ता है। तो ही इनमें कोई अर्थ है। तो ही इनमें कोई यथार्थ है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, पत्र-पत्रिकाओं में आपके चित्रों सहित आपके विचारों का व्यापक प्रचार-प्रसार देख कर लोगों की ऐसी धारणा बन गई है कि आप विज्ञापन एवं प्रसिद्धि पाने के लिए लालायित हैं, जो कि भारत की संत-परंपरा के साथ सुसंगत नहीं है। हमारे साधु-संत भीड़-भाड़ तथा दिखावे से दूर एकांत में सादा जीवन बिताते थे। भगवान, निवेदन है कि इस विषय में कुछ कहें।
सत्य वेदांत! पहली तो बात यह कि मुझे भारत या किसी की परंपरा से कोई लेना-देना नहीं। मैं किसी की परंपरा का हिस्सा नहीं हूं। इसे एक बार और आखिरी बार समझ लो कि मैं किसी परंपरा का कोई हिस्सा नहीं हूं। मैं किसी परंपरा की अपेक्षाएं पूरा करने के लिए कोई बंधा हुआ नहीं हूं। मैं तुम्हारे तथाकथित संतों में अपनी गिनती करवाना भी नहीं चाहता हूं। मुझे तो तुम्हारे तथाकथित संतों में मूढ़ों की जमात दिखाई पड़ती है।
इसलिए अच्छा ही है कि लोग साफ समझ लें कि मैं तुम्हारा संत, तुम्हारा महात्मा, तुम्हारे ऋषि-मुनि इनमें से नहीं हूं। मेरी अपनी कोटि है। मैं किसी की कोटि में सम्मिलित नहीं हूं। मैं एक नई कोटि की शुरुआत हूं। मुझसे जो राजी होंगे वे मेरी कोटि में होंगे। मैं किसी पुरानी कोटि का हिस्सा नहीं हूं। मैं किसी श्रृंखला का अंग नहीं हूं। मैं किसी श्रृंखला की कड़ी नहीं हूं--एक नई श्रृंखला की शुरुआत हूं। इसलिए मैं कुछ तुम्हारे साधु-संतों की क्या परंपरा थी, उसका अनुगमन करने को आबद्ध नहीं हूं।
और यह बात बिलकुल झूठ है कि तुम्हारे साधु-संत प्रचार-प्रसार नहीं करते थे। तो महावीर चालीस साल तक क्या करते रहे घूम-घूम कर? भाड़ झोंक रहे थे? पूरे बिहार को रौंद डाला! उनके ही कारण ‘बिहार’ नाम पड़ा प्रदेश का--बुद्ध और महावीर के कारण। बिहार का मतलब होता है भ्रमण। चूंकि बुद्ध और महावीर ने पूरी जमीन रौंद डाली बिहार की, इसलिए इसका, प्रदेश का नाम ही बिहार हो गया--जहां बुद्ध और महावीर विहार करते हैं, विचरण करते हैं। जहां तक उन्होंने विचरण किया वही सीमा बनी बिहार की। चालीस साल तक महावीर ने, बयालीस साल तक बुद्ध ने, आखिर क्या किया? मैं तो अपने कमरे से बाहर जाता नहीं। ये क्या कर रहे थे, प्रचार-प्रसार नहीं कर रहे थे तो क्या कर रहे थे? पागल थे?
और अगर तुम्हारे साधु-संत प्रचार-प्रसार नहीं करते तो उन्होंने शास्त्र क्यों लिखे? क्या जरूरत थी शास्त्र लिखने की? वेद क्यों रचे? उपनिषद क्यों रचे? कृष्ण ने गीता क्यों कही? अर्जुन को समझाने की पूरी चेष्टा की। अर्जुन भागा-भागा हो रहा था, उसको खींच-खींच कर लाए। हजार तर्क दिए। उन दिनों जो साधन थे, उन्होंने उनका उपयोग किया। आज जो साधन हैं, उनका मैं उपयोग कर रहा हूं। हां, यह जरूर सच है कि वे लाउडस्पीकर पर नहीं बोलते थे, क्योंकि लाउडस्पीकर नहीं था। यह सच है कि वे जो बोलते थे वह टेप-रिकॉर्ड नहीं होता था। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि टेप-रिकॉर्ड होता और बुद्ध टेप-रिकॉर्ड न करवाते। आखिर उनके शिष्य लिख तो रहे थे, नोट ले रहे थे। वह पुराना ढंग था, ढर्रा पुराना था। उसमें भूल-चूक की संभावना है। उसमें भूल-चूक हुई। बुद्ध के मरते ही बुद्ध के शिष्य छत्तीस संप्रदायों में बंट गए, क्योंकि अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग तरह के नोट लिए थे। किसी ने कुछ छोड़ दिया था, किसी ने कुछ जोड़ दिया था। अपने-अपने हिसाब से लोगों ने नोट लिए थे। जो जिसको पसंद पड़ा था वह उसने लिख लिया था; जो पसंद नहीं पड़ा था वह अलग कर दिया था। मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू! छत्तीस संप्रदाय हो गए!
मैं वैज्ञानिक साधनों का उपयोग कर रहा हूं, जो ज्यादा तर्कयुक्त हैं और जिनमें भूल-चूक की संभावना कम है। और मुझे कुछ उसमें एतराज नहीं है। निश्चित ही मैं अपनी बात का प्रसार करना चाहता हूं, प्रचार करना चाहता हूं। सारे बुद्धों ने सदा यही किया। और जिन्होंने नहीं किया वे बुद्धू रहे होंगे। उन बुद्धुओं में मैं अपनी गिनती करवाना भी नहीं चाहता। वे भगोड़े थे, जो बैठ गए जंगलों में जाकर। उन भगोड़ों से फायदा क्या हुआ तुम्हें? और उन भगोड़ों का उपयोग क्या है, उनका दान क्या है जगत को? दान तो इनका है--बुद्ध का, महावीर का, जीसस का, मोहम्मद का, जरथुस्त्र का, लाओत्सु का--दान इनका है। मगर इनका दान कैसे संभव हो पाया? क्योंकि इन्होंने प्रचार-प्रसार किया।
मैं विज्ञापन का विरोधी नहीं हूं, क्योंकि जब दुनिया में असत्य का विज्ञापन होता हो तो सत्य का विज्ञापन क्यों न हो? जोर-शोर से होना चाहिए। असत्य से अगर लड़ना हो, तो असत्य जिन-जिन साधनों का उपयोग करता है, वे सारे साधन सत्य को भी उपयोग करने पड़ेंगे। अगर असत्य रेडियो से प्रचारित होता है, टेलीविजन पर प्रसारित होता है, फिल्म बनती है असत्य की, तो सत्य की भी बननी चाहिए और सत्य भी रेडियो से बोला जाना चाहिए और टेलीविजन पर होना चाहिए। मैं तो सारी चेष्टा करूंगा। सत्य के लिए कुछ भी उठा नहीं छोड़ना है, कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ना है।
लेकिन इस देश में यह मूढ़ता है कि हम ढर्रे में बांधे हुए हैं हर चीज को, उस ढर्रे में किसी को बैठना चाहिए। उस ढर्रे में मैं कैसे बैठूंगा? महावीर नग्न थे। जैन मुझसे पूछ सकता है कि आप जब तक नग्न नहीं होंगे, तब तक हम आपको कैसे तीर्थंकर मानें? तो क्या मैं इसलिए नग्न फिरूं कि महावीर नग्न थे? यह महावीर की मौज थी कि वे नग्न थे। वे अपने ढंग से जीए। यह उनका रुझान था। बुद्ध तो नग्न नहीं थे। बुद्ध तो कपड़े पहनते थे। महावीर के समसायिक थे, मगर बुद्ध ने कपड़े पहने। हालांकि जैनों को यही एतराज रहा बुद्ध पर कि अगर वे कपड़े छोड़ दें तो तीर्थंकर। मगर कपड़े पहने हुए हैं तो तीर्थंकर नहीं, थोड़े नीचे--महात्मा, अभी तीर्थंकर होने में थोड़ी देर है। तो कोई जैन बुद्ध को भगवान नहीं लिखता। महावीर को भगवान लिखता है, बुद्ध को महात्मा लिखता है। और कोई बौद्ध महावीर को भगवान नहीं लिखता, महात्मा लिखता है और बुद्ध को भगवान लिखता है। क्योंकि बौद्धों की अपनी धारणाएं हैं। वे कहते हैं कि व्यक्ति को नग्न होकर नाहक प्रचार नहीं करना चाहिए। यह प्रचार का ढंग है नग्न होना। यह तो बात सच है। तुम नंगे खड़े हो जाओ जाकर चौरस्ते पर, देखो फौरन भीड़ लग जाएगी। और कपड़े पहने खड़े रहो, कोई नहीं आएगा। कोई पूछेगा ही नहीं, जयराम जी भी नहीं करेगा। जरा नंगे खड़े हो जाओ और फिर देखो, पुलिसवाला भी आ गया, इंस्पेक्टर भी आ गया, भीड़ भी लग गई और शोरगुल भी मचने लगा कि यह माजरा क्या है! तुम खड़े ही रहो सिर्फ, तुम कुछ कर ही नहीं रहे, मगर प्रचार हो रहा है। महावीर ने नग्नता को अगर प्रचार का साधन बनाया हो तो कुछ आश्चर्य नहीं।
और मजा यह है कि तुम्हारी जब कोई धारणा पक्की हो गई होती है, तो उस धारणा का शोषण करने वाले लोग पैदा हो जाते हैं। कोई इसीलिए जंगल में जाकर बैठ जाता है कि तुम्हारी धारणा है कि जब तक जंगल में न बैठे तब तक संत नहीं। संत जिसको होना हो वह जंगल में बैठ जाता है। और जब वह जंगल में बैठ जाता है, संत हो जाता है--यह उसके प्रचार का ढंग है--तुम पहुंचने लगते हो खोजते हुए। चाहे संत के पास कुछ और न भी हो, कुछ भी न हो, लेकिन बैठा है जंगल में बस इतना काफी है, चली फिर कतार! और ये संत भी जंगल से निकल आते हैं जब कुंभ का मेला भरता है, तब इनसे भी नहीं रुका जाता कि अब अपनी जगह बैठे रहें। कुंभ के मेले में एक करोड़ आदमी इकट्ठे होंगे, वहां तो अड्डा जमा देंगे, सारे संत आ जाएंगे हिमालय से उतर-उतर कर। ये कुंभ के मेले में किसलिए आ जाते हैं? तुम किन संतों की बातें कर रहे हो? अगर तुम यही पूछते हो कि एकांत में सादा जीवन, तो मुझसे ज्यादा एकांतमय, मुझसे ज्यादा सादा जीवन बिताने वाला आदमी नहीं है। चौबीस घंटे अपने कमरे में हूं, इससे ज्यादा एकांत कहां और होगा? और सादे जीवन की बात करते हो तो मेरे कमरे में कुछ भी नहीं है सिवाय मेरे। बिलकुल अकेला हूं। सामान भी नहीं है। लेकिन मेरे अपने ढंग हैं और मैं किसी के ढंग की नकल करने में उत्सुक नहीं हूं। मैं चाहता भी नहीं कि मेरा नाम किसी के साथ जोड़ा जाए। लेकिन इतना मैं तुमसे कह देना चाहता हूं कि जीसस ने भी घूम-घूम कर प्रचार किया, नहीं तो सूली न लगती। अगर चुप ही बैठे रहते तो सूली कोई लगाता? काहे के लिए सूली लगाता? इसलिए कि क्यों चुप बैठे हो? तो सुकरात को कोई जहर किसलिए पिलाता? इसलिए कि चुप क्यों बैठे हो, जहर पिलाएंगे, बोलो! सुकरात प्रचार कर रहा था।
सत्य जब प्रकट होगा तो उसका प्रचार रोका नहीं जा सकता। और जो चुप बैठे रहे जंगलों में, जाहिर है बुद्धू थे, कुछ सत्य वगैरह उपलब्ध नहीं हुआ था, नहीं तो जिनको सत्य उपलब्ध हुआ है वे जंगल से वापस बस्ती में लौट आए हैं। आखिर उनसे कहना होगा जिनको नहीं उपलब्ध हुआ है। उनको खबर देनी होगी। जब फूल खिलेगा तो गंध उड़ेगी ही। यह भी प्रचार ही है फूल का। अगर यूं समझो तो प्रचार है, क्योंकि फूल खबर दे रहा है कि मैं खिल चुका, मधुमक्खियो, आओ! यह फूल कह रहा है: तितलियो, यह मेरा संदेश रहा, यह मैं खबर भेजे दे रहा हूं। और मधुमक्खियों को दूर खबर लग जाती है, तीन-तीन मील दूर फूल की गंध पकड़ जाती है। सूरज निकलता है सुबह तो कोई ऐसे कंबल ओढ़ कर नहीं निकलता, काली कमली वाले बाबा! सारी किरणें दूर-दूर तक फैल जाती हैं। यह सब प्रचार-प्रसार है। एक-एक फूल को जाकर गुदगुदाती हैं कि खिल! एक-एक पक्षी के कंठ में गुदगुदाती हैं कि बोल, गा! द्वार दरवाजों पर दस्तक देती हैं कि उठो, जागो, सुबह हो गई! तुम तो सूरज से ही कहने लगो कि भैया, तुम कंबल ओढ़ कर क्यों नहीं निकलते? इतने प्रचार-प्रसार की क्या जरूरत है? फूल-फूल को जगाए दे रहे हो, पक्षी-पक्षी को गवाए दे रहे हो, मोरों को नचाए दे रहे हो। लोगों को सोने नहीं दे रहे, उठाए दे रहे हो। अपना कंबल ओढ़ कर आओ-जाओ चुपचाप, सादा जीवन ऊंचे विचार! यह क्या कर रहे हो?
मैं हूं तो मेरी किरणें भी लोगों तक पहुंचेंगी, उनके द्वारों पर दस्तक भी देंगी। और मैं हूं तो लोगों के गीत भी गूजेंगे। और मैं हूं तो मेरी गंध भी जाएगी। परवानों तक जानी ही चाहिए खबर शमा की। शमा भी खबर भेजती है, बिना खबर नहीं पहुंचती परवानों तक बात। वे किरणें पहुंच जाती हैं शमा की। उसकी नाचती हुई लौ परवानों के भीतर नाच को जगा देती है। वह जो नाचती हुई लौ परमात्मा की जब किसी व्यक्ति में प्रकट होती है तो परवाने आएंगे, दूर-दूर से आएंगे। और खबर पहुंचनी चाहिए, ताकि किसी को यह कहने को न रह जाए कि मुझे खबर न मिली। ताकि कोई यह शिकायत न कर सके कि मुझे खबर न मिली। तो मैं तो जोर से प्रचार करने में तैयार हूं। मुझे इसमें कोई अड़चन नहीं है।
और इसको एकबारगी मेरे संन्यासियों को सारी दुनिया को साफ कर देना चाहिए कि मैं प्रचार के अत्याधुनिक साधन उपयोग करूंगा, कर रहा हूं! क्या कारण कि थोड़े से लोगों को लाभ हो? क्या कंजूसी? जब बांटना ही है तो जितने ज्यादा लोगों को बंट सके उतना अच्छा। मगर कुछ भोंदू हैं जिनको अड़चन होती है। उन भोंदुओं की बंधी हुई धारणाएं हैं। मैं किसी की धारणा में बंधने को मजबूर नहीं हूं। मैंने ठेका लिया किसी की धारणाएं पूरी करने का? न तुम्हारे साधु-संतों से मैं कहता हूं कि मेरे अनुसार जीओ। वे जीते रहे एकांत में, पहाड़ियों में, तो मैंने तो उनसे नहीं कहा था। तुम्हारे साधु-संत अपने ढंग से जीए, मैं अपने ढंग से जी रहा हूं। और मुझे साधु-संत होने की उत्सुकता नहीं है, मैं अपना होकर काफी हूं, जैसा हूं वैसा काफी हूं। अब और क्या ये छोटी-मोटी बातें--साधु-संत, महंत, महात्मा! टुच्ची बातों में मुझे रस नहीं है। ये तुम अपने सम्हालो ये शब्द। तुम तो मुझे तीर्थंकर भी कहो तो मुझे रस नहीं है। तुम मुझे अवतार कहो तो मुझे रस नहीं है। रखो अपने शब्द अपने पास। मैं काफी हूं बिना शब्दों के, बिना लेबिल के। कुछ मुझे अड़चन नहीं है। लेकिन प्रचार मैं पूरा करूंगा। बात पहुंचानी होगी। जीसस ने कहा है अपने शिष्यों से: चढ़ जाओ मकानों की मुंडेरों पर, क्योंकि लोग बहरे हैं। जोर से चिल्लाओ तब शायद सुनें तो सुनें।
अब मुंडेरों पर भी चिल्लाओगे चढ़ कर. उस जमाने में और इससे ज्यादा सुविधापूर्ण कोई चीज नहीं थी। अब मैं अपने शिष्यों से नहीं कहता मुंडेरों पर चढ़ जाओ। मैं कहता हूं: चढ़ जाओ टेलीविजनों पर! चढ़ जाओ रेडियो पर! चढ़ जाओ अखबारों पर! क्या मुंडेरों पर चढ़ना! वह गोरखधंधा है। मुंडेरों पर चढ़े भी तो दस-पांच आस-पास के लोगों को शोरगुल होगा, और क्या होने वाला है? जब शोरगुल पूरी पृथ्वी पर हो सकता हो, फिर क्या छोटे-मोटे काम करना? एकाध मोहल्ले को जगाने में जिंदगी खराब कर देना? हिला देंगे पूरी पृथ्वी को। मुझे कुछ इसमें एतराज नहीं है।
मैं तो यह स्वीकार करता हूं कि मैं पूरा प्रयास करूंगा बात को दूर-दूर तक पहुंचाने के लिए। पृथ्वी के कोने-कोने तक यह बात पहुंचानी है। अगर बात में सच्चाई है तो पहुंचनी चाहिए। लोगों को लाभ होना चाहिए। और अगर सच्चाई नहीं है तो भी लोगों को पता चल जाना चाहिए, ताकि वे जांच लें कि सच्चाई है या नहीं। इसको छिपा कर क्या रखना है! इसको उघाड़ना है।
मुझे अपने सत्य पर भरोसा है। जो चुपचाप बैठे रहे हैं, उनको भरोसा नहीं रहा होगा। डरपोक रहे होंगे, कायर रहे होंगे, भयभीत रहे होंगे कि किससे कहें, कोई माने न माने। और कौन कह कर झंझट में पड़े! कोई तर्क करने लगे, कोई विवाद करने लगे। मेरी चुनौती है, जिसको तर्क करना हो तर्क करे, विवाद करना हो विवाद करे। मुझे सबमें रस है। मैं विवाद करने को तैयार हूं, तर्क करने को तैयार हूं। मेरे लिए खेल से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जिसको पीना है उसको पिलाने को तैयार हूं। जिसको मुठभेड़ करनी है उससे मुठभेड़ करने के लिए भी तैयार हूं। मुझे कोई अड़चन नहीं है। इतना तय है कि मैंने जो जाना है वह मेरे लिए इतना प्रगाढ़ सत्य है कि मुझे कोई संकोच नहीं कि उसका प्रचार हो। ढोल पीट कर, दुंदुभी बजा कर उसका प्रचार करना है।
इसलिए तो तुम्हें गैरिक वस्त्र दिए हैं। तुम क्या सोचते हो गैरिक वस्त्रों से कोई मुक्ति होती है? गलती में हो! गैरिक वस्त्र सिर्फ प्रचार का साधन हैं, और कुछ भी नहीं। गैरिक वस्त्र ऐसे हैं कि तुम जहां भी पहुंचे वहीं लोगों को चौंकाओगे कि यह चला आ रहा है, एक आदमी और पागल हुआ! तुम्हें देख कर वे मेरे संबंध में पूछना शुरू कर देंगे। उसे मेरी बात करनी ही पड़ेगी। मैं उसको मजबूर कर रहा हूं। उसको पता नहीं कि मैं उसको मजबूर कर रहा हूं कि उसे मेरे संबंध में चर्चा करनी पड़ेगी। उसे पता नहीं कि मैंने किस तरकीब से उसकी गर्दन पकड़ ली। वह समझ रहा है कि बड़ी होशियारी की बातें कर रहा है। जैसे बैल को लाल झंडी दिखा देते हैं न, वैसे मैंने तुम्हें कपड़े दे दिए हैं कि जहां-जहां बैल होंगे, एकदम चौंकेगे, एकदम फनफनाने लगेंगे, एकदम गुर्राने लगेंगे। और मेरे संन्यासियों को कोई अड़चन नहीं, वे तत्क्षण उछल कर बैल के ऊपर सवार हो जाएंगे। वे सवारी गांठ देंगे। ऐसा मौका वे छोड़ते ही नहीं। हर बैल पर चढ़ जाओ, जहां मिले चढ़ जाओ। जी खोल कर प्रचार करो। लोग सोचते हैं इस तरह की आलोचनाएं करके वे कोई मेरी निंदा कर सकते हैं। मैं इनको आलोचना मानता ही नहीं, मैं तो इसको अपना काम मानता हूं। सच तो यह है कि जो लोग मेरे खिलाफ इस तरह की बातें करते हैं वे सब मेरे प्रचार में लगे हुए हैं, उनको पता नहीं। मेरे अपने काम के ढंग हैं। मैं किस तरकीब से किससे काम लेता हूं, यह मैं जानता हूं। जो मेरे खिलाफ काम में लगे हैं वे भी मेरा प्रचार कर रहे हैं।
जर्मनी से एक सज्जन ने मेरी खिलाफत में--ईसाई पादरी हैं वे, उन्हें ऐसा गुस्सा चढ़ा, गुस्सा इस बात से चढ़ा कि मैंने जीसस पर जो कहा है उसका ईसाइयों पर बहुत प्रभाव पड़ रहा है। इतना प्रभाव पड़ रहा है कि ईसाई पादरियों को भी यह स्वीकार करना पड़ा है कि सदियों में कोई ईसाई भी ईसा पर इस तरह नहीं बोला है। तो बैचेनी तो फैल ही गई कि एक गैर-ईसाई ईसा पर ऐसी बात कह सका, इतनी साफ-सुथरी, और हम क्या करते रहे! तो उस ईसाई पादरी को इतना गुस्सा आया कि उसने अपना मकान बेच दिया। अपना मकान बेच कर अपने बेटे को सारा पैसा दिया कि एक फिल्म बनाओ आश्रम की--इस तरह की फिल्म बनाओ कि जो-जो नकारात्मक हो, जो-जो गलत हो, उसी-उसी को उभार कर दिखाओ। ऐसी वीभत्स फिल्म बनाओ, उसको जर्मनी में जगह-जगह प्रचारित करो, ताकि लोग पूना जाना बंद कर दें।
वह आया। उसके पहले खबर भी आ गई मुझे, संन्यासियों ने खबर भेजी कि ये सज्जन एक आ रहे हैं, इनके पिता ने मकान बेच दिया है, ऐसी कुर्बानी दी उन्होंने, अपना मकान ही बेच दिया है और ये फिल्म बनाने आ रहे हैं, इनको फिल्म न बनाने दी जाए। मैंने कहा कि इसकी फिकर ही मत करो, इनको फिल्म बनानी दी जाए और जैसी बनानी हो ये बनाएं। उसने गलत ही फिल्म बनाई, गलत ही बनाने के लिए वह आया था। मगर हमारी तरफ से उसको पूरा सहयोग मिला! वह भी थोड़ा चौंकता था कि बात क्या है। पता भी चल गया, उसको भी पता था कि पता चल गया है, डरा हुआ था। फिल्म भी बना कर गया। फिल्म पूरी जर्मनी में दिखाई जा रही है। सोचा था कुछ, हुआ कुछ। लोग उस फिल्म को देख कर आ रहे हैं। मेरे पास रोज पत्र आते हैं कि हमने वह फिल्म क्या देखी, हमारा दिल एकदम पूना आने के लिए आतुर हो उठा है!
अभी निरंजना--मेरी एक संन्यासिनी--वापस लौटी स्विटजरलैंड से। उसने कहा कि मैं एक होटल में खाना खा रही थी, दो महिलाएं मेरे पास आईं। गैरिक वस्त्र देखे, माला देखी और कहा कि ठीक, हम तलाश में थे किसी संन्यासी की, हम अपने उदगार प्रकट करना चाहते हैं। हमने वह फिल्म देखी, जो आश्रम के खिलाफ बनाई गई थी। मगर हमारा हृदय आंदोलित हो गया है। हम जल्दी ही आना चाहते हैं। जिस आदमी की हमें प्रतीक्षा थी, लगता है वह आ गया। और जिस आंदोलन की हम आशा करते थे, लगता है वह शुरू हो गया।
निरंजना तो बहुत चौंकी, क्योंकि उसने सुन रखा था कि फिल्म गलत बनाई गई है, विपरीत बनाई गई है, दुश्मनों ने बनाई है। उसने पूछा कि आप उस फिल्म को देख कर इतनी प्रभावित हैं? उन्होंने कहा कि माना कि फिल्म बनाई गई है नकारात्मक दृष्टि से, वह साफ है कि कोई आदमी जान कर पूरा का पूरा गलत उपस्थित कर रहा है। वह बात इतनी साफ है कि अंधे को भी दिखाई पड़ जाएगी। मगर जिस व्यक्ति के संबंध में गलत प्रदर्शित करने के लिए कोई मकान बेचता हो, फिल्म को गांव-गांव घुमाया जाता हो, वहां कुछ तो होना ही चाहिए। हम अपनी आंख से आकर देखना चाहते हैं।
न मालूम कितने लोग उस फिल्म के कारण आ रहे हैं। और तुम चकित होओगे, जर्मन सरकार की भी सहायता थी उस पादरी को। अब जर्मन सरकार भी चिंतित हो गई है कि फिल्म को बैन करना चाहिए या नहीं। जर्मन पार्लियामेंट में यह सवाल उठा है कि फिल्म को बैन कर दो, उसको रोक लगा दो, क्योंकि परिणाम उलटा हो रहा है।
सत्य का तुम विरोध भी करोगे तो प्रचार ही होता है। और असत्य का तुम समर्थन भी करो तो भी तुम उसे खड़ा नहीं कर सकते। असत्य में कोई बल ही नहीं होता। उसको किसी तरह खड़ा भी कर दो, वह गिर-गिर जाएगा। उसमें पैर ही नहीं होते। उसमें प्राण ही नहीं होते। लाश को कब तक चलाओगे, कैसे चलाओगे? और जहां जीवन है वहां तुम रुकावटें भी डालो, तो हर रुकावट सीढ़ी बन जाती है। सत्य और एक कदम ऊपर उठ जाता है। हर रुकावट को सीढ़ी बना लेंगे। और प्रचार जोर से करना है।
सत्य वेदांत, मेरी दृष्टि को ठीक से समझ लो। सारे संन्यासियों को मेरी दृष्टि ठीक से समझ लेनी चाहिए। मैं बिलकुल ही प्रचार के पक्ष में हूं, विज्ञापन के पक्ष में हूं। और सारे आधुनिक साधनों का उपयोग करना है। मैं कोई दकियानूसी परंपरागत आदमी नहीं हूं। कितनी बार इस देश के मूढ़ों को समझाओ कि मैं दकियानूसी नहीं हूं, परंपरागत नहीं हूं। वे हमेशा अपनी परंपरा से ही तौलते रहते हैं।
तुमसे कहता कौन है कि तुम मुझे संत मानो? तुम्हारे संतों की भीड़-भाड़ में मैं खड़ा भी नहीं होना चाहता। कौन उस कचरे में खड़ा होगा! उन मुर्दों में मुझे क्या मरना है? तुम्हारे साधु-संत अगर स्वर्ग जाते हैं तो मैं नरक जाना पसंद करूंगा, मगर स्वर्ग नहीं। तुम्हारे साधु-संतों के साथ मैं बैठना भी पसंद नहीं करता। वह कोई संग-साथ है? उससे तो शराबी बेहतर, जुआरी बेहतर। कम से कम आदमियों में कुछ बल तो होता है। यह नपुंसकों की भीड़, इसमें मुझे कोई रस नहीं है। इसलिए तुम सोचते हो कि शायद यह मेरी निंदा हो रही है, कि कोई कह देता है कि हमारे साधु-संत, भारत की संत-परंपरा! भाड़ में जाए भारत और भारत की संत-परंपरा! मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। मैं भौगोलिक सीमाओं में विश्वास नहीं करता। मैं सारी मनुष्यता को एक मानता हूं। कैसा भारत और कैसा चीन! मैं किसी सीमा में भरोसा नहीं करता। सब सीमाएं तोड़ देने को आबद्ध हूं।
परंपरा का सत्य से कोई संबंध नहीं है। सत्य हमेशा वर्तमान का होता है। परंपरा हमेशा मुर्दा होती है, अतीत की होती है।
इसलिए मुझे तुम किसी भीड़-भाड़ में सम्मिलित मत करो।
तुम कहते हो कि ‘हमारे साधु-संत भीड़-भाड़ और दिखावे से दूर एकांत में सादा जीवन बिताते थे।’
मैं भी भीड़-भाड़ से--साधु-संतों की भीड़-भाड़ से--दूर जीवन बिताता हूं। और मैंने जो साधु-संत पैदा किए हैं, ये मस्त लोग हैं, परवाने लोग हैं। यह रिंदों की जमात है। यह मयकदा है--यह कोई मंदिर नहीं, यह कोई मस्जिद नहीं।
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
ताकि मैखाने की मिट्टी रहे मैखाने में
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
मैं कोई रिंद नहीं इसलिए पीता हूं शराब
उनकी तसवीर नजर आती है पैमाने में
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
जाम थर्राने लगे उड़ गई बोतल से शराब
बेवजु आ गया शायद कोई मैखाने में
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
मैं तुम्हें ध्यान दे रहा हूं, ताकि तुम उस परम शराब को पीने के योग्य हो सको। उसके लिए पवित्रता चाहिए, एक मौन चाहिए, एक शून्य चाहिए।
जाम थर्राने लगे उड़ गई बोतल से शराब
बेवजु शायद आ गया कोई मैखाने में
तुम जो चाहो तो बदल दो मेरे गम की दुनिया
तुमको तो खुद ही मजा आता है तड़फाने में
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
इस कदर फूंक दिया सोजे-मोहब्बत ने कमर
आह करने की भी ताकत नहीं दीवाने में
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
ताकि मैखाने की मिट्टी रहे मैखाने में
दफ्न करना मेरी मैयत वह भी मैखाने में
यहां तो दीवाने इकट्ठे हुए हैं, परवाने इकट्ठे हुए हैं। यह कोई साधारण अर्थों का मंदिर-मस्जिद नहीं है। यह तीर्थ है। और तीर्थ भी ऐसा नहीं कि जो सड़ चुका हो, अतीत का हो। अभी जन्म रहा है, अभी पैदा हो रहा है। यह नया काबा पैदा हो रहा है। यह नया कैलाश उठ रहा है। इसको तुम पुराने से मत तौलो। तुम्हारा कोई तराजू काम न आएगा। तुम्हारे सब तराजू टूट जाएंगे मुझे तौलने में। तुम्हारे कोई मापदंड मेरे काम नहीं आएंगे। तुम्हारी कोई कोटियों में तुम मुझे बिठा नहीं सकते। तुम सीधे-सीधे मुझे देखो, हटाओ तराजू, हटाओ कोटियां, हटाओ तुम्हारे गणित! मैं अपने ढंग का आदमी हूं। मुझे किसी से क्या लेना-देना है?
हाले-दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
उनको अहसास दिला कर मुझे क्या लेना है
हाले दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
एते मामात की खातिर से किया है मैंने
वरना बज्म अपनी सजा कर मुझे क्या लेना है
हाले-दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
कोई मकहूमे-दुआ हो तो कोई बात भी हो
बेसबब हाथ उठा कर मुझे क्या लेना है
हाले-दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
तेरे कदमों में पड़ा हूं मैं रहने दे मुझे
साकिया होश में आकर मुझे क्या लेना है
हाले-दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
जर्रे-जर्रे में नजर आता है उनका जलवा
फिर भला तूर पर जाकर मुझे क्या लेना है
हाले-दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
उनको अहसास दिला कर मुझे क्या लेना है
हाले दिल उनको सुना कर मुझे क्या लेना है
मुझे क्या प्रयोजन है? कौन क्या सोचता है मेरे संबंध में, क्या पड़ी मुझे? सारी दुनिया से रोज अखबारों की कटिंग आती हैं। मैं तो पढ़ता भी नहीं, देखता भी नहीं। कौन समय खराब करे! शीला आ जाती है और बता जाती है कि इस अखबार में यह है, इस अखबार में वह है। मैं कहता हूं: ठीक, गलत है तो ठीक और ठीक है तो ठीक। किसको क्या लेना है? और इन मूढ़ों से तो क्या बात करनी?
कोई मकहूमे दुआ हो तो कोई बात भी हो
बेसबब हाथ उठा कर मुझे क्या लेना है
मैं तो उस जगह पहुंच गया, जहां से अब मुझे होश में आने की भी कोई जरूरत नहीं है। अब तो बेहोशी होश है।
तेरे कदमों में पड़ा हूं मैं रहने दे मुझे
साकिया, होश में आकर मुझे क्या लेना है
जर्रे-जर्रे में नजर आता है उनका जलवा
फिर भला तूर पर जाकर मुझे क्या लेना है
मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। मैं अपने ही ढंग से जीए जाऊंगा। जिनको मेरे साथ जुड़ना हो, उन्हें मेरा ढंग सीखना होगा। जो मेरा ढंग नहीं सीख सकते, उनकी वे जानें। मुझे उनकी कुछ पड़ी नहीं है। उनको विरोध करना हो, आलोचना करनी हो, जो उनको करना हो करें।
लेकिन दीवाने भी इस दुनिया में कुछ कम नहीं हैं। कल गुजरात की असेम्बली में मेरे कच्छ जाने का सवाल पुनः उठा। और अब तो गुजरात के मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी को कहना पड़ा कि हम सौ प्रतिशत आश्रम के लिए जगह देने को कटिबद्ध हैं। कहना पड़ा क्यों? कहना पड़ा इसलिए कि पैंसठ संस्थाओं ने मेरा विरोध किया है और तीन सौ पचास संस्थाओं ने मेरा समर्थन किया है! और मैं कभी कच्छ गया नहीं। अब तुम सोच सकते हो कि पैंसठ संस्थाओं का विरोध और तीन सौ पचास संस्थाओं का समर्थन! और मैं कभी गया नहीं, कच्छ से मेरा कोई नाता नहीं रहा है। लेकिन गंध पहुंचने लगी। जहां मैं गया नहीं, वहां भी पहुंचने लगी है। तीन सौ पचास संस्थाओं ने अपने आप. न तो हमने संन्यासी भेजे वहां, न कोई प्रचार किया गया है, न कोई उपाय किया गया है। लेकिन सत्य के समर्थन करने वाले दीवाने भी हमेशा उपलब्ध हो जाते हैं। अब मुंह की खानी पड़ी।
वे जो पैंसठ संस्थाएं हैं, वे भी संस्थाएं नहीं हैं। उनमें भी पच्चीस-तीस तो एक-एक व्यक्तियों के कार्ड हैं। उनमें भी ऐसे कार्ड हैं कि जिनके लिखने वालों से पूछा गया तो पता चला है उन्हें पता ही नहीं है कि उनके दस्तखत किसने किए! अठारह संस्थाएं हैं; वे सब जैनियों की। और जैनियों के छोटे-छोटे पंथ हैं, हर पंथ के नाम से एक-एक दरखास्त लगा दी है। एक दरखास्त इस पंथ की, एक दरखास्त उस पंथ की। और वे चार-पांच आदमी हैं जो सारी दरखास्त लगवा दिए हैं। वे पैंसठ भी अगर खोज-बीन की जाए तो पांच भी उनमें से सत्य निकलने वाले नहीं हैं।
और अगर मैं एक बार कच्छ जाऊं तो वह जो तीन सौ पचास की संख्या है, वह तीन हजार पांच सौ हो जाएगी।
मेरे बिना गए कोई बात पहुंच गई है, यह कैसे पहुंच गई? मैं बैठ जाऊं किसी गुफा में, पहुंच जाएगी? सुगंध को उड़ाना होगा फूल को। और सूरज को अपनी किरणें पहुंचानी होंगी। जरूरी नहीं कि सूरज तुम्हारे घर में आए; घर में आएगा तो तुम जल कर खाक हो जाओगे। किरणें ही आ जाएं इतना भी काफी है। मैं तो अत्याधुनिक व्यक्ति हूं। सच तो यह है कि इक्कीसवीं सदी का व्यक्ति हूं। यह बीसवीं सदी चल रही है, अभी सौ साल का वक्त है मेरे ठीक-ठीक समझे जाने के लिए। लेकिन सौ साल पहले आना पड़ता है, ताकि तैयारी शुरू हो जाए। लोग इतने धीरे-धीरे चलते हैं, घसिटते-घसिटते कि सौ साल लग जाएंगे उनको समझने में। हरेक को अपने समय के पहले आना पड़ता है।
और मैं किसी साधन को छोडूंगा नहीं, सारे साधनों का उपयोग करूंगा। मैं बीसवीं सदी में जो उपलब्ध है, उसका उपयोग करूंगा। साधारण रेडियो इत्यादि का ही उपयोग नहीं हो रहा है, अब सेटेलाइट का भी मैंने उपयोग शुरू किया है। अभी एक प्रवचन सेटेलाइट से उन्होंने, एक वीडियो टेप प्रसारित किया, जो सारी दुनिया में देखा जा सका। नया कम्यून बन जाए, हम अपना सेटेलाइट बना लेंगे, क्या दूसरों पर निर्भर रहना! जब प्रचार ही करना हो. जो भी करना हो उसको मैं फिर पूरी-पूरी तरह करना चाहता हूं, अधूरा-अधूरा क्या करना! बिहार ही बिहार के क्या चक्कर लगाते रहना, इतनी बड़ी दुनिया पड़ी है! और जब कमरे में बैठ कर सारी दुनिया को प्रभावित किया जा सकता हो तो जाना ही क्यों? नहीं जाता हूं उसका कारण यह है कि कमरे में बैठ कर ही अब सब-कुछ किया जा सकता है, अब सारे साधन उपलब्ध हैं। ये महावीर, बुद्ध को, बेचारों को बहुत कष्ट झेलना पड़ा! पैंतालीस साल, पचास साल भागते फिरे। बुढ़ापे में, बयासी साल के बुद्ध हो गए हैं, फिर भी चले जा रहे हैं। आखिरी दिन, मरे उस दिन भी यात्रा जारी थी। इसकी कोई जरूरत नहीं है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं एक आधुनिक कथा-लेखक और कवि हूं। अकहानी लिखता हूं और अकविता लिखता हूं। पर सफलता हाथ नहीं लगती है। आपका आशीष चाहता हूं।
धन्य कुमार कमल! जब अकविता लिखोगे और अकहानी लिखोगे, असफलता हाथ लगेगी। यह तो सीधा तर्क है। पहली तो बात, कविता लिखने वालों को ही कहां सफलता मिलती है! और तुम अकविता लिख कर सफल होना चाह रहे!
मगर तुम आधुनिक नहीं मालूम होते। नहीं तो सफलता के लिए आशीष मांगते? यह परंपरागत ढंग है। और अगर सफलता नहीं मिल रही तो इससे कुछ समझो, कि तुम्हारी कविता लोगों का सिर खा रही होगी; अक्सर कवियों की खाती है। तुम क्षमा करो लोगों को। मुझसे आशीष मांगने की बजाय तुम लोगों को क्षमा कर दो। तुम भैया कुछ और करो। तुम्हारी बड़ी कृपा होगी। कवि वैसे ही इस मुल्क में बहुत हैं, मोहल्ले-मोहल्ले में हैं। बरसात में जैसे मेढक टर्राने लगते हैं, वैसे ही कवि यहां टर्राते रहते हैं। कौन सुनने वाला है?
एक कवि को निमंत्रित किया गया। निमंत्रण भी इसलिए करना पड़ा, क्योंकि वे राजनेता भी थे और कवि भी। जब वे पहुंचे तो बड़े हैरान हुए, हाल खाली था, वहां कोई था ही नहीं। सिर्फ आमों का एक ढेर लगा था। तो उन्होंने संयोजक से पूछा कि यह मामला क्या है?
उसने कहा: मैं भी क्या करूं! आपसे कह चुका था, निमंत्रण दे चुका था कि आप आइए। जनता आई नहीं। सो फिर मैंने एक तरकीब सोची, कि आपसे मैंने कहा है, आम सभा होने वाली है, सो मैंने ये आम के ढेर लगा दिए। पढ़ो कविता! आम सभा! अब मैं भी क्या करूं, कोई जबर्दस्ती मार-पीट कर लोगों को लाया जाए? लोग कविता की बात सुन कर ही भाग खड़े होते हैं।
एक कवि-सम्मेलन में श्रीमान पोपटलाल गीत सुना रहे थे--या दिल की सुनो दुनिया वालो, या मुझको अभी चुप रहने दो।
श्रोताओं में से एक स्वर उभरा--चुप ही हो जा भैया!
बाजार में महाकवि भोलानाथ एक आदमी के पीछे बड़ी तेजी से चिल्लाते हुए भाग रहे थे कि पकड़ लो इस हरामजादे को, बच कर न जाने पाए! अरे बड़ा बेईमान है, बड़ा धोखेबाज है!
आखिर जब एक पुलिसवाले ने यह सब सुना तो पूछा कि भैया, आखिर बात क्या है? भोलानाथ बोले: इसने अपनी कविता तो हमें सुना दी, लेकिन जब मेरी बारी आई तो भाग खड़ा हुआ!
भोलानाथ मरणशय्या पर पड़े थे। डॉक्टरों ने कह दिया था कि अब इनके बचने की कोई उम्मीद नहीं है। सब जगह यह खबर भेजी जा चुकी थी कि भोलानाथ जी की हालत चिंतनीय है और जिन्हें अंतिम दर्शन करना हो वे कर लें। सो उनके गुरु स्वामी मटकानाथ ब्रह्मचारी उन्हें देखने आए। और हाल-चाल पूछने के बाद भूल से उनसे पूछ बैठे कि कोई कविता बनाई क्या?
आग्रह सुन कर भोलानाथ की आंखें चमक उठीं। उन्होंने झट से मटकानाथ के लिए चाय-नाश्ता बुलवाया और तकिए के नीचे से अपनी कविताओं का बंडल निकाल लिया और शुरू हो गए। जब तीन-चार घंटे हो गए तो भोलानाथ के पुत्रों ने सोचा मामला क्या है! मटकानाथ अभी तक जमे हुए हैं। अंदर जाकर देखा तो बात उलटी ही थी: मटकानाथ तो खत्म हो चुके थे, भोलानाथ बिलकुल ठीक-ठाक कविता पाठ कर रहे थे।
तुम भैया, क्षमा करो!
आज इतना ही।