SUNDERDAS

Jyoti Se Jyoti Jale 08

Eighth Discourse from the series of 21 discourses - Jyoti Se Jyoti Jale by Osho. These discourses were given during JUL 11-31 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, एक बार आप स्वप्न में आए। कभी मूसलाधार बारिश में लगा आप आ रहे हैं। कभी आपकी तस्वीर में मुस्कुराहट ऐसी लगती है कि सच में आप आए। प्रभु, यह मेरा भ्रम है अथवा आप आए? कृपया बताएं! एक नजर मेरे वल वी उठा देख ले जो मैं कीते गुनाह, वो गुनाह बख्श दे!
राधा! यह भी खूब रही! बुलाती हो, पुकारती हो, फिर आना हो तो संदेह उठाती हो।
स्वप्न का भी अपना एक सत्य है। स्वप्न भी बिलकुल ही स्वप्न नहीं। स्वप्न भी असत्य नहीं। जो भी है, स्वप्न भी, है तो! वह भी सत्य की ही तरंग है। इसलिए तो कहा कि माया भी ब्रह्म की ही छाया है। स्वप्न भी सत्य का ही रूप है, रंग है, गंध है। सत्य निराकार है; स्वप्न उसका ही आकार है।
इन भेदों को छोड़ो। ये भेद हमारे खून में मिल गए हैं, हमारी हड्डियों में समाविष्ट हो गए हैं। ब्रह्म अलग, माया अलग; जीवन अलग, मृत्यु अलग; सत्य अलग, स्वप्न अलग. अलग-थलग कुछ भी नहीं है। सब एक में ही संयुक्त है। और जिस दिन एक को ही पहचानो, उस दिन फिर संदेह नहीं उठते। संदेह की गुंजाइश ही तभी तक है, जब तक दो हैं। इस बात को खूब खयाल से समझो। दो हैं तो संदेह उठता रहेगा कि पता नहीं, क्या है? परमात्मा का अनुभव भी हो जाएगा तो भी मन संदेह उठाता रहेगा कि पता नहीं, सत्य है कि स्वप्न है? और अगर संदेह ही उठाना हो तो स्वप्न पर ही संदेह थोड़े उठाए जा सकते हैं?
अभी देखो! अभी मैं बोल रहा हूं। कौन जाने, तुम सो गए होओ और सपना देख रहे होओ कि मैं बोल रहा हूं! कैसे निर्णय करोगे कि सच में मैं यहां बोल रहा हूं? क्या होगा आधार, क्या होगी कसौटी?
एक पुरानी कथा है। एक वेदांत के अनुयायी ने, एक फकीर ने घोषणा की कि सारा संसार असत्य है। यह वेदांत की वास्तविक घोषणा नहीं है, भूल-चूक भरी है। वेदांत यह नहीं कहता कि सारा संसार असत्य है। वेदांत इतना ही कहता है: संसार माया है। माया और असत्य पर्यायवाची नहीं हैं। माया का मतलब इतना ही होता है, जैसे लहर सागर में; सागर की माया है, असत्य नहीं। सत्य इसलिए नहीं कह सकते कि लहर बनती है और मिट जाती है, शाश्वत नहीं है; मगर क्षण को तो है! पूरी तरह है। सच तो यह है, जब तुम सागर के तट पर जाते हो सागर कहां दिखाई पड़ता है, लहरें ही दिखाई पड़ती हैं। ऐसे ही जहां भी तुम खोजोगे परमात्मा कहां दिखाई पड़ता है, उसकी माया ही दिखाई पड़ती है! कहीं एक छोटे बच्चे में किलकारी भर रहा है। कहीं फूल में खिला है। कहीं मेघों में बरस रहा है। कहीं सूरज की किरणों में नाच रहा है। जहां भी तुम पाओगे, माया ही पाओगे। फिर कहीं कृष्ण में बांसुरी बजाता हो और कहीं राम में धनुष लेकर खड़ा हो, वह भी माया है। और कहीं बुद्ध में बोधिवृक्ष के तले आंख बंद किए बैठा हो और कहीं मीरा में नाचता हो, वह भी माया है।
माया का अर्थ झूठ नहीं होता। माया का इतना ही अर्थ होता है: ये तरंगें हैं उस शाश्वत के सागर की। उसी से उठती हैं, उसी में लीन हो जाती हैं। माया सिर्फ इसलिए कहते हैं कि शाश्वत नहीं हैं। अभी हैं, अभी नहीं थीं, अभी फिर नहीं हो जाएंगी।
लेकिन उस वेदांती ने घोषणा कर दी: जगत असत्य है। ऐसा अनेक वेदांती कर रहे हैं। उन्हें वेदांत का कुछ पता नहीं। उन्हें वेदांत का क ख ग भी नहीं आता। लेकिन तार्किक व्यक्ति था, सिद्ध तो कर सकता था। और यह बड़ा सरल सिद्धांत है सिद्ध करना कि सब असत्य है। क्योंकि किसी भी चीज को सत्य सिद्ध करना बहुत असंभव है।
मैं तुम्हारे सामने बैठा हूं, लेकिन सिद्ध नहीं कर सकते कि सत्य हूं। क्योंकि ऐसे ही तो कभी-कभी रात सपने में भी तुमने देखा है, कि तुम बैठे हो, गैरिक वस्त्रों से भरे हुए लोगों की भीड़ में, मैं तुमसे बात कर रहा हूं। उसमें और इसमें फर्क क्या करोगे? और जब सपने में देखा था तब तो वह भी सच मालूम हुआ था; अभी यह भी सच मालूम हो रहा है! कल की कौन जाने! कल सुबह जाग कर पाओ कि सपना था, फिर क्या करोगे?
सत्य को तो सिद्ध किया नहीं जा सकता। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है: सत्य स्वयं सिद्ध है, उसको सिद्ध किया नहीं जाता, किया जा सकता नहीं। करने का कोई उपाय नहीं है। मगर किसी भी चीज को असत्य सिद्ध करना बहुत आसान है।
निषेध आसान है। मन की सारी कला ही निषेध की है। ‘नहीं’, संदेह, शक--मन उसमें बड़ा कुशल है। ‘हां’ मन की भाषा नहीं है। श्रद्धा, किसी वस्तु में स्वीकार, वह मन का मार्ग नहीं है।
उस आदमी ने सिद्ध कर दिया कि सारा जगत असत्य है। राजा झक्की था गांव का। उसने कहा: अच्छा, ठीक है। उसके पास एक पागल हाथी था। उसने कहा: छोड़ो पागल हाथी इसके पीछे, उससे प्रमाणित हो जाएगा कि जगत सत्य है कि असत्य। वेदांती थोड़ा डरा। विवाद उसने बहुत किए थे। झंडा लेकर घूम रहा था। जो मिलता था उसको हराता था। दिग्विजय पर निकला था। सिर्फ मूढ़ ही दिग्विजय पर निकलते हैं। ज्ञानियों को क्या पड़ी है? किसकी विजय, कैसी विजय? उसी की जीत है, उसी की हार है! वही इस तरफ है, वही उस तरफ है।
वेदांती थोड़ा घबड़ाया, पैर कंपे। और जब पागल हाथी देखा तो होश खो दिए। हाथी बिलकुल पागल था। अब हाथी वेदंात इत्यादि थोड़े ही मानते हैं, तर्क इत्यादि थोड़े ही मानते हैं। तुम लाख कहो कि संसार असत्य है, हाथी थोड़े ही सुनेगा। हाथी ने तो उठाई सूंड, चिंघाड़ा और भागा वेदांती के पीछे। बहुत दिन से उत्सुक था किसी को पकड़ने के लिए। जंजीरों में कसा था, मौका मिलता नहीं था, बहुत दिन की वासना, बहुत दिन की आकांक्षा इकट्ठी हो गई थी। बड़े दमित भाव से भरा था। खूब उपवास कर लिया था उसने, खूब ब्रह्मचर्य साध लिया था! आज मौका पा गया, टूट पड़ा एकदम। वेदांती भी भागा, चिल्लाया जोर से: बचाओ मुझे! बचाओ मुझे! हाथी ने पकड़ा और पटकने ही जा रहा था कि राजा ने उसे बचाया। उसकी चीख-पुकार ही इतनी थी, दया भी आ गई और कहा: बात भी सिद्ध हो गई है!
हाथी चला गया। वेदांती थोड़ा शांत हुआ, पसीना सूखा, सांस वापस लौटी, होश वापस ठहरा। राजा ने पूछा: अब क्या विचार है? वेदांती ने कहा: सब असत्य है महाराज! संसार माया है। उस राजा ने कहा: और अभी यह हाथी? और यह हाथी का तुम्हें पकड़ना और सूंड में मरोड़ना? और तुम्हारा यह चिल्लाना?
उस वेदांती ने कहा: सब माया है महाराज! मेरा चिल्लाना, हाथी का आना, शोरगुल मचाना, आपका बचाना--सब माया है। लेकिन मैं कहे देता हूं, हाथी को फिर मत बुलाना! यह सिद्धांत की चर्चा है, इसमें हाथी को बीच में कहां लाते हो?
जीवन को बांटो मत। जीवन की अद्वैतता को देखो और जीओ।
राधा, तू पूछती है: ‘एक बार आप स्वप्न में आए।’.
आने की कोशिश तो मैंने बहुत बार की, मगर तू दरवाजा नहीं खोलती। एक तो रात, अंधेरा, अकेली. कौन दरवाजा खटखटा रहा है! दिन में लोग डरते हैं, तो रात में तू डरे तो कुछ आश्चर्य नहीं। पुकारती बहुत है, रोती बहुत है। शायद ही कोई दिन जाता हो जिस दिन तेरे आंसू मेरे लिए न गिरते हों और तेरी पुकार मेरे लिए न उठती हो। मगर जब आता हूं तब घबड़ा जाती है। तब सोचने लगती है: कहीं शक ही तो नहीं है, कहीं मन का भ्रम ही तो नहीं है?
मन बड़ा कुशल है, हर चीज को भ्रम सिद्ध करने में। आनंद की पुलक उठती है तो मन पूछता है कि कहीं भ्रम तो नहीं? और तुमने इस मन की तरकीब देखी है? जब दुख आता है तब मन कभी नहीं पूछता कि यह मन का भ्रम तो नहीं। जब सुख आता है, तब जरूर उठाता है प्रश्न। जब दुख आता है तब बिलकुल तल्लीन हो जाता है दुख में। जब क्रोध उठता है तो संदेह नहीं उठाता और जब करुणा आती है तो कहता है: ठहरो, यह दया-ममता, यह करुणा का भाव कहीं सिर्फ क्षण की तरंग न हो? कुछ दे-दा मत बैठना। रुको जरा, सोचो-विचारो। शुभ करने की घड़ी में कहता है: सोचो-विचारो। अशुभ की घड़ी में कहता है कि बस कर गुजरो, अभी देर करने की जरूरत नहीं है।
स्वप्न तो राधा, तू और भी देखती है। तूने घर-गृहस्थी बनाई है, वह क्या स्वप्न नहीं? पति है, बच्चे हैं, घर-द्वार है, खूब सजाया है--वह क्या स्वप्न नहीं? रोज रात कहां खो जाता है वह स्वप्न? रात जब तू स्वप्न में सो जाती है, तब तेरे पति तेरे पति होते हैं? स्वप्नों को क्या पता कि तूने किसके साथ भांवर पाड़ ली? स्वप्नों को क्या पता, कौन तेरा बेटा है? रात तो सब खो जाता है, यह दिन का विस्तार. दिन में जागते हैं, रात का विस्तार खो जाता है। दिन रात को गलत कर देता है, रात दिन को गलत कर देती है। कौन सच है? दोनों एक जैसे समर्थ हैं एक-दूसरे को गलत करने में। इनमें सच और झूठ की फिकर ही मत कर। वह जो तू आंख खोल कर देखती है दिन में, वह भी झूठ है। झूठ इस अर्थों में कि क्षणभंगुर है, माया है; इस अर्थ में नहीं कि नहीं है। है, पूरा है। तेरा घर है, तेरे पति हैं, पर समुद्र की लहर है। और रात तू जो देखती है वह भी क्षणभंगुर है। दिन का क्षण शायद थोड़ा लंबा है, रात का क्षण शायद थोड़ा छोटा है; लेकिन लंबाइयों से सच्चाइयों का निर्णय थोड़े ही होता है।
लेकिन एक बात पर ध्यान कर, बाहर सच है या झूठ, माया है या ब्रह्म, इसकी चिंता न ले। वही है--माया में भी वही! साधारण मनुष्य के स्वप्न में भी वही और असाधारण मनुष्य की समाधि में भी वही। लेकिन इन दोनों के पार एक साक्षी है, उसको पकड़ राधा! वह जो देखता है--जो रात सपने देखता है, दिन जगत का विस्तार देखता है--उसको पकड़। वही शाश्वत है। वह सागर है शेष सब लहरें हैं।
तू पूछती है: ‘आप स्वप्न में आए। कभी मूसलाधार बारिश में लगा आप आ रहे हैं।’
शुभ हो रहा है। अच्छे लक्षण हो रहे हैं। मूसलाधार बारिश में जब मेघ गरजते हों, बिजलियां चमकती हों, जोर से नर्तन होता हो हवाओं का, बूंदें पड़ती हों तेरे मकान पर--उस सारे साज-संगीत में अगर तुझे मेरी याद आने लगी है तो अच्छा हुआ है। फिर जल्दी ही सूरज की किरणों में भी होगा। हवा के झोंकें तेरे द्वार थपथपाएंगे, उसमें भी होगा। धीरे-धीरे होता जाएगा, होता जाएगा, हर घड़ी होता जाएगा। धीरे-धीरे चौबीस घंटे तू मुझसे घिर जाएगी, मुझ में डूब जाएगी। यही तो शिष्य की लक्षणा है।
स्वप्न से पकड़ रहा हूं, क्योंकि जागने में तू पकड़ में नहीं आती। भागी-भागी! लोग कहते भी हैं कि हमें ले लो, हमारा जीवन अपने हाथ में ले लो और फिर जब लेने जाओ तो भागने भी लगते हैं; डर भी पकड़ता है कि किसी झंझट में तो न पड़ जाएंगे? कोई असुरक्षा तो न हो जाएगी? लोग झिझके-झिझके होते हैं; हर काम में हिचक होती है। एक कदम उठाते हैं, एक लौटा लेते हैं। एक हाथ से मंदिर की ईंट रखते हैं, दूसरे हाथ से गिरा देते हैं। फिर मंदिर बनता नहीं। फिर मंदिर नहीं बनता तो तड़फते हैं, रोते हैं।
मंदिर श्रद्धा से बनता है। श्रद्धा का अर्थ होता है: तुम्हारा सारा जीवन एक काम में संगठित हो जाए, एकाग्र हो जाए। किसी चरण में अगर तुम इकट्ठे उतर जाओ, किसी भाव में, किसी गीत में तुम्हारा सब खो जाए, सब तल्लीन हो जाए--तो उसी तल्लीनता में तुम्हें वह स्वर सुनाई पड़ने लगेगा जो शाश्वत का है। एक नाम ओंकार! तुम्हारे भीतर अनाहत का नाद बजने लगेगा।
अच्छा हुआ कि मूसलाधार बारिश में तुझे लगा कि मैं आता हूं।
‘.कि कभी आपकी तस्वीर में मुस्कुराहट ऐसी लगती है कि आप आए।’
अभी भी तू जो देख रही है, वह मेरी तस्वीर ही है। मैं तो यहां बहुत दूर तुझसे बैठा हूं। तेरी आंख में तो तस्वीर बनती है। वही तस्वीर तेरे मन में जाती है। हम जब भी देखते हैं, सभी तस्वीरें हैं। तस्वीरों के अतिरिक्त आंखें कुछ देख ही नहीं सकतीं। आंख का मतलब ही है तस्वीर बनाने का यंत्र। आंख तो कैमरा है। आंख करती ही क्या है? जो बाहर है. पता नहीं बाहर क्या है? किसी को पक्का नहीं कि बाहर क्या है?
वैज्ञानिक से पूछो तो बहुत चौंकाने की बातें हैं! ये वृक्ष तुम्हें हरे मालूम पड़ते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं, जब इन्हें देखने वाला कोई भी नहीं होता तो ये हरे नहीं होते। क्योंकि हरियाली तो वृक्ष और आंख के बीच घटी हुई घटना है। आंख न हो तो हरियाली नहीं होती। आंख के बिना हरियाली कैसे होगी? हरियाली वृक्ष में नहीं है, हरियाली तुम्हारी आंख में है।
अब तुम बड़े चौंकोगे, कि जब तुम इस बगीचे से सब चले जाओगे और कोई भी नहीं होगा, रात सन्नाटा होगा, सब वृक्ष रंगहीन हो जाते हैं! न पत्ते हरे होते हैं, न फूल लाल होते हैं। तुम पूछोगे, उनका रंग क्या होता है? उनका रंग होता ही नहीं, क्योंकि रंग तो आंख में होता है।
तुमने देखा नहीं, आंख पर नीला चश्मा चढ़ा लो तो हर चीज नीली दिखाई पड़ने लगती है। वह रंग कहां से आ रहा है? ये आंखें भी चश्मा हैं प्रकृति के दिए हुए। वैज्ञानिक कहते हैं कि जब तुम किसी जलप्रपात पर जाते हो, घनघोर आवाज होती है पहाड़ी चट्टानों में गिरती हुई सरिता की! क्या तुम सोचते हो, जब वहां कोई सुनने वाला नहीं होता, तब भी आवाज होती है? तुम गलती में मत रहना। जब कोई सुनने वाला नहीं होता तो वहां आवाज होती ही नहीं, क्योंकि आवाज कान के माध्यम से हो सकती है। नदी लाख गिरे, पहाड़ से टकराए, मगर आवाज नहीं हो सकती। आवाज कान की संवेदना है।
तुम्हें कभी-कभी जीवन में भी यह अनुभव होता है, यह कोई विज्ञान से ही पूछने जाने की जरूरत नहीं है--बुखार के बाद भोजन में स्वाद नहीं आता। स्वाद तुम्हारी जीभ में है। जीभ रुग्ण है, स्वाद नहीं आता। भोजन वही है, स्वाद कहां होता है? अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम्हारी पांचों इंद्रियों ने यह जगत को रंग दिया है, स्वाद दिया है, रूप दिया है। तुम हट जाओ--यह जगत बिलकुल रंगहीन, स्वादहीन, रूपहीन है। उसको ही ज्ञानियों ने निर्गुण कहा है।
सगुण हमारा अनुभव है। सगुण माया है। विज्ञान और रहस्यवादियों का इस बात पर बड़ा तालमेल है। सगुण हमारी मान्यता है, हमारा सृजन है। हमारे हटते ही निर्गुण रह जाता है। उसमें कोई गुण नहीं होता। और वह निर्गुण अगर तुम्हें पहचानना हो तो बाहर न पहचान सकोगे। वह निर्गुण पहचानना हो तो भीतर पहचान सकोगे, क्योंकि बाहर तो आंख का उपयोग करना पड़ेगा। बाहर तो छुओगे तो हाथ से ही छूना पड़ेगा।
तुम जब कहते हो, कोई चीज खुरदरी लगती है, तुम सोचते हो खुरदरी है? तुम्हारे हाथ की प्रतीति है। चीजें कहीं खुरदरी होती हैं, चिकनी होती हैं? चीजें तो बस जैसी हैं वैसी हैं। तुम्हारे पास उन्हें प्रकट करने का कोई उपाय नहीं है। वस्तुएं अपने में कैसी हैं, इसे कहा भी नहीं जा सकता। लेकिन तुम्हारे पास एक वस्तु ऐसी है, जिसे तुम वैसा का वैसा जान सकते हो जैसी है--वह है तुम्हारा साक्षीभाव: जो रात में सपने देखता है; जो दिन में जगत का विस्तार देखता है; जो वृक्षों में हरा रंग देखता है; फूलों में लाल रंग देखता है; पहाड़ों से गिरती हुई सरिताओं में आवाज सुनता है; वीणा पर टंकार उठती है, संगीत सुनता है; जीभ में स्वाद आता है, स्वाद का अनुभव करता है।
भीतर तुम्हारे बैठा हुआ जो साक्षी है वह शाश्वत है; शेष सब तो बदलता रहता है। साक्षी निर्गुण है; अनुभव सगुण है। द्रष्टा निर्गुण है, दृश्य सगुण है।
धीरे-धीरे राधा, द्रष्टा के प्रति जाग! पर अच्छा हो रहा है, अगर दृश्य में प्रेमी दिखाई पड़ने लगे, गुरु दिखाई पड़ने लगे, परमात्मा दिखाई पड़ने लगे तो शुभ हो रहा है। इसमें संदेह उठाने की जरा भी कोई जरूरत नहीं है।
‘प्रभु, मेरा यह भ्रम है अथवा आप आए?’
यह प्रश्न हमारे मन में सदा उठ आता है और तभी उठता है जब कोई महत्पूर्ण घटना घट रही होती है, अन्यथा नहीं उठता! पैर में कांटा गड़ता है तो हम नहीं पूछते कि हे कांटे! यह मेरा स्वप्न है, भ्रम है, कि आप असली में आए? सिर में दर्द होता है तो हमारे मन में प्रश्न नहीं उठता कि हे सिरदर्द! आप हैं कि ऐसे ही भ्रम हो रहा है? लेकिन भीतर प्रकाश फैल जाता है, तत्क्षण संदेह खड़ा हो जाता है: है ऐसा, कि सिर्फ मुझे दिखाई पड़ रहा है, कि सिर्फ मेरी प्रतीति है?
जागो! आनंद के संबंध में यह प्रश्न उठाने की मन की आदत धीरे-धीरे त्यागो। क्योंकि यह प्रश्न अवरोध बनेगा। यह प्रश्न जहां खड़ा हो जाता है, वहीं अवरोध बन जाता है। इस प्रश्न को दुख की तरफ मोड़ो।
मैं इस प्रश्न का यह उत्तर नहीं दे रहा हूं कि मैं आया या नहीं, खयाल रखो। मैं यह उत्तर दे रहा हूं कि इस प्रश्न को दुख की तरफ मोड़ो। जहां-जहां जीवन में दुख हो, इस प्रश्न को खड़ा कर दो। और तुम इस प्रश्न की क्षमता का उपयोग कर लोगे। तब तलवार ठीक जगह पड़ी। दुख को काटना है, गिरने दो यह प्रश्न की तलवार। जहां-जहां पीड़ा, जहां-जहां विषाद, जहां-जहां संताप है, खड़ा करो इस प्रश्न को कि क्या यह सच है? और तत्क्षण तुम पाओगे कि तुम दुख के बाहर होने लगे। इस प्रश्न को आनंद की घड़ी में खड़ा मत करो, अन्यथा आनंद के बाहर हो जाओगे। पहले दुख काटो।
पहला कदम साधक का है, दुख को काटना। फिर जब सारा दुख कट जाए और आनंद ही आनंद रह जाए, तब यह प्रश्न पूछना कि आनंद सही है? क्योंकि फिर आनंद को भी काटना है। फिर एक और कदम ऊपर उठना है: अब दृश्य को ही काट देना है, ताकि द्रष्टा ही शेष रह जाए। और सिर्फ द्रष्टा ही ऐसा है जो इस प्रश्न से नहीं कटता है, बाकी सब चीजें कट जाती हैं। वही अकाट्य है। इसलिए उसको ही हमने शाश्वत सत्य कहा है; शेष सब सत्य की तरंगें हैं क्षणभंगुर!
और राधा, तूने यह भी पूछा है:
‘एक नजर मेरे वल वी उठा देख ले,
जो मैं कीते गुनाह वो गुनाह बख्श दे!’
कहां के गुनाह! धर्मगुरु समझाते रहे तुम्हें खूब कि तुमने बहुत पाप किए, पापी हो।
कोई पापी नहीं है। करो यह उदघोषणा सारे जगत में: न कोई पापी है, न कोई पापी हो सकता है! परमात्मा ही सब में विराजमान है, कैसा पाप! और अगर कभी तुम्हें लगता भी हो कि तुमसे कुछ भूल-चूक हुई. ध्यान रखना, भूल-चूक पाप नहीं है। भूल-चूक सुधर जाती है। अगर कभी कुछ भूल-चूक होती है. होती हैं भूल-चूकें, क्योंकि आदमी मूर्च्छित है. तो भूल-चूक को भी परमात्मा के पास ले जाने के लिए उपयोग करो। भूल-चूक से पछताओ। भूल-चूक को प्रार्थना बनाओ।
मयस्सर है किसी काफिर की शर्मीली निगाहों को
तसव्वुर में भी जो पाकीजगी मुश्किल से आती है
गमे-दुनिया के दागों में तरब का रंग भर वरना
ये वो तारे हैं जिनमें रोशनी मुश्किल से आती है
अरे हम अहले-कफस कैसे भूल जाएं उसे
बराए नाम सही, फिर भी आशियाना था
बजा कि दैरो-हरम भी करीब थे लेकिन--
हमारी राह में हाइल शराबखाना था
गुनाह से हमें रगबत न थी मगर या रब!
तेरी निगाहे-करम को तो मुंह दिखाना था।
समझे अर्थ?
बजा कि दैरो-हरम भी करीब थे लेकिन--
मंदिर और मस्जिद बहुत करीब थे, माना।
हमारी राह में हाइल शराबखाना था
लेकिन एक मधुशाला उसके भी पहले पड़ती थी, सो हम मधुशाला में भटक गए।
गुनाह से हमें रगबत न थी मगर या रब!
और यह भी हम तुझे कह देते हैं, हे परमात्मा! कि हमें पाप करने से, गुनाह करने से कुछ रस नहीं था, कोई रुचि नहीं थी।
गुनाह से हमें रगबत न थी मगर या रब!
तेरी निगाहे-करम को तो मुंह दिखाना था।
लेकिन सुना है कि तू महाकरुणावान है, तू महाक्षमावान है! तो कुछ पाप न करते तो तुझे मुंह कैसे दिखाते?
तेरी निगाहे-करम को तो मुंह दिखाना था।
यही सोच मधुशाला में चले गए। जब तेरे सामने खड़े होंगे हाथ जोड़ कर तो क्षमा मांगने को भी तो कुछ चाहिए न!
जरा तुम सोचो, अगर परमात्मा रहीम है, रहमान है, और तुम पहुंचे वहां बिलकुल साधु-पुरुष! तुमने कभी भूल-चूक की नहीं। तुमने कभी गुनाह किया नहीं, पाप किया नहीं। तुमने हर रत्ती-रत्ती नियम का पालन किया, आष्टांगिक योग पाला। सब जैसा विधि-विधान था शास्त्रों में, ठीक वैसे ही चले, रत्ती भर राह से यहां-वहां न गए। जरा सोचो, परमात्मा कैसी फजीहत में न पड़ जाएगा! एक तरफ तुम्हें देखेगा, एक तरफ अपनी तरफ देखेगा, कुछ समझ में न आएगा कि बात भी कहां से शुरू हो? बड़ा बेढंगा लगेगा, राधा। थोड़े-थोड़े गुनाह झुकने का मजा देंगे। पश्चात्ताप का रस होगा। उसके चरणों में सिर रख सकेंगे; कहेंगे, माफ कर।
तेरी निगाहे-करम को तो मुंह दिखाना था
गुनाह से हमें रगबत न थी मगर या रब!
छोटी-मोटी भूलों की फिकरें न करो। और मुझसे तो भूल कर इस बात की फिकर मत करना, क्योंकि मेरी दृष्टि में कोई भी पापी नहीं है। मेरी दृष्टि में कोई बुरा नहीं है। बुरा होने का इस जगत में उपाय नहीं है। क्योंकि परमात्मा ने इस जगत को ऐसा भरा है, ऐसा लबालब है जगत परमात्मा से, कि यहां भूल कैसी, गुनाह कैसा, पाप कैसा? सिर्फ बोध चाहिए।
मगर राधा यह आदत छोड़। अब तो स्वप्न में भी उसको ही देखना शुरू कर। अब तो भूल में भी उसका ही हाथ. अब सभी उस पर समर्पण कर।
किया है सैर-गहे-जिंदगी में रुख जिस सिम्त
तेरे खयाल से टकराके रह गया हूं मैं।
अब तो जहां आंख जाए उसी के खयाल से टकराए। अब तो जिंदगी की इस यात्रा में--किया है सैर-गहे-जिंदगी में रुख जिस सिम्त--जिस तरफ मुंह उठे, जिस दिशा में, उसी से पहचान हो, उसी से मुलाकात हो।
अच्छा हो रहा है कि बादलों की गड़गड़ाहट में भी तू मुझे सुनने लगी। धीरे-धीरे मुझमें भी तू उसको सुनने लगेगी। यही गुरु का उपयोग है कि जोड़े अपने से, कि इस बहाने तुम उस अदृश्य से जुड़ने लगो। और ये छोटे-छोटे जो प्रश्न उठ आते हैं संदेह के, ये जाने दो, इनको विदा करो।
कहां का वस्ल तनहाई ने भेस बदला है
तेरे दम भर के आ जाने को हम भी क्या समझते हैं।
मन तो संदेह उठाए जाएगा, वह कहेगा, जरा सी देर के लिए यह घटना घटी इसमें रखा क्या है? कहां का वस्ल? कहां का मिलन? तनहाई ने शायद भेष बदला है? शायद हमारे अकेलेपन ने ही कोई नया रंग-ढंग अख्तियार कर लिया है, कोई नया वेष पहन लिया है।
तेरे दम भर के आ जाने को हम भी क्या समझते हैं।
लेकिन दम भर को भी सत्य की किरण उतरे, स्वप्न में भी सत्य की किरण उतरे, तो भी रूपांतरित करती है। तुम्हारे स्वप्न भी तुम्हें अछूता नहीं छोड़ जाते। तुम जो स्वप्न देखते हो, वह भी तुम्हें बदलता है।
तुमने कभी खयाल किया है? एक रात अगर तुमने मधुर स्वप्न देखे, शांति और आनंद के स्वप्न देखे, समाधि के स्वप्न देखे, एक रात तुमने स्वप्न देखा बुद्ध का, महावीर का, कृष्ण का, मोहम्मद का। एक रात तुमने स्वप्न देखा कि तुम स्वयं बुद्ध हो और वृक्ष के नीचे बैठे हो समाधि में। क्या दूसरे दिन क्रोध उतना ही आसान होगा जितना पहले था? हालांकि स्वप्न ही देखा है, लेकिन दूसरे दिन एक ताजगी और होगी तुम्हारे मन पर। तुम्हारी जीवन-शैली और होगी। तुम्हारे पैरों में नाच होगा। तुम्हारी आंखों में रौनक होगी। और एक रात तुमने हत्या के स्वप्न देखे और तुमने लोग मारे और काटे और तुमने खून बहाया और गर्दनें गिराईं, रातभर एक दुख-स्वप्न रही। क्या दूसरे दिन तुम सोचते हो इसका परिणाम नहीं होने वाला है? तुम्हारा मन खिन्न नहीं होगा, चिंतित नहीं होगा, उदास नहीं होगा, रुग्ण नहीं होगा? फिर स्वप्न और दिन में भेद क्या, दोनों तो एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।
भेद छोड़ो। दिन भी एक तरह का स्वप्न है और स्वप्न भी एक तरह का जागरण है। इस भेद के छोड़ते ही तुम्हें तीसरे की याद आनी शुरू होगी कि वह कौन है जो दोनों को देखता है? दिन में आंख खोल कर देखता है, रात आंख बंद करके देखता है। वह कौन है जो सब का साक्षी है? वही परमात्मा है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपके चरणों में अपने को समर्पित कर निर्भार और मस्त हो जाने को लोग ढोंग कह रहे हैं। मैं उनको क्या अभिव्यक्त करूं?
हरि वेदांत! वे ठीक ही कह रहे हैं। उन्हें कहना ही पड़ेगा। वे तुम्हारे संबंध में कुछ भी नहीं कह रहे हैं, वे सिर्फ अपनी आत्म-रक्षा कर रहे हैं। अगर तुम सही हो तो वे गलत हैं। अगर तुम गलत हो तो ही वे अपने सहीपन की रक्षा कर सकते हैं।
तो उनसे नाराज मत हो जाना। उनका भाव समझो। वे तुमसे डर गए हैं। वे तुमसे भयभीत हो गए हैं। तुम्हारा आनंद उनके लिए संकट हो गया है, एक चुनौती हो गई है। अगर तुम सच में आनंदित हो तो फिर उन्हें अपनी जिंदगी को बदलना पड़ेगा। वे भी आनंद की तलाश कर रहे हैं और उन्हें नहीं मिला। वे भी ऐसे ही मस्त होना चाहते हैं। उन्होंने भी चाहत की है कि नाचें। सब लोकलाज छोड़ कर आनंद के गीत गाएं--ऐसा भाव किसके मन में नहीं है, किसकी अभीप्सा का अंग नहीं है? लेकिन जो जिंदगी उन्होंने बनाई है, वह बड़ी नारकीय हो गई है। सब सूत्र उलझ गए हैं। कुछ सूझ नहीं पड़ता। अचानक एक दिन उन्हीं जैसा एक आदमी नाचने लगा। कल तक तुम भी उन जैसे ही उलझे थे--उसी बाजार में, उसी भीड़ में, उन्हीं उपद्रवों में। आज अचानक तुम नाच उठे! भीड़ कैसे स्वीकार कर ले कि ऐसे कहीं रूपांतरण होता है, क्षण में?
उन्हें पता नहीं कि पारस छू जाए तो लोहा क्षण में स्वर्ण हो जाता है। कोई जन्म-जन्म थोड़े ही लगते हैं। फिर तुमने जो नरक बनाया है, वह तुम्हारे अपने हाथ की बनावट है। जिस क्षण छोड़ना चाहो उसी क्षण छूट जाता है। स्वभावतः उन्हें शक होगा कि ढोंगी दिखता है। यह हंसी झूठ होनी चाहिए। यह हंसी सच कैसे हो सकती है? क्योंकि उन्होंने तो कांटे ही कांटे जाने हैं; ये फूल सच कैसे हो सकते हैं? बाजार से खरीद लाया होगा। प्लास्टिक के होंगे, नकली होंगे, कागजी होंगे। यह हंसी ओंठों पर होगी। यह किसी धोखे में पड़ गया है या धोखा दे रहा है। दो में से एक ही बात हो सकती है--या तो खुद धोखा खा गया है या धोखा दे रहा है।
यह तीसरी बात स्वीकार करना तो बड़ी कष्टपूर्ण है, कि जो हुआ है वह सच में ही हुआ है। क्योंकि फिर हमारा क्या, फिर हम अपनी जिंदगी का क्या करें? फिर से गिराएं पुराना सारा बनाया हुआ, फिर से बनाएं नया? इतना साहस कम लोगों में होता है। फिर से शुरू करें क ख ग से? फिर से यात्रा शुरू करें पहले पाठ से? तो ये जो पचास साल गए, पानी में गए? इतना साहस बहुत थोड़े से हिम्मतवर लोगों में होता है।
इसलिए जिनमें हिम्मत है वे स्वीकार करेंगे और जिनमें हिम्मत नहीं है वे स्वीकार नहीं करेंगे।
तुम कहते हो: ‘आपके चरणों में अपने का समर्पित कर निर्भार और मस्त हो जाने को लोग ढोंग कह रहे हैं।’
लोगों की मजबूरी समझो। वे बेचारे ठीक ही कह रहे हैं। वे अपनी आत्म-रक्षा का उपाय कर रहे हैं। ढोंग कह कर तुम्हें, वे कवच ओढ़ रहे हैं। तुम्हें जब वे कह रहे हैं कि ढोंग है, तब उन्होंने एक ढाल अपने पर कर ली है। वे अपने को बचा रहे हैं, कि नहीं, यह नहीं हुआ है। चिंता में मत पड़ो, तुम जैसे चलते हो चले जाओ। तुम ठीक ही चल रहे हो। और भीड़ तुम्हारे साथ है। और ऐसा इक्का-दुक्का आदमी या तो पागल हो गया है, या सम्मोहित हो गया है, या धोखा देने में लगा हुआ है।
तो एक तो यह कारण, फिर दूसरा कारण है। इसलिए मैं कहता हूं, वे ठीक कहते हैं क्योंकि हजारों साल से साधुओं के नाम पर इतना धोखा दिया गया है कि लोग आनंद की बातें ही करते रहे हैं और सोचने लगे हैं कि आनंद की बातें करने से ही आनंद हो जाता है!
तुम जाकर अपने साधु-संन्यासियों को देखो। सच्चिदानंद की चर्चा चलती है, मगर आनंद की कहीं कोई झलक नहीं है। जीवन बिलकुल रूखा-सूखा रेगिस्तान मालूम होता है और फूलों की बातें होती हैं।
अक्सर ऐसा हो जाता है, जो हमारे जीवन में नहीं होता, उसे हम बातचीत से पूरा कर लेते हैं। वह परिपूरक है। बातचीत चला कर हम ढांक लेते हैं अपने को। आदमी अपनी नग्नता को प्रकट नहीं करना चाहता।
इसलिए एक बहुत अनूठी बात मनोविज्ञान ने खोजी है कि लोग जो बाहर से दिखलाते हैं, अक्सर भीतर उससे उलटे होते हैं। जैसे कमजोर आदमी अपने को बड़ा बहादुर दिखलाता है। उसे डर है अपनी कमजोरी का। वह भीतर कंप रहा है। वह बड़ा भयभीत है। वह इतना डर रहा है कि वह यह तो कह नहीं सकता है कि मैं डर रहा हूं। अगर वह यही कह दे कि मैं डर रहा हूं तो समझना हिम्मतवर आदमी है! डर के जाने का क्षण आ गया। लेकिन इतनी हिम्मत भी नहीं जुटा पाता कि कह दे कि मैं डरा हुआ हूं। अपने को ढांक-ढूंक कर, सिद्धांतों इत्यादि, शास्त्रों की आड़ में, वह कहता है: मैं और डर? कभी नहीं, मैंने डर जाना ही नहीं।
कल रात मैं एक मनोवैज्ञानिक की जीवन-कथा पढ़ रहा था। उसने बड़ी प्यारी घटना लिखी है। उसने लिखा है: बचपन से ही उसे एक ही चीज का सबसे बड़ा भय रहा कि किसी को यह न पता चल जाए कि मेरे भीतर भय है।
दुनिया में भय से लोग जितने डरते हैं उतना किसी और चीज से नहीं डरते। क्योंकि कायर, नामर्द. लोग कहेंगे, अरे नपुंसक! कुछ भी नहीं, किसी काम के नहीं!
उसने लिखा है कि बचपन में स्कूल में बच्चों से झगड़ा हो गया। बच्चों के एक गिरोह ने उसकी पिटाई का इंतजाम किया। वह किसी तरह उस दिन तो उन्हें धोखा देकर पीछे के रास्ते से भाग आया। वे दूसरे रास्ते पर इकट्ठे थे। मगर दूसरे दिन वह डरा कि अब अगर मैं गया तो आज तो पिटाई होने ही वाली है। दो ही रास्ते थे। एक पर कल उन्होंने इंतजाम किया था, आज वे दोनों पर इंतजाम कर लेंगे। और यह वह स्वीकार नहीं करना चाहता है कि अपनी मां को कह दे कि मैं डरता हूं, कि अपने शिक्षक को कह दे कि मैं डरता हूं। उसने अपनी मां को कहा: मेरे पेट में दर्द है। आज मैं स्कूल नहीं जाना चाहता।
मां ने कहा: किस तरफ दर्द है? तो उसने बताया दर्द इस तरफ है। मां ने कहा: यह तो हो न हो अपेंडिक्स होना चाहिए। वह बहुत घबड़ाया कि अब और एक मुसीबत हुई। कहां का अपेंडिक्स? उसे कोई दर्द वगैरह है भी नहीं। मगर अब उसकी यह हिम्मत कहने की न पड़े कि मैं सिर्फ झूठ ही बोला हूं। मां उसे डॉक्टर के पास ले गई। उसने सोचा था जांच-पड़ताल होगी, बात खत्म हो जाएगी। डॉक्टर ने जांच-पड़ताल की, डॉक्टर ने जांच-पड़ताल करके कहा कि पक्का तो बैठता नहीं कि अपेंडिक्स है या नहीं, लेकिन झंझट लेना ठीक नहीं, इसलिए ऑपरेशन कर लेना उचित है।
अब तो वह बहुत घबड़ाया। मगर अब बात बहुत आगे बढ़ चुकी है। तुम चकित होओगे जान कर कि आपरेशन हुआ! अब उसने जीवन के अंत में सत्तर साल की उम्र में यह बात लिखी है कि अब मैं यह इतनी हिम्मत जुटा पाया हूं कहने की, कि अब मैं सच-सच कह ही देना चाहता हूं कि न मुझे दर्द था न अपेंडिक्स था, मगर मेरा अपेंडिक्स भी निकला। आपरेशन मैंने करवा लिया हिम्मत करके। मगर यह हिम्मत न जुटा सका कहने की कि वहां बच्चे मुझे मारने को इकट्ठे हैं। और यह मैं स्वीकार नहीं करना चाहता कि मैं कायर हूं।
तुम जरा अपनी जिंदगी को गौर से देखना। अपने आस-पास गौर से देखना। जिन लोगों के जीवन में भीतर बहुत दुख है वे अक्सर ऊपर झूठी मुस्कान ओढ़े रहते हैं। जिन्होंने जीवन में कभी प्रेम नहीं जाना, वे प्रेम के गीत गुनगुनाते हैं। ऐसे मन को भुलाते हैं, समझाते हैं, सांत्वना देते हैं। आदमी क्या करे, आदमी बड़ा कमजोर है।
तो वे लोग जो कह रहे हैं कि तुम ढोंगी हो, उसके पीछे एक कारण यह भी है। सदियों तक उन्होंने ढोंग देखा है। न मालूम कितने-कितने तरह के ढोंगी देखे हैं। फिर मेरा संन्यासी तो उन्हें और भी अड़चन का कारण है। क्योंकि मैं संन्यास को एक नई परिभाषा दे रहा हूं, नया अर्थ दे रहा हूं, जो उनकी समझ के बाहर है, जो उन्होंने कभी सुना न देखा। संन्यास का उनका अर्थ था: जो सब छोड़ कर भाग जाए। अब वे तुमको ढोंगी न कहें तो क्या कहें? तुम कुछ भी छोड़ कर नहीं गए, यह कैसा संन्यास!
इसलिए मैं कहता हूं: वे बेचारे ठीक ही कह रहे हैं। उन पर नाराज मत होओ। अगर वे किसी पुराने संन्यासी को अपने बाल-बच्चों के साथ देख लें, पत्नी के साथ देख लें, तो उसे ढोंगी कहेंगे कि यह ढोंगी है। अगर पुराने संन्यासी को दुकान करते देख लें तो ढोंगी कहेंगे। और तुमसे मैंने कहा है दुकान छोड़ना मत, पत्नी-बच्चे छोड़ना मत। असल में मैंने तुमसे ढोंग का उपाय ही छीन लिया है, मगर उनकी समझ में जब आएगा तब आएगा। मैंने तुमसे ढोंग का उपाय ही छीन लिया है, जड़ ही काट दी। ढोंग का उपाय ही कहां बचा? मेरे संन्यासी के लिए ढोंग का उपाय ही नहीं है। तुम ढोंग करोगे क्या? जितनी चीजें ढोंग से की जाती थीं, वे तो मैंने तुम्हें करने की आज्ञा दी है।
मेरा संन्यासी भर ढोंगी नहीं हो सकता। मेरा संन्यासी तो ढोंगी तब होगा जब वह छोड़-छाड़ कर भाग जाए और किसी जंगल में बैठ जाए आंख बंद करके, तब तुम कहना कि यह ढोंगी है। यहां क्या कर रहे हो?
क्योंकि मैंने तो कहा: संसार में परमात्मा के दर्शन करने हैं। जीवन के छोटे-छोटे कामों में उसकी उपासना को खोजना है। क्षुद्र में विराट की तलाश करनी है। सामान्य में असामान्य को खोदना है। रूप में अरूप को पाना है।
तो मैंने तो तुमसे छोड़ने को कहा नहीं, इसलिए उनका कहना बिलकुल ठीक है। आखिर उनके पास भाषा पुरानी है। मेरी भाषा तो बनते-बनते बनेगी। उनके पास, मैं जो कह रहा हूं, उसे समझने का कोई उपाय नहीं है। मैंने उन्हें सिर्फ भौचक्का कर दिया है। वे एकदम बेबूझ से खड़े रह गए हैं। उनकी समझ में नहीं पड़ रहा है कि क्या हो रहा है।
मेरे पास आ जाते हैं कभी. पुराने ढब के एक संन्यासी आए कुछ दिनों पहले। कहा: यह कैसा संन्यास है? तीस साल से संन्यासी हैं, उम्र भी साठ साल की है। कहा: मैंने तो बहुत साधु-संत देखे हैं, बहुत हिमालय में घूमा हूं, गंगोत्री तक की यात्रा की है; मगर यह कैसा संन्यास है?
मैंने कहा: यह सहज संन्यास है। मेरा संन्यास का अर्थ और ही है। संन्यास का अर्थ है: भाव की एक ऐसी दशा कि तुम बाजार में खड़े हो, फिर भी अकेले हो। कर रहे सारे काम, फिर भी निष्काम। जी रहे संबंधों में, फिर भी असंग हो।
मेरे एक मित्र हैं, संन्यस्त हुए। आठ दिन बाद आए कि मेरी पत्नी को भी संन्यास दे दें। मैंने कहा: मामला क्या है? पत्नी राजी है?
कहा: राजी होना ही पड़ेगा, क्योंकि जहां भी मेरे साथ जाती है, लोग बहुत खड़े होकर देखने लगते हैं कि ये स्वामी जी किसकी पत्नी को लिए जा रहे हैं? कल एक पुलिस वाले ने रोक लिया, कि रुको महाराज, यह स्त्री किसकी है? दस बजे रात कहां जा रहे हो? मैंने कहा, भाई मेरी पत्नी है। उन्होंने कहा: तुम्हारी पत्नी? फिर तुम संन्यासी कैसे? पुलिस वाले को भी पता है कि संन्यास का मतलब क्या होता है।
मैंने उनकी पत्नी को भी संन्यास दे दिया। आठ दिन बाद वे फिर वापस आ गए कि मेरा एक बेटा और है, इसको और संन्यासी करें, क्योंकि कल ट्रेन में हम दोनों बैठे थे. बंबई में रहते हैं। लोकल गाड़ी में चले आ रहे थे, डब्बे में दो-तीन आदमी एकदम नाराज हो गए और कहा कि यह मालूम होता है किसी का बच्चा भगा कर ले जा रहे हैं।
साधु-संन्यासी भगा कर ले जाते हैं न बच्चा! और कोई उपाय नहीं मिलता चेला खोजने का तो बच्चों को भगा ले जाते हैं कि चलो। चेले तो चाहिए ही चाहिए!
तो कहा: इसको भी संन्यास दे दें, नहीं तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी किसी भी दिन। वे तो बिलकुल लड़ने-झगड़ने को राजी हो गए थे। बामुश्किल समझाया कि भाई यह हमारा ही बच्चा है।
‘तुम्हारा बच्चा कैसे? संन्यासी का, और बच्चा?’
मैं तुम्हें अड़चन में डाला हूं, जान कर डाला हूं। क्योंकि जब भी किसी एक नई धारणा की पहली दफा रूप-रेखा बनती है, जब किसी नये भाव की अवधारणा होती है, तो देर लगती है लोगों को समझने में, पहचानने में। वे तो कहेंगे ही कि यह सब ढोंग है, यह कैसा संन्यास? बाजार में बैठे, दुकान भी चलाते, काम भी करते, पत्नी भी, बच्चा भी. यह कैसा संन्यास है?
लेकिन मेरे संन्यास से प्रयोजन है कि तुम आनंदित हो, तुम मग्न हो, तुम तल्लीन हो। तुम प्रभु की याद से भरते जा रहे हो। यह संन्यास उसके संसार को भी स्वीकार करने में समर्थ है। यह संन्यास कमजोर का संन्यास नहीं है। यह भगोड़े का संन्यास नहीं है। हम जीवन के संघर्ष को पूरा का पूरा स्वीकार करते हैं। उसने दिया है जीवन, हम इससे भाग कर जाएं, यह उसका अपमान होगा। यह अकृतज्ञता होगी। अगर उसके प्रति सम्मान है तो उसने जो दिया है, उसके प्रति भी सम्मान होना चाहिए।
कठिनाइयां तो आएंगी तुम्हें, हरि वेदांत! खयाल रखना:
वही हकदार हैं किनारों के
जो बदल दें बहाव धारों के।
बहाव, धार. इनको बदलना है।
वही हकदार हैं किनारों के
जो बदल दें बहाव धारों के।
संघर्ष करना होगा। यही तुम्हारी साधना है।
और छिपाने से भी कुछ होगा नहीं। बच-बच कर भी मत चलना। परिस्थितियों से बचाव भी मत करना। उससे भी कुछ न होगा।
निगाहें ताड़ लेती हैं मोहब्बत की अदाओं को
छुपाने से जमाने भर में शोहरत और होती है।
छिपाना भी मत, तुम जैसे हो वैसे प्रकट करना। संन्यास को जीओ। इस संन्यास को जीओ--इसकी पूरी भाव-भंगिमाओं में और परम आनंद में!
वे ढोंग कहते हैं, उन्हें कहने दो। उनके कहने से तुम्हारा क्या बनता-बिगड़ता है?
लोग जब कुछ कहते हैं तो हम परेशान क्यों हो जाते हैं? इसलिए नहीं कि लोगों ने कुछ गलत बात कह दी। हम इसलिए परेशान हो जाते हैं, क्योंकि हम अपना स्वरूप अभी जानते नहीं। लोगों के ऊपर ही हमारे स्वरूप का भाव निर्भर है। लोग हमारे संबंध में क्या कहते हैं, वही हम अपने संबंध में जानते हैं। लोग अच्छा कहते हैं तो हम सोचते हैं हम अच्छे हैं। लोग बुरा कहते हैं तो हमें शक होने लगता है कि हम जरूर बुरे होंगे, जब इतने लोग बुरा कहते हैं। और जब सारे लोग.
और मैं तो तुम्हें पूरे समाज की आग में डाल रहा हूं। तुम्हें ये जो गैरिक वस्त्र दिए हैं अग्नि के रंग के, ये सिर्फ वस्त्र नहीं हैं, फिर तुम्हें धक्के दे रहा हूं संसार की आग में। फिर बीच बाजार में तुम खड़े रहोगे। चारों तरफ आग होगी। सभी लोग हंसेंगे, निंदा भी करेंगे, मजाक भी उड़ाएंगे, अपमान भी करेंगे, ढोंग भी बताएंगे। और अगर टिके रहे तो पूजा भी करेंगे। अगर टिके ही रहे तो सम्मान भी देंगे, स्वीकार भी करेंगे। मगर ये सब सीढ़ियां हैं, धीरे-धीरे होती हैं। इस सारी कठिनाई को झेलना ही होगा। और इस झेलने में तुम्हें लाभ है एक।
तुम यह बात ही छोड़ दो कि दूसरे तुम्हारे संबंध में कुछ कहते हैं, उससे तुम्हारे संबंध में कुछ पता चलता है। कुछ भी पता नहीं चलता! तुम्हें अपना पता नहीं है, दूसरों को तुम्हारा क्या पता हो सकता है? तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता तुम कौन हो, दूसरे कैसे जानेंगे?
आदमी सबसे पहले अपने को जाने। और जो अपने को जान लेता है वह फिर दूसरे पर निर्भर नहीं रहता। फिर दूसरे अच्छा कहें, बुरा कहें, सब बराबर हो जाता है। उसके भीतर एक समतौल पैदा हो जाता है, एक सम्यकत्व पैदा हो जाता है।
सब के सब गुलाब सुर्ख और जितने चाहिए उतने खिले हुए
सारे के सारे लोग शांत और लीन और जितने चाहिए उतने हिले हुए
भीतर से बाहर तक
जवाहर से मूंगों तक आंखें पंखुरी से फूल और फल तक ओंठ
द्राक्षा और सितार और मधु तक वाणी
चांद से तारों तक चेहरे
आओ तुम भी इस महफिल में, अब सब ठीक हो गया है
दर्द आज खारिज कर दिया है, सुख लीक हो गया है
सेहरे किरनों के पहनाए जाएंगे तुम्हें भी
ये जो गीत सबके लिए हैं
गाएंगे तुम्हें भी यहां के कलाकार
लाचार बैठ कर रोने की जगह जी खोल कर हंसना तय किया गया है
बड़ी से बड़ी तकलीफ के पांवों में देखते नहीं हो घुंघरू बंधे हुए हैं
हर टूटा हुआ मन आज आसमान से जोड़ा जा रहा है
ना, भाई निराशावादी, तुम इसे पकड़ नहीं सकते
यह आनंद के अश्वमेध का घोड़ा आ रहा है!
मैं तुम्हें जो दे रहा हूं, यह एक अपूर्व भेंट है। इसे लोग पहचान न सकेंगे। उनकी अंधी आंखें सूरज की इन किरणों को कैसे पहचानेंगी? उनके रोते मन.
ना, भाई निराशावादी, तुम इसे पकड़ नहीं सकते
यह आनंद के अश्वमेध का घोड़ा आ रहा है!
वे इस घोड़े को न देख सकेंगे। यह आनंद का अश्वमेध हो रहा है।
आनंद ही परमात्मा है। नृत्य ही प्रार्थना है। गीत और गीतों की गुंजार ही उपासना है। नहीं कोई व्रत, नहीं कोई उपवास, नहीं कोई योग, तप-जप आनंद की सुगंध तुम्हारे जीवन से उठे, उसी से तुम परमात्मा से जुड़ जाओगे।
लोग तो कहेंगे, लोग तो बहुत बातें कहेंगे। सुन लेना। उनसे विवाद में भी पड़ने की कोई जरूरत नहीं।
तुम पूछते हो: ‘मैं उनको क्या अभिव्यक्त करूं?’
विवाद में पड़ने की जरूरत नहीं है। विवाद में समय व्यर्थ खराब मत करना। जब लोग कहें ढोंग है, तब और भी मस्त होकर नाचना। जब लोग कहें ढोंग है, तब और भी हंसना--प्रेम से, प्रीति से, करुणा से! नाराज मत होना।
और ये बातें समझाने की नहीं हैं। तुम समझा भी न सकोगे। कौन समझा पाया है आनंद को कभी किसी दूसरे को? हां, तुम्हारा आनंद प्रकट हो, शायद देखने वाले देख लें, पहचानने वाले पहचान जाएं। तुम तो अपना जीओ अपनी धुन में। तुम और सारी चिंताएं छोड़ दो। तुम समझाने-बुझाने का उपक्रम भी छोड़ दो। तुम्हारी मस्ती ही प्रमाण होगी। तुम ही प्रमाण बन सकते हो कि कुछ हुआ है, जिसके लिए दूसरे भी लालायित होने लगेंगे। मगर यह विवाद और तर्क और विचार का काम नहीं है। तुम्हारा अस्तित्वगत. तुम्हारी अभिव्यक्ति तुम्हारे पूरे प्राणपण की हो।
आखिर लोग कब तक देखेंगे कि ढोंग है? जब देखेंगे तुम्हारी हंसी बढ़ती ही जाती है, जब देखेंगे तुम्हारे गीत गहराते ही जाते हैं, जब देखेंगे तुम्हारा नाच नये-नये रंग, नये-नये रूप लेने लगा, और जब देखेंगे सच में ही तुमने एक और ही जीवन की शैली पकड़ ली है, तुम अब नरक निर्मित नहीं करते अपने आस-पास, तुम्हारे पास स्वर्ग के फूल खिलने लगे हैं--बस वही होगा प्रमाण! और चिंता में तुम पड़ो मत। समझाने का गोरखधंधा तुम मुझ पर छोड़ दो।
बर्क की तरह चमक शोले की मानिंद लपक
उम्र भर यूं तो न जल शमए-शबिस्तां होकर
मौज की तरह से वाबस्तए-साहिल ही न रह
हुस्न के बहर से उठ इश्क का तूफां होकर
फूल की तरह से खिल, शौक के गुलजारों में
फैल जा निकहते-गुले-रंगे-बहारां होकर
बर्क की तरह चमक.
जैसे आकाश में बिजली चमके, ऐसे चमकने दो तुम्हारे आनंद को।
बर्क की तरह चमक, शोले की मानिंद लपक
और जैसे लपटें उठें, शोला लपके, इस भांति तुम्हारी मस्ती को प्रकट होने दो।
हुस्न के बहर से उठ.
सौंदर्य के सागर में लहरें उठने दो।
हुस्न के बहर से उठ इश्क का तूफां होकर
और प्रेम के एक तूफान बनो, एक अंधड़ बनो, आंधी--कि बहा ले जाओ धूल-धवांस लोगों की!
तर्क में मत पड़ना, प्रेम में पड़ो! जो कहे ढोंगी हो, गले लगा लो। ऐसा गले लगाओ कि उसे कभी किसी ने गले न लगाया हो, कि वह भी याद करे, कि रात छाती की हड्डियां दुखें, कि रात सपने में भी डरे कि फिर यह आदमी न मिल जाए। फिर कल उसके द्वार पर जाकर दस्तक दो कि भाई मेरे, आओ फिर आलिंगन करें।
हुस्न के बहर से उठ इश्क का तूफां होकर
फूल की तरह से खिल शौक के गुलजारों में
फैल जा निकहते-गुले-रंगे बहारां होकर
एक बसंत बनो, वही तर्क है। खिलो, वही व्याख्या है। मेरा शास्त्र तुम्हारे जीवन में लिखा जाए।
मैं संन्यास की जो परिभाषा करना चाहता हूं, वह तुम्हारे जीवन-ढंग से हो।
जिन मंजिलों में राहबरों का गुजर नहीं
ले आई है वहां भी मेरी गुमरही मुझे
आज तक वह नजर नहीं भूली
तुमने देखा था एक बार हमें
अपने अश्कों को पी रहे हैं मगर
लोग कहते हैं बादाख्वार हमें
लोग तो तुम्हें कहेंगे कि तुम पागल हो, कि क्या पी लिए हो, कोई शराब पी लिए हो। उन्हें क्या पता कि तुमने क्या पीआ है! उन्हें क्या पता किस मधुशाला में तुम सम्मिलित हो गए हो!
आज तक वह नजर नहीं भूली
तुमने देखा था एक बार हमें
अपने अश्कों को पी रहे हैं मगर
लोग कहते हैं बादाख्वार हमें
जिसने गुरु की आंख में झांक लिया, वह सदा के लिए मस्त हुआ। जिसने उसकी आंख से पी लिया थोड़ा सा रस, जिसने थोड़ी डुबकी ली, जो उसकी जीवन-धारा का अंग बना, लोग तो उसे शराबी कहेंगे ही।
मय तो है मय, खुलूस से साकी! अगर मिले
हम मैकशों को जहर भी आबेहयात है
हम तीरःबख्त के नूर के पैगंबर भी हैं
ऐ ‘शाद!’ हम पै खत्म यह तारीक रात है
मय तो है मय,.
शराब की तो बात ही छोड़ो।
मय तो है मय, खुलूस से साकी! अगर मिले
अगर प्रेम से कोई जहर भी दे.
हम मैकशों को जहर भी आबेहयात है
तो फिर जहर भी अमृत है। प्रेम से कोई पीना जान ले तो जहर अमृत हो जाता है। प्रेम छू दे जहर को तो अमृत बना देता है। असली बात प्रेम की है।
हम तीरःबख्त के नूर के पैगंबर भी हैं
मेरे संन्यासियो! तुम प्रकाश के, एक नये प्रकाश के अग्रदूत हो, नये संदेशवाहक हो, एक नये धर्म की नई किरण हो!
हम तीरःबख्त के नूर के पैगंबर भी हैं
ऐ ‘शाद!’ हम पै खत्म यह तारीक रात है
और चाहता हूं कि आदमी जिस अंधेरी रात में अब तक जीआ है, वह तुम पर समाप्त हो जाए। तुम्हारे बाद एक सुबह हो। एक सुबह, जिसमें जीवन सब रंगों में अंगीकार होगा।
एक धर्म, जो परलोक का नहीं होगा, इस लोक का होगा और इस लोक में ही परलोक को उतार लाएगा। बहुत समय हो गया कि लोग स्वर्ग को परलोक में खोजते रहे और नहीं मिला। अब उसे यहीं बनाना है! बहुत समय हो गया कि लोग मृत्यु के बाद सच्चिदानंद में जीएंगे, इसकी आशाएं बांधते रहे हैं। अब यहीं जीना, अभी जीना, इसी क्षण! मृत्यु के बाद क्यों, मृत्यु के पहले! इस तरह जीना है सच्चिदानंद में कि फिर मृत्यु हो ही नहीं।
लोग तो बहुत कुछ कहेंगे, तुम उनकी चिंता न लेना।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, भक्त विरह-अवस्था में दुखी होता है या सुखी?
दुखी भी होता है, सुखी भी होता है। भक्त की विरह-अवस्था बड़ा विरोधाभास है! दुखी होता है, क्योंकि परमात्मा मिलता-मिलता लगता है और अभी मिला नहीं। आती-आती लगती है उसकी पगध्वनि, अब आया, तब आया, और मिलन अभी हुआ नहीं। स्वाद भी लग गया है, मगर सागर अभी मिला नहीं।
तो दुखी भी होता है और सुखी भी होता है, क्योंकि धन्यभागी है। इतना भी कहां होता है? किन्हीं धन्यभागियों के जीवन में होता है। लौट कर औरों की तरफ देखता है तो अपने को सुखी पाता है कि कम से कम रो रहा हूं, लेकिन परमात्मा के लिए तो रो रहा हूं। उनसे तो धन्यभागी हूं जो रुपये-पैसे के लिए रो रहे हैं, पद-प्रतिष्ठा के लिए रो रहे हैं! कैसे दिल्ली पहुंच जाएं, इसके लिए रो रहे हैं। उनसे तो बेहतर हूं, उनसे तो धन्यभागी हूं।
इस संसार के कष्ट उसे अब कष्ट मालूम नहीं होते और न इस संसार की प्रतिष्ठा उसे प्रतिष्ठा मालूम होती है। इस संसार की झंझट तो गई। यह दुख-स्वप्न तो समाप्त हुआ। इससे बड़ा सुखी है, बड़े चैन में है। यह उपद्रव, यह आपा-धापी, यह भाग-दौड़, यह चित्त का प्रतिपल विक्षिप्त बने रहना--यह पा लूं, वह पा लूं--यह सब गया। यह भीड़-भाड़ विदा हो गई। अब सन्नाटा है। अब हजार दिशाओं में एक साथ दौड़ नहीं रहा है। अब खंड-खंड नहीं है, अखंड हुआ है। ऐसे पीछे लौट कर देखता है तो बड़ा सुखी है।
अगर हम संसारियों से तौलें तो भक्त महासुखी है, लेकिन अगर हम सिद्धों से तौलें तो निश्चित ही बहुत दुख में है, बड़ा विरह है। जैसे-जैसे संसार समाप्त हुआ है और भीतर शून्य इकट्ठा हुआ है, वैसे-वैसे पूर्ण की अभीप्सा भी गहरी हो गई है। अब तो रात-दिन वीणा पर एक ही स्वर उठ रहा है: मिलो, मिलो! पी कहां, पी कहां? बस एक ही पुकार है।
तो तुम्हारा प्रश्न: ‘भक्त विरह-अवस्था में दुखी होता है या सुखी?’
दोनों होता है। और एक और अर्थ में भी दोनों होता है। परमात्मा मिल नहीं रहा है, इससे दुखी होता है; और मिलता लग रहा है, इससे भी सुखी होता है। दूर से ध्वनि सुनाई पड़ने लगी, थोड़ी-थोड़ी बूंदा-बांदी होने लगी। मूसलाधार बारिशें न हुई हों अभी, लेकिन बूंदा-बांदी होने लगी है। आकाश में मेघ घिरने लगे हैं। आषाढ़ आ गया। वसंत शायद पूरा न भी आया हो, लेकिन इक्के-दुक्के फूल खिलने लगे हैं। लेकिन जब पहला फूल खिलता है तो भी वसंत का आगमन हो गया है, इसकी खबर तो हो जाती है न?
और ध्यान रखना, जितना मिलता है उतनी ही पाने की आकांक्षा जगती है, इससे दुखी भी है। सुखी, धन्यभागी कि जितना मिला उतनी भी पात्रता नहीं थी, उतना भी पुण्य नहीं था। किया क्या था। अर्जन क्या किया था? इसलिए सुखी बहुत और दुखी भी बहुत, क्योंकि प्यास और लपकती है, प्यास और बढ़ती है, अतृप्ति और सघन होती है। अब जरा सी भी दूरी बरदाश्त नहीं होती। अब रंचमात्र का फासला सहा नहीं जाता। अब तो ज्योति से ज्योति मिले। अब तो एक होना हो जाए। अब तो ऐसा आलिंगन हो कि फिर कभी छूटना न हो। अब तो ऐसा जोड़ बने जो फिर कभी टूटे नहीं। इससे दुखी भी है।
मैं फूल चुनने आया था बागे-हयात में
दामन को खारे-जार में उलझाके रह गया
इसमें जब तक किसी की आस न थी
दिल था एक फूल जिसमें बास न थी
जख्म गहरे नहीं थे जब दिल के
दर्द में इस कदर मिठास न थी
आप ही आप का यह फैज है वरना
जिंदगी इस कदर उदास न थी!
वो भी क्या दौर था कि ‘शाद’ हमें
गम तो गम है, खुशी भी रास न थी!
ऐसी विरोधाभासी दशा है। समझो--
मैं फूल चुनने आया था बागे-हयात में
आया था जीवन के बगीचे में कुछ फूल चुन लूंगा।
दामन को खारे-जार में उलझाके रह गया
और दामन सिर्फ कांटों में उलझ गया है, फूल कहीं हाथ लगते नहीं।
इसमें जब तक किसी की आस न थी
दिल था एक फूल जिसमें बास न थी
और अगर फूल हाथ लग भी गए कभी बहुत, कांटों में उलझे-उलझे, तो उनमें कुछ बास न थी, सुवास न थी।
परमात्मा की जब तक अभीप्सा न जगे, इस जगत में कहीं कोई सुवास नहीं होती। इस जगत में तब तक सब राग-रंग ऊपर-ऊपर, फीका-फीका होता है, त्वरा नहीं होती, जीवंतता नहीं होती।
दो प्रेमी भी आपस में मिलते हैं तो मिलन नहीं होता। यहां प्रेम भी व्यर्थ ही चला जाता है। प्रेम इस जगत की सबसे बड़ी घटना है। उसमें भी कुछ हाथ नहीं लगता, उसमें भी कोई सुवास नहीं उठती। परमात्मा की अभीप्सा जगती है, उस एक की आस जगने लगती है, उस एक पर आंखें टिकने लगती हैं, उस एक तारे पर आंख अटक जाती है--तो बड़ी अपूर्व घटना घटती है। विरोधाभासी!
इसमें जब तक किसी की आस न थी
दिल था एक फूल जिसमें बास न थी
जख्म गहरे नहीं थे जब दिल के
दर्द में इस कदर मिठास न थी
तो एक तरफ फूल में सुगंध आ जाती है। जीवन उछाह से भर जाता है। एक उत्सव आ जाता है, लेकिन साथ ही साथ घाव भी लग जाते हैं। मगर घाव मीठे! इसलिए कहा: विरोधाभास।
परमात्मा का विरह भी बड़ा मीठा है, संसार का मिलन भी बड़ा कड़वा है! परमात्मा का मिलन भी बड़ा मीठा है।
असत्य की राह पर जीते तो हार से बदतर है और सत्य की राह पर हारे भी तो जीत है।
जख्म गहरे नहीं थे जब दिल के
दर्द में इस कदर मिठास न थी
आप ही का यह फैज है वरना.
भक्त कहता है, प्रेमी कहता है: यह तुम्हारी ही कृपा है।
.जिंदगी इस कदर उदास न थी!
चौंकोगे तुम! भक्त कहता है: यह आपकी ही कृपा है--मिठास भी दी, उदासी भी दे दी। आस दी, मिठास दी और जिंदगी उदास भी कर दी! आस आई, झलक मिली कि कुछ घट सकता है, कि जीवन यूं ही न चला जाएगा, कि यह बीज टूटेगा, कि यह वीणा गाएगी। आस दी। लेकिन यह आस इतनी बड़ी है कि मैं इसे पूरा कर पाऊंगा? यह मंजिल इतनी दूर, यह शिखर इतना ऊंचा, यह गौरीशंकर--यह मैं चढ़ पाऊंगा? आकांक्षा दे दी। तो जिंदगी में सुगंध आ गई, अर्थ आ गया; लेकिन यह आकांक्षा पूरी हो सकेगी? तो घाव आ गया, तो दर्द है।
लेकिन दर्द जब भी विराट का होता है तो उसमें मिठास होती है। दर्द भी होते हैं, जो मीठे होते हैं। शत्रु तुम्हारे पास भी आकर बैठ जाए तो उसके पास बैठने में कड़वाहट होती है और मित्र हजारों कोस दूर हो तो उसकी दूरी में भी मिठास होती है।
और फिर बड़ी कृपा है आपकी, जिंदगी इसके पहले इस तरह उदास न थी। उलझे थे अपने कामों में। दुकान थी, बाजार था, व्यवसाय था; यह कमा लें, वह कमा लें, यह मकान बना लें, वह मकान बना लें. कहां, व्यस्तता में फुरसत उदास होने की किसे थी! उदास होने के लिए भी थोड़ा समय तो चाहिए न, समय ही कहां है? लोग भागे ही चले जाते हैं। क्षण भर बैठ कर सोचने का उपाय कहां है, मौका कहां है, सुविधा कहां है? लेकिन जब जिंदगी की आपा-धापी सब व्यर्थ हो जाती है और यहां सब खेल-खिलौने हो जाते हैं, तो बड़ा समय हाथ में आता है। और तब पहली दफा दिखाई पड़ना शुरू होता है: अब तक सब व्यर्थ गया! जन्मों-जन्मों जो भी किया न किया, बराबर हुआ। एक उदासी उतरनी शुरू होती है। और जो अब करने योग्य लगता है, वह मेरी सामर्थ्य में है, मैं कर पाऊंगा? पैर थरथराते हैं!
वह भी क्या दौर था कि ‘शाद’ हमें
गम तो गम खुशी भी रास न थी!
ऐसे भी दिन थे, जब यह अपूर्व उदासी की तो हम बात ही क्या कहें, जिंदगी की साधारण खुशियां भी हमें नहीं थीं। मजा समझना इस बात का। ऐसे भी दिन थे जब यह अपूर्व उदासी की तो हम बात ही क्या करें--यह अनूठी, यह तो सौभाग्य की उदासी है, जो परमात्मा को पाने की आकांक्षा से पैदा हो रही है--ऐसे भी दिन थे जब जिंदगी की छोटी-मोटी खुशियां भी हमें नहीं मिली थीं, यह तो बड़ी खुशी है!
परमात्मा के लिए उदास हो जाने से बड़ी और कोई आशा नहीं। और उसके लिए पीड़ित हो जाने से बड़ा कोई प्रेम नहीं। और उसके लिए जलने से बड़ी कोई शांति नहीं। उसकी बैचेनी में चैन है। उसके लिए भटकने में बड़ा रस है।
भक्त इन दो दशाओं में डोलता है: कभी खुशी, कभी उदासी, कभी भरोसा, कभी संदेह।
क्यों चटकी कली, क्यों फूल हंसा, क्यों सारा गुलिस्तां जाग उठा?
वह सैरे-चमन को आए हैं, या वादे सहर के झोंके हैं!
सुबह होती है, हवा आती है, फूल नाचने लगते हैं, सुगंध फैलने लगती है--भक्त भाग कर बाहर आ जाता है।
वह सैरे-चमन को आए हैं,.
वह आया क्या? इतनी सुगंध कैसे, इतना प्रकाश कैसे?
क्यों चटकी कली, क्यों फूल हंसा, क्यों सारा गुलिस्तां जाग उठा?
जरूर वह आया होगा। और निश्चित ही वह आता है, हमारे पास आंख नहीं देखने को! फूल हमसे पहले उसे देख लेते हैं और चटक जाते हैं। फूल हमसे पहले उसे पहचान लेते हैं और खिल जाते हैं। पक्षी हमसे पहले उसे सुन लेते हैं और गानों में गूंज उठते हैं। हमसे पहले! हम बड़े अंधे हैं। आदमी बड़ा अंधा है!
क्यों चटकी कली, क्यों फूल हंसा, क्यों सारा गुलिस्तां जाग उठा
वह सैरे-चमन को आए या वादे-सहर के झोंके हैं?
या सिर्फ सुबह की हवा के झोंके हैं, या वादे-सहर के धोखे हैं? या सुबह की हवा सिर्फ धोखा दे रही है? ऐसी तरंगें भक्त के मन में उठें, स्वाभाविक है। यह भी सोच कर उसे डर लगता है कि मैं अपने से पहुंच न पाऊंगा।
तू न चाहे तो तुझे पाके भी नाकाम रहें
तू जो चाहे तो गमे-हिज्र भी आसां हो जाए।
सब तेरे हाथ में है। अपने हाथ कुछ भी हो न सकेगा। इससे कभी निराशा भी पकड़ती है, दुख भी होता है। अपने नियंत्रण में तो कुछ भी नहीं है। यह मैं किस राह पर चल पड़ा! यह मैंने कैसी पुकार मान ली? यह मैं किसके पीछे हो लिया? जहां अपना बस नहीं है, जहां अवश हो जाने में ही बस है। नाव डूबने भी लगती है। तूफान बड़े हैं।
बचा लिया मुझे तूफां की मौज ने वरना
किनारे वाले सफीना मेरा डुबो देते!
लेकिन जब नाव डूब ही जाती है और जब भक्त परमात्मा में पूरी तरह लीन ही हो जाता है, तब उसे पता चलता है कि धन्यभागी हूं मैं!
बचा लिया मुझे तूफां की मौज ने वरना.
यह तो तूफान ने मुझे बचाया है!
.किनारे वाले सफीना मेरा डुबो देते!
और अगर मैं किनारे वालों की सुनता और कहते: कहां जा रहे हो? पागल हुए हो! अभी तूफान है और दूसरे किनारे का कोई पता नहीं है। नाव छोटी है। पतवार काम न आएगी। तुम्हें कोई अनुभव भी नहीं है ऐसी यात्राओं का। मांझी कौन है?
और इस जगत में जो मांझी की तरह लोग होते हैं, वे तो पागल ही लगते हैं। अब मेरे साथ चलोगे तो किसी पागल के साथ चल पड़े! अब यह कहां ले जाएगा? इस तरह के मांझियों का भरोसा क्या है? जो बुद्ध के साथ चले, पागल के साथ चले। समझदारों ने तो अपने कान फेर लिए। जो बुद्धिमान मानते थे अपने को, वे तो बुद्ध से बचने लगे।
यह तुम जान कर हैरान होओगे, इस जगत में जब भी कोई किरण सूरज की उतरी है तो थोड़े से हिम्मतवर और दीवानों ने ही उसका पीछा किया है। क्योंकि यह डूबने का रास्ता है, मिटने का रास्ता है। यहां मिट कर पाना होता है। यहां जो सूली पर चढ़ता है, उसी को सिंहासन मिलता है!

आखिरी प्रश्न:
भगवान, भक्ति-भाव का वास्तविक अर्थ क्या है?
बड़े मियां! कभी प्रेम इत्यादि किया? प्रेम की ही पराकाष्ठा है भक्ति। प्रेम न किया हो तो मैं भी समझा न पाऊंगा। प्रेम किया हो तो समझ में बात आ सकती है। ये बातें अनुभव की हैं। कुछ तो उस दिशा में अनुभव चाहिए ही।
नागार्जुन के पास एक आदमी आया और उसने कहा कि मुझे भी ले चलो ‘उसकी’ यात्रा पर। वह गरीब आदमी था। नागार्जुन ने कहा: तूने किसी से कभी प्रेम किया है? उसने कहा: प्रेम! अब आप से क्या छिपाना, मेरे पास एक भैंस है, उसी से मेरा प्रेम है। गरीब आदमी हूं, और तो मेरे पास कुछ है भी नहीं, मगर उससे मेरा बड़ा लगाव है। खो जाए कभी जंगल में तो मेरे प्राणों पर संकट पड़ जाता है। कभी बीमार हो जाए तो फिर मुझे चैन नहीं पड़ती।
सीधा-सादा आदमी रहा होगा, नहीं तो ऐसी सच्ची बात कैसे कहता? लोग तो ऊंची-ऊंची बातें कहते हैं। लोगों से कहो: तुम्हें प्रेम है? वे कहते हैं: हां, हमें कृष्ण से प्रेम है। है भैंस से, शायद भैंस से भी न हो, बातें कृष्ण की कर रहे हैं!. कि हमें राम से प्रेम है, कि हमें महावीर से प्रेम है।
एक सज्जन मेरे पास आते थे कि हमें महावीर से प्रेम है। मैंने कहा: उसका तो पक्का मुझे पता ही है। उन्होंने कहा: आपको कैसे पता है? तो वे साइकिल की दुकान करते हैं उसका नाम है: महावीर साइकिल मार्ट। मैंने कहा: पक्का ही है। तुम्हारा प्रेम तो जाहिर ही है। महावीर मिल जाएं तो तुम उन्हें भी साइकिल पर बिठा कर पीछे राजधानी घुमवा देना, बड़ा दृश्य रहेगा। महावीर से प्रेम है!
आदमी सच्चा-सीधा रहा होगा। उसने कहा: अब आपसे क्या छिपाना, और तो मेरा किसी से प्रेम है ही नहीं। पिता मर गए, छोटा था, मां मर गई। गरीब आदमी हूं, विवाह हुआ नहीं। और कोई मेरा है नहीं, बस यह भैंस ही मेरा सहारा है।
नागार्जुन ने कहा: फिकर न कर, इससे काम चल जाएगा। वह तो बहुत चौंका, उसने कहा: भैंस से प्रेम से काम चल जाएगा! उन्होंने कहा: बस, भक्ति का सार-सूत्र तो तेरे हाथ में है ही। इसको बड़ा करना होगा। इसको निखारेंगे। हीरा कीचड़ में पड़ा है, धो लेंगे। सोने में गंदगी मिली है, आग में डाल देंगे, निखार लेंगे, कुंदन बना लेंगे।
तुम पूछते हो: ‘भक्ति-भाव का वास्तविक अर्थ क्या है?’
प्रेम की प्रगाढ़ता। प्रेम का शुद्ध हो जाना। प्रेम का निष्कलुष हो जाना, निष्कपट हो जाना। प्रेम का अहेतुक हो जाना।
लेकिन संसार की ऐसी कठिनाई हो गई है कि तुम्हें इतनी बार समझाया गया है, इतनी सदियों तक दोहराया गया है--कि तुम जिसे प्रेम कहते हो वह पाप है। इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि तुम्हारे परमात्मा से संबंध विच्छिन्न हो गए। क्योंकि प्रेम ही है जिससे परमात्मा से सेतु बन सकता है। और प्रेम को पाप करार दे दिया गया है। पत्नी से तुम्हारा प्रेम है, यह पाप; बेटे से तुम्हारा प्रेम है, यह पाप; मां से तुम्हारा प्रेम है, यह पाप; मित्र से प्रेम है, यह पाप। सब प्रेम पाप हैं। तब बहुत मुश्किल हो गई। फिर भक्ति का अर्थ क्या हो? और इतने प्रेम सब पाप हों तो तुम्हारी भक्ति सिर्फ थोथी होगी, औपचारिक होगी।
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं: तुम्हारे इन सब प्रेमों में भक्ति की थोड़ी झलक छिपी है। जब एक मां अपने छोटे से बच्चे को दुलार करती है तो इस दुलार में यशोदा का कृष्ण के लिए दुलार छिपा है। उघाड़ना है, निखारना है, साफ करना है--माना; लेकिन छिपा है। तो ही तो निखार पाओगे, तो ही तो साफ कर पाओगे।
जब कोई प्रेयसी अपने प्रेमी को प्रेम करती है, तो इसमें ऐसे क्षण होते हैं जब हर प्रेयसी राधा हो जाती है और हर प्रेमी कृष्ण हो जाता है। क्षण ही होते हैं, यह मैं जानता हूं। कभी-कभी होते हैं; मगर ऐसी ऊंचाइयां आती हैं प्रेम की। क्षुद्र से कहे जाने वाले प्रेम में भी कभी-कभी ऐसी तरंगें उठती हैं जब हर प्रेयसी राधा होती है और हर प्रेमी कृष्ण होता है। होना ही चाहिए, क्योंकि हर स्त्री में राधा छिपी है! पड़ी होगी बहुत कीचड़ में, यह दूसरी बात। कीचड़ से निकालने के उपाय हैं। मगर अगर राधा की निंदा ही हो जाए तो अड़चन हो जाएगी। फिर निकालने का उपाय ही न रह जाएगा। फिर एक शाब्दिक भक्ति का जाल बनेगा, जिसकी कोई जड़ें जमीन में नहीं होंगी। वह हवाई होगी। उससे न कोई तरा है न कोई तर सकता है।
मैं धर्म को जमीन में जड़ें देना चाहता हूं। चाहता हूं आकाश में फूल खिलें। मगर आकाश में फूल तभी खिलते हैं जब जमीन में जड़ें गहरी जाती हैं। और जितनी गहरी जड़ें जाती हैं जमीन में, उतना ही वृक्ष आकाश में ऊपर जाता है।
तुम जीवन को प्रेम करो। अनेक-अनेक रूपों में चाहो। तुम जीवन से भागो मत। हां, इतना ध्यान रखो कि जैसा जीवन है उतने पर ही रुक मत जाना, इसे खूब निखारा जा सकता है। ऐसा ही समझो कि मैं तुम्हें एक वीणा भेंट दे दूं.
एक युवती का विवाह हुआ। मेरी विद्यार्थिनी थी, जब मैं विश्वविद्यालय में अध्यापक था। उसने मुझे निमंत्रित किया तो उसके विवाह पर मैं गया। कुछ उसे भेंट देनी जरूरी थी, तो मैं एक वीणा ले गया। एक वीणा उसे भेंट दे दी। उसने कहा: लेकिन मैं तो वीणा बजाना जानती ही नहीं और आपको भलीभांति पता है। मुझे तो वीणा से कुछ लेना-देना नहीं है। यह भेंट आप किसलिए लाए हैं? और इतनी कीमती वीणा मैं क्या करूंगी? इस पर रखे-रखे धूल जमेगी। सम्हाल कर रखूंगी, आपने भेंट दी है।
मैंने कहा: इसे सम्हालने का एक ही उपाय है कि वीणा बजाना शुरू कर। उसने कहा: पर मुझे आता नहीं।
इस जगत में किसी को भी जन्म से वीणा बजाना नहीं आता। कोई वीणा लिए हुए लोग थोड़े ही आते हैं मां के गर्भ से, कि चले आ रहे हैं. ये तानसेन आ रहे हैं, कि वीणा लिए चले आ रहे हैं, कि बैजूबावरा आ रहे हैं, अपना साज-सामान लिए चले आ रहे हैं! तबला ठोकते, इंतजाम करते चले आ रहे हैं। कोई लेकर नहीं आता। तू सीखना।
कोई दस वर्ष तक उससे मेरा मिलना नहीं हुआ। दस वर्ष बाद वह मुझे मिली तो और ही स्त्री हो गई थी। दीप्त हो गई थी। उसने कहा: आपने मेरा जीवन बदल दिया। वह वीणा मेरा सारा जीवन बदल गई। आपने कहा था सीखना और भेंट आपने ऐसी दी थी. और लोगों ने भी भेंटें दी थीं। किसी ने हीरे की अंगूठी दी थी तो उसमें से तो कुछ निकलता नहीं। हीरे की अंगूठी पहन लो, दो-चार दिन बाद कंकड़-पत्थर जैसी मालूम होने लगती है, फिर क्या करोगे? किसी ने कुछ और दिया था, किसी ने कुछ और दिया था। भेंट तो एक आपने ऐसी दी थी कि दस साल हो गए और अब दस जन्म भी हो जाएं तो भी उसमें से रोज कुछ और निकलता आ रहा है। अब तो मैं डूबने लगी हूं। वीणा ने मेरे भीतर की वीणा भी छेड़ दी है।
उसकी आंख में आनंद के आंसू थे।
मैंने कहा: तेरे पति कहां हैं?
उसने कहा: सब गए।
मैंने कहा: क्या कहती है तू!
उसने कहा: इस वीणा ने सब गड़बड़ कर दिया। एक अर्थ में आप मेरी झंझट कर गए, क्योंकि पति को यह रास नहीं पड़ा कि मैं वीणा में इतनी डूबूं। और मेरा रस ऐसा बढ़ा, ऐसा जगा कि दिन हो कि रात, सुबह हो कि सांझ, जब सुविधा हो, जब समय हो, बस वीणा पर लगी रही। यह अभ्यास ऐसा होने लगा कि पति और मेरे बीच तालमेल टूट गए। लेकिन इससे मुझे पीड़ा नहीं है, क्योंकि इस वीणा से मुझे कोई और बड़े पति से मिलन होने लगा है। कोई तार भीतर के जुड़ने लगे हैं। जरा भी चिंता नहीं है। नाराजगी भी नहीं है। कोई वैमनस्य भी नहीं है। पति नौकरी पर दूसरे नगर चले गए हैं। संबंध न के बराबर है। लेकिन अब मुझे बाहर से संबंध में कुछ रस भी नहीं है। यह वीणा मेरा ध्यान बन गई है।
और मैं देख सकता था, उसकी आंखों में ध्यान था! मैं देख सकता था, उसके चेहरे पर नई आभा थी! जिसे मैंने वीणा भेंट दी थी, वह कोई साधारण स्त्री थी; यह स्त्री असाधारण थी। निखार हुआ था खूब। एक सोया संगीत इसमें जग गया था।
यह जीवन एक अवसर है, जिसमें तुम अपने सोए संगीत को जगाओ। यहां जितने प्रेम हैं, सभी प्रेमों में भक्ति की थोड़ी-थोड़ी झलक है--किसी में कम, किसी में ज्यादा। उस झलक को बढ़ाओ।
मैं तुम्हें अर्थ दूं भक्ति के, शब्द होंगे वे, जब तक तुम्हारे अनुभव से मेल न खाएं।
मेरा दिल क्यों धड़कता है, सहेली मुझको बतला दे?
जो सीने में खलिश है तू उसे पहचानती होगी
जवानी क्या इसी का नाम है तू जानती होगी
बता दे कौन से मौसम में यह शोला भड़कता है?
मेरा दिल क्यों धड़कता है?

न जाने मेरी सांसों में यह एक महकार-सी क्या है?
बिना पायल जो मैं सुनती हूं वह झंकार-सी क्या है
खयालों में कोई घूंघट उठा कर मुझको तकता है
मेरा दिल क्यों धड़कता है?

मेरा दिल झूमता है गीत अपने आप सुन-सुन कर
जवानी मुस्कुराती है किसी की चाप सुन-सुन कर
मैं अक्सर चौंक पड़ती हूं जो पत्ता भी खड़कता है
मेरा दिल क्यों धड़कता है?

अनोखी-सी कोई तस्वीर दिल को गुदगुदाती है
नहीं है सामने कोई मगर आवाज आती है
मेरे सीने से रह-रह कर मेरा आंचल सरकता है
मेरा दिल क्यों धड़कता है, सहेली मुझको बतला दे?
लेकिन बताने का कोई उपाय है? बताने की जरूरत भी क्या है? दिल धड़कने लगा तो बात होने लगी।
तुम पूछते हो: ‘भक्ति-भाव का वास्तविक अर्थ क्या है?’
नाचो! गाओ! डुबकी लगाओ कीर्तन में, भजन में! जीवन को प्रेम से थोड़ा पगो! जो तुम्हारे पास हैं, जो तुम्हारे निकट हैं, उनका सिर्फ उपयोग मत करो, उनका शोषण मत करो। उनमें थोड़ा परमात्मा की छवि देखना शुरू करो--अपने बेटे में, अपनी पत्नी में, अपनी मां में, अपने भाई में, अपने मित्र में, अपने संगी-साथी में। धीरे-धीरे जहां-जहां तुम्हें प्रेम की थोड़ी सी भी झलक हो, वहीं प्रार्थना को भी संयुक्त करो। कभी अपनी पत्नी का हाथ इस तरह हाथ में लो, जैसे परमात्मा का हाथ हो--और देखो फर्क! और देखो कि कोई तार छिड़ जाता है कि नहीं! कि कोई दिल धड़कता है कि नहीं!
न जाने मेरी सांसों में यह महकार सी क्या है
बिना पायल जो मैं सुनती हूं वह झंकार सी क्या है
खयालों में कोई घूंघट उठा कर मुझको तकता है
मेरा दिल क्यों धड़कता है?

मेरा दिल झूमता है गीत अपने आप सुन-सुन कर
जवानी मुस्कुराती है किसी की चाप सुन-सुन कर
मैं अक्सर चौंक पड़ती हूं जो पत्ता भी खड़कता है
मेरा दिल क्यों धड़कता है?

अनोखी-सी कोई तस्वीर दिल को गुदगुदाती है
नहीं है सामने कोई मगर आवाज आती है
मेरे सीने से रह-रह कर मेरा आंचल सरकता है
मेरा दिल क्यों धड़कता है, सहेली मुझको बतला दे!
लेकिन कोई बतला न सकेगा। मैं इशारे कर सकता हूं कि कैसे यह तुम्हारा भी अनुभव बन जाए। कुछ तो प्रेम होगा। किसी से भी तो प्रेम होगा।
और ध्यान रखना, मैं किसी भी प्रेम को बुरा नहीं कह रहा हूं। सब प्रेम शुभ हैं। प्रेम सभी को शुभ कर देता है। जिस चीज से प्रेम जुड़ जाता है उसी को पवित्र कर देता है। प्रेम की वह महिमा है। प्रेम अपवित्र होता ही नहीं। जैसे मैंने कहा, डाल दो हीरे को कीचड़ में, तो भी हीरा कीचड़ नहीं होता है। कीचड़ से भिड़ जाए, चारों तरफ कीचड़ जम जाए, सदियों तक पड़ा रहे कीचड़ में, तो भी हीरा कीचड़ नहीं होता। जरा सी वर्षा आएगी, कीचड़ बह जाएगी, जरा पोंछ लोगे, फिर सूरज की किरणें उस पर इंद्रधनुषों के जाल बुन देंगी।
तुम्हारे भीतर हीरा पड़ा है। जहां-जहां प्रेम हो वहां-वहां प्रेम को गहराओ। क्योंकि प्रेम की ही वर्षा हो तो हीरा निखरे। नाचना सीखो, गाना सीखो, गुनगुनाना सीखो, प्रेम करना सीखो--ये सब प्रेम के उपाय हैं।
दिल को दिल की गोद में लेकर, प्यार को प्यार की लोरी देकर
गीत खुशी के गाऊं, मैं छमक-छमक लहराऊं

आज यह कैसा मिला संदेसा, मेरा तन-मन झूम रहा है
सपनों में एक छैल-छबीला मेरा दामन चूम रहा है
मैं घूंघट की ओट से देखूं, देख-देख रह जाऊं
मैं छमक-छमक लहराऊं

मेरा सपना रंग-रंगीला खुले आंख फिर भी न टूटे
इक दूजे से दूर भी रह कर मेरा उनका साथ न छूटे
उनकी सांस सांस में मिला कर सपनों में खो जाऊं
मैं छमक-छमक लहराऊं

भरी जवानी की अंाधी में प्यार का दीया जलाया मैंने
जगमग-जगमग नैना चमके नया उजाला पाया मैंने
मेरे भाग जगाने वाले मैं तुझ पर इतराऊं
मैं छमक-छमक लहराऊं
थोड़ा लहराओ! बहुत दिन हो गए खड़े-खड़े। थोड़े नृत्य की गरिमा को उतरने दो।
इसीलिए यह स्थल है कि यहां तुम थोड़ा प्रेम सीखो। यहां तुम थोड़े तरल बनो, थोड़े पिघलो, कि तुम्हारे पत्थर जैसे हृदय को थोड़ा गलाओ।
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि ध्यान में नृत्य क्यों, गान क्यों, संगीत क्यों? उनके मन में ध्यान की एक रूढ़ धारणा है--कि आंख बंद करके उदास, भूखे-प्यासे बैठ गए तो ध्यान है। उनके मन में ध्यान की एक धारणा है, जो प्रेम-शून्य है। मेरे मन में ध्यान का एक रूप है, जो प्रेमपूर्ण है। ध्यान प्रेम में पगा हो, तो अपूर्व घटना घटती है। तो तुम एक ही साथ बुद्ध की शांति जान लोगे और मीरा की मस्ती!
मेरे संन्यासी को मैं ऐसी ही मस्ती और ऐसी ही शांति की दिशा में ले चलना चाहता हूं। मैं तुम्हारे भीतर एक विराट समन्वय को घटते हुए देखना चाहता हूं। जैसे बुद्ध के ओठों पर किसी ने बांसुरी रख दी हो!
पलक-पलक प्यार तेरा छलक-छलक जाए
आई मैं द्वार तेरे अलबेला रूप लिए
जुल्फों की छांव लिए, मुखड़े की धूप लिए
पांव तेरे छूने मेरी पलक-पलक जाए
पलक-पलक प्यार तेरा छलक-छलक जाए

सीने की धड़कन में आज तेरी चाप सुनूं
गाऊं गुन तेरे पिया अपनी धुन आप सुनूं
सांस भी लूं मैं तो खुशी झलक-झलक जाए
पलक-पलक प्यार तेरा छलक-छलक जाए

अपनी तकदीर पर मैं इतराऊं आज के दिन
तू है मेरे पास तो मैं शरमाऊं आज के दिन
आज मेरा आंचल भी ढलक-ढलक जाए
पलक-पलक प्यार तेरा छलक-छलक जाए
ये गीत तो साधारण प्रेम के लिए लिखे गए हैं। तुम सोचते होओगे कि मैं इन्हें भक्ति के लिए क्यों उद्धृत कर रहा हूं? जान कर, क्योंकि मैं साधारण प्रेम और भक्ति को दो विपरीत आयाम नहीं मानता--एक ही इंद्रधनुष के रंग मानता हूं, एक ही सीढ़ी के पायदान।
और तुमसे मैं वही तो बात कर सकूंगा जो तुम आज समझ सकोगे; वह बात कैसे करूं जो तुम कल समझोगे? मैं तुमसे वही कह सकता हूं जो तुम्हारी अभी समझ में आ सकता है। और उसी समझ के सहारे तुम आगे बढ़ो, वही एक छोटा सा दीया लेकर आगे बढ़ो तो कल भक्ति भी समझ में आ सकेगी।
अभी तो प्रेम समझो। अभी तो प्रेम से मत चूको। और तुमने अगर प्रेम को समझ लिया तो शेष अपने से घटता है। प्रेम की गहन समझ में एक दिन परमात्मा अपने आप उतर आता है। प्रेम के विपरीत भर मत जाना। क्योंकि जो प्रेम के विपरीत गया, वह धर्म के विपरीत गया। प्रेम अर्थात धर्म।
जीसस ने ठीक ही कहा है कि प्रेम परमात्मा है। मैं भी इसे दोहराता हूं: प्रेम परमात्मा है। भक्ति का अर्थ खोजने की चिंता न करो, पहले प्रेम का राज खोलो। वह तुम्हारे साथ है। उतना तुम अभी कर सकते हो। तुम जो अभी कर सकते हो वह तो करो! एक द्वार खुल जाए तो दूसरा द्वार उपलब्ध हो जाता है।
लेकिन लोग अक्सर दूर की बातों की पूछते हैं और पास की भूल जाते हैं। यात्रा पास से शुरू होती है। तुम्हें वहां से चलना होगा जहां तुम खड़े हो।
परमात्मा कहां है, इसकी फिकर छोड़ो; इसकी फिकर लो कि तुम कहां हो? तुम्हारा प्रेम कहां है? और इसी प्रेम को हम कैसे निखारें? और उस प्रेम को हम कैसे रोज-रोज साधें, जैसे कोई वीणा को साधता है!
पश्चिम के एक बहुत बड़े संगीतज्ञ बेजनर से किसी ने पूछा कि आपके संगीत में बड़ा इन्सपॉयरेशॅन है, बड़ी प्रेरणा है, बड़ी सदप्रेरणा है! वेजनर ने उस आदमी की तरफ देखा और कहा: क्षमा करें, एक प्रतिशत इन्सपॉयरेशॅन, निन्यानबे प्रतिशत पर्सपॉयरेशॅन! एक प्रतिशत प्रेरणा और निन्यानबे प्रतिशत पसीना!
उस आदमी ने पूछा: मैं समझा नहीं। वेजनर ने कहा: चौबीस घंटे में से बारह घंटा, सोलह घंटा निखार रहा हूं।
और बड़ा मजा है, वेजनर ने बड़े क्रोध से कहा कि मैं सोलह घंटे मेहनत कर-कर के मरा जा रहा हूं और लोग कहते हैं: आप बड़े प्रतिभाशाली हैं! प्रतिभाशाली का मतलब होता है, जिसको कुछ नहीं करना पड़ रहा है; जिसे जन्म से मिला हुआ है।
किसी और ने वेजनर से एक बार पूछा कि अगर आप तीन दिन अभ्यास न करें तो क्या हो? तो उसने कहा कि तीन दिन अगर मैं अभ्यास न करूं तो जो संगीतज्ञ हैं, वे पहचानने लगते हैं कि कुछ चूक हो रही है; अगर दो दिन अभ्यास न करूं तो जो महासंगीतज्ञ हैं वे पहचानने लगते हैं कि चूक हो रही है। और अगर एक दिन अभ्यास न करूं तो कोई न पहचाने, लेकिन मैं पहचानता हूं, मेरा परमात्मा पहचानता है कि चूक हो रही है।
इस जीवन की प्रेम की वीणा पर निरंतर अभ्यास करो। इसमें बड़े सोए सरगम हैं, जगाओ। उन सारे सरगमों का जग जाना और उनका एक साथ एक लयबद्ध हो जाना, एक लय में छंदबद्ध हो जाना, भक्ति है।

आज इतना ही।