SUNDERDAS

Jyoti Se Jyoti Jale 13

Thirteenth Discourse from the series of 21 discourses - Jyoti Se Jyoti Jale by Osho. These discourses were given during JUL 11-31 1978.
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संत समागम कीजिए तजिए और उपाइ।
सुंदर बहुते उद्धरे सतसंगती मैं आइ।।
संत मुक्ति के पौरिया तिनसौं करिए प्यार।
कुंजी उनके हाथ है सुंदर खोलहिं द्वार।।
मात पिता सबही मिलैं भइया बंधु प्रहसंग।
सुंदर सुत दारा मिलैं दुर्लभ है सतसंग।।
मद मत्सर अहंकार की दीन्हीं ठौर उठाइ।
सुंदर ऐसे संतजन ग्रंथनि कहे सुनाइ।।
आएं हर्ष न ऊपजै, गए शोक नहीं होइ।
सुंदर ऐसे संतजन कोटिनु मध्ये कोइ।।
सुखदाई सीतल हृदय देखत सीतल नैन।
सुंदर ऐसे संतजन बोलत अमृत बैंन।।
क्षमावंत धीरज लिए सत्य दया संतोष।
सुंदर ऐसे संतजन निर्भय निर्गत रोष।।
घर बन दोऊ सारिखे सबतें रहत उदास।
सुंदर संतनी कै नहीं जिवन मरण की आस।।
धोवत है संसार सब गंगा मांहें पाप।
सुंदर संतनि के चरण गंगा बंहै आप।।
संतन की सेवा किए सुंदर रीझै आप।
जाकौ पुत्र लड़ाइए अति सुख पावै बाप।।
हरि भजि बौरी हरि भजु त्यजु नैहर कर मोहु।
जिव लिनहार पठाइहि इक दिन होइहि बिछोहु।।
आपुहि आप जतन करु जौं लगि बारि वेयस।
आन पुरुष जिनि भेंटहु केहू के उपदेस।।
जबलग होहु सयानिय, तबलग रहब संभारि।
केहुं तन जिनि चितबहु, ऊचिय दृष्टि पसारि।।
यह जौवन पियकारन नीकै राखि जुगाइ।
अपनो घर जिनि छोड़हु परघर आगि लगाइ।।
यह विधि तन मन मारै, दुइ कुल तारै सोइ।
सुंदर अति सुख बिलसइ, कंत-पियारी होइ।।
एक मित्र ने पूछा है कि ‘मैं आखिर कहना क्या चाहता हूं?’
यह कोई नया प्रश्न नहीं है। हजारों बार पूछा गया है और मुझसे ही नहीं, समस्त बुद्धों से पूछा गया है, समस्त सिद्धों से पूछा गया है। प्रश्न सार्थक है, लेकिन उत्तर देना आसान भी और कठिन भी। प्रश्न सार्थक है, क्योंकि बुद्धपुरुष सदियों से बोलते रहे। क्या कहना चाहते हैं? सीधा-साफ क्यों नहीं कह देते? संक्षिप्त में समा जाए, ऐसा क्यों नहीं कह देते? हमारी समझ में आ जाए, ऐसा क्यों नहीं कह देते?
प्रश्न सार्थक है। लेकिन उत्तर आसान भी और कठिन भी। आसान--क्योंकि एक ही उत्तर सदा दिया गया है, वही मैं भी दूंगा। वह उत्तर है कि जो नहीं कहा जा सकता उसे कहने की चेष्टा चलती है। आसान तो है, लेकिन यह भी कोई उत्तर हुआ? जो नहीं कहा जा सकता उसे कहना चाहता हूं। और जो नहीं कहा जा सकता वह नहीं ही कहा जा सकता है। फिर भी कहने की चेष्टा बंद नहीं की जा सकती।
पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक, लुडविग विट्‌गिंस्टीन का वचन है: जो न कहा जा सके उसे कहना ही नहीं। विट्‌गिंस्टीन बड़े विचारक, तर्कशास्त्री थे--और रहस्यवादी भी। दैट व्हिच कैन नॉॅट बी सेड, मस्ट नॉट बी सेड। कहना ही मत उसे, जो न कहा जा सके। ठीक लगती है, नियम की बात लगती है। लेकिन जो कहा जा सकता है उसे कहने में कुछ सार नहीं। उसे कहते रहो। वह कूड़ा-करकट है। जो नहीं कहा जा सकता, उसे कहने में ही कुछ सार है, क्योंकि उससे ही आदमी क्षुद्र से विराट की तरफ उठता है। उससे ही आदमी की आंखें जमीन से मुक्त होती हैं और आकाश की यात्रा पर निकलती हैं। उससे ही मनुष्य शब्द से मुक्त होता है। और शून्य में प्रवेश करता है। उससे ही एक संभावना का द्वार खुलता है--जो मन का अतिक्रमण है, मन के अतीत ले जाता है। और वहीं है विराजमान परम प्यारा। वहीं है विराजमान वह, जिसकी तलाश चल रही है। सच्चिदानंद।
कहा तो नहीं जा सकता, लेकिन उसे कहने की कोशिश में प्यास जगती है। उसे कहने वाले प्यास को जगाते हैं। कह नहीं पाते। उसे सुनने वाले सुन भी नहीं पाते, लेकिन सुनते-सुनते प्यास जगती है। कहने और सुनने का प्रयोजन है--प्यास को प्रज्वलित करना। और प्यास ही सघन हो जाए तो प्रार्थना बनती है। और प्रार्थना सघन हो जाए तो परमात्मा बनती है।
इसलिए फिर से दोहरा दूं, मैं वह कहना चाहता हूं जो कहा नहीं जा सकता। और भलीभांति जानता हूं कि नहीं कहा जा सकता। फिर भी कहना होगा। कहना होगा इसलिए, ताकि तुम उसी पर समाप्त न हो जाओ जो कहा जा सकता है; ताकि तुम वचनीय पर समाप्त न हो जाओ, अनिर्वचनीय में उठो; ताकि तुम सीमाओं में घिरे न रह जाओ, असीम से तुम्हारे थोड़े संबंध जुड़ें।
बुद्धपुरुष कह कुछ भी नहीं पाते। इसलिए झेन फकीरों में प्रसिद्ध कहावत है कि ‘बुद्ध कुछ बोले ही नहीं।’ अब इससे झूठी कोई बात हो सकती है? और यह वे झेन फकीर कहते हैं, जो रोज बुद्ध के वचनों का स्मरण करते हैं, बुद्ध के शास्त्रों का अध्ययन करते हैं। बुद्ध चालीस वर्ष निरंतर बोले। ज्ञानोपलब्धि के बाद फिर और उन्होंने कुछ किया ही नहीं। सुबह बोले, दोपहर बोले, सांझ बोले--बोलते ही रहे। अनंत लोगों से बोले। गांव-गांव दौड़ते रहे और बोलते रहे। झेन फकीरों को पता नहीं है कि बुद्ध बोले नहीं; भलीभांति पता है। लेकिन उनके कहने में कुछ सार और है। वे यह कह रहे हैं कि बुद्ध बोले तो बहुत, मगर बोले क्या? कह तो पाए नहीं। जो कहना था वह तो अनकहा ही रहा। तो बोले न बोले बराबर।
ऐसा ही तुम मेरा बोलना जानना। मेरे बोलने में तुम्हारे भीतर प्यास जग जाए तो ही अर्थ है। मेरे बोलने से तुम्हारे भीतर ज्ञान जग जाए तो चूक गए तुम। मैं बोला और तुम थोड़े ज्ञानी होकर लौट गए और तुमने कहा कि चलो थोड़ी बातें और जान लीं, तो तीर व्यर्थ हो गया; तीर तुक्का हो गया। लग जाए तो तुक्का भी तीर है। न लगे तो तीर भी तुक्का हो जाता है। तो तुम आए भी, गए भी। व्यर्थ ही आए, व्यर्थ ही गए। तुम्हारा आना-जाना व्यर्थ का उपक्रम हुआ। मुझे सुन कर ज्ञान न जगे, मुझे सुन कर ध्यान जगे।
क्या फर्क है? मुझे सुन कर यह बात तुम्हारे प्राणों को मथने लगे कि ऐसी भी कोई बात है जो न कही जा सकती है, न सुनी जा सकती है, मगर अनुभव की जा सकती है--मैं उसे अनुभव करके रहूंगा। ऐसा संकल्प उठे। ऐसी प्रगाढ़ अभीप्सा का जन्म हो कि मैं भी खोजूंगा उसे, जो शब्दों में नहीं समाता; जो शास्त्रों की जिल्दों में नहीं बंधता, मैं उसे खोजूंगा; मैं उस जीवंत से नाता जोडूंगा।
परमात्मा कोई सिद्धांत नहीं है। परमात्मा एक सत्य है। और ऐसा सत्य नहीं, जो तर्क की निष्पत्तियों से निर्मित होता है, बल्कि ऐसा सत्य है जो हृदय की गहराइयों में जाना जाता है, जीआ जाता है। एक ऐसा सत्य, जो तुम्हारे प्रेम में पगता है, तो ही जन्मता है। एक ऐसा सत्य, जिसके लिए तुम्हें गर्भ धारण करना होता है। एक ऐसा सत्य, जिसे तुम्हें अपने गर्भ में नौ माह तक विकास देना होता है। वे नौ माह कितने लंबे होंगे, कहा नहीं जा सकता। तुम पर निर्भर है तुम कितनी प्रगाढ़ता से पुकारोगे, तुम्हारी प्यास कितनी प्रज्वलित होगी, उस पर निर्भर है। तुम्हारी त्वरा कितनी है, उस पर निर्भर है
एक सुगंध के बल पर
जी रहा हूं मैं
सुगंध यह कदाचित्‌
गर्भ में समझे हुए
परिवेशों की है
छूटे-घने किन्हीं केशों की है
आम के बन की है
आषाढ़ के नये घन की है
धाराहत पल्लव की है
स्वच्छ किसी
सरोवर के जल की है
धान के खेतों की है
कितने ही समवेतों की है
और इतनी घनी है
कि धूल और धुएं के बीच
जैसी की तैसी बनी है
बरसों से मैं
धूल और धुएं के शहरों में हूं
लगता है मगर
कमल और पारिजात की
बहती हुई बहरों में हूं
सद्यःस्नात किसी
देह के मन की तरह
स्नेह से सहलाए हुए
किसी तन की तरह
बासा नहीं होने देती
यह सुगंध मुझे
घेर कर बहते हैं जैसे छंद मुझे
अभी पीपल के अभी बांस के
अभी झाड़ी के अभी घास के
अभी बहुत धीरे-धीरे
अभी जरा बलपूर्वक
अभी ऋजु और सरल
अभी तनिक छलपूर्वक
खींचते हैं अभी
जानी अभी अनजानी लहरों में
धुएं और धूल के भी शहरों में
मैं इस सुगंध के बल पर जी रहा हूं
और चाहता हूं सब
इसके बल जीएं
धूल और धुएं के शहरों में भी
सब इस सुगंध को पिएं
क्योंकि जानता हूं मैं
सबने अपने प्रारंभिक परिवेशों में
सांद्र और निविड़ इन
गंधों को पीआ है
और फिर भी जाने क्यों
भूल जाकर इन्हें केवल धूल और धुएं को जीआ है
इसलिए मैंने सोचा है
जैसे भी बने
अंकित कर दूंगा
हवा पर ही नहीं
शहर-शहर की
ऊंची से ऊंची इमारतों के
अच्छे-बुरे पत्थरों तक पर
सुगंध के समाचार
खुशबू के शिलालेख
कि हम सब
धूल और धुएं से ऊपर हैं
जब तक भी
भू पर हैं
अगरु और चंदन
और गुलाब और
बेला का मेला भरवाते रहेंगे
घनिष्ठ से घनिष्ठ
रण के क्षण में
बारुद की बास
दबाएंगे
क्रोध और कोलाहल के
वातावरण में गाएंगे
और गाएंगे कि आओ
अगर भरते ही हैं हम धुआं
तो अगरु और चंदन का भरें
जगाएं जानी हुई सुगंधें
पुराने अपने परिवेशों की
घने छूटे केशों की
आम के वन की
आषाढ़ के घन की
धाराहत पल्लव की
स्वच्छ किसी
सरोवर के जल की
धान के खेतों की
सुगंधित
और शाश्वत समवेतों की
हमारे शरीर
वृक्षों के तनों से कम नहीं हैं
हरे पन में हम
विंध्या के वनों से कम नहीं हैं
आओ
हम डाल दें अपनी जड़ें
जमीन में और आसमान में
झरनों की भाषा में बोलें
अक्षरशः रस घोलें
दिन भर अपनी कर्मधाराओं में
और शाम हो जाए जब
तो दिन भर की हमारी
स्वच्छ आंखें जैसे चमकें
रात भर आकाशमय फैली
ताराओं में
सुगंध फैलाने और टांकने का
मेरा यह सपना
रह न जाए केवल मेरा अपना
इतना मांगता हूं
अगर ठीक ढंग से
आदिम सुगंधों की
वकालत कर पाया
तो मैंने सब-कुछ भर पाया
तब सचमुच
मुझे धन्य लगेंगे
शब्दों के
मेरे देवताओं के
मुझे दिए हुए वरदान
अनन्य लगेंगे मुझे
फैलाना चाहता हूं मैं
अंतिम रूप से गिरने के पहले
इस तारे की तरह कहो
आम के वन की तरह कहो
आषाढ़ के घन की तरह कहो
सुगंध
उजाला
और
आवेश
फैलाना चाहता हूं मैं
इस तारे की तरह कहो
आम के वन की तरह कहो
आषाढ़ के घन की तरह कहो
मैं क्या कहना चाहता हूं?
वही जो आकाश में घिरे आषाढ़ के मेघ कहते हैं। ऐसे ही चेतना के मेघ भी भरते हैं।
वही जो खिले हुए कमल के फूल कहते हैं। ऐसे ही जीवन के फूल भी खिलते हैं।
वही जो आकाश में चमकते हुए तारे कहते हैं। ऐसे ही प्रत्येक के भीतर तारे दबे पड़े हैं, जो अभी चमके नहीं; या चमके भी तो तुमने उनकी तरफ पीठ कर रखी है।
तुम्हारे भीतर भी कमल के बीज पड़े हैं, जो अभी अंकुरित नहीं हुए हैं; या अंकुरित भी हुए तो तुमने उनकी साज-संवार नहीं की है; या खिले भी तो तुम्हें उनका पता ही नहीं चला है। क्योंकि तुम अपने घर ही नहीं हो; तुम कहीं और, कहीं और, सदा कहीं और हो। तुम यहां तो होते ही नहीं, सदा वहां होते हो। तुम्हारा मन तो दौड़ा-दौड़ा, भागा-भागा, आपा-धापी में है। तुम्हें सुध कहां कि भीतर झांक कर देखो, कैसे कमल वहां हैं! तुम्हें सुध कहां कि थोड़ा ठहरो और रुको और भीतर का संगीत सुनो।
भीतर की कोयल भी बोलती है। भीतर भी बड़ी चहचहाहट है। संतों ने उसे अनाहत-नाद कहा है। वहां ओंकार का नाद चल रहा है। एक ओंकार सतनाम! वहां मंत्र दोहराने नहीं होते, वहां मंत्र अपने आप गुंजाइत हो रहे हैं। वहां तुम्हें प्रार्थना करनी नहीं होती है, वहां प्रार्थना अपने आप उठ रही है।
मगर तुम लौटो, देखो, अपने में झांको। यही कहना चाहता हूं। यह कहना ऐसा नहीं है कि तुम मेरा कहना समझ लोगे, अपनी स्मृति की कापी में लिख लोगे, और बात पूरी हो जाएगी। नहीं, ऐसे तो तुम चूक जाओगे। बात तो पूरी तब होगी, जो मैंने कहा उसे तुम भी जानोगे, जानकारी न बने यह, तुम्हारा जानना बने।
मेरे अनुभव के तुम भी साक्षी बनो, गवाह बनो। मैं चाहता हूं कि जिस भांति मैं कह रहा हूं कि ऐसा है, ऐसा एक दिन अनुभव से तुम भी कह सको कि हां, ऐसा है।
मैं तुममें विश्वास नहीं जगाना चाहता। मैं नहीं कहता हूं मुझ पर भरोसा करो। मैं कहता हूं, मुझसे केवल चुनौती लो। मैं पुकारता हूं कि एक शिखर है, जो पार करना है, जो चढ़ना है; जिसको बिना चढ़े तुम आत्मवान न हो सकोगे। चुनौती लो। एक सागर है जो तरना है; जिसे तरे बिना तुम इसी तट पर रहे, तो व्यर्थ ही रह जाओगे, व्यर्थ ही हो जाओगे। छोड़ो अपनी नौका को--उस दूर अज्ञात में छिपे तट की तलाश में। यात्रा कठिन है, दुर्गम है, दुर्घटनाओं से भरी है; पर इसी यात्रा की चुनौती को स्वीकार करने वाला व्यक्ति आत्मवान हो पाता है। नहीं तो लोग पोच रह जाते हैं, नपुंसक रह जाते हैं।
जैसे शरीर नपुंसक हो सकता है वैसे ही लोगों की आत्मा नपुंसक हो सकती है। और जिन्होंने भी परमात्मा की खोज शुरू नहीं की, उनकी आत्मा नपुंसक रह जाती है। उसमें बल नहीं होता। उसमें धार नहीं होती है। उसमें जीवन की तीक्षणा नहीं होती। और न ही कभी ऐसा अनुभव होता है कि हम धन्यभागी हैं। न ही कभी ऐसा लगता है कि झुकें और परमात्मा को धन्यवाद दें कि कितना तूने दिया है। कैसे झुकें, कैसे धन्यवाद दें? कुछ मिला ही नहीं हो तो धन्यवाद किस बात का, आभार किस बात का प्रकट करें? लोग तो शिकायतें करते हैं प्रार्थनाओं में। और प्रार्थना तभी होती है जब सिर्फ आभार हो, धन्यवाद हो। मगर धन्यवाद किस बात का करें? कुछ मिला हो तो धन्यवाद करें। मैं तुम्हें चुनौती दे रहा हूं। मिल सकता है और तुम्हारी पहुंच के भीतर है। अगर मेरी पहुंच के भीतर है तो तुम्हारी पहुंच के भीतर है। अगर एक भी आदमी की पहुंच के भीतर है तो तुम्हारी पहुंच के भीतर है। अगर बुद्ध ने पाया तो तुम पा सकते हो। अगर सुंदरदास ने पाया और सुंदर हो गए, परम सुंदर हो गए, तुम भी हो सकते हो। कबीर ने पाया या नानक ने, तो तुम भी पा सकते हो, अगर पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में एक आदमी ने भी पाया हो तो सारे मनुष्य पाने के हकदार हो गए। अगर एक बीज टूटा और फूल बना तो सब बीज हकदार हो गए--बनें या न बनें, यह उनकी बात। बनने का निर्णय लें या न लें, यह उनकी बात।
आखिर डर क्या है? बीज फूल क्यों नहीं बनना चाहता? एक ही डर है: बीज को वृक्ष बनने के पहले मिटना पड़ता है।
तो मैं तुम्हें मिटना सिखाता हूं। मैं तुम्हें स्वेच्छा से मरना सिखाता हूं। क्योंकि तुम स्वेच्छा से मरोगे, तुम जैसे हो ऐसे मरोगे--तो तुम वैसे हो जाओगे जैसे तुम्हें होना चाहिए।
यह जो मैं तुमसे यहां रोज-रोज कहता हूं, कोई दर्शनशास्त्र नहीं है, कोई फलसफा नहीं है। जीवित अंगार हैं ये। झेलने का तुममें साहस होगा तो तुम जलोगे और नये हो जाओगे।
आज के सूत्र।
आज के सूत्र इसी दिशा में इंगित करते हैं।
संत समागम कीजिए तजिए और उपाइ।
सुंदर बहुते उद्धरे सतसंगती मैं आइ।।
संत समागम कीजिए.
संत का अर्थ होता है: वह, जिसने पाया। क्या पाया? जो उसकी अंतर्निहित संभावना थी, वह वास्तविकता हो गई--यह पाया। जो वह हो सकता था, अपनी पराकाष्ठा में हो गया--यह पाया। तुम्हें कुछ और नहीं होना है। तुम्हें वही होना है जो तुम हो सकते हो; जो तुम्हारी नियति और तुम्हारा स्वभाव है।
महावीर ने कहा है: ‘वत्थु सहावो धम्म।’ वस्तु का स्वभाव धर्म है। इतनी प्यारी व्याख्या धर्म की और किसी ने भी नहीं की है। जो तुम्हारा अंतर्तम स्वभाव है वही। बस उसी को पा लेना है।
बीज जब टूटता है और वृक्ष बनता है और हजार-हजार फूल खिलते हैं तो क्या तुम सोचते हो बीज कुछ और हो गया? नहीं, बीज वही हो गया जो हो सकता था। ये फूल उसमें छिपे पड़े थे। अदृश्य थे, प्रकट हुए। अगोचर थे, गोचर हुए। शून्य में दबे पड़े थे, पूर्ण में प्रकट हुए। ऐसे ही तुम्हारा स्वभाव अभी अगोचर है, अभी पड़ा है। तुमने उसे निखारा नहीं। तुमने उसे संवारा नहीं। तुमने साज सम्हाल नहीं की। तुमने पानी नहीं डाला। तुमने खाद नहीं दी। तुमने बागुड़ नहीं लगाई। तुमने सुरक्षा नहीं की। तुम्हें याद ही नहीं है कि तुम क्या हो सकते हो। जैसे एक हीरा, पत्थरों में पड़ा-पड़ा, सोचने लगे कि मैं भी पत्थर हूं।
चारों तरफ अविकसित लोगों की भीड़ है। इस अविकसित भीड़ से ही तुम्हारा मिलना होगा। यही तुम्हारे मां हैं, यही तुम्हारे पिता हैं, यही तुम्हारे भाई-बंधु हैं, यही मित्र हैं, यही बाजार है, यही दुकान है। करोड़ों-करोड़ों अविकसित लोग हैं। बीज पड़े हैं, ढेर लगे हैं। इसी में तुम भी एक बीज हो। अगर तुम इन बीजों में ही उलझे रहे तो तुम्हें कभी भी याद नहीं आएगी उसकी, जो तुम हो सकते हो। याद कहां से आए? सब तुम्हारे जैसे हैं।
सच तो यह है कि हर आदमी सोचता है कि और लोग मुझसे भी बदतर हैं। इसलिए तो लोग रस लेते निंदा में। निंदा के रस का मनोविज्ञान है। निंदा के रस का मनोविज्ञान यही है कि दूसरा मुझसे बुरा, हम ही भले। जब भी कोई किसी की निंदा करता है, तुम बड़े रसमुग्ध होकर सुनते हो। तुम्हें पता नहीं, तुम क्या कर रहे हो? तुम जहर पी रहे हो और अपने को मार रहे हो। जब भी तुमने निंदा को रसमुग्ध होकर सुना है, उसका अर्थ यह कि तुम्हारे मन में यह भाव उठा: तो हमीं ठीक। तो हम जैसे हैं, ऐसे ही ठीक। लोग हमसे भी ज्यादा बुरे हैं। फलां आदमी ने इतनी चोरी की, उसने इतना ब्लैक किया। फलां आदमी फलां की स्त्री को ले भागा। फलां आदमी तस्करी कर रहा है। चारों तरफ से निंदा की खबरें आती हैं। सब शैतान हैं। इन शैतानों की तस्वीरें तुम्हारी आंखों के सामने जितनी झूमने लगती हैं, उतना ही तुम्हें लगता है तुलना में कि मैं साधु-पुरुष, छोटी-मोटी भूल करता हूं, मगर मेरी भूलों का क्या है। यहां तो बड़े-बड़े पड़े हैं। मैं तो न कुछ हूं। मैं ठीक ही हूं, जैसा हूं। जितना हूं, इतना ही रह जाऊं तो काफी।
आगे जाने की तो बात दूर, तुम जहां हो वहीं निश्चिंत होने लगते हो। तुम जहां हो, वैसे ही रह जाओ, यह भाव उठने लगता है। तुम्हारे भीतर चुनौती नहीं जगती। चुनौती कहां जगेगी? जब किसी बुद्ध या सिद्ध के पास आओगे, जहां तुम्हें कोई ज्योति जलती हुई दिखाई पड़ेगी और उसकी तुलना में अपना दीया बुझा मालूम पड़ेगा। पीड़ा होगी। इसी पीड़ा से बचने के लिए लोग संत समागम नहीं करते। बचते हैं, हजार बहाने खोज लेते हैं। बहाने खोजने की कोई सीमा नहीं है। तुम जितने बहाने खोजना चाहो, खोज सकते हो।
मेरे पास लोग आते हैं। कोई कहता है: संन्यास का भाव उठता है; मगर अभी बेटी की शादी करनी है। बेटी की शादी हो जाए तो बस फिर निश्चिंत हूं। कोई आता है, वह कहता है; बेटे की शादी हो गई, उसे काम लग जाए। कोई आता है, वह कहता है कि बेटे के बच्चे हो गए, बेटा तो काम में उलझा रहता है, उसके बच्चों की साज-सम्हाल हमारे हाथ में है। वे जरा बड़े हो जाएं। कोई कुछ, कोई कुछ, कोई कुछ. लोग न मालूम कितने बहाने खोजते हैं। जैसे मौत तुम्हारी प्रतीक्षा करती रहेगी कि जब तुम्हारी सारी समस्याएं समाधान हो जाएंगी; जब तुम कहोगे कि हां, अब मैं राजी हूं, अब मौत आ जाए--तब मौत आएगी! मौत किस क्षण तुम्हारी गर्दन को दबा देगी, पता है? नहीं पूछेगी कि बेटे की शादी हुई या नहीं और नहीं पूछेगी कि बेटे को नौकरी लगी या नहीं? मौत तुमसे कुछ पूछेगी ही नहीं। तुम्हारी कोई आज्ञा थोड़े ही लेगी। कोई मौत आकर दरवाजा थोड़े ही खटखटाएगी, कहेगी कि मे आई कम इन सर? क्या मैं भीतर आ सकती हूं? मौत तो बस आ जाती है; दरवाजे खटखटाती भी नहीं। बंद दरवाजों में से चली आती है। लोहे की दीवालों में से चली आती है। सारी सुरक्षाओं को तोड़ कर चली आती है। और मौत जब आती है तब एक क्षण में आ जाती है। क्षण भर का भी अवकाश नहीं देती कि तुम इंतजाम कर लो। अगर तुम एक पंक्ति लिख रहे थे अपनी खाता बही में तो उसको पूरा कर लो, इसका भी मौका नहीं देती, उसमें पूर्ण-विराम लगा दो; इसका भी मौका नहीं देती।
लेकिन विकास के लिए तुम स्थगन करते हो। तुम कहते हो, कल। तुम कहते हो, परसों। करना जरूर है। और ‘किंतु-परंतु’ खोजते रहते हो।
कैलाश ने एक प्रश्न पूछा है। संन्यास. प्रश्नवाचक चिह्न लगाया हुआ है, फिर किंतु-परंतु।
संन्यास, तो किंतु-परंतु कैसा? किंतु-परंतु तो आदमी की चालबाजियां हैं। या तो हां या ना, किंतु-परंतु कहां। या तो तुम्हें कोई बात ठीक लगती है तो तुम करते हो, या ठीक नहीं लगती तो नहीं करते हो। लेकिन आदमी बेईमान है। यह भी अपने को समझाना चाहता है कि बात तो मुझे ठीक लग रही है, क्योंकि मैं इतना बुद्धिमान हूं, बात मुझे ठीक क्यों न लगेगी। लेकिन अभी परिस्थितियां ऐसी नहीं हैं कि मैं संन्यास लूं। इसलिए किंतु जोड़ देता है। जब भी कोई आदमी किंतु जोड़ता है तो समझना राजनीति आई। किंतु-परंतु राजनीति की भाषा है। धर्म की भाषा हां या ना, सीधी साफ है।
लोग संत-समागम से डरते हैं, भयभीत होते हैं। बहाने कई खोज लेते हैं। लेकिन असली बात नहीं देखना चाहते। असली बात एक बात का डर है कि अगर वहां गए तो फिर वैसे ही न रह सकेंगे जैसे हम हैं। वहां रूपांतरण होगा ही। वहां क्रांति होने ही वाली है। संत के पास जाना आग के पास जाना है, और संत के पास जाना एक ऐसी यात्रा पर निकलना है जहां से वापस नहीं लौटा जा सकता है। एक बार किसी संत से आंखें मिल जाएं, एक बार किसी संत के हाथ में हाथ पड़ जाए, एक बार किसी संत के हृदय की भनक तुम्हारे हृदय में समा जाए--फिर लौटने का कोई उपाय नहीं है। जन्मों-जन्मों तक वे आंखें तुम्हारा पीछा करेंगी और तुम्हें पुकारेंगी। और जन्मों-जन्मों तक वह भीतर जो थोड़ी सी संगीत की लहर पहुंची थी, तुम्हें मथेगी।
संत समागम कीजिए तजिए और उपाइ।
सुंदरदास कहते हैं: एक ही काम कर लो तो सब हो जाए--संत समागम कर लो। जिन्हें मिला है, जो जागे हैं, उनके पास बैठ जाओ तो सब हो जाए। और इससे सरल कोई बात होगी?
भक्ति का शास्त्र इस अर्थ में अनूठा है। उसने एक अनूठी प्रक्रिया खोजी है। जिसको विज्ञान की भाषा में कैटेलेटिक एजेंट कहते हैं, उसी को भक्ति की भाषा में संत-समागम कहते हैं। कैटेलेटिक एजेंट का अर्थ होता है; कुछ घटनाएं हैं जो किसी चीज की मौजूदगी में घटती हैं। और जिस चीज की मौजूदगी में घटती हैं, उसका कोई हाथ नहीं होता। सिर्फ मौजूदगी होती है। जैसे अगर पानी बनाना हो, उद्जन और ऑक्सीजन को मिला कर, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को मिला कर पानी बनाना हो, इन दो के मिलने से पानी बनता है, तो तुम कितना ही मिलाते रहो, पानी नहीं बनेगा, जब तक बिजली की चमक न हो। बिजली की मौजूदगी हो, पानी बन जाएगा। और बड़ी आश्चर्य की बात यह है कि पानी के बनने में बिजली की मौजूदगी का कोई हाथ नहीं होता; बस सिर्फ मौजूदगी होती है। शायद मौजूदगी ही काफी है। कुछ और नहीं करना होता। सिर्फ मौजूदगी से ही कुछ हो जाता है। बिजली समाविष्ट नहीं होती पानी के निर्माण में। उसका कोई भाग नहीं होता।
विज्ञान को एक शब्द खोजना पड़ा: कैटेलेटिक एजेंट। क्योंकि अब तक ऐसा ही खयाल था कि उन्हीं चीजों की जरूरत पड़ती है जिनके मिलन से कोई चीज निर्मित होती है। लेकिन विज्ञान को अनुभव में आना शुरू हुआ कि एक ऐसा भी तत्त्व स्वीकार करना पड़ेगा जो सम्मिलित तो नहीं होता, संयोग में मिलता तो नहीं, लेकिन जिसकी बिना मौजूदगी के संयोग घटता भी नहीं। इसलिए आकाश में बिजली चमकती है। बिजली की चमक से बादलों में जल निर्मित होता है। बिजली की मौजूदगी जरूरी है।
संत-समागम का इतना ही अर्थ है: जो जाग गया, उसकी मौजूदगी जरूरी है। सोए हुए के भीतर जागे हुए की मौजूदगी में कुछ होने लगता है। जागा हुआ कुछ भी नहीं करता, खयाल रखना। जागा हुआ कुछ भी नहीं करता। न तुम्हारे हृदय के तार छेड़ता है, न तुम्हें हिलाता-डुलाता है। जागा हुआ तो सिर्फ जागा हुआ होता है--तुम्हारे पास मौजूद। मगर उसकी जागृति की आभा, उसकी जागृति की उपस्थिति. तुम्हारे भीतर कुछ अपने आप होना शुरू हो जाता है।
सुबह सूरज उगता है। सूरज किसी एक-एक पक्षी को उठाता थोड़े ही है, कि उठो भाई, कि अब समय हो गया, चलो सुबह का गीत गाओ, प्रभाती शुरू करो। पक्षी उठ आते हैं। सूरज का आगमन होने ही होने के करीब है, प्राची में लाली फैली और पक्षी उठे! रोशनी की मौजूदगी कुछ करने लगती है। कंठों में गुदगुदाहट आ जाती है। कंठों के तार अपने आप छिड़ जाते हैं। कलियां खिलने लगती हैं। कोई सूरज की किरणें आ-आ कर एक-एक कली को खोलती थोड़े ही हैं। बस खुलने लगती हैं। सारी पृथ्वी जाग उठती है।
हम जिसके साथ होते हैं वैसे हो जाते हैं। इस अपूर्व प्रक्रिया को भक्ति ने सत्संग कहा है, समागम कहा है। किसी जागे हुए के पास बैठो। जो प्रेम से भर गया है, उसके पास बैठो।
दूसरे पंथों, मार्गों पर चलने वाले लोगों को यह बात बड़ी हैरानी की लगती है। वे कहते हैं: बिना योग के क्या होगा? शीर्षासन करो, प्राणायाम करो, सर्वांगासन लगाओ, यह करो वह करो। बिना योग के क्या होगा? कोई कहता है: बिना तप के क्या होगा? घर छोड़ो, द्वार छोड़ो, जंगल में जाओ, नंगे खड़े होओ, धूप में तपो, वर्षा में खड़े रहो। बिना तप के क्या होगा? कोई कहता है: उपवास। कोई कुछ, कोई कुछ।
लेकिन भक्तों ने एक अपूर्व वैज्ञानिक विधि खोजी है। वे कहते हैं: सत्संग। सुंदरदास कह रहे हैं: तजिए और उपाइ! और किसी उपाय की कोई जरूरत नहीं है। नाहक मत सताओ शरीर को। और नाहक मत व्यर्थ की झंझटों में पड़ो। एक सीधा सा काम कर लो: जहां कोई जागा हो, उस तरफ पहुंच जाओ; वहीं तीर्थ है। जहां कोई रोशनी पैदा हुई हो, सरकने लगो उसी रोशनी की तरफ। और तुम्हारे भीतर कुछ होना शुरू हो जाएगा, जो तुम लाख व्रत-उपवास करो, नहीं होगा।
व्रत-उपवास शुरू कैसे हो गए? इसी तरह शुरू हो गए। एक बड़ी भ्रांति से शुरू हो गए। एक तार्किक भूल से शुरू हो गए। महावीर जागे; जो उनके पास आए वे भी जागने लगे। लेकिन जब महावीर विदा हो गए और जब याददाश्त ही याददाश्त रह गई, तब लोग सोचने लगे कि अब क्या करें?
महावीर के पास जो घट रहा था उसका शास्त्र लोगों ने निर्मित किया। तो उन्होंने सोचा महावीर कैसे उठते थे, कैसे बैठते थे, क्या खाते थे, क्या पीते थे, कैसे चलते थे, कैसे सोते थे, सारा ब्यौरा लिख डाला। लोगों ने सोचा कि ठीक ऐसा ही ऐसा हम भी करेंगे तो हम भी जाग जाएंगे। महावीर के पास जो घटना घट रही थी वह सत्संग के कारण घट रही थी। न तो महावीर के नग्न होने के कारण घट रही थी, खयाल रखना। नहीं तो कृष्ण के पास नहीं घट सकती थी, बुद्ध के पास नहीं घट सकती थी, क्योंकि वे तो वस्त्र पहने हुए थे। महावीर के पास जो घटना घट रही थी, वह उनके उपवास के कारण नहीं घट रही थी। क्योंकि ऐसे संत हुए हैं जिनके पास वही घटना घटी है और जिन्होंने उपवास इत्यादि किया ही नहीं। महावीर के पास जो घटना घट रही थी वह उनकी तपश्चर्या के कारण नहीं घट रही थी, कि वे जंगल में खड़े थे, धूप-ताप में खड़े थे। वह घटना घट रही थी--महावीर के भीतर जो जागरण हुआ था, उसके कारण। वह जो ध्यान का दीया जला था, उसके कारण।
मगर ध्यान का दीया तो अदृश्य है। वह तो उनको दिखाई पड़ता है जो सत्संग में डूबते हैं। जो दूर-दूर से सोचते हैं, विचार करते हैं, हिसाब लगाते हैं, उनको तो ऊपर-ऊपर की बातें दिखाई पड़ती हैं।
जैसे समझो; सुबह सूरज उगा, पक्षी गीत गाने लगे। एक अंधा आदमी, जिसको सूरज का उगना दिखाई नहीं पड़ता, वह सोचेगा: मामला क्या है? हिसाब लगाएगा। पूछेगा कि भाई, घड़ी में इस वक्त कितना बजा है? कोई कहता है कि छह बजा है। तो वह लिख लेगा कि छह बजे, जब घड़ी में छह बजता है तब पक्षी गीत गाते हैं। ऐसे पता लगा कर हिसाब-किताब बांध लेगा। यह सब हिसाब-किताब झूठा है। असली बात तो चूक ही गई। ये घड़ी में छह बजने से पक्षी गीत नहीं गाते। तुम घड़ी में छह बजा दो, वे नहीं गाएंगे। सूरज उगना चाहिए, घड़ी में कितने ही बजें, घड़ी बंद भी पड़ी रहे तो भी चलेगा। घड़ी न हो तो भी चलेगा। सूरज उगना चाहिए। और ऐसा भी नहीं है कि सूरज दिखाई ही पड़े, बादलों में छिपा हो तो भी चलेगा। बस उसकी मौजूदगी होनी चाहिए। सुबह होनी चाहिए और पक्षी गीत गाएंगे।
महावीर को जिन्होंने देखा, उन्होंने तो पहचाना कि भीतर ध्यान का दीया जला है, बाकी सब तो गौण बातें हैं। वे गौण बातें प्रत्येक सिद्ध पुरुष के साथ अलग-अलग होती हैं। जनक सिंहासन पर बैठे-बैठे ही सिद्ध हो गए। अब तुम क्या सोचते हो, सिंहासन पर बैठोगे तब सिद्ध हो सकोगे? पहले सोने का सिंहासन बनवाओगे तब तुम सिद्ध हो सकोगे? तो तुम पागलपन में पड़ जाओगे। यह सांयोगिक बात है। बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठे थे, तब सिद्धत्व उपलब्ध हुआ। क्या तुम सोचते हो बोधिवृक्ष के नीचे बैठने से तुम सिद्ध हो जाओगे? तो जगह-जगह बड़ और पीपल के वृक्ष हैं, बैठो। कई लोग बैठे भी रहे हैं। कुछ नहीं होता। कोई बोधिवृक्ष के नीचे बैठने से थोड़े ही बुद्ध हो जाएगा। बुद्धत्व घटा उस घड़ी में, यह संयोग की बात है कि वे बोधिवृक्ष के नीचे बैठे थे।
महावीर किसी वृक्ष के नीचे नहीं बैठे थे जब घटा। उकडूं बैठे थे; कोई ढंग का आसन भी नहीं लगाए हुए थे। आदमी पद्मासन में बैठता है, सिद्धासन में बैठता है। उकडूं! यह भी कोई ढंग हुआ! मगर महावीर मस्त आदमी हैं। पता नहीं क्या कर रहे थे उकडूं बैठे। जैन शास्त्रों को संकोच होता है लिखने में उकडूं क्योंकि उकडूं लिखो, यह कोई जंचती नहीं बात। तो उन्होंने उसके लिए कोई अच्छा शब्द खोज लिया। अच्छे शब्द खोजने में भारतीयों का कोई मुकाबला नहीं। उन्होंने नाम दिया है गौदोहासन! जैसे जब गौ को दोहते हैं। अब वे उकडूं बैठे हैं, सीधा साफ न कहोगे। अब महावीर. क्या गौ को दोहने का उनसे संबंध कभी। कभी गौ दोही थी महावीर ने कि गौदोहासन? मगर उकडूं कहना जरा अजीब सा लगेगा और शक-शुबहा पैदा होगा कि महावीर कर क्या रहे थे।
अब तुम उकडूं बैठ जाओ या गौदोहासन में बैठ जाओ, तो इससे कुछ ध्यान नहीं हो जाएगा। यह संयोग की बात है। ध्यान हर हालतों में घटा है। उपवास करने वालों को घटा है, नहीं उपवास करने वालों को घटा है। शाकाहारियों को घटा है, गैर-शाकाहारियों को घटा है। जवानों को घटा है, बूढ़ों को घटा है। सुंदर लोगों को घटा है, कुरूप लोगों को घटा है। पुरुषों को घटा है, स्त्रियों को घटा है। स्वस्थ लोगों को घटा है, अस्वस्थ लोगों को घटा है।
सांयोगिक बातों की चिंता मत करो, मूल को पकड़ो। भक्तों ने मूल को पकड़ा। उस मूल को वे नाम देते हैं संत-समागम। जहां कोई जागा हुआ आदमी हो, फिर छोड़ना मत मौका। फिर पकड़ लेना उसका आंचल। फिर बन जाना उसकी छाया। फिर जितना मौका मिल जाए, उसकी मौजूदगी में डुबकी लगाने का, उतनी डुबकी लगाना। उन्हीं डुबकियों से तुम तर जाओगे।
संत समागम कीजिए तजिए और उपाइ।
यह हिम्मत की बात सुनते हो? सुंदरदास कहते हैं: ‘तजिए और उपाइ।’ और सब उपाय छोड़ दो। एक सदगुरु के चरण पकड़ लो।
सुंदर बहुते उद्धरे सतसंगती मैं आइ।
अब तक जो भी उद्धरे हैं, अब तक जिनका भी उद्धार हुआ है, ऐसे ही हुआ है। सत्संगति में हुआ है। सत्संगति में ही स्मरण आना शुरू होता है कि मैं क्या हो सकता हूं। बुद्धों के पास ही अपनी ऊंचाइयों की स्मृति आनी शुरू होती है कि यह मेरी भी ऊंचाइयां हैं। इन शिखरों पर मैं भी हो सकता हूं। बुद्धों के पास आकर ही पता चलता है कि यह नीला आकाश मेरा भी है। मैं भी पंख फैलाऊं। मैं भी अपने डैने फैलाऊं! मैं भी उडूं।
बुद्धों को उड़ते देख कर तुम्हारे पंख भी फड़फड़ाने लगते हैं, जो सदियों से ऐसे पड़े हैं जैसे हों ही न। तुम भूल ही गए हो। बुद्ध तुम जैसे ही तो होते हैं। तुम्हारे जैसा ही नाक-नक्शा, तुम्हारे जैसा ही उठना-बैठना, तुम्हारे जैसी ही देह। सब कुछ तुम्हारे जैसा होता है। और कुछ तुम्हारे जैसा नहीं होता। बस वहीं क्रांति घटती है। सब मेरे जैसा है और इस सब मेरे जैसे में कुछ ऐसा भी है जो मेरे जैसा नहीं है। तो कहीं यह हीरा मेरे भीतर भी न पड़ा हो। एक दिन इनको भी इसका पता नहीं था। मुझे भी आज पता नहीं है।
बुद्ध ने कहा है अपने शिष्यों को कि तुम जैसे हो ऐसा ही मैं एक दिन था, और मैं जैसा हूं ऐसे ही तुम एक दिन हो सकते हो।
संत मुक्ति के पौरिया तिनसौं करिए प्यार।
संत तो मुक्ति के द्वार पर पहरेदार हैं। इनसे अगर प्रेम हो जाए तो ये तुम्हारे लिए द्वार खोल दें।
संत मुक्ति के पौरिया तिनसौं करिए प्यार।
कुंजी उनके हाथ है सुंदर खोलहिं द्वार।।
जिन्होंने पा लिया है, वे द्वार पर ही हैं। वे प्रभु के पास हैं। एक तरफ से तुम्हारे पास हैं। देह की तरफ से तुम्हारे पास हैं। आत्मा की तरफ से परमात्मा के पास हैं। वे द्वार पर खड़े हैं। वे तुम्हें और परमात्मा को जोड़ने का सेतु बन सकते हैं। आवरण कुछ बड़ा नहीं है तुम में और परमात्मा के बीच में--जरा सा है, झीना-झीना है। जरा में हट जाए।
चीजों के
और मेरे बीच
आवरण आ जाता है एक
और जब-जब
आ जाता है यह आवरण
वे मुझको दिखती ही नहीं हैं
दिखती भी हैं
तो एक आभास की तरह
धरती की भीतर की
उस सुवास की तरह
जो पानी बरसे तक
अपना पता नहीं देती
और जब
उठ जाता है कभी
यह परदा
तब एक-एक चीज
आस-पास की
बता नहीं देती मुझे
अपना सब कुछ
मैं उनको देखता रहता हूं
और
बोलता रहता हूं उनसे
खोलता रहता हूं उनको
और अपने को
वर्षा होती है। अचानक तुम देखते हो, धरती से सुवास उठने लगती है! यह सुवास पड़ी ही थी धरती में। वर्षा इसे लेकर नहीं आई है। जल को हाथ में लेकर, जल को अंजुली में भर कर सूंघो, कोई गंध नहीं है। जल गंध लेकर नहीं आया है। गंध तो धरती में ही पड़ी थी। धरती को भी पता नहीं था। लेकिन वर्षा हुई तो सुवास उठी। आषाढ़ की पहली-पहली वर्षा में पृथ्वी से उठती हुई गंध से और सुंदर क्या है?
संत समागम में जब तुम्हारे भीतर से पहली दफा गंध उठनी शुरू होती है, तभी तुम्हें पता चलता है कि मैं कितना बड़ा खजाना लिए चल रहा हूं! मुझे इसका कुछ अहसास नहीं था, आभास भी नहीं था।
संत मुक्ति के पौरिया तिनसौं करिए प्यार।
कुंजी उनके हाथ है सुंदर खोलहिं द्वार।।
परमात्मा की प्रार्थना तो कठिन है। कठिन इसलिए है कि दिखाई भी नहीं पड़ता, उससे बात भी करें तो कैसे करें? न उसकी तरफ से कोई उत्तर आता मालूम पड़ता है।
मुश्किल यह है
तुमसे बात करते समय
कि तुम दिखते नहीं हो
और जिससे बोल रहे हैं हम
अगर वह दिखता नहीं है
तो उत्साह बात करने का ठंडा
पड़ जाता है
अंदाज तो लगना चाहिए
कि हम जो कुछ कह रहे हैं
वह सुना भी जा रहा है या नहीं
सुना जा रहा है अगर
तो अच्छा या बुरा
कोई न कोई उसका असर
सुनने वाले पर पड़ रहा है या नहीं
तो यह मेरी मुश्किल अगर हो तुम कहीं
तो किसी तरह हल करो
याने जब लगे तुम्हें कि
कुछ ठीक कह रहा हूं
तो एकाएक खिला दो मेरे
पास के पौधे पर एक
हंसता हुआ फूल
और जब लगे मैं बहक रहा हूं
तो कह दो किसी अपने पंछी से
कि उड़ कर मेरे सिर पर से
थोड़ा सा चहक जाए
और लगे कि ऐसी बातें
मुझे करनी ही नहीं चाहिए
तो तेज कर दो
मेरे ऊपर पड़ रही धूप को
इसी तरह समझ लिया करूंगा मैं
तुम्हारे प्रसन्न या अप्रसन्न
या सावधान करने वाले रूप को!
परमात्मा से बात कैसे हो? हम कहे चले जाते हैं, कोरा आकाश सुने चला जाता है; न कोई उत्तर आता है, न कुछ पता चलता है कि हमारी बात पहुंची भी या नहीं पहुंची? हमारी बात का कोई परिणाम भी हुआ या नहीं? दूसरी तरफ कोई है भी या नहीं?
प्रार्थना इसीलिए असंभव बात है। लेकिन सदगुरु से प्रेम संभव है। और वही प्रार्थना का पहला चरण है। पहले उससे जुड़ो, जिससे जुड़ने की कोई सुविधा है; जिससे बात हो सकती है, संवाद हो सकता है; जिसकी आंखों में उठते भाव समझ में आ सकते हैं; जिसकी आंखों में खिलते फूल; तुम्हारी बात का क्या परिणाम हुआ, इसकी झलक दे जा सकते हैं; जिसका हाथ तुम्हारे सिर पर पड़े, जिसका आशीष तुम पर बरसे तो लगता है कि बात सुनी गई, पहुंची। जिससे प्रत्यक्ष कुछ नाता हो सके।
सदगुरु से प्रेम का अर्थ होता है: हमने परमात्मा की तरफ पहला कदम उठाया। अभी तो हम परमात्मा को भी रूप में चाहेंगे। आकार में चाहेंगे, सगुण चाहेंगे। तुम देखते हो न, सारी दुनिया में ज्ञानियों ने निर्गुण की बात की है लेकिन फिर भी मंदिर बनते हैं, मूर्तियां स्थापित होती हैं। सगुण मिटता नहीं। ज्ञानी लाख सिर पटके कि परमात्मा निर्गुण है, सगुण की भक्ति जारी रहती है। इसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक कारण है। निर्गुण की बातचीत से संबंध नहीं जुड़ता आदमी का। वह पत्थर की मूर्ति बना लेता है, कोई तो हो जिससे बात हो सके। पत्थर की मूर्ति के आस-पास नाच लेता है। इतना तो अहसास होता है कि चलो हम किसी के पास नाचे! पत्थर की मूर्ति की आरती उतार लेता है, फूल चढ़ा देता है, सिर झुका लेता है।
मनुष्य स्थूल है, उसे कुछ स्थूल चाहिए। लेकिन पत्थर की मूर्ति से कुछ हल न होगा। पत्थर की मूर्ति को भी तुम गौर से देखोगे तो वह भी कोई उत्तर नहीं देती। आंखें उसकी पथराई हैं सो पथराई हैं। पत्थर की मूर्ति भी तुम्हारा कुछ सुनती नहीं। पत्थर की मूर्ति से भी कोई प्रत्युत्तर नहीं आता, न आ सकता है।
गुरु निर्गुण और सगुण के बीच में खड़ा है। उसका कुछ हिस्सा सगुण है, कुछ हिस्सा निर्गुण है। कुछ तुमसे जुड़ा है, कुछ परमात्मा से। एक हाथ तुम्हारे हाथ में, एक हाथ परमात्मा के हाथ में। तुम्हें तो परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन गुरु का जो एक हाथ दिखाई पड़ता है, अगर तुम पकड़ लो तो तुम्हारा भी हाथ अनजाने ही, परोक्ष रूपेण परमात्मा के हाथ में पड़ गया। क्योंकि गुरु का हाथ परमात्मा के हाथ में है। गुरु सेतु है।
मात पिता सबही मिलैं भइया बंधु प्रहसंग।
सुंदर सुत दारा मिलैं दुर्लभ है सतसंग।।
इस संसार में अगर कोई चीज सर्वाधिक कठिन है, सर्वाधिक दुर्लभ है, तो कोहिनूर नहीं है--सत्संग। कई कारणों से कठिनाई है। पहली कठिनाई: करोड़ों में से एकाध उसे खोजता है। और करोड़ों खोजने वालों में से एकाध उस तक पहुंचता है। पहली कठिनाई। दूसरी कठिनाई: जो पहुंचता है, उसके वक्तव्य, उसकी प्रतीतियां, उसकी गवाहियां, शास्त्रीय नहीं होतीं, परंपरागत नहीं होतीं। उसकी अभिव्यक्ति मौलिक होती है। मौलिक होने के कारण लोगों को समझ में नहीं आती। लोग अपने शास्त्र, अपनी परंपरा को समझते हैं।
अब कृष्ण हिंदू थोड़े ही होते हैं। बुद्ध बौद्ध थोड़े ही थे। या तुम सोचते हो मोहम्मद मुसलमान थे? या तुम सोचते हो जीसस ईसाई थे? जीसस जब पैदा हुए तो उन्होंने जो कहा, यहूदी नाराज हो गए। यहूदी घर में पैदा हुए थे। यहूदी चाहते थे कि ठीक यहूदी प्रक्रिया और परंपरा को दोहराएं वे। लेकिन इस जगत में जिसको भी सत्य मिलता है वह किसी की परंपरा नहीं दोहरा सकता। उसकी निष्ठा सत्य के प्रति होती है, परंपरा के प्रति नहीं होती। उसका सीधा संबंध परमात्मा से होता है। वह जो कहता है, वह स्वयं थोड़े ही कहता है--परमात्मा जो उससे बुलवाता है, वही कहता है। और दुनिया तो बदलती जाती है। और परमात्मा तो दुनिया की भाषा में बोलता है। जब जैसी दुनिया होती है उस भाषा में बोलता है। ऐसा थोड़े ही है कि अब कृष्ण पैदा होंगे तो संस्कृत में ही बोले चले जाएंगे। तुम सोचते हो संस्कृत में बोलेंगे, अब कृष्ण पैदा होंगे तो तुम्हारी भाषा में बोलेंगे। सुंदरदास ने तुम्हारी भाषा में बोला। कबीर ने तुम्हारी भाषा में बोला। लेकिन कबीर के जमाने में भी जो पंडित था, पुराणपंथी था, वह संस्कृत ही बोल रहा था। जीसस अरेमैक भाषा में बोले, जो लोगों की भाषा थी। लेकिन जो पंडित था, वह हिब्रू में बोल रहा था। परमात्मा तो तुमसे बोल रहा है, इसलिए तुम्हारी भाषा में बोलेगा और परमात्मा तो नित-नूतन, नया है, प्रतिपल नया है। इसी तरह तो वह शाश्वत रूप से युवा है, स्वच्छ है, निर्मल है।
तो दूसरी कठिनाई: जब भी कोई साक्षात करने वाला व्यक्ति बोलता है तो किसी परंपरा से मेल नहीं खाता। और तुम सब परंपराओं के आदी हो। तुम चाहते हो, तुम्हारी परंपरा से मेल खाए, तो सत्य। तुम्हारी परंपरा से सिर्फ मुर्दे मेल खाते हैं, पंडित-मौलवी मेल खाते हैं। बड़ी अड़चन आ गई। तो तुम संत के पास जाओ कैसे? तुम अगर जैन हो तो तुम जैन मुनि के पास जाओगे। तुम उस मुनि के पास जाओगे जो तुम्हारी परंपरा की लीक को, लकीर को मान कर चलता है और उस लकीर को मान कर चलने वाले लोग मुर्दा ही हो सकते हैं। लकीरें मान कर कोई ज्ञानी चलता नहीं। ज्ञानी लीक के फकीर नहीं होते, लकीर के फकीर नहीं होते। जो तुम्हारी लकीरें मान कर चलते हैं वे तुम्हारे ही जैसे हैं, उनमें कुछ भेद नहीं है। मगर उनकी बात तुम्हें जंचेगी; क्योंकि तुमसे मेल खाएगी। तुम्हारे अहंकार को तृप्ति देगी।
ज्ञान का अवतरण जब भी होगा, जब भी कोई वस्तुतः संत होगा, तो सभी उससे नाराज होंगे। सिर्फ उन थोड़े से लोगों को छोड़ कर, जिनकी प्यास इतनी है कि वे परंपरा को त्यागने को तैयार हैं, मगर प्यास को त्यागने को तैयार नहीं। जिनकी परंपरा इतनी मूल्यवान नहीं जिन्हें मालूम होती, जितना परमात्मा। शास्त्र जिन्हें इतना मूल्यवान नहीं मालूम होता, जितना सत्य।. बहुत थोड़े से लोग खोज पाएंगे। अधिक लोग तो पंडित-पुजारियों के आस-पास ही भटकते रहेंगे और समाप्त हो जाएंगे।
फिर तीसरी और सबसे बड़ी कठिनाई: एक तो संत बहुत मुश्किल हैं, फिर उसकी मौलिकता, उसकी क्रांति बाधा बनती है। और तीसरी बात उसके पास जाओ तो मरना पड़ता है, मिटना पड़ता है, समर्पित होना होता है। उससे कम में काम नहीं चलता। उसके साथ समझौते नहीं हो सकते। उससे तुम यह नहीं कह सकते कि थोड़ा-थोड़ा। या तो इस पार, या उस पार। उतनी हिम्मत, उतना साहस, दुस्साहस बहुत थोड़े से लोगों की आत्मा में होता है। इसलिए कायर मंदिर-मस्जिदों में पूजा करते रहते हैं। सिर्फ थोड़े से साहसी लोग दुर्लभ संतों के पास बैठते हैं। मिटते हैं और मिट कर नये होते हैं। मृत्यु के द्वारा पुनरुज्जीवन है। सिंहासन जरूर मिलता है; लेकिन सूली के बाद। सूली सीढ़ी है सिंहासन की।
मद मत्सर अहंकार की दीन्हीं ठौर उठाइ।
सुंदर ऐसे संतजन ग्रंथनि कहे सुनाइ।।
संत कौन है? जिसने मद, मत्सर, अहंकार की ठौर को मिटा दिया, आवास मिटा दिया। जिसने उनकी बुनियाद गिरा दी। कहां है बुनियाद? ‘मैं-भाव’ में बुनियाद है। ‘मैं हूं’--यही बुनियाद है सारे मद, मत्सर, अहंकार, काम, क्रोध, लोभ की। संत हम उसे कहते हैं, जिसमें ‘मैं-भाव’ न रहा, जिसमें परमात्म-भाव का उदय हुआ। संत कहता है: मैं नहीं हूं, तू है। इसीलिए कभी-कभी संत की भाषा में तुमको बड़ी हैरानी होगी। कृष्ण ने कहा: ‘सर्व धर्मान्‌ परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’ सब छोड़-छाड़, सब धर्म इत्यादि, मेरी शरण आ! अब इससे ज्यादा अहंकार की और क्या बात होगी? अगर कोई तुमसे ऐसा कहेगा कि छोड़ो-छाड़ो सब, मेरी शरण आओ, मैं मुक्तिदाता, मैं तुम्हें पार ले जाऊंगा--तो स्वभावतः तुम्हें लगेगा यह कैसे अहंकार की बात हो रही है! मगर यह अहंकार की बात नहीं हो रही है, क्योंकि कृष्ण तो बिलकुल मिट चुके हैं। कृष्ण तो हैं ही नहीं। यह तो परमात्मा बोल रहा है। जब कृष्ण यह कह रहे हैं: ‘सर्व धर्मान्‌ परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’ तो कृष्ण तो हैं ही नहीं। मामेकं शरणं व्रज! तब वही एक कह रहा है कि मुझ एक की शरण आओ। कृष्ण तो केवल बीच के एक माध्यम हैं। कृष्ण के ओंठों का, जीभ का, कंठ का उपयोग किया जा रहा है, कृष्ण बोल नहीं रहे हैं।
जब जीसस कहते हैं: ‘आई एम दि वे, आई एम दि ट्रूथ’--मैं हूं सत्य, मैं हूं मार्ग, तो क्या तुम सोचते हो जीसस यह अपने संबंध में कह रहे हैं। जीसस तो गए, कब के गए। कहानी हो गए, इतिहास हो गए। जीसस अब नहीं हैं। यह तो परमात्मा बोल रहा है कि मैं हूं मार्ग, मैं हूं सत्य। लेकिन हमारी अड़चन है। हमारे भीतर तो मैं बोलता है। उसी मैं शब्द का उपयोग ये संत भी करते हैं। जब मंसूर ने कहा: ‘अनलहक। मैं सत्य हूं।’ तो मुसलमान नाराज हो गए कि कोई आदमी अपने को सत्य कहे या अपने को परमात्मा कहे. फांसी लगा दी, मार डाला। लेकिन मरते वक्त भी मंसूर हंस रहा था। और किसी ने भीड़ में से पूछा कि तुम हंस क्यों रहे हो? तो मंसूर ने कहा: मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तुम जिनको मार रहे हो, वह तो बहुत पहले मर चुका है। मैं तो हूं ही नहीं, इसलिए हंस रहा हूं। मारे हुए को मार रहे हो, पागलो! मैं तो कब का जा चुका। अब तो वही था।
उपनिषद कहते हैं: ‘अहं ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूं।’ यह ‘मैं’ शब्द का उपयोग करना पड़ रहा है, मजबूरी है, लेकिन इस ‘मैं’ में कोई है नहीं भीतर। परमात्मा ही है।
मद मत्सर अहंकार की दीन्हीं ठौर उठाइ।
सुंदर ऐसे संतजन ग्रंथनि कहे सुनाइ।।
सुंदरदास कहते हैं: ग्रंथों ने जिन संतों की चर्चा की है, सारे ग्रंथ इन्हीं संतों की चर्चा से भरे हैं। तुम ग्रंथों की पूजा कर रहे हो। और ग्रंथ कहते हैं: संतों को खोजो! ग्रंथ कहते हैं: सदगुरु की तलाश करो। ग्रंथ कहते हैं: जहां अभी परमात्मा ताजा-ताजा उतरा हो, वहां जाओ। अभी जहां सुबह हुई हो, अभी जहां सूरज उगा हो, वहां झुको। लेकिन तुम तस्वीरें रखे बैठो हो सूरज की। कभी सूरज उगा था। हजारों साल पहले, उसकी तस्वीर रखे बैठे हो।
रामचंद्र जी खड़े हैं धनुष लिए। वह हजारों साल पहले उगे सूरज की तस्वीर है। उसको सिर झुका रहे हो। किसको तुम धोखा दे रहे हो। जरा किसी पक्षी को धोखा देकर देखो। एक सूरज की उगती तस्वीर ले जाओ पक्षी के सामने, पक्षी गीत नहीं गाएगा। जरा किसी फूल को धोखा देकर देखो। सुंदर से सुंदर रंगीन तस्वीर ले जाओ फूल के पास सूरज की, फूल नहीं खिलेगा। किसको तुम धोखा दे रहे हो? आदमी के अतिरिक्त यहां और कोई धोखा नहीं खा सकता। आदमी अदभुत है। आदमी बड़ा कुशल है, अपने को ही धोखा दे लेता है।
ऐसी कहानी है सम्राट सोलोमन के जीवन में। एक स्त्री आई। विदुषी थी बहुत। सोलोमन की ख्याति थी कि वह बुद्धिमान है। उसकी ख्याति इतनी फैली कि दुनिया के सब कोनों में उसका नाम पहुंच गया। हिंदुस्तान में भी कहावत है। लोग कहते हैं: बड़े सुलेमान मत बनो। उसका मतलब यह है कि बड़ी बुद्धिमानी मत दिखलाओ। हालांकि उनको पता नहीं है कि वे किस सुलेमान की बात कर रहे हैं। सोलोमन, उसका नाम भी बदल गया हिंदुस्तान आते-आते सुलेमान हो गया। मगर लोग कहते हैं कि बड़े सुलेमान. क्या समझ रखा है अपने को?
सोलोमन की ऐसी ख्याति थी कि उस जैसा बुद्धिमान दुनिया में आदमी नहीं है। कई लोग उसकी परीक्षा लेने आते थे। एक विदुषी महिला उसकी परीक्षा लेने आई। उसने अपने हाथ में, एक हाथ में कुछ फूल ले रखे थे, दूसरे हाथ में भी कुछ फूल ले रखे थे। वह आकर दरबार में खड़ी हो गई, उसने कहा कि मैं पूछती हूं, इसमें कौन से फूल सच्चे हैं, कौन से झूठे हैं? सुलेमान थोड़ा झिझका। फूल बिलकुल एक से मालूम होते थे। यह भी हो सकता है कि दोनों ही सच्चे हों। यह भी हो सकता है दोनों ही झूठे हों। और यह भी हो सकता है एक हाथ में झूठे हों, एक हाथ में सच्चे हों। मगर दोनों एक जैसे थे। किसी बड़े कलाकार ने झूठे फूल तैयार किए थे।
उसने कहा: एक क्षण। कहा कि द्वार-दरवाजे खोल दो, जरा रोशनी कम है, जरा रोशनी ठीक से हो जाए, मैं बूढ़ा आदमी हो गया हूं, आंखों में मुझे दिखाई कम पड़ता है, जरा दरवाजे खोल दो। सब द्वार-दरवाजे खोल दिए गए। उसके चारों तरफ महल के बड़ा सुंदर बगीचा है। और एक क्षण बाद उसने बता दिया कि तेरे बाएं हाथ में फूल जो हैं वे सच्चे हैं और दाएं हाथ में जो फूल हैं वे झूठे हैं। स्त्री तो बड़ी चकित हुई। उसके दरबारी भी बड़े चकित हुए। उन्होंने कहा: यह जाना कैसे? उसने कहा: अब तुम पूछते हो तो मैं बता देता हूं। मैंने प्रतीक्षा की कि कोई मधुमाखी बगीचे से भीतर आ जाए, क्योंकि वही जांच सकती है। एक मधुमाखी आ गई। मैं उसको ही देखता रहा, किन फूलों पर बैठती है। जो फूल उसने बैठने के लिए चुने वे सच्चे हैं। तुम आदमी को धोखा दे सकते हो, मधुमाखी को तो धोखा नहीं दे सकते।
सारे ग्रंथ जीवंत संतों की चर्चा कर रहे हैं और तुम ग्रंथों को पकड़ कर बैठ गए हो! तुम्हारी हालतें ऐसी हैं जैसे रेलगाड़ी में न बैठ कर टाइम-टेबल के ऊपर बैठे हुए, चले बैठे टाइम-टेबल पर! कहीं नहीं पहुंचोगे। बैठे रहो टाइम-टेबल पर। और हिंदुस्तान के टाइम-टेबल तो वैसे ही किसी काम के नहीं हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी हुज्जत कर रहा था स्टेशन पर, स्टेशन मास्टर से, कि जो देखो वह ही गाड़ी लेट है। एक गाड़ी तीन घंटा, दूसरी सात घंटा, तीसरी चौदह घंटा। फिर टाइम-टेबल छापते ही क्यों हो? जब सभी गाड़ियां रोज ही लेट होनी हैं तो टाइम-टेबल की जरूरत क्या है?
स्टेशन मास्टर ने कहा: बिना टाइम-टेबल के पता कैसे चलेगा कि कौन सी गाड़ी कितनी लेट है? इसलिए छापते हैं।
यहां के टाइम-टेबल! उनको अब लिए बैठो हो, बैठे रहो उन पर जन्मों-जन्मों तक। कुछ भी न होगा।
कहीं खोजो। परमात्मा अब भी उगता है, जैसे सूरज अब भी उगता है। तुम क्यों पुरानी सूरज की तस्वीरें लिए बैठे हो? वे तस्वीरें प्यारी हैं। उन तस्वीरों से कोई विरोध भी नहीं है। वे तस्वीरें परमात्मा की हैं, मगर तस्वीरें हैं।
भक्ति का शास्त्र कहता है: जीवंत से संबंध जोड़ो तो क्रांति घटेगी।
आएं हर्ष न ऊपजै, गए शोक नहीं होइ।
सुंदर ऐसे संतजन कोटिनु मध्ये कोइ।।
संत वे हैं, जिन्हें सफलता मिले कि विफलता, सम्मान मिले कि अपमान, कुछ आए, कुछ जाए--भेद नहीं पड़ता। जिनके भीतर सफलता-असफलता में कोई भेद नहीं रहा और जीवन-मृत्यु में कोई भेद नहीं रहा, जिनके भीतर ऐसा अद्वैत सधा है--
सुंदर ऐसे संतजन कोटिनु मध्ये कोइ।
करोड़ों में कभी कोई एकाध ऐसा होता है। मिल जाए तो तुम धन्यभागी हो। मिल जाए तो हर उपाय करना कि छूट न जाए साथ।
सुखदाई सीतल हृदय देखत सीतल नैन।
कैसे पहचानोगे कि जिसके पास पहुंचे हो वह संत है? क्योंकि हम तो अंधे हैं, बहरे हैं, हमारी संवेदनशीलता भी बड़ी क्षीण हो गई है। हम पहचानेंगे कैसे कि कोई संत है? बुद्ध के पास जाकर हम जानेंगे कैसे कि बुद्ध के पास आ गए। तो लक्षण देते हैं--
सुखदाई सीतल हृदय.
जिसके पास बैठ कर हृदय शीतल होने लगे, सुख की तरंगें उठने लगें। जिसके पास बैठो तो दुख भूल जाए। जिसके पास बैठो तो संसार ही भूल जाए। थोड़ी देर को किसी दूसरे देश के वासी हो जाओ।
सुखदाई सीतल हृदय देखत सीतल नैन।
जिसकी तरफ देखो तो आंखें शीतल हो जाएं। जिसकी वाणी सुनो तो भीतर संगीत उठने लगे। जिसकी मौजूदगी में तुम जैसे हो वैसे न रह जाओ, किन्हीं ऊंचाइयों पर उड़ने लगो, जो तुमने कभी सपनों में भी नहीं देखीं। किसी और लोक में विचरण करने लगो! कोई नये द्वार खुल जाएं! तो बस पहचान हो गई।
ऊपर-ऊपर के लक्षण नहीं गिना रहे हैं, खयाल रखना, कि धूप में खड़ा हो, कि कांटों की शय्या बनाई हो, उस पर लेटा हो, कि इतने उपवास किए हों। यह तो कोई भी कर सकता है, यह तो कोई भी सर्कसी कर सकता है। यह तो करते ही लोग, जिनके दिमाग खराब हैं वे ही।
अब कांटों की शय्या पर लेटने की क्या जरूरत है? संसार कोई कम कांटों की शय्या है कि अब और कांटों की शय्या बना रहे हो! फिर उसमें भी तरकीबें होती हैं। तुमको भी लेटना हो तो उसकी तरकीब होती है, सीखने का उसका क्रम होता है, ढंग होता है। तुम चले जाना, डॉक्टर से पूछ लेना। तुम्हारी पीठ में ऐसे बहुत से हिस्से हैं जहां किसी तरह की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। तुम अपने घर में अपने छोटे बच्चे को कहना कि जरा सुई लेकर दस-पच्चीस जगह मेरी पीठ में चुभा। तुम हैरान हो जाओगे, कुछ जगह चुभाएगा, पता चलेगा; कुछ जगह चुभाएगा, पता ही नहीं चलेगा। वह चुभाता रहेगा और तुमको पता नहीं चलेगा। तुम्हारी पीठ में ऐसे बहुत से बिंदु हैं, जहां सुई चुभाने से पता नहीं चलता। बस उन्हीं-उन्हीं बिंदुओं पर कांटे होने चाहिए। फिर मजे से तुम सो जाओ कांटे की सेज पर। यह सब सर्कसी खेल है। इसका कोई भी मूल्य नहीं।
ऐसा ही उपवास भी है। तुम्हें शायद पता नहीं है कि अगर तुम समझ लो तो भूल कर उपवास न करो। और मैं उन उपवासों का विरोध नहीं कर रहा हूं, जो चिकित्सा की दृष्टि से किए जाएं। वे ठीक हैं। शरीर में कोई खराबी है और शरीर को विश्राम की जरूरत है, जरूर उपवास कर लेना। लेकिन उसका कोई धार्मिक मूल्य नहीं है। स्वास्थ्य के लिए कीमती है। जो लोग लंबे उपवास कर रहे हैं धर्म के नाम पर, उनको पता नहीं वे क्या कर रहे हैं। वे मांसाहार कर रहे हैं। वे अपना ही मांस खा रहे हैं। जभी तो रोज एक किलो वजन कम हो जाएगा। वह एक किलो वजन कहां गया, पता है? पचा गए।
शरीर में दोहरे यंत्र हैं। शरीर ने पूरी व्यवस्था की है। आपातकालीन स्थितियों की भी व्यवस्था की है शरीर ने। कभी ऐसा हो जाए कि महीना पंद्रह दिन भोजन न मिले, तो मर न जाओ। तीन महीने तक आदमी बिना भोजन के जी सकता है। साधारण स्वस्थ आदमी तीन महीने तक बिना भोजन के जी सके इसकी व्यवस्था कर रखी है, आपातकालीन व्यवस्था है। जंगल में भटक जाओ, समुद्र में नाव डूब जाए, तो तीन महीने तक कम से कम तुम्हारे पास सुरक्षित भोजन है। तुम्हारा जो मांस तुम्हारे भीतर है, वही मांस शरीर पचाना शुरू कर देता है। वह प्रक्रिया सातवें दिन के बाद शुरू होती है।
इसलिए उपवास की असली कठिनाई सात दिन होती है। सिर्फ पहले सात दिन जो पार कर गया, फिर कोई अड़चन नहीं होती। फिर आठवें दिन से तो नये यंत्र काम शुरू कर देता है। फिर तुम अपना ही मांस पचाने लगते हो। फिर तो तुम चकित होओगे, तीन सप्ताह के बाद भोजन करने की इच्छा ही नहीं होती। क्योंकि अब भोजन की कोई जरूरत ही नहीं है। अब तो नये ढंग पर शरीर ने काम शुरू कर दिया। अभी ‘वंदना’ ने यहां किया। किसी नासमझ ने समझा दिया होगा कि उपवास करो, उपवास से बड़ा ध्यान बढ़ता है। उसने उपवास कर लिया। अब उसकी भूख मर गई। अब भोजन करना चाहती है तो भूख नहीं है। अब भोजन करना मुश्किल हो रहा है। अब कल मुझे पत्र लिखा कि अब क्या करूं मैं? रोज शरीर क्षीण होता जा रहा है, भोजन की कोई इच्छा पैदा होती नहीं। कुछ अगर जबरदस्ती ले लेती हूं तो वमन हो जाता है। अब शरीर ने दूसरे यंत्र को काम में लगा दिया। अब भोजन की जरूरत नहीं। वह फेंक देता है बाहर। अब दूसरी प्रक्रिया काम कर रही है।
तो कुछ ऐसा मत सोचना कि उपवास से कुछ धार्मिकता हो रही है। तुम सिर्फ शरीर की एक आपातकालीन व्यवस्था का उपयोग कर रहे हो, जो कि मंहगी पड़ सकती है, जो कि घातक हो सकती है। ये ऊपरी लक्षण नहीं गिनाए सुंदरदास ने।
सुखदाई सीतल हृदय देखत सीतल नैन।
सुंदर ऐसे संतजन बोलत अमृत बैंन।।
जिनकी वाणी से तुम्हें अमृत की थोड़ी खबर मिलने लगे। जिनकी वाणी तुम्हारे कंठ में अमृत का स्वाद देने लगे।
यहां तो सब मरणधर्मा हैं। चारों तरफ संसार मृत्यु से घिरा है। हम मृत्यु की अंधेरी अमावस में हैं। जिस किसी की वाणी से तुम्हें अमृत के दीये जलते हुए दिखाई पड़ने लगें, चाहे कितने ही दूर आकाश में, कितने ही फासले पर, टिमटिमाटे दीये भी दिखाई पड़ने लगें--तो समझ लेना, कोई चरण आ गए जहां समर्पित हो जाना है।
क्षमावंत धीरज लिए सत्य दया संतोष।
सुंदर ऐसे संतजन निर्भय निर्गत रोष।।
जहां तुम्हें क्षमा का पता चले। अब तुम चकित होओगे। तुम जिन तथाकथित साधु-संतों के पास जाते हो, वहां क्षमा बिलकुल नहीं है। वे तुम्हें समझा रहे हैं कि अगर तुमने यह पाप किया, नरक में सड़ोगे। क्षमा कहां है? भयंकर दंड का आयोजन किया है। और जिनने भी ये आयोजन किए हैं, बड़े दुष्ट प्रकृति के लोग रहे होंगे। नरक का कैसा-कैसा रस लेकर वर्णन किया है। साधु-संत तो इतना डरवा देते हैं लोगों को--तथाकथित साधु-संत कि लोग कंप जाते हैं बिलकुल।
मैंने सुना है, एक ईसाई पादरी समझा रहा था लोगों को: जब नरक में पड़ोगे, आग में जलाए जाओगे। ऐसी ठंडी रातों में फेंके जाओगे जहां बर्फ ही बर्फ होगी। हाथ-पैर कंपेंगे और नंगे रखे जाओगे। सिहरोगे। कंपोगे। दांत किटकिटाएंगे।
एक बुढ़िया खड़ी हो गई। उसने कहा: लेकिन मेरे तो दांत ही नहीं हैं। पादरी भी कोई हार मानने वाला नहीं। उसने कहा: तू चुप रह। दांत दिए जाएंगे, मगर किटकिटाने तो पड़ेंगे ही। दांत तक का उसने बताया कि इंतजाम है वहां; जिनके दांत नहीं हैं, बर्फ में फेंकने के पहले दांत दे दिए जाएंगे नकली कि लो, लगाओ। मगर किटकिटाने तो पड़ेंगे ही। किटकिटाने से तो कोई छुटकारा नहीं। आग में जलाए जाएंगे, कीड़े-मकोड़े तुम्हें खाएंगे। प्यास लगेगी, पानी सामने होगा और पी न सकोगे। और अनंत-अनंत काल तक यह दुर्दशा की जाएगी।
और तुमने पाप क्या किया था। किसी ने सिगरेट पी ली थी। या कोई कभी दीवाली आ गई, जुआ खेल लिया था। तुम्हारे पाप इतने छोटे हैं और तुम्हारे तथाकथित पंडित-पुरोहित दंड तुम्हें इतने बड़े दे रहे हैं।
पाप ही क्या है? कौन से बड़े पाप कर लिए हैं? सब छोटे-मोटे पाप हैं। पाप कहना नहीं चाहिए, छोटी-मोटी भूलें हैं जो बिलकुल मानवीय हैं। इन मानवीय भूलों को क्षमा जहां होती हो, वहां समझना कि कोई संत का अवतरण हुआ है, जहां तुम्हारी सारी भूलों को क्षमा करने की क्षमता हो। जिसके पास बैठ कर तुम्हें यह भरोसा आ जाए कि मैं पापी नहीं हूं, कि मैं बुरा नहीं हूं, कि मुझे नरक में नहीं सड़ना होगा, कि परमात्मा रहमान है। जिसके पास बैठ कर तुम्हें यह समझ में आ जाए कि परमात्मा रहमान है, रहीम है, कि परमात्मा करुणावान है, कि वहां कैसा दंड।
परमात्मा और दंड का कोई मेल ही नहीं बैठ सकता। अगर नरक है दुनिया में, तो परमात्मा नहीं है और अगर परमात्मा है तो नरक नहीं हो सकता। जिसके पास तुम्हें इस बात की झलक मिलने लगे, जिसकी आंखों में तुम्हारे प्रति सम्मान हो, समादर हो तुम्हारे तथाकथित साधुओं की आंखों में तुम्हारे प्रति निंदा का भाव है, भयंकर निंदा का। तुम पापी, महापापी! उनकी आंखों में एक ही खयाल है कि सड़ोगे; हमारी मान कर चलो, अन्यथा सड़ोगे। और उनके मानने की बात ऐसी है कि मान कर तुम चलो तो यहीं सड़ने लगोगे। तो बेचारे लोग क्या करें? यहां सड़ें कि वहां सड़ें? फिर वे सोचते हैं कि वहीं सड़ेंगे, देखेंगे जब होगा। आगे की आगे देखेंगे। ये तो अभी सड़वा देंगे। तुम्हारे लिए विकल्प ही नहीं छोड़ा है। वे कहते हैं, यहां भूखे मरो, नहीं तो वहां भूखे मरोगे। यहां सोओ कांटों की सेज पर, नहीं तो वहां सोओगे। स्वभावतः आदमी सोचता है कि अब कल की कल देखेंगे, कल का कल उपाय करेंगे। कुछ रिश्वत, घूस चलती होगी वहां पर, हाथ-पैर जोड़ लेंगे, माफी मांग लेंगे कि कुछ पता नहीं था, भूल हो गई, अब जो कुछ हुआ हुआ। कोई न कोई मार्ग तो होगा ही। हर कानून से बचने के उपाय होते हैं। वकील कहीं तो होंगे। अगर नरक कहीं है तो सारे वकील वहां होंगे। बड़े-बड़े वकील वहां होंगे। उनका सहारा लेंगे।
मैंने सुना है, ईश्वर और शैतान में एक दिन झगड़ा हो गया। क्योंकि स्वर्ग और नरक के बीच में जो दीवार थी; वह गिर रही थी। न ईश्वर उसको ठीक करवाएं, न शैतान उसको ठीक करवाएं। पड़ोसियों के झगड़े। दोनों इस आशा में कि तुम करवाओ ठीक? अक्सर दोनों की मुठभेड़ हो जाए कि करवाते हो कि नहीं ठीक? आखिर एक दिन ईश्वर ने कहा कि देख, तू ठीक करवाता है कि नहीं? यह तेरी ही शैतानी के कारण ही गड़बड़ है और तेरे ही लोगों के कारण ही ये ईंटें गिर गई हैं। स्वर्ग में तो शांति ही है। यहां कोई लड़ाई-झगड़ा भी नहीं है। मगर तेरे ही लोग उछल-कूद मचाते हैं और ईंटें गिरा दिए हैं। अब इनको ठीक करवा, अन्यथा अदालत में मुकदमा चलाऊंगा।
शैतान खिल-खिला कर हंसने लगा। उसने कहा: चलाओ मुकदमा। वकील कहां से पाओगे? वकील तो सब मेरी तरफ हैं।
तो आदमी सोचता है कि वकील मिल जाएंगे वहां, कोई प्रार्थना-पूजा का उपाय होगा, कोई पंडित मिल जाएंगे, यज्ञ-हवन करवा देंगे। यज्ञ-हवन से तो क्या नहीं होता--विश्व-शांति तक हो जाती है। क्या रखा है? एक हृदय की शांति न हो सकेगी? ऐसे-ऐसे बड़े-बड़े पंडित पड़े हैं इस देश में, सारे विश्व की शांति करवा देते हैं। अहमदाबाद में करवा देते हैं यज्ञ, सारे विश्व में शांति। शांति कभी होती ही नहीं, यज्ञ होते रहते हैं। मगर आदमी सोचता है कि चलो एकाध की तो करवा देंगे। मंत्र-ताबीज वाले गुरु होंगे। किसी की ताबीज ले लेंगे, किसी का मंत्र ले लेंगे। देखेंगे, कल की कल देखेंगे। अभी तो कोई मरे नहीं जाते।
तो आदमी स्वभावतः कल पर छोड़ देता है। और साधुओं ने विकल्प नहीं छोड़े हैं तुम्हारे। यहां सड़ो या वहां सड़ो। तुम्हारे पीछे ही पड़े हैं, जैसे तुम्हें सड़ाना ही है। और तुम्हारी हर चीज की निंदा है। तुम्हारा प्रेम पाप है। तुम्हारा जीवन पाप है। तुम्हारा उठना-बैठना सब पाप है।
देखते हो, तेरापंथी मुनि नाक पर पट्टी बांधे. श्वास लेना पाप है। गुनाहों का तो कोई अंत ही नहीं है। नाक पर पट्टी क्यों बांधे हैं? पता है, गर्म श्वास जो निकलती है, उसमें कहीं कोई छोटे-मोटे कीड़े हवा में उड़ते हुए मर न जाएं। उनको बचाने के लिए। अगर वे मर गए तो फंसे। फिर किटकिटाओ दांत। इससे बेहतर मुंह पर पट्टी बांधो।
मगर पानी तो पीओगे। कितना ही छान कर पीओ, उसमें जीवाणु होते ही हैं। और तुम्हारी मुंह-पट्टी कितनी ही हो, जब तक श्वास लोगे, वायु में जीवाणु होते ही हैं। कम जाएंगे--जाएंगे ही।
कितना घबड़ा दिया है लोगों को दिगंबर जैन मुनि स्नान नहीं करता। इस डर से कि इतना पानी का उपयोग करेंगे, उतना पाप लगेगा, उतने पानी के जीवाणु मर गए। बास आने लगती है जैन मुनियों से। नहाओगे नहीं तो बास आएगी ही। दतौन नहीं करते। कुल्ला करेंगे पानी में, उतने कीटाणु मर गए।
तुम जीने दोगे आदमी को कि नहीं? कुल्ला तक करने की सुविधा नहीं छोड़ रहे हो! नहाने नहीं देना चाहते। भोजन नहीं करने देना चाहते हो। चाहते क्या हो कि लोग आत्महत्या कर लें? आत्महत्या पाप है, याद रखना। फिर दांत किटकिटाओगे। छोड़ते नहीं कहीं से।
एक बात का पक्का कर लिया है कि तुम्हारे दांत किटकिटाने हैं। कोई भी तरह से हो, तुम्हें नरक में सड़वाना है। ये ठीक सिद्धपुरुषों के लक्षण नहीं हैं।
क्षमावंत धीरज लिए सत्य दया संतोष।
सुंदर ऐसे संतजन निर्भय निर्गत रोष।।
उनमें कोई रोष नहीं है, क्रोध नहीं है, असंतोष नहीं है। दया है, ममता है, करुणा है। सत्य की वहां वर्षा हो रही है। और जो भी उस वर्षा में पहुंचेंगे, उनके कंठ शीतल हो जाएंगे।
घर बन दोऊ सारिखे सबतें रहे उदास।
संतों को घर और जंगल एक जैसा है। वे घर के विपरीत जंगल नहीं चुनते। उन्हें सब बराबर है। घर तो घर, जंगल तो जंगल। वे तटस्थ हैं। उदास का अर्थ होता है तटस्थ। उदास का अर्थ उदास मत समझ लेना। उद+आस का अर्थ होता है: उनको अब कोई आशा नहीं है, किसी चीज से कोई आशा नहीं है। किसी चीज से कुछ लेना नहीं, कुछ मांगना नहीं, कोई अपेक्षा नहीं है। तटस्थ भाव से जहां हैं ठीक, जैसे हैं ठीक।
सुंदर संतनी कै नहीं जिवन मरण की आस।
न तो जीवन में कोई रस है, न मरने में कोई रस है। कई लोग हैं जिनको मरने में रस है। वे कहते हैं: हे प्रभु, कब छुटकारा हो जीवन से? और वे सोचते हैं कि बड़ी धार्मिक बात कह रहे हैं, प्रभु पर बड़ी कृपा कर रहे हैं। कब छुटकारा हो जीवन से। मृत्यु मांग रहे हैं।
नहीं, संत तो वही है जो कुछ भी नहीं मांग रहा है--न जीवन, न मृत्यु। जीवन दो तो ठीक, मृत्यु दो तो ठीक। जो आए, ठीक, जैसा आए वैसा ठीक। जैसा आए वैसा सर्व-स्वीकार है।
धोवत है संसार सब गंगा मांहें पाप।
सुंदर संतनि के चरण गंगा बंहै आप।।
सुंदरदास कहते हैं: सारे लोग गंगा में पाप धोने जाते हैं। बेचारी गंगा की भी तो कुछ सोचो? इतने पाप इकट्ठे होते जा रहे होंगे, गंगा क्या करे? गंगा संतों के चरणों की आशा रखती है। गंगा स्वयं चाहती है संतों के चरणों में बहे। व्यर्थ है गंगा तक जाना। गंगा खुद संतों के चरणों की आशा कर रही है।
संतों के चरण जहां पड़ते हैं, वहीं तीर्थ बन जाते हैं। संत जहां उठते-बैठते, वहां मंदिर उठ जाते। तुम मंदिरों में क्या जा रहे हो? ये केवल खबरें हैं कि यहां कभी कोई संत उठा-बैठा होगा। तीर्थों में क्या जा रहे हो? ये खबरें हैं कि कभी किसी संत के चरण यहां पड़े होंगे। ये केवल चरण-चिह्न हैं। चरण-चिह्नों की पूजा मत करो। चरणों को खोजो, जहां अभी भी चरण चलते हों।
संतन की सेवा किए सुंदर रीझै आप।
और बड़ा प्यारा वचन है कि जो संतों की सेवा करता है, परमात्मा स्वयं उस पर रीझ जाता है। क्योंकि संत उसके हैं, उसके प्रतिनिधि हैं, उसके द्वार हैं।
जाकौ पुत्र लड़ाइए अति सुख पावै बाप।
जैसे किसी के बेटे को खूब लाड़ करो, प्यार करो, तो उसका बाप भी सुख पाता है। ऐसे संतों की जो सेवा करता है, वह परमात्मा का प्यारा हो जाता है।
एक बड़े मजे की बात खयाल लेना। दुनिया में सेवा की दो धारणाएं हैं। एक ईसाइयों की धारणा है सेवा की। उस धारणा का अर्थ होता है बीमार की, रुग्ण की, कोढ़ी की सेवा करो। शुभ है वह भी। मगर उस धारणा से हमारी सेवा का कोई अर्थ नहीं जुड़ता। इस देश में हमारी सेवा की दूसरी धारणा है। हमारी सेवा की धारणा है: सिद्ध की, संत की, जिसने पा लिया, उसकी, किसी बुद्ध की सेवा करो। ये दो सेवा की अलग-अलग धारणाएं हैं।
इसलिए मैं अक्सर कहता हूं कि महात्मा गांधी निन्यानबे प्रतिशत ईसाई थे। सेवा की धारणा उनकी ईसाई की धारणा थी--बीमार की, रुग्ण की सेवा करो। शुभ है, अच्छा है, नैतिक है, धार्मिक नहीं। होना चाहिए, लेकिन इससे धर्म का कोई संबंध नहीं है। धर्म से संबंध तो तब है, जब जो पहुंच गए हैं, तुम उनके चरणों की सेवा करो। तुम किसी कोढ़ी के पैर कितने ही दबाते रहो, यह एक नैतिक कृत्य है--और अच्छा है, सम्मान के योग्य है। मगर इससे कुछ परमात्मा नहीं मिलेगा, जब तक तुम किसी बुद्ध के चरण न दबाओगे। क्योंकि बुद्ध के चरणों से ऊर्जा बहेगी। कोढ़ी के चरणों से क्या ऊर्जा बहनी है? तुम्हारी कुछ होगी थोड़ी-बहुत तो कोढ़ी के भीतर चली जाएगी। उसको थोड़ा स्वस्थ करेगी। अच्छा है। लेकिन बस अच्छा, इससे ज्यादा नहीं। नास्तिक भी कर सकता है।
लेकिन हमारी जो सेवा की धारणा है, वह बड़ी और है। उसके चरण पकड़ो, जिसके चरणों से गंगा अवतरित होती हो, जिसके भीतर से परमात्मा बह रहा हो--ताकि तुम्हारे भीतर भी थोड़ी परमात्मा की झलक आ जाए; तरंग आ जाए।
हरि भजि बौरी हरि भजु त्यजु नैहर कर मोहु।
जिव लिनहार पठाइहि इक दिन होइहि बिछोहु।।
तो कहते हैं: याद कर लो हरि को, प्रभु को याद कर लो, संतों के चरण पकड़ लो, समागम कर लो। क्योंकि यह जो घर तुमने अपना घर समझ रखा है, यह घर नहीं है, यह ऐसे है जैसे नैहर, जैसे कोई जवान होने लगी लड़की। मां के घर को तो छोड़ कर जाना पड़ेगा, यह घर सदा नहीं रह सकती। जल्दी ही लिवाने वाला आ जाएगा। जल्दी ही बरात आएगी। जल्दी ही घोड़े पर सवार दुल्हा आएगा और जाना पड़ेगा। यह घर तो छूटेगा।
ऐसा ही यह संसार है। यह हमारी मां का घर। यह पृथ्वी का घर, पृथ्वी हमारी मां है। प्यारा आएगा। मौत में प्यारा ही आता है, हम पहचान नहीं पाते क्योंकि हम अंधे हैं। वही हाथ फैलाता है। हम घबड़ा जाते हैं। हमने जोर से इस घर को अपना घर मान लिया है। यह धर्मशाला है। यहां थोड़ी देर रुकना है और कुछ सीख लेना है--कुछ पाठ। यहां पकना है, लेकिन तैयारी करनी है उस घर जाने की।
हरि भजि बौरी हरि भजु.
पागलो! हरि को भजो।
.त्यजु नैहर कर मोहु।
नैहर का मोह छोड़ो।
जिव लिनहार पठाइहि.
जब लेने वाला आएगा,.
.इक दिन होइहि बिछोहु।
यहां से तो जाना है। एक बात जिसे याद रहे कि यहां से जाना है, यहां से जाना है, यहां से जाना है--उसके जीवन में क्रांति हो जाती है। क्योंकि फिर वह चीजों को जोर से नहीं पकड़ता है। उपयोग कर लेता है संसार का, वस्तुओं का उपयोग कर लेता है; लेकिन मालिक रहता है, गुलाम नहीं बन पाता।
आपुहि आप जतन करु जौं लगि बारि वेयस।
और जब तक उम्र छोटी है, जब तक कच्चे हो, तब तक यहां रहना है। पकाओ अपने को। प्रौढ़ हो जाओ कि फिर न यहां रहना है, न यहां लौटने की जरूरत पड़ेगी।
आन पुरुष जिनि भेंटहु केहू के उपदेस।
तैयार करो अपने को। किसी का उपदेश सुन कर तैयार करो, ताकि जब परम पुरुष लेने आए तो तुम्हें वरे, तुम्हें गले लगाए; तुम्हें स्वीकार करे।
जबलग होहु सयानिय, तबलग रहब संभारि।
और जब तक सयानापन न आ जाए, जब तक भीतर सिद्धावस्था न आ जाए, तब तक सम्हाल कर रखना अपने को; जैसे जवान लड़की अपने को सम्हाल कर रखती है। अपने कुंआरेपन को सम्हाल कर रखती है; क्योंकि उसका प्यारा आएगा, यह कुंआरापन उसी की भेंट है। यह हर किसी को नहीं दिया जा सकता।
जबलग होहु सयानिय, तबलग रहब संभारि।
केहुं तन जिनि चितबहु, ऊचिय दृष्टि पसारि।।
जब तक अपना प्यारा न आ जाए, तब तक किसी पर आंख डालना ही मत। यहां आंख डालने योग्य और कुछ है भी नहीं। यहां मोह लगाने योग्य कुछ है भी नहीं। मोह लगाना तो उस प्यारे से लगाना। प्रेम लगाना तो उस प्यारे से लगाना या अगर वह प्यारा दिखाई न पड़े तो उस प्यारे के प्यारों से लगाना।
यह जौवन पियकारन नीकै राखि जुगाइ।
यह तो उसी प्यारे के लिए है--यह जो भीतर फूल खिल रहा है चैतन्य का। यह जो जीवन की अदभुत ऊर्जा भीतर निर्मित हो रही है, यह तो उस के ही चरणों में चढ़ानी है।
यह जौवन पियकारन.
यह यौवन, यह जवानी, यह फूल जीवन का उसके ही चरणों में चढ़ना चाहिए। किसी और के चरणों में नहीं। और सब व्यर्थ है, सावधान रहना।
बौद्ध कथाओं में एक प्यारी कथा है। सुदास, एक चमार, एक दिन सुबह उठा। अपने मकान के पीछे, अपनी छोटी सी तलैया में पाया कि एक कमल का फूल खिला है--बेमौसम। हैरान हुआ। बेमौसम फूल नहीं खिलते। कभी नहीं खिला था, और इतना बड़ा फूल! तोड़ कर सोचा कि बाजार जाऊं और बेच आऊं। आज दाम अच्छे मिल जाएंगे। कोई धनी ले लेगा। चला बाजार की तरफ। रास्ते पर गांव के सबसे बड़े धनी से मिलना हो गया, बाजार तक जाना भी न पड़ा। वह अपने स्वर्ण-रथ पर बैठ कर कहीं जा रहा था। शायद सुबह के लिए हवाखोरी को निकला हो। इसके हाथ में कमल का फूल देख कर उसने कहा कि रुक सुदास, कितने दाम लेगा? सुदास ने कहा: मालिक, बेमौसम का फूल है। इतना बड़ा फूल मौसम में भी नहीं खिलता। क्या देंगे आप?
सुबह-सुबह का मौसम था और सुदास को पता नहीं था कि धनी क्यों इतना प्रसन्न था। उसने कहा कि सौ स्वर्ण-मुद्राएं दूंगा, दे दे मुझे। सोचा भी नहीं था। एक स्वर्ण-मुद्रा मिल जाए, यह भी नहीं सोचा था। सौ स्वर्ण-मुद्राएं! सुदास थोड़ा चौंका। लोभ पकड़ा मन को कि अगर सौ मिल सकती हैं, तो शायद बाजार में जाऊं, ज्यादा मिल सकती हैं। क्या पता, मामला क्या है? तो उसने कहा कि नहीं मालिक, बहुत कम हैं।
लेकिन तभी वजीर का रथ भी आकर रुक गया और वजीर ने कहा: बेच मत देना। जितना नगर सेठ देता हो, दस गुना मैं दूंगा।
सुदास ने कहा: आप पागल न हो जाएं, वह सौ स्वर्ण-मुद्राएं दे रहा है, आप दस गुना देंगे, हजार स्वर्ण-मुद्राएं? वजीर ने कहा, रहा, फूल दे दो। अब तो सुदास और मुश्किल में पड़ गया। हजार स्वर्ण-मुद्राएं और तभी राजा का रथ भी आकर रुक गया। और राजा ने कहा: सुदास, जो मांगेगा दूंगा। बेच मत देना।
सुदास ने कहा: दस हजार स्वर्ण-मुद्राएं देंगे? छाती धड़कने लगी सुदास की, मांगते भी हिम्मत न हो रही थी। मगर जब हजार मिल सकती हैं तो दस हजार भी मिल सकती हैं। सम्राट ने कहा कि दस नहीं, जितना तू कहेगा उतना दूंगा। फूल ले आ।
सुदास ने कहा: मालिक क्या मैं पूछ सकता हूं कि मामला क्या है? मैं पागल हुआ जा रहा हूं। इस फूल में ऐसा क्या है?
सम्राट ने कहा: फूल में कुछ भी नहीं है। कोई और दिन होता तो दस-पांच पैसे भी तुझे नहीं मिल सकते थे। लेकिन आज मामला और है। बुद्ध का गांव में आगमन हुआ है। हम सब उन्हीं के स्वागत को जा रहे हैं। कौन नहीं चाहेगा, बेमौसम के ही कमल के फूल को बुद्ध को चढ़ाना! तू ला, फूल मुझे दे।
सुदास एक क्षण ठिठका और उसने कहा मालिक फूल नहीं बिकेगा। सम्राट ने कहा: क्या? सुदास ने कहा कि नहीं, फूल नहीं बिकेगा। जब दस हजार स्वर्ण-मुद्राएं देकर आप फूल चढ़ाना चाहते हैं, तो जरूर फूल के चढ़ाने में ज्यादा लाभ होगा। मैं ही चढ़ाऊंगा फूल।
सुदास गरीब है--सुदास ने कहा, लेकिन इतना गरीब नहीं। यह फूल बुद्ध के चरणों में मैं ही चढ़ाऊंगा। जब बुद्ध आते हों तो फूल बिकेगा नहीं। मुझे तो पता ही नहीं था। अब मैं समझा कि यह फूल खिला भी क्यों बेमौसम। यह उनके आने के कारण ही खिला होगा।
यह फूल भीतर का उसी परमात्मा के आगमन के कारण खिलता है; उसी के लिए खिलता है; उसी के चढ़ने के लिए खिलता है। इसे कहीं और मत चढ़ा देना।
यह जौवन पियकारन नीकै राखि जुगाइ।
खूब सम्हाल कर रखना।
अपनो घर जिनि छोड़हु परघर आगि लगाइ।
इसे अपने भीतर से बाहर मत चले जाने देना। इस जीवन-ऊर्जा को सम्हालना संपदा की तरह। यह तुम्हारे जीवन से बाहर चली जाए तो यह संपदा अग्नि हो जाती है।
जीवन को ही तो लोगों ने नरकबना दिया है। जीवन की ऊर्जा बाहर जाती है, तो अग्नि हो जाती है। जैसे एक घर से लपटें उठें और दूसरे घर में आग लग जाए और फिर तीसरे घर में आग लग जाए और हवाएं लपटों को फैलाती जाएं और सारे नगर में आग लग जाए--ऐसे ही सारी पृथ्वी जल रही है, क्योंकि किसी ने अपनी जीवन-ऊर्जा को सम्हाल कर नहीं रखा है। यही जीवन-ऊर्जा सम्हाली जाए तो रोशनी बन जाती है। बाहर जाए तो आग बन जाती है। भीतर जाए तो प्रकाश बन जाती है। जितनी भीतर ले जाओगे, उतना गहन प्रकाश होता है।
चुपचाप भीतर का ताप सहो
उसे शब्दों में मत कहो
शीतल उसे करो
कर्मों की रेवा में
सेवा की शिखरिणी से
स्नेह के समुंदर तक
उसको उतरने दो
फैलने दो
फलने दो
फूलने दो ताप को
अग-जग की
तरंगों में
भूलने दो अपने आप को
ताप तो प्रकाश है
उसमें जलो नहीं
उसके सहारे देखो
केवल चलो नहीं
स्थावर परिवेशों को जंगम करो
चित्र-विचित्र भावों में
चंद्र की किरन से उसे
पूनम में सजने दो
गाने दो लहरों पर
दोलायित नावों पर
देश के किनारे
दूर देश के निमंत्रण पर
तजने दो
भीतर का ताप
ठीक से बरतो तो
भीतर भी प्रकाश है
बाहर भी प्रकाश है
उसमें जलो नहीं
उसके सहारे देखो
केवल चलो नहीं
स्थावर परिवेशों को जंगम करो
ताप का
निष्ठा से संगम करो!
यह जो भीतर जीवन का ताप है, यह जो अग्नि है, यह निष्ठा से जुड़ जाए, यह श्रद्धा से जुड़ जाए, तो रोशनी बन जाती है। अपूर्व प्रकाश का उदगम होता है। उस अवस्था को ही बुद्धावस्था कहा है।
यह विधि तन मन मारै, दुइ कुल तारै सोइ।
इस तरह अगर तुमने अपनी जीवन-ऊर्जा को सम्हाला, तो इस विधि के द्वारा, तन भी जाता, मन भी जाता, तुम तन और मन के पार चले जाते।
.दुई कुल तारै सोइ।
यह जगत भी मिट जाता है, वह जगत भी मिट जाता--तुम दोनों के पार हो जाते, द्वंद्व के पार हो जाते हो। और निर्द्वंद्व अर्थात निर्वाण।
दुई के पार हो जाना अर्थात मोक्ष।
सुंदर अति सुख बिलसइ, कंत-पियारी होइ।
और उसी निर्वाण में उस प्यारे से मिलन है। वह निर्वाण उस प्यारे से विवाह है। वह निर्वाण उस प्यारे में डूब जाना है, एक हो जाना है।
सुंदर अति सुख बिलसइ, कंत-पियारी होइ।
ऊर्जा तुम्हारे पास है--चाहो तो जलो, चाहो तो जगो। सूत्र सीधे-साफ हैं। मगर खोज लो कोई चरण! चरण-चिह्नों पर मत अटके रहो। जीवंत चरण चाहिए!
कभी-कभी पास आ-आ कर लोग भटक जाते हैं। सावधान रहना। बहुत जतन करना। जीवन एक कला है; जो उसे ठीक से जीते हैं वे परमात्मा को उपलब्ध हो जाते हैं।

आज इतना ही।

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