QUESTION & ANSWER

Jyun Macchali Bin Neer 03

Third Discourse from the series of 10 discourses - Jyun Macchali Bin Neer by Osho. These discourses were given during SEP 21-30 1980.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


पहला प्रश्न:
अथर्ववेद में एक ऋचा है:पृष्ठात्पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहम्‌अन्तरिक्षाद्दि विमारुहम्‌, दिवोनाकस्यपृष्ठात्‌ऽस्वर्ज्योतिरगामहम्‌।अर्थात हम पार्थिव लोक से उठ कर अंतरिक्ष लोक में आरोहण करें, अंतरिक्ष लोक से ज्योतिष्मान देवलोक के शिखर पर पहुंचें, और ज्योतिर्मय देवलोक से अनंत प्रकाशमान ज्योतिपुंज में विलीन हो जाएं।कृपया बताएं कि ये लोक क्या हैं और कहां हैं?
चैतन्य कीर्ति! ‘लोक’ शब्द से भ्रांति हो सकती है--हुई है। सदियों तक शब्दों की भ्रांतियों के दुष्परिणाम होते हैं। लोक शब्द से ऐसा लगता है कि कहीं बाहर, कहीं दूर यात्रा करनी है किसी गन्तव्य की ओर। लोक से भौगोलिक बोध होता है, जब कि ऋषि का मन्तव्य बिलकुल भिन्न है। यह तुम्हारे भीतर की बात है--तुम्हारे अंतरलोक की।
जो जानता है, वह बात ही भीतर की करता है। बाहर की बात तो सिर्फ इसलिए की जा सकती है, ताकि भीतर की बात का स्मरण दिलाया जा सके। तुम तो बाहर की भाषा समझते हो, इसलिए मजबूरी है ऋषियों की। उन्हें बाहर की भाषा बोलनी पड़ती है। तुम जो समझ सकते हो वही तुमसे कहा जा सकता है। लेकिन फिर खतरा है। खतरा यह है कि तुम वही समझोगे जो तुम समझ सकते हो।
ऋषि जब जीवित होता है, तब तो वह तुम्हारी भ्रांतियों को रोकने के उपाय कर लेता है, तुम्हें सम्हाल लेता है, शब्दों के जाल में नहीं पड़ने देता। लेकिन जब ऋषि मौजूद नहीं रह जाता और ऋषि की जगह पंडित-पुरोहित ले लेते हैं जिनका कि सारा आयाम ही शब्दों का है--तब ठीक वह होना शुरू हो जाता है जो ऋषि के विपरीत है।
जीसस ने बहुत बार दोहराया कि वह ईश्वर का राज्य तुम्हारे भीतर है। लेकिन फिर भी ईसाई जब हाथ जोड़ते हैं तो आकाश की तरफ। वह ईश्वर तुम्हारे भीतर है--थक गए बुद्धपुरुष कह-कह कर, लेकिन जब भी तुम पूजा करते हो तो किसी मूर्ति की। और अगर मूर्ति की भी न की, अगर मस्जिद में भी गए, तो पुकार भी लगाते हो तो बाहर के किसी परमात्मा के लिए। सारी अंगुलियां भीतर की तरफ इशारा कर रही हैं और तुम जब भी देखते हो तब बाहर की तरफ देखते हो।
मत पूछो कि ये लोक कहां हैं। कहां से उपद्रव शुरू हो जाता है? तुमने पूछा कि कोई बताने वाला मिल जाएगा कि कहां हैं। नक्शे टंगे हैं मंदिरों में इन लोकों के। ये लोक तुम्हारी चेतना के भिन्न आयामों के नाम हैं। और इतना साफ है, फिर भी आदमी इतना अंधा है। सारी बातें इतनी रोशन हैं, फिर भी अंधे को तो कैसे दिखाई पड़े! रोशनी ही दिखाई नहीं पड़ती, रोशनी में लिखे गए ये सूत्र हैं। इसलिए हमने इनको ऋचा कहा है, साधारण कविता नहीं।
कविता और ऋचा में भेद है। कविता अज्ञानी की ही व्यवस्था है, जोड़-तोड़ है, शब्दों का जमाव है। राग में बांध ले, छंद में बांध ले, तुक बिठा दे--वह सब ठीक, लेकिन अंधेरा और अंधा टटोले, बस ऐसी ही कविता है। ऋषि हम उसे कहते हैं जिसने देखा और जो देखा, उसे गुनगुनाया, उसे गाया।
ऋषियों से जो वचन झरते हैं, बुद्धपुरुषों से जो वचन झरते हैं, उनके लिए हमने अलग ही नाम दिया: ऋचा। ऋषि से आए तो ऋचा। और ऋषि वह जो देखने में समर्थ हो गया, जिसके भीतर की आंख खुल गई। भीतर की आंख खुलेगी तो भीतर की ही बात होगी। तुम्हारी तो बाहर की आंखें हैं, भीतर की आंख बंद है। ऋषि भीतर की कहते हैं, तुम बाहर की समझते हो।

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